UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Chapter 8 सुभाषित रत्नानि

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Board UP Board
Textbook SCERT, UP
Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 8
Chapter Name सुभाषित रत्नानि
Number of Questions Solved 7
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Chapter 8 सुभाषित रत्नानि

गद्यांशों का सन्दर्भ-सहित हिन्दी अनुवाद

श्लोक 1
भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती।
तस्या हि मधुरं काव्यं तस्मादपि सुभाषितम्।। (2013, 11)
सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि’ नामक पाठ’ से उदधृत है।
अनुवाद सभी भाषाओं में देववाणी (संस्कृत) सर्वाधिक प्रधान, मधुर और दिव्य है। निश्चय ही उसका काव्य (साहित्य) मधुर है तथा उससे (काव्य से) भी अधिक मधुर उसके सुभाषित (सुन्दर वचन या सूक्तियाँ) हैं।

श्लोक 2
सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।। (2018, 11, 10)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद सुख चाहने वाले (सुखार्थी) को विद्या कहाँ तथा विद्या चाहने वाले (विद्यार्थी) को सुख कहाँ! सुख की इच्छा रखने वाले को विद्या पाने की चाह त्याग देनी चाहिए और विद्या की इच्छा रखने वाले को सुख त्याग देना चाहिए।

श्लोक 3
जल-बिन्दु-निपातेन क्रमशः पूर्यते घटः।
स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च।। (2010)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद बूंद-बूंद अल गिरने से क्रमशः घड़ा भर जाता है। यही सभी विद्याओं, धर्म तथा धन का हेतु (कारण) है। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि विद्या, धर्म एवं धन की प्राप्ति के लिए उद्यम के साथ-साथ धैर्य का होना भी आवश्यक है, क्योंकि इन तीनों का संचय धीरे-धीरे ही होता है।

श्लोक 4
काव्य-शास्त्र-विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।। (2017, 10)
सन्दर्म पूर्ववत्।
अनुवाद बुद्धिमान लोगों का समय काव्य एवं शास्त्रों (की चर्चा) के आनन्द में व्यतीत होता है तथा मूर्ख लोगों का समय बुरी आदतों में, सोने में एवं झगड़ा झंझट में व्यतीत होता है।

श्लोक 5
न चौरहार्यं न च राजहार्य
न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्द्धत एवं नित्यं ।
विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्। (2018, 16, 11)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद विद्यारूपी धन सभी धनों में प्रधान है। इसे न तो चोर चुरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न भाई बाँट सकता है और न तो यह बोझ ही बनता है। यहाँ कहने का तात्पर्य है कि अन्य सम्पदाओं की भाँति विद्यारूपी धन घटने वाला नहीं है। यह धन खर्च किए जाने पर और भी बढ़ता जाता है।
विशेष-

  1.  शास्त्र में अन्यत्र भी विद्या को श्रेष्ठ सिद्ध करते हुए कहा गया
    है-‘स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।’
  2.  इस दोहे में भी विद्या को इस प्रकार महिमामण्डित किया गया है।
    ‘सरस्वती के भण्डार की बड़ी अपूरब बात।।
    ज्यों खर्च त्यों-त्यों बढे, बिन खर्चे घट जात।।”

श्लोक 6
परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्ष प्रियवादिनम्।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम्।। (2018, 17, 14, 12, 10)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद पीछे कार्य को नष्ट करने वाले तथा सम्मुख प्रिय (मीठा) बोलने वाले मित्र का उसी प्रकार त्याग कर देना चाहिए, जिस प्रकार मुख पर दूध लगे विष से भरे घड़े को छोड़ दिया जाता है।

श्लोक 7
उदेति सविता ताम्रस्ताम्र एवास्तुमेति च।।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।। (2017, 11, 10)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद महान् पुरुष सम्पत्ति (सुख) एवं विपत्ति (दुःख) में उसी प्रकार एक समान रहते हैं, जिस प्रकार सूर्य उदित होने के समय भी लाल रहता है और अस्त होने के समय भी। यह कहने का तात्पर्य यह है कि महान् अर्थात् ज्ञानी पुरुष को सुख-दुःख प्रभावित नहीं करते। न तो वह सुख में अत्यन्त आनन्दित ही होता है और न दुःख में हतोत्साहित

श्लोक 8
विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खुलस्य साधोः विपरीतुमेत् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।। (2016, 14, 13, 11)
सन्दर्भ पूर्ववत् ।
अनुवाद दुष्ट व्यक्ति की विद्या वाद-विवाद (तर्क-वितर्क) के लिए, सम्पत्ति घमण्ड के लिए एवं शक्ति दूसरों को कष्ट पहुँचाने के लिए होती है। इसके विपरीत सज्जन व्यक्ति की विद्या ज्ञान के लिए, सम्पत्ति दान के लिए एवं शक्ति रक्षा के लिए होती है।

श्लोक 9
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।।
वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ।। (2018, 14, 12, 10)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद बिना सोचे-विचारे कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए। अज्ञान परम आपत्तियों (घोर संकट) का स्थान (आश्रय) है। सोच-विचारकर कार्य करने वाले व्यक्ति का गुणों की लोभी अर्थात् गुणों पर रीझने वाली सम्पत्तियाँ (लक्ष्मी) स्वयं वरण करती हैं। यहाँ कहने का अर्थ यह है कि ठीक प्रकार से विचार कर किया गया कार्य ही सफलीभूत होता है, अति शीघ्रता से बिना विचारे किए गए कार्य का परिणाम सर्वदा अहितकर ही होता है।

श्लोक 10
वज्रादपि कठोराणि मृदृनि कुसुमादपि।
लोकोत्तराणां चेतांसि को न विज्ञातुमर्हति।। (2017, 12, 10)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद असाधारण पुरुषों अर्थात् महापुरुषों के वज्र से भी कठोर तथा पुष्प से भी कोमल चित्त (हृदय) को भला कौन जान सकता है?

श्लोक 11
प्रीणाति यः सुचरितैः पितरं स पुत्रो
यद् भर्तुरेव हितमिच्छति तत् कलत्रम्।
तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यद्
एतत्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते।। (2017, 13, 11)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद अपने अच्छे आचरण (कर्म) से पिता को प्रसन्न रखने वाला पुत्र, (सदा) पति का हित (अर्थात् भला चाहने वाली पत्नी तथा आपत्ति (दुःख) एवं सुख में एक जैसा व्यवहार करने वाला मित्र, इस संसार में इन तीनों की प्राप्ति पुण्यशाली व्यक्ति को ही होती है।

श्लोक 12
कामान् दुग्धे विप्रकर्षत्यलक्ष्मी
कीर्ति सूते दुष्कृतं या हिनस्ति।
शुद्धां शान्तां मातरं मङ्गलानां
धेनुं धीराः सूनृतां वाचमाहुः ।। (2011)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद धैर्यवानों (ज्ञानियों) ने सत्य एवं प्रिय (सुभाषित) वाणी को शुद्ध, शान्त एवं मंगलों की मातारूपी गाय की संज्ञा दी है, जो इच्छाओं को दुहती अर्थात् पूर्ण करती है, दरिद्रता को हरती है, कीर्ति अर्थात् यश को जन्म देती। है एवं पाप का नाश करती हैं। इस प्रकार यहाँ सत्य और प्रिय (मधुर) वाणी को मानव की सिद्धियों को पूर्ण करने वाली बताया गया है।

श्लोक 13
व्यतिषजति पदार्थानान्तरः कोऽपि हेतुः
न खलु बहिरुपाधी प्रीतयः संश्रयन्ते।
विकसति हि पतङ्गस्योदये पुण्डरीकं
द्रवति च हिमरश्मावुद्गतेः चन्द्रकान्तः।। (2012)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद पदार्थों को मिलाने वाला कोई आन्तरिक कारण ही होता है। निश्चय ही प्रीति | (प्रेम) बाह्य कारणों पर निर्भर नहीं करती; जैसे-कमल सूर्य के उदय होने पर ही खिलता है। और चन्द्रकान्त-मणि चन्द्रमा के उदय होने पर ही द्रवित होती हैं।

श्लोक 14
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा ।
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।। (2016, 13, 11)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद नीति में दक्ष लोग निन्दा करें या स्तुति; चाहे लक्ष्मी आए या स्व-इच्छा से चली जाए; मृत्यु आज ही आए या फिर युगों के पश्चात्, धैर्यवान पुरुष न्याय-पथ से थोड़ा भी विचलित नहीं होते। | इस प्रकार यहाँ यह बताया गया है कि धीरज धारण करने वाले लोग कर्म-पथ पर अडिग होकर चलते रहते हैं जब तक उन्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।

श्लोक 15
ऋषयो राक्षसीमाहुः वाचमुन्मत्तदृप्तयोः।
सा योनिः सर्ववैराणां सा हि लोकस्य निऋतिः।। (2014, 11)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद ऋषियों ने उन्मत्त तथा अहंकारी लोगों की वाणी को राक्षसी वाणी कहा है, जो | सभी प्रकार के बैरों को जन्म देने वाली एवं संसार की विपत्ति का कारण होती है।

प्रश्न – उत्तर

प्रश्न-पत्र में संस्कृत दिग्दर्शिका के पाठों (गद्य व पद्य) में से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएंगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

प्रश्न 1.
विद्याप्राप्यर्थं विद्यार्थी किं त्यजेत्? अथवा विद्यार्थी किं त्यजेत? (2017, 14, 13, 11)
उत्तर:
विद्याप्राप्यर्थं विद्यार्थी सुखं त्यजेत्।।

