UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 24 नवजात शिशु की देखभाल तथा सामान्य व्याधियाँ (जन्म से एक वर्ष)

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 24 नवजात शिशु की देखभाल तथा सामान्य व्याधियाँ (जन्म से एक वर्ष) (Care of the Newly Born Child and Common Ailments (up to one year))

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 24 नवजात शिशु की देखभाल तथा सामान्य व्याधियाँ (जन्म से एक वर्ष)

UP Board Class 11 Home Science Chapter 24 विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
एक नवजात शिशु की देखभाल आप कैसे करेंगी? विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। अथवा नवजात शिशु की परिचर्या किस प्रकार की जाती है? शिशु के उचित विकास के लिए किन-किन बातों पर ध्यान देना चाहिए? विस्तारपूर्वक लिखिए। अथवा नवजात शिशु की देखभाल के बारे में लिखिए।
उत्तरः
जन्म के समय नवजात शिशु बहुत कोमल तथा अशक्त दशा में गर्भ से बाहर आता है। ‘ प्रसूता भी बहुत कमजोर तथा निढाल अवस्था में होती है। तब शिशु का पालन-पोषण दूसरे व्यक्तियों के ऊपर निर्भर होता है। शिशु और माता की देखभाल पूरी तरह से नर्स पर ही निर्भर होती है। शिशु जन्म लेते समय निष्क्रिय अवस्था में होता है। पूर्णतया गर्भ त्यागने के पश्चात् वह कुछ क्रियाशील होता है। इस स्थिति में नवजात शिशु को तुरन्त परिचर्या की आवश्यकता होती है।

जन्म के समय शिशु की परिचर्या (Care of Newly Born Child).
1. फेफड़े का श्वसन – जन्म से पूर्व, शिशु गर्भ में एक झिल्लीनुमा थैली में होता है। शिशु के चारों ओर तरल पदार्थ भरा रहता है। शिशु जब तक गर्भ में रहता है, तब तक उसको साँस नहीं लेनी पड़ती और न ही भोजन करना पड़ता है, इसलिए उसके श्वसन अंग और पाचन संस्थान अक्रियाशील होते हैं। इनके साथ-साथ उत्सर्जन अंग भी क्रिया नहीं करते। परन्तु जैसे ही शिशु गर्भ से बाहर आता है, उसका वातावरण बदल जाता है। बाहर आकर उसे श्वसन क्रिया की आवश्यकता होती है।

शिशु गर्भ से बाहर आते ही रोना आरम्भ कर देता है, जिसके कारण उसके फेफड़े फैल जाते हैं और श्वसन क्रिया होने लगती है। यदि नवजात शिशु स्वयं नहीं रोता तो उसे रुलाना आवश्यक होता है, जिससे श्वसन क्रिया होनी आरम्भ हो जाए और बच्चे का जीवन सुरक्षित रहे। यदि किसी कारण से नवजात शिशु की प्राकृतिक श्वसन-क्रिया तुरन्त प्रारम्भ नहीं होती. तो उसका जीवन खतरे में पड़ सकता है।

2. गर्भनाल को काटना – शिशु के जन्म के समय उसकी नाभि से एक लम्बी नली जुड़ी रहती है, जिसको नाल या गर्भनाल कहते हैं। इसकी लम्बाई लगभग 45 से 60 सेमी तक होती है। शिशु गर्भावस्था में पोषक तत्त्व इसी नाल के माध्यम से माता के रक्त से प्राप्त करता है। जन्म के पश्चात् इसकी आवश्यकता नहीं होती, फिर शिशु अपना भोजन बाहर से स्वयं लेने लगता है। रक्त का संचरण स्वयं होने लगता है; अतः शिशु को माता के शरीर से अलग करना आवश्यक होता है।

इसके लिए शिशु के शरीर से लगभग 10 सेमी छोड़कर गर्भनाल को दो स्थानों पर कसकर बाँध दिया जाता है। इसके बाद इन दोनों बन्धनों के बीच में से गर्भनाल को किसी नि:संक्रमित कैंची से सावधानीपूर्वक काट दिया जाता है। इस प्रकार शिशु माता के शरीर से अलग हो जाता है। कटे स्थान पर डिटोल लगा देना चाहिए। फिर यह कुछ दिनों में सूखकर गिर जाता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि गर्भनाल को उस समय काटना चाहिए जब उसमें होने वाला स्पन्दन रुक जाए।

3. शिशु का वजन – जन्म के उपरान्त ही शिशु का वजन अवश्य लेना चाहिए। शिशु के वजन को निर्धारित चार्ट में लिख लेना चाहिए। इससे शिशु की वृद्धि का व्यवस्थित अध्ययन करने में सहायता मिलती है। सामान्य रूप से नवजात शिशु का वजन लगभग 3 किग्रा होता है।

4. स्नान-जन्म के समय शिशु के शरीर पर श्वेत रंग का मोम जैसा एक चिकना पदार्थ लगा रहता है, जो गर्भ में शिशु की रक्षा करता है।
सबसे पहले साफ रुई से शरीर पर लगे सफेद पदार्थ को छुड़ा देना चाहिए, फिर जैतून के तेल की मालिश करनी चाहिए। इसके पश्चात् अच्छे साबुन से शिशु को स्नान कराना चाहिए। स्नान कराते समय यह ध्यान रहे कि शिशु की नाभि गीली न होने पाए, क्योंकि नाल के गीला होने से संक्रमण की आशंका रहती है। स्नान कराने के पश्चात् शिशु को सूखे तौलिए से पोंछ देना चाहिए।

5. अंगों की स्वच्छता-शिशु की सामान्य स्वच्छता के साथ उसके कुछ विशेष अंगों की सफाई पर भी ध्यान देना चाहिए, जो इस प्रकार हैं –

  • कान – जन्म लेने वाले शिशु की शारीरिक सफाई के अन्तर्गत कानों की सफाई का भी विशेष महत्त्व है। नवजात शिशु के कानों में काफी मात्रा में म्यूकस जमा रहता है। इसे साफ करने के लिए किसी नर्म कपड़े की पतली-सी बत्ती बनाई जाती है तथा उसे शिशु के कान में घुमाया जाता है, इससे काफी सफाई हो जाती है।
  • आँख-शिशु की आँखों की सफाई पर विशेष ध्यान देना चाहिए। इनकी थोड़ी-सी असावधानी होने पर शिशु की आँखों में एक रोग, जिसको रोएँ कहते हैं, हो जाता है। इस रोग में नेत्र सूज जाते हैं और शिशु नेत्रविहीन तक हो सकता है। नवजात शिशु की आँखों की सफाई हल्के बोरिक लोशन से करनी चाहिए। कभी-कभी नवजात शिशु की आँखों से पीले रंग का गन्दला पदार्थ निकलता है। इसे नियमित रूप से साफ करते रहना चाहिए।
  • नाक-शिशु को स्नान कराते समय ही उसकी नाक को साफ रुई से अन्दर व बाहर से साफ कर देना चाहिए। प्राय: नवजात शिशु की नाक में भी काफी मात्रा में म्यूकस जमा रहता है। इसे साफ करने के लिए नर्म कपड़े की पतली-सी बत्ती बनाकर उसे धीरे-धीरे नाक में घुमाया जाता है। इससे यदि बच्चे को छींक आ जाए तो नाक के अन्दर की अच्छी सफाई हो जाती है।
  • गला-शिशु के गले में कुछ श्लेष्म एकत्र हो जाता है; अत: उसकी सफाई के लिए उँगली पर साफ कपड़ा लपेटकर बोरिक लोशन में भिगोकर गले में चारों ओर धीरे-धीरे घुमा देना चाहिए।
  • मल-मूत्र अंग-शिशु के मल-मूत्र अंगों की सफाई भी आवश्यक है। विशेषतया कन्या शिशु के मल-मूत्र अंगों को रुई से बोरिक लोशन में भिगोकर साफ कर देना चाहिए। स्नान कराने के पश्चात् शिशु के शरीर को कपड़े से पोंछकर बेबी पाउडर लगा देना चाहिए।

6. निद्राव बिस्तर-आरम्भ में शिशु दिन में 20-22 घण्टे तक सोता रहता है। वह भूख लगने या मूत्र त्यागने के समय ही रोता है। शिशु को स्नान कराने के पश्चात् पहले से तैयार किए गए पालने में लिटाना चाहिए। पालने में नर्म गद्दी बिछा देनी चाहिए। गद्दी के ऊपर रबड़ का टुकड़ा भी बिछा देना चाहिए, जिससे मूत्र त्याग करने पर गद्दी खराब न हो। इस रबड़ की चादर पर एक सफेद चादर बिछाना भी आवश्यक है और सिर के नीचे नर्म तकिया लगा देना चाहिए। फिर शिशु को लिटाकर उसके शरीर को किसी चादर से ढक देना चाहिए तथा मुँह खुला होना आवश्यक है। इस प्रकार का बिस्तर मिलने पर बच्चा सो जाता है।

7. आहार-शिशु को आरम्भ में प्रति चार या पाँच घण्टे के पश्चात् पानी के साथ शहद या. ग्लूकोज मिलाकर चम्मच से पिलाना चाहिए। इस मिश्रण को रुई की बत्ती से भी शिशु को पिलाया जा सकता है। रुई की बत्ती का एक सिरा बच्चे के मुँह में लगा देना चाहिए, जिससे वह अपनी आवश्यकतानुसार उस मिश्रण को चूस लेगा। शिशु के जन्म के 8 या 10 घण्टे पश्चात् माता का दूध साधारणतया पिला दिया जाता है।

आरम्भ में माता के दूध के स्थान पर एक पीला व प्रोटीनयुक्त तरल पदार्थ निकलता है, जिसको कोलस्ट्रम के नाम से पुकारते हैं। इसको पीने से शिशु की पाचन-क्रिया बढ़ जाती है तथा इसे ग्रहण करने से शिशु में कुछ रोगों के प्रति रोग प्रतिरोधक क्षमता का भी विकास होता है। शिशु को कोलस्ट्रम अवश्य देना चाहिए। यह द्रव कुछ पतला होता है, परन्तु धीरे-धीरे यह कुछ गाढ़ा होता चला जाता है। फिर यह दूध का रूप धारण कर लेता है। शिशु को स्तनपान कराने से पूर्व, स्तनों और हाथों को भली प्रकार धो लेना चाहिए। दूध पिलाते समय बच्चे की श्वसन क्रिया का भी ध्यान रखना चाहिए।

आरम्भ में बच्चे को 5 या 6 घण्टे के अन्तर से दूध पिलाना चाहिए, इसके पश्चात् फिर धीरे-धीरे समय बढ़ाकर लगभग 8 घण्टे के अन्तर से दूध पिलाने का अभ्यास डालना चाहिए।
यदि माता बच्चे को किसी कारण से दूध पिलाने में असमर्थ हो तो बोतल का दूध पिलाना चाहिए। बोतल के दूध को पिलाने से पहले दूध को पानी मिलाकर हल्का कर लेना चाहिए। लेटकर दूध कभी नहीं पिलाना चाहिए। इससे बच्चे का कान बह निकलता है।

