UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi काव्य सौन्दर्य के तत्त्व अलंकार

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 3
Chapter Name काव्य सौन्दर्य के तत्त्व अलंकार
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi काव्य सौन्दर्य के तत्त्व अलंकार

अलंकार

काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्वों को अलंकार कहते हैं-काव्यशोभाकरान् धर्मानलङ्कारान् प्रचक्षते। अलंकार के दो भेद होते हैं – (क) शब्दालंकार तथा (ख) अर्थालंकार।।

जहाँ काव्य की शोभा का कारण शब्द है, वहाँ शब्दालंकार और जहाँ शोभा का कारण उसका अर्थ है, वहाँ अर्थालंकार होता है। जहाँ काव्य में शब्द और अर्थ दोनों का चमत्कार एक साथ विद्यमान हो, वहाँ ‘उभयालंकार’ (उभय = दोनों) होता है।

शब्दालंकार और अर्थालंकार में अन्तर – शब्दालंकार में यदि काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने वाले शब्द-विशेष को बदल दिया जाए तो अलंकार समाप्त हो जाता है, किन्तु अर्थालंकार में यदि काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने वाले शब्द के स्थान पर उसका पर्यायवाची दूसरी शब्द रख दिया जाए तो भी अलंकार बना रहता है; जैसे-‘कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय’ में कमक शब्द की सार्थक आवृत्ति के कारण यमक अलंकार है। पहले ‘कनक’ को अर्थ ‘स्वर्ण’ और दूसरे का ‘धतूरा’ है। यदि ‘कनक’ के स्थान पर उसका कोई पर्यायवाची शब्द रख दिया जाए तो यह अलंकार समाप्त हो जाएगा। इस प्रकार अलंकार शब्द-विशेष पर निर्भर होने से यहाँ शब्दालंकार है।

अर्थालंकार में शब्द का नहीं, अर्थ का महत्त्व होता है; जैसे—सुना यह मनु ने मधु गुंजार, मधुकरी का-सा जब सानन्द।

इसमें ‘मधुकरी का-सा में उपमा अलंकार है। यदि ‘मधुकरी’ के स्थान पर उसका ‘भ्रमरी’ या अन्य कोई पर्याय रख दिया जाए तो भी यह अलंकार बना रहेगा; क्योंकि यहाँ अलंकार अर्थ पर आश्रित है, शब्द पर नहीं। यही अर्थालंकार की विशेषता है।

प्रश्न 1:
शब्दालंकार से आप क्या समझते हैं? इसके भेदों का उदाहरणसहित वर्णन कीजिए।
उत्तर:

शब्दालंकार और उसके भेद

जहाँ काव्य की शोभा का कारण शब्द होता है, वहाँ शब्दालंकार होता है। इसके निम्नलिखित भेद होते हैं

1. अनुप्रास
लक्षण (परिभाषा)-बार-बार एक ही वर्ण की आवृत्ति को अनुप्रास कहते हैं; जैसे

तरनि-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।

स्पष्टीकरण-यहाँ पर ‘त’ वर्ण की आवृत्ति हुई है; अतः अनुप्रास अलंकार है। भेद – अनुप्रास के पाँच भेद हैं
(i) छेकानुप्रास,
(ii) वृत्यनुप्रास,
(iii) श्रुत्यनुप्रास,
(iv) लाटानुप्रास और
(v) अन्त्यानुप्रास।

(i) छेकानुप्रास – जहाँ एक वर्ण की आवृत्ति एक बार होती है अर्थात् एक वर्ण दो बार आता है, वहाँ छेकानुप्रास होता है; जैसे-इस करुणा-कलित हृदय में अब विकल रागिनी बजती।

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त पंक्ति में ‘क’ की एक बार आवृत्ति हुई है; अत: छेकानुप्रास है।

(ii) वृत्यनुप्रास – जहाँ एक अथवा अनेक वर्षों की आवृत्ति दो या दो से अधिक बार हो, वहाँ वृत्यनुप्रास होता है; जैसे

