UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Challenges to and Restoration of Congress System

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Challenges to and Restoration of Congress System (कांग्रेस प्रणाली : चुनौतियाँ और पुनर्स्थापना)

UP Board Class 12 Civics Chapter 5 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 5 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
सन् 1967 के चुनावों के बारे में निम्नलिखित में से कौन-कौन से बयान सही हैं
(क) कांग्रेस लोकसभा के चुनाव में विजयी रही, लेकिन कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव वह हार गई।
(ख) कांग्रेस लोकसभा के चुनाव भी हारी और विधानसभा के भी।
(ग) कांग्रेस को लोकसभा में बहुमत नहीं मिला, लेकिन उसने दूसरी पार्टियों के समर्थन से एक गठबन्धन सरकार बनाई।
(घ) कांग्रेस केन्द्र में सत्तासीन रही और उसका बहुमत भी बढ़ा।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) गलत,
(ग) गलत,
(घ) गलत।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित का मेल करें-
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Challenges to and Restoration of Congress System 1
उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Challenges to and Restoration of Congress System 2

प्रश्न 3.
निम्नलिखित नारे से किन नेताओं का सम्बन्ध है-
(क) जय जवान जय किसान
(ख) इन्दिरा हटाओ
(ग) गरीब हटाओ।
उत्तर:
(क) लालबहादुर शास्त्री,
(ख) सिंडिकेट,
(ग) श्रीमती इन्दिरा गांधी।

प्रश्न 4.
सन् 1971 के ‘ग्रैण्ड अलायंस’ के बारे में कौन सा कथन ठीक है-
(क) इसका गठन गैर-कम्युनिस्ट और गैर-कांग्रेसी दलों ने किया था।
(ख) इसके पास एक स्पष्ट राजनीतिक तथा विचारधारात्मक कार्यक्रम था।
(ग) इसका गठन सभी गैर-कांग्रेसी दलों ने एकजुट होकर किया था।
उत्तर:
(क) इसका गठन गैर-कम्युनिस्ट और गैर-कांग्रेसी दलों ने किया था।

प्रश्न 5.
किसी राजनीतिक दल को अपने अन्दरूनी मतभेदों का समाधान किस तरह करना चाहिए? यहाँ कुछ समाधान दिए गए हैं। प्रत्येक पर विचार कीजिए और उसके सामने उसके फायदों और घाटों को लिखिए।
(क) पार्टी के अध्यक्ष द्वारा बताए गए मार्ग पर चलना।
(ख) पार्टी के भीतर बहुमत की राय पर अमल करना।
(ग) हरेक मामलों पर गुप्त मतदान करना।
(घ) पार्टी के वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं से सलाह करना।
उत्तर:
(क)लाभ-पार्टी के अध्यक्ष द्वारा बताए गए मार्ग पर चलने से पार्टी में एकता और अनुशासन की भावना का विकास होगा।
हानि-इससे एक व्यक्ति की तानाशाही या निरंकुशता स्थापित होने का खतरा बढ़ जाता है।

(ख)लाभ-मतभेदों को दूर करने के लिए बहुमत की राय जानने से यह लाभ होगा कि इससे अधिकांश की राय का पता चलेगा।
हानि-बहुमत की राय मानने से अल्पसंख्यकों की उचित बात की अवहेलना की सम्भावना बनी रहेगी।

(ग) लाभ-पार्टी के मतभेदों को दूर करने के लिए गुप्त मतदान की प्रक्रिया अपनाने से प्रत्येक सदस्य अपनी बात स्वतन्त्रतापूर्वक रख सकेगा।
हानि-गुप्त मतदान में क्रॉस वोटिंग का खतरा बना रहता है।

(घ)लाभ-पार्टी के मतभेदों को दूर करने के लिए वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं की सलाह का विशेष लाभ होगा, क्योंकि वरिष्ठ नेताओं के पास अनुभव होता है तथा सभी सदस्य उनका आदर करते हैं।

हानि-वरिष्ठ एवं अनुभवी व्यक्ति नए विचारों एवं मूल्यों को अपनाने से कतराते हैं।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से किसे/किन्हें 1967 के चुनावों में कांग्रेस की हार के कारण के रूप में स्वीकार किया जा सकता है? अपने उत्तर की पुष्टि में तर्क दीजिए
(क) कांग्रेस पार्टी में करिश्माई नेता का अभाव।
(ख) कांग्रेस पार्टी के भीतर टूट।
(ग) क्षेत्रीय, जातीय और साम्प्रदायिक समूहों की लामबन्दी को बढ़ाना।
(घ) गैर-कांग्रेसी दलों के बीच एकजुटता।
(ङ) कांग्रेस पार्टी के अन्दर मतभेद।
उत्तर:
(क) इसको कांग्रेस की हार के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि कांग्रेस के पास अनेक वरिष्ठ और करिश्माई नेता थे।
(ख) यह कांग्रेस पार्टी की हार का सबसे बड़ा कारण था क्योंकि कांग्रेस दो गुटों में बँटती जा रही थी· युवा तुर्क और सिंडिकेट। युवा तुर्क (चन्द्रशेखर, चरणजीत यादव, मोहन धारिया, कृष्णकान्त एवं आर० के० सिन्हा) तथा सिंडिकेट (कामराज, एस० के० पाटिल, अतुल्य घोष एवं निजलिंगप्पा) के बीच आपसी फूट के कारण कांग्रेस पार्टी को सन् 1967 के चुनावों में हार का सामना करना पड़ा।
(ग) सन् 1967 में पंजाब में अकाली दल, तमिलनाडु में डी० एम० के० जैसे दल अनेक राज्यों में क्षेत्रीय, जातीय और साम्प्रदायिक दलों के रूप में उभरे जिससे कांग्रेस के प्रभाव व विस्तार क्षेत्र में कमी आयी।
(घ) गैर-कांग्रेसी दलों के बीच एकजुटता पूर्णतया नहीं थी लेकिन जिन-जिन प्रान्तों में ऐसा हुआ वहाँ वामपन्थियों अथवा गैर-कांग्रेसी दलों को लाभ मिला।
(ङ) कांग्रेस पार्टी के अन्दर मतभेद के कारण बहुत जल्दी ही आन्तरिक फूट कालान्तर में सभी के सामने आ गई और लोग यह मानने लगे कि सन् 1967 के चुनाव में कांग्रेस की हार के कई कारणों में से यह भी एक महत्त्वपूर्ण कारण था।

प्रश्न 7.
1970 के दशक में इन्दिरा गांधी की सरकार किन कारणों से लोकप्रिय हुई थी?
उत्तर:
1970 के दशक में श्रीमती गांधी की लोकप्रियता के कारण-1970 के दशक में श्रीमती गांधी की लोकप्रियता के मुख्य कारण निम्नलिखित थे-

(1) इन्दिरा गांधी कांग्रेस पार्टी की करिश्माई नेता थीं। वे भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री की पुत्री थीं और इन्होंने स्वयं को गांधी-नेहरू परिवार का वास्तविक, राजनीतिक उत्तराधिकारी बताने के साथ-साथ अधिक प्रगतिशील कार्यक्रम; जैसे-20 सूत्री कार्यक्रम, गरीबी हटाने के लिए कल्याणकारी सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम की घोषणा की। वह देश की महिला प्रधानमन्त्री होने के कारण महिला मतदाताओं में अधिक लोकप्रिय हुईं।

(2) इन्दिरा गांधी द्वारा 20-सूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत करना, बैंकों का राष्ट्रीयकरण करना, प्रिवीपर्स को समाप्त करना, श्री वी० वी० गिरि जैसे मजदूर नेता को दल के घोषित प्रत्याशी के विरुद्ध चुनाव जिताकर लाना। इन सबने इन्दिरा गांधी की लोकप्रियता को बढ़ाया।

(3) श्रीमती गांधी की सरकार के पास अन्य दलों के मुकाबले एक एजेण्डा और कार्यक्रम था जिसने उनकी लोकप्रियता में चार-चाँद लगा दिए।

(4) इन्दिरा गांधी ने एक कुशल व साहसिक चुनावी रणनीति अपनायी। उन्होंने एक साधारण से सत्ता संघर्ष को विचारधारात्मक संघर्ष में बदल दिया। उन्होंने सरकार की नीतियों को वामपन्थी रंग देने के लिए कई कदम उठाए। लोगों को इससे लगा कि इन्दिरा गांधी तो लोगों के हित में काम करना चाहती हैं, लेकिन सिंडिकेट उनके मार्ग में बाधाएँ डाल रहा है। चुनावों में श्रीमती गांधी को इसका लाभ मिला।

(5) इसी दौर में श्रीमती गांधी ने भूमि सुधार कानूनों के क्रियान्वयन के लिए जबरदस्त अभियान चलाया तथा अपने कार्यक्रमों के पक्ष में जनादेश हासिल करने के लिए दिसम्बर 1970 में लोकसभा भंग करने की सिफारिश की।

प्रश्न 8.
1960 के दशक की कांग्रेस पार्टी के सन्दर्भ में सिंडिकेट का क्या अर्थ है? सिंडिकेट ने कांग्रेस पार्टी में क्या भूमिका निभाई?
उत्तर:
सिंडिकेट का अर्थ-कांग्रेसी नेताओं के एक समूह को अनौपचारिक रूप से सिंडिकेट के नाम से पुकारा जाता है। इस समूह के नेताओं का पार्टी के संगठन पर अधिकार एवं नियन्त्रण था। सिंडिकेट के अगुआ मद्रास प्रान्त के भूतपूर्व मुख्यमन्त्री और फिर कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके के० कामराज थे। इसमें प्रान्तों के ताकतवर नेता; जैसे—बम्बई सिटी (अब मुम्बई) के एस० के० पाटिल, मैसूर (अब कर्नाटक) के एस० निजलिंगप्पा, आन्ध्र प्रदेश के एन० संजीव रेड्डी और पश्चिम बंगाल के अतुल्य घोष शामिल थे। लालबहादुर शास्त्री और इनके बाद इन्दिरा गांधी, दोनों ही सिंडिकेट की सहायता से प्रधानमन्त्री पद पर आरूढ़ हुए थे।

भूमिका-इन्दिरा गांधी के पहले मन्त्रिमण्डल में इस समूह की निर्णायक भूमिका रही। इसने तब नीतियों के निर्माण और क्रियान्वयन में भी अहम भूमिका निभायी थी। कांग्रेस का विभाजन होने के बाद सिंडिकेट के नेताओं और उनके प्रति निष्ठावान कांग्रेसी कांग्रेस (ओ) में ही रहे। चूँकि इन्दिरा गांधी की कांग्रेस (आर) ही लोकप्रियता की कसौटी पर सफल रही, इसलिए भारतीय राजनीति के ये बड़े और ताकतवर नेता सन् 1971 के बाद प्रभावहीन हो गए।

प्रश्न 9.
कांग्रेस पार्टी किन मसलों को लेकर 1969 में टूट का शिकार हुई?
उत्तर:
1969 में कांग्रेस पार्टी के विभाजन या टूट के कारण-सन् 1969 में कांग्रेस के विभाजन एवं टूट के निम्नलिखित कारण थे-

1. दक्षिणपन्थी और वामपन्थी विचारधाराओं के समर्थकों के मध्य कलह-सन् 1967 के चौथे आम चुनावों में कांग्रेस की हार पर कार्यकर्ताओं ने विचार मंथन शुरू किया। कांग्रेस के कुछ सदस्यों का यह विचार था कि राज्यों में कांग्रेस को दक्षिणपन्थी विचारधारा वाले दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहिए, जबकि कुछ अन्य कांग्रेसियों का यह मत था कि कांग्रेस को दक्षिणपन्थी विचारधारा की अपेक्षा वामपन्थी विचारधारा वाले दलों के साथ मिलकर चलना चाहिए। इस प्रकार की कलह सन् 1969 में कांग्रेस के विभाजन का मुख्य कारण बनी।

2. राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के चयन को लेकर मतभेद-सन् 1969 में इन्दिरा गांधी की असहमति के बावजूद सिंडिकेट ने तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष एन० संजीव रेड्डी को कांग्रेस पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में खड़ा किया। लेकिन श्रीमती इन्दिरा गांधी ने अन्तरात्मा की आवाज पर तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी० वी० गिरि का समर्थन किया। इन्होंने एक स्वतन्त्र उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन भरा। लेकिन इन्दिरा गांधी के समर्थन के कारण वी० वी० गिरि विजयी हुए और कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार संजीव रेड्डी की हार हुई। यह घटना कांग्रेस पार्टी में फूट का प्रमुख कारण बनी।

3. युवा तुर्क एवं सिंडिकेट के बीच कलह-सन् 1969 में कांग्रेस पार्टी के विभाजन का एक कारण युवा तुर्क (चन्द्रशेखर, चरणजीत यादव, मोहन धारिया, कृष्णकान्त एवं आर० के० सिन्हा) तथा सिंडिकेट (कामराज, एस० के० पाटिल, अतुल्य घोष एवं निजलिंगप्पा) के बीच होने वाली कलह थी। जहाँ युवा तुर्क बैंकों के राष्ट्रीयकरण एवं राजाओं के प्रिवीपर्स को समाप्त करने के पक्ष में था, वहीं सिंडिकेट इसका विरोध कर रहा था।

4. वित्त विभाग, मोरारजी देसाई से वापस लेना-श्रीमती गांधी ने 14 अग्रणी बैंकों का राष्ट्रीयकरण तथा भूतपूर्व राजा-महाराजाओं को प्राप्त ‘प्रिवीपर्स’ को समाप्त करने जैसी जनप्रिय नीतियों की घोषणा की, लेकिन उप-प्रधानमन्त्री व वित्त मन्त्री मोरारजी देसाई इन नीतियों के पक्षधर नहीं थे फलत: प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने मोरारजी देसाई से वित्त विभाग वापस ले लिया। मोरारजी देसाई ने इस पर अपना विरोध जताते हुए मन्त्रिमण्डल से त्याग-पत्र दे दिया। सिंडिकेट ने प्रधानमन्त्री की इस कार्यवाही का विरोध किया। मोरारजी देसाई से वित्त विभाग वापस लेने के बाद मन्त्रिमण्डल ने सर्वसम्मत्ति से बैंकों के राष्ट्रीयकरण के प्रस्ताव को पास कर दिया।

5. श्रीमती इन्दिरा गांधी पर साम्यवादियों का साथ देने का आरोप-जिस प्रकार जगजीवन राम तथा फखरुद्दीन अली अहमद ने सिंडिकेट पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने दक्षिणपन्थियों से गुप्त समझौता कर रखा है, वहीं सिंडिकेट ने श्रीमती इन्दिरा गांधी पर यह आरोप लगाया कि वह कांग्रेस में वामपन्थ को बढ़ावा दे रही है। इस विषय पर सिंडिकेट एवं श्रीमती गांधी के समर्थकों के बीच विवाद गहराता जा रहा था।

6. सिंडिकेट द्वारा श्रीमती गांधी को पद से हटाने का प्रयास–सन् 1969 में कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार के चुनाव हार जाने के बाद सिंडिकेट ने प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी को पद से हटाने का प्रयास किया। परन्तु इसके विरोध में 60 से अधिक कांग्रेसी सदस्यों ने निजलिंगप्पा के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने की बात की। 23 अगस्त, 1969 को हुई संसदीय बोर्ड की बैठक में अधिकांश सदस्यों ने श्रीमती गांधी के पक्ष में विश्वास व्यक्त किया।

उपर्युक्त घटनाओं के कारण कांग्रेस में आन्तरिक कलह इस कदर बढ़ गया कि नवम्बर 1969 में कांग्रेस का विभाजन हो गया।

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प्रश्न 10.
निम्नलिखित अनुच्छेद को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें
इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस को अत्यन्त केन्द्रीकृत और अलोकतान्त्रिक पार्टी संगठन में तब्दील कर दिया, जबकि नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस शुरुआती दशकों में एक संघीय, लोकतान्त्रिक और विचारधाराओं के समाहार का मंच थी। नयी और लोक लुभावन राजनीति ने राजनीतिक विचारधारा को महज चुनावी विमर्श में बदल दिया। कई नारे उछाले गए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि उसी के अनुकूल सरकार की नीतियाँ भी बनानी थीं-1970 के दशक के शुरुआती सालों में अपनी बड़ी चुनावी जीत के जश्न के बीच कांग्रेस एक राजनीतिक संगठन के तौर पर मर गई। -सुदीप्त कविराज
(क) लेखक के अनुसार नेहरू और इन्दिरा गांधी द्वारा अपनाई गई रणनीतियों में क्या अन्तर था?
(ख) लेखक ने क्यों कहा कि सत्तर के दशक में कांग्रेस ‘मर गई?
(ग) कांग्रेस पार्टी में आए बदलावों का असर दूसरी पार्टियों पर किस तरह पड़ा?
उत्तर:
(क) जवाहरलाल नेहरू की तुलना में उनकी पुत्री और तीसरी प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस पार्टी को. बहुत ज्यादा केन्द्रीकृत और अलोकतान्त्रिक पार्टी संगठन के रूप में बदल दिया। नेहरू के काल में यह पार्टी संघीय लोकतान्त्रिक और विभिन्न विचारधाराओं को मानने वाले कांग्रेसी नेता और यहाँ तक कि विरोधियों को साथ लेकर चलने वाले एक मंच के रूप में कार्य करती थी।

(ख) लेखक ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि सत्तर के दशक में कांग्रेस की सर्वोच्च नेता श्रीमती इन्दिरा गांधी एक अधिनायकवादी नेता थीं। इन्होंने कांग्रेस की सभी शक्तियाँ अपने या कुछ गिनती के अपने कट्टर समर्थकों तक केन्द्रीकृत कर दी। मनमाने ढंग से मन्त्रिमण्डल और दल का गठन किया तथा पार्टी में विचार-विमर्श प्राय: मर गया।

(ग) कांग्रेस पार्टी में आए बदलाव के कारण दूसरी पार्टियों में परस्पर एकता बढ़ी। उन्होंने गैर-कांग्रेसी और गैर-साम्यवादी संगठन बनाए। कांग्रेस से अनेक सम्प्रदायों के समूह दूर होते गए और वे जनता पार्टी के रूप में लोगों के सामने आए। सन् 1977 के चुनावों में विरोधी दलों ने कांग्रेस का सफाया कर दिया।

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UP Board Class 12 Civics Chapter 5 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
इन्दिरा गांधी के लिए स्थितियाँ सचमुच कठिन रही होंगी-पुरुषों के दबदबे वाले क्षेत्र में आखिर वे अकेली महिला थीं। ऊँचे पदों पर अपने देश में ज्यादा महिलाएं क्यों नहीं हैं?
उत्तर:
श्रीमती इन्दिरा गांधी भारत की प्रथम महिला प्रधानमन्त्री बनीं, लेकिन प्रारम्भिक काल में उनको सिंडिकेट और प्रभावशाली वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं द्वारा अनेक चुनौतियाँ मिलीं, लेकिन पारिवारिक राजनीतिक विरासत और पर्याप्त राजनीतिक अनुभव के कारण उनको एक सामान्य महिला की अपेक्षा कम कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।

भारत में ज्यादातर महिलाओं के समक्ष अनेक ऐसी चुनौतियाँ एवं समस्याएँ हैं जिनके कारण वे ऊँचे पदों पर नहीं आ पातीं। इनमें प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. भारतीय समाज पुरुष प्रधान है। अधिकांश कानून प्राचीन मध्यकाल और ब्रिटिशकाल में पुरुषों द्वारा बनाए गए और महिलाओं को समाज में गैर-बराबरी का दर्जा दिया गया।
  2. लड़की को जन्म से लेकर मृत्यु तक पिता, पति अथवा विधवा होने पर परिवार के किसी अन्य पुरुष, मुखिया के अधीन और बुढ़ापे में पुत्रों के अधीन रहना होता है। लड़कियों की शिक्षा की उपेक्षा की जाती थी। लड़कों की तुलना में उनके जन्म और पालन-पोषण में नकारात्मक भेद-भाव किया जाता था।
  3. सती प्रथा, बहुपत्नी विवाह, दहेज प्रथा, परदा प्रथा, कन्या वध या भ्रूण हत्या, विधवा विवाह की मनाही, अशिक्षा आदि में नारियों को समाज में पछाड़े रखा। पैतृक सम्पत्ति से उनकी बेदखली और आर्थिक रूप से पुरुषों पर उनका अवलम्बित होना, उन्हें ऊँचे पदों पर आने से दूर रखने में महत्त्वपूर्ण कारक साबित हुए।
  4. भारत में पुरुषों की संकीर्ण मानसिकता के कारण वे महिलाओं को सरकारी नौकरियाँ, विशेषकर ऊँचे पदों पर नहीं देखना चाहते।
  5. किसी भी देश की राजनीतिक कार्यकारिणी में आज भी महिलाओं के लिए स्थान सुरक्षित नहीं हैं जबकि कम-से-कम 40 से 50 प्रतिशत स्थान सुरक्षित होने चाहिए। स्त्री और पुरुष दोनों तरह के प्रमुख नेताओं की कथनी एवं करनी में जमीन-आसमान का अन्तर है।

वर्तमान में धीरे-धीरे महिलाएँ देश के ऊँचे पदों-प्रधानमन्त्री, मुख्यमन्त्री, राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा सभापति जैसे पदों पर आसीन रह चुकी हैं, परन्तु अभी भी देश में ऊँचे पदों पर ज्यादा महिलाएँ नहीं हैं।

प्रश्न 2.
त्रिशंकु विधानसभा और गठबन्धन सरकार की इन बातों में नया क्या है? ऐसी बातें तो हम आए दिन सुनते रहते हैं।
उत्तर:
भारत में सन् 1967 के चुनावों से गठबन्धन की राजनीति सामने आयी। इन चुनावों में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ, इसलिए अनेक गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने एकजुट होकर संयुक्त विधायक दल बनाया और गैर-कांग्रेसी सरकारों को समर्थन किया। इसी कारण सरकारों को संयुक्त विधायक दल की सरकार कहा गया। लेकिन वर्तमान समय में भारतीय दलीय व्यवस्था का स्वरूप बदल गया। बहुदलीय व्यवस्था होने के कारण केन्द्र और राज्यों में किसी भी दल को स्प्ष्ट बहुमत नहीं मिल पाता और त्रिशंकु विधानसभा या संसद का निर्माण हो रहा है। इसलिए आज गठबन्धन सरकार या त्रिशंकु संसद आम बात हो गई है।

प्रश्न 3.
इसका मतलब यह है कि राज्य स्तर के नेता पहले के समय में भी ‘किंगमेकर’ थे और इसमें कोई नयी बात नहीं है। मैं तो सोचती थी कि ऐसा केवल 1990 के दशक में हुआ।
उत्तर:
पार्टी के ऐसे ताकतवर नेता जिनका पार्टी संगठन पर पूर्ण नियन्त्रण होता है उन्हें ‘किंगमेकर’ कहा जाता है। प्रधानमन्त्री या मुख्यमन्त्री की नियुक्ति में इनकी विशेष भूमिका होती है।

भारत में राज्य स्तर पर किंगमेकर्स की शुरुआत केवल 1990 के दशक में नहीं बल्कि इससे पहले भी इस प्रकार की स्थिति पायी जाती थी। भारत में पहले कांग्रेसी नेताओं के एक समूह को अनौपचारिक तौर पर सिंडिकेट के नाम से इंगित किया जाता था। इस समूह के नेताओं का पार्टी के संगठन पर नियन्त्रण था। मद्रास प्रान्त के कामराज, बम्बई सिटी के एस० के० पाटिल, मैसूर के एस० निजलिंगप्पा, आन्ध्र प्रदेश के एन० संजीव रेड्डी और पश्चिम बंगाल के अतुल्य घोष इस संगठन में शामिल थे। लालबहादुर शास्त्री एवं श्रीमती इन्दिरा गांधी, दोनों ही सिंडीकेट की सहायता से प्रधानमन्त्री पद पर आरूढ़ हुए। इन्दिरा गांधी के पहले मन्त्रिपरिषद् में इस समूह की निर्णायक भूमिका रही।

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प्रश्न 4.
‘गरीबी हटाओ’ का नारा तो अब से लगभग चालीस साल पहले दिया गया था। क्या यह नारा महज एक चुनावी छलावा था?
उत्तर:
‘गरीबी हटाओ’ का नारा श्रीमती इन्दिरा गांधी ने तत्कालीन समय व परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए दिया। इन्होंने विपक्षी गठबन्धन द्वारा दिए गए ‘इन्दिरा हटाओ’ नारे के विपरीत लोगों के सामने एक सकारात्मक कार्यक्रम रखा और इसे अपने प्रसिद्ध नारे ‘गरीबी हटाओ’ के जरिए एक शक्ल प्रदान की। – इन्दिरा गांधी ने सार्वजनिक क्षेत्र की संवृद्धि, ग्रामीण भू-स्वामित्व और शहरी सम्पदा के परिसीमन, आय और अवसरों की असमानता की समाप्ति तथा प्रिवीपर्स की समाप्ति पर अपने चुनाव अभियान में जोर दिया।

गरीबी हटाओ के नारे से श्रीमती गांधी ने वंचित तबकों खासकर भूमिहीन किसान, दलित और आदिवासियों, अल्पसंख्यक महिलाओं और बेरोजगार नौजवानों के बीच अपने समर्थन का आधार तैयार करने की कोशिश की। गरीबी हटाओ का नारा और इससे जुड़ा कार्यक्रम इन्दिरा गांधी की राजनीतिक रणनीति थी। इसके सहारे वे अपने लिए देशव्यापी राजनीतिक समर्थन की बुनियाद तैयार करना चाहती थीं। यह नारा लम्बे समय तक नहीं चल पाया। सन् 1971 के भारत-पाक युद्ध और विश्व स्तर पर पैदा हुए तेल संकट के कारण गरीबी हटाओ का नारा कमजोर पड़ गया। सन् 1971 में इन्दिरा गांधी द्वारा दिया गया यह नारा महज पाँच साल के अन्दर ही असफल हो गया और सन् 1977 में इन्दिरा गांधी को ऐतिहासिक पराजय का सामना करना पड़ा। इस प्रकार यह नारा महज एक चुनावी छलावा साबित हुआ।

प्रश्न 5.
यह तो कुछ ऐसा ही है कि कोई मकान की बुनियाद और छत बदल दे फिर भी कहे कि मकान वही है। पुरानी और नयी कांग्रेस में कौन-सी चीज समान थी?
उत्तर:
सन् 1969 में कांग्रेस के विभाजन तथा कामराज योजना के तहत कांग्रेस पार्टी की पुनर्स्थापना करने का प्रयास किया। श्रीमती इन्दिरा गांधी और उनके साथ अन्य युवा नेताओं ने कांग्रेस पार्टी को नया स्वरूप प्रदान करने का प्रयास किया। यह पार्टी पूर्णतः अपने सर्वोच्च नेता की लोकप्रियता पर आश्रित थी। पुरानी कांग्रेस की तुलना में इसका सांगठनिक ढाँचा कमजोर था। अब इस पार्टी के भीतर कई गुट नहीं थे। अर्थात् अब यह कांग्रेस विभिन्न मतों और हितों को एक साथ लेकर चलने वाली पार्टी नहीं थी।

इस प्रकार इन्दिरा कांग्रेस के बारे में यह कहा जा सकता है कि इसकी बुनियाद और छत बदल दी गई थी, लेकिन मकान वही था। पुरानी और नई कांग्रेस में एक बात समान थी कि दोनों को ही लोकप्रियता में समान स्थान प्राप्त था।

UP Board Class 12 Civics Chapter 5 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 5 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
पण्डित जवाहरलाल नेहरू के बाद राजनीतिक उत्तराधिकार पर एक निबन्ध लिखिए।
उत्तर:
पण्डिल जवाहरलाल नेहरू अपने चामत्कारिक व्यक्तित्व व जनता की उनमें गहरी आस्था होने के कारण भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री बने। नेहरू सन् 1947 से सन् 1964 तक भारत के प्रधानमन्त्री रहे। मई 1964 में नेहरू की मृत्यु के समय देश की राजनीतिक एवं आर्थिक परिस्थितियाँ ठीक नहीं थीं।

नेहरू की मृत्यु के बाद यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि भारत में कांग्रेस पार्टी में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष छिड़ जाएगा और कांग्रेस पार्टी बिखर जाएगी। लेकिन यह सब गलत साबित हुआ और पं० नेहरू की मृत्यु के बाद उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में पहले लालबहादुर शास्त्री तथा बाद में श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सफलतापूर्वक कार्य किया।

1. श्री लालबहादुर शास्त्री-लालबहादुर शास्त्री ने 6 जून, 1964 को भारत के प्रधानमन्त्री पद की शपथ ली। शास्त्री जी एक साधारण परिवार से थे। वह पक्के नेहरूवादी समाजवादी थे और इसीलिए वे भारतीय जनता के हृदय-सम्राट बन गए।

शास्त्री जी गांधी जी के शिष्य तथा नेहरू जी के प्रशंसक थे। वे बड़े दृढ़ विचारों वाले थे। जब शास्त्री जी ने नेहरू जी की मृत्यु के बाद कार्यभार संभाला उस समय देश अनेक संकटों का सामना कर रहा था। देश में अनाज की कमी थी। सन् 1962 में चीन से युद्ध हारने के बाद देश का मनोबल नीचा था, सीमा क्षेत्रों में तनाव कम नहीं हुआ था, अमेरिका पाकिस्तान का खुलकर समर्थन कर रहा था। शास्त्री जी ने इन चुनौतियों का दृढ़तापूर्वक सामना किया। शास्त्री जी ने पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि पर ध्यान देने को कहा। उन्होंने स्वयं भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् के पुनर्गठन का निरीक्षण किया। शास्त्री जी ने कृषि पर बल देते हुए ‘अधिक अन्न उगाओ’ के साथ ही ‘जय जवान जय किसान’ का प्रसिद्ध नारा भी दिया।

शास्त्री जी की सरल एवं उदार छवि के कारण पाकिस्तान ने सन् 1965 में जम्मू-कश्मीर पर भयंकर आक्रमण कर दिया। परन्तु शास्त्री जी की सूझबूझ एवं कुशल नेतृत्व से भारत ने न केवल पाकिस्तान का साहसपूर्वक सामना ही किया, बल्कि युद्ध से विजयी होकर उभरे। सोवियत संघ के प्रयासों से सन् 1966 में भारत-पाकिस्तान के बीच ताशकन्द में समझौता हुआ और ताशकन्द में ही जनवरी 1966 में शास्त्री जी की संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई।

2. श्रीमती इन्दिरा गांधी-शास्त्री जी की मृत्यु के बाद एक बार फिर राजनीतिक उत्तराधिकार का प्रश्न उत्पन्न हो गया। अधिकांश कांग्रेसी नेताओं की यह राय थी कि पण्डित नेहरू की बेटी श्रीमती इन्दिरा गांधी को देश का प्रधानमन्त्री बनाया जाए। फलत: श्रीमती इन्दिरा गांधी को प्रधानमन्त्री बनाया गया।

सन् 1967 में होने वाले लोकसभा के चुनावों के बाद भी श्रीमती इन्दिरा गांधी देश की प्रधानमन्त्री बनी रहीं। अपने प्रधानमन्त्रित्व काल में श्रीमती गांधी ने ऐसे कई कार्य किए जिससे देश प्रगति कर सके। इन्होंने कृषि कार्यों को बढ़ावा दिया। गरीबी को हटाने के लिए कार्यक्रम घोषित किया तथा देश की सेनाओं का आधुनिकीकरण किया। सन् 1974 में पोखरण में ऐतिहासिक परमाणु परीक्षण किया। श्रीमती गांधी को सन् 1971 में असामान्य परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। पूर्वी पाकिस्तान के कारण भारत एवं पाकिस्तान के मध्य भयंकर युद्ध शुरू हो गया। सन् 1971 का युद्ध भारत एवं श्रीमती गांधी के लिए निर्णायक युद्ध साबित हुआ तथा इस युद्ध के जीतने पर विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ गई।

इस तरह पण्डित नेहरू के बाद राजनीतिक उत्तराधिकार की समस्या को सरलता से हल कर लिया गया तथा उत्तराधिकारी कुशल नेतृत्व प्रदान कर देश को प्रगति और विकास की दिशा में ले गए।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Challenges to and Restoration of Congress System

प्रश्न 2.
सन् 1971 के आम चुनाव व देश की राजनीति में कांग्रेस के पुनर्स्थापन से जुड़ी राजनीतिक घटनाओं व परिणामों का विवरण दीजिए।
उत्तर:
सन् 1971 के आम चुनाव व देश की राजनीति में कांग्रेस के पुनर्स्थापन से जुड़ी राजनीतिक घटनाओं व परिणामों का विवरण निम्नवत् है-

1. सन् 1971 का आम चुनाव-इन्दिरा गांधी ने दिसम्बर 1970 में लोकसभा भंग करने की सिफारिश राष्ट्रपति से की थी। वह अपनी सरकार के लिए जनता का पुन: आदेश प्राप्त करना चाहती थी। फरवरी 1971 में पाँचवीं लोकसभा का आम चुनाव हुआ।

2. कांग्रेस तथा ग्रैण्ड अलायंस में मुकाबला-चुनावी मुकाबला कांग्रेस (आर) के विपरीत जान पड़ रहा था। आखिर नई कांग्रेस एक जर्जर होती हुई पार्टी का एक भाग भर थी। हर किसी को भरोसा था कि कांग्रेस पार्टी की असली सांगठनिक शक्ति कांग्रेस (ओ) के नियन्त्रण में है। इसके अलावा, सभी बड़ी गैर-साम्यवादी तथा गैर-कांग्रेसी विपक्षी पार्टियों ने एक चुनावी गठबन्धन बना लिया था। इसे ‘ग्रैण्ड अलायंस’ कहा गया। इससे इन्दिरा गांधी के लिए स्थिति और कठिन हो गई। एस०एस०पी०, पी०एस०पी०, भारतीय जनसंघ, स्वतन्त्र पार्टी एवं भारतीय क्रान्ति दल चुनाव में एक छतरी के नीचे आ गए। शासक दल ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ गठजोड़ किया।

3. दोनों राजनीतिक खेमों में अन्तर-इसके बावजूद नई कांग्रेस के साथ एक ऐसी बात थी, जिसका उनके विपक्षियों के पास अभाव था। नयी कांग्रेस के पास एक मुद्दा था, एक एजेण्डा तथा कार्यक्रम था। ‘ग्रैण्ड अलायंस’ के पास कोई सुसंगत राजनीतिक कार्यक्रम नहीं था। इन्दिरा गांधी ने देश भर में घूम-घूम कर कहा था कि विपक्षी गठबन्धन के पास बस एक ही कार्यक्रम है-‘इन्दिरा हटाओ’।

4. चुनाव के परिणाम-सन् 1971 के लोकसभा चुनावों के परिणाम उतने ही नाटकीय थे, जितना इन चुनावों को करवाने का फैसला। अपनी भारी-भरकम जीत के साथ इन्दिरा जी की अगुवाई वाली कांग्रेस ने अपने दावे को साबित कर दिया कि वही ‘असली कांग्रेस’ है तथा उसे भारतीय राजनीति में फिर से प्रभुत्व के स्थान पर पुनर्स्थापित किया। विपक्षी ग्रैण्ड अलायंस धराशायी हो गया था। इसे 40 से भी कम सीटें मिली थीं।

5. बंगलादेश का निर्माण तथा भारत-पाक युद्ध-सन् 1971 के लोकसभा चुनावों के तुरन्त बाद पूर्वी पाकिस्तान (जो अब बंगलादेश है) में एक बड़ा राजनीतिक तथा सैन्य संकट उठ खड़ा हुआ। सन् 1971 के चुनावों के बाद पूर्वी पाकिस्तान में संकट पैदा हुआ तथा भारत-पाक के मध्य युद्ध छिड़ गया।

6. राज्यों में कांग्रेस की पुनर्स्थापना-सन् 1972 के राज्य विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को व्यापक सफलता मिली। इन्दिरा जी को गरीबों तथा वंचितों के रक्षक और एक मजबूत राष्ट्रवादी नेता के रूप में देखा गया। पार्टी के अन्दर अथवा बाहर उनके विरोध की कोई गुंजाइश नहीं बची। कांग्रेस लोकसभा के चुनावों में जीती थी तथा राज्य स्तर के चुनावों में भी। इन दो लगातार जीतों के साथ कांग्रेस का दबदबा एक बार फिर कायम रहा। कांग्रेस अब लगभग सभी राज्यों में सत्ता में थी। समाज के विभिन्न वर्गों में यह लोकप्रिय भी थी। महज चार साल की अवधि में इन्दिरा गांधी ने अपने नेतृत्व तथा कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व के सामने खड़ी चुनौतियों को धूल चटा दी थी। जीत के बाद इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस प्रणाली को पुनर्स्थापित अवश्य किया, लेकिन कांग्रेस प्रणाली की प्रकृति को बदलकर।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
सन् 1967 के चौथे आम चुनाव में कांग्रेस दल की मुख्य चुनौतियाँ बताइए। अथवा भारत में सन् 1967 के चुनाव परिणामों को राजनीतिक भूचाल क्यों कहा गया?
उत्तर:
भारत में चौथे आम चुनाव सन् 1967 में हुए। इस चुनाव में कांग्रेस दल की मुख्य चुनौतियाँ इस प्रकार रहीं-

  1. इन चुनावों में भारतीय मतदाताओं ने कांग्रेस को वैसा समर्थन नहीं दिया, जो पहले तीन आम चुनावों में दिया था।
  2. लोकसभा की कुल 520 सीटों में से कांग्रेस को केवल 238 सीटें ही मिल पायीं तथा मत प्रतिशत में भी भारी गिरावट आई।
  3. इन्दिरा गांधी के मन्त्रिमण्डल के आधे मन्त्री चुनाव हार गए थे।
  4. इसके साथ-साथ कांग्रेस को 8 राज्य विधानसभाओं में हार का सामना करना पड़ा। इसलिए अनेक राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने इन अप्रत्याशित चुनाव परिणामों को राजनीतिक भूचाल की संज्ञा दी।

