UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 Social Disorganization

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 Social Disorganization (सामाजिक विघटन) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 Social Disorganization (सामाजिक विघटन).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 8
Chapter Name Social Disorganization
(सामाजिक विघटन)
Number of Questions Solved 39
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 Social Disorganization (सामाजिक विघटन)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक विघटन (परिवर्तन) से आप क्या समझते हैं ? सामाजिक विघटन के लक्षणों एवं कारणों (कारकों) की विवेचना कीजिए। [2007, 08, 09, 11]
या
सामाजिक विघटन से आप क्या समझते हैं ? सामाजिक संगठन और सामाजिक विघटन में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2010, 11]
या
सामाजिक विघटन से क्या आशय है? इसके प्रमुख कारणों की विवेचना कीजिए। [2015, 16, 17]
या
सामाजिक विघटन सामाजिक जीवन को कैसे प्रभावित करता है? [2015, 16]
या
भारत में सामाजिक विघटन के कारणों पर प्रकाश डालिए। [2008, 10, 11]
या
विघटन को परिभाषित करते हुए इसके कुप्रभावों की चर्चा कीजिए। [2008]
या
सामाजिक विघटन को परिभाषित कीजिए तथा इसके प्रमुख कारणों का उल्लेख कीजिए। [2013, 17]
या
सामाजिक विघटन के चार लक्षणों का उल्लेख कीजिए। [2007, 08, 11, 14]
या
सामाजिक विघटन के आर्थिक कारकों की व्याख्या कीजिए।
या
सामाजिक विघटन, विखण्डित परिवार के साथ एक सापेक्षिक अवधारणा है। व्याख्या करें। [2017]
उत्तर:

सामाजिक विघटन का अर्थ

समाज के दो पहलू हैं-संगठन और विघटन। समाज की व्यवस्था और एकरूपता को संगठन कहा जाता है। संगठन के अभाव में समाज का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। जब समाज के सदस्य सामाजिक नियमों का पालन करते हुए अपनी भूमिका ठीक से निभाते हैं, तो सामाजिक नियन्त्रण बना रहता है। विघटन शब्द टूटने का बोधक है। जैसे ही समाज की संस्थाओं और समूहों के बीच सम्बन्ध टूटते हैं, वैसे ही संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इसी अपघटन को विघटन कहा जाता है।

समाज परिवर्तनशील है। नये-नये परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ होते ही समाज की एकरूपता नष्ट हो जाती है। समाज में तनाव और संघर्ष बढ़ जाने से उसमें अस्थिरता और विकृतियाँ पनपने लगती हैं, जिसके परिणामस्वरूप समाज की सामूहिकता नष्ट हो जाती है। इसी स्थिति को सामाजिक विघटन कहा जाता है। वास्तव में, संगठन और विघटन एक-दूसरे के विलोमार्थक शब्द हैं। जब सदस्य व्यक्तिगत स्वार्थों में लिप्त होकर समाज-विरोधी कार्य करने लगते हैं और सामाजिक नियम उन्हें नियन्त्रित करने में सक्षम नहीं रहते तब ऐसी स्थिति को सामाजिक विघटन’ कहा जाता है।

सामाजिक विघटन की परिभाषा

सामाजिक विघटन का सही-सही अर्थ समझने के लिए हमें उसकी परिभाषाओं पर दृष्टि निक्षेप करनी होगी। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने सामाजिक विघटन को निम्नवत् परिभाषित किया है इलियट एवं मैरिल के अनुसार, “सामाजिक विघटन वह प्रक्रिया है जिसके फलस्वरूप एक समूह के सदस्यों के बीच स्थापित सम्बन्ध टूट जाते हैं या नष्ट हो जाते हैं।” कोनिंग के अनुसार, “सामाजिक विघटन से तात्पर्य संस्थाओं में उत्पन्न उस गम्भीर असमन्वयता से है जिससे कि वे व्यक्ति भी आवश्यकताओं की सन्तोषजनक पूर्ति में असफल हो जाएँ।”

जोन्स के अनुसार, “स्थापित समूह व्यवहार-प्रतिमानों, संस्थाओं या नियन्त्रण की अव्यवस्था या अव्यवस्थित कार्यों को सामाजिक विघटन कहते हैं।”

फेयरचाइल्ड के अनुसार, “सामान्यतः विघटन से तात्पर्य व्यवस्थित सम्बन्धों और कार्यों की प्रणाली को नष्ट होना है।” आँगबर्न और निमकॉफ के अनुसार, “सामाजिक विघटन का तात्पर्य किसी सामाजिक इकाई; जैसे-समूह, संस्था अथवा समुदाय के कार्यों का भंग होना है।”

सामाजिक विघटन की उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सामाजिक संगठन की विरोधी अवस्था है जिसमें अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है और सामाजिक नियन्त्रण भंग हो जाता है। इस अवस्था में सामाजिक संरचना प्रकार्यात्मक सन्तुलन खो देती है और समाज के विभिन्न समूहों एवं संस्थाओं में असन्तुलन विकसित हो जाता है।

सामाजिक विघटन के लक्षण अथवा दशाएँ

सामाजिक विघटन के मुख्य लक्षण या दशाएँ निम्नलिखित हैं|
1. रूढ़ियों और संस्थाओं में संघर्ष-रूढ़ियाँ और संस्थाएँ समाज के संगठन को बनाये रखने में सक्षम होती हैं। जैसे ही रूढ़ियों और संस्थाओं में संघर्ष प्रारम्भ होता है वैसे ही समाज का ढाँचा छिन्न-भिन्न होने लगता है। यही प्रक्रिया सामाजिक विघटन को जन्म देती है। भारत में परिवार, विवाह, धर्म और संस्थाओं के स्वरूप में होने वाला परिवर्तन सामाजिक विघटन का प्रमाण है।

2. प्राचीन और नवीन पीढियों में संघर्ष-
सामाजिक परिवर्तन के फलस्वरूपं सामाजिक मूल्य, नैतिक आदर्श और धर्म की मान्यताएँ बदलने लगती हैं। प्राचीन पीढ़ी परम्परावादी तथा नयी पीढ़ी प्रगतिवादी होने के कारण इनमें संघर्ष हो जाता है। पीढ़ियों का यह संघर्ष सामाजिक विघटन को जन्म देता है। भारतीय समाज में प्रेम-विवाह, दूसरी जातियों में विवाह वे जाति पंचायतों का घटता महत्त्व सामाजिक विघटन के प्रतीक हैं।

3. समितियों के कार्यों का पारस्परिक हस्तान्तरण-
समाज में समितियों के कार्य एवं कर्तव्य निर्धारित थे, परन्तु परिवर्तन के कारण समितियों के कार्य दूसरी समितियों को हस्तान्तरित हो गये हैं। परिवार के गौण कार्य विद्यालय, मन्दिर व अस्पतालों को हस्तान्तरित होने से सामाजिक विघटन प्रारम्भ हो गया है।

4. व्यक्तिवाद का बोलबाला-
समाज में जब ‘हम’ के स्थान पर ‘मैं’ की भावना बलवती हो जाती है तब व्यक्तिवाद का नाग फन उठा लेता है, जो सामूहिक हित और कल्याण की भावना को डस लेता है। भौतिकवाद की चकाचौंध ने व्यक्तिवाद को जन्म देकर सामाजिक विघटन को बढ़ावा दिया है।

5. अपराधों में वृद्धि-
सामाजिक विघटन को ज्वलन्त प्रमाण है समाज में अपराधों का बढ़ जाना। बाल-विवाह, हत्या, यौन शोषण, वेश्यावृत्ति, बलात्कार, आत्महत्या, तलाक, भ्रष्टाचार, नशाखोरी आदि अपराध सामाजिक विघटन के कारण जन्म लेते हैं।

6. सामाजिक समस्याओं का उदय-सामाजिक विघटन सामाजिक समस्याओं के उदय का द्योतक है। जिस समाज में दहेज-प्रथा, बाल-विवाह, परदा-प्रथा, निर्धनता, बेरोजगारी, भिक्षावृत्ति तथा अत्यधिक जनसंख्या जैसी समस्याएँ मुँह बाये खड़ी हों, वहाँ समझ लेना चाहिए कि समाज सामाजिक विघटन की प्रक्रिया से गुजर रहा है।

7. परिस्थिति और भूमिका में अस्पष्टता-सामाजिक विघटन की प्रक्रिया के फलस्वरूप सदस्यों की परिस्थिति तथा भूमिका अस्पष्ट हो जाती है। इस प्रकार सदस्यों और संस्थाओं के मध्य सामंजस्य स्थापित न हो पाने के कारण सामाजिक विघटन को बढ़ावा मिलता है।

8. एकमत का अभाव-समाज के सदस्यों के मत में जब सार्वजनिक प्रश्नों पर एकमत का अभाव हो जाए तभी सामाजिक विघटन होने को सत्य मान लेना चाहिए। मार्टिन न्यूमेयर के शब्दों में, “जब एकमत व उद्देश्यों की एकता समाप्त हो जाती है, तब समाज में सामाजिक विघटन प्रारम्भ हो जाता है। ऐसी स्थिति में सामाजिक समस्याओं का हल एकमत होकर नहीं खोजा जा सकता।

यदि किसी समाज में उपर्युक्त लक्षण विद्यमान हैं तो स्पष्ट रूप में कहा जा सकता है कि वह समाज विघटित हो रहा है। उसमें विघटन की प्रक्रिया निरन्तर कार्यशील है अन्यथा वह संगठित है।

सामाजिक विघटन के कारण

सामाजिक विघटन के लिए निम्नलिखित कारण उत्तर:दायी हैं
1. सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन-समाज में होने वाले सामाजिक परिवर्तन भी सामाजिक विघटन का स्रोत हो सकते हैं। सामाजिक परिवर्तन के कारण व्यक्ति नये सांस्कृतिक मूल्यों को अपनाता है। इन मूल्यों को अपनाने से उसकी आदतें, रहन-सहन व जीवन-पद्धति बदलने लगती है। कई बार इससे समाज के प्राचीन व नवीन मूल्यों में संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है, जिसके कारण सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन मिलता है।

2. सामाजिक मनोवृत्तियाँ-सामाजिक मनोवृत्तियाँ या दृष्टिकोण भी सामाजिक विघटन का कारण होते हैं। इलियट तथा मैरिल के अनुसार, समाज के सदस्यों में सामाजिक घटनाओं के प्रति अलग-अलग दृष्टिकोण भी सामाजिक विघटन लाते हैं। सामाजिक दृष्टिकोण व्यक्तिगत चेतना की वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति की सामाजिक संसार में वास्तविक या सम्भावित क्रिया को निश्चित करती है। प्राचीन और नवीन पीढ़ी में संघर्ष कई बार दृष्टिकोण में भिन्नता के कारण ही होता है, जो सामाजिक विघटन लाता है। अत: नवीन व प्राचीन दृष्टिकोणों में संघर्ष की स्थिति सामाजिक विघटन लाती है।

3. सामाजिक मूल्य-सामाजिक मूल्यों का हमारे जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। जब व्यक्तिगत दृष्टिकोण व सामाजिक मूल्यों में अनुरूपता नहीं रहती अथवा इनमें सामंजस्य समाप्त हो जाता है, तो विघटन की स्थिति पैदा हो जाती है। मूल्य वे सामाजिक तथ्य होते हैं जो हमारे लिए कुछ अर्थ रखते हैं और जिन्हें जीवन की योजना के लिए हम महत्त्वपूर्ण समझते हैं। इन मूल्यों के बिना हम सामाजिक संगठन की कल्पना नहीं कर सकते हैं।

4. सामाजिक संकट-सामाजिक संकट भी समाज के सामान्य कार्यों में बाधा उत्पन्न करता है और इस प्रकार विघटन को प्रोत्साहन मिलता है। संकट से रीति-रिवाजों द्वारा संचालन में बाधा उत्पन्न हो जाती है और संघर्ष व विघटन की स्थिति विकसित हो जाती है। सामाजिक संकट के दो प्रमुख रूप हैं-आकस्मिक संकट तथा संचयी संकट। आकस्मिक संकट समाज में अचानक उत्पन्न होने वाला संकट है। प्राकृतिक प्रकोप (जैसे-अकाल, महामारी, बीमारी इत्यादि), आकस्मिक दुर्घटनाएँ (जैसे-रेल दुर्घटना, बाढ़ इत्यादि) तथा किसी महान् नेता की मृत्यु आदि ऐसे संकटों को प्रोत्साहन देते हैं। आकस्मिक संकट ऐसा परिवर्तन लाता है जिसके साथ व्यक्ति सामंजस्य स्थापित नहीं रख पाते और इस प्रकार इससे विघटन को प्रोत्साहन मिलता है। संचयी संकट समाज में धीरे-धीरे उत्पन्न होने वाला संकट है। जातिवाद, साम्प्रदायिकता, धार्मिकता इत्यादि संचयी संकट के उदाहरण हैं, जो पारिवारिक तनाव व विघटन को प्रोत्साहन देते हैं।

5. युद्ध-सामाजिक विघटन लाने में युद्ध का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। इलियट तथा मैरिल ने युद्ध को सामाजिक विघटन का तीव्रतम स्वरूप बताया है। युद्ध में सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है तथा अनेक सामाजिक बुराइयों में समस्याओं का जन्म होता है जिनसे सामाजिक विघटन पैदा हो जाता है।

6. आर्थिक कारण-सामाजिक विघटन लाने में आर्थिक कारकों का भी महत्त्वपूर्ण हाथ होता है। निम्नलिखित प्रमुख आर्थिक कारण सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन देते हैं

(अ) औद्योगीकरण-औद्योगीकरण उद्योगों के विकास की एक प्रक्रिया है, जिसके परिणामस्वरूप यान्त्रिकी, यातायात व संचार साधनों तथा कृषि की तकनीक में बड़ी तीव्रता से परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन भी कई बार व्यक्तिगत तथा पारिवारिक विघटन को प्रोत्साहन देकर सामाजिक विघटन लाते हैं।
(ब) बेरोजगारी-बेरोजगारी भी सामाजिक विघटन का एक प्रमुख आर्थिक कारण है। बेरोजगार व्यक्ति जब वैधानिक ढंग से रोजगार की सुविधाएँ प्राप्त नहीं कर पाते तो वे मनमाना व्यवहार करने लगते हैं और समाज की प्रथाओं से उनकी सहानुभूति समाप्त होने लगती है। उनमें मानसिक तनाव अधिक हो जाता है। ये सभी परिस्थितियाँ बेकार लोगों को विघटन के द्वार पर पहुँचा देती हैं।
(स) औद्योगिक बीमारियाँ एवं श्रम-समस्याएँ-औद्योगीकरण अनेक प्रकार की समस्याओं एवं बीमारियों में भी वृद्धि कर देता है। इनसे पहले व्यक्तिगत विघटने होता है, फिर पारिवारिक विघटन होता है और बाद में सामाजिक विघटन की स्थिति आ जाती है। श्रम-समस्याएँ भी सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन देती हैं।
(द) निर्धनता-निर्धनता भी सामाजिक विघटन का एक कारण है। जब निर्धन व्यक्तियों की आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो पातीं तो बहुत-से लोग मानसिक असन्तुलन का शिकार हो जाते हैं या गैर-कानूनी तरीकों से अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने का प्रयास करते हैं। इससे भी सामाजिक विघटन की स्थिति को प्रोत्साहन मिलता है।

7. धार्मिक कारण-धार्मिक कारणों से भी सामाजिक विघटन होता है। धार्मिक मान्यताएँ नवीन परिवर्तनों के अनुकूल नहीं रह पातीं तो तनावपूर्ण स्थिति हो जाती है, जो संघर्ष तथा विघटन को उत्पन्न करती है। अनेक बार धर्म सामाजिक परिवर्तनों को प्रोत्साहन देने लगता है अथवा इसका विरोध करने लगता है, तो भी संघर्षपूर्ण स्थिति पैदा हो जाती है और सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन मिलता है।

8. राजनीतिक कारण-राजनीतिक अस्थिरता, गुटबन्दी, सत्ता का कुछ व्यक्तियों या समूहों
के हाथों में केन्द्रित हो जाना, राजनीतिक भ्रष्टाचार तथा राजनीति में नैतिकता का ह्रास भी ऐसी परिस्थितियाँ विकसित कर देते हैं जो सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन देती हैं। जब | किसी समाज में राजनेता ही भ्रष्टाचार में लिप्त हों तो ऐसे समाज में विघटनकारी शक्तियों को प्रोत्साहन मिलना स्वाभाविक है। भारत में बोफोर्स काण्ड, यूरिया काण्ड, चारा-घोटाला तथा दवाई काण्ड इसके उदाहरण हैं।

सामाजिक विघटन का सामाजिक जीवन पर प्रभाव

सामाजिक विघटन सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों को प्रभावित करता है। सामाजिक विघटन से प्रभावित होने वाले प्रमुख पक्ष निम्नलिखित हैं

1. मानव के आचरण पर प्रभाव-सामाजिक विघटन मानव के आचरण पर पर्याप्त प्रभाव डालता है। विघटन के समय एक ओर, व्यक्ति अपने उत्तर:दायित्व को नहीं निभाते और अपने दायित्वों को दूसरे पर डालने लगते हैं तथा दूसरी ओर, अपने अधिकारों .. की अधिक-से-अधिक माँग करते हैं। सहयोग और सद्भावना के स्थान पर कलह का बोलबाला हो जाता है। आत्महत्या, अपराध, व्यभिचार, मद्यपान आदि सामाजिक विघटन के व्यक्तिगत परिणाम हैं।

2. नैतिक स्तर पर प्रभाव-सामाजिक विघटन का समाज के नैतिक स्तर पर भी प्रभाव पड़ता है। जिसे समाज में विघटन प्रारम्भ हो जाता है, उसके सदस्य अपने स्वार्थ के लिए नैतिकता की बलि दे डालते हैं। समाज में चोरी करना, रिश्वत लेना, अपहरण तथा डकैती एक आम बात हो गयी है। समाज के प्राचीन रीति-रिवाज भी लुप्त होने लगते हैं। व्यक्ति को उचित व अनुचित का ध्यान नहीं रहता और उनकी वृत्ति पापमयी हो जाती है।

3. धार्मिक व्यवस्था पर प्रभाव-धर्म समाज में व्यक्तियों को एक सूत्र में बाँधने का काम करता है, परन्तु धार्मिक परिवर्तनों ने व्यक्तियों के परस्पर सम्बन्धों को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। गिलिन तथा गिलिन के अनुसार, “धर्म के क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन व्यक्ति और धार्मिक समस्याओं में पाये जाने वाले मान्यता प्राप्त सम्बन्ध को प्रभावित करते हैं।”

4. राजनीतिक संस्थाओं पर प्रभाव-राजनीतिक संस्थाओं के विघटित हो जाने पर व्यक्तियों को अपने अधिकार प्राप्त नहीं होते और उनका जीवन भी सुरक्षित नहीं रह पाता है। राजनीतिक संस्थाओं पर अधिकार रखने वाले व्यक्ति समाज-हित की उपेक्षा कर अपने लाभ के कार्यों में लग जाते हैं। प्रत्येक राजनीतिक संस्था में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो जाता है और जनसाधारण की स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती है। सामाजिक विघटन के परिणामस्वरूप राजनीतिक अस्थिरता भी आ जाती है।

5. शिक्षा-व्यवस्था पर प्रभाव-सामाजिक विघटन होने पर शिक्षा-व्यवस्था भी भ्रष्ट हो जाती है और उसका स्वरूप उद्देश्यहीन हो जाता है। अध्यापक अपने पवित्र कर्तव्य को भूल जाते हैं और अध्यापन की अपेक्षा व्यक्तिगत स्वार्थ को महत्त्व देने लग जाते हैं। छात्र भी अध्ययन में रुचि न लेकर कर्तव्यहीन हो जाते हैं तथा हर स्थान पर अनुशासनहीनता का वातावरण बन जाता है।

6. राजनीतिक व्यवस्था पर प्रभाव-जब सामाजिक विघटन चरम सीमा तक पहुँच जाता है। तो इसका परिणाम क्रान्ति होता है। सरकार द्वारा जब जनता के अधिकारों की उपेक्षा की जाने लगती है तथा उसकी सुविधाओं का ख्याल न कर उस पर आवश्यकता से अधिक कर लगा दिये जाते हैं, तब जनता सरकार के विरुद्ध आन्दोलन या क्रान्ति करती है।

7. बेकारी का प्रसार-सामाजिक विघटन के परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में विकार आ जाता है, जिसके कारण समाज में बेकारी का प्रसार होता है, व्यक्तियों में असन्तोष बढ़ता है तथा अलगावपूर्ण प्रवृत्तियाँ विकसित होने लगती हैं।

सामाजिक संगठन तथा विघटन में अन्तर

1. सामाजिक संगठन की धारणा एक ऐसे परिवर्तनशील सामाजिक सन्तुलन का बोध कराती है जिसके अन्तर्गत सभी समूह तथा संस्थाएँ अपने पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों के अनुसार व्यवहार करके सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने में योगदान करते रहते हैं। सामाजिक विघटन का तात्पर्य किसी भी ऐसी स्थिति से है, जिसमें एक समूह के सदस्यों के सम्बन्ध टूट जाते हैं और इस प्रकार सामाजिक जीवन अव्यवस्थित हो जाता है। इस दृष्टिकोण से संगठन तथा विघटन की दशाएँ एक प्रक्रिया के रूप में क्रियाशील होने के बाद भी एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न हैं।

2. सामाजिक संगठन की एक अनिवार्य विशेषता किसी समूह के सदस्यों में एकमत होना, अर्थात्अ धिकतर विषयों के प्रति समान दृष्टिकोण प्रदर्शित करना है। विघटन की दशा में यह एकमत अनेक छोटे-छोटे तथा स्वार्थपूर्ण समूहों में विभाजित हो जाता है।

3. सामाजिक संगठन में नियोजन का गुण निहित है। समाज मनुष्यों के सक्रिय प्रयासों के बिना संगठित नहीं रह सकता। इसके विपरीत; विघटन के लिए व्यक्ति पृथक् अथवा नियोजित रूप से कोई प्रयत्न नहीं करते, बल्कि अज्ञात रूप से अनेक घटनाएँ समाज को विघटित करती रहती हैं।

4. उपर्युक्त अन्तर से यह भी स्पष्ट होता है कि सामाजिक संगठन की स्थापना विकास की एक लम्बी प्रक्रिया के बाद ही सम्भव हो पाती है। तुलनात्मक रूप से विघटन की दशा उत्पन्न होने में बहुत कम समय लगता है।

5. सामाजिक संगठन की दशा में सभी सदस्यों की स्थिति तथा भूमिका सुनिश्चित रहती है। और अधिकांश व्यक्ति समूह की आशाओं के अनुसार अपनी भूमिका का निर्वाह करते रहते हैं। दूसरी ओर, विघटन की दशा में व्यक्ति की भूमिका तथा स्थिति के बीच एक सामान्य असन्तुलन स्पष्ट होने लगता है।

6. सामाजिक संगठन का अभिप्राय सामाजिक नियन्त्रण की व्यवस्था का प्रभावपूर्ण बने रहना है। इसके विपरीत, नियन्त्रण के साधनों में जब दिखावा (Formalism) उत्पन्न हो जाता है, तब इसी दशा को हम विघटन कहते हैं।

7. सामाजिक संगठन तार्किक है, जब कि सामाजिक विघटन अतार्किक और भावनात्मक है। इसका तात्पर्य यह है कि संगठन के अन्तर्गत व्यक्ति के व्यवहार सामाजिक मूल्यों के अनुरूप होते हैं तथा व्यक्ति के व्यवहारों को सरलता से समझा जा सकता है। विघटन की दशा में अनिश्चितता, भ्रम तथा विवेकशून्यता इतनी बढ़ जाती है कि किसी भी व्यक्ति के व्यवहारों | का पूर्वानुमान कर सकना अत्यधिक कठिन हो जाता है।

8. संगठन वांछित है और विघटन अवांछित। इसके पश्चात् भी ये दोनों दशाएँ कम या अधिक मात्रा में प्रत्येक समाज में साथ-साथ क्रियाशील रहती हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हमें संगठन के प्रति सचेत रहते हैं, जब कि परिवर्तन की प्रक्रिया विघटनकारी दशाओं को भी उत्पन्न करती रहती है।

प्रश्न 2
भारत में सामाजिक विघटन से सम्बन्धित कुछ प्रमुख समस्याओं की विवेचना कीजिए।
या
भारत में सामाजिक अपराध की समस्याओं पर प्रकाश डालिए। [2010]
उत्तर:
भारत में सामाजिक विघटन से सम्बन्धित समस्याओं को वैयक्तिक विघटन, पारिवारिक विघटन तथा सामुदायिक विघटन के आधार पर निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है–
1. वैयक्तिक विघटन से सम्बन्धित समस्याएँ-इन समस्याओं में प्रमुख हैं

  1. समायोजन की समस्या–देश में भौतिक स्थितियाँ तेजी से बदल रही हैं। घर-घर में फ्रिज, कारें, टेलीविजन आदि देखने को मिलते हैं। परन्तु अभौतिक परिस्थितियों में बहुत कम परिवर्तन हुए हैं। अधिकांश लोग पुरानी रूढ़ियों, अन्धविश्वासों तथा धार्मिक मान्यताओं में जकड़े पड़े हैं। साधारण व्यक्ति भौतिक तथा अभौतिक स्थितियों में सामंजस्य स्थापित नहीं कर पा रहा। परिणामस्वरूप व्यक्ति चिन्ता, निराशा, अभाव व असुरक्षा से ग्रस्त हो गया है।
  2. आर्थिक विषमता की समस्या-भारत में एक ओर राजनीतिज्ञ, प्रशासनिक अधिकारी एवं अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति भोग-विलासमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। तो दूसरी ओर सामान्य व्यक्ति आर्थिक अभाव से ग्रस्त हैं। वह कुण्ठावश अपनी आवश्यकताओं में वृद्धि करता है और उनकी पूर्ति हेतु भ्रष्ट या समाज-विरोधी तरीके अपनाने से नहीं चूकता। परिणामस्वरूप वह पारिवारिक कलह, भ्रष्टाचार, ऋणग्रस्तता की पकड़ में आकर विघटित होता है।
  3. भौतिकवाद की समस्या-भारत में भी पश्चिमी देशों की तरह भौतिकवाद समाज पर हावी होता जा रहा है। व्यक्ति के चारों ओर भौतिक सामग्री, सुखमय व विलासी जीवन बिखरा पड़ा है। उससे लालायित होकर व्यक्ति अपराध के रास्ते पर जाकर भौतिक सुख भोगने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ती। परिणामस्वरूप बाल-अपराध, वेश्यावृत्ति, मद्यपान, मादक द्रव्य व्यसन, पागलपन, आत्महत्या, भिक्षावृत्ति, विवाह-विच्छेद के रूप में व्यक्ति का विघटन हो रहा है।

2. पारिवारिक विघटन सम्बन्धी समस्याएँ-हमारे देश में भौतिकवाद के प्रति झुकाव तथा संयुक्त परिवार के बिखराव के परिणामस्वरूप पारिवारिक विघटन सम्बन्धी अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं। परिवार में स्नेह, प्रेम, सहयोग, सद्भाव जैसे गुणों का अभाव होता जा रहा है, जो पारिवारिक विघटन का रूप ले रहा है। पारिवारिक विघटन निम्नलिखित समस्याओं को जन्म दे रहा है

  • सदस्यों में हितों की एकता का अभाव,
  • पारिवारिक उद्देश्यों की एकता का अभाव,
  • यौन-इच्छाओं की पूर्ति परिवार के बाहर,
  • विरोधी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएँ।

3. सामुदायिक विघटन सम्बन्धी समस्याएँ-सामुदायिक विघटन वह स्थिति है जिसमें उसका स्वाभाविक जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है, उसमें असन्तुलन आ जाता है। सामुदायिक विघटन के कारक हैं-सामाजिक परिवर्तन, संघर्ष, व्यक्तिवाद, संस्थागत रूढ़िवादिता, राजनीतिक भ्रष्टाचार तथा गतिशीलता। सामुदायिक विघटन जो समस्याएँ उत्पन्न करता है, वे हैं-युद्ध व हिंसा, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, क्षेत्रवाद आदि।

प्रश्न 3
वैयक्तिक विघटन से क्या अभिप्राय है? इसके प्रमुख स्वरूपों की विवेचना कीजिए।
या
वैयक्तिक विघटन किसे कहते हैं? इसका प्रभाव लिखिए। [2016]
उत्तर:

वैयक्तिक विघटन

व्यक्ति के जीवन संगठन का अव्यवस्थित होना ही वैयक्तिक विघटन है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति के व्यक्तित्व का समाज की मान्यताओं के अनुरूप विकास नहीं हो पाता है। इस प्रकार का असन्तुलित व्यक्तित्व ही वैयक्तिक विघटन के लिए उत्तर:दायी है। वैयक्तिक विघटन वह स्थिति है जिसमें असन्तुलित व्यक्तित्व के कारण व्यक्ति समाज द्वारा मान्य व्यवहार-प्रतिमानों के विपरीत आचरण करता है। वैयक्तिक विघटन को परिभाषित करते हुए इलियट और मैरिल ने लिखा है, “समाज के नियमों एवं समाज के साथ तादात्मीकरण न होना ही वैयक्तिक विघटन है।”

माउरर के अनुसार, “सभी वैयक्तिक विघटन व्यक्ति के उन आचरणों का प्रतिनिधित्व करता है, जो संस्कृति द्वारा स्वीकृत आदर्श प्रतिमान से इतना अधिक विचलित होते हैं कि उन्हें सामाजिक दृष्टि से अमान्य माना जाता है।”

लेमर्ट ने बताया कि वैयक्तिक विघटन वह दशा या प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति अपनी मुख्य भूमिका के चारों ओर अपने व्यवहार को सुस्थिर नहीं कर पाता है। उसकी भूमिका के चुनाव की प्रक्रिया में संघर्ष या भ्रम बना रहता है। ऐसा विघटन कुछ समय के लिए भी हो सकता है और निरन्तर भी बना रह सकता है।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि

  1. वैयक्तिक विघटन व्यक्ति के व्यक्तित्व की असन्तुलित अवस्था है,
  2. इसमें व्यक्ति समाज एवं संस्कृति द्वारा स्वीकृत आदर्श-प्रतिमानों के प्रतिकूल आचरण करता है,
  3. सामाजिक दृष्टि से इसमें व्यक्ति अपने जीवन-संगठन में व्यवधान उत्पन्न करके उसे भंग कर लेता है,
  4. वैयक्तिक विघटन की स्थिति में व्यक्ति के अन्य व्यक्तियों, परिवार मित्रों, साथियों एवं समाज के साथ सम्बन्ध ढीले पड़ जाते हैं। विघटित व्यक्तित्व वाला व्यक्ति समाज की अपेक्षाओं के अनुकूल भूमिका नहीं निभा पाता है,
  5. ऐसा व्यक्ति समूह से कट जाता है, अपने को अकेला महसूस करता है, भावनात्मक दृष्टि से अपने को असुरक्षित पाता है।

वैयक्तिक विघटन सम्बन्धित स्वरूप-यहाँ हम वैयक्तिक विघटन के उन स्वरूपों पर ही विचार करेंगे जो प्रमुखतः सामाजिक कारकों के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं। जब व्यक्ति के जीवनसंगठन का विघटन होता है तो उसका प्रकटीकरण बाल-अपराध, अपराध, यौन-अपराध, मद्यपान, पागलपन और आत्महत्या के रूप में होता है। इलियट और मैरिल ने बताया है कि वैयक्तिक विघटने के स्वरूप, एक अथवा दूसरे प्रकार से, व्यक्तियों के सन्तोषप्रद जीवन-संगठन को प्राप्त करने की असमर्थता को व्यक्त करते हैं। ऐसे व्यक्ति अनेक कारणों से समूह की अपेक्षाओं के अनुरूप भूमिकाएँ अदा करने में असमर्थ रहते हैं। परिणामस्वरूप उनका जीवन-संगठन असन्तुलित हो जाता है और वैयक्तिक विघटन की स्थिति उत्पन्न होती है। जब परिस्थितियाँ व्यक्तियों को उन कार्यों को करने को बाध्य कर देती हैं जिनके लिए वे शारीरिक एवं स्वभावगत रूप से अयोग्य हैं। तो ऐसी स्थिति में उनके व्यक्तित्व विघटित हो जाते हैं।

माउरर ने वैयक्तिक विघटन के आधार पर व्यक्तित्व के दो प्रकार बताये हैं
1. सृजनात्मक व्यक्तित्व-प्रायः व्यक्ति की अति-संवेदनशीलता उसे ऐसे कार्य करने को प्रोत्साहित करती है, जो सामान्य लोगों को स्वीकार नहीं होते। ऐसी स्थिति में व्यक्ति की सृजनात्मकता उसके वैयक्तिक विघटन का कारण बन जाती है। जब इस प्रकार के व्यक्तियों को समाज द्वारा किसी प्रकार की मान्यता प्राप्त नहीं होती तो अति संवेदनशीलता के कारण इनके अहम् को चोट लगती है, गहरा मानसिक आघात लगता है तथा ये अपने आप को अकेला, उदासीन व निराश पाते हैं। इनमें अलगाव की भावना उत्पन्न हो जाती है। परिणामस्वरूप ऐसे व्यक्तियों को वैयक्तिक जीवन विघटित हो जाता है। इन लोगों में शिक्षाशास्त्री, साहित्यकार, संगीतकार, कलाकार, लेखक और समाज-सुधारक प्रमुख हैं। इनको तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है-

  • सुधारक,
  • विद्रोही और क्रान्तिकारी तथा
  • असहयोगी व्यक्ति।

2. व्याधिकीय व्यक्तित्व-व्याधिकीय व्यक्तित्व के अन्तर्गत उन लोगों को सम्मिलित किया जाता है जो शारीरिक दुर्बलताओं, मानसिक कमियों या दोषों अथवा स्नायविक विचार के कारण वैयक्तिक विघटने का शिकार बनते हैं। शारीरिक दोषों; जैसे-अंग-भंग, अन्धेपन, बहरेपन, लंगड़ेपन के कारण कई बार व्यक्ति अन्य लोगों के साथ सहजभाव से अनुकूलन नहीं कर पाता। इस दशा में उसे अन्य लोगों से प्रेम और स्नेह नहीं मिल पाता तथा वह मानसिक असुरक्षा अनुभव करता है। ऐसी स्थिति में उसके व्यक्तित्व का सामान्य विकास रुक जाता है तथा वह हीन-भावना से ग्रसित हो जाता है। इस दशा में वह समाज के आदर्श-प्रतिमानों के विपरीत आचरण करने लगता है तथा वह समाज-विरोधी कार्य करने से भी नहीं चूकता। परिणामस्वरूप उसका वैयक्तिक विघटन हो जाता है।

प्रश्न 4
सामाजिक विघटन की परिभाषा दीजिए। भारत में पारिवारिक विघटन के कारणों का उल्लेख कीजिए।
या
सामाजिक विघटन की परिभाषा दीजिए।
सामाजिक विघटन से पारिवारिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है भारत में पारिवारिक विघटन के प्रमुख कारण भी बताइए।
या
सामाजिक विघटन का पारिवारिक जीवन पर प्रभाव स्पष्ट कीजिए। [2007]
उत्तर:

सामाजिक विघटन की परिभाषाएँ

विभिन्न विद्वानों ने सामाजिक विघटन को निम्न शब्दों में स्पष्ट करने का प्रयास किया है–
फैरिस के अनुसार, “सामाजिक विघटन व्यक्तियों के बीच प्रकार्यात्मक सम्बन्धों के उस मात्रा में टूट जाने को कहते हैं जिससे समूह के स्वीकृत कार्यों को पूरा करने में बाधा पड़ती है।”

थॉमस एवं नैनिकी के अनुसार, “सामाजिक विघटन समूह के सदस्यों पर से मौजूदा नियमों के प्रभाव का कम होना है।”

लेमर्ट के अनुसार, “सामाजिक संस्थाओं एवं समूहों के बीच असन्तुलन तथा व्यापक संघर्ष पैदा हो जाने का नाम सामाजिक विघटन है।”

पी० एच० लैंडिस के अनुसार, “सामाजिक विघटन में मुख्यतया सामाजिक नियन्त्रण का भंग होना होता है, जिससे अव्यवस्था और विभ्रम पैदा होता है।”

लेपियर और फार्क्सवर्ग के अनुसार, “विघटन विशेष रूप से सामाजिक संरचना के अन्दर उत्पन्न हुए असन्तुलन की ओर संकेत करता है।”

गिलिन और गिलिन के अनुसार, “सामाजिक विघटन से हमारा तात्पर्य सम्पूर्ण सांस्कृतिक ढाँचे के विभिन्न तत्त्वों के बीच ऐसा असन्तुलन उत्पन्न होना है जो समूह के अस्तित्व को ही खतरे में डाल देता है या समूह के सदस्यों की भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने में इतनी गम्भीर बाधाएँ उत्पन्न करता है कि उससे सामाजिक एकता नष्ट हो जाती है।”

सामाजिक विघटन की उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सामाजिक संगठन की विरोधी अवस्था है जिसमें अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है और सामाजिक नियन्त्रण भंग हो जाता है। इस अवस्था में सामाजिक संरचना प्रकार्यात्मक सन्तुलन खो देती है और समाज के विभिन्न समूहों एवं संस्थाओं में असन्तुलन विकसित हो जाता है।

भारत में पारिवारिक विघटन के कारण

पारिवारिक विघटन के चार मुख्य कारण निम्नलिखित हैं।

  1. औद्योगीकरण एवं नगरीकरण-औद्योगीकरण के कारण लोग रोजगार की तलाश में औद्योगिक नगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। साथ-साथ नगरीय जीवन की चमक-दमक तथा आरामदायक जिन्दगी भी मनुष्यों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है। ये दोनों ही पारिवारिक विघटन के मुख्य कारक हैं।
  2. आर्थिक आत्मनिर्भरता के प्रति झुकाव-आज का नवयुवक वर्ग संयुक्त परिवार की आर्थिक व्यवस्था सहन नहीं कर पाता है। उसके विचारों की आर्थिक आत्मनिर्भरता तथा आर्थिक स्वतन्त्रता ने प्रमुख स्थान धारण कर लिया है। इस कारण भी पारिवारिक विघटन को बेल मिल रहा है।
  3. द्वेष एवं कलह से मुक्ति-आज संयुक्त परिवारों का वातावरण बड़ा बोझिल हो गया है। सदस्यों के सम्बन्ध औपचारिक होते जा रहे हैं तथा आत्मीयता कम होती जा रही है। इस कारण भी पारिवारिक विघटन बढ़ रहा है।
  4. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के प्रति आकर्षण-अधिक सदस्य होने के कारण संयुक्त परिवार में नवविवाहित दम्पती को भी कई बार स्वतन्त्र रूप से मिलना कठिन होता है। फिर यहाँ कर्ता का स्थान इतना अधिक प्रमुख होता है कि प्रत्येक सदस्य अपने को पराधीन अनुभव करता है तथा स्वतन्त्रता के लिए लालायित रहता है। इस कारण भी पारिवारिक विघटन हो रहा है।

सामाजिक विघटन का पारिवारिक जीवन पर प्रभाव

सामाजिक विघटन पारिवारिक जीवन को भी नष्ट एवं अस्त-व्यस्त कर देता है। एक तरफ पारिवारिक विघटन सामाजिक विघटन को जन्म देता है तो दूसरी तरफ, सामाजिक विघटन पारिवारिक विघटन भी पैदा करता है। सामाजिक विघटन परिवार पर निम्नांकित प्रभाव डालता है-

  1. तलाक-सामाजिक विघटन के कारण पति अपनी पत्नी और बच्चों का भरण-पोषण नहीं कर पाता, गरीबी तथा बेकारी के कारण उनमें मनमुटाव एवं संघर्ष पैदा होता है और वे परस्पर तलाक ले लेते हैं। ऐसी स्थिति में बच्चों का समुचित रूप से पालन नहीं हो पाता और वे बिगड़ जाते हैं।
  2. अवैध सन्ताने-सामाजिक विघटन के कारण व्यक्तिगत स्वतन्त्रता व यौन-स्वच्छन्दता बढ़ जाती है, गरीबी एवं बेकारी के कारण स्त्रियाँ वेश्यावृत्ति अपनाने लगती हैं, इससे अवैध सन्ताने पैदा होने लगती हैं।
  3. पॉरिवारिक तनाव एवं संघर्ष-सामाजिक विघटन के कारण पारिवारिक मूल्यों एवं आदर्शों को ह्रास हो जाता है, नियन्त्रण शिथिल हो जाता है; अतः परिवार में तनाव वे संघर्ष बढ़ जाता है। परिवार में पिता की सत्ता की अवहेलना होने लगती है, स्त्रियों में स्वच्छन्दता आ जाती है, बच्चे उद्दण्ड हो जाते हैं और आवारागर्दी करने लगते हैं। ये सभी स्थितियाँ परिवार में तनाव और संघर्ष पैदा करती हैं।

प्रश्न 5
सामाजिक विघटन की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए इसके प्रमुख प्रकार बताइए। [2007, 16]
या
सामाजिक विघटन क्या है? इसके प्रमुख स्वरूपों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:

सामाजिक विघटन की अवधारणा

प्रत्येक समाज की संरचना में बहुत-से छोटे-बड़े समूहों, संस्थाओं तथा सदस्यों की अन्तक्रियाओं का योगदान रहता है। इनमें से प्रत्येक समूह तथा संस्था के अपने-अपने कुछ पूर्व-निर्धारित प्रकार्य होते हैं। यह प्रकार्य व्यक्ति को अपनी स्थिति के अनुरूप भूमिका निभाने की प्रेरणा ही नहीं देते बल्कि सामाजिक व्यवस्था की उपयोगिता को भी बनाये रखते हैं। किन्हीं विशेष परिस्थितियों में जब सामाजिक संरचना इस तरह टूट जाती है कि इसकी एक इकाई दूसरी की पूरक नहीं रह जाती, अथवा उसके कार्यों में बाधा डालने लगती है तो सामाजिक व्यवस्था में असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है। यही स्थिति सामाजिक विघटन की स्थिति होती है। अध्ययन की सरलता के लिए इस स्थिति को एक उदाहरण की सहायता से समझा जा सकता है। प्राणी की शरीर-रचना सावयवी व्यवस्था का एक सुन्दर उदाहरण है। इस व्यवस्था का निर्माण अनेक छोटे-बड़े अंगों, नाड़ी-व्यवस्था, रक्त संचालन तथा चयापचय की प्रक्रिया के द्वारा होता है। सावयवी व्यवस्था के अन्तर्गत इनमें से कोई भी इकाई यदि अपना कार्य करना बन्द कर दे अथवा दूसरे अंगों की क्रियाशीलता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने लगे तो सम्पूर्ण शरीर अस्वस्थ हो जाता है। इस स्थिति को हम सावयवी विघटन कहते हैं।

सामाजिक विघटन क्या है?

