UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 26 Disaster Management

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 26 Disaster Management (आपदा प्रबन्धन) are part of UP Board Solutions for Class 12 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 26 Disaster Management (आपदा प्रबन्धन).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography
Chapter Chapter 26
Chapter Name Disaster Management (आपदा प्रबन्धन)
Number of Questions Solved 30
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 26 Disaster Management (आपदा प्रबन्धन)

विस्तृत उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1
आपदा प्रबन्धन से आप क्या समझते हैं ? कौन-कौन सी संस्थाएँ इस कार्य में संलग्न हैं?
या
भारत में आपदा प्रबन्धन की विवेचना कीजिए। [2015]
या
आपदा प्रबन्धन का उद्देश्य बताइए। [2016]
उत्तर

आपदा प्रबन्धन
Disaster Management

प्राकृतिक आपदाओं के जोखिम को कम करने अर्थात् उनके प्रबन्धन के तीन पक्ष हैं –

  1. आपदाग्रस्त लोगों को तत्काल राहत पहुँचाना
  2. प्रकोपों तथा आपदाओं की भविष्यवाणी करना तथा
  3. प्राकृतिक प्रकोपों से सामंजस्य स्थापित करना।

आपदाग्रस्त लोगों को राहत पहुँचाने के लिए निम्नलिखित उपाय आवश्यक हैं –
(1) आपदा की प्रकृति तथा परिमाण का वास्तविक चित्र उपलब्ध होना चाहिए। प्रायः मीडिया की रिपोर्ट घटनाओं का वास्तविक चित्र प्रस्तुत करने की अपेक्षा भ्रमपूर्ण तथ्य प्रस्तुत करती है। (यद्यपि ऐसा जान-बूझकर नहीं किया जाता है, पर्यवेक्षक या विश्लेषणकर्ता के व्यक्तिगत मत के कारण ऐसा होता है) अतएव, अन्तर्राष्ट्रीय समुदायों को सम्बन्धित सरकार से जानकारी हासिल करनी चाहिए।

(2) निवारक तथा राहत कार्यों को अपनाने के पूर्व प्राथमिकताएँ निश्चित कर लेनी चाहिए। उदाहरणार्थ–राहत कार्य घने आबाद क्षेत्रों में सर्वप्रथम करने चाहिए। बचाव के विशिष्ट उपकरण, मशीनें, पम्प, तकनीशियन आदि तुरन्त आपदाग्रस्त क्षेत्रों में भेजने चाहिए। दवाएँ तथा औषधियाँ भी उपलब्ध करानी चाहिए।

(3) विदेशी सहायता सरकार के निवेदन पर ही आवश्यकतानुसार भेजनी चाहिए अन्यथा आपदाग्रस्त क्षेत्र में अनावश्यक सामग्री सम्बन्धी भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तथा समस्याएँ अधिक जटिल हो जाती हैं।

(4) प्राकृतिक आपदाओं के प्रबंधन में शोध तथा भविष्यवाणी का बहुत महत्त्व है। प्राकृतिक आपदाओं की पूर्वसूचना ( भविष्यवाणी) किसी प्राकृतिक आपदा से ग्रस्त क्षेत्र में आपदा की आवृत्ति, पुनरावृत्ति के अन्तराल, परिमाण, घटनाओं के विस्तार आदि के इतिहास के अध्ययन के आधार पर की जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, बड़े भूस्खलन के पूर्व किसी क्षेत्र में पदार्थ का मन्द सर्पण लम्बे समय तर्क होता रहता है; किसी विस्फोटक ज्वालामुखी उद्गार के पूर्व धरातल में साधारण उभार पैदा होता है। तथा स्थानीय रूप से भूकम्पन होने लगता है। नदी बेसिन के संग्राहक क्षेत्र में वर्षा की मात्रा तथा तीव्रता के आधार पर सम्भावित बाढ़ की स्थिति की भविष्यवाणी सम्भव है। स्रोतों के निकट उष्ण कटिबन्धीय चक्रवातों तथा स्थानीय तूफानों एवं उनके गमन मार्गों का अध्ययन आवश्यक है।

(5) प्राकृतिक प्रकोपों एवं आपदाओं का मानचित्रण करना, मॉनीटर करना तथा पर्यावरणीय दशाओं में वैश्विक परिवर्तनों का अध्ययन करना बहुत आवश्यक है। इसके लिए वैश्विक, प्रादेशिक एवं स्थानीय स्तरों पर आपदा-प्रवण क्षेत्रों का गहरा अध्ययन आवश्यक होता है। इण्टरनेशनल काउन्सिल ऑफ साइण्टिफिक यूनियन (ICSU) तथा अन्य संगठनों ने मानवीय क्रियाओं तथा प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले पर्यावरणीय परिवर्तनों की क्रियाविधि, मॉनीटरिंग तथा उन्हें कम करने सम्बन्धी अनेक शोधकार्य प्रारम्भ किये हैं। आपदा-शोध तथा आपदा कम करने सम्बन्धी कुछ महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम निम्नलिखित हैं –

(i) SCOPE-ICSU ने साइण्टिफिक कमेटी ऑन प्रॉब्लम्स ऑफ एनवायरन्मेण्ट नामक समिति की स्थापना 1969 में की, जिसका उद्देश्य सरकारी तथा गैर-सरकारी संगठनों के लिए पर्यावरण पर मानवीय प्रभावों तथा पर्यावरणीय समस्याओं सम्बन्धी घटनाओं की समझ में वृद्धि करना है। SCOPE यूनाइटेड नेशन्स के एनवायरन्मेण्ट कार्यक्रम (UNEP), यूनेस्को के मानव एवं बायोस्फियर कार्यक्रम (MAB) तथा WMO के वर्ल्ड क्लाइमेट प्रोग्राम (wCP) की भी सहायता करता है।

(ii) IGBP– ICSU ने अक्टूबर, 1988 में स्टॉकहोम (स्वीडन) में इण्टरनेशनल जिओस्फियरबायोस्फियर कार्यक्रम (IGBP) या ग्लोबल चेंज कार्यक्रम (GCP) भूमण्डलीय पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दों का अध्ययन करने के लिए प्रारम्भ किया।
यह कार्यक्रम भौतिक पर्यावरण के अन्तक्रियात्मक प्रक्रमों के अध्ययन पर बल देता है। ये अध्ययन उपग्रह दूर संवेदी तकनीकों, पर्यावरणीय मॉनीटरिंग तथा भौगोलिक सूचना तन्त्रों (GIS) पर आधारित हैं।

(iii) HDGC – सामाजिक वैज्ञानिकों ने ‘ह्युमन डाइमेन्शन ऑफ ग्लोबल चेंज’ (HDGC) नामक एक समानान्तर शोध कार्य चालू किया है। यह कार्यक्रम GNU, ISSC तथा IFIAS जैसे संगठनों से सहायता तथा वित्त प्राप्त करता है।

(iv) IDNDR-UNO ने 1990-2000 के लिए IDNDR (International Decade for Natural Disaster Reduction) कार्यक्रम प्रारम्भ किया जिसका उद्देश्य विश्व की प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं का अध्ययन करना तथा मानव समाज पर उसके घातक प्रभावों को कम करना था। इसके अन्तर्गत भूकम्प, ज्वालामुखी उद्गार, भू-स्खलन, सूनामी, बाहें, तूफान, वनाग्नि, टिड्डी-प्रकोप तथा सूखा जैसे प्रक्रम सम्मिलित हैं। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत निम्नलिखित सम्मिलित हैं –

  • प्रत्येक देश में प्राकृतिक आपदाओं की पूर्व चेतावनी प्रणाली स्थापित करने की क्षमता में सुधार करना।
  • प्राकृतिक आपदाओं को कम करने सम्बन्धी जानकारी बढ़ाने के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विकसित करना।
  • प्राकृतिक आपदाओं के आकलन, भविष्यवाणी, रोकने तथा कम करने की दिशा में वर्तमान तथा नयी सूचनाओं का संग्रह करना।
  • अनेक विधियों तथा प्रदर्शन परियोजनाओं के माध्यम से प्राकृतिक आपदाओं के आकलन, भविष्यवाणी, रोकने तथा कम करने के उपाय करना।

(6) प्राकृतिक प्रकोपों को कम करने हेतु आपदा शोध में निम्नलिखित सम्मिलित हैं –

  1. प्राकृतिक प्रकोप एवं आपदा के कारकों तथा क्रियाविधि का अध्ययन।
  2. प्राकृतिक प्रकोपों तथा आपदा के विभाव (सम्भावना) का वर्गीकरण एवं पहचान करना तथा आँकड़ा-आधार तैयार करना जिसमें पारितन्त्र के भौतिक तथा सांस्कृतिक घटकों, परिवहन एवं संचार साधनों, भोजन, जल एवं स्वास्थ्य सुविधाओं, प्रशासनिक सुविधाओं आदि का मानचित्रण करना सम्मिलित है। प्राकृतिक आपदा शोध को महत्त्वपूर्ण पक्ष दूर संवेदन, इंजीनियरिंग, इलेक्ट्रॉनिक तकनीकों से धरातलीय जोखिम के क्षेत्रों की पहचान करना है।

(7) आपदा कम करने के कार्यक्रम में आपदा सम्बन्धी शिक्षा की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस शिक्षा का आधार व्यापक होना चाहिए तथा यह वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, नीति एवं निश्चयकर्ताओं तथा जनसाधारण तक जनसंचार के माध्यमों (समाचार-पत्र, रेडियो, टेलीविजन, पोस्टरों, डॉक्यूमेण्ट्री फिल्मों आदि) द्वारा पहुँचनी चाहिए। अधिकांश देशों में जनता को आने वाली आपदा की सूचना देने का उत्तरदायित्व सरकार का होता है। अतएव शोधकर्ताओं एवं वैज्ञानिकों को निश्चयकर्ताओं (प्रशासकों एवं राजनीतिज्ञों) को निम्नलिखित उपायों द्वारा शिक्षित करने की आवश्यकता है –

  1. निश्चयकर्ताओं तथा सामान्य जनता को प्राकृतिक प्रकोपों एवं आपदाओं के प्रति सचेत करना। तथा उन्हें स्थिति का सामना करने के लिए प्रशिक्षित करना।
  2. समय से पहले ही संम्भावित आपदा की सूचना देना।
  3. जोखिम तथा संवेदनशीलता के मानचित्र उपलब्ध कराना।
  4. लोगों को आपदाओं से बचने के लिए निर्माण कार्य में सुधार करने के लिए प्रेरित करना।
  5. आपदा कम करने की तकनीकों की व्याख्या करना।

(8) भौगोलिक सूचना तन्त्र (GIS) तथा हवाई सर्वेक्षणों द्वारा प्राकृतिक आपदा में कमी तथा प्रबन्धन कार्यक्रमों में सहायता मिल सकती है।
(9) जनता को प्राकृतिक आपदाओं के साथ सामंजस्य करने की आवश्यकता है, जिसमें निम्नलिखित सम्मिलित हैं –

  1. प्राकृतिक संकटों एवं आपदाओं के प्रति व्यक्तियों, समाज एवं संस्थाओं के बोध (Perception) एवं दृष्टिकोण में परिवर्तन।
  2. प्राकृतिक संकटों एवं आपदाओं के प्रति चेतना में वृद्धि।
  3. प्राकृतिक संकटों एवं आपदाओं की समय से पूर्व चेतावनी का प्रावधान।
  4. भूमि उपयोग नियोजन (उदाहरणार्थ-आपदा प्रवण क्षेत्रों की पहचान तथा सीमांकन एवं लोगों को ऐसे क्षेत्रों में बसने के लिए हतोत्साहित करना)।
  5. सुरक्षा बीमा योजनाओं द्वारा जीवन एवं सम्पत्ति की हानि के मुआवजे का प्रावधान करना, जिससे समय रहते लोग अपने घर, गाँव, नगर आदि छोड़ने के लिए तैयार रहें।
  6. आपदा से निपटने की तैयारी का प्रावधान।

प्रश्न 2
भूकम्प से आप क्या समझते हैं? भूकम्प के कारण व इसके हानिकारक प्रभावों की विवेचना कीजिए।
या
किसी एक प्राकृतिक आपदा व इससे प्रभावित क्षेत्रों का वर्णन कीजिए। [2011]
या
भूकम्प को प्राकृतिक आपदा क्यों कहा जाता है? [2014]
या
भूकम्प के प्रमुख कारणों का वर्णन कीजिए। [2014]
या
भारत में भूकम्प एवं भूस्खलन प्रभावित क्षेत्रों की समस्याओं का वर्णन कीजिए। [2014]
उत्तर

भूकम्प (Earthquake)

भूकम्प का सामान्य अर्थ ‘भूमि का कॉपना या हिलना है जो पृथ्वी के अन्तराल की तापीय दशाओं के कारण उत्पन्न विवर्तनिक शक्तियों (Tectonic forces) के कारण घटित होता है। भूमि का कम्पन सामान्य से लेकर तीव्रतम हो सकता है जिससे इमारतें ढह जाती हैं तथा धरातल पर दरारें उत्पन्न हो जाती हैं।

भूकम्प की उत्पत्ति धरातल के नीचे किसी बिन्दु से होती है जिसे उत्पत्ति केन्द्र (Focus) कहते हैं। इस बिन्दु से ऊर्जा की तीव्र लहरें उत्पन्न होकर पृथ्वी के धरातल पर पहुँचती हैं। ऊर्जा की तीव्रता को ‘रिक्टर मापक’ (Richter Scale) द्वारा नापा जाता है। यह मापक 0 से 9 के मध्य होता है। सन् 1934 में बिहार (भारत) के भूकम्प का माप रिक्टर मापक पर 8.4 था, जबकि सन् 1964 में अलास्का (संयुक्त राज्य अमेरिका) के भूकम्प का माप 8.4 से 8.6 तक था। ये दोनों भूकम्प विश्व के उग्रतम भूकम्पों में गिने जाते हैं।
भूकम्प की तीव्रता मापने का एक अन्य पैमाना या मापेक ‘मरकेली मापक’ (Mercalli Scale) भी है, किन्तु रिक्टर मापक अधिक प्रचलित है।

भूकम्प के कारण
Causes of Earthquake

भूकम्प पृथ्वी की सतह पर किसी भी मात्रा में अव्यवस्था या असन्तुलन के कारण उत्पन्न होते हैं। यह असन्तुलन अनेक कारणों से सम्भव है; जैसे-ज्वालामुखी उद्गार, भ्रंशन एवं वलन, मानवनिर्मित जलाशयों का जलीय भार तथा प्लेट विवर्तनिकी। इन सभी कारणों में से प्लेट विवर्तनिक सिद्धान्त (Plate tectonic theory) भूकम्पों की उत्पत्ति की सर्वोत्तम व्याख्या करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार भूपटल ठोस तथा गतिशील दृढ़ प्लेटों से निर्मित है। इन्हीं प्लेटों के किनारों पर सभी विवर्तनिक घटनाएँ होती हैं। कम गहराई पर उत्पन्न होने वाले भूकम्प प्लेटों के रचनात्मक किनारों के सहारे पैदा होते हैं, जबकि अधिक गहराई पर स्थित उत्पत्ति केन्द्र वाले भूकम्प विनाशात्मक प्लेट किनारों के सहारे उत्पन्न होते हैं। विनाशात्मक प्लेट किनारे वे होते हैं जो दो प्लेटों के परस्पर निकट आने पर टकराते हैं। यही कारण है कि विश्व के सर्वाधिक भूकम्प अग्निवलय (Ring of Fire) या परि-प्रशान्त पेटी के सहारे तथा मध्य महाद्वीपीय पेटी (आलप्स-हिमालय पर्वतश्रृंखला) के सहारे उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार, कैलीफोर्निया (संयुक्त राज्य अमेरिका) में संरक्षी प्लेट किनारों के सहारे उत्पन्न रूपान्तरित भ्रंशों के स्थान पर भी भयंकर भूकम्प आते हैं।

भारत में हिमालय तथा उसकी तलहटी में आने वाले भूकम्पों की व्याख्या प्लेट विवर्तनिकी के सन्दर्भ में की जा सकती है। एशियाई प्लेट दक्षिण की ओर गतिशील है, जबकि भारतीय प्लेट उत्तर की ओर खिसक रही है। अतएव भारतीय प्लेट एशियाई प्लेट के नीचे क्षेपित हो रही है। इन दोनों प्लेटों के परस्पर टकराने से वलन या भ्रंशन क्रियाएँ होती हैं जिनसे हिमालय की ऊँचाई निरन्तर बढ़ रही है। इससे भू-सन्तुलन बिगड़ता रहता है, जो इस क्षेत्र में भूकम्पों की आवृत्ति का कारण है।

भूकम्पों के हानिकारक प्रभाव
Hazardous Effects of Earthquakes

भूकम्पों की तीव्रता का निर्धारण रिक्टर मापक की अपेक्षा मानव-जीवन तथा सम्पत्ति पर भूकम्पों से होने वाले हानिकारक प्रभावों के परिप्रेक्ष्य में किया जाता है। यह आवश्यक नहीं है कि रिक्टर मापक पर उच्च तीव्रता वाला भूकम्प हानिकारक है। भूकम्प तभी विनाशकारी होता है जब वह सघन आबाद क्षेत्र में आता है। कभी-कभी रिक्टर मापक पर साधारण तीव्रता वाले भूकम्प भी भयंकर विनाशकारी होते हैं। भूकम्प के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रभावों में निम्नलिखित सम्मिलित हैं –

(1) ढालों की अस्थिरता एवं भूस्खलन – पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ कमजोर संरचनाएँ पायी जाती है. वहाँ ढाल अस्थिर होते हैं जिससे भूस्खलन तथा शैल-पतन जैसी घटनाएँ बस्तियों तथा परिवहन मार्गों को हानि पहुँचाती हैं। सन् 1970 में पीरू तथा सन् 1989 में तत्कालीन सोवियत संघ के ताजिक गणतन्त्र में आये भूकम्पों से इसी प्रकार की क्षति हुई थी जिनमें युंगे (पीरू) तथा लेनिनाकन (ताजिक) नगर ध्वस्त हो गये।

(2) मानवकृत संरचनाओं को क्षति – इमारतें, सड़कें, रेलें, कारखाने, पुल, बाँध आदि संरचनाओं को भूकम्पों से भारी क्षति पहुँचती है। इस प्रकार मानव सम्पत्ति की हानि होती है। सन् 1934 में नेपाल-बिहार सीमा पर तथा पुनः सन् 1988 में बिहार के भूकम्प से 10,000 से अधिक मकान क्षतिग्रस्त हो गये। सन् 1985 में मैक्सिको सिटी के भूकम्प से 40,000 इमारतें ढह गयीं तथा 50,000 अन्य मकान क्षतिग्रस्त हुए।

(3) नगरों तथा कस्बों को क्षति – घने आबाद नगर तथा कस्बे भूकम्प के विशेष शिकार होते हैं। उच्च तीव्रता वाले भूकम्पों से बड़ी इमारतें ध्वस्त हो जाती हैं तथा उनके निवासी मलबे में दबकर काल का ग्रास बन जाते हैं। पाइप लाइनें, बिजली एवं टेलीफोन के खम्भे व तार आदि भी नष्ट हो जाते हैं।

(4) जनजीवन की हानि – भूकम्पों की तीव्रता जीवन की क्षति द्वारा भी निर्धारित की जाती है। भारत के इतिहास में सबसे भीषण भूकम्प सन् 1737 में कोलकाता में आया, जिसमें 3 लाख व्यक्ति काल-कवलित हुए। सन् 1905 में कॉगड़ा के भूकम्प में 20 हजार व्यक्ति मारे गये। सन् 2001 में भुज के भूकम्प में 20,000 व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी। विश्व के इतिहास में 1556 ई० में शेन शु (चीन) में 8,30,000 व्यक्तियों की जाने गयीं। पुन: सन् 1976 में तांगशान (चीन) में 7,50,000 व्यक्ति मृत हुए। सन् 1920 में कान्सू (चीन) में 1,80,000 व्यक्ति, 1927 ई० में नामशान (चीन) में 1,80,000 व्यक्ति सन् 1908 में मेसीना (इटली) में 1,60,000 व्यक्ति, 1923 ई० में टोकियो (जापान) में 1,63,000 व्यक्ति, सन् 1932 ई० में सगामी खाड़ी (जापान) में 2,50,000 व्यक्ति, सन् 1990 में उत्तरी ईरान में 50,000 व्यक्ति मारे गये। सन् 2004 में सुमात्रा में भूकम्प से उत्पन्न सूनामी लहरों के विध्वंसकारी प्रभाव से 3,50,000 लोग मारे गये। 2005 ई० में कश्मीर के भूकम्प में भारत तथा पाकिस्तान में लगभग 1 लाख लोगों की मृत्यु हो गयी।

(5) अग्निकाण्ड – तीव्र भूकम्पों के कारण होने वाले कम्पन से इमारतों तथा कारखानों में गैस सिलिण्डरों के उलटने तथा बिजली के नंगे तारों के मिलने आदि से आग लग जाती है। सन् 1923 में सगामी खाड़ी (जापान) में ऐसे ही अग्निकाण्ड से 38,000 व्यक्ति मारे गये। सन् 1906 में सैनफ्रान्सिस्को (संयुक्त राज्य अमेरिका) में भी भूकम्प से नगर के अनेक मार्गों में आग लग गयी।

(6) धरातल की विकृति – कभी-कभी भूकम्पों से धरातल पर दरारें पड़ती हैं तो कभी धरातल का अवतलन या उत्क्षेप हो जाता है। सन् 1819 के भूकम्प से सिन्धु नदी के मुहाने (पाकिस्तान) पर 4,500 वर्ग किमी क्षेत्र का अवतलन हो गया जो सदा के लिए समुद्र में डूब गया। इसके साथ ही 80 किमी लम्बा तथा 26 किमी चौड़ा क्षेत्र निकटवर्ती भूमि से 3 मीटर ऊँचा उठ गया, जिसे ‘अल्लाह-बन्द’ कहा जाता है।

(7) बाढे – तीव्र भूकम्पीय लहरों से बाँधों के टूटने पर बाढ़े आती हैं। सन् 1971 में लॉस एंजिल्स (संयुक्त राज्य अमेरिका) नगर के उत्तर पश्चिम में भूकम्प के कारण सान फर्नाण्डो घाटी क्षेत्र में स्थित वॉन नार्मन बाँध में दरार पड़ने से ऐसी ही क्षति हुई थी। सन् 1950 में असम के भूकम्प में दिहांग नदी के मार्ग में भूस्खलन के कारण उत्पन्न अवरोध से भयंकर बाढ़ आयी।

(8) सूनामी – समुद्रों के अन्दर भूकम्प आने पर तीव्र सूनामी लहरें उत्पन्न होती हैं। सन् 1819 ई० में कच्छ क्षेत्र में सूनामी लहरों से भारी क्षति हुई। सन् 1755 में लिस्बन (पुर्तगाल) में सूनामी लहरों के कारण 30 हजार से 60 हजार लोग मृत्यु का ग्रास बने। दिसम्बर, 2004 ई० में सुमात्रा के निकट भूकम्प उत्पन्न होने पर सूनामी लहरों का प्रकोप श्रीलंका तथा तमिलनाडु तट (भारत) तक देखा गया।

प्रश्न 3
बाढ़ नियन्त्रण के उपायों पर प्रकाश डालिए। [2011]
या
भारत में बाढ़ नियन्त्रण एवं बाढ़ प्रबन्धन हेतु उपाय सुझाइए। [2014]
उत्तर
बाहें एक प्राकृतिक परिघटना हैं तथा इससे पूर्णतः मुक्ति सम्भव नहीं है, किन्तु इसके प्रभाव को मनुष्य अपनी तकनीकी क्षमता द्वारा अवश्य कम कर सकता है। बाढ़ नियन्त्रण के निम्नलिखित उपाय सम्भव हैं –

(1) प्रथम तथा सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय वर्षा की तीव्रता तथा उससे उत्पन्न धरातलीय भार को नियन्त्रित करना है। मनुष्य वर्षा की तीव्रता को तो कम नहीं कर सकता है, किन्तु धरातलीय वाह (वाही जल) को नदियों तक पहुँचने पर देरी अवश्य कर सकता है। यह उपाय बाढ़ों के लिए कुख्यात नदियों के जल संग्राहक पर्वतीय क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण द्वारा सम्भव है। वृक्षारोपण द्वारा जल के धरातल के नीचे रिसाव को प्रोत्साहन मिलता है जिससे वाही जल की मात्रा कुछ सीमा तक कम हो जाती है। वृक्षारोपण से मृदा अपरदन में भी कमी आती है तथा नदियों में अवसादों की मात्रा कम होती है। अवसादन में कमी होने पर नदियों में जल बहाने की क्षमता बढ़ जाती है। इस प्रकार बाढ़ों की आवृत्ति तथा परिमाण में कमी की जा सकती है।

(2) घुमावदार मार्ग से होकर बहने पर नदियों में जल बहने की क्षमता में कमी आती है। इसके लिए नदियों के मार्गों को कुछ स्थानों पर सीधा करना उपयुक्त रहता है। यह कार्य मोड़ों को कृत्रिम रूप से काटकर किया जा सकता है, किन्तु यह उपाय बहुत व्ययपूर्ण है। दूसरे, विसर्पण (Meandering) एक प्राकृतिक प्रक्रम है, नदी अन्यत्र विसर्प बना लेगी। वैसे यह उपाय निचली मिसीसिपी में ग्रीनविले (संयुक्त राज्य अमेरिका) के निकट सन् 1933 से 1936 में अपनाया गया, जिसके तहत नदी का मार्ग 530 किमी से घटाकर 185 किमी कर दिया गया।

(3) नदी में बाढ़ आने के समय जल के परिमाण को अनेक इंजीनियरी उपायों द्वारा; जैसे-भण्डारण जलाशय बनाकर, कम किया जा सकता है। ये बाँध बाढ़ के अतिरिक्त जल को संचित कर लेते हैं। इसे जल की सिंचाई में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। यदि जलाशयों के साथ बाँध भी बना दिया जाता है तो इससे जलविद्युत उत्पादन में भी सफलता मिलती है। ऐसे उपाय सन् 1913 में ओह्यो राज्य (संयुक्त राज्य अमेरिका) में मियामी नदी पर किये गये थे जो बहुत प्रभावी एवं लोकप्रिय सिद्ध हुए। सन् 1933 के पूर्व टैनेसी नदी बेसिन भी बाढ़ों के लिए कुख्यात था, किन्तु सन् 1933 में टैनेसी घाटी प्राधिकरण द्वारा अनेक बाँध तथा जलाशय बनाकर इस समस्या का निदान सम्भव हुआ। वही टैनेसी बेसिन अब एक स्वर्ग बन गया है। टैनेसी घाटी परियोजना से प्रेरित होकर भारत में भी दामोदर घाटी निगम की स्थापना की गयी तथा दामोदर नदी तथा इसकी सहायकों पर चार बड़े बाँध एवं जलाशय बनाये गये। इसी प्रकार तापी नदी पर उकई बाँध एवं जलाशय के निर्माण से नदी की निचली घाटी तथा सूरत नगर को बाढ़ के प्रकोप से बचा लिया गया है।

(4) तटबन्ध, बाँध तथा दीवारें बनाकर भी बाढ़ के जल को संकीर्ण धारा के रूप में रोका जा सकता है। ये दीवारें मिट्टी, पत्थर या कंकरीट की हो सकती हैं। दिल्ली, इलाहाबाद, लखनऊ आदि अनेक नगरों में इस प्रकार के उपाय किये गये हैं। चीन तथा भारत में कृत्रिम कगारों का निर्माण बहुत प्राचीन काल से प्रचलित रहा है। कोसी (बिहार) तथा महानन्दा नदियों पर भी बाढ़ नियन्त्रण हेतु इसी प्रकार के उपाय किये गये हैं।

(5) सन् 1954 में केन्द्रीय बाढ़ नियन्त्रण बोर्ड के गठन तथा राज्य स्तर पर बाढ़ नियन्त्रण बोर्ड की स्थापना भी बाढ़ नियन्त्रण में लाभकारी रही है। भारत में बाढ़ की भविष्यवाणी तथा पूर्व चेतावनी की प्रणाली सन् 1959 में दिल्ली में बाढ़ की स्थिति मॉनीटर करने हेतु प्रारम्भ की गयी। तत्पश्चात् देश भर में प्रमुख नदी बेसिनों में बाढ़ की दशाओं को मॉनीटर करने हेतु एक नेटवर्क बनाया गया। बाढ़ की भविष्यवाणी के ये केन्द्र वर्षा सम्बन्धी, डिस्चार्ज दर आदि आँकड़े एकत्रित करते हैं तथा अपने अधिकार क्षेत्र के निवासियों को विशिष्ट नदी बेसिन के सन्दर्भ में बाढ़ की पूर्व चेतावनी देते हैं।

प्रश्न 4
सूखे के प्रभाव एवं नियन्त्रण के उपायों का वर्णन कीजिए।
उत्तर

सूखे के प्रभाव
Effects of Droughts

सूखा जैवमण्डलीय पारितन्त्र के सभी जीवन-रूपों को प्रभावित करता है। जल की किसी भी प्रकार की कमी पेड़-पौधों एवं प्राणियों को प्रभावित करती है। लम्बी अवधि तक सूखा पड़ने पर अनेक प्रकार के पारिस्थितिकीय, आर्थिक, जनांकिकीय एवं राजनीतिक प्रभाव पड़ते हैं।

(1) निरन्तर कई वर्षों तक सूखा पड़ने पर किसी प्रदेश के प्राकृतिक पारितन्त्र के जैविक घटक में परिवर्तन हो जाता है, क्योंकि कुछ ऐसे पेड़-पौधे एवं प्राणी हैं जो अतिशय सूखा सहन नहीं कर सकते। अनेक प्राणी अन्यत्र स्थानान्तरित हो जाते हैं तब किसी विशेष प्राणी प्रजाति की जनसंख्या में कमी आ जाती है। कुछ प्राणी भूख से मर जाते हैं। भोजन के लिए स्पर्धा बढ़ने पर कमज़ोर प्राणी लुप्त होने लगते हैं।
(2) कृषि उत्पादन में कमी होने पर पशु पदार्थों के उत्पादन में भी कमी हो जाती है।
(3) सूखाग्रस्त क्षेत्रों से लोगों का पलायन होने लगता है। गुजरात, राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में ऐसी स्थिति प्राय: देखने को मिलती हैं।