चारु चन्द्र की चंचल किरणें,
खेल रही हैं जल थल में।

स्पष्टीकरण – यहाँ ‘च’ और ‘ल’ दो से अधिक बार (तीन बार) आया है; अत: वृत्यनुप्रास है।

छेकानुप्रास और वृत्यनुप्रास में अन्तर – एक वर्ण की एक बार आवृत्ति होने पर छेकानुप्रास होता है, जब कि वृत्यनुप्रास में एक अथवा अनेक वर्षों की दो अथवा दो से अधिक बार आवृत्ति होती है; जैसे-‘हे जग-जीवन के कर्णधार!’ में ‘ज’ वर्ण की एक बार आवृत्ति होने से छेकानुप्रास है और ‘फैल फूले जल में फेनिल’ में ‘फ’ वर्ण की दो बार तथा ‘ल’ वर्ण की तीन बार आवृत्ति होने से वृत्यनुप्रास है।

(iii) श्रुत्यनुप्रास – जहाँ कण्ठ, तालु आदि एक ही स्थान से उच्चरित वर्गों की आवृत्ति हो, वहाँ श्रुत्यनुप्रास होता है; जैसे—रामकृपा भव-निसा सिरानी जागे पुनि न डसैहों। स्पष्टीकरण-इस पंक्ति में ‘स्’ और ‘न्’ जैसे दन्त्य वर्गों (अर्थात् जिह्वा द्वारा दन्तपंक्ति के स्पर्श से उच्चरित । वर्गों) की आवृत्ति के कारण श्रुत्यनुप्रास है।।

(iv) लाटानुप्रास – जहाँ एक ही अर्थ वाले शब्दों की आवृत्ति होती है, किन्तु अन्वय की भिन्नता से अर्थ बदल जाता है, वहाँ लाटानुप्रास होता है; जैसे

पूत सपूत तो क्यों धन संचै?
पूत कपूत तो क्यों धन संचै?

स्पष्टीकरण-यहाँ उन्हीं शब्दों की आवृत्ति होने पर भी पहली पंक्ति के शब्दों का अन्वय ‘सपूत के साथ और दूसरी का ‘कपूत के साथ लगती है, जिससे अर्थ बदल जाता है। (पद्य का भाव यह है कि यदि तुम्हारा पुत्र सुपुत्र है तो धन-संचय की आवश्यकता नहीं; क्योंकि वह स्वयं कमाकर धन का ढेर लगा देगा। यदि वह कुपुत्र है तो भी धन-संचय निरर्थक है; क्योंकि वह सारा धन व्यसनों में उड़ा देगा।) इस प्रकार यहाँ लाटानुप्रास है।

(v) अन्त्यानुप्रास – यह अलंकार केवल तुकान्त छन्दों में ही होता है। जहाँ कविता के पद या अन्तिम चरण में समान वर्ण आने से तुक मिलती है, वहाँ अन्त्यानुप्रास होता है; जैसे

बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ।।
सौंह करै भौंहनु हँसै, दैन कहै नटि जाइ॥

स्पष्टीकरण – यहाँ दोनों पंक्तियों के अन्त में ‘आइ की आवृत्ति से अन्त्यानुप्रास है।

2. यमक
लक्षण (परिभाषा) – जब कोई शब्द या शब्दांश अनेक बार आता है और प्रत्येक बार भिन्न-भिन्न अर्थ प्रकट करता है, तब यमक अलंकार होता है; जैसे

कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाये बौराय जग, या पाये बौराय ॥

स्पष्टीकरण – यहाँ ‘कनक’ शब्द दो बार आया है और दोनों बार उसके भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। पहले ‘कनक’ का अर्थ ‘धतूरा है और दूसरे का सोना’; अतः यहाँ यमक अलंकार है।
भेद – यमक अलंकार के दो मुख्य भेद होते हैं

(i) अभंगपद यमक – जहाँ दो पूर्ण शब्दों की समानता हो। इसमें शब्द पूर्ण होने के कारण दोनों शब्द सार्थक होते हैं; जैसे – ‘कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।

(ii) सभंगपद यमक – यहाँ शब्दों को भंग करके (तोड़कर) अक्षर-समूह की समता बनती है। इसमें एक या . दोनों अक्षर समूह निरर्थक होते हैं; जैसे

