UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 17 मानवीय आवश्यकताएँ एवं भग्नाशा (Human Needs and Frustration)
UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 17 मानवीय आवश्यकताएँ एवं भग्नाशा
UP Board Class 11 Home Science Chapter 17 विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
‘आवश्यकता’ से आप क्या समझती हैं? अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए।
उत्तरः
व्यक्ति एवं समाज के जीवन में इच्छाओं एवं आवश्यकताओं का विशेष महत्त्व होता है। वास्तव में इच्छाओं से प्रेरित होकर आवश्यकताओं को.अनुभव करना, आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समुचित प्रयास करना तथा आवश्यकताओं की यथार्थ में पूर्ति करना ही जीवन है। यदि व्यक्ति के जीवन में इच्छाएँ एवं आवश्यकताएँ न हों तो जीवन नीरस, उत्साहरहित तथा निरर्थक बन जाता है। आवश्यकताओं की पूर्ति से व्यक्ति को एक विशेष प्रकार के सन्तोष एवं आनन्द की अनुभूति होती है। इसके विपरीत, यदि व्यक्ति की अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती तो व्यक्ति क्रमशः निराश, असन्तुष्ट तथा कुण्ठित हो जाता है।
वास्तव में आवश्यकताएँ अनन्त हो सकती हैं तथा समस्त आवश्यकताओं को एकाएक पूरा नहीं किया जा सकता; अत: आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उनकी प्राथमिकता के आधार पर प्रयास किए जाने चाहिए। व्यक्ति की आवश्यकताओं की अनुभूति एवं पूर्ति का मुख्य स्थल घर एवं परिवार ही है। घर एवं परिवार की व्यवस्था एवं प्रबन्ध में गृहिणी की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इस स्थिति में अनिवार्य है कि प्रत्येक गृहिणी को व्यक्तिगत एवं पारिवारिक आवश्यकताओं का सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक ज्ञान हो। यही कारण है कि गृहविज्ञान के अन्तर्गत ‘आवश्यकताओं का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है।
आवश्यकता का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Need) –
सामान्य रूप से ‘इच्छा’ तथा ‘आवश्यकता’ को समान अर्थों में प्रयोग किया जाता है, परन्तु सैद्धान्तिक रूप में इन दोनों प्रत्ययों में स्पष्ट अन्तर है। वास्तव में व्यक्ति के मन में उत्पन्न होने वाली अनन्त इच्छाओं में से कुछ इच्छाएँ ही आगे चलकर आवश्यकता का रूप ग्रहण कर लेती हैं। ‘इच्छा’ जाग्रत होना मनुष्य की एक स्वभावगत विशेषता है। व्यक्ति के मन में असंख्य इच्छाएँ मुक्त रूप से जन्म लेती रहती हैं। समस्त इच्छाएँ व्यक्ति की भावनाओं द्वारा पोषित होती हैं। जो इच्छाएँ भौतिक जगत की यथार्थताओं से समर्थन प्राप्त कर लेती हैं, उन्हें ही ‘आवश्यकता के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है। वास्तव में व्यक्ति की वह इच्छा उसकी आवश्यकता बन जाती है, जो उसके उपलब्ध भौतिक साधनों के अनुरूप होती है। जिस इच्छा की पूर्ति के लिए व्यक्ति समुचित साधन-सम्पन्न होता है, उस इच्छा को व्यक्ति की आवश्यकता मान लिया जाता है।
‘आवश्यकता’ की अवधारणा को विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण एवं ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया है; यथा –
(1) प्रो० पैन्सन ने ‘आवश्यकता’ को इन शब्दों में परिभाषित किया है-“आवश्यकता व्यक्ति की उस इच्छा को कहते हैं, जिसकी पूर्ति के लिए उसके पास पर्याप्त साधन हों और वह उन साधनों को उस इच्छा की पूर्ति हेतु लगाने को तत्पर हो।” प्रस्तुत परिभाषा द्वारा स्पष्ट है कि वास्तव में वे इच्छाएँ ही ‘आवश्यकता के रूप में स्वीकृति प्राप्त करती हैं, जिनकी पूर्ति के लिए व्यक्ति साधन-सम्पन्न होता है तथा उनकी पूर्ति के लिए स्वयं तैयार भी होता है।
(2) लगभग इसी अर्थ को प्रतिपादित करते हुए स्मिथ एवं पैटर्सन ने भी आवश्यकता की परिभाषा प्रस्तुत की है। उनके शब्दों में – “आवश्यकता किसी वस्तु को प्राप्त करने की वह इच्छा है, जिसको पूरा करने के लिए मनुष्य में योग्यता हो और जो उसके लिए व्यय करने को तैयार हो।”
इन परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि उन समस्त इच्छाओं को हम व्यक्ति की आवश्यकताओं के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए व्यक्ति के पास समुचित साधन हैं तथा साथ-साथ वह व्यक्ति उस इच्छा की पूर्ति के लिए समुचित साधन को प्रयोग में लाने के लिए स्वयं तैयार भी हो। आवश्यकता के इस अर्थ को एक उदाहरण के माध्यम से भी स्पष्ट किया जा सकता है। मान लीजिए, एक व्यक्ति के मन में इच्छा जाग्रत होती है कि उसके पास एक मोटरकार हो।
अपने प्रारम्भिक रूप में यह एक इच्छा-मात्र ही होगी। यदि व्यक्ति के पास मोटरकार खरीदने तथा उसके रखरखाव के लिए पर्याप्त धन नहीं है तो उसकी इस इच्छा को केवल कोरी या कल्पनाजनित इच्छा ही माना जाएगा। उसे हम कदापि ‘आवश्यकता के रूप में स्वीकृति प्रदान नहीं कर सकते। यदि व्यक्ति के पास पर्याप्त धन है तो उसकी यह इच्छा आवश्यकता का रूप ग्रहण कर सकती है।
अब यह देखना होगा कि वह व्यक्ति मोटरकार पर इतना अधिक धन खर्च करने के लिए पूर्ण रूप से तैयार है या नहीं? यदि व्यक्ति सोचता है कि कार खरीदने एवं पेट्रोल आदि का खर्च अनावश्यक है तो उसकी कार खरीदने की इच्छा को आवश्यकता नहीं माना जाएगा। इसके विपरीत, यदि व्यक्ति पूर्णरूप से मोटरकार खरीदने के लिए तैयार हो तो उसकी इस इच्छा को उसकी आवश्यकता स्वीकार किया जा सकता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि प्रायः सभी आवश्यकताएँ सापेक्ष होती हैं; अर्थात् व्यक्ति की परिस्थितियों के साथ-साथ आवश्यकताएँ भी परिवर्तित होती रहती हैं। इसी प्रकार किसी एक व्यक्ति की आवश्यकता किसी अन्य व्यक्ति के लिए व्यर्थ अथवा कोरी काल्पनिक इच्छा ही हो सकती है।
प्रश्न 2.