(4) सूखाग्रस्त निर्धन देशों को खाद्यान्नों के लिए विदेशों पर निर्भर रहना पड़ता है। इससे अनेक बार राजनीतिक समस्याएँ भी उत्पन्न हो जाती हैं। उदाहरणार्थ-अफ्रीका की सहेल प्रदेश’ (सहारा मरुस्थल के दक्षिण तथा सवाना प्रदेश के उत्तर में स्थित प्रदेश जो पश्चिमी अफ्रीका से लेकर पूर्व में इथोपिया तक विस्तृत है) एक शुष्क प्रदेश है जहाँ बंजारे पशुचारक तथा कृषक अल्प वर्षाकाल में प्राप्त वर्षा पर निर्भर करते हैं। यहाँ के निवासी पेयजल के लिए भूमिगत जल पर निर्भर हैं। निरन्तर सूखा पड़ने पर भूमिगत जल का स्तर गिर जाता है तथा पेयजल की भारी कमी हो जाती है। इस प्रदेश में 1968-1975 तक निरन्तर सूखा पड़ा जो 1971-1974 के मध्य विकट हो गया, तब यहाँ के निवासियों को अपने घर, मवेशी आदि छोड़कर नगरों के निकट लगाये गये विशिष्ट कैम्पों में रहना पड़ा। विश्व के अनेक देशों में खाद्यान्नों की सहायता भेजी, फिर भी हजारों लोग भुखमरी का शिकार हो गये। अकेले इथोपिया में ही 50,000 लोग भूख, कुपोषण एवं रोगों से मुत्यु का ग्रास बन गये। सम्पूर्ण रुहेल प्रदेश में 5 मिलियन मवेशी भी मर गये। पुनः 1992-93 में इथोपिया में भीषण अकाल पड़ा, जिसमें 30 लाख लोग मारे गये।

ऑस्ट्रेलिया में भी सूखा बहुत सामान्य प्राकृतिक परिघटना है। इनकी पुनरावृत्ति तथा व्यापकता भी अधिक़ है। देश का सबसे बुरा सूखा 1895-1902 के दौरान पड़ा था। इसके बाद भी अनेक बार सूखा पड़ा जिसके दुष्प्रभाव पशु (भेड़ों) तथा कृषि उत्पादन पर पड़े।

भारत भी प्रायः सूखे की चपेट में रहता है। देश के 67 जिले निरन्तर सूखे से ग्रस्त रहते हैं, जहाँ देश की 12% जनसंख्या निवास करती है तथा 25% शस्य भूमि विद्यमान है। प्रमुख सूखाग्रस्त क्षेत्र का विस्तार राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश तथा दक्षिणी उत्तर प्रदेश राज्यों में है। द्वितीय सूखा-प्रवण प्रदेश पश्चिमी घाटों के वृष्टिछाया प्रदेश में चतुर्भुजाकार क्षेत्र के रूप में स्थित है। इसके अन्तर्गत दक्षिण-पश्चिमी आन्ध्र प्रदेश, पूर्वी कर्नाटक, दक्षिण-पश्चिमी महाराष्ट्र सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त तिरुनेलवेली, कोयम्बटूर (तमिलनाडु), पलामू (बिहार), पुरुलिया (बंगाल), कालाहण्डी (ओडिशा) आदि जिले भी सूखा प्रवण हैं। 1899 में भारत का भीषणतम अकाल ‘छप्पन का अकाल पड़ा था, जिसकी पुनरावृत्ति 1917 में हुई। इन दोनों अकालों में लाखों लोग मारे गये।

सूखा नियन्त्रण के उपाय
Drought Control Measures

बाढ़ों की भाँति सूखे की चेतावनी देना सम्भव नहीं है, यद्यपि कम्प्यूटर के आधार पर विभिन्न जलवायवीय एवं मौसमी प्राचलों के अध्ययन से आगामी वर्षों की वर्षा का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। वायु की नमी तथा वर्षण की मात्रा को वृक्षारोपण द्वारा बढ़ाया जा सकता है। सूखे से निपटने के लिए अधिकांश देशों में प्रचलित व्यवस्था यही है कि सूखाग्रस्त लोगों को राहत दी जाये। इसके अतिरिक्त सूखे को कम करने के कुछ दीर्घकालीन उपाय भी करने चाहिए। इन उपायों में वृक्षारोपण, शुष्क कृषि तकनीकों का प्रयोग, मरुस्थलीकरण रोकना, जल संरक्षण की योजनाएँ बनाना, बागवानी तथा चरागाहों का विकास, सूखा-प्रवण क्षेत्रों के कार्यक्रमों को अपनाना, जलाशयों तथा कुओं का निर्माण आदि सम्मिलित हैं।

प्रश्न 5
जनजीवन को प्रभावित करने वाली भारत की प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं का वर्णन कीजिए। [2016]
उत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1, 2, 3 व 4 का अध्ययन करें।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पर्यावरण संकट एवं आपदा क्या है ? आपदा का वर्गीकरण कीजिए।
या
प्राकृतिक आपदाएँ किसे कहते हैं ? [2009, 11]
उत्तर
वे घटनाएँ अथवा दुर्घटनाएँ जो प्राकृतिक प्रक्रमों या मानवीय कारणों से उत्पन्न होती हैं, चरम घटनाएँ (Extreme events) कहलाती हैं। ऐसी घटनाएँ अपवाद-रूप में उत्पन्न होती हैं तथा प्राकृतिक पर्यावरण के प्रक्रमों को उग्र कर देती हैं जो मानव-समाज के लिए आपदा बन जाते हैं; उदाहरणार्थ-पृथ्वी की विवर्तनिक संचलनों के कारण भूकम्प या ज्वालामुखी विस्फोट होना, निरन्तर सूखा पड़ना या आकस्मिक रूप से बाढ़ आना, ऐसी ही प्राकृतिक आपदाएँ हैं।

पर्यावरणीय संकट की परिभाषा ऐसी चरम घटनाओं (प्राकृतिक या मानवकृत) के रूप में दी जा सकती है, जो सहने की सीमा से परे होती हैं तथा सम्पत्ति एवं जनजीवन का विनाश उत्पन्न करती हैं।
आपदा वर्गीकरण – उत्पत्ति के कारणों के आधार पर आपदाओं को दो वर्गों में रखा जाता है –

  • प्राकृतिक आपदाएँ तथा
  • मानवजनित आपदाएँ।

प्रश्न 2
प्राकृतिक तथा मानवीय आपदाओं का वर्णन कीजिए। [2014]
उत्तर
प्राकृतिक तथा मानव-जनित आपदाओं का वर्गीकरण
Classification of Natural and Man-made Disasters
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 26 Disaster Management 1

प्रश्न 3
ज्वालामुखी उद्गारों के हानिकारक प्रभाव लिखिए।
उत्तर
ज्वालामुखी उद्गारों के हानिकारक प्रभाव-जवालामुखी उद्गार निम्नलिखित विधियों से मानव-जीवन तथा सम्पत्ति को भारी हानि पहुँचाते हैं –
(1) उष्ण लावा के प्रवाह से, (2) ज्वालामुखी पदार्थों के पतन से, (3) इमारत, कारखाने, सड़कें, रेले, विमान पत्तन, बाँध, पुल, जलाशय आदि मानवीय संरचनाओं की क्षति द्वारा, (4) अग्निकाण्ड द्वारा, (5) बाढ़ों तथा (6) जलवायु परिवर्तनों द्वारा।

(1) उष्ण तथा तरल लावा की विशाल राशि तीव्र गति से प्रवाहित होते हुए मानवीय संरचनाओं को ढक लेती है, जीव-जन्तु तथा सभी लोग मारे जाते हैं, फार्म तथा चरागाह नष्ट हो जाते हैं, नदियों के म तथा झीलें अवरुद्ध हो जाती हैं तथा वन जलकर नष्ट हो जाते हैं। हवाई द्वीप पर मोना लोको ज्वालामुखी के उद्गार से 53 किमी दूर तक लावा का प्रवाह हुआ था। आइसलैण्ड में लाकी ज्वालामुखी प्रवाहं से भी बड़ी मात्रा में लावा निकलकर सम्पूर्ण द्वीप पर फैल गया था। माउण्ट पीली तथा सेण्ट हेलेन्स के उद्गार भी ऐसे ही क्षतिकारी थे।

(2) ज्वालामुखी विस्फोट से अपखण्डित पदार्थ, धुआँ, धूल, राख आदि पदार्थ बाहर निकलकर भूमि को ढक लेते हैं जिससे खड़ी फसलें, वनस्पतियाँ, इमारतें आदि नष्ट हो जाती हैं। विषैली गैसें भी मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती हैं तथा अम्ल वर्षा का कारण बनती हैं।

(3) सभी प्रकार के ज्वालामुखी उद्गार मानव-जीवन को भारी हानि पहुँचाते हैं। विस्फोटक उद्गार होने पर लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचने का समय ही नहीं मिल पाता है। मार्टिनीक द्वीप पर माउण्टे पीली के आकस्मिक उद्गार (1902) से समस्त सेण्ट पियरे नगर तथा उसके 28,000 निवासी मारे गये, केवल दो व्यक्ति शेष बचे। सन् 1985 में कोलम्बिया के नेवादो डेल रुइज ज्वालामुखी के उद्गार से लगभग 23,000 व्यक्ति काले-कवलित हो गये। सन् 1980 में वाशिंगटन राज्य (संयुक्त राज्य अमेरिका) के माउण्ट सेण्ट हेलेन्स के भयंकर उद्गार से 2 बिलियन डॉलर की सम्पत्ति नष्ट हो गयी।

(4) ज्वालामुखी उद्गारों से भारी मात्रा में धूल तथा राख बाहर निकलकर आकाश में व्याप्त हो जाती हैं जिससे प्रादेशिक तथा वैश्विक स्तर पर मौसमी एवं जलवायवीय परिवर्तन होते हैं। ज्वालामुखी उद्गारों से नि:सृत धूल समताप मण्डल में एकत्रित होकर पृथ्वी पर आने वाली सौर्थिक ऊर्जा की मात्रा को कम कर देती है, जिससे तापमानों में कमी आ जाती है। क्राकाटोआ ज्वालामुखी उद्गार (1883) के ऐसे ही प्रभाव सामने आये। 1783 में आयरलैण्ड के लाकी उद्गार से भी तापमानों का ह्रास हुआ।

(5) कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार ज्वालामुखी उद्गारों से नि:सृत धूल तथा राख से जीवों की कुछ प्रजातियों का सामूहिक विनाश (विलोप) हो जाता है। दकन लावा प्रवाह के दौरान ब्रिटेशस के अन्त तथा टर्शियरी के आरम्भ में भारत में प्राणियों की अनेक प्रजातियों का विलोप हो गया।

प्रश्न 4
उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात कहाँ आते हैं ? विभिन्न चक्रवातों का वर्णन कीजिए।
या
उष्ण कटिबन्धीय चक्रवातों को किन-किन स्थानीय नामों से जाना जाता है ?
उत्तर
उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात पृथ्वी ग्रह पर अत्यधिक शक्तिशाली, विनाशकारी एवं घातक वायुमण्डलीय तूफान हैं जिन्हें ग्लोब के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है। उत्तरी अटलांटिक महासागर (मुख्यत: दक्षिण-पूर्वी संयुक्त राज्य) में ये हरीकेन’ कहलाते हैं, जबकि उत्तरी प्रशान्त महासागर (मुख्यत: चीन, जापान, फिलीपीन्स तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया) में ये ‘टाइफून’ कहलाते हैं। बांग्लादेश तथा भारत में इन्हें चक्रवात’ कहा जाता है तथा ऑस्ट्रेलिया में ‘विली विलीज’।

इन उष्ण कटिबन्धीय चक्रवातों की गति 180 से 400 किमी प्रति घण्टा तक होती है जिससे समुद्रों में उच्च ज्वारीय तरंगें पैदा होती हैं, भारी वर्षा होती है, समुद्रतल में असाधारण वृद्धि होती है तथा ये कई दिन (प्राय: एक सप्ताह) तक कायम रहते हैं। इन सबके सम्मिलित प्रभाव से प्रभावित क्षेत्र में भारी क्षति होती है, जनजीवन तथा सम्पत्ति की अपार हानि होती है। इन चक्रवातों के इतिहास के अध्ययन से इनकी विभीषिका का अनुमान लगाया जा सकता है।

(1) चक्रवात (Cyclone) – ये भारत के पूर्वी तट एवं बांग्लादेश के दक्षिणी तटवर्ती भागों में आते हैं। इतिहास में सबसे भयंकर चक्रवात बांग्लादेश में 1970 में आया, जिसमें 3 लाख व्यक्ति मृत्यु के ग्रास बने। अधिकांश लोगों की मृत्यु स्थल पर 20 फीट ऊँची समुद्री लहरों में डूबने से हुई। बांग्लादेश की सरकारी विज्ञप्ति के अनुसार, 2 लाख लोग मारे गये, 50 हजार से 1 लाख व्यक्ति लापता हो गये, 3 लाख मवेशी मारे गये, 40 हजार घर बरबाद हो गये तथा 63 मिलियन डॉलर की फसलें क्षतिग्रस्त हो गयीं।

भारत में पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के तटवर्ती भाग विशेष रूप से उष्ण कटिबन्धीय चक्रवातों से क्षतिग्रस्त होते हैं। सन् 1737 में पूर्वी तट पर आये चक्रवात से 3 लाख लोग मृत्यु को प्राप्त हुए। इसी प्रकार सन् 1977 (55,000 मृत्यु), 1864 (50,000 मृत्यु) के चक्रवात भी । विनाशकारी थे। सन् 1977 में आन्ध्र तट पर चक्रवाती लहरों ने 55,000 लोगों के प्राण ले लिये। बीस लाख – लोगों के घर बरबाद हो गये तथा 12,00,000 हेक्टेयर भूमि पर फसलें नष्ट हो गयीं।

सन् 1990 में आन्ध्र तट पर 1977 की अपेक्षा 25 गुना तीव्र तथा विनाशकारी चक्रवात आया, जिसमें लोगों की मृत्यु तो अधिक नहीं हुई किन्तु 30 लाख लोग बुरी तरह प्रभावित हुए, 3 लाख लोग बेघरबार हो गये, 90,000 मवेशी मर गये तथा १ 1,000 करोड़ की सम्पत्ति नष्ट हो गयी। इस चक्रवात से तमिलनाडु तट भी बुरी तरह प्रभावित हुआ। सन् 1999 में ओडिशा के सुपर साइक्लोन ने राज्य में भारी तबाही मचायी। इसी वर्ष कच्छ क्षेत्र में भी चक्रवातों से काँदला बन्दरगाह एवं तटवर्ती क्षेत्रों में 15,000 व्यक्ति मारे गये। सम्पत्ति की भी अपार हानि हुई।

(2) हरीकेन (Hurricane) – संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिणी तथा दक्षिण-पूर्वी -क्ट्रीय राज्य (लूसियाना, टेक्सास, अलाबामा तथा फ्लोरिडा) हरीकेनों से सर्वाधिक क्षतिग्रस्त होते हैं। सन् 1990 में गाल्वेस्टन (टेक्सास) में हरीकेन से 6,000 लोग मारे गये तथा 3,000 मकान नष्ट हो गये। सितम्बर, 2005 में संयुक्त राज्य में कैटरिना हरीकेन से न्यूऑर्लियन्स नगर के 1,000 लोग मारे गये। हरीकेन रीटा उतना विध्वंसकारी सिद्ध नहीं हुआ। हरीकेन विल्मा मैक्सिको में तथा हरीकेन ओटाने निकारागुआ तट पर प्रहार किया।

(3) ऑस्ट्रेलिया के डार्विन नगर में सन् 1974 में ट्रेसी चक्रवात से यद्यपि मात्र 49 व्यक्ति मृत हुए किन्तु इस नगर की 80% इमारतें नष्ट हो गयीं। जल वितरण, विद्युत व्यवस्था, परिवहन तथा संचार तन्त्र अस्त- व्यस्त हो गये। तेज पवनों तथा मूसलाधार वर्षा से यह विध्वंस हुआ।

(4) स्थानीय तूफान (Local storms) – दक्षिणी तथा पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका के टॉरनेडो तथा थण्डरस्टॉर्म स्थानीय तूफान हैं जो छोटे किन्तु अत्यन्त विनाशकारी होते हैं। इनसे प्रतिवर्ष अनुमानतः 150 मृत्यु तथा 10 मिलियन डॉलर की सम्पत्ति नष्ट होती है। वर्जीनिया, उत्तरी कैरोलिना, दक्षिणी कैरोलिना, जॉर्जिया, अलाबामा, मिसीसिपी, टेनेसी ओह्यो तथा केण्टुकी राज्य इनसे विशेषतः प्रभावित होते हैं।

(5) टाइफून (Typhoon) – ये तूफान पूर्वी एशियाई तट को प्रभावित करते हैं। इनसे 1881 में चीन में 3 लाख व्यक्ति तथा 1923 में जापान में 2,50,000 व्यक्ति मृत्यु का ग्रास बने।

प्रश्न 5
टिप्पणी लिखिए–रासायनिक दुर्घटनाएँ।
उत्तर
रासायनिक दुर्घटनाएँ (Chemical Accidents) – विषैली गैसों के रिसाव से पर्यावरण दूषित हो जाता है तथा उस क्षेत्र के निवासियों के स्वास्थ्य एवं जीवन के लिए गम्भीर संकट पैदा हो जाता है। दिसम्बर, 1984 में भोपाल (मध्य प्रदेश) में यूनियन कार्बाइड के कारखाने से विषैली मिथाइल आइसो-सायनाइड के स्टोरेज टैंक से रिसाव की घटना भारतीय इतिहास की बड़ी मानवीय दुर्घटनाओं में से है। इस गैस के तेजी से रिसाव से 3,598 लोगों की जाने चली गयीं तथा हजारों पशु तथा असंख्य सूक्ष्म जीव मारे गये। गैर-राजनीतिक स्रोतों के अनुसार, मृतकों की संख्या 5,000 से अधिक थी। इस गैस के रिसाव से आसपास का वायुमण्डल तथा जलराशियाँ भी प्रदूषित हो गयीं। गैस रिसाव के प्रभाव से लगभग 50% गर्भवती स्त्रियों को गर्भपात हो गया। दस हजार लोग हमेशा के लिए पंगु हो गए तथा 30,000 लोग आंशिक रूप से पंगु हो गए। डेढ़ लाख लोगों को हल्की-फुल्की असमर्थता पैदा हो गयी। इसी प्रकार सन् 1986 में पूर्ववर्ती सोवियत संघ के चनबिल परमाणु संयन्त्र में से रिसाव की दुर्घटना से सैकड़ों लोग मृत्यु का ग्रास बने।

सन् 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति पर संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा जापान के हिरोशिमा तथा नागासाकी नगरों पर परमाणु बमों के प्रहार से मानवता की जो अपूरणीय क्षति हुई, जिसकी विभीषिका आज भी याद है, मानवकृत आपदाओं में सबसे भयंकर घटना है। यही नहीं, आज भी अनेक देश जैव-रासायनिक शस्त्रों का निर्माण कर रहे हैं, जो मानवता के लिए घातक सिद्ध होंगे।

प्रश्न 6
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए –
(i) भूस्खलन एवं एवलांश।
(ii) अग्निकाण्ड। (2011)
या
भू-स्खलन क्या है? [2013, 14]
उत्तर
(i) भूस्खलन एवं एवलांश – लोगों का ऐसा मानना है कि धरातल जिस पर हम रहते हैं, ठोस आधारशिला है, किन्तु इस मान्यता के विपरीत, पृथ्वी का धरातल अस्थिर है, अर्थात् यह ढाल से नीचे की ओर सरेक सकता है।

भूस्खलन एक प्राकृतिक परिघटना है जो भूगर्भिक कारणों से होती है, जिसमें मिट्टी तथा अपक्षयित शैल पत्थरों की, गुरुत्व की शक्ति से, ढाल से नीचे की ओर आकस्मिक गति होती है। अपक्षयित पदार्थ मुख्य धरातल से पृथक् होकर तेजी से ढाल पर लुढ़कने लगता है। यह 300 किमी प्रति घण्टा की गति से गिर सकता है। जब भूस्खलन विशाल शैलपिण्डों के रूप में होता है तो इसे शैल एवलांश कहा जाता है। स्विट्जरलैण्ड, नॉर्वे, कनाडा आदि देशों में तीव्र ढालों वाली घाटियों की तली में बसे गाँव प्रायः शिलापिण्डों के सरकने से नष्ट हो जाते हैं। भारत में भी जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड एवं उत्तर-पूर्वी राज्यों में प्रायः भूस्खलनों के समाचार मिलते रहते हैं। भूस्खलनों से सड़क परिवहन का बाधितं होना सामान्य परिघटना है। कभी-कभी छोटी नदियाँ भी भूस्खलनों से अवरुद्ध हो जाती हैं।

शिलाचूर्ण से मिश्रित हिम की विशाल राशि, जो भयंकर शोर के साथ पर्वतीय ढालों से नीचे की ओर गिरती है, एवलांश कहलाती है। एवलांश भी मानवीय बस्तियों को ध्वस्त कर देते हैं।

(ii) अग्निकाण्ड – अग्निकाण्ड प्राकृतिक एवं मानवीय दोनों कारणों से होते हैं। प्राकृतिक कारणों में तड़ित (Lightening) या बिजली गिरना, वनाग्नि, (Forest-fire) तथा ज्वालामुखी उद्गार सम्मिलित हैं। मानवीय कारणों में असावधानी, बिजली का शॉर्ट सर्किट, गैस सिलिण्डर का फटना आदि सम्मिलित हैं। इन सभी कारणों से उत्पन्न अग्निकाण्डों में वनाग्नि तथा बिजली के शॉर्ट सर्किट द्वारा उत्पन्न अग्निकाण्ड सबसे महत्त्वपूर्ण हैं।

वनों में आग लगना एक सामान्य घटना है। यह वृक्षों की परस्पर रगड़ (जैसे—बाँस के वृक्ष), असावधानीवश भूमि पर जलती सिगरेट आदि फेंक देने अथवा कैम्प-फायर के दौरान होती है। इस प्रकार की आग से ऊँची लपटें तो नहीं निकलती हैं किन्तु धरातल पर पड़े हुए समस्त पदार्थ जलकर खाक हो जाते हैं। छोटी-मोटी झाड़ियाँ भी जल जाती हैं। सबसे विनाशकारी वितान-अग्नि (Crown-fire) होती है जिससे बड़े पैमाने पर विनाश होता है। ऐसे अग्निकाण्ड घने वनों में होते हैं। वनाग्नि के परिणाम दूरगामी होते हैं। इससे वन्य जीव-जन्तु व वनस्पतियाँ ही नहीं, समस्त पारिस्थितिकी प्रभावित होती है।

नगरों तथा बस्तियों में अग्निकाण्ड से जनजीवन तथा सम्पत्ति की बहुत हानि होती है। निर्धन लोगों की झुग्गी-झोंपड़ियों में आग लगना सहज बात होती है। नगरीय इमारतों में बिजली के शॉर्ट सर्किट से आग लगने की घटनाएँ होती हैं। मेलों तथा जलसों में भी शॉर्ट सर्किट से प्रायः आग लग जाती है। इस सन्दर्भ में सन् 1995 में डबबाली (जिला सिरसा, हरियाणा) में एक विद्यालय के वार्षिक जलसे में शॉर्ट सर्किट से उत्पन्न अग्निकाण्ड में 468 लोगों की जाने चली गयीं। 10 अप्रैल, 2006 को उत्तर प्रदेश के मेरठ नगर के विक्टोरिया पार्क में आयोजित एक उपभोक्ता मेले में 50 से अधिक लोग अग्निकाण्ड में मृत हुए तथा 100 से अधिक गम्भीर रूप से घायल हो गये।

प्रश्न 7
सूनामी कैसे उत्पन्न होती है? [2013]
या
सूनामी किसे कहते हैं? [2014]
उत्तर
समुद्र में लहरें उठना एक सामान्य बात है तथा ये सदैव ही उठती रहती हैं, परन्तु कुछ स्थितियों में ये विकराल रूप ग्रहण कर लेती हैं तथा सम्बन्धित क्षेत्र के लिए भयंकर आपदा सिद्ध होती हैं। सामान्य समुद्री लहरें (Sea waves) कभी-कभी विनाशकारी रूप धारण कर लेती हैं। इनकी ऊँचाई 15 मीटर और कभी-कभी इससे भी अधिक तक होती है। ये तट के आस-पास की बस्तियों को तबाह कर देती हैं। ये लहरें मिनटों में ही तट तक पहुँच जाती हैं। जब ये लहरें उथले पानी में प्रवेश करती हैं, तो भयावह शक्ति के साथ तट से टकराकर कई मीटर ऊपर तक उठती हैं। तटवर्ती मैदानी इलाकों में इनकी रफ्तार 50 किमी प्रति घण्टा तक हो सकती है।

इन विनाशकारी समुद्री लहरों को ‘सूनामी’ कहा जाता है। सूनामी, जापानी भाषा का शब्द है, जो दो शब्दों ‘सू’ अर्थात् ‘बन्दरगाह और नामी’ अर्थात् ‘लहर से बना है। सूनामी लहरें अपनी भयावह शक्ति के द्वारा विशाल चट्टानों, नौकाओं तथा अन्य प्रकार के मलबे को भूमि पर कई मीटर अन्दर तक धकेल देती हैं। ये तटवर्ती इमारतों, वृक्षों आदि को नष्ट कर देती हैं। 26 दिसम्बर, 2004 को दक्षिण-पूर्व एशिया के 11 देशों में सूनामी’ द्वारा फैलाई गयी विनाशलीला से हम सब परिचित हैं।

प्रश्न 8
भारत में भूस्खलन को रोकने के किन्हीं दो उपायों को बताइए। (2015)
उत्तर
भूस्खलन एक प्राकृतिक आपदा है फिर भी मानव-क्रियाएँ इसके लिए उत्तरदायी हैं। इसके न्यूनीकरण की दो युक्तियाँ निम्नलिखित हैं –
(1) भूमि उपयोग – वनस्पतिविहीन ढलानों पर भूस्खलन का खतरा बना रहता है। अतः ऐसे स्थानों पर स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार वनस्पति उगाई जानी चाहिए। भू-वैज्ञानिक विशेषज्ञों के द्वारा सुझाये गये उपायों को अपनाकर, भूमि के उपयोग तथा स्थल की जाँच से ढलान को स्थिर बनाने वाली विधियों को अपनाकर भूस्खलन से होने वाली हानि को 95% से अधिक कम किया जा सकता है। जेल के प्राकृतिक प्रवाह में कभी भी बाधक नहीं बनना चाहिए।

(2) प्रतिधारण दीवारें – भूस्खलन को सीमित करने तथा मार्गों को क्षतिग्रस्त होने से बचाने के लिए सड़कों के किनारों पर प्रतिधारण दीवारें तीव्र ढाल पर बनायी जानी चाहिए जिससे ऊँचे पर्वत से पत्थर सड़क पर गिर न जाएँ। रेल लाइनों के लिए प्रयोग की जाने वाली सुरंगों के पश्चात् काफी दूर तक प्रतिधारण दीवारों का निर्माण किया जाना चाहिए।

प्रश्न 9
भारत में सूखा प्रभावित क्षेत्रों की समस्याओं (दुष्प्रभावों का वर्णन कीजिए। [2010, 11, 13, 14]
उत्तर

भारत में सूखा प्रभावित क्षेत्रों की समस्याएँ

सूखा एक विनाशकारी प्राकृतिक आपदा है, क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध मानव की तीन आधारभूत आवश्यकताओं वायु, जल और भोजन से है। सूखे से मानव के सामने अनेक समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं, ऐसी ही कुछ समस्याएँ निम्नलिखित हैं –

  1. सूखा पड़ने पर कृषि उपजे नष्ट होने लगती हैं, जिससे भोजन की कमी हो जाती है।
  2. सूखा पड़ने से पशुओं के लिए चारे की कमी हो जाती है, कभी-कभी चारे की कमी के कारण पशुओं की मृत्यु भी हो जाती है।
  3. ग्रामों की अर्थव्यवस्था का आधार कृषि है, परन्तु सूखे के कारण कृषि नष्ट हो जाती है। इसलिए ग्रामों में किसान को आर्थिक हानि का सामना करना पड़ता है।
  4. ग्रामों में कृषि पर आधारित रोजगारों की प्रधानता होती है परन्तु सूखे के कारण ग्रामों में रोजगार की कमी हो जाती है। इससे गाँव के लोगों की क्रयक्षमता कम हो जाती है जिसका प्रभाव सम्पूर्ण वाणिज्य व्यवस्था पर पड़ता है।
  5. लम्बी अवधि तक सूखा पड़ने पर दुर्भिक्ष (Famine) जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिससे भुखमरी के कारण व्यापक रूप में मानव एवं पशुओं की मृत्यु होने लगती है।
  6. सरकार को सूखे से निपटने के लिए विविध उपायों पर धन व्यय करना पड़ता है जिससे राष्ट्रीय बचत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा विकास कार्यों में धन की मात्रा में गिरावट आने लगती है।
  7. सूखा पड़ने पर उद्योगों के लिए कृषि आधारित कच्चे माल की कमी हो जाती है जिससे औद्योगिक उत्पादन में गिरावट के कारण कीमतें ऊँची हो जाती हैं।
  8. सूखे के कारण लोग अपने मूल स्थान से पलायन करने लगते हैं इसलिए अन्य क्षेत्रों में जनसंख्या असन्तुलन की समस्या उत्पन्न होने लगती है।

प्रश्न 10
भारत में सूखा प्रभावित किन्हीं दो क्षेत्रों का उल्लेख कीजिए। [2011]
उत्तर
भारत में सूखा संकट के आधार पर सूखा प्रभावित तीन प्रमुख क्षेत्र हैं –
(i) उच्च या प्रचण्ड सूखाग्रस्त क्षेत्र
(ii) मध्यम सूखाग्रस्त क्षेत्र
(iii) न्यून सूखाग्रस्त क्षेत्र। इनमें दो क्षेत्रों का उल्लेख इस प्रकार है –

(i) उच्च या प्रचण्ड सूखाग्रस्त क्षेत्र इस क्षेत्र में राजस्थान का मरुस्थलीय एवं अर्द्ध-मरुस्थलीय क्षेत्र, गुजरात, हरियाणा, मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश का दक्षिणी भाग प्रचण्ड सूखाग्रस्त क्षेत्र हैं। इस क्षेत्र का विस्तार लगभग 6 लाख वर्ग किमी में हैं।
(ii) मध्यम सूखाग्रस्त क्षेत्र इसके अन्तर्गत महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु का पश्चिमी भाग सम्मिलित है। यह प्रदेश लगभग 300 किमी की चौड़ाई में पश्चिमी घाट के पूर्व में चतुर्भुजाकार रूप में फैला है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्राकृतिक आपदा से क्या तात्पर्य है ? दो उदाहरण लिखिए।
उत्तर
वे घटनाएँ अथवा दुर्घटनाएँ जो प्राकृतिक प्रक्रमों या मानवीय कारणों से उत्पन्न होती हैं और जिनसे अपार जान-माल की हानि होती है, प्राकृतिक आपदा कहलाती है। उदाहरण-स्वरूप, भूकम्प तथा बाढ़ ऐसी ही प्राकृतिक आपदाएँ हैं।

