UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 5 Minerals and Rocks

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 5 Minerals and Rocks (खनिज एवं शैल)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 5 Minerals and Rocks (खनिज एवं शैल)

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

1. बहुवैकल्पिक प्रश्न
प्रश्न (i) निम्न में से कौन ग्रेनाइट के दो प्रमुख घटक हैं?
(क) लौह एवं निकिल ।
(ख) सिलिका एवं ऐलुमिनियम
(ग) लौह एवं चाँदी ।
(घ) लौह ऑक्साइड एवं पोटैशियम
उत्तर-(ग) लौह एवं चाँदी।।

प्रश्न (ii) निम्न में से कौन-सा कायान्तरित शैलों का प्रमुख लक्षण है?
(क) परिवर्तनीय
(ख) क्रिस्टलीय
(ग) शान्त
(घ) पत्रण
उत्तर-(क) परिवर्तनीय।

प्रश्न (iii) निम्न में से कौन-सा एकमात्र तत्त्व वाला खनिज नहीं है?
(क) स्वर्ण
(ख) माइका ।
(ग) चाँदी
(घ) ग्रेफाइट
उत्तर-(घ) ग्रेफाइट।

प्रश्न (iv) निम्न में से कौन-सा कठोरतम खनिज है?
(क) टोपाज
(ख) क्वार्ट्ज
(ग) हीरा
(घ) फेल्सफर
उत्तर-(ग) हीरा

प्रश्न (v) निम्न में से कौन-सी शैल अवसादी नहीं है?
(क) टायलाइट
(ख) ब्रेशिया
(ग) बोरॅक्स
(घ) संगमरमर
उत्तर-(घ) संगमरमर।।

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए
(i) शैल से आप क्या समझते हैं? शैल के तीन प्रमुख वर्गों के नाम बताएँ।
उत्तर- पृथ्वी की पर्पटी चट्टानों से बनी है। चट्टान का निर्माण एक या एक से अधिक खनिजों से मिलकर होता है। चट्टानें कठोर या नरम तथा विभिन्न रंगों की हो सकती हैं। जैसे ग्रेनाइट कठोर तथा सोपस्टोन नरम है। गैब्रो काला तथा क्वार्टज़ाइट दूधिया श्वेत हो सकता है। शैलों में खनिज घटकों का कोई निश्चित संघटक नहीं होता है। शैलों में सामान्यतः पाए जाने वाले खनिज पदार्थ फेल्डस्पर तथा क्वार्ट्ज हैं। शैलों को निर्माण पद्धति के आधार पर तीन समूहों में विभाजित किया गया है-
(i) आग्नेय शैल
(ii) अवसादी शैल
(iii) कायांतरित शैल।

(ii) आग्नेय शैल क्या हैं? आग्नेय शैल के निर्माण की पद्धति एवं लक्षण बताएँ।
उत्तर- आग्नेय शैलों का निर्माण पृथ्वी के आंतरिक भाग के मैग्मा से होता है, अतः इनको प्राथमिक शैल भी कहते हैं। मैग्मा के ठंडे होकर घनीभूत हो जाने पर आग्नेय शैलों का निर्माण होता है। मैग्मा ठंडा होकर ठोस बन जाता है तो यह आग्नेय शैल कहलाता है। इसकी बनावट इसके कणों के आकार एवं व्यवस्था अथवा पदार्थ की भौतिक अवस्था पर निर्भर करती है। यदि पिघले हुए पदार्थ धीरे-धीरे गहराई तक ठंडे होते हैं। तो खनिज के कण पर्याप्त बड़े हो सकते हैं। सतह पर हुई आकस्मिक शीतलता के कारण छोटे एवं चिकने कण बनते हैं। शीतलता की मध्यम परिस्थितियाँ होने पर आग्नेय चट्टान को बनाने वाले कण मध्यम आकार के हो सकते हैं। ग्रेनाइट, बेसाल्ट, वोल्केनिक ब्रेशिया तथा टफ़ आग्नेय शैल के उदाहरण हैं।

(iii) अवसादी शैल का क्या अर्थ है? अवसादी शैल के निर्माण की पद्धति बताएँ।
उत्तर- अवसादी अर्थात् सेडीमेंटरी शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द सेडिमेंट्स से हुई है, जिसका अर्थ है-व्यवस्थित होना। पृथ्वी की सतह की शैलें अपक्षयकारी कारकों के प्रति अनावृत होती हैं, जो विभिन्न आकार के विखंडों में विभाजित होती हैं। ऐसे उपखंडों को विभिन्न बहिर्जनित कारकों के द्वारा संवहन एवं निक्षेपण होता है। सघनता के द्वारा ये संचित पदार्थ शैलों में परिणत हो जाते हैं। यह प्रक्रिया शिलीभवन कहलाती है। बहुत-सी अवसादी शैलों में निक्षेपित परतें शिलीभवन के बाद भी अपनी विशेषताएँ बनाए रखती हैं। इसी कारणवश बालुकाश्म, शैल जैसी अवसादी शैलों में विविध सांद्रता वाली अनेक सतहें होती हैं।

(iv) शैली चक्र के अनुसार प्रमुख प्रकार की शैलों के मध्य क्या संबंध होता है?
उत्तर- शैली चक्र एक सतत प्रक्रिया होती है, जिसमें पुरानी चट्टानें परिवर्तित होकर नवीन रूप लेती हैं। आग्नेय चट्टानें तथा अन्य (अवसादी एवं कायांतरित) चट्टानें इन प्राथमिक चट्टानों से निर्मित होती हैं। आग्नेय चट्टानों को कायांतरित चट्टानों में परिवर्तित किया जा सकता है। आग्नेय एवं कायांतरित चट्टानों से प्राप्त अंशों से अवसादी चट्टानों का निर्माण होता है। अवसादी चट्टानें अपखंडों में परिवर्तित हो सकती हैं तथा ये अपखंड अवसादी चट्टानों के निर्माण का एक स्रोत हो सकते हैं।

विभिन्न प्रकार की चट्टानों की प्रकृति एवं अन्तर

1. आग्नेय चट्टान-आग्नेय चट्टानें कलेर, रवेदार एवं अप्रवेश्य होती हैं। इनमें जीवाश्म नहीं पाए जाते हैं।
2. परतदार चट्टान-परतदार चट्टानें कोमल, प्रवेश्य, जीवाश्मयुक्त होती हैं। इनमें कणों के स्थान पर | परत पाई जाती हैं।
3. कायान्तरित चट्टान-ये चट्टानें कठोर होती हैं। टूटने पर इनके कण बिखर जाते हैं। इनकी उत्पत्ति धरातल से हजारों मीटर की गहराई पर होती है। ये चट्टानें विभिन्न रंगों वाली होती हैं।

प्रश्न (iii) कायान्तरित शैल क्या है? इनके प्रकार एवं निर्माण की पद्धति का वर्णन करें।
उत्तर-कायान्तरित का अर्थ हैं—रूप में परिवर्तन; अत: ऐसी आग्नेय एवं परतदार चट्टानें जिनका धरातल के नीचे ताप या दाब वृद्धि के कारण रूप बदल जाता है, कायान्तरित शैलें कहलाती हैं। इस प्रकार कायान्तरित चट्टानों का निर्माण पूर्व चट्टान के आयतन, दाब व तापमान में परिवर्तन के कारण होता है। उदाहरण के लिए, आग्नेय और तलछटी शैलों का उष्मा, संपीडन और विलियन द्वारा परिवर्तन होता है। संगमरमर, स्लेट और ग्रेफाइट इसी के द्वारा उत्पन्न कायान्तरित चट्टानें हैं। इन चट्टानों के रूप, रंग और। आकार में इतना परितर्वन हो जाता है कि इनके मूल रूप की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

कायान्तरित चट्टानों के प्रकार

कायान्तरित चट्टानें रूप-परिवर्तन के परिणामस्वरूप निम्नलिखित तीन प्रकार की होती हैं
1. गतिक कायान्तरित शैल-जब मूल चट्टान अत्यधिक दाब के कारण रूपान्तरित हो जाती है तो उसे गति कायान्तरित शैल कहते हैं। इस प्रकार से निर्मित कायान्तरित शैलों में ग्रेनाइट से नाईस तथा मिट्टी से शैल, शिष्ट आदि प्रमुख चट्टानें हैं।

2. तापीय कायान्तरित शैल-जब भूपर्पटी में अत्यधिक उष्मा के प्रभाव से अवसादी अथवा आग्नेय चट्टानों के खनिजों में रवों का पुनर्निर्माण या रूप परिवर्तन होता है तो उसे तापीय कायान्तरित शैल कहते हैं। इसे स्पर्श रूपान्तरित शैल भी कहते हैं। इस रूपान्तरण से चूना-पत्थर संगमरमर में, बालू क्वार्ट्जाइट में तथा चिकनी मिट्टी स्लेट में और कोयला ग्रेफाइट में बदल जाता

3. क्षेत्रीय/प्रादेशिक कायान्तरित शैल-इस स्थिति में बहुत गहराई पर ताप में हुई वृद्धि और भूसंचरण का दाब एक साथ मिलकर किसी बड़े क्षेत्र पर एक साथ कार्य करता है तो पूरे क्षेत्र की चट्टानों का रूपान्तरण हो जाता है। इसी से क्षेत्रीय अथवा प्रादेशिक कायान्तरित शैल बनती हैं।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. “चट्टानें अधिकतर विभिन्न प्रकार के खनिज पदार्थों का संयोग होती हैं।” यह कथन है|
(क) टॉर एवं मार्टिन का
(ख) सर आर्थर होम्स का।
(ग) कुमारी सैम्पुल का
(घ) गुटेनबर्ग का
उत्तर-(ख) सर आर्थर होम्स का।

प्रश्न 2. कायान्तरण या रूप-परिवर्तन के कारण हैं
(क) तापमान
(ख) सम्पीडन एवं दबाव
(ग) घोलन-शक्ति
(घ) ये सभी
उत्तर-(घ) ये सभी।

प्रश्न 3. जिप्सम है|
(क) अवसादी चट्टाने
(ख) आग्नेय चट्टान
(ग) रूपान्तरित चट्टान
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-(क) अवसादी चट्टान।।

प्रश्न 4. बेसाल्ट है
(क) अवसादी चट्टान
(ख) आग्नेय चट्टान
(ग) कायान्तरित चट्टान
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-(ख) आग्नेय चट्टान।

प्रश्न 5. निम्नांकित में से कौन-सी चट्टान कायान्तरित नहीं है?
(क) ग्रेनाइट
(ख) नीस
(ग) शिस्ट (घ) संगमरमर
उत्तर-(क) ग्रेनाइट।

प्रश्न 6. सम्पीडन एवं दबाव किन शैलों के निर्माण में सहायक होते हैं?
या पृथ्वी के आन्तरिक भाग में कौन-सी चट्टान अधिक गर्मी व दबाव से बनी है?
(क) अवसादी शैलों के
(ख) आग्नेय शैलों के
(ग) कायान्तरित शैलों के
(घ) इनमें से किसी के भी नहीं
उत्तर-(ग) कायान्तरित शैलों के।

प्रश्न 7. निम्नलिखित में से कौन एक कायान्तरित चट्टान है?
(क) बालुका पत्थर
(ख) बेसाल्ट
(ग) संगमरमर
(घ) ग्रेनाइट
उत्तर-(ग) संगमरमर। ।

प्रश्न 8. निम्नलिखित में से कौन आग्नेय चट्टान है?
(क) बालुका पत्थर
(ख) स्लेट
(ग) बेसाल्ट
(घ) शैल
उत्तर-(ग) बेसाल्ट।

प्रश्न 9. निम्नलिखित में से कौन-सी कायान्तरित शैल है?
(क) ग्रेनाइट
(ख) शैल
(ग) चूना-पत्थर
(घ) स्लेट
उत्तर-(घ) स्लेट।।

प्रश्न 10. निम्नलिखित में से कौन-सी आग्नेय चट्टान है?
(क) ग्रेनाइट
(ख) चूना-पत्थर
(ग) शैल
(घ) स्लेट
उत्तर-(क) ग्रेनाइट।

प्रश्न 11. निम्नलिखित में से कौन-सी कायान्तरित चट्टान है?
(क) बेसाल्ट
(ख) क्वार्ट्जाइट
(ग) ग्रेनाइट
(घ) बालुका पत्थर
उत्तर-(ख) क्वार्ट्जाइट।

प्रश्न 12. रूपान्तरण क्रिया की सरल ऊर्जा है
(क) चट्टानों का विघटन
(ख) चट्टानों का वियोजन
(ग) चट्टानों का रूप परिवर्तन
(घ) चट्टानों की स्थिति में परिवर्तन
उत्तर-(ग) चट्टानों का रूप परिवर्तन।

प्रश्न 13. निम्नलिखित में से कौन परतदार चट्टान है?
(क) संगमरमर
(ख) स्लेट
(ग) चूने का पत्थर
(घ) बेसाल्ट
उत्तर-(ग) चूने का पत्थर।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. शैल या चट्टान से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-भूपटल पर पाये जाने वाले वे समस्त पदार्थ जो धातुएँ नहीं हैं, चाहे वे चीका मिट्टी की तरह मुलायम हों या ग्रेनाइट की भाँति कठोर हों, चट्टान कहलाते हैं।

प्रश्न 2. आग्नेय चट्टानें कैसे बनती हैं?
उत्तर-पृथ्वी के भीतरी भागों से आन्तरिक क्रिया द्वारा पृथ्वी के ऊपरी धरातल पर जब पिघला हुआ पदार्थ ठोस रूप धारण करता है, तो आग्नेय चट्टानें बनती हैं।

प्रश्न 3. कायान्तरित या रूपान्तरित चट्टानें किन्हें कहते हैं?
उत्तर-जिन चट्टानों में दबाव, गर्मी एवं रासायनिक क्रियाओं द्वारा उनकी बनावट, रूप तथा खनिजों का पूरी तरह कायापलट हो जाता है, उन्हें कायान्तरित या रूपान्तरित चट्टानें कहते हैं।

प्रश्न 4. कायान्तरित या रूपान्तरित शैलों का निर्माण कैसे होता है?
उत्तर-कायान्तरित या रूपान्तरित शैलों का निर्माण आग्नेय तथा अवसादी शैलों पर अत्यधिक दबाव तथा अधिक तापमानों के प्रभाव से उनके रूपान्तर द्वारा होता है।

प्रश्न 5. अवसादी शैलें कैसे बनती हैं?
उत्तर-अपक्षय और अपरदन के विभिन्न साधनों द्वारा धरातल, झीलों, सागरों एवं महासागरों में लगातार मलबा जमा होता रहता है। यह मलबा परतों के रूप में जमा होता रहता है। इस प्रकार लगातार मलबे की परत के ऊपर परत जमा होती रहती है। ऊपरी दबाव के कारण नीचे वाली परतें कुछ कठोर हो जाती हैं। ये परतें ही कठोर होकर अवसादी शैलें बन जाती हैं।

प्रश्न 6. आग्नेय शैलों की दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर-आग्नेय शैलों की दो विशेषताएँ निम्नवत् हैं

  • ये अत्यन्त कठोर होती हैं; अतः इनमें जल प्रवेश नहीं कर सकता।
  • इन शैलों का निर्माण ज्वालामुखी से निकले गर्म एवं तप्त मैग्मा द्वारा होता है।

प्रश्न 7. प्रमुख कायान्तरित चट्टानों के नाम लिखिए।
उत्तर-प्रमुख कायान्तरित चट्टानें हैं—स्लेट, ग्रेफाइट, संगमरमर, हीरा, नीस आदि।

प्रश्न 8. पातालीय आग्नेय चट्टानें क्या हैं? उदाहरण देकर बताइए।
उत्तर-भूगर्भ का जो मैग्मा धरातल पर न आकर भीतरी भागों में बहुत अधिक गहराई पर ठण्डा होकर जम जाता है और उससे जो चट्टानें बनती हैं, वे पातालीय चट्टानें कहलाती हैं; जैसे-ग्रेनाइट और ग्रैबो।।

प्रश्न 9. कायान्तरित एवं आग्नेय चट्टानों के चार-चार उदाहरण दीजिए।
उत्तर-कायान्तरित चट्टानें—(1) स्लेट, (2) नीस, (3) हीरा तथा (4) संगमरमर। | आग्नेय चट्टानें-(1) गैब्रो, (2) बेसाल्ट, (3) ग्रेनाइट तथा (4) सिल।।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. स्पष्ट कीजिए-चट्टानें खनिजों का समूह हैं।
उत्तर-कुछ चट्टानें एक ही खनिज से निर्मित होती हैं; जैसे—बलुआ पत्थर, चूना-पत्थर, संगमरमर आदि, किन्तु कुछ चट्टानें एक से अधिक खनिजों के सम्मिश्रण से बनी होती हैं; जैसे—ग्रेनाइट, स्फटिक, फेल्सफर और अभ्रक, जो तीन या चार खनिजों से मिलकर बनते हैं। कुछ अन्य अनेक प्रकार की धातु एवं अधातु खनिजों के जटिल मिश्रण से भी बनती हैं; जैसे-ऐलुमिना, कांग्लोमरेट, लिमोनाइट अयस्क आदि। भूवैज्ञानिकों द्वारा अब तक लगभग 2,000 खनिजों का पता लगाया जा चुका है, किन्तु भूपटल के निर्माण में इनमें से केवल 20 खनिज ही महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। खनिज विशेष प्रकार के गुणों वाला मूल-तत्त्वों का रासायनिक यौगिक (Chemical Compound) होता है। अभी तक 115 मूल तत्त्वों के बारे में जानकारी प्राप्त हो सकी है, किन्तु भू-पृष्ठ के निर्माण में इसमें से केवल 8 ही प्रमुख माने गये हैं। इस प्रकार भू-पृष्ठ का 98.59 प्रतिशत भाग केवल 8 खनिजों ऑक्सीजन (46.8), सिलिकन (27.7), ऐलुमिनियम (8.13), लोहा (5.0), कैल्सियम (3.63), सोडियम (2.83), पोटैशियम (2.49) और मैग्नीशियम (2.09) प्रतिशत से निर्मित है। पृथ्वी के शेष 1.41 प्रतिशत भाग की रचना टाइटैनियम, हाइड्रोजन फॉस्फोरस, कार्बन, मैंगनीज, गन्धक, बोरियम, क्लोरीन, सोना, चाँदी, ताँबा, पारा, सीसा आदि शेष सभी तत्त्वों से हुई है। इस प्रकार चट्टानें खनिजों का समूह हैं।

प्रश्न 2. शैलों के तापीय और गत्यात्मक कायान्तरण का अन्तर बताइए।
उत्तर-शैलों का तापीय कायान्तरण ज्वालामुखी क्रिया के द्वारा होता है। ज्वालामुखी क्रिया के दौरान उष्ण मैग्मा के मार्ग में पड़ने वाली शैलें अत्यधिक ताप के कारण परिवर्तित हो जाती हैं। इसे तापीय कायान्तरण कहते हैं। इसके विपरीत, गत्यात्मक कायान्तरण का कारण भूगर्भ की पर्वत निर्माणकारी हलचलें हैं। इन हलचलों के कारण शैलों में गतिशीलता उत्पन्न होती है। परिणामतः वे काफी गहराई पर पहुँच जाती हैं। अत्यधिक दबाव, भिंचाव तथा उष्णता के कारण उनमें कायान्तरण होता है।

प्रश्न 3. रूपान्तरण के मुख्य प्रकार बताइए।
उत्तर-रूपान्तरण के प्रभाव-क्षेत्र एवं उसके अभिकर्ताओं के अनुसार प्रमुख प्रकार निम्नवत् हैं–
1. संस्पर्शीय रूपान्तरण अथवा तापीय रूपान्तरण-जब तप्त मैग्मा के सम्पर्क में आकर शैल का रूप बदल जाता है तो उसे संस्पर्शीय या तापीय रूपान्तरण कहते हैं। भूगर्भ में बैथोलिथ सिल, डाइक आदि का निर्माण मैग्मा क्षेत्रों के निकटवर्ती भागों में शैलों के रूपान्तरण द्वारा इसी प्रकार : होता है। बलुआ-पत्थर से क्वार्ट्ज़ाइट और चूना पत्थर से संगमरमर इसी प्रकार बनी रूपान्तरित
शैलें हैं।

2. प्रादेशिक रूपान्तरण-जब रूपान्तरण की क्रिया अत्यधिक ताप एवं दबाव के कारण एक विस्तृत क्षेत्र में घटित होती है तो उसे प्रादेशिक रूपान्तरण कहते हैं। ऐसा रूपान्तरण प्रायः नवीन | पर्वतीय क्षेत्रों में पाया जाता है। यहाँ संगमरमर, स्लेट, सिस्ट, क्वार्ट्जाइट, नीस आदि रूपान्तरित शैलें व्यापक स्तर पर मिलती हैं।

प्रश्न 4. शैलों को वर्गीकृत कीजिए।
या शैल या चट्टान कितने प्रकार की होती हैं?
उत्तर-भू-पटल पर पाई जाने वाली शैलों को उनकी संरचना एवं गुणों के आधार पर निम्नलिखित तीन भागों में बाँटा जा सकता है

1. आग्नेय या प्राथमिक शैल-यह शैल पृथ्वी के तरल मैग्मा के शीतल होने से सर्वप्रथम निर्मित हुई थी, इसलिए इसे प्राथमिक शैल कहते है।

2. परतदार या अवसादी शैल-जल भागों में अवसादों एवं जीवावशेषों के जमाव से निर्मित शैलें अवसादी शैलें कहलाती हैं। इनका निर्माण विभिन्न अपरदन कारकों जल, वायु, हिमानी आदि से होता है।

3. रूपान्तरित या कायान्तरित शैल-दाब एवं ताप के कारण अवसादी या आग्नेय शैलों के रूप परिवर्तन के फलस्वरूप कायान्तरित शैलों का निर्माण होता है।

प्रश्न 5. आग्नेय शैलों का रासायनिक संरचना के आधार पर वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर-रासायनिक संरचना के आधार पर आग्नेयशैलों का वर्गीकरण-आग्नेय शैलों की संरचना में सिलिका प्रमुख घटक होता है। सिलिका की मात्रा के आधार पर इन्हें निम्नलिखित चार भागों में बाँटा गया हैं

  1. अधिसिलिका या अम्लप्रधान चट्टानें–इनका उदाहरण ग्रेनाइट और आब्सीडियन चट्टानें हैं। जिनमें सिलिका की मात्रा 65% से अधिक होती है। इन चट्टानों का रंग हल्का होता है।
  2. मध्यसिलिका चट्टानें-डायोराइट और एण्डोजाइट इसी प्रकार की चट्टानें हैं जिनमें सिलिका की मात्रा 55% से 65% तक होती है।
  3. अल्पसिलिका या बेसिक चट्टानें-इनमें सिलिका 45% से 55% तक पाया जाता है। इनका रंग गहरा होता है। बेसाल्ट और गैब्रो इनके उदाहरण हैं।
  4. अत्यल्प सिलिका या बेसिक चट्टानें-इनमें सिलिका की मात्रा 45% से भी कम होती है। पेरिडोटाइट इसी प्रकार की चट्टान है जो बहुत भारी होती है।

प्रश्न 6. कायान्तरित शैलों की मुख्य विशेषता एवं आर्थिक महत्त्व बताइए।
उत्तर-कायान्तरित शैलों की विशेषताएँ
कायान्तरित शैलों में निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं

  • इन चट्टानों में रवे तो पाए जाते हैं, परन्तु परतों का प्रायः अभाव पाया जाता है। शैलों का कायान्तरण हो जाने के फलस्वरूप उनके जीवाश्म नष्ट हो जाते हैं।
  • ये शैलें संगठित तथा कठोर होती हैं: अतः इन पर ऋतु-अपक्षय एवं अपरदन की क्रियाओं का विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है।
  • ये शैलें अरन्ध्र होती हैं, अतः इनमें जल प्रवेश नहीं कर पाता। इनका अपरदन तथा अपक्षये भी कठिनाई से होता है।
  • यद्यपि इन शैलों का निर्माण आग्नेय तथा परतदार शैलों के रूप-परिवर्तन से होता है, फिर भी इनमें मूल चट्टान का कोई लक्षण नहीं पाया जाता है।

कायान्तरित शैलों का आर्थिक महत्त्व

कायान्तरित शैलें आर्थिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती हैं। इन्हीं शैलों में सोना, हीरा, संगमरमर, चाँदी, ग्रेफाइट तथा चुम्बकीय लोहा जैसे मूल्यवान खनिज पाए जाते हैं, जिनका उपयोग उद्योगों तथा भवन-निर्माण के लिए किया जाता है। सोना, चाँदी तथा हीरा बहुमूल्य खनिज हैं। इन शैलों में गन्धक-मिश्रित जल के स्रोत पाए जाते हैं, जिनमें स्नान करने से त्वचा के रोग नष्ट हो जाते हैं।

प्रश्न 7. प्रमुख कायान्तरित शैल एवं उनके मौलिक रूपों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- प्रमुख कायान्तरित शैलें तथा उनके मौलिक रूप
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 5 Minerals and Rocks 2

प्रश्न 8. खनिज एवं चट्टान में अन्तर बताइए।
उत्तर-खनिज एवं चट्टान में अन्तर
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 5 Minerals and Rocks 3

प्रश्न 9. रूपान्तरित एवं अवसादी शैलों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-रूपान्तरित एवं अवसादी शैलों में अन्तर
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 5 Minerals and Rocks 4

प्रश्न 10. फोलिएशन (Foliation) एवं लिनिएशन (Lineation) में भेद कीजिए।
उत्तर-फोलिएशन (पत्रण)—जब रूपान्तरित शैल के कण कुछ परत के रूप में समान्तर अवस्था में पाए। जाते हैं तो इस प्रकार की कायान्तरित शैलों की बनावट फोलिएशन या पत्रण कहलाती है।
लिनिएशन—यह भी रूपान्तरित चट्टानों की एक विशेष बनावट है जिसके अन्तर्गत खनिजों के कण लम्बे, पतले तथा पेन्सिल के रूप में पाए जाते हैं।

प्रश्न 11. खनिजों का सामान्य वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर-सामान्यतः खनिजों का वर्गीकरण धात्विक खनिज एवं अधात्विक खनिजों के रूप में किया जाता है
(क) धात्विक खनिज-इनमें धातु तत्त्वों की प्रधानता होती है। इन्हें तीन वर्गों में विभक्त किया जाता है

  1. बहुमूल्य धातु खनिज-स्वर्ण, चाँदी, प्लेटिनम आदि।
  2. लौह धातु खनिज-लौह एवं स्टील के निर्माण के लिए प्रयुक्त खनिज; जैसे—मैंगनीज आदि।
  3. अलौहिक धातु खनिज-इनमें ताम्र, सीसा, जिंक, टिन, ऐलुमिनियम आदि धातुएँ सम्मिलित हैं।

(ख) अधात्विक खनिज-इसमें धातु के अंश उपस्थित नहीं होते हैं। गन्धक, फॉस्फेट तथा नाइट्रेट आदि अधात्विक खनिज के मुख्य उदाहरण हैं। सीमेण्ट अधात्विक खनिजों का मिश्रित पदार्थ है।

प्रश्न 12. निर्माण पद्धति के आधार पर अवसादी चट्टानों के तीन मुख्य प्रकार उदाहरण सहित बताइए।
उत्तर–निर्माण पद्धति के आधार पर अवसादी शैलों के तीन मुख्य वर्ग निम्नलिखित हैं

  1. यांत्रिकी रूप से निर्मित-उदाहरणार्थ; बालुकाश्म, पिण्डशिला, चूना प्रस्तर, शैल विमृदा आदि।
  2. कार्बनिक रूप से निर्मित-उदाहरणार्थ, गीजराइट, खड़िया, चूना-पत्थर, कोयला आदि।
  3. रासायनिक रूप से निर्मित-उदाहरणार्थ; श्रृंगार प्रस्तर, चूना-पत्थर, हेलाइट, पोटाश आदि।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. खनिज को परिभाषित कीजिए तथा भौतिक विशेषताओं और स्वभाव के आधार पर खनिजों की संक्षिप्त जानकारी दीजिए।
उत्तर-खनिज की परिभाषा
पृथ्वी से प्राप्त वे पदार्थ जिनकी साधारणतः एक विशेष प्रकार की रासायनिक संरचना होती है तथा जिसमें विशेष रासायनिक और भौतिक गुण पाए जाते हैं, उन्हें खनिज कहते हैं। खनिज प्राय: दो या दो से अधिक पदार्थों के मिश्रण से बनते हैं, परन्तु कुछ खनिज ऐसे भी हैं जो केवल एक ही पदार्थ से बनते हैं। जैसे–सल्फर, ग्रेफाइट, सोना आदि।।

भौतिक विशेषताएँ

  1. क्रिस्टल-खनिजों के कणों का ब्राह्यरूप अणुओं की आन्तरिक व्यवस्था द्वारा निश्चित होता है। खनिजों के कण घनाकार, अष्ट्भुजाकार या षट्भुजाकार भी हो सकते हैं।
  2. विदलन-खनिजों में विदलन प्रकृति दिशा द्वारा निश्चित होती है। खनिज एक या अनेक दिशाओं में एक-दूसरे से कोई भी कोण बनाकर टूट सकते हैं।
  3. विभंजन-खनिजों के अणुओं की आन्तरिक व्यवस्था अत्यन्त जटिल होती है। इसलिए इनमें विभाजन अनियमित होता है।
  4. चमक-प्रत्येक खनिज की अपनी चमक होती है; जैसे—मेटैलिक, रेशमी, ग्लॉसी आदि।
  5. रंग-खनिजों के रंग उनकी परमाणविक संरचना से तथा कुछ में अशुद्धियों के कारण निर्धारित होते हैं। मैलाकाइट, एजुराइट, कैल्सोपाइराट आदि परमाणविक संरचना के तथा अशुद्धियों के कारण क्वार्ट्ज का रंग श्वेत, हरा, लाल व पीला होना इसके मुख्य उदाहरण हैं।
  6. धारियाँ-खनिजों में विभिन्न रंगों के मिश्रण के कारण धारियाँ होती हैं।
  7. पारदर्शिता-खनिजों में पारदर्शिता के कारण प्रकाश की किरणें आर-पार हो जाती हैं। कुछ खनिज अपारदर्शी भी होते हैं।
  8. संरचना-प्रत्येक खनिज की संरचना भिन्न-भिन्न होती है, इसका निर्धारण क्रिस्टल की व्यवस्था पर निर्भर होता है।
  9. कठोरता-खनिज कठोर एवं कोमल दोनों प्रकार के होते हैं, किन्तु अधिकांश खनिज कठोर ही होते हैं।

प्रश्न 2. शैल या चट्टान से आप क्या समझते हैं? चट्टानों का वर्गीकरण कीजिए तथा उनका आर्थिक महत्त्व बताइए।
या परतदार या अवसादी चट्टानों की उत्पत्ति, विशेषताओं एवं आर्थिक महत्त्व की विवेचना कीजिए।
या शैलों को वर्गीकृत कीजिए तथा आग्नेय शैलों की विशेषताएँ एवं आर्थिक महत्त्व बताइए।
या अवसादी शैलों का वर्गीकरण कीजिए एवं प्रत्येक की विशेषताएँ बताइए।
या आग्नेय शैलों की उत्पत्ति, विशेषताओं एवं आर्थिक महत्त्व की विवेचना कीजिए।
उत्तर-शैल या चट्टान का अर्थ एवं परिभाषा
सामान्य रूप से भूतल की रचना जिन पदार्थों से हुई है, उन्हें चट्टान या शैल के नाम से पुकारते हैं। चट्टानें अनेक खनिज पदार्थों का सम्मिश्रण होती हैं। खनिज पदार्थों का यह सम्मिश्रण रासायनिक तत्त्वों का योग होता है। वर्तमान वैज्ञानिक युग में 115 मूल तत्त्वों की खोज कर ली गयी है। उपर्युक्त तत्त्वों में धरातलीय संरचना का लगभग 98% भाग केवल आठ तत्त्वों-ऑक्सीजन, सिलिकन, ऐलुमिनियम, लोहा, कैल्सियम, सोडियम, पोटैशियम एवं मैग्नीशियम द्वारा निर्मित है। शेष 2% भाग 98 तत्त्वों के योग से बना है। इसके अतिरिक्त प्रकृति द्वारा प्रदत्त अन्य तत्त्वे भी धरातलीय निर्माण में सहायक हुए हैं।

‘चट्टान’ शब्द का शाब्दिक अर्थ किसी दृढ़ एवं कठोर स्थलखण्ड से लिया जाता है, परन्तु भूतल की ऊपरी पपड़ी में मिले हुए सभी पदार्थ, चाहे वे ग्रेनाइट की भाँति कठोर हों या चीका की भाँति कोमल, चट्टान कहलाते हैं। आर्थर होम्स का मत है कि “शैल अथवा चट्टानों का अधिकतम भाग खनिज पदार्थों कां सम्मिश्रण होता है।” खनिज पदार्थों के सम्मिश्रण चाहे चीका के समान कोमल हों या क्वार्ट्जाइट के समान ठोस या बालू के समान ढीले तथा मोटे कण वाले हों, सभी चट्टान कहलाते हैं। इस आधार पर चट्टान की परिभाषा इन शब्दों में व्यक्त की जा सकती है-“चट्टान अपनी भौतिक स्थिति का वह पिण्ड है जिसके द्वारा धरातल का ठोस रूप परिणत हुआ है।” वास्तव में भूपटल के निर्माण में सहयोग देने वाले सभी तत्त्व शैल या चट्टान कहलाते हैं।