मानवीय आवश्यकताओं की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा
मानवीय आवश्यकताओं की विशेषताओं का वर्णन उदाहरण सहित कीजिए।
उत्तरः
मानवीय आवश्यकताओं की विशेषताएँ (Characteristics of Human Needs) –
व्यक्ति की आवश्यकताएँ उसके व्यक्तित्व के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। मानवीय आवश्यकताओं की मुख्य विशेषताओं का सामान्य परिचय निम्नलिखित है –
1. आवश्यकताएँ असीमित होती हैं – मनुष्य की आवश्यकताएँ अनन्त तथा असीमित होती हैं, उनको वह कभी भी पूर्ण नहीं कर सकता। मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक आवश्यकताओं से घिरा रहता है। बालक जन्म लेता है तो उसी क्षण से उसको माँ के दूध व वस्त्र की आवश्यकता होती है। जैसे-जैसे बालक बढ़ता जाता है, उसकी आवश्यकताएँ भी बढ़ती जाती हैं। मनुष्य जब मृत्यु के कगार पर होता है, तब भी उसको औषधियों की आवश्यकता होती है।
2. आवश्यकताएँ बार-बार उत्पन्न होती हैं – प्रत्येक मनुष्य के जीवन में आवश्यकताएँ बार-बार उत्पन्न होती हैं; अर्थात् एक व्यक्ति किसी आवश्यकता की कुछ समय के लिए ही सन्तुष्टि कर सकता है। जैसे – मनुष्य भूख लगने पर भोजन करता है, परन्तु वह जिन्दगी भर के लिए एक साथ भोजन नहीं कर सकता। वह अपनी निश्चित समय के लिए तो भूख मिटा सकता है, परन्तु उसको कुछ घण्टों पश्चात् फिर भूख लगेगी और भूख मिटाने के लिए वह फिर भोजन करेगा। इस प्रकार आवश्यकताएँ बार-बार उत्पन्न होती हैं और मनुष्य उनको पूर्ण करने की बार-बार चेष्टा करता है।
3. आवश्यकताओं में प्रतियोगिता रहती है – सभी आवश्यकताओं की प्रकृति समान नहीं होती, उनकी तीव्रता में अन्तर रहता है। सन्तुलित भोजन की आवश्यकता सुन्दर वस्त्र से अधिक है। कार की आवश्यकता बालकों की शिक्षा की आवश्यकता से कम है। सीमित आय के कारण प्रत्येक परिवार को आवश्यकता पूर्ति हेतु प्रबल एवं अधिक अनिवार्य आवश्यकताओं का चुनाव करना होता है; अत: सदैव
अधिक महत्त्वपूर्ण आवश्यकताएँ ही चुनी जाती हैं। इस प्रकार की आवश्यकताओं को मौलिक अथवा प्राथमिक आवश्यकता कहा जाता है।
4. एक आवश्यकता में अनेक आवश्यकताएँ निहित हैं – एक आवश्यकता में अनेक आवश्यकताएँ निहित होती हैं। उदाहरणार्थ-हम एक भवन का निर्माण करते हैं तो भवन का निर्माण पूर्ण होते ही हमारे समक्ष अनेक आवश्यकताएँ आ खड़ी होती हैं। जैसे-भवन की सज्जा के लिए विभिन्न साज-सामान की आवश्यकता पड़ती है आदि।
5. आवश्यकताएँ पूरक होती हैं – आवश्यकताएँ एक-दूसरे की पूरक होती हैं। एक आवश्यकता की पूर्ति के लिए बहुधा एक या दो अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करना अनिवार्य होता है। उदाहरण के लिए कार की आवश्यकता के साथ-साथ पेट्रोल की भी आवश्यकता हुआ करती है।
6. आवश्यकताएँ आदत में परिणत हो जाती हैं – जब आवश्यकताओं को बार-बार सन्तुष्ट किया जाता है तो वे आदत में परिणत हो जाती हैं। मनुष्य उनकी पूर्ति का आदी हो जाता है। ऐसी आदतों की पूर्ति के अभाव में उसे कष्ट होता है। जैसे—प्रारम्भ में बहुत-से व्यक्ति शराब या सिगरेट शौक के लिए पीते हैं, बाद में चलकर यही शौक उनकी आदत में बदल जाता है।
7. आवश्यकताएँ ज्ञान की वृद्धि के साथ-साथ बढ़ती हैं – प्राचीनकाल में जब मनुष्य आदिम अवस्था में था तो उसकी आवश्यकताएँ बहुत सीमित थीं; किन्तु जैसे-जैसे उसके ज्ञान एवं साधनों का विकास होता गया वैसे-वैसे उसकी आवश्यकताएँ भी बढ़ती गईं। आज विज्ञान के युग में जैसे-जैसे व्यक्ति को विभिन्न साधनों एवं सेवाओं की जानकारी प्राप्त होती है, वैसे-वैसे व्यक्ति की आवश्यकताओं में भी वृद्धि होती जाती है। आजकल दूरदर्शन पर आधुनिक जीवन-शैली के विस्तृत प्रदर्शन से व्यक्ति एवं परिवार की आवश्यकताओं में निरन्तर वृद्धि हो रही है।
8. आवश्यकता तथा प्रेरक – प्राणी के विभिन्न व्यवहारों के कारणों को समझने के लिए उसकी विभिन्न आवश्यकताओं को समझना आवश्यक है; क्योंकि आवश्यकताएँ ही उसे किसी विशिष्ट दिशा में गतिशील होने के लिए प्रेरणा देती हैं। प्राणियों की आवश्यकताओं में जातीय और वैयक्तिक रुचि का भेद पाया जाता है। उदाहरणार्थ-मनुष्य जाति की आवश्यकता शेर जाति की आवश्यकता से भिन्न होगी और एक व्यक्ति की आवश्यकता दूसरे व्यक्ति की आवश्यकता से भिन्न होगी। वस्तुतः इस भिन्नता के कारण ही जगत का व्यापार इस प्रकार चल रहा है, अन्यथा उसमें या तो शैथिल्य ही आ जाता या उथल-पुथल मच जाती।
9. वर्तमान सम्बन्धी आवश्यकताएँ अधिक प्रबल होती हैं – मानवीय आवश्यकताएँ अनेक प्रकार की होती हैं। कुछ का सम्बन्ध मुख्य रूप से वर्तमान से ही होता है, जबकि कुछ आवश्यकताएँ भविष्य से सम्बन्धित होती हैं। इन दोनों प्रकार की आवश्यकताओं में से वर्तमान सम्बन्धी आवश्यकताएँ अधिक प्रबल होती हैं। अनेक व्यक्ति भविष्य सम्बन्धी आवश्यकताओं की अवहेलना कर देते हैं, भले ही वे आवश्यकताएँ अधिक महत्त्वपूर्ण ही क्यों न हों।
प्रश्न 3.