प्रश्न 2
भूकम्प की तीव्रता किस प्रकार मापी जाती है ?
उत्तर
भूकम्प की तीव्रता रिक्टर पैमाने से मापी जाती है।

प्रश्न 3
विश्व के अधिकांश ज्वालामुखी कहाँ स्थित हैं?
उत्तर
विश्व के 80% सक्रिय ज्वालामुखी विनाशकारी या अभिसारी प्लेट किनारों (Convergent margins) के सहारे स्थित हैं। अभिसारी प्लेट किनारे अग्निवलय के सहारे स्थित हैं।

प्रश्न 4
सूखा से क्या आशय है?
उत्तर
हॉब्स (Hobbs) के अनुसार, किसी विशेष समय में औसत वर्षा न होने की स्थिति को सूखा कहा जाता है।

प्रश्न 5
भारत के किन भागों में भयंकर सूखा पड़ता है?
या
उत्तर भारत के दो सूखाग्रस्त क्षेत्रों के नाम लिखिए। [2014]
उत्तर
राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, ओडिशा, दक्षिणी उत्तर प्रदेश राज्य के क्षेत्र भारत के प्रमुख सूखाग्रस्त क्षेत्र हैं।

प्रश्न 6
भारत में बाढ़ के किन्हीं दो कारणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर

  1. तीव्र भूकम्पीय लहरों से बाँधों के टूटने पर।
  2. नदी के मार्ग में भूस्खलन के कारण उत्पन्न अवरोध से।

प्रश्न 7
प्राकृतिक आपदा के दो उदाहरण दीजिए। [2012]
उत्तर

  1. भूकम्प तथा
  2. सूखा पड़ना।

प्रश्न 8
आपदा प्रबन्धन से आप क्या समझते हैं? [2012, 13, 15, 16]
उत्तर
प्राकृतिक आपदाओं के जोखिम को कम करने को आपदा प्रबन्धन कहते हैं।

प्रश्न 9
भारत में भूस्खलन से प्रभावित किन्हीं दो राज्यों के नाम लिखिए। [2012]
उत्तर

  1. जम्मू एवं कश्मीर तथा
  2. हिमाचल प्रदेश।

प्रश्न 10
भूस्खलन क्या है? [2016]
उत्तर
भूस्खलन एक प्राकृतिक घटना है जो भौगोलिक कारणों से होती है।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1
भोपाल गैस रिसाव की दुर्घटना थी –
(क) प्राकृतिक
(ख) मानवीय
(ग) वायुमण्डलीय
(घ) आकस्मिक
उत्तर
(ख) मानवीय।

प्रश्न 2
भूस्खलन परिघटना है –
(क) भूगर्भिक
(ख) मानवीय
(ग) वायुमण्डलीय
(घ) आकाशीय
उत्तर
(क) भूगर्भिक।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 26 Disaster Management

प्रश्न 3
सूनामी की उत्पत्ति का सम्बन्ध है – [2011]
(क) भूकम्प से
(ख) ज्वालामुखी से
(ग) भूस्खलन से
(घ) बाढ़ से
उत्तर
(क) भूकम्प से।

प्रश्न 4
सर्वाधिक भूस्खलन होता है – [2015]
(क) पठारी क्षेत्र में
(ख) पर्वतीय क्षेत्र में
(ग) तटीय क्षेत्र में
(घ) तराई क्षेत्र में
उत्तर
(ख) पर्वतीय क्षेत्र में।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 26 Disaster Management

प्रश्न 5
निम्नलिखित में से कौन-सी मानवकृत आपदा है? [2016]
(क) निर्वनीकरण
(ख) बाढ़
(ग) भूस्खलन
(घ) ज्वालामुखी
उत्तर
(क) निर्वनीकरण।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 26 Disaster Management (आपदा प्रबन्धन) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 26 Disaster Management (आपदा प्रबन्धन), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 16 Status of Women in Indian Society

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 16 Status of Women in Indian Society (भारतीय समाज में स्त्रियों का स्थान) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 16 Status of Women in Indian Society (भारतीय समाज में स्त्रियों का स्थान).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 16
Chapter Name Status of Women in Indian Society (भारतीय समाज में स्त्रियों का स्थान)
Number of Questions Solved 27
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 16 Status of Women in Indian Society (भारतीय समाज में स्त्रियों का स्थान)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
भारतीय समाज में स्त्रियों की वर्तमान परिस्थिति पर प्रकाश डालिए। [2009]
या
वर्तमान (स्वतन्त्र) भारत में स्त्रियों की स्थिति में हुए परिवर्तन की विवचेना कीजिए। [2007, 09, 10]
या
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात स्त्रियों ने शिक्षा के क्षेत्र में क्या प्रगति की है?
उत्तर:
भारतीय समाज में स्त्रियों की वर्तमान स्थिति
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद पिछले 61 वर्षों में भारतीय स्त्रियों की स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ है। डॉ० श्रीनिवास के अनुसार, “पश्चिमीकरण, लौकिकीकरण तथा जातीय गतिशीलता ने स्त्रियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को उन्नत करने में पर्याप्त योगदान दिया है। वर्तमान में स्त्री-शिक्षा का प्रसार हुआ है। अनेक स्त्रियाँ औद्योगिक संस्थाओं और विभिन्न क्षेत्रों में नौकरी करने लगी हैं। अब वे आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर होती जा रही हैं। उनके पारिवारिक अधिकारों में वृद्धि हुई है। वर्तमान में स्त्रियों की स्थिति में निम्नलिखित क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आये हैं

1. स्त्री-शिक्षा में प्रगति – स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् स्त्री-शिक्षा का व्यापक प्रसार हुआ है। सन् 1882 में पढ़ी-लिखी स्त्रियों की कुल संख्या मात्र 2,054 थी, जो 1971 ई० में बढ़कर 5 करोड़ 94 लाख तथा 1981 ई० में 7 करोड़ 91.5 लाख से अधिक थी। 2001 ई० में स्त्रियों का साक्षरता प्रतिशत 53.67 तथा 2011 ई० में यह बढ़कर 64.64 हो गया है। स्त्री-शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने वर्ष 1964-65 से दसवीं कक्षा तक लड़कियों की शिक्षा नि:शुल्क कर दी है। वर्तमान में शिक्षण से सम्बन्धित ट्रेनिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज आदि में लड़कियों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है। स्त्री-शिक्षा के व्यापक प्रसार ने स्त्रियों को अपने व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में समुचित अवसर प्रदान किये हैं, उन्हें रूढ़िवादी विचारों से पर्याप्त सीमा तक मुक्त किया है, पर्दा-प्रथा को कम किया है तथा बाल-विवाह के प्रचलन को घटाने में योगदान दिया है।

2. आर्थिक क्षेत्र में प्रगति – शिक्षा के व्यापक प्रसार, नयी-नयी वस्तुओं के प्रति आकर्षण, उच्च जीवन बिताने की बलवती ईच्छा तथा बढ़ती हुई कीमतों ने अनेक मध्यम व उच्च वर्ग की स्त्रियों को नौकरी यो आर्थिक दृष्टि से कोई-न-कोई काम करने के लिए प्रेरित किया है। अब मध्यम वर्ग की स्त्रियाँ उद्योगों, दफ्तरों, शिक्षण संस्थाओं, अस्पतालों, समाज-कल्याण केन्द्रों एवं व्यापारिक संस्थाओं में काम करने लगी हैं। वर्तमान में भारत में विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं की संख्या 35 लाख से भी अधिक है। 1956 ई० के हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम ने हिन्दू स्त्रियों को पत्नी, बहन एवं माँ के रूप में पारिवारिक सम्पत्ति में अधिकार प्रदान किया है। सरकार ने स्त्रियों के सामाजिक-आर्थिक कल्याण के लिए कई नयी योजनाएँ भी बनायी हैं। परिणामस्वरूप उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है।

3. राजनीतिक चेतना में वृद्धि – स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् स्त्रियों की राजनीतिक चेतना में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। जहाँ सन् 1937 में महिलाओं के लिए 41 स्थान सुरक्षित थे, वहाँ केवल 10 महिलाओं ने ही चुनाव लड़ा; जब कि 1984 ई० के चुनावों में 65 स्त्रियों ने सांसद के रूप में चुनाव में सफलता प्राप्त की। इसके बाद के लोकसभा चुनावों में स्त्री सांसदों की संख्या कम ही हुई है, परन्तु उनकी राजनीतिक चेतना बढ़ी है। ग्राम पंचायतों एवं नगरपालिकाओं में स्त्रियों के लिए 33% स्थान आरक्षित किये गये हैं। इसके साथ ही पार्लियामेण्ट और विधानमण्डलों में स्त्री-प्रतिनिधियों की संख्या और विभिन्न गतिविधियों में उनकी सहभागिता, राज्यपाल, मन्त्री, मुख्यमन्त्री और यहाँ तक कि प्रधानमन्त्री तक के रूप में उनकी भूमिकाओं से स्पष्ट है कि भारत में स्त्रियों में राजनीतिक चेतना दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। भारतीय महिलाओं ने राज्यपालों, कैबिनेट स्तर के मन्त्रियों और राजदूतों के रूप में यश प्राप्त किया है। स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद स्त्रियों की राजनीतिक चेतना में वृद्धि हुई है और उनकी स्थिति में सुधार हुआ है।

4. सामाजिक जागरूकता में वृद्धि – पिछले कुछ वर्षों में स्त्रियों की सामाजिक जागरूकता में अत्यधिक वृद्धि हुई है। अब स्त्रियाँ पर्दा-प्रथा को बेकार समझने लगी हैं। बहुत-सी स्त्रियाँ घर की चहारदीवारी के बाहर खुली हवा में साँस ले रही हैं। वर्तमान में कई स्त्रियों के विचारों के दृष्टिकोणों में इतना परिवर्तन आ चुका है कि अब वे अन्तर्जातीय-विवाह, प्रेम-विवाह और विलम्ब-विवाह को अच्छा समझने लगी हैं। अब वे रूढ़िवादी बन्धनों से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील हैं। आज अनेक स्त्रियाँ महिला संगठनों और क्लबों की सदस्य हैं तथा समाजकल्याण के कार्यों में लगी हुई हैं।

5. विवाह एवं पारिवारिक क्षेत्र में अधिकारों की प्राप्ति – वर्तमान में स्त्रियों के पारिवारिक अधिकारों में वृद्धि हुई है। वर्तमान में स्त्रियाँ संयुक्त परिवार के बन्धनों से मुक्त होकर एकाकी परिवार में रहना चाहती हैं। आज बच्चों की शिक्षा, परिवार के आय के उपयोग, पारिवारिक अनुष्ठानों की व्यवस्था और घर के प्रबन्ध में स्त्रियों की इच्छा को विशेष महत्त्व दिया जाता है। हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 ने हिन्दू स्त्रियों को अन्तर्जातीय विवाह करने और कष्टमय वैवाहिक जीवन से मुक्ति पाने के लिए तलाक के अधिकार प्रदान किये हैं। बाल-विवाह दिनों-दिन कम होते जा रहे हैं और विधवाओं को भी पुनर्विवाह का अधिकार प्राप्त है। स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारतीय स्त्रियों के शैक्षिक, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक व पारिवारिक जीवन में उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ है।

भारतीय स्त्रियों में सुधार के कुछ प्रमुख कारक

स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को परिवर्तित करने में निम्नलिखित कारकों का योगदान रहा है

1. संयुक्त परिवारों का विघटन – परम्परागत प्राचीन भारतीय संयुक्त परिवारों में स्त्रियों को पुरुषों के अधीन रहना पड़ता था, उनका कार्य-क्षेत्र घर की चहारदीवारी के अन्दर था, किन्तु नगरीकरण के परिणामस्वरूप संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। ग्रामीण परिवार की स्त्रियों के नगरों के सम्पर्क में आने से उनकी स्थिति में काफी परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं। यह सब नये-नये नगरों के उदय के कारण ही सम्भव हुआ है, क्योंकि रूढ़िवादी व्यक्तियों के बीच में रहकर उनकी स्थिति में सुधार होना सम्भव नहीं था।

2. शिक्षा का विस्तार – वर्ममान में स्त्री-शिक्षा का दिन-प्रतिदिन विस्तार हो रहा है। शिक्षा के प्रसार से स्त्रियाँ रूढ़िवादिता और जातिगत बन्धनों से मुक्त हुई हैं। उनमें त्याग, तर्क और वितर्क के भाव जगे हैं और ज्ञान के द्वार खुले हैं। स्त्रियों के शिक्षित होने से वे अपने आपको आत्मनिर्भर बनाने में सफल सिद्ध हो सकी हैं तथा राजनीतिक जागरूकता भी उनमें आज देखने को मिलती है।

3. अन्तर्जातीय विवाह – वर्तमान में स्कूलों में लड़के-लड़कियों के साथ-साथ पढ़ने तथा दफ्तरों में काम करने से प्रेम-विवाह एवं अन्तर्जातीय विवाह पर्याप्त संख्या में होते दिखाई पड़ रहे हैं। इससे स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन हुआ है। अब वे परिवार पर भार नहीं समझी जाती हैं। ऐसे विवाह से बने परिवार में पति-पत्नी में समानता के भाव पाये जाते हैं और स्त्री को पुरुष की दासी नहीं समझा जाता।।

4. औद्योगीकरण – औद्योगीकरण के कारण स्त्रियों की पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता कम हुई है। स्त्रियों ने पुरुषों के समान आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने के लिए नौकरी करना आरम्भ किया है। इससे उन्हें आत्म-विकास करने में पर्याप्त सहायता मिली है।

5. सुधार आन्दोलन – 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही कुछ चिन्तनशील व्यक्तियों ने स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के सम्बन्ध में अपना बहुमूल्य योगदान दिया; जैसे – राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि। उन्होंने सती – प्रथा, पर्दा-प्रथा, बहुपत्नी विवाह, विधवा पुनर्विवाह निषेध आदि को समाप्त करने के लिए सुधार आन्दोलन किये और इस क्षेत्र में किसी हद तक सफलता भी प्राप्त की। महात्मा गाँधी भी स्त्री-पुरुषों की समानता के समर्थक थे। उन्होंने भी स्त्रियों को राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।

6. सरकारी प्रयास – स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के लिए सरकार की तरफ से कई अधिनियम भी पास किये गये, जिससे स्त्रियों की स्थिति में अत्यधिक परिवर्तन हुए। इस सम्बन्ध में ‘बालविवाह निरोधक अधिनियम, 1929’, ‘मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1939’, ‘दहेज निरोधक अधिनियम, 1961’, ‘हिन्दू विवाह तथा विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1955’ तथा ‘विशेष विवाह अधिनियम, 1954’ आदि महत्त्वपूर्ण अधिनियम हैं।

प्रश्न 2
महिलाओं के उन्नयन (उत्थान) के लिए किये जाने वाले विभिन्न उपाय बताइए। [2013]
या
भारत में महिलाओं की स्थिति में सुधार के उपाय बताइए। [2008, 11]
उत्तर:
नारी-मुक्ति को स्वर सदैव प्रतिध्वनित होता रहा है। भारत के अनेक मनीषियों और समाज-सुधारकों ने नारी को समाज में सम्मानजनक पद दिलाने का भरसक प्रयास किया। राष्ट्र की आधारशिला और पुरुष प्रेरणा-स्रोत नारी को सबल बनाने के लिए अनेक सामाजिक आन्दोलन किये गये। ब्रह्म समाज, आर्य समाज तथा अन्य सुधारवादी सामाजिक आन्दोलनों ने नारी-मुक्ति के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किये।

बीसवीं शताब्दी में नारी को शोषण और अन्याय से बचाने के लिए अनेक सामाजिक विधान पारित किये गये। आज के दौर में, अनेक महिला संगठनों ने नारी को पुरुषों के समान अधिकार प्रदान कराने के कई आन्दोलन चला रखे हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने नारी-सुधार के क्षेत्र में श्लाघनीय प्रयास किये। स्वतन्त्रता के पश्चात् नारी की दशा में गुणात्मक सुधार आया और, युगों-युगों से पुरुष के अन्याय की कारा में पिसती नारी को उन्मुक्त वातावरण में साँस लेने का अवसर मिला। भारत में स्त्रियों की सामाजिक परिस्थिति सुधारने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं

1. पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव – पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीय विद्वानों का ध्यान नारी-शोषण और उनकी दयनीय दशा की ओर आकृष्ट किया। भारतीय समाज एकजुट होकर इस अभिशाप को मिटाने में लग गया। अतः समाज में नारी को सम्मानजनक स्थान मिल गया।

2. स्त्री-शिक्षा-स्त्री – शिक्षा का प्रचलन होने से शिक्षित नारी में अपने अधिकारों के प्रति जागृति उत्पन्न हुई। उसने शोषण, अन्याय और कुरीतियों के पुराने लबादे को उतारकर प्रगतिशीलता का नया कलेवर धारण किया। महिला-जागृति ने नारी को समाज में ऊँची परिस्थिति प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया।

3. महिला संगठन – भारत में नारी की दशा में गुणात्मक सुधार लाने के लिए वुमेन्स इण्डियन एसोसिएशन, कौंसिल ऑफ वुमेन्स, आल इण्डिया वुमेन्स कॉन्फ्रेन्स, विश्वविद्यालय महिला संघ, कस्तूरबा गाँधी राष्ट्रीय स्मारक निधि आदि महिला संगठनों की स्थापना की गयी। इन महिला संगठनों ने महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज उठायी और उन्हें पुरुषों के समान अधिकार दिलवाकर उनका उत्थान किया।

4. आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता – शिक्षित नारी ने धीरे-धीरे व्यवसाय, नौकरी, प्रशासन था उद्योगों में भागीदारी प्रारम्भ कर दी। आर्थिक क्षेत्र में निर्भरता ने उन्हें स्वयं वित्तपोषी बना दिया। आजीविका के साधन कमाने पर उनकी पुरुषों पर निर्भरता घट गयी है और समाज में उन्हें सम्मानजनक स्थान प्राप्त होता गया।

5. औद्योगीकरण तथा नगरीकरण – विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने औद्योगीकरण और नगरीकरण को बढ़ावा दिया। इन दोनों के कारण समाज में प्रगतिशील विचारों का जन्म हुआ। प्राचीन रूढ़ियाँ समाप्त हो गयीं। स्त्री-शिक्षा, व्यवसाय, प्रेम-विवाह, अन्तर्जातीय विवाह तथा नारी संगठनों ने नारी को पुरुष के समकक्ष ला दिया।

6. यातायात एवं संचार-व्यवस्था – भारत में यातायात और संचार के साधनों का विकास होने पर भारतीय नारी देश तथा विदेश की नारियों के सम्पर्क में आयी। इन साधनों ने उसे महिला आन्दोलनों और उनकी सफलताओं से परिचित कराया। अतः भारतीय नारी भी अपनी मुक्ति तथा अधिकारों की प्राप्ति के लिए जुझारू हो उठी।।

7. अन्तर्जातीय विवाहों का प्रचलन – स्व-जाति में विवाह की अनिवार्यता समाप्त करके अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। सहशिक्षा, साथ-साथ नौकरी करना तथा पाश्चात्य शिक्षा के उन्मुक्त विचारों ने नारी में अन्तर्जातीय विवाहों का बीज रोप दिया है। अन्तर्जातीय विवाहों के कारण वर-मूल्य में कमी आ गयी है और नारी की समाज में परिस्थिति ऊँची उठ गयी है।

8. संयुक्त परिवारों का विघटन – संयुक्त परिवार में पुरुषों का स्थान स्त्रियों की अपेक्षा ऊँचा था। संयुक्त परिवारों में विघटन पैदा होने से एकाकी परिवारों का जन्म हो रहा है। एकाकी परिवारों में स्त्री और पुरुष का स्तर एक समान होता है।

9. दहेज-प्रथा का उन्मूलन – दहेज-प्रथा के कारण समाज में नारी का स्थान बहुत नीचा बना हुआ था। सरकार ने 1961 ई० में दहेज निरोधक अधिनियम पारित करके दहेज-प्रथा को उन्मूलन कर दिया। दहेज-प्रथा समाप्त हो जाने से समाज में नारी की परिस्थिति स्वतः ऊँची हो गयी।

10. सुधार आन्दोलन – भारतीय स्त्रियों की दयनीय दशा सुधारने के लिए ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज तथा रामकृष्ण मिशन ने अनेक समाज-सुधार के आन्दोलन चलाये। गाँधी जी ने महिला सुधार के लिए राष्ट्रीय आन्दोलन चलाया। सुधार आन्दोलनों ने सोयी हुई स्त्री जाति को जगा दिया। उनमें नयी चेतना, जागृति और आत्मविश्वास का सृजन हुआ। समाजने उनके महत्त्व को समझकर उन्हें समाज में सम्मानजनक स्थान प्रदान किया।

11. सामाजिक विधान – भारतीय समाज में नारी को सम्मानजनक स्थान दिलवाने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका सामाजिक विधानों ने निभायी है। हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1956; बाल-विवाह निरोधक अधिनियम, 1929; हिन्दू स्त्रियों को सम्पत्ति पर अधिकार अधिनियम, 1937; विशेष विवाह अधिनियम, 1954; हिन्दू विवाह तथा विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1955; हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956; हिन्दू नाबालिग और संरक्षकता का अधिनियम, 1956; हिन्दू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956; स्त्रियों का अनैतिक व्यापार निरोधक अधिनियम, 1956 तथा दहेज निरोधक अधिनियम, 1961 ने स्त्रियों की दशा में गुणात्मक सुधार किये। स्त्री का शोषण दण्डनीय अपराध बन गया। अतः नारी की समाज में परिस्थिति ऊँची होती चली गयी।

12. विधायी संस्थाओं में महिला आरक्षण – 1990 ई० से भारतीय राजनीति में यह चर्चा है। कि विधायी संस्थाओं (विधानसभाओं और लोकसभा) में एक-तिहाई (33%) स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित किये जाने चाहिए। इस सम्बन्ध में महिला आरक्षण का विधेयक प्रस्ताव 1996, 1997 तथा 1998 ई० में लोकसभा में पेश किया जा चुका है, किन्तु वह राजनीतिक दलों के विरोध के कारण अभी पारित नहीं किया जा सका। लेकिन संविधान के 73वें संशोधन (1993 ई०) के द्वारा पंचायती राज में 1/3 सीटों पर महिलाओं के लिए आरक्षण कर दिया गया है। तदानुसार अब वे ग्राम-पंचायत, क्षेत्र-समितियों और जिला पंचायतों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। उनके इस सशक्तिकरण के परिणामस्वरूप उनकी स्थिति में उन्नयन होने की पूरी आशा है।

13. महिला-कल्याण की विभिन्न केन्द्रीय योजनाएँ – 31 जनवरी, 1992 को राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना कर दी गयी है, जो उनके अधिकारों की रक्षा और उनकी उन्नति के लिए प्रयासरत है। इसी प्रकार, उनके रोजगार, स्वरोजगार आदि के प्रोग्राम चल रहे हैं। अन्य योजनाएँ इन्दिरा महिला योजना, बालिका समृद्धि योजना, राष्ट्रीय महिला कोष आदि उनके विकास का प्रयास कर रही हैं।

14. परिवार-कल्याण कार्यक्रम – स्त्रियों की हीन दशा का एक कारण अधिक बच्चे भी थे। परिवार-कल्याण कार्यक्रमों ने परिवार में बच्चों की संख्या सीमित करके स्त्रियों की दशा में गुणात्मक सुधार किया है। परिवार में बच्चों की संख्या कम होने से स्त्री का स्वास्थ्य ठीक हुआ है, घर का स्तर ऊँचा उठा है तथा स्त्री को अन्य स्थानों पर काम करने, आने-जाने तथा राष्ट्रीय कार्यक्रमों में भाग लेने का अवसर मिलने लगा है। इस प्रकार परिवार कल्याण कार्यक्रमों ने भी नारी को समाज में ऊँचा स्थान दिलवाने में भरपूर सहयोग दिया है। नारी उत्थान एवं नारी जागृति में शिक्षा और विज्ञान का सहयोग सराहनीय रहा है। समाज में नारी को सम्मानजनक स्थान प्रदान कराने के लिए आवश्यक है-‘नारी स्वयं को सँभाले और अपना महत्त्व समझे।’ मानव के मानस को सरस तथा स्वच्छ बनाने में नारी को जितना योगदान है वह शब्दों से परे है। नारी को समाज में सम्मानजनक स्थान मिले बिना हमारी संस्कृति अधूरी है। नारी, जो समाज के निर्माण में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देती है, समाज से आस्था और सम्मान की पात्रा है। नारी को सम्मान देकर, आओ! हम सब एक नये और प्रगतिशील समाज का निर्माण करें।

प्रश्न 3
क्या राजनीति और लोक-जीवन में स्त्रियों को प्रवेश वांछनीय है ? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
राजनीति और लोक-जीवन में
स्त्रियों का प्रवेश स्त्रियों की विभिन्न क्षेत्रों में बदली हुई स्थिति को देखकर कुछ व्यक्ति क्षुब्ध हुए हैं तो कुछ ने प्रसन्नता प्रकट की है। इस सन्दर्भ में यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या नारी को लोक-जीवन, सार्वजनिक जीवन और राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना चाहिए अथवा नहीं। दूसरे शब्दों में, लोक-जीवन में उनका प्रवेश वांछनीय है या नहीं? इस बारे में दो मत पाये जाते हैं—एक मत उनके लोक-जीवन में प्रवेश के विपक्ष में है और दूसरा पक्ष में। जो लोग विपक्ष में हैं, उनका कहना है कि

  1. स्त्रियों का कार्य-क्षेत्र घर है, उन्हें पति-सेवा तथा बच्चों के लालन-पालन आदि का कार्य कर अच्छे परिवार के निर्माण में सहयोग देना चाहिए, क्योंकि परिवार ही समाज का आधार है। सार्वजनिक कार्य करने पर घर की उपेक्षा होगी, बच्चों का समुचित पालन-पोषण नहीं होगा, वे अनियन्त्रित एवं आवारा हो जाएँगे और परिवार विघटित हो जाएगा।
  2. राजनीति और लोक-जीवन में प्रवेश करने पर स्त्रियों में यौन स्वच्छन्दता एवं अनैतिकता फैलेगी।
  3. परिवार की धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन सुचारु रूप से नहीं हो सकेगा।
  4. स्त्रियाँ कोमल स्वभाव की होने से बाह्य जीवन की कठोरता एवं कठिनाइयों का सफलतापूर्वक मुकाबला नहीं कर सकेंगी।
  5. चूंकि स्त्रियाँ प्रजनन के कार्य से सम्बन्धित हैं, अतः सार्वजनिक जीवन में भाग लेने की उनकी सीमा है।
  6.  स्त्रियों का लोक-जीवन में भाग लेना भारतीय सामाजिक मूल्यों के विपरीत है।
  7. कई व्यक्ति स्त्रियों की शारीरिक एवं मानसिक क्षमता को पुरुषों से कम मानते हैं। अत: उनकी मान्यता है कि स्त्रियाँ उचित निर्णय लेने में असमर्थ होती हैं। इन सभी दलीलों के आधार पर कुछ व्यक्ति स्त्रियों के लोक-जीवन में प्रवेश को अवांछनीय मानते हैं।

दूसरी ओर कई व्यक्ति स्त्रियों के राजनीति और लोक-जीवन में प्रवेश के पक्ष में हैं। उनका मत है कि आज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में स्त्रियों को सौंपे गये दायित्वों का यदि हम मूल्यांकन करें तो पाएँगे कि उन्होंने सराहनीय कार्य किये हैं तथा कई क्षेत्रों में तो वे पुरुषों से बढ़कर योगदान दे पायी हैं। वे इस बात को उचित नहीं मानते हैं कि स्त्रियों के राजनीतिक और लोक-जीवन में प्रवेश करने से परिवार विघटित हो जाएगा। परिवार का संचालन एवं संगठन केवल स्त्री का कार्य ही नहीं है, वरन् स्त्री व पुरुष दोनों का है। रूढ़िवादी सामाजिक मूल्यों को बनाये रखने के लिए स्त्रियों को

राजनीति और लोक-जीवन में प्रवेश की इजाजत न देना भी पिछड़ेपन का सूचक है। यह पुरुषों की स्वार्थी-प्रवृत्ति एवं शोषण की नीति को प्रकट करता है। वर्तमान में प्रजातन्त्रीय विचारों की भी सँग है कि स्त्री-पुरुषों को समान अधिकार प्राप्त हों। यदि स्त्रियाँ शिक्षा ग्रहण कर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करेंगी तो वे समाज को अनेक कुप्रथाओं, अन्धविश्वासों, आडम्बरों, रूढ़ियों आदि से मुक्त कर सकेंगी और परिवार तथा समाज की सेवा बदलते समय की माँग के अनुरूप कर सकेंगी। राजनीति में आने पर वे अपने अधिकारों की रक्षा अच्छी प्रकार से कर सकेंगी। वास्तव में, नवीन परिस्थितियों को देखते हुए ही स्त्रियों का राजनीतिक और लोक-जीवन में प्रवेश वांछनीय है, किन्तु उन्हें इतना ध्यान रखना चाहिए कि वे इतनी स्वच्छन्द न हो जाएँ कि अपना सन्तुलन खो दें और पथभ्रष्ट हो जाएँ।

प्रश्न 4
हिन्दू एवं मुस्लिम समाज में स्त्रियों की स्थिति पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
या
हिन्दू एवं मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति की तुलना कीजिए।
उत्तर:
मुस्लिम स्त्रियों में बहुपत्नीत्व, पर्दा-प्रथा, धार्मिक कट्टरता, अशिक्षा एवं स्त्रियों द्वारा वास्तव में तलाक देने सम्बन्धी कई समस्याएँ पायी जाती हैं। हिन्दू और मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति में कुछ समानताएँ पायी जाती हैं; जैसे – पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह एवं बहुपत्नी–प्रथा का प्रचलन दोनों में ही है। किसी क्षेत्र में हिन्दू स्त्री की स्थिति अच्छी है, तो किसी में मुस्लिम स्त्री की। हम यहाँ विभिन्न आधारों पर दोनों की ही स्थिति की तुलना करेंगे

1. पर्दा-प्रथा – दोनों में ही पर्दा-प्रथा पायी जाती है, किन्तु हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों में इसका कठोर रूप पाया जाता है।

