UP Board Solutions for Class 11 Geography: Practical Work in Geography Chapter 1 Introduction to Maps

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Practical Work in Geography Chapter 1 Introduction to Maps (मानचित्र का परिचय)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Geography: Practical Work in Geography Chapter 1 Introduction to Maps (मानचित्र का परिचय)

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1. दिए गए चार विकल्पों में से सही विकल्प चुनें
(i) रेखाओं एवं आकृतियों के मानचित्र कहे जाने के लिए निम्नलिखित में से क्या अनिवार्य है?
(क) मानचित्र रूढ़ि
(ख) प्रतीक
(ग) उत्तर दिशा
(घ) मानचित्र मापनी
उत्तर-(ख) प्रतीक।।

(ii) एक मानचित्र जिसकी मापनी 1:4,000 एवं उससे बड़ी है, उसे कहा जाता है
(क) भूसम्पत्ति मानचित्र
(ख) स्थलाकृतिक मानचित्र
(ग) भित्ति मानचित्र ।
(घ) एटलस मानचित्र
उत्तर-(क) भूसम्पत्ति मानचित्र।।

(iii) निम्नलिखित में से कौन-सा मानचित्र के लिए अनिवार्य नहीं है?
(क) मानचित्र प्रक्षेप
(ख) मानचित्र व्यापकीकरण |
(ग) मानचित्र अभिकल्पना
(घ) मानचित्रों का इतिहास
उत्तर-(घ) मानचित्रों का इतिहास।

प्रश्न 2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दें
(क) मानचित्र व्यापकीकरण क्या है?
उत्तर—मानचित्र के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उसकी विषय-वस्तु को नियोजित किया जाना मानचित्र व्यापकीकरण कहलाता है। चूंकि मानचित्रों को एक निश्चित उद्देश्य के लिए लघुकृत मापनी पर तैयार किया जाता है। ऐसा करते समय मानचित्रकार को चुनी गई विषय-वस्तु से सम्बन्धित सूचनाओं (आँकड़ों) को एकत्रित करके आवश्यकतानुसार सरल रूप में प्रदर्शित करना ही वास्तव में व्यापकीकरण है।

(ख) मानचित्र अभिकल्पना क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर-मानचित्र अभिकल्पना किसी मानचित्र का ऐसा पक्ष है जो उसकी पृष्ठभूमि का समकलित प्रदर्शन करता है। इसके अन्तर्गत मानचित्र निर्माण में प्रयुक्त संकेतों का चयन, उनके आकार एवं प्रकार, लिखने का ढंग, रेखाओं की चौड़ाई का निर्धारण, रंगों का चयन आदि को सम्मिलित किया जाता है। अतः मानचित्र अभिकल्पना मानचित्र निर्माण की एक जटिल अभिमुखता है जिसमें उन सिद्धान्तों की व्यापक जानकारी आवश्यक होती है जो आलेखी संचार द्वारा मानचित्र को प्रभावी व उद्देश्यपरक बना सकें।

(ग) लघुमान वाले मानचित्रों के विभिन्न प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर-लघुमान वाले मानचित्रों को निम्नलिखित दो वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है-
1. भित्ति मानचित्र-यह मानचित्र बड़े आकार के कागज या प्लास्टिक पर बनाया जाता है। इसकी | मापनी स्थलाकृतिक मानचित्र से लघु किन्तु एटलस मानचित्र से बृहत् होती है।
2. एटलस मानचित्र-ये मानचित्र बड़े आकार वाले क्षेत्रों को प्रदर्शित करते हैं तथा भौतिक एवं सांस्कृतिक विशिष्टताओं को सामान्य ढंग से दर्शाते हैं। |

(घ) बृहत मापनी मानचित्रों के दो प्रमुख प्रकारों को लिखें।
उत्तर-बृहत् मापनी मानचित्रों को अग्रलिखित दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है

1. भूसम्पत्ति मानचित्र-इन मानचित्रों को क्षेत्रीय सम्पत्ति की पंजिका कहा जाता है। ये मानचित्र सरकार द्वारा विशेष रूप से भूमिकर, लगान की वसूली एवं स्वामित्व का रिकॉर्ड रखने के लिए बनाए जाते हैं। इन मानचित्रों का मापक बृहत् होता है। जैसे—गाँवों के भू-सम्पत्ति मानचित्र 1:4,000 की मापनी पर तथा नगरों के मानचित्र 1 : 2,000 और इससे अधिक मापनी पर बनाए जाते हैं।

2. स्थलाकृतिक मानचित्र-ये मानचित्र भी सामान्यतः बृहत् मापनी पर बनते हैं, जो परिशुद्ध सर्वेक्षण पर आधारित होते हैं। इन मानचित्रों को श्रृंखला के रूप में विश्व के लगभग सभी देशों की राष्ट्रीय मानचित्र एजेंसी के द्वारा तैयार किया जाता है। भारत में इनका निर्माण व प्रकाशन सर्वेक्षण विभाग, देहरादून द्वारा किया जाता है। इनका मापक 1 : 2,50,000, 1 : 50,000 तथा 1 : 25,000 होता है। इन मानचित्रों में उच्चावच, अपवाह, वनस्पति, अधिवास, सड़कें आदि भौतिक व सांस्कृतिक तत्त्वों को दर्शाया जाता है।

(ङ) मानचित्र रेखाचित्र से किस प्रकार भिन्न हैं?
उत्तर-मानचित्र सम्पूर्ण पृथ्वी या उसके किसी भाग का समतल पृष्ठ पर समानीत मापनी द्वारा वर्णात्मक, प्रतीकात्मक तथा व्यापकीकृत निरूपण करता है; जबकि रेखाचित्र बिना मापनी के खींचा गया खाका है, जिसमें विषय-वस्तु को सामान्य जानकारी के लिए प्रदर्शित किया जाता है।

प्रश्न 3. मानचित्रों के प्रकारों की विस्तृत व्याख्या करें।
उत्तर-भूगोल के विद्यार्थी अनेक प्रकार के मानचित्रों का प्रयोग करते हैं। मानचित्रों का वर्गीकरण उनके मापक, रचना एवं उद्देश्य के आधार पर निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है

(क) मापक के अनुसार मानचित्र के भेद ।
मापक के आधार पर मानचित्रों को निम्नलिखित चार भागों में बाँटकर दो समूहों में रखा जा सकता है

  1. भू-कर, मानचित्र (Cadastral Map);
  2. भूपत्रक मानचित्र (Topographical Map);
  3. दीवार मानचित्र (Wall Map) तथा
  4. एटलस मानचित्र (Atlas or Chorographical Map)।

1. दीर्घ मापक मानचित्र-ये मानचित्र बड़े मापक पर निर्मित किए जाते हैं। इनका निर्माण मानचित्रों | में विस्तृत विवरण प्रदर्शित करने के लिए किया जाता है। इनमें 1 सेमी = 1 किमी तक की दूरी प्रकट की जाती है। भू-कर मानचित्र (Cadastral Map) तथा स्थलाकृतिक मानचित्र (Topographical Map) इसी श्रेणी में सम्मिलित हैं।

2. लघु मापक मानचित्र-ये मानचित्र छोटे मापक पर निर्मित किए जाते हैं। इनका निर्माण विशाल क्षेत्र में सीमित विवरण प्रदर्शित करने के लिए किया जाता है। इनका मापक 1 सेमी = 1,000 किमी या इससे भी अधिक हो सकता है। मानचित्रावली मानचित्र (Atlas Map) तथा दीवार मानचित्र (Wall Map) इसी प्रकार के मानचित्र होते हैं।

(ख) उद्देश्य के अनुसार मानचित्र के भेद
उद्देश्य के आधार पर मानचित्रों को निम्नलिखित भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है

  1. प्राकृतिक या उच्चावच मानचित्र,
  2. भू-तात्त्विक मानचित्र,
  3. जलवायु मानचित्र,
  4. वनस्पति मानचित्र,
  5. यातायात मानचित्र,
  6. सांस्कृतिक मानचित्र,
  7. जनसंख्या मानचित्र,
  8. आर्थिक मानचित्र,
  9. भाषा मानचित्र,
  10. जाति मानचित्र,
  11. अन्तर्राष्ट्रीय मानचित्र,
  12. वितरण मानचित्र,
  13. राजनीतिक मानचित्र,
  14. खगोल मानचित्र,
  15. भूगर्भिक मानचित्र।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1. मानचित्र की परिभाषा दीजिए तथा उसके महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर-मानचित्र का अर्थ मानचित्र भूगोल के अध्ययन की समस्याओं का समाधान खोजने के उपकरण तथा विभिन्न रहस्यों को पता लगाने वाली कुंजियाँ हैं। मानचित्र ऐसी सांकेतिक लिपि है, जिसमें भूगोल का अपरिमित ज्ञानरूपी खजाना छिपा है। वस्तुतः मानचित्र गागर में सागर की उक्ति को चरितार्थ करते हैं। ‘मानचित्र’ लैटिन भाषा के मैपा (Mappa) शब्द से उत्पन्न मैप (Map) शब्द का पर्यायवाची है, जिसका शाब्दिक अर्थ कपड़े का रूमाल या टुकड़ा होता है। मानचित्र द्वारा विश्व के किसी भाग अथवा विशाल क्षेत्र का प्रदर्शन तथा चित्रण समतल कागज पर सरलता से किया जा सकता है।

मानचित्र की परिभाषाएँ

विभिन्न भूगोलविदों ने मानचित्र को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है

ए०ए० मिलर के अनुसार, “मैं मानचित्र को औजार के रूप में मानता हूँ। वास्तव में यह स्काउट के चाकू की अपेक्षा अधिक कल्पना प्रवीण चिह्नों से युक्त औजारों का पूर्ण थैला होता है। यदि इसका उचित प्रयोग किया जाए तो यह किसी भी भौगोलिक समस्या को अधिकांशतः सुलझा देता है।”

सिंह एवं कन्नौजिया के अनुसार, “मानचित्र समस्त पृथ्वी अथवा उसके किसी भाग का, जैसा कि वह ऊपर से दृष्टिगत होती है, परम्परागत लघु मापक चित्रण है।” इस प्रकार, मानचित्र पृथ्वी या उसके किसी भाग की धरातलीय अथवा मानवीय आकृतियों एवं कृतियों के सांकेतिक चिह्नों द्वारा समतल कागज पर बने आनुपातिक चित्रण को कहते हैं।

मानचित्र का महत्त्व

मानव अपने उपयोग के लिए मानचित्रों का निर्माण प्राचीनकाल से ही करता चला आ रहा है। मानचित्रों का उपयोग कृषकों, विद्यार्थियों, व्यापारियों, अर्थशास्त्रियों, योजना आयोग, राजनीतिज्ञों, यात्रियों, अन्वेषकों, विमानचालकों, त्योतिषियों, इतिहासकारों, अध्यापकों आदि के द्वारा पर्याप्त रूप में किया जाता है। भूगोल के अध्ययन में तो मानचित्रों का विशेष महत्त्व होता है। देश के योजनाकार मानचित्रों के आधार पर ही देश की भावी विकास योजनाओं का निर्माण करते हैं तथा भावी कार्यक्रम निर्धारित करते हैं। सैनिक मानचित्रों की सहायता से सैनिक अधिकारी सेना के संचालन का मार्ग तथा आक्रमण करने के स्थल सुनिश्चित करते हैं। वायुयान तथा जलयान चालक मानचित्रों के द्वारा अपनी आकाशीय एवं जलमार्ग सुनिश्चित करते हैं। भूगोल के जिज्ञासु भी इन्हीं मानचित्रों के सहयोग से पृथ्वी का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तथा भूगोल के अध्यापक मानचित्रों की सहायता से ही विद्यार्थियों को विश्व का भौगोलिक ज्ञान प्रदान करते हैं। इस प्रकार मानचित्र एक पथ-प्रदर्शक तथा सहयोगी के रूप में भूगोल के अध्ययन और अध्यापन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वस्तुत: मानचित्र, भूगोल के यन्त्र एवं उपकरण हैं। मानचित्रों का उपयोग भूगोल के अध्ययन को सरसे, सरल, रोचक एवं बोधगम्य बना देता है। कोई भी दुरुह विषय मानचित्रों के माध्यम से छात्रों के लिए हृदयगामी बन जाता है। भौगोलिक यात्राओं की आधारशिला मानचित्र ही होते हैं।

प्रश्न 2. मानचित्र के क्रमिक विकास का वर्णन कीजिए।
उत्तर-मानचित्रण का इतिहास मानव इतिहास के समानान्तर प्राचीन है। विश्व का सबसे पुराना मानचित्र मेसोपोटामिया में पाया गया था जो चिकनी मिट्टी की टिकिया से बना था और 2,500 ईसा पूर्व का माना जाता है।

आधुनिक मानचित्र कला की नींव अरब एवं यूनान के भूगोलविदों द्वारा रखी गई। भारत में मानचित्र बनाने का कार्य वैदिककाल में शुरू हो गया था। प्राचीन भारतीय विद्वानों ने पूरे विश्व को सात द्वीपों में बाँटा था। महाभारत में माना गया था कि यह गोलाकार विश्व चारों ओर से जल से घिरा है। टोडरमल तथा शेरशाह सूरी के लगान मानचित्र भारत में मध्यकाल में मानचित्र विकास का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
ना ।

आधुनिक काल के प्रारम्भिक दौर में मानचित्र बनाने की कला एवं विज्ञान को पुनजीर्चित किया गया है। सही दिशा, दूरी व क्षेत्रफल के परिशुद्ध माप के लिए ही इस युग में विभिन्न प्रक्षेपों पर मानचित्र बनाए गए हैं। 19वीं शताब्दी में वायव्य (फोटोग्राफी) के सहयोग से मानचित्र बनाने में विशेष प्रगति हुई है। वर्तमान में उपग्रह प्रणाली, सुदूर संवेदन तकनीकी और कम्प्यूटर के सहयोग से कम समय में अधिक उपादेय और सटीक मानचित्र बनाए जाते हैं।

प्रश्न 3. दिशा मापन क्या है?
उत्तर-दिशा मानचित्र पर एक काल्पनिक सीधी रेखा है, जो एकसमान आधार से दिशा की कोणीय स्थिति को प्रदर्शित करती है। मानचित्र पर प्रदर्शित दिशा रेखा उत्तर व दक्षिण दिशा को प्रकट करती है, किन्तु यह शून्य दिशा या आधार दिशा रेखा कहलाती है। अतः एक मानचित्र सदैव उत्तर दिशा को दर्शाता है, अन्य सभी दिशाएँ इसके सम्बन्ध में निर्धारित होती हैं।

प्रश्न 4. क्षेत्र मापन क्या है?
उत्तर-मानचित्र के आकार का मापन क्षेत्र मापन कहलाता है। सामान्यत: इसके लिए वर्गविधि अधिक प्रचलित है। इस विधि द्वारा क्षेत्र को मापने के लिए एक प्रदीप्त ट्रेसिंग टेबल के ऊपर मानचित्र के नीचे एक ग्राफ पेपर रखकर मानचित्र को वर्गों से ढक लेते हैं तथा सम्पूर्ण वर्गों की संख्या एवं आंशिक वर्गों की संख्या सम्मिलित कर एक साधारण समीकरण से क्षेत्रफल ज्ञात कर लिया जाता है। यह समीकरण इस प्रकार है
UP Board Solutions for Class 11 Geography Practical Work in Geography Chapter 1 Introduction to Maps (मानचित्र का परिचय) img 1
इस विधि के अतिरिक्त ध्रुवीय प्लेनीमीटर के द्वारा भी किसी मानचित्र के क्षेत्रफल की गणना की जा सकती है।

प्रश्न 5. दिशाएँ कितनी होती हैं?
उत्तर-सामान्यतः दिखाएँ चार होती हैं (उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम)। इन्हें प्रधान दिशाएँ माना जाता है, जबकि इनके प्रधान दिग्बिन्दुओं के बीच कई अन्य मध्यवर्ती दिशाएँ भी होती हैं।
UP Board Solutions for Class 11 Geography Practical Work in Geography Chapter 1 Introduction to Maps (मानचित्र का परिचय) img 2

प्रश्न 6. मानचित्र के आवश्यक लक्षण कौन-से हैं?
उत्तर-शीर्षक, मापक, निर्देश, प्रक्षेप, दिशा तथा परम्परागत या रूढ़ चिह्न मानचित्र के आवश्यक लक्षण हैं।

प्रश्न 7. मानचित्र पर दूरी मापन कैसे सम्भव है?
उत्तर-मानचित्र पर सीधी रेखाओं को पट्टी के द्वारा तथा टेड़ी-मेढ़ी रेखाओं को धागे के द्वारा मापा जाता है और उसे मानचित्र के मापक के द्वारा व्यक्त किया जाता है।

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Geography: Practical Work in Geography Chapter 1 Introduction to Maps (मानचित्र का परिचय) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Geography: Practical Work in Geography Chapter 1 Introduction to Maps (मानचित्र का परिचय), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ)

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1. नीचे दिए गए प्रश्नों के सही उत्तर का चयन करें
(i) इनमें से भारत के किस राज्य में बाढ़ अधिक आती है?
(क) बिहार
(ख) पश्चिम बंगाल
(ग) असम
(घ) उत्तर प्रदेश
उत्तर-(ग) असम।

(ii) उत्तराखण्ड के किस जिले में मालपा भू-स्खलन आपदा घटित हुई थी?
(क) बागेश्वर
(ख) चम्पावत
(ग) अल्मोड़ा
(घ) पिथौरागढ़
उत्तर-(घ) पिथौरागढ़।

(iii) इनमें से कौन-से राज्य में सर्दी के महीनों में बाढ़ आती है?
(क) असम
(ख) पश्चिम बंगाल
(ग) केरल
(घ) तमिलनाडु
उत्तर-(घ) तमिलनाडु।।

(iv) इनमें से किस नदी में मजौली नदीय दीप स्थित है?
(क) गंगा
(ख) ब्रह्मपुत्र
(ग) गोदावरी
(घ) सिन्धु
उत्तर-(ख) ब्रह्मपुत्र।

(v) बर्फानी तूफान किस तरह की प्राकृतिक आपदा है?
(क) वायुमण्डलीय
(ख) जलीय ।
(ख) जलीय
(ग) भौमिकी
(घ) जीवमण्डलीय
उत्तर-(क) वायुमण्डलीय।।

प्रश्न 2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30 से कम शब्दों में दें
(i) संकट किस दशा में आपदा बन जाता है?
उत्तर-संकट उस दशा में आपदा बन जाता है जब वह आकस्मिक उत्पन्न होता है। ऐसी दशा में मनुष्य उसका सामना करने के लिए तैयार नहीं होता तथा इसके नियन्त्रण हेतु भी पूर्व प्रबन्धीय तैयारी नहीं की जाती है।

(ii) हिमालय और भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में अधिक भूकम्प क्यों आते हैं?
उत्तर–हिमालय और भारत के उत्तर-पूर्व क्षेत्र में भूकम्प अधिक आते हैं, क्योंकि भारतीय भू-प्लेट उत्तर तथा पूर्व की ओर खिसक रही है तथा यूरेशियन भू-प्लेट से टकराकर इसमें अधिक ऊर्जा एकत्र हो जाती है। यही ऊर्जा इस क्षेत्र से विवर्तनिकता (हलचल) उत्पन्न कर भूकम्प का कारण बनती है। |

(iii) उष्ण कटिबन्धीय तूफान की उत्पत्ति के लिए कौन-सी परिस्थितियाँ अनुकूल हैं?
उत्तर-उष्ण कटिबन्धीय तूफान की उत्पत्ति के लिए निम्नलिखित परिस्थितियों को अनुकूल माना जाता है

  • पर्याप्त एवं सतत उष्ण व आर्द्र वायु की उपलब्धता जिससे बड़ी मात्रा में गुप्त ऊष्मा निर्मुक्त हो।
  • तीव्र कोरियोलिस बल जो केन्द्र के निम्न वायुदाब को भरने न दे।’
  • क्षोभमण्डल में अस्थिरता जिससे स्थानीय स्तर पर निम्न वायुदाब क्षेत्र बन जाते हैं।
  • शक्तिशाली उच्च दाबवेज (Wedge) की अनुपस्थिति, जो आई व गुप्त ऊष्मायुक्त वायु के ऊध्र्वाधर बहाव को अवरुद्ध करे।

(iv) पूर्वी भारत की बाढ़ पश्चिमी भारत की बाढ़ से अलग कैसे होती है?
उत्तर-पूर्वी भारत में बाढ़ प्रतिवर्ष आती है तथा भारी नुकसान पहुँचाती है। पश्चिमी भारत में बाढ़ कभी-कभी और अचानक आती है। पश्चिमी भारत में पंजाब, हरियाणा, गुजरात राज्यों में प्रवाहित होने वाली नदियों के जलस्तर में जब वृद्धि हो जाती है तो बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। राजस्थान में कभी आकस्मिक तीव्र वर्षा के फलस्वरूप बाढ़ आ जाती है।

(v) पश्चिमी और मध्य भारत में सूखे ज्यादा क्यों पड़ते हैं?
उत्तर-पश्चिमी और मध्य भारत जिसमें मुख्यत: राजस्थान का पूर्वी भाग, मध्य प्रदेश का अधिकांश भाग तथा महाराष्ट्र के पूर्वी भाग आते हैं जो सूखे से अधिक प्रभावित रहते हैं। इस भाग में अत्यधिक कम वर्षा एवं मानसून के समय पर न आने के कारण सूखे की विपत्ति बार-बार उत्पन्न होती रहती है।

प्रश्न 3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 125 शब्दो में दें
(i) भारत में भू-स्खलन प्रभावित क्षेत्रों की पहचान करें और इस आपदा के निवारण के कुछ उपाय बताएँ।
उत्तर-भारत में भू-स्खलन प्रभावित क्षेत्र
भारत में अस्थिर युवा हिमालय की पर्वत श्रृंखलाएँ, जिसमें उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर तथा असम राज्य, अण्डमान और निकोबार, पश्चिमी घाट, नीलगिरि में अधिक वर्षा वाले क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, भूकम्प प्रभावी क्षेत्र और इन भागों में अत्यधिक मानव क्रियाकलापों वाले वे क्षेत्र जहाँ सड़क और बाँध निर्माण अधिक किए गए हैं, भू-स्खलन से अत्यधिक प्रभावित क्षेत्रों में सम्मिलित हैं।

आपदा निवारण के उपाय-भू-स्खलन से निपटने के लिए निम्नलिखित उपाय उपयोगी होते हैं-

  1. पर्वतीय क्षेत्रों में तीव्र ढाल वाले भागों को काटकर सड़क निर्माण नहीं किया जाना चाहिए।
  2. इन क्षेत्रों में कृषि कार्य नदी घाटी तथा कम ढाल वाले भागों तक सीमित होना चाहिए तथा बड़ी विकास योजना पर प्रतिबन्ध होना चाहिए।
  3. सकारात्मक कार्य जैसे बृहत् स्तर पर वनीकरण को बढ़ावा और जल प्रवाह को नियन्त्रित करने के | लिए बाँध आदि का निर्माण भू-स्खलन के उपायों के पूरक हैं।
  4. स्थानान्तरी कृषि वाले उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में सीढ़ीनुमा खेत बनाकर कृषि की जानी चाहिए।

(ii) सुभेद्यता क्या है? सूखे के आधार पर भारत को प्राकृतिक आपदा भेवता क्षेत्रों में विभाजित करें और इसके निवारण के उपाय बताएँ।
उत्तर-सुभेद्यता
सुभेद्यता (Vulnerability) अथवा असुरक्षा किसी व्यक्ति, समुदाय अथवा क्षेत्र को हानि पहुँचाने की वह दशा या स्थिति है जो मानव के नियन्त्रण में नहीं होती है। दूसरे शब्दो में, यह जोखिम की वह सीमा है जिस पर एक व्यक्ति या समुदाय अथवा क्षेत्र प्रभावित होता है। भारत को सूखा के आधार पर निम्नलिखित भेद्यता (प्रभावित क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है|

1. अत्यधिक सूखा प्रभावित क्षेत्र—इसमें राजस्थान में अरावली के पश्चिम में स्थित मरुस्थली और गुजरात का कच्छ क्षेत्र सम्मिलित है।
2. अधिक सूखा प्रभावित क्षेत्र-राजस्थान का पूर्वी भाग, मध्य प्रदेश का अधिकांश क्षेत्र, महाराष्ट्र | के पूर्वी भाग, तेलंगाना तथा आन्ध्र प्रदेश के आन्तरिक भाग, कर्नाटक का पठार, तमिलनाडु के उत्तरी-पूर्वी भाग, झारखण्ड का दक्षिणी भाग और ओडिशा को आन्तरिक भाग अधिक सूखा प्रभावित क्षेत्र हैं।
3. मध्यम सूखा प्रभावित क्षेत्र-इस वर्ग में राजस्थान के उत्तरी भाग, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के दक्षिणी जिले, गुजरात के शेष भाग, झारखण्ड तथा कोयम्बटूर पठार सम्मिलित हैं (मानचित्र 7.1)।

निवारण के उपाय
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 1

सामाजिक और प्राकृतिक पर्यावरण पर सूखे का प्रभावित तात्कालिक एवं दीर्घकालिक होता है। अतः इसके निवारण के उपाय भी तात्कालिक व दीर्घकालिक होते हैं|

1. तात्कालिक उपाय-सुरक्षित पेयजल वितरण, दवाइयाँ, पशुओं के लिए चारे और जल की | उपलब्धता तथा मानव और पशुओं को सुरक्षित स्थान पर पहुँचानी सम्मिलित है। .

2. दीर्घकालिक उपाय–अनेक ऐसी योजनाएँ बनाई जाती हैं जो सूखे की विपत्ति में उपयोगी हों; जैसे—भूमिगत जल भण्डारण का पता लगाना, जल आधिक्य क्षेत्रों से अल्प जल क्षेत्रों में जल पहुँचाना, नदियों को जोड़ना, बाँध व जलाशयों को निर्माण करना, वर्षा जल का संग्रह करना, वनस्पति आवरण का विस्तार करना तथा शुष्क कृषि फसलों के क्षेत्र में विस्तार करना आदि योजनागत उपाय महत्त्वपूर्ण हैं।

(iii) किस स्थिति में विकास कार्य आपदा का कारण बन सकता है?
उत्तर-भूमण्डलीकरण के वर्तमान दौर में ही नहीं वरन् अन्य स्थितियों में भी सामाजिक प्रगति और आर्थिक विकास हेतु विभिन्न विकास कार्य अत्यन्त आवश्यक हैं, किन्तु संकटं या आपदाओं की अनदेखी करके विकास कार्यों को करते रहना अत्यन्त घातक एवं मूर्खतापूर्ण निर्णय कहलाता है। इस परिप्रेक्ष्य में कभी-कभी विभिन्न विकास कार्य आपदा का कारण बन जाते हैं। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य उल्लेखनीय हैं

1. मानव द्वारा बाँध आदि का निर्माण जो सिंचाई तथा विद्युत उत्पादन के लिए किया जाता है। यदि बाँध की ऊँचाई बढ़ाई जाती है तो इसके टूटने से बाढ़ आपदा का संकट उत्पन्न हो सकता है।
2. पर्वतीय क्षेत्रों में सड़कों का निर्माण यद्यपि आवश्यक है, किन्तु तीव्र ढाल वाले क्षेत्रों को काटकर सड़कें बनाई जाती हैं तथा ढाल के किनारे भूस्खलने अवरोधी दीवारों का निर्माण नहीं किया जाता है तो भू-स्खलन की विपत्ति का सामना करना पड़ सकता है।
3. बढ़ती हुई जनसंख्या की खाद्य आपूर्ति के लिए जंगलों का बेरहमी से विनाश करना तथा अनियोजित तरीके से लगातार भूमि उपयोग करते रहना वन, जल, वन्य-जीव आदि प्राकृतिक
संसाधनों के ह्रास का कारण बन सकता है।
4. तीव्र औद्योगिकीकरण आर्थिक विकास के लिए अविश्यक है, परन्तु इनसे निकलने वाली गैसें; जैसे–CFCs आदि को यदि इसी प्रकार वायुमण्डल में छोड़ा जाता रहा तो वायु-प्रदूषण की
समस्या में वृद्धि होती रहेगी।
5. परमाणु ऊर्जा, जिसे वर्तमान में विकास के लिए आवश्यक समझा जाता है, के उत्पादन में मानवीय | असावधानी के करिणं रूस की वाणु संयन्त्र में दुर्घटनाओं के समान होने वाली घटनाओं में वृद्धि होती रहेगी।

इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि सामाजिक प्रगति और आर्थिक विकास के लिए विकास कार्य आवश्यक हैं, पर इन्हें प्रारम्भ करने से पूर्व पर्यावरण असन्तुलन का मूल्यांकन तथा आपदा जैसे संकटों को न्यूनतम करने और इनमें वृद्धि न होने के उपायों के लिए योजनाओं का निर्माण और क्रियान्वयन करना भी अत्यन्त आवश्यक है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्प प्रलं
प्रश्न 1. प्राकृतिक आपदाएँ होती हैं
(क) जन्तुजनित
(ख) मानवजनित
(ग) वनस्पतिजनित
(घ) प्रकृतिजनित
उत्तर-(घ) प्रकृतिजनित ।

प्रश्न 2. निम्नलिखित में कौन-सी प्राकृतिक आपदा नहीं है?
(क) ज्वालामुखी विस्फोट
(ख) जनसंख्या विस्फोट
(ग) बादल विस्फोट
(घ) चक्रवात
उत्तर-(क) ज्वालामुखी विस्फोट

प्रश्न 3. भू-प्लेटों के खिसकने से क्या होता है।
(क) ज्वालामुखी विस्फोट
(ख) चक्रवात
(ग) बाढ़
(घ) सूखा
उत्तर-(क) ज्वालामुखी विस्फोट

प्रश्न 4. विश्व में सर्वाधिक भूकम्प कहाँ आते हैं?
(क) जापान
(ख) भारत
(ग) इटली
(घ) सिंगापुर
उत्तर-(क) जापान

प्रश्न 5. भू-स्खलन से सबसे अधिक प्रभावित कौन-सा क्षेत्र है?
(क) पहाड़ी प्रदेश
(ख) मैदानी भाग
(ग) पठारी प्रदेश
(घ) ये सभी
उत्तर-(क) पहाड़ी प्रदेश ।

प्रश्न 6. सागरों में भूकम्प के समय उठने वाली लहरों को क्या कहते हैं?
(क) सुनामी
(ख) चक्रवात
(ग) भूस्खलन ।
(घ) ज्वार-भाटा
उत्तर-(क) सुनामी

प्रश्न 7. निम्नलिखित में से कौन-सी प्राकृतिक आपदा नहीं है?
(क) सूखा
(ख) चक्रवात
(ग) रेल दुर्घटना
(घ) सूनामी
उत्तर-(ग) रेल दुर्घटना

प्रश्न 8. निम्नलिखित में से कौन-सी आपदा मानव-निर्मित है?
(क) भू-स्खलन
(ख) भूकम्प
(ग) हरितगृह प्रभाव
(घ) सूनामी लहरें
उत्तर-(ग) हरितगृह प्रभाव

प्रश्न 9. सूनामी है
(क) एक नदी
(ख) एक पवन
(ग) एक पर्वत चोटी।
(घ) एक प्राकृतिक आपदा ।।।
उत्तर-(घ) एक प्राकृतिक अपदा ।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. आपदाओं को ‘सभ्यता का शत्रु क्यों कहा जाता है?
उत्तर–आपदाएँ प्राकृति एवं मानवीय प्रक्रियाओं द्वारा उत्पन्न वह स्थिति है जिससे मनुष्य एवं जीव-जन्तुओं की सामान्य जीवनचर्या में भारी व्यवधान ही उत्पन्न नहीं होता, बल्कि इसके कारण अनेक लोगों की मृत्यु और सम्पत्ति का विनाश भी होता है। कई सभ्यताएँ; जैसे-हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो, बेबीलोन तथा नील नदी घाटी आदि इसी के कारण नष्ट हुई हैं। इसीलिए आपदाओं को सभ्यता का शत्रु कहा जाता है।

प्रश्न 2. आपदाओं की तीव्रता एवं आवृत्ति किन बातों पर निर्भर करती है?
उत्तर–आपदाओं की तीव्रता एवं आवृत्ति वृद्धि की दर पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन पर निर्भर करती है। वर्तमान भोगवादी अर्थव्यवस्था और जनसंख्या तीव्रता के कारण प्राकृतिक संसाधनों के कुप्रबन्धन एवं ह्रास में वृद्धि हुई है, जिसके कारण प्राकृतिक प्रक्रिया तन्त्र में व्यवधान उत्पन्न होने के कारण आपदाओं की तीव्रता एवं आवृत्ति में वृद्धि हुई है।

प्रश्न 3. प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं के नामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर–प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं के नाम निम्नलिखित हैं(1) भूकम्प, (2) ज्वालामुखी विस्फोट, (3) भू-स्खलन, (4) चक्रवाती तूफान, (5) बादल फटना, (6) बाढ़, (7) सूखा, (8) सुनामी आदि। इन सभी आपदाओं को रोकना असम्भव है किन्तु इनसे होने वाले जान-माल के नुकसान को विशेष , सुरक्षात्मक उपायों द्वारा न्यूनतम अवश्य किया जा सकता है।

प्रश्न 4. चरम घटनाओं से क्या तात्पर्य है।
उत्तर-प्राकृतिक एवं मानवीय कारकों द्वारा जनित सभी दुर्घटनाएँ चरम घटनाएँ कहलाती हैं। चरम घटनाएँ कभी-कभी ही घटित होती हैं। अतः जब प्राकृतिक प्रक्रम या मानवीय अनुक्रियाएँ इतनी त्वरित हों जिसका अनुमान लगाना कठिन हो और मानव समाज पर इसके प्रतिकूल प्रभाव से संकट या विनाश की स्थिति उत्पन्न हो जाए तो उनको चरम घटनाएँ या आपदा कहा जाता है।

प्रश्न 5. बहिर्जात आपदाएँ कौन-सी होती है? उनके नाम बताइए।
उत्तर–बहिर्जात आपदाओं का सम्बन्ध वायुमण्डल से होता है, इसीलिए इन्हें ‘वायुमण्डलीय आपदाएँ भी कहते हैं। प्रमुख बहिर्जात आपदाओं के नाम इस प्रकार हैं-चक्रवाती तूफान, बादल का फटना, आकाशीय विद्युत का गिरना, तड़ित झंझा, ओलावृष्टि, सूखा, बाढ़, ताप एवं शीत लहर आदि।

प्रश्न 6. मानवजनित आपदाओं को कौन-कौन से वर्गों में विभाजित किया जाता है?
उतर-मानवजनित आपदाओं को निम्नलिखित चार वर्गों में विभाजित किया जाता है(1) मानवजनित भौतिक आपदाएँ, (2) मानवजनित रासायनिक आपदाएँ, (3) मानवजनित सामाजिक आपदाएँ, (4) मानवजनित जीवीय आपदाएँ।

प्रश्न 7. विश्व बैंक ने आपदा को किस प्रकार परिभाषित किया है?
उत्तर–विश्व बैंक ने आपदा को निम्नलिखित प्रकार परिभाषित किया है –
“आपदा अल्पावधि की एक असाधारण घटना है, जो देश की अर्थव्यवस्था को गम्भीर रूप से अस्त-व्यस्त कर देती है।”

प्रश्न 8. भू-स्खलन के लिए उत्तरदायी कारक बताइए।
उत्तर-भू-स्खलन के लिए कई प्राकृतिक एवं मानवीय कारक उत्तरदायी होते हैं
प्राकृतिक कारक-भूकम्प, वर्षा की अधिकता, ढालयुक्त कमजोर चट्टानें, पर्वतीय चट्टानों में भौतिक एवं रासायनिक अपक्षय की अधिकता तथा जलप्रवाह में अवरोध उत्पन्न होना।
मानवीय कारक-वनों का अत्यधिक विनाश, अनियोजित भूमि उपयोग, अकुशल विधियों द्वारा उत्खनन, निर्माण कार्यों हेतु पर्वतों का कटान एवं दोषपूर्ण स्थान का चयन।।

प्रश्न 9. भारत में भू-स्खलन से सर्वाधिक प्रभावित राज्यों के नाम लिखिए।
उत्तर-भू-स्खलन भीषणता के आधार पर भारत के उत्तर-पश्चिमी एवं पूर्वोत्तर पर्वतीय राज्य सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। इन राज्यों में जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखण्ड राज्यों में प्रतिवर्ष भू-स्खलन से सर्वाधिक हानि होती है।