मनुष्य की आवश्यकताओं का वर्गीकरण करते हुए प्राथमिक एवं गौण आवश्यकताओं की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
मनुष्य की आवश्यक आवश्यकताएँ कौन-कौन सी होती हैं? इनकी पूर्ति किस प्रकार की जा सकती है?
अथवा
परिवार की आवश्यकताओं को कितने वर्गों में बाँटा जा सकता है? उनके विषय में विस्तार से लिखिए।
उत्तरः
आवश्यकताओं का वर्गीकरण (Classification of Needs) –
मनुष्य की आवश्यकताएँ अन्य प्राणियों से अधिक होती हैं, क्योंकि वह सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। परन्तु कुछ आवश्यकताएँ ऐसी हैं, जो मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी प्राणियों में भी समान रूप में पायी जाती हैं; जैसे-साँस लेना, पानी पीना, भोजन करना, मल-मूत्र त्याग करना तथा अपने शरीर के तापक्रम का एक स्थायित्व बनाए रखना।
इन आवश्यकताओं की पूर्ति के अभाव में प्राणी का जीना कठिन हो जाएगा। इसके अतिरिक्त, कुछ अन्य ऐसी आवश्यकताएँ होती हैं, जिनकी पूर्ति के बिना प्राणी का विकास नहीं होगा। जैसे-कुछ लोगों को दूसरों की अपेक्षा अधिक धन अथवा दूसरों से प्रेम या प्रशंसा पाने की आवश्यकता होती है। जिन आवश्यकताओं की पूर्ति के बिना प्राणी का जीना कठिन हो जाता है, उन्हें प्राथमिक अथवा जन्मजात आवश्यकता कहा जा सकता है और अन्य, गौण या अर्जित आवश्यकताएँ कही जा सकती हैं।
आवश्यकताओं के प्राथमिक तथा गौण वर्गीकरण से यह समझना भूल होगी कि प्राथमिक आवश्यकताएँ अधिक प्रबल होती हैं और गौण आवश्यकताएँ अपेक्षाकृत निर्बल हैं। उदाहरणार्थ-किसी व्यक्ति में दूसरों से प्रशंसा प्राप्त करने की इच्छा इतनी प्रबल हो सकती है कि उसकी धुन में वह अपना स्वास्थ्य खोकर मरने के सन्निकट आ सकता है। ऐसी स्थिति में गौण आवश्यकताओं का प्राधान्य हो जाता है और प्राथमिक आवश्यकताएँ अवरोधित हो जाती हैं। एक अर्थ में, गौण आवश्यकता प्राथमिक आवश्यकता से अधिक महत्त्वपूर्ण बन सकती है। उदाहरणार्थ-व्यक्ति अपनी मानहानि अथवा धन का हरण होने पर आत्महत्या करते देखे जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों को मान अथवा धन के बिना जीना व्यर्थ लगता है और वे आत्महत्या तक कर बैठते हैं।
प्राथमिक जन्मजात आवश्यकताओं में हवा, जल, भोजन तथा आत्मरक्षार्थ अन्य साधारण वस्तुओं का नाम लिया जा सकता है। आत्मरक्षा के अतिरिक्त जाति-रक्षा की भी प्राणी में प्रेरणा होती है। इसी आवश्यकता से प्रेरित होकर वह कामेच्छा की पूर्ति करता है तथा सन्तान उत्पन्न करता है। जैसाकि ऊपर स्पष्ट किया गया है; ऐसी आवश्यकताओं को प्राथमिक अथवा स्वाभाविक आवश्यकता ही कहा जाएगा। इन आवश्यकताओं के अतिरिक्त कुछ अन्य ऐसी आवश्यकताएँ होती हैं, जिन्हें व्यक्ति अपने अनुभव के अनुसार अर्जित करता है।
विभिन्न व्यक्तियों के अनुभव भिन्न-भिन्न होते हैं। अतः उनकी अर्जित आवश्यकताओं में भी बड़ा विभेद पाया जा सकता है। इन आवश्यकताओं के विकास में व्यक्ति की इच्छा और आदत का प्रमुख हाथ होता है। किसी व्यक्ति की इच्छा और आदत-पढ़ने-लिखने, दूसरे से प्रशंसा पाने, देशाटन करने अथवा मकान बनवाने की हो सकती है। तदनुसार उसे विभिन्न वस्तुओं अथवा साधनों की आवश्यकता का अनुभव हो सकता है। इस अनुभव से प्रेरित होकर वह विभिन्न प्रकार की क्रियाशीलता प्रदर्शित कर सकता है।
मनुष्य वैसे तो अपने निजी प्रयत्नों के द्वारा ही अपनी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, किन्तु उसके इस कार्य में समाज एवं राज्य भी पर्याप्त सहायता देते हैं। दोनों संस्थाओं के द्वारा ही उसे वे महत्त्वपूर्ण साधन प्रदान किए जाते हैं, जिनके द्वारा वह अपनी विभिन्न आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करता है। उदाहरणार्थ-समाज तथा राज्य अनेक औद्योगिक एवं व्यावसायिक संस्थानों की स्थापना करते हैं, जिनमें कार्य करके व्यक्ति अपनी अनेक दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धनोपार्जन करता है।
इसी प्रकार से वह अपनी सामाजिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए पारस्परिक सम्बन्धों की स्थापना करता है और समाज के विभिन्न वर्गों की सहायता से ही उसकी शिक्षा, आवास, मनोरंजन तथा अन्य अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। इस प्रकार से हम देखते हैं कि व्यक्तिगत रूप में मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में समाज एवं राज्य पर अवलम्बित होता है।
मनुष्य के जीवन का मुख्य उद्देश्य अपनी आवश्यकताओं की समुचित पूर्ति करना होता है। यदि समुचित प्रयास करने के उपरान्त भी किसी व्यक्ति की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती तो व्यक्ति के जीवन एवं व्यक्तित्व पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इस स्थिति में कभी-कभी व्यक्ति अपनी अभावग्रस्त दशा के लिए समाज को जिम्मेदार मान बैठता है। इस धारणा के प्रबल हो जाने पर कुछ व्यक्ति समाज-विरोधी बन जाते हैं। उदाहरण के लिए यदि व्यक्ति पर्याप्त परिश्रम करके भी अपना तथा अपने परिवार का पालन-पोषण नहीं कर पाता तो इस स्थिति में इस बात की सम्भावना रहती है कि वह व्यक्ति समाज-विरोधी बन जाए तथा चोरी, डकैती आदि गतिविधियों में लिप्त हो जाए।
यदि परिवार के सन्दर्भ में प्रमुख आवश्यकताओं की चर्चा की जाए तो कहा जा सकता है कि परिवार की प्रमुख आवश्यकताएँ हैं-पर्याप्त तथा सन्तुलित भोजन, समुचित वस्त्र, समुचित आवास – व्यवस्था, बच्चों के लिए शिक्षा की व्यवस्था, स्वास्थ्य-रक्षा तथा चिकित्सा सुविधा, मनोरंजन की आवश्यकता, बच्चों की देख-भाल, परिवार के सदस्यों में प्रेम, स्नेह तथा सहयोगपूर्ण सम्बन्धों की आवश्यकता तथा पारिवारिक आय एवं बचत की आवश्यकता। इन सभी आवश्यकताओं की समुचित पूर्ति के लिए व्यक्ति एवं परिवार संयुक्त रूप से प्रयास करते हैं। कुछ आवश्यकताएँ धन आदि भौतिक साधनों द्वारा पूरी होती हैं। इसके लिए व्यक्ति एवं परिवार को आर्थिक प्रयास करने पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ आवश्यकताएँ शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक प्रयासों द्वारा पूरी की जाती हैं। व्यक्ति की अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ति का केन्द्र परिवार ही होता है।
प्रश्न 4.
