UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 Theories of the Functions of the State

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 2
Chapter Name Theories of the Functions of the State (राज्य के कार्यों के सिद्धान्त)
Number of Questions Solved 21
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 Theories of the Functions of the State (राज्य के कार्यों के सिद्धान्त)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
राज्य के आवश्यक एवं ऐच्छिक कार्यों का वर्णन कीजिए। [2014, 16]
उत्तर
राज्य के कार्य
प्रत्येक युग के विचारकों का ध्यान राज्य की प्रकृति तथा उसके कार्यक्षेत्र पर अवश्य गया है। सभी ने अपने समय की परिस्थितियों एवं ज्ञान के आधार पर राज्य के कार्यों का वर्णन किया है। देशकाल की परिस्थितियों के अनुसार राज्य के कार्य परिवर्तित होते रहते हैं। प्रारम्भिक समय में राज्य द्वारा केवल वे ही कार्य किए जाते थे, जिनको करना राज्य के अस्तित्व हेतु नितान्त आवश्यक था। लेकिन वर्तमान काल में राज्य द्वारा किए जाने वाले कार्यों में अत्यधिक वृद्धि हो गई है। उसके कार्यों को एक सीमा में बाँधकर उनकी सूची तैयार करना असम्भव है। फिर भी राज्य द्वारा वर्तमान में जो कार्य किए जाते हैं उन्हें दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
(अ) राज्य के आवश्यक अथवा अनिवार्य कार्य तथा
(ब) राज्य के ऐच्छिक अथवा सामाजिक कार्य।

(अ) राज्य के आवश्यक अथवा अनिवार्य कार्य
अनिवार्य कार्यों का तात्पर्य ऐसे कार्यों से है जिनका सम्पादन करना प्रत्येक राज्य के लिए नितान्त आवश्यक है। इन कार्यों को रोकने से अथवा इन कार्यों के सम्पादन में असफल होने पर राज्य का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है। राज्य के आवश्यक कार्य निम्नलिखित हैं-

1. बाहरी आक्रमणों से देश की सुरक्षा करना – देश की सुरक्षा करना प्रत्येक राज्य का अनिवार्य कार्य है। यदि राज्य इस कार्य को नहीं करे तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। इस कार्य के लिए राज्य को जल, नभ तथा स्थल सेना रखनी पड़ती है। इसके साथ-साथ उसको अन्य राज्यों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाने का प्रयास करना पड़ता है, जिससे आपातकाल | में आवश्यकता पड़ने पर उनसे सहायता प्राप्त की जा सके।

2. आन्तरिक शक्ति एवं सुव्यवस्था की स्थापना करना – राज्य का प्रमुख कार्य अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत शान्ति एवं सुव्यवस्था की स्थापना, नागरिकों के जीवन तथा सम्पत्ति की रक्षा, आन्तरिक उपद्रवों का दमन और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा करना है। मैकाइवर के शब्दों में राज्य केवल शान्ति एवं व्यवस्था का प्रबन्ध ही नहीं करता है। राज्य का कर्तव्य है कि वह सर्वसाधारण की सुरक्षा एवं उनके व्यक्तित्व के पूर्ण विकास में सहयोग दे।” इसके लिए राज्य को अपराध निश्चित करने तथा दण्ड देने की व्यवस्था करनी पड़ती है।

3. न्याय का समुचित प्रबन्ध करना – देश में शान्ति की स्थापना पुलिस तथा सेना के बल पर ही नहीं हो सकती, बल्कि इसके लिए राज्य को कानून का उल्लंघन करने वालों को उचित दण्ड देने के लिए एक कुशल एवं स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था भी करनी पड़ती है।

4. अधिकार तथा कर्तव्यों का निर्धारण करना – नागरिक के अधिकार तथा कर्तव्यों की सीमा का निर्धारण करना और उन्हें विभिन्न प्रकार की राजनीतिक सुविधाएँ प्रदान करना भी राज्य का अनिवार्य कार्य है। वर्तमान लोकतन्त्रीय युग में नागरिकों के अधिकार तथा कर्तव्यों का अत्यधिक महत्त्व है।

5. परिवार में कानूनी सम्बन्ध स्थापित करना – राज्य का यह भी कर्तव्य है कि वह कानून का निर्माण कर पारिवारिक जीवन को सुखी तथा सामुदायिक जीवन को सुसंगठित करे। अतः पति-पत्नी, माता-पिता और बच्चों के बीच कानूनी सम्बन्ध स्थापित करना भी उसका अनिवार्य कार्य है। इसके अन्तर्गत सम्पत्ति के क्रय-विक्रय और ऋण के लेन-देन इत्यादि के कानून सम्मिलित हैं।

6. मुद्रा की व्यवस्था करना – राज्य का एक आवश्यक कार्य मुद्रा की व्यवस्था करना है। किसी देश की अर्थव्यवस्था वहाँ की मुद्रा-व्यवस्था पर विशेष रूप से आधारित होती है। मुद्रा के बिना राज्य का कार्य नहीं चल सकता। वर्तमान प्रत्येक देश में धन का अधिकांश लेन-देन बैंकों द्वारा किया जाता है और बैंकों पर सरकार का कठोर नियन्त्रण है।

7. कर संग्रह करना – राज्य के कार्यों को सम्पादित करने के लिए प्रचुर धनराशि की आवश्यकता | होती है। धन के अभाव में राज्य एक क्षण भी नहीं चल सकता है। धन-प्राप्ति के लिए राज्य अनेक प्रकार के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर लगाता है। इस प्रकार कर लगाना और वसूल करना राज्य का एक अनिवार्य कार्य है।

(ब) राज्य के ऐच्छिक अथवा सामाजिक कार्य
राज्य के वे कार्य ऐच्छिक कहलाते हैं जिनको राज्य यदि सम्पादित न भी करे तो राज्य का अस्तित्व समाप्त नहीं होगा, लेकिन व्यक्तियों के नैतिक, सामाजिक, मानसिक एवं आर्थिक कल्याण की वृद्धि हेतु ऐसे कार्य आवश्यक होते हैं। मानव जीवन को सुखी, सुन्दर एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए राज्य निम्नलिखित ऐच्छिक अथवा सामाजिक कार्य करता है-

1. शिक्षा की व्यवस्था – मानवीय व्यक्तित्व के विकास में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके अभाव में व्यक्ति के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास असम्भव है। अतः वर्तमान में शिक्षा का प्रबन्ध करना राज्य का महत्त्वपूर्ण कार्य समझा जाता है। इसी कारण राज्य प्रारम्भिक शिक्षा का संचालन करते हैं। राज्यों द्वारा नि:शुल्क तथा अनिवार्य प्रारम्भिक शिक्षा की व्यवस्था भी की जाती है। नागरिकों की मानसिक चेतना के विकास के लिए राज्य पुस्तकालयों तथा प्रयोगशालाओं इत्यादि की स्थापना करता है।

2. सफाई एवं स्वास्थ्य रक्षा का प्रबन्ध – सार्वजनिक स्वास्थ्य की सुव्यवस्था, सफाई एवं चिकित्सा इत्यादि का प्रबन्ध राज्य ही करता है। संक्रामक रोग एवं महामारियों को रोकने के लिए राज्य कानून बनाता है तथा नगरों एवं ग्रामों की सफाई का प्रबन्ध करता है। राज्य नागरिकों की चिकित्सा हेतु अस्पतालों की स्थापना करता है जहाँ नि:शुल्क अथवा उचित मूल्य पर चिकित्सा का प्रबन्ध रहता है।

3. सामाजिक सुधार – समाज सुधार हेतु प्रयास करना राज्य का एक नैतिक कर्तव्य है। प्रत्येक देश के सामाजिक जीवन में कुछ ऐसी कुरीतियाँ एवं रूढ़ियाँ प्रचलित रहती हैं जो सामाजिक जीवन के विकास का मार्ग अवरुद्ध करती हैं। उदाहरणार्थ, भारत में कुछ समय पहले बालविवाह, छुआछूत, साम्प्रदायिकता इत्यादि का बोलबाला था लेकिन सरकार ने इन सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने की दिशा में कठोर प्रयास किए हैं। इसके फलस्वरूप बाल-विवाह एवं छुआछूत को समाप्त करने में तो भारत सरकार कुछ सीमा तक सफल रही है लेकिन साम्प्रदायिकता एवं जातीयता का जहर अभी तक समाज में व्याप्त है।

4. बेकारी का उल्मूलन – बेकारी चोरी, लूट तथा अन्य असामाजिक प्रवृत्तियों को जन्म देती है। अत: प्रत्येक राज्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों को रोजगार दे। इसके लिए राज्य नए कल-कारखानों एवं उद्योगों की स्थापना करता है।

5. निर्धन, वृद्ध एवं अपाहिजों की सुरक्षा – राज्य में कुछ ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जो वृद्ध, रोगी, अपाहिज अथवा असहाय होने के कारण स्वयं अपनी आजीविका नहीं कमा सकते। राज्य का यह कर्तव्य है कि वह ऐसे लोगों की सहायता करे। इसी उद्देश्य को पूरा करने हेतु राज्य निर्धन-गृह, अन्धाश्रम, मानसिक चिकित्सालय, अनाथालय इत्यादि का प्रबन्ध करता है। राज्यों द्वारा वृद्ध तथा असहायों को उनकी जीवन रक्षा हेतु आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है।

6. उद्योग-धन्धों का विकास – देश की आर्थिक स्थिति को मजबूती प्रदान करने के लिए आवश्यक है कि अधिकाधिक उद्योग-धन्धों का विकास हो। इस बारे में राज्य का यह कर्तव्य है कि बड़े उद्योगों का वह स्वयं अधिग्रहण करके तथा छोटे एवं कुटीर उद्योगों को आर्थिक सहायता प्रदान करके प्रोत्साहित करे। इसके लिए राज्य को वित्तीय सहायता, औद्योगिक अन्वेषण केन्द्रों की सहायता तथा वैज्ञानिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना चाहिए।

7. कृषि का विकास-कृषि – प्रधान देशों की उन्नति तब तक नहीं हो सकती जब तक कि कृषि का विकास ने हो। अतः राज्य को कृषि की उन्नति की ओर भी ध्यान देना पड़ता है। इसके लिए सिंचाई का प्रबन्ध, श्रेष्ठ बीज, उत्तम खाद, कृषि सम्बन्धी नवीन तकनीक एवं उपकरणों की व्यवस्था तथा आपातकाल में किसानों की आर्थिक सहायता इत्यादि की व्यवस्था राज्य ही करता है।

8. श्रमिकों का कल्याण – श्रमिकों के हितों की रक्षा करना राज्य का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। पूँजीपति वर्ग श्रमिकों का शोषण न कर सके इसके लिए कारखाना कानून तथा श्रम कानूनों द्वारा सरकार पूँजीपतियों पर नियन्त्रण रखती है। काम के अधिकतम घण्टे, न्यूनतम पारिश्रमिक, श्रमिकों की दशा में सुधार तथा प्रबन्धक एवं श्रमिकों के मध्य होने वाले विवादों के निष्पादन हेतु राज्य नियमों की रचना करता है।

9. यातायात एवं संचार – साधनों का विकास – यातायात तथा संचार-साधनों के अभाव में कोई भी देश आर्थिक प्रगति नहीं कर सकता। यही कारण है कि प्रत्येक राज्य रेल, डाक एवं तार, टेलीफोन, रेडियो, दूरदर्शन इत्यादि साधनों का अधिकतम विकास करता है।

10. ललित कला, साहित्य एवं विज्ञान को प्रोत्साहन – राष्ट्र के निर्माण में ललित कला, साहित्य एवं विज्ञान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अतः प्रत्येक राज्य उन्हें प्रोत्साहित करता है।

11. मनोरंजन का प्रबन्ध – यह कहा जाता है कि श्रम के पश्चात् आराम एवं मनोरंजन जीवन को दीर्घायु बनाते हैं। मनोरंजन से जहाँ एक ओर शिथिल अंगों में स्फूर्ति का संचार होता है। वहीं दूसरी ओर शरीर को आवश्यक कार्य करने हेतु ऊर्जा प्राप्त होती है। अतः राज्य नागरिकों के मनोरंजन के लिए समुचित व्यवस्था करता है। वर्तमान में नागरिकों के स्वस्थ मनोरंजन हेतु राज्य पार्क, सार्वजनिक स्थल, सिनेमा, चिड़ियाघर, साहित्य परिषद् एवं खेल के मैदान इत्यादि की व्यवस्था करता है।

12. मादक पदार्थों पर नियन्त्रण – मादक पदार्थों, जैसे—शराब, गाँजा, भाँग, तम्बाकू, सिगरेट इत्यादि पर रोक लगाना भी राज्य का आवश्यक कर्तव्य हैं। जो राज्य इनकी उपेक्षा करते हैं, वहाँ के नागरिकों के स्वास्थ्य एवं चरित्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और राज्य पतन की ओर उन्मुख हो जाता है। अतः राज्य को नागरिकों के कल्याणार्थ मादक पदार्थों की बिक्री पर पूर्ण नियन्त्रण रखना चाहिए।

13. राष्ट्रीय विकास योजनाओं का निर्माण – वर्तमान में राज्य का एक महत्त्वपूर्ण ऐच्छिक कार्य राष्ट्रीय विकास की योजनाओं का निर्माण करके उन्हें क्रियान्वित करना है।

सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव जीवन की जटिलता बढ़ती जा रही है जिसके फलस्वरूप राज्य के कार्यों की सूची लम्बी तथा विशाल होती जा रही है। यहाँ महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि राज्य के ऐच्छिक तथा अनिवार्य कार्यों में अन्तर केवल मात्रा का है, प्रकार का नहीं। जो कार्य किसी राज्य द्वारा आज ऐच्छिक समझे जाते हैं वे ही कल अनिवार्य कार्यों की श्रेणी में भी आ सकते हैं। इस प्रकार राज्य के कार्यों का क्षेत्र दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है।

राज्य के कार्य-क्षेत्र सम्बन्धी सिद्धान्त
राज्य के कार्यों के सम्बन्ध में अनेक सिद्धान्तों को प्रतिपादन हो चुका है। इसका मुख्य कारण यह है कि राज्य के उचित कार्य-क्षेत्र के सम्बन्ध में विद्वानों में एकमत का अभाव है। प्राचीनकाल में व्यक्ति के हित और राज्य के हित को समान समझा जाता था। जॉन लॉक का मत था कि राज्य के कार्य-क्षेत्र की सीमाएँ व्यक्ति के प्राकृतिक और जन्मजात अधिकारों द्वारा निर्धारित होती हैं। इस मत के आधार पर यूरोप में हस्तक्षेप न करने का सिद्धान्त प्रचलित हुआ। हरबर्ट स्पेन्सर ने इस सिद्धान्त के आधार पर ही व्यक्तिवादी विचारधारा का प्रतिपादन किया। यह कहा जाने लगा, “राज्य व्यक्ति के लिए है, न कि व्यक्ति राज्य के लिए।” कालान्तर में आदर्शवाद, अराजकतावाद, समाजवाद आदि विचारधाराएँ विकसित होकर राज्य के कार्य-क्षेत्र का निर्धारण अपने-अपने सिद्धान्तों के अनुकूल करने लगीं। बीसवीं शताब्दी में कल्याणकारी राज्य की भावना का विकास हुआ। इसने राज्य के कार्य-क्षेत्र का व्यापक विस्तार कर दिया।

भारतीय विचारकों ने पाश्चात्य विचारकों से बहुत पहले ही कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को साकार रूप प्रदान किया था। मनु ने प्राचीनकाल में ही राज्य के कार्यों का निर्धारण कर दिया था। कालान्तर में कौटिल्य ने भी राज्य के कार्यों की सीमाओं का निश्चित किया था। लेकिन भारतीय विचारकों को दृष्टिकोण राजतन्त्रात्मक प्रणाली से प्रभावित था, जबकि आज विश्व के अधिकांश राज्यों में लोकतन्त्रात्मक प्रणाली स्थापित है। यही कारण है कि इक्कीसवीं शताब्दी के इस प्रारम्भिक दौर में लोक-कल्याणकारी राज्य की श्रेष्ठता स्थापित हो चुकी है।

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प्रश्न 2.
राज्य के कार्यों के सम्बन्ध में व्यक्तिवादी दृष्टिकोण का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। [2014]
या
राज्य के कार्यों का व्यक्तिवादी सिद्धान्त क्या है? इसकी विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। [2007]
या
व्यक्तिवाद से आप क्या समझते हैं ? इसके गुण एवं दोषों की विवेचना कीजिए।
या
“राज्य एक आवश्यक बुराई है।” क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने विचारों के पक्ष में तीन तर्क दीजिए। [2007, 09]
या
व्यक्तिवाद की विशेषताएँ बतलाइए तथा समाजवाद से इसका अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2011, 2013]
या
“राज्य एक अनिवार्य बुराई है।” इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
व्यक्तिवादी सिद्धान्त
व्यक्तिवादी सिद्धान्त के समर्थक व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर सर्वाधिक बल देते हैं। उनके अनुसार, राज्य के कार्य तथा कानून व्यक्ति की स्वतन्त्रता को प्रतिबन्धित करते हैं; अतः राज्यों के कार्यों की संख्या न्यूनतम होनी चाहिए। राज्य को व्यक्ति के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
इस सिद्धान्त के समर्थक एडम स्मिथ, जे०एस० मिल, हरबर्ट स्पेन्सर आदि थे। फ्रीमैन के शब्दों में, “सबसे अच्छी सरकार वह है जो सबसे कम शासन करती है।’

एक अन्य लेखक के अनुसार, “राज्य एक अनिवार्य बुराई है।” अर्थात् यह एक ऐसी बुराई है। जिसे व्यक्ति विवश होकर अपनाता है; अतः इसे अधिक कार्य नहीं सौंपे जाने चाहिए।

बेन्थम के शब्दों में, “व्यक्ति के हित को समझे बिना समुदाय के हित की कल्पना करना कोरी बकवास है।”
व्यक्तिवादियों के अनुसार, “राज्य एक अयोग्य संस्था है।”

स्पेन्सर के शब्दों में, “विधानमण्डलों के अँगूठा टेक, अशिक्षित तथा अनुभवहीन सदस्यों ने अतीत में अनेक भयंकर भूलें करके समाज को हानि पहुँचाई है। अतः भविष्य में उन पर कोई विश्वास नहीं किया जाना चाहिए।

व्यक्तिवादी मत के अनुसार राज्य का कार्यक्षेत्र
व्यक्तिवादी चाहते हैं कि राज्य के कार्यक्षेत्र को अधिक-से-अधिक सीमित कर दिया जाये। स्पेन्सर के मतानुसार, “व्यक्ति का स्थान समाज तथा राज्य के ऊपर होना चाहिए और राज्य को केवल वही कार्य करने चाहिए जिन्हें व्यक्ति नहीं कर सकता। उनके अनुसार राज्य के केवल निम्नलिखित तीन कार्य होने चाहिए-

1. आन्तरिक शान्ति और व्यवस्था करना – राज्य की आन्तरिक शान्ति और व्यवस्था अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है। राज्य में नागरिकों को घूमने-फिरने, सभा करने, मिलने-जुलने, आजीविका प्राप्त करने इत्यादि के अनेक अधिकार होते हैं, परन्तु समाज में अनेक ऐसे व्यक्ति होते हैं जो इन अधिकारों के प्रयोग में बाधा उत्पन्न करते हैं। इससे लोगों का जीवन व सम्पत्ति खतरे में पड़ जाती है। ऐसे असामाजिक तत्वों का दमन कर शान्ति और व्यवस्था बनाये रखना राज्य का प्रधान कर्तव्य है, इसीलिए राज्य पुलिस और सेना की सहायता से समाज में शान्ति और व्यवस्था का प्रबन्ध करता है। राज्य अपराधों, उपद्रव, लूटमार, चोरी-डकैती, विद्रोह आदि को रोकता है।

2. देश की बाहरी आक्रमणों से रक्षा करना – कभी-कभी एक राज्य दूसरे राज्य पर आक्रमण कर उस पर आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास करता है। आत्म-रक्षा प्रत्येक राज्य का प्रमुख कार्य होता है। बाहरी आक्रमणों से रक्षा करने की दृष्टि से राज्य शक्तिशाली जल, थल तथा वायु सेना आदि रखता है। इस प्रकार बाह्य आक्रमण से देश की रक्षा करना राज्य का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है। इसके अभाव में उसका अस्तित्व ही समाप्त हो सकता है।

3. न्याय और दण्ड की व्यवस्था करना – समाज में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए न्याय की उत्तम व्यवस्था का होना भी अनिवार्य है। न्याय की समुचित व्यवस्था से ही दुर्बल और असहाय व्यक्ति के अधिकार सुरक्षित रह पाएँगे और प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करेगा। इसलिए न्याय का प्रबन्ध करना भी राज्य का अनिवार्य कार्य है। न्याय के साथ दण्ड भी सम्बद्ध है। दण्ड का उद्देश्य प्रतिशोध नहीं होना चाहिए, उसका उद्देश्य अपराधी का सुधार होना चाहिए।

व्यक्तिवाद की विशेषताएँ
व्यक्तिवादी सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. यह सिद्धान्त राज्य की सर्वव्यापक शक्ति का विरोध करता है।
  2. यह सिद्धान्त इस बात में विश्वास नहीं करता कि राज्य के अपने निजी व्यक्तित्व और अपने निजी उद्देश्य हैं। व्यक्ति स्वयं साध्य है और राज्य साधन।
  3. व्यक्तिवादी राज्य की निरंकुशता तथा असीमितता में विश्वास नहीं करते।
  4. यह सिद्धान्त ‘लैसिस फेयर’ (Laissez Faire) के नाम से पुकारा जाता है, जिसका अभिप्राय है कि मनुष्य को जो वह चाहे करने दो।
  5. व्यक्तिवादी चाहते हैं कि राज्य को मनुष्य के जीवन से अलग रहना चाहिए।
  6. व्यक्तिवादियों के मतानुसार, राज्य का कार्य मनुष्य की स्वतन्त्रता की रक्षा करना, अपराधी को दण्ड देना और बाहरी शत्रु से देश की रक्षा करना है, अर्थात् राज्य का कार्य मनुष्य की रक्षा करना है न कि उनके व्यक्तित्व के विकास में सहायता करना।
  7. व्यक्तिवादियों के अनुसार, राज्य का अस्तित्व मानव-स्वभाव की निर्बलता का कारण है।
  8. स्वतन्त्रता व्यक्तिवाद की आधारशिला है। यह सिद्धान्त राज्य को व्यक्तियों की स्वतन्त्रता की रक्षा करने के लिए केवल पुलिस संगठन का कार्य देना चाहता है। राज्य को ऐसी कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व के स्वतन्त्र विकास में कोई बाधा उत्पन्न हो।
  9. व्यक्तिवादियों के अनुसार, “राज्य एक अभिशाप है, क्योंकि वह व्यक्तिगत स्वतन्त्रता छीनता है तथा एक ऐसी संस्था है जो बुरी होते हुए भी समाज से अराजकता और अव्यवस्था दूर करने के लिए आवश्यक है।

व्यक्तिवाद के पक्ष में तर्क (गुण)
व्यक्तिवादी सिद्धान्त के समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं-

1. नैतिक तर्क – व्यक्तिवाद के समर्थन में नैतिक तर्क यह है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना अलग व्यक्तित्व तथा विशेषता होती है। अत: यह आवश्यक है कि राज्य सभी व्यक्तियों को समान न समझे, अपितु प्रत्येक व्यक्ति को उसकी इच्छा के अनुसार अपनी शिक्षा, व्यवसाय तथा मनोरंजन आदि कार्यों को करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। मिल ने कहा है कि व्यक्तिगत जीवन में राजकीय हस्तक्षेप व्यक्ति के आत्म-विश्वास को नष्ट कर देता है, उसकी उत्तरदायित्व की भावना को कमजोर बनाता है तथा चारित्रिक विकास को अवरुद्ध कर देता

2. आर्थिक तर्क – एडम स्मिथ, माल्थस, मिल, रिकाड आदि अर्थशास्त्री इस विचारधारा के सम्बन्ध में यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि व्यक्ति अपने हानि-लाभ तथा आर्थिक हितों को स्वयं ही भली प्रकार समझता है। अतः राज्य को व्यक्ति के आर्थिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

3. ऐतिहासिक तर्क – व्यक्तिवादी अपने मत के समर्थन में ऐतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। उनका कहना है कि व्यक्ति के आर्थिक तथा सामाजिक जीवन में राज्य का हस्तक्षेप सदैव हानिकारक रहा है। राज्य ने मूल्य पर नियन्त्रण किया तो चोर-बाजारी बढ़ी, उत्पादन अपने हाथ में लिया तो भ्रष्टाचार बढ़ा और धार्मिक जीवन में हस्तक्षेप से क्रान्तियाँ हुईं। अतः राज्य को हस्तक्षेप न करने की नीति का ही पालन करना चाहिए।

4. प्राणिवैज्ञानिक तर्क – स्पेन्सर ने व्यक्तिवाद के समर्थन में नया तर्क प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, यह प्राकृतिक नियम है कि सभी प्राणी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते हैं। उस संघर्ष में योग्य तथा सबल प्राणी ही जीवित रहते हैं तथा शेष नष्ट हो जाते हैं। अयोग्य और निर्बल व्यक्तियों के नष्ट होने से एक उन्नत और शक्तिशाली राज्य का निर्माण सम्भव होता है। स्पेन्सर ने यहाँ तक कहा कि राज्य को निर्धन, अपाहिज व अनाथों की रक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यह जैविक नियमों के विरुद्ध है। राज्य को अपनी ऊर्जा योग्य व्यक्तियों के विकास के लिए लगानी चाहिए, क्योंकि वे ही समाज में रन के रूप में होते हैं।”

5. व्यावहारिक तर्क – व्यक्तिवादी विचारधारा के समर्थकों का कहना है कि व्यावहारिक दृष्टि से : राज्य में सभी कार्यों को सम्पन्न करने की योग्यता नहीं होती, क्योंकि राज्य के कर्मचारी लगन और प्रतिबद्धता से कार्य नहीं करते और मन्त्री प्रायः अनुभवशून्य होते हैं। इसके अतिरिक्त अनेक समस्याएँ स्थानीय प्रकृति की होती हैं तथा कुछ ऐसे कार्य होते हैं जिन्हें देरी किये बिना सम्पन्न करना आवश्यक होता है। इन्हें व्यक्तिगत स्तर पर जितनी जल्दी निपटाया जा सकता है, सरकारी स्तर पर उतना शीघ्र नहीं।

व्यक्तिवादी सिद्धान्त की आलोचना (दोष)
व्यक्तिवादी सिद्धान्त की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती है-

1. व्यक्ति और समाज की गलत कल्पना – वास्तविकता यह है कि “मनुष्य स्वभाव से ही एक सामाजिक प्राणी है। समाज से उसका अटूट सम्बन्ध है। समाज तथा राज्य के बिना मनुष्य अपना विकास नहीं कर सकता। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि व्यक्तिवादी विचारधारा गलत धारणा पर आधारित है।

2. स्वतन्त्रता का भ्रामक अर्थ – वस्तुतः राज्य अपने कानूनों द्वारा स्वतन्त्रता का अपहरण नहीं करता, अपितु उसकी रक्षा करता है। अतः यह कहा जा सकता है कि व्यक्तिवादियों की स्वतन्त्रता विषयक धारणा गलत मान्यताओं पर टिकी है।

3. राज्य को अनिवार्य बुराई कहना गलत – अरस्तू ने लिखा है कि राज्य की उत्पत्ति मनुष्य की रक्षा के लिए हुई है और श्रेष्ठ जीवन की प्राप्ति के लिए ही वह स्थिर है। अतः राज्य एक आवश्यक बुराई नहीं, अपितु एक सकारात्मक अच्छाई है।

4. राज्य मानव की उन्नति में बाधक नहीं – राज्य मनुष्यों की सर्वांगीण उन्नति के लिए। समुचित अवसर तथा सुविधाएँ प्रदान करता है। मानव-समाज ने राज्य की छत्रछाया में ही पर्याप्त आर्थिक व वैज्ञानिक उन्नति की है। इसलिए राज्य मानव-उन्नति में बाधक नहीं है। अरस्तु के अनुसार, “राज्य समस्त विज्ञानों, समस्त कलाओं, समस्त गुणों तथा समस्त पूर्णता में सहायक है।”

5. राज्य को हस्तक्षेप आवश्यक – राज्य के अभाव में प्रत्येक व्यक्ति अपने हित व स्वार्थ की पूर्ति के लिए प्रयत्नशील होगा। उसका ऐसा प्रयत्न दूसरे व्यक्ति के ऐसे ही प्रयत्नों में बाधक हो सकता है जो परस्पर संघर्ष को जन्म देगा। इसलिए व्यक्तिवादियों का यह मत गलत है कि राज्य का हस्तक्षेप अनावश्यक है।

6. लोकतन्त्रीय युग में व्यक्तिवाद अनावश्यक – व्यक्तिवाद का जन्म निरंकुश राज्यों की प्रतिक्रिया-स्वरूप हुआ था। वर्तमान युग में लोकतन्त्र के उदय तथा लोक-कल्याणकारी राज्य की धारणा के उद्भव से ऐसी परिस्थिति नहीं है; अतः आज यह सिद्धान्त अमान्य है।

7. व्यक्तिवादी तर्क अमानवीय – लीकॉक ने कहा है कि “यदि शक्ति को ही जीवित रहने की कसौटी मान लिया जाए तो एक समृद्ध और सबल चोर समाज में प्रशंसा का पात्र होगा और एक भूखा कलाकार घृणा का।” इस प्रकार शारीरिक शक्ति बौद्धिक बल पर हावी हो जाएगी, जिसे जंगल-राज कह सकते हैं; अतः व्यक्तिवादी सिद्धान्त अमानवीय है।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि यद्यपि व्यक्तिवादी सिद्धान्त वर्तमान समय में प्रभावहीन हो गया है, तथापि इस सिद्धान्त का महत्त्व इस दृष्टिकोण से आवश्यक है कि राज्य की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखना चाहिए। वस्तुतः व्यक्तिवाद व्यक्ति की गरिमा एवं स्वतन्त्रता पर बल देती है। गार्नर के शब्दों में, “व्यक्तिवादियों ने व्यक्ति के महत्त्व को विश्व के समक्ष रखा है।”

व्यक्तिवाद और समाजवाद में अन्तर

1. विचारधारा – व्यक्तिवादी सिद्धान्त के समर्थक व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर बल देते हैं। उनके अनुसार, राज्य के कार्य तथा कानून व्यक्ति की स्वतन्त्रता को प्रतिबन्धित करते हैं; अत: राज्य के कार्यों की संख्या न्यूनतम होनी चाहिए। वे राज्य को एक आवश्यक बुराई मानते हैं। । दूसरी ओर समाजवादी विचारधारा के अनुसार राज्य के द्वारा वे सभी कार्य किये जाने चाहिए जो व्यक्ति और समाज की उन्नति के लिए आवश्यक हों। इस विचारधारा के अनुसार राज्य के कार्यों की कोई सीमा नहीं है तथा सामाजिक जीवन के प्रायः सभी कार्य राज्य के कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत आ जाते हैं।

2. कार्यक्षेत्र – व्यक्तिवादी चाहते हैं कि राज्य के कार्यक्षेत्र को अधिक-से-अधिक सीमित कर दिया जाए। स्पेन्सर के मतानुसार, “व्यक्ति का स्थान समाज तथा राज्य के ऊपर होना चाहिए। और राज्य को केवल वही कार्य करने चाहिए जिन्हें व्यक्ति नहीं कर सकता।” उनके अनुसार राज्य के केवल तीन निम्नलिखित कार्य होने चाहिए-

  • आन्तरिक शान्ति और व्यवस्था करना,
  • देश की बाहरी आक्रमणों से रक्षा करना तथा
  • न्याय और दण्ड की व्यवस्था करना।

दूसरी ओर समाजवादी समानता को अपना आदर्श मानकर चलते हैं और राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में अधिकाधिक स्थापित करने के लिए निम्नलिखित बातों पर विशेष बल देते हैं-

  • समाज की आंगिक एकता,
  • समाज में प्रतियोगिता के स्थान पर सहयोग,
  • पूँजीवाद का अन्त तथा
  • उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व।

उद्योगों के प्रति दृष्टिकोण
व्यक्तिवादी विचारधारा राज्य के कार्यों को न्यूनतम कर देना चाहती है तथा उद्योगों को व्यक्तियों के लिए पूर्ण रूप से खुला रखना चाहती है। वह उद्योगों की स्थापना, संचालन तथा विकासे में राज्य का हस्तक्षेप नहीं चाहती। वह खुली प्रतियोगिता में विश्वास रखती है तथा एक प्रकार से पूँजीवाद की समर्थक है।
दूसरी ओर समाजवादी विचारधारा पूँजीवाद की घोर विरोधी होने के कारण भूमि और उद्योगों पर व्यक्तिगत स्वामित्व के अन्त की माँग करती है। यह विचारधारा उत्पादन के समस्त साधनों पर सामाजिक स्वामित्व स्थापित करना चाहती है। समाजवादी विचारधारा के अनुसार वैयक्तिक उद्योग वैयक्तिक लूटमार है और व्यक्तिगत सम्पत्ति को सामाजिक अथवा सामूहिक सम्पत्ति का रूप देना ही उचित है।
अतः निष्कर्षतया कहा जा सकता है कि उद्योगों के निजीकरण की प्रवृत्ति समाजवादी विचारधारा के प्रतिकूल है।

प्रश्न 3.
लोक-कल्याणकारी राज्य की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए। यह समाजवादी राज्य से किस प्रकार भिन्न है? [2010]
या
लोक-कल्याणकारी राज्य की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2010, 12, 16]
या
लोक-कल्याणकारी राज्य की परिभाषा दीजिए। इसके प्रमुख उद्देश्य क्या हैं? [2011, 15]
या
लोक-कल्याणकारी राज्य का अर्थ है? इसके मुख्य कार्यों का वर्णन कीजिए। [2008]
या
लोक-कल्याणकारी राज्य से आप क्या समझते हैं। भारत में लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना में कहाँ तक सफलता मिली है?
या
कल्याणकारी राज्य के कार्यों का उल्लेख विस्तार से कीजिए। [2013, 14]
या
लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा बताइए तथा इसके तीन महत्त्वपूर्ण कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2013]
या
लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा क्या है ? इसके मुख्य उद्देश्यों का परीक्षण कीजिए। [2008, 12, 13]
उत्तर
लोक-कल्याणकारी राज्य
लोक-कल्याणकारी राज्य की धारणा वर्तमान युग की देन है। सामान्य शब्दों में, लोककल्याणकारी राज्य एक ऐसा राज्य है जो व्यक्ति के विकास व उसकी उन्नति के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है।
विभिन्न विद्वानों द्वारा लोक-कल्याणकारी राज्य का अर्थ विभिन्न परिभाषाओं के द्वारा स्पष्ट किया गया है। इस सम्बन्ध में कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नवत् हैं-

  1. केण्ट के अनुसार, “लोक-कल्याणकारी राज्य वह राज्य है जो अपने नागरिकों के लिए व्यापक समाज-सेवाओं की व्यवस्था करता है।
  2. पण्डित नेहरू के शब्दों में, “सबके लिए समान अवसर उपलब्ध कराना, अमीरों व गरीबों के बीच का अन्तर मिटाना, जीवन-स्तर को ऊपर उठाना, लोक-कल्याणकारी राज्य के आधारभूत – ‘तत्त्व हैं।”
  3. अब्राहम लिंकन के अनुसार, “कल्याणकारी राज्य वह है जो अपनी आर्थिक व्यवस्था का संचालन आय के अधिकाधिक समान उद्देश्य के वितरण से करता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर स्पष्ट हो जाता है कि “जो राज्य आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि सभी क्षेत्रों में जनता के कल्याण के लिए अधिक-से-अधिक कार्य करता है, उसे लोक-कल्याणकारी राज्य कहते हैं। एक लोक-कल्याणकारी राज्य नागरिकों की स्वतन्त्रता और समानता का पोषक होता है। वह व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और समानता के बीच सन्तुलन बनाये रखने में सहायक होता है तथा पारस्परिक सहयोग को महत्त्व प्रदान करता है।”

लोक-कल्याणकारी राज्य के लक्षण या विशेषताएँ या उद्देश्य
लोक-कल्याणकारी राज्य की उपर्युक्त धारणा को दृष्टि में रखते हुए इस प्रकार के राज्य के प्रमुख रूप से निम्नलिखित लक्षण बताये जा सकते हैं-

1. आर्थिक सुरक्षा की व्यवस्था – लोक-कल्याणकारी राज्ये प्रमुख रूप से आर्थिक सुरक्षा के विचार पर आधारित है। हमारा अब तक का अनुभव स्पष्ट करता है कि शासन का रूप चाहे कुछ भी हो, व्यवहार में राजनीतिक शक्ति उन्हीं लोगों के हाथों में केन्द्रित होती है, जो आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली होते हैं। अतः राजनीतिक शक्ति को जनसाधारण में निहित करने और जनसाधारण के हित में इसका प्रयोग करने के लिए आर्थिक सुरक्षा की व्यवस्था नितान्त आवश्यक है। लोक-कल्याणकारी राज्य के सन्दर्भ में आर्थिक सुरक्षा का तात्पर्य निम्नलिखित तीन बातों से लिया जा सकता है-

(i) सभी व्यक्तियों को रोजगार – ऐसे सभी व्यक्तियों को, जो शारीरिक और मानसिक दृष्टि से कार्य करने की क्षमता रखते हैं, राज्य के द्वारा उनकी योग्यतानुसार उन्हें किसीन-किसी प्रकार का कार्य अवश्य ही दिया जाना चाहिए। जो व्यक्ति किसी भी प्रकार का कार्य करने में असमर्थ हैं या राज्य जिन्हें कार्य प्रदान नहीं कर सका है, उनके जीवनयापन के लिए राज्य द्वारा बेरोजगार बीमे की व्यवस्था की जानी चाहिए।

(ii) न्यूनतम जीवन-स्तर की गारण्टी – एक व्यक्ति को अपने कार्य के बदले में इतना पारिश्रमिक अवश्य ही मिलना चाहिए कि उसके द्वारा न्यूनतम आर्थिक स्तर की प्राप्ति की जा सके। न्यूनतम जीवन-स्तर से आशय है-भोजन, वस्त्र, निवास, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएँ। लोक-कल्याणकारी राज्य में किसी एक के लिए अधिकता के पूर्व सबके लिए पर्याप्तता की व्यवस्था की जानी चाहिए।

(iii) अधिकतम समानता की स्थापना – सम्पत्ति और आय की पूर्ण समानता न तो सम्भव है और न ही वांछनीय; तथापि आर्थिक न्यूनतम के पश्चात् होने वाली व्यक्ति की आय का उसके समाज सेवा सम्बन्धी कार्य से उचित अनुपात होना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो, व्यक्तियों की आय के न्यूनतम और अधिकतम स्तर में अत्यधिक अन्तर नहीं होना चाहिए। इस सीमा तक आय की समानता तो स्थापित की ही जानी चाहिए कि कोई भी व्यक्ति अपने धन के आधार पर दूसरे का शोषण न कर सके।

2. राजनीतिक सुरक्षा की व्यवस्था – लोक-कल्याणकारी राज्य की दूसरी विशेषता राजनीतिक सुरक्षा की व्यवस्था कही जा सकती है। इस प्रकार की व्यवस्था की जानी चाहिए कि राजनीतिक शक्ति सभी व्यक्तियों में निहित हो और ये अपने विवेक के आधार पर इस राजनीतिक शक्ति का प्रयोग कर सकें। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं-

(i) लोकतन्त्रीय शासन-लोक – कल्याणकारी राज्य में व्यक्ति के राजनीतिक हितों की साधना को भी आर्थिक हितों की साधना के समान ही आवश्यक समझा जाता है; अतः एक लोकतन्त्रीय शासन-व्यवस्था वाला राज्य ही लोक-कल्याणकारी राज्य हो सकता है।
(ii) नागरिक स्वतन्त्रताएँ – संविधान द्वारा लोकतन्त्रीय शासन की स्थापना कर देने से ही राजनीतिक सुरक्षा प्राप्त नहीं हो जाती। व्यवहार में राजनीतिक सुरक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नागरिक स्वतन्त्रता का वातावरण होना चाहिए, अर्थात् नागरिकों को विचार अभिव्यक्ति और राजनीतिक दलों के संगठन की स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए। इन स्वतन्त्रताओं के अभाव में लोकहित की साधना नहीं हो सकती और लोकहित की साधना के बिना लोक-कल्याणकारी राज्य, आत्मा के बिना शरीर के समान होगा।

पूर्व सोवियत संघ और वर्तमान चीन आदि साम्यवादी राज्यों में नागरिकों के लिए नागरिक स्वतन्त्रताओं और परिणामतः राजनीतिक सुरक्षा का अभाव होने के कारण उन्हें लोक कल्याणकारी राज्य नहीं कहा जा सकता।

3. सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था – सामाजिक सुरक्षा का तात्पर्य सामाजिक समानता से है। और इस सामाजिक समानता की स्थापना के लिए आवश्यक है कि धर्म, जाति, वंश, रंग और सम्पत्ति के आधार पर उत्पन्न भेदों का अन्त करके व्यक्ति को व्यक्ति के रूप में महत्त्व प्रदान किया जाए। डॉ० बेनी प्रसाद के शब्दों में, “सामाजिक समानता का सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि प्रत्येक व्यक्ति के सुख का महत्त्व हो सकता है तथा किसी को भी अन्य किसी के सुख का साधनमात्र नहीं समझा जा सकता है। वस्तुत: लोक-कल्याणकारी राज्य में जीवन के सभी पक्षों में समानता के सिद्धान्त को प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए।

4. राज्य के कार्यक्षेत्र में वृद्धि – लोक कल्याणकारी राज्य का सिद्धान्त व्यक्तिवादी विचार के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है और इस मान्यता पर आधारित है कि राज्य को वे सभी जनहितकारी कार्य करने चाहिए, जिनके करने से व्यक्ति की स्वतन्त्रता नष्ट या कम नहीं होती। इसके द्वारा न केवल आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सुरक्षा की व्यवस्था वरन् जैसा कि हॉब्सन ने कहा है, “डॉक्टर, नर्स, शिक्षक, व्यापारी, उत्पादक, बीमा कम्पनी के एजेण्ट, मकान बनाने वाले, रेलवे नियन्त्रक तथा अन्य सैकड़ों रूपों में कार्य किया जाना चाहिए।”

5. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना – इन सबके अतिरिक्त एक लोक-कल्याणकारी राज्य, अपने राज्य विशेष के हितों से ही सम्बन्ध न रखकर सम्पूर्ण मानवता के हितों से सम्बन्ध रखता है और इसका स्वरूप राष्ट्रीय न होकर अन्तर्राष्ट्रीय होता है। एक लोक-कल्याणकारी राज्य तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् ‘सम्पूर्ण विश्व ही मेरा कुटुम्ब है’ के विचार पर आधारित होता है।

लोक-कल्याणकारी राज्य के कार्य
परम्परागत विचारधारा राज्य के कार्यों को दो वर्गों (अनिवार्य और ऐच्छिक) में विभाजित करने की रही है और यह माना जाता रहा है कि अनिवार्य कार्य तो राज्य के अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए किये जाने जरूरी हैं, किन्तु ऐच्छिक कार्य राज्य की जनता के हित में होते हुए भी राज्य के द्वारा उनका किया जाना तत्कालीन समय की. विशेष परिस्थितियों और शासन के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है, लेकिन लोक-कल्याणकारी राज्य की धारणा के विकास के परिणामस्वरूप अनिवार्य और ऐच्छिक कार्यों की यह सीमा रेखा समाप्त हो गयी है और यह माना जाने लगा है। कि परम्परागत रूप में ऐच्छिक कहे जाने वाले कार्य भी राज्य के लिए उतने ही आवश्यक हैं जितने कि अनिवार्य समझे जाने वाले कार्य। लोक-कल्याणकारी राज्य के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-

1. आन्तरिक शान्ति और व्यवस्था करना – राज्य की आन्तरिक शान्ति और व्यवस्था अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है। राज्य में नागरिकों को घूमने-फिरने, सभा करने, मिलने-जुलने, आजीविका प्राप्त करने इत्यादि के अनेक अधिकार होते हैं, परन्तु समाज में अनेक ऐसे व्यक्ति होते हैं जो इन अधिकारों के प्रयोग में बाधा उत्पन्न करते हैं। इससे लोगों का जीवन में सम्पत्ति खतरे में पड़ जाती है। ऐसे असामाजिक तत्वों का दमन कर शान्ति और व्यवस्था बनाये रखना राज्य का प्रधान कर्त्तव्य है, इसीलिए राज्य पुलिस और सेना की सहायता से समाज में शान्ति और व्यवस्था का प्रबन्ध करता है। राज्य अपराधों, उपद्रव, लूटमार, चोरी-डकैती, विद्रोह आदि को रोकता है।

