UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Regional Aspirations

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Regional Aspirations (क्षेत्रीय आकांक्षाएँ)

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में मेल करें
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Regional Aspirations 1
उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Regional Aspirations 2

प्रश्न 2.
पूर्वोत्तर के लोगों की क्षेत्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कई रूपों में होती है। बाहरी लोगों के खिलाफ आन्दोलन, ज्यादा स्वायत्तता की माँग के आन्दोलन और अलग देश बनाने की माँग करना-ऐसी ही कुछ अभिव्यक्तियाँ हैं। पूर्वोत्तर के मानचित्र पर इन तीनों के लिए अलग-अलग रंग भरिए और दिखाइए किस राज्य में कौन-सी प्रवृत्ति ज्यादा प्रबल है।
उत्तर:

  1. बाहरी लोगों के खिलाफ आन्दोलन-असम
  2. ज्यादा स्वायत्तता की माँग के आन्दोलन-मेघालय
  3. अलग देश बनाने की माँग-मिजोरम

[अलग देश बनाने की माँग नागालैण्ड व मिजोरम ने की थी। कुछ समय पश्चात् मिजोरम स्वायत्त राज्य बनने के लिए तैयार हो गया। मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और मणिपुर को राज्य का दर्जा दे दिया गया है।] अत: मिजोरम की माँग का समाधान हो गया है, लेकिन नागालैण्ड में अलगाववाद की समस्या का पूर्ण समाधान अभी तक नहीं हो पाया है।

प्रश्न 3.
पंजाब समझौते के प्रमुख प्रावधान क्या थे? क्या ये प्रावधान पंजाब और उसके पड़ोसी . राज्यों के बीच तनाव बढ़ाने के कारण बन सकते हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
पंजाब समझौता-1970 के दशक में अकालियों के एक समूह ने पंजाब के लिए स्वायत्तता की माँग उठायी। आनन्दपुर साहिब में सन् 1973 में हुए एक सम्मेलन में इस आशय का प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें क्षेत्रीय स्वायत्तता का मुद्दा उठाया, केन्द्र-राज्य सम्बन्धों को पुनः परिभाषित करने तथा संघवाद को मजबूत करने पर बल दिया। परन्तु इसे एक अलग सिक्ख राष्ट्र की माँग के रूप में भी पढ़ा जा सकता है।

80 के दशक में कुछ चरमपन्थी सिक्खों ने पंजाब को एक अलग राष्ट्र-खालिस्तान बनाए जाने के सम्बन्ध में आन्दोलन शुरू किया। यह आन्दोलन उग्र रूप धारण कर रहा था। फलत: तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के तहत स्वर्ण मन्दिर में सेना को घुसने की अनुमति दे दी। इससे पंजाब में उग्रवाद और भड़क गया। इन्दिरा गांधी हत्या इसी की एक कड़ी थी।

पंजाब समझौता-जुलाई 1985 में अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष हरचन्द सिंह लोंगोवाल और प्रधानमन्त्री राजीव गांधी के बीच एक समझौता हुआ जिसे ‘पंजाब-समझौता’ कहा जाता है। इस समझौते के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं-

  1. मारे गए निरपराध व्यक्तियों के लिए मुआवजा-1 सितम्बर, 1982 के बाद हुई किसी कार्रवाई या आन्दोलन में मारे गए लोगों को अनुग्रह राशि के भुगतान के साथ सम्पत्ति की क्षति के लिए मुआवजा दिया जाएगा।
  2. सेना में भर्ती-देश के सभी नागरिकों को सेना में भर्ती का अधिकार होगा और चयन के लिए केवल योग्यता ही आधार रहेगा।
  3. नवम्बर दंगों की जाँच-दिल्ली में नवम्बर में हुए दंगों की जाँच कर रहे रंगनाथ मिश्र आयोग का कार्यक्षेत्र बढ़ाकर उसमें बोकारो और कानपुर में हुए उपद्रवों की जाँच को भी शामिल किया जाएगा।
  4. सेना से निकाले हुए व्यक्तियों का पुनर्वास-सेना के निकाले हुए व्यक्तियों और उन्हें लाभकारी रोजगार दिलाने के प्रयास किए जाएंगे।
  5. अखिल भारतीय गुरुद्वारा कानून-भारत सरकार अखिल भारतीय गुरुद्वारा कानून बनाने पर सहमत हो गई। इसके लिए शिरोमणि अकाली दल और अन्य सहयोगियों के साथ सलाह-मशविरा और संवैधानिक जरूरतें पूर्ण करने के बाद विधेयक लागू किया जाएगा।
  6. लम्बित मुकदमों का फैसला-सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून को पंजाब में लागू करने वाली अधिसूचना वापस ली जाएगी। वर्तमान विशेष न्यायालय केवल विमान अपहरण तथा शासन के खिलाफ युद्ध के मामले सुनेगी। शेष मामले सामान्य न्यायालयों को सौंप दिए जाएंगे और यदि आवश्यक हुआ तो इसके बारे में कानून बनाया जाएगा।
  7. सीमा विवाद-चण्डीगढ़ का राजधानी परियोजना क्षेत्र और सुखना ताल पंजाब में दिए जाएंगे। केन्द्रशासित प्रदेश के अन्य पंजाबी क्षेत्र पंजाब को तथा हिन्दी भाषी क्षेत्र हरियाणा को दिए जाएंगे।

समझौते के तुरन्त बाद शान्ति आसानी से स्थापित नहीं हुई। हिंसा का चक्र लगभग एक दशक तक चलता रहा। केन्द्र सरकार को पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा। – 1990 के दशक के मध्यवर्ती वर्षों में पंजाब में शान्ति की स्थापना हुई। सन् 1997 में अकाली दल (बादल) और भाजपा गठबन्धन को चुनावों में जीत हासिल हुई और इसके बाद राजनीति धर्मनिरपेक्षता के मार्ग पर चल पड़ी।

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प्रश्न 4.
आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव के विवादास्पद होने के क्या कारण थे?
उत्तर:
आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव के विवादास्पद होने का मुख्य कारण यह था कि इस प्रस्ताव में पंजाब सूबे के लिए अधिक स्वायत्तता की माँग की गई, जो कि परोक्ष रूप से एक अलग सिक्ख राष्ट्र की माँग को बढ़ावा देती है।

प्रश्न 5.
जम्मू-कश्मीर की अन्दरूनी विभिन्नताओं की व्याख्या कीजिए और बताइए कि इन विभिन्नताओं के कारण इस राज्य में किस तरह अनेक क्षेत्रीय आकांक्षाओं ने सिर उठाया है।
उत्तर:
अन्दरूनी विभिन्नताएँ-जम्मू-कश्मीर में अधिकांश रूप में अन्दरूनी विभिन्नताएँ पायी जाती हैं। जम्मू-कश्मीर राज्य में तीन राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र-जम्मू, कश्मीर और लद्दाख शामिल हैं। जम्मू पहाड़ी क्षेत्र है, इसमें हिन्दू-मुस्लिम और सिक्ख अर्थात् सभी धर्मों व भाषाओं के लोग रहते हैं। कश्मीर में मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या अधिक है और यहाँ पर हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। जबकि लद्दाख पर्वतीय क्षेत्र है, इसमें बौद्ध मुस्लिम की आबादी है। इतनी विभिन्नताओं के कारण यहाँ पर कई क्षेत्रीय आकांक्षाएँ पैदा होती रहती हैं, यथा-

  1. इसमें पहली आकांक्षा कश्मीरी पहचान की है जिसे कश्मीरियत के रूप में जाना जाता है। कश्मीर के निवासी सबसे पहले अपने को कश्मीरी तथा बाद में कुछ और मानते थे।
  2. राज्य में उग्रवाद और आतंकवाद को दूर करना भी यहाँ के लोगों की एक मुख्य आकांक्षा है।
  3. स्वायत्तता की बात जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के लोगों को अलग-अलग ढंग से लुभाती है। यहाँ पूरे राज्य में स्वायत्तता की माँग जितनी प्रबल है, उतनी ही प्रबल माँग राज्य के विभिन्न भागों में अपनी-अपनी स्वायत्तता को लेकर है।
    जम्मू-कश्मीर में कई राजनीतिक दल हैं,जो जम्मू-कश्मीर के लिए स्वायत्तता की माँग करते रहते हैं। इनमें नेशनल कॉन्फ्रेंस सबसे महत्त्वपूर्ण दल है।
  4. इसके अतिरिक्त कुछ उग्रवादी संगठन भी हैं, जो धर्म के नाम पर जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करना चाहते हैं।

प्रश्न 6.
कश्मीर की क्षेत्रीय स्वायत्तता के मसले पर विभिन्न पक्ष क्या हैं? इनमें से कौन-सा पक्ष आपको समुचित जान पड़ता है? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
कश्मीर की स्वायत्तता का मसला-कश्मीर की क्षेत्रीय स्वायत्तता के मसले पर मुख्य रूप से दो पक्ष सामने आते हैं-

पहला पक्ष वह है जो धारा-370 को समाप्त करना चाहता है, जबकि दूसरा पक्ष वह है जो इस राज्य को और अधिक स्वायत्तता देना चाहता है।
यदि इन दोनों पक्षों का उचित ढंग से अध्ययन किया जाए तो पहला पक्ष अधिक उचित दिखाई देता है जो धारा-370 को समाप्त करने के पक्ष में है। उनका तर्क है कि इस धारा के कारण यह राज्य भारत के साथ पूरी तरह नहीं मिल पाया है। इसके साथ-साथ जम्मू-कश्मीर को अधिक स्वायत्तता देने से कई प्रकार की राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याएँ भी पैदा होती हैं।

प्रश्न 7.
असम आन्दोलन सांस्कृतिक अभिमान और आर्थिक पिछड़ेपन की मिली-जुली अभिव्यक्ति था। व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
असम आन्दोलन-असम पूर्वोत्तर भारत का एक महत्त्वपूर्ण राज्य है। सन् 1979 से सन् 1985 तक असम में बाहरी लोगों के खिलाफ जो आन्दोलन चला, उसे ‘असम आन्दोलन’ के नाम से जाना जाता है। यह आन्दोलन असम के सांस्कृतिक अभियान और आर्थिक पिछड़ेपन की मिली-जुली अभिव्यक्ति था क्योंकि-

(1) असमी लोगों को सन्देह था कि बंगलादेश से आकर बहुत-सी मुस्लिम आबादी असम में बसी हुई है। लोगों के मन में यह भावना घर कर गई थी कि इन विदेशी लोगों को पहचानकर उन्हें अपने देश नहीं भेजा गया तो स्थानीय असमी जनता अल्पसंख्यक हो जाएगी। या उन्हें ‘असमी संस्कति’ पर खतरा दिखाई दे रहा था। अतः सन् 1979 में ऑल असम स्टूडेण्ट यूनियन ने जब विदेशियों के विरोध में आन्दोलन चलाया, जिससे यह माँग की गई कि सन् 1951 के बाद जितने भी लोग असम में आकर बसे हैं उन्हें असम से बाहर भेजा जाए, तो असमी जनता के हर तबके ने इसका समर्थन किया तथा इस आन्दोलन को पूरे असम में समर्थन मिला।

(2) असम आन्दोलन के पीछे आर्थिक मसले भी जुड़े थे। असम में तेल, चाय और कोयले जैसे प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी के बावजूद व्यापक गरीबी थी। यहाँ की जनता ने माना कि असम के प्राकृतिक संसाधन बाहर भेजे जा रहे हैं और असमी लोगों को कोई फायदा नहीं हो रहा है। अत: इस आन्दोलन के पीछे सांस्कृतिक स्वाभिमान के साथ-साथ असम के आर्थिक पिछड़ेपन की पीड़ा की भी अभिव्यक्ति थी।

प्रश्न 8.
हर क्षेत्रीय आन्दोलन अलगाववादी माँग की तरफ अग्रसर नहीं होता। इस अध्याय से उदाहरण देकर इस तथ्य की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारत के कई क्षेत्रों में काफी समय से कुछ क्षेत्रीय आन्दोलन चल रहे हैं, परन्तु सभी क्षेत्रीय आन्दोलन अलगाववादी आन्दोलन नहीं होते, अर्थात् कुछ क्षेत्रीय आन्दोलन भारत से अलग नहीं होना चाहते बल्कि अपने लिए अलग राज्य की माँग करते हैं; जैसे-झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का आन्दोलन, छत्तीसगढ़ के आदिवासियों द्वारा चलाया गया आन्दोलन तथा तेलंगाना प्रजा समिति द्वारा चलाया गया आन्दोलन इत्यादि।

प्रश्न 9.
भारत के विभिन्न भागों में उठने वाली क्षेत्रीय मांगों से ‘विविधता में एकता’ के सिद्धान्त की अभिव्यक्ति होती है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? तर्क दीजिए।
उत्तर:
हाँ, मैं इस कथन से सहमत हूँ कि भारत के विभिन्न भागों से उठने वाली क्षेत्रीय मांगों में विविधता . में एकता के सिद्धान्त की अभिव्यक्ति होती है क्योंकि देश के विभिन्न क्षेत्रों से विभिन्न प्रकार की माँगें उठीं।
तमिलनाडु में जहाँ हिन्दी भाषा के विरोध और अंग्रेजी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में बनाए रखने की माँग उठी, तो असम में विदेशियों को असम से बाहर निकालने की माँग उठी, नागालैण्ड और मिजोरम में अलगाववाद की मांग उठी तो आन्ध्र प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश व अन्य राज्यों में, भाषा के आधार पर अलग राज्य बनाने की माँग उठी।

इसी तरह उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़ तथा झारखण्ड क्षेत्रों में प्रशासनिक सुविधा तथा आदिवासियों के हितों की रक्षा हेतु अलग राज्य बनाने के आन्दोलन हुए। अभी भी विभिन्न क्षेत्रों से भिन्न-भिन्न प्रकार की मांग उठ रही हैं जिनका मुख्य आधार क्षेत्रीय पिछड़ापन है। इससे स्पष्ट होता है कि भारत के विभिन्न भागों से उठने वाली क्षेत्रीय मांगों से विविधता के दर्शन होते हैं। भारत सरकार ने इन मांगों के निपटारे के लिए लोकतान्त्रिक दृष्टिकोण अपनाते हुए एकता का परिचय दिया है। लोकतन्त्र में क्षेत्रीय आकांक्षाओं की राजनीतिक अभिव्यक्ति की अनुमति होती है और लोकतन्त्र क्षेत्रीयता को राष्ट्र विरोधी नहीं मानता। लोकतान्त्रिक राजनीति में क्षेत्रीय मुद्दों और समस्याओं पर नीति-निर्माण की प्रक्रिया में समुचित ध्यान दिया जाता है। अतः स्पष्ट है कि देश में सामने आने वाली क्षेत्रीय मांगों से विविधता में एकता की अभिव्यक्ति होती है।

प्रश्न 10.
नीचे लिखे अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें
हजारिका का एक गीत एकता की विजय पर है; पूर्वोत्तर के सात राज्यों को इस गीत में एक ही माँ की सात बेटियाँ कहा गया है……..मेघालय अपने रास्ते गई……अरुणाचल भी अलग हुई और मिजोरम असम के द्वार पर दूल्हे की तरह दूसरी बेटी से ब्याह रचाने के लिए खड़ा है……..इस गीत का अन्त असम लोगों की एकता को बनाए रखने के संकल्प के साथ होता है और इसमें समकालीन असम में मौजूद छोटी-छोटी कौमों को भी अपने साथ एकजुट रखने की बात कही गई है………करबी बौर मिजिंग भाई-बहन हमारे ही प्रियजन हैं। -संजीव बरूआ
(क) लेखक यहाँ किस एकता की बात कर रहा है?
(ख) पुराने राज्य असम से अलग करके पूर्वोत्तर के कुछ राज्य क्यों बनाए गए?
(ग) क्या आपको लगता है कि भारत के सभी क्षेत्रों के ऊपर एकता की यही बात लागू हो सकती है?
क्यों?
उत्तर:
(क) लेखक यहाँ पर पूर्वोत्तर राज्यों की एकता की बात कर रहा है।
(ख) सभी समुदायों की सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के लिए तथा आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए पुराने राज्य असम से अलग करके पूर्वोत्तर के अन्य राज्य बनाए गए।
(ग) भारत के सभी क्षेत्रों पर एकता की यह बात लागू हो सकती है, क्योंकि भारत के सभी राज्यों में अलग-अलग धर्मों एवं जातियों के लोग रहते हैं तथा देश की एकता एवं अखण्डता के लिए उनमें एकता कायम करना आवश्यक है।

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्या इसका मतलब यह हुआ कि क्षेत्रवाद साम्प्रदायिकता के समान खतरनाक नहीं है? क्या हम यह भी कह सकते हैं कि क्षेत्रवाद अपने आप में खतरनाक नहीं?
उत्तर:
सामान्यतः लोकतान्त्रिक व्यवस्था में क्षेत्रीय आकांक्षाओं को राष्ट्र विरोधी नहीं माना जाता। इसके साथ ही लोकतान्त्रिक राजनीति में इस बात के पूरे अवसर होते हैं कि विभिन्न दल और समह क्षेत्रीय पहचान, आकांक्षा अथवा किसी विशेष क्षेत्रीय समस्या को आधार बनाकर लोगों की भावनाओं की नुमाइन्दगी करें। इस तरह लोकतान्त्रिक राजनीति की प्रक्रिया में क्षेत्रीय आकांक्षाएँ और बलवती होती हैं। साथ ही लोकतान्त्रिक राजनीति का अर्थ यह भी है कि क्षेत्रीय मुद्दों और समस्याओं पर नीति-निर्माण की प्रक्रिया में समुचित ध्यान दिया जाएगा और उन्हें भागीदारी भी दी जाएगी।

जहाँ तक साम्प्रदायिकता का सवाल है यह धार्मिक या भाषायी समुदाय पर आधारित एक संकीर्ण मनोवृत्ति है जो धार्मिक या भाषायी अधिकारों तथा हितों को राष्ट्रीय हितों के ऊपर रखती है इसलिए यह समाज विरोधी तथा राष्ट्र विरोधी मनोवृत्ति है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि क्षेत्रवाद साम्प्रदायिकता के समान खतरनाक नहीं है।

लेकिन क्षेत्रीय आकांक्षाएँ यदि अत्यधिक बढ़ जाएँ और यह अलगाववाद का रूप धारण कर लें तो ऐसी स्थिति में क्षेत्रवाद एक राष्ट्र के लिए गम्भीर समस्या बन जाती है। इससे पृथकतावाद व राष्ट्र से अलग होकर नये राष्ट्र के निर्माण की माँग गम्भीर मुद्दे उभरकर सामने आते हैं।

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प्रश्न 2.
खतरे की बात हमेशा सीमान्त के राज्यों के सन्दर्भ में ही क्यों उठाई जाती है? क्या इस सबके पीछे विदेशी हाथ ही होता है?
उत्तर:
प्राय: यह देखा गया है कि सीमान्त प्रदेश में ही क्षेत्रवाद एवं अलगाववाद की समस्या अधिक पायी जाती है। इसका मुख्य कारण विदेशी ताकतों का हाथ होना माना जा सकता है। जम्मू-कश्मीर, पंजाब और पूर्वोत्तर के विभिन्न राज्यों में घटित होने वाली विभिन्न घटनाएँ इसका उदाहरण माना जा सकता है। कश्मीरियों द्वारा अलग से स्वतन्त्र राष्ट्र की ओर पंजाब द्वारा खालिस्तान की माँग के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ रहा है।

प्रश्न 3.
पर यह सारी बात तो सरकार, अधिकारियों, नेताओं और आतंकवादियों के बारे में है। कश्मीरी जनता के बारे में कोई कुछ क्यों नहीं कहता? लोकतन्त्र में तो जनता की इच्छा को महत्त्व दिया जाना चाहिए। क्यों मैं ठीक कह रही हूँ न?
उत्तर:
जम्मू में सन् 1989 में अलगाववादियों का विशेष प्रभाव रहा। अलगाववादियों का एक तबका कश्मीर को एक अलग राष्ट्र बनाना चाहता है। यानी एक ऐसा कश्मीर जो न पाकिस्तान का हिस्सा हो और न भारत का कुछ अलगाववादी समूह चाहते हैं कि कश्मीर का विलय पाकिस्तान में हो जाए। अलगाववादी राजनीति की एक तीसरी धारा भी है। इस धारा के समर्थक चाहते हैं कि कश्मीर भारत संघ का ही हिस्सा रहे लेकिन उसे और स्वायत्तता दी जाए। स्वायत्तता की बात जम्मू और लद्दाख के लोगों को अलग-अलग ढंग से लुभाती है। इस क्षेत्र के लोगों की एक आम शिकायत उपेक्षा भरे बरताव और पिछड़ेपन को लेकर है।

इस वजह से पूरे राज्य की स्वायत्तता की माँग जितनी प्रबल है उतनी ही प्रबल माँग इस राज्य के विभिन्न भागों में अपनी-अपनी स्वायत्तता को लेकर है। इस प्रकार जम्मू-कश्मीर पर अलगाववादियों, आतंकवादियों एवं विभिन्न राजनीतिज्ञों की प्रशासनिक नीतियों का प्रभाव रहा है लेकिन लोकतान्त्रिक व्यवस्था के मुख्य लक्षण जनमत की इच्छा का सम्मान करते हुए जम्मू-कश्मीर के लोगों की इच्छानुसार प्रशासनिक निर्णय लिया जाना चाहिए। अर्थात् जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में जनमत संग्रह की नीति का पालन किया जाना चाहिए जिससे इस क्षेत्र की समस्त समस्याओं का स्थायी समाधान हो सके।

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्षेत्रवाद का अर्थ, कारण तथा दुष्परिणामों की समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रवाद का अर्थ क्षेत्रवाद का अर्थ किसी देश के उस छोटे से क्षेत्र से है जो आर्थिक, सामाजिक आदि कारणों से अपने पृथक् अस्तित्व के लिए जाग्रत है।
प्रो० एस० गुप्ता के अनुसार, “क्षेत्रवाद का अर्थ देश की अपेक्षा किसी विशेष क्षेत्र से प्यार है।”

फॉल्टर के अनुसार, “क्षेत्रवाद का अर्थ एक देश के उस छोटे से क्षेत्र से है जो आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक आदि से अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक है।”

क्षेत्रवाद का कारण

क्षेत्रवाद के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

1. ऐतिहासिक कारण-क्षेत्रवाद की उत्पत्ति में इतिहास का दोहरा सहयोग रहता है-सकारात्मक और नकारात्मक। सकारात्मक योगदान में शिव सेना का उदाहरण दिया जा सकता है और नकारात्मक योगदान में डी०एम०के० का उदाहरण दिया जा सकता है।

2. ऐतिहासिक विरासत-भारत प्राचीन काल से विशाल प्रादेशिक राज्यों वाला देश रहा है। कुछ शक्तिशाली राजाओं ने सम्पूर्ण भारत पर अपना साम्राज्य स्थापित किया है लेकिन विशाल आकार और यातायात के साधनों के अभाव के कारण अखण्ड केन्द्रीय राज्य भारत में अधिक समय तक नहीं चल सका। केन्द्र सरकार के शक्तिहीन होने पर अधीनस्थ प्रदेशों और सामन्तों ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी और स्थानीय स्वशासन स्थापित हो गया। इसी आधार पर भारत में नागालैण्ड, तमिलनाडु, पंजाब, आन्ध्र प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के विभाजन की माँग उठी।

3. भौगोलिक एवं सांस्कृतिक कारण–स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जब राज्यों का पुनर्गठन किया गया तब राज्यों की पुरानी सीमाओं को भुलाकर नहीं किया गया बल्कि उनको पुनर्गठन का आधार बनाया गया है। इसी कारण एक राज्य के रहने वाले लोगों में एकता की भावना नहीं आ पायी। प्राय: भाषा और संस्कृति क्षेत्रवाद की भावनाओं को उत्पन्न करने में बहुत सहयोग देते हैं।

4. भाषागत विभिन्नताएँ-भारत के विभिन्न प्रान्तों और क्षेत्रों की अपनी-अपनी भाषा है। प्रादेशिक भाषा बोलने वालों को अपनी भाषा से भावनात्मक लगाव होता है। अपनी भाषा को वे अधिक श्रेष्ठ मानकर अन्य भाषाओं को हीन मान लेते हैं। इससे क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिलता है।

5. आर्थिक असन्तुलन-स्वाधीन भारत में देश का आर्थिक विकास कार्यक्रम कुछ इस प्रकार चला कि कुछ क्षेत्र बहुत अधिक विकसित हो गए जबकि कुछ क्षेत्र पिछड़ गए। पिछड़े क्षेत्रों में असन्तोष का उदय होना स्वाभाविक था। मिजो और नगा विद्रोहियों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।

6. प्रशासनिक कारण-प्रशासनिक कारणों से भी विभिन्न राज्यों की प्रगति में अन्तर रहा है। पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा राज्यों का समान विकास नहीं हुआ है। कुछ राज्यों में प्रभावशाली औद्योगिक नीति के कारण विकास हुआ है जो कुछ राज्यों में बहुत धीमी गति से हो रहा है जो क्षेत्रवाद को बढ़ावा देता है।

क्षेत्रवाद के दुष्परिणाम भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद के प्रमुख दुष्परिणाम निम्नलिखित हैं-

  1. विभिन्न क्षेत्रों के मध्य संघर्ष और तनाव-क्षेत्रवाद का पहला दुष्परिणाम भारत के विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक, राजनीतिक, मनौवैज्ञानिक संघर्ष और तनाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।
  2. राज्य तथा केन्द्र सरकार के मध्य सम्बन्धों का विकृत होना-भारत में क्षेत्रीय कारण कभी-कभी केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के मध्य सम्बन्धों को भी विकृत कर देते हैं। राज्यों में विरोधी दल की सरकार होने की स्थिति में तनाव और बढ़ जाता है।
  3. स्वार्थी नेतृत्व एवं संगठनों का विकास क्षेत्रवाद के कारण कुछ स्वार्थी नेता और संगठन विकसित होने लगते हैं जो जनता की भावनाओं को उभारकर अपने स्वार्थों की पूर्ति करना चाहते हैं।
  4. राष्ट्र की एकता को चुनौती-संकीर्ण क्षेत्रीयता राष्ट्र की एकता के लिए चुनौती बन जाती है।
  5. पृथक्तावाद को प्रोत्साहन-क्षेत्रवाद के कारण उपक्षेत्रवाद का उदय होता है। स्वार्थी तत्त्वों द्वारा क्षेत्रीय असन्तुलन को बढ़ावा दिया जाता है तथा इस असन्तोष को पृथक्तावाद का रूप प्रदान कर दिया जाता है।
  6. नए राज्यों की माँग-क्षेत्रवाद की भावना से प्रेरित होकर नए राज्यों की माँगें की जाती हैं। कभी-कभी यह माँगें हिंसक रूप धारण कर लेती हैं। झारखण्ड, उत्तरांचल (उत्तराखण्ड), छत्तीसगढ़, तेलंगाना आदि राज्यों. के निर्माण से पूर्व हुए आन्दोलन इसके उदाहरण हैं।

प्रश्न 2.
भारत में नए राज्यों के गठन के पक्ष और विपक्ष में क्या तर्क दिए जाते रहे हैं?
उत्तर:
नए राज्यों के गठन के पक्ष में तर्क-भारत में नए राज्यों के समर्थक अपने पक्ष में निम्नलिखित तर्क देते हैं-

  1. नए राज्यों का गठन करने से पिछड़े क्षेत्रों को विकास करने का विशेष अवसर प्राप्त हो जाता है।
  2. उस क्षेत्र के लोगों में सांस्कृतिक भाषायी समानता के कारण अधिक निकटता बनी रहती है।
  3. पिछड़े क्षेत्र के लोगों को नए राज्य का दर्जा देने से यहाँ के लोगों में राजनीतिक चेतना जाग्रत होती है।
  4. बड़े राज्यों का विशाल आकार उनमें प्रशासनिक क्षमता और शान्ति व्यवस्था पर दबाव डालता है। छोटे राज्यों के निर्माण में इस समस्या से मुक्ति पायी जा सकती है।
  5. नए राज्यों का गठन राष्ट्र विरोधी गतिविधि नहीं है।

नए राज्यों के विपक्ष में तर्क-भारत में नए राज्यों के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-

  1. नए राज्यों की माँग विभिन्न क्षेत्रों में संघर्ष तथा तनाव पैदा करती है।
  2. पिछड़े क्षेत्र का विकास नए राज्यों के गठन मात्र से सम्भव नहीं है।
  3. नए राज्यों के गठन से अनावश्यक प्रशासनिक तन्त्र में वृद्धि होती है।
  4. नए राज्यों के गठन से क्षेत्रीयतावाद की संकीर्ण भावना पैदा होती है जो राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के लिए खतरा बन सकती है।
  5. नए राज्यों की माँग की प्रवृत्ति प्रगति में बाधक है। यह.समग्र विकास के स्थान पर क्षेत्र विकास को प्राथमिकता देकर सम्पूर्ण राष्ट्र की तुलना में अपने क्षेत्र विशेष के प्रति भक्ति पैदा करने का प्रयास करता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि प्रशासनिक दृष्टिकोण से यदि नए राज्यों का गठन किया जाए तो बुरा नहीं है, किन्तु क्षेत्रीयतावाद की संकीर्ण भावना को भड़काकर नए राज्य की माँग करना राष्ट्रीय हित में नहीं है क्योंकि यह प्रवृत्ति पृथक्तावाद को जन्म देती है।

प्रश्न 3.
क्षेत्रवाद की समस्या के निवारण हेतु सुझाव दीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रवाद की समस्या के निवारण हेतु सुझाव क्षेत्रवाद को रोकने के सम्बन्ध मे निम्नलिखित उपाय सुझाए जा सकते हैं-

  1. राष्ट्रीय नीति का निर्धारण किया जाए–केन्द्र सरकार की नीति कुछ इस प्रकार की होनी चाहिए कि सभी उप-सांस्कृतिक क्षेत्रों का सन्तुलित आर्थिक विकास सम्भव हो जिससे कि विभिन्न क्षेत्रों के बीच आर्थिक तनाव कम-से-कम हो।
  2. आधारभूत ढाँचे का विकास किया जाए–सरकार द्वारा बिजली, परिवहन, जल आपूर्ति आदि का समुचित विकास किया जाए जाना चाहिए। यह क्षेत्रवाद को समाप्त करने के लिए आवश्यक है। आधारभूत ढाँचे का विकास औद्योगिक प्रगति में सहायक होगा।
  3. सांस्कृतिक एकीकरण के लिए प्रयास किए जाएँ-प्रचार के विभिन्न साधनों के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों के सांस्कृतिक लक्षणों के विषय में लोगों के सामान्य ज्ञान को बढ़ाया जाए जिससे कि एक क्षेत्र के लोग दूसरे क्षेत्र के प्रति आर्थिक सहनशीलता की भावना को पनपा सकें।
  4. देश का सन्तुलित विकास किया जाए-सरकार द्वारा विकास की ऐसी योजनाएँ बनानी चाहिए जिससे देश के सभी क्षेत्रों को समान रूप से लाभ प्राप्त हो, सभी क्षेत्रों की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करना चाहिए। विकास योजनाओं में सभी क्षेत्रों के विकास का प्रावधान रखना चाहिए जिससे इन क्षेत्रों में परस्पर तनाव उत्पन्न न हो।
  5. क्षेत्रीय भाषाओं का सम्मान-राष्ट्र भाषा के अतिरिक्त क्षेत्रीय भाषाओं का भी विकास तथा सम्मान होना चाहिए। हिन्दी भाषा को किसी क्षेत्रीय समूह पर जबरदस्ती लादा न जाए बल्कि इस भाषा का प्रचार व विस्तार इस ढंग से किया जाए कि विभिन्न क्षेत्रीय समूह स्वतः ही इसे सम्पर्क भाषा के रूप में स्वीकार कर लें।
  6. क्षेत्रीय राजनीतिक दलों पर प्रतिबन्ध-केन्द्र सरकार द्वारा ऐसे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए जो क्षेत्रवाद की भावना में वृद्धि करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को मन्त्री तथा अन्य महत्त्वपूर्ण पद नहीं होने चाहिए जो क्षेत्रवाद में विश्वास करते हैं तथा उसे बढ़ावा देते हैं।
  7. छोटे राज्यों का गठन करना चाहिए-बड़े व विशालकाय राज्यों का विभाजन कर छोटे राज्यों की स्थापना करनी चाहिए। यह प्रशासनिक कुशलता के लिए आवश्यक है।
  8. क्षेत्रीय स्वायत्त परिषदों की स्थापना की जाए–सभी क्षेत्र के लोगों को समान आर्थिक सुविधाएँ प्रदान करने हेतु क्षेत्रीय स्वायत्त परिषदों की स्थापना की जानी चाहिए, उन्हें राजनीतिक स्वायत्तता के साथ ही प्रशासनिक और वित्तीय स्वायत्तता भी प्रदान करनी चाहिए।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्षेत्रवाद क्या है? यह भारत की राज्य व्यवस्था को किस प्रकार से प्रभावित करता है?
उत्तर:
क्षेत्रवाद क्षेत्रवाद का अर्थ किसी छोटे-से क्षेत्र से है जो भाषायी, धार्मिक, भौगोलिक, सामाजिक अथवा ऐसे ही अन्य कारक के आधार पर अपने पृथक् अस्तित्व के लिए प्रयत्नशील है। इस प्रकार क्षेत्रवाद से अभिप्राय है-राज्य की तुलना में किसी क्षेत्र विशेष से लगाव।

क्षेत्रवाद के प्रभाव-भारत की राज्य व्यवस्था को क्षेत्रवाद निम्न प्रकार से प्रभावित करता है-

  1. क्षेत्रवाद के आधार पर राज्य केन्द्र सरकार से सौदेबाजी करते हैं।
  2. क्षेत्रवाद ने कुछ हद तक भारतीय राजनीति में हिंसक गतिविधियों को उभारा है।
  3. चुनावों के समय क्षेत्रवाद के आधार पर राजनीतिक दल उम्मीदवारों का चुनाव करते हैं और क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काकर वोट प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं।
  4. मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते समय मन्त्रिमण्डल में प्राय: सभी मुख्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों को लिया जाता है।

प्रश्न 2.
संविधान की धारा-370 क्या है? इस प्रावधान का विरोध क्यों हो रहा है?
उत्तर:
संविधान की धारा-370-कश्मीर को संविधान की धारा-370 के तहत विशेष दर्जा दिया गया है। धारा-370 के अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर को भारत के अन्य राज्यों के मुकाबले अधिक स्वायत्तता दी गई है। राज्य का अपना संविधान है।

संविधान की धारा-370 का विरोध-धारा-370 का विरोध लोगों का एक समूह इस आधार पर कर रहा है कि जम्मू-कश्मीर राज्य को धारा-370 के अन्तर्गत विशेष दर्जा देने से यह भारत के साथ नहीं जुड़ पाया है। अतः धारा-370 को समाप्त कर जम्मू-कश्मीर राज्य को भी अन्य राज्यों के समान होना चाहिए।

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प्रश्न 3.
क्षेत्रीय असन्तुलन क्या है? भारतीय राजनीति व्यवस्था पर इसके प्रभावों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रीय असन्तुलन-क्षेत्रीय असन्तुलन का अर्थ यह है कि भारत के विभिन्न राज्यों तथा क्षेत्रों का विकास एक जैसा नहीं है। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के विकास स्तर और लोगों के जीवन स्तर में पाए जाने वाले अन्तर को क्षेत्रीय असन्तुलन का नाम दिया जाता है।

