UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 2 The World Population: Distribution, Density and Growth

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 2 The World Population: Distribution, Density and Growth (विश्व जनसंख्या-वितरण, घनत्व और वृद्धि)

UP Board Class 12 Geography Chapter 2 Text Book Questions

UP Board Class 12 Geography Chapter 2 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
नीचे दिए गए चार विकल्पों में से सही उत्तर चुनिए :
(i) निम्नलिखित में से किस महाद्वीप में जनसंख्या वृद्धि सर्वाधिक है
(क) अफ्रीका
(ख) एशिया
(ग) दक्षिण अफ्रीका
(घ) उत्तर अमेरिका।
उत्तर:
(क) अफ्रीका।

(ii) निम्नलिखित में से कौन-सा एक विरल जनसंख्या वाला क्षेत्र नहीं है
(क) अटाकामा
(ख) भू-मध्यरेखीय प्रदेश
(ग) दक्षिण-पूर्वी एशिया
(घ) ध्रुवीय प्रदेश।
उत्तर:
(ग) दक्षिण-पूर्वी एशिया

(iii) निम्नलिखित में से कौन-सा एक प्रतिकर्ष कारक नहीं है
(क) जलाभाव
(ख) बेरोजगारी
(ग) चिकित्सा/शैक्षणिक सुविधाएँ
(घ) महामारियाँ।
उत्तर:
(ग) चिकित्सा/शैक्षणिक सुविधाएँ।

(iv) निम्नलिखित में से कौन-सा एक तथ्य सही नहीं है
(क) विगत् 500 वर्षों में मानव जनसंख्या 100 गुणा से अधिक बढ़ी है।
(ख) 5 अरब से 6 अरब तक बढ़ने में जनसंख्या को 100 वर्ष लगे।
(ग) जनांकिकीय संक्रमण की प्रथम अवस्था में जनसंख्या वृद्धि उच्च होती है।
उत्तर:
(ग) जनांकिकीय संक्रमण की प्रथम अवस्था में जनसंख्या वृद्धि उच्च होती है।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए
(i) जनसंख्या के वितरण को प्रभावित करने वाले तीन भौगोलिक कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
जनसंख्या के वितरण को प्रभावित करने वाले भौगोलिक कारक हैं

  • जलवायु – शीत ध्रुवीय प्रदेश तथा मरुस्थल विरल जनसंख्या के प्रदेश हैं, परन्तु शीतोष्ण प्रदेश घने बसे हुए प्रदेश हैं।
  • भू-आकृति – पर्वत तथा पठार विरल जनसंख्या वाले प्रदेश हैं लेकिन मैदानों में जनसंख्या अधिक है।
  • जल की प्राप्ति – नदी घाटियाँ संसार में सर्वाधिक सघन बसे क्षेत्र हैं।

(ii) विश्व में उच्च जनसंख्या वाले अनेक क्षेत्र हैं। ऐसा क्यों होता है?
उत्तर:
विश्व में उच्च जनसंख्या वाले क्षेत्र होने के कारण निम्नलिखित हैं

  1. भौगोलिक कारक
    • स्वच्छ जल की पर्याप्त आपूर्ति
    • संमतल मैदानी भाग
    • उत्तम जलवायु
    • उपजाऊ मृदाएँ आदि।
  2. आर्थिक कारक
    • खंजिन संसाधनों की उपलब्धता
    • नगरीकरण
    • औद्योगीकरण आदि।
  3. सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारक

(iii) जनसंख्या परिवर्तन के तीन घटक कौन-से हैं?
उत्तर:
जनसंख्या परिवर्तन के तीन घटक हैं

  • जन्म-दर
  • मृत्यु-दर एवं
  • प्रवास।

प्रश्न 3.
अन्तर स्पष्ट कीजिए
(i) जन्म-दर और मृत्यु-दर।
उत्तर:
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(ii) प्रवास के प्रतिकर्ष कारक और अपकर्ष कारक
उत्तर:
प्रवास के प्रतिकर्ष कारक और अपकर्ष कारक में अन्तर
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प्रश्न 4.
निम्न प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए
(i) विश्व में जनसंख्या के वितरण और घनत्व को प्रभावित करने वाले कारकों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
विश्व में जनसंख्या वितरण और घनत्व को प्रभावित करने वाले कारक
विश्व में जनसंख्या के वितरण और घनत्व को प्रभावित करने वाले कारकों को सामान्यत: तीन भागों में बाँटा गया है
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(I) भौगोलिक कारक

  • जल की उपलब्धता – जल, जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है। अत: जनसंख्या का बसाव स्वच्छ जल की पर्याप्त आपूर्ति वाले क्षेत्रों में ही होता है। नदी घाटियाँ विश्व में सर्वाधिक सघन बसे क्षेत्र हैं।
  • भू-आकृति – जनसंख्या सामान्यतया समतल मैदानों व मन्द ढालों पर अधिक पायी जाती है।
  • जलवायु – अति उष्ण या ठण्डे मरुस्थलों की अपेक्षा उत्तम जलवायु वाले भागों में जनसंख्या अधिक पायी जाती है।
  • मृदाएँ – उपजाऊ मृदा वाले भागों में जनसंख्या का बसाव अपेक्षाकृत अधिक होता है।

(II) आर्थिक कारक

  • खनिज – खनिज उपलब्धता वाले क्षेत्रों में जनसंख्या का बसाव अपेक्षाकृत अधिक होता है।
  • औद्योगीकरण – औद्योगिक पेटियाँ रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाती हैं। अत: जनसंख्या का बसाव अपेक्षाकृत अधिक होता है।
  • परिवहन सुविधा – परिवहन सुविधा उपलब्धता वाले क्षेत्रों में जनसंख्या बसाव अपेक्षाकृत अधिक पाया जाता है।
  • आधारभूत सुविधाएँ – जहाँ मनुष्य को आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं वहाँ जनसंख्या बसाव अपेक्षाकृत अधिक पाया जाता है।
  • नगरीकरण – नगरों में उपलब्ध सुविधाएँ भी जनसंख्या बसाव की अधिकता के लिए उत्तरदायी हैं।

(III) सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारक
सामाजिक और राजनीतिक शान्ति वाले क्षेत्रों में जनसंख्या बसाव अपेक्षाकृत अधिक पाया जाता है।

(ii) जनांकिकीय संक्रमण की तीन अवस्थाओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
जनांकिकीय संक्रमण-इस सिद्धान्त का उपयोग किसी क्षेत्र की जनसंख्या के वर्णन तथा भविष्य की जनसंख्या के पूर्वानुमान के लिए किया जाता है।
जनांकिकीय संक्रमण की अवस्थाएँ
जनांकिकीय संक्रमण की तीन अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं
प्रथम अवस्था — इस अवस्था में उच्च प्रजननशीलता व उच्च मर्त्यता होती है क्योंकि लोग महामारियों और भोजन की अनिश्चित आपूर्ति में होने वाली मृत्युओं की क्षतिपूर्ति अधिक पुनरुत्पादन से करते हैं। जनसंख्या वृद्धि धीमी होती है और अधिकांश लोग खेती में कार्यरत होते हैं। यहाँ बड़े परिवारों को परिसम्पत्ति माना जाता है। जीवन प्रत्याशा निम्न होती है, अधिकांश लोग अशिक्षित होते हैं और उनके प्रौद्योगिकी स्तर निम्न होते हैं। 200 वर्ष. ” पूर्व विश्व के सभी देश इसी अवस्था में थे।

द्वितीय अवस्था – इस अवस्था के प्रारम्भ में प्रजननशीलता उच्च बनी रहती है किन्तु यह समय के साथ घटती जाती है। यह अवस्था घटी हुई मृत्यु-दर के साथ आती है। स्वास्थ्य सम्बन्धी दशाओं व स्वच्छता में सुधार . के साथ मर्त्यता में कमी आती है। इस अन्तर के कारण, जनसंख्या में होने वाला शुद्ध योग उच्च होता है।
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अन्तिम अवस्था में प्रजननशीलता और मर्त्यता दोनों अधिक घट जाती हैं। जनसंख्या या तो स्थिर हो जाती है या मन्द गति से बढ़ती है। जनसंख्या नगरीय और शिक्षित हो जाती है तथा उसके पास तकनीकी ज्ञान होता है। ऐसी जनसंख्या विचारपूर्वक परिवार के आकार को नियन्त्रित करती है। इससे प्रदर्शित होता है कि मनुष्य जाति अत्यधिक नम्य है और अपनी प्रजननशीलता को समायोजित करने की योग्यता रखती है।
वर्तमान में विभिन्न देश जनांकिकीय संक्रमण की विभिन्न अवस्थाओं में हैं।

UP Board Class 12 Geography Chapter 2 Other Important Questions

UP Board Class 12 Geography Chapter 2 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जनसंख्या घनत्व से आप क्या समझते हैं? विश्व में विरल जनसंख्या घनत्व वाले प्रदेशों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जनसंख्या घनत्व का अर्थ-जनसंख्या का घनत्व वह माप है जो किसी क्षेत्र की जनसंख्या तथा वहाँ के क्षेत्रफल के बीच आनुपातिक सम्बन्ध को व्यक्त करता है। इसे प्रति इकाई क्षेत्रफल पर व्यक्तियों की संख्या द्वारा व्यक्त किया जाता है।

विश्व में विरल जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र जिन क्षेत्रों में 1 से 2 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी रहते हैं उन्हें ‘विरल जनसंख्या घनत्व वाले प्रदेश’ कहते हैं। ऐसे प्रदेश पृथ्वी के धरातल का लगभग 95 करोड़ वर्ग किमी अर्थात् तीन-चौथाई भाग घेरे हुए हैं। इनमें निम्नलिखित प्रदेश शामिल हैं

1. उष्ण मरुस्थल – सहारा, कालाहारी (अफ्रीका), अटाकामा (द. अफ्रीका), पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया, अरब व थार (एशिया) तथा सैनोरैन मरुस्थल ऐसे ही उष्ण मरुस्थल हैं जहाँ जल के अभाव के कारण पशुचारण मुख्य व्यवसाय है और जनसंख्या विरल है।

2. अति ठण्डे क्षेत्र – ध्रुवीय व उप-ध्रुवीय क्षेत्रों में तापमान अत्यन्त कम व फसलों का वर्धन काल बहुत छोटा होता है। इन क्षेत्रों में कनाडा व साइबेरिया का उत्तरी भाग तथा ग्रीनलैण्ड आते हैं। दक्षिणी ध्रुव के चारों तरफ . विस्तृत अंटार्कटिक महाद्वीप तो पूर्णतया जनविहीन है।

3. ठण्डे मरुस्थल व उच्च पर्वतीय प्रदेश – मध्य एशिया के क्षेत्र, गोबी व तकला मकान मरुस्थल समुद्र के समकारी प्रभाव से दूर महाद्वीप के भीतरी भागों में स्थित क्षेत्र हैं। वृष्टि छाया प्रदेश में स्थित इन क्षेत्रों में वर्षा न्यून व वार्षिक तापान्तर बहुत अधिक होता है। रॉकीज, एण्डीज, हिमालय आदि उच्च पर्वतीय प्रदेशों में भी विरल जनसंख्या पायी जाती है।

4. विषुवत् – रेखीय क्षेत्र-इसमें सघन वनों से युक्त दक्षिण अमेरिका का अमेजन बेसिन तथा अफ्रीका का जायरे बेसिन शामिल हैं। यहाँ सारे साल भारी वर्षा व उच्च तापमान पाए जाते हैं। जलवायु अस्वास्थ्यकर है तथा वन दुर्गम व आर्थिक रूप से कम उपयोगी हैं।

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प्रश्न 2.
जनसंख्या वृद्धि की संकल्पना का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जनसंख्या वृद्धि की संकल्पना
जनसंख्या वद्धि का अर्थ – समय की किसी निश्चित अवधि के दौरान किसी क्षेत्र विशेष में बसे हुए लोगों की संख्या में होने वाले परिवर्तन को ‘जनसंख्या की वृद्धि’ कहा जाता है। उदाहरणत:-यदि हम भारत की 2001 की जनसंख्या (102.70 करोड़) को 2011 की जनसंख्या (121.01 करोड़) में से घटाएँ तब हमें जनसंख्या की वृद्धि (18.31 करोड़) की वास्तविक संख्या का पता चलेगा।

जनसंख्या की वृद्धि दर – यह जनसंख्या में परिवर्तन है जो कि प्रतिशत में व्यक्त किया जाता है। उदाहरणत:-2001 व 2011 के दशक में जनसंख्या की वृद्धि दर 17.64 प्रतिशत थी।

प्राकृतिक वृद्धि – दो समय बिन्दुओं में जन्म-दर और मृत्यु-दर के अन्तर से बढ़ने वाली जनसंख्या को उस क्षेत्र की ‘प्राकृतिक वृद्धि’ कहते हैं।
प्राकृतिक वृद्धि = जन्म – मृत्यु

वास्तविक वृद्धि – इसमें जनसंख्या की जन्म-दर व मृत्यु-दर के साथ-साथ प्रवास व अप्रवास की भी गणना की जाती है। .
वास्तविक वृद्धि = जन्म – मृत्यु + अप्रवासी – उत्प्रवासी

धनात्मक वृद्धि – धनात्मक वृद्धि तब होती है जब दो समय बिन्दुओं के बीच जन्म-दर, मृत्यु-दर से अधिक हो या अन्य देशों के लोग स्थायी रूप से उस देश में प्रवास कर जाएँ।

ऋणात्मक वृद्धि-यदि दो समय बिन्दुओं के बीच जनसंख्या कम हो जाए तो उसे ऋणात्मक वृद्धि कहते हैं। यह तब होती है जब जन्म-दर, मृत्यु-दर से कम हो जाए या लोग अन्य देशों में प्रवास कर जाएँ।

प्रश्न 3.
प्रवास क्या है? इसके प्रकारों का वर्णन कीजिए। .
उत्तर:
प्रवास का अर्थ-किसी व्यक्ति अथवा जनसमूह के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर बसने को ‘प्रवास’ कहते हैं।
वह स्थान जहाँ से लोग गमन करते हैं, ‘उद्गम स्थान’ कहलाता है और जिस स्थान पर आगमन करते हैं, वह ‘गंतव्य स्थान’ कहलाता है। उद्गम स्थान पर जनसंख्या घट जाती है जबकि गंतव्य स्थान पर जनसंख्या बढ़ जाती है।

प्रवास के प्रकार
प्रवास स्थायी और अस्थायी दोनों प्रकार से हो सकता है। अस्थायी प्रवास आवधिक, वार्षिक, मौसम, साप्ताहिक या दैनिक हो सकता है। स्थायी प्रवास मुख्यतः दो प्रकार का होता है
(1) बाह्य प्रवास तथा
(2) आन्तरिक प्रवास।

1. बाह्य प्रवास-अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं को पार करने वाला प्रवास ‘बाह्य प्रवास’ कहलाता है। दिशा के आधार पर बाह्य प्रवास दो प्रकार का होता है

  • आप्रवास – विदेश में स्थायी रूप से बसने के लिए जाने की क्रिया को ‘आप्रवास’ कहते हैं। विश्व जनसंख्या : वितरण, घनत्व और वृद्धि
  • उत्प्रवास – किसी अन्य स्थान पर जीवन व्यतीत करने के लिए एक स्थान से बाहर चले जाना ‘उत्प्रवास’ कहलाता है।

2. आन्तरिक प्रवास-किसी देश के विभिन्न क्षेत्रों के मध्य होने वाले पारस्परिक प्रवास को आन्तरिक प्रवास’ कहते हैं। यह दो प्रकार का हो सकता है–

  • अन्तःराज्यीय प्रवास – जब लोग किसी एक राज्य के एक स्थान से किसी दूसरे स्थान की ओर प्रवास कर जाते हैं तो इसे ‘अन्त:राज्यीय प्रवास’ कहते हैं।
  • अन्तर्राज्यीय प्रवास – किसी अन्य स्थान के किसी एक राज्य से अन्य राज्य की ओर प्रवास ‘अन्तर्राज्यीय प्रवास’ कहलाता है।

दिशा के आधार पर आन्तरिक प्रवास चार प्रकार का होता है। इन्हें प्रवास की धाराएँ कहते हैं(i) गाँव से नगर को प्रवास,

  • गाँव से गाँव को प्रवास,
  • नगर से गाँव को प्रवास,
  • नगर से नगर को प्रवास।

प्रश्न 4.
जनसंख्या परिवर्तन को नियन्त्रित करने वाले कारक जन्म-दर व मृत्यु-दर का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जनसंख्या परिवर्तन के घटक जनसंख्या परिवर्तन या वृद्धि को नियन्त्रित करने वाले कारक तीन हैं1. जन्म-दर, 2. मृत्यु-दर और 3. प्रवास।
1. अशोधित जन्म – दर-प्रजननशीलता को मापने का यह सबसे सरल और सबसे अधिक प्रयोग किया जाने वाला माप है।
अशोधित जन्म-दर को प्रति हजार स्त्रियों द्वारा जन्म दिए जीवित बच्चों के रूप में व्यक्त किया जाता है। इसकी गणना इस प्रकार की जाती है
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2. अशोधित मृत्यु-दर – जनसंख्या परिवर्तन में मृत्यु-दर की सक्रिय भूमिका होती है। जनसंख्या वृद्धि केवल जन्म-दर के अधिक होने के कारण ही नहीं होती बल्कि मृत्यु-दर के कम होने से भी होती है। अशोधित मृत्यु-दर किसी क्षेत्र में मृत्यु-दर को मापने की अत्यन्त सरल विधि है। एक वर्ष में प्रति हजार जनसंख्या के अनुपात में मरने वाले व्यक्तियों की संख्या ‘अशोधित मृत्यु-दर’ कहलाती है। इस दर को ज्ञात करने के लिए किसी वर्ष विशेष में हुई मृत्युओं को मध्यवर्षीय जनसंख्या से भाग दे दिया जाता है। इस प्रकार प्राप्त भागफल को 1,000 से गुणा करके जो संख्या प्राप्त होती है, उसे ‘अशोधित मृत्यु-दर’ कहा जाता है।
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मुख्य रूप से मृत्यु-दर किसी क्षेत्र की जनांकिकीय संरचना, सामाजिक उन्नति और आर्थिक विकास के स्तर द्वारा प्रभावित होती है।

प्रश्न 5.
विश्व में सघन जनसंख्या वाले क्षेत्रों का वर्णन कीजिए। अथवा विश्व में उच्च जनसंख्या घनत्व वाले प्रदेशों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
विश्व में जनसंख्या के वितरण की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह बड़ी असमान तथा अव्यवस्थित है।
विश्व में सघन जनसंख्या वाले क्षेत्र
अथवा
विश्व में उच्च जनसंख्या घनत्व वाले देश
सघन जनसंख्या वाले प्रदेश वे होते हैं जहाँ 200 से अधिक व्यक्ति/प्रति वर्ग किमी में निवास करते हैं। इसमें निम्नलिखित तीन क्षेत्र शामिल किए जाते हैं
1. मानसून एशिया – इसमें द०पू० चीन, भारत, इण्डोनेशिया का जावा द्वीप, बंगलादेश, सिंगापुर व जापान आदि प्रमुख हैं। यह मुख्यत: नदी घाटियों व उपजाऊ मैदानों का क्षेत्र है जहाँ अनुकूल जलवायु व लम्बे वर्धनकाल के कारण वर्ष में चावल की तीन-तीन फसलें उगाई जाती हैं। भूमि की अधिक वहन क्षमता तथा भारत, चीन व जापान में बड़े पैमाने पर हुए औद्योगीकरण व नगरीकरण के कारण इस प्रदेश में जनसंख्या का भारी जमाव है।

2. पश्चिमी यूरोप – पश्चिमी यूरोप में खनन व निर्माण उद्योगों का विकास हुआ है। यहाँ की उत्तम जलवायु के कारण भी जनसंख्या का अधिक सान्द्रण पाया जाता है।

3. संयुक्त राज्य अमेरिका तथा कनाडा के पूर्वी भाग – संयुक्त राज्य अमेरिका के उत्तर-पूर्वी भाग और कनाडा के दक्षिण-पूर्वी तटों पर जनसंख्या का भारी बसाव हुआ है। इसका मुख्य कारण यह है कि यूरोप से अटलाण्टिक मार्ग से आने वाले प्रवासी सबसे पहले यहीं आकर बसे। इससे यहाँ उद्योगों, व्यवसाय तथा नगरीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई। ज्यों-ज्यों इस क्षेत्र में आर्थिक सम्भावनाएँ बढ़ती गईं, लोग इस ओर आकर्षित होते गए।
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लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जलवायु किस तरह मनुष्य को प्रभावित करती है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जलवायु का मनुष्य पर प्रभाव

  • उत्तरी-ध्रुवीय क्षेत्र में स्थित अलास्का, ग्रीनलैण्ड, कनाडा का उत्तरी भाग व साइबेरिया तथा दक्षिणी ध्रुव के चारों तरफ विस्तृत अंटार्कटिक महाद्वीप अत्यधिक ठण्ड के कारण लगभग मानवविहीन पाए जाते हैं।
  • मध्य अक्षांशों में विस्तृत गोबी मरुस्थल शीत व शुष्क जलवायु के कारण जनविहीन है।
  • पृथ्वी के धरातल का लगभग 160 लाख वर्ग किमी क्षेत्र ऐसा है जहाँ अधिक सर्दी के कारण खेती नहीं की जा सकती।
  • प्रतिकूल जलवायु मनुष्य को आलसी, निर्बल व अकुशल बना देती है जबकि उत्तम जलवायु के निवासी फुर्तीले, उत्साही, दक्ष तथा जोश से भरे रहते हैं।

प्रश्न 2.
प्रवास को प्रभावित करने वाले कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
प्रवास को प्रभावित करने वाले कारक प्रवास को प्रभावित करने वाले कारकों के दो समूह हैं
1. प्रतिकर्ष कारक – बेरोजगारी, रहन-सहन की निम्न दशाएँ, राजनीतिक उपद्रव, प्रतिकूल जलवायु, प्राकृतिक विपदाएँ, महामारियाँ तथा सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन जैसे कारण उद्गम स्थल को कम आकर्षित बनाते हैं। मजबूरी में छोड़े गए अपने स्थान को ‘प्रतिकर्ष-प्रेरित प्रवास’ कहते हैं।

2. अपकर्ष प्रवास – काम के बेहतर अवसर और जीने की दशाओं, शान्ति व स्थायित्व, जीवन व सम्पत्ति की सुरक्षा तथा सुखद जलवायु जैसे कारण गंतव्य को उद्गम स्थल की अपेक्षा अधिक आकर्षक बनाते हैं। अपनी बेहतरी के अवसरों से आकर्षित होकर किया गया प्रवास ‘अपकर्ष-प्रेरित प्रवास’ कहलाता है।

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प्रश्न 3.
जनसंख्या की धनात्मक वृद्धि एवं ऋणात्मक वृद्धि को समझाइए।
उत्तर:
जनसंख्या की धनात्मक वृद्धि-धनात्मक वृद्धि तब होती है जब दो समय बिन्दुओं के बीच जन्म-दर, मृत्यु-दर से अधिक हो या अन्य देशों के लोग स्थायी रूप से उस देश में प्रवास कर जाएँ। जनसंख्या की ऋणात्मक वृद्धि-यदि दो समय बिन्दुओं के बीच जनसंख्या कम हो जाए तो उसे ऋणात्मक वृद्धि कहते हैं। यह तब होती है जब जन्म-दर, मृत्यु-दर से कम हो जाए या लोग अन्य देशों में प्रवास कर जाएँ।

प्रश्न 4.
जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि व वास्तविक वृद्धि को समझाइए।
उत्तर:
जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि-दो समय बिन्दुओं में जन्म-दर और मृत्यु-दर के अन्तर से। बढ़ने वाली जनसंख्या को उस क्षेत्र की ‘प्राकृतिक वृद्धि’ कहते हैं।
प्राकृतिक वृद्धि = जन्म – मृत्यु
जनसंख्या की वास्तविक वृद्धि-इसमें जनसंख्या की जन्म-दर व मृत्यु-दर के साथ-साथ प्रवास व अप्रवास की भी गणना की जाती है। .
वास्तविक वृद्धि = जन्म – मृत्यु + अप्रवासी – उत्प्रवासी

प्रश्न 5.
अन्तःराज्यीय प्रवास से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
अन्तःराज्यीय प्रवास – जब लोग किसी एक राज्य के एक स्थान से किसी दूसरे स्थान की ओर प्रवास कर जाते हैं जो इसे ‘अन्तःराज्यीय प्रवास’ कहते हैं। उदाहरणत:-यदि कोई व्यक्ति या लोग मेरठ से आगरा जा बसते हैं जो इसे हम अन्त:राज्यीय प्रवास कहेंगे क्योंकि ये दोनों नगर उत्तर प्रदेश में हैं।

प्रश्न 6.
अन्तर्राज्यीय प्रवास को उदाहरण सहित समझाइए।
उत्तर:
अन्तर्राज्यीय प्रवास – जब किसी एक राज्य का व्यक्ति किसी अन्य राज्य में जाकर बस जाता है तो उसे ‘अन्तर्राज्यीय प्रवास’ कहते हैं। उदाहरणत:- यदि आगरा का एक व्यक्ति जोधपुर आकर बस जाए तो यह अन्तर्राज्यीय प्रवास कहलाएगा क्योंकि आगरा उत्तर प्रदेश में और जोधपुर राजस्थान में है।

प्रश्न 7.
जन्म-दर की माप अशोधित क्यों है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जन्म-दर की माप के अशोधित होने के कारण जन्म-दर ज्ञात करने के तरीके में निम्नलिखित त्रुटियाँ हैं जिस कारण इसे ‘अशोधित’ कहा जाता है

  • इस माप में प्रयुक्त ‘प्रति हजार जनसंख्या’ में बच्चे और बूढ़े भी शामिल हो जाते हैं जबकि वह वर्ग प्रजनन कार्य में सक्रिय नहीं होता।
  • इस माप में सम्बन्धित जनसंख्या की आयु, लिंगानुपात तथा वैवाहिक स्तर को भी ध्यान में नहीं रखा जाता।

प्रश्न 8.
मृत्यु-दर की माप अशोधित क्यों है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मृत्यु-दर की माप के अशोधित होने के कारण मृत्यु-दर की माप के कुछ दोष/त्रुटियाँ हैं जिस कारण इसे अशोधित मृत्यु-दर कहा जाता है

  • इसमें औसत मृत्यु – दर निकाली जाती है अर्थात् इसमें कम और अधिक मृत्यु-दर वाले दोनों आयु वर्गों को शामिल कर लिया जाता है।
  • कुल जनसंख्या का स्रोत जनगणना है जबकि मृत्यु की संख्या का स्रोत पंजीकरण है। दो भिन्न स्रोतों से प्राप्त आँकड़ों का सांख्यिकीय विश्लेषण एक अवैज्ञानिक प्रक्रिया है।
  • जनगणना एक दशक के बाद होती है जबकि मृत्यु का पंजीकरण किसी वर्ष विशेष से सम्बन्धित होता है। अत: भिन्न समयावधियों में एकत्रित आँकड़ों के आधार पर परिणाम निकालना वैज्ञानिक एवं तथ्यपूर्ण नहीं हो सकता।

प्रश्न 9.
विश्व में जनसंख्या वितरण की कोई चार विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
विश्व में जनसंख्या वितरण की विशेषताएँ

  • विश्व में जनसंख्या का वितरण अत्यधिक असमान है।
  • विश्व में जनसंख्या का घनत्व भी असमान पाया जाता है।
  • नदी घाटियों व मैदानों में अधिक जनसंख्या निवास करती है।
  • ठण्डे व गर्म मरुस्थलों में कम जनसंख्या निवास करती है।

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प्रश्न 10.
अन्तःराज्यीय प्रवास एवं अन्तर्राज्यीय प्रवास में अन्तर समझाइए।
उत्तर:
अन्तःराज्यीय प्रवास एवं अन्तर्राज्यीय प्रवास में अन्तर
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अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जनसंख्या घनत्व से क्या आशय है?
उत्तर:
लोगों की संख्या और भूमि के आकार के बीच अनुपात को जनसंख्या घनत्व कहते हैं।

प्रश्न 2.
जनसंख्या घनत्व ज्ञात करने का सूत्र लिखिए।
उत्तर:
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प्रश्न 3.
विश्व में सघन जनसंख्या वाले क्षेत्रों के नाम लिखिए।
उत्तर:
विश्व में सघन जनसंख्या के क्षेत्र हैं

  • संयुक्त राज्य अमेरिका का उ०प० भाग
  • यूरोप का उ०प० भाग तथा
  • दक्षिणी, दक्षिण-पूर्वी और पूर्वी एशिया के भाग।

प्रश्न 4.
विश्व में विरल जनसंख्या वाले क्षेत्रों के नाम लिखिए।
उत्तर:
उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के समीप, उष्ण और शीत मरुस्थल तथा विषुवत् रेखा के समीप उच्च वर्षा के अन्य क्षेत्र आदि में विरल जनसंख्या पायी जाती है।

प्रश्न 5.
जनसंख्या के वितरण को प्रभावित करने वाले दो भौगोलिक कारक बताइए।
उत्तर:
जनसंख्या के वितरण को प्रभावित करने वाले भौगोलिक कारक हैं

  • जलवायु एवं
  • भू-आकृति।

प्रश्न 6.
जनसंख्या के वितरण को प्रभावित करने वाले दो आर्थिक कारक बताइए।
उत्तर:
जनसंख्या के वितरण को प्रभावित करने वाले आर्थिक कारक हैं

  • खनिज एवं
  • नगरीकरण।

प्रश्न 7.
जनसंख्या वृद्धि किसे कहते हैं?
उत्तर:
किसी निश्चित अवधि के दौरान किसी निश्चित क्षेत्र के निवासियों की संख्या में परिवर्तन को जनसंख्या वृद्धि कहते हैं। .

प्रश्न 8.
जनसंख्या में वृद्धि दर से क्या आशय है?
उत्तर:
जब जनसंख्या में परिवर्तन को प्रतिशत में व्यक्त किया जाता है तो उसे जनसंख्या की वृद्धि दर कहते हैं।

प्रश्न 9.
जनसंख्या की धनात्मक वृद्धि क्या है?
उत्तर:
यदि किसी निश्चित अवधि में, निश्चित क्षेत्र के निवासियों की संख्या में वृद्धि होती है, तो इसे ‘जनसंख्या की धनात्मक वृद्धि’ कहते हैं।

प्रश्न 10.
जनसंख्या की ऋणात्मक वृद्धि क्या है?
उत्तर:
यदि किसी निश्चित अवधि में, निश्चित क्षेत्र के निवासियों की संख्या में कमी होती है, तो इसे ‘जनसंख्या की ऋणात्मक वृद्धि’ कहते हैं।

प्रश्न 11.
जनसंख्या की वृद्धि को किसमें व्यक्त किया जाता है?
उत्तर:
जनसंख्या की वृद्धि को निरपेक्ष आँकड़ों अथवा प्रतिशत मात्रा में व्यक्त किया जाता है।

प्रश्न 12.
जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि जानने के लिए किसका प्रयोग किया जाता है?
उत्तर:
जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि ज्ञात करने के लिए केवल जन्म-दर तथा मृत्यु-दर का प्रयोग किया जाता है।

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प्रश्न 13.
जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि क्या है?
उत्तर:
किसी क्षेत्र विशेष में दो अन्तरालों में जन्म और मृत्यु के अन्तर से बढ़ने वाली जनसंख्या को उस क्षेत्र की प्राकृतिक वृद्धि कहते हैं।

प्रश्न 14.
अशोधित मृत्यु-दर से क्या आशय है?
उत्तर:
अशोधित जन्म-दर को प्रति हजार स्त्रियों द्वारा जन्म दिए गए जीवित बच्चों की संख्या के रूप में व्यक्त किया जाता है।

प्रश्न 15.
अशोधित मृत्यु-दर से क्या आशय है?
उत्तर:
एक वर्ष में प्रति हजार जनसंख्या के अनुपात में मरने वाले व्यक्तियों की संख्या को ‘अशोधित मृत्यु-दर’ कहते हैं।

प्रश्न 16.
प्रवास से क्या आशय है?
उत्तर:
किसी व्यक्ति अथवा जनसमूह के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर बसने को ‘प्रवास’ कहते हैं।

प्रश्न 17.
बाह्य प्रवास से क्या आशय है?
उत्तर:
अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं को पार करने वाला प्रवास ‘बाह्य प्रवास’ कहलाता है।

प्रश्न 18.
परिवार नियोजन का क्या कार्य है?
उत्तर:
परिवार नियोजन का कार्य बच्चों के जन्म को रोकना अथवा उसमें अन्तराल रखना है।

प्रश्न 19.
परिवार नियोजन सुविधाएँ किसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं?
उत्तर:
परिवार नियोजन सुविधाएँ जनसंख्या वृद्धि को सीमित करने और महिलाओं के स्वास्थ्य को बेहतर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

प्रश्न 20.
जनांकिकीय संक्रमण का उपयोग किसमें किया जाता है?
उत्तर:
जनांकिकीय संक्रमण का उपयोग किसी क्षेत्र की जनसंख्या के वर्णन तथा भविष्य की जनसंख्या के पूर्वानुमान के लिए किया जाता है।

बहविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
दो समय बिन्दुओं के बीच हुए जनसंख्या के परिवर्तन को यदि प्रतिशत में व्यक्त करें तो वह कहलाएगा
(a) जनसंख्या की वृद्धि
(b) जनसंख्या की वृद्धि दर
(c) जनसंख्या का विकास
(d) जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि।
उत्तर:
(b) जनसंख्या की वृद्धि दर।

प्रश्न 2.
जनसंख्या परिवर्तन को मापने के लिए निम्नलिखित में से कौन-सा घटक अनिवार्य नहीं है
(a) प्रजननशीलता
(b) मर्त्यता
(c) प्रवास
(d) स्वास्थ्य।
उत्तर:
(घ) स्वास्थ्य।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 2 The World Population: Distribution, Density and Growth

प्रश्न 3.
सर्वाधिक जन्म-दर वाला महाद्वीप है
(a) दक्षिण अमेरिका
(b) एशिया
(c) ऑस्ट्रेलिया
(d) अफ्रीका।
उत्तर:
(d) अफ्रीका।

प्रश्न 4.
जनसंख्या की सबसे कम वृद्धि दर कहाँ पायी जाती है
(a) दक्षिण अमेरिका
(b) अफ्रीका
(c) एशिया
(d) ओसीनिया।
उत्तर:
(d) ओसीनिया।

प्रश्न 5.
विश्व में सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश कौन-सा है
(a) भारत
(b) चीन
(c) ब्रिटेन
(d) कनाडा।
उत्तर:
(b) चीन।

प्रश्न 6.
मानसून एशिया में जनसंख्या की सघनता का कारण है
(a) उपजाऊ मैदान
(b) औद्योगीकरण
(c) नगरीकरण
(d) ये सभी।
उत्तर:
(d) ये सभी।

प्रश्न 7.
विरल जनसंख्या वाला प्रदेश है
(a) उष्ण मरुस्थल
(b) अति ठण्डे क्षेत्र
(c) ठण्डे मरुस्थल
(d) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 8.
जनसंख्या वितरण को प्रभावित करने वाला आर्थिक कारक है
(a) खनिज
(b) परिवहन
(c) नगरीकरण
(d) ये सभी।
उत्तर:
(d) ये सभी।

UP Board Solutions for Class 12 Geography

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 Era of One Party Dominance

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 Era of One Party Dominance (एक दल के प्रभुत्व का दौर)

UP Board Class 12 Civics Chapter 2 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 2 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
सही विकल्प को चुनकर खाली जगह भरें-
(क) 1952 के पहले आम चुनाव में लोकसभा के साथ-साथ …….. के लिए भी चुनाव कराए गए थे। (भारत के राष्ट्रपति पद/राज्य विधानसभा/राज्यसभा/प्रधानमन्त्री)
(ख) ……….. लोकसभा के पहले आम चुनाव में 16 सीटें जीतकर दूसरे स्थान पर रही। (प्रजा सोशलिस्ट पार्टी/भारतीय जनसंघ/भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी/भारतीय जनता पार्टी)
(ग) ……… स्वतन्त्र पार्टी का एक निर्देशक सिद्धान्त था। (कामगार तबके का हित/रियासतों का बचाव/राज्य के नियन्त्रण से
मुक्त अर्थव्यवस्था/संघ के भीतर राज्यों की स्वायत्तता)।
उत्तर:
(क) राज्य विधानसभा,
(ख) भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी,
(ग) राज्य के नियन्त्रण में मुक्त अर्थव्यवस्था।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 Era of One Party Dominance

प्रश्न 2.
यहाँ दो सूचियाँ दी गई हैं। पहले में नेताओं के नाम दर्ज हैं और दूसरे में दलों के। दोनों सूचियों में मेल बैठाएँ
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उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 Era of One Party Dominance 2