प्रश्न 2.
सिंडिकेट पर दक्षिणपन्थियों से गुप्त समझौते करने के आरोप क्यों लगे?
उत्तर:
कांग्रेस ने जब राष्ट्रपति पद के लिए नीलम संजीव रेड्डी को आधिकारिक उम्मीदवार घोषित किया, तो कार्यवाहक राष्ट्रपति वी०वी० गिरि ने राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। सिंडिकेट को यह लगा कि वी०वी० गिरि श्रीमती गांधी के समर्थन से जीत न जाएँ। अत: निजलिंगप्पा ने इस विषय में जनसंघ तथा स्वतन्त्र पार्टी जैसी दक्षिणपन्थी पार्टियों से बातचीत की तथा उनसे अनुरोध किया कि वे अपना मत नीलम संजीव रेड्डी के पक्ष में डालें। इस पर जगजीवन राम तथा फखरुद्दीन अहमद ने सिंडिकेट पर दक्षिणपन्थियों के साथ गुप्त समझौता करने का आरोप लगाया।

प्रश्न 3.
लालबहादुर शास्त्री के जीवन पर संक्षिप्त नोट लिखिए।
उत्तर:
लालबहादुर शास्त्री (1904-1966)-श्री लालबहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को हुआ। सन् 1930 से स्वतन्त्रता आन्दोलन में भागीदारी की और उत्तर प्रदेश मन्त्रिमण्डल में मन्त्री रहे। उन्होंने कांग्रेस पार्टी के महासचिव का पदभार सँभाला। वे सन् 1951-56 तक केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में मन्त्री पद पर रहे। इसी दौरान रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इन्होंने रेल मन्त्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। सन् 1957-64 के बीच वह मन्त्री पद पर रहे। उन्होंने ‘जय जवान-जय किसान’ का मशहूर नारा दिया। जून 1964 से अक्टूबर 1966 तक वह भारत के प्रधानमन्त्री पद पर रहे।

प्रश्न 4.
श्रीमती इन्दिरा गांधी के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए लालबहादुर शास्त्री के उत्तराधिकारी के रूप में श्रीमती इन्दिरा गांधी पर संक्षिप्त नोट लिखिए।
उत्तर:
श्रीमती इन्दिरा गांधी का संक्षिप्त परिचय-इन्दिरा प्रियदर्शनी सन् 1917 में जवाहरलाल नेहरू के परिवार में उत्पन्न हुईं। वे शास्त्री जी के देहान्त के बाद भारत की पहली महिला प्रधानमन्त्री बनीं। सन् 1966 से 1977 तक और फिर सन् 1980 से सन् 1984 तक वे भारत की प्रधानमन्त्री रहीं। युवा कांग्रेस कार्यकर्ता के रूप में स्वतन्त्रता आन्दोलन में श्रीमती इन्दिरा गांधी की भागीदारी रही। सन् 1958 में वह कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर आसीन हुईं तथा सन् 1964 से 1966 तक शास्त्री मन्त्रिमण्डल में केन्द्रीय मन्त्री के पद पर रहीं।

सन् 1967, 1971 और 1980 के आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने श्रीमती इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में सफलता प्राप्त की। इन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ का लुभावना नारा दिया, सन् 1971 के युद्ध में विजय का श्रेय और प्रिवीपर्स की समाप्ति, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, आण्विक परीक्षण तथा पर्यावरण संरक्षण के कदम उठाए। 31 अक्टूबर, 1984 के दिन इनकी हत्या कर दी गई।

प्रश्न 5.
दल-बदल पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। अथवा ‘आया राम-गया राम’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
दल-बदल-भारत की रणनीति में ध्यानाकर्षण करने वाली कुरीति (बुराई) दल-बदल रही है। सन् 1967 के आम चुनाव की एक खास बात दल-बदल की रही। इस विशेषता के कारण कई राज्यों में सरकारों के बनने और बिगड़ने की महत्त्वपूर्ण घटनाएँ दृष्टिगोचर हुईं।

जब कोई जन-प्रतिनिधि किसी विशेष राजनीतिक पार्टी का चुनाव चिह्न लेकर चुनाव लड़े और वह चुनाव जीत जाए और अपने निजी स्वार्थ के लिए या किसी अन्य कारण से मूल दल छोड़कर किसी अन्य दल में शामिल हो जाए, तो इसे ‘दल-बदल’ कहते हैं।

सन् 1967 के आम चुनावों के बाद कांग्रेस को छोड़ने वाले विधायकों ने तीन राज्यों-हरियाणा, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में गैर-कांग्रेसी सरकारों को गठित करने में अहम भूमिका निभाई। इस दल-बदल के कारण ही देश में एक मुहावरा या लोकोक्ति–“आया राम-गया राम” बहुत प्रसिद्ध हो गया।

प्रश्न 6.
के० कामराज पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
के० कामराज-के० कामराज का जन्म सन् 1903 में हुआ था। ये देश के महान स्वतन्त्रता सेनानी थे। इन्होंने कांग्रेस के एक प्रमुख नेता के रूप में अत्यधिक ख्याति प्राप्त की।

इन्हें मद्रास (तमिलनाडू) के मुख्यमन्त्री के पद पर रहने का अवसर मिला। मद्रास प्रान्त में शिक्षा का प्रसार और स्कूली बच्चों को दोपहर का भोजन देने की योजना लागू करने के लिए इन्हें अत्यधिक ख्याति प्राप्त हुई।

इन्होंने सन् 1963 में कामराज योजना नाम से मशहूर एक प्रस्ताव रखा जिसमें इन्होंने सभी वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं को त्यागपत्र दे देने का सुझाव दिया, ताकि जो कांग्रेस पार्टी के युवा कार्यकर्ता हैं वे पार्टी की कमान संभाल सकें। ये कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष भी रहे। सन् 1975 में इनका देहान्त हो गया।

प्रश्न 7.
सन् 1969 में कांग्रेस पार्टी के विभाजन के क्या कारण थे?
उत्तर:
कांग्रेस पार्टी के विभाजन के कारण-सन् 1969 में कांग्रेस पार्टी में विभाजन या फूट के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  1. दक्षिणपन्थी एवं वामपन्थी विषय पर कलह-कांग्रेस के कुछ सदस्यों का यह विचार था कि राज्यों में कांग्रेस को दक्षिणपन्थी विचारधारा वाले दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहिए, जबकि कुछ अन्य कांग्रेसियों का यह मत था कि कांग्रेस को वामपन्थी विचारधारा वाले दलों के साथ मिलकर चलना चाहिए।
  2. राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के विषय में मतभेद-कांग्रेस में सन् 1967 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव को लेकर मतभेद था। श्रीमती इन्दिरा गांधी जहाँ जाकिर हुसैन को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाना चाहती थीं वहीं सिंडिकेट इसकी विरोधी थी।
  3. युवा तुर्क और सिंडिकेट के बीच कलह-युवा तुर्क और सिंडिकेट के मध्य मतभेद रहा। जहाँ युवा तुर्क बैंकों के राष्ट्रीयकरण एवं राजाओं के प्रिवीपर्स को समाप्त करने के पक्ष में था वहीं सिंडिकेट इसका विरोध कर रहा था।
  4. मोरारजी देसाई से वित्त विभाग वापस लेना-सन् 1969 में श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा मोरारजी देसाई से वित्त विभाग वापस लेने के कारण भी मतभेद रहा।

प्रश्न 8.
प्रिवीपर्स का क्या अर्थ है? सन् 1970 में इन्दिरा गांधी इसे क्यों समाप्त करना चाहती थीं?
उत्तर:
प्रिवीपर्स से आशय-भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय देश में 565 रजवाड़े एवं रियासतें थीं। इन रियासतों को भारतीय संघ में शामिल किया गया तथा इनके तत्कालीन शासकों को जीवन-यापन हेतु विशेष धनराशि एवं भत्ते दिए जाने की व्यवस्था की गई। इसे ‘प्रिवीपर्स’ के नाम से जाना जाता है।

प्रिवीपर्स की समाप्ति-श्रीमती इन्दिरा गांधी ने प्रिवीपर्स को समाप्त करने का समर्थन किया। इस व्यवस्था की समाप्ति के लिए सरकार ने सन् 1970 में संविधान में संशोधन का प्रयास किया, लेकिन राज्य सभा में ये मंजूरी नहीं पा सका। इसके बाद सरकार ने अध्यादेश जारी किया, लेकिन इसे सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया। श्रीमती इन्दिरा गांधी ने इसे सन् 1971 के चुनावों में एक बड़ा मुद्दा बनाया और इस मुद्दे पर उन्हें जन-समर्थन भी खूब प्राप्त हुआ। सन् 1971 में मिली भारी जीत के बाद संविधान में संशोधन हुआ और इस प्रकार प्रिवीपर्स की समाप्ति की राह में मौजूदा कानूनी अड़चनें समाप्त हुईं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
गैर-कांग्रेसवाद से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
गैर-कांग्रेसवाद वह राजनीतिक विचारधारा है जो मुख्यत: कांग्रेस विरोधी और उसे सत्ता से अलग करने के लिए समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया द्वारा प्रस्तुत की गई।

प्रश्न 2.
कांग्रेस सिंडिकेट से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
कांग्रेस सिंडिकेट-कांग्रेस पार्टी के नेता जिनमें कामराज, एस०के० पाटिल, निजलिंगप्पा तथा मोरारजी देसाई (इनमें कुछ को हम इन्दिरा विरोधी भी कह सकते हैं) आदि के समूह को कांग्रेस सिंडिकेट के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 3.
ताशकन्द समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले राष्ट्राध्यक्षों के नाम बताइए।
उत्तर:

  1. भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री
  2. पाकिस्तान के जनरल अयूब खान।

प्रश्न 4.
राममनोहर लोहिया कौन थे?
उत्तर:
राममनोहर लोहिया समाजवादी नेता व विचारक थे। ये सन् 1963 से सन् 1967 तक लोकसभा के सदस्य रहे। ये गैर-कांग्रेसवाद के रणनीतिकार थे। इन्होंने नेहरू की नीतियों का विरोध किया।

प्रश्न 5.
कांग्रेस के युवा तुर्क के सम्बन्ध में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
युवा तुर्क कांग्रेस के युवाओं से सम्बन्धित था। इसमें चन्द्रशेखर, चरणजीत यादव, मोहन धारिया, कृष्णकान्त एवं आर०के० सिन्हा जैसे युवा कांग्रेसी शामिल थे। युवा तुर्क ने समय-समय पर श्रीमती गांधी का साथ दिया।

प्रश्न 6.
किन्हीं चार राज्यों के नाम लिखिए जहाँ सन् 1967 के चुनावों के बाद गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं।
उत्तर:

  1. पंजाब,
  2. राजस्थान,
  3. उत्तर प्रदेश,
  4. पश्चिम बंगाल।

प्रश्न 7.
10-सूत्री कार्यक्रम कब और क्यों लागू किया गया?
उत्तर:
10-सूत्री कार्यक्रम श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा सन् 1967 में कांग्रेस की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने के लिए लागू किया गया।

प्रश्न 8.
किन्हीं चार राज्यों के नाम लिखिए जहाँ सन् 1967 के चुनाव के बाद कांग्रेसी सरकारें बनीं।
उत्तर:

  1. महाराष्ट्र,
  2. आन्ध्र प्रदेश,
  3. मध्य प्रदेश,
  4. गुजरात।

प्रश्न 9.
सन् 1966 में कांग्रेस दल के वरिष्ठ नेताओं ने प्रधानमन्त्री के पद के लिए श्रीमती गांधी का साथ क्यों दिया?
उत्तर:
कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सम्भवत: यह सोचकर सन् 1966 में श्रीमती गांधी का साथ प्रधानमन्त्री पद के लिए दिया कि प्रशासनिक और राजनीतिक मामलों में खास अनुभव नहीं होने के कारण समर्थन व दिशा-निर्देशन के लिए वे उन पर निर्भर रहेंगी।

प्रश्न 10.
‘आया राम-गया राम’ किस वर्ष से सम्बन्धित घटना है तथा यह टिप्पणी किस व्यक्ति के सम्बन्ध में की गई?
उत्तर:
‘आया राम-गया राम’ सन् 1967 के वर्ष से सम्बन्धित घटना है। ‘आया राम-गया राम’ नामक टिप्पणी कांग्रेस के हरियाणा राज्य के एक विधायक गया लाल के सम्बन्ध में की गई थी।

प्रश्न 11.
‘आया राम-गया राम’ की टिप्पणी गया लाल के सम्बन्ध में क्यों की गई?
उत्तर:
सन् 1967 के चुनावों के बाद हरियाणा के विधायक गया लाल ने एक पखवाड़े में तीन बार ‘ पार्टियाँ बदली। गया लाल के इस कृत्य को ‘आया राम-गया राम’ जुमले में हमेशा के लिए दर्ज कर लिया गया।

प्रश्न 12.
1969-1971 के दौरान इन्दिरा गांधी की सरकार द्वारा सामना किए जाने वाले किन्हीं दो समस्याओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. इनके समक्ष सिंडिकेट (मोरारजी देसाई के प्रभुत्व वाले कांग्रेस का दक्षिणपन्थी गुट) के प्रभाव से मुक्त होकर अपना निजी मुकाम बनाने की चुनौती थी।
  2. कांग्रेस ने सन् 1967 के चुनावों में जो जमीन खोई थी उसे वापस हासिल करना था।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
कांग्रेस पार्टी का प्रभुत्व केन्द्र में कब तक रहा-
(a) 1947 से 1990 तक
(b) 1947 से 1960 तक
(c) 1947 से 1977 तक
(d) 1947 से 1980 तक।
उत्तर:
(c) 1947 से 1977 तक।

प्रश्न 2.
गरीबी हटाओ का नारा किसने दिया-
(a) सुभाषचन्द्र बोस ने
(b) लालबहादुर शास्त्री ने
(c) जवाहरलाल नेहरू ने
(d) इन्दिरा गांधी ने।
उत्तर:
(d) इन्दिरा गांधी ने।

प्रश्न 3.
भारत ने प्रथम परमाणु परीक्षण कब किया-
(a) सन् 1974 में
(b) सन् 1975 में
(c) सन् 1976 में
(d) सन् 1977 में।
उत्तर:
(a) सन् 1974 में।

प्रश्न 4.
‘जय जवान-जय किसान’ का नारा किसने दिया-
(a) लालबहादुर शास्त्री ने
(b) इन्दिरा गांधी ने
(c) जवाहरलाल नेहरू ने
(d) मोरारजी देसाई ने।
उत्तर:
(a) लालबहादुर शास्त्री ने।

प्रश्न 5.
बंगलादेश का निर्माण हुआ-
(a) सन् 1966 में
(b) सन् 1970 में
(c) सन् 1971 में
(d) सन् 1972 में।
उत्तर:
(c) सन् 1971 में।

UP Board Solutions for Class 12 Civics

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 7 Security in the Contemporary World

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 7 Security in the Contemporary World (समकालीन विश्व में सुरक्षा)

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित पदों को उनके अर्थ से मिलाएँ-
(1) विश्वास बहाली के उपाय (कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स-CBMs)
(2) अस्त्र-नियन्त्रण
(3) गठबन्धन
(4) निरस्त्रीकरण
(क) कुछ खास हथियारों के इस्तेमाल से परहेज।
(ख) राष्ट्रों के बीच सुरक्षा मामलों पर सूचनाओं के आदान-प्रदान की नियमित प्रक्रिया।
(ग) सैन्य हमले की स्थिति से निबटने अथवा उसके अवरोध के लिए कुछ राष्ट्रों का आपस में मेल करना।
(घ) हथियारों के निर्माण अथवा उनको हासिल करने पर अंकुश।
उत्तर:
(1) विश्वास बहाली के उपाय (कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स-CBMs)-
(ख) राष्ट्रों के बीच सुरक्षा मामलों पर सूचनाओं के आदान-प्रदान की नियमित प्रक्रिया।

(2) अस्त्र-नियन्त्रण
(घ) हथियारों के निर्माण अथवा उनको हासिल करने पर अंकुश।

(3) गठबन्धन
(ग) सैन्य हमले की स्थिति से निबटने अथवा उसके अवरोध के लिए कुछ राष्ट्रों का आपस में मेल करना।

(4) निरस्त्रीकरण
(क) कुछ खास हथियारों के इस्तेमाल से परहेज।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से किसको आप सुरक्षा का परम्परागत सरोकार/सुरक्षा का अपारम्परिक सरोकार/खतरे की स्थिति नहीं’ का दर्जा देंगे-
(क) चिकनगुनिया/डेंगू बुखार का प्रसार।
(ख) पड़ोसी देश से कामगारों की आमद।
(ग) पड़ोसी राज्य से कामगारों की आमद।
(घ) अपने इलाके को राष्ट्र बनाने की माँग करने वाले समूह का उदय।
(ङ) अपने इलाके को अधिक स्वायत्तता दिए जाने की माँग करने वाले समूह का उदय।
(च) देश की सशस्त्र सेना को आलोचनात्मक नजर से देखने वाला अखबार।
उत्तर:
(क) अपारम्परिक सरोकार
(ख) पारम्परिक सरोकार
(ग) खतरे की स्थिति नहीं
(घ) अपारम्परिक सरोकार
(ङ) खतरे की स्थिति नहीं
(च) पारम्परिक सरोकार।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 7 Security in the Contemporary World

प्रश्न 3.
परम्परागत और अपारम्परिक सुरक्षा में क्या अन्तर है? गठबन्धनों का निर्माण करना और इनको बनाए रखना इनमें से किस कोटि में आता है?
उत्तर:
सुरक्षा के दो दृष्टिकोण हैं-

  1. पारम्परिक सुरक्षा एवं
  2. अपारम्परिक सुरक्षा।

1. पारम्परिक सुरक्षा-सुरक्षा की पारम्परिक धारणा में बाह्य दृष्टि से सैन्य खतरों पर ध्यान होता है तथा सुरक्षा नीति का सम्बन्ध मुख्यतया युद्ध की आशंका को रोकने से होता है। साथ ही इसमें सुरक्षा नीति में राष्ट्रों के मध्य अपने पक्ष में शक्ति सन्तुलन बनाना तथा सैनिक गठबन्धनों का निर्माण भी शामिल है। पारम्परिक धारणा में माना जाता है कि किसी देश की सुरक्षा को मुख्य खतरा उसकी सीमा के बाहर से होता है। इसका मुख्य कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का स्वरूप है जिसमें राष्ट्रीय व्यवस्था की तरह कोई केन्द्रीय सत्ता नहीं है, जो सभी राष्ट्रों को नियन्त्रित कर सके। अतः विश्व राजनीति में प्रत्येक राष्ट्र को अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद उठानी पड़ती है।

परम्परागत सुरक्षा का सम्बन्ध आन्तरिक सुरक्षा से भी है। यद्यपि पश्चिमी देश द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले अपनी आन्तरिक सुरक्षा के प्रति आश्वस्त थे, लेकिन सन् 1945 के बाद शीतयुद्धजनित संघर्ष तथा उपनिवेशों में राष्ट्रवादी आन्दोलन ने आन्तरिक सुरक्षा की चुनौतियाँ उत्पन्न की। जबकि नवोदित राष्ट्रों में आन्तरिक सुरक्षा की मुख्य समस्या पड़ोसी देशों से युद्ध तथा आन्तरिक संघर्ष को लेकर उत्पन्न हुई। सुरक्षा के पारम्परिक तरीकों में निःशस्त्रीकरण, अस्त्र-नियन्त्रण तथा राष्ट्रों के मध्य शान्ति की बहाली प्रमुख थे।

2. अपारम्परिक सुरक्षा-अपारम्परिक सुरक्षा में केवल सैन्य खतरों को ही नहीं बल्कि मानवीय अस्तित्व पर चोट करने वाले व्यापक खतरों व आशंकाओं को शामिल किया जाता है। इस धारणा में सिर्फ राज्य की ही नहीं बल्कि व्यक्तियों और समुदायों या कहें समूची मानवता को सुरक्षा की आवश्यकता है। अपारम्परिक सुरक्षा को मानवता की सुरक्षा अथवा विश्व रक्षा कहा जाता है। इस सुरक्षा में सैन्य खतरों के साथ-साथ व्यक्तियों की सुरक्षा से जुड़े गैर-सैन्य खतरों; जैसे—आन्तरिक जातीय संघर्ष, अकाल, महामारी, अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद, पर्यावरण सुरक्षा (ग्लोबल वार्मिंग) आर्थिक सुरक्षा तथा मानवीय गरिमा के संकटों को शामिल किया जाता है। इसमें निर्धनता, गरीबी व असमानता जैसी समस्याएँ भी शामिल हैं।

पारम्परिक व अपारम्परिक सुरक्षा में अन्तर

(1) पारम्परिक सुरक्षा की धारणा में जहाँ आन्तरिक व बाह्य सैन्य खतरों को शामिल किया जाता है, वहीं अपारम्परिक सुरक्षा में मानवता की रक्षा व विश्व-रक्षा को शामिल किया जाता है। इसके व्यापक दृष्टिकोण में ‘अभाव से मुक्ति’ तथा ‘भय से मुक्ति’ जैसे तत्त्वों को शामिल किया जाता है।

(2) पारम्परिक सुरक्षा में जहाँ सैन्य खतरों से निपटने के लिए शक्ति-सन्तुलन, सैन्य गठबन्धन, अस्त्रनियन्त्रण, निशस्त्रीकरण तथा आपसी विश्वास जैसे तरीकों पर जोर दिया जाता है, वहीं अपारम्परिक सुरक्षा में खतरों से निबटने के लिए सैन्य संघर्ष नहीं बल्कि, अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की रणनीतियों पर बल दिया जाता है। यह सहयोग द्विपक्षीय, क्षेत्रीय अथवा वैश्विक स्तर पर हो सकता है।
सैन्य गठबन्धनों का निर्माण करना तथा उन्हें बनाए रखना पारम्परिक सुरक्षा की धारणा के अन्तर्गत शामिल किया जाता है। यह सैन्य सुरक्षा का एक साधन है।

प्रश्न 4.
तीसरी दुनिया के देशों और विकसित देशों की जनता के सामने मौजूद खतरों में क्या अन्तर है?
उत्तर:
तीसरी दुनिया के देशों और विकसित देशों की जनता के सामने मौजूद खतरों में अन्तर-

  1. विकसित देशों के लोगों को केवल बाहरी खतरे की आशंका रहती है, परन्तु तीसरी दुनिया के देशों को आन्तरिक व बाह्य दोनों प्रकार के खतरों का सामना करना पड़ता है।
  2. तीसरी दुनिया के लोगों को पर्यावरण असन्तुलन के कारण विकसित देशों की जनता के मुकाबले अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

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प्रश्न 5.
आतंकवाद सुरक्षा के लिए परम्परागत खतरे की श्रेणी में आता है या अपरम्परागत?
उत्तर:
अपराम्परागत खतरे की श्रेणी में आता है।

प्रश्न 6.
सुरक्षा के परम्परागत दृष्टिकोण के हिसाब से बताएं कि यदि किसी राष्ट्र पर खतरा मँडरा रहा हो तो उसके सामने क्या विकल्प होते हैं?
उत्तर:
सुरक्षा की पारम्परिक अवधारणा में सैन्य खतरे को किसी देश के लिए सबसे खतरनाक माना जाता है। परम्परागत धारणा में मुख्य रूप से सैन्य बल के प्रयोग अथवा सैन्य बल के प्रयोग की आशंका पर अंधिक बल दिया जाता है। इस धारणा में माना जाता है कि सैन्य बल से सुरक्षा को खतरा पहुँचता है और सैन्य बल से ही सुरक्षा को बनाए रखा जा सकता है। इसीलिए परम्परागत सुरक्षा में शक्ति-सन्तुलन, सैन्य गठबन्धन तथा अन्य किसी तरीके से सैन्य-शक्ति के विकास आदि पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया जाता है।

मूलत: किसी राष्ट्र के पास युद्ध की स्थिति में तीन विकल्प होते हैं-

  1. शत्रु देश के सामने आत्मसमर्पण कर देना।
  2. शत्रु देश को युद्ध से होने वाले खतरे।
  3. शत्रु देश के साथ युद्ध करके, उसे पराजित करना।

उपर्युक्त विकल्पों के आलोक में सुरक्षा नीति का सम्बन्ध युद्ध की आशंका को रोकने से होता है जिसे ‘अपरोध’ कहते हैं और युद्ध को सीमित रखने तथा उन्हें समाप्त करने से होता है जिसे ‘रक्षा’ कहा जाता है।

संक्षेप में, परम्परागत सुरक्षा रणनीति में मुख्य तत्त्व विरोधी के सैन्य आक्रमण के खतरे को समाप्त करने या सीमित करने से होता है।

प्रश्न 7.
शक्ति सन्तुलन क्या है? कोई देश उसे कैसे कायम करता है?
उत्तर:
शक्ति सन्तुलन का अर्थ एवं परिभाषा शक्ति अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का केन्द्र बिन्दु है। आधुनिक विद्वानों ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को ‘शक्ति की राजनीति’ की संज्ञा प्रदान की है। शक्ति सन्तुलन सिद्धान्त की सहायता से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक घटनाओं और राजनीतिज्ञों की नीतियों की विवेचना की जाती है। अत: शक्ति सन्तुलन की अवधारणा का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में व्यापक महत्त्व है।

शक्ति सन्तुलन की परिभाषा

  1. श्लीचर के अनुसार, “शक्ति सन्तुलन व्यक्तियों तथा समुदायों की सापेक्ष शक्ति की ओर संकेत करता है।”
  2. मार्गेन्थो के अनुसार, “प्रत्येक राष्ट्र परिस्थिति को बनाए रखने अथवा परिवर्तित करने के लिए दूसरे राष्ट्रों की अपेक्षा अधिक शक्ति प्राप्त करने की इच्छा रखता है इसके परिणामस्वरूप जिस ढाँचे की आवश्यकता होती है, वह शक्ति सन्तुलन कहलाता है।”

सामान्य अर्थ में, शक्ति सन्तुलन का अभिप्राय यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में किसी क्षेत्र को इतना अधिक शक्तिशाली न बनने दिया जाए, जिससे कि वह अन्य राष्ट्रों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर सके। जब कोई राष्ट्र अपनी शक्ति का विस्तार करने लगता है, तो अन्य राष्ट्र उस पर सैन्य शक्ति द्वारा अंकुश लगा देते हैं। इस अंकुश को ही हम ‘शक्ति सन्तुलन’ की संज्ञा दे सकते हैं।
शक्ति सन्तुलन बनाए रखने के उपाय-किसी देश में शक्ति सन्तुलन बनाए रखने के उपाय निम्नलिखित हैं-

  1. शक्ति सन्तुलन बनाने के लिए एक साधारण तरीका गठजोड़ है। यह प्रणाली बहुत पुरानी है। इसका उद्देश्य होता है किसी राष्ट्र की शक्ति बढ़ाना। छोटे और मध्यम राज्य इस प्रणाली द्वारा अस्तित्व बनाए रखते हैं।
  2. शक्ति सन्तुलन बनाए रखने का एक तरीका शस्त्रीकरण एवं निःशस्त्रीकरण है। शक्ति सन्तुलन बनाए । रखने के लिए विभिन्न राज्यों ने समय-समय पर शस्त्रीकरण एवं निःशस्त्रीकरण पर जोर दिया है।

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प्रश्न 8.
सैन्य संगठन के क्या उद्देश्य होते हैं? किसी ऐसे सैन्य गठबन्धन का नाम बताइए जो अभी मौजूद है तथा इस गठबन्धन के उद्देश्य भी बताएँ।
उत्तर:
पारम्परिक सुरक्षा नीति का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है—सैन्य गठबन्धन बनाना। सैन्य गठबन्धन में कई देश शामिल होते हैं।
सैन्य गठबन्धन के उद्देश्य-सैन्य गठबन्धन का मुख्य उद्देश्य विपक्षी शत्रु राष्ट्र के आक्रमण को रोकना अथवा उससे रक्षा के लिए सामूहिक सैन्य कार्रवाई करना होता है।

नाटो (NATO)-अमेरिका के नेतृत्व वाले पूँजीवादी गुट का प्रमुख सैन्य संगठन NATO अथवा उत्तरी अटलाण्टिक सन्धि संगठन है जिसकी स्थापना 4 अप्रैल, 1949 में हुई थी। साम्यवादी गुट का रूस के नेतृत्व में ‘वारसा’ सन्धि संगठन प्रमुख गठबन्धन था जो सन् 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद समाप्त कर दिया गया था, परन्तु ‘नाटो’ (NATO) अभी अस्तित्व में है। वर्तमान में ‘नाटो’ संगठन में अमेरिका सहित यूरोप के 19 देश शामिल हैं। नाटो के चार्टर में 14 धाराएँ हैं।

नाटो (NATO) संगठन के प्रमुख उद्देश्य-

  1. पश्चिमी यूरोप में सोवियत गुट के प्रभाव को रोकना।
  2. धारा-5 के अनुसार नाटो के एक सदस्य पर आक्रमण सभी सदस्यों पर आक्रमण समझा जाएगा। अत: सभी सदस्य सामूहिक सैन्य प्रयास करेंगे।
  3. सदस्यों में आत्म सहायता तथा पारस्परिक सहायता का विकास करना, जिससे वे सशस्त्र आक्रमण के विरोध की क्षमता का विकास कर सकें।
  4. नाटो के अन्य उद्देश्य हैं—सदस्यों में आर्थिक सहयोग को बढ़ाना तथा उसके विवादों का शान्तिपूर्ण समाधान।

प्रश्न 9.
पर्यावरण के तेजी से हो रहे नुकसान से देशों की सुरक्षा को गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? उदाहरण देते हुए तर्कों की पुष्टि करें।
उत्तर:
सुरक्षा के अपारम्परिक खतरों में से एक प्रमुख खतरा पर्यावरण में बढ़ रहा प्रदूषण है। पर्यावरण प्रदूषण की प्रकृति वैश्विक है। इसके दुष्परिणामों की सीमा राष्ट्रीय नहीं है। वैश्विक पर्यावरण की समस्याओं से मानव जाति को सुरक्षा का खतरा उत्पन्न हो गया है। वैश्विक पर्यावरण की चुनौती निम्नलिखित कारणों से है-

(1) कृषि योग्य भूमि, जलस्रोत तथा वायुमण्डल के प्रदूषण से खाद्य उत्पादन में कमी आई है तथा यह मानव स्वास्थ्य के लिए घातक है। वर्तमान में विकासशील देशों की लगभग एक अरब बीस करोड़ जनता को स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है।

(2) धरती के ऊपर वायुमण्डल में ओजोन गैस की कमी के कारण मानव-स्वास्थ्य के लिए गम्भीर खतरा मँडरा रहा है।

(3) सर्वाधिक खतरे का प्रमुख कारण ग्लोबल वार्मिंग (वैश्विक ताप वृद्धि) की समस्या है जिसका प्रमुख कारण प्रदूषण है। प्रदूषण के कारण विश्वव्यापी तापमान में निरन्तर वृद्धि हो रही है। उदाहरण के लिए, वैश्विक ताप वृद्धि से ध्रुवों पर जमी बर्फ पिघल जाएगी। यदि समुद्रतल दो मीटर ऊपर उठता है तो बंगलादेश का 20 प्रतिशत हिस्सा डूब जाएगा, कमोबेश पूरा मालदीव समुद्र में समा जाएगा तथा थाईलैण्ड की 20 प्रतिशत जनसंख्या डूब जाएगी।

उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि पर्यावरण के नुकसान से देशों की सुरक्षा को गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया है। इन खतरों का सामना सैन्य तैयारी से नहीं किया जा सकता। इसके लिए विश्व स्तर पर अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता है। ज्ञातव्य है कि पर्यावरण की समस्या के समाधान के लिए वर्ष 1992 में ब्राजील में ‘पृथ्वी सम्मेलन’ आयोजित किया गया था जिसमें 170 देशों ने भाग लिया था।

प्रश्न 10.
देशों के सामने फिलहाल जो खतरे मौजूद हैं उनमें परमाण्विक हथियार की सुरक्षा अथवा अवरोध के लिए बड़ा सीमित उपयोग रह गया है। इस कथन का विस्तार करें।
उत्तर:
वर्तमान में सुरक्षा की पारम्परिक धारणा सार्थक नहीं रह गयी है, क्योंकि सैन्य खतरों के अतिरिक्त, सुरक्षा के लिए खतरे; जैसे-आतंकवाद, पर्यावरण क्षरण, जातीय संघर्ष, निर्धनता व गरीबी तथा जनता के मूल मानवाधिकारों का हनन आदि उत्पन्न हो गए हैं। इन नए खतरों का सामना आण्विक हथियारों से नहीं किया जा सकता। आण्विक हथियारों की उपयोगिता पारम्परिक सैन्य आक्रमण की आशंका को रोकने में हो सकती है, लेकिन आज के समय में सुरक्षा के बड़े नवीन खतरे हैं उन्हें परमाणु शक्ति द्वारा रोका जा सकता।

उदाहरण के लिए आतंकवाद एक गुप्त युद्ध है। आतंकवाद की स्थिति में किसके विरुद्ध परमाणु हथियारों का प्रयोग किया जाएगा अथवा पर्यावरण के क्षेत्र में वैश्विक ताप वृद्धि को रोकने अथवा विश्व निर्धनता या एड्स जैसी महामारियों की रोकथाम में परमाणु शक्ति कैसे कारगर होगी। वैसे भी शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद परमाणु हथियारों की दौड़ धीमी पड़ गई है। अत: यह कथन उपयुक्त है कि सुरक्षा के वर्तमान खतरों का सामना करने में परमाणु हथियारों की उपयोगिता सीमित है।

प्रश्न 11.
भारतीय परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए किस किस्म की सुरक्षा को वरीयता दी जानी चाहिए-पारम्परिक या अपारम्परिक? अपने तर्क की पुष्टि में आप कौन-से उदाहरण देंगे?
उत्तर:
यदि भारतीय परिदृश्य पर गौर किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय सुरक्षा को पारम्परिक व अपारम्परिक दोनों ही प्रकार के खतरे हैं। अत: पारम्परिक व अपारम्परिक दोनों ही प्रकार की सुरक्षा पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है।

उदाहरण के लिए, भारत के लिए पड़ोसी देशों विशेषकर पाकिस्तान व चीन से पारम्परिक सैन्य खतरा बना हुआ है। पाकिस्तान ने 1947-48, 1965, 1971 तथा 1999 में तथा चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण किया था। पाकिस्तान अपनी सैन्य क्षमता का विस्तार कर रहा है तथा चीन की सैन्य क्षमता भारत से अधिक है। दूसरी तरफ भारत के कई क्षेत्रों, यथा-कश्मीर, नागालैण्ड, असम आदि में अलगाववादी हिंसक गुट तथा कुछ क्षेत्रों में नक्सलवादी समूह सक्रिय हैं। अत: भारत की आन्तरिक सुरक्षा को भी खतरा है।

ये खतरे पारम्परिक खतरों की श्रेणी में शामिल हैं। जहाँ तक अपारम्परिक सुरक्षा का सम्बन्ध है, भारत में प्रमुख चुनौती पाकिस्तान द्वारा समर्थित आतंकवादी गतिविधियों से है। आतंकवाद का विस्तार भारत में निरन्तर हो रहा है। अयोध्या व काशी में विस्फोट, मुम्बई में विस्फोट तथा संसद पर आतंकवादी हमला इसके उदाहरण हैं। अत: भारत को आतंकवाद से निपटने के लिए अपारम्परिक सुरक्षा पर भी ध्यान देना होगा। अपारम्परिक सुरक्षा की दृष्टि से एड्स जैसी महामारियों की रोकथाम, मानवाधिकारों की रक्षा, जातीय व धार्मिक संघर्ष, निर्धनता व स्वास्थ्य की समस्या का समाधान भी आवश्यक है।

निष्कर्षतः भारत में पारम्परिक व अपारम्परिक दोनों ही सुरक्षा तत्त्वों पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

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प्रश्न 12.
नीचे दिए गए कार्टून को समझें। कार्टून में युद्ध और आतंकवाद का जो सम्बन्ध दिखाया गया है उसके पक्ष या विपक्ष में एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 7 Security in the Contemporary World 1
उत्तर:
दिए गए चित्र में युद्धरूपी विशाल सूअर द्वारा आतंकवादी बच्चों को दूध पिलाते दिखाया गया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि युद्ध द्वारा ही आतंकवाद को जन्म मिलता है तथा युद्ध अथवा संघर्ष की स्थिति में आतंकवाद पोषित होता है तथा फलता-फूलता है। अत: चित्र में आतंकवाद व युद्ध के मध्य दर्शाया गया सम्बन्ध उचित है।

इस सम्बन्ध के पक्ष में कई तर्क दिए जा सकते हैं-

प्रथम, युद्ध दो पक्षों के बीच वैचारिक अथवा हितों की असहमति से उपजा संघर्ष है। इसमें जो पक्ष कमजोर होता है वह अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए आतंकवाद का सहारा लेता है।

द्वितीय, यदि हम वर्तमान में विश्व स्तर पर आतंकवाद को देखें तो स्पष्ट है कि उसके पीछे किसी विचारधारा व हितों का संघर्ष निहित है।

उदाहरण के लिए, मध्यपूर्व में अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप के कारण इराक, ईरान, फिलिस्तीन व लेबनान में आतंकवादी गतिविधियों को बल मिला। इसी प्रकार जब सोवियत संघ की सेनाओं ने अफगानिस्तान में घुसपैठ की तो निर्वासित कट्टरपन्थियों को अमेरिका व पाकिस्तान ने सहायता पहुँचाई। यही कट्टरपन्थी तालिबान के नाम से सम्पूर्ण विश्व में आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न हैं। भारत-पाकिस्तान के मध्य सैन्य-संघर्ष की स्थिति के कारण कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा मिला है।

