UP Board Solutions for Class 12 Maths Chapter 6 Application of Derivatives

UP Board Solutions for Class 12 Maths Chapter 6 Application of Derivatives (अवकलज के अनुप्रयोग) are part of UP Board Solutions for Class 12 Maths. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Maths Chapter 6 Application of Derivatives (अवकलज के अनुप्रयोग)

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Maths
Chapter Chapter 6
Chapter Name Application of Derivatives
Exercise Ex 6.1, Ex 6.2, Ex 6.3, Ex 6.4, Ex 6.5
Number of Questions Solved 109
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Maths Chapter 6 Application of Derivatives

प्रश्नावली 6.1

प्रश्न 1.
वृत्त के क्षेत्रफल के परिवर्तन की दर इसकी त्रिज्या r के सापेक्ष ज्ञात कीजिए, जबकि
(a) r = 3 सेमी है
(b) r = 4 सेमी है।
हल-
(a) माना वृत्त का क्षेत्रफल A है, तब
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अत: क्षेत्रफल के परिवर्तन की दर 6π सेमी²/सेकण्ड है।
(b) उपरोक्त की भाँति स्वयं हल कीजिए।[उत्तर : 8π सेमी²/से]

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प्रश्न 2.
एक घन का आयतन 9 सेमी3/से की दर से बढ़ रहा है। यदि इसकी कोर की लम्बाई 10 सेमी है तो इसके पृष्ठ का क्षेत्रफल किस दर से बढ़ रहा है?
हल-
माना घन की कोर = x सेमी, घन का आयतन = V तथा पृष्ठ क्षेत्रफल = S
तब V = x3 तथा S = 6x2. जहाँ x समय t को फलन है।
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अतः पृष्ठ क्षेत्रफल 3.6 सेमी²/से की दर से बढ़ रहा है।

प्रश्न 3.
एक वृत्त की त्रिज्या समान रूप से 3 सेमी/से की दर से बढ़ रही है। ज्ञात कीजिए की वृत्त का क्षेत्रफल किस दर से बढ़ रहा है जब त्रिज्या 10 सेमी है?
हल-
मानी वृत्त की त्रिज्या r सेमी है, तब वृत्त का क्षेत्रफल A = πr² सेमी²
प्रश्नानुसार, [latex ]\frac { dr }{ dt }=3[/latex] सेमी/से …(i)
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अत: क्षेत्रफल के परिवर्तन की दर 60π सेमी²/सेकण्ड है।

प्रश्न 4.
एक परिवर्तनशील घन का किनारा 3 cm/s की दर से बढ़ रहा है घन का आयतन किस दर से बढ़ रहा है जबकि किनारा 10 cm लम्बा है?
हल-
माना घन का आयतन = V तथा भुजा = a है, तब V = a3
ज्ञात है
[latex ]\frac { da }{ dt }=3[/latex] सेमी/से, a = 10 सेमी
∴ समय के सापेक्ष आयतन के परिवर्तन की दर
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अतः जब घन का किनारा 10 cm लम्बा हो तब घन का आयतन 900 cm2/s की दर से बढ़ रहा है।

प्रश्न 5.
एक स्थिर झील में एक पत्थर डाला जाता है और तरंगें वृत्तों में 5 सेमी/से की गति से चलती है। जब वृत्ताकार तरंग की त्रिज्या 8 सेमी है तो उस क्षण घिरा हुआ क्षेत्रफल किस दर से बढ़
हल-
दिया है- [latex ]\frac { dr }{ dt }=5[/latex] सेमी/से, r = 8 सेमी
माना तरंगों से बने वृत्त का क्षेत्रफल A सेमी² है।
तब A = πr²
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अतः जब तरंग की त्रिज्या 8 सेमी हो तब तरंगों द्वारा घिरा हुआ क्षेत्रफल 80 π सेमी²/से की दर से बढ़ रहा है।

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प्रश्न 6.
एक वृत्त की त्रिज्या 0.7 सेमी/से की दर से बढ़ रही है। इसकी परिधि की वृद्धि की दर क्या है। जब r = 4.9 सेमी है?
हल-
माना वृत्त की त्रिज्या r सेमी है, तब परिधि C = 2πr
प्रश्नानुसार,
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अत: वृत्त की परिधि 1.4π सेमी/से की दर से बढ़ रही है।

प्रश्न 7.
एक आयत की लम्बाई x, 5 सेमी/मिनट की दर से घट रही है और चौड़ाई y, 4 सेमी/मिनट की दर से बढ़ रही है। जब x = 8 सेमी और y = 6 सेमी है। तब आयत के
(a) परिमाप
(b) क्षेत्रफल के परिवर्तन की दर ज्ञात कीजिए।
हल-
ज्ञात है- [latex ]\frac { dx }{ dt }=5[/latex] सेमी/मिनट
तथा [latex ]\frac { dy }{ dt }=4[/latex] सेमी/मिनट
माना आयत का क्षेत्रफल = A सेमी², परिमाप = p सेमी
लम्बाई = x सेमी, चौड़ाई = y सेमी
(a) परिमाप p = 2(x + y)
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अत: आयत का क्षेत्रफल 2 सेमी2/सेमी की दर से बढ़ रहा है।

प्रश्न 8.
एक गुब्बारा जो सदैव गोलाकर रहता है, एक पम्प द्वारा 900 सेमी3/सेकण्ड की दर से फुलाया जाता है। गुब्बारे की त्रिज्या के परिवर्तन की दर ज्ञात कीजिए जब त्रिज्या 15 सेमी है।
हल-
माना गुब्बारे की त्रिज्या = r तथा आयतन = V
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प्रश्न 9.
एक गुब्बारा जो सदैव गोलाकार रहता है कि त्रिज्या परिवर्तनशील है। त्रिज्या के सापेक्ष आयतन के परिवर्तन की दर ज्ञात कीजिए जब त्रिज्या 10 सेमी है।
हल-
माना गुब्बारे का आयतन = V तथा त्रिज्या = r
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अतः जब त्रिज्या 10 सेमी हो तब गुब्बारे का आयतन 400 π सेमी3/सेमी की दर से बढ़ता है।

प्रश्न 10.
एक 5 मी लम्बी सीढी दीवार के सहारे झुकी है। सीढ़ी का नीचे का सिरा जमीन के अनुदिश दीवार से दूर 2.0 मी/से की दर से खींचा जाता है। दीवार पर इसकी ऊँचाई किस दर से घट रही है जबकि सीढ़ी को नीचे का सिरा दीवार से 4 मी दूर है?
हल-
माना दीवार OC है तथा किसी क्षण सीढ़ी AB की स्थिति इस प्रकार है कि OA = x और OB = y
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अत: दीवार पर सीढ़ी की ऊँचाई 8/3 मी/से की दर से घट रही है।

प्रश्न 11.
एक कण वक्र 6y = x3 + 2 के अनुगत गति कर रहा है। वक्र पर उन बिन्दुओं को ज्ञात कीजिए जबकि x निर्देशांक की तुलना में y निर्देशांक 8 गुना तीव्रता से बदल रहा है।
हल-
दिया है-
6y = x3 + 2 और [latex ]\frac { dy }{ dt } =8\frac { dx }{ dt } [/latex]
t के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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प्रश्न 12.
हवा के बुलबुले की त्रिज्या, [latex ]\frac { 1 }{ 2 }[/latex] सेमी/सेकण्ड की दर से बढ़ रही है। बुलबुले का आयतन किस दर से बढ़ रहा है जबकि त्रिज्या 1 सेमी है?
हल-
माना बुलबुले की त्रिज्या = r तथा बुलबुले का आयत
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अत: बुलबुले का आयतन 2π सेमी3/से की दर से बढ़ रहा है।

प्रश्न 13.
एक गुब्बारा जो सदैव गोलाकार रहता है, का परिवर्तनशील व्यास [latex ]\frac { 3 }{ 2 }(2x+1)[/latex] है। x के सापेक्ष आयतन के परिवर्तन की दर ज्ञात कीजिए।
हल-
प्रश्नानुसार गोलाकार गुब्बारे का व्यास = [latex ]\frac { 3 }{ 2 }(2x+1)[/latex]
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प्रश्न 14.
एक पाइप से रेत 12 सेमी3/से की दर से गिर रही है। गिरती रेत जमीन पर एक ऐसा शंकु बनाती है जिसकी ऊँचाई सदैव आधार की त्रिज्या का छठा भाग है।रेत से बने शंकु की ऊँचाई किस दर से बढ़ रही है जबकि ऊँचाई 4 सेमी है?
हल-
माना किसी क्षण t है पर शंकु की त्रिज्या r, ऊँचाई h तथा आयतन V है।
[latex ]h=\frac { r }{ 6 }(2x+1)[/latex]
⇒ r = 6h
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प्रश्न 15.
एक वस्तु की x इकाइयों के उत्पादन की कुल लागत C (x) Rs में
C(x) = 0.007x3 – 0.003x2 + 15x + 4000
से प्राप्त होती है। सीमान्त लागत ज्ञात कीजिए जबकि 17 इकाइयों का उत्पादन किया जाता है।
हल-
प्रश्नानुसार, C(x) = 0.007x3 – 0.003x2 + 15x + 4000
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= 6.069 – 0.102 + 15
= 20.967
अतः 17 इकाइयों के उत्पादन की सीमान्त लागत Rs 20.967 है।

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प्रश्न 16.
किसी उत्पाद की x इकाइयों के विक्रय से प्राप्त कुल आय R(x) Rs में R(x) = 13x2 + 26x + 15 से प्राप्त होती है। सीमान्त आय ज्ञात कीजिए जब x = 7 है।
हल-
प्रश्नानुसार, R(x) = 13x2 + 26x + 15
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(MR)x=7 = 26 x 7 + 26
= 182 + 26
= 208
अत: अभीष्ट सीमान्त आय Rs 208 है।

प्रश्न 17.
एक वृत्त की त्रिज्या r = 6 सेमी पर r के सापेक्ष क्षेत्रफल में परिवर्तन की दर है :
(a) 10 π
(b) 12 π
(c) 8 π
(d) 11 π
हल-
मानी वृत्त का क्षेत्रफल = A तथा त्रिज्या = r
क्षेत्रफल A = πr²
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अत: विकल्प (b) सही है।

प्रश्न 18.
एक उत्पाद की x इकाइयों के विक्रय से प्राप्त कुल आय रुपयों में R(x) = 3x² + 36x + 5 से प्रदत्त है। जब x = 15 है तो सीमान्ते आये है :
(a) 116
(b) 96
(c) 90
(d) 126
हल-
दिया है- R(x) = 3x² + 36x +5
सीमान्त ।
सीमान्त आय =
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अब, x = 15, सीमान्त आय = 6 × 21 = Rs 126
अत: विकल्प (d) सत्य है।

प्रश्नावली 6.2

प्रश्न 1.
दिखाइए कि दिया गया फलन f, f(x) = x3 – 3x² + 4x, x ∈ R, R पर निरन्तर वृद्धिमान फलन है।
हल-
दिया गया फलन
f(x) = x3 – 3x² + 4x
f ‘(x) = 3x² – 6x +4
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= 3(x – 1)² + 1 > 0, ∀ x∈R
∵ f ‘(x) > 0, ∀ x∈R
∴ f(x), R पर निरन्तर वृद्धिमान फलन है।

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प्रश्न 2.
सिद्ध कीजिए कि R पर f(x) = 3x + 17 निरन्तर वृद्धिमान फलन है।
हल-
दिया गया फलन f(x) = 3x + 17
f ‘(x) = 3 > 0, ∀ x∈R
f ‘(x) > 0, ∀ x∈R
∴ f(x), R पर निरन्तर वृद्धिमान फलन है।

प्रश्न 3.
सिद्ध कीजिए कि f(x) = sin x द्वारा दिया गया फलन
(a) (0, π/2) में निरन्तर वृद्धिमान है।
(b) (π/2, π) में निरन्तर ह्रासमान है।
(c) (0, π) में न तो वृद्धिमान है और न ह्रासमान।
हल-
(a) f(x) = sin x
⇒ f ‘(x) = cos x
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अन्तराल (0, π/2) में निरन्तर वृद्धिमान तथा अन्तराल (π/2, π) में निरन्तर ह्रासमान है।
∴ फलन अन्तराल (0, π) में न तो वृद्धिमान है और न ह्रासमान,

प्रश्न 4.
अन्तराल ज्ञात कीजिए जिनमें f(x) = 2x² – 3x द्वारा दिया गया फलन
(a) निरन्तर वृद्धिमान है,
(b) निरन्तर ह्रासमान है।
हल-
(a) दिया गया फलन f(x) = 2x² – 3x
f ‘(x) = 4x – 3 > 0, ∀ x > [latex ]\frac { 3 }{ 4 }[/latex]
∴ f(x), अन्तराल (3/4, ∞) पर निरन्तर वृद्धिमान है।

(b) पुनः f ‘(3) = 4x – 3< 0, ∀ x < [latex ]\frac { 3 }{ 4 }[/latex]
∴ f(x), अन्तराल (-∞,3/4) पर निरन्तर ह्रासमान है।

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प्रश्न 5.
अन्तराल ज्ञात कीजिए जिनमें f(x) = 2x3 – 3x2 – 36x + 7 से दिया फलन f (a) निरन्तर वृद्धिमान है, (b) निरन्तर ह्रासमान है।
हल-
(a) दिया गया फलन f(x) = 2x3 – 3x2 – 36x +7
f ‘(x) = 6x2 – 6x – 36 = 6(x2 – x – 6).
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प्रश्न 6.
अन्तराल ज्ञात कीजिए जिनमें निम्नलिखित फलन निरन्तर वर्धमान अथवा हासमान है
(a) f(x) = x² + 2x + 5
(b) f (x) = 10 – 6x – 2x²
(c) f (x) = – 2x3 – 9x2 – 12x + 1
(d) f(x) = 6 – 9x – x²
(e) f(x) = (x + 1)3 (x – 3)3
हल-
(a) ज्ञात है- f (x) = x2 + 2x + 5
f ‘ (x) = 2x + 2 = 2 (x + 1)
f ‘ (x) = 0 ⇒ 2 (x + 1) ⇒ x = – 1
x = – 1 संख्या रेखा को दो भागों में बांटता है। यह भाग अन्तराल (-∞ , -1) तथा (-1, ∞ ) है।
(- ∞ , – 1) में f ‘ (x) = – ऋणात्मक
अत: अन्तराल (-∞ , -1) में फलन f निरन्तर ह्रासमान है।
(-1, ∞ ) में f ‘ (x) = + धनात्मक
अतः अन्तराल (-1, ∞ ) फलन f निरन्तर वर्धमान है।
(b) ज्ञात है. f (x) = 10 – 6x – 2x²
f ‘ (x) = – 6 – 4x = – 2 (3 + 2x)
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प्रश्न 7.
सिद्ध कीजिए कि
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अपने सम्पूर्ण प्रान्त में एक वृद्धिमान फलन है।
हल-
दिया गया फलन
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प्रश्न 8.
x के उन मानों को ज्ञात कीजिए जिनके लिए y = [x(x – 2)]² एक वर्धमान फलन है।
हल-
ज्ञात है- y = [x (x – 2)]² = x² (x + 4 – 4x)
= x4 – 4x3 + 4x2
x के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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∴ x = 0, x = 1, x = 2 से वास्तविक संख्या रेखा के चार भाग अन्तराल (-∞, 0), (0, 1), (1, 2), (2, 2) बनते हैं।
अन्तराल (- ∞, 0) में f ‘ (x) = (-) (-) (-) = – ve (ऋणात्मक)
अतः फलन f निरन्तर ह्रासमान है।
अन्तराल (0, 1) में f ‘ (x) = (+) (-) (-) = + ve (धनात्मक)
अतः फलन f निरन्तर वर्धमान है।
अन्तराल (1, 2) में f ‘ (x) = (+) (+) (-) = – ve (ऋणात्मक)
अतः फलन f निरन्तर ह्रासमान है।
अन्तराल (2, ∞) में f ‘ (x) = (+) (+) (+) = +ve (धनात्मक)
अतः फलन f निरन्तर वर्धमान है।
इस प्रकार (0, 1) ∪ (2, ∞) में फलन f वर्धमान है तथा (-∞, 0) ∪ (1, 2) में फलन ह्रासमान है।

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प्रश्न 9.
सिद्ध कीजिए कि [0, π/2] में
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θ का एक वृद्धिमान फलन है।
हल-
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प्रश्न 10.
सिद्ध कीजिए कि लघुगणकीय फलन (0,∞) में निरन्तर वर्धमान फलन है।
हल-
ज्ञात है– f (x) = log x, x > 0
f ‘(x) = [latex ]\frac { 1 }{ x }[/latex] = धनात्मक, x > 0 के लिए
अतः लघुगणकीय फलन अन्तराल (0, ∞) के लिए निरन्तर वर्धमान है। इति सिद्धम्

प्रश्न 11.
सिद्ध कीजिए कि (-1,1) में f (x) = x² – x + 1 से प्रदत्त फलन न तो वर्धमान है। और न ही ह्रासमान है।
हल-
दिया है | f (x) = x² – x + 1
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इस प्रकार (-1, 1) में f ‘(x) का चिह्न एक नहीं है।
अतः इस अन्तराल में यह फलन न तो वर्धमान है और न ही ह्रासमान है। इति सिद्धम्

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में कौन से फलन (0,[latex]\frac { \pi }{ 2 } [/latex]) में निरन्तर ह्रासमान है?
(A) cos x
(B) cos 2x
(C) cos 3x
(D) tan x
हल-
(A) माना f (x) = cos x, ∴ f ‘ (x) = – sin x
अन्तराल (0, π/ 2) में, sin x = + धनात्मक ⇒f ‘ (x) = – ऋणात्मक
अतः फलन f निरन्तर ह्रासमान है।
(B) माना f (x) = cos 2x
∴ f ‘(x) = – 2 sin 2x
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प्रश्न 13.
निम्नलिखित अन्तरालों में से किस अन्तराल में f (x) = x100 + sin x – 1 द्वारा प्रदत्त फलन f निरन्तर ह्रासमान है ?
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हल-
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प्रश्न 14.
a का वह न्यूनतम मान ज्ञात कीजिए जिसके लिए अन्तराल [1, 2] में f(x) = x² + ax + 1 से दिया गया फलन निरन्तर वृद्धिमान है।
हल-
दिया गया फलन
f(x) = x² + ax + 1
f ‘(x) = 2x + a
अन्तराल [1, 2] में f ‘(x) का न्यूनतम मान f ‘(1) = 2 + a होगा
∵ f(x) अन्तराल [1, 2] में निरन्तर वृद्धिमान है ∴ f ‘(x) ≥ 0
∴ 2 + a ≥ 0
⇒ a≥ -2
अत: a का न्यूनतम मान -2 है।

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प्रश्न 15
माना[-1, 1] से असंयुक्त एक अन्तराल I हो तो सिद्ध कीजिए कि I में f(x) = [latex]x+\frac { 1 }{ x }[/latex] से दिया गया फलन f निरन्तर वृद्धिमान है।
हल-
दिया गया फलन f(x) = [latex]x+\frac { 1 }{ x }[/latex]
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∴ (x – 1)(x + 1) > 0
∴ f ‘(x) > 0
⇒ f(x) निरन्तर वृद्धिमान है जब x∈ (1, ∞)
अतः f(x), I पर निरन्तर वृद्धिमान है।

प्रश्न 16.
सिद्ध कीजिए कि फलन f(x) = log sin x,(0,[latex]\frac { \pi }{ 2 } [/latex]) में निरन्तर वर्धमान और ([latex]\frac { \pi }{ 2 } [/latex],π) में निरन्तर ह्रासमान है।
हल-
दिया है- f(x) = log sin x
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प्रश्न 17.
सिद्ध कीजिए कि फलन f(x) = log | cos x|; (0, π/2) निरन्तर ह्रासमान और (π/2, π) में निरन्तर वृद्धिमान है।
हल-
दिया गया फलन f(x) = log cos x
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प्रश्न 18.
सिद्ध कीजिए कि R में दिया गया फलन f(x) = x3 – 3x2 + 3x – 100 वर्धमान है।
हल-
ज्ञात है- f (x) = x3 – 3x2 + 3x – 100
∴f ‘(x) = 3x2 – 6x + 3 = 3 (x2 – 2x + 1) = 3(x – 1)2
∀x∈ R, f ’(x) = धनात्मक
अतः फलन f वर्धमान है। इति सिद्धम्

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प्रश्न 19.
निम्नलिखित में से किस अन्तराल में y = x2e-x वर्धमान है?
(a) (-∞, ∞)
(b) (-2, 0)
(c) (2, ∞)
(d) (0, 2)
हल-
दिया है- f (x) = x2e-x
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प्रश्नावली 6.3

प्रश्न 1.
वक्र y = 3x4 – 4x के x = 4पर स्पर्श रेखा की प्रवणता ज्ञात कीजिए।
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण y = 3x4 -4x
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= 4[3 x 64 – 1]
= 4[192 – 1]
= 4 x 191
= 764
∴स्पर्श रेखा की प्रवणता = 764

प्रश्न 2.
वक्र [latex ]y=\frac { x-1 }{ x-2 }[/latex],x ≠ 2 के x = 10 पर स्पर्श रेखा की प्रवणता ज्ञात कीजिए।
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण [latex ]y=\frac { x-1 }{ x-2 }[/latex],x ≠ 2
दोनों पक्षों का x के सापेक्ष अवकलन करने पर
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प्रश्न 3.
वक्र y = x3 – x + 1 की स्पर्श रेखा की प्रवणता उस बिन्दु पर ज्ञात कीजिए जिसका x-निर्देशांक 2 है।
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण y = x3 – x + 1
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प्रश्न 4.
वक्र y = x3 – 3x + 2 की स्पर्श रेखा की प्रवणता उस बिन्दु पर ज्ञात कीजिए जिसका x – निर्देशांक 3 है।
हल-
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प्रश्न 5.
वक्र x = a cos3θ, y= a sin3θ के θ = [latex]\frac { \pi }{ 4 } [/latex] पर अभिलम्ब की प्रवणता ज्ञात कीजिए।
हल-
दिया है, वक्र को समीकरण x = a cos3θ तथा y = a sin3θ
दोनों पक्षों का θ के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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प्रश्न 6.
वक्र x = 1 – a sin θ, y = b cos² θ के θ = [latex]\frac { \pi }{ 2 } [/latex] पर अभिलम्ब की प्रवणता ज्ञात कीजिए।
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण x = 1 – a sin θ तथा y = b cos² θ
दोनों पक्षों का θ के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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प्रश्न 7.
वक्र y = x3 – 3x– 9x + 7 पर उन बिन्दुओं को ज्ञात कीजिए जिन पर स्पर्श रेखायें x-अक्ष के समान्तर हैं।
हल-
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प्रश्न 8.
वक्र y = (x – 2)² पर एक बिन्दु ज्ञात कीजिए जिस पर स्पर्श रेखा बिन्दुओं (2,0) और (4,4) को मिलाने वाली रेखा के समान्तर है।
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण y = (x – 2)²
दोनों पक्षों का x के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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प्रश्न 9.
वक्र y = x3 – 11x + 5 पर उस बिन्दु को ज्ञात कीजिए जिस पर स्पर्श रेखा y = x – 11 है।
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण y = x3 – 11x + 5
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प्रश्न 10.
प्रवणता -1 वाली सभी रेखाओं का समीकरण ज्ञात कीजिए जो वक़ [latex ]y=\frac { 1 }{ x-1 }[/latex],x ≠ -1 को स्पर्श करती है।
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण [latex ]y=\frac { 1 }{ x-1 }[/latex]
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प्रश्न 11.
प्रवणता 2 वाली सभी रेखाओं का समीकरण ज्ञात कीजिए जो वक्र [latex ]y=\frac { 1 }{ x-3 }[/latex],x ≠ 3 को स्पर्श करती है।
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण [latex ]y=\frac { 1 }{ x-3 }[/latex]
दोनों पक्षों का x के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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प्रश्न 12.
प्रवणता 0 वाली सभी रेखाओं का समीकरण ज्ञात कीजिए जो वक्र
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को स्पर्श करती है।
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण
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दोनों पक्षों को x के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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प्रश्न 13.
वक्र
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पर उन बिन्दुओं को ज्ञात कीजिए जिन पर स्पर्श रेखाएँ
(i) x-अक्ष के समान्तर हैं,
(ii) y-अक्ष के समान्तर हैं।
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण
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दोनों पक्षों का x के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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प्रश्न 14.
दिए वक्रों पर निर्दिष्ट बिन्दुओं पर स्पर्श रेखा और अभिलम्ब के समीकरण ज्ञात कीजिए
(i) y = x4 – 6x3 + 13x2 – 10x + 5 के (0, 5) पर
(ii) y = x4 – 6x3 + 13x2 – 10x + 5 के (1, 3) पर
(iii) y = x3 के (1, 1) पर .
(iv) y = x² के (0, 0) पर
(v) x = cost, y = sin t के [latex]t=\frac { \pi }{ 4 } [/latex] पर
हल-
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प्रश्न 15.
वक्र y = x² – 2x + 7 की स्पर्श रेखा का समीकरण ज्ञात कीजिए, जो
(a) रेखा 2x – y + 9 = 0 के समान्तर है।
(b) रेखा 5y – 15x = 13 पर लम्ब है।
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण y = x² – 2x + 7
दोनों पक्षों का x के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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प्रश्न 16.
सिद्ध कीजिए कि वक्र y = 7x3 + 11 के उन बिन्दुओं पर स्पर्श रेखाएँ समान्तर हैं जहाँ x = 2 तथा x = – 2 है।
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण y = 7x3 + 11
दोनों पक्षों का x के सापेक्ष अवकलन करने पर, [latex ]\frac { dy }{ dx }[/latex] = 21 x²
जब x = 2, तब स्पर्श रेखा की प्रवणता = 21 x 2² = 21 x 4 = 84
जब x = -2, तब स्पर्श रेखा की प्रवणता = 21 x (-2)² = 84
x = 2 तथा x = -2 पर स्पर्श रेखा की प्रवणता समान हैं।
अतः इन बिन्दुओं पर स्पर्श रेखाएँ समान्तर हैं। इति सिद्धम्

प्रश्न 17.
वक्र y = x3 पर उन बिन्दुओं को ज्ञात कीजिए जिन पर स्पर्श रेखा की प्रवणता बिन्दु के y-निर्देशांक के बराबर है।
हल-
दिया है, वक्र की समीकरण y = x3
दोनों पक्षों का x के सापेक्ष अवकलन करने पर, [latex ]\frac { dy }{ dx }[/latex] = 3x²
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प्रश्न 18.
वक्र y = 4x3 – 2x5, पर उन बिन्दुओं को ज्ञात कीजिए जिन पर स्पर्श रेखाएँ मूलबिन्दु से होकर जाती हैं।
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण y = 4x3 – 2x5
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प्रश्न 19.
वक्र x² + y2 – 2x – 3 = 0 के उन बिन्दुओं पर स्पर्श रेखाओं के समीकरण ज्ञात कीजिए जहाँ पर वे x-अक्ष के समान्तर हैं।
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण x² + y² – 2x – 3 = 0
दोनों पक्षों का x के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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प्रश्न 20
वक्र ay2 = x3 के बिन्दु (am2, um3)पर अभिलम्ब का समीकरण ज्ञात कीजिए और m का मान बताइए जिसके लिए अभिलम्ब बिन्दु (a, 0) से होकर जाता है।
हल-
वक्र ay2 = x3 ….(1)
समीकरण (1) का x के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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प्रश्न 21
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हल-
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प्रश्न 22.
परवलय y² = 4ax के बिन्दु (at², 2at) पर स्पर्श रेखा और अभिलम्ब के समीकरण ज्ञात कीजिए।
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण y² = 4ax
दोनों पक्षों का x के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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प्रश्न 23
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हल-
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प्रश्न 24.
अतिपरवलय [latex ]\frac { { x }^{ 2 } }{ { a }^{ 2 } } -\frac { { y }^{ 2 } }{ { b }^{ 2 } } =1[/latex] के बिन्दु (x0, y0) पर स्पर्श रेखा तथा अभिलम्ब के समीकरण ज्ञात कीजिए।
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण [latex ]\frac { { x }^{ 2 } }{ { a }^{ 2 } } -\frac { { y }^{ 2 } }{ { b }^{ 2 } } =1[/latex]
दोनों पक्षों का x के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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प्रश्न 25.
वक्र [latex ]y=\sqrt { 3x-2 } [/latex] की उन स्पर्श रेखाओं के समीकरण ज्ञात कीजिए जो रेखा 4x – 2y + 5 = 0 के समान्तर है।
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण [latex ]y=\sqrt { 3x-2 } [/latex] …(1)
दोनों पक्षों का x के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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प्रश्न 26.
वक्र y = 2x2 + 3sin x के x = 0 पर अभिलम्ब की प्रवणता है
(A) 3
(B) [latex ]\frac { 1 }{ 3 }[/latex]
(C) 3
(D) [latex ]-\frac { 1 }{ 3 }[/latex]
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण y = 2x² + 3 sin x
दोनों पक्षों का x के सापेक्ष अवकलन करने पर, [latex ]\frac { dy }{ dx }=4x+3cosx[/latex]
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अतः विकल्प (D) सही है।