प्रश्न 3.
एकल पार्टी के प्रभुत्व के बारे में यहाँ चार कथन, लिखे गए हैं। प्रत्येक के आगे सही या गलत का चिह्न लगाएँ
(क) विकल्प के रूप में किसी मजबूत राजनीतिक दल का अभाव एकल पार्टी-प्रभुत्व का कारण था।
(ख) जनमत की कमजोरी के कारण एक पार्टी का प्रभुत्व कायम हुआ।
(ग) एकल पार्टी प्रभुत्व का सम्बन्ध राष्ट्र के औपनिवेशिक अतीत से है।
(घ) एकल पार्टी-प्रभुत्व से देश में लोकतान्त्रिक आदर्शों के अभाव की झलक मिलती है।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) गलत,
(ग) सही,
(घ) गलत।

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प्रश्न 4.
अगर पहले आम चुनाव के बाद भारतीय जनसंघ अथवा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी होती तो किन मामलों में इस सरकार ने अलग नीति अपनाई होती? इन दोनों दलों द्वारा अपनाई गई नीतियों के बीच तीन अन्तरों का उल्लेख करें।
उत्तर:
यदि पहले आम चुनावों के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी या जनसंघ की सरकार बनती तो विदेश नीति के मामलों में इस प्रकार से अलग नीति अपनायी गयी होती। दोनों दलों द्वारा अपनाई गई नीतियों में तीन प्रमुख अन्तर अग्रलिखित होते
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प्रश्न 5.
कांग्रेस किन अर्थों में एक विचारधारात्मक गठबन्धन थी? कांग्रेस में मौजूद विभिन्न विचारधारात्मक उपस्थितियों का उल्लेख करें।
उत्तर:
भारत जब स्वतन्त्र हुआ तब तक कांग्रेस एक गठबन्धन का आकार ले चुकी थी तथा इसमें सभी प्रकार की विचारधाराओं का समर्थन करने वाले विचारकों व समूहों ने अपने को कांग्रेस के साथ मिला दिया। कांग्रेस को निम्नांकित अर्थों में एक विचारधारात्मक गठबन्धन की संज्ञा दी जा सकती है-

(1) प्रारम्भ में ही अनेक समूहों ने अपनी पहचान को कांग्रेस के साथ समाहित कर लिया। अनेक बार किसी समूह ने अपनी पहचान को कांग्रेस के साथ एकसार नहीं किया तथा अपने-अपने विश्वासों पर विचार करते हुए एक व्यक्ति या समूह के रूप में कांग्रेस के भीतर बने रहे। इस अर्थ में कांग्रेस एक विचारधारात्मक गठबन्धन था।

(2) सन् 1924 में भारतीय साम्यवादी दल की स्थापना हुई। सरकार ने इसे प्रतिबन्धित कर दिया। यह दल सन् 1942 तक कांग्रेस को एक गुट के रूप में रहकर ही काम करता रहा। सन् 1942 में इस गुट को कांग्रेस से अलग करने के लिए सरकार ने इस पर से प्रतिबन्ध हटाया। कांग्रेस ने शान्तिवादी और क्रान्तिकारी, रूढ़िवादी और परिवर्तनकारी, गरमपन्थी और नरमपन्थी, दक्षिणपन्थी और वामपन्थी तथा प्रत्येक धारा के मध्यमार्गियों को समाहित कर लिया गया।

(3) कांग्रेस ने समाजवादी समाज की स्थापना को अपना लक्ष्य बनाया। इसी कारण स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् कई समाजवादी पार्टियाँ बनीं लेकिन विचारधारा के आधार पर वे अपनी स्वतन्त्र पहचान नहीं स्थापित कर सकी तथा कांग्रेस के प्रभुत्व व वर्चस्व को नहीं हिला सकीं। इस प्रकार कांग्रेस एक ऐसा मंच था जिस पर अनेक हित समूह और राजनीतिक दल एकत्रित होकर राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेते थे। आजादी से पहले अनेक संगठन और पार्टियों को कांग्रेस में रहने की अनुमति प्राप्त थी।

(4) कांग्रेस में अनेक ऐसे समूह थे जिनके अपने स्वतन्त्र संविधान थे और संगठनात्मक ढाँचा भी अलग था जैसे कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी। फिर भी उन्हें कांग्रेस के एक गुट में बनाए रखा गया। वर्तमान में विभिन्न दलों के गठबन्धन बनते हैं और सत्ता की प्राप्ति के प्रयत्न करते हैं परन्तु स्वतन्त्रता के समय कांग्रेस ही एक प्रकार से एक विचारधारात्मक गठबन्धन था।
जहाँ तक कांग्रेस में मौजूद विभिन्न विचारधारात्मक उपस्थिति के उल्लेख का सम्बन्ध है इसके लिए निम्नलिखित तथ्य प्रकाश में लाए जा सकते हैं-

(i) कांग्रेस का उदय सन् 1885 में हुआ था। उस समय यह नवशिक्षित, कार्यशील और व्यापारिक वर्गों का मात्र हित-समूह थी परन्तु बीसवीं सदी में इसने जन आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। इसी कारण से कांग्रेस ने एक जनव्यापी राजनीतिक पार्टी का रूप ले लिया और राजनीतिक व्यवस्था में इसका वर्चस्व स्थापित हुआ।

(ii) प्रारम्भ में कांग्रेस में अंग्रेजी संस्कृति में विश्वास रखने वाले उच्च वर्ग के शहरी लोगों का वर्चस्व था। परन्तु कांग्रेस ने जब भी सविनय अवज्ञा जैसे आन्दोलन चलाए उसमें सामाजिक आधार बढ़ा। कांग्रेस ने परस्पर हितों के अनेक समूहों को एक साथ जोड़ा। कांग्रेस में किसान व उद्योगपति, शहर के नागरिक तथा गाँव के निवासी मजदूर और मालिक तथा मध्य, निम्न व उच्च वर्ग आदि सभी को स्थान मिला।

(iii) धीरे-धीरे कांग्रेस का नेतृत्व विस्तृत हुआ तथा यह अब केवल उच्च वर्ग या जाति के पेशेवर लोगों तक ही सीमित नहीं रहा। इसमें कृषि व कृषकों की बात करने वाले तथा गाँव की ओर रुझान रखने वाले नेता भी उभरे। स्वतन्त्रता के समय तक कांग्रेस एक सामाजिक गठबन्धन का रूप धारण कर चुकी थी तथा वर्ग, जाति, धर्म, भाषा व अन्य हितों के आधार पर इस सामाजिक गठबन्धन से भारत की विविधता की झलक प्राप्त होती थी।

प्रश्न 6.
क्या एकल पार्टी-प्रभुत्व की प्रणाली का भारतीय राजनीति के लोकतान्त्रिक चरित्र पर खराब असर हुआ?
उत्तर:
एकल पार्टी प्रभुत्व की प्रणाली का भारतीय राजनीति की लोकतान्त्रिक प्रवृत्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा प्रभुत्व प्राप्त दल विपक्षी पार्टियों की आलोचना की परवाह न करके मनमाने ढंग से शासन चलाने लगता है व लोकतन्त्र को तानाशाही शासन में बदलने की सम्भावना विकसित होती है, परन्तु हमारे देश में ऐसा नहीं हुआ। पहले तीन आम-चुनावों में कांग्रेस के प्रभुत्व के भारतीय राजनीति पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़े तथा इसने भारतीय लोकतन्त्र लोकतान्त्रिक राजनीति व लोकतान्त्रिक संस्थाओं को सुदृढ़ बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। इस प्रकार एकल पार्टी-प्रभुत्व प्रणाली के अच्छे परिणामों की पुष्टि निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर होती है-

  1. कांग्रेस राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान किए गए वायदों को पूर्ण करने में सफल रही। जनमानस में कांग्रेस एक विश्वसनीय दल था, जनमानस की आशाएँ उसी से जुड़ी थीं, अतः मतदाताओं ने उसे ही चुना।
  2. तत्कालीन भारत में लोकतन्त्र और संसदीय शासन-प्रणाली अपनी शैशवावस्था में थी। यदि उस समय कांग्रेस का प्रभुत्व न होता और सत्ता के लिए प्रतिस्पर्धा होती तो जनसाधारण का विश्वास लोकतन्त्र और संसदीय शासन-प्रणाली में उठ जाता।
  3. तत्कालीन मतदाता राजनीतिक विचारधाराओं के सम्बन्ध में पूर्ण शिक्षित नहीं था, उसका मात्र 15% भाग ही शिक्षित था। मतदाताओं को कांग्रेस में ही आस्था थी। अतः जनता का मानना था कि कांग्रेस से ही जनकल्याण की आशा की जा सकती है।
  4. प्रभुत्व की स्थिति प्राप्त होने के कारण विपक्षी दलों द्वारा सरकार की आलोचना होने पर भी सरकार अपना कार्य करती रही। इसने भारतीय लोकतन्त्र, संसदीय शासन-प्रणाली व भारतीय राजनीति की लोकतान्त्रिक प्रकृति को सुदृढ़ करने में योगदान दिया।

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प्रश्न 7.
समाजवादी दलों और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच के तीन अन्तर बताएँ। इसी तरह भारतीय जनसंघ और स्वतन्त्र पार्टी के बीच के तीन अन्तरों का उल्लेख करें।
उत्तर:
समाजवादी दल और कम्युनिस्ट पार्टी में अन्तर
समाजवादी दल की जड़ों को स्वतन्त्रता से पहले के उस समय में ढूँढा जा सकता है जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जन-आन्दोलन चला रही थी। वहीं दूसरी ओर 1920 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में भारत के विभिन्न भागों में कम्युनिस्ट ग्रुप (साम्यवादी समूह) उभरे। इन दोनों पार्टियों के बीच निम्नलिखित अन्तर हैं-
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भारतीय जनसंघ और स्वतन्त्र पार्टी में अन्तर

भारतीय जनसंघ का गठन सन् 1951 में हुआ था। श्यामाप्रसाद मुखर्जी इसके संस्थापक अध्यक्ष थे। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में जमीन की हदबन्दी, खाद्यान्न के व्यापार, सरकारी अधिग्रहण और सहकारी खेती का प्रस्ताव पारित हुआ था। इसके बाद अगस्त 1959 में स्वतन्त्र पार्टी अस्तित्व में आई। इन दोनों : पार्टियों में प्रमुख अन्तर अग्रलिखित हैं-
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प्रश्न 8.
भारत और मैक्सिको दोनों ही देशों में एक खास समय तक एक पार्टी का प्रभुत्व रहा।बताएँ कि मैक्सिको में स्थापित एक पार्टी का प्रभत्व कैसे भारत की एक पार्टी के प्रभत्व से अलग था।
उत्तर:
इंस्टीट्यूशनल रिवोल्यूशनरी पार्टी जिसे स्पेनिश में पी० आर० आई० कहा जाता है का मैक्सिको में लगभग 60 वर्षों तक शासन रहा। इस पार्टी की स्थापना सन् 1929 में हुई थी तब इसे ‘रिवोल्यूशनरी पार्टी’ कहा जाता था। मूलत: पी० आर० आई० राजनेता व सैनिक नेता, मजदूर तथा किसान संगठन व अनेक राजनीतिक दलों सहित विभिन्न किस्म के हितों का संगठन था। समय बीतने के साथ-साथ पी० आर० आई० के संस्थापक प्लूटार्क इलियास कैलस ने इसके संगठन पर कब्जा कर लिया व इसके पश्चात् नियमित रूप से होने वाले चुनावों में प्रत्येक बार पी० आर० आई० ही विजय प्राप्त करती रही। शेष पार्टियाँ नाममात्र की थी जिससे कि शासक दल को वैधता प्राप्त होती रहे। चुनाव के नियम भी इस प्रकार तय किए गए कि पी० आर० आई० की जीत हर बार निश्चित हो सके। शासक दल ने अक्सर चुनावों में हेर-फेर और धाँधली की। पी० आर० आई० के शासन को ‘परिपूर्ण तानाशाही’ कहा जाता है। अन्ततः सन् 2000 में हुए राष्ट्रपति पद के चुनाव में इस पार्टी को पराजय का मुँह देखना पड़ा। मैक्सिको अब एक पार्टी के प्रभुत्व वाला देश नहीं रहा फिर भी अपने प्रभुत्व के काल में पी० आर० आई० ने जो तरीके अपनाए थे उनका लोकतन्त्र की सेहत पर बहुत प्रभाव पड़ा। मुक्त और निष्पक्ष चुनाव की बात पर अब भी वहाँ के नागरिकों का पूर्ण विश्वास नहीं जम पाया है।

भारत में स्वतन्त्रता संघर्ष से लेकर लगभग सन् 1967 तक देश की राजनीति पर एक ही पार्टी (कांग्रेस) का प्रभुत्व रहा। यहाँ हम मैक्सिको की तुलना भारत में कांग्रेस के प्रभुत्व से करते हैं तो दोनों में अनेक प्रकार के अन्तर मिलते हैं जिनमें से निम्नलिखित प्रमुख हैं-

(1) भारत और मैक्सिको में एकल पार्टी का प्रभुत्व सम्बन्धी अन्तर यह है कि भारत में कांग्रेस का प्रभुत्व एक साथ नहीं रहा, जबकि मैक्सिको में पी० आर० आई० का शासन निरन्तर 60 वर्षों तक चला।

(2) भारत और मैक्सिको में एक पार्टी के प्रभुत्व के मध्य एक बड़ा अन्तर यह है कि मैक्सिको में एक पार्टी का प्रभुत्व लोकतन्त्र की कीमत पर कायम हुआ, जबकि भारत में ऐसा कभी नहीं हुआ। भारत में कांग्रेस पार्टी के साथ-साथ प्रारम्भ से ही अनेक पार्टियाँ चुनाव में राष्ट्रीय स्तर व क्षेत्रीय स्तर के रूप में भाग लेती रहीं जबकि मैक्सिको में ऐसा नहीं हुआ।

(3) भारत में प्रजातान्त्रिक संस्कृति व प्रजातान्त्रिक प्रणाली के अन्तर्गत कांग्रेस का प्रभुत्व रहा जबकि मैक्सिको में शासक दल की तानाशाही के कारण इसका प्रभुत्व रहा।

इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन के द्वारा स्पष्ट होता है कि भारत और मैक्सिको दोनों ही देशों में लम्बे समय तक एक ही पार्टी का प्रभुत्व रहा। परन्तु कुछ दृष्टियों में दोनों के प्रभुत्व में अन्तर था।

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प्रश्न 9.
भारत का एक राजनीतिक नक्शा लीजिए (जिसमें राज्यों की सीमाएँ दिखाई गई हों) और उसमें निम्नलिखित को चिह्नित कीजिए
(क) ऐसे दो राज्य जहाँ सन् 1952-67 के दौरान कांग्रेस सत्ता में नहीं थी।
(ख)दो ऐसे राज्य जहाँ इस पूरी अवधि में कांग्रेस सत्ता में रही।
उत्तर:
(क) (i) जम्मू और कश्मीर,
(ii) केरल।

(ख) (i) महाराष्ट्र,
(ii) मध्य प्रदेश।
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प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़कर इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
कांग्रेस के संगठनकर्ता पटेल कांग्रेस को दूसरे राजनीतिक समूह में निसंग रखकर उसे एक सर्वांगसम तथा अनुशासित पार्टी बनाना चाहते थे। वे चाहते थे कि कांग्रेस सबको समेटकर चलने वाला स्वभाव छोड़े और अनुशासित कॉडर से युक्त एक सगुंफित पार्टी के रूप में उभरे। ‘यथार्थवादी’ होने के कारण पटेल व्यापकता की जगह अनुशासन को ज्यादा तरजीह देते थे। अगर “आन्दोलन को चलाते चले जाने” के बारे में गांधी के ख्याल हद से ज्यादा रोमानी थे तो कांग्रेस को किसी एक विचारधारा पर चलने वाली अनुशासित तथा धुरन्धर राजनीतिक पार्टी के रूप में बदलने की पटेल की धारणा भी उसी तरह कांग्रेस की उस समन्वयवादी भूमिका को पकड़ पाने में चूक गई जिसे कांग्रेस को आने वाले दशकों में निभाना था। – रजनी कोठारी
(क) लेखकक्यों सोच रहा है कि कांग्रेस को एक सर्वांगसमतथाअनुशासित पार्टी नहीं होना चाहिए?
(ख) शुरुआती सालों में कांग्रेस द्वारा निभाई गई समन्वयवादी भूमिका के कुछ उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
(क) लेखक का यह विचार है कि कांग्रेस को एक सर्वांगसम तथा अनुशासित पार्टी नहीं होना चाहिए क्योंकि एक अनुशासित पार्टी में किसी विवादित विषय पर स्वस्थ विचार-विमर्श सम्भव नहीं हो पाता, जो कि देश एवं लोकतन्त्र के लिए अच्छा होता है। लेखक का यह विचार है कि कांग्रेस पार्टी में सभी धर्मों, जातियों, भाषाओं एवं विचारधाराओं के नेता शामिल हैं, उन्हें अपनी बात कहने का पूरा हक है तभी देश का वास्तविक लोकतन्त्र उभरकर सामने आएगा इसलिए लेखक कहता है कि कांग्रेस पार्टी को सर्वांगसम एवं अनुशासित पार्टी नहीं होना चाहिए।

(ख) कांग्रेस ने अपनी स्थापना के प्रारम्भिक वर्षों में कई विषयों में समन्वयकारी भूमिका निभाई। इसने देश के नागरिकों एवं ब्रिटिश सरकार के मध्य एक कड़ी का कार्य किया। कांग्रेस ने अपने अन्दर क्रान्तिकारी और शान्तिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल, गरमपन्थी और नरमपन्थी, दक्षिणपन्थी, वामपन्थी और हर धारा के मध्यवर्गियों को समाहित किया। कांग्रेस एक मंच की तरह थी, जिस पर अनेक समूह हित और राजनीतिक दल तक आ जुटते थे और राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेते थे। इसी प्रकार कांग्रेस समाज के प्रत्येक वर्ग-कृषक, मजदूर, व्यापारी, वकील, उद्योगपति, सभी को साथ लेकर चली। इसे सिक्ख, मुस्लिम जैसे अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जाति एवं जनजातियों, ब्राह्मण, राजपूत व पिछड़ा वर्ग सभी का समर्थन प्राप्त हुआ।

UP Board Class 12 Civics Chapter 2 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 2 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
हमारे लोकतन्त्र में ही ऐसी कौन-सी खूबी है? आखिर देर-सबेर हर देश ने लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपना ही लिया है। है न?
उत्तर:
भारत में राष्ट्रवाद की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए दुनिया के अन्य राष्ट्रों (को उपनिवेशवाद के चंगुल से आजाद हुए) ने भी देर-सबेर लोकतान्त्रिक ढाँचे को अपनाया। लेकिन भारत की चुनौतियों से सबक सीखते हुए उन्होंने राष्ट्रीय एकता की स्थापना को प्रथम प्राथमिकता दी और इसके बाद धीरे-धीरे लोकतन्त्र की स्थापना करने का निर्णय लिया। हमारे लोकतन्त्र की खूबी यह थी कि हमारे स्वतन्त्रता संग्राम की गहरी प्रतिद्वन्द्विता लोकतन्त्र के साथ थी। हमारे नेता लोकतन्त्र में राजनीति की निर्णायक भूमिका को लेकर सचेत थे। वे राजनीति को समस्या के रूप में नहीं देखते थे, वे राजनीति को समस्या के समाधान का उपाय मानते थे। भारतीय नेताओं ने विभिन्न समूहों के हितों के मध्य टकराहट को दूर करने का एकमात्र उपाय लोकतान्त्रिक राजनीति को माना। इसीलिए हमारे नेताओं ने इसी रास्ते को चुना।

प्रश्न 2.
क्या आप उन जगहों को पहचान सकते हैं जहाँ कांग्रेस बहुत मजबूत थी? किन प्रान्तों में दूसरी पार्टियों को ज्यादातर सीटें मिलीं? उत्तर:
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नोट-यह नक्शा किसी पैमाने के हिसाब से बनाया गया भारत का मानचित्र नहीं है। इसमें दिखाई गई भारत की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा रेखा को प्रामाणिक सीमा रेखा न माना जाए।

  1. 1952 से 1967 के दौरान कांग्रेस शासित राज्य थे-पंजाब, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम, मणिपुर, उड़ीसा, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, मैसूर, पाण्डिचेरी, मद्रास आदि।
  2. जिन राज्यों में अन्य दलों को सीटें प्राप्त हुईं वे थे-केरल में केरल-डेमोक्रेटिक सेफ्ट फ्रंट (1957-1959) तथा जम्मू और कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी।

प्रश्न 3.
पहले हमने एक ही पार्टी के भीतर गठबन्धन देखा और अब पार्टियों के बीच गठबन्धन होता देख रहे हैं। क्या इसका मतलब यह हुआ कि गठबन्धन सरकार 1952 से ही चल रही है?
उत्तर:
भारत में ‘पार्टी में गठबन्धन’ और ‘पार्टियों का गठबन्धन’ का सिलसिला 1952 से ही चला आ रहा है लेकिन इस गठबन्धन के स्वरूप एवं प्रकृति में व्यापक अन्तर है।

आजादी के समय एक पार्टी अर्थात् कांग्रेस के अन्दर गठबन्धन था। इस पार्टी में प्रारम्भ में नवशिक्षित, कामकाजी और व्यापारियों का बोलबाला रहा। इसके पश्चात् उद्योगपति, किसान, मजदूरों, निम्न और उच्च वर्ग के लोगों को जगह मिली। कांग्रेस ने अपने अन्दर क्रान्तिकारी और शान्तिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल, गरमपन्थी और नरमपन्थी, दक्षिणपन्थी, वामपन्थी और हर प्रकार की विचारधाराओं के लोगों को समाहित किया। कांग्रेस एक मंच की तरह थी, जिस पर अनेक समूह हित और राजनीतिक दल आ जुटते थे और राजनीतिक कार्यों में भाग लेते थे। कांग्रेस पार्टी ने इन विभिन्न वर्गों, समुदायों एवं विचारधारा के लोगों में आम सहमति बनाए रखी।

लेकिन सन् 1967 के बाद अनेक राजनीतिक दलों का विकास हुआ और गठबन्धन की राजनीति शुरू हुई जिसमें विभिन्न राजनीतिक दलों के समर्थन के आधार पर सरकारों का गठन किया जाने लगा। लेकिन यह गठबन्धन निजी स्वार्थों व शर्तों पर आधारित होते हैं जिनमें परस्पर आम सहमति कायम रखना बहुत ही कठिन कार्य है। यही कारण है कि वर्तमान बहुदलीय व्यवस्था में राजनीतिक स्थायित्व का अभाव पाया जाता है।

UP Board Class 12 Civics Chapter 2 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 2 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
प्रथम तीन आम चुनावों के सन्दर्भ में एक दल की प्रधानता का वर्णन कीजिए तथा इस प्रधानता के कारकों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारत में सर्वप्रथम सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। अपने प्रारम्भिक रूप में यह नवशिक्षित, कामकाजी और व्यापारिक वर्गों का हित समूह भर थी, लेकिन 20वीं सदी में इसने जन-आन्दोलन का रूप धारण कर लिया और इसने एक जनव्यापी राजनीतिक पार्टी का रूप ले लिया। स्वतन्त्रता के बाद भारत के राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस का वर्चस्व लगातार तीन दशकों तक कायम रहा।

भारत में एक दल की प्रधानता के कारण

भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् चुनावों में एक दल के प्रभुत्व के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

1. कांग्रेस पार्टी को सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व प्राप्त था-कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि इसमें देश के सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व प्राप्त था। कांग्रेस पार्टी उदारवादी, गरमपन्थी, दक्षिणपन्थी, साम्यवादी तथा मध्यमार्गी नेताओं का एक महान मंच था जिसके कारण लोग इसी पार्टी को मत दिया करते थे।

2. अधिकांश राजनीतिक दलों का निर्माण कांग्रेस पार्टी से ही हुआ-स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रारम्भिक वर्षों में जितने भी विरोधी राजनीतिक दल थे उनमें से अधिकांश राजनीतिक दल कांग्रेस से ही निकले; जैसे-सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा समाजवादी पार्टी, संयुक्त समाजवादी पार्टी, जनसंघ, राम राज्य परिषद् तथा हिन्दू महासभा आदि।

3. कांग्रेस का चामत्कारिक नेतृत्व-कांग्रेस में पं० जवाहरलाल नेहरू थे जो भारतीय राजनीति के सबसे करिश्माई और लोकप्रिय नेता थे। नेहरू ने कांग्रेस पार्टी के चुनाव अभियान की अगुवाई की तथा पूरे देश का दौरा किया। वह किसी भी प्रतिद्वन्द्वी से चुनावी दौड़ में बहुत आगे रहे। फलत: कांग्रेस को तीनों प्रथम आम चुनावों में अभूतपूर्व सफलता मिली।

4. राष्ट्रीय आन्दोलन की विरासत-राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के चामत्कारिक नेतृत्व में भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। राष्ट्रीय आन्दोलन का केन्द्र भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस रही। इसलिए कांग्रेस पार्टी को स्वतन्त्रता संग्राम की विरासत प्राप्त थी। तब के दिनों में यही एकमात्र पार्टी थी जिसका संगठन सम्पूर्ण भारत में था। इसका लाभ चुनावों में कांग्रेस पार्टी को मिला।

5. गुटों में तालमेल और सहनशीलता–कांग्रेस के गठबन्धनी स्वभाव ने असें तक इसे असाधारण ताकत दी। गठबन्धन के कारण कांग्रेस सर्व-समावेशी स्वभाव और सुलह समझौते के द्वारा गुटों के सन्तुलन कायम करती रही। अपने गठबन्धनी स्वभाव के कारण कांग्रेस विभिन्न गुटों के प्रति सहनशील थी और इस स्वभाव से विभिन्न गुटों को बढ़ावा भी मिला। इसलिए विभिन्न हित और विचारधाराओं की नुमाइंदगी कर रहे नेता कांग्रेस के भीतर ही बने रहे। इस तरह कांग्रेस एक भारी-भरकम मध्यमार्गी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आती थी। दूसरी पार्टियाँ कांग्रेस के इस या उस गुट को प्रभावित करने की कोशिश करती थीं। इस तरह वे हाशिये पर ही रहकर नीतियों और फैसलों को अप्रत्यक्ष रीति से प्रभावित कर पाती थीं। अत: वे कांग्रेस का कोई विकल्प प्रस्तुत नहीं कर पाती थीं। फलतः कांग्रेस को प्रथम तीन चुनावों तक अभूतपूर्व सफलता मिलती रही।

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प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत के लोकतान्त्रिक प्रणाली अपनाने के प्रतिकूल कौन-कौन सी चुनौतियाँ थीं? विस्तारपूर्वक उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
स्वतन्त्र भारत का जन्म अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में हुआ। देश के सामने प्रारम्भ से ही राष्ट्र-निर्माण की चुनौती थी। ऐसी अनेक चुनौतियों की चपेट में आकर कई अन्य देशों के नेताओं ने फैसला किया कि उनके देश में अभी लोकतन्त्र को ही नहीं अपनाया जा सकता है। इन नेताओं ने कहा कि राष्ट्रीय एकता हमारी पहली प्राथमिकता है और लोकतन्त्र को अपनाने से मतभेद और संघर्ष को बढ़ावा मिलेगा। उपनिवेशवाद के चंगुल से आजाद हुए कई देशों में इसी कारण अलोकतान्त्रिक शासन-व्यवस्था कायम हुई। इस अलोकतान्त्रिक शासनव्यवस्था के कई रूप थे। अलोकतान्त्रिक शासन व्यवस्थाओं की शुरुआत इस वायदे से हुई कि शीघ्र ही लोकतन्त्र कायम कर दिया जाएगा।

भारत में भी परिस्थितियाँ बहुत अलग नहीं थीं, परन्तु स्वतन्त्र भारत के नेताओं ने अपने लिए कहीं अधिक कठिन रास्ता चुनने का फैसला लिया। नेताओं ने कोई और रास्ता चुना होता तो वह अचम्भित करने वाली बात होती क्योंकि हमारे स्वतन्त्रता-संग्राम की गहरी प्रतिबद्धता लोकतन्त्र से थी। हमारे नेताओं ने राजनीति को समस्या के रूप में नहीं देखा तथा वे लोकतन्त्र में राजनीति की निर्णायक भूमिका को लेकर सचेत थे। वे राजनीति को समस्या के समाधान का उपाय मानते थे। किसी भी समाज में कई समूह होते हैं, इनकी आकांक्षाएँ अक्सर अलग-अलग एक-दूसरे के विपरीत होती हैं। हर समाज के लिए यह फैसला करना आवश्यक होता है कि उसका शासन कैसे चलेगा और वह किन कायदे-कानूनों पर अमल करेगा। सत्ता और प्रतिस्पर्धा राजनीति की दो सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण चीजें हैं। परन्तु राजनीतिक गतिविधि का उद्देश्य जनहित का फैसला करना और उस पर अमल करना होता है। अतः हमारे नेताओं ने लोकतान्त्रिक राजनीति के रास्ते को चुनने का फैसला किया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय निम्नलिखित परिस्थितियाँ थीं जो लोकतन्त्र की सफलता में बाधक या चुनौती थीं-

1. निरक्षरता-लोकतन्त्र की सफलता शिक्षित समाज पर ही निर्भर करती है। स्वतन्त्रता के समय, सन् 1951 की जनगणना के अनुसार भारत में साक्षरता की दर 18 प्रतिशत थी तथा इसमें भी महिला साक्षरता का 8-9 प्रतिशत था। इतनी संख्या में अशिक्षित जनता को मत देने का अधिकार बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कहा जा सकता क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति अपने मत का दुरुपयोग भी कर सकते हैं, उनका वोट खरीदा भी जा सकता है। अशिक्षित व्यक्ति राजनीतिक विचारधाराओं व शासन की वास्तविकताओं को भली-भाँति समझ नहीं पाता तथा राजनीतिक दलों के झांसे में आ जाता है। इस तरह निरक्षरता एक बड़ी चुनौती थी।

2. निर्धनता—ब्रिटिश शासन काल के दौरान अंग्रेजों द्वारा देश का अत्यधिक शोषण किया गया था। स्वतन्त्रता के समय देश की अर्थव्यवस्था अत्यन्त दयनीय थी। इस प्रकार की स्थिति में गरीब मतदाताओं के प्रभावित होने की गुंजाइश थी। इनके वोट को खरीदा भी जा सकता था।

3. जातिवाद-भारत के सम्पूर्ण राज्यों की राजनीति जातिवाद के कुप्रभाव से प्रभावित थी। जातिवाद लोगों की आँखों पर पट्टी बाँध देता है तथा उन्हें योग्य व चरित्रवान व्यक्ति दिखाई नहीं देता। केवल अपनी जाति का ही उम्मीदवार दिखाई देता है चाहे वह कैसा भी क्यों न हो। जातिवाद के आधार पर ही राजनीतिक दल टिकट देते हैं तथा मतदाता भी इसी आधार पर मतदान करते हैं। जातिवाद के कारण कभी-कभी हिंसक घटनाएँ भी हो जाती हैं।

4. क्षेत्रवाद-क्षेत्रवाद की भावना संकीर्ण विचारों व मानसिकता पर आधारित होती है। क्षेत्रीय आधार पर नई-नई क्षेत्रीय पार्टियों का निर्माण किया जाता है। ये पार्टियाँ क्षेत्रवाद को बढ़ावा देती हैं। वर्तमान में गठबन्धन की राजनीति ने इन क्षेत्रीय दलों के महत्त्व में अप्रतिम वृद्धि की है।

5. साम्प्रदायिकता-साम्प्रदायिकता धार्मिक आधार पर एक संकीर्ण विचारधारा है तथा लोकतन्त्र के लिए बहुत बड़ा खतरा है। हमारे देश में अनेक दलों जैसे हिन्दू सभा, मुस्लिम लीग, अकाली दल, शिव सेना, विश्व हिन्दू परिषद् आदि का निर्माण साम्प्रदायिक आधार पर किया गया। तमिलनाडु के डी० एम० के० तथा ए० आई० ए० डी० एम० के० गैर-ब्राह्मण लोगों की पार्टियाँ हैं। राजनीतिक दल साम्प्रदायिक आधार पर मतदाताओं को प्रभावित करते हैं जो कि लोकतन्त्र की सफलता में बाधक है।

6. स्त्री-पुरुष असमानता-लोकतन्त्र सभी नागरिकों के लिए समानता के सिद्धान्त पर आधारित है परन्तु भारतीय समाज में स्त्रियों को पुरुषों के समान नहीं समझा जाता था तथा उन्हें अपनी इच्छाएँ बताने की भी स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं थी। अतः वे राजनीति में कम भाग लेती थीं तथा परिवार के पुरुषों की इच्छाओं के अनुरूप ही मतदान करती थीं।

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता पूर्व से सन् 1967 तक मिली-जुली सरकारों के उदाहरण प्रस्तुत कीजिए तथा बताइए कि भारतीय राज्यों में मिली-जुली सरकारों की राजनीति सन् 1967 के पश्चात् क्यों प्रारम्भ हुई।
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व मिली-जुली सरकार भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में मिली-जुली सरकार के गठन का इतिहास स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व से प्रारम्भ होता है। स्वतन्त्र भारत में नियमों व विधानों के निर्माण हेतु तथा नवीन संविधान की रचना हेतु कैबिनेट मिशन के द्वारा एक अन्तरिम सरकार का गठन किया गया था।

इस सरकार में भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों, कांग्रेस, मुस्लिम लीग, अकाली दल आदि को शामिल किया गया था। इस अन्तरिम सरकार के सभी दलों को मिलाकर कुल 14 प्रतिनिधि शामिल किए गए जिसमें कांग्रेस के 6, मुस्लिम लीग के 5, अकाली दल का 1, एंग्लो इण्डियन समुदाय का 1 तथा पारसी समुदाय का 1 प्रतिनिधि था। अन्तरिम सरकार का अध्यक्ष गवर्नर जनरल को बनाया गया। भारतीय प्रशासन के सभी विभाग अन्तरिम सरकार को सौंपे गए। इस अन्तरिम सरकार के प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू थे। इस अन्तरिम सरकार ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद तब तक यह कार्य किया जब तक कि संविधान लागू नहीं हुआ।

1952 से 1967 तक मिली-जुली सरकार भारत के प्रथम आम-चुनाव 1952 में हुए। इन चुनावों में चुनाव आयोग ने 14 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दल के रूप में मान्यता प्रदान की। इन चुनावों में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ, क्योंकि उस समय राजनीतिक दल कांग्रेस के समान व्यापक स्तर के नहीं थे फिर भी पं० जवाहरलाल नेहरू ने डॉ० बी० आर० अम्बेडकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, गोपाला स्वामी आयंगर जैसे गैर-कांग्रेसी सदस्यों को भी अपने मन्त्रिमण्डल में शामिल किया। भारतीय राज्यों में मिली-जुली सरकारों की राजनीति सन् 1967 के बाद प्रारम्भ हुई। इसके उदय के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

1. एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न होना-चौथे आम-चुनावों के समय उत्तर प्रदेश, उड़ीसा (वर्तमान ओडिशा), मध्य प्रदेश, प० बंगाल, केरल व गुजरात में किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो सका। इसलिए अनेक दलों ने परस्पर सहयोग कर सरकारों का गठन किया।

2. कांग्रेस के एकाधिकार को समाप्त करना-विभिन्न दलों का उद्देश्य कांग्रेस की आलोचना करके कांग्रेस के एकाधिकार को समाप्त करना था। इनका उद्देश्य सत्ता प्राप्ति भी था। इसमें क्षेत्रीय दलों को भी सफलता प्राप्त हुई और राज्यों में मिली-जुली सरकारों का उदय भी हुआ।

3. दल-बदल की राजनीति-राज्य में मिली-जुली सरकारों के उदय का प्रमुख कारण दल-बदल की राजनीति भी रहा है। सन् 1952 से 1956 के मध्य भी 542 बार दल-बदल हुआ। यह दल-बदल कांग्रेस के पक्ष में रहा। परन्तु 1967 के आम चुनावों में एक वर्ष के अन्दर ही 438 बार सदस्यों ने दल-बदल किया। दल-बदल ने केन्द्र एवं राज्यों की राजनीति एवं शासन में अस्थिरता ला दी व इसके कारण भारतीय राजनीति के शब्दकोश में ‘आयाराम-गयाराम’ जैसा शब्द जुड़ गया।

4. केन्द्र व राज्य के मध्य मतभेद की भावना-राज्यों में मिली-जुली सरकारों के उदय का एक कारण केन्द्र व राज्य के सम्बन्धों में कटुता की भावना का उदय होना भी रहा। यदि कोई भी राज्य सरकार केन्द्र सरकार द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन नहीं करती थी, तो वहाँ जनता द्वारा निर्वाचित सरकार को भंग करके राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता था। केन्द्र व राज्य के मध्य मतभेद उत्पन्न होने के कुछ अन्य कारण भी थे; जैसे-राज्य के राज्यपालों की नियुक्ति, आर्थिक सहायता आदि।