क्षेत्रीय असन्तुलन के प्रभाव क्षेत्रीय असन्तुलन भारतीय लोकतन्त्र पर मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रभाव डाल रहा है-

  1. पिछड़े क्षेत्रों में असन्तुष्टता की भावना बड़ी तेजी से बढ़ रही है।
  2. क्षेत्रीय असन्तुलन से क्षेत्रवाद की भावना को बल मिला है।
  3. क्षेत्रीय असन्तुलन ने अनेक क्षेत्रीय दलों को जन्म दिया है।
  4. क्षेत्रीय असन्तुलन से पृथक्तावाद तथा आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा मिला है।

प्रश्न 4.
क्षेत्रीय असन्तुलन के कारणों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रीय असन्तुलन के कारण-भारत में क्षेत्रीय असन्तुलन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. भौगोलिक विषमताओं ने क्षेत्रीय असन्तुलन पैदा किया है। परिस्थितियों के कारण भारत में एक तरफ राजस्थान जैसा मरुस्थल है जो कम उपजाऊ है तो दूसरी तरफ पंजाब जैसा उपजाऊ क्षेत्र हैं।
  2. भाषा की विभिन्नता ने क्षेत्रीय असन्तुलन को बढ़ावा दिया है।
  3. ब्रिटिश सरकार ने कुछ क्षेत्रों का विकास किया और कुछ का नहीं किया, जिससे क्षेत्रीय असन्तुलन पैदा हुआ।
  4. क्षेत्रीय असन्तुलन का एक महत्त्वपूर्ण कारण नेताओं की अपने निर्वाचन क्षेत्र के विकास पर अधिक बल देने की प्रवृत्ति भी है।

प्रश्न 5.
क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने के सुझाव दीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने के सुझाव-क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने हेतु निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं-

  1. पिछड़े हुए क्षेत्रों के विकास के लिए विशेष प्रयास किए जाएँ। पिछड़े क्षेत्रों में विशेषकर बिजली, यातायात व संचार के साधनों का विकास किया जाए।
  2. पिछड़े लोगों व जनजातियों के विकास के लिए विशेष कदम उठाया जाएँ।
  3. जो प्रशासनिक अधिकारी आदिवासी क्षेत्रों मे नियुक्त किए जाएँ उन्हें विशेष प्रशिक्षण दिया जाए और उन्हीं को नियुक्त किए जाए जो इन क्षेत्रों के बारे में थोड़ा बहुत ज्ञान भी रखते हों।
  4. केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में सभी क्षेत्रों को उचित प्रतिनिधित्व दिया जाए।

प्रश्न 6.
क्षेत्रीय असन्तुलन क्षेत्रवाद का जनक है। व्याख्या कीजिए। अथवा क्षेत्रीय असन्तुलन भारत में क्षेत्रवाद का एक प्रमुख कारण है। समझाइए।
उत्तर:
क्षेत्रीय असन्तुलन क्षेत्रवाद के जनक के रूप में क्षेत्रीय असन्तुलन से अभिप्राय विभिन्न क्षेत्रों के बीच प्रति व्यक्ति आय, साक्षरता दरों, स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवाओं की उपलब्धता, औद्योगीकरण का स्तर आदि के आधार पर अन्तर पाया जाता है। भारत के विभिन्न राज्यों के बीच बड़े पैमाने पर असन्तुलन पाया जाता है। क्षेत्रीय असन्तुलन ने भारत में निम्नलिखित रूप से क्षेत्रवाद को पैदा किया है-

  1. क्षेत्रीय विभिन्नताओं एवं असन्तुलन के कारण क्षेत्रीय भेदभाव को बढ़ावा मिलता है।
  2. भारत में क्षेत्रीय असन्तुलन के कारण क्षेत्रवादी भावनाओं को बल मिला है। इसके कारण कई क्षेत्रों ने पृथक् राज्यों की माँग की है।
  3. क्षेत्रीय असन्तुलन ने क्षेत्रवादी हिंसा, आन्दोलनों व तोड़-फोड़ को बढ़ावा दिया है।
  4. अनेक क्षेत्रीय दल क्षेत्रीय असन्तुलन के कारण ही बने हैं जो अब क्षेत्रवाद को बढ़ावा दे रहे हैं।

प्रश्न 7.
असम समझौता क्या था? इसके क्या परिणाम हुए?
उत्तर:
असम समझौता-सन् 1985 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गांधी और आसू के बीच एक समझौता हुआ जिसमें यह तय किया गया कि जो लोग बंगलादेश युद्ध के दौरान या उसके बाद के वर्षों में असम आए हैं, उनकी पहचान की जाएगी और उन्हें वापस भेजा जाएगा।

समझौते के कारण-समझौते के निम्नलिखित प्रमुख परिणाम निकले-

  1. समझौते के बाद ‘आसू’ और असम-गण-संग्राम परिषद् ने साथ मिलकर ‘असम-गण-परिषद्’ नामक एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल बनाया।
  2. असम-गण-परिषद् सन् 1985 में इस वायदे के साथ सत्ता में आया कि विदेशी लोगों की समस्या का समाधान कर लिया जाएगा।
  3. असम समझौते से प्रदेश में शान्ति कायम हुई तथा प्रदेश की राजनीति का चेहरा बदल गया।
  4. असम समझौते के बावजूद ‘आप्रवास’ की समस्या अभी भी एक जीवन्त मुद्दा बनी हुई है।

प्रश्न 8.
जम्मू-कश्मीर में तनाव के प्रमुख कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
जम्मू-कश्मीर में तनाव के प्रमुख कारण-जम्मू-कश्मीर में तनाव के प्रमुख कारण निम्नलिखित-

  1. पाकिस्तानी नेताओं का विचार है कि कश्मीर का पाकिस्तान से सम्बन्ध है क्योकि राज्य की अधिकांश जनसंख्या मुस्लिम है। पाकिस्तानी नेताओं का हमेशा यह दावा रहा है कि कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए।
  2. पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर राज्य पर सन् 1947 में कबायली हमला करवाकर इसका एक हिस्सा अपने नियन्त्रण में ले लिया है। भारत का दावा है कि इस क्षेत्र का पाकिस्तान द्वारा किया गया अधिग्रहण अवैध है।
  3. भारतीय संघ में कश्मीर की हैसियत को लेकर काफी विवाद है। धारा-370 में जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया है जिसका देश में विरोध है। अनेक लोगों का मत है कि राज्य को धारा-370 के तहत विशेष दर्जा देने से यह भारत के साथ पूरी तरह से जुड़ नहीं पाया है।
  4. अधिकांश कश्मीरी लोगों का मत है कि उन्हें पर्याप्त स्वायत्तता प्रदान नहीं की गयी है।

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प्रश्न 9.
राजीव-लोंगोवाल समझौता अथवा पंजाब समझौता की प्रमुख शर्तों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
राजीव-लोंगोवाल समझौता अथवा पंजाब समझौता

सन् 1984 के चुनावों के बाद सत्ता में आने वाले तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने नरमपन्थी अकाली नेताओं से वार्ता आरम्भ की। अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष हरचरन सिंह लोंगोवाल के साथ जुलाई 1985 में एक समझौता हुआ। इस समझौते को ‘राजीव गांधी-लोंगोवाल समझौता’ अथवा ‘पंजाब समझौता’ कहते हैं।

समझौते की प्रमुख शर्ते

(1) यह समझौता पंजाब में शान्ति कायम करने की दिशा में एक शीर्षस्थ कदम था। इस बात पर सहमति हुई कि चण्डीगढ़, पंजाब को दे दिया जाएगा तथा पंजाब एवं हरियाणा के मध्य सीमा विवाद को सुलझाने के लिए एक अलग आयोग की नियुक्ति होगी। समझौते में यह भी निश्चित किया गया कि पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान के मध्य रावी-व्यास के पानी के बँटवारे के बारे में फैसला करने हेतु एक ट्रिब्यूनल (न्यायाधिकरण) बैठाया जाएगा।

(2) समझौते में सरकार पंजाब में उग्रवाद से प्रभावित लोगों को मुआवजा देने व उनके साथ अच्छा व्यवहार करने पर राजी हुई। साथ ही पंजाब से विशेष सुरक्षा वाले अधिनियम को वापस लेने की बात पर भी सहमति हुई।

प्रश्न 10.
राजीव गांधी के सम्बन्ध में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
राजीव गांधी, फिरोज गांधी और इन्दिरा गांधी के पुत्र थे। उनका जन्म सन् 1944 में हुआ। सन् 1980 के बाद वे देश की सक्रिय राजनीति में शामिल हुए। अपनी माँ श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद वे राष्ट्रव्यापी सहानुभूति के माहौल में भारी बहुमत से जीते तथा सन् 1984 में देश के प्रधानमन्त्री बने और सन् 1989 तक वह प्रधानमन्त्री पद पर रहे। इन्होंने पंजाब में व्याप्त आतंकवाद के विरुद्ध उदारपन्थी नीतियों के समर्थक लोंगोवाल के साथ समझौता किया। इन्हें मिजो विद्रोहियों व असम में छात्र संघों से समझौता करने में सफलता प्राप्त हुई। राजीव गांधी देश में उदारवाद या खुली अर्थव्यवस्था एवं कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी के प्रणेता रहे। श्रीलंका में नक्सलियों की समस्या को सुलझाने के लिए इन्होंने भारतीय शान्ति सेना को श्रीलंका भेजा। ऐसा माना जाता है कि श्रीलंका के विद्रोही तमिल संगठन लिट्टे के एक आत्मघाती द्वारा सन् 1991 में राजीव गांधी की निर्मम हत्या कर दी गयी।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
पूर्वोत्तर के किन राज्यों को सात बहनों के नाम से जाना जाता है?
उत्तर:
(1) असम,
(2) नागालैण्ड,
(3) मेघालय,
(4) मिजोरम,
(5) अरुणाचल प्रदेश,
(6) त्रिपुरा और
(7) मणिपुर।

प्रश्न 2.
‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ कब और किसके द्वारा चलाया गया?
उत्तर:
ऑपरेशन ब्लू स्टार सन् 1984 में भारत सरकार द्वारा चलाया गया।

प्रश्न 3.
क्षेत्रीय आकांक्षाओं का एक आधारभूत सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
क्षेत्रीय आकांक्षाएँ लोकतान्त्रिक राजनीति का अभिन्न अंग हैं।

प्रश्न 4.
आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव कब पास किया गया और इसका सम्बन्ध किसके साथ है?
उत्तर:
आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव सन् 1973 में पास किया गया और इसका सम्बन्ध राज्यों की स्वायत्तता से है।

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प्रश्न 5.
‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ क्या था?
उत्तर:
सन् 1984 के जून माह में स्वर्ण मन्दिर में की गई सैन्य कार्रवाई का कूट नाम ‘ऑपरेशन ब्लू – स्टार’ था।

प्रश्न 6.
क्षेत्रवाद से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
क्षेत्रवाद से अभिप्राय किसी भी देश के उस छोटे से क्षेत्र-से है जो औद्योगिक, सामाजिक आदि कारणों से अपने पृथक् अस्तित्व के लिए जाग्रत है। क्षेत्रवाद केन्द्रीयकरण के विरुद्ध क्षेत्रीय इकाइयों को अधिक शक्ति व स्वायत्तता प्रदान करने के पक्ष में है।

प्रश्न 7.
क्षेत्रवादी आन्दोलन से हमें क्या सबक मिलता है?
उत्तर:

  1. प्रथम सबक यह मिलता है कि क्षेत्रीय आकांक्षाएँ लोक राजनीति का अभिन्न अंग हैं।
  2. लोकतान्त्रिक वार्ता करके क्षेत्रीय आकांक्षाओं का हल निकालना चाहिए।

प्रश्न 8.
क्षेत्र पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
क्षेत्र उस भू-भाग को कहते हैं जिसके निवासी सामान्य भाषा, धर्म, परम्पराएँ, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास आदि की दृष्टि से भावनात्मक रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हों। इनमें से किसी एक या अधिक तत्त्व के साथ लोग भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं।

प्रश्न 9.
अलगाववाद का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
अलगाववाद से अभिप्राय एक राज्य से कुछ क्षेत्र को अलग करके स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की माँग है। अलगाववाद का उदय उस समय होता है जब क्षेत्रवाद की भावना उग्र रूप धारण कर लेती है।

प्रश्न 10.
क्षेत्रीय दलों से क्या आशय है?
उत्तर:
जो पार्टी सारे देश में नहीं होती बल्कि जिसका कार्यक्षेत्र किसी प्रान्त या राज्य या उसके छोटे-से क्षेत्र तक सीमित होता है, उसे ‘क्षेत्रीय दल’ कहा जाता है।

प्रश्न 11.
क्षेत्रवाद रोकने के कोई दो उपाय बताइए।
उत्तर:
क्षेत्रवाद रोकने के उपाय निम्नलिखित हैं-

  1. राष्ट्रीय नीति का निर्धारण किया जाए।
  2. सांस्कृतिक एकीकरण के लिए प्रयास किए जाए।

प्रश्न 12.
भारत में क्षेत्रीय दलों के विकास के कोई दो प्रमुख कारण बताइए।
उत्तर:

  1. जातिवाद-भारत में अनेक क्षेत्रीय दलों का निर्माण जातिवाद के आधार पर हुआ है।
  2. धर्म-धर्म भी क्षेत्रीय दलों के निर्माण का प्रमुख कारण माना जाता है।

प्रश्न 13.
नए राज्यों के निर्माण के विपक्ष में दो तर्क दीजिए।
उत्तर:

  1. नए राज्यों की माँग विभिन्न क्षेत्रों में संघर्ष तथा तनाव पैदा करती है।
  2. पिछड़े क्षेत्रों का विकास नए राज्यों के गठन मात्र से सम्भव नहीं है।

प्रश्न 14.
आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव का सिक्खों तथा देश पर क्या प्रभाव पड़ा? (कोई दो)
उत्तर:

  1. इसके प्रभावस्वरूप स्वायत्त सिक्ख पहचान की बात उठी।
  2. इसके प्रभावस्वरूप ही चरमपन्थी सिक्खों ने भारत से अलग होकर खालिस्तान की माँग की।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
असम समझौता कब हुआ था-
(a) 15 अगस्त, 1985
(b) 15 अगस्त, 1986
(c) 30 अगस्त, 1988
(d) 15 जनवरी, 1990
उत्तर:
(a) 15 अगस्त, 1985

प्रश्न 2.
किस राज्य में असम-गण-परिषद् सक्रिय है-
(a) गुजरात
(b) तमिलनाडु
(c) पंजाब
(d) असम
उत्तर:
(d) असम

प्रश्न 3.
द्रविड़ आन्दोलन के प्रणेता कौन थे-
(a) हामिद अंसारी
(b) लालडेंगा
(c) ई० वी० रामास्वामी नायकर
(d) शेख मुहम्मद अब्दुल्ला।
उत्तर:
(c) ई० वी० रामास्वामी नायकर।

प्रश्न 4.
किस वर्ष आन्ध्र प्रदेश में तेलुगू देशम पार्टी की स्थापना हुई-
(a) सन् 1985
(b) सन् 1982
(c) सन् 1984
(d) सन् 1971
उत्तर:
(b) सन् 1982

प्रश्न 5.
भारत में साम्यवादी दल की स्थापना हुई-
(a) सन् 1940
(b) सन् 1924
(c) सन् 1950
(d) सन् 1960
उत्तर:
(b) सन् 1924

प्रश्न 6.
नेशनल कॉन्फ्रेंस किस राज्य में सक्रिय है-
(a) जम्मू-कश्मीर
(b) राजस्थान
(c) पंजाब
(d) हिमाचल प्रदेश।
उत्तर:
(a) जम्मू-कश्मीर।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 7 Rise of Popular Movements

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 7 Rise of Popular Movements (जन आन्दोलनों का उदय)

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
चिपको आन्दोलन के बारे में निम्नलिखित में कौन-कौन से कथन गलत हैं-
(क) यह पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए चला एक पर्यावरण आन्दोलन था।
(ख) इस आन्दोलन ने पारिस्थितिकी और आर्थिक शोषण के मामले उठाए।
(ग) यह महिलाओं द्वारा शुरू किया गया शराब-विरोधी आन्दोलन था।
(घ) इस आन्दोलन की माँग थी कि स्थानीय निवासियों का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियन्त्रण होना चाहिए।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) सही,
(ग) गलत,
(घ) सही।

प्रश्न 2.
नीचे लिखे कुछ कथन गलत हैं। इनकी पहचान करें और जरूरी सुधार के साथ उन्हें दुरुस्त करके दोबारा लिखें
(क) सामाजिक आन्दोलन भारत के लोकतन्त्र को हानि पहुंचा रहे हैं।
(ख) सामाजिक आन्दोलनों की मुख्य ताकत विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच व्याप्त उनका जनाधार है।
(ग) भारत के राजनीतिक दलों ने कई मुद्दों को नहीं उठाया। इसी कारण सामाजिक आन्दोलनों का उदय हुआ।
उत्तर:
(क) सामाजिक आन्दोलन भारत के लोकतन्त्र को बढ़ावा दे रहे हैं।
(ख) यह कथन पूर्ण रूप से सही है।
(ग) यह कथन पूर्ण रूप से सही है।

प्रश्न 3.
उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में ( अब उत्तराखण्ड) 1970 के दशक में किन कारणों से चिपको आन्दोलन का जन्म हुआ? इस आन्दोलन का क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
1970 के दशक में उत्तर प्रदेश के उत्तरांचल (उत्तराखण्ड) क्षेत्र में चिपको आन्दोलन की शुरुआत हुई। चिपको आन्दोलन का अर्थ है-पेड़ से चिपक (लिपट) जाना अर्थात् पेड़ को आलिंगनबद्ध कर लेना।

चिपको आन्दोलन के कारण-चिपको आन्दोलन के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे—

(1) चिपको आन्दोलन की शुरुआत उस समय हुई जब वन विभाग ने खेती-बाड़ी के औजार बनाने के लिए ‘Ashtree’ काटने की अनुमति नहीं दी तथा खेल सामग्री बनाने वाली एक व्यावसायिक कम्पनी को यह पेड़ काटने की अनुमति प्रदान की गई। इससे गाँव वालों में रोष उत्पन्न हुआ और गाँव वाले वनों की इस कटाई का विरोध करते हुए जंगल में एकत्रित हो गए तथा पेड़ों से चिपक गए, जिससे ठेकेदारों के कर्मचारी पेड़ों को काट न सकें। इस घटना का पूरे देश में प्रसार हुआ।

(2) गाँव वालों ने माँग रखी कि वन कटाई का ठेका किसी बाहरी व्यक्ति को नहीं दिया जाना चाहिए तथा स्थानीय लोगों का जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक साधनों पर उपयुक्त नियन्त्रण होना चाहिए।

(3) चिपको आन्दोलन का एक अन्य कारण पारिस्थितिकी सन्तुलन बनाए रखना था। गाँववासी चाहते थे कि इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी सन्तुलन को हानि पहुँचाए बिना विकास किया जाए।

(4) ठेकेदारों द्वारा शराब की आपूर्ति करने का विरोध के रूप में यह आन्दोलन उठा। इस क्षेत्र में वनों की कटाई के दौरान ठेकेदार यहाँ के पुरुषों को शराब आपूर्ति का व्यवसाय भी करते थे। अतः स्त्रियों ने शराबखोरी की लत के विरोध में भी आवाज बुलन्द की।

प्रभाव-चिपको आन्दोलन को देश में व्यापक सफलता प्राप्त हुई और सरकार ने पन्द्रह वर्षों के लिए हिमालयी क्षेत्रों में पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी ताकि इस अवधि में क्षेत्र का वनाच्छादन फिर से ठीक अवस्था में आ जाए। इस आन्दोलन की सफलता ने भारत में चलाए गए अन्य आन्दोलनों को भी प्रभावित किया। इस आन्दोलन से ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक जागरूकता के आन्दोलन चलाए गए।

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प्रश्न 4.
भारतीय किसान यूनियन किसानों की दुर्दशा की तरफ ध्यान आकर्षित करने वाला अग्रणी संगठन है। नब्बे के दशक में इसने किन मुद्दों को उठाया और इसे कहाँ तक सफलता मिली?
उत्तर:
1990 के दशक में भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) ने भारतीय किसानों की दुर्दशा सुधारने हेतु अनेक मुद्दों पर बल दिया, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं-

  1. बिजली की दरों में बढ़ोतरी का विरोध किया।
  2. 1980 के दशक में उत्तरार्द्ध में भारतीय अर्थव्यवस्था पर उदारीकरण के प्रभाव को देखते हुए नगदी फसलों के सरकारी खरीद मूल्यों में बढ़ोतरी की माँग की।
  3. कृषि उत्पादों के अन्तर्राज्यीय आवाजाही पर लगी पाबन्दियों को हटाने पर बल दिया।
  4. किसानों के लिए पेन्शन का प्रावधान करने की माँग की।

सफलताएँ – भारतीय किसान यूनियन को निम्नलिखित सफलताएँ प्राप्त हुईं-

(1) बीकेयू (BKU) जैसी माँगें देश के अन्य किसान संगठनों ने भी उठायीं। महाराष्ट्र के शेतकारी संगठन ने किसानों के आन्दोलन को इण्डिया की ताकतों (यानी शहरी औद्योगिक क्षेत्र) के खिलाफ ‘भारत’ (यानी ग्रामीण कृषि क्षेत्र) का संग्राम करार दिया।

(2) 1990 के दशक में बीकेयू ने अपनी संख्या बल के आधार पर एक दबाव समूह की तरह कार्य किया तथा अन्य किसान संगठनों के साथ मिलकर अपनी मांगें मनवाने में सफलता पायी।

(3) यह आन्दोलन मुख्य रूप से देश के समृद्ध राज्यों में सक्रिय था। खेती को अपनी जीविका का आधार बनाने वाले अधिकांश भारतीय किसानों के विपरीत बीकेयू जैसे संगठनों के सदस्य बाजार के लिए नगदी फसल उगाते थे। बीकेयू की तरह राज्यों के अन्य किसान संगठनों ने अपने सदस्य बनाए, जिनका क्षेत्र की चुनावी राजनीति से सम्बन्ध था। महाराष्ट्र का शेतकारी संगठन और कर्नाटक का रैयत संघ ऐसे किसान संगठनों के जीवन्त उदाहरण हैं।

प्रश्न 5.
आन्ध्र प्रदेश में चले शराब-विरोधी आन्दोलन ने देश का ध्यान कुछ गम्भीर मुद्दों की तरफ खींचा। ये मुद्दे क्या थे?
उत्तर:
आन्ध्र प्रदेश में चले शराब-विरोधी आन्दोलन ने देश का ध्यान निम्नलिखित गम्भीर मुद्दों की तरफ खींचा-

  1. शराब पीने से पुरुषों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य कमजोर होता है।
  2. शराब पीने से व्यक्ति की कार्यक्षमता प्रभावित होती है जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है।
  3. शराबखोरी से ग्रामीणों पर कर्ज का बोझ बढ़ता है।
  4. शराबखोरी से कामचोरी की आदत बढ़ती है।
  5. शराब माफिया के सक्रिय होने से गाँवों में अपराधों को बढ़ावा मिलता है तथा अपराध और राजनीति के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध बनता है।
  6. शराबखोरी से परिवार की महिलाओं से मारपीट एवं तनाव को बढ़ावा मिलता है।
  7. शराब विरोधी आन्दोलन ने महिलाओं के मुद्दों-दहेज प्रथा, घरेलू हिंसा, कार्यस्थल व सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न, लैंगिक असमानता आदि के प्रति समाज में जागरूकता उत्पन्न की।

प्रश्न 6.
क्या आप शराब-विरोधी आन्दोलनको महिला-आन्दोलन का दर्जा देंगे? कारण बताएँ।
उत्तर:
शराब-विरोधी आन्दोलन को महिला-आन्दोलन का दर्जा दिया जा सकता है क्योंकि अब तक जितने भी शराब-विरोधी आन्दोलन हुए उनमें महिलाओं की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण रही है। शराबखोरी से सर्वाधिक परेशानी महिलाओं को होती है। इससे परिवार की अर्थव्यवस्था चरमराने लगती है, परिवार में तनाव व मारपीट का वातावरण बनता है। तनाव के चलते पुरुष शारीरिक व मानसिक रूप से कमजोर हो जाते हैं। इन्हीं कारणों से शराब-विरोधी आन्दोलनों का प्रारम्भ प्रायः महिलाओं द्वारा किया जाता रहा है। अत: शराब-विरोधी आन्दोलन को महिला-आन्दोलन भी कहा जा सकता है।

प्रश्न 7.
नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने नर्मदा घाटी की बाँध परियोजना का विरोध क्यों किया?
उत्तर:
नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने नर्मदा घाटी की बाँध परियोजना का विरोध अग्रलिखित कारणों से किया-

  1. बाँध निर्माण से प्राकृतिक नदियों व पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है।
  2. जिस क्षेत्र में बाँध बनाए जाते हैं वहाँ रह रहे गरीबों के घर-बार, उनकी खेती योग्य भूमि, वर्षों से चले आ रहे कुटीर-धन्धों पर भी बुरा असर पड़ता है।
  3. प्रभावित गाँवों के करीब ढाई लाख लोगों के पुनर्वास का मामला उठाया जा रहा था।
  4. परियोजना पर किए जाने वाले व्यय में हेरा-फेरी के दोषों को उजागर करना भी परियोजना विरोधी स्वयं सेवकों का उद्देश्य था।
  5. आन्दोलनकर्ता प्रभावित लोगों को आजीविका और उनकी संस्कृति के साथ-साथ पर्यावरण को बचाना चाहते थे। वे जल, जंगल और जमीन पर प्रभावित लोगों का नियन्त्रण या इन्हें उचित मुआवजा और उनका पुनर्वास चाहते थे।

प्रश्न 8.
क्या आन्दोलन और विरोध की कार्रवाइयों से देश का लोकतन्त्र मजबूत होता है? अपने उत्तर की पुष्टि में उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
अहिंसक और शान्तिपूर्ण आन्दोलनों एवं विरोध की कार्रवाइयों ने लोकतन्त्र को नुकसान नहीं बल्कि मजबूत किया है। इसके समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-

1.चिपको आन्दोलन-अहिंसक और शान्तिपूर्ण तरीके से चलाया गया यह एक व्यापक जन आन्दोलन था। इससे पेड़ों की कटाई, वनों का उजड़ना रुका। पशु-पक्षियों और जनता को जल, जंगल, जमीन और स्वास्थ्यवर्धक पर्यावरण मिला। सरकार लोकतान्त्रिक माँगों के समक्ष झुकी।

2. वामपन्थियों द्वारा चलाए गए किसान और मजदूर आन्दोलनों द्वारा जन-साधारण में जागृति, राष्ट्रीय कार्यों में भागीदारी और सरकार को सर्वहारा वर्ग की उचित माँगों के लिए जगाने में सफलता मिली।

3. दलित पैंथर्स नेताओं द्वारा चलाए गए आन्दोलनों, लिखे गए सरकार विरोधी साहित्यकारों की कविताओं और रचनाओं ने आदिवासी, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़ी जातियों में चेतना पैदा की। दलित पैंथर्स राजनीतिक दल और संगठन बने। जाति भेद-भाव और छुआछूत जैसी बुराइयों को दूर किया गया। समाज में समानता, स्वतन्त्रता, सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय, राजनीतिक न्याय को सुदृढ़ता मिली।

4. ताड़ी-विरोधी आन्दोलन ने नशाबन्दी और मद्य-निषेध के विरोध का वातावरण तैयार किया। महिलाओं से जुड़ी अनेक समस्याएँ; जैसे-यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा और महिलाओं को विधायिका में दिए जाने वाले आरक्षण के मामले उठे। संविधान में कुछ संशोधन हुए और कानून बनाए गए।

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प्रश्न 9.
दलित पैंथर्स ने कौन-कौन से मुद्दे उठाए?
उत्तर:
दलित पैंथर्स बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक के शुरुआती सालों में दलित शिक्षित युवा वर्ग का आन्दोलन था। इसमें ज्यादातर शहर की झुग्गी-बस्तियों में पलकर बड़े हुए दलित थे। दलित पैंथर्स ने दलित समुदाय से सम्बन्धित सामाजिक असमानता, जातिगत आधार पर भेदभाव, दलित महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, दलितों का सामाजिक एवं आर्थिक उत्पीड़न तथा दलितों के लिए आरक्षण जैसे मुद्दे उठाए।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दें
… लगभग सभी नए सामाजिक आन्दोलन नयी समस्याओं; जैसे-पर्यावरण का विनाश, महिलाओं की बदहाली, आदिवासी संस्कृति का नाश और मानवाधिकारों का उल्लंघन….. के समाधान को रेखांकित करते हुए उभरे। इनमें से कोई भी अपने आप में समाज व्यवस्था के मूलगामी बदलाव के सवाल से नहीं जुड़ा था। इस अर्थ में ये आन्दोलन अतीत की क्रान्तिकारी विचारधाराओं से एकदम अलग हैं। लेकिन, ये आन्दोलन बड़ी बुरी तरह बिखरे हुए हैं और यही इनकी कमजोरी है….. सामाजिक आन्दोलनों का एक बड़ा दायरा ऐसी चीजों की चपेट में है कि वह एक ठोस तथा एकजुट जन आन्दोलन का रूप नहीं ले पाता और न ही वंचितों और गरीबों के लिए प्रासंगिक हो जाता है। ये आन्दोलन बिखरे-बिखरे हैं, प्रतिक्रिया के तत्त्वों से भरे हैं, अनियत हैं और बुनियादी सामाजिक बदलाव के लिए इनके पास कोई फ्रेमवर्क नहीं है। ‘इस’ या ‘उस’ के विरोध (पश्चिम-विरोधी, पूँजीवाद-विरोधी, ‘विकास’-विरोधी, आदि) में चलने के कारण इनमें कोई संगति आती हो अथवा दबे-कुचले लोगों और हाशिए के समुदायों के लिए ये प्रासंगिक हो पाते हों-ऐसी बात नहीं। – रजनी कोठारी
(क) नए सामाजिक आन्दोलन और क्रान्तिकारी विचारधाराओं में क्या अन्तर है?
(ख) लेखक के अनुसार सामाजिक आन्दोलनों की सीमाएँ क्या-क्या हैं?
(ग) यदि सामाजिक आन्दोलन विशिष्ट मुद्दों को उठाते हैं तो आप उन्हें ‘बिखरा’ हुआ कहेंगे या मानेंगे कि वे अपने मुद्दे पर कहीं ज्यादा केन्द्रित हैं। अपने उत्तर की पुष्टि में तर्क दीजिए।
उत्तर:
(क) सामाजिक आन्दोलन समाज से जुड़े हुए मामलों अथवा समस्याओं को उठाते हैं; जैसे-जाति भेदभाव, रंग भेदभाव, लिंग भेदभाव के विरोध में चलाए जाने वाले सामाजिक आन्दोलन। इसी प्रकार ताड़ी विरोधी आन्दोलन, सभी को शिक्षा, सामाजिक न्याय और समानता के लिए चलाए जाने वाले आन्दोलन आदि।

जबकि क्रान्तिकारी विचारधारा के लोग तुरन्त सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में बदलाव लाना चाहते हैं। वे लक्ष्यों को ज्यादा महत्त्व देते हैं, तरीकों को नहीं। मार्क्सवादी-लेनिनवादी या नक्सलवादी आन्दोलन को क्रान्तिकारी विचारधारा के आन्दोलन मानते हैं।

(ख) सामाजिक आन्दोलन बिखरे हुए हैं तथा इसमें एकजुटता का अभाव पाया जाता है। सामाजिक आन्दोलनों के पास सामाजिक बदलाव में लिए कोई ढाँचागत योजना नहीं है।

(ग) सामाजिक आन्दोलनों द्वारा उठाए गए विशिष्ट मुद्दों के कारण यह कहा जा सकता है कि ये आन्दोलन अपने मुद्दों पर अधिक केन्द्रित हैं।

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
है तो यह बड़ी शानदार बात! लेकिन कोई मुझे बताए कि हम जो यहाँ राजनीति का इतिहास पढ़ रहे हैं, उससे यह बात कैसे जुड़ती है?
उत्तर:
सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों में जन आन्दोलनों की शानदार उपलब्धि रही है। चिपको आन्दोलन में उत्तराखण्ड के एक गाँव के स्त्री एवं पुरुषों ने पर्यावरण की सुरक्षा और जंगलों की कटाई का विरोध करने के लिए एक अनूठा प्रयास किया, जिसमें इन लोगों ने पेड़ों को अपनी बाँह में भर लिया ताकि उनको काटने से बचाया जा सके। इस आन्दोलन को व्यापक सफलता प्राप्त हुई।

जन आन्दोलनों का राजनीति से सम्बन्ध का पुराना इतिहास रहा है। जन आन्दोलन कभी राजनीतिक तो कभी सामाजिक आन्दोलन का रूप ले सकते हैं और अकसर यह दोनों ही रूपों में नजर आते हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन को ही लें तो यह मुख्य रूप से राजनीतिक आन्दोलन था लेकिन औपनिवेशक काल में सामाजिक-आर्थिक मसलों पर भी विचार मन्थन चला जिससे अनेक स्वतन्त्र सामाजिक आन्दोलनों का जन्म हुआ; जैसे-जाति प्रथा विरोधी आन्दोलन, किसान सभा आन्दोलन और मजदूर संगठनों के आन्दोलन। इन आन्दोलनों ने सामाजिक संघर्षों के कुछ अन्दरूनी मुद्दे उठाए।

ऐसे ही कुछ आन्दोलन आजादी के बाद के दौर में भी चलते रहे। मुम्बई, कोलकाता और कानपुर जैसे बड़े शहरों के औद्योगिक मजदूरों के बीच मजदूर संगठनों के आन्दोलनों का बड़ा जोर था। सभी बड़ी पार्टियों ने इस तबके के मजदूरों को लामबन्द करने के लिए अपने-अपने मजदूर संगठन बनाए।

प्रश्न 2.
गैर-राजनीतिक संगठन? मैं यह बात कुछ समझा नहीं। आखिर, पार्टी के बिना राजनीति कैसे की जा सकती है?
उत्तर:
सामान्यत: गैर-राजनीतिक संगठन ऐसे संगठन हैं जो दलगत राजनीति से दूर स्थानीय एवं क्षेत्रीय मुद्दों से जुड़े हुए होते हैं तथा सक्रिय राजनीति में भाग लेने की अपेक्षा एक दबाव समूह की तरह कार्य करते हैं।

औपनिवेशिक दौर में सामाजिक-आर्थिक मसलों पर भी विचार मन्थन चला जिससे अनेक स्वतन्त्र सामाजिक आन्दोलनों का जन्म हुआ; जैसे-जाति प्रथा विरोधी आन्दोलन, किसान सभा आन्दोलन और मजदूर संगठनों के आन्दोलन। ये आन्दोलन 20वीं सदी के प्रारम्भ में अस्तित्व में आए। मुम्बई, कोलकाता और कानपुर जैसे औद्योगिक शहरों में मजदूर संगठनों के आन्दोलनों का जोर था। इनका मुख्य जोर आर्थिक अन्याय और असमानता के मसले पर रहा। ये सभी गैर-राजनीतिक संगठन थे और इन्होंने अपनी माँगें मनवाने के लिए आन्दोलनों का सहारा लिया।

यद्यपि ऐसे गैर-राजनीतिक संगठनों ने औपचारिक रूप से चुनावों में भाग तो नहीं लिया लेकिन राजनीतिक दलों से इनका सम्बन्ध नजदीकी रहा। इन आन्दोलनों में सम्मिलित हुए कई व्यक्ति और संगठन राजनीतिक दलों में भी सक्रिय हुए।