2. शिक्षा – मुस्लिम स्त्रियों की तुलना में हिन्दू स्त्रियों में शिक्षा का प्रचलन अधिक है।

3. आर्थिक – राजनीतिक स्थिति –
आर्थिक, राजनीतिक एवं सार्वजनिक क्षेत्र में मुस्लिम स्त्रियों की अपेक्षा हिन्दू स्त्रियाँ अधिक कार्यरत हैं और उनकी स्थिति भी ऊँची है। हिन्दू स्त्रियाँ सामाजिक कल्याण, सार्वजनिक एवं राजनीतिक गतिविधियों में अधिक भाग लेती हैं।

4. तलाक –
हिन्दू स्त्री को तलाक देने का अधिकार प्राप्त नहीं है, जब कि मुस्लिम स्त्री को है। 1955 ई० के हिन्दू विवाह अधिनियम ने हिन्दू स्त्रियों को भी तलाक का अधिकार दिया है, किन्तु व्यवहार में इसका प्रयोग कम ही होता है।

5. विधवा पुनर्विवाह –
हिन्दू विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार नहीं था, जब कि मुस्लिम विधवाओं को है। 1856 ई० के हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम ने हिन्दू स्त्रियों को भी यह अधिकार दिया है, किन्तु व्यवहार में इसका प्रयोग कम ही होता है।

6. बाल-विवाह – हिन्दुओं में बाल-विवाह का प्रचलन है, मुसलमानों में बाल-विवाह संरक्षकों व माता-पिता की स्वीकृति से ही होते हैं। ऐसे विवाह को लड़की बालिग होने पर चाहे तो मना भी कर सकती है।

7. दहेज – हिन्दुओं में दहेज-प्रथा पायी जाती है, जिसके कारण स्त्रियों की स्थिति निम्न हो जाती है, उन्हें परिवार पर भार और उनका जन्म अपशकुन माना जाता है, जब कि मुसलमानों में ‘मेहर’ की प्रथा है जिसमें वर विवाह के समय वधू को कुछ धन देता है। या देने का वादा करता है। इससे स्त्री की सामाजिक, पारिवारिक व आर्थिक स्थिति ऊँची होती है।

8. सम्पत्ति – सम्पत्ति की दृष्टि से मुस्लिम स्त्रियों को माँ, पुत्री एवं पत्नी के रूप में हिस्सेदार व उत्तराधिकारी बनाया गया है और वह अपनी सम्पत्ति का मनमाना उपयोग कर सकती है, किन्तु सन् 1937 तथा 1956 ई० के सम्पत्ति सम्बन्धी अधिनियमों से पूर्व हिन्दू स्त्रियों का सम्पत्ति में कोई अधिकार नहीं था। व्यवहार में आज भी उनकी स्थिति पूर्ववत् ही है।

9. बहुपत्नीत्व – मुसलमानों में बहुपत्नीत्व के कारण हिन्दू स्त्री की तुलना में मुस्लिम स्त्री की स्थिति निम्न है। हिन्दुओं में भी बहुपत्नीत्व पाया जाता है, किन्तु यह अधिकांशतः सम्पन्न लोगों तक ही सीमित है।

10. विवाह की स्वीकृति – मुसलमानों में विवाह से पूर्व लड़की से इसकी स्वीकृति ली जाती है, जब कि हिन्दुओं में ऐसा नहीं होता था, यद्यपि अब ऐसा होने लगा है।

11. सार्वजनिक जीवन – हिन्दू स्त्रियों को सार्वजनिक जीवन एवं राजनीति में भाग लेने की स्वीकृति दी गयी है, जब कि मुस्लिम स्त्रियों को इसकी मनाही है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति हिन्दू स्त्रियों से उच्च है, किन्तु व्यवहार में नहीं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
वैदिक काल में स्त्रियों की दशा को वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वैदिक काल में स्त्री-पुरुषों की स्थिति में समानता थी। इस काल में ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि उस समय लड़के-लड़कियों की शिक्षा साथ-साथ होती थी, सह-शिक्षा को बुरा नहीं समझा जाता था। इस युग में अनेक विदुषी महिलाएँ हुई हैं। इस काल में लड़कियों का विवाह साधारणतः युवावस्था में ही होता था। बाल-विवाह का प्रचलन नहीं था और लड़कियों को अपना जीवन साथी चुनने की स्वतन्त्रता थी। विधवा अपनी इच्छानुसार पुनर्विवाह कर सकती थी या ‘नियोग’ द्वारा सन्तान उत्पन्न कर सकती थी। धार्मिक कार्यों के सम्पादन में स्त्री-पुरुष के अधिकार समान थे। इस काल में पर्दा-प्रथा नहीं थी और स्त्रियों को सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने का अधिकार प्राप्त था। स्त्रियों की रक्षा करना पुरुषों का सबसे बड़ा धर्म माना जाता था और उनको अपमान करना सबसे बड़ा पाप। इस समय पुत्री के बजाय पुत्र के जन्म को विशेष महत्त्व दिया जाता था, परन्तु ऐसा धार्मिक दायित्वों को पूरा करने की दृष्टि से ही था।

प्रश्न 2
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् स्त्रियों में राजनीतिक चेतना में वृद्धि पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् स्त्रियों की राजनीतिक चेतना में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। जहाँ सन् 1937 में महिलाओं के लिए 41 स्थान सुरक्षित थे, वहाँ केवल 10 महिलाओं ने ही चुनाव लड़ा। भारत के नवीन संविधान के अनुसार सन् 1950 में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर नागरिक अधिकार प्रदान किये गये। सन् 1952 में 23 स्त्रियाँ लोकसभा के लिए चुनी गयी थीं, जब कि सन् 1984 के चुनावों में 65 स्त्रियों ने सांसद के रूप में चुनाव में सफलता प्राप्त की। इसके बाद के लोकसभा चुनावों में स्त्री सांसदों की संख्या कम ही हुई है, परन्तु उनकी राजनीतिक चेतना अत्यधिक बढ़ी है। ग्राम पंचायतों एवं नगरपालिकाओं में स्त्रियों के लिए 33 प्रतिशत स्थान आरक्षित किये गये हैं।

अब लोकसभा एवं राज्यों के विधानमण्डलों में स्त्रियों के लिए एक-तिहाई स्थान आरक्षित किये जाने की दृष्टि से प्रयास किये जा रहे हैं। ग्राम पंचायतों एवं स्थानीय निकायों में उत्तर प्रदेश में यह आरक्षण मिल भी गया है। ग्राम पंचायतों, पार्लियामेण्ट और विधानमण्डलों में स्त्री प्रतिनिधियों की संख्या और विभिन्न गतिविधियों में उनकी सहभागिता, राज्यपाल, मन्त्री, मुख्यमन्त्री और यहाँ तक कि प्रधानमन्त्री तक के रूप में उनकी भूमिकाओं से स्पष्ट है कि इस देश में स्त्रियों में राजनीतिक चेतना दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है। अब तक हुए विधानमण्डलों एवं संसद के चुनावों से भी ज्ञात होता है कि महिलाओं में अपने वोट का स्वतन्त्र रूप से उपयोग करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। भारतीय महिलाओं ने राज्यपालों, कैबिनेट स्तर के मन्त्रियों और राजदूतों के रूप में यश प्राप्त किया है। स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद स्त्रियों की राजनीतिक चेतना में अत्यधिक वृद्धि हुई और उनकी स्थिति में भी पर्याप्त सुधार हुआ है।

प्रश्न 3
भारतीय स्त्री की स्थिति में हुए सुधार के दो कारण बताइए।
उत्तर:
भारतीय स्त्री की स्थिति में हुए सुधार के दो कारण निम्नवत् हैं

1. शिक्षा का प्रसार – भारत में स्त्रियों की शिक्षा नित नये आयाम स्थापित कर रही है। शिक्षा ने स्त्रियों में जागरूकता पैदा की है। वे अब अपने अधिकारों के प्रति सजग हो गयी हैं। अब वे आर्थिक रूप से पुरुषों पर निर्भर होने की बजाय आत्मनिर्भर होती जा रही हैं। समाज को कोई भी क्षेत्र स्त्रियों के लिए अछूता नहीं रहा है। वे कार्यालयों में, सेना में, पुलिस में, चिकित्सा सेवाओं में अर्थात् हर स्थान पर पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर कार्य कर रही हैं। नि:सन्देह शिक्षा-प्रसार ने स्त्रियों की दशा में बड़ा सुधार किया है।

2. सामाजिक विधान – हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956; स्त्रियों का अनैतिक व्यापार निरोधक अधिनियम, 1956; हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 आदि सामाजिक विधानों के कारण, भारतीय स्त्री की दशा में बड़ा सुधार आया है। इन अधिनियमों से स्त्रियों को पुरुषों के समान सम्पत्ति के अधिकार मिले हैं, उनकी पारिवारिक स्थिति में सुधार हुआ है, अनैतिक जीवन से मुक्ति प्राप्त हुई है तथा विवाह-विच्छेद एवं विवाह के क्षेत्र में पुरुषों के समान व्यापक अधिकार प्राप्त हुए हैं।

प्रश्न 4
भारत में महिलाओं की निम्न स्थिति के मुख्य कारणों का वर्णन कीजिए। 2016 या हिन्दू स्त्रियों की निम्न स्थिति के चार कारणों को लिखिए। [2014]
उत्तर:
हिन्दू स्त्रियों की निम्न स्थिति के चार कारण निम्नलिखित हैं

1. आर्थिक निर्भरता – स्त्रियों को अपने भरण-पोषण के लिए पुरुषों पर निर्भर रहना पड़ता था, इसीलिए पति को भर्ता कहा जाता था। स्त्रियों को घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर नौकरी, व्यवसाय या अन्य साधन द्वारा धन कमाने की आज्ञा नहीं थी। आर्थिक निर्भरता के कारण पुरुषों की प्रभुता उन पर हावी थी और उन्हें पुरुषों के अधीन रहना पड़ता था। पुरुषों पर आश्रित होने के कारण ही उनकी समाज में परिस्थिति नीची थी।

2. अशिक्षा  – प्राचीन काल में स्त्री शिक्षा का कम प्रचलन था। अशिक्षा और अज्ञानता के कारण स्त्रियों में अन्धविश्वास, कुरीतियाँ और रूढ़िवादिता का बोलबाला था। अशिक्षित नारी को अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं था। वह पति को परमेश्वर मानकर उसका शोषण और अन्याय सहते हुए निम्न स्तर का जीवन-यापन करने के लिए विवश थी।

3. बाल-विवाह – प्राचीन काल में भारत में बाल-विवाहों का प्रचलन था। बाल-विवाहों के कारण बाल-विधुवाओं की संख्या बढ़ गयी। बाल-विधवाओं का जीवन दयनीय था। वे समाज पर भार थीं। बाल-विवाह पद्धति ने नारी की समाज में परिस्थिति नीची बना दी।

4. पुरुष-प्रधान समाज – प्राचीन भारतीय समाज पुरुष-प्रधान था। पुरुष स्त्री को अपने नियन्त्रण में रखने तथा उसे अपने से नीचा समझने की प्रवृत्ति रखता था। पुरुष के इस अहम् भाव ने भी समाज में नारी की परिस्थिति को नीचा बना दिया।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
मध्यकाल (मुगल शासकों का काल) में स्त्रियों की क्या दशा थी ?
उत्तर:
मुगल शासकों के काल को मध्यकाल के नाम से जाना जाता है। 11वीं शताब्दी से ही भारतीय समाज पर मुसलमानों का प्रभाव पड़ने लगा था। इस काल में हिन्दू धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के नाम पर स्त्रियों पर अनेक प्रतिबन्ध लगाये गये, उन्हें अधिकारों से वंचित कर दिया और उन पर कई नियन्त्रण लागू किये गये। इस समय स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं रहा। अब 5 या 6 वर्ष की छोटी-छोटी कन्याओं का भी विवाह किया जाने लगा। इस काल में स्त्रियाँ पूर्णतः परतन्त्र हो चुकी थीं। पारिवारिक, सामाजिक एवं धार्मिक सभी दृष्टि से स्त्री पुरुष पर निर्भर हो गयी थी।

प्रश्न 2
पाश्चात्य संस्कृति ने भारतीय स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को कैसे प्रभावित किया
उत्तर:
भारत में 150 वर्षों तक अंग्रेजों को राज्य रहा। इससे यहाँ के लोग पश्चिम की सभ्यता व संस्कृति के सम्पर्क में आये। पश्चिमी संस्कृति में स्त्री-पुरुषों की समानता, स्वतन्त्रता तथा सामाजिक न्याय पर जोर दिया गया है। पश्चिम के सम्पर्क का प्रभाव भारतीय स्त्रियों पर भी पड़ा और वे भी अपने जीवन में पश्चिम के मूल्यों, विचारों और विश्वासों को अपनाने लगीं। उन्होंने स्वतन्त्रता, समानता, न्याय और अपने अधिकारों की माँग की जिसके फलस्वरूप उन्हें कई सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक सुविधाएँ एवं अधिकार प्राप्त हुए।

प्रश्न 3
शिक्षा के प्रसार से स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में क्या परिवर्तन हुए हैं ?
उत्तर:
जब स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार हुआ तो वे जातिगत बन्धनों, रूढ़िवादिता व धर्मान्धता से मुक्त हुईं। जिन सामाजिक कुरीतियों को वे सीने से चिपटाए हुए थीं, उन्हें त्यागा, उनमें तर्क और विवेक जगा और ज्ञान के द्वार खुले। आधुनिक शिक्षा प्राप्त स्त्रियाँ बन्धन से मुक्ति चाहती हैं, पुरुषों की दासता को स्वीकार नहीं करतीं और वे स्वतन्त्रता तथा समानता की पोषक हैं। शिक्षा ने स्त्रियों को अपने अधिकारों के प्रति भी जागरूक बनाया। इस प्रकार शिक्षा का प्रसार भी स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन के लिए मुख्य कारक रहा है।

प्रश्न 4
भारतीय स्त्रियों की सामाजिक जागरूकता में क्या वृद्धि हुई है ?
उत्तर:
पिछले कुछ वर्षों में स्त्रियों की सामाजिक जागरूकता में पर्याप्त वृद्धि हुई है। अब स्त्रियाँ पर्दा-प्रथा को बेकार समझने लगी हैं और बहुत-सी स्त्रियाँ घर की चहारदीवारी के बाहर खुली हवा में साँस ले रही हैं। आजकल कई स्त्रियों के विचारों और दृष्टिकोणों में इतना अधिक परिवर्तन आ चुका है कि अब वे अन्तर्जातीय-विवाह, प्रेम-विवाह और विलम्ब-विवाह को अच्छा समझने लगी हैं। जातीय नियमों और रूढ़ियों के प्रति महिलाओं की उदासीनता बराबर बढ़ रही है। अब वे रूढ़िवादी सामाजिक बन्धनों से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील हैं। आज अनेक स्त्रियाँ महिला संगठनों और क्लबों की सदस्य हैं तथा समाजकल्याण के कार्य में भी लगी हुई हैं।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
हिन्दू समाज में स्त्री को पुरुष की अद्भगिनी क्यों कहा गया है ?
उत्तर:
हिन्दू समाज में पुरुष के अभाव में स्त्री को और स्त्री के अभाव में पुरुष को अपूर्ण माना गया है। इसी कारण स्त्री को पुरुष की अर्धांगिनी कहा गया है।

प्रश्न 2
वैदिक काल में स्त्रियों की क्या स्थिति थी ?
उत्तर:
वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी तथा पुरुषों के समान ही थी।

प्रश्न 3
जैन धर्म और बौद्ध धर्म में स्त्रियों को किस दृष्टि से देखा गया है ?
उत्तर:
जैन धर्म और बौद्ध धर्म में स्त्रियों को आदर की दृष्टि से देखा गया है।

प्रश्न 4
पाश्चात्य प्रभाव से स्त्रियों की स्थिति में क्या अन्तर आया ?
उत्तर:
पाश्चात्य प्रभाव से स्त्रियों की स्थिति में सुधार आया।

प्रश्न 5
संयुक्त परिवार में स्त्रियों की क्या दशा थी ?
उत्तर:
संयुक्त परिवार व्यवस्था स्त्रियों को सम्मान देने के पक्ष में नहीं थी।

प्रश्न 6
क्या हिन्दू स्त्री को सम्पत्ति का अधिकार है ? (हाँ/नहीं) [2010]
उत्तर:
हाँ

प्रश्न 7
क्या राजा राममोहन राय ने स्त्रियों की दशा में सुधार के लिए प्रयास किये ? (हाँ/नहीं)
उत्तर:
हाँ।

प्रश्न 8
‘सती प्रथा समाप्त करने के लिए सबसे पहले किसने अथक प्रयास किया ? [2011, 12]
उत्तर:
राजा राममोहन राय ने।

प्रश्न 9
क्या मुस्लिम स्त्री को सम्पत्ति का अधिकार है ? [2009]
उत्तर:
हाँ।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
उस सुधारक का नाम चुनिए जिसने स्त्रियों की स्थिति सुधारने के सक्रिय प्रयत्न किये
(क) जयप्रकाश नारायण
(ख) महात्मा गांधी
(ग) चन्द्रशेखर आजाद
(घ) राजा राममोहन राय

प्रश्न 2
निम्नलिखित में उस व्यक्ति का नाम बताइए जिसने स्त्रियों की स्थिति सुधारने में सक्रिय भाग नहीं लिया
(क) राजा राममोहन राय
(ख) ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
(ग) स्वामी दयानन्द
(घ) गोपालकृष्ण गोखले

प्रश्न 3
निम्नलिखित दशाओं में से कौन-सी दशा स्त्रियों की शोचनीय स्थिति के लिए उत्तरदायी है?
(क) पश्चिमी शिक्षा
(ख) एक-विवाह का नियम
(ग) औद्योगीकरण व नगरीकरण
(घ) अशिक्षा

प्रश्न 4
भारतीय नारी की स्थिति में सुधार किस उपाय से होगा ? [2013, 15]
(क) बाल-विवाह से
(ख) आश्रम-व्यवस्था से
(ग) पाश्चात्य शिक्षा से
(घ) समानता के अधिकार से

प्रश्न 5
दि पोजिशन ऑफ वुमेन इन हिन्दू सिविलाइजेशन’ पुस्तक के लेखक कौन हैं ?
(क) पी० एच० प्रभु
(ख) डॉ० नगेन्द्र
(ग) अल्तेकर
(घ) राधाकमल मुखर्जी

प्रश्न 6
मुस्लिम स्त्रियों की निम्न स्थिति हेतु कौन-सा कारक उत्तरदायी है? [2012]
(क) पर्दा प्रथा
(ख) अशिक्षा
(ग) पुरुषों का धार्मिक आधिपत्य
(घ) ये सभी

उत्तर:
1. (घ) राजा राममोहन राय,
2. (घ) गोपालकृष्ण गोखले,
3. (घ) अशिक्षा,
4. (घ) समानता के अधिकार से,
5. (ग) अल्तेकर,
6. (घ) ये सभी।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 16 Status of Women in Indian Society (भारतीय समाज में स्त्रियों का स्थान) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 16 Status of Women in Indian Society (भारतीय समाज में स्त्रियों का स्थान), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 11 Environmental Pollution Problems and Remedies

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 11 Environmental Pollution Problems and Remedies (पर्यावरण प्रदूषण-समस्याएँ एवं निदान) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 11 Environmental Pollution Problems and Remedies(पर्यावरण प्रदूषण-समस्याएँ एवं निदान).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 11
Chapter Name Environmental Pollution Problems and Remedies
(पर्यावरण प्रदूषण-समस्याएँ एवं निदान)
Number of Questions Solved 38
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 11 Environmental Pollution Problems and Remedies (पर्यावरण प्रदूषण-समस्याएँ एवं निदान)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पर्यावरण-प्रदूषण से क्या आशय है? पर्यावरण-प्रदूषण के मुख्य कारणों तथा नियन्त्रण के उपायों का उल्लेख कीजिए।
या
पर्यावरण प्रदूषण की क्या अवधारणा है? प्रदूषण को रोकने के लिए उपचारात्मक उपायों का वर्णन कीजिए। [2013]
या
प्रदूषण रोकने के विभिन्न उपायों की विवेचना कीजिए। [2016]
उत्तर
पर्यावरण-प्रदूषण का अर्थ
पर्यावरण प्रदूषण का सामान्य अर्थ है हमारे पर्यावरण का दूषित हो जाना। पर्यावरण का निर्माण प्रकृति ने किया है। प्रकृति-प्रदत्त पर्यावरण में जब किन्हीं तत्त्वों का अनुपात इस रूप में बदलने लगता है। जिसका सामान्य जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की सम्भावना होती है, तब कहा जाता है कि पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। उदाहरण के लिए-यदि पर्यावरण के मुख्य भाग वायु में ऑक्सीजन के स्थान पर किसी अन्य विषैली गैस या गैसों का अनुपात बढ़ जाए तो यह कहा जाएगा कि वायु-प्रदूषण हो गया है। पर्यावरण के किसी भी भाग के प्रदूषित हो जाने को पर्यावरण-प्रदूषण कहा जाता है। यह प्रदूषण जल-प्रदूषण, वायु-प्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण तथा मृदा-प्रदूषण के रूप में हो सकता है।

पर्यावरण-प्रदूषण के कारण
आधुनिक विश्व के सम्मुख पर्यावरण-प्रदूषण एक अत्यन्त गम्भीर समस्या है। वायु, जल और भूमि का प्रदूषण जिन कारणों से हुआ है उनका उल्लेख यहाँ संक्षेप में किया जा रहा है-

1. औद्योगीकरण
वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा के विकास एवं अनुसन्धानों के कारण पर्यावरण में प्रदूषण उत्पन्न हुआ है। औद्योगीकरण की प्रवृत्ति के फलस्वरूप जंगल काटे जा रहे हैं, पहाड़ों को समतल किया जा रहा है, नदियों के स्वाभाविक बहाव को मोड़ा जा रहा है, खनिज पदार्थों का अन्धाधुन्ध दोहन हो रहा है, इन सबके फलस्वरूप पर्यावरण प्रदूषित होता है। औद्योगिक चिमनियों में रात-दिन निकलने वाले धुएँ से वायु प्रदूषण हो रहा है, कल-कारखानों से निकलने वाला कचरा और गन्दा पानी नदियों के जल में मिल रहा है. जिसके फलस्वरूप नदियों का जल-प्रदषित होता जा रहा है। इस तरह औद्योगिक विकास से प्रदूषण निरन्तर बढ़ रहा है।

2. वाहित मल
शहरों के मकानों से निकलने वाला मलमूत्र सीवर पाइप के द्वारा नदी, तालाबों और झीलों में डाल दिया जाता है। जो उनके जल को प्रदूषित कर देता है।

3. घरेलू अपमार्जक
घरों, अस्पतालों आदि की सफाई में विभिन्न प्रकार के साबुन, विम, डिटरजेण्ट पाउडर आदि प्रयुक्त होते हैं जो नालियों के द्वारा नदियों, तालाबों और झीलों आदि में मिल जाते हैं। अपमार्जकों के फलस्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड और कार्बन अम्ल उत्पन्न होते हैं और जल को प्रदूषित करते हैं।

4. कूड़े-करकट और मृत जीवों का सड़ना
कूड़े-करकट के ढेर और मृत जीवों से जो दुर्गन्ध उठती है उससे वायु प्रदूषित हो जाती है। लाशों के सड़ने में अमोनिया गैस वायु और जल दोनों को ही प्रदूषित करती है।

5. प्रकृति का अनुचित शोषण
अपने भौतिक विकास हेतु मानव प्रकृति का बेदर्दी से शोषण कर रहा है। वह जंगलों को उजाड़ रहा है, पर्वतों को समतल बना रहा है और खनिज पदार्थों का निरन्तर दोहन कर रहा है, जिसके फलस्वरूप सूखा, बाढ़ और भू-स्खलन की समस्या उत्पन्न हुई है। वनों की अन्धाधुन्ध कटाई से वातावरण में कार्बन ड्राई-ऑक्साइड की सान्द्रता निरन्तर बढ़ रही है।

6. रासायनिक तत्त्वों का वायुमण्डल में मिश्रण
निरन्तर उत्पन्न होने वाले धुएँ से रासायनिक तत्त्व वायुमण्डल में मिल रहे हैं, कार्बन मोनो-ऑक्साइड निरन्तर मानव को सता रही है और इसके फलस्वरूप दम घुटने लगता है और उल्टी आने लगती है। सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन की वायुमण्डल में अधिक मात्रा होने पर फेफड़ों की बीमारियाँ और आँखों में जलन उत्पन्न होती है। वायुमण्डल में रासायनिक गैसों की अधिक मात्रा के कारण अम्लीय वर्षा का भय भी बना रहता है।

7. स्वतः चल-निर्वातक
जेट-विमान, ट्रेन, मोटर, ट्रैक्टर, टैम्पों आदि रात-दिन दौड़ते हैं। पेट्रोल, डीजल और मिट्टी के तेल के धुएँ से अनेक प्रकार की गैसें उत्पन्न होती हैं, जो वातावरण में फैलकर वायु को प्रदूषित करती हैं।

8. कीटनाशक पदार्थ
कीटनाशक पदार्थ चूहों, कीड़े-मकोड़ों और जीवाणुओं को मारने के लिए खेतों और उद्यानों के पौधों पर छिड़के जाते हैं। डी०डी०टी०, फिनॉयल, क्लोरीन, पोटैशियम परमैगनेट का प्रभाव हानिकारक होता है। इनके छिड़काव से मछलियाँ मर जाती हैं, भूमि की उर्वरा-शक्ति कम हो जाती है और सूक्ष्म जीव जो पर्यावरण को सन्तुलित रखते हैं, समाप्त हो जाते हैं।

9. रेडियोधर्मी पदार्थ
नाभिकीय अस्त्रों के विस्फोटों के फलस्वरूप जल, थल और वायु सभी में रेडियोधर्मी पदार्थ प्रवेश कर जाते हैं और पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि करते हैं।

पर्यावरण-प्रदूषण के नियन्त्रण के उपाय :
पर्यावरण प्रदूषण अपने आप में एक गम्भीर समस्या है तथा सम्पूर्ण मानव जगत के लिए चुनौती है। इस समस्या के समाधान के लिए मानव-मात्र चिन्तित है। विश्व के प्राय: सभी देशों में पर्यावरण प्रदूषण के नियन्त्रण के लिए अनेक उपाय किये जा रहे हैं। वास्तव में भौतिक प्रगति तथा पर्यावरण-प्रदूषणे दो सहगामी प्रक्रियाएँ हैं। इस स्थिति में यदि कहा जाए कि हम औद्योगिक तथा भौतिक क्षेत्र में अधिक-से-अधिक प्रगति भी करते रहें तथा साथ ही हमारा पर्यावरण भी प्रदूषित न हो, तो यह असम्भव है। हमें पर्यावरण प्रदूषण को समाप्त नहीं कर सकते, हद-से-हद पर्यावरण-प्रदूषण को नियन्त्रित कर सकते हैं अर्थात् सीमित कर सकते हैं। पर्यावरण-प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं-

1. औद्योगिक संस्थानों के लिए कठोर निर्देश जारी किये गये हैं कि वे पर्यावरण
प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए हर सम्भव उपाय करें। इसके लिए आवश्यक है कि पर्याप्त ऊँची चिमनियाँ लगाई जाएँ तथा उनमें, उच्च कोटि के छन्ने लगाए जाएँ। औद्योगिक संस्थानों से विसर्जित होने वाले जल को पूर्णरूप से उपचारित करके ही पर्यावरण में छोड़ा जाना चाहिए। यही नहीं ध्वनि प्रदूषण को रोकने के लिए जहाँ-जहाँ सम्भव हो ध्वनि अवरोधक लगाये जाने चाहिए। औद्योगिक संस्थानों के आस-पास अधिक-से-अधिक पेड़ लगाये जाने चाहिए।

2. वाहन भी पर्यावरण
प्रदूषण के मुख्य कारण है। अतः वाहनों द्वारा होने वाले प्रदूषण को भी नियन्त्रित करना आवश्यक है। इसके लिए वाहनों के इंजन की समय-समय पर जाँच करवाई जानी चाहिए। ईंधन में होने वाली मिलावट को भी रोकना चाहिए। कुछ नगरों में CNG चालित वाहनों को इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे भी पर्यावरण-प्रदूषण को नियन्त्रित करने में योगदान मिलेगा।

3. जन
सामान्य को पर्यावरण के प्रदूषण के प्रति सचेत होना चाहिए तथा जीवन के हर क्षेत्र में प्रदूषण को रोकने के हर सम्भव उपाय किये जाने चाहिए। पर्यावरण-प्रदूषण वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति की समस्या है। अत: इसे नियन्त्रित करने के लिए प्रत्येक व्यक्तिं को जागरूक होना चाहिए। पर्यावरण प्रदूषण के प्रत्येक कारण को जानने का प्रयास किया जाना चाहिए तथा उसके निवारण का उपाय किया जाना चाहिए।

प्रश्न 2
जल प्रदूषण से आप क्या समझते हैं ? इसके मुख्य कारणों, हानियों तथा नियन्त्रित करने के उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
जल प्रदूषण : पर्यावरण प्रदूषण का एक मुख्य रूप या प्रकार है-जल प्रदूषण। जल के मुख्य स्रोतों में दूषित एवं विषैले तत्त्वों का समावेश होना जल प्रदूषण कहलाती है। यह भी आज के युग की गम्भीर समस्या है। इसका अत्यधिक बुरा प्रभाव मानव-समाज, प्राणि-जगत तथा वनस्पति जगते पर पड़ता है। जल प्रदूषण के कारणों, हानियों तथा इसे नियन्त्रित करने के उपायों का विवरण निम्नवर्णित है।

जल प्रदूषण के कारण
जल प्रदूषण के निम्नलिखित कारण हैं:

  1. औद्योगीकरण जल प्रदूषण के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी है। चमड़े के कारखाने, चीनी एवं ऐल्कोहॉल के कारखाने कागज की मिलें तथा अन्य अनेकानेक उद्योग नदियों के जल को प्रदूषित करते हैं।
  2. नगरीकरण भी जल प्रदूषण के लिए उत्तरदायी है। नगरों की गन्दगी, मल व औद्योगिक अवशिष्टों। के विषैले तत्त्व भी जल को प्रदूषित करते हैं।
  3. समद्रों में जहाजरानी एवं परमाणु अस्त्रों के परीक्षण से भी जल प्रदषित होता है।
  4. नदियों के प्रति भक्ति-भाव होते हुए भी तमाम गन्दगी; जैसे-अधजले शव और जानवरों के मृत शरीर तथा अस्थि विसर्जन आदि भी नदियों में ही किया जाता है, जो नदियों के जल प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है।
  5. जल में अनेक रोगों के हानिकारक कीटाणु मिल जाते हैं, जिससे प्रदूषण उत्पन्न हो जाता है।
  6. भू-क्षरण के कारण मिट्टी के साथ रासायनिक उर्वरक तथा कीटनाशक पदार्थों के नदियों में पहुँच जाने से नदियों का जल प्रदूषित हो जाता है।
  7. घरों से बहकर निकलने वाला फिनायल, साबुन, सर्फ एवं शैम्पू आदि से युक्त गन्दा पानी तथा शौचालय का दूषित मल नालियों में प्रवाहित होता हुआ नदियों और झीलों के जल में मिलकर उसे प्रदूषित कर देता है।
  8. नदियों और झीलों के जल में पशुओं को नहलाना, मनुष्यों द्वारा स्नान करना व साबुन आदि से गन्दे वस्त्र धोना भी जल प्रदूषण का मुख्य कारण है।

“जल प्रदूषण की हानियाँ
जल प्रदूषण की हानियों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है।

  1. प्रदूषित जल के सेवन से जीवों को अनेक प्रकार के खतरों का सामना करना पड़ता है।
  2. जल प्रदूषण से अनेक बीमारियाँ; जैसे-हैजा, पीलिया, पेट में कीड़े, यहाँ तक कि टायफाइड भी प्रदूषित जल के कारण ही होता है। राजस्थान के दक्षिणी भाग के आदिवासी गाँवों में गन्दे तालाबों का पानी पीने से “नारू’ नाम का भयंकर रोग होता है। इन गाँवों के 6 लाख 90 हजार लोगों में से 1 लाख 90 हजार लोगों को यह रोग है।
  3. प्रदूषित जल का प्रभाव जल में रहने वाले जन्तुओं और जलीय पौधों पर भी पड़ रहा है। जल प्रदूषण के कारण मछली और जलीय पौधों में 30 से 50 प्रतिशत तक की कमी हो गयी है। जो व्यक्ति खाद्य-पदार्थ के रूप में मछली आदि का उपयोग करते हैं, उनके स्वास्थ्य को भी हानि पहुँचती है।
  4. प्रदूषित जल का प्रभाव कृषि उपजों पर भी पड़ता है। कृषि से उत्पन्न खाद्य-पदार्थों को मानव व पशुओं द्वारा उपयोग में लाया जाता है, जिससे मानव व पशुओं के स्वास्थ्य को हानि होती है।
  5. जल, जन्तुओं के विनाश से पर्यावरण असन्तुलित होकर विभिन्न प्रकार के कुप्रभाव उत्पन्न करता

जल प्रदूषण को नियन्त्रित करने के उपाय
जल की शुद्धता और उपयोगिता बनाए रखने के लिए प्रदूषण को रोकना आवश्यक है। जल प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए निम्नलिखिते, उपाय प्रयोग में लाए जा सकते हैं

  1. नगरों के दूषित जल और मल को नदियों और झीलों के स्वच्छ जल में मिलने से रोका जाए।
  2. कल-कारखानों के दूषित और विषैले जल को नदियों और झीलों के जल में न गिरने दिया जाए।
  3. मल-मूत्र एवं गन्दगीयुक्त जल का उपयोग बायो-गैस बनाने या सिंचाई के लिए करके प्रदूषण को | रोका जा सकता है।
  4. सागरों के जल में आणविक परीक्षण न कराए जाएँ।
  5. नदियों के तटों पर शवों को ठीक से जलाया जाये तथा उनकी राख भूमि में दबा दी जाए।
  6. पशुओं के मृतक शरीर और मानव शवों को स्वच्छ जल में प्रवाहित न करने दिया जाए।
  7. जल प्रदूषण रोकने के लिए नियम बनाए जाएँ तथा उनका कठोरता से पालन किया जाए।
  8. नदियों, कुओं, तालाबों और झीलों के जल को शुद्ध बनाए रखने के लिए प्रभावी उपाय काम में लाए | जाएँ।
  9. जल प्रदूषण के कुप्रभाव तथा उनके रोकने के उपायों की जनसामान्य में प्रचार-प्रसार कराया जाए।
  10. जल उपयोग तथा जल संसाधन संरक्षण के लिए राष्ट्रीय नीति बनायी जाए।

प्रश्न 3
भारत में पर्यावरण-प्रदूषण का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए। पर्यावरण संरक्षण के सरकारी उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
भारत में पर्यावरण-प्रदूषण भारत में पर्यावरण-प्रदूषण की समस्या लगातार बढ़ रही है। सबसे प्रमुख समस्या जल-प्रदूषण की है। इसके बाद नगरीय क्षेत्रों में वायु और ध्वनि-प्रदूषण की समस्या है। लगभग सभी नदियाँ प्रदूषण की समस्या से ग्रस्त हैं और देश में उपलब्ध जल का लगभग 70 प्रतिशत भाग प्रदूषित है। लगभग सभी नदियों में कारखानों को गन्दा पानी छोड़ा जाता है साथ ही मल-मूत्र भी मिलता रहता है। दामोदर नदी में दुर्गापुर और आसनसोल में स्थित कारखानों से छोड़े जाने वाले अवशिष्टों और मल आदि के मिलने से फिनोल, सायनाइड, अमोनिया आदि विषैले तत्वों की मात्रा बढ़ गयी है। हुगली नदी का जल और अधिक प्रदूषित है। गंगा जल में स्वयं शुद्ध होते रहने की क्षमता है परन्तु इसका जल भी प्रदूषित हो गया है। कानपुर और वाराणसी में इसका जल बहुत अधिक प्रदूषित है। भारत में वायु-प्रदूषण भी निरन्तर बढ़ रहा है।

भारतीय वायुमण्डल में लगभग 40 लाख टन सल्फर एसिड, 70 लाख टन कार्बन-कण, 10 लाख टन कार्बन मोनो-ऑक्साइड, नाइट्रोजन-ऑक्साइड आदि गैसों का सम्मिश्रण है। बड़े नगरों; जैसे-कोलकाता, मुम्बई, चेन्नई, दिल्ली, कानपुर, अहमदाबाद आदि की वायु बहुत अधिक प्रदूषित है। कोलकाता सबसे अधिक प्रदूषित शहर है। यहाँ की वायु. में सल्फर डाइ-ऑक्साइड और धूल कणों की मात्रा सबसे अधिक है। कोलकाता शहर लगभग 1300 टन प्रदूषक तत्त्व वायुमण्डल में छोड़ता है। भारत में ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ रहा है। बढ़ती हुई जनसंख्या, नगरीकरण की प्रवृत्ति और स्वचालित वाहनों की बाढ़ से ध्वनि प्रदूषण की समस्या बढ़ती जा रही है। फलस्वरूप लोगों की श्रवण-क्षमता घटती जा रही है, नींद गायब हो रही है और स्नायुविक रोग बढ़ रहे हैं। भारत में मृदा-प्रदूषण, भू-प्रदूषण और भू-स्खलन आदि की समस्याएँ भी हैं। थार का रेगिस्तान देश के अन्दरुनी हिस्सों में बढ़ रहा है, हिमालय वीरान हो रहा है, भूमि की उर्वरा-शक्ति कम हो रही है, जलवायु बदल रही है और सूखा एवं बाढ़ का प्रकोप निरन्तर बढ़ रहा है।

पर्यावरण संरक्षण के सरकारी उपाय
सन् 1990 के बाद केन्द्र तथा राज्य सरकारों ने देश में पर्यावरण संरक्षण हेतु अनेक उपाय किये हैं, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं

  1. केन्द्र सरकार ने विशेषज्ञों, विद्वानों तथा प्रशासनिक अधिकारियों के लिए पर्यावरण सम्बन्धी शिक्षण और प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था की है।
  2. पर्यावरण और वन मन्त्रालय ने पर्यावरण संरक्षण हेतु अनेक अनुसन्धान तथा विकास कार्यक्रम
    चलाये हैं। मई, 2000 तक लगभग 108 परियोजनाओं पर कार्य हो चुका है।
  3. केन्द्र सरकार ने देश के कुछ वनों को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया है। इन संरक्षित क्षेत्रों में शिकार खेलना तथा वृक्षों को काटना दण्डनीय अपराध है। उत्तर प्रदेश में दुधवा का वन्य क्षेत्र इसका उदाहरण है।
  4. सरकार ने पर्वतीय क्षेत्रों में अनेक विकास कार्यक्रम आरम्भ किये हैं, जिनसे पर्यावरण संरक्षण
    को अत्यधिक प्रोत्साहन मिल रहा है।
  5. पर्यावरण निदेशालय ने ‘राष्ट्रीय पर्यावरण जागरूकता, अभियान आरम्भ किया है। इस अभियान में गैर-सरकारी संगठनों, शिक्षण संस्थाओं तथा सरकारी विभागों के प्रस्ताव भी आमन्त्रित किये
    गये हैं।
  6. अप्रैल 1995 से देश के चार महानगरों-कोलकाता, मुम्बई, चेन्नई और दिल्ली में हरित ईंधन योजना चलाई जा रही है। इसके अन्तर्गत वाहनों में सीसा रहित पेट्रोल का उपयोग अनिवार्य कर दिया गया है।
  7. गंगा नदी तथा अन्य जलाशयों को गन्दगी से मुक्त रखने के लिए सरकार के निर्देशन में देश भर में 270 योजनाएँ चल रही हैं।
  8. सरकार ने पर्यावरण संरक्षण कार्यक्रमों को प्रोत्साहन देने के लिए इन्दिरा गाँधी पर्यावरण पुरस्कार, राष्ट्रीय पर्यावरण फैलोशिप आदि पुरस्कार योजनाएँ लागू की हैं।
  9. सरकार ने केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड तथा राज्य प्रदूषण बोर्ड की स्थापना की है। इन संस्थाओं का प्रमुख कार्य प्रदूषण नियन्त्रण कानूनों को कठोरतापूर्वक लागू करना तथा पर्यावरण सम्बन्धी प्रयासों की समीक्षा करना है।
  10. सरकार ने वृक्षारोपण को प्रोत्साहन देने के लिए वर्ष 1997-98 से फ्लाई ऐश सुधार योजना लागू की है। इस योजना के अन्तर्गत रिक्त भूमि पर वृक्ष लगाये जाते हैं।
  11. स्वयं सेवी संस्थाएँ तथा राज्य सरकारें पर्यावरण संरक्षण के कार्य में महत्त्वपूर्ण योग दे रही हैं।
  12. वन संरक्षण, वृक्षारोपण, चिपको आन्दोलन, वन महोत्सव आदि कार्यक्रमों से भी पर्यावरण संरक्षण को विशेष प्रोत्साहन मिला है।
  13. उत्तर प्रदेश सरकार ने वर्ष 1997-98 में एक सचल पर्यावरणीय प्रयोगशाला स्थापित की है, जिसका कार्य घटनास्थल पर जाकर पर्यावरण विरोधी कार्यों की जाँच करना है।
  14. जन-जागरण कार्यक्रम के अन्तर्गत जनता को वायु, जल, ध्वनि, मृदा आदि प्रदूषणों से उत्पन्न खतरों से अवगत कराया जा रहा है और उन्हें पर्यावरण-शिक्षा ग्रहण करने की सुविधाएँ प्रदान की जा रही हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पर्यावरण के वर्गीकरण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
अध्ययन की सुविधा तथा प्रभावों की भिन्नता को ध्यान में रखते हुए सम्पूर्ण पर्यावरण को निम्नलिखित वर्गों में वर्गीकृत किया गया है-
1. प्राकृतिक अथवा भौगोलिक पर्यावरण
पर्यावरण के इस वर्ग के अन्तर्गत हम उन समस्त प्राकृतिक शक्तियों एवं कारकों को सम्मिलित करते हैं जो मनुष्य को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। इस स्थिति में पृथ्वी, आकाशवायु, जल, वनस्पति तथा समस्त जीव-जन्तु प्राकृतिक पर्यावरण (Natural Environment) के ही घटक हैं। प्राकृतिक पर्यावरण ही पर्यावरण का मुख्यतम’ घटक है तथा पर्यावरण का यही घटक मानव-जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करता है। वास्तव में प्राकृतिक पर्यावरण का निर्माण मनुष्य ने नहीं किया है तथा न ही मनुष्य प्राकृतिक पर्यावरण को पूरी तरह से नियन्त्रित कर पाया है। सामान्य रूप से, पर्यावरण के अन्तर्गत प्राकृतिक पर्यावरण के जनजीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का ही विस्तृत अध्ययन किया जाता है।

2. सामाजिक पर्यावरण
पर्यावरण का द्वितीय घटक सामाजिक पर्यावरण (Social Environment) कहलाता है। सामाजिक पर्यावरण का निर्माण मनुष्य ने स्वयं किया है। पर्यावरण के इस बटक में सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचे को सम्मिलित किया जाता है। इसलिए इसे सामाजिक सम्बन्धों का पर्यावरण भी कहा जाता है। इसके मुख्य अंग हैं–परिवार, आस-पड़ोस, रिश्ते-नाते, खेल के साथी, समूह एवं समुदाय तथा विद्यालय।।

3. सांस्कृतिक पर्यावरण
पर्यावरण का तीसरा मुख्य घटक है–सांस्कृतिक पर्यावरण (Cultural Environment)। सांस्कृतिक पर्यावरण में मनुष्य द्वारा निर्मित वस्तुओं एवं परिवेश को सम्मिलित किया जाता है। सांस्कृतिक पर्यावरण के दो पक्ष स्वीकार किए गए हैं, जिन्हें क्रमशः भौतिक सांस्कृतिक पर्यावरण तथा अभौतिक सांस्कृतिक पर्यावरण कहा जाता है। मनुष्य द्वारा विकसित किए गए समस्त भौतिक एवं यान्त्रिक साधन भौतिक सांस्कृतिक पर्यावरण में तथा इससे भिन्न धर्म, संस्कृति, भाषा, लिपि, रूढ़ियाँ, प्रथाएँ, विश्वास, कानून आदि अभौतिक सांस्कृतिक पर्यावरण में सम्मिलित माने । जाते हैं।

प्रश्न 2
जल-प्रदूषण का अर्थ एवं मुख्य स्रोतों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
जल-प्रदूषण का अर्थ
वर्तमान युग में जल-प्रदूषण की समस्या अत्यन्त गम्भीर है और अनेक बीमारियों का कारण प्रदूषित जल’ ही है। जल में दो भाग ऑक्सीजन और एक भाग हाइड्रोजन होता है, इसके साथ उसमें अनेक खनिज तत्त्व, कार्बनिक-अकार्बनिक पदार्थ और गैसें घुल जाती हैं। यदि जल में घुले हुए पदार्थ आवश्यकता से अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाते हैं अथवा कुछ ऐसे पदार्थ मिल जाते हैं, जो साधारणतया जल में उपस्थित नहीं रहते तो जल प्रदूषित हो जाता है। प्रदूषित जल का उपयोग मानव, जीव-जन्तु, पेड़-पौधों और सभी वनस्पतियों के लिए हानिकारक होता है। जल-प्रदूषण के स्रोत–अनेक प्रकार के पदार्थ जल को प्रदूषित कर देते हैं। यहाँ जल को प्रदूषित करने वाले स्रोतों का उल्लेख संक्षेप में किया जा रहा है

  1. जल-प्रदूषण का प्रमुख स्रोत मल-मूत्र, औद्योगिक बहिस्राव, उर्वरक और कीटनाशक पदार्थ हैं। सीवर पाइप, घरेलू कूड़ा-करकट और कारखानों से निकले हुए अवशिष्टों का जल में विलय होने से जल प्रदूषित हो जाता है।
  2. तेल एवं तैलीय पदार्थ भी जल-प्रदूषण उत्पन्न करते हैं। जलयानों के अवशिष्ट, तेल के विसर्जन, खनिज तेल के कुओं के रिसाव के फलस्वरूप जल-प्रदूषण में वृद्धि होती है।
  3. जल का तापीय प्रदूषण भी समस्या का एक स्रोत है। विभिन्न कारखानों के संयन्त्रों में प्रयुक्त | रिऐक्टरों के ताप को कम करने हेतु नदी अथवा झील के जल का प्रयोग किया जाता है और तत्पश्चात् जल पुनः नदी अथवा झीलों में छोड़ दिया जाता है। इस गर्म जल के फलस्वरूप तापीय प्रदूषण होता है।
  4. रेडियोधर्मी अवशिष्टों से भी जल-प्रदूषण होता है। नाभिकीय विस्फोटों के फलस्वरूप रेडियोधर्मी विशिष्ट जल और जलाशयों में मिल जाते हैं और ये अधिक नुकसान पहुँचाते हैं।
  5. मृत जीवों की लाशों को जलाशय में फेंकने के फलस्वरूप जल, दुर्गन्ध एवं प्रदूषणयुक्त हो जाता है।
  6. जल में विभिन्न रोगों के जीवाणुओं का समावेश हो जाने से भी जल प्रदूषित हो जाता है।

प्रश्न 3
जल-प्रदूषण का जनजीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? इसे रोकने के उपायों का भी उल्लेख कीजिए।
या
जल प्रदूषण की समस्या के निवारण हेतु अपनाए जाने वाले उपायों का वर्णन कीजिए। [2016]
उत्तर
जल-प्रदूषण का जनजीवन पर प्रभाव
जल-प्रदूषण का मानवे, जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों पर अत्यधिक बुरा प्रभाव पड़ेता है। प्रदूषित जल मानव-स्वास्थ्य हेतु हानिकारक होता है। आंत्रशोध, पेचिस, पीलिया, हैजा, टाइफाइडऔर अपच आदि रोग दूषित जल के फलस्वरूप ही होते हैं। गन्दे जल से नहाने से विभिन्न प्रकार के चर्मरोग हो जाते हैं। दूषित जल का प्रभाव मानव के साथ ही जल-जीवों पर भी पड़ता है। मछलियों, कछुओं, जलीय पक्षियों और जलीय पादपों का जीवन खतरे में पड़ जाता है। यदि जल में ऑक्सीजन की मात्रा घट जाती है और सल्फेट, नाइट्रेट और क्लोराइड आदि की मात्रा बढ़ जाती है तो जलीय जन्तुओं और पादपों के जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।

जल-प्रदूषण रोकने के उपाय-जल में शुद्धता की प्रक्रिया प्रकृति ही करती रहती हैं परन्तु फिर भी जल-प्रदूषण को रोकने के उपाय किये जाने चाहिए। कारखानों से निकलने वाले जहरीले अवशिष्ट पदार्थों और गर्म जल को जलाशयों में नहीं फेंका जाना चाहिए। मल-मूत्र आदि को जलाशय में नहीं गिराया जाना चाहिए इन्हें बस्तियों से दूर गड़ों में गिराया जाना चाहिए। कूड़ा-करकट, मरे जानवर और लाश नदी, तालाब अथवा झील में न फेंककर उन्हें जला दिया जाना। चाहिए। पेयजल के स्रोतों को दीवार बनाकर बाह्य गन्दगी से दूर रखना चाहिए। जनसामान्य को । जल-प्रदूषण के कारणों, दुष्प्रभावों और इनके रोकथाम की जानकारी प्रदान की जानी चाहिए। समय-समय पर नदी, तालाब और कुओं के जल का परीक्षण किया जाना चाहिए।

प्रश्न 4
वायु-प्रदूषण का अर्थ एवं मुख्य स्रोतों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
अर्थ: मानव और सभी जीवों के लिए स्वच्छ वायु आवश्यक है। वायुमण्डल में विभिन्न गैसें एक निश्चित मात्रा एवं अनुपात में होती हैं। जब किन्हीं कारणों से उनकी मात्रा और अनुपात में परिवर्तन हो जाता है तो वायु प्रदूषित हो जाती है। ‘विश्व-स्वास्थ्य संगठन ने वायु-प्रदूषण के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा-“वायु प्रदूषण उन परिस्थितियों तक सीमित रहता है जहाँ वायुमण्डल में दूषित पदार्थों की सान्द्रता मनुष्य और पर्यावरण को हानि पहुँचाने की सीमा तक बढ़ती है। वायु-प्रदूषण के स्रोत–वायु-प्रदूषण मुख्य रूप से मानव की गतिविधियों के फलस्वरूप होता है। औद्योगीकरण, नगरीकरण तथा ईंधन चालित वाहनों में होने वाली वृद्धि वायु-प्रदूषण के मुख्य कारण हैं।

वायुमण्डल में विभिन्न प्रकार की गैसें कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनो-ऑक्साइड, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, ओजोन आदि निश्चित मात्रा और अनुपात में हैं। रेलगाड़ी, मोटर, कार, टैक्ट्रर, टैम्पो, जेट विमान और पेट्रोल एवं डीजल से चलने वाली मशीनों और लकड़ी, कोयला, तेल आदि के जलने से निकलने वाले धुएँ से वायु प्रदूषण उत्पन्न होता है। कभी-कभी प्रकृति भी वायु-प्रदूषण का कारण बनती है। ज्वालामुखी विस्फोट, कोहरा, आँधी-तूफान आदि भी वायु प्रदूषण उत्पन्न करते हैं। इसके अतिरिक्त वस्तुओं के सड़ने-गलने के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाली दुर्गन्ध से भी वायु-प्रदूषण में वृद्धि होती है। वनों अर्थात् पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई के कारण भी वायु में गैसों का सन्तुलन बिगड़ रहा है तथा वायु प्रदूषित हो रही है।

प्रश्न 5
वायु-प्रदूषण का जनजीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? इसे रोकने के उपायों का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर
वायु-प्रदूषण का जनजीवन पर प्रभाव
वायु प्रदूषण का प्रभाव मानव और अन्य जीवों तथा पेड़-पौधों सभी पर पड़ता है। वायु-प्रदूषण से मानव का स्वास्थ्य खराब हो जाता है। खाँसी, फेफड़ों का कैंसर, एक्जिमा आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं, रक्तचाप बढ़ जाता है, आँखों के रोग उत्पन्न हो जाते हैं, चर्मरोग और मुँहासे आदि उत्पन्न हो जाते हैं। वायु-प्रदूषण और रासायनिक गैसों से पेड़ों की पत्तियाँ और नसें सूख जाती हैं। भारत में कोयला खानों में मजदूरी करने वाले लोग फुफ्फुस रोग से ग्रस्त हो जाते हैं। मानव की भाँति ही अन्य जीवों का श्वासतन्त्र और केन्द्रीय-नाड़ी संस्थान वायु-प्रदूषण से प्रभावित होता है।

बादल, वर्षा और तापक्रम पर भी वायु-प्रदूषण का प्रभाव पड़ता है। वाय-प्रदषण रोकने के उपाय-वांय-प्रदषण को रोकने के लिए व्यापक पैमाने पर कार्य किया। जाना चाहिए। कारखानों को आबादी से दूर स्थापित किया जाना चाहिए, उनकी चिमनियों को ऊँचा रखा जानी चाहिए और उनमें विशेष फिल्टर लगाया जाना चाहिए। भोजन पकाने के लिए कोयला, लकड़ी का प्रयोग कम किया जाना चाहिए, धुआँरहित ईंधन का प्रयोग किया जाना चाहिए, स्वचालित वाहनों की धूम्रनलिका में छन्ना लगाना आवश्यक है। अधिक धुआँ देने वाले वाहनों को नष्ट कर दिया जाना चाहिए। गोबर, कूड़ा-करकट को आबादी से दूर किसी गड्ढे में डालकर मिट्टी से ढक दिया जाना चाहिए।

प्रश्न 6
ध्वनि-प्रदूषण का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
ध्वनि प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? [2013]
उतर
अर्थ: आधुनिक युग में ध्वनि प्रदूषण भी मानव स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल रहा है। वातावरण में विभिन्न प्रकार के ध्वनि वाले ध्वनि-यन्त्रों से शोर बहुत अधिक बढ़ गया है और यह शोर का बढ़ना ही ध्वनि-प्रदूषण कहलाता है। ध्वनि की तीव्रता के मापन की इकाई डेसीबेल है। सामान्य रूप से 85 डेसीबेल से अधिक ध्वनि का पर्यावरण में व्याप्त होना ध्वनि-प्रदूषण माना जाता है। कारखानों की मशीनों से थोड़े-थोड़े अन्तराल पर बजने वाले सायरन, विमान, रेडियो, लाउडस्पीकर, टै फलस्वरूप जो शोर उत्पन्न होता है, वह ध्वनि-प्रदूषण है।

ध्वनि-प्रदूषण के स्रोत
ध्वनि-प्रदूषण के प्राकृतिक और भौतिक दो तरह के स्रोत हैं। प्राकृतिक स्रोतों के अन्तर्गत बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली की कड़क, समुद्र की लहरें, ज्वालामुखी विस्फोट की आवाज और झरनों को पानी गिराना आदि आते हैं। भौतिक स्रोतों के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के सायरन, इंजनों, ट्रकों, मोटरों, वायुयानों, लाउडस्पीकरों और टेपरिकॉर्डर आदि की आवाज आदि आते हैं।

ध्वनि-प्रदूषण का जनजीवन पर प्रभाव
ध्वनि-प्रदूषण का मानव-जीवन और उसके स्वास्थ्य तथा कार्य-क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। विभिन्न परीक्षणों से यह ज्ञात हुआ है कि सामान्यत: शान्त कमरे में 50 डेसीबेल ध्वनि होती है। 100 डेसीबेल ध्वनि असुविधापूर्ण और 120 डेसीबेल से ऊपर कष्टदायक होती है। ध्वनि-प्रदूषण के फलस्वरूप श्रवण-शक्ति का ह्रास होता है, नींद में बाधा उत्पन्न होती है, नाड़ी सम्बन्धी रोग उत्पन्न होते हैं, मानव की कार्यक्षमता घटती है, जीव-जन्तुओं के हृदय, मस्तिष्क और यकृत को हानि पहुँचती है। ध्वनि-प्रदूषण से रक्त चाप भी बढ़ जाता है। इसके अतिरिक्त अत्यधिक शोर से व्यक्ति के स्वभाव तथा व्यवहार पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

ध्वनि-प्रदूषण को रोकने के उपाय
कोई जाग्रत समाज ही ध्वनि-प्रदूषण को रोक सकता है। इसके हेतु औद्योगिक प्रतिष्ठानों को आबादी से दूर रखा जाना चाहिए और औद्योगिक शोर को कम करने का प्रयास किया जाना चाहिए। मशीनों का सही रख-रखाव किया जाना चाहिए और अत्यधिक ध्वनि करने वाले कल-कारखानों में कार्य करने वाले श्रमिकों को कर्णबन्धनों को लगाना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। लाउडस्पीकरों और ध्वनि विस्तारक बाजों का वाल्यूम कम रखा जाना चाहिए। मोटर, ट्रक, वाहनों में उच्च ध्वनि करने वाले हॉर्न नहीं लगाये जाने चाहिए। विमानों को उतारने और चढ़ाने में कम-से-कम शोर उत्पन्न किया जाना चाहिए और जेट विमानों के निर्गम पाइप ऊपर आकाश की ओर मोड़े जाने चाहिए।

प्रश्न 7
मृदा-प्रदूषण का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
अर्थ: मृदा अथवा मिट्टी में तरह-तरह के लवण, खनिज तत्त्व, कार्बनिक पदार्थ, गैसें और जल निश्चित मात्रा और अनुपात में होते हैं। यदि उनकी मात्रा और अनुपात में परिवर्तन हो जाता है तो उसे मृदा-प्रदूषण कहा जाता है।

मृदा-प्रदूषण के स्रोत
वायु तथा जल के प्रदूषण से मृदा-प्रदूषण होना नितान्त स्वाभाविक है। जब प्रदूषित जल भूमि पर फैलता है तथा प्रदूषित वायु का प्रवाह होता है तो मृदा-प्रदूषण स्वतः ही हो जाता है। इसके अतिरिक्त भी विभिन्न कारणों से मृदा-प्रदूषण में वृद्धि हो रही है। जनसंख्या वृद्धि के फलस्वरूप खाद्य पदार्थों की माँग प्रतिदिन बढ़ती जा रही है और भूमि की उर्वरता को बढ़ाने के लिए मिट्टी में विभिन्न प्रकार के उर्वरक डाले जाते हैं। अनवरत रासायनिक खादों का प्रयोग मृदा-प्रदूषण की समस्या उत्पन्न कर देता है। इसी तरह फसलों को कीड़ों और र्जीवाणुओं आदि से बचाने के लिए डी०डी०टी०, गैमेक्सीन, एल्ड्रीन और कुछ अन्य कीटनाशकों का अत्यधिक छिड़काव मृदा-प्रदूषण उत्पन्न करता है। कल-कारखानों से निकले हुए विभिन्न प्रकार के रासायनिक तत्त्व भी मृदा-प्रदूषण करते हैं। साथ ही भूमि क्षरण भी मृदा प्रदूषण उत्पन्न करता है।

मृदा-प्रदूषण को जनजीवन पर प्रभाव
मृदा-प्रदूषण का जनजीवन पर अत्यधिक व्यापक प्रभाव पड़ता है। कीटनाशक और कवकनाशक विषैली दवाओं के छिड़काव से शनैः-शनैः भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है और कुछ समय बाद फसलों की वृद्धि रुक जाती है। मानव-मल का खुले भू-भाग पर निष्कासन और निक्षेपण होने से पर्यावरण दूषित हो जाता है। भूमि पर कूड़ा-करकट, सड़ी-गली वस्तुओं और मरे जानवर फेंक देने से मिट्टी दूषित हो जाती है और परिणामस्वरूप अनेक बीमारियाँ फैल जाती हैं। भू-क्षरण भी भू-प्रदूषण की स्थिति उत्पन्न करता है। भू-क्षरण के कारण मिट्टी की उपजाऊ परत जल और हवा आदि के द्वारा बह जाती है और बंजर भूमि शेष रह जाती है। फलस्वरूप खाद्यान्नों का उत्पादन कम होने लगता है।