पच्छी पर छीने ऐसे परे पर छीने वीर,
तेरी बरछी ने बर छीने हैं खलन के।

3. श्लेष
लक्षण (परिभाषा) – जब एक ही शब्द बिना आवृत्ति के दो या दो से अधिक अर्थ प्रकट करे, तब श्लेष अलंकार होता है; जैसे

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गैंभीर।
को घटि ए वृषभानुजा, वे हलधर के वीर॥

स्पष्टीकरण – यहाँ ‘वृषभानुजा’ तथा ‘हलधर’ शब्दों के दो-दो अर्थ हैं

वृषभानुजा = वृषभानु + जा = वृषभानु की पुत्री (राधा)।
वृषभ + अनुजा = बैल की बहन (गाय)।
हलधर = (1) बलराम, (2) बैल। इस प्रकार यहाँ ‘वृषभानुजा’ में श्लेष अलंकार है।

यमक और श्लेष में अन्तर – जब एक ही शब्द दो या दो से अधिक बार आकर भिन्न-भिन्न अर्थ देता है तो यमक कहलाता है और जब एक शब्द बिना आवृत्ति के ही कई अर्थ देता है तो श्लेष कहलाता है। यमक में एक शब्द की आवृत्ति होती है और श्लेष में बिना आवृत्ति के ही शब्द एकाधिक अर्थ देता है।

प्रश्न 2:
अर्थालंकार किसे कहते हैं? इसके भेदों का उदाहरणसहित वर्णन कीजिए।
उत्तर:

अर्थालंकार और उसके भेद

जहाँ काव्य की शोभा का कारण अर्थ होता है; वहाँ अर्थालंकार होता है। इसके निम्नलिखित भेद होते हैं

1. उपमा
लक्षण (परिभाषा) – उपमेय और उपमान के समान धर्मकथन को उपमा अलंकार कहते हैं; जैसे

  1. मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है।
  2.  तापसबाला – सी गंगा कल।

उपमा अलंकार के निम्नलिखित चार अंग होते हैं

  •  उपमेय – जिसके लिए उपमा दी जाती है; जैसे – उपर्युक्त उदाहरणों में मुख, गंगा।
  •  उपमान – उपमेय की जिसके साथ तुलना (उपमा) की जाती है; जैसे – चन्द्रमा, तापसबाला।
  • साधारण धर्म – जिस गुण या विषय में उपमेय और उपमान की तुलना की जाती है; जैसे – सुन्दर (सुन्दरता), कलता (सुहावनी)।
  • वाचक शब्द – जिस शब्द के द्वारा उपमेय और उपमान की समानता व्यक्त की जाती है; जैसे – समान, सी, तुल्य, सदृश, इव, सरिस, जिमि, जैसा आदि। ये चारों अंग जहाँ पाये जाते हैं, वहाँ पूर्णोपमालंकार होता है; जैसा उपर्युक्त उदाहरणों में है।

भेद – उपमा अलंकार के चार भेद होते हैं

  • पूर्णोपमा,
  •  लुप्तोपमा,
  • रसनोपमा और
  •  मालोपमा।

(i) पूर्णोपम – [ संकेत-ऊपर बताया जा चुका है।]।
(ii) लुप्तोपमा – जहाँ उपमा के चारों अंगों (उपमेय, उपमान, साधारण धर्म और वाचक शब्द) में से किसी एक, दो या तीन अंगों का लोप होता है, वहाँ लुप्तोपमा अलंकार होता है। लुप्तोपमा अलंकार निम्नलिखित चार प्रकार का होता है

(क) धर्म-लुप्तोपमा – जिसमें साधारण धर्म का लोप हो; जैसे–तापसबाला-सी गंगा। स्पष्टीकरण-यहाँ धर्म-लुप्तोपमा है; क्योंकि यहाँ सुन्दरता रूपी गुण का लोप है।

(ख) उपमान-लुप्तोपमा – जिसमें उपमान का लोप हो; जैसे

जिहिं तुलना तोहिं दीजिए, सुवरन सौरभ माहिं।
कुसुम तिलक चम्पक अहो, हौं नहिं जानौं ताहिं ॥