व्यक्ति की आवश्यकताओं की उत्पत्ति के सामान्य नियमों का उल्लेख कीजिए। परिवार द्वारा आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे होती है?
उत्तरः
यह एक व्यावहारिक दृष्टि से सत्यापित तथ्य है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में असंख्य आवश्यकताएँ अनुभव करता है तथा उनकी पूर्ति के लिए तरह-तरह के प्रयास भी करता है। यदि व्यक्ति की कोई आवश्यकता ही प्रबल न हो तो व्यक्ति की क्रियाशीलता भी घट जाती है। अब प्रश्न उठता है कि कोई व्यक्ति किसी आवश्यकता को क्यों और कैसे अनुभव करता है; अर्थात् आवश्यकताओं की उत्पत्ति कैसे होती है? इस विषय में विभिन्न कारणों को आवश्यकताओं की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार माना गया है। इन कारणों को आवश्यकताओं की उत्पत्ति के नियम भी कहा गया है।
आवश्यकताओं की उत्पत्ति के नियम (Rules of Origin of Needs) –
व्यक्ति की आवश्यकताओं के सम्बन्ध में कुछ प्रमुख नियम हैं, जिनका वर्णन निम्न प्रकार किया जा सकता है –
1. शारीरिक रचना और आवश्यकता – शारीरिक रचना के आधार पर आवश्यकताओं का अनुभव होता है। मनुष्य और जानवरों की आवश्यकताओं में अन्तर होता है। मनुष्यों में आपस में यदि शारीरिक भिन्नता है तो उनकी आवश्यकताओं में अन्तर होगा। जैसे—एक अन्धे व्यक्ति को चश्मे की आवश्यकता नहीं होती, जबकि स्वस्थ व्यक्ति को चश्मे की आवश्यकता हो सकती है। इसी प्रकार दिव्यांग (विकलांग) व्यक्ति को बैसाखियों की आवश्यकता होती है, स्वस्थ व्यक्ति को नहीं। अतः स्पष्ट है कि शारीरिक आवश्यकताओं के निर्धारण में शारीरिक रचना भी एक महत्त्वपूर्ण कारक होता है।
2. आवश्यकताएँ तथा आर्थिक स्थिति – व्यक्ति की आवश्यकताओं की उत्पत्ति के पीछे व्यक्ति की आर्थिक स्थिति का भी विशेष हाथ होता है। यदि व्यक्ति की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होती तो उस दशा में व्यक्ति की आवश्यकताएँ सीमित ही रहती हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपनी मूलभूत या प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति ही कठिनता से कर पाता है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है तथा उसके पास अतिरिक्त धन आ जाता है तो निश्चित रूप से व्यक्ति की आवश्यकताओं में वृद्धि हो जाती है; अर्थात् नित्य नई आवश्यकताएँ उत्पन्न होने लगती हैं। .
3. आवश्यकताएँ और आदत – बहुत-सी आवश्यकताएँ आदत पर निर्भर करती हैं। एक सिगरेट पीने की आदत वाले व्यक्ति को सिगरेट की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत, जिस व्यक्ति को सिगरेट पीने की आदत नहीं होती, उसे सिगरेट की कोई आवश्यकता नहीं होती। आदत का आवश्यकताओं पर बहुत प्रभाव पड़ता है। आवश्यकता पड़ने पर ही व्यक्ति चोरी करता है और वह आदत में बदल जाती है। अतः आवश्यकता और आदत में गहरा सम्बन्ध है।
4. आवश्यकताएँ और संस्कृति – बहुत-सी आवश्यकताएँ संस्कृति पर निर्भर करती हैं। जिस समाज में जिस प्रकार के नियम व रीति-रिवाज होते हैं, उन्हीं के आधार पर मनुष्यों की आवश्यकताएँ निर्धारित होती हैं। खान-पान, रहन-सहन के आधार पर आवश्यकताओं का अनुभव होता है। जैसी समाज की संस्कृति होती है, उसी के अनुसार सम्बन्धित व्यक्तियों को चलना पड़ता है। यदि व्यक्ति समाज के नियमों के विपरीत चलेगा तो समाज में उसका अपमान तथा बहिष्कार भी हो सकता है। अतः . आवश्यकताएँ संस्कृति से सम्बन्धित होती हैं।
5. आवश्यकताएँ और वातावरण – वातावरण का भी व्यक्ति की आवश्यकताओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति जैसे वातावरण में रहता है, उसको वैसी ही आवश्यकता महसूस होती है। उदाहरणार्थ—एक रजाई जाड़ों के दिनों में तन ढकने के काम आती है, परन्तु वही रजाई गर्मियों में बेकार है। अत: वातावरण का भी आवश्यकताओं पर प्रभाव पड़ता है। भौतिक वातावरण के अतिरिक्त सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण भी व्यक्ति की आवश्यकताओं के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
6. व्यक्ति का जीवन के प्रति दृष्टिकोण – व्यक्ति की आवश्यकताओं पर उसके जीवनदर्शन का भी प्रभाव पड़ता है। एक भौतिकवादी दृष्टिकोण वाले व्यक्ति की आवश्यकताएँ, अध्यात्मवादी दृष्टिकोण वाले व्यक्ति की आवश्यकताओं से पर्याप्त भिन्न होती हैं।
7. प्रचलन एवं रीति-रिवाज – सामाजिक प्रचलनों एवं रीति-रिवाजों से भी व्यक्ति की आवश्यकताओं का निर्धारण होता है। बहुत-से व्यक्ति अनेक ऐसी वस्तुएँ खरीदा करते हैं, जो केवल फैशन के लिए ही होती हैं।
8. दिखावा तथा अनुकरण – दिखावे की प्रवृत्ति मनुष्य की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। व्यक्ति बहुत-से कार्य केवल इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप ही करता है। अच्छी तथा कीमती साड़ी खरीदना, दावतों का आयोजन करना आदि कार्य अनेक बार केवल दिखावे के लिए ही किए जाते हैं। इस रूप में दिखावा भी हमारी आवश्यकताओं को प्रभावित करता है।
दिखावे के अतिरिक्त अनुकरण भी एक महत्त्वपूर्ण कारक है, जो हमारी आवश्यकताओं को प्रभावित करता है। ऐसा प्रायः देखा या सुना जाता है कि अमुक पड़ोसिन ने रंगीन टी०वी० ले लिया है; अतः हम भी लेंगे। अमुक परिवार के बच्चे कॉन्वेण्ट में पढ़ते हैं, इसलिए हमारे बच्चे भी कॉन्वेण्ट में ही पढ़ेंगे। इस प्रकार अनुकरण की भावना से अनेक आवश्यकताएँ निर्धारित होती हैं।
(नोट-‘परिवार द्वारा आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे होती है?’ इस प्रश्न के उत्तर के लिए अध्याय 18 का विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 2 का उत्तर देखें।)
प्रश्न 5.