प्रत्येक समाज में व्यवस्था एवं संगठन पाया जाता है। सभी समाजों में व्यक्ति अपने पूर्व-निश्चित पदों के अनुरूप भूमिका निभाते हैं, नियन्त्रण की व्यवस्था का पालन करते हैं और उद्देश्यों में साम्यता एवं एकमत्य पाया जाता है, किन्तु नवीन परिवर्तनों एवं अन्य कारणों से जब समाज की एकता नष्ट होने लगती है, नियन्त्रण व्यवस्था शिथिल होने लगती है, समाज में तनाव और संघर्ष बढ़ जाता है, लोगों में निराशा बढ़ जाती है और पारस्परिक अविश्वास पैदा हो जाता है, समाज में अस्थिरता और विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, तब सामूहिक जीवन नष्ट होने लगता है, तो इस स्थिति को हम सामाजिक विघटन कहते हैं। सामाजिक विघटन सामाजिक संगठन की विपरीत स्थिति है। अन्य शब्दों में, सामाजिक विघटन का तात्पर्य व्यवस्था के टूट जाने अथवा सामाजिक संरचना के विभिन्न भागों में एकता के अभाव से है।

सामाजिक विघटन के प्रकार अथवा स्वरूप

सामाजिक विघटन के प्रकार या स्वरूप निम्नलिखित होते हैं
1. वैयक्तिक विघटन-वैयक्तिक विघटन में व्यक्ति विशेष का विघटन होता है। इसके अन्तर्गत बाल-अपराध, युवा अपराध, पागलपन, मद्यपान, वेश्यावृत्ति, आत्महत्या आदि की समस्याओं को सम्मिलित किया जाता है। यदि किसी समाज में वैयक्तिक विघटन की दर बढ़ जाती है तो वह समाज भी विघटित होने लगता है।
2. पारिवारिक विघटन-जब पति-पत्नी और परिवार के अन्य लोगों के सम्बन्धों में तनाव चरम सीमा पर पहुँच जाता है तो पारिवारिक विघटन आरम्भ हो जाता है। पारिवारिक विघटन में तलाक, अनुशासनहीनता, गृहकलह, पृथक्करण आदि समस्याओं का समावेश होता है। ये समस्याएँ परिवार के स्वरूप एवं विघटन को ही बल देती हैं।
3. सामुदायिक विघटन-जब सम्पूर्ण समुदाय में विघटन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है तो वह सामुदायिक विघटन कहलाता है। सामुदायिक विघटन में बेकारी, निर्धनता, राजनीतिक भ्रष्टाचार तथा अत्याचार जैसी समस्याओं का समावेश रहता है।
4. अन्तर्राष्ट्रीय विघटन-जब अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के विरुद्ध राष्ट्र आचरण करने लगते हैं तो अन्तर्राष्ट्रीय विघटन प्रारम्भ हो जाता है। बड़े एवं शक्तिशाली राष्ट्र, छोटे एवं कमजोर राष्ट्रों को हड़पने का प्रयास करने लगते हैं। साम्राज्यवाद, क्रान्ति, आक्रमण, युद्ध तथा सर्वाधिकारवाद इसके उदाहरण हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक मनोवृत्तियों में आ रहे परिवर्तन, सामाजिक विघटन को कैसे प्रभावित कर
उत्तर:
सामाजिक मनोवृत्ति का तात्पर्य समाज की किसी विशेष परिस्थिति के प्रति व्यक्ति की मनोदशा से है। किसी वस्तु, घटना, समस्या आदि के बारे में व्यक्ति के विचार या दृष्टिकोण ही उसकी मनोवृत्ति कहलाती है। सामाजिक मनोवृत्ति का सम्बन्ध सामाजिक जागरूकता से है। ये सामाजिक मनोवृत्तियाँ समाज के नियमों, कानूनों के आदर्शों के आधार पर ही विकसित होती हैं। थॉमस एवं नैनिकी का मत है कि जब सामाजिक मनोवृत्तियों में परिवर्तन होता है तो सामाजिक विघटन उत्पन्न होता है, क्योंकि मनोवृत्तियों में परिवर्तन होने पर नियमों, कानूनों और आदर्शों का प्रभाव भी समाप्त होने लगता है, अर्थात् पुराने आदर्श व नियम परिवर्तित होने लगते हैं, इससे मनोवृत्तियों में भी परिवर्तन आता है जिससे विघटन पैदा होता है। उदाहरण के लिए, भारत में विवाह, जाति, स्त्रियों की स्थिति, संयुक्त परिवार आदि के बारे में परम्परागत मनोवृत्तियों में परिवर्तन आया है। अब अन्तर्जातीय विवाह को बुरा नहीं माना जाता, लोग छोटे परिवारों को पसन्द करते हैं, स्त्रियों को आज अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त है। इन सभी के परिणामस्वरूप समाज में तनाव एवं विघटन की स्थिति उत्पन्न हो रही है।

प्रश्न 2
सामाजिक विघटन के कारक के रूप में औद्योगीकरण की क्या भूमिका है ?
या
औद्योगीकरण सामाजिक विघटन को कैसे बढ़ावा देता है? [2015]
उत्तर:
उत्पादन के क्षेत्र में मशीनों के प्रयोग ने औद्योगीकरण को जन्म दिया और औद्योगीकरण ने पूँजीवाद, साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद को। औद्योगीकरण के कारण उत्पादन बड़ी-बड़ी मशीनों से होने लगता है, कुटीर उद्योग नष्ट हो जाते हैं, छोटे उत्पादक श्रमिक बन जाते हैं, औद्योगिक केन्द्रों में हजारों की संख्या में मजदूर रहने लगते हैं, जिससे गन्दी बस्तियों का निर्माण होता है। मजदूर अपनी मांगों को मनवाने के लिए हड़ताल, तोड़फोड़ व घेराव करते हैं। पूँजीपति मजदूरों का शोषण करते हैं, इससे गरीबी बढ़ती है। मशीनों की सहायता से बड़ी मात्रा में तीव्र गति से उत्पादन होने से बाजारों में माल भर जाता है। गरीबी के कारण उसे खरीदने वाले ग्राहक नहीं मिलते; अतः पूँजीपतियों को कारखानों को बन्द कर देना पड़ता है। इससे आर्थिक संकट और तनाव बढ़ता है। इस प्रकार की स्थिति समाज में विघटन उत्पन्न करती है।

प्रश्न 3
क्या भारतीय समाज (भारतीय सामाजिक जीवन) विघटित है ?
उत्तर:
किसी भी समाज को विघटित कहें या नहीं, इसका मूल्यांकन उन तत्त्वों या लक्षणों की उपस्थिति और अनुपस्थिति के आधार पर किया जाना चाहिए जो विघटन को प्रकट करते हैं। वैसे तो संगठन और विघटन की थोड़ी-बहुत मात्रा सभी समाजों में मौजूद होती है। कोई भी समाज ने तो पूरी तरह संगठित ही होता है और न पूर्णतः विघटित ही। भारतीय समाज में भी विघटन की तीव्र गति अंग्रेजों के काल से प्रारम्भ हुई मानी जा सकती है। अंग्रेजों ने भारतीयों का आर्थिक शोषण किया, यहाँ के कुटीर उद्योगों को नष्ट कर दिया तथा भारतीय समाज व संस्कृति में अनेक पश्चिमी प्रथाओं, मूल्यों और विश्वासों को स्थापित किया। परिणामस्वरूप भारतीय अपनी मूल संस्कृति को त्यागने लगे। यदि हम गरीबी, बेकारी, वेश्यावृत्ति, मद्यपान, जुआ, डकैती, अपराध, बाल-अपराध, हड़ताल, प्रदर्शन, घेराव, तालाबन्दी, आतंकवादी गतिविधियाँ, तोड़फोड़, हत्या आदि के आँकड़ों पर एक नजर डालें तो पाएँगे कि इनमें दिनोंदिन वृद्धि हुई है। तलाक एवं विघटित परिवारों की संख्या बढ़ी है। जातिवाद, साम्प्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रवाद व भ्रष्टाचार में वृद्धि हुई है; नैतिकता और राष्ट्रीय चरित्र में गिरावट आयी है। राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में ह्रास हुआ है और हम अध्यात्मवाद से परे हटकर दिनोंदिन भौतिकवादी होते जा रहे हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक विघटन क्या है? परिभाषित कीजिए।
उत्तर:

सामाजिक विघटन क्या है?

प्रत्येक समाज में व्यवस्था एवं संगठन पाया जाता है। सभी समाजों में व्यक्ति अपने पूर्व-निश्चित पदों के अनुरूप भूमिका निभाते हैं, नियन्त्रण की व्यवस्था का पालन करते हैं और उद्देश्यों में साम्यता एवं एकमत्य पाया जाता है, किन्तु नवीन परिवर्तनों एवं अन्य कारणों से जब समाज की एकता नष्ट होने लगती है, नियन्त्रण व्यवस्था शिथिल होने लगती है, समाज में तनाव और संघर्ष बढ़ जाता है, लोगों में निराशा बढ़ जाती है और पारस्परिक अविश्वास पैदा हो जाता है, समाज में अस्थिरता और विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, तब सामूहिक जीवन नष्ट होने लगता है, तो इस स्थिति को हम सामाजिक विघटन कहते हैं। सामाजिक विघटन सामाजिक संगठन की विपरीत स्थिति है। अन्य शब्दों में, सामाजिक विघटन का तात्पर्य व्यवस्था के टूट जाने अथवा सामाजिक संरचना के विभिन्न भागों में एकता के अभाव से है। इलियट एवं मैरिल के अनुसार, “सामाजिक विघटन वह प्रक्रिया है, जिसमें एक समूह के सदस्यों के बीच सामाजिक सम्बन्ध टूटते अथवा नष्ट हो जाते हैं।”

प्रश्न 2
पारसन्स के अनुसार सामाजिक विघटन का प्रमुख लक्षण क्या है ?
उत्तर:
पारसन्स ने प्रस्थिति तथा भूमिका की अनिश्चितता को सामाजिक विघटन का एक प्रमुख लक्षण माना है। उनका मानना है कि जहाँ समाज के अधिकतर व्यक्तियों की प्रस्थितियों और भूमिकाओं के बीच असन्तुलन पाया जाता है, वहाँ सामाजिक विघटन की दशा पायी जाती है। इस असन्तुलन के कारण सामाजिक संस्थाओं और उसके सदस्यों के बीच सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता।

प्रश्न 3
सामाजिक विघटन के कारण लिखिए। [2013]
या
सामाजिक विघटन के दो प्रमुख कारक बताइए।
उत्तर:
सामाजिक विघटन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  1. सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन,
  2. सामाजिक मनोवृत्तियाँ (नवीन व प्राचीन दृष्टिकोणों में संघर्ष),
  3. सामाजिक मूल्य,
  4. सामाजिक संकट,
  5. युद्ध,
  6. आर्थिक कारण,
  7. धार्मिक कारण,
  8. राजनीतिक कारण।

प्रश्न 4
सामाजिक विघटन के कारक के रूप में युद्ध की क्या भूमिका है ?
उत्तर:
सामाजिक विघटन के लिए युद्ध प्रमुख रूप से उत्तर दायी है। युद्धकाल में जन-धन की हानि होती है, वस्तुओं की कमी के कारण महँगाई बढ़ने लगती है, उत्पादन एवं अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार बन्द हो जाता है, बेकारी और गरीबी फैलती है, वेश्यावृत्ति पनपती है तथा बाल-अपराध और बढ़ जाते हैं, स्त्रियाँ विधवा और बच्चे अनाथ हो जाते हैं, परिवार एवं विवाह-सम्बन्ध टूट जाते हैं, नियमहीनता पैदा हो जाती है और समाज अनेक सामाजिक व आर्थिक समस्याओं से ग्रसित हो जाता है। दो विश्व युद्धों से यूरोप में ऐसी ही स्थिति हो गयी थी, जिसे हम सामाजिक विघटन के रूप में चित्रित कर सकते हैं।

प्रश्न 5
सामाजिक विघटन का परिवार पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
सामाजिक विघटन के कारण पारिवारिक मूल्यों एवं आदर्शों का ह्रास हो जाता है, नियन्त्रण शिथिल हो जाता है; अतः परिवार में तनाव व संघर्ष बढ़ जाता है। परिवार में पिता की सत्ता की अवहेलना होने लगती है, स्त्रियों में स्वच्छन्दता आ जाती है, बच्चे उद्दण्ड हो जाते हैं और आवारागर्दी करने लगते हैं। ये सभी स्थितियाँ परिवार में तनाव और संघर्ष पैदा करती हैं।

प्रश्न 6
सामाजिक विघटन अपराधों को कैसे जन्म देता है ?
या
“सामाजिक विघटन अपराध वृद्धि का प्रधान कारण है।” स्पष्ट कीजिए। [2013]
उत्तर:
अपराध सामाजिक विघटन का प्रधान कारण व परिणाम दोनों है। सामाजिक विघटन मनुष्य के आचरण पर पर्याप्त प्रभाव डालता है। विघटन के समय व्यक्ति अपने उत्तर:दायित्व को नहीं निभा पाते और अपने दायित्वों को दूसरे पर डालते रहते हैं। परिवार में सहयोग और सद्भावना के स्थान पर कलह का बोलबाला हो जाता है। परिणामस्वरूप बच्चों पर माता-पिता का नियन्त्रण शिथिल हो जाता है और उन्हें कम उम्र में ही कमाने के लिए भेज दिया जाता है। बच्चे बाहर रहकर बीड़ी, सिगरेट व शराब पीने, चोरी करने, जुआ खेलने आदि की बुरी आदतों को सीख लेते हैं और अपराध करने लगते हैं।

प्रश्न 7
आत्महत्या किस प्रकार का विघटन है ?
या
वैयक्तिक विघटन क्या है ? इसकी पराकाष्ठा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक विघटन न केवल समुदाय तथा पारिवारिक जीवन को प्रभावित करता है, बल्कि व्यक्तिगत जीवन को भी प्रभावित करता है। सामाजिक विघटन अपराधों को जन्म देता है। जब समाज में बेकारी, निर्धनता, महँगाई और अपराधों में वृद्धि हो जाती है तो व्यक्ति के विघटन की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। व्यक्ति के विघटन की अभिव्यक्ति अपराध, मद्यपान, वेश्यावृत्ति व भ्रष्टाचार के रूप में होती है। आत्महत्या व्यक्तिगत विघटन की चरम सीमा होती है।

प्रश्न 8
सामाजिक विघटन के कारक के रूप में सामाजिक संकट की क्या भूमिका है ?
उत्तर:
समूह तथा समाज के सहज रूप में संचालन में बाधा उपस्थित होना ही सामाजिक संकट कहलाता है। संकट दो प्रकार के हो सकते हैं-आकस्मिक संकट तथा संचयी संकट। आकस्मिक संकट वे संकट हैं, जो समाज में अचानक उत्पन्न होते हैं। जैसे-बाढ़, भूचाल, अकाल, महामारी, युद्ध, महत्त्वपूर्ण नेता की मृत्यु आदि। ये आकस्मिक संकट को जन्म देते हैं। दूसरी ओर संचयी संकट धीरे-धीरे एकत्रित होते रहते हैं और एक समय ऐसा भी आता है कि वे समाज के संचालन में बाधा पैदा करने लगते हैं। संकट चाहे किसी भी प्रकार का हो, समाज में विघटन उत्पन्न करने के लिए उत्तर:दायी है।

प्रश्न 9
सामाजिक विघटन के कारक के रूप में सांस्कृतिक सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
सांस्कृतिक सिद्धान्त के मानने वालों में अमेरिकी समाजशास्त्री ऑगबर्न प्रमुख हैं। इस सिद्धान्त के समर्थकों का मत है कि जब संस्कृति के विभिन्न अंगों में असन्तुलन पैदा होता है। तो समाज में भी विघटन उत्पन्न होता है। जब भौतिक संस्कृति में तीव्र गति से परिवर्तन होते हैं।
और उसकी तुलना में अभौतिक संस्कृति पीछे रह जाती है तो इस दशा को ऑगबर्न ‘सांस्कृतिक विलम्बना’ (Cultural Lag) कहकर पुकारते हैं। यह दशा प्राचीन एवं नवीन पीढ़ियों के विचारों, विश्वासों, मूल्यों तथा आदर्शों में खाई पैदा करती है और सामाजिक विघटन उत्पन्न करती है।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक विघटन क्या है ?
उत्तर:
सामाजिक विघटन का तात्पर्य सामाजिक व्यवस्था के टूट जाने अथवा सामाजिक संरचना के विभिन्न भागों में एकता के अभाव से है।

प्रश्न 2
सामाजिक विघटन के सांस्कृतिक सिद्धान्त को मानने वाले प्रमुख समाजशास्त्री कौन हैं ?
उत्तर:
सामाजिक विघटन के सांस्कृतिक सिद्धान्त को मानने वाले प्रमुख समाजशास्त्री ऑगबर्न हैं।

प्रश्न 3
सामाजिक विघटन के प्रजातीय सिद्धान्त के प्रमुख प्रतिपादक कौन हैं ?
उत्तर:
सामाजिक विघटन के प्रजातीय सिद्धान्त के प्रमुख प्रतिपादक गोबिन्यू हैं।

प्रश्न 4
सामाजिक विघटन के सामान्य कारक ‘सामाजिक मनोवृत्तियों में परिवर्तन के विषय में थॉमस एवं नैनिकी का क्या मत है?
उत्तर:
थॉमस एवं नैनिकी का मत है कि जब सामाजिक मनोवृत्तियों में परिवर्तन होता है तो सामाजिक विघटन उत्पन्न होता है।

प्रश्न 5
सामाजिक मूल्यों में ह्रास’ किस प्रकार सामाजिक विघटन का मुख्य लक्षण है ?
उत्तर:
क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद, भ्रष्टाचार आदि सामाजिक हास की दशाएँ हैं, जो कि सामाजिक विघटन का मुख्य लक्षण हैं।

प्रश्न 6
“सामाजिक विघटन एक प्रक्रिया है।” हाँ या नहीं में लिखिए। [2008, 09]
उत्तर:
हाँ

प्रश्न 7
निरन्तर एक ही दिशा में आगे की ओर हो रहे परिवर्तन को क्या कहते हैं ? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
एक ही दिशा में आगे की ओर होने वाले परिवर्तन को रेखीय परिवर्तन कहते हैं। उदाहरणार्थ-अधिकांश प्रौद्योगिकी व शिक्षा क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन रेखीय परिवर्तन होते हैं।

प्रश्न 8
‘वर्ग-संघर्ष सिद्धान्त का प्रवर्तक कौन है ?
उत्तर:
कार्ल मार्क्स।

प्रश्न 9
‘अहं आत्महत्या सिद्धान्त किसने दिया था ? [2010, 15]
या
समाजशास्त्री का नाम लिखें जिसने आत्महत्या का अध्ययन किया? [2015]
उत्तर:
इमाइल दुर्चीम ने।

प्रश्न 10
‘हिन्दू सोशल ऑर्गेनाइजेशन नामक पुस्तक के लेखक का नाम बताइए। [2009]
उत्तर:
‘हिन्दू सोशल ऑर्गेनाइजेशन’ नामक पुस्तक के लेखक का नाम पी० एच० प्रभु है।

प्रश्न 11
‘धर्म और समाज’ नामक पुस्तक के लेखक का नाम बताइए।
उत्तर:
‘धर्म और समाज’ नामक पुस्तक के लेखक का नाम डॉ० एस० राधाकृष्णन् है।

प्रश्न 12
इलियट और मैरिल की पुस्तक का नाम बताइए। [2010, 13]
उत्तर:
इलियट और मैरिल की पुस्तक का नाम ‘सोशल डिसऑर्गेनाइजेशन’ (सामाजिक विघटन) है।

प्रश्न 13
‘कास्ट एण्ड क्लास इन इण्डिया’ नामक पुस्तक की रचना किसने की थी ?
उत्तर:
कास्ट एण्ड क्लास इन इण्डिया’ नामक पुस्तक की रचना जी० एस० घुरिये ने की थी।

प्रश्न 14
‘इण्डियाज चेंजिंग विलेजेज पुस्तक के लेखक कौन हैं ?
उत्तर:
एस० सी० दुबे।।

प्रश्न 15
‘कास्ट क्लास एण्ड अकूपेशन’ पुस्तक के लेखक कौन हैं? [2012, 13]
उत्तर:
जी०एस० घुरिए। प्रश्न16 ‘सोशल ऑर्गेनाइजेशन’ नामक पुस्तक के लेखक का नाम बताइए। उत्तर: सोशल ऑर्गेनाइजेशन’ नामक पुस्तक के लेखक का नाम चार्ल्स एच० कूले है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में कौन-सा सामाजिक विघटन का लक्षण है ? [2011, 15]
(क) दो मित्रों में संघर्ष
(ख) परिवार का बिगड़ता स्वरूप
(ग) देश में बाढ़ आना
(घ) देश में गरीबी
उत्तर:
(ख) परिवार का बिगड़ता स्वरूप

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में कौन-सा सामाजिक विघटन का लक्षण नहीं है ?
(क) सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन
(ख) व्यक्तिवादिता
(ग) पति-पत्नी में तनाव
(घ) सामाजिक परिवर्तन की तीव्र गति
उत्तर:
(ग) पति-पत्नी में तनाव

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सा सामाजिक विघटन का लक्षण है ? [2011]
(क) एकमत्य का ह्रास
(ख) जनसंख्या में वृद्धि
(ग) संस्कृतियों का आत्मसात होना
(घ) लोगों की प्रवासी प्रवृत्ति
उत्तर:
(क) एकमत्य का ह्रास

प्रश्न 4.
व्यक्तिगत विघटन की चरम सीमा है
(क) अपराध
(ख) आत्महत्या
(ग) पागलपन
(घ) निर्धनता
उत्तर:
(ख) आत्महत्या

प्रश्न 5.
सी० एच० कूले किस पुस्तक के लेखक हैं ?
(क) सोसाइटी
(ख) सोशल ऑर्गेनाइजेशन
(ग) फॉकवेज़
(घ) प्रिंसिपल्स ऑफ क्रिमिनोलॉजी
उत्तर:
(ख) सोशल ऑर्गेनाइजेशन

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से किस पुस्तक के लेखक डार्विन हैं ?
(क) ह्यूमन सोसाइटी
(ख) सोसाइटी
(ग) ओरिजिन ऑफ स्पीसीज़।
(घ) द प्रिमिटिव मैन
उत्तर:
(ग) ओरिजिन ऑफ स्पीसीज़।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 Social Disorganization (सामाजिक विघटन) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 Social Disorganization (सामाजिक विघटन), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 13 Problem of Expansion of Education

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 13 Problem of Expansion of Education (शिक्षा के प्रसार की समस्या) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 13 Problem of Expansion of Education (शिक्षा के प्रसार की समस्या).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 13
Chapter Name Problem of Expansion of Education
(शिक्षा के प्रसार की समस्या)
Number of Questions Solved 24
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 13 Problem of Expansion of Education (शिक्षा के प्रसार की समस्या)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
शिक्षा के प्रसार के एक महत्त्वपूर्ण उपाय के रूप में दूरगामी शिक्षा का विस्तृत विवरण प्रस्तुत कीजिए। साथ ही दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था के उद्देश्य व विशेषताओं का भी वर्णन कीजिए।
उत्तर :
दूरगामी शिक्षा-शिक्षा के प्रसार का एक उपाय
यह सत्य है कि गत कुछ दशाब्दियों से हमारे देश में शिक्षा के प्रसार की दर सराहनीय रही है, परन्तु आज भी देश की जनसंख्या का एक बड़ा भाग विभिन्न कारणों से शिक्षा प्राप्त करने से वंचित ही है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए शिक्षा के प्रसार के लिए विभिन्न प्रयास किये जा रहे हैं। इन प्रयासों में ही एक प्रभावकारी प्रयास है-दूरगामी शिक्षा (Distance Education) की व्यवस्था। दूरगामी शिक्षा के अर्थ, उद्देश्य तथा महत्त्व आदि का सामान्य परिचय निम्नलिखित है।

दूरगामी शिक्षा का अर्थ
सामान्य शिक्षाप्रत्यक्ष-शिक्षा होती है, जिसके अन्तर्गत शिक्षक तथा शिक्षार्थी आमने-सामने बैठकर शिक्षा की प्रक्रिया को सम्पन्न करते हैं। दूरगामी शिक्षा आमने-सामने की प्रत्यक्ष शिक्षा नहीं है। दूरगामी शिक्षा वह शिक्षा है जिसके अन्तर्गत देश के किसी भी भाग में रहने वाले और किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक शिक्षार्थियों को शिक्षा ग्रहण करने का उपयुक्त अवसर प्राप्त हो जाती है। इस शिक्षा-प्रक्रिया के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के सम्प्रेषण-साधनों का अधिक-से-अधिक प्रयोग किया जाता है तथा खुले अधिगम की परिस्थितियों के सृजन को प्राथमिकता दी जाती है।

दूरगामी शिक्षा के अर्थ एवं प्रक्रिया को प्रो० होमबर्ग ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “दूरगामी शिक्षा की प्रक्रिया में छात्रों की शिक्षण संस्थानों में जाकर शिक्षकों के सामने कक्ष में बैठकर व्याख्यान सुनने की आवश्यकता नहीं है और न ही शिक्षण संगठनों की शिक्षा-व्यवस्था के समान नियमित रूप से सम्मिलित होना पड़ता है अपितु दूरगामी शिक्षा में खुले अधिगम को सम्प्रेषण माध्यमों अथवा शिक्षा तकनीकी द्वारा सम्पादित किया जाता है।” शिक्षक का व्याख्यान छात्रों के घरों तक सम्प्रेषण माध्यमों द्वारा पहुँचाया जाता है।

दूरदर्शन की सहायता से शिक्षक ही छात्रों के पास पहुँचकर शिक्षण-प्रदान करता है। इसके अन्तर्गत शिक्षक-शिक्षार्थी के अन्त:क्रिया एकपक्षीय ही होती है। दूरगामी शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य खुले अधिगम के लिए परिस्थिति उत्पन्न करना है। इस कथन द्वारा स्पष्ट है कि दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था, शिक्षा ग्रहण करने की एक सुविधाजनक व्यवस्था है तथा निश्चित रूप से शिक्षा के प्रसार में सहायक है। हमारे देश में शिक्षा के प्रसार की आवश्यकता को ध्यान में रखकर तथा दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था को सफल बनाने के लिए सन् 1979 ई० में राष्ट्रीय ओपन स्कूल की स्थापना की गई थी। इससे शिक्षा के प्रसार में उल्लेखनीय योगदान प्राप्त हुआ है।

दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था के उद्देश्य
विश्व के प्रायः सभी देशों में दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था को लागू किया जा रहा है। दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था को लागू करने के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं

  1. दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था का एक प्रमुख उद्देश्य समाज के उन व्यक्तियों को शिक्षा ग्रहण करने के अवसर सुलभ करना है जो किन्हीं कारणों से पहले उपयुक्त शिक्षा प्राप्त न कर पाये हों।
  2. उच्च शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अवसर उपलब्ध कराना।
  3. किसी भी व्यवसाय में संलग्न व्यक्तियों को उनकी रुचि तथा आवश्यकता के अनुसार शिक्षा अर्जित करने का अवसर उपलब्ध कराना।
  4. सीखने तथा ज्ञान प्राप्ति के इच्छुक व्यक्तियों के ज्ञान में अधिक – से – अधिक विस्तार करना।
  5. किसी भी शिक्षार्थी को उसकी रुचि के अनुरूप नूतन ज्ञान उपलब्ध कराना।
  6. समाज के पिछड़े वर्ग के व्यक्तियों को समाज का उपयोगी एवं योग्य नागरिक बनने में सहायता प्रदान करना।
  7. दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था का एक अन्य उद्देश्य शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों को उन भाषाओं और विषयों में दक्षता प्राप्त करने का अवसर प्रदान करना है, जिनमें नियमित संस्थागत शिक्षा के अन्तर्गत उत्पन्न होने वाली समस्याओं के कारण दक्षता प्राप्त करने का अवसर प्राप्त न हो सकता हो।

दूरगामी शिक्षा की विशेषताएँ
दूरगामी शिक्षा – व्यवस्था के अर्थ एवं उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए इस शिक्षा-व्यवस्था की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया जा सकता है

  1. दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था को व्यावहारिक रूप में लागू करने में दूरदर्शन, आकाशवाणी तथा अन्य जन-संचार माध्यमों को इस्तेमाल करने पर विशेष बल दिया जाता है।
  2. इस शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत सम्प्रेषण के माध्यमों तथा अधिगम की प्रक्रिया में आपसी समन्वय स्थापित करके विभिन्न शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है।
  3. इस शिक्षा-व्यवस्था के माध्यम से वांछित अधिगम स्वरूपों के लिए विभिन्न प्रकार की परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं।
  4. इस शिक्षा-व्यवस्था में शैक्षिक नियोजन, मूल्यांकन तथा अधिगम सम्बन्धी परिस्थितियों की व्यवस्था प्रणाली उपागम के आधार पर की जाती है।
  5. इस शैक्षिक व्यवस्था के अन्तर्गत कुछ निर्धारित बहुमाध्यमों की सहायता से शिक्षक ही शिक्षार्थियों से सम्पर्क स्थापित करता है।
  6. इस शैक्षिक व्यवस्था के अन्र्तगत खुले अधिगम की परिस्थितियाँ विकसित की जाती हैं तथा शिक्षार्थियों को स्वतन्त्रतापूर्वक अध्ययन की सुविधा उपलब्ध करायी जाती है।
  7. इस शैक्षिक व्यवस्था के माध्यम से शिक्षक की भूमिका को अधिक प्रभावी बनाने का प्रयास किया जाता है।
  8. दूरगामी शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत खुले विद्यालय, खुले विश्वविद्यालय तथा पत्राचार प्रणाली आदि को अपनाया जाता है तथा उन्हें अधिक उपयोगी बनाया जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1
दूरगामी शिक्षा के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
विभिन्न दृष्टिकोणों से दूरगामी शिक्षा को आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण माना जाता है। दूरगामी शिक्षा निम्नलिखित रूप से महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।

  1. दूरगामी शिक्षा की समुचित व्यवस्था देश में शिक्षा के अधिक-से-अधिक प्रसार में सहायक सिद्ध हो रही है।
  2. शिक्षा के क्षेत्र में नवीन प्रवर्तनों को प्रयुक्त करने में भी दूरगामी शिक्षा सहायक सिद्ध होती है।
  3. देश की जनसंख्या की वृद्धि तथा शिक्षा के प्रति बढ़ते रुझान के परिणामस्वरूप देश में विद्यमान औपचारिक शिक्षण संस्थाओं ( विद्यालय तथा कॉलेज आदि ) के प्रवेश के इच्छुक छात्रों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में छात्रों के प्रवेश की गम्भीर समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इस समस्या का मुकाबला करने में भी दूरगामी शिक्षा से विश्लेष सहायता प्राप्त हो रही है।
  4. छात्रों में विद्यमान वैयक्तिक भिन्नता से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान में भी दूरगामी शिक्षा से विशेष सहायता मिलती है।
  5. दूरगामी शिक्षा का एक मुख्य महत्त्व एवं लाभ उन व्यक्तियों के लिए है जो किसी निजी कार्य या व्यवसाय में संलग्न हैं। दूरगामी शिक्षा की सुविधा उपलब्ध होने पर ऐसे व्यक्ति भी अपनी इच्छानुसार शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। इस व्यवस्था से शिक्षा के प्रसार में भी वृद्धि होती है।
  6. दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था उने व्यक्तियों के लिए भी लाभदायक तथा महत्त्वपूर्ण है जो अपनी शैक्षिक योग्यता को बढ़ाने के इच्छुक होते हैं।
  7. दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करना विशेष रूप से सरल तथा सुविधाजनक है क्योंकि इस व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षार्थी को उसके अपने स्थान पर ही शिक्षा प्राप्त करने के अवसर उपलब्ध होते हैं। शिक्षार्थी को आने-जाने तथा यातायात की असुविधाओं का सामना नहीं करना पड़ता।
  8. दूरगामी शिक्षा की सुचारु व्यवस्था से लोगों में विभिन्न प्रकार की व्यावसायिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक योग्यताओं, क्षमताओं तथा गुणों के विकास में विशेष सहायता प्राप्त होती है।
  9. दूरगामी शिक्षा की व्यवस्था सुलभ हो जाने से समाज के अनेक व्यक्तियों को आत्म-विकास के अवसर उपलब्ध हुए हैं।
  10. दूरगामी शिक्षा का एक उल्लेखनीय महत्त्व एवं लाभ यह है कि इस व्यवस्था ने शिक्षा के जनतन्त्रीकरण में विशेष योगदान दिया है अर्थात् इस शिक्षा ने सभी को शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर उपलब्ध कराने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

प्रश्न 2
शिक्षा के प्रसार के लिए राज्य द्वारा क्या-क्या प्रयास किये जा रहे हैं?
उत्तर :
देश की बहुपक्षीय प्रगति के लिए शिक्षा का अधिक-से-अधिक प्रसार होना अति आवश्यक है। इस तथ्य को ध्यान में रख़ते हुए राज्य द्वारा अनेक प्रयास किये जा रहे हैं। सर्वप्रथम हम कह सकते हैं। कि राज्य द्वारा शिक्षा के महत्त्व एवं आवश्यकता से सम्बन्धित व्यापक प्रचार किया जा रहा है। जन-संचार के सभी माध्यमों द्वारा साक्षरता एवं शिक्षा के महत्त्व का व्यापक प्रचार किया जा रहा है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अलग से ‘राष्ट्रीय साक्षरता मिशन’ की स्थापना की गयी है। शिक्षा के व्यापक प्रसार के लिए भारतीय संविधान में 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया।

शिक्षा के प्रसार के लिए राज्य द्वारा ग्रामीण एवं दूर-दराज के क्षेत्रों में शिक्षण-संस्थाएँ स्थापित की जा रही हैं। शिक्षा के प्रति बच्चों को आकृष्ट करने के लिए उन्हें विभिन्न प्रकार के प्रलोभन एवं सुविधाएँ भी प्रदान की जा रही हैं; जैसे कि दिन का भोजन देना, मुफ्त पुस्तकें एवं वर्दी देना तथा विभिन्न छात्रवृत्तियाँ प्रदान करना। राज्य द्वारा अनुसूचित एवं पिछ्ड़ी जातियों के बालक-बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए अतिरिक्त प्रयास किये जा रहे हैं। तकनीकी शिक्षा के प्रसार के क्षेत्र में भी राज्य द्वारा अनेक प्रयास किये जा रहे हैं। समय – समय पर राज्य सरकारों एवं केन्द्र सरकार द्वारा शिक्षा के प्रसार के लिए व्यापक अभियान चलाये जा रहे है; जैसे कि ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड तथा ‘चलो स्कूल चलें’ आदि।

प्रश्न 3
शैक्षिक स्तर के उन्नयन व सुधार के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए? [2007, 08, 10, 11]
उत्तर :
शैक्षिक स्तर के उन्नयन व सुधार के उपाय
भारत में शिक्षा के स्तर; विशेष रूप से प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने व उसमें सुधार लाने के लिए अग्रलिखित उपाय अपनाए जा सकते हैं

  1. पूर्व-प्राथमिक व प्राथमिक कक्षाओं से ही शिक्षा के स्तर में सुधार के प्रयत्न किए जाएँ। अगर इस स्तर पर शिक्षार्थी अनुशासित हो जाए और शिक्षा के महत्व को समझ ले तो अगले स्तरों पर शिक्षा का स्तर अपने आप ही अच्छा हो जाएगा।
  2. शिक्षा की दिशा एवं व्यवस्था पहले से ही निश्चित की जाए।
  3. पाठ्यक्रम सुसंगठित एवं छात्र/छात्राओं के लिए उपयोगी हो।
  4. विद्यालयों में छात्रों की बढ़ती हुई संख्या पर नियन्त्रण रखा जाए तथा आवश्यकतानुसार नए विद्यालय खोले जाएँ।
  5. अध्यापकों को उचित वेतन तथा सुविधाएँ प्रदान की जाएँ। उनकी सभी उचित माँगों पर सहानुभूति से विचार किया जाना चाहिए।
  6. परीक्षा या मूल्यांकन प्रणाली में सुधार हो। प्रश्न-पत्रों में वस्तुनिष्ठ ढंग के प्रश्न सम्मिलित किए जाएँ, विद्यालय में ही परीक्षा ली जाए तथा शिक्षार्थियों के सामूहिक अभिलेख रखे जाएँ।
  7. पर्याप्त संख्या में निर्देशन एवं परामर्श केन्द्र खोले जाएँ, जहाँ छात्रों की योग्यता एवं अभिरुचि की जाँच हो और तदनुकूल उन्हें शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था की जाए।
  8. समाज के लोगों तथा छात्रों की धारणा शिक्षा के प्रति अच्छी हो।
  9. राज्य एवं समाज के द्वारा शिक्षा के अच्छे अवसर प्रदान किए जाएँ।
  10. समय-समय पर गोष्ठियों, सेमिनार आदि का आयोजन किया जाए।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1
शिक्षा के प्रसार से क्या आशय है?
उत्तर :
शिक्षा के प्रसार से आशय है :
देश के नागरिकों को शिक्षित होना। विकासशील देशों में शिक्षा के प्रसार की प्रक्रिया चल रही है, कहीं तेज तथा कहीं धीमी। केवल साक्षरता ही शिक्षा के प्रसार का मानदण्ड नहीं है। इससे भिन्न यदि हम कहें कि स्नातक स्तर की शिक्षा या इससे भी उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति को ही शिक्षित व्यक्ति माना जाये तो यह भी उचित नहीं है। वास्तव में शिक्षित होने का मानदण्ड सापेक्ष है।

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि जो व्यक्ति अपनी दैनिक जीवन की सामान्य गतिविधियों, व्यावसायिक अपेक्षाओं तथा सम्बन्धित कार्यों को करने की समुचित योग्यता प्राप्त कर लेता है, उसे शिक्षित माना जा सकता है। निःसन्देह शिक्षित होने के लिए साक्षरता एक अनिवार्य शर्त है। हमारे देश में शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करना अभी शेष है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शिक्षा के प्रसार की प्रक्रिया चल रही है तथा इसकी दर भी पूर्ण रूप से सन्तोषजनक नहीं है। शिक्षा के प्रसार की गति एवं दर में वृद्धि करना आवश्यक है।

प्रश्न 2
शिक्षा में अपव्यय से क्या आशय है?
उत्तर :
शिक्षा में अपव्यय शिक्षा में अपव्यय की समस्या को अर्थ यह है कि किसी भी स्तर की शिक्षा को पूर्ण करने से पूर्व ही उसे छोड़ देना। उदाहरण के लिए, प्राथमिक शिक्षा की निर्धारित अवधि 4-5 वर्ष होती है। यदि ऐसे में कोई छात्र कक्षा 2 तक ही शिक्षा ग्रहण करने पर विद्यालय छोड़ दे तो इसे शिक्षा में अपव्यय ही कहा जाएगा। इसी प्रकार स्नातक स्तर की शिक्षा के लिए, तीन वर्ष की अवधि निर्धारित है। यदि कोई छात्र/छात्रा केवल एक या दो वर्ष की शिक्षा ग्रहण करने के बाद कॉलेज को छोड़ दे तो यह भी शिक्षा में अपव्यय ही है।

अपव्यय का तात्पर्य उन छात्रों पर व्यय किए हुए समय, धन एवं शक्ति से है जो किसी स्तर की शिक्षा पूर्ण किए बगैर अपना अध्ययन समाप्त कर देते हैं। शिक्षा में अपव्यय की प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप शिक्षा के प्रसार की प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हमारे देश में शिक्षा के प्रायः सभी स्तरों पर अपव्यय की समस्या देखी जा सकती है। विभिन्न कारणों से अधूरी शिक्षा छोड़ देने की प्रवृत्ति लड़कों की तुलना में लड़कियों में अधिक पायी जाती है। यह प्रवृत्ति नगरीय क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक पायी जाती है।

प्रश्न 3
शिक्षा के अवरोधन के कारण बताइए।
उत्तर :
शिक्षा के अवरोधन के कारण निम्नलिखित हैं

  1. दोषपूर्ण शिक्षण विधि एवं परीक्षा प्रणाली का होना।
  2. विद्यालयों में छात्रों का नियमित उपस्थित न होना।
  3. कक्षा में संख्या से अधिक छात्रों का होना।
  4. रुचि के अनुरूप विषयों का न होना।
  5. अनुपयुक्त पाठ्यक्रम होना।
  6. विद्यालयी व्यवस्था का ठीक न होना।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1
हमारे देश में शिक्षा के प्रसार की दर किस काल में सर्वाधिक हुई है?
उत्तर :
हमारे देश में स्वतन्त्रता-प्राप्ति के उपरान्त के काल में शिक्षा के प्रसार की दर सर्वाधिक हुई

प्रश्न 2
वर्तमान भारत में शिक्षा-प्रसार का स्वरूप गुणात्मक/परिमाणात्मक है। [2015]
उत्तर :
वर्तमान भारत में शिक्षा-प्रसार का स्वरूप परिमाणात्मक है।

प्रश्न 3
शिक्षा के असन्तोषजनक प्रसार के लिए जिम्मेदार दो मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
शिक्षा के असन्तोषजनक प्रसार के लिए दो मुख्य कारण जिम्मेदार हैं

  1. शिक्षा में अपव्यय तथा
  2. शिक्षा में अवरोधन।

प्रश्न 4
शिक्षा में अपव्यय से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
शिक्षा में अपव्यय का तात्पर्य उन छात्रों पर व्यय किए हुए समय, धन एवं शक्ति से है जो किसी स्तर की शिक्षा पूर्ण किये बिना अपना अध्ययन समाप्त कर देते हैं?

