UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi पत्रों के प्रकार या भेद

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name पत्रों के प्रकार या भेद
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi पत्रों के प्रकार या भेद

कौन, किसको, किस विषय पर, किन परिस्थितियों में पत्र लिख रहा है, इस आधार पर पत्रों के अनेक भेद होते हैं, जिनमें से मुख्य इस प्रकार हैं-

(1) निजी/व्यक्तिगत/घरेलू या पारिवारिक पत्र–परिवार के विभिन्न सदस्यों, निकट सम्बन्धियों या घनिष्ठ मित्रों को भिन्न-भिन्न उद्देश्यों से विभिन्न अवसरों पर लिखे जाने वाले पत्र इस वर्ग में आते हैं।

(2) सामाजिक पत्र-निमन्त्रण-पत्र, बधाई-पत्र, शोक-पत्र, सान्त्वना-पत्र, परिचय-पत्र, संस्तुति-पत्र, आभार या धन्यवाद-पत्र आदि प्रायः सामाजिक सम्बन्धों के कारण लिखे जाते हैं। अत: ये सामाजिक पत्रों की श्रेणी में आते हैं।

(3) व्यापारिक या व्यावसायिक पत्र-विभिन्न व्यापारिक या औद्योगिक संस्थानों के पारस्परिक पत्र, व्यापारिक संस्थाओं की ओर से समाज के किसी व्यक्ति को और समाज के किसी व्यक्ति की ओर से व्यावसायिक संस्थाओं को लिखे गये उद्योग-व्यापार सम्बन्धी पत्र इसी श्रेणी में आते हैं।

(4) सरकारी/शासकीय/प्रशासकीय या आधिकारिक पत्र–इस वर्ग में विभिन्न सरकारी कार्यालयों के पत्र आते हैं, जिनके दशाधिक उपभेद हैं।

(5) आवेदन-पत्र-किसी विशेष उद्देश्य से लिखे गये प्रार्थना-
पत्र आवेदन-पत्र (Application) कहलाते हैं। प्रवेश लेने, शुल्क मुक्ति कराने, विद्यालय छोड़ने के कारण अपनी धरोहर-राशि वापस माँगने, चरित्र प्रमाणपत्र आदि लेने के लिए विद्यार्थियों द्वारा प्राचार्य को आवेदन-पत्र लिखे जाते हैं। कहीं भी नौकरी/पदोन्नति पाने, अवकाश माँगने या बैंक/बीमा निगम आदि से ऋण लेने के लिए भी आवेदन करना पड़ता है। इस प्रकार आवेदन की आवश्यकता के अनुसार इसके अनेक उपभेद भी होते हैं।

(6) शिकायती-पत्र-किसी व्यक्तिगत या सामाजिक समस्या के लिए हमें अनेक बार सम्बन्धित अधिकारियों को शिकायती पत्र लिखने पड़ते हैं।

(7) सम्पादक के नाम पत्र-वर्तमान युग में समाचार-पत्रों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। समस्याओं के उचित समाधान के लिए समाचार-पत्र के माध्यम से आवाज उठाना विशेष प्रभावकारी होता है; अतः समाज की विभिन्न समस्याओं के लिए सम्पादक के नाम पत्र लिखना एक विशेष कला है। सभी दैनिक समाचार-पत्रों में विभिन्न शीर्षकों से सम्पादक के नाम पत्र छपते हैं, जिससे उच्चाधिकारियों तक बात पहुँचती है और समाधान शीघ्र हो जाता है।

(8) विविध पत्र–उपर्युक्त श्रेणियों के अतिरिक्त जो पत्र बचते हैं, उन्हें इसी वर्ग में रखा जाता है।

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 15 Problems of Women Education

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 15 Problems of Women Education (स्त्री-शिक्षा की समस्याएँ) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 15 Problems of Women Education (स्त्री-शिक्षा की समस्याएँ).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 15
Chapter Name Problems of Women Education
(स्त्री-शिक्षा की समस्याएँ)
Number of Questions Solved 39
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 15 Problems of Women Education (स्त्री-शिक्षा की समस्याएँ)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारत में स्त्री-शिक्षा की मुख्य समस्याओं का उल्लेख कीजिए।
या
भारत में बालिकाओं की शिक्षा की मुख्य समस्याएँ क्या हैं? इन्हें कैसे दूर किया जा सकता है? [2007]
या
बालिकाओं की शिक्षा के प्रसार में आने वाली कठिनाइयाँ बताइए। इनके समाधान हेतु सुझाव दीजिए। [2008, 13]
या
स्त्री शिक्षा का क्या महत्त्व है? स्त्री-शिक्षा के विकास में क्या-क्या समस्याएँ हैं? [2016]
या
भारत में स्त्री-शिक्षा प्रसार में आने वाली बाधाओं का उल्लेख कीजिए। [2015]
उत्तर :
स्त्री-शिक्षा का महत्त्व
समाज तथा घर में स्त्री का स्थान महत्त्वपूर्ण होता है। अतः स्त्रियों का शिक्षित होना जरूरी है। आज की बालिका कल की स्त्री है, जिस पर पूरे परिवार का दायित्व होता है। अत: बालिका शिक्षा (स्त्री) भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितनी बालक की शिक्षा। स्त्री-शिक्षा के महत्त्व का विवरण निम्नलिखित है।

1. पारिवारिक उन्नति :
शिक्षित स्त्री अपने परिवार में विभिन्न मूल्यों का विकास तथा बच्चों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दे सकती है।

2. सामाजिक उत्थान :
समाज के सतत् उत्थान के लिए भी शिक्षित नारियों का सहयोग आवश्यक है।

3. सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करना :
सती प्रथा, पर्दा प्रथा, छुआछूत, अन्धविश्वास, दहेज प्रथा आदि को समाप्त करने के लिए स्त्री-शिक्षा आवश्यक है।

4. प्रजातन्त्र को सफल बनाना :
पुरुषों के समान अधिकार एवं कर्तव्य प्राप्त कराने तथा उनके प्रति चेतना जाग्रत कर प्रजातन्त्र को सफल बनाने की दृष्टि से स्त्री-शिक्षा का प्रसार आवश्यक है।

स्त्री-शिक्षा की समस्याएँ
इसमें सन्देह नहीं कि स्वाधीन भारत में स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति हुई है, लेकिन कुछ समस्याएँ तथा कठिनाइयाँ स्त्री-शिक्षा के मार्ग में बाधक बनी हुई हैं। इन समस्याओं/कठिनाइयों/बाधाओं का विवरण निम्नलिखित है।

1. सामाजिक कुप्रथाएँ एवं अन्धविश्वास :
भारतीय समाज अनेक सामाजिक रूढ़ियों एवं अन्धविश्वासों से ग्रस्त है। शिक्षा के अभाव में आज भी अधिकांश लोग प्राचीन परम्पराओं एवं विचारों के कट्टर समर्थक हैं। उनका विचार है कि बालिकाओं को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उन्हें विवाह करके पति के घर ही जाना है। वह शिक्षित और स्वच्छन्द बालिकाओं को चरित्रहीन भी समझते हैं। कुछ परिवारों में आज भी बाल-विवाह और परदा-प्रथा विद्यमान है, जिनके कारण स्त्री-शिक्षा के प्रसार में बाधा उत्पन्न हो रही है।

2. जनसाधारण में शिक्षा का कम प्रसार :
आज भी देश की अधिकांश जनता अशिक्षित है और शिक्षा के सामाजिक तथा सांस्कृतिक महत्त्व से अनभिज्ञ है। अधिकांश लोग शिक्षा को निरर्थक और समय का अपव्यय समझते हैं। उनका विचार है कि शिक्षा केवल व्यावसायिक या राजनीतिक लाभ के लिए ही ग्रहण की जाती है। इस दृष्टि से केवल लड़कों को ही शिक्षित करना उचित है।

3. निर्धनता तथा पिछडापन :
वर्तमान समय में भारत की अधिकांश जनता निर्धन है और उसका जीवन-स्तर काफी पिछड़ा हुआ है। हमारे ग्रामीण क्षेत्र आज भी अविकसित दशा में हैं और वहाँ जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएँ भी सुलभ नहीं हो पाती हैं। धन के अभाव के कारण वे अपने बालकों को ही शिक्षा नहीं दिला पाते हैं, फिर बालिकाओं को विद्यालय भेजना तो एक असम्भव बात है।

4. संकीर्ण दृष्टिकोण :
भारत में लोगों का स्त्रियों के प्रति बहुत संकीर्ण दृष्टिकोण पाया जाता है। अशिक्षा के कारण अधिकांश व्यक्ति यह कहते हैं कि स्त्रियों को केवल घर-गृहस्थी का कार्य भार सँभालना है, इसलिए अधिक पढ़ाने-लिखाने की आवश्यकता नहीं है। शिक्षा प्राप्त करने पर स्त्रियाँ घर के काम नहीं कर सकेंगी। इस प्रकार के संकीर्ण दृष्टिकोण स्त्री-शिक्षा के प्रसार में बाधक सिद्ध हो रहे हैं।

5. बालिका-शिक्षा के प्रति अनुचित दृष्टिकोण :
भारत में अधिकांश लोग अपने बालकों को शिक्षा नौकरी प्राप्त करने के सामाजिक कुप्रथाएँ एवं उद्देश्य से दिलाते हैं और लड़कियों को शिक्षा इसलिए देते हैं, अन्धविश्वास जिससे उनका विवाह अच्छे परिवार में हो जाए। इस अनुचित दृष्टिकोण के कारण विवाह होते ही लड़कियों की पढ़ाई बन्द करा दी जाती है।

6. शिक्षा में अपव्यय :
शिक्षा सम्बन्धी आँकड़ों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि बालकों की अपेक्षा बालिकाओं की शिक्षा पर अधिक अपव्यय होता है। वस्तुत: अधिकांश अभिभावक, के पास धनाभाव और पूर्ण सुविधाओं के उपलब्ध न होने के कारण अधिकांश छात्राएँ निर्धारित अवधि से पूर्व ही पढ़ना छोड़ देती हैं। इस कारण अनेक बालिकाएँ समुचित शिक्षा प्राप्त करने से वंचित तथा रह जाती हैं।

7. पाठ्यक्रम का उपयुक्त न होना :
हमारे देश में शिक्षा के सभी स्तरों पर बालक-बालिकाओं के लिए समान पाठ्यक्रम, पुस्तकें और परीक्षाएँ हैं। अत: अधिकांश लोग इस प्रकार की शिक्षा के विरोधी हैं, क्योंकि उनका विचार है कि बालिकाओं की शारीरिक, मानसिक और सामाजिक आवश्यकताएँ बालकों से भिन्न होती हैं। अतः एक-समान पाठ्यक्रम बालिकाओं के लिए उपयुक्त नहीं होता। इस ज्ञान-प्रधान और पुस्तक-प्रधान पाठ्यक्रम का बालिकाओं के वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता।

8. बालिका विद्यालयों तथा अध्यापिकाओं की कमी :
शिक्षा के सभी स्तरों पर हमारे देश में बालिका विद्यालयों की कमी है। देश में लगभग दो-तिहाई ग्राम ऐसे हैं, जहाँ प्राथमिक शिक्षा के लिए ही कोई व्यवस्था नहीं है। शेष एक-तिहाई ग्रामों में से अधिकांश में बालिकाओं को बालकों के साथ ही प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती है। यही स्थिति माध्यमिक और उच्च शिक्षा के स्तरों पर भी है। अतः सहशिक्षा के कारण भी स्त्री-शिक्षा के प्रसार में बाधा पहुँच रही है। इसी प्रकार प्रशिक्षित अध्यापिकाओं की भी कमी है। अनेक शिक्षित स्त्रियाँ अपने अभिभावकों और पति की अनिच्छा के कारण चाहते हुए भी नौकरी नहीं कर पातीं।

9. दोषपूर्ण शैक्षिक प्रशासन :
भारत में लगभग सभी राज्यों में स्त्री-शिक्षा का प्रशासन पुरुष अधिकारियों के हाथ में है, परन्तु स्त्री-शिक्षा की समस्याओं से पूर्णतया अवगत न होने के कारण और अरुचि के कारण स्त्री-शिक्षा का समुचित विकास नहीं हो पा रहा है।

10. सरकार की उदासीनता :
सरकार स्त्री-शिक्षा के प्रति उतनी जागरूक नहीं है, जितनी कि बालकों की शिक्षा के प्रति है। इस कारण ही स्त्री-शिक्षा के विकास पर बहुत कम धन व्यय किया जा रहा है। सरकार की इस उपेक्षापूर्ण नीति के कारण स्त्री-शिक्षा का वांछित विकास नहीं हो पा रहा है।

(संकेत : समाधान हेतु सुझावों के लिए निम्नलिखित प्रश्न 2 का उत्तर देखें।)

प्रश्न 2
स्त्री-शिक्षा से सम्बन्धित समृस्याओं के समाधान के उपायों का उल्लेख कीजिए। [2007, 08]
या
बालिकाओं की शिक्षा में बाधक तत्त्वों का निराकरण किस प्रकार किया जा सकता है? [2013]
या
महिला शिक्षा की प्रगति हेतु किये गये प्रयासों का वर्णन कीजिए। [2015]
उत्तर :
स्त्री-शिक्षा की समस्याओं का समाधान
स्त्री-शिक्षा के विकास में यद्यपि अनेक बाधाएँ हैं, परन्तु यदि धैर्यपूर्वक इन बाधाओं का सामना किया जाए तो इन पर विजय प्राप्त की जा सकती है। यहाँ हम स्त्री-शिक्षा की समस्याओं को हल करने के लिए निम्नांकित सुझाव प्रस्तुत कर रहे हैं।

1. रूढ़िवादिता का उन्मूलन :
जब तक समाज में रूढ़िवादिता का उन्मूलने नहीं किया जाएगा, तब तक स्त्री-शिक्षा का विकास सम्भव नहीं है। इसलिए निम्नलिखित कदम उठाये जाने चाहिए।

  • बाल-विवाह के विरुद्ध व्यापक अभियान चलाया जाए तथा इसकी हानियों से जनसाधारण को अवगत कराया जाए।
  • सामाजिक रूढ़ियों को समाप्त करने के लिए समाज शिक्षा का प्रसार प्रभावशाली ढंग से किया जाए।
  • स्त्रियों के प्रति आदर की भावना उत्पन्न करने तथा परदा-प्रथा की निरर्थकता सिद्ध करने के प्रयास किये जाएँ।
  • ऐसा सचित्र साहित्य प्रचारित किया जाए, जिसमें देश-विदेश की महिलाओं की सामाजिक गतिविधियों का उल्लेख हो।
  • ऐसी फिल्मों का प्रदर्शन किया जाए, जिनमें सामाजिक रूढ़ियों का विरोध किया गया हो।

2. अपव्यय और अवरोधन का उपचार :
स्त्री-शिक्षा में अपव्यय और अवरोधन को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाएँ

  • विद्यालय के वातावरण को आकर्षक बनाया जाए।
  • पाठ्यक्रम को यथासम्भव रोचक तथा उपयोगी बनाया जाए।
  • रोचक और मनोवैज्ञानिक शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाए।
  • परीक्षा प्रणाली में सुधार किया जाए।
  • अंशकालीन शिक्षा का प्रबन्ध किया जाए।
  • शिक्षण में खेल विधियों का उपयोग किया जाए।
  • स्त्री-शिक्षा के प्रति अभिभावकों के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाया जाए।

3. भिन्न पाठ्यक्रम की व्यवस्था :
बालिकाओं के पाठ्यक्रम में भी पर्याप्त परिवर्तन की आवश्यकता है। यह बात ध्यान में रखने की है कि बालक और बालिकाओं की व्यक्तिगत क्षमताओं, अभिवृत्तियों और रुचियों में भिन्नता होती है। अतः पाठ्यक्रम के निर्धारण में इस तथ्य की उपेक्षा न की जाए। बालिकाओं के पाठ्यक्रम सम्बन्धी प्रमुख सुझाव निम्नलिखित हैं

  • प्राथमिक स्तर पर बालक-बालिकाओं के पाठ्यक्रम में समानता रखी जा सकती है।
  • माध्यमिक स्तर पर पाकशास्त्र, गृहविज्ञान, सिलाई, कताई, बुनाई आदि की शिक्षा प्रदान की जाए।
  • उच्च स्तर पर गृह अर्थशास्त्र, गृह प्रबन्ध, गृह शिल्प आदि की शिक्षा का प्रबन्ध किया जाए। उन्हें संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा विशेष रूप से दी जाए।
  • प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर बालिकाओं के लिए।

4. ग्रामीण दृष्टिकोण में परिवर्तन :
ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक पैमाने पर समाज शिक्षा का प्रसार किया जाए तथा विभिन्न गोष्ठियों और आन्र्दोलनों के द्वारा ग्रामीण दृष्टिकोण में परिवर्तन करने का प्रयास किया जाए। ग्रामवासियों को शिक्षा का महत्त्व समझाया जाए तथा स्त्री-शिक्षा के प्रति जो उनकी परम्परागत विचारधाराएँ हैं, उनका उन्मूलन किया जाए।

5. आर्थिक समस्या का समाधान :
आर्थिक समस्या को हल करने के लिए केन्द्र सरकार का कर्तव्य है कि वह राज्य सरकारों को पर्याप्त अनुदान दे। राज्य सरकारों का कर्तव्य है कि वे अनुदान उचित मात्रा में उचित स्त्री-शिक्षा के लिए करें तथा बालिका विद्यालयों को इतनी आर्थिक सहायता दें कि वे अपने यहाँ अधिक-से-अधिक बालिकाओं को प्रवेश दे सकें।

