UP Board Solutions for Class 10 Hindi शैक्षिक निबन्ध

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शैक्षिक निंबन्ध

37. समाचार-पत्र

सम्बद्ध शीर्षक

  • समाचार-पत्रों का महत्त्व

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. समाचार-पत्रों का आविष्कार और विकास;
  3. समाचार-पत्रों के विविध रूप,
  4. समाचार-पत्रों का महत्त्व,
  5. समाचार-पत्रों से लाभ,
  6. समाचार-पत्रों से हानियाँ,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना जिज्ञासा एवं कौतूहल मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। अपने आस-पास की एवं सुदूर स्थानों की नित नवीन घटनाओं को सुनने व जानने की मनुष्य की प्रबल इच्छा रहती है। पहले प्रायः व्यक्ति दूसरों से सुनकर या पत्र आदि के द्वारा (UPBoardSolutions.com) अपनी जिज्ञासा का समाधान कर लेते थे, परन्तु अब विज्ञान के

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आविष्कार एवं मुद्रण-यन्त्रों के विकास से समाचार-पत्र व्यक्ति की जिज्ञासा को शान्त करने के प्रमुख साधन हो गये हैं। यह एक ऐसा साधन है, जिसके द्वारा हम घर बैठे अपने समाज, राष्ट्र एवं विश्व की नवीनतम घटनाओं से अवगत रह सकते हैं। समाचार-पत्रों से पूरा विश्व एक परिवार बन गया है, जिसमें सभीं देश एक-दूसरे के सुख-दु:ख में सम्मिलित होते हैं।

समाचार-पत्रों का आविष्कार और विकास समाचार-पत्र का आविष्कार सर्वप्रथम इटली में हुआ। तत्पश्चात् अन्य देशों में भी धीरे-धीरे समाचार-पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। भारत में समाचार-पत्र का प्रादुर्भाव अंग्रेजों के भारत आगमन पर प्रेस की स्थापना होने से माना जाता है। हिन्दी में ‘उदन्त मार्तण्ड’ नाम से पहला समाचार-पत्र निकला। शनैः-शनैः भारत में समाचार-पत्रों का विकास हुआ और हिन्दी, अंग्रेजी तथा विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं में अनगिनत समाचार-पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ। हिन्दी में आज नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, जनसत्ता, पंजाब केसरी, अमर उजाला, दैनिक जागरण, वीर अर्जुन, आज, दैनिक भास्कर आदि समाचार-पत्रों को चरम विकास उनकी बढ़ती हुई माँग का सूचक है।

समाचार-पत्रों के विविध रूप-आज देशी एवं विदेशी कितनी ही भाषाओं में समाचार-पत्र, प्रकाशित हो रहे हैं। इनमें से कुछ समाचार-पत्र प्रतिदिन प्रकाशित होते हैं, तो कुछ साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक, अर्द्ध-वार्षिक एवं वार्षिक। नये-नये समाचार-पत्र निकलते ही जा रहे हैं। आजकल प्रायः सभी समाचार-पत्र मनोरंजक सामग्री; यथा-लेख, कहानी, फैशन, स्वास्थ्य, खेल, ज्योतिष आदि; को अपने पत्र में नियमित स्थान देते हैं।

समाचार-पत्रों का महत्त्व-आज समाचार-पत्रों का महत्त्व सर्वविदित है। आज ‘प्रेस’ को लोकतन्त्र के चार स्तम्भों में से एक प्रमुख स्तम्भ माना जाता है। समाचार-पत्रों ने केवल भारतीय जनजीवन को ही प्रभावित नहीं किया है, अपितु भारतीयों में राष्ट्रीयता का संचार भी किया है। आधुनिक युग में समाचार-पत्रों की उपयोगिता ‘दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ गयी है। इनके द्वारा अपने देश के ही नहीं, विदेशों के समाचार भी घर बैठे प्राप्त होते हैं। सामाजिक उत्थान, राष्ट्रीय उन्नति तथा जन-कल्याण हेतु समाचार-पत्रों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ये सामाजिक कुरीतियों, अन्धविश्वासों और अपराधों का प्रकाशन कर उनकी रोकथाम में मदद करते हैं। ये विभिन्न राजनीतिक समस्याओं को जनता के सम्मुख लाकर राष्ट्रीय जागरण का तथा जनमत का निर्माण करके लोकतन्त्र के सच्चे रक्षक का कार्य करते हैं।

समाचार-पत्रों से लाभ-
( क) ज्ञानवर्द्धन का साधन-देश-विदेश में घटित होने वाली घटनाओं की जानकारी तथा भौगोलिक-सामाजिक परिवर्तनों का ज्ञान समाचार-पत्रों के माध्यम से मिल जाता है। विज्ञान, साहित्य, राजनीति, इतिहास, भूगोल आदि अनेक क्षेत्रों में हुई प्रगति का ज्ञान समाचार-पत्र ही कराते हैं। समाचार-पत्रों का सूक्ष्म अध्ययन करने वाला व्यक्ति सामान्य ज्ञान में कभी पीछे नहीं रहता।।
(ख) मनोरंजन का साधन–समाचारों की जानकारी से मानसिक सन्तुष्टि प्राप्त होती है। इनमें प्रकाशित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक सामग्री विशेष रूप से मनोरंजन प्रदान करती है। यात्रा के समय पत्र-पत्रिकाएँ यात्रा को सुगम एवं मनोरंजक बनाती हैं।।
(ग) कुरीतियों की समाप्ति समाचार-पत्रों से सामाजिक कुरीतियों एवं बुराइयों को दूर करने में भी सहायता मिलती है। समाज में फैली अशिक्षा, दहेज, बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह आदि बुरी प्रथाओं का परिहार होता है। देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, शोषण, अनाचार और (UPBoardSolutions.com) अत्याचारों की घटनाओं को प्रकाशित कर असामाजिक तत्वों में भय उत्पन्न करने में सहायता मिलती है।
(घ) स्वस्थ जनमत का निर्माण-आज के प्रजातान्त्रिक युग में प्रत्येक राजनीतिक दल को अपनी विचारधारा जनता तक पहुँचानी होती है। स्वस्थ जनमत का निर्माण करने एवं राजनीतिक शिक्षा देने में समाचार-पत्रों का सर्वाधिक महत्त्व है। इस प्रकार समाचार-पत्र जनता और सरकार के बीच की कड़ी होते हैं।

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समाचार-पत्रों से हानियाँ–समाचार-पत्र जहाँ देश का कल्याण करते हैं; वहीं इनसे हानियाँ भी होती हैं। ये किसी पूँजीपति, राजनीतिक नेता और साम्प्रदायिक दल की सम्पत्ति होते हैं; अतः इनमें जो समाचार या सूचनाएँ प्रकाशित होती हैं, उन्हें वे अपनी स्वार्थ–पूर्ति के आधार पर भी तोड़-मरोड़कर प्रकाशित करते हैं। बहुत-से समाचार-पत्र अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए झूठी अफवाह, निराधार एवं सनसनीपूर्ण संमाचार, अभिनेत्रियों के अश्लील चित्र प्रकाशित करते हैं। इनमें प्रकाशित जातिगत, साम्प्रदायिक एवं प्रादेशिक विचार कभी-कभी राष्ट्रीय एकता में भी बाधक होते हैं।

उपसंहार-आज के युग में समाचार-पत्र को महत्त्वपूर्ण शक्ति-स्तम्भ माना जाता है। अतः समाचार-पत्रों को ऐसे लोगों के हाथ में केन्द्रित न होने दें, जो देश में गड़बड़ी, अव्यवस्था और विद्रोह फैलाना चाहते हैं। इनके अध्ययन से स्वतन्त्र चिन्तन में बाधा नहीं पहुँचनी चाहिए। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि समाचार-पत्रों के स्वामियों, सम्पादकों एवं पत्रकारों को किसी भी राजनीतिक दल के हाथों अपनी स्वतन्त्रता नहीं बेचनी चाहिए। ऐसा करने से ही वे अपनी लेखनी की स्वतन्त्रता को बचाये रख सकेंगे और अपना दायित्व निभाने में सफल होंगे। समाचार-पत्रों में निष्पक्ष और नि:स्वार्थ होकर पूरी ईमानदारी से विचार व्यक्त किये जाने चाहिए, जिससे समाज व राष्ट्र का कल्याण हो सके।

38. पुस्तकालय [2014]

सम्बद्ध शीर्षक

  • पुस्तकालय से लाभ [2012,13]
  • आदर्श पुस्तकालय
  • पुस्तकालय का महत्त्व [2014]
  • पुस्तकालय की उपयोगिता [2016]

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. पुस्तकालय का अर्थ,
  3. पुस्तकालयों के प्रकार,
  4. पुस्तकालय की उपयोगिता (लाभ),
  5. कुछ प्रसिद्ध पुस्तकालय,
  6. पुस्तकालयों के प्रति हमारे कर्तव्य,
  7. सुझाव,
  8. उपसंहार।

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प्रस्तावना-ज्ञान-पिपासा मानव का स्वाभाविक गुण है। इसी की तृप्ति के लिए वह पुस्तकों का अध्ययन करता है। पुस्तकालय वह भवन है, जहाँ अनेक पुस्तकों का विशाल भण्डार होता है। पुस्तकालय से बढ़कर ज्ञान-पिपासा को शान्त करने का कोई (UPBoardSolutions.com) अन्य उत्तम साधन नहीं है। यही पुस्तकें हमें असत् से सत् की ओर तथा अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ने की प्रेरणा देती हैं और अन्तत: हमारी अन्त:प्रकृति में यह ध्वनि गूंज उठती है-” असतो मा सद् गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय।”

पुस्तकालय का अर्थ–पुस्तकालय का अर्थ है-पुस्तकों की घर। इसमें विविध विषयों पर लिखित व संकलित पुस्तकों का विशाल संग्रह होता है। पुस्तकालय सरस्वती का पावन मन्दिर है, जहाँ जाकर मनुष्य सरस्वती की कृपा से ज्ञान का दिव्य आलोक पाता है। इससे उसकी मानसिक शक्तियाँ विकसित होती हैं तथा उसके ज्ञान-नेत्र खुल जाते हैं। निर्धन व्यक्ति भी पुस्तकालय में विविध विषयों की पुस्तकों का अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त कर सकता है। महान् व्यक्तियों ने उत्तम पुस्तकों को सदैव प्रेरणास्रोत माना है और इनके द्वारा अनुपम ज्ञान प्राप्त किया है।

पुस्तकालयों के प्रकार–पुस्तकालय चार प्रकार के होते हैं–

  1. व्यक्तिगत,
  2. विद्यालय,
  3. सार्वजनिक तथा
  4. सरकारी।

व्यक्तिगत पुस्तकालयों से अधिक व्यक्ति लाभ नहीं उठा सकते। उनसे वही व्यक्ति लाभान्वित होते हैं, जिनकी वे सम्पत्ति हैं। विद्यालयों के पुस्तकालयों का उपयोग विद्यालय के छात्र और अध्यापक ही कर पाते हैं। इनमें अधिकांशत: विद्यार्थियों के उपयोग की ही पुस्तकें होती हैं। सरकारी पुस्तकालयों का उपयोग राजकीय कर्मचारी या विधान-मण्डलों के सदस्य ही कर पाते हैं। केवल सार्वजनिक पुस्तकालयों का ही उपयोग सभी व्यक्तियों के लिए होता है। इनमें घर पर पुस्तकें लाने के लिए। इनका सदस्य बनना पड़ता है। पुस्तकालय का एक महत्त्वपूर्ण अंग ‘वाचनालय’ होता है, जहाँ दैनिक समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएँ प्राप्त होती हैं, जिसे वहीं बैठकर पढ़ना होता है।

पुस्तकालय की उपयोगिता ( लाभ)-पुस्तकालय मानव-जीवन की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता हैं। वे ज्ञान, विज्ञान, कला और संस्कृति के प्रसार-केन्द्र होते हैं। पुस्तकालयों से अनेक लाभ हैं, उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं
(क) ज्ञान-वृद्धि-पुस्तकालय ज्ञान के मन्दिर होते हैं। ज्ञान-वृद्धि के लिए पुस्तकालयों से बढ़कर अन्य उपयोगी साधन नहीं हैं। पुस्तकालयों के द्वारा मनुष्य कम धन खर्च करके बहुमूल्य ग्रन्थों का अध्ययन कर असाधारण ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
(ख) सदगुणों का विकास-विद्वानों की पुस्तकों को पढ़कर महान् बनने, नवीन विचारों और नवीन चिन्तन की प्रेरणा प्राप्त होती है। रुचिकर पुस्तकें पढ़ने से नवीन स्फूर्ति एवं नवीन चेतना प्राप्त होती है। तथा कुवासनाओं, कुसंस्कारों और अज्ञान का नाश होता है। (UPBoardSolutions.com) पुस्तकालय में बालकों के लिए बाल-साहित्य भी उपलब्ध होता है, जिसको पढ़कर बच्चे भी अपने समय का सदुपयोग कर सकते हैं।
(ग) समाज का कल्याण-पुस्तकालय से व्यक्ति को तो लाभ होता ही है, सम्पूर्ण समाज का भी कल्याण होता है। प्रत्येक समाज एवं राष्ट्र प्राचीन साहित्य का अध्ययन करके नये सामाजिक नियमों का निर्माण कर सकता है। रूस के एक महत्त्वपूर्ण नेता लेनिन; जो रूस की प्रचलित व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन लाने में सहायक हुए; का अधिकांश समय पुस्तकों के अध्ययन में ही व्यतीत होता था।
(घ) श्रेष्ठ मनोरंजन एवं समय का सदुपयोग–घर पर खाली बैठकर गप्पे मारने की अपेक्षा पुस्तकालय में जाकर पुस्तकें पढ़ना अधिक उपयोगी होता है। इससे श्रेष्ठ ज्ञानार्जन के साथ पर्याप्त मनोरंजन भी होता है। मनोरंजन से रुचि का परिष्कार एवं ज्ञान की वृद्धि होती है।
(ङ) सत्संगति का लाभ–पुस्तकालय में पहुँचकर एक प्रकार से महान् विद्वानों, विचारकों तथा महापुरुषों से अप्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है। यदि हमें गाँधी, सुकरात, राम, कृष्ण, ईसा, महावीर आदि के श्रेष्ठ विचारों की संगति प्राप्त करनी है तो पुस्तकालय से उत्तम कोई अन्य स्थान नहीं है।

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कुछ प्रसिद्ध पुस्तकालय-देश में पुस्तकालयों की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। .. नालन्दा और तक्षशिला में भारत के अति प्रसिद्ध पुस्तकालय थे, जो कि विदेशी आक्रान्ताओं के द्वारा; हमारी प्राचीन संस्कृति को नष्ट करने के उद्देश्य से; नष्ट-भ्रष्ट कर दिये गये। इस समय भारत में कोलकाता, दिल्ली, मुम्बई, पटना, वाराणसी आदि स्थानों पर भव्य पुस्तकालय हैं, जहाँ पर शोधार्थी व सामान्य अध्येता भी उचित औपचारिकताओं का निर्वाह करके अध्ययन कर सकते हैं।

पुस्तकालयों के प्रति हमारे कर्तव्य-पुस्तकालय समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। उनके विकास से देशवासियों में नवचेतना का उदय होता है। पुस्तकालयों को क्षति पहुँचाने की प्रवृत्ति समाज के लिए घातक है; अत: पाठकों का कर्तव्य है कि जो पुस्तकें पुस्तकालय से ली जाएँ, उन्हें निश्चित समय पर लौटाया जाए। उन पर नाम लिखना, स्याही के धब्बे डालना, पन्ने या कतरन फाड़ना, पुस्तकों की साज-सज्जा को नष्ट करना आदि अनैतिकता तथा पुस्तकालय की क्षति है। पुस्तकालयों के नियमों का पालन करना एवं उन्हें दिनानुदिन विकसित करने में सहायक होना हमारा परम कर्तव्य है।

सुझाव–हमारे देश के गाँवों में जहाँ लगभग दो-तिहाई जनसंख्या निवास करती है, पुस्तकालयों का नितान्त अभाव है। ग्रामवासियों की निरक्षरता ओर अज्ञानता का मूल कारण भी यही है। ग्रामविकास की योजनाओं के अन्तर्गत प्रत्येक गाँव में जनसंख्या के आधार पर पुस्तकालयों का निर्माण होना चाहिए।

उपसंहार-जीवन की सच्ची उन्नति इसी बात में है कि हम पुस्तकालय के महत्त्व को समझे और उनसे लाभ उठाएँ। सुयोग्य नागरिकों के चरित्र-निर्माण एवं समाज के उत्थान हेतु पुस्तकालयों के विकास के लिए सतत प्रयत्न किये जाने चाहिए। पुस्तकालयों में संग्रहीत पुस्तकों के (UPBoardSolutions.com) माध्यम से ही हम अपने पूर्वजों की गौरवपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर से प्रेरणा प्राप्त करते हैं और उनके द्वारा स्थापित तेज और पुरुषार्थ को भावी पीढ़ी में उतारने को सचेष्ट होते हैं। इसलिए नियमित रूप से पुस्तकालयों में बैठकर अध्ययन करना हमारे आचरण का आवश्यक अंग होना चाहिए।

39. महापुरुष की जीवनी

सम्बद्ध शीर्षक

  • राष्ट्रपिता : महात्मा गाँधी
  • मेरे प्रिय नेता
  • किसी महापुरुष के अनुकरणीय कार्य [2011]

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. जीवन-परिचय एवं शिक्षा,
  3. दक्षिण अफ्रीका-गमन,
  4. भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के कर्णधार,
  5. गाँधीजी की मृत्यु,
  6. गाँधीजी का आदर्श व्यक्तित्व,
  7. वर्तमान समय में गाँधीजी की प्रासंगिकता,
  8. उपसंहार।।

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प्रस्तावना–प्राचीन काल से लेकर आज तक हमारे देश में अनेक महान् विभूतियों, युगपुरुषों तथा सन्त-महात्माओं ने जन्म लिया। महात्मा गाँधी का जन्म भी यहीं की पवित्र-पावन भूमि पर हुआ था। सत्य और अहिंसा का सहारा लेकर सम्पूर्ण श्व को शान्ति का पाठ पढ़ाने (UPBoardSolutions.com) वाली महान् आत्मा, जिसने प्रेम का महान् आदर्श प्रस्तुत किया, ऐसे महात्मा का नाम सभी भारतीयों द्वारा बड़े आदर से लिया जाता है। भारतवासी उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ या ‘बापू’ कहकर पुकारते हैं। वे अहिंसा के अवतार, सत्य के देवता, अछूतों के प्राणाधार एवं राष्ट्र के पिता थे।

जीवन-परिचय एवं शिक्षा–महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर, सन् 1869 ई० को काठियावाड़ के अन्तर्गत पोरबन्दर नामक स्थान के एक सम्भ्रान्त परिवार में हुआ था। इनका पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गाँधी था। इनके पिता करमचन्द गाँधी राजकोट रियासत में दीवान थे। इनकी माता पुतलीबाई अत्यन्त धर्मपरायण, पूजा-पाठ में श्रद्धा रखने वाली एक आदर्श महिला थीं।

गाँधीजी की प्रारम्भिक शिक्षा राजकोट में हुई। वे मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करके सन् 1888 ई० में कानून का अध्ययन करने के लिए इंग्लैण्ड चले गये। सन् 1891 ई० में गाँधीजी बैरिस्टर होकर भारत लौटे और बम्बई में वकालत करना आरम्भ किया। ये झूठ से काम लेना पाप समझते थे और गरीबों के मुकदमों की पैरवी नि:शुल्क किया करते थे।

दक्षिण अफ्रीका-गमन—सन् 1893 ई० में एक गुजराती व्यवसायी के मुकदमे की पैरवी करने के लिए गाँधीजी को दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। वहाँ की सरकार द्वारा भारतीयों के साथ अपमान व भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता था। गाँधीजी को स्वयं नाना प्रकार की अवमाननाएँ सहन करनी पड़ीं।। उन्होंने भारतीयों की राजनीतिक और सामाजिक दशा सुधारने के लिए ‘नैटाल कांग्रेस की स्थापना की और इस भेदभाव के विरुद्ध सत्याग्रह आन्दोलन आरम्भ किया। वहाँ उन्हें अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा, परन्तु वे अपने दृढ़ संकल्प से अविचलित रहे। बीस वर्ष अफ्रीका में रहकर गाँधीजी भारत लौट आये।।

भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के कर्णधार–भारत लौटने पर गाँधीजी ने पराधीन भारतीयों की दुर्दशा देखी। उन्होंने पराधीन भारत की बेड़ियों को काटने का निश्चय किया और अहमदाबाद के निकट साबरमती के तट पर एक आश्रम की स्थापना की और यहीं रहकर करोड़ों भारतीयों का मार्गदर्शन किया। गाँधीजी ने यहाँ भी अंग्रेजों के विरुद्ध दक्षिण अफ्रीका में आजमाये गये सत्याग्रह और अहिंसा को असहयोग की नयी धार चढ़ाते हुए आजमाया। उनके नेतृत्व से भारतीयों में एक नयी स्फूर्ति आ गयी। उनके एक आह्वान पर लोग सत्याग्रह में भाग लेकर अपने प्राण निछावर करने के लिए स्वतन्त्रता-संग्राम में कूद पड़े

चल पड़े जिधर दो डगमग में, बढ़ गये कोटि पग उसी ओर।
पड़ गयी जिधर भी एक दृष्टि, गड़ गये कोटि दृग उसी ओर ॥

गाँधीजी ने मदनमोहन मालवीय, पं० मोतीलाल नेहरू, चितरंजन दास आदि के सहयोग से राष्ट्रव्यापी आन्दोलन छेड़ दिया। गाँधीजी को कांग्रेस का सभापति बनाया गया। इन्होंने कांग्रेस के सम्मुख खादी-प्रचार, अछूतोद्धार और मुस्लिम एकता की योजना रखी। सन् 1929 ई० में (UPBoardSolutions.com) ‘साइमन कमीशन’ का बहिष्कार किया गया। सन् 1930 ई० में गाँधीजी ने डाण्डी में नमक सत्याग्रह करके ‘नमक-कानून’ को तोड़ा।

तदनन्तरं गाँधीजी कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में ‘गोलमेज कॉन्फ्रेन्स’ में भाग लेने इंग्लैण्ड गये। वहाँ से उनके लौटने पर आन्दोलन ने पुनः जोर पकड़ा। सन् 1942 ई० में गाँधीजी ने अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ का नारा लगाया तथा भारतीयों के लिए ‘करो या मरो’ का आह्वान किया। गाँधीजी के आह्वान पर भारतीय लोगों ने प्रशासन-शिक्षा आदि सभी क्षेत्रों में असहयोग प्रारम्भ कर दिया। इससे अंग्रेजों को यह समझ में आने लगा। कि भारत को अब अधिक समय तक गुलाम नहीं रखा जा सकता। अन्ततः उन्होंने भारत का दो भागों में विभाजन करके 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत की स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी।

गाँधीजी की मृत्यु-गाँधीजी की मानवतावादी नीति को मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति समझकर एक भ्रान्त युवक नाथूराम गोडसे ने प्रार्थना को जाते समय 30 जनवरी, 1948 ई० को गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। ‘हे राम’ का उच्चारण करता हुआ मानवता का यह पोषक सदा के लिए सो गया।

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गाँधीजी का आदर्श व्यक्तित्व-गाँधीजी केवल राजनीतिक नेता ही नहीं थे, वरन् वे समाजसुधारक एवं ग्राम-सुधारक भी थे। उन्होंने समाज में हरिजनों की दयनीय दशा देखकर उनका उद्धार किया। समाज में नारी को सम्मानपूर्ण स्थान दिलाने का भरसक प्रयत्न किया। उनका विश्वास था कि भारत गाँवों में बसा हुआ है और गाँवों की उन्नति से ही देश की उन्नति हो सकती है।

गाँधीजी का व्यक्तित्व महान् था। उनकी ‘कथनी और करनी’ में कोई अन्तर नहीं था। ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ उनके जीवन का मूलमन्त्र था। ‘सत्य और अहिंसा’ उनके दिव्य अस्त्र थे। ‘प्रेम और शान्ति उनका सन्देश था। ‘रामराज्य’ उनका स्वप्न था। ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं उनके हृदय के उद्गार थे।

वर्तमान समय में गाँधीजी की प्रासंगिकता–आज महापुरुषों को उनकी जयन्ती अथवा पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि अर्पित करना एक औपचारिकता मात्र रह गयी है। गाँधीजी का अनुयायी होने का दम भरने वाले नेता ही आज छल-छद्म, धोखाधड़ी व रिश्वतखोरी जैसे भ्रष्टाचार के मामलों में आकण्ठ डूबे दिखाई दे रहे हैं। गाँधीजी के देश में ही उनका गाँधीवाद नष्ट हो रहा है और लोकतन्त्र लड़खड़ा रहा है।

गाँधीजी ने स्वाधीनता और स्वावलम्बन के लिए विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर उनकी होली जलायी थी और राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम से स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ी थी, पर आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, विदेशी भाषा और विदेशी वस्तुओं को कण्ठहार बनाया जा रहा है। (UPBoardSolutions.com) अहिंसा के पुजारी और शान्ति के दूत के ही देश में हिंसा, हत्या, अपहरण और बलात्कार आम हो गये हैं।

उपसंहार-संसार में अनेक महापुरुष हुए हैं, पर वस्तुतः गाँधीजी विश्व के सर्वश्रेष्ठ महापुरुषों में एक थे। यदि ईसा और बुद्ध धर्म-प्रचारक थे, वाशिंगटन तथा लेनिन कुशल राजनीतिज्ञ थे, कबीर और तुलसी जनता को भक्ति-रस में स्नान कराने वाले सन्त थे तो राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी एक साथ श्रेष्ठ सन्त, राजनीति विशारद, परम धर्मात्मा, समाज-सुधारक और मानवता के पोषक थे। गाँधीजी जैसे महापुरुष अमर होते हैं। तथा स्वार्थ, हिंसा और अनैतिकता के अन्धकार में भटकती मानवता के लिए प्रकाश-स्तम्भ के तुल्य होते हैं।

40. डॉ० ए०पी०जे० अब्दुल कलाम

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. शैक्षिक उपलब्धियाँ,
  3. जीवन की सफलताएँ,
  4. प्रेरणा के स्रोत,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना-तमिलनाडु के मध्यमवर्गीय परिवार में डॉ० ए०पी०जे० अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्टूबर, 1931 ई० को हुआ था। जिनका पूरा नाम-अबुल पाकिर जैनुलाब्दीन अबुल कलाम था। इनके पिता का नाम जैनुलाब्दीन था जो मछुआरों को किराये पर नाव देने का काम करते थे। इनको बचपन से ही पायलट बनकर आसमान की अनन्त ऊँचाइयों को छूने का सपना था। अपने इस सपने को साकार करने के लिए इन्होंने अखबार तक बेचा तथा (UPBoardSolutions.com) मुफलिसी में भी अपनी पढ़ाई जारी रखी और संघर्ष करते हुए उच्च शिक्षा हासिल कर पायलट की भर्ती परीक्षा में सम्मिलित हुए। उस परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बावजूद उनका चयन नहीं हो सका, क्योंकि उस परीक्षा के द्वारा केवल आठ पायलटों का चयन होना था और सफल अभ्यर्थियों की सूची में उनका नौंवा स्थान था। इस घटना से निराशा होने पर भी उन्होंने हार नहीं मानी और दृढ़-निश्चय के बल पर उन्होंने सफलता की ऐसी बुलन्दियाँ हासिल कीं, जिनके सामने सामान्य पायलटों की उड़ानें अत्यन्त तुच्छ नजर आती हैं।

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शैक्षिक उपलब्धियाँ-उनका व्यक्तित्व एक तपस्वी और कर्मयोगी का रहा। इन्होंने संघर्ष करते हुए प्रारम्भिक शिक्षा रामेश्वरम् के प्राथमिक स्कूल से प्राप्त करने के बाद रामनाथपुरम् के शवट्ज़ हाईस्कूल से मैट्रिकुलेशन किया। इसके बाद वे उच्च शिक्षा के लिए तिरुचिरापल्ली चले गए। वहाँ के सेन्ट जोसेफ कॉलेज से उन्होंने बी.एस-सी. की उपाधि प्राप्त की। बी. एस-सी. के बाद 1958 ई० में उन्होंने मद्रास इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से एयरोनॉटिकल इन्जीनियरिंग में डिप्लोमा किया।