चट्टानों का वर्गीकरण

सामान्य रूप से चट्टानों को निम्नलिखित तीन भागों में बाँटा जा सकता है-

  • आग्नेय चट्टानें (Igneous Rocks),
  • अवसादी या परतदार चट्टानें (Sedimentary Rocks) एवं
  • कायान्तरित या रूपान्तरित चट्टानें (Metamorphic Rocks)।

1. आग्नेय चट्टानें (Igneous Rocks)-‘आग्नेय’ शब्द लैटिन भाषा के Igneous शब्द का रूपान्तरण है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘अग्नि’ से होता है। भूगोलवेत्ताओं का विचार है कि प्रारम्भ में सम्पूर्ण पृथ्वी आग की तपता हुआ एक गोला थी, जो धीरे-धीरे ठण्डी होकर द्रव अवस्था में परिणत हुई है। द्रव अवस्था से ठोस तथा इस ठोस अवस्था से अधिकांशत: आग्नेय चट्टानें बनी हैं। वारसेस्टर नामक भूगोलवेत्ता का कथन है कि “द्रव अवस्था वाली चट्टानें जब ठण्डी होकर ठोस अवस्था में परिवर्तित हुईं, वे ही आग्नेय चट्टानें बनीं।” जब भूगर्भ का गर्म एवं द्रवित लावा । ज्वालामुखी क्रिया द्वारा धरातल पर फैलने से ठण्डा होकर ठोस बनने लगा, तभी आग्नेय चट्टानों को निर्माण हुआ। ज्वालामुखी क्रिया द्वारा इन चट्टानों का निर्माण आज भी होता रहता है, क्योंकि ये प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से अन्य चट्टानों को भी जन्म देती हैं।

आग्नेय चट्टानों की विशेषताएँ–

  1. इन चट्टानों का निर्माण ज्वालामुखी से निकले गर्म एवं तप्त मैग्मा द्वारा होता है।
  2. ये अत्यन्त कठोर होती हैं और इनमें जल प्रवेश नहीं कर सकता। जल का इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ती है, परन्तु ये विखण्डन के कारण टूट जाती हैं।
  3. इन चट्टानों के रवे बड़े ही महीन होते हैं। इन रवों को कोई आकार तथा क्रम नहीं होता।
  4. इन चट्टानों का स्वरूप कभी गोलाकार स्थिति में नहीं मिलता है।
  5. ये चट्टानें सघन होती हैं। इनमें परतों का अस्तित्व देखने को भी नहीं मिलता, परन्तु ज्वालामुखी उद्गार के क्रमशः होते रहने से परतों की भ्रान्ति हो सकती है। इन चट्टानों के वर्गाकार जोड़ों पर ही ऋतु-अपक्षय का प्रभाव पड़ता है।
  6. इन चट्टानों में जीवावशेष (Fossils) नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि तप्त एवं तरल लावा इन्हें | नष्ट कर देता है। यह इन शैलों की सबसे बड़ी विशेषता है।
  7. आग्नेय चट्टानों में अनेक खनिज पाये जाते हैं।

आग्नेय चट्टानों का वर्गीकरण- विश्व में प्राचीनतम आग्नेय चट्टानों की आयु लगभग 15 अरब वर्ष ऑकी गयी है। इस प्रकार की चट्टानें प्रायद्वीपीय भारत में अधिक पायी जाती हैं। राजस्थान का अरावली पर्वत, छोटा नागपुर की गुम्बदनुमा पहाड़ियाँ, राजमहल की श्रेणी और रॉची का पठार इस प्रकार की चट्टानों के बने हैं। अजन्ता की गुफाएँ इन्हीं चट्टानों को काटकर बनाई गयी हैं। स्थिति के अनुसार आग्नेय चट्टानों को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा गया है(अ) आभ्यन्तरिक या आन्तरिक आग्नेय चट्टानें (Intrusive Rocks) एवं (ब) बाह्य आग्नेय चट्टानें (Extrusive Rocks)।
(अ) आभ्यन्तरिक या आन्तरिक आग्नेय चट्टानें (Intrusive Rocks)-जब गर्म एवं तप्त लावा अत्यधिक ताप एवं एकत्रित गैस के माध्यम से भूगर्भ की चट्टानों को तोड़कर ऊपर आने का प्रयास करता है तो लावे का अधिकांश भाग भूगर्भ में नीचे की परतों में ही रह जाता है। यह लावा वहीं ठण्डा होकर आग्नेय चट्टानों में परिवर्तित हो जाता है, जिन्हें आभ्यन्तरिक या आन्तरिक चट्टानें कहते हैं। लावे के शीतल होने की अवधि के आधार पर इन चट्टानों को निम्नलिखित उप-विभागों में बाँटा जा सकता है

(i) पातालीय आग्नेय चट्टानें (Plutonic lgneous Rocks)-जब भूगर्भ का गर्म एवं तप्त लावा बाहर न निकलकर अन्दर ही अन्दर जमकर ठोस हो जाता है, तो पातालीय आग्नेय शैल का निर्माण होता है। इनमें मोटे रवे पाये जाते हैं। ग्रेनाइट शैल इसका प्रमुख उदाहरण है।

(ii) अर्द्ध-पातालीय आग्नेय चट्टानें (Hypabyssal-Igneous Rocks)-इन्हें मध्यवर्ती आग्नेय चट्टानें या अधिवितलीय आग्नेय चट्टानें भी कहते हैं। जब भूगर्भ का गर्म एवं तप्त लावा पृथ्वी की ऊपरी पपड़ी पर आने में असमर्थ रहता है तथा मार्ग में पड़ने वाली सन्धियों एवं दरारों में पहुँचकर जम जाता है, तब यही लावा बाद में ठण्डा होकर चट्टानों को रूप धारण कर लेता है। इन्हें अर्द्ध-पातालीय आग्नेय चट्टानों के नाम से पुकारते हैं। इनमें रवे छोटे आकार के होते हैं। लैकोलिथ, लैपोलिथ, फैकोलिथ, सिल, डाइक आदि इसके प्रमुख उदाहरण हैं।

(ब) बाह्य आग्नेय चट्टानें (Extrusive Igneous Rocks)-जब भूगर्भ का तप्त एवं तरल लावा किसी कारणवश ज्वालामुखी उद्गार द्वारा धरातल के ऊपर ठोस रूप में जम जाता है। तो वह चट्टान का रूप धारण कर लेता है। इससे जिन चट्टानों का निर्माण होता है, उन्हें बाह्य आग्नेय चट्टानें कहते हैं। इनमें रवे नहीं होते। गैब्रो तथा बेसाल्ट ऐसी ही शैलें हैं।

आग्नेय चट्टानों का आर्थिक उपयोग (लाभ)-आग्नेय चट्टानों में विभिन्न प्रकार के खनिज पाये जाते हैं। अधिकांश खनिज व धातु-अयस्क इसी प्रकार की चट्टानों में पाये जाते हैं। लौह-अयस्क,सोना, चाँदी, सीसा, जस्ता, ताँबा, मैंगनीज आदि महत्त्वपूर्ण धातु खनिज आग्नेय चट्टानों में पाये जाते हैं।

ग्रेनाइट जैसी कठोर चट्टानों का उपयोग भवन-निर्माण में व उसके सजाने में किया जाता है। भारत के छोटा नागपुर, ब्राजील का मध्य पठारी भाग, संयुक्त राज्य अमेरिका व कनाडा के लोरेंशियन शील्ड के भागों में आग्नेय चट्टानों में अधिकांश खनिज पाये जाते हैं।

2. अवसादी या परतदार चट्टानें (Sedimentary Rocks)-भूतल के 75% भाग पर अवसादी या परतदार चट्टानों का विस्तार है, शेष 25% भाग में आग्नेय एवं कायान्तरित चट्टानें विस्तृत हैं। इन चट्टानों का निर्माण अवसादों के एकत्रीकरण से हुआ है। अपक्षय एवं अपरदन के विभिन्न साधनों द्वारा धरातल, झीलों, सागरों एवं महासागरों में लगातार मलबा (Debris) जमा होता रहता है। यह मलबा परतों के रूप में जमा होता रहता है। इस प्रकार लगातार मलबे की परत के ऊपर परत जमा होती रहती है। अत: ऊपरी दबाव के कारण नीचे वाली परतें कुछ कठोर हो जाती हैं। इन परतों के विषय में पी० जी० वारसेस्टर ने कहा है कि ‘अवसादी चट्टानों का अर्थ होता है–धरातलीय चट्टानों के टूटे मलबे तथा खनिज पदार्थ किसी स्थान पर एकत्र होते रहते हैं, जो धीरे-धीरे एक परत का रूप ले लेते हैं।” यही परतें कठोर होकर पंरतदार शैलें बन जाती हैं। इन चट्टानों में कणों के जमने का क्रम भी एक निश्चित गति से होता है। पहले मोटे कण जमा होते हैं तथा बाद में उनके ऊपर छोटे-छोटे कण जमा होते जाते हैं तथा इनके ऊपर एक महीन एवं बारीक कणों की परत जमा हो जाती है। इस प्रकार कणों का जमाव अपरदन के साधनों के ऊपर निर्भर करता है। बाद में ये चट्टानें संगठित हो जाती हैं। अवसादों के जल-क्षेत्रों में जमाव के कारण इन चट्टानों में जीवाश्म पाये जाते हैं। आरम्भिक अवस्था में इन चट्टानों का निर्माण समतल भूमि एवं जल-क्षेत्रों में होता है, परन्तु कालान्तर में इन्हीं चट्टानों द्वारा ऊँचे-ऊँचे वलित पर्वतों का निर्माण भी ‘होता है। इन चट्टानों को जोड़ने वाले मुख्य तत्त्व कैलसाइट, लौह-मिश्रण तथा सिलिका आदि हैं। भारत में इनके क्षेत्र गंगा, यमुना, सतलुज, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, ताप्ती, महानदी, दामोदर, कृष्णा, गोदावरी आदि नदी-घाटियाँ हैं।

अवसादी चट्टानों की विशेषताएँ—अवसादी चट्टानों में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं

  1. अवसादी चट्टानों में जीवावशेष पाये जाते हैं। इन अवशेषों से इन चट्टानों के समय तथा स्थान का भूतकालीन परिचय प्राप्त हो जाता है।
  2. ये चट्टानें कोमल तथा रवेविहीन होती हैं।
  3. इन चट्टानों की निर्माण-प्रक्रिया में छोटे-बड़े सभी प्रकार के कणों का योग होता है, जिससे इनके आकार में भी भिन्नता रहती है।
  4. इन चट्टानों में परतें पायी जाती हैं जो स्तरों के रूप में एक-दूसरी पर समतल रूप में फैल जाती हैं।
  5. सागरीय जल में बनने वाली चट्टानों में धाराओं तथा लहरों के चिह्न स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते हैं।
  6. इन चट्टानों को चाकू अथवा किसी लोहे की छड़ से खुरचने पर धारियाँ स्पष्ट रूप से बन जाती हैं। इन खुरचे हुए पदार्थों के विश्लेषण से पता चलता है कि इसमें विभिन्न खनिज पदार्थों का मिश्रण होता है।
  7. ये चट्टानें सरन्ध्र अर्थात् प्रवेश्य होती हैं। जल इन चट्टानों में शीघ्रता से प्रवेश कर जाता है।
  8. नदियों की बाढ़ द्वारा लाई गयी कांप मिट्टी पर जब सूर्य की किरणें पड़ती हैं तो उष्णता के कारण इनमें दरारें पड़ जाती हैं। इसे पंक-फटन कहते हैं।
  9. परतदार चट्टानों में जोड़ तथा सन्धियाँ पायी जाती हैं।
  10. कोयला, पेट्रोल, जिप्सम, डोलोमाइट व नमक जैसे खनिज अवसादी शैलों में ही पाये जाते हैं।
  11. कृषि-कार्य, सिंचाई के साधनों का विकास करने तथा भवन निर्माण में अवसादी शैलों का अधिक महत्त्व है।

अवसादी चट्टानों का वर्गीकरण—(क) निर्माण में प्रयुक्त साधन के अनुसार अवसादी शैलों का वर्गीकरण-अवसादी चट्टानों की निर्माण-प्रक्रिया के साधनों या, कारकों के आधार पर इन्हें ‘निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है

(i) जल-निर्मित (जलज) चट्टानें-अवसादी शैलों के निर्माण में जल का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। पृथ्वीतल पर अधिकांश अवसादी चट्टानें जल द्वारा ही निर्मित हुई हैं। इनमें भी सबसे अधिक योगदान नदियों का रहा है। इन चट्टानों का निर्माण जलीय क्षेत्रों में होता है; अतः इन्हें जलज चट्टानें भी कहते हैं। जल द्वारा निर्मित अवसादी चट्टानों को निम्नलिखित तीन उपविभागों में बाँटा जा सकता है—(अ) नदीकृत चट्टानें, (ब) समुद्रकृत चट्टानें तथा (स) झीलकृत चट्टानें।

(ii) वायु-निर्मित चट्टानें-उष्ण एवं शुष्क मरुस्थलीय क्षेत्रों की चट्टानों में यान्त्रिक अपक्षय तथा अपघटन जारी रहता है। इसलिए बहुत-सा मलबा चूर्ण एवं कणों के आकार में बिखरा पड़ा रहता है। वायु इस मलबे को समय-समय पर विभिन्न स्थानों पर लगातार परतों के रूप में जमा करती रहती है। बाद में इस जमा हुए मलबे से अवसादी चट्टानों का निर्माण हो जाता है। लोयस के जमाव इसी प्रकार होते हैं।

(iii) हिमानी-निर्मित चट्टानें-उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में हिमानियाँ अपरदन एवं निक्षेपण की क्रियाएँ करती हैं। निक्षेपण की क्रिया से हिमानीकृत जो अवसादी चट्टानों का निर्माण होता है, उन्हें ‘हिमोढ़’ अथवा ‘मोरेन’ कहा जाता है।

(ख) निर्माण प्रक्रिया के अनुसार अवसादी शैलों का वर्गीकरण-निर्माण-प्रक्रिया के अनुसार अवसादी शैलों का वर्गीकरण निम्नवत् है–
(i) बलकृत या यन्त्रीकृत अवसादी शैलें-अपरदन के साधनों; जैसे–बहते हुए जल, हिम, पवन, लहरों के द्वारा विभिन्न आकारों में अवसाद जमा किये जाते हैं। इन अवसादों से शैलें बनती हैं। कणों की मोटाई के आधार पर चीका मिट्टी (सूक्ष्म कण), बलुआ पत्थर (मध्यम कण) तथा कांग्लोमरेट या गोलाश्म बलकृत अवसादी शैलों के उदाहरण हैं।

(ii) जैविक तत्त्वों से निर्मित चट्टानें-वनस्पतियों, जीव-जन्तुओं आदि के अवशेष भूतल में दब जाने से काफी समय बाद कार्बनिक चट्टानों के रूप में परिणत हो जाते हैं। दबाव की क्रिया के फलस्वरूप ये कठोर रूप धारण कर लेते हैं। इस क्रिया में निर्मित चट्टानों में कोयला, मूंगे की चट्टान, चूने का पत्थर एवं पीट आदि का , महत्त्वपूर्ण स्थान है।

(iii) रासायनिक तत्त्वों से निर्मित चट्टानें-इन चट्टानों का निर्माण चूने एवं जीव-जन्तुओं के अवशेषों का जल में घुलकर होने से हुआ है। अधिकांशतः इन चट्टानों के जमाव समुद्री भागों में मिलते हैं। जब चट्टानों में ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइ-ऑक्साइड गैसें प्रवेश करती हैं तो वे चट्टानों के रासायनिक संगठन को परिवर्तित कर देती हैं। खड़िया, सेलखड़ी, डोलोमाइट, जिप्सम, नमक आदि इसी प्रकार की चट्टानें हैं। इन चट्टानों पर अपक्षय की क्रियाओं का प्रभाव शीघ्रता से पड़ता है।

अवसादी चट्टानों का आर्थिक उपयोग (लाभ)-अवसादी चट्टाने अनेक प्रकार से उपयोगी हैं। वर्तमान में सभी देशों में नदियों द्वारा निर्मित समतल अवसादी मैदान, बालू के महीन जमाव के लोयस के मैदान आदि विश्व के सबसे उपजाऊ एवं सघन क्रियाकलाप एवं सघन बसाव के प्रदेश हैं। विश्व की सभ्यता के विकास का निर्माण इन्हीं उपजाऊ एवं सघन मैदानों में किया जाता रहा है। बलुआ पत्थर, चूने के पत्थर आदि का उपयोग भवन-निर्माण में किया जाता है। चूना एवं डोलोमाइट व अन्य मिट्टियाँ इस्पात उद्योग में काम आती हैं। अवसादी चट्टानों से प्राप्त चूने के पत्थर का उपयोग सीमेण्ट बनाने में किया जाता है। सीमेण्ट उद्योग आज विश्व के प्रमुख उद्योगों में गिना जाता है।

जिप्सम का उपयोग विविध प्रकार के उद्योगों—चीनी मिट्टी के बर्तन, सीमेण्ट आदि में किया जाता है।

अनेक प्रकार के क्षार, रसायन, पोटाश एवं नमक जो कि अवसादी चट्टानों से प्राप्त होते हैं— विभिन्न रासायनिक उद्योगों के आधार हैं। कोयला एवं खनिज तेल भी अवसादी चट्टानों से प्राप्त होते हैं। ये शक्ति के प्रमुख स्रोत हैं। आज का औद्योगिक विकास कोयले के कारण ही सम्भव हो सका है।

3. कायान्तरित चट्टानें (Metamorphic Rocks)–इन्हें रूपान्तरित चट्टानों के नाम से भी पुकारा जाता है। अंग्रेजी भाषा का मेटामोरफिक’ शब्द मेटा एवं मार्फे शब्दों के सम्मिलन से बना है। अतः मेटा का अर्थ परिवर्तन तथा मार्फे का अर्थ रूप से है अर्थात् ”जिन चट्टानों में दबाव, गर्मी एवं रासायनिक क्रियाओं द्वारा उनकी बनावट, रूप तथा खनिजों का पूर्णरूपेण कायापलट हो जाता है, कायान्तरित चट्टानें कहलाती हैं।” विश्व के प्राय: सभी प्राचीन पठारों पर कायान्तरित चट्टानें मिलती हैं। भारत में ऐसी चट्टानें दक्षिण के प्रायद्वीप, दक्षिण अफ्रीका के पठारे और दक्षिणी अमेरिका के ब्राजील के पठार, उत्तरी कनाडा, स्कैण्डेनेविया, अरब, उत्तरी रूस और पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के पठार पर पायी जाती हैं।

चट्टानों का कायान्तरण भौतिक तथा रासायनिक दोनों ही क्रियाओं से सम्पन्न होता है। इसमें चट्टान एवं खनिज का रूप पूरी तरह से परिवर्तित हो जाता है। इन चट्टानों में भूगर्भ के ताप, दबाव, जलवाष्प, भूकम्प आदि कारणों से उनके मूल गुणों में परिवर्तन आ जाता है। रूप-परिवर्तन के बाद इनकी प्रारम्भिक स्थिति भी नहीं बतायी जा सकती। मूल चट्टान के रूपान्तरण से उसके रूप, रंग,
आकार तथा गुण आदि में पूर्ण परिवर्तन हो जाता है तथा वह अपने प्रारम्भिक रूप को खो देती है, जिससे मूल चट्टान में कठोरता आ जाती है। कभी-कभी एक ही चट्टान कई रूप धारण कर लेती है। चूना-पत्थर के रूपान्तरण से संगमरमर नामक पत्थर को निर्माण होता है। यह रूपान्तरण आग्नेय एवं अवसादी, दोनों ही चट्टानों का हो सकता है।

कायान्तरण अथवा रूप-परिवर्तन के कारण—चट्टानों का कायान्तरण निम्नलिखित कारणों के फलस्वरूप होता है–
1. तापमान-कायान्तरण का एक प्रमुख कारण तापक्रम है। भूगर्भ का अत्यधिक तापमान ज्वालामुखी उद्गार एवं पर्वत निर्माणकारी हलचलों को जन्म देता है जिससे चट्टानों का रूप-परिवर्तन हो जाता है।

2. सम्पीडन एवं दबाव-कायान्तरण में महाद्वीपों पर पर्वत–निर्माणकारी बलों एवं भूकम्प आदि से चट्टानों पर भारी दबाव पड़ता है जिससे चट्टानें टूटती ही नहीं, बल्कि उनका रूपान्तरण अथवा कायान्तरण हो जाता है।

3. घोलन शक्ति-सामान्यतया जल सभी पदार्थों को अपने में घोलने की शक्ति रखता है, परन्तु जब इस जल में ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसें मिलती हैं तो इसकी घुलन-शक्ति कई गुना बढ़ जाती है। वर्षा का जल इसका प्रमुख उदाहरण है। वर्षा का जल चट्टानों के साथ मिलकर रासायनिक अपरदन का कार्य करता है जिससे वह चट्टानों को अपने में घोल लेता है। इससे चट्टानों की संरचना में रासायनिक रूपान्तरण हो जाता है।

इस प्रकार आग्नेय चट्टानें शिस्ट में, शैल स्लेट में, ग्रेनाइट नीस में, बलुआ पत्थर क्वार्ट्जाइट में, बिटुमिनस एन्थ्रेसाइट में तथा चूना-पत्थर संगमरमर में रूपान्तरित हो जाती हैं। कायान्तरित चट्टानों की विशेषताएँ—कायान्तरित चट्टानों में अग्रलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं

  • ये चट्टानें संगठित हो जाने से कठोर हो जाती हैं; अतः इन पर अपक्षय एवं अपरदन क्रियाओं का प्रभाव बहुत ही कम पड़ता है।
  • इन चट्टानों की संरचना अरन्ध्र होती है; अतः इनमें जल प्रवेश नहीं कर सकता।
  • ये चट्टानें रवेदार होती हैं, परन्तु इनमें परतें नहीं पायी जातीं।
  • कायान्तरण की क्रिया के कारण इन चट्टानों में जीवाश्म नहीं पाये जाते हैं।
  • कायान्तरण आग्नेय एवं अवसादी चट्टानों का होता है, परन्तु बाद में इनमें मूल अर्थात् प्रारम्भिक चट्टान की कोई लक्षण नहीं पाया जाता।
  • इन चट्टानों में सोना, हीरा, संगमरमर, चाँदी आदि बहुमूल्य खनिज पाये जाते हैं।

कायान्तरित चट्टानों का आर्थिक उपयोग (लाभ)-कायान्तरित चट्टानों में अनेक प्रकार के महत्त्वपूर्ण धातु खनिज पाये जाते हैं जो मानव के लिए अनेक प्रकार से उपयोगी हैं। अधिकांश बहुमूल्य खनिज (संगमरमर, सोना, चाँदी और हीरा) कायान्तरित चट्टानों से ही प्राप्त होते हैं। संगमरमर, जो एक प्रमुख कायान्तरित चट्टान है, भवन निर्माण में प्रयोग होता है। विश्वप्रसिद्ध ताजमहल एवं अनेक महत्त्वपूर्ण मन्दिर इसी प्रकार की चट्टान (संगमरमर) से निर्मित हैं। एन्थेसाइट कोयला, ग्रेनाइट एवं हीरा भी बहु-उपयोगी कायान्तरित चट्टानें हैं। अभ्रक जैसे खनिज भी बार-बार अवसादी चट्टानों के कायान्तरण होने से बनते हैं। कठोर क्वार्ट्जाइट का निर्माण भी अवसादी चट्टान के कायान्तरण से हुआ है एवं इसका उपयोग सुरक्षा एवं अन्य विशेष धातु उद्योग में अधिक होता है।

चट्टानों का आर्थिक महत्त्व

चट्टानें मानवीय जीवन के लिए अति महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी होती हैं। मानव को लगभग 2,000 वस्तुएँ चट्टानों एवं इनके माध्यम से प्राप्त होती हैं। पर्वत निर्माणकारी घटनाएँ, भूकम्प आदि विस्तृत वन क्षेत्रों को मिट्टी में दबा देती हैं, कालान्तर में ये कोयले में परिणत हो जाते हैं। कोयले की निर्माण प्रक्रिया में भी चट्टानों का अधिक हाथ रहता है। इमारती पत्थर, औद्योगिक खनिज-लोहा, कोयला एवं खनिज तेल तथा कीमती धातुएँ–सोना, चाँदी, टिन आदि इन्हीं चट्टानों से प्राप्त होती हैं। समस्त पृथ्वी की ऊपरी पपड़ी जिस पर मानव एवं जीव-जगत बसा हुआ है, चट्टानों के बारीक चूर्ण से ही निर्मित हुई है। चट्टानों के आर्थिक महत्त्व को निम्नलिखित शीर्षकों के माध्यम से प्रस्तुत किया जा सकता है–

1. कृषि के क्षेत्र में-उपजाऊ मिट्टी कृषि का आधार है। उपजाऊ मिट्टी के निर्माण में शैलों का विशेष महत्त्व रहता है। शैल चूर्ण जमकर ही उपजाऊ मिट्टी को जन्म देते हैं। अन्न, फल, शाक, भाजी, कपास, गन्ना, रबड़, नारियल, चाय, कहवा तथा गरम मसाले सभी मिट्टी में ही उगाये जाते हैं।

2. चरागाहों के क्षेत्र में-हरी घास के विस्तृत क्षेत्र चरागाह कहलाते हैं। हरी घास पशुओं को पौष्टिक चारा उपलब्ध कराती है। चरागाह पशुपालन के आदर्श क्षेत्र माने जाते हैं। हरी घास शैलों में ही उगा करती है; अत: पशुचारण और पशुपालन में भी शैलों की उपयोगिता अद्वितीय मानी गयी है।

3. भवन-निर्माण के क्षेत्र में-पत्श्रर भवन-निर्माण की प्रमुख सामग्री है। स्लेट, चूना-पत्थर, बलुआ पत्थर तथा संगमरमर भवन-निर्माण में सहयोग देते हैं। भवन-निर्माण का सस्ता और टिकाऊ मसाला चट्टानों से प्राप्त पदार्थों से ही बनाया जाता है। संगमरमर तथा ग्रेनाइट पत्थर भवनों को सुन्दर तथा भव्य स्वरूप प्रदान करते हैं।

4. खनिज उत्पादन के क्षेत्र में-खनिज पदार्थों का जन्म भूगर्भ में शैलों द्वारा ही होता है। शैलें सोना,चाँदी, ताँबा, लोहा, कोयला, मैंगनीज तथा अभ्रक आदि उपयोगी खनिजों को जन्म देकर जहाँ मानव के कल्याण की राह खोलती हैं, वहीं कोयला तथा खनिज तेल देकर ऊर्जा तथा तापमान के स्रोत बन जाती हैं।

5. उद्योगों को कच्चे माल प्रदान करने के क्षेत्र में- कृषिगत उपजों, वन्य पदार्थों तथा खनिज पदार्थों पर अनेक उद्योग-धन्धे निर्भर होते हैं। चट्टानें एक ओर तो उद्योगों को कच्चे माल देकर उनका पोषण करती हैं और दूसरी ओर शक्ति के साधनों की आपूर्ति करके उन्हें ऊर्जा तथा चालक-शक्ति प्रदान करती हैं। राष्ट्र का आर्थिक विकास जहाँ उद्योग-धन्धों पर निर्भर है, वहीं उद्योग-धन्धों का विकास शैलों से प्राप्त कच्चे मालों पर निर्भर करता है।

6. मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के क्षेत्र में- शैलें मानव को उसकी तीनों प्रथमिक आवश्यकताओं-भोजन, वस्त्र और मकान की आपूर्ति कराती हैं। मानव के पोषण में शैलों की विशेष सहयोग रहता है।

7. पेयजल स्रोतों के रूप में- पृथ्वी पर मानव के लिए पेयजल भूस्तरीय जल के अतिरिक्त भूगर्भीय जल भी होता है। भूगर्भीय जल चट्टानों में स्वस्थ और सुरक्षित रहता है। भूस्तरीय जल नदियों, झरनों और झीलों के रूप में तथा भूगर्भीय जल हैण्डपम्पों, पम्पसेटों तथा नलकूपों के द्वारा प्राप्त होता है।

8. मानवीय सभ्यता के गणक के रूप में-मानव सभ्यता का ज्ञान प्रदान कराने में चट्टानों का विशेष , योगदान रहता है। पृथ्वी की आयु व आन्तरिक संरचना चट्टानों की निर्माण-प्रक्रिया को आधार मानकर ही ज्ञात की जाती है।

शैलों की रचना तथा निर्माण प्रक्रिया के अध्ययन से भूविज्ञान तथा भूगर्भ विज्ञान के अध्ययन में बहुत सहायता मिलती है। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि शैलें मानव के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती हैं तथा उसे अधिक सुख-सुविधाएँ उपलब्ध कराती हैं। वर्तमान विश्व का सम्पूर्ण औद्योगिक ढाँचा तथा प्रौद्योगिकी तन्त्र शैलों से ही अनुप्रमाणित है।

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 5 Minerals and Rocks (खनिज एवं शैल) help you. If you have any query regardingUP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 5 Minerals and Rocks (खनिज एवं शैल), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 2 The Origin and Evolution of the Earth

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 2 The Origin and Evolution of the Earth (पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 2 The Origin and Evolution of the Earth (पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास)

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

1. बहुवैकल्पिक प्रश्न
प्रश्न (i) निम्नलिखित में से कौन-सी संख्या पृथ्वी की आयु को प्रदर्शित करती है?
(क) 46 लाख वर्ष
(ख) 460 करोड़ वर्ष
(ग) 13.7 अरब वर्ष
(घ) 13.7 खबर वर्ष
उत्तर- (ख) 460 करोड़ वर्ष।

प्रश्न (ii) निम्न में कौन-सी अवधि सबसे लम्बी है?
(क) इओन (Eons)
(ख) महाकल्प (Era)
(ग) कल्प (Period)
(घ) युग (Epoch)
उत्तर- (क) इओन (Eons)

प्रश्न (iii) निम्न में कौन-सा तत्त्व वर्तमान वायुमण्डल के निर्माण व संशोधन में सहायक नहीं है?
(क) सौर पवन
(ख) गैस उत्सर्जन
(ग) विभेदने
(घ) प्रकाश संश्लेषण
उत्तर- (क) सौर पवन।

प्रश्न (iv) निम्नलिखित में से भीतरी ग्रह कौन-से हैं?
(क) पृथ्वी व सूर्य के बीच पाए जाने वाले ग्रह
(ख) सूर्य व छुद्र ग्रहों की पट्टी के बीच पाए जाने वाले ग्रह
(ग) वे ग्रह जो गैसीय हैं।
(घ) बिना उपग्रह वाले ग्रह।
उत्तर- (ख) सूर्य व छुद्र ग्रहाके की पट्टी के बीच पाए जाने वाले ग्रह।

प्रश्न (v) पृथ्वी पर जीवन निम्नलिखित में से लगभग कितने वर्षों पहले आरम्भ हुआ?
(क) 1 अरब 37 करोड़ वर्ष पहले
(ख) 460 करोड़ वर्ष पहले
(ग) 38 लाख वर्ष पहले
(घ) 3 अरब 80 करोड़ वर्ष पहले
उत्तर- (ख) 460 करोड़ वर्ष पहले।

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) पार्थिव ग्रह चट्टानी क्यों हैं?
उत्तर- सौरमण्डल के पार्थिव या भीतरी ग्रह चट्टानी हैं जबकि जोवियन ग्रह या अन्य अधिकांश ग्रह गैसीय हैं। इसके मुख्य कारण अग्रलिखित हैं

  1. पार्थिव ग्रह चट्टानी हैं क्योंकि ये जनक तारे के बहुत ही समीप बने जहाँ अत्यधिक ताप के कारण गैस संघनित एवं घनीभूत नहीं हो सकी।
  2. पार्थिव ग्रह छोटे हैं। इनकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी अपेक्षाकृत कम है: अत: इनसे निकली हुई गैस इन पर रुक नहीं सकी इसलिए भी पार्थिव ग्रह चट्टानी ग्रह हैं।
  3. सौर वायु पार्थिव ग्रहों से गैस एवं धूलकणों को बड़ी मात्रा में अपने साथ उड़ा ले गई, अत: पार्थिव ग्रहों की रचना चट्टानी हो गई।

प्रश्न (ii) पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी दिए गए तर्कों में निम्न वैज्ञानिकों के मूलभूत अन्तर बताएँ
(क) काण्ट व लाप्लास
(ख) चैम्बरलेन व मोल्टन।
उत्तर- चैम्बरलेन वे मोल्टन की ग्रहाणु परिकल्पना कान्ट व लाप्लास की निहारिका परिकल्पना के विपरीत हैं। इनके अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति दो बड़े तारों सूर्य तथा उसके साथी तारे के सहयोग से हुई है। जबकि काण्ट व लाप्लास की परिकल्पना का आधार केवल एक तारा अर्थात् सूर्य है जिसके सहयोग से नीहारिका द्वारा पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है। इसी कारण काण्ट एवं लाप्लास की परिकल्पना एकतारक तथा चैम्बरलेन व मोल्टन की परिकल्पना द्वैतारक परिकल्पना कहलाती है।