8. अन्य देखभाल – नवजात शिशु को गोद में लेते समय सावधानी बरतनी चाहिए। शिशु को बिस्तर से गोद में उठाते समय उसके सिर और पीठ को सहारा मिलना चाहिए। इसी प्रकार बच्चे को लिटाते समय सहारा देना आवश्यक है। बच्चे को कन्धे या बाँहों के सहारे कभी नहीं उठाना चाहिए। यदि बाँहों को पकड़कर उठाया जाएगा तो उसकी हँसली की हड्डी उतरने का भय रहता है। शिशु को कन्धे से लगाते समय भी सिर और कमर पर हाथ लगाना आवश्यक है। नवजात शिशु पूर्ण विकसित होता है।

वह जन्म से थोड़े समय बाद ही रक्त-संचालन, श्वसन, पाचन, मूत्र विसर्जन आदि सभी क्रियाएँ करने लगता है। एक पूर्ण शिशु की लम्बाई 40 सेमी से 50 सेमी होती है, यह लम्बाई माता-पिता तथा जलवायु पर निर्भर होती है। उसका भार लगभग 3 से 4 किग्रा तक होता है। खोपड़ी पर बाल होते हैं, परन्तु कुछ शिशुओं की खोपड़ी पर अधिक बाल नहीं होते। शिशु के जन्म के बाद उसके हाथ-पैर चलमे चाहिए। यदि बच्चे का कोई अंग गति न करता हो तो तुरन्त डॉक्टर को दिखाना चाहिए।

प्रश्न 2.
नवजात शिशु के आहार एवं पोषण-व्यवस्था का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तरः
नवजात शिशु स्वयं अपना आहार नहीं ग्रहण कर सकता; अत: उसके पोषण के लिए आहार की व्यवस्था भी उसकी देख-रेख करने वाले व्यक्तियों द्वारा ही की जाती है। प्रकृति ने जन्म लेने वाले शिशु के पोषण की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उसके उपयुक्त आहार की भी व्यवस्था कर दी है। नवजात शिशु का यह प्रकृति-प्रदत्त आहार है-माँ का दूध। प्रसव के साथ-साथ माँ के स्तनों में दूध का उत्पादन भी प्रारम्भ हो जाता है।

सामान्य रूप से प्रसव के उपरान्त कुछ समय के लिए प्रसूता अत्यधिक दुर्बल तथा थकी हुई होती है। इस दशा में वह नवजात शिशु को दूध नहीं पिला सकती। इस स्थिति में नवजात शिशु को पोषण प्रदान करने के लिए शहद चटाया जा सकता है।

आरम्भ में माता के दूध के स्थान पर एक पीला व प्रोटीनयुक्त तरल पदार्थ निकलता है, जिसको कोलस्ट्रम के नाम से पुकारते हैं। इसको पीने से शिशु की पाचन-क्रिया बढ़ जाती है तथा इसे ग्रहण करने से शिशु कुछ रोगों से भी बच जाता है। शिशु को कोलस्ट्रम अवश्य देना चाहिए। यह द्रव कुछ पतला होता है, परन्तु धीरे-धीरे यह कुछ गाढ़ा होता चला जाता है। फिर यह दूध का रूप धारण कर लेता है। शिशु को पानी पिलाते रहना चाहिए। पानी पीने से शिशु के गुर्दे भी कार्य करने लगते हैं। शिशु को स्तनपान कराने से पूर्व, स्तनों और हाथों को भली प्रकार धो लेना चाहिए। दूध पिलाते समय बच्चे की श्वसन क्रिया का भी ध्यान रखना चाहिए।

आरम्भ में बच्चे को 5 या 6 घण्टे के अन्तर से दूध पिलाना चाहिए, इसके पश्चात् फिर धीरे-धीरे समय बढ़ाकर लगभग 8 घण्टे के अन्तर से दूध पिलाने का अभ्यास डालना चाहिए।

नवजात शिशु के लिए माँ के दूध के महत्त्व तथा सम्बन्धित तथ्यों का संक्षिप्त विवरण निम्नवर्णित है –
1. शिशु के लिए माँ के दूध का महत्त्व – माता का दूध नवजात शिशु के लिए एक सर्वोत्तम भोजन या आहार है। यह प्रकृति की एक अद्भुत देन है कि शिशु के जन्म से पहले ही माता के स्तनों में दूध आ जाता है।
माता के दूध में लगभग सभी पोषक तत्त्व; जैसे कार्बोज, प्रोटीन, वसा, जल, खनिज तथा विटामिन्स उपस्थित रहते हैं। जिस समय शिशु जन्म लेता है तो माता का दूध पतला होता है ताकि बच्चा उसे आसानी से पचा सके, क्योंकि इस समय शिशु के पाचन अंग पूर्ण रूप से विकसित नहीं होते हैं।

शिशु की आयु के बढ़ने के साथ-साथ माता का दूध भी गाढ़ा होता चला जाता है तथा उसमें पोषक तत्त्वों की मात्रा भी बढ़ जाती है। माता के दूध द्वारा शिशु के शरीर में किसी भी प्रकार के संक्रामक रोगों के जीवाणु प्रवेश नहीं कर पाते; अत: शिशु का शरीर विभिन्न संक्रामक रोगों से बचा रहता है। इस प्रकार माता का दूध, उसके स्तनों से प्राप्त करके शिशु अपनी भूख मिटाता है तथा अपनी आहार सम्बन्धी आवश्यकता को पूरा करता है। बच्चे के स्वास्थ्य के लिए स्तनपान विशेष रूप से लाभदायक होता है। प्रकृति ही माता के स्तनों में दूध का निर्माण करती है। दूध का यह निर्माण बच्चे को पिलाने के लिए ही होता है; अत: शरीर की स्वाभाविक क्रिया के रूप में माता को बच्चे को स्तनपान अवश्य ही कराना चाहिए। स्तनपान से माँ एवं बच्चे दोनों को एक विशेष प्रकार का सन्तोष एवं स्वास्थ्य-सुख प्राप्त होता है।

2. स्तनपान कराने की सही विधि – जिस समय माता का प्रथम प्रसव होता है तो उसे स्तनपान कराने का तरीका सीखना पड़ता है। शिशु को भी इस क्रिया के लिए बार-बार प्रयास एवं अभ्यास करना पड़ता है। प्रारम्भ में माता कमजोर होती है; अत: कुछ दिन लेटकर ही शिशु को दूध पिलाती है। इसके बाद धीरे-धीरे बैठकर दूध पिलाना प्रारम्भ कर देती है।

जब माता बैठने लगती है तो शिशु को जिस ओर स्तनपान कराना है उस ओर की बाँह पर शिशु का सिर रखना चाहिए तथा उसका शरीर अग्रबाहु पर रखना चाहिए। शिशु का सिर कुछ ऊँचा रखना चाहिए जिससे उसका मुख स्तन पर पहुँच जाए।

दूध पिलाने से पूर्व, हाथों को भली-भाँति धोकर, रुई के फाहे से स्तन मुख को स्वच्छ करके शिशु के मुख में देना चाहिए। स्तन मुख को हाथ से पीछे की तरफ सँभाले रखना चाहिए नहीं तो शिशु की नाक दबेगी।

3. शिशु को डकार दिलवाना-बच्चे को दूध पिलाते समय कभी-कभी वायु भी प्रवेश कर जाती है। इस वायु विकार से बचने का सर्वोत्तम उपाय है-शिशु को डकार दिलवाना।
बच्चे को दूध पिलाने के पश्चात् कन्धे से लगाकर उसकी पीठ को अत्यन्त हल्के-हल्के हाथ से थपथपा देना चाहिए या नीचे से ऊपर की ओर को उसकी पीठ को धीरे-धीरे सहलाया जाना चाहिए जब तक कि बच्चे को डकार न आ जाए। यदि बच्चा अधिक भूखा हो तो उसे स्तनपान कराते समय एक स्तन से दूध पिलाने के उपरान्त भी एक बार डकार दिलवा देनी चाहिए। डकार दिलवाने के उपरान्त ही दूसरे स्तन से दूध पिलाना चाहिए। यदि बच्चे को ठीक ढंग से डकार दिलवा दी जाए तो बच्चे द्वारा दूध निकालने या उल्टी करने की प्रायः आशंका नहीं रहती।

4.स्तनपान के लिए वर्जित परिस्थितियाँ-शिशु के लिए माँ का दूध ही सर्वोत्तम आहार होता है, परन्तु कुछ परिस्थितियों में शिशु को स्तनपान न कराना ही हितकर होता है। इस प्रकार की मुख्य परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं

  • जब माता लम्बी अवधि से बुखार से पीड़ित हो।
  • यदि माता सिफलिस या किसी अन्य भयंकर संक्रामक रोग से पीड़ित हो।
  • माता को रक्तस्राव होने पर।
  • अधिक चिड़चिड़े व क्रोधी स्वभाव की माता को भी बच्चे को स्तनपान नहीं कराना चाहिए।
  • यदि माता पुनः गर्भधारण कर ले तो उस दशा में पहले शिशु को स्तनपान नहीं कराना चाहिए। इस स्थिति में यदि माता स्तनपान कराती है तो गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

5. शिशु को ऊपरी दूध पिलाना – कुछ असामान्य परिस्थितियों में शिशु को माँ का दूध पिलाना या तो सम्भव नहीं होता अथवा अहितकर होता है। ऐसी परिस्थितियों में शिशु के पोषण के लिए उसे माँ के दूध के अतिरिक्त कोई अन्य दूध देने की व्यवस्था की जाती है। शिशु को गाय, भैंस तथा बकरी का दूध दिया जा सकता है। नवजात शिशु को गाय-भैंस आदि का दूध देने के लिए, उसमें कुछ मात्रा में उबला हुआ पानी मिलाकर पतला किया जाता है। पानी मिला दूध शिशु को पचाना सरल होता है। इसके अतिरिक्त शिशु को सूखा अर्थात् पाउडर दूध भी दिया जा सकता है। इस दूध को दूध का पूरा पानी सुखाकर तैयार किया जाता है। यह दूध भिन्न-भिन्न कम्पनियों द्वारा उत्पादित किया जाता है; जैसे- ग्लैक्सो, ऑस्टर मिल्क, ड्यूमैक्स, बेबी फूड, हॉर्लिक्स, नैसले, अमूल आदि। इन डिब्बों के ऊपर आयु के अनुसार दूध की मात्रा व बनाने की विधि लिखी रहती है।

पाश्चात्य देशों में आधुनिक नवीन वैज्ञानिक रीतियों से यह सूखा दूध तैयार किया जाता है। इसमें सभी पौष्टिक तत्त्व स्वास्थ्य रक्षा के दृष्टिकोण से रखे जाते हैं। डिब्बों में भरने से पूर्व इनकी जाँच कर ली जाती है। इसे गर्म पानी में घोलकर प्रयोग किया जाता है। जिन माताओं का अपना दूध पर्याप्त नहीं होता, वे बच्चों को यह दूध पिला सकती हैं; परन्तु आजकल अनेक आधुनिक महिलाएँ कुछ अन्य कारणों से भी स्तनपान कराना पसन्द नहीं करतीं, यह उचित प्रवृत्ति नहीं है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि नवजात एवं छोटे शिशुओं को केवल विशेष परिस्थितियों में ही ऊपरी दूध दिया जाना चाहिए। शिशु को ऊपरी दूध देते समय बोतल एवं निप्पल की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखना चाहिए। इस विषय में निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है –

बोतल की स्वच्छता-बच्चे के दूध पीने वाली बोतल की स्वच्छता निम्न प्रकार से की जानी आवश्यक है –