2. देश की बाहरी आक्रमणों से रक्षा करना – कभी-कभी एक राज्य दूसरे राज्य पर आक्रमण कर उस पर आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास करता है। आत्म-रक्षा प्रत्येक राज्य का प्रमुख कार्य होता है। बाहरी आक्रमणों से रक्षा करने की दृष्टि से राज्य शक्तिशाली जल, थल तथा वायु सेना आदि रखता है। इस प्रकार बाह्य आक्रमण से देश की रक्षा करना राज्य का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है। इसके अभाव में उसका अस्तित्व ही समाप्त हो सकता है।

3. न्याय और दण्ड की व्यवस्था करना – समाज में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए। न्याय की उत्तम व्यवस्था का होना भी अनिवार्य है। न्याय की समुचित व्यवस्था से ही दुर्बल और असहाय व्यक्ति के अधिकार सुरक्षित रह पाएँगे और प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करेगा। इसलिए न्याय का प्रबन्ध करना भी राज्य का अनिवार्य कार्य है। न्याय के साथ दण्ड भी सम्बद्ध है। दण्ड का उद्देश्य प्रतिशोध नहीं होना चाहिए, उसका उद्देश्य अपराधी का सुधार होना चाहिए।

4. वैदेशिक सम्बन्धों का संचालन – आज के युग में प्रत्येक देश दूसरे देशों के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित करता है। वह दूसरे देशों में अपने राजदूत भेजता है और दूसरे देशों के राजदूतों को अपने देश में रखता है। आपसी झगड़ों को मध्यस्थता द्वारा सुलझाने का प्रयत्न करता है। दूसरे देशों के साथ सांस्कृतिक एवं आर्थिक समझौते करके राज्य अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देता है। इस कार्य का महत्त्व आजकल इतना अधिक हो गया है कि प्रत्येक राज्य में इसके लिए एक पृथक् विभाग की स्थापना हो गयी है।

5. मुद्रा का प्रबन्ध करना – गैटिल तथा कुछ अन्य विचारकों ने राज्य के आवश्यक कार्यों के अन्तर्गत मुद्रा प्रबन्ध को भी स्थान दिया है। वास्तव में मुद्रा विनिमय का सर्वोत्तम माध्यम, है। मुद्रा के द्वारा ही राज्य अपनी आर्थिक नीति को सुनियोजित करता है। मुद्रा के द्वारा ही आन्तरिक तथा वैदेशिक व्यापार को प्रोत्साहन मिलता है; अतः राज्य उचित व प्रगतिशील मुद्रा-प्रणाली की व्यवस्था करता है।

6. कर लगाना.एवं वसूल करना – राज्य की आय के अनेक स्रोत होते हैं। इन स्रोतों में कर संग्रह प्रमुख है। राज्य करों की रूपरेखा, उनका अनुपात तथा दरें निश्चित करता है। वह निर्धारित करता है कि किससे कितना कर लेना चाहिए। कर-निर्धारण तथा कर (संग्रह) का सम्पादन किन लोगों द्वारा किस रूप में होना चाहिए, यह कार्य भी राज्य द्वारा निश्चित किया जाता है।

7. शिक्षा का प्रबन्ध करना – शिक्षा राष्ट्रीय विकास की आधारशिला होती है। शिक्षा की इस महत्ता के कारण सभी सभ्य राज्य शिक्षा, विकास तथा संगठन का प्रयास करते हैं। इस कार्य की पूर्ति के लिए राज्य विद्यालय, प्रयोगशाला, शोधशाला, वाचनालय, संग्रहालय इत्यादि की व्यवस्था करता है। इसके लिए राज्य स्वतः शिक्षण संस्थाएँ स्थापित करता है, उनका संचालन करता है तथा राज्य के नागरिकों द्वारा संचालित शिक्षण संस्थाओं को अनुदान देता है।

8. स्वास्थ्य-रक्षा एवं सफाई का प्रबन्ध करना – राष्ट्र के पूर्ण विकास के लिए उसके नागरिकों को स्वस्थ होना परम आवश्यक है। जिस राज्य के नागरिक स्वस्थ नहीं होते, उस राज्य का विकास नहीं हो पाता। अतः राज्य नागरिकों के स्वास्थ्य एवं सफाई की ओर पूरा ध्यान देता है। यह बीमारियों की रोकथाम करता है, खाद्य-पदार्थों में मिलावट को रोकता है। एवं हानिकारक वस्तुओं के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाता है। एक अच्छे राज्य का यह कर्तव्य है। कि वह अपने नागरिकों के स्वास्थ्य एवं स्वच्छता की ओर पूरा ध्यान दे। अच्छे चिकित्सालयों की स्थापना करे, जहाँ नि:शुल्क उपचार और चिकित्सा की व्यवस्था हो।

9. सामाजिक कुरीतियों का निवारण करना – प्राय: प्रत्येक समाज में अनेक कुरीतियाँ प्रचलित होती हैं। ये समाज के स्वरूप को विकृत कर देती हैं। इनके कारण सामाजिक प्रगति में बाधा पहुँचती है। राज्य को इन कुरीतियों के उन्मूलन का प्रयास करना चाहिए। स्वाधीन भारत की सरकार ने भारतीय समाज में फैली हुई अनेक कुरीतियों; जैसे-बाल-विवाह, सती–प्रथा, दहेज-प्रथा, छुआछूत आदि को कानून द्वारा दूर करने का अच्छा प्रयास किया है।

10. उद्योग-धन्धों तथा व्यापार का विकास करना – राज्य के ऐच्छिक कार्यों में उद्योग-धन्धों तथा व्यापार का विकास भी सम्मिलित है। वास्तव में किसी राष्ट्र के आर्थिक विकास के द्वारा ही समाज की चहुंमुखी प्रगति हो सकती है। इसलिए राज्य को चाहिए कि वह उद्योग-धन्धों तथा व्यापार का समुचित विकास करे, जिससे कि राष्ट्रीय आय में वृद्धि हो और लोगों का जीवन-स्तर ऊँचा उठे। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक समझौते करना, व्यापारियों तथा उत्पादकों को आर्थिक सहायता देना, कुछ उद्योगों को स्वयं चलाना, अधिक आयात कर लगाना आदि अनेक उपाय राज्य को अपनाने चाहिए।

11. यातायात एवं संचार के साधनों का विकास करना – यातायात एवं संचार के साधन किसी राष्ट्र की शिराओं या धमनियों की भाँति होते हैं। समुचित आवागमन एवं संचार के साधनों के बिना कोई राष्ट्र अपनी उन्नति नहीं कर सकता। इसलिए प्रत्येक राज्य रेल, तार, डाक, वायुयान, नौका-परिवहन इत्यादि का विकास करता है। स्वतन्त्र भारत की सरकार ने विगत वर्षों में इस दिशा में स्तुत्य कार्य किये हैं। इन साधनों के विकास से आर्थिक उन्नति तथा राष्ट्रीय प्रगति को बड़ा सम्बल मिला है।

12. बेकारी का अन्त करना – प्रायः प्रत्येक समाज में बेरोजगार लोग होते हैं। एक उन्नत और सभ्य राज्य बेरोजगार व्यक्तियों को रोजगार देने का प्रयास करता है। इसलिए वह नये उद्योगधन्धों एवं आजीविका के नये स्रोतों की स्थापना करने का प्रयास करता है। कुछ राज्य बेरोजगार युवकों को बेरोजगारी भत्ता भी देते हैं।

13. कृषि और ग्रामों का विकास करना – प्रायः प्रत्येक राष्ट्र में किसी-न-किसी सीमा तक कृषि-कार्य किया जाता है। कृषि के उत्पादन पर ही बहुत कुछ राष्ट्र की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति अवलम्बित होती है। अतएव प्रत्येक राज्य कृषि के विकास का पूरा प्रयास करता है। इस कार्य के लिए राज्य सिंचाई के साधनों का विकास, अच्छे बीज, खाद तथा आधुनिक कृषि-यन्त्रों की व्यवस्था करता है तथा फसल की रक्षा के लिए कीटनाशक दवाइयाँ उपलब्ध कराता है। साथ ही कृषि-उपजों की उचित मूल्य पर खरीद भी करता है। इसके अतिरिक्त ग्रामों में सुधार और कृषकों के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाना भी राज्य का कार्य है।

14. मनोरंजन के साधनों की व्यवस्था करना – मनोरंजन को मनुष्य के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके बिना स्वस्थ और सफल जीवन सम्भव नहीं है। इसलिए राज्य मनोरंजन के स्वस्थ साधनों का प्रबन्ध करता है। वह पार्क-बगीचे, खेल-कूद के मैदान, रेडियो, दूरदर्शन, नाट्य-गृह आदि की व्यवस्था करता है। लेकिन राज्य को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि मनोरंजन के साधनों में अश्लीलता का प्रवेश न होने पाये।

15. श्रमिकों के हितों की रक्षा करना – आज का युगे औद्योगिक युग है। ऐसे युग में औद्योगिक संस्थानों में काम करने वालों की संख्या काफी है। प्रायः पूँजीपति अनेक प्रकार से श्रमिकों का शोषण करते हैं। इसलिए प्रत्येक प्रगतिशील राज्य श्रमिकों के काम के घण्टे, उनकी छुट्टियाँ, वेतन-भत्ता, अवकाश इत्यादि से सम्बन्धित श्रम कानूनों का निर्माण करता है, जिनके द्वारा श्रमिक मिल-मालिकों के अत्याचारों तथा शोषण से बच जाते हैं। इसके अतिरिक्त राज्य श्रमिकों के मनोरंजन का प्रबन्ध करता है और उनके हितों की हर सम्भव दृष्टि से सुरक्षा करता है।

16. कला, साहित्य तथा विज्ञान की उन्नति में सहयोग करना – किसी भी राष्ट्र की प्रगति । उसकी कला, साहित्य और विज्ञान की उन्नति पर ही निर्भर करती है। अतः प्रत्येक राज्य को यह परम कर्तव्य है कि वह देश की विविध कलाओं, सभी भाषाओं के साहित्य और विज्ञान की उन्नति में सहयोग प्रदान करे, जिससे कलाकार, साहित्यकार और वैज्ञानिक प्रोत्साहित होकर देश के विकास में अपना अधिकाधिक योगदान दे सकें।

17. सामाजिक कल्याण के अन्य कार्य करना – उपर्युक्त ऐच्छिक कार्यों के अतिरिक्त कतिपय राज्य अन्य प्रकार के सामाजिक कल्याण के कार्य करते हैं। वे महिलाओं के कल्याण, शिशुओं के कल्याण, अपाहिजों के कल्याण, वृद्धों के कल्याण इत्यादि के लिए कानून का निर्माण कर उनको आवश्यक सुविधाएँ देने का प्रयास करते हैं। अनेक राज्यों में अपंग व्यक्तियों को कृत्रिम अंग, रोजगार में वरीयता तथा वृद्धों को पेंशन देने की व्यवस्था होती है। भारत सरकार ने भी सामाजिक कल्याण को निश्चित गति तथा दिशा देने का प्रयास किया है।

निष्कर्ष-राज्य के उपर्युक्त कार्यों के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि राज्य के कार्यों का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। आज के युग में राज्य के कार्यों की सीमा में मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन आ गया है। सभ्यता के विकास के साथ ही राज्य के कार्यों में भी वृद्धि होती जा रही है। वास्तव में, राज्य का उद्देश्य सारे समाज का कल्याण करना होना चाहिए।

क्या भारत कल्याणकारी राज्य है ?
भारत में प्राचीन काल से ही कल्याणकारी राज्य के आदर्श को अपनाया जाता रहा है। कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र में इस आदर्श का दृढ़ समर्थन किया था। चन्द्रगुप्त मौर्य, सम्राट् अशोक, शेरशाह सूरी तथा अकबर आदि सभी प्रजा के कल्याण को प्रमुखता देते रहे।
1947 ई० में स्वतन्त्र होने के बाद भारत के संविधान-निर्माताओं ने संविधान में भारत को कल्याणकारी राज्य घोषित किया और कल्याणकारी राज्य के सभी प्रमुख तत्त्वों को संविधान में स्थान दिया। संविधान की अग्रलिखित विशेषताओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत एक कल्याणकारी राज्य है-

  1. संविधान द्वारा नागरिकों को स्वतन्त्रता तथा समानता प्रदान की गयी है।
  2. संविधान में नागरिकों के मूल अधिकारों का उल्लेख करके नागरिकों को सर्वांगीण उन्नति में समान अवसर प्रदान किये गये और संविधान में राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों का उल्लेख तो एक प्रकार से कल्याणकारी राज्य के तत्वों की घोषणा-पत्र है।
  3. पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा आर्थिक व सामाजिक क्षेत्र में जन-कल्याण व विकास के अनेक कार्य सम्पन्न हुए हैं।
  4. आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना के लिए सरकार द्वारा महत्त्वपूर्ण कदम उठाये गये हैं। गरीबी व बेकारी दूर करने की दिशा में सरकार प्रयासरत है।
  5. शिक्षा, समाज-कल्याण व स्वास्थ्य-सुधार के क्षेत्र में सराहनीय प्रयास किये गये हैं।

व्यक्तिवादियों के अनुसार, “व्यक्ति साध्य है और राज्य साधन।” लोक-कल्याणकारी राज्य को सर्वमान्य लक्ष्य आर्थिक-सामाजिक न्याय की प्राप्ति होता है। इस दृष्टि से वर्ष 1971-76 के काल में लोक-कल्याण की दिशा में राजाओं के प्रिवीपर्स की समाप्ति, जोत की अधिकतम सीमा का निर्धारण, शहरी सम्पत्ति का समीकरण आदि कदम उठाये गये। वस्तुत: आर्थिक सुरक्षा तथा समानता की दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि वास्तविक लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना से भारत अभी भी बहुत दूर है। इस सम्बन्ध में तीव्र गति से ठोस प्रयत्न किये जाने की आवश्यकता है।

कल्याणकारी राज्य व समाजवादी राज्य में भिन्नता
समाजवाद एवं लोक-कल्याणकारी राज्यों में प्रमुख रूप से निम्नलिखित दो अन्तर हैं-

  1. लोक-कल्याणकारी राज्य प्रमुख रूप से आर्थिक सुरक्षा के विचार पर आधारित है। आर्थिक सुरक्षा से तात्पर्य सभी व्यक्तियों को रोजगार, न्यूनतम जीवन-स्तर की गारण्टी एवं अधिकतम आर्थिक समानता से है।
    समाजवादी राज्य आर्थिक समानता पर बल देता है यद्यपि समानता का यह विचार प्राकृतिक विधान और प्राकृतिक व्यवस्था के विरुद्ध है। समाजवाद का आर्थिक समानता का विचार पूँजीवाद के अन्त में निहित है।
  2. समाजवाद राज्य को अधिकाधिक कार्य सौंपना चाहता है। समाजवाद राज्य के कार्यक्षेत्र को व्यापक करना चाहते हैं। इसके विपरीत कल्याणकारी राज्य को वे सभी जनहितकारी कार्य सौंपना चाहते हैं जिनके करने से व्यक्ति की स्वतन्त्रता नष्ट नहीं होती। लोक-कल्याणकारी राज्य नागरिक स्वतन्त्रताओं के हिमायती हैं।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 Theories of the Functions of the State

प्रश्न 4.
मनु का राजत्व सिद्धान्त क्या था? उसके अनुसार राज्य के किन्हीं चार कार्यों की विवेचना कीजिए। [2009, 10]
या
मनु और कौटिल्य की राज्य के प्रति क्या अवधारणा थी? तर्कसंगत विवेचना कीजिए। [2012]
या
राज्य के कार्यों के सम्बन्ध में मनु के दृष्टिकोण की विवेचना कीजिए। [2011]
या
राज्य के कार्यक्षेत्र से सम्बन्धित मनु के विचार लिखिए। मनु के अनुसार राजा निरंकुश क्यों नहीं हो सकता है? [2013]
उत्तर
प्राचीन विचारकों- मनु, शुक्र, बृहस्पति और कौटिल्य आदि ने राज्य के कार्यों और राजा के कर्तव्यों पर विस्तार से विचार किया है। सामान्य रूप से उन्होंने प्राचीन भारत के राजनीतिक चिन्तन में राज्य को व्यापक कार्यक्षेत्र प्रदान किया है।
मनु का राजत्व सिद्धान्त
राज्य के कार्यक्षेत्र और राजा की शक्तियों के प्रसंग में आचार्य मनु के राजनीतिक चिन्तन की निम्नलिखित दो बातें प्रमुख हैं-

(क) मनु ने सदैव इस बात पर जोर दिया है कि राजा द्वारा कर्तव्यपालन किया जाना चाहिए और राजा का सर्वोच्च कर्तव्य है—प्रजा-पालन। मनु के शब्दों में, “राजा को अपनी प्रजा के प्रति पिता के समान व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि प्रजा का पालन करना राजा का श्रेष्ठ धर्म है और प्रजा-पालन द्वारा शास्त्रोक्त फल को भोगने वाला राजा धर्म से युक्त होता है।”

(ख) उसने राजा को निरंकुश शक्तियाँ प्रदान नहीं कीं, वरन् राजसत्ता को सीमित किया है। मनु के अनुसार, राजा को समझना चाहिए कि वह धर्म के नियमों के अधीन है। कोई भी राजा धर्म के विरुद्ध व्यवहार नहीं कर सकता, धर्म राजाओं और जनसाधारण पर एकसमान ही शासन करता है। इसके अतिरिक्त, राजा (राजनीतिक प्रभु) जनता के भी अधीन है। वह अपनी शक्तियों के प्रयोग करने में जनता की आज्ञा-पालन की क्षमता से सीमित होता है। सालेटोर के अनुसार, “मनु ने निस्सन्देह यह कहा है कि जनता राजा को गद्दी से उतार सकती है और उसे मार भी सकती है, यदि वह अपनी मूर्खता से प्रजा को सताता है।”

राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में मनु के चिन्तन की महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उसने मानवमात्र के कर्तव्यों और स्वधर्म-पालन पर बल दिया है जिसे अपनाकर सम्पूर्ण मानव-जाति सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सकती है। मनु ने ऐसी कानूनी पद्धति तथा राजधर्म का वर्णन किया है। जिसमें सभी वर्गों के व्यक्तियों के कर्तव्यों की व्याख्या की गयी है।

मनु के अनुसार राज्य के कार्य
मनु ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘मनुस्मृति’ में राज्य के कार्यों पर समुचित विचार किया है। मनु के अनुसार, राज्य के प्रमुख रूप से निम्नलिखित कार्य हैं-
1. बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा करना – मनु के मत से राज्य का सर्वप्रमुख कार्य बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा करना है। मनु के अनुसार, राजा को चाहिए कि वह सेना को तैयार रखे, सैनिक शक्ति का प्रदर्शन करता रहे और अपने गुप्तचरों की सहायता से शत्रु की कमजोरियों का ज्ञान प्राप्त करे। उसे अप्राप्त को पाने की इच्छा और प्राप्त भूमि की रक्षा करनी चाहिए। राजा को राज्य की सुरक्षा के लिए स्वयं पहाड़ी दुर्ग में निवास करना चाहिए, क्योंकि वह सभी दुर्गों में श्रेष्ठ होता है।

2. आन्तरिक शान्ति स्थापित करना – मनु यह मानते थे कि समाज के अराजक तत्त्व आन्तरिक शान्ति भंग करने का कारण बन सकते हैं, इसलिए राज्य का एक प्रमुख कार्य दण्ड-शक्ति के आधार पर दुष्टों को नियन्त्रण में रखना है। राज्य के द्वारा उनके प्रति बहुत कठोर व्यवहार किया जाना चाहिए। राज्य को भ्रष्ट व्यक्तियों, जुआरियों तथा धोखेबाजों को दण्डित करना चाहिए और गलत ढंग से चिकित्सा करने वालों पर भारी जुर्माना किया जाना चाहिए। मनु के अनुसार, वैश्यों और शूद्रों को अपने कर्तव्यों का सुचारु रूप से पालन करने के लिए विवश करना भी राज्य का कार्य है। मनु इस बात पर भी बल देता है कि स्त्रियों की सम्पत्ति को हथियाने वाले व्यक्तियों को राज्य द्वारा कठोर दण्ड दिया जाना चाहिए।

3. विवादों का निर्णय (न्यायिक कार्य) करना – राज्य का एक प्रमुख कार्य लोगों के आपसी विवादों का निर्णय करना और विभिन्न समुदायों के बीच होने वाले झगड़ों का निपटारा करना है। इस हेतु न्यायालयों का गठन किया जाना चाहिए ताकि जनसाधारण को निष्पक्ष न्याय सुलभ हो सके। राज्य को इन सभी विवादों का निर्णय धर्म-विधानों का ध्यान रखकर करना चाहिए। मनु के अनुसार, “जिस सभा (न्यायालय) में असत्य द्वारा सत्य पीड़ित होता है उसके सदस्य ही पाप से नष्ट हो जाते हैं।”

4. राज्य का आर्थिक विकास और प्रगति करना – मनु राज्य का अन्य प्रमुख कार्य राज्य का आर्थिक विकास और प्रगति बताते हैं। मनु के अनुसार, “राजा अप्राप्त (न मिले हुए सोने, चाँदी, हीरे, जवाहरात, भूमि आदि) को दण्ड द्वारा (शत्रु को दण्ड देकर या जीतकर) पाने की इच्छा करे। प्राप्त (मिले हुए सोना आदि) द्रव्यों की देखभाल करते हुए रक्षा करे तथा रक्षित धन की वृद्धि करे और बढ़ाये गये (उन द्रव्यों) को सुपात्रों में दान कर दे।” (मनुस्मृति, 7:101)
इस प्रकार शासन की नीति चार सूत्री होनी चाहिए-

  • शक्ति और वैध उपायों द्वारा धन अर्जित करना,
  • धन का रक्षण करना,
  • धन में वृद्धि करना,
  • धन सुपात्रों को दान करना।

कर की व्यवस्था (Taxation) करना – राज्य में सभी व्यवस्थाओं के संचालन के लिए धन की आवश्यकता होती है, इसलिए मनु ने अनेक करों (Taxes) का सुझाव दिया है। मनु ने निम्नलिखित चार प्रकार के कर बताये है-

  • बलि-विभिन्न प्रकार के कर।
  • शुल्क–बाजार या हाट में व्यापारियों द्वारा बिक्री के लिए लायी गयी वस्तुओं पर चूँगी।
  • दण्ड-कर-जुर्माने।
  • भाग-लगान।

मनु द्वारा निर्दिष्ट कर-सम्बन्धी धारणा में उसकी बुद्धिमत्ता और लोक-कल्याणकारी प्रवृत्ति की झलक मिलती है। मनु राज्य की प्रगति के लिए राज्य द्वारा कर लिया जाना आवश्यक मानते हैं, किन्तु वे कर को उचित सीमा तक ही लिये जाने का समर्थन करते हैं। मनु के अनुसार, “कर न लेने से राजा के और अत्यधिक कर लेने से प्रजा के जीवन का अन्त हो जाता है।” अधिक कर का निषेध करते हुए मनु कहते हैं- जिस प्रकार बछड़ा और मधुमक्खी अपने खाद्य क्रमशः दुध और मधु थोड़ी-थोड़ी मात्रा में ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार राज्य को प्रजा से। थोड़ा-थोड़ा वार्षिक कर ग्रहण करना चाहिए। मनु का मत था कि कर इस प्रकार निर्धारित हो कि निर्धन जनता पर कर का बोझ कम पड़े और समृद्ध व्यक्ति अधिक कर का भार उठाये। मनु ने वस्तुओं के मूल्य पर नियन्त्रण रखने को राज्य का एक कर्तव्य माना।

5. स्थानीय स्वशासन संस्थाओं का प्रबन्ध करना – मनु राज्य द्वारा स्थानीय स्वशासन संस्थाओं का प्रबन्ध किये जाने का समर्थन करता है। उसने अपनी प्रशासनिक व्यवस्था के अन्तर्गत स्थानीय स्वशासन संस्थाओं को महत्त्वपूर्ण माना है और स्थानीय विषयों का भार इन संस्थाओं को ही सौंपने का निर्देश दिया है।

6. असहाय व्यक्तियों की सहायता करना – मनु असहाय व्यक्तियों की सहायता करना भी राज्य का प्रमुख कार्य मानता है। उसके अनुसार, राज्य द्वारा सन्तानविहीन स्त्रियों, विधवाओं तथा रोगियों की देखभाल की जानी चाहिए और अवयस्कों की सम्पत्ति की रक्षा करनी चाहिए।

7. शिक्षा का प्रबन्ध करना – राज्य को शिक्षा की व्यवस्था भी करनी चाहिए तथा उसे शिक्षकों के हितों का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए। राज्य के द्वारा वेदों का अध्ययन और अध्यापन करने वाले ब्राह्मणों को दान देकर आर्थिक सहायता की जानी चाहिए।
इस प्रकार मनु ने राज्य के कार्यक्षेत्र को बहुत व्यापक माना है, किन्तु उसे निरंकुश नहीं बताया है। राजा धर्म के अधीन है। वह धर्म के विरुद्ध व्यवहार नहीं कर सकता। केवल मोटवानी का मत है, “मनु के निर्देशन में राज्य द्वारा बनाये जाने वाले अनेक कानून वर्तमानकालीन राजशास्त्र के विद्यार्थी को समाजवादी प्रतीत होंगे।”

वस्तुतः मनु द्वारा व्यक्त राज्य एक कल्याणकारी राज्य है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को बौद्धिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त करने का अवसर मिलता है।

कौटिल्य की राज्य के प्रति अवधारणा तथा राज्य सम्बन्धी सप्तांग सिद्धान्त
कौटिल्य के अनुसार, राजा के द्वारा उपर्युक्त सभी कार्यों को सम्पादन लोकहित की भावना से ही किया जाना चाहिए।
कौटिल्य राजतन्त्र को शासन का एकमात्र स्वाभाविक और श्रेष्ठ प्रकार मानता है। वह राज्य के सात अंगों में राजा को सर्वोच्च स्थिति प्रदान करता है। इतना होने पर भी कौटिल्य का राजा निरंकुश नहीं है। उस पर निम्नलिखित कुछ ऐसे प्रतिबन्ध हैं जिनके कारण वह मनमानी नहीं कर सकता-.

1. अनुबन्धवाद – कौटिल्य के अनुसार, मनुष्यों ने राजा की आज्ञाओं के पालन की जो प्रतिज्ञा की उसके बदले में राजा ने अपनी प्रजा के धन-जन की रक्षा का वचन दिया था। इसीलिए राजा प्रजा के जन-धन को हानि पहुँचाने वाला कोई कार्य नहीं कर सकता। कौटिल्य का मत है कि राजा की स्थिति वेतन-भोगी सैनिकों के समान ही होती है, अर्थात् राजा राजकोष से निश्चित वेतन ले सकता है। उसे मनमाने ढंग से राज्य की सम्पत्ति को व्यय करने का अधिकार नहीं था।

2. धर्म और रीति-रिवाज – कौटिल्य के अनुसार, राजा के अधिकार धर्म और रीति-रिवाज सीमित थे और वह इनका पालन करने के लिए बाध्य था। उसे यह डर रहता था कि राजा द्वारा इन नियमों का उल्लंघन किये जाने पर जनता क्षुब्ध होकर स्वयं ही उसके जीवन का अन्त न कर दे। तत्कालीन जीवन में धर्म और परलोक की भावना बहुत प्रबल होने के कारण नरक को भये भी राजा को मनमानी करने से रोकता था।

3. मन्त्रिपरिषद् – राजा की शक्ति पर मन्त्रिपरिषद् का भी प्रतिबन्ध होता था। उसके अनुसार राजा और मन्त्रिपरिषद् राज्य रूपी रथ के दो चक्र हैं, इसीलिए मन्त्रिपरिषद् का अधिकार राजा के बराबर ही है। मन्त्रिपरिषद् राजा की शक्ति पर नियन्त्रण रख उसे मनमानी करने से रोकती थी।

4. राजा का व्यक्तित्व और उसकी शिक्षा – राजा का व्यक्तित्व तथा उसे प्रदान की गयी शिक्षा भी कौटिल्य के राजा की निरंकुशता पर अत्यन्त प्रभावशाली प्रतिबन्ध है। कौटिल्य ने राजा के लिए अनेक गुण आवश्यक बताये हैं और ऐसा सर्वगुणसम्पन्न राजा अपने स्वभाव से निरंकुश नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त कौटिल्य ने राजा की शिक्षा पर बल देकर उस पर ऐसे संस्कार डालने चाहे हैं कि वह लोकहित के कार्यों में लगा रहे। श्री कृष्णराव ने ठीक ही कहा है कि “कौटिल्य का राजा अत्याचारी नहीं हो सकता, चाहे वह कुछ बातों में स्वेच्छाचारी रहे, क्योंकि वह धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्र के सुस्थापित नियमों के अधीन रहता है।”

प्रश्न 5.
राज्य के कार्यों से सम्बन्धित कौटिल्य के विचारों का विवेचन (उल्लेख) कीजिए। (2015)
या
आचार्य कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित राज्य की अवधारण बताइए। कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित राज्य सम्बन्धी सप्तांग सिद्धान्त का वर्णन कीजिए। [2010]
या
कौटिल्य के राजनीतिक विचारों का वर्णन कीजिए। [2014]
उत्तर
कौटिल्य ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र में राज्य के कार्यों और राजा के कर्तव्यों का विस्तार से उल्लेख किया है। कौटिल्य प्रजा के सुख को सर्वोपरि मानते हैं। यह उनकी विचारधारा का मूल आधार है। उन्होंने लिखा है-
प्रजा सुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हितो हितम्।
नात्मप्रिये हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम्।।
(कौटिल्य अर्थशास्त्र 1:39)
[अर्थात् ‘प्रजा’ के सुख में राजा का सुख है, प्रजा के हित में राजा का हित है। राजा के लिए प्रजा के सुख से अलग अपना कोई सुख नहीं है, प्रजा का प्रिय और हित ही राजा का प्रिय और हित है।]
इसी आधार पर कौटिल्य राज्य के कार्यक्षेत्र तथा राजा के कर्तव्यों की विशद् विवेचना भी करता है। उनके अनुसार राज्य के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-

1. वर्णाश्रम धर्म को बनाये रखना – कौटिल्य के अनुसार राज्य का एक प्रमुख कार्य वर्णाश्रम धर्म को बनाये रखना और सभी प्राणियों को अपने धर्म से विचलित न होने देना है। प्राचीन भारतीय जीवन के अन्तर्गत चार वर्षों और वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था को स्वीकार किया गया था। कौटिल्य का मत है कि “जिस राजा की प्रजा आर्य मर्यादा के आधार पर व्यवस्थित रहती है, जो वर्ण और आश्रमों के नियमों का पालन करती है और त्रयी (तीन वेद) द्वारा निहित विधान से रक्षित रहती है, वह प्रजा सदैव प्रसन्न रहती है और उसका कभी नाश नहीं होता।”

2. न्याय की व्यवस्था करना – स्वधर्म पालन योजना को कार्यान्वित करने के लिए न्यायव्यवस्था की स्थापना आवश्यक है। इसके दो क्षेत्र होते हैं-
(i) व्यवहार क्षेत्र तथा (ii) कण्टक शोधन क्षेत्र। पहले का सम्बन्ध नागरिकों के पारस्परिक विवादों से है और दूसरे का राज्य के कर्मचारियों व व्यवसायियों से है। निर्णय के लिए कौटिल्य राज्य को अनेक प्रकार के न्यायालयों की स्थापना का परामर्श देता है।

3. दण्ड की व्यवस्था करना – राज्य का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य दण्ड की व्यवस्था करना है। दण्ड से अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति होती है, उसकी रक्षा होती है, रक्षित वस्तु बढ़ती है और बढ़ी हुई वस्तु का उपभोग होता है। समाज और सामाजिक व्यवहार भी दण्ड पर ही निर्भर होते हैं, इसीलिए दण्ड की व्यवस्था महत्त्वपूर्ण है। इस सम्बन्ध में राजा को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि दण्ड न तो आवश्यकता और औचित्य से अधिक हो और न ही कम। दण्ड देते समय राज्य को अपराधी की सामर्थ्य, अपराधी का वर्ण, अपराधी के सुधार आदि को ध्यान में रखना चाहिए। यथोचित दण्ड देने वाला राजा पूज्य होता है और केवल यथोचित दण्ड ही प्रजा को धर्म, अर्थ तथा काम से परिपूर्ण करता है। यदि दण्ड को उचित प्रयोग नहीं होता तो बलवान निर्बल को वैसे ही खा जाते हैं जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को।

4. राज्य की सुरक्षा करना – राज्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है कि वह अपनी रक्षा करे, क्योंकि यदि वह स्वयं अपनी रक्षा न कर सका तो वह नष्ट हो जाएगा। अपनी रक्षा हेतु राज्य को समुचित सेना, सुदृढ़ दुर्गों, पुलों आदि की व्यवस्था करनी चाहिए। षाडगुण्य नीति’ के अन्तर्गत राज्य को वैदेशिक सम्बन्धों के संचालन के लिए सन्धि, विग्रह (युद्ध), आसन (तटस्थता), यान (शत्रु पर आक्रमण करना), संश्रय (बलवान का आश्रय लेना) तथा दैवीभाव (सन्धि और युद्ध को एक साथ प्रयोग) को आधार बनाना चाहिए। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सफल संचालन हेतु राज्य को साम, दाम, दण्ड, भेद साधनों का अनुसरण करना चाहिए।

5. गुप्तचर की व्यवस्था करना – इस कर्त्तव्य के विधिवत् पालन हेतु राज्य के कर्मचारियों, व्यापारियों आदि के दैनिक व्यवहार पर गुप्तचर व्यवस्था के द्वारा नजर रखता है। विपत्ति के समय राज्य प्रजा की विभिन्न प्रकार से सहायता करता है, जो कि उसका परम कर्तव्य है।

6. लोकहित और सामाजिक कल्याण करना – कौटिल्य राजा को लोकहित और सामाजिक कल्याण के कार्य भी सौंपता है। इसके अन्तर्गत राजा दान देगा और अनाथ, वृद्ध तथा असहाय लोगों का पालन-पोषण करेगा। असहाय गर्भवतियों की उचित व्यवस्था करेगा और उनके बच्चों का पालन-पोषण करेगा। राज्य के अन्य भी कर्तव्य हैं; जैसे—कृषि के लिए बाँध बनाना, जल मार्ग, स्थल मार्ग, बाजार और जलाशय बनाना, दुर्भिक्ष के समय जनता की सहायता करना और उन्हें बीज देना आदि। जो किसान खेती न करके जमीन परती छोड़ देते हों, उनके पास से जमीन लेकर वह खुद किसान को देगा।
राजा के लोकहित और समाज-कल्याण सम्बन्धी इन राज्यों के उल्लेख में कौटिल्य की दूरदर्शिता ही झलकती है। कौटिल्य के अनुसार, खदानें, वस्तुओं के निर्माण, जंगलों में इमली की लकड़ी और हाथियों को प्राप्त करने तथा अच्छी नस्ल के जानवरों को पैदा करने के प्रबन्ध भी राज्य के ही कार्य हैं।

7. आर्थिक प्रबन्ध करना – कौटिल्य के अनुसार, राज्य की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होनी चाहिए और आर्थिक विषयों का प्रबन्ध सुव्यवस्थित रूप में होना चाहिए। राज्य के पास भरा-पूरा कोष और आय के स्थायी स्रोत होने चाहिए। इस सम्बन्ध में कौटिल्य का मत है कि राजा को प्रजा से उपज का छठा भाग लेना चाहिए तथा कोष में बहुमूल्य धातुएँ तथा मुद्राएँ पर्याप्त मात्रा में रखनी चाहिए। कौटिल्य का विचार है कि आवश्यक होने पर राज्य के द्वारा धनवानों पर अधिक कर लगाये जाने चाहिए और इस प्रकार एकत्रित की गयी धनराशि गरीबों में बाँट देनी चाहिए।

8. युद्ध करना – कौटिल्य के अनुसार, युद्ध करना राज्य का प्रमुख कार्य है। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ का केन्द्र एक ऐसा विजिगीषु (विजय की इच्छा रखने वाला) राजो है जिसका उद्देश्य निरन्तर नये प्रदेश प्राप्त कर अपने क्षेत्र में वृद्धि करना है। कौटिल्य सभी आर्थिक और अन्य संस्थाओं की महत्ता इसी मापदण्ड से निश्चित करता है कि ये राज्य को किस सीमा तक सफल युद्ध के लिए तैयार करती हैं।
कौटिल्य के अनुसार, राजा के द्वारा उपर्युक्त सभी कार्यों को सम्पादन लोकहित की भावना से ही किया जाना चाहिए।

कौटिल्य राजतन्त्र को शासन का एकमात्र स्वाभाविक और श्रेष्ठ प्रकार मानता है। वह राज्य के सात अंगों में राजा को सर्वोच्च स्थिति प्रदान करता है। इतना होने पर भी कौटिल्य का राजा निरंकुश नहीं है। उस पर निम्नलिखित कुछ ऐसे प्रतिबन्ध हैं जिनके कारण वह मनमानी नहीं कर सकता-.

1. अनुबन्धवाद – कौटिल्य के अनुसार, मनुष्यों ने राजा की आज्ञाओं के पालन की जो प्रतिज्ञा की उसके बदले में राजा ने अपनी प्रजा के धन-जन की रक्षा का वचन दिया था। इसीलिए राजा प्रजा के जन-धन को हानि पहुँचाने वाला कोई कार्य नहीं कर सकता। कौटिल्य का मत है कि राजा की स्थिति वेतन-भोगी सैनिकों के समान ही होती है, अर्थात् राजा राजकोष से निश्चित वेतन ले सकता है। उसे मनमाने ढंग से राज्य की सम्पत्ति को व्यय करने का अधिकार नहीं था।
2. धर्म और रीति-रिवाज – कौटिल्य के अनुसार, राजा के अधिकार धर्म और रीति-रिवाज सीमित थे और वह इनका पालन करने के लिए बाध्य था। उसे यह डर रहता था कि राजा द्वारा इन नियमों का उल्लंघन किये जाने पर जनता क्षुब्ध होकर स्वयं ही उसके जीवन का अन्त न कर दे। तत्कालीन जीवन में धर्म और परलोक की भावना बहुत प्रबल होने के कारण नरक को भये भी राजा को मनमानी करने से रोकता था।

3. मन्त्रिपरिषद् – राजा की शक्ति पर मन्त्रिपरिषद् का भी प्रतिबन्ध होता था। उसके अनुसार राजा और मन्त्रिपरिषद् राज्य रूपी रथ के दो चक्र हैं, इसीलिए मन्त्रिपरिषद् का अधिकार राजा के बराबर ही है। मन्त्रिपरिषद् राजा की शक्ति पर नियन्त्रण रख उसे मनमानी करने से रोकती थी।

4. राजा का व्यक्तित्व और उसकी शिक्षा – राजा का व्यक्तित्व तथा उसे प्रदान की गयी शिक्षा भी कौटिल्य के राजा की निरंकुशता पर अत्यन्त प्रभावशाली प्रतिबन्ध है। कौटिल्य ने राजा के लिए अनेक गुण आवश्यक बताये हैं और ऐसा सर्वगुणसम्पन्न राजा अपने स्वभाव से निरंकुश नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त कौटिल्य ने राजा की शिक्षा पर बल देकर उस पर ऐसे संस्कार डालने चाहे हैं कि वह लोकहित के कार्यों में लगा रहे। श्री कृष्णराव ने ठीक ही कहा है कि “कौटिल्य का राजा अत्याचारी नहीं हो सकता, चाहे वह कुछ बातों में स्वेच्छाचारी रहे, क्योंकि वह धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्र के सुस्थापित नियमों के अधीन रहता है।”

प्रश्न 6.
‘समाजवाद क्या है? यह किन सिद्धान्तों पर आधारित है? किन्हीं तीन सिद्धान्तों को विस्तार से समझाइए। (2007)
या
समाजवाद के मूल सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए। [2013]
या
समाजवाद के किन्हीं चार सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
समाजवादी विचारधारा की उत्पत्ति व्यक्तिवाद की प्रतिक्रिया के रूप में हुई और वर्तमान समय में यह विचारधारा बहुत अधिक लोकप्रिय है। समाजवाद का अंग्रेजी पर्यायवाची ‘Socialism’, *Socius’ शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ समाज और जैसा कि शब्द व्युत्पत्ति से ही स्पष्ट है। समाजवाद व्यक्तिवाद के विरुद्ध समाज के महत्त्व पर आधारित है। समाजवाद का आधारभूत उद्देश्य समानता की स्थापना करना है और इस समानता की स्थापना के लिए स्वतन्त्र प्रतियोगिता का अन्त किया जाना चाहिए। उत्पादन के साधनों पर सम्पूर्ण समाज का अधिकार होना चाहिए और उत्पादन व्यवस्था का संचालन किसी एक वर्ग के लाभ को दृष्टि में रखकर नहीं, वरन् सभी वर्गों के सामूहिक हित को दृष्टि में रखकर किया जाना चाहिए। समाजवाद की परिभाषा करते हुए रॉबर्ट ब्लैकफोर्ड ने कहा है कि समाजवाद के अनुसार भूमि तथा उत्पादन के अन्य साधन सबकी सम्पत्ति रहें और उनका प्रयोग तथा संचालन जनता द्वारा जनता के लिए ही हो।” इसी प्रकार फ्रेड बेमेल ने कहा है। कि “समाजवाद का अर्थ है व्यक्तिगत हित को सामाजिक हित के अधीन रखना।”

समाजवाद के अनुसार राज्य का कार्यक्षेत्र – राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में समाजवाद का मत व्यक्तिवाद के नितान्त विपरीत है। इस विचारधारा के अनुसार राज्य के द्वारा वे सभी कार्य किये जाने चाहिए, जो व्यक्ति और समाज की उन्नति के लिए आवश्यक हों और क्योंकि व्यक्ति एवं समाज की उन्नति के लिए किये जाने वाले कार्यों की कोई सीमा नहीं है। अतः यह कहा जा सकता है कि सामाजिक जीवन के प्रायः सभी कार्य राज्य के कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत आ जाते हैं।

साधारणतया यह कहा जा सकता है कि समाजवादी विचारधारा के अनुसार राज्य को आन्तरिक एवं बाहरी सुरक्षा-व्यवस्था के साथ-साथ सार्वजनिक शिक्षा एवं स्वास्थ्य का प्रबन्ध करना चाहिए। सभी व्यक्तियों के लिए स्वस्थ मनोरंजन का प्रबन्ध एवं अपाहिज और बूढ़े व्यक्तियों की सहायता की व्यवस्था करनी चाहिए।

समाजवाद व्यक्तिवादी विचारधारा और पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध एक सशक्त विचारधारी और आन्दोलन है। यह समानता को अपना आदर्श मानकर चलता है और राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में अधिकाधिक समानता स्थापित करना चाहता है।

समाजवाद के सिद्धान्त
समाजवाद के प्रमुख सिद्धान्तों का अध्ययन निम्नलिखित रूपों में किया जा सकता है-

1. समाजवाद समाज की आंगिक एकता पर बल देता है- समाजवाद का आधारभूत विचार यह है कि व्यक्ति कोई एक अकेला प्राणी नहीं है, वरन् यह समाज के दूसरे व्यक्तियों से उसी प्रकार सम्बन्धित है, जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अंग परस्पर सम्बन्धित होते हैं।

2. समाजवाद प्रतियोगिता के स्थान पर सहयोग को प्रतिष्ठित करता है- समाजवाद का विचार यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था में प्रचलित प्रतियोगिता से धनिक वर्ग को ही लाभ होता, है और श्रमिक वर्ग को हानि। प्रतियोगिता के कारण प्रत्येक व्यवसायी अपनी वस्तुओं को इतनी सस्ती बेचना चाहता है कि उसकी श्रेष्ठता बिल्कुल नष्ट हो जाती है; अतः समाजवाद जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रतियोगिता के स्थान पर सहयोग को प्रतिष्ठित करना चाहता है।

3. समाजवाद का ध्येय समानता है- समाजवाद वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में विद्यमान असमानता का अत्यन्त विरोधी है और यह नवीन समाज का निर्माण ऐसे सिद्धान्तों के आधार पर करना चाहता है कि उसमें वर्तमान समय में विद्यमान गम्भीर असमानता कम-से-कम हो जाए। योग्यता के अन्तर को तो समाजवादी भी स्वीकार करते हैं और वे यह भी मानते हैं कि पूर्ण समानता अनुचित, अनावश्यक और असम्भव है, किन्तु साथ ही उनका लक्ष्य एक ऐसे वातावरण का निर्माण करना है जिसमें प्रत्येक को उन्नति के समान अवसर प्राप्त हो सकें।

4. समाजवाद का उद्देश्य पूँजीवाद का अन्त है- समाजवाद व्यक्तिवादी विचारधारा तथा पूँजीवादी व्यवस्था के विरोध पर आधारित है। समाजवाद के अनुसार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में कुछ लोग बहुत अधिक अमीर और कुछ लोग बहुत अधिक गरीब हो जाते हैं और इस प्रकार की आर्थिक विषमता से राष्ट्र की प्रगति रुक जाती है। पूँजीवादी व्यवस्था उपभोग और उत्पादन की दृष्टि से दोषपूर्ण है और इसमें कला तथा प्रतिभा का भी पतन हो जाता है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था आन्तरिक और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अशान्ति को जन्म देने वाली भी होती है। इस प्रकार समाजवाद के अनुसार वर्तमान समय की पूँजीवादी व्यवस्था दोषपूर्ण, जर्जर, अन्यायी व शोषक है और सम्पूर्ण समाज के हित में इस अर्थव्यवस्था का अन्त कर दिया जाना ही उचित है।