प्रश्न 2.
धीमतां कालः कथं गच्छति? (2015, 12, 11, 10)
उत्तर:
धीमता कालः काव्यशास्त्रविनोदेन गच्छति।।

प्रश्न 3.
मूर्खाणां कालः कथं गच्छति? (2018, 17, 12)
उत्तर:
मूर्खाणां कालः व्यसनेन, निद्रया कलहेन वा गच्छति।

प्रश्न 4.
सर्वधनप्रधानं किं धनम् अस्ति?
उत्तर:
सर्वधनप्रधानं विद्याधनम् अस्ति।।

प्रश्न 5.
खलस्य विद्या किमर्थं भवति? (2016)
उत्तर:
खलस्य विद्या विवादाय भवति।

प्रश्न 6.
लोकोत्तराणां चेतांसि कीदृशानि भवन्ति? (2017, 19)
उत्तर:
लोकोत्तराणां चेतांसि वज्रादपि कठोराणि कुसुमादपि च कोमलानि भवन्ति।

प्रश्न 7. पुण्डरीकं कदा विकसति (2018, 14, 10)
उत्तर:
पुण्डरीकं सूर्य उदिते विकसति।

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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Chapter 7 महर्षिर्दयानन्दः

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Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 7
Chapter Name महर्षिर्दयानन्दः
Number of Questions Solved 8
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Chapter 7 महर्षिर्दयानन्दः

गद्यांशों का सन्दर्भ-सहित हिन्दी अनुवाद

गद्यांश 1
सौराष्ट्रप्रान्ते टङ्कारानाम्नि ग्रामे श्रीकर्षणतिवारीनाम्नो धनाढ्यस्य
औदीच्यविप्रवंशीयस्य धर्मपत्नी शिवस्य पार्वतीव भाद्रमासे नवम्यां तिथौ गुरुवासरे
मूलनक्षत्रे एकाशीत्युत्तराष्टादशशततमे (1881) वैक्रमाब्दे पुत्ररत्नमजनयत्।।
जन्मतः दशमे दिने ‘शिवं भजेदयम्’ इति बुद्धया पिता स्वसुतस्य मूलशङ्कर इति
नाम अकरोत् अष्टमे वर्षे चास्योपनयनमकरोत्। त्रयोदशवर्ष प्राप्तवतेऽस्मै
मूलशङ्कराय पिता शिवरात्रिव्रतमाचरितुम् अकथयत्। पितुराज्ञानुसार मूलशङ्करः
सर्वमपि व्रतविधानमकरोत्। रात्रौ शिवालये स्वपित्रा समं सर्वान् निद्रितान् विलोक्य
स्वयं जागरितोऽतिष्ठत् शिवलिङ्गस्य चोपरि मूषिकमेकमितस्ततः विचरन्तं दृष्ट्वा
शहितमानसः सत्यं शिवं सुन्दरं लोकशङ्करं शङ्करं साक्षात्कर्तुं हृदि निश्चितवान्
ततः प्रभृत्येव शिवरात्रेः उत्सवः ‘ऋषिबोधोत्सवः’ इति नाम्ना
श्रीमद्दयानन्दानुयायिनाम् आर्यसमाजिनां मध्ये प्रसिद्धोऽभूत्।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘महर्षिर्दयानन्दः’ नामक पाठ से उद्धृत है।
अनुवाद सौराष्ट्र प्रान्त के टंकारा नामक ग्राम में उत्तरी ब्राह्मणवंश के श्रीकर्षण तिवारी नामक धनी सेठ की पत्नी ने, ‘भगवान शिव की पत्नी पार्वती की भौति विक्रम सम्वत् 1881 के भाद्रपद मास की नवमी तिथि, गुरुवार को मूल नक्षत्र में पुत्ररत्न को जन्म दिया।

‘यह भगवान शिव को भजे’ ऐसा विचार कर पिता ने जन्म के दसवें दिन अपने पुत्र का नाम ‘मूलशंकर’ रखा तथा आठवें वर्ष में इनका यज्ञोपवीत संस्कार किया। तेरह वर्ष पूर्ण होने पर मूलशंकर को पिता ने शिवरात्रि का व्रत रखने के लिए कहा। पिता की आज्ञा के अनुसार मूलशंकर ने व्रत के समस्त विधान पूर्ण किए।

रात्रि में शिवालय में अपने पिता संग सबको सोया देख ये स्वयं जागे बैठे रहे तथा शिवलिंग पर एक चूहे को इधर-उधर घूमता देख इनका मन सशंकित हो उठा। (इन्होंने) सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् लोक मंगलकारी भगवान शंकर का साक्षात्कार करने का हृदय में निश्चय किया। तभी से लेकर श्रीमान दयानन्द के अनुयायी आर्यसमाजियों में शिवरात्रि का उत्सव ‘ऋषिबौधोत्सव’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

विशेष महर्षि दयानन्द को ज्ञान प्राप्त होने को ‘ऋषिबोधोत्सव’ नाम से जाना जाता है।

गद्यांश 2
यदा अयं षोडशवर्षदेशीयः आसीत् तदास्य कनीयसी भगिनी विधूचिकया पञ्चत्वं गता। वर्षत्रयानन्तरमस्य पितृव्योऽपि दिवङ्गतः। द्वयोरनयः मृत्युं दृष्ट्वा आसीदस्य मनसि कथमुहं कथंवायं लोकः मृत्युभयात् मुक्तः स्यादिति चिन्तयतः एवास्य हदि सहसैव वैराग्यप्रदीपः प्रज्वलितः। एकस्मिन् दिवसे अस्तङ्गते भगवति भास्वति मूलशङ्करः गृहमत्यजत्। (2017)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद जब ये लगभग सोलह वर्ष के थे, तब इनकी छोटी बहन की मृत्यु हैजे से हो गई। तीन वर्षों के उपरान्त इनके चाचा भी स्वर्ग सिधार गए। इन दोनों की मृत्यु देख इनके मन में (प्रश्न) उठा कि मृत्यु के भय से कैसे मुझे और कैसे इस जग को मुक्ति मिल सकती है? ऐसा विचार करते हुए इनके हृदय में सहसा वैराग्य का दीपक जल उठा। एक दिन भगवान सूर्य के अस्त होने के उपरान्त मूलशंकर ने घर त्याग दिया।

गद्यांश 3
सप्तदशवर्षाणि यावत् अमरत्वप्राप्त्युपायं चिन्तयन् मूलशङ्करः आमाद् ग्राम, नगरानगरं, वनाद् वनं, पर्वतात् पर्वतमभ्रमत् परं नाविन्दतातितरां तृप्तिम् । अनेकेभ्यो विद्वद्भ्यः व्याकरण-वेदान्तादीनि शास्त्राणि योगविद्याश्च अशिक्षत्। नर्मदातटे च पूर्णानन्दसरस्वतीनाम्नः संन्यासिनः सकाशात् संन्यासं गृहीतवान् ‘दयानन्दसरस्वती’ इति नाम च अङ्गीकृतवान्। (2016, 10)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद मूलशंकर सत्रह वर्ष तक अमरता प्राप्ति के उपाय पर विचार करते हुए गाँव-गाँव, शहर-शहर, वन-वन, पर्वत-पर्वत घूमते रहे, किन्तु सन्तुष्टि नहीं पा सके। अनेक विद्वानों से व्याकरण, वेदान्त आदि शास्त्र तथा योग विद्या सीखी। इन्होंने नर्मदा नदी के तट पर ‘पूर्णानन्द सरस्वती’ नाम के संन्यासी से संन्यास ग्रहण कर ‘दयानन्द सरस्वती’ नाम अंगीकार किया।

गद्यांश 4
गुरुः विरजानन्दोऽपि कुशाग्रबुद्धिमिमं दयानन्दं त्रीणि वर्षाणि यावत् पाणिनेः
अष्टाध्यायींमन्यानि च शास्त्राणि अध्यापयामास। समाप्तविद्यः दयानन्दः परमया
श्रद्धया गुरुमवदत्-भगवन् ! अहम् अकिञ्चनतया तनुमनोभ्यां समं केवलं
लवङ्गजातमेव समानीतवानस्मि। अनुगृहणातु भवान् अङ्गीकृत्य मदीयामिमां गुरुदक्षिणाम्। (2018, 16, 14, 10)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद गुरु विरजानन्द ने भी इस कुशाग्र बुद्धि वाले दयानन्द को तीन वर्षों तक पाणिनी की अष्टाध्यायी एवं अन्य शास्त्रों का अध्ययन कराया। विद्यार्जन पूर्ण कर दयानन्द ने अपने परम श्रद्धेय गुरु से कहा, “भगवन्! मैं दरिद्र होने के कारण आपके लिए तन-मन से मात्र कुछ लौंग लाया हूँ। आप मेरी इस गुरुदक्षिणा को स्वीकार कर मुझे अनुगृहीत कृतज्ञ करें।”