  • सर्वप्रथम बोतल को ठण्डे जल से तथा बाद में साबुन व गर्म जल से धोना चाहिए।
  • कम-से-कम एक बार बोतल को गर्म पानी में डालकर अवश्य उबालना चाहिए। इसके लिए बोतल को गरम पानी में न डालकर ठण्डे पानी में ही रखकर पानी को उबालना चाहिए।
  • बोतल में लगे दूध की सफाई के लिए ब्रुश डालकर बोतल को साफ करना चाहिए।
  • बोतल को जहाँ तक हो सके उचित स्थान पर ढककर रखना चाहिए।

निप्पल की स्वच्छता – बोतल के ऊपर लगी निप्पल की स्वच्छता निम्न प्रकार से रखनी चाहिए

  • दूध निप्पल के अन्दर न जम सके, इसके लिए उसे प्रयोग में लाने के पश्चात् धो लेना चाहिए।
  • निप्पल को उबालना नहीं चाहिए नहीं तो उसकी रबड़ खराब हो जाएगी। उसे खौलते पानी से बुश द्वारा साफ कर देना चाहिए।
  • निप्पल को जार अथवा प्लेट से ढककर रखना चाहिए।
    यदि शिशु के दूध की बोतल तथा निप्पल की स्वच्छता का समुचित ध्यान नहीं रखा जाता तो शिशु के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है तथा वह कुछ संक्रामक रोगों का शिकार हो सकता है।

प्रश्न 3.
पूरक आहार से क्या आशय है? मुख्य पूरक भोज्य पदार्थों का उल्लेख कीजिए तथा पूरक आहार देने में आवश्यक सावधानियों को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
शैशवावस्था में शिशु का मुख्य आहार दूध होता है। यह दूध यदि माँ का हो तो सर्वोत्तम है, नहीं तो गाय, भैंस या बकरी का दूध विधिवत् दिया जा सकता है, परन्तु जैसे-जैसे शिशु बढ़ता है वैसे-वैसे उसकी आहार सम्बन्धी आवश्यकताएँ भी बढ़ती जाती हैं, तब दूध अपर्याप्त होने लगता है। इसके अतिरिक्त कुछ तत्त्व जो कि दूध में कम मात्रा में पाए जाते हैं वे भी अलग से दिए जाने अनिवार्य हैं। शिशु को दूध के अतिरिक्त दिए जाने वाले भोज्य-पदार्थों को ‘पूरक भोज्य-पदार्थ’ (Supplementary food) कहा जाता है। सामान्य रूप से चार-पाँच माह के शिशु को पूरक आहार दिया जाना प्रारम्भ कर दिया जाता है।

शिशु के मुख्य पूरक-भोज्य-पदार्थ –
शिशु को दिए जाने वाले मुख्य पूरक भोज्य-पदार्थ निम्नलिखित हैं –

1. विटामिन ‘D’ युक्त भोज्य-पदार्थ – दूध में विटामिन ‘D’ की कमी होती है। अत: शिशु के पूरक आहार में ऐसे भोज्य-पदार्थ का भी न्यून मात्रा में समावेश होना चाहिए जो कि विटामिन ‘D’ से युक्त हो। इसके लिए शिशु को बहुत कम मात्रा में मछली के लिवर का तेल दिया जा सकता है।

2. फलों का रस-दूध में विटामिन ‘C’ का प्रायः अभाव ही होता है। इस कमी को पूरा करने के लिए शिशु के पूरक आहार में फलों के रस का समावेश होना चाहिए। मुख्य रूप से मुसम्बी, नारंगी तथा सन्तरे एवं टमाटर का रस शिशु को दिया जा सकता है। शिशु को फलों का रस देने से दूध में विद्यमान प्रोटीन का पाचन तथा कैल्सियम का शोषण सरलता से हो जाता है।

3. अण्डे का पीला भाग-आयरन अर्थात् लौह खनिज तथा थायमिन की आवश्यक अतिरिक्त मात्रा की पूर्ति के लिए बच्चे को अण्डे का पीला भाग भी पूरक भोज्य-पदार्थ के रूप में दिया जा सकता है। भारत में अण्डे का प्रचलन पश्चिमी देशों की तुलना में कम है।

4. कुचली एवं छनी हुई सब्जी एवं फल-जब शिशु चार-पाँच माह का हो जाए तो उसे विभिन्न सब्जियाँ उबालकर तथा कुचलकर एवं छानकर दी जा सकती हैं। इससे शिशु को लौह खनिज, विटामिन ‘C’ तथा सेलुलोस प्राप्त हो जाता है तथा सामान्य रूप से कब्ज की शिकायत भी नहीं रहती।

5. पूर्व पकाया हुआ अनाज आहार-पाँच-छह माह के शिशु को पूरक आहार के रूप में पकाया हुआ अनाज भी दिया जा सकता है। यह शारीरिक वृद्धि के लिए सहायक होता है। इसमें पका हुआ दलिया, सूजी की खीर तथा कॉर्न फ्लेक्स आदि सम्मिलित किए जा सकते हैं। अब इस वर्ग के कुछ तैयार शिशु आहार बाजार में डिब्बाबन्द अवस्था में भी उपलब्ध हैं। ये भिन्न-भिन्न स्वाद एवं गुणों वाले हैं। सैरेलैक्स एक ऐसा ही शिशु पूरक-आहार है।

पूरक आहार देने में ध्यान रखने योग्य बातें –
शिशु को दूध के साथ-साथ दिए जाने वाले पूरक आहार के नियोजन एवं देने में मुख्य रूप से निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी आवश्यक हैं –

  • प्रारम्भ में केवल एक ही भोज्य-पदार्थ पूरक आहार के रूप में देना प्रारम्भ करना चाहिए। जब शिशु इसे सही रूप में ग्रहण करना शुरू कर दे तभी दूसरे भोज्य-पदार्थ का समावेश करना चाहिए।
  • जब कोई भोज्य-पदार्थ पूरक आहार के रूप में अपनाया जाए तो प्रारम्भ में इसकी अल्प मात्रा ही शिशु को दी जानी चाहिए तथा क्रमश: धीरे-धीरे इसकी मात्रा बढ़ाई जानी चाहिए।
  • सामान्य रूप से पूरक आहार में दिए गए अनाज भी तरल रूप में ही होने चाहिए। इसे शिशु के लिए ग्रहण करना सरल होता है। –
  • शिशु को कोई भी पूरक भोज्य पदार्थ अधिक मात्रा में नहीं देना चाहिए और न ही उसे खाने के लिए बाध्य करना चाहिए।
  • यदि ऐसा प्रतीत हो कि किसी पूरक भोज्य-पदार्थ में शिशु की रुचि नहीं है तथा वह अरुचि निरन्तर बनी रहती है तो वह भोज्य-पदार्थ शिशु को नहीं दिया जाना चाहिए तथा उसके स्थान पर कोई अन्य पूरक भोज्य पदार्थ देना ही उचित रहता है।
  • यदि चाहे तो पूरक आहार के भोज्य-पदार्थों में अल्प मात्रा में नमक भी मिलाया जा सकता है।
  • शिशु को अर्द्ध-ठोस पदार्थ तभी देने चाहिए जब उन्हें थोड़ा-बहुत चबाने की क्षमता आ जाए। अन्यथा तरल भोज्य-पदार्थ ही देना उत्तम रहते हैं।
  • पूरक आहार के रूप में कोई से दो भोज्य-पदार्थ मिलाकर भी दिए जा सकते हैं। इससे शिशु की पूरक आहार के प्रति अधिक रुचि बनी रहती है। उदाहरणस्वरूप शिशु को दूध-अण्डा या सूप-क्रीम दी जा सकती है।

प्रश्न 4.
स्तनपान छुड़ाने से क्या आशय है? स्तनपान छुड़ाने में आवश्यक सावधानियों का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
शिशु का मुख्य एवं आदर्श आहार माँ का दूध ही है, परन्तु केवल एक सीमित अवधि तक ही शिशु को माँ का दूध उपलब्ध होता है। शिशु को स्तनपान की आदत हो जाती है। अतः एक समय पर शिशु के स्तनपान की आदत को छुड़ाना आवश्यक हो जाता है।

शिशु को माता के दूध से अलग करना ‘स्तन-त्याग’ या ‘स्तनपान छुड़ाना’ कहलाता है। जब शिशु की अवस्था 6 माह से 9 माह के बीच हो तो माता को स्तनपान छुड़ाने का प्रयास प्रारम्भ कर देना चाहिए। इस अवधि में धीरे-धीरे शिशु को ऊपर का दूध तथा अन्य खाद्य पदार्थ देने चाहिए। शिशु को गिलास अथवा प्याले से तरल पदार्थ पिलाने का अभ्यास डालना चाहिए। इससे बच्चे की पाचन क्रिया में वृद्धि होती है। माता को शिशु को अपना दूध पिलाना धीरे-धीरे कम करते जाना चाहिए। प्राकृतिक रूप से भी जैसे-जैसे शिशु के दाँत निकलने शुरू होते हैं, वैसे-वैसे माता की दूध पिलाने की क्षमता भी कम होती जाती है। इससे शुरू से ही शिशु को बोतल से पानी पिलाने का अभ्यास कराना चाहिए, जिससे आगे चलकर दूध पिलाने में भी सुगमता हो।

दूध छुड़ाने के समय माता को अपने भोजन में भी परिवर्तन कर देना चाहिए। उसे दूध, दलिया, चिकनाई आदि का सेवन कम कर देना चाहिए। इससे दूध कम बनेगा। इसके साथ ही स्तन पर कपड़े की पट्टी थोड़ी कसकर बाँध लेने से दूध सूखने में सहायता मिलती है।

शिशु को माता के स्तनों से दूर करना इतना सरल नहीं होता। शिशु काफी कठिनाई से माता का दूध छोड़ता है। कभी-कभी शिशु दूध छोड़ते समय बहुत परेशान होते हैं, रोते हैं, ऊपर का दूध नहीं पीते तथा उनकी नींद भी कम हो जाती है। इससे माता को बहुत परेशानी उठानी पड़ती है। माता को बड़े धैर्य एवं शान्ति से दूध छुड़ाने का प्रयत्न करना चाहिए। ऊपर का दूध बोतल में भरकर अथवा चम्मच से पिलाना चाहिए। चम्मच में दूध भरकर स्तनों के समीप ले जाकर बच्चे को पिलाना चाहिए, जिससे उसे लगे कि वह माता का दूध पी रहा है।

स्तनपान छुड़ाने में सावधानियाँ –
प्रारम्भ में स्तनपान छुड़ाते समय शिशु को ऊपर का दूध एक बार, फिर दो बार तथा धीरे-धीरे क्रमशः बढ़ाते रहना चाहिए। सामान्य रूप से 9 माह की आयु होने पर स्तनपान छुड़ा देना चाहिए। स्तनपान छुड़ाने में निम्नलिखित सावधानियों को ध्यान में रखना चाहिए –