प्रश्न 10. प्रतिरोधक दीवारों का निर्माण किस प्रकार भू-स्खलन रोकने में उपयोगी है?
उत्तर-भू-स्खलन रोकने एवं क्षति को न्यूनतम करने के लिए भू-स्खलन प्रभावित क्षेत्रों में प्रतिरोधक दीवारों का निर्माण उपयुक्त युक्ति है। इस प्रकार की दीवारें सड़कों के किनारे तीव्र ढाल को रोकने में सहायक होती हैं। इन दीवारों के बनने पर पत्थर एवं मलबा गिरने से रुक जाता है तथा भू-स्खलन से क्षति न्यूनतम हो जाती है और कुछ समय बाद भू-स्खलन की सम्भावना भी नगण्य रह जाती है।

प्रश्न 11. बाढ़ एवं त्वरित बाढ़ में क्या अन्तर है?
उत्तर-बाढ़ को सामान्य अर्थ स्थलीय भाग को निरन्तर कई दिनों तक जलमग्न होना है। वास्तव में बाढ़ प्राकृतिक पर्यावरण की एक विशेषता है, जिसे जलीय चक्र का संघटक माना जाता है; जबकि त्वरित बाढ़ या फ्लैश फ्लड तब उत्पन्न होती है जब तटबन्ध टूट जाते हैं या बैराज से अधिक मात्रा में जल छोड़ दिया जाता है।

प्रश्न 12. बाढ़ आपदा के लिए उत्तरदायी कारक बताइए।
उत्तर-बाढ़ प्राकृतिक एवं मानवीय दोनों कारकों का परिणाम है। प्राकृतिक कारकों में लम्बी अवधि तक उच्च तीव्रता वाली जलवर्षा, नदियों के घुमावदार मोड़, नदियों की जलधारा में अचानक परिवर्तन, भू-स्खलन आदि उत्तरदायी हैं; जबकि मानवीय कारकों में वनों का विनाश, नगरीकरण एवं अनियोजित भूमि उपयोग महत्त्वपूर्ण कारक हैं।

प्रश्न 13. भारत में बाढ़ से सर्वाधिक प्रभावित राज्यों के नाम लिखिए।
उत्तर-भारत में पश्चिम बंगाल, असम, बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश सर्वाधिक बाढ़ प्रभावित राज्य हैं। वास्तव में देश की गंगा द्रोणी में बाढ़ का प्रकोप अधिक रहता है। ऐसा अनुमान है कि देश की कुल आपदा की लगभग 60 प्रतिशत हानि केवल गंगा के प्रवाह क्षेत्रों में होती है।

प्रश्न 14. भारत के भीषण सूखा प्रभावित राज्यों के नाम बताइए।
उत्तर-भारत में राजस्थान एवं गुजरात भीषण सूखा प्रभावित राज्यों की श्रेणियों में आते हैं। यहाँ लगभग प्रतिवर्ष कम वर्षा के कारण कहीं-न-कहीं भीषण सूखे का सामना करना पड़ता है।

प्रश्न 15. भारत में अत्यधिक भूकम्प सम्भावित क्षेत्रों के नाम लिखिए।
उत्तर-भारत में अत्यधिक भूकम्प सम्भावित क्षेत्र जोन-V के अन्तर्गत आता है। इस क्षेत्र में भारत की हिमालय पर्वतश्रेणी, बिहार में नेपाल का सीमावर्ती क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी उत्तराखण्ड, भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य, कच्छ प्रायद्वीप तथा अण्डमान निकोबार द्वीप समूह सम्मिलित हैं।

प्रश्न 16. भूकम्प के दौरान प्रबन्ध की विधियाँ बताइए।
उत्तर-भूकम्प के दौरान निम्नलिखित कार्यविधि अपनाना उचित रहता है(1) भूकम्प आने पर घबराएँ नहीं बल्कि साहस बनाए रखें। (2) आप जहाँ हैं, वहीं रहें, परन्तु दीवारों, छतों और दरवाजों से दूरी बनाए रखें। (3) दरारों, पलस्तर झड़ने आदि पर नजर रखें। यदि ऐसा हो तो सुरक्षित स्थान पर जाने का प्रयास करें। (4) यदि चलती कार में हों तो कार को सड़क के किनारे रोक लें, पुल या सुरंग पार न करें। (5) बिजली का मेनस्विच बन्द कर दें, गैस सिलेण्डर का रेगुलेटर बन्द करके सिलेण्डर को सील कर दें।

प्रश्न 17. सुनामी उत्पन्न होने के तीन महत्त्वपूर्ण कारण बताइए।
उत्तर–सुनामी उत्पन्न होने के तीन महत्त्वपूर्ण कारण हैं-(1) भूकम्प, (2) ज्वालामुखी विस्फोट, (3) भू-स्खलन। जब समुद्र या उनके निकटवर्ती क्षेत्रों में इनमें से किसी भी एक आपदा की आवृत्ति होती है। तो सागरों में सुनामी उत्पन्न हो जाती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. आपदाओं का क्या अर्थ है? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर-आपदा प्राकृतिक एवं मानवीय प्रक्रियाओं द्वारा उत्पन्न वह स्थिति है जो व्यापक रूप से मनुष्य एवं अन्य जीव-जन्तुओं की सामान्य जीवनचर्या में भारी व्यवधान डालती है। इसके कारण सम्पत्ति की भारी क्षति ही नहीं होती बल्कि अनेक लोग काल-कवलित भी हो जाते हैं।

प्राचीनकाल में विनाशकारी आपदाओं को प्रकृति के साथ की गई छेड़छाड़ के लिए प्रकृति द्वारा दिया गया दण्ड माना जाता था, किन्तु वर्तमान में इसे एक घटना के रूप में देखा जाता है। यह घटना प्राकृतिक या मानवीय दोनों में से किसी भी कारक द्वारा उत्पन्न हो सकती है। आपदाओं और घटनाओं का निकट का सम्बन्ध है। कभी-कभी इन्हें एक-दूसरे के विकल्प के रूप में प्रयोग किया जाता है। घटना एक आशंका है तो आपदा दु:खद घटना का एक परिणाम है। विश्व बैंक ने आपदा को इस प्रकार परिभाषित किया है-“आपदा अल्पावधि की एक असाधारण घटना है जो देश की अर्थव्यवस्था को गम्भीर रूप से अस्त-व्यस्त कर देती है।”

प्रश्न 2. आपदाएँ कितने प्रकार की होती हैं। किसी एक प्रकार की आपदा का वर्णन कीजिए।
उत्तर–सामान्यतः आपदाएँ दो प्रकार की होती हैं
(i) प्राकृतिक आपदाएँ तथा (ii) मानवकृत आपदाएँ।
प्राकृतिक आपदाएँ-प्राकृतिक रूप से घटित वे सभी आकस्मिक घटनाएँ जो प्रलयकारी रूप धारण का मानवसहित सम्पूर्ण जैव जगत् के लिए विनाशकारी स्थिति उत्पन्न कर देती हैं, प्राकृतिक आपदाएँ कहलाती हैं। प्राकृतिक आपदाओं को सीधा सम्बन्ध पर्यावरण से है। पर्यावरण की समस्त प्रक्रिया पृथ्वी की अन्तर्जात एवं बहिर्जात शक्तियों द्वारा संचालित होती है। यही वे शक्तियाँ हैं जो पर्यावरण को गतिशील रखती हैं तथा विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक संकट और आपदाओं के लिए उत्तरदायी हैं।

प्रश्न 3. सुनामी लहरों से सुरक्षा के क्या उपाय हैं?
उत्तर–सुनामी लहरों से सुरक्षा के उपाय निम्नलिखित हैं

  1. चेतावनी दिए जाने के बाद क्षेत्र को खाली कर देना चाहिए तथा जोखिम और खतरे से बचने के लिए विशेषज्ञों की सलाह लेना उपयुक्त रहता है।
  2. कमजोर एवं क्षतिग्रस्त मकानों का निरीक्षण करते रहना चाहिए तथा दीवारों और छतों को अवलम्ब देना चाहिए।
  3. वास्तव में, भूकम्प एवं समुद्री लहरों जैसी प्राकृतिक आपदा से बचने का कोई विकल्प नहीं है। सावधानी, जागरूकता और समय-समय पर दी गई चेतावनी ही इसके ब्रचाव का सबसे उपयुक्त उपाय है।
  4. समुद्रतटवर्ती क्षेत्रों में मकान तटों से अधिक दूर और ऊँचे स्थानों पर बनाने चाहिए। मकान बनाने से पूर्व विशेषज्ञों की राय अवश्य लेनी चाहिए।
  5. यदि आप समुद्री लहरों से प्रभावित क्षेत्रों में रहते हैं तो सुनामी लहरों की चेतावनी सुनने पर मकान खाली करके किसी सुरक्षित समुद्र तट से दूर ऊँचे स्थान पर चले जाएँ। यदि आप स्थान छोड़कर जा रहे हैं तो अपने पालतू पशुओं को भी साथ ले जाएँ।
  6. बहुत-सी ऊँची इमारतें यदि मजबूत कंक्रीट से बनी हैं तो खतरे के समय इन इमारतों की ऊपरी मंजिलों को सुरक्षित स्थान के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
  7. खुले समुद्र में सुनामी लहरों की हलचल को पता नहीं चलता। अत: यदि आप समुद्र में किसी नौका या जलयान पर हों और आपने चेतावनी सुनी हो, तब आप बन्दरगाह पर न लौटें क्योंकि इन समुद्री लहरों का सर्वाधिक कहर बन्दरगाहों पर ही होता है। अच्छा रहेगा कि आप समय रहते जलयान को गहरे समुद्र की ओर ले जाएँ।
  8. सुनामी आने के बाद घायल अथवा फँसे हुए लोगों की सहायता से पहले स्वयं को सुरक्षित करते हुए पेशेवर लोगों की सहायता लें और उन्हें आवश्यक सामग्री लाने के लिए कहें।

प्रश्न 4. भूस्खलन के लिए महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले कारणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर–सामान्यतः भूस्खलन का मुख्य कारण पर्वेतीय ढालों या चट्टानों का कमजोर होना है। चट्टानों के कमजोर होने पर उनमें प्रविष्ट जल चट्टानों को बाँध रखने वाली मिट्टी को ढीला कर देता है। यही ढीली हुई मिट्टी ढाल की ओर भारी दबाव डालती है। इस कारण मलबे के तल के नीचे सूखी चट्टानें ऊपर के भारी और गीले मलबे एवं चट्टानों का भार नहीं सँभाल पातीं, इसलिए वे नीचे की ओर खिसक जाती हैं और भूस्खलन हो जाता है। पहाड़ी ढीलों और चट्टानों के कमजोर होने तथा भूस्खलन को उत्प्रेरित करने वाले मुख्य कारण निम्नलिखित हैं

  1. भूस्खलन भूकम्पों या अचानक शैलों के खिसकने के कारण होते हैं।
  2. खुदाई या नदी-अपरदन के परिणामस्वरूप ढाल के आधार की ओर भी तेज भूस्खलन हो जाते हैं।
  3. भारी वर्षा या हिमपात के दौरान तीव्र पर्यतीय ढालों पर चट्टानों का बहुत बड़ा भाग जल तत्त्व की अधिकता एवं आधार के कटाव के कारण अपनी गुरुत्वीय स्थिति से असन्तुलित होकर अचानक तेजी के साथ विखण्डित होकर गिर जाता है, क्योंकि जल भार के कारण चट्टानें स्थिर नहीं रह सकती हैं; अत: चट्टानों पर दबाव की वृद्धि भूस्खलन का मुख्य कारण होती है।
  4. कभी-कभी भूस्खलन का कारण त्वरित भूकम्प, बाढ़, ज्वालामुखी विस्फोट, अनियमित वन कटाई तथा सड़कों का अनियोजित ढंग से निर्माण करना भी होता है।
  5. सड़क एवं भवन बनाने के लिए लोग प्राकृतिक ढलानों को सपाट स्थितियों में परिवर्तित कर देते हैं। इस प्रकार के परिवर्तनों के परिणामस्वरूप भी पहाड़ी ढालों पर भूस्खलन होने लगते हैं।

प्रश्न 5. भारत के मुख्य भू-स्खलन क्षेत्र बताइए।
उत्तर-भारत के मुख्य भू-स्खलन क्षेत्र निम्नलिखित हैं

1. उत्तरी-पश्चिमी हिमालय क्षेत्र–इस क्षेत्र में भूस्खलन आपदा से सर्वाधिक हानि होती है, अत: इसे उच्च से अति उच्च भूस्खलन क्षेत्र कहा जाता है। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखण्ड इसी क्षेत्र में सम्मिलित हैं।

2. पूर्वोत्तर पर्वतीय क्षेत्र-भारत के समस्त उत्तर-पूर्वी राज्य इस क्षेत्र में सम्मिलित हैं। यहाँ वर्षा ऋतु में उच्च भीषणता वाले भूस्खलन से जान-माल की अधिक हानि होती है।

3. पश्चिमी घाट तथा नीलगिरि की पहाड़ियाँ-भारत के प्रायद्वीप के पश्चिमी घाट के राज्यों का समुद्रतटीय क्षेत्र जिसमें महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल राज्य तथा तमिलनाडु की नीलगिरि पहाड़ियों का क्षेत्र सम्मिलित है। यहाँ मध्यम से उच्च भीषणता वाला भूस्खलन होता रहता है।

4. पूर्वी घाट–पूर्वी घाट के राज्यों के तटवर्ती क्षेत्र में कभी-कभी सामान्य भूस्खलन की घटनाएँ होती | रहती हैं, जो वर्षा ऋतु में अधिक हानिकारक हो जाती हैं। भीषणता की दृष्टि से यह भारत का निम्न | भूस्खलन क्षेत्र माना जाता है।

5. विन्ध्याचल–यहाँ प्राचीन पहाड़ियों और पठारी भू-भाग वाले क्षेत्र में निम्न भीषणता वाले भूस्खलन की घटनाएं होती रहती हैं।

प्रश्न 6. चक्रवात के न्यूनीकरण की मुख्य युक्तियाँ समझाइए।
उत्तर–चक्रवात यद्यपि अत्यन्त विनाशकारी विपत्ति है, किन्तु वर्तमान में भौतिक विकास के साथ-साथ भवन रचनाओं में तकनीकी परिवर्तनों और अन्य शमनकारी रणनीतियों द्वारा इस पर नियन्त्रण तथा क्षति न्यूनीकरण सम्भव है। चक्रवात न्यूनीकरण से सम्बन्धित मुख्य युक्तियाँ निम्नलिखित हैं–

  • चक्रवात सम्भावित क्षेत्रों में समुद्र से निकली भूमि पर नुकीली पत्तियों वाले पेड़ों की हरित पट्टी का विस्तार करनी चाहिए।
  • समुद्रतटीय भाग में विस्तृत भू-भाग पर ऊँचे चबूतरे, तटबन्ध आदि का निर्माण करना चाहिए।
  • तटीय क्षेत्रों में घास-फूस की छतों वाले कच्चे घर बनाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए, बल्कि इनके स्थान पर निश्चित विशेषताओं वाले मकान ही बनाए जाएँ।
  • चक्रवात सम्भावित क्षेत्रों में सरकार को मकान बनाने के लिए समुचित मार्गदर्शन तथा ऋण सुविधाएँ उपलब्ध करानी चाहिए।
  • सम्भावित क्षेत्रों में विशेष प्रकार के शरैण-स्थल बनवाए जाने चाहिए जिनसे राहत एवं बचाव दल को सुविधा प्राप्त होगी।

प्रश्न 7. 1999 के ओडिशा के भीषण चक्रवात के प्रभाव का एक स्थिति-विषयक अध्ययन कीजिए।
उत्तर–भारत का पूर्वी तटीय क्षेत्र चक्रवाती तूफानों की दृष्टि से सबसे अधिक संवेदनशील है। यहाँ ओडिशा में चक्रवाती तूफानों द्वारा कई बार भारी क्षति हो चुकी है। ऐसा ही एक भयंकर चक्रवाती तूफान 29 अक्टूबर, 1999 ई० को आया जिसकी गति 260-300 किमी प्रति घण्टा थी। इस तूफाने का प्रभाव केवल समुद्र तटों तक ही सीमित न रहा, बल्कि 250 किमी अन्दर तक इसने क्षति पहुँचाई। 36 घण्टे की अवधि में इस तूफान ने लगभग 200 लाख हेक्टेयर भूमि नष्ट कर दी और अपने पीछे बरबादी के भयावह नजारे छोड़ गया। यह महाचक्रवाती तूफान इतना विस्तृत और विनाशकारी था कि इसने हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया तथा लाखों मकानों को नष्ट कर दिया।

प्रश्न 8. सूखा निवारण के दो महत्त्वपूर्ण उपाय बताइए।
उत्तर-सूखा निवारण के दो महत्त्वपूर्ण उपाय निम्नलिखित हैं

1. सूखा प्रभावित क्षेत्रों में वर्षाजल का संग्रह और जल संरक्षण सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय है। भारत में वर्षा पर्याप्त मात्रा में होती है परन्तु वर्षाजल का समुचित उपयोग नहीं किया जाता। जल के अकुशल प्रबन्धन के कारण वर्षा का समस्त जल नदियों में बह जाता है या बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करता है। अतः वर्षाजल का समुचित संग्रह और प्रबन्धन कर उस जल का उपयोग सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए किया जाना चाहिए।

2. सूखाग्रस्त क्षेत्रों में हरित पट्टी को विस्तार किया जाना चाहिए। हरा-भरा पर्यावरण वातावरण-आर्द्रता के संरक्षण और जलवायु सन्तुलन का सबसे उत्तम माध्यम होता है, जिससे सूखे की समस्या पर नियन्त्रण किया जा सकता है।

प्रश्न 9. आधुनिक काल में प्राकृतिक आपदाओं के स्वरूप में आपको किस प्रकार के परिवर्तन का अनुभव होता है?
उत्तर–आपदाएँ आदि-अनादिकाल से प्रकृति के घटनाक्रम के रूप में प्रकट होती रही हैं। प्राचीनकाल में जनसंख्या अत्यन्त कम थी। दूसरे, प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा के उपायों का ज्ञान भी मनुष्य को नहीं था। आधुनिक काल में जनसंख्या वृद्धि के कारण मनुष्य के प्रकृति-विपरीत कार्यों में वृद्धि हुई है। इसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता और आवृत्ति में भी वृद्धि का अनुभव किया जाता है। इसके अतिरिक्त अंब मनुष्य ने अपने तकनीकी ज्ञान का विकास भी पूर्व की अपेक्षा अधिक कर लिया है। अत: यदि इन उपायों का ठीक से पालन किया जाए तो आपदाओं से होने वाली क्षति को पूर्वकाल की अपेक्षा कम किया जा सकता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. आपदाओं से क्या तात्पर्य है? इनका वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर-आपदा का अर्थ
आपदा प्राकृतिक एवं मानवीय प्रक्रियाओं द्वारा उत्पन्न वह स्थिति है जो व्यापक रूप से मनुष्य एवं अन्य जीव-जन्तुओं की सामान्य जीवनचर्या में भारी व्यवधाम डालती है। इसके कारण सम्पत्ति की भारी क्षति ही नहीं होती, बल्कि अनेक लोग काल-कवलित भी हो जाते हैं। इसीलिए आपदाओं को ‘सभ्यता का शत्रु’ कहा जाता है। कई सभ्यताएँ; जैसे-हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो, बेबोलोन तथा नील नदी घाटी आदि आपदाओं के कारण ही आज इतिहास की विषय-वस्तु बन गई हैं। प्राकृतिक आपदाएँ कभी-कभी इतनी त्वरित या आकस्मिक होती हैं कि इनसे सँभल पाना कठिन हो जाता है। जब इनका प्रभाव विस्तृत या क्षेत्रीय होता है तो समूचा राष्ट्र आक्रान्त हो जाता है। विश्व बैंक के अनुसार, आपदाएँ अल्पावधि की एक असाधारण घटना हैं जो देश की अर्थव्यवस्था को गम्भीर रूप से अस्त-व्यस्त कर देती हैं। अत: आपदाएँ देश की अर्थव्यवस्था को ही नहीं, सामाजिक एवं जैविक विकास की दृष्टि से भी विनाशकारी होती हैं।

आपदा एक अनैच्छिक घटना है जो बाह्य शक्तियों के कारण मनुष्य के नियन्त्रण में नहीं है। आपदा की चेतावनी तुरन्त नहीं मिलती; यह थोड़े समय के बाद मिलती है, तब तक आपदा आ चुकी होती है, बेचाव को समय कम मिलता है जिससे जान एवं सम्पत्ति की व्यापक हानि होती है तथा संकटकालीन परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है।

आपदाओं का वर्गीकरण

आपदाओं से शक्ति से निपटने के लिए उनकी पहचान एवं वर्गीकरण को एक प्रभावशाली कदम समझा जाता है। आपदाओं को सामान्यत: दो बृहत् वर्गों-(i) प्राकृतिक एवं (ii) मानवकृत आपदाओं में विभाजित किया जाता है। प्राकृतिक आपदाएँ निम्नलिखित चार प्रकारों में वर्गीकृत की जाती हैं|
1. वायुमण्डलीय-इनके अन्तर्गत बर्फानी तूफान, तड़ित झंझा, टॉरनेडो, उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात, सूखा, पाला, लू तथा शीतलहर को सम्मिलित किया जाता है।
2. भौमिक–इनमें स्थलमण्डलीय आपदाएँ शामिल हैं; जैसे—भूकम्प, भू-स्खलन, ज्वालामुखी, मृदा अपरदन तथा अवतलन आदि।
3. जलीय-जल के कारण उत्पन्न आपदाएँ जलीय प्राकृतिक आपदाएँ कहलाती हैं। इनके अन्तर्गत बाढ़, ज्वार, महासागरीय घटनाएँ तथा सुनामी सम्मिलित हैं।
4. जैविक-पौधों के कीट-पतंगे, फफूद, बैक्टीरिया और वायरल संक्रमण, बर्ड फ्लू, डेंगू, मलेरिया, प्लेग आदि जैविक आपदाएँ हैं।

मानवकृत आपदाओं में वे सभी आपदाएँ आती हैं जो मानव की असावधानी या जानकारी होते हुए लापरवाही भी बरतने के कारण घटित होती हैं। इस प्रकार की आपदाएँ आकस्मिक या दीर्घ अवधि दोनों समयान्तरालों में घटित हो सकती हैं। दुर्घटना, जहरीली गैसों का रिसाव, विभिन्न प्रकार के प्रदूषण, परमाणु विस्फोट, बम विस्फोट, आन्तरिक गृह युद्ध, साम्प्रदायिक दंगे, आतंकवादी वारदात आदि मानवकृत आपदाओं के उदाहरण हैं।

प्रश्न 2. क्या प्राकृतिक आपदाएँ विश्वव्यापी होती हैं? यदि हाँ, तो विश्व स्तर पर इन्हें रोकने के क्या प्रयास हैं?
उत्तर- सामान्यत: प्राकृतिक आपदाएँ विश्वव्यापी होती हैं। ये कहीं भी, कभी भी अपने आगोश में जीवजगत को लेकर क्षतिग्रस्त कर सकती हैं। जिस ढंग से प्रत्येक सामाजिक वर्ग इनसे निपटता है वह अद्वितीय होता है, क्योंकि दो आपदाएँ न तो समान होती हैं और न ही उनमें आपस में तुलना की जा सकती है। अत: विश्व समुदाय आपदाओं से आज भी उतना ही भयभीत एवं आक्रान्त है जितना वह प्राचीन काल में था। वर्तमान में प्राकृतिक आपदाओं के परिणाम, गहनता एवं बारम्बारता और इसके द्वारा किए गए नुकसान बढ़ते जा रहे हैं। इसका मुख्य कारण मानव जनसंख्या में वृद्धि तो है ही, साथ ही उसका प्रकृति के प्रति शत्रुरूप में व्यवहार एवं पर्यावरण सिद्धान्त के प्रति उदासीन होना भी है। इन विचारों की पुष्टि निम्नांकित सारणी से भी होती है जो गत 60 वर्षों में 12 गम्भीर प्राकृतिक आपदाओं से विभिन्न देशो में मरने वालों की संख्या को दर्शाती है।

तालिका : विश्व के विभिन्न देशों में गत 60 वर्षों (1948 से 2005)
में प्राकृतिक आपदाओं से हुई मौतें

UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 2
स्रोत: *यूनाइटेड नेशन्स इन्वारनमेण्टल प्रोग्राम (यू०एन०ई०सी०) 1991.
**राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान की न्यूज़ रिपोर्ट, भारत सरकार, नई दिल्ली। वास्तव में आपदा द्वारा पहुँचाई गई क्षति के परिणाम भू-मण्डलीय प्रतिघाते हैं और अकेले किसी राष्ट्र में इतनी क्षमता नहीं है कि वह इन्हें सहन कर सके। इसलिए 1989 में संयुक्त राष्ट्र सामान्य असेम्बली में इस मुद्दे को उठाया गया था और मई 1994 में जापान के याकोहामा नगर में आपदा प्रबन्ध की विश्व कॉन्फ्रेंस में इसे औपचारिकता प्रदान कर दी गई थी। बाद में इसी प्रयास को योकोहामा रणनीति तथा अधिक सुरक्षित संसार के लिए कार्ययोजना कहा गया।

इसी प्रयास के अन्तर्गत 1990-2000 को आपदा न्यूनीकरण का अन्तर्राष्ट्रीय दशक भी घोषित किया गया।

प्रश्न 3. आपदाओं के न्यूनीकरण एवं प्रबन्धन के उपायों की एक योजना प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर—यद्यपि आपदाएँ जीव-जन्तुओं के लिए सामान्य रूप से तथा मानव समुदाय के लिए मुख्य रूप से संकटापन्न होती हैं, परन्तु प्राकृतिक संरचनाओं की दृष्टि से प्राकृतिक आपदाएँ कतिपय लाभदायक भी होती हैं; जैसे—बाढ़ द्वारा बाढ़कृत मैदान का निर्माण जिसकी मिट्टी पोषक तत्वों से युक्त होने के कारण अत्यन्त उपजाऊ होती है। ज्वालामुखी विस्फोट से निकलने वाली राख और लावा काली मिट्टी का निर्माण करता है। जो कपास की कृषि के लिए आवश्यक होती है। इसी प्रकार, भू-स्खलन से क्षेत्र में झील का निर्माण तथा भूकम्प के कारण भूमिगत जल के प्रवाह अवरोध से जलभर (Aquifer) (पारगम्य शैल की परत जिसमें जल भरा रहता हो) का निर्माण हो जाता है जो उन क्षेत्रों की जलापूर्ति में सहायक है। इस प्रकार, प्राकृतिक आपदाएँ एक ओर प्रकृति का वरदान हैं तो दूसरी ओर मानव की असावधानी और प्रकृति-विरुद्ध कार्यों में वृद्धि के कारण मानव समुदाय के लिए एक बहुत बड़ा अभिशाप हैं। इसलिए प्राकृतिक और मानवजनित । दोनों ही प्रकार की आपदाएँ जन-धन की क्षति की दृष्टि से अत्यन्त कष्टकारी स्थिति उत्पन्न कर देती हैं। अत: मानव हित में आपदाओं के न्यूनीकरण एवं प्रबन्धन महत्त्वपूर्ण हैं। प्रबन्ध के लिए निम्नलिखित तीन स्थितियों पर योजना बनाने की आवश्यकता है

1. आपदापूर्व प्रबन्धन योजना-आपदापूर्व प्रबन्धन का अर्थ किसी आपदा या विपत्ति से होने वाले जोखिम को न्यूनतम करने का पूर्व प्रयास है। इसके अन्तर्गत विपत्ति का सामना करने की पूर्ण तैयारी, जनजागरूकता और आपदा न्यूनीकरण के उपायों हेतु योजना बनाई जाती है। पूर्ण तैयारी में आपदा प्रभावित क्षेत्रों की पहचान एवं जोखिम का मूल्यांकन और प्रभाव का पूर्वानुमान लगाया जाता है, फिर इसके आधार पर अन्य तैयारी की रूपरेखा बनाई जाती है। इसमें पूर्व सूचना प्रणाली को विकसित करना, संसाधन प्रबन्धन पर ध्यान देते रहना और सहायता के लिए अभ्यास करते, रहना आवश्यक है।

2. आपदा के समय प्रबन्धन योजना-आपदा के समय प्रबन्धन से यह अभिप्राय है कि आपदा के दौरान प्रभावित क्षेत्रों में पहुँचकर बचाव कार्यों को तत्काल शुरू किया जाए और प्रभावित मानव समुदाय की विभिन्न प्रकार से सहायता की जाए। इस अवधि में मुख्य ध्यान खोज और बचाव तथा राहत सामग्री के उचित रूप से प्रबन्ध एवं वितरण पर दिया जाना आवश्यक है।

3. आपदा के पश्चात् प्रबन्धन योजना-आपदा के पश्चात् पुनर्वास, पुनर्लाभ और विकास कार्यों से सम्बन्धित बातों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। इस समय नीति निर्धारकों की अहम् भूमिका होती है। उन्हें वर्तमान में हुई आपदा से क्षतिपूर्ति को पूरा करने के लिए उचित वितरण प्रणाली के साथ-साथ मानक तकनीकों के अनुसार ही विकास कार्यों को पूरा करना चाहिए। इसी अवसर पर आपदापूर्व, प्रबन्धन के अन्तर्गत स्थापित आपात कोष तथा जोखिम स्थानान्तरण संस्थाओं (बीमा कम्पनी) के कार्यों का पूरा उपयोग करते हुए राहत एवं पुनर्वास कार्यों में सहयोग प्रदान करना होता है। अत: आपदा निवारण हेतु आपदा न्यूनीकरण प्रबन्धन को न केवल जीवन के अंग के रूप में बल्कि आवश्यक जीवन रक्षा कौशल के रूप में अपनाकर अपनी और प्रियजनों की सुरक्षा के लिए तत्पर रहना और जनसामान्य को तैयार करना ही सर्वोत्तम उपाय है।।

प्रश्न 4. भूकम्प क्यों आते हैं? भारत में इसके गहनता क्षेत्र बताइए। इस आपदा से होने वाली क्षति | को किस प्रकार न्यूनतम किया जा सकता है?
उत्तर-हमारी पृथ्वी गतिशील सक्रिय ग्रह है। इसकी सबसे ऊपरी सतह क्रस्ट का निर्माण विशाल प्रस्तरीय प्लेटों से हुआ है। विशाल प्रस्तरीय प्लेटें अति प्रत्यास्थ एवं सान्द्र प्रकृति की भीतरी सतह, मैंटिल में उत्पन्न संवहन तरंगों के कारण निरन्तर गतिशल, संघनित एवं प्रसारित होती रहती हैं। इन भू-विवर्तनिकी गतियों के कारण भू-भाग कहीं संकुचित हो जाते हैं तो कहीं परस्पर टकराते हैं और प्रसारित होते हैं, जिससे पृथ्वी पर . कम्पन उत्पन्न होने से भूकम्प आते हैं। अतः भूकम्प का प्रमुख कारण पृथ्वी की प्लेटों का गतिशील होना है। इस गतिशीलता के परिणामस्वरूप भूगर्भीय ऊर्जा का निष्कासन होता है, तभी भूकम्प का अनुभव किया जाता है।

भारत के भूकम्पीय कटिबन्धीय क्षेत्र या वितरण

राष्ट्रीय भू-भौतिकी प्रयोगशाल, भारतीय भूगर्भीय सर्वेक्षण, मौसम विज्ञान विभाग तथा कुछ समय पूर्व बने राष्ट्रीय प्रबन्धन संस्थान ने भारत में आए 1,200 भूकम्पों के गहन विश्लेषण के आधार पर देश को निम्नलिखित 5 भूकम्पीय क्षेत्रों (Zones) में बाँटा है

1. अत्यधिक क्षति जोखिम क्षेत्र (जोन-V)-इसमें हिमालय पर्वतश्रेणी, नेपाल, बिहार सीमावर्ती क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी उत्तराखण्ड, देश के उत्तर-पूर्वी राज्य तथा कच्छ प्रायद्वीप और अण्डमान निकोबार द्वीप समूह सम्मिलित हैं।
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 3
2. अधिक क्षति जोखिम क्षेत्र (जोन-IV)-इसके अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, . उत्तराखण्ड (उत्तर-पश्चिमी एवं दक्षिणी भाग), उत्तर प्रदेश.एवं बिहार के उत्तरी मैदानी भाग तथा
पश्चिमी उत्तर प्रदेश सम्मिलित हैं।

3. मध्य क्षति जोखिम क्षेत्र (जोन-II)—इस क्षेत्र का विस्तार उत्तरी प्रायद्वीपीय पठार पर अधिक है।

4. निम्न क्षति जोखिम क्षेत्र (जोन-1)-इसमें उत्तर-पश्चिमी राजस्थान, मध्य प्रदेश का उत्तरी | भाग, पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी ओडिशा तथा प्रायद्वीप के आन्तरिक भाग सम्मिलित हैं।

5. अति निम्न क्षति जोखिम क्षेत्र (जोन-I)-इसके अन्तर्गत जोन II के अन्तर्गत सम्मिलित क्षेत्र के आन्तरिक भाग सम्मिलित हैं।

भूकम्प आपदा से सुरक्षा के उपाय – भूकम्प आपदा से सुरक्षा के मुख्य उपाय निम्नलिखित हैं

  1. भूकम्परोधी भवनों का निर्माण किया जाए।
  2. जनसामान्य को भूकम्प आपदा की जानकारी प्रदान की जाए तथा सुरक्षात्मक प्रशिक्षण दिया जाए।
  3. भूकम्प के दौरान घर की छत, दीवार, दरवाजे और खिड़कियों से दूर रहा जाए।
  4. यदि आप घर से बाहर हैं तो खुले मैदान में रहने का प्रयास करें।
  5. ऐसे समय पर घबराएँ नहीं, साहस रखें और बिजली के खम्भों एवं ज्वलनशील पदार्थों से दूर रहें।

प्रश्न 5. सुनामी लहरें क्या हैं? सुनामी लहरों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण तथ्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर–प्राकृतिक आपदाओं में समुद्री लहरें अर्थात् सुनामी सबसे अधिक विनाशकारी आपदा है। सुनामी जापानी मूल का शब्द है जो दो शब्दों सु (बन्दरगाह) और ‘नामी’ (लहर) से बना है अर्थात् सुनामी का अर्थ है—बन्दरगाह की ओर आने वाली समुद्री लहरें। इन लहरों की ऊँचाई 15 मीटर या उससे अधिक होती है । और ये तट के आस-पास की बस्तियों को तबाह कर देती हैं। सुनामी लहरों के कहर से पूरे विश्व में हजारों लोगों के काल-कवलित होने की घटनाएँ इतिहास में दर्ज हैं। भारत तथा उसके निकट समुद्री द्वीपीय देश श्रीलंका, थाईलैण्ड, मलेशिया, बांग्लादेश, मालदीव, म्यांमार आदि में 26 दिसम्बर, 2004 को इसी प्रलयकारी सुनामी ने करोड़ों की सम्पत्ति का विनाश कर लाखों लोगों को काल का ग्रास बनाया था।

समुद्री लहरों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण तथ्य

  1.  सुनामी लहरें अत्यधिक शक्तिशाली होती हैं। इनकी भयावह शक्ति से कई टन वजन की विशाल चट्टान, नौका तथा अन्य प्रकार का मलबा मुख्य भूमि में कई मीटर अन्दर पॅस जाता है।
  2. तटवर्ती मैदानी इलाकों में सुनामी की गति 50 किमी प्रति घण्टा हो सकती है।
  3. कुछ सुनामी लहरों की गति वृहदाकार होती है। तटीय क्षेत्रों में इनकी ऊँचाई 10 से 30 मीटर तक हो सकती है।
  4. समुद्री लहरें एक के बाद एक आती रहती हैं। प्रायः पहली लहर इतनी विशाल नहीं होती। पहली लहर आने के बाद कई घण्टों तक आने वाली लहरों का खतरा बना रहता है। कभी-कभी समुद्री लहरों के कारण समुद्र तट का पानी घट जाता है और समुद्र तल नजर आने लगता है। इसे प्रकृति | की ओर से सुनामी आने की चेतावनी समझना चाहिए।
  5. ये लहरें दिन या रात में कभी भी आ सकती हैं। जलधाराओं या समुद्रों में मिलने वाली नदियों में प्रवेश करने पर सुनामी लहरें उफान पैदा कर देती हैं।
  6. भूकम्प के कारण उत्पन्न समुद्री लहरें कई सौ किलोमीटर प्रति घण्टा की रफ्तार से तट की ओर दौड़ती हैं और भूकम्प आने के कई घण्टों बाद ही तट तक पहुँचती हैं।
  7. गहरे समुद्र में सुनामी लहरों की उत्पत्ति के समय समुद्र में कोई हलचल न होने के कारण ये दिखाई नहीं देतीं। उत्पत्ति के समय इन लहरों की लम्बाई 100 किमी तक होने के बावजूद बीच समुद्र में ये लहरें बहुत ऊँची नहीं उठतीं और कई सौ किमी की रफ्तार से दौड़ती हैं।

