UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 15 Indian Government Act of 1919 and 1935

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 15
Chapter Name Chapter 15 Indian Government
Act of 1919 and 1935
(1919 तथा 1935 का
भारत सरकार अधिनियम)
Number of Questions Solved 13
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 15 Indian Government Act of 1919 and 1935 (1919 तथा 1935 का भारत सरकार अधिनियम)

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
1919 ई० के अधिनियम की चार प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उतर:
1919 ई० के अधिनियम की चार प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • 1919 ई० के ऐक्ट की मुख्य विशेषता प्रान्तों में द्वैध-शासन की स्थापना थी। इसके लिए केन्द्रीय और प्रान्तीय विषयों को अलग किया गया।
  • इस अधिनियम के तहत गर्वनर जनरल व गर्वनर के अधिकारों में वृद्धि की गई जिसका उपयोग वे स्वेच्छा से कर सकते थे।
  • गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद में भारतीय सदस्यों की संख्या को बढ़ाया गया।
  • केन्द्रीय विधान मण्डल को विस्तृत अधिकार दिए गए जिनमें प्रमुख कानून बनाने, कानून परिवर्तन करने तथा बजट पर बहस आदि प्रमुख थे।

प्रश्न 2.
1935 ई० के गवर्नमेन्ट ऑफ इण्डिया ऐक्ट की दो प्रमुख विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
उतर:
1935 ई० के गवर्नमेन्ट ऑफ इण्डिया ऐक्ट की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(i) केन्द्र में द्वैध-
शासन प्रणाली की स्थापना- 1919 ई० के अधिनियम में प्रान्तों में द्वैध-शासन पद्धति की स्थापना लागू की गई थी, जो कि पूर्णतया असफल रही थी। इसके पश्चात् 1935 ई० के अधिनियम के द्वारा केन्द्र में द्वैध-शासन प्रणाली की स्थापना की गई। केन्द्रीय विषयों को दो भागों-आरक्षित एवं हस्तान्तरित में विभक्त किया गया। आरक्षित भाग में प्रतिरक्षा, वैदेशिक और धार्मिक मामले थे, जो गवर्नर जनरल की अधिकारिता में थे। हस्तान्तरित विषयों के अन्तर्गत शेष सभी विषय थे। मन्त्रिपरिषद् के परामर्श से गवर्नर जनरल इन विषयों की प्रशासनिक व्यवस्था कर सकता था। मन्त्रिपरिषद् व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायी होती थी और गवर्नर जनरल मन्त्रिपरिषद् के निर्णय को मानने के लिए बाध्य न था। अत: वास्तविक शासन गवर्नर जनरल के हाथों में केन्द्रित था।

(ii) विधायी शक्तियों का वितरण-
सम्पूर्ण विधायी विषयों को केन्द्रीय सूची, प्रान्तीय सूची और समवर्ती सूची में विभाजित किया गया था। केन्द्रीय अथवा संघ सूची में 59 विषय, प्रान्तीय सूची में 54 और समवर्ती सूची में 36 विषय निर्धारित किए गए। समवर्ती सूची पर गवर्नर जनरल का अधिकार निहित था जो स्वविवेक से केन्द्रीय अथवा प्रान्तीय विधानमण्डलों को हस्तगत कर सकता था।

प्रश्न 3.
1935 ई० के अधिनियम के चार प्रमुख दोष लिखिए।
उतर:
1935 ई० के अधिनियम के चार प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं

  • इस अधिनियम द्वारा ब्रिटिश संसद की सर्वोच्चता को बरकरार रखा गया। भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य प्रदान नहीं किया गया।
  • प्रान्तों में स्थापित द्वैध-शासन प्रणाली को हटाकर अब नए रूप में केन्द्र में द्वैध-शासन प्रणाली लागू कर दी। इसका स्पष्ट मतलब था कि अंग्रेज भारतीयों को किसी प्रकार की सुविधा देने के पक्ष में न थे।
  • भारतीयों द्वारा साम्प्रदायिक चुनाव पद्धति का विरोध करने के बावजूद इस अधिनियम में इसे समाप्त नहीं किया गया।
  • इस अधिनियम द्वारा गवर्नर जनरल व गवर्नरों के अधिकारों में वृद्धि की गई। इस प्रकार भारतीय प्रशासन पर इंग्लैण्ड का पर्ण नियन्त्रण था।

