UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 1 Ancient Indian Education

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 1
Chapter Name Ancient Indian Education (प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा)
Number of Questions Solved 46
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 1 Ancient Indian Education (प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा का सामान्य परिचय दीजिए। इस शिक्षा प्रणाली के
उद्देश्यों तथा आदर्शों का भी उल्लेख कीजिए।
प्राचीन काल में शिक्षा के क्या उद्देश्य थे? वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता की समीक्षा कीजिए।
उत्तर
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा–सामान्य-परिचय

प्राचीन काल में हमारे देश में शिक्षा का सुव्यवस्थित रूप उपलब्ध था। वैदिककाल में भी भारतवासी शिक्षा के महत्त्व से भली-भाँति परिचित थे तथा शिक्षा-प्रणाली का समुचित विकास हो चुका था। उस काल में भी व्यक्ति के सर्वांगीण विकास, समाज की उन्नति एवं प्रगति तथा सभ्यता के बहुपक्षीय विकास के लिए शिक्षा को आवश्यक माना जाता था। शिक्षा के प्रति प्राचीन भारतीय दृष्टिकोण को डॉ० अल्तेकर ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “शिक्षा को प्रकाश और शक्ति का ऐसा स्रोत माना जाता था जो हमारी शारीरिक, मानसिक, भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों तथा क्षमताओं का निरन्तर एवं सामंजस्यपूर्ण विकास करके हमारे स्वभाव को परिवर्तित करता है और उसे उत्कृष्ट बनाता है।

प्राचीनकालीन भारतीय समाज ने अपने मौलिक चिन्तन के आधार पर ही एक उन्नत तथा व्यवस्थित शिक्षा-प्रणाली को जन्म दिया था। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए एफडब्ल्यू० थॉमस ने लिखा है, “भारत में शिक्षा, विदेशी पौधा नहीं है। संसार का कोई भी ऐसा देश नहीं है जहाँ ज्ञान के प्रति प्रेम का इतने प्राचीन समय में आविर्भाव हुआ हो, या जिसने इतना चिरस्थायी और शक्तिशाली प्रभाव डाला हो।’ प्राचीन भारतीय समाज ने शिक्षा की अवधारणा के प्रति एक मौलिक तथा सन्तुलित दृष्टिकोण विकसित कर लिया था। उस काल में शिक्षा को क्रमशः ‘विद्या’, ‘ज्ञान’, ‘बोध’ तथा ‘विनय’ के रूप में स्वीकार किया गया था। शिक्षा की प्रक्रिया को व्यापक तथा सीमित दोनों ही रूपों में प्रस्तुत किया गया था। इस तथ्य को डॉ० अल्तेकर ने इस शब्दों में प्रस्तुत किया है, “व्यापक अर्थ में शिक्षा का तात्पर्य है-व्यक्ति को सभ्य और उन्नत बनाना।

इस दृष्टि से शिक्षा आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है। सीमित अर्थ में, शिक्षा का अभिप्राय उस औपचारिक शिक्षा से है जो व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने से पूर्व छात्र के रूप से प्राप्त होती है। प्राचीन काल में शिक्षा को उत्तम जीवन व्यतीत करने का साधन तथा मोक्ष-प्राप्ति में सहायक माना जाता था। प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा या वैदिक शिक्षा के अर्थ को अल्तेकर ने अपने दृष्टिकोण से इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “वैदिक युग से आज तक शिक्षा के सम्बन्ध में भारतीयों की मुख्य धारणा यह रही है कि शिक्षा प्रकाश का वह स्रोत है जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमारा सच्चा पथ-प्रदर्शन करता है।”

प्राचीनकाल में शिक्षा को अन्तर्दृष्टि तथा अन्तर्योति प्रदान करने वाली, ज्ञान-चक्षु तथा तीसरे नेत्र के तुल्य माना जाता था। शिक्षा के महत्त्व को स्पष्ट करने के लिए कहा गया है कि शिक्षा व्यक्ति के लिए बुद्धि, विवेक तथा कुशलता प्राप्त करने का साधन है। इसके माध्यम से व्यक्ति सुख, आनन्द, यश तथा समृद्धि प्राप्त कर सकता है।

प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्श

प्राचीनकालीन भारतीय समाज में आध्यात्मिकता पर अधिक बल दिया जाता था। व्यक्ति तथा समा की प्राय: समस्त गतिविधियों का निर्धारण आध्यात्मिकता दृष्टिकोण से ही होता था। प्राचीनकाल में उच्च आदर्शों की प्राप्ति ही शिक्षा का उद्देश्य था। प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों एवं आदर्शों का सामान्य परिचय डॉ० अल्तेकर ने इन शुब्दों में स्पष्ट किया है, “ईश्वर-भक्ति एवं धार्मिकता का समावेश, चरित्र का निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, नागरिक एवं सामाजिक कुशलता की उन्नति और राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण एवं प्रसार।” इस कथने को ध्यान में रखते हुए प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्शों का सामान्य विवरण निम्नवर्णित है
1. ज्ञान तथा अनुभव अर्जित करना–प्राचीनकालीन भारतीय आदर्शवादी समाज में शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य ज्ञान तथा अनुभव को अर्जित करना था। इस तथ्य को डॉ० मुखर्जी ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “शिक्षा का उद्देश्य पढ़ना नहीं था अपितु ज्ञान और अनुभव को आत्मसात् करना था।” सामान्य रूप से अध्ययन, मनन, स्मरण तथा स्वाध्याय द्वारा ज्ञान अर्जित किया जाता था तथा उसे जीवन में आत्मसात् किया जाता था। छात्रों द्वारा अर्जित किये गये ज्ञान का मूल्यांकन शास्त्रार्थ के माध्यम से किया जाता था।

2. धार्मिक प्रवृत्ति तथा ईश्वरभक्ति विकसित करना–प्राचीन भारतीय समाज धर्मप्रधान समाज था अतः शिक्षा भी धार्मिकता के प्रति उन्मुख थी। शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य छात्रों में धार्मिक प्रवृत्ति तथा ईश्वरभक्ति को विकसित करना भी था। डॉ० अल्तेकर ने स्पष्ट कहा है, “सब प्रकार की शिक्षा का प्रत्यक्ष उद्देश्य-छात्र को समाज को धार्मिक सदस्य बनाना था। छात्रों में धार्मिक प्रवृत्ति तथा ईश्वरभक्ति को विकसित करने के लिए शिक्षा के व्रत, यज्ञ, उपासना तथा धार्मिक गतिविधियों में सम्मिलित होने को आवश्यक माना जाता था।

