UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi वाक्यों में त्रुटि-मार्जन

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 6
Chapter Name वाक्यों में त्रुटि-मार्जन
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi वाक्यों में त्रुटि-मार्जन

वाक्यों में त्रुटि-मार्जन

नवीनतम पाठ्यक्रम में वाक्यों में त्रुटि-मार्जन अर्थात् वाक्य-संशोधन को सम्मिलित किया गया है। इसमें लिंग, वचन, कारक, काल तथा वर्तनी सम्बन्धी त्रुटियों के संशोधन कराये जाते हैं। इसके लिए कुल 2 अंक निर्धारित है।

वाक्ये भाषा की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई होती है। यदि वाक्य-रचना निर्दोष हो तो वक्ता/लेखक का आशय श्रोता/पाठक को समझने में कठिनाई नहीं होती। दोषपूर्ण वाक्य से आशय स्पष्ट नहीं हो पाता; अत: वाक्य-रचना का निर्दोष होना अत्यन्त आवश्यक है। वाक्य-रचना में दोष अनेक कारणों से हो सकते हैं। यदि वाक्य में लिंग, वचन, पुरुष, काल, वाच्य, विभक्ति, शब्दक्रम आदि में कोई भी दोषपूर्ण हुआ तो वाक्य सदोष हो जाता है। शुद्ध वाक्य-रचना के लिए व्याकरण-ज्ञान परमावश्यक है। वाक्य-रचना की अशुद्धियाँ निम्नलिखित प्रकार की हो सकती हैं-

  1. अन्विति सम्बन्धी अशुद्धियाँ।
  2. पदक्रम सम्बन्धी अशुद्धियाँ।
  3. वाच्य सम्बन्धी अशुद्धियाँ।
  4. पुनरुक्ति सम्बन्धी अशुद्धियाँ।
  5. पदों की अनुपयुक्तता सम्बन्धी अशुद्धियाँ।
  6. वर्तनी सम्बन्धी अशुद्धियाँ।

(1) अन्विति सम्बन्धी अशुद्धियाँ

वाक्यों में पदों की एकरूपता (लिंग, वचन, पुरुष आदि) के साथ क्रिया की भी अनुरूपता होनी चाहिए। हिन्दी में पदों की क्रिया के साथ इसी अनुरूपता अर्थात् अन्विति के कुछ विशेष नियम हैं-
(क) कर्ता-क्रिया की अन्विति
(1) विभक्तिरहित कर्ता वाले वाक्य की क्रिया सदा कर्ता के अनुसार होती है। यदि कर्ता के साथ ‘ने’ विभक्ति चिह्न जुड़ा हो तो सकर्मक क्रिया कर्म के लिंग, वचन के अनुसार होती है; जैसे-

  • लड़का पुस्तक पढ़ता है। (कर्ता के अनुसार
  • लड़की पत्र पढ़ती है। (कर्ता के अनुसार)
  • लड़के ने पुस्तक पढ़ी। (कर्म के अनुसार)
  • लड़की ने पत्र पढ़ा। (कर्म के अनुसार)

(2) कर्ता और कर्म दोनों विभक्ति-चिह्नसहित हों तो क्रिया पुंल्लिग एकवचन में होती है; जैसे

  • प्रधानाचार्य ने अध्यापिका को बुलाया।
  • नेताओं ने किसानों को समझाया।

(3) यदि समान लिंग के विभक्ति-चिह्नरहित अनेक कर्ता पद ‘और’ से जुड़े हों तो क्रिया उसी लिंग की तथा बहुवचन में होती है; जैसे

  • स्वाति, चित्रा और मधु आएँगी।
  • डेविड, नीरज और असलम खेल रहे हैं।

(4) ‘या’ से जुड़े विभक्तिरहित कर्ता पदों की क्रिया अन्तिम कर्ता के अनुसार होती है; जैसेभाई या बहन आएगी।
(5) विभिन्न लिंगों के अनेक कर्ता यदि ‘और’ से जुड़े हों तो क्रिया पुंल्लिग बहुवचन में होती है; जैसेगणतन्त्र दिवस की परेड को लाखों बालक, वृद्ध और नारी देख रहे थे।
(6) यदि कर्ता भिन्न-भिन्न पुरुषों के हों तो उनका क्रम होगा—पहले मध्यम पुरुष, फिर अन्य पुरुष और अन्त में उत्तम पुरुष। क्रिया अन्तिम कर्ता के लिंग के अनुसार बहुवचन में होगी; जैसे

  • तुम, गीता और मैं नाटक देखने चलेंगे।
  • तुम, विकास और मैं टेनिस खेलेंगे।

(7) कर्ता का लिंग अज्ञात हो तो क्रिया पुंल्लिग में होगी; जैसे–

  • देखो, कौन आया है ?
  • तुम्हारा पालन-पोषण कौन करता है ?

(8) आदर देने के लिए एकवचन कर्ता के लिए भी क्रिया बहुवचन में प्रयुक्त होती है; जैसे

  • मुख्यमन्त्री भाषण दे रहे हैं।
  • महात्मा गाँधी राष्ट्रपिता माने जाते हैं।

(9) सम्बन्ध कारक का लिंग उसके सम्बन्धी के लिंग के अनुसार होता है-यदि ये लोग भिन्न-भिन्न लिंग के हों तथा ‘और’ से जुड़े हों तो संज्ञा-सर्वनाम को लिंग प्रथम सम्बन्धी के अनुसार होगा; जैसे–

  • मेरा बेटा और बेटी दिल्ली गये हैं।
  • मेरे भाई-बहन पढ़ रहे हैं।
  • तुम्हारे भाई और बहन आजकल क्या कर रह

(ख) कर्म और क्रिया की अन्विति
(1) यदि कर्ता ‘को’ प्रत्यय से जुड़ा हो तथा कर्म के स्थान पर कोई क्रियार्थक संज्ञा प्रयुक्त हुई हो तो क्रिया सदैव एकवचन, पुंल्लिग तथा अन्य पुरुष में होगी; जैसे

  • उसे (उसको) पुस्तक पढ़ना नहीं आता।
  • तुम्हें (तुमको) बात करने नहीं आता।।

(2) यदि वाक्य में कर्ता ‘ने’ विभक्ति से युक्त हो तथा कर्म की ‘को’ विभक्ति प्रयुक्त नहीं हुई हो तो वाक्य की क्रिया कर्म के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार प्रयुक्त होगी; जैसे-

  • श्याम ने पुस्तक पढ़ी।
  • श्यामा ने क्षमा माँगी।

(3) यदि एक ही लिंग और वचन के अनेक अप्रत्यय कर्म एक साथ एक वचन में आयें तो क्रिया एक वचन में होगी; जैसे

  • राघव ने एक घोड़ा और एक ऊँट खरीदा।।
  • रमेश ने एक पुस्तक और एक कलम खरीदी।

(4) यदि एक ही लिंग और वचन के अनेक प्राणिवाचक अप्रत्यय कर्म एक साथ प्रयुक्त हों तो क्रिया उसी लिंग में तथा बहुवचन में प्रयुक्त होगी; जैसे

  • महेश ने गाय और बकरी मोल लीं।
  • लक्ष्मण ने दूध के लिए गाय और भैंस खरीदीं।

(5) यदि वाक्य में भिन्न-भिन्न लिंग के एकाधिक अप्रत्यय कर्म प्रयुक्त हों तथा वे ‘और’ से जुड़े हों तो क्रिया-अन्तिम कर्म के लिंग और वचन के अनुसार प्रयुक्त होगी; जैसे

  • रमेश ने चावल, दाल और रोटी खायी।
  • सुरेश ने रोटी, दाल और चावल खाया।

(ग) विशेषण और विशेष्य की अन्विति
(1) विशेषण का लिंग और वचन अपने विशेष्य के अनुसार होता है; जैसे

  • यहाँ उदार और परिश्रमी लोग रहते हैं।
  • गोरे मुखड़े पर काला तिल अच्छा लगता है।

(2) यदि एक से अधिक विशेषण हों, तब भी उपर्युक्त नियम का ही पालन होता है; जैसे– वह गिरती-उठती, ऊँची-ऊँची लहरों को निहारती रही।
(3) अनेक समासरहित विशेष्यों को विशेषण निकटवर्ती विशेष्य के अनुरूप होता है; जैसे

  • भोले-भाले बालक और बालिकाएँ।
  • भोली-भाली बालिकाएँ और बालक।

(घ) सर्वनाम और संज्ञा की अन्विति
(1) सर्वनाम उसी संज्ञा के लिंग-वचन का अनुसरण करता है, जिसके स्थान पर वह आया है; जैसे–

  • मैंने सुमन को देखा, वह आ रही थी।
  • मैन विजय को देखा, वह आ रहा था।

(2) आदर के लिए बहुवचन सर्वनाम का प्रयोग होता है; जैसे

  • दादाजी आये हैं। वे एक महीना रुकेंगे।
  • कथावाचक व्यास जी आ चुके हैं। अब वे नियमित पन्द्रह दिन तक प्रवचन करेंगे।

(3) वर्ग का प्रतिनिधि अपने लिए ‘मैं’ के स्थान पर ‘हम’ का प्रयोग करता है; जैसे–

  • शिक्षामन्त्री ने कहा कि हमें अपने देश से अशिक्षा दूर करनी है।
  • शिक्षक ने कहा कि हमें अपने देश का गौरव बढ़ाना है।

अन्विति सम्बन्धी अशुद्धियों के उदाहरण

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(2) पदक्रम सम्बन्धी अशुद्धियाँ

वाक्य पदों और पदबन्धों से बनता है। वाक्य के साँचे में पदों का क्या क्रम हो, इसके कुछ निश्चित नियम हैं–
(1) प्रायः कर्त्तापद वाक्य में सबसे पहले आता है और क्रियापद सबसे अन्त में; जैसे|

  • भिखारी आ रहा है।
  • सूर्योदय हो गया।

(2) सम्बोधन और विस्मयसूचक पद वाक्य के प्रारम्भ में कर्ता से भी पहले आते हैं; जैसे

  • अरे ! भिखारी आ रहा है।
  • अहा ! सूर्योदय हो गया।

(3) कर्मपद कर्ता और क्रियापदों के बीच रहता है; जैसे-

  • राजेश पाठ पढ़ाता है।
  • बच्चे ने गीत सुनाया।

(4) सम्बन्धकारक अपने सम्बन्धी शब्द से पूर्व आता है; जैसे

  • भिखारी के बच्चे ने रहीम का पद सुनाया।
  • वह तुम्हारा नाम पूछ रहा था।

(5) प्रश्नवाचक पद प्रश्न के विषय से पूर्व आता है; जैसे

  • कौन खड़ा है ? (कर्ता पर प्रश्न)
  • तुम क्या खा रही हो ? (कर्म पर प्रश्न)
  • वह कैसे आया ? (रीति पर प्रश्न)

(6) कर्ता और कर्म को छोड़कर शेष सभी कारक कर्ता-कर्म के बीच आते हैं। एक से अधिक कारक रूप होने पर ये उल्टे क्रम में (पहले अधिकरण) रखे जाते हैं; जैसे

  • मजदूर खेत में रहट से सिंचाई कर रहे थे।
  • छात्र मैदान में अपने मित्रों के साथ हॉकी खेलने लगे।

(7) पूर्वकालिक क्रिया, मुख्य क्रिया से पहले आती है; जैसे-

  • कल पढ़कर आइए।
  • कल मुंह धोकर आना।

(8) “न” या “नहीं” का प्रयोग निषेध के अर्थ में हो तो क्रिया से पूर्व और आग्रह के अर्थ में हो तो क्रिया के बाद होता है; जैसे–

  • मैं नहीं जाऊँगा।
  • तुम आओ न।

(9) पदक्रमों में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वाक्य के विभिन्न पदों में ऐसी तर्कसंगत निकटता होनी चाहिए, जिससे कि वाक्य द्वारा अपेक्षित अर्थ स्पष्ट हो। उदाहरण के लिए निम्नलिखित वाक्य देखें-

  • फल बच्चे को काटकर खिलाओ।
  • गर्म गाय का दूध स्वास्थ्यवर्द्धक होता है।
    उपर्युक्त दोनों वाक्यों का अर्थ अटपटा और हास्यास्पद है। इन वाक्यों का उचित क्रम होगा
  • बच्चे को फल काटकर खिलाओ।
  • गाय का गर्म दूध स्वास्थ्यवर्द्धक होता है।

अन्य उदाहरण
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(3) वाच्य सम्बन्धी अशुद्धियाँ

वाच्य सम्बन्धी अशुद्धियों से भाषा का सौन्दर्य नष्ट हो जाता है। इस प्रकार की अशुद्धियों से अर्थ का अनर्थ होने का भय प्रायः कम ही रहता है। इस प्रकार की अशुद्धियों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं-
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(4) पुनरुक्ति सम्बन्धी अशुद्धियाँ

पीछे दिये गये तीन भेदों के अतिरिक्त वाक्य में कुछ ऐसी अशुद्धियाँ भी मिलती हैं, जिनके मूल में एक ही घटक को दो भिन्न रीतियों से एक साथ उद्धृत किया गया होता है; जेस–

  • मुझे केवल दस रुपये मात्र मिले। (अशुद्ध)
  • मुझे केवल दस रुपये मिले। (शुद्ध)
  • मुझे दस रुपये मात्र मिले। (शुद्ध)

यहाँ प्रथम वाक्य अशुद्ध है; क्योंकि केवल’ शब्द के अर्थ को दो विभिन्न रीतियों के माध्यम से एक साथ प्रयुक्त कर दिया गया है। ऐसी अशुद्धियों के मूल में पुनरावृत्ति या पुनरुक्ति की भावना रहती है। आगे कुछ उदाहरणों की सहायता से इसे और अधिक स्पष्ट किया जा रहा है-
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(5) पदों की अनुपयुक्तता सम्बन्धी अशुद्धियाँ

कई बार लिखते समय हम वाक्यों में पदों के अनुपयुक्त रूपों का प्रयोग करके उन्हें अशुद्ध बना देते हैं। इस प्रकार की अशुद्धियों से बचने के लिए व्याकरण का ज्ञान होना अति आवश्यक है। पद-भेदों के अनुसार इस प्रकार की अशुद्धियों के भी अनेक भेद हैं, जिन्हें उदाहरणसहित यहाँ समझाया जा रहा है। दिये गये उदाहरणों में अनुपयुक्त पद को मोटे अक्षरों में अंकित किया गया है और उनके उपयुक्त (शुद्ध) रूप को वाक्य के सम्मुख कोष्ठक में दिया गया है।
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(6) वर्तनी सम्बन्धी अशुद्धियाँ

वर्तनी का शाब्दिक अर्थ है-वर्तन यानि अनुवर्तन करना अर्थात् पीछे-पीछे चलना। लेखन-व्यवस्था में वर्तनी शब्द-स्तर पर शब्द की ध्वनियों का अनुवर्तन करती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि शब्द-विशेष के लेखन में शब्द की एक-एक करके आने वाली ध्वनियों के लिए लिपि-चिह्नों के क्या रूप हों और उनका कैसा संयोजन हो यह वर्तनी (वर्ण-संयोजन) का कार्य है।

वर्तनी सम्बन्धी अशुद्धियाँ प्रायः निम्नलिखित कारणों से होती हैं
(1) असावधानी अथवा शीघ्रता – वर्तनी सम्बन्धी अधिकांश अशुद्धियाँ असावधानी व शीघ्रता के कारण ही होती हैं। बहुत बार अच्छी तरह से ज्ञात शब्द के लिखने में भी अशुद्धि हो जाती है; जैसे—गौण का गौड़, धन का घन, पत्ता का पता आदि। ऐसी भूलों के निवारण के लिए यही सलाह दी जा सकती है कि लेखन-कार्य अत्यधिक सावधानी से करना चाहिए।
(2) उच्चारण—हिन्दी भाषा की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि वह जैसे बोली जाती है, वैसे ही लिखी जाती है और जैसे लिखी जाती है वैसे ही पढ़ी या बोली भी जाती है। उच्चारण अवयव में दोष, बोलने में असावधानी, शुद्ध उच्चारण का ज्ञान न होने आदि कारणों से उच्चारण में अन्तर आ जाता है और इस भूल का निराकरण न होने तक वर्तनी से सम्बन्धित अशुद्धियाँ होती ही रहती हैं।
(3) स्थानिक प्रभाव-भाषा को सौन्दर्य और सौष्ठव उसके गठन और उच्चारण की शुद्धता पर आधारित होता है। शुद्ध उच्चारण से ही भाषा का लिखित रूप (वर्तनी) शुद्ध होता है। अंग्रेजी बोलने वाला कितना ही अभ्यास कर ले, जब भी वह हिन्दी बोलेगा, उसके उच्चारण में अंग्रेजी का पुट जाने-अनजाने आ ही जाएगा। यही स्थिति हिन्दी में भी होती है। उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग, दिल्ली व हरियाणा के निवासी ‘क, ख, ग’ को ‘कै, खै, गै, बोलते हैं, जबकि पूर्वी अंचल में इसका अभ्यास ‘क, ख, ग’ का ही विकसित होता है। स्वाभाविक है कि क्षेत्र-विशेष के उच्चारण का प्रभाव लिखने पर भी पड़ता है; परिणामस्वरूप वर्तनी में भी ऐसी ही भूलें दिखाई देती हैं। हिन्दी भाषा में वर्तनी सम्बन्धी अशुद्धियाँ निम्नलिखित प्रकार की होती हैं-

  • स्वर (मात्रा) सम्बन्धी,
  • व्यंजन सम्बन्धी,
  • सन्धि सम्बन्धी,
  • समास सम्बन्धी,
  • विसर्ग सम्बन्धी तथा,
  • हलन्त सम्बन्धी।

वर्तनी से सम्बन्धित उपर्युक्त समस्त बिन्दुओं पर विवरण देना यहाँ नितान्त अप्रासंगिक है और परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी भी नहीं है। विद्यार्थियों से तो इतनी ही अपेक्षा है कि वे हिन्दी को अधिक-से-अधिक शुद्ध रूप में लिखें। इसके लिए उन्हें अधिकाधिक हिन्दी लिखने का अभ्यास करना चाहिए। हिन्दी की स्तरीय पुस्तकों का अध्ययन, इसमें सहायक सिद्ध होगा।

अशुद्धियों के बहु-प्रचलित कुछ उदाहरण

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 14 Social Change

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 14 Social Change (सामाजिक परिवर्तन) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 14 Social Change (सामाजिक परिवर्तन).

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Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 14
Chapter Name Social Change (सामाजिक परिवर्तन)
Number of Questions Solved 74
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 14 Social Change (सामाजिक परिवर्तन)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक परिवर्तन का क्या अर्थ है ? सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारकों (कारणों) का उल्लेख कीजिए। [2007, 08, 09, 10, 11, 13, 15, 16]
या
सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा स्पष्ट कीजिए। [2007]
या
सामाजिक परिवर्तन के कारकों की विवेचना कीजिए। [2017]
या
सामाजिक परिवर्तन के दो कारकों को बताइए। [2013, 14, 15]
या
सामाजिक परिवर्तन को परिभाषित कीजिए तथा इसके प्रमुख कारकों को स्पष्ट कीजिए।  [2015, 16]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा
मैरिल का कथन है कि मानव-सभ्यता का सम्पूर्ण इतिहास सामाजिक परिवर्तन का ही इतिहास है। इसका तात्पर्य यह है कि सामाजिक परिवर्तन प्रत्येक समाज की एक आवश्यक विशेषता ही नहीं बल्कि परिवर्तन के द्वारा ही मानव-समाज असभ्यता और बर्बरता के विभिन्न स्तरों. को पार करते हुए सभ्यता के वर्तमान स्तर तक पहुँच सका है। यह सच है कि किसी समाज में परिवर्तन की गति बहुत धीमी होती है, जब कि कुछ समाजों में यह गति बहुत तेज हो सकती है। लेकिन संसारे का कोई भी समाज ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें परिवर्तन न होता रहा हो।

इसके बाद भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सभी तरह के परिवर्तनों को हम सामाजिक परिवर्तन नहीं कहते। किसी समुदाय के लोगों की वेशभूषा, खान-पान, मकानों की बनावट अथवा परिवहन के साधनों में होने वाले विकास को सामाजिक परिवर्तन नहीं कहा जाता। संक्षेप में, सामाजिक परिवर्तन का तात्पर्य लोगों के सामाजिक सम्बन्धों, समाज के ढाँचे अथवा सामाजिक मूल्यों में होने वाले परिवर्तन से है। इसका तात्पर्य यह है कि जब किसी समाज में लोगों की प्रस्थिति और भूमिका, विचार करने के ढंगों तथा जीवन की स्वीकृत विधियों में परिवर्तन होने लगता है, तब इसे हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।

सामाजिक परिवर्तन का अर्थ
इतिहास, दर्शन, राजनीतिशास्त्र तथा अनेक दूसरे समाज विज्ञानों से सम्बन्धित विद्वानों ने सामाजिक परिवर्तन के अर्थ को अपने-अपने दृष्टिकोण से स्पष्ट किया है। इस दशा में सामाजिक परिवर्तन की वास्तविक अवधारणा को समझने से पहले यह आवश्यक है कि परिवर्तन तथा ‘सामाजिक परिवर्तन के अन्तरे को स्पष्ट किया जाये। परिवर्तन क्या है ? इसे स्पष्ट करते हुए फिचर (Fichter) ने लिखा है, “संक्षिप्त शब्दों में, किसी पूर्व अवस्था या अस्तित्व के प्रकार में पैदा होने वाली भिन्नता को ही परिवर्तन कहा जाता है।
इस कथन के द्वारा फिचर ने यह बताया कि परिवर्तन में तीन प्रमुख तत्त्वों का समावेश होता है

  1.  एक विशेष दशा,
  2.  समय तथा
  3. भिन्नता।

सर्वप्रथम, जब हमें यह कहते हैं कि परिवर्तन हो रहा है तो हमारा उद्देश्य यह स्पष्ट करना होता है कि परिवर्तन किस दशा, वस्तु अथवा तथ्य में हो रहा है। दूसरे, समय के दृष्टिकोण से परिवर्तन एक तुलनात्मक दशा है। किसी वस्तु या दशा में एक समय की तुलना में दूसरे समय पैदा होने वाली नयी विशेषताओं को ही हम परिवर्तन कहते हैं। तीसरे, परिवर्तन का तात्पर्य किसी दशा अथवा वस्तु के रूप में इस तरह भिन्नता उत्पन्न होना है जो उसे पहले की तुलना में एक नया आकार-प्रकार दे दे। स्पष्ट है कि यदि समय के अन्तराल के साथ लोगों की वेशभूषा बदल जाये, मकानों की निर्माण-शैली में भिन्नता आ जाये अथवा परिवहन के साधन अधिक विकसित हो जायें तो इन सभी दशाओं को हम ‘परिवर्तन’ के नाम से सम्बोधित करेंगे।

‘सामाजिक परिवर्तन’ की अवधारणा परिवर्तन से भिन्न है। संक्षेप में, कहा जा सकता है कि जब दो विशेष अवधियों के बीच व्यक्तियों के सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक ढाँचे तथा सामाजिक मूल्यों में भिन्नता उत्पन्न होती है, तब इसी भिन्नता को हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध समाज के मुख्यत: तीन पक्षों में होने वाले परिवर्तन से होता है। ये पक्ष हैं

  1. व्यक्तियों के सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन,
  2.  समाज की संरचना को बनाने वाली इकाइयों में परिवर्तन तथा
  3.  सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन। इसका अर्थ है।

कि जब व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों, उनकी प्रस्थिति और भूमिका तथा जीवन की स्वीकृत विधियों में परिवर्तन होने लगता है, तब इसी दशा को हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। इस तथ्य को समाजशास्त्रियों द्वारा दी गयी कुछ प्रमुख परिभाषाओं के आधार पर सरलता से समझा जा सकता है।

सामाजिक परिवर्तन की परिभाषाएँ

सामाजिक परिवर्तन का सही अर्थ क्या है, यह जानने के लिए हमें इसकी परिभाषाओं का अध्ययन करना होगा। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने सामाजिक परिवर्तन को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है

  • किंग्सले डेविस के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन केवल वे ही परिवर्तन समझे जाते हैं जो कि सामाजिक संगठन अर्थात् समाज के ढाँचे और कार्य में घटित होते हैं।’
  • मैकाइवर तथा पेज के अनुसार, “समाजशास्त्री होने के नाते हमारी विशेष रुचि प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक सम्बन्धों से है। केवल इन सामाजिक सम्बन्धों में होने वाले परिवर्तन को ही हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।”
  • गिलिन और गिलिन के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन का अर्थ जीवन के स्वीकृत प्रकारों में परिवर्तन है। भले ही यह परिवर्तन भौगोलिक दशाओं के परिवर्तन में हुए हों या सांस्कृतिक साधनों पर, जनसंख्या की रचना या सिद्धान्तों के परिवर्तन से, या प्रसार से या समूह के अन्दर ही आविष्कार से हुए हों।”

सामाजिक परिवर्तन के कारक
सामाजिक परिवर्तन के पीछे कोई-न-कोई कारक अवश्य रहता है। इसके विभिन्न अंगों में परिवर्तन लाने के लिए विभिन्न कारक ही उत्तरदायी हैं। अतः सामाजिक परिवर्तन भी अनेक कारकों का परिणाम होता है। सामाजिक परिवर्तन के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित कारक उत्तरदायी होते

1. प्राकृतिक या भौगोलिक कारक – प्राकृतिक या भौगोलिक कारक सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्राकृतिक शक्तियाँ समाज के प्रतिमानों के रूपान्तरण में अधिक उत्तरदायी होती हैं। भौगोलिक कारकों में भूमि, आकाश, चाँद-तारे, पहाड़, नदी, समुद्र, जलवायु, प्राकृतिक घटनाएँ, वनस्पति आदि सम्मिलित हैं। प्राकृतिक कारकों के समग्र प्रभाव को ही प्राकृतिक पर्यावरण कहा जाता है। प्राकृतिक पर्यावरण का मानव-जीवन पर प्रत्यक्ष और गहरा प्रभाव पड़ता है। बाढ़, भूकम्प व घातक बीमारियाँ मानव सम्बन्धों को प्रभावित करते हैं। लोग घर-बार छोड़कर अन्यत्र प्रवास कर जाते हैं। नगर और गाँव वीरान हो जाते हैं। लोगों के सामाजिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न हो जाते हैं। जलवायु सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख कारक है। जलवायु सभ्यता के विकास और विनाश में प्रमुख भूमिका निभाती है। भौगोलिक कारक ही मनुष्य के आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन का निर्धारण करते हैं। कहीं मनुष्य प्रकृति के समक्ष नतमस्तक होकर उसी के अनुरूप कार्य करता है और कहीं प्रकृति की उदारता का भरपूर लाभ उठाकर सांस्कृतिक उन्नति के साथ विज्ञान और प्रौद्योगिकी में अग्रणी बन जाता है।

2. प्राणिशास्त्रीय कारक – प्राणिशास्त्रीय कारक भी सामाजिक परिवर्तन के लिए पूरी तरह उत्तरदायी होते हैं। प्राणिशास्त्रीय कारकों को जैविकीय कारक भी कहा जाता है। प्राणिशास्त्रीय कारक जनसंख्या के गुणात्मक पक्ष को प्रदर्शित करते हैं। इनसे प्रजातीय सम्मिश्रण, मृत्यु एवं जन्म-दर, लिंग अनुपात और जीवन की प्रत्याशी का बोध होता है। प्रजातीय मिश्रण से व्यक्ति के व्यवहार, मूल्य, आदर्श और विचारों में परिवर्तन आता है। प्रजातीय मिश्रण से समाज की प्रथाएँ, रीति-रिवाज, रहन-सहन का ढंग और सामाजिक सम्बन्ध बदल जाने के कारण सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न होता है। जन्म-दर और मृत्यु-दर सदस्यों में सामाजिक अनुकूलन का भाव जगाते हैं। जन्म-दर और मृत्यु-दर में परिवर्तन होने से सामाजिक प्रवृत्तियाँ और मृत्यु-दर अधिक होने से समाज में व्यक्तियों की औसत आयु घट जाती है। समाज में क्रियाशील व्यक्तियों की संख्या घटने से नये आविष्कार बाधित होने लगते हैं। समाज में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक होने पर बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन हो जाता है, इसके विपरीत स्थिति में बहुपति प्रथा चलन में आ जाती है। नयी परम्पराएँ समाज की संरचना और मूल्यों में परिवर्तन उत्पन्न कर सामाजिक परिवर्तन का कारण बनती हैं। समाज में स्वास्थ्य सेवाओं में कमी आने से स्वास्थ्य में गिरावट होने लगती है।

3. सामाजिक परिवर्तन के आर्थिक कारक – सामाजिक परिवर्तन के लिए आर्थिक कारक सबसे अधिक उत्तरदायी हैं। आर्थिक कारक सामाजिक संस्थाओं, परम्पराओं, सामाजिक मूल्यों और रीति-रिवाजों को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं। औद्योगिक विकास ने भारतीय सामाजिक संरचना को आमूल-चूल परिवर्तित कर दिया है।
मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष तथा भौतिक द्वन्द्ववाद के आधार पर सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या करके इसमें आर्थिक कारकों को निर्णायक माना है। मार्क्स का कहना है कि व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति प्राकृतिक साधनों से कितनी कर पाएगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि प्रौद्योगिकीय विकास का स्तर क्या है। प्रौद्योगिकीय परिवर्तनों से विभिन्न वर्गों में पाये जाने वाले आर्थिक सम्बन्ध बदल जाते हैं। आर्थिक सम्बन्ध बदलते ही समाज की सामाजिक संरचना परिवर्तित हो जाती है। यह आर्थिक संरचना अन्य सभी संरचनाओं (जैसे-धार्मिक, राजनीतिक, नैतिक आदि) में परिवर्तन की श्रृंखला प्रारम्भ कर देती है। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन के लिए मार्क्स ने आर्थिक कारकों की भूमिका को अधिक महत्त्वपूर्ण बताया है।

4. सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारक – सांस्कृतिक कारक भी सामाजिक विघटन के महत्त्वपूर्ण कारक हैं। सोरोकिन का मत है कि सांस्कृतिक विशेषताओं में होने वाले परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन लाने में सक्षम हैं। संस्कृति मानव-जीवन की जीवन-पद्धति है। इसमें रीतिरिवाज, सामाजिक संगठन, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था, विज्ञान, कला, धर्म, विश्वास, परम्पराएँ, मशीनें तथा नैतिक आदर्श सम्मिलित हैं। इसमें समस्त भौतिक और अभौतिक पदार्थ सम्मिलित होते हैं। वास्तव में, संस्कृति वह सीखा हुआ व्यवहार है जो सामाजिक जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने की एक शैली है। जैसे ही समाज के सांस्कृतिक तत्त्वों में परिवर्तन आता है, वैसे ही सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।

वर्तमान में विवाह एक धार्मिक संस्कार न रहकर, समझौता मात्र रह गया है, जिसे कभी भी तोड़ा जा सकता है। बढ़ते हुए विवाह-विच्छेदों के कारण समाज में परिवर्तन आना स्वाभाविक ही। है। समाज में सामाजिक मूल्यों, संस्थाओं और प्रथाओं में जैसे ही बदलाव आता है, वैसे ही सांस्कृतिक प्रतिमान बदल जाते हैं जो सामाजिक परिवर्तन को जन्म देते हैं। सामाजिक परिवर्तन में सांस्कृतिक कारकों की भूमिका को प्रभावशाली बनाने के लिए ऑगबर्न ने सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। भौतिक और अभौतिक दोनों ही संस्कृतियाँ मानव के जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। एक पहलू में परिवर्तन आने से दूसरा पहलू स्वतः बदल जाता है।

5. सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारक – जनसंख्या समाज का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। एक-एक व्यक्ति मिलकर ही समाज बनता है। जनसंख्यात्मक कारक भी सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं; क्योंकि किसी समाज की रचना को जनसंख्या प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। जनसंख्या की रचना, आकार, जन्म-दर, मृत्यु-दर, जनसंख्या की कमी एवं अधिकता, देशान्तरगमन, स्त्री-पुरुषों का अनुपात, बालकों, युवकों एवं वृद्धों की संख्या आदि सभी जनसंख्यात्मक कारक माने जाते हैं।

6. सामाजिक परिवर्तन के प्रौद्योगिकीय कारक – वर्तमान युग प्रौद्योगिकी का युग है। नये-नये आविष्कार, उत्पादन की विधियाँ अथवा यन्त्र सामाजिक परिवर्तन लाने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रौद्योगिकी अथवा तकनीकी भी सामाजिक परिवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण कारक है। जैसे-जैसे किसी समाज की प्रौद्योगिकी में परिवर्तन होते रहते हैं, वैसे-वैसे समाज के विभिन्न पहलुओं तथा संस्थाओं में परिवर्तन होते रहते हैं। प्रौद्योगिकी एक सामान्य शब्द है, जिसके अन्तर्गत समस्त यान्त्रिक उपकरणों तथा इनसे वस्तुओं के निर्माण की प्रक्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है। अन्य शब्दों में, यह मशीनों और औजारों तथा उनके प्रयोग से सम्बन्धितं है।

वेबलन ने सामाजिक परिवर्तन लाने में प्रौद्योगिकी को प्रमुख स्थान दिया है। उन्होंने मनुष्यों को आदतों का दास माना है। आदतें स्थिर नहीं होतीं और प्रौद्योगिकी में परिवर्तन के साथ आदतें भी बदल जाती हैं। इससे सामाजिक परिवर्तन होता है। प्रौद्योगिकी विकास के साथ ही नगरीकरण और औद्योगीकरण की गति तीव्र होती है। बड़े-बड़े नगर तथा औद्योगिक केन्द्र विकसित होने से समाज में अनेक समस्याएँ जन्म लेने लगती हैं, जिससे समाज में परिवर्तन आ जाता है। भौतिकवादी प्रवृत्ति का उदय होने से धन व्यक्ति की प्रतिष्ठा का मापदण्ड बन जाता है। मनोरंजन के साधनों का व्यवसायीकरण होने तथा मानसिक संवेग तनाव और रोग को जन्म देकर सामाजिक परिवर्तन लाते हैं।

प्रश्न 2
सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएँ क्या हैं? इसकी व्याख्या कीजिए। [2013]
या
सामाजिक परिवर्तन की दो विशेषताएँ लिखिए। [2013]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन यद्यपि एक तुलनात्मक अवधारणा है, लेकिन कुछ प्रमुख विशेषताओं के आधार पर इसकी सामान्य प्रकृति को स्पष्ट किया जा सकता है

1. सामाजिक परिवर्तन सामुदायिक जीवन में होने वाला परिवर्तन है – यदि दो-चार व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों अथवा व्यवहार करने के ढंगों में परिवर्तन हो जाये तो इसे सामाजिक परिवर्तन नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत, जब किसी समुदाय के अधिकांश व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों, सामाजिक नियमों तथा विचार करने के तरीकों में परिवर्तन हो जाता है, तभी इसे हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।

2. सामाजिक परिवर्तन की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती – कोई भी व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि किसी समाज में भविष्य में कौन-कौन से परिवर्तन होंगे और कब होंगे। हम अधिक-से-अधिक परिवर्तन की सम्भावना मात्र कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि आगामी कुछ वर्षों में औद्योगीकरण के कारण अपराधों की मात्रा में वृद्धि हो जायेगी अथवा किसी प्रकार के अपराध बढ़ सकते हैं, लेकिन हम निश्चित रूप से भविष्य में अपराधों की संख्या तथा स्वरूप के बारे में कुछ नहीं कह सकते।

3. सामाजिक परिवर्तन एक जटिल तथ्य है – सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति इस प्रकार की है कि इसकी निश्चित माप नहीं की जा सकती। मैकाइवर का कथन है कि सामाजिक परिवर्तन का अधिक सम्बन्ध गुणात्मक परिवर्तनों (Qualitative changes) से है और गुणात्मक तथ्यों की माप न हो सकने के कारण इसकी जटिलता बहुत अधिक बढ़ जाती है। भौतिक वस्तुओं में होने वाले परिवर्तन को सरलता से समझा जा सकता है, लेकिन सांस्कृतिक मूल्यों (Cultural values) और विचारों में होने वाला परिवर्तन इतना जटिल हो जाता है कि सरलता से उसको समझ सकना बहुत कठिन है। सामाजिक परिवर्तन में जितनी वृद्धि होती जाती है, इसकी जटिलता भी उतनी ही बढ़ जाती है।

4. सामाजिक परिवर्तन की गति तुलनात्मक है – किसी एक समाज में होने वाले परिवर्तन को दूसरे समाज से उसकी तुलना करने पर ही समझा जा सकता है। एक ही समाज के विभिन्न भागों में परिवर्तन की गति भिन्न-भिन्न हो सकती हैं, अथवा विभिन्न समाजों में परिवर्तन की | मात्रा में अन्तर हो सकता है। सामान्य रूप से सरल और आदिवासी समाजों में परिवर्तन बहुत कम और धीरे-धीरे होता है, जब कि जटिल और सभ्य समाजों में हमेशा नये परिवर्तन होते रहते हैं। यही कारण है कि ग्रामों में परिवर्तन की गति धीमी और नगरों में बहुत तेज (rapid) होती है।

5. सामाजिक परिवर्तन का चक्रवत और रेखीय रूप – सामान्य रूप से सामाजिक परिवर्तन के दो स्वरूप होते हैं-चक्रवत और रेखीय। चक्रवत परिवर्तन का तात्पर्य है कि परिवर्तन कुछ विशेष दशाओं के बीच ही होता रहता है। लौट-बदलकर वही स्थिति फिर से आ जाती है जो कुछ समय पहले विद्यमान थी। फैशन या पहनावे के क्षेत्र में चक्रवत परिवर्तन सबसे अधिक देखने को मिलता है। रेखीय परिवर्तन हमेशा एक ही दिशा में आगे की ओर होता रहता है। ऐसे परिवर्तन अधिकतर प्रौद्योगिकी व शिक्षा के क्षेत्र में देखने को मिलते हैं।

6. सामाजिक परिवर्तन अनिवार्य नियम है – सामाजिक परिवर्तन एक अनिवार्य और आवश्यक घटना है। परिवर्तन चाहे नियोजित रूप से किया गया हो अथवा स्वयं हुआ हो, यह अनिवार्य रूप से सामाजिक जीवन को प्रभावित करता है। विभिन्न समाजों में परिवर्तन की मात्रा में अन्तर हो सकता है, लेकिन इसके न होने की सम्भावना नहीं की जा सकती। इसका कारण यह है कि समाज की आवश्यकताएँ हमेशा बदलती रहती हैं तथा व्यक्तियों की मनोवृत्तियों और रुचियों में भी परिवर्तन होता रहता है।

7. सामाजिक परिवर्तन सर्वव्यापी है – मानव-समाज के आरम्भिक इतिहास से लेकर आज तक परिवर्तन की प्रक्रिया सभी व्यक्तियों, समूहों और समाजों को प्रभावित करती रही है। बीरस्टीड का कथन है कि “परिवर्तन का प्रभाव इतना सर्वव्यापी रहा है कि कोई भी दो व्यक्ति एक समान नहीं हैं। उनके इतिहास और संस्कृति में इतनी भिन्नता पायी जाती है कि * किसी व्यक्ति को भी दूसरे का प्रतिरूप (Replica) नहीं कहा जा सकता।” इससे सामाजिक परिवर्तन की सर्वव्यापी प्रकृति स्पष्ट हो जाती है।