प्रश्न 4.
1919 ई० के अधिनियम में प्रान्तीय कार्यपालिका में क्या परिवर्तन किए गए?
उतर:
1919 ई० के अधिनियम में प्रान्त में द्वैध-शासन प्रणाली की स्थापना की गई। इसके लिए केन्द्रीय और प्रान्तीय विषयों को पृथक कर दिया गया। इसके पश्चात् प्रान्तीय विषयों को दो भागों में विभक्त कर दिया गया-

  • सुरक्षित विषय; जैसे- अर्थव्यवस्था, शान्ति व्यवस्था, पुलिस आदि।
  • हस्तान्तरित विषय; जैसे- स्थानीय स्वशासन, शिक्षा आदि।

प्रश्न 5.
1935 ई० के अधिनियम के प्रति राष्ट्रीय दलों का दृष्टिकोण स्पष्ट कीजिए।
उतर:
1935 ई० के अधिनियम के सम्बन्ध में जवाहरलाल नेहरू ने कहा “यइ इतना प्रतिक्रियावादी था कि इसमें स्वविकास का कोई भी बीज नहीं था।” उन्होंने और आगे कहा कि 1935 ई० का विधान, दासता का एक नवीन राजपत्र था। वह दृढ़ आरोपों से युक्त ऐसा यंत्र था जिसमें इंजन नहीं था। मदनमोहन मालवीय ने इसे ‘बाह्य रूप से जनतंत्रवादी और अंदर से खोखला कहा। चक्रवती राजगोपालचारी ने इसे द्वैध शासन पद्धति से भी बुरा एवं बिलकुल अस्वीकृत बताया।

प्रश्न 6.
1919 ई० के भारत शासन अधिनियम की क्या उल्लेखनीय विशेषता थी?
उतर:
प्रान्तों में द्वैध-शासन की स्थापना 1919 ई० के ऐक्ट की मुख्य विशेषता थी। इसके लिए केन्द्रीय और प्रान्तीय विषयों को पृथक् किया गया था। इसके पश्चात् प्रान्तीय विषयों को दो भागों में बाँटा गया

  • सुरक्षित विषय; जैसे- अर्थव्यवस्था, शान्ति-व्यवस्था, पुलिस आदि और
  • हस्तान्तरित विषय; जैसे- स्थानीय स्वशासन, शिक्षा आदि।

सुरक्षित विषयों का शासन गवर्नर अपनी परिषद् के सदस्यों की सलाह से करता था और हस्तान्तरित विषयों का शासन गवर्नर भारतीय मन्त्रियों की सलाह से करता था। इस व्यवस्था से गवर्नर की कार्यकारिणी भी दो भागों में बँट गई- गवर्नर और उसकी परिषद् तथा गवर्नर और भारत मन्त्री। इससे प्रान्तीय शासन के दो भाग हो गए- पहला शासन का वह भाग, जिसके अधिकार में सुरक्षित विषय थे अर्थात् गर्वनर और उसकी परिषद् जो शासन का उत्तरदायित्वहीन भाग था और दूसरा शासन का वह भाग, जिसके अधिकार में हस्तान्तरित विषय थे अर्थात् गवर्नर और भारत मन्त्री जो शासन का उत्तरदायित्वपूर्ण भाग माना जा सकता था। शासन के इसी विभाजन के कारण इस व्यवस्था को द्वैध-शासन कहा जाता है।

