UP Board Solutions for Class 10 Hindi प्रत्यय

UP Board Solutions for Class 10 Hindi प्रत्यय

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प्रत्यय

पाठ्यक्रम में निर्धारित प्रत्यय (प्रत्ययों के प्रयोग एवं उनसे निर्मित शब्द) : आई, त्व, ता, पन, वा, हट, वट।
नवीनतम पाठ्यक्रम के अनुसार प्रस्तुत प्रकरण से कुल 2 अंकों के प्रश्न पूछे जाएँगे।

ध्यातव्य-पाठ्यक्रम में निर्धारित प्रत्ययों के अर्थ के साथ-साथ उनसे निर्मित शब्द भी दिये जा रहे | हैं। यह विद्यार्थियों के ज्ञान-बोध में सहायक होगे।

परिभाषा–जो शब्दांश या वर्ण किसी शब्द के अन्त में (UPBoardSolutions.com) जोड़े जाते हैं और जिनके जुड़ने से शब्द का अर्थ बदल जाता है या उनमें कुछ नवीन विशेषता आ जाता है, उन्हें प्रत्यय कहते हैं। इन शब्दांशों का स्वतन्त्र रूप से प्रयोग नहीं होता।

प्रत्यय के प्रकार-प्रत्यय के दो भेद हैं—

  1. कृत् प्रत्यय तथा
  2. तद्धित प्रत्यय।।

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(1) कृत् प्रत्यय-जो शब्दांश, धातु के बाद लगाये जाने पर संज्ञा, विशेषण तथा अव्यय शब्द बनाते हैं, वे कृत् प्रत्यय कहलाते हैं। क्रियाओं के सामान्य रूप-उठना, पढ़ना आदि में से ‘ना’ को निकाल देने पर बचा हुआ रूप ‘धातु’ कहलाता है। कृत् प्रत्यय से बने शब्दों को कृदन्त कहते हैं; जैसे-‘पढ़’ धातु में ‘आई’ प्रत्यय जुड़कर ‘पढ़ाई’ शब्द बनता है।

(2) तद्धित प्रत्यय-जो शब्दांश, धातु के अतिरिक्त अन्य शब्दों (संज्ञा, विशेषण, सर्वनाम आदि) (UPBoardSolutions.com) के बाद जुड़कर नये शब्द बनाते हैं, वे तद्धित प्रत्यय कहलाते हैं; जैसे–‘सुन्दर’ शब्द में ‘ता’ प्रत्यय जोड़कर ‘सुन्दरता’ शब्द बनता है।

प्रत्यय और उपसर्ग में अन्तर–‘प्रत्यय’ शब्द के अन्त में जोड़ा जाता है और ‘उपसर्ग’ शब्द से पहले; जैसे-

कुशल में ‘अ’ उपसर्ग जोड़ने पर-अकुशल।
कुशल में ‘ता’ प्रत्यय जोड़ने पर-कुशलता

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कृत् प्रत्यय के उदाहरण

1. अन-गमन, पठन, दर्शन, पूजन, नमन, मनन, चिन्तन, मिलन।
2. अ-खेल (खेल् + अ), चर, चल, जय, तप, फल, बन्ध, मन्त्र।
3. अनीय-पूजनीय, दर्शनीय, नमनीय, सहनीय, वन्दनीय, पठनीय।
4. अक/क--मोहक, दर्शक, लेखक, पाठक, बोधक, बैठक।
5. आऊ—जड़ाऊ, उठाऊ, चलाऊ, जमाऊ, उड़ाऊ, टिकाऊ, बिकाऊ।
6. आका-धमाका, लड़ाका, उड़ाका।
7. आन-उठान, ढलान, उफान, थकान, उड़ान, मिलान।
8. आवा/वा [2011, 12, 13, 14, 15, 16, 17]-पहनावा, ओढ़ावा, दिखावा, चढ़ावा।
9. आव-बचाव, दुराव, छिपाव।।
10. आहट/हट [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]-घबराहट, जगमगाहट, आहट, सरसराहट, गड़गड़ाहट, चिल्लाहट।
11. आई [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]-लिखाई, (UPBoardSolutions.com) पढ़ाई, हँसाई, चढ़ाई, जुताई, कमाई, निराई, सिलाई।
12. आ–घेरा, झगड़ा, झूला, ठेला।
13. ई-हँसी, माफी, द्वेषी, द्रोही, धमकी।
14. ऊ–खाऊ, कमाऊ, रट्ट, झाडू।
15. औता, ओता-समझौता, न्योता।
16. त, इत–कृत, मृत, पठित, लिखित, रचित, चलित, फलित।
17. नी–कहानी, कथनी, करनी, ओढ़नी।
18. आवट/वट [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]-सजावट, लिखावट, गिरावट, थकावट, बनावट।
19. तव्य—कर्त्तव्य, गन्तव्य, मन्तव्य, ध्यातव्य।
20. औती-फिरौती, मनौती।
21. आप-मिलाप।
22. इयल–मरियल, सड़ियल, (UPBoardSolutions.com) अड़ियल, दढ़ियल।
23. अक्कड़-घुमक्कड़, पियक्कड़।

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तद्धित प्रत्यय के उदाहरण

1. अयन-रसायन, रामायण, नारायण।।
2. आलु, आलू-दयालु, कृपालु, शंकालु, झगड़ालू।
3. आनी, आइन [2009, 18]-सेठानी या सेठाइन, नौकरानी, देवरानी, जेठानी, पण्डितानी या पण्डिताइन, ललाइन।
4. इन-सुनारिन, कलारिन, चमारिन।।
5. इक–श्रमिक, कर्णिक, पारिवारिक, आर्थिक, व्यावसायिक, सामाजिक, नागरिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक, सैनिक।।
6. इम–पश्चिम, अन्तिम, अग्रिम, अरुणिम, स्वर्णिम।
7. इमा–लालिमा, लघिमा, गरिमा, महिमा, नीलिमा, हरीतिमा।
8. ईला-चमकीला, भड़कीला, रसीला, जहरीला, गर्वीला।
9. ईन-नवीन, प्राचीन, कुलीन, ग्रामीण।
10. ईय [2015, 17]-नगरीय, जातीय, मानवीय, भवदीय, भारतीय, नारकीय, स्वजातीय।
11. ई–देशी, विदेशी, परदेशी, फली, नगरी।
12. ऊ-बाजारू, गॅवारू।
13. कार-कलाकार, स्वर्णकार, चर्मकार, रचनाकार, निबन्धकार।
14. वार- उम्मीदवार, कसूरवार।।
15. ता [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]—सुन्दरता, (UPBoardSolutions.com) सज्जनता, दुर्जनता, मधुरता, महानता, लघुता।
16. त्र-यत्र, तत्र, सर्वत्र, एकत्र, अन्यत्र।
17. त्व[2009, 11, 12, 13, 14, 15, 15, 17, 18]-बन्धुत्व, मृदुत्व, लघुत्व, कवित्व, प्रभुत्व, महत्त्व, ममत्व, मनुष्यत्व।
18. था-सर्वथा, व्यथा, यथा, अन्यथा
19. पा–बुढ़ापा, रंड़पा।।
20. पन [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]-बचपन, लड़कपन, भोलापन, बड़प्पन, पागलपन।
21. मती–श्रीमती, स्वस्तिमती, बुद्धिमती।
22. मान्-बुद्धिमान्, श्रीमान्, शक्तिमान्।
23. वती–गुणवती, रूपवती, सौभाग्यवती।
24. वान् [2018] विद्वान्, धनवान्, ज्ञानवान्, दयावान्, रूपवान्।
25. आर—लुहार, कुम्हार, सुनारे।।
26. वना–भयावना, सुहावना, डरावना।
27. वन्त, मन्त–श्रीमन्त, गुणवन्त, दयावन्त, भगवन्त।
28. ला–अगला, पिछला, पतला, मॅझला, दुबला।
29. स्थ-निकटस्थ, दूरस्थ, गृहस्थ, स्वस्थ, समीपस्थ।
30. आस-मिठास, उजास, निकास।
31. हारा–लकड़हारा, रोवनहारा, चुड़िहारा।
32. हार-सृजनहार, खेवनहार, राखनहार।।
33. आई [2009, 10, 12, 14, 18]–चतुराई, चौड़ाई, लम्बाई, ऊँचाई, मोटाई, पिसाई।।
34. मय–राममय, धर्ममय, कर्ममय, स्नेहमय, संगीतमय।
35. पूर्वक—प्रेमपूर्वक, विचारपूर्वक, शान्तिपूर्वक, विनयपूर्वक, नियमपूर्वक, दयापूर्वक।
36. प्रद–लाभप्रद, हानिप्रद, भयप्रद, लोभप्रद, (UPBoardSolutions.com) कल्याणप्रद।
37. आत्मक – विचारात्मकं, प्रश्नात्मक, वर्णनात्मक, विवेचनात्मक, व्यंग्यात्मक, बोधात्मक, आलोचनात्मक।
38. जन्य-रागजन्य, प्रेमजन्य, द्वेषजन्य, भावजन्य, क्रोधजन्य।
39. हरा-सुनहरा, खरहरा, पपीहरा, चौहरा।।
40. आकू [2018]–लड़ाकू, पढ़ाकू।

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प्रत्यय से सम्बन्धित अतिरिक्त सामग्री

प्रश्न 1
निम्नलिखित शब्दों से प्रकृति (मूल-शब्द) तथा प्रत्यय को पृथक् करके लिखिए-
उत्तर
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प्रश्न 2
निम्नलिखित प्रत्ययों से युक्त तीन शब्द लिखिए-
उत्तर
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UP Board Solutions for Class 10 Hindi उपसर्ग

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हिन्दी व्याकरण शब्द-रचना के तत्त्व

नवीनतम पाठ्यक्रम के अनुसार “हिन्दी व्याकरण : शब्द-रचना के तत्त्व खण्ड के अन्तर्गत पाँच प्रकरण-उपसर्ग, प्रत्यय, समास, तत्सम शब्द तथा पर्यायवाची–निर्धारित हैं। इस खण्ड से कुल 11 अंकों के प्रश्न पूछे जाएंगे।

ध्यातव्य-इस खण्ड के अन्तर्गत दी गयी सामग्री को विद्यार्थी ध्यानपूर्वक (UPBoardSolutions.com) पढ़े। सम्बद्ध सामग्री पर्याप्त विस्तार से दी गयी है। हिन्दी के भाषिक स्वरूप को समझने की दृष्टि से यह अत्यधिक | महत्त्वपूर्ण है।

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उपसर्ग

पाठ्यक्रम में निर्धारित उपसर्ग (उपसर्गों के प्रयोग एवं उनसे निर्मित शब्द): अ, अन्, अधि, अप, अनु, आ, उप, सह, निर्, अभि, परि, सु।
नवीनतम पाठ्यक्रम के अनुसार प्रस्तुत प्रकरण से कुल 3 अंकों के प्रश्न पूछे जाएँगे।

ध्यातव्य प्रस्तुत प्रकरण से सम्बन्धित पर्याप्त सामग्री दी गयी है। कुछ उपसर्ग पाठ्यक्रम से (अतिरिक्त भी दिये गये हैं, जो विद्यार्थियों के ज्ञान-बोध में सहायक होंगे।

वे वर्ण या वर्ण-समूह जो किसी शब्द के पहले जुड़कर उस शब्द के अर्थ में विशेषता उत्पन्न कर देते हैं या उसके अर्थ को बदल देते हैं उपसर्ग’ कहलाते हैं। उपसर्गों का प्रयोग स्वतन्त्र रूप से नहीं होता, वे किसी शब्द के पूर्व ही प्रयोग किये जाते हैं; जैसे-सम्भव, (UPBoardSolutions.com) संहार, संचय। इनमें ‘सम्’ उपसर्ग है; यह भव, हार, चय शब्दों से पहले जुड़ा हुआ है।

हिन्दी.में तीन प्रकार के उपसर्ग प्रयुक्त होते हैं—

  1. संस्कृत के,
  2. हिन्दी के,
  3. उर्दू-फारसी के।

संस्कृत के उपसर्ग

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हिन्दी के उपसर्ग

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उर्दू के उपसर्ग

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उपसर्ग से सम्बन्धित अतिरिक्त सामग्री