प्रश्न 27.
किस बिन्दु पर y = x + 1, वक्र y² = 4x की स्पर्श रेखा है?
(A) (1,2)
(B) (2,1)
(C) (1,- 2)
(D) (-1, 2)
हल-
दिया है, वक्र का समीकरण y² = 4x …(1)
दोनों पक्षों का x के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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प्रश्नावली 6.4

प्रश्न 1.
अवकल का प्रयोग करके निम्नलिखित में से प्रत्येक का सन्निकट मान दशमलव के तीन स्थानों तक ज्ञात कीजिए
(i) [latex ]\sqrt { 25.3 } [/latex]
(ii) [latex ]\sqrt { 49.5 } [/latex]
(iii) [latex ]\sqrt { 0.6 } [/latex]
(iv) (0.009)1/3
(v) (0.999)1/10
(vi) (15)1/4
(vii) (26)1/3
(viii) (255)1/4
(ix) (82)1/4
(x) (401)1/2
(xi) (0.0037)1/2
(xii) (26.57)1/3
(xiii) (81.5)1/4
(xiv) (3,968)3/2
(xv) (32.15)1/5
हल-
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प्रश्न 2.
f(2.01) का सन्निकट मान ज्ञात कीजिए जबकि f(x) = 4x² + 5x + 2
हल-
माना x = 2 और x + ∆x = 2.01 तब ∆x = 0.01 = dx (∵∆Y = dx)
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प्रश्न 3.
f(5.001) का सन्निकट मान ज्ञात कीजिए जहाँ f(x) = x3 – 7 x² + 15
हल-
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प्रश्न 4.
x मी भुजा वाले घन की भुजा में 1% की वृद्धि होने के कारण घन के आयतन में होने वाला सन्निकट परिवर्तन ज्ञात कीजिए।
हल-
माना घन का आयतन V = x3
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घन के आयतन में सन्निकट परिवर्तन 0.03 x3 मी है।

प्रश्न 5.
x मी भुजा वाले घन की भुजा में 1% ह्रास होने के कारण घन के पृष्ठ क्षेत्रफल में होने वाला सन्निकट परिवर्तन ज्ञात कीजिए।
हल-
घन का पृष्ठ क्षेत्रफल S = 6x2
[latex ]\frac { dS }{ dx }=12x[/latex]
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घन के आयतन में सन्निकट परिवर्तन -0.12 x2 मी2 है।

प्रश्न 6.
एक गोले की त्रिज्या 7 मी मापी जाती है जिसमें 0.02 मी की त्रुटि है। इसके आयतन के परिकलन में सन्निकट त्रुटि ज्ञात कीजिए।
हल-
ज्ञात है- गोले की त्रिज्या = 7 मी ।
∆r = त्रिज्या में अशुद्धि = 0.02 मी
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प्रश्न 7.
एक गोले की त्रिज्या 9 मी मापी जाती है जिसमें 0.03 मी की त्रुटि है। इसके पृष्ठ क्षेत्रफल के परिकलन में सन्निकट त्रुटि ज्ञात कीजिए।
हल-
ज्ञात है- r = गोले की त्रिज्या = 9 मी
∆r = त्रिज्या में अशुद्धि = 0.03
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प्रश्न 8.
यदि f (x) = 3x² + 15x + 5 हो तो f (3.02) का सन्निकट मान है–
(A) 47.66
(B) 57.66
(C) 67.66
(D) 77.66
हल-
f (3.02) = f (3) + df (3) [3.02 = 3 + 0.02]
यदि f (x) = 3x² + 15x + 5 …(1)
f ‘(x) = 6x + 15
समी० (1) में x = 3 रखने पर,
f (3) = 3 x 9 + 15 x 3 + 5 = 27 + 45 + 5 = 77
df (x) = f ‘(x) x ∆x = (6x + 15) x ∆x
= (6 x 3 + 15) x 0.02 [∴ x = 3, ∆ x = 0.02]
= (18 + 15) x 0.02
= 33 x 0.02 = 0.66
∴ f (3.02) = f (3) + df (3) = 77 + 0.66 = 77.66
अत: विकल्प (D) सही है।

प्रश्न 9.
भुजा में 3% वृद्धि के कारण भुजा x के घन के आयतन में सन्निकट परिवर्तन है
(A) 0.06 x3 मी3
(B) 0.6 x3 मी3
(C) 0.09 xमी3
(D) 0.9 xमी3
हल-
चूँकि घन का आयतन V = x3 (∵ भुजा = x मी)
भुजा में वृद्धि, ∆x = 3% = x का
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अत: विकल्प (C) सही है।

प्रश्नावली 6.5

प्रश्न 1.
निम्नलिखित दिए गए फलनों के उच्चतम या निम्नतम मान, यदि कोई हो तो ज्ञात कीजिए
(i) f (x) = (2x – 1)² + 3
(ii) f (x) = 9x² + 12x + 2
(iii) f (x) = -(x – 1)² + 10
(iv) g(x) = x3 + 1
हल-
(i) दिया गया फलन f(x) = (2x – 1)² + 3
(2x – 1)² का कम-से-कम मान = 0,
⇒ f(x) ≥ 3; ∀ x∈R
∴ f (x) का निम्नतम मान = 3
(ii) दिया गया फलन f (x) = 9x² + 12x + 2 = 9x² + 12x + 4 – 2
= (3x + 2)² – 2
(3x + 2)² का निम्नतम मान = 0,
⇒ f (x) ≥ -2; ∀ x∈R
∴ f (x) का निम्नतम मान = -2
(iii) दिया गया फलन f (x) = – (x – 1)² + 10
– (x – 1)² का उच्चतम मान = 0
⇒f (x) ≤ 10; ∀ x∈R
∴f का उच्चतम मान = 10
(iv) यहाँ g(x) = x3 + 1.
g ‘(x) = 3x² जो x ∈ R के लिए धनात्मक है।
g ‘(x) = 3x² ≥ 0; ∀ x∈R
अत: g एक वर्धमान फलन है।
∴ इसका कोई न्यूनतम तथा अधिकतम मान नहीं है।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित दिए गए फलनों के उच्चतम मान या निम्नतम मान, यदि कोई हो तो ज्ञात कीजिए
(i) f(x) = |x + 2| – 1
(ii) g(x) = -|x + 1| + 3
(iii) h(x) = sin (2x) + 5
(iv) f(x) =|sin 4x + 3|
(v) h(x) = x + 1, x∈(-1,1)
हल-
(i) दिया गया फलन f(x) =|x + 2| – 1, f (x)≥ -1; ∀ x∈R
|x + 2| को निम्नतम मान 0 है।
∴ f का निम्नतम मान = -1
|x + 2| कर उच्चतम मान अनन्त हो सकता है।
अत: उच्चतम मान का अस्तित्व नहीं है।
(ii) दिया गया फलन g(x) = -|x + 1| + 3; g (3) ≤ 3∀ x∈R
-|x +1| का उच्चतम मान = 0
g(x) = -|x + 1| + 3 का उच्चतम मान = 0 + 3 = 3
तथा निम्नतम मान का अस्तित्व नहीं है।
(iii) दिया गया फलन h(x) = sin (2x) + 5
हम जानते हैं कि -1 ≤ sin 2x ≤ 1
⇒ 4 ≤ 5 + sin 2x ≤ 6
sin 2x का उच्चतम मान = 1
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प्रश्न 3
निम्नलिखित फलनों के स्थानीय उच्चतम या निम्नतम, यदि कोई हो तो ज्ञात कीजिए तथा स्थानीय उच्चतम या स्थानीय निम्नतम माने, जैसी स्थिति हो, भी ज्ञात कीजिए।
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हल-
(i) दिया गया फलन f(x) = x²
⇒ f ‘(x) = 2x
यदि f ‘(x) = 0 तब 2x = 0 या x = 0
f ‘(x) जैसे ही x = 0 से होकर आगे बढ़ता है तब इसका चिह्न ऋणात्मक से धनात्मक में बदल जाता है।
∴x = 0 पर f स्थानीय मान निम्नतम है।
स्थानीय निम्नतम मान = f (0) = 0
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प्रश्न 4
सिद्ध कीजिए कि निम्नलिखित फलनों को उच्चतम या निम्नतम मान नहीं है–
(i) f (x) = ex
(ii) g(x) = log x
(iii) h(x) = x3 + x2 + x + 1
हल-
(i) दिया गया फलन f ‘(x) = ex
∴f ‘(x) = ex
f ‘(x), x∈R कभी भी शून्य के समान नहीं है।
अत: f का कोई उच्चतम या निम्नतम मान नहीं है। इति सिद्धम्
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प्रश्न 5
प्रदत्त अन्तरालों में निम्नलिखित फलनों के निरपेक्ष उच्चतम मान और निरपेक्ष निम्नतम मान ज्ञात कीजिए
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हल-
(i) दिया गया फलन f(x) = x3, अन्तराल [-2, 2]
f ‘(x) = 3x2
यदि f ‘(x) = 0, तब 3x² = 0
⇒ x = 0
x = -2 पर, f(-2) = (-2)3 = – 8
x = 0 पर, f(0) = (0)3 = 0
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प्रश्न 6
यदि लाभ फलन p(x) = 41 – 72x – 18x² से प्रदत्त है तो किसी कम्पनी द्वारा अर्जित उच्चतम लाभ ज्ञात कीजिए।
हल-
दिया गया फलन लाभ p(x) = 41 -72x – 18x² …(1)
p’ (x) = – 72 – 36x = – 36 (2 + x)
p ” (x) = – 36
यदि p ‘(x) = 0, तब – 36 (2 + x) = 0 ⇒ 2 + x = 0 ∴ x = -2
p ‘(x) = – ve
अतः x = -2 पर p(x) उच्चतम है।
∴उच्चतम लाभ = p(-2)
[समी० (1) में x  = -2 रखने पर]
= 41 – 72 (-2)2 – 18 (-2)²
= 41 + 144 – 72
= 43 इकाई

प्रश्न 7
अन्तराल [0, 3] पर 3x4 – 8x3 + 12x2 – 48x + 25 के उच्चतम मान और निम्नतम मान ज्ञात कीजिए।
हल-
माना f (x) = 3x4 – 8x3 + 12x2 – 48x + 25
f ‘(x) = 12x3 – 24x2 + 24x – 48
= 12 [x3 – 2x2 + 2x – 4] = 12 [x² (x – 2) + 2 (x – 2)]
= 12 (x – 2) (x2 + 2)
यदि f ‘(x) = 0, तब x – 2 = 0 ⇒ x = 2
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प्रश्न 8
अन्तराल [0, 2π] के किन बिन्दुओं पर फलन sin 2 x अपना उच्चतम मान प्राप्त करता है।
हल-
माना f (x) = sin 2x, अन्तराल [0, 2π]
f ‘(x) = 2 cos 2x
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प्रश्न 9.
फलन sin x + cos x का उच्चतम मान क्या है?
हल-
माना f (x) = sin x + cos x, अन्तराल [0, 2π]
f ‘(x) = cos x – sin x
उच्चतम व निम्नतम मान के लिए,
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प्रश्न 10.
अन्तराल [1,3] में 2x3 – 24x + 107 का महत्तम मान ज्ञात कीजिए। इसी फलन का अन्तराला [-3,-1] में भी महत्तम मान ज्ञात कीजिए।
हल-
माना
f (x) = 2x3 – 24x + 107, अन्तराल [1, 3]
f ‘(x) = 6x² – 24
उच्चतम व निम्नतम मान के लिए, f ‘(x) = 0
⇒ 6x2 – 24 = 0 ⇒ 6x2 = 24 ⇒ x2 = 4 ⇒ x = ±2
अन्तराल [1, 3] के लिए f(x) = 2x3 – 24x + 107 में x के मान रखने पर,
x = 1 पर, f(1) = 2(1)3 – 24 (1) + 107 = 2 – 24 + 107 = 85
x = 3 पर, f (3) = 2(3)3 – 24 (3) + 107 = 54 – 72 + 107 = 89
x = 2 परे, f(2) = 2(2)3 – 24(2) + 107 = 16 – 48 + 107 = 75
इस प्रकार अधिकतम मान f (x) = 89,
x = 3 पर, अन्तराल [-3,-1] के लिए हम x = – 3, – 2, – 1 पर f(x) का मान ज्ञात करते हैं।
x = – 3 पर, f(-3) = 2(-3)3 – 24 (-3) + 107
= – 54 + 72 + 107 = – 54 + 179 = 125
x = – 1 पर f(-1) = 2 (-1)3 – 24 (-1) + 107 = -2 +24 + 107 = 129
x = – 2 पर f(-2) = 2(-2)3 – 24 (-2) + 107 = -16 + 48 +107 = 139
इस प्रकार अधिकतम मान f (x) = 139, x = -2 पर।

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प्रश्न 11.
यदि दिया है कि अन्तराल [0,2] में x = 1 पर फलन x4 – 62x2 + ax + 9 उच्चतम मान प्राप्त करता है तो a का मान ज्ञात कीजिए।
हल-
माना f(x) = x4 – 62x2 + ax + 9
f ‘(x) = 4x3 – 124x + a
उच्चतम व निम्नतम मान के लिए, f ‘(x) = 0
⇒ 4x3 – 124x + a = 0
दिया है, x = 1 पर, f उच्चतम है ⇒ f (1) = 0
4x3 – 124x + a = 0 में x = 1 रखने पर
4 x 1 – 124 x 1 + a = 0 ⇒ 4 – 124 + a = 0 ⇒ – 120 + a = 0
a = 120
इसलिए a का मान 120 है।

प्रश्न 12.
[0,2π] पर x + sin 2x का उच्चतम और निम्नतम मान ज्ञात कीजिए।
हल-
माना f(x) = x + sin 2x
f ‘(x) = 1 + 2 cos 2x
उच्चतम व निम्नतम मान के लिए, f ‘(x) = 0
⇒ 1 + 2 cos 2x = 0 ⇒ cos2x = [latex]-\frac { 1 }{ 2 }[/latex]
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प्रश्न 13.
ऐसी दो संख्याएँ ज्ञात कीजिए जिनका योग 24 है और जिनका गुणनफल उच्चतम हो।
हल-
माना पहली संख्या = x तब दूसरी संख्या = 24 – x है।
प्रश्नानुसार, उनका गुणनफल p = x(24 – x) = 24x – x² …(1)
उच्चतम व निम्नतम मान के लिए, [latex]\frac { dp }{ dx }=0[/latex]
समी० (1) का x के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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प्रश्न 14.
ऐसी दो धन संख्याएँ x और y ज्ञात कीजिए ताकि x + y = 60 और xy3 उच्चतम हो।
हल-
दिया है,
x + y = 60
x = 60 – y …(1)
माना xy3 = P …(2)
समीकरण (1) से x का मान समीकरण (2) में रखने पर,
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प्रश्न 15.
ऐसी दो धन संख्याएँ x और y ज्ञात कीजिए जिनका योग 35 हो और गुणनफल x2y5 उच्चतम हो।
हल-
दो धन संख्याएँ x, y हैं।
दिया है, x + y = 35
⇒ y = 35 – x …(1)
प्रश्नानुसार, माना गुणनफल p = x2y5 …(2)
समीकरण (1) से y का मान समीकरण (2) में रखने पर,
p = x2 (35 – x)5
दोनों पक्षों का x के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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प्रश्न 16.
ऐसी दो धन संख्याएँ ज्ञात कीजिए जिनका योग 16 हो और जिनके घनों का योग निम्नतम हो।
हल-
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प्रश्न 17.
18 सेमी भुजा के टिन के किसी वर्गाकार टुकड़े से प्रत्येक कोने पर एक वर्ग काटकर तथा इस प्रकार बने टिन के फलकों को मोड़कर ढक्कन रहित एक सन्दूक बनाना है। काटे जाने वाले वर्ग की भुजा कितनी होगी जिससे सन्दूक का आयतन उच्चतम होगा?
हल-
माना वर्ग की प्रत्येक भुजा x सेमी काटी गई है।
∴ सन्दूक के लिए,
लम्बाई = 18 – 2x
चौड़ाई = 18 – 2x
ऊँचाई = x
आयतन V = ल० × चौ० × ऊँ०
= x(18 – 2x) (18 – 2x)
= x(18 – 2x)x² …(1)
दोनों पक्षों का x के सापेक्ष अवकलन करने पर,
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प्रश्न 18
45 सेमी लम्बी और 24 सेमी चौड़ी आयताकार लोहे की एक चादर के चारों कोनों से समान भुजा का एक वर्गाकार निकालने के पश्चात् खुला हुआ एक सन्दुक बनाया जाता है। वर्गों की भुजा की माप ज्ञात कीजिये जिसके काटने पर बने सन्दूक का आयतन महत्तम होगा।
हल-
माना अभीष्ट वर्ग की भुजा x है तब ।।
सन्दूक की लम्बाई = (45-2x)
तथा सन्दूक की चौड़ाई = (24-2x)
सन्दूक की ऊँचाई = x
∴ सन्दूक का आयतन
V = (45 – 2x) (24 – 2x) x
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∴x = 5 पर V का मान महत्तम होगा।
∴ वर्ग की भुजा 5 सेमी होगी।

प्रश्न 19.
सिद्ध कीजिए कि एक दिए वृत्त के अन्तर्गत सभी आयतों में वर्ग का क्षेत्रफल उच्चतम होता है।
हल-
माना a त्रिज्या के वृत्त के अन्तर्गत आयत की लम्बाई x तथा चौड़ाई y है।
चित्र ABC में,
AC = व्यास = 2a
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प्रश्न 20.
सिद्ध कीजिए कि दिए हुए सम्पूर्ण पृष्ठ और महत्तम आयतन के लम्बवृत्तीय बेलन की ऊँचाई , उसके आधार के व्यास के बराबर है।
हल-
माना बेलन की ऊँचाई h तथा आधार की त्रिज्या r है।
पुनः माना बेलन का सम्पूर्ण पृष्ठ S और आयतन V है, तब
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UP Board Solutions for Class 12 Maths Chapter 6 Application of Derivatives image 132

प्रश्न 21.
100 सेमी3 आयतन वाले डिब्बे सभी बेलनाकार (लम्ब वृत्तीय) डिब्बों में से न्यूनतम पृष्ठ क्षेत्रफल वाले डिब्बे की विमाएँ ज्ञात कीजिए।
हल-
माना बेलनाकार डिब्बों की त्रिज्या r और ऊँचाई h है।
आयतन = πr²h = 100 सेमी3
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प्रश्न 22.
28 मीटर लम्बे तार के दो टुकड़े करके एक को वर्ग तथा दूसरे को वृत्त के रूप में मोड़ा जाता है। दोनों टुकड़ों की लम्बाई ज्ञात कीजिए यदि उनसे बनी आकृतियों को संयुक्त क्षेत्रफल न्यूनतम है।
हल-
तार की लम्बाई l = 28 मी
माना वर्ग की भुजा x तथा वृत्त की त्रिज्या r है, तब
l = वर्ग का परिमाप + वृत्त की परिधि = 4x + 2πr = 28 …(1)
माना संयुक्त क्षेत्रफल A है।
A = वर्ग की क्षेत्रफल + वृत्त का क्षेत्रफल = x² + πr²
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प्रश्न 23.
सिद्ध कीजिए कि R त्रिज्या के गोले के अन्तर्गत विशालतम शंकु का आयतन गोले के आयतन का [latex ]\frac { 8 }{ 27 }[/latex] होता है।
हल-
माना V, AB गोले के अन्तर्गत विशालतम शंकु का आयतन है। स्पष्टतया अधिकतम आयतन के लिए शंकु का अक्ष गोले की ऊँचाई के साथ होना चाहिए।
माना ∠AOC = θ,
∴ AC, शंकु के आधार की त्रिज्या = R sin θ, जहाँ R गोले की त्रिज्या है।
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प्रश्न 24.
दर्शाइये कि एक निश्चित आयतन के शंक्वाकार डेरे के बनाने में कम-से-कम कपड़ा लगेगा जब उसकी ऊँचाई आधार की त्रिज्या के √2 गुना होगी।
हल-
माना शंकु की ऊँचाई h, त्रिज्या r तथा तिरछी ऊँचाई l है।
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प्रश्न 25.
सिद्ध कीजिए कि दी हुई तिर्यक ऊँचाई और महत्तम आयतन वाले शंकु का अर्द्ध शीर्ष कोण tan-1√2 होता है।
हल-
माना शंकु की त्रिज्या = r, अर्द्धशीर्ष ∠BAM = θ
ऊँचाई = h; तिर्यक ऊँचाई = l
ऊर्ध्वाधर ऊँचाई, h = AM = l cos θ
शंकु की त्रिज्या, r = MC = l sin θ
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प्रश्न 26.
सिद्ध कीजिए कि दिए हुए पृष्ठ और महत्त्म आयतन वाले लम्बवृत्तीय शंकु का अर्द्धशीर्ष कोण [latex ]{ sin }^{ -1 }\left( \frac { 1 }{ 3 } \right) [/latex] होता है।
हल-
माना शंकु की त्रिज्या r, तिरछी ऊँचाई l सम्पूर्ण पृष्ठ S तथा आयतन V है।
सम्पूर्ण पृष्ठ S = πr (r + l) या πrl = S – πr²
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प्रश्न 27.
वक्र x² = 2y पर (0, 5) से न्यूनतम दूरी पर स्थित बिन्दु है
(A) (2√2, 4)
(B) ( 2√2 , 0)
(C) (0, 0)
(D) (2, 2)
हल-
माना वक्र x² = 2y पर कोई बिन्दु P(x, y) है।
दिया हुआ बिन्दु A (0, 5) है।
PA² = (x – 0)² + (y – 5)² = z (माना)
Z = x² + (y – 5)² …(1)
तथा वक्र x² = 2y …(2)
x² का मान समी० (1) में रखने पर,
Z = 2y + (y – 5)² =2y + y² + 25 – 10y = y² + 25 – 8y
दोनों पक्षों का y के सापेक्ष अवकलन करने पर, [latex ]\frac { dZ }{ dy }=2y-8[/latex]
उच्चतम व निम्नतम मान के लिए, [latex ]\frac { dZ }{ dy }=0[/latex]
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प्रश्न 28.
x के सभी वास्तविक मानों के लिए!
UP Board Solutions for Class 12 Maths Chapter 6 Application of Derivatives image 145
का न्यूनतम मान है–
(A) 0
(B) 1
(C) 3
(D) [latex]\frac { 1 }{ 3 }[/latex]
हल-
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प्रश्न 29.
[x (x – 1) + 1]1/3,0≤x≤1 का उच्चतम मान है
(A) [latex]{ \left( \frac { 1 }{ 3 } \right) }^{ \frac { 1 }{ 3 } }[/latex]
(B) [latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex]
(C) 1
(D) 0
हल-
माना y = [x (x – 1) + 1]1/3
दोनों पक्षों का x के सापेक्ष अवकलन करने पर,
UP Board Solutions for Class 12 Maths Chapter 6 Application of Derivatives image 147
UP Board Solutions for Class 12 Maths Chapter 6 Application of Derivatives image 148
उच्चतम मान = 1
अत: विकल्प (C) सही है।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi संस्कृत शब्दों में विभक्ति की पहचान

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi संस्कृत शब्दों में विभक्ति की पहचान are part of UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi संस्कृत शब्दों में विभक्ति की पहचान.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 5
Chapter Name संस्कृत शब्दों में विभक्ति की पहचान
Number of Questions 41
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi संस्कृत शब्दों में विभक्ति की पहचान

संस्कृत शब्दों में विभक्ति की पहचान

नवीनतम पाठ्यक्रम के अनुसार परीक्षा में रेखांकित शब्दों में लगी विभक्ति अथवा दिये गये शब्दों में प्रयुक्त विभक्ति से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं। इसके लिए 2 अंक निर्धारित हैं। ये प्रश्न बहुविकल्पीय भी हो सकते हैं। विभक्ति का निर्देश करते समय छात्र से उससे सम्बन्धित सूत्र का उल्लेख करने की अपेक्षा भी की जाती है।

(1) सूत्र-अभितः परितः समया निकषा हा प्रतियोगेऽपि।
अभितः (चारों ओर या सभी ओर), परितः (सभी ओर), समया (समीप), निकषा (समीप), हा (शोक के लिए प्रयुक्त शब्द), प्रति (ओर, तरफ)–शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति होती है।
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(2) सूत्र-येनाङ्गविकारः
जिस अंग में विकार होने से शरीर विकृत दिखाई दे, उस विकारयुक्त अंग में तृतीया विभक्ति होती है।
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(3) सूत्र-सहयुक्तेऽप्रधाने
साथ अर्थ वाले सह, साकम्, सार्धम्, समम् शब्दों के योग में अप्रधान (जिसके साथ जाने वाला जाये) में तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi संस्कृत शब्दों में विभक्ति की पहचान img 4

(4) सूत्र-साधकतमं करणम्
जिसकी सहायता से कार्य पूर्ण होता है, उसमें तृतीया विभक्ति होती है।
उदाहरण–प्रकृत्या साधु। प्रकृति से साधु।।

(5) सूत्र_नमःस्वस्तिस्वाहास्वधाऽलंवषट योगाच्च
नमः (नमस्कार), स्वस्ति (कल्याण), स्वाहा (आहुति), स्वधा (बलि), अलम् (समर्थ, पर्याप्त), वषट् (आहुति)-इन शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है।
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(6) सूत्र-ध्रुवमपायेऽपादानम्
स्वयं से अलग करने वाले अर्थात् ध्रुव (मूल) में पंचमी विभक्ति होती है; जैसे-वृक्ष से पत्ते गिरते हैं। इस वाक्य में पत्तों को स्वयं से अलग करने वाला वृक्ष है; अतः वृक्ष में पंचमी विभक्ति होगी।
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(7) सूत्र-आख्यातोपयोगे
नियमपूर्वक विद्या ग्रहण करने में जिससे विद्या ग्रहण की जाती है, उसमें पंचमी विभक्ति होती है।
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(8) सूत्र-भीत्रार्थानां भयहेतुः
‘भय’ तथा ‘रक्षा’ अर्थ वाली धातुओं के योग में जिससे डरा जाता है या रक्षा की जाती है, उसमें पंचमी विभक्ति होती है।
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(9) सूत्र-षष्ठी शेषे
छह कारकों के अतिरिक्त सम्बन्ध अर्थ शेष बचता है। सम्बन्ध अर्थ में षष्ठी विभक्ति होती है।
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(10) सूत्र-यतश्च निर्धारणम्
जहाँ बहुतों में से किसी एक को छाँटा जाये, वहाँ जिसमें से छाँटा जाये, उसमें षष्ठी अथवा सप्तमी विभक्ति होती है।
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विशेष-संस्कृत शब्दों में विभक्ति की पहचान से सम्बन्धित प्रश्नों के चार सम्भावित प्रारूप हो सकते हैं। विभिन्न परीक्षा प्रश्न-पत्रों में इन चारों प्रारूपों के पूछे गये प्रश्न दिये जा रहे हैं-

प्रश्न (क)
निम्नलिखित शब्दों के शुद्ध विभक्ति रूप की पहचान कीजिए-
या
दिये गये विकल्पों में जो सही विकल्प है, उसे बताइए-
प्रश्न 1.
‘राजन्’ शब्द का चतुर्थी विभक्ति एक वचन का रूप होता है
(क) राजानम्
(ख) राजभिः
(ग) राज्ञे।
(घ) राज्ञः

प्रश्न 2.
‘सरित्’ शब्द का पंचमी विभक्ति द्विवचन का रूप होता है
(क) सरिते
(ख) सरित्सु
(ग) सरिभ्याम्
(घ) सरिति

प्रश्न 3.
‘आत्मन्’ शब्द का तृतीया एकवचन का रूप होता है–
(क) आत्मनि
(ख) आत्मने
(ग) आत्मना
(घ) आत्मनः

प्रश्न 4.
‘इदम्’ शब्द का षष्ठी विभक्ति बहुवचन का रूप होता है|
(क) अस्मिन्
(ख) एषाम्
(ग) अस्मै
(घ) अस्य

प्रश्न 5.
‘सर्व’ शब्द (पुं० ) द्वितीया विभक्ति, बहुवचन का रूप होता है
(क) सर्वेभ्यः
(ख) सर्वस्य
(ग) सर्वान्
(घ) सर्वम्

प्रश्न 6.
‘जगत्’ का पंचमी एकवचन में रूप होता है—
(क) जगती
(ख) जगतोः
(ग) जगति
(घ) जगत:

प्रश्न 7.
‘नदी’ का सप्तमी बहुवचन में रूप होता है
(क) नदीभ्यः
(ख) नद्यो:
(ग) नदीषु
(घ) नद्याः

प्रश्न 8.
‘सरित्’ का तृतीया विभक्ति एकवचन में रूप होता है
(क) सरितेन
(ख) सरितौ
(ग) सरितो:
(घ) सरिता

प्रश्न 9.
‘जगत्’ का सप्तमी बहुवचन में रूप होता है
(क) जगति
(ख) जगत्सु
(ग) जगताम्।
(घ) जगद्भिः

प्रश्न 10.
‘पितृ’ का षष्ठी एकवचन में रूप होता है
(क) पितुः
(ख) पित्रे
(ग) पितरः
(घ) पित्रोः

प्रश्न 11.
‘सर्वै’ (पुं० ) तृतीया बहुवचन का रूप है-
(क) सर्वो
(ख) सर्वयोः
(ग) सर्वैः
(घ) सर्वस्य