प्रश्न 7.
1935 ई० के भारत शासन अधिनियम द्वारा देशी रियासतों के सम्बन्ध में क्या व्यवस्था थी?
उतर:
1935 ई० के भारत शासन अधिनियम द्वारा सभी रियासतों का एक संघ बनाने की व्यवस्था थी। किन्तु संघ के निर्माण की प्रक्रिया को अत्यन्त जटिल बना दिया गया था। संघों में प्रान्तों को आवश्यक रूप से सम्मिलित होना था; किन्तु देशी रियासतों के लिए यह ऐच्छिक था। अधिकांश रियासतों के शासक ऐसी केन्द्रीय सरकार के अन्तर्गत संगठित होने को तैयार न थे।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
1919 ई० के मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार कानून के प्रमुख प्रावधानों का वर्णन करते हुए उनकी कमियों पर प्रकाश डालिए।
उतर:
सन् 1918 ई० में मॉण्टेग्यू और चेम्सफोर्ड ने संयुक्त हस्ताक्षरों से भारत में सुधारों के लिए एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई जिसके आधार पर 1919 ई० का भारत सरकार कानून बनाया गया। इसे भारत सरकार अधिनियम-1919 या मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड अधिनियम के नाम से जाना जाता है। मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड अधिनियम के प्रावधान

(i) भारत सचिव व इंग्लैण्ड की संसद द्वारा भारतीय शासन पर नियन्त्रण में कमी की गई। भारत सचिव के कार्यालयों का सम्पूर्ण खर्चा भी ब्रिटिश राजस्व से ही लिया जाना था। इससे पहले यह खर्चा भारतीय राजस्व से लिया जाता था, जिसका भारतीय विरोध कर रहे थे।

(ii) इंग्लैण्ड में भारत सरकार के प्रतिनिधि के रूप में एक नवीन पद का सृजन किया गया। इस नए पदाधिकारी को भारतीय उच्चायुक्त’ कहा गया। भारतीय उच्चायुक्त को भारत सचिव से अनेक अधिकार लेकर दे दिए गए। भारतीय उच्चायुक्त की नियुक्ति भारत सरकार द्वारा की जानी थी तथा उसका खर्च भी भारत को ही वहन करना था।

(iii) गवर्नर जनरल व गवर्नरों के अधिकारों में वृद्धि की गई, जिनका उपयोग वे स्वेच्छा से कर सकते थे।

(iv) भारतीयों की यह माँग कि साम्प्रदायिक चुनाव पद्धति को समाप्त कर दिया जाए, को स्वीकार नहीं किया गया। इसके विपरीत इस प्रणाली को और बढ़ावा दिया गया। इस अधिनियम के अनुसार सिक्खों, एंग्लो-इण्डियन्स, ईसाइयों और यूरोपियनों को भी पृथक् प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया।

(v) केन्द्रीय- 
शासन व्यवस्था में उत्तरदायी शासन लागू नहीं किया गया। अत: केन्द्रीय शासन पूर्ववत् स्वेच्छाचारी तथा नौकरशाही के नियन्त्रण में ही रहा।

(vi) गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद् में भारतीय सदस्यों की संख्या को बढ़ाया गया।

(vii) एक सदन वाले केन्द्रीय विधानमण्डल का पुनसँगठन किया गया। अब दो सदन वाले विधानमण्डल की व्यवस्था की गई। उच्च सदन को राज्य परिषद् तथा निचले सदन को केन्द्रीय विधानसभा कहा गया।

(viii) केन्द्र में पहली बार द्विसदनात्मक व्यवस्था की गई। पहले सदन को विधानसभा कहा गया। विधानसभा में सदस्यों की कुल संख्या 145 थी, जिनमें 41 नामजद सदस्य थे और 104 चुने हुए सदस्य होते थे। दूसरे सदन को राज्यसभा कहा गया। राज्यसभा के कुल 60 सदस्य थे। उनमें 33 चुने हुए तथा 27 नामजद सदस्य होते थे।

(ix) गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में 8 सदस्यों की संख्या निश्चित की गई, जिनमें से 3 सदस्यों का भारतीय होना आवश्यक था।

(x) भारत परिषद्
के कार्यकारिणी सदस्यों की संख्या न्यूनतम 8 व अधिकतम 12 निश्चित कर दी गई। इनमें से आधे सदस्य वे होंगे जो दीर्घकाल से भारत में रहते आए हों। इनका कार्यकाल 5 वर्ष रखा गया।

(xi) केन्द्रीय विधान
मण्डल को विस्तृत अधिकार दिए गए जिनमें कानून बनाने, कानून परिवर्तन करने तथा बजट पर बहस करने के अधिकार आदि प्रमुख थे।