प्रश्न 3.
क्या दलितों की स्थिति इसके बाद से ज्यादा बदल गई है? दलितों पर अत्याचार की घटनाओं के बारे में मैं रोजाना सुनती हूँ। क्या यह आन्दोलन असफल रहा? या, यह पूरे समाज की असफलता है?
उत्तर:
दलितों की स्थिति में सुधार हेतु सन् 1972 में शिक्षित दलित युवा वर्ग ने महाराष्ट्र में एक आन्दोलन चलाया, जिसे दलित पैंथर्स आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। इस आन्दोलन के माध्यम से दलितों की स्थिति सुधारने हेतु अनेक प्रयास किए गए। इस आन्दोलन का उद्देश्य जाति प्रथा को समाप्त करना तथा गरीब किसान, शहरी औद्योगिक मजदूर और दलित सहित सारे वंचित वर्गों का एक संगठन तैयार करना था।

यद्यपि इस आन्दोलन द्वारा शिक्षित युवा वर्ग ने काफी प्रयास किया, लेकिन अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हो पायी। भारतीय संविधान में छुआछूत की प्रथा को समाप्त कर दिया गया। इसके बावजूद भी पुराने जमाने में जिन जातियों को अछूत माना गया था, उनके साथ नए दौर में भी सामाजिक भेदभाव तथा हिंसा का बर्ताव कई रूपों में जारी रहा। दलितों की बस्तियाँ मुख्य गाँव से अब भी दूर थीं, दलित महिलाओं के साथ यौन-अत्याचार होते थे। जातिगत प्रतिष्ठा की छोटी-मोटी बात को लेकर दलितों पर सामूहिक जुल्म ढाए जाते थे।

प्रश्न 4.
मुझे कोई ऐसा नहीं मिला जो कहे कि मैं किसान बनना चाहता हूँ। क्या हमें अपने देश में किसानों की जरूरत नहीं है?
उत्तर:
यद्यपि भारत एक कृषि-प्रधान देश है और भारतीय अर्थव्यवस्था का अधिकांश हिस्सा कृषि पर आधारित है, लेकिन संसाधनों के अभाव व वर्षा आधारित कृषि होने के कारण किसानों को इस कार्य में पर्याप्त लाभ नहीं मिल पा रहा है। इसके अलावा जनाधिक्य व कृषिगत क्षेत्र की सीमितता के कारण इस क्षेत्र में छिपी हुई बेरोजगारी जैसी समस्या आम बात हो गई है। आम नागरिक को इस क्षेत्र में उज्ज्वल भविष्य नजर नहीं आ रहा है। इसलिए लोग कृषिगत कार्यों की अपेक्षा अन्य कार्यों में अधिक रुचि लेने लगे हैं।

प्रश्न 5.
क्या आन्दोलनों को राजनीति की प्रयोगशाला कहा जा सकता है? आन्दोलनों के दौरान नए प्रयोग किए जाते हैं और सफल प्रयोगों को राजनीतिक दल अपना लेते हैं।
उत्तर:
जन-आन्दोलनों को राजनीति की प्रयोगशाला कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जन-आन्दोलन कभी सामाजिक तो कभी राजनीतिक आन्दोलन का रूप ले सकते हैं। भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति पूर्व और स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद अनेक जन-आन्दोलन हुए, जिन्होंने बाद में राजनीतिक रूप ग्रहण कर लिया। भारत के स्वाधीनता आन्दोलन को इसका उदाहरण माना जा सकता है।

इसी प्रकार भारत की स्वतन्त्रता के उपरान्त प्रारम्भिक वर्षों में दक्षिण भारत के आन्ध्र प्रदेश के अन्तर्गत आने वाले तेलंगाना क्षेत्र के किसान कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में लामबन्द हुए। इन्होंने काश्तकारों के बीच जमीन के पुनर्वितरण की माँग की। आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार के कुछ भागों में किसान तथा कृषि मजदूरों ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में अपना विरोध जारी रखा। ऐसे आन्दोलनों ने औपचारिक रूप से चुनावों में भाग तो नहीं लिया लेकिन राजनीतिक दलों से इनका नजदीकी रिश्ता कायम हुआ। इन आन्दोलनों में शामिल कई व्यक्ति और संगठन राजनीतिक दलों में सक्रिय रूप से जुड़े। ऐसे जुड़ाव से दलगत राजनीति में विभिन्न सामाजिक तबकों की बेहतर नुमाइन्दगी सुनिश्चित हुई।

इस प्रकार जन-आन्दोलनों और राजनीति का गहरा नाता रहा है। आन्दोलनों के दौरान किए जाने वाले सफल प्रयोगों को राजनीतिक दल अपना लेते हैं।

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् होने वाले प्रमुख किसान आन्दोलनों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् किसान आन्दोलन
भारत एक कृषि-प्रधान देश है। भारतीय अर्थव्यवस्था का अधिकांश हिस्सा कृषि पर निर्भर है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने कृषकों की दशा सुधारने हेतु अनेक प्रयास किए, फिर भी कृषकों की माँगें पूरी नहीं हो पायीं और उन्होंने आन्दोलन का सहारा लिया। इनमें से कुछ आन्दोलन निम्नलिखित हैं-

1. तिभागा आन्दोलन-तिभागा आन्दोलन सन् 1946-47 में बंगाल में प्रारम्भ हुआ। यह आन्दोलन मुख्यत: जोतदारों के विरुद्ध मझोले किसानों एवं बटाईदारों का संयुक्त आन्दोलन था। इस आन्दोलन का मुख्य कारण सन् 1943 में बंगाल में पड़ा भीषण अकाल था। इस आन्दोलन के कारण कई गाँवों में किसान सभा का शासन स्थापित हो गया परन्तु औद्योगिक मजदूर वर्ग और मझोले किसानों के समर्थन के बिना यह शीघ्र ही समाप्त हो गया।

2. तेलंगाना आन्दोलन-तेलंगाना आन्दोलन हैदराबाद राज्य में सन् 1946 में जागीरदारों द्वारा की जा रही जबरन एवं अत्यधिक वसूली के विरोध में चलाया गया क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन था। इस आन्दोलन में किसानों ने माँग की कि उनके सभी ऋण माफ कर दिए जाएँ परन्तु जमींदारों ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया। क्रान्तिकारी किसानों ने पाँच हजार गुरिल्ला किसान तैयार किए और जमींदारों के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ कर दिया। गुरिल्ला सैनिकों ने जमींदारों के हथियार छीन लिए और उन्हें भगा दिया लेकिन भारत सरकार द्वारा हस्तक्षेप करने पर यह आन्दोलन समाप्त हो गया।

3. आधुनिक किसान आन्दोलन-अपने हितों की रक्षा के लिए किसान समय-समय पर आन्दोलन करते रहते हैं। पिछले कई वर्षों से कपास के दामों में कमी होने के कारण कपास उत्पादक राज्यों महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब आदि के किसानों में असन्तोष फैल गया। मार्च 1987 में गुजरात के किसानों ने अपनी मांगें मनवाने के लिए विधानसभा का घेराव करने की योजना बनाई। सरकार ने गुजरात विधानसभा (गांधीनगर) की किलेबन्दी कर दी। पुलिस ने किसानों पर तरह-तरह के अत्याचार किए और किसानों ने पुलिस के अत्याचारों के विरुद्ध ग्राम बन्द करने की अपील की, जिसके कारण गुजरात के अनेक शहरों में दूध और सब्जी की समस्या कई दिनों तक रही।

किसान आन्दोलनों का मूल्यांकन स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी किसानों की समस्या वैसी ही बनी हुई है जैसी कि ब्रिटिशकाल में थी। इससे स्पष्ट होता है कि स्वतन्त्रता से पूर्व और स्वतन्त्रता के बाद किए गए सभी किसान आन्दोलन असफल रहे। इन किसान आन्दोलनों की असफलता के महत्त्वपूर्ण कारक हैं-किसान आन्दोलनों में संगठन की कमी, किसानों में अज्ञानता, अन्धविश्वास, क्रान्तिकारी तथा उद्देश्यपूर्ण विचारधारा की कमी और योग्य नेतृत्व का अभाव।

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प्रश्न 2.
जन-आन्दोलन के मुख्य कारणों का उल्लेख करते हुए भारतीय राजनीति पर प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जन-आन्दोलन के प्रमुख कारण जन-आन्दोलन के अनेक कारण उत्तरदायी थे, जिनमें से प्रमुख अग्रलिखित हैं-

1. राजनीतिक दलों के आचार-व्यवहार से मोह भंग होना-सत्तर और अस्सी के दशक में समाज के कई तबकों का राजनीतिक दलों के आचार-व्यवहार से मोह भंग हो गया। गैर-कांग्रेसवाद या जनता पार्टी की असफलता से राजनीतिक अस्थिरता का माहौल पैदा हो गया। इससे दल-रहित जन-आन्दोलनों का उदय हुआ।

2. सरकार की आर्थिक नीतियों से मोह भंग होना-सरकार की आर्थिक नीतियों से भी लोगों का मोह भंग हुआ क्योंकि गरीबी और असमानता बड़े पैमाने पर बनी रही। आर्थिक संवृद्धि का लाभ समाज के हर तबके को समान रूप से नहीं मिला। जाति और लिंग आधारित साम्प्रदायिक असमानताओं ने गरीबी के मुद्दे को और ज्यादा जटिल और धारदार बना दिया। समाज के विभिन्न समूहों के बीच अपने साथ हो रहे अन्याय और वंचना का भाव प्रबल हुआ।

3. लोकतान्त्रिक संस्थाओं और चुनावी राजनीति से विश्वास उठना-राजनीतिक धरातल पर सक्रिय कई समूहों का विश्वास लोकतान्त्रिक संस्थाओं और चुनावी राजनीति से उठ गया। ये समूह दलगत राजनीति से अलग हुए और अपने विरोध को स्वर देने के लिए इन्होंने आवाम को लामबन्द करना शुरू कर दिया। दलित पैंथर्स आन्दोलन, किसान आन्दोलन, ताड़ी विरोध आन्दोलन, नर्मदा बचाओ आन्दोलन आदि इसी तरह के जनआन्दोलन थे।

भारतीय राजनीति पर जन-आन्दोलनों का प्रभाव भारतीय राजनीति पर जन-आन्दोलनों के निम्नलिखित प्रभाव पड़े-

  1. इन सामाजिक आन्दोलनों ने समाज के उन नए वर्गों की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को अभिव्यक्ति दी जो अपनी समस्याओं को चुनावी राजनीति के जरिये हल नहीं कर पा रहे थे।
  2. विभिन्न सामाजिक समूहों के लिए ये आन्दोलन अपनी बात रखने को बेहतर माध्यम बनकर उभरे।
  3. समाज के गहरे तनावों और जनता के क्षोभ को एक सार्थक दिशा देकर इन आन्दोलनों ने एक तरह से लोकतन्त्र की रक्षा की है तथा सक्रिय भागीदारी के नए रूपों के प्रयोग ने भारतीय लोकतन्त्र के जनाधार को बढ़ाया है।
  4. ये आन्दोलन जनता की उचित माँगों के प्रतिनिधि बनकर उभरे हैं और इन्होंने नागरिकों के एक बड़े समूह को अपने साथ जोड़ने में सफलता हासिल की है।

प्रश्न 3.
भारत में स्त्रियों के उत्थान के लिए उठाए गए कदमों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत में स्त्रियों के उत्थान के लिए उठाए गए कदम

भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद स्त्रियों की दशा में सुधार लाने के लिए अनेक कदम उठाए गए, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं-

1. महिला अपराध प्रकोष्ठ तथा परिवार न्यायपालिका-इस विभाग का मुख्य कार्य महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए सुनवाई करना तथा विवाह, तलाक, दहेज व पारिवारिक विवादों को सुलझाना है।

2. सरकारी कार्यालयों में महिलाओं की भर्ती-वर्तमान में लगभग सभी सरकारी कार्यालयों में महिला कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती है। वायु सेना, नौ सेना तथा थल सेना और सशस्त्र सेनाओं के तीनों अंगों में अधिकारी पदों पर स्त्रियों की भर्ती पर लगी रोक को हटा लिया गया है। सभी क्षेत्रों में महिलाएँ कार्य कर रही हैं।

3. स्त्री शिक्षा-स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में स्त्री शिक्षा का काफी विस्तार हुआ है।

4. राष्ट्रीय महिला आयोग-सन् 1990 के एक्ट के अन्तर्गत एक राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना की गई है। महाराष्ट्र, गुजरात, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, दिल्ली, पंजाब, कर्नाटक, असम एवं गुजरात राज्यों में भी महिला आयोगों की स्थापना की जा चुकी है। ये आयोग महिलाओं पर हुए अत्याचार, उत्पीड़न, शोषण तथा अपहरण आदि के मामलों की जाँच-पड़ताल करते हैं। सभी राज्यों में महिला आयोग स्थापित किए जाने की माँग जोर पकड़ रही है और इन आयोगों को प्रभावी बनाने की माँग भी जोरों पर है।

5. महिला आरक्षण-महिलाएँ कुल आबादी की लगभग 50 प्रतिशत हैं। लेकिन सरकारी कार्यालयों, संसद, राज्य विधानमण्डलों आदि में इनकी संख्या बहुत कम है। सन् 1993 के 73वें व 74वें संविधान संशोधन । द्वारा पंचायती राज संस्थाओं तथा नगरपालिकाओं में एक-तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं। संसद और राज्य विधानमण्डलों में भी इसी प्रकार आरक्षण किए जाने की माँग जोर पकड़ रही है। यद्यपि इस ओर प्रयास किया जा रहा है; परन्तु सर्वसम्मति के अभाव में यह विधेयक संसद में पारित नहीं हो पाया है।

उपर्युक्त प्रयासों के अलावा अखिल भारतीय महिला परिषद् तथा कई अन्य महिला संगठन स्त्रियों को अत्याचार उत्पीड़न और अन्याय से बचाने, उन पर अत्याचार तथा बलात्कार करने वाले अपराधियों को दण्ड दिलवाने तथा महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए प्रयत्नशील हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता के बाद महिलाओं की स्थिति में क्या परिवर्तन आया? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता के बाद महिलाओं की स्थिति को असमानता से समानता तक लाने के जागरूक प्रयास होते रहे हैं। वर्तमान काल में महिलाओं को पुरुषों के समान समानता का दर्जा प्राप्त है। महिलाएँ किसी भी प्रकार की शिक्षा या प्रशिक्षण को चुनने के लिए स्वतन्त्र हैं; परन्तु ग्रामीण समाज में अभी भी महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है जिसे दूर किए जाने की आवश्यकता है। यद्यपि कानूनी तौर पर महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्रदान किए गए हैं परन्तु आदिकाल से चली आ रही पुरुष प्रधान व्यवस्था में व्यावहारिक रूप में महिलाओं के साथ अभी भी भेदभाव किया जाता है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीय महिला आयोग को समझाइए।
उत्तर:
राष्ट्रीय महिला आयोग भारत में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए सन् 1990 में संसद ने एक कानून बनाया जो कि 31 जनवरी, 1992 को अस्तित्व में आया। इस कानून के तहत राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना की गई। राष्ट्रीय महिला आयोग को व्यापक अधिकार दिए गए हैं। यह आयोग महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए संसद को कानून बनाने के लिए उस पर दबाव डालता है। संसद द्वारा पास किए गए कानूनों की आयोग समीक्षा करता है, जो महिलाओं के अधिकारों से सम्बन्धित हैं। यह आयोग महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों की जाँच करता है तथा दोषी को दण्ड दिलवाने की सिफारिश करता है। इसके साथ-साथ यह आयोग महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक अधिकार दिलाने के लिए प्रयासरत रहता है।

प्रश्न 3.
जन-आन्दोलन का क्या अर्थ है? दल समर्थित (दलीय) और स्वतन्त्र (निर्दलीय) आन्दोलन का स्वरूप स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जन-आन्दोलन का अर्थ-प्रजातान्त्रिक मर्यादाओं तथा संवैधानिक नियमों के आधार पर तथा सामाजिक शिष्टाचार से सम्बन्धित नियमों के पालन सहित सरकारी नीतियों, कानून व प्रशासन सहित किसी मुद्दे पर व्यक्तियों के समूह या समूहों के द्वारा असहमति प्रकट किया जाना ‘जन-आन्दोलन’ कहलाता है। – जन-आन्दोलनों में प्रदर्शन, नारेबाजी, जुलूस जैसे क्रियाकलाप शामिल हैं।

जन-आन्दोलनों का स्वरूप –

  1. दल आधारित आन्दोलन-जब कभी राजनीतिक दल या राजनीतिक दलों के समर्थन प्राप्त समूहों द्वारा आन्दोलन किए जाते हैं तो इन्हें ‘दलीय आन्दोलन’ कहा जाता है; जैसे—किसान सभा आन्दोलन एक दलीय आन्दोलन था।
  2. स्वतन्त्र जन-आन्दोलन-जब आन्दोलन असंगठित लोगों के समूह द्वारा संचालित किए जाते हैं, तो वे निर्दलीय जन-आन्दोलन कहलाते हैं; जैसे-चिपको आन्दोलन, दलित पैंथर्स आन्दोलन।

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प्रश्न 4.
क्या आपपंचायत स्तर पर महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटों पर आरक्षण के पक्ष में हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
भारत में 73वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना की गई है। इस संविधान संशोधन द्वारा स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित की गई हैं। पंचायत स्तर पर महिलाओं के लिए आरक्षण की यह व्यवस्था सही है, क्योंकि-

  1. यह संस्था तभी सफलतापूर्वक कार्य कर सकती है जब इसके संगठन में पुरुष और स्त्रियों दोनों को स्थान मिले।
  2. यदि स्त्रियों को पंचायतों में आरक्षण दिया जाता है तो पंचायत और अधिक लोकतान्त्रिक संस्था बनेगी तथा लोगों का उन पर विश्वास बना रहेगा। एक धारणा यह भी है कि स्त्रियाँ शारीरिक रूप से निर्बल होती हैं, इस कारण भी उनको अपनी सुरक्षा के लिए पंचायतों में आरक्षण दिया जाना चाहिए।
  3. ग्रामीण स्तर पर महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बहुत कम है, यदि पंचायतों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित की जाती हैं तो इससे राजनीति में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ेगी तथा उन्हें राजनीतिक शिक्षा भी मिलेगी।

प्रश्न 5.
मण्डल आयोग के सम्बन्ध में आप क्या जानते हैं? मण्डल आयोग की प्रमुख सिफारिशों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
मण्डल आयोग-मण्डल आयोग का गठन 1 जनवरी, 1979 में किया गया। इस आयोग का मुख्य कार्य सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हुए वर्गों की पहचान करना तथा इनके विकास के लिए सुझाव देना था। मण्डल आयोग ने 13 दिसम्बर, 1980 को अपनी रिपोर्ट सौंपी।

मण्डल आयोग की प्रमुख सिफारिशें –

  1. सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण होना चाहिए।
  2. अन्य पिछड़ा वर्गों (OBC’s) के कल्याण के लिए बनाए गए कार्यक्रम के लिए धन केन्द्र सरकार को देना चाहिए।
  3. भूमि सुधार शीघ्र किए जाएँ ताकि छोटे किसानों को अमीर किसानों पर निर्भर न रहना पड़े।
  4. अन्य पिछड़ा वर्गों को लघु उद्योग लगाने के लिए सहायता दी जाए तथा उन्हें प्रोत्साहित किया जाए।
  5. अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए विशेष शिक्षा योजनाएँ लागू की जाएँ।

प्रश्न 6.
भारत में लोकप्रिय जन-आन्दोलन से सीखे सबकों (पाठों) का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
जन-आन्दोलन के सबक जन-आन्दोलनों के द्वारा पढ़ाए जाने वाले प्रमुख सबक निम्नलिखित हैं-

  1. जन-आन्दोलन के द्वारा लोगों को लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझने में सहायता मिली है।
  2. इन आन्दोलनों का उद्देश्य दलीय राजनीति की खामियों को दूर करना था। इस रूप में इन्हें देश की लोकतान्त्रिक राजनीति के अहम हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए।
  3. सामाजिक आन्दोलनों ने समाज के उन नए वर्गों की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को अभिव्यक्ति दी है जो अपनी समस्याओं को चुनावी राजनीति के माध्यम से हल नहीं कर पा रहे थे।
  4. समाज के गहरे तनावों और जनता के क्षोभ को इन आन्दोलनों ने एक सार्थक दिशा दी है।
  5. इन आन्दोलनों के सक्रिय भागीदारी के नए रूपों के प्रयोग ने भारतीय लोकतन्त्र के जनाधार को बढ़ाया है।

प्रश्न 7.
नर्मदा बचाओ आन्दोलन की प्रमुख गतिविधियों को समझाइए।
उत्तर:
नर्मदा बचाओ आन्दोलन की प्रमुख गतिविधियाँ-

  1. आन्दोलन के नेतृत्व ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि इन परियोजनाओं का लोगों के पर्यावास, आजीविका, संस्कृति तथा पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ा है।
  2. प्रारम्भ में आन्दोलन ने परियोजना से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित सभी लोगों के समुचित पुनर्वास किए जाने की माँग रखी।
  3. बाद में इस आन्दोलन ने इस बात पर बल दिया कि ऐसी परियोजनाओं की निर्णय प्रक्रिया में स्थानीय समुदाय की भागीदारी होनी चाहिए और जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर उनका प्रभावी नियन्त्रण होना चाहिए।
  4. अब आन्दोलन बड़े बाँधों की खुली मुखालफत करता है।
  5. आन्दोलन ने अपनी माँगे मुखर करने के लिए हरसम्भव लोकतान्त्रिक रणनीति का इस्तेमाल किया। यथा
    • इसने अपनी बात न्यायपालिका से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय मंचों तक उठायी।
    • इसके नेतृत्व ने सार्वजनिक रैलियों तथा सत्याग्रह जैसे तरीकों का भी प्रयोग किया।
    • नवें दशक के अन्त तक आते-आते इससे कई अन्य आन्दोलन भी जुड़े और यह देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे सम धर्म आन्दोलनों के गठबन्धन का अंग बन गया।

प्रश्न 8.
महिला सशक्तीकरण की राष्ट्रीय नीति, 2001 के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रीय महिला सशक्तीकरण (2001) के उद्देश्य राष्ट्रीय महिला सशक्तीकरण नीति, 2001 के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. सकारात्मक आर्थिक और सामाजिक नीतियों द्वारा ऐसा वातावरण तैयार करना जिसमें महिलाओं को अपनी पूर्ण क्षमता को पहचानने का मौका मिले और उनका पूर्ण विकास हो।
  2. महिलाओं द्वारा पुरुषों की भाँति राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नागरिक सभी क्षेत्रों में समान स्तर पर मानवीय अधिकारों और मौलिक स्वतन्त्रताओं का कानूनी और वास्तविक उपभोग।
  3. स्वास्थ्य देखभाल, प्रत्येक स्तर पर उन्नत शिक्षा, जीविका एवं व्यावसायिक मार्गदर्शन, रोजगार, समान पारिश्रमिक, सामाजिक सुरक्षा और सार्वजनिक पदों आदि में महिलाओं को समान सुविधाएँ।
  4. न्याय व्यवस्था को मजबूत बनाकर महिलाओं के विरुद्ध होने वाले किसी भी प्रकार के अत्याचारों का उन्मूलन करना।

प्रश्न 9.
महिला सशक्तीकरण के साधन के रूप में संसद और राज्य विधानसभाओं में सीटों के आरक्षण की व्यवस्था का परीक्षण कीजिए।
उत्तर:
महिला सशक्तीकरण के लिए यह आवश्यक है कि महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को बढ़ाया जाए। प्राय: सभी राजनीतिक दल, महिला संघ व सामाजिक संगठन निरन्तर इस बात पर बल देते रहे हैं कि जब तक स्थानीय संस्थाओं, विधानमण्डलों और संसद में महिलाओं के लिए स्थान सुरक्षित नहीं किए जाते तब तक महिलाओं की स्थिति में सुधार नहीं हो सकता।

73वें-74वें संविधान संशोधन द्वारा ग्रामीण एवं शहरी स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं के लिए कुल निर्वाचित पदों का एक-तिहाई भाग आरक्षित किया गया है। इसमें महिला सशक्तीकरण आन्दोलन को बल मिला। संसद और राज्य विधानमण्डलों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई स्थान सुरक्षित रखने के कई बार प्रयास किए जा चुके हैं लेकिन इसमें सफलता प्राप्त नहीं हुई है।

प्रश्न 10.
भारत में पर्यावरण सुरक्षा हेतु क्या-क्या कदम उठाए जा रहे हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पर्यावरणीय सुरक्षा आन्दोलन
भारत में पर्यावरण की सुरक्षा हेतु अनेक कदम उठाए जा रहे हैं, जिनमें प्रमुख हैं-

  1. स्वतन्त्र भारत में वन्य प्राणियों की सुरक्षा के लिए अनेक स्थानों पर अभयारण्यों की स्थापना की गई और इन अभयारण्यों में सभी प्रकार के जीवों की सुरक्षा की व्यवस्था की गई, जिससे जंगलों की संख्या बढ़े और वातावरण स्वच्छ हो।
  2. पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी गई तथा सर्वत्र वृक्षारोपण कार्य प्रारम्भ किया गया। वृक्षों की कटाई रोकने के लिए उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में चिपको आन्दोलन चलाया गया।
  3. सिंचाई के लिए विभिन्न बाँधों की व्यवस्था की गई, इन बाँधों में सिंचाई एवं विद्युत उत्पादन दोनों कार्य चलने लगे।
  4. भारत में विकास की क्रान्ति के सन्दर्भ में कृषि क्षेत्र में हरित क्रान्ति का नारा दिया गया और अन्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त की गई।

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तार

प्रश्न 1.
चिपको आन्दोलन का मुख्य पहलू क्या था?
उत्तर:
चिपको आन्दोलन का मुख्य पहलू जंगल के वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई को रोकना था।

प्रश्न 2.
‘दलित पैंथर्स’ क्या था?
उत्तर:
दलित हितों की दावेदारी के क्रम में महाराष्ट्र में सन् 1972 में दलित युवाओं का एक संगठन ‘दलित पैंथर्स’ बना।

प्रश्न 3.
‘ताड़ी विरोधी आन्दोलन’ क्या था?
उत्तर:
आन्ध्र प्रदेश के नेल्लौर जिले में दुबरगंटा गाँव की महिलाओं द्वारा ताड़ी (शराब) की बिक्री के विरोध में किए गए आन्दोलन को ‘ताड़ी विरोधी आन्दोलन’ कहा जाता है।

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प्रश्न 4.
सरदार सरोवर परियोजना को कब और कहाँ प्रारम्भ किया गया था?
उत्तर:
1980 दशाब्दी के प्रारम्भ में सरदार सरोवर परियोजना को नर्मदा घाटी में प्रारम्भ किया गया था।

प्रश्न 5.
पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित किन्हीं दो आन्दोलनों के नाम बताइए।
उत्तर:

  1. चिपको आन्दोलन,
  2. नर्मदा बचाओ आन्दोलन।

प्रश्न 6.
तिभागा आन्दोलन क्या था?
उत्तर:
तिभागा आन्दोलन सन् 1947-48 में बंगाल में प्रारम्भ हुआ। यह आन्दोलन मुख्यतः जोतदारों के विरुद्ध मझोले किसानों और बटाईदारों का संयुक्त प्रयास था।

प्रश्न 7.
किन्हीं दो किसान आन्दोलनों के नाम बताइए।
उत्तर:

  1. तिभागा आन्दोलन,
  2. तेलंगाना आन्दोलन।

प्रश्न 8.
दलित पैंथर्स के उद्देश्य बताइए। (कोई दो)
उत्तर:
दलित पैंथर्स के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे-

  1. जाति आधारित असमानता को समाप्त करना।
  2. भौतिक साधनों के मामले में अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ संघर्ष करना।

प्रश्न 9.
पर्यावरण संरक्षण आन्दोलन से सम्बन्धित किन्हीं दो प्रमुख व्यक्तियों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. सुन्दरलाल बहुगुणा,
  2. मेधा पाटकर।

प्रश्न 10.
औपनिवेशिक दौर के प्रमुख आन्दोलन कौने-से थे?
उत्तर:
औपनिवेशिक दौर के प्रमुख आन्दोलन थे—किसान आन्दोलन, मजदूर संगठनों के आन्दोलन, आदिवासी आन्दोलन तथा स्वाधीनता आन्दोलन।

प्रश्न 11.
महिला सशक्तीकरण से क्या आशय है?
उत्तर:
महिला सशक्तीकरण से आशय महिलाओं की समाज में दोयम दर्जे की भूमिका को समाप्त करना तथा समाज की मुख्यधारा के साथ जोड़ते हुए सभी क्षेत्रों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने से है।

प्रश्न 12.
एन०एफ०एफ० तथा बी०के०यू० का पूरा नाम बताइए।
उत्तर:

  1. एन०एफ०एफ० (NFF)-नेशनल फिश वर्कर्स फोरम (National Fish Workers Forum)|
  2. बीकेयू (BKU)-भारतीय किसान यूनियन।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना किस वर्ष हुई-
(a) सन् 1967 में
(b) सन् 1936 में
(c) सन् 1944 में
(d) सन् 1954 में।
उत्तर:
(b) सन् 1936 में।

प्रश्न 2.
सूचना के अधिकार का आन्दोलन किस सन में प्रारम्भ हुआ-
(a) सन् 1980 में
(b) सन् 1984 में
(c) सन् 1988 में
(d) सन् 1990 में।
उत्तर:
(d) सन् 1990 में।

प्रश्न 3.
चिपको आन्दोलन की शुरुआत किस राज्य से हुई-
(a) उत्तराखण्ड
(b) छत्तीसगढ़
(c) झारखण्ड
(d) राजस्थान।
उत्तर:
(a) उत्तराखण्ड।

प्रश्न 4.
गोवा मुक्ति संग्राम का प्रमुख कार्यकर्ता था-
(a) लाल डेंगा
(b) मोहन रानाडे
(c) सुभाष धीसिंह
(d) महेन्द्र सिंह टिकैत।
उत्तर:
(b) मोहन रानाडे।

प्रश्न 5.
किस वर्ष स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन हुआ था-
(a) सन् 1962 में
(b) सन् 1967 में
(c) सन् 1970 में
(d) सन् 1972 में।
उत्तर:
(d) सन् 1972 में।

प्रश्न 6.
काका कालेलकर आयोग का गठन किया गया-
(a) सन् 1950 में
(b) सन् 1953 में
(c) सन् 1956 में
(d) सन् 1961 में।
उत्तर:
(b) सन् 1953 में।

प्रश्न 7.
दलित पैंथर्स का गठन किया गया-
(a) सन् 1970 में
(b) सन् 1972 में
(c) सन् 1974 में
(d) सन् 1978 में।
उत्तर:
(b) सन् 1972 में।

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प्रश्न 8.
ताड़ी विरोधी आन्दोलन से सम्बन्धित राज्य था-
(a) राजस्थान
(b) महाराष्ट्र
(c) उत्तर प्रदेश
(d) आन्ध्र प्रदेश।
उत्तर:
(d) आन्ध्र प्रदेश।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 9 Globalisation

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 9 Globalisation (वैश्वीकरण)

UP Board Class 12 Civics Chapter 9 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 9 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
वैश्वीकरण के बारे में कौन-सा कथन सही है?
(क) वैश्वीकरण सिर्फ आर्थिक परिघटना है।
(ख) वैश्वीकरण की शुरुआत 1991 में हुई।
(ग) वैश्वीकरण और पश्चिमीकरण समान हैं।
(घ) वैश्वीकरण एक बहुआयामी परिघटना है।
उत्तर:
(घ) वैश्वीकरण एक बहुआयामी परिघटना है।

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प्रश्न 2.
वैश्वीकरण के प्रभाव के बारे में कौन-सा कथन सही है?
(क) विभिन्न देशों और समाजों पर वैश्वीकरण का प्रभाव विषम रहा है।
(ख) सभी देशों और समाजों पर वैश्वीकरण का प्रभाव समान रहा है।
(ग) वैश्वीकरण का असर सिर्फ राजनीतिक दायरे तक सीमित है।
(घ) वैश्वीकरण से अनिवार्यता सांस्कृतिक समरूपता आती है।
उत्तर:
(क) विभिन्न देशों और समाजों पर वैश्वीकरण का प्रभाव विषम रहा है।

प्रश्न 3.
वैश्वीकरण के कारणों के बारे में कौन-सा कथन सही है?
(क) वैश्वीकरण का एक महत्त्वपूर्ण कारण प्रौद्योगिकी है।
(ख) जनता का एक खास समुदाय वैश्वीकरण का कारण है।
(ग) वैश्वीकरण का जन्म संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ।
(घ) वैश्वीकरण का एकमात्र कारण आर्थिक धरातल पर पारस्परिक निर्भरता है।
उत्तर:
(क) वैश्वीकरण का एक महत्त्वपूर्ण कारण प्रौद्योगिकी है।

प्रश्न 4.
वैश्वीकरण के बारे में कौन-सा कथन सही है?
(क) वैश्वीकरण का सम्बन्ध सिर्फ वस्तुओं की आवाजाही से है।
(ख) वैश्वीकरण में मूल्यों का संघर्ष नहीं होता।
(ग) वैश्वीकरण के अंग के रूप में सेवाओं का महत्त्व गौण है।
(घ) वैश्वीकरण का सम्बन्ध विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव से है।
उत्तर:
(घ) वैश्वीकरण का सम्बन्ध विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव से है।

प्रश्न 5.
वैश्वीकरण के बारे में कौन-सा कथन गलत है?
(क) वैश्वीकरण के समर्थकों का तर्क है कि इससे आर्थिक समृद्धि बढ़ेगी।
(ख) वैश्वीकरण के आलोचकों का तर्क है कि इससे आर्थिक असमानता और ज्यादा बढ़ेगी।
(ग) वैश्वीकरण के पैरोकारों का तर्क है कि इससे सांस्कृतिक समरूपता आएगी।
(घ) वैश्वीकरण के आलोचकों का तर्क है कि इससे सांस्कृतिक समरूपता आएगी।
उत्तर:
(घ) वैश्वीकरण के आलोचकों का तर्क है कि इससे सांस्कृतिक समरूपता आएगी।

प्रश्न 6.
विश्वव्यापी ‘पारस्परिक जुड़ाव’ क्या है? इसके कौन-कौन से घटक हैं?
उत्तर:
विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव का अर्थ है-विचार, वस्तुओं तथा घटनाओं का दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँचना। इससे विश्व के विभिन्न भाग परस्पर एक-दूसरे के समीप आ गए हैं।

विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव के घटक विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव के प्रमुख घटक निम्नलिखित हैं-

  1. विश्व के एक हिस्से के विचारों एवं धारणाओं का दूसरे हिस्से में पहुँचना।
  2. निवेश के रूप में पूँजी का विश्व के एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचना।
  3. वस्तुओं का कई-कई देशों में पहुँचना और उनका व्यापार।
  4. बेहतर आजीविका की तलाश में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लोगों की आवाजाही। विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव ऐसे प्रवाहों की निरन्तरता से पैदा हुआ है और कायम है।

प्रश्न 7.
वैश्वीकरण में प्रौद्योगिकी का क्या योगदान है?
उत्तर:
वैश्वीकरण में प्रौद्योगिकी का प्रमुख योगदान इस प्रकार रहा है-

