UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi पद्य Chapter 11 विविधा

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Board UP Board
Textbook SCERT, UP
Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 11
Chapter Name विविधा
Number of Questions Solved 7
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi पद्य Chapter 11 विविधा

(नरेन्द्र शर्मा, भवानीप्रसाद मिश्र, गजानन माधव मुक्तिबोध’, गिरिजाकुमार माथुर, धर्मवीर भारती)

प्रश्न-पत्र में संकलित पाठों में से चार कवियों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं। जिनमें से एक का उत्तर देना होता है। इस प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

(क) नरेन्द्र शर्मा

जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ
छायावादोत्तर काल में अपने प्रणय-गीतों, सामाजिक भावना एवं क्रान्तिवादी कविताओं से जनमत को गहराई से प्रभावित करने वाले कवियों में अग्रगण्य नरेन्द्र शर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जिले के जहाँगीरपुर नामक गाँव में 28 फरवरी, 1913 में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री पूरनलाल शर्मा तथा माता का नाम श्रीमती गंगा देवी था। नरेन्द्र शर्मा चार वर्ष के ही थे, तभी इनके पिता का स्वर्गवास हो गया।

अपने गाँव में प्रारम्भिक शिक्षा पूरी करने के बाद इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से 1936 में एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान जेल जाने के बाद वर्ष 1940 में काशी विद्यापीठ में इन्होंने अध्यापन कार्य भी किया। इन्होंने वर्ष 1934 में प्रयाग में ‘अभ्युदय’ पत्रिका का सम्पादन किया। वर्ष 1943 में बम्बई (अब मुम्बई) की चित्रपट की दुनिया में प्रवेश किया तथा उसे अनेक साहित्यिक एवं मधुर गीत प्रदान किए। बाद में आकाशवाणी से जुड़कर विविध भारती के कार्यक्रमों का संचालन भी किया। वर्ष 1989 में इनका देहान्त हो गया।

साहित्यिक गतिविधियाँ
छायावादोत्तर युग के प्रमुख व्यक्तिवादी गीतिकाव्य के रचयिता कवियों में नरेन्द्र शर्मा का विशिष्ट स्थान है। नरेन्द्र शर्मा ने साहित्य और लोकमंच कवि सम्मेलनों के माध्यम से जनजीवन को प्रभावित एवं प्रेरित कर साहित्यकार के दायित्व का पूर्ण निर्वाह किया है। इन्होंने कवि सम्मेलनों एवं गोष्ठियों में अपने गीतों को प्रस्तुत करके लोगों के मन-मस्तिष्क को मोह लिया था। वे विशेष रूप से छोटी भावनाओं को सरसता से व्यक्त करने वाले सफल कवि थे। इनके कुछ गीत फिल्मों में भी रिकॉर्ड किए गए हैं।

कृतियाँ
काव्य संग्रह शूल-फूल, कर्ण फूल, प्रवासी के गीत, पलाशवन, मिट्टी और फूल, रक्त चन्दन, प्रभात फेरी, प्यासा, निर्झर आदि।
खण्ड काव्य द्रौपदी, उत्तर-जय, सुवर्णा।।

काव्यगत विशेषताएँ
भाव पक्ष

  1. चित्रात्मकता, सजीवता एवं आत्मीयता के भाव भावात्मक अनुभूति की तीव्रता एवं सहजता की दृष्टि से नरेन्द्र शर्मा के गीतों की अपनी विशिष्टता है। उनके गीतों में चित्रात्मकता, सजीवता एवं आत्मीयता के भाव हैं।
  2. क्रान्तिकारी दृष्टिकोण छायावादौत्तरकाल में अपने प्रणय गीतों, सामाजिक भावना एवं क्रान्तिवाहक कविताओं से जनमत को बहुत गहराई से प्रभावित करने वाले कवियों में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है।
  3. विद्रोही स्वर शर्मा जी ने आक्रोश-भरे विद्रोही स्वर में विशाल जनमानस की विवशता, विद्रोह की भावना एवं नव निर्माण की चेतना को मुखरित किया है।
  4. प्रकृति चित्रण इनके प्रकृति चित्रण में सरलता से हृदय को आकर्षित कर लेने की क्षमता है। इनमें प्रकृति को आकर्षक रूप देने में अत्यधिक कुशलता है।

कला पक्ष

  1. भाषा नरेन्द्र शर्मा ने अपने साहित्य में शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग किया है, किन्तु उसके उपरान्त भी उनकी भाषा सरल, सुबोध और प्रभावशाली बन पड़ी है।
  2. शैली इनकी रचनाओं में लाक्षणिकता, चित्रोपमता एवं प्रतीकात्मकता प्रचुरता से उपलब्ध हैं।
  3. अलंकार एवं छन्द शर्मा जी के काव्य में अलंकारों एवं छन्दों का बड़ा ही। स्वाभाविक, सजीव और सुन्दर प्रयोग हुआ है।

हिन्दी साहित्य में स्थान
अपने प्रणय गीतों, सामाजिक भावना एवं क्रान्तिकारी कविताओं से लोगों को प्रभावित करने वाले कवियों में नरेन्द्र शर्मा प्रमुख हैं। एक उत्कृष्ट गीतकार के रूप में नरेन्द्र शर्मा का हिन्दी साहित्य में सदैव विशिष्ट स्थान रहेगा।

पद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-पत्र में पद्य भाग से दो पद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर देने होंगे।

मधू की एक बूंद

प्रश्न 1.
मधु की एक बूंद के पीछे मानव ने क्या क्या दुःख देखे।
मधु की एक बूंद धूमिल घन दर्शन और बुद्धि के लेखे!
सृष्टि अविद्या का कोल्हू यदि, विज्ञानी विद्या के अन्धे;
मधु की एक बूंद बिन कैसे जीव करे जीने के धन्धे!

उपरोक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) प्रस्तुत पद्यांश किस कविता से उदधृत है तथा उसके रचनाकार कौन हैं?
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश ‘मधु की एक बूंद’ कविता से उद्धृत है तथा इसके रचनाकार ‘नरेन्द्र शर्मा जी हैं।

(ii) प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है?
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि सृष्टि में प्रत्येक प्राणी के क्रियाकलाप आनन्द की खोज के लिए ही होते हैं। मनुष्य आनन्द का अभिलाषी है और इस क्षण को प्राप्त करने हेतु वह सदैव प्रयत्नशील रहता है।

(iii) कवि के अनुसार किसकी अभिव्यक्ति असम्भव है?
उत्तर:
कवि कहता है कि मनुष्य जीवन-पर्यन्त आनन्द की प्राप्ति हेतु प्रयासों में लगा रहता है और उसे आनन्द के ये क्षण अनेक दुःखों का सामना करने के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं, जिन्हें अभिव्यक्त करना असम्भव है।

(iv) कवि के अनुसार पृथ्वीवासी को सुख की प्राप्ति क्यों नहीं हो पाई है?
उत्तर:
कवि के अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि आनन्द या सुख की प्राप्ति हेतु कोल्हू के बैल की भाँति चारों ओर चक्कर लगा रही है अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वीवासी अपनी अज्ञानता के कारण ही आनन्द या सुख की प्राप्ति नहीं कर पा रहे हैं, व्यर्थ ही आनन्द के मार्ग में निरन्तर क्रियाशीलता का अनुसरण कर रहे हैं।

(v) प्रस्तुत पद्यांश में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में रूपक, उपमा एवं अनुप्रास अलंकार हैं।

प्रश्न 2.
मधु की एक बूंद बिन, रीते पाँचों कोश और पाँचों जन;
मधु की एक बूंद बिन, हम से सभी योजनाएँ सौ योजन!
मधु की एक बूंद बिन, ईश्वर शक्तिमान भी शक्तिहीन है!
मधु की एक बूंद सागर हैं हर जीवात्मा मधुर मीन है।
मधु की एक बूंद पृथ्वी में, मधु की एक बूंद शशि-रवि में
मधु की एक बूंद कविता में, मधु की एक बूंद कवि में।
मधु की एक बूंद के पीछे, मैंने अब तक कष्ट सहे शत,
मधु की एक बूंद मिथ्या है, कोई ऐसी बात कहे मत!

उपरोक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने आनन्द के महत्व को प्रतिपादित किया है। तथा स्पष्ट किया है कि आनन्द ही मनुष्य जीवन का आधार है तथा इसको प्राप्त करने के लिए सभी चेतन पदार्थ प्रयत्नशील रहते हैं।

(ii) प्रस्तुत पद्यांश में आनन्द के अभाव में किसको महत्त्वहीन बताया गया है?
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में आनन्द के अभाव में पंचकोश तथा पंचजन सभी शून्य व निष्प्रभ हैं अर्थात् मनुष्य को यदि आनन्द के क्षण ही प्राप्त न हों, तो उसके शरीर को संगठित करने वाले पाँच कोश अर्थात् पंचकोश तथा पंचजन का अस्तित्वव्यर्थ है, उनका कोई महत्व नहीं रह जाएगा।

(iii) कवि ने आनन्द के क्षण के महत्व को किस प्रकार प्रकट किया है?
उत्तर:
कवि ने आनन्द के एक क्षण के महत्व को प्रकट करते हुए कहा है कि आनन्द की एक वृंद मनुष्य के लिए सागर के समान है और प्रत्येक जीवात्मा उसकी मनोहर मछली है।

(iv) “मधु की एक बूंद मिथ्या है, कोई ऐसी बात कहे मत।” इस पंक्ति से कवि का क्या आशय है?
उत्तर:
इस पंक्ति से कवि का आशय यह है कि जीवन में आनन्द की प्राप्ति के लिए सभी चेतन पदार्थ प्रयत्नशील रहते हैं अर्थात् मनुष्य जीवन-पर्यन्त आनन्द की प्राप्ति के
लिए प्रयासरत् रहता है, इसलिए आनन्द को मिथ्या मानना सर्वथा गलत है।