प्रश्न 12.
‘आत्मन्’ का चतुर्थी, एकवचन का रूप होता है
(क) आत्मनः
(ख) आत्मना
(ग) आत्मने
(घ) आत्मनोः

प्रश्न 13.
पुत्र’ शब्द का तृतीया एकवचन में रूप होता है
(क) पुत्रेषु
(ख) पुत्रान्
(ग) पुत्रेण
(घ) पुत्रैः

प्रश्न 14.
‘राजन्’ शब्द का षष्ठी एकवचन में रूप होता है
(क) राज्ञाम्
(ख) राज्ञः
(ग) राज्ञा
(घ) राज्ञोः

प्रश्न 15.
‘राजन्’ शब्द का तृतीया बहुवचन में रूप होता है
(क) राज्ञः
(ख) राजभिः
(ग) राजान्ः
(घ) राजभ्यः

प्रश्न 16.
‘जगत्’ शब्द का सप्तमी द्विवचन में रूप होता है
(क) जगते
(ख) जगन्ति
(ग) जगतोः
(घ) जगति

उत्तर-
1. (ग), 2. (ग), 3. (क), 4. (ख), 5. (ग), 6. (घ), 7. (ग), 8. (घ), 9. (ख), 10. (ग), 11. (ग), 12. (ग), 13. (ग), 14, (ख), 15. (ख), 16. (ग)।

प्रश्न (ख) निम्नलिखित शब्दों की विभक्ति और वचन के सही विकल्प को चुनकर लिखिए-
प्रश्न 1.
रामाय
(क) चतुर्थी एकवचन
(ख) सप्तमी एकवचन
(ग) तृतीया द्विवचन
(घ) द्वितीया एकवचन

प्रश्न 2.
हस्तेन
(क) प्रथमा बहुवचन
(ख) पञ्चमी एकवचन
(ग) तृतीया एकवचने
(घ) चतुर्थी द्विवचन

प्रश्न 3.
रामानाम्
(क) चतुर्थी एकवचन
(ख) षष्ठी एकवचन
(ग) षष्ठी बहुवचन
(घ) द्वितीया बहुवचन

प्रश्न 4.
शिश्वोः
(क) तृतीया द्विवचन
(ख) द्वितीया द्विवचन
(ग) द्वितीया बहुवचन
(घ) सप्तमी द्विवचन

प्रश्न 5.
नदीषु
(क) सप्तमी बहुवचन
(ख) चतुर्थी बहुवचन
(ग) पञ्चमी एकवचन
(घ) सप्तमी एकवचन

प्रश्न 6.
आत्मने [2011,12,15,17]
(क) द्वितीया बहुवचन
(ख) चतुर्थी एकवचन
(ग) षष्ठी द्विवचन
(घ) सप्तमी द्विवचन

प्रश्न 7.
नामसु [2010,17]
(क) तृतीया एकवचन
(ख) द्वितीया बहुवचन
(ग) पञ्चमी द्विवचन
(घ) सप्तमी बहुवचन

प्रश्न 8.
भानून्|
(क) षष्ठी बहुवचन
(ख) सप्तमी एकवचन
(ग) द्वितीया बहुवचन
(घ) चतुर्थी एकवचन

प्रश्न 9.
राज्ञि [2013]
(क) तृतीया बहुवचन
(ख) सप्तमी एकवचन
(ग) षष्ठी द्विवचन
(घ) पञ्चमी एकवचन

प्रश्न 10.
जगता (2015)
(क) द्वितीया बहुवचन
(ख) चतुर्थी द्विवचन
(ग) तृतीया एकवचन
(घ) षष्ठी एकवचन

प्रश्न 11.
आत्मनि [2011, 13, 15]
(क) सप्तमी एकवचन
(ख) षष्ठी द्विवचन
(ग) पञ्चमी बहुवचन
(घ) प्रथमा द्विवचन

प्रश्न 12.
आत्मनाम् [2015]
(क) द्वितीया एकवचन
(ख) चतुर्थी द्विवचन
(ग) षष्ठी बहुवचन
(घ) सप्तमी एकवचन

प्रश्न 13.
नामभिः
(क) प्रथमा बहुवचन
(ख) तृतीया बहुवचन
(ग) चतुर्थी बहुवचन
(घ) सप्तमी बहुवचने

प्रश्न 14.
रामात्
(क) द्वितीया एकवचन
(ख) पञ्चमी एकवचन
(ग) तृतीया द्विवचन
(घ) सप्तमी एकवचन

प्रश्न 15.
सरिते [2011,17]
(क) चतुर्थी एकवचन
(ख) तृतीया द्विवचन
(ग) प्रथम बहुवचन
(घ) षष्ठी बहुवचन

प्रश्न 16.
मतीनाम्
(क) सप्तमी बहुवचन
(ख) चतुर्थी द्विवचन
(ग) तृतीया एकवचन
(घ) षष्ठी बहुवचन

प्रश्न 17.
नयः
(क) प्रथमा बहुवचन
(ख) षष्ठी एकवचन
(ग) तृतीया एकवचन
(घ) द्वितीया बहुवचन

प्रश्न 18.
वानराः
(क) तृतीया एकवचन
(ख) सप्तमी द्विवचन
(ग) प्रथमा बहुवचन
(घ) द्वितीया एकवचन

प्रश्न 19.
हरिभिः
(क) तृतीया एकवचन
(ख) द्वितीया द्विवचन
(ग) तृतीया बहुवचन
(घ) प्रथमा द्विवचन

प्रश्न 20.
जगत्सु [2010, 11, 12]
(क) पंचमी एकवचन
(ख) षष्ठी एकवचन
(ग) द्वितीया बहुवचन
(घ) सप्तमी, बहुवचन

प्रश्न 21.
आत्मानम् [2010]
(क) षष्ठी बहुवचन
(ख) द्वितीया एकवचन
(ग) सप्तमी द्विवचन
(घ) चतुर्थी एकवचन

प्रश्न 22.
राज्ञाम् [2010,11,12,16]
(क) पंञ्चमी द्विवचन
(ख) द्वितीया एकवचन
(ग) षष्ठी बहुवचन
(घ) चतुर्थी एकवचन

प्रश्न 23.
रमायाम्
(क) पंचमी बहुवचन
(ख) चतुर्थी एकवचन
(ग) षष्ठी द्विवचन
(घ) सप्तमी एकवचन

उत्तर-1. (क), 2. (ग), 3. (ग), 4. (घ), 5. (क), 6. (ख), 7. (घ), 8. (ग), 9. (ख),10. (ग), 11. (क), 12. (ग), 13. (ख), 14. (क), 15. (क), 16. (घ), 17. (क), 18. (ग), 19. (ग), 20. (घ), 21, (ख), 22. (ग), 23. (घ)।

प्रश्न (ग)
इन संस्कृत शब्दों में से काले अक्षरों में छपे शब्दों में विभक्ति को पहचान कर लिखिए-
(1) राज्ञः पुत्रः
(2) पुत्रेण सह
(3) वृक्षात् पतति
(4) पादेन खञ्जः
(5) छात्रेभ्यः स्वस्ति
(6) ग्रामं निकषी
उत्तर
(1) षष्ठी एकवचन,
(2) तृतीया एकवचन,
(3) पञ्चमी एकवचन,
(4) षष्ठी/सप्तमी द्विवचन,
(5) चतुर्थी बहुवचन,
(6) द्वितीया एकवचन।

प्रश्न (घ)
निम्नांकित शब्दों में प्रयुक्त विभक्ति और वचन का उल्लेख कीजिए-
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उत्तर
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ध्यातव्य–यद्यपि पाठ्यक्रम में शब्द-रूप निर्धारित नहीं हैं, फिर भी विद्यार्थियों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए विभक्तियों से सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर देने के लिए कुछ शब्दों के रूप दिये जा रहे हैं-
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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 18 Co-operation and Rural Society

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 18 Co-operation and Rural Society (सहकारिता एवं ग्रामीण समाज) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 18 Co-operation and Rural Society (सहकारिता एवं ग्रामीण समाज).

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Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 18
Chapter Name Co-operation and Rural Society (सहकारिता एवं ग्रामीण समाज)
Number of Questions Solved 38
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 18 Co-operation and Rural Society (सहकारिता एवं ग्रामीण समाज)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
सहकारिता का अर्थ एवं परिभाषा दीजिए। इसके सिद्धान्तों का विवरण देते हुए भारत में कार्यरत सहकारी समितियों का उल्लेख कीजिए।
या
सहकारिता का क्या तात्पर्य है? सहकारी समितियों का सामाजिक जीवन में महत्त्व बताइए। [2013]
उत्तर:
सहकारिता का अर्थ एवं परिभाषाएँ
सहकारिता का सामान्य अर्थ पारस्परिक सहयोग द्वारा कार्य करना है। अकेला व्यक्ति जिस कार्य को करने में सक्षम नहीं होता, वह दूसरों की सहायता से उस लक्ष्य को पाने में सफल हो जाता है। सहकारिता शब्द ‘सहकारिता’ शब्दों से मिलकर बना है। ‘सह’ का अर्थ है साथ-साथ, जब कि ‘कारिता’ कार्य करने का बोधक है। अतः सहकारिता का शाब्दिक अर्थ हुआ-‘साथ-साथ मिलजुल कर कार्य करना।’

इस प्रकार सहकारिता एक ऐसा संगठन है जिसमें व्यक्ति स्वेच्छा से आत्म-उन्नति के लिए सम्मिलित होते हैं। सहकारिता एक ऐच्छिक संगठन है जिसका निर्माण प्रजातान्त्रिक आधार पर किया जाता है। भारत में सहकारिता आन्दोलन का प्रारम्भ 1904 ई० में हुआ था, परन्तु इसकी प्रगति अत्यन्त मन्द थी। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् इस आन्दोलन में तेजी आयी है। स्वेच्छा से समान हितों की पूर्ति के लिए मिलजुल कर कार्य करने की भावना सहकारिता कहलाती है।

सहकारिता का ठीक-ठीक अर्थ जानने के लिए हमें उसकी परिभाषाओं पर दृष्टि निक्षेप करना होगा। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने सहकारिता को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है
सहकारी नियोजन समिति के अनुसार, “सहकारिता एक ऐसा संगठन है जिसमें लोग स्वेच्छा के आधार पर अपनी आर्थिक उन्नति के लिए सम्मिलित होते हैं।’
सी० आर० फे के अनुसार, “सहकारिता मिलजुलकर कार्य करने की एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें किसी विशिष्ट उद्देश्य को लेकर सामूहिक हित के लिए स्वेच्छा से प्रयास किया जाता है। सहकारिता का मूल मन्त्र है – सब एक के लिए और एक सबके लिए।
होरेस प्लंकेट के अनुसार, “सहकारिता संगठन के द्वारा बनाया गया प्रभावपूर्ण स्वावलम्बन है।”
हेरिक के शब्दों में, “सहकारिता स्वेच्छा से संगठित उन दुर्बल व्यक्तियों की क्रिया है जो संयुक्त शक्तियों और साधनों का आपसी प्रबन्ध के द्वारा उपयोग करते हैं तथा जिनका उद्देश्य सामान्य लाभ प्राप्त करना होता है।”
इस प्रकार सहकारिता ऐसे व्यक्तियों का ऐच्छिक संगठन है, जो समानता, स्व-सहायता तथा प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के आधार पर सामूहिक हित के लिए कार्य करता है।

सहकारिता के मुख्य सिद्धान्त

सहकारिता कुछ मूलभूत सिद्धान्तों पर आधारित है। सहकारिता के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित

  1.  ऐच्छिक संगठन – सहकारी समितियों की सदस्यता अनिवार्य न होकर ऐच्छिक होती है। स्वेच्छा से इनकी सदस्यता को प्राप्त किया जा सकता है।
  2.  प्रजातान्त्रिक नियन्त्रण – इसमें प्रत्येक सदस्य को एक ही मत देने का अधिकार है, चाहे उसकी कितनी ही पूँजी या भूमि संगठन में क्यों न लगी हो।।
  3. लाभ के वितरण का सिद्धान्त-सहकारी समितियों के लाभ को सदस्यों की पूँजी के अनुपात में बाँटा जाता है।
  4. एकता व भाई-चारे का सिद्धान्त – सहकारिता सदस्यों में भाई-चारे की भावना उत्पन्न करती है। इस संगठन में सभी के साथ समानता का व्यवहार होता है।
  5. पारस्परिक तथा आत्म-सहायता – सहकारी संस्थाएँ प्रायः अपने साधनों पर निर्भर करती हैं, जिसे आत्म-सहायता कहते हैं। सहकारिता का मुख्य उद्देश्य पारस्परिक हित और सामूहिक
    लाभ होता है।
  6. समानता – समानता सहकारिता का मुख्य सिद्धान्त है। सहकारिता में प्रत्येक के अधिकार समान होते हैं। अंशों की अधिकता होने पर भी सदस्य को केवल एक ही मत देने का अधिकार
  7. सहानुभूति – सहकारिता में सभी सदस्य परस्पर मिलजुलकर अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में जुटे रहते हैं। एक सदस्य दूसरे के प्रति सहानुभूति से ओत-प्रोत रहता है।
  8.  एकता – सहकारिता का आधारभूत सिद्धान्त एकता है। इसमें सभी सदस्य एकजुट होकर लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयास करते हैं। इसमें एक सबके लिए तथा सब एक के लिए’ कोआदर्श रहता है।
  9. मितव्ययिता – सहकारिता कम व्ययसाध्य होती है। एक साथ सामूहिक प्रयास होने पर कार्य कम समय में ही पूरा हो जाता है। सदस्य-संख्या में वृद्धि के साथ-साथ सहकारिता में
    मितव्ययिता में भी वृद्धि होती चली जाती है।
  10.  आय का समान रूप से वितरण – सहकारिता आय के समान और उचित वितरण के सिद्धान्त पर टिकी हुई है। सहकारिता के उत्पादन का वितरण अंशों के अनुरूप, उचित और न्यायपूर्ण ढंग से किया जाता है। सदस्यों को श्रेष्ठ और उचित मूल्य पर वस्तुएँ उपलब्ध कराना सहकारिता का मुख्य ध्येय है।

सहकारिता की विशेषताएँ

सहकारिता की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. सहकारिता स्वैच्छिक संगठन है। व्यक्ति अपनी इच्छा से इस संगठन का सदस्य बन जाता है।
  2. सहकारिता की कार्यप्रणाली लोकतान्त्रिक होती है। सहकारिता के सभी सदस्यों को एकसमान अधिकार प्राप्त होते हैं। वे अपने मध्य से कुछ प्रतिनिधियों को संगठन के पदाधिकारी चुन लेते हैं।
  3. सहकारिता का लक्ष्य सदस्यों को विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक सुविधाएँ प्रदान कर उनमेंआत्मनिर्भरता उत्पन्न करना है।
  4.  सहकारिता सबके लाभ का संगठन है। ‘संयुक्त लाभ पद्धति’ सहकारिता की प्रमुख विशेषता है।
  5. सहकारिता में कम व्यय द्वारा सदस्यों को अधिक-से-अधिक लाभ उपलब्ध कराया जाता है।
  6. सहकारिता संयुक्त दायित्व वाला संगठन है। संयुक्त दायित्वों की पूर्ति संयुक्त प्रयास द्वारा की जाती है।
  7. सहकारिता की भावना ‘एक सबके लिए तथा सब एक के लिए प्रमुख है।
  8. सहकारिता न्याय और समानता पर आधारित है।
  9.  सहकारिता की सदस्यता सबके लिए उपलब्ध है।
  10. सहकारिता का संचालन नियमबद्ध ढंग से किया जाता है।

भारत में कार्यरत सहकारी समितियाँ

भारत सरकार ने 1904 ई० में ग्रामीण ऋणग्रस्तता समाप्त होने के उद्देश्य से सरकारी ऋण समितियाँ अधिनियम’ पारित किया। इसके पश्चात् 1912 ई० में ‘सहकारिता समितियाँ अधिनियम पारित करके देश में सहकारी समितियों का संगठन किया गया। वर्तमान समय में भारत में 3.56 लाख सहकारी समितियाँ कार्य कर रही हैं। इनमें से 67% समितियाँ ग्रामीण विकास में लगी हैं। इन समितियों की सदस्य-संख्या 16.1 करोड़ तथा इनकी कार्यशील कुल पूँजी 62,570 करोड़ रुपये है।

भारत में इस समय निम्नलिखित सहकारी समितियाँ कार्य कर रही हैं

1. प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ – यह एक सहकारी साख समिति है, जिसका प्रमुख कार्य किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार करने के लिए उन्हें ऋण उपलब्ध करवाना है। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि इन समितियों की कुल संख्या लगभग 94 हजार है तथा 9.20 करोड़ से भी अधिक कृषक इनके सदस्य हैं। ऋण का भुगतान केवल कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए किया जाता है। ठीक प्रकार से कार्य निष्पादन न कर पाने के कारण इन समितियों की संख्या निरन्तर घट रही है। गोरवाला समिति के सुझाव के अनुसार बड़े आकार वाली सहकारी समितियाँ स्थापित की जानी चाहिए।

2. सहकारी भूमि विकास बैंक – यह भी एक सहकारी साख समिति है, जिसका उद्देश्य कृषकों को लम्बी अवधि के लिए कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध करवाना है। इसकी 1,707 से अधिक शाखाएँ हैं तथा सहकारी भूमि विकास बैंक कृषकों की आर्थिक स्थिति, ऋण की उपयोगिता तथा भूमि की दशा और विकास की सम्भावनाओं को देखते हुए ऋण प्रदान करते हैं। इसके अन्तर्गत (1) केन्द्रीय विकास बैंक तथा (2) प्राथमिक भूमि विकास बैंक किसानों की भूमि रहन रखकर ऋण उपलब्ध कराते हैं।

3. सहकारी कृषि समितियाँ – ये उत्पादन व वितरण से सम्बन्धित सहकारी समितियाँ हैं, जिनका उद्देश्य कृषि की दशा में सुधार करना तथा कृषि उत्पादन में वृद्धि करना है। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित कृषि समितियाँ कार्यरत हैं

  1. सहकारी संयुक्त कृषि समितियाँ,
  2.  सहकारी उत्तम कृषि समिति,
  3. सहकारी काश्तकारी कृषि समिति,
  4. सहकारी सामूहिक कृषि समिति,
  5.  सहकारी चकबन्दी समितियाँ,
  6.  सहकारी सिंचाई समितियाँ तथा
  7. दुग्ध वितरण सहकारी समिति।

सहकारी सिंचाई समितियाँ कुएँ खोदने तथा नलकूप लगाने इत्यादि के लिए ऋण देती हैं, जबकि चकबन्दी समितियाँ बिखरे टुकड़ों को एक ही बनाने का कार्य करती हैं।

4. सहकारी औद्योगिक समितियाँ – इन सहकारी समितियों का उद्देश्य गाँवों में लोगों को लघु एवं कुटीर उद्योग लगाने की सुविधाएँ तथा रोजगार के अवसर प्रदान करने में सहायता देना है। कच्चे माल तथा प्रशिक्षण भी इन समितियों द्वारा उपलब्ध कराये जाते हैं। 54 हजार से भी अधिक ऐसी औद्योगिक समितियाँ अनेक प्रकार के उद्योगों के विकास में तथा सामान को बेचने व निर्यात करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। चमड़ा रँगने, फल व सब्जियों को डिब्बों में बन्द करने, मिट्टी के बर्तन बनाने, तेल, गुड़, साबुन और ताड़ उद्योगों से सम्बन्धित सहकारी समितियाँ भी स्थापित की गयी हैं।

5. सहकारी दुग्ध-आपूर्ति समितियाँ – इनका कार्य दुग्ध एवं डेयरी उद्योग को प्रोत्साहन देना है। पशुओं की नस्ल सुधारने तथा दुग्ध उत्पादन में वृद्धि करने में इन समितियों का विशेष योगदान है। आज 31 हजार से भी अधिक प्राथमिक दुग्ध-पूर्ति समितियों की स्थापना हो चुकी ै और अधिक-से-अधिक लोग इनसे लाभान्वित हो रहे हैं।

6. सहकारी विपणन समितियाँ – इन समितियों की स्थापना का उद्देश्य किसानों को दलालों के शोषण से बचाना तथा उनकी उपज का सही मूल्य दिलवाना है। ये समितियाँ किसानों से सीधे अनाज खरीदती हैं तथा बाजार मूल्य पर किसानों को तुरन्त भुगतान भी कर दिया जाता है।

7. बह-उद्देशीय सहकारी समितियाँ – आर्थिक विकास के लिए गठित इन समितियों का उद्देश्य लोगों के जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं से सम्बन्धित वस्तुएँ प्रदान करना है। ऋण देने के साथ-साथ ये समितियाँ जंगलों से प्राप्त पदार्थों के विक्रय तथा कृषि उपकरणों को भी प्रबन्ध करती हैं।

8. सहकारी उपभोक्ता समितियाँ – इनका उद्देश्य गाँवों तथा नगरों में उपभोक्ताओं को उचित कीमत पर वस्तुएँ प्रदान करना है। ऋण देने के साथ-साथ ये समितियाँ जंगलों में पदार्थों के विक्रय तथा कृषि उपकरणों का भी प्रबन्ध करती हैं।

9. सहकारी आवास समितियाँ – इनका मुख्य उद्देश्य सदस्यों को आवास की सुविधाएँ उपलब्ध कराने और गृह-निर्माण के लिए भिन्न प्रकार के ऋण उपलब्ध कराना है। ऐसी समितियाँ रोशनी, सड़कों का निर्माण तथा पीने के पानी की व्यवस्था करने का कार्य भी करती हैं।

अतः विभिन्न प्रकार की समितियाँ लोगों को भिन्न प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करके उनके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। भारत में राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय सहकारी संघ की भी स्थापना की गयी है। विभिन्न सहकारी समितियों के विकास तथा क्रियान्वयन के लिए सहकारी राष्ट्रीय संघ भी बनाये गये हैं।

प्रश्न 2
ग्रामीण क्षेत्रो के पुनर्निर्माण में सहकारिता का क्या महत्त्व है? [2009]
या
ग्रामीण क्षेत्रों पर सहकारी समितियों के प्रभावों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
सहकारिता ग्रामीण अर्थव्यवस्था की प्रगति का रहस्य है। भारत जैसे कृषि-प्रधान और विकासशील राष्ट्र के लिए सहकारिता सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आन्दोलन है। सहकारी आन्दोलन ग्रामीण जीवन की आधारशिला है। भारत की 75% ग्रामीण जनसंख्या के उत्थान में सहकारिता की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही है। लोकतन्त्र की शक्ति के रूप में चलाया गया सहकारी आन्दोलन ग्रामीण जीवन को सुखी और सम्पन्न बनाने में अहम् भूमिका निभा रहा है। भारत में ग्रामीण क्षेत्रों के पुनर्निर्माण में सहकारिता के महत्त्व को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है ।

1. पशुओं की दशा में सुधार – पशु भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था के आधार स्तम्भ हैं। सहकारी दुग्ध उत्पादक समितियों ने पशुओं की दशा सुधारने में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है, जिससे कृषकों की आय में तो वृद्धि हुई ही है, साथ ही दुग्ध उत्पादन में भी पर्याप्त वृद्धि हुई है। सहकारिता ग्रामीण क्षेत्रों में श्वेत क्रान्ति लाने में सफल हो रही है। इसी ने राष्ट्र में ऑपरेशन फ्लड कार्यक्रम को सफल बनाया है।

2. आवास-व्यवस्था में सुधार – गृह – निर्माण से सम्बन्धित सहकारी समितियों ने ग्रामीण समाज तथा नगरों में नये मकान बनाकर आवासीय समस्या को सुलझाने में पर्याप्त सहायता की है। इन समितियों द्वारा प्रकाश, सड़कों का निर्माण और पानी की व्यवस्था भी की गयी

3. बिचौलियों से मुक्ति – सहकारी समितियों के माध्यम से क्रय-विक्रय करने से किसानों को बिचौलियों के शोषण से मुक्ति मिल गयी है। उन्हें कम ब्याज पर पैसा ऋण के रूप में ही नहीं मिल जाता, अपितु उत्पादन की ठीक कीमत भी मिल जाती है। बिचौलियों का अन्त होने से कृषकों की आर्थिक दशा में गुणात्मक सुधार आया है। अब ग्रामीण जीवन में खुशहाली दिखाई पड़ने लगी है।

4. स्वच्छता एवं सड़कों की व्यवस्था –  सहकारिता ने ग्रामीण क्षेत्र में युगों से व्याप्त गन्दगी को दूर करने में सहायता प्रदान की है तथा सड़कों का निर्माण कराकर गाँवों में विकास के
द्वार खोल दिये हैं।

5. बचत तथा विनियोग में वृद्धि – सहकारी समितियों ने कृषकों में कम व्यय की आदत डाली है, जिससे वे बचत करने लगें तथा उनका विनियोग डाकखानों तथा सहकारी बैंकों में होने लगे।

6. ग्रामीण विकास – सहकारी समितियों ने कुटीर तथा लघु उद्योगों का विकास करके, नौकरी के अवसर प्रदान करके तथा कृषि उत्पादन में वृद्धि करके ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में तीव्रता प्रदान की है। ग्रामीण विकास के क्षेत्र में सहकारिता का सर्वाधिक योगदान रहा है। सहकारिता ने ग्रामीण विकास के नये द्वार खोल दिये हैं।

7. सामाजिक व राजनीतिक चेतना – सहकारिता का सिद्धान्त सहयोग है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक चेतना में वृद्धि हुई है। लोकतान्त्रिक प्रणाली पर आधारित होने के कारण सहकारी समितियाँ ग्रामवासियों को लोकतन्त्र की शिक्षा भी स्वत: प्रदान करती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में नेतृत्व का विकास हुआ है, जिसने ग्रामवासियों का ठीक प्रकार से मार्गदर्शन करना प्रारम्भ कर दिया है।

8. उत्तरदायित्व की भावना का विकास – सहकारिता में प्रत्येक सदस्य प्रत्येक कार्य के लिए जिम्मेदार होता है, जिसके कारण सभी अपना उत्तरदायित्व ठीक प्रकार से समझने लगते हैं।

9. नैतिक गुणों का विकास –  सहकारिता ग्रामवासियों में नैतिक गुणों के विकास में भी सहायक है। आत्मविश्वास, आत्म-सहायता, ईमानदारी तथा मितव्ययिता जैसे गुणों का विकास करने में
सहकारिता सहायक है।

10. जीवन को श्रेष्ठ बनाने में सहायक – सहकारिता ने ग्रामवासियों के जीवन को श्रेष्ठ बनाने में सहायता प्रदान की है। ऋण की सुविधाओं तथा क्रय-विक्रय की सुविधाओं के कारण वे शोषण से बच गये हैं। सहकारिता से मिलने वाली अनेक सुविधाओं ने ग्रामवासियों का जीवन श्रेष्ठ बनाने में सहायता प्रदान की है।

11. तनाव एवं संघर्ष से मुक्ति – सहकारी आन्दोलन के फलस्वरूप ग्रामवासियों में सहयोग, प्रेम और एकता का संचार हुआ है। ग्रामीण क्षेत्रों में संघर्ष तथा मुकदमेबाजी कम होने से तनाव घट गया है। ऋणों से छुटकारा, कृषि उपजों को उचित मूल्य तथा भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल जाने से कृषकों में आत्म-सन्तोष उत्पन्न हो गया है। तनाव तथा संघर्ष से मुक्त होकर ग्रामवासी अब समाज तथा राष्ट्र के नव-निर्माण में भरपूर सहयोग देने लगे हैं।

12. ग्रामीण पुनर्निर्माण का आधार – सहकारिता आन्दोलन ग्रामीण पुनर्निर्माण की आधारशिला कहलाता है। वर्तमान समय में लगभग 16 करोड़ सदस्य सहकारिता के गुणों से सम्पन्न होकर गाँवों के नव-निर्माण में अपना पूरा-पूरा सहयोग दे रहे हैं। सहकारी आन्दोलन ने ग्रामीण क्षेत्रों , की अर्थव्यवस्था, सामाजिक दशी, कृषि, पशुपालन तथा जीवन-यापन को नवीनतम आयाम दिये हैं। प्रगति की डगर पर ग्रामीण लोग अब राष्ट्र के अन्य लोगों के साथ कदम-से-कदम मिलाकर आगे बढ़ रहे हैं। सहकारी आन्दोलन वह सुदृढ़ आधार है, जिस पर ग्रामीण विकास
एवं पुनर्निर्माण का भव्य भवन टिका हुआ है।

13. विकास योजनाओं में सहयोग – भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी आन्दोलन के माध्यम से विकास योजनाएँ लागू की गयी हैं। सहकारी समितियों ने इन्हें सुधरे हुए बीज, रासायनिक खाद, कीटनाशक दवाएँ तथा नवीनतम कृषि यन्त्र देकर हरित-क्रान्ति की सफलता में प्रमुख भूमिका निभायी है। अनेक विकास योजनाओं ने ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक असमानता को समूल नष्ट कर दिया है।
इस प्रकार सहकारी समितियों ने ग्रामीण समाज को धन-धान्य से भरपूर करके सभी ओर समृद्धि बिखेर दी है। इसने अच्छे और चरित्रवान नागरिकों के निर्माण में सहायता देकर लोकतन्त्र की सफलता की आधारशिला रख दी है। शोषण पर रोक लगाकर ग्रामीण लोगों को आदर्श एवं सुखी जीवन व्यतीत करने योग्य बनाया है। वास्तव में, सहकारी समितियाँ ग्रामीण समाज के पुनर्निर्माण की कुंजी सिद्ध हो रही हैं। सहकारी आन्दोलन को गति प्रदान करके ग्रामीण क्षेत्रों की प्रगति और सम्पन्नता की नींव रखी जा सकती है। भारत सरकार सहकारी आन्दोलन को नया स्वरूप देने के लिए प्रयासरत है।