5. सत्ता-प्राप्ति का लालच-सत्ता प्राप्ति के लोभ ने मिली-जुली सरकारों के उदय में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। प्रायः उन नेताओं ने मिली-जुली सरकारों के गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिन्हें कांग्रेस के शासन-काल में सत्ता सुख प्राप्त नहीं हुआ था। इसी कारण अनेक दलों ने मिलकर मिली-जुली सरकारों का गठन किया ताकि सत्ता सुख प्राप्त हो सके।

इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि सन् 1967 के बाद राज्यों में मिली-जुली सरकारों की स्थापना हुई।

प्रश्न 4.
भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा एवं कार्यक्रमों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारतीय जनता पार्टी-5 अप्रैल, 1980 को भूतपूर्व जनसंघ के सदस्यों का नई दिल्ली में दो दिन का सम्मेलन हुआ और एक नई पार्टी बनाने का निश्चय किया जिसमें 6 अप्रैल, 1980 को तत्कालीन विदेशमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में भारतीय जनता पार्टी के नाम से एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल का गठन किया गया। भारतीय जनता पार्टी के घोषणा-पत्र में अनेक कार्यक्रमों को स्वीकृति प्रदान की गई।

भारतीय जनता पार्टी की नीतियाँ एवं कार्यक्रम

भारतीय जनता पार्टी के चुनावी घोषणा-पत्र में विभिन्न मुद्दों को दृष्टिगत रखते हुए निम्नलिखित नीतियाँ एवं कार्यक्रम निर्धारित किए गए-

(क) राजनीतिक कार्यक्रम-भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख राजनीतिक कार्यक्रम निम्नलिखित हैं-

  1. सत्ता की पुनः स्थापना करना-घोषणा-पत्र में कहा गया है कि पार्टी का सबसे पहला काम राज्य की सत्ता को पुनः स्थापित करना।
  2. राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता-चुनाव घोषणा-पत्र में कहा गया है कि भारतीय जनता पार्टी देश की एकता और अखण्डता की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है।
  3. संवैधानिक सुधार–पार्टी पिछले कुछ वर्षों के अनुभवों के आधार पर कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर संविधान की समीक्षा करने के पक्ष में है।
  4. सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता—भारतीय जनता पार्टी सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता में विश्वास रखती है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्महीन राज्य नहीं है। पार्टी सभी धर्मों को समान मानने में विश्वास रखती है।
  5. पंचायती राज को सुदृढ़ करना-भाजपा पंचायती राज को सुदृढ़ करने के लिए 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन में परिवर्तन करेगी। पंचायती राज को आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ करने का प्रयास करेगी।
  6. प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार–पार्टी जनता का हित चिन्तक, निष्पक्ष और जवाबदेह बनने के लिए तथा नागरिकों को उत्तम सेवाएँ उपलब्ध कराने के लिए प्रशासनिक सुधार करेगी।

(ख) आर्थिक कार्यक्रम एवं नीतियाँ-भाजपा के आर्थिक कार्यक्रम एवं नीतियाँ इस प्रकार हैं-

  1. देश में भुखमरी की समस्या का समाधान करने पर बल।
  2. सार्वजनिक क्षेत्र का व्यावसायिक आधार पर प्रबन्धन करने पर बल।
  3. विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के बारे में राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए नीतियों का निर्धारण करना।
  4. भाजपा देश में कृषिगत क्षेत्र के विस्तार तथा किसानों की स्थिति में सुधार एवं उनके कृषिगत उत्पादों के उचित मूल्य दिलवाने हेतु कटिबद्ध है।
  5. भाजपा चुनावी घोषणा-पत्र में उद्योगों के चहुंमुखी विकास के बारे में विशेष कार्यक्रमों की व्यवस्था
    की गई है।
  6. पार्टी ने नागरिकों को काम के मौलिक अधिकार को स्वीकार करते हुए कहा है कि उसकी सभी नीतियाँ रोजगारोन्मुखी होंगी।
  7. पार्टी ग्रामीण व नगरीय विकास हेतु कटिबद्ध है।

(ग) सामाजिक कार्यक्रम-सामाजिक कार्यक्रम के अन्तर्गत पार्टी-

  1. अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजातियों के कल्याण हेतु वचनबद्ध है,
  2. यह महिलाओं के सशक्तीकरण हेतु कार्यक्रमों व योजनाओं के निर्माण पर बल देती है, यह 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए नि:शुल्क शिक्षा, महिला शिक्षा व ग्रामीण क्षेत्रों में । शिक्षा की उचित व्यवस्था करने के पक्ष में है।
  3. राष्ट्रीय सुरक्षा-पार्टी राष्ट्रीय सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाने में बड़ी जिम्मेदारी से काम करेगी। पार्टी सामाजिक दृष्टि से संवेदनशील सीमावर्ती राज्यों; जैसे-जम्मू-कश्मीर, पंजाब, पूर्वोत्तर प्रदेश तथा असोम की सामाजिक एवं राजनीतिक गड़बड़ियों को दूर करने की कोशिश करेगी।

(ङ) विदेश नीति–पार्टी स्वतन्त्र विदेशी नीति की पक्षधर है तथा विश्व शान्ति, नि:शस्त्रीकरण, गुटनिरपेक्षता को मजबूत करने और पड़ोसी देशों के साथ शान्ति एवं मित्रता की नीति अपनाने, SAARC व आसियान जैसे क्षेत्रीय समूहीकरण को बढ़ावा देने के लिए वचनबद्ध है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
प्रथम आम चुनाव में कांग्रेसको भारी सफलता प्राप्त होने के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
प्रथम आम चुनाव में कांग्रेस को भारी सफलता प्राप्त होने के प्रमुख कारण निम्नांकित हैं-

  1. कांग्रेस दल ने प्रथम आम चुनाव में लोकसभा की कुल 489 सीटों में से 364 सीटें जीतीं और इस प्रकार वह किसी भी प्रतिद्वन्द्वी से चुनावी दौड़ में आगे निकल गई।
  2. लोकसभा के चुनाव के साथ-साथ विधानसभा के चुनाव भी कराए गए थे। विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को बड़ी जीत प्राप्त हुई।
  3. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रचलित नाम कांग्रेस पार्टी था और इस पार्टी को स्वाधीनता संग्राम की विरासत प्राप्त थी। उस समय एकमात्र यही पार्टी थी, जिसका संगठन सम्पूर्ण देश में था।
  4. कांग्रेस पार्टी के लिए स्वयं जवाहरलाल नेहरू, जो भारतीय राजनीति के सबसे लोकप्रिय नेता थे, ने चुनाव अभियान की अगुवाई की और पूरे देश का दौरा किया। जब चुनावी परिणामों की घोषणा हुई तो कांग्रेस पार्टी की भारी-भरकम जीत से बहुतों को आश्चर्य हुआ।

प्रश्न 2.
एक प्रभुत्व वाली दल प्रणाली के लाभ व दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
एक प्रभुत्व वाली दल प्रणाली के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं-

  • सत्ताधारी दल की स्थिति सुदृढ़ होती है तथा वह स्वतन्त्र रूप से शासन का संचालन कर सकता है।
  • शासन प्रणाली में स्थायित्व रहता है, राष्ट्रीय नीतियों में अधिक परिवर्तन नहीं होता तथा उनमें निरन्तरता बनी रहती है।
  • यह प्रणाली आपातकाल का मुकाबला आसानी से कर सकती है।

एक प्रभुत्व वाली दल प्रणाली के कुछ मुख्य दोष (हानियाँ) निम्नलिखित हैं-

  • एक दलीय व्यवस्था लोकतन्त्र की सफलता और विकास हेतु उचित नहीं है।
  • प्रभुत्वशाली शासन का संचालन तानाशाहीपूर्ण रीति से करने लगते हैं जिससे शक्ति का दुरुपयोग होता है।
  • इस व्यवस्था में विरोधी दल कमजोर होते हैं, अत: सरकार की आलोचना प्रभावशाली ढंग से नहीं हो पाती।

प्रश्न 3.
सन् 1967 के बाद भारतीय राजनीति में कांग्रेस के प्रभुत्व में गिरावट के कारणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
सन् 1967 के आम चुनाव में कांग्रेस को केवल इतनी ही सीटें प्राप्त हुईं कि वह साधारण बहुमत द्वारा सरकार गठित कर सके। कांग्रेस के प्रभुत्व में इस गिरावट के निम्नलिखित कारण थे –

  1. सन् 1964 में पण्डित जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद कांग्रेस में कोई प्रभावशाली व्यक्तित्व दिखाई नहीं देता था।
  2. देश के विभिन्न भागों में क्षेत्रवादी भावनाएँ पनपने लगी थीं, इससे अनेक राज्यों में क्षेत्रीय दलों का संगठन होने लगा।
  3. सन् 1964 में देश के अन्य राजनीतिक दलों; जैसे-साम्यवादी दल, भारतीय जनसंघ, मुस्लिम लीग तथा समाजवादी दल के प्रभाव में वृद्धि हुई।
  4. केन्द्र में विरोधी दलों के विरुद्ध कांग्रेस की सरकार ने संविधान के कुछ प्रावधानों का दुरुप्रयोग किया जिससे लोगों में नकारात्मकता उत्पन्न हुई।
  5. विभिन्न राज्यों में मिली-जुली सरकारों के गठन की राजनीति प्रारम्भ हो गई थी।
  6. 1975 से 1977 तक आपातकालीन परिस्थितियों ने भी जनता पर कांग्रेस के विरुद्ध प्रतिकूल प्रभाव डाला।

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प्रश्न 4.
प्रारम्भ से ही कांग्रेस पार्टी का भारतीय राजनीति में केन्द्रीय स्थान रहा है। क्यों?
उत्तर:
कांग्रेस एशिया का सबसे पुराना राजनीतिक दल रहा है। भारतीय राजनीति के केन्द्र में यह दो दृष्टिकोणों से प्रमुख है-
प्रथम-अनेक दल तथा गुट कांग्रेस के केन्द्र से विकसित हुए हैं और इसके इर्द-गिर्द अपनी नीतियों तथा अपनी गुटीय रणनीतियों को विकसित किया, तथा – द्वितीय-भारतीय राजनीति के वैचारिक वर्णक्रम के केन्द्र का अभियोग करते हुए यह एक ऐसे केन्द्रीय दल के रूप में स्थित है, जिसके दोनों तरफ अन्य दल तथा गुट नजर आते हैं। भारत में केवल एक केन्द्रीय दल उपस्थित है और वह है-कांग्रेस पार्टी।

लेकिन वर्तमान समय में दलीय व्यवस्था के स्वरूप में व्यापक परिवर्तन आया है जिसमें बहुदलीय व्यवस्था और क्षेत्रीय दलों के विकास ने एकदलीय प्रभुत्व की स्थिति को कमजोर बना दिया है लेकिन फिर भी अन्य दलों के मुकाबले कांग्रेस का भारतीय राजनीति में केन्द्रीय स्थान है।

प्रश्न 5.
प्रथम तीन आम चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मजबूत स्थिति के पीछे उत्तरदायी कारणों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कांग्रेस की प्रधानता के लिए उत्तरदायी कारण-कांग्रेस पार्टी सन् 1920 से लेकर 1967 तक भारतीय राजनीति पर अपनी छत्रच्छाया कायम रखने में सफल रही। इसके पीछे अनेक कारण जिम्मेदार रहे, इनमें प्रमुख हैं-

  1. प्रथम कारण यह है कि कांग्रेस पार्टी को राष्ट्रीय आन्दोलन के वारिस के रूप में देखा गया। आज़ादी के आन्दोलन के अग्रणी नेता अब कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे थे।
  2. दूसरा कारण यह था कि कांग्रेस ही ऐसा दल था जिसके पास राष्ट्र के कोने-कोने व ग्रामीण स्तर पर फैला हुआ संगठन था।
  3. तीसरा कारण यह था कि कांग्रेस एक ऐसा संगठन था जो अपने आपको स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल ढाल सके।
  4. कांग्रेस पहले से ही एक सुसंगठित पार्टी थी। बाकी दल अभी अपनी रणनीति बना ही रहे होते थे कि कांग्रेस अपना अभियान शुरू कर देती।

इस प्रकार कांग्रेस को ‘अव्वल और इकलौता’ होने का फायदा मिला।

प्रश्न 6.
भारत में राजनीतिक दलों द्वारा अपने कार्यों का निर्वहन करने में आने वाली कठिनाइयों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
राजनीतिक दलों की समस्याएँ-भारत में राजनीतिक दलों की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

  1. दलीय व्यवस्था में अस्थिरता-भारतीय दलीय व्यवस्था निरन्तर बिखराव और विभाजन का शिकार रही है। सत्ता प्राप्ति की लालसा ने राजनीतिक दलों को अवसरवादी बना दिया है जिससे यह संकट उत्पन्न हुआ है।
  2. राजनीतिक दलों में गुटीय राजनीति-भारत के अधिकांश राजनीतिक दलों में तीव्र आन्तरिक गुटबन्दी विद्यमान है। इन दलों में छोटे-छोटे गुट पाए जाते हैं।
  3. दलों में आन्तरिक लोकतन्त्र का अभाव-भारत के अधिकांश राजनीतिक दलों में आन्तरिक लोकतन्त्र का अभाव है और वे घोर अनुशासनहीनता से पीड़ित हैं। भारत में अधिकांश राजनीतिक दल नेतृत्व की मनमानी प्रवृत्ति और सदस्यों की अनुशासनहीनता से पीड़ित हैं।

प्रश्न 7.
भारत में 91वें संवैधानिक संशोधन द्वारा दल-बदल को रोकने के लिए क्या-क्या उपाय किए गए हैं?
उत्तर:
भारत में दल-बदल को रोकने के लिए 52वें संवैधानिक संशोधन द्वारा बनाया गया कानून पूरी तरह असफल रहा। इसी कारण से दल-बदल को और अधिक कठोर बनाने के लिए दिसम्बर 2003 में संविधान में 91वाँ संशोधन किया गया। इस संवैधानिक संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई कि दल-बदल करने वाला कोई सांसद या विधायक सदन की सदस्यता खोने के साथ-साथ अगली बार चुनाव जीतने तक अथवा सदन के शेष कार्यकाल तक (जो पहले हो) मन्त्री पद या लाभ का कोई अन्य पद प्राप्त नहीं कर सकेगा। इस कानून में सांसदों या विधायकों के दल-बदल करने के लिए एक-तिहाई संख्या की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया गया।

प्रश्न 8.
1952 के पहले आम चुनाव से लेकर 2004 के आम चुनाव तक मतदान के तरीके में क्या बदलाव आए हैं?
उत्तर:1
952 से लेकर 2004 के आम चुनाव तक मतदान के तरीकों में निम्नलिखित बदलाव आए हैं-

  1. 1952 के पहले आम चुनाव में प्रत्येक उम्मीदवार के नाम व चुनाव चिह्न की एक मतपेटी रखी गईं थी। हर मतदाता को एक खाली मत-पत्र दिया गया जिसे उसने अपने पसन्द के उम्मीदवार की मतपेटी में डाला। शुरुआती दो चुनावों के बाद यह तरीका बदल दिया गया।
  2. बाद के चुनावों में मत-पत्र पर हर उम्मीदवार का नाम व चुनाव चिह्न अंकित किया गया। मतदाता को मत-पत्र में अपने पसन्द के उम्मीदवार के आगे मुहर लगानी होती थी। मतदान पूर्णत: गुप्त रखा जाता था।
  3. 1990 के दशक के अन्त में चुनाव आयोग ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का प्रयोग शुरू कर दिया और 2004 के आम चुनावों में मशीनों से वोट डाले गए।

प्रश्न 9.
भारतीय दलीय व्यवस्था की कमियों का उल्लेख कीजिए। अथवा सरकारों की अस्थिरता के लिए उत्तरदायी भारतीय दलीय व्यवस्था की कमियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारतीय दलीय व्यवस्था की कमियाँ-भारतीय दलीय व्यवस्था की कमियाँ निम्नलिखित हैं जो कि सरकार की अस्थिरता के लिए उत्तरदायी हैं-

1. राजनीतिक दल-बदल-भारतीय राजनीतिक दलों में वैचारिक प्रतिबद्धता का अभाव तीव्र आन्तरिक गुटबन्दी और गहरी सत्ता लिप्सा ने दलीय व्यवस्था में राजनीतिक दल-बदल को जन्म दिया है। इस दल-बदल की स्थिति ने राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया। ।

2. नेतृत्व संकट-भारत के राजनीतिक दलों के समक्ष नेतृत्व का संकट भी है। अधिकांश राजनीतिक दलों के पास ऐसा नेतृत्व नहीं है जिसका अपना कोई ऊँचा राजनीतिक कद हो। नेतृत्व का बौना कद दल को एकजुट रखने में असमर्थ रहता है।

3. वैचारिक प्रतिबद्धता का अभाव-भारतीय राजनीतिक दलों में कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है। व्यवहार में विचारधारा पर आधारित दलों; जैसे-मार्क्सवादी दल, भारतीय साम्यवादी दल, भाजपा आदि ने भी घोर अवसरवादी राजनीति का परिचय दिया है। इन सभी राजनीतिक दलों का उद्देश्य येन-केन प्रकारेण सत्ता प्राप्त करना है और ये सत्ता प्राप्त करने के लिए अपने तथाकथित सिद्धान्तों को तिलांजलि देने को तत्पर हैं।

प्रश्न 10.
भारतीय जनसंघ के गठन व विचारधारा पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारतीय जनसंघ का गठन-भारतीय जनसंघ का गठन सन् 1951 में हुआ था। इसके संस्थापक अध्यक्ष श्यामाप्रसाद मुखर्जी थे। प्रारम्भिक वर्षों में इस पार्टी को हिन्दी भाषी राज्यों; जैसे-राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली और उत्तर प्रदेश के शहरी क्षेत्रों में समर्थन मिला। जनसंघ के नेताओं ने श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय और बलराज मधोक के नाम शामिल हैं।

जनसंघ की विचारधारा

  1. जनसंघ ने ‘एक देश, एक संस्कृति और एक राष्ट्र’ के विचार पर बल दिया। इसका मानना था कि देश भारतीय संस्कृति और परम्परा के आधार पर आधुनिक, प्रगतिशील और ताकतवर बन सकता है।
  2. जनसंघ ने भारत और पाकिस्तान को एक करके ‘अखण्ड भारत’ बनाने की बात कही।
  3. जनसंघ अंग्रेजी को हटाकर हिन्दी को राजभाषा बनाने का पक्षधर था।
  4. इसने धार्मिक व सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों को रियायत देने की बात का विरोध किया।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय दलीय व्यवस्था की कोई दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
भारतीय दलीय व्यवस्था की. प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. भारत में बहुदलीय व्यवस्था है और राजनीतिक दल विभिन्न हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  2. भारतीय दलों के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों का भी अस्तित्व है।

प्रश्न 2.
उपनिवेशवाद से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
उपनिवेशवाद-वह विचारधारा जिससे प्रेरित होकर प्राय: एक शक्तिशाली राष्ट्र अन्य राष्ट्र या किसी राष्ट्र विशेष के किसी भाग पर अपना वर्चस्व स्थापित कर, उसके आर्थिक एवं प्राकृतिक संसाधनों का शोषण अपने हित में करता है उसे ‘उपनिवेशवाद’ कहते हैं।

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प्रश्न 3.
भारत के पहले तीन चुनावों में कांग्रेस के प्रभुत्व के दो कारण बताइए।
उत्तर:

  1. राष्ट्रीय संघर्ष में कांग्रेसी नेताओं का जनता में अधिक लोकप्रिय होना उसकी प्रधानता का प्रमुख कारण था।
  2. कांग्रेस ही ऐसा दल था जिसके पास राष्ट्र के कोने-कोने व ग्रामीण स्तर तक फैला हुआ संगठन था।

प्रश्न 4.
भारत में एकदलीय प्रधानता का युग कंब समाप्त हुआ? इसके क्या कारण थे?
उत्तर:
भारत में सन् 1977 में एकदलीय प्रधानता का युग समाप्त हुआ। इसके मुख्य कारण थेआपातकाल के दौरान तत्कालीन कांग्रेस सरकार की लोगों पर ज्यादतियाँ/अन्याय। दूसरा कारण था-तत्कालीन सरकार के तानाशाही दृष्टिकोण से लोग नाराज हो गए और विपक्षी पार्टियाँ एक गठबन्धन के रूप में सामने आईं।

प्रश्न 5.
1977 के चुनावों में कांग्रेस की हार के प्रमुख कारण क्या थे?
उत्तर:
सन् 1977 के चुनावों में कांग्रेस की हार के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

  1. सरकार की तानाशाही पद्धति, मौलिक अधिकारों को भंग करना।
  2. आवश्यक वस्तुओं का बाजार से गायब होना, जमाखोरी तथा आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में उछाल।
  3. सन् 1975 के आपातकाल की ज्यादतियाँ/परिवार नियोजन जबरदस्ती से करना।

प्रश्न 6.
क्या क्षेत्रीय दल आवश्यक हैं? अपने उत्तर के पक्ष में कोई दो तर्क दीजिए।
उत्तर:
भारत में क्षेत्रीय दलों का होना अति आवश्यक है। क्षेत्रीय दलों के होने के दो महत्त्वपूर्ण कारण निम्नलिखित हैं-

  1. भारत में विभिन्न भाषाओं, धर्मों तथा जातियों के लोग रहते हैं। अनेक क्षेत्रीय दलों का निर्माण जाति, धर्म एवं भाषा के आधार पर हुआ है।
  2. भारत की भौगोलिक बनावट में विभिन्नता पायी जाती है। विभिन्न क्षेत्रों की अपनी समस्याएँ तथा आवश्यकताएँ हैं। इनकी पूर्ति के लिए क्षेत्रीय दलों का होना आवश्यक है।

प्रश्न 7.
आलोचक ऐसा क्यों सोचते थे कि भारत में चुनाव सफलतापूर्वक नहीं कराए जा सकेंगे? किन्हीं दो कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत में चुनाव सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं कराए जा सकने के सम्बन्ध में आलोचकों के निम्नलिखित तर्क थे-

  1. भारत क्षेत्रफल तथा जनसंख्या की दृष्टि से बहुत बड़ा देश है तथा शुरू से ही नागरिकों को सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार प्रदान कर दिया गया है। इतने बड़े निर्वाचक मण्डल के लिए व्यवस्था करना बहुत कठिन होगा।
  2. भारत के अधिकांश मतदाता अशिक्षित थे। वे स्वतन्त्रतापूर्वक व समझदारी से मताधिकार का प्रयोग कर सकेंगे, इस पर उन्हें सन्देह था।

प्रश्न 8.
निर्दलियों की बढ़ती संख्या एक चुनौती है, स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
चुनाव में राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न होने की स्थिति में निर्दलीय उम्मीदवारों की भूमिका बढ़ जाती है। परिणामस्वरूप निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या में वृद्धि हो रही है। ये निर्दलीय उम्मीदवार भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं। यह भारतीय दलीय व्यवस्था के हित में नहीं है।

प्रश्न 9.
सी० राजगोपालाचारी के व्यक्तित्व पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सी० राजगोपालाचारी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं प्रसिद्ध साहित्यकार थे। ये संविधान सभा के सदस्य थे तथा भारत के प्रथम गवर्नर जनरल बने। ये केन्द्र सरकार के मन्त्री तथा मद्रास के मुख्यमन्त्री भी रहे। सन् 1959 में इन्होंने स्वतन्त्र पार्टी की स्थापना की। इनकी सेवाओं के लिए इन्हें ‘भारत रत्न’ से भी सम्मानित किया गया।

प्रश्न 10.
श्यामाप्रसाद मुखर्जी के सम्बन्ध में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
श्यामाप्रसाद मुखर्जी संविधान सभा के सदस्य थे। ये हिन्दू महासभा के महत्त्वपूर्ण नेता तथा भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे। ये कश्मीर को स्वायत्तता देने के विरुद्ध थे। कश्मीर नीति पर जनसंघ के प्रदर्शन के दौरान इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। सन् 1953 में हिरासत में ही इनकी मृत्यु हो गई।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 Era of One Party Dominance

प्रश्न 11.
मौलाना अबुल कलाम आजाद पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
मौलाना अबुल कलाम आजाद (1888-1958) का पूरा नाम अबुल कलाम मोहियुद्दीन अहमद था। ये इस्लाम के विद्वान थे। साथ ही ये एक स्वतन्त्रता सेनानी व कांग्रेस के प्रमुख नेता थे। ये हिन्दू-मुस्लिम एकता के समर्थक थे तथा भारत विभाजन के विरोधी थे। ये संविधान सभा के सदस्य रहे तथा स्वतन्त्र भारत के पहले शिक्षा मन्त्री के पद पर आसीन हुए।

प्रश्न 12.
सोशलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी के मध्य दो अन्तर बताइए।
उत्तर:

  1. सोशलिस्ट पार्टी लोकतान्त्रिक विचारधारा में विश्वास करती है जबकि कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवादी लोकतन्त्र में विश्वास करती है।
  2. सोशलिस्ट पार्टी पूँजीपतियों और पूँजी को अनावश्यक और समाज विरोधी नहीं मानती जबकि कम्युनिस्ट पार्टी निजी पूँजी और पूँजीपतियों को पूर्णतया अनावश्यक और समाज विरोधी मानती है।

बहविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
1952 के चुनावों में कुल मतदाताओं में केवल साक्षर मतदाताओं का प्रतिशत था-
(a) 35 प्रतिशत
(b) 25 प्रतिशत
(c) 15 प्रतिशत
(d) 75 प्रतिशत।
उत्तर:
(c) 15 प्रतिशत।

प्रश्न 2.
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक थे-
(a) श्यामाप्रसाद मुखर्जी
(b) आचार्य नरेन्द्र देव
(c) ए० वी० वर्धन
(d) कु० मायावती।
उत्तर:
(b) आचार्य नरेन्द्र देव।

प्रश्न 3.
1948 में भारत में गवर्नर जनरल पद की शपथ किसने ली-
(a) लॉर्ड लिटन
(b) लॉर्ड माउण्टबेटन
(c) लॉर्ड रिपन
(d) चक्रवर्ती राजगोपालाचारी।
उत्तर:
(d) चक्रवर्ती राजगोपालाचारी।

प्रश्न 4.
भारत का संविधान तैयार हुआ-
(a) 26 जनवरी, 1950
(b) 26 नवम्बर, 1949
(c) 15 अगस्त, 1947
(d) 30 जनवरी, 1948
उत्तर:
(b) 26 नवम्बर, 1949.

प्रश्न 5.
भारत में दलितों का मसीहा किसे कहा जाता है-
(a) राजा राममोहन राय
(b) दयानन्द सरस्वती
(c) डॉ० बी० आर० अम्बेडकर
(d) गोपालकृष्ण गोखले।
उत्तर:
(c) डॉ० बी० आर० अम्बेडकर।

प्रश्न 6.
स्वतन्त्र भारत के पहले शिक्षामन्त्री थे-
(a) मौलाना अबुल कलाम
(b) डॉ० बी० आर० अम्बेडकर
(c) सरदार पटेल
(d) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद।
उत्तर:
(a) मौलाना अबुल कलाम।

प्रश्न 7.
स्वतन्त्र पार्टी का गठन किया-
(a) सी० राजगोपालाचारी
(b) श्यामाप्रसाद मुखर्जी
(c) पं० दीनदयाल उपाध्याय
(d) रफी अहमद किदवई।
उत्तर:
(a) सी० राजगोपालाचारी।

प्रश्न 8.
भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे-
(a) मोरारजी देसाई
(b) मीनू मसानी
(c) अटल बिहारी वाजपेयी
(d) श्यामाप्रसाद मुखर्जी।
उत्तर:
(d) श्यामाप्रसाद मुखर्जी।

UP Board Solutions for Class 12 Civics

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 US Hegemony in World Politics

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 US Hegemony in World Politics (समकालीन विश्व में अमरीकी वर्चस्व)

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
वर्चस्व के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन गलत है?
(क) इसका अर्थ किसी एक देश की अगुआई या प्राबल्य है।
(ख) इस शब्द का इस्तेमाल प्राचीन यूनान में एथेंस की प्रधानता को चिह्नित करने के लिए किया जाता था।
(ग) वर्चस्वशील देश की सैन्य शक्ति अजेय होती है।
(घ) वर्चस्व की स्थिति नियत होती है। जिसने एक बार वर्चस्व कायम कर लिया उसने हमेशा के लिए वर्चस्व कायम कर लिया।
उत्तर:
(घ) वर्चस्व की स्थिति नियत होती है। जिसने एक बार वर्चस्व कायम कर लिया उसने हमेशा के लिए वर्चस्व कायम कर लिया।

प्रश्न 2.
समकालीन विश्व-व्यवस्था के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन गलत है?
(क) ऐसी कोई विश्व-सरकार मौजूद नहीं जो देशों के व्यवहार पर अंकुश रख सके।
(ख) अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में अमेरिका की चलती है।
(ग) विभिन्न देश एक-दूसरे पर बल प्रयोग कर रहे हैं।
(घ) जो देश अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करते हैं उन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ कठोर दण्ड देता है।
उतर:
(क) ऐसी कोई विश्व-सरकार मौजूद नहीं जो देशों के व्यवहार पर अंकुश रख सके।

प्रश्न 3.
‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ (इराकी मुक्ति अभियान) के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन गलत है?
(क) इराक पर हमला करने के इच्छुक अमेरिकी अगुवाई वाले गठबन्धन में 40 से ज्यादा देश शामिल हुए।
(ख) इराक पर हमले का कारण बताते हुए कहा गया कि यह हमला इराक को सामूहिक संहार के हथियार बनाने से रोकने के लिए किया जा रहा है।
(ग) इस कार्रवाई से पहले संयुक्त राष्ट्र संघ की अनुमति ले ली गई थी।
(घ) अमेरिकी नेतृत्व वाले गठबन्धन को इराकी सेना से तगड़ी चुनौती नहीं मिली।
उत्तर:
(ग) इस कार्रवाई से पहले संयुक्त राष्ट्र संघ की अनुमति ले ली गई थी।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 US Hegemony in World Politics

प्रश्न 4.
इस अध्याय में वर्चस्व के तीन अर्थ बताए गए हैं। प्रत्येक का एक-एक उदाहरण बताइए।ये उदाहरण इस अध्याय में बताए गए उदाहरणों से अलग होने चाहिए
(1) वर्चस्व-सैन्य शक्ति के अर्थ में
(2) वर्चस्व-ढाँचागत ताकत के अर्थ में
(3) वर्चस्व-सांस्कृतिक अर्थ में।
उदाहरण
(1) पाकिस्तान के प्रति अमेरिकी नीति पर्याप्त सौहार्दपूर्ण चल रही है, अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को सैन्य सहायता देकर दक्षिण एशिया में अपने प्रभाव को बढ़ाने का प्रयास सदैव जारी रहा है। इसके साथ ही क्यूबा मिसाइल संकट के समय में भी अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए उसने सोवियत संघ को धमकी दी थी।

(2) दबदबे वाला देश अपनी नौसेना की ताकत से समुद्री व्यापार मार्गों पर आने-जाने के नियम तय करता है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटिश नौसेना की ताकत घट गई। अब यह भूमिका अमेरिकी नौसेना निभाती है। ढाँचागत ताकत के अर्थ में अमेरिका अनेक देशों को यह कह चुका है कि वह विश्व के सभी समुद्री मार्गों को विश्व व्यापार के लिए खुला रखें, क्योंकि मुक्त व्यापार समुद्री व्यापारिक मार्गों के खुले बिना सम्भव नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा विभिन्न देशों को यह धमकी दी गई है।

(3) अमेरिका अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर कई बार स्पष्ट कर चुका है कि जो भी राष्ट्र उदारीकरण और वैश्वीकरण को नहीं अपनाएगा उन देशों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ निवेश नहीं करेंगी। इस सन्दर्भ में वह रूस और . चीन को इस ओर बढ़ा रहा है।

प्रश्न 5.
उन तीन बातों का जिक्र कीजिए जिनसे साबित होता है कि शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिकी प्रभुत्व का स्वभाव बदला है और शीतयुद्ध के वर्षों में अमेरिकी प्रभुत्व की तुलना में यह अलग है।
उत्तर:
(1) अमेरिका का प्रभुत्व शीतयुद्ध के बाद ही प्रारम्भ नहीं हुआ बल्कि शीतयुद्ध के दौरान भी अमेरिकी प्रभुत्व था। प्रथम खाड़ी युद्ध से यह बात जाहिर हो गई कि बाकी देश सैन्य-क्षमता के मामले में अमेरिका से बहुत पीछे हैं और इस मामले में तकनीकी स्तर पर अमेरिका काफी आगे निकल चुका है। अमेरिका ने खाड़ी युद्ध में स्मार्ट बमों का प्रयोग किया। इसे कुछ पर्यवेक्षकों ने कम्प्यूटर युद्ध की संज्ञा दी। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद वर्चस्व में सैन्य शक्ति, संगठनात्मक शक्ति और सांस्कृतिक प्रभाव शामिल थे।

(2) शीतयुद्ध के बाद अमेरिका ने आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध के लिए अपनी शक्ति का प्रयोग किया है।

(3) शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद दो महाशक्तियों के स्थान पर एक ही महाशक्ति (अमेरिका) का वर्चस्व हो गया। अमेरिका का वर्चस्व वस्तुतः द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति से शुरू हो गया था, यह अलग बात है कि अपनी शक्ति का प्रदर्शन उसने सन् 1991 के पश्चात् अधिक दर्शाया। फिलहाल यह बात मान लेनी चाहिए कि कोई भी देश अमेरिकी सैन्य शक्ति के जोड़ का मौजूद नहीं है।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में मेल बैठाइए-
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 US Hegemony in World Politics 1
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 US Hegemony in World Politics 2

प्रश्न 7.
अमेरिकी वर्चस्व की राह में कौन-से व्यवधान हैं? क्या आप जानते हैं कि इनमें कौन-सा व्यवधान आगामी दिनों में सबसे महत्त्वपूर्ण साबित होगा?
उत्तर:
11 सितम्बर, 2001 की घटना के बाद के वर्षों में ये व्यवधान एक प्रकार से निष्क्रिय जान पड़ने लगे थे, लेकिन धीरे-धीरे फिर प्रकट होने लगे। निःसन्देह विश्व में अमेरिका का वर्चस्व कायम है परन्तु अमेरिकी वर्चस्व की राह में मुख्य रूप से तीन व्यवधान हैं-

1. अमेरिका की संस्थागत बनावट-अमेरिका में शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त को अपनाया गया है। अर्थात् यहाँ शासन के तीन अंगों-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति का बँटवारा है। साथ ही शासन के तीनों अंगों के बीच अवरोध एवं सन्तुलन के सिद्धान्त को अपनाया गया है जिसके अनुसार शासन का एक अंग, दूसरे अंग पर नियन्त्रण भी रखता है। यहीं बनावट कार्यपालिका द्वारा सैन्य शक्ति के बे-लगाम प्रयोग पर अंकुश लगाने का काम करती है।

2. अमेरिकी समाज की उन्मुक्त प्रकृति-अमेरिका की शक्ति के सामने आने वाला दूसरा व्यवधान है-अमेरिकी समाज जो अपनी प्रकृति में उन्मुक्त है। अमेरिका में जन-संचार के साधन समय-समय पर वहाँ के जनमत को एक विशेष दिशा में मोड़ने की भले ही कोशिश करें, लेकिन अमेरिका की राजनीतिक संस्कृति में शासन के उद्देश्य और तरीके को लेकर गहरा सन्देह है। अमेरिका के विदेशी सैन्य अभियानों पर अंकुश न रखने में यह बात बड़ी कारगर भूमिका निभाती है।

3. नाटो(उत्तर अटलाण्टिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन)द्वारा अंकुश-अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में आज सिर्फ एक ही ऐसा संगठन है जो सम्भवतया अमेरिकी ताकत पर अंकुश लगा सकता है और इस संगठन का नाम है-नाटो।

अमेरिका का हित नाटो में शामिल देशों के साथ जुड़ा हुआ है क्योंकि इन देशों में बाजार मूलक अर्थव्यवस्था चलती है इसी कारण इस बात की सम्भावना बनती है कि नाटो में शामिल अमेरिका के साथी देश उसके वर्चस्व पर कुछ अंकुश लगा सकें।

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि नाटो में शामिल अमेरिकी साथी आगामी दिनों में सबसे महत्त्वपूर्ण व्यवधान सिद्ध होंगे।

प्रश्न 8.
भारत-अमेरिकी समझौते से सम्बन्धित बहस के तीन अंश इस अध्याय में दिए गए हैं, इन्हें पढ़िए और किसी एक अंश को आधार मानकर पूरा भाषण तैयार करें जिसमें भारत-अमेरिकी सम्बन्ध के बारे में किसी एक रुख का समर्थन किया गया हो।
उत्तर:
भारत-अमेरिकी समझौते से सम्बन्धित बहस के तीन अंश निम्नलिखित हैं-