(v) ‘शक्तिहीन’ में कौन-सा समास है? विग्रह करके स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शक्तिहीन-शक्ति से हीन (तत्पुरुष समास)।

(ख) भवानीप्रसाद मिश्र

जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ
प्रयोगशील एवं नई कविता के सशक्त कवि भवानीप्रसाद मिश्र का जन्म 23 मार्च, 1914 को होशंगाबाद जिले के ‘रेखा’ तट पर बसे ‘टिगरिया’ नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री सीताराम मिश्र तथा माता का नाम श्रीमती देवी था। जबलपुर के रॉबर्टसन कॉलेज से बी.ए. करने के बाद ये वर्ष 1942 के आन्दोलन में तीन वर्ष के लिए जेल गए। जेल में ही इन्होंने बांग्ला भाषा का अध्ययन किया। आकाशवाणी के मुम्बई केन्द्र में हिन्दी विभाग के प्रधान पद से अवकाश प्राप्त करने के पश्चात् इन्होंने ‘सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय’ का सम्पादन किया। वर्ष 1985 में इन्होंने इस संसार से विदा ली।

साहित्यिक गतिविधियाँ
इनकी रचनाओं पर गाँधी-दर्शन को स्पष्ट प्रभाव है। चिन्तनशीलता इनकी रचनाओं की एक प्रमुख विशिष्टता है। इन्होंने जीवन से जुड़ी गहरी विडम्बनाओं एवं विसंगतियों को सरल शैली में चित्रित किया है। प्रकृति सौन्दर्य चित्रण में इनका मन बहुत रमता था। इनकी कविताओं में वैयक्तिता एवं आत्मानुभूति के स्वर भी मुखरित हुए हैं।

कृतियाँ
अज्ञेय जी द्वारा सम्पादित ‘दूसरा सप्तक’ में शमिल होने से इनकी रचनाओं से पहली बार पाठक परिचित हुए। इसके अतिरिक्त इनकी प्रमुख रचनाएँ-गीत-फरोश, चकित हैं दुःख, अँधेरी कविताएँ, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल सन्ध्या, मानसरोवर दिन, कालजयी आदि हैं।

काव्यगत विशेषताएँ
भाव पक्ष

  1. प्रेम की एक पक्षीयता के दर्शन मिश्र जी की कविता में प्रेम की एक पदीयता के दर्शन होते हैं। उसमें आकुलता, आँसू और अभाव की चर्चा अधिक
  2. मानववादी कलाकार मिश्र जी एक मानववादी कलाकार हैं। मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा उनका अभीष्ठ है। मानववादी भावना उनके काव्य में सर्वत्र समाहित है, चाहे कवि प्रकृति की दृश्यावली में डूबा हो या विशेष मनःस्थिति में आत्मरथ हो गया है।
  3. प्रगतिशील चेतना मिश्र जी के काव्य में प्रगतिशील चेतना के भी दर्शन होते हैं। कवि ने अपनी प्रगतिशील चेतना से पूँजीपतियों, सामन्तों और शासकों के अत्याचारों का  सजीव वर्णन किया है।
  4. प्रकृति चित्रण मिश्र जी प्रकृति के कवि हैं। इन्होंने प्रकृति सौन्दर्य के चित्र इतनी गहराई से और सजीवता से उभारे हैं कि उनमें प्रकृति, मोहक और यथार्थ रूप में साकार हो उठी है।।
  5. गाँधीवादी विचारधारा गाँधी दर्शन अनुभूति के स्तर पर उनके विचारों में घुलमिल कर उनके काव्य में प्रकट हुआ है। उन्होंने अपने ‘गाँधी पंचशती’ कविता संग्रह में अपनी गाँधीवादी विचारधारा का सुन्दर परिचय दिया है।

कला पक्ष

  1. भाषा मिश्र जी की भाषा सहज, सरल, बोधगम्य और स्वाभाविक बन पड़ी है। इन्होंने स्वयं को संस्कृत की तत्सम शब्दावली से बचाकर सामान्य भाषा के शब्दों का प्रयोग किया है।
  2. शैली मिश्र जी की भाषा की तरह ही शैली भी सरल, सहज और प्रवाहमय है।
  3. बिम्ब एवं प्रतीक योजना मिश्र जी ने अपनी व्यक्तित्व अनुभूति और आस्था के सन्दर्भ में प्रतीकों का प्रयोग किया है, इसके साथ ही अपनी कविता में विविध प्रकार के बिम्बों को भी अपनाया है।
  4. अलंकार एवं छन्द मिश्र जी ने अपने काव्य में अलंकारों का सरल, सहज और स्वाभाविक प्रयोग किया है। अलंकारों का छलीप मिश्र जी को मोहित नहीं कर सका प्रयोगवादी प्रवृत्ति के कारण इन्होंने अधिकांश रूप से छन्द मुक्त कविताएँ लिखी हैं, परन्तु उनमें लय और ध्वन्यात्मकता का पूर्ण ध्यान रखा है।

हिन्दी साहित्य में स्थान
प्रयोगवादी कवियों में भवानीप्रसाद मिश्र एक प्रख्यात कवि के रूप में जाने जाते हैं। प्रयोगवादी एवं नई कविता की काव्यधारा के प्रतिष्ठित कवि के रूप में इन्हें अत्यधिक सम्मान प्राप्त है।

पद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-पत्र में पद्य भाग से दो पद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर देने होंगे।

बूंद टपकी एक नभ से

प्रश्न 1.
बूंद टपकी एक नभ से, किसी ने झुककर झरोखे से
कि जैसे हँस दिया हो, हँस रही-सी आँख ने जैसे
किसी को कस दिया हो, ठगा-सा कोई किसी की आँख
देखे रह गया हो, उस बहुत से रूप को,
रोमांच रोके सह गया हो। बूंद टपकी एक नभ से,
और जैसे पथिक छ मुस्कान, चौंके और घूमे आँख उसकी,
जिस तरह हँसती हुई-सी आँख चूमे,
उस तरह मैंने उठाई आँख : बादल फट गया था,
चन्द्र पर आता हुआ-सा अभ्र थोड़ा हट गया था।

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) प्रस्तुत पद्यांश किस कविता से उदधृत हैं तथा उसके रचनाकार कौन हैं?
उत्तर:
प्रस्तुत पशि ‘दूसरा सप्तक’ काव्य संग्रह में संकलित कविता ‘बूंद टपकी एक नब से ‘से उदधृत हैं तथा इसके रचनकार भवानीप्रसाद मिश्र ‘ जी हैं|

(ii) प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने बूंद के माध्यम से प्रेमिका के द्वारा चित्त को आकर्षित करने के लिए किए जाने वाले भावों की अभिव्यक्ति की है। कवि ने इसके साथ ही आकाश में बूंद के टपकने जैसी सामान्य-सी प्राकृतिक घटना को अनेक उपमानों से व्यक्त किया है।

(iii) “हँस रही-सी आँख ने जैसे, किसी को कस दिया हो।” पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत क्ति का आशय यह है कि आकाश से टपकी बूंद प्रेयसी के रूप में जब प्रेमी पर गिरती है, तो उसे लगता है जैसे उसने उसे अपनी ओर आकर्षित कर अपने बहुपाश में बाँध दिया हो।

(iv) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने जब नायिका की ओर देखा तब क्या हुआ था?
उत्तर:
कवि ने जब अपनी आँखें उठाई और आकाश की ओर देखा, तो बादल फट गया था अर्थात् जब उन्होंने नायिका की ओर देखा तो उसके मुख पर पड़ा हुआ पूँघट हट गया था और ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों चन्द्रमा के ऊपर से बादल हट गए हों। यहाँ चन्द्रमा को नायिका के तथा पूँघट को बादल के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

(v) प्रस्तुत पद्यांश में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में उपमा, उत्प्रेक्ष एवं अनुप्रास अलंकार हैं।

(ग) गजान माधव मुक्तिबोध

जीवन परिचय एवं साहित्यिक
उपलब्धियाँ नई कविता के प्रतिनिधि कवि गजानन माधव मुक्तिबोध’ का जन्म 13 नवम्बर, 1917 को श्योपुर, जिला ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में हुआ था। इनके पिता माधव मुक्तिबोध पुलिस विभाग में इंस्पेक्टर थे। इनकी माता का नाम पार्वती बाई था। इन्दौर के होल्कर कॉलेज से बी.ए. करने के बाद इन्होंने मित्रों के सहयोग से एम.ए. किया और राजनान्दगाँव के दिग्विजय कॉलेज में प्राध्यापक नियुक्त हो गए। इन्होंने शान्ताबाई नामक एक विपन्न लड़की से प्रेम विवाह किया। विभिन्न परिस्थितियों से जूझते हुए मुक्तिबोध को अपना सम्पूर्ण जीवन अभाव, संघर्ष और विपन्नता में ही व्यतीत करना पड़ा। सितम्बर, 1964 में इनका देहावसान हो गया।

साहित्यिक गतिविधियाँ
आधुनिक जीवन मूल्यों की सशक्त अभिव्यक्ति के लिए इन्होंने नए विषयों को नवीन सन्दर्भो से युक्त करके प्रस्तुत किया। जन-जीवन के यान्त्रिक स्वरूप को पहचानकर उसकी व्याख्या करने वाले आधुनिक हिन्दी कविता में मुक्तिबोध सम्भवतः पहले कवि हैं। मुक्तिबोध बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे। वे आम आदमी की वकालत करने वाले कवि थे। उनका व्यक्तित्व अपनी पूरी पीढी में विशिष्ट रहा है। इन्होंने ‘हल’ तथा ‘नया खून’ पत्रिकाओं का सम्पादन किया।

कृतियाँ
काव्य रचनाएँ चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी-भूरी खाक धूल तथा तार सप्तक में प्रकाशित रचनाएँ।
कहानी संग्रह काठ का सपना।
उपन्यास विपात्र।।
आत्माख्यान एक साहित्यिक की डायरी।।
निबन्ध संग्रह नई कविता का आत्म-संघर्ष तथा अन्य निबन्ध।
पुस्तक समीक्षा उर्वशीः दर्शन और काव्य, कामायनी : एक पुनर्विचार।

