UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi समस्यापरक निबन्ध

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Samanya Hindi
Chapter Name समस्यापरक निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi समस्यापरक निबन्ध

भारत में जनसंख्या-वृद्धि की समस्या

सम्बद्ध शीर्षक

  • जनसंख्या-विस्फोट और निदान
  • जनसंख्या-वृद्धि: कारण और निवारण
  • बढ़ती जनसंख्य: एक गम्भीर समस्या
  • परिवार नियोजन
  • बढ़ती जनसंख्या बनी आर्थिक विकास की समस्या
  • जनसंख्या नियन्त्रण
  • बढ़ती जनसंख्य: रोजगार की समस्या

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आतंकवाद : समस्या एवं समाधान

सम्बद्ध शीर्षक

  • आतंकवाद के निराकरण के उपाय
  • आतंकवाद
  • आतंकवाद की विभीषिका
  • भारत में आतंकवाद की समस्या
  • आतंकवाद : एक समस्या
  • आतंकवाद : कारण और निवारण
  • आतंकवाद का समाधान
  • भारत में आतंकवाद के बढ़ते कदम
  • भारत में आतंकवाद की समस्या और समाधान

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पर्यावरण-प्रदूषण : समस्या और समाधान

सम्बद्ध शीर्षक

  • पर्यावरण और प्रदूषण
  • पर्यावरण का महत्त्व
  • बढ़ता प्रदूषण और उसके कारण
  • बढ़ता प्रदूषण और पर्यावरण
  • प्रदूषण के दुष्परिणाम
  • पर्यावरण संरक्षण का महत्त्व
  • असन्तुलित पर्यावरण : प्राकृतिक आपदाओं का कारण
  • विश्व परिदृश्य में पर्यावरण प्रदूषण
  • धरती की रक्षा : पर्यावरण सुरक्षा
  • पर्यावरण-प्रदूषण : कारण और निवारण
  • पर्यावरण-असन्तुलन

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भारत में बेरोजगारी की समस्या

सम्बद्ध शीर्षक

  • बेरोजगारी : समस्या और समाधान
  • शिक्षित बेरोजगारों की समस्या
  • बेरोजगारी की विकराल समस्या
  • बेरोजगारी की समस्या
  • बेरोजगारी दूर करने के उपाय
  • बेरोजगारी : एक अभिशाप
  • बढ़ती जनसंख्या : रोजगार की समस्या
  • बेरोजगारी : कारण एवं निवारण

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बेलगाम महँगाई

सम्बद्ध शीर्षक

  • महँगाई की समस्या और उसका समाधान
  • महँगाई : समस्या और समाधान
  • बढ़ती महँगाई : कारण और निदान
  • महँगाई की समस्या
  • महँगाई से परेशान : भारत का इंसान
  • महँगाई की समस्या.: कारण और निवारण

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. महँगाई के कारण
    (क) जनसंख्या में तीव्र वृद्धि;
    (ख) कृषि उत्पादन-व्यय में वृद्धि;
    (ग) कृत्रिम रूप से वस्तुओं की आपूर्ति में कमी;
    (घ) मुद्रा-प्रसार;
    (ङ) प्रशासन में शिथिलता;
    (च) घाटे का बजट,
    (छ) असंगठित उपभोक्ता;
    (ज) धन का असमान वितरण :
  3. महँगाई के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली कठिनाइयाँ,
  4. महँगाई को दूर करने के लिए सुझाव,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना-भारत की आर्थिक समस्याओं के अन्तर्गत महँगाई की समस्या एक प्रमुख समस्या है। वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि का क्रम इतना तीव्र है कि जब आप किसी वस्तु को दोबारा खरीदने जाते हैं तो वस्तु का मूल्य पहले से अधिक बढ़ा हुआ होता है। | दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती इस महँगाई की मार का वास्तविक चित्रण प्रसिद्ध हास्य कवि काका हाथरसी की निम्नलिखित पंक्तियों में हुआ है

पाकिट में पीड़ा भरी कौन सुने फरियाद ?
यह महँगाई देखकर वे दिन आते याद॥
वे दिन आते याद, जेब में पैसे रखकर,
सौदा लाते थे बाजार से थैला भरकर॥
धक्का मारा युग ने मुद्रा की क्रेडिट ने,
थैले में रुपये हैं, सौदा है पाकिट में।

महँगाई के कारण-वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि अर्थात् महँगाई के बहुत से कारण हैं। इन कारणों में अधिकांश कारण आर्थिक हैं तथा कुछ कारण ऐसे भी हैं, जो सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था से सम्बन्धित हैं। इन कारणों का संक्षिप्त विवरण निम्नवत् है
(क) जनसंख्या में तीव्र वृद्धि–भारत में जनसंख्या-विस्फोट ने वस्तुओं की कीमतों को बढ़ाने की दृष्टि से बहुत अधिक सहयोग दिया है। जितनी तेजी से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, उतनी तेजी से वस्तुओं का उत्पादन नहीं हो रहा है। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ है कि अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में निरन्तर वृद्धि हुई है।

(ख) कृषि उत्पादन-व्यय में वृद्धि-हमारा देश कृषि प्रधान है। यहाँ की अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। गत वर्षों से कृषि में प्रयुक्त होने वाले उपकरणों, उर्वरकों आदि के मूल्यों में बहुत अधिक वृद्धि हुई है; परिणामस्वरूप उत्पादित वस्तुओं के मूल्य में भी वृद्धि होती जा रही है। अधिकांश वस्तुओं के मूल्य प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कृषि पदार्थों के मूल्यों से सम्बद्ध होते हैं। इस कारण जब कृषि-मूल्य में वृद्धि हो जाती है तो देश में अधिकांशतः वस्तुओं के मूल्य अवश्यमेव प्रभावित होते हैं।

(ग) कृत्रिम रूप से वस्तुओं की आपूर्ति में कमी-वस्तुओं का मूल्य माँग और पूर्ति पर आधारित होता है। जब बाजार में वस्तुओं की पूर्ति कम हो जाती है तो उनके मूल्य बढ़ जाते हैं। अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से भी व्यापारी वस्तुओं का कृत्रिम अभाव पैदा कर देते हैं, जिसके कारण महँगाई बढ़ जाती है।

(घ) मुद्रा-प्रसार-जैसे-जैसे देश में मुद्रा-प्रसार बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे ही महँगाई बढ़ती जाती है। तृतीय पंचवर्षीय योजना के समय से ही हमारे देश में मुद्रा-प्रसार की स्थिति रही है, परिणामतः वस्तुओं के मूल्य बढ़ते ही जा रहे हैं। कभी जो वस्तु एक रुपए में मिला करती थी उसके लिए अब लगभग सौ रुपए तक खर्च करने पड़ जाते हैं।

(ङ) प्रशासन में शिथिलता–सामान्यत: प्रशासन के स्वरूप पर ही देश की अर्थव्यवस्था निर्भर करती है। यदि प्रशासन शिथिल पड़ जाता हैं तो मूल्य बढ़ते जाते हैं, क्योंकि कमजोर शासन व्यापारी वर्ग पूर नियन्त्रण नहीं रख पाता। ऐसी स्थिति में वस्तुओं के मूल्यों में अनियन्त्रित और निरन्तर वृद्धि होती रहती है।

(च) घाटे का बजट-विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु सरकार को बहुत अधिक मात्रा में पूँजी की व्यवस्था करनी पड़ती है। पूँजी की व्यवस्था करने के लिए सरकार अन्य उपायों के अतिरिक्त घाटे की बजट प्रणाली को भी अपनाती है। घाटे की यह पूर्ति नये नोट छापकर की जाती है, परिणामत: देश में मुद्रा की पूर्ति आवश्यकता से अधिक हो जाती है। जब ये नोट बाजार में पहुंचते हैं तो वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि करते हैं।

(छ) असंगठित उपभोक्ता-वस्तुओं का क्रय करने वाला उपभोक्ता वर्ग प्रायः असंगठित होता है, जबकि विक्रेता या व्यापारिक संस्थाएँ अपना संगठन बना लेती हैं। ये संगठन इस बात का निर्णय करते हैं। कि वस्तुओं का मूल्य क्या रखा जाए और उन्हें कितनी मात्रा में बेचा जाए। जब सभी सदस्य इन नीतियों का पालन करते हैं तो वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होने लगती है। वस्तुओं के मूल्यों में होने वाली इस वृद्धि से उपभोक्ताओं को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

(ज) धन का असमान वितरण-हमारे देश में धन का असमान वितरण महँगाई का मुख्य कारण है। जिनके पास पर्याप्त धन है, वे लोग अधिक पैसा देकर साधनों और सेवाओं को खरीद लेते हैं। व्यापारी धनवानों की इस प्रत्ति का लाभ उठाते हैं और महँगाई बढ़ती जाती है। वस्तुतः विभिन्न सामाजिक-आर्थिक विषमताओं एवं समाज में व्याप्त अशान्ति पूर्ण वातावरण का अन्त करने के लिए धन का समान वितरण होना आवश्यक है। कविवरै दिनकर के शब्दों में भी–

शान्ति नहीं तब तक, जब तक
सुख भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को बहुत अधिक हो ।
नहीं किसी को कम हो।

(3) महँगाई के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली कठिनाइयाँ-महँगाई नागरिकों के लिए अभिशाप स्वरूप है। हमारा देश एक गरीब देश है। यहाँ की अधिकांश जनसंख्या के आय के साधन सीमित हैं। इस कारण साधारण नागरिक और कमजोर वर्ग के व्यक्ति अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाते। बेरोजगारी इस कठिनाई को और भी अधिक जटिल बना देती है। व्यापारी अपनी वस्तुओं का कृत्रिम अभाव कर देते हैं। इसके कारण वस्तुओं के मूल्य में अनियन्त्रित वृद्धि हो जाती है। परिणामत: कम आय वाले व्यक्ति बहुत-सी वस्तुओं और सेवाओं से वंचित रह जाते हैं। महँगाई के बढ़ने से कालाबाजारी को प्रोत्साहन मिलता है। व्यापारी अधिक लाभ कमाने के लिए वस्तुओं को अपने गोदामों में छिपा देते हैं। महँगाई बढ़ने से देश की अर्थव्यवस्था कमजोर हो जाती है।