गद्यांश 5
प्रीतः गुरुस्तमभाषत-सौम्य! विदितवेदितव्योऽसि, नास्ति किमपि अविदितं
तव। अद्यत्वेऽस्माकं देशः अज्ञानान्धकारे निमग्नो वर्तते, नार्यः अनाद्रियन्ते,
शूद्राश्च तिरस्क्रियन्ते, अज्ञानिनः पाखण्डनश्च पूज्यन्ते। वेदसूर्योदयमन्तरा
अज्ञानान्धकारं न गमिष्यति। स्वस्त्यस्तु ते, उन्नमय पतितान् , समुद्धर
स्त्रीजाति, खण्डये पाखण्डम्, इत्येव मेऽभिलाष इयमेव च मे गुरुदक्षिणा। (2016, 12)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद गुरु ने प्रसन्नतापूर्वक उनसे कहा, “सौम्य! तुम जानने योग्य सभी बातें जान चुके हो, अब तुम्हें कुछ भी अज्ञात नहीं। इन दिनों हमारा राष्ट्र अज्ञानरूपी अन्धकार में डूबा हुआ है। आज यहाँ नारियों का अनादर किया जाता है, शूद्र तिरस्कृत किए जाते हैं और अज्ञानी व पाखण्डी पूजे जाते हैं। अज्ञानरूपी अन्धकार बिना वेदरूपी सूर्य के उदित हुए दूर नहीं होगा। तुम्हारा कल्याण हो, पतितों को ऊँचा उठाओ, स्त्री-जाति का उद्धार करो, पाखण्ड का नाश करो, यह मेरी अभिलाषा है और यही मैरी गुरुदक्षिणा है।”

गद्यांश 6
गुरुणा एवम् आज्ञप्तः महर्षिर्दयानन्दः एतद्देशवासिनो जनान् उद्धत कर्मक्षेत्रेऽवतरत्। सर्वप्रथमं हरिद्वारे कुम्भपर्वणि भागीरथीतटे पाखण्डखण्डिनी पताकामस्थापयत्। ततश्च हिमाद्रि गत्वा त्रीणि वर्षाणि तपः अतप्यत्। तदनन्तरमयं प्रतिपादितवान् ऋग्यजुसामाथवणो वेदाः नित्या ईश्वर काश्च, ब्राह्मण-क्षत्रिय वैश्य-शूद्राणां गुण-कर्मस्वभावैः विभागः न तु जन्मना, चत्वारः एव आश्रमाः, ईश्वरः एकः एव, ब्रह्म-पितृ-देवातिथि-बलि-वैश्वदेवाः पञ्च महायज्ञा नित्यं करणीमाः। ‘स्त्रीशूद्री वेदं नाधीयाताम् अस्य वाक्यस्य असारतां प्रतिपाद्य सर्वेषां वेदाध्ययनाधिकार व्यवस्थापयत्। एवमयं पाखण्डोन्मूलनाय वैदिक धर्मसंस्थापनाय च सर्वत्र भ्रमति स्म। एवमार्यज्ञानमहादीपो देवो दयानन्दः यावज्जीवनं देशजायुद्धाराय प्रयतमानः तदर्थ स्वजीवनमपि दत्तवान् मुक्तिञ्चाध्यगच्छत् एवमस्य महर्षेः जीवनं नूनमनुकरणीयमस्ति। (2017)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद गुरु से इस प्रकार आज्ञा प्राप्त करकें महर्षि दयानन्द इस देश के निवासी मनुष्यों के उद्धार के लिए कर्मक्षेत्र में कूद पड़े। सर्वप्रथम हरिद्वार में कुम्भपर्व पर गंगा के किनारे पाखण्ड का नाश करने वाली पताका (ध्वजा) को स्थापित किया। उसके बाद हिमालय पर्वत पर जाकर तीन वर्ष तक तप किया। इसके बाद उन्होंने प्रतिपादित किया कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद नित्य हैं और ईश्वर द्वारा रचित हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का विभाजन गुण, कर्म और प्रकृति के अनुरूप है, न कि जन्म से।

आश्रम चार ही हैं। ईश्वर एक ही है। ब्रह्म, पितृ, देव, अतिथि तथा अलिवैश्वदेव में पाँच महायज्ञ प्रतिदिन हीं करने चाहिए। “स्त्री और शूद्र को वेद नहीं पढ़ने चाहिए”-इस वाक्य की सारहीनता का प्रतिपादन करके सभी के लिए वेद को पढ़ने के अधिकार की व्यवस्था की। इस तरह ये पाखण्ड की समाप्ति के लिए और वैदिक धर्म की स्थापना के लिए सब जगह घूमते रहे। इस प्रकार आर्य-शान के महान् दीप देव दयानन्द ने सम्पूर्ण जीवन देश और जाति के उद्धार के लिए अर्पित कर दिया और मोक्ष प्राप्त किया। इस प्रकार इन महर्षि का जीवन निश्चित रूप से अनुकरणीय है।

प्रश्न – उत्तर

प्रश्न-पत्र में संस्कृत दिग्दर्शिका के पाठों (गद्य व पद्य) में से चार अतिलघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएंगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

प्रश्न 1.
महर्षेः दयानन्दस्य पितुः नाम किम् आसीत्? (2014)
उत्तर:
महर्षेः दयानन्दस्य पितुः नाम श्रीकर्षणतिवारी आसीत्।

प्रश्न 2.
महर्षेः दयानन्दस्य जन्मः कस्मिन् स्थाने/ग्रामे अभवत्। (2018, 17, 14, 10)
अथवा
महर्षेः दयानन्दस्य जन्मभूमिः कुत्र आसीत्
अथवा
मूलशङ्करस्य जन्म कुत्र अभवत्? (2018, 14)
उत्तर:
महर्षेः दयानन्दस्य जन्म सौराष्ट्रप्रान्ते टङ्कारानाम्नि ग्रामे अभवत्।

प्रश्न 3.
महर्षेः दयानन्दस्य बाल्यकालिकं किं नाम आसीत्?
उत्तर:
महर्षेः दयानन्दस्य बाल्यकालिकं मूलशङ्करः इति नाम आसीत्।।

प्रश्न 4.
दयानन्दस्य भगिनी कथं पञ्चत्वं गता? (2017, 14)
उत्तर:
दयानन्दस्य भगिनी विषूचिकया पञ्चत्वं गता।

प्रश्न 5.
मूलशङ्करस्य हृदये वैराग्यं कथम् उत्पन्नम्। (2012)
उत्तर:
स्वभगिन्याः पितृव्यस्य च मृत्युं दृष्ट्वा मूलशङ्करस्य हृदये वैराग्यप्रदीप: प्रज्वलितः।

प्रश्न 6.
महर्षेः दयानन्दस्य गुरुः कः आसीत्? (2017, 16, 15, 13, 10)
अथवा
विरजानन्दः कस्य गुरुः आसीत्? (2015, 10)
उत्तर:
विरजानन्दः महर्षेः दयानन्दस्य गुरुः आसीत्!

प्रश्न 7.
दयानन्दः किमर्थं सर्वत्र भ्रमति स्म? (2018)
उत्तर:
दयानन्दः अमरत्व प्राप्त्युपायं चिन्तपन् सर्वत्र भ्रमति स्म।

प्रश्न 8.
दयानन्दः विद्याध्ययनार्थं कुत्र गत? (2018)
उत्तर:
दयानन्दः विद्याध्ययनार्थं मथुरानगरं गतः

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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi पद्य Chapter 5 गीत / श्रद्धा-मनु

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Chapter Chapter 5
Chapter Name गीत / श्रद्धा-मनु
Number of Questions Solved 5
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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi पद्य Chapter 5 गीत / श्रद्धा-मनु

गीत / श्रद्धा-मनु – जीवन/साहित्यिक परिचय

(2018, 17)

प्रश्न-पत्र में संकलित पाठों में से चार कवियों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं। जिनमें से एक का उत्तर: देना होता हैं। इस प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ
छायावाद के प्रवर्तक एवं उन्नायक महाकवि जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी के अत्यन्त प्रतिष्ठित सँघनी साहू के वैश्य परिवार में 1890 ई. में हुआ था। माता-पिता एवं बसे भाई के देहावसान के कारण अल्पायु में ही प्रसाद जी को व्यवसाय एवं परिवार के समस्त उत्तर:दायित्वों को वहन करना पड़ा। घर पर ही अंग्रेजी, हिन्दी, बांग्ला, उर्दू, फारसी, संस्कृत आदि भाषाओं का गहन अध्ययन किया। अपने पैतृक कार्य को करते हुए इन्होंने अपने भीतर काव्य प्रेरणा को जीवित रखा। अत्यधिक विषम परिस्थितियों को जीवटता के साथ झेलते हुए यह युगसष्टा साहित्यकार हिन्दी के मन्दिर में अपूर्व रचना-सुमन अर्पित करता हुआ 14 नवम्बर, 1937 निष्प्राण हो गया।

साहित्यिक गतिविधियाँ
जयशंकर प्रसाद के काव्य में प्रेम और सौन्दर्य प्रमुख विषय रहा है, साथ ही उनका दृष्टिकोण मानवतावादी है। प्रसाद जी सर्वतोमुखी प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति थे। प्रसाद जी ने कुल 67 रचनाएँ प्रस्तुत की हैं।

कृतियाँ
इनकी प्रमुख काव्य कृतियों में चित्राधार, प्रेमपथिक, कानन कुसुम, झरना, आँसू, लहर, कामायनी आदि शामिल हैं।
चार प्रबन्धात्मक कविताएँ शेरसिंह का शस्त्र समर्पण, पेशोला की प्रतिध्वनि, प्रलय की छाया तथा अशोक की चिन्ता अत्यन्त चर्चित रहीं।
नाटक चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, धुवस्वामिनी, जनमेजय का नागयज्ञ, राज्यश्री, अजातशत्रु, प्रायश्चित आदि।
उपन्यास कंकाल, तितली एवं इरावती (अपूर्ण रचना)
कहानी संग्रह प्रतिध्वनि, छाया, आकाशदीप, आँधी आदि।
निबन्ध संग्रह काव्य और कला