प्रश्न 1
निम्नलिखित शब्दों से उपसर्ग और मूल शब्दों को अलग करके लिखिए-
उत्तर
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प्रश्न 2
निम्नलिखित शब्दों से उपसर्ग पृथक् कीजिए तथा उस उपसर्ग से बनने वाले दो अन्य शब्द भी
लिखिए–
उत्तर
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प्रश्न 3
निम्नलिखित उपसर्गों से एक-एक शब्द बनाइए-
अप, अनु, निर्, वि, अधि, अभि, उप, परि, सह।
उत्तर

  1. अप से अपमानित,
  2. अनु से अनुवादक,
  3. निर् से निर्विशेष,
  4. वि से विशेषाधिकार,
  5. अधि से अधिनायक,
  6. अभि से अभियुक्त,
  7. उप से उपस्थिति,
  8. परि से परिकल्पना,
  9. मुह से (UPBoardSolutions.com) सहधर्मिणी।।

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प्रश्न 4
निम्नलिखित उपसर्गों से एक-एक शब्द बनाइए-
अप, परि, सु, ला, अन्, अनु, उप, अभि, दुर्, प्र, निर्, वि, अति।
उत्तर

  1. अप से अपव्यय,
  2. परि से परिवेष्ठित,
  3. सु से सुमित्र,
  4. ला से लापरवाही,
  5. अन् । से अनुत्तरित,
  6. अनु से अनुमोदन,
  7. उप से उपाधीक्षक,
  8. अभि से अभिव्यक्ति,
  9. दुर् से दुर्निवार,
  10. प्र से प्रस्फुटित,
  11. निर् से (UPBoardSolutions.com) निर्विकल्प,
  12. वि से विशिष्ट,
  13. अति से अतिचार।

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi अलंकार

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अलंकार

परिभाषा–अलंकार का अर्थ है-‘आभूषण’; जैसे आभूषण सौन्दर्य को बढ़ाने में सहायक होते हैं, उसी प्रकार काव्य में अलंकारों का प्रयोग करने से काव्य की शोभा बढ़ जाती है; अत: काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्त्वों को अलंकार कहते हैं। अलंकारों (UPBoardSolutions.com) के प्रयोग से शब्द और अर्थ में चमत्कार उत्पन्न होता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, “भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप, गुण, क्रिया का अधिक तीव्रता से अनुभव कराने में सहायक होने वाली उक्ति अलंकार है।

वर्गीकरण–अलंकारों के मुख्य दो वर्ग हैं–

(अ) शब्दालंकार तथा
(ब) अर्थालंकार।

(अ) शब्दालंकार–जहाँ केवल शब्दों के प्रयोग के कारण काव्य में चमत्कार पाया जाता है, उसे शब्दालंकार कहते हैं। यदि उन शब्दों के स्थान पर उनके पर्यायवाची शब्द रख दिये जाएँ तो वह चमत्कार समाप्त हो जाएगा और वहाँ अलंकार नहीं रह जाएगा।

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(ब) अर्थालंकार-जहाँ अर्थ के कारण काव्य में चमत्कार पाया जाता है, वहाँ अर्थालंकार होता है। इसमें शब्दों के पर्यायवाची रखने पर भी अलंकार बना रहता है।

शब्दालंकार में अनुप्रास, यमक और श्लेष मुख्य हैं, जबकि अर्थालंकारों में उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा मुख्य हैं।

[विशेष-पाठ्यक्रम में केवल उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा अर्थालंकार ही सम्मिलित हैं। पद्यांशों का काव्य-सौन्दर्य लिखने में अनुप्रास, यमक, श्लेष शब्दालंकारों का ज्ञान भी आवश्यक होता है; अत: यहाँ संक्षेप में उनका परिचय भी दिया जा रहा है।

(1) अनुप्रास अलंकार

परिभाषा–जहाँ किसी व्यंजन वर्ण की बार-बार आवृत्ति होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण-‘चारु चन्द्र की चंचल किरणें, खेल रही हैं जल थल में।”
स्पष्टीकरण–यहाँ ‘च’ वर्ण और ‘ल’ वर्ण की आवृत्ति अनेक बार हुई (UPBoardSolutions.com) है; अत: यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

(2) यमक अलंकार

परिभाषा–जहाँ एक ही शब्द बार-बार आता है, किन्तु उसका अर्थ भिन्न-भिन्न होता है; वहाँ यमक अलंकार होता है।
उदाहरण—

कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय ।
या खाये बौराय जग, वा पाये बौराय ।।

स्पष्टीकरण-यहाँ ‘कनक’ शब्द दो बार आया है, किन्तु उसके भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। प्रथम ‘कनक’ का अर्थ ‘धतूरा’ तथा दूसरे ‘कनक’ का अर्थ ‘सोना’ है; अतः यहाँ यमक अलंकार है।

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(3) श्लेष अलंकार,

परिभाषा–जहाँ कोई शब्द एक ही बार प्रयुक्त होकर अनेक अर्थ प्रकट करे, वहाँ श्लेष अलंकार होता है। उदाहरण-

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून ।
पानी गये न ऊबरे, मोती मानुष चुन ।।

स्पष्टीकरण–यहाँ ‘पानी’ शब्द के तीन अर्थ हैं—

  1. मोती के सम्बन्ध में चमक,
  2. मनुष्य के सम्बन्ध में सम्मान,
  3. जून के सम्बन्ध में जल; अतः यहाँ श्लेष अलंकार है।

(4) उपमा अलंकार- [2009, 10, 11, 12, 14, 15, 16, 17, 18]

परिभाषा–जहाँ किसी वस्तु या व्यक्ति की किसी अन्य वस्तु या व्यक्ति से समान गुण-धर्म के आधार पर तुलना की जाए या समानता बतायी जाए, वहाँ उपमा अलंकार होता है; जैसे–‘राधा के चरण गुलाब के समान कोमल हैं।’ यहाँ राधा के चरण की (UPBoardSolutions.com) तुलना या समानता गुलाब से दिखाई गयी है। इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।
उपमा अलंकार के निम्नलिखित चार अंग होते हैं|

(1) उपमेय-जिस वस्तु की समानता बतायी जाती है; वह उपमेय (प्रस्तुत) होता है। ऊपर दिये गये उदाहरण में ‘राधा के चरण’ उपमेय हैं।
(2) उपमान-जिस वस्तु से समानता की जाती है; वह वस्तु उपमान (अप्रस्तुत) कहलाती है। ऊपर दिये गये उदाहरण में ‘गुलाब’ उपमान है।
(3) वाचक-समानता अथवा पहचान को व्यक्त करने वाला शब्द वाचक’ कहलाता है। ऊपर दिये गये उदाहरण में समान’ शब्द वाचक है।
(4) साधारण धर्म-जो गुण उपमान और उपमेय में समान रूप से रहता है; वह साधारण धर्म कहलाता है। ऊपर दिये गये उदाहरण में कोमल’ शब्द साधारण धर्म है; क्योंकि यह राधा के चरण और गुलाब दोनों में है।
उदाहरण—

  1. ‘हरिपद कोमल कमल-से।’ स्पष्टीकरण-उपमेय-हरिपद। उपमान–कमल। वाचक शब्द-। साधारण धर्म-कोमल।
  2. ‘पीपर पात सरिस मन डोला।’ [2009]

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स्पष्टीकरण-उपमेय-मन। उपमान–पीपर पात। वाचक शब्द-सरिस। साधारण धर्म-डोला।
अन्य उदाहरण-

  1. यहीं कहीं पर बिखर गयी वह, भग्न विजयमाला-सी।
  2. आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर, चमक उठी ज्वाला-सी।
  3. तम के तागे-सी जो हिल-डुल, (UPBoardSolutions.com) चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल।
  4. करि कर सरिस सुभग भुजदण्डा।
  5. अनुलेपन-सा मधुर स्पर्श था।
  6. सजल नीरद-सी कल कान्ति थी।
  7. छिन्न पुत्र मकरन्द लुटी-सी ज्यों मुझई हुई कली।
  8. अराति सैन्य सिन्धु में सुबाडवाग्नि-से जलो।

(5) रूपक अलंकार [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]

परिभाषा-जहाँ उपमेय में उपमान का भेदरहित आरोप किया (UPBoardSolutions.com) जाता है अर्थात् उपमेय (प्रस्तुत) और उपमान (अप्रस्तुत) में अभिन्नता प्रकट की जाये, वहाँ रूपक अलंकार होता है; उदाहरण—

(1) मुख-चन्द्र तुम्हारा देख सखे ! मन-सागर मेरा लहराता। | स्पष्टीकरण–यहाँ मुख (उपमेय) में चन्द्र (उपमान) का तथा मन (उपमेय) में सागर (उपमान) का भेद न करके एकरूपता बतायी गयी है; अत: यहाँ रूपक अलंकार है।
(2) ‘चरण-कमल बन्द हरि राई।। [2010, 11]
स्पष्टीकरण–यहाँ चरण में कमल का भेद न रखकर एकरूपता बतायी गयी है।
अन्य उदाहरण

  • हरि-जननी, मैं बालक तेरा।
  • मुनि पद-कमल बंदि दोउ भ्राता।
  • अँसुवन जल सीचि-सीचि प्रेम बेलि बोई।
  • माया-दीपक नर-पतंग भ्रमि भ्रमि इवें पड़ेत। [2009, 10]
  • बढ़त-बढ़त सम्पति-सलिलु, मन-सरोज बढ़ि जाय।
  • रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरेउ चटकाय।
  • उदित उदयगिरि-मंचे पर, रघुबर-बाल पतंग।
  • बिकसे संत-सरोज सब, हरषे लोचन शृंग।।
  • अपने अनल-विशिख से आकाश जगमगा दे।

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(6) उत्प्रेक्षा अलंकार [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]

परिभाषा—जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना की जाये, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। मनु-मानो, जनु-जानो, मनहुँ-जनहुँ आदि उत्प्रेक्षा के वाचक शब्द हैं; उदाहरण,

(1) सोहत ओढ़ पीतु पटु, स्याम सलोने गात ।।
मनौ नीलमनि-सैल पर, आतपु पर्यो प्रभात ॥ [2010, 11, 15, 18]

स्पष्टीकरण–यहाँ पीला वस्त्र धारण किये हुए कृष्ण के श्याम शरीर (उपमेय, प्रस्तुत) में प्रात:कालीन धूप से शोभित नीलमणि शैल (उपमान, अप्रस्तुत) की सम्भावना की गयी है; अतः उत्प्रेक्षा अलंकार है।

(2) मोर-मुकुट की चन्द्रिकनु, यौं राजत नंद-नन्द।
मनु ससि सेखर की अकस, किये सेखर सत-चन्द ॥ [2009, 11, 14]

स्पष्टीकरण-यहाँ मोर पंख से बने मुकुट की चन्द्रिकाओं (उपमेय) में शत-चन्द्र (उपमान) की सम्भावना व्यक्त की गयी है।
अन्य उदाहरण—
(1) लोल-कपोल झलक कुण्डल की, यह उपमा कछु लागत ।
मानहुँ मकर सुधारस क्रीड़त, आपु-आपु अनुरागत ।।
(2) पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से ।।
मानो झूम रहे हों तरु भी, मन्द पवन के (UPBoardSolutions.com) झोंको से ।।
(3) धाये धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रंक निधि लूटन लागी । (2013)
(4) उभय बीच सिय सोहति कैसी। ब्रह्म-जीव बिच माया जैसी ।।
बहुरि कहउँ छबि जस मन बसई। जनु मधु मदन मध्य रति लसई ।।
(5) लता भवन ते प्रकट भए, तेहि अवसर दोउ भाई ।। [2009]
निकसे जनु जुग विमल विधु, जलज पटल बिलगाइ ।।
(6) चमचमात चंचल नयन, बिच घूघट पट झीन ।।
मानहुँ सुरसरिता बिमल, जग उछरत जुग मीन ।।। [2012]
(7) चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेख सोभा जनु चाँकी।
(8) अर्ध चन्द्र सम सिखर-सैनि कहुँ यों छबि छाई ।।
मानहुँ चन्दन-घौरि धौरि-गृह खौरि लगाई ।।