(4) महँगाई को दूर करने के लिए सुझाव–यदि महँगाई इसी दर से ही बढ़ती रही तो देश के आर्थिक विकास में बहुत-सी बाधाएँ उपस्थित हो जाएँगी। इससे अनेक प्रकार की सामाजिक बुराइयाँ भी जन्म लेंगी; अतः महँगाई के इस दानव को समाप्त करना परम आवश्यक है।

महँगाई को दूर करने के लिए सरकार को समयबद्ध कार्यक्रम बनाने होंगे। किसानों को सस्ते मूल्य पर खाद, बीज और उपकरण आदि उपलब्ध कराने होंगे, जिसमें कृषि उत्पादनों के मूल्य कम हो सकें। मुद्रा-प्रसार को रोकने के लिए घाटे के बजट की व्यवस्था समाप्त करनी होगी अथवा घाटे को पूरा करने के लिए नये नोट छपवाने की प्रणाली को बन्द करना होगा। जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए अनवरत प्रयास करने होंगे। सरकार को इस बात का भी प्रयास करना होगा कि शक्ति और साधन कुछ विशेष लोगों तक सीमित न रह जाएँ और धन का उचित रूप में बँटवारा हो सके। सहकारी वितरण संस्थाएँ इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। इन सभी के लिए प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त और कर्मचारियों को पूरी निष्ठा तथा कर्तव्यपरायणता के साथ कार्य करना होगा।

(5) उपसंहार-महँगाई की वृद्धि के कारण हमारी अर्थव्यवस्था में अनेक प्रकार की जटिलताएँ उत्पन्न हो गयी हैं। घाटे की अर्थव्यवस्था ने इस कठिनाई को और अधिक बढ़ा दिया है। यद्यपि सरकार की ओर से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में किये जाने वाले प्रयासों द्वारा महँगाई की इस प्रवृत्ति को रोकने का 3 निरन्तर प्रयास किया जा रहा है, तथापि इस दिशा में अभी तक पर्याप्त सफलता नहीं मिल सकी है।

यदि समय रहते महँगाई के इस दानव को वश में नहीं किया गया तो हमारी अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी और हमारी प्रगति के समस्त मैसर्ग बन्द हो जाएँगे, भ्रष्टाचार अपनी जड़े जमा लेगा और नैतिक मूल्य पूर्णतया समाप्त हो जाएँगे।

गंगा प्रदूषण

सम्बद्ध शीर्षक

  • जल-प्रदूषण
  • देश की भलाई : गंगा की सफाई

रूपरेखा

  1. प्रस्तावना,
  2. गंगा-जल के प्रदूषण के प्रमुख कारण-औद्योगिक कचरा व रसायन तथा मृतक एवं उनकी अस्थियों का विसर्जन,
  3. गंगा प्रदूषण दूर करने के उपाय,
  4. उपसंहार

प्रस्तावना-देवनदी गंगा ने जहाँ जीवनदायिनी के रूप में भारत को धन-धान्य से सम्पन्न बनाया है। वहीं माता के रूप में इसकी पावन धारा ने देशवासियों के हृदयों में मधुरता तथा सरसता का संचार किया है। गंगा मात्र एक नदी नहीं, वरन् भारतीय जन-मानस के साथ-साथ समूची भारतीयता की आस्था का जीवंत प्रतीक है। हिमालय की गोद में पहाड़ी घाटियों से नीचे कल्लोल करते हुए मैदानों की राहों पर प्रवाहित होने : वाली गंगा पवित्र तो है ही, वह मोक्षदायिनी के रूप में भी भारतीय भावनाओं में समाई है। भारतीय सभ्यतासंस्कृति का विकास गंगा-यमुना जैसी अनेकानेक पवित्र नदियों के आसपास ही हुआ है। गंगा-जल वर्षों तक बोतलों, डिब्बों आदि में बन्द रहने पर भी खराब नहीं होता था। आज वही भारतीयता की मातृवत पूज्या गंगा प्रदूषित होकर गन्दे नाले जैसी बनती जा रही है, जोकि वैज्ञानिक परीक्षणगत एवं अनुभवसिद्ध तथ्य है। गंगा के बारे में कहा गया है:

नदी हमारी ही है गंगा, प्लावित करती मधुरस-धारा,
बहती है क्या कहीं और भी, ऐसी पावन कल-कल धारा।

गंगा-जल के प्रदूषण के प्रमुख कारण–पतितपावनी गंगा के जल के प्रदूषित होने के बुनियादी कारणों में से एक कारण तो यह है कि प्रायः सभी प्रमुख नगर गंगा अथवा अन्य नदियों के तट पर और उसके आस-पास बसे हुए हैं। उन नगरों में आबादी का दबाव बहुत बढ़ गया है। वहाँ से मूल-मूत्र और गन्दे पानी की निकासी की कोई सुचारु व्यवस्था न होने के कारण इधर-उधर बनाये गये छोटे-बड़े सभी गन्दे नालों के माध्यम से बहकर वह गंगा या अन्य नदियों में आ मिलता है। परिणामस्वरूप कभी खराब न होने वाला गंगाजल भी आज बुरी तरह से प्रदूषित होकर रह गया है।

औद्योगिक कचरा व रसायन-वाराणसी, कोलकाता, कानपुर आदि न जाने कितने औद्योगिक नगर गंगा के तट पर ही बसे हैं। यहाँ लगे छोटे-बड़े कारखानों से बहने वाला रासायनिक दृष्टि से प्रदूषित पानी, कचरा आदि भी गन्दे नालों तथा अन्य मार्गों से आकर गंगा में ही विसर्जित होता है। इस प्रकार के तत्त्वों ने जैसे वातावरण को प्रदूषित कर रखा है, वैसे ही गंगाजल को भी बुरी तरह प्रदूषित कर दिया है।

मृतक एवं उनकी अस्थियों का विसर्जन–वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि सदियों से आध्यात्मिक भावनाओं से अनुप्राणित होकर गंगा की धारा में मृतकों की अस्थियाँ एवं अवशिष्ट राख तो बहाई जही रही है, अनेक लावारिस और बच्चों के शव भी बहा दिये जाते हैं। बाढ़ आदि के समय मरे पशु भी धारा में आ मिलते हैं। इन सबने भी गंगा-जल-प्रदूषण की स्थितियाँ पैदा कर दी हैं। गंगा के प्रवाह स्थल और आसपास से वनों का निरन्तर कटाव, वनस्पतियों, औषधीय तत्त्वों का विनाश भी प्रदूषण का एक बहुत बड़ा कारण है। गंगा-जल को प्रदूषित करने में न्यूनाधिक इन सभी का योगदान है।

गंगा प्रदूषण दूर करने के उपाय–विगत वर्षों में गंगा-जल का प्रदूषण समाप्त करने के लिए एक योजना बनाई गई थी। योजना के अन्तर्गत दो कार्य मुख्य रूप से किए जाने का प्रावधान किया गया था। एक तो यह कि जो गन्दे नाले गंगा में आकर गिरते हैं या तो उनकी दिशा मोड़ दी जाए या फिर उनमें जलशोधन करने वाले संयन्त्र लगाकर जल को शुद्ध साफ कर गंगा में गिरने दिया जाए। शोधन से प्राप्त मलबा बड़ी उपयोगी खाद का काम दे सकता है। दूसरा यह कि कल-कारखानों में ऐसे संयन्त्र लगाए जाएँ जो उस जल का शोधन कर सकें तथा शेष कचरे को भूमि के भीतर दफन कर दिया जाए। शायद ऐसा कुछ करने का एक सीमा तक प्रयास भी किया गया, पर काम बहुत आगे नहीं बढ़ सका, जबकि गंगा के साथ जुड़ी. भारतीयता का ध्यान रख इसे पूर्ण करना बहुत आवश्यक है।

आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टि अर्पनाकर तथा अपने ही हित में गंगा-जल में शव बहाना बन्द किया जा सकता है। धारा के निकासंस्थल के आसपास वृक्षों, वनस्पतियों आदि का केटाव कठोरता से प्रतिबंधित कर कटे स्थान पर उनका पुनर्विकास कर पाना आज कोई कठिन बात नहीं रह गई है। अन्य ऐसे कारक तत्त्वों का भी थोड़ा प्रयास करके निराकॅरण किया जा सकता है, जो गंगा-जल को प्रदूषित कर रहे हैं। भारत सरकार भी जल-प्रदूषण की समस्यों के प्रति जागरूक है और इसने सन् 1974 में ‘जल-प्रदूषण निवारण अधिनियम’ भी लागू किया है।

उपसंहार- आध्यात्मिक एवं भौतिक प्रकृति के अद्भुत संगम भारत के भूलोक को गौरव तथा प्रकृति का पुण्य स्थल कहा गया है। इस भारत-भूमि तथा भारतवासियों में नये जीवन तथा नयी शक्ति का संचार करने का श्रेय गंगा नदी को जाता है।

“गंगा आदि नदियों के किनारे भीड़ छवि पाने लगी।
मिलकर जल-ध्वनि में गल-ध्वनि अमृत बरसाने लगी।
– सस्वर इधर श्रुति-मंत्र लहरी, उधरे जल-लहरी कहाँ ।
तिस पर उमंगों की तरंगें, स्वर्ग में भी क्या रहा?”