5. समाजवाद एक प्रजातान्त्रिक विचारधारा है- समाजवाद के सम्बन्ध में प्रमुख बात यह है। कि यह एक प्रजातान्त्रिक विचारधारा है। अनेक बार समाजवाद को साम्यवाद का पर्यायवाची मान लिया जाता है, जो नितान्त भ्रमपूर्ण है। पूँजीवाद के विरोध में परस्पर सहमत होते हुए भी समाजवाद और साम्यवाद परस्पर नितान्त विरोधी विचारधाराएँ हैं। इबन्सटीन (Ebenstein) के शब्दों में, “ये (समाजवाद और साम्यवाद) विचार और जीवन के दो नितान्त विरोधी ढंग हैं, उतने ही विरोधी जितने कि उदारवाद और सर्वाधिकारवाद।” इन दोनों विचारधाराओं में प्रमुख भेद साधनों के सम्बन्ध में है। साम्यवाद हिंसक साधनों को अपनाने के पक्ष में है, किन्तु समाजवाद का विचार है कि वांछित परिवर्तन प्रजातन्त्रात्मक और संवैधानिक साधनों से ही लाया जाना चाहिए। समाजवाद प्रजातन्त्रवादी विचार है और साम्यवाद सर्वाधिकारवादी।

6. समाजवाद उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व के पक्ष में है- पूँजीवादी व्यवस्था का घोर विरोधी होने के कारण समाजवाद भूमि और उद्योगों पर व्यक्तिगत स्वामित्व के अन्त की माँग करता है और उत्पादन के समस्त साधनों पर सामाजिक स्वामित्व स्थापित करना चाहता है। समाजवादियों के अनुसार, “वैयक्तिक उद्योग वैयक्तिक लूटमार है और व्यक्तिगत सम्पत्ति को सामाजिक अथवा सामूहिक सम्पत्ति का रूप देना ही उचित है।

7. समाजवाद व्यक्ति की अपेक्षा समाज को प्राथमिकता देता है- समाजवाद का विचार है कि सम्पूर्ण समाज का सामूहिक हित अकेले व्यक्ति के हित से अधिक मूल्यवान है और आवश्यकता पड़ने पर समष्टि के हित में व्यक्ति के हित का बलिदान किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में समाजवादियों का विचार है कि सामूहिक हित में व्यक्तिगत हित निहित होता है और सामूहिक हित की साधना से व्यक्तिगत हित की साधना अपने आप ही हो जाती है।

8. समाजवाद राज्य को एक सकारात्मक गुण मानता है- समाजवाद व्यक्तिवाद के इस कथन को अस्वीकार करता है कि राज्य एक आवश्यक दुर्गुण हैं और इसके विपरीत राज्य को एक ऐसी कल्याणकारी संस्था मानता है जिसका जन्म ही नागरिकों के जीवन को सभ्य और सुखी बनाने के लिए होता है। अधिकांश समाजवादी इतिहास से उदाहरण देते हुए कहते हैं कि राज्य संस्था चिरकाल से मानव-जाति की सेवा करती चली आ रही है और यदि इसने कहीं बल का प्रयोग किया भी है तो सामूहिक हित के लिए ही। इस प्रकार साधारणतया समाजवादी राज्य को एक जनहितकारी संस्था मानते हैं।

9. समाजवाद राज्य को अधिकाधिक कार्य सौंपना चाहता है- समाजवादी राज्य को एक कल्याणकारी संस्था मानते हैं और व्यक्ति को अधिकाधिक स्वतन्त्रता प्रदान करने के लिए राज्य के कार्यक्षेत्र को व्यापक करना चाहते हैं। समाजवाद के अनुसार, व्यक्तिवादी पुलिस राज्य समाज की पूरी-पूरी भलाई नहीं कर सकता और इस पुलिस राज्य में 99 प्रतिशत जनता पूँजीवादी शोषण से पिसकर अपने प्राण दे देगी। ऐसी स्थिति में गरीबों और मजदूरों के हित में राज्य के द्वारा आर्थिक क्षेत्र से सम्बन्धित अधिक-से-अधिक कार्य किये जाने चाहिए।

इस प्रकार, समाजवाद व्यक्तिवाद के विरुद्ध एक ऐसी प्रतिक्रिया है जिसके द्वारा वैयक्तिक हित के स्थान पर सामूहिक हित और प्रतियोगिता के स्थान पर सहयोग को प्रतिष्ठित करके, उत्पादन के साधनों पर सामाजिक नियन्त्रण के आधार पर आर्थिक समानता स्थापित कराने का प्रयत्न किया जाता है।

प्रश्न 7.
लोकतान्त्रिक समाजवाद की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
या
पण्डित जवाहरलाल नेहरू के लोकतान्त्रिक समाजवाद पर एक लेख लिखिए।
उत्तर
‘लोकतन्त्रवाद’ और ‘समाजवाद’ के संयोग से जिस उदार समाजवाद की रचना हुई उसे ही लोकतान्त्रिक समाजवाद (Democratic Socialism) कहा जाता है। आज के युग में जबकि पश्चिमी पूँजीवादी लोकतन्त्र चीनी उग्र साम्यवाद से लोगों की आस्था समाप्त होती जा रही है, लोकतान्त्रिक समाजवाद दक्षिण और वाम दोनों ही विचारों को सामंजस्य करते हुए एक मध्यममार्गी समाजवाद का रूप ले रहा है। फ्रांस, इंग्लैण्ड, इटली और अब भारत में भी इसी प्रकार के समाजवाद का रूप विभिन्न राजनीतिक दलों के माध्यम से अभिव्यक्त हो रहा है। भारत में लोकतान्त्रिक समाजवाद ने पण्डित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अपना रास्ता तय किया। कांग्रेस द्वारा समाजवादी व्यवस्था को अपना लक्ष्य घोषित कराने में नेहरू जी की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही है।

पण्डित नेहरू का लोकतान्त्रिक समाजवाद

1. लोकतन्त्र के समर्थक – यद्यपि भारत में समाजवाद का प्रचार करने में कांग्रेसी समाजवादियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, किन्तु वह नेहरू जी की भूमिका के सामने फीकी पड़ जाती है। जब वे इंग्लैण्ड में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, तब वे वहाँ की लोकतन्त्र व्यवस्था से काफी प्रभावित हुए। उन्हें लोकतन्त्र में व्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ने काफी प्रभावित किया। वे रूस भी गये तथा वहाँ की समाजवादी व्यवस्था से भी वे बहुत अधिक प्रभावित हुए। वहाँ की वर्ग-विहीन समाज व्यवस्था से वे बहुत अधिक प्रभावित हुए। परन्तु उसके साधनों में उन्हें हिंसा-ही-हिंसा दिखायी दी। अतः उन्होंने माक्र्सवाद या साम्यवाद को ज्यों-का-त्यों स्वीकार न करके वर्ग-सहयोग एवं सामंजस्य पर बल दिया। इस प्रकार उन्होंने समाजवाद और लोकतन्त्र का मध्य मार्ग अपनाकर उसे ‘लोकतान्त्रिक समाजवाद का नाम दिया।

2. लोकतन्त्र समाजवाद को लाने का साधन – नेहरू जी ने लोकतन्त्र व समाजवाद को एक- दूसरे को पूरक माना है। वे लोकतन्त्र के प्रबल समर्थक होने के साथ-साथ समाजवाद के भी बड़े प्रशंसक थे। उनका कहना था कि भारत में जब तक समानता नहीं आयेगी, तब तक लोकतन्त्र की स्थापना सम्भव नहीं है। लोकतन्त्र के लिए आर्थिक एवं सामाजिक समानता आवश्यक है। एक ओर उच्च वर्ग तथा दूसरी ओर दलित वर्ग जब तक समान स्तर पर नहीं लाये जायेंगे तब तक लोकतन्त्र कदापि सम्भव नहीं है। वे समाजवाद को लाने के लिए लोकतन्त्र को प्रमुख साधन मानते थे।

3. संघर्ष एवं हिंसा का विरोध – यद्यपि नेहरू जी मार्क्स के सिद्धान्तों की बड़ी प्रशंसा करते थे, किन्तु वे अहिंसा द्वारा समाजवाद को भारत में लाना चाहते थे। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है। कि सामाजिक एवं आर्थिक लोकतन्त्र के अभाव में राजनीतिक लोकतन्त्र का कोई मूल्य नहीं होता, परन्तु इसके लिए वे संघर्ष एवं हिंसा को साधन नहीं बनाना चाहते थे। वे हिंसात्मक रवैये को एकदम ‘अवैज्ञानिक’, ‘तर्कहीन’ तथा ‘असभ्य’ समझते थे। उनकी धारणा यह थी कि समाज की प्रमुख समस्याओं का कोई भी समाधान हिंसा के द्वारा नहीं किया जा सकती। इसका स्पष्ट अर्थ यही निकलता है कि उन पर गाँधी जी का प्रभाव विशेष रूप से अधिक था। वे गाँधी जी द्वारा प्रतिपादित शान्तिपूर्ण उपायों में विश्वास रखते थे। उन्होंने स्पष्ट किया था कि राष्ट्रीय सम्पत्ति में वृद्धि करके तथा समाज में विद्यमान असमानताओं को कम करके सब लोगों को प्रगति के लिए समान अवसर प्रदान करने वाले समाजवादी लक्ष्य की प्राप्ति शान्तिपूर्ण संवैधानिक साधनों से ही होनी चाहिए।

4. लोकतन्त्र की प्रथम शर्त दरिद्रता, असमानता एवं अशिक्षा को समाप्त करना – नेहरू जी लोकतन्त्र के आर्थिक पक्ष के महत्त्व को स्वीकार करते थे। उनका विचार था कि स्वराज्य को यथार्थ रूप देने के लिए राष्ट्र के धन का समुचित एवं न्यायपूर्ण वितरण किया जाए तथा समाज में विद्यमान वर्ग विभेद को समाप्त किया जाए। शिक्षा के माध्यम से शिक्षित एवं अशिक्षित जनता के अन्तर को दूर किया जाए। दरिद्रता, असमानता एवं अशिक्षा को समाप्त करना वे लोकतन्त्र के लिए प्रथम शर्त मानते थे।

भारत में लोकतान्त्रिक समाजवाद
यदि आज भारत की जनता ने लोकतान्त्रिक समाजवाद’ को अपना मान लिया है तथा ‘समाजवाद’ शब्द सम्माननीय एवं सुन्दर हो गया है और यदि इसका अर्थ ‘उग्र वर्ग-संघर्ष’ तथा ‘सर्वहारा वर्ग की अधिनायकता के स्थान पर ‘विकास’, ‘कल्याण तथा सामाजिक जीवन में ईमानदारी’, ‘पवित्रता’ एवं ‘अनुशासन’ लगाया जाने लगा है तो इसका श्रेय साम्यवादी दल, प्रजा समाजवादी दल अथवा समाजवादी दल को ही नहीं बल्कि पण्डित जवाहरलाल नेहरू को है। उन्होंने ही अपने प्रयासों द्वारा लोकतन्त्र एवं समाजवाद का समन्वय करके इस नवीन विचारधारा को जन्म दिया। यद्यपि वे मार्क्सवाद के सिद्धान्तों के पक्षपाती थे, किन्तु वे मार्क्सवादी या साम्यवादी नहीं थे। उन्होंने मार्क्सवाद के समाजवादी पक्ष को कुछ संशोधन कर स्वीकार किया है। उनके इन्हीं विचारों को भारत के संविधान की प्रस्तावना तथा नीति-निदेशक सिद्धान्तों में स्थान दिया गया है। शासन के द्वारा अपनायी गई पंचवर्षीय योजनाओं में लोकतन्त्रात्मक समाजवाद के लक्ष्यों के अनुरूप नीतियों का निर्माण किया गया। नेहरू जी का विचार था कि “नियोजित अर्थव्यवस्था द्वारा ही हम समाजवाद को प्राप्त कर सकते हैं; अतः हमारे देश में अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में आर्थिक नियोजन (Economic Planning) की नीति को अपनाया गया है। वास्तव में नेहरू जी का चिन्तनपूर्ण रूप से व्यावहारिक कहा जा सकता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
समाजवादी राज्य की अवधारणा का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। [2007]
या
समाजवादी राज्य के कार्यों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। [2010]
उत्तर
समाजवाद की आलोचना
आधुनिक पूँजीवादी व्यवस्था के अन्त के लिए समाजवाद एक सुन्दर मार्ग प्रस्तुत करता है। समाजवाद ने व्यक्तिगत हित की अपेक्षा सामाजिक हित को उच्चतर स्थान प्रदान कर प्रशंसनीय कार्य किया है, किन्तु इन गुणों के होते हुए भी समाजवादी व्यवस्था दोषमुक्त नहीं है। इस व्यवस्था की प्रमुख रूप से निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है-

1. उत्पादन क्षमता में कमी – यह मानव स्वभाव है कि व्यक्तिगत लाभ की प्रेरणा पर ही वह ठीक प्रकार से कार्य कर सकता है। समाजवादी व्यवस्था में उत्पादन कार्य राज्य के हाथ में आ जाने और सभी व्यक्तियों को पारिश्रमिक निश्चित होने के कारण कार्य करने के लिए प्रेरणा का अन्त हो जाता है और व्यक्ति आलसी बन जाता है। इसी कारण आर्थिक प्रगति रुक जाती है।

2. नौकरशाही का विकास समाजवादी –  व्यवस्था में सभी उद्योगों पर राजकीय नियन्त्रण होगा और उनका प्रबन्ध सरकारी अधिकारियों द्वारा किया जाएगा। सरकारी अधिकारियों के हाथ में शक्ति आ जाने का स्वाभाविक परिणाम नौकरशाही का विकास होगा। काम की गति शिथिल हो जाएगी, सरल-से-सरल काम देर से होंगे और घूसखोरी तथा भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन मिलेगा।

3. समानता की धारणा प्राकृतिक विधान के विरुद्ध – समाजवाद समानता, सबसे प्रमुख रूप में आर्थिक समानता पर बल देता है और आलोचकों के अनुसार समानता का यह विचार प्राकृतिक विधान और प्राकृतिक व्यवस्था के विरुद्ध है। प्रकृति के द्वारा व्यक्तियों को शारीरिक, मानसिक और नैतिक शक्तियाँ समान रूप में नहीं वरन् असमान रूप में प्रदान की गयी हैं और इसी कारण समानता स्थापित करने के किसी भी प्रयत्न में सफलता प्राप्त होमा बहुत अधिक सन्देहपूर्ण है।

4. राज्य की कार्यकुशलता में कमी – समाजवादी व्यवस्था में राज्य के कार्यक्षेत्र में बहुत अधिक विस्तार हो जाने के कारण राज्य की कार्यकुशलता में भी कमी हो जाएगी। समाजवादी व्यवस्था में सार्वजनिक निर्माण सम्बन्धी, उत्पादन, वितरण तथा श्रमिक विधान सम्बन्धी सभी कार्य राज्य द्वारा होंगे। आलोचकों का कथन है कि राज्य के हाथ में इतने अधिक कार्यों के आ जाने से एक भी कार्य ठीक प्रकार से सम्पन्न नहीं हो सकेगा।

5. मनुष्य का नैतिक पतन – सभी कार्यों को करने की शक्ति राज्य के हाथ में आ जाने से आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास, साहस और आरम्भक के नैतिक गुणों का व्यक्तियों में अन्त हो जाएगा। समाजवादी व्यवस्था में उसे अपने विकास की नवीन दिशाएँ और देशाएँ न प्राप्त होने के कारण वह हतप्रभ हो जाएगा और उसका नैतिक पतन हो जाएगा।

6. समाजवादी व्यवस्था अपव्ययी होगी – आलोचके यह भी कहते हैं कि समाजवादी व्यवस्था पूँजीवादी व्यवस्था से बहुत अधिक खर्चीली होगी। जब सरकार के द्वारा किसी प्रकार का कार्य किया जाता है तो एक छोटे-से काम के लिए अनेक कर्मचारी रखे जाते हैं और फिर भी यह कार्य सफलतापूर्वक नहीं हो पाता।

7. व्यक्ति की स्वतन्त्रता के अन्त का भय – समाजवाद के अन्तर्गत जब सरकार के द्वारा बहुत अधिक कार्य किये जाते हैं तो इस बात का भय रहता है कि व्यक्तियों के जीवन में सरकार के इस अत्यधिक हस्तक्षेप से उनकी स्वतन्त्रता का अन्त हो जाएगा।

प्रश्न 2.
व्यक्तिवाद और समाजवाद का अन्तर समझाइए। उद्योगों के निजीकरण की प्रवृत्ति इन दोनों में से किसकी अवधारणा के प्रतिकूल है? कारण का भी उल्लेख कीजिए। [2007]
उत्तर
व्यक्तिवाद और समाजवाद का अन्तर

1. विचारधारा – व्यक्तिवादी सिद्धान्त के समर्थक व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर बल देते हैं। उनके अनुसार, राज्य के कार्य तथा कानून व्यक्ति की स्वतन्त्रता को प्रतिबन्धित करते हैं; अत: राज्य के कार्यों की संख्या न्यूनतम होनी चाहिए। वे राज्य को एक आवश्यक बुराई मानते हैं। । दूसरी ओर समाजवादी विचारधारा के अनुसार राज्य के द्वारा वे सभी कार्य किये जाने चाहिए जो व्यक्ति और समाज की उन्नति के लिए आवश्यक हों। इस विचारधारा के अनुसार राज्य के कार्यों की कोई सीमा नहीं है तथा सामाजिक जीवन के प्रायः सभी कार्य राज्य के कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत आ जाते हैं।

2. कार्यक्षेत्र- व्यक्तिवादी चाहते हैं कि राज्य के कार्यक्षेत्र को अधिक-से-अधिक सीमित कर दिया जाए। स्पेन्सर के मतानुसार, “व्यक्ति का स्थान समाज तथा राज्य के ऊपर होना चाहिए।
और राज्य को केवल वही कार्य करने चाहिए जिन्हें व्यक्ति नहीं कर सकता।” उनके अनुसार राज्य के केवल तीन निम्नलिखित कार्य होने चाहिए-

  • आन्तरिक शान्ति और व्यवस्था करना,
  • देश की बाहरी आक्रमणों से रक्षा करना तथा
  • न्याय और दण्ड की व्यवस्था करना।

दूसरी ओर समाजवादी समानता को अपना आदर्श मानकर चलते हैं और राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में अधिकाधिक स्थापित करने के लिए निम्नलिखित बातों पर विशेष बल देते हैं–

  • समाज की आंगिक एकता,
  • समाज में प्रतियोगिता के स्थान पर सहयोग,
  • पूँजीवाद का अन्त तथा
  • उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व।

उद्योगों के प्रति दृष्टिकोण
व्यक्तिवादी विचारधारा राज्य के कार्यों को न्यूनतम कर देना चाहती है तथा उद्योगों को व्यक्तियों के लिए पूर्ण रूप से खुला रखना चाहती है। वह उद्योगों की स्थापना, संचालन तथा विकासे में राज्य का हस्तक्षेप नहीं चाहती। वह खुली प्रतियोगिता में विश्वास रखती है तथा एक प्रकार से पूँजीवाद की समर्थक है।
दूसरी ओर समाजवादी विचारधारा पूँजीवाद की घोर विरोधी होने के कारण भूमि और उद्योगों पर व्यक्तिगत स्वामित्व के अन्त की माँग करती है। यह विचारधारा उत्पादन के समस्त साधनों पर सामाजिक स्वामित्व स्थापित करना चाहती है। समाजवादी विचारधारा के अनुसार वैयक्तिक उद्योग वैयक्तिक लूटमार है और व्यक्तिगत सम्पत्ति को सामाजिक अथवा सामूहिक सम्पत्ति का रूप देना ही उचित है।
अतः निष्कर्षतया कहा जा सकता है कि उद्योगों के निजीकरण की प्रवृत्ति समाजवादी विचारधारा के प्रतिकूल है।

प्रश्न 3.
राज्य से सम्बन्धित मनु व कौटिल्य के सप्तांग सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
या
आचार्य मनु द्वारा प्रतिपादित साप्तांग सिद्धान्त के अनुसार राज्य के किन्हीं दो अंगों के नाम लिखिए। [2012, 13]
उत्तर
भारत की प्राचीन राजनीतिक विचारधारा के अन्तर्गत मनु और कौटिल्य दो जाज्वल्यमान क्षेत्र हैं तथा इन दोनों की विचारधारा एक-दूसरे के बहुत अधिक समान है। मनुस्मृति (जिसे कि हिन्दू विधि की सम्पूर्ण व्यवस्था की आधारशिला माना जाता है।) के अन्तर्गत राज्य के सावयव स्वरूप (Organic form) की चर्चा की गई है; अर्थात् इसके राज्य की कल्पना जीवित जाग्रत शरीर के रूप में की गई है तथा राज्य को सप्तांगी माना गया है। मनुस्मृति के अनुसार, राज्य के सात । अंग इस प्रकार हैं—(1) स्वामी (राजा), (2) मन्त्री, (3) पुर, (4) राष्ट्र, (5) कोष, (6) दण्ड तथा (7) मित्र। मनुस्मृति में चारों दिशाओं में व्याप्त एक विशाल राज्य का चित्र खींचा गया है जिसके आधार पर सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है, अथवा यह सम्भावना की जा सकती है। कि इस ग्रन्थ की रचना के समय एक सुविशाल प्रदेश को राजनीतिक एकता प्राप्त हो चुकी थी। आचार्य कौटिल्य ने भी अपने ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र में राज्य के सप्तांग सिद्धान्त का वर्णन किया है। इस प्रकार कौटिल्य के अनुसार भी राज्य का निर्माण सप्त अंगों अथवा तत्त्वों से मिलकर हुआ है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि राज्य की संरचना, प्रकार्यों एवं प्रकृति का अध्ययन एवं विश्लेषण करने के उद्देश्य से मनु एवं कौटिल्य दोनों ने राज्य की तुलना मानव शरीर से की है; अर्थात् उसे एक जीवित शरीर के रूप में निरूपित किया है तथा उसके सात अंग बताये हैं। राज्य के इन सात अंगों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-

1. स्वामी – मनु और कौटिल्य दोनों ने यह स्पष्ट किया है कि राज्य के समस्त अंगों में सबसे महत्त्वपूर्ण अंग स्वामी अथवा राजा है, परन्तु उसे निरंकुश व स्वेच्छाचारी नहीं, अपितु धर्म के अधीन माना गया है।

2. मन्त्री अथवा आमात्य – राजा की सहायता एवं उसे परामर्श देने के लिए मन्त्रिपरिषद् की व्यवस्था पर बल दिया गया है।

3. पुर अथवा दुर्ग – यह कहा गया है कि सैन्य शक्ति का प्रयोग पुर अथवा दुर्ग से ही भली भॉति सम्भव है। यह राज्य की सुरक्षा व्यवस्था का प्रतीक है। जिसका दुर्ग सुदृढ़ होता है उस राज्य को परास्त करना सरल नहीं है।

4. जनपद – जनपद में जनता तथा भूमि के भागों को सम्मिलित किया गया है।

5. कोष – राज्य की शक्ति एवं उसकी सुदृढ़ता के लिए एक धन-धान्य से पूर्ण राजकोष होना चाहिए तथा उसकी क्षमता इतनी होनी चाहिए कि वह आपातकाल में राज्य की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके।

6. दण्ड अथवा सेना – राज्य की सुरक्षा के लिए दण्ड अथवा सेना का विशिष्ट महत्त्व होता है। सुरक्षा एवं आक्रामक-नीति दोनों को अपनाने के लिए एक प्रशिक्षित, अनुशासित, राष्ट्रभक्त तथा निष्ठावान सेना होनी चाहिए।

7. मित्रराष्ट्र की शक्ति के लिए उसके मित्र – राष्ट्रों की संख्या अधिकाधिक होनी चाहिए। | इस प्रकार हम देखते हैं कि मनु तथा कौटिल्य की विचारधारा एक-दूसरे के बहुत-कुछ समान है तथा दोनों ने सप्तांग सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 Theories of the Functions of the State

प्रश्न 4.
समाजवाद के विरोध में तर्क दीजिए।
उत्तर
समाजवाद के विरोध में तर्क निम्नवत् हैं-

  1. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अन्त – राज्य के कार्य-क्षेत्र का विस्तार व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अन्त का परिचायक है। योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था में सभी वस्तुएँ राज्य द्वारा नियन्त्रित होती हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति स्वतन्त्र होने के स्थान पर राज्य का गुलाम बन जाता है। हेयक ने उचित ही कहा है, “पूर्ण नियोजन का आशय पूर्ण गुलामी है।”
  2. पूर्ण समानता असम्भव – समाजवाद समानता पर आधारित विचारधारा है। प्रकृति ने समस्त व्यक्तियों को समान उत्पन्न नहीं किया। जन्म से कुछ व्यक्ति बुद्धिमान तो कुछ मूर्ख, कुछ स्वस्थ तो कुछ अस्वस्थ, कुछ परिश्रमी तो कुछ आलसी होते हैं। इन सभी को समान समझना प्राकृतिक सिद्धान्त की अवहेलना करना है। पूर्ण समानता स्थापित नहीं की जा सकती।
  3. कार्य करने की प्रेरणा का अन्त – व्यक्तियों को श्रम करने की प्रेरणा इस भावना से मिलती है कि वे व्यक्तिगत सम्पत्ति का संचय कर सकेंगे। समाजवादी व्यवस्था में उत्पादन एवं वितरण के साधनों पर राजकीय नियन्त्रण का परिणाम यह होता है कि व्यक्तियों में कार्य करने की प्रेरणा का अन्त हो जाता है।
  4. नौकरशाही का महत्त्व – समाजवाद में राज्य के कार्यों में बढ़ोतरी होने के कारण नौकरशाही का महत्त्व बढ़ता है तथा समस्त फैसले शासकीय कर्मचारियों द्वारा लिए जाते हैं। वह जन इच्छाओं एवं आवश्यकताओं की इतनी चिन्ता नहीं करते जितनी अपने स्वार्थों की। ऐसी परिस्थिति में भ्रष्टाचार बढ़ता है।
  5. समाजवाद से हिंसा को बढावा – समाजवाद अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु क्रान्तिकारी तथा हिंसात्मक मॉग को अपनाता है। वह शान्तिपूर्ण तरीकों में आस्था नहीं रखता। समाजवाद के द्वारा वर्ग-संघर्ष पर बल देने के परिणामस्वरूप समाज में विभाजन एवं वैमनस्यता की भावना फैलती है।
  6. उत्पादन का श्रेय श्रमिकों को देना त्रुटिपूर्ण – उत्पादन का श्रेय केवल श्रमिकों को देना न्यायसंगत नहीं है। उत्पादन में श्रम के अलावा पूँजी तथा संसाधन इत्यादि भी आवश्यक होते हैं तथा स्थूल रूप में इन सभी को पूँजी ही कहा जा सकता है।
  7. समाजवाद लोकतन्त्र विरोधी – समाजवाद की प्रवृत्ति जहाँ व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाती है, वहीं लोकतन्त्र का आधार ही व्यक्ति की स्वतन्त्रता है। लोकतन्त्र में व्यक्ति के अस्तित्व को अत्यन्त उत्तम स्थान प्राप्त है, जबकि समाजवाद में वह राज्यरूपी विशाल मशीन में एक निर्जीव पुर्जा बन जाता है।
  8. उग्र राष्ट्रीयता का विकास – समाजवाद किसी राष्ट्रीय सीमा पर विश्वास नहीं करता। वह विश्व के सर्वहारा वर्ग को एक झण्डे के नीचे इकट्ठा करना चाहता है तथा राष्ट्रीयता की भावना से ऊपर उठाकर श्रमिकों को राज्य से लड़ाना चाहता है। मार्क्स के अनुसार, “राज्य ने सदैव ही पूँजीपतियों, सामन्तों तथा शोषक वर्ग का साथ दिया है। आज राष्ट्रवाद प्रधान और समाजवाद गौण है।’

प्रश्न 5.
क्या भारत में कल्याणकारी राज्य की स्थापना की गई है। इसके पक्ष में किन्हीं दो तर्कों का उल्लेख कीजिए। [2012]
उत्तर
कल्याणकारी राज्य से तात्पर्य एक ऐसे राज्य से है जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण जनता का कल्याण किया जाता है, किसी वर्ग विशेष का नहीं। पं० नेहरू के अनुसार, “सबके लिए समान अवसर प्रदान करना, अमीरों और गरीबों के बीच अन्तर को समाप्त करना तथा जीवन-स्तर को उठाना लोक-कल्याणकारी राज्य के आधारभूत तत्त्व हैं। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में विकास की सुविधाओं का ध्यान रखते हुए कल्याणकारी राज्य की स्थापना का प्रयत्न किया है। इसके पक्ष में दो तर्क इस प्रकार हैं-

  • भारत के संविधान में कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लक्ष्य की पूर्ति को ध्यान में रखते हुए नीति-निदेशक तत्त्वों को सम्मिलित किया गया है। संविधान की प्रस्तावना में भारत के समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्रम प्रदान करने का निश्चय किया गया है।
  • लोक-कल्याणकारी कार्यक्रम को सुव्यवस्थित रूप देने की दृष्टि से पंचवर्षीय योजनाओं का निर्माण किया गया है, जिनके अनुसार भारतीय समाज और भारतीय नागरिकों के चतुर्मुखी विकास की दिशा में अनेक उपयोगी योजनाएँ क्रियान्वित की जा रही हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
समाजवाद के अनुसार राज्य का कार्यक्षेत्र बताइए।
या
समाजवादी राज्य के कार्यों का परीक्षण कीजिए। [2010]
उत्तर
राज्य के कार्यक्षेत्र का निर्धारण करने की दृष्टि से समाजवादी सिद्धान्त व्यक्तिवादी सिद्धान्त के ठीक विपरीत है। व्यक्तिवाद जहाँ राज्य के सीमित कार्यक्षेत्र पर बल देता है वहीं समाजवाद राज्य के उन समस्त कार्यों को सम्पादित करने को कहता है, जिनसे समाज की उन्नति सम्भव है। इसके अतिरिक्त समाजवाद की मान्यता है कि राज्य को उत्पत्ति एवं वितरण के साधनों पर नियन्त्रण रखकर स्वयं ही सार्वजनिक हित के कार्यों का सम्पादन करना चाहिए। अतः कहा जा सकता है कि समाजवाद के अनुसार प्रायः सामाजिक जीवन के समस्त कार्य राज्य के कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत आ जाते हैं। इस सम्बन्ध में गार्नर का यह कथन उचित ही है, “राज्य मानव विकास की सर्वोच्च संस्था है। उसका कार्यक्षेत्र व्यापक है। वह व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक एवं नैतिक सभी क्षेत्रों के हितों की अभिवृद्धि करती है।”

प्रश्न 2.
“लोक-कल्याणकारी राज्य न्यूनतम जीवन-स्तर की गारण्टी है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
उत्तर
प्रत्येक व्यक्ति को इतना पारिश्रमिक तो अवश्य ही मिलना चाहिए कि वह न्यूनतम जीवन-स्तर के अनुसार अपने जीवन-यापन हेतु आवश्यक सामग्री तथा सुविधाएँ प्राप्त कर सके। इस सम्बन्ध में अर्थशास्त्री क्राउथर ने लिखा है कि “नागरिकों को स्वस्थ जीवन व्यतीत करने हेतु पर्याप्त भोजन-व्यवस्था होनी चाहिए। निवास, वस्त्र इत्यादि के न्यूनतम जीवन-स्तर की ओर से उन्हें चिन्तारहित होना चाहिए। शिक्षा की उन्हें पूर्ण तथा समान अवसर प्राप्त होना चाहिए। उन्हें जीवन का आनन्द भोगने हेतु अवकाश एवं साधन मिलने चाहिए। बेरोजगारी तथा वृद्धावस्था के दु:ख से उनकी रक्षा करनी चाहिए।’

प्रश्न 3.
कौटिल्य के अनुसार राज्य को कौन-से लोकहितकारी कार्य करने चाहिए?
उत्तर
कौटिल्य ने राज्य को लोकहित तथा सामाजिक कल्याण के कार्य सौंपे हैं। लोक-कल्याण सम्बन्धी जिन कार्यों को राजा सम्पन्न करता है उनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं|

  1. जीविकोपार्जन के साधनों का नियमन।
  2. चिकित्सालयों का निर्माण।
  3. वृद्ध, असहाय, अनाथ, विधवा, दुःखियों तथा रोगियों की सहायता।
  4. कृषि, पशुपालन, उद्योग, वाणिज्य इत्यादि का विकास।
  5. बाँधों का निर्माण, जलमार्ग, जलाशय, स्थलमार्ग एवं बाजार बनाना।
  6. दुर्भिक्ष के समय जनसाधारण की सहायता।
  7. पण्डितों का आदर एवं सम्मान।
  8. ज्ञान के अनुसन्धान कार्य में लगे आश्रमवासियों एवं विद्यार्थियों की रक्षा।
  9. आवश्यक होने पर धनवानों से अधिक कर वसूलकर गरीबों में वितरित करना।
  10. जंगलों की रक्षा करना।
  11. मानव के चारों उद्देश्यों अर्थात् धर्म, काम, मोक्ष एवं अर्थ की सिद्धि में सहायता करना।

प्रश्न 4.
आधुनिक राज्य के चार प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिए। [2013, 14]
उत्तर
आधुनिक राज्य के चार प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-

  1. शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना,
  2. देश की बाह्य आक्रमण से सुरक्षा,
  3. अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की स्थापना,
  4. न्याय एवं दण्ड की व्यवस्था।

प्रश्न 5.
व्यक्तिवादी विचारधारा के अन्तर्गत गिलक्रिस्ट ने राज्य का कार्यक्षेत्र किस प्रकार निर्धारित किया है?
उत्तर
व्यक्तिवादी विचारधारा के अन्तर्गत गिलक्रिस्ट ने राज्य का कार्यक्षेत्र निम्नलिखित प्रकार से निर्धारित किया है

  1. देश में शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखना,
  2. राज्य एवं राज्य के नागरिकों की बाह्य शत्रुओं से सुरक्षा,
  3. नागरिकों की मानहानि से रक्षा,
  4. नागरिकों के जीवन, सम्पत्ति इत्यादि की सुरक्षा तथा
  5. अपराधियों का पता लगाकर उन्हें दण्डित करना।

प्रश्न 6.
व्यक्तिवाद की चार विशेषताएँ बताइए।
उत्तर
व्यक्तिवादी सिद्धान्त की चार प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. व्यक्तिवाद राज्य को एक आवश्यक बुराई मानता है।
  2. व्यक्तिवाद राज्य को साधन मानता है।
  3. यह व्यक्ति को साध्य अथवा लक्ष्य मानता है तथा व्यक्तित्व के विकास पर बल देता है।
  4. व्यक्तिवाद व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर अत्यधिक बल देता है।

प्रश्न 7.
आर्थर स्लेशिंगर तथा गार्नर ने कल्याणकारी राज्य की क्या परिभाषा दी है?
उत्तर
आर्थर स्लेशिंगर के शब्दों में, “कल्याणकारी राज्य वह व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत शासन अपने समस्त नागरिकों हेतु रोजगार, आय, चिकित्सा, शिक्षा, सहायता, सामाजिक सुरक्षा एवं आवास के कुछ स्तर स्थापित करने हेतु तैयार रहता है।”
गार्नर के मतानुसार, “कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य राष्ट्रीय जीवन, राष्ट्रीय सम्पत्ति तथा जीवन में भौतिक तथा नैतिक स्तर को विस्तृत करना है।”

प्रश्न 8.
लोक-कल्याणकारी राज्य अपने कार्यक्षेत्र में कैसे वृद्धि कर लेता है?
उत्तर
लोक-कल्याणकारी राज्य की एक प्रमुख विशेषता है कि इसमें राज्य का कार्यक्षेत्र अत्यन्त व्यापक होता है। वस्तुतः यह सिद्धान्त व्यक्तिवाद के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है और इस आदर्श पर आधारित है कि राज्य को वह समस्त कार्य करने चाहिए जिनके करने से व्यक्ति की स्वतन्त्रता नष्ट अथवा कम नहीं होती। इसी आधार पर एम०जी० हॉब्सन ने लिखा है कि राज्य ने एक डॉक्टर, एक नर्स, स्कूल मास्टर, व्यापारी, उत्पादक, बीमा एजेण्ट, मकान बनाने वाले मिस्त्री, नगर योजना तैयार करने वाले, रेलवे नियन्त्रक इत्यादि सैकड़ों अन्य लोगों के कार्यों के उत्तरदायित्व को स्वीकार कर लिया है।”

प्रश्न 9.
समाजवाद के दो गुणों का उल्लेख कीजिए। [2013]
उत्तर
समाजवाद की विचारधारा की उत्पत्ति व्यक्तिवाद की प्रतिक्रिया के रूप में हुई और वर्तमान समय में यह विचारधारा बहुत अधिक लोकप्रिय है। इसके दो गुण निम्नवत् हैं-

1. समाजवाद भ्रातृत्व तथा समाज-सेवा भाव को बढ़ाता है- समाजवादी राज्य समानता पर आधारित होगा। यह राज्य सामूहिक हानि-लाभ के विचार को ध्यान में रखते हुए भ्रातृत्व की ओर अग्रसर होगा। व्यक्तियों पर समाजवादी व्यवस्था को अपनाने का मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ेगा और इस बात की आशा की जा सकती है कि समाजवादी व्यवस्था में उनकी प्रवृत्ति व्यक्तिगत स्वार्थों की तुष्टि के स्थान पर सामूहिक हितों की साधना ही हो जाएगी।

2. समाजवाद एक न्यायपूर्ण तथा जनतान्त्रिक विचारधारा है- राजनीतिक क्षेत्र में समाजवाद जनतन्त्र के प्रति विश्वास व्यक्त करता है, क्योंकि राजतन्त्रीय या कुलीनतन्त्रीय व्यवस्था में अनिवार्य रूप से विद्यमान भेद समाजवाद को मान्य नहीं हैं। इसके अतिरिक्त समाजवाद उत्पादन पर ‘सामूहिक स्वामित्व’ और उसकी सामूहिक व्यवस्था का समर्थक है, जो पूर्णतया प्रजातान्त्रिक तथा न्यायोचित विचार है। वास्तव में प्रजातन्त्र और समाजवाद परस्पर पूरक हैं जिनमें से एक राजनीतिक समानता का प्रतिपादन करता है तो दूसरा आर्थिक समानता का। लैडलर के शब्दों में, “प्रजातान्त्रिक आदर्श का आर्थिक पक्ष वास्तव में समाजवाद ही है।”

प्रश्न 10.
धर्म-निरपेक्ष राज्य के दो लक्षण बताइए। [2012]
उत्तर

  1. धर्म-निरपेक्ष राज्य न तो धार्मिक होता है और न धर्म-विरोधी, अपितु वह धार्मिक संकीर्णताओं एवं वृत्तियों से बिल्कुल दूर धार्मिक मामलों में पूर्णतया तटस्थ होता है।
  2. धर्म-निरपेक्ष राज्य किसी धर्म विशेष को प्रधानता प्रदान नहीं करता। धर्म या सम्प्रदाय के नाम पर वह न तो किसी की सहायता करता है और न ही किसी नागरिक को सरकारी पद से वंचित करता है।

प्रश्न 11.
समाजवाद तथा लोक-कल्याणकारी राज्यों में दो अन्तर लिखिए। [2007, 10]
उत्तर
समाजवाद एवं लोक-कल्याणकारी राज्यों में प्रमुख रूप से निम्नलिखित दो अन्तर हैं-

1. लोक-कल्याणकारी राज्य प्रमुख रूप से आर्थिक सुरक्षा के विचार पर आधारित है। आर्थिक सुरक्षा से तात्पर्य सभी व्यक्तियों को रोजगार, न्यूनतम जीवन-स्तर की गारण्टी एवं अधिकतम आर्थिक समानता से है।
समाजवादी राज्य आर्थिक समानता पर बल देता है यद्यपि समानता का यह विचार प्राकृतिक विधान और प्राकृतिक व्यवस्था के विरुद्ध है। समाजवाद का आर्थिक समानता का विचार पूँजीवाद के अन्त में निहित है।

2. समाजवाद राज्य को अधिकाधिक कार्य सौंपना चाहता है। समाजवाद राज्य के कार्यक्षेत्र को व्यापक करना चाहते हैं। इसके विपरीत कल्याणकारी राज्य को वे सभी जनहितकारी कार्य सौंपना चाहते हैं जिनके करने से व्यक्ति की स्वतन्त्रता नष्ट नहीं होती। लोक-कल्याणकारी राज्य नागरिक स्वतन्त्रताओं के हिमायती हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
राज्य के कार्यो सम्बन्धी किन्हीं दो सिद्धान्तों के नाम बताइए। (2010)
उत्तर

  1. समाजवाद तथा
  2. व्यक्तिवाद।

प्रश्न 2.
राज्य के कार्यों को कितने भागों में बाँटा जा सकता है ? [2008]
उत्तर

  1. आवश्यक या अनिवार्य कार्य,
  2. ऐच्छिक कार्य।

प्रश्न 3.
राज्य के दो अनिवार्य कार्य लिखिए। [2008, 11, 186]
उत्तर

  1. आन्तरिक शान्ति और व्यवस्था को बनाये रखना तथा
  2. देश की बाह्य आक्रमणों से रक्षा करना।

प्रश्न 4.
राज्य के दो ऐच्छिक कार्य बताइए। [2016]
उत्तर

  1. शिक्षा का प्रबन्ध करना तथा
  2. उद्योग-धन्धों और व्यापार का विकास करना।

प्रश्न 5.
“राज्य एक आवश्यक बुराई है।” राज्य के बारे में यह विचारधारा किस सिद्धान्त से सम्बन्धित है? [2010]
उत्तर
व्यक्तिवाद से।

प्रश्न 6.
व्यक्तिवाद के किन्हीं दो समर्थकों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. जे०एस० मिल तथा
  2. हरबर्ट स्पेन्सर।

प्रश्न 7.
व्यक्तिवाद के दो गुण लिखिए।
उत्तर

  1. व्यक्ति को प्रमुखता तथा
  2. राज्य के कार्यों पर नियन्त्रण।

प्रश्न 8.
राज्य के व्यक्तिवादी सिद्धान्त के विरुद्ध दो तर्क दीजिए।
उत्तर

  1. राज्य का हस्तक्षेप आवश्यक है तथा
  2. राज्य एक आवश्यक बुराई न होकर सकारात्मक अच्छाई है।

प्रश्न 9.
राज्य की सम्प्रभुता को अस्वीकार करने वाले सिद्धान्त का नाम लिखिए।
उत्तर-
राज्य का व्यक्तिवादी सिद्धान्त।

प्रश्न 10.
आदर्शवाद के सिद्धान्त की दो मुख्य बातें बताइए। [2007]
उत्तर

  1. राज्य साध्य और व्यक्ति साधन है तथा
  2. राज्य का आधार शक्ति नहीं, इच्छा

प्रश्न 11.
समाजवाद के दो समर्थकों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. कार्ल माक्र्स तथा
  2. जयप्रकाश नारायण।

प्रश्न 12.
समाजवाद के दो लक्षण बताइए। [2012]
उत्तर

  1. व्यक्तिवाद का विरोध
  2. समानता का समर्थन।

प्रश्न 13.
समाजवाद के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2014, 16]
उत्तर

  1. यह न्याय पर आधारित है तथा
  2. यह अधिक लोकतन्त्रात्मक है।

प्रश्न 14.
समाजवाद के दो दोष लिखिए।
उत्तर

  1. सरकार की शक्ति में अधिक वृद्धि तथा
  2. धर्म का विरोध।

प्रश्न 15.
समाजवाद की कोई दो मान्यताएँ बताइए।
उत्तर

  1. व्यक्ति की अपेक्षा समाज को प्राथमिकता तथा
  2. उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व।

प्रश्न 16.
लोक-कल्याणकारी राज्य की कोई एक परिभाषा लिखिए।
या
लोक-कल्याणकारी राज्य क्या है? [2014]
उत्तर
“लोक-कल्याणकारी राज्य वह राज्य है जो अपने नागरिकों के लिए विस्तृत मात्रा में नागरिक सेवाएँ प्रदान करता है।’

प्रश्न 17.
लोक-कल्याणकारी राज्य के दो कार्य लिखिए। [2010, 14]
उत्तर

  1. लोक-कल्याणकारी राज्य नागरिकों के न्यूनतम सामाजिक जीवन-स्तर को बनाये रखने का प्रयास करता है तथा
  2. लोक-कल्याणकारी राज्य सभी नागरिकों के लिए समान अवसर उपलब्ध कराकर धनी और निर्धन के मध्य अन्तर को कम करता है।