प्रश्न 3
सामाजिक परिवर्तनों से आप क्या समझते हैं। इसमें आर्थिक कारकों की भूमिका की विवेचना कीजिए।
या
आर्थिक कारक तथा सामाजिक परिवर्तन में सम्बन्ध स्थापित कीजिए। [2009]
(संकेत – सामाजिक परिवर्तन के अर्थ के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (1) का अध्ययन करें]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तनों के आर्थिक कारक
सामाजिक परिवर्तन के आर्थिक कारकों को समझने से पहले यह जानना आवश्यक है कि आर्थिक कारकों को अभिप्राय किन दशाओं अथवा विशेषताओं से है ? साधारणतया यह समझा जाता है कि प्रति व्यक्ति आय, लोगों का जीवन-स्तर, आर्थिक समस्याएँ, आर्थिक आवश्यकताएँ तथा सम्पत्ति का संचय आदि वे दशाएँ हैं जिन्हें आर्थिक कारक कहा जा सकता है। वास्तव में, ये दशाएँ स्वयं आर्थिक कारक न होकर आर्थिक कारकों के प्रभाव से उत्पन्न होने वाली कुछ प्रमुख घटनाएँ हैं। आर्थिक कारकों का तात्पर्य उन आर्थिक संस्थाओं तथा शक्तियों से होता है जो किसी समाज की आर्थिक संरचना का निर्माण करती हैं। इस दृष्टिकोण से उपभोग की प्रकृति, उत्पादन का स्वरूप, वितरण की व्यवस्था, आर्थिक नीतियाँ, श्रम-विभाजन की प्रकृति तथा आर्थिक प्रतिस्पर्धा वे प्रमुख आर्थिक कारक हैं, जो व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को एक विशेष ढंग से प्रभावित करते हैं। मार्क्स के अनुसार केवल उत्पादन का स्वरूप अथवा उत्पादन का ढंग अकेले इतना महत्त्वपूर्ण आर्थिक कारक है जिसमें होने वाला कोई भी परिवर्तन सम्पूर्ण सामाजिक संरचना को बदल देता है। सामाजिक परिवर्तन से सम्बन्धित विभिन्न आर्थिक कारकों की प्रकृति को अग्रलिखित रूप से समझा जा सकता है

1. उपभोग की प्रकृति – किसी समाज में व्यक्ति किन वस्तुओं का उपभोग करते हैं तथा उपभोग का स्तर क्या है, यह तथ्य एक बड़ी सीमा तक सामाजिक जीवन को प्रभावित करता है। किसी समाज में जब अधिकांश व्यक्तियों को एक न्यूनतम जीवन-स्तर बनाये रखने के लिए उपभोग की केवल सामान्य सुविधाएँ ही प्राप्त होती हैं तो वहाँ परिवर्तन की गति बहुत सामान्य होती है। इसके विपरीत, यदि अधिकांश व्यक्ति उपभोग की सामान्य सुविधाएँ पाने से भी वंचित रहते हैं तो धीरे-धीरे जनसामान्य का असन्तोष इतना बढ़ जाता है कि वे सम्पूर्ण सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन लाने का प्रयत्न करने लगते हैं। व्यक्तियों का जीवन-स्तर यदि सामान्य से अधिक ऊँचा होता है तो अधिकांश व्यक्ति परम्परागत व्यवहार-प्रतिमानों, प्रथाओं और धार्मिक नियमों को अपने लिए आवश्यक नहीं समझते। इसके फलस्वरूप वहाँ परिवर्तन की प्रक्रिया बहुत तेज हो जाती है।

2. उत्पादन की प्रणालियाँ – उत्पादन की प्रणाली का तात्पर्य मुख्य रूप से उत्पादन के साधनों, उत्पादन की मात्रा तथा उत्पादन के उद्देश्य से है। मार्क्स के अनुसार, उत्पादन की प्रणाली सामाजिक परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण है। उत्पादन के साधन अथवा उपकरण जब बहुत सरल और परम्परागत प्रकृति के थे, तब समाजों की प्रकृति भी सरल थी। अनेक प्रकार के शोषण और आर्थिक कठिनाइयों के बाद भी व्यक्ति अपनी दशाओं से सन्तुष्ट रहते थे। जैसे-जैसे परम्परागत प्रविधियों की जगह उन्नत ढंग की मशीनों के द्वारा उत्पादन किया जाने लगा, समाज के उच्च और निम्न वर्ग की आर्थिक असमानताएँ बढ़ने लगीं। ये आर्थिक असमानताएँ वर्ग-संघर्ष को जन्म देकर सामाजिक परिवर्तन का ही नहीं बल्कि क्रान्ति तक का कारण बन जाती हैं।

3. वितरण की व्यवस्था – प्रत्येक समाज में वितरण की एक ऐसी व्यवस्था अवश्य पायी जाती है जिसके द्वारा राज्य अथवा समूह अपने साधन विभिन्न व्यक्तियों को उपलब्ध करा सकें। वितरण की यह व्यवस्था या तो राज्य के नियन्त्रण में होती है अथवा व्यक्तियों को इस बात की स्वतन्त्रता होती है कि वे प्रतियोगिता के द्वारा अपनी कुशलता के अनुसार स्वयं ही विभिन्न , साधन प्राप्त कर लें। वितरण की इन दोनों में से किसी भी एक व्यस्था के रूप में होने वाला परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया पैदा करता है। रॉबर्ट बीरस्टीड का विचार है कि यदि हवा और पानी की तरह सभी व्यक्तियों को भोजन और वस्त्र भी बिना किसी बाधा के मिल जाएँ तो समाज में कोई समस्या न रहने के कारण सामाजिक परिवर्तन की दशा भी उत्पन्न नहीं होती। इसके विपरीत, व्यवहार में प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में अनेक आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिसके फलस्वरूप सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न हो जाना भी बहुत स्वाभाविक है। उदाहरण के लिए, प्राचीन समय में वस्तु-विनिमय का प्रचलन था जिसके फलस्वरूप व्यक्तियों के बीच प्राथमिक सम्बन्ध थे तथा लोगों की आवश्यकताएँ बहुत कम थीं।

4. आर्थिक नीतियाँ – प्रत्येक राज्य कुछ ऐसी आर्थिक नीतियाँ बनाता है जिनके द्वारा उपभोग, उत्पादन तथा वितरण की व्यवस्था को सन्तुलित बनाया जा सके। आर्थिक नीतियाँ केवल आर्थिक सम्बन्धों को ही व्यवस्थित नहीं बनातीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन को रोकने अथवा उसमें वृद्धि करने में भी इनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। उदाहरण के लिए, यदि राज्य स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण लगाकर श्रमिकों की मजदूरी, कार्य की दशाओं तथा कल्याण सुविधाओं के बारे में कानून बनाकर श्रमिकों को संरक्षण प्रदान करता है तो समाज । में स्तरीकरण की व्यवस्था बदलने लगती है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की जगह राज्य द्वारा यदि सार्वजनिक उद्योगों की स्थापना की जाने लगती है तो इससे भी आर्थिक संरचना में और फिर सामाजिक संरचना में परिवर्तन होने लगते हैं।

5. श्रम-विभाजन – श्रम-विभाजन एक विशेष आर्थिक कारक है, जिसका सामाजिक परिवर्तन से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। समाज में जब किसी तरह का श्रम-विभाजन नहीं होता तो प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को स्वयं पूरा करता है। इसके फलस्वरूप लोगों का जीवन आत्मनिर्भर अवश्य बनता है लेकिन लोग अपने धर्म, जाति और समुदाय के बन्धनों से बाहर नहीं निकल पाते। श्रम-विभाजन एक ऐसी दशा है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति से एक विशेष कार्य के द्वारा। आजीविका उपार्जित करने की आशा की जाती है। इसका तात्पर्य है कि श्रम-विभाजन में सभी व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक-दूसरे पर निर्भर हो जाते हैं। दुर्वीम — ‘ ने इस दशा को ‘सावयवी एकता’ कहा है।

6. आर्थिक प्रतिस्पर्दा – प्रतिस्पर्धा यद्यपि एक सामाजिक प्रक्रिया है लेकिन जब यह प्रक्रिया आर्थिक क्रियाओं से सम्बन्धित हो जाती है, तब इसी को हम आर्थिक प्रतिस्पर्धा कहते हैं। जॉनसन का कथन है कि आर्थिक प्रतिस्पर्धा व्यक्तियों में तनाव और संघर्ष की दशा उत्पन्न करके सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहन देती है। आर्थिक प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति दूसरे की तुलना में अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगता है। इसके फलस्वरूप व्यक्तियों की कार्यकुशलता अवश्य बढ़ती है, लेकिन पारस्परिक द्वेष और । विरोध में भी बहुत वृद्धि हो जाती है।

7. औद्योगीकरण – अनेक विद्वान् औद्योगीकरण को सामाजिक परिवर्तन का सबसे महत्त्वपूर्ण आर्थिक कारक मानते हैं। औद्योगीकरण से छोटे-छोटे कस्बे बड़े औद्योगिक नगरों में परिवर्तित होने लगते हैं। उद्योगों में काम करने वाले लाखों श्रमिकों की मनोवृत्तियों, व्यवहारों और रहन-सहन के तरीकों में परिवर्तन होने लगता है। नये व्यवसायों में वृद्धि होने से सभी धर्मों, जातियों और वर्गों के लोमों द्वारा किये जाने वाले कार्य की प्रकृति में परिवर्तन होने लगता है।

प्रश्न 4
सामाजिक परिवर्तन क्या है? इसके जनसंख्यात्मक कारक की विवेचना कीजिए। [2011]
या
सामाजिक परिवर्तन के जनसांख्यिकीय कारकों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
संकेत – सामाजिक परिवर्तन के अर्थ के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (1) की हैडिंग सामाजिक परिवर्तन का अर्थ देखें।

जनसंख्यात्मक कारक भी सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, क्योंकि किसी समाज की रचना को जनसंख्या प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। जनसंख्या की रचना, आकार, जन्म-दर, मृत्यु-दर, देशान्तरगमन, जनसंख्या की कमी एवं अधिकता, स्त्री-पुरुषों का – अनुपात, बालकों, युवकों एवं वृद्धों की संख्या आदि सभी जनसंख्यात्मक कारक माने जाते हैं। हम यहाँ सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारकों की भूमिका का उल्लेख करेंगे।

1. जनसंख्या के आकार को प्रभाव – जनसंख्या का आकार भी समाज को प्रभावित करता है। समाज का जीवन-स्तर, गरीबी, बेकारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य एवं अनेक अन्य सामाजिक समस्याओं का जनसंख्या के आकार से घनिष्ठ सम्बन्ध है। हमारे सामाजिक मूल्य, आदर्श, मनोवृत्तियाँ, जीवन-यापन का ढंग सभी कुछ जनसंख्या के आकार पर भी निर्भर हैं। राजनीतिक व सैनिक दृष्टि से भी जनसंख्या का आकार महत्त्वपूर्ण है। जिन देशों में जनसंख्या अधिक होती है, वे राष्ट्र शक्तिशाली माने जाते हैं; चीन इसका उदाहरण है। जिन देशों की जनसंख्या … कम होती है, वे राष्ट्र कमजोर समझे जाते हैं। इसी प्रकार जिन देशों की जनसंख्या कम है। वहाँ के लोगों का जीवन-स्तर अपेक्षाकृत ऊँचा होता है। ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, कनाडा और अमेरिका के लोगों का जीवन-स्तर चीन व भारत के लोगों से काफी ऊँचा है, क्योंकि वहाँ की जनसंख्या कम है। ग्राम और नगर का भेद भी जनसंख्या के कारक पर ही निर्भर है।

2. जन्म तथा मृत्यु-दर – जन्म और मृत्यु-दर जनसंख्या के आकार को प्रभावित करते हैं। जब किसी देश में मृत्यु-दर की अपेक्षा जन्म-दर अधिक होती है तो जनसंख्या में वृद्धि होती। है। इसके विपरीत स्थिति में जनसंख्या घटती है। जब जन्म-दर और मृत्यु दर में कमी होती है या दोनों में सन्तुलन होता है तो उस देश की जनसंख्या में स्थिरता पायी जाती है। जिन देशों में जनाधिक्य होता है, वहाँ इस प्रकार की प्रथाएँ एवं रीति-रिवाज पाये जाते हैं जिनके द्वारा जन्म-दर को कम किया जा सके। उदाहरण के लिए, वहाँ गर्भपात की छूट होती है तथा – जन्मनिरोध एवं परिवार नियोजन पर अधिक जोर दिया जाता है। ऐसे देशों में छोटे परिवारों पर : बल दिया जाता है। उदाहरण के लिए, भारत में जनाधिक्य होने के कारण परिवार नियोजन है। कार्यक्रम को तीव्र गति से लागू किया गया है। इसके विपरीत, जिन देशों में जनसंख्या कम होती है वहाँ स्त्रियों की सामाजिक प्रतिष्ठी-ऊँची होती है और जन्म-निरोध, परिवार नियोजन तथा गर्भपात के विपरीत धारणाएँ पायी जाती हैं। साथ ही वहाँ जन्म-दर को बढ़ाने के लिए समय-समय पर प्रोत्साहन दिया जाता है; जैसे-रूस में जनसंख्या को बढ़ाने के लिए कई प्रलोभन दिये जाते रहे हैं।

3. आप्रवास एवं उत्प्रवास – जनसंख्या की गतिशीलता भी सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है। जब किसी देश में विदेश से आकर बसने वालों की संख्या अधिक होती है। तो वहाँ जनसंख्या में वृद्धि होती है और यदि किसी देश के लोग अधिक संख्या में विदेशों में जाकर रहने लगते हैं तो उस देश की जनसंख्या घटने लगती है। विदेशों से अपने देश में जनसंख्या के आने को आप्रवास (Immigration) तथा अपने देश से विदेशों में जनसंख्या के निष्क्रमण को उत्प्रवास (Emigration) कहते हैं। आप्रवास एवं उत्प्रवास के कारण विभिन्न संस्कृतियों के व्यक्ति सम्पर्क में आते हैं। वे एक-दूसरे के विचारों, भाषा, प्रथाओं, रीतिरिवाजों, कला, ज्ञान, आविष्कार, खान-पान, पहनावा, रहन-सहन, धर्म आदि से परिचित होते हैं। सम्पर्क के कारण एक संस्कृति दूसरी संस्कृति को प्रभावित एवं परिवर्तित करती है।

4. आयु – यदि किसी देश में वृद्ध लोगों की तुलना में युवक और बच्चे अधिक हैं तो वहाँ परिवर्तन को शीघ्र स्वीकार किया जाएगा। इसका कारण यह है कि वृद्ध व्यक्ति सामान्यतः रूढ़िवादी एवं परिवर्तन-विरोधी होते हैं तथा प्रथाओं के कठोर पालन पर बल देते हैं। वृद्ध लोगों की अधिक संख्या होने पर सैनिक दृष्टि से वह समाज कमजोर होता है। युवा लोगों की अधिकता होने पर वह देश और समाज नवीन आविष्कार करने में सक्षम होता है। ऐसे समाज में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक क्रान्तियाँ आने के अवसर मौजूद रहते हैं, किन्तु दूसरी ओर जनसंख्या में युवा लोगों का अधिक अनुपात होने पर अनुभवहीन लोगों की संख्या भी बढ़ जाती है।

5. लिंग – समाज में स्त्री-पुरुषों का अनुपात भी सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करता है। जिन समाजों में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या अधिक होती है, उनमें स्त्रियों की सामाजिक स्थिति निम्न होती है और वहाँ बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन होता है। दूसरी ओर, जहाँ पर स्त्रियों की तुलना में पुरुषों की संख्या अधिक होती है वहाँ बहुपति प्रथा का प्रचलन होता है तथा कन्या-मूल्य की प्रथा पायी जाती है।

प्रश्न 5
सामाजिक परिवर्तन में प्रौद्योगिकी की भूमिका का विवेचन कीजिए। [2012, 15, 16]
या
सामाजिक परिवर्तन में प्राविधिक कारक के चार प्रभावों को लिखिए। [2010]
उत्तर:
आज के युग में प्रौद्योगिकी सामाजिक परिवर्तन का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारक है। यदि यह कहा जाए कि पिछले करीब पाँच सौ वर्षों में जितने भी परिवर्तन हुए हैं, उनके पीछे सबसे प्रमुख कारक प्रौद्योगिक है, तो इसमें किसी प्रकार की कोई अतिशयोक्ति नहीं हैं। यह वास्तविकता है कि विज्ञान के क्षेत्र में होने वाली प्रगति ने अनेक आविष्कारों को जन्म दिया है। आविष्कारों से यन्त्रीकरणं बढ़ा है और यन्त्रीकरण के फलस्वरूप उत्पादन की प्रणाली में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। थर्स्टन वेबलन सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रौद्योगिक दशाओं को उत्तरदायी मानते हैं। यहाँ हम प्रौद्योगिकीय कारकों और सामाजिक परिवर्तन के सम्बन्ध पर विचार करेंगे और यह जानने का प्रयत्न करेंगे कि प्रौद्योगिक कारक किस प्रकार जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तन लाने में योग देते है।

1. यन्त्रीकरण एवं सामाजिक परिवर्तन – विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के इस युग में आज आविष्कारों वे खोजों का विशेष महत्त्व है। वर्तमान में प्रेस, पहिया, भाप-इंजन, जहाज, मोटर-कार, वायुयान, ट्रैक्टर, टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन, बिजली, टाइपराइटर, कम्प्यूटर, गनपाउडर, अणुबम आदि के आविष्कार ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आमूल-चूल परिवर्तन ला दिये हैं। मैकाइवर का कहना है कि भाप के इंजन के आविष्कार ने मानव के सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन को इतना प्रभावित किया है जितना स्वयं उसके आविष्कारक ने भी कल्पना नहीं की होगी। ऑगबर्न ने रेडियो के आविष्कार के कारण उत्पन्न 150 परिवर्तनों को उल्लेख किया। स्पाइसर ने अनेक ऐसे अध्ययनों का उल्लेख किया है जिनसे यह पता चलता है कि छोटे यन्त्रों के प्रयोग से ही मानवीय सम्बन्धों में विस्तृत एवं अनपेक्षित परिवर्तन हुए हैं। कार में स्वचालित यन्त्र (Self-starter) के लग जाने से ही कई सामाजिक परिवर्तन हुए। हैं। इससे स्त्रियों की स्वतन्त्रता बढ़ी, अब उनके लिए कार चलाना आसान हो गया, वे क्लब जाने लगीं, उनकी गतिशीलता में वृद्धि हुई और इसका प्रभाव उनके पारिवारिक जीवन पर भी पड़ा। भारत में नये कारखानों के खुलने और मशीनों की सहायता से उत्पादन होने से लोगों को विभिन्न स्थानों पर काम करने हेतु जाना पड़ा, विभिन्न जातियों के लोगों को साथ-साथ काम करना पड़ा। इससे जाति-प्रथा एवं संयुक्त परिवार प्रणाली का विघटन हुआ, छुआछूत कम हुई, वर्ग-व्यवस्था पनपी तथा स्त्रियों की स्वतन्त्रता में वृद्धि हुई।।

2. यन्त्रीकरण तथा सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन – यन्त्रीकरण ने सामाजिक मूल्यों को परिवर्तित करने में योग दिया है। सामाजिक मूल्यों का हमारे जीवन में विशेष महत्व होता है और हम अपने व्यवहार को उन्हीं के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करते हैं। वर्तमान में व्यक्तिगत सम्पत्ति एवं शक्ति का महत्त्व बढ़ा है एवं सामूहिकता के मूल्य कमजोर पड़े हैं। अब धन और राजनीतिक शक्ति के बढ़ते हुए प्रभाव एवं महत्त्व के कारण उन लोगों को समाज में ज्यादा सम्मान या प्रतिष्ठा दी जाती है जो धनी हैं, बड़े व्यापारी या उद्योगपति हैं, राजनेता या प्रशासक हैं। यन्त्रीकरण ने प्रदत्त के बजाय अर्जित गुणों के महत्त्व को बढ़ाने में योगदान दिया है।

3. संचार के उन्नत साधन एवं सामाजिक परिवर्तन – संचार के नवीन उन्नत साधनों जो कि एक प्रभावशाली प्रौद्योगिकीय कारक हैं, ने विकास के अनेक जटिल सामाजिक फेरवर्तनों को जन्म दिया। संचार की अनेक प्रविधियाँ हैं, जिनमें तार, टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन आदि प्रमुख हैं। संचार ही तो सामाजिक सम्बन्धों का आधार है। सिनेमा यो चलचित्रों ने लोगों के विचारों, विश्वासों एवं मनोवृत्तियों को बदलने में काफी योग दिया है। साथ ही इसने पारिवारिक, सामाजिक एवं जातिगत सम्बन्धों को भी प्रभावित किया है। अब रेडियो की सहायता से कोई भी बात, सूचना एवं विचार कुछ ही क्षणों में लाखों-करोड़ों व्यक्तियों तक पहुँचाए जा सकते हैं। रेडियो मनोरंजन का स्वस्थ साधन भी है। रेडियो और टेलीविजन ने परिवार के सदस्यों को एक-साथ बैठकर अवकाश का समय बिताने को प्रेरित किया है। इससे सदस्यों को अपने मनोरंजन के लिए इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता और साथ ही उनके पारिवारिक सम्बन्धों में दृढ़ता आयी है। संचार के विभिन्न साधनों के माध्यम से भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक समूह के लोगों को एक-दूसरे को समझने का मौका मिला है, जिसके परिणामस्वरूप उनमें सांस्कृतिक दूरी कुछ कम हुई है तथा सात्मीकरण हुआ है।

4. कृषि क्षेत्र में नवीन प्रविधियाँ एवं सामाजिक परिवर्तन – कृषि क्षेत्र में नवीन प्रविधियों का प्रयोग एक ऐसा प्रौद्योगिक कारक है जिसने जीवन में अनेक परिवर्तन लाने में योग दिया है। पशुओं की नस्ल, उर्वरकों के प्रयोग, बीजों की किस्मे तथा श्रम बचाने वाली मशीनों सम्बन्धी मामलों में सुधार हो जाने से कृषि उत्पादन में मात्रा एवं गुण दोनों ही दृष्टि से वृद्धि हुई है। सिंचाई के उन्नत साधनों ने भी कृषि-उत्पादन बढ़ाने में काफी योग दिया है। इसका प्रभाव न केवल आर्थिक जीवन पर बल्कि सामाजिक जीवन पर भी पड़ा। पहले कृषि-कार्यों के ठीक से संचालन के लिए अन्य व्यक्तियों के सहयोग की आवश्यकता पड़ती थी जिससे ग्रामों में सामूहिकता का महत्त्व बना हुआ था। अब श्रम की बचत करने वाली मशीनों के प्रयोग से व्यक्ति को कृषि-कार्यों में अन्य व्यक्तियों के सहयोग की आवश्यकता बहुत कम पड़ती है। इससे सामूहिकता की बजाय व्यक्तिवादिता का महत्त्व बढ़ा है। साथ ही मशीनों के प्रयोग से कृषि-कार्यों में कम व्यक्तियों की आवश्यकता ने संयुक्त के बजाय नाभिक परिवारों के महत्त्व को बढ़ाया है। कृषि के क्षेत्र में प्रयोग में लायी जाने वाली नवीन प्रविधियों ने सामाजिक सम्बन्धों, लोगों के दृष्टिकोण और मनोवृत्तियों को काफी कुछ बदल दिया है। अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी सम्बन्धों में घनिष्ठता और आत्मीयता के बजाय औपचारिकता और कृत्रिमता बढ़ती जा रही है।

5. उत्पादन प्रणाली और सामाजिक परिवर्तन – उत्पादन प्रणाली भी एक प्रमुख प्रौद्योगिक कारक है, जिसने समय-समय पर सामाजिक सम्बन्धों और सामाजिक संरचना को काफी कुछ बदला है। पहले जब मशीनों का आविष्कार नहीं हुआ था तब लोग अपने हाथों से काम करते थे और परिवार ही उत्पादन की इकाई था। ऐसी स्थिति में परिवार के सभी सदस्यों के हित एवं रुचियाँ समान थीं. और सम्बन्धों में घनिष्ठता थी। उस समय छोटे पैमाने पर उत्पादन होने से औद्योगिक समस्याएँ और श्रम-समस्याएँ नहीं थीं। लोग अपने घरों पर उत्पादित वस्तुओं को अन्य व्यक्तियों को उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं के बदले में देकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। इसी प्रकार वे अपनी सेवाओं का भी आदान-प्रदान करते थे। इससे ग्रामीण समुदायों में एकता और दृढ़ता बनी हुई थी, लेकिन अब उत्पादन प्रणाली बदल गयी है। वर्तमान में नगरीय क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर फैक्ट्रियों में मशीनों की सहायता से उत्पादन होने लगा है। अब हाथ से काम करने वालों का महत्त्व कम हुआ है और मशीनें चलाने वाले प्रशिक्षित व्यक्तियों का महत्त्व बढ़ा है। श्रम-विभाजन और विशेषीकरण अधिक हुआ है। उत्पादन की नवीन प्रणाली ने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और यहाँ तक कि सांस्कृतिक जीवन तक को भी बहुत कुछ बदल दिया है। इस नयी प्रणाली ने विभिन्न सामाजिक संस्थाओं, विवाह, परिवार, जाति आदि को अनेक रूपों में प्रभावित किया है और सामाजिक परिवर्तन की गति को तेज किया है।

6. अणु-शक्ति पर नियन्त्रण एवं सामाजिक परिवर्तन – अणु-शक्ति का प्रयोग रचनात्मक एवं विनाशक दोनों ही प्रकार के कार्यों के लिए किया जा सकता है। शान्ति के अभिकर्ता के रूप में अणु-शक्ति समृद्धि का अभूतपूर्व युगे ला सकती है। जहाँ इस शक्ति का प्रयोग मानव की सुख-समृद्धि को बढ़ाने और जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने में किया जा सकता है, वहीं इसका प्रयोग मानव और उसकी कृतियों को नष्ट करने के लिए भी किया जा सकता है। जैसे-जैसे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अणु-शक्ति का प्रयोग बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे ही सामाजिक परिवर्तन की गति भी तीव्र होती जाएगी।

प्रश्न 6
सामाजिक परिवर्तन का क्या अर्थ है। सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारकों की भूमिका स्पष्ट कीजिए। [2009, 10, 13]
या
सामाजिक परिवर्तन की विभिन्न सांस्कृतिक दशाओं का विवेचन कीजिए। [2012, 17]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन के अनेक कारक हैं। इनमें से एक सांस्कृतिक कारक अथवा सांस्कृतिक दशाएँ हैं। अनेक विद्वानों ने एक तर्क दिया है कि सांस्कृतिक कारक सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इन विद्वानों में मैक्स वेबर, स्पेंग्लर तथा सोरोकिन प्रमुख हैं।

सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारकों की भूमिका
सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारकों की भूमिका को निम्नलिखित विद्वानों के विचारानुसार स्पष्ट किया जा सकता है

(क) मैक्स वैबर
मैंक्स वैबर ने संस्कृति एवं धर्म के सम्बन्ध को व्यक्त करने के लिए संसार के सभी प्रमुख धर्मों का अध्ययन किया। इन धर्मों में ईसाई धर्म की एक प्रमुख शाखा प्रोटेस्टैण्ट धर्म को उसने विशेष रूप से अध्ययन किया और उसी के आधार पर मैक्स वेबर ने यह निष्कर्ष निकाला कि धर्म का सामाजिक व्यवस्था; विशेष रूप से आर्थिक संरचना पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इन सम्बन्ध में मैक्स वेबर ने पूँजीवाद का प्रोटेस्टैण्ट धर्म से सम्बन्ध स्थापित किया। मैक्स वैबर ने अपने सिद्धान्त में यह दिखाया है कि प्रोटेस्टेण्ट धर्म में पूँजीवाद को प्रोत्साहित करने वाले तत्त्व निहित हैं। इस प्रकार के तत्त्व अन्य धर्मों में नहीं पाए जाते। इसलिए पूँजीवाद की भावना का विकास केवल पश्चिमी यूरोप के देशों में ही हुआ यहाँ पर प्रोटैस्टैण्ट लोगों की संख्या अधिक है। मैक्स वैबर के अनुसार धर्म व संस्कृति ही यह निश्चय करते हैं कि देश में किस प्रकार की प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहन मिलता है।

(ख) स्पेंग्लर
स्पेंग्लर ने अपनी पुस्तक ‘दि डिक्लाइन ऑफ दि वेस्ट’ (The decline of the waste) में लिखा है कि ऋतुओं की भाँति ही विश्व की संस्कृति समय-समय पर परिवर्तित होती रहती है। यह परिवर्तन कुछ निश्चित नियमों के अनुसार ऋतुओं की भाँति चक्रवत् होता रहता है। इसी परिवर्तन के कारण सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रहती है। एक संस्कृति के बाद दूसरी संस्कृति आती है और उससे पूर्व संस्कृति के नियमों में प्ररवर्तन हो जाता है। इस परिवर्तन का क्रम चक्रवत् चलता रहता है और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया भी सदैव चलती रहती है।

(ग) सोरोकिन
सोरोकिन ने संस्कृति को ही सामाजिक परिवर्तन का मुख्य कारण माना है। उनका कहना है कि जो लोग सैदव ऊर्ध्वगामी विकास देखते हैं, वे सहीं नहीं हैं; औन न ही वे व्यक्ति सही हैं जो सामाजिक परिवर्तन को चक्रीय गति से देखते हैं। सामाजिक परिवर्तन की गति चक्रीय तो है परन्तु वास्तव में यह सांस्कृतिक तत्त्वों के उतार-चढ़ाव के कारण होता है। उसका विचार है कि संस्कृति दो प्रकार की होती है – प्रथम चेतनात्मक संस्कृति है, जिसमें भौतिक सुख को प्रदान करने वाले आविष्कार व उपकरणों को महत्त्व दिया जाता है। ये संस्कृति के भौतिक तथा मूर्त पक्ष हैं जिनको हम चेतनात्मक संस्कृति के नाम से पुकारते हैं। संस्कृति के दूसरे स्वरूप को सोरोकिन विचारात्मक संस्कृति के नाम से पुकारता है। इसमें भौतिक समृद्धि की अपेक्षा आध्यात्मिक विकास पर अधिक बल दिया जाता है। संस्कृति का यह अभौतिक तथा अमूर्त पक्ष होता है जिसका सम्बन्ध हमारे विचारों, हमारी भावनाओं से होता है। सोरोकिन का मत है कि इन दोनों प्रकार की संस्कृतियों में उतार-चढ़ाव होता रहता है। कभी चेतनात्मक संस्कृति ऊपर उन्नति की ओर पहुँचती है और फिर विचारात्मक संस्कृति की ओर झुक जाती है। इन दोनों संस्कृतियों के बीच उतार-चढ़ाव की प्रक्रिया से सामाजिक परिवर्तन का जन्म होता है।

सोरोकिने का मत है कि दोनों प्रकार की संस्कृतियों में से जब कोई भी संस्कृति अपनी चरम सीमा पर पहुँचती है तो वह और आगे न बढ़कर पुनः पीछे की ओर लौटने लगती है। आज हम भौतिकवाद की चरम सीमा पर हैं किन्तु व्यक्ति बनाव-सिंगार से तंग आकर सरल जीवन तथा सादगी की ओर बढ़ता नजर आता है। आविष्कारों के भयंकर परिणामों से तंग आकर विश्व शान्ति के प्रयासों को तीव्र करने के लिए विविध प्रकार के संगठनों का निर्माण होने लगा है। इन सब बातों से यही निष्कर्ष निकलता है कि एक चरम सीमा के बिन्दु पर पहुँचकर कोई भी संस्कृति पीछे की ओर लौटती है।

संस्कृति तथा सामाजिक परिवर्तन के सम्बन्ध में उपर्युक्त विद्वानों के विचारों की विवेचना के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि संस्कृति सामाजिक परिवर्तन की दिशा को निश्चित करती है। संस्कृति इस बात को निर्धारित करती है कि कौन-सा आविष्कार किस सीमा तक लोकप्रिय होगा। जो आविष्कार सांस्कृतिक तत्त्वों के अनुरूप नहीं होते है उनको समाज में सफलता नहीं मिलती है।

प्रश्न 7
ऑगबर्न के सांस्कृतिक विलम्बना के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए। [2007, 09, 11]
या
सांस्कृतिक विलम्बना की अवधारणा की विस्तृत व्याख्या कीजिए। [2015]
या
सांस्कृतिक विलम्बना पर एक लेख लिखिए। [2013]
उत्तर:
उक्ट ऑगबर्न का सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त

विलियम एफ० ऑगबर्न (w. F. Ogburn) ने संस्कृति और सामाजिक परिवर्तन के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए सर्वप्रथम 1922 ई० में अपनी पुस्तक ‘Social Change’ में सांस्कृतिक पिछड़’ अथवा ‘सांस्कृतिक विलम्बना’ के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया। आपके अनुसार, संस्कृति का तात्पर्य मनुष्य द्वारा निर्मित सभी प्रकार के भौतिक और अभौतिक (Material and non-material) तत्त्वों से है। ‘lag’ का तात्पर्य ‘लँगड़ाना’ अथवा ‘पीछे रह जाना होता है। इस प्रकार संस्कृति के भौतिक पक्ष की तुलना में जब अभौतिक पक्ष पीछे रह जाता है, तब सम्पूर्ण संस्कृति में असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इसी स्थिति को हम ‘सांस्कृतिक विलम्बना’ अथवा ‘सांस्कृतिक पिछड़’ कहते हैं। यही स्थिति सामाजिक परिवर्तन का आधारभूत कारण है। ऑगबर्न ने स्वयं इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “…………………. आधुनिक संस्कृति के विभिन्न भाग समान गति से नहीं बदल रहे हैं, कुछ भागों में दूसरी की अपेक्षा अधिक तेजी से परिवर्तन हो रहा है और क्योंकि संस्कृति के सभी भाग एक-दूसरे पर निर्भर और एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं, इसलिए संस्कृति के एक भाग में होने वाले तीव्र परिवर्तन से दूसरे भागों में भी अभियोजन की आवश्यकता हो जाती है।”

ऑगबर्न का तर्क है कि संस्कृति के विभिन्न भागों में होने वाले परिवर्तनों की असमान दर ही सांस्कृतिक पिछड़ का कारण है। हम किसी भी प्रगतिशील अथवा आदिम समाज का उदाहरण क्यों न ले लें, अधिकांश आधुनिक समाजों में हमें यह स्थिति देखने को मिलती है। एक ओर, हमारी भौतिक संस्कृति में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो गये हैं। हम आधुनिक ढंगों से खेती करते हैं, मशीनों के द्वारा उत्पादन कार्य करते हैं, चिकित्सा विज्ञान की प्रगति से मृत्यु को भी कुछ समय तक रोकने में समर्थ हो गये हैं, परिवहन के साधनों से हजारों मील की दूरी कुछ घण्टों में ही तय करने लगे हैं और संचार के साधनों से हजारों मील दूर की आवाज को कुछ सेकण्डों में ही सुन सकते हैं; लेकिन दूसरी ओर, हमारे विश्वास और लोकाचार आज भी हजारों वर्ष पुराने हैं। व्यक्ति कितना ही प्रगतिशील और शिक्षित क्यों न हो गया हो, वह काली बिल्ली द्वारा रास्ता काटे जाने अथवा टूटे हुए शीशे को देखना अशुभ समझता है और पितृ-आत्माओं की तृप्ति के लिए कुछ व्यक्तियों को भोजन कराने में विश्वास करता है। इसी प्रकार हजारों विश्वास हमारे जीवन को आज भी अपनी सम्पूर्ण शक्ति से प्रभावित कर रहे हैं। तात्पर्य यह है कि संस्कृति का भौतिक पक्ष कहीं आगे बढ़ चुका है, जब कि अभौतिक पक्ष बहुत पीछे है। इसी स्थिति को हम ‘सांस्कृतिक पिछड़’ कहते हैं।

सन् 1947 में अपनी एक अन्य पुस्तक ‘A Handbook of Sociology’ में ऑगबर्न ने ‘सांस्कृतिक पिछड़’ की परिभाषा में कुछ संशोधन करते हुए कहा है कि “सांस्कृतिक पिछड़ वह तनाव है जो तीव्र और असमान गति से परिवर्तन होने वाली संस्कृति के दो परस्पर सम्बन्धित भागों में विद्यमान होता है। इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि भौतिक संस्कृति की अपेक्षा अभौतिक संस्कृति में होने वाले कम परिवर्तन को ही हम सांस्कृतिक पिछड़ नहीं कहते, बल्कि संस्कृति के दोनों भागों में से किसी भी एक भाग के दूसरे से आगे निकल जाने की स्थिति को सांस्कृतिक पिछड़ कहा जाता है। उदाहरण के लिए, हम भारतीय समाज को ले सकते हैं, जहाँ नगरों और ग्रामीण समुदायों में यह स्थिति भिन्न-भिन्न रूपों में पायी जाती है। नगरों में भौतिक संस्कृति अभौतिक संस्कृति की अपेक्षा बहुत आगे है, जब कि ग्रामीण समुदाय में भौतिक संस्कृति की अपेक्षा अभौतिक संस्कृति का महत्त्व कहीं अधिक है। तात्पर्य यह है कि संस्कृति का कोई भी पक्ष दूसरे की अपेक्षा यदि अधिक परिवर्तित हो जाये तो यह स्थिति ‘सांस्कृतिक पिछड़’ की स्थिति उत्पन्न कर देती है।

सांस्कृतिक विलम्बना के कारण तथा परिणाम
सांस्कृतिक विलम्बना के सिद्धान्त में ऑगबर्न ने इस तथ्य को भी स्पष्टं किया कि संस्कृति के भौतिक तथा अभौतिक पक्षों के बीच यह असन्तुलन क्यों पैदा होता है तथा सांस्कृतिक विलम्बना की दशी से सम्बन्धित कौन-से परिणाम सामाजिक परिवर्तन को जन्म देते हैं ? जहाँ तक सांस्कृतिक विलम्बना के कारण का प्रश्न है, इसे पाँच प्रमुख दशाओं के आधार पर समझा जा सकता है

  1. रूढ़िवादी मनोवृत्तियाँ संस्कृति के अभौतिक पक्ष में परिवर्तन लाने में बाधक होती हैं। अधिकांश व्यक्ति नयी प्रौद्योगिकी को आसानी से ग्रहण कर लेते हैं, लेकिन वे अपने विचारों, विश्वासों तथा सामाजिक मूल्यों को बदलना नहीं चाहते।
  2. अधिकांश लोगों में नये विचारों यो नयी वस्तु के प्रति भय की भावना होती है।
  3.  अतीत के प्रति निष्ठा होने के कारण हम प्रत्येक उसे व्यवहार अथवा विचार को अधिक अच्छा समझते हैं जिनको परम्पराओं के रूप में हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित किया जाता है।
  4. समाज के कुछ विशेष वर्गों के निहित स्वार्थ (Vested interests) भी संस्कृति के भौतिक तथा अभौतिक पक्ष के बीच पैदा होने वाले सन्तुलन का एक प्रमुख कारण हैं। समाज का पूँजीपति वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग तथा अधिकारी वर्ग अपने-अपने स्वार्थों के कारण अक्सर नयी प्रौद्योगिकी, नवाचारों, व्यवहार के नये तरीकों अथवा नये विचारों का इसलिए विरोध करता है जिससे उसका पारम्परिक महत्त्व कम न हो जाए।
  5. नये विचारों की परीक्षा में कठिनता होने के कारण उनकी उपयोगिता की जाँच करना भी अक्सर सम्भव नहीं हो पाता। यही दशाएँ संस्कृति के विभिन्न पक्षों में असन्तुलन पैदा करती हैं।

किसी समाज में जब सांस्कृतिक विलम्बना की दशा उत्पन्न होती है, तब इसके अनेक परिणाम स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। जब संस्कृति का एक पक्ष दूसरे से पिछड़ जाता है, तब