गंगा को भारत की जीवन-रेखा तथा गंगा की कहानी को भारत की.कहानी माना जाता है। गंगा की महिमा अपार है। अत: गंगा की शुद्धता के लिए प्राथमिकता से प्रयास किये जाने चाहिए।

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UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi रस

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 1
Chapter Name रस
Number of Questions 2
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi रस

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  1. श्रृंगार (संयोग व विप्रलम्भ) रस,
  2. हास्य रस,
  3. करुण रस,
  4. वीर रस,
  5. रौद्र रस,
  6. भयानक रस,
  7. वीभत्स रस,
  8. अद्भुत रस तथा
  9. शान्त रस। कुछ विद्वान् ‘वात्सल्य रस’ और ‘भक्ति रस को भी उपरि-निर्दिष्ट नव रसों की श्रृंखला में ही मानते हैं।


[विशेष—माध्यमिक शिक्षा परिषद्, उ० प्र० द्वारा निर्धारित नवीनतम पाठ्यक्रम में आगे दिये जा रहे पाँच रस ही निर्धारित हैं।]

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उदाहरण 2-

कौन हो तुम वसन्त के दूत
विरस पतझड़ में अति सुकुमार ;

घन तिमिर में चपला की रेख
तपन में शीतल मन्द बयार ।( काव्यांजलि : श्रद्धा-मनु)

स्पष्टीकरण-इस प्रकरण में रति स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव है–श्रद्धा (विषय) और मनु (आश्रय)। उद्दीपन विभाव है-एकान्त प्रदेश, श्रद्धा की कमनीयता, शीतल-मन्द पवन। हृदय में शान्ति का • मिलना अनुभाव है। आश्रय मनु के हर्ष, उत्सुकता आदि भाव संचारी भाव हैं। इस प्रकार अनुभावविभावादि से पुष्ट रति नामक स्थायी भाव संयोग श्रृंगार रस की दशा को प्राप्त हुआ है।।

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उदाहरण 2-

मेरे प्यारे नव जलद से कंज से नेत्र वाले
जाके आये न मधुबन से औ न भेजा सँदेशा।

मैं रो-रो के प्रिय-विरह से बावली हो रही हूँ।
जा के मेरी सब दुःख-कथा श्याम को तू सुना दे॥  ( काव्यांजलि : पवन-दूतिका)

स्पष्टीकरण-इस छन्द में विरहिण-राधा की विरह-दशा का वर्णन किया गया है। ‘रति’ स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव हैं—राधा (आश्रय) और श्रीकृष्ण (विषय)। उद्दीपन विभाव हैं-मेघ जैसी शोभा और कमल जैसे नेत्रों का स्मरणं। श्रीकृष्ण के विरह में रुदन अनुभाव है। स्मृति, आवेग, उन्माद आदि संचारियों से पुष्ट श्रीकृष्ण से मिलने के अभाव में यहाँ वियोग श्रृंगार रस का परिपाक हुआ है।

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उदाहरण:2-

बिंध्य के वासी उदासी तपोब्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे।
गौतमतीय तरी तुलसी, सो कथा सुनि भे मुनिबृन्द सुखारे॥

हैहैं सिला सब चंद्रमुखी परसे पदमंजुल-कंज तिहारे।
कीन्हीं भली रघुनायकजू करुना करि कानन को पगु धारे॥ ( हिन्दी : वन पथ पर)

[विशेष—पाठ्यक्रम में संकलित अंश में हास्य रस का उदाहरण दृष्टिगत नहीं होता। अतः 10वीं की पाठ्य-पुस्तक से उदाहरण दिया जा रहा है।

स्पष्टीकरण—इस छन्द में विन्ध्याचल के तपस्वियों की मनोदशा का वर्णन किया गया है। यहाँ ‘हास’ स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव हैं–विन्ध्य के उदास तपस्वी (आश्रय) और राम (विषय)। उद्दीपन विभाव हैं—गौतम की स्त्री का उद्धार। मुनियों का कथा आदि सुनना अनुभाव हैं। हर्ष, उत्सुकता आदि संचारी भावों से पुष्ट प्रस्तुत छन्द में हास्य रस का सुन्दर परिपाक हुआ है।

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उदाहरण 2-

क्यों छलक रहा दुःख मेरा
ऊषा की मृदु पलकों में
हाँ! उलझ रहा सुख मेरा
सन्ध्या की घन अलकों में । ( काव्यांजलि : आँसू)

स्पष्टीकरण-प्रस्तुत पद में कवि के अपनी प्रेयसी के विरह में रुदन का वर्णन किया गया है। इसमें कवि के हृदय का ‘शोक’ स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव हैं—प्रेमी, यहाँ पर कवि (आश्रय) तथा प्रियतमा (विषय)। उद्दीपन विभाव हैं—अन्धकाररूपी केश-पाश तथा सन्ध्या। कवि के हृदय से नि:सृत उद्गार अनुभाव हैं। अश्रुरूपी प्रात:कालीन ओस की बूंदें संचारी भाव हैं। इन सबसे पुष्ट शोक नामक स्थायी भाव करुण रस की दशा को प्राप्त हुआ है।

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उदाहरण 2-

साजि चतुरंग सैन अंग, में उमंग धारि,
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है।
भूषन भनत नाद बिहद नगारन के,
नदी नद मद गैबरन के रलत है ॥( काव्यांजलि : शिवा-शौर्य)

स्पष्टीकरण-प्रस्तुत पद में शिवाजी की चतुरंगिणी सेना के प्रयाण का चित्रण है। इसमें ‘शिवाजी के हृदय का उत्साह’ स्थायी भाव है। ‘युद्ध को जीतने की इच्छा आलम्बन है। ‘नगाड़ों का बजना’ उद्दीपन है। ‘हाथियों के मद का बहना’ अनुभाव है तथा उग्रता’ संचारी भाव है। इन सबसे पुष्ट ‘उत्साह’ नामक स्थायी भाव वीर रस की दशा को प्राप्त हुआ है।

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उदाहरण 1

मन पछितैहै अवसर बीते ।
दुर्लभ देह पाई हरिपद भजु, करम वचन अरु होते ॥
अब नाथहिं अनुराग, जागु जड़-त्यागु दुरासा जीते ॥
बुझे न काम अगिनी तुलसी कहुँ बिषय भोग बहु धी ते ॥

स्पष्टीकरण–यहाँ तुलसी (या पाठक)–आश्रय हैं; संसार की असारता आलम्बन; अपना मनुष्य जन्म व्यर्थ होने की चिन्ता–उद्दीपन; मति-धृति आदि संचारी एवं वैराग्यपरक वचन–अनुभाव हैं। इनसे मिलकर शान्त रस की निष्पत्ति हुई है।

उदाहरण 2

अब लौं नसानी अब न नसैहौं ।
रामकृपा भवनिसा सिरानी, जागे फिर न डसैहौं ।

पायो नाम चारु चिंतामनि, उर कर तें न खसैहौं ।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं ॥
परबस जानि हँस्यों इन इंद्रिन, निज बस छै न हसैहौं ।
मन-मधुकर पन करि तुलसी, रघुपति पद-कमल बसैहौं ॥ ( काव्यांजलिः विनयपत्रिका)

स्पष्टीकरण—प्रस्तुत पद में तुलसीदास जी की जगत् के प्रति विरक्ति और श्रीराम के प्रति अनुराग मुखर हुआ है। इस पद में संसार से पूर्ण विरक्ति अर्थात् ‘निर्वेद’ नामक स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव हैं—तुलसीदास (अश्रय) तथा श्रीराम की भक्ति (विषय)। उद्दीपन विभाव हैं-श्रीराम की कृपा, सांसारिक असारता त इन्द्रियों द्वारा उपहास। स्वतन्त्र होना, राम के चरणों में रत होना, सांसारिक विषयों में पुनः निर्लिप्त न होना आदि से सम्बद्ध कथन अनुभाव हैं। निर्वेद, हर्ष, स्मृति आदि संचारी भाव हैं। इन सबसे पुष्ट ‘निर्वेद’ नामक स्थायी भाव शान्त रस की अवस्था को प्राप्त हुआ है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित पद्यांशों में कौन-से रस हैं ? प्रत्येक का स्थायी भाव भी बताइए-
(क) साजि चतुरंग सैन अंग में उमंग धारि,
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत हैं।
(ख) कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात |
भरे भौन मैं करत हैं, नैननु हीं स बात ।।
(ग) कौन हो तुम वसंत के दूत
‘विरस पतझड़ में अति सुकुमार;
घन तिमिर में चपला की रेख
तपन में शीतल मन्द बयार ?
(घ) आये होंगे यदि भरत कुमति-वश वन में,
तो मैंने यह संकल्प किया है मन में-
उनको इस शर का लक्ष चुनँगा क्षण में,
प्रतिषेध आपका भी न सुनँगा रण में ।
(ङ) सुख भोग खोजने आते सब, आये तुम करने सत्य खोज,
जग की मिट्टी के पुतले जन, तुम आत्मा के, मन के मनोज
जड़ता, हिंसा, स्पर्धा में भर, चेतना, अहिंसा, नम्र ओज,
पशुता का पंकज बना दिया, तुमने मानवता का सरोज ।
उत्तर:
(क) इसमें वीर रस है, जिसका स्थायी भाव उत्साह है।
(ख) इसमें संयोग श्रृंगार रस है, जिसका स्थायी भाव रति है।
(ग) इसमें संयोग श्रृंगार रसे है, जिसका स्थायी भाव रति है।
(घ) इसमें वीर रस है, जिसका स्थायी भाव उत्साह है।
(ङ) इसमें शान्त रस है, जिसका स्थायी भाव निर्वेद है।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए–
(क) अपनी पाठ्य-पुस्तक से करुण रस की दो पंक्तियाँ लिखिए। यह भी स्पष्ट कीजिए कि आप इसे करुण रस की रचना क्यों मानते हैं ?
(ख) हास्य रस की निष्पत्ति कब होती है ? अपनी पाठ्य-पुस्तक से उदाहरण देकर समझाइए।
(ग) अपनी पाठ्य-पुस्तक से वीर रस को बतलाने के लिए किसी पद की दो पंक्तियाँ लिखिए और स्पष्ट कीजिए कि उसे वीर रस की रचना क्यों मानते हैं?
(घ) अपनी पाठ्य-पुस्तक से करुण रस का लक्षण लिखिए और उसका उदाहरण दीजिए।
(ङ) अपनी पाठ्य-पुस्तक से शान्त रस की दो पंक्तियाँ लिखिए और यह भी स्पष्ट कीजिए कि आप इसे शान्त रस की रचना क्यों मानते हैं ?
(च) वीर रस का लक्षण लिखिए और अपनी पाठ्य-पुस्तक के आधार पर उसका उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
(छ) विप्रलम्भ श्रृंगार अथवा शान्त रस का लक्षण लिखिए और एक उदाहरण दीजिए।
(ज) अपनी पाठ्य-पुस्तंक से वीर रस की दो पंक्तियाँ लिखिए। रस के आलम्बन और आश्रय की ओर भी संकेत कीजिए।
(झ) संयोग श्रृंगार अथवा वीर रस का लक्षण लिखिए और एक उदाहरण दीजिए।
(ञ) श्रृंगार और करुण में से किसी एक रस का लक्षण और उदाहरण लिखिए।
(ट) “कृरुण’ अथवा ‘वीर’ रस के लक्षण और उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
[संकेत इन सभी प्रश्नों के उत्तर के लिए इन रसों से सम्बन्धित सामग्री का अध्ययन ‘रस’ प्रकरण के अन्तर्गत प्रश्न 2 से करें]