प्रश्न 18.
कल्याणकारी राज्य के दो उद्देश्य लिखिए।
उत्तर

  1. आर्थिक सुरक्षा तथा
  2. न्याय की व्यवस्था।

प्रश्न 19.
लोक-कल्याणकारी राज्य के दो लक्षण (विशेषताएँ) बताइए। [2014]
उत्तर

  1. यह व्यक्ति की आर्थिक सुरक्षा की व्यवस्था करता है तथा
  2. यह समाज की सर्वव्यापी उन्नति का प्रयास करता है।

प्रश्न 20.
कल्याणकारी राज्य के दो दोष लिखिए।
उत्तर

  1. यह सामाजिक सुरक्षा देकर कार्य कर सकने योग्य वृद्धों को निष्क्रिय बना देती है। तथा
  2. इससे सरकार की शक्ति में अधिक वृद्धि हो जाती है।

प्रश्न 21
कल्याणकारी राज्य के दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर

  1. भारत तथा
  2. ग्रेट ब्रिटेन।

प्रश्न 22.
मनु के अनुसार राज्य के दो कार्य बताइए।
उत्तर

  1. बाह्य आक्रमण से देश की रक्षा तथा
  2. असहायों की सहायता करना।

प्रश्न 23.
कल्याणकारी राज्य में राज्य के कार्य बढ़ते हैं या घटते हैं?
उत्तर
कल्याणकारी राज्य में राज्य के कार्यों में अत्यधिक वृद्धि होती है।

प्रश्न 24.
सामान्य इच्छा (General will) के सिद्धान्त के प्रतिपादक का नाम बताइए।
उत्तर
रूसो।

प्रश्न 25.
मनु द्वारा बताये गये करों के प्रकार बताइए।
उत्तर

  1. बलि (विभिन्न प्रकार के कर),
  2. शुल्क (चुंगी),
  3. दण्ड (जुर्माना) तथा
  4. भाग (लगान)।

प्रश्न 26.
क्यों मनु की जनता राजा का विरोध कर सकती है?
उत्तर
मनु की जनता राजा का विरोध कर सकती है, उसे गद्दी से उतार सकती है और उसे मार भी सकती है, यदि वह अपनी मूर्खता से प्रजा को सताता है।

प्रश्न 27.
कौटिल्य द्वारा बताये गये राज्य के दो प्रमुख कार्य लिखिए।
उत्तर

  1. वर्णाश्रम धर्म को बनाये रखना तथा
  2. दण्ड की व्यवस्था करना।

प्रश्न 28.
कौटिल्य के अनुसार राज्य के अंगों की संख्या लिखिए। [2010]
उत्तर
कौटिल्य ने राज्य के सात अंग बताए हैं।

प्रश्न 29.
मनु द्वारा लिखित ग्रन्थ का नाम लिखिए। [2012]
उत्तर
मनु द्वारा लिखित ग्रन्थ का नाम है- मनुस्मृति।

प्रश्न 30.
कौटिल्य द्वारा लिखित ग्रन्थ का नाम बताइए। [2010]
उत्तर
कौटिल्य द्वारा लिखित ग्रन्थ का नाम है-अर्थशास्त्र

प्रश्न 31.
वैज्ञानिक समाजवाद का जनक कौन है ? (2007)
उत्तर
कार्ल मार्क्स को वैज्ञानिक समाजवाद का जनक माना जाता है।

प्रश्न 32.
‘व्यक्तिवाद’ की कोई एक परिभाषा लिखिए।
उत्तर
हम्बोल्ट ने व्यक्तिवाद की यह परिभाषा दी है, “व्यक्तिवाद व्यक्ति के हितों का समर्थक है। यह मनुष्य की क्षमताओं के पूर्ण विकास एवं उसके सभी अधिकारों का एक व्यक्ति होने के नाते उपयोग करने का समर्थन करता है।

प्रश्न 33.
व्यक्तिवाद सिद्धान्त के समर्थक किस बात पर सर्वाधिक बल देते हैं ?
उत्तर
व्यक्तिवाद सिद्धान्त के समर्थक व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर सर्वाधिक बल देते हैं।

प्रश्न 34.
आदर्शवादी विचारधारा की दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर

  1. राज्य साध्य है, साधन नहीं तथा
  2. राज्य सर्वशक्तिमान तथा अनिवार्य है।

प्रश्न 35.
आदर्शवाद वे व्यक्तिवाद में मुख्य अन्तर क्या है?
उत्तर
आदर्शवाद के अनुसार राज्य साध्य है, जबकि व्यक्तिवाद इसे साधन मानता है।

प्रश्न 36.
राज्य के समाजवादी सिद्धान्त के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2016]
उत्तर

  1. समाजवाद श्रमिकों एवं गरीबों के शोषण का विरोध करता है तथा
  2. समाजवाद श्रम तथा समाज सेवा पर अत्यधिक जोर देता है।

प्रश्न 37.
व्यक्तिवादियों के अनुसार, राज्य का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य कौन-सा है?
उत्तर
व्यक्तिवादियों के अनुसार राज्य का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य समाज में व्याप्त बुराइयों वे कुरीतियों को दूर रखना है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1. “वही सरकार सर्वश्रेष्ठ है जो सबसे कम शासन करती है।” यह कथन किसका है? [2014]
(क) हरबर्ट स्पेन्सर का
(ख) रिकार्डों का
(ग) फ्रीमैन का
(घ) माल्थस का

2. निम्नलिखित में से कौन आदर्शवादी विचारक है? [2012, 14]
(क) लॉक
(ख) हीगल
(ग) मिल
(घ) बेन्थम

3. मनु के अनुसार राज्य के कितने अंग हैं ? [2012]
(क) 4
(ख) 7
(ग) 8
(घ) 9

4. निम्नांकित में से कौन व्यक्तिवाद का प्रमुख समर्थक है?
(क) मैकाइवर
(ख) जे०एस० मिल।
(ग) बेन्थम
(घ) प्रो० विलोबी

5. निम्नलिखित में से कौन व्यक्तिवाद का प्रतिपादक है?
(क) सुकरात
(ख) हरबर्ट स्पेन्सर
(ग) टी०एच० ग्रीन
(घ) महात्मा गाँधी।

6. “प्रजा के सुख में ही राज्य का सुख है, प्रजाहित में ही राजा का हित है। राजा के लिए प्रजा के सुख से अलग कोई सुख नहीं।” यह कथन किसका है?
(क) मनु का
(ख) कौटिल्य का
(ग) सुकरात का
(घ) अरस्तू का

7. वैज्ञानिक समाजवाद का प्रतिपादक (जनक) कौन था?
(क) माओत्से तुंग
(ख) कार्ल माक्र्स
(ग) लेनिन
(घ) स्टालिन

8. “राज्य एक अनावश्यक बुराई है।” यह कथन किस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है? [2007, 13]
(क) व्यक्तिवाद
(ख) अराजकतावाद
(ग) समाजवाद
(घ) आदर्शवाद

9. “वह सरकार सबसे अच्छी है, जो सबसे कम शासन करती है।” यह कौन-सी अवधारणा [2007, 10, 12, 15]
(क) आदर्शवादी
(ख) समाजवादी
(ग) व्यक्तिवादी
(घ) गाँधीवादी

10. राज्य एक आवश्यक बुराई है।’ यह किस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है- [2010, 12, 13]
(क) समाजवाद
(ख) अराजकतावाद
(ग) व्यक्तिवाद
(घ) आदर्शवाद

11. ‘अर्थशास्त्र’ का लेखक कौन है ? [2009, 14]
(क) मनु
(ख) शुक्राचार्य
(ग) कौटिल्य
(घ) भीष्म

12. निम्नलिखित में से कौन समाजवादी चिन्तक नहीं है?
(क) जयप्रकाश नारायण
(ख) आचार्य नरेन्द्र देव
(ग) राममनोहर लोहिया
(घ) डॉ० बी०आर० अम्बेडकर

13. कौटिल्य के अनुसार, राज्य के कितने अंग होते हैं ? [2007, 08, 10, 12, 14]
(क) चार
(ख) पाँच
(ग) छः
(घ) सात

14. राज्यों के कार्यों का कौन-सा सिद्धान्त नागरिक की स्वतन्त्रता पर आधारित है? [2007, 08]
(क) आदर्शवाद
(ख) व्यक्तिवाद
(ग) साम्यवाद
(घ) फासीवाद

15. राज्य को अनिवार्य कार्य नहीं है- [2014]
(क) बाह्य आक्रमणों से रक्षा करना
(ख) मुद्रा का प्रबन्ध करना।
(ग) मनोरंजन की व्यवस्था करना
(घ) कर संग्रह करना

16. निम्नलिखित में से किस सिद्धान्त के अनुसार राज्य शोषण का यन्त्र है? [2014]
(क) व्यक्तिवाद
(ख) आदर्शवाद
(ग) साम्यवाद
(घ) फासीवाद

17. ‘ए ग्रामर ऑफ पॉलिटिक्स’ नामक पुस्तक के लेखक थे
(क) प्लेटो
(ख) हैरल्ड लॉस्की
(ग) ऐंजिल्स
(घ) कार्ल मार्क्स

18. निम्नांकित में से कौन-सा कल्याणकारी राज्य है?
(क) पाकिस्तान
(ख) चीन
(ग) ब्रिटेन
(घ) मोरक्को

उत्तर

  1. (ग) फ्रीमैन का,
  2. (ख) हीगल,
  3. (ग) 8,
  4. (ख) जे०एस० मिल,
  5. (ख) हरबर्ट स्पेन्सर,
  6. (ख) कौटिल्य का,
  7. (ख) कार्ल माक्र्स,
  8. (ख) अराजकतावाद,
  9. (ग) व्यक्तिवादी,
  10. (ग) व्यक्तिवाद,
  11. (ग) कौटिल्य,
  12. (घ) डॉ० बी०आर० अम्बेडकर,
  13. (घ) सात,
  14. (ख) व्यक्तिवाद,
  15. (ग) मनोरंजन की व्यवस्था करना,
  16. (घ) फासीवाद,
  17. (ख) हैरल्ड लॉस्की,
  18. (ग) ब्रिटेन।

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UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 10 Environmental Psychology

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 10 Environmental Psychology (पर्यावणीय मनोविज्ञान) are part of UP Board Solutions for Class 12 Psychology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12  Psychology Chapter 10 Environmental Psychology (पर्यावणीय मनोविज्ञान).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Psychology
Chapter Chapter 10
Chapter Name Environmental Psychology
(पर्यावणीय मनोविज्ञान)
Number of Questions Solved 62
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 10 Environmental Psychology (पर्यावणीय मनोविज्ञान)

दीर्घ उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पर्यावरणीय मनोविज्ञान से आप क्या समझते हैं। इसकी प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
या
पर्यावरणीय मनोविज्ञान की विशेषताएँ लिखिए।(2015)
उत्तर

भूमिका
(Introduction) 

पर्यावरणीय मनोविज्ञान (Evironmental Psychology) मनोविज्ञान की नवीनतम शांखा है। इसका विकास बीसवीं सदी के सातवें दशक उत्तरार्द्ध और आठवें दशक के पूर्वार्द्ध में हुआ। इसकी पृष्ठभूमि में विश्व के जागरूक वैज्ञानिकों एवं सामाजिक चिन्तकों की पर्यावरण-प्रदूषण से उत्पन्न मानव अस्तित्व के संकट के प्रति बढ़ती हुई जागरूकता भी। इस संकट से उबरने के उपायों की खोज ने पर्यावरणीय मनोविज्ञान के विकास को गति प्रदान की है। पर्यावरणीय संकट एक वस्तुस्थिति है। जिसने इस पृथ्वी पर जीवन समर्थक शक्तियों का तीव्र ह्रास कर दिया है, जिससे मानव-जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। इसलिए पर्यावरणीय मनोविज्ञान का महत्त्व स्वयं सिद्ध हो गया है।

पर्यावरणीय मनोविज्ञान : अर्थ एवं परिभाषा
(Environmental Psychology: Meaning and Definition)

‘पर्यावरणीय मनोविज्ञान का शाब्दिक अर्थ यदि हम देखें तो यह दो शब्दों से मिलकर बना है-‘पर्यावरण एवं ‘मनोविज्ञान’। पर्यावरण से अर्थ उस सब-कुछ से है जो मनुष्य को चारों ओर से घेरे हुए है और मनुष्य के तन-मन एवं व्यवहार को प्रभावित करता है। पर्यावरण’ की शब्दोत्पत्ति ही परि’ (चारों ओर से) + ‘आवरण’ (घेरे हुए होना) है। इस दृष्टि से ‘पर्यावरण’ एक व्यापक शब्द है। मनुष्य के कुल पर्यावरण में प्राकृतिक (Natural) तथा सामाजिक-सांस्कृतिक (Socio-cultural) दोनों ही भाग सम्मिलित हैं। प्राकृतिक पर्यावरण जल, वायु, तापमान, भूमि की बनावट तथा भूगर्भीय संरचना एवं प्रक्रियाएँ और सम्पदाएँ अर्थात् वे सभी प्राकृतिक बल सम्मिलित हैं जो अभी तक मनुष्य के संकल्प और नियन्त्रण से बाहर हैं। जो कुछ मानव द्वारा निर्मित, संचालित और नियन्त्रित है, वह उसका सामाजिक तथा सांस्कृतिक पर्यावरण है। ”

मनुष्य स्वयं प्रकृति का एक अंश है। वह जल, वायु, आकाश, अग्नि तथा पृथ्वी; अर्थात् पंचतत्त्वों का एक पुतला है; अतः इसका प्राकृतिक पर्यावरण से प्रभावित होना स्वाभाविक है, किन्तु वह प्रकृति के हाथ में नि:सहाय और निष्क्रिय खिलौना नहीं है। उसने अपने जागरूक प्रयासों से प्राकृतिक बाधाओं पर विजय पाने और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से अपने लिए सुख-सुविधा के साधनों के विकास का प्रयास किया है। मानव-सभ्यता की कहानी का अधिकांश तथ्य मनुष्य की प्रकृति पर विजय है, लेकिन इस सभ्यता के विकास ने विपरीत परिणाम भी दिये हैं। भौतिक सुख की चाह ने प्राकृतिक सन्तुलन में व्यवधान पहुँचाया है और पर्यावरण को प्रदूषित कर दिया है। वास्तव में, मानव अपने कुल पर्यावरण की उपज है। वह उसका भाग भी है। यदि उसके व्यवहार ने पर्यावरण सन्तुलन को बिगाड़ा है। तो उसका व्यवहार ही पर्यावरण सन्तुलन को पुनस्र्थापित करने में सक्षम हो सकता है।

मनोविज्ञान मनुष्य की अन्तश्चेतना का व्यवस्थित अध्ययन है। यह मनुष्य के मानसिक जगत् की प्रक्रियाओं का व्यवस्थित अध्ययन है। मनुष्य का अस्तित्व वस्तुतः भावात्मक प्रवाह है। यह प्रवाह त्रिआयामी है—ज्ञानात्मक (Cognitive), भावात्मक (Affective) एवं क्रियात्मक (Conative or Psychomotor activity)। पर्यावरण के किसी भी अंश के प्रति वह अपनी प्रतिक्रिया इन तीनों ही रूपों में अभिव्यक्त करता है। इसी भाँति, उसके प्राकृतिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण का प्रत्येक संघटक उसके ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक व्यवहार को प्रभावित करता है।

अँधेरे में आँखों की पुतली फैल जाती है तो प्रकाश में सिकुड़ जाती है, शाकाहारी समाज में पला व्यक्ति मांस की दुकान के पास से गुजरने-मात्र से वितृष्णा अनुभव करता है, उसे मितली आने लगती है, जबकि मांसाहारी परिवेश में पले व्यक्ति के मुँह में मांसाहारी भोजन को देखकर लार आ सकती है। | स्पष्ट है कि प्राकृतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही पर्यावरण मनुष्य के मानसिक व्यवहार को प्रभावित करते हैं। मनोविज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जो मनुष्य के मानसिक व्यवहार के रहस्य के पर्दो को उठाने का प्रयास करती है। | इस भाँति पर्यावरणीय मनोविज्ञान को हम मनुष्य के मानसिक व्यवहार तथा पर्यावरण के बीच अन्तर्सम्बन्ध के अध्ययन के रूप में परिभाषित कर सकते हैं।

विभिन्न विद्वानों ने पर्यावरणीय मनोविज्ञाम् की परिभाषा निम्नलिखित रूप से की है ।

(1) प्रोशैन्सकी, लिट्रेलसन तथा रिवलिन के अनुसार, “पर्यावरणीय मनोविज्ञान वह है जो पर्यावरणीय मनोवैज्ञानिक करते हैं।’यह परिभाषा सरल तो है, किन्तु पर्यावरणीय मनोविज्ञान की विषय-वस्तु को स्पष्ट नहीं करती और इसका एक अस्पष्ट अर्थ दान करती है।

(2) हेमस्ट्रा तथा मैकफारलिंग का कथन है, “पर्यावरणीय मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की वह शाखा है जो मानव-व्यवहार तथा भौतिक वातावरण के परस्पर सम्बन्धों का अध्ययन करती है।”

इन विद्वानों के दृष्टिकोण के अनुसार पर्यावरणीय मनोविज्ञान का अर्थ सीमित हो जाता है, क्योंकि ये मनुष्य के पर्यावरण के केवल प्राकृतिक पक्ष तथा मानव-व्यवहार के पारस्परिक सम्बन्ध तक ही पर्यावरणीय मनोविज्ञान के कार्यक्षेत्र को सीमित कर देते हैं।

(3) फिशर के अनुसार, “पर्यावरणीय मनोविज्ञान व्यवहार तथा प्राकृतिक एवं निर्मित पर्यावरण के बीच अन्तर्सम्बन्ध का अध्ययन करता है। इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि मानवीय व्यवहार तथा प्राकृतिक एवं मानव निर्मित पर्यावरण के पारस्परिक प्रभावित होने के व्यवस्थित अध्ययन को पर्यावरणीय मनोविज्ञान कहा जाता है।

(4) कैटर तथा क्रेक पर्यावरणीय मनोविज्ञान की सही परिभाषा करते हुए लिखते हैं, पर्यावरणीय मनोविज्ञान विज्ञान का वह क्षेत्र है जो मानवीय अनुभवों और क्रियाओं तथा सामाजिक एवं भौतिकी पर्यावरण के प्रासंगिक पक्षों में होने वाले व्यवहारों तथा अन्तक्रियाओं का संयोजने और विश्लेषण करता है। स्पष्ट है कि इन विद्वानों के अनुसार मनुष्य के कुल पर्यावरण एवं मानवीय व्यवहार के बीच अन्तर्सम्बन्धों का आनुभविक अध्ययन ही पर्यावरणीय मनोविज्ञान है।

पर्यावरणीय मनोविज्ञान की विशेषताएँ
(Salient Features of Environmental Psychology)

वास्तव में, किसी भी विषय का अनूठापन उसके दृष्टिकोण में निहित होता है। यही उसे अन्य विषयों से अलग करता है। पर्यावरणीय मनोविज्ञान का दृष्टिकोण अथवा उसकी रुचि मानव-व्यवहार और उसके कुल पर्यावरण के अन्तर्सम्बन्धों को जानने में है। यही चयनशील रुचि उसे अन्य विज्ञानों से पृथक् करती है और उसकी निजी विशेषताओं को जन्म देती है। पर्यावरणीय मनोविज्ञान की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं|

(1) मनुष्य का पर्यावरणीय व्यवहार इकाई रूप है- पर्यावरणीय मनोविज्ञान, मनुष्य के पर्यावरणीय व्यवहार को एक इकाई के रूप में मानकर अध्ययन करता है। उदाहरण के लिए यह किसी नगरवासी के पर्यावरणीय व्यवहार में केवल उद्दीपक और अनुक्रिया को ही स्पष्ट नहीं करेगा, बल्कि उस व्यक्ति के सौन्दर्यबोध की अनुभूति को भी इस स्पष्टीकरण में सम्मिलित करेगा। वह जानने का प्रयास करेगा कि उस व्यक्ति ने उस विशिष्ट उद्दीपक को पर्यावरणीय दृष्टि से क्या अर्थ प्रदान किया है? उसके पिछले अनुभव क्या रहे हैं? उस स्थिति के पर्यावरण में उसने किन विशेषताओं  पर विशेष रूप से ध्यान दिया है-आदि।

(2) व्यवस्था उपागम- मनोविज्ञान की इस शाखा की मान्यता है कि कोई पर्यावरणीय व्यवहार एक समग्र सैटिंग (Setting) या मंच के रूप में होता है। मान लीजिए हम किसी सहभोज में आमन्त्रित हैं। वहाँ पण्डाल में भोजन की मेजें सजी हैं और काफी भीड़-भाड़े है। वहाँ की सजावट, रोशनी की व्यवस्था सभी कुछ हमें प्रभावित करेगा। हम पाएँगे कि भीड़-भाड़ के बावजूद भी व्यक्ति अपनी प्लेट में रुचि के अनुकूल खाने की सामग्री लेकर अलग-अलग छोटे-छोटे समूहों में बँट जाते हैं।

वे भोजन करते समय भी परस्पर परिचय, अभिवादन, संवाद और अन्तक्रिया करते हैं। उसे पूरी सैटिंग से उनका व्यवहार प्रभावित होता है। सहभोज में एक व्यक्ति का व्यवहार इस पूरी पर्यावरणीय सैटिंग से पृथक् करके नहीं समझा जा सकता। इसे ही तकनीकी भाषा में व्यवस्था उपागम’ (System Approach) कहा गया है, जिसमें व्यवहार-स्थल की प्रत्येक इकाई को ध्यान में रखकर किसी एक इकाई के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है।

(3) अन्तःअनुशासित दृष्टिकण- स्वभावतः ही , पर्यावरणीय मनोविज्ञान अन्री:अनुशासित (Inter-disciplinary) होता है। इसमें संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, प्रेरक, उद्दीपक व अनुक्रिया सदृश मनोविज्ञान के संप्रत्ययों का प्रयोग होता है। इतना ही नहीं वरन् इसमें समाजशास्त्र के सामाजिक सम्बन्ध, सामाजिक क्रिया, अन्तक्रिया, भीड़-व्यंत्रहार जैसे—सम्प्रत्ययों का भी प्रयोग होता है। मानवशास्त्र के सांस्कृतिक सम्प्रत्ययों; जैसे—प्रथा व रूढ़ि आदि का भी इसमें सहयोग लिया जाता है। कारण स्पष्ट है कि मानव का पर्यावरणीय व्यवहार अपने समग्र पर्यावरण से प्रभावित होता है, न कि केवल उसके प्राकृतिक पक्ष से। उदाहरण के तौर पर बुजुर्ग और सम्मानित व्यक्तियों की उपस्थिति में किसी भी व्यक्ति का व्यवहार वैसा नहीं होता है जैसा कि वह अपने हम उम्र साथियों के बीच होने पर करता है। इसी भाँति भीड़ में सामूहिक उत्तेजना और निजी उत्तरदायित्व की भावना की अनुपस्थिति व्यक्ति के व्यवहार को असामान्य बना देती है। वह ऐसा व्यवहार कर बैठता है जैसा अकेला होने पर वह शायद कभी न करता। अतः पर्यावरणीय व्यवहार का अध्ययन अन्त:अनुशासनिक दृष्टिकोण के प्रयोग को अनिवार्य बना देता है।

(4) समस्या समाधान हेतु रचनात्मक उपाय– पर्यावरणीय मनोविज्ञान का व्यावहारिक पक्ष उतना ही महत्त्व रखता है जितना कि सैद्धान्तिक पक्ष; क्योंकि पर्यावरणीय मनोविज्ञान का मूल उद्देश्य पर्यावरणीय व्यवहार से उत्पन्न समस्याओं का निदान अथवा समाधान होता है। उससे आशा की जाती है कि वह पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान के लिए रचनात्मक उपाय सुझाएगा।

(5) सामाजिक- मनोवैज्ञानिक तत्त्वों का प्रभाव पर्यावरणीय मनोविज्ञान और समाज मनोविज्ञान के बीच न सिर्फ समानता है अपितु घनिष्ठ सम्बन्ध भी है। मनुष्य का पर्यावरणीय व्यवहार उसके सामाजिक-मनोवैज्ञानिक तत्त्वों से अत्यधिक प्रभावित होता है और उन्हीं के वशीभूत होकर व्यक्ति एक ही पर्यावरणीय उद्दीपक के प्रति विभिन्न अनुक्रियाएँ करता है। उदाहरणार्थ-सूअर पालने वाले व्यक्तियों के लिए गन्दगी का पर्यावरण सहयोगी हो सकता है, किन्तु अन्य व्यक्तियों के लिए वह स्थिति असहनीय हो सकती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि पर्यावरणीय मनोविज्ञान और समाज मनोविज्ञान के बीच परस्पर आदान-प्रदान का सम्बन्ध है।

(6) पर्यावरणीय मनोविज्ञान एक संश्लेषणात्मक विज्ञान है- पद्धतिशास्त्र की दृष्टि से पर्यावरणीय मनोविज्ञान’को एक संश्लेषणात्मक विज्ञान (Synthetic Science) कहा जा सकता है। इसकी पद्धतिशास्त्रीय के उपागम संकलक (Electic) होता है। वह किसी एक कारक को निर्णायक की भूमिका प्रदान नहीं कर सकता, वह वह तो अनेक विज्ञानों के निष्कर्षों का लाभ उठाता है। इसी प्रकार वह विभिन्न अनुसन्धान पद्धतियों का प्रयोग करता है। उसका दृष्टिकोण है कि विभिन्न स्रोतों से विचार और जानकारी आने दो, उनका संचालन करो और फिर व्यवस्थित रूप से पर्यावरणीय संश्लेषण प्रस्तुत करो।

प्रश्न 2
पर्यावरणीय मनोविज्ञान के स्वरूप तथा उसकी प्रकृति का विवेचन कीजिए।
उत्तर
ज्ञान की प्रत्येक शाखा के सम्बन्ध में यह एक जिज्ञासा सदा से ही उभरी है कि उसका यथार्थ स्वरूप या प्रकृति क्या है? उसे विज्ञान की श्रेणी में रखा जाये अथवा कला की श्रेणी में? वैज्ञानिक निष्कर्ष जबकि कला में व्यवहार या निषपत्ति का पक्ष प्रबल होता है। दूसरे शब्दों में, विज्ञान में सैद्धान्तिक पक्ष और कला में व्यावहारिक पक्ष शक्तिशाली होता है। अब हम बारी-बारी से पर्यावरणीय मनोविज्ञान के वैज्ञानिक एवं कलात्मक स्वरूपों का अध्ययन करेंगे।

पर्यावरणीय मनोविज्ञान का स्वरूप 

पर्यावरणीय मनोविज्ञान के स्वरूप की विवेचना हमें दो प्रश्नों पर विचार करने के लिए प्रेरित करती है—एक, क्या यह विज्ञान की आदर्श कसौटी पर एक विज्ञान कहा जा सकता है? और दूसरे, यदि यह विज्ञान है तो उसे किस प्रकार का विज्ञान कहा जाये अर्थात् विज्ञान के रूप में उसकी पृथक पहचान बनाने वाली विशेषताएँ कौन-सी हैं? दोनों प्रश्नों का संक्षिप्त विवेचन अग्रलिखित रूप में किया जा रहा है

(I) पर्यावरणीय मनोविज्ञान एक विज्ञान है।
यह तो सर्वविदित है कि विज्ञान अन्तर्वस्तु या विषय-वस्तु में नहीं होता, वह तो किसी भी विषय-वस्तु के अध्ययन करने के तरीकों में निहित होता है। यही कारण है कि भूगर्भशास्त्र, खगोलशास्त्र, मनोविज्ञान, जीवविश्न, भौतिक विज्ञान आदि अलग-अलग विषयों का अध्ययन करते हुए भी विज्ञान कहलाते हैं; क्योंकि उनके अध्ययन की पद्धति समान है और उनके अध्ययनों से प्राप्त निष्कर्षों की गुणात्मकता भी समान हैं वैज्ञानिक पद्धति तथ्यों के अवलोकन, वर्गीकरण, विश्लेषण, निर्वजन और सामान्यीकरण पर आधारित है। यह तथ्यात्मक अध्ययन है, व्यवस्थित अध्ययन है।

अत: विज्ञान के निष्कर्ष सामान्य, निश्चित, कार्य-कारण सम्बन्ध को स्पष्ट करने वाले तथा भविष्यकथन करने वाले होते हैं। विज्ञान किसी भी प्रघटना के सम्बन्ध में तीन प्रश्नों का उत्तर खोजना है-क्या है? कैसे है? और क्यों है? इन प्रश्नों के उत्तर के रूप में उपलब्ध ज्ञान को व्यवहार में लागू करके कैसे मानव-व्यवहार, व्यक्तित्व और समाज को बेहतर बनाया जा सकता है-यह विज्ञान का व्यावहारिक पक्ष है। इसी कारण इसे व्यावहारिक विज्ञान (Applied Science) कहते हैं। भौतिकशास्त्र विशुद्ध विज्ञान है तो इलेक्ट्रिक इन्जीनियरिंग या इलेक्ट्रॉनिक्स उसका व्यावहारिक विज्ञान है।

उपर्युक्त पृष्ठभूमि में पर्यावरणीय मनोविज्ञान को यदि परखा जाये तो निश्चित ही उसे हम विज्ञान की श्रेणी में रखेंगे। इस कथन के समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं

(1) अन्तर्सम्बन्धों का यथार्थवादी अध्ययन- पर्यावरणीय मनोविज्ञान; पर्यावरण और मनुष्य के व्यवहार के बीच अन्तर्सम्बन्धों का यथार्थवादी अध्ययन है। यह इस अन्तर्सम्बन्ध कि ‘क्या है?’-को तथ्यात्मक विवेचन है। यह तथ्यों के अवलोकन, वर्गीकरण, विश्लेषण और सामान्यीकरण पर आधारित है।

(2) कार्य-कारेण की व्याख्या- यह विज्ञान पर्यावरण और मनुष्य के व्यवहार के बीच अन्तक्रिया की कार्य-कारण व्याख्या प्रस्तुत करता है। उदाहरणार्थ-यह व्यक्ति-व्यक्ति के बीच दूरी (Personal space) जैसे सूक्ष्म पर्यावरणीय प्रघटना का भी अध्ययन करता है। चारों ओर भीड़ से घिरे नेता या अभिनेता की व्यवहार बिल्कुल अलग होता है। हम अपने बड़ों या सम्मानित व्यक्तियों से कुछ दूरी से बात करते हैं; जबकि बच्चा हमारे समीपतम आ सकता है और वह हमें अच्छा लगेगा, बुरा महसूस नहीं होगा। इस प्रकार से एक ही मेज पर खाने वाले दो व्यक्तियों के बीच अचेतन रूप से मेज के ‘स्पेस’ (Space) का बँटवारा हो जाता है। कोई भी उन अचेतन सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करता क्योकि वह अशिष्टता या आक्रामकता ही मानी जाएगी।

(3) एक सामाजिक विज्ञान- पर्यावरणीय मनोविज्ञान ऐसे निष्कर्षों पर पहुँचने का प्रयास करता है जिन पर स्थान या समय की सीमा लागू नहीं होती अर्थात् वे सामान्य रूप से हर जगह घटित होते हैं। इतना अवश्य ही कहा जा सकता है कि वे उतने सामान्य ठोस और भविष्यवाणी योग्य नहीं होते जितने कि प्राकृतिक विज्ञानों के निष्कर्ष। कारण स्पष्ट है-उनके अध्ययन-विषय चेतन, संकल्पशील और प्रतिक्रियाशील मनुष्य हैं, वे कोई निर्जीव प्राकृतिक घटनाएँ नहीं हैं। अत: पर्यावरणीय मनोविज्ञान एक सामाजिक विज्ञान है, प्राकृतिक विज्ञान नहीं।

(4) प्रयोगशालीय पद्धति का प्रयोग- पर्यावरणीय मनोविज्ञान नियन्त्रित अवस्था में प्रयोगशालीय पद्धति का भी प्रयोग करता है। उदाहरणार्थ-सघनता (Density) तथा व्यवहार के परस्पर सम्बन्धों को जानने के लिए अनुसन्धानकर्ताओं ने प्रयोगशालाओं में अनेक अध्ययन किये हैं। और पाया है कि उच्च सघनता का; व्यवहार तथा संवेगों पर निषेधात्मक प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार तापमान और मनुष्य की कार्यक्षमता के बीच सम्बन्ध का भी प्रयोगशाला में अध्ययन किया गया है। कई शताब्दियों पूर्व अरस्तू ने कहा था कि ठण्डी जलवायु में रहने वाले लोग ज्यादा परिश्रमी, कर्मठ और जोखिम उठाने वाले होते हैं। इसी भाँति, यह भी पाया गया है कि दुर्गन्धमय वायु प्रदूषण न सिर्फ अन्य लोगों के प्रति आकर्षण को कम कर देता है वरन् छायांकन तथा चित्रकारी के प्रति अनुकूलन अभिवृत्ति को भी कम कर देता है।

(5) आदर्शात्मक पक्ष– पर्यावरणीय मनोविज्ञान का आदर्शात्मक पक्ष (Normative Aspect) भी है। इसके अध्ययनों से उन कसौटियों के निर्धारण में सहायता मिलती है जो मनुष्य के स्वास्थ्य, व्यवहार और समायोजन के लिए आदर्श पर्यावरण का निर्धारण करने में सक्षम हैं। जैसे—चिकित्सा विज्ञान स्वस्थ मर्नुष्य के आदर्श तापमान का निर्धारण 98.4°F के रूप में करता हैं। इस आदर्श से कम या ज्यादा तापमान होना अस्वस्थता का सूचक है। इसी प्रकार वह मनुष्य के व्यवहार की दृष्टि से पर्यावरणीय दशाओं में आदर्श स्वरूप का निर्धारण करने की चेष्टा करता है।

(6) व्यावहारिक विज्ञान- पर्यावरणीय मनोविज्ञान एक व्यावहारिक विज्ञान (Applied science) भी है। इसका मूल उद्देश्य उन उपायों, साधनों एवं पद्धतियों का सुझाना है जिनके द्वारा पर्यावरण संरक्षण तथा पर्यावरण प्रदूषण की समस्या का समाधान किया जा सके। इसका प्रमुख लक्ष्य मनुष्य को विशुद्ध बनाकर उसके वैयक्तिक और सामाजिक जीवन का क्रमागत उन्नयन है।

(7) बहु- आयामी एवं अन्तः अनुशासनिक मनोविज्ञान-जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है; एक बात पुनः ध्यान दिलाने योग्य है कि पर्यावरणीय मनोविज्ञान बहुआयामी और अन्त:अनुशासनिक मनोविज्ञान है। यह मनुष्य के प्राकृतिक, वैयक्तिक तथा सामाजिक पहलुओं का पर्यावरणीय दृष्टिकोण से अध्ययन करता है।

(8) संकलक एवं संश्लेषणात्मक विज्ञान– अन्त में, यह भी उल्लेखनीय है कि पर्यावरणीय मनोविज्ञान संकलक (Electic) तथा संश्लेषणात्मक (Synthetic) विज्ञान है जो अनेक विज्ञान के विशिष्ट क्षेत्रों से तथ्य लेकर मनुष्य और उसके पर्यावरण के सम्बन्ध में व्यवस्थित ज्ञान प्रस्तुत करता है।
 इस तरह से पर्यावरण मनोविज्ञान सामान्य, कार्य-कारण का सम्बन्ध स्थापित करने वाला, सामाजिक, प्रयोगशालीय, आदर्शात्मक, व्यावहारिक, अन्तर्विज्ञानी, बहुआयामी तथा संश्लेषणात्मक विज्ञान है।

(II) पर्यावरणीय मनोविज्ञान एक कला है।

किसी भी विज्ञान का स्वरूप निर्धारण करते समय कभी-कभी यह प्रश्न भी उठाया जाता है कि वह विज्ञान है या कला अथवा दोनों ही है? पर्यावरणीय मनोविज्ञान के सम्बन्ध में इस प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि कला क्या है? कला के अर्थ को लेकर विद्वानों के बीच मतभेद है। मोटे तौर पर कला के अर्थ के सम्बन्ध में तीन प्रकार के मत पाये जाते हैं

(1) कला सृजनात्मक क्रिया के रूप में- कला में कल्पना का तत्त्व होता है जिसके द्वारा चित्रकार, संगीतकार, मूर्तिकार, नर्तक अथवा स्थापत्य कलाविद् अपने-अपने क्षेत्रों में सौन्दर्यमयी निष्पत्ति करते हैं।

(2) कला मनुष्य और समाज की स्थिति का यथार्थवादी प्रतीकात्मक प्रस्तुतीकरण है- कुछ विद्वानों के अनुसार, कला समाज का दर्पण है। कलाकार जो कुछ भी मनुष्य या समाज के व्यवहार में देखता है और उससे स्पन्दित या उद्वेलित होता है, उसी को अपनी लेखनी, तूलिका, छेनी-हथौड़े या रेखांकन द्वारा विभिन्न माध्यमों से अभिव्यक्त करता है। यही कारण है कि उसकी अभिव्यक्ति सिर्फ सौन्दर्यमूलक ही नहीं होती बल्कि वह वितृष्णा, वीभत्सता या कुरूप घटनाओं का भी चित्रण करता है। इस दृष्टि से कला वैयक्तिक और सामाजिक यथार्थ की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है।

(3) कला आनन्दमूलक क्रिया के रूप में- आदर्शवादी विद्वान कला को उस क्रिया के रूप में परिभाषित करते हैं जो मनुष्य के हृदय में आनन्द की तरंगें उत्पन्न करती है। कला वह जो आनन्द लाये। आनन्द आत्मा का लक्षण है। इस दृष्टि से कला आध्यात्मिक साधन है। भारत में परम्परागत कला, चाहे वह किसी भी रूप में रही हो, ईश्वर की लीलाओं की अभिव्यक्ति है या ईश्वर के प्रति कलाकार के समर्पण को ही अभिप्रकाशित करती है। कला मनुष्य को आत्म-साक्षात्कार करने में सहायता देती है। कलाकार कला के माध्यम से ‘स्व’ (Self) की उपलब्धि करता है।

वास्तव में, कला की उपर्युक्त परिभाषाओं से कला के कुछ सामान्य तत्त्व प्रकट होते हैं जिनके आधार पर यह तय किया जा सकता है कि कोई मानवीय व्यवहार या क्रिया कला है या नहीं। कला के ये सामान्य तत्त्व अग्रलिखित हैं|

(1) कला वस्तुत: कला है, विचार नहीं। यह निष्पादन में निहित है। कला के शास्त्रीय स्वरूप का समीक्षक, आलोचक या विद्वान् वैज्ञानिक तो हो सकता है किन्तु यदि वह स्व का निष्पादन नहीं कर सकता तो वह कलाकार नहीं कहा जा सकता।

(2) कला भी व्यवस्थित क्रिया है। एक वैज्ञानिक जब अपने निष्कर्षों को शब्दों व रेखाचित्रों के माध्यम से प्रस्तुत करता है। तब उसकी निजी शैली और अभिव्यक्ति की क्षमता अलग ही प्रकट होती है, तब वह वैज्ञानिक साहित्य या साहित्यकार बन जाता है। अव्यवस्थित क्रिया कभी कला नहीं हो सकती। प्रत्येक कला का अपना वैज्ञानिक पक्ष भी है।

(3) प्रत्येक कला में कल्पना और सृजन के तत्त्व होते हैं। वे प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। यहाँ भी यदि हम ध्यानपूर्वक देखें तो विज्ञान में भी कल्पना और सृजन के तत्त्व मौजूद होते है।। विज्ञान का प्रारम्भ ही कल्पना से है; अतः पूर्वानुमान को परिकल्पना (Hypothesis) कहा जाता है। जेम्स वाट का यह अनुमान कि भाप में शक्ति है; प्रमाणित होने पर ऊर्जा के महान् स्रोत का सृजन हो गया।

इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि विज्ञान और कला के बीच रेखा बड़ी धुंधली-सी है। वह केवल अध्ययन-विश्लेषण के लिए बनायी गयी है। विज्ञान में सैद्धान्तिक या वैचारिक पक्ष प्रबल है, जबकि कला में क्रियात्मक, व्यावहारिक या निष्पादन सम्बन्धी पक्ष प्रबल है। वस्तुत: प्रत्येक कला का वैज्ञानिक पक्ष होता है और प्रत्येक विज्ञान का कलात्मक पहलु।

उपर्युक्त कसौटी के आधार पर निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि पर्यावरणीय मनोविज्ञान एक विज्ञान है,कला नहीं, किन्तु इसका कलात्मक अथवा व्यावहारिक पक्ष भी अत्यन्त प्रबल है। इसका मुख्य उद्देश्य मनुष्य के पर्यावरण का संवर्द्धन एवं संशोधन करना है ताकि मनुष्य का सौन्दर्य-बोध बढ़े।और उसका जीवन आनन्दमय हो सके। इस दृष्टि से पर्यावरण मनोविज्ञान एक विज्ञान भी है और एक कला भी।

प्रश्न 3
पर्यावरषा-प्रदूषण से क्या आशय है? पर्यावरण-प्रदूषण के मुख्य रूप कौन-कौन-से हैं?
पर्यावरण-प्रदूषण के प्रमुख सामान्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
या
पर्यावरणीय प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? (2010)

पर्यावरण-प्रदूषण का अर्थ 

पर्यावरण- प्रदूषण का सामान्य अर्थ है-हमारे पर्यावरण का दूषित हो जाना। पर्यावरण का निर्माण प्रकृति ने किया है। प्रकृति-प्रदत्त पर्यावरण में जब किन्हीं तत्त्वों का अनुपात इस रूप में बदलने लगता है कि जिसका जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की सम्भावना होती है, तब कहा जाता है कि पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। उदाहरण के लिए-यदि पर्यावरण के मुख्य भाग वायु में ऑक्सीजन के स्थान पर अन्य विषैली गैसों का अनुपात बढ़ जाये तो कहा जाएगा कि वायु-प्रदूषण हो गया है। पर्यावरण के किसी भी भाग के दूषित हो जाने को पर्यावरण-प्रदूषण कहा जाएगा।

पर्यावरण-प्रदूषण के मुख्य रूप

पर्यावरण प्रदूषण के मुख्य रूप या भाग निम्नलिखित हैं

  1. वायु-प्रदूषण
  2. जल-प्रदूषण
  3. मृदा-प्रदूषण तथा
  4. ध्वनि-प्रदूषण।।
    (नोट-पर्यावरण-प्रदूषण के प्रकारों का विस्तृत विवरण लघु उत्तरीय प्रश्नों के अन्तर्गत वर्णित हैं।)

पर्यावरण- प्रदूषण के प्रमुख सामान्य कारण पर्यावरण-प्रदूषण अपने आप में एक बहुपक्षीय तथा व्यापक समस्या है तथा इस समस्या की निरन्तर वृद्धि हो रही है। पर्यावरण को दूषित करने वाले कारण अनेक हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रदूषण के लिए भिन्न-भिन्न कारण जिम्मेदार हैं, परन्तु यदि पर्यावरण-प्रदूषण के मुख्य तथा सामान्य कारणों का उल्लेख करना हो तो अग्रलिखित कारण ही उल्लेखनीय हैं|

(1) जल-मल का दोषपूर्ण विसर्जन- पर्यावरण-प्रदूषण का सबसे प्रबल कारण आवासीय क्षेत्रों में जल-मल का दोषपूर्ण विसर्जन है। खुले शौचालयों से उत्पन्न होने वाली दुर्गन्ध वायु-प्रदूषण में सर्वाधिक योगदान देती है। वाहित मल से जल के विभिन्न स्रोत प्रदूषित होते हैं। घरों में इस्तेमाल होने वाला जल भी विभिन्न घरेलू क्रियाकलापों से अत्यधिक प्रदूषित हो जाता है तथा नाले-नालियों के माध्यम से होता हुआ जल के मुख्य स्रोतों में मिल जाती है तथा उन्हें प्रदूषित कर देता है।

(2) घरों से विसर्जित अवशिष्ट पदार्थ- सभी घरों में अनेक ऐसे पदार्थ इस्तेमाल होते हैं जो पर्यावरण-प्रदूषण में वृद्धि करने वाले होते हैं। उदाहरण के लिए घरों में इस्तेमाल होने वाले फिनायल, मच्छर मारने वाले घोल, डिटर्जेन्ट, शैम्पू, साबुन तथा अनेक कीटनाशक ओषधियाँ घरों से विसर्जित होकर जल, वायु तथा मिट्टी को निरन्तर प्रदूषित करते हैं।

(3) निरन्तर बढ़ने वाला औद्योगीकरण- पर्यावरण प्रदूषण का एक सामान्य तथा मुख्य कारण है—निरन्तर बढ़ने वाला औद्योगीकरण। औद्योगिक संस्थानों से जहाँ एक ओर वायु-प्रदूषण होता है, वहीं दूसरी ओर उनमें इस्तेमाल होने वाली रासायनिक सामग्री के अवशेष आदि वायु, जल तथा मिट्टी को निरन्तर प्रदूषित करते हैं। औद्योगिक संस्थानों में चलने वाली मशीनों, सायरनों तथा अन्य कारकों से ध्वनि-प्रदूषण में भी वृद्धि होती है।