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अभ्यास

प्रश्न 1
निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार का नाम लिखिए तथा उसका लक्षण (परिभाषा) बताइए
(1) हँसत दसने इक सोभा उपजति उपमा जदपि लजाइ ।
मनो नीलमनि-पुट मुकता-गन, बंदन भरि बगराइ ।।
उत्तर
उत्प्रेक्षा तथा अनुप्रास

(2) अरुन सरोरुह-कर-चरन, दृग-खंजन, मुख-चन्द ।
उत्तर
रूपक तथा अनुप्रास

(3) मुख मयंक सम मंजु मनोहर । ।
उत्तर
उपमा, रूपक तथा अनुप्रास

(4) अनुराग तड़ाग में भानु उदै। बिगसी मनो मंजुल कंज कली ।।
उत्तर
रूपक

(5) बिपति कसौटी जे कसे, तेही साँचे मीत ।।
उत्तर
रूपक

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(6) भज मन चरण-कॅवल अबिनासी ।।
उत्तर
रूपक

(7) जौ चाहते चटक न घटे, मैलौ होई न मित्त ।।
उत्तर
रूपक

(8) मनो रासि महातम तारक मैं ।
उत्तर
उत्प्रेक्षा

(9) बन्द नहीं अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप ।
उत्तर
रूपक

(10) बीती विभावरी जाग री ।।
अम्बर पनघट में डुबो रही तारा घट ऊषा नागरी ।
उत्तर 
रूपक (UPBoardSolutions.com)

(11) अति कटु बचन कहत कैकेयी। मानहुँ लोन जरे पर देई ।।
उत्तर
उत्प्रेक्षा तथा अनुप्रास

(12) दादुर धुनि चहुँ दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ।।
उत्तर
उत्प्रेक्षा तथा अनुप्रास

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(13) बन्दउँ कोमल कमल से, जगजननी के पाँव ।।
उत्तर
उत्प्रेक्षा तथा अनुप्रास

(14) कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन राम हृदय गुनि ।।
मानहुँ मदन दुन्दुभी दीन्हीं। मनसा विश्वविजय कहुँ कीन्हीं ।।
उत्तर
उत्प्रेक्षा तथा अनुप्रास।
[ संकेत–अलंकारों के लक्षण  (परिभाषा) के लिए पहले दिये गये विवरण को पढ़िए।]

प्रश्न 2
उपमा अथवा रूपक अलंकार की परिभाषा लिखिए और उसका उदाहरण दीजिए। [2011, 12, 14, 15]
या
उत्प्रेक्षा अलंकार की परिभाषा लिखिए तथा एक उदाहरण दीजिए। [2011, 12, 13, 14, 15, 16]
या
उत्प्रेक्षा अलंकार का लक्षण और उदाहरण लिखिए। उपमा अलंकार की परिभाषा तथा उदाहरण लिखिए। [2011, 12, 14]
या
उपमा अलंकार के लक्षण और उदाहरण लिखिए। उपमा के चारों अंगों का उल्लेख कीजिए। [2010]
या
उपमा अलंकार के अंगों का उल्लेख करते हुए उसकी परिभाषा लिखिए। एक उदाहरण भी दीजिए|
उत्तर
[ संकेत–उपमा, रूपक तथा (UPBoardSolutions.com) उत्प्रेक्षा अलंकार के विवरण में देखिए।]

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प्रश्न 3
रूपक अलंकार को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
या
रूपक अलंकार की परिभाषा सोदाहरण लिखिए। [2011, 12, 13, 14, 15, 16]
उत्तर
[ संकेत–रूपक अलंकार के विवरण में देखिए।]

प्रश्न 4
पठित अलंकारों में से किसी एक अलंकार की उदाहरण सहित परिभाषा लिखिए।
उत्तर
[ संकेत–अलंकारों के विवरण से अध्ययन करें।]

प्रश्न 5
उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकार में अन्तर बताइए। [2012]
उत्तर
उपमा अलंकार में उपमेय और उपमान में समानता निश्चयपूर्वक प्रकट की जाती है; जैसे-मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है। यहाँ मुख (उपमेय) और चन्द्रमा (उपमान) में सुन्दरता (समान धर्म) के आधार पर समानता स्थापित की गयी (UPBoardSolutions.com) है परन्तु उत्प्रेक्षा अलंकार में उपमेय और उपमान में मात्र सम्भावना प्रकट की जाती है, वह निश्चित रूप से स्थापित नहीं की जाती; जैसे-मुख मानो चन्द्रमा है।

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 6 कर्ण (खण्डकाव्य)

UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 6 कर्ण (खण्डकाव्य)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 6 कर्ण (खण्डकाव्य).

प्रश्न 1
‘कर्ण’ खण्डकाव्य में कितने सर्ग हैं ? उनके नाम बताइए।
उत्तर
कर्ण खण्डकाव्य में सात सर्ग हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं—

  1. रंगशाला में कर्ण,
  2. द्यूतसभा में द्रौपदी,
  3. कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान,
  4. श्रीकृष्ण और कर्ण,
  5. माँ-बेटा,
  6.  कर्ण-वध,
  7. जलांजलि।।

प्रश्न 2
‘कर्ण खण्डकाव्य की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए। [2009, 10, 11, 12, 15, 16, 17]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य का सारांश अपने शब्दों में लिखिए। [2012, 13, 15]
या
‘कर्ण खण्डकाव्य के कथानक पर प्रकाश डालिए। [2012, 13, 14]
उत्तर
श्री केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ द्वारा रचित ‘कर्ण’ नामक खण्डकाव्य की कथावस्तु सात सर्गों में विभक्त है। इसकी कथावस्तु महाभारत के प्रसिद्ध वीर कर्ण के जीवन से सम्बद्ध है।

प्रथम सर्ग (रंगशाला में कर्ण) में कर्ण के जन्म से लेकर द्रौपदी के स्वयंवर तक की कथा का संक्षेप में वर्णन है। कुन्ती को; जब वह अविवाहित थी; सूर्य की आराधना के फलस्वरूप एक तेजस्वी पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। उसने लोक-लाज और कुल (UPBoardSolutions.com) की मर्यादा के भय से उस शिशु को नदी की धारा में बहा दिया। नि:सन्तान सारथी अधिरथ उस बालक को घर ले आया। उसके द्वारा पाले जाने के कारण वह ‘सूत-पुत्र कहलाया।

एक दिन वह बालक राजभवन की रंगशाला में पहुँच गया। सूत-पुत्र होने के कारण वहाँ उसकी वीरता का उपहास किया गया और उसे सूत-पुत्र कहकर अपमानित किया। पाण्डवों से ईष्र्या रखने वाले दुर्योधन ने स्वार्थवश उसे प्रेम और सम्मान प्रदान किया। इससे कर्ण के आहत मन को कुछ धीरज एवं बल मिला।।

द्रौपदी के स्वयंवर में जब कर्ण मत्स्य-वेध करने उठा, तब द्रौपदी ने भी हीन जाति का कहकर उसे अपमानित किया। इस प्रकार दूसरी बार एक नारी द्वारा अपमानित होकर भी वह मौन ही रहा, किन्तु क्रोध की चिंगारी उसके नेत्रों से फूटने लगी।

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द्वितीय सर्ग (द्युतसभा में द्रौपदी) में अर्जुन द्वारा मत्स्य-वेध से लेकर द्रौपदी के चीर-हरण तक का कथानक वर्णित है। द्रौपदी के स्वयंवर में ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन ने मत्स्य-वेध करके द्रौपदी का वरण कर लिया। द्रौपदी पाँचों पाण्डवों की वधू बनकर आ गयी। विदुर के समझाने-बुझाने पर युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का आधा राज्य मिल गया।

युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। यज्ञ में आमन्त्रित दुर्योधन को जल-स्थल का भ्रम हो गया। इस पर द्रौपदी ने व्यंग्य किया, जिस पर दुर्योधन क्षोभ से भर गया।

वापस आकर उसने प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर शकुनि की सलाह से चूत-क्रीड़ा की योजना बनायी और पाण्डवों को आमन्त्रित किया। इस द्यूत-क्रीड़ा में युधिष्ठिर सारा राजपाट, भाइयों और अन्त में द्रौपदी को भी हार बैठे। कर्ण और दुर्योधन ने बदले का उपयुक्त अवसर जानकर द्रौपदी को निर्वस्त्र करने को कहा। कर्ण को अपना प्रतिशोध लेना था। वह बोला–पाँच पतियों वाली कुलवधू कैसी? कर्ण ने दु:शासन को इस प्रकार उत्तेजित तो किया परन्तु बाद में वह अपने इस दुष्कृत्य के लिए आजीवन पछताता रहा।

तृतीय सर्ग (कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान) में दुर्योधन द्वारा वैष्णव-यज्ञ करने से लेकर, कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान करने तक का कथानक है। दुर्योधन ने चक्रवर्ती सम्राट् का पद ग्रहण करने के लिए वैष्णव-यज्ञ किया। कर्ण ने प्रतिज्ञा की कि मैं जब तक अर्जुन को नहीं मार (UPBoardSolutions.com) दूंगा, तब तक कोई भी याचक मुझसे जो कुछ भी माँगेगा, मैं वही दान दे दूंगा, मांस-मदिरा का सेवन नहीं करूंगा और अपने चरण भी नहीं धुलवाऊँगा। अर्जुन इन्द्र के पुत्र थे; अतः इन्द्र ब्राह्मण का वेश बनाकर कर्ण के पास गये और कवच-कुण्डल का दान माँगा।

कर्ण ने इन्द्र की याचना पर जन्म से प्राप्त अपने दिव्य कवच-कुण्डल सहर्ष शरीर से काटकर दे दिये। ये ही कर्ण की जीवन-रक्षा के सुदृढ़ आधार थे। । |

चतुर्थ सर्ग (श्रीकृष्ण और कर्ण) में श्रीकृष्ण द्वारा कौरव-पाण्डवों को समझौता कराने, समझौता न होने पर कर्ण को कौरव पक्ष से युद्ध न करने के लिए समझाने के असफल प्रयास का वर्णन है। श्रीकृष्ण पाण्डवों की ओर से कौरवों की राजसभा में दूत के रूप में न्याय माँगने गये, किन्तु दुर्योधन ने बार-बार यही कहा कि युद्ध के अतिरिक्त अब और कोई रास्ता नहीं है। श्रीकृष्ण निराश होकर कर्ण को समझाते हैं कि तुम पाण्डवों के भाई हो; अतः अपने भाइयों के पक्ष का समर्थन करो। |

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कर्ण की आँखों में वेदना के आँसू उमड़ आये। वह बोला कि मुझे आज तक घृणा, अनादर और अपमान ही मिला है। आज अधिरथ मेरे पिता और राधा मेरी माँ हैं। इन्हें छोड़कर मैं कुन्ती को अपनी माँ के रूप में ग्रहण नहीं कर सकता। मैं मित्र दुर्योधन के प्रति कृतघ्न नहीं बन सकता। लेकिन आप यह बात कभी युधिष्ठिर से मत कहिएगा कि मैं उनका बड़ा भाई हूँ, अन्यथा वे यह राज-पाट छोड़ देंगे। बहुत दिनों से मुझे एक आत्मग्लानि रही है कि द्रौपदी भरी सभा में अपमानित हुई थी और मैंने ही वह दुष्कर्म कराया था। अतः इस शरीर को त्यागकर अपने इस दुष्कर्म का प्रायश्चित्त करूंगा।

पञ्चम सर्ग (माँ-बेटा) में कुन्ती द्वारा कर्ण के पास जाने का वर्णन है। पाण्डवों के लिए चिन्तित कुन्ती बहुत सोच-विचारकर कर्ण के आश्रम पहुँचती है। कुन्ती के कुछ कहने से पहले ही कर्ण ने अपने जीवनभर की पीड़ा को साकार करते हुए अपने हृदय की ज्वाला माँ के सम्मुख स्पष्ट कर दी।