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UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi वाणिज्य सम्बन्धी निबन्ध

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Samanya Hindi
Chapter Name वाणिज्य सम्बन्धी निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi वाणिज्य सम्बन्धी निबन्ध

कुटीर एवं लघु उद्योग

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. कटार उद्योगों को स्वतन्त्र
  3. कुटीर उद्योग की आवश्यकता,
  4. गाँधी जी का योगदान,
  5. कुटीर उद्योगों का नया स्वरूप,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना–वर्तमान सभ्यता को यदि यान्त्रिक सभ्यता कहा जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी। पश्चिमी देशों की सभ्यता यान्त्रिक बन चुकी है। हाथ से बनी वस्तु और यन्त्र से निर्मित वस्तु में किसी प्रकार की होड़ हो ही नहीं सकती; क्योंकि यन्त्र-युग अपने साथ अपरिमित शक्ति एवं साधन लेकर आया है। परन्तु विज्ञान का यह वरदान मानव-शान्ति के लिए अभिशाप भी सिद्ध हो रहा है। इसलिए युग-पुरुष महात्मा गाँधी ने यान्त्रिक सभ्यता के विरुद्ध कुटीर एवं लघु उद्योगों को बढ़ावा देने की आवाज उठायी। वे कुटीर एवं लघु उद्योगों के माध्यम से ही गाँवों के देश भारत में आर्थिक समता लाने के पक्ष में थे।

थोड़ी पूँजी द्वारा सीमित क्षेत्र में अपने हाथ से अपने घर में ही वस्तुओं का निर्माण करना कुटीर तथा लघु उद्योग के अन्तर्गत है। यह व्यवसाय प्रायः परम्परागत भी होता है। दरियाँ, गलीचे, रस्सियाँ बनाना, खद्दर, मोजे, शाल बुना, लकड़ी, सोने, चाँदी, ताँबे, पीतल की दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुओं को निर्माण करना आदि अनेक प्रकार की हस्तकला के कार्य इसके अन्तर्गत आते हैं।

कुटीर उद्योगों की स्वतन्त्रतापूर्व स्थिति-औद्योगिक दृष्टि से भारत का अतीतकाल अत्यन्त स्वर्णिम एवं सुखद था। लंगभग सभी प्रकार के कुटीर एवं लघु उद्योग अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर थे। ‘ढाके की मलमल’ अपनी कलात्मकता में बहुत ऊँची उठ गयी थी। मुसलमानी बादशाहों और नवाबों के द्वारा भी इसे विशेष प्रोत्साहन मिला। देश को आर्थिक दृष्टि से कुछ इस प्रकार व्यवस्थित किया गया था कि प्रायः प्रत्येक गाँव स्वयं में अधिक-से-अधिक आर्थिक स्वावलम्बन प्राप्त कर सके। किन्तु अंग्रेजी शासन की विनाशकारी आर्थिक नीति तथा यान्त्रिक सभ्यता की दौड़ में न टिक सकने के कारण ग्रामीण जीवन की औद्योगिक स्वावलम्बता छिन्न-भिन्न हो गयी। देश की राजनीतिक पराधीनता इसके लिए पूर्ण उत्तरदायी थी। ग्रामीण-उद्योगों के समाप्त होने से ग्राम्य जीवन का सारा सुख भी समाप्त हो गया।

कुटीर उद्योगों की आवश्यकता–भारत की दरिद्रता का प्रधान कारण कुटीर एवं लघु उद्योगों का विनाश ही रहा है। भारत में उत्पादन का पैमाना अत्यन्त छोटा है। देश की अधिकांश जनता अब भी छोटे-छोटे व्यवसायों से अपनी जीविका चलाती है। भारत के किसानों को वर्ष में कई महीने बेकार बैठना पड़ता है। कृषि में रोजगार की प्रकृति मौसमी होती है। इस बेरोजगारी को दूर करने के लिए कुटीर-उद्योग का सहायक साधनों के रूप में विकास होना आवश्यक है। जापान, फ्रांस, जर्मनी, इटली, रूस आदि सभी देशों में गौण-उद्योग की प्रथा प्रचलित है।।

भारत में कुटीर-उद्योगों और छोटे पैमाने के कला-कौशल के विकास के महत्त्व इस रूप में भी विशेष महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि यदि हम अपने बड़े पैमाने के संगठित उद्योगों में चौगुनी-पंचगुनी वृद्धि कर दें तो भी देश में वृत्तिहीनता की विशाल समस्या सुलझायी नहीं जा सकती। ऐसा करके हम केवल मुट्ठी भर व्यक्तियों की रोटी का ही प्रबन्ध कर सकते हैं। इस जटिल समस्या के सुलझाने का एकमात्र उपाय बड़े पैमाने के साथ-साथ कुटीर एवं लघु उद्योगों का समुचित विकास ही है, जिससे कि ग्रामीण क्षेत्रों को सहायक व्यवसाय और किसानों को अपनी आय में वृद्धि करने का अवसर मिल सके।

गाँधी जी का योगदान–गाँधी जी का विचार था कि बड़े पैमाने के उद्योगों को विशेष प्रोत्साहन न देकर विशालकाय मशीनों के उपयोग को रोका जाए तथा छोटे उद्योगों द्वारा पर्याप्त मात्रा में आवश्यक वस्तुएँ उत्पादित की जाएँ। कुटीर उद्योग मनुष्य की स्वाभाविक रुचियों और प्राकृतिक योग्यताओं के विकास के लिए पूर्ण सुविधा प्रदान करता है। मशीन के मुंह से निकलने वाले एक मीटर टुकड़े को भी कौन अपना कह सकता है, जबकि वह भी उसी मजदूर के खून-पसीने से तैयार हुआ है। हाथ से बनी हुई प्रत्येक वस्तु पर बनाने वाले के नैतिक, सांस्कृतिक तथा आत्मिक व्यक्तित्व की छाप अंकित होती है, जबकि मशीनं की स्थिति में इनका लोप हो जाता है और व्यक्ति केवल उस मशीन का एक निर्जीव पुर्जा मात्र रह जाता है।

कुटीर एवं लघु उद्योगों में आधुनिक औद्योगीकरण से उत्पन्न वे दोष नहीं पाये जाते, जो औद्योगिक नगरों की भीड़-भाड़, पूँजी तथा उद्योगों के केन्द्रीकरण, लोक-स्वास्थ्य की पेचीदा समस्याओं, आवास की कमी तथा नैतिक पतन के कारण उत्पन्न होते हैं।

कुटीर, लघु उद्योग थोड़ी पूँजी के द्वारा जीविका-निर्वाह के साधन प्रस्तुत करते हैं। पारस्परिक सहयोग से कुटीर-उद्योग बड़े पैमाने में भी परिणत किया जा सकता है। कुटीर-उद्योग में छोटे-छोटे बालकों एवं स्त्रियों के परिश्रम का भी सुन्दर उपयोग किया जा सकता है। कुटीर उद्योग की इन्हीं विशेषताओं से प्रभावित होकर बड़े- बड़े औद्योगिक राष्ट्रों में भी कुटीर एवं लघु उद्योग की प्रथा प्रचलित है। जापान में 60 प्रतिशत उद्योगशालाएँ कुटीर एवं लघु उद्योग से संचालित हैं। कहा जाता है कि जर्मनी में प्रत्येक मनुष्य को रोटी देने का प्रबन्ध करने के लिए हिटलर ने कुटीर-उद्योगों की ही शरण ली थी।

कुटीर उद्योगों का नया स्वरूप–इस समय देश में छोटे कारखानों की संख्या मोटे तौर पर एक करोड़ से अधिक आँकी गयी है, परन्तु तेल की घानियाँ, खाँडसारी और ऐसी वस्तुओं के छोटे कारखाने, जिन्हें केवल एक आदमी चलाता है आदि को मिलाकर इनकी संख्या बहुत कम है। पंचवर्षीय योजनाओं का उद्देश्य उद्योगों को आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनाने का रहा है। अतः मुख्य रूप से ध्यान इस पर दिया जाएगा कि उद्योगों का विकास विकेन्द्रीकरण के आधार पर हो, शिल्पिक कुशलता में सुधार किया जाए और उत्पादकता बढ़ाने के लिए सहायता देकर छोटे उद्योग वालों की आय बढ़ाने में सहायता की जाए तथा दस्तकारों को सहकारिता के आधार पर संगठित करने के प्रयास किये जाएँ। इससे छोटे उद्योगों में उत्पादन का क्षेत्र बढ़ेगा।

उपसंहार–छोटे उद्योगों की गाँवों में स्थापना से न केवल ग्रामीण दस्तकारों की स्थिति में सुधार हुआ है, बल्कि गाँवों में रोजगार की सुविधा भी बढ़ी है। अतः ग्राम विकास कार्यक्रमों में कुटीर एवं लघु उद्योगों का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। पूर्ण रूप से सफल बनाने के लिए हमारी सरकार इन्हें वैज्ञानिक पद्धति से सहकारिता के आधार पर संचालित करने की व्यवस्था कर रही है। इसकी सफलता पर ही हमारे जीवन में पूर्ण शान्ति, सुख और समृद्धि की कल्याणकारी पूँज ध्वनित हो सकेगी।