भग्नाशा का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। भग्नाशा की उत्पत्ति के कारणों एवं परिस्थितियों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
भग्नाशा से आप क्या समझती हैं? अथवा भग्नाशा के कारणों का वर्णन कीजिए।
अथवा
भग्नाशा का क्या आशय है? भग्नाशा उत्पन्न होने के क्या कारण हैं?
उत्तरः
सामान्य रूप से प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में विभिन्न इच्छाओं एवं सम्बन्धित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यथाशक्ति प्रयास किया करता है। अपने प्रयासों से व्यक्ति द्वारा कुछ या अधिकांश आवश्यकताओं को पूरा कर लिया जाता है तथा कुछ आवश्यकताएँ बिना पूरी हुए ही रह जाती हैं या उन्हें प्राप्त करने का प्रयास छोड़ दिया जाता है। इन परिस्थितियों में जीवन सामान्य रूप से चलता रहता है।
इससे भिन्न कुछ व्यक्तियों के जीवन में कुछ परिस्थितियों एवं कारणों के परिणामस्वरूप उनकी अधिकांश इच्छाएँ एवं आवश्यकताएँ पूर्ण नहीं हो पातीं। ऐसे व्यक्तियों के मन में इच्छाएँ भी जाग्रत होती हैं तथा वे सम्बन्धित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यथाशक्ति प्रयास भी करते हैं, परन्तु निरन्तर प्रयास करने के उपरान्त भी उन्हें अभीष्ट सफलता नहीं प्राप्त होती। इस स्थिति में वे निराश होकर प्रयास करना भी छोड़ देते हैं। निराशा की इस स्थिति को ही भग्नाशा या कुण्ठा (frustration) कहा जाता है।
भग्नाशा का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Frustration) –
शाब्दिक रूप से कहा जा सकता है कि व्यक्ति की आशाओं के भग्न हो जाने के परिणामस्वरूप उत्पन्न मानसिक स्थिति ही भग्नाशा है। व्यक्ति के जीवन में अनेक प्रेरणाएँ निरन्तर रूप से सक्रिय रहा करती हैं। ये प्रेरणाएँ व्यक्ति को सम्बन्धित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रयास करने को बाध्य करती हैं तथा व्यक्ति प्रयास करता है। कभी-कभी समस्त प्रयास करने पर भी व्यक्ति अपने उद्देश्य को प्राप्त . करने में असफल ही रहता है। इस निरन्तर असफलता के कारण व्यक्ति को निराशा का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार की निराशा व्यक्ति को तनावग्रस्त बना देती है। निरन्तर रहने वाली निराशा एवं तनाव की स्थिति व्यक्ति को पूर्ण रूप से असन्तुष्ट तथा पराजित बना देती है। यही मानसिक स्थिति भग्नाशा या कुण्ठा कहलाती है।
भग्नाशा को प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मन ने इन शब्दों में परिभाषित किया है – “भग्नाशा या कुण्ठा जीव की वह अवस्था है, जो किसी प्रेरणात्मक व्यवहार की सन्तुष्टि के कठिन अथवा असम्भव हो जाने के कारण उत्पन्न होती है।” (“Frustration is a state of organism resulting when the motivated behaviour is rendered difficult or impossible.”- N. L. Munn).
कोलमैन ने भी भग्नाशा की स्थिति का स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार व्यक्ति की प्रेरणाओं के निरन्तर कण्ठित होने से जो आघात की स्थिति उत्पन्न होती है. उसी के परिणामस्वरूप भग्नाशा की मानसिक स्थिति आ जाती है। इस स्थिति के लिए कोलमैन ने मुख्य रूप से दो कारणों को जिम्मेदार माना है। प्रथम कारण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यदि व्यक्ति द्वारा निर्धारित उद्देश्य की प्राप्ति के मार्ग में निरन्तर बाधाएँ आती हैं तो एक स्थिति में भग्नाशा उत्पन्न हो सकती है।
द्वितीय कारण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यदि व्यक्ति के सम्मुख कोई निश्चित एवं समुचित उद्देश्य ही न हो तो भी क्रमश: भग्नाशा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यह भी कहा जा सकता है कि यदि व्यक्ति के प्रेरकों की सन्तुष्टि नहीं होती तथा उनमें संघर्ष होते हैं, तो भग्नाशा या कुण्ठा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। भग्नाशा का प्रतिकूल प्रभाव व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर पड़ सकता है।
भग्नाशा के कारण एवं परिस्थितियाँ (Causes and Conditions of Frustration) –
भग्नाशा के उत्पन्न होने के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित कारण एवं परिस्थितियाँ जिम्मेदार होती है –
1. वस्तु द्वारा उत्पन्न बाधा-अनेक बार वस्तु-विशेष के द्वारा भी भग्नाशा की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। उदाहरण के लिए मान लीजिए, व्यक्ति कोई महत्त्वपूर्ण पत्र लिखना चाह रहा हो, परन्तु उस समय उसे पर्याप्त खोज करने पर भी अपना पेन या सम्बन्धित व्यक्ति के घर का पता न मिले, तो निश्चित रूप से व्यक्ति की खीज बढ़ जाती है तथा अन्तत: वह भग्नाशा का शिकार हो सकता है। यह भग्नाशा, वस्तु द्वारा उत्पन्न होने वाली भग्नाशा ही कही जाएगी।
2. व्यक्ति द्वारा उत्पन्न बाधा-यह स्थिति पहली स्थिति से अधिक भयंकर है। यदि हम किसी चुनाव में खड़े होते हैं और विजय प्राप्त करना चाहते हैं, तो बिल्कुल यही इच्छा किसी दूसरे व्यक्ति के मन में भी उत्पन्न हो सकती है और परिणामस्वरूप दो विरोधी पक्ष बन जाते हैं। दूसरे व्यक्ति के द्वारा हमारे मार्ग में उत्पन्न बाधा हमें निराश कर देती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम स्वयं किसी इच्छा की पूर्ति किसी अन्धविश्वास अथवा किसी दूसरे के कहने के कारण नहीं कर पाते और इस प्रकार निराश होकर रह जाते हैं।
3. दो धनात्मक प्रेरकों का संघर्ष-कभी-कभी एक ही व्यक्ति में दो प्रबल भावनाएँ एक साथ कार्य .करती हैं। एक माँ का बालक उच्च शिक्षार्जन के लिए विदेश जा रहा है। एक ओर माँ की ममता उसे अपने पास रखना चाहती है, पर दूसरी ओर पुत्र के हित की भावना उससे पुत्र को विदेश भेजने का आग्रह करती है। इस स्थिति में दोनों प्रेरकों में से एक चुनना पड़ता है। जिस प्रेरक का मार्ग चुना जाता है, उससे सम्बन्धित क्रियाचक्र पूर्ण हो जाता है, परन्तु दूसरे का अधूरा रह जाता है। यह स्थिति भी भग्नाशा को जन्म दे सकती है।