6. जनसाधारण के दृष्टिकोण में परिवर्तन :
स्त्री-शिक्षा के विकास के लिए जनसाधारण को शिक्षा के वास्तविक अर्थ बताये जाएँ तथा उनके उद्देश्यों पर व्यापक दृष्टि से प्रकाश डाला जाए। शिक्षा को केवल नौकरी प्राप्त करने का साधन न माना जाए। शिक्षा के महत्त्व और लाभों का ज्ञान कराने के लिए फिल्मों, प्रदर्शनियों तथा व्याख्यानों आदि का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया जाए। जब हमारे देश के पुरुष वर्ग का शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण बदल जाएगा और वह यह समझने लगेगा कि सुयोग्य नागरिकों का निर्माण सुयोग्य व शिक्षित माताओं द्वारा ही सम्भव है, तो स्त्री-शिक्षा के मार्ग में आने वाली समस्याओं का समाधान स्वतः ही हो जाएगा।

7. बालिका विद्यालयों की स्थापना :
सरकार का कर्तव्य है कि यथासम्भव अधिक-से-अधिक बालिका-विद्यालयों की स्थापना करे। माध्यमिक स्तर पर अधिक-से-अधिक विद्यालय खोलने की आवश्यकता है। जो बालिका विद्यालय अमान्य हैं, उन्हें सरकार द्वारा शीघ्र ही मान्यता दी जाए। धनी और सम्पन्न व्यक्तियों को बालिका विद्यालयों की स्थापना हेतु अधिक-से-अधिक आर्थिक सहायता के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

8. अध्यापिकाओं की पूर्ति :
बालिका विद्यालयों में अध्यापिकाओं की पूर्ति के लिए निम्नलिखित बातों पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है

  • अध्यापन कार्य के प्रति अधिक-से-अधिक महिलाएँ आकर्षित हों, इसके लिए अध्यापिकाओं के वेतन में वृद्धि की जाए।
  • जिन अध्यापिकाओं के पति भी अध्यापक हैं, उन्हें एक-साथ रहने की सुविधाएँ प्रदान करना तथा उनका स्थानान्तरण भी एक स्थान पर ही करना।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में अध्यापिकाओं को भी आवश्यकता पड़ने पर नियुक्त करना।
  • अप्रशिक्षित अध्यापिकाओं को भी आवश्यकता पड़ने पर नियुक्त करना।
  • महिलाओं को आयु सम्बन्धी छूट प्रदान करना।
  • शिक्षण कार्य में रुचि रखने वाली बालिकाओं को पर्याप्त आर्थिक सहायता प्रदान करना।
  • वर्तमान प्रशिक्षण संस्थाओं का विस्तार करना तथा नवीन महिला प्रशिक्षण संस्थाओं की स्थापना करना।

9. शिक्षा प्रशासन में सुधार :
स्त्री-शिक्षा का सम्पूर्ण प्रशासन पुरुष वर्ग के हाथ में न होकर स्त्री वर्ग के हाथ में होना चाहिए। सरकार का कर्तव्य है कि वह प्रत्येक राज्य में एक उपशिक्षा संचालिका तथा उसकी अधीनता में विद्यालय निरीक्षिकाओं की नियुक्ति करे। स्त्री निरीक्षिकाओं द्वारा ही बालिका विद्यालयों का निरीक्षण किया जाए। बालिकाओं के लिए पाठ्यक्रम तथा शिक्षा नीति का निर्धारण भी महिला शिक्षार्थियों द्वारा किया जाए।

10. शिक्षा की उदार नीति :
सरकार का कर्तव्य है कि वह स्त्री-शिक्षा के प्रति उदार नीति अपनाये। स्त्री-शिक्षा की उपेक्षा न करके उसे राष्ट्रीय हित की योजना माना जाए तथा विभिन्न साधनों द्वारा स्त्री-शिक्षा के प्रसार में योगदान प्रदान किया जाए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
“नारी सशक्तिकरण के लिए शिक्षा आवश्यक है।” इस कथन के सन्दर्भ में अपने विचार व्यक्त कीजिए। [2010]
या
भारत में नारी शिक्षा के विकास पर टिप्पणी कीजिए। [2012]
उत्तर :
पारस्परिक रूप से हमारा समाज पुरुष-प्रधान रहा है तथा समाज में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को कम अधिकार प्राप्त रहे। महिलाओं को कम स्वतन्त्रता प्राप्त थी तथा उन्हें समाज़ में अबला ही माना जाता था। परन्तु अब स्थिति एवं सोच परिवर्तित हो चुकी है। अब यह माना जाने लगा है कि समाज एवं देश की प्रगति के लिए समाज में महिलाओं को भी समान अधिकार, अवसर एवं सत्ता प्राप्त होनी चाहिए। इसीलिए हर ओर नारी सशक्तिकरण की बात कही जा रही है। नारी सशक्तिकरण की अवधारणा को स्वीकार कर लेने पर यह भी अनुभव किया गया कि “नारी सशक्तिकरण के लिए शिक्षा आवश्यक है।

वास्तव में जब समाज में स्त्रियाँ शिक्षित होंगी तो उनमें जागरूकता आएगी तथा वे अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों को भी समझ सकेंगी। इसके अतिरिक्त शिक्षित नारी पारम्परिक रूढ़ियों एवं अन्धविश्वासों से भी मुक्त हो पाएँगी। शिक्षा प्राप्त नारियाँ विभिन्न व्यवसायों एवं नौकरियों में पदार्पण करके आर्थिक रूप से भी स्वतन्त्र होंगी। इससे जहाँ एक ओर वे पुरुषों की आर्थिक निर्भरता से मुक्त होंगी वहीं उनमें एक विशेष प्रकार का आत्म-विश्वास जाग्रत होगा। इस स्थिति में न तो उन्हें अबला माना जाएगा और न ही उनका शोषण ही हो पाएगा। इन समस्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है। कि नारी सशक्तिकरण के लिए शिक्षा आवश्यक है।

प्रश्न 2
प्राचीन काल में भारतीय समाज में स्त्री-शिक्षा की क्या स्थिति थी?
उत्तर :
प्राचीन काल में स्त्री-शिक्षा काफी उन्नति पर थी। उस समय स्त्रियाँ वैदिक साहित्य का अध्ययन और अनुशीलन करती थीं। मैत्रेयी, गार्गी, अपाला, घोषा, लोपामुद्रा आदि महिलाओं ने तो वैदिक संहिताओं की भी रचना की है। स्त्रियाँ विविध शास्त्रों की पण्डित होती थीं और कभी-कभी तो वे न केवल शास्त्रार्थ में भाग लेकर पुरुषों की बराबरी करती थीं, अपितु उन्हें शास्त्रार्थों में मध्यस्थ भी बनाया जाता था। इस बात के भी अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं कि सभी धार्मिक कार्यों में पति के साथ पत्नी को भाग लेना अनिवार्य था और यह तभी सम्भव था जब वे शिक्षित हों।

वैदिककाल के बाद बौद्ध काल में भी स्त्री-शिक्षा को कुछ प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। बौद्ध शिक्षकों ने मठों में रहने वाली बौद्ध भिक्षुणियों के लिए समुचित शिक्षा-व्यवस्था की थी, लेकिन स्त्री-शिक्षा की यह दशा अधिक दिनों तक न रह सकी। बौद्ध धर्म के पतन के बाद जब हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान हुआ तबे स्त्री-शिक्षा प्रसार के सभी प्रयासों को निरुत्साहित किया गया, क्योंकि पुनरुत्थान आन्दोलन के नेता शंकराचार्य स्त्री-शिक्षा के विरोधी थे।

प्रश्न 3
मध्यकाल में भारतीय समाज में स्त्री-शिक्षा की क्या स्थिति थी?
उत्तर :
भारत में मुस्लिम सत्ता की स्थापना हो जाने से देशभर में हिन्दू और मुस्लिम दोनों समाजों में परदा-प्रथा का बहुत अधिक प्रचलन हो गया तथा हिन्दुओं में बाल-विवाह की प्रथा भी आरम्भ हो गयी। अतः अल्प आयु की कुछ बालिकाएँ भले ही थोड़ा-बहुत ज्ञान प्राप्त कर लेती हों, लेकिन उच्च शिक्षा से वे वंचित ही रहती थीं।

केवल धनी परिवारों की स्त्रियाँ ही घर पर शिक्षा प्राप्त करती थीं, लेकिन जनसाधारण वर्ग की स्त्रियों के लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। इसीलिए रजिया बेगम, नूरजहाँ, जहाँआरा, जेबुन्निसा, मुक्ताबाई आदि बहुत थोड़ी विदुषी महिलाएँ ही इस युग में हुईं। 18वीं शताब्दी में स्त्री-शिक्षा का इतना ह्रास हो गया कि 19वीं शताब्दी के आरम्भ में केवल एक प्रतिशत बालिकाएँ ही पढ़-लिख सकती थीं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
स्त्री-शिक्षा अथवा बालिका शिक्षा को आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण क्यों माना जाता है? [2007]
या
टिप्पणी लिखिए-नारी शिक्षा का महत्त्व। [2007]
उत्तर :
एक विद्वान का कथन है, एक लड़के की शिक्षा एक व्यक्ति की शिक्षा है, परन्तु एक लड़की की शिक्षा पूरे परिवार की शिक्षा है। प्रस्तुत कथन द्वारा स्पष्ट होता है कि बालिका-शिक्षा अधिक आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में आज की बालिका सुशिक्षित है तो एक भावी परिवार उससे लाभान्वित होगा। सुशिक्षित गृहिणी अपने घर-परिवार की सुव्यवस्था बनाये रखती है तथा बच्चों को शिक्षित बनाने में भरपूर योगदान प्रदान कर सकती है। बालिकाओं की शिक्षा से समाज की कुरीतियों को समाप्त करने में योगदान प्राप्त होता है तथा सामाजिक उत्थान में सहायता प्राप्त होती है।

प्रश्न 2
टिप्पणी लिखिए-स्त्री-शिक्षा तथा सहशिक्षा। [2007]
उत्तर :
स्त्री-शिक्षा तथा सहशिक्षा सहशिक्षा वह शिक्षा-व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत लड़के तथा लड़कियाँ एक स्थान पर एक समय, एक पाठ्यक्रम, एक विधि तथा एक प्रशासन के अन्तर्गत अध्ययन करते हैं।

सहशिक्षा की आवश्यकता तथा महत्त्व

  1. सहशिक्षा के आधार पर शिक्षा के समान अवसर, सुविधाएँ तथा अधिकार मिलते हैं।
  2. लड़के और लड़कियों में परस्पर सहयोग तथा विश्वास विकसित होता है।
  3. एक-दूसरे के प्रति जिज्ञासाएँ सन्तुष्ट होती हैं।
  4. स्त्री को स्वतन्त्र सामाजिक वातावरण, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा नागरिक अधिकार मिलते हैं, जो सहशिक्षा में ही सम्भव हैं।
  5. स्त्री-शिक्षा का ‘अलग प्रबन्ध खर्चीला होता है। सहशिक्षा में बचत होती है।

सहशिक्षा का प्रसार
सहशिक्षा के प्रसार के लिए स्त्री-शिक्षा समिति ने निम्नलिखित सुझाव दिए हैं

  1. सहशिक्षा पर आधारित विद्यालय सुसंगठित हो।
  2. सहशिक्षा के विद्यालयों की संख्या बढ़ाई जाए।
  3. इस प्रणाली को प्राथमिक स्तर पर ही लागू किया जाए।
  4. सहशिक्षा से सम्बन्धित विद्यालयों में संगीत, गृह विज्ञान, नृत्य, चित्रकला आदि विषयों की पूर्ण व्यवस्था हो।
  5. इस प्रणाली की जानकारी अभिभावकों को दी जाए जिससे यह विकसित हो सके।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
परिवार में माता का योग्य एवं सुशिक्षित होना क्यों आवश्यक है?
उत्तर :
माता योग्य एवं सुशिक्षित है तो वह अपने बच्चों को भी योग्य एवं सुशिक्षित बना सकती है।

प्रश्न 2
नारी-शिक्षा का परिवार की आर्थिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
नारी-शिक्षा का परिवार की आर्थिक स्थिति पर अच्छा प्रभाव पड़ता है क्योंकि शिक्षित गृहस्वामिनी परिवार की आय-वृद्धि में समुचित योगदान दे सकती है।

प्रश्न 3
स्त्री-शिक्षा प्रसार का समाज में स्त्रियों की स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
स्त्री-शिक्षा प्रसार से समाज में नारी-सशक्तिकरण को बल मिलता है।

प्रश्न 4
किस काल में हमारे देश में स्त्री-शिक्षा की दुर्दशा थी?
उत्तर :
मध्यकाल में हमारे देश में स्त्री-शिक्षा की दुर्दशा थी।

प्रश्न 5
ब्रिटिश काल में सर्वप्रथम बालिका विद्यालय किनके द्वारा स्थापित किये गये थे?
उत्तर :
ब्रिटिश काल में सर्वप्रथम ईसाई मिशनरियों द्वारा बालिका विद्यालय स्थापित किये गये थे।

प्रश्न 6
हमारे देश में किन क्षेत्रों में स्त्री-शिक्षा का कम प्रसार हुआ है?
उत्तर :
हमारे देश में ग्रामीण तथा पिछड़े क्षेत्रों में स्त्री-शिक्षा का कम प्रसार हुआ है।

प्रश्न 7
प्राचीनकालीन कुछ सुशिक्षित महिलाओं के नामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
प्राचीनकाल की कुछ सुशिक्षित महिलाएँ थीं-मैत्रेयी, गार्गी, अपाला, घोषा तथा लोपामुद्रा आदि।

प्रश्न 8
मध्यकाल में भारत में स्त्री-शिक्षा की कैसी व्यवस्था थी?
उत्तर :
मध्यकाल में भारत में स्त्री-शिक्षा की व्यवस्था सन्तोषजनक नहीं थी।

प्रश्न 9
मध्यकाल की कुछ सुशिक्षित महिलाओं के नाम लिखिए।
उत्तर :
मध्यकाल की कुछ सुशिक्षित महिलाएँ थीं-रजिया बेगम, गुलबदन बेगम, नूरजहाँ, जहाँआरा, जेबुन्निसा तथा मुक्ताबाई।

प्रश्न 10
बालिकाओं की शिक्षा को क्यों आवश्यक माना जाता है?
उत्तर :
देश एवं समाज की प्रगति तथा पारिवारिक सुव्यवस्था के लिए बालिकाओं की शिक्षा को आवश्यक माना जाता है।

प्रश्न 11
स्त्री-शिक्षा का प्रबल समर्थन करने वाले किन्हीं दो समाज-सुधारकों के नाम लिखिए।
उत्तर :
स्त्री-शिक्षा के प्रबल समर्थक थे राजा राममोहन राय तथा स्वामी दयानन्द।

प्रश्न 12
राष्ट्रीय महिला-शिक्षा परिषद् (N.C.W.E) का गठन कब हुआ? [2008]
उत्तर :
राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद् का गठन सन् 1959 ई० में हुआ था।

प्रश्न 13
राष्ट्रीय महिला-शिक्षा समिति का गठन कब हुआ तथा इसे अन्य किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर :
राष्ट्रीय महिला शिक्षा समिति का गठन सन् 1958 ई० में हुआ तथा इसे ‘देशमुख समिति के नाम से भी जाना जाता है।

प्रश्न 14
महिला समाख्या कार्यक्रम कब प्रारम्भ हुआ और क्यों? [2012]
उत्तर :
महिला समाख्या कार्यक्रम ‘हंसा मेहता समिति 1962’ की सिफारिशों से प्रारम्भ हुआ। इस योजना को लागू करने का प्रमुख उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से महिला सशक्तिकरण के लक्ष्य को प्राप्त करना है।

प्रश्न 15
वर्तमान परिस्थितियों में सहशिक्षा के प्रति क्या विचार हैं?
उत्तर :
वर्तमान परिस्थितियों में सहशिक्षा को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।

प्रश्न 16
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. सामाजिक कुरीतियों एवं बुराइयों को समाप्त करने के लिए स्त्री-शिक्षा अति आवश्यक है।
  2. कुछ अन्धविश्वास तथा सामाजिक रूढ़ियाँ स्त्री-शिक्षा के मार्ग में बाधक हैं।
  3. मध्यकाल में स्त्री-शिक्षा की सुव्यवस्था थी।
  4. ईसाई मिशनरियों ने स्त्री-शिक्षा के प्रसार में उल्लेखनीय योगदान दिया है।
  5. वर्तमान समय में सहशिक्षा को प्रोत्साहन देकर स्त्री-शिक्षा का अधिक प्रसार किया जा सकता है।

उत्तर :

  1. सत्य
  2. सत्य
  3. असत्य
  4. सत्य
  5. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
वर्तमान परिस्थितियों में स्त्री-शिक्षा का प्रसार
(क) अधिक-से-अधिक होना चाहिए।
(ख) सीमित होना चाहिए।
(ग) नियन्त्रित होना चाहिए
(घ) अनावश्यक है।
उत्तर :
(क) अधिक-से-अधिक होना चाहिए।

प्रश्न 2
किस काल में महिलाएँ समान मंच पर पुरुषों से शास्त्रार्थ करती थीं?
(क) वैदिक काल में
(ख) पौराणिक काल में
(ग) मध्य काल में
(घ) किसी भी काल में नहीं
उत्तर :
(क) वैदिक काल में

प्रश्न 3
स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व किस काल में स्त्री-शिक्षा के प्रसार के लिए सराहनीय प्रयास किये गये थे?
(क) मुस्लिम शासन काल में
(ख) बौद्धकाल में
(ग) ब्रिटिश शासनकाल में
(घ) किसी भी काल में नहीं
उत्तर :
(ग) ब्रिटिश शासनकाल में