आर्थिक उदारीकरण एवं निजीकरण की नीति

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. पं० नेहरू की विचारधारा,
  3. भारतीय अर्थव्यवस्था,
  4. उदारीकरण का अर्थ,
  5. निजीकरण का अर्थ,
  6. नयी औद्योगिक नीति,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना-आजकल ‘उदारीकरण’ शब्द का प्रयोग अत्यधिक प्रचलित हो गया है और इसे इस प्रकार प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे देश की जर्जर अर्थव्यवस्था का उद्धार केवल यही पद्धति कर सकती है। इस व्यवस्था के पक्षधरों का मानना है कि स्वातन्त्र्योत्तर भारत ने आर्थिक विकास हेतु जिस नीति का अनुगमन किया वह सरकारी नियन्त्रण पर आधारित रही और निजी उद्यमिता इससे प्रभावित हुई। फलत: देश की आर्थिक उन्नति में अपेक्षित उन्नति नहीं हुई। यह भी तर्क दिया जा रहा है कि परमिट लाइसेंस राज ने भी भारतीय अर्थव्यवस्था में गतिरोध ही उत्पन्न किया है।

पं० नेहरू की विचारधारा--ज्ञातव्य है कि सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र किसी भी उन्नतिशील देश के विकास के मूल में होते हैं और इन्हीं से उस देश की आर्थिक प्रक्रिया नियन्त्रित होती है। पं० जवाहरलाल नेहरू का विचार था कि यदि देश का सर्वांगीण विकास करना है तो प्रमुख उद्योगों को विकसित किया जाना आवश्यक होगा। उनका विचार था कि दुनिया में अनेक आर्थिक विचारधाराओं में संघर्ष हो रहा है। मुख्यतः दो धाराएँ हैं-एक ओर तो तथाकथित पूँजीवादी विचारधारा है और दूसरी ओर तथाकथित सोवियत रूस की साम्यवादी विचारधारा। प्रत्येक पक्ष अपने दृष्टिकोण की यथार्थता का कायल है। लेकिन इससे जरूरी तौर पर यह नतीजा नहीं निकलता है कि आप इन दोनों पक्षों में से एक को स्वीकार करें। बीच के कई दूसरे तरीके भी हैं। पूँजीवादी औद्योगिक व्यवस्था ने उत्पादन की समस्या को अत्यधिक सफलता से हल किया है। लेकिन उसने कई समस्याओं को हल नहीं भी किया है। यदि वह इन समस्याओं को हल नहीं कर सकता तो कोई और रास्ता निकालना होगी। यह सिद्धान्त का नहीं कठोर तथ्य का सवाल है। भारत में यदि हम अपने देश की भोजन, वस्त्र, मकान आदि की बुनियादी समस्याएँ हल नहीं कर सकते तो हम अलग कर दिये जाएँगे और हमारी जगह कोई और आएगा। इस समस्या के हल के लिए चरमपंथी तरीका ही नहीं वरन् बीच का रास्ता भी अपनाया जा सकता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था--भारत में जिस प्रकार की अर्थव्यवस्था प्रारम्भ हुई उसे मिश्रित अर्थव्यवस्था का नाम दिया गया। मिश्रितृ अर्थव्यवस्था से तात्पर्य है ऐसी व्यवस्था जहाँ कुछ क्षेत्र में सरकारी नियन्त्रण रहता है तथा अन्य क्षेत्र निजी घ्यवस्था के अधीन रहते हैं और क्षेत्रों का वर्गीकरण पूर्णतय पूर्व सुनिश्चित रहता है।

हिन्दुस्तान में आजादी से पूर्व किसी सुनियोजित औद्योगिक नीति की घोषणा नहीं हुई थी। स्वातन्त्र्योत्तर प्रथम औद्योगिक नीति की घोषणा मिश्रित अर्थव्यवस्था की संकल्पना पर आधारित थी। सन् 1956 में जो औद्योगिक नीति बनी, वह प्रमुख एवं आधारभूत उद्योगों के त्वरित विकास तथा समाजवादी समाज की स्थापना जैसे लक्ष्यों पर आधारित थी। बाद में उसमें कतिपय नीतिगत परिवर्तन हुए जिससे सार्वजनिक क्षेत्र में व्याप्त अवरोधों को दूर किया जा सका।

उदारीकरण का अर्थ-आर्थिक प्रतिबन्धों की न्यूनता को ही उदारीकरण कह सकते हैं। प्रतिबन्धों के कारण प्रतियोगिता का अभाव रहता है, फलतः उत्पादक वर्ग वस्तु की गुणवत्ता के प्रति उदासीन रहता है। किन्तु यदि प्रतिबन्धों का अभाव कर दिया जाए तो इसका परिणाम दूरगामी होती है। उदारवादियों का मानना है और नियन्त्रित अर्थव्यवस्था या सरकारीकरण से उद्यमिता का विकास बाधित होता है।

यहाँ पर उल्लेख किया जाना आवश्यक है कि निजीकरण को सम्प्रति विश्व के अधिकांश विकसित एवं अर्द्धविकसित देशों में अपनाया गया है। चूंकि सरकारी उद्योगों में प्रतियोगिता का अभाव रहता है और इसमें उत्पादकता को बढ़ाने का कोई विशेष प्रयास नहीं होता। फलतः इन उद्योगों में कुशलता घट जाती है, किन्तु विकल्प रूप में निजीकरण ही सबसे बेहतर व्यवस्था है, यह भी नहीं कहा जा सकता।

निजीकरणका अर्थ-निजीकरण’ का अर्थ उत्पादनों के साधनों का निजी हाथों में होना है। इसमें सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि निजीकरण का उद्देश्य अल्पकाल में अधिक से अधिक लाभ कमाना होता है। इस कारण यह दीर्घकालीन प्रतिस्पर्धात्मक बाजार नहीं बनाये रहता। प्रायः सरकारी घाटों को पूरा करने के लिए निजीकरण का तरीका अपनाया जाता है। सार्वजनिक सम्पत्ति का निजी हाथों में विक्रय उसी दशा में किया जाना चाहिए जब कि वह राष्ट्रीय ऋण को कम करने में सहायक हो।

सन् 1993 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया था कि उदारीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप बेरोजगारी और मुद्रा स्फीति दोनों में वृद्धि हुई है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रोफेसर रुद्र दत्त ने ‘इम्पैक्ट ऑफ इकनॉमिक पॉलिसी ऑन लेबर एण्ड इण्डस्ट्रियल रिलेशन की रिपोर्ट में कहा था कि उदारीकरण ने उत्पादन की संरचना को भी विकृत किया है।

‘नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एण्ड पॉलिसी के प्रमुख शोधकर्ता सुदीप्तो मण्डल का मानना है कि उदारीकरण के परिणामस्वरूप मिल-मालिकों की उग्रता बढ़ी है जबकि श्रमिक वर्ग के जुझारूपन में कमी आयी है।

नयी औद्योगिक नीति–विगत वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था अत्यधिक नियन्त्रित एवं विनियमित अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित हुई है। 24 जुलाई, 1991 को भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व अर्थव्यवस्था के एक अंग के रूप में विकसित करने के लिए नयी औद्योगिक नीति तैयार हुई जिसे उदार एवं क्रान्तिकारी नीति की संज्ञा दी गयी है। इस नीति का लक्ष्य है-

  1. अर्थव्यवस्था में खुलेपन को लाना।
  2. अर्थव्यवस्था को अनावश्यक नियन्त्रणों से मुक्त रखना।
  3. विदेशी सहयोग एवं भागीदारी को बढ़ावा देना।
  4. रोजगार के अवसर बढ़ाना।
  5. सार्वजनिक क्षेत्र को प्रतिस्पर्धा के योग्य बनाना।
  6. आधुनिक प्रतिस्पर्धात्मक अर्थव्यवस्था को विकसित करना।
  7. निर्यात बढ़ाने के लिए आयातों को उदार बनाना।
  8. उत्पादकता वृद्धि हेतु प्रोत्साहन देना आदि।।

वर्तमान औद्योगिक नीति के अन्तर्गत उद्योगों पर लगे प्रशासनिक एवं कानूनी नियन्त्रणों में शिथिलता दी गयी है। सभी मौजूदा उत्पादन इकाइयों को विस्तार परियोजनाओं को लागू करने के लिए पूर्वानुमति की आवश्यकता नहीं है। उच्च प्राथमिकता वाले उद्योगों में विदेशी पूँजी के निवेश को 40 प्रतिशत के स्थान पर 51 प्रतिशत तक की अनुमति देने के साथ-साथ सार्वजनिक क्षेत्र के महत्त्व को बनाये रखने पर बल दिया गया है। विदेशी तकनीशियनों की सेवाएँ किराये पर लेने तथा स्वदेश में विकसित प्रौद्योगिकी की विदेशों में जाँच करने के लिए अब स्वतः अनुमति की व्यवस्था है।

यह तो ठीक है कि नयी औद्योगिक नीति से उत्पादन वृद्धि, निर्यात संवर्द्धन, औद्योगीकरण, तकनीकी सुधार, प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति का विकावा तथा नये उद्यमियों को प्रोत्साहन प्राप्त होगा किन्तु अत्यधिक उदारीकरण एवं विदेशी पूँजी के निवेश की स्वतन्त्र छूट से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था बहुराष्ट्रीय निगमों एवं वड़े औद्योगिक घरानों के चक्र में फँस जाएगी। इस नीति के निम्नलिखित दूरगामी दुष्प्रभाव भी हो सकते हैं

  1. आर्थिक विषमता में वृद्धि।
  2. आत्मनिर्भरता में ह्रास।
  3. आयतित संस्कृति को बढ़ावा।
  4. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं विदेशी विनियोजकों को स्वतन्त्र छूट देने से देशी उद्यमियों का प्रतिस्पर्धा में। टिक पाना कठिन।
  5. अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के दबाव।
  6. काले धन की समानान्तर अर्थव्यवस्था।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि उदारीकरण की हवा पश्चिम से चली है। ठीक है कि निजी उद्योगों की उत्पादन संवृद्धि में विशेष भूमिका हो सकती है किन्तु हस्तक्षेप के अभाव में निजी उद्यमिता विनाशात्मक हो सकती है और किसी भी रूप में निजीकरण सार्वजनिक इकाइयों की त्रुटियों को दूर करने वाला प्रभावपूर्ण उपकरण नहीं हो सकता है। निजीकरण से निजी क्षमता का लाभ होगा और सार्वजनिक इकाइयाँ अस्वस्थ होंगी।