काव्यगत विशेषताएँ
भाव पक्ष

  1. यायावरी वृति मुक्तिबोध की कविता में यायावरी वृति के दर्शन होते हैं। ये जीवन की सच्चाई की खोज के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकते रहे।
  2. आधुनिक जीवन की विभीषिकाओं का चित्रण गजानन जी की कविता में आधुनिक जीवन की विभीषिकाओं को जितनी सूक्ष्म दृष्टि से चित्रित किया गया है, उतनी किसी अन्य कवि के काव्य में प्राप्त नहीं होती हैं।
  3. सन्त्रास और कुण्ठा इनकी कविता में सन्त्रास एवं कुण्ठा की भी व्यंजना हुई है।
  4. विद्रोह या क्रान्ति सामाजिक अव्यवस्था, कुरीतियों के प्रति विद्रोह या क्रान्ति का स्वर इनकी कविता का प्राण है।
  5. सत्-चित् वेदना मुक्तिबोध जी सत्-चित्-वेदना के कवि हैं। इनका दुःख का बोध जितना गहरा है उतना ही व्यापक है।

कला पक्ष

  1. भाषा मुक्तिबोध के काव्य की भाषा कृत्रिमता के आडम्बर से मुक्त हैं। इनकी भाषा इनके विचारों का सफल प्रतिनिधित्व करने में समर्थ है। इन्होंने अपनी भाषा को सरल, सहज एवं सम्प्रेषणीय बनाने के लिए उर्दू, अंग्रेजी और देशज भाषा के शब्दों को अपनाया है।
  2. शैली गजानन जी ने अपनी लम्बी कविताओं में फैन्टेसी (कल्पना) शैली का आश्रय लिया है।
  3. बिम्ब एवं प्रतीक मुक्तिबोध जी ने काल्पनिक एवं जादुई प्रतीकों के माध्यम से बिम्बों का निर्माण किया है, जो संवेदनात्मक अनुभूति की तीव्रता को तो प्रदर्शित करते हैं, परन्तु मस्तिष्क में किसी स्पष्ट चित्र का निर्माण नहीं करते। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपनी कविताओं में प्रतीकों के माध्यम से मिथिकों की भी सृष्टि की है।

हिन्दी साहित्य में स्थान
गजानन माधव मुक्तिबोध’ कवि, कथाकार, समीक्षक, विचारक एवं श्रेष्ठ पत्रकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए। अनेक विद्वान् सच्चे अर्थों में उन्हें ही ‘प्रयोगवादी’ कविता का अग्रगण्य कवि मानते हैं।

पद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-पत्र में पद्म भाग से दो पद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर देने होंगे।

मुझे कदम-कदम पर

प्रश्न 1.
मुझे कदम-कदम पर, चौराहे मिलते हैं बाँहें फैलाए।
एक पैर रखता हूँ कि सौ राहें
फूटतीं व मैं उन सब पर से
गुजरना चाहता हूँ; बहुत अच्छे लगते हैं।
उनके तजुर्बे और अपने सपने….. सब सच्चे लगते हैं;
अजीब सी अकुलाहट दिल में उभरती है,
में कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाए।

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) प्रस्तुत पद्यांश किस रचना से उदधृत है तथा उसके कवि कौन हैं?
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित कविता ‘मुझे कदम-कदम पर से उधृत हैं तथा इसके कवि गजानन माधव ‘मुक्तिबोध जी हैं।

(ii) प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश का भाव यह है कि जीवन विकल्पों से परिपूर्ण है। किसी भी खोज के समय व्यक्ति के सामने अनन्त मार्ग खुल जाते हैं और व्यक्ति इन सबका आनन्द प्राप्त करना चाहता है।

(iii) प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने क्या सन्देश दिया है?
उत्तर:
कवि को बहिर्जगत में इतने मनोरम, प्रभावपूर्ण और इतने सुन्दर दृश्य अपने चारों ओर देखने को मिलते हैं, वह उससे प्रेरणा ग्रहण करने का सन्देश इस पद्यांश के माध्यम से देता है।

(iv) कवि सदैव प्रयत्नशील अवस्था में विद्यमान क्यों रहता हैं?
उत्तर:
कवि के मन में सदैव जिज्ञासा बनी रहती है कि अनुभवों से अलग कोई और विचित्र अनुभव भी उसे कभी-न-कभी किसी-न-किसी रूप में प्राप्त हो सकता है। इन अनुभवों की प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील होना अति आवश्यक है, इसलिए कवि सदैव प्रयत्नशील अवस्था में विद्यमान रहता है।

(v) प्रस्तुत पद्यांश में प्रयुक्त अलंकारों के नाम बताइए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में उपमा व पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार हैं।

प्रश्न 2.
कहानियाँ लेकर और मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते
जहाँ जरा खड़ा होकर बातें कुछ करता हैं…..
उपन्यास मिल जाते। दु:ख की कथाएँ,
तरह-तरह की शिकायतें, अहंकार-विश्लेषण, चारित्रिक आख्यान,
जमाने के जानदान सूरे व आयतें सुनने को मिलती हैं।
कविताएँ मुस्करा लाग-डॉट करती हैं, प्यार बात करती हैं।
मरने और जीने की जलती हुई सीढ़ियाँ श्रद्धाएँ चढ़ती हैं!!
घबराएँ प्रतीक और मुस्काते रूप-चित्र लेकर
मैं घर पर जब लौटता…….उपमाएँ, द्वार पर
आते ही कहती हैं कि सौ बरस और तुम्हें जीना ही चाहिए।

उपरोक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) कवि के सामने उचित चयन की समस्या कब उत्पन्न हो जाती है?
उत्तर:
कवि के अनुसार हमारा जीवन विविधतापूर्ण है। जीवनरूपी मार्ग में कवि को कदम-कदम पर अनेक चौराहे मिलते हैं। इन चौराहों के प्रत्येक कोण में अनेकानेक कहानियों के कथानक छिपे रहते हैं, जिसके फलस्वरूप कवि के सम्मुख उचित चयन की समस्या उत्पन्न हो जाती हैं कि मैं किस कथानक को चुनाव करके अपने जीवन को गति प्रदान करूँ।।

(ii) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने संसार की गति को विचित्र क्यों कहा है?
उत्तर:
कवि ने संसार की गति को विचित्र इसलिए कहा है, क्योंकि वह किसी प्रकार की सहायता प्रदान नहीं करतीं, अपितु उचित के चयन में प्रोत्साहित तथा अनुचित के चयन में फटकार लगाने की अपेक्षा यह उलझन ही पैदा करती है, क्योंकि यह संसार अनुचित का चयन करके मृत्यु का वरण करने वाले तथा उचित का चयन करके जीवन को सार्थक बनाने वाले के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करती हैं।

(iii) व्यक्ति के जीवन में सदैव कैसी समस्या का प्रश्न विद्यमान रहेगा?
उत्तर:
व्यक्ति अपने जीवन में सदैव उचित मार्ग का चयन करने में असमर्थ रहता है, यदि उसे सौ साल जीवित रहने का भी अवसर मिल जाए तब भी उसके हित में उचित चयन का प्रश्न विद्यमान रहेगा।

(iv) प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने यह भाव स्पष्ट करना चाहकि जीवन में समस्या केवल अभावों की ही नहीं है, वरन् उपयुक्त चुनाव की भी है। यहाँ जीवन की विविधता और उसमें उचित के चयन की समस्या को जीवन की विकटतम समस्या के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

(v) अहंकार का सन्धि विच्छेद कीजिए।
उत्तर:
अहंकार – अहम् + कार (अनुस्वार सन्धि)

(घ) गिरिजाकुमार माथुर

जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ (2009)
प्रयोगशील कवियों में विशिष्ट स्थान रखने वाले गिरिजाकुमार माथुर का जन्म गाय प्रदेश के अशोक नगर नामक स्थान पर वर्ष 1919 में हुआ था। इनके पिता का नाम भी देगी चरण था। लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. तथा एल.एल.बी. करने के बाद कई जगह नौकरी करते हुए अन्त में वर्ष 1953 में आकाशवाणी लखनऊ में उ-निदेशक के रूप में इनकी पुनः नियुक्ति हुई। इन्होंने साहित्य सृजन के साथ ‘गगनांचल’ नामक पत्रिका का सम्पादन भी किया। वर्ष 1994 में भौतिक संसार को छोड़कर सदा के लिए प्रस्थान कर गए।

साहित्यिक गतिविधियाँ
गिरिजाकुमार माथुर प्रयोगवादी कवियों में अपना विशेष स्थान रखते हैं। ये तार सप्तक के कवि हैं। इनके काव्य में प्रयोग तथा समन्वय का सुन्दर सामंजस्य दिखाई देता है। ये रोमाण्टिक अनुभूति सम्पन्न प्रणय-भाव और सौन्दर्य के प्रति नवीन दृष्टि को अभिव्यक्ति देने के लिए सुप्रसिद्ध है।

इन्होंने आधुनिक जीवन की कुण्ठाओं के साथ-साथ सामाजिक उत्तरदायित्वों को भी अपने काव्य में रथान दिया है। कविता के अतिरिक्त, इन्होंने एकांकी नाटक आलोचना आदि भी लिखी हैं।

कृतियाँ
प्रमुख काव्य संकलन मंजीर, नाश और निर्माण, धूप के धान, शिलापंख चमकीले, जो बन्ध न सका, छाया मत छूना, साक्षी रहे वर्तमान, पृथ्वीकल्प आदि हैं।