3. मन की चित्तवृत्तियों का समुचित निरोध–प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए डॉ० मुखर्जी ने लिखा है, “शिक्षा का उद्देश्य-चित्तवृत्ति-निरोध’ अर्थात् मन से उन कार्यों का निषेध था, जिनके कारण वह भौतिक संसार में उलझ जाता है। वास्तव में आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होने के लिए चित्तवृत्तियों का समुचित निरोध आवश्यक होता है। शिक्षा की प्रक्रिया के अन्तर्गत छात्रों की चित्तवृत्तियों के निरोध के लिए आवश्यक प्रशिक्षण दिया जाता था।
प्राचीनकालीन शैक्षिक मान्यता के अनुसार, चित्तवृत्तियों का निरोध व्यक्ति के जीवन के परम लक्ष्य अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होता है।

4. चरित्र-निर्माण सम्बन्धी उद्देश्य–प्राचीनकालीन आदर्शवादी भारतीय समाज में शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य छात्रों का चरित्र-निर्माण करना भी था। डॉ० वेदमित्र ने इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “छात्रों के चरित्र का निर्माण करना, शिक्षा का एक अनिवार्य उद्देश्य माना जाता था। छात्रों के चरित्र-निर्माण सम्बन्धी शिक्षा के उद्देश्य की सुचारु पूर्ति के लिए विभिन्न उपाय किये जाते थे। सामान्य रूप से गुरुकुलों तथा गुरु-आश्रमों का सम्पूर्ण वातावरण उत्तम तथा अनुकरणीय होता था। इसके अतिरिक्त सभी गुरु भी इस दिशा में विभिन्न प्रयास किया करते थे। वे अपने शिष्यों के सदाचरण के लिए आवश्यक शिक्षा देते थे तथा उन्हें व्यावहारिक जीवन में अपनाने के लिए प्रेरित किया करते थे।

5. व्यक्तित्व के समुचित विकास सम्बन्धी उद्देश्य–प्राचीनकालीन शिक्षा का एक उद्देश्य छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना भी निर्धारित किया गया था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गुरुजनों द्वारा विशेष प्रयास किये जाते थे। वे अपने छात्रों को विभिन्न सद्गुणों एवं शिष्टाचार के लिए विशिष्ट शिक्षा देते थे। छात्रों को अपने जीवन में आत्मसंयम, आत्मविश्वास तथा आत्मसम्मान जैसे सद्गुणों को विकसित करने के लिए समुचित उपाय बनाया करते थे तथा साथ ही विवेक, न्याय तथा निष्पक्षता के दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए प्रेरित किया जाता था। छात्रों के व्यक्तित्व के समुचित विकास क्रे लिए गुरुकुलों में प्राय: उपयोगी सभाएँ, गोष्ठियाँ तथा वाद-विवाद आदि को आयोजित किया जाता था।

6. छात्रों को सामाजिक एवं नागरिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाना–प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा का एक उद्देश्य छात्रों को सामाजिक एवं नागरिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाना भी स्वीकार किया गया था। इसके लिए गुरुजन अपने शिष्यों को उपयोगी उपदेश दिया करते थे। सामान्य रूप से अतिथि-सत्कार, दीन-दु:खियों की सहायता तथा समाज के अन्य व्यक्तियों को सहयोग प्रदान करने का, उपदेश दिया जाता था तथा इन सद्गुणों को जीवन में आत्मसात् करने के लिए प्रेरित किया जाता था। इसके अतिरिक्त घर-परिवार तथा समाज में रहते हुए विभिन्न कर्त्तव्यों के पालन की शिक्षा दी जाती थी। ।

7. सामाजिक कुशलता के विकास सम्बन्धी उद्देश्य–प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा के निर्धारित उद्देश्यों में सामाजिक-कुशलता के विकासको समुचित महत्त्व दिया गया था। शिक्षा को कोरा सैद्धान्तिक नहीं बनाया गया था बल्कि उसे जीविकोपार्जनके साधन के रूप में भी स्वीकार किया गया था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए व्यावसायिक शिक्षा का प्रावधान था। सामान्य रूप से कृषि, वाणिज्य शिक्षा, सैन्य शिक्षा, कला-कौशल की शिक्षा तथा चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा की व्यवस्था इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए की गयी थी।

8. भारतीय संस्कृति को संरक्षण एवं प्रसार करना–शिक्षा का घनिष्ठ सम्बन्ध संस्कृति से भी होता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य भारतीय संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार करना भी निर्धारित किया गया था। इसके लिए सांस्कृतिक मूल्यों की शिक्षा दी जाती थी तथा उनके प्रति सम्मान को विकसित किया जाता था। इन उपायों द्वारा संस्कृति को निरन्तरता प्रदान की जाती थी।

वर्तमान में शिक्षा की प्रासंगिकता

वर्तमान में प्राचीन काल की शिक्षा व्यवस्था की प्रासंगिकता को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझा जा सकता है

  1. प्राचीन काल की शिक्षा व्यवस्था का एक प्रमुख गुण ‘अनुशासन’ किसी भी काल अथवा युग में प्रासंगिक ही रहेगा। वर्तमान सन्दर्भो में एक अनुशासित विद्यार्थी ही एक श्रेष्ठ नागरिक बनकर देश व समाज की सेवा करने में सक्षम होगा।
  2. प्राचीन काल में शिष्य का अपने गुरुओं के प्रति श्रद्धाभाव व सेवाभाव’ विद्यार्थियों में मानवोचित गुणों का समावेश करता है, जिससे वे समाज के प्रति संवेदनशील बनते हैं और अपने कर्तव्यों को पहचानने में सक्षम बन पाते हैं।
  3. आज के तकनीकी युग में व्यक्ति अधिकाधिक मशीनों पर निर्भर होता जा रहा है, जिससे उनका मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है, ऐसे में प्राचीन काल की शिक्षा व्यवस्था में निहित पद्धतियों; जैसे–स्मरण-शक्ति को बढ़ाने वाली कंठस्थ विधि एवं योग इत्यादि की प्रासंगिकता निश्चित रूप से बढ़ी है।
  4. प्राचीन काल में विद्यार्थी अपने समस्त कार्य स्वयं ही करता था, जिससे उसमें स्वतः ही आत्मनिर्भरता की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती थी। वर्तमान सन्दर्भो में भी यह प्रासंगिक है।
  5. किसी भी देश व समाज की उन्नति के तत्त्व उसकी सांस्कृतिक विरासत से अनन्य रूप से जुड़े | होते हैं, अतएव उन विशिष्ट मूल्यों की रक्षा हेतु अपनी प्राचीन पद्धतियों के सकारात्मक तत्त्वों को ग्रहण करना सदैव ही प्रासंगिक रहता है।

प्रश्न 2
प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था के विविध स्वरूपों का वर्णन कीजिए। या
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षण संस्थाओं का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर

प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था

प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था के विविध स्वरूप थे, जिनका विवरण निम्नलिखित है
प्राचीन काल में प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था
प्राचीन काल में भारतीय शिक्षा प्रणाली ब्राह्मणों के अधिकार में थी, परन्तु प्राथमिक शिक्षा इनके आधिपत्य से मुक्त थी। प्राथमिक शिक्षा की अवधि 6 वर्ष की थी तथा 5-11 वर्ष के आयु-वर्ग वाले बालक प्राथमिक स्तर की शिक्षा ग्रहण करते थे। प्राथमिक शिक्षा स्तर पर बालकों को वैदिक मन्त्रोच्चारण सिखाया एवं कंठस्थ कराया जाता था। गुरुकुलों में पढ़ने वाले छात्रों को अन्तेवासी कहा जाता था। गुरु तथा शिष्य के बीच सम्बन्ध मधुर एवं पिता-पुत्र खुल्य थे। प्राथमिक शिक्षा मौखिक ही थी।

प्राचीन काल में उच्च शिक्षा व्यवस्था

प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा को विशिष्ट शिक्षा के रूप में जाना जाता था। उच्च शिक्षा व्यवस्था में वेदों का विस्तृत अध्ययन किया जाता था। पाठ्यक्रम में परा तथा अपरा नामक दो विधाएँ थीं। परा विधा में वेद, वेदांत, पुराण, उपनिषद् तथा आध्यात्म विषयों की शिक्षा दी जाती थी। अपरा विधा में भूगर्भशास्त्र, तर्कशास्त्र, इतिहास एवं भौतिकशास्त्र की शिक्षा दी जाती थी। शिक्षा का प्रमुख केन्द्र तक्षशिला एवं पाटलिपुत्र थे। उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए व्याख्यान, प्रवचन शास्त्रार्थ, प्रश्नोत्तर तथा वाद-विवाद जैसी शिक्षण पद्धति को भी अपनाया जाता है।

प्राचीन काल में स्त्री शिक्षा

वैदिक काल में स्त्री शिक्षा प्रतिबन्धित नहीं थी, परन्तु बालिकाओं के लिए अलग से शिक्षण संस्थान नहीं थे। बालिकाएँ अपने पिता-भाई या कुल पुरोहित से शिक्षा प्राप्त करती थी।
प्राचीन काल में उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्रियों को ब्रह्मवादिनी कहा जाता था।
इस काल में गार्गी, शकुन्तला, अनुसूया, अपाला,घोषा, मैत्रेयी आदि भारतीय विदुषी स्त्रियाँ थीं।

प्राचीन काल में व्यावसायिक शिक्षा व्यवस्था

प्राचीन शिक्षा आध्यात्मिक थी, परन्तु इसके साथ ही छात्रों को विशेषकर वैश्य वर्ग के छात्रों को व्यावसायिक शिक्षा प्रदान की जाती रही। व्यावसायिक शिक्षा के अन्तर्गत निम्नलिखित विषयों की शिक्षा दी जाती थी

  1. वाणिज्य शिक्षा वैश्य वर्ण के छात्रों को प्रदान की जाती थी। वाणिज्य शिक्षा में व्यापार, कृषि तथा पशुपालन प्रमुख थे।
  2. सैन्य शिक्षा विशेषकर क्षत्रिय वर्ग के छात्रों को प्रदान की जाती थी। इसमें अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान
    व परिचालन, व्यूह-रचना का प्रयोगात्मक रूप प्रदान किया जाता था।
  3. कला कौशल की शिक्षा के अन्तर्गत संगीत कला, चित्रकला, शिल्पकला आदि की शिक्षा प्रदान
    की जाती थी, परन्तु यह शिक्षा संस्थागत न होकर मार्गदर्शन के रूप में होती थी।
  4. चिकित्साशास्त्र की शिक्षा ऐसे योग्य छात्रों को दी जाती थी, जिनमें सेवाभाव एवं मानवीय गुण थे। इस विषय में रोग-निदान, औषधिशास्त्र तथा शल्य क्रिया की शिक्षा प्रदान की जाती थी।

प्राचीन भारतीय शिक्षा संस्थाएँ।

प्राचीन काल में निम्नलिखित शिक्षण संस्थाएँ थीं- .

  1. टोल–प्राचीन काल में स्थापित, इस तरह की संस्थाओं में केवल एक शिक्षक हुआ करता था। यहाँ मुख्य रूप से संस्कृत विषय पढ़ाया जाता था। |
  2. चारण-वेदों के अनुसार, किसी एक अंग की शिक्षा प्रदान करने वाली संस्था चारण कहलाती थी। |
  3. घटिका-दर्शन तथा धर्म की उच्च शिक्षा प्रदान करने वाली संस्था घटिका कहलाती थी।
  4. परिषद्-इस तरह की संस्था में 10 शिक्षक होते थे, जो विभिन्न विषयों से सम्बन्धित शिक्षा प्रदान करते थे।
  5.  गुरुकुल–गुरुकुलों में वेदों, साहित्यों तथा धर्म की शिक्षा मौखिक रूप से प्रदान की जाती थी। प्राचीन काल में छात्रों को गुरुकुल में मौखिक रूप से शिक्षा दी जाती थी। इस पद्धति में छात्रों को गुरुजन मन्त्र, वेद तथा उनके अर्थों को मौखिक रूप से रटा देते थे और इनके गूढ़ अर्थों के द्वारा ही छात्रों की समस्याओं का हल भी हो जाता था। इसके लिए गुरुकुल में शास्त्रार्थ तथा वाद-विवाद का भी प्रयोग किया जाता थी।
  6. विद्यापीठ-व्याकरण एवं तर्कशास्त्र की व्यवस्थित शिक्षा प्रदान करने वाली शिक्षण संस्था थी।
  7. विशिष्ट विद्यालय-इस तरह की संस्था में भी एक ही विषय की विशिष्ट शिक्षा प्रदान की जाती थी।
  8. मन्दिर महाविद्यालय- प्राचीन काल में कुछ मन्दिर शिक्षण संस्थाओं के रूप में कार्य करते थे, जिनमें धर्म, दर्शन, वेद तथा व्याकरण आदि की शिक्षा दी जाती थी।
  9. ब्राह्मणीय महाविद्यालय-इसे प्रकार की संस्था को चतुष्पथी भी कहा जाता था। इन विद्यालयों में दर्शन, पुराण, कानून, व्याकरण आदि विषयों की शिक्षा दी जाती थी।
  10. विश्वविद्यालय-इस प्रकार की शिक्षण संस्थाएँ, जो विभिन्न विषयों की शिक्षा प्रदान करती हैं। विश्वविद्यालय कहलाती हैं। प्राचीनकाल में शिक्षा प्रक्रिया के विकास के लिए इस प्रकार की संस्था की स्थापना की गई।