उपसंहार-उदारीकरण से आशय यह नहीं है कि सरकार की भूमिका इसमें कम होती है, अपितु इसमें उसका उत्तरदायित्व और बढ़ जाता है और आर्थिक उदारीकरण का औचित्य सही मायने में तभी सिद्ध हो सकेगा, जब उससे जन-साधारण लाभान्वित हो सकेगा। उदारीकरण की नीति भारतीय अर्थव्यवस्था को गतिशील एवं प्रतिस्पर्धात्मक बनाने में सफल हो सकती है। किन्तु विदेशी पूँजी पर आश्रितता, विदेशी आर्थिक उपनिवेशवाद की स्थापना एवं बड़े औद्योगिक घरानों का वर्चस्व बढ़ेगा, जिससे गरीबी और बेरोजगारी में वृद्धि होगी। अतः इस नीति को दूरदर्शितापूर्वक लागू करना होगा अन्यथा अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनियों के भारत में आने से भारतीय कम्पनियों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा, जो कि आर्थिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भारत के लिए अत्यधिक हानिकारक है।

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UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi कृषि सम्बन्धी निबन्ध

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Class Class 11
Subject Samanya Hindi
Chapter Name कृषि सम्बन्धी निबन्ध
Category UP Board Solutions

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ग्राम्य विकास की समस्याएँ और उनका समाधान

सम्बद्ध शीर्षक

  • भारतीय कृषि की समस्याएँ
  • भारतीय किसानों की समस्याएँ और उनके समाधान
  • ग्रामीण कृषकों की समस्या
  • आज का किसान : समस्याएँ और समाधान
  • भारतीय किसान का जीवन
  • कृषक जीवन की त्रासदी

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. भारतीय कृषि का स्वरूप,
  3. भारतीय कृषि की समस्याएँ,
  4. समस्या का समाधान,
  5. ग्रामोत्थान हेतु सरकारी योजनाएँ,
  6. आदर्श ग्राम की कल्पना,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना-प्राचीन काल से ही भारत एक कृषिप्रधान देश रहा है। भारत की लगभग 70 प्रतिशत जनता गाँवों में निवास करती है। इस जनसंख्या का अधिकांश भाग कृषि पर ही निर्भर है। कृषि ने ही भारत को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में विशेष ख्याति प्रदान की है। भारत की सकल राष्ट्रीय आय का लगभग 30 प्रतिशत कृषि से ही आता है। भारतीय समाज का संगठन और संयुक्त परिवार-प्रणाली आज के युग में कृषि व्यवसाय के कारण ही अपना महत्त्व बनाये हुए है। आश्चर्य की बात यह है कि हमारे देश में कृषि बहुसंख्यक जनता का मुख्य और महत्त्वपूर्ण व्यवसाय होते हुए भी बहुत ही पिछड़ा हुआ और अवैज्ञानिक है। जब तक भारतीय कृषि में सुधार नहीं होता, तब तक भारतीय किसानों की स्थिति में सुधार की कोई सम्भावना नहीं और भारतीय किसानों की स्थिति में सुधार के पूर्व भारतीय गाँवों के विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि भारतीय कृषि, कृषक और गाँव तीनों ही एक-दूसरे पर अवलम्बित हैं। इनके उत्थान और पतन, समस्याएँ और समाधान भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।

भारतीय कृषि का स्वरूप-भारतीय कृषि और अन्य देशों की कृषि में बहुत अन्तर है। कारण अन्य देशों की कृषि वैज्ञानिक ढंग से आधुनिक साधनों द्वारा की जाती है, जब कि भारतीय कृषि अवैज्ञानिक और अविकसित है। भारतीय कृषक आधुनिक तरीकों से खेती करना नहीं चाहते और परम्परागत कृषि पर ही आधारित हैं। इसके साथ-ही भारतीय कृषि कां स्वरूप इसलिए भी अव्यवस्थित है कि यहाँ पर कृषि प्रकृति की उदारता पर निर्भर है। यदि वर्षा ठीक समय पर उचित मात्रा में हो गयी तो फसल अच्छी हो जाएगी। अन्यथा बाढ़ और सूखे की स्थिति में सारी की सारी उपज नष्ट हो जाती है। इस प्रकार प्रकृति की अनिश्चितता पर निर्भर होने के कारण भारतीय कृषि सामान्य कृषकों के लिए आर्थिक दृष्टि से लाभदायक नहीं है।

भारतीय कृषि की समस्याएँ-आज के विज्ञान के युग में भी कृषि के क्षेत्र में भारत में अनेक समस्याएँ विद्यमान हैं, जो कि भारतीय कृषि के पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी हैं। भारतीय कृषि की प्रमुख समस्याओं में सामाजिक, आर्थिक और प्राकृतिक कारण हैं। सामाजिक दृष्टि से भारतीय कृषक की दशा अच्छी नहीं है। अपने शरीर की चिन्ता न करते हुए सर्दी, गर्मी सभी ऋतुओं में वह अत्यन्त कठिन परिश्रम करता है तब भी उसे पर्याप्त लाभ नहीं हो पाता। भारतीय किसान अशिक्षित होता है। इसका कारण आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के प्रसार का न होना है। शिक्षा के अभाव के कारण वह कृषि में नये वैज्ञानिक तरीकों का प्रयोग नहीं कर पाता तथा अंच्छे खाद और बीज के बारे में भी नहीं जानता। कृषि करने के आधुनिक वैज्ञानिक यन्त्रों के विषय में भी उसैका ज्ञान शून्य होता है तथा आज भी वह प्रायः पुराने ढंग के ही खाद और बीजों का प्रयोग करता है। भारतीय किसानों की आर्थिक स्थिति भी अत्यन्त शोचनीय है। वह आज भी महाजनों की मुट्ठी में जकड़ा हुआ हैं। प्रेमचन्द ने कहा था, “भारतीय किसान ऋण में ही जन्म लेता है, जीवन भर ऋण ही चुकाता रहता है और अन्ततः ऋणग्रस्त अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।’ धन के अभाव में ही वह उन्नत बीज, खाद और कृषि-यन्त्रों का प्रयोग नहीं कर पाता। सिंचाई के साधनों के अभाव के कारण वह प्रकृति पर अर्थात् वर्षों पर निर्भर करता है।

प्राकृतिक प्रकोपों—बाढ़, सूखा, ओला आदि से भारतीय किसानों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। अशिक्षित होने के कारण वह वैज्ञानिक विधियों की खेती में प्रयोग करना नहीं जानता और न ही उन पर विश्वास करना चाहता है। अन्धविश्वास, धर्मान्धता, रूढ़िवादिता आदि उसे बचपन से ही घेर लेते हैं। इस सबके अतिरिक्त एक अन्य समस्या है-भ्रष्टाचार की, जिसके चलते न तो भारतीय कृषि का स्तर सुधर पाता है और न ही भारतीय कृषक का। हमारे पास दुनिया की सबसे अधिक उपजाऊ भूमि है। गंगा-यमुना के मैदान में इतना अनाज पैदा किया जा सकता है कि पूरे देश का पेट भरा जा सकता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण दूसरे देश आज भी हमारी ओर ललचाई नजरों से देखते हैं। लेकिन हमारी गिनती दुनिया के भ्रष्ट देशों में होती है। हमारी तमाम योजनाएँ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। केन्द्र सरकार अथवा विश्व बैंक की कोई भी योजना हो, उसके इरादे कितने ही महान् क्यों न हों पर हमारे देश के नेता और नौकरशाह योजना के उद्देश्यों को धूल चटा देने की कला में माहिर हो चुके हैं। ऊसर भूमि सुधार, बाल पुष्टाहार, आँगनबाड़ी, निर्बल वर्ग आवास योजना से लेकर कृषि के विकास और विविधीकरण की तमाम शानदार योजनाएँ कागजों और पैम्फ्लेटों पर ही चल रही हैं। आज स्थिति यह है कि गाँवों के कई घरों में दो वक्त चूल्हा भी नहीं जलता है तथा ग्रामीण नागरिकों को पानी, बिजली, स्वास्थ्य, यातायात और शिक्षा की बुनियादी सुविधाएँ भी ठीक से उपलब्ध नहीं हैं। इन सभी समस्याओं के परिणामस्वरूप भारतीय कृषि का प्रति एकड़ उत्पादन, अन्य देशों की अपेक्षा गिरे हुए स्तर का रहा है।

समस्या का समाधान-भारतीय कृषि की दशा को सुधारने से पूर्व हमें कृषक और उसके वातावरण की ओर वृष्टिपात करना चाहिए। भारतीय कृषक जिन ग्रामों में रहता है, उनकी दशा अत्यन्त शोचनीय है। अंग्रेजों के शासनकाल में किसानों पर ऋण का बोझ बहुत अधिक था। शनैः-शनै: किसानों की आर्थिक दशा और गिरती चली गयी एवं गाँवों का सामाजिक-आर्थिक वातावरण अत्यन्त दयनीय हो गया। अत: किसानों की स्थिति में सुधार तभी लाया जा सकता है, जब विभिन्न योजनाओं के माध्यम से इन्हें लाभान्वित किया जा सके। इनको अधिकाधिक संख्या में साक्षर बनाने हेतु एक मुहिम छेड़ी जाए। ऐसे ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रम तैयार किये जाएँ, जिनसे हमारा किसान कृषि के आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों से अवगत हो सके।

ग्रामोत्थान हेतु सरकारी योजनाएँ-ग्रामों की दुर्दशा से भारत की सरकार भी अपरिचित नहीं है। भारत ग्रामों का ही देश है; अत: उनके सुधारार्थ पर्याप्त ध्यान दिया जाता है। पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा गाँवों में सुधार किये जा रहे हैं। शिक्षालय, वाचनालय, सहकारी बैंक, पंचायत, विकास विभाग, जलकल, विद्युत आदि की व्यवस्था के प्रति पर्याप्त ध्यान दिया जा रहा है। इस प्रकार सर्वांगीण उन्नति के लिए भी प्रयत्न हो रहे हैं, किन्तु इनकी सफलता ग्रामों में बसने वाले निवासियों पर भी निर्भर है। यदि वे अपना कर्तव्य समझकर विकास में सक्रिय सहयोग दें, तो ये सभी सुधार उत्कृष्ट साबित हो सकते हैं। इन प्रयासों के बावजूद ग्रामीण जीवन में अभी भी अनेक सुधार अपेक्षित हैं।