काव्यगत विशेषताएँ
भाव पक्ष

  1. अनुभूतियों एवं संवेदनाओं की सूक्ष्म अभिव्यक्ति इनके काव्य में अनुभूतियों एवं संवेदनाओं की सूक्ष्म अभिव्यक्ति हुई है। इन्होंने विभिन्न अनुभवों को विभिन्न रूपों में व्यक्त किया है।
  2. पूँजीवादी तथा साम्राज्यवादी भावनाओं का विरोध इन्होंने पूँजीवादी तथा साम्राज्यवादी भावनाओं के विरुद्ध अपनी आवाज उठाई और समाजवादी भावनाओं की अभिव्यक्ति की है।
  3. प्रकृति के सौन्दर्य का वर्णन इन्होंने प्रकृति के सौन्दर्य, उसकी उदासी, आदि का वर्णन अपने काव्य में किया है। प्रकृति चित्रण का प्रायः उद्दीपनकारी रूप इनके काव्य में मिलता है।

कला पक्ष

  1. भाषा इनकी भाषा प्रौद्ध, प्रांजल तथा परिनिष्ठित खड़ी बोली है। जिसमें संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू आदि भाषाओं के साथ-साथ बोलचाल के शब्दों का भी बहुत प्रयोग हुआ है।
  2. प्रतीक इन्होंने अपने काव्य में विविध प्रतीकों; जैसे-परम्परागते, व्यक्तिगत, प्राकृतिक, देशगत, ऐतिहासिक, पौराणिक, सांस्कृतिक आदि का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया है।
  3. बिम्ब इनके काव्य में वस्तुपरक, ऐन्द्रिय, आध्यात्मिक तथा भाव बिम्बों का प्रयोग हुआ है। इनकी बिम्ब योजना सुन्दर है।
  4. अलंकार एवं छन्द इन्होंने प्राचीन अलंकार के साथ नवीन अलंकारों का प्रयोग भी अपने काव्य में किया है। इनके काव्य में विविध छन्दों का प्रयोग हुआ है, परन्तु फिर भी इनका विशेष झुकाव मुक्त छन्द की ओर है। इन्होंने अनेक सुन्दर, छन्दबद्ध तथा तुकबन्दी से परिपूर्ण गीत भी लिखे हैं।

हिन्दी साहित्य में स्थान
गिरिजाकुमार माथुर प्रयोगवादी कवियों में ख्यातिप्राप्त कवि माने जाते हैं। प्रयोगवादी कवि के रूप में ये इस नई काव्यधारा के अग्रदूत हैं। ये तार सप्तक के सात कवियों में से एक हैं।

पद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-पत्र में पद्य भाग से दो पद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर देने होंगे।

चित्रमय धरती

प्रश्न 1.
ये धूसर, साँवर, मटियाली, काली धरती फैली है।
कोसों आसमान के घेरे में रूखों छाए नालों के हैं।
तिरछे ढलान फिर हरे-भरे लम्बे चढ़ाव झरबेरी, ढाक,
कास से पुरित टीलों तक जिनके पीछे छिप जाती है।
गढ़बाटों की रेखा गहरी ये सोंधी घास बँकी रूदे हैं।
धूप बुझी हारे भूरी सूनी सूनी उन चरगाहों के पार कहीं
धुंधली छाया बन चली गई है पाँत दूर के पेड़ों की
उन ताल वृक्ष के झौरों के आगे दिखती
नीली पहाड़ियों की झाँई जो लटे पसारे हुए।
जंगलों से मिलकर है एक हुई

उपरोक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ किस कविता से उद्धृत हैं तथा उसके रचनाकार कौन हैं?
उत्तर:
प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ ‘लैण्डस्केपः धूप के धान’ काव्य संग्रह में संकलित 
कविता ‘चित्रमय धरती’ से उद्धृत हैं तथा इसके रचनाकार  गिरिजाकुमार माथुर’ हैं।

(ii) कवि ने धरती के सौन्दर्य का वर्णन किस रूप में किया है?
उत्तर:
कवि धरती के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहता है कि ये धूल से भरी हुई मटमैली, सवली, काली धरती आसमान के घेरे में बहुत दूर तक फैली हुई है। अर्थात् यह धरती बहुत विशाल है। इस धरती पर कहीं सुगन्धित घास से भरपूर मैदान हैं तो कहीं पर केवल जंगल ही जंगल दिखाई दे रहे हैं।

(iii) कवि ने धरती के भव्य रूप का वर्णन कैसे किया है?
उत्तर:
धरती के दृश्य को दूर से देखने पर पहाड़ियों और जंगल दोनों एक ही रूप तथा आकार के दिखाई दे रहे हैं, वे अलग-अलग नहीं लगते। इस प्रकार कवि ने धरती के भव्य रूप का वर्णन किया हैं।

(iv) प्रस्तुत काव्य पंक्तियों का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत काव्य पतियों में कवि ने इस विराट धरती के अब तक देखें अनदेखें सभी प्रकार के सौन्दर्य का चित्रण किया है। कवि की दृष्टि धूसर, सॉवर, मटियाली, काली धरती के शोभामय स्वरूपों की ओर भी गई है। अतः इन काव्य पंक्तियों के माध्यम से कवि ने धरती के सौन्दर्य का चित्रण किया है।

(v) “सूनी-सुनी उन चरगाहों के पार कहीं प्रस्तुत पंक्ति में कौन-सा अलंकार
उत्तर:
“सूनी-सूनी उन चरगाहों के पार कहीं” इस पंक्ति में सूनी शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

(ङ) धर्मवीर भारती

जीवन परिचय एवं साहित्यिक
उपलब्धियाँ हिन्दी काव्य में अपनी तीक्ष्ण आधुनिक दृष्टि, स्वच्छन्द प्रवृत्ति एवं व्यक्तिवादी चेतना के लिए प्रख्यात धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसम्बर, 1926 में इलाहाबाद में हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. करने के बाद ये इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ही हिन्दी के प्राध्यापक नियुक्त हुए।

वर्ष 1959 में बम्बई से प्रकाशित होने वाले हिन्दी के प्रतिष्ठित साप्ताहिक ‘धर्मयुग’ के सम्पादन का भार भी इनके कन्धों पर आया। इन्होंने धर्मयुग को व्यावसायिक स्तर से ऊँचा उठाकर उसमें सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, लोकप्रिय एवं कलात्मक विषयों को समाविष्ट कर उसे एक उच्च आदर्श पर पहुँचाया। ‘भारत-भारती’, ‘व्यास सम्मान’, ‘पद्मश्री’ आदि सम्मानों से सम्मानित इस महान् साहित्यकार का 5 सितम्बर, 1997 को निधन हो गया।

साहित्यिक गतिविधियाँ
धर्मवीर भारती के जीवन पर साहित्यिक वातावरण का प्रभाव बाल्यकाल से ही पउने लगा था। निराला, पन्त, महादेवी वर्मा और डॉ. रामकुमार वर्मा जैसे महान साहित्यकारों के सम्पर्क से उन्हें साहित्य-सृजन की प्रेरणा प्राप्त हुई और उनकी प्रतिभा में भी निखार आया। मैं एक प्रतिभाशाली कवि, विचारक, नाटककार, अद्वितीय कथाकार, निबन्धकार, एकांकीकार, आलोचक और नीर-क्षीर विवेकी सम्पादक थे। उन्होंने रेखाचित्र, यात्रावृत्त, संस्मरण आदि अन्य विधाओं पर अपनी लेखनी चलाकर अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया।

कृतियाँ
काव्य रचनाएँ ठण्डा लोहा, सात गीत वर्ष, अन्धा युग, कनुप्रिया आदि।
उपन्यास गुनाहों का देवता, सूरज का सातवाँ घोड़ा।
कहानी संग्रह चाँद और टूटे हुए लोग।
निबन्ध संग्रह कहनी- अनकनी, पश्यन्ती, ठेले पर हिमालय
नाटक नदी प्यासी थी।
एकांकी संग्रह नीली झील।
आलोचना ग्रन्थ साहित्य, मानव-मूल्या

काव्यगत विशेषताएँ
भाव पक्ष

  1. स्वच्छन्दता भारती जी ने अपने काव्य में भावों को बड़ी सरलता एवं स्पष्टता के साथ व्यक्त किया है। इन्होंने भाव-चित्रण एवं दृश्य-चित्रण में नवीन उद्भावनाओं का परिचय दिया है। उनकी प्रारम्भिक कृति ‘ठण्डा लोहा से लेकर ‘कनुप्रिया’ तथा सभी में स्वच्छन्दता की प्रवृति’ विद्यमान है।
  2. मांसलता का पुट प्रयोगवादी भारती जी की कविताओं में प्रणय भाव में मांसलता का पुट विद्यमान है।
  3. प्रकृति चित्रण भारती जी की कविताओं में प्रकृति चित्रण का विनियोजन मानवीय भावनाओं को उद्दीप्त करने तथा आलंकारिक रूप में हुआ है।

कला पक्ष

  1. भाषा भारती जी की भाषा साहित्यिक होते हुए भी सहज और सरल खड़ी बोली है। इन्होंने अपनी भाषा में तद्भव और विदेशी शब्दावली का उन्मुक्त रूप से प्रयोग किया है।
  2. अप्रस्तुत योजना अप्रस्तुत योजना की दृष्टि से भारती जी ने परम्परागत और नवीन दोनों ही प्रकार के उपमानों की योजना की है।
  3. प्रतीक योजना प्रतीक योजना की दृष्टि से भारती जी की कविताएँ पर्याप्त समृद्ध हैं, पौराणिक प्रतीकों की योजना में भारती जी सिद्धहस्त हैं।
  4. बिम्ब और मिथक भारती जी के काव्य में बिम्बों और मिथकों का बड़ा ही सार्थक प्रयोग देखने को मिलता है। उनके गीत नाट्य ‘अन्धा युग’ मिथक की दृष्टि से छायावादोत्तर काल की सबलतम कृति है। बिम्ब निर्माता में भारती जी की अभिरुचि प्राकृतिक उपादानों के प्रयोग की और अधिक रही है।
  5. अलंकार भारती जी के अलंकार प्रयोग में भी नवीनता के दर्शन होते हैं। हिन्दी साहित्य में स्थान धर्मवीर भारती बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न साहित्यकार हैं। इनकी रचनाओं में मन और सामूहिक चेतना दोनों की ही अभिव्यक्ति हुई हैं। इन्हें आधुनिक युग के विशिष्ट रचनाकार ‘ के रूप में सम्मान प्राप्त है।

पद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-पत्र में पद्य भाग से दो पद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक ४ अंक) के उत्तर देने होंगे।

साँझ के बादल

प्रश्न 1.
ये अनजान नदी की नावे जादू के-से पाल
उड़ाती आतीं मन्थर चाल! नीलम पर किरनों की साँझी
एक न डोरी एक न माँझी फिर भी लाद निरन्तर लातीं
सेन्दुर और प्रवाल! कुछ समीप की कुछ सुदूर की
कुछ चन्दन की कुछ कपूर की कुछ में गेरु, कुछ में रेशम
कुछ में केवल जाल! ये अनजान नदी की नावे
जादू के-से पाल उड़ाती आतीं मन्थर चाल!