(1) टेलीग्राफ, टेलीफोन और माइक्रोचिप के नवीनतम आविष्कारों ने विश्व के विभिन्न भागों के बीच संचार की क्रान्ति ला दी है। इस प्रौद्योगिकी का प्रभाव हमारे सोचने के तरीके और सामूहिक जीवन की गतिविधियों पर उसी तरह पड़ रहा है जिस तरह मुद्रण की तकनीक का प्रभाव राष्ट्रवाद की भावनाओं पर पड़ा था।

(2) विचार, पूँजी, वस्तु और लोगों की विश्व के विभिन्न भागों में आवाजाही की आसानी प्रौद्योगिकी में तरक्की के कारण सम्भव हुई। उदाहरण के लिए, आज इण्टरनेट की सुविधा के चलते ई-कॉमर्स, ई-बैंकिंग, ई-लर्निंग जैसी तकनीक अस्तित्व में आ गई हैं जिनके द्वारा विश्व के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में व्यापार किया जा सकता है, बाजार खोजे जा सकते हैं तथा ज्ञान के नए स्रोत खोजे जा सकते हैं।

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प्रश्न 8.
वैश्वीकरण के सन्दर्भ में विकासशील देशों में राज्य की बदलती भूमिका का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें।
उत्तर:
वैश्वीकरण के सन्दर्भ में विकासशील देशों में राज्य की बदलती भूमिका का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-

  1. वैश्वीकरण के युग में प्रत्येक विकासशील देश को इस प्रकार की विदेश एवं आर्थिक नीति का निर्माण करना पड़ता है जिससे कि दूसरे देशों से अच्छे सम्बन्ध बनाए जा सकें। पूँजी निवेश के कारण विकासशील देशों ने भी अपने बाजार विश्व के लिए खोल दिए हैं।
  2. विकासशील देशों में विश्व संगठनों के प्रभाव में राज्यों द्वारा बनाई जाने वाली निजीकरण की नीतियाँ, कर्मचारियों की छंटनी, सरकारी अनुदानों में कमी तथा कृषि से सम्बन्धित नीतियों पर वैश्वीकरण का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।
  3. वैश्वीकरण के प्रभावस्वरूप राज्य ने अपने को पहले के कई ऐसे लोक कल्याणकारी कार्यों से खींच लिया है।
  4. विकासशील देशों में बहुराष्ट्रीय नियमों के कारण सरकारों को अपने दम पर फैसला करने की क्षमता में कमी आई है।
  5. वैश्वीकरण के फलस्वरूप कुछ मायनों में राज्य की ताकत में इजाफा भी हुआ है। आज राज्यों के पास अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी मौजूद है जिसके बल पर राज्य अपने नागरिकों के बारे में सूचनाएँ जुटा सकते हैं।

आलोचना-विकासशील देशों में आज भी निर्धनता, निम्न जीवन स्तर, अशिक्षा, बेरोजगारी तथा कुपोषण विद्यमान है। इसलिए राज्य द्वारा सामाजिक सुरक्षा और कल्याणकारी कार्य करने की महत्ती आवश्यकता है। लेकिन वैश्वीकरण के चलते राज्य ने इन कार्यों से अपना हाथ खींच लिया है। इसीलिए अनेक संगठनों व विचारकों द्वारा वैश्वीकरण की आलोचना की जा रही है।

प्रश्न 9.
वैश्वीकरण की आर्थिक परिणतियाँ क्या हुई हैं? इस सन्दर्भ में वैश्वीकरण ने भारत पर कैसे प्रभाव डाला है?
उत्तर:
वैश्वीकरण की आर्थिक परिणतियाँ वैश्वीकरण की आर्थिक परिणतियों का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-

  1. व्यापार में वृद्धि तथा खुलापन-वैश्वीकरण के चलते पूरी दुनिया में आयात प्रतिबन्धों के कम होने से वस्तुओं के व्यापार में इजाफा हुआ है।
  2. सेवाओं का विस्तार एवं प्रवाह-वैश्वीकरण के चलते अब सेवाओं का प्रवाह अबाध हो उठा है। इण्टरनेट और कम्प्यूटर से जुड़ी सेवाओं का विस्तार इसका एक उदाहरण है।
  3. विश्व जनमत का विभाजन-आर्थिक वैश्वीकरण के कारण पूरे विश्व में जनमत बड़ी गहराई से बँट । गया है।
  4. राज्यों द्वारा आर्थिक जिम्मेदारियों से हाथ खींचना-आर्थिक वैश्वीकरण के कारण सरकारें अपनी सामाजिक सुरक्षा तथा जन-कल्याण की जिम्मेदारियों से अपने हाथ खींच रही हैं। इससे सामाजिक न्याय से सरोकार रखने वाले लोग चिन्तित हैं। इससे वंचित, पिछड़े, अशिक्षित तथा गरीब लोग और बदहाल हो जाएंगे।
  5. विश्व का पुनः उपनिवेशीकरण’- कुछ अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक वैश्वीकरण को विश्व का पुनः उपनिवेशीकरण कहा है।
  6. आर्थिक वैश्वीकरण केलाभकारी परिणाम-आर्थिक वैश्वीकरण से व्यापार में वृद्धि हुई है, देश को प्रगति का अवसर मिला है, खुशहाली बढ़ी है तथा लोगों में जुड़ाव बढ़ रहा है।

वैश्वीकरण का भारत पर प्रभाव-वैश्वीकरण की प्रक्रिया के तहत भारत पर निम्नलिखित प्रमुख प्रभाव पड़े हैं-

  1. इसके तहत सकल घरेलू उत्पाद दर तथा विकास दर में तीव्र वृद्धि हुई है।
  2. विश्व के देश भारत को एक बड़े बाजार के रूप में देखने लगे हैं। अत: यहाँ विदेशी निवेश बढ़ा है।
  3. रोजगार हेतु श्रम का प्रवाह बढ़ा है तथा पाश्चात्य संस्कृति का तीव्र प्रसार हुआ है।

प्रश्न 10.
क्या आप इस तर्क से सहमत हैं कि वैश्वीकरण से सांस्कृतिक विभिन्नता बढ़ रही है?
उत्तर:
वैश्वीकरण में सांस्कृतिक विभिन्नता और सांस्कृतिक समरूपता दोनों ही प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं। यथा सांस्कृतिक समरूपता में वृद्धि-वैश्वीकरण के कारण पश्चिमी यूरोप के देश तथा अमेरिका अपनी तकनीकी और आर्थिक शक्ति के बल पर सम्पूर्ण विश्व पर अपनी संस्कृति लादने का प्रयास कर रहे हैं। इससे पश्चिमी संस्कृति के तत्त्व अब विश्वव्यापी होते जा रहे हैं। इससे कई परम्परागत संस्कृतियों को खतरा उत्पन्न हो गया है। इस प्रकार यहाँ सांस्कृतिक समरूपता से अभिप्राय केवल पश्चिमी संस्कृति के बढ़ते प्रभाव से है, न कि किसी नयी विश्व संस्कृति के उदय से।

सांस्कृतिक विभिन्नता में वृद्धि–वैश्वीकरण के द्वारा सांस्कृतिक विभिन्नताएँ भी बढ़ रही हैं तथा नयी मिश्रित संस्कृतियों का उदय हो रहा है। उदाहरण के लिए, अमेरिका की नीली जीन्स, हथकरघे के देशी कुर्ते के साथ पहनी जा रही है। यह कुर्ता विदेशों में भी निर्यात किया जा रहा है। इस प्रकार वैश्वीकरण के कारण हर संस्कृति कहीं ज्यादा अलग व विशिष्ट होती जा रही है।

प्रश्न 11.
वैश्वीकरण ने भारत को कैसे प्रभावित किया और भारत कैसे वैश्वीकरण को प्रभावित कर रहा है?
उत्तर:
वैश्वीकरण का भारत पर प्रभाव-वैश्वीकरण ने भारत को अत्यधिक प्रभावित किया है। यथा-

  1. वैश्वीकरण के कारण भारत की सकल घरेलू उत्पाद दर में तेजी से वृद्धि हुई है।
  2. वैश्वीकरण के कारण भारत की विकास दर 4.3% से बढ़कर 7 और 8% के आसपास बनी हुई है।
  3. विश्व के अधिकांश विकसित देश वैश्वीकरण की प्रक्रिया के प्रभावस्वरूप भारत को एक बड़ी मण्डी के रूप में देखने लगे हैं। इससे विदेशी निवेश बढ़ा है।
  4. वैश्वीकरण के प्रभावस्वरूप भारतीय लोगों ने आजीविका के लिए विदेशों में बसना शुरू कर दिया है।
  5. वैश्वीकरण के प्रभावस्वरूप यूरोप और अमेरिका की पश्चिमी संस्कृति बड़ी तेजी से भारत में फैल रही है।
  6. वैश्वीकरण के कारण विश्व बाजार में विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं के मध्य अन्तर्निर्भरता और प्रतियोगिता बढ़ गई है। घरेलू आर्थिक प्रगति के निर्धारण में अब अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों व आर्थिक दशाओं का भी प्रभाव पड़ता है। इससे राष्ट्रीय स्तर पर निर्णय लेने सम्बन्धी स्वायत्तता कुछ हद तक प्रभावित हुई है।

वैश्वीकरण पर भारत का प्रभाव-भारत ने भी वैश्वीकरण को कुछ हद तक प्रभावित किया है। यथा-

  1. भारत से अब अधिक लोग विदेशों में जाकर अपनी संस्कृति और रीति-रिवाजों का प्रसार कर रहे हैं।
  2. भारत में उपलब्ध सस्ते श्रम ने विश्व के देशों को इस ओर आकर्षित किया है।
  3. भारत ने कम्प्यूटर तथा तकनीक के क्षेत्र में बड़ी तेजी से उन्नति कर विश्व में अपना प्रभुत्व जमाया है।

UP Board Class 12 Civics Chapter 9 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 9 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
बहुत-से नेपाली मजदूर काम करने के लिए भारत आते हैं। क्या यह वैश्वीकरण है?
उत्तर:
हाँ, श्रम का प्रवाह भी वैश्वीकरण का एक भाग है। एक देश के लोग दूसरे देश में जाकर मजदूरी करें। यह स्थिति भी विश्व के समस्त देशों को एक विश्व गाँव में बदलती है।

प्रश्न 2.
भारत में बिकने वाली चीन की बनी बहुत-सी चीजें तस्करी की होती हैं। क्या वैश्वीकरण के चलते तस्करी होती है?
उत्तर:
वैश्वीकरण के चलते पूरी दुनिया में वस्तुओं के व्यापार में वृद्धि हुई है। अब वैश्वीकरण के कारण आयात प्रतिबन्ध कम हो गए हैं इससे तस्करी में कमी हुई है। वैश्वीकरण के चलते तस्करी का प्रमुख कारण आयात पर प्रतिबन्ध तो समाप्त हो गया है, लेकिन तस्करी के अन्य कारण; जैसे—विक्रय पर लगने वाला कर, आयकर आदि अन्य करों की चोरी आदि कारण तो विद्यमान रहेंगे ही।

प्रश्न 3.
क्या साम्राज्यवाद का ही नया नाम वैश्वीकरण नहीं है? हमें नये नाम की जरूरत क्यों है?
उत्तर:
वैश्वीकरण, साम्राज्यवाद नहीं है। साम्राज्यवाद में राजनीतिक प्रभाव मुख्य रहता है। इसमें एक शक्तिशाली देश दूसरे देशों पर अधिकार करके उनके संसाधनों का अपने हित में शोषण करता है। यह एक जबरन चलने वाली प्रक्रिया है। लेकिन वैश्वीकरण एक बहुआयामी अवधारणा है।

इसके राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आयाम हैं। इसमें विचारों, पूँजी, वस्तुओं और व्यापार तथा बेहतर आजीविका का प्रवाह पूरी दुनिया में तीव्र हो जाता है। इन प्रवाहों की निरन्तरता से विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव बढ़ रहा है तथा किसी राज्य की सम्प्रभुता को कोई चुनौती नहीं मिली है। अतः स्पष्ट है कि वैश्वीकरण साम्राज्यवाद से भिन्न तथा बहुआयामी प्रक्रिया है, इसलिए हमें इसके लिए नए नाम की आवश्यकता पड़ी है।

प्रश्न 4.
आप या आपका परिवार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के जिन उत्पादों को इस्तेमाल करता है, उसकी एक सूची तैयार करें।
उत्तर:
मैं या मेरा परिवार
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के अनेक उत्पादों का इस्तेमाल करते हैं, जैसे-कॉलगेट टूथपेस्ट, घड़ियाँ, पेय पदार्थ, लिवाइस आदि के बने परिधान, कार, माइक्रोवेव, फ्रिज, टीवी, वाशिंग मशीन, फर्नीचर, मैकडोनाल्ड के भोजन, साबुन, बॉल पैन, रोशनी के बल्ब, शैम्पू, दवाइयाँ आदि।
(नोट-विद्यार्थी इस सूची को और विस्तार दे सकते हैं।)

प्रश्न 5.
जब हम सामाजिक सुरक्षा कवच की बात करते हैं तो इसका सीधा-सादा मतलब होता है कि कुछ लोग तो वैश्वीकरण के चलते बदहाल होंगे ही। तभी तो सामाजिक सुरक्षा कवच की बात की जाती है। है न?
उत्तर:
सामाजिक न्याय के पक्षधर इस बात पर जोर देते हैं कि सामाजिक सुरक्षा कवच तैयार किया जाना चाहिए ताकि जो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं उन पर वैश्वीकरण के दुष्प्रभावों को कम किया जा सके। इसका आशय यह है कि आर्थिक वैश्वीकरण से जनसंख्या के छोटे तबके को बड़े स्तर पर लाभ होगा जबकि नौकरी, शिक्षा, स्वास्थ्य, साफ-सफाई की सुविधा आदि के लिए सरकार पर आश्रित रहने वाले लोग बदहाल हो जाएँगे क्योंकि वैश्वीकरण के चलते सरकारें सामाजिक न्याय सम्बन्धी अपनी जिम्मेदारियों से हाथ खींचती हैं। इससे अल्पविकसित और विकासशील देशों के गरीब लोग एकदम बदहाल हो जाएंगे।

इससे स्पष्ट होता है कि वैश्वीकरण के चलते गरीब देशों के लोग बदहाल हो जाएँगे। इसीलिए उनके लिए सामाजिक सुरक्षा कवच की बात की जाती है।

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प्रश्न 6.
हम पश्चिमी संस्कृति से क्यों डरते हैं? क्या हमें अपनी संस्कृति पर विश्वास नहीं है?
उत्तर:
हम पश्चिमी संस्कृति से क्यों डरते हैं, इसका प्रमुख कारण यह है कि वैश्वीकरण का एक पक्ष सांस्कृतिक समरूपता है जिसमें विश्व-संस्कृति के नाम पर शेष विश्व पर पश्चिमी संस्कृति लादी जा रही है। इससे पूरे विश्व की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर धीरे-धीरे खत्म होती है जो समूची मानवता के लिए खतरनाक है।

हमें अपनी संस्कृति पर पूर्ण विश्वास है लेकिन हमारे ऊपर पाश्चात्य संस्कृति को जबरन लादा न जाए।

प्रश्न 7.
वैश्वीकरण के प्रभाव से आए कुछ उत्पादों की सूची बनाएँ, मसलन-खाद्य उत्पाद, बिजली से चलने वाले घरेलू इस्तेमाल के उपकरण और सुख-सुविधा के ऐसे सामान जिनसे आप परिचित हैं।
उत्तर:

  1. खाद्य उत्पाद हैं-चाइनीज’ भोजन, बर्गर, पीजा, मैगी, चाउमीन।
  2. बिजली से चलने वाले घरेलू इस्तेमाल के उपकरण हैं-टी०वी०, फ्रिज, गीजर, कम्प्यूटर, पंखा, एयरकण्डीशनर, इनवर्टर, मिक्सी, माइक्रोवेव।
  3. सुख-सुविधा के सामान हैं-स्कूटर, कार, ए०सी०, टेलीफोन, मोबाइल, कम्प्यूटर, फर्नीचर, इलेक्ट्रॉनिक सामान।

प्रश्न 8.
अपने पसन्दीदा टी०वी० कार्यक्रमों के नाम लिखें।
उत्तर:
विद्यार्थी स्वयं करें।

UP Board Class 12 Civics Chapter 9 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 9 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
वैश्वीकरण से क्या अभिप्राय है? इसके पक्ष तथा विपक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण का अर्थ-जब कोई देश विश्व के विभिन्न राष्ट्रों के साथ वस्तु, सेवा, पूँजी तथा बौद्धिक सम्पदा इत्यादि का किसी प्रतिबन्ध के बिना परस्पर आदान-प्रदान करता है, तो इसे वैश्वीकरण अथवा भूमण्डलीकरण के नाम से जाना जाता है। वैश्वीकरण तभी सम्भव है जब परस्पर ऐसे आदान-प्रदान के दौरान किसी भी देश द्वारा कोई रुकावट अर्थात् बाधा उत्पन्न न की जाए और इस प्रक्रिया को कोई ऐसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था संचालित करे जिस पर सभी देशों का अटूट विश्वास हो तथा जो सभी की अनुमति से नीति-निर्धारक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करे।

जब सभी देश एक-समान नियमों के अन्तर्गत अपने व्यापार तथा निवेश का संचालन करते हैं तो स्वाभाविक रूप से एक ही धारा प्रभावित होती है और यही वैश्वीकरण है।

वैश्वीकरण के पक्ष में तर्क-वैश्वीकरण के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए गए हैं-

  1. वैश्वीकरण से लोगों में विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव बढ़ा है।
  2. वैश्वीकरण के कारण पूँजी की गतिशीलता बढ़ी है। इससे प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश बढ़ा है तथा विकासशील देशों की अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं पर निर्भरता कम हुई है।
  3. वैश्वीकरणं की प्रक्रिया द्वारा विकासशील देशों को उन्नत तकनीक का लाभ मिला सकता है।
  4. वैश्वीकरण ने विश्वव्यापी सूचना क्रान्ति को जन्म दिया है। इससे सामाजिक गतिशीलता बढ़ी है।
  5. वैश्वीकरण के कारणं रोजगार की गतिशीलता में भारी वृद्धि हुई है।

वैश्वीकरण के विपक्ष में तर्क-वैश्वीकरण के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं-

  1. वैश्वीकरण की व्यवस्था धनिकों को ज्यादा धनी और गरीब को और ज्यादा गरीब बनाती है।
  2. वैश्वीकरण से राज्य के गरीबों के हितों की रक्षा करने की उसकी क्षमता में कमी आती है।
  3. वैश्वीकरण से परम्परागत संस्कृति की हानि होगी और लोग अपने सदियों पुराने जीवन मूल्य तथा तौर-तरीकों से हाथ धो बैठेंगे।
  4. वैश्वीकरण के चलते विकासशील देशों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की एकाधिकारीवादी प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।
  5. वैश्वीकरण की प्रक्रिया प्रभुतासम्पन्न राष्ट्रों द्वारा विकासशील देशों के बाजारों को हस्तगत करने के लिए कमजोर राष्ट्रों पर जबरन थोपी जा रही है।
  6. वैश्वीकरण से आर्थिक असमानता को बढ़ावा मिला है तथा तीसरी दुनिया के देशों में गरीबी बढ़ती जा रही है।
  7. इस प्रक्रिया का लाभ समाज का उच्च सुविधा सम्पन्न वर्ग उठा रहा है।

प्रश्न 2.
“वैश्वीकरण एक बहुआयामी अवधारणा है।” इस कथन की विस्तार से व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण एक बहुआयामी अवधारणा है। इसके राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक पक्ष हैं जिनका विवरण निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है-

1. वैश्वीकरण का राजनीतिक पक्ष (प्रभाव)—वैश्वीकरण के राजनीतिक पक्ष (प्रभाव) का वर्णन तीन आधारों पर किया जा सकता है-

(i) वैश्वीकरण के कारण बहुराष्ट्रीय निगमों के हस्तक्षेप से राज्य की स्थिति कमजोर हुई है। राज्यों के कार्य करने की क्षमता अर्थात् सरकारों को जो करना है उसे करने की ताकत में कमी आती है। सम्पूर्ण विश्व में आज लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा अब पुरानी पड़ गयी है और इसका स्थान न्यूनतम हस्तक्षेपकारी राज्य ने ले लिया है। अब राज्य कुछ मुख्य कार्यों तक ही अपने को सीमित रखता है; जैसे—कानून और व्यवस्था को बनाए रखना तथा अपने नागरिकों की सुरक्षा करना।

इस प्रकार के राज्य ने स्वयं को कई ऐसे लोक कल्याणकारी कार्यों से अलग कर लिया है जिनका लक्ष्य आर्थिक और सामाजिक कल्याण होता था। लोक कल्याणकारी राज्य के स्थान पर अब बाजार आर्थिक और सामाजिक प्राथमिकताओं का मुख्य निर्धारक है।

(ii) कुछ विद्वानों के अनुसार वैश्वीकरण के चलते राज्य की शक्तियाँ कम नहीं हुई हैं। राजनीतिक समुदाय के आधार के रूप में राज्य की प्रधानता को कोई चुनौती नहीं मिली है। राज्य कानून और व्यवस्था, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अपने अनिवार्य कार्यों को पूरा कर रहे हैं। अपनी इच्छा से कई कार्यों से राज्य अपने आपको अलग कर रहे हैं।

(iii) वैश्वीकरण के कारण राज्यों को आधुनिक प्रौद्योगिकी प्राप्त हुई है जिसके बल पर राज्य अपने नागरिकों के बारे में सूचनाएँ जुटा सकते हैं। इन सूचनाओं के आधार पर राज्य अधिक कारगर ढंग से कार्य कर सकते हैं। उनकी कार्यक्षमता में वृद्धि हुई है।

2. वैश्वीकरण का आर्थिक पक्ष (प्रभाव)-वैश्वीकरण का आर्थिक पक्ष सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि आर्थिक आधार पर ही वैश्वीकरण की धारणा ने अधिक जोर पकड़ा है। आर्थिक वैश्वीकरण की प्रक्रिया में विश्व के विभिन्न देशों के मध्य आर्थिक प्रवाह तीव्र हो जाता है। कुछ आर्थिक प्रवाह स्वेच्छा से होते हैं तो कुछ अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं एवं शक्तिशाली देशों द्वारा थोपे जाते हैं। वैश्वीकरण में वस्तुओं, सेवाओं, पूँजी, विचारों तथा जनता का एक देश से दूसरे देश में आवागमन आसान हुआ है। विश्व के अधिकांश देशों ने आयात से प्रतिबन्ध हटाकर अपने बाजारों को विश्व समुदाय के लिए खोल दिया है। अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ विकासशील देशों में निवेश कर रही हैं।

यद्यपि वैश्वीकरण के समर्थकों के अनुसार इससे अधिकांश लोगों को लाभ प्राप्त होगा परन्तु वैश्वीकरण के आलोचक इस कथन से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार विकसित देशों ने अपने वीजा नियमों को कठोर बनाना शुरू कर दिया है जिससे लोगों के वैश्विक आवागमन में कमी आयी है। इसके अलावा आर्थिक वैश्वीकरण का लाभ धनिक वर्ग को अधिक प्राप्त हुआ है। निर्धन वर्ग आज भी इसके लाभों से वंचित है।

3. वैश्वीकरण का सांस्कृतिक पक्ष (प्रभाव)—वैश्वीकरण के सांस्कृतिक पक्ष ने भी लोगों को प्रभावित किया है। वैश्वीकरण का हमारे खाने-पीने, पहनने तथा सोचने पर प्रभाव पड़ रहा है। वैश्वीकरण के सांस्कृतिक प्रभावों को देखते हुए इस बात को बल मिला है कि यह प्रक्रिया विश्व की संस्कृतियों को खतरा पहुँचाएगी। विश्व संस्कृति के नाम पर शेष विश्व पर पश्चिमी संस्कृति थोपी जा रही है, जिससे एक देश विशेष की संस्कृति के पतन का डर उत्पन्न हो गया है। परन्तु वैश्वीकरण के समर्थकों का मत है कि वैश्वीकरण से संस्कृति के पतन की आशंका निराधार है बल्कि इससे मिश्रित संस्कृति का उदय होता है।

प्रश्न 3.
वैश्वीकरण के आर्थिक प्रभावों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण के आर्थिक प्रभावों को मुख्य रूप से दो भागों में बाँटा जा सकता है-

I. वैश्वीकरण के सकारात्मक आर्थिक प्रभाव-

1. वस्तुओं के व्यापार में वृद्धि–वैश्वीकरण के कारण सम्पूर्ण विश्व में वस्तुओं के व्यापार में वृद्धि हुई है। अलग-अलग देशों ने अपने यहाँ होने वाले आयात पर लगने वाले प्रतिबन्धों को कम किया है।

2. पूँजी के प्रवाह में वृद्धि-वैश्वीकरण के कारण सम्पूर्ण विश्व में पूँजी की आवाजाही में वृद्धि हुई है। पूँजी के आवाजाही पर अब अपेक्षाकृत कम प्रतिबन्ध है। अब धनी देश के निवेशकर्ता अपने धन का अपने देश के स्थान पर कहीं और निवेश कर सकते हैं विशेषकर विकासशील देशों में जहाँ उन्हें अधिक लाभ प्राप्त होगा।

3. विचारों के समक्ष राष्ट्र की सीमाओं की बाधा नहीं-वैश्वीकरण के कारण अब विचारों के समक्ष राष्ट्र की सीमाओं की बाधा नहीं रहीं, उनका प्रवाह अबाध हो गया है। इण्टरनेट एवं कम्प्यूटर से जुड़ी सेवाओं का विस्तार इसका एक उदाहरण है।

4. व्यक्तियों के आवागमन में वृद्धि-वैश्वीकरण के कारण एक देश से दूसरे देश में लोगों के आवागमन में वृद्धि हुई है। एक देश के लोग दूसरे देश में काम-धन्धा कर रहे हैं। यद्यपि लोगों का आवागमन वस्तुओं और पूँजी के प्रवाह की गति से नहीं बढ़ा है।

5. आर्थिक समृद्धि का बढ़ना-वैश्वीकरण के कारण लोगों की आर्थिक समृद्धि बढ़ी है और खुलेपन के कारण अधिकाधिक जनसंख्या की खुशहाली बढ़ती है।

6. पारस्परिक जुड़ाव का बढ़ना-आर्थिक वैश्वीकरण से लोगों में पारस्परिक जुड़ाव बढ़ रहा है। पारस्परिक निर्भरता की गति अब तीव्र हो गयी है। वैश्वीकरण के फलस्वरूप विश्व के विभिन्न भागों में सहकार, व्यवसाय एवं लोगों के मध्य जुड़ाव बढ़ रहा है।

II. वैश्वीकरण के नकारात्मक आर्थिक प्रभाव

  1. जनता का विभाजन-आर्थिक वैश्वीकरण के कारण सम्पूर्ण विश्व में जनमत बड़ी गहराई में विभाजित हो गया है।
  2. सरकारों द्वारा सामाजिक न्याय की अपेक्षा-आर्थिक वैश्वीकरण के कारण सरकारें अपनी कुछ जिम्मेदारियों से अपना हाथ खींच रही हैं। इस कारण सामाजिक न्याय के पक्षधर लोग चिन्तित हैं। इनका मत है कि आर्थिक वैश्वीकरण से एक बड़े-छोटे वर्ग को लाभ प्राप्त हुआ है, जबकि नौकरी और जन-कल्याण के लिए सरकार पर आश्रित रहने वाले लोग बदहाल हो रहे हैं।
  3. गरीब देशों के लिए अहितकर विश्व में हो रहे अनेक आन्दोलनों ने बलपूर्वक किए जा रहे वैश्वीकरण को रोकने की आवाज उठायी है क्योंकि इससे गरीब देश आर्थिक रूप से बर्बादी की कगार पर पहुँच रहे हैं।
  4. विश्व के पुनः उपनिवेशीकरण का भय–विश्व के कुछ प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने चिन्ता जाहिर की है कि वर्तमान विश्व में हो रहा आर्थिक वैश्वीकरण धीरे-धीरे पुन: उपनिवेशीकरण की ओर ले जा रहा है।

प्रश्न 4.
वैश्वीकरण के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण के राजनीतिक प्रभाव वैश्वीकरण के राजनीतिक प्रभावों का विवेचन निम्नलिखित तीन बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-

  1. वैश्वीकरण ने कुछ राज्यों में राज्य की शक्ति को कमजोर किया है, यथा-
    • वैश्वीकरण के कारण पूरी दुनिया में अब राज्य कुछेक मुख्य कामों; जैसे-कानून व्यवस्था को बनाए रखना तथा अपने नागरिकों की सुरक्षा करना आदि तक ही अपने को सीमित रखते हैं।
    • वैश्वीकरण की प्रक्रिया के कारण राज्य की जगह अब बाजार आर्थिक और सामाजिक प्राथमिकताओं का प्रमुख निर्धारक है।
    • वैश्वीकरण के चलते पूरे विश्व में बहुराष्ट्रीय निगमों की भूमिका बढ़ी है। इससे सरकारों के अपने दम पर फैसला करने की क्षमता में कमी आई है।
  2. कुछ क्षेत्रों में राज्य की शक्ति पर वैश्वीकरण का कोई प्रभाव नहीं-राजनीतिक समुदाय के आधार के रूप में राज्य की प्रधानता को वैश्वीकरण से कोई चुनौती नहीं मिली है।
  3. वैश्वीकरण ने राज्य की शक्ति में वृद्धि भी की है-वैश्वीकरण के फलस्वरूप अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के बूते राज्य अपने नागरिकों के बारे में सूचनाएँ जुटा सकता है। इस सूचना के दम पर राज्य ज्यादा कारगर ढंग से काम कर सकते हैं।

वैश्वीकरण के सांस्कृतिक प्रभाव वैश्वीकरण के सांस्कृतिक प्रभाव निम्नलिखित हैं-

1. वैश्वीकरण के नकारात्मक सांस्कृतिक प्रभाव-वैश्वीकरण के सांस्कृतिक प्रभावों को देखते हुए इस भय को बल मिला है कि यह प्रक्रिया विश्व की संस्कृतियों को खतरा पहुँचाएगी क्योंकि वैश्वीकरण सांस्कृतिक समरूपता लाता है जिसमें विश्व संस्कृति के नाम पर पश्चिमी संस्कृति लादी जा रही है। इस कारण विभिन्न संस्कृतियाँ अब अपने को प्रभुत्वशाली अमेरिकी ढर्रे पर ढालने लगी हैं। इससे पूरे विश्व में विभिन्न संस्कृतियों की समृद्ध धरोहर धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। यह स्थिति समूची मानवता के लिए खतरनाक है।

2. वैश्वीकरण के सकारात्मक सांस्कृतिक प्रभाव-वैश्वीकरण के कुछ सकारात्मक सांस्कृतिक प्रभाव भी पड़े हैं। जैसे

  • बाहरी संस्कृति के प्रभावों से हमारी पसन्द-नापसन्द का दायरा बढ़ता है; जैसे-बर्गर के साथ-साथ मसाला डोसा भी अब हमारे खाने में शामिल हो गया है।
  • इसके प्रभावस्वरूप कभी-कभी संस्कृति का परिष्कार भी होता है; जैसे-नीली जीन्स के साथ खादी का कुर्ता पहनना।
  • वैश्वीकरण से हर संस्कृति कहीं ज्यादा अलग और विशिष्ट होती जा रही है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
वैश्वीकरण के अच्छे प्रभाव को समझाइए।
उत्तर:
वैश्वीकरण के अच्छे प्रभाव-

  1. वैश्वीकरण की अवधारणा आर्थिक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा को बढ़ाकर वस्तुओं के मूल्य कम कराने में मददगार सिद्ध होता है। इससे ज्यादा-से-ज्यादा आम उपभोक्ताओं को अधिकाधिक लाभ पहुँचता है।
  2. वैश्वीकरण के कारण एक ही वस्तु के विभिन्न उत्पादक उत्पन्न हो जाते हैं जिससे उपभोक्ता को उपलब्ध अनेक विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ उत्पाद चयनित करने की स्वतन्त्रता मिल जाती है।
  3. प्रतिस्पर्धा के कारण देश में उपलब्ध आर्थिक संसाधनों का उचित प्रकार से उपयोग हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप आर्थिक प्रगति में तीव्रता आ जाती है।
  4. वैश्वीकरण से राष्ट्रीय उद्योगों की वैदेशिक सम्बद्धता में भी अभिवृद्धि होती है जिससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार बढ़ने में सहायता मिलती है।

प्रश्न 2.
वैश्वीकरण के चलते सम्पूर्ण संसार में वस्तुओं के व्यापार में वृद्धि कैसे हुई है?
उत्तर:
जिस प्रक्रिया को आर्थिक वैश्वीकरण की उपमा दी जाती है उसमें दुनिया के विभिन्न देशों के बीच आर्थिक प्रवाह तीव्रतम हो जाता है। जहाँ कुछ प्रवाह स्वेच्छा से होते हैं वहीं कुछ अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं तथा शक्तिशाली देशों द्वारा बलपूर्वक थोपे जाते हैं। ये प्रवाह अनेक प्रकार के हो सकते हैं। उदाहरणार्थ; वस्तुओं, पूँजी जनता अथवा विचारों का प्रवाह।

वैश्वीकरण के फलस्वरूप सम्पूर्ण दुनिया में वस्तुओं के व्यापार में अभिवृद्धि हुई है। विभिन्न देश अपने यहाँ होने वाले आयात पर प्रतिबन्ध लगाते हैं, लेकिन वर्तमान में ये प्रतिबन्ध ढीले पड़ गए हैं। ठीक इसी प्रकार विश्व में पूँजी के आवागमन पर अब कहीं कम प्रतिबन्ध है। व्यावहारिक धरातल पर इसका अभिप्राय यह हुआ कि पूँजीपति देशों के निवेशकर्ता अपनी पूँजी अपने देश के स्थान पर कहीं और निवेश कर सकते हैं। विशेष रूप से विकासशील देशों में पूँजी निवेश से उन्हें अधिक लाभ होता है। वैश्वीकरण के फलस्वरूप अब विचारों के समक्ष राष्ट्र की सीमाओं की बाधा अर्थात् रुकावट नहीं रही, उनका प्रवाह अबाध हो गया है। कम्प्यूटर एवं इण्टरनेट से सम्बद्ध सेवाओं का विस्तार इसका जीवन्त उदाहरण है।

प्रश्न 3.
वैश्वीकरण में प्रौद्योगिकी ने किस प्रकार योगदान दिया?
उत्तर:
वैश्वीकरण में प्रौद्योगिकी के योगदान को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. नि:सन्देह टेलीग्राफ, टेलीफोन, इण्टरनेट तथा सूचना प्रौद्योगिकी के नवीनतम आविष्कारों ने विश्व के विभिन्न भागों के मध्य संचार क्रान्ति का बिगुल बजाया है।
  2. प्रारम्भ में जब मुद्रण अर्थात् छपाई की तकनीक विकसित हुई तब उसने राष्ट्रवाद की आधारशिला रखी थी। इसी तरह वर्तमान में हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि प्रौद्योगिकी का प्रभाव हमारी सोच को भी प्रभावित करेगा। हम स्वयं अपने सम्बन्ध में जिस प्रकार से सोचते हैं और हम सामूहिक जीवन के बारे में जिस ढंग से चिन्तन करते हैं उस पर प्रौद्योगिकी का प्रभाव भी किसी-न-किसी रूप में पड़ता है।
  3. विचार, पूँजी, वस्तु तथा लोगों का विश्व के विभिन्न हिस्सों में सुगमतापूर्वक आवागमन सिर्फ प्रौद्योगिकी में हुई प्रगति के फलस्वरूप ही सम्भव हो पाया है। इन प्रवाहों की गति में अन्तर हो सकता है।