प्रश्न (iii) विभेदन प्रक्रिया से आप क्या समझते हैं?
उत्तर- पृथ्वी की उत्पत्ति में स्थलमण्डल निर्माण अवस्था के अन्तर्गत हल्के व भारी घनत्व वाले पदार्थों के पृथक् होने की प्रक्रिया विभेदन (Differentiation) कहलाती है। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत भारी पदार्थ पृथ्वी के केन्द्र में चले गए और हल्के पदार्थ पृथ्वी की सतह पर ऊपरी भाग की तरफ आ गए। समय के साथ-साथ यह अधिक ठण्डे और ठोस होकर छोटे आकार में परिवर्तित हो गए। विभेदन की इसी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप पृथ्वी का पदार्थ अनेक परतों में विभाजित हो गया तथा क्रोड तक कई परतों का निर्माण हुआ।

प्रश्न (iv) प्रारम्भिक काल में पृथ्वी के धरातल का स्वरूप क्या था?
उत्तर- प्रारम्भिक काल में पृथ्वी को धरातल चट्टानी एवं तप्त तथा। सम्पूर्ण पृथ्वी वीरान थी। यहाँ वायुमण्डल अत्यन्त विरल था जो हाइड्रोजन एवं हीलियम गैसों द्वारा बना था। पृथ्वी का यह वायुमण्डल आज के वायुमण्डल से बिल्कुल भिन्न था। लगभग आज से 460 करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी एवं इसके वायुमण्डल में जीवन के अनुकूल परिवर्तन आए जिससे जीवन का विकास हुआ।

प्रश्न (v) पृथ्वी के वायुमण्डल को निर्मित करने वाली प्रारम्भिक गैसें कौन-सी थीं।
उत्तर- पृथ्वी के वायुमण्डल को निर्मित करने वाली प्रारम्भिक गैसें हाइड्रोजन और हीलियम थीं।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) बिग बैंग सिद्धान्त का विस्तार से वर्णन करें।
उत्तर-बिग बैंग सिद्धान्त
ब्रह्माण्ड और सौरमण्डल की उत्पत्ति के सम्बन्ध में आधुनिक समय में सर्वमान्य सिद्धान्त बिग बैंग है। इसे विस्तृत ब्रह्माण्ड परिकल्पना भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त की पृष्ठभूमि 1920 में एडविन हब्बल द्वारा तैयार की गई थी। एडविन हब्बल ने प्रमाण दिए थे कि ब्रह्माण्ड का विस्तार हो रहा है। कालान्तर में आकाशगंगाएँ एक-दूसरे से अलग ही नहीं हो रही हैं बल्कि इनकी दूरी में भी वृद्धि हो रही है। इसी के परिणामस्वरूप ब्रह्माण्ड का विस्तार हो रहा है। वैज्ञानिक मानते हैं कि आकाशगंगाओं के बीच की दूरी में वृद्धि हो रही है। परन्तु प्रेक्षण आकाशगंगाओं के विस्तार को सिद्ध नहीं करते हैं। बिग बैंग सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्माण्ड का विस्तार निम्नलिखित अवस्थाओं में हुआ है–
1. प्रारम्भ में वे सभी पदार्थ जिनसे ब्राह्मण्ड की उत्पत्ति हुई अतिलघु गोलकों के रूप में एक ही स्थान पर स्थित थे। इन लघु गोलकों (एकाकी परमाणु) का आयतन अत्यन्त सूक्ष्म एवं तापमान और घनत्व अनन्त था।

2. बिग बैंग प्रक्रिया में इन लघु गोलकों में भीषण विस्फोट हुआ। विस्फोट की प्रक्रिया से वृहत् विस्तार हुआ। ब्रह्माण्ड का विस्तार आज भी जारी है। प्रारम्भिक विस्फोट (Bang) के बाद एक सेकण्ड के अल्पांश के अन्तर्गत ही वृहत् विस्तार हुआ। इसके बाद विस्तार की गति धीमी पड़ गई।

3. ब्रह्माण्ड में इसी प्रक्रिया से आकाशगंगाओं का निर्माण हुआ। प्रारम्भ में ब्रह्माण्ड का आकार छोटा था। फैलाव एवं आन्तरिक गति के कारण इसका आकार विशाल होता गया। आकाशगंगा अनन्त तारों के समूह से निर्मित है और अनन्त आकाशगंगाओं के समूह से ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ है। प्रारम्भ में आकाशगंगा पास-पास थी। बाद में विस्तार के कारण इनकी दूरी बढ़ गई। आकाशगंगा के तारों को शीतलन हो रहा था। (बिग बैंग से 3 लाख वर्षों के दौरान, तापमान लगभग 4500 केल्विन तक गिर गया।)
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 2 The Origin and Evolution of the Earth img 1
आन्तरिक क्रिया के कारण इन तारों में विस्फोट हो गया। विस्फोट से नि:सृत पदार्थों के समूहन से अनेक छोटे-छोटे पिण्डों का निर्माण हुआ। इन पिण्डों पर विस्फोट से बिखरे पदार्थों का निरन्तर जमाव चलता रहा। फलस्वरूप पदार्थों के समूहन से ग्रहों का निर्माण हुआ। यही क्रिया ग्रहों पर पुनः हुई जिससे उपग्रहों का निर्माण हुआ।

अतः बिग-बैंग सिद्धान्त के अनुसार, ब्रह्माण्ड में सर्वप्रथम विशाल पिण्ड के विस्फोट से गैलेक्सी का निर्माण हुआ था जिसकी संख्या अनन्त थी। पदार्थों के पुंजीभूत होने तथा इन पदार्थों के समूहन से । चित्र 2.1 : विचित्रता (एकाकी परमाणु) प्रत्येक गैलेक्सी के तारों का निर्माण हुआ। तारों के विस्फोट तथा पदार्थों के समूहन से ग्रहों का निर्माण हुआ। यही क्रिया ग्रहों पर होने से
उपग्रहों का निर्माण हुआ अर्थात् सौरमण्डल तथा पृथ्वी की उत्पत्ति हुई।

प्रश्न (ii) पृथ्वी की विकास सम्बन्धी अवस्थाओं को बताते हुए हर अवस्था/चरण को संक्षेप में वर्णित करें।
उत्तर- पृथ्वी का उद्भव
प्रारम्भिक अवस्था में पृथ्वी तप्त चट्टानी एवं वीरान थी। इसका वायुमण्डल विरल था जो हाइड्रोजन एवं हीलियम गैसों द्वारा निर्मित था। यह वायुमण्डल वर्तमान वायुमण्डल से अत्यन्त भिन्न था। अत: कुछ ऐसी घटनाएँ एवं क्रियाएँ हुईं जिनके परिणामस्वरूप यह तप्त चट्टानी एवं वीरान पृथ्वी एक सुन्दर ग्रह के रूप में परिवर्तित हो गई। वर्तमान पृथ्वी की संरचना परतों के रूप में है, वायुमण्डल के बाहरी छोर से पृथ्वी के क्रोड तक जो पदार्थ हैं वे भी समान नहीं हैं। पृथ्वी की भू-पर्पटी या सतह से केन्द्र तक अनेक मण्डल हैं और प्रत्येक मण्डल एवं इसके पदार्थ की अपनी अलग विशेषताएँ हैं। पृथ्वी के विकास की अवस्थाओं का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षक के अन्तर्गत किया जा सकता है

1. स्थलमण्डल का विकास- पृथ्वी के विकास की अवस्था के प्रारम्भिक चरण में स्थलमण्डल का निर्माण हुआ। स्थलमण्डल अर्थातृ पृथ्वी ग्रह की रचना ग्रहाणु व दूसरे खगोलीय पिण्डों के घने एवं हल्के पदार्थों के मिश्रण से हुई है। उल्काओं के अध्ययन से पता चलता है कि बहुत से ग्रहाणुओं के एकत्रण से ग्रह बने हैं। पृथ्वी की रचना भी इसी प्रक्रम द्वारा हुई है। जब पदार्थ गुरुत्व बल के कारण संहत (इकट्टा) हो रहा था तो पिण्डों ने पदार्थ को प्रभावित किया। इससे अत्यधिक मात्रा में उष्मा उत्पन्न हुई और पदार्थ द्रव अवस्थाओं में परिवर्तित होने लगा। अत्यधिक ताप के कारण पृथ्वी आंशिक रूप से द्रव अवस्था में रह गई और तापमान की अधिकता के कारण हल्के और भारी घनत्व के पदार्थ अलग होने आरम्भ हो गए। इसी अलगाव से भारी पदार्थ जैसे लोहा आदि केन्द्र में एकत्र हो गए और हल्के पदार्थ पृथ्वी की ऊपरी सतह अर्थात् भू-पर्पटी के रूप में विकसित हो गए।

हल्के एवं भारी घनत्व वाले पदार्थों के पृथक होने की इस प्रक्रिया को विभेदन (Differentiation) कहा जाता है। चन्द्रमा की उत्पत्ति के समय भीषण संघटन (Giant Impact) के कारण पृथ्वी का तापमान पुनः बढ़ा या फिर ऊर्जा, उत्पन्न हुई यह विभेदन का दूसरा चरण था। पृथ्वी के विकास के इस दूसरे चरण में पृथ्वी का पदार्थ अनेक परतों में पृथक् हो गया जैसे–पर्पटी (Crust) प्रावार (Mantle), बाह्य क्रोड (Outer Core) और आन्तरिक क्रोड (Inner Core) आदि बने जिसे सामूहिक रूप से स्थलमण्डल कहा जाता है।

2. वायुमण्डल एवं जलमण्डल का विकास-पृथ्वी के ठण्डा होने एवं विभेदन के समय पृथ्वी के आन्तरिक भाग से बहुत-सी गैसें एवं जलवाष्प बाहर निकले। इसी से वर्तमान वायुमण्डल का उद्भव हुआ। प्रारम्भ में वायुमण्डल में जलवाष्प, नाइट्रोजन, कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन व अमोनिया अधिक मात्रा में और स्वतन्त्र ऑक्सीजन अत्यन्त कम मात्रा में थी। लगातार ज्वालामुखी विस्फोट से वायुमण्डल में जलवाष्प वे गैस बढ़ने लगी। पृथ्वी के ठण्डा होने के साथ-साथ जलवाष्प को संघटन शुरू हो गया। वायुमण्डल में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड के वर्षा पानी में घुलने से तापमान में और अधिक कमी आई। फलस्वरूप अधिक संघनन से अत्यधिक वर्षा हुई जिससे पृथ्वी की गर्तों में वर्षा का जल एकत्र होने लगा और इस प्रक्रिया से महासागरों की उत्पत्ति हुई।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. सौरमण्डल में ग्रहों की संख्या है
(क) 8
(ख) 9
(ग) 7
(घ) 6
उत्तर- (क) 8

प्रश्न 2. प्रकाश की गति है
(क) 1 लाख किमी/सेकण्ड
(ख) 2 लाख किमी/सेकण्ड
(ग) 3 लाख किमी/सेकण्ड
(घ) 5 लाख किमी/सेकण्ड
उत्तर- (ग) 3 लाख किमी/सेकण्ड।

प्रश्न 3. पृथ्वी की उत्पत्ति हुई
(क) नैबुला गैसीय पिण्ड द्वारा
(ख) आकाशगंगा द्वारा
(ग) मंगल द्वारा
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर- (क) नैबुला गैसीय पिण्ड द्वारा।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. सौरमण्डल में कितने ग्रह हैं?
उत्तर- सौरमण्डल में 8 ग्रह हैं।

प्रश्न 2. टकराव एवं विस्फोट की विचारधारा का सम्बन्ध किससे है? इसके प्रतिपादक कौन हैं?
उत्तर- टकराव एवं विस्फोट की विचारधारा को सम्बन्ध पृथ्वीं/सौरमण्डल की उत्पत्ति से है। इसके प्रतिपादक जेम्स जीन्स एवं हॅरोल्ड जैफरी हैं।

प्रश्न 3. प्रकाश वर्ष से आप क्या समझते हैं?
उत्तर- प्रकाश वर्ष समय का नहीं दूरी का माप है। प्रकाश की गति 3 लाख किमी प्रति सेकण्ड है। एक वर्ष में प्रकाश जितनी दूरी तय करता है, वह एक प्रकाश वर्ष कहलाता है। यह दूरी 9.461 x 1012 किमी के बराबर है।

प्रश्न 4. प्रोटोस्टार से क्या अभिप्राय है?
उत्तर- सौरमण्डल की उत्पत्ति के समय अवशेष पदार्थ द्वारा निर्मित सूर्य ही प्रोटोस्टार कहलाता है।

प्रश्न 5. नैबुला या नीहारिका का क्या अर्थ हैं?
उत्तर- धूल एवं गैसों का विशालकाय बादल जो भंवर के समान गति से अन्तरिक्ष में घूम रहा था तथा जिससे सौरमण्डल की उत्पत्ति हुई, नैबुला या नीहारिका कहलाता है। इसे विशाल तारा भी कहा जाता है।

प्रश्न 6. सौरमण्डल के विशिष्ट ग्रह की क्या विशेषता है?
उत्तर- पृथ्वी सौरमण्डल का विशिष्ट ग्रह कहलाता है। जीवन का उद्भव एवं विकास ही इसकी विशिष्टता है। क्योंकि केवल इसी ग्रह पर वायुमण्डल पाया जाता है जो जीवन के विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक है।

प्रश्न 7. अन्तरिक्ष से पृथ्वी किस रंग में दिखाई देती है?
उत्तर- अन्तरिक्ष से पृथ्वी का रंग नीला दिखाई देता है।

प्रश्न 8. नीहारिका परिकल्पना द्वारा पृथ्वी की उत्पत्ति की धारणा सर्वप्रथम किसके द्वारा प्रतिपादित की गई?
उत्तर- नीहारिका परिकल्पना द्वारा पृथ्वी की उत्पत्ति की अवधारणा सर्वप्रथम जर्मन विद्वान इमैनुअल काण्ट द्वारा प्रतिपादित की गई थी।

प्रश्न 9. हमारे नक्षत्र पुंज का क्या नाम है?
उत्तर- हमारे नक्षत्र पुंज का नाम मिल्की वे (आकाशगंगा) है।

प्रश्न 10. पृथ्वी की उत्पत्ति किस गैसीय पिण्ड द्वारा कब हुई?
उत्तर- पृथ्वी की उत्पत्ति नैबुला गैसीय पिण्ड द्वारा 4600 मिलियन वर्ष पूर्व हुई थी।

प्रश्न 11. सौरमण्डल के सभी ग्रहों के नाम लिखिए।
उत्तर- सौरमण्डल के मुख्यत: आठ ग्रह माने जाते हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं—बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, यूरेनस, नेप्च्यून।

प्रश्न 12. सौरमण्डल के भीतरी (Inner) या पार्थिव ग्रहों के नाम बताइए।
उत्तर- सूर्य एवं छुद्र ग्रहों की पट्टी के बीच स्थित ग्रहों को भीतरी या पार्थिव ग्रह कहते हैं। बुध, शुक्र, पृथ्वी एवं मंगल ऐसे ही भीतरी ग्रह हैं।

प्रश्न 13. जोवियन ग्रह क्या हैं? इनके नाम लिखिए।
उत्तर- सौरमण्डल के बाहरी ग्रहों को जोवियन ग्रह कहते हैं। ये भीतरी ग्रहों की अपेक्षा अधिक विशालकाय हैं। इनकी रचना पृथ्वी की भाँति ही शैलों और धातुओं से हुई है। ये अधिक घनत्व वाले ग्रह हैं। इनके नाम हैं—बृहस्पति, शनि, यूरेनस एवं नेप्च्यून। .

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. सौर परिवार के विकास पर प्रकाश डालिए।
उत्तर- सौर परिवार के अन्तर्गत सूर्य, ग्रह, उपग्रह, उल्को तथा असंख्य तारे सम्मिलित हैं। सौर परिवार का निर्माण भी पृथ्वी के निर्माण एवं विकास के समान ही हुआ है। हमारा नक्षत्र पुंज जिसे आकाशगंगा (Milky Way) कहते हैं सौर परिवार का घर है। जिस प्रकार नीहारिका द्वारा पृथ्वी का निर्माण हुआ है उसी प्रकार अन्य ग्रह एवं उपग्रहों का भी निर्माण हुआ है। इसी नीहारिका के अवशेष भाग से सूर्य का विकास हुआ है। इसी को ‘प्रोटोस्टार’ भी कहते हैं।

प्रश्न 2. पृथ्वी की उत्पत्ति का वर्णन कीजिए।
उत्तर- पृथ्वी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कोई निश्चित मत अभी तक प्रतिपादित नहीं हुआ है। फिर भी एक सामान्य परिकल्पना के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति एक नैबुला (तारा) या नीहारिका के परिणामस्वरूप हुई है। ऐसा विश्वास है कि प्रारम्भ में एक धधकता हुआ गैस का पिण्ड था। यह पिण्ड भंवर के समान तीव्र गति से भ्रमण कर रहा था। तेज गति से घूमने के कारण इसके ऊपरी भाग की गर्मी आकाश में फैलने लगी और ऊपरी भाग शीतल होकर संकुचित होने लगा। ठण्डा होने एवं सिकुड़ने के कारण इस गैसीय पिण्ड की गति में और अधिक वृद्धि हुई। ऊपरी भाग घनीभूत होने तथा भीतरी भाग गैसीय एवं गर्म होने के कारण एक साथ नहीं दौड़ सके। अतः एक समय ऐसा आया जब ऊपरी भाग छल्ले के रूप में अलग होकर तेजी से घूमने लगा और इस छल्लेरूपी भाग से अलग-अलग छल्ले बने। यही छल्ले ग्रह कहलाए। पृथ्वी इन्हीं में से एक ग्रह है।

प्रश्न 3. पृथ्वी पर जीवन के विकास का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर- पृथ्वी की उत्पत्ति का अन्तिम चरण जीवन की उत्पत्ति व विकास का है। आधुनिक वैज्ञानिक जीवन की उत्पत्ति को रासायनिक प्रतिक्रिया मानते हैं। इसमें पहले जटिल जैव (कार्बनिक अणु) बने और उनका समूहन हुआ। यह समूहन ऐसा था जो अपने आपको दोहराता था और निर्जीव पदार्थ को जीवित तत्त्व में परिवर्तित करता था। पृथ्वी पर जीवन के चिह अलग-अलग समय की चट्टानों में पाए जाने वाले जीवाश्मों से ज्ञात होता है कि जीवन का विकास 460 करोड़ वर्ष पहले आरम्भ हो गया था। इसका संक्षिप्त सार हमें भूवैज्ञानिक काल मापक्रम से प्राप्त होता है जिसमें आधुनिक मानव अभिनव युग में उत्पन्न हुआ बताया जाता है।

प्रश्न 4. चन्द्रमा की उत्पत्ति को समझाइए।
उत्तर- ऐसा विश्वास किया जाता है कि पृथ्वी के उपग्रह के रूप में चन्द्रमा की उत्पस्थित एक बड़े टकराव का परिणाम है जिसे ‘द बिग स्प्लैट’ (The big splat) कहा गया है। ऐसा मानना है कि पृथ्वी की उत्पत्ति के कुछ समय बाद ही मंगल ग्रह के 1 से 3 गुणा बड़े आकार का पिण्ड पृथ्वी से टकराया। इस टकराव से पृथ्वी का एक हिस्सा टूटकर अन्तरिक्ष में बिखर गया। टकराव से पृथक् हुआ यही पदार्थ फिर पृथ्वी के कक्ष में घूमने लगा और क्रमश: वर्तमान चन्द्रमा के रूप में परिवर्तित हो गया। ऐसा माना जाता है कि यह घटना या चन्द्रमा की उत्पत्ति लगभग 4.44 अरब वर्ष पहले हुई थी।

प्रश्न 5. ग्रहों की निर्माण की अवस्थाओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर- ग्रहों के निर्माण की निम्नलिखित तीन अवस्थाएँ हैं
1. तारे नीहारिका के अन्दर गैस के गुन्थित झुण्डों के रूप में विद्यमान रहते हैं। इन गुन्थित झुण्डों में . गुरुत्वाकर्षण बल से गैसीय बादल में क्रोड का निर्माण होता है। इस क्रोड के चारों ओर गैस एवं धूलकणों की घूमती हुई एक तश्तरी विकसित हुई।

2. द्वितीय अवस्था में गैसीय बादलों का संघनेन आरम्भ होता है। ये संघनित बादल क्रोड को ढक लेते हैं तथा छोटे-छोटे गोले के रूप में विकसित होते हैं। इन छोटे-छोटे गोल पदार्थों में आकर्षण प्रक्रिया से ग्रहाणुओं का विकास होता है। (छोटे पिण्डों की अधिक संख्या ही ग्रहाणु कहलाती है। फलस्वरूप संघटन की क्रिया द्वारा बड़े पिण्ड बनने शुरू हुए और गुरुत्वाकर्षण बल के कारण परस्पर जुड़ गए।

3. अन्तिम अवस्था में इन जुड़े हुए छोटे ग्रहाणुओं के बड़े आकार में परिवर्तित होने से ही बड़े पिण्डों का विकास हुआ जो ग्रह कहलाए।

प्रश्न 6. सौरमण्डल के आठ ग्रहों की सूर्य से दूरी, इन का अर्द्धव्यास, घनत्व एवं प्रत्येक उपग्रहों की संख्या का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर- हमारे सौरमण्डल में आठ ग्रह हैं। इसके अतिरिक्त 63 उपग्रह, लाखों छोटे-छोटे पिण्ड, धूमकेतु एवं वृहत् मात्रा में धूल कण व गैसें हैं। सौरमण्डल के आठ ग्रहों के संक्षिप्त परिचय सम्बन्धी तथ्य तालिका 2.1 के रूप में अग्र प्रकार हैं

तालिका 2.1: सौरमण्डल के आठ ग्रहों का संक्षिप्त परिचय (दूरी, घनत्व, अर्द्धव्यास)
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 2 The Origin and Evolution of the Earth 2
* सूर्य से दूरी खगोलीय एकक में है। अर्थात् अगर पृथ्वी की मध्यमान दूरी 14 करोड़ 95 लाख 98 हजार किमी ” एक एकक के बराबर है।
** अर्द्धव्यास : अगर भूमध्यरेखीय अर्द्धव्यास 6378.137 किमी = 1 है।.

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. ग्रहों (पृथ्वी की) उत्पत्ति के विषय में लाप्लास के सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
उत्तर- लाप्लास का नीहारिका सिद्धान्त/परिकल्पना ।
लाप्लास के अनुसार, ब्रह्माण्ड में तृप्त आकाशीय पिण्ड भ्रमणशील अवस्था में था। निरन्तर भ्रमणशीलता के कारण ताप विकिरण होता गया तथा नीहारिका (Nabula) की ऊपरी सतह शीतल होने लगी एवं उसका तल संकुचित हो गया। इससे नीहारिका के आयतन में कमी तथा गति में वृद्धि होने लगी। गति बढ़ने से इस नीहारिका के मध्यवर्ती भाग में अनुप्रसारी बल में वृद्धि हुई एवं इसका मध्यवर्ती भाग हल्का होकर बाहर की ओर उभरने लगा। इससे ऊपरी उभार एवं निचले मुख्य भाग के बीच गतियों में भिन्नता आने लगी। ऐसी प्रक्रिया के कारण अन्ततः उभार वाला ऊपरी भाग एक बड़े छल्ले के रूप में ठण्डा होकर पृथक् हो गया।
लाप्लास के अनुसार, नीहारिका से एक विशाल भाग छल्ले की आकृति में बाहर निकला और धीरे-धीरे छल्लों में विभाजित होता गया। कालान्तर में इनके मध्य शीतल एवं संकुचन के कारण अन्तर बढ़ता गया जिसमें प्रत्येक वलय के बीच की दूरी बढ़ती हुई। वलयों का गैसमय पदार्थ पृथक्-पृथक् वलयों के रूप में संघनित हो गया जिससे ग्रहों का निर्माण हुआ।
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 2 The Origin and Evolution of the Earth img 2
नीहारिका से निकले सभी छल्लों का आकार समान नहीं था, मध्यवर्ती छल्ले कुछ बड़े आकार के थे। धीरे-धीरे प्रत्येक छल्ला सिकुड़कर एक गाँठ बनकर अन्ततः ग्रह के रूप में परिवर्तित हो गया। इस गाँठ को लाप्लास ने उष्ण गैसीय पुंज या ग्रन्थि कहा है। इसके ठण्डा होकर ठोस बनने से ही ग्रह बने। इस प्रकार लाप्लास के नीहारिका सिद्धान्त के अनुसार पहले आठ ग्रह बने और ग्रहों से भी इसी विधि के अनुसार उपग्रहों की उत्पत्ति हुई तथा नीहारिको का शेष बचा भाग ही सूर्य है।

प्रश्न 2. जेम्स जीन्स के सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
उत्तर- जेम्स जीन्स की ज्वारीय सिद्धान्त/परिकल्पना ।
पृथ्वी की उत्पत्ति के विषय में जेम्स जीन्स ने 1919 में द्वैतारकवादी परिकल्पना प्रस्तुत की थी। यह परिकल्पना ‘ज्वारीय परिकल्पना’ के नाम से प्रसिद्ध है। ज्वारीय परिकल्पना पृथ्वी की उत्पत्ति के सिद्धान्तों . में से एक है जिसे अन्य सिद्धान्तों की अपेक्षा मान्यता प्राप्त है। ज्वारीय परिकल्पना निम्नलिखित अभिकल्पों का आधारित है

  1. पृथ्वी सहित सौरमण्डल की उत्पत्ति सूर्य तथा एक अन्य तारे के संयोग से हुई है।
  2. प्रारम्भ में सूर्य गैस का एक बड़ा गोला था।
  3. सूर्य के साथ ही ब्रह्माण्ड में एक दूसरा विशालकाय तारा भी था।
  4. सूर्य अपनी निश्चित जगह अपनी कक्षा में ही घूम रहा था।
  5. एक विशालकाय तारा घूमता हुआ सूर्य के निकट आ रहा था।
  6. विशालकाय तारा आकार और आयतन में सूर्य से बहुत अधिक बड़ा था।
  7. निकट आते हुए विशालकाय तारे की ज्वारीय शक्ति का प्रभाव सूर्य के बाह्य भाग पर पड़ रहा था।

UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 2 The Origin and Evolution of the Earth 4
ज्वारीय परिकल्पना के अनुसार जब विशालकाय तारा सूर्य के समीप से गुजरा तब उसके गुरुत्वाकर्षण के कारण सूर्य के तल पर ज्वार उठा। जब यह तारा अपने पथ पर आगे बढ़ गया तो सूर्य के धरातल से उठी ज्वार एक विशाल सिगार (Filament) के रूप में सूर्य से अलग हो गई। परन्तु यह सिगारनुमा-आकृति विशालं तारे के साथ न जा सकी। विशालकाय तारा अपने मार्ग पर दूर निकल गया और सिगारनुमा-आकृति सूर्य की परिक्रमा करने लगी। कालान्तर में यही सिगारनुमा-आकृति कई खण्डों में विभक्त हो गई जिससे ग्रहों व उपग्रहों का निर्माण हुआ।
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 2 The Origin and Evolution of the Earth img 3

प्रश्न 3. पृथ्वी की उत्पत्ति से सम्बन्धित मुख्य सिद्धान्त कौन-से हैं? किसी एक सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
उत्तर- पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धान्त/परिकल्पनाएँ
पृथ्वी की उत्पत्ति के विषय में दो मत प्रचलित हैं-धार्मिक तथा वैज्ञानिक। आधुनिक युग में धार्मिक मत को मान्यता नहीं है, क्योंकि वे तर्क की कसौटी पर खरे नहीं उतरते, वे पूर्णत: कल्पना पर आधारित हैं। पृथ्वी की उत्पत्ति के विषय में सर्वप्रथम तर्कपूर्ण व वैज्ञानिक परिकल्पना का प्रतिपादन 1749 ई० में फ्रांसीसी विद्वान कास्ते-दे-बफन द्वारा किया गया था। इसके बाद अनेक विद्वानों ने अपने मत प्रस्तुत किए। परिणामतः अब तक अनेक परिकल्पनाओं तथा सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जा चुका है। पृथ्वी की उत्पत्ति के विषय में वैज्ञानिक मतों के दो वर्ग हैं
(A) अद्वैतवादी या एकतारकवादी परिकल्पना (Monistic Hypothesis),
(B) द्वैतवादी या द्वितारकवादी परिकल्पना (Dualistic Hypothesis)।

(A) अद्वैतवादी परिकल्पना-इस परिकल्पना में पृथ्वी की उत्पत्ति एक तारे से मानी जाती है। इस परिकल्पना के आधार पर कास्ते-दे-बफन, इमैनुअल काण्ट, लाप्लास, रोशे व लॉकियर ने अपने सिद्धान्त प्रस्तुत किए।

(B) द्वैतवादी परिकल्पना-एकतारक परिकल्पना के विपरीत इस विचारधारा के अनुसार ग्रहों या पृथ्वी की उत्पत्ति एक या अधिक विशेषकर दो तारों के संयोग से मानी जाती है। इसी कारण इस संकल्पना को ‘Bi-parental Concept’ भी कहते हैं। इस परिकल्पना के अन्तर्गत निम्नलिखित विद्वानों ने अपने-अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है–

  • चैम्बरलेन की ग्रहाणु परिकल्पना।
  • जेम्स जीन्स की ज्वारीय परिकल्पना।
  • रसेल की द्वितारक परिकल्पना।।
  • होयल तथा लिटिलटने का सिद्धान्त।
  • ओटोश्मिड की अन्तरतारक धूल परिकल्पना।
  • बिग बैंग तथा स्फीति सिद्धान्त। नोट—किसी एक सिद्धान्त के वर्णन हेतु दीर्घ उत्तरीय प्रश्न 1 का अवलोकन करें।

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 2 The Origin and Evolution of the Earth (पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 2 The Origin and Evolution of the Earth (पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 8 Composition and Structure of Atmosphere

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 8 Composition and Structure of Atmosphere (वायुमंडल का संघटन तथा संरचना)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 8 Composition and Structure of Atmosphere (वायुमंडल का संघटन तथा संरचना)

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

1. बहुवैकल्पिक प्रश्न
प्रश्न (i) निम्नलिखित में से कौन-सी गैस वायुमण्डल में सबसे अधिक मात्रा में मौजूद है?
(क) ऑक्सीजन
(ख) आर्गन
(ग) नाइट्रोजन
(घ) कार्बन डाइऑक्साइड
उत्तर-(ग) नाइट्रोजन।

प्रश्न (ii) वह वायुमण्डलीय परत जो मानव जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है
(क) समतापमण्डल
(ख) क्षोभमण्डल
(ग) मध्यमण्डल
(घ) आयनमण्डल
उत्तर-(ख) क्षोभमण्डल।

प्रश्न (iii) समुद्री नमक, पराग, राख, धुएँ की कालिमा, महीन मिट्टी किससे सम्बन्धित हैं?
(क) गैस
(ख) जलवाष्प
(ग) धूलकण
(घ) उल्कापात
उत्तर-(ग) धूलकण।

प्रश्न (iv) निम्नलिखित में से कितनी ऊँचाई पर ऑक्सीजन की मात्रा नगण्य हो जाती है?
(क) 90 किमी
(ख) 100 किमी
(ग) 120 किमी
(घ) 150 किमी
उत्तर-(ग) 120 किमी।

प्रश्न (v) निम्नलिखित में से कौन-सी गैस सौर विकिरण के लिए पारदर्शी है तथा पार्थिव विकिरण के लिए अपारदर्शी?
(क) ऑक्सीजन
(ख) नाइट्रोजन
(ग) हीलियम
(घ) कार्बन-डाइ-ऑक्साइड
उत्तर-(घ) कार्बन डाइऑक्साइड।

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) वायुमण्डल से आप क्या समझते हैं?
उत्तर–पृथ्वी के चारों ओर वायु के आवरण को वायुमण्डल कहा जाता है। वायुमण्डल’ शब्द दो शब्दों के संयोग से बना है-वायु + मण्डल अर्थात् वायु का विशाल आवरण, जो पृथ्वी को चारों ओर से एक खोल की भाँति घेरे हुए है। इसका न कोई रंग है, न स्वाद और न ही गन्ध, परन्तु इसकी उपस्थिति का अनुभव इसके विभिन्न तत्त्वों द्वारा होता है। यदि पृथ्वी पर वायुमण्डल न होता तो किसी भी प्रकार के जीवधारी या वनस्पति की कल्पना करना भी व्यर्थ था। फिंच और ट्रिवार्था के शब्दों में, “वायुमण्डल विभिन्न गैसों का आवरण है, जो धरातल से सैकड़ों मील की ऊँचाई तक विस्तृत है तथा पृथ्वी का अभिन्न अंग है।”

प्रश्न (ii) मौमस एवं जलवायु के तत्त्व कौन-कौन से हैं?
उत्तर–ताप, दाब, हवा, आर्द्रता और वर्षण मौसम और जलवायु के तत्त्व हैं जो वायुमण्डल की निचली परत क्षोभमण्डल में उत्पन्न होकर पृथ्वी और मनुष्य के जीवन को प्रभावित करते हैं।