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉ० कलाम ने हावरक्राफ्ट परियोजना एवं विकास संस्थान में प्रवेश किया। इसके बाद 1962 ई० में वे भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन में आए, जहाँ उन्होंने सफलतापूर्वक कई उपग्रह प्रक्षेपण परियोजनाओं में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। परियोजना निदेशक के रूप में भारत के पहले स्वदेशी उपग्रह प्रक्षेपण यान एसएलवी 3 के निर्माण में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसी प्रक्षेपण यान से जुलाई, 1980 ई० में रोहिणी उपग्रह का अन्तरिक्ष में सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया गया। 1982 ई० में वे भारतीय रक्षा अनुसन्धान एवं विकास संगठन में वापस निदेशक के तौर पर आए तथा अपना सारा ध्यान गाइडेड मिसाइल के विकास पर केन्द्रित किया। अग्नि मिसाइल एवं पृथ्वी मिसाइल के सफल परीक्षण का श्रेय भी इन्हीं को जाता है। उस महान व्यक्तित्व ने भारत को अनेक मिसाइलें प्रदान कर इसके सामरिक दृष्टि से इतना सम्पन्न कर दिया कि पूरी दुनिया इन्हें ‘मिसाइल मैन’ के नाम से जानने लगी।

जीवन की सफलताएँ-जुलाई, 1992 ई० में वे भारतीय रक्षा मन्त्रालय में वैज्ञानिक सलाहकार नियुक्त हुए। उनकी देखरेख में भारत ने 1998 ई० में पोखरण में दूसरा सफल परमाणु परीक्षण किया और परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों की सूची में शामिल हुआ। वर्ष 1963-64 के दौरान कलाम ने अमेरिका के अन्तरिक्ष संगठन नाशा की भी यात्रा की। वैज्ञानिक के रूप में कार्य करने के दौरान अलग-अलग प्रणालियों को एकीकृत रूप देना उनकी विशेषता थी। उन्होंने अन्तरिक्ष एवं सामरिक प्रौद्योगिकी का उपयोग कर नए उपकरणों का निर्माण भी किया।

डॉ० कलाम की उपलब्धियों को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें 1981 ई० पद्मभूषण और 1990 ई० में पदम् विभूषण से सम्मानित किया। इसके बाद उन्हें विश्वभर के 30 से अधिक विश्वविद्यालयों ने डॉक्टरेट की मानद उपाधि से विभूषित किया। 1997 ई० में भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया।

एक दिन ऐसा भी आया जब उन्होंने भारत के सर्वोच्च पद पर 26 जुलाई, 2002 को ग्यारहवें राष्ट्रपति के रूप में पदभार ग्रहण किया। उन्होंने इस पद को 25 जुलाई, 2007 तक सुशोभित किया। वे राष्ट्रपति भवन को सुशोभित करने वाले प्रथम वैज्ञानिक हैं। राष्ट्रपति के रूप में (UPBoardSolutions.com) अपने कार्यकाल में उन्होंने कई देशों का दौरा किया एवं भारत का शान्ति का सन्देश दुनिया भर को दिया। इस दौरान उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया एवं अपने व्याख्यानों द्वारा देश के नौजवानों का मार्गदर्शन करने एवं उन्हें प्रेरित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया।

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सीमित संसाधनों एवं कठिनाइयों के होते हुए भी उन्होंने भारत को अन्तरिक्ष अनुसन्धान एवं प्रक्षेपास्त्रों के क्षेत्र में एक ऊँचाई प्रदान की। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कलाम जी का व्यक्तिगत जीवन बेहद अनुशासित रहा। वे शाकाहारी थे तथा कुरान एवं भगवद्गीता दोनों का अध्ययन करते थे। संगीत से उनका बेहद लगाव था। कलाम ने तमिल भाषा में कविताएँ भी लिखीं। जिनका अनुवाद विश्व की कई भाषाओं में हो चुका है। इसके अतिरिक्त उन्होंने कई प्रेरणास्पद पुस्तकों की भी रचना की है। भारत 2020 : नई सहस्राब्दी । के लिए एक दृष्टि’, ‘इग्नाइटेड माइण्ट्स : अनलीशिंग द पावर विदिन इण्डिया’, ‘इण्डिया माय ड्रीम’, ‘विंग्स ऑफ फायर’ उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। उनकी पुस्तकों का कई भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनका मानना है कि भारत तकनीकी क्षेत्र में पिछड़ जाने के कारण ही अपेक्षित उन्नति-शिखर पर नहीं पहुंच पाया है। इसलिए अपनी पुस्तक ‘भारत 2020 : नई सहस्राब्दी के लिए एक दृष्टि’ के द्वारा उन्होंने भारत के विकास-स्तर को 2020 तक विज्ञान के क्षेत्र में अत्याधुनिक करने के लिए देशवासियों को एक विशिष्ट दृष्टिकोण प्रदान किया। यही कारण है कि वे देश की नई पीढ़ी के लोगों के बीच काफी लोकप्रिय रहे हैं।

प्रेरणा के स्रोत–पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम हमेशा से युवाओं को ऊर्जावान बनाने के लिए उनका हौंसला बढ़ाते रहते थे। युवाओं के उज्ज्वल भविष्य के लिए उनकी कहीं कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें अपनाकर कोई भी छात्र बुलन्दियों को छू सकता है। उनकी कही बातें हमेशा युवाओं का मार्गदर्शन करती रहेंगी।

कलाम ने कहा था

चलो हम अपना आज कुर्बान करते हैं जिससे हमारे बच्चों को बेहतर कल मिले।.।।
भगवान उन्हीं की मदद करता है जो कड़ी मेहनत करते हैं। यह सिद्धान्त स्पष्ट होना आवश्यक है।
सपने सच हों, इसके लिए सपने देखना जरूरी है।
छात्रों को प्रश्न जरूर पूछना चाहिए, यह छात्र का सर्वोत्तम गुण है।
अगर एक देश को भ्रष्टाचार मुक्त होना है तो मैं यह महसूस करता हूँ कि हमारे समाज में तीन ऐसे लोग हैं जो ऐसा कर सकते हैं, ये हैं-पिता, माता और शिक्षक।
युवाओं के लिए कलाम का विशेष संदेश था—अलग ढंग से सोचने का साहस करो, आविष्कार का साहस करो. अज्ञात पथ पर चलने का साहस करो. असम्भव को खोजने का साहस करो और समस्याओं को जीतो और सफल बनो। ये वे महान गुण हैं जिनकी दिशा में तुम अवश्य काम करो।
हमें हार नहीं माननी चाहिए और समस्याओं को हम पर हावी नहीं होना चाहिए।

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उपसंहार-डॉ० कलाम के निधन से समाज को जो अपूरणीय क्षति हुई है, उसे भर पाना नामुमकिन है, परन्तु उनके आदर्शों पर चलकर हम उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि अवश्य दे सकते हैं। ऐसे युगपुरुष, महान वैज्ञानिक, दार्शनिक, कर्मयोगी और खुशहाल भारत के स्वप्नदृष्टा, जिनके व्यक्तित्व से देश की आने वाली पीढ़ियाँ प्रेरणा लेती रहेंगी।

41. छात्र और अनुशासन [2013, 14, 15, 16]

सम्बद्ध शीर्षक

  • विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का महत्त्व [2013]
  • विद्यार्थी जीवन में अनुशासन [2011, 16]
  • जीवन में अनुशासन का महत्त्व [2018]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. विद्यार्थी और विद्या,
  3. अनुशासन का स्वरूप और महत्त्व,
  4. अनुशासनहीनता के कारण,
  5. निवारण के उपाय,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना विद्यार्थी देश का भविष्य हैं। देश के प्रत्येक प्रकार का विकास विद्यार्थियों पर ही निर्भर है। विद्यार्थी जाति, समाज और देश का निर्माता होता है; अतः विद्यार्थी का चरित्र उत्तम होना बहुत आवश्यक है। उत्तम चरित्र अनुशासन से ही बनता है। अनुशासन जीवन का प्रमुख (UPBoardSolutions.com) अंग और विद्यार्थी जीवन की आधारशिला है। व्यवस्थित जीवन व्यतीत करने के लिए मात्र विद्यार्थी ही नहीं अपितु प्रत्येक मनुष्य के लिए अनुशासित होना अति आवश्यक है। आज विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता की शिकायत सामान्य-सी बात हो गयी है। इससे शिक्षा-जगत् ही नहीं, अपितु सारा समाज प्रभावित हुआ है।

विद्यार्थी और विद्या-‘विद्यार्थी’ का अर्थ है-‘विद्या का अर्थी’ अर्थात् विद्या प्राप्त करने की कामना करने वाला। विद्या लौकिक या सांसारिक जीवन की सफलता का मूल आधार है, जो गुरु-कृपा से प्राप्त होती है।

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संसार में विद्या सर्वाधिक मूल्यवान् वस्तु है, जिस पर मनुष्य के भावी जीवन का सम्पूर्ण विकास तथा सम्पूर्ण नति निर्भर करती है। इसी कारण महाकवि भर्तृहरि विद्या की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि “विद्या ही मनुष्य का श्रेष्ठ स्वरूप है, विद्या भली-भाँति छिपाया हुआ धन है (जिसे दूसरा चुरा नहीं सकता) । विद्या ही सांसारिक भोगों को तथा यश और सुख को देने वाली है, विद्या गुरुओं की भी गुरु है। विद्या ही श्रेष्ठ ५. देवता है। राजदरबार में विद्या ही आदर दिलाती है, धन नहीं। अत: जिसमें विद्या नहीं, वह निरा पशु है। इस अमूल्य विद्यारूपी रत्न को पाने के लिए इसका जो मूल्य चुकाना पड़ता है, वह है तपस्या। इस तपस्या का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कवि कहता है

सुखार्थिनः कुतो विद्या, कुतो विद्यार्थिनः सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्या, विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥

अनुशासन का स्वरूप और महत्त्व-‘अनुशासन’ का अर्थ है-बड़ों की आज्ञा (शासन) के पीछे (अनु) चलना। ‘अनुशासन का अर्थ वह मर्यादा है जिनका पालन ही विद्या प्राप्त करने और उसका उपयोग करने के लिए अनिवार्य होता है। अनुशासन का भाव सहज रूप से विकसित किया जाना चाहिए। थोपे जाने पर अथवा बलपूर्वक पालन कराये जाने पर यह लगभग अपना उद्देश्य खो देता है। विद्यार्थियों के प्रति प्रायः सभी को यह शिकायत रहती है कि वे अनुशासनहीन होते जा रहे हैं, किन्तु शिक्षक वर्ग को भी इसका कारण ढूंढ़ना चाहिए कि क्यों विद्यार्थियों की उनमें श्रद्धा विलुप्त होती जा रही है।

अनुशासनहीनता के कारण-वस्तुत: विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता एक दिन में पैदा नहीं हुई है। इसके अनेक कारण हैं, जिन्हें मुख्यत: निम्नलिखित चार वर्गों में बाँटा जा सकता है
(क) पारिवारिक कारण–बालक की पहली पाठशाला उसका परिवार है। माता-पिता के आचरण का बालक पर गहरा प्रभाव पड़ता है। आज बहुत-से ऐसे परिवार हैं जिनमें माता-पिता दोनों नौकरी करते हैं या अलग-अलग व्यस्त रहते हैं। इससे बालक उपेक्षित होकर विद्रोही बन जाता है।
(ख) सामाजिक कारण–विद्यार्थी जब समाज में चतुर्दिक् व्याप्त भ्रष्टाचार, घूसखोरी, सिफारिशबाजी, (UPBoardSolutions.com) भाई-भतीजावाद, फैशनपरस्ती, विलासिता और भोगवाद अर्थात् हर स्तर पर व्याप्त अनैतिकता को देखता है तो वह विद्रोह कर उठता है और अध्ययन की उपेक्षा करने लगता है।
(ग) राजनीतिक कारण-छात्र-अनुशासनहीनता का एक बहुत बड़ा कारण दूषित राजनीति है। आज राजनीति जीवन के हर क्षेत्र पर छा गयी है। सारे वातावरण को उसने इतना विषाक्त कर दिया है कि स्वस्थ वातावरण में साँस लेना कठिन हो गया है।
(घ) शैक्षिक कारण—छात्र-अनुशासनहीनता का कदाचित् सबसे प्रमुख कारण यही है। अध्ययन के लिए आवश्यक अध्ययन-सामग्री, भवन एवं अन्यान्य सुविधाओं का अभाव, कर्तव्यपरायण एवं चरित्रवान् शिक्षकों के स्थान पर अयोग्य, अनैतिक और भ्रष्ट अध्यापकों की नियुक्ति, अध्यापकों द्वारा छात्रों की कठिनाइयों की उपेक्षा करके ट्यूशन आदि के चक्कर में लगे रहना या मनमाने ढंग से कक्षाएँ लेना आदि छात्र-अनुशासनहीनता के प्रमुख शैक्षिक कारण हैं।

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निवारण के उपाय-यदि शिक्षकों को नियुक्त करते समय सत्यता, योग्यता और ईमानदारी का आकलन अच्छी प्रकार कर लिया जाए तो प्राय: यह समस्या उत्पन्न ही न हो। प्रभावशाली, गरिमामण्डित, विद्वान् और प्रसन्नचित्त शिक्षक के सम्मुख विद्यार्थी सदैव अनुशासनबद्ध रहते हैं। पाठ्यक्रम को अत्यन्त सुव्यवस्थित वे सुनियोजित, रोचक, ज्ञानवर्धक एवं विद्यार्थियों के मानसिक स्तर के अनुरूप होना चाहिए।

छात्र-अनुशासनहीनता के उपर्युक्त कारणों को दूर करके ही हम इस समस्या का समाधान कर सकते हैं। सबसे पहले वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था को इतना व्यावहारिक बनाया जाना चाहिए कि शिक्षा पूरी करके विद्यार्थी अपनी आजीविका के विषय में पूर्णत: निश्चिन्त हो सके। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी के स्थान पर मातृभाषा हो। शिक्षा सस्ती की जाए और निर्धन किन्तु योग्य छात्रों को नि:शुल्क उपलब्ध करायी जाए। परीक्षा-प्रणाली स्वच्छ हो, जिससे योग्यता का सही और निष्पक्ष मूल्यांकन हो सके।

उपसंहार—छात्रों के समस्त असन्तोषों का जनक अन्याय है। इसलिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से अन्याय को मिटाकर ही देश में सच्ची सुख-शान्ति लायी जा सकती है। छात्र-अनुशासनहीनता का मूल भ्रष्ट राजनीति, समाज, परिवार और दूषित शिक्षा-प्रणाली में निहित है। इनमें सुधार लाकर ही हम विद्यार्थियों में व्याप्त अनुशासनहीनता की समस्या का स्थायी समाधान ढूंढ़ सकते हैं।

42. शिक्षा में क्रीड़ा का महत्त्व

सम्बद्ध शीर्षक

  • राष्ट्रीय जीवन में क्रीड़ा का महत्त्व
  • जीवन में खेलकूद का महत्त्व [2011, 12]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. जीवन में खेलों का महत्त्व,
  3. शिक्षा में खेलों का महत्त्व,
  4. राष्ट्रीय जीवन में खेलों का महत्त्व,
  5. भारत में खेलों की स्थिति,
  6. कुछ सुझाव,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना-मानव ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है। इसलिए समग्र मानवता को स्वस्थ, सबल और कर्म-निरत रखने के लिए खेलों को महत्त्व देना अत्यावश्यक है। महर्षि चरक का कथन है-‘ धर्मार्थकाम-मोक्षाणां आरोग्यं मूलकारणम्’; अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—ये चारों (UPBoardSolutions.com) सिद्धियाँ तभी प्राप्त होती हैं जब शरीर स्वस्थ रहे और शरीर को स्वस्थ रखने के लिए खेल आवश्यक हैं। खेलों की उपेक्षा करके जीवन के सन्तुलित विकास की कल्पना करना व्यर्थ है। यही कारण है कि प्रत्येक देश में स्वाभाविक रूप से खेलकूद (क्रीड़ा) और व्यायाम का महत्त्व होता है।

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जीवन में खेलों का महत्त्व–महाकवि कालिदास ने कहा है कि ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। तात्पर्य यह है कि किसी धर्म-साधना के लिए अथवा कर्तव्य-निर्वाह के लिए स्वस्थ और पुष्ट शरीर का होना अति आवश्यक है और शरीर को पुष्ट करने में खेलों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। खिलाड़ी का शरीर स्वस्थ होता है और जब शरीर स्वस्थ रहेगा तो मन और मस्तिष्क भी स्वस्थ रहेंगे। एक कहावत हैं— ‘A healthy mind is in a healthybody’; अर्थात् स्वस्थ मस्तिष्क स्वस्थ शरीर में ही सम्भव है। अतः स्पष्ट है कि जीवन में खेलों का अत्यधिक महत्त्व है। खेलों से भाईचारा तथा आत्मविश्वास बढ़ता है, सहिष्णुता आती है और मिलकर रहने की या जीवन जीने की भावना उत्पन्न होती है।

शिक्षा में खेलों का महत्त्व-शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का सर्वांगीण विकास करना है। सर्वांगीण विकास के अन्तर्गत शरीर, मन और मस्तिष्क भी आते हैं। खेलों से शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों का विकास होता है। विद्यार्थी ही नहीं, अपितु प्रत्येक व्यक्ति एक ही जैसी दिनचर्या व काम से ऊब जाता है। इसलिए ऐसी स्थिति में उसे परिवर्तन की जरूरत महसूस होती है। छात्रों की मन भी पुस्तकीय शिक्षा से अवश्य ही ऊबता है; अत: छात्रों की मानसिक स्थिति में परिवर्तन के लिए छात्रों को खेल खिलाना आवश्यक हो जाता है। इससे उनका मनोरंजन हो जाता है और एकरसता भी टूट जाती है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उनका शरीर पुष्ट और स्वस्थ हो जाता है।

खेलकूद अप्रत्यक्ष रूप से आध्यात्मिक विकास में भी सहायक होते हैं। खेलकूद से प्राप्त प्रफुल्लता और उत्साह से जीवन-संग्राम में जूझने की शक्ति प्राप्त होती है। इतना ही नहीं, सच्चा खिलाड़ी तो हानिलाभ, यश-अपयश, सफलता-असफलता को समान भाव से ग्रहण करने का भी अभ्यस्त हो जाता है।

राष्ट्रीय जीवन में खेलों का महत्त्व—किसी भी राष्ट्र का निर्माण भूमि, मनुष्य तथा उसकी संस्कृति के समन्वित रूप से होता है। इन सभी तत्त्वों में संस्कृति का विशेष महत्त्व है और खेल हमारी सांस्कृतिक विरासत भी हैं। सहयोग, प्रेम, अहिंसा, सहिष्णुता और एकता का इसमें विशेष महत्त्व है। ये सभी गुण खेलों के माध्यम से ही उत्पन्न होते हैं। खेल खेलते समय हमारी संकीर्ण मनोवृत्तियाँ; यथा-अस्पृश्यता, जातिवाद, धार्मिक विभेद, क्षेत्रवाद, भाषावाद आदि (UPBoardSolutions.com) अलगाववादी भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं और शुद्ध एकता की अनुभूति होती है। खेलों से राष्ट्रीयता की जड़े मजबूत होती हैं।

भारत में खेलों की स्थिति—हमें यह देखकर बहुत दु:ख होता है कि हमारे देश में खेलों की स्थिति बहुत दयनीय है। अन्तर्राष्ट्रीय खेलों में जब कभी अपने देश का नाम देखने का मन करता है तो दुर्भाग्यवश हमें अन्त से प्रारम्भ की ओर देखना पड़ता है। कभी हॉकी में सिरमौर रहा हमारा देश आज वहाँ भी शून्यांक पर दिखाई देता है। जसपाल राणा, पी० टी० उषा, लिएण्डर पेस के बाद कुछ ही आशा की किरणें हैं, जो कभी-कभी अन्धकार में प्रकाश बिखेरती हैं। खेलों में राजनीति के प्रवेश ने उनका स्तर घटिया कर दिया है।

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कैसी विडम्बना है कि विश्व की सर्वाधिक आबादी रखने वाले देशों में द्वितीय स्थान वाला भारत, ओलम्पिक खेलों में मात्र कुछ-एक काँस्य और रजत पदक ही प्राप्त कर पाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में एक से बढ़कर एक एथलीट्स मिल सकते हैं और यदि उन्हें उचित प्रशिक्षण दिया जाए तो वे अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में बहुत-सा सोना बटोर सकते हैं, पर ऐसा नहीं होता। पहुँच वालों के चहेते ही सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी बनकर देश को अपमान का पूँट पीने को विवश करते हैं।

कुछ सुझाव-शरीर में स्फूर्ति और मन में उल्लास भरकर सामाजिक सद्भाव और राष्ट्रीय एकता की भावना जगाने वाले खेलों की उपेक्षा करना उचित नहीं है। खेल मनुष्य में सहिष्णुता, साहस, धैर्य और सरसता उत्पन्न करते हैं; अतः विद्यालय समय में ही कक्षावार खेल खिलाने तथा प्रतिस्पर्धात्मक मैच खिलाने की अनिवार्य व्यवस्था होनी चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में ब्लॉक स्तर पर जो क्रीड़ा प्रतियोगिताएँ होती हैं, उनमें छात्रों के अलावा अन्य ग्रामीण युवक-युवतियों की प्रतिभागिता भी सुनिश्चित होनी चाहिए। हमारी सरकार ऐसी खेल नीति बनाये, जिसमें सभी प्रकार के खेलों के गिरते स्तर को सुधारने के लिए केवल नगरों में ही नहीं, अपितु ग्रामीण क्षेत्रों (UPBoardSolutions.com) में भी अच्छे कोच तथा खेल के मैदान उपलब्ध कराये जाएँ।

उपसंहार—जीवन के प्रत्येक भाग में खेलों का अपना विशेष महत्त्व है, चाहे विद्यार्थी जीवन हो या सामाजिक। इन खेलों से स्फूर्ति, आनन्द, उल्लास, एकता, सद्भाव, सहयोग और सहिष्णुता जैसे मानवीय गुणों का विकास होता है, बन्धुत्व की भावना बढ़ती है और शरीर स्वस्थ रहता है। इसलिए खेलों के प्रति रुचि जगाने तथा खेलों के गिरते स्तर को उन्नत बनाने के लिए क्रीड़ा प्रतियोगिताओं का समय-समय पर आयोजन होना ही चाहिए। यदि सच्चे मन से और निष्पक्ष भाव से खेलों के विकास की ओर ध्यान दिया जाएगा तो ओलम्पिक के साथ-साथ अन्य राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में भी देश को मान-सम्मान अवश्य मिलेगा।

43. जनतन्त्र और शिक्षा

सम्बद्ध शीर्षक

  • सार्वजनिक शिक्षा अभियान

रूपरेखा—

  1. प्रस्तावना,
  2. जनतन्त्र का अर्थ,
  3. जनतन्त्र का उद्देश्य,
  4. जनतन्त्र के आधार,
  5. जनतन्त्र और शिक्षा,
  6. जनतन्त्र में शिक्षा,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना–शिक्षा जनतन्त्र के लिए संजीवनी और अमृत तुल्य है। जनतन्त्र में शिक्षा की समुचित व्यवस्था जनतन्त्र को प्रभावी और प्रोन्नत बनाती है। जनतन्त्र जीवन की एक पद्धति है, जिसमें व्यक्ति के अस्तित्व को महत्त्व प्रदान किया जाता है। शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व की विधायक है।

जनतन्त्र का अर्थ–जनतन्त्र एक व्यापक व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत व्यक्ति से सम्बन्धित राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक सभी क्षेत्र आते हैं। जनतन्त्र शासन का वह रूप है, जिसमें शासन की शक्ति सम्पूर्ण जन-समाज के सदस्यों में निहित होती है। राजनीतिक दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति इसमें भाग लेने का अधिकारी है। यह जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता के प्रतिनिधियों का शासन है। केण्डेल के अनुसार, “जनतन्त्र एक आदर्श के रूप में जीवन की एक विधि है, जो व्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं उसके उत्तरदायित्व पर आधारित है।” शिक्षा के क्षेत्र में जनतन्त्र के अनुसार व्यक्ति को समान सुविधा, स्वतन्त्रता एवं व्यक्तित्व-विकास के समान अवसर प्राप्त होते हैं।

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जनतन्त्र का उद्देश्य-जनतन्त्र एक जीवन-दर्शन है। मानव के विकास एवं समाज के कल्याण में जनतन्त्र की सफलता निहित है। जनतन्त्र का लक्ष्य समाज की सभी क्रियाओं में व्यक्ति को समान रूप से अधिकार दिलाना है। उत्तम नागरिक का निर्माण जनतन्त्र का मुख्य कर्तव्य है। शिक्षा के आधार पर ही जनतन्त्र के व्यवहार एवं आदर्श निश्चित होते हैं।

जनतन्त्र के आधार–शिक्षा के क्षेत्र में जनतन्त्र की भावना को सफल बनाने के लिए (UPBoardSolutions.com) कुछ उपाय बताये गये हैं, जो निम्नलिखित हैं

  1. मानव व्यक्तित्व की सुरक्षा तथा आदर,
  2. प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्रता, समानता तथा सामाजिक न्याय की प्राप्ति,
  3. व्यक्ति की जनतन्त्र में आस्था, जागरूकता, क्षमता तथा योग्यता,
  4. अधिकार के साथ उत्तरदायित्व का निर्वाह,
  5. शान्तिपूर्ण विचार-विनिमय द्वारा समस्या का समाधान,
  6. अल्पसंख्यकों की सुरक्षा तथा धर्मनिरपेक्षता,
  7. सहयोग, सहिष्णुता तथा बन्धुत्व की भावना,
  8. विरोधी-विचारों तथा मत प्रकाशन के अधिकार तथा
  9. स्वस्थ एवं स्वतन्त्र जीवन-दर्शन।

जनतन्त्र व्यक्ति के आचरण द्वारा ही जीवित रहता है। शिक्षा द्वारा ही मनुष्य में वे सभी गुण आ सकते हैं, जिनकी जनतन्त्र में अपेक्षा की जाती है। अतः जनतन्त्र की सफलता हेतु अच्छी शिक्षा-व्यवस्था आवश्यक है। जनतन्त्र में अनिवार्य नि:शुल्क शिक्षा का प्रावधान होना चाहिए।

जनतन्त्र और शिक्षा–सुयोग्य नागरिकों के ऊपर ही जनतन्त्र की सफलता आधारित होती है। शिक्षा द्वारा नागरिकों में विवेक का प्रादुर्भाव होता है। शिक्षा द्वारा ही मानव की भावनाओं को परिष्कृत कर मानवीय गुणों का विकास किया जाता है। जनतन्त्र में शिक्षा वह साधन है, जिससे व्यक्ति समाज के क्रिया-कलापों में सक्रिय भाग लेने में समर्थ होता है। समाज का निर्माण व्यक्ति करता है और व्यक्ति का निर्माण शिक्षा। शिक्षा जीवन की समस्याओं का समाधान करने के लिए साधन है। जनतन्त्र में जन-शिक्षा को प्रोत्साहन मिलता है।

शिक्षा का आदर्श स्वस्थ समाज का निर्माण करना है। जनतान्त्रिक शिक्षा व्यक्ति और समाज (UPBoardSolutions.com) में सन्तुलन स्थापित करती है। जनतन्त्र में शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का शारीरिक, बौद्धिक तथा नैतिक विकास करना है। समाज का यह दायित्व है कि वह व्यक्ति को प्रगति का वातावरण प्रदान करे, जिससे वह स्वहित साधन के साथ सामाजिक हित का भी संवर्द्धन करे। इस प्रकार जनतन्त्र और शिक्षा एक-दूसरे के पूरक हैं।।

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जनतन्त्र में शिक्षा—
(क) उद्देश्य-जनतन्त्र की शिक्षा एक सन्तुलित शिक्षा है, जिसमें बौद्धिक विकास के साथ-साथ सामाजिक गुणों तथा व्यावहारिक कुशलता का विकास भी होता है। शिक्षा समाज में तथा विद्यालय में सम्पर्क स्थापित करने का कार्य करती है। जनतन्त्र में शिक्षा का उद्देश्य होता है-व्यक्ति को योग्य (आदर्श) नागरिक बनाना।
(ख) पाठ्यक्रम-जनतन्त्र में शैक्षिक पाठ्यक्रम व्यापक होता है। एच० के० हेनरी के अनुसार, पाठ्यक्रम के अन्तर्गत सम्पूर्ण विद्यालय का वातावरण आता है, जिनका सम्बन्ध बालकों से होता है।” वास्तव में पाठ्यक्रम के अन्तर्गत विद्यालय की वे सभी बहुमुखी क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं, जिनका अनुभव छात्र को विद्यालये, कक्षा, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, खेल आदि के द्वारा उपलब्ध होता है। पाठ्यक्रम का निर्धारण करते समय इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि बालकों में स्वतन्त्र चिन्तन तथा विचारशक्ति उत्पन्न हो और उनकी निर्णयात्मक शक्ति का विकास हो।।
(ग) विद्यालय का उत्तरदायित्व–समाज में जनतन्त्रीय आदर्शों की स्थापना में विद्यालय का महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व है। एच० जी० वेल्स के अनुसार, “विद्यालय संसार के लघु प्रतिरूप होने चाहिए, जिन्हें ग्रहण करने के हम इच्छुक हों।” विद्यालय छात्रों तथा समाज के जीवन में एकता लाता है तथा सामाजिक भावना का विकास करता है। विद्यालय के प्रशासन में राज्य का हस्तक्षेप जनतन्त्र के लिए बाधक होता है तथा विद्यालय को राजनीतिक व्यक्तियों की (UPBoardSolutions.com) दुर्भावना का शिकार होना पड़ता है, जिससे विद्यालयों की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है।
(घ) अनुशासन–जनतन्त्र में अनुशासन का तात्पर्य बालक-बालिकाओं को जनतन्त्र के सामाजिक जीवन के लिए तैयार करना है। जनतन्त्र का सामाजिक जीवन स्वच्छन्दता का नहीं होता, अपितु उसमें एक व्यवस्था होती है, अच्छा आचरण और अनुशासन होता है। अनुशासन की परीक्षा बालकों के व्यवहार से होती है। अच्छे आचरण और अच्छे व्यवहार से तात्पर्य अच्छे चरित्र से होता है। इस कार्य में विद्यालय, समाज, अध्यापक तथा अभिभावक सबको प्रयास करना चाहिए।