(4) दहन तथा उसमें उत्पन्न होने वाला धुआँ– आज सभी क्षेत्रों में दहन की दर में वृद्धि हुई है। घर के रसोईघर से लेकर भिन्न-भिन्न प्रकार के वाहनों तथा औद्योगिक संस्थानों में सभी कार्य दहन द्वारा ही सम्पन्न होते हैं। विभिन्न प्रकार के ईंधनों के दहन से अनेक विषैली गैसे, धुआँ तथा कार्बन के सूक्ष्म कण पर्यावरण में निरन्तर व्याप्त होते रहते हैं। ये सभी कारक वायु प्रदूषण को अत्यधिक बढ़ाते हैं। |

(5) कीटनाशक दवाओं के प्रयोग में वृद्धि– विभिन्न कारणों से आज कृषि एवं उद्यान-क्षेत्र में कीटनाशक दवाओं का प्रयोग निरन्तर बढ़ रहा है। इन कीटनाशक दवाओं द्वारा पर्यावरण-प्रदूषण में भी निरन्तर वृद्धि हो रही है। इससे वायु, जल तथा मिट्टी तीनों ही प्रदूषित हो रहे हैं।

(6) जल-स्रोतों में कूड़ा-करकट तथा मृत शरीर बहाना- नगरीय एवं ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के कूड़े के विसर्जन की समस्या निरन्तर बढ़ रही है। इस स्थिति में कूड़े-करकट तथा प्राणियों के मृत शरीरों को जल-स्रोतों में बहा दिया जाता है। इस प्रचलन के कारण जल-प्रदूषण में निरन्तर वृद्धि हो रही है। इस प्रकार से प्रदूषित होने वाला जल क्रमशः वायु तथा मिट्टी को भी प्रदूषित करता है।

(7) वनों की अधिक कटाई- पर्यावरण प्रदूषण का एक मुख्य कारण वनों की अन्धाधुन्ध कटाई भी है। वृक्ष वायु को शुद्ध करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। जब वृक्ष कम होने लगते हैं तो वायु-प्रदूषण की देर में भी वृद्धि होती है।

(8) रेडियोधर्मी पदार्थ- रेडियोधर्मी पदार्थों द्वारा भी पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि हो रही है। विभिन्न आणविक परीक्षणों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले रेडियोधर्मी पदार्थों ने पर्यावरण-प्रदूषण में बहुत अधिक वृद्धि की है। इस कारण से होने वाला पर्यावरण प्रदूषण अति गम्भीर होता है तथा इसका प्रतिकूल प्रभाव मनुष्यों, अन्य प्राणियों तथा सम्पूर्ण वनस्पति-जगत पर भी पड़ता है।

प्रश्न 4
पर्यावरण-प्रदूषण की रोकथाम कैसे करेंगे?
उत्तर

पर्यावरणीय प्रदूषण की रोकथाम

प्रदूषण की समस्या पर विचार करने से यह स्पष्ट हो गया है कि यह एक गम्भीर समस्या है तथा इसके विकराल रूप धारण करने से मानव-मात्र तो क्या, पूरी सृष्टि के अस्तित्व को खतरा हो सकता है। इस स्थिति में बढ़ते हुए पर्यावरणीय-प्रदूषण को नियन्त्रित करना नितान्त आवश्यक है। यह सत्य है।

कि प्रदूषण का मुख्यतम स्रोत औद्योगिक संस्थान हैं, परन्तु औद्योगीकरण के क्षेत्र में हम इतना आगे बढ़ चुके हैं कि उससे पीछे कदम रखना अब सम्भव नहीं। अतः पर्यावरण के प्रदूषण को रोकने के लिए हम औद्योगिक प्रगति को नहीं रोक सकते, बल्कि कुछ अन्य उपाय करके ही प्रदूषण को नियन्त्रित करना होगा। विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों को कम करने के कुछ मुख्य उपायों का संक्षिप्त परिचय अग्रवर्णित है

(1) वायु-प्रदूषण पर नियन्त्रणवायु- प्रदूषण के मुख्य स्रोत औद्योगिक संस्थान, सड़कों पर चलने वाले वाहन तथा गन्दगी हैं। अतः वायु-प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए इन्हीं स्रोतों पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। वायु प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए अंति आवश्यक है कि औद्योगिक संस्थानों की चिमनियों से निकलने वाले धुएँ कों नियन्त्रित किया जाए। इसके लिए दो उपाय अवश्य किये जाने चाहिए। प्रथम यह कि चिमनियाँ बहुत ऊंची होनी चाहिए ताकि उनसे निकलने वाली दूषित गैसें काफी ऊँचाई पर वायुमण्डल में मिलें और पृथ्वी पर इनका अधिक प्रभाव न पड़े। दूसरा उपाय यह किया जाना चाहिए कि औद्योगिक संस्थानों की चिमनियों में बहुत उत्तम प्रकार के छन्ने लगाये जाने चाहिए।

इन छन्नों द्वारा व्यर्थ गैसों में से सभी प्रकार के कण छनकर भीतर ही रह जाएँगे, केवल गर्म हवा एवं कुछ गैसे ही वायुमण्डल में निष्कासित हो पाएँगी, इससे प्रदूषण नियन्त्रित होगा। इसके अतिरिक्त औद्योगिक संस्थानों के अन्दर श्रमिकों को स्थानीय प्रदूषण से बचाने के लिए सभी सम्भव उपाय किये जाने चाहिए। इसके लिए संवातन की सुव्यवस्था होनी चाहिए तथा ऑक्सीजन की कृत्रिम व्यवस्था भी अवश्य होनी चाहिए। औद्योगिक संस्थानों के विकेन्द्रीकरण से भी वायु-प्रदूषण को नियन्त्रित किया जा सकता है। औद्योगिक संस्थानों के अतिरिक्त वायु-प्रदूषण के मुख्य स्रोत वाहन हैं; इसके लिए भी कुछ कारगर उपाय करने होंगे। सर्वप्रथम यह अनिवार्य है कि सड़क पर चलने वाला प्रत्येक वाहन बिल्कुल ठीक होना चाहिए।

उसका कार्बोरेटर तथा धुआँ निकालने वाला भाग बिल्कुल ठीक होना चाहिए; इस स्थिति में कम धुआँ तथा कार्बन मोनोऑक्साइड निकलते हैं। इसके अतिरिक्त जहाँ तक सम्भव हो सके सड़कों पर यातायात नहीं रुकना चाहिए, क्योंकि चलते हुए वाहन की अपेक्षा स्टार्ट स्थिति में रुके हुए वाहन पर्यावरण का अधिक प्रदूषण करते हैं। वाहनों के धुआँ निकालने वाले पाइप के मुंह पर भी फिल्टर लगाये जाने चाहिए। पेट्रोल एवं डीजल में मिलावट को रोककर भी प्रदूषण को कम किया जा सकता है। रेलगाङ्गियों का विद्युतीकरण करके भी काफी हद तक वायु प्रदूषण को नियन्त्रित किया जा सकता है।

(2) जल-प्रदूषण पर नियन्त्रण– वायु प्रदूषण के ही समान जल-प्रदूषणों के भी मुख्य स्रोत औद्योगिक संस्थान ही हैं। जल-प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए भी औद्योगिक संस्थानों की गतिविधियों को नियन्त्रित करना होगा। औद्योगिक संस्थानों में ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि कम-से-कम व्यर्थ पदार्थ बाहर निकालें तथा निकलने वाले व्यर्थ पदार्थों एवं जल को उपचारित करके ही निकाला जाए। इसके अतिरिक्त नगरीय कूड़े-करकट को भी जैसे-तैसे नष्ट कर देना चाहिए तथा जल-स्रोतों में मिलने से रोकना चाहिए। जहाँ तक घरेलू जल-मल का प्रश्न है, इसकी भी कोई वैकल्पिक व्यवस्था करनी चाहिए। इससे गैस एवं खाद बनाने की अलग से व्यवस्था की जानी चाहिए।

(3) ध्वनि-प्रदूषण पर नियन्त्रण- ध्वनि-प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए भी विशेष उपाय किये जाने चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो वाहनों के हॉर्न अनावश्यक रूप से न बजाये जाएँ। कल-कारखानों में जहाँ-जहाँ सम्भव हो मशीनों में साइलेन्सर लगाये जाएँ। सार्वजनिक रूप से लाउडस्पीकरों आदि के इस्तेमाल को नियन्त्रित किया जाना चाहिए। घरों में भी रेडियो, टी० वी० आदि की ध्वनि को नियन्त्रित रखा जाना चाहिए। औद्योगिक संस्थानों में छुट्टी आदि के लिए बजने वाले उच्च ध्वनि के सायरन न लगाए जाएँ। इन उपायों एवं सावधानियों को अपनाकर काफी हद तक ध्वनि प्रदूषण से बचा जा सकता है।

प्रश्न 5
‘भू-भागिता से आप क्या समझते हैं। भू-भागिता के प्रमुख प्रकारों के बारे में समझाइए। (2017, 18)
उत्तर
पर्यावरणीय मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से पर्यावरण का एक रूप अन्तर्वैयक्तिक पर्यावरण 
भी है। पर्यावरण के इस रूप का सम्बन्ध जनसंख्या से है। जब हम अन्तर्वैयक्तिक पर्यावरण की बात करते हैं तब इसके मुख्य कारकों का विश्लेषण करते हैं। ये कारक हैं—वैयक्तिक स्थान, भू-भागिता, जनसंख्या घनत्व तथा भीड़। अन्तर्वैयक्तिक पर्यावरण के एक महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में भू-भागिता का व्यवस्थित अध्ययन आल्टमैन ने किया है। भू-भागिता : का सम्बन्ध सम्बन्धित भू-भांग के स्वामित्व या अधिकार से है। भू-भाग अपने आप में अदृश्य नहीं होता बल्कि इसकी कुछ स्पष्ट रूप से निर्धारित सीमाएँ होती हैं। हम स्वाभाविक रूप से ही अपने आस-पास के क्षेत्र तथा अधिकार वाले भाग को अपना समझते हैं। हम सभी अपने घर को अपना भू-भाग मानते हैं।

घर के अतिरिक्त कुछ व्यक्तियों के लिए बाग-बगीचे तथा खेत-खलियान भी निजी भू-भाग के रूप में हाते हैं। भू-भागिता एक ऐसा कारक है कि कोई भी व्यक्ति अपनी भू-भागिता में अर्थात् अपने क्षेत्र में किसी अन्य व्यक्ति के बलपूर्वक प्रवेश या अतिक्रमण को कदापि सहन नहीं करता। भू-भागिता के साथ निजीत्व का भाव जुड़ा हुआ है। व्यक्ति अपनी भू-भागिता को अपने नियन्त्रण में ही रखता है। व्यक्ति के लिए घर के अतिरिक्त कुछ अन्य भू-भागिता भी महत्त्वपूर्ण है, भले ही उनके स्वरूप एवं नियन्त्रण में कुछ अन्ता है। आलमैन ने भू-भागिता के तीन वर्ग या प्रकार निर्धारित किए हैं जिन्हें उसने क्रमशः प्राथमिक भू-भाग, गौण भू-भाग तथा सार्वजनिक भू-भाग के रूप में वर्णित किया है। इन तीनों प्रकार के भू-भागों को सामान्य परिचय निम्नवर्णित है

(1) प्राथमिक भू-भाग- व्यक्ति के लिए सबसे अधिक आवश्यक एवं उपयोगी भू-भाग को आल्टमैन ने प्राथमिक भू-भाग के रूप में वर्णित किया है। प्राथमिक भू-भाग उस भू-भाग को कहा जाता है, जिसका उपयोग कोई व्यक्ति या समूह पूर्ण स्वतन्त्र रूप से करता है। घर इस वर्ग के भू-भाग को सबसे मुख्य उदाहरण है। घर के अतिरिक्त यदि व्यक्ति के अधिकार में कोई दुकान, कार्यशाला या बगीचा आदि है, तो उसे भी प्राथमिक भू-भाग की ही श्रेणी में रखा जायेगा। प्राथमिक भू-भाग के किसी अन्य व्यक्ति को प्रवेश का अधिकार नहीं होता तथा सामान्य रूप से इसे सहन भी नहीं किया जाता। किसी व्यक्ति के प्राथमिक भू-भाग में यदि कोई अन्य व्यक्ति बलपूर्वक प्रवेश करता है तो व्यक्ति उसका विरोध करता है। उसे क्रोध भी आता है तथा यह दुःख की बात होती है।

(2) गौण भू-भाग- गौण भू-भाग उस भू-भाग को कहा गया है, जिसका स्वामित्व स्पष्ट रूप से निश्चित नहीं होता। इस वर्ग के भू-भाग को कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि अनेक व्यक्ति उपयोग में लाते हैं। विद्यालय का कक्ष इसका एक स्पष्ट उदाहरण है। कक्षा के अनेक छात्र होते हैं और वे किसी भी सीट पर बैठ सकते हैं तथा कमरे का उपयोग सम्मिलित रूप से करते हैं। व्यक्ति के जीवन में गौण भू-भाग का महत्त्व प्राथमिक भू-भाग की तुलना में कम होता है।

(3) सार्वजनिक भू-भाग- जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है-भू-भाग का यह रूप किसी एक व्यक्ति का स्वामित्व नहीं होता। सार्वजनिक भू-भाग पर जन-साधारण का समान अधिकार होता है। इसे भू-भाग पर निजी स्वामित्व का प्रश्न ही नहीं उठता। सार्वजनिक भू-भाग के मुख्य उदाहरण हैं-पार्क, रेलवे प्लेटफॉर्म, हर प्रकार के प्रतीक्षालय तथा वाचनालय आदि। इन भू-भागों में किसी व्यक्ति का कोई स्थान आरक्षित नहीं होता। उदाहरण के लिए, पार्क में किसी भी बेंच पर कोई भी व्यक्ति बैठ सकता है। सार्वजनिक भू-भाग में किसी स्थान पर कोई व्यक्ति अपनी दावेदारी नहीं कर सकता। कानून भी इसके लिए अनुमति नहीं देता।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पर्यावरणीय मनोविज्ञान का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
अध्ययन की सरलता की दृष्टि से पर्यावरणीय मनोविज्ञान को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है|
(1) प्रत्यक्षवादी पर्यावरणीय मनोविज्ञान (Positive Environmental Psychology)- यह पर्यावरणीय मनोविज्ञान की वह शाखा है जो मनुष्य के प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण तथा व्यक्ति के व्यवहार के मध्य अन्तर्सम्बन्ध और अन्तक्रिया का कार्य-कारण सम्बन्धी अध्ययन करती है। इस अध्ययन के आधार पर कुछ सामान्य निष्कर्षों और नियमों की स्थापना की जाती है। सामान्य नियमों की स्थापना से पूर्व निष्कर्षों की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता की जाँच की जाती है।

(2) निदानात्मक पर्यावरणीय मनोविज्ञान (Diagnostic Environmental Psychology)– यह पर्यावरणीय मनोविज्ञान की वह शाखा है जो पर्यावरण प्रदूषण के लक्षणों, कारणों और परिणामों का अध्ययन करती है। इसमें ज़ल, वायु, तापमान, ध्वनि एवं मृदा के प्रदूषण का समग्रवादी अध्ययन किया जाता है। प्रदूषण के लक्षणों और कारणों की खोज की जाती है। इससे उत्पन्न परिणामों को चिह्नित किया जाता है। समाधान की दिशाओं का निरूपण भी होता है।

(3) व्यावहारिक पर्यावरणीये, मनोविज्ञान (Applied Environmental Psychology)यह पर्यावरणीय मनोविज्ञान की वह शेखा है जो उन उपायों और साधनों की खोज करती है जिनके द्वारा पर्यावरण का संवर्द्धन और संरक्षण किया जाता है। यह उपर्युक्त दोनों शाखाओं के निष्कर्षों को व्यवहार में लाने योग्य बनाकर मनुष्य के पर्यावरण को सन्तुलित बनाना चाहती है। इसका उद्देश्य मानव और समाज के जीवन को कल्याणमय बनाना है।इस प्रकार पर्यावरणीय मनोविज्ञान का दृष्टिकोण समग्रवादी है। वह पर्यावरण और मानव व्यवहार के बीच अन्तक्रिया का प्रत्यक्षवादी, निदानात्मक और व्यावहारिक विज्ञान है।

प्रश्न 2
वर्तमान सन्दर्भ में मानव-व्यवहार एवं पर्यावरण के मध्य सम्बन्ध बताइए। (2012)
उत्तर
मनुष्य को प्रत्येक व्यवहार अनिवार्य रूप से पर्यावरण में ही होता है। मानव-व्यवहार तथा पर्यावरण में घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध पारम्परिक है। मानव-व्यवहार से पर्यावरण पर अनेक प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं। मनुष्यों के व्यवहार एवं क्रियाकलापों ने पर्यावरण के सन्तुलन को बिगाड़ा है। तथा प्रदूषित किया है। इस प्रकार से सन्तुलित एवं प्रदूषित पर्यावरण अब मनुष्य के व्यवहार एवं जीवन को गम्भीर रूप से प्रभावित कर रहा है। वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण एवं ध्वनि-प्रदूषण तो प्रत्यक्ष रूप से मनुष्यों के व्यवहार एवं जीवन पर गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि मानव-व्यवहार तथा पर्यावरण में अन्योन्याश्रितता का सम्बन्ध है।

प्रश्न 3
जल प्रदूषण से क्या आशय है?
उत्तर

जेल-प्रदूषण

“जल ही जीवन है।” यह पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं के लिए अति आवश्यक है। जल का मुख्य स्रोत जमीन के अन्दर नीचे की तरफ एकत्रित जल है, इसके अतिरिक्त यह नदियों, नहरों, झीलों, समुद्रों आदि से भी अप्त होता है। प्रकृति में मुख्यतया जल, वर्षा से प्राप्त होता है जो ऊपर लिखे स्रोतों में बहकर आता है। जल बहकर आता है तो अपने साथ बहुत-सारे दूषित पदार्थ भी बहा लाता है, जिनसे जल प्रदूषित हो जाता है।

जल-प्रदूषण के मुख्य कारकों में वाहित मल (Sewage), घरेलू अपमार्जक (Detergents), धूल, गन्दगी, उद्योग-धन्धों से निकले रसायन एवं उनके व्यर्थ पदार्थ, अम्ल, क्षार, तैलीय पदार्थ, लेड (Lead), मरकरी, क्लोरीनेटेड हाइड्रोकार्बन्स, अकार्बनिक पदार्थ, फिनोलिक यौगिकी, भारी धातु, सायनाइड आदि होते हैं। इनमें से कुछ चीजें बहुत अधिक विषैली होती हैं। इसी प्रकार डी० डी० टी०, कीटाणुनाशक रसायन (Pesticides), अपतृणनाशी रसायन (Weedcides) भी जल प्रदूषित करते हैं, जिनका उपयोग हम विभिन्न प्रकार के कीड़े-मकोड़ों आदि को नष्ट करने में करते हैं। यह सब हानिकारक पदार्थ, खाद्य-श्रृंखला के द्वारा मनुष्यों के शरीर में एकत्रित होते रहते हैं और विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं; जैसे-स्नायु रोग, कैन्सर, टाइफॉइड, पेचिश आदि।।

प्रश्न 4
मृदा-प्रदूषण से क्या आशय है?
उत्तर
मृदा-प्रदूषण– मिट्टी, पेड़-पौधों के लिए बहुत आवश्यक है, और पेड़-पौधे, जीव-जन्तुओं के लिए बहुत आवश्यक हैं, अत; हम कह सकते हैं कि मिट्टी सभी जीवों के लिए आवश्य है। मिट्टी में बहुत-सारे अनावश्यक पदार्थ, कूड़ा-कचरा, मल-मूत्र, अपमार्जक, धूल, गर्द, रेत, औद्योगिक रसायन, अम्ल, क्षार, तैलीय पदार्थ, कीटाणुनाशक एवं अपतृणनाशी रसायन, रासायनिक उर्वरक, डी० डी० टी० आदि विभिन्न कार्यों में उपयोगिता के कारण मृदा में एकत्रित होते रहते हैं और मृदा का प्राकृतिक सन्तुलन बिगाड़ते रहते हैं तथा पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं। इनमें से कुछ पदार्थ जीवों के लिए विषैले होते हैं। ये हानिकारक पदार्थ खाद्य श्रृंखला द्वारा जीव-जन्तुओं और मनुष्य के शरीर में हानिकारक प्रभाव डालते हैं एवं मृदा प्रदूषण करते हैं।

प्रश्न 5
वायु-प्रदूषण से क्या आशय है? ।
या
वायु-प्रदूषण क्या होता है? उदाहरण द्वारा समझाइए। । (2013)
उत्तर
वायुमण्डल में विभिन्न प्रकार की गैसें एक निश्चित अनुपात में पायी जाती हैं एवं वातावरण में सन्तुलन बनाये रखती हैं। इसमें मुख्य रूप से नोइट्रोजन, ऑक्सीजन, ऑर्गन, कार्बन डाइऑक्साइड, नियॉन, हीलियम, हाइड्रोजन, ओजोन आदि गैसें प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त इसमें जलवाष्प, छोटे-छोटे ठोस कण, जीवाणु आदि भी होते हैं। जीव श्वसन में ऑक्सीजन लेते हैं और वातावरण में कार्बन डाई-ऑक्साइड बाहर निकालते हैं लेकिन पेड़-पौधे प्रकाश-संश्लेषण में वातावरण से कार्बन डाइ-ऑक्साइड लेते हैं और ऑक्सीजन बाहर निकालते हैं। इससे वातावरण में ऑक्सीजन और कार्बन डाइ-ऑक्साइड का सन्तुलन बना रहता है। जब वातावरण में किसी भी बाह्य कारक के कारण (गैसों, ठोस, कणों या वाष्पकणों के कारण) या उपस्थित गैसों के अनुपात में घटत या बढ़त के कारण असन्तुलन उत्पन्न होता है तो इसे वायु प्रदूषण कहते हैं।

प्रश्न 6
वायु-प्रदूषण का मानव-जीवन एवं व्यवहार पर क्या प्रभाव पड़ता है?
या
वायु-प्रदूषण हमें किस प्रकार से हानि पहुँचाता है?
या
वायु-प्रदूषण के दुष्परिणामों की व्याख्या कीजिए। (2018)
उत्तर
‘वायु-प्रदूषण’ शब्द मस्तिष्क में आते ही प्रायः दुर्गन्धमय और विभिन्न गैसों से युक्त तथा धुएँ से आच्छादित वायुमण्डल का दृश्य उपस्थित हो जाता है। वस्तुतः अनेक रासायनिक पदार्थ और गैस वायु-प्रदूषण को अत्यन्त खतरनाक बना रहे हैं। उद्योगों से नि:सृत व्यर्थ पदार्थ गैसों के सन्तुलन को बिगाड़ रहे हैं। उदाहरणार्थ-कपड़ा, शराब, दवाई, कागज, सीमेण्ट, चमड़ा, रँगाई, तेलशोधक कारखाने, रासायनिक उर्वरक के कारखाने आदि ऐसे उद्योग-धन्धे हैं जो वायु-प्रदूषण को बढ़ा रहे हैं।

स्वचालित वाहन भी 60% वायु-प्रदूषण के लिए उत्तरदायी हैं। इनके धुएँ में गैसे, कार्बन-कण, हाइड्रोकार्बन, ऑक्साइड आदि पदार्थ होते हैं। पेड़-पौधों की कीट-पतंगों से रक्षा और बीमारियों की रोकथाम के लिए डी० डी० टी० आदि का छिड़काव भी वायु को प्रदूषित कर देता है। स्प्रे-पेण्टिग और धातु उद्योग भी इसे प्रभावित करते हैं। वायु-प्रदूषण के मानव-व्यवहार पर प्रभावों को निम्नलिखित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है

(1) शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव वायु- प्रदूषण से आँख और नाक से पानी बहने लगता है। इसके कारण दमा-श्वास और फेफड़ों का कैन्सर जैसे रोग हो जाते हैं। स्वचालित वाहनों से निकले धुएँ और धूल से श्वसन सम्बन्धी रोग उत्पन्न हो जाते हैं जिनमें खाँसी और गले की खराश मुख्य हैं। कैडमियम, मरकरी, डी० डी० टी० पदार्थ भी खाद्य श्रृंखला या अन्य विधियों द्वारा मानव के शरीर में पहुँचकर हृदय रोग, कैंसर, स्नायु रोग, रक्तचाप, तन्त्रिका-तन्त्र के भयंकर रोग पैदा कर देते हैं।

(2) मनोरोगों में वृद्धि- शारीरिक रोगों के अतिरिक्त वायु-प्रदूषण मानसिक व्याधियों में वृद्धि का भी एक प्रमुख कारण है। कार्बन मोनो-ऑक्साइड, जो वायु-प्रदूषण के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी कारक है, इससे सिरदर्द, मिर्गी, थकान तथा स्मृति ह्रास पैदा होते हैं। राटन तथा फ्रे ने अपने अध्ययनों में पाया कि वायु-प्रदूषण की अधिकता में मनोरोगियों की संख्या में वृद्धि हो रही है।

(3) कार्य-निष्पादन क्षमता में ह्रास- वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों से सिद्ध किया है कि जैसे-जैसे वायु में कार्बन मोनोऑक्साइड की मात्रा बढ़ती है, वैसे-ही-वैसे कार्य निष्पादन की क्षमता में ह्रास होता है। चूहों पर किये गये प्रयोगों के निष्कर्ष इस बात की पुष्टि करते हैं। ग्लीनर तथा अन्य वैज्ञानिकों ने यह बताया है कि वायु-प्रदूषण, वाहन चालक की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। और इससे दुर्घटनाएँ बढ़ने की प्रवृत्ति दिखाई देती है।

(4) सौन्दर्यबोधक संवेगों में हास- राटन, याशिकावा तथा अन्य ने अपने अध्ययनों से सिद्ध किया है कि दुर्गन्धमय वायु-प्रदूषण छायांकन तथा चित्रकारी आदि से सम्बन्धित अभिवृत्ति को कम कर देता है। केवल इतना ही नहीं अपितु इससे अन्य लोगों के प्रति आकर्षण भी कम हो जाता है और मनुष्य की सौन्दर्यबोधक संवेदनशीलता में ह्रास आता है।

(5) बाह्य वातावरण में आयोजित सामाजिक कार्य- कलापों में कमी–प्रदूषित वायु के कारण खुले में आयोजित होने वाले सामाजिक कार्यक्रमों को कम करना पड़ता है, क्योंकि उनके कारण अधिक लोग एक ही स्थान पर वायु प्रदूषण के शिकार हो जाते हैं।

प्रश्न 7
ध्वनि-प्रदूषण से क्या आशय है? ।
या
ध्वनि-प्रदूषण के लिए उत्तरदायी कारणों का विश्लेषण कीजिए। (2016)
उत्तर
वातावरण में विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न अप्रिय एवं अनचाही आवाज, जिसका हमारे ऊपर बुरा या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, शोर या ध्वनि कहलाता है। यह अगर अप्रिय, असहनीय और कर्कश होता है तो वातावरण को प्रदूषित करता है और शोर या ध्वनि-प्रदूषण कहलाता है। ध्वनि-प्रदूषण मुख्यतया बड़े शहरों या औद्योगिक दृष्टि से विकसित क्षेत्र, रेलवे स्टेशन, बस स्टॉप, हवाई अड्डों, भीड़-भाड़ वाले स्थानों, सभास्थलों, सिनेमाघरों, फैक्ट्री या कल-कारखानों के आस-पास ज्यादा होता है। इसके अलावा रेडियो, ट्रांजिस्टर, टी० वी०, लाउडस्पीकर, सायरन, स्वचालित वाहन (बस, ट्रक, हवाई जहाज आदि) भी ध्वनि प्रदूषण करते हैं।

ध्वनि-प्रदूषण से सुनने की क्षमता में कमी आती है, अर्थात् बहरापन होता है, मोटापा बढ़ता है, गुस्सा ज्यादा आता है, सहनशक्ति कम होती है, तन्त्रिका-तन्त्र सम्बन्धी सभी रोग होते हैं, नींद न आना, अल्सर, सिरदर्द, हृदय रोग, रक्तचाप सम्बन्धी रोग, घबराहट आदि होती है।

ध्वनि-प्रदूषण से हमारी एकाग्रता प्रभावित होती है। इसीलिए अस्पतालों, नर्सिंग होम, स्कूल एवं कॉलेजों के पास यह चेतावनी लिखी होती है कि “यहाँ हॉर्न का प्रयोग वर्जित है”, “ध्वनि मुक्त क्षेत्र (Silence Zone) आदि।

प्रश्न 8
ध्वनि प्रदूषण का मानव-जीवन एवं व्यवहार पर क्या प्रभाव पड़ता है? (2014)
उत्तर
शोध कार्यों से पता चलता है कि ध्वनि प्रदूषण का मानव-व्यवहार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस प्रभात का अध्ययन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है–

(1) स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव- अत्यधिक शोर का व्यक्ति के स्नायुमण्डल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इससे उसकी श्रवण-शक्ति कमजोर होती है, बहरापन बढ़ता है।

(2) आक्रामकता और चिड़चिड़ेपन में वृद्धि- ब्लम तथा एजरीन नामक वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों से प्रदर्शित किया है कि अति तीव्र शोर से मनुष्य शारीरिक रूप से उद्वेलित और उत्तेजित हो जाता है, परिणामस्वरूप उसमें आक्रामकता और चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है।

(3) अनुक्रियात्मकता का ह्रास- कुछ विद्वानों का कहना है कि मनुष्य में अपने उद्दीपकों के साथ अनुकूलन की स्वाभाविक क्षमता होती है। इसे अभ्यस्त होना (Habituation) कहा जाता है, किन्तु ग्लास तथा अन्य ने अपने प्रयोगों में पाया कि अनुकूलन की प्रक्रिया में मनुष्य की मानसिक ऊर्जा व्यय होती है। शनैः-शनैः वह पर्यावरणीय अपेक्षाओं और कुण्ठाओं के प्रति सकारात्मक अनुक्रिया करने में अक्षम हो जाते हैं।

(4) परार्धमूलक क्रियाओं में अरुचि- मैथ्यूज तथा कैनन ने अपने अध्ययन से यह भी प्रदर्शित किया कि शान्त वातावरण में व्यक्ति दूसरों की सहायता करने के प्रति अधिक सक्रिय थे, जब कि शोरगुल के वातावरण में उन्होंने दूसरों की सहायता या सेवा-कार्य में कोई रुचि प्रदर्शित नहीं की।

(5) गर्भ-स्थिति पर कुप्रभाव-ध्वनि- प्रदूषण का गर्भस्थ शिशु पर बुरा प्रभाव पड़ता है और प्रसव पीड़ादायक हो जाता है। |

(6) मानसिक प्रक्रियाओं पर प्रतिकूल प्रभाव- ध्वनि-प्रदूषण का मनुष्य की मानसिक प्रक्रियाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, क्योंकि इसमें रक्तचाप (Blood pressure) बढ़ जाता है तथा अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ अधिक सक्रिय हो जाती हैं। स्पष्टतः इनका मानसिक प्रक्रियाओं पर बुरा असर पड़ेगा ही, पाचक रसों का स्राव भी कम होगा जिससे अल्सर व दमा जैसे रोगों की सम्भावना बढ़ेगी। इतना ही नहीं, इससे मनुष्य की एकाग्रता भी भंग हो जाती है जिससे अध्ययन और मनन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 9
ताप-प्रदूषण का व्यक्ति के जीवन एवं व्यवहार पर क्या प्रभाव पड़ता है? (2014)
या
मानव-व्यवहार पर ताप-प्रदूषण के प्रभावों की व्याख्या कीजिए। 
(2017)
उत्तर
कारखानों और स्वचालित वाहनों से निकलती गैसें व धुआँ, आणविक विस्फोटों, ओजोन के विक्षेपण तथा वनों की कमी और जुनसंख्या विस्फोट ने तापमान में निरन्तर वृद्धि की है। गर्मी का प्रकोप बढ़ रहा है। इसी को ताप-प्रदूषण कहा जाता है। यदि यह प्रदूषण बढ़ता गया तो पृथ्वी ग्रह मनुष्य के रहने योग्य नहीं बचेगा मानव-व्यवहार पर ताप-प्रदूषण के निम्नलिखित प्रभाव दृष्टिगोचर होते है

(1) बौद्धिक प्रखरता पर प्रभाव- तापमान वृद्धि बौद्धिक प्रखरता पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। ताप प्रदूषण में आदमी सुस्त, थका हुआ और निष्क्रिय महसूस करने लगता है, जबकि कम तापमान व्यक्ति की कुशलता में वृद्धि करता है। |

(2) गर्म-जलवायु और आक्रामक-व्यवहार– गोरान्सन तथा किंग ने अपने अनुसन्धान में पाया कि अधिकांशतः व्यावहारिक विकार गर्मी के महीनों में ज्यादा देखने को मिलते हैं। फ्रांस के सामाजिक चिन्तक दुर्णीम ने कुछ देशों के अपराधों के आँकड़ों का अध्ययन करके यह पाया कि गर्मियों में मानव शरीर के प्रति अपराध ज्यादा होते हैं; जैसे—मारपीट, हत्या, बलात्कार आदि; जबकि जाड़ों में सम्पत्ति के प्रति अपराध; जैसे-चोरी, डकैती आदि अधिक होते हैं। ग्रिफिट तथा वीच ने कमरों के तापमान में वृद्धि करके देखा कि अधिक गर्मी में रहने वाले व्यक्ति ठण्डे कमरों में रहने वाले व्यक्तियों से अधिक आक्रामक थे।

(3) चन्द्रमा की चक्रीय क्रिया का मानव- व्यवहार पर प्रभाव-यह सर्वविदित है कि समुद्र में ज्वार-भाटा चन्द्रमा, की चक्रीय क्रिया अर्थात् क्रमागत घटने-बढ़ने से आते हैं। मानव-शरीर में भी जल-विद्यमान है। वह भी चन्द्रमा के चक्रीय प्रभाव से वंचित नहीं हैं। प्राचीनकाल से ही यौन-वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन से सिद्ध किया है कि चन्द्रमा की घटती-बढ़ती कलाओं का मनुष्य; विशेषकर महिलाओं की यौन-इच्छाओं, यौन-उत्तेजनाओं तथा यौन-व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है।

(4) तापमान एवं शारीरिक स्वास्थ्य- बढ़ता हुआ तापमान मनुष्य के शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इससे अधिक चर्म रोग उत्पन्न हो जाते हैं। बहुत ठण्ड में अत्यधिक शीतप्रधान क्षेत्रों में भी मनुष्य की त्वचा विदीर्ण एवं मस्सों वाली हो जाती है।

(5) तापमान वृद्धि के सामाजिक जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव– तापमान वृद्धि के कुछ अप्रत्यक्ष कुप्रभाव जानने में आये हैं। इससे फसलों और पौधों को नुकसान होता है, भूमि में जल-स्तर नीचे चला जाता है, पेयजल का संकट उत्पन्न हो जाता है और समूचा सामाजिक जीवन ही अस्त-व्यस्त हो जाता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न1
पर्यावरण के सन्दर्भ में वैयक्तिक स्थान (Personal Space) के अर्थ को स्पष्ट कीजिए। (2014)
या
अन्त:वैयक्तिक वातावरण से आप क्या समझते हैं? (2018)
उत्तर
मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में पर्यावरण तथा मानवीय व्यवहार का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता हैं। पर्यावरण से आशय प्रायः प्राकृतिक पर्यावरण ही माना जाता है, परन्तु यथार्थ में अन्तर्वैयक्तिक पर्यावरण का प्रत्यय भी महत्त्वपूर्ण है। अन्तर्वैयक्तिक पर्यावरण में सर्वाधिक महत्त्व वैयक्तिक स्थान (Personal space) का है।

व्यक्ति के आस-पास के अदृश्य सीमा वाले उस स्थान को वैयक्तिक स्थान कहा जाता है जो सम्बन्धित व्यक्ति के ‘स्व’ के भाग के रूप में स्वीकार किया जाता है। मानव-स्वभाव के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने ‘स्व’ के भाग या क्षेत्र में किसी अन्य वैयक्तिक के प्रवेश को अतिक्रमण मानता है तथा इसका विरोध करता है।

एक उल्लेखनीय मनोवैज्ञानिक हल ने। व्यक्तिक स्थान की चार सीमाएँ या भाग निर्धारित किये हैं। ये भाग या सीमाएँ हैं-अन्तरंग दूरी, वैयक्तिक दूरी, सामाजिक दूरी तथा सार्वजनिक दूरी। वैयक्तिक स्थान को यह मान्यता जहाँ एक ओर . व्यक्तियों के मध्य महत्त्व पूर्ण भूमिका निभाती है वहीं विभिन्न समूहों में भी इस अवधारणाा का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।

प्रश्न 2
पर्यावरण-प्रदूषण का जम-स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर
पर्यावरण- प्रदूषण का सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव जन-स्वास्थ्य पर पड़ता है। जैसे-जैसे पर्यावरण का अधिक प्रदूषण होने लगता है, वैसे-वैसे प्रदूषण जनित रोगों की दर एवं गम्भीरता में वृद्धि होने लगती है। पर्यावरण के भिन्न-भिन्न पक्षों में होने वाले प्रदूषण से भिन्न-भिन्न प्रकार के रोग बढ़ते हैं। हम जानते हैं कि वायु-प्रदूषणेंके परिणामस्वरूप श्वसन-तन्त्र से सम्बन्धित रोग अधिक प्रबल होते हैं। जल-प्रदूषण के परिणामस्वरूपाचन-तन्त्र से सम्बन्धित रोग अधिक फैलते हैं। ध्वनि-प्रदूषण भी तन्त्रिका-तन्त्र, हृदय एवं रक्तचाप सम्झन्धी विकारों को जन्म देता है। इसके साथ-ही-साथ मानसिक स्वास्थ्य एवं व्यवहारगत सामान्यता को भी ध्वनि-प्रदूषण विकृत कर देता है। अन्य प्रकार के प्रदूषण भी जन-सामान्य को विभिन्न सामान्य एवं गम्भीर रोगों का शिकार बनाते हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि पर्यावरण प्रदूषण अनिवार्य रूप से जन-स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। प्रदूषित पर्यावरण में रहने वाले व्यक्तियों की औसत आयु भी घटती है तथा स्वास्थ्य का सामान्य स्तर भी निम्न रहता है।

प्रश्न 3
पर्यावरण-प्रदूषण का व्यक्ति की कार्यक्षमता पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर
व्यक्ति एवं समाज की प्रगति में सम्बन्धित व्यक्तियों की कार्यक्षमता का विशेष महत्त्व होता है। यदि व्यक्ति की कार्य-क्षमता सामान्य या सामान्य से अधिक हो तो वह व्यक्ति निश्चित रूप से प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होता है तथा समृद्ध बन सकता है। जहाँ तक पर्यावरण-प्रदूषण का प्रश्न है, इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति की कार्यक्षमता अनिवार्य रूप से आती है। हम जानते हैं कि पर्यावरण-प्रदूषण के परिणामस्वरूप जन-स्वास्थ्य का स्तर निम्न होता है। निम्न स्वास्थ्य स्तर वाला व्यक्ति ने तो अपने कार्य को कुशलतापूर्वक ही कर सकता है और न ही उसकी उत्पादन-क्षमता ही सामान्य रह पाती है। ये दोनों ही स्थितियाँ व्यक्ति एवं समाज के लिए हानिकारक सिद्ध होती हैं। वास्तव में प्रदूषित वातावरण में भले ही व्यक्ति अस्वस्थ न भी हो तो भी उसकी चुस्ती एवं स्फूर्ति तो घट ही जाती है। यही कारक व्यक्ति की कार्यक्षमता को घटाने के लिए पर्याप्त सिद्ध होता है।

प्रश्न 4
पर्यावरण-प्रदूषण का आर्थिक-जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? ।
उत्तर
व्यक्,समाज तथा राष्ट्र की आर्थिक स्थिति पर भी पर्यावरण-प्रदूषण का उल्लेखनीय प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वास्तव में, यदि व्यक्ति का सामान्य स्वास्थ्य का स्तर निम्न हो तथा उसकी कार्यक्षमता भी कम हो तो वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समुचित धन कदापि अर्जित नहीं कर सकता। पर्यावरण-प्रदूषण के परिणामस्वरूप व्यक्ति की उत्पादन क्षमता घट जाती है। इसके साथ-ही-साथ भी सत्य है कि यदि व्यक्ति अथवा उसके परिवार का कोई सदस्य प्रदूषण का शिकार होकर किन्हीं साधारण या गम्भीर रोगों से ग्रस्त रहता है तो उसके उपचार पर भी पर्याप्त व्यय करना पड़ सकता है। इससे भी व्यक्ति एवं परिवार का आर्थिक बजट बिगड़ जाता है तथा व्यक्ति एवं परिवार की आर्थिक स्थिति निम्न हो जाती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि पर्यावरण-प्रदूषण के प्रभाव से व्यक्ति की आर्थिक स्थिति में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों ही रूपों में कुप्रभावित होती है। इस कारक के प्रबल तथा विस्तृत हो जाने से समाज एवं राष्ट्र की आर्थिक स्थिति भी प्रभावित होती है।

प्रश्न5
फ्र्यावरणीय-प्रदूषण के कारण मानव-व्यवहार पर पड़ने वाले कोई चार प्रभाव लिखिए।
उत्तर
पर्यावरणीय-प्रदूषण के कारण मानव-व्यवहार पर पड़ने वाले मुख्य प्रभाव निम्नलिखित हैं

  1. पर्यावरणीय प्रदूषण के कारण व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है।
  2. पर्यावरण प्रदूषण के कारण व्यक्ति के व्यवहार में चिड़चिड़ापन तथा आक्रामकता आ सकती है
  3. पर्यावरण-प्रदूषण के कारण व्यक्तियों में पारस्परिक आकर्षण एवं सामाजिकता का व्यवहार क्षीण पड़ सकता है।
  4. पर्यावरण-प्रदूषण के कारण व्यक्ति के व्यवहार में त्रुटियाँ अधिक होती हैं।

प्रश्न 6
ध्वनि-प्रदूषण से होने वाले किन्हीं दो दुष्प्रभावों के बारे में लिखिए। | (2014)
उत्तर
ध्वनि-प्रदूषण का प्रतिकूल प्रभाव व्यक्ति के शारीरिक स्वास्थ्य एवं व्यवहार दोनों पर पड़ता है। ध्वनि-प्रदूषण के कारण बहरापन, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप तथा पाचन-तन्त्र सम्बन्धी रोग हो 
सकते हैं। ये रोग साधारण से लेकर अति गम्भौर तक हो सकते हैं। ध्वनि-प्रदूषण के प्रभाव से व्यक्तिः के स्वभाव में चिड़चिड़ापन तथा आक्रामकता में वृद्धि हो सकती है। इसके अतिरिक्त इस स्थिति में व्यक्ति अपने पर्यावरण के साथ अनुकूलन करने में कठिनाई अनुभव करता है। उसकी कार्यक्षमता भी कुछ घट जाती है।

प्रश्न 7
ध्वनि-प्रदूषण को नियन्त्रित करने के मुख्य उपायों का उल्लेख कीजिए। (2015)
उत्तर
ध्वनि-प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं

  1. कल-कारखानों तथा औद्योगिक संस्थानों को आवासीय क्षेत्रों से दूर स्थापित करना चाहिए।
  2. आवासीय क्षेत्रों में उच्च ध्वनि वाले लाउडस्पीकरों पर कड़ा प्रतिबन्ध होना चाहिए।
  3. वाहनों की ध्वनि नियन्त्रित करने के समस्त तकनीकी उपाय करने चाहिए। ऊँची ध्वनि वाले हॉर्न नहीं लगाये जाने चाहिए।
  4. औद्योगिक शोर को प्रतिबन्धित करने के लिए यथास्थान अधिक-से-अधिक साइलेंसर लगाये जाने चाहिए।
  5. जहाँ तक सम्भव हो, मकानों को अधिक-से-अधिक ध्वनि अवरोधक बनाया जाना चाहिए।

प्रश्न 8
टिप्पणी लिखिए-पर्यावरण के सन्दर्भ में ‘जनसंख्या घनत्व। (2018)
उत्तर
पर्यावरणीय मनोविज्ञान के अन्तर्गत पर्यावरण के सन्दर्भ में जनसंख्या-घनत्व (Density of Population) का भी अध्ययन किया जाता है। जनसंख्या के अधिक घनत्व से व्यक्तियों को । अन्त:क्रिया की विवशता का सामना करना पड़ता है। जनसंख्या के घनत्व का व्यक्ति के व्यवहार पर अनेक प्रकार से प्रभाव पड़ता है। जनसंख्या घनत्व का आशये किसी क्षेत्र में जनसंख्या की सघनता से है। जनसंख्या की सधनता का सम्बन्ध सामाजिक व्याधि, अपराध दर तथा सामाजिक विघटन आदि से है। कुछ अध्ययनों में देखा गया है कि जनसंख्या के उच्च सघनता का व्यक्ति के व्यवहार तथा सवेगों पर निषेधात्मक प्रभाव पड़ता है। जनसंख्या की सघनता का एक रूप भीड़ (crowd) भी है। भीड़ में व्यक्ति का सामान्य व्यवहार बदल जाता है। वास्तव में भीड़ में घनत्व अधिक होता है तथा सामान्य नियन्त्रण की कमी होती है; अतः व्यक्ति का व्यवहार बिगड़ जाता है।