उपरोक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) प्रस्तुत काव्यांश के केन्द्रीय भाव पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने प्रकृति के गत्यात्मक रूप के चित्रण के साथ ही अपनी वर्णन-शक्ति की सजीवता को प्रदर्शित करते हुए ‘साँवा के बादलों को पालों वाली नावों जैसा चित्रित किया है, जिसमें बहुत-सी रंगीन छवियाँ एवं आकृतियाँ बनती-बिगड़ती रहती हैं।

(ii) कवि ने सन्ध्याकालीन बादलों के सौंदर्य किस रूप में किया है?
उत्तर:
कवि ने सन्ध्याकालीन बादलों के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहता है कि ये बादल अनजान नदी की नावों हैं, जो धीमी गति से जादू के पालों को अड़ाती हुई चती जा रही है अर्थात् जिस प्रकार नदी में पानी के बहाव के साथ सबकुछ बहकर चला जाता है उसी प्रकार बादलरूपी अनजान नदी की नार्वे अपने साथ सभी कुछ बहाती हुई चलती हैं।

(iii) कवि ने बादलरूपी नावों के किन-किन रूपों का वर्णन किया हैं?
उत्तर;
कवि के अनुसार बादलरूपी नावों में विभिन्न प्रकार की नावें हैं, कुछ नावें हैं, तो कुछ दूर की, कुछ चन्दन की तो कुछ कपूर की, कुछ गेरू तो कुछ रेशम की और कुछ
केवल जाल की जो दृष्टि को भ्रमित कर बाँधने का कार्य करती है।

(iv) ‘प्रवाल’ और ‘सुद्र’ शब्दों में से उपसर्ग अँटकर लिखिए।
उत्तर:
प्रवाल में ‘प्र’ उपसर्ग और सुदूर में ‘सु’ उपसर्ग है।

(v) प्रस्तुत काव्य पंक्तियों के रचनाकार एवं रचना का नाम लिखिए।
उत्तर:
प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ ‘धर्मवीर भारती’ द्वारा रचित ‘सात गति-वर्ष’ काव्य संग्रह में संगलित कविता ‘साँझ के बादल’ से अवतरित है।

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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 5 त्यागपथी

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Board UP Board
Textbook SCERT, UP
Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 5
Chapter Name त्यागपथी
Number of Questions Solved 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 5 त्यागपथी

कथावस्तु पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 1.
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य का की प्रमुख घटना को अपने शब्दों में लिखिए (2018)
अथवा
‘त्यागपथी खण्डकाव्य का कथानक संक्षेप में अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
‘त्यागपथ’ की कथावस्तु/कथानक संक्षेप में लिखिए। (2017, 16, 14, 13, 12, 11)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की प्रमुख घटनाओं का वर्णन / उल्लेख कीजिए। (2018, 12, 10)
अथवा
“त्यागपथी खण्डकाव्य में सम्राट हर्षवर्द्धन का चरित्र ही केन्द्र है। और उसी के चारों ओर कथानक का चक्र घूमता है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए। (2012, 10)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में वर्णित किसी प्रेरणास्पद घटना का उल्लेख कीजिए। (2010)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की प्रमुख घटनाओं का क्रमबद्ध वर्णन कीजिए। (2014)
अथवा
“हर्ष के युग के सांस्कृतिक वैभव, ज्ञानदान, शिक्षानुशासन, सर्वधर्म एकता, समाज की चरित्रशीलता आदि की झलक ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के माध्यम से देखी जा सकती है।” इस कथन की पुष्टि कीजिए। (2010)
उत्तर:
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में हर्षकालीन भारतीय समाज एवं जीवन का उदात्त चित्र प्रस्तुत हुआ है। वर्णन कीजिए। (2013, 12) उत्तर प्रसिद्ध साहित्यकार रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ द्वारा रचित ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्ये एक ऐतिहासिक काव्य हैं, जिसमें छठी शताब्दी के प्रसिद्ध सम्राट हर्षवर्धन के त्याग, तप और सात्विकता का वर्णन किया गया है। इस खण्डकाव्य में कवि ने हर्ष की वीरता का वर्णन किया है। साथ ही भारत की राजनीतिक एकता, संघर्ष, हर्ष की वीरता और उनके द्वारा विदेशी आक्रमणकारियों को भारत से भगाने का भी वर्णन किया हैं।

प्रथम सर्ग

राजकुमार हर्षवर्धन वन में शिकार खेलने में व्यस्त थे, तभी उन्हें पिता के रोगग्रस्त होने का समाचार मिला। कुमार तुरन्त लौट आए। पिता को रोगमुक्त करने के लिए वे बहुत उपचार करवाते हैं, परन्तु असफल रहते हैं। उनके बड़े भाई राज्यवर्धन उत्तरापथ पर हूणों से युद्ध करने में लगे हुए थे। हर्ष ने दूत भेजकर पिता की अस्वस्थता का समाचार उन तक पहुँचाया। उधर उनकी माता ने अपने पति की अस्वस्थता को बढ़ता हुआ देखकर आत्मदाह करने का निश्चय किया और बहुत समझाने पर भी वह अपने निर्णय पर अडिग रहीं और पति की मृत्यु से पूर्व ही आत्मदाह कर लिया। कुछ समय पश्चात् हर्ष के पिता की भी मृत्यु हो गई। पिता का अन्तिम संस्कार करके हर्ष दुःखी मन से राजमहल लौट आए।

द्वितीय सर्ग

पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर राज्यवर्द्धन भी अपने नगर लौट आए। माता पिता की मृत्यु से व्याकुल होकर उन्होंने वैराग्य लेने का निश्चय किया, परन्तु तभी उन्हें समाचार मिलता है कि मालवराज ने उनकी छोटी बहन राज्यश्री को बन्दी बना लिया है और उसके पति गृहवर्मन को मार डाला है। यह सुनकर राज्यवर्द्धन सब कुछ भूलकर मालवराज को परास्त करने चल पड़ते हैं। वह गौड़ नरेश को हरा देते हैं, पर गौड़ नरेश धोखे से मार्ग में उनकी हत्या करवा देता है।

जब ये सब समाचार हर्षवर्द्धन को ज्ञात होता है, तो वह विशाल सेना लेकर गौड़ नरेश से युद्ध करने के लिए चल पड़ते हैं, परन्तु तभी सेनापति से उन्हें अपनी बहन के वन में जाने का समाचार मिलता है, जिसे सुनकर वह अपनी बहन को खोजने वन की ओर चल पड़ते हैं। वहाँ एक भिक्षु द्वारा उन्हें राज्यश्री के आत्मदाह करने की बात पता चलती है। वह शीघ्र ही वहाँ पहुँचकर अपनी बहन को ऐसा करने से रोक लेते हैं और कन्नौज लौट आते हैं।

तृतीय सर्ग (2008)

इस सर्ग में सम्राट हर्ष की इतिहास प्रसिद्ध दिग्विजय का वर्णन है। छ: वर्षों तक निरन्तर युद्ध करते हुए हर्ष ने समस्त उत्तराखण्ड को जीत लिया। उन्होंने कश्मीर, मिथिला, बिहार, गौड़, उत्कल, नेपाल, वल्लभी, सोरठ आदि सभी राज्यों को जीत लिया तथा यवन, हूण आदि विदेशी शत्रुओं का नाश करके देश को शक्तिशाली एवं सुगठित राज्य बनाया और अनेक वर्षों तक धर्मपूर्वक शासन किया। उनके राज्य में धर्म, संस्कृति और कला की भी पर्याप्त उन्नति हुई। उन्होंने कन्नौज को ही अपने विशाल साम्राज्य की राजधानी बनाया।

चतुर्थ सर्ग

इस सर्ग में राज्यश्री, हर्ष और आचार्य दिवाकर के वार्तालाप का वर्णन किया गया है। यद्यपि राज्यश्री अपने भाई के साथ कन्नौज के राज्य की संयुक्त रूप से शासिका थी, परन्तु मन में तथागत की उपासिका थी और वह भिक्षुणी बनना चाहती थी, परन्तु हर्ष इसके लिए तैयार नहीं थे। बाद में आचार्य दिवाकर ने राज्यश्री को मानव कल्याण में लगने का उपदेश दिया। राज्यश्री ने उनके उपदेशों का पालन किया और वह मानव सेवा में लग गई।

पंचम सर्ग (2012, 10)

‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के पंचम सर्ग की कथा लिखिए। (2018)
इस सर्ग में हर्ष के त्यागी और व्रती जीवन का वर्णन किया गया है। हर्ष ने प्रयाग में त्याग-व्रत का महोत्सव मनाने का निश्चय किया। उन्होंने देश के सभी ब्राह्मणों, श्रमणों, भिक्षुओं, धार्मिक व्यक्तियों आदि को प्रयाग में आने के लिए निमन्त्रण दिया और सम्पूर्ण संचित कोष को दान देने की घोषणा की-प्रतिवर्ष माघ के महीने में त्रिवेणी तट पर विशाल मेला लगता था। इस अवसर पर प्रति पाँचवें वर्ष हर्षवर्द्धन अपना सर्वस्व दान कर देते थे तथा अपनी बहन राज्यश्री से वस्त्र माँगकर धारण करते थे। इस प्रकार वे एक साधारण व्यक्ति के रूप में अपनी राजधानी वापस लौटते थे। इस दान को वे प्रजा-ऋण से मुक्ति का नाम देते थे। इस प्रकार, कर्तव्यपरायण, त्यागी, परोपकारी, परमवीर महाराज हर्षवर्धन का शासन सब प्रकार से सुखकर तथा कल्याणकारी सिद्ध होता है। सम्राट हर्षवर्द्धन के माध्यम से कवि ने तत्कालीन श्रेष्ठ शासन का उल्लेख करते हुए भारतीय धर्म, राजनीति, संस्कृति और समाज की उन्नति का उत्कृष्ट वर्णन किया है।

प्रश्न 2.
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की भाषा-शैली की विवेचना कीजिए। (2018)
अथवा
खण्डकाव्य की कसौटी पर ‘त्यागपथी’ का मूल्यांकन कीजिए। (2016)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की विशेषताओं को अपने शब्दों में लिखिए। (2016)
अथवा
खण्डकाव्य की विशेषताओं (तत्त्वों, लक्षणों) के आधार पर ‘त्यागपथी’ का मूल्यांकन कीजिए। (2013, 12, 10)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के काव्य सौष्ठव (काव्य सौन्दर्य/ काव्यशिल्प) को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए। (2011, 10)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के उददेश्य/ सोददेश्यता (सन्देश) पर प्रकाश डालिए। (2015, 13, 11)
अथवा
“त्यागपथी खण्डकाव्य भारतीयता का सन्देश देता है।” स्पष्ट कीजिए (2013)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के आधार पर भारतीय जीवन-शैली और सामाजिक व्यवस्था का संक्षेप में वर्णन कीजिए। (2013)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की विशेषताओं का वर्णन कीजिए। (2014)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2018, 17)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की भाषा-शैली की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2011, 10)
उत्तर:
कविवर रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ द्वारा रचित ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है।

कथानक की ऐतिहासिकता

‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध सम्राट हर्षवर्द्धन की कथा का वर्णन हुआ है। कवि ने हर्षवर्द्धन के माता-पिता की मृत्यु, भाई-बहनोई की हत्या, कन्नौज के राज्य संचालन, मालवराज शशांक से युद्ध, हर्ष द्वारा दिग्विजय करके धर्मशासन की स्थापना तथा प्रत्येक पाँचवें वर्ष तीर्थराज प्रयाग में सर्वस्व दान करने की ऐतिहासिक घटनाओं को अत्यधिक सरल एवं सरस रूप में प्रस्तुत किया है। खण्डकाव्य की कथावस्तु यद्यपि ऐतिहासिक है, तथापि कवि ने अपनी कल्पनाशक्ति का समन्वय कर इसे अत्यन्त रचनात्मक बना दिया है।

पात्र एवं चरित्र-चित्रण ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में प्रभाकरवर्द्धन तथा उनकी पत्नी यशोमती, उनके दो पुत्र (राज्यवर्द्धन और हर्षवर्द्धन), एक पुत्री (राज्यश्री), कन्नौज, मालव, गौड़ प्रदेश के राज्यों के अतिरिक्त आचार्य दिवाकर, सेनापति आदि अनेक पात्र हैं। खण्डकाव्य के नायक सम्राट हर्षवर्द्धन हैं तथा इस काव्य की नायिका हर्ष की बहन राज्यश्री है।

काव्यगत विशेषताएँ

‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की काव्यगत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
भावपक्षीय विशेषताएँ ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की भावपक्ष सम्बन्धी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

1. मार्मिकता खण्डकाव्य में अनेक मार्मिक घटनाओं का संयोजन किया गया हैं। इसमें हर्षवर्द्धन की माता का चितारोहण, राज्यवर्द्धन की वैराग्य हेतु तत्परता, राज्यश्री के विधवा होने पर हर्ष की व्याकुलता, राज्यश्री द्वारा आत्मदाह के समय हर्षवर्द्धन के मिलन का मार्मिक चित्रण हुआ है।

2. प्रकृति चित्रण ‘त्यागपथी’ में कवि ने प्रकृति के विभिन्न रूपों का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है। आखेट के समय हर्षवर्द्धन को पिता के रोगग्रस्त होने का समाचार मिलता है, वे तुरन्त राजमहल को लौट आते हैं।

वन-पशु अविरत, खर-शर-वर्षण से अकुलाए,
फिर गिरि-श्रेणी में खोहों से बाहर आए।”

3. रस निरूपण ‘त्यागपथ’ में कवि ने करुण, वीर, रौद्र, शान्त आदि रसों का मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-

करुण रस “मुझ मन्द पुण्य को छोड़ न माँ तुम भी जाओ,
छोड़ो विचार यह, मुझे चरण से लिपटाओ।”
वीर रस कन्नौज-विजय को वाहिनी सत्वर,
गुंजित था चारों ओर युद्ध का ही स्वर।”

कलापक्षीय विशेषताएँ ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की कलागत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

1. भाषा-शैली खण्डकाव्य की भाषा कथावस्तु और चरित नायक के अनुरूप होती है। ‘त्यागपथ’ की भाषा तत्सम शब्दों से परिपूर्ण है। हर्ष के ज्ञान, मानव प्रेम, त्याग, अहिंसा, निष्काम कर्म आदि आदशों को प्रस्तुत करने के लिए भाषा की तत्सम प्रधानता अनिवार्य थी। वस्तुतः ‘त्यागपथी’ की भाषा सांस्कृतिक आभिजात्य युक्त शब्दों से परिपूर्ण है; जैसे-जून-जन वहाँ था सानु, जब वल्कल उन्हीं ने ले लिए।

2. अलंकार योजना ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में उपमा, रूपक एवं उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग किया गया है-

“थी दीप्त उनकी शीर्ष मणियों में उदय की लालिमा,
पीने चली ज्यों बाल-रवि का तेज उनकी अग्निमा।”

3. छन्द योजना सम्पूर्ण खण्डकाव्य छब्बीस मात्राओं के गीतिका छन्द में रचित है। पाँचवें सर्ग के अन्त में घनाक्षरी का प्रयोग हुआ है। यह रचना की समाप्ति का ही सूचक नहीं वरन् वर्णन की दृष्टि से प्रशस्ति का भी सूचक है।

4. संवाद शिल्प ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में कवि ने सरल, मार्मिक एवं प्रवाहपूर्ण संवादों का समावेश करके अपनी काव्य और नाट्य कुशलता का परिचय दिया है। अनेक स्थानों पर काव्य नाटिका जैसा आनन्द प्राप्त होता है-

संवाद यदि कोई मिला हो आपको उसका कहीं,
कृष्ण बताएँ-मैं इसी क्षण खोजने जाऊँ वहीं।”

‘त्यागपथी’ का उद्देश्य अथवा सन्देश

किसी भी साहित्यिक कृति में जब किसी सद्गुणी, सदाचारी और महान् व्यक्तित्व रखने वाले ऐतिहासिक पुरुष को चित्रित किया जाता है, तो उसका एकमात्र उद्देश्य जनसाधारण में उन सद्गुणों के प्रति संवेदना जाग्रत करना होता है। सदगुणों का व्यक्तित्व में प्रतिष्ठापन और व्यवहार में उनका अनुकरण ही तो भारतीयता का पर्याय है, जिसका चित्रण हर्षवर्द्धन और राज्यश्री के चरित्रों में करके कवि ने युवकों को भारतीयता का सन्देश दिया है।

प्रस्तुत खण्डकाव्य में हर्षवर्द्धन के महान् गुणों को भावात्मक अभिव्यक्ति देकर उनके असाधारण व्यक्तित्व का चित्रण किया गया है। कवि का उद्देश्य जन-चेतना में, विशेष रूप से युवा-चेतना में, इन सद्गुणों के प्रति भावात्मक संवेदना उत्पन्न करना है। त्यागपथो’ उदात्त गुणों के प्रति मन में भावात्मक संवेगों को उत्पन्न करने में सक्षम खण्डकाव्य है।

प्रश्न 3.
‘त्यागपथी’ का शीर्षक इसके कथानक की दृष्टि से कहाँ तक उपयुक्त है? (2016)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के नाम की सार्थकता सिद्ध कीजिए।
उत्तर:
रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ द्वारा रचित ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य सम्राट हर्षवर्द्धन के जीवनवृत्त पर आधारित है। सम्राट हर्षवर्द्धन का सम्पूर्ण जीवन संघर्ष एवं त्याग की कहानी है। इस महान् सम्राट ने तत्कालीन युग के छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त भारत को एक विशाल साम्राज्य सूत्र में बाँधकर शान्ति, शक्ति एवं विकास का मार्ग प्रशस्त किया। वे प्रजा की वास्तविक उन्नति चाहते थे। उन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों से राष्ट्र की रक्षा की थी।

शान्ति स्थापना के पश्चात् जब उन्होंने एक संगठित साम्राज्य की स्थापना कर ली, तब भी उन्होंने विलासिता की राह नहीं पकड़ी, वरन् सर्वस्व त्याग करने का दृढनिश्चय किया। इसी संकल्प के कारण वे तीर्थराज प्रयाग में प्रत्येक पांच वर्ष पश्चात् अपने कोष का सर्वस्व दान कर देते थे। किसी राजपुरुष अथवा किसी सम्राट में त्याग की वह आलौकिक ज्योति भरी हुई हो तो वह ‘त्यागपथी’ ही कहलाएगा।

चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 4.
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के आधार पर सम्राट हर्षवर्धन की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2018)
अथना
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के प्रमुख पात्र की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। (2018)
अथवा
‘त्यागपथी’ के आधार पर हर्षवर्धन का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2018)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के आधार पर हर्षवर्धन का चरित्रांकन कीजिए। (2018)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य का नायक कौन है? उसके चरित्र को किन विशेषताओं ने उभारा है? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए। (2018)
अथना
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के प्रमुख पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2016)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2017)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में प्रस्तुत “हर्षवर्द्धन के चरित्र में मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा है।”पष्ट कीजिए। (2017)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के आधार पर किसी पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए। (2017)
अथवा
‘त्यागपथी’ के नायक हर्षवर्द्धन का चरित्रांकन कीजिए। (2017)
अथवा
‘त्यागपथी’ के नायक का चरित्रांकन कीजिए। (2016)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के आधार पर हर्षवर्द्धन के चरित्र की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2018, 16)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के प्रधान पात्र (हर्षवर्द्धन) की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। (2017, 16)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के आधार पर नायक सम्राट हर्षवर्द्धन के चरित्र की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2014, 13, 12, 11, 10)
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य “महाराज हर्षवर्द्धन की दानवीरता और राष्ट्रीयता का द्योतक है।”-इस कथन की पुष्टि कीजिए। (2013)
अथवा
“त्यागपथी में हर्षवर्द्धन का सम्पूर्ण जीवन मानवीय जीवन के प्रति निष्ठा का एक महान् उदाहरण है।” इस कथन के आधार पर हर्षवर्द्धन के चरित्रांकन में कवि कहाँ तक सफल हुआ है? (2014, 13)
अथवा
“हर्षवर्द्धन का चरित्र देशप्रेम का प्रखरतम उदाहरण है।” इस कथन की पुष्टि कीजिए। (2012, 11, 10)
उत्तर:
महाराज हर्षवर्द्धन थानेश्वर के महाराज प्रभाकरवर्द्धन के छोटे पुत्र हैं। वे ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के नायक हैं। सम्पूर्ण कथा का केन्द्र वही हैं। सम्पूर्ण घटनाचक्र उन्हीं के चारों ओर घूमता है। उन्होंने छिन्न-भिन्न भारत को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बाँधने का महान् कार्य किया।
उनके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं।

1. आदर्श पुत्र एवं भाई ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में हर्षवर्द्धन एक आदर्श पुत्र एवं आदर्श भाई के रूप में पाठकों के समक्ष उपस्थित होते हैं। जैसे ही पिता के अस्वस्थ होने का समाचार मिलता है, वे शीघ्र ही आखेट से लौट आते हैं। और यथासम्भव उपचार भी करवाते हैं। पिता के स्वस्थ न होने तथा माता के आत्मदाह करने की बात सुनकर वे अत्यन्त व्याकुल हो उठते हैं। इसी प्रकार बहन राज्यश्री को भी वे अग्निदाह से बचाते हैं। वे उसे सम्पूर्ण राज्ये सौंपकर अपने प्रेम का परिचय देते हैं।

बड़े भाई राज्यवर्द्धन के प्रति भी उनके मन में अपार स्नेह है-
“बाहर चले जब राज्यवर्द्धन हर्ष पीछे चल पड़े,
ज्यों वन-गमन में राम के पीछे लक्ष्मण अड़े।”

2. दानी एवं दृढ़ निश्चयी हर्षवर्द्धन दानी एवं दृढ़ निश्चयी हैं। उन्होंने छिन्न-भिन्न भारत को एक करने का दृढ़ निश्चय किया और इसमें सफल भी रहे। भाई की मृत्यु का समाचार सुनकर उन्होंने जो दृढ़ प्रतिज्ञा की थी, उसको भी पूर्णतया पालन किया। हर्षवर्द्धन तीर्थराज प्रयाग में प्रत्येक पाँच वर्ष पर सम्पूर्ण राजकोष को दान कर देने की घोषणा करते हैं

“हुई थी घोषणा सम्राटे की साम्राज्य-भर में,
करेंगे त्याग सारा कोष ले संकल्प कर में।”

त्रिवेणी संगम पर प्रयाग में प्रति पाँच वर्ष पश्चात् माघ महीने में सर्वस्व त्याग करने का संकल्प लेते हैं। अपने जीवन में वे छ: बार इस प्रकार सर्वस्व दान का आयोजन करते हैं।

3. महान् योद्धा हर्षवर्द्धन महान् योद्धा हैं। उनके पराक्रम के आगे कोई योद्धा टिक नहीं पाता। कोई भी राजा उन्हें पराजित नहीं कर सका। महाराज हर्षवर्द्धन की दिग्विजय, उनका युद्ध कौशल और उनकी वीरता भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। उनकी वीरता एवं कुशल शासन का ही परिणाम था कि-

“उठा पाया न सिर कोई प्रवंचक।”

4. पराक्रमी एवं धैर्यशाली हर्षवर्द्धन अत्यन्त पराक्रमी हैं, साथ ही धैर्यशाली भी हैं। पिता की मृत्यु, माता का आत्मदाह, बहनोई की मृत्यु और अपने प्रिय भाई राज्यवर्द्धन की मृत्यु जैसे महान् संकटों को उन्होंने अकेले ही सहन किया था। संकट की इस घड़ी में भी उन्होंने कभी अपना धैर्य नहीं छोड़ा-

“क्रन्दन करती थी प्रजा, शान्त थे हर्ष धीर।।”

5. योग्य एवं कुशल शासक पिता और भाई की मृत्यु के पश्चात् हर्षवर्द्धन राजा बने। उनका शासन सुख, शान्ति और समृद्धि से परिपूर्ण था। उनके राज्य में प्रजा सब प्रकार से सुखी थी, विद्वानों की पूजा की जाती थी। सभी प्रजाजन आचरणवान, धर्मपालक, स्वतन्त्र एवं सुरुचिसम्पन्न थे। वे सदैव जनकल्याण एवं शास्त्र चिन्तन में लगे रहते थे। वे स्वयं को प्रजा का सेवक समझते थे।
उनका मत था कि-

नहीं अधिकार नृप को पास रखे धन प्रजा का,
करे केवल सुरक्षा देश-गौरव की ध्वजा का।”

इस प्रकार हर्ष का चरित्र एक वीर योद्धा, आदर्श पुत्र, आदर्श भाई और महान् त्यागी शासक का चरित्र है। वह अपने कर्तव्यों के प्रति अत्यधिक सजग हैं। उनका यही गुण आज के भटके हुए युवाओं को प्रेरणा दे सकता है।

प्रश्न 5.
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के आधार पर किसी स्त्री पात्र का चरित्रांकन कीजिए। (2016)
अथवा
‘त्यागपथी’ में वर्णित घटनाओं के आधार पर प्रमुख पात्र राज्यश्री का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2018, 14, 13, 11, 10)
अथवा
‘त्यागपथी’ में निरूपित राज्यश्री की चारित्रिक छवि पर सोदाहरण प्रकाश डालिए। (2015, 14)
अथवा
“त्यागपथी में राज्यश्री के चरित्र को अत्यन्त उदात्त स्वरूप प्रदान किया गया है।” सोदाहरण प्रमाणित कीजिए।
अथवा
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के प्रमुख नारी पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2014)
उत्तर:
कविवर रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ द्वारा रचित ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य का प्रमुख स्त्री पात्र राज्यश्री है। वह ममती की मूर्ति, माता-पिता की प्रिय पुत्री, कन्नौज की साम्राज्ञी और बुद्ध की अनन्य उपासिका है। वह महाराज प्रभाकरवर्द्धन की पुत्री एवं सम्राट हर्षवर्द्धन को छोटी बहन है। विवाह के कुछ समय पश्चात् ही उसके पति की मृत्यु हो जाती है और उसे वैधव्य जीवन बिताना पड़ता है। इसके पश्चात् वह अपना सम्पूर्ण जीवन लोक कल्याण हेतु व्यतीत करती है।

राज्यश्री के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
1. आदर्श नारी राज्यश्री आदर्श पुत्री, आदर्श बहन और आदर्श पत्नी के रूप में हमारे समक्ष आती है। माता-पिता की यह लाड़ली बेटी यौवनावस्था में ही जब विधवा हो जाती है, तो बंदी बना ली जाता है। जब वह भाई राज्यवर्द्धन की मृत्यु का समाचार सुनती है, तो कारागार से भाग निकलती है और वन में भटकती हुई आत्मदाह के लिए तत्पर हो जाती है, किन्तु शीघ्र ही वह अपने भाई हर्षवर्द्धन द्वारा बचा ली जाती है। तब वह तन-मन से प्रजा की सेवा में अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर देती है।

2. धर्मपरायणा एवं त्यागमयी राज्यश्री का सम्पूर्ण जीवन त्याग भावना से परिपूर्ण है। भाई हर्षवर्द्धन उससे सिंहासन पर बैठने का आग्रह करते हैं, परन्तु वह राज्य सिंहासन ग्रहण करने से मना कर देती है। वह राज्य-वैभव का परित्याग करके कठोर संयम एवं नियम का मार्ग स्वीकार कर लेती हैं। माघ-मेले में प्रत्येक पाँचवें वर्ष वह भी अपने भाई की भाँति सर्वस्व दान कर देती है-“लुटाती थी बहन भी पास का सब तीर्थ-स्थल में|”

3. देशभक्त एवं जनसेविका राज्यश्री के मन में देशप्रेम और लोक कल्याण की भावना भरी हुई है। हर्ष के समझाने पर भी वह वैधव्य का दुःख झेलते हुए देशसेवा में लगी रहती है। इसी कारण वह संन्यासिनी बनने के विचार को छोड़ देती है तथा अपना सम्पूर्ण जीवन देशसेवा में बिता देती हैं।

4. सुशिक्षिता एवं ज्ञान सम्पन्न राज्यश्री सुशिक्षिता है, साथ ही वह शास्त्रों के ज्ञान से भी भली भाँति परिचित है। आचार्य दिवाकर मित्र संन्यास धर्म का तात्विक विवेचन करते हुए उसे मानव कल्याण के कार्य में लगने का उपदेश देते हैं और इसे वह स्वीकार कर लेती हैं। वह आचार्य की आज्ञा का पालन करती है।