प्रश्न 4
“बालक का भविष्य सदैव उसकी माता द्वारा निर्मित किया जाता है।” यह कथन है
(क) अरस्तू का
(ख) नेपोलियन को
(ग) नेहरू का।
(घ) दयानन्द का
उत्तर :
(ख) नेपोलियन को

प्रश्न 5
स्त्री-शिक्षा के प्रसार में बाधक कारक हैं
(क) निर्धनता एवं पिछड़ापन
(ख) संकीर्ण दृष्टिकोण
(ग) बालिका शिक्षा के प्रति अनुचित दृष्टिकोण
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर :
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 6
तुम मुझे 100 सुशिक्षित माताएँ दो, मैं एक महान राष्ट्र का निर्माण कर दूंगा यह कथन किसका है?
(क) मैजिनी
(ख) नेपोलियन बोनापार्ट
(ग) जॉन डीवी
(घ) बिस्मार्क
उत्तर :
(ख) नेपोलियन बोनापार्ट

प्रश्न 7
वैदिककाल की प्रमुख विदुषी महिला थीं
(क) चिदम्बरा
(ख) हंसा बेन
(ग) गार्गी
(घ) पार्वती
उत्तर :
(ग) गार्गी

प्रश्न 8
मध्यकालीन महिला इतिहासकार थीं
(क) गुलबदन बेगम
(ख) नूरजहाँ
(ग) रजिया बेगम
(घ) जहाँआरा
उत्तर :
(क) गुलबदन बेगम

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 10 Juvenile Delinquency

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 10 Juvenile Delinquency (बाल-अपराध) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 10 Juvenile Delinquency (बाल-अपराध).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 10
Chapter Name Juvenile Delinquency (बाल-अपराध)
Number of Questions Solved 46
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 10 Juvenile Delinquency (बाल-अपराध)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
बाल-अपराध से आप क्या समझते हैं ? बाल-अपराध के कारकों को समझाइए। [2009, 10, 11, 13, 16]
या
बाल-अपराध क्या है? इसके प्रमुख कारणों की व्याख्या कीजिए। [2015, 16]
या
बाल-अपराध के कारणों की विवेचना कीजिए। [2009, 11, 12, 15, 17]
या
बाल-अपराध के व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक कारणों को स्पष्ट कीजिए। [2015]
या
बाल-अपराध विखण्डित परिवार की देन है।” भारत के सन्दर्भ में इस कथन का विश्लेषण कीजिए। [2012, 13]
या
भारत में बाल-अपराध में वृद्धि के कारणों को स्पष्ट कीजिए। [2015]
या
बाल-अपराध के सामाजिक कारण बताइए। [2015, 16]
या
बाल अपराध की समस्या को दूर करने का उपाय बताइए। [2017]
उत्तर:
बाल-अपराध का अर्थ
एक निश्चित आयु के बालक द्वारा समाज में निषिद्ध अथवा कानून विरोधी कार्य करना बालअपराध कहलाता है। बाल-अपराध दो शब्दों का संयोग है–‘बाल + अपराध’। ‘बाल’ का अर्थ है – बालक या किशोर, ‘अपराध’ का अर्थ है-कानून का उल्लंघन। इस प्रकार बाल-अपराध को शाब्दिक अर्थ हुआ किशोर द्वारा किया गया अपराध। भारत में 1960 व 1986 ई० में बाल अधिनियम पारित किये गये। इनके अनुसार 16 वर्ष की आयु के लड़के तथा 18 वर्ष की आयु की लड़की को बालक माना गया।

इस प्रकार भारत में 7 वर्ष से 16 वर्ष की आयु तक के लड़के तथा 7 वर्ष से 18 वर्ष तक की लड़की द्वारा किया गया कानून-विरोधी कार्य बाल-अपराध माना जाता है। इसके पश्चात् 21 वर्ष की आयु तक के अपराधी को किशोर अपराधी कहा जाता है। सदरलैण्ड ने 16 वर्ष से कम आयु के सभी अपराधियों को बाल-अपराधी कहा है। बाल-अपराध के लिए आयु मिस्र, इराक, लेबनान, सीरिया तथा ब्रिटेन में 16 वर्ष है, जब कि ईरान, जॉर्डन, सऊदी अरब, यमन, तुर्किस्तान तथा थाइलैण्ड में यह 18 वर्ष है। जापान में बाल-अपराधी 20 वर्ष से कम आयु का ही माना जाता है। बालक द्वारा की जाने वाली ऐसी उद्दण्डता को, जो समाज-विरोधी या कानून-विरोधी है, बाल-अपराध कहते हैं। बाल-अपराध वर्तमान समय की एक महत्त्वपूर्ण एवं गम्भीर समस्या है। तथा इसकी दर में वृद्धि सामाजिक व पारिवारिक विघटन की सूचक मानी जाती है।

बाल-अपराध की परिभाषा
बाल-अपराध का अर्थ निश्चित आयु से कम आयु के व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला अपराध है। जब निश्चित आयु से कर्म के बच्चों या युवकों द्वारा कोई अनुचित व समाज-विरोधी कार्य किया जाता है तो उसे बाल-अपराध कहते हैं। बाल-अपराध को ठीक-ठीक अर्थ समझने के लिए हमें इसकी परिभाषाओं का अध्ययन करना होगा। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने बाल-अपराध को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है

माउरर के अनुसार, “बाल-अपराधी वह व्यक्ति है, जो जान-बूझकर इरादे के साथ तथा समझते हुए उसे समाज की रूढ़ियों की उपेक्षा करता है जिससे उसका सम्बन्ध है। ऐसे व्यक्ति द्वारा किये गये अपराध को बाल-अपराध कहा जाएगा।”

सेथना
के अनुसार, “बाल-अपराध के अन्तर्गत उस तरुण व्यक्ति के गलत कार्य आते हैं जो कि सम्बन्धित स्थान के कानून (जो उस समये लागू हों) के द्वारा निर्दिष्ट आयु-सीमा के अन्दर आता है।”

रॉबिन्सन के अनुसार, “बाल-अपराध के अन्तर्गत आवारागर्दी और भीख माँगना, दुर्व्यवहार, बुरे इरादे से शैतानी करना और उद्दण्डता सम्मिलित किये जाते हैं।”
न्यूमेयर के अनुसार, “बाल-अपराधी एक निश्चित आयु से कम का वह व्यक्ति है जिसने समाज-विरोधी कार्य किया है और जिसका दुर्व्यवहार कानून को तोड़ने वाला है।”

सिरिल बर्ट के अनुसार, “किसी बालक को बाल-अपराधी वास्तव में तभी मानना चाहिए जब उसकी समाज-विरोधी प्रवृत्तियाँ इतना गम्भीर रूप धारण कर लें कि उसके विरुद्ध आवश्यक कार्यवाही की जाए या वह उस कार्यवाही के योग्य हो जाए।”

हेली
के अनुसार, “एक बालक जो सामाजिक व्यवहार के मान से विचलित हो रहा हो, बालअपराधी कहलाता है।

मेनगोल्ड के अनुसार, “बाल-अपराधी वह अपराधी व्यक्ति है जो आवश्यक रूप से किसी विशेष अपराध करने से अभियुक्त नहीं होता, अपितु उसमें समाज-विरोधी दृष्टिकोण तथा व्यवहार के लक्षणों का विकास हो जाता है, जो यदि नहीं रोके गये तो वे नि:सन्देह ऐसे कार्यों की ओर अग्रसर होंगे जिन्हें लोग सहन नहीं कर सकेंगे।”

वास्तव में, बाल-अपराधी होने का आधार आयु है। बाल-अपराध एक निश्चित आयु के बालक द्वारा किया गया कानून-विरोधी कार्य है। बाल-अपराध में समाज-विरोधी कार्यों को भी सम्मिलित किया जाता है।

अमेरिका की राष्ट्रीय परिवीक्षा समिति (National Probation Association of United States of America) ने बाल-अपराध को निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया है – बाल-अपराधी वह है जिसने

  1. किसी प्रान्त अथवा इसके किसी क्षेत्र के कानून अथवा मान्यता का उल्लंघन किया हो।
  2. जो सुधार से परे, उद्दण्ड हो और अपने माता-पिता, संरक्षक अथवा कानून अधिकारियों के नियन्त्रण से परे हो।
  3. जिसे स्कूल से अनुपस्थित रहने की आदत पड़ गयी हो।
  4. जो इस प्रकार व्यवहार करता हो जिससे वह जानबूझकर अपनी या अन्य व्यक्तियों की नैतिकता अथवा स्वास्थ्य को हानि पहुँचाए।

बाल-अपराध के लक्षण
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि बाल-अपराध में निम्नलिखित लक्षण पाये जाते हैं|

  1. राज्य द्वारा निश्चित आयु से कम आयु का व्यक्ति;
  2. व्यवहार की गम्भीरता;
  3. कानून का उल्लंघन;
  4. अनैतिक एवं अशोभनीय व्यवहार;
  5.  जान-बूझकर अनैतिक एवं बुरे व्यक्तियों से सम्पर्क;
  6.  रात्रि को बिना उद्देश्य घूमना;
  7. स्कूल से भागने की आदत;
  8. सार्वजनिक स्थान पर गन्दी, असभ्य व निम्न स्तर की भाषा का आदतन प्रयोग;
  9.  सार्वजनिक स्थानों पर बीड़ी-सिगरेट इत्यादि पीना तथा
  10. विकास का अनुकूल स्तर न होना।

बाल-अपराध के कारण
बाल-अपराध एक गम्भीर सामाजिक समस्या है। प्रत्येक समाज में इसके कारण हूँढ़ने का प्रयास किया जाता है। बाल-अपराधी किसी एक विशिष्ट कारण की देन नहीं है, इसके लिए अनेक कारण उत्तरदायी हैं। सामान्य रूप से बाल-अपराध के निम्नलिखित कारण हैं

(अ) बाल-अपराध के पारिवारिक कारण
बाल-अपराध के लिए परिवार सम्बन्धी कारणों को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। परिवार को बच्चे की प्रथम पाठशाला कहा जाता है, क्योंकि बच्चे को एक अच्छा नागरिक बनाने अथवा उसे बिगाड़ने में पारिवारिक परिस्थितियाँ महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। जब परिवार बच्चे को सामाजिकमानसिक सुरक्षा प्रदान करने में असफल हो जाता है और बच्चा स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगता है, तो वह बाल-अपराधी बन जाता है। सामान्यत: निम्नलिखित पारिवारिक परिस्थितियाँ बाल-अपराध के लिए उत्तरदायी हैं1. भग्न परिवार तथा नष्ट परिवार-भग्न परिवार से अर्थ ऐसे परिवारों से है, जो शारीरिक , अथवा मानसिक अथवा दोनों दृष्टियों से टूटे हुए होते हैं। शारीरिक अथवा भौतिक दृष्टि से भग्न परिवारों में माता-पिता में से किसी एक या दोनों के न होने या सौतेली माता के होने से बच्चे उपेक्षित होकर अपराधी बन बैठते हैं। मानसिक दृष्टि से भग्न परिवारों में माता-पिता तथा बच्चे अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते, एक-दूसरे का सम्मान नहीं करते तथा बच्चे। स्वयं को उपेक्षित महसूस करते हैं और बाल-अपराध की ओर सरलता से आकृष्ट हो जाते हैं। सुधार-गृहों और बाल-न्यायालयों में आने वाले अधिकांश बालक भग्न परिवारों से ही होते है।

2. परिवार का आर्थिक स्तर – परिवार की आर्थिक स्तर नीचा होने तथा अत्यधिक निर्धनता के फलस्वरूप बालक अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए गैर-सामाजिक या गैर-कानूनी कार्यों की ओर आकर्षित हो जाते हैं। यद्यपि परिवार की निर्धनता बाल-अपराध का अनिवार्य कारण नहीं है तथापि इसकी बाल-अपराधों को प्रोत्साहन देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

3. दोषपूर्ण अनुशासन – यदि परिवार का बच्चे पर नियन्त्रण ठीक नहीं है तो भी वह अपराधी प्रवृत्तियों की ओर आकर्षित हो जाता है। बच्चे पर सन्तुलित वे अनवरत अनुशासन उसे अच्छा नागरिक बनाता है, जब कि दोषपूर्ण अनुशासन उसे बिगाड़ देता है। परिवार में बच्चे के साथ अत्यधिक स्नेह, अत्यधिक तिरस्कार या पक्षपातपूर्ण व्यवहार उन्हें बाल-अपराधी बनाता है।

4. घर का दुषित वातावरण – घर का दूषित वातावरण बच्चे को अपराध की दुनिया में धकेलने में सर्वाधिक उत्तरदायी है। अपराध प्रवृत्ति का पिता, व्यभिचारिणी माँ तथा अनैतिक कार्यों में संलग्न भाई-बहन बच्चे को बाल-अपराधी बना देते हैं।

5. सौतेले माता – पिता का व्यवहार-सौतेले माता-पिता द्वारा यदि बच्चों की उपेक्षा की जाती है, अथवा उनके प्रति गलत व्यवहार किया जाता है तो भी बच्चे अपराधी प्रवृत्तियों की ओर आकर्षित हो जाते हैं तथा उनका व्यवहार अपराधी बन जाता है।

6. परिवार का वृहत आकार – यदि परिवार का आकार वृहत् है, परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और रहने के लिए पर्याप्त कमरे नहीं हैं तो बच्चों के बाल-अपराधी बनने की सम्भावना अधिक होती है।

7. अशान्त परिवार – यदि परिवार में एकता का अभाव है और लड़ाई-झगड़ों से मानसिक तनाव रहता है, तो वह असुरक्षा व अस्थायित्व की स्थिति बच्चों पर बुरा प्रभाव डालती है और उन्हें बाल-अपराधी बनने में सहायता देती है।

(ब) बाल-अपराध के व्यक्तिगत कारण
पारिवारिक कारणों के साथ-साथ बाल-अपराध के लिए कुछ व्यक्तिगत या शारीस्कि कारण भी उत्तरदायी हैं। इनका सम्बन्ध व्यक्ति के व्यक्तित्व से है। लॉम्बोसो, बर्ट, दुहन आदि विद्वानों ने बाल-अपराध में व्यक्तिगत व शारीरिक कारणों को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना है। कुछ प्रमुख व्यक्तिगत व शारीरिक कारण निम्नलिखित हैं

1. शारीरिक असामान्यता – यदि बच्चों का शरीर अस्वस्थ है अथवा इसमें शारीरिक असमानताएँ पायी जाती हैं तो ऐसे बच्चे शारीरिक दृष्टि से स्वयं को दुर्बल अनुभव करते हैं, स्कूल को कार्य ठीक नहीं कर पाते और हीनता की भावना का शिकार होकर बाल-अपराधी बन जाते हैं।

2. शारीरिक दोष – शारीरिक दोष एवं विकृति बच्चों में हीनता की भावना भर देती है और वे अपनी असफलताओं की पूर्ति के लिए अपराध की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं। लँगड़े, लूले, हकलाने वाले तथा ऐसे ही अन्य शारीरिक दोषों वाले बच्चों में हीनता की भावना ऐसी प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न कर सकती हैं, जो बाल-अपराध के लिए उत्तरदायी हैं।

3. लम्बी बीमारी – अध्ययनों से पता चला है कि लम्बी बीमारी भी बाल-अपराध का एक कारण है। लम्बी बीमारी के कारण बच्चों का स्वास्थ्य सामान्य नहीं रहता, वे अधिक चिड़चिड़े हो जाते हैं और कई बार बाल-अपराधी बन जाते हैं।

4. अपूर्ण इच्छाएँ – जब बच्चों की मौलिक आवश्यकताएँ पूरी नहीं होतीं तो उनमें असन्तुलने , की स्थिति आ जाती है और वे भावात्मक अस्थिरता की स्थिति में अनैतिक कार्यों की ओर अग्रसर हो जाते हैं। जब वे अनैतिक व गैर-सामाजिक ढंग से अपनी इच्छाएँ पूरी करते हैं तो बाल-अपराधी बन जाते हैं।

(स) बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारण
मनोवैज्ञानिक कारण व्यक्तिगत कारणों से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। यदि बच्चे का विकास मानसिक रूप से दोषपूर्ण हुआ है तो वह असुरक्षित महसूस करता है और हीन भावना से ग्रसित होकर बाल-अपराधी बन जाता है। बाल-अपराध के प्रमुख मनोवैज्ञानिक कारण निम्नलिखित हैं

1. मानसिक दुर्बलता – गोडार्ड ने मानसिक दुर्बलता को बाल-अपराध का कारण माना है। यह मानसिक दुर्बलता जन्मजात भी हो सकती है अथवा किसी मानसिक आघात का परिणाम भी हो सकती है। मानसिक रूप से दुर्बल बच्चे ठीक प्रकार से सोच-विचार नहीं कर सकते, शिक्षा को ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं और सरलता से बाल-अपराधी बन जाते हैं।

2. संवेगात्मक अस्थिरता – संवेगात्मक अस्थिरता मानसिक संघर्ष का परिणाम है तथा इसे भी – बाल-अपराध का एक मुख्य कारण माना गया है। हीले तथा बूनर ने 105 बाल-अपराधियों में से 15 बाल-अपराधियों में मानसिक अस्थिरता को अपने अध्ययन में प्रमुख रूप से उत्तरदायी बताया है।

3. मन्द बुद्धि वाले बच्चे – यदि बच्चा अपनी आयु के अन्य बच्चों की तुलना में मन्द बुद्धि वाला है तो उसमें हीनता की भावना पैदा हो जाती है। इस हीन भावना के कारण जीवन से निराश होकर वह बाल-अपराधी बन जाता है।