प्रश्न (iii) वायुमण्डल की संरचना के बारे में लिखें।
उत्तर–वायुमण्डल अलग-अलग घनत्व तथा तापमान वाली विभिन्न परतों से बना है। वायुमण्डल में पृथ्वी की सतह के पास घनत्व अधिक होता है, जबकि ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ यह घटता जाता है। तापमान की। स्थिति के अनुसार वायुमण्डल को पाँच विभिन्न संस्तरों में विभक्त किया जाता है—(i) क्षोभमंडल, (ii) समतापमण्डल, (iii) मध्यमण्डल, (iv) आयनमण्डल, (v) बहिर्मण्डल।

प्रश्न (iv) वायुमण्डल के सभी संस्तरों में क्षोभमण्डल सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण क्यों है?
उत्तर-क्षोभमण्डल (Troposphere) वायुमण्डल का सबसे नीचे का संस्तर है। इसकी ऊँचाई सतह से लगभग 13 किमी है तथा यह ध्रुव के निकट 8 किमी एवं विषुवत् वृत्त पर 18 किमी की ऊँचाई तक है। क्षोभमण्डल की मोटाई विषुवत् वृत्त पर सबसे अधिक है। वायुमण्डल के इस संस्तर में धूलकण तथा जलवाष्प मौजूद होते हैं। मौसम में परिवर्तन इसी संस्तर में होता है। इस संस्तर में प्रत्येक 165 मीटर की ऊँचाई पर तापमान 1°C घटता जाता है। अपनी मौसम एवं जलवायु सम्बन्धी विशिष्टता के कारण यह संस्तर मानव, जीव-जन्तु और पृथ्वी सभी के लिए महत्त्वपूर्ण माना जाता है। एक प्रकार से पृथ्वी की सजीवता के लिए वायुमण्डल का यही संस्तर उत्तरदायी है।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) वायुमण्डल के संघटन की व्याख्या करें।
उत्तर-वायुमण्डल विभिन्न गैसों का सम्मिश्रण है। इसमें ठोस व तरल पदार्थों के कण असमान मात्रा में तैरते रहते हैं। इसका संघटन सामान्यतः तीन प्रकार के पदार्थों के संयोग से हुआ है–
1. गैस–वायुमण्डल की संरचना में गैसों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। शुष्क वायु में प्रमुखत: नाइट्रोजन 78.8% ऑक्सीजन 20.95% तथा आर्गन, कार्बन डाइऑक्साइड व हाइड्रोजन आदि लगभग 0.25% जैसी भारी गैसें पाई जाती हैं। प्रायः धरातल के निकट भारी एवं सघन गैसें तथा ऊपरी भाग में नियॉन, हीलियम व ओजोन जैसी कई हल्की गैसें होती हैं।

2. जलवाष्प-जलवाष्प वायुमण्डल का सर्वाधिक परिवर्तनशील तत्त्व है। वायु में इसकी अधिकतम मात्रा 5% तक होती है। वायुमण्डल को जलवाष्प की प्राप्ति झीलों, सागरों, महासागरों आदि से वाष्पीकरण क्रिया द्वारा होती है। यह क्रिया तापमान पर निर्भर होती है।

3. धूलकण-वायुमण्डल के निचले भाग में अनेक अशुद्धियाँ देखने को मिलती हैं जो धूलकणों के कारण होती हैं। इनकी उत्पत्ति बालू, मिट्टी उड़ने, समुद्री लवण, ज्वालामुखी, राख, उल्कापात तथा धुएँ के कणों से होती है धूल के ये कण आर्द्रताग्राही होते हैं; अत: संघनन में इनका बहुत योगदान होता है। कोहरे व मेघों का निर्माण इनके ही सहयोग से होता है। यह वायुमण्डल की पारदर्शिता को भी प्रभावित करते हैं।

प्रश्न (ii) वायुमण्डल की संरचना का चित्र खींचें और व्याख्या करें।
उत्तर-वायुमण्डल की संरचना के खींचे गए चित्र 8.1 में वायुमण्डल को पाँच निम्नलिखित संस्तरों में विभक्त दिखाया गया है– (1) क्षोभमण्डल (Troposphere), (2): समतापमण्डल (Stratosphere), (3) मध्यमण्डल (Mesosphere), (4) आयनमण्डल (Ionosphere), (5) बाह्यमण्डल (Exosphere)। क्षोभमण्डल वायुमण्डल का सबसे निचला संस्तर है। मौसम एवं जलवायु सम्बन्धी सभी परिवर्तन इसी संस्तर में होते हैं। पृथ्वी की सजीवता इसी मण्डल के कारण है। समतापमण्डल जो वायुमण्डल की दूसरी परत है, क्षोभमण्डल से 50 किमी की ऊँचाई तक पाया जाता है। इसका महत्त्वपूर्ण लक्षण है कि तापमान स्थिर रहता है तथा इसमें ओजोन परत पाई जाती है। मध्यमण्डल समतापमण्डल के ठीक ऊपर 80 किमी की ऊँचाई तक फैला है। इसकी ऊँचाई के साथ-साथ तापमान में कमी होने लगती है। आयनमण्डल मध्यमण्डल के ऊपर 80 से 400 किमी के मध्य स्थित है। इसमें विद्युत आवेशित कण पाए जाते हैं,जिन्हें आयन कहते हैं इसीलिए इसका नाम आयनमण्डल है। पृथ्वी के द्वारा भेजी गई रेडियो तरंगें इसी। संस्तर द्वारा वापस पृथ्वी पर लौट जाती हैं। यहाँ ऊँचाई बढ़ने के साथ ही तापमान में वृद्धि शुरू हो जाती है। वायुमण्डल का सबसे ऊपरी संस्तर बाह्यमण्डल है। यह सबसे ऊँचा संस्तर है तथा इसके बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है।
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 8 Composition and Structure of Atmosphere IMG 1

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. विक्षोभमण्डल, समतापमण्डल, ओजोनमण्डल और बहिर्मण्डल विभाग हैं
(क) स्थलमण्डल के
(ख) जलमण्डल के
(ग) वायुमण्डल के
(घ) इनमें से किसी के नहीं
उत्तर-(ग) वायुमण्डल के।

प्रश्न 2. निम्नलिखित में से कौन पृथ्वी के वायुमण्डल की सबसे निचली परत है?
(क) आयनमण्डल
(ख) समतापमण्डल
(ग) क्षोभमण्डल
(घ) ओजोनमण्डल
उत्तर-(ग) क्षोभमण्डल।

प्रश्न 3. निम्नलिखित में से वायुमण्डल के सबसे निचले भाग में कौन पाया जाता है?
(क). क्षोभमण्डल
(ख) ट्रोपोपॉज
(ग) समतापमण्डल
(घ) ओजोनमण्डल
उत्तर-(क) क्षोभमण्डल।

प्रश्न 4. निम्नलिखित में से कौन-सी गैस वायुमण्डल में सर्वाधिक मात्रा में पायी जाती है?
(क) ऑक्सीजन
(ख) नाइट्रोजन
(ग) कार्बन डाइऑक्साइड
(घ) जलवाष्पे
उत्तर-(ख) नाइट्रोजन।

प्रश्न 5. निम्नलिखित में से किसमें वायुमण्डल का सर्वाधिक भाग स्थित है?
(क) समतापमण्डल
(ख) परिवर्तनमण्डल
(ग) आयनमण्डल
(घ) ओजोनमण्डल ।
उत्तर-(ख) परिवर्तनमण्डल।।

प्रश्न 6. निम्नलिखित में से कौन पृथ्वी के वायुमण्डल की सबसे ऊपरी परत है?
(क) समतापमण्डल ।
(ख) तापमण्डल
(ग) क्षोभमण्डल ।
(घ) बाह्यमण्डल
उत्तर-(घ) बाह्यमण्डल।

प्रश्न 7. क्षोभमण्डल में ऊँचाई के साथ तापमान
(क) घटता है।
(ख) घटता है फिर बढ़ता है। |
(ग) बढ़ता है।
(घ) स्थिर रहता है।
उत्तर-(क) घटता है।।

प्रश्न 8. निम्नलिखित वायुमण्डलीय परतों में से किसमें ओजोन गैस का सर्वाधिक संकेन्द्रण है? ।।
(क) क्षोभमण्डल
(ख) समतापमण्डल
(ग) मध्यमण्डल
(घ) तापमण्डल
उत्तर-(घ) तापमण्डल।।

प्रश्न 9. पृथ्वी के वायुमण्डल की निम्नलिखित परतों में से किस एक में जलवाष्प का सर्वाधिक संक्रेन्द्रण पाया जाता है?
(क) बहिर्मण्डल
(ख) आयनमण्डल
(ग) समतापमण्डल
(घ) क्षोभमण्डल
उत्तर-(घ) क्षोभमण्डल।। ||

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. वायुमण्डल को परिभाषित कीजिए।
उत्तर-पृथ्वी के चारों ओर परिवेष्ठित वायु के आवरण को ‘वायुमण्डल’ कहा जाता है। वायुमण्डल शब्द दो शब्दों के संयोग से बना है-वायु + मण्डल अर्थात् वायु का विशाल आवरण, जो पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए हैं। फिंच और ट्विार्था के शब्दों में, वायुमण्डल विभिन्न गैसों का आवरण है, जो धरातले से सैकड़ों मील की ऊँचाई तक विस्तृत है तथा पृथ्वी का अभिन्न अंग है।”

प्रश्न 2. वायुमण्डल की रचना किन तत्त्वों (पदार्थों) से हुई है?
उत्तर-वायुमण्डल की रचना गैसों, जलवाष्प तथा धूल-कणों से हुई है।

प्रश्न 3. वायुमण्डल के संघटन में कौन-कौन-सी भारी गैसें सम्मिलित हैं?
उत्तर-वायुमण्डल के संघटन में भारी गैसों में नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, ऑर्गन, कार्बन डाइऑक्साइड तथा हाइँड्रोजन सम्मिलित हैं।

प्रश्न 4. वायुमण्डल के संघटन में कौन-कौन-सी हल्की गैसें सम्मिलित हैं?
उत्तर-वायुमण्डल के संघटन में हल्की गैसों में हीलियम, नियॉन, क्रिप्टॉन, जेनॉन, ओजोन आदि सम्मिलित हैं।

प्रश्न 5. उस विरल गैस का नाम बताइए जो सूर्य के पराबैंगनी विकिरण का अवशोषण करती है।
उत्तर-ओजोन गैस।

प्रश्न 6. वायुमण्डल में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड गैस का क्या महत्त्व है?
उत्तर-यह गैस पेड़-पौधों के अस्तित्व के लिए आवश्यक है।

प्रश्न 7. क्षोभ सीमा या मध्य स्तर का महत्त्व बताइए।
उत्तर-यह एक शान्त पेटी है। इस स्तर पर परिवर्तन की कोई घटना नहीं होती।

प्रश्न 8. समतापमण्डल का महत्त्व बताइए।
उत्तर-यह मण्डल संवहन क्रिया से रहित है तथा इसमें बादल भी नहीं बनते। इस परत का महत्त्व वायुयानों के लिए अधिक है।

प्रश्न 9. आयनमण्डल का हमारे लिए क्या महत्त्व है?
उत्तर-यह मण्डल रेडियो तरंगों को पृथ्वी की ओर लौटा देता है। इस मण्डल की स्थिति के कारण ही रेडियो तरंगें पृथ्वी पर एक वक्राकार मार्ग का अनुसरण करती हैं। इस परत का महत्त्व दूरसंचार के लिए अधिक है।

प्रश्न 10. परिवर्तनमण्डल क्या है? इसका महत्त्व बताइए।
उत्तर-वायुमण्डल की निचली परत को परिवर्तनमण्डल या क्षोभमण्डल कहते हैं। मौसम सम्बन्धी विभिन्न घटनाएँ मेघ गर्जन, ऑधी-तूफान, वर्षा, ओस, तुषार, पाला, कुहरा आदि के लिए इस मण्डल का महत्त्व है।

प्रश्न 11, मानव एवं जीव-जन्तु के लिए ओजोनमण्डल को वरदान कहा जाता है। क्यों?
उत्तर-ओजोनमण्डल में ओजोन गैस पाई जाती है। यही गैस सूर्य से निकलने वाली घातक एवं तीक्ष्ण पराबैंगनी किरणों का अधिकांश भाग अवशोषित करके जीवधारियों को सुरक्षा कवच प्रदान करती है।

प्रश्न 12. मनुष्य के जीव-जन्तु के लिए वायुमण्डल का क्या महत्त्व है?
उत्तर-वायुमण्डल में मनुष्य, जीव-जन्तु तथा पेड़-पौधे के जीवन संचार की क्षमता है। इसमें मानव व जीव-जन्तु के लिए ऑक्सीजन तथा पौधों के लिए कार्बन डाइऑक्साइड गैस और जलवाष्प विद्यमान है।

प्रश्न 13, पृथ्वी पर जैविक विविधता का क्या कारण है?
उत्तर-पृथ्वी पर वायुमण्डलीय कारकों ने जलवायु की क्षेत्रीय विभिन्नताओं को जन्म दिया है। यह जलवायु विभिन्नता ही जैविक विविधता का महत्त्वपूर्ण कारण है।

प्रश्न 14. ऊँचाई के साथ वायुमण्डल के तापमान में क्या परिवर्तन होते हैं?
उत्तर-ऊँचाई के साथ वायुमण्डल के तापमान में निम्नलिखित परिवर्तन होते हैं

  • लगभग 15 किमी तक तापमान धीरे-धीरे ऊँचाई के साथ-साथ कम होता जाता है।
  • 15 किमी और 80 किमी के मध्य तापमान प्रायः स्थिर रहता है।
  • 80 किमी से ऊपर जाने पर तापमान ऊँचाई के साथ-साथ बढ़ने लगता है।

प्रश्न 15. वायुमण्डल की किस परत में वायुयानों के परिवहन की आदर्श दशाएँ उपलब्ध हैं ?
उत्तर-वायुमण्डल की समताप परत में वायुयानों की उड़ान के लिए आदर्श दशाएँ पाई जाती हैं। इसमें मेघ, धूलकण तथा संवहन धाराओं का अभाव होता है।

प्रश्न 16. हाइड्रोजन किस प्रकार की गैस है? वायुमण्डल में इसकी स्थिति बताइए।
उत्तर-हाइड्रोजन सबसे हल्की गैस है जो वायुमण्डल में सभी गैसों के ऊपर लगभग 1100 किमी की ऊँचाई तक पाई जाती है। यह गैस वायुमण्डल की गैसों का केवल 0.01% भाग है।

प्रश्न 17. वायुमण्डल में कौन-सी गैस रासायनिक प्रक्रिया में भाग नहीं लेती है?
उत्तर-क्रिप्टॉन, नियोन तथा ऑर्गन गैसें रासायनिक प्रक्रिया में भाग नहीं लेती हैं।

प्रश्न 18. एयरोसोल्स क्या हैं?
उत्तर-वायुमण्डल में जलकर्ण, कार्बन डाइऑक्साइड, ओजोन, जीनान, क्रिप्टॉन, नियोन, ऑर्गन तथा बड़े ठोस कण सम्मिलित रूप से एयरोसोल्स कहलाते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. वायुमण्डल संरचना से आप क्या समझते हैं? वायुमण्डल के स्तरों के नाम लिखिए।
उत्तर-वायुमण्डल की संरचना
वायुमण्डल की संरचना अथवा वायुमण्डल के स्तरों से तात्पर्य वायुदाब, तापमान एवं घनत्व आदि के परिवर्तन के फलस्वरूप वायुमण्डल की विभिन्न परतों से है, क्योंकि वायुमण्डल में धरातल से अन्तरिक्ष की ओर बढ़ने पर लम्बवत् व क्षैतिज रूप में परिवर्तन देखने को मिलते हैं। वायुमण्डल में ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, हीलियम, नियोन सहित ओजोने आदि गैसें पाई जाती हैं। भारी एवं सघन गैसें; यथा–नाइट्रोजन व ऑक्सीजन धरातल के समीप तथा हल्की गैसें वायुमण्डल के ऊपरी भाग में पाई जाती हैं। यही कारण है कि 6 किमी से अधिक ऊँचाई पर हमें साँस लेने में कठिनाई होती है।

वायुमण्डल के स्तर

वायुमण्डल को आधार मानकर सामान्यत: निम्नलिखित पाँच मण्डलों या स्तरों अथवा परतों में बाँटा गया है–

  1. क्षोभमण्डल या परिवर्तनमण्डल अथवा अधोमण्डल (Troposphere),
  2. समतापमण्डल (Stratosphere),
  3. ओजोनमण्डल (Ozonosphere),
  4. आयनमण्डल (Ionosphere),
  5. बहिर्मण्डल (Exosphere)।

प्रश्न 2. वायुमण्डल की चौथी परत की विशेषता एवं उपयोगिता समझाइए।
उत्तर-वायुमण्डल की चौथी परत को आयनमण्डल कहते हैं। आयनमण्डल ओजोनमण्डल के ऊपर स्थित है। इसका विस्तार 80-640 किमी तक विस्तृत है। वैज्ञानिकों को इस मण्डल के सन्दर्भ में अधिकाधिक जानकारी प्राप्त हो रही है। आयनमंण्डल का आभास सर्वप्रथम रेडियो तरंगों द्वारा ज्ञात हुआ था। ध्वनि तरंगों एवं स्पूतनिकों (Rockets) द्वारा इसके सम्बन्ध में और अधिक जानकारी प्राप्त हुई है। इस स्तर पर वायुमण्डल का आयनन आरम्भ हो जाता है। ओजोनमण्डल की समाप्ति पर तापमान पुनः ऊपर की ओर नीचे गिरने लगता है तथा 80 किमी की ऊँचाई पर घटकर -100° सेल्सियस के समीप पहुँच जाता है। इसके बाद एक बार फिर तापमान बढ़ने लगता है क्योंकि वहाँ लघु तरंगी सौर विकिरण को अवशोषण ऑक्सीजन और नाइट्रोजन के परमाणुओं पर पराबैंगनी फोटोन्स की प्रतिक्रिया होने से ताप 1000° सेल्सियस तक बढ़ जाता है। आयनमण्डल रेडियो तरंगों को पृथ्वी की ओर लौटा देता है। अनेक वैज्ञानिक रेडियो एवं ध्वनि तरंगों के माध्यम से इस परत के अन्वेषण में लगे हुए हैं। पृथ्वी पर संचार साधनों का संचालन इसी परत के द्वारा सम्भव होता है। इस दृष्टि से यह मण्डल मानव के लिए विशेष उपयोगी है।

प्रश्न 3. वायुमण्डल की अन्तिम परत पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-वायुमण्डल की अन्तिम परत बहिर्मण्डल कहलाती है। बहिर्मण्डल को विशेष अध्ययन स्पिटजर नामक वैज्ञानिक द्वारा किया गया है। इसकी ऊँचाई 500 से 1000 किमी तक बताई गई है। इतनी अधिक ऊँचाई पर वायुमण्डल एक निहारिका के रूप में दिखलाई पड़ता है। इस मण्डल में हाइड्रोजन तथा हीलियम सदृश हल्की गैसों की प्रधानता होती है। वायुमण्डल की बाह्य सीमा पर गतिक (Kinetic) तापमान बहुत अधिक होता है, परन्तु यह तापमान धरातलीय तापमान से सर्वथा भिन्न होता है। यदि अन्तरिक्ष यात्री इतने अधिक तापमान में यान से अपना हाथ बाहर निकालें तो शायद उन्हें गर्म भी। नहीं लगेगा। वास्तव में वर्तमान तक इस मण्डल के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं हुई है; अतः। इसकी खोज जारी है।

प्रश्न 4. वायुमण्डल का महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-वायुमण्डल का महत्त्व मानव एवं पृथ्वी पर विभिन्न क्रियाओं के लिए अक्षुण्ण है। वायुमण्डल के अस्तित्व के फलस्वरूप ही पृथ्वी पर पेड़-पौधे तथा जीवधारियों का अस्तित्व पाया जाता है। पृथ्वी पर वायु संचरण, वर्षा, आँधी-तूफान, बादल तथा हिमपात आदि घटनाएँ वायुमण्डल के कारण ही सम्भव होती हैं। वायुमण्डल पृथ्वी को कवच की भाँति सुरक्षा प्रदान करता है। यह पृथ्वी को अधिक गर्म होने से रोकता है। तथा दूसरी ओर तापमान के विकिरण में बाधक बन जाता है। यह तापमान के विकिरण और प्रकाश के वितरण में सहायक होकर जीवधारियों का कल्याण करता है। वायुमण्डल की ऊपरी परतें (विशेष रूप से ओजोन परत) पराबैंगनी किरणों को रोककर जीवधारियों को उनके प्राणघातक प्रभाव से बचाती है। पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व वायुमण्डल के कारण ही सम्भव हो पाया है। वायुमण्डल जीवधारियों को प्राणदायिनी वायु के रूप में ऑक्सीजन गैस प्रदान करता है। वायुमण्डल की उपस्थिति के कारण ही पृथ्वी सौर-मण्डल का एक अनोखा ग्रह माना जाता है।

प्रश्न 5. वायुमण्डल की संरचना में गैसों का क्या योगदान है?
उत्तर-वायुमण्डल की संरचना में गैसों का स्थान सर्वोपरि है। शुष्क वायु में प्रमुखत: नाइट्रोजन (8%), ऑक्सीजन 21%) जैसी भारी एवं सघन गैसें तथा आर्गन, कार्बन डाइऑक्साइड व हाइड्रोजन आदि (लगभग 1%) जैसी हल्की गैसें पाई जाती हैं। प्रायः धरातल के निकटवर्ती भागों में भारी गैसें तथा ऊपरी भागों में नियोन, हीलियम व ओजोन जैसी कई हल्की गैसें मिलती हैं। वायुमण्डल के सबसे निचले भागों में 20 किमी की ऊँचाई तक भरी गैसें व अन्य पदार्थ मिलते हैं। 100 किमी की ऊँचाई तक ऑक्सीजन व नाइट्रोजन गैसें पाई जाती हैं तथा 125 किमी की ऊँचाई तक हाइड्रोजन गैस मिलती है।

प्रश्न 6. जलवाष्प तथा धूलकण मौसम तथा जलवायु की विभिन्नता के लिए क्यों महत्त्वपूर्ण हैं।
उत्तर-जलवाष्प एवं धूलकण वायुमण्डल के महत्त्वपूर्ण संघटक हैं। ये मौसम तथा जलवायु के लिए बहुत उपयोगी होते हैं। धूलकण प्रत्येक प्रकार के संघनन के लिए उत्तरदायी होते हैं। ये आर्द्रताग्राही होते हैं, इनके द्वारा ही वायुमण्डल में कुहारा, मेघ आदि बनते हैं और वर्षा की परिस्थिति उत्पन्न होती है। जलवाष्प वायुमण्डल के तापमान और वर्षा को प्रभावित करती है। जलवाष्प की उपस्थिति वायुमण्डल में वाष्पीकरण क्रिया द्वारा निर्धारित होती है। इसकी मात्रा सभी स्थानों पर समान नहीं होती है। भूमध्य रेखा के निकट सर्वाधिक एवं ध्रुवों पर सबसे कम जलवाष्प पाई जाती है। वायुमण्डल में घटित होने वाली सभी घटनाएँ मेघ, तुषार, हिमपात, ओस, पाला, झंझावात, चक्रवात आदि जलवाष्प पर आधारित होती हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. वायुमण्डल किसे कहते हैं? वायुमण्डल का संघटन (संरचना) समझाइए तथा इसका महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-वायुमण्डल का अर्थ
ट्विार्था के अनुसार, “पृथ्वी को परिवेष्टित करने वाला गैसों का एक विशाल आवरण जो पृथ्वी का अभिन्न अंग है, वायुमण्डल कहलाता है। इस प्रकार वायुमण्डल वायु का एक विशाल आवरण है जो पृथ्वी को चारों ओर से एक खोल की भाँति घेरे हुए है। यह आवरण भूतल से 1,000 किमी से भी अधिक ऊँचाई तक व्याप्त है। वायुमण्डल की उपस्थिति के कारण ही पृथ्वी ग्रह सौरमण्डल का अनूठा ग्रह है, जिस पर जीवन पाया जाता है। यह वायुमण्डल प्राणिमात्र के लिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसी के कारण पृथ्वी पर जीवन सम्भव हुआ है। वायुमण्डल में ही मौसम की परिघटनाएँ होती हैं।

वायुमण्डल का संघटन या संरचना

वायुमण्डल का संघटन विभिन्न गैसों, जलवाष्प एवं धूल-कणों आदि से मिलकर हुआ है। इसमें सम्मिलित पदार्थों का विवरण निम्नलिखित है–
1. गैसें (Gases)-वायुमण्डल की संरचना में विभिन्न गैसों का योगदान रहता है। यद्यपि वायु कई गैसों का मिश्रण है, परन्तु मुख्य रूप से इसमें दो ही गैसें नाइट्रोजन 78% और ऑक्सीजन 21% मिश्रित रहती हैं जो सम्पूर्ण वायुमण्डल का 99 प्रतिशत भाग है। शेष 1 प्रतिशत में अन्य गैसे सम्मिलित हैं। संलग्न तालिका वायुमण्डल में पायी जाने वाली गैसों की मात्रा प्रकट करती है। वायुमण्डल के निचले भाग में भारी गैसें कार्बन डाइऑक्साइंड 20 किमी तक, ऑक्सीजन तथा नाइट्रोजन 100 किमी तक और हाइड्रोजन 125 किमी की ऊँचाई तक पायी जाती हैं। इनके अतिरिक्त अधिक हल्की गैसें; जैसे-हीलियम, नियॉन, क्रिप्टॉन, जेनॉन, ओजोन आदि 125 किमी से अधिक ऊँचाई पर पायी जाती हैं।

2. जलवाष्प (Water Vapour)-जलवाष्प का वायुमण्डल में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। इसकी अधिकतम मात्रा 5% तक होती है। जलवाष्प की यह मात्रा धरातल के विभिन्न भागों; जैसे–महासागरों, सागरों, झीलों, जलाशयों, मिट्टियों, वनस्पति आदि के वाष्पीकरण द्वारा वायुमण्डल में विलीन होती रहती है।
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 8 Composition and Structure of Atmosphere IMG 2
ऑक्सीजन वाष्पीकरण का कम या अधिक होना तापमान की कमी या वृद्धि के ऊपर निर्भर करता है। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि सूर्याभिताप प्रति सेकण्ड 1.6 करोड़ टन जल का वाष्पीकरण कर उसे जलवाष्प में बदल देता है। यदि वायुमण्डल में उपस्थित समस्त जलवाष्प को धरातल पर गिरा दिया जाए तो धरातलीय सतह पर 2.5 सेण्टीमीटर जल एकत्र हो जाएगा। वायुमण्डल की निचली परत में जलवाष्प की मात्रा प्रत्येक भाग में कम या अधिक अवश्य ही मिलती है। वायुमण्डल की ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ जलवाष्प की मात्रा घटती जाती है अर्थात् 7.5 किमी की ऊँचाई पर वायुमण्डल में जलवाष्प नहीं पायी जाती। विषुवत् रेखा से ध्रुवों की ओर जाने पर वायुमण्डल में जलवाष्प की मात्रा घटती जाती है। उदाहरण के लिए-शीतोष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में 50° अक्षांश पर जलवाष्प की मात्रा 2.6 प्रतिशत, 70° अक्षांश पर 0.9 प्रतिशत और इससे अधिक ऊँचाई वाले अक्षांशों पर केवल 0.2 प्रतिशत ही रह जाती है। वायुमण्डलीय घटनाएँ-बादल, वर्षा, तुषार, हिमपात, ओस, ओला, पाला आदि जलवाष्प पर ही आधारित हैं। जलवाष्प की यह मात्रा सौर्यिक विकिरण के लिए पारदर्शक शीशे की भाँति कार्य करती है।

3. धूल-कण (Dust Particles)-सूर्य के प्रकाश में देखने से मालूम होता है कि वायुमण्डल में धूल के ठोस तथा सूक्ष्म कण स्वतन्त्रतापूर्वक विचरण करते रहते हैं। ये धूल-कण भूतल से अधिक ऊँचाई पर नहीं जा पाते। भूपृष्ठ की मिट्टी के अतिरिक्त ये धूल-कण धुआँ, ज्वालामुखी की धूल तथा समुद्री लवण से भी उत्पन्न होते हैं। ये धूल-कण जलवाष्प को अपने में सोख लेते हैं। वर्षा कराने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। वर्षा के समय इन धूल-कणों पर जमी जल की बूंदें चमकते मोती के समान दिखलाई पड़ती हैं। सूर्य की किरणों का वायुमण्डल में बिखराव इन्हीं | धूल-कणों के द्वारा होता है। इन्हीं के कारण आकाश में विभिन्न रंग दिखाई पड़ते हैं।

वायुमण्डल का महत्त्व

वायु केवल मानव के लिए ही आवश्यक नहीं है, अपितु जल, थल तथा वायुमण्डलों में निवास करने वाले सभी प्राणिमात्र, जीव-जन्तु, पेड़-पौधों आदि सभी के लिए अनिवार्य है। वायु के अभाव में प्राणिमात्र एक पल भी जीवित नहीं रह सकता। वायु द्वारा ही सभी वायुमण्डलीय प्रक्रियाएँ-ताप, वायुदाब, वर्षा, तुषार, कोहरा, पाला, विद्युत चमक, ऋतु-परिवर्तन आदि निर्धारित होते हैं।

जलवायु का निर्धारण भी वायुमण्डल द्वारा ही किया जाता है। इसके अतिरिक्त कृषि-क्रियाओं पर वायुमण्डल का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। पूर्वी एशियाई कृषि-प्रधान देशों में वायुमण्डलीय क्रियाओं से भारी धन-जन की हानि होती है। वास्तव में कृषक का भाग्य ही इस वायुमण्डल से जुड़ा हुआ है। पश्चिमी यूरोपीय देशों में फलों की कृषि वायुमण्डलीय दशाओं पर निर्भर करती है। यही नहीं, उद्योग-धन्धे भी इन्हीं क्रियाओं से ही जुड़े हुए हैं।

वायुमण्डल में पायी जाने वाली कार्बन डाइऑक्साइड तथा नाइट्रोजन का प्रभाव वनस्पति तथा जीव-जन्तुओं पर अधिक पड़ता है। पश्चिमी देशों में कृषक अपनी कृषि भूमि में नाइट्रोजन की पूर्ति अन्य विधियों से कर लेते हैं तथा अधिक उत्पादन प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत भारतीय कृषि में कम उत्पादन का कारण नाइट्रोजन की पूर्ति न कर पाना है। कार्बन डाइऑक्साइड गैस से वनस्पति जगत की श्वसन क्रिया चलती है। यही कारण है कि विषुवतरेखीय प्रदेशों में इस गैस की अधिकता के कारण ही सघन वनस्पति का आवरण छाया हुआ है, जबकि टुण्ड्रा एवं टैगा प्रदेशों में इस गैस की कमी मिलती है; अतः ।

यहाँ वनस्पति भी विरल रूप में ही पायी जाती है। वायुमण्डल में व्याप्त अन्य गैसें-हाइड्रोजन, हीलियम, नियॉन, क्रिप्टॉन, ऑर्गन, ओजोन, जेनॉन आदि–भी प्राणिमात्र के लिए किसी-न-किसी रूप में लाभ पहुँचाती हैं। उदाहरण के लिए वायुमण्डल की ओजोन गैस का आवरण सूर्य की तीक्ष्ण पराबैंगनी किरणों को अपने में सोख लेता है। यदि यह गैस न होती तो पृथ्वी पर जीव-जगत न होता अर्थात् प्राणिमात्र तीक्ष्ण गर्मी से झुलस जाता और धरा जीवनशून्य हो जाती।

प्रश्न 2. वायुमण्डल की परतों पर प्रकाश डालिए और प्रत्येक का महत्त्व भी बताइए। |
या वायुमण्डल की किन्हीं पाँच परतों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-वायुमण्डल की परतें।
वायुमण्डल की परतों को सामान्यत: निम्नलिखित दो भागों में बाँटा जा सकता है
1. वायुमण्डल का रासायनिक स्तरीकरण
वायुमण्डल के रासायनिक स्तरीकरण को दो निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है

(i) सममण्डल (Homosphere)–तापमानं परिवर्तन को देखते हुए सममण्डल को तीन उप मण्डलों में विभाजित किया जाता है–(अ) परिवर्तनमण्डल या अधोमण्डल या क्षोभमण्डले (Troposphere), (ब) समतापमण्डल (Stratosphere) एवं (स) मध्यमण्डल (Mesosphere)। इन तीनों मण्डलों में रासायनिक दृष्टिकोण से गैसों की मात्रा में कोई परिवर्तन दिखलाई नहीं पड़ता। समुद्र-तल से इसकी ऊँचाई 90 किमी तक आँकी गयी है। रचना के दृष्टिकोण से सममण्डल में मुख्य गैसें ऑक्सीजन 20.946% तथा नाइट्रोजन 78.054% अर्थात् 99% भाग घेरे हुए हैं। शेष गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड, ऑर्गन, हीलियम, क्रिप्टॉन, जेनॉन तथा हाइड्रोजन प्रमुख हैं।