प्रश्न 5
शिक्षा में अवरोधन से क्या आशय है?
उत्तर :
शिक्षा में अवरोधन का अर्थ है-छात्र को शिक्षा के क्षेत्र में नियमित रूप से प्रगति न करना अर्थात् निर्धारित अवधि में किसी कक्षा में परीक्षा पास करके अगली कक्षा में न पहुँच पाना।

प्रश्न 6
प्राथमिक शिक्षा के प्रसार में प्रमुख बाधा दोषपूर्ण शिक्षा प्रशासन/धन की प्रचुरता है। [2015]
उत्तर :
प्राथमिक शिक्षा के प्रसार में प्रमुख बाधा दोषपूर्ण शिक्षा-प्रशासन है।

प्रश्न 7
राष्ट्रीय ओपन स्कूल की स्थापना कब की गयी थी? [2009]
उत्तर :
राष्ट्रीय ओपन स्कूल की स्थापना सन् 1979 में की गयी थी।

प्रश्न 8
‘दूरगामी शिक्षा से क्या आशय है?
उत्तर :
दूरगामी शिक्षा वह शिक्षा है जिसके अन्तर्गत देश के किसी भी भाग में रहने वाले और किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक शिक्षार्थियों को शिक्षा ग्रहण करने का उपयुक्त अवसर प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न 9
शिक्षा के महत्त्व के व्यापक प्रचार के लिए सरकार द्वारा किये गये एक प्रयास का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
राष्ट्रीय साक्षरता मिशन’ की स्थापना।

प्रश्न 10
राष्ट्रीय शिक्षा दिवस कब मनाया जाता है? [2015, 16]
उत्तर :
भारत में राष्ट्रीय शिक्षा दिवस 11 नवम्बर को मनाया जाता है।

प्रश्न 11
राष्ट्रीय साक्षरता मिशन किस आयु-वर्ग के निरक्षरों के लिए चलाया गया? [2016]
उत्तर :
15 से 35 वर्ष के निरक्षरों के लिए।

प्रश्न 12
भारतीय संविधान में शिक्षा के प्रसार के लिए क्या मुख्य प्रावधान किया गया है?
या
भारतीय संविधान की धारा – 45 में शिक्षा सम्बन्धी किस तथ्य का उल्लेख है? [2012, 14]
उत्तर :
भारतीय संविधान में शिक्षा के प्रसार के लिए 6 से 14 वर्ष के बालकों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान किया गया है।

प्रश्न 13
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. हमारे देश में निरन्तर शिक्षा का प्रसार हो रहा है।
  2. राज्य सरकार द्वारा बालिका शिक्षा को अधिक प्रोत्साहन दिया जा रहा है।

उत्तर :

  1. सत्य
  2. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
शिक्षा के प्रसार को विशेष महत्त्व दिया गया है-
(क) मध्य काल में
(ख) ब्रिटिश शासनकाल में
(ग) स्वतन्त्रता-प्राप्ति के उपरान्त काल में
(घ) प्रत्येक काल में
उत्तर :
(ग) स्वतन्त्रता-प्राप्ति के उपरान्त काल में

प्रश्न 2
शिक्षा के क्षेत्र में अपव्यय की समस्या का कारण है
(क) सामान्य निर्धनता
(ख) शीघ्र जीविकोपार्जन की आवश्यकता
(ग) शिक्षा के पाठ्यक्रम का उपयुक्त न होना
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर :
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 3
शिक्षा के प्रसार के लिए ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड आरम्भ हुआ था
(क) सन् 1987-88 में
(ख) सन् 1988-89 में
(ग) सन् 1990-91 में
(घ) सन् 1991-92 में
उत्तर :
(ग) सन् 1990-91 में

प्रश्न 4
भारत में राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की स्थापना हुई (2014)
(क) सन् 1948 में
(ख) सन् 1953 में
(ग) सन् 1966 में
(घ) सन् 1986-88 में
उत्तर :
(घ) सन् 1986-88 में

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 13 Problem of Expansion of Education (शिक्षा के प्रसार की समस्या) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 13 Problem of Expansion of Education (शिक्षा के प्रसार की समस्या), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi अलंकार

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi अलंकार are part of UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi अलंकार.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 2
Chapter Name अलंकार
Number of Questions 12
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi अलंकार

काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्त्वों को अलंकार कहते हैं-काव्यशोभाकरान् धर्मानलङ्कारान् प्रचक्षते। अलंकार Alankar के दो भेद होते हैं—(क) शब्दालंकार तथा (ख) अर्थालंकार।

जहाँ काव्य की शोभा का कारण शब्द है, वहाँ शब्दालंकार और जहाँ शोभा का कारण उसका अर्थ है, वहाँ अर्थालंकार होता है। जहाँ काव्य में शब्द और अर्थ दोनों का चमत्कार एक साथ विद्यमान हो, वहाँ ‘उभयालंकार’ (उभय = दोनों) होता है। | काव्य में स्थान-मनुष्य स्वभाव से ही सौन्दर्य-प्रेमी है। वह अपनी प्रत्येक वस्तु को सुन्दर और सुसज्जित देखना चाहता है। अपनी बात को भी वह इस प्रकार कहना चाहता है कि जिससे सुनने वाले पर स्थायी प्रभाव पड़े। वह अपने विचारों को इस रीति से व्यक्त करना चाहता है कि श्रोता चमत्कृत हो जाए। इसके साधन हैं उपर्युक्त दोनों अलंकार। शब्द और अर्थ द्वारा काव्य की शोभा-वृद्धि करने वाले इन अलंकारों का काव्य में वही स्थान है, जो मनुष्य (विशेष रूप से नारी) शरीर में आभूषणों का।।

शब्दालंकार और अर्थालंकार में अन्तर-शब्दालंकार में यदि काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने वाले शब्द-विशेष को बदल दिया जाए तो अलंकार समाप्त हो जाता है, किन्तु अर्थालंकार में यदि काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने वाले शब्द के स्थान पर उसका पर्यायवाची दूसरा शब्द रख दिया जाए तो भी अलंकार बना रहता है; जैसे-‘कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय’ में कनक शब्द की सार्थक आवृत्ति के कारण यमक अलंकार है। पहले ‘कनक’ का अर्थ ‘स्वर्ण’ और दूसरे का ‘ धतूरा’ है। यदि ‘कनक’ के स्थान पर उसका कोई पर्यायवाची शब्द रख दिया जाए तो यह अलंकार समाप्त हो जाएगा। इस प्रकार अलंकार शब्द-विशेष पर निर्भर होने से यहाँ शब्दालंकार है।

अर्थालंकार में शब्द का नहीं, अर्थ का महत्त्व होता है; जैसे—सुना यह मनु ने मधु गुंजार, मधुकरी का-सा जब सानन्द।

इसमें ‘मधुकरी का-सा’ में उपमा अलंकार है। यदि ‘मधुकरी’ के स्थान पर उसका ‘भ्रमरी’ या अन्य कोई पर्याय रख दिया जाए तो भी यह अलंकार बना रहेगा; क्योंकि यहाँ अलंकार अर्थ पर आश्रित है, शब्द पर नहीं। यही अर्थालंकार की विशेषता है।

प्रश्न 1
शब्दालंकार से आप क्या समझते हैं ? इसके भेदों का उदाहरणसहित वर्णन कीजिए।
उत्तर
शब्दालंकार और उसके भेद जहाँ काव्य की शोभा का कारण शब्द होता है, वहाँ शब्दालंकार होता है। इसके निम्नलिखित भेद होते हैं-

1. अनुप्रास [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)—बार-बार एक ही वर्ण की आवृत्ति को अनुप्रास कहते हैं; जैसे-
तरनि-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।( काव्यांजलि: यमुना-छवि) स्पष्टीकरण-यहाँ पर ‘त’ वर्ण की आवृत्ति हुई है। अत: अनुप्रास अलंकार है।
भेद-अनुप्रास के पाँच भेद हैं–(1) छेकानुप्रास, (2) वृत्यनुप्रास, (3) श्रुत्यनुप्रास, (4) लाटानुप्रास और (5) अन्त्यानुप्रास।
(1) छेकानुप्रास–जहाँ एक वर्ण की आवृत्ति एक बार होती है अर्थात् एक वर्ण दो बार आता है, वहाँ छेकानुप्रास होता है; जैसे-इस करुणा-कलित हृदय में, अब विकल रागिनी बजती। (काव्यांजलि: आँसू)
स्पष्टीकरण-उपर्युक्त पंक्ति में ‘क’ की एक बार आवृत्ति हुई है। अत: छेकानुप्रास है।

(2) वृत्यनुप्रास–जहाँ एक अथवा अनेक वर्षों की आवृत्ति दो या दो से अधिक बार हो, वहाँ वृत्यनुप्रास होता है; जैसे-

चारु चन्द्र की चंचल किरणें,
खेल रही हैं जल थल में ।।

स्पष्टीकरण–यहाँ ‘च’ और ‘ल’ दो से अधिक बार (तीन बार) आया है। अत: वृत्यनुप्रास है।
छेकानुप्रास और वृत्यनुप्रास में अन्तर–एक वर्ण की एक बार आवृत्ति होने पर छेकानुप्रास होता है, जब कि वृत्यनुप्रास में एक अथवा अनेक वर्षों की दो अथवा दो से अधिक बार आवृत्ति होती है; जैसे–‘हे जग- जीवन के कर्णधार!’ में ‘ज’ वर्ण की एक बार आवृत्ति होने से छेकानुप्रास है और ‘फैल फूले जल में फेनिल’ में ‘फ’ वर्ण की दो बार तथा ‘ल’ वर्ण की तीन बार आवृत्ति होने से वृत्यनुप्रास है।

(3) श्रुत्यनुप्रास-जहाँ कण्ठ, तालु आदि एक ही स्थान से उच्चरित वर्गों की आवृत्ति हो, वहाँ श्रुत्यनुप्रास होता है; जैसे—
रामकृपा भव-निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं । (काव्यांजलि: विनयपत्रिका)
स्पष्टीकरण–इस पंक्ति में ‘स्’ और ‘न्’ जैसे दन्त्य वर्णो (अर्थात् जिह्वा द्वारा दन्तपंक्ति के स्पर्श से उच्चरित वर्षों) की आवृत्ति के कारण श्रुत्यनुप्रास है।
(4) लाटानुप्रास–जहाँ एक ही अर्थ वाले शब्दों की आवृत्ति होती है, किन्तु अन्वय की भिन्नता से अर्थ बदल जाता है, वहाँ लाटानुप्रास होता है; जैसे-

पूत सपूत तो क्यों धन संचै ?
पूत कपूत तो क्यों धन संचै ?

स्पष्टीकरण–यहाँ उन्हीं शब्दों की आवृत्ति होने पर भी पहली पंक्ति के शब्दों का अन्वय ‘सपूत’ के साथ और दूसरी का ‘कपूत के साथ लगता है, जिससे अर्थ बदल जाता है। (पद्य का भाव यह है कि यदि तुम्हारा पुत्र सुपुत्र है तो धन-संचय की आवश्यकता नहीं; क्योंकि वह स्वयं कमाकर धन का ढेर लगा देगा। यदि वह कुपुत्र है तो भी धन-संचय निरर्थक है; क्योंकि वह सारा धन व्यसनों में उड़ा देगा।) इस प्रकार यहाँ लाटानुप्रास है।।
(5) अन्त्यानुप्रास-यह अलंकार केवल तुकान्त छन्दों में ही होता है। जहाँ कविता के पद या अन्तिम चरण में समान वर्ण आने से तुक मिलती है, वहाँ अन्त्यानुप्रास होता है; जैसे-

बतरस-लालच लाल की, मुरली धरी लुकाई।
सौंह करै भौहनु हँसै, दैन कहैं नटि जाइ ॥( काव्यांजलि: भक्ति एवं श्रृंगार)

स्पष्टीकरण-यहाँ दोनों पंक्तियों के अन्त में ‘आइ’ की आवृत्ति से अन्त्यानुप्रास है।

2. यमक [2010, 11, 12, 13, 14, 16, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)-जब कोई शब्द या शब्दांश अनेक बार आता है और प्रत्येक बार भिन्न-भिन्न अर्थ प्रकट करता है, तब यमक अलंकार होता है; जैसे-

कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय ।
वा खाये बौराय जग, या पाये बौराय ॥

स्पष्टीकरण-यहाँ ‘कनक’ शब्द दो बार आया है और दोनों बार उसके भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। पहले ‘कनक’ का अर्थ ‘धतूरा है और दूसरे का ‘सोना’। अतः यहाँ यमक अलंकार है।
भेद-यमक अलंकार के दो मुख्य भेद होते हैं—
(1) अभंगपद यमक–जहाँ दो पूर्ण शब्दों की समानता हो। इसमें शब्द पूर्ण होने के कारण दोनों शब्द सार्थक होते हैं; जैसे-‘कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय ।’
(2) सभंगपद यमक–यहाँ शब्दों को भंग करके (तोड़कर) अक्षर-समूह की समता बनती है। इसमें एक या दोनों अक्षर समूह निरर्थक होते हैं; जैसे-

पच्छी पर छीने ऐसे परे पर छीने वीर,
तेरी बरछी ने बर छीने हैं खलन के ।। (काव्यांजलिः छत्रसाल प्रशस्ति)

3. श्लेष [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17]

लक्षण (परिभाषा)–-जब एक ही शब्द बिना आवृत्ति के दो या दो से अधिक अर्थ प्रकट करे, तब श्लेष अलंकार होता है; जैसे-

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गैंभीर।
को घटि ए वृषभानुजा, वे हलधर के वीर ॥

स्पष्टीकरण-यहाँ ‘वृषभानुजा’ तथा ‘हलधर’ शब्दों के दो-दो अर्थ हैं-
वृषभानुजा = वृषभानु + जा = वृषभानु की पुत्री (राधा)।
वृषभ + अनुजा = बैल की बहन (गाय)।
हलधर = (1) बलराम, (2) बैल। इस प्रकार यहाँ ‘वृषभानुजा’ में श्लेष अलंकार है।
यमक और श्लेष में अन्तर-जब एक ही शब्द दो या दो से अधिक बार आकर भिन्न-भिन्न अर्थ देता है तो यमक कहलाता है और जब एक शब्द बिना आवृत्ति के ही कई अर्थ देता है तो श्लेष कहलाता है। यमक में एक शब्द की आवृत्ति होती है और श्लेष में बिना आवृत्ति के ही शब्द एकाधिक अर्थ देता है।

प्रश्न 2
अर्थालंकार किसे कहते हैं ? इसके भेदों का उदाहरणसहित वर्णन कीजिए।
उत्तर
अर्थालंकार और उसके भेद जहाँ काव्य की शोभा का कारण अर्थ होता है; वहाँ अर्थालंकार होता है। इसके निम्नलिखित भेद होते हैं-

1. उपमा [2010, 11, 12, 13, 15, 16, 17]

लक्षण (परिभाषा)—उपमेय और उपमान के समान धर्मकथन को उपमा अलंकार कहते हैं; जैसे
(1) मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है।
(2) तापसबाला-सी गंगा कले।
उपमा अलंकार के निम्नलिखित चार अंग होते हैं-
(1) उपमेय–जिसके लिए उपमा दी जाती है; जैसे-उपर्युक्त उदाहरणों में मुख, गंगा ।।
(2) उपमान-उपमेय की जिसके साथ तुलना (उपमा) की जाती है; जैसे-चन्द्रमा, तापसबाला।
(3) साधारण धर्म-जिस गुण या विषय में उपमेय और उपमान की तुलना की जाती है; जैसे–सुन्दर (सुन्दरता), कलता (सुहावनी)।।
(4) वाचक शब्द–जिस शब्द के द्वारा उपमेय और उपमान की समानता व्यक्त की जाती है; जैसे—समान, सी, तुल्य, सदृश, इव, सरिस, जिमि, जैसा आदि।
ये चारों अंग जहाँ पाये जाते हैं, वहाँ पूर्णोपमालंकार होता है; जैसा उपर्युक्त उदाहरणों में है।
भेद-उपमा अलंकार के चार भेद होते हैं—(क) पूर्णोपमा, (ख) लुप्तोपमा, (ग) रसनोपमा और (घ) मालोपमा।
(क) पूर्णोपमा-[ संकेत-ऊपर बताया जा चुका है।

(ख) लुप्तोपमा–जहाँ उपमा के चारों अंगों (उपमेय, उपमान, साधारण धर्म और वाचक शब्द) में से किसी एक, दो या तीन अंगों का लोप होता है, वहाँ लुप्तोपमा अलंकार होता है। लुप्तोपमा अलंकार निम्नलिखित चार प्रकार का होता है-

  1. धर्म-लुप्तोपमा–जिसमें साधारण धर्म का लोप हो; जैसे-तापसबाला-सी गंगा ।
    स्पष्टीकरण-यहाँ धर्म-लुप्तोपमा है; क्योंकि यहाँ ‘सुन्दरता रूपी गुण का लोप है।
  2. उपमान-लुप्तोपमा–जिसमें उपमान का लोप हो; जैसे-
    जिहिं तुलना तोहिं दीजिए, सुवरन सौरभ माहिं।।
    कुसुम तिलक चम्पक अहो, हौं नहिं जानौं ताहिं ॥
    सुन्दर वर्ण और सुगन्ध में तेरी तुलना किस पदार्थ से की जाए, उसे मैं नहीं जानता; क्योंकि तिलक, चम्पा आदि पुष्प तेरे समकक्ष नहीं ठहरते।।
    स्पष्टीकरण–यहाँ उपमान लुप्त है; क्योंकि जिससे तुलना की जाए, वह उपमान ज्ञात नहीं है।
  3. उपमेय-लुप्तोपमा–जिसमें उपमेय का लोप हो; जैसे–
    कल्पलता-सी अतिशय कोमल ।।
    स्पष्टीकरण-यहाँ उपमेय-लुप्तोपमा है; क्योंकि कौन है कल्पलता-सी कोमल-यह नहीं बताया गया है।।
  4. वाचक-लुप्तोपमा–जिसमें वाचक शब्द का लोप हो; जैसे-
    नील सरोरुह स्याम, तरुन अरुन वारिज-नयन ।
    स्पष्टीकरण-यहाँ वाचक शब्द ‘समान’ या उसके पर्यायवाची अन्य किसी शब्द का लोप है; अत: इसमें वाचक-लुप्तोपमा अलंकार है।

(ग) रसनोपमा–रसनोपमा अलंकार में उपमेय और उपमान एक-दूसरे से उसी प्रकार जुड़े रहते हैं, जिस प्रकार किसी श्रृंखला की एक कड़ी दूसरी कड़ी से; जैसे-

सगुन ज्ञान सम उद्यम, उद्यम सम फल जान ।
फल समान पुनि दान है, दान सरिस सनमान ॥

स्पष्टीकरण-उपर्युक्त उदाहरण में ‘उद्यम’, ‘फल’, ‘दान’ और ‘सनमान’ उपमेय अपने उपमानों के साथ शृंखलाबद्ध रूप में प्रस्तुत किये गये हैं; अतः इसमें रसनोपमा अलंकार है।
(घ) मालोपमा–जहाँ उपमेय (जिसके लिए उपमा दी जाती है) का उत्कर्ष दिखाने के लिए अनेक उपमान एकत्र किये जाएँ, वहाँ मालोपमा अलंकार होता है; जैसे-

हिरनी से मीन से, सुखंजन समान चारु ।
अमल कमल-से विलोचन तुम्हारे हैं ।।।

स्पष्टीकरण-उपर्युक्त उदाहरण में आँखों की तुलना अनेक उपमानों (हिरनी से, मीन से, सुखंजन समान, कमल से) की गयी है। अत: यहाँ पर मालोपमा अलंकार है।।

2. रूपक [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 18]

लक्षण (परिभाषा)–जहाँ उपमेय और उपमान में अभिन्नता प्रकट की जाए, अर्थात् उन्हें एक ही रूप में प्रकट किया जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है; जैसे-

अरुन सरोरुह कर चरन, दृग-खंजन मुख-चंद।
समै आइ सुंदरि-सरद, काहि न करति अनंद ॥

स्पष्टीकरण-इस उदाहरण में शरद् ऋतु में सुन्दरी को, कमल में हाथ-पैरों का, खंजन में आँखों का और चन्द्रमा में मुख का भेदरहित आरोप होने से रूपक अलंकार है। | भेद-रूपक अलंकार निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है ।
(i) सांगरूपक-जहाँ उपमेय पर उपमान का सर्वांग आरोप हो, वहाँ ‘सांगरूपक’ होता है; जैसे-

उदित उदयगिरि-मंच पर, रघुबर बाल पतंग।
बिकसे संत सरोज सब, हरखे लोचन-भंग ॥

स्पष्टीकरण–यहाँ रघुबर, मंच, संत, लोचन आदि उपमेयों पर बाल सूर्य, उदयगिरि, सरोज, मूंग आदि उपमानों का आरोप किया गया है; अतः यहाँ सांगरूपक है।
(ii) निरंगरूपक-जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप सर्वांग न हो, वहाँ निरंगरूपक होता है; जैसे–
कौन तुम संसृति-जलनिधि तीर, तरंगों से फेंकी मणि एक।
स्पष्टीकरण-इसमें संसृति (संसार) पर जलनिधि (सागर) का आरोप है, लेकिन अंगों का उल्लेख न होने से यह निरंगरूपक है।
(iii) परम्परितरूपक-जहाँ एक रूपक दूसरे रूपक पर अवलम्बित हो, वहाँ परम्परितरूपक होता है; जैसे-
बन्दी पवनकुमार खल-बन-पावक ज्ञान-घन।
स्पष्टीकरण–यहाँ पवनकुमार (उपमेय) पर अग्नि (उपमान) का आरोप इसलिए सम्भव हुआ कि खलों (दुष्टों) को घना वन (जंगल) बताया गया है; अत: एक रूपक (खल-वन) पर दूसरा रूपक (पवनकुमाररूपी पावक) निर्भर होने से यहाँ परम्परितरूपक है।
उपमा और रूपक अलंकार में अन्तर–उपमा में उपमेय और उपमान में समानता स्थापित की जाती है, किन्तु रूपक में दोनों में अभेद स्थापित किया जाता है; जैसे-‘मुख चन्द्रमा के समान है’ में उपमा है, किन्तु ‘मुख चन्द्रमा है’ में रूपक है।

उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकार में अन्तर–जहाँ पर उपमेय (जिसके लिए उपमा दी जाती है) में उपमान (उपमेय की जिसके साथ तुलना की जाती है) की सम्भावना प्रकट की जाती है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है; जैसे-‘मुख मानो चन्द्रमा है। जहाँ उपमेय और उपमान में ऐसा आरोप हो कि दोनों में किसी प्रकार का भेद ही न रह जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है; जैसे-‘मुख चन्द्रमा है।

4. उत्प्रेक्षा [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)-जहाँ उपमेय की उपमान के रूप में सम्भावना की जाए, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है; जैसे-

सोहत ओढ़ पीतु पटु, स्याम सलौने गात ।
मनौ नीलमनि-सैल पर, आतपु पर्यौ प्रभात ॥

स्पष्टीकरण-यहाँ पीताम्बर ओढ़े हुए श्रीकृष्ण के श्याम शरीर (उपमेय) की प्रात:कालीन सूर्य की प्रभा से सुशोभित नीलमणि पर्वत (उपमान) के रूप में सम्भावना किये जाने से उत्प्रेक्षा अलंकार है। ‘मनौ’ यहाँ पर वाचक शब्द है। इस अलंकार में जनु, जनहुँ, मनु, मनहुँ, मानो, इव आदि वाचक शब्द अवश्य आते हैं।
भेद-उत्प्रेक्षा अलंकार के निम्नलिखित तीन भेद होते हैं
(क) वस्तूत्प्रेक्षा–जब उपमेय (प्रस्तुत वस्तु) में उपमान (अप्रस्तुत वस्तु) की सम्भावना व्यक्त की जाती है, तब वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार होता है-

वहीं शुभ्र सरिता के तट पर, कुटिया का कंकाल खड़ा है।
मानो बाँसों में घुन बनकर शत शत हाहाकार खड़ा है।

स्पष्टीकरण–यहाँ पर घुन (प्रस्तुत वस्तु) में हाहाकार (अप्रस्तुत वस्तु) की सम्भावना की गयी है। अत: वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है।
(ख) हेतूत्प्रेक्षा–जहाँ पर काव्य में अहेतु में हेतु की सम्भावना व्यक्त की जाती है, वहाँ हेतूत्प्रेक्षा अलंकार होता है–

विनय शुक-नासा का धर ध्यान
बन गये पुष्प पलास अराल।

स्पष्टीकरण–यहाँ पर ढाक के फूलों का वक्र आकार होना स्वाभाविक है। नायिका की नुकीली नाक की उससे सम्भावना की जाए यह हेतु नहीं है; परन्तु यहाँ उसे हेतु माना गया है, अतएव अहेतु की सम्भावना होने से हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है।।

(ग) फलोत्प्रेक्षा–जब अफल में फल की सम्भावना की जाए वहाँ पर फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है-

नित्य ही नहाती क्षर सिन्धु में कलाधर है
सुन्दरि ! तवानन की समता की इच्छा से ।

यहाँ पर चन्द्रमा का प्रतिदिन क्षीरसागर में स्नान करने का उद्देश्य सुन्दरी के मुख की समता प्राप्त करने में निहित है। वास्तव में ऐसा नहीं है, परन्तु इस प्रकार की सम्भावना की गयी है। अत: यहाँ फलोत्प्रेक्षा अलंकार है।।

5. भ्रान्तिमान [2009, 10, 14, 15, 16, 18] |

लक्षण (परिभाषा)-जहाँ समानता के कारण भ्रमवश उपमेय में उपमान का निश्चयात्मक ज्ञान हो, वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है; जैसे—रस्सी (उपमेय) को साँप (उपमान) समझ लेना।

कपि करि हृदय बिचार, दीन्ह मुद्रिका डारि तब ।।
जानि अशोक अँगार, सीय हरषि उठि कर गहेउ ।

स्पष्टीकरण-यहाँ सीताजी श्रीराम की हीरकजटित अँगूठी को अशोक वृक्ष द्वारा प्रदत्त अंगारा समझकर उठा लेती हैं। अँगूठी (उपमेय) में उन्हें अंगारे (उपमान) का निश्चयात्मक ज्ञान होने से यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।

6. सन्देह [2009, 10, 11, 13, 14, 15, 16, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)-जब किसी वस्तु में उसी के समान दूसरी वस्तु का सन्देह हो जाए और कोई निश्चयात्मक ज्ञान न हो, तब सन्देह अलंकार होता है; जैसे—

परिपूरन सिन्दूर पूर कैधौं मंगल घट।
किधौं सक्र को छत्र मढ्यो मानिक मयूख पट ।।

स्पष्टीकरण-यहाँ लाल वर्ण वाले सूर्य में सिन्दूर भरे हुए घट’ तथा ‘लाल रंग वाले माणिक्य में जड़े हुए छत्र’ का सन्देह होने से सन्देह अलंकार है।
सन्देह और भ्रान्तिमान में अन्तर–सन्देह अलंकार में उपमेय में उपमान का सन्देहमात्र होता है, निश्चयात्मक ज्ञान नहीं; जैसे-‘यह रस्सी है या साँप’। इसमें रस्सी (उपमेय) में साँप (उपमान) का सन्देह होता है, निश्चय नहीं; किन्तु भ्रान्तिमान में उपमेय में उपमान का निश्चय हो जाता है; जैसे—रस्सी को साँप समझकर कहना कि ‘यह साँप है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार का नाम लिखिए
प्रश्न (क)
मनो चली आँगन कठिन तातें राते पाय ।।
उत्तर
उत्प्रेक्षा

प्रश्न (ख)
मकराकृति गोपाल के, सोहत कुंडल कान ।
धरयो मनौ हिय धर समरु, यौढ़ी लसत निसान ।।
उत्तर
उत्प्रेक्षा।

प्रश्न (ग)
तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये ।
उत्तर
अनुप्रास।

प्रश्न (घ)
उदित उदयगिरि मंच पर, रघुवर बाल पतंग ।।
उत्तर
रूपक।

प्रश्न (इ)
घनानंद प्यारे सुजान सुनौ, यहाँ एक से दूसरो ऑक नहीं ।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ कहौ, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं ।।
उत्तर
श्लेष।

प्रश्न (च)
का पूँघट मुख मूंदहु अबला नारि ।
चंद सरग पर सोहत यहि अनुहारि ।।
उत्तर
रूपक।

प्रश्न (छ)
पच्छी पर छीने ऐसे परे पर छीने वीर,
तेरी बरछी ने बर छीने हैं खलन के ।।
उत्तर
यमक।

प्रश्न (ज)
अनियारे दीरघ दृगनि, किती न तरुनि समान ।
वह चितवनि औरै कछु, जिहिं बस होत सुजान ।।
उत्तर
अनुप्रास।

प्रश्न (झ)
चरण कमल बंद हरिराई ।।
उत्तर
रूपक।

प्रश्न 2
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए
(क) उत्प्रेक्षा और उपमा अलंकार में मूलभूत अन्तर बताइए और उत्प्रेक्षा अलंकार का एक उदाहरण अपनी पाठ्य-पुस्तक से लिखिए।
(ख) श्लेष अलंकार का लक्षण लिखकर उदाहरण दीजिए।
(ग) सन्देह और भ्रान्तिमान अलंकारों में अन्तर स्पष्ट करते हुए उदाहरण दीजिए।
(घ) सन्देह और भ्रान्तिमान अलंकारों का अन्तर स्पष्ट कीजिए और दोनों में से किसी एक का उदाहरण लिखिए।
(ङ) उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकार में मूलभूत अन्तर स्पष्ट कीजिए और अपनी पाठ्य-पुस्तक से उत्प्रेक्षा अलंकार का एक उदाहरण लिखिए।
(च) रूपक अलंकार के भेद लिखिए और किसी एक भेद का लक्षण और उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
(छ) सन्देह और भ्रान्तिमान में अन्तर बताइए। अपनी पाठ्य-पुस्तक से भ्रान्तिमान अलंकार का एक उदाहरण लिखिए।
(ज) ‘यमक’ अथवा ‘श्लेष अलंकार का लक्षण लिखिए और एक उदाहरण दीजिए।
(झ) ‘रूपक’ तथा ‘उपमा अलंकारों में मूलभूत अन्तर बताइए और दोनों में से किसी एक अलंकार का उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
(ञ) ‘उपमा’ अथवा ‘उत्प्रेक्षा’ अलंकार का लक्षण लिखकर एक उदाहरण दीजिए।
(ट) ‘अनुप्रास’ अथवा ‘उत्प्रेक्षा’ अलंकार का लक्षण लिखिए तथा उस अलंकार को एक उदाहरण दीजिए।
(ठ) ‘श्लेष’, ‘उपमा’ तथा ‘सन्देह अलंकारों में से किसी एक अलंकार की परिभाषा देते हुए उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर

श्लेष [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17]

लक्षण (परिभाषा)–-जब एक ही शब्द बिना आवृत्ति के दो या दो से अधिक अर्थ प्रकट करे, तब श्लेष अलंकार होता है; जैसे-

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गैंभीर।
को घटि ए वृषभानुजा, वे हलधर के वीर ॥

स्पष्टीकरण-यहाँ ‘वृषभानुजा’ तथा ‘हलधर’ शब्दों के दो-दो अर्थ हैं-
वृषभानुजा = वृषभानु + जा = वृषभानु की पुत्री (राधा)।
वृषभ + अनुजा = बैल की बहन (गाय)।
हलधर = (1) बलराम, (2) बैल। इस प्रकार यहाँ ‘वृषभानुजा’ में श्लेष अलंकार है।
यमक और श्लेष में अन्तर-जब एक ही शब्द दो या दो से अधिक बार आकर भिन्न-भिन्न अर्थ देता है तो यमक कहलाता है और जब एक शब्द बिना आवृत्ति के ही कई अर्थ देता है तो श्लेष कहलाता है। यमक में एक शब्द की आवृत्ति होती है और श्लेष में बिना आवृत्ति के ही शब्द एकाधिक अर्थ देता है।

अर्थालंकार और उसके भेद जहाँ काव्य की शोभा का कारण अर्थ होता है; वहाँ अर्थालंकार होता है। इसके निम्नलिखित भेद होते हैं-

1. उपमा [2010, 11, 12, 13, 15, 16, 17]

लक्षण (परिभाषा)—उपमेय और उपमान के समान धर्मकथन को उपमा अलंकार कहते हैं; जैसे
(1) मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है।
(2) तापसबाला-सी गंगा कले।
उपमा अलंकार के निम्नलिखित चार अंग होते हैं-
(1) उपमेय–जिसके लिए उपमा दी जाती है; जैसे-उपर्युक्त उदाहरणों में मुख, गंगा ।।
(2) उपमान-उपमेय की जिसके साथ तुलना (उपमा) की जाती है; जैसे-चन्द्रमा, तापसबाला।
(3) साधारण धर्म-जिस गुण या विषय में उपमेय और उपमान की तुलना की जाती है; जैसे–सुन्दर (सुन्दरता), कलता (सुहावनी)।।
(4) वाचक शब्द–जिस शब्द के द्वारा उपमेय और उपमान की समानता व्यक्त की जाती है; जैसे—समान, सी, तुल्य, सदृश, इव, सरिस, जिमि, जैसा आदि।
ये चारों अंग जहाँ पाये जाते हैं, वहाँ पूर्णोपमालंकार होता है; जैसा उपर्युक्त उदाहरणों में है।
भेद-उपमा अलंकार के चार भेद होते हैं—(क) पूर्णोपमा, (ख) लुप्तोपमा, (ग) रसनोपमा और (घ) मालोपमा।
(क) पूर्णोपमा-[ संकेत-ऊपर बताया जा चुका है।

(ख) लुप्तोपमा–जहाँ उपमा के चारों अंगों (उपमेय, उपमान, साधारण धर्म और वाचक शब्द) में से किसी एक, दो या तीन अंगों का लोप होता है, वहाँ लुप्तोपमा अलंकार होता है। लुप्तोपमा अलंकार निम्नलिखित चार प्रकार का होता है-

  1. धर्म-लुप्तोपमा–जिसमें साधारण धर्म का लोप हो; जैसे-तापसबाला-सी गंगा ।
    स्पष्टीकरण-यहाँ धर्म-लुप्तोपमा है; क्योंकि यहाँ ‘सुन्दरता रूपी गुण का लोप है।
  2. उपमान-लुप्तोपमा–जिसमें उपमान का लोप हो; जैसे-
    जिहिं तुलना तोहिं दीजिए, सुवरन सौरभ माहिं।।
    कुसुम तिलक चम्पक अहो, हौं नहिं जानौं ताहिं ॥
    सुन्दर वर्ण और सुगन्ध में तेरी तुलना किस पदार्थ से की जाए, उसे मैं नहीं जानता; क्योंकि तिलक, चम्पा आदि पुष्प तेरे समकक्ष नहीं ठहरते।।
    स्पष्टीकरण–यहाँ उपमान लुप्त है; क्योंकि जिससे तुलना की जाए, वह उपमान ज्ञात नहीं है।
  3. उपमेय-लुप्तोपमा–जिसमें उपमेय का लोप हो; जैसे–
    कल्पलता-सी अतिशय कोमल ।।
    स्पष्टीकरण-यहाँ उपमेय-लुप्तोपमा है; क्योंकि कौन है कल्पलता-सी कोमल-यह नहीं बताया गया है।।
  4. वाचक-लुप्तोपमा–जिसमें वाचक शब्द का लोप हो; जैसे-
    नील सरोरुह स्याम, तरुन अरुन वारिज-नयन ।
    स्पष्टीकरण-यहाँ वाचक शब्द ‘समान’ या उसके पर्यायवाची अन्य किसी शब्द का लोप है; अत: इसमें वाचक-लुप्तोपमा अलंकार है।

(ग) रसनोपमा–रसनोपमा अलंकार में उपमेय और उपमान एक-दूसरे से उसी प्रकार जुड़े रहते हैं, जिस प्रकार किसी श्रृंखला की एक कड़ी दूसरी कड़ी से; जैसे-

सगुन ज्ञान सम उद्यम, उद्यम सम फल जान ।
फल समान पुनि दान है, दान सरिस सनमान ॥

स्पष्टीकरण-उपर्युक्त उदाहरण में ‘उद्यम’, ‘फल’, ‘दान’ और ‘सनमान’ उपमेय अपने उपमानों के साथ शृंखलाबद्ध रूप में प्रस्तुत किये गये हैं; अतः इसमें रसनोपमा अलंकार है।
(घ) मालोपमा–जहाँ उपमेय (जिसके लिए उपमा दी जाती है) का उत्कर्ष दिखाने के लिए अनेक उपमान एकत्र किये जाएँ, वहाँ मालोपमा अलंकार होता है; जैसे-

हिरनी से मीन से, सुखंजन समान चारु ।
अमल कमल-से विलोचन तुम्हारे हैं ।।।

स्पष्टीकरण-उपर्युक्त उदाहरण में आँखों की तुलना अनेक उपमानों (हिरनी से, मीन से, सुखंजन समान, कमल से) की गयी है। अत: यहाँ पर मालोपमा अलंकार है।।

2. रूपक [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 18]

लक्षण (परिभाषा)–जहाँ उपमेय और उपमान में अभिन्नता प्रकट की जाए, अर्थात् उन्हें एक ही रूप में प्रकट किया जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है; जैसे-

अरुन सरोरुह कर चरन, दृग-खंजन मुख-चंद।
समै आइ सुंदरि-सरद, काहि न करति अनंद ॥

स्पष्टीकरण-इस उदाहरण में शरद् ऋतु में सुन्दरी को, कमल में हाथ-पैरों का, खंजन में आँखों का और चन्द्रमा में मुख का भेदरहित आरोप होने से रूपक अलंकार है। | भेद-रूपक अलंकार निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है ।
(i) सांगरूपक-जहाँ उपमेय पर उपमान का सर्वांग आरोप हो, वहाँ ‘सांगरूपक’ होता है; जैसे-

उदित उदयगिरि-मंच पर, रघुबर बाल पतंग।
बिकसे संत सरोज सब, हरखे लोचन-भंग ॥

स्पष्टीकरण–यहाँ रघुबर, मंच, संत, लोचन आदि उपमेयों पर बाल सूर्य, उदयगिरि, सरोज, मूंग आदि उपमानों का आरोप किया गया है; अतः यहाँ सांगरूपक है।
(ii) निरंगरूपक-जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप सर्वांग न हो, वहाँ निरंगरूपक होता है; जैसे–
कौन तुम संसृति-जलनिधि तीर, तरंगों से फेंकी मणि एक।
स्पष्टीकरण-इसमें संसृति (संसार) पर जलनिधि (सागर) का आरोप है, लेकिन अंगों का उल्लेख न होने से यह निरंगरूपक है।
(iii) परम्परितरूपक-जहाँ एक रूपक दूसरे रूपक पर अवलम्बित हो, वहाँ परम्परितरूपक होता है; जैसे-
बन्दी पवनकुमार खल-बन-पावक ज्ञान-घन।
स्पष्टीकरण–यहाँ पवनकुमार (उपमेय) पर अग्नि (उपमान) का आरोप इसलिए सम्भव हुआ कि खलों (दुष्टों) को घना वन (जंगल) बताया गया है; अत: एक रूपक (खल-वन) पर दूसरा रूपक (पवनकुमाररूपी पावक) निर्भर होने से यहाँ परम्परितरूपक है।
उपमा और रूपक अलंकार में अन्तर–उपमा में उपमेय और उपमान में समानता स्थापित की जाती है, किन्तु रूपक में दोनों में अभेद स्थापित किया जाता है; जैसे-‘मुख चन्द्रमा के समान है’ में उपमा है, किन्तु ‘मुख चन्द्रमा है’ में रूपक है।

उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकार में अन्तर–जहाँ पर उपमेय (जिसके लिए उपमा दी जाती है) में उपमान (उपमेय की जिसके साथ तुलना की जाती है) की सम्भावना प्रकट की जाती है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है; जैसे-‘मुख मानो चन्द्रमा है। जहाँ उपमेय और उपमान में ऐसा आरोप हो कि दोनों में किसी प्रकार का भेद ही न रह जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है; जैसे-‘मुख चन्द्रमा है।

4. उत्प्रेक्षा [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)-जहाँ उपमेय की उपमान के रूप में सम्भावना की जाए, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है; जैसे-

सोहत ओढ़ पीतु पटु, स्याम सलौने गात ।
मनौ नीलमनि-सैल पर, आतपु पर्यौ प्रभात ॥

स्पष्टीकरण-यहाँ पीताम्बर ओढ़े हुए श्रीकृष्ण के श्याम शरीर (उपमेय) की प्रात:कालीन सूर्य की प्रभा से सुशोभित नीलमणि पर्वत (उपमान) के रूप में सम्भावना किये जाने से उत्प्रेक्षा अलंकार है। ‘मनौ’ यहाँ पर वाचक शब्द है। इस अलंकार में जनु, जनहुँ, मनु, मनहुँ, मानो, इव आदि वाचक शब्द अवश्य आते हैं।
भेद-उत्प्रेक्षा अलंकार के निम्नलिखित तीन भेद होते हैं
(क) वस्तूत्प्रेक्षा–जब उपमेय (प्रस्तुत वस्तु) में उपमान (अप्रस्तुत वस्तु) की सम्भावना व्यक्त की जाती है, तब वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार होता है-

वहीं शुभ्र सरिता के तट पर, कुटिया का कंकाल खड़ा है।
मानो बाँसों में घुन बनकर शत शत हाहाकार खड़ा है।

स्पष्टीकरण–यहाँ पर घुन (प्रस्तुत वस्तु) में हाहाकार (अप्रस्तुत वस्तु) की सम्भावना की गयी है। अत: वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है।
(ख) हेतूत्प्रेक्षा–जहाँ पर काव्य में अहेतु में हेतु की सम्भावना व्यक्त की जाती है, वहाँ हेतूत्प्रेक्षा अलंकार होता है–

विनय शुक-नासा का धर ध्यान
बन गये पुष्प पलास अराल।

स्पष्टीकरण–यहाँ पर ढाक के फूलों का वक्र आकार होना स्वाभाविक है। नायिका की नुकीली नाक की उससे सम्भावना की जाए यह हेतु नहीं है; परन्तु यहाँ उसे हेतु माना गया है, अतएव अहेतु की सम्भावना होने से हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है।।

(ग) फलोत्प्रेक्षा–जब अफल में फल की सम्भावना की जाए वहाँ पर फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है-

नित्य ही नहाती क्षर सिन्धु में कलाधर है
सुन्दरि ! तवानन की समता की इच्छा से ।

यहाँ पर चन्द्रमा का प्रतिदिन क्षीरसागर में स्नान करने का उद्देश्य सुन्दरी के मुख की समता प्राप्त करने में निहित है। वास्तव में ऐसा नहीं है, परन्तु इस प्रकार की सम्भावना की गयी है। अत: यहाँ फलोत्प्रेक्षा अलंकार है।।

5. भ्रान्तिमान [2009, 10, 14, 15, 16, 18] |

लक्षण (परिभाषा)-जहाँ समानता के कारण भ्रमवश उपमेय में उपमान का निश्चयात्मक ज्ञान हो, वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है; जैसे—रस्सी (उपमेय) को साँप (उपमान) समझ लेना।

कपि करि हृदय बिचार, दीन्ह मुद्रिका डारि तब ।।
जानि अशोक अँगार, सीय हरषि उठि कर गहेउ ।

स्पष्टीकरण-यहाँ सीताजी श्रीराम की हीरकजटित अँगूठी को अशोक वृक्ष द्वारा प्रदत्त अंगारा समझकर उठा लेती हैं। अँगूठी (उपमेय) में उन्हें अंगारे (उपमान) का निश्चयात्मक ज्ञान होने से यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।

6. सन्देह [2009, 10, 11, 13, 14, 15, 16, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)-जब किसी वस्तु में उसी के समान दूसरी वस्तु का सन्देह हो जाए और कोई निश्चयात्मक ज्ञान न हो, तब सन्देह अलंकार होता है; जैसे—

परिपूरन सिन्दूर पूर कैधौं मंगल घट।
किधौं सक्र को छत्र मढ्यो मानिक मयूख पट ।।

स्पष्टीकरण-यहाँ लाल वर्ण वाले सूर्य में सिन्दूर भरे हुए घट’ तथा ‘लाल रंग वाले माणिक्य में जड़े हुए छत्र’ का सन्देह होने से सन्देह अलंकार है।
सन्देह और भ्रान्तिमान में अन्तर–सन्देह अलंकार में उपमेय में उपमान का सन्देहमात्र होता है, निश्चयात्मक ज्ञान नहीं; जैसे-‘यह रस्सी है या साँप’। इसमें रस्सी (उपमेय) में साँप (उपमान) का सन्देह होता है, निश्चय नहीं; किन्तु भ्रान्तिमान में उपमेय में उपमान का निश्चय हो जाता है; जैसे—रस्सी को साँप समझकर कहना कि ‘यह साँप है।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi अलंकार help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi अलंकार, drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 9 Group Tension

UP Board Solutions for UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 9 Group Tension (समूह-तनाव) are part of UP Board Solutions for Class 12 Psychology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12  Psychology Chapter 9 Group Tension (समूह-तनाव).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Psychology
Chapter Chapter 9
Chapter Name Group Tension
(समूह-तनाव)
Number of Questions Solved 50
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 9 Group Tension (समूह-तनाव)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समूह-तनाव (Group Tension) से आप क्या समझते हैं? समूह-तनाव की उत्पत्ति के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
या
समूह-तनाव से आप क्या समझते हैं? समूह तनाव के लिए उत्तरदायी कारकों को स्पष्ट कीजिए। (2008, 10, 15, 16)
या
समूह-तनाव के लिए उत्तरदायी चार कारणों के बारे में लिखिए। (2012)
उत्तर.

भूमिका
(Introduction)

मनुष्य को समूह में रहने वाले एक सामाजिक प्राणी के रूप में स्वीकार किया जाता है। प्रत्येक समाज में समूहों का निर्माण विभिन्न आधारों पर होता है; जैसे-धर्म, जाति, सम्प्रदाय, वर्ग, क्षेत्र, भाषा, व्यवसाय, आवास, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक स्तर आदि। ‘तनाव’ (Tension) एक प्रकार की मानसिक अवस्था है, जो व्यक्ति और समूह दोनों में पायी जाती है। कोलमैन के अनुसार, “मनोवैज्ञानिक अर्थों में तनाव, दबाव, बेचैनी तथा चिन्ता की अनुभूति है।” सामाजिक विघटन की क्रिया में भीतरी तनावों के कारण समाज के अंग टूटकर अलग होने लगते हैं। और उनकी प्रगति रुक जाती है। समूहों के बीच इस स्थिति को ‘समूह-तनाव (Group Tension) कहते हैं।

समूह-तनाव का अर्थ
(Meaning of Group Tension)

समूह-तनाव उस स्थिति का नाम है जिसमें समाज का कोई वर्ग, सम्प्रदाय, धर्म, जाति या राजनीतिक दल-दूसरे के प्रति भय, ईर्ष्या, घृणा तथा विरोध से भर जाता है। ऐसी दशा में उन दोनों समूहों में सामाजिक तनाव उत्पन्न हो जाता है। इन समूहों में यह तनाव अलगाव की भावना के कारण उत्पन्न होता है, जिसके परिणामस्वरूप कोई समाज या राष्ट्र छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो जाता है। आज दुनियाभर के समाज इस प्रकार के समूह-तनाव के शिकार हैं, जिनके कारण मानव सभ्यता मार-काट, विद्रोह और युद्ध की त्रासदी से गुजर रही है। अमेरिका में अमेरिकन तथा हब्शी, दक्षिणी अफ्रीका में श्वेत और अश्वेत प्रजातियाँ, हिटलर के समय में जर्मन और यहूदी-इन समूहों के बीच तनाव विश्वस्तरीय समूह-तनाव के उदाहरण हैं। हमारे देश भारत में हिन्दू-मुसलमानों के बीच, उत्तरी एवं दक्षिणी भारतीयों के बीच, ऊँची और नीची जातियों के बीच, विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच,
समूह-तनाव 177 राजनीतिक दलों के बीच तथा मालिकों व श्रमिकों के बीच अक्सर ही समूह-तनाव उत्पन्न हो जाता है। इन तनावे की परिस्थितियों से न केवल हमारी राष्ट्रीय एकता क्षीण होती है, अपितु राष्ट्रीय शक्ति का भी अपव्यय होता है।

समूह-तनाव के विभिन्न प्रकार अथवा रूप
(Different kinds of Group Tension)

भारत एक विशाल देश है जिसमें अनेक प्रकार की जातियाँ, सम्प्रदाय, वर्ग तथा विविध भाषा-भाषी लोग विभिन्न क्षेत्रों में निवास करते हैं। इन्हीं के आधार पर हमारे भारतीय समाज में समूह-तनाव के ये चार प्रमुख स्वरूप या प्रकार पाये जाते हैं-

  1. जातिगत समूह-तनाव,
  2. साम्प्रदायिक समूह-तनाव,
  3. क्षेत्रीय समूह-तनाव तथा
  4. भाषागत समूह-तनावे।

समूह-तनाव के कारण
(Causes of Group Tension)

समूह-तनाव के अनेक कारण हैं। जाति, वर्ग, धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र, भाषा, संस्कृति तथा सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थिति आदि विभिन्न आधारों को लेकर समूह निर्मित हो जाते हैं। इन समूहों के निहित स्वार्थ तथा क्षुद्र मानसिकता के कारण पारस्परिक द्वेष तथा विरोध पनपते हैं जिनसे समूह-तनाव उत्पन्न हो जाता है।
समूह-तनाव के विभिन्न कारणों को निम्नलिखित दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
(1) वातावरणीय कारण
(2) मनोवैज्ञानिक कारण।

(1) वातावरणीय कारण (Environmental Causes)
समूह-तनाचे को जन्म देने वाले प्रमुख वातावरणीय कारण निम्नलिखित हैं –

(i) ऐतिहासिक कारण- अनेक ऐतिहासिक कारण समूह-तनाव के लिए उत्तरदायी रहे हैं। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर मुसलमान, ईसाई तथा अन्य सम्प्रदायों के लोग बाहर से हमारे देश में आये। मध्यकाल में मुसलमान आक्रान्ताओं ने शक्ति और हिंसा के बल पर यहाँ के निवासियों का धर्म-परिवर्तन किया स्थान-स्थान पर मन्दिर लूटे और गिराये तथा उनकी जगह मस्जिदें बनायी गयीं। समय के साथ-साथ घाव भरते गये और हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों में समन्वय हुआ। ये दोनों जातियाँ भारत की आजादी के लिए एकजुट होकर लड़ीं, आजादी तो मिली किन्तु ‘फूट डालो और राज्य करो की नीति का प्रयोग करके अंग्रेज शासक जाते-जाते हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य का जहर सींच गये। अधिकांश राजनीतिक दल अपनी स्वार्थ-सिद्धि हेतु देश की अनपढ़, भोली तथा धार्मिक अन्धविश्वासों से ग्रस्त जनता को पूर्वाग्रहों तथा तनाव से भर देते हैं जिससे साम्प्रदायिक तनाव बढ़ता है और संवेदनशील इलाकों में दंगे भड़कते हैं। उत्तर प्रदेश में अयोध्या से सम्बन्धित रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद, ऐतिहासिक कारण का एक प्रमुख उदाहरण है।

(ii) भौतिक कारण— किसी भी देश के प्राकृतिक भू-भाग, वहाँ के निवासियों की शरीर-रचना, वेशभूषा, खानपानं इत्यादि किसी विशेष क्षेत्र की ओर संकेत करते हैं। पूरा देश पर्वत, नदियों, वन, पठार तथा रेगिस्तान आदि भौतिक परिस्थितियों के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों में बँटा है। एक क्षेत्र के निवासी स्वयं को दूसरे से अलग समझने लगते हैं। विभिन्नता से उत्पन्न यह पृथकता ही पूर्वाग्रहों का कारण बनती है जिसके फलस्वरूप सामूहिक तनाव पैदा होते हैं।

(iii) सामाजिक कारण- समूह-तनाव की पृष्ठभूमि में अनेक सामाजिक कारण क्रियाशील होते हैं। दो वर्गों या सम्प्रदायों के बीच सामाजिक दूरी उनमें ऊँच-नीच की भावना में वृद्धि करती है जिससे विरोध तथा तनाव का जन्म होता है। हिन्दू और मुसलमानों के रीति-रिवाज, प्रथाएँ, परम्पराएँ, खान-पान तथा पोशाक कई प्रकार से एक-दूसरे से भिन्न हैं। हिन्दू गाय को पवित्र तथा माँ के समान मानते हैं, किन्तु मुस्लिम समुदाय में ऐसा नहीं है। दोनों वर्गों की ये विभिन्नताएँ उनकी विचारधाराओं को विपरीत दिशाओं में मोड़ देती हैं, जिसके परिणामस्वरूप समूह-तनाव पैदा होता है तथा साम्प्रदायिक उपद्रव होते हैं।

इसी प्रकार हिन्दू समाज में ब्राह्मण सर्वोच्च तथा शूद्र निम्नतम सामाजिक स्थिति रखते । हैं। क्षत्रिय की अपेक्षा ब्राह्मण शूद्र को अपने से बहुत हीन तथा नीचा समझते हैं। प्रत्येक ऊँची स्थिति वाला वर्ग अपने से नीची स्थिति वाले वर्ग का शोषण एवं उत्पीड़न करता है। इससे समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सामाजिक दूरी बढ़ती जाती है और पूर्वाग्रह उत्पन्न होते हैं। पूर्वाग्रहों के कारण विभिन्न समूहों में तनाव की दशाएँ पैदा होती हैं।

(iv) धार्मिक कारण- भारत विविध धर्मों का देश है। शायद यहाँ विश्व के सभी देशों से अधिक धार्मिक विभिन्नता देखने को मिलती है। धर्म को समझने का आधार वैज्ञानिक और विवेकपूर्ण न होने के कारण विभिन्न धर्मावलम्बियों में आपसी अविश्वास, द्वेष, भय, विरोध, सन्देह तथा घृणा का भाव उत्पन्न हो गया है। हर एक धर्मावलम्बी अपने धर्म-विशेष को सर्वश्रेष्ठ तथा दूसरों को निम्न कोटि का तथा व्यर्थ समझता है। एक धर्म के लोग दूसरे पर छींटाकशी तथा आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं। इससे पूर्वाग्रहों तथा अफवाहों को बल मिलता है जिससे उत्पन्न तनाव की परिस्थितियाँ साम्प्रदायिक संघर्षों में बदल जाती हैं।

(v) आर्थिक कारण- दुनियाभर में आर्थिक विषमता और शोषण के आधार पर दो सबसे बड़े वर्ग बने हैं-शोषक और शोषित। स्पष्टतः पूँजीपति लोग ‘शोषक वर्ग’ के अन्तर्गत आते हैं, जबकि श्रमिक या मजदूर लोग ‘शोषित वर्ग के अन्तर्गत। शोषक (पूँजीपति) वर्ग, शोषित (श्रमिक) वर्ग का हर प्रकार से शोषण करता है। श्रमिकों की खून-पसीने की कमाई का अधिकतम लाभांश पूँजीपति लोग चट कर जाते हैं। इससे दोनों वर्गों के मध्य मतभेद और तनाव पैदा होते हैं जिसकी चरमावस्था ही वर्ग-संघर्ष है।

(vi) राजनीतिक कारण– अनेक राजनीतिक समस्याओं तथा सत्ता हथियाने के उद्देश्य से विभिन्न राजनीतिक दल एक-दूसरे की कठोर-से-कठोर आलोचना किया करते हैं। प्रत्येक दल दूसरे दलों की प्रतिष्ठा गिराने तथा उन्हें असफल करने के इरादे से राजनीतिक षड्यन्त्र रचता है। इन सभी बातों को लेकर एक़ राजनीतिक विचारधारा वाला समूह दूसरे समूहों के खिलाफ आन्दोलन चलाता है। जिससे तनाव पैदा होता है। सरकार द्वारा जनता के किसी वर्ग विशेष को प्रश्रय, अतिरिक्त लाभ या सुविधाएँ देने से भी यह समूह-तनाव उत्पन्न होता है।

(vii) सांस्कृतिक कारण –  सांस्कृतिक अलगाव भी समूह-तनाव का एक विशेष कारण है। किसी समुदाय विशेष की संस्कृति के विभिन्न अवयव हैं-उसके रीति-रिवाज, प्रथाएँ, परम्पराएँ, कला, साहित्य, धर्म तथा भाषी इत्यादि। सांस्कृतिक भिन्नता के आधार पर एक वर्ग स्वयं को दूसरों से पृथक समझने लगता है जिसके परिणामस्वरूप समूह-तनाव उत्पन्न होता है जिसकी परिणति संघर्ष में होती है।

(2) मनोवैज्ञानिक कारण (Psychological Causes)

सामान्यतया लोगों की दृष्टि में धर्म, सम्प्रदाय, जाति, वर्ग, भाषा तथा संस्कृति आदि वातावरणीय कारण ही समूह-तनाव के लिए उत्तरदायी हैं, किन्तु सत्यता यह है कि इन कारणों के अतिरिक्त कुछ मनोवैज्ञानिक कारणों की भी विशिष्ट भूमिका समूह-तनाव बढ़ाने के लिए उत्तरदायी है। समूह-तनाव के लिए उत्तरदायी प्रमुख मनोवैज्ञानिक कारणों का वर्णन निम्नलिखित है –

(i) पूर्वाग्रह– पूर्वाग्रह या पूर्वधारणा (Prejudice) से तात्पर्य किसी व्यक्ति, समूह, वस्तु या विचार के विषय में पूर्णतया जाने बिना, उसके अनुकूल या प्रतिकूल, अच्छा या बुरा निर्णय पहले से ही कर लेने से है। जेम्स ड्रेवर के अनुसार, “निश्चित वस्तुओं, सिद्धान्तों, व्यक्तियों के प्रति अनुकूल या प्रतिकूल अभिवृत्ति को, जिनमें संवेग भी सम्मिलित रहते हैं, पूर्वाग्रह कहते हैं। कभी-कभी ऐसा होता है कि भले ही हमने किसी व्यक्ति, समूह, वर्ग या वस्तु की सत्यता जानने का प्रयास किया हो अथवा नहीं, लेकिन हम किन्हीं कारणों से उनके विषय में पहले ही एक धारणा बना लेते हैं। हमारी यह पूर्वधारणा या विचार किसी तर्क या विवेक पर आधारित नहीं होता और न ही हम उसके सम्बन्ध में तथ्यों की छानबीन ही करते हैं; हम तो उसके विषय में एक निर्णय धारण कर लेते हैं-यही पूर्वाग्रह या पूर्वधारणा है क्योकि सम्बन्धित व्यक्ति का समूचा व्यक्तित्व इन्हीं पूर्वधारणाओं या पूर्वाग्रहों से ओत-प्रोत रहता है। अतः वह इन्हीं से प्रेरित होकर व्यवहार प्रदर्शित करता है जो समूह-तनाव, साम्प्रदायिक दंगों, उपद्रवों तथा अन्तर्राष्ट्रीय अशान्ति को जन्म देती है। स्पष्टतः पूर्वाग्रह, समूह-तनांव का एक अति महत्त्वपूर्ण एवं मौलिक कारण है।

(ii) अभ्यनुकूलन- अभ्यनुकूलन (Conditioning) का सिद्धान्त पूर्वाग्रहों के निर्माण में सहायक होता है और इस प्रकार समूह-तनाव का एक प्रमुख कारण बनता है। व्यक्ति जब शुरू में कुछ व्यक्तियों या वस्तुओं से विशेष प्रकार के अनुभव प्राप्त करता है तो वह उन विशेषताओं का सामान्यीकरण कर लेता है और उसे जाति या वर्ग-विशेष की सभी वस्तुओं या व्यक्तियों पर लागू कर देता है। उदाहरणार्थ-किसी विशुद्ध आचरण वाले ब्राह्मण परिवार का एक बच्चा अण्डे के सेवन को निरन्तर एवं बार-बार अधार्मिक एवं पाप कहते सुनता है। लगातार एक ही प्रकार की बात सुनते-सुनते उसके मन पर अण्डे के बुरे होने की स्थायी छाप पड़ जाती है। अब वह प्रत्येक अण्डा खाने वाले को अधार्मिक या पापी समझेगा और उससे घृणा करेगा। इसी भाँति एक समूह-विशेष के लोग प्रायः अभ्यनुकूलित होकर दूसरे समूह के लोगों के प्रति द्वेष, घृणा या विद्रोह की भावना से भर उठते हैं, जिसके फलस्वरूप समूह-तनाव उत्पन्न होता है।

(iii) तादात्म्य एवं अन्तःक्षेपण- व्यक्ति जिस परिवेश के घनिष्ठ सम्पर्क में रहता है उससे सम्बन्धित वर्ग, जाति या समूह के अन्य लोगों से वह अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है और उनसे आत्मीकरण कर लेता है। समनर (Sumner) ने इसे ‘अन्त:समूह’ (In-group) कहकर पुकारा है और अन्य समूहों को बाह्य-समूह (Out-group) का नाम दिया है। इन अन्त:समूहों तथा बाह्य-समूहों के मध्य संघर्ष, पूर्वधारणा को जन्म देता है। तादात्म्य एवं अन्तःक्षेपण की क्रिया से बनी यह पूर्वधारणा या पूर्वाग्रह ही समूह-तनाव का कारण बनती है।

(iv) सामाजिक दूरी- समाज के विभिन्न वर्गों में सामाजिक दूरी का होना भी तनाव की उत्पत्ति का कारण है। जब एक समूह के किसी दूसरे समूह के साथ किसी प्रकार के सम्बन्ध नहीं होते और उसके साथ सामाजिक व्यवहार भी नहीं होते तो इसे सामाजिक दूरी का नाम दिया जाता है। जिन समूहों में सामाजिक दूरी कम होती है उनमें प्रेम, मित्रता तथा निकट के सम्बन्ध स्थापित होते हैं, किन्तु जिनमें यह दूरी अधिक होती है उनमें पारस्परिक वैमनस्य तथा तनाव बढ़ते हैं। सामाजिक दूरी के अधिक होने से विभिन्न समूहों में तनाव उत्पन्न होते हैं।

(v) भ्रामक विश्वास, रूढ़ियाँ और प्रचार– विभिन्न विरोधी सम्प्रदायों में एक-दूसरे के प्रति भ्रामक रूढ़ियाँ, विश्वास तथा प्रचार चलते रहते हैं। रूढ़ियों का आधार साधारण रूप से परम्पराएँ होती हैं जिनके माध्यम से भ्रान्तिपूर्ण पूर्वधारणाओं का निर्माण होता है और ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में चलती जाती हैं। सामाजिक सम्पर्क के अभाव में इन रूढ़ियों तथा विश्वासों को दूर करना भी सम्भव नहीं होता। इसी के फलस्वरूप ये शनैः-शनैः तनाव का कारण बन जाते हैं। इसी प्रकार भ्रामक प्रचार भी तनाव के कारण । भारत-पाक युद्ध के दौरान पाकिस्तान भारत के विषय में भ्रामक प्रचार करता है जिससे भारत में रहने वाले हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास एवं विद्वेष बढ़े और भारत में गृहयुद्ध छिड़ जाए।

(vi) मिथ्या-दोषारोपण- एक समूह द्वारा दूसरे समूह पर झूठे और मनगढ़न्त आरोप लगाना मिथ्या-दोषारोपण कहलाता है। इनका कोई तार्किक या वैज्ञानिक आधार नहीं होता। एक समूह अपने प्रतिद्वन्द्वी समूह को नीचा दिखाने के लिए उस पर मिथ्या-दोषारोपण करता है। इसमें अफवाहें, कार्टून, व्यंग्य, आर्थिक भेदभाव, कानून द्वारा सामाजिक-आर्थिक-प्रतिबन्ध लगाना, सम्पत्ति का विनाश तथा बेगारी करना इत्यादि सम्मिलित हैं। मिथ्या-दोषारोपण की क्रियाएँ उस समय अधिक प्रभावकारी हो जाती हैं जब एक वर्ग को यह भय सताने लगता है कि दूसरा वर्ग उससे आगे बढ़ जाएगा या अधिक शक्तिशाली बन जाएगा। इस प्रकार के व्यवहारों में एक उच्च समूह के लोग अपनी चिन्ताओं, भग्नाशाओं, निराशाओं तथा मानसिक संघर्षों को प्रक्षेपण सुरक्षा प्रक्रिया द्वारा अभिव्यक्त करते हैं।

(vii) व्यक्तित्व एवं व्यक्तिगत विभिन्नताएँ– अध्ययनों से पता चलता है कि जिन लोगों में समायोजन दोष तथा व्यक्तित्व सम्बन्धी असन्तुलन पाया जाता है उनमें पूर्वाग्रहों की मात्रा सामांन्यजनों की अपेक्षा अधिक होती है। कुण्ठिते, असहिष्णु, आतंकित, असुरक्षित और मानसिक अन्तर्द्वन्द्व एवं हीन-भावना ग्रन्थियों से युक्त व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं को पूर्वाग्रहों की सहायता से प्रकट करते हैं। यदि किसी समूह का नेता व्यक्तित्व के असन्तुलन एवं पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है तो उस स्मूह का अन्य समूहों से समूह-तनाव लगातार बना रहता है। स्पष्टतः व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक विभिन्नताओं के कारण जो समायोजन के दोष पैदा होते हैं, उनसे समूह-तनाव जन्म लेते हैं।
वस्तुत: समूह-तनाव के लिए हमेशा कोई एक कारण उत्तरदायी नहीं होता, अक्सर एक या एक से अधिक वातावरणीय या मनोवैज्ञानिक कारण मिलकर समूह-तनाव उत्पन्न करते हैं।

प्रश्न 2.
पूर्वाग्रह (Prejudice) से क्यो आशय है? पूर्वाग्रहों के विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए इन्हें दूर करने के उपायों का भी उल्लेख कीजिए।
या
समाज में विभिन्न प्रकार के पूर्वाग्रहों का विकास क्यों होता है? उन्हें दूर करने के लिए क्या उपाय कर सकते हैं?
या
पूर्वाग्रह समूह-तनाव को किस प्रकार बढ़ाते हैं? पूर्वग्रह को दूर करने की विधियों का वर्णन कीजिए।(2010, 12)
या
पूर्वग्रहित निर्णय का अर्थ स्पष्ट कीजिए। पूर्वाग्रहित निर्णयों के विकास के कारणों का वर्णन कीजिए। (2015)
या
पूर्वग्रहित निर्णय का अर्थ स्पष्ट कीजिए। पूर्वग्रहित निर्णयों को कम करने की विधियाँ लिखिए। (2017)
उत्तर.

भूमिका
(Introduction)

प्रत्येक व्यक्ति समाजीकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत समाज के अन्य व्यक्तियों तथा समूहों के प्रति सम्बन्धात्मकं या द्वेषात्मक या घृणात्मक प्रवृत्तियाँ विकसित करता है। व्यक्ति जिस समूह को सदस्य होता है, वह समूह उसे दूसरे समूहों के प्रति पूर्वाग्रही बना देता है। पूर्वाग्रह का प्रभाव इतना गहरा होता है कि व्यक्ति यह नहीं समझ पाता कि वह किन्हीं व्यक्तियों या समूहों के प्रति पूर्वाग्रही भी है। पूर्वाग्रह से ग्रस्त व्यक्ति को प्रत्येक विचार, भावना अथवा क्रिया पूरी तरह से सहज एवं स्वाभाविक प्रतीत होती है और वह अपने पूर्वाग्रहयुक्त व्यवहार को सामान्य व्यवहार समझता है। पूर्वाग्रह समूह-तनाव के लिए आधारभूत मनोवैज्ञानिक कारण है। पूर्वाग्रहों के विकास के साथ-ही-साथ समूह-तनाव का भी विकास होता है।

पूर्वाग्रह का आशय
(Meaning of Prejudice)

लैटिन भाषा का एक शब्द है प्रीजूडिकम (prejudicum) जिसका शाब्दिक अर्थ है-‘पूर्व निर्णयों पर आधारित निर्णय’। पूर्वाग्रह में किसी बात की जाँच या परीक्षा करने से पहले ही उसके सम्बन्ध में कोई निश्चित विश्वास और अभिवृत्ति बना ली जाती है, अर्थात् पूर्वाग्रह एक ऐसा निर्णय होता है जो तथ्यों के समुचित परीक्षण के पूर्व ही ले लिया जाता है। इस भॉति, पूर्वाग्रह को शीघ्रतापूर्वक लिया गया या अपरिपक्व निर्णय कहा जा सकता है। इसमें सन्देह नहीं कि पूर्वाग्रह अनुचित और अविवेकपूर्ण होते हैं। उदाहरण के तौर पर भारतीय समाज में प्रायः ऊँची जाति के लोग अनुसूचित जाति के लोगों को अस्पृश्य समझते हैं और उन्हें छूने से परहेज करते हैं। यह एक पूर्वाग्रह है। इसी प्रकार युद्धप्रिय कबीलों या समूहों में जन्म लेने वाले बालकों को इस भाँति पाला-पोसा और प्रशिक्षित किया जाता है कि उनमें शत्रु के प्रति द्वेषात्मक एवं घृणात्मक प्रवृत्तियाँ विकसित हो जाती हैं। बालकों की ऐसी प्रवृत्तियाँ एवं व्यवहार के प्रतिमान सहज, सामान्य तथा सामाजिक दृष्टि से स्वीकृत समझे जाते हैं। इतना ही नहीं बल्कि होता यह है कि जो बालक बड़े होकर इन प्रवृत्तियों/प्रतिमानों के अनुरूप व्यवहार नहीं करते, वे अपने समूह से बहिष्कृत और अपने समूह की सुरक्षा के प्रति खतरा समझे जाते हैं। समूह या कबीला इसके लिए उन्हें दण्ड भी दे सकती है। निष्कर्षतः व्यक्तिगत, समूहगत, पारस्परिक वृत्तियों एवं विश्वासों के आधार पर किसी समूह, समुदाय, सम्प्रदाय, वर्ग, क्षेत्र, मत-मजहब या भाषा के प्रतिकूल या अनुकूल जब कोई धारणा निर्मित कर ली जाती है तो उसे पूर्वाग्रह (Prejudice) कहते हैं।

पूर्वाग्रह की परिभाषा
(Definition of Prejudice)

पूर्वाग्रह को विभिन्न विद्वानों द्वारा निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया गया है
(1) क्रेच और क्रचफील्ड के अनुसार, “पूर्वाग्रह उन अभिवृत्तियों तथा विश्वासों को कहा जाता है जो व्यक्तियों को अनुकूल तथा प्रतिकूल स्थिति में रखते हैं। …………….. जातीय पूर्वाग्रह किसी अल्पसंख्यक, जातीय, नैतिक और राष्ट्रीय समूह के प्रति उन मनोवृत्तियों तथा विश्वासों को कहते हैं जो उस समूह के सदस्यों के लिए प्रतिकूल होते हैं।”

(2) जेम्स ड्रेवर के मतानुसार, “निश्चित वस्तुओं, सिद्धान्तों, व्यक्तियों के प्रति अनुकूल या प्रतिकूल अभिवृत्ति को, जिसमें संवेग भी सम्मिलित रहते हैं, पूर्वाग्रह कहते हैं।”
क्रेच एवं क्रचफील्ड तथा जेम्स ड्रेवर की उपर्युक्त दोनों परिभाषाओं में दो शब्दों का प्रयोग मिलता है, ये हैं-‘अभिवृत्ति’ और ‘विश्वास’। पूर्वाग्रह को समझने के लिए इन दोनों शब्दों से परिचित होना आवश्यक है।

अभिवृत्ति एवं विश्वास (Attitudes and Believes)-अभिवृत्ति एक मानसिक एवं स्नायविक तत्परता है जिसका प्रभाव व्यक्ति के समस्त व्यवहारों पर पड़ता है। इसी भाँति, प्रत्येक व्यक्ति का अपना अलग एक संसार होता है जिसमें अपनी देखी हुई तथा जानी हुई बातों के आधार पर वह कुछ विश्वासं निर्मित कर लेता है। विश्वास अच्छे-बुरे अथवा सही-गलत कुछ भी हो सकते हैं। किन्तु ये विश्वास उस व्यक्ति को एक सुनिश्चित व्यवहार प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

क्रेच तथा क्रचफील्ड ने अभिवृत्ति एवं विश्वास को इस प्रकार परिभाषित किया है-“व्यक्ति से सम्बन्धित समुदाय के कुछ पक्षों के प्रति प्रेरणात्मक, संवेगात्मक, प्रत्यक्षात्मक तथा ज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के स्थायी संगठन को अभिवृत्ति कहते हैं।” तथा “व्यक्ति से सम्बन्धित समुदाय के कुछ पक्षों के प्रति प्रत्यक्षीकरण तथा ज्ञान के स्थायी संगठन को विश्वास कहा जाता है।”

पूर्वाग्रहों का विकास (पूर्वाग्रहों के विकास के कार्यकारी कारक)
(Development of Prejudices)

पूर्वाग्रहों के विकास में अनेक तत्त्व कार्य करते हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत है |

(1) अभ्यनुकूलन (Conditioning)- अभ्यनुकूलन पूर्वाग्रहों के विकास में एक महत्त्वपूर्ण अवयव है। इसके द्वारा विकसित पूर्वाग्रह अत्यन्त सरल प्रकार के होते हैं तथा इनको जल्दी ही दूर कर लिया जा सकता है। गार्डनर मर्फी नामक मनोवैज्ञानिक ने पूर्वाग्रह के निर्माण तथा विकास की प्रक्रिया में अभ्यनुकूलन का योगदान स्पष्ट किया है। मर्फी के अनुसार हम किसी धार्मिक रीति-रिवाज, समुदाय, भाषा या वर्ग के प्रति पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो जाते हैं और इस भॉति निर्मित पूर्वाग्रह विकसित होकर व्यक्ति के सामान्य अनुभवों का अंग बन जाते हैं। उदाहरण के लिए—माना कोई बालक लम्बी-चौड़ी कद-काठी, दाढ़ी-मूंछ वाले किसी कुरूप तथा डरावने व्यक्ति को लड़ते हुए देख लेता है तो वह उससे भयभीत हो जाता है तथा बचने का प्रयास करता है। इस प्रकार उसके मन में यह विश्वास उत्पन्न हो जाता है कि ऐसे व्यक्ति क्रूर, निर्दयी तथा आततायी होते हैं। भविष्य में उसका यह आग्रह समूचे समुदाय या जाति पर लागू हो जाता है। इस प्रकार का पूर्वाग्रह अभ्यनुकूलन के कारण से ही विकसित हुआ।

(2) आत्मीकरण तथा अन्तःक्षेपण (Identification and Interjection)– किम्बाल यंग के मतानुसार, “आन्तरिक समूह तथा बाह्य समूह के पारस्परिक संघर्ष पूर्वाग्रहों को जन्म देते हैं।” मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में अनेक प्रकार के समूहों की उपस्थिति-मात्र से ही पूर्वाग्रहों का जन्म नहीं होता, संघर्ष तो समूहों में भेदभाव के कारण उत्पन्न होता है। यदि सभी जातियों, सम्प्रदायों में आपसी भेदभाव नहीं है तो ऐसी दशा में पूर्वाग्रहों की उत्पत्ति नहीं होगी। वस्तुतः जब व्यक्ति अपने तथा बाहरी समाज के बीच अन्तर समझने लगता है तो यह अन्तर ही उस व्यक्ति में पूर्वाग्रहों को विकसित करता है ।

‘आत्मीकरण’ की प्रक्रिया के अन्तर्गत बालक स्वयं को अपने परिवार के अनुकूल ढालने का प्रयास करता है तथा परिवार के रीति-रिवाजों, प्रथाओं एवं परम्पराओं को आत्मीकृत कर लेना चाहता है जिसके परिणामस्वरूप उसके मस्तिष्क पर विभिन्न प्रकार के पूर्वाग्रहों का विकास समाज के विभिन्न समुदायों, वर्गों तथा जातियों के प्रति होने लगता है।

बड़ा होने पर बालक समाज की कई संस्थाओं; जैसे—स्कूल, धर्मस्थल, क्रीड़ास्थल तथा सामुदायिक क्लबोंके सम्पर्क में आता है और विविध अनुभव प्राप्त करता है। इसके फलस्वरूप उसके मन में विभिन्न धर्मों, वर्गों, जातियों, सम्प्रदायों, भाषाओं तथा क्षेत्रों के प्रति एक विशिष्ट पृष्ठभूमि और विचारधारा निर्मित हो जाती है। अब उसके सामने दो समाज होते हैं—एक अपना निजी समाज तथा दूसरा बाहरी समाज। दोनों समाजों के बीच वह एक अन्तर का बोध करने लगता है और इस प्रकार उसमें पूर्वाग्रह विकसित हो जाते हैं।

(3) व्यक्तिगत एवं सामाजिक सम्पर्क (Personal and Social Contact)- शुरू में बालक अपने माता-पिता तथा परिवारजनों के सम्पर्क में आता है। इस छोटे-से क्षेत्र में ही उसे प्राथमिक अनुभव होते हैं जो आयु वृद्धि के साथ-साथ पास-पड़ोस, गली-मुहल्ले, नगर और इस भाँति बाहरी समाज तक फैल जाते हैं। यहाँ बालक को दोनों ही प्रकार के अनुभव होते हैं कुछ खट्टे तो कुछ मीठे, कुछ प्रतिकूल तो कुछ अनुकूल। बाहरी समाज के व्यवहार से दुःख या पीड़ा महसूस होने पर बालक को कटु अनुभव होते हैं और वह उस समाज को अपने विरुद्ध समझकर उसके प्रति पूर्वाग्रह विकसित कर लेता है। सुखकारी अनुभव अनुकूल पूर्वाग्रहों की उत्पत्ति करते हैं तथा उन्हें विकसित करते हैं।

(4) सामाजिक दूरी (Social Distance)- सामाजिक दूरी का अभिप्राय है, एक समूह का दूसरे समूह से अलगाव अर्थात् उनमें पारस्परिक व्यवहार का अभाव और इस भॉति उनके बीच आपसी सम्बन्धों का न होना। सामाजिक दूरी रखने वाले समूहों के रीति-रिवाज, प्रथाएँ, परम्पराएँ, आस्थाएँ और सामाजिक व्यवहार भी पृथक् ही होते हैं। इससे आपसी तनाव बढ़ता है। प्रायः परस्पर विरोधी समूह एक-दूसरे को घृणा व सन्देह की दृष्टि से देखते हैं, एक-दूसरे को अपने से हीन मानते हैं, एक-दूसरे के विरुद्ध अफवाहें फैलाते हैं तथा घृणास्पद प्रचार करते हैं। इसके फलस्वरूप उनमें परस्पर तनाव उत्पन्न हो जाता है और संघर्ष प्रबल हो जाता है। भारतीय समाज में धार्मिक, साम्प्रदायिक, जातीय, क्षेत्रीय तथा भाषायी तनाव अक्सर दखने में आते हैं। इस प्रकार सामाजिक दूरी के आधार पर पूर्वाग्रहों का विकास होता है।

(5) व्यक्तित्व (Personality)- मनोवैज्ञानिक खोजों से ज्ञात हुआ है कि समाज में असन्तुलित व्यक्तित्व वाले तथा कुसमायोजित लोग, आम लोगों की अपेक्षा, पूर्वाग्रहों से अधिक ग्रस्त पाये जाते हैं। वस्तुत: ऐसे लोग अपनी मानसिक कुण्ठाओं, मनोविकारों, भय या असुरक्षा की भावना को पूर्वाग्रहों के मध्यम से प्रकट करते हैं और समाज में तनाव के बीज आरोपित कर देते हैं। ऐसे व्यक्ति यदि किसी समूह, समुदाय, क्षेत्र या मजहब के नेता हों तो वह सामूहिक तनाव सतत प्रबल होता जाता है। कुछ स्वार्थी नेता तथाकथित निम्न तथा उच्च जातियों के बीच भेदभाव उत्पन्न करके जातीय तनाव बढ़ा देते हैं। इस प्रकार व्यक्तित्व के कारण भी पूर्वाग्रहों का विकास होता है।