प्रश्न 3
ग्रामीण विकास में सहकारी समितियों का महत्त्व व योगदान बताइए।
या
ग्रामीण विकास समितियों के महत्त्व पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिए। [2016]
या
ग्रामीण समाज में सहकारी समितियों के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
ग्रामीण समाज में सहकारी समितियों का महत्त्व व योगदान
ग्रामीण समाज की काया पलटने में सहकारी समितियों का सहयोग बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है। इन समितियों ने ग्रामीण ऋणग्रस्तता, कृषि के पिछड़ेपन, बँधुआ मजदूरी आदि समस्याओं का निराकरण करके ग्रामीण जीवन को सुख और समृद्धि से पाट दिया है। सहकारी समितियाँ ग्रामीण समाज के लिए कल्पवृक्ष सिद्ध हो रही हैं। इन्होंने ग्रामीण समाज का नव-निर्माण करके उसे एक सुधरा रूप दिया है। ग्रामीण समाज के उत्थान में सहकारी समितियों के महत्त्व को निम्नलिखित शीर्षकों के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है

1. पुराने ऋणों से मुक्ति – भारतीय गाँवों की मुख्य समस्या ऋणग्रस्तता थी। कहा जाता था कि भारतीय कृषक ऋणों में जन्म लेता है और ऋणों में ही मर जाता है। एक बार लिया हुआ ऋण पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता था। साहूकार तथा जमींदार ग्रामीण समाज के शोषण में आकण्ठ डूबे थे। सहकारी समितियों ने किसानों को उचित ब्याज की दर पर सुगमता से ऋण उपलब्ध कराकर उन्हें उनके प्राचीन ऋणों से मुक्ति दिलवा दी।

2. आर्थिक विकास में गति – सहकारी समितियों के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों के आर्थिक विकास में गति आ गयी है। अर्थव्यवस्था में सुधार आने से ग्रामीण समाज में खुशहाली की लहर दो से है। तीव्र गति से हुए आर्थिक विकास ने भारतीय कृषकों को कृषि, पशुपालन तथः कुटीर उद्योग-धन्धों के क्षेत्र में पर्याप्त निर्भरता प्रदान कर दी है।

3. सामाजिक चेतना का विकास – सहकारी समितियों ने ग्रामीण समाज के सदस्यों में परस्पर सहयोग, एकता, सामुदायिकता, सहानुभूति तथा प्रेम का भाव जाग्रत कर सामाजिक चेतना के विकास में अद्वितीय योग दिया है। ग्रामीण समाज के सभी सदस्य एकजुट होकर समाज के नव-निर्माण के लिए प्रयत्नशील हो उठे हैं।

4. झगड़ों और मुकदमेबाजी में कमी – सहकारी समितियों ने हम की भावना जगाकर ग्रामीण समाज में अपनत्व का भाव जगा दिया है। ग्रामीण समाज के सदस्य सामूहिक हित को ध्यान में रखकर तथा वैर-भाव छोड़कर तन-मन-धन से सहकारिता के कार्यों में सहयोग दे रहे हैं। सहयोग के कारण झगड़ों का अन्त हो गया और मुकदमेबाजी में कमी आ गयी है। इस प्रकार सामाजिक सनाव और संघर्ष में भी गिरावट आ गयी है।

5. पारस्परिक सहयोग का विकास – सहकारी समितियों का आधार पारस्परिक सहयोग है। सभी लोग इन समितियों के सदस्य बनकर एकता और सहयोग का प्रदर्शन करते हैं। सहयोग और एकता, प्रगति और शक्ति की आधारशिला है। सहयोग के कारण मित्रता, भाई-चारा, समानता और स्वतन्त्रता आदि गुणों का उदय होता है, जो राष्ट्रीय एकता को बल प्रदान करते हैं।

6. लोकतन्त्र का प्रशिक्षण – सहकारी समितियों का संगठन और संचालन लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अनुरूप होता है। सहकारी समितियों के सदस्य बनकर ग्रामीण समाज के लोग स्वतन्त्रता, समानता व भाई-चारे का पाठ पढ़ते हैं तथा कर्तव्य और अधिकारों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। इस प्रकार सहकारी समितियाँ लोकतन्त्र के लिए प्रबुद्ध और जागरूके नागरिकों का सृजन करने में बहुत सहयोग देती हैं।

7. सामाजिक कल्याण में अभिवृद्धि – सहकारी समितियाँ और इन समितियों के सदस्य सामूहिक हित को ध्यान में रखकर कार्य करते हैं। इस प्रकार सहकारी समितियाँ सामाजिक कल्याण में अभिवृद्धि करने का सशक्त माध्यम हैं।

8. ग्रामीण समाज का पुनर्निर्माण – सहकारी समितियाँ ग्रामीण जीवन के पुनर्निर्माण में बहुत सहायक होती हैं। इनसे सहभागिता प्राप्त कर ग्रामीण समाज का जीर्ण-शीर्ण कलेवर पुनः तरुणाई प्राप्त कर लेता है। ग्रामवासियों को नया सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवेश मिल जाता है। वे स्वयं को राष्ट्र की मुख्य धारा का एक अभिन्न अंग समझने लगते हैं। सहकारी समितियों ने ग्रामीण समाज के सदस्यों को सम्मानित और सुखी जीवन प्रदान करा दिया है।

इस प्रकार सहकारी समितियों ने ग्रामीण समाज को धन-धान्य से भरपूर करके सभी ओर समृद्धि बिखेर दी है। इसने अच्छे और चरित्रवान् नागरिकों के निर्माण में सहायता देकर लोकतन्त्र की सफलता की आधारशिला रख दी है। इसने शोषण पर रोक लगाकर ग्रामीण लोगों को आदर्श एवं सुखी जीवन व्यतीत करने के योग्य बनाया है। वास्तव में, सहकारी समितियाँ ग्रामीण समाज के पुनर्निर्माण की कुंजी सिद्ध हो रही हैं।

प्रश्न 4
भारतीय समाज में सहकारी आन्दोलन की धीमी गति होने के कारण बताइए तथा इन्हें प्रभावशाली बनाने के उपाय सुझाइए। [2010]
या
भारत में सहकारिता आन्दोलन पर अपने विचार (लेख, निबन्ध) लिखिए। [2007, 11, 15]
या
भारत में सहकारी आन्दोलन को और अधिक प्रभावी कैसे बनाया जा सकता है? [2007]
या
सहकारी आन्दोलन की धीमी (मन्द) गति अथवा इसकी असफलता के कारणों का उल्लेख कीजिए। [2011]
या
भारत में सहकारी आन्दोलन की सफलता के लिए आवश्यक उपायों को सुझाइए। [2013]
या
भारतीय समाज में सहकारिता आन्दोलन पर प्रकाश डालते हुए इसकी असफलता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
भारत में सहकारिता आन्दोलन का इतिहास

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पहले सहकारी आन्दोलन – सहकारिता का जन्म उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में हुआ था। सर्वप्रथम सहकारी समितियों का संगठन जर्मनी में हुआ तथा वहाँ इन्हें पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई। जर्मनी में इनकी सफलताओं से प्रभावित होकर 1901 ई० में भारत सरकार ने सर एडवर्ड ला की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की। इस समिति की सिफारिश के आधार पर 1904 ई० में ‘सहकारी साख समिति अधिनियम’ (Co-operative Credit Societies Act, 1904) पारित हुआ। 1908 ई० तक सहकारिता आन्दोलन ने पर्याप्त प्रगति की। 1912 ई० में ‘सहकारी साख अधिनियम’ पारित हुआ। इस अधिनियम के अधीन सहकारिता के गैर-साख रूपों अर्थात् उत्पादन, क्रय-विक्रय, बीमा, मकानों आदि के निर्माण के लिए सहकारी समितियों की स्थापना की गयी 1914 ई० में भारत सरकार ने मैकलेगन की अध्यक्षता में एक सहकारी समिति की नियुक्ति की।

1919 ई० में माउण्ट-फोर्ड सुधारों (लॉर्ड माउण्टबेटन तथा लॉर्ड चेम्सफोर्ड द्वारा किये गये सुधार) के अन्तर्गत सहकारिता को एक राजकीय विषय बना दिया गया। 1925 ई० में बम्बई (मुम्बई) सरकार ने अपना ‘सहकारी समिति अधिनियम’ पारित किया। बम्बई के पश्चात् 1932 ई० में मद्रास (चेन्नई) में, 1934 ई० में बिहार में तथा 1943 ई० में बंगाल की प्रान्तीय सरकारों ने सहकारी समितियों से सम्बन्धित कानूनों का निर्माण किया। 1929 ई० तक सहकारी समितियों की संख्या 1 लाख तक बढ़ गयी। 1939 ई० में दूसरा महायुद्ध छिड़ा, जिसके परिणामस्वरूप कृषि उपज में पर्याप्त वृद्धि हुई।

अत: किसानों की आर्थिक दशा में सुधार हुआ। इससे सहकारिता आन्दोलन में और तीव्रता आयी और उनकी संख्या में 1945 ई० तक 41% की वृद्धि हुई। 1942 ई० में एक ‘सहकारिता योजना समिति’ (Co-operative Planning Committee) की नियुक्ति की गयी। इस समिति ने सिफारिश की कि प्राथमिक साख-समितियों का निर्माण किया जाए। साथ ही ऐसा प्रयास किया जाए जिससे कि दस वर्षों में देश में कम-से-कम 50% गाँवों व 30% शहरों के लिए समितियाँ बनायी जाएँ। रिजर्व बैंक से इस बात के लिए अनुरोध किया गया कि वह सहकारी समितियों को सफल बनाने के लिए अधिक-से-अधिक सहायता दे।।

स्वतन्त्रता के पश्चात सहकारी आन्दोलन–स्वतन्त्रता के पश्चात् देश के आर्थिक विकास से कार्यक्रमों में सहकारिता को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। पंचवर्षीय योजनाओं में भी सहकारिता के विकास पर अधिक बल दिया गया है और उसकी सफलता के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाये गये हैं। वर्ष 1950-51 में प्राथमिक साख-समितियों की कुल संख्या 1.05 लाख थी। वर्ष 1960-61 में इन समितियों की संख्या 2.10 लाख तक जा पहुँची। 1965 ई० में हैं 10 करोड़ की प्रारम्भिक पूँजी से ‘राष्ट्रीय कृषि साख दीर्घकालीन कोष’ (National Agricultural Credit Long-term Operation Fund) की स्थापना की गयी। इस कोष का मुख्य कार्य राज्य सरकारों को सहकारी संस्थाओं के विकास के लिए ऋण प्रदान करना था। सहकारिता आन्दोलन से सम्बन्धित अधिकारियों को प्रशिक्षित करने के लिए ‘सहकारिता प्रशिक्षण की केन्द्रीय समिति’ (Central Committee for Co-operative Training) की स्थापना की गयी।

वर्ष 1977-78 में सहकारी समितियों की संख्या 3 लाख, प्राथमिक समितियों की सदस्य संख्या 193 लाख, हिस्सा पूँजी १ 1,812 करोड़ तथा कार्यशील पूँजी र 16,691 करोड़ थी। वर्ष 1982-83 में यह संख्या क्रमशः 2.91 लाख, 1,208 लाख, * 2,305 करोड़ तथा १ 21,857 करोड़ थी। जून, 1983 ई० के अन्त तक 94,089 प्राथमिक कृषि साख समितियाँ कार्य कर रही थीं तथा 96% व्यक्ति इनके अन्तर्गत थे। 1989 ई० में ये समितियाँ ग्रामीण क्षेत्र के 98% भाग में फैल चुकी थीं लेकिन वर्तमान में भारत में विभिन्न प्रकार की सहकारी समितियों की संख्या 5.04 लाख ही पहुँच पाई है, जिनकी सदस्य संख्या 22 करोड़ है। आज भारत में अनेक प्रकार की सहकारी समितियाँ कार्य कर रही हैं। इनमें साख सहकारी समितियाँ (प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ तथा सहकारी भूमि विकास बैंक), सहकारी उत्पादन समितियाँ (सहकारी कृषि समितियाँ, सहकारी औद्योगिक समितियाँ व सहकारी दुग्धपूर्ति समितियाँ), सहकारी विपणन समितियाँ, बहु-उद्देशीय जनजातीय सहकारी समितियाँ, सहकारी उपभोक्ता समितियाँ तथा सहकारी आवास समितियाँ प्रमुख हैं।

भारत में सहकारी आन्दोलन की धीमी गति (असफलता) के कारण

भारत में सहकारी आन्दोलन बहुत ही महत्त्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हुआ है। इसने ग्रामीण क्षेत्रों की युगों-युगों से व्याप्त गरीबी, बेरोजगारी, ऋणग्रस्तता और संघर्षों को समाप्त कर दिया है। भारत में सहकारिता के 100 वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी इसकी प्रगति मन्द रही है। कुछ क्षेत्रों में तो सहकारी आन्दोलन असफल ही हो गया है। ग्रामीण विकास की यह सर्वोच्च आशा मन्द गति से आगे बढ़ रही है। भारत में सहकारी आन्दोलन की मन्द गति होने के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं

1. अशिक्षा – सहकारिता की धीमी प्रगति का प्रमुख कारण ग्रामवासियों में व्याप्त अशिक्षा है। अशिक्षा के कारण ग्रामवासी सहकारिता के महत्त्व को नहीं समझ पाते तथा न ही विभिन्न समितियों के अधिनियमों को ही समझ पाते हैं। प्रभुतासम्पन्न लोग इसमें कोई रुचि नहीं लेते, क्योंकि इनसे उन्हें कोई लाभ नहीं पहुँचता। अत: अशिक्षित लोग सहकारिता का पूरा लाभ नहीं
उठा पाते जिससे सहकारी आन्दोलन की गति मन्द रहती है।

2. अकुशल प्रबन्ध – सहकारिता की धीमी प्रगति का दूसरा कारण प्रबन्ध की अकुशलता है। सहकारी समितियों में मितव्ययिता की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जाता है, अपितु ऋण की वसूली पर भी कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। साथ ही अनेक सही व्यक्तियों को ऋण प्राप्त नहीं हो पाते हैं, जिससे इनका लाभ सीमित लोगों को ही मिल पाता है।

3. जन-सहयोग का अभाव – सहकारिता को सामान्य ग्रामवासियों ने अपने विकास से सम्बन्धित कार्यक्रम न मानकर इसे एक सरकारी आन्दोलन माना है। सरकार ने इसका प्रचार भी इसी ढंग से किया है, जिसके परिणामस्वरूप अधिक जनता इस ओर आकर्षित नहीं हो पायी है। जनसामान्य का भरपूर सहयोग न मिल पाने के कारण यह आन्दोलन असफल रहा है।

4. अपर्याप्त साधन – सहकारी समितियाँ वित्तीय साधनों की कमी के कारण अपने सदस्यों को पूर्ण सहायता भी नहीं दे पायी हैं। अपर्याप्त साधनों के कारण कृषकों को समय पर ऋण नहीं मिल पाता तथा उन्हें साहूकारों के चंगुल में फंसना पड़ता है। साधनों की अपर्याप्तता के कारण सहकारी आन्दोलन पिछड़ जाता है।

5. ब्याज की विभिन्न दरें – विभिन्न राज्यों में सहकारी समितियों द्वारा दिये जाने वाले ऋणों की दर में भिन्नता (6 प्रतिशत से लेकर 12 प्रतिशत) के कारण भी इनकी सफलता प्रभावित
हुई है। निर्धन किसान अधिक ब्याज अच्छे उत्पादन के दिनों में भी सहन नहीं कर सकता है।

6. लाल फीताशाही – सहकारी आन्दोलन की धीमी प्रगति को एक अन्य कारण सहकारी आन्दोलन से सम्बन्धित सहकारी विभागों में असामंजस्य तथा लाल फीताशाही को पाया जाना है। प्राथमिक, प्रान्तीय तथा केन्द्रीय समितियों में सहयोग का अभाव है तथा ऋण वितरण इत्यादि में अधिकारी भ्रष्ट तरीके अपनाते हैं। अतः जनसाधारण इनका लाभ नहीं उठा पाता है।

7. जनता की उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण – सहकारी समितियों में होने वाले पक्षपात, जातिगत भावना, भ्रष्टाचार आदि के कारण जनसाधारण ने इनके प्रति उपेक्षापूर्ण नीति अपना ली है। धन का अनुचित उपयोग, फर्जी ऋण तथा गबन आदि का अखाड़ा बनती जा रही इन समितियों में ग्रामवासियों का विश्वास ही नहीं रहा।

8. व्यापारिक सिद्धान्तों की अवहेलना तथा पक्षपात – सहकारी समितियों की असफलता का एक अन्य कारण व्यापारिक नियमों की अवहेलना है। केवल ब्याज लेकर ऋण का नवीनीकरण कर देना, आवश्यकतानुसार ऋण न देना, ऋण देने में पक्षपात करना इत्यादि कारण जनता को इन समितियों के प्रति उदासीन बना देते हैं।

9. दलबन्दी – सहकारी आन्दोलन की मन्द गति का प्रमुख कारण दलबन्दी है। दलबन्दी के कारण जो संघर्ष उत्पन्न होते हैं उनसे सहकारी आन्दोलन की गति मन्द पड़ जाती है।

10. अन्य कारण – जातिवाद, स्वार्थपरता, व्यापक भ्रष्टाचार, नियन्त्रण तथा मार्गदर्शन का अभाव, प्रतिस्पर्धा व अकुशल प्रबन्ध के कारण भी भारत में सहकारी आन्दोलन की गति मन्द रही है।

भारत में सहकारी आन्दोलन को सफल बनाने के लिए सुझाव

सहकारी आन्दोलन को सफल बनाने में निम्नलिखित सुझाव सहायक हो सकते हैं

  1.  जनसाधारण में सहकारिता के सिद्धान्तों के प्रति जागरूकता उत्पन्न की जानी चाहिए, जिससे वे स्वत: उनके सदस्य बनकर इनसे लाभान्वित होने लगे।
  2.  सहकारी समितियों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया जाना चाहिए, जिससे वे अपने कार्य-क्षेत्र का विस्तार कर सकें।
  3. शिक्षा द्वारा जनता को सहकारिता लाभों से परिचित कराया जाना चाहिए।
  4.  सहकारी समितियों में व्याप्त भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद तथा जातिवाद समाप्त किया जाना चाहिए।
  5. इसकी नीतियाँ अधिक व्यावहारिक रूप से बनायी जानी चाहिए, जिससे उन्हीं लोगों को इनका लाभ मिल सके, जिन्हें उसकी आवश्यकता है।
  6. सहकारिता से सम्बन्धित सरकारी विभागों में समन्वय रखा जाए और लालफीताशाही समाप्त की जाए।
  7. सरकारी हस्तक्षेप कम किया जाना चाहिए जिससे इनकी प्रगति आशातीत हो सके।
  8. कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे सहकारी समितियाँ प्रभावी हो सकें।
  9.  सहकारी समितियों में दलबन्दी को समाप्त किया जाए, जिससे वे स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य संचालन कर सकें।
  10.  सहकारिता की कार्य-विधि को ठीक से सुधारा जाए, जिससे जनता को इस आन्दोलन का पूरा-पूरा लाभ मिल सके।
  11. सहकारिता का प्रशिक्षण देकर जनसामान्य को इस आन्दोलन में सहभागी बनने के लिए प्रेरित किया जाए।
  12. सहकारी समितियों के लेखे-जोखे की समय-समय पर जाँच करायी जाए।
  13. अलाभकारी समितियों को समाप्त कर दिया जाए, जिससे अपव्यय पर रोक लग सके।
  14. प्रचार तथा जनसामान्य से सम्पर्क करके लोगों की अभिरुचि इस आन्दोलन के प्रति जगायी जाए।
  15. महिलाओं में सहकारिता के प्रति लगाव पैदा किया जाए, जिससे उनकी उत्पादक प्रवृत्ति का लाभ इस आन्दोलन को प्राप्त हो सके।

निष्कर्ष – भारत में सहकारिता की धीमी गति तथा असफलताओं को देखते हुए यह नहीं समझ लेना चाहिए कि यह आन्दोलन व्यर्थ है। भारत जैसे कृषि-प्रधान देश के लिए सहकारिता बहुत आवश्यक है। मोरारजी देसाई के शब्दों में, “सचमुच का सहकारिता आन्दोलन प्रजातन्त्र की शक्ति बन सकता है।” सहकारिता पूँजीवाद और समाजवाद की अति को समाप्त करने वाला अमोघ अस्त्र है। यह मानव-समाज को सुधार कर सुखी तथा सम्पन्न जीवन प्रदान करने में पूर्णतः सक्षम है।

इससे ग्रामीण समाज में शोषण और अन्याय पर अंकुश लगेगा तथा समूचे समाज में खुशहाली और समृद्धि की लहर फैल जाएगी। श्री फखरुद्दीन अली अहमद के शब्दों में, भारत जैसे विकासशील राष्ट्रों में सामाजिक परितोष से युक्त आर्थिक संगठन के रूप में सहकारिता का एक विशेष महत्त्व है।’ यह शोषण से बचाव का सशक्त माध्यम है। मिर्धा समिति के शब्दों में, “सहकारी आन्दोलन निर्धन व्यक्ति की शक्तिशाली और सम्पन्न वर्ग द्वारा किये जाने वाले शोषण से रक्षा करने का अति उत्तम संगठन प्रस्तुत करता है। भारत में इस महान आन्दोलन को सफल बनाने की आवश्यकता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
सहकारिता के चार मुख्य उद्देश्य बताइए। या सहकारिता के कोई दो लाभ बताइए। [2016]
उत्तर:
सहकारिता के चार मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं

1. ग्रामीण पुनर्निर्माण – भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार ग्राम हैं। अत: ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार लाने के उद्देश्य से सहकारिता आन्दोलन का शुभारम्भ किया गया। प्रारम्भ में सहकारिता का क्षेत्र केवल साख-समितियों तक ही सीमित था, किन्तु बाद में यह उद्योग, कृषि, बाजार, उपभोग आदि के क्षेत्रों में भी अपनाया गया।

2. साधनों एवं शक्तियों का सम्मिलित उपयोग – सहकारिता की क्रिया को दुर्बल और निर्धन व्यक्तियों ने इस उद्देश्य से अपनाया जिससे कि वे अपनी संयुक्त शक्तियों और साधनों का आपसी प्रबन्ध के द्वारा उपयोग कर सकें तथा लाभ प्राप्त कर सकें। इस प्रकार सहकारिता ऐसे व्यक्तियों का ऐच्छिक संगठन है जो समानता, स्व-सहायता तथा लोकतान्त्रिक व्यवस्था के आधार पर सामूहिक हित के लिए करता है।

3. बिचौलियों तथा सूदखोरों से मुक्ति – किसानों को अपनी फसल को बेचने तथा कृषि के लिए खाद, बीज, ट्रैक्टर आदि खरीदने के लिए बिचौलियों का सहारा लेना पड़ता था। . इसके अतिरिक्त धनाभाव में वे सूदखोरों से भारी ब्याज पर ऋण लेते थे। सहकारिता का उद्देश्य कृषकों को इन बिचौलियों तथा सूदखोरों से मुक्ति दिलाना है। अब ये कार्य वे सहकारी समितियों के माध्यम से करते हैं तथा बिचौलियों और सूदखोरों के शोषण से बच जाते हैं।

4. उत्तरदायित्व की भावना का विकास – सहकारिता में प्रत्येक सदस्य प्रत्येक कार्य में साझीदार होता है तथा अपने कार्य के प्रति उत्तरदायी होता है। उसमें उत्तरदायित्व की भावना
का विकास होता है तथा वह एक जिम्मेदार नागरिक बनता है।

प्रश्न 2
सहकारिता के चार आर्थिक लाभों को समझाइए। [2009]
उत्तर:
सहकारिता से मिलने वाले निम्नलिखित आर्थिक लाभों के कारण भारत में सहकारिता को व्यापक रूप से अपनाना अत्यन्त लाभदायक होगा

  1. कम ब्याज पर ऋण – सहकारी साख समितियाँ किसानों एवं कारीगरों को कम ब्याज पर ऋण प्रदान करके उन्हें महाजनों के शोषण से बचाती हैं।
  2. मध्यस्थों का अन्त – कई राष्ट्रों में सहकारी आन्दोलन ने उत्पादकों तथा उपभोक्ताओं की सहकारी समितियों को परस्पर सम्बद्ध करके विपणन-प्रणाली से मध्यस्थों को पर्याप्त सीमा
    तक हटा दिया है।
  3.  कृषि का विकास – बहु-उद्देशीय सहकारी समितियाँ कृषकों के लिए उत्तम बीज, यन्त्र तथा उर्वरकों की व्यवस्था करके उनकी कृषि-उपज में वृद्धि करने में सहायक होती हैं। इसी प्रकार
    चकबन्दी समितियाँ तथा कृषि समितियाँ कृषि के विकास में सहायक सिद्ध होती हैं।
  4. निवास की समस्या का समाधान – सहकारी गृहनिर्माण समितियाँ अपने निर्धन तथा निस्सहाय सदस्यों के लिए निवास की व्यवस्था करती हैं।

प्रश्न 3
सहकारी कृषि समितियों पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
गाँवों की कृषि सम्बन्धी एक बहुत बड़ी समस्या यह है कि खेत छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटे हुए हैं। भूमि-विभाजन की इस समस्या का समाधान करने के लिए जिन चार प्रकार की सहकारी समितियों की स्थापना की गयी, वे हैं
(i) सहकारी संयुक्त कृषि समिति,
(ii) सहकारी उत्तम कृषि समिति,
(iii) सहकारी काश्तकारी कृषि समिति तथा
(iv) सहकारी सामूहिक कृषि समिति।।

  1. सहकारी संयुक्त कृषि समिति में कई लोगों की भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक बड़े कृषि फार्म के रूप में एकत्रित कर दिया जाता है। इस संयुक्त फार्म पर सभी लोग सामूहिक रूप
    से कृषि करते हैं और लाभ को सभी साझेदारों में उनकी भूमि के अनुपात में बाँट दिया जाता है। भूमि सामूहिक होते हुए भी प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी भूमि का मालिक बना रहता है।
  2.  सहकारी उत्तम कृषि समिति किसानों के लिए उत्तम किस्म के बीज, खाद एवं कृषि-यन्त्र जुटाती है, जिससे अधिक फसल पैदा हो सके।
  3. सहकारी काश्तकारी कृषि समिति गाँव की सारी भूमि को खरीद लेती है, उस पर ग्रामीणों से खेती करवाती है और बदले में उन्हें वेतन एवं लाभांश देती है।
  4. सहकारी सामूहिक कृषि समिति भी उत्पादन बढ़ाने के लिए सामूहिक रूप से कृषि करने को प्रोत्साहन देती है।

प्रश्न 4
सहकारी भूमि विकास बैंक पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भूमि सुधार, पुराने ऋणों को चुकाने एवं सिंचाई की सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए किसानों को ब्याज पर दीर्घावधि ऋण जुटाने हेतु सहकारी भूमि विकास बैंकों की स्थापना की गयी है। प्रारम्भ में इनका नाम ‘भूमि बन्धक बैंक’ था। सहकारी भूमि विकास बैंक भी निम्नलिखित दो प्रकार के हैं

  1. केन्द्रीय भूमि विकास बैंक – ये राज्य स्तर पर होते हैं। ये बैंक ऋण-पत्र जारी करते हैं। वर्तमान में इनकी संख्या 1,707 है।
  2. प्राथमिक भूमि विकास बैंक – ये बैंक गाँवों में कार्यरत् हैं जो किसानों को पम्पिंग सेट खरीदने, बिजली लगाने, भारी कृषि-यन्त्र खरीदने तथा गिरवी भूमि को छुड़ाने के लिए दीर्घकालीन ऋण देते हैं। ये बैंक किसानों की भूमि रेहन (गिरवी) रखकर उन्हें ऋण देते हैं। इस प्रकार इन बैंकों ने किसानों की आर्थिक स्थिति को सुधारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

प्रश्न 5
सहकारिता से उपभोक्ताओं को होने वाले लाभों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सहकारी संस्थाओं से सबसे अधिक लाभ उपभोक्ताओं को प्राप्त होते हैं। सहकारी आन्दोलन से उपभोक्ताओं को मुख्यतया निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं

1. उचित कीमत पर अच्छी किस्म की वस्तुओं की प्राप्ति – सहकारी भण्डार सीधे उत्पादकों से थोक मूल्य पर वस्तुएँ खरीदते हैं जिस कारण वे अपने सदस्यों को कम मूल्य पर वस्तुएँ देने में समर्थ होते हैं। साथ ही ‘सहकारी वितरण प्रणाली’ कम तोल, मिलावट, व्यापारियों द्वारा उपभोक्ताओं का शोषण आदि बुराइयों को दूर करने पर अपना ध्यान केन्द्रित करती है।