  1.  व्यक्तियों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे अपनी दशाओं से नये सिरे से अनुकूलन करें।
  2. इसके फलस्वरूप परम्परागत संस्थाओं के कार्य दूसरी संस्थाओं को हस्तान्तरित होने लगते हैं।
  3. यही दशा सांस्कृतिक मूल्यों के प्रभाव में कमी पैदा करती है।
  4. यदि सांस्कृतिक विलम्बना की दशा लम्बे समय तक बनी रहती है तो सामाजिक सन्तुलन बिगड़ जाने के कारण सामाजिक समस्याओं में वृद्धि होने लगती है। ये सभी दशाएँ सामाजिक परिवर्तन में वृद्धि करती हैं।

सिद्धान्त की समालोचना यद्यपि यह सच है कि संस्कृति के सभी भाग समान गति से नहीं बदलते, लेकिन जिस रूप में ऑगबर्न ने सांस्कृतिक पिछड़’ को सिद्धान्त प्रस्तुत किया है, उसमें बहुत-सी कमियाँ हैं

  1. यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि अभौतिक संस्कृति की तुलना में भौतिक संस्कृति सदैव ही आगे बढ़ जाती है। मैक्स मूलर जैसे प्रसिद्ध विद्वान् ने भारत का उदाहरण देते हुए बताया है कि भारत ज्ञान और त्याग में अत्यधिक प्रगतिशील है, जब कि भौतिक संस्कृति का यहाँ न तो अधिक महत्त्व है और न ही इस क्षेत्र में प्रगति करने का प्रयत्न किया जा सकता है।
  2.  ऑगबर्न ने सांस्कृतिक पिछड़’ को ही सामाजिक परिवर्तन का एकमात्र कारण मान लिया है, लेकिन यह सदैव सत्य नहीं है। मैकाइवर का कथन है कि संस्कृति का असन्तुलन सदैव भौतिक और अभौतिक पक्षों के बीच में नहीं होता, बल्कि संस्कृति के एक पक्ष में ही सन्तुलन की स्थिति हो सकती है।
  3.  कभी-कभी अभौतिक और भौतिक संस्कृति के विकास की दर में ही भिन्नता होने से सांस्कृतिक पिछड़ की स्थिति उत्पन्न नहीं होती, बल्कि अभौतिक संस्कृति के विभिन्न अंगों का असन्तुलन भी पिछड़ की स्थिति उत्पन्न करता है। उदाहरण के लिए, हम एक समय पर यह विश्वास दिलाते हैं कि दहेज-प्रथा असंगत और असामयिक है और दूसरे समय पर हम स्वयं दहेज लेते और देते हैं। हम अन्धविश्वासों की आलोचना करते हैं और स्वयं ही अन्धविश्वासों के अंनुसार व्यवहार करते हैं। इस स्थिति में हम अभौतिक संस्कृति में होने वाले परिवर्तन की वास्तविक सीमा को नहीं समझ पाते।
  4. हमारे सामने मुख्य कठिनाई यह आती है कि संस्कृति के अभौतिक पक्ष में होने वाले परिवर्तनों को किस प्रकार मापा जाए ? भौतिक वस्तुओं के परिवर्तनों को हम माप सकते हैं लेकिन अभौतिक पक्ष से सम्बन्धित परिवर्तन का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। इस प्रकार भौतिक संस्कृति के तनिक-से परिवर्तन को प्रगति कह देना और अभौतिक संस्कृति में अनेक परिवर्तनों के बाद भी उसे ‘स्थायी’ मान लेना हमारी सबसे बड़ी भूल है।
  5.  ऑगबर्न के इस सिद्धान्त का एक बड़ा दोष यह है कि आपने इस सिद्धान्त को केवल पश्चिमी समाज की परिस्थितियों में ही प्रस्तुत किया है। इस प्रकार यदि हम कहें कि आपने केवल औद्योगीकरण को ही अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक परिवर्तन का एकमात्र कारक मान लिया है तो यह गलत नहीं होगा।

प्रश्न 8
सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए। या सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2014, 16]
या
सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त का वर्णन कीजिए। [2011, 12, 16, 17]
या
सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त की विवेचना कीजिए। [2012, 14]
या
‘सामाजिक परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है।’ स्पष्ट करते हुए इसके चक्रीय सिद्धान्त की विवेचना कीजिए। [2012]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया
सामाजिक परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है। असभ्यता और बर्बरता के युग में जब मानव का जीवन पूरी तरह प्राकृतिक था, तब भी समाज में परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रही। यदि संसार के इतिहास को उठाकर देखा जाए तो ज्ञात होता है कि जब से समाज का प्रादुर्भाव हुआ है, तब से समाज के रीति-रिवाज, परम्पराएँ, रहन-सहन की विधियाँ, पारिवारिक, वैवाहिक व्यवस्थाओं आदि में निरन्तर परिवर्तन होता आया है। इस परिवर्तन के फलस्वरूप ही वैदिक काल के समाज में और वर्तमान समाज में आकाश-पाताल का अन्तर पाया जाता है। वास्तविकता यह है कि मनुष्य की
आवश्यकताएँ हमेशा बदलती रहने के कारण वह उसकी पूर्ति के नये-नये तरीके सोचता रहता है। इसके फलस्वरूप उसके कार्य और विचार करने के तरीकों में परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया सतत अथवा निरन्तर क्रम में स्वाभाविक रूप से चलती रहती है।

सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख सिद्धान्त
सामाजिक परिवर्तन के आरम्भिक सिद्धान्तों में उविकास की प्रक्रिया को अधिक महत्त्व दिया गया, जब कि बाद के सामाजिक विचारकों ने रेखीय अथवा चक्रीय आधार पर सामाजिक परिवर्तन की विवेचना की। आज अधिकांश समाजशास्त्री संघर्ष सिद्धान्त के आधार पर सामाजिक परिवर्तन की विवेचना करने के पक्ष में हैं। वास्तव में, सामाजिक परिवर्तन के बारे में दिये गये सिद्धान्तों की संख्या इतनी अधिक है कि यहाँ पर इन सभी का उल्लेख करना सम्भव नहीं हैं; अत: हम यहाँ केवलु प्रमुख रूप से सामाजिक परिवर्तन के रेखीय और चक्रीय सिद्धान्त का ही वर्णन करेंगे।

सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त
समाजशास्त्र को जब एक व्यवस्थित विज्ञान के रूप में विकसित करने का कार्य आरम्भ हुआ तो आरम्भिक समाजशास्त्री उविकास के सिद्धान्त से अधिक प्रभावित थे। फलस्वरूप कॉम्टे, स्पेन्सर, मॉर्गन, हेनरीमैन तथा वेबलन जैसे अनेक विचारकों ने यह स्पष्ट किया कि सामाजिक परिवर्तन एक क्रमिक प्रक्रिया है, जो विकास के अनेक स्तरों में से गुजरती हुई आगे की ओर बढ़ती है। परिवर्तन के इस क्रम में आगे आने वाला प्रत्येक स्तर अपने से पहले के स्तर से अधिक स्पष्ट लेकिन जटिल होता है। दूसरे शब्दों में, सामाजिक परिवर्तन की प्रवृत्ति एक निश्चित दशा में आगे की ओर बढ़ने की होती है। उदाहरण के लिए, समाजशास्त्र के जनक कॉम्टे ने यह स्पष्ट किया कि सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख कारण मनुष्य के बौद्धिक स्तर अथवा उसके विचारों में परिवर्तन होते रहना है। यह बौद्धिक विकास तीन स्तरों के द्वारा होता है। पहले स्तर में व्यक्ति के विचार धार्मिक विश्वासों से प्रभावित होते हैं। दूसरे स्तर पर मनुष्य तात्विक अथवा दार्शनिक विधि से विचार करने लगता है। अन्तिम स्तर प्रत्यक्ष अथवा वैज्ञानिक ज्ञान का स्तर है जिसमें तर्क और अवलोकन की सहायता से विभिन्न घटनाओं के कारणों और परिणामों की व्याख्या की जाने लगती है।

इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन ऊपर की ओर उठती हुई एक सीधी रेखा के रूप में होता है। हरबर्ट स्पेन्सर ने भी सामाजिक परिवर्तन को समाज के उविकास की चार अवस्थाओं के रूप में स्पष्ट किया। इन्हें स्पेन्सर ने सरल समाज (Simple society), मिश्रित समाज (Compound society), दोहरे मिश्रित समाज (Double compound society) तथा अत्यधिक मिश्रित समाज (Terribly compound society) का नाम दिया। समाज की प्रकृति में होने वाले इन प्रारूपों के आधार पर स्पेन्सर ने बताया कि आरम्भिक समाज आकार में छोटे होते हैं, इसके सदस्यों में पारस्परिक सम्बद्धता कम होती है, यह समरूप होते हैं लेकिन लोगों की भूमिकाओं में कोई निश्चित विभाजन नहीं होता।

इसके बाद आगे होने वाले प्रत्येक परिवर्तन के साथ समाज का आकार बढ़ने लगता है, सदस्यों में पारस्परिक निर्भरता बढ़ती जाती है, लोगों की प्रस्थिति और भूमिका में एक स्पष्ट अन्तर दिखायी देने लगता है तथा सामाजिक संरचना अधिक व्यवस्थित बनने लगती है। इस तरह समाज में होने वाला प्रत्येक परिवर्तन सरलता से जटिलता की ओर एक रेखीय क्रम में होता है। मॉर्गन ने मानव-सभ्यता के विकास को जंगली युग, बर्बरता का युग तथा सभ्यता का युग जैसे तीन भागों में विभाजित करके स्पष्ट किया। कार्ल मार्क्स ने आर्थिक आधार पर तथा वेबलन ने प्रौद्योगिक आधार पर सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त प्रस्तुत किये। स्पष्ट है कि जिन सिद्धान्तों के द्वारा सामाजिक परिवर्तन को अनेक स्तरों के माध्यम से विकास की दिशा में होने वाले परिवर्तन के रूप में स्पष्ट किया गया, उन्हें हम परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त कहते हैं।

सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त
रेखीय सिद्धान्तों के विपरीत सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित हैं। कि सामाजिक परिवर्तन कुछ निश्चित स्तरों के माध्यम से एक विशेष दिशा की ओर नहीं होता बल्कि सामाजिक परिवर्तन एक चक्र के रूप में अथवा उतार-चढ़ाव की एक प्रक्रिया के रूप में होता है। इतिहास बताता है कि पिछले पाँच हजार वर्षों में संसार में कितनी ही सभ्यताएँ बनीं, धीरे-धीरे उनका विकास हुआ, कालान्तर में उनका पतन हो गया तथा इसके बाद अनेक सभ्यताएँ एक नये रूप में फिर से विकसित हो गयीं। सभ्यता की तरह सांस्कृतिक विशेषताओं में होने वाले परिवर्तन भी उतार-चढ़ाव की एक प्रक्रिया के रूप में होते हैं। एक समय में जिन व्यवहारों, मूल्यों तथा विश्वासों को बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाता है, कुछ समय बाद उन्हें अनुपयोगी और रूढ़िवादी समझकर छोड़ दिया जाता है।

तथा अनेक ऐसे सांस्कृतिक प्रतिमान विकसित होने लगते हैं जिनकी कुछ समय पहले तक कल्पना भी नहीं की गयी थी। इसका तात्पर्य है कि जिस तरह मनुष्य का जीवन जन्म, बचपन, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और मृत्यु के चक्र से गुजरता है, उसी तरह विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों में भी एक चक्र के रूप में उत्थान और फ्तन होता रहता है। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ऋतुओं अथवा मनुष्य के जीवन से सम्बन्धित परिवर्तन जिस तरह एक निश्चित चक्र के रूप में होते हैं, समाज में होने वाले परिवर्तन सदैव एक गोलाकार चक्र के रूप में नहीं होते। जिन सामाजिक प्रतिमानों, विचारों, विश्वासों तथा व्यवहार के तरीकों को हम एक बार छोड़ देते हैं, समय बीतने के साथ हम उनमें से बहुत-सी विशेषताओं को फिर ग्रहण कर सकते हैं, लेकिन उनमें कुछ संशोधन अवश्य हो जाता है। इस दृष्टिकोण से अधिकांश सामाजिक परिवर्तन घड़ी के पैण्डुलम की तरह होते हैं जो दो छोरों अथवा सीमाओं के बीच अपनी जगह निरन्तर बदलते रहते हैं। स्पेंग्लर, पैरेटो, सोरोकिन तथा टॉयनबी वे प्रमुख विचारक हैं जिन्होंने सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त प्रस्तुत किये।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक परिवर्तन के सन्दर्भ में महान लोगों की भूमिका पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
इतिहास में सामाजिक परिवर्तन की राजनीतिक व्याख्या महान लोगों के सन्दर्भ में की गयी है। ऐसा कहा जाता है कि इतिहास कभी भी महान लोगों के प्रभाव से विमुक्त नहीं रहा। हिटलर, मुसोलिनी, चांग- काई-शेक, चर्चिल, रूजवेल्ट, गांधी आदि महापुरुषों ने समाज को परिवर्तित करने में अपनी-अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। अछूतोद्धार तथा आजादी के संघर्ष के लिए महात्मा गांधी की भूमिका अविस्मरणीय है। भारत की विदेश नीति में पं० नेहरू की महत्त्वपूर्ण देन है। राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, केशवचन्द्र सेन, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि महापुरुषों ने भारतीय समाज में सुधार के अनेक प्रयत्न किये। श्रीमती गांधी का नेतृत्व भी चमत्कारिक रहा, उन्होंने भी अपने बीस सूत्रीय एवं गरीबी हटाओ’ कार्यक्रमों के द्वारा भारतीय समाज में परिवर्तन एवं सुधार के प्रयास किये।

प्रश्न 2
सामाजिक परिवर्तन के सन्दर्भ में संचार के उन्नत साधन एवं सामाजिक परिवर्तन पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
संचार के नवीन उन्नत साधनों, जो कि एक प्रभावशाली प्रौद्योगिकीय कारक है, ने विकास के अनेक जटिल सामाजिक परिवर्तनों को जन्म दिया। संचार की अनेक प्रविधियाँ हैं जिनमें तार; टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन आदि प्रमुख हैं। संचार ही तो सामाजिक सम्बन्धों का आधार है। सिनेमा यो चलचित्रों ने लोगों के विचारों, विश्वासों एवं मनोवृत्तियों को बदलने में पर्याप्त योग दिया। है। साथ ही इसने पारिवारिक, सामाजिक एवं जातिगत सम्बन्धों को भी प्रभावित किया है। अब रेडियो की सहायता से कोई भी बात, सूचना एवं विचार कुछ ही क्षणों में लाखों-करोड़ों व्यक्तियों तक पहुँचाए जा सकते हैं। रेडियो मनोरंजन का स्वस्थ साधन भी है। रेडियो और टेलीविजन ने परिवार के सदस्यों को एक-साथ बैठकर अवकाश का समय बिताने को प्रेरित किया है। इससे सदस्यों को अपने मनोरंजन के लिए इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता और साथ ही उनके पारिवारिक सम्बन्धों में भी दृढ़ता आयी है। संचार के विभिन्न साधनों के माध्यम से भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक समूह के लोगों को एक-दूसरे को समझने का मौका मिला है, जिसके परिणामस्वरूप उनमें सांस्कृतिक दूरी कुछ कम हुई है और सात्मीकरण हुआ है।

प्रश्न 3
सामाजिक परिवर्तन के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद सिद्धान्त का वर्णन कीजिए। [2009]
या
माक्र्स के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
कार्ल मार्क्स का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त
मार्क्स ने उत्पादन की नयी प्रविधियों के आधार पर सामाजिक परिवर्तन के रेखीय-प्रक्रम की व्याख्या की है, जिसके कारण उनके सिद्धान्त को रेखीय होने के साथ-साथ ‘प्राविधिक सिद्धान्त (Technological Theory) भी कहा जाता है। माक्र्स के अनुसार प्रकृति की प्रत्येक वस्तु द्वन्द्व है। उत्पादन की नवीन शक्तियों के उत्पन्न होते ही पुरानी शक्तियाँ क्षीण हो जाती हैं। अतः स्पष्ट है कि सम्पूर्ण प्रकृति में द्वन्द्वरत की अनवरत प्रक्रिया जारी रहती है, जिसे मार्क्स ने ‘द्वन्द्ववाद’ क़ी संज्ञा दी है। द्वन्द्ववाद के माध्यम से उसने यह निष्कर्ष प्राप्त किया है कि प्रकृति में कोई भी वस्तु/पदार्थ/विचार स्थिर नहीं है, सभी गतिशील हैं, सभी वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं। मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक पद्धति का प्रयोग विचारों के क्षेत्र के साथ-साथ समाज के भौतिक विकास पर भी किया है। हीगल (Hegel) की मान्यता है कि इतिहास मन का अनवरत आत्मानुभव है तथा घटनाएँ उसकी बाह्य अभिव्यक्ति। वहीं मार्क्स की मान्यता है कि घटनाएँ ही प्रधान हैं, उनके बारे में हमारे विचार गौण ही हैं। द्वन्द्वात्मक प्रणाली के माध्यम से मार्क्स ने जिस रूप में भौतिक जगत का विश्लेषण किया, उसे ही द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ (Dialectic Materialism) कहा जाता है। मार्क्स के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त की विवेचना निम्नवत् की जा सकती है

कार्ल मार्क्स ने भी सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या रेखीय आधार पर की है। उसने समस्त सामाजिक परिवर्तन को आर्थिक या प्रौद्योगिक आधार पर स्पष्ट किया है। अतः उसके सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त को निर्णयवादी (Deterministic Theory) भी कहा जाता है। उसके विचार से धर्म, राजनीति, भौगोलिक दशाएँ अथवा अन्य कारण सामाजिक परिवर्तन को जन्म नहीं देते हैं, केवल आर्थिक कारक ही सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को बदलता है। मार्क्स ने आर्थिक कारक को उत्पादन की प्रणाली अथवा प्रौद्योगिकी (Technology) के रूप में स्पष्ट किया है। किसी समाज में प्रचलित प्रौद्योगिकी या उत्पादन प्रणाली ही उस समाज की पारिवारिक, धार्मिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक व्यवस्थाओं के स्वरूप को निश्चित करती है। जब किसी समाज में प्रचलित उत्पादन की प्रणाली में परिवर्तन हो जाता है तो उसकी सामाजिक व्यवस्था के समस्त अंगों में भी परिवर्तन हो जाता है। माक्र्स ने आर्थिक व्यवस्था या प्रौद्योगिकी को अर्थात् उत्पादन की प्रणाली को समाज की रचना ‘अधिसंरचना’ (Substructure) तथा सामाजिक व्यवस्था को ‘अतिसंरचना (Superstructure) कहा है। प्रत्येक समाज की अतिसंरचना उसकी अधिसंरचना अर्थात् उत्पादन प्रणाली के अनुसार ही परिवर्तित होती रहती है।

प्रश्न 4
कार्ल मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद सिद्धान्त का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
या
मार्क्स के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2009]
उत्तर:
मार्क्स का समाजवाद वैज्ञानिक समाजवाद’ (Scientific Socialism) कहलाता है। उनकी विचारधारा को वैज्ञानिक कहे जाने के वैसे तो कई कारण हैं, पर उनमें सबसे बड़ा कारण : उनकी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ (Dialectical Materialism) की धारणा है। यद्यपि मार्क्स आदर्शवादी विचारक हीगल (Hegel) की द्वन्द्वात्मक प्रणाली में विश्वास रखते थे और उन्होंने अपनी द्वन्द्वात्मक धारणा को हीगल से ही ग्रहण किया है। परन्तु हीगल के द्वन्द्ववाद का आधार ‘विचार’ था, जब कि मार्क्स ने उसमें संशोधन करके उसे ‘भौतिकवाद’ पर आधारित कर दिया। हीगल का कहना था कि “विचारों के संघर्ष के परिणामस्वरूप ही नयी विचारधाराएँ जन्म लेती हैं। परन्तु मार्क्स ने वर्तमान सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियों के लिए भौतिक (आर्थिक) परिस्थितियों को सर्वोच्च माना है। मार्क्स के अनुसार, “बाह्य जगत का प्रभाव आन्तरिक विचारों का निर्माण करता है।” जो नये विचार उत्पन्न होते हैं, वे किसी विचार से सम्बन्धित विरोधी तत्त्वों के पारस्परिक टकराव से उत्पन्न होते हैं।

द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की आलोचना

1. भौतिकता पर अत्यधिक बल – मार्क्स ने अपने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त में केवल भौतिकता को ही महत्त्व प्रदान किया है तथा आध्यात्मिकता की पूर्णतः उपेक्षा की है। मानव
जीवन का उद्देश्य केवल भौतिक नहीं हो सकता।

2. संघर्ष की अनिवार्यता पर बल – मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में विकास की प्रक्रिया में संघर्ष की अनिवार्यता पर बल दिया गया है। उनका कहना है कि प्रत्येक उच्चतर अवस्था क्रान्ति के पश्चात् ही प्राप्त होती है। उनके इसी विचार के कारण आज के युवक साम्यवादी क्रान्ति की आराधना करते हैं।

3. पदार्थ को चेतनाहीन मानना उचित नहीं –  मार्क्स का यह मत भी उचित नहीं जान पड़ता कि पदार्थ चेतनाहीन होता है और अपने निहित विरोधी तत्त्वों में संघर्ष के फलस्वरूप उसका विकास होता है। सत्य तो यह है कि किन्हीं बाह्य शक्तियों के कारण उसका विकास होता है।

4. स्पष्टता का अभाव – कुछ विद्वानों का कहना है कि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की व्याख्या स्पष्ट रूप से नहीं की गयी है। वेबर महोदय का कहना है कि मार्क्स अपने द्वन्द्ववादी भौतिकवाद की व्याख्या अधिक स्पष्ट रूप में नहीं कर पाये; अतः इनकी धारणा अत्यन्त गूढ़ एवं अस्पष्ट है। प्रसिद्ध साम्यवादी अधिनायक लेनिन का भी यही कहना है कि हीगल के द्वन्द्ववाद को समझे बिना मार्क्स के द्वन्द्ववाद को नहीं समझा जा सकता।

5. विकास से सम्बन्धित अनुचित धारणा – द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सम्बन्ध में मार्क्स का कहना है कि पूँजीवाद (Capitalism) द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के नियम के अनुसार इतिहास की उपज है। वे कहते हैं कि जिस देश में पूंजीवाद अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाएगा, उस देश में उसका विरोधी तत्त्व ‘समाजवाद’ भी उसी के पेट से उत्पन्न होगा। परन्तु यदि इस बात को स्वीकार कर लिया जाये, तो इंग्लैण्ड में (जहाँ सबसे पहले पूँजीवाद अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा) सबसे पहले समाजवाद का उदय होना चाहिए था, जो कि नहीं हुआ। इसके विपरीत रूस और चीन में (जहाँ पूँजीवाद अपनी निम्नतर स्थिति में था) समाजवाद का सबसे अधिक विकास हुआ। उपर्युक्त आलोचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद सत्य की खोज करने की एकमात्र विधि नहीं है, सत्य की खोज तो अन्य विधियों से भी की जा सकती है।

प्रश्न 5
सामाजिक परिवर्तन में मनोवैज्ञानिक कारकों की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
चूँकि समस्त मानव-सम्बन्ध मानव-मस्तिष्क की उपज हैं अतः सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन मानव-मस्तिष्क में परिवर्तन के कारण होते हैं। मानव में जिज्ञासा की प्रवृत्ति पायी जाती है। इस प्रवृत्ति ने ही मानव को आविष्कार करने एवं अज्ञात को खोजने की प्रेरणा दी। मानव ने अनेक ऐसे आविष्कार किये जिन्होंने उसके जीवन को ही बदल दिया। जिज्ञासा के कारण ही वह चन्द्रमा पर पहुँचा, समुद्र की गहराई तक गया और दूर देशों की यात्रा की। मानव-मस्तिष्क नवीनता चाहता है, वह एक ही स्थिति से ऊब जाता है। इस ऊब से मुक्ति पाने के लिए ही मानव ने नये फैशने को जन्म दिया। मानसिक असन्तोष एवं संघर्ष सामाजिक सम्बन्धों को प्रभावित करते हैं। पारिवारिक विघटने एवं विवाह-विच्छेद का कारण परिवार के सदस्यों तथा पति-पत्नी का मानसिक अनुकूलन न हो पाना भी है। मानसिक तनाव सामाजिक सम्बन्धों को तोड़ देते हैं तथा लोगों में निराशा पैदा करते हैं। यह हत्या, आत्महत्या तथा अपराध के लिए भी उत्तरदायी है।

प्रश्न 6
सामाजिक अनुकूलन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सामाजिक अनुकूलन सामाजिक परिवर्तन की विभिन्न प्रक्रियाओं में से एक है। अनुकूलन में एक व्यक्ति दूसरे से समायोजन करने का प्रयत्न करता है। अनुकूलन किस सीमा तक होता है, इस बात को प्रकट करने के लिए कुछ शब्दों; जैसे-अभियोजन, समायोजन, सात्मीकरण तथा एकीकरण आदि; का प्रयोग किया जाता है। अनुकूलन की क्रिया दो बातों की ओर संकेत करती है

  1. व्यक्ति अपने को परिस्थिति के अनुसार ढाल ले तथा
  2. पर्यावरण या परिस्थितियों को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार संशोधित कर ले। इस प्रकार अनुकूलन भी एक प्रकार का परिवर्तन है। जो सभी समाजों में पाया जाता है। किसी व्यक्ति द्वारा विदेश में जाकर रहने पर स्वयं को वहाँ के समाज के अनुसार ढाल लेना अनुकूलन का उदाहरण है।

प्रश्न 7
सामाजिक परिवर्तन के रेखीय और चक्रीय सिद्धान्तों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन से सम्बन्धित रेखीय तथा चक्रीय सिद्धान्तों में निम्नलिखित अन्तर

  1. चक्रीय सिद्धान्त के अनुसार परिवर्तन का एक चक्र चलता है। हम जहाँ से प्रारम्भ होते हैं, घूम-फिरकर पुनः उसी स्थिति में आ जाते हैं, जब कि रेखीय सिद्धान्त यह विश्वास करता है। कि परिवर्तन एक सीधी रेखा में होता है। हम क्रमशः आगे बढ़ते जाते हैं और जिस चरण को हम त्याग चुके होते हैं, पुनः वहाँ कभी नहीं लौटते हैं।
  2. चक्रीय सिद्धान्त में परिवर्तन उच्चता से निम्नता और निम्नता से उच्चता की ओर होता है, जब कि रेखीय सिद्धान्त विश्वास करता है कि परिवर्तन सदैव निम्नता से उच्चता की ओर तथा
    अपूर्णता से पूर्णता की ओर ही होता है।
  3. चक्रीय सिद्धान्त के अनुसार परिवर्तन का चक्र तेज व मन्द दोनों हो सकता है, जब कि रेखीय सिद्धान्त परिवर्तन की मन्द गति में विश्वास करता है।
  4.  रेखीय सिद्धान्त चक्रीय सिद्धान्त की अपेक्षा उविकासवादियों से अधिक प्रभावित होता है।
  5. चक्रीय सिद्धान्तकारों ने परिवर्तन के चक्र को ऐतिहासिक एवं अनुभवसिद्ध प्रभावों के आधार पर प्रकट करने का प्रयास किया है, जब कि रेखीय सिद्धान्तकारों ने रेखीय परिवर्तन को एक सैद्धान्तिक रूप दिया है।
  6.  रेखीय सिद्धान्तकारों की मान्यता है कि सामाजिक परिवर्तन मानवीय प्रयत्न व इच्छा से स्वतन्त्र हैं तथा ऐसे परिवर्तन स्वत: उत्पन्न होते हैं, जब कि चक्रीय सिद्धान्तकार मानते हैं कि परिवर्तन का चक्र मानवीय प्रयत्नों एवं प्राकृतिक प्रभावों का परिणाम है।
  7.  रेखीय सिद्धान्तकार परिवर्तन के किसी एक प्रमुख कारण पर अधिक बल देते हैं तथा वे निर्धारणवादियों के निकट हैं, जब कि चक्रीय सिद्धान्तकार परिवर्तन को अनेक कारकों का प्रतिफल मानते हैं तथा कहते हैं कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। अत: यह स्वयं घटित होता है। 8. रेखीय सिद्धान्तकार मानते हैं कि परिवर्तन के चरण एवं क्रम विश्व के सभी समाजों में एकसमान रहते हैं, जब कि चक्रीय सिद्धान्तकारों की मान्यता है कि विभिन्न सामाजिक संगठनों व संरचनाओं की सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया एवं प्रकृति में अन्तर पाया जाता है।

प्रश्न 8
सामाजिक परिवर्तन क्या है ? यह सांस्कृतिक परिवर्तन से किस प्रकार भिन्न है ? [2007, 08, 13, 16]
या
सामाजिक परिवर्तन का सांस्कृतिक परिवर्तन से अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2016]
या

सामाजिक परिवर्तन क्या है? सामाजिक परिवर्तन एवं सांस्कृतिक परिवर्तन में भेद कीजिए। [2013, 16]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन – सामान्यतः सामाजिक परिवर्तन का अर्थ समाज में घटित होने वाले परिवर्तनों से है। कुछ विद्वानों ने सामाजिक ढाँचे में होने वाले परिवर्तनों को सामाजिक परिवर्तन कहा है तो कुछ ने सामाजिक सम्बन्धों में होने वाले परिवर्तनों को। सम्पूर्ण समाज अथवा उसके किसी पक्ष में होने वाले परिवर्तन को हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।

सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन में

क्र०सं० सामाजिक परिवर्तन सांस्कृतिक परिवर्तन
1. सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध सामाजिक, ढाँचे तथा सामाजिक अन्तक्रियाओं में होने वाले परिवर्तनों से है। सांस्कृतिक परिवर्तन संस्कृति के विभिन्न पक्षों के परिवर्तन से सम्बन्धित हैं।
2. सामाजिक परिवर्तन एक प्रक्रिया है। सांस्कृतिक परिवर्तन इस प्रक्रिया की उपज है।
3. सांस्कृतिक परिवर्तन प्रमुख रूप से नये आविष्कारों और सांस्कृतिक विशेषताओं के प्रसार से उत्पन्न होता है। सांस्कृतिक परिवर्तन प्रमुख रूप से नये आविष्कारों और सांस्कृतिक विशेषताओं के प्रसार से उत्पन्न होता है।
4. सामाजिक परिवर्तन सांस्कृतिक परिवर्तन की तुलना में कुछ तेजी से होता है। अभौतिक संस्कृति के विभिन्न अंगों; जैसे – धर्म, नैतिकता, प्रथाओं, परम्पराओं और सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन धीमी गति से आते हैं।
5. सामाजिक परिवर्तन का क्षेत्र अधिक व्यापक है। सांस्कृतिक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन के अन्दर ही एक विशेष रूप ग्रहण करता है।
6. सामाजिक परिवर्तन अनिवार्य रूप से सामाजिक परिवर्तन का उत्पन्न करता है। सांस्कृतिक परिवर्तन के फलस्वरूप सांस्कृतिक परिवर्तन उत्पन्न होना सदैव आवश्यक नहीं होता, यद्यपि इसकी सम्भावना अवश्य की जा सकती है।

प्रश्न 9
सामाजिक विघटन एवं सामाजिक परिवर्तन के बीच सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन एवं सामाजिक विघटन के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। सामाजिक परिवर्तन एक सार्वभौम क्रिया है जो प्रत्येक समाज में लगातार चलती रहती है। इतना अवश्य है कि किसी समाज में इसकी गति तीव्र होती है और किसी में धीमी गतिशील समाजों में सामाजिक परिवर्तन की तीव्रता सामाजिक विघटन को प्रोत्साहित करती है।।

गिलिन, डिटमर, कोलबर्ट एवं अन्य विद्वानों की मान्यता है कि सामाजिक परिवर्तन समाज में असामंजस्य की समस्या पैदा करके सामाजिक विघटन को जन्म देता है। सामाजिक परिवर्तन की विभिन्न प्रवृत्तियों में चार प्रवृत्तियाँ प्रमुख हैं, जो साधारणतः विघटन को बढ़ावा देती हैं। ये प्रवृत्तियाँ

  1. धार्मिकता से धर्म-निरपेक्षता की ओर परिवर्तन;
  2.  समरूपता से विभिन्नता या विजातीयता की ओर परिवर्तन;
  3.  लोकगाथाओं से वैज्ञानिक निष्कर्षों की ओर परिवर्तन तथा ।
  4. प्राथमिक समूह के प्रभाव में कमी के कारण उत्पन्न परिवर्तन।

उपर्युक्त परिवर्तनों की तीव्र गति के कारण समाज में अनेक सामाजिक समस्याएँ तथा विघटनकारी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
विभिन्न प्रामाणिक तत्त्वों में परिवर्तन की असमान दर के कारण समाज विघटन की ओर अग्रसर होता है। वे संस्थाएँ जो समाज को स्थिरता प्रदान करती हैं अक्सर परिवर्तन विरोधी प्रवृत्ति के कारण सामाजिक विघटन में सहायक होती हैं। होता यह है कि उन भौतिक दशाओं जिनमें एक विशिष्ट संस्था का विकास हुआ, के बदल जाने पर स्वयं संस्था में आवश्यक परिवर्तन नहीं आता। जो संस्था मनुष्य की विविध आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विकसित हुई, वही अपनी अपरिवर्तनीय प्रवृत्ति के कारण मनुष्य के सामने बदली हुई परिस्थितियों में समायोजन की कठिन समस्या उत्पन्न कर देती है। ऐसी स्थिति में सामाजिक विघटन विभिन्न रूपों में दिखाई देने लगता है।

सामाजिक विघटन का एक कारण संस्कृति के भौतिक एवं अभौतिक पक्षों में परिवर्तन की असमान दर है। आविष्कार एवं प्रसार के कारण भौतिक संस्कृति में तेजी से परिवर्तन आता है। इसके विपरीत, अभौतिक संस्कृति में बहुत धीमी गति से परिवर्तन होते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि भौतिक संस्कृति आगे बढ़ जाती है और अभौतिक संस्कृति पीछे छूट जाती है। ऐसा होने पर सामाजिक अव्यवस्था या असन्तुलन की स्थिति पैदा हो जाती है। इसी को ऑगबर्न ने सांस्कृतिक विलम्बना नाम दिया है जो सामाजिक विघटन के लिए उत्तरदायी है।

प्रश्न 10
सामाजिक परिवर्तन के सन्दर्भ में प्राणिशास्त्रीय या जैविकीय कारकों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
प्राणिशास्त्रीय या जैविकीय कारकों से तात्पर्य उन कारकों से है जो हमें अपने माता-पिता द्वारा वंशानुक्रमण में प्राप्त होते हैं। प्राणिशास्त्रीय कारक जनसंख्या के प्रकार को निर्धारित करते हैं। हमारा स्वास्थ्य, शारीरिक एवं मानसिक क्षमता एवं योग्यता, विवाह की आयु, प्रजनन दर, हमारा कद एवं शारीरिक गठन आदि सभी वंशानुक्रमण एवं जैविकीय कारकों से प्रभावित होते हैं। किसी समाज के लोगों की जन्म-दर एवं मृत्यु-दर, औसत आयु आदि पर भी प्राणिशास्त्रीय कारकों को प्रभाव पड़ता है। जन्म-दर, मृत्यु-दर एवं औसत आयु में परिवर्तन होने से समाज पर भी प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, किसी समाज में पुरुषों की मृत्यु-दर अधिक है तो वहाँ विधवाओं की संख्या में वृद्धि होगी एवं विधवा-विवाह की समस्या पैदा होगी तथा स्त्री की सामाजिक प्रस्थिति एवं बच्चों की शिक्षा-दीक्षा एवं समाजीकरण भी प्रभावित होगा।

दुर्बल एवं कमजोर शारीरिक एवं मानसिक क्षमता वाले लोग आविष्कार एवं निर्माण का कार्य नहीं कर पाएँगे। अतः आविष्कारों के कारण होने वाले परिवर्तन नहीं होंगे। इसकी तुलना में योग्य व्यक्ति नव-निर्माण एवं आविष्कार के द्वारा समाज में परिवर्तन लाने में सक्षम होंगे। किसी समाज में पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ अधिक होने पर बहुपत्नी-विवाह प्रथा एवं स्त्रियों की कमी होने पर बहुपति प्रथा तथा दोनों की समान संख्या होने पर एक-विवाह प्रथा का प्रचलन होगा। सामान्यतः यह माना जाता है कि अन्तर्जातीय एवं अन्तर्रजातीय विवाह से प्रतिभाशाली सन्तानें पैदा होती हैं, जो आविष्कारों द्वारा नवीन परिवर्तन लाने में सक्षम होती हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
निम्नलिखित पुस्तकें एवं अवधारणाएँ किन समाजशास्त्रियों से सम्बन्धित हैं। [2007]
(1) सांस्कृतिक विलम्बना,
(2) वर्ग-चेतना,
(3) चेतनात्मक संस्कृति,
(4) वर्ग-संघर्ष,
(5) आर्थिक निर्धारणवाद,
(6) अतिरिक्त मूल्य,
(7) प्रौद्योगिक विलम्बना,
(8) आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन तथा
(9) अभिजात वर्ग का परिभ्रमण।
उत्तर:
(1) ऑगबर्न,
(2) कार्ल मार्क्स,
(3) सोरोकिन,
(4) कार्ल मार्क्स,
(5) कार्ल मार्क्स,
(6) कार्ल मार्क्स,
(7) मैकाइवर एवं पेज,
(8) एम० एन० श्रीनिवास तथा
(9) पैरेटो।

प्रश्न 2
सामाजिक परिवर्तन की किन्हीं चार विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2007, 17]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(i) सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति सामाजिक होती है।
(ii) सामाजिक परिवर्तन आवश्यक एवं स्वाभाविक है।
(iii) सामाजिक परिवर्तन की गति असमान तथा तुलनात्मक है।
(iv) सामाजिक परिवर्तन एक जटिल तथ्य है।।

प्रश्न 3
सामाजिक परिवर्तन के दो परिणाम लिखिए। [2010, 13, 15, 16, 17]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन के दो स्वाभाविक परिणाम निम्नलिखित हैं

  1. सामाजिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप किसी समुदाय के अधिकांश व्यक्तियों के पारस्परिक । सम्बन्धों, सामाजिक नियमों तथा विचार करने के तरीकों में परिवर्तन हो जाता है।
  2. सामाजिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि होती है। उदाहरण के लिए, परिवहन और संचार के साधनों में वृद्धि होने से सामाजिक गतिशीलता में भी वृद्धि होती है ।

प्रश्न 4
सामाजिक परिवर्तन के दो कारक लिखिए। (2007)
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन के दो कारक निम्नलिखित हैं

  1.  सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न कारकों में भौतिक यो भौगोलिक तत्त्वों या परिस्थितियों का विशेष योगदान रहा है। हंटिंग्टन के मतानुसार, जलवायु का परिवर्तन ही सभ्यताओं और संस्कृति के उत्थान एवं पतन का एकमात्र कारण है।
  2. सामाजिक परिवर्तनों में मनोवैज्ञानिक कारकों को विशेष हाथ रहता है। मनुष्य का स्वभाव परिवर्तनशील है। वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सदा नवीन खोजें किया करता है और नवीन अनुभवों के प्रति इच्छित रहता है। मनुष्य की इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप ही मानव समाज की रुढ़ियों, परम्पराओं तथा रीति-रिवाजों में परिवर्तन होते रहते हैं।