आदर्श ग्राम की कल्पना-गाँधी जी की इच्छा थी कि भारत के ग्रामों का स्वरूप आदर्श हो तथा उनमें सभी प्रकार की सुविधाओं, खुशहाली और समृद्धि का साम्राज्य हो। गाँधी जी का आदर्श गाँव से अभिप्राय एक ऐसे गाँव से था, जहाँ पर शिक्षा का सुव्यवस्थित प्रचार हो; सफाई, स्वास्थ्य तथा मनोरंजन की सुविधाएँ हो; सभी व्यक्ति प्रेम, सहयोग और सद्भावना के साथ रहते हों; रेडियो, पुस्तकालय, पोस्ट ऑफिस आदि की सुविधाएँ हों; भेदभाव, छुआछूत आदि की भावना न हो; तथा लोग सुखी और सम्पन्न हों। परन्तु आज भी हम देखते हैं कि उनका स्वप्न मात्र स्वप्न ही रह गया है। आज भी भारतीय गाँवों की दशा अच्छी नहीं है। चारों ओर बेरोजगारी और निर्धनता का साम्राज्य है। गाँधी जी का आदर्श ग्राम तभी सम्भव है। जब कृषि जो कि ग्रामवासियों का मुख्य व्यवसाय है, की स्थिति में सुधार के प्रयत्न किये जाएँ और कृषि से सम्बन्धित सभी समस्याओं का यथासम्भव शीघ्रातिशीघ्र निराकरण किया जाए।

उपसंहार-ग्रामों की उन्नति भारत के आर्थिक विकास में अपना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। भारत सरकार ने स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् गाँधी जी के आदर्श ग्राम की कल्पनो को साकार करने का यथासम्भव प्रयास किया है। गाँवों में शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई आदि की व्यवस्था के प्रयत्न किये हैं। कृषि के लिए अनेक सुविधाएँ; जैसे-अच्छे बीज, अच्छे खोद, अच्छे उपकरण और साख एवं सुविधाजनक ऋण-व्यवस्था आदि देने का प्रबन्ध कियगया है। इस दशा में अभी और सुधार किये जाने की आवश्यकता है। वह दिन दूर नहीं है जब हम अपनी संस्कृति के मूल्य को पहचानेंगे और एक बार फिर उसके सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करेंगे। उस समय हमारे स्वर्ग से सुन्दर देश के वैसे ही गाँव अँगूठी में जड़े नग की तरह सुशोभित होंगे और हम कह सकेंगे—

हमारे सपनों का संसार, जहाँ पर हँसती हो साकार,
जहाँ शोभा-सुख-श्री के साज, किया करते हैं नित श्रृंगार।
यहाँ यौवन मदमस्त ललाम, ये हैं वही हमारे ग्राम ॥

भारत में वैज्ञानिक कृषि

सम्बद्ध शीर्षक

  • भारतीय विज्ञान एवं कृषि
  • वैज्ञानिक विधि अपनाएँ : अधिक अंन्न उपजाएँ
  • भारत का किसान और विज्ञान
  • भारतीय कृषि एवं विज्ञान
  • व्यावसायिक कृषि का प्रसार : किसान का आधार

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. प्रजनन : कृषि की विशिष्ट वैज्ञानिक विधि,
  3. विज्ञान की नयी तकनीकों के प्रयोग का सुखद परिणाम,
  4. उत्पादन के भण्डारण और भू-संरक्षण के लिए विज्ञान की उपादेयता,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना-किसान और खेती इस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। इसलिए सच ही कहा गया है। कि हमारे देश की समृद्धिका रास्ता खेतों और खलिहानों से होकर गुजरता है; क्योंकि यहाँ की दो-तिहाई जनता कृषि-कार्य में संलग्न है। इस प्रकार हमारी कृषि-व्यवस्था पर ही देश की समृद्धि निर्भर करती है और कृषि-व्यवस्था को विज्ञान ने एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया है, जिसके कारण पिछले दशकों में आत्मनिर्भरता की स्थिति तक उत्पादन बढ़ा है। इस वृद्धि में उन्नत किस्म के बीजों, उर्वरकों, सिंचाई के साधनों, जल-संरक्षण एवं पौध-संरक्षण का उल्लेखनीय योगदान रहा है और यह सब कुछ विज्ञान की सहायता से ही सम्भव हो सका है। इस प्रकार विज्ञान और कृषि आज एक-दूसरे के पूरक हो गये हैं।

मनुष्यों को जीवित रहने के लिए खाद्यान्न, फल और सब्जियाँ चाहिए। ये सभी चीजें कृषि से ही प्राप्त होंगी। दूसरी ओर किसानों को अपनी कृषि की उपज बढ़ाने के लिए नयी तकनीक चाहिए, उन्नत किस्म के बीज चाहिए, उर्वरक और सिंचाई के साधनों के अलावा बिजली भी चाहिए। विज्ञान का ज्ञान ही उन्हें यह सब उपलब्ध करा सकता है।

प्रजनन: कृषि की विशिष्ट वैज्ञानिक विधि-चन्द्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने वित्तीय वर्ष 1999-2000 में गेहूँ की चार नयी प्रजातियाँ विकसित कीं। कृषि वैज्ञानिक प्रोफेसर जियाउद्दीन अहमद के अनुसार, ‘अटल’, ‘नैना’, ‘गंगोत्री एवं प्रसाद’ नाम की ये प्रजातियाँ रोटी को और अधिक स्वादिष्ट बनाने में सक्षम होंगी। पहली प्रजाति-के-9644 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम से जोड़कर ‘अटल’ नाम दिया गया है, जिन्होंने ‘जय जवान जय किसान’ के साथ ‘जय विज्ञान’ जोड़कर एक नया नारा दिया है। यह गेहूँ ऐच्छिक पौधों के प्रकार के साथ, वर्षा की विविध स्थितियों में भी श्रेयस्कर उत्पादक स्थितियाँ सँजोये रखेगा। हरी पत्ती और जल्दी पुष्पित होने वाली इस प्रजाति का गेहूँ कड़े दाने वाला होगा। इसमें अधिक उत्पादकता के साथ अधिक प्रोटीन भी होगा। प्रजनन की विशिष्ट विधि का प्रयोग करके वैज्ञानिकों ने के-7903 नैना प्रजाति का विकास किया है, जो 75 से 100 दिन में पक जाता है। इसमें 12 प्रतिशत प्रोटीन होता है और इसकी उत्पादन-क्षमता 40 से 50 क्विटल प्रति हेक्टेयर है। इसी प्रकार विकसित के-9102 प्रजाति को गंगोत्री नाम दिया है। इसकी परिपक्वता अवधि 90 से 105 दिन के बीच घोषित की गयी है। इसमें 13 प्रतिशत प्रोटीन होता है और 40 से 50 क्विटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन-क्षमता होती है। प्रजनन की विशिष्ट वैज्ञानिक विधि से ही ऐसा सम्भव हो पाया है।

विज्ञान की नयी तकनीकों के प्रयोग का सुखद परिणाम-आधारभूतं वैज्ञानिक तकनीकें जो कृषि के क्षेत्र में प्रयुक्त हुई और हो रही हैं, उन्हें अब व्यापक स्वीकृति भी मिल रही है। ये वे आधार बनी हैं, जिससे कृषि की उपलब्धियाँ ‘भीख के कटोरे’ से आज निर्यात के स्तर तक पहुँच गयी हैं। कृषि में वृद्धि, विशेषकर पैदावार और उत्पादन में अनेक गुना वृद्धि, मुख्य अनाज की फसलों के उत्पादन में वृद्धि से सम्भव हुई है। पहले गेहूं की हरित क्रान्ति हुई और इसके बाद धान के उत्पादन में क्रान्ति आयी। उत्तर प्रदेश के 167.31 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खेती की जाती है, जिसमें वर्ष 1999-2000 में 452.36 लाख मी० टन खाद्यान्न का रिकार्ड उत्पादन हुआ, जो देश के कुल उत्पादन का 23 प्रतिशत है। विज्ञान की नयी-नयी तकनीकों के प्रयोग से ही यह सम्भव हो सकती है।

उत्पादन के भण्डारण और भू-संरक्षण के लिए विज्ञान की उपादेयता-–पर्याप्त मात्रा में उत्पादन के बाद उसके भण्डारण की भी आवश्यकता होती है। आलू, फल आदि के भण्डारण के लिए शीतगृहों एवं प्रशीतित वाहनों के लिए वैज्ञानिक विधियों की सहायता की आवश्यकता पड़ती है। फसलों के निर्यात के लिए साफ-सुथरी सड़कों, ट्रैक्टरों और ट्रकों का निर्माण विज्ञान के ज्ञान से ही सम्भव हो सका है, जिनकी आवश्यकता कृषकों के लिए होती है। इसके अलावा चीनी मिले, आटा मिल, चावल मिल, दाल मिल और तेल मिल की आवश्यकता पड़ती है। इन मिलों की स्थापना वैज्ञानिक विधि से ही हो सकती है। ट्यूबवेल एवं कृषि पर आधारित उद्योगों के लिए बिजली की आवश्यकता को वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर पूरा किया जा सकता है। इसी प्रकार खेत की मिट्टी की जाँच कराकर, विश्लेषण के परिणामों के आधार पर सन्तुलित उर्वरकों एवं जैविक खादों के प्रयोग के लिए भी विज्ञान के ज्ञान की ही आवश्यकता होती है।