सुनामी लहरें अपनी इसी विशाल ऊर्जा के कारण बड़ी तेज रफ्तार से सागर तक पहुँचने में सक्षम होती हैं। इनकी रफ्तार समुद्र की गहराई के साथ बढ़ती जाती है, जबकि उथले सागर में रफ्तार कम होती है। यही कारण है कि समुद्र तट के पास पहुँचने पर सागर की गहराई अचानक कम होने पर लहरों की रफ्तार कम हो जाती है, परन्तु पीछे से तेजी से आती लहरें एक के ऊपर एक सवार होकर लहरों की ऊँची दीवार बना देती हैं। इसी ऊँचाई और ऊर्जा का घातक मेल सागर तटों पर तबाही का कारण बनता है।

प्रश्न 6. सुनामी लहरों की उत्पत्ति क्यों होती है? इनसे प्रभावित क्षेत्र बताइए।
उत्तर-सुनामी लहरों की उत्पत्ति के कारण
विनाशकारी समुद्री लहरों (सुनामी) की उत्पत्ति भूकम्प, भू-स्खलन तथा ज्वालामुखी विस्फोटों का परिणाम है। हाल के वर्षों के किसी बड़े क्षुद्रग्रह (उल्कापात) के समुद्र में गिरने को भी समुद्री लहरों का कारण माना जाता है। वास्तव में, समुद्री लहरें इसी तरह उत्पन्न होती हैं, जैसे तालाब में कंकड़ फेंकने से गोलाकार लहरें किनारों की ओर बढ़ती हैं। मूल रूप से इन लहरों की उत्पत्ति में सागरीय जल का बड़े पैमाने पर विस्थापन ही प्रमुख कारण है। भूकम्प या भू-स्खलन के कारण जब कभी भी सागर की तलहटी में कोई बड़ा परिवर्तन आता है या हलचल होती है तो उसे स्थान देने के लिए उतना ही ज्यादा समुद्री जल अपने स्थान से हट जाता है (विस्थापित हो जाता है) और लहरों के रूप में किनारों की ओर चला जाता है। यही जल ऊर्जा के कारण लहरों में परिवर्तित होकर ‘सुनामी लहरें” कहलाता है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि समुद्री लहरें सागर में आए बदलाव को सन्तुलित करने का प्राकृतिक प्रयास मात्र हैं।

पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक इन समुद्री लहरों को ‘भूगर्भिक बम’ कहते हैं। सन् 1949 में ला–पाल्का आइलैण्ड के उत्तरी तटीय भाग में एक ज्वालामुखी विस्फोट हुआ था। यह विस्फोट इतनी तीव्र था कि ज्वालामुखी बीच से ही आधा चिटक गया था, किन्तु यह चिटका हुआ भागे समुद्री में नहीं गिरा था अन्यथा वहाँ भी अकल्पनीय विनाशकारी समुद्री लहरें उत्पन्न हो सकती थीं। अब वैज्ञानिकों का मानना है। कि जब भी यह ज्वालामुखी जाग्रत होगा तब 50 अरब टन का ज्वालामुखी का चिटका हुआ आधा हिस्सा अटलाण्टिक महासागर में गिरकर विनाशकारी समुद्री लहरें उत्पन्न कर देगा। समुद्री लहरों से यद्यपि प्रशान्त महासागर के तटीय भाग सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र हैं, परन्तु अटलाण्टिक एवं हिन्द महासागर में भी तटवर्ती भूकम्प एवं ज्वालामुखी मेखलाओं में सुनामी लहरों को कहर होता रहता है।

सुनामी प्रभावित क्षेत्र ।

यद्यपि विश्व के सभी समुद्री तटवर्ती क्षेत्रों को सुनामी प्रभावित क्षेत्रों के अन्तर्गत रखा जा सकता है, किन्तु भूकम्प संवेदनशील क्षेत्र सुनामी की दृष्टि से अधिक प्रभावशाली होते हैं। विश्व में प्रशान्त महासागर तटवर्ती क्षेत्र, जहाँ भूकम्प आने की सम्भावनाएँ अधिक विद्यमान हैं, में सुनामी का सर्वाधिक जोर रहता है। यह भाग भूकम्प और ज्वालामुखियों की सर्वप्रमुख मेखलाओं से घिरा है। यहाँ प्रतिवर्ष लगभग दो बार सुनामी का प्रकोप हो जाता है। अत: प्रशान्त महासागरीय तट पर, जिसमें अलास्का, जापान, फिलिपीन्स, दक्षिण-पूर्व एशिया के दूसरे द्वीप इण्डोनेशिया और मलेशिया तथा हिन्द महासागर में म्यांमार, श्रीलंका और भारत के तटीय भाग सुनामी प्रभावित मुख्य क्षेत्र हैं।

प्रश्न 7. भू-स्खलन क्या है? इसके लिए उत्तरदायी कारक कौन-कौन से हैं? भारत में इसके प्रभाव
एवं प्रभावित क्षेत्रों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-भू-स्खलन का अर्थ, प्रभाव एवं प्रभावित क्षेत्र ।
पर्वतीय ढालों का कोई भाग जब जल तत्त्व भार की अधिकता एवं आधार चट्टानों के कटाव के कारण अपनी गुरुत्वीय स्थिति से असन्तुलित होकर अचानक तीव्रता के साथ सम्पूर्ण अथवा विच्छेदित खण्डों के रूप में गिरने लगता है तो यह घटना भू-स्खलन कहलाती है। भू-स्खलन प्रायः तीव्र गति से आकस्मिक उत्पन्न होने वाली प्राकृतिक आपदा है। भौतिक क्षति और जन-हानि इसके दो प्रमुख दुष्प्रभाव हैं। भू-स्खलन अपने मार्ग में आने वाले प्रत्येक पदार्थ-मानव बस्तियों, खेत-खलियान, सड़क आदि सभी को नष्ट कर देता है। भू-स्खलन से नदी मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं जिससे नदी के ऊपरी भाग में बाढ़ आ जाती है। कभी-कभी किसी क्षेत्र में बड़ी झील बन जाती है जिसके टूटने पर त्वरित बाढ़ से भारी तबाही होती है। भू-स्खलन मानव समुदाय पर कहर बरसाने वाली प्रकृतिक आपदा है। भारत में इस आपदा का रौद्र रूप हिमालय पर्वतीय प्रदेश एवं पश्चिमी घाट में बरसात के दिनों में अधिक देखा जाता है। वस्तुतः हिमालय प्रदेश युवावलित पर्वतों से बना है, जो विवर्तनिक दृष्टि से अत्यन्त अस्थिर एवं संवेदनशील भू-भाग है। यहाँ की भूगर्भिक संरचना भूकम्पीय तरंगों से प्रभावित होती रहती है। इसलिए यहाँ भू-स्खलन की घटनाएँ अधिक होती रहती हैं।
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 26

भू-स्खलन के लिए उत्तरदायी कारक

भू-स्खलन के लिए कई प्राकृतिक एवं मानवीय कारक उत्तरदायी होते हैं। इन कारकों की गहनता ही भू-स्खलन की तीव्र उत्पत्ति के कारणों को प्रभावी बनाती है। सामान्यतः भू-स्खलन के लिए निम्नलिखित कारक अधिक उत्तरदायी माने जाते हैं—
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 4

प्रश्न 8. उत्तराखण्ड राज्य के भूस्खलन सुभेद्य क्षेत्रों का वर्णन कीजिए तथा इसकी क्षति के न्यूनीकरण की युक्तियाँ बताइए।
उत्तर-उत्तराखण्ड के भूस्खलन सुभेद्य क्षेत्र
उत्तराखण्ड राज्य का भू-स्खलन प्रभावशाली की दृष्टि से विश्व में चौथा स्थान है। यहाँ लगभग 1200 से अधिक गाँवों को भू-स्खलन सुभेद्य क्षेत्र में सम्मिलित किया गया है। हैदराबाद स्थित सुदूर संवेदन संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार इनमें से अधिकांश गाँव ऋषिकेश-बद्रीनाथ-गंगोत्री-केदारनाथ मार्ग पर स्थिति हैं। एन०आर०एस० के लैण्ड हेजार्ड जोनेशन मानचित्र के आधार पर अलकनन्दा घाटी में 137, गंगा-अलकनन्दा घाटी में 24, गंगा-चन्द्रप्रभा घाटी में 25, गंगा घाटी में 21 तथा बेतसुथी नदी के निकट 23 गाँव संवेदनशील हैं। रुद्रप्रयाग-ऊखीमठ-केदारनाथ क्षेत्र के 60 तथा पिथौरागढ़-मालपा मार्ग के 13 गाँव अति संवेदनशील बताए गए हैं। राज्य के आपदा प्रबन्धन एवं न्यूनीकरण केन्द्र के अनुसार भी ऋषिकेश-बद्रीनाथ मार्ग पर लगभग 600, रुद्रप्रयाग-ऊखीमठ-केदारनाथ मार्ग पर 200, पिथौरागढ़-मालपा मार्ग पर 150 तथा उत्तरकाशी-गंगोत्री मार्ग पर 275 गाँव भू-स्खलन सुभेद्य क्षेत्र में सम्मिलित हैं।

न्यूनीकरण की युक्तियाँ
भूस्खलन के न्यूनीकरण हेतु निम्नलिखित युक्तियाँ महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकती हैं।

1. नियोजित भूमि उपयोग–नियोजित भूमि उपयोग भू-स्खलन न्यूनीकरण की महत्त्वपूर्ण युक्ति है। इसके अन्तर्गत विभिन्न कार्यों के लिए उपयुक्त भूमि का चुनाव सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। यदि मकानों का निर्माण सुरक्षित स्थानों पर किया जाए तथा वनस्पति के लिए निर्धारित अनुपात में भूमि का उपयोग हो तो भू-स्खलन का जोखिम कम हो जाता है।

2. प्रतिधारण दीवारों का निर्माण-भू-स्खलन प्रभावित क्षेत्रों में सड़कों के किनारे तीव्र ढाल को रोकने के लिए विशेष प्रकार की प्रतिधारण दीवारों का निर्माण किया जाता है। रेल लाइनों के लिए बनाई गई सुरंग तथा मार्ग के किनारे काफी दूर तक इन दीवारों को बनाने से पर्वतीय ढाल से आने वाले मलबे को रोका जा सकता है।

3. स्थलीय जल प्रवाह को नियन्त्रित करना-वर्षा तथा अन्य स्रोतों से बहने वाले जल के निकास की उचित व्यवस्था करने से जल तत्त्व चट्टानों पर अपना दबाव नहीं बनाता है। इसीलिए आधार चट्टानें सुरक्षित रहती हैं, जिससे भू-स्खलन की सम्भावनाओं में कमी आती है।

4. इन्जीनियरी संरचना–कुशल अभियन्ताओं द्वारा निर्धारित मानकों के आधार पर भवनों की संरचनाएँ अधिक टिकाऊ होती हैं। अतः भू-स्खलन सम्भावित क्षेत्रों में कुशल इंजीनियरों के मार्गदर्शन में ही भवनों का निर्माण किया जाना उपयुक्त है।

5. वनस्पति आवरण-भू-स्खलन को नियन्त्रित एवं न्यूनतम करने में वनस्पति आवरण सबसे सरल और सस्ता उपाय है। इसके द्वारा चट्टानों को सुरक्षा कवच प्राप्त होता है तथा चट्टानें जल तत्त्व के प्रभाव से मुक्त रहकर भू-स्खलन से प्रेरित नहीं होती हैं।

प्रश्न 9. बाढ़ तबाही से आप क्या समझते हैं। इसके उत्पन्न होने के क्या कारण हैं? भारत के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-बाढ़ का सामान्य अर्थ स्थलीय भाग का कई दिनों तक जलमग्न होना है। सामान्य तौर पर बाढ़ की स्थिति उस समय उत्पन्न होती है जब जल नदी के किनारों के ऊपर प्रवाहित होते हुए विस्तृत क्षेत्र में फैल जाता है। वास्तव में, बाढ़ प्राकृतिक पर्यावरण की एक विशेषता है जिसे जलीय-चक्र का संघटक माना जाता है, किन्तु जब वह लगातार तीव्र गति से कई दिनों तक बनी रहती है तो इसी प्रक्रिया को बाढ़ तबाही या बाढ़ आपदा कहा जाता है।

बाढ़ प्रकोप के कारण

यद्यपि बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है जिसके लिए कई प्राकृतिक कारण उत्तरदायी हैं, किन्तु वर्तमान में उन कारकों को उत्तेजित करने में मानवीय कारकों का विशेष योगदान है। अतः बाढ़ प्राकृतिक एवं मानवजनित कारकों का सम्मिलित परिणाम है। संक्षेप में इन कारणों का वर्णन निम्नांकित है

1. अत्यर्थिक वर्षा-लम्बी अवधि तक घनघोर वर्षा का होना नदियों की बाढ़ के लिए सर्वप्रथम कारक है। नदियों के ऊपरी जल-ग्रहण क्षेत्रों में घनघोर वर्षा के कारण निचले भागों में जल के आयतन में आकस्मिक वृद्धि हो जाती है, जिस कारण नदियों में अपार जलराशि प्रवाहित होकर आस-पास के क्षेत्रों को जलमग्न कर देती है।

2. पर्यावरण हास-मानव द्वारा प्रकृति के कार्यों में अत्यधिक हस्तक्षेप के कारण पर्यावरण ह्रास या विनाश की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है, जो बाढ़ का प्रमुख कारण बनता जा रहा है। नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों तथा अन्य सभी भागों में तेजी से वन-विनाश हो रहा है। इसलिए भूमि कटाव अधिक होता है। जो नदियों के तल को ऊँचा कर देता है। अत: वर्षा के समय जल नदी के किनारों से बाहर आकर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न कर देता है।

3. भू-स्खलन-पर्वतीय क्षेत्रों में भू-स्खलन होने से नदी का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है तथा बड़े-बड़े जलाशय बन जाते हैं। जब कभी अनाचक जलाशय टूटते हैं या नदी का मार्ग खुलता है तो • प्रलयकारी बाढ़ आ जाती है। इस प्रकार की बाढ़ का वेग इतना तीव्र होता है कि वह बड़ी-से-बड़ी बस्ती का अस्तित्व समाप्त कर देती है। उत्तराखण्ड की गंगा घाटी में 1978 में डबरानी तथा 1992 में गंगवाड़ी में इसी कारण बाढ़ आई थी।

4. बाँध या तटबन्ध का टूटना-कभी-कभी अचानक बाँध या नदी के तटबन्ध टूट जाते हैं जिससे प्रचण्ड बाढ़ आ जाती है। 1984 में पूर्वी कोसी नदी का तटबन्ध टूटने के कारण ही बाढ़ की भयावह स्थिति उत्पन्न हुई थी।

5. नगरीकरण-बढ़ता अनियोजित नगरीकरण मानवजनित बाढ़ आपदा का प्रमुख कारण है। नगरीकरण के परिणामस्वरूप भूमि अभाव के कारण निम्न भूमि क्षेत्रों के उपयोग से बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

बाढ़ प्रभावित क्षेत्र

विश्व में बांग्लादेश के बाद भारत सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित देश है। भारत में बिहार, पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा असम को प्रतिवर्ष बाढ़ का सामना करना पड़ता है। ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश एवं तेलंगाना, राजस्थान व पंजाब को भी कभी-कभी बाढ़ का सामना करना पड़ता है। पर्यावरण में आए परिवर्तनों के कारण तो राजस्थान के मरुस्थलीय क्षेत्रों को विगत कुछ वर्षों से बाढ़ का सामना करना पड़ रहा है। देश के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

1. प्रमुख बाढ़ प्रभावित क्षेत्र—भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में गंगा की द्रोणी, असम में ब्रह्मपुत्र की द्रोणी तथा ओडिशा में वैतरणी, ब्राह्मणी और स्वर्ण रेखा नदियों की द्रोणियाँ भारत के सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित क्षेत्र हैं (चित्र में देखें)। देश की कुल बाढ़ आपदा की लगभग 60% हानि केवल गंगा के जल-प्रवाह क्षेत्रों में होती है। पश्चिम बंगाल, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रतिवर्ष बाढ़ आपदा से सर्वाधिक हानि होती है।
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 5
2. गौण बाढ़ प्रभावित क्षेत्र देश के सामान्य बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में तेलंगाना, आन्ध्र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, गुजरात और राजस्थान राज्य आते हैं। इन राज्यों में 1976-77 के बीच बाढ़ आपदा में देश की कुल बाढ़ क्षति का आधा हिस्सा थी। 1993 की बाढ़ द्वारा पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में 423 व्यक्तियों की मृत्यु तथा लगभग 20 हजार पशु-सम्पदा क्षतिग्रस्त हो गई थी।

प्रश्न 10. भारत में चक्रवात प्रभावित क्षेत्रों मुंख्य वाओं का उल्लेख कीजिए तथा इस आपदा से सुरक्षा के उपाय बताइए।
उत्तर-भारत में, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश एवं तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र तथा गुजरात राज्यों के तटीय क्षेत्र चक्रवात प्रभावित क्षेत्र हैं (चित्र)।

UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 6

भारत विश्व के उन 6 प्रमुख क्षेत्रों में सम्मिलित है जहाँ प्रतिवर्ष उष्ण कटिबंधीय चक्रवात आते हैं। यद्यपि 1999 के चक्रवात को सुपर साइक्लोन कहा जाता है। इस चक्रवात की गति 250 किमी प्रति घण्टा थी। ओडिशा राज्य में करोड़ों की सम्पत्ति नष्ट हो गई थी तथा हजारों की संख्या में लोग काल के ग्रास बन गए थे, किन्तु भारत के आपदा इतिहास के इसके अतिरिक्त भी अन्य अनेक विनाशकारी चक्रवाती तूफानों का आगमन होता रहा है। आन्ध्र प्रदेश के समुद्रतटीय भाग पर 9 मई, 1990 को आया चक्रवात, सन् 1977 के विनाशंकारी चक्रवाते की अपेक्षा लगभग 25 गुना अधिक शक्तिशाली था। इसमें 1000 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई थी तथा लगभग 30 लाख लोग बेघर हो गए थे। भारत में चक्रवाती तूफानों के कारण मृत व्यक्तियों का ऐतिहासिक परिदृश्य तालिका से स्पष्ट होता है जिसमें 1737 से 1999 तक मानवे क्षति को दर्शाया गया है

UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 7

चक्रवाती आपदा से सुरक्षा के महत्त्वपूर्ण उपाय निम्नलिखित हैं
1. मजबूत एवं ऊँचे मकानों का निर्माण-चक्रवाती तूफानों से प्रभावित समुद्रतटीय क्षेत्रों में फूस की | छतों वाले या कमजोर मकान बनाने पर प्रतिबन्ध होना चाहिए। इसके स्थान पर निर्धारित मानक वाले तकनीकी विशेषज्ञों द्वारा सुझाई विधियों के आधार पर ही मकान बनाने की अनुमति होनी चाहिए। इन क्षेत्रों में ऊँचे टीलों या बल्लियों (मचान) पर घर बनानी अधिक सुरक्षित होता है। चक्रवाती तूफानों से तेज गतिं वाली हवाएँ और समुद्री लहरें उठती रहती हैं जिससे तटीय क्षेत्र जलमग्न हो जाते हैं। अतः आवास-स्थल का चयन अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना अत्यन्त
आवश्यक है। चक्रवात सम्भावित क्षेत्रों में नक्शे के आधार पर ठोस आधार वाली सन्तुलित इमारतें | सर्वाधिक सुरक्षित रहती हैं।

2. चक्रवातरोधी ढाँचों का निर्माण-हवाओं और मूसलाधार वर्षा के वेग को झेल सकने के लिए समुद्रतटीय भागों में चक्रवातरोधी ढाँचों का निर्माण किया जाना चाहिए। ये ढाँचे निर्धन जनता द्वारा नहीं बनाए जा सकते। इसलिए सरकार द्वारा इन्हें बनाने में विशेष आर्थिक सहयोग प्रदान किया जाना चाहिए।

3. शरणस्थलों का विकास-चक्रवाते सम्भावित क्षेत्रों में सरकार को चक्रवात शरणस्थलों की | व्यवस्था करनी चाहिए। ओडिशा तथा आन्ध्र प्रदेश राज्यों को इस प्रकार के शरणस्थलों के विकास | पर पर्याप्त ध्यान देने की आवश्यकता है।

4. विशेष प्रकार के वृक्षों की हरित पटेर्यों का विस्तार-चक्रवातों और पवनों के वेग को कम | करने की सबसे कारगर रणनीति ऐसे विशेष पेड़ लगाए जाना है, जिनकी जड़े मजबूत तथा पत्तियाँ सुई जैसी हों। इन पेड़ों को उखड़ने से बचाने के लिए उनके चारों ओर बाड़े लगाई जानी चाहिए। वृक्षों की ऐसी हरित पट्टियाँ पूरे तटीय क्षेत्र में बनाई जानी चाहिए।

मानचित्र कार्य

मानचित्र-1
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 8

मानचित्र-2
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 9

मानचित्र-3
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 10

मानचित्र-4
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 11

मानचित्र-5
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 12

मानचित्र-6
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 13

मानचित्र-7
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 14

मानचित्र-8
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 15

मानचित्र-9
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 16

मानचित्र-10
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 17

मानचित्र-11
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 18

मानचित्र-12
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 19

मानचित्र-13
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 20

मानचित्र-14
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 21

मानचित्र-15
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 22

मानचित्र-16
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 23

मानचित्र-17
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 24

मानचित्र-18
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 25

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 6 Soils

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 6 Soils (मृदा)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 6 Soils (मृदा)

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

बहुवैकल्पिक प्रश्न
प्रश्न 1. नीचे दिए गए प्रश्नो के सही उत्तर का चयन करें
(i) मृदा का सर्वाधिक व्यापक और सर्वाधिक उपजाऊ प्रकार कौन-सा है?
(क) जलोढ़ मृदा
(ख) काली मृदा
(ग) लैटेराइट मृदा
(घ) वन मृदा
उत्तर-(क) जलोढ़ मृदा।

(ii) रेगुर मृदा का दूसरा नाम है
(क) लवण मृदा
(ख) शुष्क मृदा
(ग) काली मृदा
(घ) लैटेराइट मृदा
उत्तर-(ग) काली मृदा।।

(iii) भारत में मृदा के ऊपरी पर्त हास का मुख्य कारण है
(क) वायु अपरदन ।
(ख) अत्यधिक निक्षालन
(ग) जल अपरदने ,
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-(ग) जल अपरदन।

(iv) भारत में सिंचित क्षेत्रों में कृषि योग्य भूमि निम्नलिखित में से किस कारण से लवणीय हो रही हैं?
(क) जिप्सम की बढ़ोतरी
(ख) अति सिंचाई
(ग) अति चारण
(घ) रासायनिक खादों का उपयोग
उत्तर-(ख) अति सिंचाई।

प्रश्न 2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए
(i) मृदा क्या है?
उत्तर–पृथ्वी के धरातल पर अपक्षय और विघटन के कारकों के माध्यम से चट्टानों और जैव पदार्थों के संयोग से बनी असंघनित पदार्थों की ऊपरी परत मृदा कहलाती है।

(ii) मृदा-निर्माण के प्रमुख उत्तरदायी कारक कौन-से हैं?
उत्तर-मृदा-निर्माण एक दीर्घ अवधि की प्राकृतिक प्रक्रिया है। इसके निर्माण में सहयोगी कारक निम्नलिखित हैं(i) मूल जनक चट्टानें, (ii) उच्चावच, (iii) जलवायु, (iv) वनस्पति एवं जैव अवशेष, (v) अपवाह तन्त्र, (vi) समय या अवधि।।

(iii) मृदा परिच्छेदिका के तीन संस्तरों के नामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-मृदा परिच्छेदिका के तीन संस्तरों के नाम निम्नलिखित हैं
1. ‘क’ संस्तर या सबसे ऊपरी जलोढ़ संस्तर–यह सबसे ऊपरी खण्ड होता है, जहाँ पौधों की | वृद्धि के लिए अनिवार्य जैव पदार्थों का खनिज पदार्थ, पोषक तत्त्वों का जल से संयोग होता है।

2. ‘ख’ संस्तर या अत्यधिक निक्षालित स्तर—यह संस्तर ‘क’ संस्तर एवं ‘ग’ संस्तर के मध्य संक्रमण खण्ड होता है, जिसे नीचे व ऊपर दोनों से पदार्थ प्राप्त होते हैं।

3. ‘ग’ संस्तर या अपेक्षाकृत कम निक्षालित संस्तर—इस संस्तर की रचना ढीली जनक सामग्री से होती है। यह परत मृदा निर्माण की प्रक्रिया में प्रथम अवस्था होती है और अन्ततः ऊपर की दो परतें इसी से बनती हैं।

(iv) मृदा अवकर्षण क्या होता है?
उत्तर-सामान्यतः मृदा अवकर्षण को मृदा की उर्वरता के ह्रास के रूप में परिभाषित किया जाता है। इस दशा में मिट्टी का पोषण स्तर गिर जाता है तथा अपरदन और दुरुपयोग के कारण मृदा की गहराई कम हो। जाती है। मृदा अवकर्षण की दर भू-आकृति, पवनों की गति तथा वर्षा की मात्रा के अनुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर भिन्न होती है।

(v) खादर और बांगर में क्या अन्तर है?
उत्तर-खादर और बांगर में अन्तर खादर
UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 6 Soils (मृदा) img 1

प्रश्न 3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 125 शब्दों में दीजिए
(i) काली मृदाएँ किन्हें कहते हैं? इनके निर्माण तथा विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-गाढ़े काले और स्लेटी रंग की वह मृदा जिसमें चूने, लौह, मैग्नीशिया तथा ऐलुमिना के तत्त्व की प्रधानता होती है, काली मिट्टी कहलाती है। इस मृदा को रेगुरे या कपास मृदा भी कहते हैं। काली मृदा का निर्माण ज्वालामुखी प्रक्रिया के दौरान होता है। भारत में दकन पठार के निर्माण के समय ज्वालामुखी द्वारा निस्सृत लावा पदार्थ पर अपक्षय एवं विघटन के फलस्वरूप काली मृदा का निर्माण हुआ है।।

आमतौर पर काली मृदाएँ मृण्मय, गहरी और अपारगम्य होती हैं। ये गीली होने पर फूल जाती हैं और चिपचिपी हो जाती हैं। सूखने पर ये सिकुड़ जाती हैं। इस प्रकार शुष्क ऋतु में काली मृदा में चौड़ी दरारें पड़ जाती हैं। नमी के धीमे अवशोषण और नमी के क्षय की विशेषता के कारण काली मृदा में दीर्घकाल तक नमी बनी रहती है। इसी कारण काली मृदा में वर्षाधीन फसलों को शुष्क ऋतु में भी नमी मिलती रहती है और वे फलती-फूलती रहती हैं।

(ii) मृदा संरक्षण क्या होता है? मृदा संरक्षण के कुछ उपाय सुझाइए।
उत्तर-मृदा संरक्षण ।

मृदा संरक्षण एक विधि है, जिसमें मिट्टी की उर्वरता बनाए रखी जाती है। इसमें मिट्टी के अपरदन और क्षय रोका जाता है और मिट्टी की निम्नीकृत दशाओं में सुधार लाया जाता है।

मृदा संरक्षण के उपाय

मृदा अपरदन और मृदा क्षरण प्रकृति के अतिरिक्त मानवीय प्रक्रियाओं द्वारा अधिक होता है; अंतः मानव द्वारा इसे रोकना सम्भव है। मृदा संरक्षण हेतु निम्नलिखित उपाय कारगर सिद्ध हो सकते हैं

1. ढालयुक्त भूमि पर कृषि कार्य नहीं किया जाना चाहिए। प्राय: 15 से 25 प्रतिशत ढाल प्रवणता वाली भूमि का उपयोग कृषि कार्य में करने से मिट्टी के कटाव में वृद्धि होती है। अतः ऐसी भूमि पर यदि कृषि कार्य आवश्यक हो तो केवल सीढ़ीदार खेतों में ही कृषि कार्य करना चाहिए।

2. भारत के विभिन्न भागों में अति चराई और स्थानान्तरी कृषि से भूमि का प्राकृतिक आवरण दुष्प्रभावित होता है जिससे विस्तृत क्षेत्र अपरदन की चपेट में आ जाता है। अत: ग्रामवासियों को
इसके दुष्परिणामों से अवगत कराना चाहिए तथा इन्हें चराई और स्थानान्तरी कृषि को रोकने के लिए प्रेरित करना चाहिए।

3. समोच्च रेखाओ के अनुसार खेतों की मेड़बन्दी, जुताई, सीढ़ीदार खेतों में कृषि नियमित वानिकी, नियन्त्रित चराई, मिश्रित खेती तथा शस्यावर्तन आदि उपाय भी मृदा संरक्षण के लिए उपयोगी हैं।

4. बड़ी अवनालिकाओं में जल की अपरदनात्मक तीव्रता को कम करने के लिए रोक बाँधों की श्रृंखला बनानी चाहिए।

5. शुष्क कृषि योग्य भूमि पर बालू के टीलों के प्रसार को वृक्षों की रक्षक मेखला बनाकर तथा वन्य कृषि करके रोकने का प्रयास किया जाना चाहिए।

6. मृदा संरक्षण का सर्वोत्तम उपाय भूमि उपयोग की समन्वित योजनाएँ ही हो सकती हैं। भूमि का उसकी क्षमता के आधार पर वर्गीकरण और उपयोग मृदा संरक्षण में महत्त्वपूर्ण उपाय है।

(iii) आप यह कैसे जानेंगे कि कोई मृदा उर्वर है या नहीं? प्राकृतिक रूप से निर्धारित उर्वरता और मानवकृत उर्वरता में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर–उर्वरता मिट्टी का विशेष गुण है। ऐसी मिट्टी जिसमें नमी और जीवांश उपलब्ध होते हैं, उर्वर होती है। इसका पता मृदा में खेती की पैदावार से होता है। जिस मृदा में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध तत्त्वों के होते हुए बिना किसी मानवीय प्रयास के अच्छी कृषि पैदावार प्राप्त होती है उस मिट्टी को उर्वर मृदा माना जाता है, किन्तु यदि पैदावार प्राप्त नहीं होती तो उस मृदा को अनुर्वर मृदा कहा जाता है।

प्राकृतिक रूप से निर्धारित उर्वरता में रासायनिक खाद या कम्पोस्ट खाद डालने की आवश्यकता नहीं होती, जबकि मानवकृत उर्वरता के अन्तर्गत तब तक अच्छी कृषि पैदावार सम्भव नहीं है जब तक उस मृदा का रासायनिक परीक्षण करके उसमें पर्याप्त मात्रा में व निश्चित अनुपात में रासांयनिक उर्वरकों का प्रयोग न किया जाए। अतः प्राकृतिक उर्वरता और मानवकृत उर्वरता में यही अन्तर है कि प्राकृतिक उर्वरक मृदा बिना किसी रासायनिक उपचार के अच्छी कृषि पैदावार देती है, जबकि मानवकृत उर्वरता को मृदा में रासायनिक उपचार के उपरान्त कुछ समय तक स्थायी रखकर कृषि पैदावार प्राप्त की जाती है। इस प्रकार प्राकृतिक उर्वरता स्थायी होती है, जबकि मानवकृत उर्वरता स्थायी नहीं होती है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर ||

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. कपास, चावल, गन्ना, ज्वार, बाजरा, मूंगफली, तम्बाकू के लिए सबसे उपयुक्त मिट्टी है
(क) काली मिट्टी
(ख) लैटेराइट मिट्टी
(ग) काँप मिट्टी
(घ) लाल व पीली मिट्टी
उत्तर-(क) काली मिट्टी।

प्रश्न 2. कौन-सी मिट्टी सूखने पर चटकती है?
(क) लाल मिट्टी
(ख) काली मिट्टी
(ग) लैटेराइट मिट्टी
(घ) काँप मिट्टी
उत्तर-(ख) काली मिट्टी।

प्रश्न 3. निम्नलिखित में किस घाटी में काली मिट्टी पायी जाती है?
(क) तापी घाटी
(ख) गंगा घाटी
(ग) नर्मदा घाटी
(घ) गोदावरी घाटी
उत्तर-(ग) नर्मदा घांटी।

प्रश्न 4. कपास की मिट्टी किसे कहा जाता है?
(क) जलोढ़ मिट्टी को
(ख) लैटेराइट मिट्टी को
(ग) लाल मिट्टी को
(घ) काली मिट्टी को ।
उत्तर-(घ) काली मिट्टी को।

प्रश्न 5. लैटेराइट मिट्टी में कौन-सी फसल पैदा होती है?
(क) चावल
(ख) गेहूँ
(ग) कपास
(घ) बागानी
उत्तर-(घ) बागानी।

प्रश्न 6. भारत में किस मिट्टी का सर्वाधिक विस्तार है?
या कौन-सी मिट्टी सबसे अधिक उपजाऊ है?
(क) जलोढ़
(ख) लाल
(ग) काली
(घ) लैटेराइट
उत्तर-(क) जलोढ़।

प्रश्न 7. भारत में काली मिट्टी का अधिकांश क्षेत्र स्थित है
(क) उत्तर प्रदेश में
(ख) राजस्थान में
(ग) बिहार में
(घ) महाराष्ट्र में
उत्तर-(घ) महाराष्ट्र में।

प्रश्न 8. किस मिट्टी के लिए दकन का पठार प्रमुख स्रोत है?
(क) लाल
(ख) जलोढ़
(ग) रेगर
(घ) लैटेराइट
उत्तर-(क) लाल।।

प्रश्न 9. निम्नलिखित में से किस राज्य में लैटेराइट मिट्टियाँ पायी जाती हैं?
(क) पंजाब
(ख) उत्तर प्रदेश
(ग) हिमाचल प्रदेश
(घ) मध्य प्रदेश
उत्तर-(घ) मध्य प्रदेश।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. भारत में पायी जाने वाली सबसे उत्तम मिट्टी का नाम बताइए।
उत्तर-नदियों द्वारा लायी जाने वाली जलोढ़, कछारी, दोमट भारत की सर्वोत्तम मिट्टियाँ हैं।।

प्रश्न 2. मरुस्थलीय या बलुई मिट्टी का क्षेत्र बताइए।
उत्तर-यह मिट्टी राजस्थान, पंजाब, हरियाणा के दक्षिणी भाग तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पायी जाती है।

प्रश्न 3. कौन-सी मिट्टी खेती के लिए अच्छी नहीं मानी जाती है?
उत्तर-लाल या पीली मिट्टी।।

प्रश्न 4. चाय की कृषि के लिए किस प्रकार की मिट्टी चाहिए?
उत्तर-जिस मिट्टी में लोहांश की मात्रा अधिक एवं चूने का अंश कम होता है वह चाय-उत्पादन के लिए सर्वोत्तम होती है।

प्रश्न 5. बांगर मिट्टी को और किस नाम से जानते हैं?
उत्तर–पुरातन काँप मिट्टी।

प्रश्न 6. विशाल मैदान के दक्षिण-पश्चिम में कैसी मिट्टी पायी जाती है?
उत्तर-मरुस्थलीय अथवा रेतीली मिट्टी।

प्रश्न 7. लाल या पीले रंग वाली मिट्टी का नाम बताइए।
उत्तर-लाल या पीले रंग वाली मिट्टी को लैटेराइट मिट्टी कहते हैं।

प्रश्न 8. लैटेराइट मिट्टी में किस प्रकार की कृषि होती है?
उत्तर-लैटेराइट मिट्टी में मोटे अनाज; जैसे-बाजरा, ज्वार, कपास, दालें आदि की कृषि होती है।

प्रश्न 9. काली मिट्टी की दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर-(1) काली मिट्टी में जल धारण करने की अधिक क्षमता होती है; अतः अधिक सिंचाई या वर्षा के कारण यह चिपचिपी हो जाती है तथा सूखने पर चटकती है।
(2) काली मिट्टी बहुत उर्वर होती है। इसमें कपास तथा गन्ने की खेती अच्छी होती है।

प्रश्न 10. काली मिट्टी पाये जाने वाले दो राज्यों के नाम बताइए।
उत्तर-(1) गुजरात तथा (2) महाराष्ट्र।

प्रश्न11. खादर मिट्टियाँ क्या हैं?
उत्तर–बाढ़ वाले क्षेत्रों में नदियों द्वारा वहाँ काँप मिट्टी बिछती रहती है जिसे खादर मिट्टी कहते हैं। यह मिट्टी रेतीली एवं कम कंकरीली होती है। इस मिट्टी में नमी धारण करने की शक्ति अधिक होती है।

प्रश्न 12. भारत में लैटेराइट मिट्टी के क्षेत्रों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-लैटेराइट मिट्टी कर्नाटक, केरल, राजमहल की पहाड़ियों, महाराष्ट्र के दक्षिणी भागों, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश, असोम तथा मेघालय के कुछ भागों में पायी जाती है।..