उपसंहार-इस प्रकार जनतन्त्र और शिक्षा की मूलभूत बातों पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इनका मानव-जीवन में विशिष्ट महत्त्व है। टैगोर के अनुसार, “सफल शिक्षा समग्र जीवन को पूर्ण रूप से प्रभावित करती है।” जनतन्त्र और शिक्षा दोनों एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं। शिक्षा जनतन्त्र की अनुजा है तथा शिक्षा और जनतन्त्र समान रूप से इस युग में पूजित तथा प्रतिष्ठित हैं।

44. जीवन में शिक्षा का महत्त्व

रूपरेखा

  1. प्रस्तावना,
  2. शिक्षा का उद्देश्य,
  3. शिक्षा की आवश्यकता,
  4. शिक्षा से ही समाज का उत्थान सम्भव,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना-शिक्षा-विहीन व्यक्ति सींग और पूँछरहित जानवर के समान होता है। शिक्षा मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाती है। मनुष्य के भीतर विकास की जो सम्भावनाएँ होती हैं, उन्हें विकसित करना ही शिक्षा का मुख्य कार्य है। शिक्षा के अभाव में मनुष्य ने अपने लिए और न ही समाज के लिए उपयोगी हो पाता है। मानव सभ्यता का विकास, शिक्षा का ही विकास है। प्राचीन काल की शिक्षा में गुरु का अधिक महत्त्व रहता था। गुरुजनों ने जो सत्य उपलब्ध किया, उसे शिष्यों तक पहुँचाना वे अपना कर्तव्य समझते थे। पुस्तकीय ज्ञान को विद्यार्थियों के मस्तिष्क में ढूंस देना ही शिक्षा का मुख्य लक्ष्य स्वीकार नहीं किया जा सकता।

शिक्षा का उद्देश्य–शिक्षा का उद्देश्य है-संस्कार देना। मनुष्य के शारीरिक, मानसिक तथा भावात्मक विकास में योगदान देना शिक्षा का मुख्य कार्य है। शिक्षित व्यक्ति अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहता है, स्वच्छता को जीवन में महत्त्व देता है और उन सभी बुराइयों से दूर रहता है, जिनसे स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है। रुग्ण शरीर के कारण शिक्षा में बाधा पड़ती है। शिक्षा हमारे ज्ञान का विस्तार करती है। ज्ञान का प्रकाश जिन खिड़कियों से प्रवेश करता है, (UPBoardSolutions.com) उन्हीं से अज्ञान और रूढ़िवादिता का अन्धकार निकल भागता है। शिक्षा के द्वारा मनुष्य अपने परिवेश को पहचानने और समझने में सक्षम होता है। विश्व में ज्ञान का जो विशाल भण्डार है, उसे हम शिक्षा के माध्यम से ही प्राप्त कर सकते हैं। सृष्टि के रहस्यों को खोलने की कुंजी शिक्षा ही है। अशिक्षित व्यक्ति रूढ़ियों, अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों का शिकार हो सकता है। शिक्षा हमारी भावनाओं का संस्कार करती है और हमारे दृष्टिकोण को उदार बनाती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य मानव का सर्वांगीण विकास करना है।

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शिक्षा की आवश्यकता–समाजे मानवीय सम्बन्धों का ताना-बाना है। व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध अत्यन्त गहरा है। व्यक्ति के अभाव में समाज का अस्तित्व और समाज के अभाव में सभ्य मनुष्य की कल्पना कर सकना भी असम्भव है। समाज का स्वास्थ्य, व्यक्तियों के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। यदि समाज में रहने वाले व्यक्ति स्वस्थ, सुशिक्षित, उदार, संवेदनशील एवं परोपकारी होंगे, तो समाज अवश्य उन्नति करेगा। प्रत्येक सभ्य समाज की प्रमुख चिन्ता यही होती है कि वह किसी प्रकारे अपने नागरिकों की क्षमता को बढ़ा सके। समाज का प्रत्येक व्यक्ति समाज से जितना लेता है उससे अधिक देने में सक्षम हो सके तभी समाज का विकास सम्भव है। शिक्षित व्यक्ति में ही यह क्षमता विकसित हो सकती है। शिक्षित व्यक्ति ही एक अच्छा व्यापारी, कर्मचारी, डॉक्टर, अध्यापक, इंजीनियर अथवा नेता हो सकता है। शिक्षित व्यक्ति समाज में रहने के लिए बेहतर स्थान बना सकता है।

शिक्षा से ही समाज का उत्थान सम्भव–शिक्षा के प्रसार द्वारा ही समाज में समता, सहयोग एवं शोषणरहित व्यवस्था का निर्माण सम्भव है। आज भारत में साक्षरता अभियान पर बल दिया जा रहा है; क्योंकि साक्षर और शिक्षित नागरिक ही सामाजिक कुरीतियों से लड़ सकते हैं। रूढ़िबद्ध समाज में परिवर्तन लाने का साधन शिक्षा ही हो सकती है। शिक्षित व्यक्ति अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझ सकता है। वह आसानी से शोषण का शिकार नहीं हो सकता; क्योंकि प्राय: अज्ञानता ही मनुष्य को असहाय बनाती है।

शिक्षित व्यक्ति ही प्रजातन्त्र की सफलता में सहयोग दे सकते हैं। प्रजातन्त्र का आधार प्रबुद्ध जनमत है। (UPBoardSolutions.com) शिक्षित व्यक्ति ही राष्ट्रीय समस्याओं को ठीक प्रकार से समझ सकता है। इस प्रकार शिक्षा प्रजातन्त्र की सफलता के लिए अत्यधिक आवश्यक है।

नारी मुक्ति आन्दोलन में भी शिक्षा का अत्यधिक महत्त्व है। शिक्षित नारी अपने परिवार तथा समाज के लिए उपयोगी भूमिका निभा सकती है। वह बच्चों को अच्छे संस्कार दे सकती है, घर को सजा-सँवार सकती है, आत्म-निर्भर हो सकती है, अपने अधिकारों के लिए लड़ सकती है और शोषण का विरोध कर सकती है।

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उपसंहार-निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सामाजिक परिवर्तन में शिक्षित नागरिकों की भूमिका ही महत्त्वपूर्ण हो सकती है। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का सर्वांगीण विकास है। व्यक्ति के विकास में ही समाज का विकास निहित है। 45. मेरे प्रिय साहित्यकार

45. मेरे प्रिय साहित्यकार (जयशंकर प्रसाद) [2010, 15]

सम्बद्ध शीर्षक

  • मेरे प्रिय कवि [2013, 14]
  • मेरे प्रिय लेखक [2009]

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. साहित्यकार का परिचय,
  3. साहित्यकार की साहित्य-सम्पदा,
  4. छायावाद के श्रेष्ठ कवि,
  5. श्रेष्ठ गद्यकार,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना–संसार में सबकी अपनी-अपनी रुचि होती है। किसी व्यक्ति की रुचि चित्रकारी में है तो किसी की संगीत में। किसी की रुचि खेलकूद में है तो किसी की साहित्य में। मेरी अपनी रुचि भी साहित्य में रही है। साहित्य प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में इतना अधिक रचा गया है कि उन सबका पारायण तो एक जन्म में सम्भव ही नहीं है। फिर साहित्य में भी अनेक विधाएँ हैं–कविता, उपन्यास, नाटक, कहानी, निबन्ध आदि। अतः मैंने सर्वप्रथम हिन्दी-साहित्य (UPBoardSolutions.com) को यथाशक्ति अधिकाधिक अध्ययन करने का निश्चय किया और अब तक जितना अध्ययन हो पाया है, उसके आधार पर मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकार हैं-जयशंकर प्रसाद प्रसाद जी केवल कवि ही नहीं, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार और निबन्धकार भी हैं। प्रसाद जी ने हिन्दी-साहित्य में युगान्तरकारी परिवर्तन किये हैं। उन्होंने हिन्दी भाषा को एक नवीन अभिव्यंजनाशक्ति प्रदान की है। इन सबने मुझे उनका प्रशंसक बना दिया है और वे मेरे प्रिय साहित्यकार बन गये हैं।

साहित्यकार का परिचय–श्री जयशंकर प्रसाद जी का जन्म सन् 1889 ई० में काशी के प्रसिद्ध सुँघनी साहु परिवार में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री बाबू देवी प्रसाद था। लगभग 11 वर्ष की अवस्था में ही जयशंकर प्रसाद ने काव्य-रचना आरम्भ कर दी थी। सत्रह वर्ष की अवस्था तक इनके ऊपर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। इनके पिता, माता के बड़े भाई का देहान्त हो गया और परिवार का समस्त उत्तरदायित्व इनके सुकुमार कन्धों पर आ गया। गुरुतर उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए एवं अनेकानेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना करने के उपरान्त 15 नवम्बर, 1937 ई० को आपका देहावसान हुआ। अड़तालीस वर्ष के छोटे-से जीवन में इन्होंने जो बड़े-बड़े काम किये, उनकी कथा सचमुच अकथनीय है।

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साहित्यकार की साहित्य-सम्पदा–प्रसाद जी की रचनाएँ सन् 1907-08 ई० में सामयिक पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। ये रचनाएँ ब्रजभाषा की पुरानी शैली में थीं, जिनका संग्रह ‘चित्राधार’ में हुआ। सन् 1913 ई० में ये खड़ी बोली में लिखने लगे। प्रसाद जी ने पद्य और गद्य दोनों में साधिकार रचनाएँ कीं। इनकी रचनाओं का वर्गीकरण अग्रवत् है
(क) काव्य-कानन-कुसुम, प्रेम पथिक, महाराणा का महत्त्व, झरना, आँसू, लहर और कामायनी (नामाव्य)।
(ख) नाटक इन्होंने कुल मिलाकर 13 नाटक लिखे। इनके प्रसिद्ध नाटक हैं–चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ, कामना और ध्रुवस्वामिनी।।
(ग) उपन्यास–कंकाल, तितली और इरावती।।
(घ) कहानी–प्रसाद जी की विविध कहानियों के पाँच संग्रह हैं—छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी और इन्द्रजाल।
(ङ) निबन्ध–प्रसाद जी ने साहित्य के विविध विषयों से सम्बन्धित निबन्ध लिखे, जिनका संग्रह है-काव्य और कली तथा अन्य निबन्ध।

छायावाद के श्रेष्ठ कवि–छायावाद हिन्दी कविता के क्षेत्र का एक आन्दोलन है, जिसकी अवधि सन् 1920-36 ई० तक मानी जाती है। ‘प्रसाद’ जी छायावाद के जन्मदाता माने जाते हैं। छायावाद एक आदर्शवादी काव्यधारा है, जिसमें वैयक्तिकता, रहस्यात्मकता, प्रेम, सौन्दर्य तथा स्वच्छन्दतावाद की सबल अभिव्यक्ति हुई है। प्रसाद की ‘आँसू’ नाम की कृति के साथ हिन्दी में छायावाद का जन्म हुआ। आँसू का प्रतिपाद्य है–विप्रलम्भ श्रृंगार। प्रियतम के वियोग की (UPBoardSolutions.com) पीड़ा वियोग के समय आँसू बनकर वर्षा की भाँति उमड़ पड़ती है

जो घनीभूत पीड़ा थी, स्मृति सी नभ में छायी।
दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आयी।

प्रसाद जी के काव्य में छायावाद अपने पूर्ण उत्कर्ष पर दिखाई देता है। इनकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण . रचना है-‘कामायनी’ महाकाव्य, जिसमें प्रतीकात्मक शैली पर मानव-चेतना के विकास का काव्यात्मक निरूपण किया गया है।

श्रेष्ठ गद्यकार-प्रसाद जी की सर्वाधिक ख्याति नाटककार के रूप में है। इन्होंने गुप्तकालीन भारत को आधुनिक परिवेश में प्रस्तुत करके गाँधीवादी अहिंसामूलक देशभक्ति का सन्देश दिया है। साथ ही अपने समय के सामाजिक आन्दोलनों को सफल चित्रण किया है। नारी की स्वतन्त्रता एवं महिमा पर उन्होंने सर्वाधिक बल दिया है। इनके प्रत्येक नाटक का संचालन सूत्र किसी नारी पात्र के हाथ में ही रहता है। इनके उपन्यास और कहानियों में भी सामाजिक भावना का प्राधान्य है, जिनमें दाम्पत्य-प्रेम के आदर्श रूप का चित्रण किया गया है। इनके निबन्ध विचारात्मक एवं चिन्तनप्रधान हैं।

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उपसंहार-पद्य और गद्य की सभी रचनाओं में इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ एवं परिमार्जित हिन्दी है। इनकी शैली आलंकारिक एवं साहित्यिक है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इनकी गद्य-रचनाओं में भी इनका छायावादी कवि हृदय झाँकता हुआ दिखाई देता है। मानवीय भावों और आदर्शों में उदारवृत्ति का सृजन विश्व-कल्याण के प्रति इनकी विशाल-हृदयता का सूचक है। हिन्दी-साहित्य के लिए प्रसाद जी की यह बहुत बड़ी देन है। अपनी विशिष्ट कल्पना-शक्ति, मौलिक अनुभूति एवं नूतन अभिव्यक्ति के फलस्वरूप प्रसाद जी हिन्दी-साहित्य में मूर्धन्य स्थान पर प्रतिष्ठित हैं। समग्रत: यह कहा जा सकता है कि प्रसाद जी का साहित्यिक व्यक्तित्व बहुत महान् है, जिस कारण वे मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकार रहे हैं।

46. मेरे प्रिय कवि : तुलसीदास [2016, 17]

सम्बद्ध शीर्षक

  • लोकनायक तुलसीदास
  • मेरा प्रिय कवि [2009, 10, 13]
  • मेरा प्रिय साहित्यकार [2010]

रूपरेखा—

  1. प्रस्तावना,
  2. जन्म की परिस्थितियाँ,
  3. लोकनायक तुलसीदास,
  4. तुलसी के राम,
  5. निष्काम भक्ति-भावना,
  6. धर्म-समन्वय की भावना पर बल–
    1. सगुण-निर्गुण का समन्वय,
    2. कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय,
    3. युगधर्म समन्वय,
    4. सामाजिक समन्वय,
    5. साहित्यिक समन्वय,
    6. उपसंहार।

प्रस्तावना–संसार में अनेक प्रसिद्ध साहित्यकार हुए हैं, जिनकी अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। यदि मुझसे पूछा जाए कि मेरा प्रिय साहित्यकार कौन है? तो मेरा उत्तर होगा-महाकवि तुलसीदास। यद्यपि तुलसी के काव्य में भक्ति-भावना प्रधान है, परन्तु उनका काव्य कई सौ वर्षों के बाद भी भारतीय जनमानस में रचा-बसा हुआ है और उनका मार्ग-दर्शन कर रही है, इसलिए तुलसीदास मेरे प्रिय साहित्यकार हैं। उनकी भक्ति-भावना, समन्वयात्मक दृष्टिकोण तथा काव्य सौष्ठव ने मुझे अनायास अपनी ओर आकृष्ट किया है।

जन्म की परिस्थितियाँ—तुलसीदास जी का जन्म अत्यन्त विषम परिस्थितियों में हुआ था। हिन्दू समाज अशक्त होकर मुगलों के चंगुल में फंसा हुआ था। हिन्दू-समाज की संस्कृति और सभ्यता पर निरन्तर आघात हो रहे थे। कहीं पर कोई भी उचित आदर्श नहीं था। इस युग में मन्दिरों का विध्वंस और ग्रामों व नगरों का नाश दे रहा था। अच्छे संस्कार समाप्त हो रहे थे। तलवार के बल पर हिन्दुओं को मुसलमान बनाया जा रहा था। सर्वत्र धार्मिक विषमता व्याप्त थी। (UPBoardSolutions.com) विभिन्न सम्प्रदायों ने अपनी इफली, अपना राग अलापना आरम्भ कर दिया था। ऐसी स्थिति में भोली-भाली जनता यह समझने में असमर्थ थी कि वह किस सम्प्रदाय का आश्रय ले। दिग्भ्रमित जनता को ऐसे नाविक की आवश्यकता थी, जो उनकी जीवन-नौका को सँभाल सके। गोस्वामी तुलसीदास ने निराशा के अन्धकार में डूबी हुई जनता के समक्ष भगवान् राम का लोकमंगलकारी रूप प्रस्तुत किया। इस प्रकार उन्होंने जनता में अपूर्व आशा एवं शक्ति का संचार किया। युगद्रष्टा तुलसी ने अपनी रचना ‘श्रीरामचरितमानस’ के द्वारा विभिन्न मतों, सम्प्रदायों एवं धाराओं का समन्वय किया। उन्होंने अपने युग को नवीन दिशा, नई गति एवं नवीन प्रेरणा दी। सच्चे लोकनायक के समान उन्होंने लोगों को मानवता के सूत्र में बाँधने का सफल प्रयास किया।

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लोकनायक तुलसीदास-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन है-“लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके। भारतीय समाज में विभिन्न प्रकार की परस्पर विरोधी संस्कृतियाँ, जातियाँ, आचार, निष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे, ‘गीता’ ने समन्वय की चेष्टा की और तुसलीदास भी समन्वयकारी थे।”

तुलसी के राम-तुलसीदास उन राम के उपासक थे, जो सच्चिदानन्द परब्रह्म हैं तथा जिनका भूमि पर पापरूपी हरण करने के लिए अवतार होता है।

जब-जब होइ धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी ॥
तब-तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ।।

तुलसीदास जी ने अपने काव्य में सभी देवी-देवताओं की स्तुति की है, लेकिन अन्त में वे यही कहते तुलसीद हैं।

माँगत तुलसीदास कर जोरे। बसहिं रामसिय मानस मोरे॥

निम्नलिखित पंक्तियों में भगवान राम के प्रति उनकी अनन्यता और भी अधिक पुष्ट हुई है–

एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास ।
एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास ॥

तुलसीदास के समक्ष ऐसे राम का जीवन था, जो मर्यादाशील थे तथा शक्ति एवं सौन्दर्य के अवतार थे।

निष्काम भक्ति-भावना-सच्ची भक्ति वही है, जिसमें आदान-प्रदान का भाव नहीं होता। भक्त के (UPBoardSolutions.com) लिए भक्ति का आनन्द ही उसका फल है। इस सन्दर्भ में तुलसी का तो यही कथन है

मो सम दीन ने दीन हित, तुम्ह समान रघुबीर।।
अस बिचारि रघुबंस मनि, हरहु विषम भवं भीर।।

धर्म-समन्वय की भावना-तुलसीदासजी के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता धर्म-समन्वय है। इसे प्रवृत्ति के कारण वे वास्तविक अर्थों में लोकनायक कहलाए। उनके काव्य में धर्म-समन्वय के अग्रलिखित रूप दृष्टिगोचर होते हैं

(i) सगुण-निर्गुण का समन्वय ईश्वर के सगुण और निर्गुण दोनों रूपों का विवाह दर्शन एवं भक्ति दोनों ही क्षेत्रों में प्रचलित था। तुलसीदास ने कहा है सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥

(ii) कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय-तुलसीदास जी की भक्ति मनुष्य को संसार से विमुख करके अकर्मण्य बनाने वाली नहीं है, अपितु सत्कर्म की प्रबल प्रेरणा देने वाली है। उनका सिद्धान्त है कि राम के समान आचरण करो, रावण सदृश नहीं—

भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव सम्भव खेदा॥

तुलसी ने ज्ञान और भक्ति के धागे में राम के नाम का मोती पिरो दिया है, जो सबके लिए मान्य है–

हिय निर्गुन नयनन्हे सगुन, रसना राम सुनाम।
मनहुँ पुरट सम्पुट लसत, तुलसी ललित ललाम॥

(iii) युगधर्म समन्वय-भगवान को प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार के बाह्य तथा आन्तरिक (UPBoardSolutions.com) साधनों की आवश्यकता होती है। ये साधन प्रत्येक युग के अनुसार बदलते रहते हैं और इन्हीं को युगधर्म की संज्ञा दी जाती है। तुलसीदास जी ने इनका भी समन्वय प्रस्तुत किया है

कृतयुग त्रेता द्वापर, पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि, नाम ते पावहिं लोग।

(iv) सामाजिक समन्वय-तुलसीदास जी के समय में भारतीय समाज अनेक प्रकार की विषमताओं तथा कुरीतियों से ग्रस्त था। आपस में भेदभाव की खाई चौड़ी होती जा रही थी। ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, स्त्री-पुरुष तथा गृहस्थ व संयासो का अन्तर बढ़ता जा रहा था। रामकथा की चित्रात्मकता एवं विषय-सम्बन्धी अभिव्यक्ति इतनी व्यापक और सक्षम थी कि उससे तुलसीदास जी के दोनों उद्देश्य सिद्ध हो जाते थे। सन्त-असन्त का समन्वय, व्यक्ति और समाज का समन्वय तथा व्यक्ति और परिवार का समन्वय आदि तुलसीदास के काव्य में सर्वत्र दृष्टिगोचर हुआ है।

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(v) साहित्यिक समन्वय-साहित्य की दृष्टि से भी तुलसी का काव्य अद्वितीय है। इनके काव्य में सभी रसों को स्थान मिला है जिनका प्रभाव इनके काव्य में देखने को मिलता है। साहित्यिक क्षेत्र में भाषा, छन्द, सामग्री, रस, अलंकार आदि की दृष्टि से भी तुलसी ने अनुपम समन्वय स्थापित किया। उस समय साहित्यिक क्षेत्र में विभिन्न भाषाएँ विद्यमान थीं तथा विभिन्न छन्दों में रचनाएँ की जाती थीं। तुलसी ने अपने काव्य में संस्कृत, अवधी तथा ब्रजभाषा का अद्भुत समन्वय किया।

उपसंहार—तुलसी ने अपने युग और भविष्य, स्वदेश और विश्व, व्यष्टि सभी के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण सामग्री दी है। तुलसीदास जी को ‘आधुनिक दृष्टि ही नहीं, हर युग की दृष्टि मूल्यवान् मानेगी; क्योंकि मणि की चमक अन्दर से आती है बाहर से नहीं।।

कवि तुलसीदास जी की भाषा अत्यन्त सरल और सरस है। उन्होंने श्रीरामचरितमानस का जितना सरल गेयरूप में वर्णन किया है वह अतुलनीय है। यद्यपि मैंने जितने भी साहित्यों का अध्ययन किया है मानस जैसा सरलीकरण और शब्दों की अभिव्यक्ति किसी में नहीं पायी। (UPBoardSolutions.com) अतैव इनकी अतुलनीय साहित्यिक विशेषताओं के कारण इनके बारे में यही कहा जा सकता है-

“कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला।”

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 5 ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से (गद्य खंड)

UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 5 ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से (गद्य खंड)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 5 ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से (गद्य खंड).

जीवन-परिचय एवं कृतियाँ

प्रश्न 1.
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के जीवन-परिचय एवं साहित्यिक योगदान पर प्रकाश डालिए। [2009]
या
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जीवन-परिचय दीजिए एवं उनकी एक रचना का नामोल्लेख कीजिए। [2012, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
उत्तर
हिन्दी के प्रसिद्ध कवि व क्रान्ति-गीतों के अमर गायक श्री रामधारी सिंह हिन्दी-साहित्याकाश के दीप्तिमान् ‘दिनकर’ हैं। इन्होंने अपनी प्रतिभा की प्रखर किरणों से हिन्दी-साहित्य-गगन को आलोकित किया है। ये हिन्दी के महान् विचारक, निबन्धकार, आलोचक और भावुक कवि हैं। इनके द्वारा कई ऐसे ग्रन्थों की रचना की गयी है, जो हिन्दी-साहित्य की अमूल्य निधि हैं।

जीवन-परिचय–दिनकर जी का जन्म सन् 1908 ई० में बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया’ नामक ग्राम में एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री रवि सिंह तथा माता का नाम श्रीमती मनरूप देवी था। अल्पायु में ही इनके पिता का देहान्त हो गया था। इन्होंने पटना विश्वविद्यालय से बी० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की और इच्छा होते हुए भी पारिवारिक कारणों से आगे न पढ़ सके और नौकरी में लग गये। कुछ दिनों तक इन्होंने माध्यमिक विद्यालय मोकामाघाट में प्रधानाचार्य के पद पर कार्य किया। फिर सन् 1934 ई० में बिहार के सरकारी विभाग में सब-रजिस्ट्रार की नौकरी की। इसके बाद (UPBoardSolutions.com) प्रचार विभाग में उपनिदेशक के पद पर स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद तक कार्य करते रहे। सन् 1950 ई० में इन्हें मुजफ्फरपुर के स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिन्दी विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। सन् 1952 ई० में ये राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुए। इसके बाद इन्होंने भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति, भारत सरकार के गृहविभाग में हिन्दी सलाहकार और आकाशवाणी के निदेशक के रूप में कार्य किया। सन् 1962 ई० में भागलपुर विश्वविद्यालय ने इन्हें डी० लिट्० की मानद उपाधि प्रदान की। सन् 1972 ई० में इनकी काव्य-रचना ‘उर्वशी’ पर इन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हिन्दी साहित्य-गगन का यह दिनकर 24 अप्रैल, सन् 1974 ई० को हमेशा के लिए अस्त हो गया।

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रचनाएँ–साहित्य के क्षेत्र में ‘दिनकर’ जी का उदय कवि के रूप में हुआ था। बाद में गद्य के क्षेत्र में भी वे आगे आये। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नवत् हैं|

  1. दर्शन एवं संस्कृति-धर्म’, ‘भारतीय संस्कृति की एकता’, ‘संस्कृति के चार अध्याय’-ये दर्शन और संस्कृति पर आधारित ग्रन्थ हैं। संस्कृति के चार अध्याय ‘साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत रचना
  2. निबन्ध-संग्रह–अर्द्धनारीश्वर’, ‘वट-पीपल’, ‘उजली आग’, ‘मिट्टी की ओर’, रेती के फूल आदि इनके निबन्ध-संग्रह हैं। इसके अतिरिक्त विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इनके अन्य निबन्ध भी हैं।
  3. आलोचना-ग्रेन्थ-शुद्ध कविता की खोज’, इसमें कविता के प्रति शुद्ध और व्यापक दृष्टिकोण व्यक्त हुआ है।
  4. यात्रा-साहित्य-‘देश-विदेश’।
  5. बाल-साहित्य-‘मिर्च का मजा’, ‘सूरज का ब्याह’ आदि।
  6. काव्य-रेणुका’, ‘हुंकार’, ‘रसवन्ती’, ‘कुरुक्षेत्र’, “सामधेनी’, ‘प्रणभंग’ (प्रथम काव्यरचना), ‘उर्वशी’ (महाकाव्य); ‘रश्मिरथी’ और ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ (खण्डकाव्य)-ये दिनकर जी के राष्ट्रप्रेम और क्रान्ति की ओजस्वी भावना से पूर्ण काव्य-ग्रन्थ हैं।
  7. शुद्ध कविता की खोज-दिनकर जी का एक आलोचनात्मक ग्रन्थ है, जिसमें इन्होंने काव्य के सम्बन्ध में अपना व्यापक दृष्टिकोण व्यक्त किया है।

साहित्य में स्थान-क्रान्ति का बिगुल बजाने वाले दिनकर जी कवि ही (UPBoardSolutions.com) नहीं अपितु एक सफल गद्यकार भी थे। इनकी कृतियों में इनका चिन्तक एवं मनीषी रूप प्रतिबिम्बित होता है। राष्ट्रीय भावनाओं से संकलित इनकी कृतियाँ हिन्दी-साहित्य की अमूल्य निधि हैं, जो इन्हें हिन्दी साहित्याकाश का दिनकर सिद्ध करती हैं।

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“गद्यांशों पर आधारित प्रश्न

प्रश्न-पत्र में केवल 3 प्रश्न (अ, ब, स) ही पूछे जाएँगे। अतिरिक्त प्रश्न अभ्यास एवं परीक्षोपयोगी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण दिए गये हैं।
प्रश्न 1.