प्रश्न 3
वैदिक शिक्षा की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए और हमारे देश की वर्तमान
दशाओं के लिए उनकी उपयोगिता पर समालोचना कीजिए। [2013, 14] वैदिककालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। वर्तमान समय में इन्हें कहाँ तक अपनाया जा सकता है?
उत्तर
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा से आशय वैदिककालीन शिक्षा से है। इस काल में वैदिक संस्कृति का बोलबाला था तथा जीवन के प्रत्येक पक्ष पर उसका प्रभाव था। प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा भी वेदों से प्रभावित थी।
प्राचीन भारत की शिक्षा की अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ थीं। इस शिक्षा व्यवस्था ने भारत को ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित किया। डॉ० ए०एस० अल्तेकर के अनुसार, “उस समय के विश्व में भारत का जो सर्वोच्च स्थान था, उसका कारण शिक्षा प्रणाली की सफलता थी।”

प्राचीन ( वैदिककालीन) भारतीय शिक्षा की विशेषताएँ

प्राचीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं।
1. चयनात्मकता–प्राचीन काल की शिक्षा की पहली विशेषता उसकी चयनात्मकता थी। कुछ योग्यताओं और नैतिकताओं के आधार पर ही छात्र गुरु के आश्रम में प्रवेश पा सकते थे। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक व्यक्ति के लिए शिक्षा का द्वार नहीं खुला था। चरित्रहीन और भ्रष्ट बालकों को आश्रम में प्रवेश नहीं दिया जाता था। इस प्रकारे शिक्षा केवल सुयोग्य छात्रों के लिए होती थी।

2. विद्यारम्भ संस्कार-अल्तेकर के अनुसार, “विद्यारम्भ । प्राचीन वैदिककालीन)। संस्कार पाँच वर्ष की आयु में होता था और साधारणतया सब | भारतीय शिक्षा की विशेषताएँ जातियों के बालकों के लिए था।” अधिकांश विद्वानों के अनुसार
। चयनात्मकता यह संस्कार उस समय होता था, जब बालक प्राथमिक शिक्षा
विद्यारम्भ संस्कार आरम्भ करता था। इस संस्कार के समय बालक को अक्षर ज्ञान
उपनयन संस्कार कराया जाता था। |

3. उपनयन संस्कार-उपनयन’ का शाब्दिक अर्थ
गुरुकुल प्रणाली हैपास ले जाना’; दूसरे शब्दों में, ज्ञान-प्राप्ति के लिए छात्र का
नियमित दिनचर्या का सिद्धान्त गुरु के पास पहुँचना। उपनयन के बाद बालक का नवीन जीवन
पाठ्य-विषयों की व्यापकता प्रारम्भ होता था। छात्र गुरु के पास जाकर कहता था-“मैं ज्ञानार्जन दण्ड का सिद्धान्त करने और ब्रह्मचारी जीवन व्यतीत करने के लिए आपके निकट  चरित्र-निर्माण का सिद्धान्त आया हूँ। मुझे ज्ञान प्रदान करें।” गुरु उपनीत बालक से प्रश्न करता * गुरु-शिष्य सम्बन्ध था-“तुम किसके ब्रह्मचारी हो?” बालक उत्तर देता छात्र जीवन सम्बन्धी नियम था—“आपका’, तत्पश्चात् गुरु गायत्री मन्त्र का उपदेश देता था और शिक्षा का प्रारम्भ करता था।
9 धर्म और लौकिकता का समावेश

4. गुरुकुल प्रणाली–प्राचीन भारी शिक्षा प्रणाली की प्रमुख विशेषता गुरुकुल प्रणाली थी। इसलिए प्राचीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली का ‘गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली’ के नाम से भी जाना जाता है। जब बालक सात या आठ वर्ष का हो जाता था तो वह माता-पिता को छोड़कर गुरु के आश्रम में प्रवेश करता था। गुरु के आश्रम को ही गुरुकुल कहा जाता था। अपने सम्पूर्ण अध्ययन काल तक छात्र को गुरुकुल में रहकरे अध्ययन करना पड़ता था। गुरु छात्रों को न केवल शिक्षा प्रदान करता था; वेरन् संरक्षक के रूप में उनके भरण-पोषण, वेशभूषा आदि की व्यवस्था भी करता था।

5. नियमित दिनचर्या का सिद्धांत-प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक छात्र के लिए आवश्यक था कि वह नियमित दिनचर्या को उचित ढंग से पालन करे। प्रत्येक छात्र के लिए सूर्योदय से पूर्व उठना, स्नान करना, यज्ञ, पूजा, वेद पाठ, भिक्षा माँगना तथा गुरु की सेवा करना दिनचर्या के आवश्यक अंग थे।

6. पाठ्य-विषयों की व्यापकता–वैदिककाल में पाठ्य-विषय सीमित थे, लेकिन ब्राह्मण काल में शिक्षा के पाठ्यक्रम में अनेक विषयों का समावेश किया गया था। चारों वेदों के अतिरिक्त उपनिषद्, इतिहास, पुराण, व्याकरण, विधिशास्त्र, देवशास्त्र, भूत विद्या, एकायन, ब्रह्मविद्या आदि विषयों को अध्ययन किया जाता था।

7. दण्ड का सिद्धान्त-प्राचीन शिक्षा में मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के अनुकूल शिक्षा प्रदान करने की प्रवृत्ति मिलती है। छात्र को शारीरिक दण्ड प्रदान करना अनुचित अपराध माना जाता था। याज्ञवल्क्य और मनु साधारण दण्ड के पक्ष में थे, परन्तु गौतम नहीं। आचार्य छात्रों की बौद्धिक क्षमता, रुचि तथा प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर ही शिक्षा प्रदान करते थे।

8. चरित्र-निर्माण का सिद्धान्त-चरित्र-निर्माण के लिए छात्रों के स्वभाव और संस्कारों का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता था। इस सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिए छात्रों के उचित पालन-पोषण, शिक्षा व अनुकूलन आदि परिस्थितियों की व्यवस्था की जाती थी।

9. गुरु-शिष्यसम्बन्ध–प्राचीन शिक्षा में गुरु-शिष्य के मध्य प्रत्यक्ष सम्बन्ध रहता था। शिष्य गुरु के सीधे सम्पर्क में देहता था। अतः गुरु शिष्य की शारीरिक और मानसिक शक्तियों का भली प्रकार अध्ययन कर लेता था। गुरु अपने शिष्यों के साथ पुत्रवत् स्नेह करते थे तथा उनके रहन-सहन, भोजन, वस्त्र आदि का उत्तरदायित्व उठाते थे। |