वह बोला कि माँ होकर तुमने मेरे साथ छल किया। में अपने मित्र दुर्योधन का कृतज्ञ हूँ, मैं उसे धोखा नहीं दे सकता। यह विडम्बना ही होगी कि एक माता अपने पुत्र के द्वार से खाली हाथ लौट जाए। मैंने केवल अर्जुन को ही मारने की प्रतिज्ञा की है। मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि मैं अर्जुन के अतिरिक्त किसी पाण्डव को नहीं मारूंगा।

षष्ठ सर्ग (कर्ण-वध) में महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से लेकर कर्ण की मृत्यु तक की कथा का वर्णन है। महाभारत का युद्ध आरम्भ हुआ। भीष्म पितामह कौरवों के सेनापति बनाये गये। वे इस शर्त पर सेनापति बने कि वे कर्ण का सहयोग नहीं लेंगे। युद्ध के दसवें दिन घायल होकर शर-शय्या पर पड़ने के बाद कर्ण के भीष्म पितामह के पास पहुँचने पर उन्होंने उसको भर आँख निहारने की (UPBoardSolutions.com) इच्छा प्रकट की तथा उसे दानवीर, धर्मवीर और महावीर बतलाया।

भीष्म पितामह ने कहा कि तुम भी अर्जुन आदि की तरह कुन्ती के ही पुत्र हो। हमारी इच्छा यही है कि तुम पाण्डवों से मिल जाओ। कर्ण ने अपने को प्रतिज्ञाबद्ध बताते हुए ऐसा करने से मना कर दिया। उसने पितामह से कहा कि भले ही उस ओर कृष्ण हों, किन्तु अर्जुन को मारने हेतु मैं हर प्रयास करूंगा। यह सुनकर पितामह ने उसे अपने शस्त्रास्त्र उठाकर दुर्योधन का स्वप्न पूर्ण करने के लिए कहा।

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भीष्म के बाद द्रोणाचार्य को सेनापति नियुक्त किया गया। पन्द्रहवें दिन वे भी वीरगति को प्राप्त हुए। युद्ध के सोलहवें दिन कर्ण कौरव दल के सेनापति बने। उनकी भयंकर बाण-वर्षा से पाण्डव विचलित होने लगे, तभी भीम का पुत्र घटोत्कच भयंकर मायापूर्ण आकाश युद्ध करता हुआ कौरव सेना पर टूट पड़ा। कर्ण ने अमोघ-शक्ति का प्रहार कर घटोत्कच को मार डाला। इस अमोघ-शक्ति का प्रयोग वह केवल अर्जुन पर करना चाहता था। (UPBoardSolutions.com) अचानक कर्ण के रथ का पहिया पृथ्वी में धंस गया। कर्ण रथ से उतरकर स्वयं पहिया निकालने लगा। तभी श्रीकृष्ण का आदेश पाते ही अर्जुन ने नि:शस्त्र कर्ण का बाण-प्रहार से वध कर दिया।

सप्तम सर्ग (जलांजलि) में युद्ध की समाप्ति के बाद युधिष्ठिर द्वारा कर्ण को जलांजलि देने की कथा का वर्णन है। कर्ण के वीरगति प्राप्त करते ही कौरव सेना का मानो प्रदीप बुझ गया। वे शक्तिहीन हो गये। सेना अस्त-व्यस्त हो गयी। कर्ण के बाद शल्य और दुर्योधन भी मारे गये। युद्ध की समाप्ति के बाद युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को जलदान किया। तभी कुन्ती की ममता उमड़ पड़ी और उसने युधिष्ठिर से कर्ण को भाई के रूप में जलदान करने का आग्रह किया।

युधिष्ठिर के द्वारा पूछने पर कुन्ती ने कर्ण के जन्म का रहस्य प्रकट कर दिया। यह जानकर कि कर्ण उनके बड़े भाई थे, युधिष्ठिर का मन भर आया और वे बोले कि “माँ! वे हमारे अग्रज थे। कर्ण जैसे महामहिम, दानवीर, दृढ़प्रतिज्ञ, दृढ़-चरित्र, समर-धीर, अद्वितीय तेजयुक्त भाई को पाकर कौन धन्य नहीं होता। उन्होंने कठोर शब्दों में कहा कि “तुम्हारे द्वारा इस रहस्य को छिपाने के कारण ही वे जीवनभर अपमान (UPBoardSolutions.com) का घूट पीते रहे।” युधिष्ठिर के हृदय की इस करुण व्यंजना के साथ ही खण्डकाव्य समाप्त हो जाता

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प्रश्न 3
‘कर्ण’ काव्य के प्रथम सर्ग (रंगशाला में कर्ण) की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग का सारांश लिखिए।
उत्तर
श्री केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ द्वारा रचित ‘कर्ण’ नामक खण्डकाव्य की कथावस्तु सात सर्गों में विभक्त है। कथावस्तु के आधार पर ही सर्गों का नामकरण किया गया है। इसकी कथावस्तु महाभारत के प्रसिद्ध वीर कर्ण के जीवन से सम्बद्ध है। प्रथम सर्ग का नाम ‘रंगशाला में कर्ण’ है। इस सर्ग में कर्ण के जन्म से लेकर द्रौपदी के स्वयंवर तक की कथा का संक्षेप में वर्णन है। कुन्ती को; जब वह अविवाहित थी; सूर्य की आराधना के फलस्वरूप एक तेजस्वी पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। (UPBoardSolutions.com) उसने लोक-लाज और कुल की मर्यादा के भय से उस शिशु को नदी की धारा में बहा दिया। नि:सन्तान सारथी अधिरथ उस बालक को अपना पुत्र मानकर घर ले आया। उसे भला क्या ज्ञात था कि जो बालक उसे मिला है, उसमें साक्षात् सूर्य का तेज है। यही बालक महाभारत का अजेय वीर, कर्मवीर और दानवीर कर्ण के नाम से प्रसिद्ध होगा। उसके द्वारा पाले जाने के कारण वह ‘सूत-पुत्र’ तथा पत्नी राधा के पुत्र-रूप में ‘राधेय’ कहलाया।

एक दिन वह बालक राजभवन की रंगशाला में पहुँच गया। सूत-पुत्र होने के कारण वहाँ उसकी वीरता का उपहास किया गया। यद्यपि वह सुन्दर और सुकुमार बालक था, किन्तु अर्जुन ने उसे सूत-पुत्र कहकर अपमानित किया। कौरव-पाण्डव राजकुमारों के गुरु कृपाचार्य भी उससे घृणा करते थे।

दुर्योधन कर्ण के वीर-वेश और ओज से अत्यन्त प्रभावित था। पाण्डवों से ईष्र्या रखने वाले दुर्योधन ने सोचा कि इसे अपनी ओर मिला लेने से भविष्य में पाण्डव-पक्ष को दबाये रखना सम्भव हो जाएगा; अतः स्वार्थवश उसने उसे प्रेम और सम्मान प्रदान किया। (UPBoardSolutions.com) इससे कर्ण के आहत मन को कुछ धीरज एवं बल मिला।

द्रौपदी के स्वयंवर में बड़े-बड़े वीर धनुर्धर आये हुए थे और स्वयंवर की प्रतिज्ञा के अनुसार लक्ष्यवेध करना था। जब कर्ण मत्स्य-वेध करने उठा, तब द्रौपदी ने भी उसको हीन जाति का कहकर अपमानित किया-

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सूत-पुत्र के साथ ने मेरा गठबन्धन हो सकता।
क्षत्राणी का प्रेम न अपने गौरव को खो सकता॥

इस प्रकार दूसरी बार एक नारी द्वारा अपमानित होकर भी वह मौन ही रहा, किन्तु क्रोध की चिंगारी उसके नेत्रों से फूटने लगी।’सूर्य की ओर बंकिम दृष्टि करके, उसने मन-ही-मन अपने अपमान को बदला ” लेने को प्रण कर लिया।

प्रश्न 4
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग (चूतसभा में द्रौपदी) का सारांश लिखिए। [2010, 13, 14]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग की कथा अपनी भाषा में लिखिए।
उत्तर
द्वितीय सर्ग में अर्जुन द्वारा मत्स्य-वेध से लेकर द्रौपदी के चीर-हरण तक का कथानक वर्णित है। द्रौपदी के स्वयंवर में ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन ने मत्स्य-वेध करके द्रौपदी का वरण कर लिया। बाद में जब भेद खुला तो अन्य राजागण ईष्र्या से प्रेरित हो गये, किन्तु द्रौपदी अर्जुन को पाकर धन्य थी। द्रौपदी पाँचों पाण्डवों की वधू बनकर आ गयी। विदुर के समझाने-बुझाने पर युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का आधा राज्य मिल गया।

युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। यज्ञ में आमन्त्रित दुर्योधन उनके यश-वैभव और राज्य की सुव्यवस्था देखकर ईर्ष्या व द्वेष से जलने लगा। दुर्योधन ने जैसे ही सभाभवन में प्रवेश किया तो उसे जहाँ जल भरा था, वहाँ स्थल का और जहाँ स्थल था, वहाँ जल का भ्रम हो गया। इस पर द्रौपदी ने व्यंग्य किया, जिस पर दुर्योधन क्षोभ से भर गया।

वापस आकर उसने प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर शकुनि की सलाह से द्यूत-क्रीड़ा की योजना बनायी और पाण्डवों को आमन्त्रित किया। इस द्यूत-क्रीड़ा में युधिष्ठिर; सारा राजपाट, भाइयों और अन्त में द्रौपदी को भी हार बैठे। दुर्योधन की आज्ञा से दु:शासन द्रौपदी को भरी सभा में बाल पकड़कर घसीटता हुआ लाया। द्रौपदी ने बहुत अनुनय-विनय की, परन्तु इस दुष्कृत्य को देखकर भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, पाण्डव तथा सभी सभासद मौन रह गये। कर्ण और दुर्योधन की प्रसन्नता का ठिकाना न था। कर्ण ने बदले का उपयुक्त अवसर जानकर दु:शासन को उत्तेजित किया और द्रौपदी को निर्वस्त्र करने को कहा। विकर्ण से (UPBoardSolutions.com) यह अन्याय सहन नहीं हुआ, उसने अन्याय का विरोध किया, परन्तु कर्ण को अपना प्रतिशोध लेना था। वह बोला—विकर्ण, यह कुलवधू नहीं, दासी है। पाँच पतियों वाली कुलवधू कैसी? उसने दु:शासन को आज्ञा दी–

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दुःशासन मत ठहर, वस्त्र हर ले कृष्णा के सारे।
वह पुकार ले रो-रोकर, चाहे वह जिसे पुकारे॥

कर्ण ने दुःशासन को इस प्रकार उत्तेजित तो किया परन्तु बाद में अपने इस दुष्कृत्य के लिए वह आजीवन पछताता रहा।

प्रश्न 5
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग (कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान) की कथा का सारांश लिखिए। [2009, 10, 12, 14, 15, 17, 18]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान के प्रसंग को लिखिए। [2013, 15]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण की दानशीलता का वर्णन कीजिए। [2011, 12, 13, 14, 17]
उत्तर
तृतीय सर्ग में दुर्योधन द्वारा वैष्णव-यज्ञ करने से लेकर, कर्ण द्वारा अर्जुन-वध की प्रतिज्ञा तथा कवच-कुण्डल दान करने तक का कथानक है। दुर्योधन ने चक्रवर्ती सम्राट् का पद ग्रहण करने के लिए वैष्णव-यज्ञ किया। कर्ण ने प्रतिज्ञा की कि मैं जब तक अर्जुन को नहीं मार दूंगा, तब तक कोई भी याचक मुझसे जो कुछ भी माँगेगा, मैं उसे वह दान में दे दूंगा, मांस-मदिरा का सेवन नहीं करूंगा, अपने चरण भी नहीं धुलवाऊँगा और न ही शान्ति से बैतूंगा। युधिष्ठिर को इस प्रतिज्ञा से चिन्ता हुई, जबकि दुर्योधन की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। कर्ण के पास जन्मजात कवच-कुण्डल थे, जिनके रहते उसका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता था। अर्जुन इन्द्र के पुत्र थे; अत: इन्द्र को अपने पुत्र के प्राणों की चिन्ता हुई। वह ब्राह्मण का वेश बनाकर कर्ण के पास गये और कवच-कुण्डल का दान (UPBoardSolutions.com) माँगा। सूर्य ने यद्यपि अपने पुत्र कर्ण को स्वप्न में इन्द्र की इस चाल के प्रति सावधान कर दिया था, तथापि दानवीर कर्ण ने उनसे साफ-साफ कह दिया –