(xii) इस अधिनियम
के अनुसार केन्द्रीय और प्रान्तीय विषयों का पहली बार बँटवारा किया गया। 47 विषयों को केन्द्रीय विषय बनाया गया। उदाहरणस्वरूप- प्रतिरक्षा, विदेशों से सम्बन्ध, विदेशियों को भारत की नागरिकता प्रदान करना, आवागमन के साधन, सीमा शुल्क, नमक, आयकर, डाकखाने, सिक्के तथा नोट, सार्वजनिक ऋण, वाणिज्य जिसमें बैंक तथा बीमा इत्यादि शामिल थे, केन्द्र को दिए गए। प्रान्तीय सूची में 50 विषय रखे गए। स्थानीय स्वशासन, स्वास्थ्य, सफाई, चिकित्सा, शिक्षा, पुलिस तथा जेल, न्याय, जंगल, कृषि, भू-कर इत्यादि विषय प्रान्तीय सरकारों को दिए गए। जो विषय सूची में शामिल नहीं किए गए उन पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र को होगा।

(xiii) प्रान्तों में द्वैध- 
शासन की स्थापना 1919 ई० के ऐक्ट की मुख्य विशेषता थी। इसके लिए केन्द्रीय और प्रान्तीय विषयों को पृथक् किया गया था। इसके पश्चात् प्रान्तीय विषयों को दो भागों में बाँटा गया- (क) सुरक्षित विषय; जैसेअर्थव्यवस्था, शान्ति-व्यवस्था, पुलिस आदि और (ख) हस्तान्तरित विषय; जैसे- स्थानीय स्वशासन, शिक्षा आदि। सुरक्षित विषयों का शासन गवर्नर अपनी परिषद् के सदस्यों की सलाह से करता था और हस्तान्तरित विषयों का शासन गवर्नर भारतीय मन्त्रियों की सलाह से करता था। इस व्यवस्था से गवर्नर की कार्यकारिणी भी दो भागों में बंट गईं- गवर्नर और उसकी परिषद् तथा गवर्नर और भारत मन्त्री। इससे प्रान्तीय शासन के दो भाग हो गए- पहला शासन का वह भाग, जिसके अधिकार में सुरक्षित विषय थे अर्थात् गर्वनर और उसकी परिषद् जो शासन का उत्तरदायित्वहीन भाग था और दूसरा शासन का वह भाग, जिसके अधिकार में हस्तान्तरित विषय थे अर्थात् गवर्नर और भारत मन्त्री जो शासन का उत्तरदायित्वपूर्ण भाग माना जा सकता था। शासन के इसी विभाजन के कारण इस व्यवस्था को द्वैध-शासन कहा जाता है।

(xiv) इस अधिनियम
द्वारा एक लोक सेवा आयोग की स्थापना की गई। भारत सचिव को इस आयोग की नियुक्ति का कार्य सौंपा गया।

(xv) 1919 ई० का
अधिनियम भी केन्द्रीय विधानसभा को ब्रिटिश संसद से मुक्त नहीं कर सका। भारत की केन्द्रीय विधानसभा ब्रिटिश संसद के किसी कानून के विरुद्ध विधेयक पास नहीं कर सकती थी।

(xvi) इस अधिनियम
के लागू होने के 10 वर्षों के अन्दर एक आयोग की नियुक्ति की जानी थी, जिसका कार्य इस अधिनियम के प्रति प्रतिक्रियाओं की रिपोर्ट इंग्लैण्ड की संसद को देना था।