4. अतिवृद्ध बालक – अनेक बच्चे अपनी आयु के सामान्य बच्चों की तुलना में अतिवृद्ध (Over-grown) होते हैं तथा अपनी आयु से बड़े लोगों की संगति में रहते हैं। कई बार बुरी सँगति से वे बाल-अपराधी बन जाते हैं।

(द) बाल-अपराध के सामुदायिक (सामाज़िक) कारण’
सामुदायिक परिस्थितियाँ भी बच्चों के दोषपूर्ण व्यवहार के लिए उत्तरदायी हैं। कुछ प्रमुख सामुदायिक कारण निम्नलिखित हैं

1. बुरा पड़ोस – परिवार के साथ-साथ बच्चे के समाजीकरण पर पड़ोस का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। यदि पझेस अच्छा नहीं है अर्थात् भीड़ वाला या गन्दी बस्तियों का वातावरण है तो इसका प्रभाव बच्चों पर बुरा पड़ता है और ये भी असामाजिक कार्य करने लगते हैं। पड़ोस बालक को अपराध के लिए प्रेरणा देने में प्रमुख भूमिका निभाता है।

2. स्वस्थ मनोरंजन की कॅमी –  बच्चों के लिए खेल मनोरंजन का महत्त्वपूर्ण साधन है। यदि मनोरंजन के साधनं बच्चों को उपलब्ध नहीं हैं तो वह इस समय का दुरुपयोग करके कुसंगति में पड़ सकता है। गन्दी बस्तियों में खेल-कूद तथा स्वस्थ मनोरंजन के साधनों के अभाव के | कारण ही उनमें बाल-अपराध अधिक पनपते हैं।

3. स्कूल का दूषित वातावरण – यदि स्कूल का वातावरण दूषित है तो बच्चे कक्षाओं में अधिक देर तक नहीं रुक पाते, पढ़ने में उनकी रुचि कम हो जाती है और वे स्कूल से बाहर इधर-उधर बैठकर आवारागर्दी करते रहते हैं। पढ़ाई से पिछड़ जाने के कारण भी बच्चे बाल अपराधी बन जाते हैं।

4. गन्दा व आपत्तिजनक साहित्य – गन्दा व आपत्तिजनक साहित्य भी बच्चों को बिगाड़ने में सहायक होता है। अश्लील व यौन-इच्छा भड़काने वाला साहित्य अथवा अपराध की कथाओं वाले साहित्य का बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और वे बाल-अपराधी बन जाते हैं।

5. युद्ध – युद्ध के समय सामाजिक विघटन की परिस्थिति पैदा हो जाती है, जिसके कारण बाल-अपराधों की संख्या भी बढ़ जाती है। युद्धकाल में परिवर्तित परिस्थितियों व कठोर नियन्त्रण से अनेक बच्चे अपनी रुचियों व आदतों का समायोजन नहीं कर पाते जिसके कारण वे बाल-अपराधी बन जाते हैं।

6. नगरीकरण एवं औद्योगीकरण – नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण भी समाज में अनेक समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। दोनों प्रक्रियाएँ अपराध और बाल-अपराध को प्रोत्साहन देती हैं। नगरों और औद्योगिक केन्द्रों में इसलिए बाल-अपराधियों की संख्या अधिक पायी जाती है।
बाल-अपराध के उपर्युक्त कारण अधिकतर नगरों में पाये जाते हैं। ग्रामीण वातावरण में ये कारण अधिक क्रियाशील नहीं होते हैं। इसलिए बाल-अपराधों की मात्रा ग्रामों की अपेक्षा नगरों में अधिक होती है। यह कथन भारत के लिए ही नहीं, अपितु अनेक अन्य देशों के लिए भी सही है।

प्रश्न 2
बाल-अपराध रोकने के आवश्यक उपाय बताइए। [2009]
या
अपराध व बाल-अपराध में अन्तर बताइए। [2007, 08, 09, 10, 12, 13, 14, 15, 16]
या
बाल-अपराधियों को सुधारने के लिए किये गये उपायों को आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। [2011]
या
भारत में बाल-अपराध निरोध के सन्दर्भ में बने सामाजिक विधानों का उल्लेख कीजिए।
या
भारत में बाल-अपराध के उपचार में हो रहे गैर-सरकारी प्रयत्नों पर प्रकाश डालिए।
या
भारत में बाल-अपराध को रोकने हेतु किये गये उपायों को स्पष्ट करें। [2011, 12]
उत्तर:
बालक राष्ट्र का भविष्य होते हैं। राष्ट्र की प्रगति और विकास की दिशा बच्चों पर ही निर्भर करती है। बच्चों को अपराध करने से रोककर राष्ट्र का भविष्य सुधारा जा सकता है। बालअपराध रूपी विषवृक्ष को तभी समूल नष्ट कर देना चाहिए जब यह अंकुरित हो। बाल-अपराध हमारी गम्भीर सामाजिक समस्या है, जिसका निश्चित समाधान खोजना नितान्त आवश्यक है। बालअपराध का उपचार करने के लिए ऐसे उपाये काम में लाने चाहिए जिससे बाल-अपराध पर प्रभावी रोक लग सके तथा बाल-अपराधी भविष्य में समाज की मुख्य धारा से जुड़कर उसके उपयोगी अंग बन सकें। बाल-अपराध का उपचार निम्नलिखित रूप में किया जाना चाहिए

(क) बाल-अपराध उपचार के सरकारी प्रयास
सरकार ने बाल-अपराध की रोकथाम के लिए अनेक पग उठाये हैं। इनमें से कुछ प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं

1. बाल अधिनियम, 1960 – भारतीय संसद द्वारा पारित इस अधिनियम में उपेक्षित बालकों व बाल-अपराधियों की सुरक्षा, कल्याण, प्रशिक्षण, शिक्षा के पुनर्वास इत्यादि उपलब्ध कराने की सुविधाओं पर बल दिया गया है। इसमें बालकों की आयु लड़के के लिए 16 वर्ष तथा लड़की के लिए 18 वर्ष निर्धारित की गयी है। बाल-न्यायालयों की स्थापना इसी अधिनियम के अन्तर्गत की गयी है। इस अधिनियम के अन्तर्गत निम्नलिखित सुधार संस्थाओं की स्थापना की गयी है

  1. आवास अवलोकन गृह – पूछताछ के दौरान बच्चों को इन केन्द्रों में रखा जाता है और इनमें शिक्षा इत्यादि की प्रमुख सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं।
  2. बालगृह – बालगृहों में उपेक्षित बच्चों को आवास, शिक्षा, चरित्र-निर्माण एवं नैतिक खतरे से सुरक्षा इत्यादि की प्रमुख सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं।
  3. विशिष्ट स्कूल – इनमें उद्दण्ड बालकों को सुधारने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण दिया जाता है।
  4.  उत्तम-देखभाल संगठन – इन संगठनों का उद्देश्य बालगृहों या विशिष्ट स्कूलों से बाहर आने वाले बच्चों को सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने में सहायता प्रदान करना है।

2. किशोर न्यायालय – ये न्यायालय साधारण अदालतों से अलग हैं तथा इनकी स्थापना भी बाल अधिनियम, 1960 के अन्तर्गत ही की गयी है। इनमें न्यायाधीश प्रायः महिला होती हैं, जो बाल मनोविज्ञान एवं अन्य सामाजिक विज्ञानों के ज्ञान से परिचित होती हैं। पुलिस सादे कपड़ों में आती है। इन न्यायालयों का उद्देश्य अपराध के कारणों का पता लगाना तथा बालअपराधियों का सुधार करना है। अपराधी पाये जाने पर बच्चों को सुधारगृहों में भेज दिया जाता है।

3. प्रोबेशन – यह किशोर न्यायालय का ही महत्त्वपूर्ण अंग है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत अपराधी बालक को प्रोबेशन अधिकारी के संरक्षण में रखा जाता है। प्रोबेशन के समय तक प्रोबेशन अधिकारी उसकी देख-रेख करता है तथा उसके बारे में आवश्यक जानकारी प्राप्त करता है। यदि प्रोबेशन काल के मध्य उसका ठीक आचरण रहता है, तो न्यायालय की सलाह पर बच्चे को छोड़ दिया जाता है।

4. बोस्टेल स्कूल – यह बाल-अपराधियों के सुधार से सम्बन्धित प्रमुख संस्था है। इंग्लैण्ड में बोर्टल नामक स्थान पर ब्राइस नामक विद्वान् ने 1902 ई० में एक गैर-सरकारी जेलखाना खोला। भारत में सर्वप्रथम तमिलनाडु में 1962 ई० में बोर्टल स्कूल की स्थापना की गयी और बाद में बंगाल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश व कर्नाटक में भी एक-एक बोटंल स्कूल खोला गया। उत्तर प्रदेश में बरेली में बाल-बन्दीगृह की स्थापना की गयी। 15 से 21 वर्ष के किशोर अपराधियों को इसमें व्यावसायिक व औद्योगिक प्रशिक्षण दिया जाता है तथा बाल-अपराधियों को सुधारने का प्रयास किया जाता है।

5. रिफॉर्मेट्री स्कूल – सन् 1987 में बड़े-बड़े राज्यों तथा केन्द्र-शासित प्रदेशों में इन सुधार स्कूलों की स्थापना की गयी, जिनमें बाल-अपराधियों की उचित देख-रेख की जाती है तथा औद्योगिक प्रशिक्षण देकर उन्हें सुधारने का प्रयास किया जाता है।

6. बाल-बन्दीगृह – इनकी स्थापना सुधारगृहों के सिद्धान्तों के अनुरूप की गयी है। इन्हें किशोर सदन भी कहा जाता है। सर्वप्रथम बाल-बन्दीगृहों की स्थापना बिहार, ओडिशा और उत्तर प्रदेश में की गयी। उत्तर प्रदेश में 19 वर्ष से कम आयु के बाल-अपराधियों को इन बन्दीगृहों में रखा जाता है। सन्तोषजनक व्यवहार न करने पर उन्हें केन्द्रीय कारागार में भी भेजा जा सकता है।

7. बाल सलाह केन्द्र तथा बाल-क्लब – बाल सलाह केन्द्रों में मनोवैज्ञानिक रूप से बाल अपराध के कारण जानने का प्रयास किया जाता है। अनेक राज्यों में बाल-क्लबों की भी स्थापना की गयी है।

8. भारतीय किशोर न्याय अधिनियम, 1986 – सन् 1986 में पारित इस अधिनियम में बाल-न्यायालयों तथा किशोर कल्याण बोर्ड की स्थापना पर बल दिया गया है। 2 अक्टूबर, 1987 से यह अधिनियम पूरे देश में लागू है। उत्तर प्रदेश में इस अधिनियम के अन्तर्गत प्रदेश सरकार ने 27 विशेष बाल-न्यायालयों को तोड़कर सभी मण्डल मुख्यालयों पर बालन्यायालयों का गठन किया है। साथ ही 52 जिलों में किशोर कल्याण बोर्डों की स्थापना की | गयी है।

(ख) बाल-अपराध उपचार के गैर-सरकारी सुझाव
गैर-सरकारी क्षेत्र में बाल-अपराध उपचार के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं

1. उचित पारिवारिक वातावरण – परिवार को टूटने से बचाने के लिए उपाय किये जाने चाहिए, जिससे बच्चों को परिवार में सही अनुशासन, स्नेह व सुरक्षा मिल सके। इसके लिए परिवार कल्याण केन्द्रों की स्थापना की जानी चाहिए। माता-पिता को बच्चों की इच्छाओं को ध्यान रखना चाहिए और उनकी रुचि सत्संग की ओर लगानी चाहिए।

2. स्कूल – परिवार के बाद बच्चों के आचरण पर स्कूल का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। बच्चों को इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए कि उनमें अनुशासन तथा नैतिक विकास की वृद्धि हो। उनके चतुर्मुखी विकास को सामने रखकर पाठ्यक्रमों में सुधार किया जाना चाहिए। विद्यालय का वातावरण ठीक होना चाहिए और शिक्षकों का शिष्यों के प्रति सन्तुलित व अच्छा व्यवहार होना चाहिए।

3. स्वस्थ मनोरंजन – बाल-अपराध को रोकने के लिए मनोरंजन के साधन बच्चों के लिए उपलब्ध करना आवश्यक है। गन्दी बस्तियों में इनका विशेष अभाव होता है; अतः इनमें सुधार करके सामुदायिक केन्द्र स्थापित किये जाने चाहिए। यदि खाली समय का सदुपयोग किया जाए तो बाल-अपराध की रोकथाम सम्भव है।

4. बाल पुलिस विभाग – सामान्य पुलिस विभाग बाल-अपराध में सहायक नहीं है। अत: किशोर न्यायालयों की सहायता के लिए बाल पुलिस विभाग का गठन किया जाना चाहिए, जो कि उन्हें सुधारने में सहायता दे सके।

5. अश्लील साहित्य पर रोक – अश्लील साहित्य पर कठोरता से प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए, जिससे इसका प्रकाशन व वितरण न हो सके। अपराधी घटनाओं का विवरण देने में भी सतर्कता रखी जानी चाहिए। अपराधियों व डाकुओं इत्यादि को हीरो के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए। उनके कारनामे पढ़कर छात्र एवं बालक अपराध में लिप्त हो जाते हैं।

बाल-अपराध तथा अपराध में अन्तर
बाल-अपराध और अपराध के अन्तरों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

क्र०सं० बाल-अपराध अपराध
1. बाल-अपराधं कानून द्वारा निर्धारित 18 वर्ष से कम आयु में किया जाने वाला अपराध हैं। अपराध वयस्क व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला अपराध है। बाल-अपराधी की अपराध है। निर्धारित आयु से अधिक आयु वाले व्यक्ति द्वारा किया गया कानून का उल्लंघन अपराध कहा जाता है।
2. बाल-अपराध में कुछ ऐसे व्यवहार भी सम्मिलित हैं जो वास्तव में अपराध की श्रेणी में नहीं आते; जैसे-स्कूल से भागना, घर से बिना बताये गायब हो जाना, निरुद्देश्य रात्रि को घूमते रहना इत्यादि। अपराध में केवल उन्हीं कार्यों को सम्मिलित किया जाता है, जो कि निश्चित रूप से गैर-कानूनी माने जाते हैं।
3. बाल-अपराध सामान्यतः कम गम्भीर होते है। अपराध कम गम्भीर से लेकर अत्यधिक गम्भीर हो सकते हैं।
4. बाल-अपराधी अधिकांशतः संवेगता के कारण अपराध करते हैं। अधिकतर अपराधी जान-बूझकर अपराध कारण अपराध करते हैं।
 5. बाल-अपराधी का अपराध करते समय अनिवार्य रूप से आर्थिक लक्ष्य नहीं होता है। अपराधी मुख्यत: आर्थिक लाभ के लिए या अन्य किसी लाभ के लिए अपराध करता है।
6. बाल-अपराधी बनने में मनोवैज्ञानिक व पारिवारिक कारणों को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अपराधी अधिकतर अपनी इच्छा से अपराधी बनते हैं।
7. बाल-अपराध के लिए विशिष्ट न्यायालयों की स्थापना होती है। न्यायालयों अपराधी के मामले सामान्य न्यायालय ही सुनते हैं।
8. बाल-अपराधी को कठोर दण्ड से बचाने का प्रयास किया जाता है। अपराधी को दण्ड दिलवाने में किसी प्रकार की ढिलाई नहीं बरती जाती है।
9. बाल-अपराधी संस्कृति का महत्त्वपूर्ण तत्त्व बाल-अपराध का अनुपयोगी होना है, क्योंकि बाल-अपराधी किसी आवश्यकता के लिए अपराध नहीं करता, वरन् अधिकांशतः बिना किसी उपयोगी दृष्टिकोण के ही अपराध करता है। अपराधी संस्कृति में इस प्रकार के तत्त्वों का अभाव होता है।
10. बाल-अपराध में सामान्यतः योजना व संगठित संगठन का अभाव पाया जाता है। अधिकतर अपराध योजनाबद्ध व होते हैं। अपराध गिरोह बनाकर किये जाते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
“बाल-अपराध मुख्य रूप से एक नगरीय समस्या है। इसकी विवेचना कीजिए।
उत्तर:
बाल-अपराध : एक नगरीय समस्या–बाल-अपराध सम्बन्धी उपलब्ध आँकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि गाँवों की तुलना में बाल-अपराध नगरों में अधिक होते हैं। नगरीय क्षेत्रों में भी बड़े-बड़े शहरों; जैसे-दिल्ली, चेन्नई, मुम्बई, कोलकाता, चण्डीगढ़, कानपुर आदि; में बाल-अपराध अधिक होते हैं।

नगरों में बाल-अपराध होने के अनेक कारण हैं; जैसे-वहाँ जब माता-पिता दोनों ही काम पर चले जाते हैं तो घर में बच्चों पर नियन्त्रण रखने वाला कोई नहीं होता, अतः वे आवारागर्दी करने लगते हैं। नगरों में वेश्यावृत्ति में सहायता पहुँचाने, भीख माँगने आदि का कार्य भी बच्चों से कराया जाता है। यह कार्य संगठित लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर कराया जाता है, जो नगरीय क्षेत्रों में ही केन्द्रित है। नगरों की भीड़-भाड़युक्त वातावरण, गन्दी बस्तियाँ, अश्लील एवं अपराधी चलचित्र, अति सम्पन्नता के प्रति आक्रोश, बेकारी, नितान्त गरीबी आदि बाल-अपराध को प्रोत्साहित करते हैं।