(1) भारत के जो विद्वान अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को सैन्य शक्ति के सन्दर्भ में देखते समझते हैं, वे भारत और अमेरिका की बढ़ती हुई नजदीकी से भयभीत हैं। ऐसे विद्वान यही चाहेंगे कि भारत वाशिंगटन से अपना लगाव बनाए रखे और अपना ध्यान अपनी राष्ट्रीय शक्ति को बढ़ाने में लगाए।

(2) कुछ विद्वान मानते हैं कि भारत और अमेरिका के हितों में हेलमेल लगातार बढ़ रहा है और यह भारत के लिए ऐतिहासिक अवसर है। ये विद्वान एक ऐसी रणनीति अपनाने की तरफदारी करते हैं जिससे भारत अमेरिकी वर्चस्व का फायदा उठाए। वे चाहते हैं कि दोनों के आपसी हितों का मेल हो और भारत अपने लिए सबसे बढ़िया विकल्प ढूँढ़ सके। इन विद्वानों की राय है कि अमेरिका के विरोध की रणनीति व्यर्थ साबित होगी और आगे चलकर इससे भारत को नुकसान होगा।

(3) कुछ विद्वानों की राय के बीच परमाणु ऊर्जा के मुद्दे पर समझौता हुआ। भारत के प्रधानमन्त्री डॉ० मनमोहन सिंह और अन्य दो विपक्षी नेताओं के बीच लोकसभा में बहस हुई जिनके भाषण के अंशों के आधार पर उपर्युक्त तीनों अंशों की अलग-अलग वैचारिक स्थिति को निम्नलिखित रूप में वर्णित किया जा सकता है-

प्रथम-महोदय, मैं निवेदन करता हूँ कि वह भारत के प्रति विश्व की बदली हुई दशा को पहचाने। हमारे विचार में अमेरिका विश्व की एक महाशक्ति है। यह सही है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भारत का झुकाव सोवियत संघ की तरफ रहा परन्तु सोवियत संघ ही नहीं रहा। अत: भारत ने अपनी विदेश नीति को अमेरिका की ओर बदला है। सन् 1991 में भारत ने नई आर्थिक नीति की घोषणा की। डॉ. मनमोहन सिंह उस समय कांग्रेस पार्टी की सरकार में वित्तमन्त्री थे। तब भी और आज भी सरकार यह मानती है कि शक्ति की राजनीति बीते दिनों की बात नहीं कही जा सकती है। अत: जो अवसर आए हैं उनका लाभ हमें उठाना चाहिए। हमें संयुक्त राज्य अमेरिका से अच्छे सम्बन्ध बनाने चाहिए।

द्वितीय-महोदय, स्वतन्त्रता के बाद से हम अपनी स्वतन्त्र विदेश नीति पर अमल करते आ रहे हैं। हमने अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी में मतदान के समय अमेरिका का पक्ष लिया और अमेरिका द्वारा लाए गए प्रस्तावों का समर्थन किया। हम पाकिस्तान के रास्ते ईरान से गैस लाना चाह रहे थे फिर भी हमने ईरान के विरोध में अमेरिका का पक्ष लिया। ऐसे में निश्चित रूप से हमारी विदेशी नीति कुप्रभावित होगी।

तृतीय-महोदय, हम इस सत्य तथ्य से आँखें नहीं मींच सकते कि अमेरिका एक-ध्रुवीय विश्व में एकमात्र महाशक्ति है। पर आज भारत भी विश्व में एक शक्ति बनकर उभर रहा है, हमें कूटनीति से काम लेते हुए अमेरिका से मधुर सम्बन्ध बनाए रखने चाहिए। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में देशों के मध्य न तो मित्रता महत्त्वपूर्ण होती है और न ही शत्रुता, राष्ट्रीय हित सबसे महत्त्वपूर्ण होते हैं। अत: भारत को अमेरिका के साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार रखना चाहिए।

प्रश्न 9.
यदि बड़े और संसाधन सम्पन्न देश अमेरिकी वर्चस्व का प्रतिकार नहीं कर सकते तो यह मानना अव्यावहारिक है कि अपेक्षाकृत छोटी और कमजोर राज्येतर संस्थाएँ अमेरिकी वर्चस्व का कोई ‘प्रतिरोध कर पाएँगी। इस कथन की जाँच करें और अपनी राय बताएँ।
उत्तर:
हमारे विचार में यह कथन कि “यदि बड़े और संसाधन सम्पन्न देश अमेरिकी वर्चस्व का प्रतिकार नहीं कर सकते तो यह मानना अव्यावहारिक है कि अपेक्षाकृत छोटी और कमजोर राज्येतर संस्थाएँ, अमेरिकी वर्चस्व का कोई प्रतिरोध कर पाएँगी।” यह स्पष्ट हो चुका है कि अमेरिका विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली देश है।

(1) प्रथम खाड़ी युद्ध से यह बात .जाहिर हो गई है कि बाकी देश सैन्य क्षमता के मामले में अमेरिका से बहुत पीछे हैं और इस मामले में प्रौद्योगिकी के धरातल पर अमेरिका बहुत आगे निकल गया है।

(2) वर्तमान में विश्व में सबसे बड़ा साम्यवादी देश चीन है। वहाँ पर भी अनेक क्षेत्रों में अलगाववाद, उदारीकरण, वैश्वीकरण के पक्ष में आवाज उठती रहती है और माहौल बनता रहता है। जब ब्रिटेन, भारत, रूस, फ्रांस और चीन जैसे देश अमेरिका को खुलकर चुनौती नहीं दें सकते तो छोटे-छोटे देशों की बिसात ही क्या है। यह अमेरिकी वर्चस्व का कोई प्रतिरोध नहीं कर पाएँगे। वास्तव में विकास की दर में पश्चिमी देशों की तुलना में न केवल रूस बल्कि अधिकांश पूर्वी देश भी पिछड़ चुके हैं।

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
मैं खुश हूँ कि मैंने विज्ञान के विषय नहीं लिए वर्ना मैं भी अमेरिकी वर्चस्व का शिकार हो जाता। क्या आप बता सकते हैं क्यों?
उत्तर:
विज्ञान विषय के अध्ययनोपरान्त मैं वैज्ञानिक अथवा इंजीनियर अथवा डॉक्टर बनता। इस परिस्थिति में स्वयं को अमेरिकी वर्चस्व का शिकार होने से बचा नहीं सकता था क्योंकि इन क्षेत्रों में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिकी नेटवर्क का बोलबाला है।

प्रश्न 2.
क्या यह बात सही है कि अमेरिका ने अपनी जमीन पर कभी कोई जंग नहीं लड़ी? कहीं इसी वजह से जंगी कारनामे करना अमेरिका के लिए बायें हाथ का खेल तो नहीं?
उत्तर:
हाँ, यह बात पूरी तरह से सही है कि अमेरिका ने अपनी जमीन पर कभी कोई जंग नहीं लड़ी।

अपनी जमीन पर जंग न लड़ पाने के कारण उसे जंग से होने वाली अपार जन-धन की कभी हानि नहीं हुई। उसके द्वारा अन्य देशों की जमीन पर लड़े युद्धों में भी उसे कोई विशेष जन-धन की हानि नहीं हुई। अत: इसके कारण उसकी शक्ति में कभी कोई कमी नहीं आयी। इसके अलावा अपनी जमीन पर युद्ध न लड़े जाने के कारण अमेरिका की जनता को जंग से होने वाली जन-धन की हानि व होने वाले कष्टों की कोई जानकारी नहीं है। इस कारण अमेरिका की जनता भी अपनी सरकार को जंग से रोकने का कभी कोई प्रयास नहीं करती। इन सभी कारणों से जंगी कारनामे करना अमेरिका के लिए आसान कार्य अर्थात् बायें हाथ का खेल बन गया है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 US Hegemony in World Politics

प्रश्न 3.
यह तो बड़ी बेतुकी बात है। क्या इसका यह मतलब लगाया जाए कि लिट्टे आतंकवादियों के छुपे होने का शुबहा (सन्देह) होने पर श्रीलंका पेरिस पर मिसाइल दाग सकता है?
उत्तर:
(1) 9/11 की घटना के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान में ही नहीं बल्कि विश्व के अन्य अनेक पश्चिमी देशों में भी आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध के अंग के रूप में ‘ऑपरेशन एन्डयूरिंग फ्रीडम’ अभियान चलाकर अनेक लोगों को गिरफ्तार करके गोपनीय स्थानों पर बनी जेलों में भरकर उन पर अमानवीय अत्याचार किए तथा उनसे संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधियों तक को नहीं मिलने दिया। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि अमेरिका ने यह सिर्फ सन्देह के आधार पर ही किया था।

(2) इसे बेतुकी बात इसलिए कहा गया है क्योंकि आतंकवादियों के किसी देश में छुपे होने के केवल सन्देह मात्र के आधार पर सम्बन्धित देश पर मिसाइल दागना या बमों की वर्षा करना एक जघन्य आपराधिक क्रियाकलाप है जो संयुक्त राष्ट्र संघ की कमजोरी का खुला चित्र प्रस्तुत करता है।

प्रश्न 4.
क्या अमेरिका में भी राजनीतिक वंश परम्परा चलती है या यह सिर्फ एक अपवाद है?
उत्तर:
संयुक्त राज्य अमेरिका में राजनीतिक वंश-परम्परा नहीं चलती। संयुक्त राज्य अमेरिका एक लोकतान्त्रिक गणराज्य है। देश के मतदाता प्रत्येक चार वर्षों में समयान्तराल पर अपना राष्ट्राध्यक्ष (राष्ट्रपति) चुनते हैं। एच० डब्ल्यू० बुश के राष्ट्रपति बनाने के पश्चात् उनके पुत्र जॉर्ज डब्ल्यू० बुश का राष्ट्रपति बनना मात्र एक अपवाद है।

प्रश्न 5.
एंडी सिंगर द्वारा बनाए गए दोनों कार्टूनों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रथम कार्टून में चार चित्र हैं। चित्र में अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष किसी भी देश के प्रमुख को बुलाकर उसे विश्वास दिलाते हैं कि वे राष्ट्रों की समानता तथा लोकतन्त्र में आस्था रखते हैं। दूसरे चित्र में अमेरिकी प्रतिनिधि जबरदस्ती करता है क्योंकि छोटे तथा कमजोर राष्ट्र के प्रतिनिधि ने उसका कहना नहीं माना। तीसरे चित्र में छोटे राष्ट्र का प्रतिनिधि नीचे गिरने के बाद अमेरिकी प्रतिनिधि से अपने ऊपर हुए हमले का कारण जानना चाहता है। चौथे चित्र में अमेरिका उस कमजोर राष्ट्र को बताता है कि उसे (अमेरिका को) उससे हमले का खतरा था।
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 US Hegemony in World Politics 3
द्वितीय कार्टून में दर्शाया गया है कि यद्यपि अमेरिका में लोकतान्त्रिक व्यवस्था है तथापि विदेशी देश के प्रति एक तानाशाह की तरह व्यवहार करता है। वह वस्तुत: मित्रवत् तथा समानता अर्थात् बराबरी का व्यवहार नहीं करता। यदि अमेरिकी इशारों पर कठपुतली की तरह चलते रहोगे तो दोस्ती का प्रत्येक क्षेत्र में लाभ उठाते रहोंगे। यदि अमेरिका से मित्रता खत्म हो जाएगी तो न तो अमेरिका स्वेच्छा से आपको तेल बेचने देगा और न ही आपकी निर्धनता को कम कराने में सहायक होगा।

जो देश अमेरिकी निर्णय के अनुरूप प्रत्येक फैसला नहीं लेता वहाँ अमेरिका या तो शासन के खिलाफ बगावत करा देता है अथवा सैन्य तानाशाही स्थापित कराके अपने विरोधी को मौत के घाट उतरवा देता है। जो मित्र अमेरिकी शर्तों का अनुसरण करते हैं, उन्हें अमेरिकी मीडिया अपनी सुर्खियों में रखता है नहीं तो लगातार उनकी निन्दा की जाती है। अमेरिका किसी राष्ट्र में गृहयुद्ध तथा बर्बादी के लिए शत्रुतापूर्ण कदम उठाने में किंचित मात्र भी हिचकिचाहट महसूस नहीं करता है।

प्रश्न 6.
फौजी की वर्दी और दुनिया का नक्शा यह कार्टून क्या बताता है?
उत्तर:
यह कार्टून विश्व स्तर पर सैन्य शक्ति के रूप में अमेरिकी वर्चस्व को बताता है।

प्रश्न 7.
शीतयुद्ध के बाद उन संघर्षों/युद्धों की सूची बनाएँ जिसमें अमेरिका ने निर्णायक भूमिका निभाई।
उत्तर:
शीतयुद्ध के बाद निम्नलिखित संघर्षों/युद्धों में अमेरिका ने निर्णायक भूमिका निभाई-
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  1. अगस्त 1990 में इराक द्वारा कुवैत पर आक्रमण करने पर इराक के विरुद्ध ‘ऑपरेशन डेजर्ट स्टार्म’ नामक सैन्य अभियान चलाया, जिसे ‘प्रथम खाड़ी युद्ध’ कहा गया।
  2. वर्ष 1998 में संयुक्त राज्य अमेरिका ने ‘ऑपरेशन इनफाइनाइट रीच’ के तहत सूडान व अफगानिस्तान के अलकायदा (एक आतंकवादी संगठन) के ठिकानों पर कई बार क्रूज मिसाइलों से हमले किए।
  3. वर्ष 1999 में संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में नाटो के देशों ने यूगोस्लावियाई क्षेत्रों पर दो महीने तक बमबारी कर स्लोबदान मिलोसेविच की सरकार एवं कोसोवो पर नाटो की सेना काबिज हो गयी।
  4. 11 सितम्बर, 2001 को संयुक्त राज्य अमेरिका में हुई आतंकवादी घटना के पश्चात् उसने आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध के अंग के रूप में ‘ऑपरेशन एन्डयूरिंग फ्रीडम’ चलाया। अलकायदा व अफगानिस्तान के तालिबान शासन को निशाना बनाया।
  5. 19 मार्च, 2003 को संयुक्त राज्य अमेरिका ने ‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ नाम से इराक पर सैन्य हमला किया एवं सद्दाम हुसैन के शासन का अन्त किया।

प्रश्न 8.
अमेरिका के अंगूठे तले’ शीर्षक का यह काटून वर्चस्व के आमफहम अर्थ को ध्वनित करता है। अमेरिकी वर्चस्व की प्रकृति के बारे में यह कार्टून क्या कहता है? कार्टूनिस्ट विश्व के किस हिस्से के बारे में इशारा कर रहा है?
उत्तर:
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उक्त कार्टून अमेरिकी वर्चस्व की दादागीरी प्रकृति को बता रहा है। अमेरिकी राजनीति पूर्णरूपेण शक्ति एवं उसकी मनमानी के आस-पास घूमती है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में वह अपनी सर्वोच्च सैन्य शक्ति तथा मजबूत वित्तीय शक्ति के बलबूते प्रत्येक देश के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में अपनी मनमर्जी चलाना चाहता है।

प्रश्न 9.
‘वर्चस्व’ जैसे भारी-भरकम शब्द का इस्तेमाल क्यों करें? हमारे शहर में इसके लिए ‘दादागीरी’ शब्द चलता है। क्या यह शब्द ज्यादा अच्छा नहीं रहेगा?
उत्तर:
‘दादागीरी’ का तात्पर्य सीमित अर्थों में लिया जाता है, जबकि वर्चस्व एक व्यापक अर्थों वाला शब्द है। राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक मामलों में अमेरिकी प्रभाव अथवा दबदबे के लिए वर्चस्व’ शब्द प्रयुक्त किया जाना अधिक अच्छा रहेगा।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 US Hegemony in World Politics

प्रश्न 10.
विश्व की अधिकांश सशस्त्र सेनाएँ अपनी सैन्य-कार्रवाई के क्षेत्र को विभिन्न कमानों में बाँटती हैं। हर ‘कमान के लिए अलग-अलग कमाण्डर होते हैं। इस मानचित्र में अमेरिकी सशस्त्र सेना के पाँच अलग-अलग कमानों के सैन्य-कार्रवाई के क्षेत्र को दिखाया गया है। इससे पता चलता है कि अमेरिकी सेना का कमान-क्षेत्र सिर्फ संयुक्त राज्य अमेरिका तक सीमित नहीं बल्कि इसके विस्तार में समूचा विश्व शामिल है। अमेरिका की सैन्य शक्ति के बारे में यह मानचित्र क्या बताता है?
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स्रोत : http:/www.c6f.navy.mil/about/area-responsibility नोट : सीमांकन आवश्यक रूप से अधिकारिक नहीं है।
उत्तर:
उक्त मानचित्र अमेरिका की सैन्य शक्ति के अनूठेपन तथा बेजोड़ता को बताता है। चित्र में अमेरिकी सशस्त्र सेना की पाँच कमान हैं-

  1. उत्तरी कमान,
  2. दक्षिणी कमान,
  3. केन्द्रीय कमान,
  4. यूरोपीय कमान,
  5. पैसेफिक कमान।

अमेरिकी सशस्त्र सेना की कमान संरचना से स्पष्ट है कि वह सम्पूर्ण विश्व में कहीं भी हमला करने में सक्षम है। अमेरिकी सैन्य क्षमता एकदम सही समय में अचूंक एवं घातक आक्रमण करने की है। अमेरिकी सेना युद्ध भूमि में अधिकतम दूरी पर सुरक्षित रहकर अपने शत्रु को उसी के घर में अपाहिज (पंगु) बनाने की क्षमता रखती है

प्रश्न 11.
यह देश इतना धनी कैसे हो सकता है? मुझे तो यहाँ बहुत-से गरीब लोग दिख रहे हैं। इनमें अधिकांश अश्वेत हैं।
उत्तर:
यह कथन सत्य है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में पर्याप्त संख्या में गरीब लोग भी दिखाई पड़ते हैं।

यहाँ अधिकांश अश्वेत लोग गरीबी में अपना जीवन-यापन कर रहे हैं। यहाँ पर्याप्त आर्थिक असमानता व गरीबी विद्यमान है। लेकिन किसी देश की सम्पन्नता का एकमात्र पैमाना वहाँ की आर्थिक असमानता को नहीं बनाया जा सकता। किसी देश की समृद्धि का पैमाना उसका सकल घरेलू उत्पाद तथा विश्व अर्थव्यवस्था व विश्व व्यापार में हिस्सेदारी द्वारा निर्धारित होता है। यदि संयुक्त राज्य अमेरिका की स्थिति को देखें तो इन सब में वह मजबूत स्थिति में है। तुलनात्मक क्रय शक्ति के आधार पर 2005 में अमेरिका का सकल घरेलू उत्पाद विश्व का 20 प्रतिशत था। विश्व अर्थव्यवस्था में अमेरिकी हिस्सेदारी 28 प्रतिशत एवं विश्व के कुल व्यापार में हिस्सेदारी 15 प्रतिशत है। इसके अलावा अमेरिका विश्व के अधिकांश देशों को ऋण उपलब्ध कराता है। इन सब तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका एक धनी देश है।

हालाँकि अमेरिका में गरीब लोग भी हैं जिनमें अधिकांश अश्वेत हैं, लेकिन विश्व अर्थव्यवस्था में अमेरिका की 28 प्रतिशत सहभागिता है। विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व व्यापार संगठन पर अमेरिकी प्रभाव है। अमेरिका विश्व के अधिकांश देशों को अपनी शर्तों पर ऋण उपलब्ध कराता है।

प्रश्न 12.
ब्रेटनवुड प्रणाली में वैश्विक व्यापार के नियम तय किए गए थे। क्या ये नियम अमेरिकी हितों के अनुकूल बनाए गए थे? ब्रेटनवुड प्रणाली के बारे में और जानकारी जुटाएँ।
उत्तर:
ब्रेटनवुड प्रणाली में वैश्विक व्यापार के नियम निर्धारित किए गए थे। इन नियमों को अमेरिकी हितो के अनुकूल बनाया गया था। प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्धों के मध्य अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था को सुनिश्चित करने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए गए। इसके द्वारा औद्योगिक विश्व में आर्थिक स्थिरता एवं पूर्ण रोजगार को बनाए रखा जाए। इस फ्रेमवर्क पर जुलाई 1944 में संयुक्त राज्य अमेरिका स्थित न्यू हैम्पशायर के ब्रेटनवुड्स नामक स्थान पर संयुक्त राष्ट्र मौद्रिक एवं वित्तीय सम्मेलन में सहमति बनी थी। सदस्य देशों के विदेश व्यापार में लाभ और घाटे से निपटने के लिए ब्रेटनवुड्स सम्मेलन में ही अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्थापना की गई। युद्धोत्तर पुनर्निर्माण के लिए धन की व्यवस्था करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक अर्थात् विश्व बैंक का गठन किया गया; इसलिए विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को ‘ब्रेटनवुड्स ट्विन’ भी कहा जाता है।

प्रश्न 13.
बड़ी विचित्र बात है। अपने लिए जीन्स खरीदते समय तो मुझे अमेरिका का ख्याल तक नहीं आता। फिर भी अमेरिकी वर्चस्व के चपेट में कैसे आ सकती हूँ?
उत्तर:
हालाँकि जीन्स खरीदते समय संयुक्त राज्य अमेरिका का ख्याल नहीं आता, लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका एक सांस्कृतिक उत्पाद के बलबूते दो पीढ़ियों के बीच दूरियाँ उत्पन्न करने में सफल सिद्ध हुआ। यह उसके वर्चस्व का ही प्रतिफल है।
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प्रश्न 14.
उक्त दोनों चित्र किस प्रदर्शनी से लिए गए हैं? इस प्रदर्शनी को कब और किसने आयोजित किया? इस तरह के विरोध अमेरिकी सरकार पर किस सीमा तक अंकुश लगा सकते हैं?
उत्तर:
उक्त चित्र ‘इराक युद्ध की इंसानी कीमत’ शीर्षक प्रदर्शनी से लिए गए हैं। इसका आयोजन 2004 में डेमोक्रेटिक पार्टी की वार्षिक बैठक के दौरान अमेरिकी फ्रैंड्स सर्विस कमेटी द्वारा किया गया। इस प्रकार के विरोधों से अमेरिकी सरकार की कार्यप्रणाली पर किसी तरह का अंकुश नहीं लगता है।

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प्रश्नं 15.
जैसे ही मैं कहता हूँ कि मैं भारत से आया हूँ। ये लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या तुम कम्प्यूटर इंजीनियर हो। यह सुनकर अच्छा लगता है।
उत्तर:
ऐसा इस कारण होता है क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीय कम्प्यूटर इंजीनियरों की माँग अधिक है। चूंकि भारतीयों ने कम्प्यूटर इंजीनियरिंग के क्षेत्र में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की है, इसी वजह से संयुक्त राज्य अमेरिका में उनकी माँग है और मुझे भारतीय होने पर गौरव की अनुभूति होती है।

प्रश्न 16.
भारत और अमेरिका के बीच हाल ही में परमाणु समझौता हुआ है। इसके बारे में अखबारों से रिपोर्ट और लेख जुटाएँ। इस समझौते के समर्थक और विरोधियों के तर्कों का सार-संक्षेप लिखें।
उत्तर:
भारत तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में परमाणु ऊर्जा के मामले पर एक समझौता हुआ। इस मसले को लेकर लोकसभा में गर्मागर्म बहस हुई। समझौते के पक्ष में भारतीय प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह (तत्कालीन) तथा विपक्ष के अनेक राजनेताओं ने अपने वक्तव्यों (भाषणों) के माध्यम से सदन और देश को अपने-अपने विचारों से अवगत कराया। हालाँकि हम सभी सदस्यों एवं राजनेताओं के विचारों को यहाँ नहीं दे सकते हैं, लेकिन तीन विभिन्न वैचारिक स्थितियों को इंगित करने वाले विचारों को संक्षेप में निम्न प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं-

तर्कों का सार-संक्षेप

भारत सरकार ने संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ हुए परमाणु समझौते का पुरजोर समर्थन किया तथा प्रधानमन्त्री ने सदन तथा देश की जनता को यह विश्वास दिलाया कि यह समझौता दोनों देशों के लिए लाभप्रद है तथा सरकार ने इसमें कोई ऐसी धारा नहीं रखने दी है, जिससे भारतीय सुरक्षा पर कभी भी किसी भी प्रकार की आँच आए।

प्रतिपक्ष में, मार्क्सवादियों तथा समाजवादियों ने शासन पर यह आरोप लगाने का प्रयास किया कि उसने अमेरिकी दबाव के समक्ष इराक व ईरान के मामले में उचित दृष्टिकोण नहीं अपनाया और अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी में मतदान के दौरान सरकार ने अमेरिका का पक्ष लिया। विरोधियों ने एक स्वर में कहा कि उन्हें भारत सरकार से ऐसी आशा नहीं थी। भारत को ईरान से गैस आपूर्ति की आवश्यकता है। हम अपनी इस आवश्यकता को पाकिस्तान के रास्ते से पूरा कर सकते थे, लेकिन भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के कारण ईरान कुछ नाराज हो गया, लेकिन कुल मिलाकर लोक सभा के समक्ष प्रमुख विरोधी दल भाजपा ने इस समझौते का समर्थन किया। लेकिन सरकार से यह अपेक्षा भी की कि सरकार प्रत्येक परिस्थिति में भारतीय सुरक्षा तथा हितों को बनाए एवं बचाए रखे।

प्रश्न 17.
अमेरिका इकलौती महाशक्ति के रूप में कब तक कायम रहेगा? इसके बारे में आप क्या सोचते हैं?
उत्तर:
अमेरिका इकलौती महाशक्ति के रूप में तब तक कायम रहेगा जब तक कि उसे आर्थिक तथा सांस्कृतिक धरातल पर चुनौती नहीं मिलेगी। यह चुनौती स्वयंसेवी संगठन, सामाजिक आन्दोलन तथा जनमत के परस्पर सहयोग से प्रस्तुत होगी। मीडिया, बुद्धिजीवी, लेखक एवं कलाकार इत्यादि को अमेरिकी वर्चस्व के प्रतिरोध के लिए आगे आना होगा। ये एक विश्वव्यापी नेटवर्क बनाकर अमेरिकी नीतियों की आलोचना तथा प्रतिरोध कर सकते हैं।

प्रश्न 18.
ये सारी बातें ईर्ष्या से भरी हुई हैं। अमेरिकी वर्चस्व से हमें परेशानी क्या है? क्या यही कि हम अमेरिका में नहीं जन्मे? या कोई और बात है?
उत्तर:
संयुक्त राज्य अमेरिका के वर्चस्व का प्रतिरोध करना कोई ईर्ष्या से भरी हुई बात नहीं है। कदम-कदम पर अमेरिकी दादागीरी का व्यवहार असहनीय है, जिसका प्रतिरोध किया जाना ही हमारे समक्ष : एकमात्र विकल्प बचता है।

उदाहरण के लिए, हम एक विश्व ग्राम में रहते हैं जिसमें एक चौधरी रहता है और हम सब उसके पड़ोसी हैं। यदि चौधरी का व्यवहार असहनीय हो जाए तो भी विश्व ग्राम से चले जाने का विकल्प हमारे पास उपलब्ध नहीं है, क्योंकि यही एकमात्र गाँव है जिसे हम जानते हैं एवं रहने के लिए हमारे पास यही एक गाँव है। ऐसी स्थिति में प्रतिरोध ही एकमात्र विकल्प बचता है। ठीक इसी प्रकार सम्पूर्ण विश्व एक गाँव की तरह है तथा इसमें अमेरिका की स्थिति गाँव के चौधरी की तरह है। पिछले कुछ वर्षों में अमेरिकी वर्चस्व के साथ-साथ उसका अन्य देशों के साथ व्यवहार भी अच्छा नहीं रहा है जो अन्य देशों के लिए असहनीय हो रहा है। ऐसी स्थिति में अमेरिका का प्रतिरोध करना ही हमारे पास एकमात्र विकल्प बचता है।

प्रश्न 19.
इतिहास हमें वर्चस्व के बारे में क्या सिखाता है?
उत्तर:
अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में वर्चस्व की स्थिति एक असामान्य परिघटना है। अन्तर्राष्ट्रीय राजव्यवस्था में . विभिन्न देश शक्ति सन्तुलन के सन्दर्भ में अत्यधिक सतर्क रहते हैं। साधारणतया वे किसी एक देश को इतना शक्ति सम्पन्न नहीं बनने देते जिससे कि वह शेष राष्ट्रों के लिए भयंकर खतरा उत्पन्न करने लगे। – इतिहास साक्षी है कि सन् 1648 में सम्प्रभु राज्य विश्व राजनीति के प्रमुख पात्र बने थे। तत्पश्चात् लगभग . साढ़े तीन सौ वर्षों की समयावधि के दौरान केवल दो बार ऐसा हुआ जब किसी एक देश ने अपने बलबूते अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वही प्रबलता प्राप्त की जो वर्तमान में अमेरिका को हासिल है। जहाँ यूरोप की राजनीति में सन् 1660 से 1713 तक फ्रांस का वर्चस्व था, वहीं सन् 1860 से 1910 तक ब्रिटेन का दबदबा समुद्री व्यापार के बलबूते कायम हुआ था।

हमें इतिहास से यह भी ज्ञात होता है कि वर्चस्व अपने चरम बिन्दु के दौरान अजेय प्रतीत होता है, लेकिन यह सदैव के लिए कायम नहीं रहता है। शक्ति सन्तुलन की राजनीति वर्चस्वशील देश की शक्ति को आगे आने वाले समय में कम कर देती है। उदाहरणार्थ, सन् 1660 में लुई 14वें के शासनकाल में फ्रांस अपराजेय था, लेकिन सन् 1713 तक इंग्लैण्ड, हैम्सबर्ग, ऑस्ट्रिया तथा रूस उसकी शक्ति के समक्ष चुनौती प्रस्तुत करने लगे। इसी तरह सन् 1860 में ब्रिटिश साम्राज्य सदैव के लिए सुरक्षित लगता था, लेकिन सन् 1910 तक जर्मन, जापान तथा अमेरिका उसकी ताकत को ललकारने लगे।

उक्त आधार पर यह कहा जा सकता है कि आगामी 20 वर्षों में कुछ शक्तिशाली देशों का गठबन्धन अमेरिकी सूर्य की चमक को फीका कर देगा। धीरे-धीरे तुलनात्मक दृष्टिकोण से अमेरिका की शक्ति कमजोर होती चली जा रही है।

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
अफगानिस्तान युद्ध एवं खाड़ी युद्धों के सन्दर्भ में एक-ध्रुवीय विश्व (अमेरिका) के विकास को समझाते हुए अमेरिका के शक्तिशाली होने एवं विश्व के एक-ध्रुवीय होने के कारणों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
एक-धुवीय विश्व (अमेरिका) का विकास

सोवियत संघ के पतन के बाद हई निम्नलिखित घटनाओं से एक-ध्रुवीय विश्व में अमेरिका के विकास की व्याख्या की जा सकती है-

1. प्रथम खाड़ी युद्ध-एक-ध्रुवीय विश्व का प्रारम्भ प्रथम खाड़ी युद्ध को मान सकते हैं। इराक से कुवैत को स्वतन्त्र कराने के सैन्य अभियान में लगभग 75 प्रतिशत सैनिक अमेरिका के थे और अमेरिका ही इस युद्ध को निर्देशित एवं नियन्त्रित कर रहा था। विश्व इतिहास में यह दूसरी बार हुआ कि जब सुरक्षा परिषद् ने किसी देश के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की अनुमति दी हो।

2. सूडान एवं अफगानिस्तान पर अमेरिकन प्रक्षेपास्त्र हमला-अमेरिका ने सूडान एवं अफगानिस्तान में अलकायदा के ठिकानों पर क्रूज प्रक्षेपास्त्रों से हमला किया।

  1. इस अभियान की संयुक्त राष्ट्र संघ से अनुमति नहीं ली गई और पूरा विश्व इस दृश्य को देखता रहा।
  2. इस अभियान में अमेरिका ने विश्व-जनमत की कोई परवाह नहीं की।

3. 9/11 की घटना और आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध-11 सितम्बर, 2001 को अमेरिका में आतंकवादी हमले के विरोध में अमेरिका ने आतंकवाद के विरुद्ध ‘ऑपरेशन एन्डयूरिंग फ्रीडम’ के नाम से विश्वव्यापी युद्ध अभियान चलाया, जिसमें शक के आधार पर किसी के खिलाफ भी कार्रवाई की जा सकती है। इस अभियान के तहत अमेरिकी सरकार ने अनेक स्वतन्त्र राष्ट्रों में गिरफ्तारियाँ की और जिन देशों में गिरफ्तारियाँ की गई थीं, उन देशों की सरकारों से पूछना अमेरिका ने आवश्यक नहीं समझा।

4. द्वितीय खाड़ी युद्ध-द्वितीय खाड़ी युद्ध में अमेरिका ने विश्व जनमत, संयुक्त राष्ट्र संघ तथा विश्व के अन्य देशों की परवाह किए बिना इराक पर मार्च 2003 को उसके तेल भण्डारों पर कब्जा करने तथा इराक में अपने समर्थन वाली सरकार के गठन के उद्देश्य से आक्रमण कर दिया। यह एक-ध्रुवीय विश्व का शिखर है। वर्तमान में विश्व में यही एक-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था जारी है।

अमेरिका के शक्तिशाली होने एवं विश्व के एक-धुवीय होने के कारण

अमेरिका के अधिक-से-अधिक शक्तिशाली होने एवं विश्व के एक-ध्रुवीय होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. शीतयुद्ध की समाप्ति- सोवियत संघ के विघटन तथा शीतयुद्ध की समाप्ति ने विश्व को एक-ध्रुवीय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। क्योंकि अब कोई भी देश अमेरिका को चुनौती देने की स्थिति में नहीं था।
  2. रूस की कमजोर स्थिति-सोवियत संघ के विघटन (पतन) के बाद रूस अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण कभी भी सोवियत संघ जैसी प्रभावशाली स्थिति प्राप्त नहीं कर सका और न ही वह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में निर्णायक भूमिका निभा सकने की स्थिति में आ सका है।
  3. संयुक्त राष्ट्र संघ में अमेरिका का बढ़ता प्रभाव-सोवियत संघ के पतन के बाद संयुक्त राष्ट्र राध की उपेक्षा करके अमेरिका अब विश्व राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने लगा है।
  4. गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रासंगिकता में कमी आना-शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिका पर अंकुश लगाने वाला गुटनिरपेक्ष आन्दोलन कमजोर पड़ गया है, जिससे अमेरिका उत्तरोत्तर शक्तिशाली होता चला गया।
  5. उदारवादी विचारधारा का विस्तार–शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद सोवियत संघ से विघटित हुए सभी समाजवादी देशों ने लोकतान्त्रिक उदारवादी चोगा धारण कर लिया है। इस तरह अव समूचे विश्व में उस उदारवादी राजनीतिक विचारधारा का बोलबाला हो गया है। इससे विश्व राजनीति में अमेरिका का प्रभाव और बढ़ता गया तथा विश्व एक-ध्रुवीय बन गया।
  6. शीतयुद्ध के बाद अमेरिका के वर्चस्ववादी प्रयास-शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद सारिका ने धी अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए ऐसे अनेक वर्चस्ववादी प्रयास किए जिनके चलते एक-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था का स्वरूप एकदम स्पष्ट हो गया और विश्व-राजनीति में अमेरिका का वर्चस्व स्थापित हो भाया ।

प्रश्न 2.
विश्व राजनीति में संयुक्त राज्य अमेरिका के वर्चस्व पर कैसे अंकुश लगाया जा सकता है? अथवा अमेरिकी वर्चस्व से निपटने के विभिन्न उपायों का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर:
अमेरिकी वर्चस्व पर अंकुश

संयुक्त राज्य अमेरिका के निरन्तर बढ़ते वर्चस्व ने यह सोचने पर बाध्य कर दिया है कि उसके वर्चस्व से किस प्रकार छुटकारा पाया जा सकता है। वास्तव में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति सरकार-विहीन राजनीति है। हालाँकि युद्धों पर अंकुश लगाने वाले कुछ नियम एवं कानून अवश्य हैं लेकिन ये युद्धों पर प्रभावी अंकुश लगाने में सक्षम नहीं हैं। सम्भवतया कोई भी देश ऐसा नहीं है जो अपनी सुरक्षा के प्रश्न को अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों के सहयोग से हल करना चाहेगा।

यह निर्विवाद सत्य है कि कोई भी देश अमेरिकी सैन्य शक्ति के समकक्ष नहीं है। हालाँकि भारत, चीन तथा रूस जैसे विशाल देशों में अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती दे पाने की अपार सम्भावनाएँ हैं, लेकिन इन देशों के मध्य परस्पर आपसी मतभेदों एवं विभेदों के रहते अमेरिका के खिलाफ कोई गठबन्धन हो इसकी सम्भावनाएँ अत्यधिक कमजोर हैं।