प्रश्न 5
आर्थिक कारक सामाजिक संस्थाओं में क्या परिवर्तन लाते हैं ?
उत्तर:
आर्थिक कारक सामाजिक संस्थाओं में भी परिवर्तन लाते हैं। भारत में औद्योगीकरण व नगरीकरण के परिणामस्वरूप संयुक्त परिवार व्यवस्था का विघटन हुआ, जाति-पाँति के भेदभाव, छुआछूत आदि समाप्त हुए, शिक्षा का प्रसार हुआ, स्त्रियों को रोजगार के अवसर प्राप्त हुए, अन्तर्जातीय विवाह, प्रेम-विवाह, विधवा-पुनर्विवाह आदि आरम्भ हुए, जाति सम्बन्धी प्रतिबन्ध शिथिल हुए, व्यवसाय में परिवर्तन आया, ग्रामीणों में शिक्षा का प्रसार हुआ, जनसंख्या की गतिशीलता बढ़ी तथा बैंकों की स्थापना हुई।

प्रश्न 6
कार्ल मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ का सिद्धान्त क्या है? [2007]
उत्तर:
मार्क्स द्वन्द्व को ही परिवर्तन की प्रक्रिया का आधार मानता है। माक्र्स ने ‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ के द्वारा समाज के विकास को समझने का प्रयत्न किया है। मार्क्स ने इस बात पर बल दिया कि समाज के विकास के कुछ नियम होते हैं तथा उन नियमों के अनुरूप ही समाज में परिवर्तन होते रहते हैं। मार्क्स के अनुसार पूँजीवादी वर्ग एक ‘वाद’ है, सर्वहारा वर्ग ‘प्रतिवाद’ है। और इन दोनों के संघर्ष से संवाद के रूप में वर्गहीन समाज की स्थापना होगी। मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का अन्तिम लक्ष्य वर्गविहीन समाज की स्थापना है जिसमें न कोई वर्ग-भेद होगा और न किसी प्रकार का शोषण।

प्रश्न 7
प्रौद्योगिकी के दो प्रत्यक्ष प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
प्रौद्योगिकी के दो प्रत्यक्ष प्रभाव निम्नवत् हैं

  1. नगरीकरण – जब उत्पादन फैक्ट्री प्रणाली द्वारा होने लगा तो ग्रामों से बहुत-से लोग काम की तलाश में नगरों में आने लगे। परिणामस्वरूप नगरों की जनसंख्या तेजी के साथ बढ़ती गयी। जनसंख्या के तीव्र गति से बढ़ने के कारण अनेक नगरीय समस्याएँ उत्पन्न हुईं।
  2.  गतिशीलता का बढ़ना – प्रौद्योगिकीय परिवर्तन ने स्थानीय और सामाजिक दोनों ही प्रकार की गतिशीलता को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। स्थानीय गतिशीलता का अर्थ एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की प्रवृत्ति का बढ़ना है। सामाजिक गतिशीलता का अर्थ एक सामाजिक स्थिति से दूसरी सामाजिक स्थिति प्राप्त कर लेना है, एक समूह या वर्ग से दूसरे समूह या वर्ग में पहुँच जाना है।

प्रश्न 8
क्षेत्रीयतावाद किस तरह राष्ट्रहित में बाधक है ?
उत्तर:
क्षेत्रवाद के कारण देश का प्रत्येक क्षेत्र स्वयं को एक पृथक् इकाई मान लेता है। प्रत्येक क्षेत्र के निवासी अधिकाधिक अधिकारों तथा सुविधाओं की माँग को लेकर एक-दूसरे के विरोधी बन जाते हैं। धीरे-धीरे क्षेत्रवाद की भावना के कारण केन्द्र सरकार में लोगों की निष्ठा कम होने लगती है। इससे केन्द्र व राज्य सरकारों के सम्बन्ध बिगड़ने लगते हैं। व्यवस्था और प्रशासन तब एक समस्या का रूप ले लेती है। ये सभी वे परिस्थितियाँ हैं जो राष्ट्रीय एकता को चुनौती देकर देश की सम्पूर्ण प्रगति को अवरुद्ध कर देती हैं।

प्रश्न 9
क्या सामाजिक परिवर्तन की भविष्यवाणी की जा सकती है ?
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन के बारे में निश्चित रूप से पूर्वानुमान लगाना कठिन है; अत: उसके बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि हम सामाजिक परिवर्तन के बारे में बिल्कुल ही अनुमान नहीं लगा सकते अथवा सामाजिक परिवर्तन का कोई नियम ही नहीं है। इसका केवल यह अर्थ है कि कई बार आकस्मिक कारणों से भी परिवर्तन होते हैं, जिनके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता।

प्रश्न 10
सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त के दो सिद्धान्तकारों का नामोल्लेख कीजिए। [2008]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन का रेखीय सिद्धान्त के अनुसार परिवर्तन एक सीधी रेखा में होता है। रेखीय सिद्धान्त के दो सिद्धान्तकारों का नाम मॉर्गन तथा कॉम्टे है।

प्रश्न 11
सांस्कृतिक परिवर्तन के दो उदाहरण दीजिए। [2013]
उत्तर:
सांस्कृतिक परिवर्तन के उदाहरण निम्न हैं

  1. सांस्कृतिक परिवर्तन संस्कृति के विभिन्न पक्षों के परिवर्तन से सम्बन्धित है।
  2.  सांस्कृतिक परिवर्तन इस प्रक्रिया की उपज है।
  3.  सांस्कृतिक परिवर्तन प्रमुख रूप से नये आविष्कारों और सांस्कृतिक विशेषताओं के प्रसार से उत्पन्न होता है।
  4.  अभौतिक संस्कृति के विभिन्न अंगों; जैसे – धर्म, नैतिकता, प्रथाओं, परम्पराओं और सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन धीमी गति से आते हैं।
  5.  सांस्कृतिक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन के अन्दर ही एक विशेष रूप ग्रहण करता है।

प्रश्न 12
संस्कृति की दो प्रमुख विशेषताएँ लिखिए। [2016]
उत्तर:
संस्कृति की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. सीखा हुआ व्यवहार – व्यक्ति समाज की प्रक्रिया में कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है। ये सीखे हुए अनुभव, विचार-प्रतिमान आदि की संस्कृति के तत्त्व होते हैं। इसलिए संस्कृति को सीखा हुआ व्यवहार कहा जाता है।
  2. हस्तान्तरण की विशेषता – संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित हो जाती है। संस्कृति का अस्तित्व हस्तान्तरण के कारण ही स्थायी बना रहता है। हस्तान्तरण की यह प्रक्रिया निरन्तर होती रहती है। समाजीकरण की प्रक्रिया संस्कृति के हस्तान्तरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक परिवर्तन के दो कारणों को बताइए। [2011, 12]
उत्तर:
(1) प्राकृतिक या भौगोलिक कारक तथा
(2) प्राणिशास्त्रीय कारक।

प्रश्न 2
किसने सामाजिक परिवर्तन को सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन के रूप में परिभाषित किया? [2011, 17]
उत्तर:
मैकाइवर एवं पेज ने।

प्रश्न 3
संस्कृतिकरण की अवधारणा किसने दी है? [2013]
उत्तर:
एम० एन० श्रीनिवास।

प्रश्न 4
“सामाजिक परिवर्तन एक सार्वभौमिक घटना है।” (सत्य/असत्य) [2013, 14, 17]
उत्तर:
सत्य।

प्रश्न 5
भौतिक तथा अभौतिक संस्कृति की अवधारणा किसने दी? [2011, 14, 16]
उत्तर:
ऑगबर्न ने।

प्रश्न 6
भौतिक और अभौतिक संस्कृति में असमान गति के परिवर्तन से जो स्थिति उत्पन्न होती है, उसे ऑगबर्न क्या कहते हैं ? [2012]
उत्तर:
सांस्कृतिक विलम्बना।

प्रश्न 7
अभिजात वर्ग को परिभ्रमण सिद्धान्त की अवधारणा किसने दी है? [2013]
या
संभ्रांत वर्ग के परिभ्रमण का सिद्धान्त किसका है? [2013]
या
सामाजिक परिवर्तन में किसने ‘अभिजात वर्ग के परिभ्रमण का सिद्धान्त दिया है? [2015]
उत्तर:
पैरेटो महोदय।

प्रश्न 8
किसने सामाजिक परिवर्तन की विवेचना संस्कृति में परिवर्तन के रूप में की है? [2011]
उत्तर:
ऑगबर्न ने।

प्रश्न 9
प्रौद्योगिकी द्वारा सामाजिक परिवर्तन की धारणा किस विद्वान् की है ?
या
“प्रौद्योगिकीय प्रविधियाँ सामाजिक परिवर्तन को जन्म देती हैं।” यह मत किसका है?
उत्तर:
प्रौद्योगिकी द्वारा सामाजिक परिवर्तन की धारणा थर्स्टन वेबलन की है।

प्रश्न 10
सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त का दूसरा नाम क्या है ?
उत्तर:
सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त का दूसरा नाम ‘सांस्कृतिक गतिशीलता है।

प्रश्न 11
“भौतिक संस्कृति में अभौतिक संस्कृति की अपेक्षा तीव्र गति से परिवर्तन होता है।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
यह कथन ऑगबर्न का है।

प्रश्न12
प्राविधिक निर्णयवाद के निर्माता कौन हैं ?
उत्तर:
प्राविधिक निर्णयवाद के निर्माता थर्स्टन वेबलन हैं।

प्रश्न 13
निम्नलिखित पुस्तकों के लेखकों के नाम लिखिए
(क) आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन।
(ख) इण्डियाज चेन्जिग विलेजेज।
(ग) डिस्कवरी ऑफ इण्डिया।
उत्तर:
(क) डॉ० एम०एन० श्रीनिवास,
(ख) एस०सी० दुबे,
(ग) जवाहरलाल नेहरू।

प्रश्न 14
आर्थिक निर्णायक की अवधारणा किसने दी ? [2007]
या
आर्थिक निर्धारणवाद सिद्धान्त के प्रवर्तक कौन हैं ? [2009]
या
सामाजिक परिवर्तन के आर्थिक कारक का समर्थक कौन है ? [2007]
उत्तर:
आर्थिक निर्णायक की अवधारणा कार्ल मार्क्स ने दी।

प्रश्न 15
सामाजिक परिवर्तन के प्रतिमानों की संख्या लिखिए। [2011]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन के प्रतिमानों की संख्या 2 है।

प्रश्न 16
‘प्रौद्योगिक विलम्बना’ की धारणा किसने दी ? [2011]
उत्तर:
मैकाइवर तथा पेज ने।

प्रश्न 17
“सामाजिक परिवर्तन का एक प्रकार लहर की तरह वक्र रेखा प्रस्तुत करता है।” इसका समर्थक कौन है ?
उत्तर:
इस अवधारणा के समर्थक हैं-ओस्वाल्ड स्पेंग्लर।

प्रश्न 18
कम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो किस वर्ष प्रकाशित हुआ ?
उत्तर:
कम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन 1948 ई० में हुआ।

प्रश्न 19
“जनसंख्या ज्यामितिक क्रम में बढ़ती है। यह किसने कहा ?
उत्तर:
माल्थस ने।

प्रश्न 20
सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक कौन हैं ? [2007]
उत्तर:
ओस्वाल्ड स्पेंग्लर।।

प्रश्न 21
सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त के दो सिद्धान्तकारों का नामोल्लेख कीजिए। [2008]
उत्तर:
मॉर्गन तथा हेनरीमैन।

प्रश्न 22
‘वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त के प्रवर्तक कौन हैं ?
उत्तर:
वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त’ के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स हैं।

प्रश्न 23
किसने सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या भावनात्मक, चेतनात्मक और आदर्शात्मक अवधारणाओं से की है? [2015]
उत्तर:
चार्ल्स कूले ने।।

प्रश्न 24
सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त किसने प्रस्तुत किया? [2016]
उत्तर:
ऑगबर्न ने।

प्रश्न 25
ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा किसने दी है? [2016]
उत्तर:
कार्ल मार्क्स ने।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
निरन्तर एक ही दिशा में आगे की ओर होने वाले परिवर्तन को कहते हैं [2007]
(क) चक्रीय
(ख) प्रगतिशील
(ग) क्रान्तिकारी
(घ) उविकासीय

प्रश्न 2
निम्नलिखित में से कौन-सा सामाजिक परिवर्तन नहीं है ?
(क) विवाह के उत्सव को साधारण बनाना
(ख) संयुक्त परिवार का विघटन
(ग) धार्मिक विश्वासों का प्रभाव कम होना
(घ) मोटर-कार के मॉडल में परिवर्तन हो जाना

प्रश्न 3
“सामाजिक परिवर्तन प्रौद्योगिकी में परिवर्तन होने के कारण होता है।” यह कथन किसका
(क) वेबलन का
(ग) टॉयनबी का
(ख) ऑगबर्न का
(घ) सोरोकिन का

प्रश्न 4
कार्ल मार्क्स के अनुसार सामाजिक परिवर्तन का मुख्य कारण
(क) यान्त्रिक प्रयोग
(ख) आर्थिक कारक
(ग) धार्मिक कारण
(घ) राजनीतिक कारण

प्रश्न 5
निम्नलिखित में से किस विद्वान् ने सामाजिक परिवर्तन को बौद्धिक विकास का परिणाम माना है ?
(क) जॉर्ज सी० होमन्स ने
(ख) बीसेज एवं बीसेंज ने
(ग) आगस्त कॉम्टे ने
(घ) रॉबर्ट बीरस्टीड ने।

प्रश्न 6
निम्नलिखित किस सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक परिवर्तन जैविकीय आधार पर होता है ?
(क) प्राणिशास्त्रीय सिद्धान्त
(ख) जनसंख्यात्मक सिद्धान्त
(ग) समाजशास्त्रीय सिद्धान्त
(घ) विकासवादी सिद्धान्त ।

प्रश्न 7
मैक्स वेबर ने सामाजिक परिवर्तन के लिए किसे अधिक महत्त्व दिया है ?
(क) पूँजी को
(ख) शिक्षा को
(ग) धर्म को
(घ) संस्कृति को

प्रश्न 8
भारत में सामाजिक परिवर्तन विषय पर किस विद्वान् ने सबसे अधिक अध्ययन किया ?
(क) डॉ० नगेन्द्र ने
(ख) सच्चिदानन्द ने
(ग) एम० एन० श्रीनिवास ने
(घ) डॉ० राधाकृष्णन ने

प्रश्न 9
ऑगबर्न तथा निमकॉफ ने सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या किस आधार पर की है ?
(क) सामाजिक असन्तुलन
(ख) नैतिक पतन।
(ग) सांस्कृतिक विलम्बना
(घ) प्रौद्योगिकीय कारक

प्रश्न 10
निम्नलिखित समाजशास्त्रियों में से किस विद्वान् ने सामाजिक परिवर्तन को चक्रवत माना है?
(क) ओस्वाल्ड स्पैंग्लर ने
(ख) हॉबहाउस ने ।
(ग) शुम्पीटर ने
(घ) इमाइल दुर्चीम ने

प्रश्न 11
संस्कृति की विशेषताओं में होने वाले परिवर्तनों को सामाजिक परिवर्तन का सर्वप्रमुख कारण कौन मानता है ?
(क) सोरोकिन
(ख) मैक्स वेबर
(ग) सिमैले
(घ) मॉण्टेस्क्यू

प्रश्न 12
सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त किसने प्रस्तुत किया ? या सांस्कृतिक विलम्बना की अवधारणा किसने दी है? [2015, 16]
(क) जिन्सबर्ग ने
(ख) ऑगबर्न ने
(ग) कार्ल मार्क्स ने
(घ) इमाइल दुर्चीम ने

प्रश्न 13
‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ का प्रतिपादक कौन था ? या निम्नलिखित में से किसने ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ की अवधारणा प्रस्तुत की? [2016]
(क) मार्क्स
(ख) महात्मा गांधी
(ग) स्पेन्सर
(घ) ऑगबर्न

प्रश्न 14
टॉयनबी (Toynbee) के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त को किस नाम से जाना जाता है ?
(क) अभिजात वर्ग का सिद्धान्त
(ख) चक्रीय सिद्धान्त
(ग) चुनौती एवं प्रत्युत्तर का सिद्धान्त
(घ) सामाजिक गतिशीलता का सिद्धान्त

प्रश्न 15
सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारक का समर्थक कौन है ?
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) वेबलन
(ग) जॉर्ज लुण्डबर्ग
(घ) मैक्स वेबर

प्रश्न 16
निम्नांकित में से किसने सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है? [2012, 16]
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) विल्फ्रेडो पैरेटो
(ग) आगस्त कॉम्टे
(घ) थॉर्टन वेबलन

प्रश्न 17
‘ए हैण्ड बुक ऑफ सोशियोलॉजी’ के लेखक हैं [2017]
(क) किंग्सले डेविस
(ख) चार्ल्स होर्टन कूले
(ग) ऑगबर्न एवं निमकॉफ
(घ) गुन्नार मिर्डल।

प्रश्न 18
कौन-सी पुस्तक एफ० एच० गिडिंग्स द्वारा लिखी गयी है ? [2009]
(क) सोसायटी
(ख) पॉजिटिव पॉलिटी
(ग) इण्डक्टिव सोशियोलॉजी
(घ) सोशियल कण्ट्रोल

प्रश्न 19
‘कल्चरल डिस ऑर्गेनाइजेशन’ पुस्तक के लेखक कौन हैं? [2015]
(क) के० डेविस
(ख) इलियट एण्ड मैरिल
(ग) कूले
(घ) स्पेन्सरं

उत्तर:
1. (घ) उदूविकासीय, 2. (घ) मोटर-कार के मॉडल में परिवर्तन हो जाना, 3. (क) वेबलन का, 4. (ख) आर्थिक कारक, 5. (ग) आगस्त कॉम्टे ने, 6. (घ) विकासवादी सिद्धान्त, 7. (ग) धर्म को, 8. (ग) एम० एन० श्रीनिवास ने, 9. (ग) सांस्कृतिक विलम्बना, 10. (क) ओस्वाल्ड स्पैंग्लर ने, 11. (क) सोरोकिन, 12. (ख) ऑगबर्न ने, 13. (क) मार्क्स, 14. (ग) चुनौती एवं प्रत्युत्तर का सिद्धान्त, 15. (घ) मैक्स वेबर, 16. (ख) विल्फ्रेडो पैरेटो, 17. (ग) ऑगबर्न एवं निमकॉफ, 18. (ग) इण्डक्टिव सोशियोलॉजी, 19. (ख) इलियट एण्ड मैरिल।।

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UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 27 Storing of Rainwater and Rearing of Water Table

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography
Chapter Chapter 27
Chapter Name Storing of Rainwater and Rearing of Water Table (वर्षाजल संचयन एवं भू-गर्भ जल संवर्द्धन)
Number of Questions Solved 19
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 27 Storing of Rainwater and Rearing of Water Table (वर्षाजल संचयन एवं भू-गर्भ जल संवर्द्धन)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
देश में जल संसाधनों की उपलब्धता की विवेचना कीजिए और इसके स्थानिक वितरण के लिए उत्तरदायी निर्धारित करने वाले कारक बताइए।
उत्तर

भारत में जल संसाधन और इसके स्थानिक वितरण के लिए उत्तरदायी कारक

धरातलीय जल संसाधन
धरातलीय जल के चार मुख्य स्रोत हैं-नदियाँ, झीलें, तलैया और तालाब। देश में कुल नदियों तथा उन सहायक नदियों, जिनकी लम्बाई 1.6 किमी से अधिक है, को मिलाकर 10,360 नदियाँ हैं। भारत में सभी नदी बेसिनों में औसत वार्षिक प्रवाह 1,869 घन किमी होने का अनुमान किया गया है। फिर भी स्थलाकृतिक, जलीय और अन्य दबावों के कारण प्राप्त धरातलीय जल का केवल लगभग 690 घन किमी (32%) जल को ही उपयोग किया जा सकता है। नदी में जल प्रवाह इसके जल ग्रहण क्षेत्र के आकार अथवा नदी बेसिन और इस जल ग्रहण क्षेत्र में हुई वर्षा पर निर्भर करता है। भारत में वर्षा में अत्यधिक स्थानिक विभिन्नता पाई जाती है और वर्षा मुख्य रूप से मानसूनी मौसम संकेद्रित है।

भारत में कुछ नदियाँ, जैसे-गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु के जल ग्रहण क्षेत्र बहुत बड़े हैं। गंगा, ब्रह्मपुत्र और बराक नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में वर्षा अपेक्षाकृत अधिक होती है। ये नदियाँ यद्यपि देश के कुल क्षेत्र के लगभग एक-तिहाई भाग पर पाई जाती हैं जिनमें कुछ धरातलीय जल संसाधनों का 60 प्रतिशत जल पाया, जाता है। दक्षिणी भारतीय नदियों, जैसे-गोदावरी, कृष्णा और कावेरी में वार्षिक जल प्रवाह का अधिकतर भाग काम में लाया जाता है, लेकिन ऐसा ब्रह्मपुत्र और गंगा बेसिनों में अभी भी सम्भव नहीं हो सका है।

भौम जल संसाधन
देश में कुल पुनः पूर्तियोग्य भौम जल संसाधन लगभग 432 घन किमी है। कुल पुनः पूर्तियोग्य भौम जल संसाधन का लगभग 46 प्रतिशत गंगा और ब्रह्मपुत्र बेसिनों में पाया जाता है। उत्तर-पश्चिमी प्रदेश और दक्षिणी भारत के कुछ भागों के नदी बेसिनों में भौम जल उपयोग अपेक्षाकृत अधिक है।

पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और तमिलनाडु राज्यों में भौम जल का उपयोग बहुत अधिक है। परन्तु कुछ राज्य; जैसे-छत्तीसगढ़, ओडिशा, केरल अतिद अपने भौम जल क्षमता का बहुत कम उपयोग करते हैं। गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार, त्रिपुरा और महाराष्ट्र अपने भौम जल संसाधनों का मध्यम दर से उपयोग कर रहे हैं।

यदि वर्तमान प्रवृत्ति जारी रहती है तो जल की माँग की आपूर्ति करने की आवश्यकता होगी। ऐसी स्थिति विकास के लिए हानिकारक होगी और सामाजिक उथल-पुथल एवं विघटन का कारण हो. सकती है।

लैगून और पश्च जल
भारत की समुद्र तट रेखा विशाल है और कुछ राज्यों में समुद्र तट बहुत दतुंरित (indented) है। इसी कारण बहुत-सी लैगून और झीलें बन गई हैं। केरल, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में इन लैगूनों और झीलों में बड़े धरातलीय जल संसाधन हैं। यद्यपि सामान्यतः इन जलाशयों में खारा जल है, इसका उपयोग मछली पालन और चावल की कुछ निश्चित किस्मों, नारियल आदि की सिंचाई में किया जाता है।

प्रश्न 2
नगरीय क्षेत्रों में वर्षा जल संचयन की प्रक्रिया एवं प्रकार का विवरण प्रस्तुत कीजिए। [2016]
या
भारत में वर्षा जल संचयन का विवरण निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत
कीजिए (अ) जल संचयन की प्रक्रिया, (ब) जल संचयन के प्रकार, (स) जल संचयन के लाभ।
उत्तर

वर्षा-जल संचयन की प्रक्रिया

नगरीय क्षेत्रों में वर्षा-जल संचयन की प्रक्रिया एवं प्रकार सामान्य उपयोग के लिए घरों में वर्षाजल संचयन के प्रति चेतना नहीं है, वर्षाजल व्यर्थ ही चला जाता है। प्रतिदिन के उपयोग के लिए बहुमंजिला इमारतों में पानी की टंकी का उपयोग किया जाता है। एक पानी की टंकी सामान्यतया एक कंटेनर होती है। यह प्लास्टिक, सीमेण्ट, पत्थर, लोहे, स्टेनलेस स्टील आदि की बनी होती है। बहुमंजिली इमारतों में इलेक्ट्रिक मोटर के माध्यम से इसमें जल संचय किया जाता है। पानी की टंकी से पाइप लाइन जोड़कर घरों में पानी पहुँचाया जाता है।
वर्षाजल के संचयन में पानी की टंकी का उपयोग वर्षा होने पर किया जा सकता है। टंकी के अतिरिक्त भूमिगत टैंक या टंकी का प्रयोग वर्षाजल संग्रह में अधिक लाभकारी रहता है। वर्षाजल संचयन की कुछ प्रमुख प्रक्रियाएँ निम्नलिखित हैं –

टाँका वर्षा-जल संचयन प्रक्रिया राजस्थान के अर्द्ध-शुष्क और शुष्क क्षेत्रों विशेषकर बीकानेर, फलोदी और बाड़मेर में लगभग हर घर में पीने के पानी का संग्रह करने के लिए भूमिगत टैंक अथवा टाँका’ हुआ करते थे। इसका आकार लगभग एक बड़े कमरे जितना होता था। सर्वे करने पर फलोदी के एक घर में 6.1 मीटर गहरा, 4.27 मीटर लम्बा और 2.44 मीटर चौड़ा टाँका देखने को मिला। टॉका यहाँ सुविकसित छत वर्षाजल संग्रहण तन्त्र का अभिन्न हिस्सा माना जाता है जिसे घर के मुख्य क्षेत्र या आँगन में बनाया जाता था। वे घरों की ढलवाँ छतों से पाइप द्वारा जुड़े हुए होते थे। छत से वर्षा का जल इन नलों से होकर भूमिगत टाँका तक पहुँचता था जहाँ इसे एकत्रित किया जाता था। वर्षा का पहला जल छत और नलों को साफ करने में प्रयोग होता था और उसका संग्रह नहीं किया जाता था। इसके बाद होने वाली वर्षा के जल का संग्रह किया जाता था।

टाँका में वर्षाजल अगली वर्षा ऋतु तक के लिए संग्रह किया जा सकता है। यह इसे जल की कमी वाली ग्रीष्म ऋतु तक पीने का जल उपलब्ध करवाने वाला जल स्रोत बनाता है। वर्षाजल अथवा पालर पानी’ जैसा कि इसे इन क्षेत्रों में पुकारा जाता है, प्राकृतिक जल का सर्वाधिक शुद्ध रूप समझा जाता है। कुछ घरों में तो टॉकों के साथ भूमिगते कमरे भी बनाए जाते हैं क्योंकि जल का यह स्रोत इन कमरों को भी ठण्डा रखता था जिससे ग्रीष्म ऋतु में गर्मी से राहत मिलती है।

कूल प्रणाली यह प्रणाली मुख्यत: जम्मू-कश्मीर, उत्तराखण्ड तथा हिमाचल प्रदेश में प्रचलित है। इसे नहरी तन्त्र के समान विकसित किया जाता है। पहाड़ी धाराएँ प्रायः 15 किमी तक लम्बी होती हैं। हिमनद का पिघला जल एवं अन्य जलधाराओं का जल बहकर तालाबों में संचित होता है। यह हिमपात के समय तीव्र गति से बहते हैं तथा ठण्डे समय में इसमें पानी की कम मात्री आती है। इसके जल के उपयोग हेतु बँटवारा निश्चित कर दिया जाता है।

झरना प्रणाली पूर्वी हिमालय में दार्जिलिंग नगर में झोरों (झरनों) से सिंचाई होती है। इनसे बॉस के पाइपों द्वारा पानी को सीढ़ीदार खेतों तक पहुँचाया जाता है। झोरा विधि को लेप्या, भोटिया एवं गुरूंग लोगों ने जीवित रखा है। सिक्किम में पेयजल के लिए झरनों एवं खोलों (तालाबों) का जल उपयोग में लाया जाता है। इन तालाबों में बाँस के पाइपों से जल पहुँचाया जाता है। पेयजल हेतु घरों के अहातों में जल कुण्डियाँ बनाते हैं जिन्हें खूप कहा जाता है। अरुणाचल प्रदेश में बाँस की नालियों के माध्यम से सिंचाई की जाती है। यहाँ अपर सुबनसिरी जिले में केले नदी पर अपतानी आदिवासियों द्वारा परम्परागत प्रणाली से बाँध बनाए गए हैं। यहाँ झरनों के पानी का संचय किया जाता है जिनमें मछली पालन भी किया जाता है।

उपर्युक्त दी गई प्रणालियों के अलावा नगरों में वर्षा के जल को मकानों की छतों पर एकत्रित कर लिया जाता है।
नगरों में छतों पर रखी पानी की टंकियों के द्वारा भी वर्षा जल संचयन किया जाता है।
नगरों में छतों के अलावा बड़े टेंकों को भी वर्षा के पानी संचयन के लिए बना लिया जाता है।
जल संचयन के लाभ-लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या 3 का उत्तर देखें।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
जल के गुणों का ह्रास क्या है? जल प्रदूषण का निवारण किस प्रकार किया जाता है?
उत्तर

जल के गुणों का ह्रास

जल गुणवत्ता से तात्पर्य जल की शुद्धता अथवा अनावश्यक बाहरी पदार्थों से रहित जल से है। जल बाह्य पदार्थों; जैसे— सूक्ष्म जीवों, रासायनिक पदार्थों, औद्योगिक और अन्य अपशिष्ट पदार्थों से प्रदूषित होता है। इस प्रकार के पदार्थ जल के गुणों में कमी लाते हैं और इसे मानव उपयोग के योग्य नहीं रहने देते हैं। जब विषैले पदार्थ झीलों, सरिताओं, नदियों, समुद्रों और अन्य जलाशयों में प्रवेश करते हैं, वे जल में घुल जाते हैं अथवा जल में निलंबित हो जाते हैं। इससे जल प्रदूषण बढ़ता है और जल के गुणों में कमी आने से जलीय तंत्र (aquatic system) प्रभावित होते हैं। कभी-कभी प्रदूषक नीचे तक पहुँच जाते हैं। और भौम जल को प्रदूषित करते हैं। देश में गंगा और यमुना दो अत्यधिक प्रदूषित नदियाँ हैं।

जल प्रदूषण का निवारण

उपलब्ध जल संसाधनों का तेज़ी से निम्नीकरण हो रहा है। देश की मुख्य नदियों के प्रायः पहाड़ी क्षेत्रों के ऊपरी भागों तथा कम बसे क्षेत्रों में अच्छी जल गुणवत्ता पाई जाती है। मैदानों में नदी जल का उपयोग गहन रूप से कृषि, पीने, घरेलू और औद्योगिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है। अपवाहिकाओं के साथ कृषिगत (उर्वरक और कीटनाशक), घरेलू (ठोस और अपशिष्ट पदार्थ) और औद्योगिक बहिःस्राव नदी में मिल जाते हैं। नदियों में प्रदूषकों को संकेन्द्रण गर्मी के मौसम में बहुत अधिक होता है। क्योंकि उस समय जल का प्रवाह कम होता है।

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सी०पी०सी०बी०), राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एस०पी०सी०) के साथ मिलकर 507 स्टेशनों की राष्ट्रीय जल संसाधन की गुणवत्ता को मॉनीटरन किया जा रहा है। इन स्टेशनों से प्राप्त किया गया आँकड़ा दर्शाता है कि जैव और जीवाणविक संदूषण नदियों में प्रदूषण का मुख्य स्रोत है। दिल्ली और इटावा के बीच यमुना नदी देश में सबसे अधिक प्रदूषित नदी है। दूसरी प्रदूषित नदियाँ अहमदाबाद में साबरमती, लखनऊ में गोमती, मदुरई में कली, अड्यार, कूअम (संपूर्ण विस्तार), वैगई, हैदराबाद में मूसी तथा कानपुर और वाराणसी में गंगा है। भौम जल प्रदूषण देश के विभिन्न भागों में भारी/विषैली धातुओं, फ्लुओराइड और नाइट्रेट्स के संकेंद्रण के कारण होता है।

वैधानिक व्यवस्थाएँ; जैसे-जल अधिनियम 1974 (प्रदूषण का निवारण और नियंत्रण) और पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम 1986, प्रभावपूर्ण ढंग से कार्यान्वित नहीं हुए हैं। परिणाम यह है कि 1997 में प्रदूषण फैलाने वाले 251 उद्योग, नदियों और झीलों के किनारे स्थापित किए गए थे। जल उपकर अधिनियम 1977, जिसका उद्देश्य प्रदूषण कम करना है, उसके भी सीमित प्रभाव हुए। जल के महत्त्व और जल प्रदूषण के अधिप्रभावों के बारे में जागरूकता का प्रसार करने की आवश्यकता है। जन जागरूकता और उनकी भागीदारी से, कृषिगत कार्यों तथा घरेलू और औद्योगिक विसर्जन से प्राप्त प्रदूषकों में बहुत प्रभावशाली ढंग से कमी लाई जा सकती है।

प्रश्न 2
जल-संभर प्रबंधन क्या है? क्या आप सोचते हैं कि यह सतत पोषणीय विकास में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।
उत्तर

जल संभर प्रबंधन

जल संभर प्रबंधन से तात्पर्य, मुख्य रूप से, धरातलीय और भौम जल संसाधनों के दक्ष प्रबंधन से है। इसके अंतर्गत बहते जल को रोकना और विभिन्न विधियों; जैसे– अंत:स्रवण तालाब, पुनर्भरण, कुओं आदि के द्वारा भौम जल का संचयन और पुनर्भरण शामिल हैं। तथापि, विस्तृत अर्थ में जल संभर प्रबंधन के अंतर्गत सभी संसाधनों–प्राकृतिक (जैसे-भूमि, जल, पौधे और प्राणियों) और जल संभर सहित मानवीय संसाधनों के संरक्षण, पुनरुत्पादन और विवेकपूर्ण उपयोग को सम्मिलित किया जाता है। जल संभर प्रबंधन का उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों और समाज के बीच संतुलन लाना है। जल-संभर व्यवस्था की सफलता मुख्य रूप से संप्रदाय के सहयोग पर निर्भर करती है।

केन्द्रीय और राज्य सरकारों ने देश में बहुत-से जल-संभर विकास और प्रबंधन कार्यक्रम चलाए हैं। इनमें से कुछ गैर-सरकारी संगठनों द्वारा भी चलाए गए हैं। ‘हरियाली’ केन्द्र सरकार द्वारा प्रवर्तित जल-संभर विकास परियोजना है जिसका उद्देश्य ग्रामीण जनसंख्या को जल पीने, सिंचाई, मत्स्य पालन और वन रोपण के लिए जल संरक्षण करना है। परियोजना लोगों के सहयोग से ग्राम पंचायतों द्वारा निष्पादित की जा रही है।

नीरू-मीरू (जल और आप) कार्यक्रम (आंध्र प्रदेश में) और अरवारी पानी संसद (अलवर राजस्थान में) के अंतर्गत लोगों के सहयोग से विभिन्न जल संग्रहण संरचनाएँ; जैसे–अत:स्रवण तालाब ताल (जोहड़) की खुदाई की गई है और रोक बाँध बनाए गए हैं। तमिलनाडु में घरों में जल संग्रहण संरचना को बनाना आवश्यक कर दिया गया है। किसी भी इमारत का निर्माण बिना जल संग्रहण सरंचना बनाए नहीं किया जा सकता है।

कुछ क्षेत्रों में जल-संभर विकास परियोजनाएँ पर्यावरण और अर्थव्यवस्था कायाकल्प करने में सफल हुई हैं। फिर भी सफलता कुछ की ही कहानियाँ हैं। अधिकांश घटनाओं में, कार्यक्रम अपनी उदीयमान अवस्था पर ही हैं। देश में लोगों के बीच जल-संभर विकास और प्रबंधन के लाभों को बताकर जागरूकता उत्पन्न करने की आवश्यकता है और इस एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन उपागम द्वारा जल उपलब्धता सतत पोषणीय आधार पर निश्चित रूप से की जा सकती है।

प्रश्न 3
वर्षा-जल प्रबन्धन के लाभों का वर्णन कीजिए। (2016)
उत्तर

वर्षा-जल प्रबन्धन के लाभ

  1. जहाँ जल की अपर्याप्त आपूर्ति होती है या सतही संसाधन का-या तो अभाव होता है या पर्याप्त मात्रा हमें उपलब्ध नहीं है, वहाँ यह जल समस्या का आदर्श समाधान है।
  2. वर्षा-जल जीवाणुरहित, खनिज पदार्थ मुक्त तथा हल्का होता है।
  3. यह बाढ़ जैसी आपदा को कम करता है।
  4. भूमि जल की गुणवत्ता को विशेष तौर पर जिसमें फ्लोराइड तथा नाइट्रेट हो, ध्रुवीकरण के द्वारा सुधारता है।
  5. सीवेज तथा गन्दे पानी में उत्पन्न जीवाणु अन्य अशुद्धियों को समाप्त/कम करता है जिससे जल पुनः उपयोगी बनती है।
  6. वर्षा-जल का संचयन आवश्यकता पड़ने वाले स्थान पर किया जा सकता है, जहाँ आवश्यकतानुसार इसका प्रयोग कर सकते हैं।
  7. शहरी क्षेत्रों में जहाँ पर शहरी क्रियाकलापों में वृद्धि के कारण भूमि जल के प्राकृतिक पुनर्भरण में , तेजी से कमी आई है तथा कृत्रिम पुनर्भरण उपायों को क्रियान्वित करने के लिए पर्याप्त भूमि उपलब्ध नहीं है, भूमि जल भण्डारण का यह एक सही विकल्प है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
धरातलीय जल के चार मुख्य स्रोत कौन-कौन से हैं?
उत्तर
धरातलीय जल के चार मुख्य स्रोत हैं-नदियाँ, झीलें, तलैया और तालाब।

प्रश्न 2
जल संरक्षण और प्रबन्धन की आवश्यकता क्यों है?
उत्तर
जल संरक्षण और प्रबन्धन की आवश्यकता अलवणीय जल की घटती हुई उपलब्धता और बढ़ती माँग के कारण है।

प्रश्न 3
वर्षा जल संग्रहण क्या है? [2016]
उत्तर
वर्षा जल संग्रहण विभिन्न उपयोगों के लिए वर्षा जल को रोकने और एकत्र करने की विधि है।

प्रश्न 4
भारतीय राष्ट्रीय जल नीति, 2002 की तीन मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर
भारतीय राष्ट्रीय जल नीति, 2002 की तीन मुख्य विशेषताएँ निम्नवत् हैं –

  1. पेयजल सभी मानव जाति और प्राणियों को उपलब्ध कराना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
  2. भौमजल के शोषण को सीमित और नियमित करने के लिए उपाय करने चाहिए।
  3. जल के सभी विविध प्रयोगों में कार्यक्षमता सुधारनी चाहिए।

प्रश्न 5
लोगों पर संदूषित जल/गंदे पानी के उपभोग के क्या सम्भव प्रभाव हो सकते हैं?
उत्तर
संदूषित जल का उपभोग करने में मनुष्यों में हैजा, पीलिया, टाइफाइड, डायरिक आदि रोग ही सकते हैं। इसके अतिरिक्त अमीबीज पेलिस, ऐस्केरियासिस आदि रोग भी हो सकते हैं।

प्रश्न 6
यह कहा जाता है कि भारत में जल संसाधनों में तेजी से कमी आ रही है। जल संसाधनों की कमी के लिए उत्तरदायी कारकों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
जनसंख्या बढ़ने से जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है। इसके अतिरिक्त उपलब्ध जल संसाधन भी औद्योगिक, कृषि और घरेलू क्रिया-कलापों के कारण प्रदूषित होता जा रहा है। इस कारण उपयोगी जल संसाधनों की उपलब्धता सीमित होती जा रही है।

प्रश्न 7
भारत में वर्षा-जल संचयन की किन्ही दो विधियों की विवेचना कीजिए। (2016)
या
ग्रामीण क्षेत्रों में वर्षा जल संचयन की विधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
वर्षा-जल संचयन की विधियाँ ‘निम्नलिखित हैं –

  1. भूमि सतह पर जल संचयन इस विधि में वर्षा के जल को झीलों व तालाबों आदि में एकत्रित किया जाता है तथा बाद में इसको सिंचाई आदि के लिए प्रयोग में लाया जाता है।
  2. वर्षा-जल का घरों की छतों तथा टंकियों में एकत्रण इस विधि में वर्षा-जल को मकानों की छतों तथा टंकियों आदि में एकत्रित कर लिया जाता है। यह विधि कम खर्चीली व बहुत प्रभावी है।

प्रश्न 8
पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश राज्यों में सबसे अधिक भौम जल विकास के लिए कौन-से कारक उत्तरदायी हैं?
उत्तर
पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में निवल बोए गए क्षेत्र का 85 प्रतिशत भाग सिंचाई के अन्तर्गत है। इन राज्यों में गेहूँ और चावल मुख्य रूप से सिंचाई की सहायता से उगाए जाते हैं। निवल सिंचित क्षेत्र का 76.1 प्रतिशत पंजाब में, 51.3 प्रतिशत हरियाणा में तथा 58.21 प्रतिशत पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुओं और नलकूपों द्वारा सिंचित है। इस प्रकार इन राज्यों में सबसे अधिक भौम जल को प्रयोग कृषि कार्य के लिए किया जाता है।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 27 Storing of Rainwater and Rearing of Water Table

प्रश्न 9
देश में कुल उपयोग किए गए जल में कृषि क्षेत्र का हिस्सा कम होने की सम्भावना क्यों है?
उत्तर
वर्तमान में हमारे देश में उद्योगों का विकास बड़ी तीव्रता से हो रहा है। इन उद्योगों को लगाने वे बढ़ती जनसंख्या को मकान बनाने के लिए भूमि की आवश्यकता पड़ती है, जिसके कारण कृषि भूमि कम होती जा रही है। हम जानते हैं कि उद्योगों एवं घरेलू कार्यों में बहुत अधिक जल व्यय होता है। इसीलिए हम यह मानते हैं कि भविष्य में देश में कुल उपयोग किए गए जल में कृषि का हिस्सा कम होने की सम्भावना है।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1
निम्नलिखित में से जल किस प्रकार का संसाधन है?
(क) अजैव संसाधन
(ख) अनवीकरणीय संसाधन
(ग) जैव संसाधन
(घ) चक्रीय संसाधन
उत्तर
(घ) चक्रीय संसाधन।

प्रश्न 2
निम्नलिखित नदियों में से, देश में किस नदी में सबसे ज्यादा पुनः पूर्तियोग्य भौम जल संसाधन है?
(क) सिंधु
(ख) ब्रह्मपुत्र
(ग) गंगा
(घ) गोदावरी
उत्तर
(ग) गंगा।

प्रश्न 3
घन किमी में दी गई निम्नलिखित संख्याओं में से कौन-सी संख्या भारत में कुल वार्षिक वर्षा दर्शाती है?
(क) 2,000
(ख) 3,000
(ग) 4,000
(घ) 5,000
उत्तर
(ग) 4,000.