मृदा-प्रदूषण को रोकने के उपाय
मृदा-प्रदूषण को रोकने के लिए फसलों पर छिड़काव करने वाली कीटनाशक दवाओं को सीमित प्रयोग करना चाहिए। रासायनिक खादों का प्रयोग सीमित मात्रा में ही किया जाना चाहिए। औद्योगिक कचरे और कूड़ा-करकट को आबादी से दूर ले जाकर जमीन के अन्दर । दबा देना चाहिए। कृषि फार्मों में चक्रानुसार विभिन्न फसलों की खेती की जानी चाहिए। भू-क्षरण और मृदा-अपरदन को रोकने के समुचित उपाय किए जाने चाहिए। भू-स्खलन से होने वाले मृदा-क्षरण को कम किया जाना चाहिए।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
‘पर्यावरण के अर्थ को स्पष्ट कीजिए। [2011]
या
पर्यावरण का व्युत्पत्ति अर्थ क्या है?
उत्तर
‘पर्यावरण की अवधारणा को स्पष्ट करने से पूर्व पर्यावरण’ के शाब्दिक अर्थ को स्पष्ट करना आवश्यक है। ‘पर्यावरण’ के व्युत्पत्ति अर्थ को स्पष्ट करते हुए हम कह सकते हैं कि ‘पर्यावरण शब्द दो शब्दों अर्थात ‘परि’ और ‘आवरण’ के संयोग या मेल से बना है। ‘परि’ का अर्थ है चारों ओर तथा आवरण का अर्थ है—‘घेरा’। इस प्रकार पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ हुआ चारों ओर का घेरा। इस प्रकार व्यक्ति के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि व्यक्ति के चारों ओर जो प्राकृतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक शक्तियाँ और परिस्थितियाँ विद्यमान हैं, उनके प्रभावी रूप को ही पर्यावरण कहा जाता है।

प्रश्न 2
पर्यावरण-प्रदूषण के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
प्रकृति-प्रदत्त पर्यावरण में जब किन्हीं तत्त्वों का अनुपात इस रूप में बदलने लगता है। जिसका जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका होती है, तब कहा जाता है कि पर्यावरण-प्रदूषण हो रहा है। पर्यावरण के भिन्न-भिन्न भाग या पक्ष हैं। इस स्थिति में पर्यावरण के विभिन्न पक्षों के अनुसार ही पर्यावरण प्रदूषण के विभिन्न पक्ष निर्धारित किये गये हैं। इस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण के मुख्य प्रकार हैं-

  1. वायु-प्रदूषण
  2. जल-प्रदूषण
  3. मृदा-प्रदूषण तथा
  4. ध्वनि-प्रदूषण।

प्रश्न 3
पर्यावरण-प्रदूषण को रोकने में ओजोन परत की भूमिका बताइए। [2008, 15]
उत्तर
हमारे वायुमण्डल में ओजोन की परत एक छतरी के रूप में विद्यमान है तथा हमारे वायुमण्डल के लिए एक सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करती है। यह ओजोन परत सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों को पृथ्वी पर सीधे आने से रोकती है। इसके साथ-ही-साथ ओजोन गैस अपनी विशिष्ट प्रकृति के कारण हमारे पर्यावरण के विभिन्न प्रदूषकों को नष्ट करने का कार्य भी करती है। अनेक घातक एवं हानिकारक जीवाणुओजोन के प्रभाव से नष्ट होते रहते हैं। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि पर्यावरण-प्रदूषण को रोकने में ओजोन परत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। **

प्रश्न 4
पर्यावरण-प्रदूषण का जन-स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर
पर्यावरण-प्रदूषण का सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव जन-स्वास्थ्य पर पड़ता है। पर्यावरण के भिन्न-भिन्न पक्षों में होने वाले प्रदूषण से भिन्न-भिन्न प्रकार के रोग बढ़ते हैं। हम जानते हैं कि वायु प्रदूषण के परिणामस्वरूप श्वसन तन्त्र से सम्बन्धित रोग अधिक प्रबल होते हैं। जल-प्रदूषण के परिणामस्वरूप पाचन-तन्त्र से सम्बन्धित रोग अधिक फैलते हैं। ध्वनि प्रदूषण भी तन्त्रिका-तन्त्र, हृदय एवं रक्तचाप सम्बन्धी विकारों को जन्म देता है। पर्यावरण-प्रदूषण को व्यक्ति के स्वभाव एवं व्यवहार पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यही नहीं निरन्तर प्रदूषित पर्यावरण में रहने से व्यक्ति की औसत आयु घटती है तथा स्वास्थ्य का सामान्य स्तर भी निम्न ही रहता है।

प्रश्न 5
व्यक्ति की कार्यक्षमता पर पर्यावरण-प्रदूषण का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर
पर्यावरण-प्रदूषण का व्यक्ति की कार्यक्षमता पर अनिवार्य रूप से प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हम जानते हैं कि पर्यावरण-प्रदूषण के परिणामस्वरूप जन-स्वास्थ्य का स्तर निम्न होती है। निम्न स्वास्थ्य स्तर वाला व्यक्ति ने तो अपने कार्य को ही कुशलतापूर्वक कर सकता है और न ही उसकी उत्पादन-क्षमता ही सामान्य रह पाती है। ये दोनों ही स्थितियाँ व्यक्ति एवं समाज के लिए हानिकारक सिद्ध होती हैं। वास्तव में प्रदूषित वातावरण में भले ही व्यक्ति अस्वस्थ न भी हो, तो भी उसकी चुस्ती एवं स्फूर्ति तो घट ही जाती है। यही कारक व्यक्ति की कार्यक्षमता को घटाने के लिए पर्याप्त सिद्ध होता है।

प्रश्न 6
आर्थिक जीवन पर पर्यावरण-प्रदूषण का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर
व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र की आर्थिक स्थिति पर पर्यावरण-प्रदूषण का उल्लेखनीय प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वास्तव में यदि व्यक्ति का सामान्य स्वास्थ्य का स्तर निम्न हो तथा उसकी कार्यक्षमता भी कम हो तो वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समुचित धन कदापि अर्जित नहीं कर सकता। पर्यावरण प्रदूषण के कारण व्यक्ति अथवा उसके परिवार के सदस्य रोग ग्रस्त हो जाते हैं। इस स्थिति में रोग के उपचार के लिए भी पर्याप्त धन खर्च करना पड़ जाता है। इससे व्यक्ति एवं परिवार का आर्थिक बजट बिगड़ जाता है तथा व्यक्ति एवं परिवार की आर्थिक स्थिति निम्न हो जाती है।

प्रश्न 7
जल प्रदूषण के किन्हीं दो कारकों की व्याख्या कीजिए। [2016]
उत्तर
जल प्रदूषण के दो कारक निम्नलिखित हैं
1. घरों से बहकर निकलने वाला फिनायल, साबुन, सर्फ एवं शैम्पू आदि से युक्त गन्दा पानी तथा शौचालय का दूषित मल नालियों में प्रवाहित होता हुआ नदियों व झीलों के जल में मिलकर उसे दूषित कर देता है।
2. नदियों व झीलों के जल में पशुओं को नहलाना, मनुष्यों द्वारा स्नान करना व साबुन से गन्दे वस्त्र धोने से भी जल प्रदूषित होता है।

निश्चित उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1
‘पर्यावरण की एक स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तर
“पर्यावरण वह सब कुछ है जो किसी जीव अथवा वस्तु को चारों ओर से घेरे होता है और उसे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है।”
-जिसबर्ट

प्रश्न 2
पर्यावरण-प्रदूषण का अर्थ एक वाक्य में लिखिए।
उत्तर
पर्यावरण में किसी भी प्रकार की हानिकारक अशुद्धियों का समावेश होना ही पर्यावरण-प्रदूषण कहलाता है।

प्रश्न 3
पर्यावरण-प्रदूषण के चार मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. औद्योगीकरण
  2. नगरीकरण
  3. ईंधन से चलने वाले वाहन तथा
  4. वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई।

प्रश्न 4
पर्यावरण-प्रदूषण के मुख्य रूपों या प्रकारों का उल्लेख कीजिए- [2014]
उत्तर
पर्यावरण-प्रदूषण के मुख्य रूप या प्रकार हैं-

  1. वायु-प्रदूषण
  2. जल-प्रदूषण
  3. मृदा-प्रदूषण तथा
  4. ध्वनि-प्रदूषण।

प्रश्न 5
साँस की तकलीफ किस प्रकार के प्रदूषण से होती है? [2012, 16]
उत्तर
साँस की तकलीफ मुख्य रूप से वायु-प्रदूषण के कारण होती है।

प्रश्न 6
कारखानों की चिमनियों से धुआँ उगलने पर किस प्रकार का प्रदूषण होता है?
उत्तर
कारखानों की चिमनियों से धुआँ उगलने पर होने वाला प्रदूषण है- वायु-प्रदूषण।

प्रश्न 7
प्रदूषण की समस्या किस शिक्षा के माध्यम से दूर की जा सकती है ? [2014]
उत्तर
प्रदूषण की समस्या पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से दूर की जा सकती है।

प्रश्न 8
आधुनिक वैज्ञानिक युग में विश्व की सबसे गम्भीर समस्या क्या है ? [2011]
उत्तर
आधुनिक वैज्ञानिक युग में विश्व की सबसे गम्भीर समस्या है पर्यावरण प्रदूषण की समस्या।

प्रश्न 9
ध्वनि मापन की इकाई क्या है ?
उत्तर
डेसिबल (db)।

प्रश्न 10
पर्यावरण के किस रूप का निर्माण मनुष्य ने नहीं किया ?
उत्तर
प्राकृतिक अथवा भौगोलिक पर्यावरण का निर्माण मनुष्य ने नहीं किया है।

प्रश्न 11
क्या वर्तमान औद्योगिक प्रगति के युग में पर्यावरण प्रदूषण को पूर्ण रूप से समाप्त करना सम्भव है?
उत्तर
वर्तमान औद्योगिक प्रगति के युग में पर्यावरण-प्रदूषण को केवल नियन्त्रित किया जा सकता है, पूर्ण रूप से समाप्त नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 12
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य-

  1. मनुष्य का अपने पर्यावरण से घनिष्ठ सम्बन्ध है।
  2. व्यक्ति के सामान्य जीवन पर पर्यावरण का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
  3. ईंधन से चलने वाले वाहन वायु प्रदूषण में वृद्धि करते हैं।
  4. ध्वनि-प्रदूषण से आशय है पर्यावरण में ध्वनि या शोर का बढ़ जाना।

उत्तर

  1. सत्य
  2. असत्य
  3. सत्य
  4. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए-

प्रश्न 1
पर्यावरण का जनजीवन से सम्बन्ध है [2016]
(क) औपचारिक
(ख) घनिष्ठ
(ग) अनावश्यक
(घ) कोई सम्बन्ध नहीं
उत्तर
(ख) घनिष्ठ

प्रश्न 2
विश्व पर्यावरण दिवस कब मनाया जाता है? [2012]
(क) 26 जनवरी को
(ख) 5 जून को
(ग) 4 जुलाई को
(घ) 11 जुलाई को
उत्तर
(ख) 5 जून को

प्रश्न 3
वर्तमान औद्योगिक एवं नगरीय क्षेत्रों की मुख्य समस्या है या आधुनिक वैज्ञानिक युग में विश्व की गम्भीर समस्या है [2008]
(क) निर्धनता की समस्या
(ख) बेरोजगारी की समस्या
(ग) भिक्षावृत्ति की समस्या
(घ) पर्यावरण प्रदूषण की समस्या
उत्तर
(घ) पर्यावरण प्रदूषण की समस्या

प्रश्न 4
पर्यावरण-प्रदूषण की दर में होने वाली वृद्धि के लिए जिम्मेदार है
(क) फैशन की होड़
(ख) औद्योगीकरण
(ग) संस्कृतिकरण
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ख) औद्योगीकरण

प्रश्न 5
पर्यावरण-प्रदूषण का प्रभाव पड़ता है
(क) जन-स्वास्थ्य पर।
(ख) व्यक्तिगत कार्यक्षमता पर
(ग) आर्थिक जीवन पर
(घ) इन सभी पर
उत्तर
(घ) इन सभी पर

प्रश्न 6
प्रदूषण की समस्या का मुकाबला करने के लिए जो सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हो सकती है, वह है [2007, 11]
या
प्रदूषण की समस्या दूर करने के लिए सबसे उपयोगी है। [2016]
(क) सामान्य शिक्षा
(ख) पर्यावरण-शिक्षा
(ग) तकनीकी शिक्षा.
(घ) स्वास्थ्य शिक्षा
उत्तर
(ख) पर्यावरण-शिक्षा

प्रश्न 7
हमारे देश में पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम कब पारित किया गया?
(क) 1966 में
(ख) 1976 में
(ग) 1986 में
(घ) 1996 में
उत्तर
(ग) 1986 में

प्रश्न 8
भारत में पर्यावरण विभाग की स्थापना कब की गई? [2008]
(क) 1 नवम्बर, 1980
(ख) 1 नवम्बर, 1880
(ग) 1 नवम्बर, 1990
(घ) 1 नवम्बर, 1986
उतर
(घ) 1 नवम्बर, 1986

प्रश्न 9
विश्व वन्य जीव कोष की स्थापना हुई [2009]
(क) 1962 ई० में
(ख) 1965 ई० में
(ग) 1972 ई० में
(घ) 1975 ई० में
उत्तर
(क) 1962 ई० में

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 11 Environmental Pollution Problems and Remedies (पर्यावरण प्रदूषण-समस्याएँ एवं निदान) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 11 Environmental Pollution Problems and Remedies (पर्यावरण प्रदूषण-समस्याएँ एवं निदान), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 7 Religion Morality and Customs

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 7 Religion, Morality and Customs (धर्म, नैतिकता और प्रथाएँ।) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 7 Religion, Morality and Customs (धर्म, नैतिकता और प्रथाएँ।).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 7
Chapter Name Religion, Morality and Customs (धर्म, नैतिकता और प्रथाएँ।)
Number of Questions Solved 28
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 7 Religion, Morality and Customs (धर्म, नैतिकता और प्रथाएँ।)

विस्तृत उतरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
नैतिकता की परिभाषा दीजिए।
धर्म और नैतिकता में अन्तर स्पष्ट करते हुए सामाजिक नियन्त्रण में नैतिकता की भूमिका के महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2013]
या

धर्म एवं नैतिकता का आधुनिक समाज में भविष्य क्या है? [2013, 15]
या
नैतिकता की विशेषताएँ बताइए तथा धर्म और नैतिकता में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
या
धर्म की समाजशास्त्रीय अवधारणा को स्पष्ट करते हुए नैतिकता से इसका अन्तर बताइए। [2015]
या
धर्म तथा नैतिकता से आप क्या समझते हैं? यह समाज में नियन्त्रण कैसे रख पाता है? समझाइए। [2016]
उतर:

नैतिकता की परिभाषा

उचित-अनुचित के विचार की संकल्पना को नैतिकता कहा जाता है। नैतिकता वह है जो हमें किसी कार्य को करने की या न करने की आज्ञा देती है। नैतिकता में यह भाव भी समाहित है कि अमुक कार्य अनुचित है; अत: उसे नहीं करना चाहिए। नैतिकता का आधार पवित्रता, न्याय और सत्य होते हैं। अन्तरात्मा की सही आवाज नैतिकता है। नैतिकता के मूल्यों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है; अतः इसका पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का पावने कर्तव्य बन जाता है। नैतिकता का वास्तविक अर्थ जानने के लिए हमें इसकी परिभाषाओं का अनुशीलन करना होगा। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने नैतिकता की परिभाषा निम्नवत् प्रस्तुत की है

मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, “नैतिकता का तात्पर्य नियमों की उस व्यवस्था से है जिसके द्वास व्यक्ति का अन्त:करण अच्छे और बुरे का बोध प्राप्त करता है।”

किंग्सले डेविस के अनुसार, नैतिकता कर्त्तव्य की भावना पर अर्थात् उचित व अनुचित पर बल देती है।”

जिसबर्ट के अनुसार, “नैतिक नियम, नियमों की वह व्यवस्था है जो अच्छे और बुरे से सम्बद्ध है तथा जिसका अनुभव अन्तरात्मा द्वारा होता है।’ | नैतिकता, आचार संहिता का दूसरा नाम है। आचार संहिता का उल्लंघन नैतिकता का उल्लंघन है, जिसे समाज बुरा समझता है। नैतिकता में सार्वभौमिकता का गुण पाया जाता है, अर्थात् नैतिकता विश्व के सभी समाजों में विद्यमान रहती है। प्रो० कोपर के अनुसार, नैतिकता के साथ व्यवहार के कुछ नियम जुड़े हैं; जैसे- चोरी न करना, बड़ों का सम्मान करना, चुगली न करना, परिवार का पालन-पोषण करना, किसी की हत्या न करना तथा अविवाहितों को यौनसम्बन्ध स्थापित न करना। नैतिकता अच्छाई और बुराई का बोध कराती है। नैतिकता के नियमों का उल्लंघन करने पर व्यक्ति का अन्त:करण उसे धिक्कारता है। नैतिकता के पीछे सामाजिक शक्ति होती है। नैतिकता, व्यक्ति के अन्त:करण द्वारा उचित-अनुचित का बोध है।

नैतिकता की विशेषताएँ

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम नैतिकता की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख कर सकते हैं

  1. नैतिकता व्यवहार के वे नियम हैं जो व्यक्ति में उचित-अनुचित का भाव जगाते हैं।
  2. नैतिकता व्यक्ति के अन्त:करण की आवाज है। यह सामाजिक व्यवहार का उचित प्रतिमान है।
  3. नैतिकता के साथ समाज की शक्ति जुड़ी होती है।।
  4. नैतिकता तर्क पर आधारित है। नैतिकता का सम्बन्ध किसी अदृश्य पारलौकिक शक्ति से नहीं होता।
  5. नैतिकता परिवर्तनशील है। इसके नियम देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं।
  6. नैतिकता का सम्बन्ध समाज से है। समाज जिसे ठीक मानता है, वही नैतिक है।
  7. नैतिक मूल्यों का पालन व्यक्ति स्वेच्छा से करता है, किसी ईश्वरीय शक्ति के भय से नहीं।
  8. नैतिकता व्यक्ति के कर्तव्य और चरित्र से जुड़ी है।
  9. नैतिकता का आधार पवित्रता, ईमानदारी और सत्यता आदि गुण होते हैं।
  10. नैतिकता कभी-कभी धर्म के नियमों का प्रतिपादन करती प्रतीत होती है।

धर्म की अवधारणा

धर्म की समाजशास्त्रीय विवेचना करने वाले विद्वानों में टायलर, फ्रेजर, दुर्वीम, मैक्स वेबर, पारसन्स, मैकिम मेरिएट आदि के नाम प्रमुख हैं। इन विद्वानों ने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से धर्म की विवेचना की है, लेकिन एक सामान्य निष्कर्ष के रूप में सभी ने इस तथ्य को स्वीकार किया। है कि धर्म अनेक विश्वासों और आचरणों की वह संगठित व्यवस्था है जिसका सम्बन्ध कुछ। अलौकिक विश्वासों तथा पवित्रता की भावना से होता है। स्पष्ट है कि इस ‘रूप में सामाजिक संगठन तथा व्यक्ति के व्यवहारों को प्रभावित करने में धर्म का विशेष योगदान होता है। इस सन्दर्भ में किंग्सले डेविस ने लिखा है, “धर्म मानव-समाज का एक ऐसा सार्वभौमिक, स्थायी और शाश्वत तत्त्व है जिसे समझे बिना समाज के रूप को बिल्कुल भी नहीं समझा जा सकता।” विभिन्न विद्वानों के विचारों के सन्दर्भ में धर्म के अर्थ को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है| टायलर ने धर्म की संक्षिप्त परिभाषा देते हुए लिखा है, “धर्म का अर्थ किसी अलौकिक शक्ति में विश्वास करना है। इस कथन के द्वारा टायलर ने यह स्पष्ट किया कि धर्म का सम्बन्ध उन आचरणों और विश्वासों से है जो किसी अलौकिक शक्ति से सम्बन्धित होते हैं। यही विश्वास मानव-व्यवहारों को नियन्त्रित करने का एक प्रमुख आधार है। जेम्स फ्रेजर के अनुसार, “धर्म से मेरा तात्पर्य मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की सन्तुष्टि अथवा आराधना करना है जिनके बारे में व्यक्तियों का यह विश्वास हो कि वे प्रकृति और मानव-जीवन को नियन्त्रित करती हैं तथा उन्हें मार्ग दिखाती है।”

वास्तव में, धर्म एक जटिल व्यवस्था है। धर्म की प्रकृति को किसी विशेष परिभाषा के द्वारा स्पष्ट कर सकना बहुत कठिन है। इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि कुछ प्रमुख विशेषताओं अथवा तत्त्वों के आधार पर धर्म की प्रकृति को स्पष्ट किया जाए।

धर्म और नैतिकता में अन्तर

धर्म और नैतिकता स्थूल रूप में समानार्थी प्रतीत होते हैं। दोनों की परिभाषाओं और विशेषताओं पर दृष्टिपात करने पर पता चलता है कि धर्म और नैतिकता में भारी अन्तर पाया जाता है। दोनों में पाये जाने वाले अन्तरों को निम्नवत् प्रस्तुत किया जा सकता है

सामाजिक नियन्त्रण में नैतिकता की भूमिका

धर्म की भाँति नैतिकता भी सामाजिक नियन्त्रण का एक प्रभावपूर्ण अभिकरण है। नैतिकता व्यक्ति को उचित-अनुचित का ज्ञान कराकर उसे उसके कर्तव्य पथ पर आरूढ़ रखती है। नैतिक आदर्शो से बँधा व्यक्ति केवल वही कार्य करता है जो समाजोपयोगी है। नैतिक नियम व्यक्ति के आन्तरिक पक्ष को नियन्त्रित रखने में अभूतपूर्व सहयोग देते हैं। नैतिकता प्रगतिशीलता की पक्षधर है। अतः यह सामाजिक नियन्त्रण में प्रमुख भूमिका निभाती है तथा उसे प्रगति के पथ पर अग्रसर करती है। वर्तमान सामाजिक जीवन में जैसे-जैसे नैतिक नियमों का महत्त्व बढ़ रहा है, वैसे-वैसे नैतिकता सामाजिक नियन्त्रण के क्षेत्र में अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम होती जा रही है। नैतिकता में व्यक्ति अपनी अन्तरात्मा की आवाज पर उचित-अनुचित का विवेक कर व्यवहार करता है। नैतिकता के नियम सामाजिक आदर्श के उचित प्रतिमान हैं। अत: इनका क्रियान्वयन समाज को संगठित रखता है। नैतिकता समाज के सदस्यों के व्यवहार को नियन्त्रित करके सामाजिक नियन्त्रण में सहभागी बनती है। व्यक्ति सामूहिक निन्दा और परिहास से बचने के लिए नैतिक मूल्यों का पालन करता है। आलोचना और निरादर के दण्ड के भय से व्यक्ति नैतिकता को अपना अंग बनाता है। नैतिकता व्यक्ति के चरित्र को संगठित बनाकर समाज के नियन्त्रण में अद्वितीय सहयोग देती है। नैतिकता व्यक्ति को अनुचित कार्यों को करने से रोकती है। उचित कार्यों को करने से व्यक्ति में आत्मबल उत्पन्न होता है, जो उसे विषम परिस्थितियों में भी समाज-कल्याण के लिए प्रेरणा देता है। इस प्रकार के सद्कार्य सामाजिक नियन्त्रण को और अधिक बल देते हैं। नैतिकता सामूहिक कल्याण की पोषक होने के कारण सामाजिक नियन्त्रण में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

प्रश्न 2
प्रथा का क्या अर्थ है ? सामाजिक नियन्त्रण में प्रथा की भूमिका के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए। [2009, 12, 14, 16]
या
सामाजिक नियन्त्रण में प्रथाओं की भूमिका की विवेचना कीजिए। [2012, 14]
या
प्रथा से आप क्या समझते हैं ? [2012, 15, 17]
या
प्रथा के दो प्रकार्यों का उल्लेख कीजिए। [2010, 15,]
उतर:

प्रथा का अर्थ

प्रथा सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग है। समाज में कार्य करने की जो मान्यता प्राप्त विधियाँ होती हैं, उन्हें प्रथा कहा जाता है। लोकरीतियाँ जब लम्बे समय तक प्रचलन में रहने के पश्चात् सामाजिक मान्यता प्राप्त कर लेती हैं तथा उसका हस्तान्तरण अगली पीढ़ी के लिए होने लगता है तब वे प्रथाएँ बन जाती हैं। समाज में रहकर मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए नयी-नयी विधियाँ खोजता है। धीरे-धीरे इन विधियों को जनसामान्य का समर्थन मिल जाता है। विधियों की निरन्तर पुनरावृत्ति होने पर वह प्रथा का रूप ग्रहण कर लेती हैं। प्रथाएँ समाज की धरोहर होती हैं। प्रत्येक समाज अपने सदस्यों से यह आशा करता है कि वे इस सामाजिक धरोहर को अक्षुण बनाये रखें। आदिम समाज से लेकर वर्तमान जटिल समाज तक प्रथाओं को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है। प्रथाएँ रूढ़िवादिता की पक्षधर होती हैं तथा नवीनता का विरोध करती हैं।

प्रथा की परिभाषा

प्रथाएँ समाज द्वारा स्वीकृत कार्य करने की विधियों को कहा जाता है। इनका सही-सही अर्थ जानने के लिए प्रथाओं की परिभाषाओं का अध्ययन आवश्यक है। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने प्रथाओं को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है|

मैकाइवर एवं पेज़ के अनुसार, “सामाजिक रूप से स्वीकृत कार्य करने की विधि समाज की प्रथाएँ हैं।”

लुण्डबर्ग के अनुसार, “जनरीतियाँ, जो कई पीढ़ियों तक चलती रहती हैं वे औपचारिक मान्यता की एक मात्रा प्राप्त कर लेती हैं, प्रथाएँ कहलाती हैं।”

फेयरचाइल्ड के अनुसार, “एक सामाजिक रूप से प्राधिकृत व्यवहार की विधि जो परम्परा से चलती है एवं उसके तोड़ने की अस्वीकृति से प्रबाधित की जाती है। प्रथा के पीछे राज्य की शक्ति नहीं होती जिससे न कानूनी रूप बनता है, न ही रूढ़ियों की स्वीकृति होती है।”

बोगार्डस के अनुसार, “प्रथाएँ और परम्पराएँ समूह द्वारा स्वीकृत नियन्त्रण की विधियाँ हैं। जो सुव्यवस्थित हो जाती हैं और जिन्हें बिना सोचे-समझे मान्यता प्रदान कर दी जाती है और जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती हैं।”

सामाजिक नियन्त्रण में प्रथाओं की भूमिका

प्रथाएँ सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग हैं। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इनका सहारा लेता है। अनेक समाजों में इनका महत्त्व विधि से भी बढ़कर होता है। प्रथाएँ व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। प्रथाओं के अनुपालन से समाज में सुरक्षा आती है, जो सामाजिक नियन्त्रण का प्रतीक है। प्रथाएँ सामाजिक नियन्त्रण में निम्नवत् अपनी भूमिका का निर्वहन करती हैं|

1. सीखने की प्रक्रिया द्वारा सामाजिक नियन्त्रण-
प्रथाएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरितं होती हैं। ये मानव-जीवन के व्यवहार के आवश्यक अंग बन जाती हैं। समाज से मान्यता प्राप्त प्रविधियाँ सीखने की प्रक्रिया को सरल और तीव्र कर देती हैं। प्रथाओं के माध्यम से मूल्यों के अनुपालन की कला सीखकर व्यक्ति समाज में योग देकर सामाजिक नियन्त्रण का कारण बन जाता है। अनुभवों से प्राप्त पूर्वजों का यह ज्ञान सीखने की प्रक्रिया को सरल कर देती है। इस प्रकार प्रथाएँ सीखने की प्रक्रिया द्वारा सामाजिक नियन्त्रण में अपना योगदान देती हैं।

2. प्रथाएँ सामाजिक परिस्थितियों का अनुकूलन करके सामाजिक नियन्त्रण में सहायक होती हैं-
प्रथाएँ अनेक सामाजिक समस्याओं को हल करने में सक्षम हैं। कठिन परिस्थितियाँ आने पर भी व्यक्ति प्रथाओं के सहारे उनका समाधान खोज ही लेता है। प्रथाएँ समयानुकूल नयी विधियों को जन्म देकर सामाजिक नियन्त्रण को सुदृढ़ करती हैं।

3. प्रथाएँ व्यक्तित्व का निर्माण करके सामाजिक नियन्त्रण में सहयोग देती हैं-
नवजात शिशु प्रथाओं के बीच आँखें खोलता है। प्रथाओं से उसका लालन-पालन होता है। प्रथाएँ उसके विकास में सहायक होती हैं। यहाँ तक कि उसको मृत्यु-संस्कार भी प्रथाओं के अनुरूप ही होता है। प्रथाएँ व्यक्तित्व के विकास में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। संस्कारित व्यक्ति सामाजिक नियन्त्रण के कार्य में अपना भरपूर सहयोग देता है।

4. प्रथाएँ सामाजिक कल्याण में वृद्धि करके सामाजिक नियन्त्रण में सहयोग देती हैं-प्रथाएँ व्यक्ति को समाज-विरोधी कार्यों से सुरक्षित रखती हैं। प्रथाओं का विकास समाज हित और जनकल्याण को ध्यान में रखकर किया जाता है। प्रथाएँ अधिकतम व्यक्तियों का हित करके सामाजिक नियन्त्रण के कार्य में पूरा-पूरा सहयोग देती हैं।

5. प्रथाएँ सामाजिक अनुकूलन में सहयोग देकर सामाजिक नियन्त्रण में भूमिका निभाती हैं-
प्रथाएँ व्यक्ति को उचित-अनुचित का ज्ञान कराकर सामाजिक मूल्यों के अनुपालन का मार्ग प्रशस्त करती हैं। प्रथाएँ व्यक्ति के समाजीकरण में सहायक होकर उसे समाज के अनुकूल ढाल देती हैं। सामाजिक मूल्यों और आदर्शों को ग्रहण करके व्यक्ति अपना व्यवहार समाज के अनुकूल बंदल लेता है। इस प्रकार का व्यवहार सामाजिक नियन्त्रण में भरपूर सहयोग देता है।

6. प्रथाएँ सामाजिक जीवन में एकरूपता लाकर सामाजिक नियन्त्रण में सहयोग देती हैं-
प्रथाएँ समाज के सभी सदस्यों को आदर्शों के अनुरूप एक समान व्यवहार करने की प्रेरणा देती हैं। प्रथाएँ सदस्यों के व्यवहार का अंग बनकर उनमें एकरूपता उत्पन्न करने में सहयोग देती। हैं। सामाजिक जीवन में एकरूपता आने से सामाजिक नियन्त्रण को बल मिलता है। सामाजिक एकरूपता व्यक्तिवादी विचारधारा पर अंकुश लगाकर संघर्ष से बचाव करती है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि प्रथाएँ सामाजिक नियन्त्रण के कार्य में बहुत प्रभावी होती हैं। सामाजिक आदर्शों और मूल्यों का संरक्षण करके प्रथाएँ सामाजिक नियन्त्रण में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। लॉक ने प्रथाओं को प्रकृति की सबसे बड़ी शक्ति कहा है। जिन्सबर्ग महोदय ने प्रथाओं के इस पक्ष को इन शब्दों में व्यक्त किया है, “निश्चय ही आदिम युग के समाजों में प्रथा जीवन के सभी क्षेत्रों में व्याप्त रहती है और व्यवहार की छोटी-छोटी बातों में भी उसका हस्तक्षेप होता है और सभ्य समाजों में प्रथा का प्रभाव साधारणतया जितना समझा जाता है, उससे कहीं अधिक होता है। वास्तव में प्रथाएँ, सामाजिक नियन्त्रण में अन्य अभिकरणों से कम महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभातीं। वर्तमान युग में जब विज्ञान, प्रौद्योगिकी और आविष्कारों का बोलबाला है, ऐसे में सामाजिक नियन्त्रण में प्रथाओं के महत्त्व को कम आँकना त्रुटिपूर्ण होगा। टी० बी० बॉटोमोर के शब्दों में, “आधुनिक औद्योमिक समाजों में प्रथा की महत्ता उपेक्षणीय से कहीं परे है, क्योंकि धर्म व नैतिकता का अधिक भाग प्रथागत है, बौद्धिक नहीं तथा साधारण सामाजिक आदान-प्रदान का नियमन अधिकांशतः प्रथा और जनमते से होता है।”