ईष्र्या का यही अनोखा वरदान है। जिस मनुष्य के हृदय में ईष्र्या घर बना लेती है, वह उन चीजों से आनन्द नहीं उठाता, जो उसके पास मौजूद हैं, बल्कि उन वस्तुओं से दु:ख उठाता है, जो दूसरों के पास हैं। वह अपनी तुलना दूसरों के साथ करता है और इस तुलना में अपने पक्ष के सभी अभाव उसके हृदय पर दंश मारते रहते हैं। दंश के इस दाह को भोगना कोई अच्छी बात नहीं है। मगर, ईष्र्यालु मनुष्य करे भी तो क्या?  आदत से लाचार होकर उसे यह वेदना भोगनी पड़ती है।
[2011, 13, 15, 18]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने क्या कहा है ?
  2. ईर्ष्यालु मनुष्य क्या करता है ?
  3. ईष्र्यालु मनुष्य को कौन-सी वेदना भोगनी पड़ती है ?
  4. लेखक ने ईष्र्या को अनोखा वरदान क्यों कहा है ?
  5. ईष्र्या का अनोखा (UPBoardSolutions.com) वरदान क्या है ?
  6. ईष्र्यालु व्यक्ति को ईष्र्या से क्या कष्ट मिलता है ?

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[ ईष्र्या = दूसरों से जलन, डाह। दंश मारना = डंक मारना। दाह = जलन। वेदना = पीड़ा। ]
उत्तर
(अ) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘गद्य-खण्ड में संकलित एवं श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा लिखित ‘ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से’ नामक मनोवैज्ञानिक निबन्ध से उद्धृत है। अथवा अग्रवत् लिखिए पाठ का नाम-ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से। लेखक का नाम-श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’।
[ विशेष—इस पीठ के शेष सभी गद्यांशों के प्रश्न ‘अ’ के उत्तर के लिए यही उत्तर लिखा जाएगा। ]

(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत अंश में लेखक ने बताया है कि ईष्र्या अपने भक्त को एक विचित्र प्रकार का वरदान देती है और वह सदैव दु:खी रहने का वरदान है। जिस मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या उत्पन्न हो जाती है, वह अकारण ही कष्ट भोगता है। वह अपने पास विद्यमान अनन्त सुख-साधनों के उपभोग द्वारा भी आनन्द नहीं उठा पाता; क्योंकि वह दूसरों की वस्तुओं को देख-देखकर मन में जलता रहता है।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी का कहना है कि जब ईष्र्यालु मनुष्य यह देखता है कि कोई वस्तु किसी अन्य के पास है लेकिन उसके पास नहीं है तो उसके मन में पनपी यह अभाव की भावना सदैव उसे डंक मारती रहती है। लेखक का कहना है कि डंक से उत्पन्न कष्ट को सहन करना उचित नहीं है। लेकिन ईष्र्यालु मनुष्य कष्ट को सहन करने के अतिरिक्त और कुछ कर भी नहीं सकता।
(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने ईर्ष्या से उत्पन्न पीड़ा का वर्णन किया है और कहा है कि ईष्र्यालु व्यक्ति सदा दु:खी रहता है।
  2. ईष्र्यालु व्यक्ति अपनी तुलना ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों से करता है जो उससे किन्हीं बातों में श्रेष्ठ हैं। जब वह देखता है कि अमुक वस्तु दूसरे के पास तो है, लेकिन उसके पास नहीं है, तब वह स्वयं को हीन समझने लगता है। अपने अभाव उसे खटकने लगते हैं और वह अपने पास मौजूद वस्तुओं अथवा साधनों का भी आनन्द नहीं ले पाता।
  3. ईर्ष्यालु व्यक्ति रात-दिन इसी वेदना में जला करता (UPBoardSolutions.com) है कि अमुक वस्तु दूसरों के पास तो है लेकिन उसके पास नहीं है। ईष्र्या की इस दाह में जलना बहुत बुरा है, लेकिन ईर्ष्यालु व्यक्ति को यह वेदना भोगनी ही पड़ती है।
  4. लेखक ने ईष्र्या को अनोखा वरदान इसलिए कहा है क्योंकि ईष्र्यालु मनुष्य उन वस्तुओं से आनन्द नहीं प्राप्त करता जो उसके पास हैं, वरन् उन वस्तुओं से दु:ख उठाता है, जो दूसरों के पास हैं।
  5. ईर्ष्या का अनोखा वरदान यह है कि ईष्र्यालु व्यक्ति उन वस्तुओं से आनन्द नहीं उठाता जो उसके पास हैं, वरन् वह उन वस्तुओं से दु:ख उठाता है, जो दूसरों के पास हैं।
  6. ईष्र्यालु व्यक्ति को ईर्ष्या के कारण उन वस्तुओं से आनन्द नहीं मिलता जो उसके पास हैं वरन् वह उन वस्तुओं से दु:ख उठाता है, जो दूसरों के पास हैं।

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प्रश्न 2.
एक उपवन को पाकर भगवान को धन्यवाद देते हुए उसका आनन्द नहीं लेना और बराबर इस चिन्ता में निमग्न रहना कि इससे भी बड़ा उपवन क्यों नहीं मिला, एक ऐसा दोष है, जिससे ईष्र्यालु व्यक्ति का चरित्र भी भयंकर हो उठता है। अपने अभाव पर दिन-रात सोचते-सोचते वह सृष्टि की प्रक्रिया को भूलकर विनाश में लग जाता है और अपनी उन्नति के लिए उद्यम करना छोड़कर वह दूसरों को हानि पहुँचाने को ही अपना श्रेष्ठ कर्त्तव्य समझने लगता है। [2012]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?
  2. ईष्र्यालु व्यक्ति का चरित्र क्यों भयंकर हो जाता है ?
  3. ईर्ष्यालु व्यक्ति किस बात को अपना श्रेष्ठ कर्त्तव्य समझता है ?

[ ईर्ष्यालु = वह व्यक्ति जो दूसरे के सुख को देखकर दुःखी होता है। अभाव = कमी। उद्यम = कार्य, रोजगार।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत अंश में लेखक ने ईष्र्या से विमुक्ति का यही साधन बताया है कि ईश्वर ने जो वस्तुएँ कम अथवा अधिक, छोटी अथवा बड़ी, मोहक अथवा कुरूप प्रदान की हैं उनके लिए हमें ईश्वर का धन्यवाद (UPBoardSolutions.com) करना चाहिए और उन उपलब्ध वस्तुओं से जीवन को आनन्दमय और सुखमय बनाना चाहिए। इसके विपरीत यदि हम दिन-रात इसी चिन्ता में अपना समय व्यर्थ गॅवाते रहेंगे कि मेरे पड़ोसी के पास सुख-सुविधाओं के साधन मुझसे कहीं अधिक हैं, वे सब मेरे पास क्यों
नहीं हैं; तो ऐसा सोचते रहने से ईर्ष्या बढ़ती जाती है और इस कारण ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र भयंकर होता जाता है।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक कहता है कि उत्थान-पतन, जीवन-मृत्यु; ये सब ईश्वर अर्थात् उस अदृश्य शक्ति के अधीन हैं। हमें उसके लिए प्रयास करना चाहिए, लेकिन दिन-रात उसके बारे में चिन्तामग्न रहकर अपने जीवन को दु:खमय और कष्टों से युक्त नहीं बनाना चाहिए। सृष्टि की रचना-प्रक्रिया को भूलकर मनुष्य दिन-रात दूसरे की ईष्र्या में समय गॅवाता है और उद्यम करना छोड़ देता है। वह इसी मन्थन में लगा रहता है कि मैं अमुक व्यक्ति को किस प्रकार हानि पहुँचा सकता हूँ। इसी कार्य को वह अपने जीवन का श्रेष्ठ कर्तव्य समझने लगता है, जो कि एक संकीर्ण विचारधारा है। इससे ऊपर उठकर व्यक्ति को सबके हित की सोच रखनी चाहिए।
(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक कहना चाहता है कि ईश्वर ने हमें उपभोग के योग्य जो वस्तुएँ प्रदान की हैं, उन्हीं का उपभोग कर जीवन का आनन्द उठाना चाहिए।
  2. ईष्र्यालु व्यक्ति का चरित्र इसलिए भयंकर हो जाता है क्योंकि वह लगातार इस चिन्ता में डूबा रहता है कि उसे अमुक वस्तु से अच्छी वस्तु क्यों नहीं मिली। इस कारण वह उन वस्तुओं का भी आनन्द नहीं ले पाता, जो उसे प्राप्त हैं।
  3. ईष्र्यालु व्यक्ति यह कभी भी विचार नहीं करता कि सृष्टि की सम्पूर्ण रचना ईश्वर के अधीन है। वह अपनी कमी को सोचते-सोचते विनाश में लग जाता है। अपनी उन्नति के लिए वह कदापि प्रयत्न नहीं करता, वरन् दूसरों को कैसे हानि पहुँचा (UPBoardSolutions.com) सकता है, इसी को अपना सर्वश्रेष्ठ कर्त्तव्य समझता है।

प्रश्न 3.
ईष्र्या की बड़ी बेटी का नाम निन्दा है। जो व्यक्ति ईष्र्यालु होता है, वही बुरे किस्म का निन्दक भी होता है। दूसरों को निन्दा वह इसलिए करता है कि इस प्रकार, दूसरे लोग जनता अथवा मित्रों की आँखों से गिर जाएँगे और जो स्थान रिक्त होगा, उस पर मैं अनायास ही बैठा दिया जाऊँगा। [2013, 14, 16]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. ईष्र्यालु व्यक्ति दूसरों की निन्दा क्या सोचकर करता है ?
  2. ईष्र्या के साथ और कौन-से अवगुण पनपते हैं ?
  3. ईष्र्यालु और निन्दक का क्या सम्बन्ध है?
  4. [निन्दक = निन्दा (बुराई) करने वाला। अनायास = बिना श्रम के।]

उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या–दिनकर जी का मत है कि जैसे ही हमारे मन में ईर्ष्या की भावना जन्म लेती है, वैसे ही निन्दा की भावना भी उत्पन्न हो जाती है। इसीलिए निन्दा को ईर्ष्या की बड़ी बेटी अथवा पहली सन्तान कहा गया है। जो (UPBoardSolutions.com) व्यक्ति किसी के प्रति ईर्ष्यालु होता है, वह अत्यन्त बढ़ा-चढ़ाकर उसकी बुराई करता है। उसकी बुराई करने में उसे आनन्द का अनुभव होता है। वह चाहता है कि अन्य लोग भी उस व्यक्ति की बुराई करें। उसके निन्दा करने का उद्देश्य यह होता है कि वह व्यक्ति दूसरे लोगों की दृष्टि में गिर जाये। जब वह व्यक्ति, जिसकी वह निन्दा कर रहा है, अपने मित्रों अथवा समाज के लोगों की नजरों में गिर जाएगा तो उसके द्वारा किये गये रिक्त और उच्च स्थान पर वह बिना परिश्रम के अधिकार कर लेगा।

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(स)

  1. ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों की निन्दा यह सोचकर करता है कि जब निन्दित व्यक्ति समाज की नजरों से गिर जाएगा तब उसके स्थान पर वह स्वयं विराजमान हो जाएगा।
  2. ईष्र्या ही निन्दा जैसे अवगुणों की जन्मदात्री है। ईर्ष्या का भाव मन में उत्पन्न होने पर निन्दा का .. अवगुण स्वयमेव पनपने लगता है।
  3. ईष्र्यालु और निन्दक में जनक (जन्म देने वाला) और जन्मा (UPBoardSolutions.com) (जन्म लेने वाला) का सम्बन्ध है। दूसरे शब्दों में, ईष्र्या का भाव मन में उत्पन्न होने पर निन्दा का अवगुण स्वयमेव पनप जाता है।

प्रश्न 4.
मगर ऐसा न आज तक हुआ है और न होगा। दूसरों को गिराने की कोशिश तो अपने को बढ़ाने की कोशिश नहीं कही जा सकती। एक बात और है कि संसार में कोई भी मनुष्य निन्दा से नहीं गिरता। उसके पतन का कारण सद्गुणों का ह्रास होता है। इसी प्रकार कोई भी मनुष्य दूसरों की निन्दा करने से अपनी उन्नति नहीं कर सकता। उन्नति तो उसकी तभी होगी, जब वह अपने चरित्र को निर्मल बनाये तथा अपने गुणों का विकास करे। | [2016, 17]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. किसी व्यक्ति की उन्नति कैसे हो सकती है ?
  2. कौन-सी बात है जो आज तक न हुई है और न होगी ?
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?

उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक का कथन है कि जो व्यक्ति ऊँचा उठना चाहता है, वह अपने ही अच्छे कार्यों से ऊँचा उठ सकता है, दूसरों की निन्दा आदि करके कभी कोई ऊपर नहीं उठ सकता। यदि किसी व्यक्ति का पतन होता है तो किसी की निन्दा से नहीं, अपितु उसके अच्छे गुणों के नष्ट हो जाने के कारण होता है। इसलिए उन्नति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य निन्दा करना छोड़ दे और अपने चरित्र को स्वच्छ (UPBoardSolutions.com) बनाये तथा अपने अन्दर मानवीय गुणों का विकास करे।

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(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक का कहना है कि व्यक्ति अपने अन्तर्गुणों का विकास करके ही उन्नति कर सकता है, निन्दा से दूसरों को गिराकर नहीं हो सकती। |
  2. दूसरों को नीचा दिखाने के प्रयास द्वारा स्वयं को ऊँचा उठाने की प्रक्रिया न आज तक सफल हुई है। और न होगी।
  3. किसी व्यक्ति की उन्नति तब ही हो सकती है जब वह अपने चरित्र को निर्मल बनाएगा तथा अपने अन्दर सद्गुणों का विकास करेगा। |

प्रश्न 5.
ईर्ष्या का काम जलाना है, मगर सबसे पहले वह उसी को जलाती है, जिसके हृदय में उसका जन्म होता है। आप भी ऐसे बहुत-से लोगों को जानते होंगे, जो ईष्र्या और द्वेष की साकार मूर्ति हैं और जो बराबर । इस फिक्र में लगे रहते हैं कि कहाँ सुनने वाला मिले और अपने दिल का गुबार निकालने का मौका मिले। श्रोता मिलते ही उनका ग्रामोफोन बजने लगता है, और वे बड़ी ही होशियारी के साथ एक-एक काण्ड इस ढंग से सुनाते हैं, मानो विश्व-कल्याण को छोड़कर उनका और कोई ध्येय नहीं हो। अगर जरा उनके अपने इतिहास को देखिए और समझने की कोशिश कीजिए कि जब से उन्होंने इस सुकर्म का आरम्भ किया है, तब से वे अपने क्षेत्र में आगे बढ़े हैं या पीछे हटे हैं। यह भी कि वे निन्दा करने में समय वे शक्ति का अपव्यय नहीं करते तो आज इनका स्थान कहाँ होता ? [2012, 15]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. ईर्ष्या का काम क्या है ? वह सबसे पहले किसे जलाती है ?
  2. ईष्र्यालु व्यक्ति के चरित्र का अध्ययन करने पर क्या निष्कर्ष निकलता है ?
  3. उपर्युक्त गद्यांश में ईर्ष्यालु व्यक्ति की (UPBoardSolutions.com) मनोदशा कैसी बताई गयी है ?

[ श्रोता = सुनने वाला। सुकर्म = अच्छा कर्म, यहाँ पर लक्षणा (शब्द-शक्ति) से दुष्कर्म। अपव्यय = निरर्थक व्यय।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या–लेखक का कथन है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति किसी सुनने वाले के मिलते ही ग्रामोफोन के रिकॉर्ड की भाँति बजने लगते हैं और किसी अन्य के प्रति अपने हृदय की ईष्र्या के गुबार को निकालना शुरू कर देते हैं। बड़ी चतुरता के साथ वे अपनी कथा को विभिन्न अध्यायों में विभक्त कर प्रत्येक अध्याय की कथा को इस प्रकार सुनाते हैं, मानो वे यह कार्य विश्व-कल्याण की भावना से कर रहे हों और इसके अतिरिक्त उनका कोई अन्य उद्देश्य ही न हो।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक ने ऐसे व्यक्तियों को दयनीय समझते हुए कहा है कि यदि ऐसे व्यक्तियों पर ध्यान दें और उनके सन्दर्भ में यह निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न करें कि जब से उन्होंने ईष्र्या में जलना प्रारम्भ किया है तब से वे स्वयं कितना आगे बढ़े हैं तो हमें ज्ञात होगा कि उनकी अवनति ही हुई है। यदि वे निन्दा-कार्य में समय नष्ट न करके स्वयं उन्नति के मार्ग पर बढ़ते तो निश्चित ही प्रगति कर गये होते। लेखक का मत है कि ऐसे लोग अपनी शक्ति का अपव्यय कर अपनी ही हानि करते हैं।
(स)

  1. ईर्ष्या का काम है जलाना। ईर्ष्या सबसे पहले उस व्यक्ति को जलाती है, जिसके हृदय में उसका जन्म होता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति किसी सुनने वाले के मिलते ही; जिस व्यक्ति से वह ईर्ष्या करता है; उसकी किसी अच्छी बात को भी बुराई के दृष्टिकोण से विस्तारपूर्वक सुनाने लगता है।
  2. ईष्र्यालु व्यक्ति के चरित्र का अध्ययन करने पर (UPBoardSolutions.com) यह निष्कर्ष निकलता है कि जब से उसने ईष्र्या में जलना शुरू किया है तब से उसकी प्रगति पूर्णतया अवरुद्ध हो गयी है।
  3. प्रस्तुत गद्यांश में ईष्र्यालु व्यक्ति की मनोदशा के सम्बन्ध में बताया गया है कि वह सदैव इस बात का अवसर हूँढ़ता रहता है कि श्रोता मिलते ही वह उस व्यक्ति की बुराई करना शुरू कर दे, जिससे वह ईर्ष्या करता है।

प्रश्न 6.
चिन्ता को लोग चिता कहते हैं। जिसे किसी प्रचण्ड चिन्ता ने पकड़ लिया है, उस बेचारे की जिन्दगी ही खराब हो जाती है, किन्तु ईष्र्या शायद चिन्ता से भी बदतर चीज है; क्योंकि वह मनुष्य के मौलिक गुणों को ही कुंठित बना डालती है। [2011, 17]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. ईर्ष्यालु और चिन्तातुरे व्यक्ति में कौन अधिक बुरा है और क्यों ?
  2. चिन्ता को लोग चिता क्यों कहते हैं ?

[ प्रचण्ड = तीव्र। बदतर = अधिक बुरी। कुंठित = मन्द, प्रभावहीन।]
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या–लेखक कहता है कि लोग चिन्ता को चिता के समान जलाने वाली कहते हैं। चिता तो मृत देह को ही जलाती है, परन्तु चिन्ता जीवित व्यक्ति को ही जला देती है। चिन्तित मनुष्य का जीवन अत्यधिक (UPBoardSolutions.com) कष्टप्रद अवश्य हो जाता है, किन्तु ईष्र्या उससे भी अधिक हानिकारक है; क्योंकि वह दया, प्रेम, उदारता जैसे मानवीय गुणों को ही नष्ट कर देती है। इन गुणों के बिना मनुष्य का जीवन ही व्यर्थ हो जाता है।

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(स)

  1. चिन्ताग्रस्त व्यक्ति का जीवन खराब हो जाता है लेकिन ईर्ष्यालु व्यक्ति उससे भी अधिक बुरा है; क्योंकि ईष्र्या तो व्यक्ति के मौलिक गुणों को ही समाप्त कर देती है।
  2. चिन्ता को लोग चिता इसलिए कहते हैं क्योंकि चिन्ता भी व्यक्ति को चिता के समान ही जला डालती है। |

प्रश्न 7.
मृत्यु शायद फिर भी श्रेष्ठ है, बनिस्बत इसके कि हमें अपने गुणों को कुंठित बनाकर जीना पड़े। चिन्तादग्ध व्यक्ति समाज की दया का पात्र है, किन्तु ईष्र्या से जला-भुना आदमी जहर की चलती-फिरती गठरी के समान है, जो हर जगह वायु को दूषित करती फिरती है। [2011]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए। |
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) ईष्र्यालु और चिन्ताग्रस्त व्यक्ति में क्या अन्तर है ?
[ बनिस्बत = अपेक्षाकृत। चिन्तादग्ध = चिन्ता में जला हुआ।]
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या–लेखक का कथन है कि मनुष्य की मानवता उसके नैतिक गुणों से प्रकट होती है। जिस व्यक्ति में प्रेम, दया, सहानुभूति, परोपकार, त्याग जैसे मानवीय गुण न हों, वह मनुष्य नहीं होता। ईर्ष्या ही वह विष है, जो मनुष्य के इन मानवीय गुणों को नष्ट कर उसका जीवन व्यर्थ कर देती है। ऐसे जीवन से तो मृत्यु कहीं अधिक अच्छी है। चिन्तित व्यक्ति किसी दूसरे का कुछ नुकसान नहीं करता। इसलिए समाज के लोग उस पर दया भी दिखा सकते हैं, पर ईर्ष्या करने वाले पर कोई दया नहीं दिखाता; क्योंकि उसका विचार ही परपीड़क होता है। वह स्वयं जहर की पोटली (UPBoardSolutions.com) की तरह सारे .. समाज को दूषित करता है तथा दूसरों की निन्दा करके समाज का वातावरण गन्दा करता रहता है।
(स) चिन्ताग्रस्त व्यक्ति स्वपीड़क होता है। वह किसी दूसरे का कोई नुकसान नहीं करता। लेकिन ईर्ष्यालु व्यक्ति परपीड़क होता है। वह विष की चलती-फिरती ऐसी गठरी के समान होता है, जो जहाँ भी रहती है, वहाँ के वातावरण को दूषित करती रहती है।

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प्रश्न 8.
ईष्र्या मनुष्य का चारित्रिक दोष नहीं है, प्रत्युत इससे मनुष्य के आनन्द में भी बाधा पड़ती है। जब भी मनुष्य के हृदय में ईष्र्या का उदय होता है, सामने का सुख उसे मद्धिम-सा दिखने लगता है। पक्षियों के गीत में जादू नहीं रह जाता और फूल तो ऐसे हो जाते हैं, मानो वे देखने के योग्य ही न हों। [2015]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. ईष्र्यालु व्यक्ति किन सुखों से वंचित हो जाता है ?
  2. ईष्र्यालु व्यक्ति का सबसे बड़ा पुरस्कार क्या है ?

[ प्रत्युत = वरन्, अपितु। मद्धिम = हल्का।]
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक का कथन है कि ईर्ष्या मनुष्य के चरित्र का गम्भीर दोष नहीं है। यह भाव व्यक्ति के आनन्द में भी व्यवधान उपस्थित करता है। जिस मनुष्य के हृदय में ईष्र्या का भाव उत्पन्न हो जाती है, उसे अपना सुख ही हल्का प्रतीत होने लगता है। वह सुखद स्थिति में होते हुए भी सुख से वंचित हो जाता है। सुख के साधन समक्ष होने पर भी उसे सुख की अनुभूति नहीं हो पाती। पक्षियों के कलरव अथवा (UPBoardSolutions.com) उनके मधुर स्वर में उसे कोई आकर्षण नहीं दीखता। उसे सुन्दर और खिले हुए पुष्पों से भी ईष्र्या होने लगती है और उनमें भी उसे किसी प्रकार के सौन्दर्य के दर्शन नहीं हो पाते।
(स)

  1. ईष्र्यालु व्यक्ति सुख के समस्त साधन सम्मुख होने पर भी सुख का अनुभव नहीं कर पाता। वह आत्मिक सुख से वंचित होने के साथ-साथ प्राकृतिक सौन्दर्य का भी आनन्द नहीं उठा पाता।।
  2. निन्दा के बाण से अपने प्रतिद्वन्द्रियों को बेधकर हँसने में एक आनन्द है और यह आनन्द ईष्र्यालु व्यक्ति का सबसे बड़ा पुरस्कार है।

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प्रश्न 9.
आप कहेंगे कि निन्दा के बाण से अपने प्रतिद्वन्द्रियों को बेधकर हँसने में एक आनन्द है और यह आनन्द ईर्ष्यालु व्यक्ति का सबसे बड़ा पुरस्कार है। मगर, यह हँसी मनुष्य की नहीं, राक्षस की हँसी होती है। और यह आनन्द भी दैत्यों का आनन्द होता है। [2015]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?
  2. ईष्र्यालु व्यक्ति की हँसी और आनन्द कैसा होता है ?

[ प्रतिद्वन्द्वी = विरोधी।]
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-प्रस्तुत गद्य-अंश में लेखक ने यह बताया है कि प्रायः निन्दा करने वाला, अपने कटु वचनरूपी बाणों से अपने प्रतिद्वन्द्वी को घायल कर हँसता है और आनन्दित होता है। वह समझता है कि उसने निन्दा करके अपने प्रतिद्वन्द्वी को दूसरों की दृष्टि से नीचे गिरा दिया है और अपना स्थान दूसरों की दृष्टि में ऊँचा बना लिया है। इसीलिए वह प्रसन्न होता है और इसी प्रसन्नता को प्राप्त करना उसका लक्ष्य (UPBoardSolutions.com) होता है; किन्तु सच्चे अर्थ में ईष्र्यालु व्यक्ति की यह हँसी और यह क्रूर आनन्द उसमें छिपे राक्षस की हँसी और आनन्द है। यह न तो मनुष्यता की हँसी है और न ही मानवता का आनन्द।
(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक कहना चाहता है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति राक्षस के समान होता है।
  2. ईष्र्यालु व्यक्ति की हँसी और आनन्द सामान्य मनुष्य की हँसी और आनन्द के जैसी नहीं होती वरन्। उसकी हँसी राक्षस की हँसी के समान और आनन्द दैत्यों के आनन्द के समान होता है।

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प्रश्न 10.
ईर्ष्या का सम्बन्ध प्रतिद्वन्द्विता से होता है, क्योंकि भिखमंगा करोड़पति से ईर्ष्या नहीं करता। यह एक ऐसी बात है, जो ईर्ष्या के पक्ष में भी पड़ सकती है; क्योंकि प्रतिद्वन्द्विता से मनुष्य का विकास होता है, किन्तु अगर आप संसारव्यापी सुयश चाहते हैं तो आप रसेल के मतानुसार, शायद नेपोलियन से स्पर्धा करेंगे। मगर याद रखिए कि नेपोलियन भी सीज़र से स्पर्धा करता था और सीज़र सिकन्दर से तथा सिकन्दर हरकुलिस से।. [2017]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. यश की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को क्या करना चाहिए ?
  2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने ईष्र्या के सम्बन्ध में कौन-सी सकारात्मक बात कही है?
  3. विश्वव्यापी प्रसिद्धि के इच्छुक व्यक्ति किससे स्पर्धा करेंगे और उन्हें क्या याद रखना | चाहिए?
  4. प्रतिद्वन्द्विता से क्या लाभ होता है ?

उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या–लेखक का कहना है कि ईष्र्या मनुष्य का चारित्रिक दोष है; क्योंकि यह आनन्द में बाधा पहुँचाती है, किन्तु यह एक दृष्टि से लाभदायक भी हो सकती है; क्योंकि ईष्र्या के अन्दर प्रतिद्वन्द्विता का भाव निहित होता है। ईष्यवश मनुष्य किसी दूसरे से स्पर्धा करता है और इसके कारण वह अपने जीवन-स्तर को विकसित करता है। यहाँ यह बात विचार करने योग्य है कि यह स्पर्धा समान-स्तर से नहीं, अपितु (UPBoardSolutions.com) अपने से कुछ अधिक स्तर रखने वाले व्यक्ति से की जानी चाहिए। यही कारण है कि भिक्षा-वृत्ति पर जीवन-यापन करने वाला व्यक्ति किसी करोड़पति से ईष्र्या नहीं करता। स्पर्धा या प्रतिद्वन्द्विता से सम्बद्ध यही एक बात ईष्र्या को उचित भी ठहरा सकती है, क्योंकि स्पर्धा से ही कोई भी मनुष्य उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है।
(स)

  1. यश की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को अपने से कुछ अधिक स्तर रखने वाले व्यक्ति से स्पर्धा अथवा प्रतिद्वन्द्विता करनी चाहिए क्योकि सार्थक प्रतिद्वन्द्विता से व्यक्ति उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है।
  2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने ईष्र्या के सम्बन्ध में एक सकारात्मक बात कही है और वह है उसमें निहित प्रतिद्वन्द्विता की भावना, जो मनुष्य को विकास की ओर ले जाती है।
  3. यदि कोई व्यक्ति विश्वव्यापी प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहता है तो उसे नेपोलियन जैसे महत्त्वाकांक्षी शासक से स्पर्धा करनी होगी, ऐसा विद्वान् रसेल का मत है। इसके साथ ही उसे यह बात भी याद रखनी चाहिए कि नेपोलियन जूलियस सीज़र से, सीज़र सिकन्दर से और सिकन्दर हरकुलिस से स्पर्धा करता था। इन सम्राटों को विश्वविख्यात व्यक्ति इस स्पर्धा या प्रतिद्वन्द्विता की भावना ने ही बनाया था।
  4. प्रतिद्वन्द्विता से मनुष्य का विकास होता है।

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प्रश्न 11.
ईष्र्या का एक पक्ष, सचमुच ही लाभदायक हो सकता है, जिसके अधीन हर आदमी, हर जाति और हर दल अपने को अपने प्रतिद्वन्द्वी का समकक्ष बनाना चाहता है, किन्तु यह तभी सम्भव है, जब कि ईर्ष्या से जो प्रेरणा आती हो, वह रचनात्मक हो। अक्सर तो ऐसा ही होता है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति यह महसूस करता है कि कोई चीज है, जो उसके भीतर नहीं है, कोई वस्तु है, जो दूसरों के पास है, किन्तु वह यह नहीं समझ पाता कि इस वस्तु को प्राप्त कैसे करना चाहिए और गुस्से में आकर वह अपने किसी पड़ोसी मित्र या समकालीन व्यक्ति को अपने से श्रेष्ठ मानकर उससे जलने लगता है, जबकि ये लोग भी अपने आपसे शायद वैसे ही असन्तुष्ट हों। [2015]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. ईष्र्यालु व्यक्ति लोगों से क्यों ईष्र्या करने लगता है ?
  2. ईष्र्या का लाभदायक पक्ष क्या है और यह कैसे सम्भव है ?
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक द्वारा बताये गये ईष्र्या की उत्पत्ति के कारण को स्पष्ट कीजिए।

[ पक्ष = पहलू। समकक्ष = समान। समकालीन = अपने समय के।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक का कथन है कि ईष्र्या का भाव अनेक दृष्टियों से हानिकारक तो है, परन्तु इसका एक लाभदायक पहलू भी है। वह लाभदायक पहलू यह है कि प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक जाति अथवा प्रत्येक दल में (UPBoardSolutions.com) अपने प्रतिद्वन्द्वी को देखकर यह विचार उत्पन्न होता है। कि वह भी अपने प्रतिद्वन्द्वी के समान बने और उसे इसके लिए जो भी प्रयास अपेक्षित हों, उन प्रयासों की ओर प्रवृत्त हो। परन्तु यह तब तक सम्भव नहीं हो सकता, जब तक ईर्ष्या से प्राप्त होने वाली प्रेरणा ध्वंसात्मक होने के स्थान पर रचनात्मक हो।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक श्री दिनकर जी का कहना है कि प्राय: ऐसा ही देखने में आता है कि किसी प्रतिद्वन्द्वी को देखकर व्यक्ति अपनी योग्यता, गुण, कौशल अथवा साधनों की वृद्धि अथवा विकास करने के स्थान पर दूसरों में ही उनके अभावों की कामना करने लगता है। उसे ईष्र्यावश दूसरे की समर्थता और अपनी असमर्थता की ही अनुभूति होती रहती है। उसे यह बोध ही नहीं हो पाता कि वह दूसरों की समृद्धि से ईष्र्या करने के स्थान पर अपने अभावों की पूर्ति किस प्रकार करे। अपनी अभावावस्था पर दु:खी और क्रोधित होकर तथा किसी भी व्यक्ति को अपने से अधिक उत्तम मानकर, वह उससे ईष्र्या करने लग जाता है, जबकि सम्भव है कि जिस व्यक्ति से वह ईर्ष्या कर रहा है, वह भी अपने किसी अभाव के कारण स्वयं से सन्तुष्ट न हो।

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(स)

  1. ईर्ष्यालु व्यक्ति लोगों से इसलिए ईर्ष्या करने लगता है कि क्योंकि वह यह नहीं समझ पाता कि जो वस्तु दूसरों के पास है और उसके पास नहीं है, वह उसे किस प्रकार प्राप्त कर सकता है।
  2. ईर्ष्या का एक लाभदायक पक्ष यह है कि प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक जाति में अपने प्रतिद्वन्द्वी को देखकर यह विचार उत्पन्न होता है कि वह भी अपने प्रतिद्वन्द्वी के समान बने और इसके लिए अपेक्षित प्रयासों की ओर प्रवृत्त हो।
  3. जब कोई वस्तु किसी के पास नहीं होती और वह यह नहीं समझ पाता कि इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है तो वह उस व्यक्ति को अपने से श्रेष्ठ समझकर उससे ईष्र्या करने लगता है।

प्रश्न 12.
तो ईष्र्यालु लोगों से बचने का क्या उपाय है? नीत्से कहता है कि “बाजार की मक्खियों को छोड़कर एकान्त की ओर भागो। जो कुछ भी अमर तथा महान् है, उसकी रचना और निर्माण बाजार तथा सुयश से दूर रहकर किया जाता है। जो लोग नये मूल्यों का निर्माण करने वाले होते हैं, वे बाजारों में नहीं बसते, वे शोहरत के पास भी नहीं रहते।” जहाँ बाजार की मक्खियाँ नहीं भिनकतीं, वहाँ एकान्त है। यह तो हुआ ईष्र्यालु लोगों से बचने का उपाय, किन्तु ईष्र्या से आदमी कैसे बच सकता है? [2012]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. ईष्र्यालु व्यक्तियों से बचने का क्या उपाय है ?
  2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?
  3. ‘बाजार की मक्खियों’ से क्या आशय (UPBoardSolutions.com) है ? स्पष्ट कीजिए।
  4. नये मूल्यों का निर्माण करने वाले लोग कहाँ नहीं रहते हैं ?

[ नीत्से = यूरोप का एक प्रसिद्ध दार्शनिक, विद्वान् व लेखक। शोहरत = यश, प्रसिद्धि।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या–लेखक ईर्ष्यालु व्यक्तियों से दूर रहने की सलाह देता है। प्रसिद्ध दार्शनिक नीत्से ने ईष्र्यालु व्यक्तियों को ‘बाजार की मक्खियाँ’ कहा है। जिस प्रकार मक्खियाँ गन्दगी पर बैठकर बीमारियाँ फैलाती हैं, उसी प्रकार ईर्ष्यालु लोग दूसरों की निन्दा कर समाज के वातावरण में जहर घोलकर उसे प्रदूषित करते हैं। यदि मनुष्य अपने जीवन में कोई श्रेष्ठ कार्य करना चाहता है तो उसे एकान्त स्थान में जाना चाहिए, जहाँ ये लोग न पहुँच सकें।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी कहते हैं कि ईर्ष्यालु लोगों के साथ रहकर श्रेष्ठ रचना, नये सामाजिक मूल्यों को निर्माण अथवा कोई भी महान् कार्य नहीं किया जा सकता है। रचनात्मक महान् कार्य भीड़ से दूर रहकर ही किये जाते हैं। महान् कार्य करने के लिए प्रसिद्धि के लोभ को छोड़ना पड़ता है। जो व्यक्ति समाज के नये मूल्यों का निर्माण करते हैं, वे बाजार जैसे प्रतिस्पर्धा के स्थानों से दूर रहते हैं। नीत्से के अनुसार एकान्त स्थान वही है, जहाँ ये बाजार की मक्खियाँ (ईर्ष्यालु लोग) नहीं होती हैं।
(स)

  1. ईष्र्यालु व्यक्तियों से बचने का एकमात्र उपाय उनसे दूर रहना है; अर्थात् व्यक्तियों को ऐसे स्थान में रहना चाहिए जहाँ ईर्ष्यालु लोग न पहुँच सकें।
  2. प्रस्तुत गद्यांश में प्रसिद्ध दार्शनिक नीत्से के मत का उल्लेख करते हुए लेखक ने ईष्र्यालु व्यक्ति से दूर रहने की सलाह दी है और कहा है कि विश्व में जो भी महान् कार्य हुए हैं, वे सभी एकान्तसेवियों ने ही किये हैं।
  3. नीत्से के अनुसार बाजार की मक्खियों से आशय ईष्र्यालु व्यक्तियों से है। जिस प्रकार मक्खियाँ मिठाई के आस-पास भिनभिनाती रहती हैं, उसी प्रकार ईष्र्यालु व्यक्ति यश रूपी मिठाई अर्थात् यशस्वी लोगों के आस-पास भिनभिनाते (UPBoardSolutions.com) रहते हैं और मौका मिलते ही उनकी निन्दा करते हैं और समाज के वातावरण में जहर घोलकर उसे प्रदूषित करते हैं।
  4. नये मूल्यों का निर्माण करने वाले लोग बाजार जैसे प्रतिस्पर्धा के स्थानों से और शोहरत से दूर रहते

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प्रश्न 13.
ईष्र्या से बचने का उपाय मानसिक अनुशासन है। जो व्यक्ति ईर्ष्यालु स्वभाव का है, उसे फालतू बातों के बारे में सोचने की आदत छोड़ देनी चाहिए। उसे यह भी पता लगाना चाहिए कि जिस अभाव के कारण वह ईष्र्यालु बन गया है, उसकी पूर्ति का रचनात्मक तरीका क्या है। जिस दिन उसके भीतर यह जिज्ञासा आएगी, उसी दिन से वह ईष्र्या करना कम कर देगा। . [2009, 11, 16]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. ईर्ष्या से बचने के लिए क्या उपाय करना चाहिए ?
  2. ईष्र्यालु व्यक्ति कब से ईर्ष्या करना कम कर सकता है ?
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?

[ मानसिक अनुशासन = मन पर नियन्त्रण। जिज्ञासा = जानने की इच्छा।]
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक कहता है कि ईष्र्या से बचने का एकमात्र उपाय अपने मन पर नियन्त्रण करना है। मन का स्वभाव चंचल होता है। इसको वश में रखकर ही ईर्ष्या से बचा जा सकता है। जो चीजें हमारे पास नहीं हैं, उनके बारे में सोचना व्यर्थ है। जिसके मन में ईष्र्या जन्म ले लेती है, उसे यह जानना चाहिए कि किस अभाव के कारण उसके मन में ईष्र्या उत्पन्न हुई है। उसके बाद उसे उन अभावों (UPBoardSolutions.com) को दूर करने का सकारात्मक प्रयत्न करना चाहिए। उसे ऐसे उपायों का पता लगाना चाहिए, जिससे उन अभावों की पूर्ति हो सके। अपने अभावों को दूर करने के लिए कोई रचनात्मक उपाय करना चाहिए।
(स)

  1. ईष्र्या से बचने के लिए व्यक्ति को अपने आपको मानसिक अनुशासन के अन्तर्गत बाँध लेना चाहिए। ।
  2. जिस दिन ईष्र्यालु व्यक्ति को यह पता चल जाएगा कि किस अभाव के कारण वह ईष्र्यालु बन गया है और उस अभाव की पूर्ति का सकारात्मक उपाय क्या है, उसी दिन से वह ईर्ष्या करना कम कर सकता है।
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने स्पष्ट किया है कि अभाव के कारण ही ईष्र्या की उत्पत्ति होती है। ईष्र्या से बचने का एकमात्र उपाय मन को वश में करना है।

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व्याकरण एवं रचना-बोध

प्रश्न 1
निम्नलिखित शब्दों से उपसर्गों को पृथक् कीजिए-
अत्यन्त, दरअसल, निमग्न, निर्मल, साकार, अपव्यय, समकक्ष, दुर्भावना, अनुशासन।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 5 ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से (गद्य खंड) img-1

प्रश्न 2
निम्नलिखित शब्दों से प्रत्ययों को पृथक् करके लिखिए-
ईष्र्यालु, लाभदायक, मौलिक, रचनात्मक, समकालीन, अहंकार।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 5 ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से (गद्य खंड) img-2

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प्रश्न 3
निम्नलिखित शब्दों का वाक्य-प्रयोग द्वारा अर्थ स्पष्ट कीजिए-
प्रतिद्वन्द्वी-प्रतिद्वन्द्विता, मूर्ति-मूर्त, जिज्ञासा-जिज्ञासु, चरित्र-चारित्रिक।
उत्तर
प्रतिद्वन्द्वी-प्रतिद्वन्द्विता–स्वस्थ प्रतिद्वन्द्विता उसे ही कहा जा सकता है, जिसमें प्रतिद्वन्द्वी एक-दूसरे से ईर्ष्या न करते हों। |
मूर्ति-मूर्त-मूर्तिकार अपनी कल्पना को अपनी (UPBoardSolutions.com) मूर्ति में मूर्त रूप प्रदान करता है।
जिज्ञासा-जिज्ञासु-अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए जिज्ञासु पता नहीं कहाँ-कहाँ मारा-मारा फिरता है।
चरित्र-चारित्रिक–समाज के चारित्रिक विकास के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने चरित्र को पवित्र बनाये रखना चाहिए।

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi सामाजिक निबन्ध

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सामाजिक निबन्ध

30. दूरदर्शन का सामाजिक जीवन पर प्रभाव

सम्बद्ध शीर्षक

  • दूरदर्शन का महत्त्व
  • दूरदर्शन का जीवन पर प्रभाव
  • दूरदर्शन से लाभ एवं हानि [2012]
  • दूरदर्शन : गुण और दोष [2010]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. दूरदर्शन का आविष्कार,
  3. विभिन्न क्षेत्रों में दूरदर्शन का योगदान,
  4. दूरदर्शन से हानियाँ,
  5. उपसंहार।

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प्रस्तावना-विज्ञान द्वारा मनुष्य को दिया गया एक सर्वाधिक आश्चर्यजनक उपहार है—दूरदर्शन। आज व्यक्ति जीवन की आपाधापी से त्रस्त है। वह दिन-भर अपने काम में लगा रहता है, चाहे उसका कार्य शारीरिक हो या मानसिक। शाम को (UPBoardSolutions.com) थक कर चूर हो जाने पर अपनी थकावट और चिन्ताओं से मुक्ति के लिए व्यक्ति कुछ मनोरंजन चाहता है। दूरदर्शन मनोरंजन का सर्वोत्तम साधन है। आज यह जनसामान्य के जीवन का केन्द्रीय अंग हो चला है। इससे जीवन के विविध क्षेत्रों में व्यक्ति का ज्ञानवर्द्धन हुआ है। दूरदर्शन ने व्यक्ति में जनशिक्षा का संचार करके उसे समय के साथ चलने की चेतना दी है। यह रेडियो, सिनेमा और समाचार-पत्रों से अधिक अच्छा और प्रभावी माध्यम सिद्ध हुआ है।

दूरदर्शन का आविष्कार-दूरदर्शन का आविष्कार अधिक पुराना नहीं है। 25 जनवरी, 1926 ई० को इंग्लैण्ड के एक इंजीनियर जॉन बेयर्ड ने इसको रॉयल इंस्टीट्यूट के सदस्यों के सामने पहली बार प्रदर्शित किया। भारत में दूरदर्शन का पहला केन्द्र 1959 ई० में नयी दिल्ली में चालू हुआ था। आज तो लगभग सारे देश में दूरदर्शन का प्रसार हो गया है और इसका प्रसारण-क्षेत्र धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा है। कृत्रिम उपग्रहों ने तो दूरदर्शन के कार्यक्रमों को समस्त विश्व के लोगों के लिए और भी सुलभ बना दिया है। ।

विभिन्न क्षेत्रों में दूरदर्शन का योगदान–दूरदर्शन अनेक दृष्टियों से हमारे लिए लाभकारी सिद्ध हो रहा है। कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में दूरदर्शन के योगदान, महत्त्व एवं उपयोगिताओं का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है
(क) शिक्षा के क्षेत्र में-दूरदर्शन से अनेक शैक्षिक सम्भावनाएँ जीवन्त हुई हैं। वह कक्षा में प्रभावशाली ढंग से पाठ की पूर्ति कर सकता है तथा विविध विषयों में यह विद्यार्थी की रुचि विकसित कर सकता है। दृश्य होने के कारण इसका प्रभाव दृढ़ होता है। देश-विदेश के अनेक स्थानों को देखकर भौगोलिक ज्ञान बढ़ता है।
(ख) वैज्ञानिक अनुसन्धान तथा अन्तरिक्ष के क्षेत्र में वैज्ञानिक अनुसन्धान की दृष्टि से भी दूरदर्शन (UPBoardSolutions.com) का विशेष महत्त्व रहा है। चन्द्रमा, मंगल व शुक्र ग्रहों पर भेजे गये अन्तरिक्ष यानों में दूरदर्शन यन्त्रों का प्रयोग किया गया था, जिन्होंने वहाँ के बहुत सुन्दर और विश्वसनीय चित्र पृथ्वी पर भेजे। विभिन्न वैज्ञानिक अनुसन्धानों को प्रदर्शित करके दूरदर्शन ने विज्ञान का उच्चतर ज्ञान कराया है।

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(ग) तकनीक और चिकित्सा के क्षेत्र में तकनीक और चिकित्सा के क्षेत्र में भी दूरदर्शन बहुत शिक्षाप्रद रहा है। दूरदर्शन ने एक सफल और प्रभावशाली प्रशिक्षक की भूमिका निभायी है। यह अधिक। प्रभावशाली और रोचक विधि से मशीनी प्रशिक्षण के विभिन्न पक्ष शिक्षार्थियों को समझा सकता है।
(घ) कृषि के क्षेत्र में–भारत एक कृषिप्रधान देश है। यहाँ अधिकांश कृषक अशिक्षित हैं। दूरदर्शन ने अपने कार्यक्रमों के माध्यम से किसानों को फसल बोने की आधुनिक तकनीक, उत्तम बीज तथा रासायनिक खाद के प्रयोग और उसके परिणामों को प्रत्यक्ष दिखाकर इस क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया है।
(ङ) सामाजिक चेतना की दृष्टि से विविध कार्यक्रमों के माध्यम से दूरदर्शन ने लोगों को ‘छोटा परिवार-सुखी परिवार की ओर आकर्षित किया है। इसने बाल-विवाह, दहेज-प्रथा, छुआछूत व साम्प्रदायिकता के विरुद्ध जनमत तैयार किया है। यह बाल-कल्याण और नारी-जागरण में भी उपयोगी सिद्ध हुआ है। यह दर्शकों को कानून और व्यवस्था के विषय में भी शिक्षित करता है।
(च) राजनीतिक दृष्टि से दूरदर्शन राजनीतिक दृष्टि से भी जनसामान्य को शिक्षित करता है। वह प्रत्येक व्यक्ति को, उसके अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक करता है तथा मताधिकार के प्रति रुचि जात करके उसमें राजनतिक चेतना लाता है।

दूरदर्शन के सीधे प्रसारण ने कुश्ती, तैराकी, बैडमिण्टन, फुटबॉल, हॉकी, क्रिकेट आदि खेलों को लोकप्रियता की बुलन्दियों पर पहुँचा दिया है। दूरदर्शन के इस सुदृढ़ प्रभाव को देखते हुए उद्योगपति और व्यवसायी अपने उत्पादनों के प्रचार के लिए इसे प्रमुख माध्यम के रूप में अपना रहे हैं।

दूरदर्शन से हानियाँ-दूरदर्शन से होने वाले लाभों के साथ-साथ इससे होने वाली कुछ हानियाँ भी हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। कोमल आँखें घण्टों तक टी० वी० स्क्रीन पर केन्द्रित रहने से अपनी स्वाभाविक शोभा क्षीण कर लेती हैं। इससे निकलने वाली विशेष प्रकार की किरणों का प्रतिकूल प्रभाव नेत्रों के साथ-साथ त्वचा पर भी पड़ता है। इसके कारण हमें अपने आवश्यक कार्यों के लिए भी समय का प्रायः अभाव ही बना रहता है।

केबल टी० वी० पर प्रसारित होने वाले कुछ कार्यक्रमों ने तो अल्पवयस्क बुद्धि के किशोरों को वासना के पंक में धकेलने का कार्य किया है। इनसे न केवल हमारी युवा पीढ़ी पर विदेशी अपसंस्कृति का प्रभाव पड़ रहा है अपितु हमारे अबोध और नाबालिग बच्चे भी इसके दुष्प्रभाव से बच नहीं पा रहे हैं।

उपसंहार-इस प्रकार हम देखते हैं कि दूरदर्शन मनोरंजन के साथ-साथ जन-शिक्षा का भी एक . सशक्त माध्यम है। आवश्यकता है कि इसे केवल मनोरंजन का साधन ही न समझा जाए, वरन् यह जन-शिक्षा एवं प्रचार का माध्यम भी बने। इस उद्देश्य के लिए इसके विविध कार्यक्रमों में अपेक्षित सुधार होने चाहिए। इसके माध्यम से तकनीकी और व्यावहारिक शिक्षा का प्रसार किया जाना चाहिए। दूरदर्शन से होने वाली हानियों के लिए एक विशेष तन्त्र एवं दर्शक (UPBoardSolutions.com) जिम्मेदार हैं। इसके लिए दूरदर्शन के निदेशकों, सरकार एवं सामान्यजन को संयुक्त रूप से प्रयास करने होंगे, जिससे दूरदर्शन के कार्यक्रमों को दोषमुक्त बनाकर उन्हें वरदान के रूप में ग्रहण किया जा सके।

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31. वनों (वृक्षों) का महत्त्व [2009, 13, 17]

सम्बद्ध शीर्षक

  • हमारी वन सम्पदा
  • वन और पर्यावरण
  • वन-महोत्सव की उपयोगिता
  • वृक्ष हमारे जीवन-साथी
  • वृक्षारोपण का महत्त्व [2009, 11]
  • वृक्षों की रक्षा : पर्यावरण सुरक्षा [2012, 13]
  • वृक्षारोपण [2013, 18]
  • वृक्ष : मानव के सच्चे हितैषी [2016]

रूपरेखा—

  1. प्रस्तावना,
  2. वनों को प्रत्यक्ष योगदान,
  3. वनों का अप्रत्यक्ष योगदान,
  4. भारतीय बन-सम्पदा के लिए उत्पन्न समस्याएँ,
  5. वनों के विकास के लिए सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयास,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-वन मानव-जीवन के लिए बहुत उपयोगी हैं, किन्तु सामान्य व्यक्ति इसके महत्त्व को नहीं समझ पा रहे हैं। जो व्यक्ति वनों में रहते हैं या जिनकी आजीविका वनों पर आश्रित है, वे तो वनों के महत्त्व को समझते हैं, लेकिन जो लोग वनों में नहीं रह रहे हैं, वे इन्हें प्राकृतिक शोभा का साधन मानते हैं। वनों का मनुष्यों के जीवन से कितना गहरा सम्बन्ध है, इसके लिए विभिन्न क्षेत्रों में उनका योगदान क्रमिक रूप से द्रष्टव्य है।

वनों का प्रत्यक्ष योगदान :
(क) मनोरंजन का साधन-वन, मानव को सैर-सपाटे के लिए रमणीक क्षेत्र प्रस्तुत करते हैं। वृक्षों के अभाव में पर्यावरण शुष्क हो जाता है और सौन्दर्य नष्ट। ग्रीष्मकाल में लोग पर्वतीय क्षेत्रों की यात्रा करके इस प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द लेते हैं।
(ख) लकड़ी की प्राप्ति-वनों से हम अनेक प्रकार की बहुमूल्य लकड़ियाँ प्राप्त करते हैं। इन्हें ईंधन के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। कुछ लकड़ियाँ व्यापारिक दृष्टिकोण से भी बहुत उपयोगी होती हैं,
जिनमें साल, सागौन, देवदार, चीड़, शीशम, चन्दन, (UPBoardSolutions.com) आबनूस आदि की लकड़ियाँ मुख्य हैं। इनका प्रयोग फर्नीचर, इमारती सामान, माचिस, रेल के डिब्बे, जहाज आदि बनाने में किया जाता है।

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(ग) विभिन्न उद्योगों के लिए कच्चे माल की पूर्ति–वनों से लकड़ी के अतिरिक्त अनेक उपयोगी सहायक वस्तुओं की प्राप्ति होती है, जिनका अनेक उद्योगों में कच्चे माल के रूप में उपयोग किया जाता है। इनमें गोंद, शहद, जड़ी-बूटियाँ, कत्था, लाख, बाँस, बेंत आदि मुख्य हैं। इनका कागज, फर्नीचर, दियासलाई, टिम्बर, ओषधि आदि उद्योगों में कच्चे माल के रूप में उपयोग किया जाता है।
(घ) प्रचुर फलों की प्राप्ति-वन प्रचुर मात्रा में फल उत्पन्न करके मानव का पोषण करते हैं। ये फल अनेक बहुमूल्य खनिज लवणों व विटामिनों के स्रोत हैं।
(ङ) जीवनोपयोगी जड़ी-बूटियाँ-वन अनेक जीवनोपयोगी जड़ी-बूटियों के भण्डार हैं। वनों में ऐसी अनेक वनस्पतियाँ पायी जाती हैं, जिनसे अनेक असाध्य रोगों का निदान सम्भव हो सका है। विजयसार की लकड़ी मधुमेह की अचूक औषध है।
(च) वन्य पशु-पक्षियों को संरक्षण–वन्य पशु-पक्षियों की सौन्दर्य की दृष्टि से अपनी एक विशिष्ट उपयोगिता है। वन अनेक वन्य पशु-पक्षियों को संरक्षण प्रदान करते हैं। ये हिरन, नीलगाय, गीदड़, रीछ, शेर, चीता, हाथी आदि वन्य पशुओं की क्रीड़ास्थली हैं। ये पशु वनों में स्वतन्त्र विचरण करते हैं, भोजन प्राप्त करते हैं और संरक्षण पाते हैं। पालतू पशुओं के लिए भी वन विशाल चरागाह उपलब्ध कराते हैं।
(छ) आध्यात्मिक लाभ–मानव-जीवन के भौतिक पक्ष के अतिरिक्त उसके मानसिक एवं (UPBoardSolutions.com) आध्यात्मिक पक्षों के लिए भी वनों का महत्त्व कुछ कम नहीं है। सांसारिक जीवन से क्लान्त मनुष्य यदि वनों में कुछ समय निवास करते हैं तो उन्हें सन्तोष तथा मानसिक शान्ति प्राप्त होती है।

उपर्युक्त के अतिरिक्त सरकार को राजस्व और वनों के ठेकों के रूप में करोड़ों रुपये की आय होती है। साथ ही सरकार चन्दन के तेल, उसकी लकड़ी से बनी कलात्मक वस्तुओं, फर्नीचर, लाख, तारपीन के तेल आदि के निर्यात से प्रति वर्ष करोड़ों रुपये की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा अर्जित करती है।

वनों का अप्रत्यक्ष योगदान :

(क) वर्षा–भारत एक कृषिप्रधान देश है। कृषि की मानसून पर निर्भरता की दृष्टि से वनों का बहुत महत्त्व है। वन वर्षा में सहायता करते हैं। इन्हें वर्षा का संचालक कहा
जाता है।
(ख) पर्यावरण सन्तुलन (शुद्धीकरण)-वन-वृक्ष वातावरण से दूषित वायु (कार्बन डाइऑक्साइड) ग्रहण करके अपना भोजन बनाते हैं और ऑक्सीजन छोड़कर पर्यावरण को शुद्ध बनाते हैं। इस प्रकार वन पर्यावरण में सन्तुलन बनाये रखने में सहायक होते हैं।
(ग) जलवायु पर नियन्त्रण-वनों से वातावरण का तापक्रम, नमी और वायु प्रवाह नियन्त्रित होता है, जिससे जलवायु में सन्तुलन बना रहता है। वन जलवायु की भीषण उष्णता को सामान्य बनाये रखते हैं। ये आँधी-तूफानों से हमारी रक्षा करते हैं तथा जलवायु को भी प्रभावित करते हैं।
(घ) जल के स्तर में वृद्धि–वन वृक्षों की जड़ों के द्वारा वर्षा के जल को सोखकर भूमि के नीचे के जल-स्तर को बढ़ाते रहते हैं। इससे दूर-दूर तक के क्षेत्र हरे-भरे रहते हैं, साथ ही भूमिगत जल का स्तर घटने नहीं पाता। पहाड़ों पर बहते चश्मे, वनों की पर्याप्तता के ही परिणाम हैं।
(ङ) भूमि-कटाव पर रोक–वनों के कारण वर्षा का जल मन्द गति से प्रवाहित होता है; अतः भूमि का कटाव कम होता है। वर्षा के अतिरिक्त जल को वन सोख लेते हैं और नदियों के प्रवाह को नियन्त्रित करके भूमि के कटाव को रोकते हैं, जिसके फलस्वरूप भूमि की उर्वरा-शक्ति भी बनी रहती है।
(च) रेगिस्तान के प्रसार पर रोक-वन तेज आँधियों को रोकते हैं तथा वर्षा को आकर्षित करते हैं, जिससे मिट्टी के कण उनकी जड़ों में बँध जाते हैं। इससे रेगिस्तान का प्रसार नहीं होने पाती।।