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प्रश्न 4
निम्नलिखित दक्षिण भारतीय राज्यों में से किस राज्य में भौम जल उपयोग (% में)। इसके कुल भौम जल संभाव्य से ज्यादा है?
(क) तमिलनाडु
(ख) कर्नाटक
(ग) आन्ध्र प्रदेश
(घ) केरल
उत्तर
(क) तमिलनाडु।

प्रश्न 5
देश में प्रयुक्त कुल जल का सबसे अधिक समानुपात निम्नलिखित सेक्टरों में से किस सेक्टर में है?
(क) सिंचाई
(ख) उद्योग
(ग) घरेलू उपयोग
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(क) सिंचाई।

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 15 Role of Women Entrepreneurship in Social Development

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 15 Role of Women Entrepreneurship in Social Development (सामाजिक विकास में महिला उद्यमिता की भूमिका) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 15 Role of Women Entrepreneurship in Social Development (सामाजिक विकास में महिला उद्यमिता की भूमिका).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 15
Chapter Name Role of Women Entrepreneurship in Social Development (सामाजिक विकास में महिला उद्यमिता की भूमिका)
Number of Questions Solved 21
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 15 Role of Women Entrepreneurship in Social Development (सामाजिक विकास में महिला उद्यमिता की भूमिका)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
महिला उद्यमिता से आपका क्या आशय है ? सामाजिक विकास में महिला उद्यमिता की भूमिका की समीक्षा कीजिए। [2009, 10, 15, 16]
या
सामाजिक पुनर्निर्माण में महिला उद्यमियों के योगदान का क्या महत्त्व है ? [2011]
या
भारत में सामाजिक विकास के क्षेत्र में महिलाओं के योगदान की विवेचना कीजिए। [2010, 11]
या
सामाजिक विकास में महिला उद्यमिता का महत्त्व दर्शाइए। [2014, 16]
या
महिला उद्यमिता तथा सामाजिक विकास को आप एक-दूसरे से कैसे सम्बन्धित करेंगे ? भारत में महिला सशक्तीकरण पर एक निबन्ध लिखिए। [2011, 14]
या
उद्यमिता से आप क्या समझते हैं? अपने देश के सामाजिक विकास में महिला उद्यमिता के महत्त्व को समझाइए। [2012, 13]
या
महिला उद्यमिता एवं सामाजिक विकास का विश्लेषण कीजिए। [2015]
उत्तर:
महिला उद्यमिता से आशय
नारी समाज का एक महत्त्वपूर्ण और अभिन्न अंग है। वर्तमान काल में उसकी भूमिका बहुआयामी हो गयी है। वह परिवार, समाज, धर्म, राजनीति, विज्ञान और प्रौद्योगिकी से लेकर व्यवसाय और औद्योगिक क्षेत्र में अपनी पूरी भागीदारी निभा रही है। आज एक उद्यमी के रूप में उसका विशेष योगदान है। औद्योगिक और व्यावसायिक क्षेत्र में अब नारी पुरुष के समकक्ष है। व्यवसाय और उद्योग को नारी की सूझबूझ और कौशल ने नयी दिशाएँ प्रदान की हैं।

उद्यमिता शब्द की व्युत्पत्ति उद्यमी’ शब्द से हुई है। उद्यमिता का अर्थ किसी व्यवसाय या उत्पादन-कार्य में लाभ-हानि के जोखिम को वहन करने की क्षमता है। प्रत्येक व्यवसाय या उत्पादनकार्य में कुछ-न-कुछ जोखिम या अनिश्चितता अवश्य होती है। यदि व्यवसायी या उत्पादक इस जोखिम का पूर्वानुमान लगाकर ठीक से कार्य करता है तो उसे लाभ होता है अन्यथा उसे हानि भी हो सकती है। किसी भी व्यवसाय के लाभ-हानि को जोखिम अथवा अनिश्चितता ही उद्यमिता कहलाती है। इसे वहन करने वाले को; चाहे वह स्त्री हो या पुरुष; ‘उद्यमी’ या ‘साहसी’ कहते हैं। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने उद्यमी को निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया है

शुम्पीटर के अनुसार, “एक उद्यमी वह व्यक्ति है जो देश की अर्थव्यवस्था में उत्पादन की किसी नयी विधि को जोड़ता है, कोई ऐसा उत्पादन करता है जिससे उपभोक्ता पहले से परिचित न हो। किसी तरह के कच्चे माल के नये स्रोत अथवा नये बाजारों की खोज करता है अथवा अपने अनुभवों के आधार पर उत्पादन के नये तरीकों को उपयोग में लाता है।

नॉरमन लॉन्ग के अनुसार, “कोई भी व्यक्ति जो उत्पादन के साधनों के द्वारा नये रूप में लाभप्रद ढंग से आर्थिक क्रिया करता है, उसे एक उद्यमी कहा जाएगा।” उद्यमी की उपर्युक्त परिभाषाओं के प्रकाश में महिला उद्यमी की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है कि “महिला उद्यमी वह स्त्री है जो एक व्यावसायिक या औद्योगिक इकाई का संगठन

तथा संचालन करती है और उसकी उत्पादन-क्षमता को बढ़ाने का प्रयास करती है। इस प्रकार महिला उद्यमिता से आशय, “किसी महिला की उस क्षमता से है, जिसका उपयोग करके वह जोखिम उठाकर किसी व्यावसायिक अथवा औद्योगिक इकाई को संगठित करती है तथा उसकी उत्पादनक्षमता बढ़ाने का भरपूर प्रयास करती है।” वास्तव में, महिला उद्यमिता वह महिला व्यवसायी है, जो व्यवसाय के संगठन व संचालन में लगकर जोखिम उठाने के कार्य करती है। भारत में महिला उद्यमिता से आशय किसी नये उद्योग के संगठन और संचालन से लगाया जाता है।

सामाजिक विकास में महिला उद्यमिता की भूमिका
सामाजिक विकास से अभिप्राय उस स्थिति से है, जिसमें समाज के व्यक्तियों के ज्ञान में वृद्धि हो और व्यक्ति प्रौद्योगिकीय आविष्कारों के कारण प्राकृतिक पर्यावरण पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर ले तथा आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हो जाए। समाज का विकास करने में सभी वर्गों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। यदि महिलाएँ इसमें सक्रिय योगदान नहीं देतीं, तो समाज में विकास की गति अत्यन्त मन्द हो जाएगी।

महिलाएँ विविध रूप से सामाजिक विकास में योगदान दे सकती हैं। इनमें से एक अत्यन्त नवीन क्षेत्र, जिस पर अब भी पुरुषों का ही अधिकार है, उद्यमिता का है। प्रत्येक व्यवसाय या उत्पादनकार्य में कुछ जोखिम या अनिश्चितता होती है। इस जोखिम व अनिश्चितता की स्थिति को वहन करने की क्षमता को उद्यमिता कहते हैं और इसे सहन करने वाली स्त्री को महिला उद्यमिता कहते हैं।

भारतीय समाज में महिला उद्यमिता की अवधारणा एक नवीन अवधारणा है, क्योंकि परम्परागत रूप से व्यापार तथा व्यवसायों में महिलाओं की भूमिका नगण्य रही है। वास्तव में, पुरुष प्रधानता एवं स्त्रियों की परम्परागत भूमिका के कारण ऐसा सोचना भी एक कल्पना मात्र था। ऐसा माना जाता था कि आर्थिक जोखिमों से भरपूर जीवन केवल पुरुष ही झेल सकता है, परन्तु आज भारतीय महिलाएँ इस जोखिम से भरे जीवन में धीरे-धीरे सफल और सबल कदम रखने लगी हैं। नगरों में आज सफल या संघर्षरत महिला उद्यमियों की उपस्थिति दृष्टिगोचर होने लगी है।

दिल्ली नगर के निकटवर्ती क्षेत्रों में महिला व्यवसायियों और उद्यमियों में से 40% ने गैरपरम्परागत क्षेत्रों में प्रवेश करके सबको आश्चर्यचकित कर दिया है। ये क्षेत्र हैं

  1. इलेक्ट्रॉनिक,
  2. इन्जीनियरिंग,
  3. सलाहकार सेवा,
  4. रसायन,
  5. सर्किट ब्रेकर,
  6.  एम्प्लीफायर, ट्रांसफॉर्मर, माइक्रोफोन जैसे उत्पादन,
  7.  सिले-सिलाये वस्त्र उद्योग,
  8.  खाद्य-पदार्थों से सम्बन्धित उद्योग,
  9. आन्तरिक घरेलू सजावट के व्यवसाय तथा
  10.  हस्तशिल्प व्यवसाय।

बिहार जैसे औद्योगिक रूप से पिछड़े राज्य में भी करीब 30 से 50 महिला उद्यमी हैं, जिनमें से दो तो राज्य के चैम्बर ऑफ कॉमर्स की सदस्या भी रही हैं। उत्तरी भारत में भी महिला उद्यमियों की संख्या बढ़ रही है। सरकार और निजी संस्थानों द्वारा इन्हें पर्याप्त सहायता और प्रोत्साहन भी दिये जा रहे हैं।
पर्याप्त आँकड़े न उपलब्ध हो पाने के कारण महिला उद्यमियों की बदलती हुई प्रवृत्ति के आयामों और सामाजिक विकास में इनकी भूमिका का पता लगाना कठिन है, परन्तु महानगरों में यह परिवर्तन स्पष्ट देखा जा सकता है और पहले की अपेक्षाकृत छोटे नगरों में भी अब इनकी झलक स्पष्ट दिखायी देने लगी है।

सामाजिक पुनर्निर्माण में महिला उद्यमियों का योगदान (महत्त्व)
सामाजिक विकास में महिला उद्यमिता के योगदान का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के माध्यम से किया जा सकता है

1. आर्थिक क्षेत्र में योगदान – महिला उद्यमिता उत्पादन में वृद्धि करके राष्ट्रीय आय में वृद्धि करती है। व्यवसाय और उद्योगों की आय बढ़ने से प्रति व्यक्ति आय बढ़ती है, जिससे आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त होता है। इस प्रकार महिला उद्यमिता राष्ट्र के आर्थिक क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देकर राष्ट्र का नवनिर्माण कर रही है।

2. रोजगार के अवसरों में वृद्धि – महिला उद्यमिता द्वारा जो व्यवसाय, उद्योग तथा प्रतिष्ठान स्थापित किये जाते हैं उनमें कार्य करने के लिए अनेक व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। इनमें लगकर महिलाएँ तथा पुरुष रोजगार प्राप्त करते हैं। भारत जैसे विकासशील देशों में महिला उद्यमिता का यह योगदान बहुत ही उपयोगी सिद्ध हो रहा है।

3. उत्पादन में वृद्धि – भारत में महिला उद्यमिता की संख्या लगभग 18 करोड़ है। यदि यह समूचा समूह उत्पादन में लग जाए तो राष्ट्र के सकल उत्पादन में भारी वृद्धि होने लगेगी। यह उत्पादक श्रम निर्यात के पर्याप्त माल जुटाकर राष्ट्र को विदेशी मुद्रा दिलाने में भी सफल हो सकता है। इस प्रकार राष्ट्र की सम्पन्नता में इनकी भूमिका अनूठी कही जा सकती है।

4. सामाजिक कल्याण में वृद्धि – महिला उद्यमिता द्वारा उद्योगों और व्यवसायों में उत्पादन बढ़ाने से वस्तुओं के मूल्य कम हो जाएँगे। उनकी आपूर्ति बढ़ने से जनसामान्य के उपभोग में वृद्धि होगी। उपभोग की मात्रा बढ़ने से नागरिकों के रहन-सहन का स्तर ऊँचा उठेगा, जो सामाजिक कल्याण में वृद्धि करने में अभूतपूर्व सहयोग देगा।

5. स्त्रियों की दशा में सुधार – भारतीय समाज में नारी को आज भी हीन दृष्टि से देखा जाता है। आर्थिक दृष्टि से वे आज भी पुरुषों पर निर्भर हैं। महिला उद्यमिता महिलाओं को क्रियाशील बनाकर उन्हें आर्थिक क्षेत्र में सबलता प्रदान करती है। महिला उद्यमिता समाज में एक स्वस्थ वातावरण का निर्माण करके महिला-कल्याण और आर्थिक चेतना का उदय कर सकती है। इस प्रकार महिलाओं की दशा में सुधार लाने में इसकी भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकती

6. विकास कार्यक्रमों में सहायक – महिला उद्यमिता राष्ट्र के विकास-कार्यों में अपना अभूतपूर्व योगदान दे सकने में सहायक है। बाल-विकास, स्त्री-शिक्षा, परिवार कल्याण, स्वास्थ्य तथा समाज-कल्याण के क्षेत्र में इसका अनूठा योगदान रहा है।

7. नवीन कार्यविधियों का प्रसार – परिवर्तन और विकास के इस युग में उत्पादन की नयी-नयी विधियाँ और तकनीक आ रही हैं। महिला उद्यमिता ने व्यवसाय और उद्योगों को नवीनतम कार्य-विधियाँ तथा तकनीकी देकर अपना योगदान दिया है। उत्पादन की नवीनतम विधियों ने स्त्रियों के परम्परावादी विचारों को ध्वस्त कर उन्हें नया दृष्टिकोण प्रदान किया है।

8. आन्तरिक नेतृत्व का विकास – व्यवसाय तथा उद्योगों में लगी महिलाओं को गलाघोटू स्पर्धाओं से गुजरना पड़ता है। इससे उनमें आत्मविश्वास और आन्तरिक नेतृत्व की भावना बलवती होती है। यह नेतृत्व सामाजिक संगठन, सामुदायिक एकता और राष्ट्र-निर्माण में सहायक होता है। नैतिकता के मूल्यों पर टिका नेतृत्व समाज की आर्थिक और राजनीतिक दशाओं को बल प्रदान करता है। महिला उद्यमिता समाज में आन्तरिक नेतृत्व का विकास करके स्त्री जगत् में नवचेतना और जागरूकता का प्रचार करती है।

प्रश्न 2
भारतीय समाज में कामगार स्त्रियों की परिस्थिति में हो रहे परिवर्तनों को बताइए। [2011, 16]
या
समाज में कामकाजी महिलाओं की परिस्थिति में हो रहे परिवर्तनों की व्याख्या कीजिए। [2015]
या
भारत में महिला उद्योग किन क्षेत्रों में विकसित हो रहा है ?
उत्तर:
कामगार स्त्रियों की परिस्थितियों में हो रहे परिवर्तन
आधुनिक युग में भारत में महिला उद्यमिता को पर्याप्त प्रोत्साहन मिला है। अब महिला उद्यमियों को केवल समान अधिकार ही प्राप्त नहीं हैं, बल्कि कुछ अतिरिक्त सुविधाएँ भी प्रदान की गयी हैं। उदाहरण के लिए, महिला उद्यमियों को प्रत्येक विभाग में मातृत्व-अवकाश की अतिरिक्त सुविधा उपलब्ध है। सरकार द्वारा निजी उद्योग या व्यवसाय स्थापित करने के लिए भी महिलाओं को अतिरिक्त सुविधाएँ एवं अनुदान प्रदान किये जाते हैं। इन सुविधाओं के कारण तथा सामान्य दृष्टिकोण के परिवर्तित होने के परिणामस्वरूप भारत में महिला उद्यमिता के क्षेत्र में तेजी से वृद्धि हुई है। आज लगभग प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं का सक्रिय योगदान है। शिक्षित एवं प्रशिक्षित महिलाएँ जहाँ सरकारी, अर्द्ध-सरकारी तथा गैर-सरकारी प्रतिष्ठानों में विभिन्न पदों पर कार्यरत हैं, वहीं अनेक महिलाओं ने निजी प्रतिष्ठान भी स्थापित किये हैं। अनेक महिलाएँ सिले-सिलाये वस्त्रों के आयातनिर्यात का कार्य कर रही हैं, प्रकाशन संस्थानों का संचालन कर रही हैं, रेडियो तथा टेलीविजन बनाने वाली इकाइयों का कार्य कर रही हैं।

एक सर्वेक्षण के अनुसार नगरों में महिलाएँ जिन व्यवसायों तथा कार्यों से मुख्य रूप से सम्बद्ध हैं, वे निम्नलिखित हैं।

  1. स्कूलों व कॉलेजों/विश्वविद्यालयों में शिक्षण कार्य।
  2.  अस्पतालों में डॉक्टर तथा नर्स का कार्य।
  3.  सामाजिक कार्य।
  4. कार्यालयों एवं बैंकों में नौकरी सम्बन्धी कार्य।
  5. टाइपिंग तथा स्टेनोग्राफी सम्बन्धी कार्य।
  6. होटलों व कार्यालयों में स्वागती (Receptionist) का कार्य।
  7. सिले-सिलाए वस्त्र बनाने के कार्य।
  8. खाद्य पदार्थ बनाने, संरक्षण एवं डिब्बाबन्दी के कार्य।
  9. आन्तरिक गृह-सज्जा सम्बन्धी कार्य।
  10. हस्तशिल्प जैसे परम्परागत व्यवसाय।
  11. ब्यूटी पार्लर तथा आन्तरिक सजावट उद्योग।
  12. घड़ी निर्माण तथा इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग।
  13. पत्रकारिता, मॉडलिंग एवं विज्ञापन क्षेत्र।
  14. इंजीनियरिंग उद्योग।
  15. रसायन उद्योग आदि।

भारत में महिला उद्यमिता निरन्तर बढ़ रही है। सन् 1988 में किये गये एक सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ है कि दिल्ली तथा आसपास के क्षेत्र में महिला व्यावसायियों तथा उद्यमियों में से लगभग 40% महिलाओं ने गैर-परम्परागत व्यवसायों का वरण किया है। भारत सरकार भी महिला उद्यमियों को आर्थिक तथा तकनीकी सहायता प्रदान कर रही है। भारत में जितने भी बड़े घराने हैं उनकी महिलाएँ अब महिला उद्यमिता के रूप में रुचि लेकर प्रमुख भूमिका निभाने लगी हैं। पहले महिला उद्यमी कुटीर उद्योग तथा लघु उद्योगों के साथ ही जुड़ी थीं, परन्तु अब वे बड़े पैमाने के संगठित उद्योगों में भी अपनी सहभागिता जुटाने लगी हैं। वर्तमान समय में महिला उद्यमियों ने गुजरात में सोलर कुकर बनाने, महाराष्ट्र में ढलाई-उद्योग चलाने, ओडिशा में टेलीविजन बनाने तथा केरल में इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण बनाने में विशेष सफलता प्राप्त की है।

1983 ई० में महिला उद्यमिता से सम्बन्धित प्रशिक्षण सुविधाएँ प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय संस्थान’ की स्थापना की गयी थी। अनेक राज्यों में वित्तीय निगम, हथकरघा विकास बोर्ड तथा जिला उद्योग केन्द्र महिला उद्यमियों को ऋण तथा अनुदान देने की व्यवस्था कर रहे हैं। महिला उद्यमियों द्वारा उत्पादित वस्तुएँ सस्ती और श्रेष्ठ होती हैं, जो महिला उद्यमिता की सफलता और उपयोगिता की प्रतीक हैं।

भारत में महिला उद्यमियों के विषय में अलग से आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इसीलिए महिला उद्यमियों की परिवर्तित प्रवृत्ति के विषय में तथा इनके विस्तार के विषय में कुछ भी कह पाना कठिन है। हाँ, इतना अवश्य है कि आज महानगरों तथा नगरों में महिला उद्यमियों के परिवर्तित लक्षण स्पष्ट दिखाई देने लगे हैं। आज महिला को प्रत्येक क्षेत्र में कार्यरत देखा जा सकता है।

प्रश्न 3
भारत में महिला उद्यमिता को प्रोत्साहित करने वाले उपायों की चर्चा कीजिए। [2010, 11, 12]
उत्तर:
महिला उद्यमिता को प्रोत्साहित करने हेतु उपाय
जब हम भारत में महिला उद्यमिता के विकास के प्रश्न पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था में स्त्रियों की सहभागिता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से उन्हें शिक्षा और प्रशिक्षण के माध्यम से तथा सुगम-ऋण, कच्चे माल की सप्लाई, माल के विपणन की तथा अन्य सुविधाएँ देकर उनकी क्षमता को बढ़ाया जा रहा है। इस कार्य में केन्द्रीय समाज-कल्याण मण्डल अग्रणी रहा है। यह मण्डल स्वयंसेवी संगठनों को स्त्रियों के लिए आय उपार्जन हेतु इकाई स्थापित करने में तकनीकी और आर्थिक सहायता देता है। महिला और बाल-विकास विभाग स्त्रियों को खेती, डेयरी, पशुपालन, मछली-पालन, खादी और ग्रामोद्योग, हथकरघा, रेशम प्रयोग के लिए प्रशिक्षण देने की कार्य योजनाओं, ऋण विपणन तथा तकनीकी सुविधा देकर उनकी सहायता करता है। विभाग की अन्य योजनाओं के अन्तर्गत कमजोर वर्ग की महिलाओं को इलेक्ट्रॉनिक्स घड़ियाँ तैयार करने, कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग, छपाई और जिल्दसाजी, हथकरघा, बुनाई जैसे आधुनिक उद्योगों में प्रशिक्षण दिया जाता है।

कृषि मन्त्रालय स्त्रियों को कृषक प्रशिक्षण केन्द्र के माध्यम से भू-संरक्षण, डेयरी विकास आदि में प्रशिक्षण प्रदान करता है। समन्वित ग्रामीण विकास योजना की एक उपयोजना ग्रामीण क्षेत्रों में महिला और बाल-विकास कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य स्त्रियों को समूहों में संगठित करना, उन्हें आवश्यक प्रशिक्षण और रोजी-रोटी कमाने में सहायता देना है।

श्रम मन्त्रालय ऐसे स्वयंसेवी संगठनों को सहायता देता है जो महिलाओं को रोजी-रोटी कमाने वाले व्यवसायों का प्रशिक्षण देते हैं। राष्ट्रीय और छ: क्षेत्रीय व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थाओं द्वारा महिलाओं को प्रशिक्षण दिया जा रहा है। महिलाओं के लिए विभिन्न राज्यों में अलग से औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (I.T.I.) चलाए जा रहे हैं। खादी और ग्रामोद्योग निगम ने भी अपने संस्थान में प्रबन्ध कार्य में महिलाओं को सम्मिलित करने के उपाय किये हैं।

सहकारी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर महिलाओं को शामिल करने के उद्देश्य से उनके लिए अलग से दुग्ध सहकारी समितियाँ चलायी जा रही हैं। जवाहर रोजगार योजना के अन्तर्गत लाभ प्राप्तकर्ताओं में 30 प्रतिशत महिलाएँ होंगी। अनेक राज्यों में महिला विकास निगम’ (W.D.C.) स्थापित किये गये हैं, जो महिलाओं को तकनीकी परामर्श देने तथा बैंक और अन्य वित्तीय संस्थाओं से ऋण दिलाने एवं बाजार की सुविधा दिलाने का प्रबन्ध करेंगे। महिलाओं में उद्यमशीलता को बढ़ावा देने के लिए औद्योगिक विकास विभाग उन्हें शेड और भूखण्ड देने की सुविधा देता है। हाल ही में महिला उद्यमियों को परामर्श देने के लिए अलग से एक व्यवसाय संचालन खोला गया है। जिनकी प्रधान एक महिला अधिकारी होती है। राष्ट्रीय स्तर पर एक स्थायी समिति गठित की गई है जो महिलाओं के उद्यमशीलता के विकास हेतु सरकार को सुझाव देगी। लघु उद्योग संस्थानों और देशभर में फैली उनकी शाखाओं की मार्फत उद्यमशीलता विकास कार्यक्रमों का आयोजन कर रहा है।

‘राष्ट्रीय उद्यमशीलता संस्थान और लघु व्यवसाय विकास द्वारा महिलाओं के लिए प्रशिक्षण शुरू किया गया है। लघु उद्योग विकास संगठन 1983 ई० से सर्वोत्तम उद्यमियों को राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान करता है। शिक्षित बेरोजगारों को अपना उद्योग-धन्धा शुरू करने की योजना में महिलाओं को प्राथमिकता दी जाएगी। छोटे-छोटे उद्योगों में स्त्रियों की सहभागिता को बढ़ाने के लिए महिला औद्योगिक सहकारी समितियों को गठित किया गया। इन समितियों के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप स्त्रियों ने मधुमक्खियों को पालने, हाथ से चावल कूटने व देशी तरीके से तेल निकालने आदि के उद्योग प्रारम्भ किये। इन प्रयत्नों के बावजूद प्रगति नहीं हुई। भारत में वर्ष 1973 को ‘अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष’ के रूप में मनाया गया। उस समय स्त्रियों की प्रस्थिति का मूल्यांकन करने के उद्देश्य से एक राष्ट्रीय समिति का गठन किया गया। इस समिति की सिफारिशों को ध्यान में रखकर ही सातवीं पंचवर्षीय योजना में एक ओर महिला रोजगार को प्रमुखता दी गयी और दूसरी ओर उद्योग की एक ऐसी सूची भी तैयार की गयी जिनके संचालन का कार्य महिलाओं को सौंपने की बात कही गयी। इस सूची में वर्णित उद्योगों में महिलाओं को प्राथमिकता दी गयी।

वर्तमान में भारत में महिलाओं द्वारा चलायी जाने वाली औद्योगिक इकाइयों की संख्या 4,500 से अधिक है। इनमें से केवल केरल में 800 से अधिक इकाइयों का संचालन महिलाओं द्वारा किया जा रहा है। आज तो महिला उद्यमिता का क्षेत्र काफी विस्तृत हो गया है। महिला उद्यमियों द्वारा चलाये जाने वाले प्रमुख उद्योग इस प्रकार हैं-इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, रबड़ की वस्तुएँ, सिले हुए वस्त्र, माचिस, मोमबत्ती तथा रासायनिक पदार्थ, घरेलू उपकरण आदि। महिलाओं को उद्योग लगाने की दृष्टि से प्रोत्साहित करने हेतु सरकार वित्तीय सहायता और अनुदान तो देती ही है, साथ ही इन उद्योगों में निर्मित वस्तुओं की बिक्री में भी सहायता करती है।

उद्यमिता से सम्बन्धित प्रशिक्षण देने के उद्देश्य से 1983 ई० में राष्ट्रीय संस्थान की स्थापना की गयी। इस संस्थान द्वारा महिला उद्यमियों के प्रशिक्षण पर विशेष जोर दिया गया। महिला उद्यमियों को विभिन्न राज्यों में प्रोत्साहन देने के लिए वित्तीय निगम, जिला उद्योग केन्द्र एवं हथकरघा विकास बोर्ड भी स्थापित किये गये हैं। साधारणतः यह पाया गया है कि महिलाओं द्वारा संचालित उद्योगों में श्रमिक एवं मालिकों के बीच सम्बन्ध अपेक्षाकृत अधिक मधुर हैं एवं उत्पादित वस्तुएँ तुलनात्मक दृष्टि से अधिक अच्छी हैं। इससे स्पष्ट है कि भारत में महिला उद्यमिता सफल होती जा रही है।
इन सभी उपायों का एक नतीजा यह निकला है कि काफी संख्या में स्त्रियाँ न केवल पारिवारिक उद्योगों को चलाने में सहयोग दे रही हैं, वरनु वे स्वयं अपने उद्योग-धन्धे चला रही हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
महिला उद्यमिता की परिभाषा देते हुए भारत में इसके वर्तमान स्वरूप का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
अक्षर महिला उद्यमी वह स्त्री है जो एक व्यावसायिक या औद्योगिक इकाई का संगठनसंचालन करती है और उसकी उत्पादन-क्षमता को बढ़ाने का प्रयास करती है। दूसरे शब्दों में, महिला उद्यमिता से आशय किसी महिला की उस क्षमता से है, जिसका उपयोग करके वह जोखिम उठाकर किसी व्यावसायिक अथवा औद्योगिक इकाई को संगठित करती है तथा उसकी उत्पादनक्षमता बढ़ाने का भरपूर प्रयास करती है।”
वास्तव में, महिला उद्यमिता वह महिला व्यवसायी है जो व्यवसाय के संगठन व संचालन में लगकर जोखिम उठाने के कार्य करती है। भारत में महिला उद्यमिता से आशय किसी नये उद्योग के संगठन और संचालन से लगाया जाता है।

महिला उद्यमिता का वर्तमान स्वरूप

वर्तमान युग में नारी की स्थिति में महत्त्वपूर्ण सुधार हुआ है। शिक्षा-प्रसार के लिए लड़कियों की शिक्षा को अनिवार्य बनाया गया और हाईस्कूल तक की शिक्षा को नि:शुल्क रखा गया। बालिकाओं के अनेक विद्यालय खोले गये। सह-शिक्षा का भी खूब चलन हुआ। स्त्रियाँ सार्वजनिक चुनावों में निर्वाचित होकर एम० एल० ए०, एम० पी० तथा मन्त्री और यहाँ तक कि प्रधानमन्त्री भी होने लगी हैं। उन्हें पिता की सम्पत्ति में भाइयों के बराबर अधिकार प्राप्त करने की कानूनी छूट मिली है। पति की क्रूरता के विरोध में या मनोमालिन्य हो जाने पर तलाक प्राप्त करने का भी वैधानिक अधिकार उन्हें प्रदान किया गया है। विधवा-विवाह की पूरी छूट हो गयी है; हालाँकि व्यवहार में अभी इनका चलन कम है।

उन्हें कानून के द्वारा सभी अधिकार पुरुषों के बराबर प्राप्त हो गये हैं। आज स्त्रियाँ सभी सेवाओं में जिम्मेदारी के पदों पर कार्य करते हुए देखी जा सकती हैं; जैसे-डॉक्टर, इन्जीनियर, वकील, शिक्षिका, लिपिक, अफसर इत्यादि। बाल-विवाहों पर कठोर प्रतिबन्ध लग गया है। पर्दा-प्रथा काफी हद तक समाप्त हो गयी है। युवक समारोहों, क्रीड़ा समारोहों और राष्ट्रीय खेलों में उनका सहभाग बढ़ा है। वे पढ़ने, नौकरी करने और टीमों के रूप में विदेश भी जाने लगी हैं। अन्तर्जातीय विवाह बढ़े हैं। हिन्दुओं में बहुपत्नी-प्रथा पर रोक लग गयी है। अन्तर्साम्प्रदायिक विवाह भी होने लगे हैं। स्त्रियों को अपने जीवन का रूप निर्धारित करने की अधिक स्वतन्त्रता मिली है।
उपर्युक्त सुधार नगरों में अधिक मात्रा में हुए हैं। गाँवों में अब भी अशिक्षा, अन्धविश्वास, रूढ़िवादिता, पर्दा-प्रथा, परम्पराओं, दरिद्रता व पिछड़ेपन का ही बोलबाला है। इन सुधारों का गाँवों की स्त्रियों की परिस्थितियों पर बहुत कम प्रभाव पड़ा है।

प्रश्न 2
भारत में महिला उद्यमियों के मार्ग में क्या बाधाएँ हैं ? [2010]
उत्तर:
हमारे देश में स्त्रियाँ सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाओं के कारण विकासात्मक गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग नहीं ले पाती हैं, जब कि देश की लगभग आधी जनसंख्या महिलाओं की है। लोगों की आम धारणा है कि स्त्रियाँ अपेक्षाकृत कमजोर होती हैं और उन्हें व्यक्तित्व के विकास के समुचित अवसर नहीं मिल पाते। इसलिए वे शिक्षा, दक्षता, विकास और रोजगार के क्षेत्र में पिछड़ गयी हैं। भारत में महिला उद्यमिता के मार्ग में प्रमुखत: दो प्रकार की बाधाएँ या समस्याएँ हैं – प्रथम, सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याएँ व द्वितीय, आर्थिक समस्याएँ।।

  1. सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याएँ – महिला उद्यमिता के क्षेत्र में सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याएँ हैं–परम्परागत मूल्य, पुरुषों द्वारा हस्तक्षेप सामाजिक स्वीकृति तथा प्रोत्साहन का अभाव।।
  2. आर्थिक समस्याएँ – महिला उद्यमिता के मार्ग में आने वाली प्रमुख आर्थिक कठिनाइयाँ हैं – पंजीकरण एवं लाइसेन्स की समस्या, वित्तीय कठिनाइयाँ, कच्चे माल का अभाव, तीव्र । प्रतिस्पर्धा एवं बिक्री की समस्या। इसके अतिरिक्त महिला उद्यमियों को अनेक अन्य बाधाओं का भी सामना करना पड़ता है; यथा – सृजनता व जोखिम मोल लेने की अपेक्षाकृत कम क्षमता, प्रशिक्षण को अभाव, सरकारी बाबुओं व निजी क्षेत्र के व्यापारियों द्वारा उत्पन्न अनेक कठिनाइयाँ आदि।

प्रश्न 3
महिला उद्यमिता को कैसे प्रोत्साहित किया जा सकता है ? [2007]
उत्तर:
महिला उद्यमिता को प्रोत्साहित करने हेतु कुछ सुझाव निम्नलिखित हैं

  1. महिला उद्यमिता को प्रोत्साहन देने के लिए यह आवश्यक है कि सरकार के द्वारा कुछ ऐसे उद्योगों की सूची तैयार की जाए जिनके लाइसेन्स केवल महिलाओं को ही दिये जाएँ। ऐसा होने पर महिलाएँ बाजार की प्रतिस्पर्धा से बच सकेंगी।
  2. महिलाएँ जिन उद्योगों को स्थापित करना चाहें, उनके सम्बन्ध में उन्हें पूरी औद्योगिक जानकारी दी जानी चाहिए। स्त्रियों को आय प्रदान करने वाले व्यवसायों का प्रशिक्षण दिया जाए।
  3.  महिला औद्योगिक सहकारी समितियों का गठन किया जाए जिससे कम पूँजी में महिलाओं द्वारा उद्योगों की स्थापना की जा सके।
  4.  ऋण सम्बन्धी प्रक्रिया को सरल बनाया जाना चाहिए तथा सुगमता से कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
  5.  महिला उद्यमियों को सरकारी एजेन्सी द्वारा आसान शर्तों पर कच्चा माल उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
  6. इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि महिला उद्यमियों द्वारा जो वस्तुएँ उत्पादि। की जाएँ, वे अच्छी किस्म की हों जिससे प्रतिस्पर्धा में टिक सकें।
  7.  महिला उद्यमियों को अपने द्वारा उत्पादित वस्तुओं को बेचने की समस्या का सामना करना पड़ता है। यदि सरकार स्वयं महिला उद्यमियों से कुछ निर्धारित मात्रा में माल खरीद ले तो उनके माल की बिक्री भी हो सकेगी तथा उन्हें तीव्र प्रतिस्पर्धा से भी बचाया जा सकेगा।

प्रश्न 4
भारत में महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारत में वैदिक और उत्तर-वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति पुरुषों के बराबर रही है। तथा उन्हें पुरुषों के समान ही सब अधिकार प्राप्त रहे हैं। धीरे-धीरे पुरुषों में अधिकार-प्राप्ति की लालसा बढ़ती गयी। परिणामस्वरूप स्मृति काल, धर्मशास्त्र काल तथा मध्यकाल में इनके अधिकार छिनते गये और इन्हें परतन्त्र, निस्सहाय और निर्बल मान लिया गया। परन्तु समय ने पलटा खाया। अंग्रेजी शासनकाल में देश में राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में जागृति आने लगी। समाज-सुधारकों एवं नेताओं का ध्यान स्त्रियों की दशा सुधारने की ओर गया। यहाँ पिछले कुछ वर्षों में स्त्रियों की स्थिति में काफी सुधार हुआ है।

विवेकानन्द ने कहा है – ‘स्त्रियों की अवस्था में सुधार हुए बिना विश्व के कल्याण का कोई दूसरा मार्ग नहीं हैं। यदि स्त्री-समाज निर्बल रहा तो हमारा सामाजिक ढाँचा भी निर्बल रहेगा, हमारी सन्तानों का विकास नहीं होगा, समाज में सामंजस्य स्थापित नहीं होगा, देश का विकास अधूरा रहेगा, स्त्रियाँ पुरुषों पर बोझ बनी रहेंगी, देश के विकास में 56 प्रतिशत जनता की भागीदारी नहीं होगी तथा देश में स्त्री-सम्बन्धी अपराधों में वृद्धि होगी। अतः भारत में महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता है।

प्रश्न 5
महिला उद्यमिता के नारी उत्थान पर होने वाले लाभ बताइए। [2009, 10, 11, 12]
या
महिला उद्यमिता एवं नारी उत्थान एक-दूसरे के पूरक हैं। व्याख्या कीजिए। [2015]
उत्तर:
महिला उद्यमिता के नारी उत्थान पर निम्नलिखित लाभ हैं।