2. बचत में वृद्धि – उपभोक्ताओं को वस्तुओं के उचित कीमत पर उपलब्ध होने के कारण उनकी बचत में वृद्धि होती जाती है। अपनी बचतों को उपभोक्ता अन्य उपयोगी कार्यों में लगा सकते हैं।

3. मध्यस्थों द्वारा शोषण में कमी – सहकारी उपभोक्ता भण्डारों की स्थापना से उपभोक्ताओं तथा उत्पादकों के मध्य सीधा सम्बन्ध स्थापित हो जाने के कारण मध्यस्थों (दुकानदारों) द्वारा उपभोक्ताओं के किये जाने वाले शोषण में कमी हो जाती है।

4. सदस्यों में लाभ का वितरण – सहकारी भण्डारों को जो शुद्ध वार्षिक लाभ होता है उसके एक भाग को संचित कोष में डालकर शेष लाभ को सदस्यों में बाँट दिया जाता है। इससे सदस्यों की आय में वृद्धि होती है।

5. रहन-सहन के स्तर का उन्नत होना – उपभोक्ताओं को अच्छी वस्तुएँ उपलब्ध होने तथा उनकी बचत एवं आय में वृद्धि होने से उनका रहन-सहन का स्तर उन्नत हो जाता है।

6. महाजनों से छुटकारा – सहकारी साख समितियाँ अपने सदस्यों को कम ब्याज पर ऋण प्रदान करके उनकी महाजनों व साहूकारों के शोषण से रक्षा करती हैं।

7. सहकारी तथा सेवा – भावना का विकास-सहकारी संस्थाएँ अपने सदस्यों को संगठित करके उन्हें लोकतन्त्रीय ढंग से कार्य करने की शिक्षा प्रदान करती हैं। फिर इन संस्थाओं का प्रमुख उद्देश्य अपने सदस्यों की सेवा करना होता है न कि लाभ कमाना। इस दृष्टि से ये संस्थाएँ अपने सदस्यों में सेवा-भावना का विकास करती हैं।

8. सार्वजनिक हित के कार्य – सहकारी संस्थाएँ अपने संचित कोषों का पर्याप्त भाग पुस्तकालय, वाचनालय, क्लब आदि की स्थापना पर व्यय करती हैं। इससे सदस्यों (उपभोक्ताओं) के सामाजिक-कल्याण में वृद्धि होती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
सहकारिता के पाँच आधारभूत सिद्धान्तों के नाम बताइए।
उत्तर:
सहकारिता के पाँच आधारभूत सिद्धान्तों के नाम हैं

  1. ऐच्छिक संगठन,
  2. लोकतन्त्रीय प्रबन्ध,
  3. पारस्परिक सहायता द्वारा आत्म-सहायता,
  4. एकता व भाई-चारे का सिद्धान्त तथा
  5. लाभ के न्यायोचित वितरण का सिद्धान्त।

प्रश्न 2
सहकारिता की पाँच विशेषताएँ बताइए। उत्तर सहकारिता की पाँच विशेषताएँ हैं

  1.  ऐच्छिक संगठन,
  2.  आर्थिक हितों की रक्षार्थ गठन,
  3.  लोकतन्त्रीय सिद्धान्त के आधार पर संचालन,
  4. सामूहिक प्रयासों द्वारा सामूहिक कल्याण तथा
  5. न्यायपूर्ण आधार पर लाभों का वितरण।।

प्रश्न 3
सहकारिता को परिभाषित कीजिए तथा उसकी चार विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
सहकारिता ऐसे व्यक्तियों का ऐच्छिक संगठन है, जो समानता, स्व-सहायता तथा लोकतान्त्रिक व्यवस्था के आधार पर सामूहिक हितों के लिए कार्य करता है। सहकारिता की चार विशेषताएँ हैं

  1. यह एक ऐच्छिक संगठन है,
  2. यह लोकतन्त्रात्मक संगठन है,
  3. इसका प्रमुख उद्देश्य सेवा है न कि लाभ कमाना तथा
  4. यह समानता को बढ़ावा देती है।।

प्रश्न 4
पाँच प्रकार की सहकारी समितियों के नाम बताइए।
या
किन्हीं दो सहकारी समितियों के नाम लिखिए।
उत्तरं:
पाँच प्रकार की सहकारी समितियाँ निम्नलिखित हैं

  1.  सहकारी साख समितियाँ,
  2. बहु-उद्देशीय सहकारी समितियाँ,
  3. सहकारी बुनकर समितियाँ,
  4. सहकारी औद्योगिक समितियाँ तथा
  5. सहकारी उपभोक्ता समितियाँ (भण्डार)।।

प्रश्न 5
सहकारी उद्योग समितियों के बारे में आप क्या जानते हैं ? [2007]
उत्तर:
ग्रामीण कुटीर उद्योग एवं अन्य उद्योगों को बढ़ावा देने, उनसे सम्बन्धित कच्चा माल एवं मशीनें उपलब्ध कराने आदि की दृष्टि से भी सहकारी समितियों की स्थापना की गयी है। 30 जून, 1997 तक देश में कुल 67,449 औद्योगिक सहकारी समितियाँ थीं जिनकी सदस्य संख्या 54.12 लाख थी। वर्ष 1996-97 में इन समितियों ने ₹ 2,532.27 करोड़ का कारोबार किया। जुलाहों एवं बुनकरों के लिए माल की सुविधाएँ जुटाने एवं बिक्री के लिए सहकारी बुनकर समितियाँ बनायी गयी हैं। चमड़ा रेंगने, मिट्टी के बर्तन बनाने, फल व सब्जी को डिब्बों में बन्द करने एवं साबुन, तेल, गुड़ और ताड़ उद्योगों से सम्बन्धित सहकारी समितियाँ भी स्थापित की गयी हैं। सन् 1966 में राष्ट्रीय औद्योगिक सहकारी संघ की स्थापना हुई। इसका उद्देश्य सहकारी समितियों के उत्पादों की बिक्री में सहायता करना है।

प्रश्न 6
दुग्ध वितरण सहकारी समितियों के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
दूध, मक्खन और घी की सुविधाएँ जुटाने के लिए सहकारी डेयरी समितियों की स्थापना की गयी है। ये समितियाँ किसानों को अधिक दूध उत्पन्न करने और आय बढ़ाने की सुविधाएँ प्रदान करती हैं। 30 जून, 1997 में 67,121 प्राथमिक दुग्ध आपूर्ति सहकारी समितियाँ थीं, जिनकी सदस्य-संख्या 84.5 लाख थी। सन् 1970 में डेयरी सहकारी समितियों का एक राष्ट्रीय परिसंघ बनाया गया, जिसका मुख्यालय आनन्द में है।

प्रश्न 7
सहकारी विपणन समितियों पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य दिलाने की दृष्टि से सहकारी विपणन समितियों की स्थापना की गयी है। भारतीय किसानों को उनकी अज्ञानता एवं गरीबी के कारण उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। वे न तो माल के गुण जानते हैं और न ही मण्डियों तक ले जाने में सक्षम होते हैं। उनकी इस कमजोरी का फायदा उठाते हुए दलाल एवं महाजन उनसे कम कीमत पर माल खरीद लेते हैं। सहकारी विक्रय समितियों की स्थापना इस ओर एक महत्त्वपूर्ण कदम है, जो किसानों की दलालों से रक्षा करती हैं और उन्हें उनकी उपज का उचित मूल्य दिलाती हैं। ‘सहकारी विपणन निगम इस प्रकार की समितियों को कई सुविधाएँ भी उपलब्ध कराता है।

प्रश्न 8
सहकारी उपभोक्ता भण्डारों के क्या उद्देश्य होते हैं ? [2009]
उत्तर:
सहकारी उपभोक्ता भण्डारों के उद्देश्य हैं

  1.  उपभोक्ताओं को उचित मूल्य पर शुद्ध वस्तुएँ उपलब्ध कराना,
  2. मध्यस्थों के अनावश्यक लाभ समाप्त करना,
  3.  उचित वितरण प्रणाली स्थापित करना,
  4. मूल्य वृद्धि को रोकने में सहायता देना तथा
  5. उपभोक्ताओं में एकता की भावना उत्पन्न करना।

प्रश्न 9
ग्रामीण समाज में सहकारी समितियों के दो कार्यों को लिखिए। [2007, 10]
या
ग्रामीण भारत में सहकारी समितियों के किन्हीं दो उपयोगी योगदानों को बताइए। [2009, 10, 11]
उत्तर:
ग्रामीण समाज में सहकारी समितियों के निम्नलिखित दो कार्य हैं

1. ग्रामीण कृषि व्यवसाय में सुधार करना – सहकारी संयुक्त कृषि समितियों, सहकारी सामूहिक समितियों तथा सहकारी काश्तकार समितियों आदि के द्वारा ग्रामीण कृषि व्यवसाय में सुधार करने के प्रयास किये जाते हैं।

2. कारीगरों, श्रमिकों एवं उपभोक्ताओं को लाभ पहुँचाना – सहकारी समितियाँ केवल कृषकों को लाभ नहीं पहुँचाती, अपितु इनसे कारीगरों, श्रमिकों तथा उपभोक्ताओं को भी लाभ होता है।

प्रश्न 10
साख सहकारिताओं से आप क्या समझते हैं ? [2007, 14]
उत्तर:
ग्रामीण ऋणग्रस्तता को समाप्त करने के लिए ‘सहकारी ऋण समितियाँ अधिनियम पारित किया गया। इस समय विभिन्न प्रकार की सहकारी समितियाँ देश में कार्यरत हैं, जिनमें सहकारी साख समितियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें निम्नलिखित मुख्य हैं

  1. प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ – ये प्रमुख सहकारी साख समितियाँ हैं, जिनका मुख्य कार्य किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार करने के लिए उन्हें ऋण उपलब्ध कराना है। लगभग
    10 करोड़ कृषक इन समितियों के सदस्य हैं।
  2. सहकारी भूमि विकास बैंक – यह भी एक सहकारी साख समिति है, जिसका उद्देश्य कृषकों को लम्बी अवधि के लिए कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध कराना है। इसकी लगभग 1,700 शाखाएँ हैं। इसके अन्तर्गत केन्द्रीय विकास बैंक तथा प्राथमिक भूमि विकास बैंक किसानों की भूमि रहन रखकर ऋण उपलब्ध कराते हैं।

प्रश्न 11
सहकारी समितियों के असन्तोषजनक कार्यों के चार कारकों को लिखिए। [2013]
उत्तर:
सहकारी समितियों के असन्तोषजनक कार्यों के चार कारक निम्नलिखित हैं

  1. सहकारी समितियों के प्रबन्धकों ने अधिक कुशलता से कार्य नहीं किया है।
  2. सहकारी आन्दोलनों को सफल बनाने के लिए सरकार ने पर्याप्त वित्तीय सहायता उपलब्ध नहीं करायी है।
  3. सरकार के विभिन्न विभागों में सहकारिता आन्दोलन को सफल बनाने के लिए जरूरी सामंजस्य का अभाव रहा है।
  4.  सहकारी समितियों के चुनावों ने ग्रामीणों में गुटबन्दी को उत्साहित कर इसके प्रभावशाली ढंग से कार्य करने में बाधा डाली है।

प्रश्न 12
भारत में सहकारी आन्दोलन की मन्द गति के दो कारण बताइए। [2016]
उत्तर:
भारत में सहकारी आन्दोलन की मन्द गति के दो कारण निम्नलिखित हैं

  1.  भ्रष्टाचार – यह सहकारी समितियों की प्रमुख समस्या है। इन समितियों के सदस्य निजी स्वार्थों की पूर्ति के कारण अपनी जिम्मेदारियों का सही प्रकार से निर्वहन नहीं करते हैं।
  2.  सदस्यों में बचत की आदत का अभाव – जब तक सदस्यों में बचत की आदत को विकसित नहीं किया जाएगा, तब तक सहकारी आन्दोलन सफल नहीं हो सकता है।

प्रश्न 13
साख समितियों से आप क्या समझते हैं? [2012]
उत्तर:
सहकारी साख समितियाँ – सहकारी साख समितियों का गठन ग्रामवासियों को ऋणग्रस्तता से छुटकारा दिलाने के लिए किया गया है। इन समितियों द्वारा ग्रामवासियों को ऋण, चिकित्सा इत्यादि की सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं। सहकारी साख समितियों अनेक प्रकार की होती हैं, जिनमें प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ तथा सहकारी भूमि विकास बैंक प्रमुख हैं। कृषि ऋण समितियाँ किसानों को ऋण उपलब्ध कराने का कार्य करती हैं, जबकि विकास ऋण पुराने ऋण चुकाने, कृषि में सुधार करने, अतिरिक्त सिंचाई साधन जुटाने हेतु दीर्घकालीन ऋण उपलब्ध कराती है। सहकारी भूमि विकास बैंक दो प्रकार के होते हैं केन्द्रीय भूमि विकास बैंक तथा प्राथमिक भूमि विकास बैंक। पहले प्रकार के बैंक राज्य स्तर पर गठित किए जाते हैं, जबकि द्वितीय प्रकार के बैंक ग्राम स्तर पर होते हैं।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
सहकारिता का मुख्य आधार क्या है? [2012, 14]
उत्तर:
पारस्परिक जन सहयोग।

प्रश्न 2
भारत में सहकारी समितियाँ अधिनियम (को-ऑपरेटिव सोसाइटीज ऐक्ट) कब पारित हुआ था ? [2007]
उत्तर:
भारत में सहकारी समितियाँ अधिनियम 1912 ई० में पारित हुआ था।

प्रश्न 3
सहकारी साख-समितियाँ कितने प्रकार की होती हैं ? उनके नाम बताइए।
उत्तर:
सहकारी साख-समितियाँ दो प्रकार की होती हैं

  1. अल्पावधि ऋण देने वाली; जैसे‘प्राथमिक कृषि ऋण-समिति’ तथा
  2.  लम्बी अवधि के लिए ऋण देने वाली; जैसे ‘सहकारी भूमि विकास बैंक’।

प्रश्न 4
बहु-उद्देशीय सहकारी समितियाँ क्या होती हैं ?
उत्तर:
जो सहकारी समितियाँ अपने सदस्यों के साथ कई उद्देश्यों या आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं, वे बहुउद्देशीय सहकारी समितियाँ कहलाती हैं; जैसे – सदस्यों के हितार्थ ऋण, विपणन, खाद, बीज आदि की व्यवस्था।

प्रश्न 5
कृषि के क्षेत्र में सहकारिता के दो लाभ बताइए।
उत्तर:
कृषि क्षेत्र में सहकारिता के दो लाभ ये हैं

  1. खेती करने की विधियों में सुधार तथा
  2. कृषि-वस्तुओं की बिक्री-व्यवस्था में सुधार।

प्रश्न 6
कृषि-कार्यों के लिए नलकूप तथा कुएँ लगाने के लिए ऋण कौन-सी समितियाँ देती
उत्तर:
कृषि-कार्यों के लिए नलकूप तथा कुएँ लगाने के लिए ऋण सहकारी सिंचाई समितियाँ देती हैं।

प्रश्न 7
सहकारी आन्दोलन की सफलता किस बात पर निर्भर है ?
उत्तर:
सहकारी आन्दोलन की सफलता जन-सहयोग पर निर्भर है।

प्रश्न 8
किसानों को उनकी उपज का समुचित मूल्य दिलवाने का काम कौन-सी सहकारी समितियाँ करती हैं ?
उत्तर:
किसानों को उनकी उपज का समुचित मूल्य दिलवाने का काम सहकारी विपणन (विक्रय) समितियाँ करती हैं।

प्रश्न 9
सहकारी भूमि विकास बैंक किसानों को किन कार्यों के लिए ऋण उपलब्ध कराते हैं ?
उत्तर:
सहकारी भूमि विकास बैंक किसानों को भूमि-सुधार, पुराने ऋणों को चुकाने एवं सिंचाई की सुविधा प्राप्त करने के लिए ऋण उपलब्ध कराते हैं।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
भारत में सहकारिता का प्रारम्भ निम्नलिखित में से किस वर्ष में हुआ ?
(क) सन् 1902 में
(ख) सन् 1904 में
(ग) सन् 1905 में
(घ) सन् 1907 में

प्रश्न 2
निम्नलिखित में से किसका सम्बन्ध सहकारिता से नहीं है ?
(क) सामाजिक संगठन
(ख) ऐच्छिक संगठन
(ग) लाभ का वितरण
(घ) सदस्यों का आर्थिक कल्याण

प्रश्न 3
किसानों के लिए अच्छे बीजों और उपकरणों की सुविधा कौन-सी समिति द्वारा दी जाती है?
(क) विक्रय समिति
(ख) औद्योगिक समिति
(ग) कृषि समिति
(घ) उपभोक्ता समिति

प्रश्न 4
सहकारी भूमि विकास बैंक किसानों को कौन-सा ऋण देने का कार्य करते हैं ?
(क) आवश्यकतानुसार
(ख) मध्यकालीन
(ग) अल्पकालीन
(घ) दीर्घकालीन

प्रश्न 5
प्रत्येक सबके लिए तथा सब प्रत्येक के लिए यह किसका मूल मंत्र है? [2012]
(क) श्रम दान का
(ख) भूदान का
(ग) सहकारिता का
(घ) इन सभी का

प्रश्न 6
ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक आवास प्रदान करने के लिए ‘समग्र आवास योजना’ कब प्रारम्भ की गयी।
(क) 1998 ई० में
(ख) 1999 ई० में
(ग) 2000 ई० में
(घ) 2001 ई० में

प्रश्न 7
भारत में सहकारी आन्दोलन का प्रमुख दोष है
(क) सरकारी सहायता पर निर्भरता
(ख) मूल्यों में वृद्धि
(ग) मध्यस्थों का अन्त
(घ) लाभ का समान वितरण

उत्तर:
1. (ख) सन् 1904 में,
2. (क) सामाजिक संगठन,
3. (ग) कृषि समिति,
4. (घ) दीर्घकालीन,
5. (ग) सहकारिता का,
6. (ख) 1999 ई० में,
7. (क) सरकारी सहायता पर निर्भरता।

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UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 5 Thinking

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Class Class 12
Subject Psychology
Chapter Chapter 5
Chapter Name Thinking
Number of Questions Solved 25
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UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 5 Thinking (चिन्तन)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
चिन्तन (Thinking) से आप क्या समझते हैं ? अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। चिन्तन के विषयक में स्पीयरमैन द्वारा प्रतिपादित नियमों का भी उल्लेख कीजिए। चिन्तन से आप क्या समझते हैं?
या
चिन्तन का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। (2009, 11, 12, 16)
या
चिन्तन को परिभाषित कीजिए। (2008)
उत्तर
जीवन के विकास क्रम में मनुष्य की सर्वोच्च स्थिति (पशुओं की तुलना में) बुद्धि, विवेक एवं चिन्तन जैसी उच्च मानसिक क्रियाओं के कारण है। पशु किसी चीज को देखकर उसका प्रत्यक्षीकरण कर पाते हैं, किन्तु मनुष्य उस वस्तु के अभाव में न केवल उसका प्रत्यक्षीकरण कर लेते हैं अपितु उसके विषय में पर्याप्त रूप से सोच-विचार भी सकते हैं। यह सोच-विचार या चिन्तन (Thinking) मनुष्य का ऐसा स्वाभाविक गुण है जिसकी बढ़ती हुई प्रबलता उसे अधिक-से-अधिक श्रेष्ठता की ओर उन्मुख करती है।

चिन्तन का अर्थ

कल्पना एवं प्रत्यक्षीकरण के समान ही चिन्तन भी एक महत्त्वपूर्ण ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है। जो वस्तुओं के प्रतीकों (Symbols) के माध्यम से चलती है। इस आन्तरिक प्रक्रिया में प्रत्यक्षीकरण एवं कल्पना दोनों का ही मिश्रण पाया जाता है। मनुष्य अपने जीवन में विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों का सामना करता है। कुछ परिस्थितियाँ सुखकारी होती हैं तो कुछ दु:खकारी। दुःखकारी परिस्थितियाँ समस्या पैदा करती हैं और उनका समाधान खोजने के लिए सर्वप्रथम मनुष्य विभिन्न मानसिक प्रयास करता है। दूसरे शब्दों में, शारीरिक रूप से प्रचेष्ट होने से पहले वह उस समस्या का समाधान अपने मस्तिष्क में खोजता है। इसके लिए मस्तिष्क उस समस्या के विभिन्न पक्षों का विश्लेषण प्रस्तुत कर सम्बन्धित विचारों की एक श्रृंखला विकसित करता है। समुद्र की लहरों के समान एक के बाद एक विचार उठते हैं जिनके बीच से समस्या का सम्भावित समाधान प्रकट होता है। समस्या का समाधान मिलते ही चिन्तन की मानसिक प्रक्रिया रुक जाती है। अतएव चिन्तन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत कोई मनुष्य किसी समस्या का समाधान खोजता है।

चिन्तन की परिभाषा

मनोवैज्ञानिकों ने चिन्तन को निम्न प्रकार परिभाषित किया है

  1. जे०एस०रॉस के अनुसार, “चिन्तन ज्ञानात्मक रूप में एक मानसिक प्रक्रिया है।
  2. वुडवर्थ के शब्दों में, “किसी बाधा पर विजय प्राप्त करने का तरीका चिन्तन कहलाता है।”
  3. बी०एन० झा के मतानुसार, “चिन्तन एक सक्रिय प्रक्रिया है जिसमें मन किसी विचार की गति को प्रयोजनात्मक रूप में नियन्त्रित एवं नियमित करता है।”
  4. रायबर्न के अनुसार, “चिन्तने ईच्छा सम्बन्धी वह प्रक्रिया है, जो असन्तोष के फलस्वरुप उत्पन्न होती है और प्रयास एवं त्रुटि के आधार पर उक्त इच्छा की सन्तुष्टि करती है।”
  5. वारेन के अनुसार, “चिन्तन एक विचारात्मक प्रक्रिया है, जिसका स्वरूप प्रतीकात्मक होता है। इसका प्रारम्भ व्यक्ति के समक्ष उपस्थित किसी समस्या अथवा क्रिया से होता है। इसमें प्रयास-मूल की क्रियाएँ निहित रहती है, किन्तु समस्या के प्रत्यक्ष प्रभाव से प्रभावित होकर चिन्तन प्रक्रिया अन्तिम रूप से समस्या समाधान की ओर उन्मुख होती है।”
  6. जॉनड्यूवी के अनुसार, “चिन्तन किसी विश्वास या अनुमानित ज्ञान का उसके आधारों एवं निष्कर्षों के माध्यम से सक्रिय सतत् तथा सतर्कतापूर्वक विचार करने की प्रक्रिया होती है।

    चिन्तन का स्वरूप

चिन्तन में व्यक्ति किन्हीं समस्याओं का हल अपने मस्तिष्क में खोजता है; अतएव वुडवर्थ नामक मनोवैज्ञानिक ने चिन्तन को मानसिक खोज (Mental Exploration) का नाम दिया है। हल खोजने की इस क्रियात्मक प्रक्रिया में प्रयास एवं भूल विधि के अन्तर्गत मन में कई प्रकार के विचार जन्म लेते हैं जिनमें से सर्वाधिक उपयुक्त विचार छाँटकर ग्रहण कर लिया जाता है। चिन्तन को प्रतीकात्मक व्यवहार (Symbolic Behaviour) इसलिए कहा जा सकता है, क्योकि यह प्रतीकों के प्रति प्रतिक्रिया है न कि प्रत्यक्ष वस्तु के प्रति। वस्तुओं का प्रत्यक्ष रूप से अभाव होने पर भी उनकी स्मृति/प्रतीक की उपस्थिति में चिन्तन का जन्म सम्भव है। इस दृष्टि से चिन्तन में अमूर्तकरण का भी सहयोग रहता है। चिन्तन प्रतीकों के मानसिक समायोजन (या प्रहस्तन) की क्रिया है जिसमें विचारों के विश्लेषण के साथ-साथ उनका संश्लेषण भी उपयोगी है। चिन्तन के दौरान व्यक्ति के मन में उपस्थित विचार क्रमबद्ध रूप से निहित रहते हैं तथा उन विचारों में एक तारतम्य एवं सम्बन्ध पाया जाता है। जैसे ही व्यक्ति के सम्मुख कोई समस्या उपस्थित होती है, चिन्तन का यह स्वरूप क्रियाशील हो जाता है। तथा विचार सम्बन्धी मानसिक प्रहस्तन के द्वारा व्यक्ति उपयुक्त हल खोज लेता है।

चिन्तन के विषय में स्पीयरमैन के नियम 

चिन्तन की जटिल प्रक्रिया में विश्लेषण और संश्लेषण और इस प्रकार पृथक्करण और संगठन ये दोनों प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं। संश्लेषणात्मक दृष्टि से ज्ञान का संगठन होता है जिसका आधार स्मृति एवं कल्पनाएँ हैं। विश्लेषणात्मक दृष्टि से कल्पनाओं का आधार पृथक्करण है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक स्पीयरमैन द्वारा प्रतिपादित पृथक्करण सम्बन्धी नियमों का अध्ययन, चिन्तन की व्याख्या में महत्त्वपूर्ण माना जाता है। स्पीयरमैन द्वारा पृथक्करण के दो मुख्य नियम बताये गये हैं
(I) सम्बन्धों का पृथक्करण तथा
(II) सह-सम्बन्धों का पृथक्करण।

(I) सम्बन्धों का पृथक्करण
सम्बन्धों का पृथक्करण चिन्तन के विषय में स्पीयरमैन द्वारा प्रतिपादित पहला नियम है। यह नियम बताता है कि चिन्तन की प्रक्रिया में जब किसी व्यक्ति के सामने कुछ वस्तुएँ रखी जाती हैं तो वह उनके बीच सम्बन्धों की खोज कर लेता है। इन सम्बन्धों का आधार आकार, निकटता व दूरी आदि होते हैं। ये सम्बन्ध ‘वास्तविक सम्बन्ध हैं।

वास्तविक सम्बन्ध–प्रमुख वास्तविक सम्बन्धों के आधार निम्नलिखित हैं

(1) गुण– प्रत्येक वस्तु का अपना एक विशेष गुण होता है और इस गुण के साथ ही वस्तु का वास्तविक सम्बन्ध बोध होता है। नींबू खट्टा होता है। खट्टापन नींबू का विशेष गुण है तथा नींबू व खट्टेपन में एक ऐसा वास्तविक सम्बन्ध है जिसे किसी भी दशा में पृथक् नहीं किया जा सकता।

(2) कालगत सम्बन्ध- कालगत सम्बन्ध वस्तुओं के बीच समय का वास्तविक सम्बन्ध है। राम प्रतिदिन 9.30 बजे प्रात: स्कूल के लिए रवाना होता है। 9.30 बजते ही उसके मन में चलने का विचार आ जाता है। यह 9.30 बजे तथा स्कूल चलने का कालगत सम्बन्ध है।

(3) स्थानगत सम्बन्ध- कुछ वस्तुएँ एक ही स्थान पर साथ-साथ पायी जाती हैं। उदाहरणार्थ-फाउण्टेन पेन और उसका ढक्कन एक ही जगह साथ-साथ मिलते हैं। अब जब वस्तुएँ स्थान के आधार पर सम्बन्धित हों तो यह विशेष सम्बन्ध होता हैं।

(4) कार्य-कारण सम्बन्ध– प्रत्येक क्रिया किसी-न-किसी कारणवश होती है। यदि वर्षा हो रही है तो आसमान में बादल अवश्य होंगे। बादल वर्षा का कारण है। इस भॉति किसी घटना को उसके कारण-विशेष से वास्तविक सम्बन्ध कार्य कारण सम्बन्ध कहलाएगा।

(5) वस्तुगत सम्बन्ध– हिमालय की ऊँची चोटियों पर चाँदी जैसी बर्फ चमक रही है। यहाँ पहाड़ की चोटी तथा बर्फ में वस्तुगत वास्तविक सम्बन्ध बोध होता है। |

(6) निर्माणात्मक सम्बन्ध- किसी भी वस्तु का निर्माण अन्य सहायक सामग्रियों द्वारा होता है। इस प्रकार निर्माणक एवं निर्मित वस्तु के मध्ये एक अभिन्न तथा वास्तविक सम्बन्ध पाया जाता है। कुर्सी का लकड़ी से तथा घड़े का मिट्टी से वास्तविक सम्बन्ध है।

विचारात्मक सम्बन्ध–विचारात्मक सम्बन्ध हृदयगत एवं आन्तरिक होते हैं। इनके निम्नलिखित आधार हो सकते हैं

  1. समानता—इसके अन्तर्गत विभिन्न वस्तुओं में गुणों की समानता के आधार पर चिन्तन का जन्म होता है।
  2. समीपता-वस्तुओं के समीप रहने पर उनमें सम्बन्ध बोध होता है; जैसे–चाँद-तारा।
  3. पूर्वपक्ष एवं निष्कर्ष-पूर्वपक्ष एवं निष्कर्ष के बीच विचारात्मक सम्बन्ध पाया जाता है। रात के समय कुत्ते के लगातार भौंकने का सम्बन्ध किसी अजनबी वस्तु या व्यक्ति की उपस्थिति से होता है। यहाँ कुत्ते का भौंकना पूर्वपक्ष है तथा अजनबी विषय-वस्तु की उपस्थिति का बोध निष्कर्ष है।
  4. नियोजनात्मक सम्बन्ध-कुछ सम्बन्ध नियोजन के आधार पर होते हैं। बहन और भाई के मध्य नियोजनात्मक सम्बन्ध है।