ब्राह्मण माँगे दान, कर्ण ले निज हाथों को मोड़।

कोई भी याचक बनकर यदि मुझसे मेरे प्राण भी माँगे तो वह भी मेरे लिए अदेय नहीं। कर्ण ने इन्द्र की याचना पर जन्म से प्राप्त अपने दिव्य कवच-कुण्डल सहर्ष शरीर से काटकर दे दिये। ये ही कर्ण की जीवन-रक्षा के सुदृढ़ आधार थे।

प्रश्न 6
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के ‘श्रीकृष्ण और कर्ण’ नामक चतुर्थ सर्ग की कथा (कथावस्तु या कथानक) का सारांश लिखिए। [2012, 13, 14, 15, 18]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग की कथा लिखिए। [2018]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर श्रीकृष्ण और कर्ण के बीच हुए वार्तालाप का उद्धरण देते हुए चतुर्थ सर्ग की कथा का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2011, 12, 17]
उत्तर
चतुर्थ सर्ग में श्रीकृष्ण द्वारा कौरव-पाण्डवों का समझौता कराने, समझौता न होने पर कर्ण को कौरव पक्ष से युद्ध न करने के लिए समझाने के असफल प्रयास का वर्णन है। श्रीकृष्ण पाण्डवों की ओर से कौरवों की राजसभा में दूत के रूप में न्याय माँगने गये, किन्तु दुर्योधन ने बार-बार यही कहा कि युद्ध के अतिरिक्त अब और कोई रास्ता नहीं है। श्रीकृष्ण निराश होकर कर्ण को कुछ दूर तक रथ में अपने साथ लाते हैं और उसे (UPBoardSolutions.com) समझाते हैं कि तुम पाण्डवों के भाई हो; अत: अपने भाइयों के पक्ष का समर्थन करो। तुम धर्मप्रिय, बुद्धिमान् और धनुर्धर हो। तुम पापी और दुराचारी का साथ मत दो। तुम मेरे साथ पाण्डवों के पक्ष में चलो और सम्राट् का पद प्राप्त करो। |

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कर्ण की आँखों में वेदना के आँसू उमड़ आये। वह बोला कि मुझे आज तक घृणा, अनादर और अपमान ही मिला है। मैं कुन्ती का पुत्र हूँ।’ यह कहने के तो कुन्ती के पास कई अवसर आये

यों न उपेक्षित होता मैं, यों भाग्य न मेरा सोता।
स्नेहमयी जननी ने यदि रंचक भी चाहा होता॥
घृणा, अनादर, तिरस्क्रिया, यह मेरी करुण कहानी।
देखो, सुनो कृष्ण !क्या कहता इन आँखों का पानी।।।

कर्ण आगे कहता है कि आज अधिरथ मेरे पिता और राधा मेरी माँ हैं। इन्हें छोड़कर कैसे मैं कुन्ती को अपनी माँ के रूप में ग्रहण कर लूं? कैसे मैं मित्र दुर्योधन के प्रति कृतघ्न बनूं, जिसने मुझ पर अपूर्व उपकार किया है? तुम अर्जुन को महावीर, अदम्य और अजेय कहते हो, लेकिन अर्जुन की वीरता तुम्हारे ही बल से है, अन्यथा वह कुछ भी नहीं। मैं जानता हूँ, जिधर तुम हो, विजय उधर ही होगी। अर्जुन से जाकर कह देना कि अब तो मेरे पास कवच और कुण्डल भी नहीं हैं, किन्तु मेरा पुरुषार्थ और आत्मबल ही मुझे यह बलिदान देने के लिए प्रेरित कर रहा है। आप यह बात कभी युधिष्ठिर से मत कहिएगा कि मैं उनका बड़ा भाई हूँ, (UPBoardSolutions.com) अन्यथा वे यह राज-पाट छोड़ देंगे और दुर्योधन का कृतज्ञ होने के कारण मैं सब कुछ उसके चरणों पर धर, दूंगा।

बहुत दिनों से मुझे एक आत्मग्लानि रही है कि द्रौपदी भरी सभा में अपमानित हुई थी और मैंने ही वह दुष्कर्म कराया था। अतः इस शरीर को त्यागकर अपने इस दुष्कर्म का प्रायश्चित्त करूगा।

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प्रश्न 7
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के माँ-बेटा’ नामक पञ्चम सर्ग की कथा का सारांश अथवा कथानक लिखिए। [2010, 12, 15, 18]
या
‘कर्ण खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण तथा कुन्ती के वार्तालाप का वर्णन कीजिए। [2013]
उत्तर
पञ्चम सर्ग में कुन्ती द्वारा कर्ण के पास जाने का वर्णन है। महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने में पाँच दिन शेष हैं। पाण्डवों के लिए चिन्तित कुन्ती बहुत सोच-विचारकर कर्ण के आश्रम पहुँचती है। कुन्ती के कुछ कहने से पहले ही कर्ण ने उसे अपने जीवनभर की पीड़ा को साकार करते हुए ‘सूत-पुत्र राधेय कहकर प्रणाम किया। कुन्ती की आँखों में आँसू आ गये। उसने कहा कि तुम कुन्ती-पुत्र और पाण्डवों के बड़े भाई हो। आज अपने भाइयों में मिलकर दुर्योधन का कपटजाल तोड़ दो। कर्ण ने अपने हृदय की ज्वाला माँ के सम्मुख स्पष्ट कर दी

क्यों तुमने उस दिन न कही, सबके सम्मुख ललकार।
कर्ण नहीं है सूत-पुत्र, वह भी है राजकुमार॥

स्वयं कुन्ती के सम्मुख राजभवन में अपमान, स्वयंवर-सभा में अपमान तथा सर्वत्र सूत-पुत्र कहलाने की उसकी पीड़ा उभर आयी। वह बोला कि मेरे अपमानित और लांछित होते समय तुम्हारा पुत्र-प्रेम कहाँ गया था ? मैं अपने मित्र दुर्योधन का कृतज्ञ हूँ, मैं उसे धोखा नहीं दे सकता। कर्ण की वाणी सुनकर कुन्ती की आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी। वह मौन खेड़ी थी। कर्ण ने कहा कि यद्यपि भाग्य मेरे साथ बहुत खिलवाड़ कर रहा है फिर भी यह विडम्बना ही होगी कि एक माता अपने पुत्र के द्वार से खाली हाथ लौट जाए। उसने कहा कि मैंने केवल अर्जुन को ही मारने की प्रतिज्ञा की है। मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि मैं (UPBoardSolutions.com) अर्जुन के अतिरिक्त किसी पाण्डव को नहीं मारूंगा। मेरे हाथों यदि अर्जुन मारा गया तो तुम अपनी इच्छानुसार उसको रिक्त स्थान मुझसे भर सकती हो और यदि मैं स्वयं मारा गया तो भी तुम पाँच पाण्डवों की माता तो रहोगी ही। इच्छित वरदान पाकर कुन्ती लौट गयी, परन्तु वह कर्ण के मन में विचारों का तूफान उठा गयी।

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प्रश्न 8
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के ‘कर्ण-वध’ नामक षष्ठ सर्ग की कथा को संक्षेप में लिखिए। [2011, 14, 15]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के षष्ठ सर्ग की कथावस्तु अपने शब्दों में लिखिए। [2016]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य की सबसे प्रमुख घटना का वर्णन कीजिए। [2010, 12]
या
“कर्ण अपने प्रण व धुन का पक्का
था
” खण्डकाव्य के आधार पर इसकी पृष्टि कीजिए। [2014]
उत्तर
इस सर्ग में महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से लेकर कर्ण के मृत्यु तक की कथा का वर्णन है। पाँच दिन बाद महाभारत का युद्ध आरम्भ हुआ। भीष्म पितामह कौरवों के सेनापति बनाये गये। वे इस शर्त पर सेनापति बने कि वे कर्ण का सहयोग नहीं लेंगे; क्योंकि वह कपटी, अत्याचारी, अधिरथी तथा अभिमानी है। कर्ण ने उनका प्रण सुनकर प्रतिज्ञा की कि वह भीष्म पितामह के जीवित रहते शस्त्र ग्रहण नहीं करेंगे अन्यथा सूर्य-पुत्र नहीं कहलाएँगे। भीष्म प्रतिदिन अकेले दस सहस्र वीरों को मारते थे, किन्तु दसवें दिन बाणों से घायल होकर वे शरशय्या पर गिर पड़े। कर्ण के भीष्म पितामह के पास पहुँचने पर (UPBoardSolutions.com) उन्होंने कर्ण को भर आँख निहारने की इच्छा प्रकट की, उसे जल के भंवर में नाव खेने वाला कहा तथा उसे दानवीर, धर्मवीर और महावीर बतलाया

घूण्र्य काल-जल में बस तू ही नौका खेने वाला।
दानवीर तू, धर्मवीर तू, तू सम्बल आरत का।
जो न कभी बुझ सकता, वह दीप महाभारत का।

भीष्म पितामह ने कहा कि मैंने तेरा सूत-पुत्र कह कर तिरस्कार किया, केवल इसलिए कि तुम किसी भी तरह इस युद्ध से विरत हो जाओ और दुर्योधन अपने इस युद्धरूपी काण्ड में सफल न हो सके। उन्होंने पुनः कहा कि तुम यह सन्देह छोड़ दो कि तुम सूत-पुत्र हो। तुम भी अर्जुन आदि की तरह कुन्ती के ही पुत्र हो। हमारी इच्छा यही है कि तुम पाण्डवों से मिल जाओ। कर्ण ने अपने को प्रतिज्ञाबद्ध बताते हुए ऐसा करने से मना कर दिया। उसने पितामह से कहा कि विधि के लिखे हुए को कौन बदल सकता है? मुझसे भी मेरा। मन यही कहता है कि मैं अपनी मृत्यु की कहानी स्वयं लिख रहा हूँ। किन्तु यह भी सत्य है पितामह कि मैं अपना साहस नहीं छोडूंगा। भले ही उस ओर कृष्ण हों, किन्तु अर्जुन को मारने हेतु मैं हर प्रयास करूंगा। यह सुनकर पितामह ने कर्ण की जय-जयकार की और उसके मार्ग के समस्त अमंगलों को दूर होने की कामना की। उसे अपने शस्त्रास्त्र उठाकर दुर्योधन का स्वप्न पूर्ण करने के लिए कहा।

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भीष्म के बाद द्रोणाचार्य को सेनापति नियुक्त किया गया। पन्द्रहवें दिन वे भी वीरगति को प्राप्त हुए। युद्ध के सोलहवें दिन कर्ण कौरव दल के सेनापति बने। उनकी भयंकर बाण-वर्षा से पाण्डव विचलित होने लगे, तभी भीम का पुत्र घटोत्कच भयंकर मायापूर्ण आकाश युद्ध करता हुआ कौरव सेना फ्र टूट पड़ा। घटोत्कच के भीषण प्रहार से कौरव सेना में त्राहि-त्राहि मच गयी। उन्होंने रक्षा के लिए कर्ण को पुकारा। कर्ण ने अमोघ-शक्ति का प्रहार कर घटोत्कच को मार डाला। इस अमोघ-शक्ति का प्रयोग वह केवल अर्जुन पर करना चाहता था, किन्तु परिस्थितिवश उसे उसका प्रयोग घटोत्कच पर करना पड़ गया। वह सोचने लगा, यह सब कुछ कृष्ण को माया है, अब अर्जुन की विजय निश्चित है। थोड़ा-सा दिन शेष था। अचानक कर्ण के रथ का पहिया पृथ्वी में धंस गया। सारथी प्रयास करने पर भी रथ का पहिया न निकाल सका, तब कर्ण रथ से उतरकर स्वयं पहिया निकालने लगा। तभी श्रीकृष्ण ने अर्जुन को प्रहार करने के लिए आदेश दिया; क्योंकि युद्ध में धर्म-अधर्म का विचार किये बिना (UPBoardSolutions.com) शत्रु को परास्त करना चाहिए। आदेश पाते ही अर्जुन ने नि:शस्त्र कर्ण का बाण-प्रहार से वध कर दिया। कर्ण की मृत्यु पर श्रीकृष्ण भी अश्रुपूर्ण नेत्रों से रथ से उतर ‘कर्ण! हाय वसुसेन वीर’ कहकर दौड़ पड़े।