अतः इससे स्पष्ट है कि युद्ध द्वारा आतंकवाद को पोषित किया जाता है तथा संघर्ष की स्थिति में आतंकवाद फलता-फूलता है।

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
मेरी सुरक्षा के बारे में किसने फैसला किया? कुछ नेताओं और विशेषज्ञों ने? क्या मैं अपनी सुरक्षा का फैसला नहीं कर सकती?
उत्तर:
यद्यपि व्यक्ति स्वयं अपनी सुरक्षा का फैसला कर सकता है, लेकिन यदि यह फैसला नेताओं और विशेषज्ञों द्वारा किया गया है तो हम उनके अनुभव और अनुसन्धान का लाभ उठाते हुए उचित निर्णय ले सकते हैं।

प्रश्न 2.
आपने ‘शान्ति सेना’ के बारे में सुना होगा। क्या आपको लगता है कि ‘शान्ति-सेना’ का होना स्वयं में एक विरोधाभासी बात है?
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 7 Security in the Contemporary World 2
उत्तर:
भारत द्वारा श्रीलंका में भेजी गई शान्ति-सेना के बारे में हमने समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में पढ़ा है। इस कार्टून के द्वारा यह दर्शाने का प्रयत्न किया गया है कि जो सैन्य शक्ति का प्रतीक है, जिसकी कमर पर बन्दूक और युद्ध सामग्री है, वह कबूतर पर सवार है।

कबूतर को शान्तिदूत माना जाता है लेकिन शक्ति के बल पर शान्ति स्थापित नहीं की जा सकती और यदि इसे शक्ति के बल पर स्थापित कर भी दिया गया तो वह शान्ति अस्थायी होगी तथा कुछ समय गुजरने के बाद वह एक नवीन संघर्ष, तनाव तथा हिंसात्मक घटनाओं को जन्म देगी।

प्रश्न 3.
जब कोई नया देश परमाणु शक्ति-सम्पन्न होने की दावेदारी करता है तो बड़ी ताकतें क्या रवैया अख्तियार करती हैं?
उत्तर:
जब कोई नया देश परमाणु शक्ति-सम्पन्न होने की दावेदारी करता है तो बड़ी ताकतें उसके प्रति शत्रुता एवं दोषारोपण का रवैया अख्तियार करती हैं। यथा-

प्रथमतः वे यह कहती हैं कि इससे विश्व-शान्ति एवं सुरक्षा के लिए खतरा बढ़ गया है।

दूसरे, वे यह आरोप लगाती हैं कि एक नए देश के पास परमाणु शक्ति होगी तो उसके पड़ोसी भी अपनी सुरक्षा की चिन्ता की आड़ में परमाणु परीक्षण करने लगेंगे। इससे विनाशकारी शस्त्रों की बेलगाम दौड़ शुरू हो जाएगी।

तीसरे, ये बड़ी शक्तियाँ उसकी आर्थिक नाकेबन्दी, व्यापारिक सम्बन्ध तोड़ने, निवेश बन्द करने, परमाणु निर्माण में काम आने वाले कच्चे माल की आपूर्ति रोकने आदि के लिए कदम उठा लेती हैं।

चौथे, ये शक्तियाँ उस पर परमाणु विस्तार विरोधी सन्धियों पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डालती हैं। पाँचवें, ये बड़ी शक्तियाँ उसके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप कर सत्ता को पलटने का प्रयास करती हैं।

प्रश्न 4.
हमारे पास यह कहने के क्या आधार हैं कि परमाण्विक हथियारों से लैस कुछ देशों पर तो विश्वास किया जा सकता है, परन्तु कुछ पर नहीं?
उत्तर:
हम निम्नलिखित दो आधारों पर कह सकते हैं कि परमाण्विक हथियारों से लैस कुछ देशों पर तो विश्वास नहीं किया जा सकता है लेकिन कुछ पर नहीं-

(1) जो देश परमाणु शक्ति-सम्पन्न बिरादरी के पुराने सदस्य हैं, वे कहते हैं कि यदि बड़ी शक्तियों के पास परमाणु हथियार हैं तो उनमें ‘अपरोध’ का पारस्परिक भय होगा जिसके कारण वे इन हथियारों का प्रथम प्रयोग नहीं करेंगे।

(2) परमाणु बिरादरी के देश परमाणुशील होने की दावेदारी करने वाले देशों पर यह दोष लगाते हैं कि वे आतंकवादियों की गतिविधियाँ रोक नहीं सकते। यदि कोई गलत व्यक्ति या सेनाध्यक्ष राष्ट्राध्यक्ष बन गया तो इसके काल में परमाणु हथियार किसी गलत व्यक्ति के हाथों में जा सकते हैं जो अपने पागलपन से पूरी मानव जाति को खतरे में डाल सकता है।

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प्रश्न 5.
मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात हो तो हम हमेशा बाहर क्यों देखते हैं? क्या हमारे अपने देश में इसके उदाहरण नहीं मिलते?
उत्तर:
रवाण्डा के नरसंहार, कुवैत पर इराकी हमले तथा पूर्वी तिमूर में इण्डोनेशियाई सेना के रक्तपात इत्यादि घटनाओं पर तो हमने मानवाधिकारों के उल्लंघन की दुहाई दे डाली, लेकिन अपने देश के समय-समय पर घटे मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों पर चुप्पी साध ली। इसकी प्रमुख वजह मानवीय प्रवृत्ति प्रतीत होती है, क्योंकि हमें दूसरों की बुराई तलाशने में आनन्द की अनुभूति होती है, जबकि अपने द्वारा की गई गलत बात भी सही लगती है।

प्रश्न 6.
क्या गैर-बराबरी के बढ़ने का सुरक्षा से जुड़े पहलुओं पर कुछ असर पड़ता है?
उत्तर:
हाँ, खुशहाली तथा बदहाली का काफी नजदीकी सम्बन्ध होता है और गैर-बराबरी बढ़ने का सुरक्षा से जुड़े पहलुओं पर काफी प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 7.
यहाँ जो मुद्दे दिखाए गए हैं उनसे दुनिया कैसे उबरे?
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 7 Security in the Contemporary World 3
उत्तर:
दिए गए चित्र में आतंकवाद तथा प्राकृतिक आपदाओं के मुद्दे चित्रित किए गए हैं। आतंकवाद तथा प्राकृतिक आपदाएँ कोई नवीन मुद्दे नहीं हैं। आतंकवाद की अधिकांश घटनाएँ मध्य-पूर्व यूरोप, लैटिन अमेरिका तथा दक्षिण एशिया में हुई हैं। इससे छुटकारा पाने के लिए विश्व को एकजुट होकर इसे जड़ से उखाड़ फेंकने हेतु रचनात्मक कार्य करने होंगे। आतंकवादियों की मांगों को ठुकराकर उनकी आर्थिक शक्ति पर प्रहार करना होगा। प्रत्येक देश को यह प्रतिज्ञा लेनी होगी कि किसी भी परिस्थिति में आतंकवादियों को अपनी सीमा में शरण नहीं देनी है। इसी तरह प्राकृतिक आपदाओं के दौरान भी विश्व जगत् को आपदाग्रस्त देश की बिना किसी शर्त एवं भेदभाव के आधार पर भरपूर मदद करनी होगी।

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
सुरक्षा की पारम्परिक धारणा का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सुरक्षा की पारम्परिक धारणा-सुरक्षा की पारम्परिक धारणा को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

(1) बाहरी सुरक्षा की पारम्परिक धारणा,
(2) आन्तरिक सुरक्षा की पारम्परिक धारणा।

1. बाहरी सुरक्षा की पारम्परिक धारणा-बाहरी सुरक्षा की पारम्परिक धारणा का अध्ययन अग्रलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-

(i) सैन्य खतरा-सुरक्षा की पारम्परिक धारणा में सैन्य खतरे को किसी देश के लिए सबसे अधिक खतरनाक माना जाता है। इस खतरे का स्रोत कोई दूसरा देश होता है जो सैन्य हमले की धमकी देकर सम्प्रभुता, स्वतन्त्रता तथा संघीय अखण्डता जैसे किसी देश के केन्द्रीय मूल्यों के लिए खतरा उत्पन्न करता है।

सैन्य कार्रवाई से आम जनता को भी जन-धन की व्यापक हानि उठानी पड़ती है। प्राय: निहत्थी जनता को युद्ध में निशाना बनाया जाता है तथा उनका व उनकी सरकार का हौसला तोड़ने की कोशिश की जाती है।

(ii) युद्ध से बचने के उपाय-बुनियादी तौर पर सरकार के पास युद्ध की स्थिति में तीन विकल्प होते

(अ) आत्मसमर्पण-आत्मसमर्पण करना एवं दूसरे पक्ष की बात को बिना युद्ध किए मान लेना।

(ब) अपरोध नीति-सुरक्षा नीति का सम्बन्ध समर्पण करने से नहीं है बल्कि इसका सम्बन्ध युद्ध की आशंका को रोकने से है जिसे ‘अपरोध’ कहते हैं। इसमें एक पक्ष द्वारा युद्ध में होने वाले विनाश को इस सीमा तक बढ़ाने के संकेत दिए जाते हैं ताकि दूसरा सहमकर हमला करने से रुक जाए।

(स) रक्षा नीति-रक्षा नीति का सम्बन्ध युद्ध को सीमित रखने अथवा उसे समाप्त करने से होता है।

(iii) शक्ति सन्तुलन-परम्परागत सुरक्षा नीति का एक अन्य रूप शक्ति सन्तुलन है। प्रत्येक देश की सरकार दूसरे देश में अपने शक्ति सन्तुलन को लेकर बहुत संवेदनशील रहती है। कोई सरकार दूसरे देशों से शक्ति सन्तुलन का पलड़ा अपने पक्ष में बैठाने के लिए भरसक प्रयास करती है। शक्ति सन्तुलन बनाए रखने की यह कोशिश अधिकतर अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने की होती है, लेकिन आर्थिक एवं प्रौद्योगिकी की ताकत भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि सैन्य शक्ति का यही आधार है।

(iv) गठबन्धन निर्माण की नीति-पारम्परिक सुरक्षा नीति का चौथा तत्त्व है-गठबन्धन का निर्माण करना। गठबन्धन में कई देश शामिल होते हैं तथा सैन्य हमले को रोकने अथवा उससे रक्षा करने के लिए समवेत (सामूहिक) कदम उठाते हैं। अधिकांश गठबन्धनों को लिखित सन्धि के माध्यम से एक औपचारिक रूप मिलता है। गठबन्धन राष्ट्रीय हितों पर आधारित होते हैं तथा राष्ट्रीय हितों के बदलने पर गठबन्धन भी बदल जाते हैं।

सुरक्षा की परम्परागत धारणाओं में विश्व राजनीति में प्रत्येक देश को अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी स्वयं उठानी पड़ती है।

2. आन्तरिक सुरक्षा की पारम्परिक धारणा-सुरक्षा की पारम्परिक धारणा का दूसरा रूप आन्तरिक सुरक्षा का है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से सुरक्षा के इस पहलू पर अधिक जोर नहीं दिया गया क्योंकि दुनिया के अधिकांश ताकतवर देश अपनी अन्दरूनी सुरक्षा के प्रति कमोबेश आश्वस्त थे। द्वितीय महायुद्ध के बाद ऐसे हालात और सन्दर्भ सामने आए कि आन्तरिक सुरक्षा पहले की तुलना में कहीं कम महत्त्व की वस्तु बन गयी।

शीतयुद्ध के दौर में दोनों गुटों, अमेरिकी गुट व सोवियत गुट, के आमने-सामने होने से इन दोनों गुटों को अपने ऊपर एक-दूसरे से सैन्य हमले का भय था। इसके अतिरिक्त कुछ यूरोपीय देशों को अपने उपनिवेशों में उपनिवेशीकृत जनता के खून-खराबे की चिन्ता सता रही थी। लेकिन 1940 के दशक के उत्तरार्द्ध से उपनिवेशों ने स्वतन्त्र होना प्रारम्भ कर दिया। एशिया और अफ्रीका के नए स्वतन्त्र हुए देशों के समक्ष दोनों प्रकार की सुरक्षा की चुनौतियाँ थीं।

  1. एक तो इन्हें अपनी पड़ोसी देशों से सैन्य हमले की आशंका थी।
  2. इन्हें आन्तरिक सैन्य संघर्ष की भी चिन्ता करनी थी। इन देशों को सीमा पार के पड़ोसी देशों से खतरा था तथा साथ ही भीतर से भी खतरे की आशंका थी।

अनेक नव-स्वतन्त्र देश संयुक्त राज्य अमेरिका या सोवियत संघ अथवा औपनिवेशिक ताकतों से कहीं अधिक अपने पड़ोसी देशों से आशंकित थे। इनके मध्य सीमा-रेखा और भू-क्षेत्र अथवा जनसंख्या पर नियन्त्रण को लेकर झगड़े हुए।

प्रश्न 2.
सुरक्षा की अपारम्परिक धारणा का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सुरक्षा की अपारम्परिक धारणा–सुरक्षा की अपारम्परिक धारणा सिर्फ सैन्य खतरों से ही सम्बन्ध नहीं है, बल्कि इसमें मानवीय अस्तित्व पर हमला करने वाले व्यापक खतरों एवं आशंकाओं को शामिल किया जाता है। सुरक्षा की अपारम्परिक धारणा में सुरक्षा का दायरा व्यापक है। इसमें सिर्फ राज्य ही नहीं बल्कि व्यक्तियों, समुदायों तथा समस्त मानवता की सुरक्षा पर बल दिया जाता है। इस प्रकार की सुरक्षा की अपारम्परिक धारणा के दो पक्ष हैं-

(1) मानवता की सुरक्षा,
(2) विश्व सुरक्षा।

1. मानवता की सुरक्षा-मानवता की सुरक्षा की धारणा को निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता है-

(i) व्यक्तियों की सुरक्षा पर बल-मानवता की सुरक्षा की धारणा व्यक्तियों की रक्षा पर बल देती है। मानवता की रक्षा का विचार जनता की सुरक्षा को राज्यों की सुरक्षा से बढ़कर मानता है। मानवता की सुरक्षा और राज्य की सुरक्षा पूरक होनी चाहिए, लेकिन सुरक्षित रूप का आशय हमेशा सुरक्षित जनता नहीं होता। सुरक्षित राज्य नागरिकों को विदेशी हमलों से तो बचाता है, लेकिन यही पर्याप्त नहीं है क्योंकि पिछले 20 वर्षों में जितने व्यक्ति विदेशी सेना के हाथों मारे गए हैं, उससे कहीं अधिक लोग स्वयं अपनी ही सरकारों के हाथों मारे गए हैं।

इससे स्पष्ट होता है कि मानवता की सुरक्षा का विचार राज्यों की सुरक्षा के विचार से व्यापक है।

(ii) मानवता की सुरक्षा के विचार का प्राथमिक लक्ष्य-मानवता की सुरक्षा के सभी समर्थकों की सहमति है कि मानवता की सुरक्षा के विचार का प्राथमिक लक्ष्य व्यक्तियों की रक्षा है, लेकिन इस बात पर मतभेद है कि ऐसे कौन-से खतरे हैं, जिनसे व्यक्तियों की रक्षा की जाए। इस सन्दर्भ में दिए गए विचारों को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

(क) मानवता की सुरक्षा का संकीर्ण अर्थ-मानवता की सुरक्षा का संकीर्ण अर्थ लेने वाले समर्थकों का जोर व्यक्तियों को हिंसक खतरों अर्थात् खून-खराबे से बचाने पर है।

(ख) मानवता की सुरक्षा का व्यापक अर्थ-मानवता की सुरक्षा का व्यापक अर्थ लेने वाले समर्थकों का तर्क है कि खतरों की सूची में अकाल, महामारी एवं आपदाओं को शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि युद्ध, संहार एवं आतंकवाद साथ मिलकर जितने लोगों को मारते हैं, उससे कहीं अधिक लोग अकाल, महामारी एवं प्राकृतिक आपदा की भेंट चढ़ जाते हैं।

(ग) मानवता की सुरक्षा का व्यापक अर्थ-मानवता की सुरक्षा का व्यापक अर्थ में युद्ध, जनसंहार, आतंकवाद, अकाल, महामारी व प्राकृतिक आपदा से सुरक्षा के साथ-साथ आर्थिक सुरक्षा एवं मानवीय गरिमा की सुरक्षा को भी शामिल किया जा सकता है। इस प्रकार मानवता की सुरक्षा के व्यापकतम अर्थ में अभाव एवं भय से मुक्ति पर बल दिया जाता है।

2. विश्व सुरक्षा–सुरक्षा की अपारम्परिक धारणा का दूसरा पक्ष है—विश्व सुरक्षा। विश्वव्यापी खतरे, जैसे-वैश्विक तापवृद्धि, अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद, एड्स, बर्ड फ्लू जैसी महामारियों को दृष्टिगत रखकर सन् 1990 के दशक में विश्व सुरक्षा की धारणा का विकास हुआ। कोई भी देश इन समस्याओं का समाधान अकेले नहीं कर सकता। चूँकि इन समस्याओं की प्रकृति वैश्विक है। इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

प्रश्न 3.
भारत की सुरक्षा नीति के घटकों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय सुरक्षा रणनीति के घटक-विश्व में भारत एक ऐसा देश है जो पारम्परिक एवं गैरपारम्परिक दोनों तरह के खतरों का सामना कर रहा है। यह खतरे सीमा के अन्दर तथा बाहर दोनों तरफ से हैं। भारत की सुरक्षा राजनीति के चार बड़े घटक हैं तथा अलग-अलग समय में इन्हीं घटकों के आस-पास सुरक्षा की रणनीति बनाई गयी है। संक्षेप में, भारत की सुरक्षा रणनीति के इन चारों घटकों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

1. सैन्य क्षमता-पड़ोसी देशों के आक्रमण से बचने हेतु भारत को अपनी सैन्य क्षमता को और अधिक सुदृढ़ करना होगा। भारत पर पाकिस्तान ने सन् 1947-48, 1965, 1971 तथा 1999 में तथा चीन ने 1962 में आक्रमण किया था। दक्षिण एशियाई क्षेत्र में भारत के चारों तरफ परमाणु शक्ति सम्पन्न देश हैं। अतः हमने सन् 1974 तथा 1998 में परमाणु परीक्षण किए थे।

2. अन्तर्राष्ट्रीय नियमों तथा संस्थाओं को मजबूत करना-हमारे देश ने अपने सुरक्षा हितों को बचाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय नियमों तथा संस्थाओं को शक्तिशाली करने में अपना सहयोग प्रदान किया है। प्रथम भारतीय प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू द्वारा एशियाई एकता, औपनिवेशीकरण तथा निःशस्त्रीकरण के प्रयासों का भरपूर समर्थन किया गया। हमारे देश ने जहाँ संयुक्त राष्ट्र संघ को अन्तिम पंच मानने पर बल दिया वहीं नवीन अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की भी पुरजोर माँग उठायी। उल्लेखनीय है कि हमने दो गुटों की खेमेबाजी से अलग . रहते हुए गुटनिरपेक्षता के रूप में विश्व के समक्ष तीसरे विकल्प को खोला।

3. देश की आन्तरिक सुरक्षा तथा समस्याएँ-भारतीय सुरक्षा रणनीति का तीसरा महत्त्वपूर्ण घटक देश की आन्तरिक सुरक्षा समस्याओं से कारगर तरीके से निपटने की तैयारी है। नागालैण्ड, मिजोरम, पंजाब तथा कश्मीर आदि भारतीय संघ की इकाइयों में अलगाववादी संगठन सक्रिय रहे हैं। इस बात को दृष्टिगत रखते हुए हमारे देश ने राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने का भरसक प्रयास किया। भारत ने राजनीतिक तथा लोकतान्त्रिक व्यवस्था का पालन किया है। देश में सभी समुदायों के लोगों तथा जन-समूहों को अपनी शिकायतें रखने का पर्याप्त अवसर दिया जाता है।

4. गरीबी तथा अभाव से छुटकारा-हमारे देश ने ऐसी व्यवस्थाएँ करने का प्रयास किया है जिससे बहुसंख्यक नागरिकों को गरीबी तथा अभाव से छुटकारा मिल सके और समाज से आर्थिक असमानता समाप्त हो सके।

वैश्वीकरण तथा उदारीकरण के युग में भी अर्थव्यवस्था का इस तरह निर्देशन जरूरी है कि गरीबी, बेरोजगारी तथा असमानता की समस्याओं को शीघ्र हल किया जा सके।

अन्त में, संक्षेप में कहा जा सकता है कि भारत की सुरक्षा नीति व्यापक स्तर पर सुरक्षा की नवीन तथा प्राचीन चुनौतियों को दृष्टिगत रखते हुए निर्मित की जा रही है।

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प्रश्न 4.
सुरक्षा की अपारम्परिक धारणा में खतरों के प्रमुख नए स्रोतों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सुरक्षा की अपारम्परिक धारणा के सन्दर्भ में खतरों की बदलती प्रकृति पर जोर दिया जाता है। ऐसे खतरों के प्रमुख नए स्रोत निम्नलिखित हैं जिन्हें मानवीय सुरक्षा से सम्बन्धित मुद्दे भी कह सकते हैं-

1. अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद-आतंकवाद से आशय राजनीतिक खून-खराबे से है जो जान-बूझकर और बिना किसी दयाभाव के नागरिकों को अपना निशाना बनाता है। जब आतंकवाद एक से अधिक देशों में व्याप्त हो जाता है तो उसे ‘अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद’ कहते हैं। इसके निशाने पर कई देशों के नागरिक हैं। आतंकवाद के चिरपरिचित उदाहरण हैं-
विमान अपहरण, भीड़ भरी जगहों पर बम लगाना। आतंकवाद की अधिकांश घटनाएँ मध्य पूर्व, यूरोप, लैटिन अमेरिका एवं दक्षिण एशिया में हुई हैं।

2. मानवाधिकारों का हनन-1990 के दशक की कुछ घटनाओं—रवाण्डा में जनसंहार, कुवैत पर इराक का हमला एवं पूर्वी तिमूर में इण्डोनेशियाई सेना के रक्तपात के कारण बहस चल पड़ी कि संयुक्त राष्ट्र संघ को मानवाधिकारों के हनन की स्थिति में हस्तक्षेप करना चाहिए या नहीं। यह अभी तक विवाद का विषय बना हुआ है। क्योंकि कुछ देशों का तर्क है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ताकतवर देशों के हितों के हिसाब से ही यह निर्धारित करेगा कि किस मामले में मानवाधिकार के विरोध में कार्रवाई की जाए और किस मामले में नहीं की जाए।

3. वैश्विक निर्धनता-वैश्विक निर्धनता खतरे का एक प्रमुख स्रोत है। अनुमान है कि आगामी 50 वर्षों के विश्व के सबसे निर्धन देशों में जनसंख्या तीन गुना बढ़ेगी, जबकि इसी अवधि में अनेक धनी देशों की जनसंख्या घटेगी। प्रति व्यक्ति निम्न आय एवं जनसंख्या की तीव्र वृद्धि एक साथ मिलकर निर्धन देशों को और अधिक गरीब बनाती है।

4. आर्थिक असमानता–विश्व स्तर पर आर्थिक असमानता उत्तरी गोलार्द्ध के देशों को दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों से अलग करती है। दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों में आर्थिक असमानता में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। अफ्रीका के सहारा मरुस्थल के दक्षिणवर्ती देश विश्व में सबसे ज्यादा निर्धन हैं।

5. अप्रवासी, शरणार्थी एवं आन्तरिक रूप से विस्थापित लोगों की समस्याएँ–दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों में मौजूद निर्धनता के कारण अधिकांश लोग अच्छे जीवन की तलाश में उत्तरी गोलार्द्ध के देशों में प्रवास कर रहे हैं। इससे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक मतभेद उठ खड़ा हुआ है। अनेक लोगों को युद्ध, प्राकृतिक आपदा अथवा राजनीतिक उत्पीड़न के कारण अपना घर-बार छोड़ने को मजबूर होना पड़ा है। ऐसे लोग यदि राष्ट्रीय सीमा के भीतर ही हैं तो उन्हें आन्तरिक रूप से विस्थापित जन कहा जाता है और यदि दूसरे देशों में हैं तो उन्हें शरणार्थी कहा जाता है। इन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

6. महामारियाँ-एचआईवी-एड्स, बर्ड-फ्लू एवं सार्स जैसी महामारियाँ, आप्रवास, व्यवसाय, पर्यटन एवं सैन्य अभियोजनों के माध्यम से तीव्र गति से विश्व के विभिन्न देशों में फैली हैं। इन बीमारियों के फैलाव को रोकने में किसी एक देश की असफलता का प्रभाव दूसरे देशों में होने वाले संक्रमण पर पड़ता है। एक अनुमान के अनुसार सन् 2003 तक विश्व में 4 करोड़ से अधिक लोग एचआईवी से संक्रमित थे। इसके अलावा आज ऐसी अनेक खतरनाक बीमारियाँ हैं जिनके बारे में कुछ अधिक जानकारी भी नहीं है। इनमें एबोला वायरस, हैन्टावायरस और हेपेटाइटिस-सी हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
परम्परागत सुरक्षा के किन्हीं चार तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
परम्परागत सुरक्षा के चार तत्त्व निम्नवत् हैं-

1. परम्परागत खतरे-सुरक्षा की पारम्परिक अवधारणा में सैन्य खतरों को किसी भी देश के लिए सर्वाधिक माना जाता है। इसका स्रोत कोई दूसरा देश होता है जो सैनिक हमले की धमकी देकर किसी देश की सम्प्रभुता, स्वतन्त्रता तथा क्षेत्रीय अखण्डता को प्रभावित करता है।

2. युद्ध-युद्ध में साधारण लोगों के जीवन पर भी खतरा मँडराता है। किसी भी युद्ध में सिर्फ सैनिक ही घायल अथवा मारे नहीं जाते, बल्कि जन-सामान्य को भी इससे भारी नुकसान पहुंचता है।

3. शक्ति सन्तुलन-परम्परागत सुरक्षा नीति का एक अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व शक्ति सन्तुलन है। कोई भी देश अपने पड़ोसी देशों की शक्ति का सही-सही आकलन करके भविष्य की नीति तैयार करता है। प्रत्येक सरकार दूसरे देशों से अपने शक्ति सन्तुलन को लेकर अत्यधिक संवेदनशील रहती है।

4. गठबन्धन करना-परम्परागत सुरक्षा नीति का एक तत्त्व गठबन्धन करना भी है। इसमें विभिन्न देश सम्मिलित होते हैं तथा सैन्य हमले को रोकने तथा उससे रक्षा करने के लिए मिल-जुलकर कदम उठाते हैं।

प्रश्न 2.
एशिया तथा अफ्रीका के नव-स्वतन्त्र देशों के समक्ष सुरक्षा की चुनौतियाँ यूरोप की चुनौतियों की तुलना में कैसे भिन्न थीं?
उत्तर:
एशिया तथा अफ्रीका के नव-स्वतन्त्र देशों के सामने सुरक्षा की चुनौतियाँ यूरोप की तुलना में निम्न प्रकार भिन्न थीं-

  1. एशिया तथा अफ्रीका के नव-स्वतन्त्र देशों का संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है, जबकि यूरोप के दो देशों को निषेधाधिकार (वीटो) का अधिकार हासिल है। इस तरह से ये देश अधिक सुरक्षित हैं।
  2. एशिया तथा अफ्रीका के देशों में औद्योगिकीकरण बाल अवस्था में है, जबकि यूरोपीय देशों में उद्योगों का चरम विकास हो चुका है। वे कच्चे माल तथा अन्य उपयोगी सामग्री के लिए एशिया तथा अफ्रीका के देशों का शोषण करने को तैयार रहते हैं।
  3. एशिया तथा अफ्रीका के देशों को अपने पड़ोसी देशों के हमलों का भय तथा देश के भीतर भी सैन्य संघर्ष और साम्प्रदायिक हिंसा बढ़ने का खतरा है। इसके विपरीत यूरोपीय देशों में ऐसा नहीं है।
  4. एशियाई तथा अफ्रीकी देशों में प्रति व्यक्ति निम्न आय है तथा जनसंख्या में तेजी से बढ़ोतरी होती चली जा रही है जबकि यूरोपीय देशों की स्थिति इसके ठीक विपरीत है।

प्रश्न 3.
आतंकवाद असैनिक स्थानों को अपना लक्ष्य क्यों चुनते हैं?
उत्तर:
आतंकवादी निम्नलिखित कारणों से असैनिक स्थानों को अपना लक्ष्य बनाते हैं-

(1) आतंकवाद अपरम्परागत श्रेणी में आता है। आतंकवाद का तात्पर्य राजनीतिक कत्ले आम है, जो जानबूझकर बिना किसी पर दयाभाव रखकर नागरिकों को अपना शिकार बनाता है। एक से अधिक देशों में व्याप्त अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद के निशाने पर कई देशों के निर्दोष नागरिक हैं।

(2) किसी राजनीतिक सन्दर्भ अथवा स्थिति के मनमुताबिक न होने पर आतंकवादी समूह उसे बल प्रयोग से या शक्ति प्रयुक्त किए जाने की धमकी देकर परिवर्तित करना चाहते हैं। जनसाधारण को डराकर आतंकित करने हेतु निर्दोष लोगों को निशाना बनाया जाता है। आतंकवाद नागरिकों के असन्तोष का प्रयोग राष्ट्रीय सरकारों या संघर्षों में सम्मिलित अन्य पक्ष के विरुद्ध करता है।

(3) आतंकवादियों का मुख्य उद्देश्य आतंक फैलाना है, अत: वे असैनिक स्थानों अर्थात् जन-साधारण को अपनी दहशतगर्दी का निशाना बनाते हैं। इससे जहाँ एक तरफ वे आतंक स्थापित करके लोगों तथा विश्व का ध्यान अपनी तरफ खींचने में सफल होते हैं तो वहीं दूसरी ओर उन्हें प्रतिरोध का सामना भी नहीं करना पड़ता। नागरिक सफलतापूर्वक उनके शिकार बन जाते हैं।

प्रश्न 4.
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ते आतंकवाद के पीछे क्या कारण हैं?
उत्तर:
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ रहे आतंकवाद के पीछे निम्नलिखित कारण हैं-

  1. तकनीक तथा सूचना प्रौद्योगिकी में तेजी से हुई प्रगति ने आतंकवादियों के दुस्साहस में अभिवृद्धि की है। यह एक प्रमुख कारण है कि जिसकी वजह से आतंकवाद आज सम्पूर्ण विश्व में अपने पैर जमा चुका है।
  2. तस्करी, जमाखोरी, वायुयानों के अपहरण तथा जहाजों को बन्धक बनाने जैसी घटनाओं के पीछे विश्व अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण है। आतंकवादियों द्वारा किसी भी देश की मुद्रा का अन्तरण करना सरल हो गया है।
  3. अत्याधुनिक हथियारों को नवीन प्रौद्योगिकी द्वारा निर्मित करके उन्हें बेचने की प्रतिस्पर्धा शीतयुद्ध दौर की शैली है। व्यापक स्तर पर उन्माद जाग्रत करके आतंकवाद की खूनी होली खेलने के हथियारों को बनाने वाली कम्पनियाँ, सरकार तथा व्यापारी समान रूप से उत्तरदायी हैं।
  4. स्वत:चलित यानों ने भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद को प्रोत्साहन दिया है।

प्रश्न 5.
युद्ध के अतिरिक्त मानव सुरक्षा के किन्हीं अन्य चार खतरों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
युद्ध के अतिरिक्त मानव सुरक्षा के अन्य चार खतरे निम्नवत् हैं-

1. वैश्विक ताप वृद्धि–वर्तमान विश्व में वैश्विक ताप वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) सम्पूर्ण मानव जाति हेतु एक गम्भीर खतरा है।

2. शरणार्थी समस्या दक्षिणी गोलार्द्ध के विभिन्न देशों में सशस्त्र संघर्ष तथा युद्ध की वजह से लाखों लोग शरणार्थी बने और सुरक्षित ठिकानों की तलाश में विभिन्न देशों में आसरा लिया।

3. अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद-आतंकवादी जान-बूझकर निर्दोष लोगों को अपना शिकार बनाते हैं तथा सम्बन्धित देश में आतंक का खतरा उत्पन्न करते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद एक से अधिक देशों में व्याप्त है तथा इसके खूनी निशाने पर विश्व के अनेक देशों के नागरिक हैं। विमान अपहरण अथवा भीड़-भरे स्थानों; जैसे-रेलगाड़ी, बस-स्टैण्ड, होटल, मॉल्स, बाजार अथवा ऐसे ही अन्य स्थानों पर विस्फोटक पदार्थ लगाना इत्यादि आतंकवाद के चिर-परिचित उदाहरण हैं।

4. प्रदूषण अथवा पर्यावरण क्षरण-पर्यावरण में हो रहे क्षरण से विश्व की सुरक्षा के समक्ष एक गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया है। वनों की बेतहाशा कटाई ने पर्यावरण एवं प्राकृतिक सन्तुलन को गम्भीर क्षति पहुँचाई है। जल, वायु, मृदा तथा ध्वनि प्रदूषण की वजह से मानव के सामान्य जीवन तथा शान्त वातावरण हेतु खतरा उत्पन्न हो गया है।

प्रश्न 6.
युद्ध की पारम्परिक धारणा में विश्वास बहाली के उपायों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
सुरक्षा की पारम्परिक धारणा में विश्वास बहाली के प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं-

  1. विश्वास बहाली के दोनों देशों के मध्य हिंसा को कम किया जा सकता है।
  2. विश्वास बहाली की प्रक्रिया में सैन्य टकराव एवं प्रतिद्वन्द्विता वाले देशों के बीच सूचनाओं एवं विचारों का सीमित आदान-प्रदान किया जाता है।
  3. दोनों देश एक-दूसरे को अपनी सैन्य सामग्री एवं सैन्य योजनाओं की जानकारी प्रदान करते हैं। ऐसा करके दोनों देश अपने प्रतिद्वन्द्वी को इस बात का विश्वास दिलाते हैं कि वे अपनी तरफ से हमले की कोई योजना नहीं बना रहे हैं।

प्रश्न 7.
मानवाधिकारों के हनन की स्थिति में क्या संयुक्त राष्ट्र संघ को हस्तक्षेप करना चाहिए? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
मानवाधिकारों के हनन की स्थिति में संयुक्त राष्ट्र संघ को हस्तक्षेप करना चाहिए या नहीं। इस सम्बन्ध में बहस हो रही है-

(1) कुछ लोगों का तर्क है कि संयुक्त राष्ट्र संघ का घोषणा-पत्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को अधिकार देता है कि यह मानवाधिकारों की रक्षा के लिए हथियार उठाए अर्थात् संयुक्त राष्ट्र संघ को इस क्षेत्र में हस्तक्षेप करना चाहिए।

(2) कुछ देशों का तर्क है कि यह सम्भव है कि शक्तिशाली देशों के हितों से यह निर्धारित होता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार उल्लंघन के किस मामले में कार्यवाही करेगा और किसमें नहीं? इससे शक्तिशाली देशों को मानवाधिकार के बहाने उसके अन्दरूनी मामलों में हस्तक्षेप करने का सरल रास्ता मिल जाएगा।

प्रश्न 8.
सहयोग मूलक सुरक्षा में भी बल प्रयोग की अनुमति कब दी जा सकती है?
उत्तर:
सहयोग मूलक सुरक्षा में भी अन्तिम उपाय के रूप में बल प्रयोग किया जा सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय उन सरकारों से निपटने के लिए बल प्रयोग की अनुमति दे सकती है जो अपनी ही जनता पर अत्याचार कर रही हो अथवा निर्धनता, महामारी एवं प्रलयकारी घटनाओं की मार झेल रही जनता के दुःख-दर्द की उपेक्षा कर रही हो।

ऐसी स्थिति में किसी एक देश द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय एवं स्वयंसेवी संगठनों आदि की इच्छा के विरुद्ध बल प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए बल्कि सामूहिक स्वीकृति से तथा सामूहिक रूप से सम्बन्धित घटना के लिए जिम्मेदार देश पर बल प्रयोग किया जाना चाहिए।

अतिलघ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
सुरक्षा की पारम्परिक धारणा से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
बाहरी सुरक्षा की पारम्परिक धारणा से आशय राष्ट्रीय सुरक्षा की धारणा से है। इसमें सैन्य खतरे को किसी देश के लिए सर्वाधिक घातक माना जाता है। इस खतरे का स्रोत कोई दूसरा देश होता है, जो सैन्य हमले की धमकी देकर सम्प्रभुता, स्वतन्त्रता तथा क्षेत्रीय अखण्डता को प्रभावित करता है। सैन्य कार्रवाई से जनसाधारण का जीवन भी प्रभावित होता है।

प्रश्न 2.
बुनियादी तौर से किसी सरकार के पास युद्ध की स्थिति में सुरक्षा के कितने विकल्प होते हैं। संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
बुनियादी रूप से किसी सरकार के पास युद्ध की स्थिति में सुरक्षा के तीन विकल्प होते हैं-

  1. आत्मसमर्पण करना एवं दूसरे पक्ष की बात को बिना युद्ध किए मान लेना, अथवा
  2. युद्ध से होने वाले विनाश को इस हद तक बढ़ाने का संकेत देना कि दूसरा पक्ष सहमकर हमला करने से रुक जाए, अथवा
  3. यदि युद्ध ठन जाए जो अपनी रक्षा करना या हमलावर को पराजित कर देना।

प्रश्न 3.
शक्ति सन्तुलन को कैसे बनाए रखा जा सकता है?
उत्तर:
परम्परागत सुरक्षा नीति का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व शक्ति सन्तुलन है। शक्ति सन्तुलन को बनाए रखने के लिए सैन्य शक्ति को बढ़ाना अति आवश्यक है लेकिन आर्थिक एवं प्रौद्योगिकी विकास भी महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि सैन्य शक्ति का यही आधार है। प्रत्येक सरकार दूसरे देशों से अपने शक्ति सन्तुलन को लेकर अत्यन्त संवेदनशील रहती है।