उपसंहार—इस प्रकार विज्ञान और कृषि का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। भूमण्डलीकरण के युग में आज विज्ञान की सहायता के बिना कृषि और कृषक को उन्नत नहीं बनाया जा सकता। यह भी सत्य है कि जब तक गाँव की खेती तथा किसान की दशा नहीं सुधरती, तब तक देश के विकास की बात बेमानी ही कही जाएगी। भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री चौधरी चरण सिंह के जन्मदिन 23 दिसम्बर को किसान-दिवस’ के रूप में मनाये जाने की घोषणा से कृषि और कृषक के उज्ज्वल भविष्य की अच्छी सम्भावनाएँ दिखाई देती हैं।

भारत में कृषि क्रान्ति एवं कृषक आन्दोलन

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. किसानों की समस्याएँ,
  3. कृषक संगठन व उनकी माँग,
  4. कृषक आन्दोलनों के कारण,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना—हमारा देश कृषि प्रधान है और सच तो यह है कि कृषि क्रिया-कलाप ही देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। ग्रामीण क्षेत्रों की तीन-चौथाई से अधिक आबादी अब भी कृषि एवं कृषि से संलग्न क्रिया-कलापों पर निर्भर है। भारत में कृषि मानसून पर आश्रित है और इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि प्रत्येक वर्ष देश की एक बहुत बड़ा हिस्सा सूखे एवं बाढ़ की चपेट में आता है। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था, भारतीय जन-जीवन का प्राणतत्त्व है। अंग्रेजी शासन-काल में भारतीय कृषि का पर्याप्त ह्रास हुआ।

किसानों की समस्याएँ--भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। भारत की अधिकांश जनता गाँवों में बसती है। यद्यपि किसान समाज का कर्णधार है किन्तु इनकी स्थिति अब भी बदतर है। उसकी मेहनत के अनुसार उसे पारितोषिक नहीं मिलता है। यद्यपि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि-क्षेत्र का योगदान 30 प्रतिशत है, फिर भी भारतीय कृषक की दशा शोचनीय है।

देश की आजादी की लड़ाई में कृषकों की एक वृहत् भूमिका रही। चम्पारण आन्दोलन अंग्रेजों के खिलाफ एक खुला संघर्ष था। स्वातन्त्र्योत्तर जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ। किसानों को भू-स्वामित्व का अधिकार मिला। हरित कार्यक्रम भी चलाया गया और परिणामत: खाद्यान्न उत्पादकता में वृद्धि हुई; किन्तु इस हरित क्रान्ति का विशेष लाभ सम्पन्न किसानों तक ही सीमित रहा। लघु एवं सीमान्त कृषकों की स्थिति में कोई आशानुरूप सुधार नहीं हुआ।

आजादी के बाद भी कई राज्यों में किसानों को भू-स्वामित्व नहीं मिला जिसके विरुद्ध बंगाल, बिहार एवं आन्ध्र प्रदेश में नक्सलवादी आन्दोलन प्रारम्भ हुए।

कृषक संगठन वे उनकी माँग--किसानों को संगठित करने का सबसे बड़ा कार्य महाराष्ट्र में शरद जोशी ने किया। किसानों को उनकी पैदावार का समुचित मूल्य दिलाकर उनमें एक विश्वास पैदा किया कि वे संगठित होकर अपनी स्थिति में सुधार ला सकते हैं। उत्तर प्रदेश के किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत ने । किसानों की दशा में बेहतर सुधार लाने के लिए एक आन्दोलन चलाया है और सरकार को इस बात का अनुभव करा दिया कि किसानों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। टिकैत के आन्दोलन में किसानों के मन में कमोवेश यह भावना भर दी कि वे भसंगठित होकर अपनी आर्थिक उन्नति कर सकते हैं।

किसान संगठनों को सबसे पहले इस बारे में विचार करना होगा कि “आर्थिक दृष्टि से अन्य वर्गों के साथ उनका क्या सम्बन्ध है। उत्तर प्रदेश की सिंचित भूमि की हदबन्दी सीमा 18 एकड़ है। जब किसान के लिए सिंचित भूमि 18 एकड़ है, तो उत्तर प्रदेश की किसान यूनियन इस मुद्दे को उजागर करना चाहती है कि 18 एकड़ भूमि को सम्पत्ति-सीमा का आधार मानकर अन्य वर्गों की सम्पत्ति अथवा आय-सीमा निर्धारित होनी चाहिए। कृषि पर अधिकतम आय की सीमा साढ़े बारह एकड़ निश्चित हो गयी, किन्तु किसी व्यवसाय पर कोई भी प्रतिबन्ध निर्धारित नहीं हुआ। अब प्रौद्योगिक क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी शनैः-शनैः हिन्दुस्तान में अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाती जा रही हैं। किसान आन्दोलन इस विषमता एवं विसंगति को दूर करने के लिए भी संघर्षरत है। वह चाहता है कि भारत में समाजवाद की स्थापना हो, जिसके लिए सभी प्रकार के पूँजीवाद तथा इजारेदारी का अन्त होना परमावश्यक है। यूनियन की यह भी माँग है कि वस्तु विनिमय के अनुपात से कीमतें निर्धारित की जाएँ, न कि विनिमयं का माध्यम रुपया माना जाए। यह तभी सम्भव होगा जब उत्पादक और उपभोक्ता दोनों रूपों में किसान के शोषण को समाप्त किया जा सके। सारांश यह है कि कृषि उत्पाद की कीमतों को आधार बनाकर ही अन्य औद्योगिक उत्पादों की कीमतों को निर्धारित किया जाना चाहिए।”

किसान यूनियन किसानों के लिए वृद्धावस्था पेंशन की पक्षधर है। कुछ लोगों का मानना है कि किसान यूनियन किसानों का हित कम चाहती है, वह राजनीति से प्रेरित ज्यादा है। इस सन्दर्भ में किसान यूनियन का कहना है “हम आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक शोषण के विरुद्ध किसानों को संगठित करके एक नये समाज की संरचना करना चाहते हैं। आर्थिक मुद्दों के अतिरिक्त किसानों के राजनीतिक शोषण से हमारा तात्पर्य जातिवादी राजनीति को मिटाकर वर्गवादी राजनीति को विकसित करना है। आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक दृष्टि से शोषण करने वालों के समूह विभिन्न राजनीतिक दलों में विराजमान हैं और वे अनेक प्रकार के हथकण्डे अर्पनाकर किसानों को मुंह बन्द करना चाहते हैं। कभी जातिवादी नारे देकर, कभी किसान विरोधी आर्थिक तर्क देकर, कभी देश-हित का उपदेश देकर आदि, परन्तु वे यह भूल जाते हैं कि किसानों की उन्नति से ही भारत नाम का यह देश, जिसकी जनसंख्या का कम-से-कम 70% भाग किसानों का है, उन्नति कर सकता है। कोई चाहे कि केवल एक-आध प्रतिशत राजनीतिज्ञों, अर्थशास्त्रियों, स्वयंभू समाजसेवियों तथा तथाकथित विचारकों की उन्नति हो जाने से देश की उन्नति हो जाएगी तो ऐसा सोचने वालों की सरासर भूल होगी।

यहाँ एक बात का उल्लेख करना और भी समीचीन होगा कि आर्थर डंकल के प्रस्तावों ने कृषक आन्दोलन में घी का काम किया है। इससे आर्थिक स्थिति कमजोर होगी और करोड़ों कृषक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के गुलाम बन जाएँगे।

कृषक आन्दोलनों के कारण-भारत में कृषक आन्दोलन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. भूमि-सुधारों का क्रियान्वयन दोषपूर्ण है। भूमि का असमान वितरण इसे आन्दोलन की मुख्य जड़ है।
  2. भारतीय कृषि को उद्योग का दर्जा न दिये जाने के कारण किसानों के हितों की उपेक्षा निरन्तर हो रही है।
  3. किसानों द्वारा उत्पादित वस्तुओं का मूल्य-निर्धारण सरकार करती है जिसका समर्थन मूल्य बाजार मूल्य से नीचे रहता है। मूल्य-निर्धारण में कृषकों की भूमिका नगण्य है।
  4. दोषपूर्ण कृषि विपणन प्रणाली भी कृषक आन्दोलन के लिए कम उत्तरदायी नहीं है। भण्डारण की अपर्याप्त व्यवस्था, कृषि मूल्यों में होने वाले उतार-चढ़ावों की जानकारी न होने से भी किसानों को पर्याप्त आर्थिक घाटा सहना पड़ता है।
  5. बीजों, खादों, दवाइयों के बढ़ते दाम और उस अनुपात में कृषकों को उनकी उपज का पूरा मूल्य भी न मिल पाना अर्थात् बढ़ती हुई लागत भी कृषक आन्दोलन को बढ़ावा देने के लिए उत्तरदायी है।
  6. नयी कृषि तकनीक का लाभ आम कृषक को नहीं मिल पाता है।
  7. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का पुलन्दा लेकर जो डंकल प्रस्ताव भारत में आया है, उससे भी किसान बेचैन हैं और उनके भीतर एक डर समाया हुआ है।
  8. कृषकों में जागृति आयी है और उनका तर्क है कि चूंकि सकल राष्ट्रीय उत्पाद में उनकी महती भूमिका है; अत: धन के वितरण में उन्हें भी आनुपातिक हिस्सा मिलना चाहिए।

उपसंहार–विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं का अवलोकन करने पर स्पष्ट होता है कि कृषि की हमेश उपेक्षा हुई है; अतः आवश्यक है क़ि कृषि के विकास पर अधिकाधिक ध्यान दिया जाए।

स्पष्ट है कि कृषक हितों की अब उपेक्षा नहीं की जा सकती। सरकार को चाहिएं कि कृषि को उद्योग का दर्जा प्रदान करे। कृषि उत्पादों के मूलँ-निर्धारण में कृषकों की भी भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। भूमि-सुधार कार्यक्रम के दोषों का निवारण होना जरूरी है तथा सरकार को किसी भी कीमत पर डंबल प्रस्ताव को अस्वीकृत कर देना चाहिए और सरकार द्वारा किसानों की माँगों और उनके आन्दोलनों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।

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Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Samanya Hindi
Chapter Name सूक्तिपरक निबन्ध
Category UP Board Solutions

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देव-दैव आलसी पुकारा

सम्बद्ध शीर्षक

  • परिश्रम का महत्त्व
  • करम प्रधान बिस्व करि राखा

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