काव्यगत विशेषताएँ
भाव पक्ष

  1. सौन्दर्य एवं प्रेम के कवि प्रसाद जी के काव्य में श्रृंगार रस के संयोग एवं विप्रलम्भ, दोनों पक्षों का सफल चित्रण हुआ है। इनके नारी सौन्दर्य के चित्र स्थूलता से मुक्त आन्तरिक सौन्दर्य को प्रतिबिम्बित करते हैं
    “हृदय की अनुकृति बाह्य उदार
    एक लम्बी काया उन्मुक्ता”
  2. दार्शनिकता उपनिषदों के दार्शनिक ज्ञान के साथ बौद्ध दर्शन का समन्वित रूप भी इनके साहित्य में मिलता है।
  3. रस योजना इनका मन संयोग श्रृंगार के साथ साथ विप्रलम्भ श्रृंगार के चित्रण में भी खूब रमा है। इनके वियोग वर्णन में एक अवर्णनीय रिक्तता एवं अवसाद ने उमड़कर सारे परिवेश को आप्लावित कर लिया है। इनके काव्यों में शान्त एवं करुण रस का सुन्दर चित्रण हुआ है तथा कहीं कहीं वीर रस का भी वर्णन मिलता है।
  4. प्रकृति चित्रण इन्होंने प्रकृति के विविध रूपों का अत्यधिक हदयग्राही चित्रण किया है। इनके यहाँ प्रकृति के रम्य चित्रों के साथ-साथ प्रलय का भीषण चित्र भी मिलता है। इनके काव्यों में प्रकृति के उद्दीपनरूप आदि के चित्र प्रचुर मात्रा में हैं।
  5. मानव की अन्तःप्रकृति का चित्रण इनके काव्य में मानव मनोविज्ञान का विशेष स्थान है। मानवीय मनोवृत्तियों को उन्नत रूप देने वाली उदात्त भावनाएँ महत्वपूर्ण हैं। इसी से रहस्यवाद का परिचय मिलता है। ये अपनी रचनाओं में शक्ति-संचय की प्रेरणा देते हैं।
  6. नारी की महत्ता प्रसाद जी ने नारी को दया, माया, ममता, त्याग, बलिदान, सेवा, समर्पण आदि से युक्त बताकर उसे साकार श्रद्धा का रूप प्रदान किया है। उन्होंने ”नारी! तुम केवल श्रद्धा हो” कहकर नारी को सम्मानित किया है।

कला पक्ष

  1. भाषा प्रसाद जी की प्रारम्भिक रचनाएँ ब्रजभाषा में हैं, परन्तु शीघ्र ही वे खड़ी बोली के क्षेत्र में आ गए। उनकी खड़ी बोली उत्तर:ोत्तर परिष्कृत, संस्कृतनिष्ठ एवं साहित्यिक सौन्दर्य से युक्त होती गई। अद्वितीय शब्द चयन किया गया है, जिसमें अर्थ की गम्भीरता परिलक्षित होती है। इन्होंने भावानुकूल चित्रोपम शब्दों का प्रयोग किया। लाक्षणिकता एवं प्रतीकात्मकता से युक्त प्रसाद जी की भाषा में अद्भुत नाद-सौन्दर्य एवं ध्वन्यात्मकता के गुण विद्यमान हैं। इन्होंने चित्रात्मक भाषा में संगीतमय चित्र अंकित किए।
  2. शैली प्रबन्धकाव्य (कामायनी) एवं मुक्तक (लहर, झरना आदि) दोनों रूपों में प्रसाद जी का समान अधिकार था। इनकी रचना ‘कामायनी’ एक कालज कृति है, जिसमें छायावादी प्रवृत्तियों एवं विशेषताओं का समावेश हुआ है।
  3. अलंकार एवं छन्द सादृश्यमूलक अर्थालंकारों में इनकी वृत्ति अधिक भी है। इन्होंने नवीन उपमानों का प्रयोग करके उन्हें नई भंगिमा प्रदान की। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि के साथ मानवीकरण, ध्वन्यर्थ-व्यंजना, विशेषण-विपर्याय जैसे आधुनिक अलंकारों का भी सुन्दर उपयोग किया।

विविध छन्दों का प्रयोग तथा नवीन छन्दों की उदभावना इनकी रचनाओं में द्रष्टव्य है। आरम्भिक रचनाएँ घनाक्षरी छन्द में हैं। इन्होंने अतुकान्त छन्दों का प्रयोग अवैक किया है। ‘आँसू’ काव्य ‘सखी’ नामक मात्रिक छन्द में लिखा। इन्होंने ता.क, पादाकुलक, रूपमाला, सार, रोला आदि छन्दों का भी प्रयोग किया। इन्होंने अंग्रजी के सॉनेट तथा बांग्ला के त्रिपदी एवं पयार जैसे छन्दों का भी सफल प्रयोग किया। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि प्रसाद जी में भावना, विचार एवं शैली तीनों की प्रौढ़ता मिलती है।

हिन्दी साहित्य में स्थान
प्रसाद जी भाव और शिल्प दोनों दृष्टियों से हिन्दी के युग-प्रवर्तक कवि के रूप में जाने जाते हैं। भाव और कला, अनुभूति और अभिव्यक्ति, वस्तु और शिल्प आदि सभी क्षेत्रों में प्रसाद जी ने युगान्तकारी परिवर्तन किए हैं। डॉ. राजेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी ने हिन्दी साहित्य में उनके योगदान का उल्लेख करते हुए लिखा है-“वे छायावादी काव्य के जनक और पोषक होने के साथ ही, आधुनिक काव्यधारा को गौरवमय प्रतिनिधित्व करते हैं।”

पद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-पत्र में पद्य भाग से दो पद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर: देने होंगे।

गीत

प्रश्न 1.
बीती विभावरी जाग री। अम्बर-पनघट में डुबो रही—
तारा-घट ऊषा नागरी। खग-कुल कुल-कुल सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा, लो यह लतिका भी भर लाई—
मधु-मुकुल नवल रस-गागरी। अधरों में राग अमन्द पिए,
अलकों में मलयज बन्द किए—
तू अब तक सोई है आली! आँखों में भरे विहाग री।

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) प्रस्तुत पद्यांश के कवि व शीर्षक का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश छायावादी कवि ‘जयशंकर प्रसाद’ द्वारा रचित गीत ‘बीती विभावरी जाग री’ से उधृत किया गया है।

(ii) “अम्बर-पनघट में इबो रही, तारा-घट ऊषा-नागरी।” इस पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से नायिका की सखी उसे सुबह होने के विषय में बताते हुए कहती है कि ऊषा रूपी नायिका आकाश रूपी पनघट में तारे रूपी घड़े को डुबो रही है अर्थात् रात्रि का समय समाप्त हो गया है और सुबह हो गई है, लेकिन वह अभी तक सोई हुई है।

(iii) प्रभात का वर्णन करने के लिए कवि ने किन-किन उपादानों का प्रयोग किया हैं?
उत्तर:
प्रभात का वर्णन करने के लिए कवि ने आकाश में तारों के छिपने, सुबह-सुबह पक्षियों के चहचहाने, पेड़-पौधों पर उगे नए पत्तों के हिलने, समस्त कलियों के पुष्पों में परिवर्तित होकर पराग से युक्त होने आदि उपादानों का प्रयोग किया है।

(iv) प्रस्तुत पद्यांश के कथ्य का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में सुबह होने के पश्चात् भी नायिका के सोने के कारण उसकी सखी उसे जगाने के लिए आकाश में तारों के छिपने, पक्षियों के चहचहाने आदि घटनाओं का वर्णन करते हुए उसे जगाने का प्रयास करती है। वह उसे बताना चाहता है कि सर्वत्र प्रकाश होने के कारण सभी अपने कार्यों में संलग्न हो गए हैं, किन्तु वह अभी भी सोई हुई हैं।

(v) प्रस्तुत गद्यांश में मानवीकरण अलंकार की योजना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
मानवीकरण अलंकार में प्राकृतिक उपादानों के क्रियाकलापों का वर्णन मानवीय क्रियाकलापों के रूप में किया जाता है। प्रस्तुत पद्यांश में सुबह का नायिका के रूप में वर्णन, पत्तों का आँचल डोलना, लताओं का गागर भरकर लाना आदि पद्यांश में मानवीकरण अलंकार के प्रयोग पर प्रकाश डालते हैं।

श्रद्धा-मनु

प्रश्न 2.
और देखा वह सुन्दर दृश्य नयन का इन्द्रजाल अभिराम।
कुसुम-वैभव में लता समान चन्द्रिका से लिपटा घनश्याम।
हृदय की अनुकृति बाह्य उदार एक लम्बी काया, उन्मुक्त।
मधु पवन क्रीड़ित ज्यों शिशु साल सुशोभित हो सौरभ संयुक्त।
मसृण गान्धार देश के, नील रोम वाले मेषों के चर्म,
ढक रहे थे उसका वपु कान्त बन रहा था वह कोमल वर्म।
नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहा मृदुल अधखुला अंग,
खिला हो ज्यों बिजली का फूल मेघ-वन बीच गुलाबी रंग।
आह! वह मुख! पश्चिम के व्योम-बीच जब घिरते हों घन श्याम;
अरुण रवि मण्डल उनको भेद दिखाई देता हो छविधाम!