  • माता का दूध धीरे-धीरे छुड़ाना चाहिए, एकदम नहीं। दूध छुड़ाने के समय बच्चे को दिन में एक-दो बार फलों का रस, मुलायम हरी
  • सब्जी का पानी, केला आदि मसलकर देने का अभ्यास करना चाहिए।
  • शिशु को दिन में एक-दो बार निप्पल वाली बोतल से ऊपर का दूध देना चाहिए।
  • गर्मी की ऋतु में यथासम्भव स्तनपान नहीं छुड़ाना चाहिए, क्योंकि इस ऋतु में पाचन शक्ति क्षीण होती है। इस स्थिति में शिशु ऊपरी दूध को पचाने में असमर्थ होगा।
  • माँ का दूध छुड़ाने के पश्चात् शिशु के आहार में फल, हरी सब्जी, मछली, अण्डे की जर्दी आदि होनी चाहिए।
  • ऊपरी दूध से प्राय: बच्चों को कब्ज हो जाता है, इसलिए बच्चों को फलों का रस, भुना हुआ सेब आदि अवश्य देना चाहिए।
  • दूध छुड़ाने के पश्चात् बच्चे बहुत चिड़चिड़े व जिद्दी हो जाते हैं। अतः उनके आहार के प्रति बहुत सावधान रहना चाहिए तथा उन्हें प्यार से उचित आहार देते रहना चाहिए।
  • आरम्भ से बच्चों को पेय-पदार्थ पहले चम्मच से पिलाने चाहिए, फिर धीरे-धीरे छोटे गिलास से पीने की आदत डालनी चाहिए।

प्रश्न 5.
शिशु के दाँत निकलने की प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए।आवश्यक सावधानियों तथा दाँतों की सुरक्षा के उपाय भी बताइए।
उत्तरः
शिशु के मुँह में जन्म के समय दाँत नहीं होते। पाचन क्रिया तथा स्वास्थ्य व सुन्दरता के लिए मुँह में दाँतों का होना आवश्यक है। दाँतों का निकलना बच्चे के जीवन में एक विशेष महत्त्व रखता है। दाँत निकलते समय शिशु को कुछ परेशानियाँ भी होती हैं तथा इस काल में उसकी अतिरिक्त देखभाल की आवश्यकता होती है।
मनुष्य के दाँत दो प्रकार के होते हैं-अस्थायी दाँत तथा स्थायी दाँत। शैशवावस्था में केवल अस्थायी दाँत ही निकलते हैं।

अस्थायी दाँत –
इन दाँतों को ‘दूध के दाँत’ के नाम से भी पुकारते हैं। ये दाँत शिशु अवस्था में ही निकलते हैं। शिशु के दाँत 6 से 9 मास की आय में निकलने प्रारम्भ होते हैं। इन दाँतों की संख्या 3 वर्ष तक लगभग 20 हो जाती है। ये दाँत जबड़े की अस्थियों में दबे हुए बच्चे के जन्म से ही रहते हैं। सर्वप्रथम नीचे के जबड़े में मध्य के दो दाँत 6-7 मास की आयु के बीच बाहर निकल आते हैं। इसके पश्चात् लगभग 8-12 मास की आयु में ऊपर के चार छेदक दाँत निकल आते हैं।

बच्चे के एक वर्ष की आयु में 6 दाँत निकल आते हैं। इसके बाद दाँत निकलने बन्द हो जाते हैं। फिर कुछ समय बाद दाँत निकलने प्रारम्भ होते हैं। दो वर्ष के अन्त तक ऊपर तथा नीचे के चार कीले निकल आते हैं। तीन वर्ष की आयु तक चार दाढ़े भी बाहर निकल आती हैं। इस प्रकार पूरे दाँतों की संख्या 20 हो जाती है।

शिशुओं में दाँत निकलने का समय अलग-अलग होता है। कुछ बच्चों में दाँत 4 मास की आयु में ही निकलने लगते हैं। ये दाँत ठीक नहीं होते। इन दाँतों के ऊपर इनेमल का अभाव होता है। कुछ बच्चों में दाँत तब निकलते हैं, जब वे चलने लगते हैं। दाँतों का देरी से या जल्दी से निकलना कोई दोष की बात नहीं होती। कुछ बच्चों के दाँत बिना कष्ट के ही निकल आते हैं, जबकि कुछ बच्चों को अधिक कष्ट होता है।

दाँत निकलने के लक्षण –
दाँत निकलते समय शिशु को विभिन्न परेशानियाँ होती हैं। वास्तव में ये दाँत निकलने के लक्षण ही होते हैं। अधिकतर दाँत निकलते समय बच्चों को दस्त आने लगते हैं। कभी-कभी ज्वर भी होने लगता है। बच्चे प्राय: चिड़चिड़े हो जाते हैं तथा रोया करते हैं। वे दूध पीना बन्द कर देते हैं और अस्वस्थ दिखाई देते हैं तथा काटने का प्रयत्न करते हैं।

दाँत निकलते समय सावधानियाँ –

  • समय-समय पर शहद में सुहागा मिलाकर शिशु को चटाना चाहिए, इससे दाँत आसानी से निकल आते हैं तथा बच्चे का हाज़मा भी ठीक रहता है।
  • अधिक दस्त या ज्वर होने पर बच्चे को डॉक्टर को दिखाना चाहिए।
  • इस काल में बच्चे के सामने जो भी वस्तु आती है, उसी को मुँह से काटने की चेष्टा करता है। इसलिए इस बात की सावधानी बरतनी चाहिए कि वह क्या चबाता है। वस्तु के साथ बच्चे के शरीर में रोग के कीटाणु पहुँचने का भय रहता है।

दाँतों की सुरक्षा

  • स्थायी दाँतों का स्वस्थ होना प्राथमिक दाँतों पर ही निर्भर रहता है। इसलिए प्राथमिक दाँतों की सुरक्षा तथा स्वास्थ्य के विषय में सावधानी रखनी चाहिए।
  • बच्चे के दूध में विटामिन्स, कैल्सियम तथा फॉस्फोरस उपयुक्त मात्रा में घुले होने चाहिए, जिसके होने से दाँत स्वस्थ तथा पुष्ट बनते हैं।
  • बच्चे को भोजन के बाद गाजर या सेब खाने के लिए देना चाहिए। इनसे दाँतों की सफाई होती है।
  • सुबह, शाम तथा प्रत्येक वस्तु खाने के पश्चात् दाँतों को साफ कर देना चाहिए।
  • लगभग 6 या 7 माह के बच्चे को कड़ा सिका हुआ डबलरोटी का टुकड़ा देना चाहिए। इससे दाँतों या मसूड़ों का व्यायाम होता है।

प्रश्न 6.
‘टीकाकरण’ से क्या आशय है? शिशु को लगाए जाने वाले मुख्य टीकों का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तरः
नवजात शिशु को निरन्तर देखभाल की आवश्यकता होती है। जहाँ एक ओर शिशु के आहार, शारीरिक स्वच्छता तथा वस्त्र एवं विश्राम आदि का ध्यान रखना आवश्यक होता है, वहीं दूसरी ओर नवजात शिश को विभिन्न संक्रामक रोगों से भी बचाना आवश्यक होता है। इन संक्रामक रोगों से बचाने के लिए आधुनिक चिकित्साशास्त्र ने विभिन्न दवाएँ खोज ली हैं, जो बच्चों को टीकों के माध्यम से दे दी जाती हैं या पिला दी जाती हैं। इस प्रक्रिया को टीकाकरण कहते हैं।

इन दवाओं से शिशु के शरीर में सम्बन्धित रोगों से बचने के लिए रोग-प्रतिरोध क्षमता का विकास हो जाता है तथा शिशु द्वारा रोगग्रस्त होने की आशंका प्रायः समाप्त हो जाती है। इस प्रकार से विकसित हुई रोग-प्रतिरोध क्षमता को अर्जित रोग प्रतिरोध क्षमता कहते हैं। आजकल सरकार टीकाकरण पर विशेष बल दे रही है। आशा है टीकाकरण के व्यापक अभियान से हम संक्रामक रोगों पर नियन्त्रण प्राप्त कर लेंगे।
अब प्रायः सभी संक्रामक रोगों से बचाव के टीके विकसित कर लिए गए हैं। मुख्य टीकों का सामान्य विवरण निम्नवर्णित है –

1. टी०बी० से बचने का टीका – तपेदिक या टी०बी० एक अति भयंकर रोग है। इस रोग से बचने के लिए लगाए जाने वाले टीके को बी०सी०जी० का टीका कहते हैं। नवजात शिशु को लगाए जाने वाले विभिन्न टीकों में सर्वप्रथम यही रोग-निरोधक टीका लगाया जाता है। सामान्य रूप से जन्म के उपरान्त 24 घण्टे की अवधि में नवजात शिशु को यह टीका अवश्य ही लगा दिया जाना चाहिए। बी०सी०जी० का यह टीका सामान्य रूप से दायीं बाँह के ऊपरी हिस्से में ही लगाया जाता है। बाँह में जिस स्थान पर यह टीका लगाया जाता है, उस स्थान पर बाद में एक गाँठ-सी बन जाती है। बाद में यह गाँठ अपने-आप धीरे-धीरे सूख जाती है, परन्तु इसका निशान हमेशा बना रहता है। यह टीका लगाने से बच्चे को बहुत दर्द होता है।

2. चेचक का टीका – नवजात शिशु को चेचक के रोग से बचाने के लिए ‘चेचक का टीका’ भी लगवाने का प्रावधान है। हमारे देश में अब चेचक नामक रोग पर नियन्त्रण पा लिया गया है। अत: इस रोग के टीके को प्राथमिकता नहीं दी जाती। सामान्य रूप से जन्म से 14 दिन बाद तक ही चेचक का टीका लगवा लेना चाहिए। यदि इस अवधि में यह टीका न लगवाया जा सके तो तीन माह के अन्दर अवश्य लगवा लेना चाहिए। यह टीका सामान्य रूप से शिशु की बाँह में ही लगाया जाता है। आजकल कुछ लोग बच्चों को, विशेष रूप से लड़कियों को, यह टीका कूल्हे पर लगवाया करते हैं। इसका कारण यह है कि इस टीके का पक्का निशान पड़ जाता है तथा बाँह पर निशान अच्छा नहीं लगता है।

चेचक का टीका जिस स्थान पर लगाया जाता है, वह स्थान पहले लाल हो जाता है तथा फिर सूजने लगता है। उस स्थान पर बाद में सफेद रंग का एक प्रकार का छाला-सा बन जाता है। इस छाले में पानी जैसा तरल पदार्थ भरा रहता है। धीरे-धीरे यह छाला सखने लगता है। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि छाला छिलना नहीं चाहिए। छिल जाने पर बहुत दर्द होता है। यह टीका ठीक-ठीक ढंग से सूख जाए तो अपने-आप सूखी त्वचा उतर जाती है। इस समय टीके के स्थान पर गोले का तेल लगाया जा सकता है। चेचक के टीके को लगवाने के बाद उसका फूलना अनिवार्य होता है। यदि किसी कारणवश यह टीका न फूले तो पुनः टीका लगवाने की राय दी जाती है।

3. पोलियो का टीका तथा ट्रिपिल वेक्सीनेशन-पोलियो एक ऐसा रोग है, जो केवल बच्चों को ही हुआ करता है। इस रोग से बचने के लिए भी टीके की खोज हो चुकी है। पोलियो का टीका सुई आदि से नहीं लगाया जाता; अर्थात् इस दवा को सीधे रक्त में नहीं मिलाया जाता। यह टीका द्रव के रूप में होता है तथा बच्चे को पिलाया जाता है।