प्रश्न 4.
बाहरी सुरक्षा गठबन्धन बनाने के क्या उपाय हैं?
उत्तर:
गठबन्धन पारम्परिक सुरक्षा नीति का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। एक गठबन्धन में कई देश शामिल होते हैं और सैन्य हमले को रोकने अथवा उससे रक्षा करने के लिए समवेत कदम उठाते हैं। अधिकांश गठबन्धनों को लिखित नियमों एवं उपनियमों द्वारा एक औपचारिक रूप दिया जाता है। कोई भी देश गठबन्धन प्राय: अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए करता है। गठबन्धन राष्ट्रीय हितों पर आधारित होते हैं एवं राष्ट्रीय हितों के बदलने पर गठबन्धन भी बदल जाते हैं।

प्रश्न 5.
“राष्ट्रीय हितों के बदलने पर गठबन्धन भी बदल जाते हैं।” एक उदाहरण देकर कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गठबन्धन राष्ट्रीय हितों पर आधारित होते हैं और राष्ट्रीय हितों के बदलने पर गठबन्धन भी बदल जाते हैं। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका ने 1980 के दशक में तत्कालीन सोवियत संघ के विरुद्ध इस्लामी उग्रवादियों को समर्थन दिया, लेकिन ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व में अलकायदा नामक समूह के आतंकवादियों ने जब 11 सितम्बर, 2001 के दिन उस पर ही हमला कर दिया तो उसने इस्लामी उग्रवादियों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया।

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प्रश्न 6.
सुरक्षा की परम्परागत तथा गैर-परम्परागत अवधारणाओं में क्या अन्तर अथवा भेद होता है?
उत्तर:
सुरक्षा की परम्परागत अवधारणा के अनुसार सिर्फ भूखण्ड तथा उसमें रहने वालों की सम्पदा और जानमाल की रक्षा करना, सशस्त्र सैन्य हमलों को रोकना भी है, जबकि गैर-परम्परागत अवधारणा में भू-भाग, प्राणियों तथा सम्पत्ति की सुरक्षा के साथ-साथ पर्यावरण एवं मानवाधिकारों इत्यादि की सुरक्षा भी शामिल है।

प्रश्न 7.
एशिया और अफ्रीका के नव-स्वतन्त्र देशों के समक्ष खड़ी सुरक्षा की चुनौतियाँ यूरोपीय देशों के मुकाबले किन-किन मायनों में विशिष्ट थीं?
उत्तर:

  1. एशिया और अफ्रीका के नव-स्वतन्त्र देशों को आन्तरिक एवं बाहरी दोनों प्रकार के खतरों का सामना करना पड़ रहा है, जबकि यूरोप के देशों को केवल बाहरी खतरों का सामना करना पड़ रहा है।
  2. एशिया और अफ्रीका के नव-स्वतन्त्र देशों को गरीबी व बेरोजगारी का सामना करना पड़ रहा है, जबकि यूरोप के देशों को संस्कृति एवं सभ्यता के पतन का सामना करना पड़ रहा है।

प्रश्न 8.
जैविक हथियार सन्धि (बीडब्ल्यू०सी०) 1972 द्वारा क्या निर्णय लिया गया?
उत्तर:
सन् 1972 की जैविक हथियार सन्धि (बायोलॉजिकल वीपन्स कन्वेंशन-बी०डब्ल्यू०सी०) द्वारा जैविक हथियारों का निर्माण करना तथा उन्हें रखना प्रतिबन्धित कर दिया गया। यह सन्धि लगभग 155 से अधिक देशों द्वारा हस्ताक्षरित की गई थी। इसको हस्ताक्षरित करने वालों में विश्व की सभी महाशक्तियाँ भी शामिल थीं।

प्रश्न 9.
सुरक्षा के पारम्परिक तरीके के रूप में अस्त्र नियन्त्रण को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सुरक्षा के पारम्परिक तरीके के रूप में अस्त्र नियन्त्रण में हथियारों के सम्बन्ध में कुछ नियम व कानूनों का पालन करना पड़ता है। उदाहरण के रूप में, सन् 1972 की एंटी बैलेस्टिक मिसाइल सन्धि (ABM) ने संयुक्त राज्य अमेरिका एवं सोवियत संघ को बैलेस्टिक मिसाइलों के रक्षा कवच के रूप में उन्हें उपयोग करने से रोका। ऐसे प्रक्षेपास्त्रों से हमले की शुरुआत की जा सकती थी।

प्रश्न 10.
सुरक्षा की अपारम्परिक धारणा को मानवता की सुरक्षा अथवा विश्व रक्षा क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
सुरक्षा की अपारम्परिक धारणा के विषय में यह कहा जाता है कि केवल राज्यों को ही सुरक्षा की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि सम्पूर्ण मानवता को सुरक्षा की आवश्यकता होती है। इस कारण सुरक्षा की अपारम्परिक धारणा को मानवता की सुरक्षा अथवा विश्व रक्षा कहा जाता है।

प्रश्न 11.
मानवीय सुरक्षा का अभिप्राय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मानवीय सुरक्षा का अभिप्राय है कि देश की सरकार को अपने नागरिकों की सुरक्षा अपने राज्य अथवा भू-भाग की सुरक्षा से बढ़कर मानना है। मानवता की सुरक्षा तथा राज्य की सुरक्षा परस्पर पूरक हैं। सुरक्षित राज्य का अभिप्राय सुरक्षित जनता नहीं होता है। देश के नागरिकों को विदेशी हमलों से बचाना सुरक्षा की गारण्टी नहीं है।

प्रश्न 12.
‘आन्तरिक रूप से विस्थापित जन’ से क्या तात्पर्य है? उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
आन्तरिक रूप से विस्थापित जन उन्हें कहा जाता है जो अकेले राजनीतिक उत्पीड़न, जातीय हिंसा आदि किसी कारण से अपने मूल निवास से तो विस्थापित हो चुके हों परन्तु उन्होंने उसी देश में किसी अन्य भाग पर शरणार्थी के रूप में रहना प्रारम्भ कर दिया है।
उदाहरण के रूप में, 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों में हिंसा से बचने के लिए कश्मीर घाटी छोड़ने वाले कश्मीरी पण्डित आन्तरिक रूप से विस्थापित जन माने जाते हैं।

प्रश्न 13.
भारत ने अपने सुरक्षा हितों को बचाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों एवं संस्थाओं को किस प्रकार मजबूत किया?
उत्तर:
भारत ने अपने सुरक्षा हितों को बचाने के लिए एशियाई एकता अनौपनिवेशीकरण एवं निःशस्त्रीकरण के प्रयासों की हिमायत की। भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों में संयुक्त राष्ट्र संघ को अन्तिम पंच मानने पर जोर दिया। भारत ने परमाणु हथियारों के अप्रसार के सम्बन्ध में एक सार्वभौम व बिना भेदभाव वाली नीति बनाने पर बल दिया तथा गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को बढ़ावा दिया।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
एंटी बैलेस्टिक मिसाइल सन्धि (ABM) किस वर्ष हुई-
(a) 1975 में
(b) 1978 में
(c) 1976 में
(d) 1972 में।
उत्तर:
(d) 1972 में।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कौन-सी सन्धि अस्त्र-नियन्त्रण सन्धि थी
(a) अस्त्र परिसीमन सन्धि-2 (SALT-II)
(b) सामरिक अस्त्र न्यूनीकरण सन्धि (स्ट्रेटजिक आंसर रिडक्शन ट्रीटी-SART)
(c) परमाणु अप्रसार सन्धि
(d) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 3.
व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि कब हुई-
(a) 1990 में
(b) 1992 में
(c) 1996 में
(d) 1998 में।
उत्तर:
(c) 1996 में।

प्रश्न 4.
आंशिक परमाणु प्रतिबन्ध सन्धि कब हुई-
(a) 1963 में
(b) 1965 में
(c) 1968 में
(d) 1970 में।
उत्तर:
(a) 1963 में।

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प्रश्न 5. परमाणु अप्रसार सन्धि कब की गई
(a) 1968 में
(b) 1970 में
(c) 1972 में
(d) 1975 में।
उत्तर:
(a) 1968 में।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से किस सन्धि ने सोवियत संघ को बैलेस्टिक मिसाइलों के रक्षा कवच के रूप में इस्तेमाल करने से रोका-
(a) जैविक हथियार सन्धि
(b) एंटी बैलेस्टिक मिसाइल सन्धि
(c) रासायनिक हथियार सन्धि
(d) परमाणु अप्रसार सन्धि।
उत्तर:
(b) एंटी बैलेस्टिक मिसाइल सन्धि।

प्रश्न 7.
भारत ने पहला परमाणु परीक्षण किया-
(a) 1974 में
(b) 1975 में
(c) 1978 में
(d) 1980 में।
उत्तर:
(a) 1974 में।

प्रश्न 8.
सुरक्षा का बुनियादी अर्थ है-
(a) खतरे से आजादी
(b) गठबन्धन
(c) नि:शस्त्रीकरण
(d) आत्मसमर्पण।
उत्तर:
(a) खतरे से आजादी।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 4 India’s External Relations

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 4 India’s External Relations (भारत के विदेश संबंद)

UP Board Class 12 Civics Chapter 4 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 4 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
इन बयानों के आगे सही या गलत का निशान लगाएँ
(क) गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने के कारण भारत, सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका, दोनों की सहायता हासिल कर सका।
(ख) अपने पड़ोसी देशों के साथ भारत के सम्बन्ध शुरुआत से ही तनावपूर्ण रहे।
(ग) शीतयुद्ध का असर भारत-पाक सम्बन्धों पर भी पड़ा।
(घ) 1971 की शान्ति और मैत्री की सन्धि संयुक्त राज्य अमेरिका से भारत की निकटता का परिणाम थी। उत्तर:
(क) सही,
(ख) गलत,
(ग) सही,
(घ) गलत।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित का सही जोड़ा मिलाएँ-
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 4 India’s External Relations 3
उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 4 India’s External Relations 4

प्रश्न 3.
नेहरू विदेश नीति के संचालन को स्वतन्त्रता का एक अनिवार्य संकेत क्यों मानते थे? अपने उत्तर में दो कारण बताएँ और उनके पक्ष में उदाहरण भी दें।
उत्तर:
नेहरू विदेश नीति के संचालन को स्वतन्त्रता का एक अनिवार्य संकेत इसलिए मानते थे कि स्वतन्त्रता किसी भी देश की विदेश नीति के संचालन की प्रथम एवं अनिवार्य शर्त है। स्वतन्त्रता से तात्पर्य है राष्ट्र के पास प्रभुसत्ता का होना तथा प्रभुसत्ता के दो पक्ष हैं-

  1. आन्तरिक सम्प्रभुता, और
  2. बाह्य सम्प्रभुता।

आन्तरिक प्रभुसत्ता (सम्प्रभुता) उसे कहा जाता है जब कोई राष्ट्र बिना किसी बाह्य तथा आन्तरिक दबाव के अपनी राष्ट्रीय नीतियों, कानूनों का निर्धारण स्वतन्त्रतापूर्वक कर सके और बाह्य प्रभुसत्ता (सम्प्रभुता) उसे कहते हैं जब कोई राष्ट्र अपनी विदेश नीति को स्वतन्त्रतापूर्वक बिना किसी दबाव के निर्धारित कर सके। एक पराधीन देश अपनी विदेश नीति का संचालन स्वतन्त्रतापूर्वक नहीं कर सकता क्योंकि वह दूसरे देशों के अधीन होता है।

दो कारण और उदाहरण

(1) जो देश किसी दबाव में आकर अपनी विदेश नीति का निर्धारण करता है तो उसकी स्वतन्त्रता निरर्थक होती है तथा एक प्रकार से दूसरे देश के अधीन हो जाता है व उसे अनेक बार अपने राष्ट्रीय हितों की भी अनदेखी करनी पड़ती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर नेहरू ने शीतयुद्ध काल में किसी भी गुट में शामिल न होने और असंलग्नता की नीति को अपनाकर दोनों गुटों के दबाव को नहीं माना।

(2) भारत स्वतन्त्र नीति को इसलिए अनिवार्य मानता था ताकि देश में लोकतन्त्र, कल्याणकारी राज्य के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उपनिवेशवाद, जातीय भेदभाव, रंग-भेदभाव का मुकाबला डटकर किया जा सके। भारत ने सन् 1949 में साम्यवादी चीन को मान्यता प्रदान की तथा सुरक्षा परिषद् में उसकी सदस्यता का समर्थन किया और सोवियत संघ ने हंगरी पर जब आक्रमण किया तो उसकी निन्दा की।

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प्रश्न 4.
“विदेश नीति का निर्धारण घरेलू जरूरत और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में दोहरे दबाव में होता है।” 1960 के दशक में भारत द्वारा अपनाई गई विदेश नीति से एक उदाहरण देते हुए अपने उत्तर की पुष्टि करें।
उत्तर:
जिस तरह किसी व्यक्ति या परिवार के व्यवहारों को अन्दरूनी और बाहरी कारक निर्देशित करते हैं उसी तरह एक देश की विदेश नीति पर भी घरेलू और अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण का असर पड़ता है। विकासशील देशों के पास अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के भीतर अपने सरोकारों को पूरा करने के लिए जरूरी संसाधनों का अभाव होता है। इसके चलते वे बढे-चढे देशों की अपेक्षा बड़े सीधे-सादे लक्ष्यों को लेकर अपनी विदेश नीति तय करते हैं। ऐसे देशों का जोर इस बात पर होता है कि उनके पड़ोस में अमन-चैन कायम रहे और विकास होता रहे।

भारत ने 1960 के दशक में जो विदेश नीति निर्धारित की उस पर चीन एवं पाकिस्तान के युद्ध, अकाल, राजनीतिक परिस्थितियाँ तथा शीतयुद्ध का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। भारत द्वारा गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाना भी इसका उदाहरण माना जा सकता है। उदाहरणार्थ-तत्कालीन समय में भारत की आर्थिक स्थिति अत्यधिक दयनीय थी, इसलिए उसने शीतयुद्ध के काल में किसी भी गुट का समर्थन नहीं किया और दोनों ही गुटों से आर्थिक सहायता प्राप्त करता रहा।

प्रश्न 5.
अगर आपको भारत की विदेश नीति के बारे में फैसला लेने को कहा जाए तो आप इसकी किन बातों को बदलना चाहेंगे? ठीक इसी तरह यह भी बताएँ कि भारत की विदेश नीति के किन दो पहलुओं को आप बरकरार रखना चाहेंगे? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
भारतीय विदेश नीति में निम्नलिखित दो बदलाव लाना चाहूँगा-

  1. मैं वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति में बदलाव लाना चाहूँगा क्योंकि वर्तमान वैश्वीकरण और उदारीकरण के युग में किसी भी गुट से अलग रहना देश-हित में नहीं है।
  2. मैं, भारत की विदेश नीति में चीन एवं पाकिस्तान के साथ जिस प्रकार की नीति अपनाई जा रही है उसमें बदलाव लाना चाहूँगा, क्योंकि इसके वांछित परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं।

इसके अतिरिक्त मैं भारतीय विदेश नीति के निम्नलिखित दो पहलुओं को बरकरार रखना चाहूँगा-

  1. सी०टी०बी०टी० के बारे में वर्तमान दृष्टिकोण को और परमाणु नीति की वर्तमान नीति को जारी रखंगा।
  2. मैं संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता जारी रखते हुए विश्व बैंक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में सहयोग जारी रगा।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-
(क) भारत की परमाणु नीति।
(ख) विदेश नीति के मामले पर सर्व-सहमति।
उत्तर:
(क) भारत की परमाणु नीति-भारत ने मई 1974 और 1998 में परमाणु परीक्षण करते हुए अपनी परमाणु नीति को नई दिशा प्रदान की। इसके प्रमुख पक्ष निम्नलिखित हैं-

  1. आत्मरक्षा भारत की परमाणु नीति का प्रथम पक्ष है। भारत ने आत्मरक्षा के लिए परमाणु हथियारों का निर्माण किया, ताकि कोई अन्य देश भारत पर परमाणु हमला न कर सके।
  2. परमाणु हथियारों के प्रथम प्रयोग की मनाही भारतीय परमाणु नीति का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष है। भारत ने परमाणु हथियारों का युद्ध में पहले प्रयोग न करने की घोषणा कर रखी है।
  3. भारत परमाणु नीति एवं परमाणु हथियार बनाकर विश्व में एक शक्तिशाली राष्ट्र बनना चाहता है।
  4. भारत परमाणु हथियार बनाकर विश्व में प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहता है।
  5. परमाणु सम्पन्न राष्ट्रों की भेदभावपूर्ण नीति का विरोध करना।
  6. पड़ोसी राष्ट्रों से सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए भारत को अपनी सुरक्षा के लिए परमाणु हथियार बनाने का हक है।

(ख) विदेश नीति के मामले पर सर्व-सहमति-विदेश नीति के मामलों पर सर्व-सहमति आवश्यक है क्योंकि यदि एक देश की विदेश नीति के मामलों में सर्व-सहमति नहीं होगी, तो वह देश अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर अपना पक्ष प्रभावशाली ढंग से नहीं रख पाएगा। भारत की विदेश नीति के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं जैसे गुटनिरपेक्षता, साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का विरोध, दूसरे देशों में मित्रतापूर्ण सम्बन्ध बनाना तथा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा को बढ़ावा देना इत्यादि पर सदैव सर्व-सहमति रही है।

प्रश्न 7.
भारत की विदेश नीति का निर्माण शान्ति और सहयोग के सिद्धान्तों को आधार मानकर हुआ। लेकिन 1962-1971 की अवधि यानी महज दस सालों में भारत को तीन युद्धों का सामना करना पड़ा। क्या आपको लगता है कि यह भारत की विदेश नीति की असफलता है अथवा आप इसे अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का परिणाम मानेंगे? अपने मन्तव्य के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
भारत की विदेश नीति के निर्माण में पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने अहम भूमिका निभाई। वे प्रधानमन्त्री के साथ-साथ विदेशमन्त्री भी थे। प्रधानमन्त्री और विदेशमन्त्री के रूप में सन् 1947 से 1964 तक उन्होंने भारत की विदेश नीति की रचना तथा उसके क्रियान्वयन पर गहरा प्रभाव डाला। उनके अनुसार विदेश नीति के तीन बड़े उद्देश्य थे-

  1. कठिन संघर्ष से प्राप्त सम्प्रभुता को बनाए रखना,
  2. क्षेत्रीय अखण्डता को बनाए रखना।
  3. तेजी के साथ विकास (आर्थिक) करना। नेहरू जी उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाकर हासिल करना चाहते थे।

स्वतन्त्र भारत की विदेश नीति में शान्तिपूर्ण विश्व का सपना था और इसके लिए भारत ने गुटनिरपेक्षता का पालन किया। भारत ने इसके लिए शीतयुद्ध में उपजे तनाव को कम करने की कोशिश की तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के शान्ति-अभियानों में अपनी सेना भेजी। भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय मामलों पर स्वतन्त्र रवैया अपनाया।

दुर्भाग्यवश सन् 1962 से 1972 की अवधि में भारत को तीन युद्धों का सामना करना पड़ा जिसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ा। सन् 1962 में चीन के साथ युद्ध हुआ। सन् 1965 में भारत को पाकिस्तान के साथ युद्ध करना पड़ा तथा तीसरा युद्ध सन् 1971 में भारत-पाक के मध्य ही हुआ। वास्तव में भारत की विदेश नीति का निर्माण शान्ति और सहयोग के सिद्धान्तों को आधार मानकर हुआ लेकिन सन् 1962 से 1973 की अवधि में जिन तीन युद्धों का सामना भारत को करना पड़ा उन्हें विदेश नीति की असफलता का परिणाम नहीं कहा जा सकता। बल्कि इसे अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का परिणाम माना जा सकता है। इसके पक्ष में तर्क इस प्रकार हैं

(1) भारत की विदेश नीति शान्ति और सहयोग के आधार पर टिकी हुई है। शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के पाँच सिद्धान्तों यानी पंचशील की घोषणा भारत के प्रधानमन्त्री नेहरू और चीन के प्रमुख चाऊ एन लाई ने संयुक्त रूप से 29 अप्रैल, 1954 में की। परन्तु चीन ने विश्वासघात किया। चीन ने सन् 1956 में तिब्बत पर कब्जा कर लिया। इससे भारत और चीन के बीच ऐतिहासिक रूप से जो एक मध्यवर्ती राज्य बना चला आ रहा था, वह खत्म हो गया। तिब्बत के धार्मिक नेता दलाई लामा ने भारत से राजनीतिक शरण माँगी और सन् 1959 में भारत ने उन्हें ‘शरण दी। चीन ने आरोप लगाया कि भारत सरकार अन्दरूनी तौर पर चीन विरोधी गतिविधियों को हवा दे रही है। चीन ने अक्टूबर 1962 में बड़ी तेजी से तथा व्यापक स्तर पर भारत पर हमला किया।

(2) कश्मीर मामले पर पाकिस्तान के साथ बँटवारे के तुरन्त बाद ही संघर्ष छिड़ गया था। दोनों देशों के बीच सन् 1965 में कहीं ज्यादा गम्भीर किस्म के सैन्य-संघर्ष की शुरुआत हुई। परन्तु उस समय लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व में भारत सरकार की विदेश नीति असफल नहीं हुई। भारतीय प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के जनरल अयूब खान के बीच सन् 1966 में ताशकन्द-समझौता हुआ। सोवियत संघ ने इसमें मध्यस्थ की भूमिका निभाई। इस प्रकार उस महान नेता की आन्तरिक नीति के साथ-साथ भारत की विदेश नीति की धाक भी जमी।

(3) बंगलादेश के मामले पर सन् 1971 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने एक सफल कूटनीतिज्ञ की भूमिका में बंगलादेश का समर्थन किया तथा एक शत्रु देश की कमर स्थायी रूप से तोड़कर यह सिद्ध किया कि युद्ध में सब जायज है तथा “हम पाकिस्तान के बड़े भाई हैं’ ऐसे आदर्शवादी नारों का व्यावहारिक तौर पर कोई स्थान नहीं है।

(4) विदेशी सम्बन्ध राष्ट्र हितों पर टिके होते हैं। राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। ऐसा भी नहीं है कि हमेशा आदर्शों का ही ढिंढोरा पीटा जाए। हम परमाणु शक्ति-सम्पन्न हैं, सुरक्षा परिषद् में स्थायी स्थान प्राप्त करेंगे तथा राष्ट्र की एकता व अखण्डता, भू-भाग, आत्म-सम्मान व यहाँ के लोगों के जान-माल की रक्षा भी करेंगे। वर्तमान परिस्थितियाँ इस प्रकार की हैं कि हमें समानता से हर मंच व हर स्थान पर अपनी बात कहनी होगी तथा यथासम्भव अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति, सुरक्षा, सहयोग व प्रेम को बनाए रखने का प्रयास भी करना होगा।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सन् 1962-1972 के बीच तीन युद्ध भारत की विदेश नीति की असफलता नहीं बल्कि तत्कालीन परिस्थितियों का ही परिणाम थे।

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प्रश्न 8.
क्या भारत की विदेश नीति से यह झलकता है कि भारत क्षेत्रीय स्तर की महाशक्ति बनना चाहता है? 1971 के बंगलादेश युद्ध के सन्दर्भ में इस प्रश्न पर विचार करें।
उत्तर:
भारत की विदेश नीति से यह बिल्कुल भी नहीं झलकता है कि भारत क्षेत्रीय स्तर की महाशक्ति बनना चाहता है। सन् 1971 का बंगलादेश युद्ध इस बात को बिल्कुल साबित नहीं करता। बंगलादेश के निर्माण के लिए स्वयं पाकिस्तान की पूर्वी पाकिस्तान के प्रति उपेक्षापूर्ण नीतियाँ थीं। भारत एक शान्तिप्रिय देश है। वह शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीतियों में विश्वास करता आया है।

भारत द्वारा सन् 1971 में बंगलादेश के मामले में हस्तक्षेप-अवामी लीग के अध्यक्ष शेख मुजीबुर्रहमान थे तथा सन् 1970 के चुनाव में उनके दल को बड़ी सफलता प्राप्त हुई। चुनाव परिणामों के आधार पर संविधान सभा की बैठक बुलाई जानी चाहिए थी, जिसमें मुजीब के दल को बहुमत प्राप्त था। शेख मुजीब को बन्दी बना लिया गया। उसके साथ ही अवामी लीग के और नेताओं को भी बन्दी बना लिया गया। पाकिस्तानी ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर जुल्म ढाए तथा बड़ी संख्या में वध किए गए। जनता ने सरकार के खिलाफ आवाज उठाई तथा पाकिस्तान से अलग होकर स्वतन्त्र राज्य बनाने की घोषणा की तथा आन्दोलन चलाया गया। सेना ने अपना दमन चक्र और तेज कर दिया। इस जुल्म से बचने के लिए लाखों व्यक्ति पूर्वी पाकिस्तान को छोड़कर भारत आ गए। भारत के लिए इन शरणार्थियों को सँभालना कठिन हो गया। भारत ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के प्रति नैतिक सहानुभूति दिखाई तथा उसकी आर्थिक सहायता भी की। पाकिस्तान ने भारत पर आरोप लगाया कि वह उसके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करता है। पाकिस्तान ने पश्चिमी सीमा पर आक्रमण कर दिया। भारत ने दोनों तरफ पश्चिमी और पूर्वी सीमा के पार पाकिस्तान पर जवाबी हमला किया तथा दस दिन के अन्दर ही पाकिस्तान के 90,000 सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया और बंगलादेश का उद्भव हुआ।

कुछ राजनीतिज्ञों का मत है कि भारत दक्षिण एशिया क्षेत्र में महाशक्ति की भूमिका का निर्वाह करना चाहता है। वैसे इस क्षेत्र में भारत स्वाभाविक रूप से ही एक महाशक्ति है। परन्तु भारत ने क्षेत्रीय महाशक्ति बनने की आकांक्षा कभी नहीं पाली। भारत ने बंगलादेश युद्ध के समय भी पाकिस्तान को धूल चटायी लेकिन उसके बन्दी बनाए गए सैनिकों को ससम्मान रिहा किया। भारत अमेरिका जैसी महाशक्ति बनना नहीं चाहता जिसने छोटे-छोटे देशो को अपने गुट में शामिल करने के प्रयास किए तथा अपने सैन्य संगठन बनाए। यदि भारत महाशक्ति की भूमिका का निर्वाह करना चाहता तो सन् 1965 में पाकिस्तान के विजित क्षेत्रों को वापस न करता तथा सन् 1971 के युद्ध में प्राप्त किए गए क्षेत्रों पर भी अपना दावा बनाए रखता। भारत बलपूर्वक किसी देश पर अपनी बात थोपने की विचारधारा नहीं रखता।

प्रश्न 9.
किसी राष्ट्र का राजनीतिक नेतृत्व किस तरह उस राष्ट्र की विदेश नीति पर असर डालता है? भारत की विदेश नीति के उदाहरण देते हुए इस प्रश्न पर विचार कीजिए।
उत्तर:
किसी भी देश की विदेश नीति के निर्धारण में उस देश के राजनीतिक नेतृत्व की विशेष भूमिका होती है। उदाहरण के लिए, भारत की विदेश नीति पर इसके महान् नेताओं के व्यक्तित्व का व्यापक प्रभाव पड़ा।
पण्डित नेहरू के विचारों से भारत की विदेश नीति पर्याप्त प्रभावित हुई। पण्डित नेहरू साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद व फासिस्टवाद के घोर विरोधी थे और वे समस्याओं का समाधान करने के लिए शान्तिपूर्ण मार्ग के समर्थक थे। वह मैत्री, सहयोग व सह-अस्तित्व के प्रबल समर्थक थे। साथ ही अन्याय का विरोध करने के लिए शक्ति प्रयोग के समर्थक थे। पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने अपने विचारों द्वारा भारत की विदेश नीति के ढाँचे को ढाला।

इसी प्रकार श्रीमती इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व व व्यक्तित्व की भी भारत की विदेश नीति पर स्पष्ट छाप दिखाई देती है। श्रीमती इन्दिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, गरीबी हटाओ का नारा दिया और रूस के साथ दीर्घ अनाक्रमण सन्धि की।

राजीव गांधी के काल में चीन, पाकिस्तान सहित अनेक देशों से सम्बन्ध सुधारने के प्रयास किए गए तथा श्रीलंका के देशद्रोहियों को दबाने में वहाँ की सरकार को सहायता देकर यह बताया कि भारत छोटे देशों की अखण्डता का सम्मान करता है।

इसी तरह अटल बिहारी वाजपेयी की विदेश नीति नेहरू जी की विदेश नीति से अलग न होकर लोगों को अधिक अच्छी लगी क्योंकि देश में परमाणु शक्ति का विकास हुआ। उन्होंने जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान का नारा दिया।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
गुटनिरपेक्षता का व्यापक अर्थ है अपने को किसी भी सैन्य गुट में शामिल नहीं करना…. इसका अर्थ होता है चीजों को यथासम्भव सैन्य दृष्टिकोण से नदेखना और इसकी कभी जरूरत आन पड़े तब भी किसी सैन्य गुट के नजरिए को अपनाने की जगह स्वतन्त्र रूप से स्थिति पर विचार करना तथा सभी देशों के साथ दोस्ताना रिश्ते कायम करना। -जवाहरलाल नेहरू
(क) नेहरू सैन्य गुटों से दूरी क्यों बनाना चाहते थे।
(ख) क्या आप मानते हैं कि भारत-सोवियत मैत्री की सन्धि से गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्तों का उल्लंघन हुआ? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।
(ग) अगर सैन्य-गुट न होते तो क्या गुटनिरपेक्षता की नीति बेमानी होती?
उत्तर:
(क) नेहरू सैन्य गुटों से दूरी बनाना चाहते थे क्योंकि वे किसी भी सैन्य गुट में शामिल न होकर एक स्वतन्त्र विदेश नीति का संचालन करना चाहते थे।
(ख) भारत-सोवियत मैत्री सन्धि से गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्तों का उल्लंघन नहीं हुआ क्योंकि इस सन्धि के पश्चात् भी भारत गुटनिरपेक्षता के मौलिक सिद्धान्तों पर कायम रहा तथा जब सोवियत संघ की सेनाएँ अफगानिस्तान में पहुँची तो भारत ने इसकी आलोचना की।
(ग) यदि विश्व में सैन्य गुट नहीं होते तो भी गुटनिरपेक्षता की प्रासंगिकता बनी रहती क्योंकि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना शान्ति एवं विकास के लिए की गई थी तथा शान्ति एवं विकास के लिए चलाया गया कोई भी आन्दोलन कभी भी अप्रासंगिक नहीं हो सकता।

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UP Board Class 12 Civics Chapter 4 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
चौथे अध्याय में एक बार फिर से जवाहरलाल नेहरू। क्या वे कोई सुपरमैन थे, या उनकी भूमिका महिमा-मण्डित कर दी गई है?
उत्तर:
जवाहरलाल नेहरू वास्तव में एक सुपरमैन की भूमिका में ही थे। उन्होंने न केवल भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी बल्कि स्वतन्त्रता के बाद भी उन्होंने राष्ट्रीय एजेण्डा तय करने में निर्णायक भूमिका निभायी। नेहरू जी प्रधानमन्त्री के साथ-साथ विदेशमन्त्री भी थे। उन्होंने भारत की विदेश नीति की रचना और उसके क्रियान्वयन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। नेहरू जी की विदेश नीति के तीन बड़े उद्देश्य थे-

  1. कठिन संघर्ष से प्राप्त सम्प्रभुता को बनाए रखना,
  2. क्षेत्रीय अखण्डता को बनाए रखना, तथा
  3. तेज रफ्तार से आर्थिक विकास करना। नेहरू जी इन उद्देश्यों को गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाकर हासिल करना चाहते थे।

इसके अलावा पण्डित नेहरू द्वारा अपनायी गई राष्ट्रवाद, अन्तर्राष्ट्रीयवाद व पंचशील की अवधारणा आज . भी भारतीय विदेश नीति के आधार स्तम्भ माने जाते हैं।

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प्रश्न 2.
हम लोग आज की बनिस्बत जब ज्यादा गरीब, कमजोर और नए थे तो शायद दुनिया में हमारी पहचान कहीं ज्यादा थी। है ना विचित्र बात?
उत्तर:
शीतयुद्ध के दौरान दुनिया दो खेमों में विभाजित हो गयी थी। इन दोनों खेमों के नेता के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ का विशिष्ट स्थान था। संयुक्त राज्य अमेरिका ने पूँजीवादी विचारधारा का प्रसार करते हुए तथा सोवियत संघ ने साम्यवादी विचारधारा का प्रसार करते हुए नवोदित विकासशील व अल्प विकसित राष्ट्रों को अपने खेमे में शामिल करने का प्रयास किया।

लेकिन भारत ने अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को बनाए रखने के लिए किसी भी खेमे में सम्मिलित न होने का निर्णय लिया और स्वतन्त्र विदेश नीति का संचालन करते हुए गुटनिरपेक्षता की नीति अपनायी। इसी कारण से भारत की दुनिया में एक विशेष पहचान थी और दुनिया के अल्पविकसित और विकासशील देशों ने भारत की इस नीति का अनुसरण भी किया।

लेकिन शीतयुद्ध के अन्त, बदलती विश्व व्यवस्था तथा वैश्वीकरण और उदारीकरण के दौर में भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति की प्रासंगिकता पर एक प्रश्न चिह्न लग गया है। आज दुनिया का कोई भी राष्ट्र अकेला रहकर अपना सर्वांगीण विकास नहीं कर सकता। यही कारण है कि आज भारत स्वयं भी इस नीति से पूर्णतया सम्बद्ध नहीं है, उसका झुकाव भी महाशक्तियों की ओर किसी-न-किसी रूप में दिखाई दे रहा है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि आज की बनिस्बत हम लोग जब ज्यादा गरीब, कमजोर और नए थे तो शायद दुनिया में हमारी पहचान ज्यादा थी।

प्रश्न 3.
“मैंने सुना है कि 1962 के युद्ध के बाद जब लता मंगेशकर ने ‘ऐ मेरे वतन के लोगों …..’ गाया तो नेहरू भरी सभा में रो पड़े थे। बड़ा अजीब लगता है यह सोचकर कि इतने बड़े लोग भी किसी भावुक लम्हे में रो पड़ते हैं।”
उत्तर:
यह बिलकुल सत्य है कि जिन लोगों में राष्ट्रवाद व देशप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई हो और उनके सामने राष्ट्र का गुण-ज्ञान किया जाए तो ऐसे लोगों का भावुक होना स्वाभाविक है। जहाँ तक पण्डित नेहरू का सवाल है, वे महान राष्ट्रवादी नेता थे। उन्होंने जीवन-पर्यन्त राष्ट्र की सेवा की। इस गीत को सुनकर उनके आँसू इसलिए छलक पड़े क्योंकि इस गीत में देश के उन शहीदों की कुर्बानी की बात कही गयी थी जिन्होंने हँसते-हँसते अपनी जान न्यौछावर कर दी थी। उन्हीं की कुर्बानी ने देश को स्वतन्त्रता दिलवायी थी।

प्रश्न 4.
“हम ऐसा क्यों कहते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ? नेता झगड़े और सेनाओं के बीच युद्ध हुआ। ज्यादातर आम नागरिकों को इनसे कुछ लेना-देना न था।”
उत्तर:
पाकिस्तान भारत का ऐसा पड़ोसी राष्ट्र है जो सबसे निकट होते हुए भी सबसे दूर है। सजातीय संस्कृति एवं ऐतिहासिक अनुभूतियों की दृष्टि से यह सबसे निकट है, लेकिन इन दोनों देशों के मध्य आपसी कटुता व संघर्ष के पीछे राजनीतिक दलों की सत्ता प्राप्ति की महत्त्वाकांक्षा सबसे अधिक जिम्मेदार है। राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति हेतु आम जनता को गुमराह करते हैं और साम्प्रदायिक दुष्प्रचार की नीति अपनाते हैं।

भारत और पाकिस्तान के सम्बन्धों में कटुता और वैमनस्य कई बार पाकिस्तान के राजनेताओं के साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से उत्पन्न हुए हैं। धार्मिक और साम्प्रदायिक वैमनस्य पाकिस्तान के शासक जान-बूझकर बनाए रखना चाहते हैं। वे साम्प्रदायिक विष को अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और संगठनों में अभिव्यक्त करते रहे हैं। इसके अलावा उत्तर-भारत-सोवियत मैत्री की सन्धि से गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्तों का उल्लंघन नहीं हुआ, क्योंकि इस सन्धि के बाद भी भारत गुटनिरपेक्षता के मौलिक सिद्धान्तों पर कायम रहा। वह वारसा गुट में शामिल नहीं हुआ था। उसे अपनी प्रतिरक्षा के लिए बढ़ रहे खतरे, अमेरिका तथा पाकिस्तान में बढ़ रही घनिष्ठता व सहायता के कारण रूस से 20 वर्षीय सन्धि की थी। उसने सन्धि के बावजूद गुटनिरपेक्षता की नीति पर अमल किया। यही कारण है कि जब सोवियत संघ की सेनाएँ अफगानिस्तान में पहुँची तो भारत ने इसकी आलोचना की।

इसलिए यह कहना कि सोवियत मैत्री सन्धि पर हस्ताक्षर करने के बाद भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति पर अमल नहीं किया, गलत है।