4. एक धनात्मक एवं एक ऋणात्मक प्रेरक का संघर्ष-जब व्यक्ति में एक धनात्मक प्रेरक उसे आगे ले जाने वाला तथा दूसरा ऋणात्मक प्रेरक (सुस्ती, भय, दूसरों द्वारा आलोचना) परस्पर संघर्ष में आ जाए और व्यक्ति दुविधा में पड़ जाए, तो भी भग्नाशा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसे समय में व्यक्ति अपना मार्ग नहीं चुन पाता है।
5. व्यक्तिगत दोष एवं सीमाएँ-कुछ परिस्थितियों में व्यक्ति के शारीरिक अथवा मानसिक दोष भी भग्नाशा उत्पन्न कर देते हैं। उदाहरण के लिए दिव्यांग (विकलांग) बालक भाग-दौड़ वाले खेलों से वंचित रह जाता है और आगे चलकर जीवन में अधिक परिश्रम न कर सकने के कारण अपनी आवश्यकता के अनुसार धनोपार्जन नहीं कर सकता। इस प्रकार से शारीरिक दोषों के कारण आवश्यकताओं की पूर्ति न हो पाने की वजह से व्यक्ति कुण्ठित हो जाता है।
6. सामर्थ्य से उच्च आकांक्षाएँ-प्रत्येक व्यक्ति की कुछ आकांक्षाएँ होती हैं। प्रत्येक आकांक्षा को पूरा करने के लिए कुछ-न-कुछ सामर्थ्य की आवश्यकता होती है। यदि व्यक्ति की आकांक्षाएँ इतनी ऊँची हों कि उन्हें पूरा करने के लिए व्यक्ति में सामर्थ्य ही न हो, तो इस स्थिति में मानसिक संघर्ष के प्रबल हो जाने पर भग्नाशा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
7. नैतिक परिस्थितियाँ-कुछ नैतिक परिस्थितियाँ एवं सम्बन्धित नैतिक मानदण्ड भी व्यक्ति के जीवन में भग्नाशा या कुण्ठा को जन्म देते हैं। उदाहरण के लिए प्रत्येक समाज में यौन सम्बन्धों के सन्दर्भ में कुछ नैतिक पूर्व-धारणाएँ प्रचलित होती हैं। इन नैतिक मान्यताओं से प्रभावित एवं बाध्य होकर अनेक बार व्यक्ति निराश एवं हताश हो जाते हैं तथा यही निराशा भग्नाशा या कुण्ठा को जन्म देती है।
UP Board Class 11 Home Science Chapter 17 लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
व्यक्ति के जीवन में आवश्यकताओं के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
जीवन में आवश्यकताओं का महत्त्व –
व्यक्ति के जीवन में आवश्यकताओं का अत्यधिक महत्त्व होता है। वास्तव में व्यक्ति के जीवन के संचालन में उसकी आवश्यकताओं के द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जाती है। जीवन का सुचारु संचालन वास्तव में व्यक्ति की आवश्यकताओं के ही माध्यम से होता है। व्यक्ति अनवरत रूप से विभिन्न आवश्यकताओं को अनुभव करता है, अनुभव की गई आवश्यकताओं की प्राथमिकता को निर्धारित करता है तथा तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यथासम्भव प्रयास करता है।
समुचित प्रयासों द्वारा वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। इस प्रक्रिया के माध्यम से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति से व्यक्ति को एक प्रकार के सुख एवं सन्तोष की प्राप्ति होती है। इसके साथ-साथ व्यक्ति कुछ अन्य इच्छाओं को आवश्यकता की श्रेणी में सम्मिलित कर लेता है तथा उनकी पूर्ति के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। इस प्रकार व्यक्ति का जीवन अग्रसर होता रहता है। आवश्यकताओं के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि ‘आवश्यकताओं का जन्म जीवन के अस्तित्व व सुख के लिए होता है।’
प्रश्न 2.
आवश्यकताओं की पूर्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले अथवा बाधक कारकों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
मनुष्य की आवश्यकताएँ किन कारणों से अपूर्ण रह जाती हैं?
उत्तरः
आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधक कारक –
मनुष्य की आवश्यकताएँ असंख्य होती हैं तथा सभी आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो पातीं। वास्तव में मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के मार्ग में अनेक बाधाएँ उत्पन्न हुआ करती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि मानवीय आवश्यकताओं को विभिन्न कारक प्रभावित करते हैं। इस प्रकार के कुछ कारकों का संक्षिप्त विवरण निम्नवर्णित है –
1. निर्धनता अथवा आर्थिक कारक-व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति के मार्ग में प्रमुख बाधक कारक है धन की कमी या निर्धनता। धनाभाव के कारण मनुष्य अपनी अनिवार्य आवश्यकता को जब पूरा नहीं कर पाता है तो वह समाज का शत्रु बन जाता है। जब उसे भोजन नहीं मिलेगा तो वह चोरी करेगा, लड़ाई-झगड़े करेगा, दूसरे से धन छीनने का प्रयत्न करेगा। गरीब मनुष्य को रिश्तेदार भी हीनता की दृष्टि से देखते हैं। ऐसी अवस्था में व्यक्ति समाज-विरोधी भी बन सकता है।
2. समाज-मनुष्य समाज में रहकर ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। यदि समाज के विभिन्न वर्गों में परस्पर सहयोग की भावना होगी तो आवश्यकताओं की पूर्ति भी सुचारु रूप से होती रहेगी। यदि समाज के विभिन्न वर्ग एक-दूसरे के प्रति विरोधी भावना रखेंगे तो आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा पड़ेगी। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आवश्यकताओं को प्रभावित करने वाले कारकों में समाज का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
3. अज्ञान-विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सम्बन्धित ज्ञान की भी आवश्यकता होती है। समुचित ज्ञान के अभाव की स्थिति में आवश्यकताओं की पूर्ति प्राय: सम्भव नहीं हो पाती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अज्ञान भी आवश्यकताओं की पूर्ति के मार्ग में एक बाधा है।
प्रश्न 3.