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) “हृदय की अनुकृति बाह्य उदार” पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पंक्ति से कवि का आशय यह है कि श्रद्धा आन्तरिक रूप से जितनी उदार, भावुक, कोमल हृदय की थी, उसका बाह्य रूप भी वैसा ही था। वह अपने आन्तरिक गुण से जिस प्रकार सबको मोहित कर लेती थी. उसी । प्रकार उसका रूप सौन्दर्य भी सभी को अपनी ओर आकर्षित करने में सक्षम था।

(ii) कवि द्वारा किए गए श्रद्धा के रूप सौन्दर्य का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कवि श्रद्धा के रूप सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि उसके नयन अत्यधिक आकर्षक थे, वह स्वयं लता के समान सुन्दर एवं शीतल थे, घने केशों के मध्य उसका मुख चन्द्रमा के समान प्रतीत होता था, उसके तन की सुगन्ध बसन्ती बयार की तरह हृदय को शीतलता प्रदान कर रही थी। अपने कोमल हृदय के समान उसका बाह्य रूप भी अत्यन्त सुन्दर था।

(iii) कवि ने पद्यांश में घनश्याम शब्द को दो बार प्रयोग किया है, उनका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कवि ने उपरोक्त पद्यांश में ‘चन्द्रिका से लिपटा घनश्याम’ तथा ‘बीच जब घिरते हों घनश्याम्’ के रूप में दो बार घनश्याम शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु दोनों बार उसके अर्थ भिन्न-भिन्न हैं। पहले घनश्याम का अर्थ बादल तथा दूसरे घनश्याम का अर्थ शाम के समय का बादल हैं।

(iv) प्रस्तुत पद्यांश में नायिका के मुख की तुलना किस-किस-से की गई है?
उत्तर:
पद्यांश में नायिका के मुख की तुलना दो मिन्न स्थानों पर दो भिन्न उपमानों से की गई है। पहले स्थान पर ‘चन्द्रिका से लिपटा घनश्याम’ में नायिका की तुलना बादलों के बीच दिखने वाले चाँद से की गई है। वहीं दूसरे स्थान पर ‘अरुण रवि मण्डल उनको भेद दिखाई देता हो छविधाम’ में शाम के समय आकाश में छाए बादलों के बीच दिखाई देने वाले सूर्य से की गई है।

(v) प्रस्तुत पद्यांश की अलंकार योजना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने अनुप्रास, उपमा, रूपकातिशयोक्ति व उत्प्रेक्षा अलंकारों का प्रयोग किया है। ‘चन्द्रिका से लिपटा घनश्याम’ में रूपक अलंकार, ‘सुशोभित हो सौरभ संयुक्त’ में अनुप्रास अलंकार,, ‘खिला हो ज्यों बिजली का फूल’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।

प्रश्न 3.
यहाँ देखा कुछ बलि का अन्न भूत-हित-रत किसका यह दान!
इधर कोई है अभी सजीव, हुआ ऐसा मन में अनुमान। तपस्वी!
क्यों इतने हो क्लान्त, वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम कितने अधिक हताश बताओ यह कैसा उद्वेग?
दुःख की पिछली रजनी बीत विकसता सुख का नवल प्रभात;
एक परदा यह झीना नील छिपाए है जिसमें सुख गात।
जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत् की ज्वालाओं का मूल;
ईश का वह रहस्य वरदान कभी मत इसको जाओ भूला”

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) प्रस्तुत पद्यांश का केन्द्रीय भाव लिखिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में कवि श्रद्धा एवं मनु के कथनों के माध्यम से जीवन में आने वाली कठिनाइयों का सामना करते हुए निरन्तर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। कवि कहना चाहता है कि जीवन में विभिन्न प्रकार की समस्याएँ आएँगी, लेकिन हमें निराश होकर आशा का दामन नहीं छोड़ना चाहिए।

(ii) श्रद्धा मनु के पास पहुँचने का क्या कारण बताती हैं?
उत्तर:
श्रद्धा भनु को बताती है कि विराट हिमालय के इस वीरान क्षेत्र में जब उसे जीव-जन्तुओं के लिए अपने भोजन में से निकालकर अलग रखे गए भोजन के अंश दिखाई दिए, तो उसे उस प्रदेश में किसी व्यक्ति के रहने की अनुभूति हुई और इसी वजह से वह मनु के पास पहुँची।।

(iii) “दुःख की पिछली रजनी बीत, विकसता सुख का नवल प्रभात” पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से कवि यह स्पष्ट करना चाहता है कि जिस प्रकार रात्रि के पश्चात् सूर्योदय होता है और सम्पूर्ण जगत् प्रकाशमय हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य के जीवन में व्याप्त दुःखों के पश्चात् सुख का सर्य भी उदित होता हैं।

(iv) श्रद्धा मनु को किस प्रकार प्रेरित करती है?
उत्तर:
जीवन से हताश एवं निराश मनु को प्रेरित करते हुए श्रद्धा उसे जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने के लिए समझाते हुए कहती है कि जिस दुःख से परेशान होकर तुमने उसे अभिशाप मान लिया है वह एक वरदान है, जो तुम्हें सदा सुख को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता रहता

(v) ‘रजनी’ व ‘प्रभात’ शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखिए।
उत्तर:

शब्द पर्यायवाची शब्द
रजनी रात, निशा
प्रभात सुबह, सवेरा

प्रश्न 4.
समर्पण लो सेवा का सार सजल संसृति का यह पतवार;
आज से यह जीवन उत्सर्ग इसी पद तल में विगत विकार।
बनो संसृति के मूल रहस्य तुम्हीं से फैलेगी वह बेल;
विश्व भर सौरभ से भर जाए सुमन के खेलो सुन्दर खेल।
और यह क्या तुम सुनते नहीं विधाता का मंगल वरदान
‘शक्तिशाली हो, विजयी बनो’ विश्व में गूंज रहा, जय गान।
डरो मत अरे अमृत सन्तान अग्रसर है मंगलमय वृद्धि;
पूर्ण आकर्षण जीवन केन्द्र खिंची आवेगी सकल समृद्धि!

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) श्रद्धा मनु के समक्ष अपनी कौन-सी इच्छा व्यक्त करती हैं?
उत्तर:
श्रद्धा मनु के समक्ष स्वयं को उसकी जीवन संगिनी के रूप में स्वीकार कर लेने की इच्छा व्यक्त करती हैं। वह उससे कहती हैं कि मनु के द्वारा उसे पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेने से वे दोनों इस सृष्टि अर्थात् मानव जाति की सेवा कर सकेंगे।

(ii) “बनो संसृति के मूल रहस्य” पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से श्रद्धा मनु से स्वयं को पनी के रूप में स्वीकार कर इस निर्जन संसार में मानव की उत्पत्ति का मूलाधार बनने का आग्रह करती है। उसका आशय यह है कि उन दोनों के मिलन से ही इस जगत् में मनुष्य जाति की उत्पत्ति सम्भव होगी।

(iii) “शक्तिशाली हो विजयी बनो” पंक्ति के माध्यम से श्रद्धा मनु से क्या कहना चाहती है?
उत्तर:
”शक्तिशाली हो विजयी बनो” पंक्ति के माध्यम से श्रद्धा मनु की एकान्त में जीवनयापन करने की इच्छा एवं निराश व हताश मनःस्थिति में परिवर्तन करके उसे अकर्मण्यता को त्यागकर कर्तव्यशील बनकर विश्व को विजय करने की प्रेरणा देना चाहती हैं।

(iv) प्रस्तुत पद्यांश की भाषा-शैली पर विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने प्रबन्धात्मक शैली का प्रयोग किया है। कति ने काव्य रचना के लिए तत्सम शब्दावली युक्त खड़ी बोली का प्रयोग किया है, जो भावों को अभिव्यक्त करने में पूर्णतःसक्षम है। भाषा सहज, सरल एवं प्रभावगयी है।

(v) ‘विगत’ व ‘आकर्षण’ शब्दों के विलोमार्थी शब्द लिखिए।
उत्तर:

शब्द विलोमार्थक शब्द
विगत आगत
आकर्षण विकर्षण

प्रश्न 5.
विधाता की कल्याणी सृष्टि सफल हो इस भूतल पर पूर्ण;
पटें सागर, बिखरे ग्रह-पुंज और ज्वालामुखियाँ हों चूर्ण।
उन्हें चिनगारी सदृश सदर्प कुचलती रहे खड़ी सानन्द;
आज से मानवता की कीर्ति अनिल, भू, जल में रहे न बन्द।
जलधि के फूटें कितने उत्स द्वीप, कच्छप डूबें-उतराय;
किन्तु वह खड़ी रहे दृढ़ मूर्ति अभ्युदय का कर रही उपाय।
शक्ति के विद्युत्कण, जो व्यस्त विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय;
समन्वय उसका करे समस्त विजयिनी मानवता हो जाय।

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) श्रद्धा मनु को स्वयं वरण करने हेतु क्या कहकर प्रेरित करती हैं?
उत्तर:
श्रद्धा मनु से कहती हैं कि यदि वह उसका वरण कर लेता है, तो वह संसार के सम्पूर्ण जीव-जन्तुओं के लिए मानव-सृष्टि कल्याणकारी होगी। मानव समस्त प्राकृतिक आपदाओं; जैसे-ज्वालामुखी विस्फोट, उफनते सागरों आदि पर विजय पाकर समस्त जीवों की रक्षा करेगा, इसलिए उसे उसका वरण कर लेना चाहिए।