सुन्दर वर्ण और सुगन्ध में तेरी तुलना किस पदार्थ से की जाए, उसे मैं नहीं जानता; क्योंकि तिलक, चम्पा आदि पुष्प तेरे समकक्ष नहीं ठहरते।।
स्पष्टीकरण-यहाँ उपमान लुप्त है; क्योंकि जिससे तुलना की जाए, वह उपमान ज्ञात नहीं है।

(ग) उपमेय-लुप्तोपमा – जिसमें उपमेय का लोप हो; जैसे

कल्पलता-सी अतिशय कोमल।

स्पष्टीकरण – यहाँ उपमेय-लुप्तोपमा है; क्योंकि कौन है कल्पलता – सी कोमल – यह नहीं बताया गया है।

(घ) वाचक-लुप्तोपमा – जिसमें वाचक शब्द का लोप हो; जैसे

नील सरोरुह स्याम, तरुन अरुन वारिज-नयन।

स्पष्टीकरण – यहाँ वाचक शब्द ‘समान’ या उसके पर्यायवाची अन्य किसी शब्द का लोप है; अतः इसमें वाचक-लुप्तोपमा अलंकार है।

(iii) रसनोपमा – रसनोपमा अलंकार में उपमेय और उपमान एक-दूसरे से उसी प्रकार जुड़े रहते हैं, जिस प्रकार किसी श्रृंखला की एक कड़ी दूसरी कड़ी से; जैसे

सगुन ज्ञान सम उद्यम, उद्यम सम फल जान।
फल समान पुनि दान है, दान सरिस सनमान॥

स्पष्टीकरण-उपर्युक्त उदाहरण में ‘उद्यम’, ‘फल’, ‘दान’ और ‘सनमान’ उपमेय अपने उपमानों के साथ श्रृंखलाबद्ध रूप में प्रस्तुत किये गये हैं; अत: इसमें रसनोपमा अलंकार है।

(iv) मालोपमा – जहाँ उपमेय (जिसके लिए उपमा दी जाती है) का उत्कर्ष दिखाने के लिए अनेक उपमान एकत्र किये जाएँ, वहाँ मालोपमा अलंकार होता है; जैसे

हिरनी से मीन से, सुखंजन समान चारु।
अमल कमल-से विलोचन तुम्हारे हैं।

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में आँखों की तुलना अनेक उपमानों (हिरनी से, मीन से, सुखंजन समान, कमल से) की गयी है। अतः यहाँ पर मालोपमा अलंकार है।

2. उत्प्रेक्षा
लक्षण (परिभाषा) – जहाँ उपमेय की उपमान के रूप में सम्भावना की जाए, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है; जैसे

सोहत ओढ़ पीत पटु, स्याम सलोने गात।
मनौ नीलमनि सैल पर, आतपु पर्यौ प्रभात ।।

स्पष्टीकरण – यहाँ पीताम्बर. ओढ़े हुए श्रीकृष्ण के श्याम शरीर (उपमेय) की प्रात:कालीन सूर्य की प्रभा से सुशोभित नीलमणि पर्वत (उपमान) के रूप में सम्भावना किये जाने से उत्प्रेक्षा अलंकार है। ‘मनौ’ यहाँ पर वाचक शब्द है। इस अलंकार में जनु, जनहुँ, मनु, मनहूँ, मानो, इव आदि वाचक शब्द अवश्य आते हैं।
भेद-उत्प्रेक्षा अलंकार के निम्नलिखित तीन भेद होते हैं

(i) वस्तूत्प्रेक्षा – जब उपमेय (प्रस्तुत वस्तु) में उपमान (अप्रस्तुत वस्तु) की सम्भावना व्यक्त की जाती है, तब वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार होता है

वहीं शुभ्र सरिता के तट पर, कुटिया का कंकाल खड़ा है।
मानो बाँसों में घुन बनकर शत शत हाहाकार खड़ा है।

स्पष्टीकरण – यहाँ पर घुन (प्रस्तुत वस्तु) में हाहाकार (अप्रस्तुत वस्तु) की सम्भावना की गयी है। अत: वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है।