प्रश्न 6.
बड़ा घनचक्कर है! क्या यहाँ सारा मामला परमाणु बम बनाने का नहीं है? हम ऐसा सीधे-सीधे क्यों नहीं कहते?
उत्तर:
भारत ने सन् 1974 में परमाणु परीक्षण किया तो इसे उसने शान्तिपूर्ण परीक्षण करार दिया। भारत ने मई 1998 में परमाणु परीक्षण किए तथा यह जताया कि उसके पास सैन्य उद्देश्यों के लिए अणु शक्ति को प्रयोग में लाने की क्षमता है। इस दृष्टि से यह मामला यद्यपि परमाणु बम बनाने का ही था तथापि भारत की परमाणु नीति में सैद्धान्तिक तौर पर यह बात स्वीकार की गई है कि भारत अपनी रक्षा के लिए परमाणु हथियार रखेगा लेकिन इन हथियारों का प्रयोग ‘पहले नहीं करेगा।

UP Board Class 12 Civics Chapter 4 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 4 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारत की विदेशी नीति के प्रमुख सिद्धान्त एवं विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
एक राष्ट्र के रूप में भारत का उदय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में हुआ था। ऐसे में भारत ने अपनी विदेश नीति में अन्य सभी देशों की सम्प्रभुता का सम्मान करने तथा शान्ति कायम करके अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने का लक्ष्य सामने रखा। अत: उसने अपनी विदेश नीति को राष्ट्रीय हितों के सिद्धान्त पर आधारित किया है। भारत की विदेश नीति के मूलभूत सिद्धान्तों (विशेषताओं) का विवेचन निम्न प्रकार है-

1. गुटनिरपेक्षता की नीति–द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व दो गुटों में बँट गया था। इसमें से एक पश्चिमी देशों का गुट था तथा दूसरा साम्यवादी देशों का। दोनों महाशक्तियों ने भारत को अपने पीछे लगाने के अनेक प्रयास किए, लेकिन भारत ने दोनों ही प्रकार के सैन्य गुटों से अलग रहने का निश्चय किया और तय किया कि वह किसी भी सैन्य गठबन्धन का सदस्य नहीं बनेगा। वह स्वतन्त्र विदेश नीति अपनाएगा और प्रत्येक राष्ट्रीय महत्त्व के प्रश्न पर स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष रूप से विचार करेगा। पं० नेहरू के शब्दों में, “गुटनिरपेक्षता शान्ति का मार्ग तथा लड़ाई के बचाव का मार्ग है। इसका उद्देश्य सैन्य गुटबन्दियों से दूर रहना है।”

2. उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद का विरोध-साम्राज्यवादी देश दूसरे देशों की स्वतन्त्रता का अपहरण करके उनका शोषण करते रहते हैं। संघर्ष तथा युद्धों का सबसे बड़ा कारण साम्राज्यवाद है। भारत स्वयं साम्राज्यवादी शोषण का शिकार रहा है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के अधिकांश राष्ट्र स्वतन्त्र हो गए पर साम्राज्यवाद का अभी पूर्ण विनाश नहीं हो पाया। भारत ने एशियाई तथा अफ्रीकी देशों की स्वतन्त्रता का स्थागत किया है।

3. अन्य देशों के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध–भारत की विदेश नीति की अन्य विशेषता यह है कि भारत विश्व के अन्य देशों से अच्छे सम्बन्ध बनाने हेतु हमेशा तैयार रहता है। भारत ने न केवल मित्रतापूर्ण सम्बन्ध एशिया के देशों से ही बनाए हैं बल्कि उसने विश्व के अन्य देशों से भी सम्बन्ध बनाए हैं। भारत के नेताओं ने कई बार घोषणा भी की है कि भारत सभी देशों से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है।

4. पंचशील तथा शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व-पंचशील का अर्थ है-पाँच सिद्धान्त। ये सिद्धान्त हमारी विदेश नीति के मूल आधार हैं। इन पाँच सिद्धान्तों के लिए ‘पंचशील’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 29 अप्रैल, 1954 में किया गया था। ये ऐसे सिद्धान्त हैं कि यदि इन पर विश्व के सभी देश चलें तो विश्व में शान्ति स्थापित हो सकती है। ये पाँच सिद्धान्त अग्रलिखित हैं-

  1. एक-दूसरे की अखण्डता और प्रभुसत्ता को बनाए रखना।
  2. एक-दूसरे पर आक्रमण न करना।
  3. एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
  4. शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धान्त को मानना।
  5. आपस में समानता और मित्रता की भावना को बनाए रखना।

5. राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा-भारत शुरू से ही एक शान्तिप्रिय देश रहा है इसीलिए उसने अपनी विदेश नीति को राष्ट्रीय हितों के सिद्धान्त पर आधारित किया है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी भारत ने अपने उद्देश्य मैत्रीपूर्ण रखे हैं। इन उद्देश्यों को पूर्ण करने के लिए भारत ने संसार के समस्त देशों से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित किए हैं। इसी कारण आज भारत आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में शीघ्रता से उन्नति कर रहा है। इसके साथ-साथ वर्तमान समय में भारत के सम्बन्ध विश्व की महाशक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका तथा रूस और अन्य लगभग समस्त देशों के साथ मैत्रीपूर्ण तथा अच्छे हैं।

प्रश्न 2.
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रमुख उपलब्धियाँ बताइए।
उत्तर:
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रमुख उपलब्धियाँ निम्नलिखित हैं-

1. गुटनिरपेक्षता की नीति को मान्यता प्रारम्भ में जब गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का आरम्भ हुआ तो विश्व के विकसित व अविकसित राष्ट्रों ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया तथा इसे राजनीति के विरुद्ध एक संकल्पना का नाम दिया। अत: गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के प्रवर्तकों ने यह सोचा कि इसके विषय में राष्ट्रों को कैसे समझाया जाए एवं विश्व के राष्ट्रों से इसे कैसे मान्यता दिलवाई जाए? विश्व के दोनों राष्ट्र अमेरिका एवं सोवियत संघ कहते हैं कि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन एक छलावे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। अतः विश्व के राष्ट्रों को किसी एक गुट में अवश्य शामिल हो जाना चाहिए, परन्तु गुटनिरपेक्ष आन्दोलन अपनी नीतियों पर दृढ़ रहा।

2. शीतयुद्ध के भय को दूर करना-शीतयुद्ध के कारण अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में तनाव का वातावरण था लेकिन गुटनिरपेक्षता की नीति ने इस तनाव को शिथिलता की दशा में लाने के लिए अनेक प्रयास किए तथा इसमें सफलता प्राप्त की।

3. विश्व के संघर्षों को दूर करना–गुटनिरपेक्षता की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसने विश्व में होने वाले कुछ भयंकर संघर्षों को टाल दिया था। धीरे-धीरे उनके समाधान भी ढूँढ लिए गए। गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों में आण्विक शस्त्र के खतरों को दूर करके अन्तर्राष्ट्रीय जगत् में शान्ति व सुरक्षा को बनाने में योगदान दिया। विश्व के छोटे-छोटे विकासशील तथा विकसित राष्ट्रों को दो भागों में विभक्त होने से रोका।

गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने सर्वोच्च शक्तियों को हमेशा यही प्रेरणा दी कि “संघर्ष अपने लक्ष्य से सर्वनाश लेकर चलता है” इसलिए इससे बचकर चलने में ही विश्व का कल्याण है। इसके स्थान पर यदि सर्वोच्च शक्तियाँ विकासशील राष्ट्रों के कल्याण के लिए कुछ कार्य करती हैं तो इससे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को भी बल मिलेगा। उदाहरणार्थ-गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने कोरिया युद्ध, बर्लिन का संकट, इण्डो-चीन संघर्ष, चीनी तटवर्ती द्वीप समूह का विवाद (1955) एवं स्वेज नहर युद्ध (1956) जैसे संकटों के सम्बन्ध में निष्पक्ष तथा त्वरित समाधान के सुझाव देकर विश्व को भयंकर आग की लपटों में जाने से बचा लिया।

4. निःशस्त्रीकरण एवं शस्त्र नियन्त्रण की दिशा में भूमिका-गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के देशों ने निःशस्त्रीकरण तथा शस्त्र नियन्त्रण के लिए विश्व में अवसर तैयार किया है। यद्यपि इस क्षेत्र में गुटनिरपेक्ष देशों को तुरन्त सफलता नहीं मिली, तथापि विश्व के राष्ट्रों को यह भरोसा होने लगा कि हथियारों को बढ़ावा देने से विश्वशान्ति संकट में पड़ सकती है। यह गुटनिरपेक्षता का ही परिणाम है कि सन् 1954 में आण्विक अस्त्र के परीक्षण पर प्रतिबन्ध लग गया तथा सन् 1963 में आंशिक परीक्षण पर प्रतिबन्ध स्वीकार किए गए।

5. संयुक्त राष्ट्र संघ का सम्मान-गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने विश्व संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ का भी हमेशा सम्मान किया, साथ ही संगठन के वास्तविक रूप को रूपान्तरित करने में सहयोग किया। पहली बात तो यह है कि गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों की संख्या इतनी है कि शीतयुद्ध के वातावरण को तटस्थता की नीति के रूप में बदलाव करने में राष्ट्रों के संगठन की बात सुनी गयी। इससे छोटे राष्ट्रों पर संयुक्त राष्ट्र संघ का नियन्त्रण सरलतापूर्वक लागू हो सका था। गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के महत्त्व को बढ़ावा देने में भी सहायता दी।

6. आर्थिक सहयोग का वातावरण बनाना-गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने विकासशील राष्ट्रों के बीच अपनी विश्वसनीयता का ठोस प्रमाण दिया जिस कारण विकासशील राष्ट्रों को समय-समय पर आर्थिक सहायता प्राप्त हो सकी। कोलम्बो शिखर सम्मेलन में जो आर्थिक घोषणा-पत्र तैयार किया गया जिसमें गटनिरपेक्ष राष्ट्रों के बीच ज्यादा-से-ज्यादा आर्थिक सहयोग की स्थिति निर्मित हो सके। इस प्रकार से गुटनिरपेक्षता का आन्दोलन आर्थिक सहयोग का एक संयुक्त मोर्चा है।

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प्रश्न 3.
भारत द्वारा परमाणु नीति अपनाए जाने के प्रमुख कारणों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत ने शीतयुद्ध के दौरान गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के विकास पर बहुत अधिक बल दिया। इसके अलावा भारत नि:शस्त्रीकरण का समर्थन करता रहा लेकिन सन् 1962 में चीन से युद्ध में हार तथा सन् 1965 व 1971 में पाकिस्तान से युद्ध के बाद भारत को अपनी विदेश नीति पर सोचना पड़ा। 1970 के दशक में भारत ने प्रथम बार अनुभव किया कि अन्य राष्ट्रों की तरह उसे भी परमाणु सम्पन्न बनना चाहिए। भारत ने सन् 1974 में एवं सन् 1998 में परमाणु परीक्षण किए। वर्तमान में भारत एक परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र है। भारत द्वारा परमाणु नीति अपनाए जाने के निम्नलिखित कारण हैं-

1. आत्मनिर्भर राष्ट्र के रूप में विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाना—विश्व में जिन देशों के पास भी परमाणु हथियार उपलब्ध हैं वे सभी आत्मनिर्भर देश माने जाते हैं। भारत परमाणु नीति एवं परमाणु हथियार बनाकर एक आत्मनिर्भर राष्ट्र बनना चाहता है जिससे कि उसकी पहचान विश्व स्तर पर स्थापित हो।

2. शक्तिशाली राष्ट्र बनने की इच्छा-विश्व में जितने भी देश परमाणु शक्ति सम्पन्न हैं; वे सभी शक्तिशाली राष्ट्र माने जाते हैं। भारत भी उसी राह पर चलना चाहता है। भारत भी परमाणु नीति एवं परमाणु हथियार बनाकर विश्व में एक शक्तिशाली राष्ट्र बनना चाहता है ताकि कोई देश उस पर बुरी नजर न डाले।

3. विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त करना-सम्पूर्ण विश्व में सभी परमाणु सम्पन्न राष्ट्रों को आदर और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। भारत भी परमाणु नीति एवं परमाणु हथियार बनाकर विश्व स्तर पर अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करना चाहता है।

4. शान्तिपूर्ण कार्यों हेतु परमाणु हथियारों का उपयोग–भारत का मत है कि उसने शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु नीति को अपनाया है। भारत ने जब अपना प्रथम परमाणु परीक्षण किया तो उसे शान्तिपूर्ण परीक्षण करार दिया। भारत का मत है कि वह अणु-शक्ति को केवल शान्तिपूर्ण उद्देश्यों में प्रयोग करने की अपनी नीति के प्रति दृढ़ संकल्प है।

5. भारत द्वारा लड़े गए युद्ध-भारत ने सन् 1962 में चीन के साथ युद्ध किया तथा सन् 1965 व 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध किया। इन युद्धों में भारत को बहुत जन-धन की हानि उठानी पड़ी। अब भारत युद्धों में होने वाली अधिक हानि से बचने के लिए परमाणु हथियार प्राप्त करना चाहता है।

6. पड़ोसी देशों के पास परमाणु हथियार होना-भारत में पड़ोसी देशों चीन व पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार हैं। इन देशों के साथ भारत के युद्ध भी हो चुके हैं। अत: भारत को इन देशों से अपने को सुरक्षित महसूस करने के लिए परमाणु हथियार बनाना अति आवश्यक है।

7. न्यूनतम अवरोध की स्थिति प्राप्त करना—भारत परमाणु नीति एवं परमाणु हथियार बनाकर दूसरे देशों के आक्रमण से स्वयं को बचाने के लिए न्यूनतम अवरोध की स्थिति प्राप्त करना चाहता है। भारत ने सदैव ही विश्व समुदाय को यह आश्वस्त किया है कि वह किसी भी परिस्थिति में परमाणु हथियारों के प्रयोग की पहल नहीं करेगा। परमाणु शक्ति सम्पन्न होने के बाद आज भारत इस स्थिति में पहुंच चुका है कि कोई भी देश भारत पर हमला करने से पहले सोचेगा।

8. परमाणु सम्पन्न राष्ट्रों की भेदपूर्ण नीति-विश्व के परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों ने परमाणु अप्रसार सन्धिं एवं व्यापक परमाणु परीक्षण सन्धि को इस प्रकार लागू करना चाहा कि उनके अलावा कोई अन्य देश परमाणु हथियार का निर्माण न कर सके। भारत ने इन दोनों सन्धियों को भेदभाव मानते हुए उन पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया तथा यह घोषणा की कि वह अपनी रक्षा के लिए परमाणु हथियार रखेगा लेकिन इन हथियारों के प्रयोग की पहल नहीं करेगा। भारत की परमाणु नीति में यह बात स्पष्ट की गयी है कि भारत वैश्विक स्तर पर लागू एवं भेदभावरहित परमाणु निःशस्त्रीकरण के लिए वचनबद्ध है ताकि परमाणु हथियारों से मुक्त विश्व की रचना हो।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान में दिए गए विदेश नीति सम्बन्धी राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारत के संविधान में राजनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में केवल राज्य की आन्तरिक नीति से सम्बन्धित ही निर्देश नहीं दिए गए हैं बल्कि भारत को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर किस प्रकार की नीति अपनानी चाहिए, के बारे में भी निर्देश दिए गए हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-51 में ‘अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा के बढ़ावे’ के लिए राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों के माध्यम से कहा गया है कि राज्य-

  1. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि का,
  2. राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानपूर्ण सम्बन्धों को बनाए रखने का,
  3. संगठित लोगों से एक-दूसरे से व्यवहार में अन्तर्राष्ट्रीय विधि और सन्धि-बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाने का, और
  4. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को पारस्परिक बातचीत द्वारा निपटारे के लिए प्रोत्साहन देने का प्रयास करेगा।

प्रश्न 2.
‘शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
भारतीय विदेश नीति का सार ‘शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व’ है। शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व का अर्थ है-बिना किसी मनमुटाव के मैत्रीपूर्ण ढंग से एक देश का दूसरे देश के साथ रहना। यदि भिन्न राष्ट्र एक-दूसरे के साथ पड़ोसियों की तरह नहीं रहेंगे तो विश्व में शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती। शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व विदेश नीति का एकमात्र सिद्धान्त ही नहीं है बल्कि यह राज्यों के बीच व्यवहार का एक तरीका भी है।

भारत एशिया की महाशक्ति बनने की इच्छा नहीं रखता है तथा पंचशील और गुटनिरपेक्षता की नीति से समर्थित शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व में आस्था रखता है। पंचशील के सिद्धान्त हमारी विदेश नीति के मूलाधार हैं। पंचशील के ये सिद्धान्त ऐसे हैं कि यदि इन पर विश्व के सभी देश अमल करें तो शान्ति स्थापित हो सकती है। पंचशील के इन सिद्धान्तों में से एक प्रमुख सिद्धान्त है-“शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धान्त को मानना।” शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के पाँच सिद्धान्तों यानि पंचशील की घोषणा भारत के प्रधानमन्त्री नेहरू और चीन के प्रमुख चाऊ एन लाई ने संयुक्त रूप से 29 अप्रैल, 1954 में की।

प्रश्न 3.
भारत की विदेश नीति के प्रमुख लक्ष्यों अथवा उद्देश्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय विदेश नीति का प्रमुख लक्ष्य अथवा उद्देश्य राष्ट्रीय हितों की पूर्ति व विकास करना है। भारतीय विदेश नीति के प्रमुख लक्ष्य निम्नलिखित हैं-

  1. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा का समर्थन करना एवं पारस्परिक मतभेदों के शान्तिपूर्ण समाधान का प्रयास करना।
  2. शस्त्रों की होड़-विशेष तौर से आण्विक शस्त्रों की होड़ का विरोध करना व व्यापारिक निःशस्त्रीकरण का समर्थन करना।
  3. राष्ट्रीय सुरक्षा को बढ़ावा देना जिससे राष्ट्र की स्वतन्त्रता व अखण्डता पर मँडराने वाले हर प्रकार के खतरे को रोका जा सके।
  4. विश्वव्यापी तनाव दूर करके पारस्परिक समझौते को बढ़ावा देना तथा संघर्ष नीति व सैन्य गुटबाजी का विरोध करना।
  5. साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, नस्लवाद, पृथकतावाद एवं सैन्यवाद का विरोध करना।
  6. शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व तथा पंचशील के आदर्शों को बढ़ावा देना।
  7. विश्व के समस्त राष्ट्रों विशेष रूप से पड़ोसी राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखना।

प्रश्न 4.
भारत की विदेश नीति में गुटनिरपेक्षता का महत्त्व बताइए। भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति क्यों अपनाई है?
उत्तर:
भारत की विदेश नीति में गुटनिरपेक्षता का महत्त्व गुटनिरपेक्षता का अर्थ है कि भारत अन्तर्राष्ट्रीय विषयों के सम्बन्ध में अपनी स्वतन्त्र निर्णय लेने की नीति का पालन करता है। भारत ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद अपनी विदेश नीति में गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्त को अत्यधिक महत्त्व दिया। भारत प्रत्येक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या का समर्थन या विरोध उसमें निहित गुण और दोषों के आधार पर करता है। भारत ने यह नीति अपने देश के राजनीतिक, आर्थिक और भौगोलिक स्थितियों को देखते हुए अपनाई है। भारत की विभिन्न सरकारों ने अपनी विदेश नीति में गुटनिरपेक्षता की नीति ही अपनाई है।

भारत द्वारा गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने के कारण-

  1. किसी भी गुट के साथ मिलने तथा उसका पिछलग्गू बनने से राष्ट्र की स्वतन्त्रता कुछ अंश तक अवश्य प्रभावित होती है।
  2. भारत ने अपने को गुट संघर्ष में शामिल करने की अपेक्षा देश की आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक प्रगति की ओर ध्यान देने में अधिक लाभ समझा क्योंकि हमारे सामने अपनी प्रगति अधिक महत्त्वपूर्ण है।
  3. भारत स्वयं एक महान देश है तथा इसे अपने क्षेत्र में अपनी स्थिति को महत्त्वपूर्ण बनाने हेतु किसी बाहरी शक्ति की आवश्यकता नहीं थी।

प्रश्न 5.
गुटनिरपेक्षता की नीति किन-किन सिद्धान्तों पर आधारित है? संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाया। भारत ने यह नीति अपने देश की राजनीतिक, आर्थिक तथा भौगोलिक स्थितियों को देखते हुए अपनाई है। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को जन्म देने तथा उसको बनाए रखने में भारत की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। गुटनिरपेक्षता की नीति मुख्य रूप से निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित है-

  1. गुटनिरपेक्ष राष्ट्र दोनों गुटों से अलग रहकर अपनी स्वतन्त्र नीति अपनाते हैं और गुण-दोषों के आधार पर दोनों गुटों का समर्थन या आलोचना करते हैं।
  2. गुटनिरपेक्ष राष्ट्र सभी राष्ट्रों से मैत्री सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न करते है इन्हें तटस्थ रहने की कोई विधिवत् औपचारिक घोषणा नहीं करनी पड़ती।
  3. गुटनिरपेक्ष राष्ट्र युद्धरत किसी पक्ष से सहानुभूति अवश्य रख सकते हैं ऐसी स्थिति में वे सैन्य सहायता के स्थान पर घायलों के लिए दवाइयाँ व चिकित्सा-सुविधाएँ उपलब्ध करा सकते हैं।
  4. गुटनिरपेक्ष राष्ट्र निष्पक्ष रहते हैं, वे युद्धरत देशों को अपने क्षेत्र में युद्ध करने की अनुमति नहीं देते तथा न ही उन्हें किसी अन्य देश के साथ युद्ध करने हेतु सामरिक सुविधा प्रदान करते हैं।
  5. गुटनिरपेक्ष राष्ट्र किसी प्रकार की सैन्य सन्धि या गुप्त समझौता करके किसी भी गुटबन्दी में शामिल नहीं होते हैं।

प्रश्न 6.
भारत की विदेशी नीति की एक विशेषता के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान’ पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
आधुनिक समय में प्रत्येक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्रों के साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिए विदेश नीति निर्धारित करनी पड़ती है। सामान्य शब्दों में, विदेश नीति से अभिप्राय उस नीति से है जो एक देश द्वारा अन्य देशों के प्रति अपनाई जाती है। भारत ने भी स्वतन्त्र विदेश नीति अपनाई। इसकी अनेक विशेषताएँ हैं और उनमें से एक विशेषता है—अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का शान्तिपूर्ण समाधान। इस कार्य के सफलतापूर्वक संचालन हेतु भारत ने विश्व को पंचशील के सिद्धान्त दिए तथा हमेशा ही संयुक्त राष्ट्र संघ का समर्थन किया। समय-समय पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा किए गए शान्ति प्रयासों में भारत ने हर प्रकार की सहायता प्रदान की, जैसे-स्वेज नहर की समस्या, हिन्द-चीन का प्रश्न, वियतनाम की समस्या, कांगो की समस्या, साइप्रस की समस्या, भारत-पाकिस्तान युद्ध, ईरान-इराक युद्ध आदि अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान के लिए भारत ने भरसक प्रयास किए तथा अपने अधिकांश प्रयत्नों में सफलता प्राप्त की।

प्रश्न 7.
गुजराल सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
गुजराल सिद्धान्त-भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री इन्द्रकुमार गुजराल की विदेश नीति सम्बन्धी अवधारणा को गुजराल सिद्धान्त कहा जाता है। यह सिद्धान्त भारत के दक्षिण एशिया के छोटे पड़ोसी देशों पर ध्यान केन्द्रित करता है। यह उनसे अच्छे पड़ोसी बनने पर जोर देता है। इस सिद्धान्त की प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं-

  1. भारत के आकार और क्षमता की असमानताओं की प्रभुत्वकारी प्रवृनियों में प्रकट नहीं होने देता।
  2. एकतरफा दोस्ताना रियायतें देना।
  3. पड़ोसी देशों की माँगों तथा चिन्ताओं के प्रति संवेदनशील होना।
  4. सन्देह तथा विवाद पैदा करने वाली पहलकदमियों से बचना।
  5. विवादास्पद मुद्दों पर शान्त, लचीली नीति का अनुसरण करना।
  6. पारस्परिक व्यापार में वृद्धि करना।

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प्रश्न 8.
सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध के कारण बताइए।
उत्तर:
भारत-चीन युद्ध के कारण-सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. तिब्बत की समस्या-सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध की सबसे बड़ी समस्या तिब्बत की समस्या थी। चीन ने सदैव तिब्बत पर अपना दावा किया, जबकि भारत इस समस्या को तिब्बतवासियों की भावनाओं को ध्यान मे रखकर सुलझाना चाहता था।
  2. मानचित्र से सम्बन्धित समस्या-भारत और चीन के बीच सन् 1962 में हुए युद्ध का एक कारण दोनो देशों के बीच मानचित्र में रेखांकित भू-भाग था। चीन ने सन् 1954 में प्रकाशित अपने मानचित्र में कुछ ऐसे भाग प्रदर्शित किए जो वास्तव में भारतीय भू-भाग में थे, अत: भारत ने इस पर चीन के साथ अपना विरोध दर्ज कराया।
  3. सीमा-विवाद-भारत-चीन के बीच युद्ध का एक कारण सीमा-विवाद भी था। भारत ने सदैव मैकमोहन रेखा को स्वीकार किया, परन्तु चीन ने नहीं। सीमा-विवाद धीरे-धीरे इतना बढ़ गया कि इसने आगे चलकर युद्ध का रूप धारण कर लिया।

प्रश्न 9.
ताशकन्द समझौता कब हुआ? इसके प्रमुख प्रावधान लिखिए। .
उत्तर:
ताशकन्द समझौता-23 सितम्बर, 1965 को भारत-पाक में युद्ध विराम होने के बाद सोवियत संघ के तत्कालीन प्रधानमन्त्री कोसीगिन ने पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान एवं भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री को वार्ता के लिए ताशकन्द आमन्त्रित किया और 10 जनवरी, 1966 को ताशकन्द समझौता सम्पन्न हुआ। इस समझौते के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे-

  1. भारत एवं पाकिस्तान अच्छे पड़ोसियों की भाँति सम्बन्ध स्थापित करेंगे और विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाएँगे।
  2. दोनों देश के सैनिक युद्ध से पूर्व की ही स्थिति में चले जाएँगे। दोनों युद्ध-विराम की शर्तों का पालन करेंगे।
  3. दोनों एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।
  4. दोनों राजनीतिक सम्बन्धों को पुन: सामान्य रूप से स्थापित करेंगे।
  5. दोनों आर्थिक एवं व्यापारिक सम्बन्धों को पुन: सामान्य रूप से स्थापित करेंगे।
  6. दोनों देश सन्धि की शर्तों का पालन करने के लिए सर्वोच्च स्तर पर आपस में मिलते रहेंगे।

प्रश्न 10.
शिमला समझौता कब हुआ? इसके प्रमुख प्रावधान लिखिए।
उत्तर:
शिमला समझौता-28 जून, 1972 को श्रीमती इन्दिरा गांधी एवं जुल्फिकार अली भुट्टो के द्वारा शिमला में दोनों देशों के मध्य जो समझौता हुआ उसे शिमला समझौते के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के निम्नलिखित प्रमुख प्रावधान थे-

  1. दोनों देश सभी विवादों एवं समस्याओं के शान्तिपूर्ण समाधान के लिए सीधी वार्ता करेंगे।
  2. दोनों एक-दूसरे के विरुद्ध दुष्प्रचार नहीं करेंगे।
  3. दोनों देश सम्बन्धों को सामान्य बनाने के लिए
    • संचार सम्बन्ध फिर से स्थापित करेंगे।
    • आवागमन की सुविधाओं का विस्तार करेंगे।
    • व्यापार एवं आर्थिक सहयोग स्थापित करेंगे।
    • विज्ञान एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में आदान-प्रदान करेंगे।
  4. स्थायी शान्ति स्थापित करने हेतु हर सम्भव प्रयास किए जाएंगे।
  5. भविष्य में दोनों सरकारों के अध्यक्ष मिलते रहेंगे।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
शिमला समझौता क्या है?
उत्तर:
भारत-पाक युद्ध सन् 1971 के बाद जुलाई 1972 में शिमला में भारत की तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी और पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमन्त्री जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच एक समझौता हुआ जिस्से ‘शिमला समझौता’ कहा जाता है।

प्रश्न 2.
पंचशील के सिद्धान्तों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
29 अप्रैल, 1954 को भारत के प्रधानमन्त्री नेहरू और चीन के प्रमुख चाऊ एन लाई ने तिब्बत के सम्बन्ध में एक समझौता किया जिसे पंचशील के सिद्धान्त के रूप में जाना जाता है। ये सिद्धान्त हैं-

  1. सभी देश एक-दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता का सम्मान करें।
  2. अनाक्रमण
  3. एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
  4. परस्पर समानता तथा लाभ के आधार पर कार्य करना।
  5. शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व।

प्रश्न 3.
पण्डित नेहरू के अनुसार गुटनिरपेक्षता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
पण्डित नेहरू के अनुसार गुटनिरपेक्षता नकारात्मक तटस्थता, अप्रगतिशील अथवा उपदेशात्मक नीति नहीं है। इसका अर्थ सकारात्मक है अर्थात् जो उचित और न्यायसंगत है उसकी सहायता एवं समर्थन करना तथा जो अनुचित एवं अन्यायपूर्ण है उसकी आलोचना एवं निन्दा करना।

प्रश्न 4.
भारतीय विदेश नीति में साधनों की पवित्रता से क्या अर्थ है?
उत्तर:
भारत की विदेश नीति में साधनों की पवित्रता से तात्पर्य है-अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का समाधान करने में शान्तिपूर्ण तरीकों का समर्थन तथा हिंसात्मक एवं अनैतिक साधनों का विरोध करना। भारतीय विदेश नीति का यह तत्त्व अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को परस्पर घृणा तथा सन्देह की भावना से दूर रखना चाहता है।

प्रश्न 5.
ग्रुप चार (G-4) का संगठन क्यों किया गया?
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के लिए अपनी सशक्त दावेदारी प्रस्तुत करने के उद्देश्य से चार देशों—भारत, ब्राजील, जर्मनी व जापान ने ग्रुप चार (G-4) नामक संगठन बनाया। इन चारों देशों ने इस संगठन के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र संघ में सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के लिए एक-दूसरे का पूर्ण सहयोग करने का निर्णय लिया है।

प्रश्न 6.
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना के लिए कौन-कौन उत्तरदायी थे?
उत्तर:
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना (जन्मदाता) के रूप में भारत का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। सर्वप्रथम नेहरू जी ने इस नीति को भारत के लिए उपयुक्त समझा। इसके बाद सन् 1935 के बाण्डंग सम्मेलन के दौरान नासिर (मिस्र) एवं टीटो (यूगोस्लाविया) के साथ मिलकर इसे विश्व आन्दोलन बनाने पर सहमति प्रकट की।

प्रश्न 7.
गुटनिरपेक्ष नीति से भारत को मिलने वाले दो लाभ बताइए।
उत्तर:

  1. गुटनिरपेक्ष नीति अपनाकर ही भारत शीतयुद्ध काल में दोनों गुटों से सैन्य व आर्थिक सहायता प्राप्त करने में सफल रहा।
  2. इस नीति के कारण ही भारत को कश्मीर समस्या पर रूस का हमेशा समर्थन मिला।

प्रश्न 8.
सन् 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के क्या कारण थे?
उत्तर:
सन् 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

  1. सन् 1962 में चीन से हार जाने से पाकिस्तान ने भारत को कमजोर माना।
  2. सन् 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद नए नेतृत्व को पाकिस्तान ने कमजोर माना।
  3. पाकिस्तान में सत्ता प्राप्ति की राजनीति।
  4. 1963-64 में कश्मीर में मुस्लिम विरोधी गतिविधियाँ पाकिस्तान की विजय में सहायक होंगी।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-51 में विदेश नीति के दिए गए संवैधानिक सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए। अथवा भारतीय विदेश नीति के संवैधानिक सिद्धान्तों को सूचीबद्ध कीजिए।
उत्तर:

  1. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा में अभिवृद्धि।
  2. राष्ट्रों के बीच न्यायपूर्ण एवं सम्मानपूर्ण सम्बन्धों को बनाए रखना।
  3. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटाने का प्रयास करना।
  4. संगठित लोगों के परस्पर व्यवहारों में अन्तर्राष्ट्रीय विधि और सन्धियों के प्रति आदर की भावना रखना।

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प्रश्न 10.
भारत और चीन के मध्य तनाव के कोई दो कारण बताइए।
उत्तर:

  1. भारत और चीन में महत्त्वपूर्ण विवाद सीमा का विवाद है। चीन ने भारत की भूमि पर कब्जा कर रखा है।
  2. चीन का तिब्बत पर कब्जा और भारत द्वारा दलाई लामा को राजनीतिक शरण देना।

प्रश्न 11.
भारत व चीन के मध्य अच्छे सम्बन्ध बनाने हेतु दो सुझाव दीजिए।
उत्तर:

  1. दोनों पक्ष सीमा विवादों के निपटारे के लिए वार्ताएँ जारी रखें तथा सीमा क्षेत्र में शान्ति बनाए रखें।
  2. दोनों देशों को द्विपक्षीय व्यापार में वृद्धि करने का प्रयास करना चाहिए।

प्रश्न 12.
भारत द्वारा परमाणु नीति अपनाने के मुख्य कारण बताइए।
उत्तर:

  1. भारत परमाणु नीति एवं परमाणु हथियार बनाकर दूसरे देशों के आक्रमण से बचने के लिए न्यूनतम अवरोध की स्थिति प्राप्त करना चाहता है।
  2. भारत के दो पड़ोसी देशों चीन एवं पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार हैं और इन दोनों देशों से भारत युद्ध भी लड़ चुका है।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय विदेश नीति के जनक हैं-
(a) पण्डित जवाहरलाल नेहरू
(b) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(c) वल्लभभाई पटेल
(d) मौलाना अबुल कलाम आजाद।
उत्तर:
(a) पण्डित जवाहरलाल नेहरू।

प्रश्न 2.
भारतीय विदेश नीति किन कारकों से प्रभावित है-
(a) सांस्कृतिक कारक
(b) घरेलू कारक
(c) अन्तर्राष्ट्रीय कारक
(d) घरेलू तथा अन्तर्राष्ट्रीय कारक।
उत्त:
(d) घरेलू तथा अन्तर्राष्ट्रीय कारक।

प्रश्न 3.
बाण्डुंग सम्मेलन कब सम्पन्न हुआ-
(a) सन् 1954 में
(b) सन् 1955 में
(c) सन् 1956 में
(d) सन् 1957 में।
उत्तर:
(b) सन् 1955 में।

प्रश्न 4.
भारतीय विदेश नीति की प्रमुख विशेषता है-
(a) पंचशील
(b) सैन्य गुट
(c) गुटबन्दी
(d) उदासीनता।
उत्तर:
(a) पंचशील।

प्रश्न 5.
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के प्रणेता हैं-
(a) पं० नेहरू
(b) नासिर
(c) मार्शल टीटो
(d) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 6.
पंचशील के सिद्धान्त किसके द्वारा घोषित किए गए थे-
(a) पं० जवाहरलाल नेहरू
(b) लालबहादुर शास्त्री
(c) राजीव गांधी
(d) अटल बिहारी वाजपेयी।
उत्तर:
(a) पं० जवाहरलाल नेहरू।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 4 India’s External Relations

प्रश्न 7.
पहला परमाणु परीक्षण भारत में कब किया गया था-
(a) सन् 1971 में
(b) सन् 1974 में
(c) सन् 1978 में
(d) सन् 1980 में।
उत्तर:
(b) सन् 1974 में।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 International Organisations

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 International Organisations (अंतर्राष्ट्रीय संगठन)

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
निषेधाधिकार (वीटो) के बारे में नीचे कुछ कथन दिए गए हैं। इनमें प्रत्येक के आगे सही (✓) या गलत (✗) का चिह्न लगाएँ
(क) सुरक्षा परिषद् के सिर्फ स्थायी सदस्यों को वीटो का अधिकार है। (✓)
(ख) यह एक तरह की नकारात्मक शक्ति है। (✓)
(ग) सुरक्षा परिषद् के फैसले से असन्तुष्ट होने पर महासचिव ‘वीटो’ का प्रयोग करता है। (✗)
(घ) एक ‘वीटो’ से भी सुरक्षा परिषद् का प्रस्ताव नामंजूर हो सकता है। (✓)

प्रश्न 2.
संयुक्त राष्ट्र संघ के कामकाज के बारे में नीचे कुछ कथन दिए गए हैं। इनमें प्रत्येक के सामने (✓) या गलत (✗) का चिह्न लगाएँ-
(क) सुरक्षा और शान्ति से सम्बन्धित सभी मसलों का निपटारा सुरक्षा परिषद् में होता है। (✓)
(ख) मानवतावाद नीतियों का क्रियान्वयन विश्व भर में फैली मुख्य शाखाओं तथा एजेन्सियों के मार्फत होता है। (✓)
(ग) सुरक्षा के किसी मसले पर पाँचों स्थायी सदस्य देशों का सहमत होना उसके बारे में लिए गए फैसले के क्रियान्वयन के लिए जरूरी है। (✓)
(घ) संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के सभी सदस्य संयुक्त राष्ट्र संघ के बाकी प्रमुख अंगों और विशेष एजेन्सियों के स्वत: सदस्य हो जाते हैं। (✗)

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सा तथ्य सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता के प्रस्ताव को ज्यादा वजनदार बनाता है
(क) परमाणु क्षमता।
(ख) भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के जन्म से ही उसका सदस्य है।
(ग) भारत एशिया में है।
(घ) भारत की बढ़ती हुई आर्थिक ताकत और स्थिर राजनीतिक व्यवस्था।
उत्तर:
(घ) भारत की बढ़ती हुई आर्थिक ताकत और स्थिर राजनीतिक व्यवस्था।

प्रश्न 4.
परमाणु प्रौद्योगिकी के शान्तिपूर्ण उपयोग और उसकी सुरक्षा से सम्बद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ की एजेन्सी का नाम है
(क) संयुक्त राष्ट्र संघ निरस्त्रीकरण समिति
(ख) अन्तर्राष्ट्रीय आण्विक ऊर्जा एजेन्सी
(ग) संयुक्त राष्ट्र संघ अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा समिति
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(क) संयुक्त राष्ट्र संघ निरस्त्रीकरण समिति।