प्रश्न 9
‘कर्ण खण्डकाव्य के जलांजलि’ नामक सप्तम सर्ग की कथा का सार लिखिए। [2009, 14]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण के सम्बन्ध में युधिष्ठिर और कुन्ती के मध्य हुए वार्तालाप को अपने शब्दों में लिखिए। [2010]
या
ऐसा कीर्तिवान भाई पा होता कौन न धन्य ।
किन्तु आज इस पृथ्वी पर, हतभाग्य न मुझ-सा अन्य ।।
उक्त पंक्तियों में व्यक्त वेदना का भाव पठित खण्डकाव्य के आधार पर स्पष्ट कीजिए। [2009, 10]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर सप्तम सर्ग का मार्मिक चित्रांकन कीजिए। [2011]
उत्तर
सप्तम सर्ग में युद्ध की समाप्ति के बाद युधिष्ठिर द्वारा कर्ण को जलांजलि देने की कथा का वर्णन है। कर्ण के वीरगति प्राप्त करते ही कौरव सेना का मानो प्रदीप बुझ गया। वे शक्तिहीन हो गये। सेना , अस्त-व्यस्त हो गयी। कर्ण के बाद शल्य सेनापति बने परन्तु वे भी युधिष्ठिर द्वारा मारे गये। अन्त में गदा युद्ध में भीम द्वारा दुर्योधन भी मारा गया। युद्ध की समाप्ति के बाद युधिष्ठिर ने अपने भाइयों का जलदान किया, तभी कुन्ती की ममता उमड़ पड़ी और उसने युधिष्ठिर से कर्ण को सबसे बड़े भाई के रूप में जलदान करने का आग्रह किया। युधिष्ठिर उसके इस आग्रह पर चकित रह गये।

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युधिष्ठिर के द्वारा पूछने पर कुन्ती ने कर्ण के जन्म और उसको नदी में बहाये जाने का रहस्य प्रकट कर दिया। यह भी बताया कि वह कर्ण से मिलकर यह रहस्य उस पर स्पष्ट कर चुकी है। यह जानकर कि कर्ण उनके बड़े भाई थे, युधिष्ठिर को मन भर आया और वे बोले कि “माँ! वे हमारे अग्रज थे। कर्ण जैसे महामहिम, दानवीर, दृढ़प्रतिज्ञ, दृढ़-चरित्र, समर-धीर, अद्वितीय तेजयुक्त भाई को पाकर कौन धन्य नहीं होता। किन्तु (UPBoardSolutions.com) आज हमारे जैसा हतभाग्य और कौन है? उन्होंने कठोर शब्दों में कुन्ती को इस बात के लिए दोषी । ठहराया और कहा कि तुम्हारे द्वारा इस रहस्य को छिपाने के कारण ही वे जीवन भर अपमान का घूट पीते रहे। उन्होंने बड़े आदर से कर्ण का स्मरण करते हुए जलदान किया और अपने मन की पीड़ा इस प्रकार व्यक्त की–

मानव को मानव न मिला, धरती को धृति धीर।
भूलेगा इतिहास भला, कैसे यह गहरी पी॥

युधिष्ठिर के हृदय की इस करुण व्यंजना के साथ ही खण्डकाव्य समाप्त हो जाता है।

प्रश्न 10
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर नायक कर्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण का चरित्र उदघाटित कीजिए।
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण के चरित्र की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए और बताइए कि उन्हें जीवनभर अपने किस कृत्य के प्रति ग्लानि रही ? [2014]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण की वीरता पर सोदाहरण प्रकाश डालिए। [2015]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण के उत्कृष्ट व्यक्तित्व की तीन या चार चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण की दानशीलता पर प्रकाश डालते हुए उसके अन्य गुणों पर प्रकाश डालिए।
या
कर्ण सच्चे दानवीर, युद्धवीर तथा प्राणवीर थे।” इस कथन की पुष्टि कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कीजिए। [2011]
उत्तर
श्री केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ द्वारा रचित ‘कर्ण’ नामक खण्डकाव्य का नायक महाभारत का अजेय योद्धा कर्ण है। इस काव्य में कर्ण के जन्म से लेकर मृत्यु तक की प्रमुख घटनाओं का वर्णन है। कर्ण की वीरता और उसके जीवन के करुण पक्ष का वर्णन करना ही कवि का लक्ष्य है। उसके चरित्र की विशेषताएँ इस प्रकार हैं

(1) जन्म से परित्यक्त–अविवाहित कुन्ती ने सूर्य की उपासना के फलस्वरूप सूर्य के तेजस्वी अंश को पुत्र-रूप में प्राप्त किया था। कुन्ती द्वारा त्याग दिये जाने के कारण वह माता के स्नेह से तो वंचित न रहा किन्तु सूत-पुत्र कहलाये जाने के कारण (UPBoardSolutions.com) आजीवन लांछित होता रहा। यह जानकर कि वह कुन्ती–पुत्र है, जिसको उसने लोक-समाज के लिए हृदय पर पत्थर रखकर त्याग दिया था, उसकी व्यथा और भी बढ़ गयी।

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(2) पग-पग पर अपमानित–वीर कर्ण समाज में सूत-पुत्र के रूप में जाना गया। राजभवन में राजकुमार अर्जुन ने उसे राधेय, सूत-पुत्र कहकर अपमानित किया तथा स्वयंवर-सभा में द्रौपदी ने मत्स्यवेध करने से रोककर उसको अपमानित किया। माता कुन्ती उसका इस प्रकार अपमान होते देखकर भी उसे अपना न सकी। ऐसे अपमानों से उसका हृदय प्रतिशोध की अग्नि से जल उठा। वह श्रीकृष्ण से अपने हृदय की पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहता है–

घृणा, अनादर, तिरस्क्रिया, यह मेरी करुण कहानी।
देखो, सुनो कृष्ण क्या कहता, इन आँखों का पानी॥

(3) अद्वितीय तेजवान्–कर्ण सूर्य-पुत्र है; अतः स्वभावत: तेजस्वी है। उसका कमलमुख राजकुमारों की शोभा को हरण करने वाला है। युधिष्ठिर जलांजलि सर्ग में कहते हैं

अद्वितीय था तेज, और अनुपम था उनका ओज।।
हाय कहाँ मैं पाऊँ उनका पावन चरण-सरोज।

कुन्ती उसके तेजस्वी व्यक्तित्व को देखकर विस्मित और गद्गद हो गयी थी। वह अपने पुत्र की शोभा देखती ही रह जाती है। कवि ने इसका वर्णन करते हुए लिखा है

एक सूर्य था उगा गगन में ज्योतिर्मय छविमान।
और दूसरा खड़ा सामने पहले का उपमान।।

(4) स्नेह और ममता का भूखा–कर्ण जीवनभर अपनी माता, भाई और गुरुजनों (UPBoardSolutions.com) का स्नेह न पा सका। उनसे उसे केवल लांछन और तिरस्कार हीं मिला। उसका हृदय सदा माँ की ममता पाने को तरसता रहा। वह कुन्ती से कहता है

यों न उपेक्षित होता मैं, यों भाग्य न मेरा सोता।
स्नेहमयी जननी ने यदि रंचक भी चाहा होता॥

(5) अद्वितीय दानी-कर्ण अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध था। उसने प्रण किया था कि जब तक वह अर्जुन का वध नहीं कर लेगा, तब तक जो भी याचक उससे जो कुछ माँगेगा, वह उसे देगा। उसके पिता सूर्य ने समझाया कि कपटी इन्द्र को अपने कवच-कुण्डल देकर अपनी शक्ति क्षीण न करो, परन्तु उसने सहर्ष इन्द्र को अपने कवच-कुण्डल पकड़ा दिये। वह कहता है कि धरती भले ही काँप उठे, आकाश फटने लगे; किन्तु कर्ण अपनी दानशीलता से कभी पीछे नहीं हट सकता

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चाहे पलट जाय पलभर में महाकाल की धारा।
वीर कर्ण का किन्तु न झूठा हो सकता प्रण प्यारा॥

कवच-कुण्डल देकर उसने स्वयं अपनी मृत्यु बुला ली, परन्तु अपनी दानशीलता नहीं छोड़ी।।

(6) दृढ़प्रतिज्ञ-कर्ण ने जो भी प्रण किया, उसे पूरा किया। अर्जुन का वध होने तक उसने दान का व्रत लिया था, जिसे उसने अपने कवच-कुण्डल देकर भी पूर्ण किया। कुन्ती को चारों भाइयों की रक्षा का वचन दिया था, उसे भी उसने युद्ध के समय में निभाया

किन्तु न अपना प्रण भूले थे, वीर कर्ण पलभर भी।
भीम नकुल का धर्मराज का, किया नवध पाकर भी॥

(7) आत्मविश्वासी-कर्ण को अपने शौर्य और पराक्रम पर अविचल आत्मविश्वास है। वह कृष्ण से, कुन्ती से और भीष्म से बातें करते हुए आत्मविश्वासपूर्वक अर्जुन का वध करने को कहता है। उसने कृष्ण । को स्पष्ट कह दिया था कि भले ही अब उसके पास कवच-कुण्डल नहीं हैं, किन्तु आत्मबल और आत्मविश्वास अब भी है।

(8) अजेय योद्धा-कर्ण महान् पराक्रमी और अजेय योद्धा था। उसके रण-कौशल से सभी परिचित थे। अर्जुन के वध की उसकी प्रतिज्ञा सुनकर दुर्योधन को प्रसन्नता और पाण्डवों को भय उत्पन्न हुआ था। इन्द्र भी कर्ण के पराक्रम के कारण उसके द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा से चिन्तित थे। कृष्ण भी कर्ण की युद्ध-कुशलता से परिचित थे; अत: अर्जुन को नि:शस्त्र कर्ण पर धर्म-विरुद्ध प्रहार करने का आदेश देते हैं। कर्ण के पराक्रम तथा शौर्य की प्रशंसा शर-शय्या पर भीष्म पितामह भी करते हैं।

(9) प्रतिशोध की भावना से दग्ध-स्वाभिमानी और वीर कर्ण को कदम-कदम पर अपमान और तिरस्कार सहना पड़ा। उसने प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर द्रौपदी को निर्वस्त्र करने के लिए दुःशासन को उकसाया। राजभवन में हुए अपमान के कारण ही उसने अर्जुन का वध करने का निश्चय किया। पाण्डवों का भाई होने पर भी प्रतिशोध की भावना ने ही उसकी स्नेह-भावना को नहीं जगने दिया।

(10) विवेकी और कृतज्ञ-कृष्ण ने कर्ण को पाण्डवों का पक्ष लेने के लिए बहुत (UPBoardSolutions.com) समझाया, किन्तु उसने उपकारी मित्र दुर्योधन से छल करना उचित नहीं समझा। वह दुर्योधन के उपकार को न भूलकर आजीवन उसके साथ रहता है। वह कृष्ण से कहता है-

मैं कृतज्ञ हूँ दुर्योधन का, उपकारों से हारा।
राजपाट उसके चरणों पर, चुप धर दूंगा सारा॥

(11) पश्चात्ताप से युक्त–कर्ण को द्रौपदी का भरी सभा में कराया गया अपमान सदैव कष्ट देता रहा। वह कृष्ण से कहता है-

धिक् कृतज्ञता को जिसने, ऐसा दुष्कर्म कराया।
प्रायश्चित्त करूंगा केशव, छोड़ नीच यह काया॥