(II) सह-सम्बन्धों का पृथक्करण

स्पीयरमैन के अनुसार, सह-सम्बन्धों के पृथक्करण की प्रक्रिया को सरल बनाने की दृष्टि से किसी शब्द को सम्बन्ध के संकेत के साथ उपस्थित किया जाना आवयश्यक है। उदाहरण के तौर पर–यदि कहें कि गाजर का रंग लाल है और मूली का रंग? तो उत्तर मिलेगा-सफेद। इसी प्रकार मिर्च तीखी है और चीनी? तो उत्तर होगा-मीठी। मिलने वाला उत्तर सह-सम्बन्धों के पृथक्करण पर आधारित होता है।

प्रश्न 2
वैध चिन्तन’ से क्या तात्पर्य है? वैध चिन्तन के लिए अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।
या
वैध चिन्तन की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियाँ बताइए।  (2018)
उत्तर

 वैध चिन्तन का आशय

यदि चिन्तन की प्रक्रिया के परिणामतः निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति हो जाती है तो उसे ‘वैध चिन्तन (Valid Thinking) कहा जाएगा। सामान्यतः चिन्तन का निर्धारित लक्ष्य किसी समस्या-विशेष का समाधान खोजना होता है; अतः सफल या प्रामाणिक चिन्तन वह चिन्तन है, जिसमें समस्या का हल निकल आये। प्रामाणिक चिन्तन, सभी भाँति तटस्थ एवं बाह्य प्रभावों से मुक्त होता है। हमें जानते हैं कि

आत्मगत सुझावों, संवेगों तथा अन्धविश्वासों से युक्त चिन्तने दोषपूर्ण हो जाता है। दोषपूर्ण चिन्तन की वैधता एवं उपयोगिता समाप्त हो जाती है। वैध, प्रामाणिक एवं दोषमुक्त चिन्तन के लिए कुछ अनुकूल परिस्थितियाँ होती हैं।

चिन्तन की अनुकूल परिस्थितियाँ या प्रभावित करने वाली दशाएँ। अच्छे चिन्तन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ या प्रभावित करने वाली दशाएँ निम्नलिखित हैं

(1) सबल प्रेरणा (Strong Motivation)– चिन्तन की प्रक्रिया को शुरू करने के लिए प्रेरणा बहुत आवश्यक है। प्रेरणा की अनुपस्थिति में दोषमुक्त एवं व्यवस्थित चिन्तन सम्भव नहीं है। वस्तुतः चिन्तन की शुरुआत किसी समस्या से होती है। यह समस्या चिन्तन के लिए स्वत: ही एक प्रेरणा का कार्य करती है। व्यक्ति का सम्बन्ध समस्या से जितना, गहरा होगा, वह उसके समाधान हेतु उतनी ही गम्भीरता से कार्य करेगा। बाहरी प्रेरणाएँ जितनी अधिक सबल होंगी, चिन्तन भी उतना ही अधिक प्रबल होगा। इस प्रकार, प्रामाणिक चिन्तन के लिए सबल प्रेरणाएँ पर्याप्त रूप से सहायक समझी जाती हैं।

(2) रुचि (Interest)– रुचि, चिन्तन को प्रभावित करने वाली एक मुख्य दशा है। रुचि होने पर व्यक्ति सम्बन्धित समस्या के समाधान हेतु पूर्ण मनोयोग से प्रयास करता है। अपनी आदत के मुताबिक अरोचक विषयों से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान हेतु चिन्तन करने के लिए या तो व्यक्ति प्रचेष्ट ही नहीं होगा और यदि अनमने मन से चेष्टा करेगा भी तो उसे पूर्ण नहीं करेगा।

(3) अवधान (Attention)- चिन्तन के पूर्व और चिन्तन की प्रक्रिया के दौरान सम्बन्धित समस्या की ओर व्यक्ति का अवधान (ध्यान) होना चाहिए। समस्या पर अवधान केन्द्रित न होने से चिन्तन करना सम्भव नहीं हो पाता।

(4) बुद्धि (Intelligence)– चिन्तन का बुद्धि से सीधा सम्बन्ध है। चिन्तन एक बौद्धिक या मानसिक प्रक्रिया है; अतः बुद्धि का क्षेत्र या मात्रा चिन्तन में सहायक होती है। बुद्धि से सम्बन्धित तीनों पक्ष-अन्तर्दृष्टि, पूर्वदृष्टि तथा पश्चात् दृष्टि के सम्यक् एवं समन्वित प्रयोग से चिन्तन की सफलता सुनिश्चित होती है। देखने में आया है कि अधिक बुद्धिमान व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक सफल चिन्तक बन जाता है।

(5) सतर्कता (Vigilence)- वैध चिन्तन के लिए सतर्कता एक अनुकूल दशा है। चिन्तन के दौरान सतर्कता बरतने से भ्रान्त धारणाओं तथा गलतियों से बचा जा सकता है। इसके अलावा सतर्कता नवीन उपायों तथा विधियों का भी ज्ञान कराती है, जिन्हें आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जा सकता है।

(6) लचीलापन (Flexibility)– चिन्तन में लचीलापन अनिवार्य है। व्यक्ति की मनोवृत्ति में लचीलापन रहने से चिन्तन में स्वतन्त्रता आती है। रूढ़िगत एवं अन्धविश्वास से युक्त चिन्तन संकुचित एवं सीमित रह जाता है। चिन्तन में देश-काल एवं पात्रानुसार परिवर्तन आने चाहिए। स्पष्टतः यह चिन्तन में लचीलेपन के गुण से ही सम्भव है। |

(7) पर्याप्त समय (Enough Time)– चिन्तन के लिए समय की पाबन्दी लगाना उचित नहीं है। चिन्तन करते समय चिन्तक को यह ज्ञात नहीं रहता कि उसे किसी समस्या पर विचार करने में कितना समय लगेगा। अतः चिन्तन में स्वाभाविकता लाने के लिए समय की सीमा कठोर नहीं होनी चाहिए। चिन्तन के लिए पर्याप्त समय उपलब्ध रहना चाहिए।

(8) गर्भीकरण (Incubation)– गर्भीकरण अथवा सेने से अण्डे में बच्चा तैयार हो जाता है। जो समयानुसार पूर्ण रूप में आसानी से बाहर आ जाता है। गर्भीकरण का विचार चिन्तन की मानसिक प्रक्रिया के लिए एक अनुकूल दशा है। कभी-कभी लगातार एवं अवधानपूर्ण चिन्तन के बावजूद भी समस्या का समुचित हल नहीं निकल पाता। ऐसी दशा में चिन्तन के साथ जोर-जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए और उसे कुछ समय के लिए स्थगित कर देना चाहिए। इसे मानसिक विश्राम भी कहते हैं। गर्भीकरण की क्रिया में व्यक्ति समस्या से बेखबर अन्य कार्यों में उलझा रहता है। उसका मस्तिष्क समस्या को सेता रहता है। उचित समय पर समस्या का हल स्वतः ही मस्तिष्क में उभर आता है।

चिन्तन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ

जिस प्रकार वैध चिन्तन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ हैं, उसी प्रकार कुछ ऐसी परिस्थितियाँ भी हैं जो अच्छे चिन्तन को ऋणात्मक के रूप से प्रभावित करती हैं तथा उसके मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती हैं। इस तरह की परिस्थितियाँ चिन्तन को मैला करती हैं; अत: वैध चिन्तन के लिए इनसे बचाव अनिवार्य है।

चिन्तन एक महत्त्वपूर्ण मानसिक प्रक्रिया है जो न केवल समस्या-समाधान की ओर उन्मुख होती। है अपितु व्यक्ति की अभिवृत्तियों तथा गहराई से परिवर्तित करने की क्षमता रखती है। यही कारण है कि प्रारम्भ से मानव को प्रगति और अधोगति, रीति-रिवाज तथा अन्धविश्वास शुद्ध चिन्तन के स्रोत को प्रदूषित करते हैं।

इसके अतिरिक्त यदि व्यक्ति किन्हीं पूर्वाग्रहों से ग्रसित होगा या उसका रवैया किसी वस्तु/व्यक्ति विशेष के लिए पक्षपातपूर्ण होगा तो इसका विपरीत असर चिन्तन पर अवश्य पड़ेगा। भावुक व्यक्तियों का चिन्तन किसी एक दिशा में प्रवाहित हो जाता है, सम्भव है वह भ्रामक या त्रुटिपूर्ण दिशा हो। गलत सुझाव भी चिन्तन को विकासग्रस्त बना देते हैं।

चिन्तन में वस्तुओं की वास्तविक उपस्थिति जरूरी नहीं होती, बल्कि हम उस वस्तु या उद्दीपक का कुछ प्रतीक (Symbols) तथा प्रतिमाएँ (Images) मन में बना लेते हैं और उन्हीं के आधार पर चिन्तन करते हैं। दोषपूर्ण प्रतीक या प्रतिमाएँ दोषपूर्ण चिन्तन को जन्म दे सकती हैं।

चिन्तन की वैधता संप्रत्ययों की वैधता पर भी निर्भर करती है। संप्रत्यय जितने ही सरल तथा स्पष्ट होते हैं, चिन्तन उतना ही सरल होता है। जटिल और विशिष्ट संप्रत्ययों से सम्बन्धित चिन्तन अधिक स्पष्ट नहीं होता है।

स्पष्टतः चिन्तन के उपकरण; यथा—पदार्थ, संकेत, प्रतीक, प्रतिमा तथा संप्रत्यय; अपनी जटिलता, अस्पष्टता या दोषों के कारण वैध चिन्तन के लिए प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकते हैं।

प्रश्न 3
व्यक्ति के चिन्तन में भाषा की क्या भूमिका है? संक्षेप में स्पष्ट कीजिए। (2009)
या
चिन्तन की प्रक्रिया में भाषा के स्थान एवं योगदान को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
यह सत्य है कि चिन्तन की विकसित प्रक्रिया केवल मनुष्यों में ही पायी जाती है अर्थात् केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो व्यवस्थित चिन्तन करता है तथा उससे लाभान्वित भी होता है। मनुष्यों द्वारा चित्तने की उन्नत प्रक्रिया को सम्पन्न करने में सर्वाधिक योगदान भाषा का है। विकसित भाषा भी मनुष्य की ही एक मौलिक क्षमता है। मनुष्यों के अतिरिक्त किसी अन्य प्राणी को विकसित भाषा की क्षमता उपलब्ध नहीं है।

भाषा एक ऐसा प्रबल एवं व्यवस्थित माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों का आदान-प्रदान किया करते हैं तथा सभी सामाजिक अन्तक्रियाएँ स्थापित किया करते हैं। भाषा का मुख्य रूप शाब्दिक ही होता है तथा भाषा में विभिन्न प्रतीकों को प्रयोग किया जाता है। जहाँ तक चिन्तन की प्रक्रिया का प्रश्न है, इसमें भी भाषा द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है। वास्तव में, चिन्तन की प्रक्रिया को हम आत्म-भाषण या आन्तरिक सम्भाषण भी कह सकते हैं।

चिन्तन में भाषा की भूमिका मानवीय चिन्तन अपने आप में एक अत्यधिक तथा विकसित प्रक्रिया है। मानवीय चिन्तन में भाषा की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

चिन्तन में भाषा की भूमिका का विवरण निम्नलिखित 

(1) निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हमारी चिन्तन की प्रक्रिया सदैव शब्दों अथवा भाषा के माध्यम से सम्पन्न होती है। मॉर्गन तथा गिलीलैण्ड ने इससे सम्बन्धित परीक्षण किये तथा स्पष्ट किया कि चिन्तन में भाषा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। भाषा में चिह्नों का प्रयोग होता है तथा ये विचारों के माध्यम की भूमिका निभाते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि शब्द-विन्यास विचारों के संकेत के रूप में भूमिका निभाते हैं।

(2) चिन्तन की प्रक्रिया में स्मृति की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जहाँ तक व्यक्ति के विचारों की स्मृति का प्रश्न है, उसके निर्माण का कार्य भी भाषा द्वारा होता है। व्यक्ति के विचार उसके मस्तिष्क में मानसिक संस्कारों के रूप में स्थान ग्रहण कर लेते हैं तथा जब कभी आवश्यकता पड़ती है तो यही मानसिक संस्कार भाषा के आधार पर सरलता से याद कर लिये जाते हैं।

(3) जहाँ तक चिन्तन की प्रक्रिया की अभिव्यक्ति का प्रश्न है, उसमें भी भाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। व्यक्ति द्वारा किये गये चिन्तन की अभिव्यक्ति भी भाषा के ही माध्यम से होती है। व्यक्ति अपने विचारों को अन्य व्यक्तियों के सम्मुख सदैव भाषा के ही माध्यम से प्रस्तुत करता है।समाज में व्यक्तियों के विचारों का आदान-प्रदान भी भाषा के ही माध्यम से होता है। कोई भी व्यक्ति अपने विचारों को लिखित भाषा के माध्यम से संगृहीत कर सकता है। चिन्तन की प्रक्रिया विचारों के माध्यम से चलती है तथा विचार भाषा के माध्यम से प्रस्तुत किये जाते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि चिन्तन में भाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

(4) चिन्तन की प्रक्रिया को कम समय में पूर्ण होने में भी भाषा का सर्वाधिक योगदान होता है। भाषा द्वारा विचारों की विस्तृत श्रृंखला को सीमित रूप प्रदान किया जा सकता है। इस प्रकार चिन्तन की प्रक्रिया को भी सीमित बनाया जा सकता है।

(5) चिन्तन तथा भाषा में अन्योन्याश्रिता का भी सम्बन्ध है। जहाँ एक ओर चिन्तन की प्रक्रिया में भाषा का योगदान है वहीं दूसरी ओर भाषा के विकास में भी चिन्तन द्वारा उल्लेखनीय योगदान प्रदान किया जाता है। व्यक्ति के विचारों के समृद्ध होने के साथ-साथ चिन्तन का विकास होता है तथा चिन्तन एवं विचार के विकास का भाषा के विकास पर भी विशेष प्रभाव पड़ता है।

(6) हम जानते हैं कि समस्त साहित्य की रचना भाषा के माध्यम से हुई है। सम्पूर्ण साहित्य व्यक्ति को चिन्तन के लिए प्रेरित करता है तथा साहित्य-अध्ययन के माध्यम से व्यक्ति की चिन्तन-क्षमता का भी विकास होता है। इस दृष्टिकोण से भी चिन्तन के क्षेत्र में भाषा का योगदान उल्लेखनीय है।

प्रश्न4
चिन्तन की प्रक्रिया के तत्वों के रूप में प्रतिमाओं एवं प्रतीकों का सामान्य परिचय दीजिएतथा चिन्तन की प्रक्रिया में इनके योगदान को भी स्पष्ट कीजिए। चिन्तन की प्रक्रिया के सन्दर्भ में प्रत्यय-निर्माण की प्रक्रिया को भी स्पष्ट कीजिए।
या
चिन्तन में प्रत्ययों तथा प्रतिमाओं की क्या भूमिका है? (2008)
उत्तर

प्रतिमाएँ और प्रतीक

चिन्तन एकं जटिल मानसिक प्रक्रिया है जिसमें प्रत्यक्ष, प्रतिमा, प्रत्यय तथा प्रतीक इत्यादि तत्त्वों का प्रहस्तन होता हैं। इन समस्त तत्त्वों की चिन्तन की प्रक्रिया में विशिष्ट भूमिका रहती है। सच तो यह है कि चिन्तन की वास्तविक प्रक्रिया इन्हीं तत्त्वों के माध्यम से चलती है। अपने संक्षिप्त परिचय के साथ चिन्तन में इनका योगदान निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत है

(1) प्रतिमा (Images)- वास्तविक या प्रत्यक्ष वस्तु के सामने से हट जाने पर भी जब उसके गुणों का अनुभव ज्ञानेन्द्रियाँ करती हैं तो इसे हम ‘प्रतिमा’ कहते हैं। ‘प्रतिमा’ वास्तविक उत्तेजक की अनुपस्थिति में ही बनती है। व्यक्ति के भूतकालीन अनुभव प्रतिमाओं के रूप में उसके मस्तिष्क में विद्यमान रहते हैं। आँखों के सम्मुख रखी सुन्दर तस्वीर की सूचना दृष्टि स्नायुओं द्वारा मस्तिष्क को पहुँचायी गयी और हमने उसका प्रत्यक्षीकरण कर लिया। एकान्त में बाँसुरी की मीठी तान की सूचना मस्तिष्क को मिली और हमने उस ध्वनि का प्रत्यक्षीकरण कर लिया।

किसी ने अचानक ही तस्वीर को आँखों के सामने से हटा लिया और बाँसुरी की आवाज भी आनी बन्द हो गयी। तस्वीर सामने न होने पर भी उसकी शक्ल कुछ समय तक आँखों के सामने छायी रहती है। इसी प्रकार बाँसुरी बन्द होने पर भी उसकी आवाज कानों में कुछ समय तक गूंजती रहती है। यह बाद तक चल रही तस्वीर की शक्ल तथा बाँसुरी की गूंज प्रतिमा है। प्रतिमाएँ कई प्रकार की हो सकती हैं; जैसे-दृश्य, श्रवण, स्वाद, स्पर्श तथा गन्ध से सम्बन्धित प्रतिमाएँ। मानस पटल पर प्रतिमाओं की स्पष्टता इस बात पर निर्भर करती है। कि उससे सम्बन्धित घटना या तथ्य हमारे जीवन को कितनी गहराई तक प्रभावित कर पाये। गहरे प्रभाव स्पष्ट प्रतिमाओं का निर्माण करते हैं।

चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतिमा का योगदान– चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतिमाओं का काफी योगदान रहता है। पूर्व-अनुभव तो यथावत् मस्तिष्क में नहीं रहते, किन्तु उनके अभाव में मानसिक प्रतिमाएँ अवश्य रहती हैं। व्यक्ति की समस्त चिन्तन इन प्रतिमाओं के इर्द-गिर्द ही चलता रहता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का मत है कि चिन्तन में प्रतिमाएँ अनिवार्य नहीं हैं और न ही ये चिन्तन में अधिक सहायता ही कर पाती हैं। लोग प्रतिमाओं के स्थान पर प्रतीकों का प्रयोग कर लेते हैं।

(2) प्रतीक (Symbols)- प्रतीक’ वास्तविक वस्तु के स्थानापन्न के रूप में कार्य करते हैं। वास्तविक वस्तु के अभाव में मस्तिष्क में उसका ध्यान दो प्रकार से आता है—प्रथम, प्रतिमा के रूप में जब मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों के सम्मुख वस्तु का स्थूल रूप ही प्रतीत हो रहा हो और द्वितीय, प्रतीक के रूप में जो उस वस्तु का सूक्ष्म प्रतिनिधित्व करता हो। ज्यादातर विचार-प्रक्रिया के अन्तर्गत वस्तु की प्रतिमा मस्तिष्क में न आने पर उसके प्रतीक को प्रयोग कर लिया जाता है। उदाहरणार्थ–किसी व्यक्ति या वस्तु का नाम एक प्रतीक है जो उसकी अनुपस्थिति में सूक्ष्म प्रतिनिधित्व कर उसका बोध करा देता है। क्रॉसिंग पर लाल बत्ती रुकने तथा हरी बत्ती चलने का प्रतीक है। किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों में ये प्रतीक चिह्नों में बदल जाते हैं; जैसे—-गणित में *, , +, –, ×, ÷ ,—,= आदि के चिह्न प्रयोग में आते हैं।

चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतीक का योगदान–प्रतीक चिन्तने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रतीक और चिह्न चिन्तन में मिलकर एक साथ कार्य करते हैं तथा इनके माध्यम से चिन्तन के किसी कार्य को सुगमता एवं शीघ्रता से पूरा कर लिया जाता है। उदाहरण के तौर पर विचार (चिन्तन) करते समय एक नजदीक के रिश्तेदार ‘मोहन’ का प्रसंग आता है तो उसकी अनुपस्थिति में उसका नाम ‘मोहन’ ही प्रतीक रूप में मस्तिष्क में होगा। यूँ तो दुनिया में न जाने कितने मोहन हैं, किन्तु यहाँ उस समय ‘मोहन’ एक विशिष्ट अर्थ प्रदान करता है।

प्रतीक सरल, संक्षिप्त तथा साधारण विचारों के प्रतिनिधि होते हैं; यथा—लाल रंग से बना क्रॉस का निशान (अर्थात् ‘+’) रेडक्रॉस संस्था तथा चिकित्सकों का प्रतीक है। एक विशेष प्रकार की घण्टी/सायरन की लगातार आवाज के साथ दमकल की गाड़ी का भागना आग लगने का प्रतीक है और यह आग से सम्बन्धित चिन्तन को जन्म देता है। इसी भॉति चिह्न चिन्तन की क्रियाओं में सहायता करते हैं; यथा” का अर्थ है भाग देना तथा A का अर्थ है A X A X  A। वस्तुतः चिन्तन की प्रक्रिया प्रतीकों के माध्यम से संचालित होती है। प्रतीक व चिह्न चिन्तन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करते हैं तथा इनके प्रयोग से समय और शक्ति की काफी बचत होती है।

प्रत्यय प्रत्यय चिन्तन की पहली प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया भिन्न-भिन्न वस्तुओं, अनुभवों, घटनाओं तथा परिस्थितियों के मध्य समानाताओं का प्रतिनिधित्व करती है। प्रत्यय एक प्रकार से सामान्य विचार हैं। जिनका जन्म चिन्तन द्वारा ही होता है और जो जन्म के पश्चात् पुन: चिन्तन की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण योग देने लगते हैं। हमारे चारों तरफ के वातावरण में उपस्थित जितनी भी वस्तुओं का हमें बोध होता है, उतने ही प्रत्यय हमारे मस्तिष्क में बनते हैं। इस प्रकार, प्रत्ययों का सम्बन्ध हमारे मस्तिष्क में बने संस्कारों से होता है। हमारे मस्तिष्क में अगणित वस्तुओं के संस्कार एवं प्रत्यय निर्मित होते हैं।

उदाहरणार्थ-कागज, कलम, कुर्सी, पलंग, गाय, नारी, वृद्ध, मृत्यु, नैतिकता आदि-आदि के स्वरूप, रूप-रंग, गुण एवं आधार की एक प्रतिछाया मस्तिष्क में उपस्थित रहती है। किसी भी वस्तु या पदार्थ का एक सामान्य शब्द किसी-न-किसी प्रत्यय का प्रतिनिधित्व अवश्य करता है। उस शब्द को सुनते ही वस्तु की सम्पूर्ण जाति के गुण हमारे ध्यान में आ जाते हैं। प्रारम्भ में तो ये प्रत्यय अधिक विकसित नहीं होते, किन्तु व्यक्ति की आयु वृद्धि के साथ-साथ प्रत्ययों में अन्य अर्थ भी सम्मिलित होने लगते हैं और इस भाँति प्रत्यय का स्वरूप अधिक विस्तृत एवं व्यापक हो जाता है। विद्वानों के अनुसार, ये प्रत्यय चिन्तन की प्रक्रिया के आवश्यक तत्त्व हैं।

प्रत्यय निर्माण की प्रक्रिया मानव-मस्तिष्क में प्रत्यय का निर्माण एकदम नहीं हो जाता, अपितु प्रत्यय विशिष्ट मानसिक प्रक्रियाओं द्वारा निर्मित एवं विकसित होते हैं।

प्रत्यय निर्माण की मुख्य प्रक्रियाएँ निम्नलिखित 

(1) प्रत्यक्षीकरण (Perception)- प्रत्यय निर्माण की पहली सीढ़ी विभिन्न विषय-वस्तुओं का प्रत्यक्षीकरण है। प्रत्ययन (Conception) की शुरुआत ही प्रत्यक्षीकरण (Perception) से होती है। बच्चा अपने जीवन के प्रारम्भ में विभिन्न वस्तुओं तथा तत्त्वों का प्रत्यक्षीकरण करता है, किन्तु सिर्फ

एक वस्तु या तत्त्व का प्रत्यक्ष कर लेने (देखने) से ही प्रत्यय का निर्माण नहीं हो जाता। माना, बच्चे से एक चिड़िया देखी जिसका एक निश्चित रूप उसके मानस-पटल पर अंकित हो गया। इसके बाद वह कई प्रकार की छोटी-बड़ी, अनेक रंगों वाली, आवाजों वाली चिड़ियाँ देखता है। अनेक बार यह प्रक्रिया दोहराने पर पक्षी के स्मृति-चिह्न स्थायी एवं प्रबल होते जाएँगे। इस भॉति किसी विषय-वस्तु के प्रत्यक्षीकरण का विकास होता है और उसमें व्यापकता आती है।

(2) विश्लेषण (Analysis)- प्रत्यय निर्माण का द्वितीय चरण विशिष्ट प्रत्ययों के गुणों का विश्लेषण करना है। बच्चा जिस वस्तु का भी प्रत्यय बनाता है उसके प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में सम्बन्धित गुणों का विश्लेषण भी करता है। उदाहरणार्थ-चिड़िया का विशिष्ट रूप, उसकी चोंच की बनावट, उसका रंग, बोलने का ढंग, फुदकने तथा उड़ने का तरीका; इन सबका विश्लेषण वह मस्तिष्क से करता है।

(3) तुलना (Comparison)- विश्लेषण के बाद, बच्चा प्रत्यक्षीकरण की जाने वाली वस्तु के गुणों की तुलना, उसी जाति की अन्य वस्तुओं से करता है। वह उनके बीच समानता एवं विभिन्नता के बिन्दुओं की खोज करता है। उदाहरण के लिए सामान्य चिड़िया और मोर दोनों ही पक्षी हैं। दोनों की आकृति तो कुछ-कुछ मिलती है लेकिन मोर सामान्य चिड़िया से काफी बड़ा है, पीछे लम्बे-लम्बे सुन्दर मोर-पंख भी हैं, मोर नाचता है और नाचते समय मोर-पंखों की छत्र जैसी विशेष आकृति सामान्य पक्षियों में नहीं मिलती।।

(4) संश्लेषण (Synthesis)– विश्लेषण तथा तुलना के उपरान्त एक ही जाति के कई वस्तुओं के समान गुणों का संश्लेषण किया जाता है। एक जैसे गुणों का सामान्यीकरण करके उस वस्तु के जातीय गुणों के आधार पर सम्बन्धित वस्तु का एक रूप मस्तिष्क में धारण कर लिया जाता है।

(5) नामकरण (Naming)- किसी वस्तु का कोई विशेष रूप मस्तिष्क द्वारा धारण कर लेने के उपरान्त उसे एक खास नाम प्रदान किया जाता है। प्रत्यय का नाम उसका प्रतीक होता है।प्रत्यय निर्माण की यह प्रक्रिया बाल्यावस्था से शुरू होती है तथा नये-नये अनुभव प्राप्त करने तक चलती रहती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
चिन्तन की प्रक्रिया की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
चिन्तन की प्रक्रिया की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. चिन्तन की प्रक्रिया एक जटिल प्रक्रिया है। इसमें अनेक मानसिक प्रक्रियाएँ निहित होती हैं। चिन्तन की प्रक्रिया का ज्ञानात्मक पक्ष सर्वाधिक विकसित होता है।
  2. चिन्तन की प्रक्रिया स्थूल से सूक्ष्म की ओर अग्रसर होती है।
  3. चिन्तन की प्रक्रिया में संश्लेषण तथा विश्लेषण की क्रियाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
  4. किसी समस्या के उत्पन्न होने की स्थिति में ही चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है।
  5. चिन्तन की प्रक्रिया के दौरान व्यक्ति का मस्तिष्क विशेष रूप से क्रियाशील रहता है।
  6. चिन्तन की प्रक्रिया में भाषा के साथ-ही-साथ प्रत्ययों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका तथा योगदान होता है।
  7. चिन्तन की प्रक्रिया के माध्यम से सम्बन्धित समस्या का समाधान प्राप्त कर लिया जाता है।
  8. चिन्तन की प्रक्रिया अपने आप में उद्देश्यपूर्ण होती है। इस स्थिति में चिन्तन की प्रत्येक प्रक्रिया किसी-न-किसी प्रेरणा से प्रभावित होती है।

प्रश्न 2
चिन्तन के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं? 
(2011, 12, 16, 18)
उत्तर
चिन्तन के मुख्य प्रकारों का सामान्य परिचय निम्नलिखित है-

(1) प्रत्यक्षात्मक चिन्तन– सर्वाधिक रूप से सरल एवं निम्न स्तर के इस चिन्तन में चिन्तन का विषय (वस्तु) सम्मुख होने पर ही उसके विषय में चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। कुतुबमीनार को देखकर उसके विषय में उठने वाले विचारों की श्रृंखला को प्रत्यक्षात्मक चिन्तन कहा जाएगा।

(2) कल्पनात्मक चिन्तन- कल्पनात्मक चिन्तन में प्रत्ययों तथा प्रतिमाओं के आधार पर भावी जीवन, विषयों एवं परिस्थितियों पर विचार किया जाता है। इस भाँति यह कल्पनाप्रधान चिन्तन है। उदाहरणार्थ-कोई शासक या नेता अपने देश की भावी उन्नति के लिए कल्पनात्मक चिन्तन के आधार पर योजनाएँ तैयार करता है।