प्रश्न 5.
विश्व व्यापार संगठन निम्नलिखित में से किस संगठन का उत्तराधिकारी है-
(क) जनरल एग्रीमेण्ट ऑन ट्रेड एण्ड टैरिफ
(ख) जनरल अरेन्जमेण्ट ऑन ट्रेड एण्ड टैरिफ
(ग) विश्व स्वास्थ्य संगठन
(घ) संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम।
उत्तर:
(क) जनरल एग्रीमेण्ट ऑन ट्रेड एण्ड टैरिफ।

प्रश्न 6.
रिक्त स्थानों की पूर्ति करें-
(क) संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्य उद्देश्य ……… है।
(ख) संयुक्त राष्ट्र संघ का सबसे जाना-पहचाना पद ……… का है।
(ग) संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में ……… स्थायी और ……… अस्थायी सदस्य हैं।
(घ) ………संयुक्त राष्ट्र संघ के वर्तमान महासचिव हैं।
(च) मानवाधिकारों की रक्षा में सक्रिय दो स्वयंसेवी संगठन ……… और ……… हैं।
उत्तर:
(क) संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्य उद्देश्य विश्व में शान्ति व सुरक्षा बनाए रखना है।
(ख) संयुक्त राष्ट्र संघ का सबसे जाना-पहचाना पद महासचिव का है।
(ग) संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में पाँच स्थायी और दस अस्थायी सदस्य हैं।
(घ) एण्टोनियो गुटेरेस (पुर्तगाल से) संयुक्त राष्ट्र संघ के वर्तमान महासचिव हैं।
(च) मानवाधिकारों की रक्षा में सक्रिय दो स्वयंसेवी संगठन एमनेस्टी इण्टरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच हैं।

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प्रश्न 7.
संयुक्त राष्ट्र संघ की निम्नलिखित मुख्य शाखाओं और एजेन्सियों का सुमेल उनके काम से करें
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 International Organisations 1
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 International Organisations 2
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 International Organisations 3

प्रश्न 8.
सुरक्षा परिषद् के कार्य क्या हैं?
उत्तर:
सुरक्षा परिषद्, संयुक्त राष्ट्र संघ का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है। वर्तमान में इसके कुल 15 सदस्य हैं जिनमें 5 स्थायी सदस्य हैं और 10 अस्थायी सदस्य। स्थायी सदस्यों में अमेरिका, इंग्लैण्ड, रूस, फ्रांस एवं चीन हैं। प्रारम्भ में सुरक्षा परिषद् के सदस्यों की कुल संख्या 11 थी, सन् 1965 में इनकी संख्या बढ़ाकर 15 कर दी गई। अस्थायी सदस्यों (10 सदस्यों) को साधारण सभा दो-तिहाई बहुमत से दो वर्ष के लिए चुनती है। सुरक्षा परिषद् संयुक्त राष्ट्र संघ का निरन्तर कार्य करने वाला निकाय है। यह स्थायी रूप से सत्र में रहती है। सामान्यत: इसकी बैठक 14 दिन में एक बार होती है। प्रत्येक स्थायी सदस्य को सभी महत्त्वपूर्ण विषयों में निषेधाधिकार (veto) प्राप्त है।

सुरक्षा परिषद् के कार्य सुरक्षा परिषद् के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-

(1) विश्व शान्ति एवं सुरक्षा के प्रति उत्तरदायी होती है। यह विरोधी देशों को बाध्य करती है कि वे विवाद का निपटारा शान्तिपूर्ण तरीकों से करें।

(2) सुरक्षा परिषद् के क्षेत्राधिकार में आने वाले बहुत-से संगठनात्मक विषयों में उसे कानूनी रूप से बाध्यकारी अधिकार प्राप्त है। नए राष्ट्रों को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता प्रदान करना, महासचिव का चयन, अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति आदि सभी ऐसे कार्य जो महासभा से मिलकर करती है, बाध्यकारी प्रभाव रखते हैं।

(3) सुरक्षा परिषद् अपने आन्तरिक मामलों का स्वयं निर्णय करती है।

(4) सुरक्षा परिषद् शान्ति भंग करने वाले किसी भी देश के विरुद्ध कठोर कार्रवाई कर सकती है।

(5) यदि किसी राष्ट्र ने दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण कर दिया है तो उसे क्रूटनीतिक, आर्थिक एवं सैन्य कार्रवाई करने का आदेश देने का अधिकार है एवं सदस्य राष्ट्र चार्टर की इच्छानुसार उक्त निर्णय को मानने एवं लागू करने को बाध्य है।

सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर ही कोई भी राष्ट्र, जिसके खिलाफ अनुशासन की कार्रवाई की गयी हो, सदस्यता के अधिकार से अनिश्चित काल के लिए वंचित किया जा सकता है।

प्रश्न 9.
भारत के नागरिक के रूप में सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता के पक्ष का समर्थन आप कैसे करेंगे? अपने प्रस्ताव का औचित्य सिद्ध करें।
उत्तर:
मेरी दृष्टि में आज भारत विश्व के प्रमुख शक्तिशाली देशों में गिना जाता है, अत: उसे सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता प्राप्त होनी चाहिए। इस तर्क के पीछे निम्नलिखित कारण हैं

  1. भारत विश्व का सबसे बड़ी जनसंख्या वाला दूसरा देश है।
  2. भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश है।
  3. संयुक्त राष्ट्र संघ के शान्ति बहाली के प्रयासों में भारत लम्बे समय से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता आ
    रहा है।
  4. भारत अन्तर्राष्ट्रीय फलक पर आर्थिक शक्ति बनकर उभर रहा है।
  5. भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के बजट में नियमित रूप से अपना योगदान दिया है और यह कभी भी अपने भुगतान से चूका नहीं है।
  6. भारत ने सदैव शीतयुद्ध और सैन्य गुटबन्दी आदि का विरोध किया है।
  7. भारतीय संस्कृति सदैव ही अहिंसा, शान्ति, सहयोग की समर्थक रही है, अत: भारत को सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बनाना चाहिए।

प्रश्न 10.
संयुक्त राष्ट्र संघ के ढाँचे को बदलने के लिए सुझाए गए उपायों के क्रियान्वयन में आ रही कठिनाइयों का आलोचनात्मक मूल्याकंन करें।
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र संघ के ढाँचे को बदलने के लिए सुझाए गए उपाय-

  1. संयुक्त राष्ट्र संघ शान्ति और सुरक्षा से जुड़े अभियानों में अधिक प्रभावशाली भूमिका निभाए ताकि सभी देशों का इसके प्रति विश्वास बढ़े।
  2. सुरक्षा परिषद् के स्थायी तथा अस्थायी सदस्यों की संख्या में वृद्धि की जाए।
  3. सुरक्षा परिषद् में केवल पाँच स्थायी सदस्य देशों को विशेषाधिकार दिया गया है। ये अपनी वीटो शक्ति से किसी भी प्रस्ताव को निरस्त कर सकते हैं, इस अधिकार को समाप्त कर देना चाहिए।
  4. कोई भी निर्णय महासभा में बहुमत से होना चाहिए। सभी सदस्यों को एक मत देने का अधिकार होना चाहिए और व्यक्तिगत रूप में गुप्त मतदान के रूप में इसका प्रयोग होना चाहिए।
  5. भारत, जापान, जर्मनी, कनाडा, ब्राजील तथा दक्षिणी अफ्रीका को सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता प्रदान करनी चाहिए।

संयुक्त राष्ट्र संघ के ढाँचे को बदलने के लिए सुझाए गए उपायों के क्रियान्वयन में आ रही कठिनाइयाँ-उपर्युक्त सुझावों के क्रियान्वयन में निम्नलिखित कठिनाइयाँ आ रही हैं-

  1. सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों की संख्या 5 है जबकि साधारण सभा के सदस्यों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। अत: इस आधार पर सुरक्षा परिषद् की सदस्य संख्या में भी वृद्धि होनी चाहिए, लेकिन इनमें किन सदस्यों को शामिल किया जाए यह समस्या आती है।
  2. जनसंख्या, आर्थिक स्थिति, अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में प्रभाव आदि किस आधार पर देशों को शामिल किया
    जाए।
  3. स्थायी सदस्यों की वीटो पावर आदि समाप्त कर दी जाएगी तो वे देश इस संघ में उतनी रुचि नहीं लेंगे। यह भी अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि से उचित नहीं रहेगा।

प्रश्न 11.
हालाँकि संयुक्त राष्ट्र संघ युद्ध और इससे उत्पन्न विपदा को रोकने में नाकामयाब रहा है, लेकिन विभिन्न देश अभी भी इसे बनाए रखना चाहते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ को एक अपरिहार्य संगठन मानने के क्या कारण हैं?
उत्तर:
हालाँकि संयुक्त राष्ट्र संघ युद्ध और उससे उत्पन्न विपदा को रोकने में नाकामयाब रहा है परन्तु फिर भी प्रत्येक देश इसे एक महत्त्वपूर्ण एवं अपरिहार्य संगठन मानता है। संयुक्त राष्ट्र संघ अपने पूर्ववर्ती संगठन राष्ट्र-संघ की तरह द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद असफल नहीं रहा। अत: संयुक्त राष्ट्र संघ को बनाए रखना आवश्यक है। इसके अन्य प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

(1) संयुक्त राष्ट्र संघ अमेरिका और विश्व के अन्य देशों के बीच विभिन्न मुद्दों पर बातचीत करवा सकता है। इसी के माध्यम से छोटे एवं निर्बल देशं अमेरिका से किसी भी मसले पर बात कर सकते हैं।

(2) सन् 2011 तक संयुक्त राष्ट्र संघ में 193 देश सदस्य बन चुके हैं। यह विश्व का सबसे प्रभावशाली मंच है। यहाँ पर अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति, सुरक्षा तथा सामाजिक, आर्थिक समस्याओं पर खुले मस्तिष्क से वाद-विवाद और विचार-विमर्श होता है।

(3) संयुक्त राष्ट्र संघ के पास ऐसी कोई शक्ति नहीं है कि वह किसी देश को बाध्य करे, परन्तु वह ऐसे देशों की शक्तियों पर अंकुश अवश्य लगा सकता है चाहे वह अमेरिका जैसा देश ही क्यों न हो। संयुक्त राष्ट्र संघ अपने सदस्यों (देशों) के माध्यम से अमेरिका तक की नीतियों पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकता है।

(4) आज कुछ राष्ट्रों के पास अणु व परमाणु बम हैं, किन्तु बड़ी शक्तियों के प्रभाव के कारण काफी सीमा तक सर्वाधिक भयंकर हथियारों के निर्माण और रयायन व जैविक हथियारों का प्रयोग और निर्माण को रोकने में संयुक्त राष्ट्र संघ को सफलता मिली है।

(5) संयुक्त राष्ट्र संघ अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, पिछड़े और गरीब राष्ट्रों को ऋण भुगतान और आपातकाल में अनेक प्रकार की सहायता दिलाने में सक्षम रहा है। इसलिए इसका बना रहना आवश्यक है।

(6) आज प्रत्येक देश पारस्परिक निर्भरता को समझने लगा है और पारस्परिक निर्भरता बढ़ रही है। इसके पीछे भी संयुक्त राष्ट्र संघ है। यह एक ऐसा मंच है जिस पर विश्व के अधिकांश देश उपलब्ध रहते हैं। कोई भी देश पूर्ण नहीं होता उसे सदैव दूसरे देश के सहयोग की आवश्यकता होती है फिर चाहे वह अमेरिका हो या इंग्लैण्ड।

उपर्युक्त कारणों से स्पष्ट होता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रयोग और अधिक मानव-मूल्यों, विश्वबन्धुत्व एवं पारस्परिक सहयोग की भावना से किया जाना चाहिए। इसका अस्तित्व आज अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सहयोग के लिए परम आवश्यक है।

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प्रश्न 12.
संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार का अर्थ है सुरक्षा परिषद् के ढाँचे में बदलाव। इस कथन का सत्यापन करें।
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र संघ के अंगों में सुरक्षा परिषद् अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार का अर्थ है- सुरक्षा परिषद् के ढाँचे में निश्चित रूप से बदलाव। सुरक्षा परिषद् में वर्तमान में कुल 15 सदस्य हैं जिनमें 10 अस्थायी और 5 स्थायी हैं। इन 5 स्थायी सदस्य देशों में अमेरिका, फ्रांस, रूस, इंग्लैण्ड और चीन हैं। इन पाँचों देशों को किसी भी प्रस्ताव पर वीटो शक्ति का प्रयोग करने का अधिकार है अत: इनका सुरक्षा परिषद् में आधिपत्य है। एक प्रकार से समस्त निर्णय इन्हीं 5 स्थायी सदस्यों द्वारा किए जाते हैं। ऐसे में अन्य देशों को असन्तोष होता है, वे चाहते हैं कि इन सदस्यों की इस वीटो शक्ति को समाप्त किया जाना चाहिए। यदि इस प्रकार का कोई सुधार संयुक्त राष्ट्र संघ में किया गया तो सुरक्षा परिषद् के ढाँचे में बदलाव होगा।

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
यही बात तो वे संसद के बारे में कहते हैं। क्या हमें बतकही की ऐसी चौपालें वास्तव में चाहिए?
उत्तर:
हाँ, ऐसी चौपालें वास्तव में होनी चाहिए क्योंकि इनमें हुए वाद-विवाद के पश्चात् समस्याओं के समाधान सरलता से तलाश किए जा सकते हैं।

प्रश्न 2.
ऐसे मुद्दों और समस्याओं की सूची बनाइए, जिन्हें सुलझाना किसी एक देश के लिए सम्भव नहीं है और जिनके लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की जरूरत है।
उत्तर:
मुद्दे व समस्याओं की सूची-

  1. अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद।
  2. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का शान्तिपूर्ण समाधान।
  3. युद्धों का रोकना।
  4. प्राकृतिक आपदाएँ; जैसे-ज्वालामुखी विस्फोट, भूकम्प, सुनामी व बाढ़ आदि।
  5. वैश्विक ताप वृद्धि को रोकना।
  6. विभिन्न देशों के मध्य नदी-जल बँटवारा।
  7. महामारियाँ।

प्रश्न 3.
क्या हम पाँच बड़े दादाओं (सदस्यों) की दादागीरी खत्म करना चाहते हैं या उनमें शामिल होकर एक और दादा बनना चाहते हैं? उत्तर:
हम संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्य के रूप में शामिल होकर पाँच बड़े दादाओं अर्थात् सुरक्षा परिषद् के वर्तमान स्थायी सदस्य-चीन, फ्रांस, ब्रिटेन, रूस व संयुक्त राज्य अमेरिका की दादागीरी को खत्म करना चाहते हैं। भारत सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बनकर निषेधाधिकार शक्ति (वीटो पावर) प्राप्त कर लेगा तो सुरक्षा परिषद् के निर्णयों को न्यायसंगत दिशा में मोड़ना चाहेगा तथा उन देशों की पैरवी करेगा जो दादाओं के व्यवहार से पीड़ित हैं।

भारत, संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से छोटे देशों के आर्थिक विकास के प्रस्तावों को सुरक्षा परिषद् में लाकर स्वीकृत कराने का प्रयास करेगा। इस तरह हम सुरक्षा परिषद् में सम्मिलित होकर एक और दादा नहीं बनना चाहते बल्कि पाँच बड़े दादाओं की दादागीरी को खत्म करना चाहते हैं।

प्रश्न 4.
अगर संयुक्त राष्ट्र संघ किसी को न्यूयॉर्क बुलाए और अमेरिका उसे वीजा न दे तो क्या होगा?
उत्तर:
अगर संयुक्त राष्ट्र संघ किसी को न्यूयॉर्क बुलाए और अमेरिका उसे वीजा न दे तो वह संयुक्त राष्ट्र संघ नहीं जा सकेगा क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्यालय संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में स्थित है। इसलिए वीजा देने या न देने का निर्णय करना अमेरिका के क्षेत्राधिकार में आता है।

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प्रश्न 5.
आसियान क्षेत्रीय मंच के सदस्यों के नाम पता करें।
उत्तर:
आसियान सदस्य-इण्डोनेशिया, मलयेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैण्ड, ब्रुनेई, वियतनाम, लाओस, म्यानमार तथा कम्बोडिया।

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
संयुक्त राष्ट्र संघ का विकास-क्रम, स्थापना तथा उद्देश्यों का विस्तार से वर्णन कीजिए। अथवा द्वितीय विश्वयुद्ध काल में संयुक्त राष्ट्र संघ के विकास क्रम का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र संघ का विकास-क्रम एवं स्थापना-

1. राष्ट्र संघ की असफलता-प्रथम विश्वयुद्ध ने सम्पूर्ण विश्व को इस बात के लिए सचेत किया कि अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों के समाधान के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के निर्माण का प्रयास आवश्यक रूप से किया जाना चाहिए। इसके परिणामस्वरूप राष्ट्र संघ (लीग ऑफ नेशंस) का जन्म हुआ, लेकिन प्रारम्भिक सफलताओं के बावजूद यह संगठन द्वितीय विश्वयुद्ध को रोकने में सफल नहीं हो पाया। प्रथम विश्वयुद्ध की तुलना में द्वितीय विश्वयुद्ध में जन-धन की बहुत हानि हुई।

2. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के प्रयास-

(i) अटलाण्टिक चार्टर (अगस्त 1941)-द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान वैश्विक शान्ति की स्थापना हेतु एक नयी विश्व संस्था की स्थापना की दिशा में संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट एवं ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री चर्चिल ने विश्व शान्ति के आधारभूत सिद्धान्तों की व्यवस्था की। इस पर दोनों देशों के नेताओं ने अगस्त 1941 में हस्ताक्षर किए जिसे ‘अटलाण्टिक चार्टर’ के नाम से जाना जाता है।

(ii) संयुक्त राष्ट्र घोषणा-पत्र (जनवरी 1942)–धुरी शक्तियों के विरुद्ध लड़ रहे 26 मित्र राष्ट्र अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट एवं ब्रितानी प्रधानमन्त्री चर्चिल द्वारा हस्ताक्षरित किए गए। ये नेता अटलाण्टिक चार्टर के समर्थन में जनवरी 1942 में वाशिंगटन (संयुक्त राज्य अमेरिका) में मिले और दिसम्बर 1943 में संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणा पर हस्ताक्षर किए।

(iii) याल्टा सम्मेलन (फरवरी 1945)—विश्व के तीन बड़े नेताओं-अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट, ब्रितानी प्रधानमन्त्री चर्चिल एवं सोवियत राष्ट्रपति स्टालिन ने फरवरी 1945 में याल्टा सम्मेलन में भाग लिया। इस सम्मेलन के दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ के गठन, प्रकृति व उसकी सदस्यता पर चर्चा की गयी। इस सम्मेलन में ही प्रस्तावित संयुक्त राष्ट्र संघ के बारे में विचार करने के लिए एक सम्मेलन करने का निर्णय लिया गया।

(iv) सेन-फ्रांसिस्को सम्मेलन (अप्रैल-मई 1945)-अप्रैल-मई 1945 के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका के सेन-फ्रांसिस्को में संयुक्त राष्ट्र संघ का अन्तर्राष्ट्रीय संगठन बनाने के मुद्दे पर केन्द्रित सम्मेलन हुआ। यह सम्मेलन दो महीने तक चला। इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर तैयार किया गया।

(v) संयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर पर हस्ताक्षर (जून 1945)-सेन-फ्रांसिस्को सम्मेलन के दौरान तैयार किए गए संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर पर 26 जून, 1945 को 50 देशों के प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किए। पोलैण्ड ने इस चार्टर पर 15 अक्टूबर, 1945 को हस्ताक्षर किए। इस तरह संयुक्त राष्ट्र संघ के 51 मूल संस्थापक सदस्य हैं।

3. संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना-24 अक्टूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गयी। तभी से प्रतिवर्ष 24 अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र संघ के स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के पश्चात् राष्ट्र संघ के अस्तित्व को समाप्त कर दिया गया। भारत 30 अक्टूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ में शामिल हो गया। वर्तमान में इसकी सदस्य संख्या 193 है। इसका अन्तिम सदस्य दक्षिणी सूडान है जो सन् 2011 में इसका सदस्य बना था।

संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्य

संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को रोकना एवं शान्ति स्थापित करना।
  2. राष्ट्रों के मध्य सहयोग स्थापित करना।
  3. समस्त विश्व में सामाजिक-आर्थिक विकास की सम्भावनाओं को बढ़ाने के लिए विभिन्न देशों को एक-साथ लाना।
  4. किसी कारणवश विभिन्न देशों के मध्य युद्ध छिड़ने की स्थिति में शत्रुता के दायरे को सीमित करना।

प्रश्न 2.
एक-ध्रुवीय विश्व में संयुक्त राष्ट्र संघ क्या अमेरिका को अपनी मनमानी करने से रोक सकता है? यदि नहीं तो क्यों? एक-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था में संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रासंगिकता को बताइए।
उत्तर:
सन् 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व एक-ध्रुवीय हो गया है। इस एक-ध्रुवीय विश्व की एकमात्र महाशक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका है। वर्तमान में इसका कोई प्रतिद्वन्द्वी देश नहीं है। ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र संघ अमेरिका को अपनी मनमानी करने से रोक नहीं सकता। एक-धुवीय विश्व में संयुक्त राष्ट्र संघ अमेरिका को अपनी मनमानी करने से नहीं रोक सकता एक-ध्रुवीय विश्व में संयुक्त राष्ट्र संघ निम्नलिखित कारणों से संयुक्त राज्य अमेरिका को अपनी मनमानी करने से नहीं रोक सकता-

1. एकमात्र मजबूत सैन्य व आर्थिक शक्ति-सोवियत संघ की अनुपस्थिति में अब संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व की एकमात्र महाशक्ति है। अपनी सैन्य और आर्थिक शक्ति के बल पर संयुक्त राज्य अमेरिका संयुक्त राष्ट्र संघ अथवा किसी अन्य अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की अनदेखी कर सकता है।

2. संयुक्त राष्ट्र संघ पर अमेरिकी प्रभाव की अधिकता-संयुक्त राष्ट्र संघ में संयुक्त राज्य अमेरिका का अत्यधिक प्रभाव है। वह संयुक्त राष्ट्र संघ के बजट में सबसे अधिक योगदान करने वाला देश है। अमेरिका की वित्तीय ताकत बेजोड़ है। संयुक्त राष्ट्र संघ अमेरिकी भू-क्षेत्र में स्थित है और इस कारण भी अमेरिका का प्रभाव इसमें बढ़ जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के कई नौकरशाह इसके नागरिक हैं।

3. संयुक्त राज्य अमेरिका के पास निषेधाधिकार की शक्ति होना-संयुक्त राज्य अमेरिका के पास निषेधाधिकार (वीटो पावर) की शक्ति है। यदि अमेरिका को कभी यह लगे कि कोई प्रस्ताव उसके अथवा उसके साथी राष्ट्रों के हितों के अनुकूल नहीं है अथवा अमेरिका को यह प्रस्ताव ठीक न लगे तो अपनी निषेधाधिकार शक्ति से वह इसे रोक सकता है।

4. संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव के चयन में अमेरिकी प्रभाव-संयुक्त राज्य अमेरिका अपनी ताकत
और निषेधाधिकार शक्ति के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव के चयन में भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उसकी बात को महत्त्व प्रदान किया जाता है।

5. विश्व समुदाय में फूट डालने में सक्षम-संयुक्त राज्य अमेरिका अपनी सैन्य एवं आर्थिक ताकत के बल पर विश्व समुदाय में फूट डाल सकता है और डालता है ताकि उसकी नीतियों का विरोध संयुक्त राष्ट्र संघ में कमजोर हो जाए। इससे स्पष्ट होता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ संयुक्त राज्य अमेरिका की मनमानी पर अंकुश लगाने में विशेष सक्षम नहीं है।

एक-धुवीय विश्व में संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रासंगिकता

यद्यपि संयुक्त राष्ट्र संघ इस एक-ध्रुवीय विश्व में अमेरिका को अपनी मनमानी करने से नहीं रोक सकता, लेकिन इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रासंगिकता को नकारा नहीं जा सकता।

एक-ध्रुवीय विश्व में संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रासंगिकता को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है-

1. वार्तालाप के मंच के रूप में उपयोगिता-संयुक्त राष्ट्र संघ संयुक्त राज्य अमेरिका एवं शेष विश्व के मध्य विभिन्न मुद्दों पर बातचीत स्थापित कर सकता है। आवश्यकता पड़ने पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने ऐसा कई बार किया भी है।

2. अमेरिकी दृष्टि से उपयोगिता-अमेरिकी नेता संयुक्त राष्ट्र संघ की आलोचना करते हुए दिखाई देते हैं, लेकिन वे इस बात को भी समझते हैं कि झगड़ों एवं सामाजिक-आर्थिक विकास के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से 193 देशों को एक-साथ किया जा सकता है।

3. शेष विश्व के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रासंगिकता-शेष विश्व के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ एक ऐसा मंच है जहाँ अमेरिकी रवैये एवं नीतियों पर कुछ अंकुश लगाया जा सकता है। यह बात ठीक है कि अमेरिका के विरुद्ध शेष विश्व शायद ही कभी एकजुट हो पाता है और अमेरिका की ताकत पर अंकुश लगाना एक सीमा तक असम्भव है, लेकिन इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र संघ ही वह स्थान है जहाँ अमेरिका के किसी विशेष रवैये एवं नीति की आलोचना की सुनवाई हो सकती है और कोई मध्य का रास्ता निकालने एवं रियायत देने की बात कही जा सकती है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि एक-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था होने के बावजूद वर्तमान विश्व में संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रासंगिकता बनी हुई है।

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प्रश्न 3.
संयुक्त राष्ट्र संघ के सुधारों में भारत की भूमिका का उल्लेख करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की भूमिका का परीक्षण कीजिए।
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र संघ के सुधारों में भारत की भूमिका भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के ढाँचे में सुधार के मुद्दे का निम्नलिखित आधारों पर समर्थन किया है

  1. संयुक्त राष्ट्र संघ की मजबूती पर बल-बदलते हुए विश्व में संयुक्त राष्ट्र संघ की मजबूती और दृढ़ता आवश्यक है।
  2. विकास के मुद्दे पर बल-संयुक्त राष्ट्र संघ विभिन्न देशों के बीच सहयोग बढ़ाने और विकास को बढ़ावा देने में ज्यादा बड़ी भूमिका निभाए।
  3. सुरक्षा परिषद् की संरचना में सुधार किया जाए-इस सन्दर्भ में भारत के प्रमुख तर्क निम्नलिखित-
    • सुरक्षा परिषद् की संरचना प्रतिनिधिमूलक हो-भारत का तर्क है कि सुरक्षा परिषद् का विस्तार करने पर वह ज्यादा प्रतिनिधिमूलक होगी तथा उसे विश्व बिरादरी का अधिक समर्थन मिलेगा।
    • सुरक्षा परिषद् में विकासशील देशों की संख्या बढ़ाई जाए–संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा में ज्यादातर विकासशील सदस्य देश हैं। इसलिए सुरक्षा परिषद् में उनका यथोचित प्रतिनिधित्व होना चाहिए।
    • सुरक्षा परिषद् की गतिविधियों का दायरा बढ़ा है-सुरक्षा परिषद् के काम-काज की सफलता विश्व-बिरादरी के समर्थन पर निर्भर है। इस कारण सुरक्षा परिषद् के पुनर्गठन की कोई योजना व्यापक धरातल पर बननी चाहिए।

संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की भूमिका

24 अक्टूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गई। भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रारम्भिक सदस्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की भूमिका को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-

  1. संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता बढ़ाने में भारत की भूमिका-भारत की सदा ही यह नीति रही है कि विश्व शान्ति को बनाए रखने के लिए तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की सफलता के लिए संसार के सभी देशों को सदस्य बनना चाहिए।
  2. संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य अंगों में भारत की भूमिका-संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य अंगों तथा विशेष अभिकरणों में भारत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता आ रहा है।
  3. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा की दृष्टि से भारत का योगदान-भारत ने विश्व शान्ति एवं सुरक्षा को बनाए रखने में संयुक्त राष्ट्र संघ में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उसने कोरिया समस्या के समाधान, स्वेज नहर की समस्या, कांगो की समस्या के समाधान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
  4. उपनिवेशवाद तथा रंगभेद की नीति का विरोध-भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में उपनिवेशवाद तथा रंगभेद की नीति के विरुद्ध आवाज उठायी है।
  5. निःशस्त्रीकरण के प्रयास-भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के नि:शस्त्रीकरण सम्बन्धी प्रयासों का हमेशा समर्थन किया है।
  6. मानवाधिकारों का समर्थन-भारत ने अपने नागरिकों को लगभग वे सभी अधिकार प्रदान किए हैं, जो संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित किए गए हैं।
  7. गुटनिरपेक्ष आन्दोलन-भारत ने शीतयुद्ध काल में गुटनिरपेक्षता की नीति को सामने रखकर गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को मजबूत बनाया तथा संयुक्त राष्ट्र संघ को पूरी तरह से दो गुटों में विभक्त होने से बचाया।

लघुउत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
विश्व शान्ति बनाए रखने में संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
विश्व शान्ति बनाए रखने में संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका विश्व शान्ति स्थापित करने की दिशा में संयुक्त राष्ट्र संघ ने निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं-
1. कोरिया युद्ध को रोकना–सन् 1950 में उत्तरी कोरिया ने दक्षिणी कोरिया पर हमला किया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस युद्ध को रोकने के लिए 16 देशों के सैन्य बलों को कोरिया में प्रतिरोध के लिए भेजा। इस सेना की सहायता से संयुक्त राष्ट्र संघ ने दोनों देशों में युद्ध समाप्त करवाया।
2. स्वेज नहर संकट-मिस्र ने जुलाई 1965 में स्वेज नहर के राष्ट्रीकरण की घोषणा की। इसके विरोध में इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा इजराइल ने मिस्र पर हमला कर दिया। इस युद्ध को रुकवाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रयास किए और अन्ततः यह अपने प्रयासों में सफल रहा।
3. खाड़ी युद्ध-सन् 1991 में खाड़ी युद्ध के प्रारम्भ होने के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी बैठक बुलाई तथा वहाँ शान्ति स्थापित करने के लिए प्रस्ताव पारित किया। इस प्रकार खाड़ी युद्ध रुकवाने में भी संयुक्त राष्ट्र संघ की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
4.निःशस्त्रीकरण-संयुक्त राष्ट्र संघ ने नि:शस्त्रीकरण को लागू करने तथा विध्वंसक परमाणु हथियारों पर रोक लगाने हेतु समय-समय पर अनेक सम्मेलन आयोजित किए तथा प्रस्ताव पारित किए।

प्रश्न 2.
संयुक्त राष्ट्र संघ की सफलताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र संघ की सफलताएँ-

  1. शान्ति एवं सुरक्षा की स्थापना-संयुक्त राष्ट्र संघ ने अनेक अन्तर्राष्ट्रीय विवादों, मतभेदों व तनावों को अनेक बार युद्ध में परिणत होने से बचाया है।
  2. आतंकवाद का विरोध-संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 24 दिसम्बर, 1994 को सब प्रकार के आतंकवाद के विरुद्ध एक प्रस्ताव पारित कर विश्व समुदाय से आतंकवाद की चुनौती को मिलकर सामना करने का आग्रह किया है।
  3. निःशस्त्रीकरण-संयुक्त राष्ट्र संघ ने नि:शस्त्रीकरण के लिए अनेक प्रयास किए हैं और आज भी कर रहा है।
  4. साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का विरोध-संयुक्त राष्ट्र संघ ने साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद को समाप्त करने में बहुत सहायता दी है।
  5. अन्तर्राष्ट्रीय भावना का विकास-संयुक्त राष्ट्र संघ निरन्तर अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग, सद्भावना और सह-अस्तित्व की भावना का विकास कर रहा है।

प्रश्न 3.
हमें अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता क्यों है?
उत्तर:
हमें अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता अग्रलिखित कारणों से है-

1. अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के शान्तिपूर्ण समाधान के लिए-दो या दो से अधिक देशों के मध्य उपजे हुए विवाद का शान्तिपूर्ण समाधान बातचीत द्वारा ही हो सकता है। बातचीत के माध्यम से ऐसे विवादों को बिना युद्ध के हल करने की दृष्टि से अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। ऐसे संगठन समस्याओं के शान्तिपूर्ण समाधान के सदस्य देशों की सहायता करते हैं।

2. चुनौतीपूर्ण समस्याओं के समाधान में विभिन्न देशों को मिलकर कार्य करने में सहायता करना-अन्तर्राष्ट्रीय संगठन ऐसी चुनौतीपूर्ण समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक होते हैं जिनसे निपटने के लिए विभिन्न देशों को मिलकर सहयोग करना आवश्यक होता है।

3. सहयोग करने के उपाय एवं सूचनाएँ जुटाने में सहायता करना—एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन नियमों एवं नौकरशाही की एक रूपरेखा दे सकता है ताकि सदस्यों को यह विश्वास हो कि आने वाली लागत में सभी की समुचित साझेदारी होगी, लाभ का बँटवारा न्यायोचित होगा और कोई सदस्य उस समझौते में शामिल हो जाता है तो वह इस समझौते के नियम व शर्तों का पालन करेगा।

प्रश्न 4.
संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न अंगों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न अंग संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न अंगों का परिचय निम्नवत् है-

1. आम सभा-यह संयुक्त राष्ट्र संघ का सबसे बड़ा अंग है। इसे महासभा भी कहा जाता है। यह एक तरह से विश्व की संसद है। संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी सदस्य देश इसके सदस्य होते हैं। सभी सदस्यों को एकसमान मत का अधिकार होता है। प्रमुख निर्णयों के लिए दो-तिहाई तथा अन्य निर्णयों के लिए सामान्य बहुमत की आवश्यकता होती है।

2.सुरक्षा परिषद्-सुरक्षा परिषद् के 15 सदस्य होते हैं जिनमें से 5 स्थायी एवं 10 अस्थायी सदस्य होते हैं। स्थायी सदस्य-संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन, रूस, फ्रांस व इंग्लैण्ड हैं जो वीटो का अधिकार रखते हैं।

3. सचिवालय–सचिवालय में महासचिव एवं संघ की आवश्यकतानुसार कर्मचारी होते हैं। महासचिव की नियुक्ति सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर महासभा द्वारा पाँच साल के लिए की जाती है।

4. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय-अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का मुख्यालय हेग में है। इसमें 15 न्यायाधीश होते हैं। इनका चुनाव 9 वर्षों के लिए आम सभा व सुरक्षा परिषद् द्वारा पूर्ण बहुमत से किया जाता है।

5. आर्थिक और सामाजिक परिषद्-इसके सदस्य देशों का चुनाव आम सभा द्वारा तीन वर्षों के लिए किया जाता है। इसके 54 सदस्य होते हैं।

6. न्यासिता परिषद्-संयुक्त राष्ट्र संघ का यह अंग 1 नवम्बर, 1994 से स्थगित है। इसका कार्य पलाउ के स्वतन्त्र होने के साथ समाप्त हो चुका है।

प्रश्न 5.
1991 के पश्चात् विश्व की राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों में क्या परिवर्तन आए हैं?
उत्तर:
सन् 1991 के बाद वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों में निम्नलिखित परिवर्तन आए हैं-

  1. 25 दिसम्बर, 1991 को शीतयुद्ध के काल की दो महाशक्तियाँ संयुक्त राज्य अमेरिका एवं सोवियत संघ में से एक महाशक्ति सोवियत संघ का विघटन हो गया।
  2. सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व एक-ध्रुवीय हो गया है जिसमें सबसे ताकतवर देश संयुक्त राज्य अमेरिका है।
  3. वर्तमान में सोवियत संघ का उत्तराधिकारी राज्य रूस एवं संयुक्त राज्य अमेरिका के मध्य कहीं अधिक सहयोगात्मक सम्बन्ध हैं।
  4. चीन बड़ी तीव्र गति से एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है।
  5. भारत भी तीव्र गति से एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है।
  6. एशिया की अर्थव्यवस्था अप्रत्याशित दर से उन्नति कर रही है।
  7. पूर्वी सोवियत संघ के विघटन से नए बने राष्ट्र एवं पूर्वी यूरोप के पूर्व साम्यवादी देश संयुक्त राष्ट्र संघ में शामिल हो गए हैं।
  8. वर्तमान विश्व के समक्ष अनेक चुनौतियाँ विद्यमान हैं जिनमें जनसंहार, गृहयुद्ध, जातीय संघर्ष, आतंकवाद, परमाण्विक प्रसार, महामारी, जलवायु परिवर्तन एवं पर्यावरण की हानि आदि प्रमुख हैं।

प्रश्न 6.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों के नाम बताइए तथा उनकी कार्य-प्रणाली की कमियाँ बताइए।
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के पाँच स्थायी सदस्य हैं-

  1. संयुक्त राज्य अमेरिका,
  2. फ्रांस,
  3. ब्रिटेन,
  4. रूस,
  5. चोन।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की कार्य-प्रणाली की कमियाँ सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा में एक प्रस्ताव स्वीकृत कर निम्नलिखित कमियाँ बतायी गईं-

  1. वर्तमान समय में सुरक्षा परिषद् राजनीतिक वास्तविकताओं की नुमाइंदगी नहीं करती।
  2. सुरक्षा परिषद् के फैसलों पर पश्चिमी मूल्यों एवं हितों की छाप होती है। इसमें कुछ देशों के दबाव में रहकर फैसले लिए जाते हैं।
  3. सुरक्षा परिषद् में बराबर का प्रतिनिधित्व नहीं है। केवल पाँच देशों को ही वीटो का अधिकार दिया गया है। शेष विश्व के देशों की बातों को सुरक्षा परिषद् में कोई महत्त्व नहीं दिया गया है। समस्त फैसलों पर केवल पाँच देशों का ही प्रभाव रहता है।