विश्व राजनीति में संयुक्त राज्य अमेरिका के वर्चस्व से निपटने के लिए विभिन्न विद्वानों ने निम्नलिखित रास्ते सुझाए हैं-

1. वर्चस्व तन्त्र में रहते हुए अवसरों का लाभ उठाया जाए – विभिन्न विद्वानो का अभिमत है कि वर्चस्व-जनित अवसरों का लाभ उठाने की रणनीति अधिक उपयोगी होती है। उदाहरणार्थ, आर्थिक वृद्धि दर को ऊँचा उठाने के लिए व्यापार को बढ़ावा, प्रौद्योगिकी का हस्तान्तरण तथा निवेश परमावश्यक है और अमेरिका के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर कार्य करने में सफलता प्राप्त होगी न कि उसका विरोध करने में। ऐसी परिस्थिति में यह परामर्श दिया जाता है कि सर्वाधिक शक्तिशाली देश के खिलाफ जाने की अपेक्षा उसके वर्चस्व तन्त्र में रहते हुए अवसरों का भरपूर लाभ उठाना कहीं उचित एवं सार्थक रणनीति है। इसे बैंडवैगन अर्थात् “जैसी बहे बयार पीठ वैसी कीजै” की रणनीति कहा जाता है।

2. वर्चस्व वाले देश से दूर रहने का प्रयास करना-विश्व के देशों के समक्ष एक विकल्प यह भी है कि वे स्वयं अपने आपको छुपाकर रखें। इसका अभिप्राय दबदबे वाले देश से जहाँ तक हो सके दूर-दूर रहना होता है। इस व्यवहार के विभिन्न उदाहरण हैं। चीन, रूस तथा यूरोपीय संघ सभी किसी-न-किसी प्रकार से अपने आपको अमेरिकी नजरों में आने से बचा रहे हैं। इस प्रकार ये देश स्वयं अपने आपको बिना किसी कारण संयुक्त राज्य अमेरिका के क्रोध की चपेट में आने से बचाते हैं।

हालाँकि मध्यम श्रेणी में आने वाले शक्तिशाली देशों के लिए यह रणनीति लम्बी समयावधि तक काम नहीं आ सकती। छोटे देशों के लिए यह संगत तथा आकर्षक रणनीति सिद्ध हो सकती है, लेकिन यह कल्पना- शक्ति से बाहर की बात है कि भारत, चीन तथा रूस जैसे विशाल देश अथवा यूरोपीय संघ जैसा बड़ा जमावड़ा स्वयं को लम्बी समयावधि तक अमेरिकी दृष्टि से बचाए रख सके।

3. राज्येतर संस्थाएँ अमेरिकी वर्चस्व से निपटने के लिए आगे आएँगी-कुछ विद्वानों का अभिमत है कि अमेरिकी वर्चस्व का प्रतिकार कोई देश अथवा देशों का समूह कर ही नहीं पाएगा क्योंकि वर्तमान परिस्थितियों में विश्व के सभी राष्ट्र अमेरिकी शक्ति के समक्ष स्वयं को बौना समझते हुए लाचार हैं। लोगों की मान्यता है कि राज्येतर संस्थाएँ अमेरिकी वर्चस्व से निपटने के लिए आगे आएँगी।

अमेरिकी वर्चम्ब को आर्थिक तथा सांस्कृतिक धरातल पर चुनौती दी जा सकती है। यह चुनौती स्वयंसेवी संगठनों, सामाजिक आन्दोलनों तथा जनमत के सरकार मिलने से सम्भव हो पाएगी! मीडिया, बुद्धिजीवी, कलाकार तथा लेखकों इत्यादि का एक वर्ग अमेरिकी वर्चस्व के प्रतिरोध के लिए आगे आएगा। ये राज्येतर संस्थाएँ विश्वव्यापी नेटवर्क स्थापित कर सकती हैं, जिसमें अमेरिकी जनसमुदाय भी अपनी जनसहभागिता करेगा और साथ-साथ मिलकर अमेरिका की गलत नीतियों की आलोचना तथा प्रतिरोध किया जा सकेगा।

हमने विश्व – ग्राम की बात सुन रखी है। इस विश्व-ग्राम में एक चौधरी है और हम सभी उसके पड़ोसी हैं। यदि इस चौधरी का हमारे प्रति आचरण असहनीय हो जाए तो भी विश्व-ग्राम से चले जाने का विकल्प हमारे पास नहीं है क्योंकि यह एकमात्र गाँव है जिसे हम जानते हैं और हमें यह भी ज्ञात है कि हमारे रहने के लिए भी एकमात्र यही स्थल शेष बचा है तो ऐसी विषम परिस्थितियों से हमारे समक्ष एक विकल्प यही शेष बचता है कि हम ऐसे चौधरी का प्रतिरोध करें।

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प्रश्न 3.
अमेरिकी वर्चस्व को दर्शाने वाली शक्ति के विभिन्न रूपों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
अथवा अमेरिकी वर्चस्व के विभिन्न आयामों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अमेरिकी वर्चस्व के आयाम अमेरिकी वर्चस्व को दर्शाने वाले शक्ति के विभिन्न रूप (आयाम या व्याख्याएँ) निम्नलिखित हैं-

1. सैन्य शक्ति के रूप में अमेरिका का वर्चस्व–अमेरिकी शक्ति की रीढ़ उसकी बढ़ी-चढ़ी सैनिक शक्ति है। वर्तमान में अमेरिका की सैन्य शक्ति स्वयं में अनूठी तथा शेष देशों से अपेक्षाकृत बेजोड़ है। आज अमेरिका अपनी सैन्य क्षमता के बलबूते सम्पूर्ण विश्व में कहीं भी निशाना लगाने में सक्षम है। उसके पास एकदम सही समय में अचूक तथा घातक वार करने की क्षमता मौजूद है। अपने सैनिको को युद्धभूमि से अधिकतम दूरी पर सुरक्षित रखकर वह अपने शत्रु को उसी के घर में अपाहिज बना सकता है।

अमेरिकी सैन्य शक्ति का सर्वाधिक चमत्कारी तथ्य यह है कि वर्तमान में कोई भी देश अमेरिकी सैन्य शक्ति की तुलना में उसके बराबर नहीं है। अमेरिका से नीचे के कुल बारह शक्तिशाली देश एक साथ मिलकर अपनी सैन्य क्षमता के लिए जितनी धनराशि व्यय करते हैं उससे कहीं अधिक अपनी सैन्य क्षमता हेतु स्वयं अकेले अमेरिका व्यय करता है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि पेंटागन अपने बजट का एक बड़ा भाग रक्षा अनुसन्धान एवं विकास अर्थात् प्रौद्योगिकी पर व्यय करता है।

अमेरिकी सैन्य प्रभुत्व का आधार केवल उच्च सैन्य व्यय ही नहीं है बल्कि उसकी गुणात्मक बढ़त भी है। वर्तमान अमेरिका सैन्य प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में इतना आगे बढ़ चुका है कि किसी भी देश के लिए उसकी बराबरी तक पहुँच पाना असम्भव हो गया है।

2. ढाँचागत शक्ति के रूप में अमेरिका का वर्चस्व-संयुक्त राज्य अमेरिका के वर्चस्व में ढाँचागत शक्ति का भी विशेष योगदान है। वर्चस्व की ढाँचागत शक्ति का अर्थ है-वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपनी इच्छा चलाने वाले देश की आवश्यकता होना, जो अपने मतलब की वस्तुओं को बरकरार रखता है। आज अमेरिका विश्व के प्रत्येक हिस्से, वैश्विक अर्थव्यवस्था एवं प्रौद्योगिकी के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी मौजूदगी दर्शा रहा है। अमेरिका की विश्व अर्थव्यवस्था में 28 प्रतिशत की भागेदारी है। विश्व की तीन बढ़ी कम्पनियों में से एक अमेरिकन कम्पनी है। आज विश्व के प्रमुख आर्थिक संगठनों; जैसे—विश्व व्यापार संगठन. विश्व बैंक एवं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष पर अमेरिकी प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। अमेरिका की ढाँचागत ताकत का एक मानक उदाहरण एम०बी०ए० की अकादमिक डिग्री है। आज दुनिया में कोई भी देश ऐसा नहीं है जिसमें एम०बी०ए० को एक प्रतिष्ठित अकादमिक डिग्री का दर्जा हासिल न हो। यह डिग्री अमेरिका की देन है।

3. सांस्कृतिक शक्ति के रूप में अमेरिका का वर्चस्व-सांस्कृतिक अर्थ में वर्चस्व का सम्बन्ध ‘सहमति गढ़ने’ की ताकत से है। कोई प्रभुत्वशाली वर्ग अथवा देश अपने प्रभाव में रहने वाले लोगों को इस तरह सहमत करता है कि सभी दुनिया को उसी नजरिये से देखें जिस नजरिये से प्रभुत्वशाली वर्ग या देश देख रहा है। इससे प्रभुत्वशाली वर्ग के देश की बढ़त और उसका वर्चस्व कायम होता है। अमेरिकी संस्कृति बड़ी लुभावनी है और इसी कारण सबसे ज्यादा ताकतवर है। 20वीं शताब्दी एवं 21वीं शताब्दी के आरम्भ में सांस्कृतिक क्षेत्र में जो परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं, वे सब अमेरिकी संस्कृति के ही प्रतिबिम्ब हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका में प्रचलित नीली जीन्स को आज विश्व के अधिकांश देशों के लोग पहनने लगे हैं और यह अच्छे जीवन का प्रतीक बन गयी है।

प्रश्न 4.
“प्रौद्योगिकी आयाम तथा अमेरिका में बसे भारतीय अप्रवासी भारत-अमेरिका सम्बन्धों में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं।” इस कथन के पक्ष में तर्क प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
भारत-अमेरिकी सम्बन्धों में प्रौद्योगिकी का योगदान
भारत तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के सम्बन्धों को मजबूत बनाने में प्रौद्योगिकी का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इस तथ्य के पक्ष में हम निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत कर सकते हैं-

  1. सॉफ्टवेयर क्षेत्र में कुल भारतीय निर्यात का 65 प्रतिशत भाग अकेले अमेरिका को जाता है।
  2. दोनों देशों के मध्य नैनो टेक्नोलॉजी, जैव प्राविधिकी तथा प्रतिरक्षा साधन के द्विपक्षीय व्यापार पर सन् 2005 में सहमति हुई।
  3. प्राकृतिक विज्ञान, अन्तरिक्ष, ऊर्जा, स्वास्थ्य तथा सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नवीन अनुसन्धानों को प्रोत्साहित करने हेतु बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के न्यायाचार पर भारत-अमेरिका की सहमति बनी है।
  4. भारत-अमेरिका द्वारा उपग्रहों का निर्माण करके उन्हें अन्तरिक्ष में स्थापित किए जाने सम्बन्धी कार्य को मिल-जुलकर करने पर भी सहमति हुई। इस प्रयोजन हेतु वैज्ञानिकों का एक संयुक्त कार्यकारी समूह बनाया गया है।
  5. भारत तथा अमेरिका के बीच मार्च 2006 में नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में परस्पर सहयोग करने सम्बन्धी एक समझौता हुआ। इस समझौते में भारत अपने बाईस ताप नाभिकीय संयन्त्रों में से चौदह संयन्त्रों को नागरिक ताप संयन्त्र घोषित कर चुका है अर्थात् इनका निजीकरण किया जा चुका है।

अमेरिका में निवास करने वाले भारतीय अप्रवासियों का योगदान भारत-अमेरिका सम्बन्धों को सुदृढ़ बनाने में अमेरिका में रहने वाले भारतीय अप्रवासियों का भी भारी योगदान रहा है। इस तथ्य के पक्ष में अग्रांकित तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं-

  1. लगभग तीन लाख भारतीय अमेरिका की सिलिकन वैली में कार्यरत हैं।
  2. उच्च प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में 15 प्रतिशत कम्पनियों का श्रीगणेश अमेरिका में रहने वाले इन भारतीयों ने किया।

उपर्युक्त बिन्दुओं से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अमेरिकी वर्चस्व के इस युग में भारत, अमेरिका के आन्तरिक एवं बाह्य दोनों में अपनी मजबूत पकड़ बनाए हुए है। लगभग समस्त अमेरिकी प्रौद्योगिकी उपक्रमों में कार्यरत भारतीय वैज्ञानिकों एवं अभियन्ताओं (इंजीनियरों) की संख्या 15 प्रतिशत से भी अधिक हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इन सम्बन्धों के निर्वहन में भारत को एक साथ अनेक रणनीतियों (कूटनीति) की सहायता लेनी होगी। भारत विकासशील देशों का गठबन्धन बनाकर अमेरिका के साथ सम्बन्धों को शक्तिशाली करके स्वयं की प्रगति एवं विकास के नए द्वार खोल सकता है। विद्वानों का अभिमत है कि इससे भारत, अमेरिकी वर्चस्व को भविष्य में चुनौती देने की स्थिति में आ खड़ा होगा।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
इराक द्वारा कुवैत पर अधिकार जमा लेने के बाद अमेरिका के इराक के विरुद्ध कार्रवाई करने के पीछे क्या उद्देश्य थे?
उत्तर:
इराक (सद्दाम हुसैन) के विरुद्ध कार्रवाई करने के पीछे अमेरिका के सामने निम्नलिखित उद्देश्य (लक्ष्य) थे-

  1. पश्चिमी एशिया के देशों से तेल की आपूर्ति को होने वाले खतरे का निवारण करना।
  2. इजराइल की सुरक्षा को आँच न आने देना।
  3. सद्दाम हुसैन के परमाणु अस्त्रों व कारखानों को नष्ट करना।
  4. समूचे खाड़ी क्षेत्र में शक्ति सन्तुलन बनाए रखना।
  5. इराक की विस्तारवादी सोच पर प्रतिबन्ध लगाना।
  6. इराक को पश्चिम एशिया के राजनीतिक मानचित्र में परिवर्तन के अवसर न देना।
  7. विश्व की एकमात्र सर्वोच्च शक्ति के रूप में अमेरिका की छवि तथा अमेरिकी नेतृत्व की विश्वसनीयता को बनाए रखना।

प्रश्न 2.
इराक द्वारा कुवैत पर अधिकार कर लेने के विरोध में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की कार्रवाई पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अमेरिका ने इराक द्वारा कुवैत पर अधिकार कर लेने के विरोध में सुरक्षा परिषद् में इस मुद्दे को रखा। सुरक्षा परिषद् के सभी सदस्यों ने अमेरिका का साथ दिया। सुरक्षा परिषद् ने कुवैत पर इराकी आक्रमण की निन्दा की तथा यह प्रस्ताव पारित किया कि इराक तुरन्त कुवैत को खाली कर दे और उसके बाद उसके खिलाफ कठोर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिए, जिनका पालन संयुक्त राष्ट्र के सभी देशों के लिए अनिवार्य कर दिया गया।

लेकिन इराक ने सुरक्षा परिषद् का प्रस्ताव स्वीकार करने से साफ इनकार कर दिया तथा सद्दाम हुसैन की तरफ से कुवैत खाली करने के कोई भी संकेत नहीं आए।

अन्तत: 20 नवम्बर, 1990 को यह प्रस्ताव पारित किया गया कि यदि इराक 15 जनवरी, 1991 तक कुवैत से नहीं हटता है तो उसके विरुद्ध सैन्य कार्रवाई की जा सकती है।

प्रश्न 3.
खाड़ी युद्ध (प्रथम) से अमेरिका को क्या लाभ हुए?
उत्तर:
खाड़ी युद्ध (प्रथम) से अमेरिका को होने वाले लाभ —

  1. इस युद्ध के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका का विश्व में वर्चस्व व दबदबा कायम रहा। अब उसे ही विश्व की एकमात्र शक्ति माना जाने लगा क्योंकि इस युद्ध से साम्यवादी चीन, रूस, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन कुछ भी नहीं कर पाया।
  2. खाड़ी के इस तेल उत्पादक क्षेत्र पर संयुक्त राज्य अमेरिका का वर्चस्व स्थापित हो गया। उसने उसके आर्थिक आधार को मजबूती प्रदान की।
  3. इस युद्ध के बाद अमेरिका ने इराक के तेल निर्यात की बहुत बड़ी राशि क्षतिपूर्ति के रूप में वसूल कर ली।
  4. इस युद्ध में अमेरिका ने जितना खर्च किया उससे ज्यादा राशि उसे जर्मनी, जापान व सऊदी अरब जैसे देशों से मिली थी।

प्रश्न 4.
‘ऑपरेशन इनफाइनाइट रीच’ पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
‘ऑपरेशन इनफाइनाइट रीच’-सन् 1998 में केन्या और तंजानिया के अमेरिकी दूतावासों पर आतंकवादी आक्रमण हुए। एक अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठन अलकायदा को इन दूतावासों पर आक्रमण के लिए जिम्मेदार माना गया। परिणामतः इस बमबारी के कुछ दिनों बाद क्लिंटन प्रशासन ने आतंकवाद की समाप्ति के नाम पर एक नया अभियान शुरू किया जिसे ‘ऑपरेशन इनफाइनाइट रीच’ का नाम दिया।

इस अभियान में अमेरिका ने किसी की परवाह किए बिना सूडान और अफगानिस्तान में अलकायदा के ठिकानों पर क्रूज मिसाइलों से हमले किए। इस अभियान की संयुक्त राष्ट्र संघ से भी अनुमति नहीं ली गई। विश्व में अमेरिकी वर्चस्व का यह एक उदाहरण है कि वह जब चाहे जिस देश में चाहे अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय की परवाह किए बिना क्रूज मिसाइलों से हमला कर सकता है।

प्रश्न 5.
स्पष्ट कीजिए कि अमेरिकी आर्थिक प्रबलता उसकी ढाँचागत शक्ति से अलग नहीं है।
उत्तर:
अमेरिका की आर्थिक प्रबलता उसकी ढाँचागत ताकत यानी वैश्विक अर्थव्यवस्था को एक खास शक्ल में बदलने की ताकत से जुड़ी हुई है। यथा

  1. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रेटनवुड प्रणाली कायम हुई थी। अमेरिका द्वारा कायम यह प्रणाली आज भी विश्व की अर्थव्यवस्था की बुनियादी संरचना का काम कर रही है।
  2. विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन अमेरिकी वर्चस्व का ही परिणाम हैं।
  3. अमेरिका की ढाँचागत ताकत का एक मानक उदाहरण एमबीए की अकादमिक डिग्री है। एमबीए के शुरुआती पाठ्यक्रम सन् 1900 में आरम्भ हुए जबकि अमेरिका के बाहर इसकी शुरुआत सन् 1950 में ही जाकर हो सकी। आज दुनिया में कोई भी देश ऐसा नहीं है जिसमें एमबीए को प्रतिष्ठित अकादमिक दर्जा हासिल न हो।

प्रश्न 7.
क्या संयुक्त राज्य अमेरिका के सामने चीन चुनौती खड़ा कर सकता है?
उत्तर:
पहला पक्ष : कुछ अन्तर्राष्ट्रीय विश्लेषकों का एक तर्क यह है कि अमेरिका प्रतिद्वन्द्वी होने के लिए चीन पर्याप्त शक्तिशाली बनने जा रहा है। इसके समर्थन में उनके तर्क हैं-

  1. चीन की आर्थिक वृद्धि के अति सकारात्मक पूर्वानुमान,
  2. बीजिंग की सेना के आधुनिकीकरण के प्रयास,
  3. ताइवान, तिब्बत, व्यापार और मानवाधिकार जैसे मुद्दों का अमेरिका-चीन के बीच मतभेद होना।

दूसरा पक्ष-कुछ अन्तर्राष्ट्रीय विश्लेषकों का मत है कि चीन विश्व में अमेरिका की प्रधानता को चुनौती देने की स्थिति में नहीं होगा, क्योंकि-

  1. दोनों देशों के बीच आर्थिक सम्बन्धों ने हाल ही के वर्षों में नई ऊँचाइयाँ स्पर्श की हैं।
  2. चीन की आर्थिक उपलब्धियों को उसकी विशाल जनसंख्या का भार उसे संकट में डालता रहेगा।
  3. सैन्य क्षमताओं में भी चीन अमेरिका का मुकाबला नहीं कर सकता।

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प्रश्न 8.
1991 में नई विश्व व्यवस्था की शुरुआत कैसे हुई?
उत्तर:
सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका के एकमात्र महाशक्ति के रूप में बने रहने को नवीन विश्व व्यवस्था की उपमा दी जाती है। अचानक हुए सोवियत संघ के विघटन से प्रत्येक व्यक्ति आश्चर्यचकित रह गया। अमेरिका द्वारा सोवियत संघ जैसी दो महाशक्तियों में एक का वजूद अब समाप्त हो गया था, जबकि दूसरी अपनी बढ़ी हुई शक्ति के साथ कायम थी। इससे स्पष्ट है कि अमेरिकी वर्चस्व की शुरुआत सन् 1991 में सोवियत संघ के अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य से हटने की वजह से हुई। अमेरिकी वर्चस्व का इतिहास केवल सन् 1991 तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के समय सन् 1945 से ही प्रारम्भ हो जाता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि अमेरिका ने सन् 1991 से ही वर्चस्वकारी शक्ति की तरह आचरण करना शुरू नहीं किया वास्तव में काफी समयावधि के उपरान्त यह बात स्पष्ट हुई थी कि विश्व वर्चस्व के दौर से गुजर रहा है।

प्रश्न 9.
‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
ऑपरेशन इराकी फ्रीडम-19 मार्च, 2003 को संयुक्त राज्य अमेरिका ने इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को सत्ता से हटाने के उद्देश्य से इराक पर हमला किया। अमेरिका के इस युद्ध को ‘ऑपरेशन इराकी

फ्रीडम’ कहा जाता है। अमेरिकी अगुवाई वाले आकांक्षियों के गठबन्धन में 40 से अधिक देश शामिल हुए। संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस हमले की अनुमति नहीं दी थी। अमेरिका ने दिखाने के लिए हमले का यह उद्देश्य बताया कि सामूहिक नरसंहार के हथियार बनाने से रोकने के लिए इराक पर हमला किया गया है, लेकिन इस हमले के पीछे अमेरिका का मुख्य उद्देश्य इराक के तेल भण्डारों पर नियन्त्रण करना एवं इराक में अमेरिका की मनपसन्द सरकार कायम करना था।

प्रश्न 10.
‘ऑपरेशन एण्ड्यूरिंग फ्रीडम’ पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
ऑपरेशन एण्ड्यूरिंग फ्रीडम-9/11 की घटना के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति ने अमेरिकी हितों को लेकर कदम उठाए। आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध के अंग के रूप में अमेरिका ने ‘ऑपरेशन एण्डयूरिंग फ्रीडम’ चलाया। यह अभियान उन सभी के विरुद्ध चलाया गया, जिन पर 9/11 का शक था। इस अभियान में मुख्य निशाना अलकायदा एवं अफगानिस्तान के तालिबान शासन को बनाया गया जिन्हें अमेरिका 9/11 के हमले के लिए उत्तरदायी मानता था। यह एक ऐसा अभियान था जिसमें शक के आधार पर अमेरिका किसी के भी विरुद्ध कार्रवाई कर सकता था। अतिलघ

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
एक-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था से क्या आशय है?
उत्तर:
एक-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था-विश्व की राजनीति में जब किसी एक ही महाशक्ति का वर्चस्व हो और अधिकांश अन्तर्राष्ट्रीय निर्णय उसकी इच्छानुसार ही लिए जाएँ, तो उसे एक-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था कहते हैं। वर्तमान में अमेरिका का विश्व-व्यवस्था में वर्चस्व स्थापित है।

प्रश्न 2.
एक-ध्रुवीय विश्व में अमेरिका अपना प्रभाव किस प्रकार जमा रहा है?
उत्तर:
एक-ध्रुवीय विश्व में अमेरिका निम्न प्रकार अपना प्रभाव जमा रहा है-

  1. अमेरिका अधिकांश देशों में आर्थिक हस्तक्षेप कर रहा है।
  2. अमेरिका दूसरे देशों में सैन्य हस्तक्षेप भी कर रहा है।
  3. यह संयुक्त राष्ट्र संघ की भी अवहेलना कर रहा है।

प्रश्न 3.
अमेरिका के मौजूदा वर्चस्व का मुख्य आधार क्या है?
उत्तर:
अमेरिका के मौजूदा वर्चस्व का मुख्य आधार उसकी बढ़ी-चढ़ी तथा बेजोड़ सैन्य शक्ति है। कोई भी देश अमेरिकी सैन्य शक्ति के साथ तुलना करने लायक भी नहीं है। इसके सैन्य प्रभुत्व का आधार सैन्य व्यय के साथ-साथ उसकी गुणात्मक बढ़त है।

प्रश्न 4.
अमेरिका की आर्थिक प्रबलता किस बात से जुड़ी हुई है?
उत्तर:
अमेरिका की आर्थिक प्रबलता उसकी ढाँचागत ताकत अर्थात् वैश्विक अर्थव्यवस्था को एक खास शक्ल में ढालने की ताकत से जुड़ी हुई है। अमेरिका द्वारा कायम की गयी ब्रेटनवुड प्रणाली आज भी विश्व की अर्थव्यवस्था की मूल संरचना का कार्य कर रही है।

प्रश्न 5.
‘अपने को छुपा लें’ नीति से क्या आशय है?
उत्तर:
‘अपने को छुपा लें’ नीति का आशय है-दबदबे वाले देश से यथासम्भव दूर-दूर रहना। चीन, रूस और यूरोपीय संघ सभी एक-न-एक तरीके से अपने को अमेरिकी निगाह में चढ़ने से बचा रहे हैं। इस तरह अमेरिका के बेवजह या बेपनाह क्रोध की चपेट में आने से ये देश अपने को बचाते हैं।

प्रश्न 5.
अमेरिकी वर्चस्व के सामने आई किन्हीं दो चुनौतियों को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
अमेरिकी वर्चस्व के समक्ष आतंकवादियों ने निम्नलिखित दो चुनौतियाँ प्रस्तुत की-

  1. अलकायदा द्वारा नैरोबी, केन्या तथा दारेसलाम (तंजानिया ) स्थित अमेरिकी दूतावास पर सन् 1998 मे बम वर्षा की गयी |
  2. तालिबानी आतंकवादियों ने अमेरिकी विमानों का अपहरण कर न्यूयार्क स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के साथ उन्हें टकराकर भारी नुकसान पहुँचाया |

प्रश्न 6.
खाड़ी युद्ध को अमेरिकी सैन्य अभियान ही क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
यद्यपि खाड़ी युद्ध में इराक के विरुद्ध बहुराष्ट्रीय सेना ने मिलकर आक्रमण किया, तथापि इस युद्ध को काफी हद तक अमेरिकी सैन्य अभियान ही कहा जाता है क्योंकि इसके प्रमुख एक अमेरिकी जनरल नार्मन श्वार्जकॉव थे और मिली-जुली सेना में 75 प्रतिशत सैनिक अमेरिका के ही थे।

प्रश्न 7.
समकालीन विश्व में एक नई विश्व व्यवस्था क्या है?
उत्तर:
समकालीन विश्व में एक नई विश्व व्यवस्था से यह आशय है कि वर्तमान में सोवियत संघ के विघटन के पश्चात् विश्व से द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था समाप्त हो गयी है। उसके स्थान पर एक-ध्रुवीय व्यवस्था स्थापित हो गयी है। इसमें संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व की एकमात्र महाशक्ति के रूप में उभरा है।

प्रश्न 8.
जॉर्ज बुश सीनियर ने किस व्यवस्था को नई विश्व व्यवस्था के नाम से सम्बोधित किया था?
उत्तर:
अगस्त 1990 में इराक ने कुवैत पर आक्रमण कर उस पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया। इराक की कुवैत से कब्जे हटाने के लिए राजनयिक स्तर पर की गई समस्त कोशिशें बेकार साबित हुईं तब संयुक्त राष्ट्र संघ ने कुवैत को मुक्त कराने के लिए बल प्रयोग की अनुमति प्रदान कर दी। यद्यपि शीतयुद्ध के दौरान वह इस प्रकार के विषयों पर मौन हो जाता था। इसी व्यवस्था को जॉर्ज बुश सीनियर ने नई विश्व व्यवस्था के नाम से सम्बोधित किया।

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प्रश्न 9.
प्रथम खाड़ी युद्ध को कम्प्यूटर युद्ध’ क्यों कहा गया? अथवा प्रथम खाड़ी युद्ध को वीडियो गेमवार’ क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
प्रथम खाड़ी युद्ध में संयुक्त राज्य अमेरिका ने बहुत ही उच्च तकनीक के स्मार्ट बमों का प्रयोग किया था। इसलिए इसे कुछ पर्यवेक्षकों ने ‘कम्प्यूटर युद्ध’ की संज्ञा दी। इस युद्ध का विभिन्न देशों के टेलीविजन पर व्यापक प्रसारण हुआ था इसलिए इसे वीडियो गेमवार’ भी कहा जाता है।

प्रश्न 10.
नाटो अमेरिकी वर्चस्व को कैसे सीमित कर सकता है?
उत्तर:
उत्तर अटलाण्टिक सन्धि संगठन (नाटो) वर्तमान में अमेरिकी वर्चस्व को सीमित कर सकता है क्योंकि अमेरिका के बहुत अधिक हित इस संगठन से जुड़े हुए हैं। नाटो में सम्मिलित अधिकांश देशों में बाजारमूलक (पूँजीवादी) अर्थव्यवस्था चलती है। इसी कारण इस बात की सम्भावना बनती है कि नाटो में सम्मिलित देश अमेरिका पर अंकुश लगा सकते हैं।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
प्रथम खाड़ी युद्ध को किस सैन्य अभियान के नाम से जाना जाता है-
(a) ऑपरेशन डेजर्ट स्टार्म |
(b) ऑपरेशन एण्ड्यरिंग फ्रीडम
(c) ऑपरेशन इराकी फ्रीडम
(d) ऑपरेशन ब्लू स्टार।
उत्तर:
(a) ऑपरेशन डेजर्ट स्टाम।

प्रश्न 2.
न्यूयॉर्क (अमेरिका)स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर आतंकी हमला हुआ था-
(a) 11 सितम्बर, 1991 को
(b) 19 जून, 2002 को
(c) 11 सितम्बर, 2001 को
(d) 12 फरवरी, 2004 को।
उत्तर:
(c) 11 सितम्बर, 2001 को।

प्रश्न 3.
9/11 की घटना के लिए जिम्मेदार माना गया-
(a) अलकायदा तथा तालिबान को
(b) सोवियत संघ को
(c) पाकिस्तान को
(d) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(a) अलकायदा तथा तालिबान को।

प्रश्न 4.
संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा ऑपरेशन इराकी फ्रीडम कूट नाम से इराक पर सैन्य हमला किया गया था-
(a) 11 सितम्बर, 2001 को
(b) 19 मार्च, 2003 को
(c) 19 फरवरी, 2004 को
(d) 17 जून, 2006 को।
उत्तर:
(b) 19 मार्च, 2003 को।

प्रश्न 5.
हेगेमनी शब्द की जड़ें हैं-
(a) प्राचीन यूनान में
(b) अमेरिका में
(c) चीन में
(d) जापान में।
उत्तर:
(a) प्राचीन यूनान में।

प्रश्न 6.
विश्व के प्रथम बिजनेस स्कूल की स्थापना हुई थी-
(a) 1881 में
(b) 1900 में
(c) 1950 में
(d) 1962 में।
उत्तर:
(a) 1881 में।

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प्रश्न 7.
एक-ध्रुवीय शक्ति के रूप में अमेरिकी वर्चस्व की शुरुआत हुई-
(a) 1991 में
(b) 1992 में
(c) 1994 में
(d) 1997 में।
उत्तर:
(a) 1991 में।

प्रश्न 8.
वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उभरती प्रवृत्ति है
(a) एकल ध्रुवीय विश्व व्यवस्था
(b) निःशस्त्रीकरण
(c) सैनिक गठबन्धन
(d) शीतयुद्ध में तीव्रता।
उत्तर:
(a) एकल ध्रुवीय विश्व व्यवस्था।

प्रश्न 9.
ऑपरेशन इनफाइनाइट रीच का सम्बन्ध है-
(a) तालिबान और अलकायदा के खिलाफ
(b) पाकिस्तान के खिलाफ
(c) अफगानिस्तान के खिलाफ
(d) सूडान पर मिसाइल से हमला।
उत्तर:
(d) सूडान पर मिसाइल से हमला।

प्रश्न 10.
अमेरिका ने आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध के रूप में चलाई मुहिम को नाम दिया-
(a) ऑपरेशन एण्ड्यू रिंग फ्रीडम
(b) ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म
(c) ऑपरेशन इराकी फ्रीडम
(d) ऑपरेशन इनफानाइट रीच।
उत्तर:
(a) ऑपरेशन एण्ड्यू रिंग फ्रीडम।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 The End of Bipolarity

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 The End of Bipolarity (दो ध्रुवीयता का अंत)

UP Board Class 12 Civics Chapter 2 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 2 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
सोवियत अर्थव्यवस्था की प्रकृति के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन गलत है?
(क) सोवियत अर्थव्यवस्था में समाजवाद प्रभावी विचारधारा थी।
(ख) उत्पादन के साधनों पर राज्य का स्थायित्व/नियन्त्रण होना।
(ग) जनता को आर्थिक आजादी थी।
(घ) अर्थव्यवस्था के हर पहलू का नियोजन और नियन्त्रण राज्य करता था।
उत्तर:
(ग) जनता को आर्थिक आजादी थी।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित को कालक्रमानुसार सजाएँ-
(क) अफगान संकट
(ख) बर्लिन दीवार का गिरना
(ग) सोवियत संघ का विघटन
(घ) रूसी क्रान्ति।
उत्तर:
(क) रूसी क्रान्ति
(ख) अफगान संकट
(ग) बर्लिन दीवार का गिरना
(घ) सोवियत संघ का विघटन।

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सा सोवियत संघ के विघटन का परिणाम नहीं है?
(क) संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के बीच विचारधारात्मक लड़ाई का अन्त।
(ख) स्वतन्त्र राज्यों के राष्ट्रकुल (सी०आई०एस०) का जन्म।
(ग) विश्वव्यवस्था में शक्ति सन्तुलन में बदलाव।
(घ) मध्यपूर्व में संकट।
उत्तर:
(घ) मध्यपूर्व में संकट।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में मेल बैठाएँ-
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 The End of Bipolarity 1
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 The End of Bipolarity 2

प्रश्न 5.
रिक्त स्थानों की पूर्ति करें-
(क) सोवियत राजनीतिक प्रणाली ………… की विचारधारा पर आधारित थी।
(ख) सोवियत संघ द्वारा बनाया गया सैन्य गठबन्धन …………. था।
(ग) …………. पार्टी का सोवियत राजनीतिक व्यवस्था पर दबदबा था।
(घ) ………… ने 1985 में सोवियत संघ में सुधारों की शुरुआत की।
(ङ) …………. का गिरना शीतयुद्ध के अन्त का प्रतीक था।
उत्तर:
(क) सोवियत राजनीतिक प्रणाली समाजवाद की विचारधारा पर आधारित थी।
(ख) सोवियत संघ द्वारा बनाया गया सैन्य गठबन्धन वारसा पैक्ट था।
(ग) साम्यवादी पार्टी का सोवियत राजनीतिक व्यवस्था पर दबदबा था।
(घ) मिखाइल गोर्बाचेव ने 1985 में सोवियत संघ में सुधारों की शुरुआत की।
(ङ) बर्लिन की दीवार का गिरना शीतयुद्ध के अन्त का प्रतीक था।

प्रश्न 6.
सोवियत अर्थव्यवस्था को किसी पूँजीवादी देश जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका की अर्थव्यवस्था से अलग करने वाली किन्हीं तीन विशेषताओं का जिक्र करें।
उत्तर:
सोवियत संघ ने समाजवादी व्यवस्था को अपनाया जबकि अमेरिका ने पूँजीवादी व्यवस्था को अपनाया। समाजवादी अर्थव्यवस्था को पूँजीवादी देश जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका की अर्थव्यवस्था से अलग करने वाली तीन विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-

  1. सोवियत अर्थव्यवस्था पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से भिन्न है क्योंकि इसमें उद्योगों को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया जबकि पूँजीवादी देशों में विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका में उद्योगों को विशेष महत्त्व दिया गया।
  2. सोवियत अर्थव्यवस्था के उत्पादन तथा वितरण के साधनों पर राज्य या सरकार का नियन्त्रण था, जबकि पूँजीवादी देशों में निजीकरण को अपनाया गया।
  3. पूँजीवादी अर्थव्यवस्था वाले देशों के विपरीत सोवियत संघ में अर्थव्यवस्था योजनाबद्ध और राज्य के नियन्त्रण में थी। पूँजीवादी देशों में मुक्त व्यापार की नीति को अपनाया गया।

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प्रश्न 7.
किन बातों के कारण गोर्बाचेव सोवियत संघ में सुधार के लिए बाध्य हुए?
उत्तर:
निम्नांकित बातों की वजह से गोर्बाचेव सोवियत संघ मे सुधार हेतु बाध्य हुए-