1. आत्मनिर्भरता – महिला उद्यमिता के कारण महिलाएँ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हुई हैं, इससे अन्य कार्यों के लिए भी इनकी पुरुष सदस्यों पर निर्भरता कम हुई है।
2. जीवन स्तर में सुधार – परम्परागत संयुक्त परिवारों में महिलाओं की शिक्षा-स्वास्थ्य इत्यादि आवश्यकताओं पर कम ध्यान दिया जाता था, जिससे इनका जीवन स्तर निम्न था। महिला उद्यमिता के कारण इनके जीवन स्तर में गुणात्मक सुधार हुआ है।
3. नेतृत्व क्षमता का विकास – महिलाओं द्वारा उद्यम एवं व्यवसायों के संचालन से उनमें नेतृत्व क्षमता का विकास हुआ है, फलतः महिलाएँ सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्रों में भी नेतृत्व सम्भालने लगी हैं।
4. सामाजिक समस्याओं में कमी – महिला उद्यमिता से महिलाओं की परिवार व समाज में स्थिति सुधरी है, इससे घरेलू हिंसा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा जैसी महिला सम्बन्धी समस्याएँ कम होने लगी हैं।
5. नारी सशक्तिकरण – महिला उद्यमिता, महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के साथ ही उनमें संचालन, नेतृत्व, संगठन आदि गुणों का विकास करती है, इससे नारी सशक्तिकरण को बल मिलता है। अत: इन सब कारणों से कहा जा सकता है कि महिला उद्यमिता तथा नारी उत्थान
एक-दूसरे के पूरक हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
डेविड क्लिलैण्ड ने उद्यमी की क्या परिभाषा दी है ?
उत्तर:
डेविड क्लिलैण्ड ने लिखा है कि “उद्यमी व्यक्ति वह है जो किसी व्यापारिक व औद्योगिक इकाई को संगठित करता है या उसकी उत्पादन-क्षमता बढ़ाने का प्रयत्न करता है।” भारतीय सन्दर्भ में उद्यमी की यह परिभाषा अधिक उपयुक्त मालूम पड़ती है, क्योंकि यहाँ अधिकांश उद्यमी किसी औद्योगिक इकाई को संगठित करते हैं, अपनी औद्योगिक इकाई की क्षमता व उत्पादन बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं और लाभ कमाते हैं।

प्रश्न 2
देश की आर्थिक प्रगति में महिला उद्यमिता का क्या योग है ?
या
सामाजिक विकास में महिला उद्यमिता की भूमिका का उल्लेख कीजिए। [2008]
उत्तर:
इस देश में 25 वर्ष से 40 वर्ष की आयु समूह में आने वाली स्त्रियों की संख्या करीब 20 करोड़ है। इनमें से करीब 5 करोड़ स्त्रियाँ घरों में ही रहती हैं। इन 5 करोड़ में से अधिकांश स्त्रियाँ शिक्षित हैं। यदि इन सब स्त्रियों में उद्यमिता के प्रति रुचि उत्पन्न की जाए तो देश के कुल उत्पादन में काफी वृद्धि होगी। यदि इस महिला शक्ति का उद्यमिता के क्षेत्र में अधिकतम उपयोग किया जाए तो देश आर्थिक दृष्टि से काफी कुछ प्रगति कर सकता है। यदि महिला उद्यमिता को प्रोत्साहित किया जाए तो महिलाएँ उत्पादक-शक्ति के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में काफी योग दे सकती हैं।

प्रश्न 3
महिला उद्यमिता ने स्त्रियों में आत्मनिर्भरता का विकास किस प्रकार किया है?
उत्तर:
महिला उद्यमिता के जरिए वर्तमान में स्त्रियाँ देश की उत्पादन शक्ति में अहम योगदान कर रही हैं। इसके जरिए वे आर्थिक रूप से मजबूत हुई हैं तथा उनमें नवचेतना और जागरुकता का प्रसार हुआ है। साथ ही उत्पादन की नवीनतम विधियों ने स्त्रियों के परम्परावादी विचारों को ध्वस्त कर उन्हें नया दृष्टिकोण तथा आत्मविश्वास दिया है। इस प्रकार महिला उद्यमिता ने स्त्रियों में आत्मनिर्भरता का विकास किया है।

प्रश्न 4
महिलाओं को उद्यमिता के परामर्श से क्या उनमें आत्मनिर्भरता का विकास हुआ है?
उत्तर:
अनुभव यह बताता है कि आर्थिक अधिकारों से वंचित होने के कारण ही स्त्रियों पर समय-समय पर अनेक प्रकार की निर्योग्यताएँ लाद दी गयीं। यदि उद्योगों के क्षेत्र में स्त्रियों को आगे बढ़ने का अवसर दिया जाए तो उनमें आत्मविश्वास जाग्रत होगा, वे स्वतन्त्र रूप से निर्णय ले सकेंगी और आर्थिक दृष्टि से उनको पुरुषों की कृपा पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। तात्पर्य यह है कि आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर होने पर स्त्रियाँ सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में भी अपनी स्थिति को ऊँचा उठा सकेंगी। स्त्रियों की आर्थिक आत्मनिर्भरता उनके लिए वरदान सिद्ध होगी और वे स्वयं सामाजिक विकास में बहुत कुछ योग दे सकेंगी।

प्रश्न 5
महिला उद्यमिता द्वारा पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं का किस प्रकार निराकरण किया जा सकता है ? समझाइए।
उत्तर:
पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन से सम्बन्धित अधिकांश समस्याएँ किसी-न-किसी रूप में स्त्रियों से ही जुड़ी हुई हैं। इन समस्याओं की तह तक जाने पर पता चलता है कि इसका मुख्य कारण स्त्रियों का सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक अधिकारों से वंचित रहना है। जब महिला उद्यमिता को प्रोत्साहित किया जाएगा तो इसके परिणामस्वरूप स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनेगी और वे कई महत्त्वपूर्ण निर्णय स्वयं ले सकेंगी। विधवा पुनर्विवाह की संख्या बढ़ेगी, पर्दाप्रथा समाप्त होगी और पुरुषों के द्वारा सामान्यत: स्त्रियों का शोषण नहीं किया जा सकेगा। आज आवश्यकता इस बात की है कि स्त्रियों में सामाजिक एवं आर्थिक चेतना का विकास किया जाए।

प्रश्न 6
एक सफल महिला उद्यमी के किन्हीं दो सामाजिक गुणों पर प्रकाश डालिए। [2012 ]
उत्तर:
1. नेतृत्व कुशलता – नेतृत्व कुशलता सफल उद्यमता का गुण हैं। प्रत्यक सफल उद्यमी महिला इस गुण से परिपूर्ण होती है तथा उद्योग में लगे हुए कर्मचारियों एवं श्रमिकों को अधिक-से-अधिक लगनपूर्वक कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करती है।
2. हम की भावना – सफल उद्यमी में ‘हम’ की भावना अत्यधिक प्रबल होती है। वह स्वयं के स्थान पर संगठन को प्राथमिकता देता है। प्रत्येक सफल महिला उद्यमी में भी यह भावना उसके श्रेष्ठ गुण के रूप में दिखाई देती है।

निश्चित उत्तीय प्रश्न ( 1 अंक)

प्रश्न 1
महिला उद्यमिता को क्या तात्पर्य है ? [2008, 09, 11]
उत्तर:
महिला उद्यमिता का तात्पर्य महिलाओं द्वारा किये जाने वाले किसी नये उद्योग के संचालन तथा व्यवस्था से है।

प्रश्न 2
देश की अर्थव्यवस्था में स्त्रियों की सहभागिता को बढ़ावा देने में कौन-सी संस्था अग्रणी रही है ?
उत्तर:
देश की अर्थव्यवस्था में स्त्रियों की सहभागिता को बढ़ावा देने में केन्द्रीय समाजकल्याण बोर्ड अग्रणी रहा है।

प्रश्न 3
महिला और बाल-विकास विभाग स्त्रियों को प्रशिक्षण देने की कौन-सी कार्य योजनाएँ तैयार करता है ?
उत्तर:
महिला और बाल-विकास विभाग स्त्रियों को खेती, डेयरी, पशुपालन, मछली-पालन, खादी और ग्रामोद्योग, हथकरघा, रेशम उद्योग के लिए प्रशिक्षण देने की कार्य-योजनाएँ तैयार करता है।

प्रश्न 4
महिला उद्यमियों द्वारा चलाये जाने वाले प्रमुख उद्योग कौन-से हैं ?
उत्तर:
महिला उद्यमियों द्वारा चलाये जाने वाले प्रमुख उद्योग इस प्रकार हैं – इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, रबड़ की वस्तुएँ, सिले हुए वस्त्र, माचिस, मोमबत्ती, रासायनिक पदार्थ, घरेलू उपकरण आदि।

प्रश्न 5
राष्ट्रीय संस्थान की स्थापना क्यों की गयी ?
उत्तर:
राष्ट्रीय संस्थान की स्थापना स्त्रियों को उद्यमिता से सम्बन्धित प्रशिक्षण देने के उद्देश्य से की गयी।

प्रश्न 6
‘आँगन महिला बाजार’ क्या है ?
उत्तर:
महिलाओं को उद्यम क्षेत्र में बढ़ावा देने के लिए 1986 ई० में देश में सर्वप्रथम आँगन महिला बाजार की स्थापना की गयी। महिलाएँ इस उद्यम के द्वारा निर्मित अचार, चटनी, घरेलू उपयोग की वस्तुएँ, पौधों की नर्सरी, फोटोग्राफी के सामानों का विक्रय करती हैं।

प्रश्न 7
भारत में ‘अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष कब मनाया गया था ?
या
महिला सशक्तिकरण किस सन में प्रारम्भ हुआ? [2015]
उत्तर:
भारत में अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष 1973 ई० में मनाया गया था।

प्रश्न 8
जवाहर रोजगार योजना में महिलाओं को क्या विशेष लाभ दिया गया है ?
उत्तर:
जवाहर रोजगार योजना के अन्तर्गत लाभ प्राप्तकर्ताओं में 30 प्रतिशत महिलाओं को आरक्षण किया गया है।

बहुविकल्पीय प्रश्न ( 1 अंक)

प्रश्न 1
राष्ट्रीय संस्थान की स्थापना कब की गयी ?
(क) 1983 ई० में
(ख) 1984 ई० में
(ग) 1985 ई० में
(घ) 1986 ई० में

प्रश्न 2
उद्यमिता एक नव प्रवर्तनकारी कार्य है। यह स्वामित्व की अपेक्षा एक नेतृत्व कार्य हो।” यह परिभाषा किसने दी है? [2011]
(क) बी० आर० गायकवाड़
(ख) जोसेफ ए० शुम्पीटर
(ग) ए० एच० कोल
(घ) हिगिन्स

उत्तर:
1. (क) 1983 ई० में,
2. (ख) जोसेफ ए० शुम्पीटर।

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UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 6 Personality

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 6 Personality (व्यक्तित्व) are part of UP Board Solutions for Class 12 Psychology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12  Psychology Chapter 6 Personality (व्यक्तित्व).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Psychology
Chapter Chapter 6
Chapter Name Personality
(व्यक्तित्व)
Number of Questions Solved 43
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 6 Personality (व्यक्तित्व)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
व्यक्तित्व से क्या आशय है? अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। 
सन्तुलित व्यक्तित्व की मुख्य विशेषताओं का भी उल्लेख कीजिए।
या
व्यक्तित्व का क्या अर्थ है? स्पष्ट कीजिए। 
(2008)
या
व्यक्तित्व को परिभाषित कीजिए।
(2013)
उत्तर

व्यक्तित्व की अवधारणा

‘व्यक्तित्व’ एक प्रचलित और आम शब्द है जिसे लोगों ने अपनी-अपनी दृष्टि से जाँचा-परखा है। आधुनिक समय में इसे ऐसे गुणों का संगठन स्वीकार किया जाता है जिनमें अनेक मानवीय गुण अन्तर्निहित तथा संगठित होते हैं। इसके स्वरूप को लेकर लोगों के विचारों में भिन्नता है। कुछ इसे चरित्र का उद्गम स्थान, कुछ शारीरिक-मानसिक विकास का योग, अच्छे-बुरे व्यवहार की समीक्षा करने वाली सन्तुलितं

शक्ति, तो कुछ शरीर के गठन-सौष्ठव व ओजपूर्ण आकर्षक मुखाकृति का पर्याय समझते हैं। वास्तव में ये समस्त अलग-अलग विचार व्यक्तित्व नहीं हैं; न शरीर, ने मस्तिष्क और न मानव का बाह्य स्वरूप ही। व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व इन समस्त अवयवों का सम्पूर्ण एवं सन्तुलित रूप है।

व्यक्तित्व का अर्थ

‘व्यक्तित्व’ शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थ एवं दृष्टिकोण में किया जाता है

(1) शाब्दिक अर्थ में, इस शब्द का उद्गम लैटिन भाषा के ‘पर्सनेअर (personare) शब्द से माना गया है। प्राचीनकाल में, ईसा से एक शताब्दी पहले persona’ शब्द व्यक्ति के कार्यों को स्पष्ट करने के लिए प्रचलित था। विशेषकर इसका अर्थ नाटक में काम करने वाले अभिनेताओं द्वारा पहने। जाने वाले नकाब से समझा जाता था, जिसे धारण करके अभिनेता अपना असली रूप छिपाकर नकली वेश में रंगमंच पर अभिनय करते थे। समय बीता और रोमन काल में ‘persona’ शब्द का अर्थ हो गया-‘स्वयं वह अभिनेता जो अपने विलक्षण एवं विशिष्ट स्वरूप के साथ रंगमंच पर प्रकट होता था।’ इस भाँति व्यक्तित्व’ शब्द किसी व्यक्ति के वास्तविक स्वरूप का समानार्थी बन गया।

(2) सामान्य अर्थ में, व्यक्तित्व से अभिप्राय, व्यक्ति के उन गुणों से है जो उसके शरीर सौष्ठव, स्तर तथा नाक-नक्श आदि से सम्बन्धित हैं।

(3) दार्शनिक दृष्टिकोण के अनुसार, सम्पूर्ण व्यक्तित्व आत्मतत्त्व की पूर्णता में निहित है।

(4) अपने समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के अन्तर्गत, व्यक्तित्व से अभिप्राय व्यक्ति के सामाजिक गुणों के संगठित स्वरूप तथा उन गुणों की प्रभावशीलता से है।

(5) मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार, मानव-जीवन की किसी भी अवस्था में व्यक्ति का व्यक्तित्व एक संगठित इकाई है जिसमें व्यक्ति के वंशानुक्रम और वातावरण से उत्पन्न समस्त गुण समाहित होते हैं। दूसरे शब्दों में, व्यक्तित्व में बाह्य गुणों (जैसे-रंग, रूप, मुखाकृति, स्वर, स्वास्थ्य तथा पहनावा अदि) तथा आन्तरिक गुणों (जैसे-आदतें, रुचि, अभिरुचि, चरित्र, संवेगात्मक संरचना, बुद्धि, योग्यता तथा अभियोग्यता आदि) का समन्वित तथा संगठित रूप परिलक्षित होता है। इसके साथ ही व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति मनुष्य के व्यवहार से होती है अथवा व्यक्तित्व पूरे व्यवहार का दर्पण है और मनुष्य व्यवहार के माध्यम से निजी व्यक्तित्व को अभिप्रकाशित करता है। सन्तुलित व्यवहार, सुदृढ़ व्यक्तित्व का परिचायक है। इस स्थिति में व्यक्तित्व को विभिन्न मनोदैहिक गुणों का गत्यात्मक संगठन (Dynamic Organisation) कहा जा सकता है।

व्यक्तित्व की परिभाषा

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व को परिभाषित करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रयास किये हैं। प्रमुख मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  1. बोरिंग के अनुसार, “व्यक्ति के अपने वातावरण के साथ अपूर्व एवं स्थायी समायोजन के योग को व्यक्तित्व कहते हैं।”
  2. मन के अनुसार, “व्यक्तित्व वह विशिष्ट संगठन है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति के गठन, व्यवहार के तरीकों, रुचियों, दृष्टिकोणों, क्षमताओं, योग्यताओं और प्रवणताओं को सम्मिलित किया जा सकता है।”
  3. गोर्डन आलपोर्ट के अनुसार, “व्यक्तित्व व्यक्ति के उन मनोशारीरिक संस्थानों का गत्यात्मक संगठन है जो वातावरण के साथ उसके अनूठे समायोजन को निर्धारित करता है।’
  4. वारेन का विचार है, व्यक्तित्व व्यक्ति का सम्पूर्ण मानसिक संगठन है जो उसके विकास की किसी भी अवस्था में होता है।”
  5. म्यूरहेड ने व्यक्तित्व की व्यापक अवधारणा प्रस्तुत की है। उसके शब्दों में, “व्यक्तित्व में सम्पूर्ण व्यक्ति का समावेश होता है। व्यक्तित्व व्यक्ति के गठन, रुचि के प्रकारों, अभिवृत्तियों, व्यवहार, क्षमताओं, योग्यताओं तथा प्रवणताओं का सबसे निराला संगठन है।”
  6. वुडवर्थ के अनुसार, “व्यक्तित्व व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यवहार की विशेषता है, जिसका प्रदर्शन उसके विचारों को व्यक्त करने के ढंग, अभिवृत्ति एवं रुचि, कार्य करने के ढंग तथा जीवन के प्रति दार्शनिक विचारधारा के रूप में परिभाषित किया जाता है।
  7. रेक्स के अनुसार, “व्यक्तित्व समाज द्वारा मान्य एवं अमान्य गुणों का सन्तुलन है।”
  8. ड्रेबट के अनुसार, “व्यक्तित्व शब्द का प्रयोग व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं सामाजिक गुणों के सुसंगठित एवं गत्यात्मक संगठन के लिए किया जाता है, जिसको वह अन्य व्यक्तियों के साथ सामाजिक आदान-प्रदान में व्यक्त करता है। उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से स्पष्ट होता हैं कि-
    • व्यक्ति एक मनोशारीरिक प्राणी है,
    •  वह अपने वातावरण से समायोजन (अनुकूलन) करके निजी व्यवहार का निर्माण करता है,
    • मनुष्य की शारीरिक-मानसिक विशेषताएँ उसके व्यवहार से जुड़कर संगठित रूप में दिखाई पड़ती हैं। यह संगठन ही व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषता है तथा
    • प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व स्वयं में विशिष्ट होता है। व्यक्तित्व में व्यक्ति के समस्त बाहरी एवं आन्तरिक गुणों को सम्मिलित किया जाता है।

      सन्तुलित व्यक्तित्व की विशेषताएँ

आदर्श नागरिक बनने के लिए मनुष्य के व्यक्तित्व का सन्तुलित होना अपरिहार्य है और आदर्श जीवन जीने के लिए अच्छा एवं सन्तुलित व्यक्तित्व एक पूर्व आवश्यकता है, किन्तु प्रश्न यह है कि ‘एक आदर्श व्यक्तित्व के क्या मानदण्ड होंगे? इसका उत्तर हमें निम्नलिखित शीर्षकों के माध्यम से प्राप्त होगा अथवा, दूसरे शब्दों में, सन्तुलित व्यक्तित्व की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं|

(1) शारीरिक स्वास्थ्य (Physical Health)- सामान्य दृष्टि से व्यक्ति का शारीरिक स्वास्थ्य सन्तुलित एवं उत्तम व्यक्तित्व का पहला मानदण्ड है। अच्छे व्यक्तित्व वाले व्यक्ति का शारीरिक गठन, स्वास्थ्य तथा सौष्ठव प्रशंसनीय होता है। वह व्यक्ति निरोगी होता है तथा उसके विविध शारीरिक संस्थान अच्छी प्रकार कार्य कर रहे होते हैं।

(2) मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health)- अच्छे व्यक्तित्व के लिए स्वस्थ शरीर के साथ स्वस्थ मन भी होना चाहिए। स्वस्थ मन उस व्यक्ति का कहो जाएगा जिसमें कम-से-कम औसत बुद्धि पायी जाती हो, नियन्त्रित तथा सन्तुलित मनोवृत्तियाँ हों और उनकी मानसिक क्रियाएँ भी कम-से-कम सामान्य रूप से कार्य कर रही हों।

(3) आत्म-चेतना (Self-consciousness)– सन्तुलित व्यक्तित्व वाला व्यक्ति स्वाभिमानी तथा आत्म-चेतना से युक्त होता है। वह सदैव ऐसे कार्यों से बचता है जिसके करने से वह स्वयं अपनी ही नजर में गिरता हो या उसकी अपनी आत्म-चेतना आहत होती हो। वह चिन्तन के समय भी आत्म-चेतना को सुरक्षित रखता है तथा स्वस्थ विचारों को ही मन में स्थान देता है। | (4) आत्म-गौरव (Self-regard)-आत्म-गौरव का स्थायी भाव अच्छे व्यक्तित्व का परिचायक है तथा व्यक्ति में आत्म-चेतना पैदा करता है। आत्म-गौरव से युक्त व्यक्ति आत्म-समीक्षा के माध्यम से प्रगति का मार्ग खोजता है और विकासोन्मुख होता है।

(5) संवेगात्मक सन्तुलन (Emotional Balance)- अच्छे व्यक्तित्व के लिए आवश्यक है। कि उसके समस्त संवेगों की अभिव्यक्ति सामान्य रूप से हो। उसमें किसी विशिष्ट संवेग की प्रबलता नहीं होनी चाहिए। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि व्यक्ति को संवेग-शून्य भी नहीं होना चाहिए।

(6) सामंजस्यता (Adaptability)- सामंजस्यता या अनुकूलन का गुण अच्छे व्यक्तित्व की पहली पहचान है। मनुष्य और उसके चारों ओर का वातावरण परिवर्तनशील है। वातावरण के विभिन्न घटकों में आने वाला परिवर्तन मनुष्य को प्रभावित करता है; अतः सन्तुलित व्यक्तित्व में अपने वातावरण के साथ अनुकूलन करने या सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता होनी चाहिए। सामंजस्य की इस प्रक्रिया में या तो व्यक्ति स्वयं को वातावरण के अनुकूल परिवर्तित कर लेता है या वातावरण में अपने अनुसार परिवर्तन उत्पन्न कर देता है।

(7) सामाजिकता (Sociability)- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है; अत: उसमें अधिकाधिक सामाजिकता की भावना होनी चाहिए। सन्तुलित व्यक्तित्व में स्वस्थ सामाजिकता की भावना अपेक्षित है। स्वस्थ सामाजिकता का भाव मनुष्य के व्यक्तित्व में प्रेम, सहानुभूति, त्याग, सहयोग, उदारता, संयम तथा धैर्य का संचार करता है जिससे उसका व्यक्तित्व विस्तृत एवं व्यापक होता जाता है। इस भाव के संकुचन से मनुष्य स्वयं तक सीमित, स्वार्थी, एकान्तवासी तथा समाज से दूर भागने लगता है। सामाजिकता की भावना व्यक्ति के व्यक्तित्व को विराट सत्ता की ओर उन्मुख करती है।

(8) एकीकरण (Integration)- मनुष्य में समाहित उसके समस्त गुण एकीकृत या संगठित स्वरूप में उपस्थित होने चाहिए। सन्तुलित व्यक्तित्व के लिए उन सभी गुणों का एक इकाई के रूप में समन्वय अनिवार्य है। किसी एक गुण या पक्ष का आधिक्य या वेग व्यक्तित्व को असंगठित बना देता है। ऐसा बिखरा हुआ व्यक्तित्व असन्तुष्ट व दु:खी जीवन की ओर संकेत करता है। अत: अच्छे व्यक्तित्व में एकीकरण या संगठन का गुण पाया जाता है।

(9) लक्ष्योन्मुखता या उद्देश्यपूर्णता (Purposiveness)- प्रत्येक मनुष्य के जीवन का कुछ-न-कुछ उद्देश्य या लक्ष्य अवश्य होता है। निरुद्देश्य या लक्ष्यविहीन जीवन असफल, असन्तुष्ट तथा अच्छा जीवन माना जाता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को सुदूर उद्देश्य ऊँचा, स्वस्थ तथा सुनिश्चित होना चाहिए एवं उसकी तात्कालिक क्रियाओं को भी प्रयोजनात्मक होना चाहिए। एक अच्छे व्यक्तित्व में उद्देश्यपूर्णता का होना अनिवार्य है।

(10) संकल्प- शक्ति की प्रबलता (Strong Will Power)-प्रबल एवं दृढ़ इच्छा शक्ति के कारण कार्य में तन्मयता तथा संलग्नता आती है। प्रबल संकल्प लेकर ही बाधाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है तथा लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। स्पष्टतः संकल्प-शक्ति की प्रबलता सन्तुलित व्यक्तित्व का एक उचित मानदण्ड है।।

(11) सन्तोषपूर्ण महत्त्वाकांक्षा (Satisfactory Ambition)- उच्च एवं महत् आकांक्षाएँ मानव-जीवन के विकास की द्योतक हैं, किन्तु यदि व्यक्ति इन उच्च आकांक्षाओं के लिए चिन्तित रहेगा तो उससे वह स्वयं को दु:खी एवं असन्तुष्ट हो पाएगा। मनुष्य को अपनी मन:स्थिति को इस प्रकार निर्मित करना चाहिए कि इन उच्च आकांक्षाओं की पूर्ति के अभाव में उसे असन्तोष या दु:ख का बोध न हो। मनोविज्ञान की भाषा में इसे सन्तोषपूर्ण महत्त्वाकांक्षा कहा गया है और यह सुन्दर व्यक्तित्व के लिए आवश्यक है।

हमने ऊपर लिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत एक सम्यक् एवं सन्तुलित व्यक्तित्व की विशेषताओं का अध्ययन किया है। इन सभी गुणों का समाहार ही एक आदर्श व्यक्तित्व’ कहा जा सकता है जिसे समक्ष रखकर हम अन्य व्यक्तियों से उसकी तुलना कर सकते हैं और निजी व्यक्तित्व को उसके अनुरूप ढालने का प्रयास कर सकते हैं।

प्रश्न 2
व्यक्तित्व के विकास को कौन-कौन से कारक प्रभावित करते हैं? व्यक्तित्व पर वंशानुक्रम एवं जैवकीय कारकों के प्रभाव को स्पष्ट कीजिए। (2008)
या
व्यक्तित्व के जैविक निर्धारकों का विवेचन कीजिए। (2013, 15)
या
अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का व्यक्तित्व पर क्या प्रभाव पड़ता है?(2014, 17)
या
थायरॉइड ग्रन्थि व्यक्तित्व को कैसे प्रभावित करती है? (2012)
उत्तर
व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करने वाले कारक या घटक जीवन के विकास की प्रक्रिया में कोई व्यक्ति दो बातों से प्रभावित होता है-वंशार्जित शक्तियाँ (या वंशानुक्रम) तथा वातावरण। मनोविज्ञान की दुनिया में यह प्रश्न काफी समय तक विवादास्पद रहा कि व्यक्तित्व के विकास को वंशानुक्रम प्रभावित करता है अथवा वातावरण। मनोवैज्ञानिकों के गहन अध्ययन, प्रयोगों, निरीक्षण तथा निष्कर्षों के आधार पर आज निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास; वंशानुक्रम तथा वातावरण दोनों से ही प्रभावित होता है।

वंशानुक्रम एवं जैवकीय कारक

वंशानुक्रम द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व के विभिन्न गुणों का निर्धारण होता है तथा यह व्यक्ति के जैवकीय कारकों को अत्यधिक प्रभावित करता है। जैवकीय कारकों में से कुछ प्रधान कारक इस प्रकार हैं-शरीर-रचना, स्नायु-संस्थान, ग्रन्थि-रचना, प्रवृत्तियाँ एवं संवेग। मानव-शरीर से सम्बन्धित ये कारक व्यक्तित्व पर प्रभाव रखते हैं। अब हम इन कारकों के विषय में संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत करेंगे|

(A) शरीर रचना (Physique)- किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व पर वंशानुक्रम का प्रभाव उसकी शारीरिक बनावट या शरीर रचना के रूप में दृष्टिगोचर होता है। शरीर की कद-काठी, नाक-नक्श, मुखाकृति, त्वचा का वर्ण, नेत्र की संरचना व वर्ण, होंठों की बनावट, हाथ-पैर का आकार व लम्बाई आदि सभी बातें वंशानुक्रम से प्राप्त गुणों द्वारा सुनिश्चित होती हैं। आमतौर पर देखने में आता है कि आकर्षक व्यक्तित्व दूसरे लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच लेता है, किन्तु जो व्यक्तित्व अन्य लोगों के आकर्षण का केन्द्र नहीं बन पाता, हीन भावना से ग्रसित हो जाता है। इसी प्रकार मोटा व्यक्ति प्रसन्नचित तथा विनोदी प्रकृति का, किन्तु दुबला-पतला व्यक्ति चिड़चिड़े स्वभाव का होता है। स्पष्टत: व्यक्ति की शरीर रचना उसके व्यवहार को प्रभावित करती है और व्यवहार उसके व्यक्तित्व को प्रदर्शित करता है। निष्कर्ष यह है कि शरीर रचना का व्यक्तित्व के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण योगदान है।

(B) स्नायु-संस्थान (Nervous System)- व्यक्ति का बाह्य व्यवहार जो व्यक्तित्व को चित्रित करता है, स्नायु संस्थान द्वारा संचालित, नियन्त्रित एवं प्रभावित करता है। मानव की बुद्धि, उसकी मानसिक क्रियाएँ तथा अनुक्रियाएँ भी स्नायु-संस्थान की देन हैं। बहुत-सी मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं; जैसे—स्मृति, प्रतिक्षेप, निरीक्षण, चिन्तन तथा मनन आदि का स्नायु-संस्थान से गहरा सम्बन्ध है। व्यक्ति का व्यक्तित्व स्नायु-संस्थान से जुड़ी इन सभी बातों का एक समन्वित पूर्ण रूप है। और स्नायु-संस्थान की रचना वंशानुक्रम से प्राप्त होती है। इसे भॉति, वंशानुक्रम स्नायु-संस्थान के माध्यम से व्यक्तित्वे पर स्पष्ट प्रभाव रखता है।

(C) ग्रन्थि-रेचना (Gland’s Structure)– व्यक्ति के शरीर में पायी जाने वाली अनेक ग्रन्थियों का स्वरूप तथा संगठन वंशानुक्रम के द्वारा निर्धारित होता है। ग्रन्थियों की रचना निम्नलिखित दो प्रकार की होती है

(1) नलिकायुक्त. या बहिःस्रावी ग्रन्थियाँ (Exocrine Glands)— ये ग्रन्थियाँ शरीर के विभिन्न भागों में एक नलिका द्वारा अपना स्राव पहुँचाती हैं। इनमें मुख्य हैं-लार ग्रन्थियाँ, आमाशय ग्रन्थियाँ, वृक्क ग्रन्थियाँ, यकृत, अश्रु ग्रन्थियाँ, स्वेद ग्रन्थियाँ आदि। अधिकांश नलिकायुक्त ग्रन्थियाँ पाचन-संस्थान से सम्बन्ध रखती हैं।

(2) नलिकाविहीन या अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ (Ductless or Endocrine Glands)- इन ग्रन्थियों में कोई नलिका नहीं पायी जाती और ये अपना स्राव रक्त में सीधे ही प्रवाहित कर देती हैं। व्यक्तित्व के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाली प्रमुख नलिकाविहीन ग्रन्थियों को वन निम्नवत् है

(i) गल ग्रन्थि (Thyroid Gland) गल ग्रन्थि की कम या अधिक क्रियाशीलता मानव व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करती है। इसकी सामान्य क्रियाशीलता में कमी श्लेष्मकाय (Myxoedema) नामक रोग के रूप में प्रकट होती है, जिसके परिणामस्वरूप मस्तिष्क एवं पेशियों की क्रिया मन्द हो जाती है, स्मृति कमजोर पड़ जाती है तथा ध्यान और चिन्तन में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है। यदि किसी व्यक्ति में यह ग्रन्थि जन्म से ही मन्द या नष्ट हो गयी हो। तो उसके कारण कुरूप, बौने, अजाम्बुक बाल (Cretins) तथा मूढ़बृद्धि (Imbecile) बच्चे जन्म लेते हैं। इसकी अधिक क्रियाशीलता के कारण मनुष्य चिड़चिड़ा, अशान्त, उद्विग्न, चिन्तायुक्त, तनावग्रस्त तथा अस्थिर हो जाता है। गल ग्रन्थि की अत्यधिक क्रिया के कारण व्यक्ति की लम्बाई बढ़ जाती है।

(ii) अधिवृक्क ग्रन्थि (Adrenal Cland)- वृक्क के काफी समीप स्थित यह ग्रन्थि अधिवृक्की (Adrenin) नामक रस का स्राव करती है जिसकी कमी या अधिकता व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। अधिवृक्की के स्राव की कमी से व्यक्ति के शरीर में कमजोरी तथा शिथिलता बढ़ती है, त्वचा का रंग काला पड़ जाता है, चयापचय (Metabolism) की क्रिया मन्द पड़ जाती है, रोगों की अवरोधक क्षमता धीमी तथा स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। इसके आधिक्य से रक्तचाप बढ़ता है, हृदय की धड़कन तेज हो जाती है, सॉस की गति तीव्र हो जाती है, पसीना आने लगता है, आँख की पुतलियाँ चौड़ी हो जाती हैं, आमाशय तथा पाचन ग्रन्थियों सम्बन्धी क्रियाएँ अवरुद्ध हो जाती हैं, आपत्तिकाल में प्राणी की शक्तियाँ संगठित होने लगती हैं तथा पुरुषोचित गुणों का विकास होता है। इसके परिणामस्वरूप स्त्रियों का स्वर भारी होने लगता है, नेत्रों की गोलाई समाप्त हो जाती है और दाढ़ी उगने लगती है।

(iii) पोष ग्रन्थि (Pituitary Gland)- मानव-मस्तिष्क में स्थित पोष ग्रन्थि या पीयूष ग्रन्थि के पिछले भाग से निकलने वाला स्राव जल के चयापचय, रक्तचाप तथा अन्य शारीरिक क्रियाओं को नियन्त्रित करता है। ग्रन्थि के अग्र भाग से निकलने वाला रस अन्य ग्रन्थियों को नियन्त्रित करता है। व्यक्ति के विकास के दौरान पोष ग्रन्थि की क्रियाशीलता तेज होने के कारण शरीर के आकार की असामान्य वृद्धि हो जाती है, किन्तु इस ग्रन्थि की क्रिया मन्द पड़ जाने पर व्यक्ति का शारीरिक गठन कुरूप, कद बौना तथा बुद्धि निम्न स्तर की हो जाती है।

(iv) अग्न्याशय (Pancreas)– अग्न्याशय एक नलिकाविहीन ग्रन्थि है जिससे निकलने वाला अग्न्याशयिक रस (Pancreatic Juice) भोजन के पाचन में मदद देता है। इसके अतिरिक्त यह ग्रन्थि रक्त में इन्सुलिन (Insulin) नामक रस भी छोड़ती है जो रक्त में पहुँचकर शर्करा के उपयोग में मांसपेशियों की मदद भी करता है। इन्सुलिन की परिवर्तित मात्रा रक्त में शर्करा की मात्रा को परिवर्तित कर देती है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति के स्वभाव तथा भावावस्था पर प्रभाव पड़ता है।

(v) जनन ग्रन्थियाँ (Gonads)- जनन ग्रन्थियों की कमी या अधिकता से लैंगिक लक्षणों तथा यौन-क्रियाओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है और इस प्रकार व्यक्ति को व्यक्तित्व प्रभावित होता है। इन ग्रन्थियों से निकला स्राव पुरुषों में पुरुषोचित तथा स्त्रियों में स्त्रियोचित लक्षणों की वृद्धि तथा विकास का कारण बनता है। इस ग्रन्थि के कारण पुरुष तथा नारी में अपने-अपने लिंग के अनुसार यौन चिह्न दिखाई पड़ते हैं। वंशानुक्रम द्वारा प्राप्त ग्रन्थि रचना और उसके स्राव के प्रभाव से शारीरिक परिवर्तन होता है और व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रभावित होता है। मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में ग्रन्थियाँ वंशानुक्रम का सबसे महत्त्वपूर्ण कारक हैं।

(D) संवेग तथा आन्तरिक स्वभाव (Emotions and Temperament)— व्यक्ति के कुछ विशेष लक्षण ‘संवेग तथा आन्तरिक स्वभाव से निर्मित होते हैं; अतः व्यक्तित्व के निर्माण तथा विकास में इन दोनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रेम, क्रोध तथा भय आदि कुछ संवेग व्यक्ति अपने वंशानुक्रम से प्राप्त करता है, जिनका स्वरूप व मात्रा ग्रन्थियों पर आधारित होते हैं। इसके अतिरिक्त आन्तरिक स्वभाव भी इन्हीं पर निर्भर करता है जिसके फलस्वरूप कुछ लोग प्रेमी, तो कुछ क्रोधी, कुछ डरपोक, कुछ चिड़चिड़े या दयालु होते हैं।

(E) मूलप्रवृत्तियाँ, चालक एवं सामान्य आन्तरिक प्रवृत्तियाँ– जन्मजात मूल व आन्तरिक प्रवृत्तियाँ तथा चालक व्यक्ति को वंशानुक्रम से मिलते हैं। ये व्यक्ति के व्यवहार को अत्यधिक रूप से प्रभावित करते हैं तथा परिणामस्वरूप व्यक्ति के व्यक्तित्व को भी प्रभावित करते हैं।

प्रश्न 3
व्यक्तित्व के विकास पर पर्यावरण का क्या प्रभाव पड़ता है? बालक के व्यक्तित्व पर परिवार, विद्यालय तथा समाज के प्रभाव का उल्लेख कीजिए।
या
व्यक्तित्व के पर्यावरणीय निर्धारकों का विवेचन कीजिए। (2013, 15)
या
व्यक्तित्व के निर्माण में परिवार और विद्यालय की भूमिका स्पष्ट कीजिए। (2010, 12)
या
परिवार, विद्यालय और समाज किस प्रकार व्यक्तित्व को निर्धारित करते हैं? (2018)
उत्तर
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाला दूसरा मुख्य कारक है-‘पर्यावरण’। व्यक्ति जिस प्रकार के पर्यावरण में रहता है, उसके व्यक्तित्व का विकास उसी के अनुरूप होता है। पर्यावरण अपने

आप में एक विस्तृत अवधारणा है तथा इसका व्यक्ति के व्यक्तित्व पर भी विस्तृत प्रभाव पड़ता है। बालक के व्यक्तित्व के विकास के सन्दर्भ में पर्यावरण के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए क्रमशः परिवार, विद्यालय तथा समाज के प्रभाव को जानना अभीष्ट है।

व्यक्तित्व पर परिवार का प्रभाव बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास पर परिवार का सबसे पहला और सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। व्यक्तित्व पर परिवार के प्रभाव को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत अध्ययन कर सकते हैं

(1) परिवार के सदस्य एवं बालक का व्यक्तित्व- बालक अपने परिवार में जन्म लेता है। नवजात शिशु सर्वप्रथम अपनी माता और उसके बाद पिता के सम्पर्क में आता है। यद्यपि बालक का परिवार के सभी सदस्यों से निकट का सम्पर्क रहता है, किन्तु उसका माता-पिता से सबसे नजदीक का सम्बन्ध होता है। माता-पिता के संस्कार उसमें संचरित होते हैं। इसी के परिणामस्वरूप सांस्कृतिक विकास सम्भव होता है। माता-पिता का स्नेह बालक के व्यक्तित्व को विकसित करता है। अधिक स्नेह बालक को जिद्दी, शैतान तथा पराश्रयी बना देता है तो स्नेह का अभाव अपराधी। अतः बालक को उचित स्नेह मिलना चाहिए और उसे अनावश्यक रूप से डाँटना-फटकारना नहीं चाहिए। अध्ययनों से ज्ञात होता है कि संयुक्त परिवार में पलने से बालक में सामाजिक सुरक्षा की भावना प्रबल होती है। परिवार के सभी सदस्य बालक के व्यक्तित्व को विकसित करने में सहयोग देते हैं। |