प्रश्न 13. भारत में काली मिट्टी के क्षेत्रों का वर्णन कीजिए।
उत्तर- भारत में काली मिट्टी के क्षेत्र हैं-गुना मध्य प्रदेश) से दक्षिण में बेलगाम (कर्नाटक) तक और पश्चिम में काठियावाड़ (गुजरात) से अमरकण्टक (मध्य प्रदेश) तक।

प्रश्न 14. प्रायद्वीपीय पठार की दो मिट्टियों के नाम लिखिए।
उतर-(1) काली मिट्टी तथा (2) लैटेराइट मिट्टी

प्रश्न 15. मिट्टी-निर्माण की प्रक्रिया बताइए।
उत्तर-मिट्टी का निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें प्राकृतिक वातावरण का प्रत्येक तत्त्व अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। अपक्षय एवं अपरदन के कारक भू-पृष्ठ की चट्टानों को चट्टानी चूर्ण बना देते हैं। इस चूर्ण में लम्बे समय तक वनस्पति एवं जीव-जन्तुओं के गले-सड़े अवशेष मिश्रित चट्टानी चूर्ण को उपजाऊ मिट्टी का रूप प्रदान करते हैं। यही तत्त्वं पेड़-पौधों को जीवन प्रदान करते हैं।

प्रश्न 16. मिट्टी के आवरण में भिन्नता उत्पन्न करने वाले प्रमुख घटकों के नाम लिखिए।
उत्तर-मिट्टी आवरण में भिन्नता उत्पन्न करने वाले प्रमुख घटक हैं-(i) मूल चट्टान या जनक पदार्थ, (ii) उच्चावच एवं जलप्रवाह, (iii) जलवायु, (iv) समय यो अवधि, (v) प्राकृतिक वनस्पति एवं जीव-जन्तु।

प्रश्न 17. मिट्टी अपक्षरण या मिट्टी अपरदन क्या है? इसके तीन प्रमुख साधन कौन-से हैं?
उत्तर-मिट्टी की ऊपरी परत या आवरण के नष्ट होने को ही मिट्टी (भूमि) अपक्षरण या अपरदन कहते हैं। भूमि अपक्षरण के तीन प्रमुख साधन निम्नलिखित हैं-(1) जल द्वारा मिट्टी अपरदन, (2) पवन द्वारा मिट्टी अपरदन तथा (3) हिम द्वारा मिट्टी अपरदन।।

प्रश्न 18. भूमि कटाव के दो कारणों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर–भारत की एक-चौथाई भूमि कटाव की समस्या से ग्रस्त है। राजस्थान राज्य इस समस्या से सर्वाधिक प्रभावित है। भूमि कटाव के दो कारण हैं—(1) मूसलाधार वर्षा तथा (2) वनों को तेजी से विनाश।

प्रश्न 19. बीहड़ किसे कहते हैं?
उत्तर-नदी द्रोणियों में अत्यधिक अपरदन से भूमि-क्षरण होता है। इस प्रकार की भूमि को बीहड़ कहते हैं। चम्बल नदी का बीहड़ इसका प्रसिद्ध उदाहरण है। यहाँ अवनालिका अपरदन के कारण भूमि-क्षरण अधिक होता है।

प्रश्न 20. थार मरुस्थल में अनुपजाऊ मिट्टी क्यों पाई जाती है?
उत्तर-थार मरुस्थल में वर्षा की कमी, शुष्कता, असंगठित शैल संरचना तथा लवणता की अधिकता के कारण मिट्टी अनुपजाऊ होती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. भारत में मिट्टी के अपरदन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।”
या टिप्पणी लिखिए–भारत में मिट्टी का कटाव।
उत्तर- भारत की एक-चौथाई भूमि अपरदन की समस्या से ग्रस्त है। वर्षा, नदी, जल, पवन आदि साधनों द्वारा जब भूमि की ऊपरी परत (मिट्टी) नष्ट हो जाती है तो उसे भूमि अपरदन कहते हैं। भूमि की ऊपरी परत में ही वनस्पतियाँ तथा फसलों के उगने के लिए आवश्यक पोषक तत्त्व उपस्थित रहते हैं। इस सतह के नष्ट हो जाने से भूमि की उर्वरा शक्ति भी नष्ट हो जाती है। इसलिए विद्वानों ने मिट्टी के अपरदन (कटाव) को ‘रेंगती हुई मृत्यु’ कहा है।

मिट्टी के कटाव के अनेक कारण हैं; जैसे—मूसलाधार वर्षा, बाढ़, अत्यधिक पशुचारण करना, वनों का विनाश तथा स्थानान्तरी खेती। वनों के विनाश से मिट्टी के कटाव की समस्या प्रतिदिन बढ़ रही है। स्थानान्तरी खेती से भी मिट्टी का कटाव बहुत होता है।

मिट्टी का कटाव दो प्रकार से होता है-जल द्वारा तथा वायु द्वारा। जब पहाड़ी ढालों या अन्य भूमि पर मूसलाधार वर्षा से मिट्टी की ऊपरी परत बह जाती है तब इसे ‘आवरण क्षय’ कहते हैं। वर्षाकाल में नदियों में बाढ़ आने से मिट्टी के किनारों की भूमि पर गहरी नालियाँ बन जाती हैं जिसे ‘अवनालिका अपरदन’ कहते हैं। मरुस्थलों तथा अर्द्ध-मरुस्थलों में वनस्पति का अभाव होने के कारण वायु निर्बाध रूप से चलती है। ग्रीष्म काल में विशेष रूप से रेत की आँधियाँ चलती हैं जो ढीली रेत या मिट्टी को उड़ाकर ले जाती हैं। इन दोनों प्रक्रियाओं द्वारा भारत की लाखों हेक्टेयर भूमि अपरदन का शिकार हो गयी है।

मिट्टी के अपरदन से प्रभावित प्रमुख क्षेत्र हिमालय के दक्षिणी ढाल (शिवालिक), उत्तर प्रदेश में गंगा, चम्बल तथा यमुना नदी के कछारी भाग, मध्य प्रदेश के चम्बल के कछारे, असोम में ब्रह्मपुत्र घाटी, दकन के पठार की लावी मिट्टी का क्षेत्र, तमिलनाडु के पहाड़ी क्षेत्र, राजस्थान के मरुस्थली जिले दक्षिणी-पश्चिमी हरियाणा आदि हैं।

प्रश्न 2. मिट्टी के कटाव के मुख्य कारण बताइए।
उत्तर-मिट्टी के कटाव के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  1. मूसलाधार वर्षा–अत्यन्त तीव्र गति से वर्षा होने पर भूमि जल को सोखने में असमर्थ रहती है, इस कारण भूमि की ऊपरी परत की मिट्टी कटकर जल के साथ बह जाती है।
  2. भूमि का तीव्र ढाल–अधिक ढालू भूमि पर मिट्टी का कटाव तेजी से होता है, इसी कारण मैदानों की अपेक्षा पर्वतीय क्षेत्रों में मिट्टी के कटाव की समस्या अधिक रहती है।
  3. वनों का तेजी से विनाश-वृक्षों की जड़े मिट्टी के कणों को बाँधकर रखती हैं। अतः अत्यधिक वन विनाश के कारण वनस्पतिविहीन भूमि कटावकारी शक्तियों से प्रभावित होती है।
  4. अनियन्त्रित पशुचारण-पशु चराई के कारण मिट्टी के. कण बिखर जाते हैं। पशुओं के खरं (पैर) भी मिट्टी के कणों को ढीला कर देते हैं। अत: पर्वतीय क्षेत्रों में ढाल वाली भूमि पर पशुचारण के कारण मिट्टी के कटाव में वृद्धि होती है।
  5. स्थानान्तरणशील कृषि–पर्वतीय क्षेत्रों में झूमिंग या स्थानान्तरणशील कृषि से वनों के विनाश में | तेजी से वृद्धि के कारण मिट्टी के कटाव में तीव्रता आई है।
  6. अनियन्त्रित जुताई-भूमि के ढाल के अनुरूप जुताई के कारण भी मिट्टी के कटाव में वृद्धि होती है।

प्रश्न 3. मिट्टी के कटाव को रोकने हेतु कृषिगत प्रमुख उपाय बताइए।
उत्तर-मिट्टी के कटाव को रोकने की प्रचलित विधियों में कृषिगत उपाय निम्नलिखित हैं

  •  हरी खादों का प्रयोग-भूमि की उर्वरता बढ़ाने से मिट्टी का कटाव कम होता है, क्योंकि हरी तथा कम्पोस्ट खाद से मिट्टी के कणों में संगठन शक्ति की वृद्धि होती है।
  • शस्यावर्तन-यदि एक खेत में एक फसल की खेती लगातार की जाए तो उसमें किसी विशेष तत्त्व की अत्यधिक कमी हो जाती है। अतः खेतों में फसलों को अदल-बदलकर बोना चाहिए, | इससे मिट्टी संरचना सन्तुलित रहती है तथा मिट्टी के कटाव की सम्भावना न्यूनतम रहती है।
  • समोच्च जुताई-यह विधि ढालूदार स्थानों में अपनाई जाती है। इसमें किसी ढलान के समकोण पर जुताई करके फसलें उगाई जाती हैं। इससे वर्षा के जल के बहाव में अवरोध उत्पन्न होता है । और मिट्टी का कटाव कम होता है।
  • वेदिकाकरण-यह विधि भी ढोलू क्षेत्र में अपनाई जाती है। इसमें किसी ढालू सतह पर सीढ़ीनुमा खेत बनाए जाते हैं। इससे वर्षा के जल के बहाव में रुकावट आ जाती है।
  • गहरी जुताई-मरुस्थलीय भागों में अधिक गहरी जुताई करनी चाहिए। इससे अपक्षालन क्रिया द्वारा जो आवश्यक तत्त्व नीचे चले जाते हैं, वे पुनः ऊपर आ जाते हैं।..
  • संरक्षी पेटियाँ लगाना-स्थान-स्थान पर ऐसे पौधों को उगाना चाहिए जो तेज हवा को रोककर मिट्टी के कटाव को कम कर सकें।
  • पट्टीदार कृषि-इस विधि में किसी पहाड़ी ढलान के किनारे सदावर्षी पौधे, बीच में वार्षिक तथा | द्विवर्षीय पौधे लगाए जाने चाहिए।

प्रश्न 4. मिट्टी का कटाव रोकने के लिए पशु चराई पर नियन्त्रण एवं वन क्षेत्र में विस्तार महत्त्वपूर्ण | उपाय हैं। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- मिट्टी कटाव रोकने हेतु पशु सम्बन्धी उपाय
1. चराई पर नियन्त्रण–पशुओं के अनियमित रूप से चरने पर प्रतिबन्ध होना चाहिए। पशुओं द्वारा घास के चरने से किसी भी स्थान की मिट्टी कठोर हो जाती है; अत: बीज अंकुरण के योग्य नहीं रहती। इसके अतिरिक्त जानवर छोटे-छोटे पौधों को रौंद डालते हैं, उनकी शाखाएँ तोड़ते हैं तथा अनेक पौधों को जड़ से उखाड़ देते हैं। नहरों के किनारे पर पशुओं के चरने पर प्रतिबन्ध हों। चाहिए, क्योंकि पशुओं के खुरों से उखड़ने वाली मिट्टी का तेजी से अपरदन हो जाता है।

2. चरागाहों का प्रबन्ध–पशुओं को चरने के लिए अलग से चरागाहों की व्यवस्था होनी चाहिए। ग्राम-समाज की खाली भूमि को चरागाहों में बदलकर उसमें उन्नत किस्म की घास बोनी चाहिए।

मिट्टी के कटाव रोकने हेतु वन सम्बन्धी उपाय,

1. वनों के कटान पर प्रतिबन्ध-मनुष्य अपनी दैनिक आवश्यकताओं (जैसे-रहने के लिए स्थान, फर्नीचर, ईंधन, कागज, दवाइयाँ आदि) की पूर्ति हेतु वनों को काटता जा रहा है। वनों के कटाव से किसी भी क्षेत्र की मिट्टी ढीली हो जाती है। मूसलाधार वर्षा बाढ़ लाती है और भूस्खलन भी होता है। वनों को काटने से समय पर वर्षा नहीं होती; अत: वनों के अनियमित रूप से कटान
पर प्रतिबन्ध होना चाहिए।

2. वृक्षारोपण तथा पुनः वनरोपण-वनों के काटने से पहले नए वनों की स्थापना करनी चाहिए, जिससे मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे। खाली स्थानों पर वृक्ष लगाए जाने चाहिए।
इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर ‘वन महोत्सव मनाया जाता है।

3. बालू के बन्धकों को उगाना-पौधों की जड़ों में किसी भी स्थान की मिट्टी को जकड़े रखने की क्षमता होती है। कुछ पौधों में यह क्षमता बहुत अधिक होती है; जैसे-सैकरम मुंजा (Saccharum Munja), सैकरम स्पॉण्टेनियम (S. Spontaneum), साइनोडर्न डेक्टाइलोन (Cymodon Dactylon), इण्डिगोफेरा कॉर्डिफोलिया (Indigofera Cordifolia) आदि। अत: ऐसी प्रजातियों के वृक्षो को नहरों के किनारों पर लगाना चाहिए।

प्रश्न 5. दक्षिण भारत के अधिकांश भागो में लाल मिट्टी पाई जाती है। क्यों?
उत्तर-दक्षिण भारत के अधिकांश भागों में लाल मिट्टी पाई जाती है, इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  • दक्षिणी भारत में दकन के पठार पर प्राचीन कठोर, रवेदार एवं आग्नेयं शैलें पाई जाती हैं। इन शैलों में लोहांश की प्रधानता होती है, इसीलिए मिट्टी का रंग लाल होता है।
  • दक्षिणी भारत की अधिकांश मिट्टी इन्हीं शैलों के विखण्डन से बनी है।
  • इस मिट्टी में लोहे के अंशों की अधिकता के कारण ऑक्सीकरण की क्रिया अधिक होती है, फलतः यह लाल रंग की हो जाती है।
  • ऑक्सीकरण की क्रिया के फलस्वरूप लोहे के अंश वर्षा ऋतु में नमी पाकर आयरन ऑक्साङ्ड में बदल जाते हैं, जिससे इस मिट्टी का रंग लाल हो जाता है।

प्रश्न 6. ऐसा कहा जाता है कि पश्चिमी उत्तर भारत की ओर रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है, क्यों? इसे रोकने के लिए क्या किया जा रहा है?
उत्तर-राजस्थान के पश्चिमी जिलों जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर, बाड़मेर, नागौर आदि में मरुस्थलीय दशाएँ पाई जाती हैं। यहाँ से उत्तर-पूर्व की ओर चलने वाली आँधियाँ अपने साथ बड़ी मात्रा में बालू के कणों को उड़ा ले जाती हैं। सघन प्राकृतिक वनस्पति के अभाव में ये आँधियाँ अविरल गति से आगे बढ़ती हैं तथा राजस्थान की सीमा को पार कर हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आगरा एवं मथुरा जिलों में प्रवेश कर वहाँ बालू का जमाव करती हैं। इस प्रकार रेगिस्तान का विस्तार धीरे-धीरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ओर बढ़ रही है।

इसको रोकने के लिए दिल्ली, उत्तर प्रदेश तथा पंजाब की सीमा पर रक्षात्मक वृक्षों की हरित पट्टी लगाने का प्रयास किया गया है तथा जोधपुर में एक मरुस्थल वृक्षारोपण तथा अनुसन्धान केन्द्र खोला गया है।

प्रश्न 7. भारत में मिट्टी के कटाव से क्या समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं?
उत्तर-मिट्टी के ह्रास से अधिक गम्भीर समस्या मिट्टी के कटाव या अपरदन की होती है। हास की दशा में मिट्टी की उपयोगी क्षमता घट जाती है तथा यदि उसे कुछ दिन तक अछूती छोड़ दिया जाए तो मिट्टी की प्राण-शक्ति (उत्पादन क्षर्मता) लौट सकती है, परन्तु मिट्टी का कटाव हो जाने पर उक्त मिट्टी उस स्थान से सदा के लिए समाप्त हो जाती है। अत: प्राकृतिक कारकों (जल, पवन आदि) एवं मानव द्वारा वन विनाश आदि के कारण जब भूमि की ऊपरी परत या आवरण नष्ट हो जाता है तो उसे मिट्टी का कटाव अथवा अपरदन कहते हैं।

भारत की एक-चौथाई भूमि मिट्टी के कटाव की समस्या से ग्रस्त है। उपग्रहों द्वारा लिए गए छवि चित्रों से पता चलता है कि भारत में राजस्थान के 14 में से 13 जिलों में विगत दशक में 53,370 वर्ग किमी क्षेत्र में वायु के कटाव के कारण भूमि बंजर हो गई है। मरुस्थलीय क्षेत्रों की बालू अजमेर, नागोर, सीकर तथा जयपुर जिलों में तेजी से फैल रही है। मिट्टी के कटाव के कारण एक ओर जहाँ मूल क्षेत्र की उपयुक्त मिट्टी नष्ट होती है, वहीं दूसरी ओर यह मिट्टी जिस क्षेत्र में भी पहुँचती है, वहाँ भी समस्या उत्पन्न करती है। मरुस्थलीय मिट्टी के विस्तार से अनेक उपजाऊ क्षेत्र नष्ट हो रहे हैं, इसी प्रकार उपजाऊ मिट्टी के कटाव से नदी क्षेत्रों में अत्यधिक निक्षेप की समस्या उत्पन्न हो रही है। अतः मिट्टी के कटाव प्रत्येक दशा में कुप्रभाव (अनुर्वरता) उत्पन्न करता है। मिट्टी कटाव को वैज्ञानिकों ने रंगती हुई मृत्यु’ की संज्ञा प्रदान की है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. भारत में मिट्टियों के वितरण एवं महत्त्व की विवेचना कीजिए।
या भारत की मिट्टियों का वर्गीकरण कीजिए और उनमें से किसी एक की विशेषताओं, विस्तार और कृषि के लिए उसकी उपयुक्तता पर प्रकाश डालिए।
या भारत में मिट्टी के प्रकारों का उल्लेख कीजिए तथा काली मिट्टी के वितरण तथा विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
या भारत में पायी जाने वाली प्रमुख मिट्टियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-मिट्टी भारतीय कृषक की अमूल्य सम्पदा है जिस पर सम्पूर्ण कृषि-उत्पादन निर्भर करता है। डॉ० बैनेट के अनुसार, “मिट्टी भू-पृष्ठ पर मिलने वाले असंगठित पदार्थों की वह ऊपरी परत है जो मूल चट्टानों अथवा वनस्पति के योग से बनती है।” मिट्टियों की रचना चट्टानों के विखण्डन के फलस्वरूप होती है जिसमें अनेक रासायनिक तत्त्व एवं जीवांश मिले होते हैं। तापमान, वर्षा, वायु एवं वनस्पति का चट्टानों पर प्रभाव पड़ता है। जिससे स्थानीय मिट्टियों का निर्माण होता है। अपरदन के कारकों द्वारा मिट्टी एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचा दी जाती है। मिट्टी की उर्वरता तथा समृद्ध कृषि अर्थव्यवस्था सघन जनसंख्या के पोषण में सक्षम होती है। भारत के विशाल मैदान तथा तटीय क्षेत्रों की उपजाऊ मिट्टी उन्नतशील कृषि को प्रोत्साहन देती है।

भारत में मिट्टियों का वर्गीकरण एवं वितरण

मिट्टियों का वर्गीकरण अनेक भारतीय तथा विदेशी विद्वानों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। परम्परागत दृष्टिकोण से भारतीय मिट्टियों का विभाजन कछारी, लाल, काली (रेगड़), लैटेराइट आदि में किया जाता है। भौगोलिक दृष्टिकोण से मिट्टियों को विभाजन प्राकृतिक रचना तथा उनकी विशेषताओं के आधार पर किया जा सकता है। इस आधार पर भारतीय मिट्टियों को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया जा सकता है(1) हिमालय पर्वतीय प्रदेश की मिट्टियाँ, (2) विशाल मैदान की मिट्टियाँ, (3) प्रायद्वीपीय पठार की मिट्टियाँ एवं (4) अन्य मिट्टियाँ।

(1) हिमालय पर्वतीय प्रदेश की मिट्टियाँ
हिमालय पर्वतीय प्रदेश में अनेक प्रकार की मिट्टियाँ पायी जाती हैं। पर्वतीय मिट्टियाँ नदियों की घाटियों तथा पहाड़ी ढालों पर अधिक गहरी हैं। ढालों पर हल्की बलुई, छिद्रमय मिट्टियाँ पायी जाती हैं जिसमें जीवांश कम मात्रा में पाये जाते हैं। पर्वतीय मिट्टियों की रचना, कणों के आकार एवं कृषि-उत्पादन के दृष्टिकोण से इन्हें निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है–

(i) चूना एवं डोलोमाइट से निर्मित मिट्टियाँ–हिमालय पर्वतीय प्रदेश में चूना एवं डोलोमाइट पाये जाने वाले क्षेत्रों में इस प्रकार की मिट्टियाँ पायी जाती हैं। वर्षा की अधिकता के कारण चूने का अधिकांश भाग इस मिट्टी के साथ बह जाता है। चूने का थोड़ा-सा अंश भूमि पर रह जाने के कारण भूमि अनुत्पादक हो जाती है। इसमें चीड़ एवं साल के वृक्ष बहुतायत में उगते हैं।

(ii) चाय की मिट्टी-मध्य हिमालय के पर्वतीय ढालों पर मिट्टी में वनस्पति अंशों की अधिकता होती है। इसमें लोहांश की मात्रा अधिक तथा चूने का अंश कम होता है; अतः यह मिट्टी चाय-उत्पादन के लिए सर्वश्रेष्ठ होती है। काँगड़ा, देहरादून, दार्जिलिंग तथा असोम के पहाड़ी ढालों पर चाय की मिट्टी अधिक पायी जाती है।

(iii) पथरीली मिट्टी-हिमालय के दक्षिणी भागों में पथरीली मिट्टी अधिक पायी जाती है। नदियों ने इस मिट्टी को निचले ढालों पर जमा कर दिया है। इसके कण मोटे होते हैं तथा इसमें बालू एवं कंकड़-पत्थर के टुकड़े भी मिले होते हैं।

(iv) टर्शियरी मिट्टी-इस मिट्टी की गहराई कम होती है, परन्तु यह काफी उपजाऊ होती है। यह मिट्टी घाटियों में एकत्रित होती रहती है, जो दून एवं कश्मीर घाटियों में पायी जाती है। इसमें चाय, चावल एवं आलू उगाया जाता है।।

(2) विशाल मैदान की मिट्टियाँ
विशाल मैदान में सर्वत्र कांप (जलोढ़) मिट्टी का विस्तार है। यह मिट्टी कृषि-उत्पादन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जिसका विस्तार 7.5 लाख वर्ग किमी क्षेत्र पर है। इसी कारण इस क्षेत्र में सघन जनसंख्या निवास करती है। काँप मिट्टियाँ हिमालय पर्वत से निकलने वाली सिन्धु, गंगा, ब्रह्मपुत्र एवं उनकी सहायक नदियों द्वारा लाई गयी अवसाद से निर्मित हुई हैं। यह मिट्टी हल्के भूरे रंग की होती है। इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और वनस्पति के अंशों की कमी होती है तथा सिलिका एवं चूने के अंशों की प्रधानता होती है। यह मिट्टी पीली दोमट है। कुछ स्थानों पर यह चिकनी एवं बलुई होती है। विशाल मैदान की मिट्टियों को वर्षा की भिन्नता, क्षारीय गुणों, बालू एवं चीका की भिन्नता के आधार पर निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता। है

(i) पुरातन काँप-इसे बाँगर मिट्टी के नाम से भी पुकारा जाता है। इस मिट्टी का विस्तार उन क्षेत्रों में है जहाँ नदियों की बाढ़ का पानी नहीं पहुँच पाता है। इसमें कहीं-कहीं कंकड़ भी पाये जाते हैं। खुरदरे एवं बड़े कणों वाली मिट्टी को भूड़ कहते हैं। इस मिट्टी में गन्ना एवं गेहूँ अधिक उगाया जाता है।

(ii) नवीन काँप-इसे खादर मिट्टी भी कहा जाता है। यह मिट्टी रेतीली एवं कम कंकरीली होती है। इस मिट्टी के क्षेत्रों में प्रति वर्ष बाढ़े आती हैं तथा उनके द्वारा नवीन काँप मिट्टी बिछती रहती है। इस मिट्टी में नमी धारण करने की शक्ति अधिक होती है। कहीं-कहीं पर दलदल भी होती हैं। इसमें पोटाश, फॉस्फोरस, चूना एवं जीवांशों की मात्रा अधिक होती है।।

(iii) डेल्टाई काँप-यह मिट्टी नदियों के डेल्टा में पायी जाती है। यहाँ नदियाँ नवीन काँप मिट्टी का जमाव करती रहती हैं; अतः यह मिट्टी अत्यधिक उपजाऊ होती है। इस मिट्टी के कण बहुत ही बारीक होते हैं। जिन फसलों को अधिक जल की आवश्यकता होती है, उनमें सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। चावल, जूट, तम्बाकू, गेहूँ, तिलहन आदि इस मिट्टी की प्रमुख फसलें हैं। विशाल मैदान के दक्षिण-पश्चिम में मरुस्थलीय अथवा रेतीली मिट्टी पायी जाती है। वर्षा की कमी के कारण इसमें नमी की मात्रा कम होती है। जल की कमी के कारण यह मिट्टी अनुपजाऊ होती है।

(3) प्रायद्वीपीय पठार की मिट्टियाँ
प्रायद्वीपीय पठार प्राचीन एवं रवेदार चट्टानों से निर्मित हैं। प्रायद्वीपीय पठार की मिट्टियों को निम्नलिखित समूहों में बाँटा जा सकता है

(i) काली मिट्टी–इस मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी चट्टानों के अपरदन से हुआ है; अतः इसका रंग काला है। इस मिट्टी में लोहा, मैग्नीशियम, चूना, ऐलुमिनियम तथा जीवांशों की मात्रा अधिक होती है। यह काली, चिकनी तथा बारीक कणों से युक्त मिट्टी है, जिसमें नमी धारण करने की क्षमता अधिक है। वर्षा होने पर यह चिपचिपी-सी हो जाती है तथा सूखने पर इसमें दरारें पड़ जाती हैं। इन दरारों के द्वारा ऑक्सीजन पर्याप्त गहराई तक प्रवेश कर जाती है। भारत में काली मिट्टी का विस्तार प्रायद्वीपीय पठार के उत्तरी-पश्चिमी भाग में लगभग 5 लाख वर्ग किमी क्षेत्र पर पाया जाता है। इस मिट्टी का विस्तार उत्तर में गुना (मध्य प्रदेश) से दक्षिण में बेलगाम (कर्नाटक) तक और पश्चिम में काठियावाड़ (गुजरात) से पूरब में अमरकण्टक (मध्य प्रदेश) तक है। अत: गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिमी मध्य प्रदेश और उत्तरी कर्नाटक की ये प्रमुख कृषि मिट्टियाँ हैं। राजस्थान में बूंदी एवं टोंक जिलों में तथा उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड के भाग में भी ये मिट्टियाँ पायी जाती हैं।

इस सम्पूर्ण प्रदेश की नदी-घाटियों में गहरी और उपजाऊ मिट्टियाँ पायी जाती हैं तथा पहाड़ी ढालों पर मिट्टियाँ छिछली और कम उपजाऊ हैं। काली मिट्टी का कृषि के लिए विशेष महत्त्व है। इस मिट्टी की प्रमुख फसल कपास है। इसी कारण इसे कपास की काली मिट्टी कहा जाता है। कपास के अतिरिक्त इस मिट्टी में चावल, गन्ना, सब्जियाँ, फल, ज्वार-बाजरा, मूंगफली, तम्बाकू और सोयाबीन भी पैदा किया जाता है। इन मिट्टियों को सिंचाई की पूर्ण सुविधा उपलब्ध नहीं है; अतः फसलों की प्रति हेक्टेयर उपज अपेक्षाकृत कम है।
विशेषताएँ-(क) यह मिट्टी काले रंग की होती है।
(ख) इस मिट्टी में जल धारण करने की क्षमता अधिक होती है। वर्षा होने पर यह चिपचिपी हो जाती
(ग) सूखने पर इस मिट्टी में 10 से 15 सेमी तक चौड़ी दरारें पड़ जाती हैं।
(घ) इस मिट्टी में कैल्सियम कार्बोनेट और मैग्नीशियम तत्त्वों की मात्रा अधिक होती है।
(ङ) यह मिट्टी बहुत उपजाऊ होती है। इसमें जुताई भी कम करनी पड़ती है तथा यह शीघ्र ही भुरभुरी हो जाती है।

(ii) लाल व पीली मिट्टियाँ–यह मिट्टी लाल, पीले या भूरे रंग की होती है, परन्तु इसमें लाल रंग की अधिकता होती है। इस मिट्टी में लोहे का अंश अधिक होने के कारण इसका रंग लाल होता है। इस मिट्टी का निर्माण ग्रेनाइट, नीस व शिस्ट जैसी प्राचीन आग्नेय शैलों के टूटने से हुआ है। दक्षिण भारत में यह मिट्टी लगभग 2 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में फैली है। यह मिट्टी चिकने कणों से युक्त होती है। इसमें फॉस्फोरस, पोटाश, नाइट्रोजन, चूना तथा ह्यूमस की कमी पायी जाती है, किन्तु लोहा, ऐलुमिनियम व चूना यथेष्ट मात्रा में होता है। इस मिट्टी में मोटे अनाज अधिक उगाये जाते हैं, जिसमें बाजरे का स्थान सर्वोपरि है। ऊँचे ढालों पर इन मिट्टियों में मूंगफली व आलू तथा घाटियों में गन्ना भी पैदा किया जाता है। भारत में इस प्रकार की मिट्टी का विस्तार कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र के दक्षिण-पूर्वी भागों, तमिलनाडु, मेघालय, ओडिशा, पश्चिम बंगाल राज्यों एवं छोटा नागपुर के पठार पर है। उत्तर प्रदेश राज्य के बाँदा, झाँसी, ललितपुर, मिर्जापुर एवं हमीरपुर जिलों में भी यह मिट्टी पायी जाती है।
विशेषताएँ-(क) यह मिट्टी लाल से चॉकलेटी रंग की शुष्क तथा कुछ अनुपजाऊ होती है।
(ख) निम्न भू-भागों में ये मिट्टियाँ दोमटी होती हैं और ऊँची भूमि पर बिखरी हुई कंकड़ों के समान होती हैं।
(ग) ढीले गठन की होने के कारण इस मिट्टी में जलधारण शक्ति कम होती है, अतः इसमें बिना सिंचाई के अच्छी खेती नहीं की जा सकती।
(घ) इस मिट्टी में लोहे की मात्रा अधिक होती है; अत: वर्षा ऋतु में लोहा ऑक्साइड के रूप में • मिट्टी के ऊपर आ जाता है।
(ङ) इस मिट्टी में मोटे कण तथा अघुलनशील तत्त्व अधिक मिले होते हैं।

(iii) लैटेराइट मिट्टी-इस मिट्टी का रंग लाल या पीला होता है। मानसूनी जलवायु की विशिष्टता के कारण ये मिट्टियाँ 200 सेमी से अधिक वार्षिक वर्षा वाले ऊँचे पर्वतीय ढालों पर उत्पन्न होती हैं। यह मिट्टी सिलिका तथा लवण कणों से युक्त होती है। इसमें मोटे-मोटे कण तथा कंकड़-पत्थरों को बाहुल्य होता है। इस मिट्टी में चूना, फॉस्फोरस एवं पोटाश कम पाया जाता है, किन्तु वनस्पति का अंश यथेष्ट मात्रा में होता है। भारत में लैटेराइट मिट्टी 1.5 लाख वर्ग किमी क्षेत्र पर फैली हुई है। वर्षा होने पर यह मिट्टी मुलायम हो जाती है, परन्तु सूखने पर कठोर हो जाती है। उर्वरकों की सहायता से इसमें चावल, गन्ना, काजू, चाय, रागी, कहवा तथा रबड़ की कृषि की जाती है। लैटेराइट मिट्टी कर्नाटक, केरल, राजमहल की पहाड़ियों, महाराष्ट्र के दक्षिणी भागों, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश, असोम तथा मेघालय के कुछ भागों में पायी जाती है। वास्तव में ये मिट्टियाँ पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट, राजमहल की पहाड़ियों, मेघालय और असोम की पहाड़ियों के ढालों पर विस्तृत हैं।
विशेषताएँ—(क) यह मिट्टी ईंट के रंग जैसी लाल या गहरे भूरे रंग की होती है।
(ख) इसमें मोटे कण तथा कंकड़-पत्थर अधिक पाये जाते हैं।
(ग) यह मिट्टी अधिक उपजाऊ नहीं है।
(घ) इस मिट्टी में नाइट्रोजन, चूना तथा फॉस्फोरस की मात्रा बहुत कम होती है। .