प्रश्न 7.
सुरक्षा परिषद् की कार्यप्रणाली में सुधार लाने हेतु नए स्थायी, स्थायी तथा अस्थायी सदस्यों के लिए प्रस्तावित मानदण्डों का संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन में परिवर्तन की उठती हुई माँग के परिप्रेक्ष्य में 1 जनवरी, 1997 को तत्कालीन महासचिव कोफी अन्नान ने रचनात्मक कदम उठाते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार के लिए सुझावों को आमन्त्रित किया। यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि इस प्रक्रिया में इस प्रश्न को भी शामिल किया गया है कि क्या सुरक्षा परिषद् के नए सदस्य होने चाहिए।

इस दौरान अनेक सुझाव आए, जिनके द्वारा सुरक्षा परिषद् की स्थायी तथा अस्थायी सदस्यता हेतु मापदण्ड सुझाए गए। इनमें से कुछ प्रमुख सुझाव निम्नलिखित थे-

  1. संयुक्त राष्ट्र संघ के एक नए सदस्य को बड़ी आर्थिक तथा सैन्य शक्ति होनी चाहिए।
  2. ऐसे देश का संयुक्त राष्ट्र संघ के बजट में अधिकाधिक योगदान होना चाहिए।
  3. नए सदस्य को जनसंख्या के दृष्टिकोण से विशाल देश होना चाहिए।
  4. नई सदस्यता पाने वाले देश के लोकतन्त्र तथा मानवाधिकारों का सम्मान करने वाला होना चाहिए।
  5. यह देश ऐसा हो जो अपनी भौगोलिक संरचना, अर्थव्यवस्था तथा संस्कृति के दृष्टिकोण से दुनिया की विविधताओं का प्रतिनिधित्व करता हो

उक्त से स्पष्ट है कि इन मापदण्डों में से प्रत्येक की कुछ-न-कुछ वैधता है। सरकारें अपने-अपने हित एवं महत्त्वाकांक्षाओं के दृष्टिकोण से कुछ कसौटियों को लाभप्रद तो कुछ को नुकसानदेह मानती हैं। चाहे कोई देश सुरक्षा परिषद् की सदस्यता हेतु इच्छुक न हो, वह इसके बावजूद यह बता सकता है कि इन कसौटियों में अमुक परेशानी है।

प्रश्न 8.
सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों के विशेषाधिकार को क्यों समाप्त किया जा सकता है?
उत्तर:
विश्व में स्थिरता बनाए रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र के अनुरूप उसके पाँचों स्थायी सदस्यों को विशेषाधिकार अर्थात् वीटो शक्ति प्रदान करना उनकी सदस्यता को स्थायी बनाए रखने के लिए परमावश्यक है। दुनिया में ये देश परमाणु हथियारों से सम्पन्न बड़ी शक्तियाँ हैं। हालाँकि शीतयुद्ध का अन्त हो चुका है, लेकिन अभी भी साम्यवाद का अन्त नहीं हुआ है। यह तथ्य भी विश्व शान्ति, उदारवाद, वैश्वीकरण, व्यक्तिगत-राजनीतिक स्वतन्त्रताओं तथा समाप्ति के अधिकार इत्यादि हेतु भयंकर खतरा बन सकता है। दुनिया अभी भी इतने विशाल स्तर पर परिवर्तनों के लिए तैयार नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी 193 सदस्यों को समानता का स्तर प्रदान कर दिया जाए।

इस तथ्य को भी नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता कि वीटो पावर को समाप्त किए जाने की परिस्थिति में इन शक्तिशाली देशों की रुचि संयुक्त राष्ट्र संघ में नहीं रहेगी। संयुक्त राष्ट्र संघ से अलग होकर ये राष्ट्र अपनी इच्छानुसार कार्य करेंगे तथा इनके जुड़ाव अथवा समर्थन के अभाव में यह संगठन प्रभावहीन हो जाएगा। ऐसी परिस्थिति में विश्व सुरक्षा एवं अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा विकास को अपार क्षति उठानी पड़ेगी।

प्रश्न 9.
विश्व बैंक की स्थापना एवं कार्यों के बारे में बताइए।
उत्तर:
विश्व बैंक की औपचारिक स्थापना द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सन् 1945 में हुई।

विश्व बैंक के कार्य विश्व बैंक की गतिविधियाँ मुख्य रूप से विकासशील देशों से सम्बन्धित हैं, जो निम्नलिखित हैं-

(1) विश्व बैंक मानवीय विकास (शिक्षा, स्वास्थ्य), कृषि एवं ग्रामीण विकास (सिंचाई, ग्रामीण सेवाएँ), आधारभूत ढाँचा (सड़क, विद्युत, शहरी विकास), पर्यावरण सुरक्षा (प्रदूषण में कमी, नियमों का निर्माण व उन्हें लागू करना) एवं सुशासन (कदाचार का विरोध, विविध संस्थाओं का विकास) के लिए कार्य करता है।

(2) यह अपने सदस्य देशों को आसान शर्तों पर ऋण देता है।

(3) यह अपने सदस्य देशों को अनुदान प्रदान करता है, अधिक निर्धन देशों को यह अनुदान वापस नहीं चुकाना पड़ता है।
इस तरह विश्व बैंक समकालीन वैश्विक अर्थव्यवस्था के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा है। यह निर्धन देशों के विकास में अनुदान व ऋण आदि के माध्यम से पर्याप्त सहायता प्रदान कर रहा है।

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प्रश्न 10.
संयुक्त राष्ट्र संघको सशक्त बनाने हेतु क्या कदम उठाए जाने चाहिए? सुझाव दीजिए।
उत्तर:
बदलते हुए परिवेश में संयुक्त राष्ट्र को अधिक प्रासंगिक तथा सशक्त बनाने हेतु उसमें सुधारों की आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र को सशक्त बनाने के लिए निम्नलिखित सुधारात्मक कदम उठाए जाने जरूरी हैं

  1. विश्व के जो देश अभी तक संयुक्त राष्ट्र के सदस्य नहीं हैं उन्हें सदस्यता हेतु सहमत किया जाना चाहिए।
  2. समस्त सदस्यों को एक मत देने की शक्ति होनी चाहिए तथा वह व्यक्तिगत रूप से गुप्त मतदान के रूप में प्रयुक्त किया जाना चाहिए। सभी निर्णय अर्थात् फैसले महासभा द्वारा बहुमत के आधार पर किए जाने चाहिए।
  3. सुरक्षा परिषद् में पाँच के स्थान पर पन्द्रह स्थायी सदस्य होने चाहिए तथा वीटो का अधिकार समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
  4. परिवर्तित विश्व में भारत, जापान, जर्मनी, कनाडा, ब्राजील तथा दक्षिण अफ्रीका को स्थायी सदस्यता प्रदान की जानी चाहिए।
  5. पर्यावरण, जनसंख्या तथा आतंकवाद जैसी समस्याओं और परमाणु हथियारों को नष्ट करने में सभी संयुक्त राष्ट्र सदस्य देशों को पूर्ण सहयोग करना चाहिए।
  6. सुरक्षा परिषद् में अस्थायी सदस्यों की संख्या में भी वृद्धि होनी चाहिए।
  7. संयुक्त राष्ट्र संघ के कोष में अभिवृद्धि की जानी चाहिए जिससे वह विकास एवं वृद्धि के और अधिकाधिक कार्यक्रमों को संचालित कर सके।

प्रश्न 11.
विश्व व्यापार संगठन के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
विश्व व्यापार संगठन की स्थापना ‘जनरल एग्रीमेण्ट ऑन ट्रेड एण्ड टैरिफ’ (GATT) के स्थान पर 1 जनवरी, 1945 को हुई थी।

कार्य-विश्व व्यापार संगठन एक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का संगठन है। यह वैश्विक व्यापार के नियमों को निश्चित करने का कार्य करता है।

इस संगठन के सदस्य देशों की संख्या 150 है। इसमें होने वाले फैसले समस्त सदस्यों की आपसी सहमति से लिए जाते हैं। लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय संघ व जापान जैसी बड़ी आर्थिक शक्तियों ने विश्व व्यापार संगठन के नियमों को इस तरह बनाने में सफलता प्राप्त कर ली है जिससे इनके हित सधते हों। इस संगठन के अधिकांश विकासशील देशों को यह शिकायत रहती है कि इस संगठन की कार्यविधि पारदर्शी नहीं है और बड़ी आर्थिक शक्तियों को अधिक महत्त्व प्रदान किया जाता है। अर्थात् यह संगठन बड़ी आर्थिक शक्तियों के प्रभाव में कार्य करता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
संयुक्त राष्ट्र संघ एक अनिवार्य संगठन है। क्या आप इससे सहमत हैं? अपने उत्तर की पुष्टि में कोई दो तर्क दीजिए।
उत्तर:
हाँ, हम इस कथन से सहमत हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ एक अनिवार्य संगठन है। संयुक्त राष्ट्र संघ निम्नलिखित कारणों से एक अनिवार्य संगठन है-

  1. संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व में शान्ति एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए अनिवार्य है। सम्पूर्ण विश्व में बढ़ते आतंकवाद एवं भय को समाप्त करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे संगठनों की ही आवश्यकता है।
  2. संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व के देशों को एक ऐसा मंच प्रदान किया है, जहाँ अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार-विमर्श होता है।

प्रश्न 2.
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना कब और क्यों की गयी? वर्तमान में इसके कितने सदस्य हैं?
उत्तर:
द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-45) की भयानक तबाही को देखकर विश्व के सभी भागों में प्रत्येक , व्यक्ति यह सोचने लगा कि यदि ऐसा एक और युद्ध हुआ तो सम्पूर्ण विश्व और मानव जाति का सर्वनाश हो जाएगा। अत: अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति स्थापित किए जाने की दिशा में प्रयास किए जाने प्रारम्भ हुए। इसके लिए एक ऐसे संगठन की स्थापना जरूरी थी जिसको विश्व के सभी देश महत्त्व दें। अत: 24 अक्टूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गयी। आरम्भ में 51 राष्ट्र इसके सदस्य थे। वर्तमान में 193 राष्ट्र इसके सदस्य हैं। सन् 2011 में दक्षिणी सूडान 193वाँ सदस्य बना है।

प्रश्न 3.
“संयुक्त राष्ट्र की स्थापना मानवता को स्वर्ग में पहुँचाने के लिए नहीं बल्कि उसे नरक से बचाने के लिए हुई है।” डेग हैमरशोल्ड के इस कथन का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र के द्वितीय महासचिव डेग हैमरशोल्ड के उक्त कथन का तात्पर्य है कि संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था का प्रमुख उद्देश्य दुनिया के समस्त लोगों की खराब स्थिति से उन्हें बचाना है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव की मान्यता है कि इसके माध्यम से संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों की दीर्घ समयावधि से चली आ रही समस्याएँ तथा विवाद, युद्ध लड़े बिना वार्ता के द्वारा हल किए जा सकते हैं। इसी तरह यह संगठन भयंकर जानलेवा बीमारियों; जैसे-एड्स तथा बर्ड फ्लू इत्यादि के कारगर तरीके से निपटने के लिए पूर्ण सहयोग देगा।

प्रश्न 4.
सुरक्षा परिषद् के पाँच स्थायी सदस्यों को ही वीटो का अधिकार क्यों दिया गया है?
उत्तर:
सुरक्षा परिषद् के पाँच स्थायी सदस्यों को वीटो का अधिकार इसलिए दिया गया है कि जिस समय संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई तब ये देश द्वितीय विश्वयुद्ध के विजेता थे और इस मामले पर इनकी सहमति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थी। संयुक्त राष्ट्र के शिल्पियों के मन-मस्तिष्क में यह डर समाया हुआ था कि यदि इन देशों को कुछ विशेषाधिकार प्रदान नहीं किए जाएँगे तो ये विश्व की समस्याओं में अधिक रुचि नहीं लेंगे।

प्रश्न 5.
संयुक्त राष्ट्र संघ की सामाजिक और आर्थिक मुद्दों से निबटने के लिए कौन-कौन सी एजेन्सियाँ हैं? नाम लिखिए।
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र संघ की सामाजिक और आर्थिक मुद्दों से निबटने के लिए निम्नलिखित एजेन्सियाँ हैं –

  1. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO),
  2. संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम (UNDP),
  3. संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार आयोग (UNHRC),
  4. संयुक्त राष्ट्र संघ शरणार्थी आयोग (UNHCR),
  5. संयुक्त राष्ट्र संघ बाल कोष (UNICEF),
  6. संयुक्त राष्ट्र संघ शैक्षणिक, वैज्ञानिक एवं सास्कृतिक संगठन (UNESCO)।

प्रश्न 6.
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के प्रमुख उद्देश्य कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को रोकना एवं शान्ति स्थापित करना।
  2. राष्ट्रों के मध्य सहयोग स्थापित करना।
  3. समस्तं विश्व में सामाजिक-आर्थिक विकास की समानताओं को बढ़ाने के लिए विभिन्न देशों को एक साथ लाना।
  4. किसी कारणवश विभिन्न देशों के मध्य युद्ध छिड़ने पर शत्रुता के दायरे को सीमित करना।

प्रश्न 7.
वैश्विक ताप वृद्धि से क्या आशय है?
उत्तर:
वैश्विक ताप वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) से आशय कई कारणों से विश्व के तापमान के बढ़ने से है। वैश्विक ताप वृद्धि क्लोरो फ्लोरो कार्बन कहलाने वाले कुछ रसायनों के फैलाव के कारण हो रही है। वैश्विक ताप वृद्धि से समुद्र तल की ऊँचाई बढ़ने लगी है जिससे तटीय देशों के डूबने का खतरा उत्पन्न हो गया है।

प्रश्न 8.
संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा/आम सभा के सम्बन्ध में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
आम सभा (महासभा) संयुक्त राष्ट्र संघ का सबसे बड़ा अंग है। यह एक प्रकार से विश्व की संसद है। संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी सदस्य देश इसके सदस्य होते हैं। सभी सदस्यों को एक-समान मत का अधिकार होता है। आम सभा के लिए जाने वाले प्रमुख निर्णयों के लिए दो-तिहाई एवं अन्य निर्णयों के लिए सामान्य बहुमत की आवश्यकता होती है। इसके निर्णय सभी सदस्यों पर बाध्यकारी नहीं होते। वर्तमान में इसके सदस्यों की संख्या 193 है।

प्रश्न 9.
वीटो पावर क्या है?
उत्तर:
निषेधाधिकार या वीटो पावर सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन तथा फ्रांस को प्राप्त महत्त्वपूर्ण शक्ति है। निषेधाधिकार का अर्थ है कि यहाँ पाँच सदस्यों में से कोई भी एक सदस्य संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में रखे गए प्रस्ताव के विरोध में वोट डाल दे तो वह प्रस्ताव पारित नहीं होगा। उल्लेखनीय है कि सुरक्षा परिषद् का यदि कोई स्थायी सदस्य अनुपस्थित रहता है तो उसे निषेधाधिकार का प्रयोग नहीं माना जाएगा।

प्रश्न 10.
सुरक्षा परिषद् के लिए चार आवश्यक मापदण्ड बताइए जो उसकी सदस्यता के लिए आवश्यक हैं।
उत्तर:
एक नए सदस्य देश के लिए सुरक्षा परिषद् की स्थायी एवं अस्थायी सदस्यता हेतु निम्नलिखित मानदण्ड सुझाए गए हैं-

  1. एक नए सदस्य को बड़ी आर्थिक शक्ति होना चाहिए।
  2. बड़ी सैन्य शक्ति होना चाहिए।
  3. संयुक्त राष्ट्र संघ के बजट में ऐसे देश का योगदान अधिक होना चाहिए।
  4. जनसंख्या की दृष्टि से एक बड़ा राष्ट्र होना चाहिए।

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प्रश्न 11.
सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा में एक प्रस्ताव पारित हुआ था। वह प्रस्ताव क्या था?
उत्तर:
सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा में स्वीकृत प्रस्ताव में निम्नलिखित तीन शिकायतों का उल्लेख था

  1. सुरक्षा परिषद् अब राजनीतिक वास्तविकताओं का प्रतिनिधित्व नहीं करती है।
  2. सुरक्षा परिषद् के फैसले पर पश्चिमी मूल्यों और हितों की छाप होती है और इन फैसलों पर कुछ ही देशों का वर्चस्व होता है।
  3. सुरक्षा परिषद् में विभिन्न देशों को बराबरी का प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है।

प्रश्न 12.
शीतयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र में हुए सुधारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
शीतयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र में निम्नलिखित सुधार लाए गए हैं-

  1. इसके सदस्यों की संख्या लगातार बढ़ी है। आण्विक ऊर्जा एजेन्सी, साधारण सभा तथा सुरक्षा परिषद् को उत्तरदायी बनाया गया है।
  2. विशिष्ट कार्यों हेतु विशेष आयोग गठित किए गए हैं। उदाहरणार्थ-मानवाधिकार, मादक द्रव्य, टिकाऊ विकास तथा महिलाओं की स्थिति सम्बन्धी आयोग।
  3. विश्वव्यापी आतंकवाद के खिलाफ अनेक प्रस्ताव पारित किए गए हैं।

प्रश्न 13.
संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन एवं प्रक्रिया में सुधार हेतु कोई दो सुझाव दीजिए।
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन एवं प्रक्रिया में सुधार हेतु दो सुझाव निम्नलिखित हैं-

1. निषेधाधिकार (वीटो पावर) को समाप्त अथवा सीमित करना-संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् की कार्यप्रणाली को व्यवस्थित एवं लोकतान्त्रिक बनाने के लिए निषेधाधिकार (वीटो पावर) की शक्ति को समाप्त कर देना चाहिए अथवा उसे सीमित कर देना चाहिए।

2. समान सदस्यता प्रदान करना-सुरक्षा परिषद् में अस्थायी सदस्यों के निर्वाचन पर रोक लगाकर सभी सदस्य देशों को समान स्तर की सदस्यता प्रदान की जानी चाहिए।

प्रश्न 14.
भारत सुरक्षा परिषद् के अस्थायी एवं स्थायी दोनों ही तरह के सदस्यों की संख्या में वृद्धि का समर्थक क्यों है?
उत्तर:
भारत सुरक्षा परिषद् के अस्थायी एवं स्थायी दोनों ही तरह के सदस्यों की संख्या में वृद्धि का निम्नलिखित कारणों से समर्थक है-

(1) पिछले कुछ वर्षों में सुरक्षा परिषद् की गतिविधियों का दायरा बढ़ा है।

(2) सुरक्षा परिषद् की कार्यप्रणाली की सफलता विश्व समुदाय के समर्थन पर निर्भर करती है। इस कारण सुरक्षा परिषद् के पुनर्गठन की कोई योजना व्यापक धरातल पर निर्मित होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, सुरक्षा परिषद् में वर्तमान की अपेक्षा अधिक विकासशील देश शामिल किए जाने चाहिए।

प्रश्न 15.
शीतयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के न्यायाधिकार में आने वाले मुद्दों पर क्या मतभेद हैं?
उत्तर:
शीतयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के न्यायाधिकार में आने वाले मुद्दों पर कुछ देश और विशेषज्ञ चाहते हैं कि यह संगठन शान्ति और सुरक्षा से जुड़े मिशनों में अधिक प्रभावकारी भूमिका निभाए जबकि अन्य की इच्छा है कि यह संगठन अपने को विकास एवं मानवीय भलाई के कार्यों; जैसे-स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यावरण, जनसंख्या की वृद्धि, जेण्डर, सामाजिक न्याय एवं मानवाधिकार तक सीमित रखें।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा ने ‘शान्ति के लिए एकता’ प्रस्ताव को स्वीकृत किया है-
(a) 24 अक्टूबर, 1945
(b) 3 नवम्बर, 1950
(c) 1 जनवरी, 1955
(d) 11 जून, 1960
उत्तर:
(b) 3 नवम्बर, 1950.

प्रश्न 2.
संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य अंग हैं-
(a) 4
(b) 5
(c) 6 .
(d) 7
उत्तर:
(c) 6.

प्रश्न 3.
संयुक्त राष्ट्र का कौन-सा अंग संयुक्त राष्ट्र का बजट पारित करता है-
(a) सुरक्षा परिषद्
(b) ट्रस्टीशिप (न्यास) परिषद्
(c) आर्थिक व सामाजिक परिषद्
(d) साधारण सभा (महासभा)।
उत्तर:
(d) साधारण सभा (महासभा)।

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प्रश्न 4.
संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव की नियुक्ति की जाती है-
(a) महासभा द्वारा
(b) सुरक्षा परिषद् द्वारा
(c) महासभा की सिफारिश पर सुरक्षा परिषद् द्वारा
(d) सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर महासभा द्वारा
उत्तर:
(d) सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर महासभा द्वारा।

प्रश्न 5.
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना कब की गई
(a) 24 अक्टूबर, 1945
(b) 11 जनवरी, 1945
(c) 11 जून, 1946
(d) 17 फरवरी, 1948
उत्तर:
(a) 24 अक्टूबर, 1945

प्रश्न 6.
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का मुख्यालय कहाँ है-
(a) वाशिंगटन में
(b) न्यूयॉर्क में
(c) हेग में
(d) जिनेवा में।
उत्तर:
(c) हेग में।

प्रश्न 7.
मानव अधिकार दिवस प्रतिवर्ष कब मनाया जाता है-
(a) 10 दिसम्बर को
(b) 10 नवम्बर को
(c) 10 मार्च को
(d) 10 अप्रैल को।
उत्तर:
(a) 10 दिसम्बर को।

प्रश्न 8.
संयुक्त राष्ट्र संघ दिवस प्रतिवर्ष कब मनाया जाता है-
(a) 24 अक्टूबर को
(b) 24 जून को
(c) 10 अगस्त को
(d) 11 मार्च को।
उत्तर:
(a) 24 अक्टूबर को।

प्रश्न 9.
1 नवम्बर, 1994 से संयुक्त राष्ट्र संघ का कौन सा अंग स्थगित है-
(a) सुरक्षा परिषद्
(b) न्यासिता परिषद्
(c) आर्थिक और सामाजिक परिषद्
(d) आम सभा।
उत्तर:
(b) न्यासिता परिषद्।

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प्रश्न 10.
संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रथम महासचिव थे-
(a) ट्राइग्व ली
(b) यू थांट
(c) बुतरस-बुतरस घाली
(d) कोफी ए० अन्नान।
उत्तर:
(a) ट्राइग्व ली।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Politics of Planned Development

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Politics of Planned Development (नियोजित विकास की राजनीति)

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
‘बॉम्बे प्लान’ के बारे में निम्नलिखित में कौन-सा बयान सही नहीं है-
(क) यह भारत के आर्थिक भविष्य का एक ब्लू-प्रिण्ट था।
(ख) इसमें उद्योगों के ऊपर राज्य के स्वामित्व का समर्थन किया गया था।
(ग) इसकी रचना कुछ अग्रणी उद्योगपतियों ने की थी।
(घ) इसमें नियोजन के विचार का पुरजोर समर्थन किया गया था।
उत्तर:
(ख) इसमें उद्योगों के ऊपर राज्य के स्वामित्व का समर्थन किया गया था।

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प्रश्न 2.
भारत ने शुरुआती दौर में विकास की जो नीति अपनाई उसमें निम्नलिखित में से कौन-सा विचार शामिल नहीं था
(क) नियोजन
(ख) उदारीकरण
(ग) सहकारी खेती
(घ) आत्मनिर्भरता।
उत्तर:
(ख) उदारीकरण।

प्रश्न 3.
भारत में नियोजित अर्थव्यवस्था चलाने का विचार ग्रहण किया गया था-
(i) बॉम्बे प्लान से
(ii) सोवियत खेमे के देशों के अनुभवों से
(iii) समाज के बारे में गांधीवादी विचार से
(iv) किसान संगठनों की माँगों से।
(क) सिर्फ (ii) और (iv)
(ख) सिर्फ (i) और (ii)
(ख) सिर्फ (iv) और (iii)
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित का मेल करें-
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Politics of Planned Development 1
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Politics of Planned Development 2

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प्रश्न 5.
आजादी के समय विकास के सवाल पर प्रमुख मतभेद क्या थे? क्या इन मतभेदों को सुलझा लिया गया?
उत्तर:
आजादी के समय विकास के सवाल पर प्रमुख मतभेद निम्नांकित थे-

(1) विकास का अर्थ समाज के प्रत्येक वर्ग हेतु अलग-अलग होता है। कुछ अर्थशास्त्री तथा रक्षा व पर्यावरण विशेषज्ञों का मत था कि पश्चिमी देशों की तरह पूँजीवाद व उदारवाद को महत्त्व दिया जाए जबकि अन्य लोग विकास के सोवियत मॉडल का समर्थन कर रहे थे। पूँजीवादी मॉडल औद्योगीकरण का समर्थक था जबकि साम्यवादी मॉडल कृषिगत विकास एवं ग्रामीण क्षेत्र को गरीबी को दूर करने पर बल देता था।

(2) विकास के क्षेत्र में आर्थिक समृद्धि हो तथा सामाजिक न्याय भी मिले इसे सुनिश्चित करने के लिए सरकार कौन-सी भूमिका निभाए? इस सवाल पर मतभेद थे।

(3) कुछ लोग औद्योगीकरण को विकास का सही रास्ता मानते थे जबकि कुछ अन्य लोग यह मानते थे कि कृषि का विकास करके ग्रामीण क्षेत्र की गरीबी दूर करना ही विकास का प्रमुख मानदण्ड होना चाहिए।

(4) कुछ अर्थशास्त्री केन्द्रीय नियोजन के पक्ष में थे जबकि कुछ अन्य विकेन्द्रित नियोजन को विकास के लिए आवश्यक मानते थे।

(5) कुछ राज्य सरकारों ने केन्द्रीकृत नियोजन के विपरीत अपना अलग ही विकास मॉडल अपनाया; जैसे-केरल राज्य में ‘केरल मॉडल’ के अन्तर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य, भूमि सुधार, कारगर खाद्य वितरण तथा गरीबी उन्मूलन पर बल दिया गया।

इस तरह भारत ने साम्यवादी मॉडल व पूँजीवादी मॉडल को न अपनाकर इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण बातों को लेकर अपने देश में इन्हें मिले-जुले रूप में लागू किया। भारत ने इस समस्या का हल आपसी बातचीत एवं सहमति से बीच का रास्ता अपनाते हुए मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाकर किया। इस प्रकार भारत ने विकास से सम्बन्धित अधिकांश मतभेदों को सुलझा दिया लेकिन कुछ मतभेद आज भी प्रासंगिक हैं; जैसे— भारत जैसी अर्थव्यवस्था में कृषि और उद्योग के बीच किस क्षेत्र में ज्यादा संसाधन लगाए जाने चाहिए। इसके अतिरिक्त अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र व सार्वजनिक क्षेत्र को कितनी मात्रा में हिस्सेदारी दी जाए, इस पर भी मतभेद हैं।

प्रश्न 6.
पहली पंचवर्षीय योजना का किस चीज पर सबसे ज्यादा जोर था? दूसरी पंचवर्षीय योजना पहली से किन अर्थों में अलग थी?
उत्तर:
पहली पंचवर्षीय योजना में देश में लोगों को गरीबी के जाल से निकालने का प्रयास किया गया और इस योजना में ज्यादा जोर कृषि क्षेत्र पर दिया गया। इसी योजना में बाँध और सिंचाई के क्षेत्र में निवेश किया गया। विभाजन के कारण कृषि क्षेत्र को गहरी मार लगी थी और इस क्षेत्र पर तुरन्त ध्यान देना आवश्यक था। भाखड़ा-नांगल जैसी विशाल परियोजनाओं के लिए बड़ी धनराशि आवंटित की गई। इस योजना में माना गया था कि देश में भूमि के वितरण का जो ढर्रा मौजूद है उससे कृषि के विकास को सबसे बड़ी बाधा पहुँचती है। इस योजना में भूमि सुधार पर जोर दिया गया और इसे देश के विकास की बुनियादी चीज माना गया।

दोनों योजनाओं में अन्तर-

  1. पहली पंचवर्षीय योजना एवं दूसरी पंचवर्षीय योजना में प्रमुख अन्तर यह था कि जहाँ पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र पर अधिक बल दिया गया, वहीं दूसरी पंचवर्षीय योजना में भारी उद्योगों के विकास पर अधिक जोर दिया गया।
  2. पहली पंचवर्षीय योजना का मूलमन्त्र था—धीरज, जबकि दूसरी पंचवर्षीय योजना तेज संरचनात्मक परिवर्तन पर बल देती थी।

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प्रश्न 7.
हरित क्रान्ति क्या थी? हरित क्रान्ति के दो सकारात्मक और दो नकारात्मक परिणामों का उल्लेख करें।
उत्तर:
हरित क्रान्ति का अर्थ— “हरित क्रान्ति से अभिप्राय कृषिगत उत्पादन की तकनीक को सुधारने तथा कृषि उत्पादन में तीव्र वृद्धि करने से है।”
हरित क्रान्ति के तत्त्व हरित क्रान्ति के तीन तत्त्व थे-

  1. कृषि का निरन्तर विस्तार,
  2. दोहरी फसल का उद्देश्य,
  3. अच्छे बीजों का प्रयोग।

इस तरह हरित क्रान्ति का अर्थ है-सिंचित और असिंचित कृषि क्षेत्रों में अधिक उपज देने वाली किस्मों को आधुनिक कृषि पद्धति से उगाकर उत्पादन बढ़ाना।

हरित क्रान्ति के दो सकारात्मक परिणाम

  1. हरित क्रान्ति में धनी किसानों और बड़े भू-स्वामियों को सबसे ज्यादा लाभ हुआ। हरित क्रान्ति से खेतिहर पैदावार में सामान्य किस्म का इजाफा हुआ (ज्यादातर गेहूँ की पैदावार बढ़ी) और देश में खाद्यान्न की उपलब्धता में वृद्धि हुई।
  2. हरित क्रान्ति के कारण कृषि में मँझोले दर्जे के किसानों यानी मध्यम श्रेणी के भू-स्वामित्व वाले किसानों को लाभ हुआ। इन्हें बदलावों से फायदा हुआ था और देश के अनेक हिस्सों में यह प्रभावशाली बनकर उभरे।

हरित क्रान्ति के नकारात्मक परिणाम

  1. इस क्रान्ति से गरीब किसानों और भू-स्वामियों के बीच का अन्तर मुखर हो उठा। इससे देश के विभिन्न हिस्सों में वामपन्थी संगठनों के लिए गरीब किसानों को लामबन्द करने के लिहाज से अनुकूल परिस्थितियाँ बन गईं।
  2. इससे समाज के विभिन्न वर्गों और देश के अलग-अलग इलाकों के बीच ध्रुवीकरण तेज हुआ जबकि बाकी इलाके खेती के मामले में पिछड़े रहे।

प्रश्न 8.
दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान औद्योगिक विकास बनाम कृषि विकास का विवाद चला था। इस विवाद में क्या-क्या तर्क दिए गए थे?
उत्तर:
दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान यह विवाद उत्पन्न हुआ कि किस क्षेत्र के विकास पर अधिक जोर दिया जाए, कृषि क्षेत्र के विकास पर या औद्योगिक विकास पर। इस विवाद के सम्बन्ध में विभिन्न तर्क दिए गए-

(1) कृषि क्षेत्र का विकास करने वाले विद्वानों का यह तर्क था कि इससे देश आत्मनिर्भर बनेगा तथा किसानों की दशा में सुधार होगा, जबकि औद्योगिक विकास का समर्थन करने वालों का यह तर्क था कि औद्योगिक विकास से देश में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे तथा देश में बुनियादी सुविधाएँ बढ़ेगी।

(2) अनेक लोगों का मानना था कि दूसरी पंचवर्षीय योजना में कृषि के विकास की रणनीति का अभाव था और इस योजना के दौरान उद्योगों पर जोर देने के कारण खेती और ग्रामीण इलाकों को चोट पहुंचेगी।

(3) कई अन्य लोगों का सोचना था कि औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर को तेज किए बगैर गरीबी के मकड़जाल से मुक्ति नहीं मिल सकती। इन लोगों का तर्क था कि भारतीय अर्थव्यवस्था के नियोजन में खाद्यान्न के उत्पादन को बढ़ाने तथा भूमि-सुधार और ग्रामीण निर्धनों के बीच संसाधनों के बँटवारे के लिए अनेक कानून बनाए गए, लेकिन औद्योगिक विकास की दिशा में कोई विशेष प्रयास नहीं किए गए।

(4) जे० सी० कुमारप्पा जैसे गांधीवादी अर्थशास्त्रियों ने एक वैकल्पिक योजना का खाका प्रस्तुत किया जिससे ग्रामीण औद्योगीकरण पर ज्यादा जोर दिया गया। इसी प्रकार चौधरी चरणसिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था के नियोजन में कृषि को केन्द्र में रखने की बात बड़े सुविचारित और दमदार ढंग से उठायी।

प्रश्न 9.
“अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका पर जोर देकर भारतीय नीति-निर्माताओं ने गलती की। अगर शुरुआत से ही निजी क्षेत्र को खुली छूट दी जाती तो भारत का विकास कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से होता।” इस विचार के पक्ष या विपक्ष में अपने तर्क दीजिए।
उत्तर:
अर्थव्यवस्था के मिश्रित या मिले-जुले मॉडल की आलोचना दक्षिणपन्थी तथा वामपन्थी दोनों खेमों में हुई। आलोचकों का मत था कि योजनाकारों ने निजी क्षेत्र को पर्याप्त जगह नहीं दी है। विशाल सार्वजनिक क्षेत्र ने ताकतवर निजी स्वार्थों को खड़ा किया है तथा इन स्वार्थपूर्ण हितों ने निवेश के लिए लाइसेंस व परमिट की प्रणाली खड़ी करके निजी पूँजी का मार्ग अवरुद्ध किया है। निजी क्षेत्र के पक्ष में तर्क इस प्रकार हैं-
पक्ष में तर्क-

(1) अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका पर जोर भारत की आर्थिक नीति बनाने वाले विशेषज्ञों ने भारी गलती कर दी थी। सन् 1990 से ही भारत ने नई आर्थिक नीति को अपना लिया है तथा वह बहुत तेजी से उदारीकरण व वैश्वीकरण की ओर बढ़ रहा है। देश के कई बड़े नेता जो दुनिया में जाने-माने अर्थशास्त्री भी हैं, ये भी निजी क्षेत्र, उदारीकरण तथा सरकारी हिस्सेदारी को यथाशीघ्र सभी व्यवसायों, उद्योगों आदि में समाप्त करना चाहते हैं।
(2) विश्व की दो बड़ी संस्थाओं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष तथा विश्व बैंक से भारत को ऋण और अधिकसे-अधिक निवेश तभी मिल सकते हैं जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों तथा विदेशी निवेशकों का स्वागत सत्कार हो और उद्योगों के विकास हेतु आन्तरिक सुविधाओं का बड़े पैमाने पर सुधार हो। इसके लिए सरकार पूँजी नहीं जुटा सकती है। यह कार्य अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और बड़े-बड़े पूंजीपति कर सकते हैं जो बड़े-बड़े जोखिम उठाने हेतु तैयार हैं।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिता में भारत तभी ठहर सकता है जब निजी क्षेत्र में छूट दे दी जाए।
(4) निजी क्षेत्र का मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना होता है। अत: इसके सभी निर्णय लाभ की मात्रा पर आधारित
होते हैं।
(5) अर्जित सम्पत्ति पर व्यक्ति का स्वयं का अधिकार होता है। वह इसका प्रयोग करने हेतु स्वतन्त्र होता है।
(6) राज्य का हस्तक्षेप न्यूनतम रहता है। सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु वह आर्थिक क्रियाओं में हस्तक्षेप करता है।
(7) प्रत्येक आर्थिक क्षेत्र में व्यक्ति को स्वतन्त्रता होती है।
(8) कीमत यन्त्र, स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करता है। व्यवसाय के क्षेत्र जैसे उत्पादन, उपभोग, वितरण में कीमत यन्त्र ही मार्ग निर्देशित करता है।
(9) इस क्षेत्र हेतु उत्पादन तथा मूल्य निर्धारण में प्रतिस्पर्धा पायी जाती है। माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियाँ ही उत्पादन की मात्रा एवं मूल्य निर्धारित करती हैं।

विपक्ष में तर्क-

(1) सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी का समर्थन करने वाले वामपन्थी विचारधारा के समर्थकों का मत है कि भारत को सुदृढ़ कृषि तथा औद्योगिक क्षेत्र में आधार सरकारी वर्चस्व और मिश्रित नीतियों से मिला है। यदि ऐसा नहीं होता तो भारत पिछड़ा ही रह जाता।

(2) भारत में विकसित देशों की तुलना में जनसंख्या अधिक है। यहाँ गरीबी है, बेरोजगारी है। यदि पश्चिमी देशों की होड़ में भारत में सरकारी हिस्से को अर्थव्यवस्था हेतु कम कर दिया जाएगा तो गरीबी फैलेगी तथा बेरोजगारी बढ़ेगी, धन और पूँजी कुछ ही कम्पनियों के हाथों में केन्द्रित हो जाएँगे जिससे आर्थिक विषमता और अधिक बढ़ जाएगी।

(3) हम जानते हैं कि भारत एक कृषिप्रधान देश है। वह संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों का कृषि उत्पादन में मुकाबला नहीं कर सकता। कुछ देश स्वार्थ के लिए पेटेण्ट प्रणाली को कृषि में लागू करना चाहते हैं तथा जो सहायता राशि भारत सरकार अपने किसानों को देती है वह उसे अपने दबाव द्वारा पूरी तरह खत्म करना चाहते हैं। जबकि भारत सरकार देश के किसानों को हर प्रकार से आर्थिक सहायता देकर अन्य विकासशील देशों को कृषि सहित अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र में मात देना चाहती है।
(नोट-विद्यार्थी अपने उत्तर के पक्ष या विपक्ष में से एक पर अपने विचार लिख सकते हैं।)