महत्त्व-सममण्डल में अधोमण्डल या क्षोभमण्डल सबसे महत्त्वपूर्ण परत है, क्योंकि यह वायुमण्डल की सबसे निचली परत है तथा मानव का इससे सीधा सम्पर्क है। पर्यावरण के सभी तत्त्व इसी मण्डल में पाये जाते हैं। धूल-कण भी इसी मण्डल में पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं। भारी कण निचली सतह में तथा हल्के कण ऊपरी भागों में पाये जाते हैं। अधोमण्डल के ऊपर धूल-कणों का अभाव पाया जाता है।

(ii) विषममण्डल (Heterosphere)-इस मण्डल की ऊँचाई 90 किमी से 10,000 किमी तक ऑकी गयी है। इस ऊँचाई पर स्थित गैसों के आधार पर विषममण्डल को चार उपविभागों में बाँटा गया है—(अ) आणविक नाइट्रोजन परत (Atomic Nitrogen Layer), (ब) आणविक ऑक्सीजन परत (Atomic Oxygen Layer), (स) हीलियम परत (Helium Layer) तथा (द) आणविक हाइड्रोजन परत (Atomic Hydrogen Layer)।

गैसों की प्रधानता के आधार पर इनका नामकरण किया गया है। 90 से 125 किमी की ऊँचाई तक आणविक नाइट्रोजन गैस, 125 से 700 किमी की ऊँचाई तक आणविक ऑक्सीजन गैस, 700 से 1100 किमी की ऊँचाई तक हीलियम गैस तथा 1,100 से 10,000 किमी की ऊँचाई तक आणविक हाइड्रोजन परेंत की स्थिति आँकी गयी है, परन्तु विषममण्डल की अन्तिम सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती। हाइड्रोजन गैस सबसे हल्की होने के कारण वायुमण्डल के सबसे ऊपरी भाग में विस्तृत है।

2. वायुमण्डल का सामान्य स्तरीकरण
वर्तमान समय में वैज्ञानिक आधार पर वायुमण्डल की अनेक परतों का अध्ययन किया गया है, परन्तु वायुदाब को आधार मानकर सामान्य रूप से वायुमण्डल को छः स्तरों में विभाजित किया गया है

(i) परिवर्तनमण्डल या क्षोभमण्डल-इसे अधोमण्डल भी कहते हैं। इसकी औसत ऊँचाई 11 किमी है। विषुवत रेखा पर इसकी औसत ऊँचाई 16 किमी तथा ध्रुवों पर केवल 6-7किमी रह जाती है। इसका मुख्य कारण यह है कि विषुवत् रेखा से ध्रुवों की ओर जाने में इसकी ऊँचाई कम होती जाती है। इसी मण्डल में प्राणिमात्र निवास करते हैं। इस मण्डल का पर्यावरण कुछ गरम होता है जिसका
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 8 Composition and Structure of Atmosphere IMG 3
मुख्य कारण सूर्यताप की प्राप्ति का होना है। इस मण्डल में जलवाष्प, जल-कण एवं धूल-कण विद्यमान हैं। यह मण्डल संवाहन, संचालन एवं विकिरण की क्रिया द्वारा क्रमशः गर्म तथा ठण्डा होता रहता है।

इस मण्डल में वायुमण्डलीय घटनाएँ घटित होती रहती हैं। इसीलिए इसे परिवर्तनमण्डल का नाम दिया गया है। ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ वायुमण्डल में ताप एवं दबाव कम होता जाता है। इस मण्डल में प्रति 300 मीटर की ऊँचाई पर 1.8° सेग्रे ताप कम हो जाता है। अधोमण्डल की अन्तिम सीमा पर वायुदाब घटकरे धरातल की अपेक्षा एक-चौथाई रह जाता है।

महत्त्व-इस मण्डल में वायु वेग एवं दिशा, तापमान, वर्षा, आर्द्रता, आँधी, तूफान, बादलों की गर्जना, विद्युत चमक आदि सभी वायुमण्डलीय घटनाएँ घटित होती रहती हैं।

(ii) क्षोभ सीमा या मध्य-स्तर- अधोमण्डल की समाप्ति एवं समतापमण्डल के आरम्भ वाले मध्य भाग को मध्य-स्तर का नाम दिया गया है। इसे संक्रमण स्तर भी कहते हैं। इसकी चौड़ाई 1.5 किमी है।

महत्त्व—यह एक शान्त पेटी है। इस स्तर में परिवर्तन की कोई घटना घटित नहीं होती।

(iii) समतापमण्डल-मध्य-स्तर के बाद समतापमण्डल प्रारम्भ होता है जिसकी ऊँचाई 16 किमी से 80 किमी तक है। इस मण्डल में ताप एक-सा रहता है, इसी कारण इसे समतापमण्डल का नाम दिया गया है, परन्तु इसकी ऊँचाई अक्षांश एवं ऋतुओं के अनुसार परिवर्तित होती रहती है अर्थात् ग्रीष्मकाल में वायुमण्डलीय घटनाएँ अधिक होने के कारण इसकी ऊँचाई में वृद्धि हो जाती है तथा शीतकाल में घट जाती है, जबकि वायुमण्डलीय घटनाएँ इस मण्डल में घटित नहीं होतीं।

महत्त्व-यह मण्डल संवाहन प्रक्रिया से रहित है तथा इसमें बादल भी नहीं बनते। इस परत का महत्त्व वायुयानों के लिए अधिक है।

(iv) ओजोनमण्डल-वायुमण्डल में इस परत की ऊँचाई समतापमण्डल के ऊपर 32 किमी से 80 किमी तक है। इसमें ओजोन गैस की अधिकता के कारण इसे ओजोनमण्डल नाम दिया गया है। वर्तमान समय में वायुमण्डल के इस छतरी रूपी आवरण में दो छेद हो गये हैं जिसका मुख्य कारण धरातल पर प्रदूषणों में वृद्धि होना है। वैज्ञानिकों को ध्यान इस ओर गया है तथा प्रदूषण एवं आणविक अस्त्र-शस्त्रों की होड़ को रोकने के प्रयास किये जा रहे हैं, जिससे जीवमण्डल के इस सुरक्षा कवच की रक्षा की जा सके। इस घटना के कारण ही पृथ्वी के औसत तापमान में 0.5° सेग्रे की वृद्धि हो गयी है; अतः सभी मानव-समुदाय को इसकी रक्षा के प्रयास करने चाहिए।

महत्त्व-इस परत का महत्त्व मानवमात्र के लिए है, क्योंकि इसी परत में सूर्य की विषैली पराबैंगनी किरणों का अवशोषण होता है। यह परत न होती तो कदाचित् पृथ्वी पर किसी प्रकार का जीवन सम्भव नहीं होता।

(v) आयनमण्डल-वायुमण्डल में इस परत की ऊँचाई 80 किमी से 640 किमी तक है, जो | ओजोनमण्डल के ठीक ऊपर है। कुछ वैज्ञानिक इसकी अन्तिम सीमा हजारों किमी तक मानते हैं। यह मण्डल रेडियो तरंगों को पृथ्वी की ओर लौटा देता है। यदि यह मण्डल न होता तो रेडियो तरंगें असीम आकाश में चली जातीं और कभी भूतल पर वापस न लौटतीं। इस मण्डल की स्थिति के कारण ही रेडियो तरंगें पृथ्वी पर एक वक्राकार मार्ग का अनुसरण करती हैं। ध्वनि तरंगों तथा रॉकेटों द्वारा भी इस मण्डल के विषय में अनेक जानकारियाँ प्राप्त हुई हैं, परन्तु अभी तक पूर्ण खोज नहीं हो पायी है। ओजोन की समाप्ति पर तापमान गिरने लगता है जो 30 किमी ऊँचाई पर -38° सेग्रे हो जाता है। इसके बाद तापमान में वृद्धि होती है तथा 95 किमी की ऊँचाई पर 10° सेग्रे तापमान हो जाता है। आकाश का नीला रंग, विद्युत चमक तथा ब्रह्माण्ड किरणें इस परत की विशेषताएँ हैं।

महत्त्व-इस परत का महत्त्व दूरसंचार के लिए अधिक है।

(vi) बहिर्मण्डल-ऊँचाई के आधार पर यह वायुमण्डल की सबसे ऊँची तथा अन्तिम परत हैं। इस परत की ऊँचाई 640 किमी से 690 किमी तक मानी गयी है अथवा इससे भी कहीं अधिक हो सकती है। वायुमण्डल की बाह्य सीमा पर 5568° सेग्रे ताप हो जाता है, परन्तु यह तापमान धरातलीय तापमान से भिन्न होता है। इसमें हीलियम तथा हाइड्रोजन जैसी अत्यधिक हल्की गैसों का आधिक्य है। वैज्ञानिक इस मण्डल की खोज में जुटे हुए हैं।

महत्त्व-भू-भौतिकी वैज्ञानिकों एवं जलवायुवेत्ताओं ने इससे ऊपर चुम्बकीय मण्डले की परिकल्पना की है, जिसकी जानकारी उपग्रहों द्वारा प्राप्त हुई है। इसकी ऊँचाई का निर्धारण 80,000 किमी तक किया गया है। इसे ऊँचाई पर पृथ्वी के वायुमण्डल का समापन सूर्य की परिधि में हो जाता है।

प्रश्न 3. वायुमण्डल के प्रथम संस्तर तथा इसकी सीमा का वर्णन कीजिए। |
या वायुमण्डल की निचली परत को क्यों महत्त्वपूर्ण माना जाता है? इसकी विशेषता बताइए।
उत्तर-वायुमण्डल के प्रथम संस्तर को क्षोभमण्डल या परिवर्तनमण्डल कहते हैं जबकि इसकी सीमा क्षोभ सीमा या मध्यस्तर कहलाती (चित्र 8.2) है। इन दोनों का वर्णन इस प्रकार है
क्षोभमण्डल या परिवर्तनमण्डल अथवा अधोमण्डल—यह वायुमण्डल को प्रथम संस्तर या सबसे निचली एवं सघन परत है जिसमें वायुमण्डल के सम्पूर्ण भार का 75% भाग संकेन्द्रित है। धरातल से इस परत की औसत ऊँचाई लगभग 14 किमी मानी जाती है। यह विषुवत रेखा से ध्रुवों की ओर पतली होती जाती है। विषुवत् रेखा पर इसकी ऊँचाई 18 किमी तथा ध्रुवों पर केवल 8 किमी होती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि ज्यो-ज्यों विषुवत् रेखा से ध्रुवों की ओर बढ़ते हैं, क्षोभ सीमा पृथ्वी के निकट आती-जाती है, जिसमें ऊँचाई के साथ ताप कम होना बंद हो जाता है। क्षोभमण्डल की ऊँचाई जाड़ों की अपेक्षा गर्मियों में अधिक हो जाती है। (चित्र 8.3)।
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 8 Composition and Structure of Atmosphere IMG 4
जलवायु विज्ञान की दृष्टि से इस परत का विशेष महत्त्व है, क्योंकि सभी मौसमी घटनाएँ इसी मण्डल में घटित होती हैं। ऊँचाई में वृद्धि के साथ-साथ तापमान में गिरावट इस परत की सबसे बड़ी विशेषता है। ताप की यह कमी 6.5° सेल्सियस प्रति किलोमीटर होती है। इसे सामान्य ताप ह्रास दर (Normal Lapse Rate of Temperature) कहते हैं।

इस मण्डल में वायु कभी शान्त नहीं रहती है, कुछ-न-कुछ परिवर्तनों की क्रिया सदैव जारी रहती है। इस कारण इसे परिवर्तनमण्डल का नाम भी दिया गया है। वायुमण्डल की यह निचली परत ही भूतल और उस पर स्थित जैवमण्डल में सम्पर्क में रहती है जिस कारण यहाँ मेघ गर्जन, आँधी व तूफान आदि वायुमण्डलीय क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं। मौसम सम्बन्धी सभी घटनाएँ इसी मण्डल में घटित होती हैं।

क्षोभ सीमा या मध्य स्तर-क्षोभमण्डल एवं समतापमण्डल के मध्य क्षोभ सीमा अथवा मध्य स्तर स्थित है। यह इन दोनों मण्डलों के मध्य संक्रमण क्षेत्र है। इस पेटी की चौड़ाई लगभग 3 किमी तक है। मध्य अक्षांशों में जेट स्ट्रीम के कारण कभी-कभी इस स्तर की ऊँचाई में अन्तर पड़ जाता है। विषुवत् । रेखा पर इसकी ऊँचाई 18 से 20 किमी तथा ध्रुवों पर 8 से 10 किमी तक होती है।

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 8 Composition and Structure of Atmosphere (वायुमंडल का संघटन तथा संरचना) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 8 Composition and Structure of Atmosphere (वायुमंडल का संघटन तथा संरचना), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 6 Geomorphic Processes

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 6 Geomorphic Processes (भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 6 Geomorphic Processes (भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ)

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

1. बहुवैकल्पिक प्रश्न
प्रश्न (1) निम्नलिखित में से कौन-सी एक अनुक्रमिक प्रक्रिया है?
(क) निक्षेप
(ख) ज्वालामुखीयता
(ग) पटल-विरूपण ।
(घ) अपरदन
उत्तर-(घ) अपरदन।

प्रश्न (ii) जलयोजन प्रक्रिया निम्नलिखित पदार्थों में से किसे प्रभावित करती है?
(क) ग्रेनाइट
(ख) क्वार्ट्ज
(ग) चीका (क्ले) मिट्टी
(घ) लवण
उत्तर-(घ) लवण।

प्रश्न (iii) मलवा अवधाव को किस श्रेणी में सम्मिलित किया जा सकता है?
(क) भू-स्ख लन
(ख) तीव्र प्रवाही बृहत् संचालन
(ग) मन्द प्रवाही बृहत् संचलन
(घ) अवतल/धसकन।
उत्तर-(क) भू-स्खलन।

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) अपक्षय पृथ्वी पर जैव विविधता के लिए उत्तरदायी है। कैसे?
उत्तर-अपक्षय पृथ्वी पर जैव विविधता के लिए उत्तरदायी है। जैव मात्रा एवं जैव विविधता वनस्पति की उपज है। विशेषतः अपक्षय वातावरण एवं खनिजों के अयने के स्थानान्तरण की दिशा में उपयोगी है। इससे नई सतहों का निर्माण होता है, जिससे रासायनिक प्रक्रिया द्वारा सतह में नमी और हवा के वेधन में सहायता मिलती है। इससे मिट्टी के अन्दर ह्युमिक कार्बनिक एवं अम्ल जैसे तत्त्वों के उत्पादन में वृद्धि से जैव विविधता को प्रोत्साहन मिलता है। इस प्रकार अपक्षय पृथ्वी पर जैव विविधता को योगदान प्रदान करता है।

प्रश्न (ii) बृहत संचलन जो वास्तविक, तीव्र एवं गोचर/अवगम्य (Perceptible) हैं, वे क्या है? सूचीबद्ध कीजिए।
उत्तर-बृहत् संचलन के अन्तर्गत वे सभी संचलन आते हैं, जिनमें शैलों का मलबा (Debris) गुरुत्वाकर्षण के सीधे प्रभाव के कारण ढाल के अनुरूप बृहत् मात्रा में स्थानान्तरित होता है। बृहत् संचलन में कोई भी भू-आकृतिक कारक; जैसे–प्रवाहित जल, हिमानी, वायु आदि सीधे रूप में सम्मिलित नहीं होते हैं। बृहत् संचलन को तीन मुख्य प्रकारों में सूचीबद्ध किया जाता है

  1. मन्द संचलन,
  2. तीव्र संचलन तथा
  3. भूमि संचलन।

प्रश्न (iii) विभिन्न गतिशील एवं शक्तिशाली बहिर्जनिक भू-आकृतिक कारक क्या हैं तथा वे क्या प्रधान कार्य सम्पन्न करते हैं?
उत्तर-विभिन्न गतिशील एवं शक्तिशाली बहिर्जनिक भू-आकृतिक कारक निम्नलिखित हैं

  1. प्रवाहित जल,
  2. संचलित हिमखण्ड अथवा हिमानी,
  3. वायु,
  4. भूमिगत जल,
  5. लहरें आदि।

गतिशील एवं शक्तिशाली बहिर्जनिक भू-आकृतिक कारकों का प्रधान कार्य अपरदन या काटव करता है। इनके द्वारा प्रभावित उभरा हुआ धरातलीय भू-भाग अवतलित होता रहता है तथा पूर्व अवतलित क्षेत्रों में भराव अथवा अधिवृद्धि होती है।

प्रश्न (iv) क्या मृदा-निर्माण में अपक्षय एक आवश्यक अनिवार्यता है?
उत्तर-मृदा-निर्माण में अपक्षय एक आवश्यक अनिवार्यता है। अपक्षय जलवायु, चट्टान की संरचना तथा जैविक तत्त्वों पर निर्भर होता है। कालान्तर में ये सभी कारक मिलकर अपक्षयी प्रावार की मूल विशेषताओं को उत्पन्न करते हैं और मृदा-निर्माण के मूल आधार बनते हैं। इसलिए अपक्षय मृदा-निर्माण में आवश्यक अनिवार्यता है।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) “हमारी पृथ्वी भू-आकृतिक प्रक्रियाओं के दो विरोधात्मक (Opposing) वर्गों के खेल का मैदान है।” विवेचना कीजिए।
उत्तर-हम जानते हैं कि भूपर्पटी गत्यात्मक है। यह क्षैतिज एवं लम्बवत् दिशाओं में संचालित होती रहती है। भूपर्पटी का निर्माण करने वाली पृथ्वी की आन्तरिक शक्तियों में उत्पन्न अन्तर पृथ्वी की बाह्य शक्ति से अनवरत रूप से प्रभावित होता रहता है। इसका तात्पर्य यह है कि धरातल स्थलमण्डल के अन्तर्गत उत्पन्न बाह्य शक्तियों तथा पृथ्वी की आन्तरिक शक्तियों द्वारा प्रभावित रहता है। आन्तरिक शक्तियाँ धरातल पर रचनात्मक रूप से अपना कार्य करती रहती हैं। महाद्वीप, पर्वत, पठार आदि स्थलाकृतियों का निर्माण इसी शक्ति का परिणाम है जबकि बाह्य शक्तियाँ धरातल के उभरे हुए भागों के समतलीकरण के कार्य में संलग्न रहती हैं। अतएव दोनों शक्तियों की यह भिन्नता तब तक बनी रहती है जब तक बहिर्जनिक एवं अन्तर्जनिक बलों के विरोधात्मक कार्य चलते रहते हैं। इस प्रकार पृथ्वी इन शक्तियों के खेल का रंगमंच है।

प्रश्न (ii) बर्जिनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ अपनी अन्तिम ऊर्जा सूर्य की गर्मी से प्राप्त करती हैं।” व्याख्या कीजिए।
उत्तर-बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ वास्तव में अपनी अन्तिम ऊर्जा सूर्यातप से ही प्राप्त करती हैं। तापक्रम और वर्षण दो महत्त्वपूर्ण जलवायु तत्त्व हैं जो विभिन्न प्रकार से सूर्य द्वारा ही नियन्त्रित होते हैं। ये जलवायु तत्त्व रासायनिक, भौतिक एवं जैविक कारकों को संचालित कर भू-आकृतिक प्रक्रियाओं को गतिशील रखते हैं। इससे चट्टानों में रासायनिक एवं भौतिक अभिक्रियाएँ सम्पन्न होती हैं जिसका परिणाम अपक्षय, बृहत् संचलन एवं अपरदन के रूप में प्रकट होता है।

वास्तव में, समस्त वायुमण्डलीय शक्तियों का स्रोत सूर्य ही है। इसी से ऊर्जा एवं अन्तर्जनित शक्तियाँ नियन्त्रित होती हैं। इसी से प्राप्त प्रति इकाई क्षेत्र पर अनुप्रयुक्त शक्ति को प्रतिबल कहते हैं। ठोस पदार्थ में प्रतिबल धक्का और खिंचाव से उत्पन्न होता है। यही प्रतिबल चट्टानों को तोड़ता है। गुरुत्वाकर्षण प्रतिबल के अतिरिक्त आणविक प्रतिबल से भी धरातल के पदार्थ प्रभावित चट्टानों को तोड़ता है। गुरुत्वाकर्षण प्रतिबल के अतिरिक्त आणविक प्रतिबल से भी धरातल के पदार्थ प्रभावित होते हैं। अतः शक्ति के इन सभी स्रोतों का मूल स्रोत वस्तुतः सूर्य ही है जो अप्रत्यक्ष रूप से अन्य स्रोतों को उत्पन्न करके जलवायु तत्त्वों के रूप में कार्य करता है। यही कारक रासायनिक एवं भौतिक ऊर्जा उत्पन्न करके भू-आकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा भूपर्पटी में परिवर्तन उत्पन्न करता है। हमारे धरातल पर विभिन्न प्रकार के जलवायु प्रदेश उपलब्ध हैं। इन प्रदेशों में विभिन्न प्रकार की बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ होती रहती हैं जिसके लिए धरातल पर तापीय प्रवणता, अक्षांशीय दशाएँ, वर्षण एवं अन्य मौसमी दशाएँ उत्तरदायी होती हैं परन्तु इन सभी को नियन्त्रित एवं प्रभावित करने वाला एकमात्र ऊर्जा स्रोत सूर्य ही होता है।

प्रश्न (iii) क्या भौतिक एवं रासायनिक अपक्षय प्रक्रियाएँ एक-दूसरे से स्वतन्त्र हैं? यदि नहीं तो क्यों? सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
उत्तर-भौतिक एवं रासायनिक अपक्षय प्रक्रियाएँ एक-दूसरे से स्वतन्त्र नहीं हैं। अपक्षय के अन्तर्गत वायुमण्डलीय तत्त्वों के प्रति धरातल के पदार्थों की प्रतिक्रिया सम्मिलित होती है। वास्तव में अपक्षय के अन्दर अनेक प्रक्रियाएँ हैं जो पृथक् या सामूहिक रूप से धरातल के पदार्थों को विखण्डित करने के लिए प्रयत्नशील रहती हैं।

अपक्षय प्रक्रिया का एक वर्ग रासायनिक क्रियाओं; जैसे-जलयोजन, ऑक्सीकरण, कार्बोनेट विलयन, मृदा जल और अन्य अम्ल द्वारा विघटन के लिए कार्यरत रहता है। इसमें ऊष्मा के साथ जल और वायु की विद्यमानता सभी रासायनिक प्रक्रियाओं को तीव्र गति देने के लिए आवश्यक है।

अपक्षय प्रक्रिया का दूसरा वर्ग जिसे भौतिक अपक्षय कहा जाता है. अनुप्रयुक्त बलों पर आश्रित होता है जिसमें तापक्रम, दबाव आदि से चट्टानों में संकुचन एवं विस्तारण के कारण चट्टानों की सन्धियाँ कमजोर होकर विदीर्ण होने लगती हैं।

वास्तव में, भौतिक और रासायनिक अपक्षय प्रक्रियाएँ दोनों भिन्न-भिन्न हैं, फिर भी ये दोनों प्रक्रियाएँ एक-दूसरे से प्रभावित होने के कारण स्वतन्त्र नहीं हैं। उदाहरण के लिए, तापमान जिसे भौतिक अपक्षय का महत्त्वपूर्ण कारक कहा जाता है जब तक सक्रिय नहीं होता तब तक वह चट्टानों की रासायनिक संरचना के साथ अभिक्रिया नहीं करेगा। इसी प्रकार जल किसी चट्टान से तब तक कोई अभिक्रिया नहीं करेगा जब तक उसे ताप या दाब के कारण ऊष्मा प्राप्त नहीं होगी। अत: भौतिक एवं रासायनिक अपक्षय एक-दूसरे से अलग-अलग होते हुए भी स्वतन्त्र नहीं हैं बल्कि वायुमण्डलीय ऊष्मा के कारण नियन्त्रित हैं।

प्रश्न (iv) आप किस प्रकार मृदा-निर्माण प्रक्रियाओं तथा मृदा कारकों के बीच अन्तर ज्ञात करते हैं? जलवायु एवं जैविक क्रियाओं की मृदा-निर्माण में दो महत्त्वपूर्ण कारकों के रूप में क्या भूमिका है?
उत्तर-किसी प्रदेश में मिट्टियों का निर्माण मृदा-निर्माण कारकों और मृदा-निर्माण प्रक्रिया का परिणाम होता है। मृदा-निर्माण कारकों के अन्तर्गत जलवायु, स्थलाकृति, उच्चावच (मूल पदार्थ) जैविक प्रक्रियाओं और काल अवधि को सम्मिलित किया जाता है, जबकि मृदा-निर्माण प्रक्रिया में मृदा-संवृद्धि, मृदा क्षति, पदार्थों का विस्थापन एवं पदार्थों का रूपान्तरण सम्मिलित है।

अत: मृदाजनित कारक जब निश्चित अवधि तक मृदा संवृद्धि मृदा क्षति तथा पदार्थों के विस्थापन और रूपान्तरण की प्रक्रियाओं में क्रियाशील होते हैं तभी मृदा का निर्माण होता है। अतः मृदा कारक एवं प्रक्रिया दोनों ही मृदा के निर्माण के अलग-अलग पक्ष होते हुए भी समन्वित रूप से कार्य करते हैं तभी किसी प्रदेश की मृदा का निर्माण कार्य सम्पन्न होता है।

जलवायु एवं जैविक कारकों की बूंदा-निर्माण में भूमिका

जलवायु मृदा-निर्माण का सक्रिय कारक है। इसके अन्तर्गत वर्षण, वाष्पीकरण, आर्द्रता और तापक्रम तथा मौसम की दैनिक भिन्नता की प्रमुख भूमिका होती है। वर्षा से मृदा को आर्द्रता मिलती है जिससे रासायनिक और जैविक क्रिया होती है। इन क्रियाओं को तापक्रम के माध्यम से गति प्राप्त होती है। वर्षा के कारण मृदा में अपक्षालन (Leaching) तथा केशिका क्रिया (Capillary Action) होती है जो तापमान की दरों से प्रभावित होती है। अतः जलवायु मृदा-निर्माण का सक्रिय कारक है तथा मृदा प्रक्रिया को संचालित करने में विशेष योगदान देती है (चित्र 6.1)।

UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 6 Geomorphic Processes 1
जैविक प्रक्रियाएँ या कारक मृदा में नमी धारण करने की क्षमता तथा नाइट्रोजन उत्पत्ति में सहायक होती हैं। मृत पौधे या जैविक अवशेषों से मृदा को ह्युमस प्राप्त होता है। मृदा में ह्यूमस की उपलब्धता एवं अल्पता भी तापमान द्वारा नियन्त्रित होती है। इसी कारण उष्ण प्रदेशों में ह्यूमस की उपलब्धता शीत प्रदेशों की अपेक्षा कम होती है।

अतएव मृदा-निर्माण में जलवायु एवं जैविक प्रक्रिया दो महत्त्वपूर्ण कारक हैं। इन दोनों कारकों के अभाव में अन्य मृदाजनित कारक निष्क्रिय ही रहते हैं। वास्तव में यही वे कारक हैं जो मृदा-निर्माण प्रक्रिया को संचालित करते हैं। इसलिए किसी प्रदेश में मृदा-निर्माण जलवायु और जैविक क्रियाओं पर निर्भर होता हैं।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. समस्त वायुमण्डलीय शक्तियों का स्रोत है
(क) सूर्य
(ख) चन्द्रमा
(ग) तारा
(घ) पृथ्वी
उत्तर-(क) सूर्य।

प्रश्न 2. पेड़-पौधों के सड़े-गले पदार्थ तथा जीवाणुओं के अवशेष क्या कहलाते हैं?
(क) मृदा
(ख) ह्यूमस
(ग) अपरदन
(घ) सन्निघर्षण
उत्तर-(ख) ह्यूमस।

प्रश्न 3. बृहत् संचालन कितने प्रकार का होता है?
(के) एक
(ख) दो
(ग) तीन ।
(घ) चार
उत्तर-(ग) तीन।

प्रश्न 1. सूर्यातप किस प्रकार अपक्षय में सहायक है?
उत्तर-दिन के समय चट्टानें सूर्य के ताप से फैलती हैं तथा रात्रि में ताप का विकिरण होने से सिकुड़ती हैं। फैलने व सिकुड़ने की क्रिया बार-बार होने से अपक्षय में वृद्धि होती है।

प्रश्न 2. रासायनिक अपक्षय किसे कहते हैं? इसकी प्रबलता का क्षेत्र बताइए।
उत्तर-जब वियोजन की क्रिया द्वारा चट्टानें ढीली पड़कर विदीर्ण हो जाती हैं तो इस क्रिया को रासायनिक अपक्षय कहते हैं। रासायनिक अपक्षय आर्द्र जलवायु प्रदेशों में अधिक प्रबल होता है।

प्रश्न 3. जैविक अपक्षय का क्या अर्थ है?
उत्तर-जब अपक्षय क्रिया में मनुष्य, जीव-जन्तुओं तथा वनस्पति का योगदान होता है तो उसे जैविक अपक्षये कहते हैं।

प्रश्न 4. अपक्षय एवं अपरदन में क्या मौलिक अन्तर हैं?
उत्तर-अपक्षय स्थैतिक एवं अपरदन गतिशील प्रक्रियाएँ हैं। अपक्षय में चट्टानें अपने ही स्थान पर टूट-फूटकर चूरामात्र हो जाती हैं परन्तु अपरदन में इस चूर्ण का स्थानान्तरण होता रहता है।

प्रश्न 5. अपरदन के प्रमुख अभिकर्ताओं के नाम लिखिए।
उत्तर-बहता हुआ जल या नदी, पवन, हिमनद, भूमिगत जल एवं समुद्री लहरें प्रमुख अपरदन अभिकर्ता

प्रश्न 6. अनाच्छादन का क्या अर्थ है?
उत्तर-अनाच्छादन का अर्थ है-चट्टान का आवरण हटना। इस क्रिया में अपक्षय एवं अपरदन दोनों प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं।

प्रश्न 7. बाह्य शक्ति के प्रमुख कारक बतलाइए।
उत्तर-धरातल पर बाह्य शक्ति में तापमान, वर्षा गुरुत्वाकर्षण, बहता जल, पवन तथा हिमनद प्रमुख कारक हैं।

प्रश्न 8. अपरदन में कौन-कौन-सी क्रियाएँ सम्मिलित हैं?
उत्तर-अपरदन में चट्टानों का अपघर्षण, सन्निघर्षण जलगति क्रिया, घोलीकरण, अपवहन तथा परिवहन आदि क्रियाएँ सम्मिलित हैं।

प्रश्न 9. अपक्षय कितने प्रकार का होता है?
उत्तर-अपक्षय मुख्यत: तीन प्रकार का होता है—(1) भौतिक या यान्त्रिक अपक्षय, (2) रासायनिक अपक्षय एवं (3) जैविक अपक्षय।।

प्रश्न 10. मृदा क्या है?
उत्तर-मृदा धरातल का वह पदार्थ है जिसका निर्माण जलवायु कारकों द्वारा चट्टानों के क्षय से होता है। इसमें ह्यूमस, खनिज एवं लवण तत्त्वों की प्रधानता होती है।

प्रश्न 11. ह्यूमस से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-पेड़-पौधों के सड़े-गले पदार्थ तथा सूक्ष्म जीवाणुओं के अवशेष ह्यूमस कहलाते हैं। यह मृदा में मृत , जैविक पदार्थ है जिससे मृदा में उपजाऊ तत्त्वों का विकास होता है।

प्रश्न 12. अपक्षालन क्या है?
उत्तर-मृदा परिच्छेदिका में ऊपरी सतह से पदार्थों का नीचे की सतह की ओर परिगमन अपक्षालन कहलाता है।

प्रश्न 13. मृदा-निर्माण प्रक्रिया के विभिन्न चरणों के नाम लिखिए।
उत्तर-मृदा-निर्माण प्रक्रिया अग्रलिखित चरणों में सम्पन्न होती है

  1. पदार्थों का स्थानान्तरण,
  2. लवणीकरण,
  3. पदार्थों का कार्बनिक परिवर्तन,
  4. पोडजोलाइजेशन,
  5. लैटेराइजेशन।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. मृदा-निर्माण प्रक्रिया में कालावधि, स्थलाकृति एवं मूल पदार्थ को निष्क्रिय कारक क्यों माना जाता है?
उत्तर-मृदा-निर्माण प्रक्रिया में कालावधि, स्थलाकृति एवं मूल पदार्थ तब तक सक्रिय नहीं होते हैं जब तक इन पर कोई रासायनिक या भौतिक अभिक्रिया न हो। इस क्रिया के लिए जलवायु तत्त्वों या अन्य वायुमण्डलीय शक्तियों का सहयोग आवश्यक है। इसी कारण स्थलाकृति, मूल पदार्थ एवं कालावधि को मृदा-निर्माण में निष्क्रिय कारक कहा गया है।

प्रश्न 2. अपक्षय का महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-अपक्षय का महत्त्व निम्नलिखित है