(4) अन्य मिट्टियाँ
(i) पीट मिट्टियाँ–आर्दै प्रदेशों में सड़ी हुई वनस्पति से पीट मिट्टी का निर्माण होता है। इनका निर्माण जैविक पदार्थों के एकत्रण से हुआ है। केरल एवं तमिलनाडु के कुछ भागों में यह मिट्टी पायी जाती है। यह मिट्टी काली, भारी एवं अम्लीय होती है। इसमें धान उगाया जाता है।

(ii) दलदली मिट्टियाँ–समुद्र तटवर्ती क्षेत्रों में नदियों एवं झीलों के सूखने से तथा प्राकृतिक वनस्पति के सड़ने से इन मिट्टियों का निर्माण हुआ है। इसमें लोहे एवं जीवांशों की अधिक मात्रा होने के कारण इसका रंग कुछ नीला होता है। ओडिशा एवं तमिलनाडु के दक्षिणी-पूर्वी समुद्र तटवर्ती क्षेत्रों, पश्चिम बंगाल के सुन्दरवन डेल्टा तथा उत्तरी बिहार के मध्यवर्ती क्षेत्रों में इस मिट्टी का
विस्तार पाया जाता है।

(iii) मरुस्थलीय मिट्टियाँ-मरुस्थलीय क्षेत्रों में वर्षा बहुत कम होने के कारण यहाँ ऊसर, थूर तथा कल्लर जैसी मिट्टियाँ पायी जाती हैं। यह मिट्टी लवण एवं क्षारीय गुणों से युक्त होती है। इस मिट्टी में सोडियम, कैल्सियम व मैग्नीशियम तत्त्वों की प्रधानता होती है, जिससे यह अनुपजाऊ हो गयी। है। इसमें नमी एवं वनस्पति के अंश नहीं पाये जाते। इसमें सिंचाई करके केवल मोटे अनाज ही उगाये जाते हैं। यह मिट्टी सरन्ध्र होती है। इस मिट्टी में बालू के ढेर दिखलाई पड़ते हैं। मरुस्थलीय मिट्टी पश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा दक्षिणी पंजाब एवं हरियाणा राज्यों में पायी जाती है।
विशेषताएँ—(क) इस मिट्टी में बालू के मोटे कणों की प्रधानता होती है।
(ख) इस मिट्टी में नमी धारण करने की क्षमता अत्यधिक कम होती है।।
(ग) यह मिट्टी बहुत अधिक अनुपजाऊ है।
(घ) इस मिट्टी में जल गहराई तक प्रवेश कर जाता है।
(ङ) इस मिट्टी में जल की अधिक आवश्यकता होती है।
(च) आर्थिक दृष्टि से मरुस्थलीय मिट्टियाँ उपयोगी नहीं होतीं, परन्तु इनमें सिंचाई द्वारा मोटे अनाज उगाये जा सकते हैं।

(iv) नमकीन या खारी मिट्टियाँ–विशाल मैदान के बहुत से भागों में मिट्टी की ऊपरी परत पर सफेद रंग की परत-सी जम जाती है जिससे भूमि अनुपजाऊ हो जाती है। इसे ‘ऊसर’ या ‘कल्लर’ के नाम से पुकारा जाता है। इस मिट्टी में कैल्सियम, मैग्नीशियम तथा सोडियम लवणों की मात्रा अधिक होती है। इन लवणों की तह मिट्टी की ऊपरी परत पर जम जाती है जिसे रह’ कहते हैं।

(v) वन मिट्टियाँ–वन मिट्टियों की रचना वन प्रदेश में जैविक तत्त्वों के एकत्रण से होती है। सामान्यतया ये मिट्टियाँ दो प्रकार की होती हैं–(अ) प्रथम प्रकार की मिट्टियों का निर्माण जीवांशों को अम्लीय रूप में बदलने से होता है, जिनमें मूल सामग्री की कमी होती है। (ब) इन मिट्टियों का निर्माण हल्की अम्लीय स्थिति में होता है। इनमें मूल सामग्री की अधिकता होती है जिससे भूरी
मिट्टियों का निर्माण होता है। देश के वन प्रदेशों में इस प्रकार की मिट्टियाँ पायी जाती हैं।

प्रश्न 2. निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए
(क) शुष्क मृदा, (ख) लवण मृदा, (ग) पीटमय मृदा, (घ) वन मृदा।
उत्तर-(क) शुष्क मृदा
शुष्क मृदाओं का रंग लाल से लेकर किशमिशी तक होता है। यह मिट्टी संरचना की दृष्टि से बलुई और प्रकृति से लवणीय होती है। कुछ क्षेत्रों में इसमें नमक की मात्रा बहुत अधिक होती है, इसलिए मिट्टी को वाष्पीकृत करके नमक प्राप्त किया जाता है। शुष्क जलवायु, उच्च तापमान और तीव्र गति से वाष्पीकरण के कारण इस मृदा में नमी और ह्यूमस कम होते हैं। इसमें नाइट्रोजन अपर्याप्त और फॉस्फेट सामान्य मात्रा में होता है। नीचे की ओर चूने की मात्रा के बढ़ते जाने के कारण निचले संस्तरों में कंकड़ों की परतें पाई जाती हैं। मृदा के निम्न संस्तर में कंकड़ों की परत बनने के कारण पानी का रिसाव सीमित हो जाता है। यह मृदा विशिष्ट शुष्क स्थलाकृति वाले पश्चिमी राजस्थान में अभिलाक्षणिक रूप से विकसित हुई है। यह मृदा अनुर्वर है, क्योंकि इनमें ह्यूमस और जैव पदार्थ कम मात्रा में पाए जाते हैं।

(ख) लवण मृदा ।
मरुस्थलीय क्षेत्रों में वर्षा की कमी के कारण ऊसर, रॉकड, थुर तथा कल्लर जैसी अनुर्वर मिट्टियाँ पाई जाती हैं। ये मिट्टियाँ लवण एवं क्षारीय गुणों से युक्त होती हैं। इसलिए इनको लवण मृदा कहते हैं। इस मिट्टी में सोडियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम तत्त्वों की प्रधानता होती है, जिससे यह अनुपजाऊ हो गई है। इसमें नमी एवं वनस्पति के अंश नहीं पाए जाते हैं। इनमें सिंचाई कर केवल मोटे अनाज, मूंगफली व दलहन ही उगाए जाते हैं। यह मिट्टी सरन्ध्र होती है। यह मिट्टी कोमल एवं प्रवेश्य होती है। इसमें बालू के ढेर दिखाई पड़ते हैं। इस मिट्टी का विस्तार 1.14 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल पर मिलता है। मरुस्थलीय मिट्टी पश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा दक्षिणी पंजाब एवं दक्षिण-पश्चिमी हरियाणा राज्यों में पाई जाती है। इस मृदा में निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं

  • इस मिट्टी में बालू के मोटे कणों की प्रधानता होती है।
  • इस मिट्टी में नमी धारण करने की क्षमता अत्यधिक कम होती है।
  • यह मिट्टी अपेक्षाकृत अनुपजाऊ होती है।
  • इस मिट्टी में जल गहराई तक प्रवेश कर जाता है।
  • इस मिट्टी को जल की अधिक आवश्यकता होती है।
  • आर्थिक दृष्टि से मरुस्थलीय मिट्टी उपयोगी नहीं होती, परन्तु इसमें सिंचाई द्वारा मोटे अनाज ऋगाए जा सकते हैं।

(ग) पीटमय मृदा
यह मृदा भारी वर्षा और उच्च आर्द्रता से युक्त उन क्षेत्रों में पाई जाती है जहाँ वनस्पति की वृद्धि अच्छी हो। अत: इन क्षेत्रों में मृत जैव पदार्थ बड़ी मात्रा में इकट्ठे हो जाते हैं, जो मृदा को ह्युमस और जैव तत्त्व पर्याप्त मात्रा में प्रदान करते हैं। इस मृदा में जैव तत्त्व 40 से 50 प्रतिशत तक होते हैं। यह मृदा सामान्यत: गाढे काले रंग की होती है। अनेक स्थानों पर यह क्षारीय भी है। यह मृदा मुख्यतः बिहार के उत्तरी भाग, उत्तराखण्ड के दक्षिणी भाग, पश्चिम बंगाल के तटीय क्षेत्रों, ओडिशा और तमिलनाडु में पाई जाती है।

(घ) वन मृदा
वन मृदा पर्याप्त वर्षा वाले वन क्षेत्रों में बनती है। इसके लिए पर्वतीय पर्यावरण अनुकूल क्षेत्र है। इस पर्यावरण में परिवर्तन के अनुसार मृदाओं का गठन और संरचना बदलती रहती है। घाटियों में यह दुमटी और पांशु होती है तथा ऊपरी ढालों पर यह मोटे कणों वाली होती है। अपने प्राकृतिक गुणों व गठन के कारण फसलों, पौधों और वनस्पति की वृद्धि के लिए यह मिट्टी सर्वोत्तम होती है।

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 6 Soils (मृदा) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 6 Soils (मृदा), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 5 Natural Vegetation

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 5 Natural Vegetation (प्राकृतिक वनस्पति)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 5 Natural Vegetation (प्राकृतिक वनस्पति)

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1. नीचे दिए गए चार विकल्पों में से सही उत्तर चुनिए
(i) चन्दन वन किस तरह के वन के उदाहरण हैं?
(क) सदाबहार वन
(ख) डेल्टाई वन
(ग) पर्णपाती वन
(घ) कॉटेदार वन
उत्तर-(ग) पर्णपाती वन।।

(ii) प्रोजेक्ट टाइगर निम्नलिखित में से किस उद्देश्य से शुरू किया गया है?
(क) बाघ मारने के लिए।
(ख) बाघ को शिकार से बचाने के लिए ।
(ग) बाघ को चिड़ियाघर में डालने के लिए
(घ) बाघ पर फिल्म बनाने के लिए
उत्तर-(ख) बाघ को शिकार से बचाने के लिए।

(iii) नन्दादेवी जीवमंण्डल निचय निम्नलिखित में से किस प्रान्त में स्थित है?
(क) बिहार ।
(ख) उत्तरांचल
(ग) उत्तर प्रदेश
(घ) उड़ीसा
उत्तर-(ख) उत्तरांचल (उत्तराखण्ड)।

(iv) निम्नलिखित में से कितने जीवमण्डल निचय आई०यू०सी०एन० द्वारा मान्यता प्राप्त हैं?
(क) एक
(ख) तीन ।
(ग) दो
(घ) चार
उत्तर-(घ) चार।

(v) वन नीति के अनुसार वर्तमान में निम्नलिखित में से कितना प्रतिशत क्षेत्र वनों के अधीन होना चाहिए?
(क) 33
(ख) 55
(ग) 44
(घ) 22
उत्तर—(क) 33.

प्रश्न 2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दें–
(i) प्राकृतिक वनस्पति क्या है? जलवायु की किन परिस्थितियों में उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन उगते हैं?
उत्तर–जो पौधे जंगल में प्राकृतिक परिस्थितियों के अनुसार स्वयं फलते-फूलते हैं या विकसित होते हैं, प्राकृतिक वनस्पति कहलाते हैं। उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन आंद्रे प्रदेशों में पाए जाते हैं, जहाँ वार्षिक वर्षा 200 सेमी से अधिक होती है और औसत वार्षिक तापमान 22° सेल्सियस से अधिक रहता है। भारत में इन वनों का विस्तार लगभग 46 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में मिलता है।

(ii) जलवायु की कौन-सी परिस्थितियाँ सदाबहार वन उगने के लिए अनुकूल हैं?
उत्तर-20° सेग्रे से अधिक तापमान तथा 150 से 200 सेमी वर्षा वाले उष्ण आर्द्र जलवायु प्रदेशों की परिस्थितियाँ सदाबहार वनों के लिए अनुकूल मानी जाती हैं।

(iii) सामाजिक वानिकी से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर–सामाजिक वानिकी, पर्यावरणीय सुरक्षा तथा ग्रामीण क्षेत्रों के सामाजिक, आर्थिक विकास से सम्बन्धित है। इसके द्वारा ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों की बंजर एवं ऊसर भूमि पर वनारोपण करके उसके द्वारा आर्थिक आय और सामाजिक विकास का प्रयास किया जाता है।

(iv) जीवमण्डल निचय को परिभाषित करें। वन क्षेत्र और वन आवरण में क्या अन्तर है?
उत्तर–जीवमण्डल निचय विशेष प्रकार के भौतिक (स्थलीय) और तटीय पारिस्थितिक क्षेत्र हैं। इनको यूनेस्को के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय पहचान का मानक प्राप्त है। ये आरक्षित क्षेत्र वन्य-जीव और वनों की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए बनाए गए हैं। वन क्षेत्र वह क्षेत्र है जो राजस्व विभाग के द्वारा वनों के लिए निर्धारित होता है, जबकि वास्तविक वन आवरण वह क्षेत्र है जो वास्तव में वनों से ढका हुआ है।

प्रश्न 3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 125 शब्दों में दें
(i) वन संरक्षण के लिए क्या कदम उठाए गए हैं?
उत्तर-वनों का मानवीय विकास एवं जीव जगत के पोषण में महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसलिए वनों के संरक्षण को महत्त्वपूर्ण माना जाता है, फलस्वरूप भारत सरकार ने पूरे देश के लिए वन संरक्षण नीति, 1952 में लागू की जिसे 1988 में संशोधित किया, अब नई वन्य-जीवन कार्ययोजना (2002-2016) स्वीकृत की गई है। अत: वन नीति द्वारा देश की सरकार ने वनों के संरक्षण हेतु निम्नलिखित कदम उठाए हैं

  1. नई वन नीति के अनुसार सरकार सतत पोषणीय वन प्रबन्धन पर बल देती है जिससे एक ओर वन । संसाधनों का संरक्षण व विकास किया जाए और दूसरी ओर वनों से स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।
  2. देश में 33 प्रतिशत भाग पर वन लगाना, जो वर्तमान राष्ट्रीय स्तर से 6 प्रतिशत अधिक है।
  3. पर्यावरण असन्तुलन समाप्त करने के लिए वन लगाने पर बल देना।
  4. देश की प्राकृतिक धरोहर जैवविविधता तथा आनुवंशिक पुल का संरक्षण करना।
  5. पेड़ लगाने को बढ़ावा देना तथा पेड़ों की कटाई रोकने के लिए जन-आन्दोलन चलाना, जिसमें महिलाएँ भी शामिल हों।
  6. सामाजिक वानिकी कार्यक्रम चलाना, जिससे ऊसर भूमि का उपयोग वनों को उगाने के लिए किया जा सके।

(ii) वन और वन्य-जीव संरक्षण में लोगों की भागेदारी कैसे महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर-वन और वन्य-जीव संरक्षण केवल सरकारी प्रयासों द्वारा ही सम्भव नहीं है। स्वयंसेवी संस्थाएँ और जनसमुदाय का सहयोग इसके लिए अत्यन्त आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है। भारत में वन्य प्राणियों के बचाव की परम्परा बहुत पुरानी है। हमारे धर्मग्रन्थों में इसका व्यापक उल्लेख मिलता है। इतना ही नहीं, पंचतन्त्र, जंगल बुक इत्यादि की कहानियाँ हमारे वन्य प्राणियों के प्रति प्रेम का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।

सरकार द्वारा वैधानिक प्रयासों के अन्तर्गत बनाए गए विभिन्न अधिनियम तथा परियोजनाएँ (बाघ परियोजना, हाथी परियोजना आदि) वन्य-जीव एवं वन संरक्षण के लिए मुख्य प्रयास हैं। फिर भी वन्य प्राणी संरक्षण का दायरा अत्यन्त व्यापक है और इसमें मानव-कल्याण की असीम सम्भावनाएँ निहित हैं। फलस्वरूप इस लक्ष्य को तभी प्राप्त किया जा सकता है जब हर व्यक्ति इसका महत्त्व समझे और अपना योगदान दे। अतः लोगों की सहभागिता द्वारा ही वनों और जीवों का संरक्षण हो सकता है और तभी यह प्राकृतिक धरोहर सुरक्षित रह सकती है।

उत्तराखण्ड का चिपको आन्दोलने वन और वन्य-जीवों के संरक्षण का विश्वप्रसिद्ध आन्दोलन है, जो जनसमुदाय की इस क्षेत्र में भागीदारी का उत्तम उदाहरण भी प्रस्तुत करता है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. जलवायु, मिट्टी आदि तत्त्वों के आधार पर वनों को विभाजित किया गया है
(क) चार भागों में
(ख) पाँच भागों में
(ग) तीन भागों में
(घ) दो भागों में
उत्तर-(ख) पाँच भागों में।

प्रश्न 2. भारत में ‘वन-महोत्सव के जन्मदाता माने जाते हैं
(क) सुन्दरलाल बहुगुणा ।
(ख) आचार्य विनोबा भावे :
(ग) मेधा पाटेकर ।
(घ) डॉ० कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी
उत्तर-(घ) डॉ० कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी।

प्रश्न 3. वन सहायक हैं
(क) वायु एवं जल-प्रदूषण रोकने में
(ख) भूमि का क्षरण रोकने में
(ग) (क) और (ख) दोनों में |
(घ) इनमें से किसी में नहीं ।
उत्तर-(ग) (क) और (ख) दोनों में।

प्रश्न 4. निम्नलिखित वनों में से कौन-सा भारत में सर्वाधिक विस्तार में फैला है?
(क) उष्ण कटिबन्धीय पतझड़ वाले वन
(ख) उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन
(ग) ज्वारीय वन
(घ) काँटेदार वन
उत्तर-(ख) उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन।

प्रश्न 5. आर्थिक दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण वन कौन-से हैं?
(क) मानसूनी
(ख) पर्वतीय
(ग) उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती
(घ) ज्वारीय
उत्तर-(ग) उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती।

प्रश्न 6. डेल्टाई वनों का मुख्य वृक्ष है
(क) चन्दने
(ख) पाइन
(ग) सुन्दरी
(घ) सिल्वर फर
उत्तर-(ग) सुन्दरी।

प्रश्न 7. ‘सुन्दरवन कहाँ पाया जाता है? |
(क) गंगा डेल्टा में
(ख) गोदावरी डेल्टा में
(ग) महानदी डेल्टा में
(घ) कावेरी डेल्टा में
उत्तर-(क) गंगा डेल्टा में।।

प्रश्न 8. ‘सुन्दरवन स्थित है
(क) जम्मू एवं कश्मीर में
(ख) केरल में
(ग) अरुणाचल प्रदेश में
(घ) पश्चिम बंगाल में
उत्तर-(घ) पश्चिम बंगाल में। ||

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार देश के कितने भू-भाग पर वन होने चाहिए?
उत्तर-एक-तिहाई।

प्रश्न 2, सुरक्षित वनों से क्या तात्पर्य है?
उत्तर–वे वन जिन्हें इमारती लकड़ी अथवा वन उत्पादों को प्राप्त करने के लिए सुरक्षित किया गया है।

प्रश्न 3. संरक्षित वन किन्हें कहते हैं?
उत्तर–जिन वनों में सामान्य प्रतिबन्धों के साथ पशुचारण एवं खेती करने की अनुमति दे दी जाती है, उन्हें संरक्षित वन कहते हैं।

प्रश्न 4. वर्तमान में वनों की क्या महत्ता है?
उत्तर–वन पर्यावरणीय स्थिरता और पारिस्थितिक सन्तुलन को बनाए रखने में सहायक हैं।

प्रश्न 5. भारत में सबसे अधिक और सबसे कम वन क्षेत्र कहाँ है?
उत्तर-भारत में सबसे अधिक वन क्षेत्र अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह में (86.93%) और सबसे कम हरियाणा में (3.8%) हैं।

प्रश्न 6. उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वनों के मुख्य वृक्षों के नाम तथा प्रमुख क्षेत्र बताइए।
उत्तर-इन वनों में रोजवुड, एबोनी और आयरन वुड आदि वृक्ष पाए जाते हैं। भारत में उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन पश्चिमी घाट के पर्वतीय क्षेत्रों पर 450 से 1,370 मीटर की ऊँचाई के मध्य उगते हैं। असम और अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों की पहाड़ियों, पूर्वी हिमालय के तराई क्षेत्र तथा अण्डमान निकोबार द्वीपसमूह में भी इसी प्रकार के वन उगते हैं।

प्रश्न 7. प्राकृतिक वनस्पति का क्या अर्थ है?
उत्तर–प्राकृतिक वनस्पति से आशय उन पेड़-पौधों, झाड़ियों एवं घासों से है, जो प्राकृतिक रूप से बिना भूमि जोते व बीज बोए स्वयं ही उग आती हैं।

प्रश्न 8. वनों के दो प्रत्यक्ष लाभ बताइए।
उत्तर-(1) ईंधन एवं इमारती लकड़ियों की प्राप्ति तथा (2) कागज, रबड़, कत्था, बीड़ी, दियासलाई, लुगदी, प्लाई पैकिंग आदि उद्योगों के लिए कच्चे माल की प्राप्ति।

प्रश्न 9. भारत में प्राकृतिक वनस्पति की भिन्नता के क्या कारण हैं?
उत्तर-भारत में उच्चावच, जलवायु, वर्षा तथा मिट्टियों में पर्याप्त विभिन्नताएँ पाई जाती हैं। अत: इसी कारण यहाँ प्राकृतिक वनस्पति में भी पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है।

प्रश्न 10. पारितन्त्र का क्या अर्थ है?
उत्तर-वनस्पति, जीव-जन्तु तथा अन्य सूक्ष्म जीवाणु और भौतिक पर्यावरण के अन्तर्सम्बन्धों से बना तन्त्र पारितन्त्र कहलाता है।

प्रश्न 11. प्राकृतिक संसाधनों से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-प्रकृति-प्रदत्त उपहार; जैसे—स्थलाकृतियाँ, मृदा, जल, वायु, प्राकृतिक वनस्पति, सूर्य का प्रकाश, खजिन पदार्थ, जंगली जीव-जन्तु आदि जो मानव की अनेक आवश्यकताएँ पूर्ण करते हैं या उसके लिए उपयोगी अथवा उपयोगिता में किसी प्रकार सहायक होते हैं, प्राकृतिक संसाधन कहलाते हैं।

प्रश्न 12. सदाबहार तथा पर्णपाती वनों में कोई एक अन्तर बताइए।
उत्तर-सदाबहार तथा पर्णपाती (पतझड़ी) वनों में अन्तर
UP Board Solutions for Class 11 Geography Indian Physical Environment Chapter 5 Natural Vegetation (प्राकृतिक वनस्पति) img 1

प्रश्न 13. भारत के उन राज्यों के नाम बताइए जिनके दो-तिहाई भौगोलिक क्षेत्र वनों से ढके हैं?
उत्तर–जहाँ दो-तिहाई भौगोलिक क्षेत्र वनों से ढके हैं, उन राज्यों के नाम हैं–(1) मणिपुर, (2) मेघालय, (3),त्रिपुरा, (4) सिक्किम।।

प्रश्न 14. उन चार राज्यों के नाम बताइए जिनके भौगोलिक क्षेत्रफल में 10 प्रतिशत से भी कम भाग पर वन हैं।
उत्तर–राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र)।

प्रश्न 15. उष्ण कटिबन्धीय सदाहरित वनों के वृक्षों के नाम लिखिए।
उत्तर–रोजवुड, एबोनी और गुरजन आदि उष्ण कटिबन्धीय सदाहरित वनों के वृक्ष हैं।

प्रश्न 16. भारत की वनस्पति में विविधता क्यों है?
उत्तर-प्राकृतिक वनस्पति और जलवायु दशाओं एवं मृदा में बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। भारत में तापमान, वर्षा और मृदा में पर्याप्त विभिन्नताएँ मिलती हैं, इसलिए यहाँ वनस्पति में भी इतनी विभिन्नताएँ पाई जाती हैं।

प्रश्न 17. उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार क्न भारत में कहाँ पाए जाते हैं?
उत्तर-उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन भारत में पश्चिमी, घाट उत्तर-पूर्वी भारत तथा अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह में पाए जाते हैं।

प्रश्न 18. देवदार के वृक्ष भारत में कहाँ पाए जाते हैं?
उत्तर–देवदार के वृक्ष भारत में हिमालय पर्वतीय वनों में मिलते हैं।

प्रश्न 19. बिना फूल वाले पौधों के नाम लिखिए।
उत्तर-बिना फूल वाले पौधों के नाम हैं-फर्न, शैवाल तथा कवक।

प्रश्न 20. पौधों की किस पादप जात को बंगाल का आतंक कहा जाता है?
उत्तर-जलहायसिन्ध’ को बंगाल का आतंक कहा जाता है, क्योंकि यह नदियों-नालों के मुंह पर रुककर जल प्रवाह को अवरुद्ध कर देता है। के

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. जनजातीय समुदायों के लिए वनों की महत्ता का वर्णन कीजिए।
उत्तर–जनजातीय समुदायों के लिए वनों का विशेष महत्त्व है। वन इस समुदाय के लिए आवास, रोजी-रोटी और अस्तित्व हैं। ये उन्हें भोजन, फल, खाने लायक वनस्पति, शहद, पौष्टिक जड़े और शिकार के लिए वन्य शिकार प्रदान करते हैं। वन उन्हें घर बनाने का सामान और कला की वस्तुएँ भी देते हैं। इस प्रकार वन जनजातीय समुदाय के लिए जीवन और आर्थिक क्रियाओं के आधार हैं। सामान्यत: यह माना जाता है कि 2001 में भारत के 593 जिलों में से 187 जनजातीय जिले हैं। इनमें देश का 59.8 प्रतिशत वन आवरण पाया जाता है। इससे पता चलता है कि भारत के जनजातीय जिले वन सम्पदा में धनी हैं।

प्रश्न 2. बाघ परियोजना का क्या महत्त्व है? भारत में कितने बाघ संरक्षण क्षेत्र हैं?
उत्तर-भारत में बाघों की घटती संख्या को बढ़ाने के लिए बाघ संरक्षण परियोजना 1973 में प्रारम्भ की गई थी। इसका मुख्य उद्देश्य भारत में बाघों की जनसंख्या का स्तर बनाए रखना है जिससे वैज्ञानिक, सौन्दर्यात्मक, सांस्कृतिक और पारिस्थितिक मूल्य बनाए रखे जा सकें। प्रारम्भ में यह परियोजना नौ बाघ निचयों (आरक्षित क्षेत्रों) में शुरू की गई थी और इसमें 16,339 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र शामिल था। अब यह योजना 27 बाघ निचयों में चल रही है और इनका क्षेत्रफल 37.761 वर्ग किलोमीटर है और 17 राज्यों में व्याप्त है।

प्रश्न 3. ऊँचाई के आधार पर हिमालय के वनस्पति कटिबन्धों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-ऊँचाई के आधार पर हिमालय क्षेत्र में वनस्पति की निम्नलिखित पेटियाँ पाई जाती हैं

1. उष्ण कटिबन्धीय आर्दै पर्णपाती वन-शिवालिक हिमालय की श्रेणियों में उष्ण कटिबन्धीय आर्द्र पर्णपाती वन उगते हैं। साल यहाँ का मुख्य वृक्ष है। आर्थिक दृष्टिकोण से इसकी लकड़ी बहुत उपयोगी होती है। बाँस भी यहाँ बहुतायत में उगता है।

2. शीतोष्ण कटिबन्धीय चौड़ी पत्ती वाले सदाबहार वन-इन्हें ‘आर्द्र पर्वतीय वन’ भी कहते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में ये वन 1,000 से 2,000 मीटर की ऊँचाई तक मिलते हैं। इन वनों में चेस्टनट, चीड़, ओक, देवदार, बर्च, एल्डर, पोपलर, एल्म, मैपिल तथा सेब के वृक्ष उगते हैं। उत्तर-पूर्वी भागों में जहाँ भारी वर्षा होती है, उपोष्ण कटिबन्धीय चीड़ के वन पाए जाते हैं।

3. शंकुल या कोणधारी वन-हिमालय-पर्वतीय प्रदेश में 1,600 से 3,300 मीटर की ऊँचाई के मध्य चीड़, सीडर, सिल्वर, फर, स्पूस, सनोवर, ओक, मैपिल, बर्च, एल्डर तथा ब्लू पाइन के वृक्षों की प्रधानता है। ये कोमल लकड़ी के वृक्ष हैं, जिनसे कागज, लुगदी, दियासलाई आदि का | निर्माण किया जाता है।

4. अल्पाइन वन–हिमालैय-पर्वतीय प्रदेश में 3,600 मीटर से अधिक ऊँचाई पर अल्पाइन वन शंकुल वनों का स्थान ले लेते हैं। इस प्रदेश में निम्न भागों में सिल्वर; फर, बर्च तथा जूनीपर के वृक्ष उगते हैं। इससे अधिक ऊँचाई पर काई एवं लाइकेन ही उगती हैं।

प्रश्न 4. भारत में उष्ण कटिबन्धीय वर्षा का वितरण एवं विशेषताएँ बताइए।
उत्तर-जिन प्रदेशों में उष्णार्द्र जलवायु पाई जाती है, वहाँ वर्षा का औसत 200 सेमी या उससे अधिक रहता है। ऐसी जलवायु में किसी ऋतु विशेष में वृक्ष अपनी पत्तियाँ नहीं गिराते, बल्कि वे सदैव हरे-भरे (सदाबहार) रहते हैं। विषुवरेखीय वनों की भाँति ये वन बहुत सघन होते हैं। इनमें वृक्षों की ऊँचाई 60 मीटर या इससे भी अधिक हो जाती है। भारत में ये वन 4.5 लाख हेक्टेयर भूमि पर उगे हैं। असम, मेघालय, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, त्रिपुरा, मणिपुर, पश्चिमी घाट, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल के मैदानी भागों तथा अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह में इन वनों का विस्तार पाया जाता है। इन वनों में ताड़, महोगनी बाँस, सिनकोना, बेंत, रबड़, रोजवुड, आबनूस आदि वृक्ष उगते हैं।

प्रश्न 5. भारतीय वनों की किन्हीं चार विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-भारतीय वनों की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. भारत में जलवायु की विभिन्नता के कारण विविध प्रकार के वन पाये जाते हैं। यहाँ विषुवत्रेखीय सदाबहार वनों से लेकर शुष्क, कॅटीले वन व अल्पाइन (कोमल लकड़ी वाले) वन तक मिलते हैं।
  2. भारत में कोमल लकड़ी वाले वनों का क्षेत्र कम पाया जाता है। यहाँ कोमल लकड़ी वाले वन हिमालय के अधिक ऊँचे ढालों पर मिलते हैं, जिन्हें काटकर उपयोग में लाना अत्यन्त कठिन है।
  3. भारत के मानसूनी वनों में ग्रीष्म ऋतु से पूर्व वृक्षों की पत्तियाँ नीचे गिर जाती हैं, जिसे पतझड़ कहते हैं।
  4. भारत के वनों में विविध प्रकार के वृक्ष मिलते हैं। अतः उनकी कटाई के सम्बन्ध में विशेषीकरण नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 6. वन्य जीवन के संरक्षण की क्या आवश्यकता है?
उत्तर-वन्य जीवन संरक्षण की आवश्यकता निम्नलिखित दो कारणों से होती है
1. प्राकृतिक सन्तुलन में सहायक-वन्य जीवन वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिए प्रकृति का अनुपम उपहार हैं, किन्तु वर्तमान समय में अत्यधिक वन दोहन तथा अनियन्त्रित और गैर-कानूनी आखेट के कारण भारत की वन्य जीव-सम्पदा का तेजी से ह्रास हो रहा है। अनेक महत्त्वपूर्ण पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ विलोप के कगार पर हैं। प्राकृतिक सन्तुलन बनाये रखने के लिए
वन्य-जीव संरक्षण की बहुत आवश्यकता है।

2. पर्यावरण प्रदूषण–पर्यावरण प्रदूषण पर प्रभावी रोक लगाने के लिए भी पशुओं एवं वन्य-जीवों का संरक्षण आवश्यक है, क्योंकि इनके द्वारा पर्यावरण में उपस्थित बहुत-से प्रदूषित पदार्थों को नष्ट कर दिया जाता है। इसके साथ ही वन्य-जीव पर्यावरण को स्वच्छ बनाये रखने में अपना अमूल्य योगदान देते हैं।

प्रश्न 7. राष्ट्रीय उद्यान तथा वन्य-जीव अभयारण्य को परिभाषित करते हुए इनमें किसी एक अन्तर का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-राष्ट्रीय उद्यान एक या एक से अधिक पारितन्त्रों वाला वृहत् क्षेत्र होता है। विशिष्ट वैज्ञानिक शिक्षा तथा मनोरंजन के लिए इसमें पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं की प्रजातियों, भू-आकृतिक स्थलों और आवासों को संरक्षित किया गया है। राष्ट्रीय उद्यान की ही भाँति, वन्यजीव अभयारण्य भी वन्य-जीवों की सुरक्षा के लिए स्थापित किये गये हैं।

अभयारण्य एवं राष्ट्रीय उद्यानों में सूक्ष्म अन्तर हैं। अभयारण्य में बिना अनुमति शिकार करना वर्जित है,परन्तु चराई एवं गो-पशुओं का आवागमन नियमित होता है। राष्ट्रीय उद्यानों में शिकार एवं चराई पूर्णतया वर्जित होते हैं। अभयारण्यों में मानवीय क्रियाकलापों की अनुमति होती है, जबकि राष्ट्रीय उद्यानों में मानवीय हस्तक्षेप पूर्णतया वर्जित होता है।

प्रश्न 8. भारत में सामाजिक वानिकी के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर-सामाजिक वानिकी ग्रामीण क्षेत्रों के सामाजिक-आर्थिक विकास का कार्यक्रम ही नहीं है, बल्कि यह पारितन्त्र के सन्तुलन में भी महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। भारत में सामाजिक वानिकी द्वारा ग्रामीण।जनसंख्या जलावन लकड़ी, छोटी-छोटी वनोत्पाद और इमारती लकड़ी प्राप्त करके आर्थिक विकास को बढ़ाती है। भारत में यह कार्यक्रम 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग द्वारा शुरू किया गया था। इसके अन्तर्गत कई प्रकार के महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम चलाए गए हैं।

सामाजिक वानिकी किसानों को अपनी भूमि पर वृक्षारोपण के लिए प्रोत्साहित करता है। इस कार्यक्रम द्वारा सड़कों व नहरों के किनारे खाली का वनों के लिए उपयोग होता है तथा बंजर और ऊपर भूमि में सुधार का प्रयास भी किया जाता है।

प्रश्न 9. भारत में वन्य प्राणियो की संख्या कम होने के मुख्य कारणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर- भारत में वन्य प्राणियों की संख्या कम होने के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं

  • औद्योगिकी और तकनीकी विकास के कारण वनों का अत्यधिक दोहन।
  • कृषि, मानवीय बस्ती, सड़कों, खदानों, जलाशयों इत्यादि के लिए भूमि से वनों का सफाया किया जाना।
  • स्थानीय लोगों का चारे व इमारती लकड़ी की आपूर्ति हेतु वनों पर दबाव।
  • पालतू पशुओं के लिए नए चरागाहों की खोज में मानव द्वारा वन्य जीवों और उनके आवासों को नष्ट किया जाना।
  • रजवाड़ों और सम्भ्रांत वर्ग द्वारा जंगली जानवरों का शिकार क्रीड़ा या मनोरंजन के लिए किया जाना।
  •  वनों में आग लगने से वन्य-जीवों की मृत्यु होना।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. भारत में सदाबहार वनों का वितरण एवं उनके आर्थिक महत्त्व का विवरण दीजिए।
या भारत के विभिन्न प्रकार के वनों का वर्णन कीजिए।
या भारत में वनों के विकास का सकारात्मक विवरण दीजिए।
या उष्ण कटिबन्धीय पतझड़ वन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
या भारत में प्राकृतिक वनस्पति का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों में कीजिए
(क) प्रकार, (ख) क्षेत्र।
उत्तर – भारत में वनों का वितरण
वन राष्ट्र की बहुमूल्य निधि होते हैं, परन्तु मानव इनके महत्त्व को पूरी तरह नहीं समझ पाया है। भारत के विशाल मैदान में तो शायद ही वन देखने को मिलते हैं, किन्तु पर्वतीय क्षेत्रों, समुद्रतटीय मैदानों तथा नदीतटीय भू-भागों में प्राकृतिक वनस्पति अवश्य विकसित हुई है।

भारत में 657.6 लाख हेक्टेयर भूमि (22%) पर वन पाये जाते हैं, जबकि भारतीय सुदूर संवेदन द्वारा लगाये गये नवीनतम अनुमानों के आधार पर देश में केवल 14% क्षेत्रफल पर ही वनों का विस्तार बताया गया है। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान समय में देश के भौगोलिक क्षेत्रफल के 19.39% भाग पर वनों का विस्तार पाया जाता है। 1952 ई० में निर्धारित ‘राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार देश के 33.3% क्षेत्र पर वन होने चाहिए। वर्तमान समय में वृक्षारोपण एवं वन-महोत्सव आदि कार्यक्रम इसी दिशा में किये गये प्रयास हैं। देश में वनों का भौगोलिक वितरण बड़ा ही असमान है। भारत के पर्वतीय राज्यों एवं दक्षिणी पठारी राज्यों में वन-क्षेत्र अधिक पाये जाते हैं।

भारतीय वनों का वर्गीकरण

वनों के प्रकार प्राकृतिक पर्यावरण के तत्त्वों पर निर्भर करते हैं। वर्षा की मात्रा, मिट्टी के प्रकार, भूगर्भीय संरचना तथा भूमि की बनावट के आधार पर भारतीय वनों का विभाजन प्रस्तुत किया जा सकता है। भौगोलिक आधार पर वनों के प्रथम चार प्रकार वर्षा की मात्रा के आधार पर तथा शेष पाँच प्रकार वर्षा की मात्रा (जलवायु) के अतिरिक्त मिट्टी आदि अन्य तत्त्वों के आधार पर निर्धारित किये जा सकते हैं। इन वनों के वर्गीकरण का विवरण अग्रलिखित है–

1. उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन (Tropical Evergreen Forests)-ईस प्रकार के वन उन भागों में पाये जाते हैं जहाँ वर्षा का वार्षिक औसत 200 सेमी तथा औसत तापमान 24° सेग्रे के लगभग रहता है। उत्तर में हिमालय की तराई, पूर्वी हिमालय के उप-प्रदेश, दक्षिण में पश्चिमी घाट के ढालों पर महाराष्ट्र से लेकर उत्तरी एवं दक्षिणी ढाल, नीलगिरि, अन्नामलाई, कर्नाटक, केरल तथा अण्डमान निकोबार द्वीप समूह तक इस प्रकार के वनों का विस्तार है। पश्चिमी घाट पर 457 से 1,360 मीटर की ऊँचाई के मध्य तथा असोम में 1,067 मीटर की ऊँचाई तक इन वन का विस्तार मिलता है।

अत्यधिक वर्षा के कारण ये वन सदैव हरे-भरे रहते हैं, परन्तु वर्षा की कमी के कारण ये कभी-कभी अहरित भी हो जाते हैं। इनके वृक्षों की ऊँचाई 30 से 50 मीटर तक होती है। इनमें कठोर लकड़ी के वृक्ष अत्यधिक होते हैं तथा इन्हें काटना भी कठिन होता है। विभिन्न प्रकार की लताओं, झाड़ियों तथा छोटे-छोटे पौधों की अधिकता के कारणं ये वन दुर्गम हो गये हैं। इन वनों में अधिकांशत: रबड़, महोगनी, एबोनी, जंगली आम, नाहर, गुरजन, तुलसर, अमलतास, तून, ताड़, बाँस, सिनकोना, बेंत, रोजवुड आदि के वृक्ष महत्त्वपूर्ण होते हैं। असोम, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, पश्चिम बंगाल, पूर्वी घाट, अण्डमान निकोबार द्वीप समूह आदि पर इस प्रकार के वनों का विस्तार पाया जाता है। ये वन आर्थिक दृष्टि से अनुपयोगी हैं।

2. उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती (पतझड़) वन या मानसूनी वन-ये वन अधिकतर उन भागों में उगते हैं जहाँ वर्षा का वार्षिक औसत 100 से 200 सेमी के मध्य रहता है। इन्हें मानसूनी वन भी कहते हैं। ग्रीष्म ऋतु के आरम्भ में इन वनों के वृक्ष अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं जिससे उनकी नमी नष्ट न हो सके। इन वनों के नीचे सघन झाड़-झंखाड़ आदि नहीं पाये जाते हैं, जिस कारण यहाँ बाँस अधिक पैदा होता है; परन्तु बेंत, ताड़ तथा लताओं का अभाव रहता है। ये वन भारत के चार क्षेत्रों में मिलते हैं(i) उप-हिमालय प्रदेश में पंजाब से लेकर असोम हिमालय तक बाह्य एवं निचले ढालों पर; (ii) पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार एवं पश्चिम बंगाल में; (iii) दक्षिणी भारत में पश्चिमी घाट के पूर्व से लेकर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल राज्यों में तथा (iv) दक्षिणी-पूर्वी घाट के ढालों पर।

ये वन व्यापारिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्व रखते हैं। इन वनों का क्षेत्रफल 7 लाख वर्ग किमी है। इन्हें सुरक्षित वनों की श्रेणी में रखा गया है। इन वनों में साल एवं सागौन के वृक्ष महत्त्वपूर्ण हैं जो महाराष्ट्र एवं कर्नाटक राज्यों में अधिक मिलते हैं। शीशम, चन्दन, पलास, हल्दू, आँवला, शहतूत, बाँस, कत्था आदि अन्य प्रमुख वृक्ष हैं। वार्निश, चमड़ा रँगने आदि के उपयोगी पदार्थ भी इन्हीं वनों से प्राप्त होते हैं।

3. उष्ण कटिबन्धीय शुष्क वन-इस प्रकार के वन उन भागों में उगते हैं जिन भागों में वर्षा का औसत 50 से 100 सेमी तक रहता है। जल के अभाव के कारण ये वृक्ष न तो अधिक ऊँचे ही हो पाते हैं एवं न ही हरे-भरे रहते हैं। इन वृक्षों की ऊँचाई केवल 6 से 9 मीटर तक होती है। इन वृक्षों की जड़े लम्बी एवं मोटी होती हैं ताकि वे भूगर्भ में अधिक गहराई से जल खींच सकें तथा अपने अन्दर संचित रख सकें। इन वनों में अधिकतर नागफनी, रामबॉस, खेजड़ी, बबूल, कीकर, खैर, रीठा, कुमटा, खजूर आदि वृक्ष मुख्य हैं।

उत्तरी भारत में ये वन पूर्वी राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दक्षिणी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कम उपजाऊ भूमि पर उगते हैं। दक्षिणी भारत के शुष्क भागों में आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात,
महाराष्ट्र में भी ऐसे ही वन मिलते हैं।

4. मरुस्थलीय एवं अर्द्ध-मरुस्थलीय वन-ये वन उन भागों में उगते हैं जहाँ वार्षिक वर्षा 50 सेमी से कम होती है। इनके वृक्ष छोटी-छोटी झाड़ियों के रूप में होते हैं जिनकी जड़े लम्बी होती हैं। बबूल यहाँ का प्रमुख वृक्ष है। खेजड़ी, खैर, खजूर, रामबाँस, नागफनी आदि प्रमुख वृक्ष हैं। दक्षिणी-पश्चिमी हरियाणा, पश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात तथा कर्नाटक के वृष्टिछाया प्रदेश में इन वनों का विस्तार है।

5. पर्वतीय वन-ऊँचाई एवं वर्षा के अनुसार ये वन भिन्नता लिये होते हैं। पश्चिमी हिमालय क्षेत्र की अपेक्षा पूर्वी हिमालय प्रदेश में वर्षा अधिक होती है। अतः यहाँ वनों में भी भिन्नता पाया जाना स्वाभाविक है। इस प्रदेश के वनों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है
(i) पूर्वी हिमालय प्रदेश के वन-भारत के उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र में पहाड़ी ढालों पर इन वनों का विस्तार मिलता है। इन क्षेत्रों में वर्षा का औसत 200 सेमी तक रहता है। ऊँचाई के अनुसार वनस्पति में भी भिन्नता मिलती है, परन्तु यह वनस्पति सदाबहार वनों की होती है। इस प्रदेश में 1,200 से 2,400 मीटर ऊँचाई पर उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार के वन मिलते हैं। इन वनों में साल, ओक, लॉरेल, दालचीनी, चन्दन, शीशम, खैर एवं सेमल के वृक्ष मिलते हैं। कहीं-कहीं बाँस भी उग आता है। शीतोष्ण सदाबहार की वनस्पति 2,400 से 3,600 मीटर की ऊंचाई पर मिलती है। यहाँ पर कम ऊँचाई वाले कोणधारी वृक्ष उगते हैं। प्रमुख वृक्षों में ओक, मैपिल, बर्च, एल्डर, लॉरेल, सिल्वर-फर, पाइन, स्पूस, जूनीपर प्रमुख हैं।

(ii) पश्चिमी हिमालय प्रदेश के वन-पश्चिमी हिमालय प्रदेश में वर्षा का प्रभाव वृक्षों के प्रकार पर पड़ता है। यहाँ ऊँचाई के साथ-साथ प्राकृतिक वनस्पति में भी भिन्नता पायी जाती है। इस प्रदेश में 900 मीटर की ऊँचाई तक अर्द्ध-मरुस्थलीय वनस्पति पायी जाती है, जो छोटे-छोटे वृक्ष एवं झाड़ियों के रूप में होती है। 900 से 1,800 मीटर की ऊँचाई तक चीड़, साल, सेमल, ढाक, शीशम, जामुन एवं बेर के वृक्ष उगते हैं। इन वृक्षों पर कम वर्षा एवं निम्नः तापमान का प्रभाव पड़ता है। 1,800 से 3,000 मीटर की ऊँचाई तक सम-शीतोष्ण कोणधारी वन पाये जाते हैं। 2,500 मीटर की ऊँचाई तक चौड़ी पत्ती वाले मिश्रित वन मिलते हैं। इनमें चीड़, देवदार, नीला-पोइन, एल्डर, पोपलर, बर्च, एल्म आदि के वृक्ष महत्त्वपूर्ण हैं। 2,500 मीटर से अधिक ऊँचाई पर सिल्वर-फर एवं येलो-पाइन मुख्य वृक्ष हैं।

हिमालय पर्वतीय प्रदेश में 2,400 मीटर से अधिक ऊँचाई पर अल्पाइन वन मिलते हैं। इन्हें कोणधारी वन कहा जा सकता है। ये वन 3,600 मीटर की ऊँचाई तक अधिक मिलते हैं। ओक, मैपिल, सिल्वर-फर, पाइन, जूनीपर आदि इन वनों के प्रमुख वृक्ष हैं। पश्चिमी हिमालय प्रदेश की अपेक्षा पूर्वी हिमालय प्रदेश में इन वनों का विस्तार अधिक है। 3,600 से 4,800 मीटर की ऊँचाई तक टुण्ड्रा वनस्पति, छोटी-छोटी झाड़ियाँ एवं काई उगती है। इससे अधिक ऊँचाई पर सदैव हिमावरण रहता है अर्थात् 4,800 मीटर की ऊँचाई पर हिमालय प्रदेश में स्थायी हिम रेखा है।

6. ज्वारीय वन-नदियों के डेल्टाई क्षेत्रों में एक विशेष प्रकार की वनस्पति उगती है जिनमें मैनग्रोव एवं सुन्दरी वृक्षों की प्रधानता होती है। ये वन सदाबहारी होते हैं। सागरीय जल की लवणता का प्रभाव इन वनों पर अधिक पड़ता है, क्योंकि इनकी छाल नमकीन एवं लकड़ी कठोर होती है। जिसकी नावें बनाई जाती हैं तथा छाल का उपयोग चमड़ा रँगने में किया जाता है। ताड़, नारियल, फोनिक्स, गोरेन, नीपा एवं केसूरिना (झाऊ) अन्य प्रमुख वृक्ष हैं। भारत में ये वन गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, गोदावरी, कृष्णा आदि नदियों के डेल्टाओं में उगते हैं।

वनों का राष्ट्र के आर्थिक विकास में महत्व

वन राष्ट्र की अमूल्य निधि होते हैं। प्रकृति द्वारा प्रदत्त नि:शुल्क प्राकृतिक उपहारों में वन सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, “उगता हुआ वृक्ष प्रगतिशील राष्ट्र का जीवन प्रतीक है।” वन महोत्सव के जन्मदाता डॉ० के० एम० मुन्शी ने वृक्षों की उपयोगिता को इन शब्दों में व्यक्त किया है-“वृक्षों का अर्थ है जल, जल का अर्थ है रोटी और रोटी ही जीवन है।” वृक्षों के महत्त्व को देखते हुए ही भारत सरकार ने 1950 ई० में वन-महोत्सव कार्यक्रम लागू किया था। वनों के आर्थिक महत्त्व को अग्रलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है

(अ) वनों से प्रत्यक्ष लाभ-वनों के प्रत्यक्ष लाभों को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है
1. प्रधान उपजे–वनों की मुख्य उपज लकड़ी है। वनों से प्राप्त होने वाली आय का लगभग 75%
भाग लकड़ी से ही प्राप्त होता है। भारतीय वनों से प्रति वर्ष लगभग 25 करोड़ की लकड़ियाँ प्राप्त होती हैं। देवदार, सागौन, शीशम, चीड़, पाइन तथा साल के वृक्षों से उत्तम, कोमल तथा टिकाऊ लकड़ियाँ मिलती हैं, जिनसे विविध प्रकार को फर्नीचर बनाया जाता है। चन्दन वृक्ष की लकड़ी से सुगन्धित तेल निकाला जाता है। गंगा डेल्टा में सुन्दरी वृक्षों की लकड़ी से टिकाऊ एवं मजबूत नावें बनाई जाती हैं। भारत में प्रति वर्ष 108 लाख घन मीटर औद्योगिक लकड़ी (15 लाख घन मीटर शंकु वृक्षी और 93 लाख घन मीटर चौड़ी पत्ती वाले वृक्षों की) प्राप्त की जाती है। भारतीय वनों से प्रति वर्ष 490 लाख टन ईंधन की लकड़ी का उत्पादन होता है, जबकि माँग 1,330 लाख घन मीटर लकड़ी की रहती है।

2. गौण उपों-लकड़ी के अतिरिक्त वनों से अन्य अनेक ऐसे पदार्थ भी प्राप्त होते हैं जो आर्थिक दृष्टि से बहुत उपयोगी होते हैं तथा जिनका उपयोग उद्योग-धन्धों के कच्चे माल के रूप में किया जाता है। वनों से निम्नलिखित गौण उपजे प्राप्त होती हैं|
(i) लाख-लाख वनों की महत्त्वपूर्ण उपज है। लाख के उत्पादन में भारत का विश्व में प्रथम – स्थान है। यहाँ विश्व का लगभग 75% लाख उत्पन्न किया जाता है। भारत में प्रति वर्ष १ 11 करोड़ मूल्य के लाख उत्पादन में से लगभग 90 प्रतिशत का निर्यात कर दिया जाता है, जिससे प्रति वर्ष १ 10 करोड़ की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। बिहार राज्य भारत का 50
प्रतिशत लाख उत्पन्न करता है। लाख उत्पादन में दूसरा स्थान मध्य प्रदेश का है।

(ii) गोंद-अनेक वृक्षों के तने चिपचिपा रस छोड़ते हैं, जो सूखकर गोंद बन जाता है। यह मुख्यतः बबूल, चीड़, नीम, पीपल, खेजड़ा, कीकर तथा साल के वृक्षों से प्राप्त होता है।

(iii) कत्था-खैर वृक्षों की लकड़ी को पानी में उबालकर तथा सुखाकर कत्था प्राप्त किया जाता है। खैर के वृक्ष उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश में अधिक पाये जाते हैं।

(iv) चमड़ा रँगने तथा पकाने के पदार्थ-वनों के अनेक वृक्षों की छालें चमड़ा पकाने तथा रँगने में प्रयुक्त की जाती हैं। बबूल, सुन्दरी, खैर, हरड़, बहेड़ा, आँवला आदि वृक्षों की छालें तथा पत्तियाँ चमड़ा कमाने एवं रँगने में प्रयुक्त की जाती हैं।

(v) अन्य पदार्थ-वनों से प्राप्त अन्य गौण उपजों में रबड़, रीठा, तेल, ओषधियाँ, घास, सिनकोना आदि महत्त्वपूर्ण हैं, जिनका उपयोग विभिन्न उद्योग-धन्धों में किया जाता है। वनों में रहने वाले पशु-पक्षियों से मांस, चमड़ा, हड्डी तथा पंख भी प्राप्त होते हैं। वनों में उगी हुई हरी घास पशुओं के लिए उत्तम चरागाह का काम देती है। वनों से सरकार को राष्ट्रीय आय प्राप्त होती है तथा अनेक लोगों की जीविका भी चलती है।

(ब) वनों से अप्रत्यक्ष लाभ-वनों से निम्नलिखित अप्रत्यक्ष लाभ भी प्राप्त होते हैं

  1. वन जलवायु को सम रखने में सहायक होते हैं तथा वर्षा कराने में भी योगदान देते हैं, क्योंकि इनसे । वायुमण्डल को नमी प्राप्त होती है।
  2. वृक्ष पर्यावरण को शुद्ध करते हैं। ये वायुमण्डल की कार्बन डाइऑक्साइड गैस को ऑक्सीजन में बदल देते हैं। इस प्रकार वनों से वायु प्रदूषण कम हो जाता है।
  3. वन बाढ़ों के प्रकोप को रोकने में सहायक होते हैं, क्योंकि वृक्षों की जड़ों से जल का प्रवाह मन्द पड़ जाता है।
  4. वन मरुस्थल के प्रसार को रोकते हैं। वृक्षों से वायु की गति मन्द हो जाती है तथा तीव्र आँधियों से | होने वाली हानि भी कम हो जाती है।
  5. वनों से भूमि-क्षरण तथा कटाव रुकता है, क्योंकि वृक्षों की जड़े वर्षा के जल की गति को मन्द करे | देती हैं तथा मिट्टी को पकड़कर रखती हैं।
  6. वनों में रेशम के कीड़े तथा मधुमक्खी पालने का कार्य सुविधापूर्वक किया जाता है।
  7. वन देश के प्राकृतिक सौन्दर्य में भी वृद्धि करते हैं। वृक्षों की हरियाली नेत्रों को बहुत भली प्रतीत | होती है।
  8. वनों के वृक्षों से गिरी हुई पत्तियाँ भूमि में मिलकर उसकी उर्वरा शक्ति को बढ़ा देती हैं। इससे मिट्टी में जीवांशों की मात्रा में भी वृद्धि होती है।
  9. वन पशु-पक्षियों के लिए शरणस्थली होते हैं, जिनसे हमें अनेक लाभ प्राप्त होते हैं।
  10. वन मिट्टी में दब जाने पर कालान्तर में कोयले तथा खनिज तेल का निर्माण करते हैं।
  11. वनों की जड़ों द्वारा भूमि में जल का रिसाव अधिक होता है। इससे भूमिगत जल का भण्डार बढ़ता है।

भारत में प्राचीन काल से वनों का विस्तार पर्याप्त मात्रा में था, परन्तु जनसंख्या के दबाव के बढ़ने के फलस्वरूप आवास, कृषि तथा उद्योगों की स्थापना के लिए वनों को बुरी तरह काट डाला गया। वन-क्षेत्रों का अभाव हो जाने से पर्यावरण असन्तुलन के अनेक दुष्प्रभाव प्रकट होने लगे हैं। वर्तमान में हमारी सरकार ने इस ओर ध्यान दिया है तथा राष्ट्रीय वन नीति घोषित की है, जिसके अनुसार भूमि के 33% भाग पर वन होने चाहिए। वन महोत्सव तथा सामाजिक वानिकी इसी दिशा में हमारे कदम हैं। वस्तुत: वन-सम्पदा हमारी धरोहर है, हमें इसे नष्ट नहीं करना चाहिए। हमारा कर्तव्य होना चाहिए कि हम इसे बढ़ाकर आगे आने वाली पीढ़ियों को दें। हमें इस सम्पत्ति का ब्याज ही काम में लेना चाहिए, इसके मूल को कम नहीं करना चाहिए, तभी हम आज के भयावह पर्यावरण असन्तुलन से राहत पा सकते हैं।

वन-संरक्षण के उपाय।

पर्यावरण के संरक्षणार्थ वनों को संरक्षण अत्यन्त आवश्यक प्रतीत होता है। वन-संरक्षण हेतु देश में संशोधित राष्ट्रीय वन नीति 1988 में लागू की गई है। इस वन नीति के मुख्य लक्ष्य पारिस्थितिकीय सन्तुलन के संरक्षण और पुन:स्थापन द्वारा पर्यावरण स्थायित्व को बनाए रखना है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु वन-संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय आवश्यक हैं–

  1. व्यापक वृक्षारोपण और सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों के द्वारा वन और वृक्ष के आच्छादन में महत्त्वपूर्ण बढ़ोतरी की जाए।
  2. वन उत्पादनों के उचित उपयोग को बढ़ावा देना और लकड़ी के अनुकूलन विकल्पों की खोज की जाए।
  3. वनों पर पड़ रहे दबाव को न्यूनतम करने के लिए जन-साधारण; विशेषकर महिलाओं को अधिकतम सहयोग प्रदान करने के लिए प्रेरित करना।
  4. नदियों, झीलों और जलाशयों के जलग्रहण क्षेत्रों में भूमि-कटाव और वनों के क्षरण पर नियन्त्रण किया जाए।
  5. वन संरक्षण और प्रबन्धन हेतु ग्रामीण समितियों का गठन किया जाए।
  6. आदिवासी बहुल क्षेत्रों में नष्ट हो चुके वनों को पुनः हरा-भरा करने के लिए विशेष प्रायोजित रोजगार योजना के माध्यम से वनों को पुनर्जीवित किया जाए।
  7. प्राकृतिक और मानव द्वारा लगी वनों की आग (दावानल) पर नियन्त्रण करना तथा वनों में आग | लगने की घटनाओं में कमी लाकर वनों की उत्पादन क्षमता में वृद्धि करना।
  8. रेगिस्तानी, बंजर और अनुपयुक्त अन्य प्रकार की भूमि पर उसकी प्रकृति के अनुरूप प्रजातियों की वनस्पति का विस्तार करना भी वन-संरक्षण में सहायक कदम होगा।

वास्तव में वन-सम्पदा हमारे लिए प्रकृति का अमूल्य वरदान है, अतः हमें झ्स सम्पत्ति का ब्याज ही काम में लेना चाहिए, इसके मूल को कभी भी कम नहीं करना चाहिए, तभी हम आज के भयावह पर्यावरण, असन्तुलन से राहत पा सकते है।

प्रश्न 2. जीवमण्डल निचय (आरक्षित क्षेत्र) क्या हैं? इसके उद्देश्य बताइए तथा यूनेस्को द्वारा भारत के मान्यता प्राप्त जीवमण्डल निचय का वर्णन कीजिए।
उत्तर-जीवमण्डल निचय
देश में जैव विविधता की सुरक्षा और संरक्षण के लिए विभिन्न उपाय किए जा रहे हैं। जीवमण्डल निचय भी इनमें एक है। ये विशेष प्रकार के भौमिक और तटीय पारिस्थितिक तन्त्र हैं, जिन्हें यूनेस्को के मानव और जीवमण्डल प्रोग्राम (MAB) के अन्तर्गत मान्यता प्राप्त है।
जीवमण्डल निचय के तीन मुख्य उद्देश्य हैं, जो निम्नांकित चित्र द्वारा स्पष्ट होते हैं
UP Board Solutions for Class 11 Geography Indian Physical Environment Chapter 5 Natural Vegetation (प्राकृतिक वनस्पति) img 2
भारत में 14 जीवमण्डल निचय हैं। इनमें से 4 जीवमण्डल निचय (नीलगिरि, नन्दादेवी, सुन्दरवन और मन्नार की खाड़ी) को यूनेस्को द्वारा मान्यता प्राप्त है।

1. नीलगिरि जीवमण्डल निचय-इस आरक्षित क्षेत्र की स्थापना 1986 की गई थी। यह भारत का पहला जीवमण्डल निचय है। इस निचय में वायनाड वन्य जीवन सुरक्षित क्षेत्र नगरहोल, बाँदीपुर
और मुदुमलाई, लिम्बूर का सारा वन से ढका ढाल, ऊपरी नीलगिरि पठार, सायलेण्ट वैली और सिद्वानी पहाड़ियाँ सम्मिलित हैं। इस जीवमण्डल निचय का कुल क्षेत्र 5,520 वर्ग किलोमीटर है।

2. नन्दादेवी जीवमण्डल निचय-जय जीवमण्डल निचय उत्तराखण्ड में स्थित है। इसमें चमोली, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिलों के भाग सम्मिलित हैं। इस निचय में शीतोष्ण कटिबन्धीय वन तथा कई प्रकार के वन्य-जीव; जैसे-हिम तेन्दुआ, काला भालू, भूरा भालू, कस्तूरी मृग, हिममुर्गा, बाज और काला बाज आदि पाए जाते हैं।

3. सुन्दरवन जीवमण्डल निचय-यह पश्चिम बंगाल में गंगा नदी के दलदली डेल्टा पर स्थित है। | यह विशाल क्षेत्र 9,630 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। यहाँ मैंग्रोव वृक्ष, लवणीय और ताजा जल प्राप्त है। सबको पर्यावरण के अनुरूप ढालते हुए बाघ पानी में तैरते हैं और चीतल, भौंकने वाला मृग, जंगली सूअर जैसे दुर्लभ जीव भी पाए जाते हैं।

4. मन्नार की खाड़ी का जीवमण्डल निचय-यह निचय लगभग एक लाख पाँच हजार हेक्टेयर क्षेत्र में फैला है और भारत के दक्षिण-पूर्वी तट पर स्थित है। समुद्री जीव विविधता के मामले में यह क्षेत्र विश्व के सबसे धनी क्षेत्रों में से एक है। इस जीवमण्डल निचय में 21 द्वीप हैं और इन पर अनेक ज्वारनदमुख पुलिन, तटीय पर्यावरण के जंगल, समुद्री घासे, प्रवालद्वीप, लवणीय अनूप
और मैंग्रोव पाए जाते हैं।

प्रश्न 3. भारत के जीवरिजर्व क्षेत्रों की भौगोलिक स्थिति, विस्तार और क्षेत्रफल का विवरण दीजिए।
उत्तर-भारत में 14 जीव रिजर्व क्षेत्र या जीवमण्डल निचय हैं। इनका नाम, कुल भौगोलिक क्षेत्रफल,. स्थिति और विस्तार अग्रांकित तालिका में दिया गया है
UP Board Solutions for Class 11 Geography Indian Physical Environment Chapter 5 Natural Vegetation (प्राकृतिक वनस्पति) img 3

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 5 Natural Vegetation (प्राकृतिक वनस्पति) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 5 Natural Vegetation (प्राकृतिक वनस्पति), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 4 Climate

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 4 Climate (जलवायु)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 4 Climate (जलवायु)

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

बहुवैकल्पिक प्रश्न
प्रश्न 1. नीचे दिए गए चार विकल्पों में से सही उत्तर चुनिए
(i) जाड़े के आरम्भ में तमिलनाडु के तटीय प्रदेशों में वर्षा किस कारण होती है?
(क) दक्षिण-पश्चिमी मानसून
(ख) उत्तर-पूर्वी मानसून
(ग) शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात
(घ) स्थानीय वायु परिसंचरण ।
उत्तर-(ख) उत्तर-पूर्वी मानसून।।।

(ii) भारत के कितने भू-भाग पर 75 सेंटीमीटर से कम औसत वार्षिक वर्षा होती है?
(क) आधा ।
(ख) दो-तिहाई
(ग) एक-तिहाई
(घ) तीन-चौथाई
उत्तर-(ग) एक-तिहाई। ।

(iii) दक्षिण भारत के सन्दर्भ में कौन-सा तथ्य ठीक नहीं है?
(क) यहाँ दैनिक तापान्तर कम होता है,
(ख) यहाँ वार्षिक तापान्तर कम होता है।
(ग) यहाँ तापमान वर्षभर ऊँचा रहता है।
(घ) यहाँ जलवायु विषम पाई जाती है ।
उत्तर-(घ) यहाँ जलवायु विषम पाई जाती है।

(iv) जब सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर रेखा पर सीधा चमकता है, तब निम्नलिखित में से क्या होता है?
(क) उत्तरी-पश्चिमी भारत में तापमान कम होने के कारण उच्च वायुदाब विकसित हो जाता है।
(ख) उत्तरी-पश्चिमी भारत में तापमान बढ़ने के कारण निम्न वायुदाब विकसित हो जाता है।
(ग) उत्तरी-पश्चिमी भारत में तापमान व वायुदाब में कोई परिवर्तन नहीं आता।
(घ) उत्तरी-पश्चिमी भारत में झुलसा देने वाली तेज लू चलती है।
उत्तर-(क) उत्तरी-पश्चिमी भारत में तापमान कम होने के कारण उच्च वायुदाब विकसित हो जाता है। |

(v) कोपेन के वर्गीकरण के अनुसार भारत में ‘As’ प्रकार की जलवायु कहाँ पाई जाती है?
(क) केरल और तटीय कर्नाटक में
(ख) अण्डमान और निकोबार द्वीप-समूह में
(ग) कोरोमण्डल तट पर
(घ) असम व अरुणाचल प्रदेश में
उत्तर-(ग) कोरोमण्डल तट पर।

प्रश्न 2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दो में दीजिए
(i) भारतीय मौसम तन्त्र को प्रभावित करने वाले तीन महत्त्वपूर्ण कारक कौन-से हैं? ।
उत्तर- भारतीय मौसम तन्त्र को प्रभावित करने वाले तीन महत्त्वपूर्ण कारक निम्नलिखित हैं
(क) वायुदाब तथा पवने,
(ख) जेट वायुधाराएँ ।
(ग) उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात।

(ii) अन्तःउष्ण कटिबन्धीय अभिसरण क्षेत्र क्या है?
उत्तर—विषुवत् वृत्त या उसके पास निम्न वायुदाब तथा आरोही वायु का क्षेत्र अन्त:उष्ण कटिबन्धीय अभिसरण क्षेत्र कहलाता है। इस क्षेत्र में व्यापारिक पवनें मिलती हैं; अतः इस क्षेत्र में वायु ऊपर उठने लगती है। इसे कभी-कभी मानसूनी गर्त भी कहते हैं। |

(iii) मानसून प्रस्फोट से आपका क्या अभिप्राय है?’भारत में सबसे अधिक वर्षा प्राप्त करने वाले| स्थान का नाम लिखिए।
उत्तर-वर्षा ऋतु अर्थात् दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ऋतु में जब अचानक वर्षा होती है तो बिजली तथा बादलों की गरजना भी होती है और तीव्रता के साथ वर्षा होने लगती है। अत: प्रचण्ड गर्जन और बिजली की कड़क के साथ आर्द्रता भरी पवनों का चलना तथा वर्षा होना मानसून प्रस्फोट कहलाता है। भारत में मेघालय राज्य में स्थित मॉसिनराम सबसे अधिक वर्षा प्राप्त करने वाला स्थान है।

(iv) जलवायु प्रदेश क्या होता है? कोपेन की पद्धति के प्रमुख आधार कौन-से हैं?
उत्तर-वह क्षेत्र जिसमें समान जलवायु दशाएँ (तापमान एवं वर्षा) पाई जाती हैं, जलवायु प्रदेश कहा जाता है। अत: एक जलवायु प्रदेश में जलवायु दशाओं की समरूपता होती है तो वास्तव में जलवायु कारकों के संयुक्त प्रभाव से उत्पन्न होती है। कोपेन ने जलवायु प्रदेशों के निर्धारण में तापमान तथा वर्षण के मासिक मानों को आधार माना है।

(v) उत्तर-पश्चिमी भारत में रबी की फसलें बोने वाले किसानों को किस प्रकार के चक्रवातों से वर्षा प्राप्त होती है? वे चक्रवात कहाँ उत्पन्न होते हैं?
उत्तर-उत्तर-पश्चिमी भारत में रबी की फसलें बोने के समय शीतोष्ण चक्रवात से वर्षा प्राप्त होती है। ये चक्रवात पूर्वी भूमध्य सागर से आते हैं। इनको पश्चिमी विक्षोभ भी कहा जाता है। ये चक्रवात पूर्वी भागों में पहुँचते हैं तथा सर्दियों में भारत में वर्षा करते हैं जो रबी फसल की बुवाई में उपयोगी होती है।

प्रश्न 3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 125 शब्दों में लिखिए|
(i) जलवायु में एक प्रकार का ऐक्य होते हुए भी भारत की जलवायु में क्षेत्रीय विभिन्नताएँ पाई जाती हैं। उपयुक्त उदाहरण देते हुए इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-भारत में मानसून की जलवायविक प्रवृत्ति देश की जलवायु में एक प्रकार का ऐक्य प्रकट करती है। यद्यपि भारत में बहुत-सी जलवायु सम्बन्धी प्रादेशिक विभिन्नताएँ देखने को मिलती हैं। उदाहरण के लिए–केरल और तमिलनाडु की जलवायु उत्तरी भारत के उत्तर प्रदेश तथा बिहार से भिन्न है, जबकि सारे देश में मानसूनी जलवायु कही जाती है।
जलवायु तत्त्वों में तापमान एवं वर्षा के वितरण में इसी प्रकार की जलवायु सम्बन्धी विभिन्नताएँ मिलती हैं। उदहारण के लिए राजस्थान के पश्चिमी क्षेत्र में तापमान ग्रीष्म ऋतु में 55C तक पहुँच जाता है, जबकि इसी समय अरुणाचल प्रदेश में तवांग का तापमान केवल 19°C रहता है। वर्षा के वितरण में भी इसी प्रकार की विभिन्नताएँ देखी जाती हैं। मेघालय के चेरापूंजी और मॉसिनराम में वार्षिक वर्षा 1,080 सेमी होती है जबकि राजस्थान के पश्चिमी क्षेत्र में केवल 10 सेमी वर्षा होती है। अतः जलवायु तत्त्वों के आधार पर यह देखा जाता है कि भारत में क्षेत्रीय विभिन्नताएँ विद्यमान हैं, किन्तु मानसून के आधार पर देश के विभिन्न सामाजिक और आर्थिक कार्यों एवं सांस्कृतिक विशेषताओं में पर्याप्त समानताएँ व्याप्त हैं। |

(ii) भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार भारत में कितने स्पष्ट मौसम पाए जाते हैं? किसी एक मौसम की दशाओं की सविस्तार व्याख्या कीजिए।
उत्तर-भारत में मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार वर्ष में अनुसार वर्ष में निम्नलिखित चार प्रकार के मौसम होते हैं
(1) शीत ऋतु ।
(2) ग्रीष्म ऋतु
(3) दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ऋतु और
(4) मानसून के निवर्तन की ऋतु।

शीत ऋतु।

भारत में शीत ऋतु का प्रारम्भ मध्य नवम्बर से हो जाता है। इस समय उत्तरी भारत में तापमान में गिरावट आरम्भ हो जाती है तथा उत्तरी भारत के अधिकांश भागों में औसत तापमान 21°C से कम रहता है। (जनवरी-फरवरी) रात्रि का तापमान काफी कम हो जाता है, जो पंजाब और राजस्थान में हिमांक से भी नीचे चला जाता है।

दक्षिणी भारत में सर्दी की ऋतु नहीं के बराबर होती है। यहाँ तापान्तर बहुत कम रहता हैं। तटीय प्रदेशों में तो यह बहुत कम रहता है। त्रिवेन्द्रम का तापमान जनवरी में 31C तथा जून में 29.5C तक रहता है। शीत ऋतु में पवनें उत्तर-पश्चिम से दक्षिण को चलती हैं जहाँ वायुदाब कम होता है।

शीत ऋतु में वर्षा अल्पतम होती है। इस समय उत्तरी भारत में वर्षा शीतोष्ण चक्रवात, जिन्हें पश्चिमी विक्षोभ कहते हैं, से होती है। यह वर्षा रबी की फसल के लिए लाभदायक रहती है। इसी समय भारत के पूर्वी तटीय भाग में भी विशेषकर तमिलनाडु में वर्षा होती है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. भारत में न्यूनतम तापमान कहाँ पाया जाता है?
(क) लेह में
(ख) शिमला में
(ग) चेरापूंजी में
(घ) श्रीनगर में
उत्तर-(क) लेह में।

प्रश्न 2. भारत में अधिकतम तापमान कहाँ पाया जाता है?
(क) तिरुवनन्तपुरम् में
(ख) भोपाल में ।
(ग) जैसलमेर में।
(घ) अहमदाबाद में
उत्तर-(ग) जैसलमेर में।

प्रश्न 3. भारत में अधिकतम वर्षा वाला स्थान है
(क) शिलांग
(ख) मॉसिनराम
(ग) गुवाहाटी
(घ) पंजाब
उत्तर-(ख) मॉसिनराम।

प्रश्न 4. भारत का नगर जो वृष्टिछाया प्रदेश में पड़ता है
(क) मुम्बई ।
(ख) जोधपुर
(ग) पुणे
(घ) चेन्नई
उत्तर-(ग) पुणे।।

प्रश्न 5. आम्रवृष्टि कहाँ होती है?
(क) केरल में
(ख) आन्ध्र प्रदेश में
(ग) तमिलनाडु में
(घ) असोम में
उत्तर-(क) केरल में।

प्रश्न 6. ‘काल-बैसाखी कहाँ प्रचलित है? ।
(क) केरल में
(ख) असोम में
(ग) उत्तर प्रदेश में
(घ) पंजाब में
उत्तर-(ख) असोम में।

प्रश्न 7. जेट धाराएँ हैं
(क) हिन्द महासागरों में चलने वाली
(ख) बंगाल की खाड़ी के चक्रवात
(ग) उपरितन वायु
(घ) मानसूनी पवनें
उत्तर-(ग) उपरितन वायु।।

प्रश्न 8. उत्तर भारत में शीतकालीन वर्षा का कारण है
(क) लौटते हुए मानसून ,
(ख) आगे बढ़ते हुए मानसून
(ग) शीतकालीन मानसून
(घ) पश्चिमी विक्षोभ ।
उत्तर-(घ) पश्चिमी विक्षोभ।