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भारतीय वन-सम्पदा के लिए उत्पन्न समस्याएँ-वनों के योगदान से स्पष्ट है कि वन हमारे जीवन में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूप से बहुत उपयोगी हैं। वनों में अपार सम्पदा पायी जाती थी, किन्तु जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती गयी, वनों को मनुष्य के प्रयोग के लिए काटा जाने लगा। अनेक अद्भुत और घने वन आज समाप्त हो गये हैं। वन-सम्पदा के इस संकट ने व्यक्ति और सरकार को वन-संरक्षण की ओर सोचने पर विवश कर दिया है। (UPBoardSolutions.com) आज हमारे देश में वनों का क्षेत्रफल केवल 20 प्रतिशत से भी कम रह गया है, जो कम-से-कम एक-तिहाई होना चाहिए था। वनों के पर्याप्त दोहन, नगरीकरण, वनों की अन्धाधुन्ध कटाई ने भारतीय वन-सम्पदा के लिए अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर दी हैं।

वनों के विकास के लिए सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयास सरकार ने वनों के महत्त्व को दृष्टिगत रखते हुए समय-समय पर वनों के संरक्षण और विकास के लिए अनेक कदम उठाये हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नवत् है

  1. सन् 1956 ई० में वन महोत्सव का आयोजन किया गया, जिसका मुख्य नारा था-‘अधिक वृक्ष लगाओ’, तभी से यह उत्सव प्रति वर्ष 1 से 7 जुलाई तक मनाया जाता है।
  2. सन् 1965 ई० में सरकार ने केन्द्रीय वन आयोग की स्थापना की जो वनों से सम्बन्धित आँकड़े और सूचनाएँ एकत्रित करके वनों के विकास में लगी हुई संस्थाओं के कार्य में ताल-मेल बैठाता है।
  3. विभिन्न राज्यों में वन निगमों की रचना की गयी है, जिससे वनों की अनियन्त्रित कटाई को रोका जा सके।

व्यक्तिगत स्तर पर भी अनेक आन्दोलनों का संचालन करके समाज-सेवियों द्वारा समय-समय पर सरकार को वनों के संरक्षण और विकास के लिए सचेत किया जाता रहा है।

उपसंहार-निस्सन्देह वन हमारे लिए बहुत उपयोगी हैं। इसलिए वनों का संरक्षण और संवर्द्धन बहुत आवश्यक है। इसलिए आवश्यकता है कि सरकार वन-संरक्षण नियमों को कड़ाई से पालन कराकर आने वाली पीढ़ी की भावी प्राकृतिक विपदाओं से रक्षा करे। इसके लिए सरकार के (UPBoardSolutions.com) साथ-साथ सामान्य जनता का सहयोग भी अपेक्षित है। यदि प्रत्येक व्यक्ति वर्ष में एक बार एक वृक्ष लगाने और उसको भली प्रकार संरक्षण करने का संकल्प लेकर उसे क्रियान्वित भी करे तो यह राष्ट्र के लिए आगे आने वाले कुछ एक वर्षों में अमूल्य योगदान हो सकता है।

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32. ग्राम्य-जीवन [2010]

सम्बद्ध शीर्षक

  • भारत गाँवों में बसता है।
  • भारतीय किसान का जीवन
  • भारतीय किसान की समस्याएँ

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. ग्रामीणों का सरल और सात्त्विक जीवन,
  3. ग्राम्य-जीवन का आनन्द,
  4. भारतीय ग्रामों की दुर्दशा,
  5. सरकार के सुधार और प्रयत्न,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना–भारत ग्रामप्रधान देश है। यहाँ की 70% जनसंख्या ग्रामों में निवास करती है। गाँधीजी का कथन था कि, “भारत ग्रामों में बसता है।’ कवीन्द्र रवीन्द्र का कथन है कि ‘‘यदि तुम्हें ईश्वर के दर्शन करने हैं तो वहाँ जाओ, जहाँ किसान जेठ की दुपहरी में हल जोतकर एड़ी-चोटी का पसीना एक करता है। इन कथनों से स्पष्ट होता है कि भारत का सच्चा सौन्दर्य ग्रामों में है। भारत में ग्रामों की संख्या अधिक है। ग्रामों में लोग झोपड़ियों में निवास करते हैं, जबकि नगरों के लोग उच्च अट्टालिकाओं और दिव्य प्रासादों में। फिर भी वास्तविक आनन्द ग्रामों में ही प्राप्त होता है, नगरों में नहीं।

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ग्रामीणों का सरल और सात्त्विक जीवन–ग्रामों के लोग बाहर से अधनंगे, अनाकर्षक और अशिक्षित होते हुए भी हृदय से सीधे, सच्चे और पवित्र होते हैं। भारत की सच्ची सभ्यता के दर्शन ग्रामों में ही होते हैं। ग्रामवासी ईमानदार और अतिथि-सत्कार करने वाले होते हैं। ग्रामीणों का जीवन कृत्रिमता, बाह्यआडम्बर, छल, धोखा आदि से दूर रहता है। ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ की झलक सरल ग्राम्य-जीवन में ही मिलती है। ग्रामीणों में अधिक व्यय की भावना नहीं होती। वे कृत्रिम साधनों से दूर तथा सिनेमा, नाटक , और नाच-रंग से अछूते रहते हैं।

ग्रामीण लोग रूखा-सूखा, जो कुछ मिल जाता है, खा लेते हैं। मोटा और सस्ता कपड़ा पहनते हैं। अतिथि का दिल खोलकर स्वागत करते हैं। खुली हवा और खुली धूप में प्रकृति के ये नौजवान साधु खेतों में काम करते हैं। प्रात:काल की ऊषा की लालिमा से लेकर (UPBoardSolutions.com) सन्ध्या तक ये खेतों में कठिन परिश्रम करते हैं। सन्ध्या-पूजा से अनभिज्ञ इन लोगों के हृदय में ईश्वर निवास करता है। इनमें परमात्मा के प्रति अटूट विश्वास, मानवता से प्रेम तथा भाईचारा, दया, करुणा, सहयोग आदि की उच्च भावनाएँ पायी जाती हैं। गाय-भैंस के ताजे दूध और मक्खन, अपने खेत में उत्पन्न अन्न और सब्जियों, ग्राम-वधुओं के हाथ से पीसे गये आटे और उनके द्वारा बिलोये गये मट्टे में जो आनन्द और सन्तोष मिलता है, वह नगरों के चटनी, अचार, मुरब्बों और पकवानों में कहाँ ?

ग्राम्य-जीवन का आनन्द–ग्रामवासियों का जीवन सरल, शान्त और आनन्दमय होता है। नगरों की विशाल अट्टालिकाओं, चौड़ी-चिकनी सड़कों, बिजली की चकाचौंध, सिनेमा, नाट्यधरों और अन्य विलासिता की सामग्री में वह आनन्द नहीं, जो शान्त, एकान्त, कोलाहल से दूर प्रकृति की सुरम्य गोद अर्थात् ग्रामों के वातावरण में है। कल-कल नाद करके बहती हुई नदी की धारा, घनी अमराइयों, पुष्पित लताओं, दूर तक फैली हरीतिमा और लहलहाते खेतों से जो मानसिक शान्ति और आत्म-सन्तोष मिलता है, वह धुआँ उगलती चिमनियों, क्लोरीन मिले पानी, सड़कों पर घर-घर्र और पों-पों के कोलाहल, हवा की पहुँच से दूर घने बसे घरों के वातावरण से पूर्ण नगरों में कहाँ ? गाँवों में प्रकृति का शुद्ध रूप देखने को मिलता है।

भारतीय ग्रामों की दुर्दशा-सरलता, सादगी और प्रकृति की सुरम्य गोद अर्थात् भारतीय ग्रामों की एक अपनी करुण कहानी है। शताब्दियों से इन दीन-हीन किसानों का शोषण होता आ रहा है। आज ग्रामों में जो विकट समस्याएँ मुँह बाये खड़ी हुई हैं, वे भारत जैसे देश के लिए कलंक की बात हैं। अधिकांश ग्रामीण अशिक्षा के भयंकर रोग, दरिद्रता के दुर्दान्त दानव एवं अन्धविश्वास के भूत से ग्रसित हैं। भारत की स्वतन्त्रता से पूर्व कृषक का जन्म दरिद्रता और अज्ञान के मध्य होता था, वे अन्धविश्वास और ऋण की गोद में पलते थे, दु:ख और दरिद्रता में बड़े होते थे। भारत की लोकप्रिय सरकार ने ग्रामों की दशा में उल्लेखनीय सुधार किये हैं।

वर्तमान समय में गाँव दुर्गुणों, बुराइयों, रूढ़ियों एवं हानिकारक रीति-रिवाजों के अड्डे बन गये हैं। भोले किसानों को सूदखोर महाजनों एवं मुनाफाखोर व्यापारियों के शोषण का शिकार होना पड़ता है। ग्रामों में स्नेह, स्वावलम्बन, सहयोग, सरलता, पवित्रता आदि गुणों को लोप होता जा (UPBoardSolutions.com) रहा है। बढ़ती हुई बेकारी ने ग्रामीणों के जीवन को कुण्ठित और निराशामय बना दिया है। जातिवाद, लड़ाई-झगड़े एवं मुकदमेबाजी के कारण उनका जीवन नरकतुल्य बन गया है; अतः ग्रामों के देश भारत की सर्वांगीण उन्नति करने के लिए ग्रामों के सुधार की नितान्त आवश्यकता है।

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सरकार के सुधार और प्रयत्न-हमारी लोकप्रिय सरकार ग्रामों के सुधार की ओर विशेष ध्यान दे रही है। ग्रामों में रोगों से मुक्ति दिलाने के लिए अस्पताल तथा अशिक्षा को दूर करने के लिए स्कूल खोले जा रहे हैं। ग्रामों के आर्थिक विकास के लिए उन्हें सड़कों और रेलमार्गों से जोड़ा जा रहा है। नलकूपों, बिजली, उत्तम बीज, रासायनिक खाद तथा कृषि-यन्त्रों को सुलभ कराके ग्रामों की दशा सुधारी जा रही है। ग्राम पंचायतों के माध्यम से रेडियो, टेलीविजन आदि के द्वारा मनोरंजन के साधन सुलभ कराये जा रहे हैं।

उपसंहार–स्वतन्त्रता से पूर्व ग्रामों की दशा अत्यन्त शोचनीय थी। सरकार के प्रयत्नों से ग्रामों की दशा में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। ग्राम-सुधार और विकास कार्यक्रमों में तेजी लाने के लिए ग्राम के उत्साही युवकों का सहयोग अपेक्षित है। वह दिन दूर नहीं है, जब भारत के ग्राम पुन: ‘पृथ्वी का स्वर्ग’ कहलाएँगे।

33. चलचित्र : लाभ और हानियाँ

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. चलचित्रों की व्यापकता,
  3. मनोरंजन का साधन,
  4. समाज पर कुप्रभाव,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, जो समाज में रह कर ही अपने मनोरंजन के माध्यम हूँढ़ने का यत्न करता है। समय और परिस्थिति के अनुसार उसके मनोरंजन के साधन बदलते रहते हैं। जब तक विज्ञान का पूर्ण विकास नहीं हुआ था, तब तक वह मेले-तमाशे आदि के माध्यम से अपना मनोरंजन करता था, परन्तु वैज्ञानिक विकास के साथ उसने अपनी सुख-सुविधाओं के नवीन साधनों का भी आविष्कार किया है। उसने दृश्य और (UPBoardSolutions.com) श्रव्य की सहायता से अनेक आविष्कार किये हैं और इन्हीं के संयोग से चलचित्र का निर्माण किया है। सन् 1929 तक बने चलचित्रों में फोटोग्राफी तो सचल थी पर उनमें ध्वनि की कमी थी। सवाक् चलचित्रों का निर्माण सन् 1930 से आरम्भ हो गया था। पिछले वर्षों में इसने जो भी उन्नति की है, उसी के कारण मानव-मनोरंजन के क्षेत्र में इनको प्रमुख स्थान हो गया है।

चलचित्रों की व्यापकता–चलचित्रों ने समाज को अत्यधिक प्रभावित किया है। प्रारम्भ में जनता ने कौतूहल के साथ इस मनोरंजन का आस्वादन किया। धीरे-धीरे उसको इसमें कथा, नाटक, प्रहसन आदि का आनन्द भी मिलने लगा। इससे सिनेमा के दर्शकों की संख्या में वृद्धि होने लगी। जनता के प्रत्येक वर्ग में इसके प्रति मोह बढ़ने लगा। आज भारत में अमेरिका के बाद दूसरे नम्बर पर चलचित्रों का निर्माण होता है। प्रतिवर्ष भारत में बनने वाले चलचित्रों की संख्या लगभग एक हजार है। इनके निर्माण पर अरबों रुपये खर्च होते हैं। यह एक सफल व्यवसाय बन चुका है, जिसमें न जाने कितने लागों को रोजगार के अवसर प्राप्त होते हैं।

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मनोरंजन का साधन–सिनेमा आज मनोरंजन का प्रमुख, सर्वसुलभ एवं सस्ता माध्यम माना जाता है। दिन भर विभिन्न कार्यों में लगे रहने के कारण लोगों का मन श्रान्त-क्लान्त रहता है। अपनी शारीरिक एवं मानसिक थकान को दूर करने के लिए वे थोड़ी-सी राशि व्यय करके सिनेमा देखते हैं तथा इसे देखते हुए आनन्द की धारा में बहकर अपनी समस्त पीड़ाओं को भूल जाते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें जो मानसिक सन्तुष्टि प्राप्त होती है, उससे वे अपने अगले दिन के कार्यों के लिए उत्साह प्राप्त करते हैं।

सिनेमा शिक्षा के प्रचार का साधन भी स्वीकार किया जाता है। इसके द्वारा हमें अनेक प्रकार की शिक्षाएँ प्राप्त होती हैं। जिनके आधार पर दर्शक अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए अपने जीवन से विभिन्न बुराइयों को दूर कर अपना जीवन ‘आदर्श जीवन’ बना सकते हैं। अनेक समस्याओं के सहज, स्वाभाविक समाधान भी चलचित्रों के माध्यम से सुझाये जा सकते हैं, जो समाज में नवचेतना उत्पन्न कर सकते हैं। वीरों एवं देशभक्तों के चरित्रों पर बनी फिल्में राष्ट्रीय भावना को जाग्रत करती हैं।

सिनेमा से विभिन्न प्रकार के दृश्यों का आनन्द प्राप्त होता है। सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक चलचित्रों के माध्यम से हमें अपनी प्राचीन समृद्धि और परम्परा का ज्ञान होता है, जिससे प्रेरणा प्राप्त कर हम अपने वर्तमान को भी महान् बना सकते हैं।

समाज पर कुप्रभाव-सिनेमा ने आधुनिक समाज को जहाँ अत्यधिक प्रभावित करते हुए उसमें नव-चेतना जाग्रत की है, वहीं उसे पर्याप्त हानि भी पहुँचाई है। धन के लोभी फिल्म-निर्देशकों ने भद्दी-अश्लील और फूहड़ फिल्में बनानी आरम्भ कर दी हैं। इस प्रकार के चलचित्रों से दर्शकों के आचरण पर बुरा प्रभाव पड़ता है। श्रृंगार एवं फैशन के प्रति आकर्षण भी चलचित्रों के प्रभाव से बढ़ रहा है। जिन लोगों को इसका व्यसन लग जाता है, (UPBoardSolutions.com) वे अपनी आर्थिक स्थिति की चिन्ता किये बिना अपना सर्वस्व इसी में स्वाहा कर देते हैं। फिल्मों से मानवीय मूल्य नष्ट हो रहे हैं। लोगों को दृष्टिकोण हीन और कामुक होने लगा है तथा जीवन की वास्तविकता के प्रति उनकी आस्था समाप्त होने लगी है। कम आयु के बालक जब चलचित्र में अश्लील, अमानवीय और अतिमानवीय व्यवहार देखते हैं तो वे भविष्य में वैसा ही करने की प्रेरणा लेकर घर आते हैं।

आज स्थिति ऐसी हो गयी है कि सिनेमाघर बच्चों के बिगड़ने के अड्डे बन गये हैं। बच्चों के आयु से पहले परिपक्व हो जाने के पीछे भी सिनेमा का प्रमुख हाथ है। फिल्मों ने भारतीय समाज को ‘प्रेम-संस्कृति प्रदान की है जिसमें ‘गर्ल फ्रेण्ड’ और ‘ब्वॉय फ्रेण्ड’ का प्रचलन बढ़ा है, पति-पत्नी में मानसिक प्रतिरोध बढ़ा है तथा सामाजिक और पारिवारिक सम्बन्धों में विकार उत्पन्न हुए हैं।

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उपसंहार–सिनेमा सैद्धान्तिक रूप से ज्ञानवर्द्धक है। इसका व्यावसायिक रूप अत्यन्त हानिकारक है। आज हमें इस प्रकार के चलचित्रों की आवश्यकता है जो सामाजिक, राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना जगाने वाली हों। फिल्म निर्माण में संलग्न निर्माता, निर्देशकों, अभिनेताओं आदि को भी अपना उत्तरदायित्व समझते हुए समाज-सुधार एवं राष्ट्र-निर्माण में योगदान देना चाहिए। दर्शकों को सिनेमा मनोरंजन के लिए देखना चाहिए, व्यसन के रूप में नहीं तभी सिनेमा की सार्थकता सिद्ध होगी।

34. नारी-शिक्षा (2010, 13]

सम्बद्ध शीर्षक

  • नारी-शिक्षा का महत्त्व [2011, 12, 14]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. स्त्री-शिक्षा का अतीत और वर्तमान,
  3. नारी शिक्षा की ओवश्यकता,
  4. नारी-शिक्षा को रूप,
  5. आधुनिक शिक्षा,
  6. उपसंहार : भारत में नारी-शिक्षा की वर्तमान स्थिति।

प्रस्तावना-एक समय था, जब कि भारतवर्ष जगद्गुरु कहलाता था। विश्व के कोने-कोने से शिक्षार्थी यहाँ के विश्वविद्यालयों में विद्या ग्रहण करने आते थे। परन्तु परिस्थितियों के चक्रवात में भारत ऐसा फैसा कि आज यहाँ अशिक्षा और अज्ञान का साम्राज्य (UPBoardSolutions.com) व्याप्त हो गया है। आज विश्व के निरक्षरों का एक बड़ा प्रतिशत भारत में विद्यमान है। यहाँ की नारियों की स्थिति और भी दयनीय है। अक्षर-ज्ञान, स्कूली शिक्षा, तकनीकी शिक्षा आदि के क्षेत्र में वे बहुत पिछड़ी हुई हैं।

स्त्री-शिक्षा का अतीत और वर्तमान-ऐसा नहीं है कि भारतीय नारियाँ सदा-से ही अशिक्षित रही हों। प्राचीन काल में स्त्रियों को भी पुरुषों के समान शिक्षा दी जाती थी। अनुसूया, गार्गी, लीलावती आदि विदुषियों ने अपने ज्ञान से समाज को प्रभावित किया था। आचार्य मण्डन मिश्र की पत्नी ने जगद्गुरु शंकराचार्य से शास्त्रार्थ करके स्त्रियों के गौरव को बढ़ाया था। परन्तु दुर्भाग्य से भारतवर्ष को शताब्दियों तक आक्रमणकारियों के युद्ध झेलने पड़े। अस्तित्व के लिए जूझने हमारे देश का शैक्षिक विकास रुक गया। भारतीय नारी को अपनी लाज बचाने के लिए घर की दहलीज में सीमित रहना पड़ा। परिणामस्वरूप अशिक्षा उसकी विवशता बन गयी।

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उल्लेखनीय बात यह है कि युगों तक विद्यालयी शिक्षा से वंचित रहने पर भी भारतीय नारी ने पुरुषसमाज को सुसंस्कारित करने का बीड़ा उठाया। शिवाजी को महान बनाने वाली जीजाबाई थीं। ‘तुलसीदास को ‘रामबोला’ बनाने वाली उनकी अर्धांगिनी रत्नावली’ थीं। सैकड़ों वर्षों के युद्धों में अपने धर्म और संस्कृति को बचाये रखने वाली भारत की नारियाँ ही थीं। इस कारण हम यहाँ की नारियों को अशिक्षित होते हुए भी असंस्कारित नहीं कह सकते।

नारी-शिक्षा की आवश्यकता–नारी और पुरुष दोनों समाज रूपी रथ के दो पहिये हैं। दोनों का समान रूप से शिक्षित होना आवश्यक है। समाज के कुछ पुरातनपन्थी लोग स्त्री-शिक्षा के विरोधी हैं। वे स्त्री को ‘पराया-धन’ या ‘पाँव की जूती’ या ‘अनुत्पादक’ मानकर पुरुषों के समकक्ष नहीं आने देना चाहते। वे भूल जाते हैं कि मनुष्य-जीवन की सबसे मूल्यवान शक्ति नारी के हाथों में ही है। नारियाँ ही माँ बनकर बच्चों को पालती हैं, उन्हें गुणवान बनाती हैं। वे ही उस कच्ची मिट्टी को अपने कल्पित साँचे में ढालती हैं। वह उसे देवता भी बना सकती हैं और राक्षस भी। यदि नारी में ही विवेक न होगा तो उसकी सन्तानें कैसे विवेकवान होंगी। अतः सर्वप्रथम नारी को शिक्षित, संस्कारित एवं ज्ञान-समृद्ध बनाना आवश्यक है।

अरस्तू के कथनानुसार, “नारी की उन्नति तथा अवनति पर ही राष्ट्र की उन्नति या (UPBoardSolutions.com) अवनति निर्भर करती है।’ प्रसिद्ध दार्शनिक बर्नार्ड शॉ का कहना है कि “किसी व्यक्ति का चरित्र कैसा है, यह उसकी माता को देखकर बताया जा सकता है।”

नारी-शिक्षा का रूप–प्रश्न यह है कि नारी-शिक्षा का स्वरूप क्या होना चाहिए ? क्या नारी और पुरुष की शिक्षा में कोई अन्तर होना चाहिए ? उत्तर है–हाँ, होना चाहिए। जब प्रकृति ने उन्हें स्वभावतया पुरुष से भिन्न बनाया है तो उनकी शिक्षा भी भिन्न होनी चाहिए। नारी स्वभाव से कोमल होती है। उसमें समस्त रचनात्मक क्षमताएँ होती हैं। जयशंकर प्रसाद ने नारी-हृदय के गुणों की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है

दया माया ममता लो आज, मधुरिमा लो अगाध विश्वास।
हमारा हृदय-रत्न निधि स्वच्छ, तुम्हारे लिए खुला है पास ॥

नारी में दया, ममता, मधुरिमा, विश्वास, स्वच्छता, समर्पण, त्याग आदि उदात्त वृत्तियाँ होती हैं। अतः उसकी शिक्षा भी ऐसी होनी चाहिए जिससे उसकी इन शक्तियों का उत्तरोत्तर विकास हो। एक नारी चिकित्सा, शिक्षा, सेवा, पालन-पोषण, सौन्दर्य-बोध, कला आदि क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। वह चिकित्सक, शिक्षिका, प्रशिक्षक, परिधान-विशेषज्ञ आदि के रूप में कुशल सिद्ध हो सकती है। ये कार्य उसकी शक्तियों और रुचियों के अनुरूप हैं।

आधुनिक शिक्षा-आज की नारी पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने की होड़ में इंजीनियरिंग, वाणिज्य, सेना, पायलट, पुलिस आदि सेवाओं में जा रही है। आज के इस समानता-समर्थक युग में इस दौड़ को उचित कहा जा रहा है, परन्तु ये क्षेत्र स्त्रियोचित नहीं हैं। सेना-पुलिस जैसे क्षेत्र पुरुषोचित हैं। इनके लिए चित्त की कठोरता और अनथक भागदौड़ की आवश्यकता होती है। स्त्री के लिए वैसी शिक्षा और नौकरी चाहिए जिससे उसका स्त्रैण स्वभाव अक्षुण्ण बना रहे। फिर भी यदि नारी-समाज का अल्पांश कानून, पुलिस, सेना, वाणिज्य जैसे क्षेत्रों में जाना चाहे तो उसे पुरुषवत् अधिकार दिये जाने चाहिए; क्योंकि रानी लक्ष्मीबाई, इन्दिरा गाँधी, सरोजिनी नायडू, किरण बेदी आदि प्रतिभाओं ने कठोर क्षेत्रों में आकर जनसमाज को क्रान्तिकारी दिशा प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है।

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उपसंहार : भारत में नारी-शिक्षा की वर्तमान स्थिति-यद्यपि भारत में नारी-शिक्षा की स्थिति सन्तोषजनक नहीं है, किन्तु आशाजनक अवश्य है। सरकार और समाज के प्रयत्नों से नारी-शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। हरियाणा में स्नातक स्तर तक ग्रामीण नारियों की शिक्षा मुफ्त कर दी गयी है। लड़कियों ने कला, चिकित्सा, विज्ञान, वाणिज्य, प्रशासनिक सेवा सभी क्षेत्रों में लड़कों को जबरदस्त चुनौती दी है। लड़कियों की उत्तीर्णता प्रतिशत और गुणवत्ता (UPBoardSolutions.com) प्रतिशत लड़कों से अधिक है। इससे स्पष्ट है कि भारत नारी-शिक्षा और प्रतियोगिता के क्षेत्र में उत्तरोत्तर प्रगति कर रहा है। यह एक शुभ संकेत है।

35. परिवार नियोजन

सम्बद्ध शीर्षक

  • बढ़ती जनसंख्या : संसाधनों पर बोझ
  • बढ़ती हुई जनसंख्या और हमारी प्रगति

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. भारत की स्थिति,
  3. जनसंख्या : समस्या क्यों?,
  4. जनसंख्यावृद्धि के कारण,
  5. जनसंख्या-वृद्धि रोकने के उपाय,
  6. उपसंहार : शिक्षा तथा प्रोत्साहन।

प्रस्तावना–परिवार-नियोजन का तात्पर्य है-परिवार को सीमित रखना, दूसरे शब्दों में कम सन्तान को जन्म देना या जनसंख्या पर रोक लगाना। भारतवर्ष बीसवीं-इक्कीसवीं सदी में जिस सबसे बड़े और • भयानक संकट के दौर से गुजर रहा है, वह है-जनसंख्या-विस्फोट।

भारत की स्थिति-भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या के आँकड़े चौंका देने वाले हैं। यहाँ की आबादी एक अरंब बीस करोड़ का आँकड़ा पार कर चुकी है। हर मिनट में कई बच्चे जन्म ले लेते हैं। इस प्रकार प्रतिवर्ष सवा करोड़ की वृद्धि होती चली जाती है। दूसरे शब्दों में, भारत में हर वर्ष एक नया ऑस्ट्रेलिया समा जाता है।

जनसंख्या : समस्या क्यों ?–बढ़ती हुई जनसंख्या भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा इसलिए है, क्योंकि भारत के पास बढ़ती हुई आबादी को खिलाने-पिलाने, काम देने और बसाने की सुविधाएँ नहीं हैं। बढ़ती आबादी और साधनों का सन्तुलन बुरी तरह टूट चुका है। भारत की आबादी विश्व की कुल आबादी का लगभग 17% है, जब कि भूमि केवल 2% ही है। इस भूमि को बढ़ाने का कोई तरीका हमारे पास नहीं है।

दूसरी समस्या यह है कि देश में खाद्यान्न 4 +4 = 8 की दर से बढ़ते हैं तो जनसंख्या 4 x 4 = 16 की दर से। इस भाँति भूमि पर नित्य अभाव, गरीबी और भूख का दबाव बढ़ता चला जाता है। आजीविका के साधनों का भी यही हाल है। आजादी के बाद देश में कुछ लाख ही बेरोजगार थे, जिनकी संख्या बढ़कर आज कई करोड़ तक पहुँच चुकी है।