(2) परिवार के मुखिया का व्यक्तित्व- सामान्यतः बालक स्वयं को परिवार के मुखिया के अनुरूप ढालने का प्रयास करता है। मुखिया का चरित्र, आचरण, व्यवहार तथा रहन-सहन के तरीके बालक पर अमिट छाप छोड़ते हैं। आमतौर पर परिवार के लड़के अपने पिता तथा लड़कियाँ अपनी माता के व्यक्तित्व का अनुशीलन करते हैं; अतः परिवार के मुखिया को चाहिए कि वह स्वयं को एक आदर्श व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करे। आजकल के समाज में प्राय: माता-पिता ही परिवार के मुखिया होते हैं।

(3) स्वतन्त्रता और व्यक्तित्व– परिवार में निर्णय लेने की स्वतन्त्रता का होना या न होना, बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। बहुत-से परिवारों में बच्चों को अपने विषय में बड़े-बड़े निर्णय लेने की छूट रहती है। इससे बच्चे स्वतन्त्र प्रकृति के बन जाते हैं जिससे उनका व्यक्तित्व अनियन्त्रित हो सकता है। किन्हीं परिवारों में साधारण बातों के लिए बच्चों को अभिभावकों के निर्णय की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इससे बालक दब्बू तथा दूसरों पर निर्भर रहने के आदी हो जाते हैं और समस्याओं के विषय में उचित समय पर उचित निर्णय नहीं ले पाते।

(4) विघटित परिवार और बालक का व्यक्तित्व- विघटित परिवारों (Broken Homes) से अभिप्राय उन परिवारों से है जिनमें माता-पिता के मध्य कलह, तनाव तथा द्वन्द्व की स्थिति बनी रहती है। ऐसे वातावरण से परिवार का वातावरण दूषित हो जाता है और बालक का व्यक्तित्व कुण्ठित तथा विकृत हो जाता है। अध्ययन बताते हैं कि समाज के अधिकांश अपराधी, वेश्याएँ, यौन-विकृति के लोग तथा समाज-विरोधी कार्य करने वाले लोग विघटित परिवारों की देन होते हैं। विघटित परिवार में बालक को माता-पिता का स्नेह नहीं मिलता, उनका उचित समाजीकरण नहीं हो पाता, उनकी प्राकृतिक यौन-जिज्ञासाएँ व इच्छाएँ नियन्त्रित नहीं हो पातीं और इसी कारण परिष्कृत संस्कारों से विमुख होकर जीवन-भर असन्तुलित व्यक्तित्व का बोझ ढोते हैं।

(5) परिवार की आर्थिक स्थिति- परिवार से जुड़े विभिन्न कारकों में आर्थिक पक्ष की अवहेलना नहीं की जा सकती। निर्धन परिवार के बच्चों का जीवन संघर्षपूर्ण एवं कष्टप्रद रहता है। जिसके परिणामस्वरूप उनके व्यक्तित्व में परिश्रमी होना, सहिष्णुता, कष्टसाध्यता, कठोरता तथा अध्यवसाय का प्राकृतिक समावेश हो जाता है। धनी परिवार के बच्चे भ्रमणशील, आलसी, आरामपसन्द तथा फिजूल खर्च हो जाते हैं। परिवार की आर्थिक स्थिति बालक के व्यक्तित्व के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

व्यक्तित्व पर विद्यालय का प्रभाव

विद्यालय को एक लघु समाज (Miniature Society) कहा जाता है, जिसे सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति व प्राप्ति के लिए निर्मित किया जाता है। विद्यालय बालक के व्यक्तित्व निर्माण एवं विकास के लिए पर्याप्त उत्तरदायी है। इसका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-
(1) अध्यापक का प्रभाव – विद्यार्थीगण अपने अध्यापक को आदर्श के रूप में देखते हैं तथा जाने-अनजाने उनके आचरण के अनुसार ही स्वयं को ढालते हैं। अध्यापक का चरित्र, व्यवहार एवं व्यक्तित्व बालकों का पथ-प्रदर्शन करता है। अपने विद्यार्थियों के प्रति सहानुभूति, प्रेम एवं सहयोग प्रदर्शित करने वाले अध्यापकों का व्यक्तित्व बालकों पर अनुकूल प्रभाव रखता है। इसके विपरीत विद्यार्थियों के प्रति कठोर, रुक्ष एवं बुरा व्यवहार प्रदर्शित करने वाले अध्यापक अपने विद्यार्थियों के असम्मान, घृणा तथा तिरस्कार के भागी बनते हैं।

(2) सहपाठियों एवं मित्रों का प्रभाव- विद्यालय में समाज के कोने-कोने से विद्यार्थियों का आगमन होता है। स्कूल में बालक समाज के प्रत्येक वर्ग, स्तर तथा समुदाय के बालकों के साथ उठता-बैठता, खेलता-कूदता, पढ़ता-लिखता तथा विभिन्न व्यवहार करता है। बालक की आदतों के निर्माण में उसके सहपाठियों का विशेष योगदान रहता है। कक्षा के सहपाठियों के सम्पर्क में आकर बालक अच्छी-बुरी सभी तरह की बातें ग्रहण करता है। प्रेम, सहयोग, मित्रता, नेतृत्व आदि के भाव बालक से बालकं में आते हैं तो चोरी, झूठ बोलना, आक्रमण तथा ईष्र्या आदि की प्रवृत्तियाँ भी वह एक-दूसरे से सीखता है। सदाचार से युक्त सहपाठी एवं मित्रगण बालक को सद्गुणों से भर देते हैं तो कुसंग से उसका व्यक्तित्व विकृत भी हो जाता है।

(3) समूह का प्रभाव- विद्यालय में विभिन्न उद्देश्यों को लेकर बालकों के समूह या दल बन जाते हैं। ये दल अपने भीतर से एक नेता चुनकर उसका अनुगमन करते हैं। खेलकूद वाले बालकों का अपना एक समूह होता है, शैतान बालकों को अलग और पढ़ने वाले बालकों का अलग ही समूह या दल होता है। बालक का व्यक्तित्व अपने समूह से प्रभावित होता है।

व्यक्तित्व पर समाज का प्रभाव

प्रत्येक बालक अपने परिवार तथा विद्यालय का सदस्य बनने के साथ-ही-साथ समाज का भी सदस्य बनता है। एक स्थिति में समाज भी बालक या व्यक्ति के व्यक्तित्व को अनिवार्य रूप से प्रभावित करता है। भातीय समाज में जाति-व्यवस्था को बोल बाला है। इस स्थिति में हमारे समाज में प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति का मूल्यांकन उसकी जाति के सन्दर्भ में भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त बालक अपने जीवन एवं व्यवहार के अनेक तरीके, सोचने के ढंग तथा विभिन्न प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति को समाज के नियमों एवं आदर्शों के अनुसार ही निर्धारित करता है। बालक की सामाजिक स्थिति भी उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। उच्च सामाजिक वर्ग के बालकों में बड़प्पन की भावना प्रबल होती है। इसके विपरीत निम्न सामाजिक वर्ग के बालकों में प्रायः किसी-न-किसी रूप में हीन भावना विकसित हो जाया करती है। उच्च एवं निम्न सामाजिक वर्ग के परिवारों की आर्थिक स्थिति का अन्तर सम्बन्धित बालकों के व्यक्तित्व को अनुकूल अथवा प्रतिकूल रूप में प्रभावित करती है।

प्रश्न 4
व्यक्ति के व्यक्तित्व पर सामाजिक-सांस्कृतिक तत्त्वों का क्या प्रभाव पड़ता है? स्पष्ट  कीजिए।
उत्तर

व्यक्तित्व पर सामाजिक तथा सांस्कृतिक तत्त्वों का प्रभाव

समाज सामाजिक सम्बन्धों का ताना-बाना है। समाज में तरह-तरह के व्यक्ति अपनी विशिष्ट स्थिति एवं कार्य रखते हुए एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं। समाज से जुड़े हुए विभिन्न पहलुओं तथा अवयवों का मनुष्य के व्यक्तित्व पर अमिट प्रभाव पड़ता है। इस प्रभाव का निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत अध्ययन कर सकते हैं

(1) वर्ण-व्यवस्था एवं व्यक्तित्व- भारतीय समाज में व्यक्ति की स्थिति तथा उसके कार्य वर्ण-व्यवस्था पर आधारित रहे हैं। वर्ण चार हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। किसी विशेष वर्ण में जन्म लेने वाला बालक उस वर्ण के लिए समाज द्वारा निर्धारित नियमों, मूल्यों तथा संस्कारों से परिचालित होता है। ये नियम, मूल्य, संस्कार, स्थिति एवं कार्य उस व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। ज्ञान लेने व देने वाले ब्राह्मण का व्यक्तित्व निश्चित रूप से समाज की सेवा करने वाले शूद्र के व्यक्तित्व से भिन्न होगा। इसी प्रकार वीरोचित कार्य करने वाले क्षत्रिय का व्यक्तित्व व्यापारी वैश्य से पृथक् दिखाई देगा। स्पष्टतः हमारे समाज की वर्ण-व्यवस्था व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव रखती है।

(2) सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप व्यक्तित्व- समाज की जैसी परिस्थितियाँ होती हैं, उसी के अनुरूप मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास भी होता है। अधिकांश लोग सामाजिक नियमों, प्रथाओं, परम्पराओं तथा रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। दीर्घकाल में पालन करने की यह परिपाटी जीवन शैली और व्यक्तित्व का एक अंग बन जाती है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति अपने सामाजिक बहिष्कार या विरोध से भी डरता है। इसी कारण से वह समाज-विरोधी कार्य करना नहीं चाहता। व्यक्ति की आदतें, प्रवृत्तियाँ तथा सोचने- विचारने का ढंग भी सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप ढल जाता है। इसमें सन्देह नहीं है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व पर उसकी सामाजिक परिस्थितियों का व्यापक प्रभाव पड़ता है।

(3) व्यक्तिगत एवं सामूहिक संघर्ष- मानव-समाज का इतिहास व्यक्ति और समूह के संघर्ष की गाथा रहा है। कुछ लोग समाज की रुग्ण रूढ़ियों तथा परिपाटियों का विरोध करते हैं और समाज में उनके विरुद्ध विचारधारा का प्रचार करते हैं। रूढ़िवादी एवं विरोधी विचारधारा वाले लोगों में संघर्ष विभिन्न समस्याओं व तनावपूर्ण परिस्थितियों को जन्म देता है, जिनका मनुष्य के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है।

(4) धार्मिक संस्थाएँ– मन्दिर, मस्जिद, चर्च, गिरजाघर आदि सभी धार्मिक स्थान हैं जहाँ विभिन्न धर्मों के अनुयायी अपने इष्ट की पूजा-आराधना तथा ध्यान करते हैं। धार्मिक संस्थाओं के नियमों का लगातार पालन करने तथा धर्मस्थलों पर नियमित जाने से व्यक्ति धार्मिक प्रवृत्ति का हो जाता है जिससे उसके व्यक्तित्व पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।।

(5) क्लब एवं गोष्ठियाँ आदि- क्लब तथा गोष्ठियाँ व्यक्तित्व के निर्माण में काफी योगदान देते हैं। समाज के लोग मनोरंजन या ज्ञान-चर्चा आदि के लिए क्लब या गोष्ठी बनाते हैं और एक निश्चित स्थान पर निश्चित समय पर एकत्र होते हैं। वहाँ खेलकूद, नाच-गाना, वार्तालाप, चर्चाएँ आदि के माध्यम से व्यक्तित्व प्रभावित होता है। बच्चों के भी अपने क्लब होते हैं।

(6) सिनेमा तथा टेलीविजन– आज की दुनिया में सिनेमा तथा टेलीविजन ने लोगों को इतना आकर्षित किया है कि अधिकतर लोग यहाँ तक कि बच्चे भी इनके आदी हो चुके हैं। फिल्म तथा अन्य कार्यक्रमों को देखकर बालक उनमें प्रदर्शित अच्छी-बुरी बातों का अनुकरण करते हैं। सिनेमा और टेलीविजन बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में विशिष्ट स्थान रखते हैं।

(7) मेले एवं त्योहार-तरह- तरह के मेले एवं त्योहार भी महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक कारक हैं। इन कारकों का बालकों के व्यक्तित्व के विकास में उल्लेखनीय योगदान होता है। मेले एवं त्योहारों के माध्यम से बालक सांस्कृतिक मूल्यों से अवगत होते हैं तथा उनके व्यक्तित्व का समुचित विकास होता है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सामाजिक-सांस्कृतिक तत्त्वों का अत्यधिक योगदान होता है। वर्तमान समय में इण्टरनेट, फेसबुक तथा सोशल मीडिया जैसे कारक भी युवावर्ग के व्यक्तित्व को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

प्रश्न 5
किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व पर आर्थिक कारकों के पड़ने वाले प्रभावों का संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
या
आर्थिक कारक व्यक्ति के व्यक्तित्व को किस प्रकार से प्रभावित करते हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
यह सत्य है कि प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व एक अत्यधिक जटिल एवं बहुपक्षीय संगठन होता है जिसका विकास असंख्य कारकों के घात-प्रतिघात के परिणामस्वरूप होता है। जहाँ तक प्राकृतिक कारकों का प्रश्न है, वे तो किसी-न-किसी रूप में सभी प्राणियों को प्रभावित करते हैं। ये कारक व्यक्ति के व्यक्तित्व को भी प्रभावित करते हैं, परन्तु मनुष्य क्योंकि एक सामाजिक प्राणी है तथा उसने अत्यधिक व्यापक संस्कृति भी विकसित की है; अत: प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में । सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों का भी अत्यधिक योगदान होता है। सामाजिक मनुष्य के जीवन में आर्थिक कारकों की भी अत्यधिक प्रभावकारी भूमिका होती है। आर्थिक कारक व्यक्ति के जीवन को व्यापक रूप में प्रभावित करते हैं। आर्थिक कारकों के अन्तर्गत हम व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति की दशाओं, धन-प्राप्ति के स्रोतों एवं उपायों तथा आर्थिक अभावों, संकट एवं समृद्धि आदि का बहुपक्षीय अध्ययन करते हैं। आर्थिक कारक प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास एवं निर्धारण में उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं।

व्यक्तित्व तथा आर्थिक कारक

व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास एवं गठन पर आर्थिक कारकों का व्यापक एवं निरन्तर प्रभाव पड़ता है। आर्थिक कारक व्यक्ति के जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक निरन्तर सक्रिय रहते हैं। तथा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करते रहते हैं। जीवन के विभिन्न स्तरों पर व्यक्ति के व्यक्तित्व पर आर्थिक कारकों के पड़ने वाले प्रभाव का विवरण निम्नलिखित है|

(1) शैशवावस्था में आर्थिक कारकों का प्रभाव-
आर्थिक कारक शिशु के जन्म से पूर्व ही उसे प्रभावित करना प्रारम्भ कर देते हैं। प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि यदि गर्भावस्था में माँ को सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार एवं आवश्यक औषधियाँ आदि उपलब्ध हों तो जन्म लेने वाला शिशु शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है। गर्भवती स्त्री को सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार उपलब्ध कराने के लिए धन की आवश्यकता होती है अर्थात् आर्थिक कारक की उल्लेखनीय भूमिका होती है। इसी प्रकार जन्म के उपरान्त शिशु के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य तथा सुचारु विकास के लिए पर्याप्त मात्रा में सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार तथा अन्य सुविधाओं की अत्यधिक आवश्यकता होती है। सम्पन्न परिवारों में जन्म लेने वाले शिशुओं को ये समस्त सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं; अत: इन शिशुओं का विकास सुचारु रूप से होता है तथा उनका व्यक्तित्व भी सामान्य रूप से विकसित होता है। इस प्रकार के शिशुओं के व्यक्तित्व में सामान्य रूप से अभावजनित ग्रन्थियों का विकास नहीं होता।

दुर्भाग्यवश अथवा परिस्थितियोंवश अनेक परिवार ऐसे भी हैं जो आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं हैं। तथा अभावपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इन परिवारों में जन्म लेने वाले शिशुओं को न तो पौष्टिक एवं सन्तुलित आहार उपलब्ध हो पाता है और न ही सामान्य जीवन के लिए आवश्यक अन्य सुविधाएँ ही पलब्ध हो पाती हैं अर्थात् उनकी शैशवावस्था अभावग्रस्त होती है। इस वर्ग के शिशुओं में शारीरिक एवं मानसिक विकास प्रायः कुण्ठित हो जाता है तथा उनका व्यक्तित्व भी सामान्य रूप से विकसित नहीं हो पाता। ऐसे शिशुओं के व्यक्तित्व में कुछ अभावजनित ग्रन्थियों का क्रमशः विकास होने लगता है।

उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि आर्थिक कारक शिशु के जन्म से पूर्व ही सक्रिय हो जाते हैं। तथा शैशवावस्था से ही शिशु के व्यक्तित्व को गम्भीर रूप से प्रभावित करने लगते हैं।

(2) बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था में आर्थिक कारकों का प्रभाव- आर्थिक कारक व्यक्ति के जीवन में सदैव सक्रिय एवं प्रभावकारी रहते हैं। जब व्यक्ति शैशवावस्था को पार करके बाल्यावस्था में पदार्पण करता है तब उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारकों में आर्थिक कारकों का भी उल्लेखनीय स्थान होता है। बाल्यावस्था में पहुँचने के साथ-ही-साथ बालकों को आर्थिक कारकों की

आवश्यकता एवं महत्त्व की जानकारी प्राप्त होने लगती है। सम्पन्न परिवारों के बच्चे अपनी आवश्यकताओं को सरलता से पूरा कर लेते हैं तथा उनकी आवश्यकताएँ भी निरन्तर रूप से बढ़ती जाती हैं। ऐसे बच्चे प्रायः तनाव रहित, प्रसन्न तथा सन्तुष्ट रहते हैं। इस स्थिति में बच्चों का मानसिक, बौद्धिक एवं संवेगात्मक विकास सुचारु रूप से होता है। ऐसे बच्चों का जीवन के प्रति दृष्टिकोण सकारात्मक होता है तथा उनमें सुरक्षा की भावना तथा आत्मविश्वास की कभी कमी नहीं होती। ये समस्त कारक बालक के व्यक्तित्व के विकास पर अच्छा प्रभाव डालते हैं तथा बालक के व्यक्तित्व का सुचारु विकास होता है। जहाँ तक आर्थिक रूप से अभावग्रस्त परिवारों का प्रश्न है, उनके बच्चों के व्यक्तित्व पर परिवार की आर्थिक स्थिति का गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इन परिवारों के बच्चों को अपनी आवश्यकताओं को नियन्त्रित करना पड़ता है तथा अनेक बार तो अभावों में ही जीवन व्यतीत करना पड़ता है। इस वर्ग के बच्चों के व्यक्तित्व के विकास के कुण्ठित होने की प्रायः आशंका रहती है। ये बच्चे अनेक बार निराशा तथा असुरक्षा की भावना से घिर जाते हैं तथा उनमें आत्मविश्वास का भी समुचित विकास नहीं हो पाता।।

बाल्यावस्था में व्यक्तित्व के सुचारु विकास में शिक्षा की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में शिक्षा की उत्तम व्यवस्था के लिए भी पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। सम्पन्न परिवारों के बच्चों के लिए उत्तम शिक्षा ग्रहण करना सरल होता है, जबकि अभावग्रस्त परिवारों के बच्चे या तो शिक्षा से वंचित ही रह जाते हैं अथवा केवल साधारण एवं कामचलाऊ शिक्षा ही ग्रहण कर पाते हैं। शैक्षिक सुविधाओं के अन्तर के कारण भी भिन्न-भिन्न आर्थिक स्थिति वाले बच्चों के व्यक्तित्व के विकास में स्पष्ट अन्तर देखा जा सकता है। शिक्षा के अतिरिक्त बच्चों के व्यक्तित्व के विकास में खेल एवं मनोरंजन के साधनों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। भिन्न-भिन्न आर्थिक वर्ग वाले परिवारों के बच्चों का खेलों एवं मनोरंजन के साधनों में भी स्पष्ट अन्तर होता है। इस अन्तर का भी बच्चों के व्यक्तित्व के विकास पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था में भी व्यक्तित्व के विकास पर आर्थिक कारकों का उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है।

(3) युवावस्था में आर्थिक कारकों का प्रभाव- युवावस्था में प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी व्यवसाय का वरण करता है। इस अवस्था का व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। इस अवस्था में भी आर्थिक कारकों द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है। सम्पन्न परिवारों के युवकों को व्यावसायिक चुनाव के लिए अधिक सुविधाएँ एवं अवसर उपलब्ध होते हैं। इन युवकों को व्यवसाय-वरण में सामान्य रूप से कोई विशेष संघर्ष नहीं करना पड़ता। इन परिस्थितियों में सम्बन्धित युवाओं के व्यक्तित्व का विकास एक भिन्न रूप में होता है। इससे भिन्न आर्थिक दृष्टि से हीन अथवा सीमित साधनों से युक्त परिवारों के युवाओं को व्यवसाय के वरण के लिए सामान्य रूप से अधिक योग्य एवं निपुण बनना पड़ता है तथा साथ ही भरपूर संघर्ष भी करने पड़ते हैं। इस प्रकार के प्रयास करने वाले युवा व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास नितान्त भिन्न रूप में होता है। ऐसा देखने में आता है। कि अपनी योग्यता एवं संघर्ष के बल पर सफलता अर्जित करने वाले युवा अधिक सन्तुष्ट तथा

आत्मविश्वास से परिपूर्ण होते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि युवावस्था में भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास पर आर्थिक कारकों को अनिवार्य रूप से प्रभाव पड़ता है।

(4) वयस्कावस्था में आर्थिक कारकों का प्रभाव- वयस्कावस्था में भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में आर्थिक कारकों का उल्लेखनीय योगदान होता है। व्यक्ति की आय एवं धन-उपार्जन के ढंग एवं उपायों का भी उसके व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है। जो व्यक्ति अपने तथा अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए किसी सम्मानजनक एवं समाज द्वारा स्वीकृत व्यवसाय का वरण करते हैं, उनके व्यक्तित्व में सामान्य रूप से आत्म-विश्वास तथा स्थायित्व के गुणों का समुचित विकास होता है। इससे भिन्न कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो प्रायः धन-उपार्जन के लिए कुछ ऐसे उपायों को अपनाते हैं। जिन्हें समाज में बुरा माना जाता है। ऐसे व्यक्तियों के व्यक्तित्व का विकास नितान्त भिन्न रूप में होता है। ऐसे व्यक्तियों का व्यक्तित्व सामान्य नहीं होता तथा उनके व्यक्तित्व में अस्थिरता, तनाव तथा परेशानी के लक्षण देखे जा सकते हैं। समाज द्वारा निन्दनीय व्यवसायों को अपनाने वाले व्यक्ति के ।

व्यक्तित्व में कुटिलता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। व्यवसाय की प्रकृति के अतिरिक्त वयस्क व्यक्ति की आर्थिक स्थिति भी उसके व्यक्तित्व को अनिवार्य रूप से प्रभावित करती है। आर्थिक रूप से सम्पन्न तथा आर्थिक रूप से अभावग्रस्त व्यक्ति के व्यक्तित्व में अत्यधिक अन्तर देखा जा सकता है।

उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि व्यक्ति के जीवन में प्रत्येक स्तर पर आर्थिक कारकों द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है तथा जीवन के प्रत्येक स्तर पर व्यक्ति के व्यक्तित्व के ल्किास पर आर्थिक कारकों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 6
चरित्र एवं व्यक्तित्व से क्या आशय है? चरित्र एवं व्यक्तित्व के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर

व्यक्तित्व और चरित्र

व्यक्तित्व के विषय में अध्ययन के दौरान चरित्र की अवधारणा से परिचित होना आवश्यक है। वस्तुत: व्यक्तित्व और चरित्र का निकट का सम्बन्ध है। इनके पारस्परिक सम्बन्ध तथा विभेद को निम्नलिखित प्रकार से जान सकते हैं-

चरित्र (Character)- चरित्र सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप व्यक्ति का व्यवहार होता हैं। चरित्र का सम्बन्ध मनुष्य के व्यवहार से है। सामाजिक मान्यताओं तथा आदर्शों के अनुरूप व्यक्ति का व्यवहार ‘सच्चरित्र’ कहा जाएगा, किन्तु इसके विपरीत व्यवहार ‘दुष्चरित्र’ की श्रेणी में रखा जाएगा। मुनरो के अनुसार, “चरित्र में स्थायित्व होता है जिसके द्वारा सामाजिक निर्णय लिये जाते हैं। इसके लिए व्यक्ति की स्थायी मान्यताओं तथा उसके चुनाव की प्रकृति जो उसके व्यवहार में परिलक्षित होती है, चरित्र कहलाती है।” झा के मतानुसार, “एक व्यक्ति का चरित्र वह मानसिक कारक है जो उसके सामाजिक व्यवहार को निश्चित करता है। कुछ विचारकों ने चरित्र को स्थायी भावों का एक संगठन कहा है।

व्यक्तित्वं (Personality)— व्यक्तित्व, शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक लक्षणों, रुचि, अभिरुचि, योग्यता, क्षमता तथा चरित्र आदि का एक समन्वित रूप एवं संगठन है। जब व्यक्ति के समस्त गुण मिलकर एक इकाई का स्वरूप धारण करते हैं तो व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इस प्रकार चरित्र, व्यक्तित्व का एक आवश्यक अंग है और व्यक्तित्व में चरित्र समाहित होता है।

चरित्र एवं व्यक्तित्व का पारस्परिक सम्बन्ध– व्यक्ति का चरित्र विभिन्न स्थायी भावों का एक संगठन है, जबकि उसका व्यक्तित्व (चरित्र सदृश) अनेकानेक गुणों का एक समन्वित संगठन है। इससे बोध होता है कि यदि व्यक्तित्व एक सम्पूर्ण शरीर है तो चरित्र उसका एक अंग-मात्र है। चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया में जब कुछ संवेग किसी प्राणी या वस्तु विशेष से जुड़ जाते हैं तो वे स्थायी भाव बनाते हैं। व्यक्ति के समस्त स्थायीभाव, किशोरावस्था के नजदीक, एक प्रमुख स्थायीभाव से जुड़ जाते हैं। स्थायीभाव आत्म-सम्मान से जुड़कर आत्म-सम्मान को स्थायीभाव निर्मित करते हैं जो समस्त व्यवहार का संचालन करता है। संगठित चरित्र और व्यक्तित्व का निर्माण तभी होता है जब समस्त स्थायीभाव आत्म से सम्यक् ढंग से संगठित होते हैं। संगठित चरित्र, संगठित व्यक्तित्व को जन्म देता है। इस भाँति सन्तुलित व्यक्तित्व का निर्माण होता है।

इसके विपरीत, यदि व्यक्ति संवेगात्मक रूप से असन्तुलित हो जाए तो तनाव की स्थिति में उसके स्थायी भावों का संगठन भी ठीक प्रकार से नहीं हो सकेगा। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति का व्यक्तित्व असंगठित तथा असन्तुलित हो जाएगा। व्यक्ति की मूलप्रवृत्तियों तथा संवेगों के दमन से भावना ग्रन्थियों का निर्माण होता है, जिनके कारण व्यक्तित्व विघटित हो जाता है।

उदाहरणों द्वारा पुष्टि- चरित्र एवं व्यक्तित्व निर्माण एवं सम्बन्धीकरण की इस प्रक्रिया को विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से समझा जा सकता है

  1. व्यक्ति के समस्त स्थायी भाव ईश्वर भक्ति के स्थायीभाव से जुड़कर धार्मिक व्यक्तित्व का विकास करते हैं। धार्मिक व्यक्ति धार्मिक कार्यों में सबसे अधिक रुचि दिखाता है तथा उसकी तुलना में अन्य कार्यों को छोड़ देता है।
  2. धनलोलुपता के स्थायीभाव से जुड़कर व्यक्ति धन इकट्ठा करने वाला स्वार्थी, लोभी. कंजूस, बेईमान व्यक्तित्व धारण कर लेता है। उसके लिए धन से बढ़कर कुछ नहीं होता तथा वह सच्चाई, ईमानदारी, दया, ममता, न्याय और नैतिकता को पैसे की बलिवेदी पर न्योछावर कर देता है।
  3. इसी प्रकार, राष्ट्रभक्ति का स्थायीभाव प्रधान होने पर अन्य सभी स्थायीभाव उससे जुड़कर देशभक्त व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। देशभक्त के लिए राष्ट्र की आन-मान, मर्यादा, रक्षा तथा श्री-सम्पन्नता ही सब-कुछ है। वह अपने राष्ट्रहित में सभी स्वार्थों को बलिवेदी पर अर्पित कर देता है।

निष्कर्षतः व्यक्ति का चरित्र-निर्माण उसके व्यक्तित्व सम्बन्धी आन्तरिक प्रारूप को पर्याप्त सीमा तक सुनिश्चित करता है। इसी से उसका व्यवहार संचालित होता है और व्यवहार प्रदर्शन ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वप्रधान एवं महत्त्वपूर्ण अवयव है।

प्रश्न 7
असामान्य व्यक्तित्व (Abnormal Personality) से क्या आशय है? असामान्य व्यक्तित्व के लक्षणों, कारणों तथा उपचार के उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

असामान्य व्यक्तित्व

प्रत्येक व्यक्ति वातावरण की सरल एवं जटिल परिस्थितियों में अपने व्यक्तित्व के गुणों के आधार पर समायोजन करता है। अपने वातावरण के साथ समायोजन की प्रक्रिया में सफल व्यक्ति ‘सामान्य व्यक्तित्व’ वाला होता है, किन्तु जो व्यक्ति वातावरण के साथ कुसमायोजित होते हैं ऐसे व्यक्ति ‘असामान्य व्यक्तित्व’ वाले कहे जाते हैं। सामान्य व्यक्तित्व संगठित होता है, जबकि असामान्य व्यक्तियों का व्यक्तित्व विघटित प्रकार का होता है। व्यक्तित्व का यह विघटन या तो किसी क्षेत्र-विशेष में या कुछ क्षेत्रों में हो सकता है। व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यक्तित्व भी विघटित हो सकता है। यह विघटन अंशकाल के लिए मा पूर्णकाल के लिए भी हो सकता है। वस्तुतः सामान्य प्रकार के व्यक्तित्व में समस्त गुण या लक्षण (Traits) समन्वित होते हैं, किन्तु असामान्य व्यक्तित्व में ये लक्षण पूर्ण रूप से समन्वित नहीं होते।

लक्षण–मैस्लो  तथा मिटिलमैन नामक मनोवैज्ञानिकों ने सामान्य समायोजित व्यक्तियों की विशेषताओं का वर्णन किया है। उनकी दृष्टि में ऐसे व्यक्तियों का व्यवहार लक्ष्यपूर्ण होता है, उनमें सुरक्षा की उपयुक्त भावना होती है, उपयुक्त संवेगात्मकता-स्वच्छन्दता आत्मूल्यांकन पाया जाता है, वैयक्तिकता को बनाये रखना और समूह की जरूरतों को पूरा करने की योग्यता होती है, साथ ही उनमें पूर्व अनुभवों से सीखने की योग्यता भी रहती है। ऐसे संगठित व्यक्तित्व के लक्षण यदि किसी व्यक्ति में नहीं हों तो उन्हें असामान्य कहा जाएगा।

वास्तविकता यह है कि दुनियाभर के ज्यादातर लोगों का व्यवहार पूर्णरूपेण संगठित नहीं होता, उनके व्यक्तित्व में कुछ-न-कुछ विकृति या विघटन पाया जाता है। दूसरे शब्दों में, विश्व के सभी व्यक्ति सामान्य व्यक्तित्व वाले नहीं होते, थोड़ी-बहुत असामान्यता की हम अपने दैनिक जीवन के व्यवहार में उपेक्षा कर देते हैं और अल्प विघटित व्यक्तित्व को संगठित व्यक्तित्व की श्रेणी में रख लेते हैं।

असामान्यताएँ– असामान्य व्यक्तित्व वाले लोगों के व्यवहार असामान्य होते हैं और वे किसी-न-किसी मानसिक रोग से पीड़ित हो सकते हैं। इन रोगों में प्रमुख हैं-स्वप्नचारिता (Somnambulims), हिस्टीरिया, स्मृतिभ्रंशता (Amnesia), बहुरूपी व्यक्तित्व (Multiple Personaliy), स्नायु दुर्बलता (Nervous thenia) तथा मनोविदलता (Sohizophrenia) आदि। अलग-अलग व्याधियों में किसी-न-किसी प्रकार का व्यक्तित्व-विघटन कम या ज्यादा मात्रा में पाया। जाता है और उसी के अनुसार व्यक्तित्व की असामान्यता दृष्टिगोचर होती है।

कारण- मनोवैज्ञानिकों ने असामान्य व्यक्तित्व के विभिन्न कारण बताये हैं जिनमें वंशानुक्रम, तनाव, अन्तर्द्वन्द्व, बुद्धि की कमी, विरोधी आदतें, रुचियों व इच्छाओं में समायोजन न होना आदि प्रमुख हैं। सिगमण्ड फ्रॉयड नामक मनोवैज्ञानिक ने असामान्य व्यक्तित्व का कारण यौन-इच्छाओं का दमित होना माना है। इसके अतिरिक्त बहुत-से अन्य कारण हैं जो शारीरिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, नैतिक तथा मनोवैज्ञानिक आधारों से जुड़े हैं।

उपचार— आजकल असामान्य व्यक्तित्व को पुन: सामान्य एवं सन्तुलित बनाने के लिए अनेक विधियाँ प्रचलित हैं। व्यक्तित्व में उत्पन्न साधारण असामान्यताओं को साक्षात्कार व सुझाव की मदद से दूर किया जा सकता है, किन्तु गम्भीर अवस्था में मनोविश्लेषण पद्धति द्वारा चिकित्सा की जाती है। अति गम्भीर असामान्यताओं के लिए विद्युत आघात, न्यूरो सर्जरी तथा क्लाइण्ट सेण्टर्ड थेरैपी की मदद ली जाती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
फ्रॉयड के अनुसार व्यक्तित्व-विकास की प्रक्रिया का स्वरूप स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
फ्रॉयड ने अपने मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व के विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट किया है। फ्रॉयड की मान्यता है कि व्यक्तित्व की संरचना तीन तत्त्वों या इकाइयों से हुई है। इन्हें फ्रॉयड ने क्रमशः इड, इगो तथा सुपर इगो के रूप में वर्णित किया है। यदि इन तीनों इकाइयों में सन्तुलन बना रहता है तो व्यक्तित्व सन्तुलित रहता है। यदि इन इकाइयों में सन्तुलन बिगड़ जाता है तो व्यक्तित्व के सन्तुलन के बिगड़ने की आशंका रहती है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यदि व्यक्ति का इड प्रबल हो जाये तो वह व्यक्ति प्रायः स्वार्थी, सुखवादी तथा अनियन्त्रित प्रकार का हो जाता है। इससे भिन्न यदि किसी व्यक्ति में इगो या अहम् प्रबल हो जाये तो व्यक्ति में मैं भाव’ हावी हो जाता है। यदि व्यक्ति में सुपर इगो या पराहम् प्रबल हो तो वह व्यक्ति आदर्शवादी बन जाता है। इस स्थिति में स्पष्ट है कि व्यक्तित्व के सन्तुलन के लिए इड, इगो तथा सुपर इगो में समन्वय आवश्यक है।

प्रश्न 2
व्यक्तित्व के मुख्य शीलगुणों का उल्लेख कीजिए। (2018)
उत्तर
व्यक्तित्व अपने आप में एक व्यापक एवं जटिल अवधारणा है। व्यक्तित्व के अध्ययन के लिए उसके मुख्य तत्त्वों अथवा शीलगुणों को जानना अवश्यक है। मनोवैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया है कि व्यक्तित्व का निर्माण मुख्य रूप से चार तत्त्वों या शीलगुणों से होता है। व्यक्तित्व के ये तत्त्व शीलगुण हैं क्रमशः मानसिक गुण या तत्त्व, शारीरिक गुण या तत्त्व, सामाजिकता तथा दृढ़ता। मानसिक गुणों का अध्ययन करने के लिए इन्हें तीन भागों में बाँटा जाता हैं। ये भाग हैं—ज्ञान एवं बुद्धि, स्वभाव तथा संकल्प-शक्ति एवं चरित्र। व्यक्तित्व के निर्माण में सर्वाधिक योगदान ज्ञान तथा बुद्धि का ही होता है।

बुद्धि के माध्यम से ज्ञान प्राप्त किया जाता है। सामान्य रूप से माना जाता है कि प्रभावशाली एवं उत्तम व्यक्तित्व के लिए व्यक्ति को बौद्धिक स्तर उच्च होना चाहिए। इसके विपरीत, मन्द बुद्धि वाले व्यक्तियों का व्यक्तित्व प्रायः असंगठित तथा निम्न स्तर का ही होता है। व्यक्तित्व के निर्माण में व्यक्ति के स्वभाव की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले व्यक्तियों का व्यवहार भी भिन्न-भिन्न होता है तथा उनके व्यवहार के अनुसार ही व्यक्तित्व का निर्धारण होता है। व्यक्तित्व के निर्माण के लिए संकल्प-शक्ति एवं चरित्र की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। उच्च एवं सुदृढ़ चरित्र वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व उत्तम एवं सराहनीय माना जाता है तथा इनके विपरीत निम्न चरित्र तथा दुर्बल संकल्प-शक्ति वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व भी निम्न ही माना जाता है। व्यक्तित्व के निर्माण में शारीरिक गुणों एवं तत्त्वों को भी अत्यधिक महत्त्व है। व्यक्तित्व के बाहरी पक्ष का निर्माण शरीर से ही होता है। आकर्षक शरीर वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रायः आकर्षक माना जाता है।

कुछ मनोवैज्ञानिकों ने तो शारीरिक लक्षणों के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। मानसिक एवं शारीरिक गुणों के अतिरिक्त व्यक्तित्व के निर्माण में सामाजिकता का भी उल्लेखनीय स्थान है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास मुख्य रूप से उसकी सामाजिक अभिवृति के ही अनुकूल होता है। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व का वर्गीकरण सामाजिकता के ही आधार पर किया है। व्यक्तित्व का एक अति आवश्यक तत्त्व या शीलगुण दृढ़ता भी है। व्यक्तित्व के सन्दर्भ में दढ़ता से आशय है-व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों में स्थायित्व होना। जिस व्यक्ति के व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों में स्थायित्व होता है उसका व्यक्तित्व भी स्थिर होता है। व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों में स्थायित्व या दृढ़ता के अभाव में व्यक्तित्व को संगठित नहीं माना जा सकता।

प्रश्न3
पारम्परिक भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्तित्व के वर्गीकरण को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
भारतीय पारम्परिक विचारधारा के अनुसार व्यक्तित्व के वर्गीकरण का एक मुख्य आधार गुण, स्वभाव एवं कर्म स्वीकार किया गया है। इस आधार पर व्यक्तित्व के तीन वर्ग निर्धारित किये गये हैं। जिन्हें क्रमशः सात्विक, राजसिक तथा तामसिक कहा गया है। इस वर्गीकरण के अन्तर्गत सात्विक व्यक्ति के मुख्य लक्षण–शुद्ध आहार ग्रहण करना, धर्म एवं अध्यात्म में रुचि रखना तथा बुद्धि की प्रधानता हैं। राजसिक व्यक्तित्व के लक्षण हैं-अधिक उत्साह, पराक्रम, वीरता, युद्धप्रियता तथा शान-शौकत से परिपूर्ण जीवन। तामसिक व्यक्तित्व के लक्षण पाये गये हैं—समुचित बौद्धिक विकास न होना तथा कौशलपूर्ण कार्यों को करने की क्षमता न होना। इस वर्ग के व्यक्ति प्राय: आलस्य, प्रमाद आदि दुर्गुणों से युक्त होते हैं। तामसिक प्रवृत्ति के व्यक्तियों का आचरण निम्न स्तर का होता है तथा ये प्रायः मद-व्यसन तथा गरिष्ठ आहार ग्रहण करना पसन्द करते हैं। वर्ण-व्यवस्था के अनुसार, ब्राह्मण वर्ण सात्विक, क्षत्रिय वर्ण राजसिक, वैश्य वर्ण राजसिक-तामसिक तथा शूद्र वर्ण तामसिक प्रवृत्ति वाले होते हैं।