अधिनियम की कमियाँ- मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड अधिनियम में निम्नलिखित कमियाँ थीं
(क) केन्द्र में उत्तरदायी शासन की स्थापना नहीं की गई थी।
(ख) द्वैध-शासन प्रणाली सिद्धान्ततः दोषपूर्ण थी। एक ही प्रान्त में दो शासन करने वाली संस्थाएँ कैसे कार्य कर सकती हैं?
(ग) द्वैध-शासन प्रणाली के अन्तर्गत विषयों का विभाजन भी अत्यन्त अतार्किक एवं अव्यवहारिक था। ऐसे विभाग जो एक-दूसरे से सम्बन्धित थे, अलग-अलग संस्थाओं के अधीन कर दिए गए थे। उदाहरण के लिए- सिंचाई व कृषि का घनिष्ठ सम्बन्ध है, किन्तु दोनों को अलग-अलग कर दिया गया था। मद्रास (चेन्नई) के तत्कालीन मन्त्री श्री के०वी० रेड्डी ने लिखा है, “मैं विकास मन्त्री था, किन्तु वन विभाग हमारे अधिकार में नहीं था। मैं कृषि मन्त्री था, किन्तु सिंचाई विभाग पृथक् था।”
(घ) गवर्नर को अत्यधिक शक्ति प्रदान की गई थी। गवर्नर किसी भी मन्त्री के प्रस्ताव को अस्वीकार कर सकता था।
(ङ) इस अधिनियम में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया था।

प्रश्न 2.
1919 ई० के अधिनियम के अन्तर्गत स्थापित द्वैध-शासन से आप क्या समझते हैं? यह क्यों असफल रहा?
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या- 1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
1919 ई० के भारत सरकार अधिनियम की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
1919 ई० के अधिनियम के अन्तर्गत केन्द्र एवं प्रान्तीय विधान सभाओं के अधिकारों की समीक्षा कीजिए।
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या- 1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 5.
1935 ई० के अधिनियम के अन्तर्गत स्वायत्तता, गर्वनरों के लिए स्वायत्तता थी, न कि प्रान्तीय विधान मण्डल और मन्त्रियों के लिए।” व्याख्या कीजिए।
उतर:
सर सैमुअल होर द्वारा संयुक्त समिति की रिपोर्ट के आधार पर, ब्रिटिश संसद में 19 दिसम्बर, 1934 को भारत सरकार विधेयक प्रस्तुत किया गया। ब्रिटिश संसद ने इस विधेयक को बहुमत से पारित कर 3 अगस्त, 1935 को अपनी सहमति प्रदान की। यह अधिनियम भारत शासन अधिनियम, 1935 ई० (गवर्नमेन्ट ऑफ इण्डिया ऐक्ट 1935 ई०) के नाम से जाना जाता है। सर्वप्रथम प्रान्तों में द्वैध-शासन प्रणाली की स्थापना 1919 ई० के अधिनियम में की गई थी जो कि पूर्णतया असफल रही थी। इसके बाद 1935 ई० के अधिनियम द्वारा केन्द्र में जो कि पूर्णतया असफल रही थी। इसके बाद 1935 ई० के अधिनियम द्वारा केन्द्र में द्वैध-शासन प्रणाली को लागू किया गया।

केन्द्रीय विषयों को आरक्षित एवं हस्तान्तरित नामक दो भागों में विभाजित किया गया। आरक्षित भाग में प्रतिरक्षा, धार्मिक एवं वैदेशिक मामले थे जो गवर्नर जनरल की अधिकारिता में थे। हस्तान्तरित विषयों के अन्तर्गत शेष सभी विषय थे। मन्त्रिपरिषद् के परामर्श से गवर्नर जनरल इन विषयों की प्रशासनिक व्यवस्था कर सकता था। मन्त्रिपरिषद् व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायी होती थी और गवर्नर जनरल मन्त्रिपरिषद् के निर्णय को मानने के लिए बाध्य नहीं था। अत: वास्तविक शासन गवर्नर जनरल के हाथों में था।

1935 ई० के अधिनियम में 1919 के अधिनियम द्वारा प्रान्तों में स्थापित द्वैध-शासन प्रणाली को समाप्त करके स्वायत शासन प्रणाली को स्थापित कर दिया गया और प्रान्तों को नवीन संवैधानिक अधिकार दिये गये थे। प्रशासन का कार्य गवर्नर मन्त्रिपरिषद् के परामर्श पर करता था। मन्त्रिपरिषद् विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी थी। गवर्नरों से मन्त्रिपरिषद् के सुझावों के आधार पर कार्य करने की अपेक्षा की गई थी। गवर्नरों को इतनी शक्ति प्रदान की गई थी कि प्रान्तीय स्वायतता के बावजूद प्रान्तीय स्वायता नाम मात्र की रह गई थी।