(3) प्रत्ययात्मक चिन्तन– प्रत्ययों, प्रतिमाओं तथा भाषा के आधार पर चलने वाला चिन्तन प्रत्ययात्मक चिन्तन होता है। इसमें पूर्व-अनुभवों की प्रधानता नहीं होती। उदाहरण के लिए—मन में किसी मकान का विचार आने पर चिन्तन किसी विशेष मकान से नहीं जुड़ता; यह सिर्फ एक सामान्य मकान से सम्बन्धित होता है और यह कोई भी सामान्य मकान हो सकता है।

(4) तार्किक चिन्तन– तार्किक चिन्तन किसी गम्भीर समस्या को लेकर पैदा होता है। कोई गम्भीर समस्या उपस्थित होने पर एक जटिल प्रकार के चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है जिसमें समस्त प्रकार के चिन्तनों का प्रयोग होता है। इस प्रकार समस्या का हल खोज लिया जाता है।

प्रश्न 3
सृजनात्मक चिन्तन की महत्त्वपूर्ण अवस्थाएँ बताइए। (2017)
उत्तर
चिन्तन के एक विशिष्ट रूप को सृजनात्मक अथवा रचनात्मक चिन्तन के रूप में जाना जाता है। सृजनात्मक चिन्तन उन्नत प्रकार का चिन्तन है तथा इसके माध्यम से ही विभिन्न रचनात्मक कार्य किए जाते हैं। समस्त वैज्ञानिक आविष्कार सृजनात्मक चिन्तन के ही परिणाम होते हैं। सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया अपने आप में व्यवस्थित प्रक्रिया होती है तथा इसकी निश्चित अवस्थाएँ या चरण होते हैं।
जिनका सामान्य परिचय निम्नवर्णित है-

(1) तथ्य एकत्र करना या तैयारी- सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया के प्रथम चरण या अवस्था में चिन्तन की समस्या से सम्बन्धित तथ्यों को एकत्र किया जाता है। इस अवस्था को तैयारी की अवस्था भी कहा जाता है। इस अवस्था में एकत्र किए गए तथ्य ही आगे चलकर समस्या समाधान में सहायक होते हैं।

(2) गर्भीकरण- चिन्तन की प्रक्रिया की इस अवस्था में आकर पहले एकत्र किए गए तथ्यों का अचेतन मस्तिष्क में मंथन किया जाता है। यह मंथन ही चिन्तन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में सहायक होता है तथा व्यक्ति को सम्भावित समाधान सूझता है।

(3) स्फुरणं- सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया की तीसरी अवस्था स्फुरण कहलाती है। इस अवस्था में चिन्तन के लिए ली गयी समस्या का कुछ समाधान प्राप्त होने लगता है।

(4) प्रमापन- यह अन्तिम अवस्था है। वैज्ञानिक क्षेत्र की सभी समस्याओं के प्राप्त किए गए हल की वैधता तथा विश्वसनीयता की जाँच करनी आवश्यक होती है। प्रमापन की अवस्था में इसी प्रकार की जाँच की जाती है। प्रमापन हो जाने पर सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है।

प्रश्न 4
कल्पना और चिन्तन के सम्बन्ध एवं अन्तर का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
ये दोनों मानसिक क्रियाएँ एक-दूसरे की विरोधी न होकर परस्पर सहायक सिद्ध होती हैं। कल्पना यदि मानसिक प्रहस्तन (Mental Manipulation) है तो चिन्तन एक मानसिक खोज (Mental Exploration) है। कल्पना चिन्तन का एक मुख्य अवयव है तथा चिन्तन की प्रक्रिया में कल्पना का आधार लिया जाता है; अतः इन दोनों का एक-दूसरे से अलगाव सम्भव नहीं है। कल्पनाविहीन व्यक्ति सृजन की ओर नहीं बढ़ सकता। सृजन चाहे साहित्य से सम्बन्धित हो, चित्र से या शिल्प से; कल्पना प्रत्येक कला की एक पूर्व आवश्यकता है।
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 5 Thinking 1
किन्तु कल्पना एक सीमा से बाहर जाकर अव्यावहारिक, असामान्य एवं अनुपयोगी सिद्ध होती है; अतः अत्यधिक कल्पना कष्टदायक होती है। वस्तुतः कल्पना की उपयोगिता मानव-जीवन की विभिन्न समस्याओं के समाधान तलाशने तथा नवनिर्माण के लिए सबसे अधिक प्रतीत होती है। दूसरे शब्दों में, चिन्तन से जुड़ी कल्पना महत्त्वपूर्ण एवं सार्थक है।

कल्पना और चिन्तन के पारस्परिक सम्बन्ध से उनके मध्य समानता के कुछ बिन्दु दृष्टिगोचर होते हैं तथापि उनके बीच कुछ अन्तर भी विद्यमान हैं। ये अन्तर अग्रलिखित हैं

प्रश्न 5
चिन्तन तथा स्मृति या स्मरण करने में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
विगत अनुभवों को वर्तमान में याद करना या चेतना में लाना स्मृति कहलाती है। स्मृति भी एक मानसिक प्रक्रिया है तथा चिन्तन भी एक मानसिक प्रक्रिया है। इन दोनों में विद्यमान अन्तर को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 5 Thinking 2
प्रश्न 6
चिन्तन के सन्दर्भ में प्रत्यय और प्रतिमा में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
चिन्तंन की प्रक्रिया में प्रत्यय (Concept) तथा प्रतिमा (Image) का विशेष महत्त्व होता है। प्रत्यय को चिन्तन की पहली प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है। ये प्रक्रियाएँ पृथक्-पृथक् लगने वाली वस्तुओं, अनुभवों, घटनाओं तथा परिस्थितियों के बीच समानताओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। प्रत्यय चिन्तन से उत्पन्न होकर पुनः चिन्तन की प्रक्रिया को क्रियाशील बनाते हैं। प्रतिमाएँ व्यक्ति के भूतकालीन अनुभवों तथा स्मृतियों द्वारा बनती हैं।

स्पर्श, गन्ध, स्वाद तथा श्रवण इत्यादि की प्रतिमाएँ बनती हैं जो धूमिल होती हैं। ये चिन्तन में सहायक हैं, किन्तु अधिक नहीं। इनकी जगह प्रतीक से काम लिया जाता है। प्रत्यय मानसिक, अमूर्त (Abstract) तथा सामान्य होता है किन्तु प्रतिमा मूर्त तथा विशिष्ट होती है। चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतिमा के बिना तो काम चल सकता है, किन्तु प्रत्यय के बिना नहीं। प्रत्यय, चिन्तन का अनिवार्य यन्त्र होता है।प्रत्यय तथा प्रतिमा के अन्तर को अग्रलिखित रूप से भी प्रस्तुत किया जा सकता है ।

  1.  समस्त प्रत्यय सदैव अमूर्त तथा सामान्य होते हैं तथा इनसे भिन्न प्रतिमाएँ सदैव मूर्त तथा विशेष होती हैं। |
  2. प्रत्ययों के अभाव में चिन्तन की प्रक्रिया सम्पन्न नहीं हो सकती, परन्तु प्रतिमाओं के अभाव में चिन्तन की प्रक्रिया सम्पन्न हो सकती है।
  3. कोई एक प्रत्यय एक से अधिक वस्तुओं का प्रतिनिधित्व कर सकता है, परन्तु एक प्रतिमा का सम्बन्ध केवल एक ही वस्तु से होता है।
  4. प्रत्ययों का विकास एक दीर्घकालिक प्रक्रिया के माध्यम से होता है, जबकि प्रतिमा का विकास सरल प्रक्रिया द्वारा होता है।
  5. प्रत्यय के निर्माण की प्रक्रिया जटिल होती है, जबकि प्रतिमा के निर्माण की प्रक्रिया अपेक्षाकृत रूप से सरल होती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
चिन्तन की प्रक्रिया पर पड़ने वाले पूर्वाग्रहों के प्रभाव को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
चिन्तन की तटस्थ प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले कारकों में से एक मुख्य कारक है-व्यक्ति के पूर्वाग्रह। पूर्वाग्रह के कारण व्यक्ति बिना किसी तर्क के ही सम्बन्धित विषये अथवा व्यक्ति के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण विकसित कर लेता है। पूर्वाग्रह के कारण व्यक्ति सम्बन्धित विषय अथवा व्यक्ति के सन्दर्भ में तटस्थ एवं प्रामाणिक चिन्तन नहीं कर पाता तथा उसका चिन्तन पक्षपातपूर्ण हो जाता है। उदाहरण के लिए-यदि किसी व्यक्ति का पूर्वाग्रह हो कि प्रत्येक सरकारी कर्मचारी रिश्वतखोर है, तो वह किसी भी सरकारी कर्मचारी को ईमानदार नहीं मान सकता तथा इसका प्रभाव भी चिन्तन प्रक्रिया पर अवश्य पड़ता है। अतः तटस्थ चिन्तने के लिए व्यक्ति को पूर्वाग्रहों से मुक्त होना चाहिए।

प्रश्न2
चिन्तन की प्रक्रिया पर अन्धविश्वासों का क्या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
चिन्तन की तटस्थ प्रक्रिया पर व्यक्ति के अन्धविश्वासों को प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। किसी भी प्रकार के अन्धविश्वास से ग्रस्त व्यक्ति तटस्थ एवं सामान्य चिन्तन नहीं कर पाता है। उदाहरण के लिए कुछ व्यक्तियों का अन्धविश्वास है कि यदि किसी कार्य को प्रारम्भ करते समय कोई छींक दे तो कार्य में बाधाएँ आती हैं। इस प्रकार के अन्धविश्वास वाला व्यक्ति अपने कार्य में उत्पन्न होने वाली बाधाओं के यथार्थ कारण को जानने के लिए तटस्थ चिन्तन कर ही नहीं सकता, वह बार-बार छींकने वाले व्यक्ति को ही दोष देता है। अत: तटस्थ एवं प्रामाणिक चिन्तन के लिए व्यक्ति को हर प्रकार के अन्धविश्वासों से मुक्त होना अनिवार्य है।

प्रश्न 3
चिन्तन की प्रक्रिया पर प्रबल संवेगों का क्या प्रभाव पड़ता है।
उत्तर
प्रबल संवेगावस्था में व्यक्ति की चिन्तन की प्रक्रिया तटस्थ नहीं रह पाती है। प्रबल संवेगों की दशा में व्यक्ति शान्त एवं सन्तुलित नहीं रह पाता तथा इस स्थिति में वह प्रामाणिक चिन्तन नहीं कर पाता है। संवेगावस्था में व्यक्ति उत्तेजित हो उठता है तथा उत्तेजना की स्थिति में वैध चिन्तन प्रायः नहीं हो पाता है। उदाहरण के लिए-घृणा से ग्रस्त व्यक्ति सम्बन्धित विषय अथवा व्यक्ति के सन्दर्भ में तटस्थ चिन्तन कर ही नहीं सकता।

प्रश्न 4
व्यक्ति के चिन्तन पर अन्य व्यक्तियों के सुझावों का क्या प्रभाव पड़ता है? संक्षेप में 
बताइए।
उत्तर
तटस्थ चिन्तन मूल रूप से एक व्यक्तिगत प्रक्रिया है तथा व्यक्ति स्वयं ही इस प्रक्रिया को चलाता है, परन्तु कुछ दशाओं में अन्य व्यक्ति भी अपने-अपने सुझाव प्रस्तुत करने लगते हैं। अन्य व्यक्तियों द्वारा दिये गये सुझाव निश्चित रूप से व्यक्ति के चिन्तन को प्रभावित करते हैं तथा प्राय: उसे पर प्रतिकूल प्रभाव ही डालते हैं। अन्य व्यक्तियों के सुझावों को स्वीकार करने पर व्यक्ति का चिन्तन तटस्थ न रहकर पक्षपातपूर्ण हो जाता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि किसी भी गम्भीर विषय पर चिन्तन करते समय व्यक्तियों के सुझाव तो आमन्त्रित किये जा सकते हैं, परन्तु उन्हें ज्यों-का-त्यों बिना सोचे-समझे स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए।

प्रश्न I. निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए

1. चिन्तन एक……….. प्रक्रिया है, जो वस्तुओं के प्रतीकों के माध्यम से चलती है।
2. किसी समस्या के मानसिक समाधान के लिए होने वाले मानसिक प्रयास को ……..कहते हैं।
3. विभिन्न प्रतीकों के मानसिक प्रहस्तन को ……….. कहते हैं।
4. चिन्तन की प्रक्रिया यथार्थ विषयों के………… के माध्यम से चलती है।
5. चिन्तन की प्रक्रिया पर सुझावों, अन्धविश्वासों तथा संवेगों का………… प्रभाव पड़ता है।
6. सुचारु चिन्तन के लिए प्रबल प्रेरणा एक………. कारक है।
7. सरल एवं व्यवस्थित चिन्तन में भाषा …………….सिद्ध होती है।
8. यदि चिन्तन की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति हो जाती है तो उसे………..
चिन्तन कहा जाएगा।
9. कुतुबमीनार या ताजमहल को देखकर उसके विषय में होने वाले चिन्तन को …….. कहते हैं।
10. चिन्तन के विषय में व्यवस्थित नियमों के प्रतिपादने का श्रेय ….. नामक मनोवैज्ञानिक का है।
उत्तर
1. ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया, 2. चिन्तन, 3. चिन्तन, 4. प्रतीकों, 5. प्रतिकूल, 6. सहायक, 7. सहायक, ३. वैध, 9. प्रत्यक्षात्मक चिन्तन, 10. स्पीयरमैन।

प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए

प्रश्न 1.
किसी समस्या के उत्पन्न होने पर उसके समाधान के लिए मनुष्यों द्वारा किये जाने वाले 
उपाय को मनोविज्ञान की भाषा में क्या कहते हैं?
उत्तर
चिन्तन

प्रश्न 2.
समस्या के समाधान के लिए चिन्तन की प्रक्रिया के अन्तर्गत क्या किया जाता है?
उत्तर
समस्या के समाधान के लिए चिन्तन की प्रक्रिया के अन्तर्गत मस्तिष्क द्वारा उस समस्या के विभिन्न पक्षों का विश्लेषण प्रस्तुत किया जाता है तथा विचारों की एक श्रृंखला विकसित की जाती है।

प्रश्न 3.
चिन्तन किस प्रकार की प्रक्रिया है?
उत्तर
चिन्तन अपने आप में एक ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है।

प्रश्न 4.
चिन्तन की एक सरल एवं स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उक्ट
बी०एन०झा के अनुसार, “चिन्तन एक सक्रिय प्रक्रिया है जिसमें मन किसी विचार की गति को प्रयोजनात्मक रूप में नियन्त्रित एवं नियमित करता है।”

प्रश्न 5.
वुडवर्थ के अनुसार चिन्तन से क्या आशय है? |
उत्तर
वुडवर्थ के अनुसार, चिन्तन एक मानसिक खोज है।

प्रश्न 6.
चिन्तन की प्रक्रिया मुख्य रूप से किनके माध्यम से चलती है?
उत्तर
चिन्तन की प्रक्रिया मुख्य रूप से प्रतीकों के माध्यम से चलती है।

प्रश्न 7.
चिन्तन के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर
चिन्तन के मुख्य प्रकार हैं-प्रत्यक्षात्मक चिन्तन, कल्पनात्मक चिन्तन, प्रत्ययात्मक चिन्तन तथा तार्किक चिन्तन।

प्रश्न 8.
उत्तम चिन्तन के लिए चार अनुकूल कारकों या परिस्थितियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
उत्तम चिन्तन के लिए चार अनुकूल कारक या परिस्थितियाँ हैं—

  1. प्रबल प्रेरणाएँ
  2. रुचि
  3. अवधान तथा
  4. बुद्धि

प्रश्न 9.
चिन्तन की प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले चार मुख्य कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
चिन्तन की प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले चार कारक हैं

  1. सुझाव
  2. पूर्वाग्रह
  3. अन्धविश्वास तथा
  4. प्रबल संवेग।

प्रश्न 10.
चिन्तन की प्रक्रिया में भाषा का क्या मुख्य योगदान है?
उत्तर
भाषा चिन्तन की प्रक्रिया को व्यवस्थित तथा सरल बना देती है।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1.
मनुष्य के सन्दर्भ में चिन्तन किस प्रकार का गुण है?
(क) आवश्यक
(ख) अनावश्यक
(ग) मौलिक
(घ) शारीरिक
उतर
(ग) मौलिक

प्रश्न 2.
चिन्तन के सन्दर्भ में कौन-सा कथन सत्य है?
(क) चिन्तन एक ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है।
(ख) व्यवस्थित चिन्तन केवल मनुष्य का ही मौलिक गुण है।
(ग) चिन्तन की प्रक्रिया में वस्तुओं का नहीं बल्कि उनके प्रतीकों का मानसिक प्रहस्तन | होता है।
(घ) चिन्तन सम्बन्धी उपर्युक्त सभी कथन सत्य हैं।
उतर
(घ) चिन्तन सम्बन्धी उपर्युक्त सभी कथन सत्य हैं।

प्रश्न 3.
चिन्तन ज्ञानात्मक रूप में एक मानसिक प्रक्रिया है।” चिन्तन की यह परिभाषा किस मनोवैज्ञानिक द्वारा प्रतिपादित है?
(क) बी०एन०झा
(ख) वुडवर्थ
(ग) मैक्डूगल
(घ) जे०एस०रॉस
उतर
(घ) जे०एस०रॉस

प्रश्न 4.
किस प्रकार के चिन्तन में विषय-वस्तु सामने होने पर ही उसके विषय में चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है?
(क) प्रत्यक्षात्मक चिन्तन
(ख) कल्पनात्मक चिन्तन
(ग) प्रत्ययात्मक चिन्तन
(घ) तार्किक चिन्तन
उतर
(क) प्रत्यक्षात्मक चिन्तन 

प्रश्न 5.
चिन्तन के किस प्रकार के अन्तर्गत प्रत्यक्षों एवं प्रतिमानों के आधार पर भविष्य के विषयों एवं परिस्थितियों का चिन्तन किया जाता है?
(क) प्रत्यक्षात्मक चिन्तन
(ख) कल्पनात्मक चिन्तन
(ग) प्रत्ययात्मक चिन्तन
(घ) तार्किक चिन्तन
उतर
(ख) कल्पनात्मक चिन्तन

प्रश्न 6.
किसी गम्भीर समस्या के समाधान के लिए किये जाने वाले चिन्तन को कहते हैं
(क) प्रत्यक्षात्मक चिन्तन
(ख) कल्पनात्मक चिन्तन ।
(ग) तार्किक चिन्तन
(घ) प्रत्ययात्मक चिन्तन
उतर
(ग) तार्किक चिन्तन

प्रश्न 7.
चिन्तन के विषय में सम्बन्धों के पृथक्करण तथा सह-सम्बन्धों के पृथक्करण के दो नियम किस विद्वान द्वारा प्रतिपादित किये गये हैं?
(क) मैक्डूगल
(ख) फ्रॉयड
(ग) स्पीयरमैन
(घ) बी०एन०झा
उतर
(ग) तार्किक चिन्तन

प्रश्न 8.
ध्यान एवं रुचि चिन्तन की प्रक्रिया के लिए होते हैं
(क) बाधक
(ख) अनावश्यक
(ग) सहायक
(घ) व्यर्थ
उतर
(ग) सहायक

प्रश्न 9.
निम्नलिखित में से कौन-सा तत्त्व चिन्तन की प्रक्रिया में बाधक नहीं है?
(क) प्रेरणाएँ
(ख) पूर्वाग्रह
(ग) अन्धविश्वास
(घ) ये सभी
उतर
(क) प्रेरणाएँ

प्रश्न 10.
चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतीकों को अपनाने से चिन्तन की प्रक्रिया
(क) अस्त-व्यस्त हो जाती है।
(ख) सरल एवं उत्तम हो जाती है।
(ग) जटिल एवं कठिन हो जाती है।
(घ) असम्भव हो जाती है।
उतर
(ख) सरल एवं उत्तम हो जाती है।

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 10 Environmental Education

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 10
Chapter Name Environmental Education (पर्यावरण शिक्षा)
Number of Questions Solved 22
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 10 Environmental Education (पर्यावरण शिक्षा)

विस्तृत उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पर्यावरण-शिक्षा से आप क्या समझते हैं। परिभाषा निर्धारित कीजिए तथा इसका स्वरूप स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा का अर्थ
पर्यावरण-शिक्षा एक ऐसी शिक्षा है जो पर्यावरण के माध्यम से, पर्यावरण के सम्बन्ध में, पर्यावरण के हेतु होती है। वास्तव में पर्यावरण जड़ एवं चेतन दोनों को शिक्षा देने वाला है। पर्यावरण व्यक्ति के उन कार्यों को प्रोत्साहित करता है जो उनके अनुकूल होते हैं। पर्यावरण एक महान् शिक्षक है क्योंकि शिक्षा का कार्य छात्रों को उस वातावरण के अनुकूल बनाना है जिससे कि वे जीवित रह सकें तथा अपनी मूल-प्रवृत्तियों को सन्तुष्ट करने हेतु अधिक-से-अधिक सम्भव अवसर प्राप्त कर सकें। शिक्षा व्यक्ति को पर्यावरण से अनुकूलन करना ही नहीं सिखाती वरन् पर्यावरण को अपने अनुकूल बनाने हेतु उसे प्रशिक्षित भी करती हैं।

पर्यावरण-शिक्षा की परिभाषा
पर्यावरण-शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए अनेक विद्वानों ने उसे परिभाषित किया है। यहाँ हम कुछ परिभाषाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं

1. संयुक्त राज्य अमेरिका का पर्यावरण-शिक्षा अधिनियम, 1970 ई०
“पर्यावरण-शिक्षा का अर्थ है-वह शैक्षिक प्रक्रिया जो मानव के प्राकृतिक एवं मानव निर्मित वातावरण से सम्बन्धित है। इसमें जनसंख्या प्रदूषण, संसाधनों का विनियोजन एवं नि:शोषण, संरक्षण, यातायात, प्रौद्योगिकी एवं सम्पूर्ण मानवीय पर्यावरण के शहरी एवं ग्रामीण नियोजन का सम्बन्ध भी निहित है।”

2.एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिसर्च
“पर्यावरण-शिक्षा को परिभाषित करना सरल कार्य नहीं है, क्योंकि पर्यावरण-शिक्षा का अधिगम क्षेत्र ही अभी तक सुनिश्चित नहीं हो पाया है। परन्तु यह सर्वसम्मत अवश्य है कि पर्यावरण-शिक्षा की विषय-वस्तु अन्तर्विषयक (Interdisciplinary) प्रकृति की है। इसमें जीव-विज्ञान, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र एवं अन्य लोकोपकारी विषयों की विषय-सामग्री सम्मिलित है। इस विचार से सभी सहमत हैं कि पर्यावरणीय शिक्षा की सम्प्रत्यात्मक विधि सर्वश्रेष्ठ है।”

3. फिनिश नेशनल कमीशन
पर्यावरणशिक्षा पर्यावरण संरक्षण के लक्ष्यों को लागू करने का एक तरीका है। यह विज्ञान की एक अलग शाखा अथवा कोई अलग अध्ययन विषय नहीं है। इसको जीवन-पर्यन्त एकीकृत शिक्षा के सिद्धान्त के रूप में लागू किया जाना चाहिए।”

4. चैपमैन टेलर
“पर्यावरण-शिक्षा का अभिप्राय अच्छी नागरिकता विकसित करने के लिए सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को पर्यावरण मूल्यों तथा समस्याओं पर केन्द्रित करना है जिससे कि अच्छी नागरिकता का विकास हो सके एवं अधिगमकर्ता पर्यावरण के सम्बन्ध में भिज्ञ, प्रेरित एवं उत्तरदायी हो सके।

पर्यावरण-शिक्षा का स्वरूप / प्रकृति

पर्यावरण-शिक्षा को विभिन्न रूपों में स्पष्ट किया जा सकता है, यथा

1. पर्यावरण-शिक्षा का पर्यावरण माध्यम है
मनुष्य का पर्यावरण अकृतिक, सांस्कृतिक (मानव निर्मित. सुन्दर एवं शिक्षाप्रद है। जब बच्चे चिड़ियों अथवा तितलियों को देखकर आकर्षित होते हैं तो उनके विषय में अवगत कराना वातावरण के माध्यम से शिक्षा प्रदान करना है। वास्तव में इस प्रकार की शिक्षा कक्षा-कक्ष की चहारदीवारी में प्रदान की गयी शिक्षा की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। फलस्वरूप, पर्यावरण के माध्यम से व्यक्ति को शिक्षण अधिगम पर्याप्त मात्रा में कराया जाना चाहिए।

2. पर्यावरण-शिक्षा पर्यावरण से सम्बन्धित है
मनुष्य प्रतिदिन अपने अस्तित्व की रक्षा और समृद्धि के हेतु पर्यावरण के सम्पर्क में कार्य करता है। किसी भी स्थिति में वह इससे बच नहीं सकता। परिवार में जन्म लेकर बच्चा परिवार के बाद पड़ोस, समुदाय आदि के सम्पर्क में आता है और उसके क्रिया-कलापों में भाग लेता है, इस तरह वह वातावरण के सम्बन्ध में सीखता है। व्यक्ति को समुदाय में सामाजिक संस्थाओं के विषय में जानकारी मिलती है और इस जानकारी के अभाव में वह अपना जीवन सफलतापूर्वक नहीं व्यतीत कर सकता। यही स्थिति प्राकृतिक पर्यावरण की भी है। उसे अपने प्राकृतिक पर्यावरण से ही यह जानकारी प्राप्त होती है। वह खाद्य सामग्री कहाँ और किस तरह प्राप्त करता है, यह सामग्री किस प्रकार की भूमि से उत्पन्न होनी चाहिए आदि बातें वह स्वयं
ही सीखता है। पर्यावरण के सम्बन्ध में यह जानकारी पर्यावरणीय शिक्षा है।

3. पर्यावरण, शिक्षा का पर्यावरण है
वर्तमान युग में पर्यावरण के क्षेत्र में क्रान्ति हुई है। जनसंख्या विस्फोट के कारण पर्यावरण में परिवर्तन हुआ है। इस विस्फोट के फलस्वरूप प्रौद्योगिकी का विकास हुआ और औद्योगीकरण के फलस्वरूप वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, परिवहन-प्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण, सामाजिक-प्रदूषण आदि समस्याएँ उत्पन्न हुईं। इनके फलस्वरूप मानव-जीवन अत्यन्त कष्टप्रद हो गया। फलस्वरूप यह आवश्यक हो गया कि उन उपायों की खोज की जाए जिससे पर्यावरण का संरक्षण हो सके। इस तरह पर्यावरण के सुधार तथा संरक्षण से सम्बन्धित जानकारी पर्यावरणीय शिक्षा है। वास्तव में पर्यावरण-शिक्षा, शिक्षा की विषय-वस्तु और शैली दोनों ही है। शैली के रूप में यह पर्यावरण को शिक्षण अधिगम सामग्री के रूप में प्रयुक्त करती है। विषय-वस्तु के रूप में यह पर्यावरण के निर्णायक तत्त्वों के सम्बन्ध में शिक्षण है। पर्यावरण के हेतु शिक्षा के रूप में यह पर्यावरण का नियन्त्रण, पारिस्थितिकी (Ecology) सन्तुलन के स्थापन और पर्यावरणीय प्रदूषण के नियन्त्रण से सम्बन्धित है।

प्रश्न 2
पर्यावरण-शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए। [2007, 09, 14]
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा के उद्देश्य 1975 ई० में बेलग्रेड में पर्यावरण-शिक्षा पर अन्तर्राष्ट्रीय कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस कार्यशाला में एक घोषणा-पत्र प्रकाशित किया गया जिसे बेलग्रेड घोषणा-पत्र (Belgrade Charter) के नाम से पुकारा जाता है। इस घोषणा-पत्र में पर्यावरण-शिक्षा के लक्ष्य एवं प्राप्ति-उद्देश्यों का निर्धारण किया गया है। यहाँ उन्हें संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है

  1. लक्ष्य: पर्यावरण-शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य है—विश्व जनसंख्या को पर्यावरण एवं उससे सम्बन्धित समस्याओं के सम्बन्ध में जागरूक बनाना।
  2. प्राप्ति उद्देश्य: उक्त घोषणा-पत्र में पर्यावरण-शिक्षा के निम्नलिखित प्राप्ति उद्देश्य निर्धारित किये गये
    • जागरूकता: समग्र वातावरण और उसकी समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता एवं जागरूकता विकसित करने में सहायता करना पर्यावरण-शिक्षा का प्रमुख प्राप्ति उद्देश्य है।
    • ज्ञान: लोगों को सम्पूर्ण वातावरण और उससे सम्बन्धित समस्याओं के विषय में जानकारी प्राप्त करने में सहायता प्रदान करना इसका दूसरा प्राप्ति उद्देश्य है।
    • अभिवृत्ति: लोगों में सामाजिक मूल्यों, वातावरण के प्रति घनिष्ठ प्रेम की भावना और उसके संरक्षण तथा सुधार हेतु प्रेरणा विकसित करने में सहायता प्रदान करनी पर्यावरण-शिक्षा का एक अन्य प्राप्ति उद्देश्य है।
    • कौशल: पर्यावरण समस्याओं के समाधान हेतु लोगों में कौशलों का विकास करना भी इसका प्राप्ति उद्देश्य है। ‘
    • मूल्यांकन योग्यता: लोगों के पर्यावरण तत्त्वों एवं शैक्षिक कार्यक्रमों को पारिस्थितिकी (Ecology), राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सौन्दर्यात्मक एवं शैक्षिक कारकों के सन्दर्भ में मूल्यांकन करने की योग्यता के विकास में सहायता प्रश्न करना भी इसका एक प्राप्ति उद्देश्य है।