(ii) श्रद्धा जल-प्लावन की घटना का उल्लेख क्यों करती हैं?
उत्तर:
श्रद्धा जल-प्लावन की घटना का उल्लेख मनु को यह समझाने के लिए करती है। कि इस प्रलयकारी घटना के पश्चात् भी मानवता की रक्षा एवं उत्थान हेतु नव प्रयास जारी रहे। अतः मनु को स्वयं को निरुपाय न मानकर समस्या के समाधान पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।

(iii) श्रद्धा विद्युतकणों के माध्यम से क्या कहना चाहती है?
उत्तर:
श्रद्धा विद्युत कणों के माध्यम से यह कहना चाहती है कि जिस प्रकार ये अलग-अलग होने पर शक्तिहीन होते हैं, किन्तु एकत्रित होते ही शक्ति का स्रोत बन जाते हैं, उसी प्रकार मानव भी जब अपनी शक्ति को पहचानकर एकत्रित कर लेता है तो वह विश्व-विजेता बन जाता है।

(iv) प्रस्तुत पद्यांश की अलंकार योजना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
अलंकार किसी भी काव्य रचना के सौन्दर्य में वृद्धि करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रस्तुत पद्यांश में भी कवि ने विभिन्न अलंकारों का प्रयोग किया है। ‘सदृश सदर्प’ में ‘स’ वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार तथा विद्युतकणों का उदाहरण देने के कारण दृष्टान्त अलंकार का प्रयोग हुआ है।

(v) अभ्युदय’ व ‘निरुपाय’ में से उपसर्ग व मूल शब्द अलग-अलग कीजिए।
उत्तर:

शब्द उपसर्ग मूलशब्द
अभ्युदय अभि उदय
निरुपाय निर् उपाय

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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Chapter 6 नृपतिदिलीप:

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Textbook SCERT, UP
Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 6
Chapter Name नृपतिदिलीप:
Number of Questions Solved 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Chapter 6 नृपतिदिलीप:

गद्यांशों का सन्दर्भ-सहित हिन्दी अनुवाद

श्लोक 1
रेखामात्रमपि क्षुण्णादामनोवर्मनः परम्।
न व्यतीयुः प्रजास्तस्य नियन्तुमिवृत्तयः।।। (2013, 11)
सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘भूपतिर्दलीपः नामक पाठ से उद्धृत हैं।
अनुवाद उनकी (राजा दिलीप की) प्रजा ने मनु द्वारा निर्दिष्ट (प्रचलित उत्तम) मार्ग का (उसी प्रकार) रेखामात्र भी उल्लंघन नहीं किया, जैसे कुशल (रथ) सारथी पहिये को मार्ग से रेखामात्र भी विचलित नहीं करते। यह कहने का आशय यह है कि राजा दिलीप के शासनकाल में प्रजा परम्परा का पालन करने वाली, अनुशासित एवं मनु के बताए मार्ग अर्थात् सुमार्ग का अनुकरण करने वाली थी।

श्लोक 2
आकारसदृशप्रज्ञः प्रज्ञया सदृशागमः।।
आगमैः सदृशारम्भ आरम्भुसदृशोदयः ।।
प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमगृहीत्।
सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रविः।। (2018, 16, 14, 13, 10)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद सुन्दर दिखने वाले राजा दिलीप अपनी आकृति के अनुरूप बुद्धिमान, बुद्धि के अनुरूप शास्त्रों के ज्ञाता, शास्त्रानुकूल शुभ कार्य प्रारम्भ करने वाले और उसका उचित परिणाम पाने वाले थे। वे (राजा दिलीप) प्रजा के कल्याणार्थ ही उनसे कर ग्रहण करते थे; जैसे—सूर्य सहस्रगुणा जल प्रदान करने के लिए पृथ्वी से जल ग्रहण करता है।

श्लोक 3
ज्ञाने मौनं क्षमा शक्तौ त्यागे श्लाघाविपर्ययः।
गुणा गुणानुबन्धित्वात् तस्य सप्रसवा इव।। (2015)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद (उनमें) ज्ञान रहने पर मौन रहना, शक्ति रहने पर क्षमा करना तथा बिना प्रशंसा के त्याग (दान) करना-जैसे विरोधी गुणों के साथ-साथ रहने के कारण उनके ये गुण एक साथ जन्में प्रतीत होते थे।

श्लोक 4
अनाकृष्टस्य विषयैर्विद्यानां पारदृश्वनः।
तस्य धर्मरतेरासीद् वृद्धत्वं जरसा विना।। (2017)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद भौतिक जगत् की वस्तुओं के प्रति अनासक्त रहने वाले, सभी विधाओं में दक्ष तथा धर्म प्रेमी उस नृप दिलीप का वृद्ध अवस्था न होने पर भी बुढापा ही था।

श्लोक 5
प्रजानां विनयाधानाद् रक्षणाद् भरणादपि।
स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः।। (2017)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद प्रजा में विनय को स्थापित करने के कारण, रक्षा करने के कारण। और भरण-पोषण करने के कारण वह (नृप दिलीप) उन प्रजजनों का पिता था। उनके पिता तो केवल जन्म का कारण थे।

श्लोक 6
दुदह गां स यज्ञाय शस्याय मघवा दिवम्।
सम्पद्विनिमयेनोभौ दधतुर्भुवनद्वयम्।।
द्वेष्योऽपि सम्मत: शिष्टस्तस्यार्तस्य यथौषधम्।
त्याज्यो दुष्टः प्रियोप्सासीदगुलीवोरगक्षता।।
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद वे (राजा दिलीप) यज्ञ करने के लिए पृथ्वी का दोहन करते थे और इन्द्र अन्न के लिए स्वर्ग का। ये दोनों सम्पत्तियों के आपसी लेन-देन से दोनों लोकों का भरण-पोषण करते थे। उन्हें सज्जन शत्रु भी उसी प्रकार स्वीकार्य था जैसे रोगी को औषधि तथा दुष्ट प्रियजन भी उसी प्रकार त्याज्य था जैसे सर्प से इसी हुई अँगुली।

प्रश्न – उत्तर

प्रश्न-पत्र में संस्कृत दिग्दर्शिका के पाठों (गद्य व पद्य) में से चार अतिलघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित है।

प्रश्न 1.
मनीषिणां माननीयः कः आसीत्? (2014, 11)
उत्तर:
मनीषिणां माननीयः वैवस्वतः मनुः आसीत्।

प्रश्न 2.
दिलीपः कस्य अन्वये प्रसूतः? (2011)
उत्तर:
दिलीपः वैवस्वतमनोः अन्वये प्रसूतः

प्रश्न 3.
दिलीप: किमर्थं बलिमगृहीत्? (2016, 14, 12)
उत्तर:
दिलीपः प्रजाना भूत्यर्थम् एवं बलिमगृहीत्।

प्रश्न 4.
दिलीपः कस्य प्रदेशस्य राजा आसीत्? (2014, 12)
अथवा
दिलीप: कां शशासैक? (2014)
उत्तर:
दिलीप: वेलावप्रवलयां परिखीकृतसागराम् उर्वी शशासैक।

प्रश्न 5.
दिलीप के गुणाः सन्ति? (2017)
उत्तर:
नृपः दिलीपे, वीरता, नीति नैपुण्यं, धैर्य, इत्यादयः गुणाः सन्ति।

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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 6 भाषा और आधुनिकता

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Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 6
Chapter Name भाषा और आधुनिकता
Number of Questions Solved 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 6 भाषा और आधुनिकता

भाषा और आधुनिकता – जीवन/साहित्यिक परिचय

(2017, 14, 13, 12, 11)

प्रश्न-पत्र में पाठ्य-पुस्तक में संकलित पाठों में से लेखकों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित एक प्रश्न पूछा जाता है। इस प्रश्न में। किन्हीं 4 लेखकों के नाम दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक लेखक के बारे में लिखना होगा। इस प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ
श्री जी, सुन्दर रेड्डी का जन्म वर्ष 1919 में आन्ध्र प्रदेश में हुआ था। इनकी आरम्भिक शिक्षा संस्कृत एवं तेलुगू भाषा में हुई व उच्च शिक्षा हिन्दी में। श्रेष्ठ विचारक, समालोचक एवं उत्कृष्ट निबन्धकार प्रो. जी. सुन्दर रेड्डी लगभग 30 वर्षों तक आन्ध्र विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे। इन्होंने हिन्दी और तेलुगू साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन पर पर्याप्त काम किया। 30 मार्च, 2005 में इनका स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक सेवाएँ
श्रेष्ठ विचारक, सजग समालोचक, सशक्त निबन्धकार, हिन्दी और दक्षिण की भाषाओं में मैत्री-भाव के लिए प्रयत्नशील, मानवतावादी दृष्टिकोण के पक्षपाती प्रोफेसर जी, सुन्दर रेड्डी का व्यक्तित्व और कृतित्व अत्यन्त प्रभावशाली है। ये हिन्दी के प्रकाण्ड पण्डित हैं। आन्ध्र विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर अध्ययन एवं अनुसन्धान विभाग में हिन्दी और तेलुगू साहित्यों के विविध प्रश्नों पर इन्होंने तुलनात्मक अध्ययन और शोधकार्य किया है। अहिन्दी भाषी प्रदेश के निवासी होते हुए भी प्रोफेसर रेड्डी का हिन्दी भाषा पर अच्छा अधिकार है। इन्होंने दक्षिण भारत में हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

कृतियाँ
प्रो. रेड्डी के अब तक आठ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी जिन रचनाओं से साहित्य-संसार परिचित है, उनके नाम इस प्रकार हैं-