पोलियो के इस दवारूपी टीका देने के अवसर पर ही एक अन्य टीका (डी०पी०टी०) भी बच्चे को दिया जाता है जिसे ट्रिपिल वेक्सीनेशन कहते हैं। यह टीका काली खाँसी, टिटेनस तथा डिफ्थीरिया नामक संक्रामक रोगों के लिए होता है। यह टीका सुई के माध्यम से दिया जाता है।

पोलियो की दवा सामान्य रूप से जन्म के उपरान्त प्रथम माह में ही पहली बार दे देनी चाहिए, परन्तु इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि चेचक के टीके तथा पोलियो ड्रॉप्स के बीच कम-से-कम 15 दिन का अन्तर अवश्य होना चाहिए। पोलियो की दवा कुल मिलाकर तीन बार दी जाती है। प्रथम खुराक, जन्म के बाद लगभग एक माह के अन्दर ही दे दी जाती है। दूसरी खुराक एक माह के अन्तर से दी जाती है। इसके 1-1(1/2) माह बाद तीसरी खुराक भी दी जाती है। इसके बाद जब बच्चा 1 – 1(1/2) वर्ष का होता है तब एक और खुराक दी जाती है। इस खुराक का उद्देश्य रोग-निरोधक क्षमता में वृद्धि करना होता है।

पोलियो के टीके के समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि बच्चा स्वस्थ हो, उसे दस्त या ज्वर न हो। इस सामान्य व्यवस्था के अतिरिक्त अब भारत सरकार ने देश से पोलियो के पूर्ण उन्मूलन के लिए एक अलग से विस्तृत योजना प्रारम्भ की है, जिसे पल्स पोलियो के नाम से जाना जाता है। इस योजना के अन्तर्गत प्रतिवर्ष देश के पाँच वर्ष तक की आयु वाले समस्त बच्चों को पोलियो से बचाव की दो या तीन खुराक पिलाई जाती हैं। आशा है शीघ्र ही देश से पोलियो नामक रोग का पूर्ण उन्मूलन हो जाएगा।

4. हैजे का टीका – हैजे का टीका नवजात शिशु को नहीं लगाया जाता। सामान्य रूप से यह टीका 1/2 – 2 वर्ष की आयु के बच्चे को प्रथम बार लगाया जाता है। सामान्य रूप से यह टीका गर्मी के मौसम में लगाना लाभदायक माना जाता है। प्रथम बार हैजे का टीका दो या तीन खुराकों में दो-दो सप्ताह के अन्तर से लगाया जाता है। इसके बाद यह टीका प्रतिवर्ष एक बार गर्मियों में लगाया जाता है। इन टीकों का उद्देश्य रोग-निरोधकता बढ़ाना होता है। हैजे का टीका लगवाने से काफी पीड़ा होती है तथा ज्वर भी हो जाता है जोकि अपने-आप एक-दो दिन में ठीक हो जाता है।

5. टाइफॉइड का टीका – टाइफॉइड का टीका भी हैजे के ही समान 11 या 2 वर्ष की आयु के बच्चे को लगाया जाता है। इस टीके में टाइफॉइड तथा पेराटाइफॉइड से बचने की दवा एक-साथ मिली रहती है। कभी-कभी इसी में हैजे की दवा मिली रहती है। टाइफॉइड का मुख्य टीका भी दो-तीन किस्तों में दो-दो सप्ताह के अन्तर से लगाया जाता है। इसके बाद प्रतिवर्ष साधारण टीका लगवाना चाहिए। इस टीके से भी काफी पीड़ा होती है तथा हल्का ज्वर भी हो जाता है जो एक-दो दिन तक रहता है।

6. खसरे का टीका – शैशवावस्था में होने वाला एक मुख्य रोग खसरा भी है। अब खसरे से बचाव का टीका भी खोज लिया गया है। खसरे का टीका सामान्य रूप से 9 माह की आयु में लगाया जाता है।

7.हेपेटाइटिस बी का टीका – हेपेटाइटिस ‘बी’ एक घातक रोग है। इस रोग से बचाव का प्रथम टीका तो जन्म के उपरान्त शीघ्र ही लगा दिया जाता है। इसके उपरान्त दूसरी खुराक 6 सप्ताह की आयु में, तीसरी खुराक 6 से 9 माह की आयु में चौथी खुराक 10 वर्ष की आयु में दी जाती है।

8. एम०एम०आर० का टीका-शैशवावस्था में लगाया जाने वाला एक टीका एम०एम०आर० का भी है। यह टीका तीन भिन्न-भिन्न रोगों से बचाव के लिए लगाया जाता है। ये रोग हैं क्रमश: मीज़ल्स, मम्प्स (कर्णफेर) तथा रुबेला। यह टीका सामान्य रूप से 15 से 18 माह की आयु-अवधि में लगाया जाता है।

प्रश्न 7.
शैशवावस्था में होने वाले सामान्य रोग या व्याधियाँ कौन-कौन-सी हैं? इस अवस्था में प्रायः होने वाले दस्त तथा अतिसार के लक्षणों, कारणों तथा बचाव एवं उपचार के उपायों का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
शैशवावस्था में शिशु अबोध होता है। वह अपने खान-पान एवं क्रियाकलाप को नियमित नहीं कर सकता। शिशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी अल्प-विकसित ही होती है। शिशु अपने आप को सर्दी-गर्मी से भी नहीं बचा सकता। इस अवस्था में बच्चे घुटनों के बल चलने लगते हैं तथा मिट्टी में खेलना तथा जो भी वस्तु दिखाई दे, उसे मुँह में डाल लेना उनकी सामान्य प्रवृत्ति होती है। शिशु की इस प्रकार की गतिविधियों के कारण वह प्राय: किसी-न-किसी रोग से ग्रस्त रहता है। शैशवावस्था में शिशु की पाचन-क्षमता भी अधिक विकसित नहीं होती। अतः खान-पान में थोड़ी-सी भी लापरवाही हो जाने के कारण शिशु रोगग्रस्त हो जाता है।

शैशवावस्था में पाचन-तन्त्र सम्बन्धी रोग अधिक होते हैं। शिशुओं में होने वाले पाचन-तन्त्र सम्बन्धी मुख्य रोग हैं-दस्त, अतिसार, कब्ज, चुनचुने तथा जिगर का बढ़ जाना। इनके अतिरिक्त शैशवावस्था में सूखा रोग, आँख दुखना तथा ज्वर होना भी सामान्य रोग हैं। शैशवावस्था में होने वाले इन सभी रोगों से बचाव के लिए कुछ सावधानियाँ आवश्यक होती हैं। रोग हो जाने पर भी ठीक समय पर उचित उपचार से रोग को नियन्त्रित किया जा सकता है। माताओं को शैशवावस्था में होने वाले रोगों की समुचित जानकारी होनी चाहिए। शैशवावस्था में होने वाले मुख्य रोगों का सामान्य विवरण निम्नवर्णित है –

दस्त
शैशवावस्था में होने वाला पाचन सम्बन्धी एक सामान्य रोग दस्त है। यह रोग प्रायः सभी बच्चों को शैशवावस्था में अनेक बार हुआ करता है। शिशुओं को प्रायः दस्तों की शिकायत रहती है तथा बच्चा कोई भी आहार हजम नहीं कर पाता है। जो भी खाता है, वही पतले पानी की तरह शरीर से मल के साथ बाहर निकालता रहता है।
लक्षण – बच्चों में होने वाले दस्तों के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं –

  • शौच में दही जैसी सफेद रंग की फिटक दिखाई देती है।
  • कभी-कभी झागदार शौच दिखाई पड़ती है।
  • कभी-कभी राख जैसे रंग के दस्त दिखाई देते हैं।
  • दस्त हरे रंग के भी होते हैं।

कारण – छोटे बच्चों में दस्त होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –

  • बच्चा यदि अधिक दूध पी लेता है। .
  • यदि बच्चे की माँ कोई हानिकारक, अपाच्य वस्तु खा लेती है।
  • दूध यदि अत्यन्त गाढ़ा होता है।
  • दूध में यदि चीनी अधिक मात्रा में डाल दी जाती है।
  • किसी प्रकार के बाहरी संक्रमण के परिणामस्वरूप भी दस्त हो सकते हैं। यह संक्रमण दूध की बोतल, निप्पल या किसी अन्य बर्तन तथा खिलौनों आदि के माध्यम से हो सकता है।

बचाव के उपाय – शिशुओं को दस्तों से बचाने के लिए निम्नलिखित उपाय करने चाहिए –

  • बच्चे को दूध में उबला पानी मिलाकर देना चाहिए।
  • बकरी, गाय तथा माँ का दूध ही श्रेष्ठ रहता है।
  • माता को दलिया का प्रयोग करना चाहिए।
  • यदि ऊपरी दूध या अन्य आहार दिया जाता है तो दूध एवं आहार-सामग्री के साथ-साथ प्रयोग होने वाले समस्त बर्तनों की पूर्ण सफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
  • बच्चों के खिलौने आदि को भी साफ रखना चाहिए। इससे खिलौनों द्वारा होने वाले संक्रमण से बचा जा सकता है।

उपचार – दस्त हो जाने पर निम्नलिखित उपचार किए जा सकते हैं –

  • दस्त होने पर ऊपरी दूध बन्द कर देना चाहिए। यदि ऊपरी दूध देना अनिवार्य हो तो दूध पतला करके देना चाहिए।
  • बच्चे को ठोस आहार बिल्कुल नहीं देना चाहिए।
  • कोई अच्छी बाल घुट्टी पानी में मिलाकर देनी चाहिए।
  • यदि ठण्ड के कारण दस्त हुए हों तो बच्चे को अल्प मात्रा में जायफल घिसकर दिया जा सकता है।
  • दस्त अधिक होने पर शरीर से पानी की अधिक मात्रा निकल जाती है। अत: पानी की कमी को पूरा करने के लिए बच्चे को अच्छी प्रकार से उबला हुआ पानी ठण्डा करके अवश्य देना चाहिए। इस पानी में चीनी तथा नमक या कोई जीवन-रक्षक घोल मिलाकर देना चाहिए।
  • यदि शीघ्र दस्त नहीं रुकते तो अच्छे डॉक्टर से अवश्य परामर्श लेना चाहिए।

अतिसार –
अतिसार भी पाचन सम्बन्धी रोग है। शिशु अधिकतर इस रोग से पीड़ित होते हैं। इस रोग के लक्षण, कारण व उपचार निम्नलिखित हैं –
लक्षण –

  • दिन में लगभग 10-15 बार दस्त आते हैं। ये दस्त बदबूदार, पतले अथवा आँवयुक्त भी हो सकते हैं।
  • शिशु को हल्का बुखार आ जाता है।
  • दस्त हरे रंग के होते हैं।
  • शिशु को उल्टी भी हो जाती है।

कारण – अतिसार रोग शिशु के शरीर में निम्नलिखित कारणों से होता है –

  • शिशु को ठण्ड लग जाती है।
  • दूध में शक्कर अधिक मात्रा में डालने से यह रोग हो जाता है।
  • बाहरी संक्रमण के परिणामस्वरूप भी अतिसार हो सकता है। यह संक्रमण जल, दूध, बर्तनों अथवा खिलौने से हो सकता है। मक्खियाँ भी इस रोग की वाहक होती हैं।