10. छात्र जीवन संम्बन्धी नियम-छात्र नियमित जीवन व्यतीत करने के साथ-साथ खान-पान, वेशभूषा व आचार-व्यवहार के नियमों का पालन भी अनिवार्य रूप से करते थे। |
11. निःशुल्क शिक्षा-प्राचीन काल में शिक्षा नि:शुल्क थी। छात्रों से किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता था। शिक्षा की समाप्ति पर वे स्वेच्छा से अपने गुरु को दक्षिणी प्रदान करते थे।
12. धर्म और लौकिकता का समावेश-प्राचीन काल में शिक्षा धर्मप्रधान थी। छात्र निष्ठा के साथ धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करते थे। धार्मिक शिक्षा के साथ लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था थी। अनेक लौकिक विषयों को भी पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया था। [संकेत-‘प्राचीनकालीन शिक्षा की विशेषताओं का वर्तमान में स्थान हेतु लघु उत्तरीय प्रश्न 5 का उत्तर देखें।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा के स्वरूप का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
प्राचीनकाल में शिक्षा का तात्पर्य उस अन्तज्यति एवं शक्ति से लगाया जा जाता था, जिसके द्वारा मानव का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक विकास हो सके। इस काल में न केवल शिक्षा, ‘अपितु जीवन का प्रत्येक क्षेत्र; जैसे–राजनीतिक, सामाजिक तथा अर्थव्यवस्था आदि धर्म से प्रभावित था, इसलिए प्राचीन भारतीय शिक्षा भी धार्मिक भावना से ओत-प्रोत थी। प्राचीन भारतीय शिक्षा के स्वरूप को स्पष्ट करने वाले मुख्य बिन्दु निम्नलिखित हैं

  1. प्राचीन काल में शिक्षा धर्मप्रधान थी, इसलिए शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक था।
  2. शिक्षा व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास पर आधारित थी।
  3. शिक्षा की प्राप्ति के लिए इन्द्रियों का संयम करना होता था और ब्रह्मचर्य का पालन भी अनिवार्य
    था।
  4. शिक्षा में मनन और स्मरण की बहुत अधिक महत्त्व था।
  5. प्रत्येक वर्ग और वर्ण के बालकं की विद्या का प्रारम्भ 5 से लेकर 8वर्ष की आयु के बीच में हो जाता
    था।
  6. शिक्षा प्राप्त करने के लिए शिष्य को गुरु के आश्रम में जाना होता था और वहाँ परिवार के सदस्य के रूप में उसे रहना पड़ता था।
  7. विद्याध्ययन करने के लिए गुरुजन अपने आश्रम नगर के कोलाहल से दूर बनाते थे।
  8. शिक्षा की प्राप्ति में दैनिक अभ्यास और दिनचर्या का निर्वाह बहुत महत्त्वपूर्ण समझा जाता था।
  9. विद्यार्थियों में अच्छी आदतों का निर्माण करने के लिए अच्छे वातावरण का निर्माण किया जाता
    था।
  10. शिक्षा में लोकतन्त्रीय आदर्श का पालन करने के लिए छात्रों में भेद-भाव नहीं रखा जाता था। राजा और रंक दोनों के बालक साथ-साथ पढ़ते थे।

प्रश्न 2
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा के पाठ्यक्रम का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा को दो वर्गों में बाँटा गया था–प्राथमिक शिक्षा तथा उच्च शिक्षा। इन दोनों ही स्तरों की शिक्षा के निर्धारित पाठ्यक्रम का सामान्य विवरण निम्नलिखित है
1. प्राथमिक शिक्षा-आज की प्राथमिक शिक्षा और प्राचीन युग की प्राथमिक शिक्षा में अन्तर था। आज की भाँति उस समय क ख ग अथवा गणित के आरम्भिक सिद्धान्त नहीं पढ़ाए जाते थे। उस समय सर्वप्रथम बालक और बालिकाओं को मूल मन्त्रों का उच्चारण करना सिखाया जाता था। इसके बाद छात्र पढ़ना-लिखना सीखते थे और उसके उपरान्त उन्हें व्याकरण की शिक्षा दी जाती थी। प्राचीनकाल के प्राथमिक शिक्षा के पाठ्क्रम में निम्नलिखित विषय सम्मिलित थे|

  1. सामान्य या प्रारम्भिक भाषा विज्ञान,
  2. प्रारम्भिक व्याकरण,
  3. प्रारम्भिक छन्द शास्त्र तथा
  4. प्रारम्भिक गणित। ।

2. उच्च शिक्षा-प्राचीन काल में आर्य लोग उच्च शिक्षा को बहुत अधिक महत्त्व देते थे। उनका विचार था कि उच्च शिक्षा के अभाव में आत्मोन्नति और आत्मकल्याण सम्भव नहीं है। यह शिक्षा वास्तव में विशेष योग्यता की प्राप्ति के लिए की जाती थी। वैदिक काल में उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में निम्नलिखित विषय सम्मिलित थे– |

  1. चारों वेद-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद।
  2. इतिहास, पुराण, व्याकरण, तर्कशास्त्र, ब्रह्म विद्या, देव विद्या, नीतिशास्त्र, ज्योतिष, शिल्प, संगीत आदि।

प्रश्न 3
प्राचीन भारतीय शिक्षा में व्यावसायिक शिक्षा की क्या व्यवस्था थी ?
उत्तर
भारत में प्राचीनकालीन शिक्षा मुख्य रूप से धर्म प्रधान शिक्षा थी तथा शिक्षण का उद्देश्य मुख्य रूप से व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास ही था परन्तु इस काल में भारत में व्यावसायिक शिक्षा का भी प्रचलन था। प्राचीनकालीन व्यावसायिक शिक्षा का सामान्य विवरण निम्नलिखित है–
1. पुरोहित शिक्षा-प्राचीन काल में केवल ब्राह्मण पुत्रों को ही पुरोहितीय शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था। उन्हें, यज्ञ, हवन, बलि आदि विभिन्न प्रकार के संस्कार सम्पन्न कराने की शिक्षा दी जाती थी। विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न पुरोहितों की आवश्यकता पड़ती थी। प्रत्येक कार्य की शिक्षा के लिए पृथक् प्रशिक्षण केन्द्र की व्यवस्था होती थी। |
2. सैन्य शिक्षा- क्षत्रियों को सैन्य शिक्षा दी जाती थी। इसके अन्तर्गत अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग, रथों, घोड़ों, हाथियों आदि का प्रयोग करने की शिक्षा सम्मिलित थी। उस समय ऐसी शिक्षा संस्थाओं का अभाव था जो कि पूर्णतया सैन्य शिक्षा बालकों को दें। राज्य सेनाओं से अवकाश प्राप्त सैनिकों द्वारा सैन्य शिक्षा दी जाती थी।
3. कृषि और वाणिज्य की शिक्षा-वैश्यों के लिए कृषि एवं वाणिज्य की शिक्षा की व्यवस्था थी। इसके अन्तर्गत कृषि, वाणिज्य, भूगोल, भाषा, गणित, व्यापार आदिका ज्ञान प्रदान किया जाता था। प्रारम्भ में पिता अपने पुत्रों को इस प्रकार की शिक्षा देते थे, लेकिन धीरे-धीरे यह कार्य शिक्षकों द्वारा किया जाने लगा।
4. चिकित्साशास्त्र की शिक्षा- प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा के अन्तर्गत चिकित्साशास्त्र की शिक्षा की भी समुचित व्यवस्था थी। इस काल में कुछ विशेषज्ञों द्वारा चिकित्साशास्त्र तथा ओषधिशास्त्र का व्यवस्थित ज्ञान इच्छुक छात्रों को दिया जाता था। इस वर्ग की शिक्षा के अन्तर्गत मुख्य रूप से रोग-निदान, ओषधि-निदान, शल्य-क्रिया, सर्प-दंश, अस्थि ज्ञान तथा रक्त-परीक्षण आदि की शिक्षा प्रदान की जाती थी।