  1. साहित्य और समाज
  2. मेरे विचार
  3. हिन्दी और तेलुगू : एक तुलनात्मक अध्ययन
  4. दक्षिण की भाषाएँ और उनका साहित्य 5. वैचारिकी
  5. शोध और बोध
  6. वेलुगु वारुल (तेलुगू)
  7. ‘लैंग्वेज प्रॉब्लम इन इण्डिया’ (सम्पादित अंग्रेजी ग्रन्थ)

इनके अतिरिक्त हिन्दी, तेलुगू तथा अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं में इनके अनेक निबन्ध प्रकाशित हुए हैं। इनके प्रत्येक निबन्ध में इनका मानवतावादी दृष्टूिको स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।

भाषा-शैली
प्रो. जी, सुन्दर रेडी की भाषा शुद्ध, परिष्कृत, परिमार्जित था साहित्यिक खड़ी बोली है, जिसमें सरलता, स्पष्टता और सहजता का गुण विद्यमान है। इन्होंने संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ, उर्दू, फारसी तथा अंग्रेजी भाषा के शब्दों का भी प्रयोग किया है। इन्होंने अपनी भाषा को प्रभावशाली बनाने के लिए मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग भी किया है। इन्होंने प्रायः विचारात्मक, समीक्षात्मक, सूत्रात्मक, प्रश्नात्मक आदि शैलियों का प्रयोग अपने साहित्य में किया है।

हिन्दी साहित्य में स्थान
प्रो. जी, सुन्दर रेशी हिन्दी साहित्य जगत के उच्च कोटि के विचारक, समालोचक एवं निबनाकार हैं। इनकी रचनाओं में विचारों की परिपक्वता, तथ्यों की सटीक व्याख्या एवं विषय सम्बन्धी स्पष्टता दिखाई देती है। इसमें सन्देह नहीं कि अहिन्दी भाषी क्षेत्र से होते हुए भी इन्होंने हिन्दी भाषा के प्रति अपनी जिस निष्ठा व अटूट साधना का परिचय दिया है, वह अत्यन्त प्रेरणास्पद है। अपनी सशत लेखनी से | इन्होंने हिन्दी साहित्य जगत में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है।

भाषा और आधुनिकता – पाठ का सार

परीक्षा में ‘पाठ का सार’ से सम्बन्धित कोई प्रश्न नहीं पूछा जाता है। यह केवल विद्यार्थियों को पाठ समझाने के उद्देश्य से दिया गया है।

प्रस्तुत निबन्ध में लेखक प्रो. जी, सुन्दर रेड्डी ने वैज्ञानिक दृष्टि से भाषा और आधुनिकता पर विचार किया है।

भाषा परिवर्तनशील है
लेखक कहता है कि भाषा में हमेशा परिवर्तन होता रहता है, भाषा परिवर्तनशील होती है। परिवर्तनशील होने का अभिप्राय यह है कि भाषा में नए भाव, नए शब्द, नए मुहावरे एवं लोकोक्तियों, नई शैलियाँ निरन्तर आती रहती हैं।

यह परिवर्तनशीलता ही भाषा में नवीनता का संचार करती है और जहाँ नवीनता है, वहीं सुन्दरता है। भाषा समृद्ध तभी होती हैं, जब उसमें नवीनता तथा आधुनिकता का पर्याप्त समावेश हो। कूपमण्डूकता भाषा के लिए विनाशकारी है। भाषा जिस दिन स्थिर हो गई, उसी दिन से उसमें क्षय आरम्भ हो जाता है। वह नए विचारों एवं भावनाओं को वहन करने में असमर्थ होने लगती है और अन्ततः नष्ट हो जाती है।

संस्कृति का अभिन्न अंग
लेखक का मानना है कि भाषा संस्कृति का अभिन्न अंग है। संस्कृति का सम्बन्ध परम्परा से होने पर भी वह गतिशील एवं परिवर्तनशील होती हैं।

उसकी गति का सम्बन्ध विज्ञान की प्रगति से भी है। नित्य होने वाले नए-नए वैज्ञानिक आविष्कार अन्ततः संस्कृति को प्रभावित ही नहीं करते, बल्कि उसे परिवर्तित भी करते हैं। इन वैज्ञानिक आविष्कारों के फलस्वरूप जो नई सांस्कृतिक हलचले उत्पन्न होती है, उसे शाब्दिक रूप देने के लिए भाषा में परिवर्तन आवश्यक हो जाता है, क्योंकि भाषा का परम्परागत प्रयोग उसे अभिव्यक्त करने में पर्याप्त सक्षम नहीं होता।

भाषा में परिवर्तन कैसे सम्भव है?
लेखक का मानना है कि भाषा को युगानुकूल बनाने के लिए किसी व्यक्ति विशेष या समूह का प्रयत्न होना चाहिए। हालाँकि भाषा की गति स्वाभाविक होने के कारण वह किसी प्रयत्न विशेष की अपेक्षा नहीं रखती, लेकिन प्रयत्न विशेष के कारण परिवर्तन की गति ती अवश्य हो जाती है। भाषा का नवीनीकरण सिर्फ कुछ पण्डितों या आचार्यों की दिमागी कसरत ही बनी रहे, तो भाषा गतिशील नहीं हो पाती। इसका सीधा सम्पन्न जनता से एवं जनता द्वारा किए जाने वाले प्रयोग से है, जो भाषा जितनी अधिक जनता द्वारा स्वीकार एवं परिवर्तित की जाती है, वह उतनी ही अधिक जीवन्त एवं चिरस्थायी होती है। साथ ही साथ, भाषा में आधुनिकता एवं युग के प्रति अनुकूलता भी तभी आ पाती है।

गद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-पत्र में गद्य भाग से दो गद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर देने होंगे।

प्रश्न 1.
रमणीयता और नित्य नूतनता अन्योन्याश्रित हैं, रमणीयता के अभाव में कोई भी चीज मान्य नहीं होती। नित्य नूतनता किसी भी सृजक की मौलिक उपलब्धि की प्रामाणिकता सूचित करती है और उसकी अनुपस्थिति में कोई भी चीज वस्तुत: जनता व समाज के द्वारा स्वीकार्य नहीं होती। सड़ी-गली मान्यताओं से जकड़ा हुआ समाज जैसे आगे बढ़ नहीं पाता, वैसे ही पुरानी रीतियों और शैलियों की परम्परागत लीक पर चलने वाली भाषा भी जनचेतना को गति देने में प्रायः असमर्थ ही रह जाती है। भाषा समूची युगचेतना की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है और ऐसी सशक्तता वह तभी अर्जित कर सकती है, जब वह अपने युगानुकूल सही मुहावरों को ग्रहण कर सके।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) लेखक के अनुसार किसके अभाव में कोई भी वस्तु महत्त्वपूर्ण नहीं होती?
उत्तर:
सुन्दरता के बिना कोई भी वस्तु महत्वपूर्ण नहीं हो सकती और न ही उसे मौलिकता की मान्यता मिल सकती हैं, क्योंकि जो वस्तु सुन्दर होगी, वह नवीन भी होगी, उसमें सुन्दरता भी रहेगी।

(ii) किसी लेखक की रचना में मौलिकता का बड़ा प्रमाण क्या है?
उत्तर:
किसी भी लेखक या रचनाकार की रचना में मौलिकता का सबसे बड़ा प्रमाण उसकी रचना में व्याप्त नवीनता है, क्योंकि रचना में व्याप्त नवीनता के कारण ही समाज उस रचना के प्रति आकर्षित होता है।

(iii) लेखक के अनुसार किस रचना को समाज में स्वीकृति नहीं मिल पाती?
उत्तर:
लेखक के अनुसार नवीनता के अभाव में कोई भी वस्तु जनता और समाज के द्वारा स्वीकार नहीं की जाती, क्योंकि यदि कोई रचनाकार अपनी रचना में नवीन एवं मौलिक दृष्टि का अभाव रखता हो, तो उस रचना को सामाजिक स्वीकृति नहीं मिल पाती।।

(iv) युग चेतना की अभिव्यक्ति करने का सशक्त माध्यम क्या हैं?
उत्तर:
भाषा अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। भाषा समाज, जनचेतना एवं युग के अनुरूप सटीक तथा नयीन मुहावरों को ग्रहण कर युग-चेतना लाने का एक अथक प्रयास है।

(v) ‘रमणीयता’ और ‘अभिव्यक्ति शब्दों में क्रमशः प्रत्यय एवं उपसर्ग छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
रमणीयता – ता (प्रत्यय) अभिव्यक्ति – अभि (उपसर्ग)

प्रश्न 2.
भाषा सामाजिक भाव-प्रकटीकरण की सुबोधता के लिए ही उद्दिष्ट है, उसके अतिरिक्त उसकी जरूरत ही सोची नहीं जाती। इस उपयोगिता की सार्थकता समसामयिक सामाजिक चेतना में प्राप्त (द्रष्टव्य) अनेक प्रकारों की संश्लिष्टताओं की दुरुहता का परिहार करने में निहित है।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है तथा इसके लेखक कौन हैं? उत्तर: प्रस्तुत गद्यांश ‘भाषा और आधुनिकता’ पाठ से लिया गया है। इसके लेखक । प्रो. जी. सुन्दर
रेड्डी हैं।