प्रश्न 9
भीड़ का अर्थ स्पष्ट कीजिए। (2017)
उत्तर
जब हम अन्तर्वैयक्तिक पर्यावरण की बात करते हैं तब जनसंख्या सम्बन्धी एक मुख्य कारक के रूप में भीड़ की चर्चा होती है। भीड़ से आशय है-अत्यधिक जनसंख्या घनत्व वाला क्षेत्र। भीड़ का यह एक साधारण अर्थ है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भीड़ को स्थानीय, सामाजिक तथा वैयक्तिक कारणों से उत्पन्न एक प्रेरणात्मक अवस्था माना जाता है। पर्यावरण सम्बन्धी अन्य कारकों के ही समान भीड़ भी व्यक्ति के व्यवहार तथा जीवन को गम्भीर रूप से प्रभावित करती है।

भीड़ के प्रभाव से ऋणात्मक मनोभाव तथा प्रतिबल उत्पन्न होते हैं। इन प्रभावों के परिणामस्वरूप व्यक्ति अपने सामान्य क्रियाकलापों को सुचारु रूप से करने में कुछ कठिनाइयाँ या असुविधा महसूस करता है। भीड़ से प्रभावित व्यक्ति अर्थात् भीड़ का हिस्सा बने व्यक्ति का निजीत्व भी बाधित होने लगता है। भीड़ से व्यक्ति को मानसिक स्वास्थ्य एवं सामान्य व्यवहार भी प्रभावित होता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न I. निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए

1. पर्यावरणीय मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की……………….शाखा है।।
2. पर्यावरण के प्रति …………के परिणामस्वरूप ही पर्यावरणीय मनोविज्ञान का विकास | हुआ है।
3. पर्यावरण एवं मानव व्यवहार के मध्य सम्बन्धों एवं प्रभावों का अध्ययन ……….. मनोविज्ञान के अन्तर्गत किया
जाता है (2011)
4. पर्यावरणीय मनोविज्ञान का सम्बन्ध मनोविज्ञान के …………….पक्ष से है।
5. मनुष्य के प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण तथा व्यक्ति व्यवहार के मध्य अन्तर्सम्बन्ध का कार्य-कारण सम्बन्धी अध्ययन करने वाली पर्यावरणीय मनोविज्ञान की शाखा को …………….. कहते हैं।
6. पर्यावरण प्रदूषण के लक्षणों, कारणों एवं परिणामों का अध्ययन करने वाली पर्यावरणीय 
मनोविज्ञान की शाखा को ……………. कहते हैं।
7. पर्यावरण के संवर्द्धन एवं संरक्षण के उपायों का अध्ययन करने वाली पर्यावरणीय मनोविज्ञान 
की शाखा को……….. कहते हैं। 8. पर्यावरणीय सूचनाएँ मनुष्य तथा ………… के बीच सन्तुलन स्थापित करने में सहायक होती हैं।
9. पर्यावरण के किसी एक या अधिक पक्षों के दूषित हो जाने को………… कहते हैं।
10. आधुनिक नगरीय-औद्योगिक समाज की मुख्य समस्या …………. है।
11. पर्यावरण प्रदूषण का सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव………….पर पड़ता है।
12. कारखानों की चिमनियों से निकलने वाले धुएँ से होने वाली प्रदूषण ……………….कहलाता है।
13. वायु-प्रदूषण द्वारा मानव शरीर के अंगों में ……………….. सर्वाधिक प्रभावित होते हैं (2017)
14. श्वाससम्बन्धी बीमारी ………………प्रदूषण से होती है। 
(2009)
15. पर्यावरण में शोर या ध्वनि का बढ़ जाना……………..कहलाता है। 
(2018)
16. “ध्वनि प्रदूषण प्रश्नावली का प्रयोग” …………सम्बन्धी प्रदत्तों के संग्रह के लिए किया | जाता है।
17. गन्दे नालों का पानी नदियों में छोड़ने से……….होता है।
18. पर्यावरण में तापमान में होने वाली वृद्धि के परिणामस्वरूप व्यक्ति के व्यवहार में……………
 बढ़ती है।
19. यदि पर्यावरण में दुर्गन्ध बढ़ जाती है तो उस स्थिति में ………………. नहीं हो पाते।
20. दुर्गन्धयुक्त पर्यावरण में व्यक्तियों का पारस्परिक आकर्षण……………है।
21. मनुष्य द्वारा पर्यावरण में किया जा रहा कृत्रिम बदलाव मनुष्य के लिए …………….सिद्ध हो 
रहा है।
22. एक निश्चित भू-भाग में रहने वाले लोगों की संख्या को ……..कहते हैं। (2014)
23. भीड़ में घनत्व ……………एवं नियन्त्रण की ………………… होती है। (2012, 15)
24. आल्टमैन की भूभागिता के प्रकार के अनुसार प्रतीक्षालय एक भू भाग है। (2008)
25. व्यक्ति के चारों ओर की अदृश्य सीमा का वह भाग, जिसे वह अपना मानता है,………….कहलाता है। 
(2018)
उत्तर
1. नवीनतम
2. जागरूकता
3. पर्यावरणीय
4. व्यावहारिक
5. प्रत्यक्षवादी पर्यावरणीय मनोविज्ञान
6. निदान्त्यक पर्यावरणीय मनोविज्ञान
7. व्यावहारिक पर्यावरणीय प्रदूषण
8. पर्यावरण
9. पर्यावरण प्रदूषण
10. पर्यावरण-प्रदूषण
11. जन-स्वास्थ्य
12. वायु-प्रदूषण
13. फेफड़े
14. वायु
15. ध्वनि-प्रदूषण
16. ध्वनि-प्रदूषण
17. जल-प्रदूषण
18. आक्रामकता
19. मनोरंजक कार्यक्रम
20. घट जाता
21. हानिकारक
22. जनसंख्या का घनत्व
23. अधिक, कमी
24. सार्वजनिक
25. वैयक्तिक स्थान।

प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित-उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए-

प्रश्न 1.
पर्यावरणीय मनोविज्ञान का विकास कब हुआ?
उत्तर
पर्यावरणीय मनोविज्ञान का विकास बीसवीं सदी के सातवें दशक के उत्तरार्द्ध और आठवें दशक के पूर्वार्द्ध में हुआ है।

प्रश्न 2.
‘पर्यावरणीय मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि क्या थी?
उत्तर
‘पर्यावरणीय मनोविज्ञान के विकास की पृष्ठभूमि में विश्व के जागरूक वैज्ञानिकों एवं सामाजिक चिन्तकों की पर्यावरण प्रदूषण से उत्पन्न मानव अस्तित्व के संकट के प्रति बढ़ती हुई जागरूकता थी।

प्रश्न 3.
‘पर्यावरणीय मनोविज्ञान से क्या आशय है?
उत्तर
मनुष्य के मानसिक व्यवहार तथा पर्यावरण के बीच पाये जाने वाले अन्तर्सम्बन्ध का व्यवस्थित अध्ययन ही पर्यावरणीय मनोविज्ञान है।

प्रश्न 4.
‘पर्यावरणीय मनोविज्ञान की एक व्यवस्थित परिभाषा लिखिए।
उत्तर
हेमस्ट्रा तथा मैफ्फारलिंग के अनुसार, “पर्यावरणीय मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की एक वह शाखा है जो मानव-व्यवहार तथा भौतिक वातावरण के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन करती है।”

प्रश्न 5.
पर्यावरणीय मनोविज्ञान के मुख्य भागों या प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
पर्यावरणीय मनोविज्ञान के तीन भाग या प्रकार हैं

  1. प्रत्यक्षवादी पर्यावरणीय मनोविज्ञान
  2. निदानात्मक, पर्यावरणीय मनोविज्ञान तथा
  3. व्यावहारिक पर्यावरणीय मनोविज्ञान।

प्रश्न 6.
पर्यावरणीय मनोविज्ञान को किस श्रेणी में रखा जाता है?
उत्तर
पर्यावरणीय मनोविज्ञान को व्यावहारिक महत्त्व का विज्ञान माना जाता है।

प्रश्न 7.
आधुनिक युग में किस कारण से पर्यावरणीय मनोविज्ञान का महत्त्व बढ़ गया है?
उत्तर
आधुनिक युग में पर्यावरण-प्रदूषण में वृद्धि तथा पर्यावरण-सन्तुलन के बिगड़ने के कारण पर्यावरणीय मनोविज्ञान का महत्त्व बढ़ गया है।

प्रश्न 8.
पर्यावरण-प्रदूषण से क्या आशय है? ।
उत्तर
प्रकृति-प्रदत्त पर्यावरण में जब किन्हीं तत्त्वों का अनुपाते इस रूप में बदलने लगता है, जिसका जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की सम्भावना होती है, तब जो स्थिति उत्पन्न होती है, उसे पर्यावरण-प्रदूषण कहा जाता है।

प्रश्न 9.
पर्यावरण-प्रदूषण के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर
पर्यावरण-प्रदूषण के मुख्य प्रकार हैं

  1. वायु प्रदूषण
  2. जल-प्रदूषण
  3. मृदा-प्रदूषण तथा
  4. ध्वनि-प्रदूषण। 

प्रश्न 10.
जल-प्रदूषण से क्या आशय है?
उत्तर
जल के मुख्य स्रोतों में दूषितं एवं विषैले तत्त्वों का समावेश होना जल-प्रदूषण कहलाता है।

प्रश्न 11.
जल-प्रदूषण के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
जल-प्रदूषण के मुख्य कारण हैं-घरेलू वाहित मल, वर्षा का जल, औद्योगिक संस्थानों द्वारा विसर्जित पदार्थ तथा शव विसर्जन।

प्रश्न 12.
ध्वनि-प्रदूषण से क्या आशय है।
उत्तर
पर्यावरण में अनावश्यक शोर या ध्वनि का व्याप्त होनी ही ध्वनि-प्रदूषण कहलाता है।

प्रश्न 13.
ध्वनि-प्रदूषण का स्वास्थ्य फर क्या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है?
उत्तर
ध्वनि-प्रेदूषण का व्यक्ति के स्नायुमण्डल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, श्रवण-शक्ति कमजोर हो जाती है तथा बहरापन होने की आशंका बढ़ती है।

प्रश्न 14.
ध्वनि-प्रदूषण का व्यक्ति के व्यवहार पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर
ध्वनि-प्रदूषण से व्यक्ति के व्यवहार में आक्रामकता बढ़ती है तथा चिड़चिड़ापन झलकने लगता है।

प्रश्न 15.
यदि पर्यावरण का तापक्रम सामान्य से अधिक हो जाता है तो व्यक्ति के व्यवहार पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर
पर्यावरण का तापक्रम सामान्य से अधिक होने की दशा में व्यक्ति के व्यवहार में आक्रामकता बढ़ने लगती है।

प्रश्न 16.
यदि वातावरण में दुर्गन्ध व्याप्त हो तो उसका हमारे जीवन पर क्या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
उत्तर
दुर्गन्धयुक्त वातावरण में हम मनोरंजक कार्यक्रम आयोजित नहीं कर पाते तथा इस वातावरण में व्यक्तियों का पारस्परिक आकर्षण भी घटने लगता है।

प्रश्न 17
व्यक्ति की क्षमताओं पर वायु-प्रदूषण का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर
वायु प्रदूषण का व्यक्ति की ध्यान-केन्द्रण-क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, उसके हस्तकौशल में कमी आती है तथा प्रतिक्रिया-काल बढ़ जाता है।

प्रश्न 18.
किन परिस्थितियों में नामकीय प्रदूषण उत्पन्न होता है? (2018)
उत्तर
परमाणु परीक्षणों तथा आणविक ऊर्जा के इस्तेमाल से नाभिकीय प्रदूषण उत्पन्न होता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रेश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1.
पर्यावरणीय मनोविज्ञान विज्ञान का वह क्षेत्र है जो मानवीय अनुभवों और क्रियाओं तथा सामाजिक एवं भौतिक अनुभवों के प्रासंगिक पक्षों में होने वाले व्यवहारों तथा अन्तक्रियाओं का संयोजन और विश्लेषण करता है।”-प्रस्तुत परिभाषा प्रतिपादित है
(क) कैटर तथा क्रेक द्वारा
(ख) हेमस्ट्रा तथा मैक्फारलिंग द्वारा
(ग) मन द्वारा
(घ) विलियम जेम्स द्वारा।
उत्तर
(क) कैटर तथा क्रेक द्वारा

प्रश्न 2.
मनोविज्ञान की उस शाखा को क्या कहा जाता है जिसके अन्तर्गत मानवीय-व्यवहार तथा पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्ध का अध्ययन किया जाता है?
(क) सामान्य मनोविज्ञान
(ख) विकासात्मक मनोविज्ञान
(ग) पर्यावरणीय मनोविज्ञान
(घ) व्यावहारिक मनोविज्ञान
उत्तर
(ग) पर्यावरणीय मनोविज्ञान

प्रश्न 3.
पर्यावरणीय मनोविज्ञान के भाग हैं
(क) प्रत्यक्षवादी पर्यावरणीय मनोविज्ञान
(ख) निदानात्मक पर्यावरणीय मनोविज्ञान
(ग) व्यावहारिक पर्यावरणीय मनोविज्ञान
(घ) ये सभी
उत्तर
(घ) ये सभी

प्रश्न 4.
पर्यावरणीय मनोविज्ञान के उस भाग को क्या कहते हैं, जिसके अन्तर्गत पर्यावरण के संवर्द्धन और संरक्षण उपायों को खोजा जाता है ?
(क) निदानात्मक पर्यावरणीय मनोविज्ञान
(ख) प्रत्यक्षवादी पर्यावरणीय मनोविज्ञान
(ग) व्यावहारिक पर्यावरणीय मनोविज्ञान
(घ) इन में से कोई नहीं
उत्तर
(ग) व्यावहारिक पर्यावरणीय मनोविज्ञान

प्रश्न 5.
पर्यावरण-दिवस मनाया जाता है (2011).
(क) 5 जून को
(ख)15 जून को
(ग) 25 जून को
(घ) 30 जून को
उत्तर
(क) 5 जून को

प्रश्न 6.
आधुनिक औद्योगिक नगरीय समाज की मुख्यतम समस्या है
(क) निर्धनता
(ख) निरक्षरता
(ग) बेरोजगारी
(घ) पर्यावरण-प्रदूषण
उत्तर
(घ) पर्यावरण-प्रदूषण

प्रश्न 7.
कौन-सा कथन पर्यावरणीयं मनोविज्ञान से सम्बन्धित है?
(क) यह मनोविज्ञान की एक आँखा है।
(ख) इसके अन्तर्गत पर्यावरण तथा मानवीय व्यवहार के आपसी सम्बन्धों का अध्ययन किया 
जाता है।
(ग) इसका सम्बन्ध मनोविज्ञान के व्यावहारिक पक्ष से है।
(घ) उपर्युक्त सभी तथ्य
उत्तर
(घ) उपर्युक्त सभी तथ्य

प्रश्न 8.
पर्यावरण-प्रदूषण के प्रकार हैं|
(क) वायु-प्रदूषण
(ख) जल-प्रदूषण
(ग) ध्वनि-प्रदूषण
(घ) ये सभी
उत्तर
(घ) ये सभी

प्रश्न 9.
निम्नलिखित में से कौन प्रदूषण से सम्बन्धित नहीं है। (2016)
(क) पेड़ों की कटाई
(ख) लाउडस्पीकर का प्रयोग
(ग) जैविक खाद का प्रयोग।
(घ) औद्योगिक अपशिष्ट
उत्तर
(ग) जैविक खाद का प्रयोग।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से कौन पर्यावरण प्रदूषण से सम्बन्धित है (2013)
(क) वृक्षारोपण
(ख) जैविक खाद
(ग) धुआँरहित वाहन
(घ) औद्योगिक अपशिष्ट
उत्तर
(घ) औद्योगिक अपशिष्ट

प्रश्न 11.
पर्यावरणीय प्रदूषण के स्रोत होते हैं (2018)
(क) दो।
(ख) तीन
(ग) चार
(घ) चार से अधिक
उत्तर
(ग) चार

प्रश्न 12.
वायु-प्रदूषण से सबसे पहले प्रभावित होता है
(क) फेफड़ा ।
(ख) पेट ।
(ग) सिर ।
(घ) यकृत
उत्तर
(क) फेफड़ा

प्रश्न 13.
मानवीय जीवन के किन पक्षों पर वायु-प्रदूषण का प्रभाव पड़ता है?
(क) हस्त कौशल पर ।
(ख) प्रतिक्रिया काल पर
(ग) ध्यान की एकाग्रता पर
(घ) इन सभी पक्षों पर
उत्तर
(घ) इन सभी पक्षों पर

प्रश्न 14.
मानवीय व्यवहार पर ध्वनि-प्रदूषण के प्रभाव हैं
(क) ध्यान का विचलित होना
(ख) व्यवहार में अनुक्रियात्मकता घटना
(ग) व्यवहार में चिड़चिड़ापन तथा आक्रामकता बढ़ जाना
(घ) उपर्युक्त सभी प्रभाव
उत्तर
(घ) उपर्युक्त सभी प्रभाव

प्रश्न 15.
वायु-प्रदूषण के कारण उत्पन्न हो सकता है (2014)
(क) अस्थमा
(ख) उच्च रक्त चाप
(ग) पीलिया
(घ) मधुमेह
उत्तर
(ख) उच्च रक्त चाप

प्रश्न 16.
पीलिया रोग किससे उत्पन्न होता है?
(क) जल-प्रदूषण से
(ख) वायु-प्रदूषण से |
(ग) ध्वनि-प्रदूषण से
(घ) मृदा-प्रदूषण से
उत्तर
(क) जल-प्रदूषण से

प्रश्न 17.
जनस्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है
(क) वायु प्रदूषण
(ख) जल-प्रदूषण
(ग) ध्वनि-प्रदूषण
(घ) ये सभी
उत्तर
(घ) ये सभी

प्रश्न 18.
पर्यावरण में दुर्गन्ध अधिक होने की स्थिति में
(क) व्यक्ति का अन्य व्यक्तियों के प्रति आकर्षण घटता है .
(ख) फोटोग्राफी एवं चित्रकारी के प्रति अनुकूल अभिवृत्ति घटती है।
(ग) मनोरंजक कार्यक्रमज़हीं हो पाते।
(घ) उपर्युक्त सभी परिवर्तन देखे जा सकते हैं।
उत्तर
(घ) उपर्युक्त सभी परिवर्तन देखे जा सकते हैं।

प्रश्न 19.
पर्यावरण के तापमान के सामान्य से अधिक हो जाने की स्थिति में
(क) व्यक्ति के व्यवहार में आक्रामकता की वृद्धि होती है।
(ख) व्यवहार सम्बन्धी विकारों में वृद्धि होती है।
(ग) बौद्धिक प्रखरता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
(घ) उपर्युक्त सभी प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं।
उत्तर
(घ) उपर्युक्त सभी प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं।

प्रश्न 20.
आल्टमैन के अनुसार भू-भागिता के प्रमुख प्रकार हैं (2017)
(क) दो ।
(ख) तीन
(ग) चार
(घ) छः
उत्तर
(ख)
तीन

प्रश्न 21.
निम्नलिखित में कौन प्राथमिक भू-भाग नहीं है?
(क) दुकान
(ख) पुस्तकालय
(ग) खेत
(घ) घर
उत्तर
(ख) पुस्तकालय

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 14 Problem of Educational Standard

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 14
Chapter Name Problem of Educational Standard
(शैक्षिक स्तर की समस्या)
Number of Questions Solved 16
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 14 Problem of Educational Standard (शैक्षिक स्तर की समस्या)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
शैक्षिक स्तर से आप क्या समझते हैं। भारत में शैक्षिक स्तर के निम्न होने के कारण तथा इस समस्या के समाधान के उपायों का उल्लेख कीजिए।
या
शैक्षिक स्तर से आप क्या समझते हैं? भारतीय शिक्षा व्यवस्था में शैक्षिक स्तर के ह्रास के कारणों को स्पष्ट कीजिए। [2016]
या
ऐसा कहा जाता है कि “भारत में शैक्षिक स्तर लगातार गिरता जा रहा है। आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं? सविस्तार लिखिए। [2014]
या
शैक्षिक स्तर के पतन के क्या कारण हैं ? शिक्षा के स्तर में सुधार के लिए सुझाव दीजिए। [2007, 11]
या
शैक्षिक स्तर से आप क्या समझते हैं ? भारत में शिक्षा के स्तर में गिरावट के कारण बताइए। [2008, 10]
या
भारत में शैक्षिक स्तर के निम्न होने के मुख्य कारण क्या हैं? [2007, 08, 11]
उत्तर :
शैक्षिक स्तर का अर्थ
मनोवैज्ञानिक रूप से एक अवस्था विशेष के बालकों के लिए पाठ्यक्रम निर्धारित करने को शैक्षिक स्तर कहा जाता है। यह ध्यान रखा जाता है कि बालक उसका ज्ञान इस प्रकार प्राप्त कर लें कि उस स्तर की सैद्धान्तिक और प्रयोगात्मक दोनों परीक्षाओं में सफलता प्राप्त कर सकें और प्राप्त किये हुए ज्ञान का अपने जीवन में प्रयोग कर सकें। समय-समय पर किये गये सर्वेक्षण एवं परीक्षणों द्वारा ज्ञात हुआ है कि हमारे देश में शैक्षिक स्तर सामान्य से निम्न है। नगरीय क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण तथा दूर-दराज के क्षेत्रों में बालक-बालिकाओं को शैक्षिक स्तर पर्याप्त निम्न है। शैक्षिक स्तर को निम्न होना अपने आप में एक गम्भीर समस्या है। इससे शिक्षा के क्षेत्र में अपव्यय तथा अवरोधन की समस्या भी प्रबल है।

शैक्षिक स्तर के निम्न होने के कारण
वर्तमान में प्रतिवर्ष अनुत्तीर्ण छात्रों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। सन् 1992 की बोर्ड की हाईस्कूल परीक्षा में मात्र 13 प्रतिशत विद्यार्थी उत्तीर्ण हो सके। इसके साथ ही उत्तीर्ण छात्रों में प्राप्त किये हुए ज्ञान को व्यवहार में प्रयोग करने की क्षमता भी घटती जाती है। यह शैक्षिक स्तर की एक महत्वपूर्ण समस्या है। शैक्षिक स्तर गिरने के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं।

1. शिक्षण पद्धति तथा शिक्षकों की अयोग्यता :
आज की दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति और शिक्षकों की अयोग्यता के कारण ही शिक्षा का स्तर बहुत गिर गया है।

2. कम वेतन एवं सुविधाएँ :
शैक्षिक स्तर गिरने का एक मुख्य कारण यह है कि अध्यापकों को वेतन बहुत कम मिलता है और उन्हें सुविधाएँ भी कम मिलती हैं। आर्थिक संकट के कारण वे ट्यूशन करते हैं और अपनी कक्षाओं में अध्ययन के प्रति उदासीन रहते हैं।

3. शिक्षा संगठन दोषपूर्ण :
दोषपूर्ण शिक्षा संगठन के कारण भी शैक्षिक स्तर को ऊँचा नहीं उठाया जा सकता है। कक्षाओं में विद्यार्थियों की संख्या इतनी अधिक रहती है कि शिक्षक न तो ठीक से अनुशासन रख पाता है और न सभी छात्रों से व्यक्तिगत सम्पर्क ही रख पाता है। परिणामस्वरूप शिक्षक अध्ययन कार्य को एक भार समझ लेता है और शिक्षा के स्तर पर कोई ध्यान नहीं देता।

4. प्रबन्ध समितियों का अनुचित हस्तक्षेप :
प्रबन्ध समितियाँ शिक्षा संस्थाओं के कार्यों में अनुचित हस्तक्षेप व अध्यापकों का शोषण करती हैं, जिससे शिक्षक सदा मानसिक अशान्ति से ग्रस्त रहने हैं और पूरी कर्तव्यपरायणता से कार्य नहीं करते।

5. पाठ्यक्रम निर्धारण में शिक्षकों की उपेक्षा :
पाठ्यक्रम का निर्धारण करते समय शिक्षकों की पूर्णरूप से उपेक्षा की जाती है। पाठ्यक्रम का निर्धारण वे व्यक्ति करते हैं, जो शिक्षा के सिद्धान्तों एवं शिक्षण पद्धति तथा शिक्षकों की शिक्षण प्रणालियों से अनभिज्ञ होते हैं। कभी-कभी पाठ्यक्रम इतना अयोग्यता विस्तृत बना दिया जाता है कि शिक्षक किसी-न-किसी प्रकार पाठ्यक्रम को पूरा कर पाते हैं परन्तु शिक्षा के स्तर पर ध्यान नहीं दे पाते।

6. दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली :
वर्तमान परीक्षा प्रणाली भी हस्तक्षेप अत्यन्त दोषपूर्ण है। अध्यापकों को इतनी अधिक संख्या में उत्तर-पुस्तिकाएँ जाँचने को दी जाती हैं कि छात्रों के कार्य का सही की उपेक्षा तरीके से मूल्यांकन नहीं हो पाता है।

7. परीक्षा में अनुचित साधनों का प्रयोग :
शिक्षकों की उदासीनता और विद्यालयी वातावरण के कारण सत्र के प्रारम्भ में छात्र पढ़ाई में बिल्कुल ध्यान नहीं देते और परीक्षा के समय के अनुचित साधनों का प्रयोग करके उत्तीर्ण होने की चेष्टा करते हैं। परीक्षा में नकल करने की प्रवृत्ति ने शिक्षा के स्तर को अत्यधिक गिरा दिया है।

8. अनुशासनहीनता :
आजकल छात्रों में अनुशासनहीनता भी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। हड़ताल व विद्यालय की तालाबन्दी एक आम बात हो गयी है। इस कारण छात्र अपना ध्यान अध्ययन कार्य पर केन्द्रित नहीं कर पाते हैं।

9. समाज का दूषित वातावरण :
आज के समाज में व्याप्त दलबन्दी, जातिवाद, सम्प्रदायवाद आदि ने विद्यालय के वार्तावरण को भी दूषित कर दिया है, जिसका कुप्रभाव छात्रों के अध्ययन पर पड़ता हैं।

10. विद्यालयों में शैक्षिक सुविधाओं का अभाव :
बहुत – से विद्यालयों में भवनों तथा शैक्षिक सामग्री का अभाव पाया जाता है, परिणामस्वरूप अध्यापन कार्य सुचारु रूप से नहीं चल पाता है।

11. राजनीतिक गतिविधियाँ :
विभिन्न राजनीतिक दल अपने निहित स्वार्थों के लिए शिक्षण-संस्थाओं में भी विभिन्न प्रकार की राजनीतिक गतिविधियाँ सक्रिय रखते हैं। छात्र-संघ के चुनावों के अवसर पर ये गतिविधियाँ अधिक बढ़ जाती हैं। इन परिस्थितियों में छात्रों की शिक्षा सुचारु रूप से नहीं चल पाती तथा शैक्षिक स्तर निम्न हो जाता है।

समस्याओं का समाधान
शैक्षिक स्तर के निम्न होने की समस्या का समाधान करने और शैक्षिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिए सरकार को निम्नलिखित उपाय करने चाहिए

  1. पूर्व : प्राथमिक और प्राथमिक कक्षाओं से ही शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास किया जाए।
  2. शिक्षा के संगठन और प्रशासन को चुस्त और व्यवस्थित किया जाए।
  3. विद्यालयों में प्रबन्धकों का अनुचित हस्तक्षेप बन्द किया जाए और शिक्षा का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए।
  4. शिक्षकों को समय पर उचित वेतन दिया जाए और अन्य आवश्यक सुविधाएँ प्रदान की जाएँ।
  5. पाठ्यक्रम को वैज्ञानिक और व्यवस्थित रूप दिया जाए।
  6. शिक्षकों की ट्युशनबाजी की प्रवृत्ति पर रोक लगाई जाए।
  7. विद्यार्थी को प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद ही कक्षा में प्रवेश दिया जाए।
  8. पाठ्यक्रम सम्बन्धी गैस पेपर्स व कुंजियों आदि पर रोक लगाई जाए।
  9. छात्रों के हित के लिए निर्देश एवं परामर्श केन्द्रों की स्थापना की जाए।
  10. परीक्षा और मूल्यांकन प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन किया जाए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारत में शैक्षिक स्तर के निम्ने होने के मुख्य कारण क्या हैं? [2007, 08, 11]
या
आप कैसे कह सकते हैं कि भारत में शिक्षा के स्तर में गिरावट है? यदि हाँ तो उसके कारणों का उल्लेख कीजिए। [2008]
उत्तर :
वर्तमान समय में विभिन्न स्तर के विद्यालयों में शिक्षा का स्तर निरन्तर गिर रहा है। आज कोई भी छात्र ज्ञान प्राप्ति करने के लिए नहीं बल्कि डिग्री प्राप्त करने के लिए पढ़ रहा है। आज ज्ञान-प्राप्त के प्रति कोई भी ईमानदार नहीं है। कम-से-कम श्रम द्वारा परीक्षा में उत्तीर्ण होना ही अभीष्ट है। इस स्थिति में हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि शिक्षा के स्तर में गिरावट आई है। शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण बदल गया है। शिक्षा के स्तर में गिरावट के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं।

  1. समाज व समुदाय का दूषित वातावरण; जैसे–दलबन्दी, सम्प्रदायवाद, जातिवाद आदि। हमें यह सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि विद्यालय वृहत् सामाजिक व्यवस्था के अंग हैं। यदि समाज का वातावरण ही ठीक नहीं है तो विद्यालय इससे अधिक देर तक बचे नहीं रह सकते हैं।
  2. विद्यालयों में छात्रों की भीड़ अत्यधिक बढ़ती जा रही है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी यह निम्न शैक्षिक स्तर हेतु एक प्रमुख कारण है।
  3. आज विद्यालयों में वांछित सुविधाओं एवं साधनों का पर्याप्त अभाव हो चुका है। प्रयोगात्मक विषयों में प्रयोगशाला सम्बन्धी सुविधाओं का नितान्त अभाव ही है। यह भी शैक्षिक स्तर के निम्न होने का एक कारण है।
  4. छात्रों की हड़तालों व गुटबन्दी तथा राजनीतिज्ञों के हस्तक्षेप के कारण भी पढ़ने-पढ़ाने में बाधा उत्पन्न होती है तथा शैक्षिक स्तर निम्न हो जाता है।
  5. शिक्षा के प्रति छात्रों में अनुचित धारणाओं का निरन्तर विकास हो रहा है। इससे भी शैक्षिक स्तर निम्न हो रहा है।
  6. मूल्यांकन प्रणाली दोषपूर्ण है।
  7. परीक्षा में बढ़ती हुई नकल की प्रवृत्ति भी इसका एक प्रमुख कारण है।
  8. अध्यापकों का शोषण एवं सही निर्देशन का अभाव, शैक्षिक स्तर के उन्नयन के मार्ग में एक अन्य बाधा है।

प्रश्न 2
शैक्षिक स्तर के उन्नयत व सुधार के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए? [2007, 08, 10, 11]
उत्तर :
भारत में शिक्षा के स्तर विशेष रूप से प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने व उसमें सुधार लाने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाए जा सकते हैं

  1. पूर्व : प्राथमिक व प्राथमिक कक्षाओं से ही शिक्षा के स्तर में सुधार के प्रयत्न किए जाएँ। अगर इस स्तर पर शिक्षार्थी अनुशासित हो जाए और शिक्षा के महत्त्व को समझ ले तो अगले स्तरों पर शिक्षा का स्तर अपने आप ही अच्छा हो जाएगा।
  2. शिक्षा की दिशा एवं व्यवस्था पहले से ही निश्चित की जाए।
  3. पाठ्यक्रम सुसंगठित एवं छात्र/छात्राओं के लिए उपयोगी हो।
  4. विद्यालयों में छात्रों की बढ़ती हुई संख्या पर नियन्त्रण रखा जाए तथा आवश्यकतानुसार नए विद्यालय खोले जाएँ।
  5. अध्यापकों को उचित वेतन तथा सुविधाएँ प्रदान की जाएँ। उनकी सभी उचित माँगों पर सहानुभूति से विचार किया जाना चाहिए।
  6. परीक्षा या मूल्यांकन प्रणाली में सुधार हो। प्रश्न-पत्रों में वस्तुनिष्ठ ढंग के प्रश्न सम्मिलित किए जाएँ, विद्यालय में ही परीक्षा ली जाएं तथा शिक्षार्थियों के सामूहिक अभिलेख रखे जाएँ।
  7. पर्याप्त संख्या में निर्देशन एवं परामर्श केन्द्र खोले जाएँ, जहाँ छात्रों की योग्यता एवं अभिरुचि की जाँच हो और तदनुकूल उन्हें शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था की जाए।
  8. समाज के लोगों तथा छात्रों की धारणा शिक्षा के प्रति अच्छी हो।
  9. राज्य एवं समाज के द्वारा शिक्षा के अच्छे अवसर प्रदान किए जाएँ।
  10. समय-समय पर गोष्ठियों, सेमिनार आदि का आयोजन किया जाए।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
आपके विचारानुसार शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाना क्यों आवश्यक है?
उत्तर :
विभिन्न कारणों से हमारे देश में शिक्षा का स्तर सामान्य से निम्न है; अतः शिक्षा के स्तर को , ऊँचा उठाना अति आवश्यक है। वास्तव में देश की प्रगति एवं व्यक्तिगत कुशलता में वृद्धि करने के लिए शिक्षा के सामान्य स्तर को उन्नत करना अनिवार्य है। शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाकर ही देश के शोध एवं अनुसन्धान कार्यों को सफल बनाया जा सकता है। शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाकरे ही औद्योगिक एवं व्यावसायिक क्षेत्र में योग्य एवं कुशल व्यक्ति एवं कार्यकर्ता उपलब्ध कराये जा सकते हैं। वर्तमान प्रतिस्पर्धा के युग में हर प्रकार की प्रगति एवं सफलता के लिए शिक्षा के सामान्य स्तर को ऊँचा उठाना अति आवश्यक है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
राष्ट्र की प्रगति के उद्देश्य से शिक्षा का सामान्य स्तर कैसा होना चाहिए?
उत्तर :
राष्ट्र की प्रगति के उद्देश्य से शिक्षा का सामान्य स्तर ऊँचा होना चाहिए।

प्रश्न 2
शैक्षिक स्तर के निम्न होने के चार मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. शिक्षा-संगठन का दोषपूर्ण होना
  2. दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली
  3. अनुशासनहीनता तथा
  4. विद्यालयों में शैक्षिक सुविधाओं का अभाव।

प्रश्न 3
हमारे देश में किस स्तर की शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क बनाने का संकल्प लिया गया है ?
उत्तर :
हमारे देश में प्राथमिक स्तर की शिक्षा को अनिवार्य एवं नि:शुल्क बनाने का संकल्प लिया गया है।

प्रश्न 4
शिक्षा के स्तर से क्या आशय है?
उत्तर :
शिक्षा के स्तर को साधारण अर्थ यह है कि सामान्य छात्र जिस कक्षा या स्तर के हों, उनके ज्ञान का स्तर लगभग वही होना चाहिए जो निर्धारित शैक्षिक पाठ्यचर्या के अनुकूल हो।

प्रश्न 5
देश एवं समाज की प्रगति के उद्देश्य से शिक्षा का सामान्य स्तर कैसा होना चाहिए ?
उत्तर :
देश एवं समाज की प्रगति के उद्देश्य से शिक्षा का सामान्य स्तर सामान्य या सामान्य से ऊँचा होना चाहिए।

प्रश्न 6
शैक्षिक स्तर को उन्नत बनाने के लिए प्रत्येक जिले में कौन-से विद्यालय स्थापित किये गये हैं?
उत्तर :
शैक्षिक स्तर को उन्नत बनाने के लिए प्रत्येक जिले में नवोदय विद्यालय स्थापित किये गये हैं।

प्रश्न 7
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. हमारे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का स्तर सामान्य से उच्च है।
  2. शिक्षा के स्तर के निम्न होने का एक मुख्य कारण अनुसेनहीनता भी है।

उत्तर :

  1. असत्य
  2. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए 

प्रश्न 1
हमारे देश में शिक्षा का स्तर है
(क) सामान्य
(ख) सामान्य से उच्च
(ग) सामान्य से निम्न
(घ) अस्पष्ट
उत्तर :
(ग) सामान्य से निम्न

प्रश्न 2
भारत सरकार ने किस प्रकार की शिक्षा को अनिवार्य बनाने का प्रयास किया है ?
(क) प्राथमिक शिक्षा
(ख) तकनीकी शिक्षा
(ग) प्रौढ़ शिक्षा
(घ) कम्प्यूटर शिक्षा
उत्तर :
(क) प्राथमिक शिक्षा

प्रश्न 3
निम्न शैक्षिक स्तर के लिए जिम्मेदार कारण हैं
(क) दोषपूर्ण अनुशासन व्यवस्था
(ख) शैक्षिक सुविधाओं की कमी
(ग) मूल्यांकन प्रणाली का दोषपूर्ण होना
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर :
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 4
शैक्षिक स्तर के निम्न होने के कारण हैं
(क) प्रत्येक कक्षा में छात्रों की संख्या का अधिक होना
(ख) अनुशासन व्यवस्था का दोषपूर्ण होना
(ग) मूल्यांकन प्रणाली का दोषपूर्ण होना
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर :
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 5
शैक्षिक स्तर के उन्नयन व सुधार के उपाय हैं
(क) अनुशासन व्यवस्था को सुचारु बनाना
(ख) पाठ्यक्रम को उपयोगी एवं व्यावहारिक बनाना
(ग) अध्यापकों द्वारा अधिक शैक्षिक प्रयास करना
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर :
(घ) उपर्युक्त सभी

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UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps (मानचित्रों पर उच्चावच का प्रदर्शन) are part of UP Board Solutions for Class 12 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps (मानचित्रों पर उच्चावच का प्रदर्शन).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography (Practical Work)
Chapter Chapter 2
Chapter Name Representation of Relief on Maps (मानचित्रों पर उच्चावच का प्रदर्शन)
Number of Questions Solved 14
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps (मानचित्रों पर उच्चावच का प्रदर्शन)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
उच्चावच प्रदर्शन की विभिन्न विधियों का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर
धरातल सभी स्थानों पर एक-समान नहीं है। कहीं पर पर्वत, कहीं पर पठार तथा कहीं पर मैदान दिखाई पड़ते हैं। यदि धरातल ग्लोब पर सर्वत्र एक-समान होता तो उसे मानचित्र पर आसानी से प्रदर्शित किया जा सकता था, परन्तु धरातल के उच्चावचों से बहुत-सी विभिन्नताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। मानचित्र में उच्चावचों का चित्रण बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है जिससे सामान्य व्यक्ति भी पृथ्वी की। स्थलाकृतियों अथवा उसकी ऊँचाई-निचाई का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। मानचित्र पर पर्वत, घाटियाँ, दरें आदि के प्रदर्शन से क्षेत्र-विशेष की जानकारी सुगम हो जाती है।

धरातलीय विषमता को मानचित्र पर प्रदर्शित करना मानचित्र चित्रण की एक प्रमुख समस्या है। ऊपरी धरातल को प्रदर्शित करने के लिए स्थलाकृतिक मानचित्र (Topographical Maps) उपयोग में लाये जाते हैं। इन स्थलाकृतिक मानचित्रों में धरातल की ऊँचाई-निचाई प्रदर्शित की जाती है। इस प्रकार उच्चावचों के प्रदर्शन में अनके विधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं। समय-समय पर इन विधियों की स्पष्टता का ध्यान रखकर इनमें बहुत से परिवर्तन किये जा रहे हैं। मानचित्रों पर उच्चावच प्रदर्शन के लिए कभी-कभी अनेक विधियों का मिश्रण भी प्रयुक्त कर लिया जाता है, क्योंकि कई विधियों के मिश्रण मिलकर मानचित्र की स्पष्टता में वृद्धि कर देते हैं। इस प्रकार मानचित्रों में उच्चावच प्रदर्शन के लिए निम्नलिखित विधियों का प्रयोग किया जाता है –
(1) चित्र विधि द्वारा प्रदर्शन (Pictorial Methods),
(2) गणितीय विधियाँ (Mathematical Methods) तथा
(3) मिश्रित विधियाँ (Mixed Methods)।

(1) चित्र विधि द्वारा प्रदर्शन (Pictorial Methods) – चित्र विधियों द्वारा उच्चावच के स्वरूपों का ज्ञान भर हो पाता है। इनके द्वारा उस स्थल-विशेष की ऊँचाई-निचाई एवं ढाल की सामान्य जानकारी प्राप्त हो जाती है। इन विधियों का मुख्य उद्देश्य धरातलीय स्वरूपों को अधिकाधिक दृष्टिगत बनाना है, परन्तु इन विधियों के द्वारा उस क्षेत्र की वास्तविक ऊँचाई का ज्ञान नहीं हो पाता है। चित्र विधि द्वारा प्रदर्शन की निम्नलिखित प्रविधियाँ प्रमुख हैं –

(i) हैच्यूर या रेखीय छाया (Hachures) – इस विधि का आविष्कार सेना सम्बन्धी उद्देश्यों की पूर्ति हेतु मेजर लेहमान द्वारा किया गया था। हैच्यूर वे रेखाएँ होती हैं जो अधिक से कम ढाल की ओर ऊँचाई दिखाने के लिए बनायी जाती हैं। तेज ढाल पर हैच्यूर रेखाएँ सघन बनायी जाती हैं, जबकि मन्द ढाल पर दूर-दूर या छिटकी हुई बनायी जाती हैं। ढाल जितना अधिक होगा, हैच्यूर रेखाएँ उतनी ही पास-पास होंगी। यदि भूपृष्ठ. के ढाल का कोण 45° से अधिक होगा तो वह स्थान पूर्णतया काला कर दिया जाता है। हैच्यूर रेखाएँ ढाल की दिशा में खींची जाती हैं। अतः ये रेखाएँ.समोच्च रेखाओं पर समकोण बनाती हैं। इन रेखाओं को देखकर एक सामान्य व्यक्ति भी स्थलाकृतियों की स्थिति एवं ढाल का ज्ञान आसानी से कर सकता है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps 1
इन रेखाओं के कई दोष भी हैं; जैसे- समुद्र-तल से ऊँचाई ठीक-ठीक ज्ञात नहीं हो सकती है। दूसरे, ये रेखाएँ काले रंग से बनायी जाती हैं जिसके फलस्वरूप अन्य विवरण प्रदर्शित करना कठिन होता है। इसी कारण इन रेखाओं को भूरे रंग की विभिन्न आभाओं द्वारा दिखाया जाने लगा है। तीसरे लघु मापक मानचित्रों में हैच्यूर रेखाएँ बनाना अधिक कठिन होता है।

(ii) पर्वतीय छायाकरण विधि (Hili Shading Methods) – पर्वतीय छायाकरण विधि में ढाल जितना अधिक होगा, उतनी ही गहरी छाया होगी। जो भाग छाया में पड़ते हैं, उन्हें रंगों द्वारा हल्का या गाढ़ा रंग दिया जाता है। प्रकाशीय स्थिति के अनुसार इस विधि को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा जा सकता है –

(अ) ऊर्ध्वाधर प्रकाश विधि (Vertical Illumination) – इस विधि में ढाल जितना खड़ा होगा, छाया भी उतनी ही सघन होगी। पर्वत-शिखर, पठार, घाटियाँ एवं मैदान प्रकाश में रहते हैं; अतः इन्हें खाली छोड़ दिया जाता है। पहाड़ों के ढाल छाया में रहते हैं; अतः इन्हें काले रंग से ढाल की तीव्रता के अनुसार अधिक गहरे अथवा हल्की छाया में दिखाया जाता है।
(ब) तिर्यक प्रकाश विधि (Oblique Illumination)-इस स्थिति में प्रकाश उत्तरी-पश्चिमी सिरे से आता हुआ मान लिया जाता है। इसके प्रभाव से पूर्वी तथा दक्षिणी-पूर्वी ढाल छाया में रहते हैं तथा इन्हें ढाल की तीव्रता के अनुसार गहरा रँगा जाता है। पश्चिमी तथा उत्तरी-पश्चिमी सिरे प्रकाश में रहने के कारण इन्हें खाली छोड़ दिया जाता है।
इस विधि का सबसे बड़ा दोष यह है कि हैच्यूर रेखाओं की भाँति इसमें ऊँचाई का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो पाता है।

(2) गणितीय विधियाँ (Mathematical Methods) – ये विधियाँ गणित के नियमों पर आधारित हैं। नवीन तकनीकी विकास के साथ-साथ पश्चिमी यूरोप एवं संयुक्त राज्य अमेरिका में समुद्र-तल को आधार मानकर विभिन्न स्थलाकृतियों की ऊँचाइयाँ निश्चित की जाती हैं। फ्रांस में 18वीं शताब्दी में कैसिनी प्रथम के संरक्षण में यह प्रक्रिया व्यवस्थित रूप से प्रारम्भ हुई। वर्तमान समय में सर्वेक्षण द्वारा विभिन्न धरातलीय ऊँचाइयों को मानचित्र में अंकित किया जाता है। प्रमुख गणितीय विधियाँ निम्नवत् हैं –