(ii) हेतूत्प्रेक्षा – जहाँ पर काव्य में अहेतु में हेतु की सम्भावना व्यक्त की जाती है, वहाँ हेतूत्प्रेक्षा अलंकार होता हैं

विनय शुक-नासा का धर ध्यान
बन गये पुष्प पलास अराल ।

स्पष्टीकरण – यहाँ पर ढाक के फूलों का वक्र आकार होना स्वाभाविक है। नायिका की नुकीली नाक की उससे सम्भावना की जाए यह हेतु नहीं है; परन्तु यहाँ उसे हेतु माना गया है, अतएव अहेतु की सम्भावना होने से हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है।

(iii) फलोत्प्रेक्षा – जब अफल में फल की सम्भावना की जाए वहाँ पर फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है

नित्य ही नहाता क्षर सिन्धु में कलाधर है।
सुन्दरि ! तवानन की समता की इच्छा से।

यहाँ पर चन्द्रमा का प्रतिदिन क्षीरसागर में स्नान करने का उद्देश्य सुन्दरी के मुख की समता प्राप्त करने में निहित है। वास्तव में ऐसा नहीं है, परन्तु इस प्रकार की सम्भावना की गयी है। अत: यहाँ फलोत्प्रेक्षा अलंकार है। उपमा और उत्प्रेक्षा में अन्तर–उपमा में उपमेय और उपमान में समानता निश्चयपूर्वक प्रकट की जाती है; जैसे-‘मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है’ यहाँ मुख (उपमेय) और चन्द्रमा (उपमान) में सुन्दरता (समान धर्म) के आधार पर समानता स्थापित की गयी है, परन्तु उत्प्रेक्षा में उपमेय और उपमान में समानता की मात्र सम्भावना प्रकट की जाती है, वह निश्चित रूप से स्थापित नहीं की जाती; जैसे-‘मुख मानो चन्द्रमा है।

3. रूपक
लक्षण (परिभाषा) – जहाँ उपमेय और उपमान में अभिन्नता प्रकट की जाए, अर्थात् उन्हें एक ही रूप में प्रकट किया जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है; जैसे

अरुन सरोरुह कर चरन, दृग-खंजन मुख-चंद।
समै आइ सुंदरि-सरद, काहि न करति अनंद ॥

स्पष्टीकरण – इस उदाहरण में शरद् ऋतु में सुन्दरी का, कमल में हाथ-पैरों का, खंजन में आँखों का और चन्द्रमा में मुख का भेदरहित आरोप होने से रूपक अलंकार है।
भेद – रूपक अलंकार निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है।

(i) सांगरूपक – जहाँ उपमेय पर उपमान का सर्वांग आरोप हो, वहाँ ‘सांगरूपक’ होता है; जैसे

उदित उदयगिरि-मंच पर, रघुबर बाल पतंग।।
बिकसे संत सरोज सब, हरखे लोचन-शृंग ।।

स्पष्टीकरण – यहाँ रघुबर, मंच, संत, लोचन आदि उपमेयों पर बाल सूर्य, उदयगिरि, सरोज, मूंग आदि उपमानों का आरोप किया गया है; अतः यहाँ सांगरूपक है।

(ii) निरंगरूपक – जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप सर्वांग न हो, वहाँ निरंगरूपक होता है; जैसे

कौन तुम संसृति-जलनिधि तीर, तरंगों से फेंकी मणि एक।

स्पष्टीकरण – इसमें संसृति (संसार) पर जलनिधि (सागर) का आरोप है, लेकिन अंगों का उल्लेख न होने से यह निरंगरूपक है।

(iii) परम्परितरूपक – जहाँ एक रूपक दूसरे रूपक पर अवलम्बित हो, वहाँ परम्परितरूपक होता है; जैसे