पर्यावरण-शिक्षा के उद्देश्यों को तीन क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है-

1. संज्ञानात्मक (Cognitive), 2. भावात्मक (Affective) और 3. क्रियात्मक (Psychomotor)। संज्ञानात्मक क्षेत्र के अन्तर्गत वे प्राप्ति-उद्देश्य आते हैं जो ज्ञान के पुनः स्मरण अथवा पहचान (Recognition) से सम्बन्धित होते हैं। इसके अन्तर्गत बौद्धिक कुशलताएँ और योग्यताएँ भी आती हैं। संज्ञानात्मक क्षेत्र के अन्तर्गत स्मरण करना, समस्या समाधान, अवधारणा निर्माण, सीमित क्षेत्र में सृजनात्मक चिन्तन नामक व्यवहार आते हैं। भावात्मक क्षेत्र के अन्तर्गत वे प्राप्ति उद्देश्य आते हैं जो रुचियों, अभिवृत्तियों और मूल्यों में आये परिवर्तनों का उल्लेख करते हैं। क्रियात्मक अथवा मन:प्रेरित क्रियात्मक पक्ष के अन्तर्गत सम्बन्धित पर्यावरण-शिक्षा के प्राप्ति उद्देश्य निम्नवत् हैं-

  1. अपने क्षेत्र के पर्यावरण को ज्ञान प्राप्त करने में सहायता प्रदान करना।
  2. दूरस्थ क्षेत्र के पर्यावरण का ज्ञान प्राप्त करने में सहायता प्रदान करना।
  3. जैविक (Biotic) और अजैविक (Abiotic) पर्यावरण को समझने में सहायता प्रदान करना।
  4. जीवन के विभिन्न स्तरों पर पोषण-विषयक (Trophic) अन्योन्याश्रितता को समझने में सहायता प्रदान करना।
  5. भावी-विश्व में अनियन्त्रित जनसंख्या वृद्धि में तथा संसाधन के अनियन्त्रित विदोहन के प्रभावों को समझने में सहायबा प्रदान करना।
  6. जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्तियों की जाँच करने एवं देश के सामाजिक, आर्थिक विकास हेतु उनकी व्याख्या करना।
  7. भौतिक एवं मानवीय संसाधनों के विदोहन का मूल्यांकन करके उसके उपचारात्मक उपायों हेतु सुझाव देना।।
  8. सामाजिक तनावों के कारणों की खोज में सहायता प्रदान करना और उन्हें दूर करने हेतु उपयुक्त उपाय सुझाना।

पर्यावरण-शिक्षा के भावात्मक पक्ष के प्राप्ति उद्देश्य निम्नवत् हैं-

  1.  समीपस्थ एवं दूरस्थ पर्यावरण की वानस्पतिक स्पीशीज एवं जीव-जन्तुओं में रुचि रखने हेतु सहायता प्रदान करना।
  2. समाज और उसके व्यक्तियों को समस्याओं में रुचि रखने हेतु तत्पर बनाना।
  3. विभिन्न जातियों, प्रजातियों, धर्म एवं संस्कृतियों के प्रति सहिष्णुता उत्पन्न करना।
  4. समानता, स्वतन्त्रता, सत्य एवं न्याय को महत्त्व प्रदान करना।
  5. सभी देशों की राष्ट्रीय सीमाओं के प्रति आदर व्यक्त करने की भावना उत्पन्न करना।
  6. प्रकृति की देनों की भूरि-भूरि प्रशंसा करना।
  7. पर्यावरण की स्वच्छता एवं शुद्धता को महत्त्व प्रदान करना।

क्रियात्मक पक्ष से सम्बन्धित पर्यावरणीय शिक्षा के प्राप्ति-उद्देश्य निम्नवत् हैं-

  1. उन कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेना जिनके फलस्वरूप वायु, जल और ध्वनि-प्रदूषण को कम किया जा सकता है।
  2. पास-पड़ोस की सफाई के कार्यक्रम में भाग लेना।
  3. नगरीय एवं ग्रामीण नियोजन में भाग लेना।
  4. खाद्य पदार्थों में की जाने वाली मिलावट को दूर करने वाले कार्यक्रमों के अन्तर्गत भाग लेना।

प्रश्न 3
पर्यावरण-शिक्षा की शिक्षण विधियों एवं साधनों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा की शिक्षण-विधियाँ एवं साधन पर्यावरण-शिक्षा हेतु प्रयुक्त की जाने वाली शिक्षण विधियाँ एवं साधन विभिन्न प्रकार के हैं। यहाँ । पर्यावरण-शिक्षा की शिक्षण-विधियों और साधनों पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है।

(अ) शिक्षण-विधियाँ
पर्यावरण-शिक्षा की निम्नलिखित शिक्षण विधियाँ हैं-
1. कक्षा वाद: विवाद-इसके अन्तर्गत किसी प्रकरण अथवा समस्या के विषय में कक्षा में विचार-विमर्श किया जाता है। इस विचार-विमर्श के फलस्वरूप पर्यावरण के विभिन्न पक्षों को स्पष्ट किया जाता है।
2. छोटी सामूहिक प्रयोगशालाएँ: छोटी सामूहिक प्रयोगशालाएँ पर्यावरण-शिक्षा के व्यापक अध्ययन हेतु विशेष उपयोगी हैं। इसके अन्तर्गत कक्षा को छोटे-छोटे समूह में बाँट दिया जाता है तथा प्रत्येक समूह की एक परियोजना निर्धारित कर ली जाती है। यह समूह इस परियोजना पर कार्य करता है। उदाहरण के लिए यदि किसी समूह को स्थानीय तालाब की परियोजना निर्धारित करनी है तो वह समूह इससे सम्बन्धित निम्नलिखित विषयों पर अध्ययन करेगा

  1. तालाब पर कौन-से व्यक्ति निर्भर करते हैं?
  2. सामाजिक जीवन पर तालाब का क्या प्रभाव पड़ता है?
  3. तालाब का क्षेत्र विस्तार कितना है?
  4. तालाब के आस-पास कौन लोग निवास करते हैं?
  5. तालाब और उसके आस-पास कौन-से पौधे हैं?
  6. तालाब के पानी में किस तरह की अशुद्धता है?
  7. तालाब की स्थिति को किस तरह उत्तम बनाया जा सकती है?

3. क्षेत्रीय पर्यटन: क्षेत्रीय पर्यटन पर्यावरण-शिक्षा की एक प्रभावी शिक्षण-विधि है। किसी स्थान विशेष के पर्यावरण के अध्ययन हेतु क्षेत्रीय पर्यटन का आयोजन किया जाता है। इसके फलस्वरूप छात्र प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करने हेतु समर्थ होते हैं। क्षेत्रीय पर्यटन का आयोजन सामुदायिक संस्थानों, पोस्ट ऑफिस, फैक्ट्री, स्थानीय बाजार के अध्ययन हेतु किया जा सकता है।

4. बाह्य अध्ययन: बाह्य अध्ययन हेतु नियोजन एवं समन्वय की आवश्यकता होती है। बाह्य अध्ययनों हेतु उसके उद्देश्यों का निर्धारण, कार्यक्रम का निर्धारण, तैयारी, क्षेत्रीय कार्य आदि को पहले से निश्चित कर लिया जाता है। इनमें हम छात्रों को गुफा, नदी आदि के पर्यावरण के अध्ययन हेतु बाहर ले जा सकते हैं।

5. प्रदर्शन का प्रयोग: पर्यावरण-शिक्षा में प्रदर्शन का प्रयोग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है जिसके द्वारा उसके विभिन्न प्रकरणों का अध्ययन रोचक ढंग से किया जा सकता है। किसी भी प्रकरण से सम्बन्धित प्रदर्शनियों का आयोजन सम्भव है। इसके आयोजन हेतु छात्रों के सक्रिय सहयोग की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए-पर्वतीय क्षेत्र में रहने वाले लोगों से सम्बन्धित प्रदर्शनी का आयोजन किया जा सकता है।

6. अनुकरण एवं खेल: पर्यावरणीय-शिक्षा में अनुकरण एवं खेलों का प्रयोग स्वतन्त्र निर्णयन एवं अभिवृत्तियों के निर्माण में विशेष भूमिका निभाता है।

(ब) साधन
पर्यावरण-शिक्षा के अन्तर्गत निम्नलिखित साधनों का प्रयोग किया जाता है-

  1. स्थानीय साधन–स्थानीय साधनों के अन्तर्गत छात्रों के निवास स्थान का पर्यावरण, जल को .. प्रदूषित करने वाले स्रोत, वायु को प्रदूषित करने वाले स्रोत आदि आते हैं।
  2. राष्ट्रीय संगठन-इसके अन्तर्गत पर्यावरण-शिक्षा की बुलेटिन, आपको वातावरण नामक मैगजीन, टेलीफोन डायरेक्टरी आदि आते हैं।
  3. मुद्रित सामग्री-इसके अन्तर्गत वार्षिक प्रतिवेदन, पुस्तकें, पोस्टर, चार्ट्स, सरकारी प्रकाशन, पीरियोडिकल्स (Periodicals) सरकारी नीति आदि आते हैं।
  4. श्रव्य-दृश्य सामग्री-इसके अन्तर्गत फिल्म, फिल्म खण्ड, सेल टी०वी०; कॉमर्शियल टी०वी० एजुकेशनल टी०वी०, ऑडियो टेप, कॉमर्शियल स्लाइड और व्यक्तिगत स्लाइड आदि आते हैं।
  5. अन्य सामग्री–अन्य सामग्रियों के अन्तर्गत विद्यालय का खेल का मैदान, विद्यालय उद्यान आदि आते हैं।

प्रश्न 4
पर्यावरण-शिक्षा की मुख्य समस्याएँ क्या हैं? इन समस्याओं के समाधान के उपाय भी बताइए। [2009, 10]
या
भारत में पर्यावरण-शिक्षा की क्या समस्याएँ हैं? [2014]
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा की समस्याएँ

1. पर्यावरण के प्रति अनचित दृष्टिकोण
पर्यावरण-शिक्षा की सर्वप्रमुख समस्या अशिक्षा के फलस्वरूप पर्यावरण के प्रति उचित दृष्टिकोण का न होना है। लोग यह समझ ही नहीं पाते कि उनके कार्यों से पर्यावरण कितना दूषित हो रहा है। भारत में वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई हो रही है। नदियों के जल को गन्दा किया जा रहा है और वायु-प्रदूषण तथा ध्वनि-प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। लोग इससे होने वाली हानि से अवगत ही नहीं हैं और इस स्थिति में उन्हें पर्यावरण-शिक्षा किस प्रकार दी जा सकती है? यदि किसी से कहा जाता है कि तुम ऐसा कार्य न करो, तो उसका उत्तर होता है इससे क्या हो जाता है, जब तक जीना है तब तक जिएँगे।

2. भौतिकवादी संस्कृति का अत्यधिक प्रसार
पर्यावरणीय शिक्षा की अन्य समस्या भौतिकवादी संस्कृति का अत्यधिक प्रसार है। जो लोग यह जानते हैं कि पर्यावरण की शुद्धता आवश्यक है वे भी अपने आरामतलबी, अपनी आवश्यकता और अपने भौतिक उपभोग हेतु पर्यावरण को व्यापक मात्रा में दूषित कर रहे हैं।

3. साहित्य की कमी
पर्यावरण-शिक्षा की एक अन्य प्रमुख समस्या इस शिक्षा के हेतु पर्याप्त मात्रा में साहित्य का विद्यालयों में पर्यावरण शिक्षा का उपलब्ध न होना है। सत्य तो यह है कि पर्यावरण के सम्बन्ध में अभी हमारा दृष्टिकोण अत्यन्त संकुचित है और ऐसे साहित्य को निर्माण अत्यन्त अल्प मात्रा में हुआ है जो पर्यावरण-शिक्षा से सम्बन्धित हो।

4. नगरीय सभ्यता का विकास
पर्यावरण-शिक्षा की एक अन्य समस्या नगरीय सभ्यता का अत्यधिक विस्तार है। लोगों का व्यापक मात्रा में गाँव से नगर की ओर पलायन हो रहा है और नगरों का वातावरण अत्यन्त प्रदूषित होता जा रहा है।

5. विद्यालयों में पर्यावरण
शिक्षा का अभाव-पर्यावरण-शिक्षा की एक बहुत बड़ी बाधा यह है कि अभी तक भारत के सभी विद्यालयों में पर्यावरण-शिक्षा को पाठ्यक्रम में स्थान नहीं दिया गया है। अनेक विद्यालय अभी ऐसे हैं जहाँ और सब कुछ तो पढ़ाया जाता है परन्तु पर्यावरण के सम्बन्ध में आदर्शवादी बातें ही बताई जाती हैं, यथार्थ की पृष्ठभूमि में लाकर लोगों को पर्यावरण के सम्बन्ध में शिक्षा प्रदान नहीं की जाती।

पर्यावरण-शिक्षा की समस्याओं का समाधान
यह सत्य है कि पर्यावरण-शिक्षा के मार्ग में विभिन्न समस्याएँ हैं परन्तु इन समस्याओं का निराकरण सम्भव है। इस सन्दर्भ में निम्नलिखित उपायों को अपनाकर सम्बन्धित समस्याओं का समाधान किया जा सकता है

1. उचित दृष्टिकोण का विकास
उक्त समस्या के समाधान हेतु यह अत्यन्त आवश्यक है कि लोगों को पर्यावरण को ठीक रखने हेतु प्रेरित किया जाए। इस क्षेत्र में अंशिक्षा सबसे बड़ी बाधक है।

2. प्राचीन भारतीय आदर्शों का स्थापन
इस भौतिकवादी युग में लोगों का ध्यान प्राचीन भारतीय आदर्शों की ओर उन्मुख किया जाना चाहिए। उन्हें यह बताया जाना चाहिए कि प्राचीनकाल में लोग सादा जीवन उच्च विचार रखते थे और प्रकृति के प्रति अत्यन्त संवदेनशील रहते थे। इसी कारण वे सुखमय जीवन व्यतीत करने में सफल थे। भौतिकवादी संस्कृति से जितनी दूर रहा जाएगा, उतना ही मन को सन्तोष प्राप्त होगा और पर्यावरण को जितना स्वच्छ रखा जाएगा उतना ही हमारा स्वास्थ्य ठीक रहेगा।

3. साहित्य का निर्माण
पर्यावरण-शिक्षा से सम्बन्धित पार् साहित्य का निर्माण व्यापक मात्रा में किया जाना चाहिए और उसे विभिन्न स्थानों पर मुफ्त बाँटा जाना चाहिए। इस साहित्य में प्रकृति की देनों की प्रशंसा के साथ ही हर प्रकार के प्रदूषण से मुक्त रहने के उपाय भी बतलाए जाने चाहिए।

4. ग्रामीण सभ्यता को प्रोत्साहन
उपर्युक्त समस्या के समाधान हेतु यह आवश्यक है कि देश में । ग्रामीण सभ्यता को प्रोत्साहन दिया जाए। ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को पर्यावरण को प्रदूषित किये बिना जीविका के साधन और सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ। ग्रामीण जनता को बताया जाए कि कैसे प्राचीन युग में हमें पर्यावरण की रक्षा करने में समर्थ हुए थे। अधिक-से-अधिक पेड़ लगाए जाएँ और वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई आदि को रोका जाए।

5. पाठ्यक्रम में स्थान
पर्यावरण-शिक्षा को सभी माध्यमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाना चाहिए। उचित तो यह होगा कि पर्यावरण की रक्षा नामक एक विषय ही अलग से निर्धारित कर दिया जाए और सभी को उस पाठ्यक्रम को पढ़ना एवं समझना आवश्यक हो।

अन्त में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मानव के अस्तित्व को भौतिक, सामाजिक एवं मानसिक रूप से उन्नत बनाने हेतु जिन तत्त्वों की आवश्यकता होती है वे सभी प्रकृति में हैं। मानव का विकास तभी हो सकता है जब प्रकृति के विभिन्न तत्त्व सन्तुलित हों। प्रकृति में सन्तुलित होने की शक्ति स्वयं में व्याप्त है किन्तु मानव भी उसे सन्तुलित रखने में योगदान देता है।

मानव ने अत्यधिक परिश्रम करके बंजर भूमि को खेती योग्य बनायो, सागर को पाटकर बस्तियाँ बनायी हैं, जल और थल के गर्भ से खनिज निकाले हैं, विज्ञान, विद्या और आधुनिक प्रौद्योगिकी के सहारे कृषि उद्योग एवं पशु-पालन की व्यवस्था में उन्नति की है, तो जिस प्रकृति ने उसे सब कुछ दिया है, उस प्रकृति की चिन्ता यह क्यों नहीं करता? उन्नत विकसित होने के साथ ही हम प्रकृति के सन्तुलन को बिगाड़ रहे हैं और यदि यह सन्तुलन बिगड़ गया तो मानव कैसे बचेगा? अतएव हमने प्रकृति के साथ जो कुछ किया है उसके हेतु पुनर्विचार की आवश्यकता है। डॉ० विद्या निवास मिश्र ने लिखा है-“प्रकृति का संरक्षण हम सबका पावन कर्तव्य है। हमें प्रकृति का उतना ही दोहन करना चाहिए जिससे उसका सन्तुलन न बिगड़े। यदि मानव अब भी नहीं चेता तो हमारा विनाश निश्चित है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पर्यावरण-शिक्षा के पाठ्यक्रम अथवा क्षेत्र का उल्लेख कीजिए।
या
पर्यावरण शिक्षा की विषय-वस्तु क्या होनी चाहिए? [2011]
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा का पाठ्यक्रम निम्नवत् हो सकता है।

  1. मानव एवं पर्यावरण
  2. पारिस्थितिकी
  3. जनसंख्या एवं नगरीकरण
  4. नगरीय एवं क्षेत्रीय नियोजन
  5. सामाजिक संसाधन
  6. अर्थशास्त्र एवं पर्यावरण
  7. वृक्ष एवं जल-संसाधन
  8. वायु प्रदूषण
  9. वन्य-जीवन संसाधून
  10. सरकारी नीति एवं नागरिक
  11. बाह्य मनोरंजन एवं नागरिकों की भूमिका

आधुनिक अध्ययनों एवं खोजों से यह स्पष्ट हुआ है कि पर्यावरण-शिक्षा का अन्तर-विषयक क्षेत्र है। इसके साथ ही इसको समग्र रूप में व्यक्त किया गया है। इसके अन्तर्गत पारिस्थितिकी, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं अन्य क्षेत्रों की विशिष्ट समस्याओं को स्थान दिया गया है। पर्यावरण-शिक्षा वास्तविक जीवन के व्यावहारिक समस्याओं से सम्बन्धित है। यह भावी नागरिकों को मूल्यों के निर्माण की ओर अग्रसर करती है।

प्रश्न 2
पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता और महत्त्व को स्पष्ट कीजिए। [2007, 12, 16]
या
पर्यावरण-शिक्षा वर्तमान समय की एक महत्तम आवश्यकता है।” स्पष्ट कीजिए। [2015]
या
पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता पर प्रकाश डालिए। [2016]
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा की आवश्यकता
वर्तमान आधुनिकी के इस दौर में बढ़ते औद्योगिकीकरण, नगरीकरण एवं उपभोगवाद के कारण अनेक पर्यावरणीय समस्याएँ पैदा हो गई हैं, जिनके कारण सम्पूर्ण विश्व के सामने पर्यावरणीय संकट पैदा हो गया है। पर्यावरणीय असन्तुलन के कारण आए दिन विश्व में कहीं-न-कहीं दुर्घटनाएँ घटित हो रही हैं। अत: मानव-जीवन पर आए इस संकट के समाधान के लिए पर्यावरण एवं उसकी कार्यप्रणाली के बारे में ज्ञान होना आवश्यक है, ताकि पर्यावरणीय सन्तुलन की पुन: प्राप्ति की जा सके और यह ज्ञान हमें पर्यावरण शिक्षा द्वारा ही उपलब्ध हो सकता है। अत: पर्यावरण शिक्षा आज की आवश्यकता है और इसे विद्यालयी पाठ्यक्रम में स्थान मिलना चाहिए। यह आज की माँग है।

पर्यावरण-शिक्षा का महत्त्व
वर्तमान वैज्ञानिक युग में पर्यावरण-शिक्षा का महत्त्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण-प्रदूषण ने विश्व को विनाश के निकट ला खड़ा किया है। पर्यावरण असन्तुलन के कारण आए दिन विश्व के किसी भी कोने में दुर्घटना घटित हो रही है। अत: मानव-जीवन की सुरक्षा के लिए पर्यावरण-सम्बन्धी तथ्यों का ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है और यह ज्ञान पर्यावरण-शिक्षा द्वारा ही उपलब्ध हो सकता है। संक्षेप में पर्यावरण-शिक्षा के महत्त्व को निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जा सकता है

  1. पर्यावरण-शिक्षा द्वारा सम्पूर्ण पर्यावरण का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
  2. पर्यावरण-शिक्षा पर्यावरण-संरक्षण, वन्य-जीव संरक्षण, मृदा संरक्षण आदि की विधियाँ तथा उनकी उपयोगिता बताती है।
  3. पर्यावरण-शिक्षा विद्यार्थियों को नागरिक अधिकारों, कर्तव्यों तथा दायित्व का ज्ञान कराती है।
  4. पर्यावरण-शिक्षा वायु, जल, ध्वनि, मृदा, जनसंख्या आदि प्रदूषणों के कारणों तथा उनके नियन्त्रण की विधियाँ बतलाती है।
  5. पर्यावरण-शिक्षा विद्यालय पर्यावरण को सन्तुलित रखती है तथा नैतिक पर्यावरण को स्वस्थ बनाती है। पर्यावरण-शिक्षा के महत्त्व सम्बन्धी उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि पर्यावरण-शिक्षा को विभागीय पाठ्यक्रम में स्थान मिलनी चाहिए। यह आज के युग की माँग है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पर्यावरण-शिक्षा की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. पर्यावरण-शिक्षा मानव के प्राकृतिक और भौतिक पर्यावरण से सम्बन्धित है।
  2. पर्यावरण-शिक्षा पर्यावरण के तत्त्वों का ज्ञान कराती है तथा पर्यावरण असन्तुलन के कारणों की जानकारी देती है।
  3. पर्यावरण-शिक्षा द्वारा हमें विभिन्न प्रकार के पर्यावरणीय प्रदूषणों-वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण, मृदा-प्रदूषण के स्वरूपों तथा कारणों का ज्ञान प्राप्त होता है।
  4. पर्यावरण-शिक्षा प्रदूषण नियन्त्रण के उपायों का ज्ञान कराती है।
  5. पर्यावरण-शिक्षा का सम्बन्ध जनसंख्या नियन्त्रण, परिवार नियोजन, वन संरक्षण, वनारोपण, वन्य जीव संरक्षण आदि से भी है।

प्रश्न 2
पर्यावरण शिक्षा की विषय-वस्तु क्या होनी चाहिए? [2011]
उत्तर
पर्यावरण शिक्षा के अन्तर्गत पर्यावरण के स्वरूप, पर्यावरण तथा मानव-समाज के सम्बन्ध एवं प्रभावों, पर्यावरण की होने वाली क्षति, पर्यावरण प्रदूषण के कारणों, पर्यावरण प्रदूषण के स्वरूपों तथा पर्यावरण प्रदूषण को नियन्त्रित करने के उपायों का अध्ययन किया जाता है। अत: पर्यावरण शिक्षा की विषय-वस्तु में निम्नलिखित को शामिल किया जाना चाहिए-

  1. मानव और पर्यावरण के बीच के सम्बन्धों का अध्ययन करना।
  2. पारिस्थितिकी सन्तुलन की व्याख्या करना।
  3. जनसंख्या वृद्धि व नगरीकरण के पर्यावरणीय दुष्प्रभावों का अध्ययन करना।
  4. प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण व अनुकूलतम उपयोग को बढ़ावा देना।
  5. विभिन्न प्रकार के पर्यावरणीय प्रदूषणों का अध्ययन करना।
  6. जैव-विविधता को संरक्षण प्रदान करना।

प्रश्न 3
पर्यावरण शिक्षा के लक्ष्य क्या हैं ? [2009, 14]
उत्तर
पर्यावरण शिक्षा इस युग की प्रबल माँग है। इस उपयोगी शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य समस्त नागरिकों को पर्यावरण तथा पर्यावरण सम्बन्धी विभिन्न समस्याओं के प्रति जागरूक करना है। यह जागरूकता ही पर्यावरण की सुरक्षा में सहायक होगी। पर्यावरण शिक्षा का व्यावहारिक लक्ष्य पर्यावरण प्रदूषण को नियन्त्रित करना हैं इसके अतिरिक्त पर्यावरण में प्राकृतिक सन्तुलन को बनाये रखने के प्रयास करना भी पर्यावरण शिक्षा का लक्ष्य है।

प्रश्न 4
पर्यावरण-शिक्षा की सफलता के मार्ग में उत्पन्न होने वाली मुख्य समस्याएँ कौन-कौन-सी हैं? [2014]
उत्तर

  1. पर्यावरण के प्रति अनुचित दृष्टिकोण
  2. भौतिकवादी संस्कृति का अत्यधिक प्रसार
  3. उपयोगी साहित्य की कमी
  4. नगरीय सभ्यता का विकास तथा
  5. विद्यालयों में पर्यावरण-शिक्षा-व्यवस्था की कमी।

प्रश्न 5
‘पर्यावरण-शिक्षा की एक स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा का अभिप्राय अच्छी नागरिकता विकसित करने के लिए सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को पर्यावरण मूल्यों तथा समस्याओं पर केन्द्रित करना है जिससे कि अच्छी नागरिकता का विकास हो सके एवं अधिगमकर्ता पर्यावरण के सम्बन्ध में भिज्ञ, प्रेरित एवं उत्तरदायी हो सके।”

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
‘पर्यावरण-शिक्षा से क्या आशय है ?
उत्तर
पर्यावरण के माध्यम से पर्यावरण के विषय में तथा पर्यावरण के लिए दी जाने वाली व्यवस्थित जानकारी को पर्यावरण-शिक्षा कहते हैं।

प्रश्न 2
राष्ट्रीय आधारभूत पाठ्यचर्या के अनुसार पर्यावरण-शिक्षा किस स्तर से प्रारम्भ होती है ? [2007]
उत्तर
राष्ट्रीय आधारभूत पाठ्यचर्या के अनुसार पर्यावरण-शिक्षा प्राथमिक शिक्षा स्तर से ही प्रारम्भ होती है।

प्रश्न 3
पर्यावरण-शिक्षा मुख्य रूप से पर्यावरण के किस रूप या प्रकार से सम्बन्धित है?
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा मुख्य रूप से प्राकृतिक अथवा भौगोलिक पर्यावरण से सम्बन्धित है।

प्रश्न 4
वर्तमान समय में पर्यावरण-शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य क्या है?  [2007]
उत्तर
वर्तमान समय में पर्यावरण-शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य पर्यावरण-प्रदूषण को नियन्त्रित करनी

प्रश्न 5
पर्यावरण-शिक्षा को सफल बनाने के लिए मुख्य रूप से क्या उपाय किया जाना चाहिए?
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा को सफल बनाने के लिए पर्यावरण के प्रति उचित दृष्टिकोण का विकास करना अति आवश्यक है।

प्रश्न 6
पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से किस समस्या को दूर किया जा सकता है ? [2010]
उत्तर
पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से पर्यावरण प्रदूषण की समस्या को दूर किया जा सकता है।

प्रश्न 7
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य
(i) पर्यावरण-शिक्षा का सम्बन्ध मुख्य रूप से सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण से होता है।
(ii) वर्तमान औद्योगिक सभ्यता के विकास के साथ-साथ पर्यावरण-शिक्षा की आवश्यकता बढ़ गयी है।
उत्तर
(i) असत्य
(ii) सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
पर्यावरण-शिक्षा का मूल उद्देश्य है [2007, 10, 12, 15]
(क) औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया को धीमा करना
(ख) शुद्ध पेय जल की व्यवस्था करना
(ग) खाद्य-पदार्थों के उत्पादन में वृद्धि करना
(घ) प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट होने से बचाना
उत्तर
(घ) प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट होने से बचाना

प्रश्न 2
निम्नलिखित में से सभी पर्यावरण-शिक्षा के उद्देश्य हैं, सिवाय
(क) परिवार नियोजन
(ख) जागरूकता
(ग) वृक्षारोपण
(घ) प्राकृतिक स्रोतों का बचाव
उत्तर
(क) परिवार नियोजन

प्रश्न 3
पर्यावरण-शिक्षा को स्कूली पाठ्यक्रम में जोड़ा गया
(क) 1965 ई० में
(ख) 1970 ई० में
(ग). 1975 ई० में
(घ) 1978 ई० में
उत्तर
(ख) 1970 ई० में

प्रश्न 4
‘अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण-शिक्षा कार्यक्रम कब से प्रारम्भ हुआ?
(क) 1970 ई० में
(ख) 1972 ई० में
(ग) 1975 ई० में
(घ) 1980 ई० में
उत्तर
(ग) 1975 ई० में

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