  • अपक्षय की क्रिया द्वारा उपजाऊ मिट्टी का निर्माण होता है। विखण्डित एवं अपरदित शैलों के कण एकत्रित होकर उपजाऊ भूमि में बदल जाते हैं जो कृषि के लिए उपयुक्त है।
  • अपक्षय की क्रिया से गन्धक, चूना, जिप्सम आदि उपयोगी खनिज पदार्थ सुगमता से प्राप्त हो जाते
  • अपक्षय की क्रिया शैलों को चट्टानी चूर्ण में बदल देती है। इस बारीक शैल-चूर्ण को नदियाँ, हिमनद तथा पवन बहाकर एवं उड़ाकर अन्यत्र ले जाती हैं तथा उन्हें दूसरे स्थान पर जमा कर समतल मैदानों का निर्माण करती हैं जो कृषि-कार्य के लिए उपयोगी होते हैं।
  • पर्वतीय क्षेत्रों में ऋतु-अपक्षय के कारण विशाल शिलाखण्ड टूटते-फूटते रहते हैं, जिनसे नदियों की घाटियाँ अवरुद्ध हो जाती हैं और झीले बन जाती हैं।
  • अपक्षय की क्रिया द्वारा भूमि का अपक्षरण सरल हो जाता है।
  • शैलों को अपक्षय एवं निक्षेपण राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए अति महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मूल्यवान खनिजों; जैसे-लोहा, मैंगनीज, ऐलुमिनियम, ताँबा के अयस्कों के समृद्धीकरण एवं सकेन्द्रण में यह सहायक होता है।

प्रश्न 3. मृदा परिच्छेदिका (Profile) का अर्थ बताइए तथा मृदा परिच्छेदिका परतों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-प्रत्येक प्रकार की मिट्टी में विकसित संस्तर उसकी परिच्छेदिका कहलाता है। मृदा परिच्छेदिका में निम्नलिखित चार परतें स्पष्ट रूप से प्रकट होती हैं|

  1. ऊपरी मृदा या A संस्तर-यह मृदा की सबसे ऊपरी परत होती है जिसमें महीन कण, रासायनिक और जैविक पदार्थ, ह्यूमस आदि पाए जाते हैं।
  2. उपमृदा या B संस्तर-यह मृदा परिच्छेदिका की दूसरी परत है, इसमें अपक्षयित पदार्थ बालू, गाद तथा चिकनी मिट्टी आदि के पदार्थ होते हैं। यहाँ जल रिसाव के कारण आर्द्रता बनी रहती है।
  3. अपक्षयित चट्टान या c संस्तर-मृदा परिच्छेदिका के इस भाग में चट्टान के अपक्षयित पदार्थ पाए जाते हैं, जिनका अपक्षरण पूरी तरह से नहीं होता है।
  4. आधारी चट्टान या D संस्तर-यह परिच्छेदिका का आधार होता है जिसमें मूल चट्टानी पदार्थ अपक्षयित नहीं होता है।

प्रश्न 4. क्या शैलों के अपक्षय के बिना पर्याप्त अपरदन सम्भव हो सकता है?
उत्तर-अपरदन द्वारा उच्चावचे का निम्नीकरण होता है, अर्थात् भूदृश्य विघर्षित होता है। इसका तात्पर्य यह है कि अपक्षय अपरदन में सहायक होता है, लेकिन अपक्षय अपरदन के लिए अनिवार्य दशा नहीं है।

प्रश्न 5. शैल एवं मृदा में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-शैल एवं मृदा में अन्तर
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 6 Geomorphic Processes 2

प्रश्न 6. मृदा निर्माणकारी सक्रिय एवं निष्क्रिय कारकों में अन्तर बताइए।
उत्तर- मृदा निर्माणकारी सक्रिय एवं निष्क्रिय कारकों में अन्तर
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 6 Geomorphic Processes 3

प्रश्न 7. शुष्क एवं आर्द्र जलवायु प्रदेशों की मिट्टियों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- शुष्क एवं आद्र जलवायु प्रदेशों की मिट्टियों में अन्तर
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 6 Geomorphic Processes 4

प्रश्न 8. पृथ्वी के अन्तर्जात या आन्तरिक बल किस प्रकार स्थलरूपों के विकास में सहायक हैं। वर्णन कीजिए।
उत्तर-अन्तर्जात बल पृथ्वी के अन्तरतम में दो प्रकार की गतियों को जन्म देते हैं-(1) क्षैतिज गति एवं (2) लम्बवत् या ऊध्र्वाधर गति। इन दोनों गतियों के परणिामस्वरूप आन्तरिक भागों में उत्पंन्न होने वाले परिवर्तनों की प्रतिक्रिया धरातल के बाह्य भाग पर भी होती है। धरातल के बाह्य भागों में पर्वत, पठार, मैदान तथा भ्रंशन आदि स्थलाकृतियाँ बनती व बिगड़ती रहती हैं। पृथ्वी के आन्तरिक भागों में मुख्यतः आकस्मिक गतियाँ और पटल विरूपणी प्रक्रिया स्थलरूपों के विकास में सहायक हैं। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है

1. आकस्मिक गतियाँ-इस गति के परिणामस्वरूप पृथ्वी के आन्तरिक भागों में अचानक हलचल प्रारम्भ हो जाती है। ये गतियाँ मानव के लिए अत्यन्त विनाशकारी होती हैं क्योंकि इनसे ज्वालामुखी उद्गार और भूकम्प की उत्पत्ति होती है। ज्वालामुखी द्वारा आन्तरिक भाग में बैथोलिथ, फैकोलिथ, लैपोलिथ, डाइक आदि तथा बाह्य भाग में विभिन्न प्रकार के ज्वालामुखी शंकु और लावा पठारों को निर्माण होता है। भूकम्प द्वारा विभिन्न प्रकार की दरार और भ्रंशों का विकास होता है।

2. पटल विरूपण गतियाँ-पृथ्वी के आन्तरिक भाग में लम्बवत् या क्षैतिज दोनों प्रकार की गतियाँ सक्रिय रहती हैं। ये गतियाँ मंद गति से अपना कार्य सम्पन्न करती हैं। इनके द्वारा महाद्वीप एवं पर्वतों का निर्माण विभिन्न प्रकार की भूसंचलन प्रक्रियाएँ सम्पन्न होती हैं।

प्रश्न 9. भूसंचलन से आप क्या समझते हैं? भूसंचलन प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-भूसंचलन
भूपटल पर पाए जाने वाले विविध स्थलरूपों के विकास में भूसंचलन का महत्त्वपूर्ण योगदान है। भूसंचलन पृथ्वी की आन्तरिक एवं बाह्य शक्तियों की पारस्परिक क्रिया द्वारा सम्पन्न होता है। आन्तरिक शक्तियाँ भूगर्भ से तथा बाह्य शक्तियाँ वायुमण्डल से सम्बन्धित हैं। आन्तरिक शक्तियों द्वारा धरातल पर पर्वत, पठार, मैदान आदि अनेक स्थलरूपों का निर्माण होता है; अतः इन्हें संरचनात्मक बल कहा जाता है। इसके विपरीत बाह्य शक्तियों को विनाशात्मक बल कहा गया है, क्योंकि ये चट्टानों को विदीर्ण करके अपने स्थान से हटाकर अन्यत्र एकत्रित करती रहती हैं। अत: भूसंचलन प्रकृति के परिवर्तनशील स्वभाव का परिचायक है जो पृथ्वी पर उसकी आन्तरिक एवं बाह्य शक्तियों द्वारा विविध स्थलरूपों के निर्माण एवं विनाश के रूप में प्रकट होता है।

भूसंचलन प्रकृति की परिवर्तनशीलता का परिचायक है। यह प्रक्रिया पृथ्वी की आन्तरिक एवं बाह्य शक्तियों द्वारा सम्पन्न होती है। निम्नांकित वर्गीकरण द्वारा भूसंचलन प्रक्रिया को समझाया गया है
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 6 Geomorphic Processes 5

प्रश्न 10. महाद्वीप एवं पर्वत निर्माणकारी गतियों का विवरण दीजिए।
उत्तर-1. महाद्वीप निर्माणकारी गतियाँ-महाद्वीपों के निर्माण, उत्थान और अवतलन की क्रियाएँ इन्हीं गतियों द्वारा सम्पन्न होती हैं। ये गतियाँ लम्बवत् स्थलाकृतियों को जन्म देती हैं। दिशा के आधार पर इन गतियों को दो भागों में विभक्त किया जाता है

(अ) उपरिमुखी संचलन-महाद्वीपों में ये गतियाँ दो प्रकार के उत्थान उत्पन्न करती हैं। प्रथम राति में महाद्वीप का कोई भाग ऊपर उठता है, परन्तु द्वितीय गति में केवल महाद्वीपों का तटीय भाग समुद्रतल से ऊपर उठता है, जिसे निर्गमन कहते हैं।

(ब) अधोमुखी संचलन-इस गति के अन्तर्गत महाद्वीपों में दो प्रकार का धंसाव होता है—प्रथम दशा में महाद्वीप का कोई खण्ड पहली सतह से नीचे चला जाता है। द्वितीय दशा में महाद्वीप का कोई खण्ड समुद्रतल से नीचे चला जाता है तथा जलमग्न हो जाता है। सागरतटीय भागों में यह स्थिति अधिक पाई जाती है।

2. पर्वत निर्माणकारी गतियाँ-ये गतियाँ क्षैतिज दिशा में स्थलरूपों का निर्माण करती हैं। पर्वत निर्माणकारी गतियाँ जब विपरीत दिशाओं में क्रिया करती हैं तो चट्टानों में भ्रंश उत्पन्न होता है। परन्तु जब ये गतियाँ आमने-सामने अर्थात् सम्मुख दिशा में कार्य करती हैं तो सम्पीडन उत्पन्न होती है जिसके फलस्वरूप चट्टानों में भिंचाव से वलन एवं संवलन की उत्पत्ति होती है।।

प्रश्न 11. बृहत संचलन का अर्थ बताइए तथा इसमें प्रक्रिया कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-गुरुत्वाकर्षण प्रभाव के कारक चट्टान या चट्टानी पदार्थ का ढाल के अनुरूप स्थानान्तरण संचलन या बृहत् संचलन कहलाता है। इस प्रकार के मलवा संचलन में संचलन की गति मन्द से. तीव्र हो सकती है, जिनके अन्तर्गत, विसर्पण बहाव, स्खलन एवं पतन (Fall) सम्मिलित होता है। दूसरे शब्दों में, बृहत् संचलन का तात्पर्य है कि वायु, जल, हिम ही अपने साथ एक स्थान से दूसरे स्थान तक मलवा नहीं ढोते, अपितु मलवा भी अपने साथ वायु, जल या हिम ले जाता है। बृहत् संचलन में गुरुत्वाकर्षण शक्ति सहायक होती है तथा कोई भी भू-आकृतिक कारक; जैसे–प्रवाहित जल, हिमानी, वायु, लहरें एवं धाराएँ बृहत् संचलन की प्रक्रिया में सीधे ही सम्मिलित नहीं होते हैं साथ ही इसमें अपरदन भी सम्मिलित नहीं होता है। यद्यपि पदार्थों का संचलन गुरुत्वाकर्षण के सहयोग से एक से दूसरे स्थान को होता रहता है। बृहत् संचलन में अपरदन के अतिरिक्त अपक्षय भी
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 6 Geomorphic Processes 6

अनिवार्य नहीं होता है, परन्तु अपक्षय बृहत् संचलन को बढ़ावा अवश्य देता है। इसीलिए बृहत्.संचलन अपक्षयित ढालों पर अनपक्षयित पदार्थों की अपेक्षा बहुत अधिक सक्रिय होता है। अतः असम्बद्ध कमजोर चट्टानी पदार्थ छिछले संस्तर वाली शैलें, भ्रंश, तीव्रता से झुके संस्तर खड़े भृगु या तीव्र ढाल, पर्याप्त वर्षा, वनस्पति अभाव और गुरुत्वाकर्षण बल बृहत् संचलन में विशेष रूप से सहायक हैं। यह तथ्य चित्र सं० 6.2 से भी स्पष्ट है।

सक्रिय कारक-बृहत् संचलन की सक्रियता में निम्नलिखित कारक मुख्य रूप से सम्मिलित होते हैं

  1. प्राकृतिक एवं कृत्रिम साधनों द्वारा ऊपर के पदार्थों के टिकने के आधार का हटना।
  2. ढाल प्रवणता एवं ऊँचाई में वृद्धि।
  3. प्राकृतिक एवं कृत्रिम भराव या अत्यधिक वर्षा के कारण उत्पन्न अतिभार।
  4. मूल ढाल की सतह से भार या पदार्थ का हटना।
  5. भूकम्प, मशीनी कम्पन या विस्फोट।
  6. अत्यधिक प्राकृतिक रिसावे।
  7. झीलों, जलाशयों एवं नदियों से भारी मात्रा में जल का निष्कासन, परिणामस्वरूप ढालों एवं नदी तटों के नीचे से जल का मन्द गति से बहना।
  8. वनस्पति का अत्यधिक विनाश।

प्रश्न 12. बृहत संचलन कितने प्रकार का होता है? वर्णन कीजिए।
उत्तर-बृहत् संचलन निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है–
1. मन्द संचलन-इसमें मलबा संचलन इतना मन्द होता है कि इसका आभास करना कठिन होता है। | और दीर्घकाल के अवलोकन या निरीक्षण से ही इसका पता चलता है। इसमें सम्मिलित पदार्थ में शैल चूर्ण मृदा की मात्रा अधिक होती है।

2. तीव्र संचलन-ये संचलन आर्द्र जलवायु वाले प्रदेशों में निम्न से लेकर तीव्र ढालों में अधिक होते। हैं। इस संचलन में चिकनी मिट्टी, कीचड़ प्रवाह एवं मलबा पदार्थों की प्रधानता होती है।

3. भू-स्खेलन-भू-स्खलने अपेक्षाकृत तीव्र एवं अवगम्य संचलन है। इसमें स्खलित होने वाले पदार्थ प्रायः शुष्क होते हैं। भू-स्खलन में पदार्थों के संचलन के प्रकार के आधार पर कई प्रकार के स्खलन पहचाने जा सकते हैं; जैसे कि चित्र 6.3 में दिखाए गए हैं। (ढाल के सन्दर्भ में भू-स्खलन के कई प्रकार हैं; जैसे—अवसर्पण, शैलसर्पण आदि)।

हमारे देश में भू-स्खलन की घटना हिमालय क्षेत्र में अधिक देखी जाती है। इसका मुख्य कारण हिमालय विवर्तनिकी सक्रियता एवं ढाल के कारण गुरुत्वाकर्षण शक्ति की प्रबलता है।
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 6 Geomorphic Processes 7

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. ऋतु-अपक्षय से क्या तात्पर्य है? इसे नियन्त्रित करने वाले प्रमुख कारकों का वर्णन कीजिए।
या ऋतु-अपक्षय से आप क्या समझते हैं? अपक्षय का वर्गीकरण कीजिए एवं इसके कार्य बताइए।
या ऋतु-अपक्षय पृथ्वी की चट्टानों को किन रूपों में प्रभावित करती है? ऋतु-अपक्षय के मानव-जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-ऋतु-अपक्षय
भूपटल पर दो प्रकार की शक्तियाँ कार्यरत हैं—आन्तरिक एवं बाह्य। यही शक्तियाँ भूपृष्ठ के भौतिक स्वरूप में लगातार परिवर्तन करती रहती हैं। पृथ्वी की आन्तरिक शक्तियों में ज्वालामुखी तथा भूकम्प मुख्य हैं तथा बाह्य शक्तियों में धरातल को अपरदित करने वाले कारक-जल, वायु, सूर्यातप, हिमानी, सागरीय तरंगें आदि हैं। आन्तरिक शक्तियाँ धरातल को असमतल करने में लगी रहती हैं, जबकि बाह्य शक्तियाँ इस ऊबड़-खाबड़ धरातल को समतल करने में अपना योगदान देती हैं। मोंकहाउस नामक विद्वान के शब्दों में, “अपक्षय में उन सभी साधनों के कार्य शामिल हैं जिनके द्वारा पृथ्वी तल के किसी भी भाग का अत्यधिक विनाशें, अपव्यय एवं हानि होती है। इस अपार विनाश से जो पदार्थ एक स्थान से दूसरे स्थान पर निक्षेपित हो जाता है, उसके द्वारा अवसादी चट्टानों का निर्माण होता है।

” इस प्रकार, ”मौसम के तत्त्वों द्वारा पृथ्वी पर विखण्डन की वह क्रिया, जिसमें चट्टानों का संगठन ढीला पड़ जाता है तथा वे टूटकर खण्ड-खण्ड हो जाती हैं, अपक्षय या ऋतु-अपक्षय कहलाती है।” हिण्डस ने भी कहा है कि “अपक्षय यान्त्रिक विघटन या रासायनिक अपघटन की वह क्रिया है जो चट्टानों के भौतिक स्वरूप को समाप्त करती रहती है।”

अपक्षय को नियन्त्रित करने वाले प्रमुख कारक

अपक्षय को नियन्त्रित करने वाले मुख्य कारक निम्नलिखित हैं
1. तापमान-जलवायु की विभिन्नता अपक्षय का एक प्रमुख कारक है। उष्ण एवं शुष्क जलवायु | प्रदेशों में वर्षा बहुत कम होती है। इसीलिए दिन में अत्यधिक तापक्रम के कारण चट्टानें फैल जाती हैं तथा रात्रि में ठण्ड पाने से सिकुड़ती हैं। बार-बार इस प्रक्रिया से चट्टानों में विघटन तथा वियोजन को बढ़ावा मिलता है। शीतोष्ण प्रदेशों में अधिक ठण्ड पड़ने के कारण जल चट्टानों की दरारों में ठोस (हिम) रूप में जम जाता है तथा दिन में यह हिम पिघलकर जल में परिवर्तित हो जाती है। इससे चट्टानों में तोड़-फोड़ की क्रिया होती है। इस प्रकार अति शीत-प्रधान प्रदेशों में रासायनिक
और जैविक अपक्षय अधिक होता है।

2. चट्टानों की संरचना एवं संगठन-भूपृष्ठ के किसी भाग का अपक्षय चट्टानों की संरचना एवं संगठन पर निर्भर करता है। कमजोर, कोमल तथा असंगठित चट्टानों में विघटन तथा अपघटन की | क्रियाएँ तीव्रता से होती हैं। घुलनशील खनिजों वाली चट्टानों में रासायनिक अपक्षय की क्रिया भी शीघ्र होती है, जबकि कठोर चट्टानों में यह क्रिया कम होती है। यदि चट्टानों की परतें लम्बवत् हों तो उन पर जल, वायु, तुषारापात एवं सूर्यातप का प्रभाव शीघ्र पड़ता है, जबकि क्षैतिज अवस्था की। चट्टानों में अपक्षय का प्रभाव कम हो जाता है।

3. ढाल का स्वरूप-तीव्र ढाल वाले क्षेत्रों में विघटन क्रिया सरलता से होती है, क्योंकि यहाँ चट्टानों का स्वरूप बड़ा ही दुर्बल होता है। इसीलिए ऊपरी भागों से चट्टानी खण्ड टूट-टूटकर नीचे घाटी में गिरने लगते हैं। इसके विपरीत कम ढाल वाले भागों में चट्टानें अधिक संगठित, कठोर एवं शक्तिशाली होती हैं। मलबे का स्थानान्तरण न हो पाने के कारण अपक्षय क्रिया भी बहुत कम होती है।

4. वनस्पति का प्रभाव-वनस्पति अपक्षय को दोनों रूपों में प्रभावित करती है। बनस्पतिविहीन प्रदेशों में अधिक ताप के कारण चट्टानें फैलती हैं तथा सिकुड़ने के बाद विघटित हो जाती हैं।

अपक्षय के प्रकार एवं उनके कारक

अपक्षय क्रिया के निम्नलिखित कारक हैं-
1. भौतिक या यान्त्रिक कारक-(i) बहता हुआ जल और वर्षा, (ii) सूर्यातप, (iii) पाला, (iv) वायु, (v) हिम एवं (vi) सागरीय लहरें।
2. रासायनिक कारक-(i) ऑक्सीकरण, (ii) कार्बनीकरण एवं (iii) घोलीकरण।
3. जैविक कारक-(i) वनस्पति, (ii) जीव-जन्तु एवं (iii) मानव।

अपक्षय का वर्गीकरण एवं कार्य

अपक्षय को निम्नलिखित रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है–
1. भौतिक या यान्त्रिक अपक्षय-इस प्रक्रिया में भौतिक तत्त्वों द्वारा चट्टानों का अपक्षय होता है। इन तत्त्वों में ताप प्रमुख यान्त्रिक कारक है। अपक्षय की इस क्रिया में चट्टानों का फैलाव एवं संकुचन होता है जिससे वे टूट-फूटकर शिलाचूर्ण बन जाती हैं। यान्त्रिक अपक्षय के प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं

(i) जल-बहता हुआ जल, वर्षा का जल एवं स्थिर जल चट्टानों को विघटित करता रहता है। पर्वतीय क्षेत्रों से निकलने वाली नदियाँ तीव्र ढाल से प्रवाहित होने के कारण पर्वतीय भागों को काट देती हैं। वर्षा का जल चट्टानों की दरारों में भरकर उनका विघटन कर देता है। शीत प्रदेशों में जल हिम के रूप में चट्टानी दरारों में भर जाता है। दिन के समय यही जल पिघल जाता है। जल चट्टानों के भौतिक एवं रासायनिक दोनों प्रकार के विघटन में सहायक होता है।

(ii) सूर्यातप-उष्ण एवं शुष्क मरुस्थलीय भागों में दिन के समय चट्टानें सूर्य की गर्मी पाकर फैलती हैं तथा रात्रि में ठण्ड पाकर सिकुड़ती हैं। इस क्रिया के बार-बार होने से चट्टानों में
दरारें पड़ जाती हैं। इन क्षेत्रों में चट्टानों का अपक्षय मोटे बालू-कणों के रूप में होता है।

(iii) हिम या पाला-चट्टानों की सन्धियों में वर्षा का जल प्रवेश कर जाता है। शीत एवं शीतोष्ण प्रदेशों में यही जल हिम के रूप में जम जाता है। इसके आयतन में वृद्धि होने के कारण चट्टानों में दरारें एवं चटकन पड़ जाती हैं तथा चट्टानों का विघटन होकर वे खण्ड-खण्ड हो जाती हैं।

(iv) वायु-वायु अपक्षय का एक महत्त्वपूर्ण कारक है। वायु अपघर्षण, सन्निघर्षण तथा अपवाहन क्रियाओं द्वारा चट्टानों का अपक्षय करती है।

(v) समुद्री लहरें-तटवर्ती भागों में समुद्री लहरें बड़े-बड़े शिलाखण्डों को काट देती हैं तथा . तटों का रूप परिवर्तित करती रहती हैं। समुद्र तट पर लम्बवत् चट्टानों में अधिक विघटन होता है।

2. रासायनिक अपक्षय-भौतिक अपक्षय के साथ-साथ चट्टानों का रासायनिक अपक्षय भी होता है। वायुमण्डल के निचले स्तर की सभी गैसें; जैसे—कार्बन डाइऑक्साइड, ऑक्सीजन, जलवाष्प, नाइट्रोजन आदि वर्षा जल से क्रिया कर रासायनिक अपक्षय में वृद्धि करती हैं। इससे चट्टानें ढीली पड़ जाती हैं और अपघटित होकर विखण्डित हो जाती हैं। रासायनिक अपक्षय निम्नलिखित विधियों के अनुसार होता है–

(i) ऑक्सीकरण-वर्षा अथवा नदियों का जल ऑक्सीजन को अपने साथ घोलकर चट्टानों से क्रिया करता है, जिसे ऑक्सीकरण कहते हैं। चट्टानों का लोहा ऑक्सीजन के प्रभाव से ऑक्साइड में परिवर्तित हो जाता है। यही कारण है कि वर्षा ऋतु में लोहे पर जंग लग जाती है। इस क्रिया में चट्टानों का आयतन बढ़ जाता है तथा वे ढीली होकर टूट जाती हैं।

(ii) कार्बनीकरण-कार्बन डाइऑक्साइड गैस जब जल से रासायनिक क्रिया करती है तो वह विभिन्न खनिजों के साथ रासायनिक क्रिया द्वारा कार्बोनेट बनाती है। ये कार्बोनेट चट्टानों के घुलनशील तत्त्वों से अलग होकर जल में मिल जाते हैं। इससे शैलों का संगठन कमजोर पड़ जाता है तथा वे वियोजित हो जाती हैं।

(iii) घोलीकरण-जल के चट्टानों में अवशोषित होने की क्रिया को घोलीकरण कहते हैं। इससे उनका आयतन बढ़ जाता है तथा चट्टानों के कणों एवं खनिजों में तनाव, दबाव एवं खिंचाव की क्रिया आरम्भ हो जाती है। इससे चट्टानों को अपक्षय प्रारम्भ हो जाता है।

3. जैविक अपक्षय–धरातल पर जैविक अपक्षय वनस्पति, जीव-जन्तु एवं मानव द्वारा निम्नलिखित प्रकार से सम्पन्न होता है

(i) वानस्पतिक अपक्षय-चट्टानों की दरारों में जब पेड़-पौधों की जड़ें प्रवेश करती हैं तो जड़े धीरे-धीरे मोटी होती जाती हैं। चट्टानों की दरारें अधिक चौड़ी होने पर टूट जाती हैं जो अपक्षय में सहायक होती हैं। वनस्पति के मिट्टी में सड़ने-गलने से रासायनिक क्रिया द्वारी जीवांश की उत्पत्ति होती है।

(ii) जीव-जन्तु अपक्षय-पृथ्वी तल पर जितने भी जीव-जन्तु हैं, वे सभी अपक्षय में सहायक हैं। इनके द्वारा भौतिक एवं रासायनिक दोनों ही अपक्षय होते हैं। लोमड़ी, गीदड़; बिज्जू, केंचुए, चूहे, दीमक तथा कुछ अन्य जीव-जन्तु अपनी सुरक्षा के लिए चट्टानों में अपनी गुफा तथा बिल बनाते हैं जिससे भूमि को काफी मलबा बाहर आ जाता है।

(iii) मानवकृत अपक्षय-मानव अपनी रचनात्मक क्रियाओं; जैसे—कुएँ, झीलें, नहरें तालाब, रेल, सड़कें, खान, कृषि (जुताई) आदि के लिए भूमि से मिट्टी खोदता है जिससे चट्टानें असंगठित हो जाती हैं तथा धीरे-धीरे वे टूटती रहती हैं।

ऋतु-अपक्षय का महत्त्व अथवा मानव जीवन पर प्रभाव

ऋतु-अपक्षय अपनी निम्नलिखित उपादेयता द्वारा अपनी महत्ता सिद्ध करता है–
1. उपजाऊ मिट्टी का निर्माण-ऋतु-अपक्षय शैलों के विखण्डन द्वारा कृषि के लिए उपयोगी तथा उपजाऊ मिट्टी का निर्माण करता है। उपजाऊ मिट्टी कृषि का आधार है और कृषिगत उपजें मानव-जीवन का आधार होती हैं। ऋतु-अपक्षय उपजाऊ मिट्टी का निर्माण करके मानव को पर्याप्त हित करता है।

2. खनिज पदार्थों की उपलब्धता-शैलों के टूटने से चूना, गन्धक, चाक तथा जिप्सम आदि उपयोगी खनिजों का निर्माण होता है। ये खनिज बड़े उपयोगी होते हैं।

3. समतल मैदानों का निर्माण-ऋतु-अपक्षय के कारक अपने द्वारा घर्षित अवसाद अन्यत्र ले | जाकर तथा बिछाकर समतल मैदानों का निर्माण कर कृषि, उद्योग, परिवहन तथा मानव बसाव के रूप में मानव का हित सम्पादन करते हैं।

4. धरातल के स्वरूप में परिवर्तन-नदियाँ, हिमनद्, पवन तथा सागरीय लहरें अपक्षये द्वारा धरातल का स्वरूप ही बदल डालते हैं। इसके द्वारा झरने, घाटी तथा बालू के टीलों का निर्माण होता है जो अनेक प्रकार से उपयोगी होते हैं।

5. झीलों का निर्माण-अपक्षय के कारक भूस्खलन द्वारा गर्त बनाते हैं जिनमें जलभराव से झील बन जाती है। झीलें अनेक प्रकार से मानव का हित करती हैं।

प्रश्न 2. रासायनिक एवं जैविक अपक्षय का वर्णन कीजिए।
उत्तर-रासायनिक अपक्षय
जब वियोजन की क्रिया द्वारा चट्टानें ढीली पड़कर विदीर्ण हो जाती हैं तो इस क्रिया को रासायनिक अपक्षय कहते हैं। रासायनिक अपक्षय आर्द्र जलवायु में अधिक प्रबल होता है क्योंकि इसके लिए जल का होना बहुत आवश्यक है। ऑक्सीजनं, कार्बन डाइऑक्साइड, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन आदि गैसें रासायनिक अपक्षय का महत्त्वपूर्ण साधन हैं जो रासायनिक अभिक्रियाओं द्वारा शैलों के संगठन एवं संरचना में परिवर्तन उत्पन्न करती हैं। इससे शैलें टूट जाती हैं। रासायनिक अपक्षय निम्नलिखित रूपों में सम्पन्न होता है।

(क) ऑक्सीकरण-शैलों में उपस्थित लोहांश जब ऑक्सीजन गैस के सम्पर्क में आता है तब रासायनिक क्रिया के फलस्वरूप लोहे के कण ऑक्साइडों में परिवर्तित हो जाते हैं। इस क्रिया के फलस्वरूप चट्टानों का आयतन बढ़ जाता है। आयतन बढ़ने से शैलों का संगठन ढीला पड़ जाता है। तथा उनका अपक्षय होने लगता है। इन प्रक्रिया से चट्टानें शीघ्रता से टूट जाती हैं।

(ख) कार्बनीकरण-कार्बन डाइऑक्साइड गैस जल के साथ क्रिया कर हल्का अम्ल बनाती है। यह अम्ल शैलों में पाए जाने वाले चूने के अंश को घोल लेता है, जिससे कैल्सियम कार्बोनेट का निर्माण होता है। इस प्रकार शैलों का संगठन निर्बल पड़ जाता है और वे घुलकर टूट जाती हैं।

(ग) जलयोजन-जल में हाइड्रोजन गैस उपस्थित रहती है। जैसे ही यह गैस शैलों के सम्पर्क में आती है उनके आयतन में वृद्धि कर देती है, फलतः उन पर तनाव पैदा होता है, जिसके कारण उनमें उपस्थित खनिज लवण चूर्ण-चूर्ण हो जाते हैं तथा शैलों के स्तर उखड़ने लगते हैं। इस प्रकार जलयोजन से अपक्षय की क्रिया सक्रिय रहती है।

जैविक अपक्षय

अपक्षय की क्रिया में जैविक तत्त्वों का भी सहयोग रहता है। मनुष्य, जीव-जन्तुओं तथा वनस्पति द्वारा किया गया अपक्षय जैविक अपक्षय कहलाता है। यह निम्नलिखित प्रकार का होता है

(क) जीव-जन्तुओं द्वारा अपक्षय-अनेक जीव-जन्तु; जैसे-लोमड़ी, गीदड़, केंचुए, चूहे, सर्प, दीमक आदि शैलों में बिल बनाकर निवास करते हैं। उनके द्वारा खोदी गई मिट्टी को जल, वायु, | हिमानी बहाकर ले जाती है जिससे शैलों का अपक्षय हो जाता है। जीव-जन्तुओं द्वारा भौतिक तथा रासायनिक दोनों ही प्रकार का अपक्षय सम्पन्न होता है।

(ख) वनस्पति द्वारा अपक्षय-अपक्षय में पेड़-पौधे भी सहयोग देते हैं। इनके द्वारा भी भौतिक एवं रासायनिक दोनों प्रकार का अपक्षय किया जाता है। प्रायः पेड़-पौधों की जड़ें अपनी वृद्धि द्वारा चट्टानों को तोड़ने का कार्य करती हैं, जो इनका भौतिक कार्य है। वनस्पति के अंश सड़-गलकर रासायनिक अपक्षय उत्पन्न करते हैं।

(ग) मानव द्वारा अपक्षय-मनुष्य भी अपनी रचनात्मक, आर्थिक क्रियाओं द्वारा शैलों को विघटित करता रहता है। वह रेलवे लाइन बिछाने, नहरें एवं सुरंग खोदने तथा खनिज पदार्थों को भू-गर्भ से निकालने के लिए धरातल को खोदता है। इस प्रकार शैलों का संगठन ढीला पड़ जाता है, जिससे कालान्तर में शैलें अपरदित हो जाती हैं।

प्रश्न 3. पृथ्वी की बाह्य शक्तियों से क्या अभिप्राय है? इस शक्ति के अन्तर्गत अनाच्छादन का वर्णन कीजिए।
या बाह्य प्रक्रियाओं के ऊर्जा स्रोत को स्पष्ट कीजिए
उत्तर- बाह्य शक्ति
भूपटल परं पाए जाने वाले विविध स्थलरूपों के विकास में भूसंचलन का महत्त्वपूर्ण योगदान है। भूसंचलन आन्तरिक एवं बाह्य शक्तियों की पारस्परिक क्रिया द्वारा सम्पन्न होता है। ‘बाह्य शक्तियों का सम्बन्ध वायुमण्डल से है। ये शक्तियाँ आन्तरिक शक्तियों द्वारा निर्मित स्थलरूपों में काट-छाँट करती हुई नई स्थलाकृतियों को जन्म देती हैं, जिससे कालान्तर में धरातल का निम्नीकरण होता है। इस कारण ‘बाह्य शक्तियों को ‘विनाशात्मक बल’ भी कहा जाता है। धरातल पर विनाश की यह प्रक्रिया तापमान, वर्षा, गुरुत्वाकर्षण, नदी, पवन, हिमनद आदि कारकों द्वारा निरन्तर चलती रहती है। इन कारकों से चट्टानें विदीर्ण होकर अपने स्थान से हट जाती हैं तथा किसी उपयुक्त स्थान पर उनका जमाव होता रहता है।