बाल-अपराधी स्वयं भी यौन सम्बन्धी अपराधों में लिप्त पाये गये हैं, जिनमें लड़कियों की संख्या अधिक है। 86.2 प्रतिशत लड़कियों ने यौन-अपराध किये हैं। यौन-अपराध के लिए नगर ही सुगम तथा सुलभ अवसर प्रदान करते हैं, जहाँ जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है तथा सम्पन्नता भी अधिक होती है।

बाल-अपराधों में धार्मिक प्रकृति के अपराध; जैसे-चोरी, सेंधमारी, जेब कतरना आदि होते हैं। इन अपराधों के लिए ग्रामीण इलाकों में अवसर प्राप्त नहीं होते हैं जब कि नगरों की भीड़-भाड़, व्यस्त जीवन तथा पड़ोसियों की एक-दूसरे के प्रति उदासीनता आदि इन अपराधों के लिए खुले अवसर प्रदान करते हैं।

बाल-अपराधी स्वयं अपराध कम करते हैं। वे किसी संगठित अपराधी गिरोह के साथ मिलकर ही अपराध करते हैं। ये गिरोह उन्हें प्रशिक्षण देते हैं एवं संरक्षण प्रदान करते हैं। नगरीय क्षेत्र इन गतिविधियों के लिए उपयुक्त स्थान है।
निष्कर्षतया कहा जा सकता है कि बाल-अपराध मुख्य रूप से एक नगरीय समस्या है।

प्रश्न 2
भारत में किशोर अपराध की समस्या पर एक लेख लिखिए। [2009, 12]
उत्तर:
भारत में किशोर अपराध (Juvenile Delinquency in India) – भारत में बालअपराध की समस्या गम्भीर है। बढ़ती हुई जनसंख्या, नगरीकरण तथा औद्योगीकरण के कारण बाल-अपराध निरन्तर बढ़ रहे हैं। वर्ष 1988 के सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 24,827 स्थानीय व 25,468 विशेष नियमों के उल्लंघन के दोषी बाल-अपराधी थे। भारत में बाल-अपराध कुल अपराधों को 2% है। भारत में बाल-अपराध की समस्या गाँवों की अपेक्षा नगरों में अधिक है। युवतियों की अपेक्षा युवक बाल-अपराधी अधिक हैं। निम्न जातियों के बच्चों में बाल-अपराध की दर अधिक पायी जाती है।

भारत के महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, आन्ध्र प्रदेश आदि राज्यों में बाल-अपराध की समस्या विकट बनी हुई है। इन राज्यों में भारत के कुल 68% बाल-अपराधी पाये जाते हैं। भारत में बाल-अपराधी व्यक्तिगत स्तर पर कानूनों का उल्लंघन कम करते हैं, इस कार्य में उन्हें पूरे समूह अथवा परिवार का सहयोग मिलता है। भारत में बाल-अपराधी सम्पत्ति के विरुद्ध अपराधों में संलिप्त पाये गये हैं। भारत में 50% बाल-अपराधी अनुसूचित जातियों या जनजातियों के होते हैं, क्योंकि इन जातियों में 1951 ई० में बाल अधिनियम पारित किया गया, जिसे 1956 ई० में लागू किया गया। बाद में देश के अन्य राज्यों में भी इसे लागू किया गया। भारत में बाल-अपराध की रोकथाम के लिए किशोर जेल, सुधारवादी सेवाएँ, अवलोकन-गृह, परिवीक्षा-गृह तथा एप्रूव्ड स्कूल आदि व्यवस्थाएँ लागू की गयी हैं।।

प्रश्न 3
‘पक्षपात’ और ‘दोषपूर्ण अनुशासन बाल-अपराध के दो मुख्य पारिवारिक कारण हैं। समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
पक्षपात-परिवार में पक्षपातपूर्ण व्यवहार होने पर भी बच्चों में निराशा और घृणा की भावना जन्म लेती है। यदि परिवार में किसी बच्चे को विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं और अन्य बच्चों के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है तो ईर्ष्या एवं द्वेष का वातावरण बनता है। अधिक मार और डॉट खाने वाला बच्चा परिवार के वयोवृद्ध लोगों का सम्मान करना बन्द कर देता है और उन लोगों की इच्छा के विपरीत कार्य करने लगता है। इस प्रकार भेदभावपूर्ण व्यवहार बच्चे में अपराधी मनोवृत्ति को जन्म देता है।

दोषपूर्ण अनुशासन-परिवार में बच्चों पर अधिक नियन्त्रण होने पर वे कठोरता से बचने के लिए भागना चाहते हैं और ज्यों ही उन्हें अवसर मिलता है वे उन कार्यों को करने लगते हैं, जिनके लिए उन्हें मना किया जाता है। कठोर नियन्त्रण से व्यक्तित्व का स्वाभाविक विकास भी रुक जाता है। वह अपनी दबी इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी अपराध करता है। इसके विपरीत, बच्चों को अत्यधिक ढील देने एवं अंकुश न रखने पर भी उनमें स्वच्छन्दता की प्रवृत्ति पैदा होती है।

प्रश्न 4
बाल-अपराध निर्धारण करने में आयु की महत्ता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
बाल-अपराध का निर्धारण करने में आयु भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। भिन्न-भिन्न देशों में बाल-अपराधियों के लिए अलग-अलग आयु निर्धारित की गयी है। अधिकांश देशों में तथा भारत में भी भारतीय दण्ड संहिता’ (Indian Penal Code) के अनुसार 7 वर्ष से कम की आयु के बालक द्वारा किया गया कानून व समाज-विरोधी कार्य अपराध नहीं माना जाता है, क्योंकि इस समय तक बालक में अच्छे-बुरे के भेद की समझ नहीं होती है। भारत में 1960 व 1986 ई० में बाल-अधिनियम बने। इन अधिनियमों में 16 वर्ष से कम की आयु के लड़के एवं 18 वर्ष से कम की आयु की लड़की को बालक माना गया है। इस आधार पर भारत में 7 वर्ष से अधिक एवं 16 वर्ष से कम उम्र के लड़के एवं 7 वर्ष से अधिक एवं 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की द्वारा किये गये कानून-विरोधी कार्य बाल-अपराध की श्रेणी में आते हैं। इसके बाद 21 वर्ष की आयु तक के अपराधियों को ‘किशोर अपराधी’ एवं इससे अधिक आयु के अपराधियों को अपराधी’ कहा जाता है।

प्रश्न 5
बाल-न्यायालय पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
बाल-न्यायालयों में बाल-अपराधियों की सुनवाई अनौपचारिक विधि से की जाती है। इनमें उनके प्रति बदले की भावना नहीं पायी जाती है। इनके द्वारा बच्चे को संरक्षण एवं पुनर्वास की सुविधा प्रदान की जाती है। बाल-न्यायालय में प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट, एक या दो ऑनरेरी लेडी मजिस्ट्रेट, अपराधी बालक, उसके माता-पिता एवं संरक्षक, प्रोबेशन अधिकारी, साधारण पोशाक में पुलिस, कोर्ट का क्लर्क और कभी-कभी वकील उपस्थित रहते हैं। इनकी बैठक रिमाण्ड होम में साधारण तरीके से टेबल-कुर्सी लगाकर की जाती है, जिससे बच्चे को यह महसूस न हो कि वह अपराधी है।

सुनवाई करने वालों और बच्चों के बीच अनौपचारिक बातचीत होती है। बाल-न्यायालय का सारा वातावरण इस प्रकार का होता है कि बच्चे के मस्तिष्क से कोर्ट का आतंक और भय दूर हो जाए। इनन्यायालयों की कार्यवाही को अखबार में नहीं छापा जा सकता तथा साथ ही गोपनीयता भी बरती जाती है। सुनवाई के बाद अपराधी बालकों को चेतावनी देकर, जुर्माना करके या मातापिता से बॉण्ड भरवाकर उन्हें सौंप दिया जाता है, अथवा उन्हें परिवीक्षा पर छोड़ दिया जाता है या किसी सुधार संस्था, मान्यताप्राप्त विद्यालय, परिवीक्षा हॉस्टल आदि में रख दिया जाता है। भारत में महाराष्ट्र, गुजरात, पश्चिमी बंगाल, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान तथा दिल्ली :आदि राज्यों में बाल-न्यायालय हैं।

प्रश्न 6
बोस्टेल स्कूल पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
बोर्टल स्कूल एक ऐसी संस्था है जहाँ किशोर अपराधी को, जिसकी आयु 16 से 21 वर्ष हो, रखा जाता है। उन्हें यहाँ प्रशिक्षण एवं निर्देशन दिये जाते हैं तथा अनुशासन में रखकर उनका सुधार किया जाता है। इस संस्था में उन्हीं अपराधियों को प्रवेश दिया जाता है जिनकी सिफारिश अदालत यो जेल महानिरीक्षक करता है। यहाँ अपराधी को मुक्त वातावरण में रखा जाता है। उसमें शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं चारित्रिक क्षमताओं के साथ-साथ उत्तरदायित्व एवं आत्म-नियन्त्रण की भावना का विकास किया जाता है। उसके लिए जिमनास्टिक, उद्योग-धन्धों के प्रशिक्षण एवं शिक्षा का प्रबन्ध किया जाता है। उसे पत्र लिखने, रिश्तेदारों से मिलने, मनपसन्द प्रशिक्षण पाने, बिना निगरानी के बाहर घूमने, वर्कशॉप व मनोरंजन कक्ष तथा भोजनशाला में काम करने, खेल-कूद प्रतियोगिता में भाग लेने आदि की भी छूट होती है।

प्रश्न 7
‘रिफॉर्मेट्री स्कूल पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
रिफॉर्मेट्री स्कूलों में 16 वर्ष से कम आयु के ऐसे बच्चों को रखा जाता है, जो पहले सजा काट चुके हैं या जिन्होंने गम्भीर अपराध नहीं किये हैं। इस प्रकार के विद्यालयों का उद्देश्य अपराधी बालक का सुधार और पुनर्वास करना है। इन स्कूलों में अपराधियों को शिक्षा एवं साथ ही विभिन्न व्यवसायों का प्रशिक्षण दिया जाता है। उनके द्वारा निर्मित वस्तुओं को बाजार में बेचकर लाभ को उनके कोष में जमा किया जाता है। इन विद्यालयों में रेडक्रॉस, स्काउटिंग, कृषि, चमड़े का काम, खिलौना, दरी, निवाड़, रस्सी बनाने, बढ़ईगीरी, सिलाई आदि का काम सिखाया जाता है। जिनका काम अच्छा होता है उन्हें वर्ष में 15 दिन तक घर जाने की छुट्टी भी दी जाती है। जबलपुर, हजारीबाग, लखनऊ, बरेली आदि में इस प्रकार के विद्यालय हैं। उत्तर प्रदेश बाल-अधिनियम, 1951 ई० के अधीन उत्तर प्रदेश में कुछ जिलों में एक-एक सुधार अधिकारी को नियुक्त किया गया है, जो बाल-अपराधियों की गोपनीय रिपोर्ट तैयार कर उन्हें सुधारने का प्रयत्न करते हैं।

प्रश्न 8
बाल-अपराध के चार कारण लिखिए। [2010, 13, 15, 16]
या
बाल-अपराध के दो कारण लिखिए। [2007, 17]
उत्तर:
बाल-अपराध के चार कारण निम्नलिखित हैं

1. पारिवारिक कारण – जब परिवार बच्चे को सामाजिक व मानसिक सुरक्षा प्रदान करने में असफल हो जाता है और बच्चा स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगता है, तो वह बाल अपराधी बन जाता है।

2. मनोवैज्ञानिक कारण – यदि बच्चे का विकास मानसिक रूप से दोषपूर्ण हुआ है तो वह स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है और हीन भावना से ग्रसित होकर बाल-अपराधी बन जाता है।

3. अत्यधिक निर्धनता – अत्यधिक निर्धनता के कारण बच्चे को समुचित शिक्षा और मनोरंजन की सुविधाएँ प्राप्त नहीं हो पातीं। सम्पन्न परिवार के बच्चों को देखकर उसमें हीनता; ग्लानि, ईर्ष्या और उद्दण्डता की भावनाएँ साथ-साथ विकसित होने लगती हैं और जब ये भावनाएँ अत्यधिक बलवती हो जाती हैं, तो वह बाल-अपराधी बन जाता है।

4. उद्देश्यहीन शिक्षा व दोषपूर्ण सीख – उद्देश्यहीन शिक्षा के कारण बच्चे अपने आरम्भिक जीवन से ही सुस्त, अनुशासनहीन और उद्दण्ड बनने लगते हैं। शिक्षकों का दुर्व्यवहार उनमें अपराधी मनोवृत्तियाँ उत्पन्न करने लगता है। बच्चे को परिवार या स्कूल में मिलने वाली : दोषपूर्ण सीख के कारण भी उसमें छोटी-छोटी चोरी करने, साथियों को धोखा देने और अकारण मार-पीट करने की आदत पड़ने लगती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
टूटे परिवार बाल-अपराध के लिए कैसे उत्तरदायी होते हैं ?
उत्तर:
परिवार दो प्रकार से टूट सकते हैं
(1) भौतिक रूप से तथा (2) मानसिक रूप से। भौतिक रूप से परिवार के टूटने का अर्थ है – परिवार के सदस्य की मृत्यु हो जाना, लम्बे समय तक अस्पताल, जेल, सेना आदि में रहने अथवा तलाक और पृथक्करण के कारण सदस्यों का परिवार के साथ न रहना। मानसिक रूप से परिवार के टूटने का अर्थ है – सदस्य एक साथ तो रहते हैं, किन्तु उनमें मनमुटाव, मानसिक संघर्ष एवं तनाव पाया जाता है। इन दोनों ही स्थितियों में बच्चों पर परिवार का नियन्त्रण शिथिल हो जाने एवं बच्चों को माता-पिता का प्यार व स्नेह न मिलने के कारण वे अपराध करने लगते हैं।

प्रश्न 2
बाल-अपराधी की ‘मानसिक अयोग्यता उसके अपराधीकरण के लिए कैसे उत्तरदायी
उत्तर:
ऐसा माना जाता है कि बाल-अपराधी मानसिक रूप से पिछड़े होते हैं। डॉ० गोडार्ड ने बताया है कि कमजोर मस्तिष्क अपराध के लिए उत्तरदायी है। हीली और बूनर ने शिकागो के अध्ययन में 63% बाल-अपराधियों को ही स्वस्थ मस्तिष्क का पाया, शेष 37% मानसिक कमजोरी एवं बीमारी आदि से ग्रसित थे। कुमारी इलियट के अध्ययन में 41.5% लड़कियाँ मानसिक रूप से पिछड़ी हुई थीं। कमजोर बुद्धि के बालक अच्छे-बुरे में भेद नहीं कर पाते और वे कुसंगति के कारण अपराध कर बैठते हैं।

प्रश्न 3
क्या ‘बुरे संगी-साथी बाल-अपराध का एक कारण हैं ?
उत्तर:
एक बच्चे को अपराधी बनाने में उसके साथियों का भी पर्याप्त हाथ होता है। एक बच्चा अपराध करने के बाद अपनी साहस भरी कहानी दूसरे बच्चों को सुनाता है तो उनके लिए भी यह प्रेरणा एवं उत्तेजना की बात होती है। अपराधी साथियों के सम्पर्क से ही एक बच्चा धूम्रपान, शराबवृत्ति, चोरी, जुआ आदि सीखता है।

प्रश्न 4
बाल-अपराध को बढ़ाने में गरीबी की क्या भूमिका है ?
उत्तर:
कई अध्ययन इस बात को प्रकट करते हैं कि गरीबी ने बच्चों को अपराधी बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। जोन्स के शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि ज्यों-ज्यों आर्थिक स्तर निम्न होगा, त्यों-त्यों बाल-अपराध की दर ऊँची होगी।” गरीबी में परिवार अपनी मूलभूत आवश्यकताएँ, चिकित्सा एवं मनोरंजन की सुविधाएँ नहीं जुटा पाता। ऐसी स्थिति में माता एवं पिता दोनों ही नौकरी करने लगते हैं। माता-पिता के घर से बाहर रहने की अवधि में बच्चे आवारागर्दी करते हैं। न्यूमेयर लिखते हैं, “जब पिता रात में काम करता है और माता दिन में अथवा दोनों रात या दिन में काम करते हैं तो बच्चे प्रायः गलियों में ही आवारागर्दी करते हुए मिलते हैं। बच्चों की आवश्यकताएँ जब परिवार में पूरी नहीं होती हैं तो वे बाहर चोरी करते हैं।

प्रश्न 5
बाल-अपराध के चार उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
एक निश्चित आयु से कम के बच्चों द्वारा किये जाने वाले कोई भी वे कार्य बालअपराध के अन्तर्गत आते हैं, जो समाज विरोधी होते हैं अथवा जिनसे समूह-कल्याण को हानि पहुँचती है। बाल-अपराध के चार उदाहरण हैं

  1. जेब काटना
  2.  किसी पर साधारण आघात करना,
  3. जुआ खेलना तथा
  4.  चोरी करना।।

प्रश्न 6
भारत में बाल-अपराध के निर्धारण से सम्बन्धित कोई दो मौलिक आधार बताइए।
उत्तर:
भारत में बाल-अपराध के निर्धारण से सम्बन्धित दो मौलिक आधार निम्नवत् हैं

  1. भारत में 7 से 16 वर्ष की आयु तक के अपराधियों को बाल-अपराधी कहा जाता है। इन अपराधियों के लिए एक पृथक् न्याय प्रक्रिया अपनायी जाती है।
  2. बाल-अपराध का तात्पर्य केवल साधारण अपराधी से होता है। यदि 7 वर्ष से 16 वर्ष की आयु तक का कोई बच्चा हत्या, राजद्रोह अथवा अत्यधिक जघन्य अपराध का दोषी हो, तो इस अपराध को बाल-अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाता।