प्रश्न 6.
1935 ई० के अधिनियम के प्रमुख प्रावधानों की व्याख्या और उसकी संक्षिप्त आलोचना कीजिए।
या
भारत के प्रजातांत्रिकरण में 1935 ई० के अधिनियम ने एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।” क्या आप इस कथन से सहमत हैं?
उतर:
1935 ई० के अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं
(i) केन्द्र में द्वैध- शासन प्रणाली की स्थापना- 1919 ई० के अधिनियम में प्रान्तों में द्वैध-शासन पद्धति की स्थापना लागू की गई थी, जो कि पूर्णतया असफल रही थी। इसके पश्चात् 1935 ई० के अधिनियम के द्वारा केन्द्र में द्वैध-शासन प्रणाली की स्थापना की गई। केन्द्रीय विषयों को दो भागों-आरक्षित एवं हस्तान्तरित में विभक्त किया गया। आरक्षित भाग में प्रतिरक्षा, वैदेशिक और धार्मिक मामले थे, जो गवर्नर जनरल की अधिकारिता में थे। हस्तान्तरित विषयों के अन्तर्गत शेष सभी विषय थे। मन्त्रिपरिषद् के परामर्श से गवर्नर जनरल इन विषयों की प्रशासनिक व्यवस्था कर सकता था। मन्त्रिपरिषद् व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायी होती थी और गवर्नर जनरल मन्त्रिपरिषद् के निर्णय को मानने के लिए बाध्य न था। अत: वास्तविक शासन गवर्नर जनरल के हाथों में केन्द्रित था।

(ii) विधायी शक्तियों का वितरण-
सम्पूर्ण विधायी विषयों को केन्द्रीय सूची, प्रान्तीय सूची और समवर्ती सूची में विभाजित किया गया था। केन्द्रीय अथवा संघ सूची में 59 विषय, प्रान्तीय सूची में 54 और समवर्ती सूची में 36 विषय निर्धारित किए गए। समवर्ती सूची पर गवर्नर जनरल का अधिकार निहित था जो स्वविवेक से केन्द्रीय अथवा प्रान्तीय विधानमण्डलों को हस्तगत कर सकता था।

(iii) व्यापक विधान-
भारत सरकार अधिनियम -1935 अत्यन्त लम्बा और जटिल विधान था। इसमें 451 धाराएँ और 15 अनुसूचियाँ थीं। कुछ विशेष कारणों से इसका विशाल होना स्वाभाविक भी था। एक तो यह जटिल परिसंघीय संविधान की व्यवस्था करता था जो परिसंघात्मक संविधानवाद के इतिहास में कहीं देखने को नहीं मिलता। दूसरे, यह भारतीय मन्त्रियों और विधायकों द्वारा कदाचार के विरुद्ध विधिक सुरक्षाओं का उल्लेख करता था।

(iv) उद्देशिका का न होना-
1935 ई० के अधिनियम की अपनी कोई उद्देशिका नहीं थी। स्मरणीय है कि, 1919 ई० के अधिनियम के अधीन सरकार की घोषित नीति, ब्रिटिश भारत में उत्तरदायी शासन का क्रमिक विकास था। 1935 ई० के अधिनियम के पश्चात् 1919 ई० के अधिनियम को उद्देशिका के अलावा निरस्त कर दिया गया।

(v) अखिल भारतीय संघ का प्रस्ताव-
इस अधिनियम की सर्वप्रमुख विशेषता थी- पहली बार भारत में संघात्मक शासन प्रणाली को लागू किया जाना। सभी भारतीय प्रान्तों व देशी रियासतों का एक संघ बनाने का प्रस्ताव था। संघ के दोनों सदनों में राज्यों को उचित प्रतिनिधित्व दिया गया। संघीय असेम्बली में 375 में से 125 व कौंसिल ऑफ स्टेट में 260 में से 104 सदस्य नियुक्त करने का उन्हें अधिकार दिया गया, किन्तु संघ के निर्माण की प्रक्रिया को अत्यन्त जटिल बना दिया गया था। संघों में प्रान्तों को आवश्यक रूप से सम्मिलित होना था, किन्तु देशी रियासतों के लिए यह ऐच्छिक था। अधिकांश रियासतों के शासक ऐसी केन्द्रीय सरकार के अन्तर्गत संगठित होने के लिए तैयार न थे। अतः यह क्रियान्वित नहीं हो सका।