उपचार – अतिसार रोग से बचने के लिए शिशु का निम्नलिखित उपचार करना चाहिए –

  • शिशु को कम दूध देना चाहिए।
  • माता को पानी का सेवन अधिक करना चाहिए।
  • ठण्डी चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए।

यदि साधारण उपचार से लाभ न हो तो चिकित्सक को अवश्य दिखाएँ। इस रोग में इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे के शरीर में पानी की कमी न हो जाए। शरीर में सामान्य से कम मात्रा में जल रह जाना निर्जलीकरण कहलाता है। इस स्थिति में बच्चा कमजोर हो जाता है। उसका गला सूखने लगता है, त्वचा सूखी तथा झुरींदार हो जाती है। मूत्र त्यागने की दर भी घट जाती है। निर्जलीकरण घातक भी हो सकता है। सामान्य रूप से शिशु को अतिसार या वमन से कोई खतरा नहीं होता, परन्तु प्रबल निर्जलीकरण से उसकी मृत्यु तक हो सकती है। इसके उपचार के लिए लगभग एक बड़ा गिलास पानी उबालकर ठण्डा करके रख लें। उसमें चार-पाँच चम्मच चीनी तथा आधा चम्मच नमक मिला लें। इस पानी की थोड़ी-थोड़ी मात्रा थोड़े-थोड़े समय बाद बच्चे को पिलाते रहें। इससे डीहाइड्रेशन (निर्जलीकरण) नहीं होता। आजकल ‘जीवन-रक्षक घोल’ के पैकेट बाजार में उपलब्ध हैं। इस पैकेट में विभिन्न लवण सन्तुलित मात्रा में विद्यमान होते हैं। दस्त एवं उल्टियाँ होने पर यह घोल पिलाने से निर्जलीकरण से बचा जा सकता है।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 24 लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
शिशु के लिए स्तनपान क्यों आवश्यक है?
अथवा
नवजात शिशु के लिए उत्तम आहार क्या है? अपने उत्तर के कारण बताइए।
अथवा
नवजात शिशु का क्या आहार होना चाहिए?
अथवा
माँ का दूध बच्चों के लिए क्यों अच्छा माना गया है? इस पर प्रकाश डालिए।
अथवा
शिशु को स्तनपान कराने से क्या लाभ हैं?
उत्तरः
शिशु के लिए स्तनपान की अनिवार्यता –
माता का दूध बच्चे के लिए एक सर्वोत्तम भोजन या आहार है। यह प्रकृति की एक अद्भुत देन है कि शिशु के जन्म से पहले ही माता के स्तनों में दूध आ जाता है।
माता के दूध में लगभग सभी पोषक तत्त्व जैसे कार्बोज, प्रोटीन, वसा, जल, खनिज तथा विटामिन्स उपस्थित रहते हैं। जिस समय शिशु जन्म लेता है तो माता का दूध पतला होता है ताकि बच्चा उसे आसानी से पचा सके क्योंकि इस समय शिशु के पाचन अंग पूर्ण रूप से विकसित नहीं होते हैं।

शिशु की आयु के बढ़ने के साथ-साथ माता का दूध भी गाढ़ा होता चला जाता है तथा उसमें पोषक तत्त्वों की मात्रा भी बढ़ जाती है। माता के दूध द्वारा शिशु के शरीर में किसी भी प्रकार के संक्रामक रोगों के जीवाणु प्रवेश नहीं कर पाते; अत: शिशु का शरीर विभिन्न संक्रामक रोगों से बचा रहता है। इस प्रकार माता के स्तनों से दूध प्राप्त करके शिशु अपनी भूख मिटाता है तथा अपनी आहार सम्बन्धी आवश्यकता को पूरा करता है। बच्चे के स्वास्थ्य के लिए स्तनपान विशेष रूप से लाभदायक होता है।

प्रकृति ही माता के स्तनों में दूध का निर्माण करती है। दूध का यह निर्माण बच्चे को पिलाने के लिए ही होता है। अत: शरीर की स्वाभाविक क्रिया के रूप में माता को बच्चे को स्तनपान अनिवार्य रूप से कराना चाहिए। स्तनपान से माँ एवं बच्चे दोनों को एक विशेष प्रकार का सन्तोष एवं स्वास्थ्य-सुख प्राप्त होता है। इन समस्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि नवजात शिशु के लिए माँ का दूध ही सर्वोत्तम आहार है।

प्रश्न 2.
शिशु के विकास के लिए पौष्टिक आहार का क्या महत्त्व है?
उत्तरः
शैशवावस्था में आहार एवं पोषण –
पोषण के दृष्टिकोण से शैशवावस्था का विशेष महत्त्व है। शैशवावस्था में शारीरिक विकास एवं वृद्धि की दर सर्वाधिक होती है। शिशु की आवश्यक देखभाल के अन्तर्गत शिशु के आहार एवं पोषण का ध्यान रखना अत्यधिक आवश्यक होता है। इस अवस्था में होने वाले पोषण का प्रभाव शिशु के सम्पूर्ण शारीरिक एवं मानसिक विकास पर पड़ता है। शैशवावस्था में सुपोषण से शिशु की रोग-प्रतिरोध क्षमता का समुचित विकास होता है।

इसके विपरीत यदि शैशवावस्था में पोषण की उचित व्यवस्था नहीं होती तो शिशु के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है तथा वह विभिन्न अभावजनित रोगों का शिकार हो सकता है। शिशु के आहार में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, इमल्सीकृत वसा, विटामिन तथा खनिज की समुचित मात्रा का समावेश होना चाहिए। शिशु को स्टार्चयुक्त भोज्य पदार्थ अधिक नहीं देने चाहिए। शिशु का आहार सुपाच्य होना चाहिए। इस प्रकार स्पष्ट है कि शिशु के विकास के लिए पौष्टिक आहार का विशेष महत्त्व है।

प्रश्न 3.
शिशु को नियमित रूप से मल-मूत्र त्याग की आदत कैसे डाली जा सकती है? अथवा “शिशु में नियमित शौच की आदत डालना आवश्यक है।” क्यों?
उत्तरः
शिशु को नियमित रूप से मल-मूत्र त्यागने की आदत डालना –
जन्म के समय से शिशु द्वारा मल-मूत्र विसर्जन की क्रिया स्वतः होती रहती है। इस काल में इन क्रियाओं पर किसी प्रकार का नियन्त्रण नहीं होता, परन्तु कुछ समय उपरान्त शिशु इन क्रियाओं को नियन्त्रित करने की शक्ति अर्जित कर लेता है। इस अवस्था में आकर शिशु को मल-मूत्र विसर्जन की नियमित आदत डालने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।

शिशु को बचपन से ठीक समय पर मल-त्याग की आदत डालनी चाहिए। शिशु को दो मास की आयु से 2 वर्ष की आयु तक जो भी आदत पड़ जाती है, वह जीवन के लम्बे समय तक ही बनी रहती है; अत: इसी अवस्था में शिशु को उचित समय पर मल-त्याग की आदत डाली जा सकती है। इससे बच्चे और माता दोनों को सुविधा रहती है।

शिशु को नियमित समय पर मूत्र-त्याग की आदत डालने से वस्त्र गन्दे होने से बच जाते हैं। बालक को बिस्तर पर लिटाने से पहले मूत्र-त्याग अवश्य करा देना चाहिए। यदि बच्चा रात्रि में रोता है तो उसे बिस्तर से उठाकर मल-मूत्र त्याग के लिए बिठाना चाहिए। सोने से पहले बच्चे को दूध, चाय नहीं देनी चाहिए। जब शिशु छह से आठ माह का हो जाए, तब उसे छोटे कमोड या पॉट पर बैठने की आदत डालनी चाहिए। धीरे-धीरे बच्चा कमोड पर बैठने तथा मल-त्यागने में सह-सम्बन्ध विकसित कर लेता है। इससे मल-त्यागने की आदत नियमित हो जाती है।

प्रश्न 4.
बच्चों के लिए वस्त्र बनवाते समय किन-किन बातों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है?
अथवा
टिप्पणी लिखिए – मौसम के अनुसार बच्चों के वस्त्र।
अथवा
शिशु के वस्त्रों का चयन किस प्रकार करना चाहिए?
उत्तरः
बच्चों के लिए वस्त्र बनवाना –
बच्चों का शरीर बहुत कोमल होता है तथा उनका शारीरिक विकास बहुत तीव्र गति से होता है। अत: बच्चों के लिए वस्त्र बनवाते समय निम्नलिखित बातों को अवश्य ही ध्यान में रखना चाहिए –

  • बच्चों के वस्त्र ढीले-ढाले सिलवाने चाहिए। तंग वस्त्र जल्दी फट जाते हैं।
  • बच्चों के लिए ऐसे वस्त्र बनवाने चाहिए जिनको आसानी से धोया जा सके।
  • गर्मी के मौसम में हल्के, सफेद तथा मुलायम वस्त्र सिलवाने चाहिए।
  • सर्दी के मौसम में ऊनी वस्त्र बनाकर बच्चों को पहनाने चाहिए।
  • बच्चों के लिए ऐसे वस्त्र बनवाने चाहिए जो सिकुड़े नहीं।
  • बच्चों के लिए अधिक कीमती वस्त्र नहीं सिलवाने चाहिए।
  • वस्त्र सिलवाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि उनका गला पर्याप्त खुला रहे जिससे वस्त्र आसानी से पहनाया जा सके।
  • गर्मी की ऋतु में अधिकतर आधी बाँहों के वस्त्र तथा सर्दी की ऋतु में पूरी बाँहों वाले वस्त्र बनवाने चाहिए।

प्रश्न 5.
बच्चों में होने वाली कब्ज के लक्षणों, कारणों तथा उपचार के उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
कब्ज –
कब्ज भी पाचन सम्बन्धी रोग है। इस रोग की दशा में शिशु की नियमित मल-त्याग की क्रिया अस्त-व्यस्त हो जाती है। जब शिशु को भोजन नहीं पचता है और खुश्की हो जाती है तो उसके शरीर में कब्ज हो जाता है।

लक्षण – कब्ज के निम्नलिखित लक्षण हैं –

  • शिशु का मल सख्त हो जाता है।
  • मल त्याग में कठिनाई होती है।
  • शिशु नियमित रूप से शौच नहीं जाता है।
  • शिशु को सूखी उल्टी आती है तथा पेट में ऐंठन या दर्द होता है।

कारण – कब्ज के निम्नलिखित कारण हैं –

  • अधिक गाढ़ा दूध पीना।
  • पाचन सम्बन्धी विकार।
  • गर्म वस्तुएँ खाने से भी कब्ज हो जाता है।
  • आवश्यकता से कम मात्रा में आहार मिलने पर।
  • बच्चे के आहार में तरल पदार्थों की कमी होने पर।
  • यदि बच्चे की शारीरिक क्रियाएँ सामान्य से बहुत कम हों तो भी कब्ज हो सकता है।