प्रश्न 7
रिमाण्ड होम पर लघु टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अपराध करने के पश्चात् जब पुलिस बच्चे को पकड़ लेती है, तो सर्वप्रथम उसे रिमाण्ड होम में रखा जाता है। जेल में रखने से उसका सम्पर्क युवा-अपराधियों से होने पर उसके गम्भीर अपराधी बन जाने की सम्भावना रहती है। जब तक बच्चे की अदालती कार्यवाही चलती है, उसे रिमाण्ड होम में ही रखा जाता है। अनाथ और निराश्रित बच्चे एवं बन्दीगृहों से पृथक् किये गये। अपराधियों को भी ऐसे गृहों में रखा जाता है। यहाँ बच्चों को मनोरंजन, शिक्षा एवं प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। इस समय देश में 160 रिमाण्ड होम कार्य कर रहे हैं।

प्रश्न 8
परिवीक्षा हॉस्टल पर लघु टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
न्यायालय जब किसी बाल-अपराधी को परिवीक्षा पर छोड़ता है और यदि उस बालअपराधी के माता-पिता या संरक्षक नहीं होते हैं तो उसे परिवीक्षा हॉस्टल में रखा जाता है। ऐसे हॉस्टल में रहने वाले व्यक्ति को दिन में नौकरी करने एवं घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता होती है, किन्तु रात्रि को ठीक समय पर वहाँ वापस पहुँचना अनिवार्य होता है। हॉस्टल वार्डन इन लोगों की गतिविधियों की देख-रेख करता है।

प्रश्न 9
बाल-अपराध रोकने के लिए उचित व स्वस्थ पारिवारिक वातावरण की भूमिका बताइए।
उत्तर:
परिवार ही शिशु की प्रथम पाठशाला और लालन-पालन करने वाली नर्सरी होता है और वही उसके समाजीकरण का केन्द्र भी; अत: यह आवश्यक है कि परिवार व्यवस्थित एवं संगठित हो, उनका वातावरण स्वस्थ हो, माता-पिता एवं परिवारजनों को बच्चे के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार हो, ये बच्चे पर उचित नियन्त्रण रखें और उनका समुचित निर्देशन करें। ऐसी स्थिति में ही बच्चे का चरित्र-निर्माण होगा और वह अपराधी कार्यों से दूर रहेगा।

जिवित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
बाल-अपराध के दो प्रमुख कारक कौन-कौन से हैं ? [2011, 17]
उत्तर:
बाल अपराध के दो प्रमुख कारक परिवार एवं समुदाय हैं।

प्रश्न 2
बाल-अपराध की दो विशेषताएँ लिखिए। [2013]
उत्तर:
बाल अपराध दो विशेषताएँ निम्न हैं|

  1. राज्य द्वारा निश्चित आयु से कम आयु का व्यक्ति।
  2.  अनैतिक एवं अशोभनीय व्यवहार।

प्रश्न 3
भारत में किस आयु-सीमा में बालकों को बाल-अपराधियों की श्रेणी में रखा जाता है?
उत्तर:
भारत में 7 से अधिक एवं 16 वर्ष से कम आयु के लड़कों तथा 7 से अधिक एवं 18 वर्ष से कम आयु की लड़कियों को बाल-अपराधियों की श्रेणी में रखा जाता है।

प्रश्न 4
बाल-न्यायालयों की कार्यवाही कैसे गोपनीय रखी जाती है ?
उत्तर:
बाल-न्यायालयों की कार्यवाही को अखबार में नहीं छापा जा सकता तथा साथ ही गोपनीयता बरती जाती है।

प्रश्न 5
16 वर्ष से अधिक, परन्तु 21 वर्ष से कम आयु के अपराधी को क्या कहते हैं ?
या
किशोर अपराधी की अधिकतम आयु क्या है ?
उत्तर:
16 वर्ष से अधिक, परन्तु 21 वर्ष से कम आयु के अपराधी को किशोर अपराधी कहते है।

प्रश्न 6
अपराध करने के पश्चात् पुलिस बच्चे को पकड़कर सर्वप्रथम कहाँ रखती है ?
उत्तर:
अपराध करने के पश्चात् पुलिस बच्चे को पकड़कर सर्वप्रथम रिमाण्ड होम में रखती है।

प्रश्न 7
बोस्टेल स्कूल में किस आयु-सीमा के किशोर अपराधी को रखा जाता है ?
उत्तर:
बोल स्कूल में 16 से 21 वर्ष की आयु सीमा के किशोर अपराधियों को रखा जाता है।

प्रश्न 8
रिफॉर्मेट्री स्कूल में किन बच्चों को रखा जाता है ?
उत्तर:
इन स्कूलों में 16 वर्ष से कम आयु के ऐसे बच्चों को रखा जाता है, जो पहले सजा काट चुके हैं या जिन्होंने गम्भीर अपराध नहीं किये हैं।

प्रश्न 9
पोषण-गृह तथा सहायक-गृह में किन बच्चों को रखा जाता है ?
उत्तर:
पोषण-गृह तथा सहायक-गृह में 10 वर्ष से कम आयु के बच्चों को रखा जाता है, जिनके माता-पिता में विवाह-विच्छेद हो गया हो या जिनकी मृत्यु हो गयी हो।

प्रश्न 10
नगरों की अपेक्षा बाल-अपराध की भीषण समस्या ग्रामीण क्षेत्रों में क्यों कम है ?
उत्तर:
भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को अपनी परम्पराओं से घनिष्ठ लगाव है। इसी कारण वहाँ बाल-अपराध की समस्या भीषण नहीं है, किन्तु नगरों में संयुक्त परिवार में विघटन तथा औद्योगीकरण के कारण बाल-अपराध ने भीषण रूप धारण कर लिया है।

प्रश्न 11
बाल-अपराध रोकने के लिए मनोवैज्ञानिक क्लीनिक खोलने का सुझाव किसने दिया?
उत्तर:
बाल-अपराध रोकने के लिए मनोवैज्ञानिक क्लीनिक खोलने का सुझाव सिरिल बर्ट ने दिया।

प्रश्न 12
उत्तम-संरक्षण संस्था में किन बच्चों को रखा जाता है ?
उत्तर:
जब बच्चा किसी सुधार संस्था में छः मास तक रहता है और उस अवधि में उसका व्यवहार अच्छा होता है तो ऐसे बच्चों को जेल निरीक्षक उत्तम-संरक्षण संस्था में भेज सकता है।

प्रश्न 13
बाल-अपराधी को दण्ड देने की बजाय सुधारालय क्यों भेजा जाता है ?
उत्तर:
बाल-अपराधी का सुधार सरल एवं सम्भव है, क्योंकि बच्चे के अपरिपक्व मस्तिष्क को किसी भी दिशा में मोड़ना आसान है, जब कि अपराधी में सुधार की सम्भावना कम होती है।

प्रश्न 14
रिफॉर्मेट्री स्कूल अधिनियम कब पारित किया गया ? [2007]
उत्तर:
रिफॉर्मेट्री स्कूल अधिनियम 1897 ई० में पारित किया गया।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
निम्नलिखित में से आप किसे बाल-अपराध कहेंगे ?
(क) घर में भाई-बहन को मारना
(ख) माता-पिता की आज्ञा न मानना
(ग) हॉस्टल में साथियों का सामान चुराना
(घ) अपराधियों की संगत में न रहना

प्रश्न 2
बाल-अपराध के लिए कौन-सी परिस्थिति मुख्य रूप से उत्तरदायी है ?
(क) पारिवारिक
(ख) राजनीतिक
(ग) आर्थिक
(घ) व्यक्तिगत

प्रश्न 3
एक पाँच वर्षीय बालक ने अपने चचेरे भाई के पेट में चाकू घोंप दिया है। बालक की यह क्रिया कहलाएगी।
(क) अपराध
(ख) बाल-अपराध
(ग) श्वेतवसन अपराध
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 4
किसी बालक के विद्यालय से भागने की क्रिया को कहा जाता है [2011]
(क) बाल-अपराध
(ख) अनुपस्थिति
(ग) भगेड़पन
(घ) आवारागर्दी

प्रश्न 5
इस (अपने) राज्य में पुरुष बाल-अपराधी की अधिकतम मानक आयु है।
(क) 11 वर्ष
(ख) 16 वर्ष
(ग) 18 वर्ष
(घ) 21 वर्ष

प्रश्न 6
बाल-अपराध से सम्बन्धित नहीं है। [2007, 08, 09]
(क) बोर्टल स्कूल
(ख) सुधार-गृह
(ग) कारागार
(घ) प्रमाणित स्कूल

प्रश्न 7
बाल-अपराधियों के लिए कौन-सा उपयुक्त है ?
(क) किशोर न्यायालय
(ख) प्राणदण्ड
(ग) प्रोबेशन व्यवस्था
(घ) प्राचीरविहीन कारागार

प्रश्न 8
निम्नलिखित में से कौन-सा उपचार बाल-अपराधियों के लिए है ?
(क) तरुण शक्ति सेना
(ख) सुधार विद्यालय
(ग) हरिजन सेवा संघ
(घ) प्राचीरविहीन जेल

प्रश्न 9
निम्नलिखित में से कौन-सा बाल-अपराधियों के लिए नहीं है ?
(क) किशोर सदन, बरेली
(ख) सेवासदन, नासिक
(ग) प्राचीरविहीन जेल
(घ) सुधार विद्यालय

प्रश्न 10
बच्चे अथवा किशोरों के द्वारा किये अपराध के लिए न्यायिक कार्यवाही किस न्यायालय द्वारा की जाती है ?
(क) जिला न्यायालय द्वारा
(ख) किशोर सदन द्वारा
(ग) सुधार-गृह द्वारा
(घ) किशोर न्यायालय द्वारा

प्रश्न 11
बाल-अपराधियों को प्रशिक्षित करके सुधारने का कार्य कहाँ होता है ?
(क) पोषण-गृह में
(ख) सुधार-गृह में
(ग) किशोर सदन में
(घ) रिमाण्ड होम में

प्रश्न 12
भारत में प्रथम बाल न्यायालय की स्थापना हुई [2016]
(क) 1952 में
(ख) 1922 में
(ग) 1953 में
(घ) 1931 में

प्रश्न 13
बाल-अपराध सुधार हेतु कौन-सी संस्था उपयुक्त है? [2016]
(क) आदर्श बन्दी गृह
(ख) प्रतिप्रेषण गृह
(ग) प्राचीन विहीन कारागार
(घ) उद्धार गृह

उत्तर:
1. (ग) हॉस्टल में साथियों का सामान चुराना, 2. (क) पारिवारिक, 3. (घ) इनमें से कोई नहीं, 4. (क) बाल-अपराध, 5. (ख) 16 वर्ष, 6. (ग) कारागार, 7. (क) किशोर न्यायालय, 8. (ख) सुधार विद्यालय, 9. (ग) प्राचीरविहीन जेल, 10. (घ) किशोर न्यायालय द्वारा, 11. (ग) किशोर सदन में, 12. (ख) 1922 में, 13. (घ) उद्धार गृह

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi छन्द

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 3
Chapter Name छन्द
Number of Questions 12
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi छन्द

छन्द का अर्थ है-‘बन्धन’। ‘बन्धनमुक्त’ रचना को गद्य कहते हैं और बन्धनयुक्त को पद्य। छन्द प्रयोग के कारण ही रचना पद्य कहलाती है और इसी कारण उसमें अद्भुत संगीतात्मकता उत्पन्न हो जाती है। दूसरे शब्दों में, मात्रा, वर्ण, यति (विराम), गति (लय), तुक आदि के नियमों से बँधी पंक्तियों को छन्द कहते हैं।
छन्द के छः अंग हैं-

  1. वर्ण,
  2. मात्रा,
  3. पाद या चरण,
  4. यति,
  5. गति तथा
  6. तुक

(1) वर्ण-वर्ण दो प्रकार के होते हैं—(क) लघु और (ख) गुरु। ह्रस्व वर्ण | अ, इ, उ, ऋ, चन्द्रबिन्दु UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi छन्द img 11] को लघु और दीर्घ वर्ण ( आ, ई, ऊ, अनुस्वार (.), विसर्ग (:)] को गुरु कहते हैं। इनके अतिरिक्त संयुक्त वर्ण से पूर्व का और हलन्त वर्ण से पूर्व का वर्ण गुरु माना जाता है। हलन्त वर्ण की गणना नहीं की जाती। कभी-कभी लय में पढ़ने पर गुरु वर्ण भी लघु ही प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति में उसे लघु ही माना जाता है। कभी-कभी पाद की पूर्ति के लिए अन्त के वर्ण को गुरु मान लिया जाता है। लघु वर्ण का चिह्न खड़ी रेखा I’ और दीर्घ वर्ण का चिह्न अवग्रह ‘δ’ होता है।

(2) मात्रा-
-मात्राएँ दो हैं-ह्रस्व और दीर्घ। किसी वर्ण के उच्चारण में लगने वाले समय के आधार पर मात्रा का निर्धारण होता है। ह्रस्व वर्ण (अ, इ, उ आदि) के उच्चारण में लगने वाले समय को एक मात्राकाल तथा दीर्घ वर्ण आदि के उच्चारण में लगने वाले समय को दो मात्राकाल कहते हैं। मात्रिक छन्दों में ह्रस्व वर्ण की एक और दीर्घ वर्ण की दो मात्राएँ गिनकर मात्राओं की गणना की जाती है।

(3) पाद या चरण–प्रत्येक छन्द में कम-से-कम चार भाग होते हैं, जिन्हें चरण या पाद कहते हैं। कुछ ऐसे छन्द भी होते हैं, जिनमें चरण तो चार ही होते हैं, पर लिखे वे दो ही पंक्तियों में जाते हैं; जैसे—दोहा, सोरठा, बरवै आदि। कुछ छन्दों में छ: चरण भी होते हैं; जैसे-कुण्डलिया और छप्पय।

(4) यति ( विराम)-कभी-कभी छन्द का पाठ करते समय कहीं-कहीं क्षणभर को रुकना पड़ता है, उसे यति कहते हैं। उसके चिह्न ‘,’ ‘I’ ‘II’, ‘?’ और कहीं-कहीं
विस्मयादिबोधक चिह्न !’ होते हैं।

(5) गति ( लय)-पढ़ते समय कविता के कर्णमधुर प्रवाह को गति कहते हैं।

(6) तुक-कविता के चरणों के अन्त में आने वाले समान वर्गों को तुक कहते हैं, यही अन्त्यानुप्रास होता है।
गण-लघु-गुरु क्रम से तीन वर्षों के समुदाय को गण कहते हैं। गण आठ हैं-यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण, संगण। ‘यमाताराजभानसलगा’ इन गणों को याद करने का सूत्र है। इनका स्पष्टीकरण अग्रलिखित है
UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi छन्द img 1
छन्दों के प्रकार-छन्द दो प्रकार के होते हैं—(1) मात्रिक तथा (2) वर्णिक। जिस छन्द में मात्राओं की संख्या का विचार होता है वह मात्रिक और जिसमें वर्गों की संख्या का विचार होता है, वह वर्णिक कहलाता है। वर्णिक छन्दों में वर्गों की गिनती करते समय मात्रा-विचार (ह्रस्व-दीर्घ का विचार) नहीं होता, अपितु वर्गों की संख्या-भर गिनी जाती है, फिर चाहे वे ह्रस्व वर्ण हों या दीर्घ; जैसे-रम, राम, रामा, रमा में मात्रा के हिसाब से क्रमश: 2, 3, 4, 3 मात्राएँ हैं, पर वर्ण के हिसाब से प्रत्येक शब्द में दो ही वर्ण हैं।

मात्रिक छन्द

1. चौपाई [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 18]
लक्षण (परिभाषा)-चौपाई एक सम-मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में 16 मात्राएँ होती हैं। अन्त में जगण (I δ I) और तगण (δ δ I) के प्रयोग का निषेध है; अर्थात् चरण के अन्त में गुरु लघु (δ I) नहीं होने चाहिए। दो गुरु (δ δ), दो लघु (I I), लघु-गुरु (I δ) हो सकते हैं।
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2. दोहा [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)—यह अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके पहले और तीसरे (विषम) चरणों में 13, 13 मात्राएँ और दूसरे तथा चौथे (सम) चरणों में 11, 11 मात्राएँ होती हैं। अन्त के वर्ण गुरु और लघु होते हैं; यथा–
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3. सोरठा [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)-यह भी अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके पहले और तीसरे चरण में 11 तथा दूसरे और चौथे चरण में 13 मात्राएँ होती हैं। यह दोहे का उल्टा होता है; यथा—
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4. कुण्डलिया [2009, 11, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
लक्षण (परिभाषा)-कुण्डलिया एक विषम मात्रिक छन्द है जो छ: चरणों का होता है। दोहे और रोले को क्रम से मिलाने पर कुण्डलिया बन जाता है। इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। प्रथम चरण के प्रथम शब्द की अन्तिम चरण के अन्तिम शब्द के रूप में तथा द्वितीय चरण के अन्तिम अर्द्ध-चरण की तृतीय चरण के प्रारम्भिक अर्द्ध-चरण के रूप में आवृत्ति होती है; यथा—
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अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1 नीचे लिखे पद्यों में निहित छन्द का नाम और परिभाषा (लक्षण) लिखिए-
प्रश्न (क)
बरबस लिये उठाइ उर, लायहु कृपानिधान ।
भरत राम को मिलनि लखि, बिसरे सबहि अपान ।।
उत्तर
दोहा