अनाच्छादन

अनाच्छादन का अंग्रेजी पर्यायवाची शब्द ‘Denudation’ है, जिसकी व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के Denudare शब्द से हुई है। ‘डेन्यूड़े का अर्थ आवरण हटने से है। इस प्रकार अनाच्छादन का शाब्दिक अर्थ धरातल के आवरण के हटने या कटने से है।

मोंकहाउस के शब्दों में, “अनाच्छादन शब्द का प्रयोग विस्तृत रूप में उन सभी साधनों के कार्यों के लिए किया जाता है, जिनसे भूपटल के किसी भाग का विनाश, अपव्यय तथा हानि होती है, इस प्रकार पृथक् हुए पदार्थ का अन्यत्र निक्षेप होता है, जिससे परतदार चट्टानें बनती हैं।”

अनाच्छादन के अन्तर्गत मुख्यत: दो प्रकार की प्रक्रियाएँ निहित होती हैं—स्थैतिक प्रक्रियाएँ (अपक्षयु) तथा गतिशील प्रक्रियाएँ (अपरदन) (चित्र 6.4)। स्थैतिक प्रक्रिया में कोई भी चट्टान अपने ही स्थान पर टूट-फूटकर चूरा मात्र हो जाती है। इसमें ताप, वर्षा, तुषार, वनस्पति, जीव-जन्तु आदि कारकों का महत्त्वपूर्ण योग होता है। यह स्थैतिक प्रक्रिया अपक्षय कहलाती है। गतिशील प्रक्रिया के अन्तर्गत चट्टानों का विदीर्ण होना, विदीर्ण पदार्थों का परिवहन तथा निक्षेप सम्मिलित है। यह कार्य प्रवाही जल, पवन, हिमनद, भूमिगत जल आदि कारकों द्वारा सम्पन्न होता है। यह गतिशील प्रक्रिया अपरदन कहलाती है।
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 6 Geomorphic Processes 8

प्रश्न 4. क्या मृदा-निर्माण कारक संयुक्त रूप से कार्यरत रहते हैं? विवेचना कीजिए।
या मृदा-निर्माण के कारक बताइए तथा इनके संयुक्त प्रभाव का वर्णन कीजिए।
उत्तर- मृदा-निर्माण के कारक
मृदा धरातल पर प्राकृतिक तत्त्वों का समुच्चय है जिसमें जीवित पदार्थ तथा पौधों का पोषित करने की क्षमता होती है। इसके निर्माण में निम्नलिखित पाँच मूल कारकों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है(1) जलवायु, (2) मूल पदार्थ (शैल/चट्टान), (3) स्थलाकृति, (4) जैविक क्रियाएँ एवं (5) कालावधि (चित्र 6.5)।
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 6 Geomorphic Processes 9

वास्तव में मृदा-निर्माण में प्रयुक्त कारक एकाकी रूप से सक्रिय नहीं होते हैं, बल्कि ये कारक संयुक्त रूप से कार्यरत रहते हैं एवं एक-दूसरे के कार्य को प्रभावित करते हैं (चित्र 6.5)। इनका संक्षिप्त विवरण अधोलिखित है

1. जलवायु-मृदा-निर्माण में जलवायु सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण सक्रिय कारक हैं। मृदा के निर्माण एवं विकास में जलवायु के निम्नलिखित कारक प्रमुख रूप से योगदान देते हैं-

  1. प्रवणता, वर्षा एवं वाष्पीकरण की बारम्बारता,
  2. आर्द्रता अवधि,
  3. तापक्रम में मौसमी एवं दैनिक भिन्नता।

2. मूल पदार्थ अथवा चट्टान-मृदा-निर्माण में चट्टान अथवा मूल पदार्थ निष्क्रिय किन्तु महत्त्वपूर्ण नियन्त्रक कारक है। मृदा-निर्माण गठन, संरचना शैल निक्षेप के खनिज एवं रासायनिक संयोजन पर निर्भर होते हैं।

3. स्थलाकृति या उच्चावच-स्थलाकृति या उच्चावच भी मृदा-निर्माण का निष्क्रिय कारक है। इस कारक में मृदा-निर्माण और विकास पर ढाल का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। तीव्र ढालों पर मृदा | छिछली तथा सपाट, उच्च क्षेत्रों में गहरी या मोटी होती है। निम्न ढालों पर जहाँ अपरदन मन्द तथा जल का परिश्रवण अच्छा रहता है, वहाँ मृदा-निर्माण बहुत अनुकूल होता है।

4. जैविक क्रियाएँ-जैविक क्रियाएँ मृदा के विकास में महत्त्वपूर्ण होती हैं। वनस्पति आवरण एवं जीव के मूल पदार्थों में विद्यमान रहने पर ही मिट्टी में नमी धारण क्षमता तथा नाइट्रोजन एवं जैविक अम्ल मृदा को उर्वरकता प्रदान करते हैं। जलवायु इन सभी तत्त्वों को नियन्त्रित करती है। इसी से जैविक तत्त्व सक्रिय होकर मूल पदार्थों में विनियोजित होते हैं।

5. कालावधि-मृदा-निर्माण प्रक्रिया उपर्युक्त कारकों के संयोग से लम्बी अवधि में सम्पन्न होती है। कालावधि जितनी लम्बी होती है मृदा उतनी ही परिपक्वता ग्रहण करती है और मृदा की पाश्विका (Profile) का विकास होता है। कम समय में निक्षेपित मूल पदार्थ में मृदा-निर्माण में कार्यरत कारक अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाते: अत: मृदा तरुण या युवा होती है। इसमें संस्तर का अभाव होता है। अत: मृदा-निर्माण एवं विकास हेतु पर्याप्त कालावधि एवं अनिवार्य व आवश्यक कारक है।

प्रश्न 5. अपरदन या कटाव से आप क्या समझते हैं? अपरदन की क्रियाएँ एवं उनके रूपों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-अपरदन अपक्षय के विभिन्न कारकों द्वारा पृथ्वीतल की बहुत-सी अवसाद टूट-फूटकर एकत्रित हो जाती है तो यही मलबा या अवसाद जल, हिमानी, वायु आदि द्वारा अपरदित होकर एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाया जाता है। इस मलबे के स्थानान्तरण से अपरदन में और भी वृद्धि होती है; जैसे–नदियाँ अथवा हिमानियाँ अपने साथ लाये हुए बड़े-बड़े शिलाखण्डों के मार्ग में धरातल से रगड़ खाकर चलती हैं। जिससे धरातल तथा शिलाखण्डों का चूर्ण होता रहता है। इस प्रकार भौतिक कारकों के द्वारा भूतल की चट्टानों का विखण्डन होता है। इस विखण्डित पदार्थ को कुछ सीमा तक इन कारकों द्वारा अन्यत्र ले जाया जाता है और उसे किसी स्थान पर जमा कर दिया जाता है।

अपरदन की क्रियाएँ

अपरदन को प्रतिक्रियाओं के आधार पर निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित किया गया है

  1. अपक्षय द्वारा एकत्रित मलबे को गतिशील शक्तियों द्वारा नियन्त्रित करना।
  2. गतिशील शक्तियों का एकत्रित मलबे को बहाकर अथवा उड़ाकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाना।
  3. इस असंगठित एकत्रित मलबे का गतिशील शक्तियाँ कुछ दूरी तक परिवहन करती हैं तो अपघर्षण द्वारा और भी अधिक अपरदन होता है।

पुरिवहन की क्रिया निम्नलिखित तीन क्रमों में सम्पन्न होती है

  • घोलकर-धरातल पर एकत्रित चट्टानों की अवसाद को अपरदन के साधन, जैसे जल अपने में घोलकर परिवहन करता है।
  • तैराकर-बाढ़ का जल अथवा नदियाँ धरातल के बारीक कणों को तैराते हुए ले जाती हैं जो परिवहन में सम्मिलित हैं।
  • उड़ाकर-वायु अपने तीव्र वेग के साथ धूल-कणों को मार्ग में धरातल पर घसीटते हुए उड़ा ले जाती है। इससे अपरदन तथा परिवहन दोनों ही स्वतन्त्र रूप में अपनी क्रिया करते हैं।

अपरदन के प्रकार

अपरदन के विभिन्न रूप अपरदन की भिन्न-भिन्न क्रियाओं में सम्पन्न होते हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है
1. अपघर्षण (Abrasion or Corrasion)-अपरदन क्रिया में अपघर्षण महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। धरातल पर एकत्रित अवसाद को जब अपरदन के कारक-वायु, नदियाँ, हिमानी, समुद्री लहरें आदि-उड़ाकर या बहाकर ले जाते हैं तो मार्ग में बड़े-बड़े शिलाखण्ड धरातल को स्वयं खुरचते चलते हैं। इस प्रकार ये कंकड़-पत्थर धरातल पर अपरदन के यन्त्रों का कार्य करते हैं। इससे
अपरदन क्रिया को बल मिलता है।

2. सन्निघर्षण (Attrition)-सन्निघर्षण की क्रिया प्रमुख रूप से नदी, हिमानी, वायु तथा समुद्री लहरों द्वारा होती है। इस क्रिया में धरातल के असंगठित पदार्थ जो अपरदन के कारकों द्वारा बहाकर या उड़ाकर ले जाए जाते हैं, वे आपस में भी टकराकर चलते हैं जिससे उनका आकार और भी छोटा होता जाता है। बाद में ये चूर्ण अर्थात् रेत में परिणत होकर मिट्टी में मिल जाते हैं।

3. घोलीकरण (Solution)-यह जल द्वारा की जाने वाली रासायनिक क्रिया है। वर्षा के जल में कार्बन डाई-ऑक्साइड गैस मिली होने के कारण जल घोलन के रूप में कार्य करता है। यह जल चट्टानों में मिले हुए खनिज पदार्थों को घोलकर अपने साथ मिला लेता है तथा अन्यत्र बहा ले जाता

4. जलगति क्रिया (Hydraulic Action)-यह एक यान्त्रिक क्रिया है। इसमें बहता हुआ जल अपने वेग तथा दबाव के कारण मार्ग में स्थित चट्टानी-कणों को अपने साथ बहाकर ले जाता है।

5. अपवाहन (Deflation)-अपवाहन में वायु मुख्य कारक होती है जो भौतिक अपक्षय से विखण्डित पदार्थों को उड़ाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है। यह क्रिया शुष्क मरुस्थलीय भागों में अधिक होती है।

6. निक्षेपण (Deposition)-अपरदन के विभिन्न कारक परिवहन कार्य करने के बाद अपने साथ लाये गये मलबे को अपनी वाहन शक्ति के अनुसार जगह-जगह छोड़ते जाते हैं, जिसे निक्षेपण कहते हैं। निक्षेपण क्रिया से धरातल ऊँचा-नीचा हो जाता है। इस कार्य को बहता हुआ जल (नदी), भूमिगत जल, हिमानी, वायु तथा सागरीय लहरें सम्पन्न करती हैं। निक्षेपण की इस अवस्था में धरातल पर विभिन्न भू-आकृतियों का जन्म एवं विकास होता है।

प्रश्न 6. अपक्षय और अपरदन में क्या अन्तर है? अपरदन के मुख्य कारकों का विवरण दीजिए।
उत्तर-अपक्षय और अपरदन में अन्तर
अपक्षय और अपरदन में अन्तर स्पष्ट करने से पूर्व अपक्षय तथा अपरदन की क्रियाओं को समझना आवश्यक है। अपक्षय का अर्थ है–शैलों का अपने ही स्थान पर क्षीण होना या ढीला पड़ना। इस क्रिया को ऋतु-अपक्षय भी कहते हैं, क्योंकि इसमें मौसम के तत्त्व; जैसे-तापमान, आर्द्रता (वर्षा), पाला आदि चट्टानों को प्रभावित करके उनके कणों को ढीला कर देते हैं जिससे वे विखण्डित हो जाती हैं। चट्टानों के अपक्षय की यह क्रिया दो रूपों में होती है—(1) भौतिक अथवा यान्त्रिक रूप से तथा (2) रासायनिक रूप से। भौतिक अपक्षय द्वारा चट्टानें विघटित होती हैं। रासायनिक अपक्षय में शैलों में टूट-फूट नहीं होती वरन् उनके रासायनिक संगठन में परिवर्तन हो जाता है। उदाहरणत: जल के प्रभाव से शैलों के कण घुल जाते हैं जिससे वे ढीली पड़ जाती हैं। इसे शैलों का अपघटन कहते हैं। शैलों के अपक्षय की क्रिया तीन प्रकार की होती है—(1) भौतिक यो यान्त्रिक, (2) रासायनिक तथा (3) जैविक।। यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि भौतिक एवं रासायनिक कारकों के अतिरिक्त प्राणी (वनस्पति एवं जीव-जन्तु) भी शैलों को ढीला करने में सहयोग देते हैं। उदाहरणत: पेड़-पौधों की जड़े शैलों को ढीला करती हैं। अनेक प्रकार के बिलकारी जीव-जन्तु, कीड़े आदि भी शैलों को ढीला बनाने का कार्य करते हैं।

अपरदन का अर्थ है-चट्टानों को घिसना। इस कार्य में अपरदन के अनेक गतिशील साधन जो पदार्थ को बहाकर या उड़ाकर ले जाने की क्षमता रखते हैं, चट्टानों के अपरदन में सहयोग देते हैं। इन साधनों में बहता हुआ जल या नदी, हिमानी, पवन, सागरीय लहरें तथा भूमिगत जल अपरदन के प्रधान कारक हैं। ये सभी साधन गतिशील होने के कारण शैलों को तोड़ने-फोड़ने, अपरदित पदार्थ को बहाकर ले जाने तथा उसे अन्यत्र जमा करने में समर्थ होते हैं। अपरदन की इस क्रिया से भूपटल का बड़े पैमाने पर अनाच्छादन होता है।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपक्षय और अपरदन में निम्नलिखित मौलिक अन्तर होते हैं
1. अपक्षय एक स्थैतिक क्रिया है, जिसमें शैलों की अपने ही स्थान पर टूट-फूट होती है। इसके विपरीत, अपरदन एक गतिशील क्रिया है जिसमें टूटी शैलों को उनके स्थान से हटाकर अन्यत्र ले
जाकर निक्षेपित कर दिया जाता है।

2. अपक्षय में वायुमण्डल की शक्तियाँ; जैसे–तापमान, पाला, वर्षा आदि योग देते हैं। इसके विपरीत, अपरदन में धरातल के ऊपर सक्रिय (बाह्यजात) गतिशील साधन योग देते हैं।

3. अपक्षय एक पूर्ववर्ती क्रिया है जो बाद में अपरदन क्रिया को सरल बनाती है। किन्तु चट्टानों के अपक्षय के लिए अपरदन की कोई भूमिका नहीं होती। दूसरे शब्दों में, अपक्षय क्रिया अपरदन पर निर्भर नहीं है।

अपरदन के कारक

शैलों के अपरदन में गतिशील साधनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इन कारकों में बहता हुआ जल या नदी, हिमानी, पवन, सागरीय तरंगें तथा भूमिगत जल महत्त्वपूर्ण हैं। इन सभी कारकों में जल का कार्य सार्वत्रिक या सबसे व्यापक है। जल का कार्य आर्द्र क्षेत्रों में, पवन का कार्य शुष्क क्षेत्रों में, हिमानी का कार्य हिमाच्छादित क्षेत्रों में, भूमिगत जल का कार्य चूने की शैलों के क्षेत्रों में तथा लहरों का कार्य सागर तटों पर होता है। इन कारकों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है–

1. नदी या प्रवाही जल-अपरदन के कारकों में नदी सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। नदियाँ प्रायः पर्वतों से निकलकर समुद्र में गिरती हैं। ये अपने पर्वतीय, मैदानी तथा डेल्टाई खण्ड में अपरदन तथा निक्षेप कार्य करती हैं जिससे अनेक प्रकार की आकृतियाँ उत्पन्न होती हैं। नदियाँ अपनी घाटी का भी क्रमशः विकास करती हैं। पर्वतीय खण्ड में नदी की घाटी सँकरी तथा गहरी होती है जिसे गार्ज कहते हैं। इसकी आकृति अंग्रेजी के ‘V’ आकार की होती है। क्रमशः नदी अपनी घाटी को चौड़ा करती है। अन्त में डेल्टा बनाकर यह समुद्र में गिरती है।

2. हिमानी या हिमनद-हिमानियाँ या हिमनद हिमाच्छादित या उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में पाये जाते हैं। हिमनद हिम की नदी होती है जो पर्वतीय ढालों पर धीरे-धीरे सरकती है। इसकी गति तो मन्द होती है किन्तु इसमें अपरदन की अपार क्षमता होती है। यह अनेक प्रकार की अपरदनात्मक तथा निक्षेपणात्मक आकृतियाँ बनाती है। हिमरेखा के नीचे हिमानी का अन्त हो जाता है।

3. वायु या पवन-वायु का कार्य प्रायः मरुस्थलों में होता है जहाँ यह वनस्पति तथा अन्य किसी भौतिक बाधा के अभाव में निर्बाध रूप से बहती है। वायु का कार्य अधिक ऊँचाई पर न होकर धरातल के निकट होता है। यह चट्टानों को खरोंचकर या अपघर्षण करके अनेक प्रकार की आकृतियों का निर्माण करती है। धरातल की रेत को उड़ाकर उसे अन्यत्र जमा कर देती है जिससे
अनेक प्रकार की निक्षेपणात्मक आकृतियाँ बन जाती हैं।

4. सागरीय तरंगें-तरंगें या लहरें सागर तट पर सदैव प्रहार करती रहती हैं, जिससे सागर तट की चट्टानें क्रमशः ढीली पड़ती हैं तथा फिर टूट जाती हैं। यह शैल पदार्थ लहरों द्वारा सागर में बहा दिया जाता है। कुछ पदार्थ सागर तट पर या सागर से कुछ दूर जमा कर दिया जाता है। इस प्रकार लहरों के कार्य से अनेक प्रकार की अपरदनात्मक तथा निक्षेपात्मक आकृतियाँ बनती हैं।

5. भूमिगत जल-वर्षा का जल धरातले से रिसकर क्रमशः भूमि में चट्टानों के नीचे एकत्रित रहता है। यह जल हमें कुओं, ट्यूबवैल, पातालतोड़ कुओं तथा अन्य रूपों में उपलब्ध होता है। भूमिगत जल में नदी की भाँति प्रवाह नहीं होता है; अत: यह अपरदन का कार्य अधिकांशतः घुलन क्रिया द्वारा करता है। इस क्रिया से भूमि के नीचे अनेक प्रकार की आकृतियाँ बन जाती हैं। भूमिगत जल का कार्य चूना-पत्थर जैसी घुलनशील शैलों के क्षेत्र में अधिक व्यापक रूप से होता है। इस जल के साथ चूने के ढेर भी चट्टानों के फर्श तथा छतों पर एकत्रित हो जाते हैं जिनसे अनेक प्रकार की निक्षेपणात्मक आकृतियाँ बन जाती हैं।

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 6 Geomorphic Processes (भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 6 Geomorphic Processes (भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 16 Biodiversity and Conversation

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 16 Biodiversity and Conversation (जैव विविधता एवं संरक्षण)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 16 Biodiversity and Conversation (जैव विविधता एवं संरक्षण)

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

1. बहुवैकल्पिक प्रश्न
प्रश्न (i) जैव-विविधता का संरक्षण निम्न में से किसके लिए महत्त्वपूर्ण है?
(क) जन्तु ।
(ख) पौधे
(ग) पौधे और प्राणी
(घ) सभी जीवधारी
उत्तर-(घ) सभी जीवधारी।।

प्रश्न (ii) निम्नलिखित में से असुरक्षित प्रजातियाँ कौन-सी हैं?
(क) जो दूसरों को असुरक्षा दें।
(ख) बाघ व शेर
(ग) जिनकी संख्या अत्यधिक हो ।
(घ) जिन प्रजातियों के लुप्त होने का खतरा है।
उत्तर-(घ) जिन प्रजातियों के लुप्त होने का खतरा है।

प्रश्न (iii) नेशनल पार्क (National Parks) और पशु विहार (Sanctuaries) निम्न में से किस उद्देश्य के लिए बनाए गए हैं?
(क) मनोरंजन ।
(ख) पालतू जीवों के लिए
(ग) शिकार के लिए
(घ) संरक्षण के लिए
उत्तर-(घ) संरक्षण के लिए।

प्रश्न (iv) जैव-विविधता समृद्ध क्षेत्र है|
(क) उष्णकटिबन्धीय क्षेत्र
(ख) शीतोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र
(ग) ध्रुवीय क्षेत्र
(घ) महासागरीय क्षेत्र
उत्तर-(क) उष्णकटिबन्धीय क्षेत्र।

प्रश्न (v) निम्न में से किस देश में पृथ्वी सम्मेलन (Earth Summit) हुआ था?
(क) यू०के० (U.K.)
(ख) ब्राजील
(ग) मैक्सिको
(घ) चीन
उत्तर-(ख) ब्राजील।

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) जैव-विविधता क्या है?
उत्तर-किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में पाए जाने वाले जीवों की संख्या और उनकी विविधता को जैव-विविधता कहते हैं।

प्रश्न (ii) जैव-विविधता के विभिन्न स्तर क्या हैं?
उत्तर-जैव-विविधता के निम्नलिखित तीन स्तर हैं

  1. आनुवंशिक विविधता,
  2. प्रजातीय विविधता,
  3. पारितन्त्रीय विविधता।

प्रश्न (iii) हॉट स्पॉट (Hot Spot) से आप क्या समझते हैं?
उतर-वह क्षेत्र जहाँ जैव-विविधता अधिक पाई जाती है उन क्षेत्रों को ‘हॉटस्पॉट’ कहते हैं। विश्व में ऐसे क्षेत्रों का पता लगाया गया है जो जैव-विविधता की दृष्टि से सम्पन्न हैं, किन्तु जीवों के आवास लगातार नष्ट होने के कारण वहाँ की अनेक जातियाँ संकटग्रस्त या क्षेत्र विशेषी हो गई हैं। अतः ऐसे स्थल जहाँ किसी प्राणी अथवा वनस्पति जाति की बहुलता हो या निरन्तर घट रही विलुप्तप्राय जातियाँ हों, को जैव-विविधता के संवेदनशील क्षेत्र या तप्त स्थल (हॉट स्पॉट) कहते हैं।

प्रश्न (iv) मानव जाति के लिए जन्तुओं के महत्त्व का वर्णन संक्षेप में करें।
उत्तर-विभिन्न जीव-जन्तु मानव समाज के अभिन्न अंग हैं। कृषि, पशुपालन, आखेट एवं वनोपज एकत्रीकरण पर निर्भर मानव समुदाय के लिए जीव-जन्तुओं की विविधता जीवन का आधार है। विभिन्न घुमक्कड़ जातियाँ व आदिवासी समाज आज भी जैव-विविधता से प्रत्यक्षतः प्रभावित होते हैं। उनके सामाजिक संगठन व रीति-रिवाजों में विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तुओं का विशिष्ट स्थान रहा है। जीव-जन्तुओं के माध्यम से जीवनोपयोगी शिक्षाओं को सरल रूप में व्यक्त किया गया है; जैसे—शेर जैसी । निडरता, बगुले जैसी एकाग्रता, कुत्ते जैसी वफादारी आदि आज भी मानव आचरण के प्रतिमान माने जाते हैं।

प्रश्न (v) विदेशज प्रजातियों (Exotic Species) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-वे प्रजातियाँ जो स्थानीय आवास की मूल जैव प्रजाति नहीं हैं, लेकिन इस तन्त्र में स्थापित की गई हैं, उन्हें विदेशज प्रजातियाँ कहा जाता है।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (1) प्रकृति को बनाए रखने में जैव-विविधता की भूमिका का वर्णन करें।
उत्तर-प्रकृति अजैव एवं जैव तत्त्वों का समूह है। इसकी कार्यशीलता इन दोनों तत्त्वों की पारस्परिक क्रिया द्वारा ही संचालिव्र होती है। जैव तत्त्वों के अन्तर्गत विद्यमान जैव-विविधता प्रकृति के सन्तुलित संचालन का ही परिणाम है। अत: प्रकृति को बनाए रखने के लिए जैव-विविधता एवं जैव-विविधता की सुरक्षा के लिए प्रकृति के साथ मानव के मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का अपना विशिष्ट महत्त्व है। दूसरे शब्दों में, प्रकृति एवं जैव-विविधता में घनिष्ट सम्बन्ध है तथा ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

आज जो जैव-विविधता हम देखते हैं वह 2.5 से 3.5 अरब वर्षों के विकास का परिणाम है। पारितन्त्र में मौजूद विभिन्न प्रजातियाँ कोई-न-कोई क्रिया करती रहती हैं। पारितन्त्र में कोई भी प्रजाति न तो बिना कारण के विकसित हो सकती है और न ही उसका अस्तित्व बना रह सकता है अर्थात् प्रत्येक जीव अपनी आवश्यकता पूरी करने के साथ-साथ दूसरे जीवों के विकास में भी सहायक होता है। जीव वे प्रजातियाँ ऊर्जा ग्रहण कर उसका संरक्षण करती हैं। जैव-विविधता कार्बनिक पदार्थ विघटित तथा उत्पन्न करती हैं और पारितन्त्र में जल व पोषक तत्त्वों के चक्र को बनाए रखने में सहायक होती है। यह जलवायु को नियन्त्रित करने में सहायक है और पारितन्त्र को सन्तुलित रखती हैं। इस प्रकार जैव-विविधता प्रकृति कों बनाए रखने में सहायक है।

प्रश्न (ii) जैव-विविधता के ह्रास के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारकों का वर्णन करें। इसे रोकने के उपाय भी बताएँ।
उत्तर-पृथ्वी पर जीवों के उद्भव एवं विकास में करोड़ों वर्ष लगे हैं। विभिन्न पारिस्थितिक तन्त्र भाँति-भाँति के जीव-जन्तुओं एवं पादपों के प्राकृतिक आवास बने। कालान्तर में मानवजनित एवं प्राकृतिक कारणों से अनेक जीवों की जातियाँ धीरे-धीरे लुप्त होने लगीं। वर्तमान में पौधों एवं प्राणी जातियों के विलोपन की दर बढ़ गई। इससे पृथ्वी की जैव-विविधता को खतरा उत्पन्न हो गया। भू-पृष्ठ पर जैव-विविधता में ह्रास के लिए उत्तरदायी कारक निम्नलिखित हैं

1. आवासों का निवास-वन एवं प्राकृतिक घास स्थल अनेक जीवों के प्राकृतिक आवास होते हैं, किन्तु जनसंख्या वृद्धि के कारण कृषि एवं मानव आवास के लिए भूमि आपूर्ति को पूरा करने के लिए जैव-विविधता क्षेत्र का विनाश किया गया है।

2. वन्य जीवों का अवैध शिकार-मानव ने उत्पत्ति काल से ही वन्य जीवों का शिकार प्रारम्भ कर दिया था, किन्तु तब यह सीमित मात्रा में था। वर्तमान में मनोरंजन के अतिरिक्त अवैध धन कमाने (तस्करी) के लिए जैव-विविधता का बड़ी बेहरमी से शोषण किया जा रहा है।

3. मानव-वन्यप्राणी द्वन्द्व-मानव जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के कारण भोजन और आवास की माँग बढ़ी है। इसीलिए जीवों एवं पादप आवास स्थलों पर अतिक्रमण में वृद्धि हुई है। विभिन्न आर्थिक
लाभों के लिए भी मानव-वन्य प्राणी द्वन्द्व चरम पर है।

4. प्राकृतिक आपदाएँ-ऐसी अनेक प्राकृतिक आपदाएँ हैं जिनके कारण जैव-विविधता का ह्रास बड़ी मात्रा में होता है। अकाल, महामारी, दावानल, बाढ़, सूखा, तूफान; भू-स्खलन, भूकम्प आदि के कारण वनस्पति एवं प्राणियों का व्यापक विनाश हुआ है। उपर्युक्त के अतिरिक्त आणविक हथियारों का प्रयोग, औद्योगिक दुर्घटनाएँ समुद्रों में तेल रिसाव, हानिकारक अपशिष्ट उत्सर्जन आदि भी ऐसे कारक हैं जिनके कारण जैव-विविधता ह्रास में वृद्धि हुई है।

रोकने के उपाय-जैव-विविधता ह्रास या विनाश को रोकने के प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं

  • जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण,
  • वनारोपण में वृद्धि
  • मृदा अपरदन को रोकना,
  • कीटनाशकों के प्रयोग पर नियन्त्रण,
  • विभिन्न प्रकार के प्रदूषण पर नियन्त्रण,
  • वन्य प्राणियों के शिकार पर कठोर प्रतिबन्ध,
  • संकटापन्न प्रजातियों का संरक्षण,
  • वन्य-जीव एवं वनस्पति के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर रोक।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. कॉर्बेट नेशनल पार्क कहाँ पर है?
(क) रामनगर (नैनीताल)
(ख) दुधवा (लखीमपुर)
(ग) बाँदीपुर (राजस्थान)
(घ) काजीरंगा (असम)
उत्तर-(क) रामनगर (नैनीताल)।

प्रश्न 2. ‘काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान कहाँ स्थित है?
(क) उत्तर प्रदेश में
(ख) असम में
(ग) ओडिशा में
(घ) गुजरात में
उत्तर-(ख) असम में।।

प्रश्न 3. वह राज्य जहाँ सर्वाधिक शेर पाये जाते हैं
(क) उत्तर प्रदेश
(ख) गुजरात
(ग) मध्य प्रदेश
(घ) आन्ध्र प्रदेश
उत्तर-(ख) गुजरात।

प्रश्न 4. भारत का राष्ट्रीय पक्षी है
(क) कबूतर
(ख) मोरे
(ग) गौरैया
(घ) हंस
उत्तर-(ख) मोर।।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. निम्नलिखित के उत्तर दीजिए
(अ) विश्व वानिकी दिवस कब मनाया जाता है?
(ब) भारत का पहला जीन अभयारण्य कहाँ पर स्थित है?
(स) भारतीय वन्य जैवमण्डल की स्थापना कहाँ हुई?
(द) वन्य-जीव सप्ताह कब मनाया जाता है?
(य) वन महोत्सव कब मनाया जाता है?
उत्तर-(अ) विश्व वानिकी दिवस (World Forestryday) प्रतिवर्ष 21 मार्च को मनाया जाता है।
(ब) भारत में सबसे पहला जीन अभयारण्य (Gene sanctuary) बंगलौर (बंगलुरु) में स्थापित किया गया है।
(स) भारत में सन् 1952 में भारतीय वन जैवमण्डल (Indian Board for Wild Life-IBW) की स्थापना की गई। भारतीय संविधान में वन्य-जीवों के शिकार करने पर प्रतिबन्ध है।
(द) प्रतिवर्ष 1 से 8 अक्टूबर तक वन्य जीव सप्ताह मनाया जाता है।
(य) प्रतिवर्ष फरवरी तथा जुलाई में वन महोत्सव मनाया जाता है।

प्रश्न 2. संकटग्रस्त प्रजातियाँ किन्हें कहते हैं ।
उत्तर-संकटग्रस्त प्रजातियाँ वे प्रजातियाँ हैं जिनके विलुप्त होने का भय है, क्योंकि इनके आवास अत्यधिक कम हो गए हैं। निकट-भविष्य में इन प्रजातियों के विलुप्त होने की सम्भावना अधिक बढ़ती जा रही है। इससे इनकी संख्या भी बहुत कम हो गई है।

प्रश्न 3. दुर्लभ प्रजातियाँ क्या हैं?
उत्तर-वे प्रजातियाँ जो संख्या में कम तथा कुछ विशेष स्थानों पर अवशिष्ट हैं। इनके विलुप्त होने का भय अधिक है।

प्रश्न 4 आपत्तिग्रस्त एवं सुभेछ प्रजातियों का क्या अर्थ है?
उत्तर-पत्तिग्रस्त प्रजातियाँ-वे प्रजातियाँ जिनके आवास इतने नष्ट हो चुके हैं कि उनके शीघ्र ही संकटग्रस्त स्थिति में आ जाने की सम्भावना है या ये संकट-सीमा तक पहुंच चुकी हैं। सुभेद्य या असुरक्षित प्रजातियाँ-वे प्रजातियाँ जिनकी निकट-भविष्य में आपत्तिग्रस्त श्रेणी में आने की सम्भावना है।

प्रश्न 5. नए प्रकार के बीजों एवं रासायनिक खादों के क्या परिणाम है?
उत्तर-नए प्रकार के बीज एवं रासायनिक खादों के प्रयोग से हरित क्रान्ति आई है। उत्पादन में वृद्धि हुई है, किन्तु जैव-विविधता का ह्रास और विभिन्न प्रकार के प्रदूषण में भी वृद्धि हुई है।