प्रश्न 4.
वैश्वीकरण के गुणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  1. वैश्वीकरण की अवधारणा आर्थिक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा को बढ़ाकर वस्तुओं के मूल्य कम कराने में मददगार सिद्ध होती है। इससे ज्यादा-से-ज्यादा उपभोक्ताओं को अधिकाधिक लाभ पहुँचता है।
  2. वैश्वीकरण का एक गुण यह भी है कि इसकी वजह से एक ही वस्तु के विभिन्न उत्पादक मैदान में कूद पड़ते हैं, जिससे उपभोक्ताओं को उपलब्ध अनेक विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ उत्पाद चयनित करने की स्वतन्त्रता मिल जाती है।
  3. प्रतिस्पर्धा के कारण देश में उपलब्ध आर्थिक संसाधनों का उचित प्रकार से उपयोग हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप आर्थिक प्रगति में तीव्रता आ जाती है।
  4. वैश्वीकरण का एक अन्य गुण यह भी है कि इससे राष्ट्रीय उद्योगों की वैदेशिक सम्बद्धता में भी अभिवृद्धि होती है जिससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार बढ़ाने में सहायता मिलती है।

प्रश्न 5.
वैश्वीकरण के दोषों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं-

  1. वैश्वीकरण को अपनाने से पूँजीवाद को प्रोत्साहन मिलता है।
  2. वैश्वीकरण में मूलभूत उद्योगों के स्थान पर उपभोक्ता वस्तुओं से सम्बद्ध उद्योगों को अधिक महत्त्व दिया जाता है।
  3. विदेशी प्रतिस्पर्धा में हिस्सेदारी करने की वजह से राष्ट्रीय प्राथमिकताओं को काफी क्षति पहुँचती है।
  4. चूँकि आर्थिक असमानता की वृद्धि में वैश्वीकरण का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। अतः इससे धनी तथा निर्धन के मध्य और अधिक दूरी बनती चली जाती है।
  5. वैश्वीकरण से राज्य की ताकत में कमी आयी है। इसके कारण राज्य ने लोक-कल्याणकारी कार्यों से अपना हाथ खींच लिया है जिसका लक्ष्य आर्थिक व सामाजिक कल्याण होता था। लोक-कल्याणकारी राज्य के स्थान पर अब बाजार आर्थिक और सामाजिक प्राथमिकताओं का निर्धारक बन गया है।

प्रश्न 6.
आर्थिक वैश्वीकरण क्या है?
उत्तर:
आर्थिक वैश्वीकरण-वैश्वीकरण के आर्थिक प्रभाव को आर्थिक वैश्वीकरण भी कहा जाता है। वैश्वीकरण का आर्थिक पक्ष बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि आर्थिक आधार पर ही वैश्वीकरण की धारणा ने जोर पकड़ा। आर्थिक वैश्वीकरण के कारण विश्व के विभिन्न देशों के मध्य आर्थिक प्रवाह तीव्र हो गया है। इसमें वस्तुओं, पूँजी एवं जनता का एक देश से दूसरे देश में जाना सरल हो गया है।

वैश्वीकरण के कारण अब विचारों का प्रवाह भी अबाध हो गया है। इण्टरनेट एवं कम्प्यूटर से जुड़ी सेवाओं का विस्तार हुआ है। वैश्वीकरण के कारण विश्व के विभिन्न देशों की सरकारों ने एक-सी आर्थिक नीतियों को अपनाया है। यद्यपि वैश्वीकरण के समर्थकों का मत है कि वैश्वीकरण के कारण विश्व के अधिकांश लोगों का लाभ हुआ है। उनके जीवन स्तर में सुधार हुआ है तथा खुशहाली बढ़ी है। परन्तु इसके आलोचकों के अनुसार वैश्वीकरण का लाभ सम्पूर्ण आबादी को न मिलकर एक छोटे-से वर्ग को ही प्राप्त हुआ है।

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प्रश्न 7.
आर्थिक वैश्वीकरण के विरोध में कौन-कौन से तर्क दिए जा सकते हैं?
उत्तर:
आर्थिक वैश्वीकरण के विरोध में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-

  1. विश्व जनमत का विभाजन-आर्थिक वैश्वीकरण के कारण सम्पूर्ण विश्व में जनमत बड़ी गहराई से विभाजित हो गया है।
  2. सरकारों द्वारा सामाजिक न्याय की उपेक्षा–आर्थिक वैश्वीकरण के कारण सरकारें अपनी कुछ जिम्मेदारियों से अपना हाथ खींच रही है। इस कारण सामाजिक न्याय के पक्षधर लोग चिन्तित हैं। इनका कहना है कि आर्थिक वैश्वीकरण से जनसंख्या के छोटे वर्ग के लोगों को बड़े स्तर पर लाभ प्राप्त होगा, जबकि नौकरी और जनकल्याण के लिए सरकार पर आश्रित रहने वाले लोग बदहाल हो जाएंगे।
  3. गरीब देशों के लिए अहितकर-विश्वभर में हो रहे अनेक आन्दोलनों ने बलपूर्वक किए जा रहे वैश्वीकरण को रोकने की आवाज बुलन्द की है क्योंकि इससे गरीब देश आर्थिक रूप से बर्बादी के कगार पर पहुँच जाएँगे विशेषकर इन देशों के नागरिकं बदहाल हो जाएँगे।
  4. विश्व का पुनः उपनिवेशीकरण-विश्व के कुछ अर्थशास्त्रियों का मत है कि वर्तमान विश्व में हो रहा आर्थिक वैश्वीकरण धीरे-धीरे पुनः उपनिवेशीकरण का रूप ले लेगा।

प्रश्न 8.
आर्थिक वैश्वीकरण के पक्ष में अपने तर्क दीजिए।
उत्तर:
आर्थिक वैश्वीकरण के पक्ष में प्रमुख तर्क निम्नलिखित हैं-

  1. समृद्धि में वृद्धि-आर्थिक वैश्वीकरण के कारण समृद्धि बढ़ती है एवं खुलेपन के कारण अधिकाधिक जनसंख्या की खुशहाली बढ़ती है।
  2. व्यापार में वृद्धि–आर्थिक वैश्वीकरण से व्यापार में वृद्धि होती है। वैश्विक स्तर पर व्यापार में वृद्धि से . प्रत्येक देश को अपना उत्कृष्ट प्रदर्शन करने का अवसर मिलता है। इससे सम्पूर्ण विश्व को लाभ प्राप्त होगा।
  3. आर्थिक वैश्वीकरण अपरिहार्य आर्थिक वैश्वीकरण के समर्थकों का तर्क है कि आर्थिक वैश्वीकरण अपरिहार्य है तथा इतिहास की धारा को अवरुद्ध करना कोई बुद्धिमत्ता का कार्य नहीं है।
  4. पारस्परिक जुड़ाव का बढ़ना-आर्थिक वैश्वीकरण से लोगों में पारस्परिक जुड़ाव बढ़ रहा है। पारस्परिक निर्धनता की गति अब तीव्र हो गयी है। वैश्वीकरण के फलस्वरूप विश्व के विभिन्न भागों में सरकार, व्यवसाय एवं लोगों के मध्य जुड़ाव बढ़ रहा है।

प्रश्न 9.
वैश्वीकरण की प्रक्रिया किस प्रकार विश्व की संस्कृतियों को खतरा पहुँचा सकती है?
उत्तर:
वैश्वीकरण सांस्कृतिक समरूपता लेकर आता है। सांस्कृतिक समरूपता की आड़ में विश्व संस्कृति के नाम पर शेष विश्व पर पश्चिमी संस्कृति को थोपा जा रहा है। विश्व में राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से प्रभुत्वशाली संस्कृति कम शक्तिशाली समाजों पर अपनी छाप छोड़ती है और विश्व वैसा ही दिखलाई देता है जैसा शक्तिशाली संस्कृति उसे बनाना चाहती है। यही कारण है कि नीली जीन्स या बर्गर-मसाला डोसा की लोकप्रियता का नजदीकी रिश्ता अमेरिकी जीवन-शैली के गहरे प्रभाव से है जो विश्व के मैक्डोनॉल्डीकरण की ओर संकेत देते हैं। उनका मानना है कि विभिन्न संस्कृतियाँ अब अपने को प्रभुत्वशाली अमेरिकी ढर्रे पर ढालने लगी हैं। इससे सम्पूर्ण विश्व की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। इसलिए यह केवल निर्धन देशों के लिए ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए खतरनाक हो सकती है।

प्रश्न 10.
वैश्वीकरण के प्रतिरोध के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण के प्रतिरोध के कारण-

  1. वैश्वीकरण, विश्वव्यापी पूँजीवाद की एक विशेष अवस्था है, जो धनिकों को अधिक धनी एवं गरीबों को और अधिक गरीब बनाती है।
  2. वैश्वीकरण से राज्य की शक्ति में कमी आती है और राज्य के कमजोर होने से गरीबों के हितों की रक्षा करने की उसकी क्षमता में कमी आती है।
  3. वैश्वीकरण से राजनीतिक दृष्टि से राज्य कमजोर होता है।
  4. वैश्वीकरण से परम्परागत संस्कृति की हानि होगी और लोग अपने सदियों पुराने जीवन-मूल्य एवं तौर-तरीके से हाथ धो बैठेंगे।
  5. वैश्वीकरण के चलते विकासशील देशों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की एकाधिकारवादी प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
वैश्वीकरण के सम्बन्ध में प्रवाहों से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
संवाद, पूँजी, विचार, वस्तु तथा लोगों का विश्व के विभिन्न भागों में आवागमन की सरलता प्रौद्योगिकी में हुई प्रगति की वजह से ही सम्भव हुई है। इन प्रवाहों की गति में अन्तर हो सकता है। उदाहरणार्थ, विश्व के विभिन्न भागों के मध्य पूँजी एवं वस्तु की गतिशीलता लोगों के आवागमन की तुलना में अधिक तीव्र तथा व्यापक होगी।

प्रश्न 2.
वैश्वीकरण किस प्रकार एक बहुआयामी अवधारणा है?
उत्तर:
निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर कह सकते हैं कि वैश्वीकरण एक बहुआयामी अवधारणा है-

  1. इस अवधारणा का सम्बन्ध आर्थिक वैश्वीकरण, खुला बाजार, पूर्ण प्रतियोगिता तथा उदारीकरण से है।
  2. वैश्वीकरण की अवधारणा मानव गतिशीलता, पूँजी की गतिशीलता, प्रौद्योगिकी अन्तरण तथा नियन्त्रण मुक्त अर्थव्यवस्था का समर्थन करती है।
  3. वैश्वीकरण की अवधारणा सांस्कृतिक गतिशीलता का भी समर्थन करती है।

प्रश्न 3.
वैश्वीकरण के चलते किस कारण से अब विचारों के प्रवाह से राष्ट्रीय सीमाओं की बाधा (रुकावट) नहीं रही है?
उत्तर:
प्रौद्योगिकी क्षेत्र में हुई अभूतपूर्व वृद्धि की वजह से वैश्वीकरण के चलते अब विचारों के प्रवाह में राष्ट्रीय सीमाएँ किसी भी प्रकार से बाधक नहीं रह गई हैं। निःसन्देह टेलीग्राफ, टेलीफोन, माइक्रोचिप, इण्टरनेट आदि नवीनतम आविष्कारों ने विश्व के विभिन्न भागों के बीच क्रान्तिकारी बदलाव किए हैं। वैश्वीकरण प्रक्रिया के बाद वर्तमान में विभिन्न महाद्वीपों के लोग परस्पर एक-दूसरे से जुड़े हैं। वे प्रत्यक्ष विचारों का आदान-प्रदान करते हैं, प्रौद्योगिकी की वजह से सभी बाधाओं का अन्त कर दिया गया है।

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प्रश्न 4.
यह कथन कहाँ तक उचित है कि वैश्वीकरण राज्य की सम्प्रभुता का हनन करता है?
उत्तर:
उदारीकरण एवं निजीकरण की भाँति वैश्वीकरण के दो पहलुओं की वजह से राज्य का कल्याणकारी स्वरूप परिवर्तित हो रहा है और बाजार शक्तियाँ (माँग एवं पूर्ति) अत्यधिक प्रतिस्पर्धा को उत्पन्न कर रही हैं। अतः यह कहना उचित है कि वैश्वीकरण राज्य की सम्प्रभुता का हनन करता है।

प्रश्न 5.
वैश्वीकरण की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
वैश्वीकरण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. वैश्वीकरण से अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय क्रियाकलापों में तेजी आ जाती है।
  2. वैश्वीकरण से अन्तर्राष्ट्रीय बाजार का प्रादुर्भाव होता है।
  3. व्यापार का तीव्रता से विकास होने के कारण इसमें बहुराष्ट्रीय निगमों का अधिक महत्त्व होता है।
  4. राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत होने की वजह से भौगोलिक तथा राजनीतिक गतिरोध समाप्त हो जाते हैं।

प्रश्न 6.
वैश्वीकरण के उदय के कारणों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण के उदय के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. वैश्वीकरण के उदय का प्रमुख कारण युद्ध की सम्भावनाओं को कम करना था।
  2. इसके उदय का एक कारण राष्ट्रों के अलगाववाद को समाप्त करके उन्हें विश्व व्यवस्था में सक्रिय करना था।
  3. पर्यावरण सन्तुलन को लगातार बनाए रखना भी वैश्वीकरण के उदय का कारण रहा है।

प्रश्न 7.
वैश्वीकरण के समक्ष विद्यमान चुनौतियों में से प्रमुख चुनौतियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण के समक्ष विद्यमान चुनौतियों में से प्रमुख रूप से निम्नलिखित चुनौतियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-

  1. वैश्वीकरण के दौरान प्रत्येक देश हेतु यह आवश्यक है कि वह प्रतियोगिता एवं प्रतिस्पर्धा को बनाए रखे।
  2. अनेक विकासशील देशों में स्वदेशी के नाम पर राजनीति की जाती है जो वैश्वीकरण के सामने कड़ी चुनौती प्रस्तुत करती है।
  3. अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का विकास करना भी वैश्वीकरण के समक्ष एक गम्भीर चुनौती है।

प्रश्न 8.
वैश्वीकरण की प्रक्रिया में लोगों की आवाजाही वस्तुओं और पूँजी के प्रवाह के समान क्यों बढ़ी है?
उत्तर:
वैश्वीकरण की प्रक्रिया में लोगों की आवाजाही बढ़ी है, लेकिन यह आवाजाही वस्तुओं और पूँजी के समान नहीं बढ़ पायी है। इसका कारण यह है कि विकसित देश अपनी वीजा नीति के माध्यम से अपनी राष्ट्रीय सीमाओं को बड़ी सावधानी से अभेद्य बनाए रखते हैं ताकि दूसरे देशों के नागरिक उनके देशों में आकर कहीं उनके नागरिकों के नौकरी-धन्धे पर कब्जा न कर लें।

प्रश्न 9.
‘वर्ल्ड सोशल फोरम’ क्या है?
उत्तर:
वर्ल्ड सोशल फोरम (WSF) – नव उदारवादी वैश्वीकरण के विरोध का एक विश्वव्यापी मंच ‘वर्ल्ड सोशल फोरम’ है। इस मंच के तहत मानवाधिकार कार्यकर्ता, पर्यावरणवादी, मजदूर, युवा और महिला कार्यकर्ता एकजुट होकर नव-उदारवादी वैश्वीकरण का विरोध करते हैं।

प्रश्न 10.
वैश्वीकरण के विरोध में वामपन्थी क्या तर्क देते हैं?
उत्तर:
वैश्वीकरण के विरोध में वामपन्थी आलोचकों का तर्क है कि मौजूदा वैश्वीकरण विश्वव्यापी पूँजीवादी की एक विशेष अवस्था है जो धनिकों को और ज्यादा धनी और गरीब को और ज्यादा गरीब बनाती है।

प्रश्न 11.
दक्षिणपन्थी आलोचक वैश्वीकरण के विरोध में क्या तर्क देते हैं?
उत्तर:
वैश्वीकरण के दक्षिणपन्थी आलोचकों को-

  1. राजनीतिक अर्थों में राज्य के कमजोर होने की चिन्ता है।
  2. आर्थिक क्षेत्र में वे चाहते हैं कि कम-से-कम कुछ क्षेत्रों में आर्थिक आत्मनिर्भरता और संरक्षणवाद का दौर फिर कायम हो।
  3. सांस्कृतिक सन्दर्भ में इनकी चिन्ता है कि इससे परम्परागत संस्कृति की हानि होगी।

प्रश्न 12.
सांस्कृतिक वैभिन्नीकरण की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण से हर संस्कृति कहीं ज्यादा अलग और विशिष्ट होती जा रही है। इस प्रक्रिया को सांस्कृतिक वैभिन्नीकरण कहते हैं। इसका आशय है कि सांस्कृतिक मेल-जोल का प्रभाव एकतरफा नहीं होता है, बल्कि दुतरफा होता है।

प्रश्न 13.
विश्व सामाजिक मंच एक मुक्त आकाश का द्योतक है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण में विश्व सामाजिक मंच एक मुक्त आकाश के समान होगा। जिस प्रकार मुक्त आकाश सम्पूर्ण पक्षियों के लिए खुला होता है, ठीक उसी प्रकार विश्व को एक सामाजिक मंच मान लिया जाए तो सभी जगह उदारीकरण की अर्थव्यवस्था आ जाएगी जो सभी के लिए खुली होगी।

प्रश्न 14.
उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए कि वैश्वीकरण के परम्परागत सांस्कृतिक मूल्यों को छोड़े बिना संस्कृति का परिष्कार होता है।
उत्तर:
बाहरी संस्कृति के प्रभावों से कभी-कभी परम्परागत सांस्कृतिक मूल्यों को छोड़े बिना संस्कृति का परिष्कार होता है। उदाहरण के लिए, नीली जीन्स भी हथकरघा पर बुने खादी के कुर्ते के साथ खूब चलती है। जीन्स के ऊपर कुर्ता पहने अमेरिकियों को देखना अब सम्भव है।

प्रश्न 15.
स्पष्ट कीजिए कि कभी-कभी बाहरी प्रभावों से हमारी पसन्द-नापसन्द का दायरा बढ़ता है।
उत्तर:
कभी-कभी बाहरी प्रभावों से हमारी पसन्द-नापसन्द का दायरा बढ़ता है। उदाहरण के लिए बर्गर, मसाला डोसा का विकल्प नहीं है, इसलिए बर्गर से मसाला-डोसा को कोई खतरा नहीं है। इससे इतना मात्र हुआ है कि हमारे भोजन की पसन्द में एक और चीज शामिल हो गई है।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
वैश्वीकरण है-
(a) पूँजी का प्रवाह
(b) वस्तुओं का प्रवाह
(c) विचारों का प्रवाह
(d) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 2.
वैश्वीकरण का राजनीतिक प्रभाव है-
(a) वस्तुओं के व्यापार में वृद्धि
(b) आर्थिक प्रवाह की तीव्रता
(c) सांस्कृतिक समरूपता
(d) राज्य के कार्यों में कमी।
उत्तर:
(d) राज्य के कार्यों में कमी।

प्रश्न 3.
वैश्वीकरण के कारण सम्पूर्ण विश्व में वस्तुओं के व्यापार में …… हुई है।
(a) कमी
(b) वृद्धि
(c) कोई परिवर्तन नहीं
(d) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(b) वृद्धि।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 9 Globalisation

प्रश्न 4.
मैकडोनल्डीकरण वैश्वीकरण के किस प्रभाव का संकेत देता है-
(a) वित्तीय प्रभाव
(b) राजनीतिक प्रभाव
(c) आर्थिक प्रभाव
(d) सांस्कृतिक प्रभाव।
उत्तर:
(d) सांस्कृतिक प्रभाव।

प्रश्न 5.
वैश्वीकरण का विरोध नहीं करता-
(a) वर्ल्ड सोशल फोरम
(b) बहुराष्ट्रीय निगम
(c) इण्डियन सोशल फोरम
(d) वामपन्थी कार्यकर्ता।
उत्तर:
(b) बहुराष्ट्रीय निगम।

प्रश्न 6.
भारत में आर्थिक सुधारों की योजना प्रारम्भ हुई थी-
(a) सन् 1991 में
(b) सन् 2002 में
(c) सन् 2005 में
(d) सन् 2011 में
उत्तर:
(a) सन् 1991 में।

प्रश्न 7.
आर्थिक वैश्वीकरण का दुष्परिणाम है-
(a) व्यापार में वृद्धि
(b) पूँजी के प्रवाह में वृद्धि
(c) जनमत के विभाजन में वृद्धि
(d) विचारों के प्रवाह में वृद्धि।
उत्तर:
(c) जनमत के विभाजन में वृद्धि।
प्रश्न 8.
वैश्वीकरण के कारण जिस सीमा तक वस्तुओं का प्रवाह बढ़ा है उस सीमा तक प्रवाह नहीं बढ़ा है-
(a) पूँजी का
(b) व्यापार का
(c) लोगों की आवाजाही का
(d) उपर्युक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(c) लोगों की आवाजाही का।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 The Crisis of Democratic Order

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 The Crisis of Democratic Order (लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट)

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
बताएँ कि आपातकाल के बारे में निम्नलिखित कथन सही हैं या गलत
(क) आपातकाल की घोषणा 1975 में इन्दिरा गांधी ने की।
(ख) आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निष्क्रिय हो गए।
(ग) बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति के मद्देनजर आपातकाल की घोषणा की गई थी।
(घ) आपातकाल के दौरान विपक्ष के अनेक नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
(ङ) सी०पी०आई० ने आपातकाल की घोषणा का समर्थन किया।
उत्तर:
(ग) गलत,
(ख) सही,
(ग) गलत,
(घ) सही,
(ङ) सही।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कौन-सा आपातकाल की घोषणा के सन्दर्भ में मेल नहीं खाता है-
(क) “सम्पूर्ण क्रान्ति’ का आह्वान
(ख) 1974 की रेल-हड़ताल
(ग) नक्सलवादी आन्दोलन
(घ) इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला
(ङ) शाह आयोग की रिपोर्ट।
उत्तर:
(ग) नक्सलवादी आन्दोलन।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में मेल बैठाएँ-
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 The Crisis of Democratic Order 1
उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 The Crisis of Democratic Order 2

प्रश्न 4.
किन कारणों से 1980 के मध्यावधि चुनाव करवाने पड़े?
उत्तर:
सन् 1980 के मध्यावधि चुनावों का मूल कारण जनता पार्टी की सरकार में पारस्परिक तालमेल का अभाव व राजनीतिक अस्थिरता को माना जाता है। सन् 1977 के चुनावों में जनता पार्टी को जनता ने स्पष्ट बहुमत प्रदान किया लेकिन जनता पार्टी के नेताओं में प्रधानमन्त्री के पद को लेकर मतभेद हो गया। आपातकाल का विरोध जनता पार्टी को कुछ दिनों के लिए ही एकजुट रख सका। जनता पार्टी के पास किसी दिशा, नेतृत्व अथवा साझे कार्यक्रम का अभाव था। पहले मोरारजी देसाई, बाद में कुछ समय के लिए चरणसिंह प्रधानमन्त्री बने। केवल 18 महीने में ही मोरारजी देसाई ने लोकसभा में अपना बहमत खो दिया जिसके कारण मोरारजी देसाई को त्यागपत्र देना पड़ा। मोरारजी देसाई के बाद चरणसिंह कांग्रेस पार्टी के समर्थन से प्रधानमन्त्री बने लेकिन बाद में कांग्रेस पार्टी ने समर्थन वापस ले लिया। इस प्रकार, चरणसिंह भी मात्र चार महीने ही प्रधानमन्त्री पद पर रह पाए। अत: सत्ता के लिए हुई उठा-पटक के कारण सन् 1980 में मध्यावधि चुनाव करवाए गए।

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प्रश्न 5.
जनता पार्टी ने 1977 में शाह आयोग को नियुक्त किया था। इस आयोग की नियुक्ति क्यों की गई थी और इसके क्या निष्कर्ष थे?
उत्तर:
शाह आयोग का गठन 25 जून, 1975 के दिन घोषित आपातकाल के दौरान की गई कार्रवाई तथा सत्ता के दुरुपयोग, अतिचार और कदाचार के विभिन्न आरोपों के विविध पहलुओं की जाँच के लिए किया गया था। आयोग ने विभिन्न प्रकार के साक्ष्यों की जाँच की और हजारों गवाहों के बयान दर्ज किए। गवाहों में इन्दिरा गांधी भी शामिल थीं। वे आयोग के सामने उपस्थित हुईं, लेकिन उन्होंने आयोग के सवालों के जवाब देने से इनकार कर दिया।

शाह आयोग ने अपनी जाँच के दौरान पाया कि इस अवधि में बहुत सारी ‘अति’ हुई। भारत सरकार ने आयोग द्वारा प्रस्तुत दो अन्तरिम रिपोर्टों और तीसरी तथा अन्तिम रिपोर्ट की सिफारिशी पर्यवेक्षणों और निष्कर्षों को स्वीकार किया। यह रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में भी विचार के लिए रखी गई।

प्रश्न 6.
1975 में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा करते हुए सरकार ने इसके क्या कारण बताए थे?
उत्तर:
1975 में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा करते हुए सरकार ने इसके निम्नलिखित कारण बताए थे-
(1) सरकार ने कहा कि विपक्षी दलों द्वारा लोकतन्त्र को रोकने की कोशिश की जा रही है तथा सरकार को उचित ढंग से कार्य नहीं करने दिया जा रहा है। इसलिए सरकार ने आपातकाल की घोषणा की। इस सन्दर्भ में श्रीमती गांधी के वाक्य थे-“लोकतन्त्र के नाम पर खुद लोकतन्त्र की राह रोकने की कोशिश की जा रही है। वैधानिक रूप से निर्वाचित सरकार को काम नहीं करने दिया जा रहा। आन्दोलनों से माहौल सरगर्म है और इसके नतीजतन हिंसक घटनाएं हो रही हैं। एक आदमी तो इस हद तक आगे बढ़ गया है कि वह हमारी सेना को विद्रोह और पुलिस को बगावत के लिए उकसा रहा है।”

(2) सरकार ने कहा कि विघटनकारी ताकतों का खुला खेल जारी है और साम्प्रदायिक उन्माद को हवा दी जा रही है, जिससे हमारी एकता पर खतरा मँडरा रहा है। अगर सचमुच कोई सरकार है तो वह कैसे हाथ बाँधकर खड़ी रहे और देश की स्थिरता को खतरे में पड़ता देखती रहे? चन्द लोगों की कारस्तानी से विशाल आबादी के अधिकारों को खतरा पहुंचा रहा है।

(3) षड्यन्त्रकारी शक्तियाँ सरकार के प्रगतिशील कामों में अड़गे ‘लगा रही हैं और उन्हें गैर-संवैधानिक साधनों के बूते सत्ता से बेदखल करना चाहती हैं।

प्रश्न 7.
1977 के चुनावों के बाद पहली दफा केन्द्र में विपक्षी दल की सरकार बनी। ऐसा किन कारणों से सम्भव हुआ?
उत्तर:
1977 के चुनावों के बाद केन्द्र में पहली बार विपक्षी दल की सरकार बनने के पीछे अनेक कारण जिम्मेदार रहे, इनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं-

1. बड़ी विपक्षी पार्टियों का एकजुट होना—आपातकाल लागू होने से आहत विपक्षी नेताओं ने आपातकाल के बाद हुए चुनाव के पहले एकजुट होकर ‘जनता पार्टी’ नामक एक नया दल बनाया। नए दल ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व को स्वीकार किया। कांग्रेस के कुछ नेता भी जो आपातकाल के विरुद्ध थे, इस पार्टी में शामिल हुए।

2. जगजीवन राम द्वारा त्यागपत्र देना-चुनाव से पहले जगजीवन राम ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया तथा कांग्रेस के कुछ अन्य नेताओं ने जगजीवन राम के नेतृत्व में एक नयी पार्टी—’कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी’ बनायी तथा बाद में यह पार्टी जनता पार्टी में शामिल हो गई।

3. आपातकाल की ज्यादतियाँ-आपातकाल के दौरान जनता पर अनेक ज्यादतियाँ की गईं; जैसेसंजय गांधी के नेतृत्व में अनिवार्य नसबन्दी कार्यक्रम चलाया गया, प्रेस तथा समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता पर रोक लगा दी गई, हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया, आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में अत्यधिक वृद्धि हो गई। इन सब कारणों से जनता कांग्रेस से नाराज थी और उसने कांग्रेस के विरोध में मतदान किया।

4. विपक्षी वोटों के बिखराव का रुकना-सभी विपक्षी दलों द्वारा एकजुट होने से सभी गैर-कांग्रेसी मत एक ही जगह पर पड़े। जनमत का कांग्रेस के विरुद्ध होना तथा सभी गैर-कांग्रेसी मतों का एक ही जगह पड़ना कांग्रेस के हार का सबब बना।

5. जनता पार्टी का प्रचार-जनता पार्टी ने सन् 1977 के चुनावों को आपातकाल के ऊपर जनमत संग्रह का रूप लिया तथा इस पार्टी ने चुनाव प्रचार में शासन के अलोकतान्त्रिक चरित्र और आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों को मुद्दा बनाया।

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प्रश्न 8.
हमारी राजव्यवस्था के निम्नलिखित पक्ष पर आपातकाल का क्या असर हुआ-
(i) नागरिक अधिकारों की दशा और नागरिकों पर इसका असर।
(ii) कार्यपालिका और न्यायपालिका के सम्बन्ध।
(iii) जनसंचार माध्यमों के कामकाज।
(iv) पुलिस और नौकरशाही की कार्रवाइयाँ।
उत्तर:
(i) आपातकाल के दौरान नागरिक अधिकारों को निलम्बित कर दिया गया तथा श्रीमती गांधी द्वारा ‘मीसा कानून’ लागू किया गया जिसमें किसी भी नागरिक को बिना कारण बताए कानूनी हिरासत में लिया जा सकता था।

(ii) आपातकाल में कार्यपालिका एवं न्यायपालिका एक-दूसरे के सहयोगी हो गए, क्योंकि सरकार ने सम्पूर्ण न्यायपालिका को सरकार के प्रति वफादार रहने के लिए कहा तथा आपातकाल के दौरान कुछ हद तक न्यायपालिका सरकार के प्रति वफादार भी रही। इस प्रकार आपातकाल के दौरान न्यायपालिका कार्यपालिका के आदेशों का पालन करने वाली संस्था बन गई थी।

(iii) आपातकाल के दौरान जनसंचार पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, कोई भी समाचार-पत्र सरकार के खिलाफ कोई भी खबर नहीं छाप सकता था तथा जो भी खबर अखबार द्वारा छापी जाती थी उसे पहले सरकार से स्वीकृति प्राप्त करनी पड़ती थी।

(iv) आपातकाल के दौरान पुलिस और नौकरशाही, सरकार के प्रति वफादार बनी रही, यदि किसी पुलिस अधिकारी या नौकरशाही ने सरकार के आदेशों को मानने से मना किया तो उसे या तो निलम्बित कर दिया गया या गिरफ्तार कर लिया गया।

प्रश्न 9.
भारत की दलीय प्रणाली पर आपातकाल का किस तरह असर हुआ? अपने उत्तर की पुष्टि उदाहरणों से करें।
उत्तर:
आपातकाल का भारतीय दलीय व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा क्योंकि अधिकांश विरोधी दलों को किसी प्रकार की राजनीतिक गतिविधियों की इजाजत नहीं थी। आजादी के समय से लेकर सन् 1975 तक भारत में वैसे भी कांग्रेस पार्टी का प्रभुत्व रहा तथा संगठित विरोधी दल उभर नहीं पाया, वहीं आपातकाल के दौरान विरोधी दलों की स्थिति और भी खराब हुई। आपातकाल के बाद सरकार ने जनवरी 1977 में चुनाव कराने का फैसला किया। सभी बड़े विपक्षी दलों ने मिलकर एक नयी पार्टी- “जनता पार्टी’ का गठन कर चुनाव लड़ा और सफलता पायी और सरकार बनाई। इस प्रकार कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि राष्ट्रीय स्तर पर भारत की राजनीतिक प्रणाली द्वि-दलीय हो जाएगी। लेकिन 18 माह में ही जनता पार्टी का यह कुनबा बिखर गया और पुन: दलीय प्रणाली उसी रूप में आ गई।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें 1977 के चुनावों के दौरान भारतीय लोकतन्त्र, दो-दलीय व्यवस्था के जितना नजदीक आ गया था उतना पहले कभी नहीं आया। बहरहाल अगले कुछ सालों में मामला पूरी तरह बदल गया। हारने के तुरन्त बाद कांग्रेस दो टुकड़ों में बँट गई…..जनता पार्टी में भी बड़ी अफरा-तफरी मची…..डेविड बटलर, अशोक लाहिड़ी और प्रणव रॉय। -पार्था चटर्जी
(क)किन वजहों से 1977 में भारत की राजनीति दो-दलीय प्रणाली के समान जान पड़ रही थी?
(ख) 1977 में दो से ज्यादा पार्टियाँ अस्तित्व में थीं। इसके बावजूद लेखकगण इस दौर को दो-दलीय प्रणाली के नजदीक क्यों बता रहे हैं?
(ग) कांग्रेस और जनता पार्टी में किन कारणों से टूट पैदा हुई?
उत्तर:
(क) सन् 1977 में भारत की राजनीति दो-दलीय प्रणाली इसलिए जान पड़ती थी क्योंकि उस समय केवल दो ही दल सत्ता के मैदान में थे-सत्ताधारी दल कांग्रेस एवं मुख्य विपक्षी दल जनता पार्टी।

(ख) लेखकगण इस दौर को दो-दलीय प्रणाली के नजदीक इसलिए बता रहे हैं क्योंकि कांग्रेस कई टुकड़ों में बँट गई और जनता पार्टी में भी फूट हो गई परन्तु फिर भी इन दोनों प्रमुख पार्टियों के नेता संयुक्त नेतृत्व, साझे कार्यक्रम और नीतियों की बात करने लगे। इन दोनों गुटों की नीतियाँ एक जैसी थीं। दोनों में बहुत कम अन्तर था। वामपन्थी मोर्चे में सी०पी०एम०, सी०पी०आई०, फारवर्ड ब्लॉक, रिपब्लिकन पार्टी की नीति एवं कार्यक्रमों को इनसे अलग माना जा सकता है।

(ग) सन् 1977 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार के कारण नेताओं में निराशा पैदा हुई और इस निराशा के कारण फूट पैदा हुई, क्योंकि अधिकांश कांग्रेसी नेता श्रीमती गांधी के चामत्कारिक नेतृत्व के मोहपाश से बाहर निकल चुके थे, दूसरी ओर जनता पार्टी के नेतृत्व को लेकर फूट पैदा हो गई थी। प्रधानमन्त्री पद के लिए उम्मीदवारों में आपसी होड़ मच गई।

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
गरीब जनता पर सचमुच भारी मुसीबत आई होगी।आखिर गरीबी हटाओ के वादे का हुआ क्या?
उत्तर:
श्रीमती गांधी ने सन् 1971 के आम चुनावों में ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था लेकिन इस नारे के बावजूद भी सन् 1971-72 के बाद के वर्षों में देश की सामाजिक-आर्थिक दशा में सुधार नहीं हुआ और यह नारा खोखला साबित हुआ।