प्रश्न (ख)
अबहूँ मया दिस्टि करि, नाह निठुर! घर आउ ।
मंदिर ऊजर होत है, नव कै आइ बसाउ ।।
उत्तर
दोहा

प्रश्न (ग)
नील सरोरुह स्याम, तरुन अरुन बारिज नयन ।
करउ सो मम उर धाम, सदा छीर सागर सयन ||
उत्तर
सोरठा

प्रश्न (घ)
राम नाम मनि दीप धरि, जीह देहरी द्वार ।।
तुलसी भीतर बाहिरौ, जो चाहसि उजियार ||
उत्तर
दोहा

प्रश्न (ङ)
मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू ।।
भरतहिं सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटहि दुख दाहू ।।
उत्तर
चौपाई

प्रश्न (च)
निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे ।।
होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को ।।
उत्तर
चौपाई

प्रश्न (छ)
राम सैल सोभा निरखि, भरत हुदन अति प्रेम ।।
तापस तप फलु पाइ जिमि, सुखी सिखों नेम् ।।
उत्तर
दोहा

प्रश्न (ज)
सकल मलिन मन दीन दुखारी ।।
देखीं सानु आन अनुसारी ।।
उत्तर
चौपाई

प्रश्न (झ)
समुझि मातु करजब सकुचाही। करत कुतरक कोटि मन माही ।।
रामु लखनु सिय सुनि मन जाऊँ। उठि जनि अनत जाहिं ताजि ठाऊँ ।।
उत्तर
चौपाई

प्रश्न (ञ)
मंगल भवन अमंगलहारी। उमा सहित जेहिं जपत पुरारी ।।
उत्तर
चौपाई

[ संकेत-छन्दों की परिभाषा (लक्षण) के लिए ‘छन्द’ प्रकरण के अन्तर्गत सम्बन्धित छन्द का अध्ययन करें।]

प्रश्न 2
निम्नलिखित में कौन-सा छन्द है ? मात्राओं की गणना करके अपने कथन की पुष्टि कीजिए–
(i) नील सरोरुह स्याम, तरुन अरुन वारिज नयन |
करहु सो मम उर धाम, सदा छीर सागर सयन ।।
(ii) ज न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को ।
(iii) मो सम दीन न दीन हित, तुम समान रघुवीर ।
अस बिचारि रघुबंस मनि, हरहु बिषम भवभीर ।।
(iv) यह वर माँगउ कृपा निकेता | बस हृदय श्री अनुज समेता ।।
(v) मंत्री गुरु अरु बैद जो, प्रिय बोलहिं भय आस ।।
राज, धरम, तन तीनि कर, होई बेगिही नास ||
(vi) कौ कुबत जग कुटिलता, तर्जी न दीन दयाल ।।
दुःखी होहुगे सरल हिय, बसत त्रिभंगीलाल ।।
(vii) श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि ।
बरनउ रघुवर, विमल जस, जो दायक फल चारि ।।
(viii) सुनि केवट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे ।
बिहँसे करुणा ऐन, चितै जानकी लखन तन ।।
(ix) रकत ढुरा आँसू गरा, हाइ भएउ सब संख।
धनि सारस होइ गरि मुई, पीउ समेटहि पंख ।।
(x) बतरस-लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय ।
सह करै भौहनि हँस, दैन कहें नटि जाय ।।
उत्तर
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प्रश्न 3
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए—
(क) सोरठा, दोहा और चौपाई छन्दों में से किसी एक का उदाहरण लिखकर उसका लक्षण
बत
(ख) दोहा और सोरठा का अन्तर स्पष्ट करते हुए सोरठा का उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
1. चौपाई [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 18]
लक्षण (परिभाषा)-चौपाई एक सम-मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में 16 मात्राएँ होती हैं। अन्त में जगण (I δ I) और तगण (δ δ I) के प्रयोग का निषेध है; अर्थात् चरण के अन्त में गुरु लघु (δ I) नहीं होने चाहिए। दो गुरु (δ δ), दो लघु (I I), लघु-गुरु (I δ) हो सकते हैं।
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2. दोहा [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)—यह अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके पहले और तीसरे (विषम) चरणों में 13, 13 मात्राएँ और दूसरे तथा चौथे (सम) चरणों में 11, 11 मात्राएँ होती हैं। अन्त के वर्ण गुरु और लघु होते हैं; यथा–
UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi छन्द img 9

3. सोरठा [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)-यह भी अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके पहले और तीसरे चरण में 11 तथा दूसरे और चौथे चरण में 13 मात्राएँ होती हैं। यह दोहे का उल्टा होता है; यथा—
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UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Topographical Sheets

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Topographical Sheets (धरातलीय भू-पत्रक) are part of UP Board Solutions for Class 12 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Topographical Sheets (धरातलीय भू-पत्रक).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography (Practical Work)
Chapter Chapter 3
Chapter Name Topographical Sheets (धरातलीय भू-पत्रक)
Number of Questions Solved 16
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Topographical Sheets (धरातलीय भू-पत्रक)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
धरातलीय भू-पत्रक से क्या अभिप्राय है? भारतीय भू-पत्रकों में संख्यांकन किस प्रकार किया जाता है तथा इनमें कौन-कौन से विवरण दिये रहते हैं?
उत्तर

धरातलीय भू-पत्रक
Topographical Sheets

धरातलीय भू-पत्रक किसी क्षेत्र विशेष के धरातलीय स्वरूपों का विस्तृत रूप से प्रदर्शन करते हैं। इन्हें स्थलाकृतिक मानचित्र (Topographical maps) भी कहते हैं। टोपोग्राफी (Topography) ग्रीक भाषा का शब्द है जो टोपो (Topo) तथा ग्राफीन (Graphein) दो शब्दों के संयोग से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ किसी स्थान-विशेष का पूर्ण विवरण देना है। अतः धरातलीय पत्रक विस्तृत मापकों पर बनाये गये वे मानचित्र हैं जो कि विधिपूर्वक भू-मापन के पश्चात् बनाये जाते हैं तथा प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक भू-आकृतियों का विस्तृत प्रदर्शन करते हैं। इन मानचित्रों में विभिन्न विवरण परम्परागत अथवा रूढ़ चिह्नों (Conventional signs) की सहायता से प्रकट किये जाते हैं।

धरातलीय पत्रकों के अध्ययन से किसी भी क्षेत्र में मानवीय तथा प्राकृतिक पर्यावरण के सम्बन्धों का ज्ञान भली-भाँति हो जाता है। यदि भू-पत्रक में परिवहन मार्गों का जाल बिछा हुआ है, जनसंख्या के भी संकेन्द्रण हैं, पक्के आवासों की अधिकता है तथा विभिन्न उद्योगों के लक्षण भी स्पष्ट दिखलाई पड़ते हैं, तो इससे निष्कर्ष निकलता है कि वहाँ औद्योगिक अर्थव्यवस्था होगी। इसके विपरीत जिन भू–पत्रकों में पगडण्डियाँ, खेत, झोंपड़ियाँ, कच्ची मिट्टी से निर्मित आवास आदि का बाहुल्य होता है, तो वह ग्रामीण अर्थव्यवस्था अथवा कृषि अर्थव्यवस्था को प्रकट करते हैं। भू-पत्रकों के अध्ययन से मानव एवं पर्यावरण के सम्बन्ध स्पष्ट हो जाते हैं तथा उनका विश्लेषण करना भी सुगम हो जाता है।

भारतीय भू-पत्रकों में संख्यांकन
Numbering in Indian Topographical Maps

भारतीय भू-पत्रकों का प्रकाशन भारतीय सर्वेक्षण विभाग (सर्वे ऑफ इण्डिया) द्वारा किया जाता है। इस विभाग की स्थापना सन् 1767 में की गयी थी। इसके प्रथम डायरेक्टर जनरल मेजर जेम्स रैनेल थे। आजकल भारतीय सर्वेक्षण विभाग एशिया महाद्वीप का सबसे बड़ा सर्वेक्षण विभाग है। इसका प्रमुख कार्यालय हाथी बड़कला, देहरादून (उत्तराखण्ड) में स्थित है। इस विभाग के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय भू-पत्रक माला के अनुसार भारत एवं समीपवर्ती देशों के लिए कुल 136 भू-पत्रकों का प्रकाशन किया गया है। इन भू-पत्रकों का सूचकांक 1 से 136 तक किया गया है जो भारत तथा उसके समीपवर्ती देशों को घेरते हैं। म्यांमार देश को छोड़कर इन भू-पत्रकों की संख्या 92 रह जाती है। ये संख्याएँ पत्रकों की सूची संख्या (Index number) कहलाती हैं। प्रत्येक भू-पत्रक का मापक 1: 10,00,000 है। एक भू-पत्रक का विस्तार 4° अक्षांश तथा 4°देशान्तरों में है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Topographical Sheets 1
प्रत्येक भू-पत्रक को 16 वर्गों में विभाजित किया गया है जिन्हें अंग्रेजी भाषा के A से P अक्षरों तक प्रकट किया जाता है। प्रत्येक भाग 1° अक्षांश तथा 1° देशान्तर को प्रकट करता है। अतः इन्हें 1 अंश भू-पत्रक भी कहा जाता है। इनका मापक 1 इंच बरोबर 4 मील होता है। पुन: प्रत्येक अंश पत्रक को 16 उपविभागों में बाँटते हैं तथा प्रत्येक भाग का संख्यांकन 1 से 16 तक होता है। इस प्रकार प्रत्येक अंश चित्र 15 मिनट अक्षांश एवं 15 मिनट देशान्तर को प्रकट करता है। इनका मापक एक इंच बराबर एक मील होता है जिस कारण इन्हें एक इंच भू-पत्रक भी कहा जाता है। उदाहरण के लिए,63 (K/12) का अभिप्राय 63वाँ पत्रक है। फिर उसका K अंश लेते हैं तथा पुन: Kअंश का 12वाँ भाग लेते हैं। यही मिर्जापुर भू-पत्रक कहलाता है। इससे स्पष्ट होता है कि मिर्जापुर भू-पत्रक 63 (K/12) का निर्धारण किस प्रकार किया गया है। (चित्र संख्या 3.2 एवं 3.3)। इस प्रकार प्रत्येक भू-पत्रक को उसमें स्थित बड़े नगर से सम्बोधित किया जाता है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Topographical Sheets 2

भू-पत्रकों में प्रस्तुत किये जाने वाला विवरण
Representing of Description Topographical Sheets

भू-पत्रकों का अध्ययन करने से पूर्व निम्नलिखित बातें ध्यान में रखी जानी चाहिए –

  1. धरातलीय बनावट सम्बन्धी तत्त्वों का ज्ञान।
  2. सांस्कृतिक स्थलाकृतियों की स्थिति तथा उनका वितरण।
  3. भौतिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण के तथ्यों का पारस्परिक सम्बन्ध।

अतः भू-पत्रक मानचित्रों में निम्नलिखित तथ्यों का विवरण अंकित रहता है –
(1) प्रारम्भिक सूचनाएँ एवं पत्रक का परिचय – भू-पत्रक का परिचय निम्नलिखित उपशीर्षकों के अन्तर्गत दिया जाता है –

  • राज्य का नाम तथा पत्रक में प्रदर्शित किये गये क्षेत्र का विस्तार अर्थात् अक्षांशीय एवं देशान्तरीय विस्तार तथा जनपदों के नाम।
  • सर्वेक्षण का वर्ष तथा प्रकाशन तिथि।
  • पत्रक संख्या।
  • उत्तर दिशा निर्धारण के लिए चुम्बकीय दिक्मान की भिन्नता।
  • पत्रक का मापक।
  • पत्रक का विस्तार एवं क्षेत्रफल।

(2) धरातल अथवा उच्चावच एवं जल-प्रवाह प्रणाली – इसके अन्तर्गत धरातल की विभिन्न विशेषताओं एवं उनके प्रकारों का अध्ययन किया जाता है। समोच्च रेखा अन्तराल, ढाल के प्रकार, विशिष्ट ऊँचाई के स्थान, जल-प्रवाह प्रणाली के प्रकार, नदियों के मार्ग तथा उनकी विशेषताएँ तथा अन्य जल-स्रोतों का अध्ययन सम्मिलित है।

(3) प्राकृतिक वनस्पति – भू-पत्रक में प्राकृतिक वनस्पति को हरे रंग से एवं सांस्कृतिक वनस्पति को पीले रंग से प्रदर्शित किया जाता है। प्राकृतिक वनस्पति में उसके प्रकार एवं क्षेत्र निर्धारित किये जाते हैं। कृषि के अन्तर्गत कृषि-योग्य भूमि, फसलों की विविधता का अध्ययन करते हैं। प्राकृतिक वनस्पति एवं जलवायु घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित होते हैं। अतः वनस्पति का अध्ययन करने से पूर्व जलवायु को भी भली-भाँति समझ लेना चाहिए।

(4) सिंचाई के साधन – विभिन्न जल-स्रोतों को भू-पत्रकों में परम्परागत चिह्नों की सहायता से प्रदर्शित किया जाता है। इनकी सहायता से सिंचाई साधनों का ज्ञान हो जाता है। यदि स्थान-विशेष पर जल-स्रोत उपलब्ध नहीं हैं तो पत्रक का अध्ययन कर ज्ञात कर लिया जाता है कि यहाँ पर्याप्त वर्षा होती है या सिंचाई साधनों का विस्तार नहीं किया जा सका है अथवा कृत्रिम साधनों से सिंचाई की जाती हैं।

(5) आवागमन के साधन – भू-पत्रकों द्वारा उस प्रदेश के आवागमन के साधनों के विषय में विस्तृत जानकारी उपलब्ध हो सकती है, क्योंकि इन्हें पत्रकों में परम्परागत चिह्नों द्वारा प्रकट किया जाता है। आवागमन के साधनों में सड़क, रेलमार्ग, पगडण्डियाँ, जलमार्ग आदि मुख्य हैं।

(6) प्रमुख उद्योग-धन्धे – यद्यपि भू-पत्रकों से उद्योग सम्बन्धी कोई प्रत्यक्ष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है, परन्तु अन्य तथ्यों के अध्ययन से इनकी विस्तृत जानकारी उपलब्ध हो सकती है। यदि भू-पत्रक कृषि क्षेत्र को प्रकट करता है, तो वहाँ पर कृषि उपजों पर आधारित उद्योग-धन्धे विकसित मिलेंगे। इसी प्रकार पशुचारण, खनिज पदार्थ, वन्य उपजों आदि के अध्ययन से विभिन्न उद्योगों के विषय में जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

(7) बसाव एवं जनसंख्या – बसाव एवं जनसंख्या का वर्णन बस्तियों के आकार, प्रकार, नगरों की स्थिति, जनसंख्या ग्रामीण है अथवा नगरीय, जनसंख्या की सघनता आदि का अध्ययन कर किया जा सकता है। ग्रामीण एवं नगरीय बस्तियों के वितरण द्वारा जनसंख्या की सघनता के विषय में अनुमान लगाया जा सकता है।

(8) सभ्यता एवं संस्कृति – भू-पत्रक मानचित्रों में परम्परागत चिह्नों द्वारा; जैसे–मन्दिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा, पैगोड़ा, अस्पताल, स्कूल, रेलवे स्टेशन, निरीक्षण भवन, धर्मशालाएँ आदि प्रकट की जाती हैं। इन चिह्नों का अध्ययन कर उस क्षेत्र-विशेष की सभ्यता एवं संस्कृति का सहज ही ज्ञान प्राप्त कर लिया जाता है। इन पत्रकों में कुछ ऐतिहासिक महत्त्व के चिह्न; जैसे—किला, युद्धस्थल, राजधानी आदि भी अंकित रहते हैं जिससे उस क्षेत्र की ऐतिहासिकता की जानकारी प्राप्त हो जाती है।

उपर्युक्त सभी तथ्यों के सामूहिक अध्ययन से उस क्षेत्र के आर्थिक विकास के विषय में जानकारी प्राप्त हो जाती है। इस प्रदेश के भावी आर्थिक विकास के लिए कुछ सुझाव भी दिये जा सकते हैं कि वहाँ किन तथ्यों में प्रगति की जाए तथा जिन साधनों की कमी है, उनमें वृद्धि की जाए। इस प्रकार भू-पत्रक मानचित्र किसी देश अथवा प्रदेश के अध्ययन के लिए अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

प्रश्न 2
परम्परागत या रूढ़ चिह्न किन्हें कहते हैं? भू-पत्रकों में किन-किन रंगों का प्रयोग किया जाता है? इन चिह्नों द्वारा कौन-कौन से विवरण प्रदर्शित किये जाते हैं?
उत्तर

परम्परागत या रूढ़ चिह
Conventional Signs

भू-पत्रकों में विभिन्न प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक लक्षणों को दर्शाने के लिए सांकेतिक अथवा परम्परागत या रूढ़ चिह्नों का प्रयोग किया जाता है। इन चिह्नों को प्रत्येक देश के सर्वेक्षण विभाग द्वारा निर्धारित एवं प्रमाणित किया जाता है। इन्हें Conventional Signs भी कहा जाता है। इन चिह्नों की सूची भू-पत्रक के नीचे सांकेतिक सन्दर्भ में दी होती है। अत: ऐसे चिह्न जिनका प्रयोग भू-पत्रकों में विभिन्न स्थलाकृतिक विवरण दिखलाने में किया जाता है, परम्परागत या रूढ़ चिह्न कहलाते हैं। इन चिह्नों के भू-पत्रकों में प्रयोग से उनका अध्ययन सरल तथा सुगम हो जाता है। इनके द्वारा मानचित्रों में अधिकाधिक विवरण प्रदर्शित किये जा सकते हैं। इन चिह्नों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है –