लघु उतरीय प्रश्न (4 अक)

प्रश्न 1
धर्म के चार रूप (तत्त्व) लिखिए।
या
धर्म के दो मौलिक लक्षण लिखिए। [2015]
या
धर्म की दो विशेषताएँ लिखिए। [2015, 16]
उतर:
उम्र धर्म के चार रूप (तत्त्व) निम्नलिखित हैं–
1. पवित्रता की धारणा-जिस धर्म से व्यक्ति सम्बन्धित होता है, उस धर्म व उससे जुड़ी प्रत्येक वस्तु, धारणा व व्यक्ति के प्रति उसकी पवित्र धारणा होती है। अत: उसका पूरा प्रयास रहता है कि वह अपवित्रता से स्वयं का बचाव कर सके।
2. प्रार्थना, आराधना या पूजा-विशिष्ट धर्म से जुड़े व्यक्ति अपने मनवांछित फल प्राप्त करने हेतु तथा आने वाली विपदाओं से बचने हेतु उस अलौकिक शक्ति या धार्मिक देवी-देवता की पूजा करते हैं। पूजा, प्रार्थना या आराधना के द्वारा वे अपने इष्ट को प्रसन्न करने का प्रयास करते रहते हैं।
3. धार्मिक प्रतीक व सामग्री-विशेष धर्म के अपने-अपने धार्मिक प्रतीक व सामग्री होती हैं, जिसके प्रति प्रत्येक व्यक्ति की पवित्रता व सम्मान की भावना रहती है; जैसे-हिन्दुओं में मन्दिर, गीता, रामायण आदि। मुस्लिम में कुरान, मस्जिद आदि, ईसाइयों में चर्च, बाइबिल, क्रॉस आदि, सिखों में गुरुद्वारा, गुरु ग्रन्थ साहेब आदि। प्रत्येक धर्म की कुछ कथाएँ व लोकोक्तियाँ होती हैं, जिनके द्वारा मनुष्य एवं ईश्वर में सम्बन्धों को बताने का प्रयास किया जाता है।
4. धार्मिक संस्तरण-विभिन्न धर्मों के अन्तर्गत उच्च व निम्न की स्थिति पाई जाती है जिसे . धार्मिक संस्तरण कहा जाता है। उच्च स्थिति में पण्डित, पुजारी, मौलवी, पंच प्यारे तथा पादरियों आदि को शामिल किया जाता है तथा निम्न के अन्तर्गत अन्य लोग आते हैं। उच्च , वर्ग के धार्मिक व्यक्तियों के मन में श्रेष्ठता का भाव रहता है तथा वे अन्य लोगों से अपने लिए सम्मानजनक व्यवहार की अपेक्षा करते हैं।

प्रश्न 2
समाज पर धर्म के कोई चार प्रभाव लिखिए। या धर्म के चार कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2008, 09]
उतर:
धर्म समाजशास्त्रीय सद्कार्य करने की प्रेरणा देता है। मनुष्य समाज-विरोधी कार्यों से हटकर सामाजिक नियमों का पालन करता है। इस प्रकार धर्म सामाजिक नियन्त्रण का रक्षा कवच है। धर्म का सामाजिक जीवन में विशेष महत्त्व है। समाज पर धर्म के चार प्रभाव निम्नलिखित हैं—
1. निराशाओं को दूर करने में सहायक-धर्म समय-समय पर व्यक्तियों में उत्पन्न होने वाली निराशाओं व चिन्ताओं को दूर करके उन्हें शान्ति प्रदान करता है। यह उन्हें कष्टों को सहन करने की शक्ति भी प्रदान करता है। यही कारण है कि विपत्तियों के दिनों में व्यक्तियों के व्यवहारों में धार्मिकता अधिक देखी जाती है।
2. जीवन में निश्चितता लाना-धर्म जीवन में निश्चितता लाता है। यह समाज द्वारा स्वीकृत प्रथाओं व मान्यताओं को स्पष्ट करता है, संस्कृति व पर्यावरण को दृढ़ता प्रदान करता है और रीति-रिवाजों को धार्मिक मान्यता देकर जीवन में निश्चितता लाता है।
3. मानव-व्यवहार में नियन्त्रण-धर्म जीवन में निश्चितता लाने के साथ-साथ मानव-व्यवहार पर नियन्त्रण रखने में भी सहायक है। यह व्यक्ति को अनैतिक कार्यों को करने से रोकता है। इस प्रकार यह व्यक्तियों के व्यवहार पर अनौपचारिक रूप से नियन्त्रण रखने का महत्त्वपूर्ण साधन है।
4. प्रथाओं को संरक्षण देना-धर्म सामाजिक आदर्शों व प्रथाओं को मान्यता देकर उन्हें केवल संरक्षण ही प्रदान नहीं करता, अपितु इन्हें सुदृढ़ भी बनाता है। जिन आदर्शो, मान्यताओं व प्रथाओं को धार्मिक स्वीकृति मिल जाती है, उन्हें परिवर्तित करना कठिन कार्य हो जाता है तथा वे धीरे-धीरे सबल होती जाती हैं।

प्रश्न 3
प्रथा की विशेषताओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए। या प्रथा की दो प्रमुख विशेषताएँ बताइए। [2007]
उतर:
प्रथा की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं

  1. प्रथाएँ समाज में व्यवहार करने की मान्यता प्राप्त विधियाँ हैं।
  2. प्रथाएँ वे जनरीतियाँ हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित की जाती हैं।
  3. प्रथाओं को समाज की स्वीकृति प्राप्त होती है, इसलिए इनमें स्थायित्व पाया जाता है।
  4. प्रथाएँ व्यक्ति के व्यवहार पर नियन्त्रण रखती हैं। ये सामाजिक नियन्त्रण का अनौपचारिक साधन हैं। इनकी प्रकृति बाध्यतामूलक होती है।
  5. प्रथाएँ अलिखित एवं अनियोजित होती हैं।
  6. प्रथाओं का निर्माण नहीं होता, वरन् ये समय के साथ धीरे-धीरे विकसित होती हैं।
  7. प्रथाओं के उल्लंघन पर समाज द्वारा प्रतिक्रिया व्यक्त की जाती है और उल्लंघनकर्ता की निन्दा या आलोचना की जाती है।
  8. प्रथाओं का पालन कराने वाली कोई औपचारिक संस्था या संगठन नहीं होता है और न ही इनकी व्याख्या व देख-रेख करने वाला कोई अधिकारी ही होता है। समाज ही प्रथा का न्यायालय है।
  9. प्रथाओं के कठोर एवं अपरिवर्तनशील होते हुए भी समय के साथ-साथ इनमें कुछ परिवर्तन अवश्य आ जाते हैं।

प्रश्न 4
प्रथा के चार कुप्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उतर:
प्रथाओं के चार कुप्रभाव निम्नलिखित हैं

1. तर्कसंगत विचारों पर रोक-व्यक्ति बचपन से ही बहुत-सी प्रथाओं के बीच पलता है और |इस कारण प्रथाओं का पालन करना उसकी आदत बन जाती है। प्रथाओं की अधिकार-शक्ति इतनी अधिक होती है कि व्यक्ति बिना तर्क-वितर्क उनको स्वीकार करता रहता है। इस प्रकार प्रथाएँ मनुष्य की तार्किक बुद्धि पर रोक लगा देती हैं।
2. नवीन विचारों एवं व्यवहार के प्रति आशंका उत्पन्न होना-अपनी पुरातनता एवं अधिकार-शक्ति के कारण जो भी नवीन विचार एवं व्यवहार की लहर मनुष्य के अन्दर उठती है, प्रथाएँ उनका दमन करती हैं तथा उनके प्रति आशंका उत्पन्न करती हैं। उदाहरणार्थ श्राद्ध के स्थान पर अनाथाश्रम को दान देने का विचार आशंकाएँ उत्पन्न करता है।
3. बाध्यकारी बन्धन-अपनी प्राचीनता के कारण प्रथाओं की अवहेलना करना एक बड़ा सामाजिक अपराध माना जाता है। इसी कारण बेकन ने प्रथाओं को मनुष्य के जीवन का प्रमुख दण्डाधिकारी कहा है। प्रथाएँ मनुष्य को एक बाध्यकारी बन्धन में बाँधती हैं। अपनी ही उपजाति में विवाह करना, पितृपक्ष अथवा मातृपक्ष से सम्बन्धित व्यक्तियों से विवाह न करना, दहेज और बाल-विवाह में विश्वास रखना आदि बाध्यकारी बन्धनों के उदाहरण हैं।
4. अन्यायपूर्ण प्रवृत्ति-अनेक प्रथाओं की प्रवृत्ति अन्यायपूर्ण होती है। इसका कारण प्रथाओं का रूढ़िवादी तत्त्वों से जुड़ा होना है। इसी कारण कुछ विद्वानों ने प्रथाओं को ‘अन्यायी राजा की संज्ञा दी है। पशु-बलि, सती–प्रथा आदि अन्यायपूर्ण प्रथाओं के उदाहरण हैं।

अतिलघु उतरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
धर्म का व्यक्तित्व के विकास में क्या योगदान है ?
उतर:
धर्म व्यक्तित्व के विकास में योग देता है। धर्म व्यक्ति के सम्मुख पवित्र लक्ष्य रखता है, कठिनाइयों के समय धैर्य से काम लेने एवं संकटों का मुकाबला साहस से करने की प्रेरणा देता है। अतः निराशाओं के कारण व्यक्ति का व्यक्तित्व विघटित नहीं हो पाता। वह समस्याओं को ईश्वर की इच्छा मानकर उनका मुकाबला करता है। विघटित व्यक्तित्व समाज के लिए समस्याएँ पैदा करता है। धर्म संगठित व्यक्तित्व का विकास करके भी सामाजिक नियन्त्रण को बनाये रखता है।

प्रश्न 2
बदलते हुए सामाजिक परिवेश के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक नियन्त्रण में नैतिकता की महत्ता बताइए।
उतर:
धर्म की तरह नैतिकता भी सामाजिक नियन्त्रण को एक महत्त्वपूर्ण साधन है। नैतिकता व्यक्त को उचित-अनुचित का बोध कराती है और साथ ही उसे अच्छे कार्य करने का निर्देश देती है। नैतिकता अनुचित एवं बुरे कार्यों पर रोक लगाती है। नैतिकता हमें सत्य, ईमानदारी, अहिंसा, न्याय, समानता और प्रेम के गुण सिखाती है और असत्य, बेईमानी, अनाचार, झूठ, अन्याय, चोरी आदि दुर्गुणों से बचाती है। नैतिक नियमों को समाज में उचित एवं आदर्श माना जाता है। इनके उल्लंघन पर सामाजिक निन्दा एवं प्रतिष्ठा की हानि का डर रहता है। नैतिकता में समूह कल्याण की भावना छिपी होती है। धर्म के प्रभाग के कमजोर पड़ जाने के कारण आजकल नैतिकता सामाजिक नियन्त्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभ रही है। शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ समाज में नैतिक नियमों का महत्त्व भी बढ़ रहा है।

प्रश्न 3
सामाजिक एकीकरण एवं अपराध तथा समाज-विरोधी कार्यों पर नियन्त्रण में धर्म की क्या भूमिका है ?
उतर:
दुर्णीम कहते हैं कि धर्म उन सभी लोगों को एकता के सूत्र में बाँधता है, जो उसमें विश्वास करते हैं। समाज के सदस्यों को संगठित करने के लिए धर्म सबसे दृढ़ सूत्र है। एक धर्म को मानने वाले लोगों में हम की भावना का विकास होता है, वे परस्पर सहयोग करते हैं, उनमें समान विचार, भावनाएँ, विश्वास एवं व्यवहार पाये जाते हैं। धर्म व्यक्ति को कर्तव्यपालन की प्रेरणा देता हैं। सभी व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करके सामाजिक संगठन एवं एकता को बनाये रखने में योग देते हैं।

धर्म व्यक्ति की समाज-विरोधी क्रियाओं एवं अपराध पर नियन्त्रण रखता है। धार्मिक नियमों का उल्लंघन करने पर व्यक्ति में अपराध की भावना पैदा होती है। व्यक्ति को ईश्वरीय दण्ड का भय होता है और वह इस भय के कारण अक्सर अपराध व समाज-विरोधी कार्य करने से बचने का प्रयत्न करता है।

प्रश्न 4
प्रथाएँ व्यक्तित्व के विकास में कैसे सहायक होती हैं ? [2007]
उतर:
नवजात शिशु प्रथाओं के बीच आँख खोलता है। प्रथाओं से उसका लालन-पालन होता है। प्रथाएँ उसके विकास में सहायक होती हैं। यहाँ तक कि उसका मृत्यु संस्कार भी प्रथाओं के अनुरूप ही होता है। इस प्रकार प्रथाएँ व्यक्तित्व के विकास में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

प्रश्न 5
प्रथा और आदत में अन्तर बताइए। या प्रथा से आप क्या समझते हैं? [2012, 15]
उतर:
प्रथा शब्द का प्रयोग ऐसी जनरीतियों के लिए होता है, जो समाज में बहुत समय से प्रचलित हों। प्रथा में समूह-कल्याण के भाव निहित होते हैं। इनको पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित किया जाता है। प्रथाएँ नवीनता की विरोधी होती हैं तथा यह परम्परागत तरीके से कार्य करने को प्रोत्साहित करती हैं। आदत मानव की एक व्यक्तिगत अनुभूति है। इसका सम्बन्ध व्यक्ति के अपने आचार-व्यवहार तथा उसके अपने कल्याण से ही होता है। आदतों का स्वभाव स्थिर नहीं होता तथा ये परिस्थितियों और व्यक्ति के विकास के साथ-साथ बदलती रहती हैं। ये नवीनता की विरोधी नहीं होतीं।

प्रश्न 6
सामाजिक नियन्त्रण में प्रथाओं की क्या भूमिका है? [2016]
उतर:
प्रथाएँ सीखने की प्रक्रिया, सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूलन, व्यक्तित्व का निर्माण, सामाजिक कल्याण में वृद्धि, सामाजिक अनुकूलन में सहयोग तथा सामाजिक जीवन में एकरूपता प्रदान कर सामाजिक नियन्त्रण में अहम भूमिका निभाती है।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
धर्म आध्यात्मिक शक्तियों पर विश्वास है। किसने कहा? [2013, 16, 17]
उतर:
टॉयलर महोदय ने।

प्रश्न 2
धर्म की चार विशेषताएँ बताइए। [2015]
या
धर्म की दो विशेषताएँ बताइए। [2016]
उतर:
धर्म की चार विशेषताएँ या रूप हैं

  • अलौकिक शक्ति में विश्वास,
  • पवित्रता की धारणा,
  • प्रार्थना,
  • पूजा एवं आराधना तथा तर्क का अभाव।

प्रश्न 3
धर्म के दो दुष्प्रकार्य बताइए। [2011]
उतर:
धर्म के दो दुष्प्रकार्य निम्नलिखित हैं

  1. प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म को अच्छा मानता है जिसके कारण तनाव, संघर्ष, भेदभाव का जन्म होता है।
  2. धर्म, बुद्धि और तर्क से परे होता है, जिसके कारण समाज में अनेक पूजा-प्रणाली और कर्मकाण्ड होते हैं।

प्रश्न 4
जनरीति व रूढियाँ अवधारणाओं से किस समाजशास्त्री का नाम जुड़ा हुआ है ?
उतर:
जनरीति व रूढ़ियाँ अवधारणाओं से समनर का नाम जुड़ा हुआ है।

प्रश्न 5
‘धर्मशास्त्र का इतिहास नामक पुस्तक के लेखक कौन हैं ? [2009]
उतर:
‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ नामक पुस्तक के लेखक पी० वी० काणे हैं।

प्रश्न 6
पॉजिटिव फिलोसॉफी के लेखक कौन हैं ? [2017]
उतर:
आगस्त कॉम्टे।

प्रश्न 7
धर्म और नैतिकता एक-दूसरे के सम्पूरक हैं। (सत्य/असत्य) [2017]
उतर:
असत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
यह कथन किसका है ‘धर्म आध्यात्मिक शक्तियों पर विश्वास है?
(क) मैकाइवर
(ख) डेविस
(ग) पैरेटो
(घ) टॉयलर

प्रश्न 2.
धर्म की विशेषता क्या है ?
(क) पारस्परिक सहयोग
(ख) समानता
(ग) अलौकिक शक्ति पर विश्वास
(घ) गुरु पर विश्वास

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से धर्म की विशेषता नहीं है
(क) पवित्रता
(ख) आदर
(ग) विश्वास
(घ) सदाचार

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में धर्म की विशेषता नहीं है
(क) कर्मकाण्डों का समावेश
(ख) अलौकिक शक्ति के प्रति विश्वास
(ग) तर्क का समावेश
(घ) अपरिवर्तनशील व्यवहार

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में नैतिकता की विशेषता है|
(क) उद्वेगपूर्ण व्यवहार
(ख) कर्तव्य का बोध
(ग) कर्मकाण्ड में विश्वास
(घ) अपरिवर्तनशील व्यवहार

प्रश्न 6.
प्रथा को ‘मानव जीवन का न्यायाधीश’ किस विद्वान् ने माना है ?
(क) शेक्सपियर
(ख) बेकन
(ग) बेजहॉट
(घ) क़ॉम्टे

प्रश्न 7.
प्रथा को ‘महान शक्ति’ किस विद्वान् ने कहा है ?
(क) मार्क्स
(ख) पैरेटो
(ग) लॉक
(घ) वेबर

प्रश्न 8.
प्रथा है [2011, 13]
(क) मूल्य
(ख) लोकाचार
(ग) जनरीति
(घ) प्रतिमान

प्रश्न 9.
‘धर्म अफीम के समान है।’ किसने कहा? [2015]
या
‘धर्म जनता के लिए अफीम है।’ यह किसने कहा? [2016]
(क) काणे ने
(ख) कूले ने
(ग) कार्ल मार्क्स ने
(घ) डेविस ने

उतर:

1. (घ) टॉयलर,
2. (ग) अलौकिक शक्ति पर विश्वास,
3. (घ) सदाचार,
4. (ग) तर्क का समावेश,
5. (ख) कर्तव्य का बोध,
6. (ख) बेकन,
7. (ग) लॉक,
8. (ग) जनरीति,
9. (ग) कार्ल मार्क्स ने।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 7 Religion, Morality and Customs (धर्म, नैतिकता और प्रथाएँ।) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 7 Religion, Morality and Customs (धर्म, नैतिकता और प्रथाएँ।), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 25 Major Ports of India

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 25 Major Ports of India (भारत के प्रमुख पत्तने बन्दरगाह) are part of UP Board Solutions for Class 12 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 25 Major Ports of India (भारत के प्रमुख पत्तने बन्दरगाह).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography
Chapter Chapter 25
Chapter Name Major Ports of India (भारत के प्रमुख पत्तने बन्दरगाह)
Number of Questions Solved 18
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 25 Major Ports of India (भारत के प्रमुख पत्तने बन्दरगाह)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारत के किन्हीं दो प्रमुख बन्दरगाहों की स्थिति एवं महत्त्व की विवेचना कीजिए।
या
निम्नलिखित बन्दरगाहों के विकास हेतु उत्तरदायी भौगोलिक कारकों का विश्लेषण कीजिए –
(1) कॉदला, (2) पाराद्वीप, (3) कोचीन, (4) कोलकाता, (5) विशाखापट्टनम् एवं (6) मुम्बई।
या
मुम्बई पत्तन का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए।
(क) स्थिति एवं पृष्ठ प्रदेश (ख) निर्यात एवं आयात। [2016]
या
भारत के पूर्वी समुद्री तट पर स्थित दो प्रमुख पत्तनों (बन्दरगाहों) का भौगोलिक वर्णन कीजिए। टिप्प्णी लिखिए। काँदला बन्दरगाह की स्थिति एवं महत्त्व
या
पूर्वी भारत के किन्हीं दो मुख्य बन्दरगाहों की स्थिति एवं महत्त्व की विवेचना कीजिए।
या
पश्चिमी भारत के किन्हीं दो समुद्र पत्तनों की स्थिति एवं महत्त्व की समीक्षा कीजिए। (2016)
या
भारत के पाराद्वीप बन्दरगाह की स्थिति एवं महत्त्व बताइए।
या
विशाखापट्टनम् पत्तन (बन्दरगाह) का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए –
(अ) स्थिति, (ब) पृष्ठ प्रदेश (पश्च भूमि), (स) आयात एवं निर्यात। [2008]
या
भारत के पूर्वी तट के किन्हीं दो बन्दरगाहों के नाम लिखिए एवं इन्हें रेखा-मानचित्र पर प्रदर्शित कीजिए। [2014]
उत्तर

(1) काँदला Kandla

काँदला भारत का एक महत्त्वपूर्ण आधुनिक पत्तन है। कराँची पत्तन के पाकिस्तान के आधिपत्य में चले जाने के उपरान्त पश्चिमी तट पर काँदला पत्तन का विकास किया गया, जिससे यह गुजरात के उत्तरी भाग, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली एवं जम्मू-कश्मीर राज्यों के लिए मुख्य द्वार का काम कर सके तथा मुम्बई पत्तन के व्यापारिक भार को घटाया जा सके। इस कृत्रिम पत्तन के विकास के लिए सरकार ने करोड़ों रुपये का व्यय किया है। इसका विकास मुम्बई के सहायक पत्तन के रूप में किया गया है। इस पत्तन के विकास में निम्नलिखित भौगोलिक कारकों ने अपना प्रभाव डाला है –
(1) स्थिति – यह पत्तन एक सामुद्रिक कटाव पर स्थित है जो भुज से 48 किमी दूर एवं कच्छ की खाड़ी के पूर्वी सिरे पर स्थित है। इसमें जल की औसत गहराई 9 मीटर है, जहाँ जलयान सुविधा से ठहर सकते हैं। भारत सरकार ने सन् 1965 से इसे मुक्त व्यापार क्षेत्र घोषित कर दिया है अर्थात् यहाँ पर विदेशी आयातित माल पर कोई कर नहीं देना पड़ता है। इसी कारण इस पत्तन का विकास तीव्र गति से हुआ है।

(2) पोताश्रय – इस पत्तन का पोताश्रय प्राकृतिक एवं सुरक्षित है। यहाँ पर 4 डॉक्स इतने गहरे एवं बड़े हैं जिनमें किसी भी आकार के9 मीटर गहरी तली वाले जलयान खड़े हो सकते हैं। इस पत्तन को सभी आधुनिक आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध करायी गयी हैं। यहाँ पर गोदामों की भी अच्छी व्यवस्था है। काँदला पत्तन पर 4 बड़े शेड हैं जिनमें माल सुरक्षित रखा जा सकता है। यहाँ एक खनिज तेल का गोदाम भी है।

(3) आधुनिक संचार सुविधाएँ – इस पत्तन पर 1,600 किमी दूरी तक के समाचार प्राप्त करने और भेजने वाला संचार यन्त्र तथा 48 किमी तक की सूचना देने वाला राडार यन्त्र भी लगाया गया है। एक तैरते हुए डॉक और ज्वार-भाटा के समय प्रयुक्त होने के लिए डॉक भी बनाये गये हैं। यह पत्तन अपने पृष्ठ प्रदेश से रेल एवं सड़क मार्गों से जुड़ा है। यह पत्तन यूरोपीय तथा अन्य पश्चिमी देशों के सबसे निकट पड़ता है।

(4) पृष्ठ प्रदेश – कॉंदला पत्तन का पृष्ठ प्रदेश बहुत ही विशाल है। इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली एवं पश्चिमी मध्य प्रदेश के कुछ भाग सम्मिलित हैं। इसको पृष्ठ प्रदेश मछली, सीमेण्ट बनाने का कच्चा माल, जिप्सम, लिग्नाइट, नमक, बॉक्साइट, अभ्रक, मैंगनीज आदि पदार्थों में काफी धनी है। यहाँ सूती एवं ऊनी वस्त्र, सीमेण्ट, दवाई, घड़ी आदि बनाने के अरब सागरेअनेक उद्योग भी विकसित हुए हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 25 Major Ports of India 1

(5) आयात एवं निर्यात – इस पत्तन की स्थिति पत्तन द्वारा लोहे-इस्पात का सामान, मशीन, पेट्रोल, गन्धक, रॉक फॉस्फेट, पोटाश, रासायनिक उर्वरक, उत्तम किस्म की कपास, रसायन, खाद्यान्न आदि वस्तुओं का आयात किया जाता हैं।
यहाँ से लकड़ियाँ, अभ्रक, लोहा, चमड़ा, खालें, ऊन, सेलखड़ी, अनाज, कपड़ा, नमक, सीमेण्ट, हड्डी का चूरा, मैंगनीज, चीनी, इन्जीनियरिंग का सामान आदि वस्तुओं का निर्यात किया जाता है।
इस पत्तन की समृद्धि के लिए इसे मुक्त व्यापार क्षेत्र (Free Trade Zone) घोषित किया गया है। यहाँ आयात किये जाने वाले माल पर कोई कर नहीं देना पड़ता। इस पत्तन द्वारा प्रतिवर्ष लगभग 165 लाख टन को व्यापार (आयात 91% तथा निर्यात 9%) किया जाता है।

(2) पारादीप Paradweep

पाराद्वीप पत्तन भारत के पूर्वी तट पर ओडिशा राज्य में कोलकाता एवं विशाखापट्टनम् बन्दरगाहों के मध्य स्थित है। इसके द्वारा सभी मौसमों में व्यापार किया जाता है। यहाँ 60,000 टन क्षमता के जलयान आसानी से ठहर सकते हैं। इस पत्तन के 6 वर्ग किमी क्षेत्र में भवन आदि का निर्माण किया गया है। यह सम्पूर्ण क्षेत्र पहले दलदली था जिसे सुखाकर लेंगून हारबेर, जलयानों के मुड़ने के लिए स्थान, खनिज तथा अन्य सामानों के लिए दो बर्थ, लैगून तक पहुँचने के लिए एक जलधारा तथा माल लादने के लिए एक जैटी का निर्माण किया गया है। जलतोड़ दीवार सागर की ओर से लैगून हारबर में आने वाले जलयानों को संरक्षण प्रदान करती है। इस द्वार से होकर जलयान जलधारा में जा पाते हैं। इसके विकास में निम्नलिखित भौगोलिक कारकों ने अपना योगदान दिया है –
(1) स्थिति – इस पत्तन का विकास उत्कल तट पर कटक से 96 किमी दूर बंगाल की खाड़ी में किया गया है। यह कोलकाता एवं विशाखापट्टनम् पत्तनों के मध्य केन्द्रीय स्थिति रखता है।

(2) पोताश्रय – इसका पोताश्रय लैगून सदृश है, जो चारों ओर से जलतोड़ दीवारों से घिरा हुआ है। यहाँ प्रथम चरण में एक समय में दो जलयान ठहर सकते हैं, परन्तु बाद में अधिक जलयानों को ठहराने की सुविधा के लिए बर्थ क्षेत्र को विस्तृत किये जाने का कार्य विचाराधीन है।

(3) संचार सुविधाएँ – इसका पृष्ठ प्रदेश सड़क एवं रेलमार्गों द्वारा इस पत्तन से जुड़ा हुआ है। पाराद्वीप पत्तन को एक ओर तोमका तथा दूसरी ओर दैतारी लोहे की खानों से जोड़ने के लिए 145 किमी लम्बा राजमार्ग बनाया गया है। इस मार्ग को क्योंझर जिले से लेकर बिहार की सीमा पर स्थित भारत की सबसे बड़ी लोहे की खानों—जादा एवं नारबिल–तक बढ़ाये जाने का प्रस्ताव विचाराधीन है।

(4) पृष्ठ प्रदेश – इस पत्तन का पृष्ठ प्रदेश ओडिशा, उत्तरी आन्ध्र प्रदेश, झारखण्ड एवं छत्तीसगढ़ राज्यों पर विस्तृत है। यहाँ मैंगनीज, लोहा, अभ्रक, बॉक्साइट, कोयला, ग्रेफाइट आदि खनिज पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ इमारती लकड़ी भी उपलब्ध है। इस पृष्ठ प्रदेश में लोहा-इस्पात, भारी मशीनें, विद्युत-यन्त्र एवं उपकरण, रासायनिक उर्वरक, सीमेण्ट, कागज आदि उद्योग विकसित हुए हैं।

(5) आयात एवं निर्यात – इस पत्तन के प्रमुख आयात रासायनिक उर्वरक, गन्धक, पोटाश आदि हैं, जबकि यहाँ से लोहा, मैंगनीज, लोहे एवं इस्पात का सामान, इमारती लकड़ी, मछलियाँ, क्रोमाइट आदि वस्तुओं का विदेशों को निर्यात किया जाता है।
सन् 1966 के बाद से इस पत्तन को भारत के 19 बड़े पत्तनों में सम्मिलित कर लिया गया है। इस पत्तन में प्रतिवर्ष 121 जलयान आते हैं तथा 22 लाख टन वस्तुओं का व्यापार किया जाता है, जिसमें
आयात 4 लाख टन एवं निर्यात 18 लाख टन का है। इस पत्तन का विकास देश के निर्यात को प्रोत्साहन देने के लिए किया गया है।