उपचार – कब्ज से बचने के निम्नलिखित उपाय हैं –

  • शिशु को अधिकतर माता का दूध ही देना चाहिए। यह सुपाच्य होता है।
  • यदि गाय या भैंस का दूध दिया जाए तो उस दूध में उबला हुआ पानी मिलाकर देना चाहिए। बच्चों को भैंस के दूध के स्थान पर बकरी का दूध भी दिया जा सकता है।
  • अगर हो सके तो ऊपरी दूध में अंजीर का शर्बत मिलाकर देना चाहिए।
  • शिशु को घुट्टी, ग्राइपवाटर, ऑस्टोकैल्सियम तथा मिल्क ऑफ मैग्नेशिया देना चाहिए।
  • कब्ज अधिक गम्भीर होने पर बच्चे के मलद्वार में ग्लिसरीन या साबुन की बत्ती लगाई जा सकती है।

प्रश्न 6.
बच्चों में होने वाले चुनचुनों के लक्षण, कारण तथा उपचार के उपाय बताइए।
उत्तरः
चुनचुने –
छोटे बच्चों के पेट में छोटे-छोटे पतले कीड़े हो जाते हैं जिन्हें चुनचुने कहते हैं। इनकी पहचान, कारण व उपचार निम्नलिखित हैं –

लक्षण – बच्चे के पेट में चुनचुने हो जाने के निम्नलिखित लक्षण हैं –

  • बच्चे के पेट में ऐंठन होती है।
  • बच्चा हर समय व्याकुल रहता है।
  • बच्चे का जी मिचलाता है तथा स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है।
  • शिशु का चेहरा नीला, पीला पड़ जाता है।
  • शिशु का वजन घटना शुरू हो जाता है।
  • चुनचुने होने पर बच्चे को मल-त्याग में कठिनाई होती है।

कारण – जब शिशु ऐसे दूध का सेवन करता है जिसमें किसी प्रकार की गन्दगी होती है तो गन्दगी के साथ कीड़ों के अण्डे प्रवेश कर जाते हैं, जिससे उसकी आँतों में चुनचुने पड़ जाते हैं। चूसनी आदि से भी ये कीड़े या कीड़ों के अण्डे पेट में पहुँच जाते हैं।

उपचार – बच्चे के शरीर से चुनचुने नष्ट हो जाएँ, इसके लिए निम्नलिखित उपचार आवश्यक हैं –

  • शिशु को स्वच्छ दूध (गन्दगीरहित) पीने के लिए देना चाहिए। दूध सदैव पकाकर देना चाहिए। कच्चा दूध नहीं देना चाहिए।
  • शिशु के मलद्वार पर रात्रि के समय मिट्टी का तेल लगा देना चाहिए।
  • शिशु के पोतड़ों को निःसंक्रामकों द्वारा धोना चाहिए।
  • शिशु के कपड़ों को गर्म पानी में उबालकर धोना चाहिए।
  • बच्चे को चीनी या अन्य मीठे पदार्थ कम खिलाए जाने चाहिए।

प्रश्न 7.
बच्चों में होने वाले जिगर सम्बन्धी विकार का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तरः
जिगर –
आजकल शिशुओं के शरीर में जिगर बढ़ने की शिकायत देखी गई है जिससे उनका पेट ढोल की तरह फूल जाता है। इस रोग के लक्षण, कारण व उपचार निम्नलिखित हैं –

लक्षण – बच्चों में जिगर रोग के लक्षण निम्नलिखित हैं –

  • शिशु का चेहरा पीला पड़ जाता है।
  • पेट अनावश्यक रूप से फूल जाता है।
  • शौच बार-बार जाता है। दस्त कुछ झागदार तथा अधिक मात्रा में होता है।
  • पेट में बदहजमी हो जाती है तथा भूख नहीं लगती है।

कारण – जिगर का प्रमुख कारण बच्चे द्वारा अधिक अन्न ग्रहण करना होता है।

उपचार—जिस बच्चे का जिगर बढ़ गया हो उसका निम्नलिखित उपचार करना चाहिए –

  • शिशु को दूध में गर्म पानी मिलाकर देना चाहिए।
  • लिवर एक्सट्रेक्ट के इंजेक्शन लगवाने चाहिए।
  • लिवर टॉनिक जैसे ‘लिव फिफ्टी टू’ पीने के लिए देना चाहिए।

प्रश्न 8.
बच्चों में होने वाले सूखा रोग (अस्थि-विकृति) का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तरः
सूखा रोग –
पोषक तत्त्वों की न्यूनता के परिणामस्वरूप बच्चों में होने वाला एक सामान्य रोग सूखा रोग (Rickets) या अस्थि विकृति भी है। यह रोग विटामिन ‘D’ की कमी के कारण होता है। विटामिन ‘D’ की कमी के कारण शरीर में कैल्सियम तथा फॉस्फोरस नामक खनिजों का उचित अवशोषण नहीं हो पाता। इस स्थिति में शरीर की अस्थियाँ कमजोर होने लगती हैं तथा परिणामस्वरूप वे टेढ़ी, झुकी हुई अथवा विकारयुक्त हो जाती हैं। इसी स्थिति को ‘अस्थि विकृति’ या ‘सूखा रोग’ कहा जाता है। इस रोग में बच्चों की मांसपेशियाँ भी कमजोर हो जाती हैं तथा उनका समुचित विकास नहीं हो पाता। बच्चों का पेट बढ़ जाता है तथा आगे को निकला हुआ-सा प्रतीत होता है। रोग के बढ़ जाने पर बच्चे की पसलियों में हड्डी और उपास्थि के जोड़ों के स्थान पर गोल उभार दिखाई देने लगता है। इसे रिकेटी रोजरी (Rickety Rosary) कहते हैं। इस रोग से ग्रस्त बालक का स्वभाव चिड़चिड़ा-सा हो जाता है और वह प्रायः थका-थका-सा, परेशान, दुःखी तथा अप्रसन्न-सा दिखाई देता है।

उपचार – सूखा रोग या रिकेट नामक रोग के उपचार के लिए बच्चे को विटामिन ‘D’ की अतिरिक्त मात्रा देनी होती है। विटामिन ‘D’ युक्त आहार अधिक देना चाहिए। बच्चे को काफी समय तक धूप एवं सूर्य के प्रकाश में रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त बच्चे का आहार सन्तुलित, पौष्टिक एवं कैल्सियम, खनिज की अतिरिक्त मात्रा से युक्त होना चाहिए।

प्रश्न 9.
टिप्पणी लिखिए-‘आँखें दुखना’।
उत्तरः
आँखें दुखना –
यह रोग बच्चों को संसर्ग व गर्मी के कारण हो जाता है। आँखों की नियमित रूप से सफाई न होने पर, धूल-मिट्टी या गन्दगी पड़ जाने पर भी आँखें दुखने लगती हैं। यह रोग छूत से भी लग सकता है। बच्चों की आँखें दुखने के लक्षण तथा उपचार निम्नलिखित हैं –

लक्षण – आँखों से पानी आना, आँख सूज जाना तथा खुजली होना। आँखों का लाल हो जाना तथा आँखों से पीले रंग का चिपचिपा पदार्थ निकलना भी एक लक्षण है।

उपचार –

  • गर्म पानी में बोरिक एसिड डालकर आँखों को रुई से धोना चाहिए।
  • गुलाबी फिटकरी वाला गुलाब जल आँखों में दिन में तीन बार डालना चाहिए।
  • डॉक्टर से चिकित्सा करानी चाहिए।
  • तेज प्रकाश से बचना चाहिए।

प्रश्न 10.
टिप्पणी लिखिए – ‘बच्चों में ऐंठन’।
उत्तरः
बच्चों में ऐंठन –
आजकल छोटे-छोटे बच्चों का शरीर अचानक ऐंठने लगता है तथा अचानक ही दर्द होने लगता है, इसे ऐंठन कहते हैं। इस रोग के लक्षण तथा उपचार निम्नलिखित हैं –

लक्षण –

  • बच्चे का चेहरा पीला पड़ जाता है।
  • मांसपेशियाँ खिंचने लगती हैं।
  • शरीर ऐंठ जाता है।
  • दर्द होता है।

उपचार –

  • बच्चे के वस्त्र ढीले कर देने चाहिए।
  • बच्चे को गर्म रखना चाहिए।
  • डॉक्टर से चिकित्सा करानी चाहिए।

प्रश्न 11.
टिप्पणी लिखिए–’बच्चों में ज्वर’।
उत्तरः
बच्चों में ज्वर –
मानव शरीर का सामान्य तापक्रम 98. 4°F होता है। यदि किसी कारणवश व्यक्ति के शरीर का तापक्रम इससे अधिक हो जाए तो उस अवस्था को ज्वर की अवस्था कहा जाता है। ज्वर कम अवधि तक भी रह सकता है तथा अधिक अवधि तक भी रह सकता है।

कारण – ज्वर विभिन्न कारणों से हो सकता है। कमजोरी, सर्दी-जुकाम, टॉन्सिल, सन्तुलित आहार का अभाव, किसी प्रकार का संक्रमण ज्वर के मुख्य कारण होते हैं। इसके अतिरिक्त भी विभिन्न कारणों से ज्वर हो सकता है। कुछ गम्भीर रोगों के लक्षणस्वरूप भी ज्वर हो सकता है जैसे कि तपेदिक या गुर्दे का संक्रमण।

लक्षण – ज्वर का प्रमुख लक्षण शरीर का तापक्रम बढ़ जाना है। इसे थर्मामीटर द्वारा सही-सही मापा जा सकता है। इसके अतिरिक्त सुस्ती, निढाल रहना, चेहरा लाल होना, बदन में दर्द होना, बार-बार प्यास लगना तथा बेचैनी होना आदि भी ज्वर के लक्षण होते हैं।

उपचार – ज्वर के उपचार के लिए सर्वप्रथम उसके प्रकार एवं तीव्रता पर ध्यान दिया जाता है। ज्वर के कारणों को ज्ञात करके ही उपचार किया जा सकता है। तीव्र ज्वर की स्थिति में बच्चे के माथे पर ठण्डे पानी की भीगी पट्टियाँ रखनी चाहिए। बच्चे को हर प्रकार से आराम पहुँचाना चाहिए तथा डॉक्टर से परामर्श लेकर औषधि देनी चाहिए।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 24 अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
शिशु के जन्म के उपरान्त सर्वप्रथम कौन-सी क्रिया सर्वाधिक आवश्यक होती है?
उत्तरः
शिशु के जन्म के उपरान्त सर्वाधिक आवश्यक क्रिया होती है-फेफड़ों के द्वारा श्वसन क्रिया।

प्रश्न 2.
नवजात शिशु को माँ के शरीर से अलग करने के लिए क्या किया जाता है?
उत्तरः
नवजात शिशु को माँ के शरीर से अलग करने के लिए गर्भनाल को काटना पड़ता है।

प्रश्न 3.
गर्भनाल को काटने में क्या सावधानी अति आवश्यक है?
उत्तरः
गर्भनाल काटने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली कैंची भली-भाँति निसंक्रमित होनी चाहिए।

प्रश्न 4.
नवजात शिशु के शरीर के किन अंगों की तुरन्त सफाई की जाती है?
उत्तरः
नवजात शिशु के कान, आँख, नाक, गले तथा मल-मूत्र विसर्जन के अंगों की समुचित एवं तुरन्त सफाई आवश्यक होती है।

प्रश्न 5.
शिशु का मुख्य आहार क्या होता है?
उत्तरः
शिशु का मुख्य आहार माँ का दूध होता है।