(6) मिथ्या-दोषारोपण (Scapegoating)– मिथ्या-दोषारोपण के माध्यम से एक समूह अपने विरोधी समूह के विरुद्ध झूठी तथा भ्रामक बातों को प्रचार करता है। इन आरोपों के पीछे कोई तर्क या वैज्ञानिक आधार नहीं होता। मिथ्या-दोषारोपण में एक समूह सम्भाषण, समाचार-पत्र, मंच, रेडियो तथा टी० वी० आदि के माध्यम से दूसरे समूह के विरुद्ध विरोधी प्रचार करता है। कभी-कभी तो यह आलोचना इतनी उत्तेजनापूर्ण एवं घृणित हो जाती है कि विरोधी समूहों में खुला व रक्तपातपूर्ण संघर्ष शुरू हो जाता है। स्पष्टतः मिथ्या-दोषारोपण पूर्वाग्रहों के विकसित होने का महत्त्वपूर्ण कारक हो जाता है।

(7) रूढ़ियाँ (Stereotypes)- प्रसिद्ध विद्वान् किम्बाल यंग के मतानुसार, “रूढ़ियाँ एक बेकार की धारणा हैं जो किसी समूह के ऐसे लक्षणों को व्यक्त करने के लिए बनायी जाती हैं, जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता।” रूढ़ियाँ ऐसी प्रतिमाएँ हैं जो व्यक्ति विशेष के मन में किन्हीं समूहों के प्रति दुराग्रह, द्वेष या घृणा के कारण निर्मित हो जाती हैं। रूढ़ियाँ आधारहीन व परम्परागत होती हैं। तथा भाषा एवं संस्कारों के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाली होती हैं। किस्से, कथा एवं कहानियाँ इन रूढ़ियों को पोषित करते हैं। रूढ़ियों का सम्बन्ध क्योंकि मानसिक क्रियाओं; यथा-संवेगों व प्रेरणाओं से होता है; अत: ये मानव-जीवन पर सदैव किसी-न-किसी रूप में असर डालती हैं। रूढ़ियों से परिचालित मानव-व्यवहार पूर्वाग्रहों में रूपान्तरित तथा विकसित हो जाता है और समूह-तनावों का कारण बनता है।

पूर्वाग्रह दूर करने के उपाय
(Remedies for the Removal of Prejudices)

आधुनिक भारतीय समाज एक बहुलवादी एवं प्रतियोगितावादी समाज है, जहाँ व्यक्ति को पूर्वाग्रह की ओर ले जाने वाले कई रास्ते हैं और इन रास्तों पर चलने में कोई कठिनाई भी नहीं होती है। साथ ही, यह पूर्वाग्रहों की सार्वभौमिकता भी सामान्य है, किन्तु अनेक पूर्वाग्रह मानव-समाज के लिए अत्यन्त घातक हैं जिनका डटकर मुकाबला किया जाना चाहिए तथा जिन्हें दूर करने के भरसक एवं तत्काल कदम उठाये जाने चाहिए। ऐसे ही कुछ उपाय निम्नलिखित रूप में उल्लिखित हैं –
(1) सम्पर्क – मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि विभिन्न समूहों के बीच पूर्वाग्रहों को कम करने के लिए उनमें परस्पर सम्पर्क वृद्धि अनिवार्य है। इसका सर्वोत्तम उपाय है कि सभी समूहों को एक-दूसरे के समीप लाया जाये और उन्हें ऐसी परिस्थतियों के अन्तर्गत रखा जाये कि सभी समूह परस्पर परिचित हों और उनमें मेल-मिलाप बढ़ सके। सम्पर्क वृद्धि के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है –

  1. पूर्वाग्रह को दूर करने के लिए समूह का प्रत्येक सदस्य विभिन्न परिस्थितियों (जैसे – कॉलेज या नौकरी) में बराबरी के स्तर पर प्रतिभागिता करे।
  2. सभी को यह ज्ञात हो कि वे एक समान लक्ष्य के लिए कार्य कर रहे हैं।
  3. इस प्रकार कार्य-समूह द्वारा सफलता प्राप्त करने पर पूर्वाग्रह समाप्त हो जाते हैं और घनिष्ठता विकसित होती है; अतः सफलता महत्त्वपूर्ण कारक है।
  4. समूह के सभी सदस्यों को विचाराभिव्यक्ति का पूरा अवसर मिलना चाहिए तथा उनकी निर्णय लेने में भागीदारी होनी चाहिए।

(2) शिक्षा- शिक्षा पूर्वाग्रहों को दूर करने का सशक्त साधन है। शिक्षित व्यक्ति बिना सोच-विचार किये किसी बात पर विश्वास नहीं करता, वह उसे पहले तर्क की कसौटी पर कसता है। इसके अतिरिक्त शिक्षा दूसरे समूहों के बारे में सूचनाएँ प्रदान करती है, जिसके फलस्वरूप लोगों में दूसरों के प्रति स्वीकृत्यात्मक भावनाएँ विकसित होती हैं। शोध अध्ययनों के निष्कर्ष बताते हैं कि अशिक्षित लोगों की तुलना में कॉलेज स्तर के शिक्षित लोगों में बहुत कम पूर्वाग्रह देखने में आये हैं।

(3) सामाजिक-आर्थिक समानता– समाज के विभिन्न वर्गों, समूहों या समुदायों में पारस्परिक तनाव एवं संघर्ष का एक प्रमुख कारण समाज में व्याप्त सामाजिक-आर्थिक विषमता है। सामाजिक संघर्ष का एक बड़ा कारण धनी एवं निर्धनों के बीच भारी विषमता है। अतः सामाजिक एवं आर्थिक सुधारों के द्वारा पूर्वाग्रहों को कम और दूर किया जा सकता है।

(4) भावात्मक एकता- भावात्मक एकता स्थापित कर भी पूर्वाग्रहों को एक बड़ी सीमा तक समाप्त किया जा सकता है। इसके लिए राष्ट्रीय उत्सवों तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। भावनात्मक एकता का पूर्वाग्रहों पर गहरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

(5) सन्तुलित व्यक्तित्व– असन्तुलित व्यक्तित्व के कारण भी पूर्वाग्रह पनपते हैं। असन्तुलित व्यक्तित्व तथा असमायोजन दोष के कारण अविश्वास उभरता है तथा दूषित अभिवृत्तियाँ जन्म लेती हैं। सन्तुलित व्यक्तित्व भग्नाशा, असहिष्णुता हीन-भावना तथा मानसिक संघर्ष को कम करता है और इस भाँति विरोधी समूहों पर दोषारोपण के अवसर कम होते जाते हैं।

(6) चेतना का स्तर- पूर्वाग्रह दूर करने का एक उत्तम उपाय है-चेतना जाग्रत करना। चेतना के जागरण से वैकल्पिक यथार्थों का निर्माण होता है तथा समूह के सदस्य अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों तथा उत्पीड़क प्रभावों के प्रति संवेदनशील बनते हैं। उनमें सामूहिक शक्ति, एकता की भावना तथा सामूहिक प्रतिरक्षा की भावना विकसित होती है।

प्रश्न 3.
समूह – तनाव को दूर करने के उपाय बताइए।
या
समूह-तनाव का निराकरण किस प्रकार किया जा सकता है? उदाहरण सहित विवरण दीजिए।
उत्तर.

समूह-तनाव के निवारण की विधियाँ
(Measures to Remove the Group Tension)

आज हमारे देश में समूह-तनाव की समस्या ने गम्भीर रूप धारण कर लिया है। इसे दूर करने के लिए उन सभी कारणों का निवारण करना होगा जो तनाव की उत्पत्ति एवं विकास के लिए उत्तरदायी हैं। समूह-तनाव की समाप्ति के लिए अभी तक कोई प्रभावशाली मनोवैज्ञानिक उपाय नहीं खोजे जा सके हैं, अत: सामान्य रूप से परम्परागत विधियों से समूह-तनाव को कम करने का प्रायस किया जाता है। समूह-तनाव पारिवारिक वातावरण में जन्म लेते हैं। पड़ोस, विद्यालय तथा खेल के मैदान में इन्हें शक्ति मिलती है तथा साम्प्रदायिक राजनीतिक दलों, पुस्तकों, समाचार-पत्रों तथा भाषणों द्वारा इनका पोषण किया जाता है।

विभिन्न प्रकार के समूह-तनावों के निवारण हेतु निम्नलिखित सामान्य उपाय काम में लाये जाते हैं –

(1) व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास (Harmonious Development of Personality)- समूह तनाव को दूर करने के लिए जीवन के प्रारम्भिक चरण से ही व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास आवश्यक है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, व्यक्तित्व का सन्तुलन बिगड़ने से मानसिक स्वास्थ्य खराब होता है जिससे संघर्ष और तनाव जन्म लेते हैं। व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास व्यक्ति को पूर्वाग्रहों या पूर्णधारणाओं से मुक्त रखता है और वह जीवन के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाने में सफल होता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मानसिक स्वास्थ्य, विज्ञान के प्रचार-प्रसार, समायोजन दोषों के उपचार तथा निर्देशन-सेवाओं के विस्तार की अत्यधिक आवश्यकता है।

(2) उचित शिक्षा (Proper Education)– उपयुक्त शिक्षा समूह-तनावों को दूर करने का सबसे प्रभावशाली माध्यम है। शिक्षा की कमी और बाह्य समूहों के प्रति अज्ञानता के कारण विभिन्न वर्गों के बीच तनाव बढ़ते हैं। शिक्षा की रूपरेखा इस प्रकार तैयार की जानी चाहिए कि विभिन्न क्षेत्रों या प्रान्तों के निवासी एक-दूसरे की भाषा, संस्कृति, बोल- चाल, रहन-सहन और भावनाओं को उचित सम्मान दे सकें; वे संकीर्णता के स्थान पर उदार दृष्टिकोण अपना सकें। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री के०जी० सैन्यदेन का मत है कि समूह-तनाव की रोकथाम के लिए बालकों के लिए विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों तथा सम्प्रदायों को मूल्यवान बातों की शिक्षा की व्यवस्था की जाए ताकि वे एक-दूसरे की संस्कृति, धर्म तथा सम्प्रदाय को भली-भाँति समझ सकें।

पाठ्यक्रम पुस्तकें तथा मनोरंजन सम्बन्धी साहित्य का चयन करते समय बालकों के संवेगात्मक तथा उचित विकास व अभिवृत्ति निर्माण का ध्यान रखा जाये। शिक्षक पूर्वाग्रहों से मुक्त हों तथा स्वस्थ-सन्तुलित व्यक्तित्व वाले हों। उन्हें चाहिए कि बालकों को आपसी घनिष्ठ मित्रता के लिए प्रोत्साहित करें। विद्यालयों में प्रजातान्त्रिक नियमों तथा विश्व-बन्धुत्व की भावना को समर्थन मिलना चाहिए। वस्तुत: एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता, सद्भाव, प्रेम एवं अच्छी सोच पैदा करने वाली शिक्षा ही समूह-तनाव को कम कर सकती है।

(3) सामाजिक सम्पर्क (Social Contact)— समूह-तनाव का एक प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण कारण सामाजिक दूरी है। सामाजिक दूरी को कम करने के लिए समाज में स्थित विभिन्न समूहों को एक-दूसरे के अधिकाधिक निकट सम्पर्क में लाने का प्रयास किया जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, वर्गों तथा जातियों के व्यक्तियों को परस्पर मिलजुलक्रः कार्य करने एवं सास्कृतिक अवसरों पर व्यक्तिगत रूप से सम्पर्क साधने का अवसर प्रदान किया जाए। अध्ययन एवं अनुभव बताते हैं कि जिन नगरों में सामाजिक सम्पर्क बढ़ता है, वहाँ समूह-तनाव में निरन्तर कमी आती जाती है।

(4) व्यापक आदर्श एवं लक्ष्य (Wide Ideals and Goals)- समूह-तनाव का एक मुख्य कारण यह है कि सामान्यतया विभिन्न जातियों, वर्गों, सम्प्रदायों, अलग-अलग प्रान्तों में रहने वाले विभिन्न भाषा-भाषियों के परस्पर विरोधी आदर्श एवं लक्ष्य होते हैं। इनसमेहों की अभिवृत्ति, विश्वासों तथा संवेगों को किसी उच्च आदर्श तथा व्यापक लक्ष्य की ओर मोड देने से आपसी भेदभाव तथा संकीर्णता समाप्त होगी; अतः पूरे समाज में ऐसे व्यापक आदर्शों और लक्ष्यों की स्थापना की जानी चाहिए जो सर्वमान्य हों और जिन्हें प्राप्त करने में सभी लोग प्रयत्नशील हों।

(5) सामाजिक सुधार (Social Reformation)– सामाजिक सुधार समूह-तनावों को दूर करने में एक पर्याप्त सीमा तक सहायक होते हैं। इसके लिए समाज के विभिन्न समूहों के सामाजिक दोषों, कुरीतियों, गलत प्रथाओं व परम्पराओं और अन्धविश्वासों में सुधार लाना परम आवश्यक है। समाज सुधार कार्यक्रमों से सामाजिक जागृति आती है, आपसी भेदभाव दूर होते हैं तथा स्वस्थ समझ-बूझ पैदा होती है।

(6) आर्थिक सुधार (Economic Reformation)- प्रायः देखा गया है कि विभिन्न समूहों की आर्थिक समस्याओं से समूह-तनाव का जन्म होता है। अत: आर्थिक विषमता दूर करने की दृष्टि से सम्बन्धित वर्गों या समूहों की आर्थिक दशा में सुधार वांछित है। आर्थिक उन्नति के लिए कृषि तथा उद्योग-धन्धों को बढ़ावा मिलना चाहिए तथा उत्पादित सामग्री का विवेकपूर्ण तरीकों से वितरण किया जाना चाहिए। अर्थशास्त्रियों का सुझाव है कि आर्थिक दशा में सुधार से समूह-तनाव कम होंगे।

(7) वैधानिक सुधार (Legal Reformation)– समूह-तनाव को समाप्त करने के लिए विधि (कानून) की भी सहयता ली जा सकती है। ऐसे विचारों, कार्यक्रमों, प्रथाओं तथा परम्पराओं पर कानूनी रोक लगा देनी चाहिए जो जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रीयता तथा साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ाते हों। इस प्रकार की भावनाओं को प्रोत्साहित करने वालों तथा अफवाहें फैलाने वालों को कठोर दण्ड दिया जाना एवं इनके विरुद्ध जनमत तैयार करना भी आवश्यक है। कानून का सहारा लेकर छुआछूत को कम किया जा सकता है; इससे सामाजिक सम्पर्को में वृद्धि होगी। भारतीय संविधान द्वारा पिछड़े लोगों, अछूतों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा आदिवासियों के लिए सरकारी नौकरियों में स्थान सुरक्षित किये गये हैं।

(8) युवकों का संगठन (Youth Organization)- राष्ट्रीय स्तर पर युवकों के ऐसे संगठन निर्मित किए जाएँ जिनमें विभिन्न जातियों, वर्गों, सम्प्रदायों, क्षेत्रों, भाषा-भाषियों तथा धर्मों के लोग एक साथ एकत्र होकर सामूहिक कार्यों में भाग ले सकें तथा एक-दूसरे से सद्भाव बढ़ा सकें। भारतीय विश्वविद्यालयों में प्रत्येक वर्ष मनाए जाने वाला ‘युवक समारोह’ (Youth Festival) इसी आशय से निर्मितँ एक संगठन है।

(9) स्वस्थ साहित्य का निर्माण (Formation of Health Literature)– साहित्य एक प्रबल एवं प्रभावशाली माध्यम है। इसका उपयोग समूह तनाव कम करने हेतु किया जाना चाहिए। समूह-तनाव को रोकने के लिए दो कदम उठाने होंगे-एक, समूह-तनाव को प्रोत्साहित करने वाले साहित्य पर प्रतिबन्ध लगाने होंगे तथा दो, स्वस्थ साहित्य का सृजन किया जाना चाहिए ताकि लोगों में उदारता, सहयोग, मैत्री तथा विश्वबन्धुत्व की भावनाओं का उदय एवं विकास हो सके।

(10) सामाजिक समायोजन में वृद्धि (Increasing Social Adjustment)- समूह-तनाव में कमी लाने के लिए सामाजिक समायोजन में अधिक-से-अधिक वृद्धि आवश्यक है। विभिन्न समाजसेवी संस्थाओं तथा सरकारी संस्थानों का कर्तव्य है कि वे सामाजिक कुसमायोजन (Social Mal-adjustment) को दूर करने के लिए अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करें तथा लोगों के संवेगात्मक विकास को सन्तुलित बनाए रखने के लिए निरन्तर प्रयास करें। एक समूह से दूसरे समूहों के प्रति भय, कुण्ठा, राग-द्वेष, क्रोध, घृणा, द्वेष, सन्देह तथा विरोध’को निकालने हेतु समाज में अनुकूल वातावरण तैयार किया जाना आवश्यक है।

(11) स्वस्थ प्रचार (Healthy Propaganda)- आधुनिक काल की जनतान्त्रिक शासन प्रणालियों में प्रचार का विशेष महत्त्व है। विभिन्न प्रचार साधनों तथा जनसंचार का उपयोग सकारात्मक अभिवृत्तियों, विश्वासों, पूर्वाग्रहों, मूल्यों, मतों तथा विचारों के निर्माण में किया जाना चाहिए। इसके साथ-साथ, भ्रामक एवं दूषित प्रचार पर पाबन्दी भी लगनी चाहिए। समूह-तनाव के विरुद्ध सफल प्रचार वह है जिसमें पहले से मौजूद विश्वासों तथा अभिवृत्तियों को सहारा लिया जाता है एवं उन्हें शनैः-शनैः बदलने की कोशिश की जाती है।

इसके विपरीत, नकारात्मक प्रचार से अन्धविश्वास, भ्रामक एवं गलत तथ्य जनता तक पहुँचते हैं, जिससे गलतफहमियाँ उत्पन्न होती हैं और समूहों में तनाव व संघर्ष का जन्म होता है; अतः भ्रामक एवं गलत प्रचार पर रोक लगाई जानी चाहिए तथा साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ाने वाले प्रचारकों को कठोर दण्ड दिया जानी चाहिए। समूह-तनाव के निवारण के लिए राष्ट्रव्यापी स्वस्थ जनमत निर्माण आवश्यक एवं लाभकारी है। इसके लिए वांछित प्रचार-तन्त्र में पत्र-पत्रिकाओं, सम्पादकों, रेडियो, टी० वी०, सिनेमा, सामाजिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिक नेताओं तथा आदर्श शिक्षकों की सेवाएँ महत्त्वपूर्ण हैं।

(12) समूह-तनाव पर अनुसन्धान (Research work on Group Tension)समूह- तनाव पर अंकुश लगाने के लिए विशेष अध्ययनों तथा अनुसन्धानों की आवश्यकता है। इसके लिए देश-विदेश के लिए मनोवैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों व विभिन्न विषयों के विद्वानों तथा विचारकों को अथक प्रयास करने होंगे। इस दृष्टि से समूह-तनावों के विविध स्वरूपों, कारणों तथा उन्हें दूर करने के उपायों पर अनुसन्धान कार्य की आवश्यकता है।

प्रश्न 4
जातिवाद से क्या आशय है? जातिवाद के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए। जातिवाद को कैसे समाप्त किया जा सकता है?
या
जातिवाद से आप क्या समझते हैं? जातिवाद के क्या कारण हैं? इन्हें दूर करने के आवश्यक उपाय क्या हैं?
या
जातिवाद के कारण लिखिए। जातिवाद से उत्पन्न तनाव को कैसे रोका जा सकता है?
उत्तर

जातिवाद का अर्थ
(Meaning of Casteism)

भारत में जातिवाद प्राचीनकाल की वर्ण-व्यवस्था के विचार से जुड़ा है। सर्वमान्य रूप से विभिन्न वर्गों में विभाजित प्राचीन भारतीय समाज में वर्गीकरण का आधार वर्णाश्रम व्यवस्था थी, जिसके अन्तर्गत समाज को चार वर्गों (वर्गों) में विभक्त किया गया था—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। तत्कालीन भारतीय मनीषियों ने इन चारों वर्षों के कार्य भी निर्धारित कर रखे थे-ब्राह्मण अध्ययन-अध्यापन का कार्य, क्षत्रिय शासन तथा राज्य की सुरक्षा सम्बन्धी कार्य, वैश्य व्यापार सम्बन्धी कार्य तथा शूद्र सेवा के कार्य करते थे। ये कार्य एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित होते चलते थे। शनैः-शनै: यह वर्ण-व्यवस्था ही जाति-प्रथा में बदल गयी। जाति-व्यवस्था के अन्तर्गत समूची भारतीय समाज जातियों तथा उपजातियों में विभाजित हुआ। इस भाँति, भारत में जातिवाद की उत्पत्ति हुई जो धीरे-धीरे विकसित होकर ज्वलन्त प्रश्नचिह्न के रूप में उभरी है।

“जातिवाद किसी एक जाति या उपजाति के सदस्यों की वह भावना है जिसमें वे देश, अन्य जातियों या सम्पूर्ण समाज के हितों की अपेक्षा अपनी जाति या समूह के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक हितों या लाभों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।’ ब्राह्मणवाद, वणिकवाद, कायस्थवाद, जाटवाद और अहीरवाद आदि-आदि जातिवाद के विषवृक्ष के ही कडुए फल हैं। वस्तुतः यह एक जाति या उपजाति-विशेष के प्रति अन्धी सामूहिक निष्ठा है जो अपने हितों की रक्षा में अन्यों को बलिवेदी पर चढ़ा देती है।

जातिवाद के कारण।
(Causes of Casteism)

आजकल भारतीय समाज में जातिवाद अपनी गहरी और फैली हुई जड़ों के साथ स्थायित्व धारण कर चुका है। इसके दूषित परिणाम मानव जीवन के सभी पक्षों को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं जिससे समाज छोटे-छोटे खण्डों में विभाजित होता जा रहा है। जातिवाद के विकास के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

(1) अपनी जाति की प्रतिष्ठा की एकांगी भावना- जातिवाद के विकास में एक जाति-विशेष की अपनी जाति के लिए प्रतिष्ठा की एकांगी भावना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारण है। प्रायः अपनी जाति की प्रतिष्ठा के विचार से लोग उसे पूरे समाज से पृथक् मान लेते हैं तथा उसकी झूठी प्रतिष्ठा का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करते हैं। किसी जाति-विशेष के सदस्य अपनी जाति के हितों को सुरक्षित रखने के लिए अच्छे-बुरे, उचित-अनुचित, वैधानिक-अवैधानिक सभी तरह के प्रयास करते हैं। अपनी जाति के लिए अन्ध-भक्ति और झूठी प्रतिष्ठा की भावना से प्रेरित होकर लोग अन्य जातियों के प्रति गलत पूर्वाग्रह तथा घृणा के विचार से ग्रस्त हो जाते हैं। इन सभी बातों से समाज में जातिवाद बढ़ता है।

(2) व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान- लोग अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को हल करने के लिए भी जातिवाद का सहारा लेने लगे हैं। अपनी समस्याओं के समाधान हेतु एक जाति के लोग अपनी ही जाति के अन्य लोगों से सहायता लेने के लिए तत्पर और प्रयत्नशील हुए । इस प्रकार : जातिगत भावनाओं के माध्यम से लोग एक-दूसरे के अधिक निकट आने लगे तथा सम्पर्क साधने लगे। अपनी जाति का हवाला देकर भावप्रवणता (Sentiment) उत्पन्न करके लोगों ने जातिवाद को बढ़-चढ़कर फैलाया।

(3) विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध– विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्धों के कारण सामाजिक सम्बन्ध जाति के अन्तर्गत ही सीमित हो जाते हैं। हमारे देश में हिन्दू विवाह के नियमों के अनुसार जातिगत अन्तर्विवाह (Caste Endogamy) के कारण एक जाति के सभी सदस्य स्वयं को एक वैवाहिक समूह समझने लगे। इसमें अन्र्तर्जातीय विवाह को निषिद्ध माना गया था और प्रत्येक जाति का सदस्य इस बात के लिए बाध्य था कि वह अपनी ही जाति-समूह से जीवन-साथी का चुनाव करे। कुछ जातियों में तो सिर्फ उपजातियों के अन्तर्गत ही विवाह सम्भव है। इन सब बातों के फलस्वरूप लोगों में जातिवाद की प्रबल भावना का विकास हुआ।

(4) आजीविका में सहायता- आजीविका की समस्या समाज के प्रत्येक व्यक्ति के साथ जुड़ी है। देश में बेकारी की समस्या अपनी चरम सीमा पर है। वर्तमान परिस्थितियों में योग्य से योग्य व्यक्ति भी उपयुक्त रोजगार की तलाश में भटक रहा है। नौकरी पाने के लिए ‘जुगाड़’ शब्द प्रचलित हो गया है, जिसके सहारे आसानी से काम हो जाता है। नौकरी पाने और देने में लोगों ने जुगाड़ की दृष्टि से जातिवाद का आश्रय प्राप्त किया और अपनी जाति के प्रभावशाली लोगों तथा उच्चाधिकारियों को जाति के नाम पर प्रभावित करके नौकरी पाने की चेष्टा करने लगे। इससे लोगों को सफलता भी मिली जिससे जातिवाद की भावना बढ़ती गयी।

(5) नगरीकरण तथा औद्योगीकरण– बीसवीं शताब्दी की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देन नगरीकरण एवं औद्योगीकरण हैं। विशाल नगरों में या उनके आस-पास बड़े-बड़े औद्योगिक संस्थान स्थापित हुए जिससे वहाँ का सामाजिक जीवन काफी जटिल हो गया है। महानगरों में एक-दूसरे से सहायता पाने और करने की दृष्टि से एक ही जाति के लोग एक-दूसरे के समीप आये और अधिकाधिक संगठित होने लगे। इस प्रकार सुरक्षा और उन्नति के विचार से नगरीकरण तथा औद्योगीकरण की पृष्ठभूमि में जातिवाद की प्रक्रिया व्यापक हुई।

(6) यातायात तथा प्रचार के साधनों का विकास- यातायात तथा प्रचार के साधनों द्वारा नगरों में बिखरे हुए जातीय सदस्य पुनः परस्पर सम्बन्ध स्थापित करने लगे और संगठित हो गये। अपनी जाति की उन्नति के लिए जाति-विशेष के सदस्यों ने अपनी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ किया, उन्हें पर्याप्त सहयोग मिला और अन्ततः जातीयता के नाम पर देश के विभिन्न भागों के लोग अपनी ही जाति के लोगों से सम्पर्क साधने लगे।

जातिवाद को समाप्त करने के उपाय
(Measures to Remove Casteism)

जातिवाद हमारी मानवता के नाम पर कलंक है और मानव समाज के लिए एक बहुत बड़ा अभिशाप है। प्रमुख समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक तथा विचारक इस बात पर एकमत हैं कि जातिवाद का अन्त किए बिना मानव सभ्यता को एक सूत्र में बाँधना कठिन है। जातिवाद को समाप्त करने के उपाय निम्नलिखित हैं –

(1) शिक्षा की समुचित व्यवस्था — जातिवाद की संकीर्ण विचारधारा को रोकने का सर्वशक्तिमान साधन और उपाय शिक्षा की समुचित व्यवस्था करना है। विद्यार्थियों को इस प्रकार शिक्षित किया जाना चाहिए कि जातिवाद के विचार उनके मस्तिष्क को जरा भी न छू सकें और उनके मत छुआछूत तथा भेदभाव से सर्वथा दूर रहें। इसके लिए पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियाँ, पाठ्य-सहगामी क्रियाएँ तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि को इस प्रकार नियोजित किया जाए कि विद्यार्थियों में नवीन मनोवृत्तियाँ तथा आदर्श व्यवहार के प्रतिमान विकसित हो सकें। इसके अतिरिक्त शिक्षा के माध्यम से जातिवाद के विरुद्ध स्वस्थ जनमत भी विकसित करना होगा।

(2) साहित्य-सृजन- जातीयता की भावना एवं पूर्वाग्रहों के विरुद्ध गीत, कहानियाँ, नाटक, उपन्यास, निबन्ध तथा लेख लिखकर साहित्य का सृजन किया जाना चाहिए। इस साहित्य में जातिवाद के दुष्परिणामों को उजागर करते हुए मानव-समाज की एकता की भावना को समर्थन देना होगा। इससे शिक्षित वर्ग में जातिवाद का विकार कम किया जा सकता है।

(3) अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन– अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन देने से जातिवाद को समाप्त किया जा सकता है। अन्तर्जातीय विवाह के अन्तर्गत अलग-अलग जातियों के युवक और युवती जीवन-भर के लिए स्थायी वैवाहिक बन्धन में बंध जाते हैं जिससे सामाजिक दूरी रखने वाले दो परिवारों को भी एक-दूसरे के समीप आने का मौका मिलता है। यही नहीं, दोनों परिवारों के सम्बन्धीगण भी स्वयं को एक-दूसरे के नजदीक महसूस करने लगते हैं। इससे विविध जातियों के मध्य सामाजिक सम्बन्धों का एक जाल-सा निर्मित होने लगता है और विभिन्न जातियों में एक-दूसरे के प्रति समझ-बूझ और लगाव पैदा होने लगता है।

(4) सांस्कृतिक विनिमय– प्रत्येक जाति और उपजाति की संस्कृति न्यूनाधिक रूप से दूसरी जातियों और उपजातियों की संस्कृति से भिन्न अवश्य होती है। धर्म, साहित्य, कला, भाषा, विश्वास, आस्थाएँ तथा आचार-विचार की दृष्टि से एक जाति के लोग दूसरी जाति से अलगाव महसूस करने लगते हैं। स्पष्टतः सांस्कृतिक भिन्नता बढ़ने पर जातिगत भिन्नता को बढ़ना स्वाभाविक है; अतः विभिन्न जातियों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान द्वारा समान एवं अच्छे आचरण के बीज बोए जी सकते हैं। ये बीज प्रेम, सहानुभूति, भ्रातृत्व-भाव एवं सहयोग के रूप में पुष्पित-पल्लवित होंगे।

(5) सामाजिक-आर्थिक समानता– विभिन्न जातियों के मध्य सामाजिक-आर्थिक विषमता के कारण भी स्वार्थपूर्ण एवं एकांगी भाव पैदा हो जाते हैं जिससे समूह-तनाव और संघर्ष विकसित होते हैं। यदि अलग-अलग जातियों के सामाजिक रीति-रिवाजों, त्योहारों, प्रथाओं तथा आयोजनों को , एक-समान धरातल पर मिल-जुलकर मनाया जाए; सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध सभी जातियों के लोग एकजुट होकर संघर्ष करें तथा एक-दूसरे के प्रति सामाजिक सम्मान व प्रतिष्ठा व्यक्त करें तो लोगों के मन में जातीय आधार पर घुली कड़वाहट दूर हो सकती है। इसी प्रकार सामाजिक क्षेत्र के आर्थिक क्षेत्र से घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। आर्थिक विषमताएँ, प्रतिद्वन्द्विता, विद्वेष, प्रतिस्पर्धा, वैमनस्य, तनाव तथा वर्ग-संघर्ष को जन्म देती हैं। देश की सरकार को चाहिए कि वह आर्थिक समानता के सत्प्रयासों से जातिवाद की तीव्रता को प्रभावहीन बनाए।

(6) ‘जाति’ शब्द का कम-से- कम प्रयोग -किसी विचार को बार-बार सुनने से न चाहते हुए भी उसका प्रभाव पड़ता ही है। यदि आज की पीढ़ी के बच्चे ‘जाति’ शब्द का अधिक प्रयोग करेंगे तो वे जिज्ञासा एवं अभ्यास के द्वारा इसे आत्मसात् कर लेंगे। इस शब्द के अंकुर भविष्य में जातिवाद के घने
और विस्तृत वृक्ष के रूप में आकार लेंगे। अतः ‘जाति’ शब्द का कम-से-कम प्रयोग किया जाना चाहिए ताकि जातिवाद के विचार को कोई प्रोत्साहन ही न मिल सके और धीरे-धीरे इसका अस्तित्व ही मिट जाए।

(7) कानूनी सहायता – कानून की सहायता लेकर भी जातिवाद पर अंकुश लगाया जा सक्रा है। हमारे देश में प्रायः लोग अपने नाम के साथ जाति लिखते हैं, इस पर कानूभी रोक लगाकर जातिगत अभिव्यक्ति को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। इसके अलावा जातिवाद की संकीर्ण एवं तुच्छ मानसिकता को प्रश्रय देने वाले या इसका प्रचार करने वालों को कठोर दण्ड दिया जाना चाहिए।

(8) जातिवाद के विरुद्ध प्रचार–जन- सामान्य की मनोवृत्ति में परिवर्तन लाने की दृष्टि से प्रचार-तन्त्र का उपयोग किया जाना चाहिए। जातिवाद के अंकुर लोगों के मस्तिष्क में हैं। सिर्फ बाहरी दबाव से जातिवाद की समस्या समाप्त होने वाली नहीं है, इसके लिए लोगों की अभिवृत्ति और विश्वास पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने होंगे। यह स्वस्थ एवं उचित प्रकार के माध्यम से सम्भव है जिसके लिए समाचार-पत्र, पत्रिकाओं, सिनेमा, टी० वी०, सभाओं तथा प्रदर्शनों आदि का सहारा लिया जा सकता है।

प्रश्न 5.
साम्प्रदायिकता से क्या अभिप्राय है? हमारे देश में साम्प्रदायिक तनाव के क्या कारण हैं? इन्हें दूर करने के लिए आप किन उपायों का सुझाव देंगे? [2015]
या
समूह-तनाव के लिए उत्तरदायी सम्प्रदायवाद के कारणों की विवेचना कीजिए | (2009)
या
साम्प्रदायिकता से सामूहिक तनाव बढ़ता है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
सम्प्रदायवाद के कारणों पर प्रकाश डालिए। (2018)
उत्तर.

साम्प्रदायिकता का आशय
(Meaning of Communalism)

साम्प्रदायिकता का दूसरा नाम ‘धार्मिक उन्माद या मजहबी जनून भी है। सम्प्रदायवाद का एक कलुषित कारनामा यह भी है कि इसने मजहब या सम्प्रदाय को ‘धर्म’(Religion) का एक पर्यायवाची बना दिया है। दुनिया के सभी मनुष्यों को एक ही धर्म है और वह है – मानवता (Humanity)। मजहब या सम्प्रदाय के सन्दर्भ में कहा गया है ‘मजहब में अक्ल का दखल नहीं है, किन्तु धर्म तो सद्ज्ञप्ति, सविवेक तथा सदाचरण पर आधारित होता है। इस प्रकार धर्म और सम्प्रदाय को अलग-अलग करके देखा जाना चाहिए। धर्म के प्रति आकर्षण एवं आस्था मानव-मात्र को प्रेम, बन्धुत्व एवं सहयोग के पथ पर आरूढ़ करते हैं, किन्तु साम्प्रदायिक सिद्धान्त उनमें मार-काट एवं पशु-प्रवृत्ति का बीजारोपण करते हैं।

साम्प्रदायिकता की भावना के प्रबल हो जाने की स्थिति में अपने सम्प्रदाय से सम्बन्धित सभी बातें अच्छी एवं महान प्रतीत होती हैं तथा अन्य सम्प्रदायों की सभी बातों को हीन एवं बुरा माना जाने लगता है। इस स्थिति में विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य प्राय: एक प्रकार की पृथकता या अलगाव की भावना का विकास होने लगता है तथा यही भावना अनेक बारं पारस्परिक विरोध का रूप भी ग्रहण कर लेती है। इस प्रकार का विरोध बढ़ जाने पर शत्रुता एवं संषर्घ को रूप ग्रहण कर लेता है। यह दशा अन्ध-साम्प्रदायिकता की दशा होती है। इस प्रकार की दशाओं में ही साम्प्रदायिक दंगे हुआ करते हैं। वास्तव में साम्प्रदायिकता में अन्धविश्वासों, पूर्वाग्रहों एवं पक्षपात के तत्त्वों की बहुलता होती है। साम्प्रदायिकता व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के लिए हानिकारक एवं इनकी प्रगति में बाधक कारक है। राष्ट्र की प्रगति के लिए साम्प्रदायिकता का पूर्ण रूप से उन्मूलन होना अति आवश्यक है।

साम्प्रदायिक तनाव के कारण
(Causes of Communal Tension)

सम्प्रदायवाद एवं साम्प्रदायिकता के विशद् अध्ययन से साम्प्रदायिक तनाव के अनेक कारण ज्ञात होते हैं। सभी कारणों का तो यहाँ वर्णन नहीं किया जा सकता, कुछ मुख्य कारण निम्नलिखित हैं

(1) ऐतिहासिक कारण – भारत में साम्प्रदायिक संघर्ष तथा तनाव कोई नयी बात नहीं है। इतिहास के झरोखे से देखने पर इसका सम्बन्ध शताब्दियों पूर्व मुगलों के आक्रमण से जुड़ता है। वस्तुतः मुसलमान लोग विदेशी आक्रान्ताओं के रूप में भारत आये और उन्होंने तत्कालीन आर्यों की सम्पत्ति लूटकर यहाँ भारी मार-काट मचाई। इस भाँति, साम्प्रदायिक तनाव की शुरुआत मुसलमानों के भारत पर आक्रमण के साथ ही हो गयी थी। भारत के मूल निवासी अर्थात् हिन्दुओं के मन में मुसलमानों के प्रति विदेशीपन का भाव स्थायी रूप धारण कर गया और मुसलमान सदा के लिए अत्याचार और अन्याय के प्रतीक बन गये। स्पष्टतः वर्तमान साम्प्रदायिकता का विषे भारत में मुसलमानों के साथ आया। हिन्दू-मुसलमानों में पहले से ही एक-दूसरे के प्रति पूर्वाग्रह बन चुके हैं, जिन्हें साम्प्रदायिक तनाव के लिए उत्तरदायी कहा जा सकता है।

(2) सांस्कृतिक कारण – विभिन्न सांस्कृतिक कारणों से भी साम्प्रदायिक तनाव उत्पन्न होते हैं। हिन्दू संस्कृति के अनेक प्रतीक, मुस्लिम संस्कृति के प्रतीकों से न केवल भिन्न हैं अपितु विरोधी भी हैं। गो-हत्या, सिर पर चोटी रखना, जनेऊ धारण करना तथा मूर्ति पूजा आदि को लेकर दोनों सम्प्रदायों में भारी मतभेद हैं। इसके अतिरिक्त रहन-सहन, खान-पान, उठना-बैठना, पूजा की पद्धति तथा अन्य सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी पर्याप्त अन्तर विद्यमाने हैं। इन विभिन्न सांस्कृतिक अन्तरों के कारण दोनों सम्प्रदायों के मध्य तनाव और संघर्ष पैदा होते रहते हैं।

(3) भौतिक कारण – सामाजिक-सांस्कृतिक समानता के आधार पर विभिन्न समुदायों के लोगों ने भारत में अपनी अलग-अलग बस्तियाँ बनाकर रहना पसन्द किया। सभी समुदायों का रहन-सहन तथा खान-पान का तरीका अलग-अलग होने से अनेक नगरों में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख तथा ईसाई लोग पृथक् बस्तियाँ या कॉलोनी बनाकर रहते हैं। इस अलगाववादी प्रवृत्ति से तनाव और संघर्ष का होना स्वाभाविक ही है।

(4) सामाजिक एवं आर्थिक कारण- हिन्दू तथा मुसलमान सम्प्रदायों के सामाजिक रीति-रिवाज, प्रथाएँ, पहनावा, रहन-सहन, धर्म, विचार तथा साहित्य में एक-दूसरे से पर्याप्त अन्तर हैं। इससे दोनों में पारस्परिक तनाव पैदा होना स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त ये दोनों सम्प्रदाय आर्थिक आधार पर भी एक-दूसरे से अलग हैं। स्पष्टतः सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से पृथकता के कारण साम्प्रदायिक विद्वेष, तनाव एवं संघर्ष जन्म ले लेते है।

(5) संजनीतिक कारण- कुछ राजनीतिक दल नियमों, सिद्धान्तों, कर्तव्यों तथा राष्ट्रीय हितों की परवाह किए बिना, अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए साम्प्रदायिक तनाव को प्रोत्साहन देते हैं। ये दल अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति हेतु अक्सर विभिन्न सम्प्रदायों के बीच नासमझी तथा अफवाहों के मध्याम से तनाव एवं संघर्ष को प्रेरित करते हैं, उन्हें आपस में लड़ाकर स्वयं वाहवाही लूटते हैं और अपना चुनावी उल्लू सीधा करते हैं। हाल ही में, रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को साम्प्रदायिक रंग देकर विभिन्न राजनीतिक दल अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं।