इसी अवधि में अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में कई गुना बढ़ोतरी हुई। इससे विभिन्न चीजों की कीमतें तेजी से बढ़ी। सन् 1973 में चीजों की कीमतों में 23 प्रतिशत और सन् 1974 में 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। इस तीव्र मूल्य वृद्धि से लोगों को भारी कठिनाई हुई। बंगलादेश के संकट से भी भारत की अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ पड़ा था। फलत: गरीबी हटाओ कार्यक्रम के लिए दिए जाने वाले अनुदान में कटौती कर दी गई और यह नारा पूर्णत: सफल साबित नहीं हो पाया।

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प्रश्न 2.
क्या ‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ और ‘प्रतिबद्ध नौकरशाही’ का मतलब यह है कि न्यायाधीश और सरकारी अधिकारी शासक दल के प्रति निष्ठावान हों?
उत्तर:
प्रतिबद्ध नौकरशाही के अन्तर्गत नौकरशाही किसी विशिष्ट राजनीतिक दल के सिद्धान्तों से बँधी हुई होती है और उस दल के निर्देशन में कार्य करती है। प्रतिबद्ध नौकरशाही निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र होकर कार्य नहीं करती बल्कि इसका कार्य किसी दल विशेष की योजनाओं को बिना किसी प्रश्न उठाए आँखें मूंदकर लागू करना होता है।

जहाँ तक प्रतिबद्ध न्यायपालिका का सवाल है यह ऐसी न्यायपालिका होती है, जो एक दल विशेष या सरकार विशेष के प्रति वफादार हो तथा सरकार के निर्देशों के अनुसार चले।

इस प्रकार ऐसी व्यवस्था में न्यायपालिका व व्यवस्थापिका की स्वतन्त्रता पर प्रश्न चिह्न लग जाता है और प्रशासन निरंकुश हो जाता है अर्थात् कानून बनाने एवं फैसला या निर्णय देने की शक्ति केवल एक ही संख्या या दल के पास आ जाती है। इस प्रकार की नौकरशाही प्रायः साम्यवादी देशों में पायी जाती है।

प्रश्न 3.
क्या राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल की सिफारिश के बगैर आपातकाल की घोषणा करनी चाहिए थी? कितनी अजीब बात है!
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 में राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियों का उल्लेख किया गया है। भारत में 1975 में अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा की गई जिसमें मन्त्रिमण्डल से सलाह करके आपातकालीन स्थिति की घोषणा का प्रावधान है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने बिना मन्त्रिमण्डल की सलाह के राष्ट्रपति को आपातकाल की घोषणा करने की सलाह दी थी, मन्त्रिमण्डल की बैठक इसके बाद हुई। इस प्रकार तत्कालीन परिस्थितियों में चाहे कुछ भी हुआ हो लेकिन लोकतान्त्रिक व्यवस्था में यदि देश में आपातकाल लागू करना है तो राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल से पूरी तरह विचार-विमर्श करके तमाम हालातों को दृष्टिगत रखते हुए इसकी घोषणा करनी चाहिए। वर्तमान में आपातकाल के प्रावधानों में सुधार कर लिया गया है। अब आन्तरिक आपातकाल सिर्फ सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में ही लगाया जा सकता है। इसके लिए भी आपातकाल की घोषणा की सलाह मन्त्रिपरिषद् को राष्ट्रपति को लिखित में देनी होगी।

प्रश्न 4.
अरे! सर्वोच्च न्यायालय ने भी साथ छोड़ दिया। उन दिनों सबको क्या हो गया था?
उत्तर:
आपातकाल के दौरान नागरिकों की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिए गए तथा मौलिक अधिकार निष्प्रभावी हो गए। नागरिकों के पास अब यह अधिकार नहीं था कि वे अदालतों का दरवाजा खटखटा सकें।

सरकार ने निवारक नजरबन्दी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। लोगों को केवल अपराध की आशंका के कारण गिरफ्तार किया गया। सरकार ने आपातकाल के दौरान निवारक नजरबन्दी अधिनियमों का प्रयोग करके बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ की। जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया वे बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका का सहारा लेकर अपनी गिरफ्तारी को चुनौती भी नहीं दे सकते थे। गिरफ्तार लोग अथवा उनके पक्ष से किन्हीं और ने उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में कई मामले दायर किए, लेकिन सरकार का कहना था कि लोगों की गिरफ्तारी का कारण बताना कतई आवश्यक नहीं है।

अनेक उच्च न्यायालयों ने फैसला किया कि आपातकाल की घोषणा के बावजूद अदालत किसी व्यक्ति द्वारा दायर की गई ऐसी बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका को विचार के लिए स्वीकार कर सकती है जिसमें उसने अपनी गिरफ्तारी को चुनौती दी हो। सन् 1976 में अप्रैल माह में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने उच्च न्यायालयों के फैसले को उलट दिया और सरकार की दलील मान ली। इसका आशय यह था कि सरकार आपातकाल के दौरान नागरिकों के जीवन और आजादी का अधिकार वापस ले सकती है। इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय के सर्वाधिक विवादास्पद फैसलों में से एक माना गया। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से नागरिकों के लिए अदालत के दरवाजे बन्द हो गए अर्थात् सर्वोच्च न्यायालय ने भी जनता का साथ छोड़ दिया था।

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प्रश्न 5.
अगर उत्तर और दक्षिण के राज्यों में मतदाताओं ने इतने अलग ढर्रे पर मतदान किया, तो हम कैसे कहें कि 1977 के चुनावों का जनादेश क्या था?
उत्तर:
सन् 1977 के चुनावों में आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस लोकसभा का चुनाव हारी। कांग्रेस को लोकसभा की मात्र 154 सीटें मिलीं। 3 से 35 प्रतिशत से भी कम वोट प्राप्त हुए। जनता पार्टी और उसके साथी दलों को 330 सीटें प्राप्त हुईं।

लेकिन तत्कालीन चुनावी नतीजों पर प्रकाश डालें तो यह एहसास होता है कि कांग्रेस देश में हर जगह चुनाव नहीं हारी थी। महाराष्ट्र, गुजरात और उड़ीसा में उसने कई सीटों पर अपना कब्जा बरकरार रखा था और दक्षिण भारत के राज्यों में तो उसकी स्थिति काफी मजबूत थी। लेकिन इन चुनावों की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उत्तर भारत में राजनीतिक प्रतिद्वन्द्विता की प्रकृति में दूरगामी बदलाव आए। उत्तर भारत में मध्य वर्ग का जनादेश कांग्रेस के हाथ से दूर जाने लगा और मध्यम वर्ग के कई तबके जनता पार्टी को एक मंच के रूप में पाकर इससे आ जुड़े।

प्रश्न 6.
मैं समझ गया! आपातकाल एक तरह से तानाशाही निरोधक टीका था। इससे दर्द हुआ और बुखार भी आया, लेकिन अन्ततः हमारे लोकतन्त्र के भीतर क्षमता बढ़ी।
उत्तर:
भारत में जून 1975 में श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा आपातकाल लागू करवाने की सिफारिश की गई और सम्पूर्ण देश में आपातकाल लागू कर दिया गया। तत्कालीन सरकार का दावा था कि वह.आपातकाल लागू करके कानून व्यवस्था को बहाल करना चाहती थी, कार्यकुशलता बढ़ाना चाहती थी और गरीबों के हित में कार्यक्रम लागू करना चाहती थी। लेकिन आलोचकों ने ध्यान दिलाया कि सरकार के ज्यादातर वायदे पूरे नहीं हुए तथा सरकार अपने वायदों की ओट लेकर ज्यादतियों से लोगों का ध्यान हटाना चाहती थी।

आपातकाल के दौरान पुलिस हिरासत में मौत और यातनाओं की घटनाएँ घटी। गरीब लोगों को मनमाने ढंग से एक जगह से उजाड़ कर दूसरी जगह बसाने की भी घटनाएँ हुईं। जनसंख्या नियन्त्रण के अति उत्साह में लोगों को अनिवार्य रूप से नसबन्दी के लिए मजबूर किया गया। आपातकाल से सबक-आपातकाल में एकबारगी भारतीय लोकतन्त्र की ताकत और कमजोरियाँ उजागर हुईं। पर्यवेक्षकों का मानना है कि आपातकाल के दौरान भारतीय लोकतन्त्र लोकतन्त्र नहीं रहा लेकिन यह भी सही है कि थोड़े ही दिनों के अन्दर कामकाज फिर से लोकतान्त्रिक ढर्रे पर लौट आया। आपातकाल के प्रमुख सबक निम्नलिखित हैं-

  1. आपातकाल का प्रथम सबक तो यही है कि भारत से लोकतन्त्र को विदा कर पाना अत्यन्त कठिन है।
  2. दूसरे, आपातकाल से संविधान में वर्णित आपातकाल के प्रावधानों के कुछ अर्थगत उलझाव भी प्रकट हुए, जिन्हें बाद में सुधार लिया गया। अब आन्तरिक आपातकाल सिर्फ सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में लगाया जा सकता है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि आपातकाल की घोषणा की सलाह मन्त्रिपरिषद् राष्ट्रपति को लिखित में दे।
  3. तीसरे आपातकाल से हर कोई नागरिक अधिकारों के प्रति ज्यादा सचेत हुआ। आपातकाल की समाप्ति के बाद अदालतों ने व्यक्ति के नागरिक अधिकारों की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाई।

इस प्रकार आपातकाल ने भारतीय प्रशासन व जनता को सबक सिखाया तथा लोकतान्त्रिक व्यवस्था की प्रामाणिकता को भी सिद्ध किया।

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
वचनबद्ध न्यायपालिका की अवधारणा को समझाइए।
उत्तर:
वचनबद्ध न्यायपालिका वचनबद्ध न्यायपालिका से तात्पर्य न्यायपालिका का सरकार के प्रति प्रतिबद्ध होना या सरकार की नीतियों का आँख मूंदकर पालन करने से है।

सन् 1973 में श्रीमती गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद पर तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों श्री जे० एम० शैलट, श्री के० एस० हेगड़े तथा श्री ए० एन० ग्रोवर की उपेक्षा करके ए० एन० रे को नियुक्त किया। इस नियुक्ति से उस समय एक राजनीतिक विवाद पैदा हो गया। श्री ए० एन० रे की नियुक्ति के विरोध में तीनों वरिष्ठ न्यायाधीशों ने त्यागपत्र दे दिया। इससे यह प्रश्न उठने लगा कि क्या न्यायपालिका सरकार के प्रति वचनबद्ध होनी चाहिए अथवा स्वतन्त्र।

वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए सरकार द्वारा प्रयोग किए गए उपाय-तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती गांधी की सरकार ने न्यायपालिका की वचनबद्धता के लिए निम्नलिखित उपाय किए थे-

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता के सिद्धान्त की अनदेखी-श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता की अनदेखी की तथा उन न्यायाधीशों को पदोन्नत किया, जो सरकार के प्रति वफादार थे।

उदाहरणार्थ- श्री जे० एम० शैलट, के० एस० हेगड़े तथा ए० एन० ग्रोवर की वरिष्ठता की अनदेखी करके श्री ए० एन० रे को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करवाया। अतः तीनों वरिष्ठ न्यायाधीशों को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। सन् 1977 में पुनः श्री एच० आर० खन्ना की वरिष्ठता की अनदेखी करके श्री एम० एच० बेग को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करवाया गया।

2. न्यायाधीशों का स्थानान्तरण-श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों के स्थानान्तरण का सहारा भी लिया। इन्होंने सन् 1981 में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश इस्माइल को केरल उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाकर भेजा तथा पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी० एन० सिंह को मद्रास उच्च न्यायालय स्थानान्तरित करवाया।

3. रिक्त पदों को भरने से मना करना-सरकार ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए कई बार रिक्त पदों को भरने से मना कर दिया, अथवा असमर्थता व्यक्त की।

4. न्यायपालिका की आलोचना-न्यायाधीशों द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों की प्राय: अधिकारियों द्वारा आलोचना की जाती थी, जबकि ऐसा किया जाना संविधान के विरुद्ध था।

5. अस्थायी न्यायाधीशों की नियुक्ति-वचनबद्ध न्यायपालिका का एक अन्य उपाय अस्थायी न्यायाधीशों की नियुक्ति करना था। सरकार अस्थायी तौर पर नियुक्त करके न्यायाधीशों की कार्यप्रणाली एवं व्यवहार का अध्ययन करती थी कि वह सरकार के पक्ष में कार्य कर रहा है अथवा विपक्ष में।

6. अन्य पदों पर नियुक्तियाँ-सरकार ने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों में से उन्हें राज्यपाल, राजदूत या किसी आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया, जो सरकार के प्रति वफादार थे अथवा सरकार की नीतियों के अनुसार चलते थे।

7. कम वेतन-न्यायाधीशों को अन्य विभागों के मुकाबले कम वेतन मिलता था।

8. कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश का प्रावधान-कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के संवैधानिक प्रावधानों को भी वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए प्रयोग किया गया।
निष्कर्ष-उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि भारत में न्यायपालिका की प्रतिबद्धता पहले की अपेक्षा कम हुई है लेकिन अभी भी वह पूर्ण रूप से स्वतन्त्र नहीं है। स्वच्छ प्रशासन के लिए न्यायपालिका का स्वतन्त्र होना पहली शर्त है।

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प्रश्न 2.
सन् 1975 में श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा लागू किए गए आपातकाल की घोषणा के प्रमुख कारणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सन् 1975 के आपातकाल की घोषणा भारतीय राजनीति का सबसे विवादास्पद प्रकरण माना जाता है, जो 25 जून, 1975 को पहली बार आन्तरिक गड़बड़ी के आधार पर लागू किया गया। राष्ट्रपति ने प्रधानमन्त्री की सिफारिश के आधार पर सन् 1975 में राष्ट्रीय संकटकाल की घोषणा की।

आपातकाल के कारण आपातकाल के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

1. सन् 1971 के युद्ध में अत्यधिक व्यय-सन् 1975 में लागू किए गए आपातकाल की घोषणा का प्रमुख कारण सन् 1971 में हुए पाकिस्तान के साथ युद्ध को माना जाता है। इस युद्ध में भारत को बहुत अधिक धन व्यय करना पड़ा। इसके अलावा पूर्वी पाकिस्तान से आए करोड़ों शरणार्थियों का भार भी भारत पर पड़ा। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। श्रीमती गांधी का ‘गरीबी हटाओ’ का नारा धन के अभाव के कारण पूरी तरह सफल नहीं हो पाया, जिससे लोगों में असन्तोष फैला।

2. कृषिगत उत्पादन में कमी-सन् 1972-73 में भारत में फसल भी अच्छी नहीं हुई। अन्य शब्दों में, सरकार को कृषि क्षेत्र में भी असफलता मिल रही थी, जिससे भारत में आर्थिक विकास नहीं हो पा रहा था।

3. औद्योगिक उत्पादन की मात्रा में कमी-भारत में प्रशिक्षित एवं कुशल वैज्ञानिकों, इंजीनियरों तथा कर्मचारियों के होने के बावजूद भी भारत के औद्योगिक उत्पादन में निरन्तर कमी हो रही थी जिससे कर्मचारियों में असन्तोष बढ़ रहा था।

4. रेलवे की हड़ताल-सन् 1975 में की गई आपातकालीन घोषणा का एक कारण रेलवे कर्मचारियों द्वारा की गई हड़ताल भी थी जिससे यातायात व्यवस्था बिल्कुल खराब हो गई।

5. बिहार आन्दोलन-बिहार आन्दोलन का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण ने किया। बिहार आन्दोलन भी सन् 1975 में आपातकाल की घोषणा का एक प्रमुख कारण था, क्योंकि इस आन्दोलन के कारण जयप्रकाश नारायण ने लोगों को श्रीमती इन्दिरा गांधी के विरुद्ध एकजुट कर दिया था। बिहार आन्दोलन ने केन्द्र में कांग्रेस सरकार की चुनौती पेश की तथा श्रीमती गांधी ने इस आन्दोलन के दबाव में आपातकाल की घोषणा की।

6. तेल संकट-सन् 1973 में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल संकट पैदा हो गया। सन् 1973 में ओपेक देशों ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी बात मनवाने के लिए तेल का उत्पादन कम कर दिया। इससे तेल संकट उत्पन्न हुआ। इस तेल संकट के कारण अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतें बढ़ गईं। तेल की कीमतें बढ़ने से भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी इसका प्रभाव देखा जाने लगा। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था खराब हो गई।

7. गुजरात का नव-निर्माण आन्दोलन-अहमदाबाद के एन० डी० इंजीनियरिंग महाविद्यालय के छात्रावास में खाने में 20 प्रतिशत की वृद्धि पर विवाद के कारण अहमदाबाद में असन्तोष फैल गया तथा आगे चलकर इस असन्तोष ने गुजरात नव-निर्माण आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। इस घटना से अहमदाबाद राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में आ गया। यह आन्दोलन इतना व्यापक था कि गुजरात के मुख्यमन्त्री चिमनभाई पटेल को त्यागपत्र देना पड़ा। सन् 1975 में श्रीमती इन्दिरा गांधी ने जो आपातकाल की घोषणा की थी, उसका एक प्रमुख कारण गुजरात का नव-निर्माण आन्दोलन भी था।

8. श्रीमती गांधी के चुनाव को अवैध घोषित करना-सन् 1975 के आपातकाल का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनके निर्वाचन को अवैध घोषित करना था।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जगजीवन राम का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
जगजीवन राम-जगजीवन राम भारत के महान् स्वतन्त्रता सेनानी और बिहार राज्य के उच्च कोटि के कांग्रेसी नेता थे। इनका जन्म सन् 1908. में हुआ। ये स्वतन्त्र भारत के पहले केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में श्रम मन्त्री बने। सन् 1952 से सन् 1977 तक इन्होंने अनेक मन्त्रालयों की जिम्मेदारी निभाई। वे देश की संविधान सभा के सदस्य थे। वे सन् 1952 से लेकर सन् 1986 तक सांसद रहे। सन् 1977 से सन् 1979 तक देश के उप-प्रधानमन्त्री पद पर रहे। इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन दलितों की सेवा में बिताया और उनकी सेवा के लिए हमेशा तैयार रहते थे। सन् 1986 में इनका निधन हो गया।

प्रश्न 2.
भारत में वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा का उदय कैसे हुआ?
उत्तर:
भारत में वचनबद्ध न्यायपालिका का उदय-केशवानन्द भारती मुकदमे की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय की एक 13 सदस्यीय संविधान पीठ ने की। 13 में से 9 न्यायाधीशों ने यह निर्णय दिया कि संसद मौलिक अधिकारों सहित संविधान में संशोधन कर सकती है, परन्तु संविधान के मूलभूत ढाँचे में परिवर्तन नहीं कर सकती। इस निर्णय से सरकार एवं न्यायपालिका में मतभेद बढ़ गए, क्योंकि सन् 1973 में सरकार का नेतृत्व श्रीमती इन्दिरा गांधी कर रही थीं। अत: यह विवाद श्रीमती इन्दिरा गांधी एवं न्यायालय के मध्य हुआ जिसमें जीत न्यायालय की हुई क्योंकि न्यायालय ने संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्ति को सीमित कर दिया। इसी कारण श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा को आगे बढ़ाया। सन् 1975 में आपातकाल के समय वचनबद्ध न्यायपालिका का सिद्धान्त कार्यपालिका का सिद्धान्त बन गया।

प्रश्न 3.
भारत में वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा को उदाहरणों से समझाइए।
उत्तर:
भारत में वचनबद्ध न्यायपालिका के उदाहरण

भारत में वचनबद्ध न्यायपालिका के प्रमुख उदाहरण निम्नलिखित हैं-

  1. न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता की अनदेखी-श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता की अनदेखी की। श्रीमती गांधी ने श्री ए० एन० रे को तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की वरिष्ठता की अनदेखी करके सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया।
  2. न्यायाधीशों का स्थानान्तरण–श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों के स्थानान्तरण का सहारा लिया। इन्होंने सन् 1981 में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश इस्माइल को केरल उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाकर भेजा।
  3. रिक्त पदों को भरने से मना करना-सरकार ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए कई बार रिक्त पदों को भरने से भी मना कर दिया।
  4. अन्य पदों पर नियुक्तियाँ सरकार ने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों में से उन्हें राज्यपाल, राजदूत, मन्त्री या किसी आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया, जो सरकार के प्रति वफादार थे।

प्रश्न 4.
भारत के एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में आप आपातकाल की आलोचना किन आधारों पर करते हैं?
उत्तर:
भारतीय लोकतन्त्र पर आपातकाल के दुष्प्रभाव

भारतीय लोकतन्त्र पर आपातकाल के निम्नलिखित दुष्प्रभाव पड़े, जिनके कारण हम आपातकाल की आलोचना करते हैं

1. लोकतान्त्रिक कार्यप्रणाली का ठप्प होना-आपातकाल में लोगों को सार्वजनिक तौर पर सरकार के विरोध करने की लोकतान्त्रिक प्रणाली को ठप्प कर दिया गया। देश को बचाने के लिए बनाए गए संवैधानिक प्रावधान का दुरुपयोग इन्दिरा गांधी ने निजी ताकत को बचाने के लिए किया।

2. निवारक नजरबन्दी कानून का दुरुपयोग-आपातकाल में निवारक नजरबन्दी कानून का दुरुपयोग करते हुए लगभग 1 लाख 11 हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया। जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया, वे बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका का सहारा लेकर अपनी गिरफ्तारी को चुनौती भी नहीं दे सकते थे।

3. प्रेस पर नियन्त्रण-आपातकाल के दौरान सरकार ने प्रेस की आजादी पर रोक लगा दी। समाचार-पत्रों को कहा गया कि कुछ भी छापने से पहले अनुमति लेना आवश्यक है। इसे प्रेस सेंसरशिप के नाम से जाना जाता है।

4. संविधान का 42वाँ संशोधन आपातकाल के दौरान ही संविधान का 42वाँ संशोधन पारित हुआ। इसके जरिये संविधान के अनेक हिस्सों में बदलाव किए गए जिन्हें बाद में 44वें संविधान संशोधन द्वारा ठीक किया गया।

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प्रश्न 5.
चौधरी चरणसिंह के जीवन पर संक्षिप्त नोट लिखिए।
उत्तर:
चौधरी चरणसिंह का जन्म सन् 1902 में हुआ। ये महान् स्वतन्त्रता सेनानी थे और प्रारम्भ में उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय रहे। ये ग्रामीण एवं कृषि विकास की नीति और कार्यक्रमों के कट्टर समर्थक थे। सन् 1967 में कांग्रेस पार्टी को छोड़कर इन्होंने भारतीय क्रान्ति दल का गठन किया। वे दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री बने। ये जयप्रकाश नारायण के क्रान्ति आन्दोलन से जुड़े और सन् 1977 में जनता पार्टी के संस्थापकों में से एक थे। सन् 1977 से सन् 1979 तक ये भारत के उप-प्रधानमन्त्री और गृह-मन्त्री रहे। इन्होंने लोक दल की स्थापना की। ये कुछ महीनों के लिए जुलाई 1979 से जनवरी 1980 के बीच भारत के प्रधानमन्त्री रहे। चौधरी चरणसिंह का निधन सन् 1987 में हुआ।

प्रश्न 6.
प्रतिबद्ध नौकरशाही की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रतिबद्ध नौकरशाही की अवधारणा
पतिबदनौकाशाटी की प्रतिबद्ध नौकरशाही का अर्थ है कि नौकरशाही किसी विशिष्ट राजनीतिक दल के सिद्धान्तों एवं नीतियों से बँधी हुई रहती है और उस दल के निर्देशन में ही कार्य करती है। प्रतिबद्ध नौकरशाही निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र होकर कार्य नहीं करती। इसका कार्य किसी दल विशेष की योजनाओं को बिना कोई प्रश्न उठाए आँखें मूंद कर लागू करना होता है। लोकतान्त्रिक देशों में नौकरशाही प्रतिबद्ध नहीं होती। परन्तु साम्यवादी देशों में जैसे कि चीन में वचनबद्ध नौकरशाही पायी जाती है। भारत में प्रतिबद्ध नौकरशाही से आशय किसी दल के सिद्धान्तों के प्रति वचनबद्ध न होकर संविधान के प्रति वचनबद्धता है।

प्रश्न 7.
आपातकाल में संवैधानिक एवं उत्तर-संवैधानिक पक्षों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आपातकाल के संवैधानिक एवं उत्तर-संवैधानिक पक्ष
आपातकाल के समय कुछ संवैधानिक एवं उत्तर-संवैधानिक पक्ष भी सामने आए। श्रीमती गांधी ने संविधान में 39वाँ संवैधानिक संशोधन किया। इस संशोधन द्वारा राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री एवं स्पीकर के चुनाव से सम्बन्धित मुकदमों की सुनवाई की सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति समाप्त कर दी गई। 39वें संविधान संशोधन की उपधारा-4 के अन्तर्गत उपर्युक्त पदों से सम्बन्धित चुनावों को न्यायालयों में चुनौती देने की शक्ति को समाप्त कर दिया गया। इस संशोधन को पास करने का मुख्य उद्देश्य श्रीमती गांधी को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय से राहत दिलाना था।

विरोधी पक्ष ने 39वें संशोधन को संविधान के मूल ढाँचे के विरुद्ध बताया परन्तु उच्च न्यायालय की पीठ के पाँच में से चार न्यायाधीशों ने 39वें संशोधन को वैध ठहराया तथा इस संशोधन के आधार पर श्रीमती गांधी के निर्वाचन को पूर्ण रूप से वैध ठहराया। इस प्रकार श्रीमती गांधी के निर्वाचन को वैध ठहराने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक बड़ी कवायद की गई।

प्रश्न 8.
विरोधी दलों के विरोध तथा कांग्रेस की टूट ने आपातकाल की पृष्ठभूमि कैसे तैयार की?
उत्तर:
आपातकाल की पृष्ठभूमि के कारण

आपातकाल की पृष्ठभूमि के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

  1. सन् 1967 के चुनावों के बाद कुछ प्रान्तों में विरोधी दलों या संयुक्त विरोधी दलों की सरकार बनी। वे केन्द्र में सत्ता में आना चाहते थे।
  2. कांग्रेस के विपक्ष में जो दल थे उन्हें लग रहा था कि सरकारी प्राधिकार को निजी प्राधिकार मानकर प्रयोग किया जा रहा है और राजनीति हद से ज्यादा व्यक्तिगत होती जा रही है।
  3. कांग्रेस टूट से इन्दिरा गांधी और उनके विरोधियों के बीच मतभेद गहरे हो गए थे।
  4. इस अवधि में न्यायपालिका और सरकार के आपसी रिश्तों में भी तनाव आए। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के अनेक निर्णयों को संविधान के विरुद्ध माना। सरकार ने न्यायपालिका को प्रगति विरोधी बताया।
  5. जयप्रकाश नारायण समग्र क्रान्ति की बात कर रहे थे। ऐसी सभी घटनाओं ने आपातकाल के लिए पृष्ठभूमि तैयार की।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जनता के संसद मार्च का नेतृत्व कब व किसने किया?
उत्तर:
सन् 1975 में जनता के संसद मार्च का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण ने किया।

प्रश्न 2.
आपातकाल लागू करने का तात्कालिक कारण क्या था?
उत्तर:

  1. प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी (तत्कालीन) के लोकसभा हेतु निर्वाचन को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अवैध घोषित करना।
  2. विपक्षी दलों द्वारा तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी से त्यागपत्र की माँग करना।

प्रश्न 3.
आन्तरिक अशान्ति की दशा में उद्घोषित आपातकाल के कोई दो प्रभाव बताइए।
उत्तर:

  1. संसद के सभी कार्य स्थगित रहते हैं।
  2. प्रेस की स्वतन्त्रता पर भी रोक लगाई जा सकती है।

प्रश्न 4.
25 जून, 1975 को आपातकाल की घोषणा के किन्हीं दो परिणामों को बताइए।
उत्तर:

  1. मौलिक अधिकारों का हनन।
  2. संवैधानिक उपचारों का अधिकार तथा न्यायालय द्वारा सरकार विरोधी घोषणाएँ।

प्रश्न 5.
सन् 1977 के चुनावों में जनता पार्टी की विजय प्राप्ति के किन्हीं दो कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. जयप्रकाश नारायण का व्यक्तित्व-जयप्रकाश नारायण इस दौर के सबसे करिश्माई व्यक्तित्व थे। उन्हें अपार जन-समर्थन प्राप्त था। जनता पार्टी की जीत में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था।
  2. इन्दिरा गांधी की घटती लोकप्रियता-इन्दिरा गांधी का जिद्दी स्वभाव, हठधर्मी, न्यायपालिका से उनका टकराव आदि ऐसे कारण थे जिनसे इन्दिरा गांधी की लोकप्रियता घटी।

प्रश्न 6.
वचनबद्ध नौकरशाही को समझाइए।
उत्तर:
वचनबद्ध नौकरशाही का अर्थ है कि सरकार की नीति व कार्यक्रमों के प्रति वचनबद्ध अधिकारीगण (अफसर) आँखें मूंद करके शासक दल की नीतियों को लागू करेंगे, चाहें उनका परिणाम कुछ भी क्यों न हो। वचनबद्ध नौकरशाही में राज्य का महत्त्व बढ़ जाता है, राज्य का क्षेत्र व्यापक हो जाता है।

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प्रश्न 7.
वचनबद्ध न्यायपालिका से क्या आशय है?
उत्तर:
ऐसी न्यायपालिका जो एक दल विशेष या सरकार विशेष के प्रति वफादार हो तथा उसके निर्देशों एवं आदेशों के अनुसार ही चले, उसे वचनबद्ध न्यायपालिका कहा जाता है।

प्रश्न 8.
भारतीय संविधान में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता हेतु किए गए कोई दो प्रावधान लिखिए।
उत्तर:

  1. न्यायाधीशों को केवल महाभियोग द्वारा ही पद से हटाया जा सकता है।
  2. न्यायाधीशों की योग्यता का संविधान में वर्णन किया गया है।

प्रश्न 9.
अनुच्छेद 352 क्या है?
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 में देश में आपातकाल की घोषणा की जा सकती है। सन् 1962, सन् 1971 एवं सन् 1975 में की गई आपातकाल की घोषणा अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत ही की गई थी।

प्रश्न 10.
शाह आयोग की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
शाह आयोग की स्थापना आपातकाल के दौरान की गई कार्रवाई तथा सत्ता के दुरुपयोग, अतिचार और कदाचार के विविध पहलुओं की जाँच करने के लिए की गई।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जनता पार्टी के शासन काल में भारत के प्रधानमन्त्री कौन थे-
(a) चौ० देवीलाल
(b) चौ० चरण सिंह
(c) मोरारजी देसाई
(d) ए० बी० वाजपेयी
उत्तर:
(c) मोरारजी देसाई।

प्रश्न 2.
श्रीमती इन्दिरा गांधी ने भारत में आपातकाल की घोषणा कब की थी-
(a) 18 जून, 1975
(b) 25 जून, 1975
(c) 5 जुलाई, 1975
(d) 10 जून, 1975
उत्तर:
(b) 25 जून, 1975

प्रश्न 3.
भारत में प्रतिबद्ध नौकरशाही तथा प्रतिबद्ध न्यायपालिका की घोषणा को किसने जन्म दिया-
(a) इन्दिरा गांधी
(b) लालबहादुर शास्त्री
(c) मोरारजी देसाई
(d) जवाहरलाल नेहरू।
उत्तर:
(a) इन्दिरा गांधी।

प्रश्न 4.
समग्र क्रान्ति के प्रतिपादक कौन थे-
(a) जयप्रकाश नारायण
(b) मोरारजी देसाई
(c) महात्मा गांधी
(d) गोपाल कृष्ण गोखले।
उत्तर:
(a) जयप्रकाश नारायण।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से नक्सलवादी आन्दोलन से किसका सम्बन्ध है-
(a) सुरेश कलमाड़ी
(b) चारु मजूमदार
(c) ममता बनर्जी
(d) जयललिता।
उत्तर:
(b) चारु मजूमदार।

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प्रश्न 6.
भारतीय क्रान्ति दल का गठन किसने किया-
(a) लाला लाजपत राय
(b) सुभाषचन्द्र बोस
(c) लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
(d) चौधरी चरणसिंह।
उत्तर:
(d) चौधरी चरणसिंह।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Environment and Natural Resources

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Environment and Natural Resources

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
पर्यावरण के प्रति बढ़ते सरोकारों का क्या कारण है? निम्नलिखित में सबसे बेहतर विकल्प चुनें-
(क) विकसित देश प्रकृति की रक्षा को लेकर चिन्तित हैं।
(ख) पर्यावरण की सुरक्षा मूलवासी लोगों और प्राकृतिक पर्यावासों के लिए जरूरी है।
(ग) मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण को व्यापक नुकसान हुआ है और यह नुकसान खतरे की हद तक पहुँच गया है।
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(ग) मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण को व्यापक नुकसान हुआ है और यह नुकसान खतरे की हद तक पहुँच गया है।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित कथनों में प्रत्येक के आगे सही या गलत का चिह्न लगाएँ। ये कथन पृथ्वीसम्मेलन के बारे में हैं
(क) इसमें 170 देश, हजारों स्वयंसेवी संगठन तथा अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भाग लिया।
(ख) यह सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्त्वावधान में हुआ।
(ग) वैश्विक पर्यावरण मुद्दों ने पहली बार राजनीतिक धरातल पर ठोस आकार ग्रहण किया।
(घ) यह महासम्मेलनी बैठक थी।
उत्तर:
(क) इसमें 170 देश, हजारों स्वयंसेवी संगठन तथा अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भाग लिया।
(ख) यह सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्त्वावधान में हुआ।
(ग) वैश्विक पर्यावरण मुद्दों ने पहली बार राजनीतिक धरातल पर ठोस आकार ग्रहण किया।
(घ) यह महासम्मेलनी बैठक थी।

प्रश्न 3.
‘विश्व की साझी विरासत’ के बारे में निम्नलिखित में कौन-से कथन सही हैं-
(क) धरती का वायुमण्डल, अण्टार्कटिका, समुद्री सतह और बाहरी अन्तरिक्ष को ‘विश्व की साझी विरासत’ माना जाता है।
(ख) ‘विश्व की साझी विरासत’ किसी राज्य के सम्प्रभु क्षेत्राधिकार में नहीं आते।
(ग) ‘विश्व की साझी विरासत’ के प्रबन्धन के सवाल पर उत्तरी व दक्षिणी देशों के बीच मतभेद है।
(घ) उत्तरी गोलार्द्ध के देश ‘विश्व की साझी विरासत’ को बचाने के लिए दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों से कहीं ज्यादा चिन्तित हैं।
उत्तर:
(क) धरती का वायुमण्डल, अण्टार्कटिका, समुद्री सतह व बाहरी अन्तरिक्ष को विश्व की साझी विरासत माना जाता है। (सही)
(ख) ‘विश्व की साझी विरासत’ किसी राज्य के सम्प्रभु क्षेत्राधिकार में नहीं आती। (सही)
(ग) ‘विश्व की साझी विरासत’ के प्रबन्धन के सवाल पर उत्तरी व दक्षिणी देशों के बीच मतभेद है। (सही)
(घ) उत्तरी गोलार्द्ध के देश विश्व की साझी विरासत’ को बचाने के लिए दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों से कहीं ज्यादा चिन्तित हैं। (गलत)