प्रश्न 4
वैदिककालीन शिक्षा-व्यवस्था में गुरु-शिष्य के सम्बन्ध पर प्रकाश डालिए। [2014]
उत्तर
वैदिककालीन शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत गुरु-शिष्य सम्बन्ध कर्तव्यपरायणता पर आधारित थे तथा गुरु एवं शिष्य दोनों ही अपने कर्तव्यों के प्रति जगरूक होते थे तथा सदैव अपनी इच्छा से उनका पालन करते थे। गुरु-शिष्य के सम्बन्ध पारस्परिक स्नेह, सम्मान, विश्वास तथा कर्त्तव्य की भावना पर आधारित होते थे। गुरु या शिक्षक अपने शिष्य के प्रति सदैव पुत्रवत् व्यवहार करता था। गुरु अपने शिष्य के प्रति बौद्धिक एवं आध्यात्मिक-पिता की भूमिका निभाता था। वह शिष्य के सर्वांगीण विकास के लिए सभी आवश्यक उपाय करता था। वह शिष्य को ज्ञान प्रदान करने के साथ-ही-साथ उसके चरित्र के विकास में भी भरपूर योगदान देता था। गुरु ही अपने शिष्यों के लिए आहार तथा आवश्यकता पड़ने पर औषधि एवं उपचार की भी व्यवस्था करता था। इस प्रकार निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि घर-परिवार में जो कर्तव्य तथा दायित्स्व पिता द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं, गुरुकुल में वे सभी गुरु या शिक्षक द्वारा पूरे किये जाते थे। इस स्थिति में गुरुकुल के सभी छात्रों के लिए गुरु भी पिता-तुल्य ही होते थे। सभी छात्र बहुत ही सम्मानपूर्वक अपने गुरु के प्रत्येक आदेश का पालन करते थे तथा गुरु की सेवा करते थे। छात्र ही गुरुकुल के समस्त कार्यों में गुरुको सहयोग प्रदान करते थे तथा एक परिवार के सदस्य के रूप में रहते थे।

प्रश्न 5
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली का वर्तमान परिस्थितियों में क्या महत्त्व है? या प्राचीन काल की शैक्षिक विशेषताओं को वर्तमान समय में कहाँ तक अपनाया जा सकता है ?
उत्तर
प्राचीन भारतीय शिक्षा की अनेकानेक विशेषताओं का वर्तमान शिक्षा के लिए विशेष महत्त्व है। उस समय की शिक्षा की निम्नांकित बातों को वर्तमान शिक्षा में स्थान देकर अधिक उपयोगी और ज्ञानवर्द्धक बनाया जा सकता है|

  1. आज के भौतिकवादी युग में प्राचीन शिक्षा के धर्म और अध्यात्म के शैक्षिक उद्देश्य को वर्तमान शिक्षा का आवश्यक उद्देश्य बनाना चाहिए।
  2. शिक्षा के माध्यम से पारस्परिक एकता के सिद्धान्त को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
  3. जीवन की सम्पूर्णता के लिए शिक्षा को माध्यम बनाया जाना चाहिए, यही प्राचीन शिक्षा का प्रमुख आदर्श था।
  4. प्राचीन भारतीय शिक्षा से प्रेरणा लेकर वर्तमान पाठ्यक्रम को बहुमुखी और व्यापक बनाया जाना चाहिए।
  5. प्रत्येक व्यक्ति अपना शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास करे—प्राचीन शिक्षा का यह आदर्श भी ग्रहणीय है।
  6. प्राचीन काल में मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों व विधियों से स्वतन्त्रता, अभ्यास रुचि एवं योग्यता के अनुकूल प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा मिलती थी, जिसे वर्तमान में भी अपनाया जा सकता है।
  7. शिक्षा व्यवस्था में वैयक्तिक स्वतन्त्रता, गुरु-शिष्य सहयोग, परीक्षा प्रणाली का अभाव आदि कुछ विशिष्ट पहलू हैं,जिनको आधुनिक शिक्षा प्रणाली में प्रयोग किया जा सकता है।’
    निष्कर्षत: प्राचीन शिक्षा-प्रणाली आज भी उपयोगी है। इसका हम परित्याग नहीं कर सकते, केवल समय व परिस्थितियों के अनुकूल इसमें कुछ संशोधन करके इसे स्वीकार करना लाभकारी है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
वैदिककालीन शिक्षा के उद्देश्य बताइए।
या प्राचीन काल में शिक्षा के क्यो उद्देश्य थे ?
उत्तर
प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों का वर्णन करते हुए अल्तेकर ने लिखा है, “ईश्वर-भक्ति तथा धार्मिकता की भावना, चरित्र-निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, नागरिकता तथा सामाजिक कर्तव्यों का पालन, सामाजिक कुशलता की उन्नति तथा राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण और प्रसार-प्राचीन भारत में शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श थे।” संक्षेप में प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श निम्नलिखित थे

  1. धार्मिक भावना का विकास।
  2. चरित्र का निर्माण और विकास।
  3. व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास।
  4. नागरिकता एवं सामाजिकता का विकास।
  5. युवकों को जीविकोपार्जन के लिए समर्थ बनाना।
  6. संस्कृति एवं ज्ञान का संरक्षण, प्रसार तथा विकास।।

प्रश्न 2
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा के संगठन का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
प्राचीन भारत में विद्यार्थी गुरु के आश्रम में जाकर रहता था। शिष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति करना गुरु का कर्तव्य था और ब्रह्मचारीगण समाज के बीच गृहस्थों के द्वार पर जाकर भिक्षाटन करते थे और गृहस्थ जन उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में अपना गौरव समझते थे।