जनसंख्या-विस्फोट से सारा देश भयाक्रान्त है। जहाँ भी जाइए लोगों की अनन्त भीड़ दिखायी देती है। महानगरों में तो लोग मधुमक्खी के छत्तों की भाँति मँडराते नजर आते हैं। इससे प्रत्येक प्राणी पर मानसिक तनाव बढ़ता है। लोगों के लिए पैदल चलना तक कठिन हो (UPBoardSolutions.com) गया है। इसके अतिरिक्त बेकार लोगों की भीड़ चोरी, उपद्रव, अपराध आदि में रुचि लेती है। अधिक जनसंख्या से देश का जीवन-स्तर कदापि नहीं उठ सकता; क्योंकि जीवन-स्तर का सीधा सम्बन्ध समृद्धि से है। जनसंख्या-वृद्धि से परिवार की सम्पन्नता में वृद्धि की जगह बिखराव आता है। इसलिए खाते-पीते परिवार भी गरीब होते चले जाते हैं। भारत में जनसंख्या वृद्धि के कारण स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास की समस्या दिनोंदिन बढ़ती चली जा रही है जिससे देश का आर्थिक ढाँचा बुरी तरह चरमरा रहा है।

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जनसंख्या-वृद्धि के कारण-जनसंख्या-विस्फोट का सबसे बड़ा कारण है जन्म-दर और मृत्यु-दर का सन्तुलन बिगड़ना। भारत की मृत्यु-दर निरन्तर कम होती जा रही है, जब कि जन्म-दर वहीं-की–वहीं है। मृत्यु-दर इसलिए कम हुई है, क्योंकि स्वास्थ्य-सेवाओं में पर्याप्त सुधार हुआ है। हैजा, टी० बी०, मलेरिया, चेचक आदि जानलेवा बीमारियों का शत-प्रतिशत उपचार हुँढ़ लिया गया है। वैज्ञानिक उन्नति के कारण बाढ़, सूखा, अकाल, प्राकृतिक प्रकोपों पर भी पर्याप्त नियन्त्रण कर लिया गया है, परन्तु । जन्म-दर को रोकने में उतनी अधिक सफलता नहीं मिली है।

जनसंख्या-वृद्धि रोकने के उपाय-जनसंख्या-वृद्धि को रोकने का सबसे कारगर उपाय यह है कि नर-नारी को सीमित परिवार की शिक्षा दी जाए। शहरों में यह कार्य लगभग पूरा हो चुका है। शहरी आबादी सीमित परिवार के प्रति सचेत है, परन्तु ग्रामीण आबादी अभी भी इस विषय में लापरवाह है। जब तक सामाजिक संस्थाएँ सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर सीमित परिवार की चेतना नहीं जगाएँगी, तब तक जनसंख्या की बाढ़ आती रहेगी। शहरों में भी अभी लोग पुत्र-मोह के कारण दो लड़कियों के पश्चात् तीसरी-चौथी सन्तान पैदा कर देते हैं। अभी कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अन्धविश्वास के कारण सन्तान को रोकने में बुराई मानते हैं। इसका उपचार लगातार शिक्षा देने से ही हो सकता है।

जहाँ तक सन्तान को रोकने के वैज्ञानिक साधनों का प्रश्न है, भारत में साधनों की कमी नहीं है। इन साधनों का निस्संकोच प्रयोग करने से जनसंख्या पर निश्चित रूप से नियन्त्रण किया जा सकता है।

उपसंहार : शिक्षा तथा प्रोत्साहन-जनसंख्या को सीमित करने के लिए औपचारिक शिक्षा के साथ-साथ परिवार-नियोजन की शिक्षा भी दी जानी चाहिए। उन माता-पिताओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जिन्होंने परिवार को सीमित किया है। सरकार ने अपनी ओर से ऐसे अनेक उपाय किये हैं, परन्तु आवश्यकता इस बात की है कि परिवार को सीमित बनाने सम्बन्धी कठोर कानून बनाये जाएँ तभी हर मिनट बढ़ता हुआ खतरा रुक सकता है। इस विषय में (UPBoardSolutions.com) यदि कोई जाति, धर्म या सम्प्रदाय आड़े भी आता है तो उसकी परवाह नहीं करनी चाहिए। अब तो जनसंख्या-वृद्धि जीवन और मरण का प्रश्न बन चुका है। डॉ० चन्द्रशेखर ने सच ही कहा है-“हम एक रात की भी प्रतीक्षा नहीं कर सकते। परिवार-नियोजन के बिना हर रात एक भयावह स्वप्ने की तरह है।’

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36. सत्संगति का महत्त्व [2016, 18]

सम्बद्ध शीर्षक

  • कबिरा संगत साधु की, हरे और व्याधि
  • कुसंग का ज्वर भयानक होता है।

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. संगति का प्रभाव,
  3. सत्संगति का अर्थ,
  4. सत्संगति से लाभ,
  5. कुसंगति से हानि,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना–“संसर्ग से ही मनुष्य में गुण-दोष आते हैं।” मनुष्य का जीवन अपने आस-पास के वातावरण से प्रभावित होता है। मूलरूप से मानव के विचारों और कार्यों को उसके संस्कार व वंश-परम्पराएँ ही दिशा दे सकती हैं। यदि उसे स्वच्छ वातावरण मिलता है तो वह कल्याण के मार्ग पर चलता है और यदि वह दूषित वातावरण में रहता है तो उसके कार्य भी उससे प्रभावित हो जाते हैं।

संगति का प्रभाव-मनुष्य जिस वातावरण एवं संगति में अपना अधिक समय व्यतीत करता है, उसका प्रभाव उस पर अनिवार्य रूप से पड़ता है। मनुष्य ही नहीं, वरन् पशुओं एवं वनस्पतियों पर भी इसका असर होता है। मांसाहारी पशु को यदि शाकाहारी (UPBoardSolutions.com) प्राणी के साथ रखा जाए तो उसकी आदतों में स्वयं ही परिवर्तन हो जाएगा। यही नहीं, मनुष्य को भी यदि अधिक समय तक मानव से दूर पशु-संगति में रखा जाए। तो वह भी शनैः-शनै: मनुष्य-स्वभाव छोड़कर पशु-प्रवृत्ति को ही अपना लेगा।।

सत्संगति का अर्थ-सत्संगति का अर्थ है-‘अच्छी संगति’। वास्तव में ‘सत्संगति’ शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है-‘सत्’ और ‘संगति’ अर्थात् ‘अच्छी संगति’। अच्छी संगति का अर्थ है-ऐसे सत्पुरुषों के साथ निवास, जिनके विचार अच्छी दिशा की ओर ले जाएँ।

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सत्संगति से लाभ–सत्संगति के अनेक लाभ हैं। सत्संगति मनुष्य को सन्मार्ग की ओर अग्रसर करती है। सत्संगति व्यक्ति को उच्च सामाजिक स्तर प्रदान करती है, विकास के लिए सुमार्ग की ओर प्रेरित करती है, बड़ी-से-बड़ी कठिनाइयों का सफलतापूर्वक सामना करने की शक्ति प्रदान करती है और सबसे बढ़कर व्यक्ति को स्वाभिमान प्रदान करती है। सत्संगति के प्रभाव से पापी पुण्यात्मा और दुराचारी सदाचारी हो जाते हैं। ऋषियों की संगति के प्रभाव से ही, वाल्मीकि जैसे भयानक डाकू महान कवि बन गए तथा अंगुलिमाल ने महात्मा बुद्ध की संगति में आने से हत्या, लूटपाट के कार्य छोड़कर सदाचार के मार्ग को अपनाया। सन्तों के प्रभाव से आत्मा के मलिन भाव दूर हो जाते हैं तथा वह निर्मल बन जाती है।

सत्संगति एक प्राण वायु है, जिसके संसर्ग मात्र से मनुष्य सदाचरण का पालक बन जाता है; दयावान, विनम्र, परोपकारी एवं ज्ञानवान बन जाता है। इसलिए तुलसीदास ने लिखा है कि

सठ सुधरहिं सत्संगति पाई,
पारस परस कुधातु सुहाई।”

एक साधारण मनुष्य भी महापुरुषों, ज्ञानियों, विचारवानों एवं महात्माओं की संगत से बहुत ऊँचे स्तर को प्राप्त करता है। वानरों-भालुओं को कौन याद रखता है, लेकिन हनुमान, सुग्रीव, अंगदं, जाम्बवन्त आदि श्रीराम की संगति पाने के कारण अविस्मरणीय बन गए।

सत्संगति ज्ञान प्राप्त की भी सबसे बड़ी साधिका है। इसके बिना तो ज्ञान की कल्पना तक नहीं की जा सकती

‘बिनु सत्संग विवेक न होई।।

जो विद्यार्थी अच्छे संस्कार वाले छात्रों की संगति में रहते हैं, उनका चरित्र श्रेष्ठ होता है एवं उनके सभी कार्य उत्तम होते हैं। उनसे समाज एवं राष्ट्र की प्रतिष्ठा बढ़ती है।

कुसंगति से हानि–कुसंगति से लाभ की आशा करना व्यर्थ है। कुसंगति से पुरुष का विनाश निश्चित है। कुसंगति के प्रभाव के मनस्वी पुरुष भी अच्छे कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं। कुसंगति में बँधे रहने के कारण वे चाहकर भी अच्छा कार्य नहीं कर पाते। कुसंगति के कारण ही दानवीर कर्ण अपना उचित सम्मान खो बैठा। जो छात्र कुसंगति में पड़ जाते हैं वे अनेक व्यसन सीख जाते हैं, जिनका प्रभाव उनके जीवन पर बहुत बुरा पड़ता है। उनके लिए प्रगति के मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। उनका मस्तिष्क अच्छे-बुरे का भेद करने में असमर्थ हो जाता है। उनमें अनुशासनहीनता आ जाती है। गलत दृष्टिकोण रखने के कारण ऐसे छात्र पतन के गर्त में गिर जाते हैं। वे देश के प्रति अपने उत्तरदायित्व भी भूल जाते हैं।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ठीक ही लिखा है-“कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। किसी युवा पुरुष की संगति बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-पर-दिन अवनति के गड्डे में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने (UPBoardSolutions.com) वाली बाहु के समान होगी, जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जाएगी।”

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उपसंहार–सत्संगति का अद्वितीय महत्त्व हैं जो सचमुच हमारे जीवन को दिशी प्रदान करती है। सत्संगति का पारस है, जो जीवनरूपी लोहे को कंचन बना देती है। मानव-जीवन की सर्वांगीण उन्नति के लिए सत्संगति आवश्यक है। इसके माध्यम से हम अपने लाभ के साथ-साथ अपने देश के लिए भी एक उत्तरदायी तथा निष्ठावान नागरिक बन सकेंगे।

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UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 2 (Section 2)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 2 केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् का गठन एवं कार्य (अनुभाग – दो)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Social Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 2 केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् का गठन एवं कार्य (अनुभाग – दो).

 

विर] उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् का गठन कैसे होता है ? इसके प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिए। [2013, 14]
           या
केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् के कार्यों एवं शक्तियों का वर्णन कीजिए। [2012]
           या
केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् के किन्हीं दो कार्यों को बताइए। [2010]
           या
केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् के तीन प्रमुख कार्य लिखिए। [2015, 17]
           या
केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद का गठन कैसे होता है? [2017]
उत्तर :
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार, राष्ट्रपति को उसके कार्यों के सम्पादन में सहायता एवं परामर्श देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी, जिसका अध्यक्ष प्रधानमन्त्री होगा।

गठन– 
लोकसभा में जिस दल को बहुमत होता है उस दल के नेता को राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है। प्रधानमन्त्री की सलाह से राष्ट्रपति अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है तथा उनमें विभागों का वितरण करता है। मन्त्री तीन स्तर (UPBoardSolutions.com) के होते हैं-(1) कैबिनेट मन्त्री, (2) राज्य मन्त्री तथा (3) उपमन्त्री। जब लोकसभा में किसी भी दल का स्पष्ट बहुमत नहीं होता तो राष्ट्रपति अपने विवेक का प्रयोग करके प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करता है।

मन्त्रियों की योग्यताएँ- 
प्रधानमन्त्री तथा अन्य मन्त्रियों के लिए संसद के किसी भी सदन का सदस्य होना आवश्यक है। यदि कोई मन्त्री सदस्य नहीं है तो उसे मन्त्री बनने के बाद 6 महीने के अन्दर किसी-न-किसी
सदन का सदस्य बन जाना चाहिए अन्यथा उसे मन्त्री-पद से त्याग-पत्र देना पड़ेगा।

मन्त्रियों द्वारा शपथ- प्रत्येक मन्त्री को अपना पद ग्रहण करने से पूर्व राष्ट्रपति के समक्ष संविधान और अपने पद के प्रति पूर्ण ईमानदार तथा निष्ठावान रहने, अपने कर्तव्यों का पालन करने तथा मन्त्रिपरिषद् की सभी नीतियों एवं कार्यवाहियों को गुप्त रखने की शपथ लेनी पड़ती है। राष्ट्रपति तथा मन्त्रियों के सरकारी रजिस्टर में हस्ताक्षर के बाद केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् का गठन हो जाता है।

मन्त्रिपरिषद के कार्य
संविधान द्वारा राष्ट्रपति को शासन के संचालन के लिए जो अधिकार दिये गये हैं, उनका प्रयोग मन्त्रिपरिषद् ही करती है, वही राष्ट्रपति के नाम से देश का शासन चलाती है। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु मन्त्रिपरिषद् मुख्यतया निम्नलिखित कार्य करती है|

  • राष्ट्रपति को सहायता एवं सलाह देना–संविधान के अनुसार मन्त्रिपरिषद् के गठन का उद्देश्य | राष्ट्रपति को उसके कार्यों के सम्पादन में सहायता एवं परामर्श देना है।
  • राष्ट्रीय नीति का निर्धारण-मन्त्रिपरिषद् का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य शासन सम्बन्धी नीतियों का निर्धारण करना है। मन्त्रिपरिषद् ही देश तथा विदेश के लिए नीतियों का निर्धारण करती है।
  • अपने विभाग सम्बन्धी कार्य करना-केन्द्रीय प्रशासन अनेक विभागों में बँटा हुआ है और प्रत्येक मन्त्री अपने विभाग का प्रशासनिक कार्य करता है। संसद में पूछे गये प्रश्नों का उत्तर अधिकांशतया सम्बन्धित विभाग के मन्त्री ही देते हैं।
  • वित्तीय कार्य–मन्त्रिपरिषद् प्रत्येक वित्तीय वर्ष के प्रारम्भ होने से पूर्व देश का बजट तैयार कराकर संसद में प्रस्तुत करती है तथा उसे पारित कराती है। देश की आर्थिक नीति भी मन्त्रिपरिषद् ही निर्धारित करती है।
  • विधायन कार्य-प्रत्येक मन्त्री अपने विभाग सम्बन्धी विधेयक तैयार कराकर संसद में पेश करता है । तथा कानून बन जाने पर उसे लागू करता है।
  • संसद में सरकार का प्रतिनिधित्व-संसद की बैठकों में मन्त्रिगण सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं, सदस्यों के प्रश्नों तथा आलोचनाओं का उत्तर देते हैं और सरकार की नीति का समर्थन करते हैं।
  • संविधान में संशोधन-संविधान में संशोधन सम्बन्धी प्रस्ताव मन्त्रिपरिषद् द्वारा प्रस्तुत एवं पारित | कराये जाते हैं।
  • व्यवस्थापिका की कार्यवाही-लोकसभा तथा राज्यसभा की बैठकों की तिथि निश्चित करना, । बैठक के घण्टे तथा विधेयकों के पेश करने का क्रम निश्चित करना, प्रत्येक विधेयक पर विचार करने
    का समय निश्चित करना आदि कार्यों को मन्त्रिपरिषद् ही करती है।
  • नियुक्ति सम्बन्धी कार्य-संविधान ने राष्ट्रपति को जिन महत्त्वपूर्ण (UPBoardSolutions.com) पदों पर नियुक्ति का अधिकार दिया है, उन सभे पदों पर नियुक्ति राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह से ही करता है।
  • सूचना देना–मन्त्रिपरिषद् अपनी नीतियों एवं कार्यों के सम्बन्ध में राष्ट्रपति को नियमित रूप से सूचना देती रहती है। राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् से कोई भी प्रशासनिक जानकारी प्राप्त कर सकता है।
  • जनमत तैयार करना–मन्त्रिपरिषद् के सदस्य सरकारी नीतियों के पक्ष में जनमत तैयार करने का प्रयास करते हैं जिससे जनता में सरकार की लोकप्रियता बढ़े।
  • युद्ध अथवा शान्ति सम्बन्धी घोषणाएँ–मन्त्रिपरिषद् द्वारा ही युद्ध और शान्ति सम्बन्धी घोषणाएँ की जाती हैं और यह निर्णय किया जाता है कि दूसरे देशों से किस प्रकार के सैनिक और व्यापारिक । सम्बन्ध स्थापित किये जाएँ।
  • अन्य कार्य–मन्त्रिपरिषद् अपराधियों को क्षमा करने के सम्बन्ध में राष्ट्रपति को सलाह देती है। मन्त्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार ही राष्ट्रपति भारतरत्न, पद्मभूषण, पद्मश्री आदि उपाधियाँ प्रदान करता है।
    निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मन्टिअरिषद् के कार्य एवं शक्तियाँ बहुत अधिक व्यापक होती हैं। देश की समस्त राजनीतिक तथा प्रशासनिक व्यवस्था पर उसका अधिकार होता है।

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प्रश्न 2.
प्रधानमन्त्री की नियुक्ति कैसे होती है ? उसके अधिकारों एवं कार्यों (कर्तव्यों) का वर्णन | कीजिए। [2010, 14]
           या
प्रधानमन्त्री के किन्हीं दो कार्यों एवं शक्तियों का उल्लेख कीजिए। [2012]
           या
प्रधानमन्त्री की नियुक्ति किस प्रकार की जाती है? भारतीय शासन में प्रधानमन्त्री की स्थिति की व्याख्या कीजिए। [2014, 18]
उत्तर :

प्रधानमन्त्री की नियुक्ति

प्रधानमन्त्री केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् का मुखिया होता है । संविधान के अनुच्छेद 75 के अनुसार, “प्रधानमन्त्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। किन्तु व्यवहार में राष्ट्रपति उस राजनीतिक दल के नेता को प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है, जिसका (UPBoardSolutions.com) लोकसभा में बहुमत होता है। यदि लोकसभा में एक दल का बहुमत न होने पर दो या अधिक दल परस्पर अपना गठबन्धन बनाकर नेता चुन लेते हैं तो राष्ट्रपति ऐसे गठबन्धन के नेता को प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है। यदि लोकसभा में किसी भी दल या दलों के गठबन्धन को बहुमत प्राप्त नहीं होता तो राष्ट्रपति स्वविवेक से किसी भी व्यक्ति को प्रधानमन्त्री नियुक्त कर सकता है। जुलाई, 1979 ई० में चौ० चरण सिंह की प्रधानमन्त्री के रूप में नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा अपने विवेक के प्रयोग का एक ज्वलन्त उदाहरण है।

प्रधानमन्त्री के कार्य (शक्तियाँ) तथा महत्त्व

प्रधानमन्त्री के निम्नलिखित कार्यों से उसकी शक्तियों तथा महत्त्व का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है

1. मन्त्रिपरिषद्को निर्माता- 
राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री को नियुक्त करता है तथा उसके बाद प्रधानमन्त्री की सलाह से अन्य मन्त्रियों तथा उनके विभागों का वितरण करता है। प्रधानमन्त्री किसी भी मन्त्री के विभाग में फेर-बदल कर सकता है।

2. मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष– 
प्रधानमन्त्री केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष तथा नेता होता है। वह मन्त्रिपरिषद् की बैठकों में अध्यक्षता करता है तथा उसकी कार्यवाही का संचालन भी करता है। मन्त्रिपरिषद् के सभी निर्णय उसकी इच्छा से प्रभावित होते हैं। (UPBoardSolutions.com) मन्त्रिपरिषद् यदि देश की नौका है तो प्रधानमन्त्री उसका नाविक। यदि किसी मन्त्री की राय प्रधानमन्त्री से नहीं मिलती है तो प्रधानमन्त्री ऐसे मन्त्री को त्याग-पत्र देने के लिए बाध्य कर सकता है अथवा उसे राष्ट्रपति द्वारा मन्त्रिपरिषद् से हटवा सकता है।

3. कार्यपालिका का प्रधान- 
राष्ट्रपति देश की कार्यपालिका का नाममात्र का प्रधान होता है। कार्यपालिका की वास्तविक शक्ति प्रधानमन्त्री में निहित होती है। अत: अप्रत्यक्ष रूप से देश का मुख्य शासक प्रधानमन्त्री होता है।

4. शासन का प्रमुख प्रबन्धक- 
देश की शासन-व्यवस्था को विभिन्न विभागों तथा मन्त्रालयों में बाँटना, मन्त्रियों में विभागों का वितरण करना, मन्त्रालयों की नीतियाँ तय करना तथा उनमें समय-समय पर अपेक्षित परिवर्तन करना आदि कार्य प्रधानमन्त्री की इच्छा तथा निर्देश पर निर्भर होते हैं। इस प्रकार प्रधानमन्त्री ही देश के शासन का प्रमुख प्रबन्धक होता है।

5. लोकसभा का नेता- 
लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल का नेता होने के कारण वह लोकसभा काअधिवेशन बुलाने, कार्यक्रम निश्चित करने तथा सत्र स्थगित करने का निर्णय लेती है। वह लोकसभा में अपने मन्त्रिमण्डल का नेतृत्व करता है तथा शासन सम्बन्धी नीतियों (UPBoardSolutions.com) की घोषणा करता है। वह राष्ट्रपति को लोकसभा भंग करने का भी परामर्श दे सकता है।

6. राष्ट्रपति एवं मन्त्रिपरिषद् तथा राष्ट्रपति एवं संसद के बीच की कड़ी– 
प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति और मन्त्रिपरिषद् के बीच की कड़ी का कार्य करता है। वह मन्त्रिमण्डल की नीतियों, निर्णयों आदि की। जानकारी राष्ट्रपति को देता है तथा राष्ट्रपति के निर्णयों से वह मन्त्रियों को अवगत कराता है। इसी प्रकार प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति तथा संसद के बीच की कड़ी के रूप में कार्य करता है। वह राष्ट्रपति को संसद की कार्यवाही से अवगत कराता है तथा राष्ट्रपति के सुझावों को संसद तक पहुँचाता है।

7. नियुक्तियाँ सम्बन्धी अधिकार- 
राष्ट्रपति के द्वारा मन्त्रियों, राज्यपालों, न्यायाधीशों, राजदूतों, विभिन्न आयोगों, लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य इत्यादि की जितनी भी नियुक्तियाँ की जाती
हैं, वे सभी प्रधानमन्त्री के परामर्श पर की जाती हैं।

8. अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारत का प्रतिनिधित्व– 
अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारतीय प्रधानमन्त्री का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। चाहे विदेश विभाग प्रधानमन्त्री के हाथ में हो या नहीं, फिर भी अन्तिम रूप से | विदेश नीति का निर्णय प्रधानमन्त्री ही करता है। भारत की पुट-निरपेक्षता की विदेश नीति भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू जी की ही देन है।

9. शासन का प्रमुख प्रवक्ता– 
देश तथा विदेश में प्रधानमन्त्री ही शासन की नीति को प्रमुख तथा अधिकृत प्रवक्ता होता है। यदि कभी संसद में किन्हीं दो मन्त्रियों के आपसी विरोधी वक्तव्यों के कारण भ्रम और विवाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो प्रधानमन्त्री का वक्तव्य ही इस स्थिति को समाप्त कर सकता है।

10. देश का सर्वोच्च नेता तथा शासक- 
प्रधानमन्त्री देश का सर्वोच्च नेता तथा शासक होता है। देश का समस्त शासन उसी की इच्छानुसार संचालित होता है। यह व्यवस्थापिका से अपनी इच्छानुसार कानून
बनवा सकता है और संविधान में आवश्यक संशोधन भी करवा सकता है।

11. आम चुनाव प्रधानमन्त्री के नाम पर-
देश के आम चुनाव (सामान्य निर्वाचन) प्रधानमन्त्री के नाम पर ही कराये जाते हैं। आम चुनाव प्रधानमन्त्री का ही चुनाव होता है। इस प्रकार आम चुनाव | स्वाभाविक रूप से प्रधानमन्त्री की प्रतिष्ठा व शक्ति में बहुत वृद्धि कर देते हैं।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि प्रधानमन्त्री (UPBoardSolutions.com) राष्ट्र का नेता होता है; क्योंकि देश के शासन की सम्पूर्ण बागडोर उसके हाथ में होती है। व्यावहारिक दृष्टि से देश का समस्त शासन उसी की इच्छानुसार संचालित होता है।

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प्रश्न 3.
भारतीय प्रधानमन्त्री के राष्ट्रपति और संसद से सम्बन्ध का वर्णन कीजिए।
           या
केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् तथा लोकसभा के सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
संसदीय शासन-प्रणाली के अन्तर्गत मन्त्रिपरिषद् ही व्यावहारिक रूप से कार्यपालिका की प्रधान होती है; क्योकि प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का प्रमुख होता है; अत: प्रधानमन्त्री का पद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है। भारत में संसदीय प्रणाली होने के कारण, भारत के प्रधानमन्त्री का पद भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भारत के राष्ट्रपति की स्थिति ग्रेट ब्रिटेन के राजा अथवा रानी के समान है। वह एक वैधानिक प्रधान- मात्र है।

डॉ० अम्बेडकर के अनुसार, “वह राष्ट्र का प्रमुख है, कार्यपालिका का प्रमुख नहीं।” राष्ट्रपति अपने में निहित सभी शक्तियों का प्रयोग, मन्त्रिपरिषद् के परामर्श के उपरान्त ही करता है। भारतीय व्यवस्था में संसद का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संसद ही सम्पूर्ण व्यवस्था के नियमन के लिए उत्तरदायी होती है। परन्तु भारत में संसद पूर्ण रूप से अप्रतिबन्धित नहीं है। इसका प्रमुख कारण प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिमण्डल का संसद पर दबाव बना रहना है।

प्रधानमन्त्री एवं राष्ट्रपति का सम्बन्ध– भारत में कार्यपालिका का अध्यक्ष राष्ट्रपति होता है। सैद्धान्तिक दृष्टि से प्रधानमन्त्री की मन्त्रिपरिषद् का गठन उसको परामर्श देने के लिए किया जाता है; किन्तु वास्तविक स्थिति इसके विपरीत है। मन्त्रिपरिषद् के निर्णय एवं परामर्श राष्ट्रपति को मानने पड़ते हैं। यद्यपि राष्ट्रपति इनके सम्बन्ध में अपनी व्यक्तिगत असहमति प्रकट कर सकता है; किन्तु वह मन्त्रिपरिषद् के निर्णयों को मानने के लिए (UPBoardSolutions.com) अन्ततः बाध्य होता है। भारतीय संविधान में किये गये 42वें तथा 44वें संशोधन के पूर्व राष्ट्रपति अपनी मन्त्रिपरिषद् की राय मानने के लिए कानूनी दृष्टिकोण से बाध्य था। इन संशोधनों के उपरान्त व्यवस्था यह कर दी गयी है कि राष्ट्रपति को अपनी मन्त्रिपरिषद् की राय मानने के लिए विवश कर दिया गया है। वह केवल मन्त्रिमण्डल से पुनर्विचार के लिए आग्रह ही कर सकता है, किन्तु फिर भी वह मन्त्रिपरिषद् की नीतियों को प्रभावित कर सकता है, यह उसके व्यक्तित्व पर निर्भर है। मन्त्रिपरिषद् में लिये गये समस्त निर्णयों से राष्ट्रपति को अवगत कराया जाता है तथा राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल से किसी भी प्रकार की सूचना माँग सकता है। प्रधानमन्त्री की सलाह पर वह अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है तथा उनको शपथ-ग्रहण कराता है। प्रधानमन्त्री के परामर्श पर वह किसी भी मन्त्री को पदच्युत कर सकता है।

प्रधानमन्त्री और संसद का सम्बन्ध– प्रधानमन्त्री और संसद के घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। प्रधानमन्त्री व उसकी मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा (संसद का प्रथम सदन) के प्रति उत्तरदायी होती है। संसद प्रश्न, पूरक प्रश्न, निन्दा प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव, काम रोको प्रस्ताव आदि के द्वारा प्रधानमन्त्री एवं उसके मन्त्रिमण्डल पर नियन्त्रण रखती है। संविधान द्वारा भारत में संसदात्मक शासन-व्यवस्था अपनायी गयी है और संसदात्मक शासन में व्यवस्थापिका और (UPBoardSolutions.com) कार्यपालिका परस्पर सम्बन्धित होती हैं तथा कार्यपालिका व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होती है। उत्तरदायित्व का अर्थ है कि प्रधानमन्त्री और उसकी मन्त्रिपरिषद् संसद (लोकसभा) के. अधीन है। वह उसकी इच्छानुसार ही कार्य करता है और उस समय तक ही अपने पद पर बना रह सकता है। जब तक कि उसे लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त हो।