प्रश्न 4.
रियो सम्मेलन के क्या परिणाम हुए?
उत्तर:
रियो सम्मेलन (पृथ्वी सम्मेलन) संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्त्वावधान में सन् 1992 में ब्राजील के शहर रियो-डी-जेनेरियो में सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन में 170 देशों, हजारों स्वयंसेवी संगठनों तथा अनेक बहुराष्ट्रीय निगमों ने भाग लिया। यह सम्मेलन पर्यावरण व विकास के मुद्दे पर केन्द्रित था। इस सम्मेलन के अग्रलिखित परिणाम हुए-

(1) इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप विश्व राजनीति के दायरे में पर्यावरण को लेकर बढ़ते सरोकारों को एक ठोस रूप मिला।

(2) रियो सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता और वानिकी के सम्बन्ध में कुछ नियमाचार निर्धारित किए गए।

(3) भविष्य के विकास के लिए ‘एजेण्डा-21’ प्रस्तावित किया गया जिसमें विकास के कुछ तौर-तरीके भी सुझाए गए। इसमें टिकाऊ विकास की धारणा को विकास रणनीति के रूप में समर्थन प्राप्त हुआ।

(4) इस सम्मेलन में पर्यावरण रक्षा के बारे में धनी व गरीब देशों अथवा उत्तरी गोलार्द्ध व दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों के दृष्टिकोण में मतभेद उभरकर सामने आए। भारत व चीन तथा ब्राजील जैसे विकासशील देशों का तर्क था कि चूंकि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन विकसित देशों ने अधिक किया है, अत: वे पर्यावरण प्रदूषण के लिए अधिक उत्तरदायी हैं। अत: उन्हें पर्यावरण रक्षा हेतु अधिक संसाधन व प्रौद्योगिकी आदि उपलब्ध कराना चाहिए। कई धनी देश इस तर्क से सहमत नहीं थे।

(5) अन्तत: रियो सम्मेलन ने यह स्वीकार किया कि अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण कानून के निर्माण, प्रयोग और व्याख्या में विकासशील देशों की विशिष्ट जरूरतों का लेकिन अलग-अलग भूमिका का सिद्धान्त स्वीकृत किया गया। इस सिद्धान्त का तात्पर्य है कि पर्यावरण के विश्वव्यापी क्षय में विभिन्न राज्यों का योगदान अलग-अलग है जिसे देखते हुए विभिन्न राष्ट्रों की पर्यावरण रक्षा के प्रति साझी, किन्तु अलग-अलग जिम्मेदारी होगी।

संक्षेप में, रियो सम्मेलन के बाद पर्यावरण का प्रश्न विश्व राजनीति में महत्त्वपूर्ण विषय के रूप में उभरा।

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प्रश्न 5.
‘विश्व की साझी विरासत’ का क्या अर्थ है? इसका दोहन व प्रदूषण कैसे होता है?
उत्तर:
साझी विरासत का अर्थ साझी विरासत का अर्थ उन संसाधनों से है जिन पर किसी एक का नहीं बल्कि पूरे समुदाय का अधिकार होता है। समुदाय स्तर पर नदी, कुआँ, चरागाह आदि साझी सम्पदा के उदाहरण हैं।

विश्व स्तर पर कुछ संसाधन तथा क्षेत्र ऐसे हैं जो किसी एक देश के सम्प्रभु क्षेत्राधिकार में नहीं आते हैं, इसलिए उनका प्रबन्धन साझे तौर पर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा किया जाता है। इसे विश्व सम्पदा या मानवता की साझी विरासत कहा जाता है। इस साझी विरासत में पृथ्वी का वायुमण्डल, अण्टार्कटिका, समुद्री सतह और बाहरी अन्तरिक्ष शामिल हैं।

विश्व की साझी विरासत का दोहन व प्रदूषण साझी विरासत के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन व इनके प्रदूषण का क्रम जारी है। उदाहरण के लिए, यद्यपि सन् 1959 के बाद अण्टार्कटिका महाप्रदेश में मानवीय गतिविधियाँ वैज्ञानिक अनुसन्धान, मत्स्य आखेट और पर्यटन तक सीमित रही हैं परन्तु इसके बावजूद इस महादेश के कुछ हिस्से अवशिष्ट पदार्थ, जैसे तेल का रिसाव, के कारण अपनी गुणवत्ता खो रहे हैं। भारत ने अनुसन्धान हेतु अण्टार्कटिका प्रदेश में कई वैज्ञानिक दल भेजे हैं तथा वहाँ भारत का गंगोत्री नामक स्थायी अनुसन्धान केन्द्र भी स्थित है।

इसी तरह क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैसों के असीमित उत्सर्जन के कारण वायुमण्डल की ओजोन परत का . क्षरण हो रहा है। 1980 के दशक के मध्य में अण्टार्कटिका के ऊपर ओजोन परत में छेद की खोज एक आँख खोल देने वाली घटना है। ओजोन परत के क्षय होने पर सूरज की पराबैंगनी किरणें मनुष्यों तथा फसलों व पशुओं के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं।

तटीय क्षेत्रों में औद्योगिकी व व्यावसायिक गतिविधियों के कारण समुद्री सतह प्रदूषित हो रही है। कई बार तेल समुद्री सतह पर परत के रूप में फैल जाता है, जिससे समुद्री जीवों व वनस्पतियों को नुकसान होता है। इसी प्रकार पर्यावरण प्रदूषण से ग्रीन हाऊस गैसों की मात्रा बढ़ जाती है तथा वायुमण्डल व जलीय स्रोत भी प्रभावित होते हैं। इस प्रदूषण से पारिस्थितिकी व जलवायु परिवर्तन पर विपरीत प्रभाव पड़ते हैं।

साझी विरासत की सुरक्षा हेतु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कई महत्त्वपूर्ण समझौते; जैसे-अण्टार्कटिका सन्धि (1959) माण्ट्रियल प्रोटोकॉल (1991) हो चुके हैं। परन्तु पारिस्थितिक सन्तुलन के सम्बन्ध में अपुष्ट वैज्ञानिक साक्ष्यों और समय सीमा को लेकर मतभेद पैदा होते रहते हैं, जिससे विश्व समुदाय में सहयोग हेतु आम सहमति बनाना कठिन है।

प्रश्न 6.
‘साझी परन्तु अलग-अलग जिम्मेदारियों’ से क्या अभिप्राय है? हम इस विचार को कैसे लागू कर सकते हैं?
उत्तर:
विश्व पर्यावरण की रक्षा के सम्बन्ध में ‘साझी परन्तु अलग-अलग जिम्मेदारियाँ’ सिद्धान्त के प्रतिपादन का तात्पर्य है कि चूंकि विश्व पर्यावरण की रक्षा में विकसित देशों की जिम्मेदारी अधिक है। यह जिम्मेदारी विकसित व विकासशील देशों के लिए बराबर नहीं हो सकती। इसके अलावा अभी गरीब देश विकास के पथ पर गुजर रहे हैं, अत: उनके ऊपर पर्यावरण रक्षा की जिम्मेदारी विकसित देशों के बराबर नहीं हो सकती। इस प्रकार रियो सम्मेलन ने माना कि अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण कानून के निर्माण, प्रयोग और व्याख्या में विकासशील देशों की विशिष्ट जरूरतों का ध्यान रखना चाहिए।

इसी सन्दर्भ में रियो घोषणा-पत्र का कहना है कि “धरती के पारिस्थितिकी तन्त्र की अखण्डता व गुणवत्ता की बहाली सुरक्षा तथा संरक्षण के लिए सभी राष्ट्र विश्व बन्धुत्व की भावना से आपस में सहयोग करेंगे। पर्यावरण के विश्वव्यापी अपक्षय में विभिन्न राष्ट्रों का योगदान अलग-अलग है। इसे देखते हुए विभिन्न राष्ट्रों की साझी, किन्तु अलग-अलग जिम्मेदारी होगी।”

साझी जिम्मेदारी तथा अलग-अलग भूमिका के सिद्धान्त को लागू करने के लिए यह आवश्यक है कि विभिन्न देशों द्वारा पर्यावरण प्रदूषण के लिए उत्तरदायी गैसों के उत्सर्जन व तत्त्वों के प्रयोग का आकलन किया जाए तथा प्रदूषण रोकने के प्रयासों में उसी अनुपात में उस देश की जिम्मेदारी तय की जाए। पुन: चूँकि पर्यावरण प्रदूषण का मुद्दा एक साझा वैश्विक मुद्दा है अत: विकसित देशों को आधुनिक प्रौद्योगिकी का विकास कर गरीब देशों को उपलब्ध कराना आवश्यक है।

जो देश अभी तक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन नहीं कर पाए हैं तथा अभी विकास की प्रक्रिया में पीछे हैं, उन्हें आधुनिक प्रौद्योगिकी व तकनीक प्रदान कर पर्यावरण रक्षा हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अन्यथा ऐसे देश ‘टिकाऊ विकास’ (Sustainable Development) की रणनीति को अपनाने हेतु आकर्षित नहीं होंगे। इसी सिद्धान्त के आधार पर जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में क्योटो प्रोटोकॉल, सन् 1997 में चीन तथा भारत जैसे विकासशील देशों को फ्लोरोफ्लोरो कार्बन के उत्सर्जन की सीमा में छूट दी गई है।

प्रश्न 7.
वैश्विक पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे 1990 के दशक से विभिन्न देशों के प्राथमिक सरोकार क्यों बन गए हैं?
उत्तर:
वैश्विक पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे 1990 के दशक में निम्नलिखित कारणों से विभिन्न देशों में प्राथमिक सरोकार बन गए हैं-

(1) दुनिया में जहाँ जनसंख्या बढ़ रही है वहीं कृषि योग्य भूमि में कोई बढ़ोतरी नहीं हो रही है। जलाशयों की जलराशि में कमी तथा उनका प्रदूषण, चरागाहों की समाप्ति तथा भूमि के अधिक सघन उपयोग से उसकी उर्वरता कम हो रही है तथा खाद्यान्न उत्पादन जनसंख्या के अनुपात से कम हो रहा है।

(2) संयुक्त राष्ट्र संघ की विश्व विकास रिपोर्ट, 2006 के अनुसार जल स्रोतों के प्रदूषण के कारण दुनिया की एक अरब बीस करोड़ जनता को स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होता। 30 लाख से ज्यादा बच्चे प्रदूषण के कारण मौत के शिकार हो जाते हैं।

(3) वनों के कटाव से जैव-विविधता का क्षरण तथा विपरीत जलवायु परिवर्तन का खतरा उत्पन्न हो गया है।

(4) फ्लोरोफ्लोरो कार्बन, गैसों के उत्सर्जन से जहाँ वायुमण्डल की ओजोन परत का क्षय हो रहा है, वहीं ग्रीन हाऊस गैसों के कारण ग्लोबल वार्मिंग की समस्या खड़ी हो गई है। ग्लोबल वार्मिंग से कई देशों के जलमग्न होने का खतरा बढ़ गया है।

(5) समुद्र तटीय क्षेत्रों के प्रदूषण के कारण समुद्री पर्यावरण की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है। चूंकि विश्व समुदाय को यह आभास हो गया है कि उक्त समस्याएँ वैश्विक हैं तथा इनका समाधान बिना वैश्विक सहयोग के सम्भव नहीं है, अतः पर्यावरण का मुद्दा विश्व राजनीति का भी अंग बन गया है। प्रत्येक राष्ट्र समूह (विकसित व विकासशील) अपने हितों को ध्यान में रखकर पर्यावरण रक्षा का एजेण्डा प्रस्तुत कर रहा है। परिणामस्वरूप, सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्र के तत्त्वावधान में विश्व पर्यावरण सम्मेलन का आयोजन किया गया। विशेष रूप से इस सम्मेलन के बाद पर्यावरण व विकास से जुड़े विभिन्न पहलुओं, यथा-टिकाऊ विकास, जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, जैविक विविधता, मूल देशी जनता के अधिकार व अलग-अलग भूमिका की धारणा पर विस्तार से चर्चा की गई।

उक्त पृष्ठभूमि में पर्यावरण का मुद्दा विभिन्न राष्ट्रों के लिए प्रथम सरोकार के रूप में उभरकर सामने आया।
हए।

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प्रश्न 8.
पृथ्वी को बचाने के लिए जरूरी है कि विभिन्न देश सुलह व सहकार की नीति अपनाएँ। पर्यावरण के सवाल पर उत्तरी व दक्षिणी देशों के बीच जारी वार्ताओं की रोशनी में इस कथन की पुष्टि करें।
उत्तर:
पृथ्वी व उसके पर्यावरण को बढ़ती जनसंख्या, तीव्र औद्योगिक विकास व प्राकृतिक संसाधनों के अतिशय दोहन के कारण गम्भीर खतरा बना हुआ है। पर्यावरण प्रदूषण की प्रकृति ऐसी है कि इसे किसी देश की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। इसका प्रभाव वैश्विक है। अत: इसके सुधार के प्रयास भी वैश्विक स्तर पर होने चाहिए।

विश्व पर्यावरण सुरक्षा के सम्बन्ध में विभिन्न राष्ट्रों के मध्य सहयोग की जो बातचीत चल रही है, उसमें उत्तरी गोलार्द्ध के विकसित देशों तथा दक्षिणी गोलार्द्ध के विकासशील देशों के नजरिए में मतभेद देखने में आया है। विकसित देश पर्यावरण क्षरण के वर्तमान स्तर पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए इसके संरक्षण में सभी राष्ट्रों की समान जिम्मेदारी व भूमिका के हिमायती हैं। इसके विपरीत गरीब देशों का तर्क है कि ऐतिहासिक दृष्टि से विकसित देशों ने पर्यावरण क्षरण किया है तथा प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय दोहन किया है, अतः विश्व पर्यावरण की रक्षा में विकसित देशों की भूमिका गरीब देशों की तुलना में अधिक होनी चाहिए। दूसरा, विकासशील देशों में अभी पर्याप्त औद्योगिक विकास नहीं हो पाया है अत: पर्यावरण सुरक्षा की जिम्मेदारी इन देशों की कम होनी चाहिए।

सन् 1992 के अन्तर्राष्ट्रीय रियो सम्मेलन में ये मतभेद खुलकर सामने आए। इसीलिए सम्मेलन के प्रस्ताव के बीच का रास्ता अपनाया गया जिसमें कहा गया कि विश्व पर्यावरण की सुरक्षा व गुणवत्ता में सभी विश्व समुदाय की साझी जिम्मेदारी होगी, परन्तु इस संरक्षण में विकसित व विकासशील देशों की भूमिकाएँ अलग-अलग होंगी। अर्थात् विकसित देश संसाधनों व प्रौद्योगिकी के माध्यम से विश्व पर्यावरण की सुरक्षा में अधिक योगदान देंगे।

उपर्युक्त मतभेद के बावजूद यह स्पष्ट है कि विश्व पर्यावरण की वैश्विक समस्या के कारण इसकी सुरक्षा हेतु विश्व सहयोग व सहकार की आवश्यकता है तथा विश्व समूहों को इस दिशा में अधिकाधिक सहयोग हेतु तत्पर होना आवश्यक है।

प्रश्न 9.
विभिन्न देशों के सामने सबसे गम्भीर चुनौती वैश्विक पर्यावरण को आगे कोई नुकसान पहुँचाए बगैर आर्थिक विकास करने की है। यह कैसे हो सकता है? कुछ उदाहरणों के साथ समझाएँ।
उत्तर:
गत 50 वर्षों में विश्व में हुए आर्थिक व औद्योगिक विकास से स्पष्ट हो जाता है कि विकास की यात्रा में प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन हुआ है। इसके कारण पारिस्थितिकी सन्तुलन इतना अधिक बिगड़ गया है कि वह मानव समुदाय के लिए एक संकट का रूप धारण कर रहा है। वायुमण्डल में हुए प्रदूषण में ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन परत का क्षरण तथा जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएँ खड़ी हुई हैं। भूमि तथा जलीय संसाधनों का भी प्रदूषण बढ़ा है। वनों की कटाई से जैविक विविधता तथा जलवायु पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।

अत: विश्व समुदाय ने इस बात पर आवश्यकता अनुभव की कि विकास की रणनीति ऐसी हो जिससे पर्यावरण की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न न हो। एक वैकल्पिक अवधारणा के रूप में सन् 1978 में छपी बर्टलैण्ड रिपोर्ट (अवर कॉमन फ्यूचर) में टिकाऊ विकास (Sustainable Development) का प्रतिपादन किया गया था। रिपोर्ट में चेताया गया था कि औद्योगिक विकास के चालू तौर-तरीके आगे चलकर प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से टिकाऊ साबित नहीं होंगे।

सन् 1992 में रियो सम्मेलन में पर्यावरण की रक्षा की दृष्टि से टिकाऊ विकास की धारणा पर बल दिया गया था। टिकाऊ विकास रणनीति में विकास के ऐसे साधन अपनाए जाते हैं जिनसे प्राकृतिक संसाधन पर्याप्त व जीवन्त बने रहें। इसमें विकास को पर्यावरण रक्षा के साथ जोड़ दिया जाता है तथा प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा विकास का लक्ष्य बन जाता है।

उदाहरण के लिए, वर्तमान में हम ऊर्जा की माँग को देखते हुए गैर-रम्परागत स्रोतों; जैसे—पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा, भू-तापीय, बायो-गैस आदि का दोहन कर सकते हैं, जिससे विकास में ऊर्जा की आवश्यकता की पूर्ति पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन 135 के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधन भी संरक्षित रहेंगे। इसी तरह नवीन तकनीक व मशीनों के प्रयोग कर ग्रीन हाऊस गैसों व क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैसों के उत्सर्जन को कम कर सकते हैं। विकास के साथ वनों का संरक्षण, भू-जल संरक्षण, सामाजिक-वानिकी आदि को अपनाकर हम संसाधनों की सुरक्षा के साथ-साथ विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।

निष्कर्षतः टिकाऊ विकास की धारणा के द्वारा हम पर्यावरण रक्षा व विकास दोनों लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं।

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जंगल के सवाल पर राजनीति, पानी के सवाल पर राजनीति और वायुमण्डल के मसले पर राजनीति! फिर किस बात में राजनीति नहीं है!
उत्तर:
वर्तमान में विश्व की स्थिति कुछ ऐसी बन गई है, जहाँ प्रत्येक बात में राजनीति होने लगी है। इससे ऐसा लगता है कि अब कोई विषय ऐसा नहीं बचा है जिस पर राजनीति नहीं हो।

प्रश्न 2.
क्या पृथ्वी की सुरक्षा को लेकर धनी और गरीब देशों के नजरिए में अन्तर है?
उत्तर:
पृथ्वी की सुरक्षा को लेकर धनी और गरीब देशों के नजरिए में अन्तर है। धनी देशों की मुख्य चिन्ता ओजोन परत के छेद और वैश्विक ताप वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) को लेकर है जबकि गरीब देश आर्थिक विकास और पर्यावरण प्रबन्धन के आपसी रिश्ते को सुलझाने के लिए ज्यादा चिन्तित हैं।

धनी देश पर्यावरण के मुद्दे पर उसी रूप में चर्चा करना चाहते हैं जिस रूप में पर्यावरण आज मौजूद है। ये देश चाहते हैं कि पर्यावरण के संरक्षण में हर देश की जिम्मेदारी बराबर हो, जबकि निर्धन देशों का तर्क है कि विश्व में पारिस्थितिकी को हानि अधिकांशतः विकसित देशों के औद्योगिक विकास से पहुँची है। यदि धनी देशों ने पर्यावरण को अधिक हानि पहुँचायी है तो उन्हें इस हानि की भरपाई करने की जिम्मेदारी भी अधिक उठानी चाहिए। साथ ही निर्धन देशों पर वे प्रतिबन्ध न लगें जो विकसित देशों पर लगाए जाने हैं।

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प्रश्न 3.
क्योटो प्रोटोकॉल के बारे में और अधिक जानकारी एकत्र करें। किन बड़े देशों ने इस पर दस्तखत नहीं किए और क्यों?
उत्तर:
क्योटो प्रोटोकॉल-जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में विभिन्न देशों के सम्मेलन का आयोजन जापान के क्योटो शहर में 1 दिसम्बर से 11 दिसम्बर, 1997 तक हुआ। इस सम्मेलन में 150 देशों ने हिस्सा लिया और जलवायु परिवर्तन को कम करने की वचनबद्धता को रेखांकित किया। इस प्रोटोकॉल में ग्रीन हाऊस गैसों के उत्जर्सन को कम करने के लिए सुनिश्चित, ठोस और समयबद्ध उपाय करने पर बल दिया गया।

यद्यपि इस बैठक में विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद और अधिक बढ़ गए थे तथापि 11 दिसम्बर, 1997 को क्योटो प्रोटोकॉल (न्यायाचार) को दोनों प्रकार के देशों द्वारा स्वीकार कर लिया गया।

इस प्रोटोकॉल (न्यायाचार) के प्रमुख मुद्दे निम्नलिखित हैं-

  1. इसमें विकसित देशों को अपने सभी छह ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन स्तर को सन् 2008 से 2012 तक सन् 1990 के स्तर से औसतन 5.2% कम करने को कहा गया।
  2. यूरोपीय संघ को सन् 2012 तक ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन स्तर में 8%, अमेरिका को 7%, जापान तथा कनाडा को 6% की कमी करनी होगी, जबकि रूस को अपना वर्तमान उत्सर्जन स्तर सन् 1990 के स्तर पर बनाए रखना होगा।
  3.  इस अवधि में ऑस्ट्रेलिया को अपने उत्सर्जन स्तर को 8 प्रतिशत तक बढ़ाने की छूट दी गई।
  4. विकासशील देशों को निर्धारित लक्ष्य के उत्सर्जन स्तर में कमी करने की अनुमति दी गई।
  5. इस प्रोटोकॉल में उत्सर्जन के दायित्वों की पूर्ति के लिए विकासशील देश विकास में स्वैच्छिक भागीदारी में शामिल होंगे। इस हेतु विकासशील देशों में पूँजी निवेश करने के लिए विकसित देशों को ऋण की सुविधा उपलब्ध होगी।

प्रश्न 4.
लोग कहते हैं कि लातिनी अमेरिका में एक नदी बेच दी गई। साझी सम्पदा कैसे बेची जा सकती है?
उत्तर:
साझी सम्पदा का अर्थ होता है-ऐसी सम्पदा जिस पर किसी समूह के प्रत्येक सदस्य का स्वामित्व हो। ऐसे संसाधन की प्रकृति, उपयोग के स्तर और रख-रखाव के सन्दर्भ में समूह के प्रत्येक सदस्य को समान अधिकार प्राप्त होते हैं और समान उत्तरदायित्व निभाने होते हैं। लेकिन वर्तमान में निजीकरण, जनसंख्या वृद्धि और पारिस्थितिकी तन्त्र की गिरावट समेत कई कारणों से पूरी दुनिया में साझी सम्पदा का आकार घट रहा है। गरीबों को साझी सम्पदा की उपलब्धता कम हो रही है। सम्भवत: लातिनी अमेरिका में इन्हीं कारणों से नदी पर किसी मनुष्य समुदाय या राज्य ने अधिकार कर लिया हो और वह साझी सम्पदा न रही हो। ऐसी स्थिति में उसे उसके स्वामित्व वाले समूह ने किसी अन्य को बेच दिया हो। इस प्रकार साझी सम्पदा को निजी सम्पदा में परिवर्तित कर उसे बेचा जा रहा है।

प्रश्न 5.
मैं समझ गया! पहले उन लोगों ने धरती को बर्बाद किया और अब धरती को चौपट करने की हमारी बारी है। क्या यही है हमारा पक्ष?
उत्तर:
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ के जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित बुनियादी नियमाचार में चर्चा चली कि तेजी से औद्योगिक होते देश (जैसे-ब्राजील, चीन और भारत) नियमाचार की बाध्यताओं का पालन करते हुए ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करें। भारत इस बात के खिलाफ है। उसका कहना है कि भारत पर इस तरह की बाध्यता अनुचित है क्योंकि सन् 2030 तक उसकी प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर मात्र 1.6 ही होगी, जो आधे से भी कम होगी। बावजूद विश्व के (सन् 2000) औसत (3.8 टन/प्रति व्यक्ति) के आधे से भी कम होगा।

भारत या विकासशील देशों के उक्त तर्कों को देखते हुए यह आलोचनात्मक टिप्पणी की गई है कि पहले उन लोगों ने अर्थात् विकसित देशों ने धरती को बर्बाद किया, इसलिए उन पर उत्सर्जन कम करने की बाध्यता को लागू करना न्यायसंगत है और विकासशील देशों में कार्बन की दर कम है इसलिए इन देशों पर बाध्यता नहीं लागू की जाए। इसका यह अर्थ निकाला गया है कि अब धरती को चौपट करने की हमारी बारी है।

लेकिन भारत या विकासशील देशों का अपना पक्ष रखने का यह आशय नहीं है बल्कि आशय यह है कि विकासशील देशों में अभी कार्बन उत्सर्जन दर बहुत कम है तथा सन् 2030 तक यह मात्र 1.6 टन/प्रति व्यक्ति ही होगी, इसलिए इन देशों को अभी इस नियमाचार की बाध्यता से छूट दी जाए ताकि वे अपना आर्थिक और सामाजिक विकास कर सकें। साथ ही ये देश स्वेच्छा से कार्बन की उत्सर्जन दर को कम करने का प्रयास करते रहेंगे।

प्रश्न 6.
क्या आप पर्यावरणविदों के प्रयास से सहमत हैं? पर्यावरणविदों को यहाँ जिस रूप में चित्रित किया गया है क्या आपको वह सही लगता है?
उत्तर:
चित्र में दर से पर्यावरणविदों को अपने किसी उपकरण से वृक्ष को जाँचते हुए या पानी देते हुए दिखाया गया है। एक व्यक्ति के पीछे पाँच प्राणी खड़े हैं। वे वृक्ष की तरफ ध्यान ही नहीं दे रहे हैं। पेड़ पर एक खम्भा है जिस पर विद्युत की तार दिखाई देती हैं। शायद वे पेड़ को सूखा समझकर इसे काटे जाने की सिफारिश करना चाहते हैं। वे विशेषज्ञ होते हुए पर्यावरण पर पड़ रहे प्रभावों को नहीं देख रहे हैं। वे पर्यावरण के संरक्षण में स्थानीय लोगों के ज्ञान, अनुभव एवं सहयोग की भी बात करते हुए नहीं दिखाई दे रहे हैं।

अत: यह चित्र पर्यावरणविदों को जिस रूप में चित्रित कर रहा है, वह सही नहीं लगता।

प्रश्न 7.
पृथ्वी पर पानी का विस्तार ज्यादा और भूमि का विस्तार कम है। फिर भी, कार्टूनिस्ट ने जमीन को पानी की अपेक्षा ज्यादा बड़े हिस्से में दिखाने का फैसला किया है। यह कार्टून किस तरह पानी की कमी को चित्रित करता है?
उत्तर:
पृथ्वी पर पानी का विस्तार ज्यादा और भूमि का विस्तार कम है। फिर भी, कार्टूनिस्ट ने जमीन को पानी की अपेक्षा ज्यादा बड़े हिस्से में दिखाने का फैसला किया है। यह कार्टून विश्व में पीने योग्य जल की कमी को चित्रित करता है।

विश्व के कुछ भागों में पीने योग्य साफ पानी की कमी हो रही है तथा विश्व के हर हिस्से में स्वच्छ जल समान मात्रा में उपलब्ध नहीं है। इस जीवनदायी संसाधन की कमी के कारण हिंसक संघर्ष हो सकते हैं। कार्टूनिस्ट ने इसी को इंगित करते हुए विश्व में जमीन की तुलना में पानी की मात्रा को कम दिखाया है क्योंकि समुद्रों का पानी पीने योग्य नहीं है, इसलिए इसे इस जल मात्रा में शामिल नहीं किया गया है।

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प्रश्न 8.
आदिवासी जनता और उनके आन्दोलनों के बारे में कुछ ज्यादा बातें क्यों नहीं सुनायी पड़तीं? क्या मीडिया का उनसे कोई मनमुटाव है?
उत्तर:
आदिवासी जनता और उनके आन्दोलनों से जुड़े मुद्दे राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में लम्बे समय तक उपेक्षित रहे हैं। इसका प्रमुख कारण मीडिया के लोगों तक इनके सम्पर्क का अभाव रहा है। सन् 1970 के दशक में विश्व के विभिन्न भागों के आदिवासियों के नेताओं के बीच सम्पर्क बढ़ा है। इससे उनके साझे अनुभवों और सरकारों को शक्ल मिली है तथा सन् 1975 में इन लोगों की एक वैश्विक संस्था ‘वर्ल्ड काउंसिल

ऑफ इण्डिजिनस पीपल’ का गठन हुआ तथा इनसे सम्बद्ध अन्य स्वयंसेवी संगठनों का गठन हुआ। अब इनके मुद्दों तथा आन्दोलनों की बातें भी मीडिया में उठने लगी हैं। अतः स्पष्ट है कि अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी लोगों की संस्थाओं के न होने के कारण मीडिया में इनकी बातें अधिक नहीं सुनाई पड़ती हैं। जैसे-जैसे आदिवासी समुदाय अपने संगठनों को अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर संगठित करता जाएगा, इन संगठनों के माध्यम से इनके मुद्दे और आन्दोलन भी मीडिया में मुखरित होंगे।

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
मूलवासी कौन हैं? मूलवासियों का अपने अधिकारों के लिए संघर्ष का विस्तार से वर्णन कीजिए।
अथवा मूलवासियों का अपने अधिकारों के लिए आन्दोलन एवं इनकी प्राप्ति हेतु वैश्विक प्रयासों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मूलवासी से आशय संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार मूलवासी ऐसे लोगों के वंशज हैं जो किसी मौजूदा देश में बहत दिनों से रहते चले आ रहे हैं। फिर किसी अन्य संस्कृति या जातीय मूल के लोग विश्व के दूसरे हिस्से से उस देश में आए और इन लोगों को अपने अधीन बना लिया।

ये मूलवासी आज भी सम्बन्धित देश की संस्थाओं के अनुरूप आचरण करने से अधिक अपनी परम्परा, सांस्कृतिक रीति-रिवाज एवं अपने विशेष सामाजिक-आर्थिक तौर-तरीकों पर जीवन-यापन करना पसन्द करते हैं।

मूलवासियों का अपने अधिकारों के लिए संघर्ष एवं आन्दोलन

भारत सहित वर्तमान विश्व में मूलवासियों की जनसंख्या लगभग 30 करोड़ है। दूसरे सामाजिक आन्दोलनों की तरह मूलवासी भी अपने संघर्ष, एजेण्डा और अधिकारों की आवाज उठाते रहे जिनका विवरण निम्नानुसार हैं-

1. विश्व समुदाय में बराबरी का दर्जा पाने के लिए आन्दोलन-मूलवासियों को एक लम्बे समय से सभ्य समाज में दोयम दर्जे का माना जाता था। उन्हें बराबरी का दर्जा प्राप्त नहीं था। वर्तमान विश्व में शेष जनसमुदाय के अपने प्रति निम्न स्तर के व्यवहार को देखकर इन्होंने विश्व समुदाय में बराबरी का दर्जा पाने के लिए अपनी आवाज बुलन्द की है।

2. स्वतन्त्र पहचान की माँग-मूलवासियों के निवास स्थान मध्य एवं दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका, दक्षिण-पूर्व एशिया एवं भारत में हैं, जहाँ इन्हें आदिवासी या जनजाति कहा जाता है। ऑस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड सहित ओसियाना क्षेत्र के बहुत-से द्वीपीय देशों में हजारों वर्षों से पॉलिनेशिया, मैलनेशिया एवं माइक्रोनेशिया वंश के मूलवासी निवासरत् हैं। इन मूलवासियों की अपने देश की सरकारों से माँग है कि इन्हें मूलवासी के रूप में अपनी स्वतन्त्र पहचान रखने वाला समुदाय माना जाए।

3. मूलवास स्थान पर अपने अधिकार की माँग-मूलवासी अपने मूलवास स्थान पर अपना अधिकार चाहते हैं। अपने मूलवास स्थान पर अपने अधिकार की माँग हेतु सम्पूर्ण विश्व के मूलवासी यह कहते हैं कि हम यहाँ अनन्त काल से निवास करते चले आ रहे हैं।

4. राजनीतिक स्वतन्त्रता की माँग–भौगोलिक रूप से चाहे मूलवासी अलग-अलग स्थानों पर निवास कर रहे हैं, लेकिन भूमि और उस पर आधारित जीवन प्रणालियों के बारे में इनकी विश्व दृष्टि एक-समान है। भूमि की हानि का इनके लिए अर्थ है-आर्थिक संसाधनों के एक आधार की हानि और यह मूलवासियों के जीवन के लिए बहुत बड़ा खतरा है। उस राजनीतिक स्वतन्त्रता का क्या अर्थ जो जीवन-यापन के साधन ही उपलब्ध न कराए। अत: मूलवासी अपने निवास स्थान पर उपलब्ध संसाधनों पर अपना अधिकार मानते हुए जीवन-यापन के साधन उपलब्ध कराने की मांग कर रहे हैं।

मूलवासियों के अधिकारों के वैश्विक प्रयास-

मूलवासियों के अधिकारों के लिए वैश्विक स्तर पर निम्नलिखित प्रयास हए हैं-

  1. 1970 के दशक में विश्व के विभिन्न भागों में मूलवासियों के प्रतिनिधियों के मध्य सम्पर्क बढ़ा है। इससे इनके साझे अनुभवों एवं सरोकारों को एक आधार मिला है।
  2. सन् 1995 में मूलवासियों से सम्बन्धित ‘वर्ल्ड काउंसिल ऑफ इण्डिजिनस पीपल’ का गठन हुआ। संयुक्त राष्ट्र संघ ने सर्वप्रथम इस परिषद् को परामर्शदायी परिषद् का दर्जा प्रदान किया। इसके अलावा आदिवासियों के सरोकारों से सम्बद्ध 10 अन्य स्वयंसेवी संगठनों को भी यह दर्जा प्रदान किया गया है।

प्रश्न 2.
एजेण्डा-21 से आप क्या समझते हैं? “उत्तरदायित्व संयुक्त, भूमिकाएँ अलग-अलग” का क्या अर्थ है?
उत्तर:
एजेण्डा-21 का अभिप्राय सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्र संघ का पर्यावरण एवं विकास के मुद्दे पर केन्द्रित एक सम्मेलन ब्राजील के रियो-डी-जनेरियो में हुआ था। इस सम्मेलन को पृथ्वी सम्मेलन के नाम से भी जाना जाता है। इस पृथ्वी सम्मेलन में 170 देशों के प्रतिनिधियों, हजारों स्वयंसेवी संगठनों तथा अनेक बहुराष्ट्रीय निगमों ने हिस्सा लिया। इस . सम्मेलन के दौरान विश्व राजनीति में पर्यावरण को एक ठोस स्वरूप मिला।

इस अवसर पर 21वीं सदी के लिए एक विशाल कार्यक्रम अर्थात् एजेण्डा-21 पारित किया गया। सभी राज्यों से निवेदन किया गया कि वे प्राकृतिक सन्तुलन को बनाए रखें, पर्यावरण प्रदूषण को रोकें तथा पोषणीय विकास का रास्ता अपनाएँ।
एजेण्डा-21 के प्रमुख बिन्दु निम्नवत् थे-

  1. पर्यावरण एवं विकास के मध्य सम्बन्ध के मुद्दों को समझा जाए।
  2. ऊर्जा का अधिक कुशल तरीके से प्रयोग किया जाए।
  3. किसानों को पर्यावरण सम्बन्धी जानकारी दी जाए।
  4. प्रदूषण फैलाने वालों पर भी भारी अर्थदण्ड लगाया जाए।
  5. इस दृष्टिकोण से राष्ट्रीय योजनाएँ बनाई एवं लागू की जाएँ।