प्रश्न 6. राष्ट्रीय पार्क तथा अभयारण्य में अन्तर बताइए।
उत्तर-राष्ट्रीय पार्क–यह वह क्षेत्र है जहाँ प्राकृतिक वनस्पति एवं वन्य जीव और अन्य प्राकृतिक सुन्दरता को सुरक्षित रखा जाता है। अभयारण्ये—यह वह सुरक्षित क्षेत्र है जहाँ लुप्तप्राय प्रजातियों को संरक्षित रखने के प्रयास किए जाते हैं।

प्रश्न 7. किसी जैव-विविधता सम्मेलन का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-सन् 1992 में ब्राजील के रियो-डि-जेनेरियो (Rio-de-Janerio) में जैव-विविधता को विश्वस्तरीय सम्मेलन आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में जैव-विविधता संरक्षण हेतु भारत संहित विश्वें के 155. देश हस्ताक्षरी (कृत संकल्पी) हैं।

प्रश्न 8. भारत सरकार ने प्रजातियों को बचाने के लिए कौन-सा मुख्य कानूनी प्रयास किया है?
उत्तर-भारत सरकार ने प्रजातियों को बचाने, संरक्षित करने और विस्तार के लिए वन्य जीव सुरक्षा अधिनियम, 1972 पारित किया है, जिसके अन्तर्गत राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य स्थापित किए गए तथा देश में कुछ क्षेत्रों को जीवमण्डल आरक्षित घोषित किया गया है।

प्रश्न 9. जैव-विविधता की आर्थिक भूमिका क्या है?
उत्तर-जैव-विविधती की एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक भूमिका फसलों की विविधता के कारण है। इसके अतिरिक्त जैव-विविधता को संसाधनों के उन भण्डारों के रूप में भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है जिनकी उपयोगिता भोज्य पदार्थ, औषधियों और सौन्दर्य प्रसाधन आदि बनाने में है।
प्रश्न 10. अन्तर्राष्ट्रीय संस्था (IUCN) ने संरक्षण के उद्देश्य से संकटापन्न पौधों व जीवों को कितने वर्गों में विभक्त किया है?
उत्तर-अन्तर्राष्ट्रीय संस्था (IUCN) ने संरक्षण के उद्देश्य से संकटापन्न पौधों व जीवों को तीन निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया है
(i) संकटापन्न प्रजातियाँ,
(ii) सुभेद्य प्रजातियाँ,
(ii) दुर्लभ प्रजातियाँ।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. प्रजातियों की विलुप्तता के मुख्य कारण लिखिए।
उत्तर-प्रजातियों की विलुप्तता के मुख्य कारण निम्नवत् है
1. बाढ़ (flood), सूखा (drought), भूकम्प (earthquakes) आदि प्राकृतिक विपदाएँ।
2. पादप रोगों का संक्रमण (epidemic) के रूप में।
3. परागण करने वाले साधनों या कारकों में कमी।
4. समाज में प्रजातियों की विलुप्तता के सम्बन्ध में ज्ञान न होना।
5. वनों का अत्यधिक कटाव।
6. मनुष्य द्वारा पौधों के प्राकृतिक आवासों में परिवर्तन।
7. औद्योगीकरण, बाँध (dams), सड़क आदि के निर्माण से वनों की कटाई।
8. पशुओं के अति चरण (over grazing) के कारण पौधों का नष्ट होना।
9. प्रदूषण तथा पारितन्त्र का असन्तुलन।
10. पौधों का व्यापार।

प्रश्न 2. जीन बैंक पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-वे संस्थान, जो महत्त्वपूर्ण व उपयोगी पौधों के जर्मप्लाज्म (germplasm) को सुरक्षित रखते हैं, जीन बैंक के नाम से जाने जाते हैं। जर्मप्लाज्म से तात्पर्य है कि जिसके द्वारा उस पौधे का परिवर्धन होता है। जीन बैंक में बीज, परागकण, बीजाण्डों, अण्ड कोशिकाओं (egg cells), ऊतक संवर्द्धन (tissue culture) के सहयोग से तने के शीर्ष भागों को कम ताप पर (-10° से -20°C) तथा कर्म ऑक्सीजन अवस्था में सुरक्षित रखते हैं, परन्तु कुछ पौधों के जर्मप्लाज्म (बीज) कम ताप व कम ऑक्सीजन अवस्था में मर जाते हैं। इस प्रकार के बीजों को रिकेल्सीटेण्ट बीज (Recalcitrant seeds) कहते हैं। आवश्यकता पर इन जर्मप्लाज्म से उन पौधों का परिवर्द्धन किया जा सकता है।

प्रश्न 3. विभिन्न संकटग्रस्त (जन्तु) जातियों के नाम लिखिए।
उत्तर-स्तनधारी-लंगूर, मेकाकू, चीता, शेर, सफेद भौंह वाला गिब्बन, बाघ, सुनहरी बिल्ली, मरुस्थली बिल्ली तथा भारतीय भेड़िया आदि। पक्षी सफेद पंख वाली बतख, भारतीय बस्टर्ड आदि। उभयचर तथा सरीसृप-घड़ियाल, मगर, वैरेनस, सेलामेण्डर आदि। भारत में लगभग 94 राष्ट्रीय उद्यान व 501 अभयारण्य हैं। राष्ट्रीय उद्यान में महत्त्वपूर्ण प्राणिजात व पादपंजात को उनके प्राकृतिक रूप में ऐतिहासिक इमारतों के साथ संरक्षित किया जाता है। इस क्षेत्र में शिकार व पशुचारण आदि की अनुमति नहीं दी जाती है। अभयारण्य-वन्य जन्तुओं व पक्षियों को सुरक्षित रहने व प्रजनन आदि की स्वतन्त्रता प्राकृतिक परिस्थितियों में प्रदान की जाती है।

प्रश्न 4. विश्व के विभिन्न वन्य जीव संगठनों के विषय में लिखिए।
उत्तर-1. आई०यू०सी०एन०आर० (International Union for Conservation of Natural Resources-I.U.C.N.R.)-इसकी स्थापना 1948 ई० में हुई थी तथा इसका कार्यालय स्विट्जरलैण्ड में है।

2. आई०बी०डब्ल्यू ०एल०–(Indian Boards of Wildlife-I.B.W.L.)-भारतवर्ष में इसकी स्थापना 1952 ई० में हुई थी।

3. डब्ल्यू डब्ल्यू०एफ० (World Wildlife Fund-W.W.F.)—इसकी स्थापना 1962 ई० में हुई थी तथा इसका कार्यालय स्विट्जरलैण्ड में है।

4. बी०एन०एच०एस० (The Bombay Natural History Society-B.N.H.S.)-यह गैर-सरकारी संस्थान है। इसकी स्थापना 1881 ई० में बम्बई (मुम्बई) में हुई।।

5. इल्यू०पी०एस०आई० (Wildlife Preservation Society of India-W.P.S.I.) इसकी स्थापना 1958 ई० में देहरादून में हुई। यह एक गैर-सरकारी संस्था है।

प्रश्न 5. संसार के कुछ मुख्य हॉट-स्पॉट के नाम लिखिए।
उत्तर-संसार के मुख्य हॉट-स्पॉट निम्नवत् हैं
1. अमेजन [Amazon (लैटिन अमेरिका)]
2. आर्कटिक टुण्डा Arctic Tundra (उत्तरी ध्रुव)]
3. अलास्का [Alaska (उत्तरी अमेरिका)]
4. मेडागास्कर द्वीप [Islands of Madagaskar (पूर्वी अफ्रीका के तट)]
5. आल्प्स [Alps (यूरोप)]
6. मालदीव द्वीप [Maldiv Island. (दक्षिण-पूर्वी एशिया)]
7. कैरीबियन द्वीप [Caribbean Islands (दक्षिण प्रशान्त)]
8. मॉरिशस [Mauritius (पूर्वी अफ्रीका के तट)]
9. विक्टोरिया झील [Lake of Victoria (कीनिया)]
10. अण्टार्कटिका [Antarctica (दक्षिणी ध्रुव)]

प्रश्न 6. जैव-विविधता के संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर क्या प्रयास किए जा रहे हैं?
उत्तर-ब्राजील के रियो-डि-जेनेरियो (Rio-de-Janerio) में 1992 ई० में पृथ्वी सम्मेलन (Earth summit) आयोजित किया गया जिसमें जैव-विविधता के संरक्षण के लिए प्रस्ताव पारित किया गया। यह प्रस्ताव 29 दिसम्बर, 1993 ई० से अमल में लाया गया। इस प्रस्ताव के मुख्य विषय निम्न प्रकार हैं|
(i) जैव-विविधता का संरक्षण,
(ii) जैव-विविधता (Sustainable) का उपयोग,
(iii) आनुवंशिक स्रोतों के उपयोग से उत्पन्न लाभ का सही बँटवारा।। वल्र्ड कन्जर्वेशन यूनियन (World Conservation Union) तथा वर्ल्ड वाइड फण्ड फॉर नेचर [World Wide Fund for Nature-WWF] सम्पूर्ण संसार में संरक्षण व जैवमण्डल रिजर्व (Biosphere reserve) के रखरखाव को प्रोन्नत करने वाले प्रोजेक्ट को सहायता दे रही है।

प्रश्न 7. वन्य जीव प्रबन्धन/संरक्षण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-वन्य-जीवन के अन्तर्गत वे जीव (पादप, जन्तु तथा सूक्ष्म जीव) सम्मिलित हैं जो अपने प्राकृतिक आवासों में मिलते हैं। मानवजाति के लिए वन्य जन्तु भी वनों के समान ही महत्त्वपूर्ण हैं। औद्योगीकरण, सड़क निर्माण, विद्युत परियोजनाओं तथा अन्य आधुनिक गतिविधियों के कारण वनों का विनाश हुआ है। जिससे वन्य जीवों के प्राकृतिक आवास नष्ट हुए हैं। इसी कारण अनेक वन्य जन्तुओं की प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं या विलुप्तीकरण की ओर अग्रसर हैं जिनमें बाघ, काला चीतल, हिरण, जंगली सूअर, शेर आदि प्रमुख हैं। एक अनुमान के अनुसार वन्य जन्तुओं की लगभग 81 संकटग्रस्त जातियाँ विलुप्तीकरण के कगार पर हैं। वन्य जन्तुओं के प्रबन्धन से तात्पर्य जन्तुओं की वृद्धि, विकास प्रजनन, उपयोग तथा संरक्षण से है। प्रबन्धन का मूल उद्देश्य यह भी है कि किसी भी जाति का अधिक शोषण न हो, रोग तथा अन्य प्राकृतिक . आपदाओं उसके विलुप्त होने का कारण न बने तथा मानवजाति अधिक-से-अधिक लाभान्वित हो सके।

प्रश्न 8. वन्य-जीव संरक्षण का महत्त्व बताइए।
उत्तर-भारत में वन्य जीवों का संरक्षण एक दीर्घकालिक परम्परा रही है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि ईसा से 6000 वर्ष पूर्व के आखेट-संग्राहक समाज में भी प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग पर विशेष ध्यान दिया जाता था। प्रारम्भिक काल से ही मानव समाज कुछ जीवों को विनाश से बचाने के प्रयास करते रहे हैं। हिन्दू महाकाव्यों, धर्मशास्त्रों, पुराणों, जातकों, पंचतन्त्र एवं जैन धर्मशास्त्रों सहित प्राचीन भारतीय साहित्य में छोटे-छोटे जीवों के प्रति हिंसा के लिए भी दण्ड का प्रावधान था। इससे स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति में वन्य-जीवों को कितना सम्मान दिया जाता था। आज भी अनेक समुदाय वन्य-जीवों के संरक्षण के प्रति पूर्ण रूप से सजग एवं समर्पित हैं। विश्नोई समाज के लोग पेड़-पौधों तथा जीव-जन्तुओं के संरक्षण के लिए उनके द्वारा निर्मित सिद्धान्तों का पालन करते हैं। महाराष्ट्र में भी मोरे समुदाय के लोग मोर एवं चूहों की सुरक्षा में विश्वास रखते हैं। कौटिल्य द्वारा लिखित ‘अर्थशास्त्र में कुछ पक्षियों की हत्या पर महाराजा अशोक द्वारा लगाये गये प्रतिबन्धों का भी उल्लेख मिलता है।

प्रश्न 9. संसार में जैव-विविधता के संरक्षण के विभिन्न प्रकारों की रूपरेखा बनाइए।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 16 Biodiversity and Conversation (जैव विविधता एवं संरक्षण) img 1

प्रश्न 10. निम्नलिखित की परिभाषा जैव-विविधता के सन्दर्भ में दीजिए(अ) विलुप्त, (ब) संकटग्रस्त, (स) असुरक्षित।
उत्तर-(अ) विलुप्त-वह प्रजाति जिसका अन्तिम जीव भी मर चुका हो, जिसका कोई भी जीव वर्तमान में नहीं मिलता हो, विलुप्त मानी जाती है।
(ब) संकटग्रस्त–एक प्रजाति संकटग्रस्त (endangered) तब मानी जाती है जब उसके जीव लगभग समाप्त हो रहे हों अथवा समाप्ति के कगार पर हों।
(स) असुरक्षित-वह प्रजातियाँ जो संकटग्रस्त तो नहीं हैं, परन्तु निकट भविष्य में संकटग्रस्त हो सकती हैं,,असुरक्षित कहलाती हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. जैवमण्डल रिजर्व क्या हैं? इसके अन्तर्गत सम्मिलित क्षेत्र का सीमांकन कीजिए तथा जैवमण्डल रिजर्व के कार्य बताइए।
उत्तर-जैवमण्डल रिजर्व
जैवमण्डल रिजर्व वह संरक्षित क्षेत्र है जिसमें ‘आबादी’ तन्त्र की अल्पता होती है। ये प्राकृतिक जीवोम (Natural biomes) हैं जहाँ के जैविक समुदाय विशिष्ट होते हैं। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संघ (UNESCO) के मानव व जैवमंण्डल (man and bisophere) कार्यक्रम में 1975 ई० में जैवमण्डल रिजर्व के सिद्धान्त (concept) को रखा गया जिसके अन्तर्गत पारितन्त्र का संरक्षण आनुवांशिक स्रोतों (genetic resources) के संरक्षण से किया जाना सुझाया गया। मई, 2002 : ई० तक 408 जैवमण्डलों का 94 देशों में पता लगा है। भारत में कुल 14 जैवमण्डल रिजर्व मिलते हैं। भारत में जैवमण्डल रिजर्व के रूप में राष्ट्रीय उद्यानों को भी रखा गया है।

जैवमण्डल रिजर्व के अन्तर्गत कोर (core), बफर (buffer) तथा उदासीन क्षेत्र (Transition zones) आते हैं। प्राकृतिक अथवा कोर क्षेत्र वह है जहाँ का पारितन्त्र पूर्ण तथा कानूनी रूप से संरक्षित होता है। बफर क्षेत्र कोर क्षेत्र को घेरता है तथा इसमें विभिन्न प्रकार के स्रोत मिलते हैं जिन पर शैक्षिक व शोध गतिविधियाँ चलती रहती हैं। संक्रमण क्षेत्र जैवमण्डल रिजर्व का सबसे बाहरी क्षेत्र है। यहाँ पर स्थानीय लोगों द्वारा बहुत-सी क्रियाएँ; जैसे—रहन-सहन, खेती-बाड़ी, प्राकृतिक सम्पदा का आर्थिक उपयोग आदि होती रहती हैं।

जैवमण्डल रिजर्व के मुख्य कार्य

1. संरक्षण–आनुवंशिक स्रोतों, जातियों, पारितन्त्र आदि का संरक्षण करना।
2. विकास–सांस्कृतिक, सामाजिक तथा पारिस्थितिकीय स्रोतों का विकास।
3. वैज्ञानिक शोध तथा शैक्षणिक उपयोग–संरक्षण सम्बन्धी इन क्रियाओं से वैज्ञानिक शोध व सूचना का राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विनिमय होता है।

प्रश्न 2. जैव-विविधता के विभिन्न स्तरों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-संसार में विभिन्न प्रकार के जीव मिलते हैं। इनके मध्य जटिल पारिस्थितिकीय सम्बन्ध, प्रजातियों के मध्य आनुवंशिक विविधता तथा अनेक प्रकार के पारितन्त्र आदि सम्मिलित हैं। जैव विविधता में तीन प्रमुख स्तर हैं
1. आनुवंशिकीय जैव विविधता (Genetic biodiversity),
2. जाति विविधता (Species diversity),
3. समुदाय व पारितन्त्र विविधता (Community and Ecosystem diversity)। ये सभी स्तर एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं, परन्तु इन्हें अलग से जाना व पहचाना जा सकता है

1. आनुवंशिकीय विविधता–प्रत्येक जाति चाहे जीवाणु हो या बड़े पादप अथवा जन्तु आनुवंशिक सूचनाओं को संचित रखते हैं, जो जीन में संरक्षित होती हैं। उदाहरण के लिए माइकोप्लाज्मा में लगभग 450.700 जीन।।

2. जाति विविधता–जाति, विविधता की पृथक् व निश्चित इकाई है। प्रत्येक जाति इकोसिस्टम अथवा पारितन्त्र में महत्त्वपूर्ण है। अतः किसी भी जाति की विलुप्तता पूरे पारितन्त्र पर प्रभाव डालती है। जाति विविधता किसी निश्चित क्षेत्र के अन्दर जातियों में विभिन्नता है। जाति की संख्या प्रति इकाई क्षेत्रको जाति धन्यता कहते हैं। जितनी जाति धन्यता अधिक होती है उतनी ही जाति विविधता अधिक होती है। प्रत्येक जाति के जीवों की संख्या भिन्न हो सकती है। इससे समानता (equality) पर प्रभाव पड़ता है।

3.समुदाय व पारितन्त्र विविधिता–समुदाय के स्तर पर पारितन्त्र में विविधता तीन प्रकार की होती है
(अ) एल्फा विविधता–यह विविधता समुदाय के अन्दर होती है। इस प्रकार की विविधता एक ही आवास व समुदाय में मिलने वाले जीवों के मध्य मिलती है। समुदाय/आवास बदलते ही जाति भी बदल जाती है।
(ब) बीटा विविधता–समुदायों व प्रवासों के मध्य बदलते जाति के विभव को बीटा विविधता कहते हैं। समुदायों में विभिन्न जातियों के संघटन में भिन्नता मिलती है।
(स) गामा विविधता-भौगोलिक क्षेत्रों में मिलने वाली सभी प्रकार जैव विविधता को गामा विविधता कहते हैं।

प्रश्न 3. जैव-विविधता से क्या अभिप्राय है? भारत में जैव-विविधता की सुरक्षा तथा संरक्षण के लिए क्या उपाय किये जा रहे हैं?
उत्तर-जैव-विविधता
जैव-विविधता से अभिप्राय जीव-जन्तुओं तथा पादप जगत् में पायी जाने वाली विविधता से है। संसार के अन्य देशों की भाँति हमारे देश के जीव-जन्तुओं में भी विविधता पायी जाती है। हमारे देश में जीवों की 81,000 प्रजातियाँ, मछलियों की 2,500 किस्में तथा पक्षियों की 2,000 प्रजातियाँ विद्यमान हैं। इसके अतिरिक्त 45,000 प्रकार की पौध प्रजातियाँ भी पायी जाती हैं। इनके अतिरिक्त उभयचरी, सरीसृप, स्तनपायी तथा छोटे-छोटे कीटों एवं कृमियों को मिलाकर भारत में विश्व की लगभग 70% जैव विविधता, पायी जाती है।

जैव-विविधता की सुरक्षा तथा संरक्षण के उपाय

वन जीव-जन्तुओं के प्राकृतिक आवास होते हैं। तीव्र गति से होने वाले वन-विनाश का जीव-जन्तुओं के आवास पर दुष्प्रभाव पड़ा है। इसके अतिरिक्त अनेक जन्तुओं के अविवेकपूर्ण तथा गैर-कानूनी आखेट के कारण अनेक जीव-प्रजातियाँ दुर्लभ हो गयी हैं तथा कई प्रजातियों का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। अतएव उनकी सुरक्षा तथा संरक्षण आवश्यक हो गया है। इंसी उद्देश्य से भारत सरकार ने अनेक प्रभावी कदम उठाये हैं, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं

1. देश में 14 जीव आरक्षित क्षेत्र (बायोस्फियर रिजर्व) सीमांकित किये गये हैं। अब तक देश में आठ जीव आरक्षित क्षेत्र स्थापित किये जा चुके हैं। सन् 1986 ई० में देश का प्रथम जीव आरक्षित क्षेत्र नीलगिरि में स्थापित किया गया था। उत्तर प्रदेश के हिमालय पर्वतीय क्षेत्र में नन्दा देवी, मेघालय में नोकरेक, पश्चिम बंगाल में सुन्दरवन, ओडिशा में सिमलीपाल तथा अण्डमान- निकोबार द्वीप समूह में जीव आरक्षित क्षेत्र स्थापित किये गये हैं। इस योजना में भारत के विविध प्रकार की जलवायु तथा विविध वनस्पति वाले क्षेत्रों को भी सम्मिलित किया गया है। अरुणाचल प्रदेश में पूर्वी हिमालय क्षेत्र, तमिलनाडु में मन्नार की खाड़ी, राजस्थान में थार का मरुस्थल, गुजरात में कच्छ का रन, असोम में काजीरंगा, नैनीताल में कॉर्बेट नेशनल पार्क तथा मानस उद्यान को जीव आरक्षित क्षेत्र बनाया गया है। इन जीव आरक्षित क्षेत्रों की स्थापना का उद्देश्य पौधों, जीव-जन्तुओं तथा सूक्ष्म जीवों की विविधती तथा एकता को बनाये रखना तथा पर्यावरण-सम्बन्धी अनुसन्धानों को प्रोत्साहन देना है।

2. राष्ट्रीय वन्य-जीव कार्य योजना वन्य-जीव संरक्षण के लिए कार्य, नीति एवं कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत करती है। प्रथम वन्य-जीव कार्य-योजना, 1983 को संशोधित कर अब नयी वन्य-जीव कार्य योजना (2002-16) स्वीकृत की गयी है। इस समय संरक्षित क्षेत्र के अन्तर्गत 89 राष्ट्रीय उद्यान एवं 490 अभयारण्य सम्मिलित हैं, जो देश के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र के 1 लाख 56 हजार वर्ग किमी क्षेत्रफल पर विस्तृत हैं।

3. वन्य जीवन( सुरक्षा) अधिनियम, 1972 जम्मू एवं कश्मीर को छोड़कर (इसका अपना पृथक् अधिनियम है) शेष सभी राज्यों द्वारा लागू किया जा चुका है, जिसमें वन्य-जीव संरक्षण तथा विलुप्त होती जा रही प्रजातियों के संरक्षण के लिए दिशानिर्देश दिये गये हैं। दुर्लभ एवं समाप्त होती जा रही प्रजातियों के व्यापार पर इस अधिनियम द्वारा रोक लगा दी गयी है। राज्य सरकारों ने भी ऐसे ही कानून बनाये हैं।

4. जैव-कल्याण विभाग, जो अब पर्यावरण एवं वन मन्त्रालय का अंग है, ने जानवरों को अकारण दी जाने वाली यन्त्रणा पर रोक लगाने सम्बन्धी शासनादेश पारित किया है। पशुओं पर क्रूरता पर रोक सम्बन्धी 1960 के अधिनियम में दिसम्बर, 2002 ई० में नये नियम सम्मिलित किये गये हैं। अनेक वन-पर्वो के साथ ही देश में प्रति वर्ष 1-7 अक्टूबर तक वन्यजन्तु संरक्षण सप्ताह मनाया जाती है, जिसमें वन्य-जन्तुओं की रक्षा तथा उनके प्रति जनचेतना जगाने के लिए विशेष प्रयास किये जाते हैं। इन सभी प्रयासों के अति सुखद परिणाम भी सामने आये हैं। आज राष्ट्रहित में इस बात की आवश्यकता है कि वन्य-जन्तु संरक्षण का प्रयास एक जन-आन्दोलन का रूप धारण कर ले।

प्रश्न 4. जैव संवेदी क्षेत्र अथवा हॉट-स्पॉट किसे कहते हैं? विश्व मानचित्र पर संसार के मुख्य हॉट- स्पॉट प्रदर्शित कीजिए।
उत्तर-जैव संवेदी क्षेत्र वे क्षेत्र हैं जिनमें जैव विविधता स्पष्ट रूप से मिलती है। इस स्थान को मानव द्वारा अधिक हानि नहीं पहुँचानी चाहिए, ये स्थान धरोहर के रूप में रखने चाहिए जिससे दुर्लभ प्रजातियों को भी बचाकर रखा जा सके तथा प्राकृतिक पर्यावरण में उन्हें उगाया जा सके। नार्मन मेयर ने 1988 ई० में हॉट स्पॉट संकल्पना (Hot Spot Concept) विकसित की जिससे उन स्थानों का पता लगाया जहाँ स्वस्थाने (in situ) संरक्षण किया जा सके। हॉट स्पॉट धरती पर पादप व जन्तु के जीवन में दुर्लभ प्रजातियों के सबसे धनी भण्डार (richest reservoirs) कहते हैं। हॉट स्पॉट को पहचानने के लिए निम्नांकित तथ्यों को ध्यान में रखा जाता है

1. एण्डेमिक (endemic) प्रजातियों की संख्या अर्थात् ऐसी प्रजातियाँ जो और कहीं नहीं मिलती हैं।
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 16 Biodiversity and Conversation (जैव विविधता एवं संरक्षण) img 2

2. प्राकृतिक आवास के बिगड़ते सन्दर्भ में प्रजातियों को होने वाली हानि अथवा चेतावनी के आधार पर संसर में लगभग 25 स्थलीय हॉट स्पॉट जैव विविधता को संरक्षित करने के लिए पहचाने गए हैं। ये सभी हॉट स्पॉट पृथ्वी के लगभग 1.4% भू-भाग पर विस्तृत हैं। 15 हॉट स्पॉट में ट्रॉपिकल वनों (Tropical Forest), 5 मेडीटेरेनियन प्रकार के क्षेत्रों में (Mediterranean type zone) , तथा लगभग 9 हॉट स्पॉट द्वीपों (Islands) में विस्तृत हैं। 16 हॉट स्पॉट उष्णकटिबन्धीय क्षेत्र में | मिलते हैं (चित्र 16.1)। लगभग 20% जनसंख्या इन हॉट स्पॉट क्षेत्रों में रहती है।

संसार के 25 हॉट स्पॉट क्षेत्रों में से 2 भारत में मिलते हैं जो समीपवर्ती पड़ोसी देशों तक फैले हुए हैं; जैसे–पश्चिमी घाटे व पूर्वी हिमालय क्षेत्र।

प्रश्न 5. संकटापन्न प्रजातियों से आप क्या समझते हैं? संकटापन्न प्रजातियों को वर्गीकृत कीजिए।
उत्तर-इसमें वे सभी प्रजातियाँ सम्मिलित हैं जिनके लुप्त हो जाने का खतरा है। जिस तेजी से वनों का विनाश विभिन्न मानवीय आवश्यकताओं के लिए हो रहा है तथा जलवायु में परिवर्तन हुए हैं, उससे विश्व की विभिन्न प्रजातियाँ संकटग्रस्त हो गई हैं। विलुप्त हो रही प्रजातियों को निम्नलिखित वर्गों में रखा जाता है

I. संकटग्रस्त जातियाँ
ये जीवों (पादप तथा जन्तु) की वे जातियाँ हैं जिनकी संख्या कम हो गई है या तेजी से कम हो रही है। तथा इनके आवास इतने कम हो गए हैं कि इनके लुप्त होने का भय है।

II. सुभेद्य जातियाँ
इसमें जीवों की वे जातियाँ सम्मिलित हैं जिनके पौधे पर्याप्त संख्या में अपने प्राकृतिक आवासों में पाए। जाते हैं, परन्तु यदि भविष्य में इनके वातावरण में प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, तो इनका निकटभविष्य मे विलुप्त होने का भय है।

III. दुर्लभ जातियाँ
ये उन पौधों की जातियाँ हैं, जिनकी संख्या संसार में बहुत कम है। इनके आवास विश्व में सीमित संख्या मे हैं। इनके विलुप्त होने का भय सदैव बना रहता है।

प्रश्न 6. भारत के प्रमुख वन्य जन्तुओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर-भारत के प्रमुख जन्तुओं को निम्नलिखित वर्गों में रखा जा सकता है

  • उभयचर-मेंढक, टोड, पादविहीन उभयचर (limbless amphibians), सरटिका आदि।
  • सरीसृप-जंगली छिपकली, गिरगिट, घड़ियाल, मगर, सर्प, कछुआ आदि।
  • पक्षी–गिद्ध, बाज, मोर, मैना कोयल, गरुड़ सारस, बतख, उल्लू, नीलकंठ, हंस, बुलबुल, कठफोड़वा, बगुला आदि।
  • स्तनी–बब्बर शेर, भेड़िया, रीछ, लोमड़ी, बन्दर, हाथी लकड़बग्घा, हिरण, गिलहरी, याक, खरहा, लंगूर गिब्बन, गैंडा, भेड़, लोरिस, गधा आदि।
    भारत में मुख्य वन्य जन्तु निम्नलिखित हैं

(क) भारतीय मगरमच्छ—ये तीन प्रकार के होते हैं(i) घड़ियाल (यथा Goviglis gungeticus), (ii) खारे जल के मगरमच्छ (यथा Crocodylus parosus), (iii) स्वच्छ जल के मगरमच्छ (यथा Crocodylus palustrust)। इनके प्रजनन के मुख्य केन्द्र आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, केरल, गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक तथा ओडिशा आदि राज्य हैं।
(ख) भारतीय मोर—यह भारत का राष्ट्रीय पक्षी (national bird) है।
(ग) भारतीय बस्टर्ड—यह विश्व का सबसे तेज उड़ने वाला पक्षी है, यह अब दुर्लभ है। यह पक्षी गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक तथा राजस्थान के वनों में मिलता है।
(घ) भारतीय हाथी—यह हिमालय की तराई, केरल, कर्नाटक आदि राज्यों में मिलता है।
(ङ) भारतीय शेर—यह गुजरात के गिर वन (Gir forest) में मिलता है।
(च) भारतीय बाघ– भारतवर्ष में बाघ अभयारण्य (Tiger reserves) हैं–काबेंट, दुधवा, कान्हा, रणथम्भौर, सरिस्का, सुन्दर वन, भेलघाट, बद्रीपुर, बुक्स, पेरियार, नमदफ आदि।
(छ) होर्न बिल–यह एक बड़ा पक्षी है जिसका शिकार आदिवासियों द्वारा मांस के लिए किया जाता है।
(ज) भारतीय गेंडा—इसका शिकार सींगों (horms) के लिए किया जाता है। यह उत्तरी भारत के गंगा नदी के मैदानी भागों में मिलता है।

प्रश्न 7. वन्य जन्तुओं की विलुप्ति के मुख्य कारण बताइए।
उत्तर-वन्य जन्तुओं की विलुप्ति के निम्नलिखित कारण हैं

1. जनसंख्या में तीव्र वृद्धि-विश्व में जनसंख्या अनियन्त्रित रूप से बढ़ रही है। इसके लिए मानव ने अव्यवस्थित रूप से वन्य जन्तुओं के प्राकृतिक आवासों को हानि पहुँचाई है। कृषि योग्य भूमि, आवास व्यवस्था, सड़क निर्माण, उद्योग के विकास के लिए वनों को काटा गया। इन सभी के कारण वन्य जीवों के प्राकृतिक आवासों में कमी आई है। यह वन्य जातियों की विलुप्ति का प्रमुख कारण है।

2. औद्योगीकरण-औद्योगीकरण के लिए बिना किसी योजना के वनों का शोषण बड़े स्तर पर हुआ | है जिस कारण वन्य जन्तुओं के आवास सीमित हुए हैं। इससे अनेक प्रजातियों के संकटग्रस्त होने को भय उत्पन्न हो गया है।

3. प्रदूषण-प्राकृतिक आवासों में प्रदूषण होने से जन्तुओं को विषमताओं का सामना करना पड़ता है। प्रदूषण के कारण कभी-कभी कुछ अति हानिकारक गैसें उत्पन्न होती हैं जिससे जन्तुओं के स्वास्थ्य को हानि होती है तथा वे मर भी सकते हैं।

4. आखेट-प्राचीनकाल से ही भारववर्ष में अनेक मुगल सम्राटों, अंग्रेजी शासकों व राजा-महाराजाओं का आखेट करना प्रिय शौक रहा, फलस्वरूप वन्य जन्तुओं को मारा गया। मांस का भोजन के रूप में प्रयोग भी इनकी विलुप्ति का प्रमुख कारण है। स्वतन्त्रता के बाद आखेट पर सरकार ने कानूनी नियन्त्रण स्थापित किया है।

5. मानवीय क्रियाकलापमानव-की धन के लिए लालसा सर्वविदित है। वन्य जन्तुओं का शिकार कर उनकी खाल, दाँत, सींग, नख आदि का निर्यात करंके करोड़ों रुपये कमाने के लालच में वन्य जन्तुओं का विनाश किया जा रहा है।

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 16 Biodiversity and Conversation (जैव विविधता एवं संरक्षण) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 16 Biodiversity and Conversation (जैव विविधता एवं संरक्षण), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.