(6) मनोवैज्ञानिक कारण विभिन्न सम्प्रदायों में एक- दूसरे के प्रति विरोधी पूर्वाग्रहों (अर्थात् एक-दूसरे के लिए घृणा व विद्वेष) के कारण अनबन तथा तनाव की स्थिति बनी रहती है। स्पष्टतः एक-दूसरे के प्रति पहले से बनी हुई पूर्वधारणाएँ ही तनाव का कारण बनती हैं। साम्प्रदायिक लोगों में बिना किसी स्पष्ट कारण या विवेक के ही अन्य सम्प्रदायों के प्रति घृणा के मनोभावे उत्पन्न हो जाया करते हैं। एक हिन्दू अकारण ही एक मुसलमान को देशद्रोही तथा एक मुसलमान अकारण ही एक हिन्दू को काफिर समझ बैठता है। स्पष्टतः साम्प्रदायिक तनावों की पृष्ठभूमि में मनोवैज्ञानिक कारण काफी सक्रिय तथा महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं।

साम्प्रदायिक तनावों को दूर करने के उपाय
(Measurse to Remove Communal Tensions)

साम्प्रदायिकता राष्ट्रीय अखण्डता तथा एकता की जड़ में हलाहल (विष) के समान है। यह एक सम्प्रदाय के लोगों के मन में आतंक, असुरक्षा, सन्देह, घृणा तथा नकारात्मक मनोवृत्ति का बीजारोपण कर उसे अकारण ही अन्य सम्प्रदाय का आजन्म शत्रु बना देती है। मनुष्य; मानव-प्रेम और विश्व-बन्धुत्व पर आधारित अपने सर्वव्यापी एवं सार्वभौमिक धर्म ‘मनुष्यता का परित्याग कर, साम्प्रदायिकता की क्षुद्र एवं संकीर्ण भावधारा को अपना लेता है, जिससे उसकी बौद्धिक एवं आत्मिक मुक्ति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। इन सभी तथ्यों के आधार पर निर्विवाद कहा जा सकता है कि साम्प्रदायिकता एवं उससे जन्मे तनावों को आमूल उखाड़ फेंकना होगा। साम्प्रदायिक तनावों को अग्रलिखित उपायों से दूर किया जा सकता है –

(1) इतिहास की नवीन व्याख्या तथा उसका प्रचार– राष्ट्रीय इतिहास के सृजन एवं प्रचार-प्रसार के लिए इतिहास को नयी दृष्टि एवं नयी व्याख्या देनी होगी। निस्सन्देह भारत का इतिहास मुगलकाल से ही साम्प्रदायिक तनावों के प्रमाण प्रस्तुत करता है, किन्तु यदि उन पुरानी बातों तथा दृष्टान्तों को ही बार-बार दोहराया जाएगा। तो इससे साम्प्रदायिक तनाव कम नहीं होंगे। इसके लिए इतिहास के ऐसे प्रसंगों पर बल दिया जाना चाहिए जिनसे एक-दूसरे के प्रति मैत्री भाव तथा सहयोग का परिचय मिले। उदाहरण के तौर पर, बच्चों को बताना होगा कि भारत की आजादी के लिए हिन्दू और मुसलमान दोनों कन्धे-से-कन्धा मिलाकर लड़े और दोनों ने भारत-माँ की रक्षा हेतु अपने प्राण उत्सर्ग किए। कांग्रेस और आजाद हिन्द फौज के सेनानी इसके साक्षात् प्रमाण । भारत की सेना का योद्धा वीर अब्दुल हमीद पाकिस्तान के खिलाफ लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुआ।

(2) सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना– साम्प्रदायिक तनावों में कमी लाने की दृष्टि से विभिन्न सम्प्रदायों के बीच सामाजिक दूरी को समाप्त कर सुमधुर एवं प्रगाढ़ सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना करनी होगी। इसके लिए आवश्यक है कि अल्पसंख्यकों के नाम पर चलने वाली समस्त शिक्षण संस्थाएँ बन्द हों तथा सभी सम्प्रदाय के बालकों की सम्मिलित शिक्षण संस्थाओं में एकसमान पढ़ाई-लिखाई हो। एक सम्प्रदाय के लोग अन्य सम्प्रदायों के शादी-विवाह, सहभोज तथा अन्य आयोजनों में सम्मिलित हों। सभी सम्प्रदाय एक-दूसरे की धार्मिक व सामाजिक भावनाओं का सम्मान करें तथा सभी के धार्मिक स्थलों की मर्यादा व प्रतिष्ठा का पूरा ध्यान रखा जाए।

(3) सांस्कृतिक विनिमय- सांस्कृतिक विनिमय के माध्यम से भी साम्प्रदायिक तनावों व संघर्षों का वेग कम किया जा सकता है। इसके लिए विभिन्न सम्प्रदायों के मिश्रित सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए। सम्मिलित पर्व व त्योहारों; जैसे-—ईद, दीपावली व होली आदि को उत्साह से मनाना चाहिए। इससे विभिन्न सम्प्रदायों की मिथ्या धारणाएँ, भ्रामक प्रचार तथा आपसी नासमझी समाप्त होती है और वे कटुता भूलकर एक-दूसरे के अधिक नजदीक आते हैं।

(4) राष्ट्रीयता का प्रचार- उल्लेखनीय रूप से भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है; अत: साम्प्रदायिक तनावों को समाप्त करने तथा साम्प्रदायिक सद्भाव उत्पन्न व विकसित करने के उद्देश्य से राष्ट्रीयता का प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए। इसके लिए विभिन्न राष्ट्रीय पर्वो को मिल-जुलकर धूमधाम से मनाना चाहिए। जब विभिन्न सम्प्रदायों के लोग अपने राष्ट्र के प्रति एक समान निष्ठा तथा आस्था के भाव रखेंगे, तभी साम्प्रदायिकता की क्षुद्र भावना का प्रभाव कम हो सकेगा।

(5) राजनीतिक उपाय– विभिन्न साम्प्रदायिक दलों पर कानूनी रोक लगा देनी चाहिए तथा उनके नेतृत्व को मनमानी करने से रोक देना चाहिए। जो लोग कानून की अवज्ञा करें, उन्हें कठोर दण्ड दिया जाए। चुनाव आदि राजनीतिक गतिविधियों में साम्प्रदायिकता को साधन के रूप में प्रयोग करने वाले दलों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही की जाए। समस्त राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्रों से साम्प्रदायिकता के पक्ष में प्रकाशित उद्घोषणाओं को हटवा दिया जाए। साम्प्रदायिक तनाव एवं संघर्षों के समर्थन में प्रकाशित सामग्री, पत्र-पत्रिकाओं तथा जनसंचार के माध्यमों पर कड़ा प्रतिबन्ध लगाया जाए। इन सभी राजनीतिक उपायों से साम्प्रदायिकता के विरुद्ध जनमत तैयार हो सकता है।

(6) भौगोलिक एवं आर्थिक प्रयास– विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य स्थित अलगाववादी प्रवृत्तियों को हताश करने के लिए सभी सम्प्रदायों के लोगों को एक ही कॉलोनी में बसने हेतु प्रोत्साहित किया जाए। एक ही सम्प्रदाय द्वारा बसाई गई बस्तियाँ मोहल्ले या कॉलोनियाँ समाप्त करने के प्रयास हों तथा सभी को एक साथ मिलकर रहने के सम्पर्क कार्यक्रम शुरू हों। इसी प्रकार आर्थिक विषमता के दोष को दूर करने की दृष्टि से श्रमिकों को उचित पारिश्रमिक व लाभांश दिलाया जाए। उनके कार्य की दशाओं में सुधार हो, शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था के साथ-साथ ही उनके तथा परिवारजनों के जीवन की सुरक्षा का प्रबन्ध भी हो।

(7) मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं उपाय— मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी कुछ आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण कदम उठाकर साम्प्रदायिक तनावों में कमी लाई जा सकती है। सर्वप्रथम, अल्संख्यकों को आश्वस्त करके उन्हें विश्वास में लेना होगा। उनके मन से भय, घृणी तथा असुरक्षा की भावनाओं को दूर करना होगा। स्वस्थ्य प्रचार के माध्यम से भ्रामक एवं निराधार विश्वासों को प्रभावहीन बनाना होगा। विभिन्न सम्प्रदायों की एक-दूसरे के प्रति मनोवृत्ति बदलने के लिए ठोस एवं सक्रिय कदम उठाने होंगे। तभी वे सब एक राष्ट्रीय धारा में सम्मिलित हो सकेंगे।

(8) शिक्षा– साम्प्रदायिक तनावों व संघर्षों का अन्त करने के लिए शिक्षा की समुचित व्यवस्था करनी होगी। शिक्षा से उदारता व विनम्रता आती है, वैज्ञानिक चिन्तन विकसित होता है तथा अन्धविश्वास व रूढ़ियाँ मिट जाती हैं। शिक्षितजनों को धार्मिक कट्टरपंथी अपने चंगुल में नहीं फँसा सकते। शिक्षा समाज को सम्पन्नता तथा समृद्धि की राह पर ले जाती है। एक शिक्षित, सम्पन्न एवं समृद्ध समाज साम्प्रदायिक विनाश से कोसों दूर रहता है। वस्तुतः साम्प्रदायिकता के उन्मूलन का एक सहज एवं कारगर उपाय शिक्षा ही है।

प्रश्न 6.
भाषावाद से आप क्या समझते हैं? भाषागत तनाव के कारण बताइए तथा उसके निवारण के उपाय भी बताइए।
या
भाषागत तनाव को रोकने के लिए क्या उपाय किये जाने चाहिए?
या
भाषावाद के किन्हीं दो कारणों के बारे में लिखिए। (2014)
या
भाषावाद के निराकरण के कोई चार उपाय लिखिए। (2013)
उत्तर

भाषावाद
(Linguism)

भाषा मन के भावों के अभिव्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है। भाषागत समानता विभिन्न व्यक्तियों को एक-दूसरे की ओर आकर्षित करती है, जबकि भाषागत भिन्नता के कारण लोग पृथकता या अलगाव महसूस करते हैं। यही कारण है कि एक ही भाषा बोलने वाले दो अपरिचित व्यक्ति भी शीघ्र ही एक-दूसरे से अपनी बात कह सकते हैं तथा पारस्परिक निकटता बना लेते हैं। इससे भिन्न दो भिन्न भाषा-भाषी अपनी बात न तो कह सकते हैं और न ही समझ सकते हैं–निकट होते हुए भी वे एक-दूसरे से अलग रहते हैं। वास्तव में, भाषा में एकीकरण की प्रबल क्षमताएँ पाई जाती हैं। हमारा देश एक बहुभाषायी देश है। इससे जहाँ एक ओर हमारे देश की सांस्कृतिक समृद्धि हुई, वही कुछ समस्याएँ। भी उम्पन्न हुई हैं। भाषाओं की विविधता के कारण उत्पन्न होने वाली मुख्यतम समस्या है–भाषावाद का प्रबल होना।

भाषावाद का अर्थ
(Meaning of Linguism)

कोई भी सिद्धान्त, मत, विचार या माध्यम समाज के लिए उस समय तक हानिकारक नहीं है जब तक कि वह ‘वाद’ (ism) की शक्ल नहीं ले लेता; ‘वाद’ बनते ही वह समस्या बनकर उभरता है। अत: भारत में भाषाओं की विविधता साहित्य एवं संस्कृति के बहुआयामी विकास की दृष्टि से एक अच्छी एवं प्रशंसनीय बात कही जा सकती है, किन्तु यदि भाषाओं की विविधता ‘वाद’ का रूप लेती है तो इसे एक गम्भीर समस्या कहा जाएगा भाषावाद के अन्तर्गत एक भाषा वाला अपनी भाषा को सर्वोत्कृष्ट मानकर अन्य भाषाभाषियों को हीन समझकर उनकी उपेक्षा करता है।

वह अपनी भाषा बोलने वालों का | ही पक्षपात करता है तथा अपनी भाषा को मान्यता दिलाने के लिए उचित-अनुचित साधनों का प्रयोग भी करता है। ऐसी दशा में कहा जा सकता है कि वह व्यक्ति भाषावाद से ग्रस्त है। जब एक भाषा बोलने वाले यह अनुभव करते हैं कि उन पर दूसरी भाषा जबरदस्ती लादी जा रही है तो इससे तनाव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार भाषावाद के कारण दो भाषाओं में विरोध उत्पन्न होता है। उदाहरणार्थ-हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनने पर अहिन्दी भाषी वर्गों; विशेष रूप से दक्षिण के लोगों ने हिन्दी भाषा का प्रबल विरोध किया। दक्षिण भारतवासियों का विचार है कि हिन्दी उन पर लादी जा रही । है। वे हिन्दी भाषा के प्रयोग के विरुद्ध तनाव से भर उठते हैं और संघर्ष के लिए तत्पर हो उठते हैं। असम में बंगाली के खिलाफ आन्दोलन होते हैं। पंजाब प्राप्त के पंजाब एवं हरियाणा में विभाजन के समय पंजाबी व हिन्दी भाषा के समर्थकों तथा प्रचारकों में तनाव रहा। ये सभी भाषावाद से प्रेरित तनाव एवं संघर्षात्मक परिस्थितियों के उदाहरण हैं। भाषावाद की समस्या ने राष्ट्र की एकता और प्रतिष्ठा को खतरे में डाल दिया है।

भाषावाद के कारण
(Causes of Linguism)

भारत में भाषावाद की जटिल समस्या विभिन्न परिस्थितियों एवं कारकों का परिणाम है। ये बहुतायत में हो सकते हैं और उन सभी का यहाँ विवेचन सम्भव नहीं है। भाषावाद की उत्पत्ति एवं विकास सम्बन्धित प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –

(1) ऐतिहासिक कारण – भारत में भाषावाद के कारण उत्पन्न तनाव एवं संघर्ष एक लम्बे और प्राचीन इतिहास से जुड़े हैं; अतः भाषावाद का ऐतिहासिक पक्ष भी एक महत्त्वपूर्ण कारक को जन्म देता है। हम जानते हैं कि किसी भी क्षेत्र में भाषा का उद्भव एवं विकास एक ही देन में या अल्पकाल में ही नहीं हो गया। प्रत्येक भाषा का हजारों-हजार वर्षों पुराना इतिहास है और आज वे अपने क्षेत्र के वातावरण के साथ इस प्रकार घुल-मिल गयी हैं जिस प्रकार फूल में उसकी सुगन्ध निहित होती है। स्वाभाविक रूप से किसी भी क्षेत्र के निवासियों को अपनी भाषा के साथ ऐसा भावनात्मक एवं सांवेगिक सम्बध बन जाता है कि वे उसकी उपेक्षा तथा दूसरी भाषा की मान्यता सहन नहीं कर पाते। ब्रिटिशकाल में शासन द्वारा भारतीयों पर अंग्रेजी एक अनिवार्य भाषा के रूप में लाद दी गयी, जिसे दक्षिणवासियों ने पर्याप्त रूप से अपना लिया। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया। दुर्भाग्यवश दक्षिण में हिन्दी का प्रचलन बहुत कम था; अतः उन्हें सीखने के लिए एकदम नये सिरों से प्रयास करना पड़ा, जबकि वे अंग्रेजी को आत्मसात् कर उस भाषा को अच्छी प्रकार जान। चुके थे। न तो उन्होंने हिन्दी को ग्रहण करना चाहा और न अंग्रेजी को छोड़ना चाहा। अतः हिन्दी को लेकर भाषागत एवं सांस्कृतिक आधार पर विरोध, तनाव एवं संघर्ष ने जन्म लिया। इन्हीं दशाओं ने प्रबल रूप धारण कर भाषावाद को विकसित किया।

(2) भौगोलिक कारण- देश के विभिन्न क्षेत्र भौगोलिक सीमाओं द्वारा परिसीमित होकर एक-दूसरे से अलग हो गये। अलग-अलग क्षेत्रों की अलग-अलग भाषाएँ विकसित हुईं। प्रत्येक क्षेत्र के साहित्य तथा संस्कृति में वहाँ की भौगोलिक परिस्थितियों; यथा-नदियों, पर्वतों, वन, स्थानीय कृषि तथा पशुओं की अभीष्ट छाप दृष्टिगोचर होती है; अतः क्षेत्र की स्थानीय भाषा के साहित्य के प्रति वहाँ के निवासियों में अपनत्व की भावना पैदा होना स्वाभाविक है। इन दशाओं में अन्य भाषाओं तथा भाषाभाषी समूहों के प्रति उदासीनता, विरोध तथा घृणा का भाव उत्पन्न होना भी स्वाभाविक हो।

(3) राजनीतिक कारण– अनेक राजनीतिक दल अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों की सिद्धि हेतु भाषावाद को प्रेरित तथा ‘प्रोत्साहित करते हैं। विशेषकर चुनावों के समय कुछ राजनीतिक नेता लोग वोट प्राप्त करने की दृष्टि से अल्पसंख्यक भाषा-भाषियों की भावनाओं व संवेगों को उभारकर तनाव एवं संघर्ष उत्पन्न करा देते हैं जिससे जन-धन की हानि होती है। क्योंकि ये लोग भाषा को मुद्दा बनाकर उखाड़-पछाड़ कर राजनीतिक प्रपंच रचते हैं; अत: एक विशेष भाषा से प्रेम व लगाव रखने वालों का उन्हें समर्थन मिल जाता है जो उनके निर्वाचन काल हेतु सर्वाधिक उपयोगी कहा जा सकता है।

(4) सामाजिक कारण- भाषावाद के जन्म और विकास के कुछ सामाजिक कारण भी हैं। जिस समाज की मान्यताएँ जिस भाषा में स्थान पाती हैं, उस समाज में उस भाषा को भरपूर सम्मान मिलता है। उस समाज के सदस्य उस भाषा से तो विशेष लगाव रखते हैं, किन्तु अन्य भाषाओं से, जिनसे उनकी मान्यताओं का कोई सरोकार नहीं है, घृणा करने लगते हैं। भाषावाद इसी सामाजिक प्रक्रिया का एक दुष्परिणाम है।

(5) आर्थिक कारण- यदि किसी देश की सरकार खासतौर से एक भाषा-भाषी समूह को प्रोत्साहन देने के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करती है तो अन्य भाषा-भाषी समूह उस भाषा से विद्वेष एवं घृणा का भाव रखने लगते हैं। ऐसी परिस्थितियों में भाषावाद को बल मिलता है।

(6) मनोवैज्ञानिक कारण- भाषावाद की पृष्ठभूमि में व्यक्ति की संकीर्ण आत्मसम्मान की भावना निहित होती है, जिसके परिणामस्वरूप लोग अपनी भाषा को अच्छा तथा अन्य भाषाओं को बुरा बताने लगते हैं। किसी भाषा के जानने तथा प्रयोग करने वालों की उस भाषा से भावनात्मक एवं संवेगात्मक सहानुभूति हो जाती है। भाषा व्यक्ति के अवधान को केन्द्रित करती है; अतः एक भाषा के ज्ञाता व प्रयोग करने वाले एक-दूसरे के जल्दी सम्पर्क में आते हैं, लेकिन उनमें दूसरी भाषा वालों के प्रति । वैसी भावनात्मक या सांवेगिक अनुरक्ति नहीं होती। इससे भाषावाद का उद्भव एवं विकास होता है।

भाषीवाद के निवारण के उपाय
(Measures to Remove Linguism)

भाषावाद के विभिन्न कारणों का विवेचन करने के उपरान्त भाषावाद को समाप्त करने के उपायों की खोज करनी होगी। इस तनाव से संघर्ष की परिस्थितियाँ देश की एकता व अखण्डता के लिए। विषाक्त एवं हानिकारक हैं। यदि भाषावाद का विष देश में इसी प्रकार संचरित होता रहा तो जल्दी ही देश हजारों भाषाओं के नाम पर टुकड़ों में बँट जाएगा; अतः भाषावाद का उन्मूलन अनिवार्य है। इसके प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं –

(1) राष्ट्रीय भाषा का विकास एवं राष्ट्रीय समर्थन- सम्पूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने की दृष्टि से एक राष्ट्रीय भाषा का विकास होना आवश्यक है। इसके लिए देश-भर के लोगों को एक राष्ट्रीय भाषा के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान करनी होगी। लोगा अनिवार्य रूप से एक राष्ट्रीय भाषा की आवश्यकता अनुभव करें तथा विदेशी भाषा के स्थान पर एक स्वदेशी भाषा को समर्थन देने के लिए प्रेरित व तत्पर हों। राष्ट्रीय भाषा के चुनाव की समस्या पर विचार करना यहाँ हमारा उद्देश्य नहीं है, किन्तु उल्लेखनीय रूप से यह भाषा समूचे देश की सम्पर्क भाषा हो जिसे अधिक-से-अधिक संख्या में लोग समझते, बोलते तथा प्रयोग करते हों। जनसमर्थित राष्ट्रीय भाषा का विकास एवं प्रयोग राष्ट्र को एकता एवं अखण्डता की ओर अग्रसर करेमा।

(2) क्षेत्रीय भावनाओं को सम्मान एवं प्रोत्साहन- हम जानते हैं कि विभिन्न भौगोलिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक कारणों से एक क्षेत्र-विशेष के निवासी अपनी भाषा को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं तथा उसके प्रति अथाह प्रेम एवं लगाव प्रदर्शित करते हैं; अतः क्षेत्रीय भाषाओं की उपेक्षा नहीं की जा सकती। विभिन्न क्षेत्रों में स्थानीय भाषाओं को मान्यता प्रदान करने के साथ-साथ उन्हें राजकीय कार्यों में भी प्रयोग करने की छूट दी जानी चाहिए। इससे क्षेत्रीय विकास प्रोत्साहित होगा तथा स्थानीय लोगों में आत्म-स्वाभिमान पैदा होगा। स्पष्टत: भाषावाद तथा भाषावाद तनावों का अन्त करने के लिए क्षेत्रीय भाषाओं में प्रतिष्ठा का ध्यान रखना होगा।

(3) साम्प्रदायिकता एवं क्षेत्रवाद का विरोध- साम्प्रदायिकता एवं क्षेत्रवाद के बन्धन भाषावाद को उकसाकर इसे राष्ट्रीय एकता के पैरों की बेड़ियाँ बना देते हैं। भाषावाद की समस्या का अन्त करने के लिए साम्प्रदायिक एवं क्षेत्रीय आधार पर उपजी विकृतियों तथा विषमताओं को नष्ट करना होगा। अत: साम्प्रदायिक एवं क्षेत्रीय भावनाओं का एक साथ मिलकर पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए।

(4) सांस्कृतिक विनिमय- सांस्कृतिक विनिमय के माध्यम से भी भाषावाद का निवारण सम्भव है। इसके लिए विभिन्न भाषाओं के साहित्य का अन्य भाषाओं के अनुवाद करने कार्य के को। प्रोत्साहित किया जाए। बहू-भाषी कवि सम्मेलनों, दूरदर्शन के कार्यक्रमों, सिनेमा, नाटक आदि के माध्यम से विभिन्न भाषा-भाषी समूहों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान की व्यवस्था करनी चाहिए। भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी समूहों के कलाकारों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों, पत्रकारों, लेखकों तथा कवियों को पारस्परिक सम्पर्क के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए।

(5) राजनीतिक उपाय- भाषागत तनावों से बचने के लिए ऐसे राजनीतिक दलों पर कठोर नियन्त्रण की आवश्यकता है जो अपने स्वार्थों की सिद्धि हेतु विभिन्न भाषा-भाषी समूहों को शिकार बना लेते हैं। भाषायी तनाव व विद्रोह भड़काने वाले राजनीतिक एजेण्टों को पकड़कर दण्डित किया जाना चाहिए।

(6) सही सोच का प्रचार-प्रसार- देशवासियों में इस सोच का प्रचार किया जाना चाहिए कि भाषा तो अभिव्यक्ति का माध्यम है। स्वार्थ-सिद्धि का साधन बनाकर इसका दुरुपयोग करना अक्षम्य अपराध है। सभी भाषाएँ समान रूप से प्रतिष्ठित एवं मान्य हैं किसी भी भाषा का महत्त्व कम नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में अंग्रेजी हो या हिन्दी या किसी ग्रामीण अचंल में बोली जाने वाली ऐसी भाषा जिसे लिपिबद्ध भी नहीं किया जा सकता–सभी को बराबर महत्त्व है; अतः भाषा को लेकर विवाद नहीं है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जातिगत समूह-तनाव से क्या आशय है?
उत्तर
भारतीय समाज में अनेकानेक जातियों का उद्भव और विकास हुआ है तथा उनके अपने-अपने विचार एवं दृष्टिकोण निर्मित हुए हैं। विचारों और दृष्टिकोण में पर्याप्त अन्तर की घाई ने उनके मध्य सामाजिक दूरी को अत्यधिक बढ़ा दिया। इसके परिणामस्वरूप जातियों में ऊँच-नीच को भेदभाव उभरने लगा। किसी जाति-विशेष के लोग पूर्वाग्रहों तथा अज्ञानता के कारण निज जाति के प्रति अन्ध-भक्ति तथा अन्य जातियों के प्रति संकुचित दृष्टिकोण से भर गये जिससे मानवता का व्यापक दृष्टिकोण आहत हुआ। काका कालेलकर ने उचित ही कहा है, “जातिवाद एक अबाधित, अन्ध समूह-भक्ति है जो कि न्याय, औचित्य, समानता और विश्वबन्धुत्व की उपेक्षा करती है।” जातिवाद की संकुचित विचारधारा ने सामाजिक सम्बन्धों में संकीर्णता, विरोध, पक्षपात, प्रतिद्वन्द्विता तथा पारस्परिक घृणा के बीज बो दिये, जिससे देश के प्रत्येक भाग में जातीय तनाव उत्पन्न हो गया। समय के साथ-साथ जातिगत भावना ने जातिगत सामूहिक तनाव को उग्र एवं स्थायी बनाया है।

प्रश्न 2
जातिवाद के दुष्परिणामों का उल्लेख कीजिए। (2017) 
या
जातिवाद के कोई दो दुष्परिणाम लिखिए। (2018)
उत्तर
जातिवाद के विस्तार से किसी जाति-विशेष के सदस्यों को तो लाभ होता है, किन्तु वहीं दूसरी ओर जातिवाद की उन्नति से समूचे देश और समाज की हानि भी होती है। यदि जातिवाद एक जाति की स्वार्थ-सिद्धि का प्रभावशाली यन्त्र है तो सम्पूर्ण मानव जाति के लिए सबसे बड़ा अभिशाप भी है। जातिवाद के अनेक दुष्परिणामों में से कुछ निम्नलिखित रूप में हैं

(1) राष्ट्रीयता एकता में बाधा– जातिवाद फैलने से राष्ट्र विभिन्न स्वार्थी समूहों में बँट जाता है। जिनका एकमात्र लक्ष्य अपने-अपने हितों की पूर्ति तथा स्वार्थों की सिद्धि होता है। इसके परिणामस्वरूप भिन्न जातियों के मध्य समूह-तनाव एवं संघर्ष उत्पन्न होते हैं जिससे राष्ट्र की शक्ति कमजोर पड़ती है। स्पष्टत: जातीयता के आधार पर विभाजन के फलस्वरूप राष्ट्र की एकता को खतरा पैदा होता है तथा राष्ट्रीय विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है।

(2) राष्ट्रीय क्षमता का ह्रास- जातिगत भावना पक्षपात को प्रोत्साहित करती है। पक्षपात राष्ट्र के मानवीय संसाधनों के उचित उपयोग में बाधक है। कम योग्य और कम क्षमता वाले व्यक्ति अधिक योग्य एवं अधिक क्षमतावान व्यक्तियों का स्थान ले लेते हैं जिससे राष्ट्र की सक्षम मानव ऊर्जा उचित अवसरों की तलाश में अपनी शक्ति और समय को व्यर्थ करती है। इस भाँति जातिवाद बढ़ने से राष्ट्रीय क्षमता और क्रियाशीलता को निरन्तर ह्यास होता है।

(3) प्रजातन्त्र के लिए खतरा– प्रजातन्त्र के मूलभूत सिद्धान्त हैं—स्वतन्त्रता, समानता तथा बन्धुत्व की भावना। इसके विपरीत जातिवाद असमानता, वर्ग-भावना, वैमनस्य, विद्वेष, पक्षपात तथा तनाव पर आधारित है। इससे प्रजातन्त्र को भारी खतरा पैदा हो गया है। के० एम० पणिक्करे ने उचित वही कहा है, “वास्तव में जब तक उपजाति तथा संयुक्त परिवार रहेंगे तब तक समाज का कोई भी संग्रठन समानता के आधार पर सम्भव नहीं है।”

(4) पक्षपात तथा भ्रष्टाचार को बढ़ावा- पक्षपात और भ्रष्टाचार ये दोनों विचार साथ-साथ चलते हैं। जातिवाद के कारण पक्षपात की भावना प्रोत्साहित होती है, उचित-अनुचित का विवेक समाप्त हो जाता है तथा अन्याय एवं अनैतिकता का बोलबाला हो जाता है। इससे निश्चय ही भ्रष्टाचार प्रेरित होता है जिससे समाज को हानि पहुँचती है।

प्रश्न 3.
साम्प्रदायिक समूह-तनाव से क्या आशय है? (2017)
उत्तर.
भारत विभिन्न सम्प्रदायों का देश है। यहाँ प्रमुख रूप से हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई–इन चार सम्प्रदायों के लोग रहते हैं, जिसकी वजह से इनसे सम्बन्धित साम्प्रदायिक विभिन्नता भी दृष्टिगोचर होती है। विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य पाये जाने वाले विरोध एवं तनाव को साम्प्रदायिक तनाव कहते हैं। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय 1947 ई० में हुए साम्प्रदायिक दंगों ने इस साम्प्रदायिक तनाव को स्थायी बना दिया। तभी से हिन्दू और मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों के लोग एक-दूसरे को सन्देह, घृणा तथा वैमनस्य की दृष्टि से देखने लगे। आज भी दोनों सम्प्रदायों में समूह-तनाव की स्थिति बनी हुई है। इसी प्रकार पंजाब समस्या ने हिन्दू और सिक्ख सम्प्रदायों के बीच सन्देह, विरोध एवं तनाव को वातावरण पैदा करने की कोशिश में है। ऐसा साम्प्रदायिक समूह-तनाव देश के विभिन्न नगरों; जैसे-मेरठ, अलीगढ़, आगरा आदि में साम्प्रदायिक उन्माद को बढ़ाकर साम्प्रदायिक दंगों में बदल देता है।

प्रश्न 4.
टिप्पणी लिखिए-भारत में साम्प्रदायिकता।
उत्तर
भारत हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई तथा पारसी इत्यादि अनेक सम्प्रदायों के अनुयायियों का निवास स्थान है, किन्तु इनमें से मुख्य सम्प्रदाय सिर्फ दो हैं — हिन्दू सम्प्रदाय तथा मुस्लिम सम्प्रदाय। विदेशी आक्रान्ताओं के रूप में मुसलमान शासकों ने भारत में प्रवेश किया तथा यहाँ की हिन्दू प्रजा पर अमानुषिक अत्याचार किये। हिन्दूजन उस अत्याचार, दमन और त्रासदी भरे काल को आज भी भुला नहीं सके हैं। इसके परिणामस्वरूप, हिन्दू और मुस्लिम सम्प्रदायों के बीच लम्बे समय से चली आ रही विरोध एवं प्रतिशोध की भावना आज भी समूह-तनाव और संघर्ष पैदा कर देती है।

आधुनिक काल में इन दोनों सम्प्रदायों के बीच सबसे बड़ा संघर्ष तथा तनाव भारत की स्वतन्त्रता-प्राप्ति एवं विभाजन की प्रक्रिया के दौरान हुआ था। देश दो टुकड़ों में बँट गयो-भारत और पाकिस्तान। इस विभाजन के परिणामस्वरूप हिन्दू और मुसलमानों में शताब्दियों पूर्व के पूर्वाग्रह जाग । उठे और दोनों सम्प्रदाय साम्प्रदायिक दंगों की भयंकर विभीषिका के शिकार हुए। हजारों बच्चों, बूढ़ों, युवक-युवतियों और वयस्कों का कत्ल हुआ और लाखों-करोड़ों लोग बेघर हो गये। सच तो यह है कि आज भी भारत के मुसलमान और हिन्दूजन एक-दूसरे से समायोजित नहीं हो पाये हैं। दोनों ओर ।

पूर्वाग्रहों तथा विरोधी भावनाओं के पलीते में आग लगाने वाली समस्याओं, घटनाओं, उन्मादी लोगों तथा दलों की भरमार है। जरा-सी चिंगारी छूते ही साम्प्रदायिक दंगों की ज्वाला प्रज्वलित हो उठती है। मेरठ, अलीगढ़, इलाहाबाद, मुरादाबाद, दिल्ली तथा गुजरात के कुछ नगर आदि कई संवेदनशील नगरों में अनेक बार सोम्प्रदायिकता की भयानक विभीषिका अपना कहर ढा चुकी है।

प्रश्न 5.
साम्प्रदायिकता का व्यक्तित्व के विकास पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर.
मनुष्य का व्यक्तित्व उसकी सभी शारीरिक, जन्मजात तथा अर्जित वृत्तियों का योग है। यह उनके परिवेश में स्थित विभिन्न कारकों के अन्त:कार्य से उत्पन्न व्यक्ति की आदतों, मनोवृत्तियों व गुणों का एक गतिशील संगठन है। मनुष्य का व्यक्तित्व उसके आरम्भिक काल से ही विकसित होने लगता बालक के मस्तिष्क की तुलना एक कोरी स्लेट से की गयी है जिस पर कुछ भी लिखा जा सकता है। साम्प्रदायिक वातावरण में रहने वाले बालक में आरम्भ काल से ही विभिन्न प्रकार की पूर्वधारणाएँ।

विकसित होने लगती हैं। पूर्वधारणा में पूर्व-निर्णय, भ्रान्तिपूर्ण विश्वास तथा राग-द्वेष के संवेग निहित होते हैं। विवेकहीन मान्यताओं तथा अन्धविश्वासों के आधार पर बने पूर्वाग्रह या पूर्वधारणाएँ बालक के व्यक्तित्व पर बुरा प्रभाव डालती हैं। दो विरोधी समुदाय के बालकों में विकसित प्रतिकूल अभिवृत्तियाँ छनमें द्वेष, तनाव तथा शत्रुता के भाव पैदा करेंगी।

अभिवृत्ति के आधार पर ही सामाजिक शत्रुता या मित्रता निर्मित होती है; अतः प्रतिकूल अभिवृत्ति के आधार पर निर्मित सामाजिक शत्रुता; साम्प्रदायिक तनाव एवं दंगे के समय; अपना कुप्रभाव दिखाती है। व्यवहार और अभिवृत्तियाँ पर्याप्त सीमा तक विश्वासों से सम्बन्धित हैं। हिन्दुओं को पुनर्जन्म में विश्वास है लेकिन मुसलमानों का नहीं। यह विश्वास उत्पन्न होने पर कि अमुक हमारे विरोधी और शत्रु हैं, साम्प्रदायिक भावना को बल मिलता है। यही कारण है कि बालक में विविध सम्प्रदायों के प्रति पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण निर्मित हो जाता है। यह दृष्टिकोण उसके व्यक्तित्व के विकास को बाधित करता है।

साम्प्रदायिकता एक क्षुद्र एवं संकुचित मानसिकता के कारण पैदा होती है। यह एक ओर मानव की बुद्धि को अपने बन्धनों में जकड़ लेती है और उसे विकास नहीं करने देती तथा दूसरी ओर यह मानव को समाज और वातावरण के विभिन्न अवयवों से उचित सामयोजन नहीं करने देती, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व असन्तुलन को प्राप्त होता है और उसके व्यक्तित्व का विकास रुक जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि साम्प्रदायिकता हर दृष्टिकोण से बुरी है तथा इसका व्यक्तित्व के विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 6.
सम्प्रदायवाद की रोकथाम के किन्हीं दो उपायों के बारे में संक्षेप में लिखिए। (2017)
उत्तर.
सम्प्रदायवाद की रोकथाम के लिए उपयोगी उपाय इस प्रकार हैं –

  1. मिश्रित सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए। इन कार्यक्रमों के आयोजनों से विभिन्न सम्प्रदाय एक-दूसरे के निकट आते हैं, उनकी अच्छाइयों का पता चलता है तथा अनेक प्रकार की मिथ्या धारणाएँ समाप्त होती हैं।
  2. साम्प्रदायिकता को नियन्त्रित करने के लिए व्यापक स्तर पर इसके विरुद्ध प्रचार किया जाना चाहिए। जन-संचार के सभी माध्यमों द्वारा साम्प्रदायिकता से होने वाली हानियों तथा इसके बुरे परिणामों को जन-साधारण तक पहुँचाना चाहिए।

प्रश्न 7.
क्षेत्रीय समूह-तनाव से क्या आशय है?
उत्तर.
भारत एक उप-महाद्वीप तथा विशाल भौगोलिक-राजनीतिक इकाई है जो विभिन्न क्षेत्रों में विभाजित है। प्रत्येक क्षेत्र की भौगोलिक सीमाओं, धर्म, संस्कृति एवं भाषा, रहन-सहन तथा सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्वार्थों ने उस क्षेत्र-विशेष के निवासियों के मन में अपने क्षेत्र की सुख-समृद्धि एवं प्रगति तथा अन्य क्षेत्रों के प्रति अलगाव की भावना को जन्म दिया। परिणामतः एक क्षेत्र के लोग अपने क्षेत्र वालों के प्रति प्रेम तथा दूसरे क्षेत्र वालों के प्रति विद्वेष, घृणा और विरोध की भावना रखने लगे।

किसी क्षेत्र-विशेष के लिए पक्षपात, अन्धभक्ति, निहित स्वार्थ, संकुचित मानसिकता तथा अन्य क्षेत्रों के प्रति उपेक्षा क्षेत्रवाद’ (Regionalism) को जन्म देते हैं। एक क्षेत्र के लोग अपनी माँगों के समर्थन.तथा अन्य के विरोध में आन्दोलन इत्यादि करते हैं, जिनकी परिणति हिंसात्मक दंगों में होती है।

इससे एक-दूसरे के प्रति घृणा बढ़ती है और लोगों में क्षेत्रीय तनाव उत्पन्न होने लगता है। क्षेत्रीयता के आधार पर बढ़ती हुई घृणा और पूर्वाग्रह; क्षेत्रीय समूह-तनाव को स्थायी बना देते हैं। हमारे देश में क्षेत्रीय आर्धार पर मुम्बई राज्य को गुजरात एवं महाराष्ट्र में और पंजाब को पंजाब एवं हरियाणा में विभाजित किया मैया है। समय-समय पर कुछ अन्य क्षेत्र भी अलग राज्य की मांग करते रहते हैं; इससे क्षेत्रीय समूह-तुनाव बढ़ रहा है और राष्ट्र की एकता को आघात पहुँचा रहा है।

प्रश्न 8.
भाषागत समूह-तनाव से क्या आशय है?
उत्तर.
भाषागत समूह-तनाव
भाषा भावाभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। इसमें एकीकरण की प्रबल शक्ति होती है। क्योंकि इसी के माध्यम से एक व्यक्ति दूसरे के सम्पर्क में आकर विचारों का आदान-प्रदान करता है। भारत में हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, मराठी, गुजराती, बंगाली, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, कश्मीरी, सिन्धी तथा असमिया अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। देश के संविधान में 22 भाषाओं को राष्ट्रीय महत्त्व देते हुए हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया गया है।

अहिन्दी भाषा वर्गों ने हिन्दी भाषा का जबरदस्त विरोध किया। उन्हें हिन्दी भाषा का प्रभुत्व स्वीकार नहीं है। इसके बदले वे अंग्रेजी भाषा के प्रति पक्षपात दिखाते हैं। असम में असमी तथा बंगाली भाषाओं के आधार पर असन्तोष व्याप्त है। विभिन्न भाष्य-भाषी लोगों में सम्पर्क तथा भाषायी आधार पर राज्यों की स्थापना को लेकर काफी तनाव पाया जाता है। इससे आन्दोलन, राजनीतिक षड्यन्त्र तथा हिंसात्मक उपद्रव होते हैं।

भाषायी तनाव; संघर्ष और रक्तपात में बदलकर सैकड़ों-हजारों लोगों की जान तथा करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति तबाह कर देते हैं। इससे उत्पन्न देश के बंटवारे के विचार से राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ती है। सर्वविदित है कि गुजरात और महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेश की स्थापना भाषायी तनावों का ही दुष्परिणाम है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बांग्लादेश, बंगाली भाषा के आधार पर पाकिस्तान से अलग हुआ। भाषागत समूह-तनाव किसी भी देश की अखण्डता और प्रभुसत्ता के लिए खतरनाक सिद्ध होते हैं।