प्रश्न 4
शारीरिक संरचना के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक क्रैशमर (Kretschmer) ने शारीरिक संरचना में भिन्नता को व्यक्तित्व के वर्गीकरण का आधार माना है। उसने 400 व्यक्तियों की शारीरिक रूपरेखा का अध्ययन किया तथा उनके व्यक्तित्व को मुख्य रूप से दो समूहों में इस प्रकार बॉटा

(A) साइक्लॉयड (Cycloid)- क्रैशमर के अनुसार, “साइक्लॉयड व्यक्ति प्रसन्नचित्त, सामाजिक प्रकृति के, विनोदी तथा मिलनसार होते हैं। इनका शरीर मोटापा लिये हुए होता है। ऐसे व्यक्तियों का जीवन के प्रति वस्तुवादी दृष्टिकोण पाया जाता है।”

(B) शाइजॉएड (Schizoid)— साइक्लॉयड के विपरीत शाइजॉएड व्यक्तियों की शारीरिक बनावट दुबली-पतली होती है। ऐसे लोग मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संकोची, शान्त स्वभाव, एकान्तवासी, भावुक, स्वप्नदृष्टा तथा आत्म-केन्द्रित होते हैं। क्रैशमर ने इसके अतिरिक्त चार उप-समूह भी बनाये हैं

  1. सुडौलकाय (Athletic)– स्वस्थ शरीर, सुडौल मांसपेशियाँ, मजबूत हड्डियाँ, चौड़ा | वक्षस्थल तथा लम्बे चेहरे वाले शक्तिशाली लोग जो इच्छानुसार अपने कार्यों का व्यवस्थापन कर लेते हैं। ये क्रियाशील होते हैं। कार्यों में रुचि लेते हैं तथा अन्य चीजों की अधिक चिन्ता नहीं करते।।
  2. निर्बल (Asthenic)- लम्बी भुजाओं व पैर वाले दुबले-पतले निर्बल व्यक्ति जिनका सीना चपटा, चेहरा तिकोना तथा ठोढ़ी विकसित होती है। ऐसे लोग दूसरों की निन्दा तो करते हैं, लेकिन अपनी निन्दा सुनने के लिए तैयार नहीं होते।
  3. गोलकाय (Pyknic)- बड़े सिर और धड़ किन्तु छोटे कन्धे, हाथ-पैर वाले तथा गोल छाती वाले असाधारण शरीर के ये लोग बहिर्मुखी होते हैं।
  4. स्थिर-बुद्धि (Dysplasic)- ग्रन्थीय रोगों से ग्रस्त तथा मिश्रित प्रकार के प्रारूप वाले इन व्यक्तियों का शरीर साधारण होता है।

प्रश्न 5
स्वभाव के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
या
शेल्डन द्वारा दिए गए व्यक्तित्व के प्रकार बताइए। (2010)
उत्तर
शेल्डन (Sheldon) नामक मनोवैज्ञानिक ने व्यक्तित्व के वर्गीकरण के लिए मनुष्यों के स्वभाव को आधार स्वरूप स्वीकार किया तथा इस आधार पर व्यक्तियों को निम्नलिखित तीन भागों में बॉटा है|
(1) एण्डोमॉर्फिक (Endomorphic)- गोलाकार शरीर वाले कोमल और देखने में मोटे व्यक्ति इस विभाग के अन्तर्गत आते हैं। ऐसे लोगों का व्यवहार आँतों की आन्तरिक पाचन शक्ति पर निर्भर करता है।

(2) मीजोमॉर्फिक (Mesomorphic)–
आयताकार शरीर रचना वाले इन लोगों का शरीर शक्तिशाली तथा भारी होता है।

(3) एक्टोमॉर्फिक (Ectomorphic)- इन लम्बाकार शक्तिहीन व्यक्तियों में उत्तेजनशीलता अधिक होती है। ऐसे लोग बाह्य जगत् में निजी क्रियाओं को शीघ्रतापूर्वक करते हैं। शैल्डन ने उपर्युक्त तीन प्रकार के व्यक्तियों के स्वभाव का अध्ययन करके व्यक्तित्व के निम्नलिखित तीन वर्ग बताये हैं

(A) विसेरोटोनिक (Viscerotonic)– एण्डोमॉर्फिक वर्ग के लिए विसेरोटोनिक प्रकार का व्यक्तित्व रखते हैं। ये लोग आरामपसन्द तथा गहरी व ज्यादा नींद लेते हैं। किसी परेशानी के समय दूसरों की मदद पर आश्रित रहते हैं। ये अन्य लोगों से प्रेमपूर्ण सम्बन्ध रखते हैं तथा तरह-तरह के भोज्य-पदार्थों के लिए लालायित रहते हैं।

(B) सोमेटोटोनिक (Somatotonic)- मीजोमॉर्फिक वर्ग के अन्तर्गत आने वाले सोमेटोटोनिक व्यक्तित्व के लोग बलशाली तथा निडर होते हैं। ये अपने विचारों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करना पसन्द करते हैं। ये कर्मशील होते हैं तथा आपत्ति से भय नहीं खाते। |

(C) सेरीब्रोटोनिक (Cerebrotonic)– एक्टोमॉर्फिक वर्ग में सम्मिलित सेरीब्रोटोनिक व्यक्तित्व के लोग धीमे बोलने वाले, संवेदनशील, संकोची, नियन्त्रित तथा एकान्तवासी होते हैं। संयमी होने के कारण ये अपनी इच्छाओं तथा भावनाओं को दमित कर सकते हैं। आपातकाल में ये दूसरों की सहायता लेना पसन्द नहीं करते। ये सौम्य स्वभाव के होते हैं। इन्हें गहरी नींद नहीं आती।

प्रश्न 6
सामाजिकता पर आधारित व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
टिप्पणी लिखिए-बहिर्मुखी व्यक्तित्व।
या
टिप्पणी लिखिए-अन्तर्मुखी व्यक्तित्व।
या
अन्र्तमुखी व्यक्तित्व की विशेषताएँ बताइए। अन्तर्मुखी एवं बहिर्मुखी व्यक्तित्व में अन्तर स्पष्ट करें। (2018)
उत्तर
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जंग (Jung) ने व्यक्तित्व के वर्गीकरण के लिए सामाजिकता को 
आधार स्वरूप स्वीकार किया तथा इस आधार पर मानवीय व्यक्तित्व के दो मुख्य वर्ग निर्धारित किये, जिन्हें क्रमश: बहिर्मुखी व्यक्तित्व तथा अन्तर्मुखी व्यक्तित्व कहा गया। व्यक्तित्व के इन दोनों वर्गों या प्रकारों का सामान्य परिचय निम्नलिखित है–

(A) बहिर्मुखी (Extrovert)- बहिर्मुखी व्यक्तियों की रुचि बाह्य जगत् में होती है। इनमें सामाजिकता की प्रबल भावना होती है और ये सामाजिक कार्यों में लगे रहते हैं। इनकी अन्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  1. बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाले लोगों का ध्यान सदा बाह्य समाज की ओर लगा रहता है। यही कारण है कि इनका आन्तरिक जीवन कष्टमय होता है।
  2. ऐसे व्यक्तियों में कार्य करने की दृढ़ इच्छा होती है और ये वीरता के कार्यों में अधिक रुचि रखते हैं।
  3. इनमें समाज के लोगों से शीघ्र मेल-जोल बढ़ा लेने की प्रवृत्ति होती है। समाज की दशा पर विचार करना इन्हें भाता है तथा ये उसमें सुधार लाने के लिए भी प्रवृत्त होते हैं।
  4. अपनी अस्वस्थता एवं पीड़ा की ये बहुत कम परवाह करते। हैं।
  5. ये चिन्तामुक्त होते हैं।
  6. ये आक्रामक, अहंवादी तथा अनियन्त्रित प्रकृति के होते हैं।
  7. ये प्रॉय: प्राचीन विचारधारा के पोषक होते हैं।
  8. ये धारा प्रवाह बोलने वाले तथा मित्रवत् व्यवहार करने वाले होते हैं।
  9. ये शान्त एवं आशावादी होते हैं।
  10. परिस्थिति और आवश्यकताओं के अनुसार ये स्वयं को व्यवस्थित कर लेते हैं।
  11. ऐसे व्यक्ति शासन करने तथा नेतृत्व करने की इच्छा रखते हैं। ये जल्दी से घबराते भी नहीं हैं।
  12. बहिर्मुखी व्यक्तित्व के लोगों में अधिकतर समाज-सुधारक, राजनीतिक नेता, शासक व प्रबन्धक, खिलाड़ी, व्यापारी और अभिनेता सम्मिलित होते हैं।
  13. ये ऐसे भावप्रधान व्यक्ति होते हैं जो जल्दी ही भावनाओं के वशीभूत हो जाते हैं। इनमें स्त्रियाँ मुख्य स्थान रखती हैं और ऐसे पुरुष भी जो दूसरों का दु:ख-दर्द देखकर जल्दी ही पिघल जाते हैं।

(B) अन्तर्मुखी (Introvert)- अन्तर्मुखी व्यक्तियों की रुचि स्वयं में होती है। इनकी सामाजिक कार्यों में रुचि न के बराबर होती है। स्वयं अपने तक ही सीमित रहने वाले ऐसे लोग संकोची तथा एकान्तप्रिय होते हैं। इनकी अन्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  1. अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के लोग कम बोलने वाले, लज्जाशील तथा पुस्तक-पत्रिकाओं को पढ़ने में गहरी रुचि रखते हैं।
  2. ये चिन्तनशील तथा चिन्ताओं से ग्रस्त रहते हैं।
  3. सन्देही प्रवृत्ति के कारण ये अपने कार्य में अत्यन्त सावधान रहते हैं।
  4. ये अधिक लोकप्रिय नहीं होते।
  5. इनका व्यवहार आज्ञाकारी होता है लेकिन ये जल्दी ही घबरा जाते हैं।
  6. ये आत्मकेन्द्रित और एकान्तप्रिय होते हैं।
  7. इनमें लचीलापन नहीं पाया जाता और क्रोध करने वाले होते हैं।
  8. ये चुपचाप रहते हैं।
  9. ये अच्छे लेखक तो होते हैं किन्तु अच्छे वक्ता नहीं होते।
  10. समाज से दूर रहकर धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक आदि समस्याओं के विषय में ये चिन्तनरत तो रहते हैं लेकिन समाज में सामने आकर व्यावहारिक कार्य नहीं कर पाते।

बहिर्मुखी तथा अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के व्यक्तियों की विभिन्न विशेषताओं का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति समाज में शायद ही कुछ हों जिन्हें विशुद्धतः बहिर्मुखी या अन्तर्मुखी का नाम दिया जा सके। अधिकांश व्यक्तियों का व्यक्तित्व ‘मिश्रित प्रकार का होता है जिसमें बहिर्मुखी तथा अन्तर्मुखी दोनों व्यक्तित्वों की विशेषताएँ निहित होती हैं। ऐसे व्यक्तित्व को उभयमुखी व्यक्तित्व अथवा विकासोन्मुख व्यक्तित्व (Ambivert Personality) की संज्ञा प्रदान की जाती है।

प्रश्न 7
व्यक्तित्व-निर्माण के सन्दर्भ में आनुवंशिकता तथा पर्यावरण के महत्त्व का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास का अध्ययन करने वाले विद्वानों के अनुसार व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में सर्वाधिक योगदान प्रदान करने वाले मुख्य कारक दो हैं, जिन्हें क्रमशः आनुवंशिकता अथवा वंशानुक्रमण (Heredity) तथा पर्यावरण (Environment) के नाम से जाना जाता है। भिन्न-भिन्न विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से इन दोनों कारकों की प्राथमिकता निर्धारित की है।

एक वर्ग के विद्वानों का मत है कि बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में केवल आनुवंशिकता का ही योगदान होता है। इन विद्वानों की मान्यता है कि बालक के व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास उसकी वंश-परम्परा के ही अनुसार होता है। साधारण शब्दों में कहा जा सकता हैं कि बच्चों के गुणों एवं लक्षणों का निर्धारण उनके माता-पिता एवं पूर्वजों के गुणों एवं लक्षणों से ही होता है। ये विद्वान् पर्यावरण के प्रभाव को कोई महत्त्व प्रदान नहीं करते तथा कहते हैं कि व्यक्ति स्वयं अपने पर्यावरण को अपने अनुकूल ढाल लेता है।

व्यक्तित्व का अध्ययन करने वाला विद्वानों का एक अन्य वर्ग बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में पर्यावरण के प्रभाव की प्राथमिकता मानता है। इस वर्ग के विद्वानों का मत है कि व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में पर्यावरण की भूमिका ही मुख्य होती है। इस वर्ग के विद्वानों के अनुसार जन्म के समय शिशु में व्यक्तित्व सम्बन्धी कोई गुण नहीं होते तथा बाद में पर्यावरण के प्रभाव से ही उसके व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास होता है। एक पर्यावरणवादी विद्वान् का कथन इस प्रकार है, “मुझे एक दर्जन बच्चे दीजिए मैं आपकी माँग के अनुसार उनमें से किसी को चिकित्सक, वकील, व्यापारी अथवा चोर बना सकता हूँ। मनुष्य कुछ नहीं है, वह पर्यावरण का दास है, उसकी उपज है।” इस प्रकार स्पष्ट है कि पर्यावरणवादियों के अनुसार बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में आनुवंशिकता का कोई योगदान नहीं होता है।

उपर्युक्त विवरण को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि वास्तव में ये दोनों मत एकांगी हैं। तथा अपने आप में पूर्ण रूप से सत्य नहीं हैं। वास्तव में बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में आनुवंशिकता तथा पर्यावरण दोनों का ही योगदान होता है।

प्रश्न 8
व्यक्ति के व्यक्तित्व के विघटन के लिए जिम्मेदार मुख्य कारक कौन-कौन से होते हैं?
उत्तर
नियमित एवं सहज-सामान्य जीवन व्यतीत करने से व्यक्ति का व्यक्तित्व संगठित रहता है। पन्तु जीवन में निरन्तर असामान्यता से व्यक्ति के व्यक्तित्व का विघटन होने लगता है। इसके अतिरिक्त कुछ व्यक्तिगत कारक भी व्यक्तित्व के विघटन के लिए जिम्मेदार होते हैं। व्यक्तित्व के विघटन के मुख्य कारण अग्रलिखित हो सकते हैं-

(1) व्यक्ति की संकल्प शक्ति का दुर्बल होना – व्यक्तित्व के संगठन के लिए संकल्प-शक्ति का प्रबल होना अति आवश्यक है। इस स्थिति में यदि किसी व्यक्ति की संकल्प-शक्ति दुर्बल हो जाती है तो उस व्यक्ति के व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है।

(2) असामान्य मूलप्रवृत्तियाँ– व्यक्ति के जीवन में मूलप्रवृत्तियों का विशेष महत्त्व होता है। यदि व्यक्ति की मूलप्रवृत्तियाँ सामान्य रूप से सन्तुष्ट रहती हैं तो व्यक्ति का व्यक्तित्व सामान्य एवं संगठित रहता है। परन्तु व्यक्ति की मूलप्रवृत्तियाँ असामान्य रूप ग्रहण कर लेती हैं तथा उनकी सामान्य सन्तुष्टि नहीं हो पाती तो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है।

(3) बौद्धिक न्यूनता- व्यक्तित्व के संगठन के लिए समुचित रूप से विकसित बुद्धि का होना। अनिवार्य माना जाता है। यदि किसी व्यक्ति में बौद्धिक न्यूनता हो अर्थात् बौद्धिक विकास सामान्य से कम हो तो उस व्यक्ति के व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है। वास्तव में न्यून बुद्धि वाला व्यक्ति जीवन में आवश्यक समायोजन नहीं कर पाता; अत: उसके व्यक्तित्व के विघटन के अवसर अधिक आ सकते हैं।

(4) इच्छाओं का दमन- इच्छाओं की सामान्य पूर्ति व्यक्ति के व्यक्तित्व को संगठित बनाये रखने में सहायक होती है। यदि कोई व्यक्ति अपनी इच्छाओं को निरन्तर दमित करने के लिए बाध्य हो जाता है तो उसे व्यक्ति के व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है। सभ्य समाज में प्राय: व्यक्ति को अपनी यौन-इच्छाओं का अधिक दमन करना पड़ता है। इससे व्यक्तित्व के विघटन की आंशका बढ़ जाती है।

(5) गम्भीर शारीरिक एवं मानसिक रोग– निरन्तर रहने वाले शारीरिक रोग व्यक्ति को सामान्य जीवन व्यतीत करने से प्रायः रोक देते हैं। इसे बाध्यता का प्रतिकूल प्रभाव व्यक्तित्व के संगठन पर पड़ता है तथा व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है। इसी प्रकार कुछ मानसिक रोग भी व्यक्तित्व के विघटेन के लिए प्रबल कारक सिद्ध होते हैं।

(6) दिवास्वप्नों का लिप्त रहना- दिवास्वप्न देखना मनुष्य की एक असामान्य प्रवृत्ति है। यदि यह प्रवृत्ति बढ़ जाती है तो व्यक्ति यथार्थ जीवन से क्रमश: दूर जाने लगता है। यदि कोई व्यक्ति निरन्तर दिवास्वप्न देखने का आदी हो जाता है तो उसके व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
वार्नर द्वारा निर्धारित किया गया व्यक्तित्व का वर्गीकरण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
वार्नर (Warner) ने शारीरिक आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत किया तथा इस वर्गीकरण के अन्तर्गत उसने दस प्रकार के व्यक्तित्वों का उल्लेख किया है।
व्यक्तित्व के ये दस प्रकार हैं-

  1. सामान्य व्यक्तित्व
  2. असामान्य बुद्धि वाला व्यक्तित्व
  3. मन्द बुद्धि वाला व्यक्तित्व
  4. अविकसित शरीर का व्यक्तित्व
  5. स्नायविक व्यक्तित्व
  6. स्नायु रोगी व्यक्तित्व
  7. अपरिपुष्ट व्यक्तित्व
  8. सुस्त और पिछड़ा हुआ व्यक्तित्व
  9. अंगरहित व्यक्ति का व्यक्तित्व तथा
  10. मिर्गी ग्रस्त व्यक्तित्व

प्रश्न 2
टरमन द्वारा निर्धारित किया गया व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
टरमन (Terman) नामक मनोवैज्ञानिक ने अपने दृष्टिकोण से व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। उसने व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्धारण के लिए व्यक्ति की बुद्धि-लब्धि को मुख्य आधार स्वीकार किया तथा इस आधार पर व्यक्तित्व के आठ प्रकार या वर्ग निर्धारित किये, जो इस प्रकार हैं-

  1. प्रतिभाशाली व्यक्तित्व
  2. उप-प्रतिभाशाली व्यक्तित्व
  3. अत्युत्कृष्ट व्यक्तित्व
  4. उत्कृष्ट बुद्धि व्यक्तित्व
  5. सामान्य बुद्धि व्यक्तित्व
  6. मन्द बुद्धि व्यक्तित्व
  7. मूर्ख तथा
  8. जड़-मूर्ख।

प्रश्न 3
थॉर्नडाइक द्वारा निर्धारित किया गया व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
थॉर्नडाइक (Thorndike) ने अपने ही दृष्टिकोण से व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। उसने व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्धारण के लिए व्यक्ति की विचार शक्ति को आधार स्वीकार किया तथा इस आधार पर व्यक्तित्व के निम्नलिखित तीन वर्ग निर्धारित किये

(1) सूक्ष्म विचारक- इस वर्ग में उन व्यक्तियों या बालकों को सम्मिलित किया जाता है जो किसी भी कार्य को करने से पूर्व उसके पक्ष तथा विपक्ष में सूक्ष्म रूप से विस्तृत विचार करते हैं। इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले व्यक्ति सामान्य रूप से विज्ञान, गणित तथा तर्कशास्त्र में अधिक रुचि रखते हैं।

(2) प्रत्यय विचारक- प्रत्ययों के माध्यम से चिन्तन करने वाले व्यक्तियों को इस वर्ग में रखा जाता है। ये व्यक्ति शब्दों, संख्या तथा संकेतों आदि प्रत्ययों के आधार पर विचार करने में रुचि रखते हैं।

(3) स्थूल विचारक- थॉर्नडाइक ने तीसरे वर्ग के व्यक्तियों को स्थूल विचारक कहा है। इस वर्ग के व्यक्ति स्थूल चिन्तन में रुचि रखते हैं तथा अपने जीवन में क्रिया पर अधिक बल देते हैं।

प्रश्न 4
अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी व्यक्तित्व के बीच कोई दो अन्तर स्पष्ट कीजिए। (2009, 11, 16)
उत्तर
अन्तर्मुखी व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों की रुचि स्वयं में होती है तथा सामाजिक कार्यों में इनकी रुचि न के बराबर होती है। इससे भिन्न बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों की रुचि बाह्य जगत् में होती है। इनमें सामाजिकता की प्रबल भावना होती है और ये सामाजिक कार्यों में लगे रहते हैं। अन्तर्मुखी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति प्राय: शर्मीले होते हैं तथा अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं करना पसन्द करते हैं। इससे भिन्न बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति अन्य व्यक्तियों से मिलने में शर्म अनुभव नहीं करते तथा अपनी समस्याओं का समाधान अन्य व्यक्तियों से बातचीत करके ही करते हैं।

प्रश्न 5
व्यक्तित्व के विघटन के उपचार की सुझाव विधि का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
विघटित व्यक्तित्व के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली एक विधि को सुझाव विधि (Suggestion Method) कहा जता है। इस विधि के अन्तर्गत समस्याग्रस्त व्यक्ति को किसी विशेषज्ञ अथवा उच्च बुद्धि वाले व्यक्ति द्वारा आवश्यक सुझाव दिये जाते हैं। इन सुझावों के प्रभाव से व्यक्ति के व्यवहार एवं दृष्टिकोण में क्रमशः परिवर्तन होने लगता है तथा उसका व्यक्तित्व भी संगठित होने लगता है। व्यक्तित्व के विघटन के उपचार के लिए आत्म-सुझाव भी प्रायः उपयोगी सिद्ध होता है। आत्म-सुझाव के अन्तर्गत व्यक्ति को स्वयं अपने आप को कुछ ऐसे सुझाव दिये जाते हैं जो उसके मानसिक स्वास्थ्य में सुधार करने में उल्लेखनीय योगदान प्रदान करते हैं।

प्रश्न 6
टिप्पणी लिखिए-आस्था-उपचार।
उत्तर
अति प्राचीनकाल से मानसिक रोगों तथा व्यक्ति की असामान्यता के निवारण के लिए आस्था-उपचार विधि को अपनाया जाता रहा है। आस्था-उपचार प्रणाली अपने आप में कोई वैज्ञानिक उपचार पद्धति नहीं है। इसका आधार आस्था तथा विश्वास ही है। इस प्रणाली के अन्तर्गत सम्बन्धित व्यक्ति द्वारा किसी महान् व्यक्ति या ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा एवं विश्वास निर्मित किया जाता है तथा माना जाता है कि उसी की कृपा से व्यक्ति की असामान्यता या रोग निवारण हो जाता है। आस्था-उपचार पद्धति में समर्पण का भाव निहित होता है।

प्रश्न 7
व्यक्तित्व-विघटन के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली सम्मोहन विधि का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
व्यक्तित्व के विघटन तथा असामान्यता के निवारण के लिए अपनायी जाने वाली एक विधि को सम्मोहन विधि के नाम से जाना जाता है। इस विधि के अन्तर्गत एक व्यक्ति उपचारक की भूमिका निभाता है तथा उसे सम्मोहनकर्ता कहा जाता है। सम्मोहनकर्ता अपनी विशेष शक्ति द्वारा सम्बन्धित व्यक्ति की चेतना को प्रभावित करता है तथा उसे नियन्त्रित करके आवश्यक निर्देश देता है। सम्मोहित व्यक्ति सम्मोहनकर्ता के आदेशों को ज्यों-का-त्यों पालन करने को बाध्य हो जाता है। 
सम्मोहनकर्ता सम्बन्धित व्यक्ति को वे समस्त व्यवहार न करने का आदेश देता है जो व्यक्ति के विघटन अथवा असामान्यता के प्रतीक होते हैं। सम्मोहित व्यक्ति सम्मोहनकर्ता के आदेशों को स्वीकार कर लेता है। इसके उपरान्त सम्मोहनकर्ता सम्बन्धित व्यक्ति को चेतना के सामान्य स्तर पर ले आता है। ऐसा माना जाता है कि चेतना के सामान्य स्तर पर आ जाने पर भी व्यक्ति उन सब आदेशों का पालन करता रहता है जो उसे सम्मोहन की अवस्था में दिये जाते हैं। इस प्रकार व्यक्ति का व्यवहार सामान्य हो जाता है तथा व्यक्तित्व के विघटनकारी लक्षण समाप्त हो जाते हैं।

प्रश्न 8
टिप्पणी लिखिए-मनोविश्लेषण विधि।
उत्तर
व्यक्तित्व की असामान्यता एवं विघटन के निवारण के लिए अपनायी जाने वाली एक विधि को मनोविश्लेषण विधि के नाम से जाना जाता है। इस विधि को प्रारम्भ करने का श्रेय मुख्य रूप से फ्रॉयड नामक मनोवैज्ञानिक को है। इस विधि के अन्तर्गत सर्वप्रथम सम्बन्धित व्यक्ति की व्यक्तित्व सम्बन्धी असामान्यता के मूल कारण को ज्ञात किया जाता है। इसके लिए मुक्त-साहचर्य तथा स्वप्न-विश्लेषण विधियों को अपनाया जाता है। सामान्य रूप से व्यक्ति के अधिकांश असामान्य व्यवहारों का मुख्य कारण किसी इच्छा का अनावश्यक दमन हुआ करता है। असामान्य व्यवहार के मूल कारण को ज्ञात करके सम्बन्धित दमित इच्छा को किसी उचित एवं समाज-सम्मत ढंग से पूरा करने का सुझाव दिया जाता है। दमित इच्छाओं के सन्तुष्ट हो जाने से व्यक्तित्व की असामान्यता का निवारण हो जाता है तथा व्यक्ति का व्यक्तित्व क्रमशः सामान्य एवं संगठित होने लगता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1 निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए

1. व्यक्ति के समस्त बाहरी तथा आन्तरिक गुणों की समग्रता को ……………के नाम से जाना जाता है।
2. व्यक्तित्व व्यक्ति के मनोदैहिक गुणों का……….संगठन है।
3. किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारण उसके जन्मजात तथा……… गुणों के द्वारा होता है।
4. व्यक्ति के व्यक्तित्व के सही रूप का अनुमान उसके ………को देखकर लगाया जा सकता है।
5. शारीरिक संरचना के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण ………ने प्रस्तुत किया है। (2018)
6. स्थूलकाय……….. का एक प्रकार होता है।
7. व्यक्ति के स्वभाव के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण…………….नामक मनोवैज्ञानिक ने । प्रस्तुत किया है।
8. सामाजिकता के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण मुख्य रूप से…………. नामक मनोवैज्ञानिक ने प्रस्तुत किया है
9. अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी के प्रकार हैं।
10. अन्तर्मुखता-बहिर्मुखता वर्गीकरण…………..द्वारा प्रतिपादित किया गया है।
11. मिलनसार, सामाजिक, क्रियाशील तथा यथार्थवादी व्यक्ति के व्यक्तित्व को….कहा 
जाता है।
12. टरमन नामक मनोवैज्ञानिक ने व्यक्तित्व का वर्गीकरण व्यक्ति की………… के आधार पर 
किया है।
13. सन्तुलित व्यक्तित्व वाला व्यक्ति मानसिक रूप से………….. होता है।
14. व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले दो मुख्य कारक हैं—
(1) आनुवंशिकता तथा |
(2)………….।
15. बाहरी जगत् में अधिक रुचि लेने वाले तथा प्रबल सामाजिक भावना वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व 
…………कहलाता है।
16. भिन्न-भिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों में व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास ……… होता है।
17. आर्थिक कारक व्यक्ति के व्यक्तित्व को………… 
प्रभावित करते हैं।
18. व्यक्तित्व के विघटन का व्यक्ति के जीवन पर…….प्रभाव पड़ता है।
19. आनुवंशिकता के वाहक कारक कहलाते हैं।
20. सम्मोहन तथा आस्था उपचार से…….का उपचार किया जाता है।
21. असामान्य व्यक्तित्व के उपचार के लिए मनोविश्लेषण विधि का प्रतिपादन……..ने किया
22. मन के तीन पक्षों इड, इगो एवं सुपर-इगो में…………….. व्यक्तित्व का तार्किक, व्यवस्थित विवेकपूर्ण भाग है।। (2016)
23. थायरॉइड ग्रन्थि से निकलने वाले स्राव (रस) को ….कहते हैं। (2017)
उत्तर-
1. व्यक्तित्व
2. गत्यात्मक
3, अर्जित
4. व्यवहार
5. क्रैशमर
6. व्यक्तित्व
7. शैल्डन
8. जंग
9. व्यक्तित्व
10. जंग
11. बहिर्मुखी
12. बुद्धिलब्धि
13. स्वस्थ
14. पर्यावरण
15. बहिर्मुखी
16. भिन्न-भिन्न रूप में
17. गम्भीर
18. प्रतिकूल
19. जीन्स
20. असामान्य व्यक्ति
21. फ्रॉयड
22. सुपर-इगो
23. थायरॉक्सिन

प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए

प्रश्न 1.
अंग्रेजी के शब्द Personality की उत्पत्ति किस भाषा के किस शब्द से हुई?
उत्तर
Personality शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘personare’ शब्द से हुई है।

प्रश्न 2.
व्यक्तित्व में व्यक्ति के किन-किन गुणों को सम्मिलित किया जाता है?
उत्तर
व्यक्तित्व में व्यक्ति के समस्त बाहरी एवं आन्तरिक गुणों को सम्मिलित किया जाता है।

प्रश्न 3.
व्यक्ति के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति मुख्य रूप से किस माध्यम से होती है?
उत्तर
व्यक्ति के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति मुख्य रूप से उसके व्यवहार के माध्यम से होती है।

प्रश्न 4.
व्यक्तित्व की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए आलपोर्ट द्वारा प्रतिपादित परिभाषा लिखिए।
उत्तर
आलपोर्ट के अनुसार, “व्यक्तित्व व्यक्ति के उन मनोशारीरिक संस्थानों का गत्यात्मक संगठन है जो वातावरण के साथ उसके अनूठे समायोजन को निर्धारित करता है।’

प्रश्न 5.
व्यक्तित्व की मन के द्वारा प्रतिपादित परिभाषा लिखिए।
उत्तर
मन के अनसार, “व्यक्तित्व वह विशिष्ट संगठन है, जिसके अन्तर्गत व्यक्ति के गठन, व्यवहार के तरीकों, रुचियों, दृष्टिकोणों, क्षमताओं, योग्यताओं और प्रवणताओं को सम्मिलित किया जा सकता है।

प्रश्न 6.
शारीरिक संरचना के आधार पर क्रैशमर ने व्यक्तित्व के किन-किन प्रकारों का उल्लेख किया है?
उत्तर
शारीरिक संरचना के आधार पर क्रैशमर ने व्यक्तित्व के मुख्य रूप से दो प्रकारों अर्थात् साइक्लॉयड तथा शाइजॉएड का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त उसने व्यक्तित्व के चार अन्य प्रकारों का भी उल्लेख किया है—

  1. सुडौलकाय
  2. निर्बल
  3. गोलकाय तथा
  4. स्थिर-बुद्धि।

प्रश्न 7.
सामाजिकता के आधार पर व्यक्तित्व के कौन-कौन से प्रकार निर्धारित किये गये हैं?
उत्तर
सामाजिकता के आधार पर व्यक्तित्व के मुख्य रूप से दो प्रकार निर्धारित किये गये हैं

  1. बहिर्मुखी व्यक्तित्व तथा
  2. अन्तर्मुखी व्यक्तित्व।

प्रश्न 8.
सन्तुलित व्यक्तित्व की चार मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ होना
  2. संवेगात्मक सन्तुलन तथा सामंजस्यता
  3. सामाजिकता तथा
  4. संकल्प शक्ति की प्रबलता।

प्रश्न 9.
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले दो मुख्य कारक कौन-कौन से हैं?
उत्तर
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले दो मुख्य कारक हैं-आनुवंशिकता तथा पर्यावरण।

प्रश्न 10.
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले चार मुख्य जैवकीय कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले चार मुख्य जैवकीय कारक हैं-

  1. शरीर रचना
  2. स्नायु संस्थान
  3. ग्रन्थि रचना तथा
  4. संवेग एवं आन्तरिक स्वभाव।।

प्रश्न 11.
बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले मुख्य पारिवारिक कारक कौन-कौन से हैं?
उत्तर
बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले मुख्य पारिवारिक कारक हैं

  1. परिवार के मुखिया का प्रभाव
  2. परिवार के अन्य सदस्यों का प्रभाव
  3. परिवार में उपलब्ध स्वतन्त्रता
  4. परिवार का संगठित अथवा विघटित होना तथा
  5. परिवार की आर्थिक स्थिति।

प्रश्न 12.
विद्यालय में बालक के व्यक्तित्व पर मुख्य रूप से किस-किसका प्रभाव पड़ता है?
उत्तर
विद्यालय में बालक के व्यक्तित्व पर पड़ने वाले मुख्य प्रभाव हैं

  1. अध्यापक का प्रभाव
  2. सहपाठियों का प्रभाव तथा
  3. समूह का प्रभाव।

प्रश्न 13.
व्यक्तित्व के विघटन के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. व्यक्तित्व की संकल्प शक्ति का दुर्बल होना
  2. असामान्य मूलप्रवृत्तियाँ
  3. बौद्धिक न्यूनता
  4. इच्छाओं का दमन
  5. गम्भीर शारीरिक एवं मानसिक रोग तथा
  6. दिवास्वप्नों में लिप्त रहना।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न 1.
परसोना शब्द किससे सम्बन्धित है?
(क) प्राणी से।
(ख) ज्ञान से
(ग) योग्यता से
(घ) व्यक्तित्व से
उत्तर
(घ) व्यक्तित्व से

प्रश्न 2.
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व को किस प्रकार का संगठन माना जाता है?
(क) अस्पष्ट
(ख) स्पष्ट ।
(ग) गत्यात्मक
(घ) स्थायी एवं कठोर
उत्तर
(ग) गत्यात्मक

प्रश्न 3.
सन्तुलित व्यक्तित्व का लक्षण नहीं है (2018)
(क) सुरक्षा की भावना
(ख) उपयुक्त स्व-मूल्यांकन
(ग) दिवास्वप्न ।
(घ) यथार्थ आत्म-ज्ञान
उत्तर
(ग) दिवास्वप्न

प्रश्न 4.
व्यक्तित्व की अवधारणा है
(क) जैविक
(ख) मनोशारीरिक
(ग) मनोभौतिक
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ख) मनोशारीरिक

प्रश्न 5.
“व्यक्तित्व में सम्पूर्ण व्यक्ति का समावेश होता है। व्यक्तित्व व्यक्ति के गठन, रुचि के
प्रकारों, अभिवृत्तियों, व्यवहार, क्षमताओं, योग्यताओं तथा प्रवणताओं का सबसे निराला संगठन है।”-यह कथन किसका है?
(क) मन
(ख) म्यूरहेड
(ग) आलपोर्ट
(घ) फ्रॉयड
उत्तर
(ख) म्यूरहेड

प्रश्न 6.
किस मनोवैज्ञानिक ने शारीरिक संरचना में भिन्नता को व्यक्तित्व के वर्गीकरण का आधार माना है?
(क) शेल्डन
(ख) जंग
(ग) क्रैशमर
(घ) वार्नर
उत्तर
(ग) क्रैशमर

प्रश्न 7.
अन्तर्मुखी-बहिर्मुखी-
(क) सामाजिक परिस्थितियाँ हैं ।
(ख) तनाव-दबाव के सूचक हैं।
(ग) व्यक्तित्व के शीलगुण हैं ।
(घ) व्यक्तित्व के दोष हैं ।
उत्तर
(ग) व्यक्तित्व के शीलगुण हैं ।

प्रश्न 8.
अन्तर्मुखी व बहिर्मुखी प्रकार के व्यक्तित्व का वर्णन करने वाले मनोवैज्ञानिक हैं (2014, 17)
(क) शेल्डन
(ख) जुग
(ग) एडलर
(घ) आलपोर्ट
उत्तर
(ख) जुग

प्रश्न 9.
मिलनसार, सामाजिक क्रियाशील तथा यथार्थवादी व्यक्ति के व्यक्तित्व को कहा जाता है
(क) अन्तर्मुखी व्यक्तित्व
(ख) बहिर्मुखी व्यक्तित्व
(ग) उभयमुखी व्यक्तित्व
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ख) बहिर्मुखी व्यक्तित्व

प्रश्न 10.
आर्थिक कारकों का व्यक्ति के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है
(क) केवल शैशवावस्था में ।
(ख) केवल बाल्यावस्था में
(ग) केवल वैवाहिक अवस्था में
(घ) जीवन की प्रत्येक अवस्था में
उत्तर
(घ) जीवन की प्रत्येक अवस्था में

प्रश्न 11.
व्यक्ति के व्यक्तित्व में आनुवशिकता के वाहक कहलाते हैं
(क) गुणसूत्र,
(ख) जीन्स
(ग) रक्त कोशिकाएँ
(घ) ये सभी
उत्तर
(ख) जीन्स

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से कौन नलिकाविहीन ग्रन्थि नहीं हैं?
(क) गल ग्रन्थि
(ख) पीयूष ग्रन्थि
(ग) लार ग्रन्थि
(घ) शीर्ष ग्रन्थि
उत्तर
(ग) लार ग्रन्थि

प्रश्न 13.
निम्नलिखित में किसको ‘मास्टर ग्रन्थि’ कहते हैं? (2017) 
(क) थायरॉड्ड
(ख) पैराथायरॉइड
(ग) एड्रीनल
(घ) पिट्यूटरी
उत्तर
(घ) पिट्यूटरी

प्रश्न 14.
व्यक्तित्व के विघटन का कारण नहीं होता
(क) व्यक्ति की संकल्प शक्ति का दुर्बल होना
(ख) बौद्धिक न्यूनता
(ग) इच्छाओं का दमन ।
(घ) शारीरिक एवं मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ होना
उत्तर
(घ) शारीरिक एवं मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ होना

प्रश्न 15.
व्यक्तित्व की असामान्यता के उपचार के लिए अपनायी जाती है (2014)
(क) सम्मोहन विधि
(ख) मनोविश्लेषण विधि
(ग) सुझाव विधि
(घ) ये सभी विधियाँ
उत्तर
(घ) ये सभी विधियाँ

प्रश्न 16.
व्यक्तित्व को सन्तुलित बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण हैं
(क) इदम्
(ख) अहम्
(ग) पराहं
(घ) ये तीनों
उत्तर
(ख) पराहं ये तीनों

प्रश्न 17.
सामाजिक आदर्शों से संचालित होता है (2018)
(क) अहम्
(ख) पराहं
(ग) इदम् ।
(घ) ये सभी
उत्तर
(ख) पराहं

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