उत्तरदायित्व संयुक्त, भूमिकाएँ अलग-अलग का अर्थ

पर्यावरण एवं संरक्षण को लेकर उत्तरी तथा दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों के दृष्टिकोणों में पर्याप्त अन्तर है। उत्तर के विकसित देश पर्यावरण के मामले पर उसी रूप में विचार-विमर्श करना चाहते हैं जिस परिस्थिति में पर्यावरण वर्तमान में विद्यमान है। ये देश चाहते हैं कि पर्यावरण के संरक्षण में प्रत्येक देश का बराबर का उत्तरदायित्व हो।

दक्षिण के विकासशील देशों का तर्क है कि विश्व में पारिस्थितिकी को अधिकांश क्षति (नुकसान) विकसित देशों के औद्योगिक विकास से पहुंची है। यदि विकसित देशों ने पर्यावरण को अधिक नुकसान पहुँचाया है तो इन्हें इसकी क्षतिपूर्ति की जिम्मेदारी भी उठानी चाहिए। इसके अलावा विकासशील देश अभी औद्योगीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं और यह आवश्यक है कि इन पर वे प्रतिबन्ध न लगें जो विकसित देशों पर लगाए जाते हैं।

पृथ्वी सम्मेलन से जुड़े निर्णय अथवा सुझाव

सन् 1992 में सम्पन्न पृथ्वी सम्मेलन में इस तर्क को मान लिया गया और इसे ‘संयुक्त उत्तरदायित्व लेकिन अलग-अलग भूमिका का सिद्धान्त’ कहा गया। इस सन्दर्भ में रियो घोषणा-पत्र में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि “पृथ्वी के पारिस्थितिकी तन्त्र की अखण्डता तथा गुणवत्ता की बहाली, सुरक्षा तथा संरक्षण के लिए विभिन्न देश विश्व बन्धुत्व की भावना से परस्पर एक-दूसरे का सहयोग करेंगे। पर्यावरण के विश्वव्यापी अपक्षय में विभिन्न राज्यों का योगदान अलग-अलग है। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए विभिन्न राज्यों के अलग-अलग उत्तरदायित्व होंगे। विकसित देशों के समाजों का वैश्विक पर्यावरण पर दबाव अधिक है तथा इन देशों के पास विपुल प्रौद्योगिकी एवं वित्तीय संसाधन मौजूद हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए टिकाऊ विकास के अन्तर्राष्ट्रीय आयाम में विकसित देश अपना विशेष उत्तरदायित्व स्वीकारते हैं।”

प्रश्न 3.
देवस्थान क्या हैं? भारत में पर्यावरण संरक्षण में इसके महत्त्व का विस्तार से वर्णन कीजिए। अथवा पावन वन-प्रान्तर क्या है? पर्यावरणीय दृष्टि से इसके महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पावन वन-प्रान्तर (देवस्थान) का अर्थ

अनेक पुराने समाजों में धार्मिक कारणों से प्रकृति की रक्षा करने का प्रचलन है। भारत में विद्यमान पावन वन-प्रान्तर इस चलन के सुन्दर उदाहरण हैं। पावन वन-प्रान्तर प्रथा में वनों के कुछ हिस्सों को काटा नहीं जाता। इन स्थानों पर देवता अथवा किसी पुण्यात्मा का वास माना जाता है। इसे ही पावन वन-प्रान्तर या देवस्थान कहा जाता है।

पावन वन-प्रान्तर (देवस्थान) का देशव्यापी विस्तार भारत में पावन वन-प्रान्तर का देशव्यापी विस्तार पाया जाता है। इनके देशव्यापी विस्तार का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि सम्पूर्ण देश की भाषाओं में इनके लिए अलग-अलग शब्दों का प्रयोग होता है। इन देवस्थानों को राजस्थान में वानी, केंकड़ी व ओसन; मेघालय में लिंगदोह; केरल में काव; झारखण्ड में जहेरा थान व सरना; उत्तराखण्ड में थान या देवभूमि तथा महाराष्ट्र में देवरहतिस आदि नामों से जाना जाता है।

पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से पावन वन-प्रान्तर का महत्त्व

पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से पावन वन-प्रान्तर के महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है-

1. समुदाय आधारित संसाधन प्रबन्धन में महत्त्व–पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित भारतीय साहित्य में पावन वन-प्रान्तर के महत्त्व को अब स्वीकार किया जा रहा है तथा इसे समुदाय आधारित संसाधन प्रबन्धन के रूप में देखा जा रहा है।

2. पारिस्थितिकी तन्त्र के सन्तुलन में महत्त्व-पावन वन-प्रान्तर को हम एक ऐसी व्यवस्था के रूप में देख सकते हैं जिसमें प्राचीन समाज प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग इस तरह करते हैं कि पारिस्थितिकी तन्त्र का सन्तुलन बना रहे। कुछ शोधकर्ताओं का विश्वास है कि पावन वन-प्रान्तर (देवस्थान) की मान्यता से जैव विविधता एवं पारिस्थितिकी संरक्षण में ही नहीं सांस्कृतिक वैविध्य को बनाए रखने में भी सहायता मिल सकती है।

3. साझी सम्पदा के संरक्षण की व्यवस्था के समान–पावन वन-प्रान्तर की व्यवस्था वन संरक्षण के विभिन्न तौर-तरीकों से सम्पन्न हैं और इस व्यवस्था की विशेषताएँ साझी सम्पदा के संरक्षण की व्यवस्था से मिलती-जुलती हैं।

4. क्षेत्र की आध्यात्मिक या सांस्कृतिक विशेषताएँ-देवस्थान के महत्त्व का परम्परागत आधार ऐसे क्षेत्र की आध्यात्मिक अथवा सांस्कृतिक विशेषताएँ हैं। हिन्दू समवेत रूप से प्राकृतिक वस्तुओं की पूजा करते हैं जिसमें पेड़ व वन-प्रान्सर भी शामिल हैं। अनेक मन्दिरों का निर्माण, देवस्थान में हुआ है। संसाधनों की विरलता नहीं बल्कि प्रकृति के प्रति अगाध श्रद्धा ही वह आधार थी जिसने इतने युगों से वनों को बचाए रखने की प्रतिबद्धता बनाए रखी। पावन वन-प्रान्तर की वर्तमान स्थिति-पिछले कुछ वर्षों से मनुष्यों की बसावट के विस्तार ने धीरे-धीरे पावन वन-प्रान्तर (देवस्थानों) पर अपना कब्जा स्थापित कर लिया है। नवीन राष्ट्रीय वन नीतियों के लागू होने के साथ कई स्थानों पर इन परम्परागत वनों की पहचान मन्द पड़ने लगी है। देवस्थान के प्रबन्धन में एक कठिन समस्या यह आ रही है कि देवस्थान का कानूनी स्वामित्व तो राज्यों के पास है तथा इसका व्यावहारिक नियन्त्रण समुदायों के पास है। राज्यों व समुदायों के नीतिगत मानक अलग-अलग हैं एवं देवस्थानों के उपयोग के उद्देश्य में भी इनके बीच कोई तालमेल नहीं है।

इस तरह कहा जा सकता है कि पावन वन-प्रान्तर (देवस्थान) का हमारे देश में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है।

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प्रश्न 4.
अण्टार्कटिका महादेशीय क्षेत्र के प्रमुख लक्षण, महत्त्व एवं अण्टार्कटिका पर स्वामित्व सम्बन्धी विवाद को विस्तार से बताइए।
उत्तर:
अण्टार्कटिका विश्व के सात प्रमुख महाद्वीपों में से एक है।

अण्टार्कटिका महाद्वीप के प्रमुख लक्षण (विशेषताएँ)

अण्टार्कटिका महाद्वीप की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. अण्टार्कटिका महादेशीय क्षेत्र का विस्तार लगभग 1.40 वर्ग करोड़ किमी में फैला हुआ है।
  2. विश्व के निर्धन क्षेत्र का 26 प्रतिशत भाग इस महाद्वीप में आता है।
  3. स्थलीय हिम का 90 प्रतिशत भाग एवं धरती के स्वच्छ जल का 70 प्रतिशत भाग इस महाद्वीप में उपलब्ध है।
  4. इस महादेश का 3.60 करोड़ वर्ग किमी तक अतिरिक्त विस्तार समुद्र में है।
  5. यह विश्व का सबसे सुदूर ठण्डा एवं झंझावाती प्रदेश है।
  6. सीमित स्थलीय जीवनं वाले इस महादेश का समुद्री पारिस्थितिकी तन्त्र अत्यन्त उर्वर है, जिसमें कुछ पादप; जैसे-सूक्ष्म शैवाल, कवक और लाइकेन तथा समुद्री स्तनधारी जीव, मत्स्य एवं कठिन वातावरण में जीवन-यापन के लिए अनुकूलित विभिन्न पक्षी शामिल हैं।
  7. इस महाद्वीप में समुद्री आहार श्रृंखला की धुरी–क्रिल मछली भी मिलती है। इस मछली पर अन्य जीवों का आहार निर्भर है।

अण्टार्कटिका महाद्वीप का महत्त्व-अण्टार्कटिका महाद्वीप का महत्त्व निम्नलिखित हैं-

  1. अण्टार्कटिका महाद्वीप विश्व की जलवायु को सन्तुलित रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है।
  2. इस महाद्वीपीय प्रदेश की आन्तरिक हिमानी परत ग्रीन हाऊस गैस के जमाव का महत्त्वपूर्ण सूचना स्रोत है।
  3. इस महाद्वीपीय प्रदेश में जमी बर्फ से लाखों वर्ष पूर्व के वायुमण्डलीय तापमान का पता लगाया जा सकता है।
  4. इस महाद्वीपीय क्षेत्र में समुद्री पारिस्थितिकी तन्त्र अत्यन्त उर्वर पाया जाता है।
  5. यह क्षेत्र वैज्ञानिक अनुसन्धान, मत्स्य, आखेट एवं पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।

अण्टार्कटिका क्षेत्र में पर्यावरण सुरक्षा – अण्टार्कटिका क्षेत्र में पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तन्त्र की सुरक्षा के नियम बनाए गए हैं जिनको अपनाया गया है। ये नियम कल्पनाशील एवं दूरगामी प्रभाव वाले हैं। अण्टार्कटिका एवं पृथ्वी के ध्रुवीय क्षेत्र पर्यावरण सुरक्षा के विशेष क्षेत्रीय नियमों में आते हैं। सन् 1959 के पश्चात् इस क्षेत्र में गतिविधियाँ वैज्ञानिक अनुसन्धान, मत्स्य, आखेट एवं पर्यटन तक ही सीमित रही हैं, लेकिन न्यून गतिविधियों के बावजूद इस क्षेत्र के कुछ भागों में अवशिष्ट पदार्थों जैसे तेल के रिसाव के दबाव में अपनी गुणवत्ता खो रहे हैं।

अण्टार्कटिका पर स्वामित्व-विश्व के सबसे सुदूर ठण्डे एवं झंझावाती महादेश अण्टार्कटिका पर किसका स्वामित्व है? इसके सम्बन्ध में दो दावे किए जाते हैं। कुछ देश, जैसे—ब्रिटेन, अर्जेण्टीना, चिली, नार्वे, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैण्ड ने अण्टार्कटिका क्षेत्र पर अपने सम्प्रभु अधिकार का दावा किया है, जबकि अन्य अधिकांश देशों का मत है कि अण्टार्कटिका प्रदेश विश्व की साझी सम्पदा है और यह किसी भी राष्ट्र के क्षेत्राधिकार में नहीं आता है।

प्रश्न 5.
पर्यावरण सम्बन्धी मामलों पर भारतीय पक्ष की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
पर्यावरण सम्बन्धी मामलों पर भारतीय पक्ष पर्यावरण सम्बन्धी मामलों पर भारतीय पक्ष की व्याख्या निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा की जा सकती है-

1. भारतीय पर्यावरण संरक्षण का उत्तरदायित्व संयुक्त है, लेकिन भूमिकाएँ अलग-अलग होनी चाहिए-पर्यावरण संरक्षण को लेकर उत्तरी एवं दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों के दृष्टिकोण में पर्याप्त अन्तर है। उत्तर के विकसित देश पर्यावरणीय मुद्दे पर उसी रूप में चर्चा करना चाहते हैं जिस दशा में पर्यावरण वर्तमान में विद्यमान है। ये देश चाहते हैं कि पर्यावरणीय संरक्षण में प्रत्येक देश का उत्तरदायित्व एक समान हो। दक्षिण के देशों का अभिमत है कि विश्व में पारिस्थितिकी को क्षति अधिकांशतया विकसित देशों के औद्योगिक विकास से हुई है। यदि विकसित देशों ने पर्यावरण को अधिक क्षति पहुँचायी है तो उन्हें इसकी भरपाई भी अधिक चाहिए।

2. उत्तरदायित्व को लागू करने हेतु भारतीय सुझाव-इस सन्दर्भ में निम्नलिखित दो सुझाव दिए गए-

  • अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण कानून के निर्माण, प्रयोग तथा व्याख्या में विकासशील देशों की विशिष्ट आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखा जाना चाहिए।
  • प्रत्येक राष्ट्र की कुल राष्ट्रीय आय का कुछ प्रतिशत भाग अन्तर्राष्ट्रीय न्यायाधीशों द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए तथा वह धनराशि सिर्फ पर्यावरण संरक्षण पर विश्व बैंक अथवा संयुक्त राष्ट्र संघ की किसी संस्था के माध्यम से मानवीय सुरक्षा एवं संयुक्त सम्पदा संरक्षण को दृष्टिगत रखते हुए खर्च की जानी चाहिए।

3. वन संरक्षण के प्रति भारतीय दृष्टिकोण-दक्षिणी गोलार्द्ध देशों के वन आन्दोलन उत्तरी देशों के वन आन्दोलन से विशेष अर्थों में अलग हैं। दक्षिणी देशों में वन निर्जन नहीं हैं, जबकि उत्तरी गोलार्द्ध के देशों में वन जनविहीन हैं। इसी कारण उत्तरी देशों में वन भूमि को निर्जन भूमि की श्रेणी में रखा गया है। यह दृष्टिकोण व्यक्ति को प्रकृति का हिस्सा नहीं मानता। अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि यह दृष्टिकोण पर्यावरण को व्यक्ति से दूर की वस्तु मानता है।

4. पृथ्वी को बचाने हेतु भारतीय सुझाव-इस सन्दर्भ में निम्नलिखित बिन्दु उल्लेखनीय हैं-

  • पृथ्वी को बचाने हेतु विभिन्न देश सुलह एवं सहकार की नीति अपनाएँ, क्योंकि पृथ्वी का सम्बन्ध किसी एक देश विशेष से न होकर, सम्पूर्ण विश्व एवं मानव जाति से है।
  • अभी कुछ समयावधि पूर्व संयुक्त राष्ट्र संघ में यह परिचर्चा हुई कि तीव्रता से औद्योगिक विकास करते हुए ब्राजील, चीन तथा भारत इत्यादि देश नियमाचार की बाध्यताओं का परिपालन करते हुए ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को न्यूनतम करें। भारत इस बात के विरुद्ध है और उसकी मान्यता है कि यह तथ्य इस नियमाचार की मूल भावना के विपरीत है।
  • हमारे देश भारत पर इस प्रकार का प्रतिबन्ध थोपना भी अनुचित ही है। सन् 2030 तक भारत में कार्बन का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन बढ़ने के बावजूद विश्व के वर्तमान औसत अर्थात् 3.8 टन प्रति व्यक्ति के आधे से भी कम होगा। जहाँ सन् 2000 तक भारत का प्रति व्यक्ति उत्जर्सन 0.9 टन था वहीं एक अनुमान के अनुसार सन् 2030 तक यह आँकड़ा बढ़कर 1.6 टन प्रति व्यक्ति हो जाएगा।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
वैश्विक राजनीति में पर्यावरण महत्त्व के प्रमुख मुद्दों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
वैश्विक राजनीति में पर्यावरणीय महत्त्व के प्रमुख मुद्दे निम्नवत् हैं-

(1) विश्व में अब भूमि का विस्तार करना असम्भव है। वर्तमान में उपलब्ध भूमि के एक बड़े भाग की उर्वरता लगातार कम होती चली जा रही है। जहाँ चरागाहों के चारे समाप्त होने के कगार पर हैं वहीं मछली भण्डार भी निरन्तर कम होता जा रहा है। इसी तरह जलाशयों का जल-स्तर भी तेजी से घटा है और जल प्रदूषण बढ़ गया है। खाद्य उत्पादों में भी लगातार कमी होती चली जा रही है।

(2) सन् 2006 में जारी संयुक्त राष्ट्र की विश्व विकास रिपोर्ट के अनुसार विकासशील देशों की एक अरब बीस करोड़ जनता को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं होता तथा यहाँ की दो अरब साठ करोड़ की आबादी साफ-सफाई की सुविधा से वंचित है। उक्त कारण से लगभग तीस लाख से अधिक बच्चे प्रतिवर्ष असमय काल के ग्रास में समा जाते हैं।

(3) वनों की कटाई से लोग विस्थापित हो रहे हैं। वनों की कटाई का प्रभाव जैव प्रजातियों पर भी पड़ा है और अनेक जीव-जन्तु एवं पेड़-पौधों की प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं।

(4) पृथ्वी के ऊपरी वायुमण्डल में ओजोन की मात्रा लगातार घट रही है जिसके फलस्वरूप पारिस्थितिकी तन्त्र तथा मानवीय स्वास्थ्य पर गम्भीर संकट आ गया है।

प्रश्न 2.
पर्यावरण प्रदूषण के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारण बताइए।
उत्तर:
पर्यावरण प्रदूषण के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. पश्चिमी विचारधारा–पर्यावरण प्रदूषण के लिए पश्चिमी चिन्तन तथा उनकी भौतिक जीवन दृष्टि काफी सीमा तक उत्तरदायी है।
  2. जनसंख्या में वृद्धि-जनसंख्या वृद्धि के कारण मानव की आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति का शोषण बढ़ता है तथा पर्यावरण प्रदूषित होता है।
  3. वनों की कटाई एवं भूक्षरण–वनों की निरन्तर कटाई के फलस्वरूप कार्बन डाइ-ऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है और पर्यावरण प्रदूषण भी बढ़ रहा है।
  4. जल प्रदूषण-कारखानों से निकलने वाले विषैले रसायनों तथा नगरों के गन्दे पानी से नदियों का जल प्रदूषित हो रहा है।

प्रश्न 3.
पर्यावरण प्रदूषण के प्रमुख उपाय लिखिए।
उत्तर:
पर्यावरण प्रदूषण के प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं-

  1. समग्र चिन्तन की आवश्यकता-पश्चिमी जगत् के भौतिक चिन्तन में इस बात पर जोर दिया जाता है कि पृथ्वी पर व प्रकृति पर जो कुछ भी है, वह मानव के उपभोग के लिए है। अत: आवश्यकता मानव की सोंच बदलने की है। इसके लिए भारत का समग्र चिन्तन आवश्यक है।
  2. वन संरक्षण-पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिए वनों की अन्धाधुन्ध कटाई को रोकना अति आवश्यक है।
  3. जनसंख्या नियन्त्रण-पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिए जनसंख्या को नियन्त्रित करना आवश्यक है।
  4. वन्य जीव का संरक्षण-पर्यावरण संरक्षण के लिए यह आवश्यक है कि वन संरक्षण के साथ-साथ वन्य जीवों का संरक्षण भी किया जाए।

प्रश्न 4.
पर्यावरण के सन्दर्भ में हम मूलवासियों के अधिकारों की रक्षा किस प्रकार कर सकते हैं?
उत्तर:
पर्यावरण के सन्दर्भ में हम मूलवासियों के अधिकारों की रक्षा निम्न प्रकार कर सकते हैं-

  1. मूलवासियों के प्राकृतिक आवास अर्थात् वन क्षेत्र को कुल भूमि क्षेत्र का 33.3 प्रतिशत तक बढ़ा दिया जाना चाहिए।
  2. आदिवासियों को उनकी परम्परा में परिवर्तन किए बिना मूल रूप से राजनीतिक संरक्षण दिया जाए।
  3. आदिवासियों (मूलवासियों) को संगठित करके विश्व स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रतिनिधित्व दिलाया जाए।
  4. आदिवासियों को शिक्षा तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी मार्गदर्शन देकर मुख्यधारा के साथ जुड़ने की उनमें स्वतः इच्छा जाग्रत की जाए।

प्रश्न 5.
यू०एन०ई०पी० क्या है? इसके किन्हीं दो प्रमुख कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
यू०एन०ई०पी० संयुक्त राष्ट्र संघ की पर्यावरण कार्यक्रम से सम्बद्ध (जुड़ी) एक अन्तर्राष्ट्रीय एजेंसी या संस्था है। इसका पूरा नाम यूनाइटेड नेशन्स एनवायरमेण्ट प्रोग्राम (संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम) है। इसके दो प्रमुख कार्य निम्नवत् हैं-

  1. संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम अर्थात् यूनाइटेड नेशन्स एनवायरमेण्ट प्रोग्राम सहित अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों ने पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं पर सम्मेलन कराया और इस विषय के अध्ययन को प्रोत्साहन दिया।
  2. इस संस्था का उद्देश्य पर्यावरण की समस्याओं को दूर करने की दृष्टि से प्रयासों की अधिक कारगर विश्व स्तर पर शुरुआत करना था। इसके प्रयत्नों के फलस्वरूप ही पर्यावरण वैश्विक राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन सका।

प्रश्न 6.
पर्यावरण से सम्बन्धित उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों के विचारों में क्या अन्तर है?
उत्तर:
इस तथ्य को हम निम्नलिखित दो बिन्दुओं द्वारा सरलता से स्पष्ट कर सकते हैं-

(1) जहाँ उत्तरी गोलार्द्ध के देश वन क्षेत्र को बीहड़ या जनहीन प्रान्त मानते हैं वहीं दक्षिणी गोलार्द्ध के देश इनको देवस्थान या वन-प्रान्तर स्थान जैसे श्रद्धा उत्पन्न करने वाले नामों से पुकारते हैं। जब वनों के प्रति विकसित देशों अर्थात् उत्तरी गोलार्द्ध की धारणा ही तुच्छ कोटि की है, जबकि पर्यावरणीय एजेण्डा-21 में कहा गया है कि विश्व पर्यावरण अथवा मानवता की संयुक्त विरासत को विनाश से बचाने की उनकी अधिक जिम्मेदारी रहेगी। उन्हें अपनी धारणा के साथ-साथ कार्यप्रणाली में भी आमूल-चूल बदलाव लाना है।

(2) दक्षिणी गोलार्द्ध का पर्यावरणीय एजेण्डा ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन की मात्रा कम दर्शाता है जबकि उत्तरी गोलार्द्ध का एजेण्डा इन्हें अधिक दर्शाता है।

प्रश्न 7.
क्योटो प्रोटोकॉल का क्या महत्त्व है? क्या भारत ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं?
उत्तर:
क्योटो प्रोटोकॉल को पर्यावरण संरक्षण हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयासों के फलस्वरूप मान्यता मिली। औद्योगिक विकास से सम्पन्न देश पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिए अपने उद्योगों से निकलने वाली जहरीली गैसों के अनुपात को निर्धारित सीमा तक घटाने पर सहमत हुए। ऐसे विकसित उत्तरी गोलार्द्ध के देश अपने कल-कारखानों से निकलने वाली हरित प्रभाव गैसों का अनुपात घटाने के लिए व्यक्तिगत रूप से कार्य करेंगे।

इस अन्तर्राष्ट्रीय सहमति पर जापानी शहर क्योटो में सन् 1997 में हस्ताक्षर किए गए थे। इस समझौते के दौरान यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) द्वारा निर्धारित मापदण्डों को स्वीकार कर लिया गया था। अगस्त 2002 में भारत ने इस न्यायाचार को हस्ताक्षरित किया। इसके अनुसार चीन सहित भारत को विकासशील देश मानते हुए हरित गैसों की मात्रा घटाने के दायित्व से मुक्त रखा गया। उल्लेखनीय है कि इन देशों के औद्योगिक विकास से अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण को उतनी हानि नहीं हुई है, जितनी कि पश्चिमी तथा अन्य औद्योगिक विकसित राष्ट्रों में हुई।

प्रश्न 8.
ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को नियन्त्रित करने हेतु भारत द्वारा किए गए किन्हीं पाँच प्रयासों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को नियन्त्रित करने हेतु भारत द्वारा किए गए अग्रलिखित पाँच प्रयास विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-

  1. भारत ने क्योटो प्रोटोकॉल को सन् 2002 में हस्ताक्षरित करके उसका अनुमोदन किया है।
  2. भारत ने अपनी राष्ट्रीय मोटर-कार ईंधन नीति में वाहनों के लिए स्वच्छत्तर ईंधन अनिवार्य कर दिया है।
  3. सन् 2001 में पारित ऊर्जा संरक्षण अधिनियम में ऊर्जा के अधिक कारगर उपयोग पर विशेष जोर दिया गया है।
  4. विद्युत अधिनियम, 2003 में प्राकृतिक गैस के आयात, अपूरणीय ऊर्जा के उपयोग तथा स्वच्छ कोयले के उपयोग पर आधारित प्रौद्योगिकी को अपनाने की दिशा में कार्य करना प्रारम्भ किया है।
  5. भारत बायोडीजल से सम्बन्धित एक राष्ट्रीय मिशन चलाने के लिए भी प्रयासरत है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
आप पर्यावरण आन्दोलन के स्वयंसेवक के रूप में किन कथनों को उठाएँगे?
उत्तर:

  1. पर्यावरण आन्दोलन के स्वयंसेवक के रूप में हम वनों की अन्धाधुन्ध कटाई के विरुद्ध आन्दोलन चलाएँगे तथा वृक्षारोपण के प्रति लोगों को जागरूक करेंगे।
  2. खनिजों के अन्धाधुन्ध दोहन के विरोध में आन्दोलन करेंगे।

प्रश्न 2.
पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित स्टॉकहोम सम्मेलन के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित सबसे पहला और महत्त्वपूर्ण सम्मेलन जून 1972 में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में हुआ। इसका आयोजन संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्त्वावधान में किया गया था। इस सम्मेलन में पर्यावरण संरक्षण हेतु सात महत्त्वपूर्ण प्रस्तावों को पारित किया गया।

प्रश्न 3.
क्योटो प्रोटोकॉल के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में विभिन्न देशों के सम्मेलन का आयोजन जापान के क्योटो शहर में 1 दिसम्बर से 11 दिसम्बर, 1997 तक हुआ। इस सम्मेलन में कहा गया कि सूचीबद्ध औद्योगिक देश सन् 2008 से 2012 तक सन् 1990 के स्तर से नीचे 5.2% तक अपने सामूहिक उत्सर्जन में कमी करेंगे।

प्रश्न 4.
माण्ट्रियल प्रोटोकॉल क्या है? इसके प्रमुख उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
सन् 1987 में 175 औद्योगिक देशों ने माण्ट्रियल प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए। ओजोन परत को बचाने के लिए यह एक अन्तर्राष्ट्रीय सहमति थी जिसे माण्ट्रियल प्रोटोकॉल कहा गया। इसके प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. ओजोन ह्रास करने वाले पदार्थों के उत्पादन में कमी लाना।
  2. ओजोन ह्रास वाले पदार्थों के विकल्प ढूँढना।
  3. ओजोन उत्पादन पर नियन्त्रण करना।

प्रश्न 5.
विश्व जलवायु परिवर्तन बैठक के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
सन् 1997 में नई दिल्ली में विश्व जलवायु परिवर्तन बैठक हुई। इस बैठक में निर्धनता, पर्यावरण तथा संसाधन प्रबन्ध के समाधान के सम्बन्ध में विकसित तथा विकासशील देशों में व्यापार की सम्भावनाओं पर विचार किया गया।

प्रश्न 6.
विश्व की साझी विरासत का क्या अर्थ है?
उत्तर:
कुछ क्षेत्र एक देश के क्षेत्राधिकार से बाहर होते हैं; जैसे—पृथ्वी का वायुमण्डल, अण्टार्कटिका, समुद्री सतह तथा बाहरी अन्तरिक्ष आदि। इसका प्रबन्धन अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा साझे तौर पर किया जाता है। इन्हीं को ‘विश्व की साझी विरासत’ या ‘साझी सम्पदा’ कहा जाता है।

प्रश्न 7.
विश्व की साझी विरासत की सुरक्षा के कोई दो उपाय बताइए।
उत्तर:
विश्व की साझी विरासत की सुरक्षा के उपाय निम्नलिखित हैं-

  1. सीमित प्रयोग-विश्व की साझी विरासतों का सीमित प्रयोग करना चाहिए।
  2. जागरूकता पैदा करना—विश्व की साझी विरासतों के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा करनी चाहिए।

प्रश्न 8.
ब्यूनस आइरस सम्मेलन कब और क्यों हुआ?
उत्तर:
अर्जेण्टीना के ब्यूनस आइरस में जलवायु परिवर्तन के संयुक्त राष्ट्र फेमवर्क कन्वेंशन से सम्बद्ध पक्षों का चौथा अधिवेशन 2 नवम्बर से 14 नवम्बर, 1998 को हुआ। इस सम्मेलन का आयोजन क्योटो, प्रोटोकॉल 1997 के कार्यान्वयन पर विचार करने के लिए किया गया था।

प्रश्न 9.
पर्यावरण सम्बन्धी नियमों को समकालीन विश्व राजनीति के हिस्से के रूप में क्यों देखना चाहिए?
उत्तर:
पर्यावरण के वर्तमान में हो रहे विनाश को कोई एक सरकार नहीं बल्कि समूचे विश्व की सरकारें ही विचार-विमर्श करके रोक सकती हैं। इस दृष्टि से पर्यावरण सम्बन्धी नियमों को समकालीन विश्व राजनीति के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए।

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प्रश्न 10.
मूलवासियों को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
मूलवासी ऐसे लोगों के वंशज हैं जो किसी मौजूद देश में लम्बी समयावधि से रहते चले आ रहे हैं। यद्यपि किसी दूसरी जातीय मूल के लोगों ने अन्य हिस्सों से आकर इनको अपने अधीन कर लिया तथापि ये अभी भी अपनी परम्परा, संस्कृति, रीति-रिवाज का पालन करना पसन्द करते हैं।

प्रश्न 11.
मूलवासियों के अधिकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मूलवासियों के अधिकार निम्नलिखित हैं-

  1. विश्व में मूलवासियों को बराबरी का दर्जा प्राप्त हो।
  2. मूलवासियों को अपनी स्वतन्त्र पहचान रखने वाले समुदाय के रूप में जाना जाए।
  3. मूलवासियों के आर्थिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन न किया जाए।
  4. देश के विकास से होने वाला लाभ मूलवासियों को भी मिलना चाहिए।

प्रश्न 12.
विश्व नेताओं ने भूमि पर्यावरण की चिन्ता क्यों की? कारण बताइए।
उत्तर:
विश्व नेताओं द्वारा भूमि पर्यावरण की चिन्ता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. विश्व में कृषि योग्य भूमि में अब कोई बढ़ोतरी नहीं हो रही जबकि मौजूदा उपजाऊ भूमि के एक बड़े भाग की उर्वरता कम हो रही है।
  2. जलाशयों में प्रदूषण बढ़ा है। इससे खाद्य उत्पादन में कमी आ रही है।

प्रश्न 13.
समुद्रतटीय क्षेत्रों का प्रदूषण किस कारण से बढ़ रहा है?
उत्तर:
समुद्रतटीय क्षेत्रों का जल जमीनी क्रियाकलापों से प्रदूषित हो रहा है। पूरी दुनिया में समुद्रतटीय इलाकों में मनुष्यों की सघन बसावट जारी है यदि इस प्रवृत्ति पर अंकुश न लगा तो समुद्री पर्यावरण की गुणवत्ता में भारी गिरावट आएगी।

प्रश्न 14.
वैश्विक राजनीति में पर्यावरण के बारे में बढ़ती चिन्ता के कोई दो कारण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वैश्विक राजनीति में पर्यावरण के बारे में बढ़ती चिन्ता के कारण निम्नलिखित हैं-

  1. वनों की अन्धाधुन्ध कटाई-दक्षिण देशों में वनों की अन्धाधुन्ध कटाई से जलवायु, जल चक्र असन्तुलित हो रहा है तथा जैव विविधता खत्म हो रही है।
  2. ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन-ग्रीन हाऊस गैसों के अत्यधिक उत्सर्जन से ओजोन गैस की परत के क्षीण होने से मनुष्य के स्वास्थ्य पर बहुत बड़ा खतरा मँडरा रहा है।

प्रश्न 15.
पर्यावरण से सम्बन्धित भारत सरकार के किन्हीं दो प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत सरकार ने पर्यावरण से सम्बन्धित निम्नलिखित प्रयास किए-

  1. भारत ने अपनी ‘नेशनल ऑटो फ्यूल पॉलिसी’ में वाहनों के लिए स्वच्छतर ईंधन अनिवार्य कर दिया।
  2. सन् 2001 में ऊर्जा संरक्षण अधिनियम पारित हुआ। इसमें ऊर्जा के ज्यादा कारगर इस्तेमाल के लिए ‘प्रतिबद्धता प्रकट की गई है।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
विश्व की साझी विरासत में क्या शामिल नहीं है-
(a) वायुमण्डल
(b) सड़क मार्ग
(c) समुद्री सतह
(d) बाहरी अन्तरिक्षा
उत्तर:
(b) सड़क मार्ग।

प्रश्न 2.
क्योटो प्रोटोकॉल सम्मेलन जिस देश में हुआ वह है-
(a) जापान
(b) सिंगापुर
(c) नेपाल
(d) बाली।
उत्तर:
(a) जापाना

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Environment and Natural Resources

प्रश्न 3.
रियो सम्मेलन में कितने देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया-
(a) 172
(b) 170
(c) 180
(d) 185
उत्तर:
(b) 170

प्रश्न 4.
पर्यावरण के प्रति बढ़ते सरोकारों का कारण है-
(a) पर्यावरण की सुरक्षा मूलवासी लोगों और प्राकृतिक पर्यावासों के लिए जारी है।
(b) विकसित देश प्रकृति की रक्षा को लेकर चिन्तित हैं।
(c) मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण को व्यापक नुकसान हुआ है और यह नुकसान खतरे की हद तक
पहुँच गया है।
(d) उपर्युक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(c) मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण को व्यापक नुकसान हुआ है और यह नुकसान खतरे की हद तक पहुँच गया है।

प्रश्न 5.
पृथ्वी सम्मेलन कब हुआ—
(a) 1992 में
(b) 1995 में
(c) 1997 में
(d) 2000 में।
उत्तर:
(a) 1992 में।

प्रश्न 6.
माण्ट्रियल प्रोटोकॉल पर कितने देशों ने हस्ताक्षर किए-
(a) 170
(b) 172
(c) 175
(d) 180
उत्तर:
(c) 175

प्रश्न 7.
धरती के वायुमण्डल में निम्नलिखित में से जिस गैस की मात्रा में लगातार कमी हो रही है, वह है-
(a) ओजोन गैस
(b) कार्बन डाइ-ऑक्साइड गैस
(c) मीथेन गैस
(d) नाइट्रस ऑक्साइड गैस।
उत्तर:
(a) ओजोन गैस।

प्रश्न 8.
भारत ने क्योटो प्रोटोकॉल (1997) पर हस्ताक्षर किए और इसका अनुमोदन किया-
(a) सन् 1997 में
(b) सन् 1998 में
(c) सन् 2002 में
(d) सन् 2001 में।
उत्तर:
(c) सन् 2002 में।

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