  • भौतिक स्थलाकृतियों को प्रदर्शित करने वाले चिह्न तथा
  • सांस्कृतिक स्थलाकृतियों को प्रदर्शित करने वाले चिह्न।

कुछ प्रमुख परम्परागत रूढ चिह्न
Some Famous Conventional Signs

भू-पत्रक मानचित्रों में परम्परागत अथवा रूढ़ चिह्नों का प्रदर्शन अग्रलिखित है –
(1) मन्दिर, (2) गिरजाघर (चर्च), (3) मस्जिद, (4) छतरी, (5) गुरुद्वारा, (6) ईदगाह, (7) पैगोडा, (8) सर्वेक्षित ग्राम, (9) किला, (10) सर्वेक्षित किला, (11) युद्धस्थल, (12) कब्रिस्तान, (13) तेल का कुआँ, (14) पक्का कुआँ, (15) निशानेबाजी का क्षेत्र, (16) हवाई अड्डा, (17) सर्वेक्षित हवाई पट्टी, (18) कच्चा कुआँ, (19) झरना, (20) पाइप लाइन, (21) पक्का तालाब, (22) अत्यधिक गहरा तालाब, (23) दलदल, (24) नदी का प्रवाह मार्ग, (25) सदावाहिनी नदी, (26) पक्का बाँध, (27) कच्चा बाँध, (28) बड़ी दोहरी रेलवे लाइन, (29) बड़ी इकहरी रेलवे लाइन, (30) छोटी दोहरी रेलवे लाइन, (31) छोटी इकहरी रेलवे लाइन, (32) पावर लाइन, (33) बैलगाड़ी को मार्ग, (34) पगडण्डी, (35) रज्जू मार्ग (रोप वे), (36) नदी के तल में सड़क, (37) नदी के ऊपर सड़क का पुल, (38) बाग, (39) घास, (40) खजूर के पेड़, (41) बाँस, (42) समोच्च रेखाएँ, (43) खण्ड रेखाएँ, (44) अनुमानित ऊँचाई
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का त्रिकोणमिति स्टेशन, (45) ऊँचाई सहित बैंच मार्क, (46) सर्किट हाउस, (47) डाक बंगला, (48) रेस्ट हाउस, (49) पुलिस स्टेशन, (50) पोस्ट ऑफिस, (51) तारघर, (52) सुरक्षित वन, (53) निरीक्षण बँगला (नहर), (54) शासकीय बस्ती, (55) आदिवासी बस्ती, (56) कच्ची सड़क, (57) घण्टाघर, (58) रेलवे लाइन के ऊपर सड़क, (59) सड़क के ऊपर रेल पथ, (60) सड़क पर पुल, (61) प्रान्तीय सीमा रेखा, (62) अन्तर्राष्ट्रीय सीमा रेखा, (63) जनपद सीमा रेखा, (64) तहसील सीमा रेखा, (65) प्रकाश-गृह।

भू-पत्रकों में प्रयोग होने वाले रंग
Colours Used in Topographical Sheets

भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने भू-पत्रकों में परम्परागत चिह्नों के साथ-साथ विभिन्न प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक लक्षणों के प्रदर्शन हेतु कुछ रंगों को निर्देशित किया है, जिनको प्रयोग निम्नलिखित है –

  1. नीला रंग-सागर, महासागर, नदी, तालाब, झील आदि भू-आकृतियों के प्रदर्शन के लिए।
  2. लाल रंग-सड़कों, पगडण्डियों, मकानों, इमारतों आदि के प्रदर्शन के लिए।
  3. पीला रंग-कृषि प्रदेशों के प्रदर्शन के लिए।
  4. काला रंग-रेलवे लाइन, सीमा एवं नामांकन के लिए।
  5. हरा रंग-पेड़-पौधों, वनस्पति, जंगल, बाग आदि के प्रदर्शन के लिए।
  6. कत्थई रंग–समोच्च रेखाओं के प्रदर्शन के लिए।
  7. भूरा रंग–पर्वतीय छायाकरण दिखाने के लिए।

प्रश्न 3
1″ = 1 मील पर बने किसी भू-पत्रक (Topo-sheet) का निम्नलिखित शीर्षकों में वर्णन कीजिए जिसका आपने अध्ययन किया हो –
(अ) उच्चावच
(ब) जल-प्रवाह प्रणाली
(स) मानव बस्तियाँ
(द) यातायात के साधन।
उत्तर

भू-पत्रक संख्या 53[latex]\frac { J }{ 3 } [/latex] अथवा देहरादून भू-पत्रक
53[latex]\frac { J }{ 3 } [/latex]Topographical Sheet or Dehradun Topographical Sheet

सामान्य परिचय – भू – पत्रक संख्या 53[latex]\frac { J }{ 3 } [/latex] उत्तराखण्ड राज्य के जनपद देहरादून एवं टिहरी गढ़वाल को प्रदर्शित करता है। इस भू-पत्रक का मापक 1 इंच =1 मील अथवा इसकी प्रदर्शक भिन्न 1/63,360 है। इस भू-पत्रक का विस्तार 30° 15 उत्तरी अक्षांश से 30°30 उत्तरी अक्षांश तथा 78° पूर्वी देशान्तर से 78° 15 पूर्वी देशान्तर के मध्य है। यह भू-पत्रक सन् 1913-14 एवं पुनः 1937-38 में प्रकाशित किया गया है। इस भू-पत्रक का चुम्बकीय अन्तराल [latex]\frac { { 1 }^{ \circ } }{ 2 } [/latex] पूरब सन् 1938 है। इस भू-पत्रक के उत्तर में भू-पत्रक संख्या 53[latex]\frac { J }{ 2 } [/latex], दक्षिण में 53[latex]\frac { J }{ 4 } [/latex], पूर्व में 53[latex]\frac { J }{ 7 } [/latex] तथा पश्चिम में 53[latex]\frac { F }{ 15 } [/latex] है।

(अ) उच्चावच – इस भू-पत्रक का उत्तरी-पूर्वी भाग टिहरी गढ़वाल जिले में तथा शेष देहरादून जिले में सम्मिलित है। सम्पूर्ण भू-पत्रक एक पहाड़ी प्रदेश है। इस प्रदेश के उत्तर भाग में लघु या हिमाचल हिमालय श्रेणी उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व दिशा में विस्तृत है। इसके दक्षिण-पश्चिम में शिवालिके श्रेणियों का विस्तार है। इस प्रदेश में समोच्च रेखाएँ बड़ी विषम हैं जिनके अध्ययन से पता चलता है कि यह प्रदेश पर्वत-शिखरों से भरा पड़ा है। इन श्रेणियों की औसत ऊँचाई 2,250 मीटर है। लघु हिमालय श्रेणी में अनेक ऊँची चोटियाँ हैं जिनमें तोपटिब्बा सर्वोच्च पर्वत-शिखर है जिसकी ऊँचाई 2,613 मीटर है।

अन्य उच्च शिखरों में बेरॉसखण्ड-2,598 मीटर तथा उटियानों-2,519 मीटर ऊँची है। लघु हिमालय एवं शिवालिक श्रेणियों के मध्य दून घाटी विस्तृत है जो 35 किमी लम्बी तथा 25 किमी चौड़ी है। इस घाटी के सहारे शिवालिक श्रेणियों की तलहटी में देहरादून नगर स्थित है। इस देश में अनेक छोटी-बड़ी नदियों का जाल बिछा हुआ है। उत्तरी-पूर्वी भाग में टिहरी गढ़वाल जिले का क्षेत्र बड़ा ही दुर्गम है जिसमें अनेक ऊँची श्रेणियाँ तथा गहरी तंग घाटियाँ स्थित हैं। पत्रक के उत्तरी-पश्चिमी भाग में पर्वतों की रानी अर्थात् मसूरी नगर स्थित है।

(ब) जल-प्रवाह प्रणाली – इस भू-पत्रक के धरातल पर अनेक नदियों का जाल बिछा है। उत्तरी भाग़ की जल-प्रवाह प्रणाली बड़ी ही जटिल एवं विषम है। टिहरी गढ़वाल जिले की जल-प्रवाह प्रणाली और भी अधिक जटिल है। उच्च शिखरों के ढालों पर प्रवाहित होती हुई असंख्य छोटी-छोटी धाराएँ तीव्र अपवाह प्रणाली का निर्माण करती हैं। ये नदियाँ अपनी घाटियों का अपरदन कर उन्हें गहरी एवं तंग बनाकर बड़ी-बड़ी कन्दराओं का निर्माण करने में लगी हैं। जैसे ही इन नदियों का अपवाह मार्ग दून घाटी में पहुँचता है, इनकी घाटियाँ चौड़ी हो जाती हैं। यहाँ पर प्राकृतिक जलाशयों का अभाव पाया जाता है। देहरादून से 8-10 किमी की दूरी पर सहस्रधारा एक प्राकृतिक प्रपात है, जहाँ अनेक छोटी-बड़ी धाराएँ आकर मिलती हैं। इसके निकट ही गन्धक का जल-स्रोत है। इस पत्रक के सुदूर पश्चिम में मसूरी के निकट प्रसिद्ध कैम्पटी प्रपात स्थित है। इस प्रदेश में निम्नलिखित तीन नदियाँ महत्त्वपूर्ण हैं –
देहरादून पत्रक
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(1) सोंग नदी – इस भू-पत्रक के उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र में टिहरी गढ़वाल तथा देहरादून जनपदों की सीमा के सहारे-सहारे सोंग नदी सबसे बड़ी तथा चौड़ी है। बादल इसकी प्रमुख सहायक नदी है। सोंग-बादल के मिलन स्थल से लगभग 1.5 किमी की दूरी पर इससे बल्दी नदी मिलती है। इसके बाद यह नदी दक्षिण की ओर अपने प्रवाह मार्ग का निर्माण करती है।
(2) टोंस नदी – यह नदी मसूरी के समीप से निकलकर दक्षिण की ओर देहरादून नगर के मध्य से प्रवाहित होती है। ब्राह्मी, नलौता, भीतरली एवं कुआरकुली इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। यहाँ से यह पश्चिम की ओर प्रवाहित हो जाती है।
(3) अगलर नदी – यह इस प्रदेश की तीसरी प्रमुख नदी है। इसका प्रवाह प्रदेश टिहरी गढ़वाल जंनपद में है। यह पूरब से पश्चिम की ओर प्रवाहित होती है। पश्चिम की ओर नून इसकी प्रमुख सहायक नदी है। यह क्लाउड एण्ड शिखर से निकलकर दक्षिण की ओर प्रवाहित होती हुई देहरादून के पश्चिम से। होकर आगे निकल जाती है।

(स) मानव बस्तियाँ – पत्रक का अधिकांश भाग पहाड़ी होने के कारण इसे एक पिछड़ा क्षेत्र कहा जा सकता है। उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में बहुत ही कम बस्तियाँ विकसित हुई हैं। केवल पहाड़ी ढलानों पर छोटे-छोटे गाँव देखे जा सकते हैं। इन क्षेत्रों में छोटे-छोटे सीढ़ीदार खेत बनाकर कृषि की जाती है। दून घाटी का आर्थिक विकास सबसे अधिक हुआ है। यहाँ पर बस्तियों एवं जनसंख्या के संकेन्द्रण। विकसित हुए हैं। देहरादून इस भू-पत्रक का सबसे बड़ा एवं महत्त्वपूर्ण नगर है। इस नगर में पक्के मकान, सड़कें तथा उद्योग-धन्धे विकसित हुए हैं। देहरादून नगर के समीपवर्ती भागों में अनेक कस्बे एवं केन्द्रीय ग्राम विकसित हैं जिनमें रामगढ़, राजपुर, शमशेरगढ़, कालागढ़ तथा भाजना प्रमुख हैं। मसूरी दूसरा बड़ा नगर है। टिहरी नगर का भी विकास किया जा रहा है।

(द) यातायात के साधन – दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र, ढालू, घाटियाँ, असमतल एवं ऊबड़-खाबड़ धरातल होने के कारण इस भू-पत्रक के धरातल पर यातायात साधनों की कमी है तथा उनका विकास भी कम ही हो पाया है। भू-पत्रक के उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र में रेल तथा सड़क मार्ग, दोनों का ही अभाव है। इस क्षेत्र में पगडण्डियों के मार्ग अधिक विकसित हुए हैं जिनसे होकर दुर्गम एवं बीहड़ पहाड़ी क्षेत्रों को पार किया जाता है। भू-पत्रक के दक्षिणी-पश्चिमी भाग में सड़क तथा रेलमार्गों का विकास हुआ है। प्रमुख यातायात मार्गों का विवरण निम्नलिखित है –

(1) रेलमार्ग – यहाँ केवल एक रेलमार्ग है जो उत्तरी रेलवे द्वारा संचालित किया जाता है। यह रेलमार्ग देहरादून को ऋषिकेश, हरिद्वार, लक्सर, सहारनपुर होता हुआ दिल्ली से जोड़ता है। लक्सर जंक्शन की सहायता से देहरादून सीधे कोलकाता से जुड़ा हुआ है। देहरादून इस रेलमार्ग का अन्तिम स्टेशन है।
(2) सड़क मार्ग – देहरादून पक्की सड़कों द्वारा प्रदेश के अन्य नगरों से जुड़ा हुआ है। देहरादून को तथा सहारनपुर, चकरौता, विकास नगर, ऋषिकेश, मसूरी आदि नगरों को पक्की सड़कों द्वारा जोड़ा गया है। इस भू-पत्रक में तीन कच्ची सड़कें भी हैं, जो निम्नलिखित हैं–

  • रायपुर से थानों हतनाल
  • हर्रावाला से मियाँवाला
  • अनारवाला से सतन गाँव।

मौखिक परिक्षा : सम्भावित प्रश्न

प्रश्न 1
धरातलीय भू-पत्रक से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
ऐसे मानचित्र जिनमें प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक स्थलाकृतियों का चित्रण सांकेतिक चिह्नों की सहायता से दीर्घमापक पर किया जाता है, धरातलीय भू-पत्रक कहलाते हैं।

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प्रश्न 2
धरातलीय भू-पत्रकों का प्रकाशन किस विभाग द्वारा किया जाता है?
उत्तर
धरातलीय भू-पत्रक मानचित्रों का प्रकाशन भारतीय सर्वेक्षण विभाग, देहरादून द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 3
भारतीय सर्वेक्षण विभाग का प्रधान कार्यालय कहाँ पर स्थित है?
उत्तर
भारतीय सर्वेक्षण विभाग का मुख्यालय हाथी-बडकला, देहरादून, उत्तराखण्ड राज्य में स्थित है।

प्रश्न 4
भारतीय भू-पत्रक किस मापक पर बने हैं?
उत्तर
भारतीय भू-पत्रक 1 इंच = एक मील के मापक अर्थात् प्र० भि० 1/63, 360 पर निर्मित किये गये हैं।

प्रश्न 5
धरातलीय भू-पत्रकों का विस्तार बताइए।
उत्तर
प्रत्येक धरातलीय भू-पत्रक 4° अक्षांश तथा 4° देशान्तरों को प्रकट करता है।

प्रश्न 6
भारतीय भू-पत्रकों की संख्या कितनी है?
उत्तर
भारतीय भू-पत्रकों की संख्या 136 है। म्यांमार को छोड़कर 92 भू-पत्रक भारत के ऊपर से गुजरते हैं।

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प्रश्न 7
इन भू-पत्रकों का मापक क्या है?
उत्तर
इन भू-पत्रकों का मापक 1 : 10,00,000 है।

प्रश्न 8
भारत एवं उसके समीपवर्ती देशों की श्रृंखला के मानचित्र किस मापक पर तैयार किये गये हैं।
उत्तर
इन मानचित्रों का प्रथम संस्करण 1 : 20 लाख मापक पर तथा द्वितीय संस्करण 1: 10 लाख मापक पर निर्मित किये गये हैं।

प्रश्न 9
भारत एवं उसके समीपवर्ती देशों की मानचित्र माला में कौन-कौन से देश सम्मिलित हैं।
उत्तर
इनमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भारत, बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार, भूटान एवं श्रीलंका आदि देश सम्मिलित हैं।

प्रश्न 10
परम्परागत चिह्नों (Conventional Signs) से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
भू-पत्रक मानचित्रों में प्रदर्शित संकेत चिह्नों को परम्परागत चिह्न कहते हैं।

प्रश्न 11
भू-पत्रक मानचित्रों की क्या उपयोगिता है?
उत्तर
भू-पत्रक मानचित्रों की निम्नलिखित उपयोगिता है –

  1. सैनिक संचालन एवं युद्ध मोर्चे की तैयारी में ये भू-पत्रक उपयोगी होते हैं।
  2. किसी क्षेत्र-विशेष के प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक लक्षणों की सूक्ष्म जानकारी उपलब्ध होती है।
  3. क्षेत्र विशेष की भावी आर्थिक विकास योजनाओं को क्रियान्वित करने में सहायक होते हैं।

प्रश्न 12
भू-पत्रक मानचित्रों में लाल रंग का प्रयोग किसका प्रदर्शन करता है?
उत्तर
भू-पत्रक मानचित्रों में लाल रंग का प्रयोग सड़कों, पगडण्डियों तथा मानवीय बस्तियों के प्रदर्शन के लिए किया जाता है।

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प्रश्न 13
भू-पत्रक मानचित्रों में काले रंग का क्या उपयोग है?
उत्तर
भू-पत्रक मानचित्रों में काला रंग रेलवे लाइन, सीमांकन तथा नामांकन के लिए प्रयुक्त किया जाता है।

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