प्रश्न 9. सम्पूर्ण भारत में सर्वाधिक वर्षा वाला महीना है
(क) जून ।
(ख) जुलाई
(ग) अगस्त
(घ) ये सभी
उत्तर-(ख) जुलाई।

प्रश्न 10. चेरापूंजी किस राज्य में स्थित है?
(क) असोम में
(ख) मेघालय में
(ग) मिजोरम में
(घ) मणिपुर में
उत्तर-(ख) मेघालय में।

प्रश्न 11. भारत में सर्वाधिक वर्षा वाला क्षेत्र कौन-सा है?
(क) उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र
(ख) उत्तर-पूर्वी क्षेत्र
(ग) दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र ।
(घ) दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र
उत्तर-(ख) उत्तर-पूर्वी क्षेत्र।

प्रश्न 12. दैनिक तापान्तर निम्नलिखित में से किस क्षेत्र में सर्वाधिक पाया जाता है?
(क) दक्षिणी पठारी क्षेत्र ।
(ख) पूर्वी तटवर्ती क्षेत्र
(ग) थार मरुस्थल
(घ) पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्र
उत्तर-(ग) थार मरुस्थल।

प्रश्न 13. निम्नलिखित में से कौन राज्य भारत के सर्वाधिक वर्षा वाले क्षेत्र में सम्मिलित है?
(क) मेघालय
(ख) मध्य प्रदेश
(ग) ओडिशा
(घ) गुजरात
उत्तर-(क) मेघालय।

प्रश्न 14. भारत के किस राज्य में शीत ऋतु में वर्षा होती है?
(क) गुजरात
(ख) पश्चिम बंगाल
(ग) कर्नाटक
(घ) तमिलनाडु
उत्तर-(घ) तमिलनाडु। ||

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. मानसून से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-मानसून उन पवनों को कहते हैं जो वर्ष में छ: महीने (ग्रीष्म ऋतु) सागरों से स्थल की ओर तथा शेष छः महीने (शीत ऋतु) स्थल से सागरों की ओर चलती हैं।

प्रश्न 2. भारत में अधिकांश वर्षा किस ऋतु में होती है ?
उत्तर-भारत में अधिकांश अर्थात् 75% से 90% तक वर्षा आगे बढ़ते हुए मानसूनों द्वारा (जून से सितम्बर माह में) वर्षा ऋतु में होती है।

प्रश्न 3. थार मरुस्थल में अल्प वर्षा क्यों होती है ? दो कारण लिखिए।
उत्तर-थार मरुस्थल में अल्प वर्षा होने के दो कारण निम्नलिखित हैं

  • थार मरुस्थल अरबसागरीय मानसूनों के मार्ग में पड़ता है, किन्तु यहाँ मानसून पवनों को रोकने के लिए कोई ऊँची पर्वत-श्रेणी स्थित नहीं है।
  • अरावली की पहाड़ियाँ नीची हैं तथा पवनों की दिशा के समानान्तर हैं।

प्रश्न 4. दक्षिण-पश्चिमी मानसून की उत्पत्ति का प्रमुख क्या कारण है ?
उत्तर-दक्षिण-पश्चिम मानसून की उत्पत्ति के दो प्रमुख कारण हैं

  • ग्रीष्म काल में देश के उत्तर-पश्चिमी (स्थलीय) भू-भागों में निम्न वायुदाब तथा समीपवर्ती समुद्री | भागों (हिन्द महासागर, अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी) में उच्च वायुदाब का होना।
  • क्षोभमण्डल की ऊपरी परतों में तीव्रगामी पुरवा जेट पवनों का चलना।

प्रश्न 5. जेट वायुधाराएँ किन्हें कहते हैं ?
उत्तर–वायुमण्डल की क्षोभमण्डल नामक परत के ऊपरी भाग में तेज गति से चलने वाली पवनों को जेट वायुधाराएँ कहते हैं। ये बहुत सँकरी पट्टी में चलती हैं।

प्रश्न 6. भारत में पायी जाने वाली ऋतुओं के नाम लिखिए।
उत्तर-(1) शीत ऋतु, (2) ग्रीष्म ऋतु, (3) वर्षा ऋतु (आगे बढ़ते मानसून की ऋतु) तथा (4) शरद ऋतु (पीछे हटते हुए मानसून की ऋतु।)

प्रश्न 7. भारत में सर्वाधिक वर्षा किस राज्य में होती है ?
उत्तर- भारत में सर्वाधिक वर्षा मेघालय (मॉसिनराम) राज्य में होती है।

प्रश्न 8. ग्रीष्मकालीन मानसूनी पवनों की दिशा का वर्णन कीजिए।
उत्तर-ग्रीष्मकालीन मानसूनी पवनों की दिशा उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम होती है।

प्रश्न 9. भारत में अधिकांश वर्षा किस प्रकार की होती है?
उत्तर- भारत की लगभग 95% अधिकांश वर्षा पर्वतीय है।

प्रश्न 10. लौटते हुए मानसून से भारत के किन दो राज्यों में वर्षा होती है ?
उत्तर-लौटते हुए मानसून से भारत में तमिलनाडु एवं पॉण्डिचेरी (अब पुदुचेरी) राज्यों में वर्षा होती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. वर्षा और वर्षण में अन्तर लिखिए।
उत्तर- (i) वर्षा–यह वर्षण का एक विशिष्ट रूप है, जिसमें बादलों के जल-वाष्प कण संघनित होकर जल की बूंदों या हिमकणों के रूप में भू-पृष्ठ पर गिरते हैं। जलवर्षा तथा हिमवर्षा इसके दो रूप हैं।

(ii) वर्षण—यह एक व्यापक प्रक्रिया है, जिसमें वायुमण्डल की आर्द्रता संघनित होकर वर्षा, हिम, ओला, पाला आदि रूपों में धरातल पर गिरती है। जल-वर्षा, वर्षण का एक साधारण रूप है। हिमवृष्टि, ओलावृष्टि, हिमपात आदि इसके अनेक रूप हैं।

प्रश्न 2. ‘आम्रवृष्टि’ और ‘काल-बैसाखी में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-(i) आम्रवृष्टि-ग्रीष्म ऋतु के अन्त में केरल तथा कर्नाटक के तटीय भागों में मानसून से पूर्व की वर्षा का यह स्थानीय नाम इसलिए पड़ा है, क्योकि यह वर्षा आम के फलों को शीघ्र पकाने में सहायता करती है।

(ii) काल-बैसाखी-ग्रीष्म ऋतु में बंगाल तथा असोम में भी उत्तर-पश्चिमी तथा उत्तरी पवनों द्वारा, वर्षा की तेज बौछारें पड़ती हैं। यह वर्षा प्रायः सायंकाल में होती है। इसी वर्षा को ‘काल-बैसाखी’ कहते हैं। इसका अर्थ है-बैसाख मास का काल।।

प्रश्न 3. भारत में आगे बढ़ते हुए मानसून की ऋतु की तीन विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर भारत में आगे बढ़ते हुए मानसून की ऋतु की तीन विशेषताएँ निम्नलिखित हैं|

  • भारत में आगे बढ़ते हुए मानसून की ऋतु जून से सितम्बर तक रहती है। इस ऋतु में समस्त भारत में वर्षा होती है।
  • वर्षा ऋतु की अवधि दक्षिण से उत्तर की ओर तथा पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है। देश के सबसे उत्तर-पश्चिमी भागों में यह अवधि केवल दो महीने की होती है।
  • देश की 75 से 90% वर्षा इसी ऋतु में होती है।

प्रश्न 4. भारत में कम वर्षा वाले तीन क्षेत्र कौन-कौन-से हैं?
उत्तर–कम वर्षा वाले क्षेत्रों से अभिप्राय ऐसे क्षेत्रों से है जहाँ 50 सेमी से भी कम वार्षिक वर्षा होती है। ये क्षेत्र हैं-

  • पश्चिमी राजस्थान तथा इसके निकटवर्ती पंजाब, हरियाणा व गुजरात के क्षेत्र।
  • सह्याद्रि के पूर्व में फैले दकन के पठार के आन्तरिक भाग।
  • कश्मीर में लेह के आस-पास का प्रदेश।

प्रश्न 5. जाड़ों में वर्षा वाले भारत के दो’क्षेत्रों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-शीत ऋतु में स्थलीय पवनें शुष्क होती हैं; अतः प्रायः सम्पूर्ण देश में मौसम शुष्क रहता है, परन्तु निम्नलिखित दो क्षेत्रों में जाड़ों में भी वर्षा होती है

1. देश के उत्तर-पश्चिमी भाग-भूमध्य सागर की ओर से आने वाले पश्चिमी विक्षोभों से कुछ वर्षा । देश के उत्तर-पश्चिमी भागों में होती है।

2. तमिलनाडु तट-तमिलनाडु तट पर भी शीतकाल में वर्षा होती है। उत्तर-पूरब की ओर से चलने वाली स्थलीय मानसून पवनें जब बंगाल की खाड़ी को पार कर तमिलनाडु तट पर पहुँचती हैं तो ये कुछ आर्द्रता ग्रहण कर लेती हैं तथा तटों पर वर्षा करती हैं।

प्रश्न 6. जलवायु का प्राकृतिक वनस्पति व जीव-जन्तुओं पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर-पर्यावरण के सभी अंगों में जलवायु मानव-जीवन को सबसे अधिक प्रभावित करती है। भारत में कृषि राष्ट्र के अर्थतन्त्र की धुरी है, जो वर्षा की विषमता से सबसे अधिक प्रभावित होती है। मानसूनी वर्षा बड़ी ही अनियमित एवं अनिश्चित है। जिस वर्ष वर्षा अधिक एवं मूसलाधार रूप में होती है तो अतिवृष्टि के परिणामस्वरूप बाढ़े आ जाती हैं तथा भारी संख्या में धन-जन का विनाश करती हैं। इसके विपरीत जिन क्षेत्रों में वर्षा कम होती है या अनिश्चितता की स्थिति होती है तो अनावृष्टि के कारण सूखा पड़ जाता है, जिससे फसलें सूख जाती हैं तथा पशुधन को भी पर्याप्त हानि उठानी पड़ती है। जलवायु का प्राकृतिक वनस्पति व जीव-जन्तुओं पर प्रभाव निम्नलिखित है

1. प्राकृतिक वनस्पति पर प्रभाव-किसी देश की प्राकृतिक वनस्पति न केवल धरातल और मिट्टी के गुणों पर निर्भर करती है, वरन् वहाँ के तापमान और वर्षा को भी उस पर प्रभाव पड़ता है, क्योंकि पौधे के विकास के लिए वर्षा, तापमान, प्रकाश और वायु की आवश्यकता पड़ती है; उदाहरणार्थ- भूमध्यरेखीय प्रदेशों में निरन्तर तेज धूप, कड़ी गर्मी और अधिक वर्षा के कारण ऐसे वृक्ष उगते हैं; जिनकी पत्तियाँ घनी, ऊँचाई बहुत और लकड़ी अत्यन्त कठोर होती है। इसके विपरीत मरुस्थलों में काँटेदार झाड़ियाँ भी बड़ी कठिनाई से उग पाती हैं; क्योंकि यहाँ वर्षा का
अभाव होता है। वास्तव में जलवायु वनस्पति का प्राणाधार है।

2. जीव-जन्तुओं पर प्रभाव-जलवायु की विविधता ने प्राणियों में भी विविधता स्थापित की है। जिस प्रकार विभिन्न जलवायु में विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ पायी जाती हैं, वैसे ही विभिन्न जलवायु प्रदेशों में अनेक प्रकार के जीव-जन्तु पाये जाते हैं; उदाहरणार्थ-कुछ जीव-जन्तु वृक्षों की शाखाओं पर रहकर सूर्य की गर्मी और प्रकाश प्राप्त करते हैं; जैसे- नाना प्रकार के बन्दर, चमगादड़ आदि। इसके विपरीत कुछ जीव-जन्तु जल में निवास करते हैं; जैसे—मगरमच्छ, दरियाई घोड़े आदि। ठीक इससे भिन्न प्रकार के प्राणी टुण्ड्री प्रदेश में पाये जाते हैं जिनके शरीर पर
लम्बे और मुलायम बाल होते हैं, जिनके कारण वे कठोर शीत से अपनी रक्षा करते हैं।

प्रश्न 7. अल्पवृष्टि तथा अतिवृष्टि का वर्णन कीजिए।
उत्तर 1. अल्पवृष्टि ।
अल्पवृष्टि का तात्पर्य वर्षा न होने से है जिसके कारण अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जलाभाव के कारण फसलें नष्ट हो जाती हैं। नदी, तालाब, कुएँ सूखने लगते हैं। पानी का घोर संकट उत्पन्न हो जाता है जिससे सभी प्रकार के जीवों का जीवन संकटग्रस्त हो जाता है। पशुओं के लिए पानी तथा चारे की समस्या पैदा हो जाती है।

2. अतिवृष्टि
अतिवृष्टि का तात्पर्य ऐसी अत्यधिक वर्षा से है जो लाभ की अपेक्षा हानि पहुँचाती है। अतिवृष्टि से नदी, जलाशय, तालाब सभी जल से भर जाते हैं। नदियों में बाढ़ आ जाती है जिससे उनके किनारे बसे गाँव, नगर तथा फसलें प्रभावित हो जाती हैं। अतिवृष्टि से बहुत-से लोग घर-विहीन हो जाते हैं। बाढ़ के बाद अनेक प्रकार के संक्रामक रोग फैलने लगते हैं। अतिवृष्टि का सर्वाधिक प्रभाव फसलों पर पड़ता है। इससे सामान्य जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है।

प्रश्न 8. भारत की चार प्रमुख ऋतुओं के नाम लिखकर उनका संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर–भारत की चार ऋतुओं के नाम तथा उनका संक्षिप्त विवेचन निम्नवत् है-
1. शीत ऋतु-लगभग पूरे भारत में दिसम्बर, जनवरी तथा फरवरी के महीनों में शीत ऋतु होती है।
इस ऋतु में उत्तर-पश्चिमी मैदानी भागों में उच्च वायुदाब रहता है तथा देश के ऊपरी भागों में उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवने स्थल से सागरों की ओर चलती हैं। पवनों के स्थल भागों से चलने के कारण यह ऋतु शुष्क होती है। इस ऋतु में दक्षिण से उत्तर की ओर जाने में तापमान घटता जाता है। यहाँ दिन सामान्यत: अल्प उष्ण एवं रातें ठण्डी होती हैं। ऊँचे स्थानों पर पाला भी पड़ जाता है।

2. ग्रीष्म ऋतु-21 मार्च के बाद सूर्य की स्थिति उत्तरायण हो जाती है। अब मार्च, अप्रैल और मई के बीच अधिक तापमान की पेटी दक्षिण से उत्तर की ओर खिसक जाती है। इस समय देश के उत्तर-पश्चिमी भागों में तापमान 48° सेल्सियस तक पहुँच जाता है। फलस्वरूप अत्यधिक गर्मी पड़ने के कारण इस भाग में निम्न वायुदाब के क्षेत्र बन जाते हैं। इसे ‘मानसून का निम्न वायुदाब गर्त कहते हैं। इस ऋतु में शुष्क एवं गर्म पवनें चलने लगती हैं, जिन्हें ‘लू’ कहा जाता है। इन दिनों पंजाब, हरियाणा, पूर्वी राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में धूलभरी आँधियाँ भी चलती हैं।

3. आगे बढ़ते हुए मानसून की ऋतु-सम्पूर्ण देश में जून, जुलाई, अगस्त और सितम्बर के महीनों में ही अधिकांश वर्षा होती है। वर्षा की अवधि एवं मात्रा उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है। भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों में यह अवधि केवल दो महीनों की होती है। तथा वर्षा का 75% से 90% भाग इसी अवधि में प्राप्त हो जाता है।

4. पीछे लौटते हुए मानसून की ऋतु-अक्टूबर और नवम्बर के महीनों में मानसूने पीछे लौटने लगता है। अक्टूबर माह के अन्त तक मानसून मैदान से पूर्णतः पीछे हट जाता है। इस समय शुष्क ऋतु का आगमन होता है तथा आकाश स्वच्छ हो जाता है। तापमान में कुछ वृद्धि होती है। उच्च तापमान और आर्द्रता के कारण मौसम कष्टदायी हो जाता है। निम्न वायुदाब के क्षेत्र बंगाल की खाड़ी में स्थानान्तरित हो जाते हैं। इस अवधि में पूर्वी तट पर व्यापक वर्षा होती है। सम्पूर्ण कोरोमण्डल तट पर अधिकांश वर्षा इन्हीं चक्रवातों और अवदाबों के कारण होती है।

प्रश्न 9. मानसून से क्या अभिप्राय है? ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा की चार विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-मानसून’ शब्द की व्युत्पत्ति अरबी भाषा के ‘मौसिम’ शब्द से हुई है। इनका शाब्दिक अर्थ ऋतु है। इस प्रकार मानसून का अर्थ एक ऐसी ऋतु से है, जिसमें पवनों की दिशा पूरी तरह से उलट जाती है। मानसूनी पवनें हिन्द महासागर में विषुवत् वृत्त पार करने के बाद दक्षिण-पश्चिमी व्यापारिक पवनों के रूप में बहने लगती हैं। इस प्रकार शुष्क तथा गर्म स्थलीय व्यापारिक पवनों का स्थान आर्द्रता से परिपूर्ण समुद्री पवनें ले लेती हैं। मानसूनी पवनों के अध्ययन से पता चला है कि इन पवनों का प्रसार 20° उत्तर तथा 20° दक्षिण अक्षांशों के बीच उष्ण कटिबन्धीय भू-भागों पर होता है। लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में मानसून हिमालय की पर्वत-श्रेणी से बहुत अधिक प्रभावित होता है। इन पर्वत-श्रेणियों के कारण पूरा भारतीय उपमहाद्वीप दो से पाँच महीनों तक आर्द्र विषुवतीय पवनों के प्रभाव में आ जाता है। अत: जून से लेकर सितम्बर तक ही 75-90% के बीच वार्षिक वर्षा होती है।

ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा की चार विशेषताएँ
1. ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा की अवधि दक्षिण से उत्तर तथा पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है। देश के सबसे उत्तर-पश्चिमी भाग में यह अवधि केवल दो महीने की होती है। इस अवधि में 75% से 90% तक वर्षा हो जाती है।

2. ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षावाहिनी पवनें बड़ी तेजी से चलती हैं। इनकी औसत गति 30 किलोमीटर प्रति घण्टा होती है। उत्तर-पश्चिमी भागों को छोड़कर ये एक महीने में सारे भारत में फैल जाती हैं। आर्द्रता से भरी इन पवनों के आने के साथ ही बादलों का प्रचण्ड ग़र्जन तथा बिजली चमकनी शुरू हो जाती है। इसे मानसून का फटना’ या टूटना’ कहते हैं।

3. ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा लगातार नहीं होती। कुछ दिनों तक वर्षा होने के बाद मौसम सूखा रह्ता | है। मानसून के इस घटते-बढ़ते स्वरूप का कारण चक्रवातीय अवदाब हैं, जो मुख्य रूप से बंगाल की खाड़ी के शीर्ष भाग में उत्पन्न होते हैं और भारत-भूमि के ऊपर से गुजरते हैं।

4. ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा अपनी स्वेच्छाचारिता के लिए विख्यात है। इससे एक ओर तो कुहीं | भारी वर्षा से भयंकर बाढ़ आ सकती है तो दूसरे स्थान पर सूखा पड़ सकता है। इससे करोड़ों
किसानों के खेती के काम प्रभावित होते हैं।

प्रश्न 10. भारत की जलवायु पर हिमालय पर्वत के प्रभावों को स्पष्ट कीजिए।
या यदि भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत न होता तो उसका भारत की जलवायु पर क्या प्रभाव पड़ता?
उत्तर-हिमालय पर्वत की स्थिति का भारत की जलवायु पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ता है
1. हिमालय पर्वत उत्तर में साइबेरिया तथा उत्तरी ध्रुव की ओर से आने वाली शीतल तथा बर्फीली पवनों के मार्ग में बाधक बनकर उन्हें भारत में आने से रोक देता है। यदि ये पवनें भारत में प्रवेश कर जातीं तो सम्पूर्ण उत्तरी भारत हिम से जम जाता।।

2. हिमालय पर्वत दक्षिण की ओर से आने वाली ग्रीष्मकालीन मानसूनी पवनों को रोककर उन्हें भारत में वर्षा करने को विवश कर देता है। यदि भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत न होता तो उत्तर का विशाल मैदान शुष्क मरुस्थल में परिणत हो गया होता।

3. हिमालय पर्वत के उच्च शिखरों पर जमी हुई हिम, ग्रीष्म ऋतु में भी नदियों को सतत रूप से जल प्रदान करती रहती है तथा उन्हें सदानीरा बनाए रखती है। इससे समस्त उत्तरी भारत को ग्रीष्म ऋतु | में भी कृषि फसलों की सिंचाई के लिए जल उपलब्ध होता रहता है।

प्रश्न 11. शीतकालीन वर्षा का भारतीय कृषि पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर-भारत में शीतकालीन वर्षा बहुत-ही कम होती है। इसकी मात्रा कुल वर्षा का केवल 2% भाग ही है। इतनी कम वर्षा होते हुए भी फसलोत्पादन पर इसका महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। शीत ऋतु के आरम्भ में मानसून लौटने लगते हैं; अत: इनकी दिशा बदलकर स्थल से समुद्र की ओर हो जाती है। स्थल भागों से आने के कारण लौटते मानसून आर्द्रता-शून्य होते हैं; अत: वर्षा नहीं कर पाते, परन्तु पूर्वी भूमध्य सागर में उत्पन्न चक्रवाते अर्थात् पश्चिमी विक्षोभों द्वारा उत्तरी भारत में तथा बंगाल की खाड़ी में उठने वाले चक्रवातों से : तमिलनाडु में शीतकालीन वर्षा होती है, जिसका औसत 65 सेमी रहता है।
तमिलनाडु राज्य शीत ऋतु में वर्षा प्राप्त करने वाला प्रधान राज्य है। इस राज्य में मार्च से मई तक वर्षा की कमी के कारण कृषि कार्य स्थगित रखना पड़ता है, परन्तु अक्टूबर-नवम्बर माह में वर्षा होने पर नई फसलें बोई जाती हैं। अत: शीत ऋतु यहाँ कृषि उत्पादन के लिए सर्वोत्तम समय है। यहाँ शीत ऋतु में वर्षा होते ही चावल की दूसरी फसल बोई जाती है। शीत ऋतु में होने वाली वर्षा के कारण ही यह क्षेत्र भारत का महत्त्वपूर्ण चावल उत्पादक प्रदेश बन गया है।

प्रश्न 12. दक्षिण-पश्चिमी मानसून की उत्पत्ति के क्या कारण हैं?
उत्तर-21 मार्च को सूर्य विषुवत रेखा पर लम्बवत् चमकता है तथा इसके पश्चात् वह कर्क रेखा की ओर बढ़ने लगता है। 21 जून को सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर लम्बवत् चमकती हैं, फलस्वरूप समस्त उत्तरी भारत में तापमाने अत्यधिक बढ़ जाता है। भारत का पाकिस्तान-सीमावर्ती क्षेत्र मरुस्थलीय होने के कारण
और भी अधिक गर्म हो जाता है। इस अत्यधिक गर्मी के परिणामस्वरूप भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों में निम्न वायुदाब के क्षेत्र उत्पन्न हो जाते हैं तथा पवनें हल्की होकर ऊपर उठ जाती हैं, फलस्वरूप इस भाग में पवनों का दबाव अत्यन्त कम हो जाता है।
इसके विपरीत हिन्द महासागर में तापमान निम्न होने के कारण वायुदाब उच्च हो जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि निम्न वायुदाब, उच्च वायुदाब को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। अर्थात् पवने महासागरों की ओर से स्थल-खण्डों की ओर चलने लगती हैं। सागर के ऊपर से चलने के कारण ये पवनें आर्द्रता से परिपूर्ण हो जाती हैं और दक्षिण से उत्तर की ओर चलना आरम्भ कर देती हैं,परन्तु जैसे ही ये पवने विषुवत् रेखा को पार करती हैं, पृथ्वी की दैनिक गति के कारण इनकी दिशा दक्षिण-पश्चिम हो जाती है, जो दक्षिण-पश्चिमी मानसून कहलाता है। इस प्रकार विपरीत वायुदाबों की उत्पत्ति ही दक्षिण-पश्चिमी मानसून की उत्पत्ति का प्रमुख कारण है।

प्रश्न 13. पश्चिमी विक्षोभ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-शीत ऋतु में भूमध्य सागर की ओर से भारत की ओर चलने वाली तूफानी पवनों को पश्चिमी । विक्षोभ (Western Disturbances) के नाम से जाना जाता है। भारत में शीत ऋतु बड़ी सुहावनी एवं आनन्ददायक होती है। स्वच्छ आकाश, निम्न तापमान एवं आर्द्रता, शीतल मन्द समीर तथा वर्षारहित दिन इस ऋतु की प्रमुख विशेषताएँ हैं, परन्तु इस सुहावने मौसम में कभी-कभी पश्चिमी अवदाबों (Depressions) के आ जाने के कारण भी मौसत बदल जाता है। ये अवदाब जब पूर्व की ओर बढ़ते हैं तो मार्ग में पड़ने वाले कैस्पियन सागर एवं फारस की खाड़ी से कुछ आर्द्रता ग्रहण कर लेते हैं, जिस कारण उत्तरी भारत में हल्की वर्षा हो जाती है। यद्यपि इस वर्षा की मात्रा बहुत कम होती है, परन्तु रबी की फसल, विशेष रूप से गेहूं की कृषि के लिए यह वर्षा बहुत लाभप्रद होती है।

प्रश्न 14. पर्वतीय वर्षा एवं वृष्टि-छाया प्रदेश किसे कहते हैं?
उत्तर–निम्न वायुभार उच्च वायुभार को अपनी ओर आकर्षित करता है। यदि उच्च वायुभार राशि किसी जल आप्लावित क्षेत्र से होकर गुजरे तो वह आर्द्रतायुक्त हो जाती है। जब इसके मार्ग में कोई पर्वत शिखर या पठार अवरोधस्वरूप उपस्थित होता है तो वायुराशि द्रवीभूत होकर वर्षा करती है। इस प्रकार होने वाली वर्षा को पर्वतीय वर्षा या उच्चावचीय वर्षा कहते हैं। मध्यवर्ती अक्षांशों में शरद् ऋतु एवं शीत ऋतु के आरम्भ में तथा मानसूनी प्रदेशों में ग्रीष्म ऋतु में इसी प्रकार की वर्षा होती है।

वायुराशियों द्वारा अवरोध के सम्मुख वाले भाग में अत्यधिक वर्षा होती है, जबकि विमुख भागों तक पहुँचते-पहुँचते वायुराशियों की आर्द्रता समाप्त हो जाती है। इन प्रदेशों को वृष्टि-छाया प्रदेश के नाम से पुकारा जाता है। उदाहरण के लिए भारत में दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी पवनों की अरब सागरीय शाखा द्वारा पश्चिमी घाट के वायु अभिमुख ढाल पर 640 सेमी (महाबलेश्वर में) वर्षा हो जाती है, जबकि इसके विमुख ढाल पर पुणे में मात्रा 50 सेमी या उससे भी कम वर्षा होती है। अत: दक्षिण भारत का यह क्षेत्र वृष्टि-छाया प्रदेश कहलाता है।

प्रश्न 15. उत्तरी भारत के किन राज्यों में बाढ़ (Flood) का प्रकोप रहता है और क्यों?
उत्तर-उत्तरी भारत के असम, पश्चिम बंगाल, बिहार तथा उत्तर प्रदेश राज्यों में बाढ़ का प्रकोप सर्वाधिक रहता है। इन प्रदेशों में एक ओर तो मूसलाधार वर्षा होती है, दूसरे जल के साथ पर्याप्त मिट्टी बहकर नदियों की तली में एकत्र हो जाती है, जिस कारण अवसादों के जमा होने से नदियों की तलहटी ऊँची हो जाती है, फलस्वरूप नदियों का जल अपनी घाटी के दोनों ओर फैलकर बाढ़ का रूप ले लेता है। इसके अतिरिक्त उत्तरी भारत में धरातल का ढाल भी अत्यन्त कम है, जो बाढ़ को प्रोत्साहित करता है। इन्हीं कारणों से उत्तरी भारत में वर्षा ऋतु में बाढ़ का प्रकोप अधिक रहता है।

प्रश्न 16. क्या कारण है कि चेरापूँजी में अत्यधिक वर्षा होती है?
उत्तर-चेरापूंजी, मेघालय राज्य में एक ऐसी घाटी की तलहटी में स्थित है जो तीन ओर से गारो, खासी तथा जयन्तिया की पहाड़ियों से घिरा है। बंगाल की खाड़ी के मानसून की एक शाखा उत्तर तथा उत्तर-पूर्व दिशा में ब्रह्मपुत्र की घाटी की ओर बढ़ जाती है। इससे उत्तर-पूर्वी भारत में अत्यधिक वर्षा होती है। इसकी एक उपशाखा मेघालय स्थित गारो, खासी और जयन्तिया की पहाड़ियों से टकराती है। इन पहाड़ियों के दक्षिण भाग में चेरापूंजी स्थिति है। अतः स्थलाकृति की दृष्टि से विशिष्ट स्थिति तथा पवनों की दिशा के कारण चेरापूँजी संसार का अत्यधिक वर्षा वाला स्थान बन गया है। यहाँ की वार्षिक वर्षा का औसत 1,200 सेमी से भी अधिक है। यहाँ 2,250 सेमी तक वर्षा हो चुकी है। अब चेरापूंजी के समीप (मात्र 16 किमी की दूरी पर) मॉसिनराम गाँव में सर्वाधिक वर्षा (1,354 सेमी) होती है।

प्रश्न 17. ‘क्वार मास की उमस’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-अक्टूबर एवं नवम्बर के महीनों में भारत की मुख्य भूमि से मानसून लौटने लगता है, क्योंकि इस ऋतु में मानसून का निम्न वायुदाब गर्त क्षीण पड़ जाता है तथा उसका स्थान उच्च वायुदाब लेने लगता है। वायुभार बढ़ने तथा मानसूनी पवनों की शक्ति क्षीण हो जाने के कारण मानसूनी पवनें लौटने लगती हैं, फलस्वरूप भारतीय क्षेत्र से इसका प्रभाव क्षेत्र सिकुड़ने लगता है। धरातलीय पवनों की दिशा विपरीत होनी आरम्भ हो जाती है। अक्टूबर माह के अन्त तक मानसून विशाल मैदानों से पूर्णत: पीछे हट जाता है। ये दोनों महीने संक्रमणीय जलवायु दशाएँ रखते हैं। इनमें उष्णार्द्र वर्षा ऋतु का स्थान शुष्क ऋतु ले लेती है। मानसून के प्रत्यावेदन से आकाश साफ हो जाता है और तापमान पुन: बढ़ने लगता है। भूमि अभी भी आर्द्रता से युक्त होती है। अत: उच्च तापमान एवं आर्द्रता के कारण मौसम बड़ा ही कष्टदायक हो जाता है, जिसे क्वार की उमस के नाम से पुकारा जाता है।

प्रश्न 18. जेट पवनें किन्हें कहते हैं?
उत्तर-ऊपरी वायुमण्डल के अध्ययन से मौसम वैज्ञानिकों ने मानसूनों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का रहस्योद्घाटन किया है। वास्तव में ऊपरी वायुमण्डल में तीव्र गति से चलने वाली पवनो को जेट पवनें कहते हैं?