(1) पश्चिमी देशों में सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रान्ति हो रही थी और सोवियत संघ को उनकी बराबरी में लाने के लिए सुधार आवश्यक हो गए थे। गोर्बाचेव ने पश्चिमी देशों के साथ सम्बन्धों को सामान्य बनाने, सोवियत संघ को लोकतान्त्रिक संघ का रूप देने और वहाँ सुधार करने का फैसला किया। इस फैसले की कुछ ऐसी भी परिस्थितियाँ रहीं जिनका किसी को कोई अन्दाजा नहीं था। पूर्वी यूरोप के देश सोवियत खेमे के हिस्से में थे। इन देशों की जनता ने अपनी सरकारों और सोवियत नियन्त्रण का विरोध करना शुरू कर दिया। गोर्बाचेव ने देश के अन्दर आर्थिक, राजनीतिक सुधारों और लोकतन्त्रीकरण की नीति अपनायी, जिसका कट्टर कम्युनिस्ट नेताओं द्वारा विरोध किया जाने लगा।

(2) सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था काफी समय तक अवरुद्ध रही। गोर्बाचेव ने सैन्यवाद को कम करके राष्ट्रीय संसाधनों को विकास कार्यों में लगाने के लिए यह आवश्यक समझा कि पश्चिमी देशों के साथ सम्बन्धों को सामान्य बनाया जाए।
साम्यवादी दल का देश में प्रभाव होने से सत्ता का केन्द्रीकरण हुआ। बोरिस येल्तसिन ने सैन्य तख्तापलट के विरोध में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और वे एक नायक की तरह उभरकर सामने आए। ऐसे में गोर्बाचेव ने सुधार करके सोवियत संघ की समस्याओं को पूरा करने का वायदा किया और उन्होंने अर्थव्यवस्था को सुधारने, पश्चिम की बराबरी पर लाने और प्रशासनिक ढाँचे को सुधारने का प्रयत्न किया और वायदा किया कि वे व्यवस्था को सुधारेंगे।

वास्तव में सोवियत संघ पश्चिमी देशों की तुलना में काफी पिछड़ चुका था। यह पूँजीवादी देशों से अलग-थलग पड़ गया। जनता अपने अधिकारों और स्वतन्त्रता की माँग करने लगी। ऐसे में आवश्यक था कि गोर्बाचेव सोवियत संघ में सुधार करें। गोर्बाचेव ने सब बातों को ध्यान में रखते हुए सुधार के प्रयास किए और वायदे भी किए परन्तु वह आलोचना से बरी न हो पाए और उनका समर्थन करने वाले धीरे-धीरे घटते चले गए।

प्रश्न 8.
भारत जैसे देशों के लिए सोवियत संघ के विघटन के क्या परिणाम हुए?
उत्तर:
सोवियत संघ के विघटन से पूर्व भारत और सोवियत संघ के बीच काफी अच्छे सम्बन्ध थे। इसके बाद भारत के रूस के साथ भी गहरे सम्बन्ध बने। रूस और भारत दोनों का सपना बहुध्रुवीय विश्व का था।

भारत जैसे देशों के लिए सोवियत संघ के विघटन के परिणाम भारत हेतु सोवियत संघ के विघटन के अग्रलिखित परिणाम हुए-

  1. सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत को यह आशा होने लगी कि अन्तर्राष्ट्रीय तनाव एवं संघर्ष की समाप्ति हो जाएगी और हथियारों की दौड़ पर अंकुश लगेगा।
  2. भारत जैसे देशों में लोग पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शक्तिशाली एवं महत्त्वपूर्ण . अर्थव्यवस्था मानने लगे। उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की नीतियाँ अपनायी जाने लगीं।
  3. भारत में राजनीतिक रूप से उदारवादी लोकतन्त्र को सभी दलों में श्रेष्ठ समझा।
  4. भारत की विदेश नीति में परिवर्तन आया। भारत ने सोवियत संघ से अलग हुए सभी गणराज्यों से नए रूप में अपने सम्बन्ध स्थापित किए। साथ ही चीन के साथ भारत को सम्बन्ध सुधारने का भी लाभ हुआ।
  5. भारत रूस के लिए हथियारों का दूसरा सबसे बड़ा खरीदार देश है। रूस भारत की परमाण्विक योजना के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। भारत और रूस विभिन्न वैज्ञानिक परियोजनाओं में साझीदार है।

इस तरह स्पष्ट है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत ने अपनी विदेश नीति में थोड़ा-सा परिवर्तन करके भारत के हितों की पूर्ति एवं अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की छवि को और अधिक सुधारा।

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प्रश्न 9.
शॉक थेरेपी क्या थी? क्या साम्यवाद से पूँजीवाद की तरफ संक्रमण का यह सबसे बेहतर तरीका था?
उत्तर:
शॉक थेरेपी का अर्थ—साम्यवाद के पतन के पश्चात् पूर्व सोवियत संघ के गणराज्य एक सत्तावादी समाजवादी व्यवस्था से लोकतान्त्रिक पूँजीवादी व्यवस्था तक के कष्टप्रद संक्रमण से होकर गुजरे। रूस, मध्य एशिया के गणराज्य और पूर्वी यूरोप के देशों में पूँजीवाद की ओर से संक्रमण का एक विशेष मॉडल अपनाया गया। विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा निर्देशित इस मॉडल को शॉक थेरेपी अर्थात् आघात पहुँचाकर उपचार करना कहा गया।

शॉक थेरेपी से साम्यवादी अर्थव्यवस्था में पूर्ण रूप से परिवर्तन लाने की प्रक्रिया अपनायी गई। शॉक थेरेपी की सर्वोपरि मान्यता थी कि मिल्कियत का सबसे प्रभावी रूप निजी स्वामित्व होगा। इसमें राज्य की सम्पदा के निजीकरण और व्यावसायिक स्वामित्व के ढाँचे को तुरन्त अपनाने की बात शामिल थी। सामूहिक कार्य को निजी कार्य में बदला गया और पूँजीवादी पद्धति से खेती शुरू हुई। इस संक्रमण में राज्य नियन्त्रित समाजवाद या पूँजीवाद के अतिरिक्त किसी भी वैकल्पिक व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया गया।

शॉक थेरेपी से इन अर्थव्यवस्थाओं के बाहरी व्यवस्थाओं के प्रति रुझान बुनियादी तौर पर बदल गए। अब यह स्वीकार कर लिया गया कि अधिक-से-अधिक व्यापार करके ही विकास किया जा सकता है। इस तरह मुक्त व्यापार को पूर्ण रूप से अपनाना आवश्यक माना गया।

रूस ने मध्य एशिया के गणराज्य और पूर्वी यूरोप के देशों में इस मॉडल को अपनाया। अत: सोवियत संघ के विघटन के बाद सोवियत संघ के गणराज्य समाजवादी व्यवस्था से लोकतान्त्रिक पूँजीवादी व्यवस्था तक के संक्रमण से गुजरे। अन्ततः इस संक्रमण से सोवियत खेमे के देशों के बीच मौजूद व्यापारिक गठबन्धनों को समाप्त कर दिया गया। धीरे-धीरे इन देशों को पश्चिमी अर्थतन्त्र में समाहित किया गया। पश्चिमी दुनिया के पूँजीवादी देश अब नेता की भूमिका निभाते हुए अपने विभिन्न संगठनों के सहारे इस खेमे के देशों के विकास का मार्गदर्शन और नियन्त्रण करेंगे।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित कथन के पक्ष या विपक्ष में एक लेख लिखें.. “दूसरी दुनिया के विघटन के बाद भारत को अपनी विदेश-नीति बदलनी चाहिए और रूस जैसे परम्परागत मित्र की जगह संयुक्त राज्य अमेरिका से दोस्ती करने पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए।”
उत्तर:
उपर्युक्त कथन के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-

(1) भारत द्वारा अपनायी गयी गुटनिरपेक्षता की नीति वर्तमान में पूरी तरह से लाभप्रद नहीं हो सकती क्योंकि अब विश्व में दो महाशक्तियाँ नहीं हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद अब विश्व में अमेरिका ही महाशक्ति है। अत: अब हमें अमेरिका के साथ सम्बन्ध बनाए रखना चाहिए। इसमें ही भारत का हित होगा।

(2) भारत और अमेरिका दोनों ही देशों में उदारीकरण की नीति अपनायी गई है। भारत के समान ही अमेरिका में भी शक्तिशाली लोकतन्त्र है। भारत ने अमेरिका के साथ सम्बन्धों में परिवर्तन करके सामान्यीकरण की प्रक्रिया अपनाई।

(3) संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत की स्वराज की माँग का समर्थन किया था और ब्रिटेन की सरकार पर भारत को शीघ्र स्वतन्त्रता देने के लिए दबाव डाला था। इसके बाद भी अमेरिका ने भारत को समय-समय पर विभिन्न प्रकार की सहायता दी। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद भारत की स्थिर लोकतन्त्रीय व्यवस्था, भारत में उदारीकरण, भारत के प्राकृतिक संसाधन आदि के कारण भारत और अमेरिका के सम्बन्धों में निकटता आती रही है।

(4) 11 सितम्बर, 2001 में अमेरिका में आतंकवादी हमले के समय अमेरिका ने भारत तथा पाकिस्तान के साथ मधुर सम्बन्ध बनाने का प्रयास किया। भारत और अमेरिकां दोनों ने मिलकर आतंकवाद को समाप्त करने की योजना बनाई।

(5) भारत को संयुक्त राज्य अमेरिका से अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए सतर्क रहकर ही सम्बन्ध बनाने चाहिए और अपनी सम्प्रभुता और स्वतन्त्रता के प्रति सतर्क रहना चाहिए क्योंकि अमेरिका भी भारत के साथ व्यापारिक सम्बन्धों में वृद्धि करने को निरन्तर उत्सुक रहता है।
उपर्युक्त बिन्दुओं से स्पष्ट होता है कि समय और परिस्थितियों को देखते हुए भारत को अपनी विदेश नीति में परिवर्तन लाना चाहिए, जो कि भारत के लिए हितकर होगा।

पूछे गए कथन के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-

(1) सोवियत संघ भारत का परम्परागत मित्र रहा है। भारत के विकास में सोवियत संघ का विशेष सहयोग रहा है। खुश्चेव ने भारत-रूस मैत्री को मजबूत किया और कश्मीर के प्रश्न पर संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का समर्थन किया। ताशकन्द समझौते ने भी भारत-रूस के सम्बन्धों को बढ़ावा दिया।

(2) सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत ने सभी 15 गणराज्यों को मान्यता दी। रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन 27 जनवरी, 1993 को भारत आए और 29 जनवरी, 1993 को भारत-रूस सन्धि की गई जिसमें तय किया गया था कि दोनों देश एक-दूसरे की अखण्डता तथा सीमाओं आदि की रक्षा करेंगे। इसी दौरान भारत-रूस के मध्य सैन्य तकनीकी समझौता भी हुआ।

(3) जून 1994 के पश्चात् भारत और रूस के शासनाध्यक्षों का आवागमन हुआ और विभिन्न प्रकार के सैन्य, तकनीकी और व्यापारिक समझौते हुए।

(4) भारत द्वारा मई 1998 में किए गए नाभिकीय परीक्षणों का रूस ने समर्थन किया और भारत को बधाई दी। भारत-पाक कारगिल युद्ध के समय भी रूस ने भारत का समर्थन किया। 7 दिसम्बर, 1999 को भारत और रूस के मध्य एक दसवर्षीय समझौता हुआ। इसके अनुसार वे सभी प्रकार के सैन्य व असैन्य विमानों के उत्पादन का. कार्य करेंगे।

(5) भारतीय सेना के आधुनिकीकरण के लिए रूस व भारत के मध्य चार समझौते हुए और विभिन्न प्रकार के सहयोग का आदान-प्रदान हुआ। साथ ही यह भी तय किया गया कि भारत और पाकिस्तान के मध्य विवादों का निपटारा दोनों देश आपस में वार्ता करके समाप्त करेंगे। कोई अन्य देश हस्तक्षेप नहीं करेगा।

(6) आतंकवाद पर चर्चा करने के लिए 4 नवम्बर, 2001 को भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी रूस गए। वहाँ आतंकवाद के विरुद्ध संयुक्त घोषणा-पत्र जारी किया गया।
स्वतन्त्रता के बाद भारत द्वारा अपनायी गयी गुटनिरपेक्ष नीति के कारण भारत और अमेरिका के बीच कटुता पैदा हो गयी। इसके साथ ही अमेरिका का झुकाव पाकिस्तान की तरफ हो गया और उस प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से भारत के विरुद्ध पाकिस्तान को सैनिक सहायता प्रदान की। उपर्युक्त कारणों से भारत-अमेरिका के मधुर सम्बन्धों का ह्रास हुआ है।

UP Board Class 12 Civics Chapter 2 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 2 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
मानचित्र में स्वतन्त्र मध्य एशियाई देशों को चिह्नित करें।
पूर्वी, मध्य यूरोप और ‘स्वतन्त्र राज्यों के राष्ट्रकुल’ का मानचित्र
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 The End of Bipolarity 3
स्त्रोत : https://www.unicef.org/hac2012/images/HAC2012_CEE_CIS_map_REVISED.gif
नोट—इस मानचित्र में दी गई सीमाएँ एवं नाम और पदमनाम संयुक्त राष्ट्र द्वाराआधिकारिक रूप से अनुमोदित या स्वीकृत नहीं हैं।
उत्तर:
स्वतन्त्र मध्य एशियाई देश ये हैं—

  1. उज्बेकिस्तान,
  2. ताजिकिस्तान,
  3. कजाकिस्तान,
  4. किरगिझस्तान,
  5. तुर्कमेनिस्तान।

प्रश्न 2.
मैंने किसी को कहते हुए सुना है कि “सोवियत संघ का अन्त समाजवाद का अन्त नहीं है।” क्या यह सम्भव है?
उत्तर:
यह सही है कि सोवियत संघ का अन्त समाजवाद का अन्त नहीं है। यद्यपि सोवियत संघ समाजवादी विचारधारा का प्रबल समर्थक तथा उसका प्रतीक था, लेकिन वह समाजवाद के एक रूप का प्रतीक था। समाजवाद के अनेक रूप हैं और समाजवादी विचारधारा के उन रूपों को अभी भी विश्व के अनेक देशों ने अपना रखा है। दूसरे, समाजवाद एक विचारधारा है जिसमें देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार विकास होता रहा है और अब भी हो रहा है। इसीलिए सोवियत संघ का अन्त समाजवाद का अन्त नहीं है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 The End of Bipolarity

प्रश्न 3.
सोवियत और अमेरिकी दोनों खेमों के शीतयुद्ध के दौर के पाँच-पाँच देशों के नाम लिखिए।
उत्तर:
शीतयुद्ध के दौर के सोवियत और अमेरिकी खेमों के पाँच-पाँच देशों के नाम निम्नलिखित हैं
(1) अमेरिकी खेमे के देश-

  1. संयुक्त राज्य अमेरिका,
  2. इंग्लैण्ड,
  3. फ्रांस,
  4. पश्चिमी जर्मनी,
  5. इटली।

(2) सोवियत खेमे के देश-

  1. सोवियत संघ,
  2. पूर्वी जर्मनी,
  3. पोलैण्ड,
  4. रोमानिया,
  5. हंगरी।

UP Board Class 12 Civics Chapter 2 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 2 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सोवियत संघ के विभाजन के कारणों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। अथवा सोवियत संघ का पतन क्यों हुआ? कारणों सहित विवेचना कीजिए। अथवा सोवियत संघ के विघटन के लिए उत्तरदायी कारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सोवियत संघ के विभाजन (विघटन) के लिए उत्तरदायी कारण
विश्व की दूसरी महाशक्ति (सोवियत संघ) का सन् 1991 में अचानक विघटन हो गया और इसके साथ ही सोवियत संघ की साम्यवादी शासन-व्यवस्था का भी अन्त हो गया। सोवियत संघ के विघटन के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

1. राजनीतिक-आर्थिक संस्थाओं की शिथिलता-सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था वर्षों तक रुकी रही। इससे उपभोक्ता वस्तुओं की व्यापक कमी हो गई और सोवियत संघ की एक बड़ी आबादी अपनी राजव्यवस्था को सन्देह की नजर से देखने लगी थी। सोवियत संघ की राजनीतिक व आर्थिक संस्थाएँ अन्दर से कमजोर हो चुकी थीं जो जनता की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकीं। फलस्वरूप यह स्थिति सोवियत संघ के पतन या विभाजन का कारण बनी।

2. संसाधनों का अधिकांश भाग परमाणु हथियार व सैन्य साजो-सामान पर व्यय करना-सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था में गतिरोध आने के पीछे एक कारण यह भी है कि सोवियत संघ ने अपने संसाधनों का अधिकांश भाग परमाणु हथियार एवं सैन्य साजो-सामान पर व्यय किया। साथ ही उसने अपने संसाधन पूर्वी यूरोप के अपने पिछलग्गू देशों के विकास पर भी खर्च किए ताकि वे सोवियत संघ के नियन्त्रण में रहें। इससे सोवियत संघ पर गहरा आर्थिक दबाव पड़ा, अर्थव्यवस्था का यह गतिरोध आगे चलकर इसके विभाजन का कारण बना।

3. औद्योगीकरण के क्षेत्र में पिछड़ना-औद्योगीकरण के विरोध के कारण सोवियत संघ में विज्ञान और तकनीक का विकास नहीं हो पाया। कृषि के द्वारा देश का विकास उस गति से नहीं हो पाया, जैसा कि पश्चिमी देशों का हुआ। सच्चाई यह थी कि सोवियत संघ पश्चिमी देशों की तुलना में पिछड़ चुका था, इससे लोगों को मनोवैज्ञानिक धक्का लगा; जो सोवियत संघ के विभाजन का एक कारण बना।

4. कम्युनिस्ट पार्टी का अंकुश-सोवियत संघ पर कम्युनिस्ट पार्टी ने 70 सालों तक शासन किया और यही पार्टी अब जनता के प्रति जवाबदेह नहीं रह गई थी। एक ही दल होने से भी संसाधनों पर कम्युनिस्ट पार्टी का नियन्त्रण रहता था, साथ ही जनता के पास कोई विकल्प भी नहीं था। पार्टी के अधिकारियों को आम नागरिकों से अधिक विशेषाधिकार मिले हुए थे। लोग अपने को राजव्यवस्था और शासकों से जोड़कर नहीं देख पा रहे थे, साथ ही चुनाव का भी कोई विकल्प नहीं था। अतः धीरे-धीरे सरकार का जनाधार खिसकता चल गया; जो सोवियत संघ के विघटन का कारण बना।

5. गोर्बाचेव द्वारा किए गए सुधार एवं जनता को प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता-जब गोर्बाचेव ने सुधारों को लागू किया और व्यवस्था में ढील दी तो लोगों की आकांक्षाओं-अपेक्षाओं का ऐसा ज्वार उमड़ा जिसका अनुमान शायद ही कोई लगा सकता था और जनता गोर्बाचेव की धीमी कार्य पद्धति से धीरज खो बैठी। धीरे-धीरे खींचातानी में गोर्बाचेव का समर्थन हर तरह से जाता रहा। जो लोग उनके साथ थे, उनका भी मोह भंग हो गया।

6. राष्ट्रवादी भावनाओं और सम्प्रभुता की इच्छा का उभार-रूस और बाल्टिक गणराज्य (एस्टोनिया, लताविया एवं लिथुआनिया) उक्रेन तथा जॉर्जिया जैसे सोवियत संघ के विभिन्न गणराज्य इस उभार में शामिल थे।

राष्ट्रीयता और सम्प्रभुता के भावों का उभार सोवियत संघ के विघटन का अन्तिम और सर्वाधिक तात्कालिक कारण सिद्ध हुआ।

प्रश्न 2.
सोवियत संघ के विघटन के क्या परिणाम हुए? सविस्तार बताइए।
उत्तर:
सोवियत संघ के विघटन के परिणाम सोवियत संघ की दूसरी दुनिया एवं पूर्वी यूरोप की समाजवादी व्यवस्था के पतन के परिणाम विश्व राजनीति की दृष्टि से गम्भीर रहे, जिनका विवरण निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत प्रस्तुत किया जा सकता है-

1. शीतयुद्ध के दौर की समाप्ति-सोवियत संघ की दूसरी दुनिया एवं पूर्वी यूरोप की समाजवादी व्यवस्था के पतन का प्रथम परिणाम शीतयुद्ध के दौर के संघर्ष की समाप्ति के रूप में हुआ। समाजवादी प्रणाली पूँजीवादी प्रणाली को हटा पाएगी या नहीं यह विवाद अब कोई मुद्दा नहीं रहा।
समाजवादी एवं पूँजीवादी व्यवस्था के विचारात्मक शीतशुद्ध के इस विवाद ने दोनों गुटों की सेनाओं को उकसाया था। हथियारों की तीव्र होड़ शुरू की थी, परमाणु हथियारों के संचय को बढ़ावा दिया था और विश्व को सैन्य गुटों में बाँटा था। शीतयुद्ध के समाप्त होने से हथियारों की होड़ भी समाप्त हो गई और नई शान्ति की सम्भावना का जन्म हुआ।

2. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के शक्ति सम्बन्धों में बदलाव-शीतयुद्ध के अन्त के समय केवल दो सम्भावनाएँ थीं—या तो बनी हुई महाशक्ति का दबदबा रहेगा और एक ध्रुवीय विश्व बनेगा या फिर देशों के अलग-अलग समूह अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण मोहरे बनकर उभरेंगे और इस प्रकार बहु-ध्रुवीय विश्व बनेगा-किन्तु हुआ यह कि अमेरिका महाशक्ति बन बैठा और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के शक्ति सम्बन्धों में बदलाव आया। राजनीतिक रूप से उदारवादी लोकतन्त्र राजनीतिक जीवन को सूत्रबद्ध करने की सर्वश्रेष्ठ धारणा के रूप में उभरकर सामने आया। .

3. अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के प्रभाव में वृद्धि-सोवियत संघ के विभाजन से सम्पूर्ण विश्व में साम्यवाद का प्रभाव भी कम हो गया था जिसके कारण संयुक्त राज्य अमेरिका की पूँजीवादी विचारधारा को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पैठ बनाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व की सबसे प्रभावशाली अर्थव्यवस्था बन गई। विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाएँ विभिन्न देशों की ताकतवर सलाहकार बन गईं क्योंकि इन्हीं देशों को पूँजीवाद की ओर कदम बढ़ाने के लिए इन संस्थाओं ने ऋण दिया था। इन समस्त बातों ने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आगे बढ़ाने एवं विश्व में प्रभुत्व स्थापित करने में सहायता पहुँचायी।

4. नए स्वतन्त्र देशों का उदय-चौथा महत्त्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि सोवियत खेमे के अन्त के साथ ही नए देशों का उदय हुआ। सोवियत संघ से अलग हुए गणराज्य एक सम्प्रभु और स्वतन्त्र राष्ट्र बन गए।
ये राष्ट्र हैं-

  1. रूस,
  2. उक्रेन,
  3. जॉर्जिया,
  4. अर्मेनिया,
  5. बेलारूस,
  6. एस्टोनिया,
  7. लिथुआनिया,
  8. लताविया,
  9. तुर्कमेनिस्तान,
  10. उज्बेकिस्तान,
  11. किरगिस्तान,
  12. अजरबैजान,
  13. ताजिकिस्तान,
  14. माल्दोवा,
  15. कजाकिस्तान।

इनमें से कुछ देश विशेष रूप से बाल्टिक और पूर्वी यूरोप के देश ‘यूरोपीय संघ’ से जुड़ना और उत्तरी अटलाण्टिक सन्धि संगठन (नाटो) का हिस्सा बनना चाहते थे। मध्य एशिया के देश अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति का लाभ उठाना चाहते थे। इन देशों ने रूस के साथ अपने मजबूत रिश्ते को जारी रखा और पश्चिमी देशों, संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन तथा अन्य देशों के साथ सम्बन्ध बनाए। इस तरह अन्तर्राष्ट्रीय फलक पर कई नए देश सामने आए।

5. खनिज तेल भण्डारों पर अमेरिकी प्रभाव का बढ़ना-सोवियत संघ के विघटन के परिणामस्वरूप संयुक्त राज्य अमेरिका पर अब किसी प्रकार का कोई दबाव नहीं रहा। संयुक्त राज्य अमेरिका ने धीरे-धीरे प्रत्येक क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित करना प्रारम्भ कर दिया। उसने मध्य पूर्व में घुर पैठ करना प्रारम्भ कर दिया और वहाँ के तेल भण्डारों पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।

6. हिंसक अलगाववादी आन्दोलन का प्रारम्भ-सोवियत संघ से अलग हुए कई गणराज्यों में अनेक कारणों से संघर्ष होने लगे। चेचन्या एवं ताजिकिस्तान में हिंसक अलगाववादी आन्दोलन चला। ताजिकिस्तान लगभग 10 वर्षों तक गृह युद्ध की चपेट में रहा। अजरबैजान, जॉर्जिया, उक्रेन, किरगिस्तान आदि में मौजूदा शासन-व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए आन्दोलन चल रहे हैं।

प्रश्न 3.
शॉक थेरेपी क्या है? इसके विभिन्न परिणाम बताइए।
उत्तर:
शॉक थेरेपी का अर्थ-साम्यवाद के पतन के पश्चात् पूर्व सोवियत संघ के गणराज्य एक सत्तावादी समाजवादी व्यवस्था से लोकतान्त्रिक पूँजीवादी व्यवस्था के कष्टप्रद संक्रमण से होकर गुजरे। रूस, मध्य एशिया के गणराज्य और पूर्वी यूरोप के देशों में पूँजीवाद की ओर से संक्रमण का एक विशेष मॉडल अपनाया गया। विश्व बैंक एवं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा निर्देशित इस मॉडल को ‘शॉक थेरेपी’ अर्थात् आघात पहुँचाकर उपचार करना कहा जाता है।

शॉक थेरेपी में सम्पत्ति पर निजी स्वामित्व, राज्य की सम्पदा के निजीकरण एवं व्यापारिक स्वामित्व के ढाँचे को अपनाना, पूँजीवादी पद्धति से खेती करना, मुक्त व्यापार को पूर्ण रूप से अपनाना, वित्तीय खुलापन एवं मुद्राओं की आपसी परिवर्तनशीलता को अपनाना शामिल है।

शॉक थेरेपी के परिणाम शॉक थेरेपी के प्रमुख परिणाम निम्नलिखित हैं-

1. अर्थव्यवस्था का नष्ट होना–सन् 1990 में अपनायी गयी शॉक थेरेपी जनता को उपभोग के उस आनन्द लोक तक नहीं ले गई, जिसका उसने वादा किया था। शॉक थेरेपी से पूरे क्षेत्र की अर्थव्यवस्था नष्ट हो गई और जनता को बरबादी की मार झेलनी पड़ी। रूस में पूरा राज्य नियन्त्रित औद्योगिक ढाँचा चरमरा उठा। लगभग 90 प्रतिशत उद्योगों को निजी हाथों अथवा कम्पनियों को बेच दिया गया। आर्थिक ढाँचे का यह पुनर्निर्माण चूंकि सरकार द्वारा नियन्त्रित औद्योगीकरण नीति की अपेक्षा बाजार की शक्तियाँ कर रही थीं; इसलिए यह कदम सभी उद्योगों को नष्ट करने वाला सिद्ध हुआ। इसे इतिहास की सबसे बड़ी ‘गराज सेल’ के नाम से जाना जाता है क्योंकि महत्त्वपूर्ण उद्योगों की कीमत कम-से-कम करके आँकी गयी तथा उन्हें औने-पौने दामों में बेच दिया गया। यद्यपि इस महाबिक्री में भाग लेने के लिए समस्त जनता को अधिकार पत्र प्रदान किए गए थे, लेकिन अधिकांश जनता ने अपने अधिकार पत्र कालाबाजारियों को बेच दिए क्योंकि उन्हें धन की आवश्यकता थी।

2. रूसी मुद्रा (रूबल) में गिरावट-शॉक थेरेपी के कारण रूसी मुद्रा रूबल के मूल्य में नाटकीय ढंग से गिरावट आयी। मुद्रास्फीति इतनी अधिक बढ़ी कि लोगों की जमा पूँजी धीरे-धीरे समाप्त हो गयी और लोग निर्धन हो गए।

3. खाद्यान्न सुरक्षा की समाप्ति-शॉक थेरेपी के कारण सामूहिक खेती की प्रणाली समाप्त हो गई। अब लोगों की खाद्यान्न सुरक्षा व्यवस्था भी समाप्त हो गई, जिस कारण लोगों के समक्ष खाद्यान्न की समस्या भी उत्पन्न होने लगी। रूस ने खाद्यान्न का आयात कर दिया। पुराना व्यापारिक ढाँचा तो टूट चुका था, लेकिन इसके स्थान पर कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो पायी थी।

4.समाज कल्याण की समाजवादी व्यवस्था को नष्ट किया जाना-सोवियत संघ से अलग हुए राज्यों में समाज कल्याण की समाजवादी व्यवस्था को क्रम से नष्ट किया गया। समाजवादी व्यवस्था के स्थान पर नई पँजीवादी व्यवस्था को अपनाया गया। इस व्यवस्था के बदलने से लोगों को प्रदान की जाने वाली राजकीय रियायतें समाप्त हो गईं; जिससे अधिकांश लोग निर्धन होने लगे। इस कारण मध्यम एवं शिक्षित वर्ग का पलायन हुआ और वहाँ कई देशों में एक नया वर्ग उभरकर सामने आया जिसे माफिया वर्ग के नाम से जाना गया। इस वर्ग ने वहाँ की अधिकांश आर्थिक गतिविधियों को अपने हाथों में ले लिया।

5. आर्थिक असमानताओं का जन्म-निजीकरण ने नई विषमताओं को जन्म दिया। पूर्व सोवियत संघ में शामिल गणराज्यों और विशेषकर रूस में अमीर और गरीब के बीच गहरी खाई तैयार हो गयी। अब धनी और निर्धन के बीच गहरी असमानता ने जन्म ले लिया था।

6. लोकतान्त्रिक संस्थाओं के निर्माण को प्राथमिकता नहीं सोवियत संघ से अलग हुए गणराज्यों में शॉक थेरेपी के अन्तर्गत आर्थिक परिवर्तन को बड़ी प्राथमिकता दी गई है और उसे पर्याप्त स्थान भी दिया गया, लेकिन लोकतान्त्रिक संस्थाओं के निर्माण का कार्य ऐसी प्राथमिकता के साथ नहीं हो सका। इन सभी देशों में जल्दबाजी में संविधान तैयार किए गए। रूस सहित अधिकांश देशों में राष्ट्रपति को कार्यपालिका का प्रमुख बनाया गया और उसके हाथों में अधिकांश शक्तियाँ प्रदान कर दी गईं। फलस्वरूप संसद अपेक्षाकृत कमजोर संस्था रह गयी।

7.शासकों का सत्तावादी स्वरूप-एशिया के देशों में राष्ट्रपति को बहुत अधिक शक्तियाँ प्रदान कर दी गईं और इनमें से कुछ सत्तावादी हो गए। उदाहरण के लिए, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान के राष्ट्रपतियों ने पहले 10 वर्षों के लिए अपने को इस पद पर बहाल किया और उसके बाद समय सीमा को अगले 10 वर्षों के लिए बढ़ा दिया। इन राष्ट्रपतियों ने अपने फैसले से असहमति या विरोध की अनुमति नहीं दी।

8. न्यायपालिका की स्वतन्त्रता स्थापित नहीं सोवियत संघ से अलग हुए गणराज्यों में न्यायिक संस्कृति एवं न्यायपालिका की स्वतन्त्रता अभी तक स्थापित नहीं हो पायी है जिसे स्थापित किया जाना आवश्यक है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
सोवियत प्रणाली के प्रमुख दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सोवियत प्रणाली के प्रमुख दोष –

  1. सोवियत प्रणाली पर नौकरशाही का पूर्ण नियन्त्रण था। सोवियत प्रणाली सत्तावादी होती चली गई तथा जन साधारण का जीवन लगातार कठिन होता चला गया।
  2. सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी का एकदलीय कठोर शासन था। साम्यवादी दल का देश की समस्त संस्थाओं पर कड़ा नियन्त्रण था तथा यह दल जनसाधारण के प्रति उत्तरदायी भी नहीं था।
  3. सोवियत संघ के पन्द्रह गणराज्यों में रूस का अत्यधिक वर्चस्व था तथा शेष चौदह गणराज्यों के लोग स्वयं को उपेक्षित तथा दबा हुआ समझते थे।
  4. सोवियत प्रणाली प्रौद्योगिकी तथा आधारभूत ढाँचे को सुदृढ़ बनाने में विफल रहने के साथ ही पाश्चात्य देशों से काफी पिछड़ गई। सोवियत संघ ने हथियारों के विनिर्माण में देश की आय का बहुत बड़ा हिस्सा व्यय कर दिया।

प्रश्न 2.
सोवियत प्रणाली की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
सोवियत प्रणाली की विशेषताएँ समाजवादी सोवियत गणराज्य रूस में हुई सन् 1917 की समाजवादी क्रान्ति के बाद अस्तित्व में आया। सोवियत प्रणाली की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं-

  1. सोवियत राजनीतिक प्रणाली की धुरी कम्युनिस्ट पार्टी थी। इस दल का सभी संस्थाओं पर गहरा नियन्त्रण था।
  2. सोवियत आर्थिक प्रणाली योजनाबद्ध एवं राज्य के नियन्त्रण में थी।
  3. सोवियत संघ में सम्पत्ति पर राज्य का स्वामित्व एवं नियन्त्रण था।
  4. सोवियत संघ की संचार प्रणाली बहुत उन्नत थी। इसके दूर-दराज के क्षेत्र भी आवागमन की सुव्यवस्थित एवं विशाल प्रणाली के कारण आपस में जुड़े हुए थे।
  5. सोवियत संघ के पास विशाल ऊर्जा संसाधन थे जिनमें खनिज तेल, लोहा, उर्वरक, इस्पात व मशीनरी आदि शामिल थे।
  6. सोवियत संघ का घरेलू उपभोक्ता उद्योग भी बहुत उन्नत था।
  7. सोवियत संघ में बेरोजगारी नहीं थी।

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प्रश्न 3.
सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोप की समाजवादी व्यवस्था के विघटन के विश्व राजनीति में क्यां परिणाम निकले?
उत्तर:
सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोप की समाजवादी व्यवस्था के विघटन के विश्व राजनीति में परिणाम

  1. दूसरी दुनिया के पतन का एक परिणाम शीतयुद्ध के दौर के संघर्ष की समाप्ति में हुआ। शीतयुद्ध के समाप्त होने से हथियारों की होड़ भी समाप्त हो गई और एक नई शान्ति की सम्भावना का जन्म हुआ।
  2. दूसरी दुनिया के पतन से विश्व राजनीति में शक्ति-सम्बन्ध बदल गए इस कारण विचारों और संस्थाओं के आपेक्षिक प्रभाव में भी बदलाव आया।
  3. सोवियत संघ के पतन के बाद अमेरिका एकमात्र महाशक्ति बनकर उभरा और एक-ध्रुवीय विश्व राजनीति सामने आयी।
  4. सोवियत खेमे के अन्त से अनेक नए देशों का उदय हुआ। इन देशों ने रूस के साथ अपने मजबूत रिश्ते को जारी रखते हुए पश्चिमी देशों के साथ सम्बन्ध बढ़ाए।

प्रश्न 4.
मान लीजिए सोवियत संघ का विघटन नहीं हुआ होता तथा विश्व 1980 के मध्य की तरह द्वि-ध्रुवीय होता, तो यह अन्तिम दो दशकों के विकास को किस प्रकार प्रभावित करता? इस प्रकार के विश्व के तीन क्षेत्रों या प्रभाव तथा विकास का वर्णन करें, जो नहीं हुआ होता।
उत्तर:
सन् 1991 में यदि सोवियत संघ का पतन नहीं हुआ होता तो ये अन्तिम दोनों दशक भी शीतयुद्ध की राजनीति से प्रभावित रहते और विश्व में निम्नलिखित प्रभाव होते-

1. एक-धुवीय विश्व व्यवस्था की स्थापना नहीं होती–यदि सोवियत संघ का पतन नहीं हुआ होता तो विश्व राजनीति में एक ही महाशक्ति अमेरिका का यह वर्चस्व नहीं होता जो सोवियत संघ के पतन के बाद हुआ है।

2. अफगानिस्तान तथा इराक देशों की स्थिति में परिवर्तन-सोवियत संघ के पतन के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान और इराक में अपना हस्तक्षेप अत्यधिक बढ़ा दिया तथा दोनों को युद्ध के लिए मजबूर कर उन्हें तहस-नहस कर दिया। यदि सोवियत संघ का पतन न हुआ होता तो इन क्षेत्रों में सोवियत संघ अमेरिका का विरोध करता और युद्ध का विरोध करता।

3. संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थिति में परिवर्तन–यदि सोवियत संघ का पतन नहीं होता तो संयुक्त राष्ट्र संघ में अमेरिका की मनमानी नहीं चलती और संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रभावशीलता समाप्त नहीं होती।

प्रश्न 5.
द्वि-ध्रुवीय विश्व के पतन के कारणों को समझाइए।
उत्तर:
द्वि-धुवीय विश्व के पतन के कारण द्वि-ध्रुवीय विश्व के पतन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. अमेरिकी गुट में फूट-द्वि-ध्रुवीय विश्व के पतन का एक प्रमुख कारण अमेरिकी गुट में फूट पड़ना था। फ्रांस जैसा देश अमेरिका पर अविश्वास करने लगा था।
  2. सोवियत गुट में फूट-सोवियत गुट से पूर्वी यूरोपीय देशों तथा चीन का अलग होना सोवियत खेमे को कमजोर कर गया।
  3. सोवियत संघका पतन-द्वि-ध्रुवीय विश्व के पतन का एक प्रमुख कारण सोवियत संघ का पतन रहा।
  4. गुटनिरपेक्ष आन्दोलन-गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ने अधिकांश विकासशील देशों को दोनों गुटों से अलग रखने में सफलता पायी। इससे द्वि-ध्रुवीय विश्व को झटका लगा।

प्रश्न 6.
1950 के दशक में द्वि-ध्रुवीकरण में आयी दरारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
द्वि-ध्रुवीकरण की दरारें-1950 के दशक में ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए जिनके कारण द्वि-ध्रुवीकरण में कमजोरी आयी।
सोवियत खेमे में दरारें-

  1. सन् 1948 में यूगोस्लाविया ने सोवियत संघ से अपने आपको स्वतन्त्र करने में सफलता प्राप्त कर ली।
  2. सन् 1956 में हंगरी ने भी स्वतन्त्रता के प्रयास किए। इससे सोवियत खेमे को गहरा झटका लगा।
  3. 1960 के दशक में चीन-सोवियत सीमा विवाद, 1970 के दशक में चीन अमेरिकी वार्ता आदि से चीन और सोवियत संघ में दरारें आयीं।
  4. पोलैण्ड और चेकोस्लोवाकिया के उदारवादी आन्दोलन व रूमानिया द्वारा कार्य करने की स्वतन्त्रता ने सोवियत खेमे को और कमजोर कर दिया।

अमेरिकी खेमे में दरारें

  1. सन् 1956 में ब्रिटेन और फ्रांस द्वारा स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण के प्रयासों से अमेरिकी खेमे के विश्वास को झटका लगा।
  2. लैटिन अमेरिका में क्यूबा के साम्यवादी देश के रूप में उभरने से अमेरिकी गुट को धक्का लगा।

प्रश्न 7.
किन कारणों ने गोर्बाचेव को सोवियत संघ में सुधार करने के लिए बाध्य किया?
उत्तर:
मिखाइल गोर्बाचेव सोवियत प्रणाली में निम्नलिखित कारणों की वजह से सुधार लाना चाहते थे-

(1) सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था पश्चिमी देशों की तुलना में काफी पिछड़ गयी थी, अर्थव्यवस्था में गतिरोध पैदा होने की वजह से देश में उपभोक्ता वस्तुओं की भारी कमी उत्पन्न हो रही थी। सोवियत संघ को पाश्चात्य देशों की बराबरी पर लाने के लिए गोर्बाचेव सोवियत प्रणाली में सुधार लाना चाहते थे।

(2) सोवियत संघ के अधिकांश गणराज्य समाजवादी शासन से ऊब गए थे और वे विद्रोह करने पर आमादा हो गए थे।

(3) गोर्बाचेव ने पश्चिम के देशों के साथ सम्बन्धों को सामान्य बनाने तथा सोवियत संघ को लोकतान्त्रिक रूप देने के लिए वहाँ सुधार करने पर फैसला किया।

प्रश्न 8.
सोवियत संघ के विघटन में गोर्बाचेव की भूमिका का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सोवियत संघ के विघटन में गोर्बाचेव की भूमिका-सोवियत संघ के विघटन में गोर्बाचेव की सुधारवादी नीतियों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। गोर्बाचेव ने आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्र में सुधार के प्रयत्न किए थे। वे सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था को पश्चिम की बराबरी पर लाना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने प्रशासनिक ढाँचे में लचीलापन लाने का प्रयास किया। लेकिन गोर्बाचेव ने देश में समानता, स्वतन्त्रता, राष्ट्रीयता, भ्रातृत्व व एकता के वातावरण को तैयार किए बिना ही पुनर्गठन (पेरेस्त्रोइका) व खुलापन (ग्लासनोस्त) जैसी महत्त्वपूर्ण नीतियों को लागू कर दिया था।

गोर्बाचेव द्वारा लागू की गई जनतान्त्रिक नीतियों के कारण सोवियत संघ के कुछ गणराज्यों में सोवियत संघ से अलग होकर स्वतन्त्र राष्ट्र निर्माण का विचार उत्पन्न हुआ। रूस, बाल्टिक गणराज्य, उक्रेन व जॉर्जिया में राष्ट्रीयता व सम्प्रभुता की इच्छा का उभार सोवियत संघ के विघटन का तात्कालिक कारण सिद्ध हुआ। परिणामस्वरूप सोवियत संघ को अपने कुछ गणराज्यों के अलग होने के निर्णय को मान्यता देनी पड़ी। इसके पश्चात् तो एक के बाद एक सोवियत संघ के सभी 15 गणराज्य अलग होकर स्वतन्त्र होते गए और देखते-देखते सोवियत संघ का विघटन हो गया।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
बर्लिन की दीवार का निर्माण एवं विध्वंस किस प्रकार की घटना कहलाती है?
उत्तर:
शीतयुद्ध के उत्कर्ष के चरम दौर में सन् 1961 में बर्लिन की दीवार खड़ी की गई। यह दीवार शीतयुद्ध का प्रतीक रही। सन् 1989 में पूर्वी जर्मनी की जनता ने इसे गिरा दिया। यह जर्मनी के एकीकरण, साम्यवादी खेमें की समाप्ति तथा शीतयुद्ध की समाप्ति की शुरुआत थी।

प्रश्न 2.
सन् 1989 में बर्लिन की दीवार के ढहने को द्वि-ध्रुवीयता का अन्त क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
द्वि-ध्रुवीयता के दौर में जर्मनी दो भागों में विभाजित हो गया था। जहाँ पूर्वी जर्मनी साम्यवादी सोवियत संघ के प्रभाव में तथा पश्चिमी जर्मनी संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभाव में था। सन् 1989 में बर्लिन की दीवार के ढहने के बाद ही सम्पूर्ण विश्व में से सोवियत संघ का प्रभाव भी समाप्त हो गया तथा अब तक दो ध्रुवों में विभाजित विश्व एक-ध्रुवीय हो गया।

प्रश्न 3.
‘दूसरी दुनिया के देश’ से आपका क्या तात्पर्य है? अथवा समाजवादी खेमे के देशों से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व दो गुटों में विभक्त हो गया। एक गुट का नेतृत्व पूँजीवादी देश संयुक्त राज्य अमेरिका कर रहा था। इस गुट में सम्मिलित देशों को पहली दुनिया के देश कहा गया। दूसरे गुट का नेतृत्व साम्यवादी देश समाजवादी सोवियत गणराज्य (रूस) कर रहा था। इस गुट के देशों को दूसरी दुनिया के देश अथवा समाजवादी खेमे के देश कहा जाता है।

प्रश्न 4.
ब्लादिमीर लेनिन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
ब्लादिमीर लेनिन-ब्लादिमीर लेनिन का जन्म सन् 1870 को हुआ था। ब्लादिमीर रूस की बोल्शेविक कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक थे। ये सन् 1917 की रूसी क्रान्ति के नायक थे तथा सन् 1917-1924 की अवधि में सोवियत समाजवादी गणराज्य के संस्थापक अध्यक्ष रहे। ये मार्क्सवाद के असाधारण सिद्धान्तकार थे। इन्हें सम्पूर्ण विश्व में साम्यवाद का प्रेरणास्रोत माना जाता है। सन् 1924 में इनका निधन हो गया।

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प्रश्न 5.
सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था में गतिरोध क्यों आया? कोई दो कारण बताइए।
उत्तर:
सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था में निम्नलिखित कारणों से गतिरोध आया-

  1. सोवियत संघ ने अपने संसाधनों का अधिकांश भाग परमाणु हथियारों के विकास एवं सैन्य साजोसामान पर खर्च किया जिससे सोवियत संघ में आर्थिक संसाधनों की कमी आ गयी।
  2. सोवियत संघ को पूर्वी यूरोप के अपने पिछलग्गू देशों के विकास पर अपने संसाधन खर्च करने पड़े जिससे वह धीरे-धीरे आर्थिक तौर पर कमजोर होता चला गया।

प्रश्न 6.
आपकी राय में सोवियत संघ के विघटन के दो मुख्य कारण क्या थे?
उत्तर:
सोवियत संघ के विघटन के दो मुख्य कारण निम्नलिखित थे-

  1. तत्कालीन सोवियत संघ के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव द्वारा चलाए गए राजनीतिक एवं आर्थिक सुधार कार्यक्रम।
  2. सोवियत संघ के गणराज्यों में लोकतान्त्रिक एवं उदारवादी भावनाओं का उत्पन्न होना।

प्रश्न 7.
मिखाइल गोर्बाचेव द्वारा किए गए कार्यों को संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
मिखाइल गोर्बाचेव सोवियत संघ के अन्तिम राष्ट्रपति थे। इन्होंने सोवियत संघ के पेरेस्त्रोइका (पुनर्रचना) और ग्लासनोस्त (खुलेपन) की नीति में आर्थिक और राजनीतिक सुधार शुरू किए। इन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ मिलकर हथियारों की होड़ पर रोक लगाई। इन्होंने जर्मनी के एकीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।

प्रश्न 8.
बोरिस येल्तसिन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
बोरिस येल्तसिन-बोरिस येल्तसिन रूस के प्रथम राष्ट्रपति चुने गए। इन्होंने सन् 1991 में सोवियत संघ के शासन के विरुद्ध आन्दोलन का नेतृत्व किया तथा सोवियत संघ के विघटन में प्रमुख भूमिका निभाई। इन्हें साम्यवाद से पूँजीवाद की ओर हुए संक्रमण के दौरान रूसी लोगों को हुए कष्ट के लिए जिम्मेदार ठहराया गया।

प्रश्न 9.
सोवियत संघ के विघटन के पश्चात् स्वतन्त्र गणराज्यों के नाम लिखिए।
उत्तर:
सोवियत संघ के विघटन के बाद स्वतन्त्र हुए गणराज्य निम्नलिखित हैं-

  1. रूस,
  2. बेलारूस,
  3. उक्रेन,
  4. अर्मेनिया,
  5. अजरबैजान,
  6. माल्दोवा,
  7. कजाकिस्तान,
  8. किरगिस्तान,
  9. ताजिकिस्तान,
  10. तुर्कमेनिस्तान,
  11. उज्बेकिस्तान,
  12. जॉर्जिया,
  13. एस्टोनिया,
  14. लताविया,
  15. लिथुआनिया।

प्रश्न 10.
शॉक थेरेपी से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
शॉक थेरेपी का शाब्दिक अर्थ, ‘आघात पहुँचाकर उपचार करना’ है। शॉक थेरेपी का अभिप्राय है धीरे-धीरे परिवर्तन न करके एकदम आमूल-चूल परिवर्तन के प्रयत्नों को लादना। रूसी गणराज्य में शॉक थेरेपी से परिवर्तन हेतु जल्दबाजी में निजी स्वामित्व, वित्तीय खुलापन, मुक्त व्यापार एवं मुद्राओं की आपसी परिवर्तनशीलता पर बल दिया। शॉक थेरेपी का यह मॉडल विश्व बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा निर्देशित था।

प्रश्न 11.
पूर्व सोवियत संघ के इतिहास की सबसे बड़ी गराज सेल’ किसे कहा जाता है?
उत्तर:
सोवियत संघ के पतन के बाद अस्तित्व में आए नए गणराज्यों में शॉक थेरेपी (आघात पहुँचाकर उपचार करना) की विधि द्वारा अपनी अर्थव्यवस्था को सुधारने का प्रयास किया लेकिन शॉक थेरेपी के फलस्वरूप सम्पूर्ण क्षेत्र की अर्थव्यवस्था नष्ट हो गयी। रूस में, पूरा-का-पूरा राज्य-नियन्त्रित औद्योगिक ढाँचा चरमरा गया। लगभग 90 प्रतिशत उद्योगों को निजी हाथों या कम्पनियों को बेचां गया। इसे ही इतिहास की सबसे बड़ी गराज सेल’ कहा जाता है।

प्रश्न 12.
जोजेफ स्टालिन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
जोजेफ स्टालिन-जोजेफ स्टालिन लेनिन के बाद सोवियत संघ के सर्वोच्च नेता और राष्ट्राध्यक्ष बने। इन्होंने सोवियत संघ का सन् 1924 से 1953 तक नेतृत्व किया। इनके काल में सोवियत संघ में औद्योगीकरण को बढ़ावा मिला तथा खेती का बलपूर्वक सामूहिकीकरण किया गया। इन्हीं के काल में शीतयुद्ध का प्रारम्भ हुआ।

बहुकल्पीय प्रश्नोत्तार

प्रश्न 1.
शीतयुद्ध का सबसे बड़ा प्रतीक था-
(a) बर्लिन की दीवार का खड़ा किया जाना
(b) बर्लिन की दीवार का गिराया जाना।
(c) हिटलर के नेतृत्व में नाजी पार्टी का उत्थान
(d) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(a) बर्लिन की दीवार का खड़ा किया जाना।

प्रश्न 2.
बर्लिन की दीवार कब बनाई गई थी-
(a) 1961 में
(b) 1951 में
(c) 1971 में
(d) 1981 में।
उत्तर:
(a) 1961 में।

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प्रश्न 3.
शॉक थेरेपी अपनाई गई थी-
(a) 1988 में
(b) 1989 में
(c) 1990 में
(d) 1992 में।
उत्तर:
(c) 1990 में।

प्रश्न 4.
पूर्वी जर्मनी के लोगों ने बर्लिन की दीवार गिरायी-
(a) 1948 में
(b) 1991 में
(c) 1989 में
(d) 1961 में।
उत्तर:
(c) 1989 में।

प्रश्न 5.
सोवियत संघ के विघटन के लिए किस नेता को जिम्मेदार माना गया-
(a) निकिता खुश्चेव
(b) स्टालिन
(c) बोरिस येल्तसिन
(d) मिखाइल गोर्बाचेव।
उत्तर:
(d) मिखाइल गोर्बाचेव।

प्रश्न 6.
सोवियत संघ के विभाजन के बाद विश्व पटल पर कितने नए देशों का उद्भव हुआ-
(a) 11
(b) 9
(c) 10
(d) 15
उत्तर:
(d) 15.

प्रश्न 7. साम्यवादी गुट के विघटन का प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव पड़ा
(a) द्वि-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था का उदय
(b) बहु-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था का उदय
(c) एक-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था का उदय
(d) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(c) एक-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था का उदय।

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प्रश्न 8.
वर्तमान विश्व में कौन-सा एकमात्र देश महाशक्ति है-
(a) रूस
(b) चीन
(c) अमेरिका
(d) फ्रांस।
उत्तर:
(c) अमेरिका।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 1 The Cold War Era

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 1 The Cold War Era (शीतयुद्ध का दौर)

UP Board Class 12 Civics Chapter 1 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 1 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
शीतयुद्ध के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन गलत है?
(क) यह संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ और उनके साथी देशों के बीच की एक प्रतिस्पर्धा थी।
(ख) यह महाशक्तियों के बीच विचारधाराओं को लेकर एक युद्ध था।
(ग) शीतयुद्ध ने हथियारों की होड़ शुरू की।
(घ) अमेरिका और सोवियत संघ सीधे युद्ध में शामिल थे।
उत्तर:
(घ) अमेरिका और सोवियत संघ सीधे युद्ध में शामिल थे।

प्रश्न 2.
निम्न में से कौन-सा कथन गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के उद्देश्यों पर प्रकाश नहीं डालता?
(क) उपनिवेशवाद से मुक्त हुए देशों को स्वतन्त्र नीति अपनाने में समर्थ बनाना।
(ख) किसी भी सैन्य संगठन में शामिल होने से इंकार करना।
(ग) वैश्विक मामलों में तटस्थता की नीति अपनाना।
(घ) वैश्विक आर्थिक असमानता की समाप्ति पर ध्यान केन्द्रित करना।
उत्तर:
(ग) वैश्विक मामलों में तटस्थता की नीति अपनाना।

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प्रश्न 3.
नीचे महाशक्तियों द्वारा बनाए गए सैन्य संगठनों की विशेषता बताने वाले कुछ कथन दिए गए हैं। प्रत्येक कथन के सामने सही या गलत का चिह्न लगाएँ
(क) गठबन्धन के सदस्य देशों को अपने भू-क्षेत्र में महाशक्तियों के सैन्य अड्डे के लिए स्थान देना जरूरी था।
(ख) सदस्य देशों को विचारधारा और राजनीति दोनों स्तरों पर महाशक्ति का समर्थन करना था।
(ग) जब कोई राष्ट्र किसी एक सदस्य-देश पर आक्रमण करता था तो इसे सभी सदस्य देशों पर आक्रमण समझा जाता था।
(घ) महाशक्तियाँ सभी सदस्य देशों को अपने परमाणु हथियार विकसित करने में मदद करती थीं।
उत्तर:
(क) गठबन्धन के सदस्य देशों को अपने भू-क्षेत्र में महाशक्तियों के सैन्य अड्डों के लिए स्थान देना जरूरी था। (सही)
(ख) सदस्य देशों को विचारधारा और रणनीति दोनों स्तरों पर महाशक्ति का समर्थन करना था। (सही)
(ग) जब कोई राष्ट्र किसी एक सदस्य देश पर आक्रमण करता था तो इसे सभी सदस्य देशों पर आक्रमण समझा जाता था। (सही)
(घ) महाशक्तियाँ सभी सदस्य देशों को अपने परमाणु हथियार विकसित करने में मदद करती थीं। (गलत)

प्रश्न 4.
नीचे कुछ देशों की एक सूची दी गई है। प्रत्येक के सामने लिखें कि वह शीतयुद्ध के दौरान किस गुट से जुड़ा था?
(क) पोलैण्ड
(ख) फ्रांस
(ग) जापान
(घ) नाइजीरिया
(ङ) उत्तरी कोरिया
(च) श्रीलंका
उत्तर:
(क) पोलैण्ड–साम्यवादी गुट (सोवियत संघ)।
(ख) फ्रांस-पूँजीवादी गुट (संयुक्त राज्य अमेरिका)।
(ग) जापान–पूँजीवादी गुट (संयुक्त राज्य अमेरिका)।
(घ) नाइजीरिया-गुटनिरपेक्ष आन्दोलन।
(ङ) उत्तरी कोरिया-साम्यवादी गुट (सोवियत संघ)।
(च) श्रीलंका-गुटनिरपेक्ष आन्दोलन।

प्रश्न 5.
शीतयुद्ध से हथियारों की होड़ और हथियारों पर नियन्त्रण ये दोनों ही प्रक्रियाएँ पैदा हुईं। इन दोनों प्रक्रियाओं के क्या कारण थे?
उत्तर:
शीतयुद्ध के दौरान पूँजीवादी तथा साम्यवादी दोनों ही गुटों के बीच प्रतिस्पर्धा एवं प्रतिद्वन्द्विता समाप्त नहीं हुई थी। इसी वजह से परस्पर अविश्वास की परिस्थितियों में दोनों गठबन्धनों ने हथियारों का भारी भण्डारण करते हुए लगातार युद्ध की तैयारियाँ की। दोनों ही गुट अपने-अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु हथियारों के बड़े जखीरे को आवश्यक समझते थे। चूँकि दोनों ही गुट परमाणु हथियारों से लैस थे तथा वे इसके प्रयोग के दुष्परिणामों से भली-भाँति परिचित भी थे। दोनों महाशक्तियाँ जानती थीं कि यदि प्रत्यक्ष युद्ध लड़ा गया तो दोनों को भारी नुकसान होगा और इनमें से किसी के भी विश्व विजेता बनने की सम्भावनाएँ काफी कम हैं। अत: दोनों महाशक्तियों ने हथियारों पर नियन्त्रण के लिए अस्त्र-शस्त्रों की प्रतिस्पर्धा को समाप्त करने के प्रयास किए।

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प्रश्न 6.
महाशक्तियाँ छोटे देशों के साथ सैन्य गठबन्धन क्यों रखती थीं? तीन कारण बताइए।
उत्तर:
छोटे देशों के साथ महाशक्तियों द्वारा सैन्य गठबन्धन रखने के प्रमुख रूप से निम्नांकित तीन कारण थे

  1. महत्त्वपूर्ण संसाधन हासिल करना-महाशक्तियों को छोटे देशों से तेल तथा खनिज पदार्थ इत्यादि प्राप्त होता था।
  2. भू-क्षेत्र–महाशक्तियाँ इन छोटे देशों को अपने हथियारों की बिक्री करती थीं और इनके यहाँ अपने सैन्य अड्डे स्थापित करके सेना का संचालन करती थीं।
  3. सैनिक ठिकाने-छोटे देशों में अपने सैनिक ठिकाने बनाकर दोनों महाशक्तियाँ एक-दूसरे की जासूसी करती थीं।

प्रश्न 7.
कभी-कभी कहा जाता है कि शीतयुद्ध सीधे तौर पर शक्ति के लिए संघर्ष था और इसका विचारधारा से कोई सम्बन्ध नहीं था।क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने उत्तर के समर्थन में उदाहरण दें।
उत्तर:
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दो महाशक्तियाँ-संयुक्त राज्य अमेरिका तथा सोवियत संघ का आविर्भाव हुआ, जो कि अलग-अलग विचारधारा वाले थे। ऐसे में किसी भी देश के लिए एकमात्र विकल्प यह था कि वह अपनी सुरक्षा के लिए किसी एक महाशक्ति के साथ जुड़ा रहे।

शीतयुद्ध सीधे तौर पर शक्ति के लिए संघर्ष था इसका विचारधारा से कोई सम्बन्ध नहीं था, इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं हुआ जा सकता क्योंकि विश्व के साम्यवादी विचारधारा वाले, सोवियत संघ के गुट में शामिल हुए और पश्चिमी देश जो कि पूँजीवादी विचारधारा के थे, वे संयुक्त राज्य अमेरिका के गुट में शामिल हुए। सन् 1941 में सोवियत संघ के विघटन के साथ ही शीतयुद्ध समाप्त हो गया।

प्रश्न 8.
शीतयुद्ध के दौरान भारत की अमेरिका और सोवियत संघ के प्रति विदेश नीति क्या थी? क्या आप मानते हैं कि इस नीति ने भारत के हितों को आगे बढ़ाया?
उत्तर:
स्वतन्त्रता के पश्चात् तथा शीतयुद्ध के अन्त (1991) तक भारत की अमेरिका और सोवियत संघ के प्रति विदेश नीति अलग-अलग रही।

भारत द्वारा गुटनिरपेक्ष नीति को अपनाने के कारण प्रारम्भ से ही अमेरिका भारत से नाराज रहा और भारत के विरुद्ध पाकिस्तान को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सहायता करता था। जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमन्त्री के रूप में कार्यकाल से लेकर विश्वनाथ प्रताप सिंह एवं चन्द्रशेखर के प्रधानमन्त्री के रूप में कार्यकाल तक (शीतयुद्ध की समाप्ति तक) अमेरिका के साथ भारत के विशेष सम्बन्ध नहीं रहे। हालाँकि इस दौरान समय-समय पर अमेरिका ने भारत के साथ सम्बन्धों में थोड़ा-बहुत सुधार अवश्य किया, परन्तु वह पाकिस्तान को निरन्तर सैन्य सहायता देता रहा, यद्यपि अमेरिका ने पाकिस्तान की कश्मीर में घुसपैठ की निन्दा की, परन्तु इसके पीछे भी उसकी सोची-समझी कूटनीतिक चाल थी।

शीतयुद्ध के दौरान भारत और सोवियत संघ के सम्बन्ध मधुर रहे। भारत और सोवियत संघ निरन्तर एकदूसरे को सहयोग करते रहे। सोवियत संघ में बड़े पैमाने पर ‘भारत महोत्सव’ का आयोजन किया गया।

भारत द्वारा अपनाई गई गुटनिरपेक्ष नीति ने भारत के हितों को आगे बढ़ाया। इस नीति के कारण भारत ऐसे निर्णय ले सका जिससे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उसके हितों की पूर्ति हो सकी। साथ ही वह सदैव ऐसी स्थिति में रहा कि यदि कोई एक महाशक्ति उसका अथवा उसके हितों का विरोध करे तो दूसरी महाशक्ति उसको सहयोग करती। स्पष्ट है कि शीतयुद्ध के दौरान भारत अपने हितों के लिए लगातार सजग रहा।

प्रश्न 9.
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को तीसरी दुनिया के देशों ने तीसरे विकल्प के रूप में समझा। जब शीतयुद्ध अपने शिखर पर था तब इस विकल्प ने तीसरी दुनिया के देशों के विकास में कैसे मदद पहुँचाई?
उत्तर:
शीतयुद्ध की वजह से विश्व दो प्रतिद्वन्द्वी गुटों में बाँटा हुआ था। इसी सन्दर्भ में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ने एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के नव-स्वतन्त्र देशों को एक तीसरा विकल्प दिया। यह विकल्प था दोनों महाशक्तियों के गुटों से अलग रहने का। महाशक्तियों के गुटों से अलग रहने की नीति का अभिप्राय यह नहीं है कि इस आन्दोलन से जुड़े देश अपने को अन्तर्राष्ट्रीय मामलों से अलग-थलग रखते हैं अथवा तटस्थता का पालन करते हैं। गुटनिरपेक्षता का अर्थ है-पृथकतावाद नहीं। तीसरी दुनिया के देशों के विकास में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ने विशेष भूमिका निभायी।
संक्षेप में इस तथ्य को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में शामिल अधिकांश देशों को ‘अल्प विकसित देश’ का दर्जा मिला हुआ था। इन देशों के सामने मुख्य चुनौती आर्थिक रूप से अधिक विकास करने तथा अपनी जनता को गरीबी से उबारने की थी।

(2) इसी दृष्टिकोण से नव-आर्थिक व्यवस्था की धारणा का जन्म हुआ। सन् 1912 में संयुक्त राष्ट्र संघ के व्यापार और विकास से सम्बन्धित सम्मेलन में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गई जिसमें कहा गया था कि सुधारों से-

(क) अल्प विकसित देशों को अपने उन प्राकृतिक संसाधनों पर नियन्त्रण प्राप्त होगा जिनका दोहन पश्चिम के विकसित देश करते हैं।
(ख) अल्प विकसित देशों की पहुँच पश्चिमी देशों के बाजारों तक होगी, वे अपना सामान बेच सकेंगे और इस तरह गरीब देशों के लिए यह व्यापार फायदेमन्द होगा।
(ग) पश्चिमी देशों से मँगाई जा रही प्रौद्योगिकी की मात्रा कम होगी और
(घ) अल्प विकसित देशों की अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं में भूमिका बढ़ेगी।

(3) गुटनिरपेक्षता की प्रकृति धीरे-धीरे बदली और इसमें आर्थिक गुटों को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा।

(4) बेलग्रेड में हुए पहले सम्मेलन (1961) में आर्थिक मुद्दे अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं थे।
1970 के दशक के मध्य तक आर्थिक मुद्दे प्रमुख हो उठे। इसके कारण गुटनिरपेक्ष आन्दोलन आर्थिक दबाव समूह बन गया।

उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि तीसरी दुनिया के देशों को आर्थिक और तकनीकी दृष्टि से शक्तिशाली बनाने में तथा सभी नव-स्वतन्त्र देशों को अपनी-अपनी विदेश नीति निर्धारित करने में इस गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ने विशेष भूमिका का निर्वहन किया।

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प्रश्न 10.
“गुटनिरपेक्ष आन्दोलन अब अप्रासंगिक हो गया।” आप इस कथन के बारे में क्या सोचते हैं? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क प्रस्तुत करें।
उत्तर:
गुटनिरपेक्षता की नीति शीतयुद्ध के सन्दर्भ में सामने आई थी। शीतयुद्ध के अन्त और सोवियत संघ के विघटन से एक अन्तर्राष्ट्रीय आन्दोलन और भारत की विदेश नीति की मूल भावना के रूप में गुटनिरपेक्षता की प्रासंगिकता तथा प्रभावकारिता में कमी आयी।

सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व एकध्रुवीय बन चुका है। सन् 1992 में इण्डोनेशिया में दसवें शिखर सम्मेलन में अधिकतर सदस्यों ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को जारी रखने के साथ-साथ इसके उद्देश्यों को परिवर्तित करने पर जोर दिया।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की वर्तमान प्रासंगिकता

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की वर्तमान प्रासंगिकता को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. गुटनिरपेक्षता इस बात की पहचान पर टिकी है कि उपनिवेश की स्थिति से आजाद हुए देशों के बीच ऐतिहासिक जुड़ाव है और यदि ये देश साथ आ जाएँ तो एक शक्ति बन सकते हैं।
  2. गुटनिरपेक्षता की नीति के कारण किसी भी गरीब और छोटे देश को किसी महाशक्ति का पिछलग्गू बनने की आवश्यकता नहीं है।
  3. कोई भी देश अपनी स्वतन्त्र विदेश नीति अपना सकता है।
  4. गुटनिरपेक्ष देशों को आज भी आपसी सहयोग की दृष्टि से इस मंच की आवश्यकता है।
  5. संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभाव से मुक्त रहने के लिए इन निर्गुट राष्ट्रों का आपसी सहयोग आवश्यक है।
  6. यह नीति आज भी गुटनिरपेक्ष देशों को सुरक्षा प्रदान करती है साथ ही विश्व में नि:शस्त्रीकरण की आवश्यकता पर बल देती है।
  7. वास्तव में गुटनिरेपक्ष आन्दोलन मौजूद असमानताओं से निपटने के लिए एक वैकल्पिक विश्व व्यवस्था बनाने और अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को लोकतन्त्रधर्मी बनाने के संकल्प पर भी टिका है। अतः शीतयुद्ध के बाद भी यह आन्दोलन प्रासंगिक है।

UP Board Class 12 Civics Chapter 1 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 1 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
प्रत्येक प्रतिस्पर्धी गुट से कम-से-कम तीन देशों की पहचान करें।
उत्तर:
सोवियत संघ गुट के तीन सदस्य थे—

  1. पोलैण्ड,
  2. पूर्वी जर्मनी और
  3. रोमानिया।

अमेरिकी गुट के तीन सदस्य थे-

  1. पश्चिमी जर्मनी,
  2. ब्रिटेन और
  3. फ्रांस।

प्रश्न 2.
पाठ्यपुस्तक के अध्याय चार में दिए गए यूरोपीय संघ के मानचित्र को देखें और उन चार देशों के नाम लिखें जो पहले ‘वारसा सन्धि’ के सदस्य थे और अब यूरोपीय संघ के सदस्य हैं।
उत्तर:

  1. रोमानिया,
  2. बुल्गारिया,
  3. हंगरी,
  4. पोलैण्ड।

प्रश्न 3.
इस मानचित्र की तुलना यूरोपीय संघ के मानचित्र तथा विश्व के मानचित्र से करें। इस तुलना के बाद ऐसे तीन देशों के नाम लिखिए जो शीतयुद्ध के बाद अस्तित्व में आए।
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 1 The Cold War Era 1
उत्तर:

  1. उक्रेन,
  2. कजाकिस्तान,
  3. किरगिस्तान, तथा
  4. बेलारूसा (कोई तीन)

प्रश्न 4.
निम्नलिखित तालिका में तीन-तीन देशों के नाम उनके गुटों को ध्यान में रखकर लिखें-पूँजीवादी गुट, साम्यवादी गुट और गुटनिरपेक्ष आन्दोलन।
उत्तर:
पूँजीवादी गुट–

  1. संयुक्त राज्य अमेरिका,
  2. ब्रिटेन,
  3. फ्रांस।

साम्यवादी गुट–

  1. सोवियत संघ,
  2. पोलैण्ड,
  3. हंगरी।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन–

  1. भारत,
  2. मिस्र,
  3. घाना।

प्रश्न 5.
उत्तरी और दक्षिणी कोरिया अभी तक क्यों विभाजित हैं जबकि शीतयुद्ध के दौर के बाकी विभाजन मिट गए हैं? क्या कोरिया के लोग चाहते हैं कि विभाजन बना रहे?
उत्तर:
उत्तरी और दक्षिणी कोरिया अभी तक विभाजित हैं क्योंकि इसके पीछे संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के हित निहित हैं। इसलिए यहाँ के शासक वर्ग कोरिया के एकीकरण की ओर कदम नहीं बढ़ा पाए हैं। यद्यपि कोरिया के लोग विभाजन नहीं चाहते।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 1 The Cold War Era

प्रश्न 6.
पाँच ऐसे देशों के नाम बताएँ जो दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद उपनिवेशवाद के चंगुल से मुक्त हुए।
उत्तर:

  1. भारत,
  2. पाकिस्तान,
  3. घाना,
  4. इण्डोनेशिया,
  5. मिस्र।

UP Board Class 12 Civics Chapter 1 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 1 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्यूबा मिसाइल संकट पर विस्तार से लेख लिखिए।
उत्तर:
क्यूबा का मिसाइल संकट क्यूबा, अन्ध महासागर में स्थित एक छोटा-सा द्वीपीय देश है। यह संयुक्त राज्य अमेरिका की तटीय सीमा के निकट है। क्यूबा के मिसाइल संकट को निम्नलिखित बिन्दुओं में स्पष्ट किया जा सकता है-

1. क्यूबा का सोवियत संघ से लगाव-क्यूबा का अपने समीपवर्ती देश संयुक्त राज्य अमेरिका की अपेक्षा सोवियत संघ से लगाव था क्योंकि क्यूबा में साम्यवादियों का शासन था। सोवियत संघ उसे कूटनयिक एवं वित्तीय सहायता प्रदान करता था।

2. सोवियत संघ के नेताओं की चिन्ता-अप्रैल 1961 में सोवियत संघ के नेताओं को यह चिन्ता सता रही थी कि संयुक्त राज्य अमेरिका एक पूँजीवादी देश है जो विश्व में साम्यवाद को पसन्द नहीं करता। अत: वह साम्यवादियों द्वारा शासित क्यूबा पर आक्रमण कर राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो का तख्ता पलट कर सकता है। क्यूबा संयुक्त राज्य अमेरिका की शक्ति के आगे एक शक्तिहीन देश है।

3. क्यूबा में सोवियत संघ द्वारा परमाणु मिसाइलें तैनात करना-सोवियत संघ के नेता निकिता खुश्चेव ने संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा क्यूबा पर आक्रमण की आशंका को दृष्टिगत रखते हुए क्यूबा को रूस के सैनिक अड्डे के रूप में बदलने का निर्णय किया। सन् 1962 में खुश्चेव ने क्यूबा में परमाणु मिसाइलें तैनात कर दीं।

4. संयुक्त राज्य अमेरिका का नजदीकी निशाने की सीमा में आना-सोवियत संघ द्वारा क्यूबा में परमाणु मिसाइलों की तैनाती से पहली बार संयुक्त राज्य अमेरिका नजदीकी निशाने की सीमा में आ गया। मिसाइलों की तैनाती के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका के विरुद्ध सोवियत संघ की शक्ति में वृद्धि हो गयी।
सोवियत संघ पहले की तुलना में अब संयुक्त राज्य अमेरिका के मुख्य भू-भाग के लगभग दुगुने ठिकानों अथवा शहरों पर हमला कर सकता था।

5. संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा सोवियत संघ को चेतावनी दिया जाना—क्यूबा में सोवियत संघ द्वारा परमाणु मिसाइलें तैनात करने की जानकारी संयुक्त राज्य अमेरिका को लगभग तीन सप्ताह बाद प्राप्त हुई। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ० कैनेडी व उनके सलाहकार दोनों देशों के मध्य परमाणु युद्ध नहीं चाहते थे; फलस्वरूप उन्होंने संयम से काम लिया। अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी चाहते थे कि खुश्चेव क्यूबा से परमाणु मिसाइलों व अन्य हथियारों को हटा लें। उन्होंने अपनी सेना को आदेश दिया कि वह क्यूबा की तरफ जाने वाले सोवियत संघ के जहाजों को रोकें, इस तरह संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ को मामले के प्रति अपनी गम्भीरता की चेतावनी देना चाहता था। इस तनावपूर्ण स्थिति से ऐसा लगने लगा कि दोनों महाशक्तियों के मध्य भयानक युद्ध निश्चित रूप से होगा। सम्पूर्ण विश्व चिन्तित हो गया। इसे ही ‘क्यूबा मिसाइल संकट’ के नाम से जाना गया।

6. दोनों महाशक्तियों द्वारा युद्ध को टालने का फैसला-संयुक्त राज्य अमेरिका एवं सोवियत संघ ने युद्ध की भयावहता को दृष्टिगत रखते हुए युद्ध को टालने का फैसला लिया। दोनों पक्षों के इस फैसले से समस्त विश्व ने चैन की साँस ली। सोवियत संघ के जहाजों ने या तो अपनी गति धीमी कर ली अथवा वापसी का रुख कर लिया।
इस तरह क्यूबा का मिसाइल संकट टल गया, लेकिन इसने दोनों महाशक्तियों के मध्य शीतयुद्ध प्रारम्भ हो गया जो सोवियत संघ के विघटन तक जारी रहा।

प्रश्न 2.
शीतयुद्ध से क्या अभिप्राय है? अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर शीतयुद्ध के प्रभाव को विस्तार से बताइए।
उत्तर:
शीतयुद्ध से अभिप्राय शीतयुद्ध से अभिप्राय उस अवस्था से है जब दो या दो से अधिक देशों के मध्य तनावपूर्ण वातावरण तो हो, लेकिन वास्तव में कोई युद्ध न हो। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् संयुक्त राज्य अमेरिका तथा सोवियत संघ के मध्य युद्ध तो नहीं हुआ, लेकिन युद्ध जैसी स्थिति बनी रही। यह स्थिति शीतयुद्ध के नाम से जानी जाती है।

अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर शीतयुद्ध का प्रभाव

अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों (अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति) पर शीतयुद्ध के अनेक प्रभाव पड़े, जिनको सकारात्मक एवं नकारात्मक प्रभावों से बाँटा जा सकता है- शीतयुद्ध के सकारात्मक प्रभाव-

अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर शीतयुद्ध के सकारात्मक प्रभाव निम्नलिखित हैं-

1.शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व को प्रोत्साहन दोनों महाशक्तियों के मध्य शीतयुद्ध की भयावहता के कारण . सम्पूर्ण विश्व में विभिन्न देशों के मध्य शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व को भी प्रोत्साहन मिला।

2. गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की उत्पत्ति-दोनों महाशक्तियों संयुक्त राज्य अमेरिका एवं सोवियत संघ में शीतयुद्ध के कारण सम्पूर्ण विश्व दो प्रतिद्वन्द्वी गुटों में बँट रहा था। इन दोनों गुटों में सम्मिलित होने से बचने के लिए गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का जन्म एवं विकास हुआ जिसके तहत तीसरी दुनिया के देश अपनी स्वतन्त्र विदेश नीति का पालन कर सके।

3. नव-अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की धारणा का जन्म-गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में सम्मिलित अधिकांश देशों को अल्प-विकसित देश का दर्जा प्राप्त था। इन देशों के समक्ष मुख्य चुनौती अपने देश का आर्थिक विकास करना था। बिना टिकाऊ विकास के कोई देश सही अर्थों में स्वतन्त्र नहीं रह सकता था, उसे धनी देशों पर निर्भर रहना पड़ता था। इसमें वह उपनिवेशक देश भी हो सकता था, जिससे राजनीतिक आजादी हासिल की गई। इसी सोच के कारण नव-अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की धारणा का जन्म हुआ।

4. प्रौद्योगिक विकास-शीतयुद्ध के कारण समस्त विश्व में परमाणु शक्ति के क्षेत्र में प्रौद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिला।

(II) शीतयुद्ध के नकारात्मक प्रभाव

अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर शीतयुद्ध के नकारात्मक प्रभाव निम्नलिखित हैं-

1. विश्व का दो गुटों में विभाजन-शीतयुद्ध के कारण विश्व का दो गुटों में विभाजन हो गया। एक गुट संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ हो गया तो दूसरा गुट सोवियत संघ के साथ हो गया। इन गुटों के निर्माण से दोनों गुटों में सम्मिलित देशों को अपनी स्वतन्त्र विदेश नीति के साथ समझौता करना पड़ा तथा जो किसी गुट में । सम्मिलित नहीं हुए; उन पर अपने गुट में सम्मिलित होने हेतु दोनों महाशक्तियों द्वारा दबाव डाला गया।

2. सैन्य गठबन्धनों का उद्भव-शीतयुद्ध के कारण अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अनेक सैन्य गठबन्धनों का उद्भव हुआ।

3. शस्त्रीकरण को बढ़ावा-शीतयुद्ध ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर यह नकारात्मक प्रभाव डाला कि इसके कारण शस्त्रीकरण को बढ़ावा मिला। .