(vi) भारतीय परिषद् का विघटन-
भारत में भारतीय कौंसिल के विरोध को देखते हुए भारतीय कौंसिल को समाप्त कर दिया गया। इसका स्थान भारत सचिव के सलाहकारों ने ले लिया। भारत सचिव की सलाहकार समिति में अधिकतम 6 सदस्य हो सकते थे। इनमें से आधे ऐसे होते थे जो कम-से-कम 10 वर्ष तक भारत सरकार की सेवा में ही रहे हों। इस प्रकार भारत सचिव का नियन्त्रण उन क्षेत्रों तक ही सीमित रह गया जिनमें गवर्नर जनरल संघीय मन्त्रिमण्डल की सलाह नहीं मानता था, अथवा, अपने विशेष अधिकारों का प्रयोग करता था।

(vii) विधानमण्डलों का विस्तार-
1935 ई० के अधिनियम के अनुसार संघीय विधानमण्डल का स्वरूप दो सदन वाला था। उच्च सदन को राज्य परिषद् और निचले सदन को संघीय विधानसभा कहते थे। राज्य परिषद् के सदस्यों को चुनने का अधिकार सीमित लोगों को ही था। संघीय विधान सभा में 375 सदस्य होते थे, जिनमें से 125 भारतीय नरेशों के प्रतिनिधि और मुसलमानों के 80 सदस्य होते थे। संघीय विधान सभा के अधिकार सीमित थे।

(viii) प्रान्तीय स्वायत्तता-
1919 ई० के अधिनियम द्वारा प्रान्तों में स्थापित द्वैध-शासन को समाप्त करके 1935 ई० के अधिनियम में स्वायत्त शासन की स्थापना की गई तथा प्रान्तों को नवीन संवैधानिक अधिकार प्रदान किए गए। प्रशासन का कार्य गवर्नर मन्त्रिपरिषद् के परामर्श पर करता था। मन्त्रिपरिषद् विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी थी। गवर्नरों से यह अपेक्षा की गई थी कि वे मन्त्रिपरिषद् के सुझावों के अनुसार ही कार्य करें, किन्तु प्रान्तीय स्वायत्तता के बावजूद भी गवर्नरों को इतनी शक्तियाँ प्रदान कर दी गई कि स्वायत्तता नाममात्र की रह गई।

1935 ई० के अधिनियम की आलोचना- इस अधिनियम द्वारा ब्रिटिश संसद की सर्वोच्चता को बनाए रखा गया तथा भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य प्रदान नहीं किया गया। प्रान्तों में से द्वैध-शासन प्रणाली को हटाना तथा केन्द्र में द्वैध-शासन प्रणाली को लागू करने का मतलब था कि अंग्रेज भारतीयों को कोई सुविधा देने के पक्ष में नहीं थे। पं० जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में यह नियम इतना प्रतिक्रियावादी था कि इसमें स्वविकास का कोई भी बीज नहीं था।” उन्होंने आगे कहा कि 1935 ई० का विधान दासता का एक नवीन राजपत्र था। वास्तव में इस अधिनियम में एक ओर भारतीयों को यह विश्वास दिलाने का प्रयास किया गया कि उन्हें सब कुछ दे दिया गया है कि उन्होंने कुछ भी नहीं खोया है। इस प्रकार यह अधिनियम भारतीयों की आकांक्षाओं को सन्तुष्ट नहीं कर सका। विश्व के प्रत्येक संघ में निचले सदन के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव पद्धति को अपनाया गया था। इस प्रकार 1935 ई० के अधिनियम में जनतान्त्रिक शक्तियों की उपेक्षा की गई थी।

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