निरन्तर बनी रहने वाली भग्नाशा की स्थिति के परिणामों का उल्लेख कीजिए। अथवा टिप्पणी लिखिए-भग्नाशा के परिणाम।
उत्तरः
भग्नाशा के परिणाम निरन्तर बनी रहने वाली भग्नाशा का व्यक्ति के जीवन पर गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। वास्तव में यदि व्यक्ति भग्नाशा का शिकार हो तो उसके जीवन में विभिन्न प्रेरणाओं का कोई महत्त्व नहीं रह जाता; अर्थात् उस व्यक्ति के लिए प्रेरणाएँ निरर्थक हो जाती हैं। इस स्थिति में व्यक्ति किसी भी कार्य को करने के लिए प्रेरित नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपने जीवन को सुचारु रूप से नहीं चला पाता; क्योंकि वह जीवन की सामान्य गतिविधियों को पूरा नहीं कर पाता। व्यक्ति अपने जीवन में हर प्रकार से अभावग्रस्त होने लगता है। उसे सुख, सन्तोष एवं आनन्द की कदापि प्राप्ति नहीं हो पाती। वह न तो उन्नति ही कर पाता है और न ही प्रगति। भग्नाशाग्रस्त व्यक्ति प्रायः निराश, हताश एवं उदासीन बना रहता है। निरन्तर भग्नाशा की स्थिति बनी रहने पर विभिन्न मानसिक रोग हो जाने की भी आशंका रहती है। यही नहीं, प्रबल भग्नाशाग्रस्त व्यक्ति आत्महत्या तक कर सकता है।
प्रश्न 4.
भग्नाशा की स्थिति से छुटकारा पाने के लिए उपयोगी सुझाव दीजिए।
उत्तरः
भग्नाशा से छुटकारा पाने के उपयोगी सुझाव –
भग्नाशा को दूर करने के लिए इसको जन्म देने वाले शारीरिक, सामाजिक व मानसिक कारणों को दूर करना आवश्यक है। भग्नाशाग्रस्त व्यक्ति के साथ समाज का व्यवहार कोमल तथा सौहार्दपूर्ण होना चाहिए और उसकी समस्याओं पर सहानुभूति से विचार करना चाहिए। स्वयं व्यक्ति को भी अपने मन में हीनता की भावना नहीं लानी चाहिए और असन्तोष का परित्याग करते हुए जीवनयापन करना चाहिए। किसी प्रबल प्रेरक को जीवन में स्थान देकर भी भग्नाशा से बचा जा सकता है। भग्नाशा के शिकार हुए व्यक्ति के मित्रों, परिवार के सदस्यों तथा अन्य सम्बन्धित व्यक्तियों का यह कर्त्तव्य होता है कि वे उसे प्रोत्साहित करें तथा जीवन की यथार्थता के प्रति अनुकूल दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करें।
एक बार प्रबल प्रेरणा प्राप्त हो जाने पर भग्नाशा से मुक्त होना सरल हो जाता है। कुशल निर्देशन एवं परामर्श द्वारा भी भग्नाशा से मुक्त हो सकते हैं। भग्नाशा के शिकार व्यक्ति को सुझाव देना चाहिए कि उसका जीवन उसके लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है तथा उसे जीवन में अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य करने हैं। भग्नाशा के शिकार व्यक्ति के सम्मुख उन महान व्यक्तियों के उदाहरण प्रस्तुत किए जाने चाहिए, जिन्होंने अपने स्वयं के प्रयासों, परिश्रम एवं आत्म-विश्वास के बल पर विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है। यदि कुण्ठित व्यक्ति में एक बार आत्म-विश्वास जाग्रत हो जाए तो वह शीघ्र ही भग्नाशा से मुक्त हो सकता है।
प्रश्न 5.
वे कौन-सी विभिन्न आवश्यकताएँ हैं जिनकी बाल्यकाल में पूर्ति न होने के कारण किशोरावस्था में भग्नाशा तथा असामंजस्य उत्पन्न हो जाता है? कारण सहित समझाइए।।
अथवा
वे कौन-सी आवश्यकताएँ हैं जिनकी पूर्ति न होने पर बच्चों में भग्नाशा उत्पन्न हो जाती है?
उत्तरः
प्रत्येक बालक की अनेक ऐसी आवश्यकताएँ होती हैं जो कि उसके बाल्य जीवन में पूर्ण नहीं होती हैं; अतः किशोरावस्था एवं भावी जीवन में उसे भग्नाशा का शिकार होना पड़ता है। बालक की इस प्रकार की मुख्य आवश्यकताएँ निम्नलिखित हैं-
1. उचित पालन-पोषण की आवश्यकता – यदि किसी बालक को खाने के लिए उचित भोजन तथा पहनने के लिए उचित वस्त्र नहीं मिलेंगे तो वह चिड़चिड़े स्वभाव का बन जाता है तथा आगे चलकर जब उसकी किशोरावस्था आती है तो वह समाज के साथ प्रायः सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाता। उसका व्यवहार असामान्य हो जाता है तथा वह अनेक बार प्रबल भग्नाशा का शिकार हो जाता है।
2. माता-पिता के प्यार और संरक्षण की आवश्यकता – यदि किसी बच्चे को बचपन में माता-पिता का प्यार नहीं मिलता तो वह किशोरावस्था में अपने माता-पिता के प्रति बिल्कुल भी कर्तव्यपरायण नहीं रहता है तथा उनको घृणा की दृष्टि से देखता है। इस प्रकार का अभावग्रस्त किशोर भी प्राय: असामान्य एवं कुण्ठित व्यक्तित्व वाला बन जाता है।
3. यौन-शिक्षा की आवश्यकता – प्रत्येक व्यक्ति में बचपन से ही यौनेच्छाएँ विद्यमान रहती हैं। यदि बाल्यावस्था से ही उसे उचित यौन शिक्षा नहीं दी जाती है तो वह अनावश्यक व अनैतिक प्रकार के कार्य करने लगता है तथा अपने रास्ते से हटकर, नैतिकता से पतन की दिशा में अग्रसर हो जाता है। स्पष्ट है कि समुचित यौन-शिक्षा के अभाव में व्यक्ति भग्नाशा का शिकार हो सकता है तथा उसका व्यवहार असामान्य हो सकता है।
4. जिज्ञासा और संवेगात्मक भावनाओं की पूर्ति की आवश्यकता – प्रत्येक व्यक्ति में बचपन से ही जिज्ञासा प्रबल होती है। वह यह जानने की पूर्ण कोशिश करता है कि अमुक कार्य कैसे और क्यों किया जा रहा है। अगर उसकी जिज्ञासा प्रवृत्ति प्रारम्भ से ही दबा दी जाती है तो निश्चय ही वह भग्नाशा का शिकार हो जाता है। अत: प्रत्येक बालक की जिज्ञासा तथा संवेगात्मक भावनाओं की पूर्ति का होना नितान्त आवश्यक है।
5. उचित नियन्त्रण की आवश्यकता – प्रत्येक बालक का प्रारम्भ से ही कोमल मस्तिष्क होता है। प्रत्येक बात का प्रभाव उसके मस्तिष्क पर तुरन्त पड़ता है। अगर बालक कोई गलती करता है तो उसे समझा-बुझाकर किसी कार्य को करने के लिए कहना चाहिए। अगर इस बात के स्थान पर उसे मार-पीटकर समझाने की कोशिश की जाएगी तो वह किशोरावस्था में जाकर बिगड़ जाएगा। अत: बाल्यकाल में बालक पर उचित नियन्त्रण की परम आवश्यकता है।
UP Board Class 11 Home Science Chapter 17 अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
‘आवश्यकता’ की एक सरल एवं स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तरः
“आवश्यकता व्यक्ति की उस इच्छा को कहते हैं जिसकी पूर्ति के लिए उसके पास पर्याप्त साधन हों और वह उन साधनों को उस इच्छा की पूर्ति हेतु लगाने को तत्पर हो।” – (पैन्सन)
प्रश्न 2.