(ii) लेखक के अनुसार भाषा का उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार भाषा का सर्वप्रमुख उद्देश्य समाज के भावों की अभिव्यक्ति को सरल बनाकर भावों एवं विचारों को सरलता से एक-दूसरे तक पहुँचाना है।

(iii) भाषा की सुबोधता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
जब भाषा के द्वारा सरलता से भाव व्यक्त किए जा सकें तथा अन्य से सरलता से समझ सकें, तब उसे भाषा की सुबोधता कहते हैं।

(iv) लेखक के अनुसार भाषा की उपयोगिता कब सार्थक सिद्ध हो सकती है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार भाषा की उपयोगिता तभी सार्थक सिद्ध हो सकती है, जब भाषा समसामयिक चेतना की सूक्ष्म कठिनाइयों को दूर करके विचाराभिव्यक्ति को सरल बना सके।

(v) ‘सुबोधता एवं सार्थकता’ शब्दों में क्रमशः उपसर्ग एवं प्रत्यय आँटकर लिखिए।
उत्तर:
सुबोधता – सु (उपसर्ग)
|सार्थकता – ता (प्रत्यय)

प्रश्न 3.
कभी-कभी अन्य संस्कृतियों के प्रभाव से और अन्य जातियों के संसर्ग से भाषा में नए शब्दों का प्रवेश होता है और इन शब्दों के सही पर्यायवाची शब्द अपनी भाषा में न प्राप्त हों तो उन्हें वैसे ही अपनी भाषा में स्वीकार करने में किसी भी भाषा-भाषी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यही भाषा की सजीवता होती है। भाषा की सजीवता इस नवीनता को पूर्णतः आत्मसात् करने पर ही निर्भर करती हैं।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) लेखक के अनुसार भाषा में नए शब्दों का प्रवेश किस प्रकार होता है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार अन्य संस्कृतियों के प्रभाव और जाति के सम्पर्क में आने से विभिन्न बोलियों और भाषाओं के नवीन शब्द भाषा में प्रवेश कर जाते हैं।

(ii) भाषा किस प्रकार समृद्ध होती है?
उत्तर:
नवीन शब्दों के लिए हमें पर्यायवाची शब्द भाषा में खोजने चाहिए। अगर पर्यायवाची शब्द उपलब्ध नहीं हैं, तो हमें उसके मूल को अपना लेना चाहिए। नवीन शब्दों को ग्रहण कर लेने से भाषा की भाव सम्प्रेषणीयत में वृद्धि होती है अर्थात् हमारी भाषा समृद्ध होती है।

(iii) भाषा की सजीवता के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर:
भाषा के सन्दर्भ में नवीनता से अभिप्राय भिन्न-भिन्न भाषाओं व बोलियों के शब्दों के प्रयोग से है, जिसके कारण ही भाषा में सजीवता आती है। अतः भाषा को सजीव बनाने के लिए नवीनता का समावेश होना अत्यन्त आवश्यक है।

(iv) लेखक के अनुसार भाषा में नवीनता किस प्रकार आती हैं?
उत्तर:
लेखक के अनुसार भाषा में नवीनता विभिन्न संस्कृतियों, जातियों की भाषाओं से शब्दों को ग्रहण करने आती हैं।

(v) ‘संसर्ग’ और ‘सजीवता’ शब्दों में क्रमशः उपसर्ग एवं प्रत्यय छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
संसर्ग – सम् (उपसर्ग), सजीवता – ता (प्रत्यय)

प्रश्न 4.
भाषा स्वयं संस्कृति का एक अटूट अंग है। संस्कृति परम्परा से नि:सृत होने पर भी परिवर्तनशील और गतिशील है। उसकी गति विज्ञान की प्रगति के साथ जोड़ी जाती है। वैज्ञानिक आविष्कारों के प्रभाव के कारण उद्भूत नई सांस्कृतिक हलचलों को शाब्दिक रूप देने के लिए भाषा के परम्परागत प्रयोग पर्याप्त नहीं हैं। इसके लिए नए प्रयोगों की, नई भाव-योजनाओं को व्यक्त करने के लिए नए शब्दों की खोज की महती आवश्यकता है।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग किसे माना गया है?
उत्तर:
‘भाषा’ किसी भी संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग होती है, क्योंकि भाषा का निर्माण समाज के द्वारा किया गया है। भाषा समाज में अभिव्यक्ति का महत्त्वपूर्ण साधन हैं।

(ii) भाषा परिवर्तनशील क्यों हैं?
उत्तर:
समाज द्वारा निर्मित भाषा परिवर्तनशील है, क्योंकि समय के साथ परम्पराएँ, रीतियाँ, मूल्य आदि परिवर्तित होते हैं जिसका प्रभाव भाषा पर पड़ता है, इसलिए भाषा में परिवर्तन होना आवश्यक होता है।

(iii) भाषा में नई वाक्य-संरचना की आवश्यकता क्यों पड़ती हैं?
उत्तर:
विज्ञान की प्रगति के कारण नए आविष्कारों का जन्म होता है। जिस कारण प्रत्येक देश की संस्कृति प्रभावित होती है और इन प्रभावों से संस्कृति में आए परिवर्तनों को अभिव्यक्त करने के लिए नई शब्दावली एवं नई वाक्य-संरचना की आवश्यकता पड़ती है।

(iv) प्रस्तुतः गद्यांश में लेखक ने किस बात पर बल दिया है?
उत्तर:
लेखक ने शब्दों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन करने पर ही बल दिया है, क्योंकि कोई विदेशज शब्द यदि किसी भाव को सम्प्रेषित करने में सक्षम है, | तो उसमें अनावश्यक परिवर्तन नहीं करना चाहिए।

(v) ‘विज्ञान’ एवं ‘प्रगति’ शब्दों में उपसर्ग छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
विज्ञान – वि (उपसर्ग), प्रगति – प्र (उपसर्ग)

प्रश्न 5.
कभी-कभी एक ही भाव के होते हुए भी उसके द्वारा ही उसके अन्य पहलू अथवा स्तर साफ व्यक्त नहीं होते। उस स्थिति में अपनी भाषा में ही उपस्थिति विभिन्न पर्यायवाची शब्दों का सूक्ष्म भेदों के साथ प्रयोग करना पड़ता है; जैसे—उष्ण एक भाव है। जब किसी वस्तु की उष्णता के बारे में कहना हो तो हम ‘ऊष्मा’ कहते हैं और परिणाम के सन्दर्भ में उसी को हम ‘ताप’ कहते हैं। वस्तुतः अपनी मूल भाषा में उष्ण, ताप इनमें उतना अन्तर नहीं, जितना अब समझा जाता है। पहले अभ्यास की कमी के कारण जो शब्द कुछ कटु या विपरीत से प्रतीत हो सकते हैं, वे ही कालान्तर में मामूली शब्द बनकर सर्वप्रचलित होते हैं। संक्षेप में नए शब्द, नए मुहावरे एवं नई रीतियों के प्रयोगों से युक्त भाषा को व्यावहारिकता प्रदान करना ही भाषा में आधुनिकता लाना है। दूसरे शब्दों में, केवल आधुनिक युगीन विचारधाराओं के अनुरूप नए शब्दों के गढ़ने मात्र से ही भाषा का विकास नहीं होता; वरन् नए पारिभाषिक शब्दों को एवं नूतन शैली प्रणालियों को व्यवहार में लाना ही भाषा को आधुनिकता प्रदान करना है, क्योंकि व्यावहारिकता ही भाषा का प्राण-तत्त्व है।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किस बात पर बल दिया है?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने इस बात पर बल दिया है कि प्रत्येक शब्द के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग एक दूसरे के स्थान पर नहीं किया जा सकता है। सबसे पहले हमें उनके सूक्ष्म अर्थों को समझना चाहिए, बाद में उनका यथास्थान प्रयोग करना चाहिए।

(ii) लेखक के अनुसार शब्दों के अर्थ की सूक्ष्मता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार शब्दों के अर्थ की सूक्ष्मता से अभिप्राय शब्दों के भाव से है। उष्ण, ऊष्मा और ताप ये तीनों शब्द गर्माहट के भाव में प्रयोग किए जाते हैं, लेकिन इनका प्रयोग हम एक-दूसरे के स्थान पर नहीं कर सकते, क्योंकि पर्यायवाची शब्दों के अर्थ या भाव में कोई-न-कोई सूक्ष्म अन्तर अवश्य होता है।

(iii) भाषा को आधुनिक एवं प्रगतिशील बनाने के उपायों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
भाषा को आधुनिक एवं प्रगतिशील बनाने के लिए केवल आधुनिक विचारों के अनुरुप नए शब्दों को गढने मात्र से भाषा का विकास सम्भव नहीं है, अपितु भाषा को व्यावहारिक स्तर पर युग के अनुकूल बनाया जाए, तब वह भाषा समाज के अधिकांश सदस्यों द्वारा अपनाई जाएगी अर्थात् ऐसी भाषा जो आधुनिक विचारों का वहन कर सके वही भाषा आधुनिक एवं प्रगतिशील कहलाएगी

(iv) लेखक के अनुसार भाषा का प्राण तत्त्व क्या है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार व्यावहारिकता ही भाषा का प्रमाण-तच है। नए शब्दों, नए मुहावरों, नई शैलियों एवं नई पद्धतियों को व्यवहार में लाना ही आधुनिकता है। और व्यावहारिकता ही भाषा का प्राण तत्व है।

(v) उष्ण’ एवं ‘नूतन’ शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखिए।
उत्तर:
उष्ण – ऊष्मा, ताप, नूतन – नवीन, नया

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