(3) कोचीन (कोच्चि) Kochin

कोचीन पत्तन, भारत के पश्चिमी तट अर्थात् मालाबार तट पर केरल राज्य में स्थित है। यह एक प्राकृतिक पत्तन है जो समुद्र के समानान्तर एक विशाल अनूप के सहारे स्थित है। यह सुदूर-पूर्व, ऑस्ट्रेलिया एवं यूरोप को जाने वाले जलमार्गों के मध्य पड़ता है। इस पत्तन को निम्नलिखित भौगोलिक सुविधाएँ प्राप्त हैं –
(1) स्थिति – यह केरल राज्य में मुम्बई महानगर से दक्षिण में 928 किमी की दूरी पर पश्चिमी तट पर स्थित है। यह एक विशाल पेरियार लैगून के मुहाने पर अपनी स्थिति रखता है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 25 Major Ports of India 2
(2) पोताश्रय – इसका पोताश्रय काफी विकसित है। पोताश्रय से सम्बन्धित जलधारा 140 मीटर चौड़ी तथा 7 किमी लम्बी है। यहाँ पर बड़े-बड़े जलयान सुरक्षित खड़े रह सकते हैं। पूर्वी एवं पश्चिमी देशों के मध्य यह एक कड़ी का कार्य करता है।

(3) यातायात के साधन – इसका पृष्ठ प्रदेश राजमार्गों एवं रेलों द्वारा जुड़ा है। दक्षिणी भारत के पश्चिमी तट पर यह एक प्रमुख पत्तन है जो मुम्बई के भार को कम करता है।

(4) पृष्ठ प्रदेश – कोचीन पत्तन का पृष्ठ प्रदेश पश्चिमी घाट के दक्षिणी भाग, नीलगिरि, इलायची की पहाड़ियों, केरल, कर्नाटक और दक्षिणी तमिलनाडु पर विस्तृत हैं। दक्षिणी भारत के शेष भागों में यह रेल एवं सड़क मार्गों द्वारा जुड़ा है। इसके पृष्ठ प्रदेश में चाय, कहवा, चावल, नारियल, रबड़, काजू, गर्म मसाले एवं रबड़ का अधिक उत्पादन किया जाता है। इसके अतिरिक्त मछलियाँ एवं अन्य सामुद्रिक जीव, इलायची एवं नारियल से बने सामान; जैसे-तेल, चटाई, रस्सी आदि; का भी उत्पादन किया जाता है, परन्तु वृहत् उद्योगों को इसके पृष्ठ प्रदेश में अभाव पाया जाता है। अत: लघु एवं कुटीर वस्तुओं का उत्पादन ही अधिक किया जाता है तथा इन्हीं वस्तुओं का व्यापार किया जाता है।

(5) आयात एवं निर्यात – इस पत्तन के प्रमुख आयात कपास, रासायनिक उर्वरक, पेट्रोल, बॉक्साइट, जस्ता, लोहा एवं इस्पात का सामान, कोयला, वस्त्र आदि वस्तुएँ हैं।
प्रमुख निर्यातक वस्तुओं में नारियल की जटाएँ, रस्से, सूत, चटाइयाँ, खोपरा, गिरि, नारियल का तेल, चाय, कहवा, रबड़, काजू, गर्म मसाले, इलायची, मछलियाँ आदि हैं।

दक्षिणी भारत में कोचीन एक औद्योगिक नगर के रूप में विकसित हुआ है। जलयान निर्माण उद्योग यहाँ का प्रमुख उद्योग है। इसके अतिरिक्त पेट्रोलियम शोधन उद्योग भी विकसित हुआ है। अन्य उद्योगों में विद्युत उपकरण, रासायनिक उर्वरक आदि प्रमुख हैं। इस पत्तन का सामरिक महत्त्व बहुत अधिक है। यह ऑस्ट्रेलिया एवं पूर्वी एशियाई देशों के लिए समुद्री पत्तने की सुविधा प्रदान करता है। यहाँ प्रतिवर्ष 918 जलयाने आते हैं। व्यापार की मात्रा 55 लाख टन हैं, जिसमें आयात 42 लाख टन तथा निर्यात मात्रा 13 लाख टन है।

(4) कोलकाता Kolkata

कोलकाता भारत का ही नहीं अपितु एशिया महाद्वीप का एक प्रमुख पत्तन है। वास्तव में यह गंगा-ब्रह्मपुत्र घाटी का पूर्वी सामुद्रिक द्वार है। निम्नलिखित भौगोलिक कारकों ने इस पत्तन के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है –
(1) स्थिति – कोलकाता पत्तन हुगली नदी के बायें किनारे पर बंगाल की खाड़ी से 144 किमी की दूरी पर उत्तर दिशा की ओर स्थित है।

(2) पोताश्रय – कोलकाता पत्तन हुगली नदी द्वारा समुद्र से जुड़ा है। हुगली नदी के तट पर उत्तर में श्रीरामपुर से लेकर दक्षिण में बज बज तक यह पत्तन विस्तृत है। इससे 64 किमी दूर खाड़ी में डायमण्ड एवं खिदिरपुर पोताश्रय बनाये गये हैं। जहाँ जल की पर्याप्त गहराई के कारण 9,000 टन से भी अधिक भार के जलयान आसानी से पहुँच सकते हैं, तथा वहाँ ठहरकर ज्वार की प्रतीक्षा करते हैं। ज्वार के समय ये जलयान खिदिरपुर तक जाते हैं। इस प्रकार जलयानों को समुद्रतटे से कोलकाता पत्तन तक पहुँचने के लिए 8 घण्टे का समय लग जाता है। यहाँ पर अनेक जैटी, गोदाम, व्यापारिक एवं औद्योगिक केन्द्र स्थित हैं।
(3) कोलकाता पत्तन के विकास के कारण

    1. इसका पृष्ठ प्रदेश सघन जनसंख्या रखने वाला है।
    2. इसका पृष्ठ प्रदेश आर्थिक विकास में बहुत ही धनी है, जहाँ जूट, चावल, चाय तथा गन्ने का अधिक उत्पादन किया जाता है।
    3. इसके समीप ही कोयला, लौह-अयस्क, मैंगनीज, अभ्रक, चूना-पत्थर आदि खनिज पदार्थ पर्याप्त मात्रा में निकाले जाते हैं।
    4. इसके पृष्ठ प्रदेश में सभी प्रकार के आवागमन के साधन विकसित हैं।
    5. इसका पृष्ठ प्रदेश लोहा-इस्पात, इंजीनियरिंग, भारी विद्युत संयन्त्र, सीमेण्ट, कागज, जूट, सूती वस्त्र आदि उद्योगों में विकसित है।
    6. समीप में स्थित दक्षिणी-पूर्वी एशियाई देश भारतीय माल के अच्छे ग्राहक हैं, जो बाजार की सुविधा उपलब्ध कराते हैं।
    7. कोयले से प्राप्त ताप-विद्युत तथा जल-विद्युत शक्ति पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है।
    8. कोलकाता भारत का प्रमुख शैक्षिक, व्यावसायिक एवं व्यापारिक केन्द्र है।
    9. कोलकाता के समीपवर्ती प्रदेश में सघन जनसंख्या के कारण सस्ते श्रमिक काफी संख्या में उपलब्ध हो जाते हैं।
    10. हुगली नदी इस पत्तन को परिवहन की सुविधा के साथ-साथ स्वच्छ जल की सुविधा प्रदान करती है।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 25 Major Ports of India 3
(4) पृष्ठ प्रदेश – इसके पृष्ठ प्रदेश में असोम, बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, ओडिशा तथा छत्तीसगढ़ राज्य सम्मिलित हैं। यह देश के सभी भागों से पूर्वी, उत्तरी-पूर्वी, मध्य और पूर्वी-सीमान्त रेलमार्गों, राष्ट्रीय राजमार्गों, नदी मार्गों और नहरों द्वारा जुड़ा है। अतः सम्पूर्ण क्षेत्र का उत्पादन आसानी से कोलकाता तक लाया जा सकता है तथा विदेशों से प्राप्त माल को देश के भिन्न-भिन्न भागों में आसानी से पहुंचाया जा सकता है।

(5) व्यापार – कोलकाता देश का दूसरा बड़ा पत्तन है। यहाँ से अधिकांशतः भारी पदार्थों का व्यापार किया जाता है। इस पत्तन पर यात्री जलयान बहुत ही कम आते हैं। यहाँ से निर्यात की जाने वाली प्रमुख वस्तुएँ-जूट एवं जूट का सामान, चाय, चीनी, लोहा एवं इस्पात का सामान, तिलहन, चमड़ा, अभ्रक, मैंगनीज आदि हैं। इस पत्तन द्वारा आयात की जाने वाली प्रमुख वस्तुओं में कपास, सूती, ऊनी एवं रेशमी वस्त्र, कृत्रिम रेशम, रासायनिक पदार्थ, कागज, लुग्दी, पेट्रोल, काँच का सामान, रबड़, मशीनें, दवाइयाँ तथा मोटरकार आदि वस्तुएँ सम्मिलित हैं।

इस पत्तन के विकास के कारण ही इस पृष्ठ प्रदेश में अनेक उद्योग-धन्धे स्थापित हो गये हैं। सूती वस्त्र एवं कागज इसी प्रकार के उद्योग हैं। दोनों ही उद्योग आयातित कच्चे माल पर निर्भर करते हैं। जूट उद्योग के विकास में कोलकाता पत्तन का विशेष महत्त्व है। मशीनों के आयात की सुविधा ने इस पत्तन के पृष्ठ प्रदेश में प्रथम इस्पात कारखाना जमशेदपुर में स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। दुर्गापुर, हीरापुर, बर्नपुर तथा कुल्टी के इस्पात कारखाने इसी पत्तन की देन हैं। चमड़ा, दियासलाई, रेशमी वस्त्र, मोटरकार आदि अन्य प्रमुख उद्योग भी यहाँ स्थापित हैं।

(6) कोलकाता पत्तन के भावी विकास की प्रवृत्तियाँ – इस पत्तन पर व्यापारिक दबाव बढ़ जाने के कारण कोलकाता महानगर के दक्षिण में हुगली नदी के नीचे की ओर 90 किमी की दूरी पर हल्दिया पोताश्रय एवं पत्तन का विकास किया गया है। बड़े-बड़े जलयान जो कोलकाता तक नहीं पहुँच पाते, यहाँ पर आसानी से लंगर डाल सकते हैं। यहाँ कोलकाता पत्तन के लिए अनेक आवश्यक वस्तुएँ आयात की जा सकेंगी। हल्दिया पत्तन पर सन् 1981 से माल उतारने-लादने की आधुनिक तकनीक का उपयोग शुरू कर दिया गया है। इस प्रकार हल्दिया, कोलकाता के सहायक पत्तन के रूप में विकसित किया गया है। कोलकाता से प्रतिवर्ष 42 लाख टन तथा हल्दिया से 87 लाख टन माल का व्यापार किया जाता है, जिसमें 80% आयातित एवं 20% निर्यातित माल होता है।

(5) विशाखापट्टनम्
Vishakhapattanam

विशाखापट्टनम् पत्तन को निम्नलिखित भौगोलिक सुविधाएँ प्राप्त हैं –
(1) स्थिति – यह पत्तन भारत के पूर्वी तट पर बंगाल की खाड़ी में कोरोमण्डल तट पर कोलकाता से 800 किमी दक्षिण तथा चेन्नई से 425 किमी उत्तर में आन्ध्र प्रदेश राज्य में स्थित है। यह पत्तन पूर्ण रूप से एक सुरक्षित, प्राकृतिक एवं सबसे गहरा पत्तने है।

(2) पोताश्रय – इसका पोताश्रय काफी गहरा एवं सुरक्षित है। यहाँ जल की गहराई 9 मीटर से कम नहीं है। इस पत्तन पर 4 मुख्य बर्थ हैं जिनमें से प्रत्येक 152 मीटर लम्बा है तथा इनमें सभी आधुनिक सुविधाएँ विकसित की गयी हैं। इनमें से दो बर्थ विशेष रूप से लोहे एवं मैंगनीज के व्यापार के लिए सुरक्षित हैं। इनसे प्रतिदिन लगभग 3,000 मीट्रिक टन माल का व्यापार होता है। लगभग 61 मीटर लम्बी बर्थ पेट्रोल के व्यापार के लिए सुरक्षित है। इसके पोताश्रय में काफी बड़े जलयान भी आकर लंगर डाल सकते हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 25 Major Ports of India 4
(3) आवागमन के साधन – विशाखापट्टनम् पत्तन का पृष्ठ प्रदेश दक्षिणी-पूर्वी एवं दक्षिणी-मध्य रेलमार्गों द्वारा जुड़ा है। इसके पृष्ठ प्रदेश से कोलकाता की अपेक्षा यंहाँ पहुँचने में कम समय लगता है तथा व्यय भी। कम करना पड़ता है। यहाँ पर जलयान निर्माण, लोहा-इस्पात, रासायनिक उर्वरक तथा तेलशोधन के कारखाने भी स्थापित किये गये हैं।

(4) पृष्ठ प्रदेश – विशाखापट्टनम् को पृष्ठ प्रदेश आन्ध्र प्रदेश के अधिकतर भाग, ओडिशा, पूर्वी मध्य प्रदेश एवं तमिलनाडु राज्यों पर विस्तृत है। इन राज्यों के व्यापार के लिए यही पत्तन उत्तम एवं सुविधाजनक है। इसका पृष्ठ प्रदेश कृषि पदार्थों की अपेक्षा खनिज पदार्थों में अधिक धनी है। यहाँ कोयला, लौह-अयस्क तथा मैंगनीज के भारी भण्डार हैं। चावल, मूंगफली, नारियल, चमड़ा एवं खाले भी यहाँ के प्रमुख उत्पाद हैं।

(5) व्यापार – इस पत्तन द्वारा सूती वस्त्र, लोहा-इस्पात का सामान, मशीनें, पेट्रोल एवं रासायनिक पदार्थ प्रमुख रूप से आयात किये जाते हैं।
जापान को लौह-अयस्क निर्यात करने में इस पत्तन की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। अन्य वस्तुओं में कोयला, लकड़ियाँ, चमड़ा, खालें, मूंगफली, मैंगनीज, लोहा, हरड़, बहेड़ा, लाख, खली आदि का निर्यात किया जाता है। आयातक वस्तुओं में वस्त्र, पेट्रोलियम उत्पाद, सीमेण्ट, मशीनें, कोयला, लोहा, रासायनिक पदार्थ, अखबारी कागज एवं खनिज तेल प्रमुख हैं। विशाखापट्टनम् पत्तन में प्रति वर्ष 563 जलयान आते हैं, जिनके द्वारा 148 लाख टन माल का व्यापार किया जाता है।

(6) मुम्बई Mumbai

यह भारत का ही नहीं अपितु विश्व का एक प्रमुख पत्तन है। देश का 20% से भी अधिक व्यापार मुम्बई पत्तन द्वारा किया जाता है। इस पत्तन को निम्नलिखित भौगोलिक सुविधाएँ प्राप्त हैं –
(1) स्थिति – मुम्बई पत्तन सालसट द्वीप पर लगभग 200 वर्ग किमी क्षेत्रफल में विस्तृत है। यह भारत के पश्चिमी तट पर एक प्राकृतिक कटान में स्थित है, जहाँ मानसून काल के तूफानों से जलयान सुरक्षित खड़े रह सकते हैं। यह पत्तन यूरोप, पूर्वी एशिया एवं ऑस्ट्रेलिया के मार्ग में पड़ता है। पत्तन के निकट 11 मीटर गहराई होने से जलयान समुद्रतट तक आकर ठहर जाते हैं। यहाँ पर एक खाड़ी बन गयी। है जो 23 किमी लम्बी एवं 10 किमी चौड़ी है। स्वेज नहर को पार कर आने वाले सभी प्रकार के जलयान यहाँ पर आसानी से ठहर सकते हैं। इस प्रकार पश्चिम से पूर्व को जोड़ने में इस पत्तन की भूमिका बड़ी ही। महत्त्वपूर्ण है।

(2) संचार सुविधाएँ – मुम्बई को यद्यपि पश्चिमी घाट ने देश के भीतरी भागों से अलग-थलग कर दिया है, परन्तु थालघाट एवं भोरघाट दरों ने इसे सड़क एवं रेलमार्गों द्वारा उत्तरी-दक्षिणी एवं मध्य-पूर्वी भारत से जोड़ दिया है। मुम्बई अन्तर्राष्ट्रीय वायु सेवाओं का भी प्रमुख केन्द्र है।

(3) पोताश्रय – जिस स्थान पर मुम्बई पत्तन का निर्माण किया गया है, वहाँ जल की गहराई 11 मीटर है। इतनी गहराई में वे सभी जलयान आकर ठहर सकते हैं जो स्वेज नहर से होकर निकल सकते हैं, क्योंकि स्वेज नहर की गहराई भी लगभग इतनी ही है।

मुम्बई पत्तन के तीन मुख्य डॉक्स हैं-प्रिंस डॉक में 12, विक्टोरिया डॉक में 13 और एलेक्जेण्ड्रा डॉक में 17 बर्थ हैं। यहाँ पर 2 शुष्क डॉक भी बनाये गये हैं। इनके अतिरिक्त कुछ उप-पत्तनों का भी विकास किया गया है जिनमें नावों से आने वाला सामान एवं यात्री उतरते-चढ़ते हैं। तटीय व्यापार की दृष्टि से इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस पत्तन के निकट ही पेट्रोलियम के गोदाम भी बनाये गये हैं। एक नया गोदाम बचूर द्वीप के समीप में भी निर्मित किया गया है। विशाल गोदामों का होना मुम्बई पत्तन की सबसे बड़ी विशेषता है। यहाँ अनाज एवं कपास रखने के गोदाम भी बनाये गये हैं। जिनमें 178 अग्नि-सुरक्षित कमरे हैं। इन गोदामों में अग्निसुरक्षा, आवागमन, अस्पताल, जलपान-गृह आदि की भी सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 25 Major Ports of India 5
(4) पृष्ठ प्रदेश – मुम्बई पत्तन का पृष्ठ प्रदेश बड़ा ही विशाल है जो दक्षिण में तमिलनाडु के पश्चिमी भाग से लेकर उत्तर में कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात एवं महाराष्ट्र राज्यों तक फैला है। इसका पृष्ठ प्रदेश कृषि उत्पादन में बड़ा ही धनी है।
इस पत्तन के विकास के लिए सन् 1969 में मुम्बई पोर्ट ट्रस्ट प्राधिकरण बनाया गया, जिससे इसके विकास की विभिन्न योजनाएँ बनायी गयी हैं। कुल मिलाकर 55 घाटों का निर्माण किया गया है जहाँ पर एक साथ कई जलयानों से माल लादा एवं उतारा जा सकता है। प्रारम्भ में इसकी व्यापार क्षमता 150 लाख मीट्रिक टन थी जिसे बढ़ाकर 300 लाख मीट्रिक टन कर दिया गया है।

(5) व्यापार (महत्त्व) – व्यापार की दृष्टि से इस पत्तन को भारत में प्रथम स्थान है। देश के पेट्रोलियम व्यापार का 45%, सामान्य व्यापार को 44%, खाद्यान्न व्यापार का 30% तथा यात्रियों को लाने-ले-जाने का अधिकांश कार्य इसी पत्तन द्वारा किया जाता है। इस पत्तन द्वारा अलसी, मूंगफली, चमड़े का सामान, तिलहन, लकड़ी, ऊन, ऊनी एवं सूती वस्त्र, चमड़ा, मैंगनीज, अभ्रक, इंजीनियरिंग का सामान, लकड़ी, चाँदी आदि वस्तुएँ विदेशों को निर्यात की जाती हैं।

पेट्रोलियम का आयात इसी पत्तन द्वारा सबसे अधिक किया जाता है। बॉम्बे-हाई (Bombay-High) में तेल के भारी उत्पादन से इसका महत्त्व और भी अधिक बढ़ गया है। यहाँ पर विदेशों से सूती, ऊनी एवं रेशमी वस्त्र, मशीनें, नमक, कोयला, कागज, रंग-रोगन, फल, रासायनिक पदार्थ, मिट्टी का तेल एवं लोहे का सामान, उत्तम किस्म की कपास, रासायनिक उर्वरक आदि वस्तुओं का आयात किया जाता है।

इस पत्तन के कारण ही इसके पृष्ठ प्रदेश में सूती वस्त्र उद्योग का विकास सम्भव हो सका है। दो पेट्रोल-शोधनशालाएँ ट्राम्बे में आयातित पेट्रोल के कारण स्थापित की जा सकी हैं। इसके अतिरिक्त रासायनिक उर्वरक, इन्जीनियरिंग, ऊनी वस्त्र, चमड़ा, दवाइयाँ, सीमेण्ट, मोटर, सिनेमा आदि उद्योग भी काफी विकसित हैं। इस पत्तन पर 3,557 जलयानों का आवागमन प्रतिवर्ष होता है जिनके द्वारा 286 लाख टन सामान का व्यापार किया जाता है जिसमें 134 लाख टन का आयात तथा 152 लाख टन का निर्यात किया जाता है। भविष्य में इसकी व्यापार क्षमता और भी अधिक बढ़ जाने की सम्भावना है, क्योंकि इसके निकट ही न्हावाशेवा नाम का एक नया पत्तन र 985 करोड़ की लागत से विकसित किया गया है।
मुम्बई पत्तन के विकास के कारण

  1. अन्य भारतीय पत्तनों की अपेक्षा यूरोप के अधिक निकट स्थिति।
  2. स्वेज नहर मार्ग तथा उत्तमाशा-अन्तरीप मार्ग पर केन्द्रीय स्थिति रखना।
  3. प्राकृतिक एवं विस्तृत पोताश्रय।
  4. पत्तन का वर्ष भर आवागमन के लिए खुले रहना।
  5. अपने पृष्ठ प्रदेश से रेल एवं सड़क मार्गों द्वारा जुड़ा होना।
  6. इसके पृष्ठ प्रदेश का कपास, गेहूँ, गन्ना, मूंगफली जैसी फसलों के उत्पादन में विशेष स्थान।
  7. पश्चिमी घाट की प्राकृतिक स्थिति का जल-विद्युत शक्ति के विकास के लिए अनुकूल होना।
  8. समीप में तारापुर अणु शक्ति-गृह का स्थापित किया जाना।
  9. इसके पृष्ठ प्रदेश में सघन जनसंख्या का निवास होना।

(7) चेन्नई Chennai

पूर्वी तट पर यह भारत का मुख्य कृत्रिम पत्तन है। इसे सुरक्षित बनाने के लिए तट से 3.5 किमी की दूरी पर 90 मीटर गहरे सागर की नींव पर दो चौड़ी सीमेण्ट व कंकरीट की दीवारें बनाकर 80 हेक्टेयर से अधिक सागर जल को सुरक्षित बन्दरगाह क्षेत्र की भाँति विकसित किया गया है। इस पत्तन का मुख्य द्वार 120 मीटर लम्बा है। यहाँ जल की गहराई 10 मीटर रहती है, किन्तु ज्वार आने पर यह 12 मीटर तक हो जाती है। इस सुरक्षित पोताश्रय में वर्षा और तूफान के समय 16 जहाज सरलता से खड़े रहते हैं। बड़े जहाज भी साधारणतया 10 मीटर गहरे भागों तक आते हैं, किन्तु अक्टूबर-नवम्बर में जब कभी बंगाल की खाड़ी में तूफान आते हैं तो इनके द्वारा समुद्र का जल लहर के रूप में ऊपर उठ जाता है। और हानि की सम्भावना रहती है। अब इससे बचाव के लिए दीवारों को ऊँचा एवं अधिक सक्षम अनाया गया है। कुल व्यापार की दृष्टि से अब यह मुम्बई के पश्चात् सबसे व्यस्त बन्दरगाह हो गया है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 25 Major Ports of India 6
चेन्नई का पृष्ठ प्रदेश दक्षिण के प्रायद्वीप के पूर्वी और दक्षिणी राज्यों तक विस्तृत है। इसमें दक्षिणी आन्ध्र प्रदेश, सम्पूर्ण तमिलनाडु और कर्नाटक का पूर्वी भाग सम्मिलित होता है, किन्तु मुम्बई और कोलकाता की भाँति न तो यह इतना उपजाऊ और समृद्ध है और न ही इतना घना बसा है। तमिलनाडु का पृष्ठ प्रदेशे सड़कों और रेलमार्गों द्वारा अन्य राज्यों से जुड़ा है और यह स्वयं एक औद्योगिक नगर है जहाँ सूती वस्त्रे, सीमेण्ट, सिगरेट, रेशमी वस्त्र, चमड़ा आदि उद्योग स्थापित हैं। इसका पृष्ठ प्रदेश भी अब सुविकसित है।

चेन्नई पत्तन से विदेशों को सूती और रेशमी कपड़े, चाय, नारियल, कहवा, हड्डी की खाद, तम्बाकू, मैंगनीज, विविध समुद्री उत्पाद, इन्जीनियरी सामान, संरक्षित खाद्य पदार्थ, मोटर, अन्य वाहन, प्याज, आलू, खली, मसाले आदि वस्तुएँ निर्यात की जाती हैं। आयात व्यापार में कोयला, कोक, खाद्यान्न, मोटरें, रंग, पेट्रोलियम, कागज, दवाइयाँ, धातुएँ, मशीनें, रासायनिक पदार्थ व उर्वरक मुख्य हैं। सभी बन्दरगाहों से जितना माल लादा या प्राप्त किया जाता है, उसका लगभग 20 प्रतिशत माल इस बन्दरगाह द्वारा प्राप्त किया या लादा जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारत का रेखा मानचित्र खींचकर उस पर पश्चिमी घाट और पूर्वी घाट की स्थिति अंकित कीजिए।
या
भारत का रेखा मानचित्र बनाइए तथा उसमें कॉदला पत्तन (बन्दरगाह) को दिखाइए।
या
मुम्बई बन्दरगाह को एक रेखा मानचित्र द्वारा प्रदर्शित कीजिए। [2014]
या
कोलकाता बन्दरगाह को एक रेखा मानचित्र द्वारा प्रदर्शित कीजिए। [2014, 15]
उत्तर
इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का अध्ययन करें।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
उस पत्तन का नाम बताइए जिसकी स्थापना कोलकाता के सहायक पत्तन के रूप में की गयी है?
उत्तर
हल्दिया।

प्रश्न 2
उस पत्तन का नाम बताइए जिसका विकास मुम्बई पत्तन पर दबाव को कम करने के लिए किया गया।
उत्तर
न्हावाशेवा।

प्रश्न 3
उस पत्तन का नाम बताइए जो पश्चिमी तट से लौह धातु का निर्यात करता है।
उत्तर
मार्मागोआ।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 25 Major Ports of India

प्रश्न 4
पाराद्वीप पत्तन किसलिए प्रसिद्ध है?
उत्तर
पाराद्वीप पत्तन इसलिए प्रसिद्ध है कि इस पत्तन से मुख्यत: जापान को लौह धातु का निर्यात किया जाता है।

प्रश्न 5
काँदला बन्दरगाह के दो व्यापारिक महत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. काँदला पत्तन पर आयात किये जाने वाले माल पर कोई कर नहीं देना पड़ता।
  2. अन्य पत्तनों की भाँति यहाँ विदेशों से लाकर भरे जाने वाले छोटे और पुन: तैयार किये जाने वाले माल व मशीन पर चुंगी नहीं लगती।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 25 Major Ports of India

प्रश्न 6
भारत के पश्चिमी तट के दो प्राकृतिक बन्दरगाहों के नाम लिखिए। [2007, 09, 16]
उत्तर

  1. मुम्बई तथा
  2. कोच्चि (कोचीन)।

प्रश्न 7
भारत के पूर्वी तट के दो प्राकृतिक बन्दरगाहों के नाम लिखिए। [2007, 10]
उत्तर

  1. विशाखापट्टनम तथा
  2. कोलकाता।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1
निम्नलिखित शहरों में कौन बन्दरगाह नहीं है?
(क) नागपुर
(ख) मुम्बई
(ग) कोलकाता
(घ) विशाखापट्टनम्
उत्तर
(क) नागपुर।

प्रश्न 2
निम्नलिखित पत्तनों (बन्दरगाहों) में से कौन भारत के पूर्वी तट पर स्थित है? [2008, 2014]
(क) तूतीकोरिन
(ख) काँदला
(ग) मार्मागोआ
(घ) कोच्चि
उत्तर
(क) तूतीकोरिन।

प्रश्न 3
निम्नलिखित में से कौन-सा बन्दरगाह भारत के पूर्वी तट पर स्थित है? [2011]
(क) कॉदला
(ख) कोचीन
(ग) मंगलौर
(घ) चेन्नई
उत्तर
(घ) चेन्नई।

प्रश्न 4
निम्नलिखित में से कौन-सा बन्दरगाह भारत के पश्चिमी तट पर स्थित है? [2013, 14]
(क) पाराद्वीप
(ख) कोच्चि
(ग) तूतीकोरिन
(घ) हल्दिया
उत्तर
(ख) कोच्चि

प्रश्न 5
निम्नलिखित बन्दरगाहों में से कौन-सा भारत के पश्चिमी तट पर स्थित है?
(क) पाराद्वीप
(ख) हल्दिया
(ग) विशाखापट्टनम्
(घ) मार्मागोआ
उत्तर
(घ) मार्मागोआ।

प्रश्न 6
निम्नलिखित में से कौन-सा युग्म सही है? [2007]
(क) गुजरात-मंगलौर
(ख) तमिलनाडु-तूतीकोरिन
(ग) महाराष्ट्र-पाराद्वीप
(घ) कर्नाटक-कॉदला
उत्तर
(ख) तमिलनाडु-तूतीकोरिन।

प्रश्न 7
निम्नलिखित में से कौन-सा पत्तन भारत के पूर्वी तट पर स्थित है? [2010]
(क) मुम्बई
(ख) मंगलौर
(ग) कोच्चि
(घ) पाराद्वीप
उत्तर
(घ) पाराद्वीप।

प्रश्न 8
पाराद्वीप समुद्री पत्तन स्थित है – [2010]
(क) गुजरात में
(ख) कर्नाटक में
(ग) ओडिशा में
(घ) तमिलनाडु में
उत्तर
(ग) ओडिशा में।

प्रश्न 9
न्हावाशेवा उपग्रह पत्तन है – [2010]
(क) चेन्नई का
(ख) कोलकाता का
(ग) मुम्बई का
(घ) कोच्चि का
उत्तर
(ग) मुम्बई का।

प्रश्न 10
भारत का सबसे बड़ा नगर है – [2010]
(क) दिल्ली
(ख) मुम्बई
(ग) कोलकाता
(घ) चेन्नई
उत्तर
(ख) मुम्बई।

प्रश्न 11
निम्नलिखित में से कौन-सा बन्दरगाह भारत के पूर्वी तट पर स्थित है? [2015]
(क) कोचीन
(ख) मंगलौर
(ग) विशाखापट्टनम्
(घ) मुम्बई
उत्तर
(ग) विशाखापट्टनम्।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 25 Major Ports of India (भारत के प्रमुख पत्तने बन्दरगाह) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 25 Major Ports of India (भारत के प्रमुख पत्तने बन्दरगाह), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.