बन्दौ पवनकुमार खल-बन-पावक ज्ञान-घन।

स्पष्टीकरण – यहाँ पवनकुमार (उपमेय) पर अग्नि (उपमान) का आरोप इसलिए सम्भव हुआ कि खलों (दुष्टों) को घना वन (जंगल) बताया गया है; अत: एक रूपक (खल-वन) पर दूसरा रूपक (पवनकुमाररूपी पावक) निर्भर होने से यहाँ परम्परितरूपक है।
उपमा और रूपक में अन्तर – उपमा में उपमेय और उपमान में समानता स्थापित की जाती है, किन्तु रूपक में दोनों में अभेद स्थापित किया जाता है; जैसे- ‘मुख चन्द्रमा के समान है’ में उपमा है, किन्तु ‘मुख चन्द्रमा है’ में रूपक है।

4. प्रतीप
लक्षण (परिभाषा)प्रतीप शब्द का अर्थ है ‘उल्टा’; अतएव जहाँ उपमेय का कथन उपमान-रूप में और उपमान का कथन उपमेय रूप में किया जाता है, वहाँ प्रतीप अलंकार होता है। यह उपमा अलंकार का उल्टा होता है; जैसे

उसी तपस्वी-से लम्बे थे देवदारु दो-चार खंड़े।

स्पष्टीकरण-यहाँ मनु (उपमेय) को देवदारु वृक्ष (उपमान) के समान लम्बा बताने की बजाय देवदारु को मनु के समान लम्बा बताया गया है। इस प्रकार यहाँ उपमान को उपमेय बना देने से प्रतीप अलंकार है।
उपमा और प्रतीप में अन्तर – उपमा में उपमेय (जैसे – मुख) की उपमान (जैसे–चन्द्रमा) से समानता स्थापित की जाती है। इस प्रकार श्रेष्ठता उपमान की ही रहती है; जैसे-‘मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है’ में चन्द्रमा ही सुन्दरता में श्रेष्ठ है। इसीलिए मुख को भी उसके समान बताकर मुख को गौरव दिया गया है। प्रतीप में उपमेय को उपमान और उपमान को उपमेय बनाकर श्रेष्ठता उपमेय की स्थापित की जाती है; जैसे‘चन्द्रमा मुख के समान सुन्दर है’ में प्रसिद्ध उपमान (चन्द्रमा) को उपमेय और उपमेय (मुख) को उपमान बनाकर उपमान को तुच्छ और उपमेय को श्रेष्ठ बताया गया है। इस प्रकार ‘प्रतीप’ उपमा अलंकार का उल्टा होता है।

5. अतिशयोक्ति
लक्षण (परिभाषा) – जहाँ उपमेय का अत्यन्त बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जाता है, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है; जैसे

करी बिरह ऐसी तऊ, गैल न छाड़तु नीचु।।
दीनै हूँ चसमा चखनु , चाहै लहै न मीचु॥

स्पष्टीकरण-यहाँ नायिका को प्रिय-विरह के कारण इतना दुर्बल दिखाया गया है कि मृत्यु अपनी आँखों पर चश्मा चढ़ाकर भी उसे ढूंढ़ नहीं पाती। नायिका सुई से भी दुर्बल प्रतीत होती है। बात को बढ़ा-चढ़ाकर कहने के कारण यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है।

6. भ्रान्तिमान
लक्षण (परिभाषा)– – जहाँ समानता के कारण भ्रमवश उपमेय में उपमान का निश्चयात्मक ज्ञान हो, वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है; जैसे – रस्सी (उपमेय) को सॉप (उपमान) समझ लेना।।

कपि करि हृदय बिचार, दीन्ह मुद्रिका डारि तब।
जानि अशोक अँगार, सीय हरषि उठि कर गहेउ ।

स्पष्टीकरण – यहाँ सीताजी श्रीराम की हीरकजटित अँगूठी को अशोक वृक्ष द्वारा प्रदत्त अंगारा समझकर उठा लेती हैं। अँगूठी (उपमेय) में उन्हें अंगारे (उपमान) का निश्चयात्मक ज्ञान होने से यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।

7. सन्देह
लक्षण (परिभाषा)-जब किसी वस्तु में उसी के समान दूसरी वस्तु का सन्देह हो जाए और कोई निश्चयात्मक ज्ञान न हो, तब सन्देह अलंकार होता है; जैसे