प्रश्न 9.
पूर्वाग्रहों की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर.
पूर्वाग्रहों की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. किसी भी वस्तु, व्यक्ति, समूह अथवा विचार के प्रति अनुकूल या प्रतिकूल अभिवृत्तियों तथा । विश्वासों के नाम पूर्वाग्रह है।
  2. किसी व्यक्ति, समुदाय, पदार्थ अथवा समाज के प्रति लिये गये पूर्व निर्णय या पहले से ही निर्मित आग्रह को पूर्वाग्रह रहते हैं।
  3. पूर्वाग्रहों का निर्माण व्यक्ति की मानसिक अभिवृत्तियों तथा संवेगों से होता है। इनके निर्माण में व्यक्तित्व के ज्ञानात्मक, प्रत्यक्षात्मक, प्रेरणात्मक तथा संवेगात्मक सभी पक्ष क्रियाशील होकर कार्य करती हैं।
  4. पूर्वाग्रह अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी, अनुकूल भी हो सकते हैं और प्रतिकूल भी, सही भी हो सकते हैं और गलत भी; किन्तु इस बात का परीक्षण नहीं किया जा सकता कि ये पूर्वाग्रह किन तथ्यों या सत्य पर आधारित हैं।
  5. ज्यादातर पूर्वाग्रह भ्रम तथा आतंक उत्पन्न करने वाले होते हैं और सामुदायिक, धर्मगत, जातिगत या परम्परागत किसी भी प्रकार के हो सकते हैं।
  6. पूर्वाग्रह वंश परम्परागत तथा जन्मजात नहीं होते, अपितु ये अर्जित होते हैं। कोई भी व्यक्ति पूर्व निर्मित आग्रह को लेकर पैदा नहीं होता बल्कि उसमें अनुकूल या प्रतिकूल विश्वास एवं अभिवृत्तियाँ कट्टरवादियों द्वारा विकसित किये जाते हैं।
  7. पूर्वाग्रह लोगों के व्यक्तित्व के अभिन्न अंग बन जाते हैं जिसके फलस्वरूप समूह में व्यवहार सम्बन्धी दोष पैदा होने लगते हैं जो समूह-तनाव उत्पन्न कर देते हैं।
  8. समूह-तनाव सामुदायिक, जातीय तथा वर्ग-संघर्ष, सामाजिक संघर्ष तथा युद्ध की विभीषिका को जन्म देते हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतवर्ष में समूह-तनाव के विभिन्न रूप क्या हैं?
उत्तर
भारत एक विशाल देश है जिसमें अनेक जातियों, उपजातियों, सम्प्रदायों, वर्गों तथा भिन्न भाषा-भाषी लोग विभिन्न क्षेत्रों में निवास करते हैं। इस विविधता ने जहाँ एक ओर भारतीय समाज एवं संस्कृति को समृद्ध बनाया है, वहीं दूसरी ओर विभिन्न समूह तनावों को भी बल दिया है। हमारे देश में मुख्य रूप से चार प्रकार के समूह-तनाव पाये जाते हैं–

  1. जातिगत समूह-तनाव,
  2. साम्प्रदायिक समूह-तनाव,
  3. क्षेत्रीय समूह-तनाव तथा
  4. भाषागत समूह-तनाव।

प्रश्न 2.
रुढियुक्तियों को परिभाषित कीजिए (2009, 13)
या
रूढ़ियुक्तियों का अर्थ स्पष्ट कीजिए। (2017)
उत्तर.
किम्बाल यंग ने रूढ़ियुक्ति को इन शब्दों में परिभाषित किया है, “रूढ़ियुक्ति एक भ्रामक वर्गीकरण करने की धारणा है जिसके साथ पसन्द अथवा नापसन्द तथा स्वीकृति अथवा अस्वीकृति की प्रबल संवेगात्मक भावना जुड़ी होती है। इस प्रकार रूढ़ियुक्तियों काल्पनिक मत हैं, जो तर्क पर आधारित नहीं होते, बल्कि व्यक्ति की पसन्द अथवा नापसन्द पर आधारित होते हैं। रूढ़ियुक्तियों से सम्बन्धित कोई ठोस प्रमाण नहीं होता। रूढ़ियुक्तियाँ प्रायः पूर्वाग्रहों को जन्म देती हैं तथा इन्हीं पूर्वाग्रहों ले समाज में सामूहिक-तनाव उत्पन्न होते हैं।

प्रश्न 3.
समूह-तनाव-निवारण में शिक्षा की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
उत्तर.
समूह-तनाव-निवारण के विभिन्न उपायों में से सर्वाधिक उपयोगी एवं विश्वसनीय उपाय है—शिक्षा का प्रसार। वास्तव में समूह-तनाव की उत्पत्ति संकीर्ण दृष्टिकोण, पूर्वाग्रहों तथा अन्धविश्वासों आदि के कारण ही होता है। शिक्षा इन कारकों को समाप्त करने में सहायक होती है, शिक्षित व्यक्ति का दृष्टिकोण उदार एवं व्यापक होता है, वह पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर तटस्थ रूप से चिन्तन करता है तथा अन्धविश्वासों से मुक्त होती है।

इस स्थिति में समूह-तनावों की उत्पत्ति की सम्भावना कम हो जाती है। इसके अतिरिक्त शिक्षा ग्रहण करते समय भिन्न-भिन्न समूहों एवं वर्गों के बालक एक साथ रहते हैं तथा परस्पर निकट सम्पर्क में आते हैं। इससे भी विभिन्न समूहों में विद्यमान सामाजिक दूरी घटती है तथा समूह-तनाव की सम्भावना भी प्रायः नहीं रहती। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि समूह-तनाव के निवारण में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।।

प्रश्न 4.
संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-भारत की भाषाएँ।
उत्तर.
भारत एक विस्तृत एवं विशाल देश है। यहाँ कश्मीर से कन्याकुमारी तथा कच्छ’ से अरुणाचल प्रदेश तक अनेकानेक भाषाएँ बोली जाती हैं। यहाँ अनेक धर्म और सम्प्रदाय के लोगों के समान ही भिन्न-भिन्न भाषाएँ तथा उपभाषाएँ भी प्रचलित हैं। विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न मुख्य भाषाएँ बोली तथा लिखी जाती हैं, इनके अतिरिक्त सिर्फ बोलचाल में प्रयोग की जाने वाली विविध स्थानीय बोलियाँ हैं जो प्रत्येक 50 किलोमीटर के अन्तर पर बदल जाती हैं। इनका क्षेत्र सीमित है तथा इनका कोई साहित्य भी विकसित नहीं हैं। हमारे देश की मुख्य भाषाएँ-हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, मराठी, गुजराती, बंगाली, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, असमी तथा कश्मीरी इत्यादि हैं। भारत के संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न I.निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए |
1. समाज के विभिन्न अंगों के मध्य विकसित होने वाली सामाजिक दूरी के परिणामस्वरूप प्रबल | होने वाले तनाव को ………. कहते हैं।
2. एक समूह के अधिकांश लोगों द्वारा दबाव, बेचैनी एवं चिन्ता की अनुभूति …………….. कहलाती है। (2017)
3. दक्षिण अफ्रीकी में श्वेतों तथा अश्वेतों के मध्य पाये जाने वाला तनाव ……..
4. निश्चित विषय-वस्तुओं, सिद्धान्तों, व्यक्तियों के प्रति बिना कारण के अनुकूल या प्रतिकूल अभिवृत्ति को ………….. कहते हैं।
5. ब्रिट के अनुसार ……….. का अर्थ अपरिपक्व अथवा पक्षपातपूर्ण मत है। (2015)
6. किसी परिस्थिति में पक्षपातपूर्ण एवं अपरिपक्व मत …………. कहलाते हैं। (2013)
7. पक्षपात या पूर्वाग्रह ………. का कारण बनता है।
8. पूर्वाग्रह समूह-तेनावों को ………….. देते हैं।
9. पूर्वाग्रहों के कारण व्यक्ति का दृष्टिकोण ………. हो जाता है।
10. अपनी जाति को महान् तथा अन्य जातियों को हीन मानने के परिणामस्वरूप विकसित होने वाले तनाव को ……… कहते हैं।
11. ……….. के कारण ‘जातीय दूरी’ में वृद्धि होती है।
12. अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन देकर ………. को कम किया जा सकता है।
13. यातायात एवं प्रचार साधनों ने भी जातिवाद को ……….. दिया है।
14. हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी आदि समूहों के मध्य समय-समय पर उत्पन्न होने वाले तनाव को …….. कहा जाता है।
15. साम्प्रदायिक भावना की चरम परिणति प्रायः ………. के रूप में होती है।
16. सम्प्रदायवाद सामूहिक …………. का एक कारण हो सकता है। (2016)
17. सांस्कृतिक आदान-प्रदान से साम्प्रदायिक तनाव को ……………. किया जा सकता है।
18. क्षेत्रवाद ………. का एक रूप है।
19. भाषावाद ………. का एक रूप है।
20. नकारात्मक प्रभाव के रूप में भाषावाद ………. के लिए उत्तरदायी हो सकता है। (2018)
21. सभी प्रकार के समूह-तनाव को कम करने में ………… सहायक होता है। (2008)
22. किसी व्यक्ति या समुदाय पर गलत आरोप लगाकर तनाव उत्पन्न करने को ………….. कहा जाती है। (2008)
उत्तर
1. सामाजिक तनाव
2. समूह-तनाव
3. प्रजातीय तनाव
4 पूर्वाग्रह
5. पूर्वाग्रह
6, पूर्वाग्रह
7. समूह-तनाव
8. बढ़ावा
9. पक्षपातपूर्ण
10. जातिगत समूह-तनाव
11. जातिगत तनाव
12 जातिगत तनाव
13. बढ़ावा
14. साम्प्रदायिक तनाव
15 साम्प्रदायिक तनाव
16. तनाव
17, समाप्त
18. समूह तनाव,
19. समूह तनाव
20, क्षेत्रीय तनाव
21. शिक्षा को प्रसार
22 अफवाहें, दंगे फैलाना।

प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए –
प्रश्न 1.
समूह-तनाव से क्या आशय है?
उत्तर.
समूह-तनाव उस स्थिति का नाम है जिसमें समाज का कोई वर्ग, सम्प्रदाय, धर्म, जाति या राजनीतिक दल; दूसरे के प्रति भय, ईर्ष्या, घृणा तथा विरोध से भर जाता है।

प्रश्न 2.
भारतीय समाज में मुख्य रूप से किस-किस प्रकार के समूह-तनाव पाये जाते हैं?
उत्तर.
भारतीय समाज में पाये जाने वाले समूह-तनाव के मुख्य रूप हैं-जातिगत समूह-तनाव, भाषागत समूह-तनाव, क्षेत्रगत समूह-तनाव तथा साम्प्रदायिक समूह-तनाव।

प्रश्न 3.
समूह-तनाव के सामान्य वातावरणीय कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर.
समूह-तनाव के सामान्य वातावरणीय कारण हैं-ऐतिहासिक कारण, भौतिक कारण, सामाजिक कारण, धार्मिक कारण, आर्थिक कारण, राजनीतिक कारण तथा सांस्कृतिक कारण।

प्रश्न 4.
समूह-तनाव के चार मुख्य मनोवैज्ञानिक कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर.

  1.  पूर्वाग्रह,
  2. भ्रामक विश्वास, रूढ़ियाँ और प्रचार,
  3. मिथ्या दोषारोपण तथा
  4. व्यक्तित्व एवं व्यक्तिगत भिन्नताएँ।

प्रश्न 5.
पूर्वाग्रह से क्या आशय है?
उत्तर.
पूर्वाग्रह एक ऐसा निर्णय होता है जो तथ्यों के समुचित परीक्षण के पूर्व लिया जाता है।

प्रश्न 6.
पूर्वाग्रह से छुटकारा पाने के मुख्य उपाय क्या हैं?
उत्तर.

  1. पारस्परिक सम्पर्क,
  2. शिक्षा,
  3. सामाजिक-आर्थिक समानता,
  4. भावात्मक एकता,
  5. सन्तुलित व्यक्तित्व तथा
  6. चेतना जाग्रत करना।

प्रश्न 7.
जातिवाद से क्या आशय है?
उत्तर.
जातिवाद किसी जाति या उपजाति के सदस्यों की वह भावना है जिसमें वे देश, अन्य जातियों या सम्पूर्ण समाज के हितों की अपेक्षा अपनी जाति या समूह के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक हितों या लाभों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।

प्रश्न 8.
जातिवाद के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर.

  1. अपनी जाति की प्रतिष्ठा की एकांगी भावना,
  2. व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान,
  3. विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध,
  4. आजीविका में सहायक,
  5. नगरीकरण तथा औद्योगीकरण,
  6.  यातायात तथा प्रचार के साधनों का विकास।

प्रश्न 9.
भारत में साम्प्रदायिक तनाव के चार मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर.

  1. ऐतिहासिक कारण
  2. सांस्कृतिक कारण,
  3. राजनीतिक कारण तथा
  4. मनोवैज्ञानिक कारण।

प्रश्न 10.
भाषावाद के निवारण के मुख्य उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर.

  1. राष्ट्रीय भाषा का विकास एवं राष्ट्रीय समर्थन,
  2. क्षेत्रीय भाषाओं को सम्मान एवं प्रोत्साहन,
  3. साम्प्रदायिकता एवं क्षेत्रवाद का विरोध,
  4. सांस्कृतिक विनिमय,
  5. राजनीतिक उपाय तथा
  6. सही सोच का प्रचार-प्रसार।,

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए –
प्रश्न 1.
“मनोवैज्ञानिक अर्थों में तनाव, दबाव, बेचैनी तथा चिन्ता की अनुभूति है।” यह कथन किस मनोवैज्ञानिक का है?
(क) जेम्स ड्रेवर
(ख) कोलमैन
(ग) क्रेच तथा क्रचफील्ड
(घ) बेलार्ड
उत्तर
(ख) कोलमैन

प्रश्न 2.
समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों या समूहों के बीच सामाजिक दूरी के बढ़ जाने की स्थिति को कहते हैं –
(क) सामूहिक संघर्ष
(ख) पारस्परिक सहयोग
(ग) समूह-तनाव
(घ) सामूहिक सौहार्द
उत्तर
(ग) समूह-तनाव

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में कौन समूह-तनाव का कारण है- (2012)
(क) शिक्षा
(ख) खेल
(ग) रूढ़ियुक्तियाँ
(घ) राष्ट्रीय पर्व
उत्तर
(ग) रूढ़ियुक्तियाँ

प्रश्न 4.
व्यक्तिगत, सामुदायिक, परम्परागत विश्वासों तथा वृत्तियों के आधार पर जब किसी सम्प्रदाय, धर्म, वर्ग, क्षेत्र या भाषा के प्रतिकूल या अनुकूल धारणा बना ली जाती है तो उसे क्या कहते हैं?
(क) सम्प्रदायवाद
(ख) समूह-तनाव
(ग) भ्रामक दृष्टिकोण
(घ) पूर्वाग्रह
उत्तर
(घ) पूर्वाग्रह

प्रश्न 5.
प्रबल जातिवाद की भावना के कारण विकसित होने वाले सामाजिक तनाव को कहते हैं –
(क) अनावश्यक तनावे
(ख) गम्भीर सामूहिक तनाव
(ग) जातिगर्त समूह-तनाव।
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ग) जातिगर्त समूह-तनाव।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से कौन-सा सामूहिक तनाव है जो केवल भारतीय समाज में ही पाया जाता
(क) भाषागत समूह-तनाव
(ख) धर्मगत समूह-तनाव
(ग) क्षेत्रगत समूह-तनाव
(घ) जातिगत समूह-तनाव
उत्तर
(घ) जातिगत समूह-तनाव

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में कौन जातिवाद का दुष्परिणाम नहीं है – (2015)
(क) भ्रष्टाचार
(ख) पक्षपात
(ग) समूह-तनाव
(घ) अन्तर्जातीय विवाह
उत्तर
(घ) अन्तर्जातीय विवाह

प्रश्न 8.
अपनी भाषा को उच्च तथा अन्य भाषाओं को हीन मानने से उत्पन्न होने वाले सामाजिक तनाव को कहते हैं –
(क) गम्भीर सामाजिक तनावे
(ख) क्षेत्रीय तनाव
(ग) भाषागत तनाव
(घ) साम्प्रदायिक तनाव
उत्तर
(ग) भाषागत तनाव

प्रश्न 9.
किस प्रकार के समूह-तनाव को कम करने का उपाय है-अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन?
(क) भाषागत समूह-तनाव
(ख) धर्मगत समूह-तनाव
(ग) जातिगत समूह-तनाव
(घ) क्षेत्रगत समूह-तनाव
उत्तर
(ग) जातिगत समूह-तनाव

प्रश्न 10.
हमारे देश में समय-समय पर होने वाले साम्प्रदायिक दंगों के पीछे मुख्य कारण होता है –
(क) जातिगत भावना
(ख) क्षेत्रीय भावना
(ग) साम्प्रदायिकता की भावना
(घ) विद्रोह की भावना
उत्तर
(ग) साम्प्रदायिकता की भावना

प्रश्न 11.
धर्मान्धता अथवा धार्मिक कट्टरता की भावना के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है-
(क) सामाजिक तनाव
(ख) धर्मगत समूह-तनाव
(ग) वर्गवाद
(घ) अनावश्यक तनाव
उत्तर
(ख) धर्मगत समूह-तनाव

प्रश्न 12.
जातिवाद के उग्र रूप धारण कर लेने पर होता है
(क) राष्ट्र की प्रगति
(ख) आर्थिक उत्थान्
(ग) भ्रष्टाचार का बोलबाला
(घ) समाज में सहयोग
उत्तर
(ग) भ्रष्टाचार का बोलबाला

प्रश्न 13.
साम्प्रदायिक तनाव को कम करने के लिए किया जाना चाहिए –
(क) राष्ट्रीयता का प्रचार
(ख) साम्प्रदायिक राजनीतिक दलों पर प्रतिबन्ध
(ग) मिश्रित कार्यक्रमों का आयोजन
(घ) ये सभी उपाय
उत्तर
(घ) ये सभी उपाय

प्रश्न 14.
मिश्रित सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन से कम किया जा सकता है –
(क) जातिगत समूह-तनाव
(ख) साम्प्रदायिक तनाव
(ग) भाषागत तनाव
(घ) हर प्रकार का समूह-तनाव
उत्तर
(घ) हर प्रकार का समूह-तनाव

प्रश्न 15.
अपने देश में भाषावाद को नियन्त्रित करने का उपाय है –
(क) व्यापक राजनीतिक प्रयास
(ख) राष्ट्रभाषा को सम्मान प्रदान करना
(ग) समस्त क्षेत्रीय भाषाओं को समान प्रोत्साहन
(घ) ये सभी उपाय
उत्तर
(घ) ये सभी उपाय

प्रश्न 16.
समूह-तनाव निवारण में सर्वाधिक सहायक कारक है –
(क) आर्थिक सुधार करना
(ख) शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार
(ग) आध्यात्मिक ज्ञान का प्रसार
(घ) कठोर कानून बनाना
उत्तर
(ख) शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार

प्रश्न 17.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अलग राज्य की माँग किस विचारधारा का परिणाम है?
(क) जातिवाद
(ख) धर्मवाद
(ग) क्षेत्रवाद
(घ) अन्धविश्वास
उत्तर
(ग) क्षेत्रवाद

प्रश्न 18.
निम्नलिखित में से कौन समूह-तनाव को कम करता है?
(क) रूढूयाँ
(ख) पूर्वाह्न
(ग) अशिक्षा
(घ) समाज के सदस्यों के समान आदर्श और लक्ष्य
उत्तर
(घ) समाज के सदस्यों के समान आदर्श और लक्ष्य

प्रश्न 19.
निम्नलिखित कथनों में से कौन सही है? (2011)
(क) पूर्वाग्रह सीखे नहीं जाते।
(ख) पूर्वाग्रह असन्तोष प्रदान करते हैं।
(ग) पूर्वाग्रह सत्य पर आधारित होते हैं।
(घ) पूर्वाग्रह समूह-तनाव के लिए उत्तरदायी होते हैं।
उत्तर
(घ) पूर्वाग्रह समूह-तनाव के लिए उत्तरदायी होते हैं।

प्रश्न 20.
“सभी अश्वेत अच्छे बास्केटबॉल खिलाड़ी होते हैं।” यह कथन उदाहरण है- (2017)
(क) रूढ़ियुक्ति का
(ख) पूर्वाग्रह का
(ग) मिथ्यादोषारोपण का
(घ) संघर्ष का
उत्तर
(ख) पूर्वाग्रह का

We hope the UP Board Solutions for Class 12  Psychology Chapter 9 Group Tension (समूह-तनाव) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12  Psychology Chapter 9 Group Tension (समूह-तनाव), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections (मानचित्र प्रक्षेप) are part of UP Board Solutions for Class 12 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 1 Map Projections (मानचित्र प्रक्षेप).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography (Practical Work)
Chapter Chapter 1
Chapter Name Map Projections (मानचित्र प्रक्षेप)
Number of Questions Solved 19
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections (मानचित्र प्रक्षेप)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्रक्षेप से क्या अभिप्राय है? प्रक्षेप की विशेषताएँ बताइए तथा इनका वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर

मानचित्र प्रक्षेप का अर्थ एवं परिभाषा
Meaning and Definition of Map Projection

मानचित्रों के अध्ययन के बिना भौगोलिक ज्ञान अधूरा तथा अस्पष्ट रहता है। मानचित्रों की रचना समतले कागज पर की जाती है। प्रत्येक मानचित्र पृथ्वी के गोलाकार भाग अथवा उसके किसी अल्प भाग का प्रदर्शन करता है। अतः पृथ्वी के इसी गोलाकार भाग के प्रदर्शन के लिए प्रक्षेप की सहायता लेनी पड़ती है। प्रक्षेप की सहायता से ग्लोब के अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं के क्रम को एक समतल कागज पर भिन्न-भिन्न रूपों में परिवर्तित कर दिया जाता है तथा मानचित्र तैयार कर लिया जाता है। प्रक्षेप’ का शाब्दिक अर्थ है, प्रक्षेपित करना जो ग्लोब की आकृति को अक्षांश, देशान्तर जैसी काल्पनिक रेखाओं का जाल बनाकर तैयार किया जाता है। पृथ्वी की गोलाकार आकृति को समतल कागज पर विशेष विधियों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इस प्रकार ग्लोब को प्रक्षेपित करने की क्रिया प्रक्षेप कहलाती है। प्रक्षेप को निम्नवत् परिभाषित किया जा सकता है –

“प्रक्षेप ग्लोब की अक्षांश तथा देशान्तर रेखाओं को एक समतल पत्रक पर चित्रित करने का एक साधन मात्र है।”
“अक्षांश तथा देशान्तर रेखाओं के क्रमबद्ध जाल को प्रक्षेप कहते हैं।”
“ग्लोब की अक्षांश तथा देशान्तर रेखाओं के जाल पर प्रकाश डालकर प्राप्त की गयी छाया को प्रक्षेप कहते हैं।”
“पृथ्वी के पूर्ण या किसी भाग को अक्षांश तथा देशान्तर काल्पनिक रेखाओं की सहायता से प्रसारित प्रक्रिया को प्रक्षेप कहते हैं।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन से प्रक्षेप की एक उचित एवं स्पष्ट परिभाषा निम्नवत् दी जा सकती है –
“सम्पूर्ण पृथ्वी अथवा उसके किसी भाग के नियमित रूप से किसी समतले कागज पर निश्चित मापक के अनुसार खींचे गये अक्षांशीय एवं देशान्तरीय रेखाजोल को, जिसमें स्थित प्रत्येक बिन्दु अथवा स्थान अपनी धरातलीय स्थिति के अनुरूप हो, ‘मानचित्र प्रक्षेप’ कहलाता है।”

प्रक्षेप को सर्वोत्तम उदाहरण सिनेमा में चलने वाली फिल्म का दिया जा सकता है। जिस प्रकार प्रोजेक्टर की सहायता से फिल्म की रील पर प्रकाश की किरणें डालने से उसके सामने परदे पर जो चित्र उभरता है, वह पिक्चर कहलाती है। ठीक इसी भाँति यदि किसी पारदर्शक गोले अथवा ग्लोब के भीतर एक प्रकाश का साधन रखें अथवा सामने से प्रकाश की किरणें इस ग्लोब से गुजारें तो गोले अथवा ग्लोब पर बने चिह्नों (अक्षांशों एवं देशान्तरों) के प्रतिबिम्ब कागज पर स्पष्ट दिखाई देते हैं। इस प्रक्षेपण को ही प्रक्षेप कहा जाता है।
इस प्रकार प्रक्षेपों का निर्माण प्रकाश की छाया तथा गणित, दोनों ही आधार पर किया जाता है। इसके साथ ही मानचित्रकार को अपने उद्देश्यानुसार उचित प्रक्षेप का चुनाव करना पड़ता है।

मानचित्र प्रक्षेप की प्रमुख विशेषताएँ
Characteristics of Map Projection

  1. मानचित्र प्रक्षेपों में अक्षांश रेखाएँ विषुवत् रेखा के समानान्तर, सम दूरी पर खींची गयी काल्पनिक सरल रेखाएँ होती हैं।
  2. मानचित्र प्रक्षेपों में देशान्तर रेखाएँ अर्द्धवृत्तीय, सम लम्बाई तथा समान अन्तर पर खींची गयी काल्पनिक अर्द्धवृत्तीय रेखाएँ होती हैं।
  3. प्रक्षेपों के निर्माण में अक्षांश एवं देशान्तर रेखाएँ एक-दूसरे को समकोण पर काटती हैं।

मानचित्र प्रक्षेप से सम्बन्धित कुछ अन्य आवश्यक बातें
Some Other Statements Related to Map Projection

(1) जाल (Graticule) – अक्षांश तथा देशान्तर रेखाओं के समूह को जाल कहते हैं।
(2) कटिबन्ध (Zone) – दो अक्षांश रेखाओं के मध्य के भाग या दूरी को कटिबन्ध या पेटी के नाम से पुकारते हैं।
(3) प्रक्षेप का मापक (Scale of Projection) – पृथ्वी का अर्द्धव्यास 3,960 मील अथवा 25,09,05,600 इंच है, परन्तु प्रक्षेप की गणना करने के लिए अधिक गणितीय क्रियाओं से बचने के लिए इसे पूर्णांक संख्या 25,00,00,000 इंच अथवा 62,00,000 सेमी मान लेते हैं। निम्नलिखित सूत्र की सहायता से पृथ्वी के घटे अथवा बढ़े हुए गोले का अर्द्धव्यास (त्रिज्या) निकाल लेते हैं –
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections 2
(4) प्रक्षेप का विस्तार – जब प्रक्षेप की रचना की जाती है तो उसका पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण विस्तार करना होता है। इसे अक्षांशों एवं देशान्तरों की सहायता से प्रकट किया जाता है।

उत्तम प्रक्षेप के लक्षण 

  1. प्रक्षेप की रचना सरल हो।
  2. प्रक्षेप की दिशा शुद्ध रहे।
  3. प्रक्षेप का मापक शुद्ध रहे।
  4. प्रक्षेप की आकृति शुद्ध हो, उसमें बिगाड़ न आये।
  5. प्रक्षेप में क्षेत्रफल की शुद्धता रहे।

प्रक्षेपों का वर्गीकरण
Classification of Projections

मानचित्रों के गहन अध्ययन से ज्ञात होता है कि सभी मानचित्रों में अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं का जाल (प्रक्षेप) एंक-समान नहीं है। इसका प्रमुख कारण मानचित्र का उद्देश्य, प्रदर्शित क्षेत्र का आधार तथा उसकी स्थिति से होता है। साधारणतया प्रक्षेपों के वर्गीकरण के निम्नलिखित आधार हैं –
(1) प्रकंशि की दृष्टि से प्रक्षेपों का वर्गीकरण – प्रकाश की दृष्टि से प्रक्षेपों के निम्नलिखित दो भेद किये जा सकते हैं

  1. सन्दर्श प्रक्षेप (Perspective Projection) – इन प्रक्षेपों का निर्माण शीशे के ग्लोब के भीतर प्रकाश की सहायता से विस्तारशील धरातल पर किया जाता है।
  2. असन्दर्श प्रक्षेप (Non-perspective Projection) – इन प्रक्षेपों की रचना शुद्ध गणितीय आधार पर की जाती है।

(2) रचना-विधि के आधार पर वर्गीकरण – रचना-विधि के अन्तर्गत प्रक्षेपों का दूसरा वर्गीकरण उस तल के आधार पर किया जा सकता है, जिस पर प्रक्षेप बनाना होता है। रचना-प्रक्रिया के अनुसार इन्हें निम्नलिखित भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है –

  1. शिरोबिन्दु प्रक्षेप (Zenithal Projection) – इने प्रक्षेपों में स्पर्श रेखा तल पर खींची जाती है।
  2. शंक्वाकार प्रक्षेप (Conical Projection)-इस प्रकार के प्रक्षेपों का निर्माण शंकु के धरातल पर खींची गयी स्पर्श रेखा द्वारा किया जाता है।
  3.  बेलनाकार प्रक्षेप (Cylindrical Projection) – इन प्रक्षेपों में स्पर्श रेखा बेलन के धरातल पर खींची जाती है।
  4. परम्परागत प्रक्षेप (Conventional Projection) – इन प्रक्षेपों की रचना गणितीय आधार पर की जाती है।

(3) उद्देश्य के आधार पर प्रक्षेपों का वर्गीकरण – उद्देश्य के आधार पर प्रक्षेपों को निम्नलिखित भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है
(i) शुद्ध क्षेत्रफल प्रक्षेप (Equal Area Projection) – इन प्रक्षेपों में क्षेत्रफल सदैव शुद्ध रहता है। क्षेत्रफल लम्बाई को चौड़ाई से गुणनफल कर प्राप्त किया जा सकता है। अत: अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं का जाल इस प्रकार बनाया जाता है कि मानचित्र पर बनाये गये भाग का क्षेत्रफल ग्लोब के अनुरूप रहता है। विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन तथा वितरण को दर्शाने के लिए शुद्ध क्षेत्रफल प्रक्षेप उपयुक्त रहते हैं।

(ii) शुद्ध-आकृति प्रक्षेप (True-Shape Projection) – वास्तव में कोई भी प्रक्षेप एक बड़े क्षेत्र में शुद्ध आकार वाला नहीं हो सकता। शुद्ध-आकृति प्रक्षेप केवल एक आदर्श संकल्पना मात्र है। इसका प्रमुख कारण यह है कि गोलाकार पृथ्वी को समतल कागज पर प्रदर्शित नहीं किया जा सकता है। इसी कारण शुद्ध-आकृति एक छोटे क्षेत्र के लिए ही सम्भव हो सकती है। शुद्ध-आकृति प्रक्षेप की रचना के लिए अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं की लम्बाई का अनुपात मानचित्र पर वही होना चाहिए जो कि ग्लोब में दिया गया है। जलधाराओं की प्रवाह दिशा, वायुमार्गों, जलमार्गों तथा पवन की प्रवाह दिशा दर्शाने के लिए शुद्ध आकृति प्रक्षेपों का प्रयोग किया जाता है।

(iii) शुद्ध दिशा प्रक्षेप (True Bearing Projection) – शुद्ध दिशा प्रक्षेप में दिशाओं का क्रम ग्लोब की भाँति होता है। मानचित्र में यह आवश्यक होना चाहिए कि मानचित्र के सभी बिन्दुओं पर दिशा का सामंजस्य हो, परन्तु सरल रेखाओं के माध्यम से सभी दिशाओं को शुद्ध प्रदर्शित करना असम्भव-सा है। शुद्ध दिशा प्रक्षेप से अभिप्राय यह है कि प्रक्षेप के केन्द्रबिन्दु से सभी दिशाएँ शुद्ध हों। ये प्रक्षेप नौका-चालन एवं जलयान-चालन के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं।

प्रश्न 2
एक प्रामाणिक (प्रधान) अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप के लक्षण, गुण, दोष एवं उपयोगिता को सोदाहरण बताइए।
उत्तर
शंक्वाकार प्रक्षेप में यह कल्पना की जाती है कि शंकु (Cone) ग्लोब के ऊपर रख दिया गया है। शंकु को ग्लोब पर इस प्रकार रखा जाता है कि उसका शीर्ष ग्लोब की धुरी की सीध में हो। ऐसी दशा में शंकु ग्लोब को किसी एक अक्षांश रेखा पर स्पर्श करेगा। इस स्पर्श की गयी अक्षांश रेखा को प्रधान अक्षांश रेखा या मानक अक्षांश रेखा या प्रामाणिक अक्षांश रेखा (Standard Parallel) कहा जाता है। अन्य अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं को शंक्वाकार कागज के भीतरी तल पर प्रकाश की किरणों द्वारा स्थानान्तरित कर लिया जाता है तथा शंकु को फैलाकर शंक्वाकार प्रक्षेप प्राप्त कर लिया जाता है। शंक्वाकार प्रक्षेप में प्रामाणिक अक्षांश ही एक ऐसा आदर्श वृत्त है जो कि प्रक्षेप पर शुद्ध रूप से प्रकट किया जाता है। इस प्रकार यह प्रक्षेप एक प्रतिबिम्बित प्रक्षेप है।

एक प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप के लक्षण एवं गुण -एक प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप में निम्नलिखित लक्षण पाये जाते हैं-

  1. शंक्वाकार प्रक्षेप की रचना अत्यन्त सरल होती है।
  2. यह एक संशोधित अनुदृष्टि प्रक्षेप है।
  3. अक्षांश रेखाएँ एक केन्द्रीय वृत्तखण्ड होती हैं।
  4. अक्षांश रेखाओं के बीच की दूरी समान होती है।
  5. देशान्तर रेखाएँ सरल एवं सीधी रेखाएँ होती हैं जो ध्रुवों पर आपस में मिल जाती हैं।
  6. देशान्तर रेखाओं में विषुवत् रेखा से ध्रुवों की ओर जाने पर दूरी कम होती जाती है।
  7. देशान्तर रेखाओं के मध्य की पारस्परिक दूरी अक्षांश-विशेष पर बराबर होती है।
  8. प्रामाणिक अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं पर मापक शुद्ध होता है।
  9. प्रामाणिक अक्षांश एवं देशान्तर रेखाएँ एक-दूसरे को समकोण पर काटती हैं।
  10. प्रामाणिक अक्षांश एवं मध्यवर्ती देशान्तर पर ही सभी लक्षण शुद्ध रहते हैं। इनसे दूर जाने पर प्रदेश का विस्तार बढ़ने से उसमें दोष भी बढ़ते जाते हैं।
  11. ध्रुव अपनी वास्तविक स्थिति से उत्तर में दर्शाया जाता है।
  12. इस प्रक्षेप में कुछ सीमित क्षेत्र तक ही आकृति, दिशा एवं क्षेत्रफल तीनों ही शुद्ध रहते हैं; परन्तु दोष आने पर सीमित पैमाने पर वृद्धि होती है।
  13. इस प्रक्षेप की रचना टुकड़ों में बाँटकर भी की जा सकती है।
  14. मानचित्रावलियों एवं मानचित्रकारों के लिए यह प्रक्षेप अति उपयोगी होता है।
  15. इस प्रक्षेप द्वारा केवल एक ही गोलार्द्ध को प्रकट किया जा सकता है।

एक प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप के दोष -एक प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप में निम्नलिखित दोष भी पाये जाते हैं-

  1. यह प्रक्षेप न तो शुद्ध क्षेत्रफल है एवं न ही शुद्ध आकार।
  2. प्रामाणिक अक्षांश रेखा वाले भागों को छोड़कर आकृति शुद्ध नहीं रहती है।
  3. ध्रुव अपनी वास्तविक स्थिति से कुछ उत्तर अथवा दक्षिण की ओर दर्शाया जाता है।
  4. इस प्रक्षेप में केवल एक गोलार्द्ध को प्रकट किया जा सकता है, न कि सम्पूर्ण विश्व को।
  5. इस प्रक्षेप में क्षेत्रफल भी शुद्ध नहीं रहता है।

एक प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप की उपयोगिता – यह प्रक्षेप ऐसे देशों के लिए अधिक उपयोगी है जो कि कम विस्तार रखते हैं अथवा प्रामाणिक अक्षांश के सहारे पूर्व-पश्चिम में अथवा मध्य देशान्तर के सहारे उत्तर-दक्षिण में अधिक विस्तार रखते हैं। उत्तर-दक्षिण में कम विस्तार वाले देशों; जैसे-डेनमार्क, पोलैण्ड तथा नीदरलैण्ड्स आदि देशों को प्रदर्शित करने के लिए यह प्रक्षेप उपयोगी है। यह प्रक्षेप जावा, क्यूबा जैसे छोटे द्वीपों तथा चिली जैसे देश के लिए भी उपयोगी है।

उदाहरण – एक प्रामाणिक अक्षांश साधारण शंक्वाकार प्रक्षेप की रचना कीजिए जिसकी प्र० भि० 1: 12,50,00,000 हो तथा प्रामाणिक अक्षांश 45° उत्तर, प्रक्षेपान्तर 15° तथा विस्तार 60° पूर्व से 60° पश्चिमी देशान्तर एवं 0° से 75° उत्तरी अक्षांश हो।
रचना-विधि-पृथ्वी के घटाये गये गोले का अर्द्धव्यास =
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections 5
कागज पर 5 सेमी की दूरी लेकर एक अ क ख अर्द्धवृत्त की रचना की। अ क लम्ब रेखा को ऊपर की ओर बढ़ाया। इस अर्द्धवृत्त पर 15° एवं 45° के कोण बनाकर 45° के कोण पर च छ स्पर्श रेखा खींची जो अ क रेखा को च बिन्दु पर काटती है। परकार में ख ग (15° कोण) के बराबर दूरी लेकर अ केन्द्र से एक चाप घुमाया। यह चाप अ छ रेखा को फ बिन्दु पर काटता है। अ ख के समानान्तर प फ रेखा खींची।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections 1
अब कागज पर दूसरी ओर एक लम्बवत् सरल रेखा खींची। परकार में च छ के बराबर दूरी लेकर य केन्द्र से एक चाप घुमाया। यही प्रक्षेप की प्रामाणिक अक्षांश रेखा है। प्रामाणिक अक्षांश के दोनों ओर मध्य देशान्तर के सहारे ख ग की दूरी लेकर दोनों ओर चिह्न अंकित कर प्रत्येक बार य केन्द्र से चाप खींच दिये। ये सभी चाप अक्षांश रेखाओं को प्रकट करेंगे। देशान्तर रेखाओं की रचना करने के लिए प्रामाणिक अक्षांश पर अर्द्धवृत्त की प फ दूरी के बराबर दूरी लेकर उन्हें चिह्नित कर य केन्द्र की सहायता से एक केन्द्र से विकरित होने वाली रेखाएँ खींच दीं। तत्पश्चात् अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं को अंशांकित कर दिया।

प्रश्न 3
दो प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप की विशेषताएँ एवं उपयोगिता बताते हुए निम्नलिखित विवरणों की सहायता से प्रक्षेप की रचना कीजिए –
(i) प्र० भि० 1; 12,50,00,000;
(ii) प्रामाणिक अक्षांश 30°एवं 60° उत्तरी अक्षांश;
(iii) प्रक्षेपान्तर 10°;
(iv) प्रक्षेप का विस्तार 0°से 80°उत्तरी अक्षांश तथा 70° पश्चिम
से 70° पूर्वी देशान्तर।
उत्तर

दो प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप
Conical Projection with Two Standard Parallel

यह एक प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार का संशोधित रूप है। इसमें शंकु को एक पारदर्शक ग्लोब के भीतर प्रवेश करता हुआ कल्पित किया जाता है। इस प्रक्षेप में कागज ग्लोब के दो स्थानों पर स्पर्श करता हुआ कल्पित किया गया है। यही दोनों स्थान प्रामाणिक अक्षांश माने जाते हैं। वास्तव में समतल कागज ग्लोब को एक ही स्थान पर स्पर्श करता है। दो स्थानों पर स्पर्श केवल एक कल्पनामात्र है।

साधारण शंक्वाकार प्रक्षेप में केवल एक प्रामाणिक अक्षांश होता है जिससे उत्तर-दक्षिण की दूरियाँ शुद्ध रूप में प्रदर्शित नहीं की जाती हैं। इस प्रक्षेप में प्रामाणिक अक्षांश एक के स्थान पर दो होती हैं। जिससे उत्तर-दक्षिण की दूरियाँ अधिक शुद्ध रूप में प्रदर्शित की जा सकती हैं। इन दोनों प्रामाणिक अक्षांशों के सहारे क्षेत्रफल शुद्ध रहता है। अतः इन प्रामाणिक अक्षांशों का चुनाव सावधानीपूर्वक करना चाहिए।

इस प्रक्षेप में एक के स्थान पर दो प्रामाणिक अक्षांशों के सहारे मापक शुद्ध रहता है। इसी कारण इनके मध्य में फैले मानचित्रों में अशुद्धता सीमित हो जाती है। यदि दोनों प्रामाणिक अक्षांश दूर हुए तो इनके मध्यवर्ती भाग विकृत हो जाएँगे। अत: स्टीयर्स के अनुसार यूरोप महाद्वीप का मानचित्र बनाते समय 35° एवं 70° अक्षांशों की अपेक्षा 40° एवं 60° अक्षांशों को प्रामाणिक अक्षांश मानना अधिक उपयुक्त रहेगा। इसी प्रकार पूर्व-पश्चिम दिशा में फैले मध्य अक्षांशीय देशों, प्रदेशों को उनके विस्तार के अनुसार उनके प्रामाणिक अक्षांश उन स्थानों के विस्तार के अनुसार निश्चित किये जा सकते हैं।