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प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें
आजादी के बाद के आरम्भिक वर्षों में कांग्रेस पार्टी के भीतर दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ पनपी। एक तरफ राष्ट्रीय पार्टी कार्यकारिणी ने राज्य के स्वामित्व का समाजवादी सिद्धान्त अपनाया, उत्पादकता को बढ़ाने के साथ-साथ आर्थिक संसाधनों के संकेन्द्रण को रोकने के लिए अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों का नियन्त्रण और नियमन किया। दूसरी तरफ कांग्रेस की राष्ट्रीय सरकार ने निजी निवेश के लिए उदार आर्थिक नीतियाँ अपनाईं और उसके बढ़ावे के लिए विशेष कदम उठाए। इसे उत्पादन में अधिकतम वृद्धि की अकेली कसौटी पर जायज ठहराया गया। – फ्रैंकिन फ्रैंकल
(क) यहाँ लेखक किस अन्तर्विरोध की चर्चा कर रहा है? ऐसे अन्तर्विरोध के राजनीतिक परिणाम क्या होंगे?
(ख) अगर लेखक की बात सही है तो फिर बताएँ कि कांग्रेस इस नीति पर क्यों चल रही थी? क्या इसका सम्बन्ध विपक्षी दलों की प्रकृति से था?
(ग) क्या कांग्रेस पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व और प्रान्तीय नेताओं के बीच कोई अन्तर्विरोध था?
उत्तर:
(क) उपर्युक्त अवतरण में लेखक कांग्रेस पार्टी के अन्तर्विरोध की चर्चा कर रहा है जो क्रमश: वामपन्थी विचारधारा से और दूसरा खेमा दक्षिणपन्थी विचारधारा से प्रभावित था। अर्थात् जहाँ कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी समाजवादी सिद्धान्तों में विश्वास रखती थी, वहीं राष्ट्रीय कांग्रेस की राष्ट्रीय सरकार निजी निवेश को बढ़ावा दे रही थी। इस प्रकार के अन्तर्विरोध से देश में राजनीतिक अस्थिरता फैलने की आशंका रहती है।

(ख) कांग्रेस इस नीति पर इसलिए चल रही थी क्योंकि कांग्रेस में सभी विचारधाराओं के लोग शामिल थे तथा सभी लोगों के विचारों को ध्यान में रखकर ही कांग्रेस पार्टी इस प्रकार का कार्य करती रही थी। इसके अलावा कांग्रेस पार्टी ने इस प्रकार की नीति इसलिए भी अपनाई ताकि विपक्षी दलों के पास आलोचना का कोई मुद्दा न रहे।

(ग) कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व एवं प्रान्तीय नेताओं में कुछ हद तक अन्तर्विरोध पाया गया था। जहाँ केन्द्रीय नेतृत्व राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों को महत्त्व देता था, वहीं प्रान्तीय नेता प्रान्तीय एवं स्थानीय मुद्दों को महत्त्व देते थे। परिणामस्वरूप कांग्रेस के प्रभावशाली क्षेत्रीय नेताओं ने आगे चलकर अपने अलग-अलग राजनीतिक दल बनाए; जैसे–चौधरी चरणसिंह ने ‘क्रान्ति दल’ या ‘भारतीय लोकदल’ बनाया तो उड़ीसा में बीजू पटनायक ने ‘उत्कल कांग्रेस’ का गठन किया।

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
“मैं सोचता था कि यह तो बड़ा सीधा-सादा फॉर्मूला है। सारे फैसलों के साथ मोटी रकम जुड़ी होती है और इसी कारण राजनेता ये फैसले करते हैं।”
उत्तर:
प्रायः देखा गया है कि राजनीतिक फैसलों या निर्णयों के पीछे राजनेताओं के राजनीतिक एवं आर्थिक हित जुड़े हुए होते हैं और इन्हीं को ध्यान में रखते हुए ये लोग निर्णय लेते हैं लेकिन यह सच नहीं है। सारे फैसलों के साथ मोटी रकम नहीं जुड़ी होती। अनेक फैसले जो जनहित में लिए जाते हैं इनसे मोटी रकम का कोई सरोकार नहीं होता। राजनेता जनहित में भी फैसला करते हैं।

प्रश्न 2:
क्या आप यह कह रहे हैं कि आधुनिक’ बनने के लिए ‘पश्चिमी’ होना जरूरी नहीं है? क्या यह सम्भव है?
उत्तर:
आधुनिक बनने के लिए पश्चिमी होना जरूरी नहीं है। प्रायः आधुनिकीकरण का सम्बन्ध पाश्चात्यीकरण से माना जाता है लेकिन यह सही नहीं है, क्योंकि आधुनिक होने का अर्थ मूल्यों एवं विचारों में समस्त परिवर्तन से लगाया जाता है और यह परिवर्तन समाज को आगे की ओर ले जाने वाले होने चाहिए। आधुनिकीकरण में परिवर्तन केवल विवेक पर ही नहीं बल्कि सामाजिक मूल्यों पर भी आधारित होते हैं। इसमें वस्तुत: समाज के मूल्य साध्य और लक्ष्य भी निर्धारित करते हैं कि कौन-सा परिवर्तन अच्छा है और कौन-सा बुरा है; कौन-सा परिवर्तन आगे की ओर ले जाने वाला है और कौन-सा अधोगति में पहुँचाने वाला है।

पाश्चात्यीकरण भौतिकवाद है। अनेक बार इसके भौतिकवाद में उपयोगितावाद का अभाव होने से यह मात्र आडम्बरी, दिखावटी और शुष्क बनकर रह जाता है। इसमें परिवर्तन होते हैं परन्तु उनमें मूल्यों या साध्यों का सर्वथा अभाव रहता है। पाश्चात्यीकरण मूल्य मुक्तता पर बल देता है, इसका न कोई क्रम होता है और न कोई दिशा। इस प्रकार आधुनिक बनने के लिए पश्चिमी होना जरूरी नहीं है।

प्रश्न 3.
अरे! मैं तो भूमि सुधारों को मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने की तकनीक समझता था।
उत्तर:
भूमि सुधार का तात्पर्य मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने की तकनीक तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसके अन्तर्गत अनेक तत्त्वों को सम्मिलित किया जाता है-

  1. जमींदारी एवं जागीरदारी व्यवस्था को समाप्त करना।
  2. जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक-साथ करके कृषिगत कार्य को अधिक सुविधाजनक बनाना।
  3. बेकार एवं बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने हेतु व्यवस्था करना।
  4. भू-जल के निकास की उचित व्यवस्था करना।
  5. कृषिगत भू-जोतों की उचित व्यवस्था करना।
  6. सिंचाई के साधनों का विकास व सस्ती दरों पर किसानों को सिंचाई के साधन उपलब्ध कराना।
  7. अच्छे खाद व उन्नत बीजों की व्यवस्था करना।
  8. किसानों की समस्याओं के समाधान हेतु स्थायी सहायता केन्द्रों की व्यवस्था करना।
  9. किसानों द्वारा उत्पन्न खाद्यान्नों की उचित कीमत दिलाने का प्रयास करना।
  10. राज्य सरकारों व केन्द्र सरकार द्वारा किसानों को समय-समय पर विभिन्न प्रकार के ऋण व विशेष अनुदानों की व्यवस्था करना आदि।

इस प्रकार भूमि सुधार का क्षेत्र केवल मिट्टी की गुणवत्ता की जाँच करने तक ही सीमित नहीं बल्कि इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है।

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
हरित क्रान्ति क्या है? हरित क्रान्ति के सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलू बताइए। अथवा हरित क्रान्ति किसे कहते हैं? इसकी सफलता के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
हरित क्रान्ति का अर्थ हरित क्रान्ति से अभिप्राय कृषि उत्पादन में होने वाली उस भारी वृद्धि से है जो कृषि की नई नीति अपनाने के कारण हुई है।
जे० जी० हाटर के शब्दों में, “हरित क्रान्ति शब्द 1968 में होने वाले उन आश्चर्यजनक परिवर्तनों के लिए प्रयोग में लाया जाता है जो भारत के खाद्यान्न उत्पादन में हुए थे तथा अब भी जारी हैं।”

भारत में सन् 1967-68 में नई कृषि नीति अपनाने से कृषि उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई थी जिसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर दीर्घकालीन प्रभाव पड़ा। हरित क्रान्ति की पद्धति के मुख्य रूप से तीन तत्त्व थे

  • कृषि का निरन्तर विस्तार करना।
  • दोहरी फसलों का उत्पादन करना।
  • अधिक उत्पादन हेतु अच्छे बीजों का प्रयोग किया जाए।

हरित क्रान्ति के सकारात्मक प्रभाव
अथवा
हरित क्रान्ति की सफलता के विभिन्न पक्ष भारत में हरित क्रान्ति के सकारात्मक परिणाम सामने आए, जो इस प्रकार हैं-

1. उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई—हरित क्रान्ति का सबसे अधिक प्रभाव कृषिगत उत्पादन की मात्रा पर पड़ा। इससे भारत में रिकॉर्ड पैदावार हुई। सन् 1978-79 में भारत में लगभग 131 मिलियन टन गेहूँ का उत्पादन हुआ तथा जो देश गेहूँ का आयात करता था, वह अब गेहूँ को निर्यात करने की स्थिति में आ गया।

2. औद्योगिक विकास को बढ़ावा-हरित क्रान्ति के कारण भारत में न केवल कृषि क्षेत्र को फायदा हुआ बल्कि इसने औद्योगिक विकास को भी बढ़ावा दिया। हरित क्रान्ति में अच्छे बीजों, अधिक पानी, खाद तथा कृत्रिम यन्त्रों की आवश्यकता थी, जिसके लिए उद्योग लगाए गए। इससे लोगों को रोजगार भी प्राप्त हुआ।

3. बुनियादी ढाँचे का विकास–हरित क्रान्ति की एक सफलता यह रही कि इसके परिणामस्वरूप भारत में बुनियादी ढाँचे में उत्साहजनक विकास देखने को मिला।

4. राजनीतिक स्तर में बढ़ोतरी-भारत में हरित क्रान्ति का एक सकारात्मक प्रभाव यह पड़ा कि भारत की अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर और अधिक मजबूत छवि बन गई। हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप भारत खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो गया, जिससे भारत को अमेरिका पर खाद्यान्न के लिए निर्भर नहीं रहना पड़ा और इसका प्रभाव सन् 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध में देखा गया।

5. विदेशों में भारतीय किसानों की माँग बढ़ी-भारत की हरित क्रान्ति से कई देश इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने भारतीय किसानों को अपने देश में बसाने के लिए प्रोत्साहित किया। कनाडा जैसे देश ने भारत सरकार से किसानों की माँग की जिसके कारण पंजाब व हरियाणा से कई किसान कनाडा में जाकर बस गए।

6. जल विद्युत शक्ति को बढ़ावा-बाँधों द्वारा संचित किए गए पानी का जलविद्युत शक्ति के उत्पादन में प्रयोग किया।

7. किसानों में संगठनात्मक एकता जाग्रत हुई—अधिकांश भारतीय किसान निरक्षर हैं, उनमें संगठनात्मक एकता का अभाव था। लेकिन हरित क्रान्ति (1967-68) के बाद जब उनकी दशा सुधरने लगी तो उनमें संगठनात्मक एकता की भावना का विकास होने लगा। भारतीय किसान यूनियन किसानों की इसी संगठनात्मक भावना का प्रतीक है। आज किसान पहले से अधिक संगठित हैं। किसानों की इस संगठनात्मक एकता के पीछे हरित क्रान्ति का ही हाथ है।

8. आन्दोलनों व प्रदर्शनों को बढ़ावा मिला हरित क्रान्ति से किसानों में चेतना आई है जिससे वे अपने अधिकारों की रक्षा के लिए आन्दोलनों व प्रदर्शनों का सहारा लेने लगे हैं। भारतीय किसान यूनियन (BKU) किसानों के हितों की रक्षा करने वाला एक संगठन है। इसके माध्यम से वे अपनी माँगें प्रशासन के समक्ष रखते हैं।

इस प्रकार हरित क्रान्ति ने एक लम्बे समय से सुस्त और निष्क्रिय पड़ी ग्रामीण जनता में नव-चेतना भर दी और इस क्रान्ति ने न केवल कृषिगत क्षेत्र बल्कि अन्य क्षेत्रों जैसे उद्योग, व्यापार, विद्युत आदि को भी प्रभावित किया।

प्रश्न 2.
नियोजन का अर्थ बताइए तथा उसके महत्त्व की विवेचना कीजिए। अथवा नियोजन से आप क्या समझते हैं? नियोजन की आवश्यकता एवं उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए। अथवा नियोजन का अर्थ, आवश्यकता एवं महत्त्व की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
नियोजन का अर्थ-नियोजन का अर्थ है-उचित रीति से सोच-विचार कर कदम उठाना। अर्थात् इसका अर्थ ‘पूर्व दृष्टि’ या आगे की ओर देखने से है ताकि यह स्पष्ट पता चल जाए कि क्या काम किया जाना है।

भारतीय योजना आयोग के अनुसार, “नियोजन साधनों के संगठन की एक विधि है जिसके माध्यम से साधनों का अधिकतम लाभप्रद उपयोग निश्चित सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है।”

भारत में नियोजन की आवश्यकता-वर्तमान युग नियोजन का युग है और विश्व के लगभग सभी देश अपने विकास और उन्नति के लिए आर्थिक नियोजन से जुड़े हुए हैं। भारत ने कई कारणों से नियोजन की आवश्यकता महसूस की—

  1. देश की निर्धनता,
  2. बेरोजगारी की समस्या,
  3. औद्योगीकरण की आवश्यकता,
  4. विभाजन से उत्पन्न आर्थिक असन्तुलन तथा अन्य समस्याएँ,
  5. सामाजिक तथा आर्थिक विषमताएँ,
  6. देश का पिछड़ापन, धीमी गति से विकास, विस्फोटक जनसंख्या आदि। ये सब समस्याएँ एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं अतः इनके निवारण व देश के समुचित विकास के लिए नियोजन ही एकमात्र विकल्प है।

नियोजन के उद्देश्य

भारत में नियोजन के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

1. पूर्ण रोजगार-भारत में बेरोजगारी एक अत्यन्त गम्भीर समस्या है। अतः इस समस्या को दूर कर लोगों को पूर्ण रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना नियोजन का प्रमुख उद्देश्य है।

2. गरीबी का उन्मूलन-निर्धनता की समस्या का निवारण दीर्घकालीन योजनाओं के माध्यम से ही किया जा सकता है। व्यक्ति की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति व जीवकोपार्जन के साधन उपलब्ध कराना नियोजन का दूसरा प्रमुख उद्देश्य है।

3. सामाजिक समानता की स्थापना करना—नियोजन आर्थिक संसाधनों के समान वितरण हेतु आवश्यक है। नियोजन के माध्यम से राज्य ऐसे कदम उठाता है जिससे धन का समान वितरण हो।

4. उपलब्ध संसाधनों का उचित प्रयोग-नियोजन के माध्यम से उपलब्ध संसाधनों का अधिकतम लाभप्रद उपयोग निश्चित सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किया जाता है।

5. सन्तुलित क्षेत्रीय विकास-सम्पूर्ण राष्ट्र के जीवन स्तर में समानता स्थापित करने के लिए राष्ट्र के अविकसित तथा अर्द्धविकसित क्षेत्रों को राष्ट्र के अन्य उन्नत क्षेत्रों के समान करना भी नियोजन का एक प्रमुख ध्येय होता है, अर्थात् नियोजन के माध्यम से ही क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर किया जा सकता है।

6. राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करना-नियोजन का अन्य उद्देश्य कृषि उद्योग क्षेत्र मे वृद्धि व आयात-निर्यात में सन्तुलन स्थापित करके राष्ट्रीय आय में अधिकाधिक वृद्धि करना है। इसके अलावा लोगों के लिए आय व रोजगार के साधनों में वृद्धि करके प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाना है।

7. सामाजिक उद्देश्य-नियोजन के सामाजिक उद्देश्यों में वर्ग रहित समाज की स्थापना का लक्ष्य शामिल है। श्रमिक व उद्योगपति दोनों को उत्पत्ति का उचित अंश मिलना चाहिए, पिछड़ी जातियों को शिक्षा में सुविधाएँ देना, सरकारी सेवाओं में प्राथमिकता प्रदान करना तथा अन्य पिछड़ी जातियों को समान स्तर पर लाना नियोजन का ध्येय है।

इस प्रकार नियोजन आधुनिक युग की नूतन प्रवृत्ति है। इसके अभाव में राष्ट्र सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकता।

प्रश्न 3.
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका एवं महत्त्व का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका एवं महत्त्व—भारत एक विकासशील देश है जिसमें मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया गया है। इस दृष्टि से यहाँ सार्वजनिक उद्यमों का विशेष महत्त्व है। इनकी बढ़ती हुई भूमिका को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है

1. समाजवादी समाज की स्थापना-आर्थिक असमानता को कम करके समाजवादी समाज की स्थापना के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम महत्त्वपूर्ण हैं।

2. सन्तुलित आर्थिक विकास में सहायक-भारत में क्षेत्रीय असन्तुलन पाया जाता है। यहाँ एक ओर ऐसे राज्य हैं जो आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं; जैसे-पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात आदि; वहीं दूसरी ओर कुछ राज्य पिछड़े हुए हैं; जैसे—बिहार, ओडिशा, हिमाचल प्रदेश आदि। इन पिछड़े हुए क्षेत्रों के विकास तथा इनको अन्य विकसित राज्यों के समकक्ष लाने के लिए सरकारी उद्यमों की स्थापना की जाती है। ये सार्वजनिक उद्यम पिछड़े क्षेत्रों में तीव्र विकास और पिछड़े तथा सम्पन्न राज्यों के बीच खाई को पाटने में सहायक हैं।

3. सामरिक (सुरक्षा) उद्योगों के लिए महत्त्वपूर्ण-नागरिकों की सुरक्षा के लिए आवश्यक है कि सैनिकों व शस्त्रागारों में श्रेष्ठ किस्म के शस्त्र हों, अत: विश्वसनीय हथियारों के निर्माण को निजी क्षेत्र को नहीं सौंपा जा सकता। इसलिए यह आवश्यक है कि प्रतिरक्षा उद्योगों पर सार्वजनिक नियन्त्रण होना चाहिए।

4. लोक-कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण-कुछ मूलभूत जन उपयोगी सेवाएँ जैसे पानी, बिजली, परिवहन, स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा आदि को सार्वजनिक क्षेत्र के लिए रखा जाना चाहिए क्योंकि निजी क्षेत्र इन सेवाओं में भी लक्ष्य की तलाश करता है। सार्वजनिक क्षेत्र इन सेवाओं को न्यूनतम कीमत पर जनता को उपलब्ध करवाता है।

5. अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण-अर्थव्यवस्था को उतार-चढ़ाव से बचाने के लिए तथा इसको नियमित रखने के लिए सरकारी नियन्त्रण आवश्यक है।

6. विदेशी सहायता-अल्पविकसित देशों में आन्तरिक साधन कम पड़ जाते हैं। अत: आर्थिक विकास के लिए बाहरी देशों पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसी स्थिति में विदेशी सहायता सार्वजनिक क्षेत्रों को ही मिलती है। इसलिए विदेशी सहायता की प्राप्ति के लिए भी सार्वजनिक क्षेत्र महत्त्वपूर्ण हैं।

7. प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा-सार्वजनिक क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों का जनहित में विवेकपूर्ण ढंग से विदोहन सम्भव होता है।

8. रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना-बेरोजगारी को दूर करने में सहायता प्रदान करता है। बड़े-बड़े उद्यमों में रोजगार के अवसर पैदा करना सार्वजनिक क्षेत्र के महत्त्व को प्रकट करता है।

9. निर्यात को प्रोत्साहन-सार्वजनिक क्षेत्र देश के निर्यात को बढ़ाने में बहुत सहायक सिद्ध हुआ है।

10. सहायक उद्योगों का विकास सार्वजनिक क्षेत्र ने सहायक उद्योगों के विकास में सहायता प्रदान की है जिससे इन उद्योगों में लगे लोगों को रोजगार प्राप्त हुआ है।

11. निजी क्षेत्र के दोषों को दूर करने में सहायक-निजी क्षेत्र व्यक्तिगत लाभ पर आधारित होते हैं। लाभ कमाने के लिए निजी क्षेत्र प्रतिस्पर्धा को उत्पन्न करते हैं। इस प्रतिस्पर्धा में अन्ततः उपभोक्ता अर्थात् सामान्यजन को नुकसान होता है। सार्वजनिक क्षेत्र जनकल्याण की दृष्टि से काम करता है। यह निजी क्षेत्र की लूट प्रवृत्ति को कम करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।

इस प्रकार भारत में मिश्रित स्वरूप वाली अर्थव्यवस्था ने सार्वजनिक उद्यमों में अर्थव्यवस्था के लिए मजबूत आधार-स्तम्भ के रूप में कार्य किया है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख समस्याओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख समस्याएँ-

  1. कार्यकुशलता का अभाव-सार्वजनिक क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर लाल फीताशाही और अफसरशाही पायी जाती है। यही कारण है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यकुशलता निजी क्षेत्र से कम रह जाती है।
  2. अनुशासनहीनता-सार्वजनिक क्षेत्र में प्रबन्ध की कमी के कारण प्रशासन में अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।
  3. प्रतिस्पर्धा का अभाव-स्वस्थ प्रतिस्पर्धा वस्तुओं की गुणवत्ता में सुधार के लिए आवश्यक है लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र में एकाधिकार के कारण वस्तुओं की कीमतें तो बढ़ा दी जाती हैं लेकिन गुणवत्ता नहीं।
  4. लाभ का अंश बहुत कम-सार्वजनिक उद्यमों के पिछले सभी आँकड़े देखने में यह तथ्य उजागर हुआ है कि रेलवे, डाक-तार व अन्य कई सार्वजनिक प्रतिष्ठान भारी घाटे में चल रहे हैं। इनकी लाभ प्रत्याशा बहुत ही निम्न रही है।

प्रश्न 2.
मिश्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल के दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
मिश्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल के दोष-भारत में अपनाए गए विकास के मिश्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल के दोषों का दक्षिणपन्थी और वामपन्थी दोनों खेमों ने उल्लेख किया है-

  1. योजनाकारों ने निजी क्षेत्र को पर्याप्त जगह नहीं दी है और न ही निजी क्षेत्र की वृद्धि के लिए कोई उपाय किया गया है।
  2. विशाल सार्वजनिक क्षेत्र ने ताकतवर निहित स्वार्थों को खड़ा किया है और इन हितों ने निवेश के लिए लाइसेन्स तथा परमिट की प्रणाली खड़ी करके निजी पूँजी की राह में रोड़े अटकाए हैं।
  3. सरकार ने अपने नियन्त्रण में जरूरत से ज्यादा चीजें रखीं। इससे भ्रष्टाचार और अकुशलता बढ़ी है।
  4. सरकार ने केवल उन्हीं क्षेत्रों में हस्तक्षेप किया जहाँ निजी क्षेत्र जाने को तैयार नहीं थे। इस तरह सरकार ने निजी क्षेत्र को मुनाफा कमाने में मदद की।

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प्रश्न 3.
योजना आयोग का गठन किन कारणों से किया गया था? क्या वह अपने गठन के उद्देश्य में सफल रहा?
उत्तर:
योजना आयोग का गठन-भारत में योजना आयोग का गठन 15 मार्च, 1950 को किया गया। इसका गठन निम्नलिखित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किया गया था-

  1. पूर्ण रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना,
  2. गरीबी का उन्मूलन करना,
  3. सामाजिक समानता की स्थापना करना,
  4. उपलब्ध संसाधनों का उचित प्रयोग करना,
  5. सन्तुलित क्षेत्रीय विकास करना, तथा
  6. राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय बढ़ाना। लेकिन योजना आयोग अपने गठन के उद्देश्यों में पूर्णतः सफल नहीं हुआ है। वह अपने उद्देश्यों में आंशिक रूप से ही सफल हुआ है। बेरोजगारी की समस्या अभी भी बनी हुई है। देश में गरीबी विद्यमान है; गरीब और गरीब हुआ है तथा अमीर और अमीर बना है। अत: सामाजिक असमानता कम होने के स्थान पर बढ़ी है। देश में क्षेत्रीय विकास सन्तुलित न होकर असन्तुलित हुआ है।

प्रश्न 4.
हरित क्रान्ति के विषय में कौन-कौन सी आशंकाएँ थीं? क्या यह आशंकाएँ सच निकलीं?
उत्तर:
सामान्यत: हरित क्रान्ति के विषय में दो भ्रान्तियाँ थीं-

(1) हरित क्रान्ति से अमीरों तथा गरीबों में विषमता बढ़ जाएगी क्योंकि बड़े जमींदार ही इच्छित अनुदानों का क्रय कर सकेंगे और उन्हें ही हरित क्रान्ति का लाभ मिलेगा तथा वे और अधिक धनी हो जाएँगे। निर्धनों को हरित क्रान्ति से कोई लाभ प्राप्त नहीं होगा।

(2) उन्नत बीज वाली फसलों पर जीव-जन्तु आक्रमण करेंगे। दोनों भ्रान्तियाँ सच नहीं हुई हैं क्योंकि सरकार ने छोटे किसानों को निम्न ब्याज दर पर ऋणों की व्यवस्था की और रासायनिक खादों पर आर्थिक सहायता दी ताकि वे उन्नत बीज तथा रासायनिक खाद सरलता से खरीद सकें और उनका उपयोग कर सकें। जीव-जन्तुओं के आक्रमणों को भारत सरकार द्वारा स्थापित अनुसन्धान संस्थाओं की सेवाओं से कम कर दिया गया।

प्रश्न 5.
मिश्रित अर्थव्यवस्था का अर्थ एवं विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
मिश्रित अर्थव्यवस्था का अर्थ-भारत के विकास के लिए पूँजीवादी मॉडल और समाजवादी मॉडल दोनों ही मॉडल की कुछ एक बातों को ले लिया और उन्हें अपने देश में मिले-जुले रूप में लागू किया। इसी कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को मिश्रित अर्थव्यवस्था कहा जाता है।
मिश्रित अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ-

  1. इसमें खेती, किसानी, व्यापार और उद्योगों का एक बड़ा भाग निजी क्षेत्र के हाथों में रहा।
  2. राज्य ने अपने हाथ में भारी उद्योग रखे और उसने आधारभूत ढाँचा प्रदान किया।
  3. राज्य में व्यापार का नियमन किया तथा कृषि क्षेत्र में कुछ बड़े हस्तक्षेप किए।

प्रश्न 6.
भारत में नियोजन की आवश्यकता को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सामान्यतः प्रशासकीय कार्यों के उद्देश्यों को निर्धारित करना तथा उनकी प्राप्ति के साधनों पर सुनियोजित ढंग से विचार करना नियोजन है। भारत में नियोजन की आवश्यकता मुख्यतः निम्नलिखित कारणों से अनुभव की जाती है-

  1. नियोजन के द्वारा आर्थिक तथा सामाजिक जीवन के विभिन्न अंगों में समन्वय स्थापित करके समाज की उन्नति की जा सकती है।
  2. नियोजन द्वारा सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की स्थापना की जा सकती है।
  3. देश में व्याप्त आर्थिक असन्तुलन को समाप्त करने तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि करने व लोगों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने की दृष्टि से नियोजन का अत्यधिक महत्त्व समझा गया।
  4. आर्थिक नियोजन का महत्त्व इस दृष्टि से भी था कि समाजवादी लक्ष्यों को प्राप्त किया जाए।
  5. साधनों के उचित प्रयोग, वैज्ञानिक साधनों के प्रयोग तथा राष्ट्रीय पूँजी का सही मात्रा में सदुपयोग की दृष्टि से भी नियोजन की अत्यधिक आवश्यकता थी।

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प्रश्न 7.
भारत में नियोजन के महत्त्व एवं उपयोगिता का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत में नियोजन का महत्त्व एवं उपयोगिता भारत में नियोजन के महत्त्व के सम्बन्ध में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-

  1. नियोजन में आर्थिक विकास का दायित्व राज्य ग्रहण कर लेता है तथा एक सामूहिक गतिविधि के रूप में योजनाओं के माध्यम से आर्थिक विकास का प्रारम्भ तथा उसका निर्देशन करता है।
  2. आधुनिक लोक-कल्याणकारी राज्य में आर्थिक संसाधनों के समानतापूर्ण वितरण में नियोजन की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
  3. नियोजन खुले बाजार वाली अर्थव्यवस्थाओं में अस्थिरता की सम्भावनाओं को दूर करने में सहायक है।
  4. विदेशी व्यापार की दृष्टि से भी नियोजन उपयोगी है। नियोजन से विदेशी व्यापार को अपने देश के हितों की शर्तों पर किया जा सकता है।
  5. प्रभावी नियोजन द्वारा अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन लाया जा सकता है।

प्रश्न 8.
भारत में योजना आयोग की स्थापना किस प्रकार हुई? इसके कार्यों के दायरे का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
योजना आयोग की स्थापना
योजना आयोग की स्थापना सन् 1950 में भारत सरकार ने एक सीधे-सादे प्रस्ताव के द्वारा की। योजना आयोग एक सलाहकारी भूमिका निभाता है। इसकी सिफारिशें तभी प्रभावी होती हैं, जब मन्त्रिमण्डल उन्हें मंजूरी प्रदान करे।

योजना आयोग के कार्य-योजना आयोग के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-

  1. देश के भौतिक संसाधनों और जनशक्ति का अनुमान लगाना तथा राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुसार उन संसाधनों की वृद्धि की सम्भावनाओं का पता लगाना।
  2. देश के संसाधनों के सन्तुलित उपयोग के लिए अत्यन्त प्रभावकारी योजना बनाना।
  3. योजना की क्रियान्विति के चरणों का निर्धारण करना तथा उनके लिए संसाधनों का नियमन करना।

नोट-वर्तमान में योजना आयोग के स्थान पर ‘नीति आयोग’ कार्यरत है। योजना आयोग को समाप्त कर दिया गया है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
नियोजन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है। यह कार्यों को क्रमबद्ध रूप से सम्पादित करने की एक मानसिक पूर्व प्रवृत्ति है। यह कार्य करने से पहले सोचना है तथा अनुमानों के स्थान पर तथ्यों को ध्यान में रखकर काम करना है।

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था किस प्रकार की थी?
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत पिछड़ी हुई थी। इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था थी। अंग्रेजों ने भारतीय संसाधनों का इतना बुरी तरह शोषण किया कि भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह खराब हो गई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था गतिहीन, अर्द्धसामन्ती तथा असन्तुलित अर्थव्यवस्था थी।

प्रश्न 3.
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की कोई दो समस्याएँ बताइए।
उत्तर:
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की दो प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

  1. सार्वजनिक क्षेत्र में लाल फीताशाही और नौकरशाही का बोलबाला है जिस कारण से सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यकुशलता निजी क्षेत्र की अपेक्षा बहुत कम है।
  2. भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख समस्या प्रबन्ध व्यवस्था का कुशल न होना है।

प्रश्न 4.
सार्वजनिक क्षेत्र की कोई दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
सार्वजनिक क्षेत्र की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. सार्वजनिक क्षेत्र एक व्यापक धारणा है जिसमें सरकार की समस्त आर्थिक तथा व्यावसायिक गतिविधियाँ शामिल की जाती हैं।
  2. सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों पर पूर्ण रूप से राष्ट्रीय नियन्त्रण होता है और सार्वजनिक क्षेत्र में एकाधिकार की प्रवृत्ति पायी जाती है।

प्रश्न 5.
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की उत्पत्ति के कोई चार कारण बताइए।
उत्तर:
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की उत्पत्ति के चार प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. राज्य में जनता के कल्याण के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना।
  2. बहु-उद्देशीय परियोजनाएँ सार्वजनिक क्षेत्र में ही स्थापित की जा सकती हैं।
  3. समाजवादी समाज की स्थापना करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र को अपनाना अति आवश्यक है।
  4. क्षेत्रीय आर्थिक असमानता सार्वजनिक क्षेत्र के उदय का महत्त्वपूर्ण कारण है।

प्रश्न 6.
पी० सी० महालनोबिस कौन थे?
उत्तर:
पी० सी० महालनोबिस अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विख्यात वैज्ञानिक एवं सांख्यिकीविद् थे। इन्होंने सन् 1931 में भारतीय सांख्यिकी संस्थान की स्थापना की थी। वे दूसरी पंचवर्षीय योजना के योजनाकार थे तथा तीव्र औद्योगीकरण और सार्वजनिक क्षेत्र की सक्रिय भूमिका के समर्थक थे।

प्रश्न 7.
जे० पी० कुमारप्पा कौन थे?
उत्तर:
जे० पी० कुमारप्पा का जन्म सन् 1892 में हुआ था। इनका वास्तविक नाम जे० सी० कार्नेलियस था। ये महात्मा गांधी के अनुयायी थे। इनकी कृति ‘इकोनॉमी ऑफ परमानैंस’ को बड़ी ख्याति मिली। योजना आयोग के सदस्य के रूप में भी इनको ख्याति प्राप्त हुई।

प्रश्न 8.
उड़ीसा में पोस्को लौह-इस्पात संयन्त्र की स्थापना का वहाँ के आदिवासियों ने क्यों विरोध किया था?
उत्तर:
आदिवासियों को इस बात का डर था कि यदि यहाँ उद्योगों की स्थापना हो गयी तो उन्हें अपने घर-बार से विस्थापित होना पड़ेगा तथा आजीविका छिन जाएगी।

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प्रश्न 9.
विकास की प्रक्रिया में किन बातों को शामिल किया जाता था?
उत्तर:
विकास की बात आते ही लोग ‘पश्चिम’ का हवाला देते थे कि ‘विकास’ का पैमाना ‘पश्चिमी’ देश हैं। विकास का अर्थ था अधिक-से-अधिक आधुनिक होना और आधुनिक होने का अर्थ था, पश्चिमी औद्योगिक देशों की तरह होना। विकास के लिए प्रत्येक देश को पश्चिमी देशों की तरह आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से गुजरना होगा। आधुनिकीकरण को संवृद्धि, भौतिक प्रगति और वैज्ञानिक तर्कबुद्धि का पर्यायवाची माना जाता था।

प्रश्न 10.
योजना आयोग के प्रस्ताव में किन नीतियों को अमल में लाने की बात कही गयी?
उत्तर:
योजना आयोग के प्रस्ताव में निम्नलिखित नीतियों को अमल में लाने की बात कही गयी-

  1. स्त्री और पुरुष सभी नागरिकों को आजीविका के पर्याप्त साधनों का बराबर-बराबर अधिकार हो।
  2. समुदाय के भौतिक संसाधनों की मिल्कियत और नियन्त्रण को इस तरह बाँटा जाएगा कि उससे सर्वसामान्य की भलाई हो।

प्रश्न 11.
‘बॉम्बे प्लान’ किसे कहा जाता था?
उत्तर:
भारत में सन् 1944 में उद्योगपतियों का एक वर्ग एकजुट हुआ। इस समूह ने देश में नियोजित अर्थव्यवस्था चलाने का एक संयुक्त प्रस्ताव तैयार किया। इसे ‘बॉम्बे प्लान’ कहा जाता है। ‘बॉम्बे प्लान’ की मंशा थी कि सरकार औद्योगिक और अन्य आर्थिक निवेश के क्षेत्र में बड़े कदम उठाए।

प्रश्न 12.
दूसरी पंचवर्षीय योजना के प्रमुख उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
दूसरी पंचवर्षीय योजना के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. जनसाधारण के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने हेतु राष्ट्रीय आय में 25% की वृद्धि करना।
  2. भारत में समाजवादी व्यवस्था के अनुरूप समाज बनाने के लिए उचित व्यवस्था को प्रोन्नत करना।
  3. आधारभूत उद्योगों को प्राथमिकता देकर तीव्र औद्योगीकरण करना।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारत में योजना आयोग का गठन किया गया
(a) 1950 ई० में
(b) 1951 ई० में
(c) 1952 ई० में
(d) 1953 ई० में।
उत्तर:
(a) 1950 ई० में।

प्रश्न 2.
पहली पंचवर्षीय योजना की अवधि है-
(a) 1951-56
(b) 1952-57
(c) 1947-52
(d) 1955-60.
उत्तर:
(a) 1951-56

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता के बाद भारत में किस आर्थिक प्रणाली को अपनाया गया-
(a) पूँजीवादी अर्थव्यवस्था
(b) समाजवादी अर्थव्यवस्था
(c) मिश्रित अर्थव्यवस्था
(d) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(c) मिश्रित अर्थव्यवस्था।

प्रश्न 4.
मिश्रित अर्थव्यवस्था प्रमुख रूप से है-
(a) पूँजीवादी अर्थव्यवस्था
(b) साम्यवादी अर्थव्यवस्था
(c) निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों का उत्पादन में सहयोग
(d) कृषि एवं उद्योगों पर आधारित अर्थव्यवस्था।
उत्तर:
(c) निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों का उत्पादन में सहयोग।

प्रश्न 5.
पहली पंचवर्षीय योजना में सार्वजनिक बल किस पर दिया गया-
(a) कृषि
(b) उद्योग
(c) पर्यटन
(d) यातायात एवं संचार।
उत्तर:
(a) कृषि।

प्रश्न 6.
भारत की किस पंचवर्षीय योजना में प्रति व्यक्ति आय में सर्वाधिक वृद्धि रही-
(a) पहली में
(b) दूसरी में
(c) तीसरी में
उत्तर:
(a) पहली में

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