मुख्य मानवीय आवश्यकताएँ कौन-कौन सी हैं? अथवा मनुष्य की मूल आवश्यकताएँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तरः
मनुष्य की मुख्य (मूल) आवश्यकताएँ हैं – क्रमशः पर्याप्त तथा सन्तुलित भोजन, समुचित वस्त्र, समुचित आवास-व्यवस्था, बच्चों के लिए शिक्षा-व्यवस्था, स्वास्थ्य-रक्षा तथा चिकित्सा सुविधा, मनोरंजन के साधन तथा बच्चों की देखभाल।
प्रश्न 3.
मानवीय आवश्यकताओं की चार मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
- आवश्यकताएँ असीमित होती हैं।
- आवश्यकताएँ बार-बार उत्पन्न होती हैं।
- आवश्यकताओं में प्रतियोगिता होती है।
- आवश्यकताएँ ज्ञान की वृद्धि के साथ-साथ बढ़ती हैं।
प्रश्न 4.
आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा पड़ने से मनुष्य समाज विरोधी क्यों हो जाता है? उदाहरण दीजिए।
उत्तरः
यदि अत्यधिक प्रयास करने पर भी व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाता तथा उसे विभिन्न बाधाओं का सामना करना पड़ता है तो वह इसके लिए समाज को जिम्मेदार मानने लगता है तथा उसका व्यवहार प्रायः समाज विरोधी हो जाता है। उदाहरण के लिए जीविका-उपार्जन न कर पाने वाला व्यक्ति चोरी कर सकता है।
प्रश्न 5.
भग्नाशा से क्या आशय है?
उत्तरः
व्यक्ति की आशाओं के भग्न हो जाने के परिणामस्वरूप उत्पन्न मानसिक स्थिति को भग्नाशा कहते हैं।
प्रश्न 6.
भग्नाशा के दो कारण लिखिए।
उत्तरः
- अधिकांश इच्छाओं एवं आवश्यकताओं का पूर्ण न होना।
- जीवन में प्रेरणाओं का अभाव होना।
प्रश्न 7.
निरन्तर भग्नाशा की स्थिति का व्यक्ति के व्यक्तित्व पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तरः
निरन्तर भग्नाशा की स्थिति बनी रहने से व्यक्ति का व्यक्तित्व विघटित हो जाता है।
प्रश्न 8.
व्यक्तियों में भग्नाशा उत्पन्न करने वाले सामान्य प्राकृतिक कारक बताइए।
उत्तरः
व्यक्तियों में भग्नाशा उत्पन्न करने वाले सामान्य प्राकृतिक कारक हैं-भूकम्प, बाढ़ अथवा सूखा तथा महामारी आदि प्राकृतिक आपदाएँ।
प्रश्न 9.
भग्नाशा की स्थिति से मुक्त होने का सर्वोत्तम उपाय क्या है?
उत्तरः
भग्नाशा की स्थिति से मुक्त होने का सर्वोत्तम उपाय है—किसी प्रबल प्रेरणा को उत्पन्न करना।
प्रश्न 10.
बच्चों को भग्नाशा से कैसे बचाया जा सकता है?
उत्तरः
उचित परामर्श द्वारा बच्चों को भग्नाशा से बचाया जा सकता है।
UP Board Class 11 Home Science Chapter 17 बहविकल्पीय प्रश्नोत्तर
निर्देश : निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चयन कीजिए –
1. आवश्यकता व्यक्ति की वह इच्छा है, जिसकी पूर्ति के लिए उसके पास पर्याप्त होने चाहिए –
(क) धन
(ख) साधन
(ग) प्रतिष्ठा
(घ) बचत।
उत्तरः
(ख) साधना
2. परिवार की सर्वाधिक अनिवार्य आवश्यकता है –
(क) भव्य भवन
(ख) भोजन
(ग) मोटर कार
(घ) ये सभी।
उत्तरः
(ख) भोजन।
3. मनुष्य की आवश्यक आवश्यकता क्या है –
(क) टी० वी०
(ख) भोजन
(ग) पढ़ाई
(घ) मनोरंजन।
उत्तरः
(ख) भोजन।
4. मानव की मूलभूत आवश्यकताएँ कौन-कौन सी हैं –
(क) मनोरंजन
(ख) घूमना
(ग) रोटी, कपड़ा और मकान
(घ) व्यायाम।
उत्तरः
(ग) रोटी, कपड़ा और मकान।
5. व्यक्ति की गौण आवश्यकता माना जाता है –
(क) सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार
(ख) प्राकृतिक कारकों से रक्षा करने वाले वस्त्र
(ग) भव्य भवन एवं कीमती गहने
(घ) शिक्षा एवं स्वास्थ्य रक्षा।
उत्तरः
(ग) भव्य भवन एवं कीमती गहने।
6. एक से अधिक कारें, भव्य भवन तथा बहुमूल्य गहने किस वर्ग की आवश्यकताएँ हैं –
(क) प्राथमिक आवश्यकता
(ख) आरामदायक आवश्यकता
(ग) विलासात्मक आवश्यकता
(घ) अनावश्यक आवश्यकता।
उत्तरः
(ग) विलासात्मक आवश्यकता।
7. भग्नाशा को समाप्त किया जा सकता है –
(क) विवाह करके
(ख) औषधियों द्वारा
(ग) पर्याप्त धन उपलब्ध कराकर
(घ) प्रबल प्रेरणा द्वारा।
उत्तरः
(घ) प्रबल प्रेरणा द्वारा।