(i) स्थानांकित ऊँचाइयाँ (Spot-heights) – जब विभिन्न स्थानों की ऊँचाई प्रकट की जाती है, तो इस विधि का प्रयोग किया जाता है। यह विधि सर्वेक्षण पर आधारित है। विभिन्न बिन्दुओं के निकट ही उनकी ऊँचाइयाँ अंकित कर दी जाती हैं। प्रायः बिन्दु पर्वत-शिखरों पर अंकित किये जाते हैं, अतएव घाटी वाले भागों की ऊँचाई ज्ञात करना कठिन हो जाता है। शिखर वाले भाग पर एक छोटे त्रिभुज का निर्माण कर उस स्थान की ऊँचाई लिख दी जाती है। यह विधि अधिक सन्तोषजनक नहीं है।

(ii) तल-चिह्न विधि (Bench-mark Method) – औसत समुद्र-तल से ऊँचाई ज्ञात कर जब किसी दीवार या स्तम्भ पर एक धातु की प्लेट या पट्ट लगाकर उस पर ऊँचाई अंकित कर दी जाती है तो इसे तल-चिह्न विधि कहते हैं। धातु की प्लेट के नीचे तीर लगा रहता है तथा तीर के नुकीले भाग के ऊपर उस स्थान की ऊँचाई अंकित कर दी जाती है। इस प्रकार तल-चिह्न किसी धरातलीय बिन्दु की ऊँचाई न बताकर दीवार आदि की ऊँचाई बताता है, जब कि स्थानांकित ऊँचाई में धरातल के उस भाग की ऊँचाई – अंकित रहती है, जहाँ वह बिन्दु अंकित है। तल-चिह्न बताने के लिए मानचित्र में B.M. शब्द का प्रयोग किया जाता है। रेलवे स्टेशन पर भी स्टेशन के नाम के नीचे तल-चिह्न की ऊँचाई मीटर में अंकित रहती है।

(iii) त्रिकोणमितीय अवस्थान विधि (Trig-point Method) – त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण करते समय क्षेत्र में दूर-दूर कुछ प्रारम्भिक स्टेशन स्थापित किये जाते हैं। ऐसे बिन्दुओं या स्टेशनों की समुद्र-तल से औसत ऊँचाई ज्ञात कर एक छोटी त्रिभुज में यह ऊँचाई लिख दी जाती है। ये स्टेशन प्रायः कई किमी दूर होते हैं और इनकी स्थिति निश्चित करते समय भू-वक्रता पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है।

(iv) समोच्च रेखा विधि (Contour Line Method) – समोच्च रेखाएँ वे रेखाएँ होती हैं जो मानचित्र पर स्थित समुद्र-तल से समान ऊँचाई मिलाने वाले भागों (बिन्दुओं) से होकर खींची जाती हैं। सामान्यतया पूर्व निश्चित तल समुद्र-तल ही माना जाता है। आवश्यकता पड़ने पर किसी अन्य तल को भी इसके स्थान पर सन्दर्भ तल माना जा सकता है। ऐसे तल को मिलाने वाली रेखा को ही आधार तलरेखा (Datum Plane) कहते हैं। प्रायः सभी देशों में औसत समुद्र-तल एक निश्चित स्थान की निश्चित समय पर अंकित समुद्र-तल की स्थिति बताने वाली सतह या रेखा होती है। भारत में यह रेखा चेन्नई में ज्वार के समय की औसत ऊँचाई वाली सतह या रेखा होती है। मानचित्र पर समोच्च रेखाओं के एक कोने में उसकी ऊँचाई अंकित कर दी जाती है।
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समोच्च रेखाओं की विशेषताएँ
Characteristics of Contour Lines

समोच्च रेखाओं की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं –

  1. समोच्च रेखाएँ समान ऊँचाई वाले स्थानों को प्रदर्शित करने वाली रेखाएँ होती हैं, अर्थात् एक रेखा के सहारे-सहारे सर्वत्र एक-सी ऊँचाई होती है।
  2. जब ये रेखाएँ पास-पास होती हैं तो इनसे तीव्र ढाल एवं दूर-दूर होने पर मन्द ढाल का पता चलता है। इसी कारण पर्वतीय क्षेत्रों में समोच्च रेखाएँ जटिल तथा मैदानी क्षेत्रों में सरल होती हैं। सीधे खड़े ढाल (90°) पर समोच्च रेखाएँ एक-दूसरे से मिल जाती हैं।
  3. कमल के असमतल होने के कारण समोच्च, रेखाएँ वक्राकार होती हैं।
  4. शकाल के भौतिक स्वरूपों का आकार स्थान-स्थान पर परिवर्तनशील है। अत: इनकी सोच विशेष प्रकार की होंगी। ऐसे स्थल स्वरूपों को देखकर आसानी से धरातल की वास्तविक आकृतियों को समझा जा सकता है।
  5. मानचित्रों में समोच्च रेखाओं को भूरे रंग से प्रदर्शित किया जाता है।
  6. अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं की भाँति समोच्च रेखाएँ भी धरातलीय सन्दर्भ में काल्पनिक हैं, परन्तु भू-सर्वेक्षण द्वारा मानचित्र पर इन्हें निश्चित धरातलीय बिन्दुओं द्वारा खींचा जाता है। इसी कारण मानचित्रों में ये रेखाएँ बास्तविक लेती हैं।
  7. जल-प्रवाह प्रणाली, ढाल के अनुरूप होती है तथा समोच्च रेखाएँ ढाल के अनुप्रस्थ दिशा में खींची जाती हैं। अतः संमोच्च रेखाएँ सरिता एवं अन्य प्रवाह प्रणालियों को उनकी घाटी के आकार के अनुसार उन्हें काटती हुई खींची जाती हैं।
  8. समोच्च रेखा मानचित्र के किसी भाग के अनुप्रस्थ काट (Cross section) द्वारा धरातल का पार्श्व चित्र खींचा जा सकता है। ऐसे मानचित्रों की सहायता से अन्तर्दृश्यता (Intervisibility) ज्ञात की जा सकती है।
  9. किसी भी मानचित्र में समोच्च रेखाएँ न तो एक-दूसरे को काटती हैं एवं न ही बीच में समाप्त हो सकती हैं। ये रेखाएँ या तो एक भाग से प्रारम्भ होकर दूसरे भाग तक जाएँगी अथवा मानचित्र में ही पूर्ण आकृति बनाती हुई आपस में मिल जाएँगी।
  10. किसी मानचित्र में समोच्च अन्तर घटाकर उसमें अधिक धरातलीय लक्षण अंकित किये जा सकते हैं।
  11. आधुनिक स्थलाकृतिक एवं अन्य दीर्घकालीन मानचित्रों में समोच्च रेखाओं के साथ-साथ स्थानांकित ऊँचाई, तलचिह्न अथवा पर्वतीय छायाकरण का प्रयोग कर मानचित्र को और अधिक स्पष्ट एवं प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
  12. भू-आकृतियों को प्रदर्शित करने वाली सभी विधियों में समोच्च रेखा विधि आज भी सबसे अधिक उपयोगी एवं प्रचलित विधि है जिसके द्वारा किसी भी प्रकार के भू-स्वरूप को सही-सही चित्रित किया जा सकता है।
  13. समोच्च रेखाओं द्वारा समतल प्रदेशों का स्वरूप, दो समोच्च रेखाओं के बीच के ढाल की प्रकृति एवं ढाल की दिशा का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो पाता है। इसी प्रकार मानचित्र में किसी भी बिन्दु की सही-सही ऊँचाई का ज्ञान नहीं हो पाता है।

समोच्च रेखा मानचित्र के इन दोषों को दूर करने के लिए धरातल के विभिन्न पहलुओं को और अधिक स्पष्ट करने के लिए एक से अधिक विधियों का प्रयोग उसी मानचित्र में किया जाता है। इस विधि को मिश्रित अथवा संयुक्त विधि के नाम से पुकारा जाता है।

(3) मिश्रित विधियाँ (Mixed Methods) – वर्तमान समय में अधिकांश नवीन मानचित्रों में भू-आकृतियों को और अधिक स्पष्ट चित्रित करने के लिए एक ही विधि का प्रयोग नही किया जाता है। किसी एक विधि जैसे समोच्च रेखा, रंग, विधि आदि को आधार मानकर अन्य विधियों को प्रमुख भू-आकृतियों को स्पष्ट करने तथा छोटे-छोटे धरातलीय लक्षणों को समझाने हेतु उसे मानचित्र में अंकित किया जाता है। स्थलाकृतिक मानचित्र के नवीन रंगीन संस्करणों में समोच्च रेखाओं के साथ-साथ प्लास्टिक आभा, स्थानांकित ऊँचाइयाँ, तलचिह्न, हैच्यूर आदि विधियों का भी अंकन किया जाता है। इससे भू-आकृतिक लक्षण और अधिक स्पष्ट हो जाते हैं। इसी कारण ऐसे मानचित्र मात्रा-प्रधान एवं गुण-प्रधान दोनों ही विधियों को मिला-जुला स्वरूप है। सभी प्रकार की महत्त्वपूर्ण मानचित्रावलियों या भित्ति मानचित्रों में भी संयुक्त विधियों का खुलकर प्रयोग किया जाता है। प्रमुख मिश्रित विधियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. समोच्च रेखा एवं पहाड़ी छायाकरण अथवा प्लास्टिक छाया विधि;
  2. समोच्च रेखा एवं रंग विधि;
  3. समोच्च रेखा एवं स्थानांकित ऊँचाई, तलचिह्न एवं छाया विधि;
  4. समोच्च रेखा एवं हैच्यूर या खण्ड रेखाएँ;
  5. पहाड़ी छायाकरण एवं रंग आभा विधि;
  6. हैच्यूर, स्थानांकित ऊँचाई, तलचिह्न एवं आभा विधि;
  7. हैच्यूर एवं भू-आकृति विधि;
  8. भू-आकृति एवं स्थानांकित ऊँचाई तथा तलचिह्न आदि।

प्रश्न 2
समोच्च रेखाओं द्वारा निम्नलिखित भू-आकृतियों का प्रदर्शन उनकी पाश्र्वाकृतियों सहित प्रदर्शित कीजिए –
(1) मन्द ढाल, (2) तीव्र ढाल, (3) नतोदर ढाल, (4) उन्नतोदर ढाल, (5) सम ढाल, (6) विषम ढाल, (7) सीढ़ीनुमा ढाल, (8) खड़ा ढाल या भृगु, (9) शंक्वाकार पहाड़ी, (10) काठी एवं दर्रा, (11) जलप्रपात (झरना) तथा नदी सोपान, (12) खड्ड, गॉर्ज एवं केनियन, (13) गोखुरनुमा झील, (14) ‘यू-आकार की घाटी, (15) ‘वी’ -आकार की घाटी, (16) ज्वालामुखी शंकु।
उत्तर
(1) मन्द ढाल (Gentle Slope) – जो प्रदेश प्रायः समतल होते हैं तथा जिनकी औसत प्रवणता 1/10 या उससे कम होती है, वहाँ समोच्च रेखा एक-दूसरे से काफी दूरी पर खींची हुई होती है, वहाँ मन्द ढाल होता है। दूसरे शब्दों में, यहाँ धरातल पर चढ़ाई नाममात्र को ही होती है।।
(2) तीव्र ढाल (Steep Slope) – जिन प्रदेशों में ढाल की तीव्रता अथवा प्रवणता 1/10 से अधिक होती है अर्थात् ढाल का कोण 6° से अधिक होता है, उसे तीव्र ढाल के नाम से पुकारा जाता है। इस स्थलाकृति की समोच्च रेखाएँ पास-पास होती हैं। यहाँ पर ढलान प्रपाती होता है, अर्थात् थोड़ी दूर चलने पर अधिक चढ़ाई चढ़नी पड़ती है।

(3) नतोदर ढाल (Concave Slope) – इसे अवतल ढाल के नाम से भी पुकारते हैं। इस ढाल में समोच्च रेखाएँ पहले ऊँचाई पर पास-पास तथा आगे चलकर समोच्च रेखाएँ दूर-दूर स्थित होती हैं। इस ढाल को नतोदर ढाल कहते हैं। इसमें समोच्च रेखाएँ उन्नतोदर ढाल के विपरीत अवस्था में होती हैं।
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(4) उन्नतोदर ढाल (Convex Slope) – जब ढाल का क्रम नतोदर ढाल के विपरीत होता है, अर्थात् पहले समोच्च रेखाओं की स्थिति ऊँचाई पर दूर-दूर तथा आगे चलकर समोच्च रेखाएँ पास-पास अपनी स्थिति रखती हैं तो ऐसे ढाल को उन्नतोदर या उत्तल ढाल कहते हैं।
(5) सम ढाल (Even or Uniform Slope) – सम ढाल में समोच्च रेखाएँ समान दूरी पर स्थित होती हैं। इसमें ढाल प्राय: एक-सा रहता है।
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(6) विषम ढाल (Uneven Slope) – विषम ढाल में ढाल की स्थिति धीमी या तेज कोई भी हो सकती है। इसमें समोच्च रेखाओं का क्रम असमान रहता है। इस ढाल में एक साथ तेज एवं धीमा दोनों ही ढाल बिना किसी क्रम में प्रदर्शित किये जा सकते हैं।
(7) सीढ़ीनुमा ढाल (Terraced Slope) – इस प्रकार के ढाल में समोच्च रेखाएँ पहले पास-पास तथा फिर दूर-दूर होती हैं। यह क्रम कई बार दोहराया जाता है तथा सीढ़ीदार ढाल निर्मित हो जाता है। नदी एवं हिमानी की घाटियों में प्रायः ऐसे ही ढाल दिखाई पड़ते हैं।
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(8) खड़ा ढाल या भृगु (Vertical Slope or Cliff) – इसे लम्बवत् ढाल भी कहा जा सकता है। भृगु ढाल एकदम प्रपाती होता है। यह पूर्णतया एक दीवार की भाँति होता है। इसमें समोच्च रेखाएँ एक स्थान पर एक-दूसरी से मिल जाती हैं। कभी-कभी कई समोच्च रेखाएँ आपस में मिल जाती हैं। प्राकृतिक रूप से ऐसी प्रवणता वाले ढाल कम ही देखने को मिलते हैं। समोच्च रेखाओं के एक-दूसरे से छू जाने पर भृगु की रचना होती है।

(9) शंक्वाकार पहाड़ी (Conical Hill) – समुद्र तल से 900 मीटर से कम ऊँचे त्रिकोणात्मक स्थल खण्ड को पहाड़ी कहा जाता है। पहाड़ी के लिए खींची गयी समोच्च रेखाएँ सदैव बन्द होती हैं। यदि पहाड़ी शंक्वाकार होती है तो इसमें समोच्च रेखाएँ सदैव गोलाकार होती हैं तथा समान दूरी पर खींची जाती। हैं। शंक्वाकार पहाड़ी का ढाल सभी दिशाओं में प्राय: समान होता है। अतः समोच्च रेखाएँ भी समदूरस्थ होंगी। पहाड़ी की ऊँचाई चूंकि निरन्तर बढ़ती जाती है। अत: समोच्च रेखाओं का नामांकन करते समय केन्द्र की ओर ऊँचाई सदैव अधिक नामांकित की जाती है। पहाड़ी के सबसे ऊँचे भाग को चोटी या शिखर (Summit) कहते हैं, जिसे मध्य में बिन्दु अथवा त्रिकोण बनाकर अंकित कर दिया जाता है।
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(10) काठी एवं दर्रा (Saddle and Pass) – दो पर्वत-शिखरों के मध्य ऐसी स्थलाकृति को दर्रा कहते हैं, जो यातायात हेतु मार्ग का काम देता है। इसमें दोनों पर्वत-शिखरों की समोच्च रेखाएँ स्वतन्त्र एवं बन्द होती हैं तथा बीच का मार्ग सँकरा होता है। उच्च पर्वतीय प्रदेशों में इन दरों को देखा जा सकता है। इस प्रकार दर्रा दो पर्वत-शिखरों के मध्य निचला तुंग मार्ग होता है।
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काठी भी दरें से मिलता-जुलता भू-स्वरूप है, परन्तु काठी की चौड़ाई अधिक होती है तथा तुलनात्मक ऊँचाई कम होती है। दरें की अपेक्षा काठी का क्षेत्र दुर्गम नहीं होता है।

(11) जलप्रपात या झरना तथा द्रुत प्रवाह (Water Fall and Rapids) – नदी की लम्बवत् घाटी में ढाल सम्बन्धी कई अनियमितताएँ पायी जाती हैं। जलप्रपात भी एक ऐसी ही भू-रचना है। नदियों के प्रवाह मार्ग में कभी-कभी आकस्मिक रूप से खड़ा ढाल उपस्थित हो जाता है तो नदी का जल ऊँचाई से गिरने लगता है। इस स्थलाकृति को प्रदर्शित करने के लिए कई समोच्च रेखाएँ आपस में मिला दी जाती हैं। जिससे इनके आपस में मिलने से उस स्थान पर ढाल बहुत अधिक तीव्र हो जाता है तथा नदी का जल ऊँचाई से तीव्र गति के साथ नीचे की ओर गिरने लगता है, जिसे जलप्रपात या झरने के नाम से पुकारा जाता है। पर जब नदी का जल अनेक स्थानों पर ऊँचाई से निचाई की ओर गिरता है तो द्रुत प्रवाहों का निर्माण होता है।
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(12) खड्डू (गॉर्ज) या केनियन (Gorge or Canyon) – उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ पर नदियों का प्रवाह अत्यधिक तीव्र होता है, वहाँ कठोर चट्टानों के कारण विखण्डन की क्रिया बहुत ही कम होती है। अत: नदी की धारा अपने तलीय भाग को गहरा काटती है। इस प्रकार सँकरी परन्तु गहरी घाटी का विकास होता है। इसे संकुचित घाटी (खड्डु) या गॉर्ज अथवा केनियन कहते हैं। कई बार ऊपरी सतह से घाटी की तली दिखाई नहीं पड़ती है। इस प्रकार की घाटी के दोनों पाश्र्वो का ढाल एकदम खड़ा प्रदर्शित किया जाता है, जिसके लिए समोच्च रेखाओं का पारस्परिक अन्तर बहुत कम रखा जाता है, अर्थात् समोच्च रेखाएँ एकदम निकट आ जाती हैं।
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(13) गोखुरनुमा या छाड़न झील (Ox Bow Lake) – इस प्रकार की झीलों का निर्माण नदी के प्रवाह मार्ग में मैदानी भागों में निर्मित होता है। अत्यधिक समतल भागों में नदी घुमावदार मार्गों से प्रवाहित होने लगती है। बाढ़ के समय बहाव की तीव्रता के कारण जब नदी नये मार्ग का अनुसरण करती है, तब इस घुमाव के मुहाने पर मिट्टी जमा हो जाती है। इनके उत्तरोत्तर विकास में गोखुरनुमा या छाड़न झील का विकास होता है। नदी एवं झील का तल प्रायः एक-समान होता है। अतः नदी की धारा और झील को घेरने वाली समोच्च रेखाओं की ऊँचाई एक-सी रहती है। ऐसी झील की आकृति धनुषाकार अथवा अर्द्ध-चन्द्राकार रूप में निर्मित हो जाती है।

(14) ‘यू’ -आकार की घाटी (‘U’ Shaped Valley) – इन घाटियों का निर्माण हिमानियों द्वारा होता है। इस घाटी का तल कुछ चौड़ा और सपाट होता है तथा किनारे को ढाल खड़ा होता है जिससे इस घाटी की आकृति अंग्रेजी भाषा के अक्षर ‘U’ की भाँति हो जाती है। इस घाटी की समोच्च रेखाएँ तल के समीप पास-पास एवं समानान्तर होती हैं। पाश्र्वो का ढाल उत्तल होता है।
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‘यू’ -आकार की सहायक घाटियों को लटकती घाटी (Hanging Valley) कहते हैं, जो मुख्य नदी की घाटी में अन्य दिशा से आकर मिलती हैं। ‘यू’ आकार की घाटी के समान होने के कारण इनकी समोच्च रेखाओं का प्रदर्शन भी प्रधान घाटी की ही भाँति होता है।

(15) ‘वी’ -आकार की घाटी (‘V’ Shaped Valley) – नदी अपनी युवावस्था में लम्बी एवं सँकरी घाटी का निर्माण करती है जिसका आकार अंग्रेजी के अक्षर ‘V’ की भाँति हो जाता है। इसे घाटी की समोच्च रेखाएँ सदैव अंग्रेजी के अक्षर की भाँति मुड़ी रहती हैं। इस प्रकार की घाटी में, घाटी रेखा से भूमि दोनों ओर धीरे-धीरे ऊँची होती चली जाती है। पर्वतीय क्षेत्रों में इस प्रकार की घाटियाँ अधिक देखी जा सकती हैं।

(16) ज्वालामुखी शंकु (Volcanic Cone) – ज्वालामुखी के चारों ओर लावा आदि के एकत्रण से शंक्वाकार आकृति का निर्माण हो जाता है। इसका ऊपरी मुंह प्याले की भाँति हो जाता है, जिसे क्रेटर (Crater) कहते हैं। इसे काल्डेरा (Caldera) भी कहते हैं। शान्त ज्वालामुखी शंकु के विवर में जल भर जाने से कभी-कभी झील का भी निर्माण हो जाता है। कभी-कभी इसी ज्वालामुखी क्षेत्र में इसके सहायक शंकु का भी विकास हो जाता है। इसकी समोच्च रेखाएँ गोलाकार होती हैं जो ऊपर की ओर बढ़ती जाती हैं, परन्तु शंकु के समीप पुनः कम हो जाती हैं।
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मौखिक परिक्षा: सम्भावित प्रश्न

प्रश्न 1
उच्चावच का क्या अर्थ है?
उत्तर
वे धरातलीय स्थलाकृतियाँ जिनकी रचना ऊँचाई एवं ढाल के द्वारा प्रदर्शित की जाती है, उच्चावच कहलाती हैं।

प्रश्न 2
उच्चावच प्रदर्शन की कौन-कौन-सी प्रमुख विधियाँ हैं?
उत्तर
उच्चावच प्रदर्शन की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. चित्र विधि द्वारा प्रदर्शन (Pictorial Methods)
  2. गणितीय विधियाँ (Mathematical Methods) तथा
  3. मिश्रित या संयुक्त विधियाँ (MixedorComposite Methods)।

प्रश्न 3
हैच्यूर किसे कहते हैं?
उत्तर
हैच्यूर वे छोटी-छोटी रेखाएँ हैं जो अधिक से कम ढाल की ओर ऊँचाई दिखाने के लिए खींची जाती हैं।

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प्रश्न 4
पर्वतीय छायाकरण विधि से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
उच्चावच प्रदर्शन की यह चित्रीय विधि है। इसकी रचना प्रकाश को आधार मानकर की जाती है।

प्रश्न 5
स्थानांकित ऊँचाई विधि क्या होती है?
उत्तर
यह विधि किसी स्थान की धरातल पर अंकित ऊँचाई को प्रकट करती है। मानचित्र में उस स्थान की ऊँचाई मीटर अथवा फीट में नापी जाती है।

प्रश्न 6
निर्देश चिह्न (Bench Mark) किसे कहा जाता है?
उत्तर
सर्वेक्षण में समुद्र-तल से विभिन्न स्थानों की ऊँचाई को अंकित किया जाता है। इसके समीप में निर्देश चिह्न बना दिया जाता है। इस संकेत के द्वारा उस स्थान की ऊँचाई का ज्ञान हो जाता है अथवा इस स्थान के सन्दर्भ में अन्य स्थानों की अपेक्षाकृत ऊँचाई का पता चल जाता है, जिसे निर्देश चिह्न का नाम दिया गया है।

प्रश्न 7
समोच्च रेखा से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
मानचित्र में समान ऊँचाई वाले स्थानों को मिलाकर प्रदर्शित की जाने वाली रेखा को समोच्च रेखा कहते हैं।

प्रश्न 8
किन्हीं चार मिश्रित विधियों के नाम बताइए।
उत्तर

  1. समोच्च रेखा एवं रंग विधि
  2. समोच्च रेखा, स्थानांकित ऊँचाई, तल-चिह्न तथा छाया विधि
  3. समोच्च रेखा एवं हैच्यूर या खण्ड रेखा विधि तथा
  4. समोच्च रेखा एवं पहाड़ी छायाकरण विधि। प्रश्न

प्रश्न 9
प्रवणता (Gradient) क्या होती है?
उत्तर
धरातलीय दूरी एवं लम्बवत् दूरी में जो अनुपात होता है, उसे प्रवणता कहते हैं।

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प्रश्न 10
समोच्च रेखा अन्तराल निकालने का क्या सूत्र है?
उत्तर
समोच्च रेखा अन्तराल =
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प्रश्न 11
‘यू’-आकार की घाटी तथा ‘वी’ -आकार की घाटी में अन्तर बताइए।
उत्तर
‘यू’-आकार की घाटी हिमानी द्वारा निर्मित होती है। इसका प्रवाह मार्ग चौड़ा तथा चौरस होता है। आकार में यह अंग्रेजी के अक्षर ‘यू’ (U) जैसी होती है।
परन्तु ‘वीं-आकार की घाटी नदियों द्वारा निर्मित होती है जो नदियों द्वारा अपने दोनों किनारे काटने के कारण ये किनारे आधार तल पर मिल जाते हैं तथा उसका आकार अंग्रेजी के अक्षर ‘वी’ (v) जैसा हो जाता है। इसे ‘वी’-आकार की घाटी कहा जाता है।

प्रश्न 12
जल विभाजक (Water Divider) किसे कहते हैं?
उत्तर
दो जलधाराओं को पृथक् करने वाले स्थलखण्ड को जल-विभाजक कहते हैं।

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 11 White Collar Crime

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 11 White Collar Crime (श्वेतवसन अपराध) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 11 White Collar Crime (श्वेतवसन अपराध).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 11
Chapter Name White Collar Crime (श्वेतवसन अपराध)
Number of Questions Solved 28
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 11 White Collar Crime (श्वेतवसन अपराध)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
भारत में श्वेतवसन अपराध पर एक लेख लिखिए। [2011, 12]
या
श्वेतवसन अपराध से आप क्या समझते हैं ? इसके कारणों का वर्णन कीजिए। [2009, 11, 16]
या
श्वेतवसन अपराध क्या है ? श्वेतवसन अपराध के कुछ उदाहरण दीजिए। [2011]
या
याश्वेतवसन अपराध से आप क्या समझते हैं ? भारत में श्वेतवसन अपराध के उत्तरदायी कारकों को समझाइए। [2012, 14, 15]
या
श्वेतवसन अपराध से आप क्या समझते हैं ? भारतीय समाज में यह किन-किन रूपों में प्रचलित है? [2009]
या
भ्रष्टाचार श्वेतवसन अपराध का स्रोत है।” स्पष्ट कीजिए। [2016]
या
श्वेतवसन अपराध किसे कहते हैं ? किन-किन क्षेत्रों को यह अधिक प्रभावित करता है ? [2010]
या
श्वेतवसन अपराध की विशेषताएँ बताइए। [2016]
या
भारत में श्वेतवसन अपराध की समस्याओं पर प्रकाश डालिए। [2008]
या
श्वेतवसन अपराध को परिभाषित करते हुए भारत में श्वेतवसन अपराध पर निबन्ध लिखिए। [2012, 14]
या
श्वेतवसन (सफेदपोश) अपराध का क्या अर्थ है? भारत में इसके लिए उत्तरदायी मुख्य कारकों की विवेचना कीजिए। [2015]
या
श्वेतवसन अपराध के कारणों की विवेचना कीजिए। [2017]
या
श्वेतवसन (सफेदपोश) अपराध की प्रकृति को व्यक्त कीजिए और इसके प्रमुख स्वरूपों का विवेचन कीजिए। [2016]
उत्तर:
श्वेतवसन अपराध वह अपराध होता है जो उच्च वर्ग के व्यक्तियों द्वारा किया जाता है, क्योंकि इन व्यक्तियों के पास धन की कोई कमी नहीं होती; अतः ये व्यक्ति अपराध करके धन की आड़ में बच निकलते हैं। अधिकांशतः बड़े-बड़े सरकारी अधिकारियों, राजनेताओं तथा पुलिस का इन्हें सहयोग भी मिलता रहता है। बड़े-बड़े उद्योगपति, उच्च राजकीय पदाधिकारी, वकील तथा डॉक्टर इस श्रेणी में आते हैं।

श्वेतवसन अपराध का अर्थ तथा परिभाषा

श्वेतवसन अपराध प्रतिष्ठित एवं उच्च सामाजिक पद वाले व्यक्तियों द्वारा किया जाने वाला अपराध है। इस संकल्पना का प्रयोग सर्वप्रथम सदरलैण्ड द्वारा किया गया। प्रमुख विद्वानों ने इसे निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया है

  • सदरलैण्ड के अनुसार, “प्रतिष्ठित एवं उच्च सामाजिक पद के व्यक्ति के द्वारा अपने व्यवसाय के समय में किया गया अपराध ही श्वेतवसन अपराध है।”
  • हारटुंग के अनुसार, “श्वेतवसन अपराध वह अपराध है जो समाज के उच्च आर्थिक वर्ग से सम्बन्धित होता है और साधारणतया शिक्षित व्यक्ति द्वारा किया जाता है।”
  • क्लीनार्ड के अनुसार, “श्वेतवसन अपराध प्राथमिक रूप से उस कानून का उल्लंघन है, जो व्यवसायी, पेशेवर लोग और राजनीतिज्ञों आदि जैसे समूहों द्वारा अपने व्यवसाय के सम्बन्ध में किया जाता है।”
  • टैफ्ट के अनुसार, “श्वेतवसन अपराध का तात्पर्य उन सभी संगठित अपराधों से है, जो कानून भंग करने वाले विशेषज्ञ व्यक्ति अथवा समूह द्वारा अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए किये जाते

श्वेतवसन अपराध के लक्षण (विशेषताएँ)
सदरलैण्ड ने श्वेतवसन अपराध की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है

  1. श्वेतवसन अपराध उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त सामाजिक-आर्थिक वर्ग के व्यक्तियों के द्वारा किया गया अपराध है।
  2.  श्वेतवसन अपराध में कानून का उल्लंघन बड़ी चतुरता के साथ किया जाता है।
  3. श्वेतवसन अपराधी अपनी प्रतिष्ठा के कारण कानूनी दण्ड से बच जाता है तथा उसकी प्रतिष्ठा पर कोई आँच नहीं आती।
  4.  श्वेतवसन अपराध जनता के विश्वास की आड़ में किये जाते हैं। अतः यह विश्वासघात पर आधारित अपराध है। निर्धन किसानों का साहूकार लोग इसी प्रकार शोषण करते हैं।
  5.  अप्रत्यक्ष रूप से किये जाने के कारण श्वेतवसन अपराध का जनता द्वारा विरोध नहीं किया जाता है।
  6.  श्वेतवसन अपराध धनी वर्ग, उच्च सामाजिक व राजनीतिक पद प्राप्त व्यक्ति द्वारा ही सम्भव है।
  7.  श्वेतवसन अपराध समाज के लिए अधिक अहितकारी होते हैं।
  8.  श्वेतवसन अपराधियों का सरकार और शासन के संचालन में भी हाथ रहता है, जिसके कारण उन्हें पकड़ना तथा सजा दिलवाना सम्भव नहीं होता।
  9. श्वेतवसन अपराध आर्थिक क्षेत्र में अधिक होते हैं, जिनका उद्देश्य धन एकत्र करके विलासी जीवन बिताना होता है।
  10.  श्वेतवसन अपराध सामान्य समाज और उपसमूहों में पाये जाते हैं।
  11. यह अपराध नेताओं, चिकित्सकों, न्यायाधीशों, शिक्षाविदों, व्यापारियों तथा इन्जीनियरों द्वारा अधिक किया जाता है।
  12. श्वेतवसन अपराध सोच-समझकर यत्नपूर्वक किये जाते हैं। अतः इनका पता लगाना कठिन होता है।

श्वेतवसन अपराध के विभिन्न स्वरूप
समाज में आज श्वेतवसन अपराध के निम्नलिखित स्वरूप देखने को मिल रहे हैं

1. व्यापारिक क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध – आज व्यापारिक जगत् में श्वेतवसन अपराध का बोलबाला है। लुभावने तथा झूठे विज्ञापन, पेटेण्ट, ट्रेडमार्क और कॉपीराइट का उल्लंघन, आर्थिक ठगी, सेल्स-टैक्स तथा आयकर की चोरी व श्रमिकों के साथ विश्वासघात व्यापारिक क्षेत्र में पनपने वाले श्वेतवसन अपराध हैं। भारत में व्यापारिक क्षेत्र में श्वेत अपराधों का बोलबाला है। शेयर निर्गत करने वाली कम्पनियाँ अपने शेयरों का मूल्य बढ़वाकर इसी प्रकार के अपराध में संलिप्त रहती हैं।

2. प्रशासनिक क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध – प्रशासनिक क्षेत्र में सर्वाधिक श्वेतवसन अपराध होते हैं। उच्च अधिकार प्राप्त प्रशासनिक अधिकारी घूस लेकर, उपहार ग्रहण करके, ठेका छोड़कर, ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन कराकर, लाइसेन्स तथा परमिट देकर श्वेतवसन अपराधों में लिप्त रहते हैं। उत्तर प्रदेश में जनवरी 1987 ई० में आई० ए० एस० अधिकारियों के घरों पर लगे सी० बी० आई० के छापे इसका प्रत्यक्ष प्रेमोर्ण हैं। भारत में गैस एजेन्सी देने, शराब के ठेके छोड़ने, परम्परागत पत्र बनाने तथा निर्यात लाइसेन्स देने में अधिकारी भारी सुविधा शुल्क लेकर श्वेतवसन अपराध करते हैं।

3. न्याय के क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध – आज श्वेतवसन अपराध से न्यायिक क्षेत्र भी अछूता नहीं रह गया है। वकील, न्यायाधीश तथा एटार्नी न्याय-क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध करते हैं। झूठी गवाही, दुर्घटना करने वाले दोषी व्यक्तियों का बचाव व हत्या करने वालों को जमानत देकर न्यायाधीश श्वेतवसन अपराध को क्रियात्मक रूप देते हैं। अनेक प्रभावशाली व्यक्ति धन देकर मुकदमों का निर्णय अपने पक्ष में करा लेते हैं। वर्तमान समय में भारत में न्याय के क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध का बोलबाला बढ़ गया है।

4. चिकित्सा के क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध – श्वेतवसन अपराध से चिकित्सा जैसा पवित्र व्यवसाय भी वंचित नहीं है। डॉक्टर का प्रतिष्ठापूर्ण व्यवसाय रोगियों को नवजीवन प्रदान करने वाला माना जाता है। डॉक्टर द्वारा झूठा प्रमाण-पत्र, झूठी पोस्टमार्टम की रिपोर्ट, भ्रूणहत्या तथा उल्टे-सीधे ऑपरेशन करके फीस वसूलने के कार्य भारत में चिकित्सा के क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध हैं।

5. शिक्षा के क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध – भारत में शिक्षा जैसा आदर्श क्षेत्र भी श्वेतवसन अपराध से नहीं बचा है। झूठी डिग्रियाँ, डॉक्टर की उपाधियाँ, उत्तर-पुस्तिकाओं में अंकों की हेरा-फेरी, परीक्षा के प्रश्न-पत्र लीक कराना, फेल छात्रों को उत्तीर्ण करना तथा परीक्षा भवन में ठेके पर नकल कराना आदि शिक्षा के क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध हैं।

श्वेतवसन अपराध के कारण
श्वेतवसन अपराध को जन्म देने वाले किसी एक कारण की ओर ही संकेत नहीं किया जा सकता, श्वेतवसन अपराध को अनेक कारण प्रोत्साहित करते हैं। श्वेतवसन अपराध के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं

1. अत्यधिक वर्ग चेतना – सदरलैण्ड के अनुसार, अत्यधिक वर्ग चेतना और सामाजिक स्थिति के बारे में जागरूकता सफेदपोश अपराध का मुख्य कारण है। पहले से ही उच्च वर्ग के व्यक्ति अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए अपने व्यवसाय की आड़ में अधिकाधिक धनोपार्जन करने के लिए प्रेरित होते हैं।

2. सामाजिक विभेदीकरण व आर्थिक असमानता – टैफ्ट तथा हारटुंग जैसे विद्वानों के अनुसार, श्वेतवसन अपराध सामाजिक विभेदीकरण वाले समाजों में ही अधिकतर होते हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक असमानता वाले समाजों में उच्च वर्ग के साथ-साथ मध्य स्तरीय व्यक्ति भी श्वेतवसन अपराध द्वारा लोगों को ठगने लगते हैं। जालसाजी, झूठा विज्ञापन, धोखाधड़ी, चोर-बाजारी आदि अपराध ऐसे समाजों में इसीलिए अधिक पनपते हैं।

3. पूँजीवादी व्यवस्था –  पूँजीवादी व्यवस्था भी श्वेतवसन अपराध को बढ़ावा देती है। सदरलैण्ड के अनुसार, पूँजीवादी समाजों में सम्पत्ति इने-गिने व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित होती है। धनी व पूँजीपति वर्ग धन के लालच में समाज, श्रम व सम्पत्ति का शोषण करता है। इस प्रकार चोर-बाजारी तथा अवैधानिक रूप से वस्तुओं का निर्माण पूँजीवादी व्यवस्था में श्वेतवसन
अपराध के ही उदाहरण हैं।

4. भौतिकवादी मनोवृत्तियाँ – आज तकनीकी के साथ-साथ व्यक्ति का जीवन उत्तरोत्तर विलासिता की ओर बढ़ता जा रहा है। भौतिकवादी मनोवृत्तियों के कारण धन का महत्त्व निरन्तर बढ़ गया है, क्योंकि धन ही प्रतिष्ठा, मर्यादा व शक्ति का स्रोत बन गया है। अतः . समृद्ध वर्ग श्वेतवसन अपराध करके भौतिक सुख-समृद्धि और विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत ‘, करना चाहता है।

5. राजनीतिक कारण – बहुत-से देशों में राजनीतिक भ्रष्टाचार भी श्वेतवसन अपराध का एक : कारण है। राजनीतिक नेता व सरकारी क्षेत्र के प्रतिनिधि व मन्त्री पूँजीपतियों व अन्तर्राष्ट्रीय – अपराधियों के साथ गठबन्धन करके श्वेतवसन अपराध को बढ़ावा देते हैं। अनेक राजनेता, मन्त्रीगण एवं जन-प्रतिनिधि अपने स्वार्थ के लिए चोरों, डाकुओं, तस्करों आदि का सहारा – लेते हैं। इनका सम्बन्ध पूँजीपतियों एवं अपराधी गिरोहों से होता है। पकड़े जाने पर राजनेता -अपराधियों को छुड़ाने में उनकी सहायता करते हैं। भारत में सांसदों की खरीद, यूरिया घोटाला, रंगीन टी० वी० घोटाला, हवाला काण्ड, चारा काण्ड, दवाई काण्ड, जमीन घोटाला राजनीतिक क्षेत्र के ऐसे ही श्वेतवसन अपराध हैं। अस्थिर राजनीतिक व्यवस्था वाले समाजों में अर्थव्यवस्था बड़ी ढीली हो जाती है, जो कि श्वेतवसन अपराधों को प्रोत्साहन देती है। भारत में श्वेतवसन अपराध का एक प्रमुख कारण यही है।

6. कानूनों के प्रति अनभिज्ञता व कानूनी निष्क्रियता – साधारण जनता कानूनों के प्रति अनभिज्ञ होती है, जिसका लाभ पूँजीपति तथा अन्य वर्ग व पदों पर आसीन व्यक्ति उठाते हैं। वे कानून से अनभिज्ञ व्यक्तियों का सरलता से शोषण कर लेते हैं। साथ ही कई समाजों में बाजार-वाणिज्य व उद्योग नियन्त्रण सम्बन्धी कानून इतने दोषपूर्ण व निष्क्रिय होते हैं कि बड़े-बड़े अपराधियों को पकड़े जाने का भय नहीं रहता। ये कानून श्वेतवसन अपराधियों को दण्डमुक्त रखने में सहायता देते हैं और इस प्रकार ऐसे अपराधों को बढ़ावा देते हैं।

7. सामाजिक मूल्य व संस्कृति – अनेक विद्वानों (जैसे–क्लीनार्ड) का मत है कि श्वेतवसन अपराधी का सम्बन्ध सामाजिक मूल्यों व संस्कृति से भी होता है। प्रत्येक समाज में कुछ ऐसे मूल्य व परम्पराएँ होती हैं जो व्यक्तियों को अपनी सत्ता व स्थिति कायम रखने के लिए प्रेरित करती हैं, जिनके कारण उच्च पदों के व्यक्ति गलत हथकण्डे अपनाकर तथा लोगों का शोषण करके अपने को आर्थिक दृष्टि से मजबूत करने का प्रयास करते हैं।

8. नैतिकता का अभाव – सामाजिक व धार्मिक जीवन में नैतिकता का अभाव भी श्वेतवसन अपराध का एक कारण है। आज धार्मिक विश्वासों व नैतिक नियमों के कारण उच्च स्थिति, वाले व्यक्ति उन कार्यों को करना भी बुरा नहीं समझते जिनका सम्बन्ध भ्रष्टाचार व बेईमानी से है। अतः व्यक्ति अपने-अपने पदों का दुरुपयोग करके श्वेतवसन अपराध करने लगते हैं।

9. गोपनीय प्रकृति – अधिकतर श्वेतवसन अपराध की प्रकृति गोपनीय होती है तथा एक सीमा तक करने पर ऐसे अपराध जनसाधारण के सामने आते ही नहीं हैं। गुप्त कार्य-प्रणाली के कारण बड़े-बड़े अधिकारी व कर्मचारी, व्यापारी वर्ग तथा पूँजीपति श्वेतवसन अपराध करते हैं और पकड़े जाने पर भी उनके विरुद्ध कोई सबूत नहीं मिलता है।

10: सामाजिक विघटन – सामाजिक विघटन भी श्वेतवसन अपराध को जन्म देता है। इसीलिए संक्रमण काल से गुजरने वाले समाजों में श्वेतवसन अपराध भी अधिक होते हैं। टूटे हुए सामाजिक ढाँचे का सबसे अधिक लाभ बड़े-बड़े व्यापारियों को ही मिलता है, जो चोरबाजारी, धोखाधड़ी, गबन, घूसखोरी व कालाबाजारी करके पैसा कमाने लगते हैं।

भ्रष्टाचार श्वेतवसन अपराध का स्रोत – वर्तमान समय में श्वेतवसन अपराध की वृद्धि का मुख्य कारण भ्रष्टाचार में वृद्धि के साथ-साथ व्यक्तियों में अलगाव की मनोवृत्ति प्रबल होने लगती है तथा स्वयं को अधिक असहाय, कमजोर तथा सार्वजनिक जीवन से कटा हुआ अनुभव करने लगते हैं।

भ्रष्टाचार के कारण आज हमारे देश में राजनीति को राष्ट्रसेवा या समाज सेवा के स्थान पर एक व्यवसाय के रूप में माना जाने लगा है। भ्रष्टाचार के कारण ही अधिकांश नेता बहुत अधिक धन खर्च करके चुनाव जीव जाते हैं और सत्ता प्राप्त करने के बाद हर प्रकार की अपराधिक एवं समाज विरोधी गतिविधियों से अधिक-से-अधिक धन कमाने में लिप्त हो जाते हैं। अतः कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार श्वेतवसन अपराध का स्रोत है।

प्रश्न 2
भारत में श्वेतवसन अपराधों में वृद्धि के क्या कारण हैं ?
उत्तर:
भारत में श्वेतवसन अपराधों में वृद्धि के कारण
भारत में श्वेतवसन अपराध आज चरम सीमा पर है, परन्तु दुर्भाग्यवश इस क्षेत्र में अधिक अध्ययन नहीं किये गये हैं। हम अनेक प्रकार के श्वेतवसन अपराध अपने समाज में देख सकते हैं। उदाहरणार्थ-बड़े-बड़े व्यापारियों द्वारा टैक्स की चोरी करना, वस्तुओं में मिलावट करना, चोरबाजारी करना, अवैध व्यापार करना, प्रशासनिक अधिकारियों में फैला हुआ भ्रष्टाचार, न्यायालयों, सरकारी दफ्तरों, पुलिस विभाग, चिकित्सा विभाग, परिवहन व संचार आदि कोई भी विभाग श्वेतवसन अपराध के प्रभाव से अछूता नहीं है।

आज श्वेतवसन अपराधी भारतीय समाज को जितना खोखला कर रहे हैं तथा हानि पहुँचा रहे हैं उतनी हानि अन्य अपराधों से नहीं हो रही है।
विश्व के अन्य राष्ट्रों के समान भारत में भी श्वेतवसन अपराध निरन्तर बढ़ रहे हैं। यहाँ श्वेतवसन अपराधों में सतत वृद्धि होने के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं

1. अशिक्षा – भारत के अधिकांश व्यक्ति अशिक्षित हैं। अशिक्षा के कारण वे कानूनों से अनभिज्ञ हैं। इस कारण श्वेतवसन अपराधी साधारण लोगों को धोखा देकर उनसे धन हड़प लेते हैं तथा अपने उद्देश्य में सफल हो जाते हैं।