(12) करुणामय जीवन-कर्ण का सम्पूर्ण जीवन करुणा से पूर्ण था। जन्म होते ही उसे माता ने त्याग दिया। राजभवन में सूत-पुत्र होने के कारण उसे अपमानित होना पड़ा। द्रौपदी के द्वारा किये गये अपमान का घूटे पीना पड़ा। जीवनभर माता, भाई और गुरुजनों के स्नेह से वंचित रहना पड़ा। सगे भाइयों के विरुद्ध हथियार उठाने पड़े। अजेय-योद्धा होते हुए भी वह अन्यायपूर्वक मारा गया। इस प्रकार पूरे काव्य में वीर कर्ण के जीवन का करुण पक्ष ही उभारा गया है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि कर्ण महाभारत के वीरों का सिरमौर है, फिर भी उसे नियतिवश : अपमान, तिरस्कार और छल-प्रपंच का शिकार होना पड़ा। इस प्रकार कर्ण के जीवन का करुण पक्ष अत्यधिक मार्मिक है।

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प्रश्न 11
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर भीष्म पितामह का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2009, 10]
उतर
भीष्म पाण्डव और कौरवों के पूज्य एवं परमादरणीय पितामह थे। कौरव और पाण्डव दोनों ही उन्हें श्रद्धा से पितामह कहते थे। उनकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) वीर शिरोमणि-भीष्म पितामह बड़े वीर और पराक्रमी योद्धा थे। महाभारत के युद्ध में उन्होंने प्रतिदिन दस हजार सैनिकों को मारने की शपथ ली थी। कौरव तथा पाण्डव दोनों ही उनकी वीरता के सम्मुख नतमस्तक थे।

(2) परम नीतिज्ञ-भीष्म पितामह कर्त्तव्यपरायण होने के साथ-साथ बड़े नीतिज्ञ भी थे। वे पूर्ण मन से कौरवों का साथ नहीं दे पा रहे थे, क्योंकि वे जानते थे कि कौरव अनीति के मार्ग पर चल रहे हैं। वे नहीं चाहते थे कि युद्ध में जीत कौरवों की हो। कर्ण को वे नीच, अर्धरथी और अभिमानी इसीलिए कहते हैं जिससे कर्ण का तेज कम हो जाये, क्योंकि वे उसकी युद्ध-कुशलता और दुर्योधन के प्रति पूर्ण निष्ठा को भली-भाँति जानते थे। उनकी इस नीति का प्रभाव भी हुआ; क्योंकि कर्ण ने यह प्रतिज्ञा की कि पितामह के जीते जी वह युद्ध में शस्त्र नहीं उठाएगा।

(3) न्याय एवं धर्म के समर्थक-भीष्म पितामह परिस्थितियोंवश ही कौरवों की (UPBoardSolutions.com) ओर से युद्ध करते हैं। वे नहीं चाहते कि युद्ध में दुर्योधन की विजय हो। वे पाण्डवों से अति प्रसन्न हैं; क्योंकि पाण्डव सत्य, न्याय और धर्म के मार्ग पर चल रहे हैं। वे अनीति तथा अन्याय से घृणा करते हैं।

(4) शौर्य तथा पराक्रम के प्रेमी-शर-शय्या पर पड़े हुए भीष्म पितामह कर्ण के शौर्य और वीरता । की बड़ी प्रशंसा करते हैं तथा कर्ण के प्रति कहे गये अपमानजनक शब्दों पर पश्चात्ताप करते हैं। वे वीर और पराक्रमी योद्धा का बड़ा ही सम्मान करते हैं। कर्ण की प्रशंसा वे इन शब्दों में करते हैं-

तेरे लिए फूल आदर के, खिलते मेरे मन में।
देखा तुझ सा महावीर, मैंने न कभी जीवन में।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भीष्म पितामह का चरित्र एक वीर, पराक्रमी और न्यायवादी धर्म-प्रिय योद्धा को चरित्र है।

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प्रश्न 12
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2015]
उत्तर
श्रीकृष्ण ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के एक उदात्त-चरित्र महापुरुष हैं। वे एक अवतारी पुरुष और भगवान् के रूप में माने जाते हैं। अपने अलौकिक चरित्र से उन्होंने भारतीय जन-मानस को चमत्कृत किया है। तथा अपने महान् एवं अनुकरणीय चरित्र से लोगों को अत्यन्त प्रभावित भी किया है। उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) कूटनीतिज्ञ—कर्ण खण्डकाव्य की प्रमुख घटनाओं में श्रीकृष्ण का विशेष हाथ है। वे पाण्डवों के परम हितैषी हैं। कृष्ण हर पल उनका ध्यान रखते हैं तथा समय-समय पर उन्हें सचेत भी करते हैं। शत्रु को नीचा दिखाना, साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति द्वारा किसी भी प्रकार से उसे वश में करना वे भली प्रकार जानते हैं। कर्ण की शक्ति को जानकर ही वे जहाँ उसे साम नीति द्वारा पाण्डवों के पक्ष में करने का प्रयास करते हैं, वहीं दुर्योधन के (UPBoardSolutions.com) अवगुणों को बताने में भेद-नीति अपनाते हैं। वे कर्ण से कहते हैं-

दुर्योधन का साथ न दो, वह रणोन्मत्त पागल है।
द्वेष, दम्भ से भरा हुआ, अति कुटिल और चंचल है॥

दाम नीति का प्रयोग करते हुए वे कर्ण को प्रलोभन देते हैं

चलो तुम्हें सम्राट बनाऊँ, अखिल विश्व का क्षण में।

कर्ण जब उनकी सभी बातों को ठुकरा देता है तो कृष्ण उसे अहंकारी भी बतलाते हैं। निश्चित ही वे सभी प्रकार की नीतियों में निष्णात हैं।

(2) परिस्थितियों के मर्मज्ञ-श्रीकृष्ण तो भगवान हैं। वे त्रिकालदर्शी हैं, भविष्यद्रष्टा हैं तथा परिस्थितियों को भली प्रकार समझने में सक्षम हैं। वे भली-भाँति जानते हैं कि धर्मयुद्ध में कर्ण को कोई मार नहीं सकता। तभी तो वे समय आने पर अर्जुन को कर्ण का वध करने का संकेत देते हैं। वे कहते हैं-

बाण चला दो, चूक गये तो लुटी सुकीर्ति सँजोयी।

(3) पाण्डवों के रक्षक-श्रीकृष्ण पाण्डवों के परम हितैषी हैं। वे हर परिस्थिति में पाण्डवों की रक्षा करते हैं, क्योंकि पाण्डव सत्य, न्याय और धर्म के मार्ग पर चल रहे हैं, जिसकी स्थापना करने के लिए ही पृथ्वी पर उनका अवतार हुआ है। युद्ध में वे अर्जुन की रक्षा के लिए ही घटोत्कच को बुलवाते हैं और कर्ण के हाथ से उसका वध करवाकर अर्जुन का जीवन सुरक्षित करते हैं। |

(4) पराक्रम-प्रेमी–कृष्ण पराक्रमी एवं शूरवीर पुरुषों की निष्पक्ष होकर प्रशंसा करते हैं। वे कर्ण को एक अपराजेय योद्धा समझते हैं तथा उसके शौर्य की प्रशंसा करते हुए कहते हैं-

धर्मप्रिय, धृति-धर्म धुरी को तुम धारण करते हो।
वीर, धनुर्धर धर्मभाव तुम भू-भर में भरते हो।

(5) मायावी-कृष्ण की माया से महाभारत के सभी योद्धा परिचित हैं। वे महाभारत युद्ध में केवल अर्जुन के रथ के सारथी ही बने हैं और उन्होंने अस्त्र-शस्त्र न उठाने कीप्रतिज्ञा भी की है, किन्तु फिर भी सभी वीर योद्धा उनसे भयभीत रहते हैं। जिन बातों को बड़े-बड़े वीर प्रयत्न करके भी नहीं जान पाते, उन बातों को कृष्ण सहज रूप में ही जान लेते हैं। कर्ण भी कहता है कि कृष्ण की माया अर्जुन को तो छाया की तरह घेरे रहती है–

घेरे रहती है अर्जुन को छाया सदा तुम्हारी।।

इस प्रकार से कृष्ण का चरित्र अलौकिक, दिव्य तथा अन्यान्य सद्गुणों से युक्त है।

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प्रश्न 13
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर प्रमुख नारी पात्र ‘कुन्ती’ का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2012, 13, 15]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कुन्ती के चरित्र की किन्हीं तीन विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। [2009]
उत्तर
कविवर केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ द्वारा रचित ‘कर्ण’ खण्डकाव्य की कुन्ती प्रमुख स्त्री-पात्र है। वह महाराज पाण्डु की पत्नी तथा पाण्डवों की माता है। खण्डकाव्य से उसके चरित्र की अधोलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं

(1) अभिशप्त माता-खण्डकाव्य के प्रारम्भ में ही कुन्ती एक कुंवारी माँ की शापित स्थिति में सम्मुख आती है, जो सामाजिक निन्दा और भय से व्याकुल है। अपने नवजात पुत्र के प्रति उसके हृदय में ममता को अजस्र स्रोत फूट रहा है, किन्तु वह लोक-लाज के भय से विवश होकर अपने पुत्र को गंगा नदी की धारा में बहा देती है।

(2) एक दुःखिया माँ–खण्डकाव्य में कुन्ती को एक दु:खी माँ के रूप में दर्शाया गया है। उसके पुत्र पाण्डवों को उनका राज्यांश नहीं मिल रहा है तथा विवश होकर उनको कौरवों से युद्ध करना पड़ा रहा। है। कुन्ती इससे भयभीत तथा दु:खी है। वह कर्ण के पास जाती है और (UPBoardSolutions.com) उस पर उसकी माँ होने का पूरा राज खोल देती है। कर्ण उसे ताना मारता है, दुर्योधन का साथ न छोड़ने को कहता है तथा अर्जुन का वध करने की अपनी प्रतिज्ञा को भी दोहराता है। अन्ततः उदास तथा दु:खी होकर कुन्ती वापस लौट आती है।

(3) चिन्तित माँ-कौरव और पाण्डवों में युद्ध होने वाला है। कर्ण अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा कर चुका है। कुन्ती इस चिन्ता में अति व्याकुल है कि युद्ध-भूमि में उसके पुत्र ही एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ेंगे और मृत्यु को प्राप्त होंगे।

(4) ममतामयी माँ-‘कर्ण’ खण्डकाव्य में कुन्ती के मातृत्व की बहुपक्षीय झाँकी देखने को मिलती है। वह एक कुँवारी माँ है, जो अपनी ममता का गला स्वयं ही घोटती है। महाभारत के युद्ध में जब वह देखती है कि भाई-भाई ही एक-दूसरे को मारने हेतु तत्पर हैं, तब वह अपने पुत्र पाण्डवों की रक्षा के लिए कर्ण के पास जाती है और उससे तिरस्कृत भी होती है। फिर भी कर्ण के प्रति उसको वात्सल्य भाव रोके नहीं रुकता। वह कर्ण से कहती है

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माँ कहकर झंकृत कर दो मेरे प्राणों का तार ।।

जलदान के अवसर पर वह युधिष्ठिर से कर्ण का जलदान करने के लिए आग्रह करती है। | निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कुन्ती परिस्थितियों की मारी एक सच्ची माँ है, जो अपनी ममता को गहरा दफनाकर भी दफना नहीं पाती। उसको मातृरूप कई रूपों में हमारे सामने (UPBoardSolutions.com) आता है, जो भारतीय नारी की सामाजिक और पारिवारिक विवशताओं को मार्मिक अभिन्यक्ति प्रदान करता है।

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi छन्द

UP Board Solutions for Class 10 Hindi छन्द

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छन्द

परिभाषा–छन्द Chhand का अर्थ है—बन्धन। जिस रचना में मात्रा, वर्ण, गति, विराम, तुक आदि के नियमों । का विचार रखकर शब्द-योजना की जाती है, उसे छन्द कहते हैं। इस प्रकार छन्द नियमों का एक बन्धन है। छन्द प्रयोग के कारण (UPBoardSolutions.com) ही रचना पद्य कहलाती है और इसी से उसमें संगीतात्मकता उत्पन्न हो जाती है। यह काव्य को स्मरण योग्य बना देता है। हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार, “अक्षर, अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा, मात्रा-गणना तथा यति, गति से सम्बन्धित विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्य-रचना ‘छन्द’ कहलाती है।”