परिपूरन सिन्दूर पूर कैधौं मंगल घट।
किधौं सक्र को छत्रं मढ्यो मानिक मयूख पट॥

स्पष्टीकरण – यहाँ लाल वर्ण वाले सूर्य में ‘सिन्दूर भरे हुए घट’ तथा ‘लाल रंग वाले माणिक्य में जड़े हुए। छेत्र’ का सन्देह होने से सन्देह अलंकार है।

सन्देह और भ्रान्तिमान में अन्तर – सन्देह अलंकारें में उपमेय में उपमान को सन्देहमात्र होता है, निश्चयात्मक ज्ञान नहीं; जैसे-‘यह रस्सी है या साँप’। इसमें रस्सी (उपमेय) में साँप (उपमान) का सन्देह होता है, निश्चय नहीं; किन्तु भ्रान्तिमान में उपमेय में उपमाने का निश्चय हो जाता है; जैसे-रस्सी को साँप समझकर कहना कि ‘यह साँप है।

8. दृष्टान्त
लक्षण (परिभाषा) – जहाँ उपमेय और उपमान दो ऐसे वाक्य हों कि उनके साधारण धर्म में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव हो, वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है; जैसे

बसै बुराई जासु तन, ताही को सम्मान।
भलो भलो कहि छाँड़िये, खोटे ग्रह जप-दान ॥

[संसार की रीति ऐसी है कि जो व्यक्ति बुरा या दुष्ट होता है, उसी का सम्मान किया जाता है। भले को तो प्रायः यह कहकर कि अरे, यह बेचारा तो बहुत भला है; किसी का अनिष्ट करने वाली नहीं उसकी उपेक्षा कर दी जाती है। यही कारण है कि लोग दुष्ट ग्रह की शान्ति के लिए तो जप और दान करते हैं, पर अच्छे ग्रह की कोई पूछ नहीं होती, क्योंकि उनसे कोई भय नहीं होता। ]

स्पष्टीकरण-इस दोहे में प्रथम पंक्ति उपमेय-वाक्य त्था द्वितीय पंक्ति उपमान-वाक्य है। इन दोनों वाक्यों में ‘सम्मान’ और ‘जप-दान’ दो भिन्न-भिन्न धर्म कहे गये हैं। इन दोनों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है, अर्थात् भिन्न-भिन्न होते हुए भी इन दोनों बातों का आशय एक ही है; क्योंकि ‘सम्मान करना तथा ‘जप-दान करना एक ही भाव के द्योतक हैं।

दृष्टान्त और उत्प्रेक्षा में अन्तर – उत्प्रेक्षा में उपमेय में उपमाने की सम्भावना-मात्र प्रकट की जाती है, निश्चय नहीं कराया जाता; जैसे’मुख मानो चन्द्रमा है’ में ‘मुख’ (उपमेय) में चन्द्रमा’ (उपमान) की सम्भावना-मात्र प्रकट की गयी है, निश्चयपूर्वक दोनों की सम्भावना प्रतिपादित नहीं की गयी है। दृष्टान्त में उपमेय और उपमान की समानता के अन्तर्गत बिम्बे और प्रतिबिम्ब भाव का निश्चयपूर्वक कथन किया जाता है; जैसे-‘बुरे व्यक्ति को सम्मान करना’ और ‘खोटे ग्रह को जप-दान से सन्तुष्ट करना।

9. अनन्वय
लक्षण (परिभाषा) – जहाँ उपमेय को ही उपमान मान लिया जाये, कोई अन्य उपमान न लाया जाए, वहाँ अनन्वय अलंकार होता है; जैसे

नागर नन्दकिसोर से नागर नन्दकिसोर।

[ नन्दकिशोर के सदृश वे स्वयं नन्दकिशोर ही हैं, कोई अन्य नहीं अर्थात् वे अतुलनीय हैं। अपने सदृश वे आप हैं, दूसरा कोई उनकी समता नहीं कर सकता।]

स्पष्टीकरण – यहाँ नन्दकिशोर (उपमेय) की उपमा नन्दकिशोर (उपमान) से ही दी गयी है, कोई अन्य उपमान नहीं लाया गया है।

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