प्रश्न 6.
माँ के दूध से शिशु को क्या लाभ होता है?
उत्तरः
माँ के दूध से शिशु को सभी आवश्यक -पोषक तत्त्व उपलब्ध हो जाते हैं, इससे किसी प्रकार के संक्रमण की आशंका नहीं होती। यह सुपाच्य तथा विशेष तुष्टिदायक होता है।

प्रश्न 7.
प्रसव के उपरान्त प्रारम्भ में माँ के स्तनों से जो स्राव प्राप्त होता है, उसे क्या कहते हैं? यह शिशु को पिलाना चाहिए या नहीं?
उत्तरः
प्रसव के उपरान्त प्रारम्भ में जो दूध होता है, उसे कोलस्ट्रम कहते हैं। इसे ग्रहण करने से शिशु की पाचन क्रिया तथा रोग प्रतिरोध क्षमता का विकास होता है। नवजात शिशु को कोलस्ट्रम अवश्य पिलाना चाहिए।

प्रश्न 8.
शिशु को ऊपरी दूध पिलाने में मुख्य सावधानी क्या आवश्यक होती है?
उत्तरः
शिशु को ऊपरी दूध पिलाने में हर प्रकार की सफाई आवश्यक होती है।

प्रश्न 9.
शिशु को दूध पिलाने के उपरान्त डकार दिलवाना क्यों आवश्यक होता है?
उत्तरः
शिशु को दूध पिलाने के उपरान्त डकार दिलवाने से उल्टी करने या दूध निकालने की प्रायः आशंका नहीं रहती है।

प्रश्न 10.
शैशवावस्था में ध्यान रखने वाली प्रमुख बात क्या है?
उत्तरः
शैशवावस्था में शिशु के पोषण एवं संरक्षण का ध्यान रखना प्रमुख बात है।

प्रश्न 11.
पूरक आहार किसे कहते हैं? उत्तर-शिशु को दूध के अतिरिक्त दिए जाने वाला आहार पूरक आहार कहलाता है।

प्रश्न 12.
शिशु को दूध के अतिरिक्त दिए जाने वाले मुख्य पूरक आहारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
शिशु को दूध के अतिरिक्त दिए जाने वाले मुख्य पूरक आहार हैं-कॉड लिवर ऑयल, सन्तरे का रस, दलिया, हरी सब्जियाँ एवं फल तथा अण्डे का पीला भाग।

प्रश्न 13.
स्तनपान छुड़ाने से आप क्या समझती हैं?
उत्तरः
शिशु को माता के दूध से अलग करना तथा उसके स्थान पर अन्य कोई दूध एवं आहार देने की आदत डालना ही स्तनपान छुड़ाना कहलाता है।

प्रश्न 14.
शिशु को प्रथम वर्ष में कौन-कौन से टीके लगवाना आवश्यक होता है?
उत्तरः
शिशु को प्रथम वर्ष में लगाए जाने वाले मुख्य टीके हैं—टी०बी० से बचाव का टीका या बी०सी०जी० का टीका, पोलियो का टीका तथा ट्रिपिल वेक्सीनेशन खसरे का टीका तथा हेपेटाइटिस ‘बी’ का टीका। .

प्रश्न 15.
पोलियो से बचाव के लिए सरकार द्वारा कौन-सी योजना चलाई गई?
उत्तरः
पोलियो से बचाव के लिए सरकार ने ‘पल्स पोलियो’ नामक व्यापक योजना चलाई है।

प्रश्न 16.
‘ट्रिपिल वेक्सीनेशन’ किन रोगों से बचाव करता है?
उत्तरः
ट्रिपिल वेक्सीनेशन से काली खाँसी, टिटेनस तथा डिफ्थीरिया नामक रोगों से बचाव होता है।

प्रश्न 17.
शिशुओं को प्रायः होने वाले पाचन सम्बन्धी मुख्य रोगों का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
शिशुओं को प्राय: होने वाले पाचन सम्बन्धी मुख्य रोग हैं-दस्त, अतिसार, कब्ज, चुनचुने तथा जिगर बढ़ जाना।

प्रश्न 18.
किस तत्त्व की कमी से रिकेट्स नामक रोग हो जाता है?
उत्तरः
विटामिन ‘D’ की कमी से रिकेट्स नामक रोग हो जाता है।

प्रश्न 19.
शिशु के वस्त्रों का चुनाव करते समय आप किन बातों का ध्यान रखेंगी?
उत्तरः
शिशु के वस्त्र सूती, नरम तथा ढीले-ढाले एवं अच्छे रंग के होने चाहिए।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 24 बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

निर्देश : निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चयन कीजिए –
1. जन्म के उपरान्त नवजात शिशु के लिए सर्वप्रथम अनिवार्य होता है –
(क) उसका वजन लेना
(ख) उसे स्नान कराना
(ग) मल-मूत्र त्याग कराना
(घ) फेफड़ों से श्वसन-क्रिया कराना।
उत्तरः
(घ) फेफड़ों से श्वसन-क्रिया कराना।

2. नवजात शिशु की परिचर्या के अन्तर्गत आवश्यक है –
(क) फेफड़ों से श्वसन कराना
(ख) गर्भनाल को काटना
(ग) शिशु के अंगों की सफाई करना
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तरः
(घ) उपर्युक्त सभी।

3. शिशु की गर्भनाल को काटना चाहिए –
(क) जन्म से एक घण्टे उपरान्त
(ख) जन्म के तुरन्त उपरान्त
(ग) जब गर्भनाल में स्पन्दन रुक जाए
(घ) चाहे जब।
उत्तरः
(ग) जब गर्भनाल में स्पन्दन रुक जाए।

4. नवजात शिशु का आहार होना चाहिए –
(क) शहद
(ख) आसुत जल
(ग) माँ का दूध
(घ) ग्लूकोजा
उत्तरः
(ग) माँ का दूध।

5. माँ का दूध नवजात शिशु के लिए उत्तम है, क्योंकि –
(क) यह सस्ता होता है
(ख) इससे शिशु का स्वास्थ्य सुरक्षित रहता है
(ग) इससे माँ का वजन कम होता है
(घ) यह आसानी से उपलब्ध है।
उत्तरः
(ख) इससे शिशु का स्वास्थ्य सुरक्षित रहता है।

6. अपरिपक्व शिशु वे कहलाते हैं, जिनका वजन इनसे कम होता है –
(क) 2 किग्रा से
(ख) 3 किग्रा से
(ग) 4 किग्रा से
(घ) 5 किग्रा से।
उत्तरः
(क) 2 किग्रा से।

7. जन्म के समय परिपक्व शिशु का औसत भार होता है –
(क) 1.5 किग्रा
(ख) 2 किग्रा
(ग) 3 किग्रा से 3.5 किग्रा
(घ) 5 किग्रा।
उत्तरः
(ग) 3 किग्रा से 3.5 किग्रा।

8. नवजात शिशु के कपड़े होने चाहिए –
(क) ऊनी
(ख) मुलायम सूती
(ग) टेरीकाट के
(घ) रेशमी।
उत्तरः
(ख) मुलायम सूती।

9. किन परिस्थितियों में शिशु को स्तनपान नहीं कराना चाहिए –
(क) यदि माँ दीर्घ अवधि के ज्वर से पीड़ित हो
(ख) यदि माँ किसी भयंकर संक्रामक रोग से पीड़ित हो
(ग) यदि माँ को अधिक रक्त-स्राव हो रहा हो
(घ) उपर्युक्त सभी परिस्थितियों में।
उत्तरः
(घ) उपर्युक्त सभी परिस्थितियों में।

10. शिशु को ऊपरी दूध देते समय ध्यान रखना चाहिए –
(क) दूध गाढ़ा न हो
(ख) दूध अधिक गर्म न हो
(ग) बोतल एवं निप्पल पूर्ण रूप से स्वच्छ हों
(घ) उपर्युक्त सभी बातें।
उत्तरः
(घ) उपर्युक्त सभी बातें।

11. चार-पाँच माह के शिशु को दूध के अतिरिक्त दिया जाने वाला आहार कहलाता है –
(क) पौष्टिक आहार
(ख) गरिष्ठ आहार
(ग) पूरक आहार
(घ) दूध एवं अनाज से बने भोज्य पदार्थ।
उत्तरः
(ग) पूरक आहार।

12. शिशु के आहार में समावेश नहीं होना चाहिए –
(क) खनिज लवण-युक्त आहार
(ख) प्रोटीन-युक्त आहार
(ग) स्टार्च-युक्त आहार
(घ) विटामिन-युक्त आहार।
उत्तरः
(ग) स्टार्च-युक्त आहार।

13. शिशु के आहार में विटामिन ‘D’ की कमी को पूरा करने के लिए दूध में मिलाया जाना चाहिए –
(क) ग्लूकोज
(ख) शहद
(ग) कॉड लिवर ऑयल
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तरः
(ग) कॉड लिवर ऑयल।

14. शिशु को स्तनपान कराने का महत्त्व है –
(क) सन्तुलित आहार प्राप्त होता है
(ख) संक्रमण से बचाव होता है
(ग) माँ का दुलार प्राप्त होता है
(घ) ये सभी महत्त्व।
उत्तरः
(घ) ये सभी महत्त्व।

15. कौन-सा तत्त्व दूध से नहीं प्राप्त होता है –
(क) प्रोटीन
(ख) विटामिन ‘C’
(ग) वसा
(घ) कार्बोहाइड्रेट।
उत्तरः
(ख) विटामिन ‘C’।

16. शिशु के दाँतों को स्वस्थ रखने के लिए किस पोषक तत्त्व की आवश्यकता होती है –
(क) लोहा
(ख) विटामिन
(ग) कैल्सियम
(घ) प्रोटीन।
उत्तरः
(ग) कैल्सियम।

17. शिशुओं को विभिन्न टीके लगाए जाते हैं
(क) वजन बढ़ाने के लिए
(ख) विभिन्न रोगों से बचाव के लिए
(ग) सुन्दर एवं स्वस्थ बनाने के लिए
(घ) शारीरिक वृद्धि एवं विकास के लिए।
उत्तरः
(ख) विभिन्न रोगों से बचाव के लिए।

18. बी०सी०जी० का टीका किस रोग से बचाव करता है –
(क) चेचक
(ख) डिफ्थीरिया
(ग) तपेदिक या टी०बी०
(घ) टाइफॉइड।
उत्तरः
(ग) तपेदिक या टी०बी०।

19. दस्त एवं अतिसार की दशा में अति आवश्यक है –
(क) पौष्टिक आहार देना
(ख) विभिन्न औषधियाँ देना
(ग) लू से बचाव करना
(घ) निर्जलीकरण से बचाव करना।
उत्तरः
(घ) निर्जलीकरण से बचाव करना।

20. डी०पी०टी० का टीका किन रोगों की रोकथाम के लिए लगाया जाता है –
(क) प्लेग, रेबीज़ और कुष्ठरोग
(ख) तपेदिक, मलेरिया और काली खाँसी
(ग) डिफ्थीरिया, कर्णफेर और चेचक
(घ) काली खाँसी, डिफ्थीरिया और टिटेनस।
उत्तरः
(घ) काली खाँसी, डिफ्थीरिया और टिटेनस।

21. बालक में अच्छी आदतें डालने का सही समय है –
(क) किशोरावस्था
(ख) कभी नहीं
(ग) जीवन के प्रथम पाँच वर्ष
(घ) जब भी सुविधा हो।
उत्तरः
(ग) जीवन के प्रथम पाँच वर्ष।

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