रचना-विधि-घटाये गये पृथ्वी के गोले का अर्द्धव्यास = [latex s=2]\frac { 62,50,00,000 }{ 12,50,00,000 } [/latex] = 5 सेमी
सर्वप्रथम कागज के बायीं ओर 5 सेमी अर्द्धव्यास से वृत्त का एक-चौथाई भाग अ ब से बनाकर उसमें क्रमश: 10°, 30° एवं 60° के कोण खींचे। अब ब क की दूरी लेकर अ बिन्दु से एक चाप लगाया। इस चाप पर अ ब के समानान्तर च छ एवं र ठ रेखाएँ क्रमश: 30° एवं 60° के कोण पर खींची। अब एक लम्बवत् सरल रेखा खींचकर उस पर कोई बिन्दु क लेकर च छ के बराबर क क लम्ब डाला। क बिन्दु को 30°अक्षांश की स्थिति पर माना गया है। क से उत्तर की ओर 60° अक्षांश की स्थिति निश्चित करने के लिए वृत्त की ब क दूरी लेकर तीन चिह्न लेकर ख की स्थिति निश्चित कर दी। ख बिन्दु पर र ठ के बराबर ख ख’ लम्ब डाल दिया। अब क’ तथा ख’ बिन्दुओं को मिलाते हुए एक रेखा खींची जो क ख रेखा को उ बिन्दु पर काटती है। इस प्रकार समकोण त्रिभुज जैसी एक आकृति का निर्माण होता है।

अब प्रक्षेप के रेखाजोल का निर्माण करने के लिए कागज के दायीं ओर एक सरल रेखा खींची तथा ऊपरी भाग को उ बिन्दु मानकर समकोण त्रिभुज से उ क एवं उ ख की दूरी लेकर उ बिन्दु से चाप लगाये। ये दोनों चाप क्रमश: 30° एवं 60° प्रामाणिक अक्षांश को प्रकट करते हैं। अब 30° अक्षांश पर क या च छ तथा 60° अक्षांश पर र ठ या ख ख’ दूरी लेकर मध्यवर्ती रेखा के क ख बिन्दओं से दोनों ओर 7-7 चिह्न अंकित किये। दोनों अक्षांश रेखाओं पर अंकित बिन्दुओं को मिलाते हुए रेखाएँ खींची जो देशान्तर रेखाओं को प्रकट करेंगी। उसके बाद अब स वृत्त से ब क की दूरी लेकर किसी एक प्रामाणिक अक्षांश से 0° से 80° तक का अक्षांशीय विस्तार बनाने के लिए चिह्न लगाकर उ बिन्दु से चाप लगाये। रेखाजाल का निर्माण करने के लिए प्रक्षेप को विस्तार के अनुसार चित्र के अनुरूप अंशांकित कर दिया। इस प्रकार दो प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप की रचना होगी।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections 3

दो प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप की विशेषताएँ
Characteristics of Conical Projection with Two Standard Parallel

  1. यह एक संशोधित सन्दर्श प्रक्षेप है। इस प्रक्षेप में शंकु को दो स्थानों पर स्पर्श करते हुए। कल्पित किया गया है जिससे कि एक स्थान पर दो प्रामाणिक अक्षांश बन सकें।
  2. सभी अक्षांश रेखाएँ चापाकार होती हैं तथा उनके बीच की दूरी समान होती हैं।
  3. देशान्तर रेखाओं में केन्द्रीय देशान्तर ही सीधी रेखा होती है; अत: केवल इसी देशान्तर को अक्षांश रेखाएँ समकोण पर काटती हैं। शेष सभी देशान्तर रेखाएँ चापाकार होने से अक्षांश वृत्तों को तिरछा काटती हैं। बाहरी भागों में तिरछापन बढ़ता जाता है।
  4. इस प्रक्षेप में किसी भी अक्षांश को स्पर्श रेखा मानकर प्रामाणिक अक्षांश माना जा सकता है।
  5. देशान्तर रेखाओं के वक्राकार होने का प्रमुख कारण यह है कि इस प्रक्षेप में प्रत्येक अक्षांश को समान महत्त्व दिया गया है। देशान्तरों के बीच की दूरी छोटे वृत्त पर लम्ब डालकर निश्चित की जाती है।
  6. इस प्रक्षेप में अक्षांश रेखाओं की लम्बाई ग्लोब की समानुपाती होती है। केन्द्रीय देशान्तर पर अक्षांशों के बीच का अन्तर भी शुद्ध रहता है। इसी कारण यह एक समक्षेत्रफल प्रक्षेप बन गया है।
  7. प्रामाणिक अक्षांशों के निकटवर्ती भागों का क्षेत्रफल एवं आकृति प्रायः शुद्ध रहती है। इसलिए इसे प्रक्षेप में मध्ये देशान्तर एवं प्रामाणिक अक्षांश निश्चित कर एक गोलार्द्ध के अधिकांश देशों को प्रदर्शित किया जा सकता है।
  8. इस प्रक्षेप पर आकृति एवं दिशा सभी स्थानों पर शुद्ध नहीं रहती है। केन्द्रीय भाग से दूर जाने पर विकृति में वृद्धि होती जाती है।
  9. बाह्य देशान्तरों पर मापनी में अशुद्धियाँ बढ़ती जाती हैं, जबकि सभी अक्षांशों पर मापक शुद्ध
    रहता है।

उपयोगिता – एक गोलार्द्ध के मानचित्र को प्रदर्शित करने के लिए यह एक उपयोगी प्रक्षेप है। यूरोप, उत्तरी अमेरिका तथा एशिया महाद्वीप के अधिकांश भागों को इस प्रक्षेप पर प्रकट किया जा सकती है। मानचित्रावलियों में भी विभिन्न देशों के मानचित्र इस प्रक्षेप पर बनाये जा सकते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के मानचित्र के लिए यह एक बहुत-ही उपयोगी प्रक्षेप है। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, सऊदी अरब, मिस्र आदि देशों के मानचित्र बनाने में इस प्रक्षेप का उपयोग अधिक किया जाता है। परन्तु रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका आदि देशों के लिए यह प्रक्षेप अधिक उपयोगी नहीं है। स्विट्जरलैण्ड, आयरलैण्ड, बेल्जियम, नीदरलैण्ड्स तथा स्वीडन आदि देशो में इस प्रक्षेप पर सर्वेक्षण मानचित्रों की रचना भी की गयी है।

प्रश्न 4
समक्षेत्रफल बेलनाकार प्रक्षेप की विशेषताएँ एवं उपयोगिता बताइए तथा निम्नलिखित विवरणों के आधार पर इसकी रचना-विधि समझाइए –
(i) प्र० भि० 1 : 37,50,00,000;
(ii) प्रक्षेपान्तर = 15°
उत्तर
समक्षेत्रफल बेलनाकार प्रक्षेप – जब कागज को ग्लोब की विषुवत रेखा पर स्पर्श कराते हुए लपेटा जाता है तो उससे बनने वाले बेलननुमा जाल को बेलनाकार प्रक्षेप अथवी आयताकार प्रक्षेप कहते हैं। इन प्रक्षेपों में विषुवत रेखा की लम्बाई शुद्ध रहती है। अन्य अक्षांशों की लम्बाई भी विषुवत् रेखा के बराबर कर दी जाती है। इसीलिए सभी बेलनाकार प्रक्षेपों में ध्रुव जो कि एक बिन्दुमात्र है, को भी विषुवत रेखा की लम्बाई के बराबर दर्शाया जाता है। इन प्रक्षेपों का मुख्य दोष यह है कि उच्च अक्षांशीय प्रदेशों के लिए इनका चुनाव अपवादस्वरूप ही होता है। इस प्रक्षेप में इन प्रदेशों को प्रदर्शित करने में विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।

बेलनाकार समक्षेत्रफल प्रक्षेप की रचना सर्वप्रथम 1772 ई० में लैम्बर्ट नामक मानचित्रकार ने की थी जिस कारण इसे लैम्बर्ट का समक्षेत्रफल बेलनाकार प्रक्षेप भी कहते हैं। इसमें देशान्तर रेखाएँ अन्य बेलनाकार प्रक्षेप की भाँति विषुवत् रेखा को समविभाजित कर खींची जाती हैं। समक्षेत्रफल बेलनाकार प्रक्षेप में जैसा कि उसके नाम से विदित होता है, इस प्रक्षेप पर क्षेत्रफल शुद्ध प्रदर्शित किया जाता है। यह प्रक्षेप ज्यामितीय दृष्टिकोण से सर्वश्रेष्ठ है। प्रक्षेप पर दो अक्षांश रेखाओं के मध्य का क्षेत्र ग्लोब की उन्हीं दो अक्षांश रेखाओं के क्षेत्रफल के बराबर होता है, क्योंकि पूरब-पश्चिम में जिस अनुपात में दूरी बढ़ायी जाती है, उत्तर-दक्षिण में उसी अनुपात में कम कर दी जाती है। अत: क्षेत्रफल शुद्ध रहता है, परन्तु ध्रुवों पर आकृति विकृत हो जाती है।

समक्षेत्रफल बेलनाकार प्रक्षेप की विशेषताएँ
Characteristics of Equal Area Cylindrical Projection

  1. यह एक सन्दर्श प्रक्षेप है। इसमें प्रकाश की स्थिति अनन्त पर मानी जाती है।
  2. इस प्रक्षेप में सभी अक्षांश रेखाओं की लम्बाई विषुवत् रेखा के बराबर होती है। अक्षांश रेखाएँ समानान्तर होती हैं तथा विषुवत् रेखा से उत्तर-दक्षिण की ओर जाने पर इसके बीच की दूरी कम होती है।
  3. सभी देशान्तर रेखाएँ विषुवत् रेखा से लम्बवत् खींची जाती हैं। इनकी पारस्परिक दूरी समान होती है।
  4. देशान्तर रेखाओं की लम्बाई घटाये गये गोले के ध्रुवीय व्यास के बराबर रखी जाती है। इन रेखाओं द्वारा सही उत्तर-दक्षिण दिशा प्रकट होती है।
  5. इस प्रक्षेप को इसकी विशेष आकृति के कारण पहचानना बहुत ही सरल है।
  6. ध्रुवों की ओर जाने पर होने वाले अक्षांशीय विस्तार को न्यूनतम करने के लिए उनके बीच की दूरी उसी अनुपात में घटा दी जाती है। इस प्रकार देशान्तर रेखाएँ अपनी वास्तविक लम्बाई से छोटी होती जाती हैं तथा प्रक्षेप मे समक्षेत्रफल का गुण आ जाता है।
  7. इस प्रक्षेप में ध्रुवों को, जो कि एक बिन्दुमात्र होते हैं, एक रेखा द्वारा प्रदर्शित किया जाता है; अत: इनके निकटवर्ती अक्षांश बहुत ही पास-पास आ जाते हैं।
  8. विषुवत रेखा से दूर जाने पर अशुद्धियाँ बढ़ने से आकृति अधिकाधिक बिगड़ती चली जाती है। आइसलैण्ड, नॉर्वे, अलास्का जैसे देश अपने आकार से कहीं अधिक लम्बे या चपटे दिखायी देते हैं।
  9. इस प्रक्षेप में विषवुत् रेखा को छोड़कर मापक कहीं भी शुद्ध नहीं रहता है।
  10. यह शुद्ध दिशा प्रक्षेप नहीं है। ध्रुवों की ओर जाने पर अशुद्धियाँ उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं।

रचना-विधि-पृथ्वी के घटाये गये गोले का अर्द्धव्यास = [latex s=2]\frac { 62,50,00,000 }{ 37,50,00,000 } [/latex] = [latex s=2]\frac { 5 }{ 3 } [/latex] सेमी= 1.7 सेमी
विषुवत रेखा की लम्बाई = 2πr = [latex s=2]\frac { 44 }{ 7 } [/latex] × [latex s=2]\frac { 5 }{ 3 } [/latex] = 10.5 सेमी

एक ड्राइंगशीट लेकर उसके बायीं ओर 1.7 सेमी का अर्द्धव्यास लेकर ट केन्द्र से एक अर्द्धवृत्त क . ख ग की रचना की। इस अर्द्धवृत्त पर विषुवत्रेखीय एवं ध्रुवीय रेखाएँ खींची। अर्द्धवृत्त के केन्द्र ट से क ख ग के मध्य 15° के अन्तर से 12 कोणों की रचना की। ध्रुवीय व्यास के ख के समानान्तर ग को स्पर्श करते हुए च छ रेखा खींची। ट ग रेखा की सीध में ग बिन्दु से म बिन्दु तक एक 10.5 सेमी लम्बी रेखा खींची जो विषुवत् रेखा को प्रकट करेगी। अन्य अक्षांश रेखाओं की रचना के लिए विषुवत् रेखा के समानान्तर और बराबर रेखाएँ ट केन्द्र से खींचे गये कोणों से स्पर्श करती हुई खींची। अक्षांश रेखाओं के बीच की दूरी विषुवत् रेखा ग म से उत्तर-दक्षिण की ओर जाने पर घटती जाती है। देशान्तर रेखाओं की रचना के लिए विषुवत् रेखा ग म को 15° प्रक्षेपान्तर होने से 24 सम-भागों में विभाजित कर च छ के समानान्तर रेखाएँ खींची। चित्रानुसार प्रक्षेप के रेखाजाल को अंशांकित कर दिया। इस प्रकार च छ प फ के बीच का अंशांकित रेखाजाल ही बेलनाकार समक्षेत्रफल प्रक्षेप है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections 4
एक गोलार्द्ध को भी समक्षेत्रफल बेलनाकार प्रक्षेप द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है। उसकी रचना उपर्युक्तानुसार प्रदर्शित की जा सकती है।
उपयोगिता – समक्षेत्रफल बेलनाकार प्रक्षेप विश्व के वितरण मानचित्रों के लिए एक उपयोगी प्रक्षेप है। उष्ण एवं उपोष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों की उपजों को प्रदर्शित करने के लिए यह सर्वाधिक उपयोगी प्रक्षेप है। इस प्रक्षेप पर बने मानचित्रों में चाय, कहवा, कोको, गर्म-मसाले, केला, रबड़, ताड़, नारियल, चावल, मक्का आदि का वितरण तथा कभी-कभी खनिज तेल उत्पादन क्षेत्र भी प्रदर्शित किये। जा सकते हैं।

प्रश्न 5
त्रैज्य शिरोबिन्द ध्रुवीय प्रक्षेप की विशेषताएँ गुण, दोष एवं उपयोगिता बताइए तथा निम्नलिखित विवरण के आधार पर उत्तरी गोलार्द्ध के लिए एक उपयुक्त प्रक्षेप की रचना कीजिए –
(i) प्र० भि० 1: 20,00,00,000;
(ii) प्रक्षेपान्तर= 15°
उत्तर

त्रैज्य शिरोबिन्दु ध्रुवीय प्रक्षेप
Gnomonic Zenithal Projection Polar Case

यह एक सन्दर्श प्रक्षेप है जिसे केन्द्रीय शिरोबिन्दु प्रक्षेप भी कहा जाता है। इसमें प्रकाश पुंज की स्थिति ग्लोब के केन्द्र में मानी जाती है। कागज किसी एक ध्रुव को स्पर्श करता है। अतः ध्रुव को केन्द्र मानकर अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं की रचना की जाती है। अक्षांश रेखाएँ एक केन्द्र से प्रकाश की किरणों की स्थिति के अनुसार खींची जाने के कारण समकेन्द्रीय वृत्त होती हैं, जबकि देशान्तर रेखाएँ केन्द्र (ध्रुव) से बाहर की ओर विकिरत त्रिज्याकार सरल रेखाएँ होती हैं। इस प्रक्षेप में प्रकाश की किरणें ग्लोब पर समतल कागज को एक बिन्दु पर ही स्पर्श करती हैं। इसीलिए केन्द्र से बाहर की ओर जाने पर अक्षांशों के बीच का अन्तर तीव्रता से बढ़ने लगता है। इस प्रक्षेप पर विषुवत रेखा की स्थिति प्रदर्शित नहीं की जा सकती है, क्योंकि विषुवत्रेखीय प्रकाश रेखा की स्थिति ध्रुवीय प्रकाश रेखा से समकोण पर होती है।

रचना-विधि-घटाये गये ग्लोब का अर्द्धव्यास
= [latex s=2]\frac { 62,50,00,000 }{ 20,00,00,000 } [/latex] = [latex s=2]\frac { 25 }{ 8 } [/latex] = 3.12 सेमी या 1.25 इंच

एक ड्राइंगशीट के बायीं ओर 3.12 सेमी या 1.25 इंच का अर्द्धव्यास लेकर वृत्त का एक-चौथाई भाग अ ब क की रचना की। इस पर क बिन्दु से अ ब के समानान्तर रेखा खींची। अ केन्द्र से 15° के अन्तराल पर 15 से 75° तक के कोण खींचकर उन्हें क च रेखा की ओर बढ़ा दिया। इस प्रक्रिया द्वारा ख ग घ एवं च बिन्दु प्राप्त होंगे।

अब ड्राइंगशीट के दायीं ओर एक-दूसरे को समकोण पर काटती हुई दो सरल रेखाएँ खींची जो कि ‘य बिन्दु पर मिलती हैं। अब वृत्त के बिन्दु क से सरल रेखा क ख, क ग, क घ एवं क च के बराबर दूरियों के अर्द्धव्यास लेकर य केन्द्र से चार वृत्तों की रचना की। ध्रुव की ओर से ये वृत्त क्रमश: 75, 60°, 45° एवं 30° उत्तरी अक्षांश रेखाएँ प्रकट करते हैं। य बिन्दु उत्तरी ध्रुव होगा। य बिन्दु से ही 15° के अन्तर पर चारों ओर सरल रेखाएँ खींच दीं। प्रश्नानुसार इस रेखाजाल को अंशांकित कर दिया। यह त्रैज्य शिरोबिन्दु ध्रुवीय प्रक्षेप की रचना होगी।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections 6

त्रैज्य शिरोबिन्दु ध्रुवीय प्रक्षेप की विशेषताएँ
Characteristics of Gnomonic Polar Zenithal Projection

  1. यह एक सन्दर्श प्रक्षेप है जिसमें प्रकाश पुंज की स्थिति ग्लोब के मध्य में मानी गयी है।
  2. अक्षांश रेखाएँ समकेन्द्रीय वृत्त होती हैं।
  3. केन्द्र (ध्रुव) से दूर हटने पर अक्षांशों के मध्य की दूरी बढ़ती जाती है।
  4. देशान्तर रेखाएँ सरल रेखाओं द्वारा प्रदर्शित की जाती हैं। किरणे ध्रुव से बाहर की ओर विकिरित होती हैं।
  5. अक्षांश एवं देशान्तर रेखाएँ एक-दूसरे को समकोण पर काटती हैं।
  6. केन्द्र से सभी बिन्दुओं की दिशा शुद्ध रहती है।
  7. केन्द्र से दूर हटने पर अक्षांश एवं देशान्तर दोनों के सहारे मापंक में वृद्धि हो जाती है। अतः मापक के स्थान-स्थान पर परिवर्तन के कारण आकृति में विकृति आती जाती है।
  8. यह एक शुद्ध क्षेत्रफल प्रक्षेप नहीं है।
  9. ध्रुव एक बिन्दु द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।

गुण

  • केन्द्र के सभी ओर दिशाएँ शुद्ध होती हैं।
  • केन्द्र अथवा ध्रुव पर मापक शुद्ध होता है।

अवगुण

  • इस प्रक्षेप पर प्रदर्शित क्षेत्रों की आकृति अशुद्ध होती है।
  • इस प्रक्षेप पर क्षेत्रफल अशुद्ध रहता है।
  • केन्द्र से बाहर की ओर मापक तेजी से बढ़ने लग जाता है।
  • इस प्रक्षेप पर विषुवत् रेखा को प्रदर्शित नहीं किया जा सकता।

उपयोगिता – यह प्रक्षेप केवल ध्रुवीय प्रदेशों के मानचित्रों के लिए अधिक उपयोगी है। इस पर अण्टार्कटिका महाद्वीप अथवा उत्तरी ध्रुवीय महासागर का मानचित्र बनाया जा सकता है। इसके बाहर की ओर जाने में इस प्रक्षेप में दोष बढ़ने लगते हैं।
इस प्रक्षेप पर बने मानचित्रों का उपयोग ध्रुवीय प्रदेशों के लिए होने लगा है। वृहत् वृत्त सरल रेखा प्रदर्शित हो जाने के कारण इस प्रक्षेप पर दो बिन्दुओं को जोड़ने वाली सरल रेखा पृथ्वी पर न्यूनतम दूरी वाली रेखा होगी।

प्रश्न 6
प्र० भि० 1: 20,00,00,000 पर उत्तरी गोलार्द्ध के लिए एक शिरोबिन्द गोलीय प्रक्षेप ध्रुवीय दशा की रचना कीजिए जिसमें प्रक्षेपान्तर 15° हो। इस प्रक्षेप की विशेषताएँ, गुण, अवगुण एवं उपयोगिता को भी बताइए।
उत्तर

शिरोबिन्दु गोलीय या समाकृति प्रक्षेप
Zenithal Stereographic Projection-Polar Case

यह भी एक सन्दर्श प्रक्षेप है। इस प्रक्षेप में प्रकाश की स्थिति ग्लोब के ध्रुव (केन्द्र) पर होती है। स्पर्श रेखा तल, विषुवत रेखा के किसी बिन्दु पर ग्लोब को छूती है। इस प्रक्षेप पर देशान्तर रेखाएँ सरल रेखाएँ होती हैं। अक्षेप में अक्षांशों के बीच की दूरी में केन्द्र (ध्रुव) से बाहर की ओर जाने पर केन्द्रीय प्रक्षेप से धीमी गति से बनती है। इसी कारण इस पर विषुवत् रेखा तथा सम्पूर्ण गोलार्द्ध का रेखा जाल बनाया जा सकता है। इस प्रक्षेपकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ध्रुवों के बाहर की ओर जाने पर किसी भी बिन्दु पर अक्षांश-देशान्तरों का आनुपातिक विस्तार समान रहने से यह एक सम-आकृति प्रक्षेप बन जाता है।

इस प्रकार पृथ्वी के ग्लोब पर खींचा गया वृत्त त्रिकोण या वर्ग इस प्रक्षेप की उसी आकृति द्वारा ही प्रदर्शित किया जाएगा। इस प्रक्षेप का यह गुण तीनों ही दशाओं (ध्रुवीय, विषुवत्खीय एवं तिर्यक) में बराबर बना रहता है। आवश्यकता के लिए प्रक्षेप से विपरीत ध्रुव को छोड़कर सम्पूर्ण ग्लोब का रेखा जाल बनाया जा सकता है। इन प्रक्षेपों में विषुवत रेखा के आगे के भाग में अक्षांशों के बीच के अन्तर में तेजी से वृद्धि होने लगती है जिससे उन प्रदेशों का आकार विकृत हो जाता है। इसी कारण ऐसे प्रदेशों का प्रदर्शन अनुपयोगी होता है।

रचना-विधि–पृथ्वी के घटाये गये गोले का अर्द्धव्यास
= [latex s=2]\frac { 62,50,00,000 }{ 20,50,00,000 } [/latex] = 3.12 सेमी = 1.25

एक ड्राइंगशीट पर घटाये गये ग्लोब का अर्द्धव्यास 3.12 सेमी या 1.25” लेकर बायीं ओर एक अर्द्धवृत्त की रचना की। इस अर्द्धवृत्त पर समकोण बनाती हुई एक रेखा अ से खींची। अ बिन्दु से उत्तरी भाग में 15° के अन्तर पर कोण खींचे तथा अ स के समानान्तर द बिन्दु से द च रेखा खींची। दे च रेखा ग्लोब पर समतल कागज के प्रक्षेपण तले की स्थिति प्रदर्शित करती है। प्रकाश की किरणों को ब पर स्थित मानकर उससे 15° के कोणों की ओर प्रकाश की किरणें वितरित की जो कोणों को स्पर्श करती हुई प्रक्षेपण तल पर द च रेखा पर क्रमशः क ख ग घ च बिन्दुओं पर स्थिर होंगी।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections 7
अब ड्राईंगशीट के दायीं ओर एक-दूसरे को काटती हुई दो सरल रेखाएँ खींचीं जो य बिन्दु पर मिलती हैं। अर्द्धवृत्त के द बिन्दु से द क, द ख, द ग, द घ तथा द च के बराबर अर्द्धव्यास लेकर य बिन्दु से पाँच वृत्त बना दिये। य बिन्दु से ये वृत्त क्रमशः 75°,60°, 45°, 30° एवं 15° को प्रदर्शित करेंगे। य बिन्दु केन्द्र अर्थात् उत्तरी ध्रुव को प्रकट करेगा। य केन्द्र से ही 15° के कोणीय अन्तर पर चारों ओर सरल रेखाएँ खींच दीं जो देशान्तर रेखाओं को प्रकट करेंगी। पिछले पृष्ठ पर दिए गए चित्रानुसार इस रेखाजाल को अंशांकित कर दिया। यही शिरोबिन्दु गोलीय या समाकृति प्रक्षेप होगा।

शिरोबिन्दु गोलीय प्रक्षेप की विशेषताएँ
Characteristics of Zenithal Stereographic Projection

  1. यह एक सन्दर्श प्रक्षेप है। इसमें प्रकाश-किरणों की स्थिति विपरीत ध्रुव पर मानी जाती हैं।
  2. सभी अक्षांश रेखाएँ समकेन्द्रित वृत्त होती हैं।
  3. सभी देशान्तर रेखाएँ घटाये गये ग्लोब के अर्द्धव्यास हैं। किरणें ध्रुव से बाहर की ओर विकिरित होती हैं।
  4. अक्षांश एवं देशान्तर रेखाएँ परस्पर समकोण पर काटती हैं।
  5. प्रक्षेप पर ध्रुवीय प्रदेशों के मानचित्रों में पूर्ण शुद्धता रहती है।
  6. प्रक्षेप पर ध्रुर्व से दूर हटने पर अक्षांशों के बीच की दूरी धीमी गति से बढ़ने लगती है। अत: इस प्रक्षेप पर विषुवतीय प्रदेशों तक को प्रदर्शित किया जा सकता है।
  7. इस प्रक्षेप पर अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं के सहारे-सहारे किसी भी बिन्दु पर मापक में समान वृद्धि होती है। अत: यह एक सम आकृति प्रक्षेप है। यह गुण कुछ ही प्रदेशों तक सीमित रहता है, क्योंकि बाहर की ओर जाने पर मापक में वृद्धि होने से क्षेत्रफल में भी तीव्रता से वृद्धि होने लगती है।
  8. अन्य शिरोबिन्दु प्रक्षेपों की भाँति यह प्रक्षेप भी शुद्ध दिशा प्रक्षेप है। अतः सभी देशान्तर रेखाओं के सहारे-सहारे दिशा शुद्ध रहती है।
  9. प्रक्षेप पर ध्रुवों से 70° अक्षांशों के मध्य मापक एवं क्षेत्रफल में मन्द गति से वृद्धि होती है।
  10. यह समक्षेत्रफल या शुद्ध मापक प्रक्षेप नहीं है। ध्रुव अर्थात् केन्द्र से बाहर की ओर जाने में क्षेत्रफल एवं मापक में तेजी से वृद्धि होती जाती है। विषुवत रेखा के समीपवर्ती भागों में यह वृद्धि कई गुना हो जाती है। इस प्रकार विषुवत् रेखा के निकट स्थित देश-श्रीलंका, सेलेबीज, मलागैसी आदि अपने आकार से बहुत बड़े दिखलायी पड़ते हैं।

गुण

  • यह शुद्ध आकृति प्रक्षेप है अर्थात् इस पर आकृति समरूप रहती है।
  • यह शुद्ध दिशा प्रक्षेप है।
  • इस प्रक्षेप पर विषुवत् रेखा तक के क्षेत्रों को भली-भाँति दिखाया जा सकता है।

अवगुण

  • इस प्रक्षेप पर मापक गलत रहता है।
  • यह एक अशुद्ध क्षेत्रफल प्रक्षेप है।
  • विषुवत् रेखा के निकटवर्ती भागों में प्रदेशों का आकार बड़ा हो जाता है।

उपयोगिता

  • यह ध्रुवीय प्रदेशों में यातायात मार्ग प्रदर्शित करने के लिए एक उपयोगी प्रक्षेप है।
  • 70° से ध्रुवों तक के मध्य दैनिक मौसम मानचित्रों के प्रदर्शन के लिए उत्तम प्रक्षेप है।

प्रश्न 7
प्र० भि० 1 : 12,50,00,000 पर एक बोन प्रक्षेप का रेखाजाल तैयार कीजिए जिसमें प्रक्षेपान्तर 15°, देशान्तरीय विस्तार 60° पश्चिम से 60° पूरब एवं प्रामाणिक अक्षांश 45° उत्तर हो। इस प्रक्षेप की विशेषताएँ, गुण, दोषों एवं उपयोगिता पर भी प्रकाश डालिए।
उत्तर

बोन प्रक्षेप
Bonne’s Projection

यह एक परिष्कृत शंक्वाकार प्रक्षेप है। इस प्रक्षेप में अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं के मध्य की दूरी इस प्रकार निश्चित की जाती है कि यह एक समक्षेत्रफल प्रक्षेप बना रहे। इस प्रक्षेप की रचना फ्रांसीसी मानचित्रकार रिगोबर्ट बोन ने की थी जिनके नाम पर इसका नाम बोन प्रक्षेप पड़ा। इसे ‘बोन का समक्षेत्रफल प्रक्षेप’ भी कहते हैं। इस प्रक्षेप में अक्षांश रेखाएँ, एक प्रामाणिक अक्षांश वाले साधारण शंक्वाकार प्रक्षेप की भाँति एक केन्द्र से खींची गयी वृत्त के चाप की होती हैं, परन्तु इस प्रक्षेप में किसी विशिष्ट अक्षांश को ही प्रामाणिक अक्षांश नहीं माना जाता है, अपितु इसका चुनाव स्वेच्छा से कहीं भी किया जा सकता है। प्रत्येक अक्षांश पर देशान्तरों की दूरी इस प्रकार निश्चित की जाती है कि इसमें समक्षेत्रफलै’को गुण आ जाता है। किसी भी अक्षांश को प्रामाणिक अक्षांश मान लेने का सबसे बड़ा गुण यह है कि यह मध्य अक्षांशों के साथ-साथ निम्न अक्षांशों के लिए भी समान रूप से उपयोगी हो सकता है। इसमें देशान्तर रेखाएँ वक्र रेखाएँ होती हैं। इस पर क्षेत्रफल शुद्ध रहता है।

रचना-विधि – घटाये गये ग्लोब का अर्द्धव्यास
= [latex s=2]\frac { 62,50,00,000 }{ 12,50,00,000 } [/latex] = 5 सेमी या 2 इंच

एक ड्राइंगशीट के बायीं ओर 5 सेमी अर्द्धव्यास लेकर वृत्त का एक चौथाई भाग अ ब स बनाकर उस पर 15° के अन्तर पर कोण खींचे। अ स लम्ब को ऊपर की ओर बढ़ाया। प्रामाणिक अक्षांश 45° पर च छ स्पर्श रेखा खींची जो अ स लम्ब रेखा को छ बिन्दु पर काटती है। ब द की दूरी परकार में भरकर अ बिन्दु को केन्द्र मानकर वृत्त का एक चाप घुमाया तथा सभी कोणों को काटने वाले बिन्दुओं से अ ब के समानान्तर 5 रेखाएँ खींची।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections 8
इस प्रक्रिया के पश्चात् ड्राइंगशीट के दायीं ओर एक सरल रेखा खींचकर उसके शीर्ष बिन्दु य से वृत्तांश की स्पर्श रेखा च छ के बराबर एक चाप खींचा। ब द की दूरी परकार में लेकर र बिन्दु से ऊपर दो। चिह्न तथा नीचे की ओर तीन चिह्न लगाये और य बिन्दु को ही केन्द्र मानकर इन पाँचों चिह्नों से चाप घुमाये। ये चाप क्रमशः 0° से 75° उत्तरी अक्षांशों को प्रकट करते हैं। प्रक्षेप की रचना में प्रत्येक अक्षांश पर भिन्न-भिन्न देशान्तरीय दूरी निश्चित करने के लिए प्रत्येक अक्षांश रेखा को प्रामाणिक अक्षांश मानकर दो प्रामाणिक अक्षांशों की भाँति वृत्तांश अ ब स के अन्दर अ ब के समानान्तर खींची गयी रेखाओं की सहायता से प्रत्येक अक्षांश की दूरी परकार में लेकर चार-चार चिह्न केन्द्रीय मध्याह्न रेखा के दोनों ओर अंकित किये तथा इन चिह्नों को मिलाते हुए वक्र रेखाएँ खींच दीं। इन वक्र रेखाओं को खींचने में फ्रेंच कर्व की सहायता ले लेनी चाहिए अथवा बाँस की सींक से भी यह कार्य किया जा सकता है। रेखाजाल को अंशांकित कर दिया। इस प्रकार बोन के समक्षेत्रफल शंक्वाकार प्रक्षेप की रचना पूर्ण हो जाती है।

बोन प्रक्षेप की विशेषताएँ
Characteristics of Bonne’s Projection

  1. यह एक संशोधित शंक्वाकार प्रक्षेप है जिसमें देशान्तरीय स्थिति भिन्न प्रकार से निश्चित की जाती है।
  2. सभी अक्षांश रेखाएँ समकेन्द्रीय वृत्त की चाप रेखाएँ होती हैं तथा इनके मध्य की दूरी समान होती है।
  3. देशान्तर रेखाओं में केन्द्रीय मध्याह्न रेखा ही सरल रेखा होती है; अत: इसे ही अक्षांश रेखाएँ समकोण पर काटती हैं। अन्य सभी देशान्तर रेखाएँ वक्राकार होने के कारण अक्षांशों को तिरछा काटती हैं। इसके बाह्य भागों में तिरछापन बढ़ता जाता है।
  4. प्रक्षेप का अर्द्धव्यास ज्ञात करने के लिए प्रामाणिक अक्षांश पर स्पर्श रेखा खींचनी पड़ती है। अत: किसी भी अक्षांश को प्रामाणिक अक्षांश माना जा सकता है।
  5. वक्राकार देशान्तर होने का महत्त्वपूर्ण कारण प्रत्येक अक्षांश को समान महत्त्व दिया जाना है। देशान्तरों के मध्य की दूरी लघु वृत्तांश पर लम्बे डालकर ज्ञात की जाती है।
  6. प्रक्षेप में अक्षांश रेखाओं की लम्बाई ग्लोब के समानुपाती रहती है। इसके अतिरिक्त केन्द्रीय देशान्तर पर अक्षांश के बीच का अन्तर भी शुद्ध रहता है। इसी कारण यह एक समक्षेत्रफल प्रक्षेप है।
  7. प्रामाणिक अक्षांश के समीप स्थित देशों का क्षेत्रफल शुद्ध रहने के साथ-साथ इसमें आकृति भी शुद्ध रहती है। इसी कारण इस प्रक्षेप पर मध्य देशान्तर एवं प्रामाणिक अक्षांश निश्चित कर एक गोलार्द्ध के अधिकांश देशों को प्रदर्शित किया जा सकता है।
  8. इस प्रक्षेप में सर्वत्र आकृति एवं दिशा शुद्ध नहीं रहती है। केन्द्रीय भाग से दूर जाने पर विकृति आती जाती है।
  9. मध्य देशान्तर पर मापक शुद्ध रहता है। बाहर की ओर अशुद्धि आ जाती है। प्रक्षेप में सभी अक्षांशों पर मापक शुद्ध रहता है।

गुण

  • केन्द्रीय देशान्तर पर मापक शुद्ध होता है।
  • प्रक्षेप में अक्षांश रेखाओं की लम्बाई ग्लोब के समानुपाती होती है। अत: यह एक शुद्ध क्षेत्रफल प्रक्षेप है।
  • प्रामाणिक अक्षांश रेखा पर आकृति शुद्ध रहती है।

अवगुण 

  • यह शुद्ध दिशा प्रक्षेप नहीं है।
  • केवल मध्य देशान्तर पर ही मापक शुद्ध रहता है। पूरब तथा पश्चिम की ओर जाने पर उसमें अशुद्धियाँ बढ़ती जाती हैं।
  • प्रामाणिक अक्षांश रेखा से दूर जाने पर आकृति बिगड़ती जाती है।

उपयोगिता – समक्षेत्रफल; प्रक्षेप होने तथा अधिकांश भागों में मापक शुद्ध रहने के कारण लघु मापक पर बनाये गये। इस प्रक्षेप पर देशों एवं महाद्वीपों के मानचित्र बराबर बनाये जा रहे हैं। युरोप, एशिया के अधिकांश भाग, उत्तरी अमेरिका एवं उसके देशों के लिए या एक गोलार्द्ध के मानचित्र के लिए यह एक उपयोगी प्रक्षेप है।

एटलस में भी इस प्रक्षेप को विभिन्न मानचित्रों के लिए आधार प्रक्षेप माना जाता है। ध्रुवीय प्रदेशों को इस पर प्रदर्शित नहीं किया जा सकता है।
भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, सऊदी अरब, मिस्र जैसे देशों के मानचित्रों के लिए यह बहुत ही उपयोगी प्रक्षेप है। परन्तु रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका आदि देशों के लिए यह उपयोगी प्रक्षेप नहीं है। मध्यम आकार के देशों के वितरण मानचित्रों के लिए यह बहुत ही उपयुक्त प्रक्षेप है।

मौखिक परिक्षा: सम्भावित प्रश्न

प्रश्न 1
प्रक्षेप से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
ग्लोब की अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं को समतल कागज पर प्रदर्शित करने की विधि को प्रक्षेप कहते हैं।

प्रश्न 2
रेखाजाल किसे कहते हैं?
उत्तर
अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं के समतल कागज पर प्रक्षेपित करने से रेखाओं का जो जाल निर्मित होता है, रेखाजाल कहलाता है।

प्रश्न 3
प्रक्षेप का प्रयोग क्यों किया जाता है?
उत्तर
प्रक्षेप का प्रयोग वृत्ताकार पृथ्वी (Spheroid earth) को समतल कागज पर प्रदर्शित करने। हेतु किया जाता है।

प्रश्न 4
प्रकाश की दृष्टि से प्रक्षेप कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर
प्रकाश की दृष्टि से प्रक्षेप निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं –

  1. सन्दर्श प्रक्षेप (Perspective Projection)।
  2. असन्दर्श प्रक्षेप (Non-perspective Projection)।

प्रश्न 5
उपयोग की दृष्टि से प्रक्षेप कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर
उपयोग की दृष्टि से प्रक्षेप निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं –

  1. शुद्ध क्षेत्रफल प्रक्षेप (Equal Area Projection)।
  2. शुद्ध आकृति प्रक्षेप (True Shape Projection)।
  3. शुद्ध दिशा प्रक्षेप (True Bearing Projection)।

प्रश्न 6
अक्षांश रेखाएँ किन्हें कहते हैं?
उत्तर
विषुवत रेखा से उत्तर तथा दक्षिण की ओर ध्रुवों तक मापी जाने वाली काल्पनिक कोणात्मक दूरियों को अक्षांश रेखाएँ कहते हैं।

प्रश्न 7
देशान्तर रेखाएँ किन्हें कहते हैं?
उत्तर
देशान्तर रेखाएँ वे काल्पनिक रेखाएँ होती हैं जो उत्तरी ध्रुव को दक्षिणी ध्रुव से मिलाती हैं।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections

प्रश्न 8
समक्षेत्रफल बेलनाकार प्रक्षेप का क्या उपयोग है?
उत्तर
इस प्रक्षेप का उपयोग विषुवतीय प्रदेशों तथा उनके समीपवर्ती भू-भागों के वितरण मानचित्रों के लिए किया जाता है। विश्व में गन्ना, चावल, चाय, रबड़, कहवा आदि का उत्पादन एवं वितरण इस प्रक्षेष पर प्रकट किया जाता है।

प्रश्न 9
प्रामाणिक अक्षांश रेखा किसे कहते हैं?
उत्तर
शंक्वाकार कागज ग्लोब को जिस अक्षांश पर स्पर्श करता है, उसे प्रामाणिक अक्षांश रेखा कहते हैं।

प्रश्न 10
बोन प्रक्षेप के आविष्कारक कौन थे?
उत्तर
बोन प्रक्षेप का आविष्कार फ्रांसीसी मानचित्रकार रिगोबर्ट बोन ने सन् 1772 ई० में किया था।

प्रश्न 11
ध्रुवीय शिरोबिन्दु प्रक्षेप को ध्रुवीय शिरोबिन्दु प्रक्षेप क्यों कहा जाता है?
उत्तर
समतल कागज का ग्लोब को ध्रुवों पर स्पर्श करने के कारण इसका नाम ध्रुवीय शिरोबिन्दु प्रक्षेप रखा गया है।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections

प्रश्न 12
शीतोष्ण कटिबन्धीय लघु आकार वाले देशों के मानचित्र किस प्रक्षेप पर बनाये जा सकते हैं?
उत्तर
दो प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप तथा बोन प्रक्षेप पर शीतोष्ण कटिबन्धीय लघु आकार वाले देशों के मानचित्र बनाये जा सकते हैं।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections (मानचित्र प्रक्षेप) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections (मानचित्र प्रक्षेप), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.