2. भ्रष्टाचार – भारत में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार व्याप्त है। भारत के किसी भी सरकारी विभाग में तब तक कार्य नहीं होता है जब तक उन्हें रिश्वत नहीं मिल जाती है। अतः भारत की ग्रामीण साधारण जनता का कार्यालयों में कोई भी कार्य नहीं हो पाता है, वे कार्यालयों के चारों ओर चक्कर लगाते रहते हैं। ऐसी परिस्थितियों में श्वेतवसन अपराधी ग्रामीण साधारण जनता को कार्य कराने का लालच देकर उनसे रुपये हड़प लेते हैं तथा श्वेतवसन अपराध में लिप्त रहते हैं।

3. बेरोजगारी – भारत में बेरोजगारी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। भारत का बेरोजगार नवयुवक रोजगार की खोज में जब सड़कों पर घूमता है तब श्वेतवसन अपराधी उन्हें नौकरी का लालच देकर उनसे धन ऐंठ लेते हैं। अनेक धोखेबाज अधिकारी खाड़ी देशों में नौकरी दिलवाने के नाम पर धन वसूल कर साफ बच जाते हैं।

4. नैतिक मूल्यों का ह्रास – भारत में आज सामाजिक व धार्मिक जीवन में नैतिकता का अभाव होता जा रहा है, जिसके अभाव में श्वेतवसन अपराध बढ़ता जा रहा है। आज नैतिक मूल्यों में ह्रास के कारण उच्च स्थिति वाले व्यक्ति उन कार्यों को करना भी बुरी नहीं समझते जिनका सम्बन्ध भ्रष्टाचार व बेईमानी से है। अत: व्यक्ति अपने-अपने पदों का दुरुपयोग करके श्वेतवसन अपराध करने लगते हैं।

5. राजनीतिक कारण – भारत में राजनीतिक भ्रष्टाचार भी श्वेतवसन अपराध का कारण है। राजनीतिक नेता व सरकारी क्षेत्र के प्रतिनिधि व मन्त्री पूँजीपतियों व अन्तर्राष्ट्रीय अपराधियों के सौथ गठबन्धन करके श्वेतवसन अपराध को बढ़ा रहे हैं। भारत की भ्रष्ट राजनीति श्वेतवसन अपराध को बढ़ावा देने में सक्षम है। संचारमन्त्री सुखराम, मुख्यमन्त्री जयललिता, कैप्टन सतीश शर्मा व श्रीमती शीला कौल ने अपने पदों का दुरुपयोग कर श्वेतवसन अपराध को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्री पी० वी० नरसिंम्हा राव का नाम भी इन्हीं अपराधों के लिए खूब उछलता रहा है। चन्द्रास्वामी इस क्षेत्र के प्रमुख सूत्राधार होने के कारण जेल की सजा भी काट चुके हैं। भारत में राजनीतिक अस्थिरता के कारण भी समाज में श्वेतवसन अपराध बढ़ते जा रहे हैं। चुनाव के बाद सत्ता में आने के लिए विधायकों की खरीद तथा सांसदों की सौदेबाजी श्वेतवसन अपराध का मूल है।

6. भौतिकवादी मनोवृत्तियाँ – आज भारत के व्यक्तियों में भौतिकवादी प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, जिसके कारण उनके लिए धन का महत्त्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है। आज उनके लिए धन ही प्रतिष्ठा, मान-मर्यादा व शक्ति का स्रोत बन गया है। अतः आज़ श्वेतवसनधारी येन-केनप्रकारेण धन प्राप्त करके समाज में अपनी झूठी शान व प्रतिष्ठा को दिखाकर भौतिक सुख और ऐशो-आराम का जीवन व्यतीत करना चाहता है, जिसके कारण श्वेतवसन अपराधों में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है।

7. अत्यधिक वर्ग चेतना – भारत के श्वेतवसन अपराध करने वाले व्यक्तियों में अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अत्यधिक वर्ग चेतना होती है। श्वेतवसन अपराध का यह भी एक कारण है कि श्वेतवसन वर्ग के व्यक्ति अपनी स्थिति को सक्रिय और समृद्ध बनाये रखने के लिए अपने व्यवसाय की आड़ में अधिकाधिक धनोपार्जन करते रहते हैं।

8. सामाजिक विभेदीकरण व आर्थिक असमानता – सामाजिक व आर्थिक असमानता भी श्वेतवसन अपराध वृद्धि का एक कारण है। भारत में आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से अधिकांश व्यक्ति पिछड़ी व दयनीय स्थिति में हैं, जब कि कुछ लोग ही सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं। सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न व्यक्ति व कुछ मध्यमवर्गीय व्यक्ति भी उनके साथ लगकर श्वेतवसन अपराध द्वारा लोगों को ठगने में लगे रहते हैं। वे अनेक प्रकार की जालसाजी, गलत विज्ञापन, फरेब, चोर-बाजारी आदि के कार्यों में लगे रहते हैं तथा समाज में श्वेतवसन अपराध करते हैं।

9. कानून के प्रति अनभिज्ञता व कानूनी निष्क्रियता – भारत में अधिकांश साधारण जनता कानूनों के प्रति अनभिज्ञ है, जिसका लाभ पूँजीपति तथा अन्य वर्ग व पदों पर आसीन सफेदपोश व्यक्ति उठाते हैं। वे कानून से अनभिज्ञ व्यक्तियों का सरलता से शोषण कर लेते हैं। भारत में कानूनों को शान्तिपूर्वक लागू नहीं किया जाता है। अतः श्वेतवसन धारण करने वाले व्यक्ति कर चोरी व अन्य भ्रष्टाचार का कार्य खुले रूप से करते रहते हैं; क्योंकि उन्हें यह मालूम है कि कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है और यदि वे कहीं पर कानून की पकड़ में आ भी जाते हैं तो रिश्वत व शक्ति का उपयोग करके सरलतापूर्वक बच निकलते हैं। इस कारण भी भारत में श्वेतवसन अपराध तेजी के साथ बढ़ रहा है।

10. गोपनीय प्रकृति – अधिकतर श्वेतवसन अपराध की प्रकृति गोपनीय होती है, क्योंकि अधिकतर अपराध जनसाधारण के सामने आते ही नहीं हैं। गुप्त कार्य-प्रणाली के कारण बड़े-बड़े अधिकारी व कर्मचारी, व्यापारी वर्ग तथा पूँजीपति श्वेतवसन अपराध करते हैं और पकड़े जाने पर उनके विरुद्ध किसी प्रकार का प्रमाण नहीं मिल पाता है, जिससे वे दण्ड के चंगुल से बच जाते हैं। इसीलिए भारत में श्वेतवसन अपराध बढ़ता जा रहा है।

प्रश्न 3
उपयुक्त उदाहरण देते हुए ‘अपराध और ‘श्वेतवसन अपराध की अवधारणाओं में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2007]
उत्तर:
श्वेतवसन अपराध तथा अपराध के बीच का अन्तर मुख्यतया दृष्टिकोण का अन्तर है, ज़िसे निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है

1. अपराधी वर्ग – साधारण अपराध का सम्बन्ध किसी वर्ग-विशेष से नहीं होता। उदाहरण के लिए, हत्या तथा बलात्कार का अपराध सभी वर्गों के व्यक्ति करते हैं। परन्तु श्वेतवसन अपराध सम्भ्रान्त तथा प्रतिष्ठित पद पर आसीन वर्ग के व्यक्तियों द्वारा ही किये जाते हैं।

2. अपराध का कारण – अपराध का कारण सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक आदि कोई भी हो सकता है। दूसरी ओर श्वेतवसन अपराध मुख्यतः आर्थिक प्रकृति के होते हैं। सम्भ्रान्त वर्ग के व्यक्ति श्वेतवसन अपराध अधिक-से-अधिक धन संचय करने के लिए करते हैं।

3. जनता का दृष्टिकोण – जनता का दृष्टिकोण दोनों अपराधों के प्रति अलग है। चोरी, डकैती, राहजनी, हत्या अथवा बलात्कार जैसे अपराध के दोषी को लोग तिरस्कार करते हैं तथा उसके प्रति घृणा व आक्रोश का भाव रखते हैं। दूसरी ओर यदि कोई व्यक्ति जालसाजी, रिश्वतखोरी अथवा झूठे विज्ञापन देकर कोई लाभ प्राप्त कर रहा हो तो उसका कोई तिरस्कार नहीं करता। यह कहना गलत नहीं होगा कि श्वेतवसन अपराध से व्यक्ति की प्रतिष्ठा को कोई धक्का नहीं पहुंचता।।

4. अपराध की प्रकृति – अपराध की तुलना में श्वेतवसन अपराध की प्रकृति अप्रत्यक्ष होती है। उदाहरण के लिए, किसी महिला का बलात्कार कर देना जघन्य अपराध माना जाता है, लेकिन बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ जब नियोजित तरीके से हत्या करवाते हैं तब इसे श्वेतवसन अपराध कहा जाता है। अपराध की तुलना में श्वेतवसन अपराध गोपनीय तथा अमूर्त होते हैं। ये अपराध जनसाधारण की निगाह से छिपाकर किये जाते हैं। इनकी गोपनीयता भंग होने पर ही, ये अपराध बन जाते हैं।

5. दण्ड – किसी अपराध के लिए अपराधी को दण्ड देना राज्य के लिए सरल होता है, लेकिन श्वेतवसन अपराध को प्रमाणित कर सकना बहुत कठिन होता है। श्वेतवसन अपराध से सम्बन्धित लोग अपनी प्रतिष्ठा और आर्थिक शक्ति के बल पर अपने विरुद्ध साक्ष्य को तोड़ मोड़ देते हैं। उनको दण्डित करना प्रायः असम्भव होता है।

प्रश्न 4
“भ्रष्टाचार एक सार्वभौमिक बुराई है।” इसे हम अपने देश से कैसे मिटा सकते हैं? [2016]
उत्तर:
भ्रष्टाचार का अर्थ
भ्रष्टाचार का अभिप्राय उन सभी अवैध गतिविधियों से है जिससे निजी स्वार्थ के लिए धनोपार्जन व शक्तियों का दुरुपयोग कर बेइमानी की जाए। रिश्वत लेना, धन उगाही, धोखाधड़ी, मनी लॉन्ड्रिंग धन के लिए बल का प्रयोग, काला धन व अन्य सभी प्रकार के कृत्य जिससे अवैध रूप से लाभ उठाया जा रहा हो, वे सभी भ्रष्टाचार हैं। सरकारी विभागों या निजी क्षेत्रों द्वारा अनैतिक व्यवहार, लाभ के लिए सत्ता का दुरुपैयोग, इत्यादि सभी गतिविधियाँ भ्रष्टाचार के कुछ रूप हैं। आम जनता के अधिकारों को अनदेख कर सरकारी कर्तव्य को पूर्ण न कर धोखाधड़ी करना भ्रष्टाचार ही है। सरकारी व्यक्ति द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर अपने या किसी और के हित को सर्वोपरि रखना भी भ्रष्टाचार है।

भ्रष्टाचार एवं घूसखोरी कोई नई अवधारणा नहीं है। सदियों पूर्व हिन्दू विधि के प्रवर्तक महर्षि मनु ने ‘मनु संहिता’ में तत्कालीन समाज में व्याप्त घूसखोरी का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है। अन्य अनेक ग्रन्थों तथा यात्रा वृत्तान्तों में भी भ्रष्टाचार का उल्लेख देखा जा सकता है।
आचार्य कौटिल्य (चाणक्य, 350-275 ई.पू.) ने ‘अर्थशास्त्र में लिखा है कि जिस प्रकार तालाब में तैरती मछली कब पानी गटक जाती है कोई देख नहीं सकता, उसी प्रकार नौकरशाही में अधिकारी वर्ग कब भ्रष्ट आचरण करे यहें पता लगाना मुश्किल है।”
भारत में भ्रष्टाचार की जड़े अत्यन्त गरी हो चुकी हैं। मर्यादाएँ धीरे-धीरे नष्ट हो रही हैं। नैतिक मूल्यों के पतन के कारण सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार दीमक की तरह व्याप्त होकर व्यवस्था को खोखला. किए जा रहा है।

भ्रष्टाचार या रिश्वतखोरी वह है जब अधिकार सम्पन्न व्यक्ति अपने पद/प्रभाव का उपयोग अनुचित लाभ प्राप्ति हेतु स्वार्थपूर्ण तरीके से करता है। भारत में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार प्रत्येक क्षेत्र-सामाजिक, वैधानिक, आर्थिक, राजनीतिक, राजनयिक, प्रशासनिक क्षेत्रों में देखा जा सकता है। भ्रष्टाचार सभी प्रकार के अपराधों में वृद्धि करने के लिए जिम्मेदार है।

भारत में भ्रष्टाचार मूलतः°1950 के दशक की एक अनहोनी शुरुआत है। 1957 के मूंदड़ा कांड को भारतीय गणतंत्र का पहला घोटाला माना जाता है, जिसमें राजनीतिक और किसी पूंजीपति के बीच अपवित्र गठजोड़ बना था। इसका भंडाफोड़ फिरोज गांधी ने किया था। लम्बी बहस के बाद त्किालीन वित्त मंत्री टी.टी. कृष्णमाचारी को इस्तीफा दिलाकर सारा मामला रफा-दफा दिया गया। पंडित नेहरू के समय में ऐसे करीब चार मामले प्रकाश में आए। 1949 में 216 करोड़ रुपए का जीप घोटाला ऐसा पहला मामला था, जिसमें ब्रिटेन स्थित तत्कालीन उच्चायुक्त कृष्ण मेनन का नाम उछला था। दूसरा मामला 1956 का सिराजुद्दीन प्रकरण था, जिसमें नेहरू मंत्रिमण्डल के खान एवं ऊर्जा मंत्री के.डी. मालवीय पर गम्भीर आरोप लगे थे। तीसरा प्रकरण जहाजरानी उद्योगपति धरमतेजा का था जिन्हें 1960 में पंडित नेहरू ने बिना किसी जाँच पड़ताल के १ 20 करोड़ का ऋण दिलवाया था। इस प्रकार यह सिलसिला बोफोर्स एवं टूजी घोटाले तक चलता गया। अतः ‘भ्रष्टाचार एक सार्वभौमिक बुराई है।”

भ्रष्टाचार के कारणों को आर्थिक, सामाजिक, वैधानिक, न्यायिक और राजनीतिक श्रेणियों में भी रखा जा सकता है। आर्थिक कारणों में उच्च जीवन शैली की आकांक्षा मुद्रा प्रसार, लाइसेंसिंग प्राणाली तथा ज्यादा लाभ लेने की प्रवृत्ति है। सामाजिक कारणों में जीवन के प्रति भौतिकवादी दृष्टिकोण, ईमानदारी की कमी, सामाजिक मूल्यों में गिरावट, अशिक्षा, सामंती प्रवृत्तियाँ, शोषणवादी सामाजिक संरचना आदि हैं। वैधानिक कारणों में अपर्याप्त कानून पालन कराने में ढील आदि हैं। न्यायिक कारणों में महंगी न्याय व्यवस्था, विलम्ब न्याय न्यायिक उदासीनता, न्यायाधीशों की प्रतिबद्धता की कमी तथा तकनीकी कारणों से अपराधियों का छूट जाना है। राजनीतिक कारणों में राजनीतिक संरक्षण, अप्रभावी राजनीतिक नेतृत्व राजनीतिक तटस्थता, राजनीतिक अनैतिकता, राजनीति एवं अपराधियों की सांठ-गांठ आदि हैं।

भ्रष्टाचार को रोकने के उपाय
देश में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए अनेक आयोग बने। पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री द्वारा श्री कस्तूरीरंगा संथानम (1895-1980) की अध्यक्षता में एक भ्रष्टाचार निरोधक समिति का गठन 1962 में किया गया था। इस समिति ने निम्नलिखित उपाय सुझाए थे।

  1.  सतर्कता अधिकारियों को भ्रष्टाचार की शिकायतों की जाँच करने की स्वतंत्रता देना। जाँच प्रक्रिया में राजनीतिक एवं प्रशासनिक दखल को नियंत्रित करना आवश्यक है।
  2. सतर्कता अधिकारियों को कुशल कार्य के लिए प्रोन्नति का आश्वासन देना।।
  3. उच्च अधिकारियों के मामलों की जाँच-पड़ताल के लिए सतर्कता अधिकारियों को उनके मूल कैडर में वापस भेजने से सुरक्षा का आश्वासन देना।
  4.  केन्द्रीय सतर्कता आयोग में केन्द्रीय लोक सेवाओं और तकनीकी सेवाओं को प्रतिनिधित्व देना।
  5.  सतर्कता विभाग के अराजपत्रित कर्मचारियों को विभाग के नियमों और कार्यप्रणाली के विषय में गहन प्रशिक्षण देना, क्योंकि सतर्कता के 80 प्रतिशत मामलों की छानबीन निचले स्तर पर ही होती है।

इस समिति की सिफारिशों के आधार पर ही केन्द्रीय सरकार और अन्य कर्मचारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामलों को देखने के लिए 1964 में केन्द्रीय सतर्कता आयोग (CvC-Central Vigilance Commission) की स्थापना की गई थी। केन्द्र सरकार ने निम्नलिखित चार विभागों की स्थापना भ्रष्टाचार विरोधी उपायों के अन्तर्गत की है।

  1.  कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग में प्रशासनिक सतर्कता विभाग
  2.  केन्द्रीय जाँच ब्यूरो (CBI- Central Buearnu of Investigation)
  3. राष्ट्रीकृत बैंकों/सार्वजनिक उपक्रमों/मंत्रालयों/विभागों में घरेलू सतर्कता इकाइयाँ और
  4.  केन्द्रीय सतर्कता आयोग।

केन्द्रीय सतर्कता आयोग के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं।

  1.  किसी भी लोकसेवक के विरुद्ध भ्रष्टाचार की शिकायत आने पर उसकी जाँच-पड़ताल करना।
  2.  भ्रष्टाचार में लिप्त आरोपी व्यक्ति के विरुद्ध की जाने वाली कार्यवाही के प्रकार के विषय मेंअनुशासनात्मक अधिकारी को परामर्श देना।
  3. नियमित मामला पंजीकृत करने के लिए सी.बी.आई. को निर्देशित करना और मंत्रालयों या विभागों या बैंकों या सार्वजनिक उपक्रमों में सतर्कता और भ्रष्टाचार विरोधी कार्यों का निरीक्षण और उन पर रोक लगाना। इसके अतिरिक्त भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम-1988 इस दिशा में एक कारगर कदम है।

भ्रष्टाचार से निपटने के उपाय

  1. लोगों को विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को सब्सिडी और सरकारी अमूदानों के बारे में उनके हक की पूरी जानकारी दी जाए। सूचना का अधिकार ईमानदारी से लागू हो।
  2. नीतियों और फाइलों में किए गए विभिन्न निर्णयों को पारदर्शी बनाया जाए। हर आवेदक को जानने का अधिकार होना चाहिए कि उसका आवेदन-पत्र कहाँ रुका पंड़ा है।
  3. विलम्ब ही भ्रष्टाचार का मुख्य स्रोत है। प्रत्येक विभागीय अध्यक्ष या प्रत्येक कार्यालय के प्रमुख को किसी आवेदन या फाइल पर निर्णय करने के लिए समयावधि निर्धारित कर देनी चाहिए, जिससे कि किसी भी स्तर पर कार्यवाही में देरी न हो। अगर फाइलों पर कार्यवाही में देरी होती है तो उसके लिए जो कारण हो वह ऐसा हो, जिससे प्रमुख या अध्यक्ष संतुष्ट हो। फाइलों पर कार्यवाही में देर इसलिए न की जाए ताकि लाभार्थी उस पर कार्यवाही तेज करवाने के लिए रकम देने के लिए हाजिर हो।
  4.  जब कभी भी पता चले कि कोई कर्मचारी भ्रष्ट तरीके अपना रहा है, तो उसे तुरन्त निलम्बित . कर देना चाहिए। मुकदमा और विभागीय अनुशासनात्मक कार्यवाही साथ-साथ शुरू कर दी जाए और जल्द-से-जल्द पूरी की जाए।
  5. जिन भ्रष्ट व्यक्तियों के खिलाफ कानूनी या अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की जाती है, उनकी सम्पत्तियों को सील कर दिया जाना चाहिए और उनके दोषी साबित होने पर सरकार को उन सम्पत्तियों को जब्त कर लेना चाहिए।
  6.  अधिकारी ऐसे होने चाहिए जो केवल प्रतिभावान और योग्य ही न हों, अपितु ईमानदार और साहसी भी हों।
  7.  लोकतंत्र में निर्वाचित प्रतिनिधियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, लेकिन उन्हें अपने नजदीकी अधिकारियों को लाभ पहुँचाने के लिए नियमों की अवहेलना करते हुए तबादलों और पदोन्नतियों जैसे मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
  8.  विभिन्न स्तरों पर अधिकारियों का चयन करते समय यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि वे ईमानदार हों और उस कार्य के लिए योग्य हों, जो उन्हें सौंपा जा रहा है।
  9.  देश ने पंचायत राज और सत्ता के विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया है। इसीलिए सत्ता का यथासम्भव विकेन्द्रीकरण किया जाना चाहिए और पंचायतों को अधिकतम अधिकार दिए जाने चाहिए।
  10.  नियमों को सरल बनाना चाहिए। अनेक कानून ऐसे हैं जिन्हें जनसाधारण समझ नहीं पाता। अनावश्यक कानून खत्म कर दिए जाने चाहिए। कानून और नियमों का यथासंभव सरलीकरण किया जाना चाहिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
पूँजीवादी वर्ग संरचना श्वेतवसन अपराध का प्रमुख कारण है। समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
सदरलैण्ड ने अपने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि जिस समाज के लोगों में वर्ग-चेतना एवं सामाजिक स्थिति के प्रति जागरूकता पायी जाती है, वहाँ लोग अधिकाधिक अपने व्यवसाय के द्वारा धनोपार्जन में लगे होते हैं, जिससे वे अपनी सामाजिक स्थिति एवं प्रतिष्ठा को बनाये रख सकें। पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपति एवं उद्योगपति श्रमिक वर्ग का शोषण करते हैं और अधिकाधिक धन कमाते हैं। ये वैध और अवैध तरीकों से अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाये रखना चाहते हैं। उच्च वर्ग निम्न वर्ग को प्रतियोगिता में परास्त करना चाहता है। दोनों ही वर्ग आर्थिक प्रतिस्पर्धा में अनैतिक साधनों, झूठे विज्ञापनों, घूस, चोरबाजारी, जालसाजी आदि का सहारा लेते हैं। इस प्रकार पूँजीवादी व्यवस्था में पायी जाने वाली वर्ग-प्रतिस्पर्धा भी श्वेतवसन अपराध को बढ़ावा देती है। सदरलैण्ड कहते हैं कि “यही कारण है कि अमेरिका में श्वेतवसन अपराध अधिक होते हैं।”

प्रश्न 2
श्वेतवसन अपराध के जालसाजी एवं रिश्वत के स्वरूपों का वर्णन कीजिए। या श्वेतवसन अपराध के किन्हीं दो स्वरूपों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
1. जालसाजी – सदरलैण्ड ने इसे श्वेतवसन अपराध में प्रमुख माना है। बैंकों में चेक पर दूसरों के गलत हस्ताक्षर करके रुपये ले लेना, बीमा कम्पनियों से गलत क्लेम द्वारा रुपया लेना, नकली दस्तावेज बनाकर रुपये कमाना, जाली खाते तैयार करना, जाली पासपोर्ट तैयार करना, नकली दवाइयाँ बनाना, जाली फर्मों के नाम परमिट एवं कोटा आवण्टित करवाना, अनाथालयों, मन्दिरों एवं मठों के निर्माण के नाम पर चन्दा एकत्रित करना, बाढ़-पीड़ितों के लिए सहायता प्राप्त करना और उसका दुरुपयोग करना आदि जालसाजी एवं फरेब के ही उदाहरण हैं।
2. रिश्वत – वर्तमान में सभी सरकारी विभागों में रिश्वत का बोलबाला है। पटवारी, ट्रैफिक ‘इन्स्पेक्टर, ओवरसियर, इन्जीनियर, डॉक्टर, पुलिस अधिकारी, सरकारी कर्मचारी, रेलवे कर्मचारी, – कर विभाग के कर्मचारियों आदि के द्वारा रिश्वत ली जाती है। कई बार रिश्वत पैसों के रूप में न दी जाकर वस्तुओं के रूप में भी दी जाती है, जिसे ‘भेट’ कहकर पुकारा जाता है।

प्रश्न 3
समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता की श्वेतवसन अपराध को बढ़ाने में क्या भूमिका है ?
उत्तर:
औद्योगीकरण एवं मशीनीकरण ने समाज में आर्थिक विषमता पैदा की है। एक तरफ उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण रखने वाले पूँजीपति हैं, तो दूसरी तरफ श्रम बेचकर जीवन-यापन करने वाले गरीब श्रमिक और इन दोनों के बीच में है – मध्यम वर्ग। उच्च वर्ग वाले अन्य वर्ग के लोगों को आगे बढ़ने से रोकते हैं, क्योंकि इसमें उनका आर्थिक हित छिपा हुआ है। ऐसा करने के लिए वे मनमाने एवं कानून-विरोधी तरीके अपनाते हैं। सदरलैण्ड का मत है कि ये लोग इतने सक्षम होते हैं कि दण्ड से बच जाते हैं। टैफ्ट तथा हारटुंगे का मत है कि जिन समाजों में आर्थिक एवं सामाजिक भिन्नता अधिक होती है वहाँ मध्यम वर्ग द्वारा श्वेतवसन अपराध अधिक किये जाते हैं। लोग समाज के आर्थिक हितों को ध्यान में नहीं रखते और स्वार्थसिद्धि के लिए जालसाजी, झूठी विज्ञापनबाजी, फरेब, चोरबाजारी आदि के द्वारा उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने का प्रयत्न करते है।

प्रश्न 4
क्या श्वेतवसन अपराध का सम्बन्ध सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों से भी है ?
उत्तर:
जॉर्ज कैटोन तथा क्लीनार्ड आदि की मान्यता है कि श्वेतवसन अपराध का सम्बन्ध सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों से भी है। प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य-व्यवस्था को बनाये रखना चाहता है और उसमें परिवर्तन नहीं चाहता। लोग सामाजिक प्रतिष्ठा की हानि के भय से परम्परागत मूल्यों को बनाये रखने के लिए गलत तरीकों का प्रयोग करते हैं। उदाहरण के लिए, दहेज देना परम्परागत सामाजिक मूल्यों की दृष्टि से अच्छा माना गया है, इसे जुटाने के लिए व्यक्ति गलत साधनों द्वारा धन कमाता है और अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखता है। इसी प्रकार से भारत में धर्म का अधिक महत्त्व है। पूँजीपति लोग एक तरफ कालाबाजारी एवं मुनाफाखोरी के द्वारा धन कमाते हैं और दूसरी तरफ दान देकर एवं मन्दिर बनाकर समाज में प्रतिष्ठा भी प्राप्त कर लेते हैं। धर्मभीरु लोग ऐसे व्यक्तियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करना चाहते।

प्रश्न 5
श्वेतवसन अपराध से उत्पन्न प्रमुख सामाजिक दुष्परिणामों का उल्लेख कीजिए, जो सामाजिक विघटन के लिए उत्तरदायी हैं।
या
श्वेतवसन अपरांधों के दुष्परिणामों की विवेचना कीजिए। [2009]
उत्तर:
सदरलैण्ड कहते हैं कि श्वेतवसन अपराध के कारण आर्थिक हानि की तुलना में समाज को सामाजिक हानि अधिक होती है और सामाजिक विघटन को बढ़ावा मिलता है। श्वेतवसन अपराध से उत्पन्न प्रमुख सामाजिक दुष्परिणाम निम्नलिखित हैं, जो सामाजिक विघटन के लिए उत्तरदायी हैं

  1. समाज में अनैतिकता, विश्वासहीनता एवं भ्रष्टाचार में वृद्धि होती है।
  2.  समाज में नियमहीनता बढ़ती है और प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक नियमों एवं आदर्शों की मनमाने ढंग से व्याख्या करता है और अपने पक्ष की पुष्टि के लिए उल्टे-सीधे तर्क भी प्रस्तुत करता है।
  3. श्वेतवसन अपराध समाज में असन्तोष को बढ़ावा देता है। फलस्वरूप लोग अनुशासनहीन एवं संघर्षशील हो जाते हैं।
  4. श्वेतवसन अपराध के कारण लोगों में मानसिक असन्तोष, निराशा एवं तनाव पैदा होते हैं।
  5.  लोगों में कर्त्तव्यहीनता एवं दायित्वहीनता की भावना में वृद्धि होती है।
  6. चूँकि श्वेतवसन अपराधी कानून को तोड़-मरोड़ कर अपने पक्ष में प्रस्तुत करने में समर्थ होते हैं; अतः उन्हें दण्ड नहीं भुगतना पड़ता। फलस्वरूप दण्ड, कानून एवं न्याय से लोगों को विश्वास उठ जाता है और कानूनी अव्यवस्था फैलती है।
  7. श्वेतवसन अपराध के कारण सामाजिक असुरक्षा पनपती है। जब समाज के नेता एवं संरक्षक ‘ कहे जाने वाले व्यक्ति ही अपराधी कार्यों में लगे होते हैं तो अन्य लोगों में असुरक्षा के भाव
    पैदा होते हैं।
  8. श्वेतवसन अपराध के कारण अर्थव्यवस्था विघटित हो जाती है। बेईमान एवं अपराधी लोग सुखी एवं समृद्ध जीवन व्यतीत करते हैं, जब कि ईमानदार व्यक्तियों का भरण-पोषण भी कठिन होता है। ऐसे अपराधी सारे देश को आर्थिक हानि पहुँचाते हैं और देश की अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त हो जाती है।
  9. श्वेतवसन अपराध के कारण नयी पीढ़ी में अपराध की ओर झुकाव बढ़ता है।
  10. श्वेतवसन अपराध के कारण समाज व्यवस्था, सुरक्षा, प्रगति एवं विकास खतरे में पड़ जाते
  11.  श्वेतवसन अपराध सामाजिक संस्थाओं के मूलभूत मूल्यों पर आक्रमण है। स्पष्ट है कि श्वेतवसन अपराध सामाजिक विघटन के लिए उत्तरदायी है।

प्रश्न 6
बाल-अपराध व श्वेतवसन अपराध में अन्तर बताइए।
उत्तर:
बाल-अपराध व श्वेतवसन अपराध में अन्तर नीचे दी गयी तालिका में स्पष्ट किया गया है।

क्र०सं० बाल-अपराध श्वेतवसन अपराध
1. बाल-अपराधं कानून द्वारा निर्धारित 18 वर्ष से कम आयु में किया जाने वाला अपराध हैं। श्वेतवसन अपराध उच्च वर्ग अथवा प्रतिष्ठित पद पर आसीन व्यक्तियों द्वारा किये जाते हैं।
2. बाल-अपराध में कुछ ऐसे व्यवहार भी सम्मिलित हैं जो वास्तव में अपराध की श्रेणी में नहीं आते; जैसे-स्कूल से भागना, घर से बिना बताये गायब हो जाना, निरुद्देश्य रात्रि को घूमते रहना इत्यादि। श्वेतवसन अपराधों में करों की चोरी, रिश्वत, पदों का दुरुपयोग करके आर्थिक लाभ कमाना, नियोजित रूप से हत्या कराना आदि अपराध आते हैं।
3. बाल-अपराध सामान्यतः कम गम्भीर होते है। श्वेतवसन अपराधों की प्रकृति अप्रत्यक्ष, गोपनीय, परन्तु आर्थिक दृष्टि से गम्भीर होती है।
4. बाल-अपराधी अधिकांशतः संवेगता के कारण अपराध करते हैं। श्वेतवसन अपराध नियोजित और सामूहिक होते हैं।
5. बाल-अपराधी का अपराध करते समय अनिवार्य रूप से आर्थिक लक्ष्य नहीं होता है। श्वेतवसन अपराध मुख्यतः आर्थिक प्रकृति के ही होते हैं। सम्भ्रान्त वर्ग के व्यक्ति श्वेतवसन अपराध इसलिए करते हैं जिससे वे अधिक से-अधिक धन का संचय करके भौतिक सुख-सुविधाएँ प्राप्त कर सकें।
6. बाल-अपराधी बनने में मनोवैज्ञानिक व पारिवारिक कारणों को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। श्वेतवसन अपराधों का कारण समृद्धता तथा भौतिक सुख प्रा करना होता है।
7. बाल-अपराध के लिए विशिष्ट न्यायालयों की स्थापना होती है। श्वेतवसन अपराध के मामले सामान्य अदालतों और कभी-कभी विशेष अदालतों में सुने जाते हैं।
8. बाल-अपराधी को कठोर दण्ड से बचाने का प्रयास किया जाता है। श्वेतवसन अपराध से सम्बन्धित लोग अपनी प्रतिष्ठा और आर्थिक शक्ति की सहायता से न तो अपने विरुद्ध गवाहियाँ होने देते हैं और न ही कोई ऐसा ठोस प्रमाण छोड़ते हैं जिसके आधार पर उन्हें दण्डित किया जा सके।

प्रश्न 7
अपराध तथा श्वेतवसन अपराध में अन्तर बताइए। [2007, 11, 16]
या
‘सफेदपोश अपराध व अपराध में चार अन्तर बताइए। [2016]
उत्तर:
अपराध, अपराध ही है चाहे वह निम्न वर्ग के लोगों द्वारा किया जाए अथवा समाज के प्रतिष्ठित एवं उच्च वर्ग के लोगों द्वारा। फिर भी सामान्य अपराध और श्वेतवसने अपराध की प्रकृति, मनोवृत्ति एवं आधारों में अन्तर पाया जाता है। यह अन्तर निम्नलिखित है

  1. अपराध का सम्बन्ध समाज के सभी वर्गों से है, जब कि श्वेतवसन अपराध का केवल समाज के उच्च वर्ग से है।।
  2. श्वेतवसन अपराध आर्थिक प्रकृति के होते हैं, जब कि सामान्य अपराध आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं मानसिक किसी भी कारण से किये जा सकते हैं।
  3. श्वेतवसन अपराध में व्यक्ति की प्रतिष्ठा को ठेस नहीं पहुँचती है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष रूप से उसमें सम्मिलित नहीं होता है, जब कि अपराध में व्यक्ति को हीन एवं घृणा की दृष्टि से । देखा जाता है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष रूप से अपराध में सम्मिलित होता है।
  4. अपराध की अपेक्षा श्वेतवसन अपराध योजनाबद्ध रूप से किये जाते हैं।
  5. अपराध की तुलना में श्वेतवसन अपराध अधिक गोपनीय ढंग से किये जाते हैं।
  6.  श्वेतवसन अपराध आधुनिक औद्योगिक एवं नगरीकृत समाजों की विशेषता है, जब कि अपराध आदिम और आधुनिक सभी समाजों में किये जाते हैं।
  7.  सामान्यत: अपराध में अपराधी को दण्ड मिलता है, किन्तु श्वेतवसन अपराध में अपराधी अपनी आर्थिक स्थिति एवं जटिल कानूनी प्रक्रिया के कारण दण्ड से बच जाता है।
  8. श्वेतवसन अपराध व्यक्ति अपने व्यवसाय के दौरान करता है, जब कि अपराध व्यवसाय से बाहर भी।
  9. अपराध के प्रति जनता की सामूहिक प्रतिक्रिया पायी जाती है, जब कि श्वेतवसन अपराध के प्रति नहीं।

प्रश्न 8
श्वेतवसन अपराध और सामाजिक विघटन के सम्बन्ध की विवेचना कीजिए.
उत्तर:
सदरलैण्ड श्वेतवसन अपराध एवं सामाजिक विघटन के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध बताते हैं। उनकी मान्यता है कि श्वेतवसन अपराध के कारण आर्थिक हानि की तुलना में समाज को सामाजिक हानि अधिक होती है और सामाजिक विघटन को बढ़ावा मिलता है। श्वेतवसन अपराध से उत्पन्न प्रमुख सामाजिक दुष्परिणाम निम्न प्रकार हैं, जो सामाजिक विघटन के लिए उत्तरदायी हैं

  1.  समाज में अनैतिकता, विश्वासहीनता एवं भ्रष्टाचार में वृद्धि होती है।
  2.  समाज में नियमहीनता बढ़ती है और प्रत्येक व्यक्ति नियमों एवं आदर्शों की मनमाने ढंग से व्याख्या करता है और अपने पक्ष की पुष्टि के लिए उल्टे-सीधे तर्क भी प्रस्तुत करता है।
  3.  श्वेतवसन अपराध के कारण मानसिक असन्तोष, निराशा एवं तनाव पैदा होते हैं। लोगों में कर्तव्यहीनता एवं दाविहीनता की भावना में वृद्धि होती है।
  4.  श्वेतवसन अपराध समाज में असन्तोष को बढ़ावा देने के साथ-साथ लोगों में अनुशासनहीनता को बढ़ाता है। उनमें कानून एवं न्याय के प्रति कम विश्वास रह जाता है। इससे कानूनी अव्यवस्था फैलती है।
  5. श्वेतवसन अपराध के कारण सामाजिक असुरक्षा पनपती है। जब समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति तथा संरक्षक कहे जाने वाले लोग अपराधी कार्यों में लिप्त होते हैं तो अन्य लोगों में असुरक्षा की भावना पैदा होती है।
  6. श्वेतवसन अपराध के कारण अर्थव्यवस्था विघटित हो जाती है। बेईमान एवं अपराधी लोग सुखी एवं समृद्ध जीवन व्यतीत करते हैं, जब कि ईमानदार व्यक्तियों के लिए भरण-पोषण भी कठिन होता है।
  7.  श्वेतवसन अपराध के कारण नयी पीढ़ी में अपराध की ओर झुकाव बढ़ता है। समाज व्यवस्था, सुरक्षा, प्रगति एवं विकास खतरे में पड़ जाते हैं। श्वेतवसन अपराध सामाजिक संस्थाओं के मूलभूत मूल्यों पर आक्रमण है। उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि श्वेतवसन अपराध सामाजिक विघटन के लिए उत्तरदायी है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
भौतिकवादी मनोवृत्ति श्वेतवसन अपराध का एक प्रभावी कारण है। कैसे ?
उत्तर:
वर्तमान समय में लोगों में भौतिकवादी मनोवृत्ति बढ़ी है। प्रत्येक व्यक्ति येन-केनप्रकारेण धन कमाकर अधिकाधिक सुख-सुविधाएँ प्राप्त करना चाहती है। आज व्यक्ति का मूल्यांकन भी इसी आधार पर किया जाता है कि उसके पास कितनी सम्पत्ति है? प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य शारीरिक एवं इन्द्रिय सुख-सुविधाएँ प्राप्त करना ही रह गया है, जिन्हें जुटाने के लिए समाज-विरोधी विधियों तक का भी सहारा लिया जाता है।

प्रश्न 2
वर्तमान समय में श्वेतवसन अपराध ने संगठित रूप धारण कर लिया है। समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
वर्तमान समय में अपराध से सम्बन्धित अनेक संगठन पाये जाते हैं, जिनमें कई राजनेता, व्यापारी, उच्चाधिकारी एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति हँसे होते हैं। एक अकेला व्यक्ति जब इनके जाल में फंस जाता है तो वह निरुपाय होता है और इनके विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकता। जब सभी उच्च अधिकारी घूस लेते हों, तो ईमानदार व्यक्ति उनमें टिक नहीं सकता। जब भी बेईमान व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही की जाती है, तो श्वेतवसन अपराधी लोग संगठित होकर उसका विरोध करते हैं। इस प्रकार के कार्यों से श्वेतवसन अपराधियों को और अधिक अपराध करने का प्रोत्साहन मिलता है।

प्रश्न 3
पद का दुरुपयोग श्वेतवसन अपराध का एक कारण है। समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
कई राजकीय एवं गैर-राजकीय अधिकारी अपने पद का दुरुपयोग करते हैं। वे पैसा लेकर सरकार के गुप्त भेदों को बता देते हैं या रिश्वत देने वाले के पक्ष में निर्णय कर देते हैं। चुनाव के समय भ्रष्ट तरीके अपनाना, इच्छानुसार लोगों को कोटा या परमिट वितरित करना, झूठे प्रमाण-पत्र देना, किसी पद पर नियुक्ति करवाना आदि श्वेतवसन अपराध के ही उदाहरण हैं।

प्रश्न 4
श्वेतवसन अपराध को रोकने के कोई चार उपाय बताइए।
उत्तर:
अब तक श्वेतवसने अपराधों की रोकथाम के लिए कानूनी एवं अन्य प्रकार के प्रयत्न नहीं हुए हैं। इन अपराधों से उत्पन्न दोषों की गम्भीरता को देखते हुए इनके निराकरण के लिए। निम्नलिखित उपाय अपनाये जाने चाहिए

  1. राष्ट्रीय स्तर पर इस प्रकार के अपराधों की छानबीन के लिए जाँच आयोग की स्थापना की। जानी चाहिए।
  2. संरकार द्वारा भ्रष्टाचार निरोध समिति की स्थापना की जाए।
  3.  इस प्रकार की समितियों से सम्बन्धित कर्मचारियों एवं अधिकारियों को जनता अपना सहयोग एवं समर्थन दे और वे श्वेतवसन अपराधियों के काले कारनामे सरकार के समक्ष लाएँ।
  4. सरकार द्वारा शक्तिशाली गुप्तचर विभाग की स्थापना की जाए।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
सदरलैण्ड ने श्वेतवसन अपराध की क्या परिभाषा दी है ?
उत्तर:
सदरलैण्ड के अनुसार, “श्वेतवसन अपराध उच्च सामाजिक-आर्थिक वर्ग के व्यक्ति द्वारा अपने पेशे या धंन्धे के क्रिया-कलापों के दौरान अपराधिक कानून का उल्लंघन है।”

प्रश्न 2
श्वेतवसन अपराध की अवधारणा किसने दी ? [2011, 12, 13]
या
श्वेतवसन अपराध की अवधारणा किस समाजशास्त्री से सम्बन्धित है ? [2007]
या
श्वेतवसन अपराध के प्रणेता कौन हैं? [2013]
उत्तर:
श्वेतवसन अपराध की अवधारणा सदरलैण्ड ने दी।

प्रश्न 3
“श्वेतवसन अपराध आधुनिक संस्कृति की उपज है।” सत्य/असत्य [2013]
उत्तर:
सत्य।

प्रश्न 4
सदरलैण्ड द्वारा व्यक्त अपराध को किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर:
श्वेतवसन अपराध।

प्रश्न 5
श्वेतवसन अपराध किस प्रकार के व्यक्तियों द्वारा किये जाते हैं ?
उत्तर:
इस प्रकार के अपराध मुख्यतः चिकित्सकों, कानूनवेत्ताओं, शिक्षा-अधिकारियों, व्यापारियों, संसद सदस्यों, राजनेताओं एवं उद्योगपतियों द्वारा किये जाते हैं।

प्रश्न 6
श्वेतवसन अपराधों का पता लगाना क्यों कठिन है ?
उत्तर:
श्वेतवसन अपराध परोक्ष रूप से बुद्धिमानीपूर्वक किये जाते हैं। अत: इनका पता लगाना कठिन होता है।

प्रश्न 7
क्राइम एण्ड बिज़नेस कृति किसकी है?
उत्तर:
‘क्राइम एण्ड बिज़नेसं’ कृति सदरलैण्ड की है।

प्रश्न 8
श्वेतवसन अपराध के दो उदाहरण दीजिए। (2013)
उत्तर:
वकीलों द्वारा झूठी गवाही दिलवाना तथा पैसों के लालच हेतु डॉक्टरों द्वारा ऑपरेशन करना, श्वेतवसन अपराध के उदाहरण हैं।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
‘श्वेलवसन अपराध की अवधारणा किसने दी है? [2014, 15, 16]
(क) सदरलैण्ड ने
(ख) सोरोकिन ने
(ग) टैफ्ट ने
(घ) सेथना ने

प्रश्न 2
श्वेतवसन अपराध का कारण है
(क) जातिवाद
(ख) संयुक्त परिवार का विघटन
(ग) भौतिकवादी मनोवृत्ति
(घ) निरक्षरता

प्रश्न 3
हाइट कॉलर क्रिमिनैलिटी’ शोध लेख किसने प्रकाशित किया ? [2015]
या
सफेदपोश अपराध की अवधारणा किसने दी है?
(क) टैफ्ट ने
(ख) मार्शल क्लीनार्ड ने
(ग) सदरलैण्ड ने
(घ) फ्रेंक हारटुंग ने

प्रश्न 4
सदरलैण्ड किस पुस्तक के लेखक हैं ?
(क) प्रिंसिपल्स ऑफ सोशियोलॉजी
(ख) फॉकवेज
(ग) पर्सनल डिसऑर्गेनाइजेशन
(घ) कल्चरल सोशियोलॉजी

उत्तर:
1. (क) सदरलैण्ड ने,
2. (ग) भौतिकवादी मनोवृत्ति,
3. (ग) सदरलैण्ड ने,
4. (क) प्रिंसिपल्स ऑफ सोशियोलॉजी।

 

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