प्रश्न 3
प्राचीनकालीन शिक्षण विधि का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
प्राचीन काल में शिक्षा मुख्यत: मौखिक थी। शब्दों के शुद्ध उच्चारण पर विशेष बल दिया। जाता था। अशुद्ध उच्चारुण अहितकर तथा विनाशकारी समझा जाता था। ज्ञान को कण्ठस्थ करना विद्यार्थी की एक विशेषता थी। गुरुं वेद-मन्त्रों का उच्चारण करते थे और शिष्य उनको सुनकर याद कर लेते थे। सम्भवत: इसीलिए श्रुति और स्मृति के नाम से ज्ञान की शाखाओं को सम्बोधित किया जाता था। मन्त्रों को कण्ठस्थ करना, मनन करना तथा अर्थ समझना ही शिक्षण-प्रणाली थी। शिक्षण कार्य की समाप्ति के बाद छात्र गुरु के चरणों को स्पर्श करके विदा लेते थे।

प्रश्न 4
प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति में परीक्षा-प्रणाली का क्या प्रावधान था ?
उत्तर
प्राचीन काल में आज की भाँति परीक्षा-प्रणाली, उपाधियों और प्रमाण-पत्र व्यवस्था का प्रचलन नहीं था। उस समय प्रश्नोत्तर के माध्यम से जब गुरु को यह विश्वास हो जाता था कि उसके शिष्य ने विद्या में दक्षता प्राप्त कर ली है, तो वह उसे दीक्षा देकर विदा कर देता था। आश्रमों में दीक्षान्त समारोह सम्पन्न होते थे। इन्हें समावर्तन संस्कार भी कहा जाता था। इन समारोहों में विद्वान् लोग विद्यार्थी से प्रश्न पूछते थे और वह उनके सन्तोषजनक उत्तर देने पर उत्तीर्ण घोषित कर दिया जाता था। उच्च शिक्षा एवं वैज्ञानिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद छात्रों को उपाधियाँ दी जाती थीं। प्रश्न

प्रश्न 5
प्राचीन काल में भारत में स्त्री-शिक्षा की क्या स्थिति थी ?
उत्तर
प्राचीन काल में भारत में स्त्री-शिक्षा का प्रचलन था। इसका मुख्य प्रमाण हैप्राचीनकालीन विदुषी स्त्रियाँ; जैसे कि–घोषा, गार्गी, मैत्रेई, अपाला, शकुन्तला, अनुसूइया आदि। वैसे इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि उस काल में स्त्रियों के लिए अलग से शिक्षण-संस्थाएँ थीं। ऐसा माना जाता है कि उस काल में बालिकाएँ घर पर ही रह कर विद्या प्राप्त करती थीं। सामान्य रूप से माता-पिता, भाई अथवा कुल पुरोहित द्वारा बालिकाओं को शिक्षा प्रदान की जाती थी। कुछ सम्पन्न परिवारों में बालिकाओं की शिक्षा के लिए घर पर ही शिक्षक भी नियुक्त किए जाते थे।

प्रश्न 6
प्राचीनकालीन शिक्षा-व्यवस्था में उपनयन संस्कार का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
या उपनयन संस्कार से आप कुया समझते हैं?
उत्तर
विचारकों का मत है कि ब्राह्मणों को 5वें वर्ष, क्षत्रिय को छठे वर्ष और वैश्य को 8वें वर्ष में विद्याध्ययन प्रारम्भ कर देना चाहिए। शूद्रों को विद्याध्ययन करने का अधिकार नहीं था। शिक्षा प्रारम्भ करने से पूर्व प्रत्येक बालक का उपनयन संस्कार किया जाता था। प्राचीन काल में बिना उपनयन संस्कार के बालक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता थे। इसके द्वारा बालक को गुरु मन्त्र का उपदेश दिया जाता था।

प्रश्न 7
प्राचीन भारतीय शिक्षा की दो असफलताओं पर प्रकाश डालिए।
या वैदिककालीन शिक्षा के दो दोषों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
प्राचीन भारतीय शिक्षा की दो असफलताएँ (दोष) निम्नलिखित हैं|
1. व्यावसायिक शिक्षा का अभाव-उस काल में विद्यार्थियों को अन्य सभी कर्म सिखाये जाते थे, जो उन्हें अनुशासित, धार्मिक, चरित्रवान व अच्छा नागरिक बनाते थे, किन्तु रोजगारोन्मुखी शिक्षा का अभाव ही था। अत: बहुत कम लोग शिक्षा ग्रहण करने में रुचि लेते थे।
2. धार्मिकता व आध्यात्मिकता का अत्यधिक समावेश—उस काल की पूरी शिक्षा गुरु पर आधारित थी और अधिकांशतः गुरु अपने उपदेशों में धार्मिक एवं आध्यात्मिक बातों का ही समावेश रखते थे। भौतिक जीवन में काम आने वाली बातों पर चर्चा करना निकृष्ट माना जाता था।

प्रश्न 8
समावर्तन संस्कार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर
गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली में शिष्य की सामान्य शिक्षा पूर्ण होने पर सम्पन्न होने वाले संस्कार को समावर्तन संस्कार कहते हैं। इस संस्कार के अवसर पर गुरु द्वारा शिष्य को मधुपर्क दिया जाता था तथा सार्वजनिक रूप से गुरु द्वारा ‘समावर्तन उपदेश दिया जाता था। सामान्य रूप से शिष्य की 25 वर्ष की आयु पर ही समावर्तन संस्कार का आयोजन होता था।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली किस नाम से विश्वविख्यात है ?
उत्तर
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा प्रणाली ‘गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली’ के नाम से विश्वविख्यात है।

प्रश्न 2
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली को अन्य किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली को वैदिक शिक्षा-प्रणाली’ के नाम से भी जाना जाता है।

प्रश्न 3
वैदिक काल में शिक्षा का माध्यम कौन-सी भाषा थी ?
उत्तर
वैदिक काल में शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी।

प्रश्न 4
गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली में गुरु-शिष्य के सम्बन्ध किस प्रकार के थे ?
उत्तर.
गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में गुरु-शिष्य के आपसी सम्बन्ध बहुत ही मधुर तथा पिता-पुत्र तुल्य होते थे। ।

प्रश्न 5.
वैदिककालीन अथवा प्राचीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत गुरुकुल में बालक के प्रवेश के समय सम्पन्न होने वाले संस्कार को क्या कहा जाता था ?
उत्तर
उपनयन संस्कार।।

प्रश्न 6
गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत शिष्य की सामान्य शिक्षा पूर्ण होने पर सम्पन्न होने वाले संस्कार को क्या कहा जाता था ?
उत्तर
समावर्तन संस्कार।

प्रश्न 7
समावर्तन संस्कार के समय होने वाले मुख्य समारोह को क्या कहा जाता था?
उत्तर
समावर्तन संस्कार के समय होने वाले मुख्य समारोह को दीक्षान्त समारोह कहा जाता था।