4. निःशस्त्रीकरण की असफलता-शीतयुद्ध के निरन्तर तनाव भरे वातावरण से मुक्ति प्राप्त करने हेतु विभिन्न देशों द्वारा निःशस्त्रीकरण के प्रयास किए गए, लेकिन असफलता ही हाथ लगी। अस्त्र-शस्त्रों की होड़ ने इसे अप्रभावी बना दिया।

5. भय तथा सन्देह के वातावरण का जन्म-शीतयुद्ध के कारण अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भय और सन्देह के वातावरण का जन्म हुआ जो शीतयुद्ध की समाप्ति तक निरन्तर बना रहा।

6. परमाणु युद्ध का भय-द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका ने जापान पर परमाणु बमों का प्रयोग किया था इसी होड़ के कारण सोवियत संघ ने भी परमाणु अस्त्रों का विकास किया। इससे यद्यपि दोनों महाशक्तियों के मध्य शान्ति सन्तुलन स्थापित हुआ, लेकिन उनके बीच सैन्य स्पर्धा भी अत्यधिक बढ़ने लगी। क्यूबा मिसाइल संकट के समय समस्त विश्व को यह लगने लगा था कि दोनों महाशक्तियों के मध्य परमाणु युद्ध अवश्यम्भावी है, लेकिन यह संकट टल गया।

प्रश्न 3.
शीतयुद्ध के उदय के प्रमुख कारणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर.
शीतयुद्ध के उदय के प्रमुख कारण शीतयुद्ध के उदय के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

1. परस्पर सन्देह एवं भय-दोनों गुटों के देशों के मध्य शीतयुद्ध का कारण परस्पर सन्देह, अविश्वास तथा डर का व्याप्त होना था क्योंकि पाश्चात्य देश बोल्शेविक क्रान्ति से काफी भयभीत हुए थे जिसने आपस में अविश्वास तथा भय की खाई को और अधिक चौड़ा कर दिया था।

2. विरोधी विचारधारा-दोनों महाशक्तियों के अनुयायी देश परस्पर विरोधी विचारधारा वाले थे। जहाँ एक पूँजीवादी लोकतन्त्रात्मक व्यवस्था वाला देश था वहीं दूसरा साम्यवादी विचारधारा से ओत-प्रोत था। विश्व में दोनों ही अपना-अपना प्रभुत्व अधिकाधिक क्षेत्र पर स्थापित करना चाहते थे।

3. जर्मनी का घटनाक्रम-द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी दो भागों में बँट गया। पूर्वी जर्मनी पर साम्यवादी शक्तियों ने सत्ता सँभाली जबकि पश्चिमी हिस्से में अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन तथा फ्रांस की साम्यवादी विरोधी शक्तियों ने सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले रखी थी। इस कारण से स्थितियाँ निरन्तर तनावपूर्ण होती चली गईं।

4. माल्टा समझौते की अवहेलना-शीतयुद्ध के उदय का एक अन्य कारण यह भी था कि सोवियत संघ माल्टा समझौते की अवहेलना कर रहा था तथा वह पोलैण्ड में साम्यवादी सरकार स्थापित करने में मददगार साबित हो रहा था।

5. पाश्चात्य देशों द्वारा सोवियत संघ विरोधी प्रचार–पाश्चात्य देशों ने सोवियत संघ विरोधी प्रचार अभियान जोर-शोर से चला रखा था। इसके पीछे इनका यह उद्देश्य था कि पश्चिम के अधिक-से-अधिक राज्य सोवियत संघ के विरुद्ध इकट्ठे हो जाएँ और सोवियत संघ अलग-थलग पड़कर अकेला हो जाए।

6. सोवियत संघ द्वारा पाश्चात्य देशों के विरुद्ध प्रचार-सोवियत संघ ने भी प्रचार माध्यमों का प्रयोग करते हुए पाश्चात्य देशों के खिलाफ प्रचार अभियान चलाया। अमेरिका ने साम्यवाद के प्रसार पर अंकुश लगाने हेतु ऐसे कार्य किए जिनसे शीतयुद्ध के बादल और गहराते चले गए।

7. शान्ति समझौते पर परस्पर मतभेद-दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ और पाश्चात्य देशों के बीच अनेक बातों पर एक अभिमत नहीं था। उदाहरणार्थ; इटली तथा यूगोस्लाविया का सीमा सम्बन्धी मामला। सोवियत संघ, लीबिया को अपने संरक्षण में लेना चाहता था और इटली से युद्ध में हुई क्षतिपूर्ति का आकांक्षी भी था लेकिन ये सभी बातें पाश्चात्य देशों को नापसन्द थीं। इस प्रकार निरन्तर बढ़ते मतभेदों से शीतयुद्ध का मार्ग खुल रहा था।

8. संयुक्त राष्ट्र संघ की कमजोर स्थिति-द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ दोनों महाशक्तियों में अविश्वास तथा तनाव की चौड़ी खाई को पाटने में असफल सिद्ध हुआ।

9. संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वीटो पावर का प्रयोग–पाश्चात्य देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ में अपना वर्चस्व स्थापित करने के उद्देश्य से अपनी संख्यात्मक शक्ति का प्रदर्शन किया लेकिन सोवियत संघ ने पश्चिमी गुट की एक न चलने दी और उसके खिलाफ अनेक बार वीटो शक्ति का प्रयोग किया। इससे संयुक्त राज्य अमेरिका सहित अन्य पाश्चात्य देशों ने भी सोवियत संघ विरोधी कार्यों को क्रियान्वित किए जाने की एक मुहिम-सी छेड़ दी।

10. अणु बम का रहस्य सोवियत संघ से छिपाना-शीतयुद्ध के उदय का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण यह भी था कि संयुक्त राज्य अमेरिका तथा ग्रेट-ब्रिटेन ने अणु बमों के अनुसन्धान को सोवियत संघ से छिपाकर रखा। सोवियत संघ को इनकी इस कपटपूर्ण चालाकी (चतुराई) से काफी ठेस पहुंची। इससे दोनों महाशक्तियों के बीच सम्बन्धों में कभी न भरी जाने वाली दरार पैदा हो गई।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 1 The Cold War Era

प्रश्न 4.
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में भारत की भूमिका को समझाते हुए आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
उत्तर:
गुटनिरपेक्षता का अर्थ गुटनिरपेक्षता का अर्थ है—दोनों महाशक्तियों के गुटों से अलग रहना। यह महाशक्तियों के गुटों में शामिल न होने तथा अपनी स्वतन्त्र विदेश नीति अपनाते हुए विश्व राजनीति में शान्ति और स्थिरता के लिए सक्रिय रहने का आन्दोलन है। न यह तटस्थता है और न पृथक्तावाद। अतः गुटनिरपेक्षता का अर्थ है किसी भी देश को प्रत्येक मुद्दे पर गुण-दोष के आधार पर निर्णय लेने की स्वतन्त्रता और राष्ट्रीय हित एवं विश्वशान्ति के आधार पर गुटों से अलग रहते हुए निर्णय लेने की स्वतन्त्रता।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के संस्थापक-गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की जड़ में यूगोस्लाविया के जोसेफ ब्रॉज टीटो, भारत के जवाहरलाल नेहरू और मिस्र के गमाल अब्दुल नासिर प्रमुख थे। इण्डोनेशिया के सुकर्णो और घाना के वामे एनक्रूना ने इनका जोरदार समर्थन किया। ये पाँच नेता गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के संस्थापक कहलाए।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में भारत की भूमिका

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में भारत की भूमिका को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है-

  1. गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का संस्थापक-भारत गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का संस्थापक सदस्य रहा है। भारत के प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने गुटनिरपेक्षता की नीति का प्रतिपादन किया।
  2. स्वयं को महाशक्तियों की खेमेबन्दी से अलग रखा-शीतयुद्ध के दौर में भारत ने सजग और सचेत रूप से अपने को दोनों महाशक्तियों की खेमेबन्दी से दूर रखा।
  3. नव-स्वतन्त्र देशों को आन्दोलन में आने के लिए प्रेरित किया—भारत ने नव-स्वतन्त्र देशों को महाशक्तियों के खेमे में जाने का पुरजोर विरोध किया तथा उनके समक्ष तीसरा विकल्प प्रस्तुत करके उन्हें गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का सदस्य बनाने के लिए प्रेरित किया।
  4. विश्वशान्ति और स्थिरता के लिए गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को सक्रिय रखना-भारत ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के नेता के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में सक्रिय हस्तक्षेप की नीति अपनाने पर बल दिया।
  5. वैचारिक एवं संगठनात्मक ढाँचे का निर्धारण-गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के वैचारिक एवं संगठनात्मक ढाँचे के निर्धारण में भारत की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
  6. समन्वयकारी भूमिका-भारत ने समन्वयकारी भूमिका निभाते हुए सदस्यों के बीच उठे विवादास्पद मुद्दों को टालने या स्थगित करने पर बल देकर आन्दोलन को विभाजित होने से बचाया।

भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति का आलोचनात्मक विवेचन

भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति का आलोचनात्मक विवेचन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है-
(I) भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति के लाभ

गुटनिरपेक्षता की नीति ने निम्नलिखित क्षेत्रों में भारत का प्रत्यक्ष रूप से हित साधन किया है-

1. राष्ट्रीय हित के अनुरूप फैसले-गुटनिरपेक्षता की नीति के कारण भारत ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय फैसले और पक्ष ले सका जिससे उसका हित सधता था, न कि महाशक्तियों और उनके खेमे के देशों का।

2. अन्तर्राष्ट्रीय जगत् में अपने महत्त्व को बनाए रखने में सफल-गुटनिरपेक्ष नीति अपनाने के कारण भारत हमेशा इस स्थिति में रहा कि अगर भारत को महसूस हो कि महाशक्तियों में से कोई उसकी अनदेखी कर रहा है या अनुचित दबाव डाल रहा है, तो वह दूसरी महाशक्ति की तरफ अपना रुख कर सकता था। दोनों गुटों में से कोई भी भारत सरकार को लेकर न तो बेफिक्र हो सकता था और न ही दबाव डाल सकता था।

(II) भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति की आलोचना

भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति की निम्नलिखित कारणों से आलोचना की गई है-

1. सिद्धान्त विहीन नीति-भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति सिद्धान्त विहीन है। कहा जाता है कि भारत अपने हितों को साधने के नाम पर अक्सर महत्त्वपूर्ण मामलों पर कोई सुनिश्चित पक्ष लेने से बचता रहा है।

2. अस्थिर नीति–भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति में अस्थिरता रही है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
शीतयुद्ध के अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
शीतयुद्ध के अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ने वाले प्रभाव

  1. विश्व का दो गुटों में विभाजन-शीतयुद्ध का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रथम प्रभाव यह पड़ा कि अमेरिका और सोवियत संघ के नेतृत्व में विश्व दो खेमों में विभक्त हो गया। एक खेमा पूँजीवादी गुट कहलाया और दूसरा साम्यवादी गुट कहलाया।
  2. सैनिक गठबन्धनों की राजनीति-शीतयुद्ध के कारण सैनिक गठबन्धनों की राजनीति प्रारम्भ हुई।
  3. गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की उत्पत्ति-शीतयुद्ध के कारण गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की उत्पत्ति हुई। एशिया-अफ्रीका के नव-स्वतन्त्र राष्ट्रों ने दोनों गुटों से अपने को अलग रखने के लिए गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का हिस्सा बनना उचित समझा।
  4. शस्त्रीकरण को बढ़ावा-शीतयुद्ध का एक अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव यह पड़ा कि इससे शस्त्रीकरण को बढ़ावा मिला। दोनों गुट खतरनाक शस्त्रों का संग्रह करने लगे।

प्रश्न 2.
शीतयुद्ध के दौरान दोनों महाशक्तियाँ छोटे देशों पर अपना नियन्त्रण क्यों बनाए रखना चाहती थीं? अथवा महाशक्तियाँ छोटे देशों के साथ सैनिक गठबन्धन बनाए रखने को क्यों प्रेरित थीं?
उत्तर:
(1) शीतयुद्ध के दौरान दोनों महाशक्तियों द्वारा छोटे देशों पर अपना नियन्त्रण बनाए रखने के कारण-

(2) महत्त्वपूर्ण संसधानों को हासिल करना-महाशक्तियों को छोटे देशों से तेल तथा खनिज पदार्थ इत्यादि प्राप्त होता था।

(3) भू-क्षेत्र-महाशक्तियाँ इन छोटे देशों के यहाँ अपने हथियारों की बिक्री करती थीं और इनके यहाँ अपने सैन्य अड्डे स्थापित करके सेना का संचालन करती थीं।
सैन्य ठिकाने-छोटे देशों में अपने सैन्य ठिकाने बनाकर दोनों महाशक्तियाँ एक-दूसरे गुट की जासूसी करती थीं।

(4) छोटे देश विचारधारा की वजह से भी महाशक्तियों के लिए महत्त्वपूर्ण थे। गुटों में सम्मिलित देशों की निष्ठा से यह संकेत मिलता था कि महाशक्तियाँ विचारों का पारस्परिक युद्ध भी जीत रही हैं। गुटों में सम्मिलित हो रहे देशों के आधार पर वे सोच सकती थीं कि उदारवादी लोकतन्त्र तथा पूँजीवाद, समाजवाद एवं साम्यवाद से अधिक श्रेष्ठ है अथवा समाजवाद एवं साम्यवाद, उदारवादी लोकतन्त्र तथा पूँजीवाद की अपेक्षा बेहतर है।

प्रश्न 3.
शीतयुद्ध के काल में अवरोध की स्थिति ने युद्ध तो रोका लेकिन दोनों महाशक्तियों के बीच पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता को क्यों नहीं रोक सकी?
उत्तर:
शीतयुद्ध काल में अवरोध की स्थिति महाशक्तियों के बीच पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता को निम्नलिखित कारणों से रोकने में असफल रही-

(1) महाशक्तियों से जुड़े देश यह जानते थे कि परस्पर युद्ध अत्यन्त ही खतरों से भरा हुआ है क्योंकि परमाणु हथियारों का प्रयोग किए जाने की स्थिति में सम्पूर्ण विश्व का विनाश हो जाएगा। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि दोनों ही गुटों के पास परमाणु बमों का भारी भण्डारण था।

(2) आपसी प्रतिद्वन्द्विता न रुक पाने का एक अन्य कारण दोनों महाशक्तियों की अलग-अलग तथा विपरीत विचारधारा थी। पृथक्-पृथक् विचारधाराएँ होने के कारण उनमें कोई समझौता होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता था।

(3) दोनों महाशक्तियाँ औद्योगीकरण के चरम विकास की अवस्था में थीं और उन्हें अपने उद्योगों के लिए कच्चा माल विश्व के अल्प विकसित देशों से ही प्राप्त हो सकता था। एक प्रकार से यह उन देशों के लिए की गई छीना-झपटी अथवा प्रतिस्पर्धी थी।

प्रश्न 4.
1960 के दशक को खतरनाक दशक क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
1960 के दशक को खतरनाक दशक कहे जाने के कारण-

  1. सन् 1958 में बार्लिन की दीवार के निर्माण की वजह से जर्मन, शेष यूरोप तथा महाशक्तियों के नेतृत्व में विभक्त विश्व के दोनों गुटों में तनाव और अधिक बढ़ा।
  2. 1960 के दशक के प्रारम्भ में ही कांगो सहित अनेक स्थानों पर प्रत्यक्ष रूप से मुठभेड़ की स्थिति पैदा हो गई। यह संकट और अधिक विकराल होता चला गया क्योंकि दोनों गुटों में से कोई भी पक्ष पीछे हटने हेतु सहमत नहीं था।
  3. 1960 के दशक में कोरिया, वियतनाम तथा अफगानिस्तान इत्यादि में व्यापक स्तर पर जनहानि हुई थी। अनेक बार महाशक्तियों के बीच राजनीतिक वार्ताएँ भी नहीं हुईं जिससे दोनों के बीच गलतफहमियों की खाई और गहरी हो गई।
  4. सन् 1962 तथा 1965 में भारत पर क्रमश: चीन तथा पाकिस्तान द्वारा हमला किया गया।
  5. सन् 1961 में क्यूबा में अमेरिका द्वारा प्रायोजित ‘बे ऑफ पिग्स’ आक्रमण किया गया।
  6. सन् 1965 में डोमिनियन रिपब्लिक में अमेरिकी हस्तक्षेप की वजह से अन्तर्राष्ट्रीय तनाव में वृद्धि हुई।
  7. सन् 1968 में चेकोस्लोवाकिया में सोवियत संघ ने हस्तक्षेप किया था।

प्रश्न 5.
“गुटनिरपेक्ष आन्दोलन द्विध्रुवीय विश्व के समक्ष चुनौती था।” इस कथन को न्यायोचित ठहराइए।
उत्तर:
उक्त कथन को निम्नलिखित बिन्दुओं के द्वारा न्यायोचित ठहराया जा सकता है-

  1. विश्व की दोनों महाशक्तियाँ नव-स्वतन्त्रता प्राप्त तीसरे विश्व के अल्पमत विकसित देशों को लालच देकर दबाव बनाकर तथा समझौतों का प्रलोभन देकर उनको अपने-अपने गुट में मिलाने हेतु लालायित थे।
  2. गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के संस्थापक सदस्यों में एशिया के पं० जवाहरलाल नेहरू तथा सुकर्णो तथा अफ्रीका के वामे एनक्र्मा थे। ये सभी तीसरी दुनिया के प्रतिनिधि देश थे और इन्होंने परतन्त्रता का स्वाद चखा था।
  3. शीतयुद्ध के दौरान महाशक्तियों द्वारा पश्चिम के अनेक देशों पर हमले किए गए थे। ऐसी विषम परिस्थितियों में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को अनवरत चलाए रखना स्वयं में काफी चुनौतीपूर्ण कार्य था। ।
  4. पाँच सदस्य देशों से अपना सफर शुरू करने वाले गुटनिरपेक्ष देशों ने अपनी सदस्य संख्या 120 कर ली है। इतनी बड़ी संख्या में अपने समर्थक बनाना भी अत्यन्त चुनौतीपूर्ण कार्य है।

प्रश्न 6.
शीतयुद्ध को बढ़ावा देने में अमेरिका किस प्रकार जिम्मेदार था?
उत्तर:
शीतयुद्ध को बढ़ावा देने में अमेरिका निम्नलिखित कारणों से जिम्मेदार था-

  1. अणु बम का रहस्य गुप्त रखना-अमेरिका ने अणु बम के रहस्य को सोवियत संघ से गुप्त रखा। इस बात से क्षुब्ध होकर सोवियत संघ अस्त्र-शस्त्र बनाने में लग गया तथा कुछ ही वर्षों में अणु बम का आविष्कार कर लिया। इसके बाद तो दोनों में शस्त्रास्त्रों की होड़ लग गई।
  2. रूस विरोधी प्रचार-युद्ध काल में ही पश्चिमी देशों के सूचना प्रसार के संसाधन रूस विरोधी प्रचार करने लग गए थे। बाद में इन देशों ने खुले आम सोवियत संघ की आलोचना करनी आरम्भ कर दी। उसके विरुद्ध मित्र राष्ट्रों का यह प्रचार शीतयुद्ध को बढ़ावा देने का कारण बना।
  3. अमेरिका का जापान पर अधिकार ज़माने का कार्यक्रम-जापान पर अमेरिका द्वारा अणु बम के प्रयोग के बाद रूस को शक हो गया कि अमेरिका जापान पर अपना अधिकार जमाए रखना चाहता है। इससे दोनों देशों में तनाव हो गया।

प्रश्न 7.
भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति को अनियमित’ तथा ‘सिद्धान्तहीन’ कहा जाता है। क्या आप इस विचार से सहमत हैं, क्यों?
उत्तर:
यह विचार ‘असहमत’ होने योग्य है। आलोचकों द्वारा एकपक्षीय अवलोकन करके ही गुटनिरपेक्ष नीति पर उक्त टिप्पणी की गई है। सन् 1971 में बंगलादेश युद्ध के समय पाकिस्तान को चीन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा हथियार और आर्थिक सहायता दिए जाने की वजह से भारत की अस्मिता तथा राष्ट्रीय सम्प्रभुता पर संकट उत्पन्न हो गया था। पाकिस्तान मामले में हस्तक्षेप करने वाली एक साम्यवादी तथा दूसरी पूँजीवादी शक्ति की इस कुचेष्टा को निरुत्साहित करने के लिए भारत का सोवियत संघ के साथ मित्रता का हाथ बढ़ाना तत्कालीन परिस्थितियों में सर्वथा उचित था।

गुटनिरपेक्षता की नीति इस बात को दृष्टिगत रखते हुए बनाई गई थी कि दो महाशक्तियाँ नए आजाद हुए देशों की सम्प्रभुता में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप न करें। भारत ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के किसी भी सदस्य देश को ऐसी विषम परिस्थिति में कूटनीति अपनाने से कभी भी नहीं रोका तथा इसके विपरीत सहायता ही उपलब्ध कराई। दक्षिण एशिया का ‘आसियान’ संगठन भी गुटनिरपेक्ष नीति का ही एक रूप है।

प्रश्न 8.
गुटनिरपेक्षता क्या है? क्या गुटनिरपेक्षता का अभिप्राय तटस्थता है?
उत्तर:
गुटनिरपेक्षता का अर्थ है महाशक्तियों के किसी भी गुट में शामिले न होना अर्थात् इन गुटों के सैन्य गठबन्धनों व सन्धियों से अलग रहना तथा गुटों से अलग रहते हुए अपनी स्वतन्त्र विदेश नीति का पालन करते हुए विश्व राजनीति में भाग लेना।

गुटनिरपेक्षता तटस्थता नहीं है-गुटनिरपेक्षता तटस्थता की नीति नहीं है। तटस्थता का अभिप्राय है-युद्ध में शामिल न होने की नीति का पालन करना। ऐसे देश न तो युद्ध में संलग्न होते हैं और न ही युद्ध के सही-गलत के सम्बन्ध में अपना कोई पक्ष रखते हैं। लेकिन गुटनिरपेक्षता युद्ध को टालने तथा युद्ध के अन्त का प्रयास करने की नीति है।

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प्रश्न 9.
नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के प्रमुख उद्देश्य लिखिए।
उत्तर:
नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के प्रमुख उद्देश्य-

  1. विश्व की अर्थव्यवस्था की अन्त:निर्भरता का अधिक कुशलता एवं न्यायपूर्ण प्रबन्धन हो।
  2. अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक की व्यवस्था में संरचनात्मक सुधार हो जिससे विकासशील देशों को अधिकाधिक फायदा मिल सके।
  3. विदेशी स्रोतों से वित्तीय सहायता के अतिरिक्त नवीन प्रौद्योगिकी भी उपलब्ध हो।
  4. अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में लगी व्यापारिक रुकावटों को हटाया जाए और वस्तुओं का निर्यात करने में विकासशील देशों को अधिक अनुकूल शर्ते प्रदान की जाएँ।
  5. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कार्य संचालन के सम्बन्ध में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आचार-संहिता लागू की जाए।
  6. विकसित देश विकासशील देशों में अपनी पूँजी का निवेश करें।
  7. विकासशील देशों को न्यूनतम ब्याज शर्तों पर ऋण दिलाए जाएँ और उनके पुनर्भुगतान की शर्ते भी अत्यधिक लचीली रखी जाएँ।

प्रश्न 10.
भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति की विशेषताएँ-

  1. भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति महाशक्तियों के गुटों से अलग रहने की नीति है।
  2. भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति एक स्वतन्त्र नीति है तथा यह अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और स्थिरता हेतु अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में सक्रिय सहयोग देने की नीति है।
  3. भारत की गुटनिरपेक्ष विदेश नीति सभी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने पर बल देती है।
  4. भारत की गुटनिरपेक्ष नीति नव-स्वतन्त्र देशों के गुटों में शामिल होने से रोकने की नीति है।
  5. भारत की गुटनिरपेक्ष नीति अल्पविकसित देशों के आपसी सहयोग तथा आर्थिक विकास पर बल देती है।

प्रश्न 11.
भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति क्यों अपनाई? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारत द्वारा गुटनिरपेक्षता की नीति के अपनाए जाने के कारण भारत द्वारा गुटनिरपेक्षता की नीति के अपनाए जाने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. राष्ट्रीय हित की दृष्टि से भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति इसलिए अपनाई ताकि वह स्वतन्त्र रूप से ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय फैसले ले सके जिनसे उसका हित सधता हो; न कि महाशक्तियों और खेमे के देशों का।
  2. दोनों महाशक्तियों से सहयोग लेने हेतु-भारत ने दोनों महाशक्तियों से सम्बन्ध व मित्रता स्थापित करते हुए दोनों से सहयोग लेने के लिए गुटनिरपेक्षता की नीति अपनायी।
  3. स्वतन्त्र नीति-निर्धारण हेतु-भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति इसलिए भी अपनाई ताकि भारत स्वतन्त्र नीति का निर्धारण कर सके।
  4. अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति का अनुसरण किया।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
शीतयुद्ध का क्या अर्थ है?
उत्तर:
शीतयुद्ध का अर्थ-अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शंका, भय, ईर्ष्या पर आधारित वादविवादों, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो प्रसारणों, कूटनीतिक चालों तथा सैन्य शक्ति के प्रसार के द्वारा लड़े जाने वाले स्नायु युद्ध को ‘शीतयुद्ध’ कहा जाता है।

प्रश्न 2.
अपरोध (रोक और सन्तुलन) का तर्क किसे कहा गया?
उत्तर:
अपरोध का तर्क-यदि कोई शत्रु पर आक्रमण करके उसके परमाणु हथियारों को नाकाम करने की कोशिश करता है तब भी दूसरे के पास उसे बर्बाद करने के लायक हथियार बच जाएँगे। इसे ‘अपरोध का तर्क’ कहा गया।

प्रश्न 3.
शीतयुद्ध शुरू होने का मूल कारण क्या था? . उत्तर शीतयुद्ध शुरू होने का मूल कारण-परस्पर विरोधी खेमों की समझ में यह बात थी कि प्रत्यक्ष युद्ध खतरों से परिपूर्ण है क्योंकि दोनों पक्षों को भारी नुकसान की प्रबल सम्भावनाएँ थीं। इसमें वास्तविक विजेता का निर्धारण सरल कार्य न था। यदि एक गुट अपने शत्रु पर हमला करके उसके परमाणु हथियारों को नाकाम करने का प्रयास करता है, तब भी दूसरे गुट के पास उसे बर्बाद करने लायक अस्त्र बच जाएँगे। यही कारण था कि तीसरा विश्वयुद्ध न होकर शीतयुद्ध की स्थिति बनी।

प्रश्न 4.
शीतयुद्ध के दायरे से आपका क्या अभिप्राय है? कोई एक उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर:
शीतयुद्ध का दायरा-शीतयुद्ध के दायरे का अभिप्राय ऐसे क्षेत्रों से है जहाँ विरोधी गुटों में विभक्त देशों के मध्य संकट के अवसर आए, युद्ध हुए अथवा इनके होने की प्रबल सम्भावनाएँ उत्पन्न हुईं। कोरिया, वियतनाम तथा अफगानिस्तान जैसे कुछ क्षेत्रों में व्यापक जनहानि हुई परन्तु विश्व परमाणु युद्ध से बचा रहा। अनेक बार ऐसी परिस्थितियाँ भी बनीं जब दोनों महाशक्तियों के मध्य राजनीतिक वार्ताएँ नहीं हुईं तथा इसने दोनों के बीच की गलतफहमियाँ बढ़ाई।

प्रश्न 5.
शीतयुद्ध के किन्हीं दो सैनिक लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
शीतयुद्ध के दो सैनिक लक्षण निम्नलिखित हैं-

  1. नाटो, सिएटो, सेन्टो तथा वारसा पैक्ट इत्यादि सैन्य गठबन्धनों का निर्माण करना तथा इनमें अधिकाधिक देशों को सम्मिलित करना।
  2. शस्त्रीकरण करना तथा अत्याधुनिक परमाणु मिसाइलें निर्मित करके उन्हें युद्ध के महत्त्व के बिन्दुओं पर स्थापित करना।

प्रश्न 6.
छोटे देशों ने शीतयुद्ध के युग की मैत्री सन्धियों में महाशक्तियों के साथ अपने आपको क्यों जोड़ा? कोई दो कारण बताइए।
उत्तर:
छोटे देशों ने स्वयं को निम्नलिखित कारणों से महाशक्तियों के साथ जोड़ा था-

  1. छोटे देश असुरक्षा की भावना से ग्रसित थे। वे स्वयं को बड़ी शक्तियों से जोड़कर स्वयं की सुरक्षा सुनिश्चित करना चाहते थे।
  2. कुछ देशों की सोच थी कि यदि वे महाशक्तियों के साथ जुड़ेंगे तो उन्हें अपनी सुरक्षा हेतु अधिक सैन्य व्यय नहीं करना होगा और प्राकृतिक आपदाओं के दौरान उन्हें आवश्यक सहायता बिना किसी देरी के मिलेगी।

प्रश्न 7.
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के कोई दो लक्षण बताइए।
उत्तर:
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के दो लक्षण निम्नलिखित हैं-

  1. गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के सदस्य देश गुटीय राजनीति से दूर रहते हुए अपनी एक स्वतन्त्र विदेश नीति रखते हैं।
  2. विश्व में महायुद्ध जैसे किसी भी बड़े खतरे पर प्रभावी अंकुश लगाने में गुटनिरपेक्षता की नीति कारगर सिद्ध होती है। इसके द्वारा अनेक युद्धों का समाधान किया जा चुका है।

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प्रश्न 8.
गुटनिरपेक्षता की किन्हीं दो नवीन प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
गुटनिरपेक्षता की दो नवीन प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं-

  1. वर्तमान में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन नव-उपनिवेशवादी प्रवृत्तियों पर प्रभावी अंकुश लगाने में संलग्न है।
  2. धीरे-धीरे गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ने एक राजनीतिक आन्दोलन से आर्थिक आन्दोलन का स्वरूप धारण कर लिया है।

प्रश्न 9.
बाण्डुंग सम्मेलन क्या है? इसके कोई दो परिणाम लिखिए।
उत्तर:
बाण्डंग सम्मेलन-सन् 1955 में इण्डोनेशिया के एक शहर बाण्डंग में एफ्रो-एशियाई सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे हम ‘बाण्डुंग सम्मेलन’ के नाम से जानते हैं।

बाण्डुंग सम्मेलन के दो परिणाम निम्नलिखित हैं-

  1. अफ्रीका तथा एशिया के नव-स्वतन्त्र देशों के साथ भारत के निरन्तर बढ़ते हुए सम्पर्कों का यह चरम बिन्दु था।
  2. बाण्डुंग सम्मेलन के दौरान ही गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की आधारशिला रखी गई थी।

प्रश्न 10.
शीतयुद्ध के दौरान महाशक्तियों के बीच हुई किन्हींचार मुठभेड़ों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
शीतयुद्ध के दौरान दोनों महाशक्तियों के बीच निम्नलिखित मुठभेड़ हुईं –

  1. सन् 1950-53 का कोरिया युद्ध तथा कोरिया का दो भागों में विभक्त होना।
  2. सन् 1959 का फ्रांस एवं वियतनाम का युद्ध जिसमें फ्रांसीसी सेना की हार हुई।
  3. बर्लिन की दीवार का निर्माण।
  4. क्यूबा मिसाइल संकट (1962)।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्यूबा प्रक्षेपास्त्र संकट किस वर्ष उत्पन्न हुआ था-
(a) 1967
(b) 1971
(c) 1975
(d) 1962
उत्तर:
(d) 1962

प्रश्न 2.
बर्लिन की दीवार कब खड़ी की गई-
(a) 1961 में
(b) 1962 में
(c) 1960 में
(d) 1971 में।
उत्तर:
(a) 1961 में।

प्रश्न 3.
वारसा सन्धि कब हुई-
(a) 1965 में
(b) 1955 में
(c) 1957 में
(d) 1954 में।
उत्तर:
(b) 1955 में।

प्रश्न 4.
गुटनिरपेक्ष देशों का प्रथम शिखर सम्मेलन कहाँ हुआ था-
(a) नई दिल्ली में
(b) हरारे में
(c) काहिरा में
(d) बेलग्रेड में।
उत्तर:
(d) बेलग्रेड में।

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प्रश्न 5.
प्रथम गुटनिरपेक्ष सम्मेलन बेलग्रेड में हुआ था-
(a) 1945 में
(b) 1949 में
(c) 1961 में
(d) 1955 में।
उत्तर:
(c) 1961 में।

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