व्यावहारिक दृष्टि से संसद प्रधानमन्त्री और उसकी मन्त्रिपरिषद् पर नियन्त्रण नहीं रखती, क्योंकि प्रधानमन्त्री बहुमत प्राप्त दल का नेता होता है और उसके पीछे संसद का बहुमत साधारणतया सदैव रहता है। संसद पर प्रधानमन्त्री के नियन्त्रण का एक महत्त्वपूर्ण साधन प्रधानमन्त्री के हाथ में लोकसभा को भंग करने की संस्तुति का अधिकार है। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री के परामर्श पर लोकसभा को भंग कर पुनः चुनाव करा सकता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद के सामूहिक उत्तरदायित्व का क्या अर्थ है ? [2012]
           या
केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् किस प्रकार संसद के प्रति उत्तरदायी है ? [2013]
           या
मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से किसके प्रति उत्तरदायी होती है? [2014]
           या
मन्त्रियों के सामूहिक उत्तरदायित्व’ का क्या अर्थ है ? मन्त्रिपरिषद् किसके प्रति उत्तरदायी है ? [2013]
उत्तर :
भारत में संसदात्मक शासन-प्रणाली की व्यवस्था की गयी है और संसदात्मक शासन-प्रणाली में मन्त्रिपरिषद् को सामूहिक उत्तरदायित्व रहता है। सामूहिक उत्तरदायित्व से मतलब है कि मन्त्रिपरिषद् के सदस्य सभी मन्त्री अपने कार्यों के लिए संसद के प्रति व्यक्तिगत रूप से (UPBoardSolutions.com) तो उत्तरदायी होते ही हैं, सामूहिक रूप से भी प्रशासनिक नीति और समस्त प्रशासनिक कार्यों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि सम्पूर्ण मन्त्रिपरिषद् एक इकाई के रूप में कार्य करती है, जिससे सभी मन्त्री एक-दूसरे के निर्णय और कार्य के लिए उत्तरदायी होते हैं। अतः कहा जा सकता है कि मन्त्रिमण्डल की सफलता या असफलता का भार एक मन्त्री पर नहीं पड़ता, वरन् सभी मन्त्रियों पर पड़ता है अर्थात् वे एक साथ तैरते हैं। और एक साथ ही डूबते हैं।

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प्रश्न 2.
केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद पर संसद किस प्रकार नियन्त्रण रखती है ?
           या
संसद मन्त्रिपरिषद् पर कैसे नियन्त्रण रखती है ? इसके द्वारा अपनाये जाने वाले किन्हीं तीन तरीकों का उल्लेख कीजिए। [2015]
उत्तर : केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् संसद के प्रति उत्तरदायी है; अत: संसद उस पर अग्रलिखित प्रकार से नियन्त्रण रखती है।

1. संसद-सदस्य मन्त्रिपरिषद् के कार्यों एवं नीतियों की आलोचना करते हैं।
2. मन्त्रिपरिषद् द्वारा पेश किये गये वित्तीय विधेयकों पर संसद (UPBoardSolutions.com) की पूर्ण नियन्त्रण रहता है।
3. मन्त्रिपरिषद् लोकसभा के प्रति भी उत्तरदायी होती है, क्योंकि संसद में अविश्वास पारित होने पर । मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना पड़ता है।
4. ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, प्रश्नों तथा पूरक प्रश्नों द्वारा संसद मन्त्रिपरिषद् पर पूर्णत: नियन्त्रण रखती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत के प्रथम प्रधानमंन्त्री का नाम बताइए। [2009, 11]
उत्तर :
भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री-पं० जवाहरलाल नेहरू।

प्रश्न 2.
मन्त्रियों की कितनी श्रेणियाँ होती हैं ?
उत्तर :
मन्त्रियों की तीन श्रेणियाँ होती हैं।

प्रश्न 3.
कौन-से संविधान संशोधन द्वारा मन्त्रिपरिषद् में सदस्यों की संख्या सीमित कर दी गयी है?
उत्तर :
91वें संविधान संशोधन (2003) द्वारा मन्त्रिपरिषद् में सदस्यों की संख्या सीमित कर दी गयी है।

प्रश्न 4.
संविधान के अनुसार मन्त्रिपरिषद् का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य क्या है ?
उतर :
संविधान के अनुसार मन्त्रिपरिषद् का सर्वाधिक (UPBoardSolutions.com) महत्त्वपूर्ण कार्य देश तथा विदेश के लिए शासन सम्बन्धी नीतियों का निर्धारण करना है तथा राष्ट्रपति को परामर्श देना है।

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प्रश्न 5.
भारत में कुल कितने राज्य हैं ? हाल में ही नये बनाए गए राज्य की राजधानी का नाम लिखिए। (2015)
उत्तर :
भारत में कुल 29 राज्य हैं। हाल में ही नये बनाए गए राज्य की राजधानी हैदराबाद है।

प्रश्न 6.
केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् में अधिक-से-अधिक कितने मंत्री हो सकते हैं ? उनकी नियुक्ति कौन करता है ? (2015)
उत्तर :
सरकार में जितने भी प्रकार के मन्त्री बनाये जाते हैं वे संयुक्त रूप से मन्त्रिपरिषद् का निर्माण करते हैं जिनका प्रधान प्रधानमंत्री होता है। मन्त्रिपरिषद् में तीन प्रकार के मन्त्री होते हैं-मन्त्रिमण्डल अथवा कैबिनेट स्तर के मन्त्री, राज्य (UPBoardSolutions.com) मन्त्री तथा उपमन्त्री।

मन्त्रिपरिषद् में मन्त्रियों की संख्या लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के अधिकतम 15% तक हो सकती है। इनकी नियुक्ति प्रधानमन्त्री की सलाह पर राष्ट्रपति करता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करता है

(क) राष्ट्रपति
(ख) लोकसभा अध्यक्ष
(ग) उपराष्ट्रपति
(घ) जनता

2. मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से किसके प्रति उत्तरदायी होती है? (2014]

(क) लोकसभा के प्रति
(ख) प्रधानमन्त्री के प्रति
(ग) उपराष्ट्रपति के प्रति
(घ) इनमें से कोई नहीं

3. मन्त्रिपरिषद्का अध्यक्ष कौन होता है?

(क) राष्ट्रपति
(ख) उपराष्ट्रपति
(ग) प्रधानमन्त्री
(घ) लोकसभा अध्यक्ष

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4. यदि मन्त्रिपरिषद् की कोई सदस्य संसद के किसी सदन का सदस्य नहीं है, तो वह . अधिकतम कितने दिनों तक मन्त्री रह सकता है?

(क) 2 माह
(ख) 6 माह
(ग) 10 माह
(घ) एक वर्ष

5. दो बार भारत के कार्यवाहक प्रधानमन्त्री कौन थे ? (2014)

(क) लाल बहादुर शास्त्री
(ख) मोरारजी देसाई
(ग) चरण सिंह
(घ) गुलजारी लाल नन्दा

6. भारत का प्रधानमन्त्री किसके प्रति उत्तरदायी होता है? (2017)

(क) राष्ट्रपति के प्रति ।
(ख) राज्यसभा के प्रति
(ग) लोकसभा के प्रति
(घ) सर्वोच्च न्यायालय के प्रति

उत्तरमाला
1.
(क), 2. (क), 3. (ग), 4. (ख), 5. (ग)

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UP Board Solutions for Class 10 Science Chapter 14 Sources of Energy

UP Board Solutions for Class 10 Science Chapter 14 Sources of Energy (उर्जा के स्रोत)

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पाठगत हल प्रश्न

[NCERT IN-TEXT QUESTIONS SOLVED]

खंड 14.1 (पृष्ठ संख्या 273)

प्रश्न 1.
ऊर्जा का उत्तम स्रोत किसे कहते हैं?
उत्तर
ऊर्जा का उत्तम स्रोत वह है, जो

  1. प्रति एकांक आयतन अथवा प्रति एकांक द्रव्यमान अधिक कार्य करे।
  2. जो आसानी से उपलब्ध हो।
  3. भंडारण तथा परिवहन में आसान हो।
  4. वह सस्ता हो।
  5. जलने पर प्रदूषण न फैलाए।

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प्रश्न 2.
उत्तम ईंधन किसे कहते हैं?
उत्तर
उत्तम ईंधन में निम्नलिखित गुण होने चाहिए-

  1. दहन के बाद प्रति एकांक द्रव्यमान से अधिक ऊष्मा मुक्त हो।
  2. यह आसानी से, सस्ती दर पर उपलब्ध हो।
  3. जलने पर अत्यधिक (UPBoardSolutions.com) धुआँ उत्पन्न न करे।
  4. इसका ज्वलन ताप उपयुक्त हो तथा ऊष्मीय मान उच्च हो।।

प्रश्न 3.
यदि आप अपने भोजन को गर्म करने के लिए किसी भी ऊर्जा-स्रोत का उपयोग कर सकते हैं, तो आप किसका उपयोग करेंगे और क्यों?
उत्तर
हम LPG गैस या विद्युतीय उपकरण का उपयोग करेंगे क्योंकि

  1. इससे अधिक ऊष्मा उत्पन्न होती है।
  2. इसके दहन से धुआँ नहीं निकलता है।
  3. यह आसानी से उपलब्ध है तथा इसका उपयोग सुगमतापूर्वक किसी भी समय किया जा सकता है।
  4. यह सस्ता है तथा इसका भंडारण एवं परिवहन आसानी से किया जा सकता है।
  5. इससे वांछित ऊर्जा आवश्यकतानुसार प्राप्त कर सकते हैं।

खण्ड 14.2 (पृष्ठ संख्या 279)

प्रश्न 1.
जीवाश्मी ईंधन की क्या हानियाँ हैं?
उत्तर
जीवाश्मी ईंधन के उपयोग से निम्नलिखित हानियाँ हैं

  1. जीवाश्मी ईंधन बनने में करोड़ों वर्ष लगते हैं तथा इनके भंडार सीमित हैं।
  2. जीवाश्मी ईंधन ऊर्जा के अनवीकरणीय ऊर्जा स्रोत हैं।
  3. जीवाश्मी ईंधन जलने से वायु प्रदूषण होता है, जिसके फलस्वरूप कार्बन, नाइट्रोजन और सल्फर के अम्लीय आक्साइड; जैसे–CO2, NO2, SO2 आदि गैसें मुक्त होती हैं, जो अम्लीय वर्षा कराती हैं तथा जल (UPBoardSolutions.com) एवं मृदा के संसाधनों को प्रभावित करती हैं।
  4. अतिरिक्त CO2 के कारण ग्रीन हाउस प्रभाव होता है।
  5. वायु प्रदूषण के कारण श्वसन संबंधी रोग होते हैं।

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प्रश्न 2.
हम ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की ओर क्यों ध्यान दे रहे हैं?
उत्तर
हम जानते हैं कि जीवाश्मी ईंधन ऊर्जा के अनवीकरणीय स्रोत हैं। अतः इन्हें संरक्षित करने की आवश्यकता है। पृथ्वी के गर्भ में कोयले, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस आदि ईंधन सीमित मात्रा में मौजूद हैं। यदि हम इनका उपयोग इसी प्रकार करते रहे तो ये शीघ्र ही समाप्त हो जाएँगे। अतः हमें ऊर्जा के संकट से निपटने हेतु वैकल्पिक स्रोतों की ओर ध्यान देना चाहिए।

प्रश्न 3.
हमारी सुविधा के लिए पवन तथा जल ऊर्जा के पारंपरिक उपयोग में किस प्रकार के सुधार किए गए हैं?
उत्तर

  1. किसी एक पवन-चक्की द्वारा उत्पन्न विद्युत बहुत कम होती है जिसका व्यापारिक उपयोग नहीं हो सकता। अतः किसी विशाल क्षेत्र में बहुत-सी पवन चक्कियाँ लगाई जाती हैं तथा इन्हें युग्मित कर लिया जाता है, जिसके कारण प्राप्त कुल (नेट) ऊर्जा सभी पवन-चक्कियों द्वारा उत्पन्न विद्युत ऊर्जाओं के योग के तुल्य हो जाती है।
  2. जल विद्युत उत्पन्न करने हेतु नदियों के बहाव (UPBoardSolutions.com) को रोक कर बड़े जलाशयों (कृत्रिम झीलों) में जल एकत्र करने के लिए ऊँचे-ऊँचे बाँध बनाए जाते हैं। बाँध के ऊपरी भाग से पाइपों द्वारा जल, बाँध के आधार के पास स्थापित टरबाइन के ब्लेडों पर मुक्त रूप से गिराया जाता है, फलस्वरूप टरबाइन के ब्लेड घूर्णन गति करते हैं और
    जनित्र द्वारा विद्युत उत्पादन होता है।

खंड 14.3 ( पृष्ठ संख्या 285)

प्रश्न 1.
सौर कुकर के लिए कौन-सा दर्पण-अवतल, उत्तल अथवा समतल-सर्वाधिक उपयुक्त होता है? क्यों?
उत्तर
सौर कुकर के लिए सर्वाधिक उपयुक्त दर्पण-अवतल दर्पण होता है, क्योंकि यह एक अभिसारी दर्पण (Converging mirror) | है, जो सूर्य की किरणों को एक बिंदु पर फोकसित करता है, जिसके कारण शीघ्र ही इसका ताप और बढ़ जाता है।

प्रश्न 2.
महासागरों से प्राप्त हो सकने वाली ऊर्जाओं की क्या सीमाएँ हैं?
उत्तर
महासागरों से प्राप्त हो सकने वाली ऊजाओं की निम्न सीमाएँ हैं

  1. ज्वारीय ऊर्जा का दोहन सागर से किसी संकीर्ण क्षेत्र पर बाँध का निर्माण करके किया जाता है, परंतु इस प्रकार के स्थान बहुत कम हैं, जहाँ बाँध बनाए जा सकते हैं।
  2. तरंग ऊर्जा का वहीं पर व्यावहारिक उपयोग हो सकता है जहाँ तरंगें अत्यंत प्रबल हों।
  3. ऊर्जा संयंत्रों (plant) के निर्माण की लागत बहुत (UPBoardSolutions.com) अधिक है और इनके द्वारा ऊर्जा उत्पादन की दक्षता का मान बहुत कम है।
  4. समुद्र में या समुद्र के किनारे स्थित विद्युत ऊर्जा संयंत्र के रखरखाव उच्चस्तरीय होनी चाहिए अन्यथा इसके क्षरण की संभावना बहुत अधिक बढ़ जाती है।

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प्रश्न 3.
भूतापीय ऊर्जा क्या होती है?
उत्तर
पृथ्वी के अंदर गहराइयों में ताप परिवर्तन के फलस्वरूप कुछ पिघली चट्टानें ऊपर धकेल दी जाती हैं, जो कुछ क्षेत्रों में एकत्र हो जाती हैं। इन क्षेत्रों को तप्त स्थल कहते हैं। जब भूमिगत जल इन तप्त स्थलों के संपर्क में आता है, तो भाप उत्पन्न होती है। (UPBoardSolutions.com) इन तप्त स्थलों से प्राप्त ऊष्मा या ऊष्मीय ऊर्जा भूतापीय ऊर्जा कहलाती है। इसे पाइपों द्वारा भी बाहर निकाला जाता है तथा उच्चदाब पर निकली इस भाप से टरबाइनों को घुमाकर जनित्र द्वारा विद्युत उत्पन्न की जा सकती है।

प्रश्न 4.
नाभिकीय ऊर्जा का क्या महत्त्व है?
उत्तर
नाभिकीय ऊर्जा के निम्नलिखित महत्त्व होते हैं

  1. बहुत अधिक मात्रा में ऊर्जा मुक्त होती है। उदाहरण के लिए, यूरेनियम के 1 परमाणु के विखंडन से जो ऊर्जा मुक्त होती है, वह कोयले के 1 कार्बन परमाणु के दहन से उत्पन्न ऊर्जा की तुलना में 1 करोड़ गुनी अधिक होती है।
  2. इससे किसी प्रकार का धुआँ या हानिकारक गैसें नहीं निकलतीं, जिससे वायु प्रदूषण नहीं होता है।
  3. यह ऊर्जा का शक्तिशाली स्रोत है तथा इसके द्वारा ऊर्जा की आवश्यकता का बड़ा भाग प्राप्त किया जा | सकता है।
  4. नाभिकीय विद्युत संयंत्र किसी भी स्थान पर स्थापित किए जा सकते हैं।

खंड 14.4( पृष्ठ संख्या 285)

प्रश्न 1.
क्या कोई ऊर्जा स्रोत प्रदूषण मुक्त हो सकता है? क्यों अथवा क्यों नहीं?
उत्तर
हाँ, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, समुद्रों से प्राप्त ऊर्जा तथा जल ऊर्जा प्रदूषण मुक्त होते हैं परंतु पूर्णत: नहीं। उदाहरण के लिए सौर-सेल जैसी कुछ युक्तियों का वास्तविक प्रचालन प्रदूषण मुक्त होता है परंतु इस युक्ति के संयोजन में पर्यावरण (UPBoardSolutions.com) की क्षति होती है।

प्रश्न 2.
रॉकेट ईंधन के रूप में हाइड्रोजन का उपयोग किया जाता रहा है? क्या आप इसे CNG की तुलना में अधिक स्वच्छ ईंधन मानते हैं? क्यों अथवा क्यों नहीं?
उत्तर
हाँ, हाइड्रोजन, CNG की तुलना में स्वच्छ ईंधन है क्योंकि (UPBoardSolutions.com) हाइड्रोजन के दहन से केवल जल उत्पन्न होता है जबकि CNG में उपस्थित मिथेन के दहन से CO2 जैसी ग्रीन हाउस गैसें उत्पन्न होती हैं।

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खंड 14.5 ( पृष्ठ संख्या 286)

प्रश्न 1.
ऐसे दो ऊर्जा स्रोतों के नाम लिखिए जिन्हें आप नवीकरणीय मानते हैं। अपने चयन के लिए तर्क दीजिए।
उत्तर
नवीकरणीय ऊर्जा के दो स्रोत निम्न हैं

  1. सौर ऊर्जा-सौर ऊर्जा एक अनवरत ऊर्जा स्रोत है जो प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है तथा इसका भंडार कभी खत्म नहीं हो सकता।
  2. जल विद्युत ऊर्जा-सूर्य के ताप के कारण जल चक्र (UPBoardSolutions.com) सदैव चलता रहता है, जिससे विद्युत संयंत्रों के जलाशय में जल पुनः भर जाते हैं, अतः यह एक सदैव चलने वाली (अक्षय) ऊर्जा स्रोत है। साथ ही उपर्युक्त दोनों ऊर्जा स्रोतों से किसी भी प्रकार का प्रदूषण नहीं होता है।

प्रश्न 2.
ऐसे दो ऊर्जा स्रोतों के नाम लिखिए जिन्हें आप समाप्य मानते हैं। अपने चयन के लिए तर्क दीजिए।
उत्तर
कोयला और पेट्रोलियम दो समाप्य (Exhaustible) ऊर्जा के स्रोतों के उदाहरण हैं। ये दोनों जीवाश्मी ईंधन हैं, जो करोड़ों वर्षों में बने हैं तथा केवल सीमित भंडार ही शेष हैं। जीवाश्मी ईंधन ऊर्जा के अनवीकरणीय स्रोत हैं, जिन्हें पुनः नहीं बनाया जा सकता है। यदि इसी तरह इनका उपयोग करते रहेंगे, तो इनके भंडार शीघ्र ही खत्म हो जाएँगे।

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पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न

[NCERT TEXTBOOK QUESTIONS SOLVED]

प्रश्न 1.
गर्म जल प्राप्त करने के लिए हम सौर जल तापक का उपयोग किस दिन नहीं कर सकते? |
(a) धूप वाले दिन ।
(b) बादलों वाले दिन
(c) गर्म दिन
(d) पवन (वायु) वाले दिन
उत्तर
(d) बादलों वाले दिन ।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कौन जैवमात्रा ऊर्जा स्रोत का उदाहरण नहीं है?
(a) लकड़ी
(b) गोबर गैस
(c) नाभिकीय ऊर्जा
(d) कोयला
उत्तर
(c) नाभिकीय ऊर्जा

प्रश्न 3.
जितने ऊर्जा स्रोत हम उपयोग में लाते हैं, उनमें से अधिकांश सौर ऊर्जा को निरूपित करते हैं। निम्नलिखित में से कौन-सा ऊर्जा स्रोत अंतत: सौर ऊर्जा से व्युत्पन्न नहीं है?
(a) भूतापीय |
(b) पवन ऊर्जा
(c) नाभिकीय ऊर्जा
(d) जैवमात्रा
उत्तर
(c) नाभिकीय ऊर्जा

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प्रश्न 4.
ऊर्जा स्रोत के रूम में जीवाश्मी ईंधनों तथा सूर्य की तुलना कीजिए और उनमें अंतर लिखिए।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 10 Science Chapter 14 Sources of Energy img-1

प्रश्न 5.
जैवमात्रा तथा ऊर्जा स्रोत के रूप में जल वैद्युत की तुलना कीजिए और उनमें अंतर लिखिए।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 10 Science Chapter 14 Sources of Energy img-2

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प्रश्न 6.
निम्नलिखित में ऊर्जा निष्कर्षित करने की सीमाएँ लिखिए
(a) पवनें
(b) तरंगें
(c) ज्वार-भाटा
उत्तर
(a) पवन ऊर्जा की सीमाएँ

  1. इसके संयंत्र केवल उसी स्थान पर स्थापित किए जा सकते हैं, जहाँ ज्यादातर सालभर तीव्र हवा चलती है।
  2. पवन ऊर्जा फार्म के लिए विशाल भूखंड तथा (UPBoardSolutions.com) अत्यधिक प्रारंभिक लागत की आवश्यकता होती है।
  3. टरबाइनों की गति बनाए रखने के लिए पवनों की न्यूनतम चाल 15mk/h से अधिक होनी चाहिए।
  4. इसके रखरखाव उच्चस्तरीय होना चाहिए, क्योंकि पवन चक्कियाँ धूप, वर्षा आदि से प्रभावित हो सकती हैं।
  5. इसकी दक्षता कम होती है।

(b) तरंग ऊर्जा की सीमाएँ

  1. तरंग ऊर्जा का सिर्फ वहीं पर व्यावहारिक उपयोग हो सकता है जहाँ तरंगें बहुत प्रबल हों।
  2. प्रारंभिक लागत, रखरखाव का खर्च अधिक है तथा तकनीकी दृष्टि से कठिन भी है।
  3. इससे लगातार एक-समान विद्युत शक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती है।
  4. इसकी दक्षता निम्न होती है।

(c) ज्वार-भाटा-

  1. ज्वारीय ऊर्जा का दोहन हम सागर के किसी संकीर्ण क्षेत्र पर बाँध का निर्माण करके कर सकते हैं। ऐसे बाँध सिर्फ सीमित स्थानों पर ही बनाए जा सकते हैं।
  2. इसकी दक्षता बहुत निम्न है।
  3. इसके प्लांट की लागत अधिक है।
  4. ज्वार आने की आवृत्ति कम है। अतः इस ऊर्जा का प्रयोग सीमित है।

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प्रश्न 7.
ऊर्जा स्रोतों का वर्गीकरण निम्नलिखित वर्गों में किस आधार पर करेंगे
(a) नवीकरणीय तथा अनवीकरणीय
(b) समाप्य तथा अक्षय क्या
(c) तथा
(d) के विकल्प समान हैं?
उत्तर
(a) नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत वे होते हैं, जिसका प्रयोग बार-बार करने के बाद भी स्रोत में कमी नहीं आए। वे पुनः प्राप्त हो जाते हैं तथा इसका भंडार अक्षय रहता है; जैसे-सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा इत्यादि।

(b) ऊर्जा के अनवीकरणीय स्रोत वे हैं, जिनको एक बार प्रयुक्त कर लेने पर पुनः तुरंत नहीं बनाया जा सकता इसे बनाने में करोड़ों वर्ष लग जाते हैं अर्थात् यदि इसी प्रकार तथा इसी दर से प्रयोग किया जाए, तो यह संभावना है कि निकट भविष्य (UPBoardSolutions.com) में कभी भी इसके भंडार समाप्त हो सकते हैं। ऐसे स्रोत जे खत्म हो सकते हैं समाप्य स्रोत कहलाते हैं। जैसे-जीवाश्मी ईंधन (कोयला, पेट्रोल, प्राकृतिक गैस)। अतः (a) और (b) के विकल्प समान हैं क्योंकि ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोत अक्षय हैं, परंतु अनवीकरणीय स्रोत समाप्य स्रोत हैं।

प्रश्न 8.
ऊर्जा के आदर्श स्रोत में क्या गुण होते हैं?
उत्तर
एक आदर्श स्रोत के निम्नलिखित गुण होने चाहिए

  1. उस ऊर्जा स्रोत से ऊर्जा प्राप्त करने में सरलता हो।
  2. उस ऊर्जा स्रोत से ऊर्जा, प्राप्त करना सस्ता हो।
  3. स्रोत से प्राप्त ऊर्जा का भंडारण और परिवहन आसानी से किया जा सके।
  4. इसका उच्च ऊष्मीय मान तथा उपयुक्त ज्वलन ताप होनी चाहिए।
  5. उस ऊर्जा स्रोत से ऊर्जा प्राप्त करने की दक्षता उच्च होनी चाहिए।
  6. इससे पर्यावरण को क्षति नहीं होनी चाहिए।
  7. दहन के बाद प्रति एकांक द्रव्यमान से अधिक ऊष्मा मुक्त हो।

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प्रश्न 9.
सौर कुकर का उपयोग करने के क्या लाभ तथा हानियाँ हैं? क्या ऐसे भी क्षेत्र हैं जहाँ सौर कुकरों की सीमित उपयोगिता है?
उत्तर
सौर कुकर के लाभ-

  1. सौर कुकर के उपयोग से पर्यावरण प्रदूषण नहीं होता है।
  2.  इसमें ईंधन की लागत शून्य है।
  3. खाना बनाने के बाद राख या अपशिष्ट नहीं बनता है।
  4. भोजन का पोषक तत्व नष्ट नहीं होता है।
  5. यह सस्ता है एवं इसका इस्तेमाल भी सरल है।
  6.  सौर कुकर में एक समय में (UPBoardSolutions.com) चार खाद्य पदार्थ पकाए जा सकते हैं।
  7. इसके रखरखाव पर कोई लागत नहीं आती।

सौर कुकर की सीमाएँ-

  1. सौर कुकर द्वारा रात के समय भोजन नहीं पकाया जा सकता।
  2. खराब मौसम में सौर कुकर में भोजन नहीं पकाया जा सकता है।
  3. इसमें खाना बनाने की प्रक्रिया धीमी है।
  4. यह हर प्रकार के भोजन बनाने के लिए उपयुक्त नहीं है।
  5. सिर्फ़ तेज धूप में ही इसका उपयोग किया जा सकता है।
  6. अधिक उच्च ताप पर खाना बनाना; जैसे-तलना इत्यादि संभव नहीं है।

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प्रश्न 10.
ऊर्जा की बढ़ती माँग के पर्यावरणीय परिणाम क्या हैं? ऊर्जा की खपत को कम करने के उपाय लिखिए।
उत्तर
ऊर्जा की बढ़ती माँग की पूर्ति ज्यादातर जीवाश्म ईंधनों कोयला और पेट्रोलियम द्वारा पूरी की जाती है। परंतु ये स्रोत अनवीकरणीय एवं समाप्य हैं।

इसके दहन से वायुमंडल में प्रदूषण होता है। SO2, NO2 आदि गैसें मुक्त होती हैं, जिससे अम्लीय वर्षा होती है, जिसके कारण जल तथा मृदा के संसाधन प्रभावित होते हैं। इमारतों, लोहे की वस्तुओं, पुल इत्यादि को संक्षरित कर देते हैं। CO2 गैस (UPBoardSolutions.com) ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करती है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ जाता है तथा हिम के पिघलने पर समुद्र तल बढ़ता है। समुद्रीय तट पर स्थित क्षेत्र तथा टापुओं के डूबने का खतरा बढ़ जाता है। वायुमंडल में कोयले तथा पेट्रोलियम के दहन से अवांछनीय कण जैसे-शीशा (lead) धूल कण इत्यादि बढ़ जाते हैं। इस तरह हमारे परिस्थितिक तंत्र के नष्ट हो जाने का भय होता है।
ऊर्जा की खपत कम करने के उपाय-

  1. नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोतों का उपयोग अधिक-से-अधिक करना; जैसे-सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल विद्युत ऊर्जा इत्यादि।
  2. कोयले के स्थान पर ग्रामीण क्षेत्रों में बायो गैस का प्रयोग करना।
  3. विद्युत उपकरणों को अनावश्यक रूप से नहीं चलाना चाहिए।
  4. सार्वजनिक परिवहन प्रणाली का अधिक-से-अधिक उपयोग करना।
  5. वाहनों में CNG का प्रयोग करना।
  6. रेड लाइटों पर इंजन बंद कर देना।

Hope given UP Board Solutions for Class 10 Science Chapter 14 are helpful to complete your homework.

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