प्रश्न 8
गुरुकुल के शिक्षा-काल को आश्रम-व्यवस्था के अन्तर्गत कौन-सा आश्रम माना जाता था?
उत्तर
आश्रम-व्यवस्था के अन्तर्गत गुरुकुल के शिक्षा-काल को ब्रह्मचर्य आश्रम माना जाता था।

प्रश्न 9
गुरुकुल की शिक्षा को समाप्त करने के उपरान्त युवक किस आश्रम में प्रवेश करता था?
उत्तर
गुरुकुल की शिक्षा को समाप्त करने के उपरान्त युवक गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था।

प्रश्न 10
प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत समाज के किस वर्ण के बालकों को उपनयन संस्कार का अधिकार प्राप्त नहीं था ?
उत्तर
प्राचीन भारतीय शिक्षा-प्रणालीकै अन्तर्गत शूद्र वर्ण के बालकों को उपनयन संस्कार का अधिकार प्राप्त नहीं था।

प्रश्न 11
वैदिक शिक्षा आधार ग्रन्थों अर्थात् वेदों के नाम लिखिए।
उत्तर
वेद चार हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद।

प्रश्न 12
प्राचीनकालीन शिक्षण-संस्थाओं का सामान्य उल्लेख कीजिए।
उत्तर
प्राचीन काल में मुख्य शिक्षण संस्थाएँ थीं—गुरुकुल, वैदिक विद्यालय, चारण विद्यालय, परिषदें, टोल, घटिकाएँ, मठ, विद्यापीठ, वन विद्यालय, मन्दिर विद्यालय, विश्वविद्यालय।

प्रश्न 13
प्राचीन काल में गुरुकुलों में किस पद्धति से शिक्षा दी जाती थी ?
उत्तर
प्राचीन काल में गुरुकुलों में वैयक्तिक शिक्षण-पद्धति को अपनाया जाता था। गुरुजन मुख्य रूप से प्रवचन तथा व्याख्यान के माध्यम से विषयों के समुचित विकास के लिए प्रयास करते थे।

प्रश्न 14
उपनयन संस्कार का सम्बन्ध है—
(i) बौद्धकाल से,
(ii) वैदिक काल से।
उत्तर
उपनयन संस्कार का सम्बन्ध है
(ii) वैदिक काल से।

प्रश्न 15
प्राचीनकाल में उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्रियों को क्या कहते थे?
उत्तर
प्राचीन काल में उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्रियों को विदुषी कहते थे।

प्रश्न 16
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली को ‘वैदिक शिक्षा-प्रणाली तथा ‘गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली’ भी कहा जाता है।
  2. प्राचीन काल में भारतीय समाज में स्त्री-शिक्षा पर कठोर प्रतिबन्ध था।
  3. वैदिक काल में गुरुकुलों में कठोर दण्ड-व्यवस्था का प्रावधान था।
  4. वैदिक शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य छात्रों का चरित्र-निर्माण करना था।
  5. वैदिक शिक्षा का आरम्भ नामकरण संस्कार के साथ ही हो जाता था।
  6. वैदिक काल में गुरुकुल शिक्षा नि:शुल्क थी। न्ट

उत्तर

  1. सत्य,
  2. असत्य,
  3. असत्य,
  4. सत्य,
  5. असत्य,
  6. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में सेसही विकल्पका चुनाव कीजिए
प्रश्न 1.
वैदिककालीन शिक्षा का स्वरूप था
(क) व्यावसायिक
(ख) आध्यात्मिक
(ग) नैतिक
(घ) धार्मिक
उत्तर
(ख) आध्यात्मिक

प्रश्न 2
वैदिक काल में शिक्षा का आरम्भ किस संस्कार से होता था ?.
(क) उपनयन
ख) प्रवज्जा ।
(ग) बिसमिल्लाह
(घ) यज्ञोपवीत
उत्तर
(क) उपनयन

प्रश्न 3
‘उपनयन शिक्षा संस्कार किस काल में होता था ?
(क) वैदिक काल
(ख) बौद्ध काल ।
(ग) मुस्लिम काल
उत्तर
(क) वैदिक काल

प्रश्न 4
वैदिककालीन शिक्षा कॉमुख्य उद्देश्य था
(क) जीविकोपार्जन
(ख) ज्ञानार्जन
(ग) शारीरिक विकास।
(घ) नैतिकता एवं चरित्र का विकास
उत्तर
(ख) ज्ञानार्जन

प्रश्न 5
प्राचीन काल में शिक्षा का माध्यम कौन-सी भाषा थी ?
(क) पालि
(ख) मागधी
(ग) प्राकृत
(घ) संस्कृत
उत्तर
(घ) संस्कृत

प्रश्न 6
प्राचीनकाल में गुरुकुल होते थे
(क) गाँवों से दूर
(ख) ग्रामों में
(ग) राजधानी में
(घ) नगरों में
उत्तर
(क) गाँवों से दूर

प्रश्न 7
वैदिक काल में गुरु-शिष्य सम्बन्ध धे-
(क) स्वामी और सेवक के समान
(ख) पिता और पुत्र के समान ।
(ग) अधिकारी और लिपिक के समान
(घ) नेता और अनुयायी के समान
उत्तर
(ख) पिता और पुत्र के समान

प्रश्न 8
वैदिक शिक्षा के प्रमुख आधार थे
(क) वैदे
(ख) उपनिषद्
(ग) पुराण
(घ) स्मृतियाँ
उत्तर
(क) वेद

प्रश्न 9
वैदिक काल में शिक्षालयों को कहा जाता था
(क) विद्यापीठ
(ख) गुरुकुल।
(ग) विद्या मन्दिर
(घ) शिशु मन्दिर
उत्तर
(ख) गुरुकुल

प्रश्न 10
वैदिक काल में शिक्षा का स्वरूप था
(क) लिखित ।
(ख) मौखिक
(ग) क्रियात्मक
(घ) अस्त-व्यस्त
उत्तर
(ख) मौखिक

प्रश्न 11
वैदिक काल में शिक्षा का प्रमुख केन्द्र कौन-सा था?
(क) तक्षशिला
(ख) प्रयाग
(ग) मिथिला
(घ) काशी।
उत्तर
(घ) काशी

प्रश्न 12
वैदिक काल में ‘उपनयन संस्कार कब होता था?
(क) शिक्षा प्रारम्भ के समय
(ख) उच्च शिक्षा में प्रवेश लेते समय
(ग) शिक्षा समाप्त पर।
(घ) कभी नहीं|
उत्तर
(क) शिक्षा प्रारम्भ के समय

प्रश्न 13
वैदिक काल में गुरुकुल में पढ़ने वाले को क्या कहा जाता था?
(क) छात्र
(ख) अन्तेवासी
(ग) भिक्षु
(घ) श्रमण
उत्तर
(ख) अन्तेवासी

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