जेट पवनों का नामकरण अमेरिकी बमवर्षक विमान बी-29 के नाम पर हुआ है। द्वितीय महायुद्ध में इन बमवर्षकों को जापान की उड़ान भरने पर प्रबल वेग वाली वायु का सामना करना पड़ता था, जिससे विमानों की गति मन्द पड़ जाती थी तथा कभी-कभी इनका आगे बढ़ना भी कठिन हो जाता था। परन्तु जब यही विमान अमेरिका की ओर वापस आते थे, तब इनके वेग में अपार वृद्धि हो जाती थी। इसी कारण इनका नामकरण जेट पवनों (जेट स्ट्रीम्स) के नाम पर हुआ। ये जेट धाराएँ पूर्व से पश्चिम की ओर 62 किमी की ऊँचाई पर चलती हैं। शीत ऋतु में ये विषुवत् रेखा के अधिक निकट परन्तु 20° अक्षांशों तक प्रवाहित होती हैं। ग्रीष्म ऋतु की अपेक्षा शीत ऋतु में इनका वेग दोगुना हो जाता है। सामान्य रूप से इनका वेग 480 किमी प्रति घण्टा होता है।

प्रश्न 19, चेन्नई का तट शुष्क रहता है जबकि मालाबारं का तट जुलाई के महीने में वर्षा प्राप्त करता | है। कारण बताइए।
उत्तर-मालाबार तट भारत के पश्चिमी तटीय क्षेत्र में स्थित है, जबकि चेन्नई तट पूर्वी तटीय प्रदेश में है। जुलाई माह में अरब सागर से आने वाली वर्षावाही मानसून पवनें पश्चिमी घाट से टकराकर भारी वर्षा करती हैं। इन्हीं पवनों से मालाबार तट पर जुलाई मास में पर्याप्त वर्षा होती है, किन्तु तब ये पवनें पूर्व की ओर आगे बढ़ती हैं तब ये जलविहीन हो जाती हैं। अत: इन पवनों से चेन्नई तट पर वर्षा नहीं होती है। यही कारण है कि जुलाई में जब मालाबार तट पर भारी वर्षा होती है तब चेन्नई तट शुष्क रहता है।

प्रश्न 20. भारत में मानसून को ‘किसान के लिए जुआ क्यों कहा जाता है?
उत्तर-भारत में कृषि मानसूनी वर्षा पर अधिक निर्भर है। जिस वर्ष वर्षा पर्याप्त नियमित एवं समय पर हो जाती है उस वर्ष किसान की फसल की पैदावार भी अच्छी होती है, किन्तु जब वर्षा कम होती है या समय पर *नहीं होती तो किसान की फसल नष्ट हो जाती है। इसी दृष्टि से भारत में मानसून को किसान का जुआ कहते हैं। वास्तव में मानसूनी वर्षा की प्रकृति इस प्रकार की है जिसे देखकर इससे होने वाले लाभ-हानि को निश्चित नहीं किया जा सकता। विशेष रूप से वर्षा के असमान वितरण, अतिवृष्टि, अनावृष्टि तथा अल्प अवधि में ही अधिक वर्षा आदि लक्षणों के कारण इसे किसान की फसल की दृष्टि से एक जुआ माना जाता

प्रश्न 21. भारत के मानसून रचना तन्त्र का वर्णन कीजिए।
उत्तर-मानसूनों के विषय में प्राचीन मत यही था कि इसका सम्बन्ध केवल धरातलीय पवनों से ही है, परन्तु आधुनिक अनुसन्धानों से ज्ञात हुआ है कि ऊपरी जेट पवनें मानसून के रचना तन्त्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। मौसम वैज्ञानिकों को प्रशान्त महासागर तथा हिन्द महासागर के ऊपर होने वाले मौसम सम्बन्धी परिवर्तनों के पारस्परिक सम्बन्धों की जानकारी प्राप्त हुई है। उत्तरी गोलार्द्ध में प्रशान्त महासागर के उपोष्ण कटिबन्धीय प्रदेश में जिस समय कयुभार अधिक होता है उसी समय हिन्द महासागर. के दक्षिणी भाग में वायुभार कम रहता है। ऋतुओं में विषुवत् वृत्त के आर-पार पवनों की स्थिति भी बदलती रहती है। विषुवत् । वृत्त के आर-पार पवन-पेटियों के खिसकने तथा इनकी तीव्रता से मानसून प्रभावित होता है। 20° दक्षिणी अक्षांशों से लेकर 20° उत्तरी अक्षांशों के मध्य में स्थित उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों पर मानसून का प्रसार रहता है, परन्तु भारतीय उपमहाद्वीप में इन पर हिमालय पर्वतश्रेणियों का बहुत प्रभाव पड़ता है। इनके प्रभाव से पूरा भारतीय उपमहाद्वीप विषुवतीय आर्द्र पवनों के प्रभाव में आ जाता है। मानसूनों का यह प्रभाव 2 से 5 माह तक बना रहता है। यहाँ जून से सितम्बर तक 75% से 90% तक वर्षा इसी मानसून तन्त्र के कारण होती है।

प्रश्न 22. मानसून के ‘फटने या ‘टूटने से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर-आर्द्रता से भरी दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी पवनें बड़ी तेज चलती हैं। इनकी औसत गति 30 किलोमीटर प्रति घण्टा है। उत्तर-पश्चिमी भागों को छोड़कर ये एक महीने की अवधि में सारे भारत में फैल जाती हैं। आर्द्रता से भरी इन पवनों के आने के साथ ही बादलों का प्रचण्ड गर्जन तथा बिजली का चमकना । शुरू हो जाता है। इसे ही मानसून का ‘फटना’ या ‘टूटना’ कहा जाता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. जलवायु से आप क्या समझते हैं ? जलवायु को प्रभावित करने वाले कारकों (परिघटनाओं) का वर्णन कीजिए।
या भारत की स्थिति का उसकी जलवायु पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
या भारत की जलवायु पर हिमालय पर्वत का क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर- जलवायु
लम्बी अवधि (30 से 50 वर्षों) के दौरान मौसम सम्बन्धी दशाओं के साधारणीकरण को जलवायु कहते हैं अर्थात् भू-पृष्ठ के विस्तृत क्षेत्र में मौसम की दशाओं की समग्र जटिलता, उसके औसत लक्षण और परिवर्तन का परिसर जलवायु कहलाता है। सामान्यतः ये दशाएँ अनेक वर्षों की दशाओं का परिणाम होती हैं और ताप, वायुमण्डलीय दाब, वायु आर्द्रता, मेघ, वर्षण तथा अन्य मौसम तत्त्वों के कारण उत्पन्न होती हैं।

भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक
विभिन्न स्थानों पर भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं
1. अवस्थिति-भारत भूमध्य रेखा के उत्तर में 8°4 तथा 37°6′ उत्तर अक्षांश तथा 687′ से 97°25′ पूर्वी देशान्तर के बीच स्थित है। कर्क वृत्त रेखा देश के लगभग मध्य से होकर गुजरती है। इसीलिए देश का उत्तरी भाग उपोष्ण कटिबन्ध में तथा दक्षिणी भाग उष्ण कटिबन्ध में पड़ता है। इस कटिबन्धीय स्थिति के कारण दक्षिणी भाग में ऊँचे तापमान तथा उत्तरी भाग में विषम तापमान पाये जाते हैं।
भारत हिन्द महासागर, अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी से घिरा एक प्रायद्वीपीय देश है। इस प्रायद्वीपीय स्थिति का प्रभाव तापमानों तथा वर्षा पर पड़ता है। समुद्रतटीय भागों की जलवायु सम रहती है, जब कि आन्तरिक भागों में विषम जलवायु पायी जाती है। वर्षा की मात्रा भी तटीय भागों से आन्तरिक भागों की ओर घटती है।

2. पृष्ठीय पवनें-उपोष्ण कटिबन्धीय स्थिति के कारण भारत शुष्क व्यापारिक पवनों के क्षेत्र में पड़ता है, किन्तु भारत की विशिष्ट प्रायद्वीपीय स्थिति, तापमानों-वायुदाब की भिन्नता आदि कारणों से भारत में मानसूनी पवनें सक्रिय रहती हैं। ये पवनें ऋतु-क्रम से अपनी दिशा बदलती रहती हैं। तदनुसार भारत में ग्रीष्मकालीन (दक्षिण-पश्चिमी) मानसून तथा शीतकालीन (उत्तर-पूर्वी) मानसून सक्रिय होते हैं। इन्हीं मानसूनों से भारत को अधिकांश वर्षा प्राप्त होती है। अत: भारतीय मानसून के अध्ययन के बिना उसकी जलवायु के विषय में नहीं जाना जा सकता।

3. उच्चावच (हिमाचल)–भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत-श्रेणी एक प्रभावशाली जलवायु विभाजक का कार्य करती है। यह उत्तरी बर्फीली पवनों को भारत में प्रवेश करने से रोकती है तथा
दक्षिण की ओर से आने वाली मानसूनी पवनों को रोककर देश में व्यापक वर्षा कराती है। इसी प्रकार पश्चिमी घाट की पहाड़ियाँ भी अरबसागरीय मानसूनों को रोककर पश्चिमी ढालों पर भारी वर्षा कराती हैं। हिमालय रूपी पर्वत-श्रृंखला के कारण ही उत्तरी भारत में उष्ण-कटिबन्धीय जलवायु पायी जाती है। इस जलवायु की दो विशेषताएँ हैं-(i) पूरे वर्ष में अपेक्षाकृत उच्च तापमान तथा (ii) शुष्क शीत ऋतु। कुछ क्षेत्रों को छोड़कर पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में ये दोनों ही विशेषताएँ पायी जाती हैं।

4. उपरितन वायु-उपरितन वायु से अभिप्राय ऊपरी वायुमण्डल में चलने वाली वायुधाराओं से है। ये भूपृष्ठ से बहुत ऊँचाई पर (9 किमी से 12 किमी तक) तीव्र गति से चलती हैं। इन्हें जेट वायुधाराएँ भी कहते हैं। ये बहुत सँकरी पट्टी में चलती हैं। शीत ऋतु में हिमालय के दक्षिणी भाग के ऊपर स्थित समताप मण्डल में पश्चिमी जेट वायुधारा चलती है। जून में यह उत्तर की ओर खिसक जाती है तथा 15° उत्तरी अक्षांश के ऊपर चलने लगती है। उत्तरी भारत में मानसून के . अचानक विस्फोट के लिए यही वायुधारा उत्तरदायी मानी जाती है। इसके शीतल प्रभाव से बादल उमड़ने लगते हैं, फिर बरसते हैं। आठ-दस दिनों में ही पूरे देश में मानसून का प्रसार हो जाता है। . ग्रीष्म ऋतु की अपेक्षा शीत ऋतु में इनका वेग दोगुना हो जाता है। साधारणतः इनका वेग लगभग 500 किमी प्रति घण्टा होता है तथा ध्रुवीं की ओर बढ़ने पर इनके वेग में कमी आ जाती है।

5. अलनिनो-यह एक ऐसी मौसमी परिघटना है, जिसका प्रभाव समूचे विश्व पर पड़ता है। भारत की मानसूनी जलवायु भी इस परिघटना से प्रभावित होती है। इस तन्त्र में पूर्वी प्रशान्त महासागर के पीरू तट पर गर्म धारा प्रकट होने पर हिन्द महासागर में स्थित भारत में अकाल या वर्षा की कमी की स्थिति हो जाती है। अलनिनो के समाप्त होने पर प्रशान्त महासागर की सतह पर तापमान तथा वायुदाब की स्थिति पहले जैसी हो जाती है। इन उतार-चढ़ावों को दक्षिणी दोलन’ (Southern Oscillation) कहा जाता है। मानसूनों के प्रबल या दुर्बल होने में ‘दक्षिणी दोलन’ का बहुत प्रणव पड़ता है।

प्रश्न 2. उत्तर-पूर्वी मानसून तथा लौटते हुए मानसून में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर–उत्तर-पूर्वी मानसून तथा लौटते हुए मानसून में निम्नवत् अन्तर हैं
UP Board Solutions for Class 11 Geography Indian Physical Environment Chapter 4 Climate (जलवायु) img 1
UP Board Solutions for Class 11 Geography Indian Physical Environment Chapter 4 Climate (जलवायु) img 2

प्रश्न 3. भारत की ग्रीष्मकालीन एवं शीतकालीन जलवायु का वर्णन कीजिए।
या भारतीय जलवायु का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों में कीजिए
(क) शीत ऋतु तथा (ख) ग्रीष्म ऋतु।
या शीत ऋतु में दक्षिण भारत में वर्षा क्यों होती है ?
उत्तर-भारत की ग्रीष्मकालीन जलवायु
भारत में ग्रीष्मकालीन जलवायु मार्च से मध्य जून तक रहती है। इस ऋतु में देश में मौसम की सामान्य दशाएँ निम्नलिखित होती हैं-
1. तापमान–सूर्य के उत्तरायण होने के कारण ऊष्मा की पेटी दक्षिण से उत्तर की ओर खिसकने लगती है। सम्पूर्ण देश में तापमान बढ़ने लगता है। अप्रैल में गुजरात तथा मध्य प्रदेश में तापमान 42° से 43° सेल्सियस तक पहुँच जाता है। मई में तापमान की वृद्धि 48° सेल्सियस तक हो जाती है। तथा मरुस्थलीय क्षेत्र में 50° सेल्सियस तक तापमान पहुँच जाता है।

2. वायुदाब तथा पवनें-उत्तरी भारत में तापमानों की वृद्धि होने से वायुदाब घट जाता है। मई के अन्त तक एक लम्बा सँकरो निम्न वायुदाब गर्त थार मरुस्थल से लेकर बिहार में छोटा नागपुर के पठार तक विस्तृत हो जाता है। इस निम्न वायुदाब गर्त के चारों ओर वायु का संचरण होने लगता है। दोपहर के बाद शुष्क और गर्म ‘लू’ (पवने) चलने लगती हैं। पंजाब, हरियाणा, पूर्वी राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में सायंकाल को धूलभरी आँधियाँ आती हैं। यदा-कदा आँधियों के बाद हल्की वर्षा हो जाती है तथा मौसम सुहाना हो जाता है।

3. वर्षण–यदा-कदा आर्द्रता से लदी पवनें मानसून के निम्न दाब गर्त की ओर खिंच आती हैं। तब शुष्क और आर्द्र वायु-राशियों के मिलने से स्थानीय तूफान आते हैं। तेज पवनें, मूसलाधार वर्षा
और कभी-कभी ओले भी पड़ते हैं।
केरल तथा कर्नाटक के तटीय भागों में ग्रीष्म ऋतु के अन्त में तथा मानसून से पूर्व कुछ वर्षा होती है, जिसे स्थानीय रूप से ‘आम्रवर्षा’ कहते हैं। यह वर्षा आम के फल को शीघ्र पकाने में सहायक होती है, इसीलिए इसे ‘आम्रवृष्टि’ नाम दिया गया है। अप्रैल में, बंगाल और असोम में उत्तर-पश्चिमी तथा उत्तरी पवनों द्वारा मेघ गर्जन, तड़ित-झंझा के साथ तेज बौछारें पड़ती हैं। इन्हें ‘काल-बैसाखी’ कहते हैं। कभी-कभी इन पवनों के द्वारा इन क्षेत्रों को भारी हानि भी उठानी पड़ जाती है।

भारत की शीतकालीन जलवायु

भारत में शीतकालीन जलवायु दिसम्बर से फरवरी तक रहती है। इस जलवायु की सामान्य दशाएँ निम्नलिखित हैं

1. तापमान-सामान्यतः देश में तापमान दक्षिण से उत्तर की ओर तथा समुद्र तट से आन्तरिक भागों की ओर घटते हैं। तिरुवनन्तपुरम् तथा चेन्नई में दिसम्बर में औसत तापमान 25° से 27°C के लगभग रहते हैं। दिल्ली और जोधपुर में तापमान 15° से 16°C तक रहते हैं। लेह में औसत तापमान -6°C तक गिर जाते हैं। उत्तरी मैदान में व्यापक रूप से पाला पड़ता है। इस ऋतु में दिन सामान्यतः कोष्ण (कम उष्ण) एवं रातें ठण्डी होती हैं।

2. वायुदाब-देश के उत्तर-पश्चिमी भाग में उच्च वायुदाब क्षेत्र स्थापित होता है। यहाँ से पवनें बाहर की ओर 3 किमी से 5 किमी प्रति घण्टा के वेग से चलने लगती हैं। इस क्षेत्र की स्थलाकृति
।का प्रभाव भी इन पवनों पर पड़ता है। समुद्रवर्ती भागों में कम वायुदाब रहता है; अत: पवनें स्थल से समुद्र की ओर चलती हैं। गंगा घाटी में इन पवनों की दिशा पश्चिमी या उत्तर-पश्चिमी होती है। गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा में इनकी दिशा उत्तरी हो जाती है। स्थलाकृति के प्रभाव से मुक्त होकर बंगाल की खाड़ी के ऊपर इनकी दिशा उत्तर-पूर्वी हो जाती है।

3. वर्षा-स्थलीय पवनें शुष्क होती हैं; अत: प्रायः सम्पूर्ण देश में मौसम शुष्क रहता है। भूमध्य सागर की ओर से आने वाले पश्चिमी विक्षोभों से कुछ वर्षा देश के उत्तर-पश्चिमी भागों में होती है। हिमालय श्रेणी में हिमपात होता है। तमिलनाडु तट पर भी शीतकाल में वर्षा होती है। उत्तर-पूरब की ओर से चलने वाली स्थलीय मानसूनी पवनें जब बंगाल की खाड़ी को पार कर तमिलनाडु तट
पर पहुँचती हैं, तो ये कुछ आर्द्रता ग्रहण कर लेती हैं तथा तटों पर वर्षा करती हैं।

प्रश्न 4. भारतीय मानसूनी वर्षा की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-भारतीय वर्षा की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. मानसूनी वर्षा–भारतीय वर्षा को लगभग 75% भाग दक्षिण-पश्चिमी मानसूनों द्वारा प्राप्त होता है, अर्थात् कुल वार्षिक वर्षा का 75% वर्षा ऋतु में, 13% शीत ऋतु में, 10% वसन्त ऋतु में तथा 2% ग्रीष्म ऋतु में प्राप्त होता है।

2. वर्षा की अनिश्चितता—भारतीय मानसूनी वर्षा का प्रारम्भ अनिश्चित है। मानसून कभी शीघ्र | आते हैं तो कभी देर से। कभी-कभी वर्षा ऋतु में सूखा पड़ जाता है तथा कभी अत्यधिक वर्षा से बाढ़े तक आ जाती हैं। किसी वर्ष वर्षा नियत समय से पूर्व ही आरम्भ हो जाती है एवं निश्चित समय से पूर्व ही समाप्त हो जाती है।

3. वितरण की असमानता-भारतीय वर्षा का वितरण बड़ा ही असमान है। कुछ भागों में वर्षा 490 सेमी या उससे अधिक हो जाती है, जबकि कुछ भाग ऐसे हैं जहाँ वर्षा का औसत 12 सेमी से भी कम रहता है।

4. मूसलाधार वर्षा–भारत में वर्षा अनवरत गति से नहीं होती, वरन् कुछ दिनों के अन्तराल से होती है। कभी-कभी वर्षा मूसलाधार रूप में होती है और एक ही दिन में 50 सेमी तक हो जाती है। यह मिट्टी का अपरदन करती है, जिससे मिट्टी के उत्पादक तत्त्व बह जाते हैं।

5. असमान वर्षा–कुछ भागों में वर्षा बड़ी तीव्र गति से होती है तथा कुछ भागों में केवल बौछारों के रूप में। एक ओर मॉसिनराम गाँव (चेरापूँजी) में 1,354 सेमी से भी अधिक वर्षा होती है, तो वहीं राजस्थान में केवल 10 सेमी से भी कम। कुछ स्थानों पर वर्षा की प्राप्ति असन्दिग्ध रहती है। वर्षा हो भी सकती है और नहीं भी। भारत के उत्तरी मैदान में तथा दक्षिणी भागों में ऐसी ही स्थिति पायी जाती है।

6. वर्षा की अल्पावधि-भारत में वर्षा के दिन बहुत ही कम होते हैं। उदाहरण के लिए–चेन्नई में | 50 दिन, मुम्बई में 75 दिन, कोलकाता में 118 दिन तथा अजमेर में केवल 30 दिन।

7. वर्षा की निश्चित अवधि–कुल वर्षा का लगभग 80% जून से सितम्बर तक प्राप्त हो जाता है, फलत: वर्ष का दो-तिहाई भाग सूखा ही रह जाता है, जिससे फसलों की सिंचाई करनी पड़ती है।

8. पर्वतीय वर्षा–भारत की लगभग 95% वर्षा पर्वतीय है, जबकि मात्र 5% वर्षा ही चक्रवातों द्वारा होती है।

9. वर्षा की निरन्तरता—भारत में प्रत्येक मास में किसी-न-किसी क्षेत्र में वर्षा होती रहती है। शीतकालीन चक्रवातों द्वारा जनवरी एवं फरवरी महीनों में उत्तरी भारत में वर्षा होती है। मार्च में चक्रवात असोम एवं पश्चिम बंगाल राज्यों में सक्रिय रहते हैं। इनसे तब तक वर्षा होती है जब तक दक्षिण-पश्चिमी मानसून पुनः चलना न आरम्भ कर दें।

प्रश्न 6. भारत में वर्षा के वार्षिक वितरण को स्पष्ट कीजिए तथा अपने उत्तर की पुष्टि रेखाचित्र से | कीजिए।
या भारतीय वर्षा के वितरण पर एक लेख लिखिए।
उत्तर-भारत में वर्षा का वार्षिक वितरण |
भारत में वर्षा का वितरण बहुत विषम है। देश में कुल वर्षा का औसत लगभग 110 सेमी (40 इंच) है। किन्तु इस सामान्य से वर्षा का विचलन 10% से 40% तक हो जाता है। सामान्यत: 85% वर्षा दक्षिण-पश्चिमी मानसूनों (जुलाई-सितम्बर) से प्राप्त होती है, लगभग 10% ग्रीष्मकालीन मानसूनों से, 5% लौटते हुए मानसूनों से (अक्टूबर-दिसम्बर) तथा 5% शीतकाल में होती है। देश में वर्षा का प्रादेशिक वितरण भी बहुत असमान रहता है। सामान्य रूप से भारत में वर्षों की निश्चितता तथा अनिश्चितता के आधार पर उसे दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

1. निश्चित वर्षा के प्रदेश–इस प्रदेश के अन्तर्गत हिमालय का तराई प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, असोम, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, नागालैण्ड, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर, पश्चिमी घाट के पश्चिमी ढाल, ऊपरी नर्मदा घाटी तथा मालाबार तट सम्मिलित किये जाते हैं।
UP Board Solutions for Class 11 Geography Indian Physical Environment Chapter 4 Climate (जलवायु) img 3
2. अनिश्चित वर्षा के प्रदेश–अनिश्चित वर्षा के प्रदेश में उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात के मध्यवर्ती भाग, पूर्वी घाट, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश के दक्षिणी और पश्चिमी भाग, कर्नाटक, बिहार तथा ओडिशा सम्मिलित हैं। अनिश्चित वर्षा वाले प्रदेशों को अग्रलिखित । भागों में बाँटा गया है

(i) अधिक वर्षा वाले क्षेत्र–इसके अन्तर्गत पश्चिमी तट के कोंकण, मालाबार, दक्षिणी
कनारा तथा उत्तर में हिमालय के दक्षिणी क्षेत्र में उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, मेघालय, असोम, नागालैण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर तथा त्रिपुरा राज्य सम्मिलित हैं। इन क्षेत्रों में वर्षा का औसत 200 सेमी से अधिक रहता है।

(ii) साधारण वर्षा वाले क्षेत्र-इन क्षेत्रों में बिहार, ओडिशा, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिमी घाट के पूर्वोत्तर ढाल, पश्चिम बंगाल, दक्षिणी उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश सम्मिलित हैं। यहाँ वर्षा का औसत 100 से 200 सेमी के मध्य रहता है। इन क्षेत्रों में वर्षा की विषमता 15 से 20% तक पायी जाती है। कभी-कभी इन क्षेत्रों में अधिक वर्षा होने से बाढ़ आ जाती है, जबकि कभी वर्षा की कमी से अकाल पड़ जाते हैं। इस प्रकार इन क्षेत्रों में वर्षा की अधिकता एवं कमी में मानसूनों का प्रमुख योगदान होता है। इसी कारण यहाँ बड़ी-बड़ी बहुउद्देशीय नदी-घाटी परियोजनाएँ क्रियान्वित की गयी हैं।

(ii) न्यून वर्षा वाले क्षेत्र–इन क्षेत्रों में वर्षा की कमी अनुभव की जाती है। यहाँ पर वर्षा का वार्षिक औसत 50 से 100 सेमी तक रहता है। इस प्रदेश के अन्तर्गत दक्षिण की प्रायद्वीप, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पश्चिमी मध्य प्रदेश, उत्तरी एवं दक्षिणी आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, पूर्वी राजस्थान, दक्षिणी पंजाब तथा दक्षिणी उत्तर प्रदेश राज्यों के भाग सम्मिलित हैं। वर्षा की विषमता 20 से 25 सेमी तक तथा अपर्याप्त व अनिश्चित रहती है। इन प्रदेशों में अकाल की सम्भावना बनी रहती है। अतः यहाँ सिंचाई के सहारे गेहूँ, कपास, ज्वार, बाजरा, तिलहन आदि फसलें उत्पन्न की जाती हैं।

(iv) अपर्याप्त वर्षा के क्षेत्र अथवा मरुस्थलीय क्षेत्र-ये भारत के शुष्क क्षेत्र हैं, जहाँ पर 50 सेमी से भी कम वर्षा होती है। वर्षा की कमी के कारण यहाँ सदैव सूखे की समस्या बनी रहती है। बिना सिंचाई के कृषि-कार्य इन क्षेत्रों में बिल्कुल असम्भव है। पश्चिमी राजस्थान के सम्पूर्ण क्षेत्र इसके अन्तर्गत आते हैं। तमिलनाडु का रायलसीमा क्षेत्र भी इसके अन्तर्गत आता है।

प्रश्न 7.भारतीय जलवायु पर चक्रवातीय एवं प्रतिचक्रवातीय तूफानों को क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर-चक्रवातों एवं प्रतिचक्रवातों का मौसम व जलवायु पर विशेष प्रभाव पड़ता है। इनका ऊपरी वायु संचरण से भी गहरा सम्बन्ध होता है। ये कभी-कभी इतने प्रबल हो जाते हैं कि वायु के सामान्य परिसंचरण को अस्पष्ट कर देते हैं। चक्रवात अरब सागर एवं बंगाल की खाड़ी में चलते हैं तथा तटीय क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं। बंगाल की खाड़ी में चलने वाले चक्रवातों से कभी-कभी भारी धन-जन की हानि होती है। वास्तव में चक्रवात में वायुदाब बाहर से अन्दर की ओर कम होता जाता है। समदाब रेखाएँ वृत्ताकारे या अण्डकार होती हैं। अल्पतम वायुदाब केन्द्र दो गर्त-रेखाओं का प्रतिच्छेदन बिन्दु होती है। इसी कारण इनमें वायु बाहर से अन्दर की ओर चलती है। चक्रवात बहुत बड़े क्षेत्र पर फैले होते हैं जिनका व्यास छोटे क्षेत्रों में कई सौ किमी जबकि बड़े चक्रवातों को कई हजार किमी में होता है। इस प्रकार चक्रवात से प्रभावित क्षेत्र का मौसम बड़ा ही खराब होता है।

प्रतिचक्रवात सामान्यत: साफ मौसम का प्रतीक समझा जाता है, परन्तु इसमें सदैव मौसम साफ नहीं रहता। इसका मौसम इसकी वायुराशि के गुणों और ग्रीष्म एवं शीत ऋतु पर निर्भर रहता है। ग्रीष्म ऋतु में प्रतिचक्रवात में शुष्क, गरम मौसम एवं स्वच्छ आकाश होता है जिसमें उच्च दैनिक ताप परिसर पाए जाते हैं। शीत ऋतु में जिन प्रतिचक्रवातों में ध्रुवीय ठण्डी एवं शुष्क वायु होती है, उनमें निम्न ताप और स्वच्छ आकाश के साथ रात्रि में पाला पड़ता है। परन्तु जिन प्रतिचक्रवातों में ध्रुवीय समुद्री वायु होती है, उनमें आकाश स्तरी मेघों से ढक जाता है, जिसे प्रतिचक्रवाती अंधकार कहते हैं। ऐसी दशा में बड़े नगरों के उद्योगों द्वारा प्रदूषण की गम्भीर समस्या उत्पन्न हो जाती है और कुहरा छाया रहता है।

प्रश्न 8. भारत की जलवायु दशाओं की क्षेत्रीय विषमताओं को उपयुक्त उदाहरण देते हुए समझाइए।
उत्तर-भारत में विभिन्न प्रकार की जलवायु दशाएँ पाई जाती हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान और एक ऋत से दूसरी ऋतु में तापमान एवं वर्षा में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। भारतीय जलवायु में निम्नलिखित विषमताएँ उल्लेखनीय हैं

1. तापन्तर–तापमान का जलवायु पर विशिष्ट प्रभाव पड़ता है। भारत में राजस्थान और दक्षिण-पश्चिमी पंजाब जैसे ऐसे भी स्थान हैं जहाँ तापमान 55° सेल्सियस तक पहुँच जाता है, जबकि दूसरी ओर जम्मू और कश्मीर में कारगिल के समीप ऐसे स्थान हैं जहाँ तापमान -45° सेल्सियस तक नीचे चला जाता है।

2. वर्षा की निश्चित अवधि–सामान्यतया भारत में मानसूनी वर्षा की अवधि 15 जून से 15 सितम्बर तक होती है। इस समय देश में 75% से 90% तक वर्षा हो जाती है। इस अवधि को वर्षा ऋतु कहा जाता है। इस प्रकार वर्षा का अधिकांश भाग वर्षारहित रहता है, केवल कुछ छिट-पुट क्षेत्रों में ही सामान्य वर्षा हो पाती है।

3. मूसलाधार वर्षा-भारत में वर्षा बहुत ही तीव्र गति से (मूसलाधार) होती है। कभी-कभी एक ही दिन में 50 सेमी तक वर्षा हो जाना सामान्य-सी बात है। वर्षा की तीव्रता के कारण अधिकांश जल
अनावश्यक ही बह जाता है। इस कारण मृदा का अपरदन होता है तथा वह अनुत्पादक हो जाती है।

4. अनिश्चित वर्षा–भारत में दक्षिण-पश्चिमी मानसून की सबसे बड़ी विषमता उसकी अनिश्चितता है। कभी-कभी वर्षा अत्यधिक हो जाती है जिससे बाढ़ आ जाती है या कभी-कभी वर्षा बिल्कुल ही नहीं हो पाती है जिससे सूखा पड़ जाता है। इसी कारण भारतीय कृषि मानसून का जुआ कहलाती है।

5. वर्षा की अनियमितता–भारत में वर्षा पूर्णतया मानसून पर निर्भर करती है। यदि मानसून शीघ्र आ जाता है तो वर्षा भी शीघ्र ही आरम्भ हो जाती है। इसके विपरीत मानसून के देर.से आने पर वर्षा भी देर से ही आरम्भ होती है।

6. वर्षा का असमान वितरण–देश में वर्षा का वितरण बड़ा ही असमान है। एक ओर माँसिनराम गाँव (चेरापूंजी के निकट) में वार्षिक वर्षा का औसत 1,354 सेमी रहता है, तो दूसरी ओर राजस्थान में यह औसत केवल 5 सेमी से 10 सेमी के मध्य ही रहता है।

प्रश्नं 9. भारत की अधिकांश वर्षा गर्मियों में होती है-कारणों का उल्लेख करते हुए भारत में वर्षा का वितरण लिखिए।
या भारत की मानसून ऋतु का वर्णन कीजिए।
या भारत में दक्षिण-पश्चिमी मानसून द्वारा होने वाली वर्षा का वर्णन कीजिए।
या ‘आगे बढ़ता हुआ मानसून-भारत की इस ऋतु का वर्णन कीजिए।
उत्तर-भारत की वैषी ऋतु (मानसून ऋतु)
वर्षा ऋतु (आगे बढ़ते हुए मानसून की ऋतु)–जून से सितम्बर के मध्य सम्पूर्ण देश में व्यापक रूप से वर्षा होती है। वर्षा का 75% से 90% भाग इसी अवधि में प्राप्त हो जाता है।

दक्षिण-पश्चिमी मानसून की उत्पत्ति-ग्रीष्म ऋतु में देश के उत्तर-पश्चिमी मैदानी भागों में निम्न वायुदाब का क्षेत्र विकसित हो जाता है। जून के प्रारम्भ तक निम्न वायुदाब का यह क्षेत्र इतना प्रबल हो जाता है कि दक्षिण गोलार्द्ध की व्यापारिक पवनें भी इस ओर खिंचे आती हैं। इन दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनों की उत्पत्ति समुद्र से होती है। हिन्द महासागर में विषुवत् वृत्त को पार करके ये पवनें बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर में पहुँच जाती हैं । इसके बाद ये भारत के वायु-संचरण का अंग बन जाती हैं। विषुवतीय गर्म धाराओं के ऊपर से गुजरने के कारण ये भारी मात्रा में आर्द्रता ग्रहण कर लेती हैं। विषुवत् । वृत्त पार करते ही इनकी दिशा दक्षिण-पश्चिम हो जाती है। इसीलिए इन्हें दक्षिण-पश्चिमी मानसून कहा जाता है।

मानसून का फटना–वर्षावाहिनी पवनें बड़ी तेज चलती हैं। इनकी औसत गति 30 किमी प्रति घण्टा होती है। उत्तर-पश्चिम के दूरस्थ भागों को छोड़कर ये पवनें एक महीने के अन्दर-अन्दर सारे भारत में फैल जाती हैं। आर्द्रता से लदी इन पवनों के साथ ही बादलों का प्रचण्ड गर्जन तथा बिजली का चमकना शुरू हो जाता है। इसे मानसून का ‘फटना’ अथवा ‘टूटना’ कहते हैं।

दक्षिण-पश्चिमी मानसून की शाखाएँ–भारत की प्रायद्वीपीय स्थिति के कारण मानसून की दो शाखाएँ हो जाती हैं

(क) अरब सागर की शाखा-अरब सागर की शाखा सबसे पहले पश्चिमी घाट के पर्वतों से
टकराकर सह्याद्रि के पवनाभिमुख ढालों पर भारी वर्षा करती है। पश्चिमी घाट को पार करके यह शाखा दकन के पठार और मध्य प्रदेश में पहुँच जाती है। वहाँ भी इससे पर्याप्त मात्रा में वर्षा होती है। तत्पश्चात् इसका प्रवेश गंगा के मैदानों में होता है, जहाँ बंगाल की खाड़ी की शाखा भी आकर इसमें मिल जाती है। अरब सागर के मानसून की शाखा का दूसरा भाग सौराष्ट्र के प्रायद्वीप तथा कच्छ में पहुँच जाता है। इसके बाद यह पश्चिमी राजस्थान और अरावली पर्वत-श्रेणियों के ऊपर से गुजरता है। वहाँ इसके द्वारा बहुत हल्की वर्षा होती है। पंजाब और हरियाणा में पहुँचकर यह शाखा भी बंगाल की खाड़ी की शाखा में मिलकर हिमालय के पश्चिमी भाग में भारी वर्षा करती है।

(ख) बंगाल की खाड़ी की शाखा-बंगाल की खाड़ी की मानसून शाखा म्यांमार (बर्मा) तट की ओर तथा बांग्लादेश के दक्षिण-पूर्वी भागों की ओर बढ़ती है। परन्तु म्यांमार के तट के साथ-साथ फैली अराकान पहाड़ियाँ इस शाखा के बहुत बड़े भाग को भारतीय उपमहाद्वीप की दिशा में मोड़ देती हैं। इस प्रकार यह पश्चिमी दिशा से न आकर दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्वी दिशाओं से आती है। विशाल हिमालय तथा उत्तर-पश्चिमी भारत के निम्न वायुदाब के प्रभाव से यह शाखा दो भागों में बँट जारी है। एक शाखा पश्चिम की ओर बढ़ती है तथा गंगा के मैदानों को पार करती हुई पंजाब के मैदानों तक पहुँचती है। इसकी दूसरी शाखा ब्रह्मपुत्र की घाटी की ओर बढ़ती है। यह उत्तर-पूर्वी भारत में भारी वर्षा करती है। इसकी एक उपशाखा मेघालय में गारो और खासी की पहाड़ियों से टकराती है और वहाँ खूब वर्षा करती है। सबसे अधिक वर्षा मॉसिनराम (Mausinram) (मेघालय) में होती है। यहाँ वार्षिक वर्षा का औसत 1,354 सेण्टीमीटर है।

वर्षा का वितरण–दक्षिण-पश्चिमी मानसून से होने वाली वर्षा के वितरण पर उच्चावच का बहुत प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए-पश्चिमी घाट के पवनविमुख ढालों पर 250 सेमी से अधिक वर्षा होती है। इसके विपरीत पश्चिमी घाट के पवनाभिमुख ढालों पर 50 सेमी से भी कम वर्षा होती है। इसी प्रकार उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी भारी वर्षा होती है, परन्तु उत्तरी मैदानों में वर्षा की मात्रा पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है। इस विशिष्ट ऋतु में कोलकाता में लगभग 120 सेमी, पटना में 102 सेमी, इलाहाबाद में 91 सेमी तथा दिल्ली में 56 सेमी वर्षा होती है।

प्रश्न 10. भारत की जलवायु का कृषि तथा उद्योग-धन्धों/आर्थिक जीवन पर प्रभाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-(क) कृषि

जलवायु का प्रभाव कृषि कार्य और उत्पादन भारत को उद्योग/आर्थिक जीवन पर भी पड़ता है, जो निम्नवत् है
1. भारत में खरीफ फसलों की बुवाई वर्षा के आरम्भ होने के साथ शुरू हो जाती है। जब वर्षा समयसे प्रारम्भ हो जाती है और नियमित अन्तराल पर होती रहती है तब कृषि उत्पादन यथेष्ठ मात्रा में प्राप्त होता है।

2. जिन भागों में कम वर्षा होती है अथवा सूखा पड़ता है वहाँ कृषि फसलें सिंचाई के बिना पैदा नहीं की जा सकती हैं।

3. मूसलाधार वर्षा होते रहने से बाढ़ आ जाती है और बाढ़-प्रभावित क्षेत्रों में कृषि फसलें नष्ट हो ।जाती हैं तथा भारी धन-जन की हानि होती है।

4. समय से पूर्व वर्षा आरम्भ होने तथा समय से पहले वर्षा समाप्त होने से भी आर्थिक क्रियाकलाप प्रभावित होते हैं।

5. ग्रीष्म ऋतु में उत्तरी भारत में तापमान बहुत ऊँचे हो जाते हैं और गर्म लू चलने लगती है जिससे | खेतों में काम करना कठिन हो जाता है अर्थात् आर्थिक क्षमता घट जाती है।

6. भारत में किसी वर्ष जलवृष्टि बहुत कम हो पाती है, जिससे फसलें नष्ट हो जाती हैं और देश में अकाल पड़ जाता है। इसके विपरीत कभी-कभी वर्षा इतनी अधिक हो जाती है, जिसके कारण नदियों में बाढ़ आ जाती है। इससे भी फसलें नष्ट हो जाती हैं। इस कारण भारत की कृषि को मानसून का जुआ कहा जाता है।

7. भारत की जलवायु के कृषकों को भाग्यवादी एवं निराशावादी बना दिया है।

8. चक्रवाती वर्षा के कारण पंजाब, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश में गेहूं व गन्ने की फसलों को लाभ | मिलता है।

9. भारत में ग्रीष्मऋतु में हरे चारे की कमी हो जाती है जिससे पशुओं पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

(ख) उद्योग धन्ये/आर्थिक जीवन

दक्षिणी भारत की जलवायु उत्तरी भारत की अपेक्षा अधिक सम है, समुद्री तट निकट होने के कारण यहाँ उष्णार्द्र जलवायु पाई जाती है। यही कारण है कि भारत में अधिकांश सूती वस्त्र की मिलें दक्षिणी भारत के महाराष्ट्र, गुजरात राज्यों के तटीय भागों में स्थित हैं। इसके विपरीत उत्तरी पर्वतीय भाग अधिक ठण्डा जलवायु प्रदेश है, इसीलिए वहाँ ऊनी वस्त्रों को कुटीर व लघु उद्योगों के रूप में विकसित किया गया है। इसी प्रकार मैदानी भाग में गन्ना उत्पादन की अनुकूल दशाओं के कारण चीनी उद्योग का पर्याप्त विकास हुआ है।

अत: भारत की जलवायु का कृषि प्रतिरूप एवं औद्योगिक विकास पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है जिससे देश की अर्थव्यवस्था का जलवायु से व्यापक सम्बन्ध सिद्ध होता है।

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 4 Climate (जलवायु) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 4 Climate (जलवायु), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.