छन्द-ज्ञान के लिए इसके निम्नलिखित छ: अंगों का ज्ञान होना आवश्यक है-
(1) वर्ण-वर्ण दो प्रकार के होते हैं

  • लघु-हस्व अक्षर (अ, इ, उ, ऋ) को लघु कहते हैं। इसे ” चिह्न से प्रकट किया जाता है।
  • गुरु–दीर्घ अक्षर (आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ) को गुरु कहते हैं। इसे ‘5’ चिह्न से प्रकट किया जाता है।

(2) मात्रा—किसी वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है, उसे मात्रा कहते हैं। लघु की एक मात्रा ।’ तथा गुरु की दो मात्राएँ ‘5’ मानी जाती हैं। लघु वर्ण की अपेक्षा गुरु वर्ण के उच्चारण में दुगुना समय लगता है।

वर्गों की गणना करते समय वर्ण चाहे लघु हों अथवा गुरु उन्हें एक ही माना जाता है; यथा-‘रम’, ‘राम’, ‘रमा’, ‘रामा’। इन चारों शब्दों में वर्ण दो ही हैं, लेकिन मात्राएँ क्रमशः 1 + 1 = 2, 2 + 1 = 3, 1 + 2 = 3, 2 + 2 = 4 हैं। नीचे लिखे वर्ण गुरु माने जाते हैं

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  • अनुस्वारयुक्त वर्ण गुरु माना जाता है; जैसे-‘संत’ और ‘हंस’ शब्द के ‘सं’ और ‘हं’ गुरु हैं।
  • विसर्ग ‘:’ से युक्त वर्ण गुरु माना जाता है; उदाहरण के लिए-‘अत:’ शब्द में ‘त:’ गुरु वर्ण है।
  • चन्द्रबिन्दु से युक्त लघु वर्ण लघु ही रहता है; जैसे-हँसना’ का हैं लघु है।
  • संयुक्ताक्षर से पूर्व का लघु वर्ण गुरु माना जाता है; जैसे-‘गन्ध’ शब्द में ‘ग’ लघु है लेकिन ‘न्ध’ संयुक्ताक्षर के पूर्व आने के कारण ‘ग’ गुरु वर्ण (अर्थात् दो मात्रा) माना जाएगा। जब संयुक्ताक्षर से पूर्व लघु वर्ण पर अधिक बल नहीं रहता, (UPBoardSolutions.com) तब वह लघु ही माना जाता है; जैसे-‘तुम्हारे में ‘म्ह’ संयुक्ताक्षर के पूर्व होने पर भी ‘तु’ लघु ही रहेगा।
  • कभी-कभी पाद या चरण की पूर्ति के लिए चरण के अन्त का लघु वर्ण भी विकल्प से गुरु या दीर्घ मान लिया जाता है।
  • हलन्त वर्षों की गणना नहीं की जाती; किन्तु उनके पूर्व का वर्ण गुरु मान लिया जाता है। | कभी-कभी दीर्घ वर्ण भी पद्य की लय में पढ़ते समय लघु या ह्रस्व ही पढ़ा जाता है; जैसे-‘अवधेश के द्वारे सकारे गयी’ में ‘के’ दीर्घ होते हुए भी लघु ही पढ़ा जा रहा है। इसलिए यह लघु ही माना जाएगा। तात्पर्य यह है कि किसी भी वर्ण का लघु अथवा गुरु होना, उसके उच्चारण में लिये गये समय पर निर्भर करता है।

(3) गति (लय)–कविता के कर्णमधुर प्रवाह को गति कहते हैं।
(4) यति (विराम)—पाठकों के साँस लेने, रुकने या ठहरने को यति कहते हैं।
(5) तुक-छन्दों के चरण के अन्त में समान वर्गों की आवृत्ति को तुक कहते हैं।
(6) चरण–प्रत्येक छन्द में प्रायः चार भाग होते हैं; जिन्हें चरण, पद या पाद कहते हैं। चरणों को अल्पविराम द्वारा अलग कर दिया जाता है। जिन छन्दों के चारों चरणों की मात्राएँ या वर्ण एक-से हों वे ‘सम’ कहलाते हैं; जैसे–चौपाई, इन्द्रवज्रा आदि। जिसमें पहले और तीसरे तथा दूसरे और चौथे की मात्राओं या वर्षों से समता हो वे ‘अर्द्धसम’ कहलाते हैं; जैसे—दोहा, सोरठा आदि। जिन छन्दों में चार से अधिक (छ:) चरण हों और वे एक-से न हों ‘विषम’ कहलाते हैं; जैसे-छप्पय और कुण्डलिया।

गण-लघु-गुरु क्रम से तीन वर्गों के समुदाय को गण कहते हैं। गण आठ प्रकार के होते हैं। ‘यमाताराजभानसलगा’ से इसके वर्णरूप व्यक्त हो जाते हैं। इनका संकेत और उदाहरणसहित स्पष्टीकरण निम्नवत् है-

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प्रकार–मात्रा और वर्ण के आधार पर छन्द मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं
(अ) मात्रिक छन्द-जिस छन्द में मात्राओं की गणना की जाती है, उसे मात्रिक छन्द कहते हैं। मात्रिक छन्दों में वर्गों के लघु और गुरु के क्रम का विशेष ध्यान नहीं रखा जाता। इन छन्दों के प्रत्येक चरण में मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है। ये तीन प्रकार के होते हैं-सम, अर्द्धसम और विषम।

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(ब) वर्णिक छन्द–जिन छन्दों की रचना वर्गों की गिनती के अनुसार होती है, उन्हें वर्णिक छन्द कहते हैं। वर्णिक छन्दों के भी तीन भेद होते हैं-सम, अर्द्धसम तथा विषम। 21 वर्षों तक के वर्णिक छन्द ‘साधारण’, 22 से 26 वर्षों के वर्णिक छन्द ‘सवैया’ तथा 26 से (UPBoardSolutions.com) अधिक वर्ण वाले छन्द ‘दण्डक’ कहलाते हैं। वर्णिक छन्द का एक क्रमबद्ध नियोजित और व्यवस्थित रूप वर्णिक वृत्त कहलाता है। वर्णिक वृत्तों के प्रत्येक चरण का निर्माण वर्गों की एक निश्चित संख्या एक लघु-गुरु के निश्चित क्रम के अनुसार होता है।

मुक्त छन्द–हिन्दी में आजकल लिखे जा रहे छन्द मुक्त छन्द हैं। इन छन्दों में वर्ण और मात्रा का कोई बन्धन नहीं होता। ये तुकान्त भी होते हैं और अतुकान्त भी।

[विशेष—पाठ्यक्रम में केवल सोरठा एवं रोला मात्रिक छन्द ही निर्धारित हैं।]

सोरठा [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]

लक्षण-सोरठा अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके प्रथम एवं तृतीय चरण में 11-11 मात्राएँ तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं। पहले और तीसरे चरण के अन्त में गुरु-लघु (SI) आते हैं और कहीं-कहीं तुक भी मिलती है। यह दोहे का उल्टा होता है;
उदाहरण-

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अन्य उदाहरण—-
(1) सुनि केवट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे ।
बिहँसे करुना ऐन, चितई जानकी लखनु तन ।।
(2) रहिमन पुतरी स्याम, मनहु जलज मधुकर लसै ।
कैधों सालिगराम, रूपा के अरघा धरै ।।
(3) मैं समुझ्यौ निरधार, यह जगु काँचौं काँच सौ ।
एकै रूप अपार, प्रतिबिम्बित लखियतु जहाँ ।।
(4) नील सरोरुह स्याम, तरुन अरुन बारिज नयन ।
करउ सो मम उर धाम, सदा छीरसागर संयन ।।

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रोला [2012, 13, 14, 16, 17, 18]

लक्षण–यह चार पंक्तियों वाला एक सममात्रिक छन्द है। इसमें (UPBoardSolutions.com) आठ चरण होते हैं। इसके प्रत्येक चरण में 11 और 13 के विराम (यति) से 24 मात्राएँ होती हैं;
उदाहरण–

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अन्य उदाहरण-
(1) उड़ति फुही की फाब, फबति फहरति छबि छाई ।।
ज्यौं परबत पर परत, झीन बादर दरसाई ।।
तेरनि-किरन तापर बिचित्र बहुरंग प्रकासै ।।
इंद्रधनुस की प्रभा, दिव्य दसहूँ दिसि भासै ।।
(2) इहिं बिधि धावति इँसंति, ढरति ढरकति सुख-देनी ।।
मनहुँ सँवारति सुंभ सुरपुर की सुगम निसेनी ।।
बिपुल बेग बंल बिक्रम कैं ओजनि उमगाई ।
हरहराति हरषाति संभु-सनमुख जब आई ।।
(3) भई थकित छबि चेकिंत हेरि हर-रूप मनोहर ।।
है आर्नहिं के प्रान रहे तन धरे धरोहर ।।
भयो कोप कौ लोप चोप औरै उमगाई।
चित चिकनाई चढ़ी कढ़ी सब रोष रुखाई ।।

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अभ्यास

प्रश्न 1
निम्नलिखित में कौन-सा छन्द है; उसका लक्षण (परिभाषा) भी बताइए
(1) रहिमन मोहिं न सुहाय, अमी पियावत मान बिनु ।
बरु विष देय बुलाय, मान सहित मरिबो भलो ।। [2010]
(2) लिखकर लोहित लेख, डूब गया दिनमणि अहा।।
व्योम सिन्धु सखि देख, तारक बुदबुदे दे रहा ।।
(3) सुनत सुमंगल बैन, मन (UPBoardSolutions.com) प्रमोद तन पुलक भर ।।
सरद सरोरुह नैन, तुलसी भरे सनेह जल ।।
(4) जो सुमिरत सिधि होइ, गननायक करिवर बदन ।
करहुँ अनुग्रह सोइ, बुद्धि रासि सुभ-गुन-सदन ।। [2010]
(5) भरत चरित कर नेम, तुलसी जे सादर सुनहिं ।
सियाराम पद प्रेम, अवसि होई मन रस विरति ।।
(6) सीय बिआहबि राम, गरब दूरि करि नृपन के।।
जीति को सके संग्राम, दसरथ के रनबॉकुरे ।।
(7) बन्दउँ गुरुपद-कंज, कृपा-सिंधु नर-रूप हरि ।
महामोह तम पुंज, जासु बचन रविकर-निकर ।। [2010]
उत्तर
(1) सोरठा,
(2) सोरठा,
(3) सोरठा,
(4) सोरठा,
(5) सोरठा,
(6) सोरठा,
(7) सोरठा।
[ संकेत–छन्द के लक्षण (परिभाषा) के लिए उनके दिये गये विवरण को पढ़िए।]

प्रश्न 2
सोरठा छन्द को लक्षण तथा उदाहरण दीजिए। [2012, 13, 14, 16]
या
सोरठा छन्द की परिभाषा लिखिए तथा उदाहरण दीजिए। [2009, 11, 13, 15]
उत्तर
[ संकेत–सोरठा छन्द में दिये गये विवरण को पढ़िए।]

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प्रश्न 3
छन्द कितने प्रकार के होते हैं ? मात्रिक छन्द का कोई एक उदाहरण दीजिए।
या
छन्द कितने प्रकार के होते हैं ? इनमें से किसी एक का उदाहरण लिखिए।
उत्तर
मात्रा और वर्ण के आधार पर छन्द (UPBoardSolutions.com) दो प्रकार के होते हैं—
(क) मात्रिक तथा
(ख) वर्णिक।
मात्रिक छन्द (दोहा) का उदाहरण

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बर जीते सर मैन के, ऐसे देखे मैं न।
हरिनी के नैनानु हैं, हरि नीके ए नैन ॥

प्रश्न 4
सोरठा अथवा रोला छन्द की परिभाषा दीजिए तथा एक उदाहरण भी दीजिए। [2011, 12, 13, 14, 16]
या
रोला छन्द की परिभाषा (लक्षण) तथा उदाहरण भी दीजिए। [2011, 12, 13, 14, 16]
उत्तर
[ संकेत-छन्द में दिये गये विवरण के अन्तर्गत पढ़े ]

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