5. करुणा की साक्षात् मूर्ति राज्यश्री करुणा की साक्षात् मूर्ति हैं। उसने माता-पिता की मृत्यु और बड़े भाई की मृत्यु के अनेक दुःख झेले। इन दुःखों की अग्नि में तपकर वह करुणा की मूर्ति बन गई। इस प्रकार राज्यश्री का चरित्र एक आदर्श भारतीय नारी का चरित्र है। राज्यश्री एक आदर्श राजकुमारी थी, जिसने अपना सम्पूर्ण जीवन पूर्ण सात्विकता और पवित्रता से व्यतीत किया। वह त्यागमयी और करुणामयी थी, इसलिए उसको चरित्र अनुकरणीय है।

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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi नाटक Chapter 4 सूत-पुत्र

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Board UP Board
Textbook SCERT, UP
Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 4
Chapter Name सूत-पुत्र
Number of Questions Solved 15
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi नाटक Chapter 4 सूत-पुत्र

कथावस्तु पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 1.
सूत-पुत्र’ नाटक की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए। (2016)
अथवा
‘सूत-पुत्र’ नाटक का कथानक अपने शब्दों में लिखिए। (2016)
अथवा
‘सूत-पुत्र’ नाटक की कथावस्तु पर प्रकाश डालिए। (2018, 16)
अथवा
‘सूत-पुत्र के प्रथम अंक का सारांश लिखिए। (2013, 12, 10)
उत्तर:
डॉ. गंगासहाय ‘प्रेमी’ द्वारा लिखित नाटक ‘सूत-पुत्र’ के प्रथम अंक का प्रारम्भ महर्षि परशुराम के आश्रम के दृश्य से होता है। धनुर्विद्या के आचार्य एवं श्रेष्ठ धनुर्धर परशुराम, उत्तराखण्ड में पर्वतों के बीच तपस्यालीन हैं।

परशुराम ने यह व्रत ले रखा है कि वे केवल ब्राह्मणों को ही धनुर्विद्या सिखाएँगे। सूत-पुत्र कर्ण की हार्दिक इच्छा है कि वह एक कुशल लक्ष्यवेधी धनुर्धारी बने। इसी उद्देश्य से वह परशुराम जी के आश्रम में पहुँचता है और स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशराम से धनुर्विद्या की शिक्षा प्राप्त करने लगता है। इसी दौरान, एक दिन परशुराम कर्ण की अंधा पर सिर रखकर सोए रहते हैं, तभी एक कीड़ा कर्ण की जंघा को काटने लगता है, जिससे रक्तस्राव होता है। कर्ण उस दर्द को सहन करता है, क्योंकि वह अपने गुरु परशुराम की नींद नहीं तोड़ना चाहता। रक्तस्राव होने से परशुराम की नींद टूट जाती है और कर्ण की सहनशीलता को देखकर उन्हें उसके क्षत्रिय होने का सन्देह होता है। उनके पूछने पर कर्ण उन्हें सत्य बता देता है। परशुराम अत्यन्त क्रोधित होकर कर्ण को शाप देते हैं कि मेरे द्वारा सिखाई गई विद्या को तुम अन्तिम समय में भूल जाओगे और इसका प्रयोग नहीं कर पाओगे। कर्ण वहाँ से उदास मन से वापस चला आता है।

प्रश्न 2.
‘सूत-पुत्र’ नाटक के द्वितीय अंक की कथा का सार संक्षेप में लिखिए। (2013, 12, 11, 10)
अथवा
द्रौपदी स्वयंवर की कथा ‘सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर लिखिए। (2013)
अथवा
द्रौपदी स्वयंवर की कथा ‘सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर लिखिए। (2013)
उत्तर:
‘सूत-पुत्र’ नाटक का द्वितीय अंक द्रौपदी के स्वयंवर से आरम्भ होता हैं। राजकुमार और दर्शक एक सुन्दर मण्डप के नीचे अपने-अपने आसनों पर विराजमान हैं। खौलते तेल के काहे के ऊपर एक खम्भे पर लगातार घूमने वाले चक्र पर एक मछली है। स्वयंवर में विजयी बनने के लिए तेल में देखकर उस मछली की आँख को बेधना है। अनेक राजकुमार लक्ष्य वेधने की कोशिश करते हैं और असफल होकर बैठ जाते हैं। प्रतियोगिता में कर्ण के भाग लेने पर राजा द्रुपद आपत्ति करते हैं और उसे अयोग्य घोषित कर देते हैं। दुर्योधन उसी समय कर्ण को अंग देश का राजा घोषित करता है।

इसके पश्चात् भी कर्ण का क्षत्रियत्व एवं उसकी पात्रता सिद्ध नहीं हो पाती और कर्ण निराश होकर बैठ जाता है। उसी समय ब्राह्मण वेश में अर्जुन एवं भीम सभा मण्डप में प्रवेश करते हैं। लक्ष्य बेध की अनुमति मिलने पर अर्जुन मछली की आँख वेध देते हैं तथा राजकुमारी द्रौपदी उन्हें वरमाला पहना देती हैं। अर्जुन द्रौपदी को लेकर चले जाते हैं। सूने सभा-मण्डप में दुर्योधन एवं कर्ण राह जाते हैं।

दुर्योधन कर्ण से द्रौपदी को बलपूर्वक छीनने के लिए कहता है, जिसे कर्ण नकार देता है। दुर्योधन ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन एवं भीम से संघर्ष करता है और उसे पता चल जाता है कि पाण्डवों को लाक्षागृह में जलाकर मारने की उसकी योजना असफल हो गई है। कर्ण पाण्डवों को बड़ा भाग्यशाली बताता है। यहीं पर द्वितीय अंक समाप्त हो जाता हैं।

प्रश्न 3.
‘सूत-पुत्र’ नाटक में वर्णित कर्ण-कुन्ती संवाद का सारांश लिखिए। (2016)
अथवा
‘सूत-पुत्र’ नाटक के तृतीय अंक की कथा का सार अपने शब्दों में लिखिए। (2011)
अथवा
‘सूत-पुत्र’ नाटक के तृतीय अंक में कर्ण-इन्द्र या कर्ण-कुन्ती संवाद का सारांश लिखिए। (2013, 12, 11, 10)
अथवा
सूतपुत्र’ नाटक के तीसरे अंक की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए। (2018)
उत्तर:
अर्जुन एवं कर्ण दोनों देव-पुत्र हैं। दोनों के पिता क्रमशः इन्द्र एवं सूर्य को युद्ध के समय अपने-अपने पुत्रों के जीवन की रक्षा की चिन्ता हुई। तीसरे अंक की कथा इसी पर केन्द्रित है। यह अंक नदी के तट पर कर्ण की सूर्योपासना से प्रारम्भ होता है। कर्ण द्वारा सूर्य देव को पुष्पांजलि अर्पित करते समय सूर्य देव उसकी सुरक्षा के लिए उसे स्वर्ण के दिव्य कवच एवं कुण्डल प्रदान करते हैं। वे इन्द्र की भावी चाल से भी उसे सतर्क करते हैं तथा कर्ण को उसके पूर्व वृत्तान्त से परिचित कराते हैं, इसके अतिरिक्त वे कर्ण को उसकी माता का नाम नहीं बताते। कुछ समय पश्चात् इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन की सुरक्षा हेतु ब्राह्मण का वेश धारण कर कर्ण से उसका कवच-कुण्डल माँग लेते हैं। इसके बदले इंन्द्र कर्ण को एक अमोघ शक्ति वाला अस्त्र प्रदान करते हैं, जिसका वार कभी खाली नहीं जाता। इन्द्र के चले जाने के बाद गंगा तट पर कुन्ती आती है। वह कर्ण को बताती है कि वही उसका ज्येष्ठ पुत्र हैं। कर्ण कुन्ती को आश्वासन देता है कि वह अर्जुन के सिवा किसी अन्य पाण्डव को नहीं मारेगा। दुर्योधन का पक्ष छोड़ने सम्बन्धी कुन्ती के अनुरोध को कर्ण अस्वीकार कर देता है। कुन्ती कर्ण को आशीर्वाद देकर चली जाती है और इसी के साथ नाटक के तृतीय अंक का समापन हो जाता है।

प्रश्न 4.
सूत-पुत्र’ नाटक के अन्तिम (चतुर्थ) अंक की कथा संक्षेप में लिखिए। (2011)
अथवा
‘सूत-पुत्र’ के चतुर्थ अंक के आधार पर सिद्ध कीजिए कि कर्ण युद्धवीर होने के साथ-साथ दानवीर भी था।
उत्तर:
डॉ. गंगासहाय ‘प्रेमी’ द्वारा रचित ‘सूत-पुत्र’ नाटक के चौथे (अन्तिम) अंक की कथा का प्रारम्भ कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि से होता है। सर्वाधिक रोचक एवं प्रेरणादायक इस अंक में नाटक के नायक कर्ण की दानवीरता, वीरता, पराक्रम, दृढ़प्रतिज्ञ संकल्प जैसे गुणों का उद्घाटन होता है। अंक के प्रारम्भ में एक और श्रीकृष्ण एवं अर्जुन, तो दूसरी ओर कर्ण एवं शल्य हैं। शल्य एवं कर्ण में वाद विवाद होता है और शल्य कर्ण को प्रोत्साहित करने की अपेक्षा हतोत्साहित करता है। कर्ण एवं अर्जुन के बीच युद्ध शुरू होता है और कर्ण अपने बाणों से अर्जुन के रथ को पीछे धकेल देता है। श्रीकृष्ण कर्ण की वीरता एवं योग्यता की प्रशंसा करते हैं, जो अर्जुन को अच्छा नहीं लगता।।

कर्ण के रथ का पहिया दलदल में फंस जाता है। जब वह पहिया निकालने की कोशिश करता है, तो श्रीकृष्ण के संकेत पर अर्जुन निहत्थे कर्ण पर बाण वर्षा प्रारम्भ कर देते हैं, जिससे कर्ण मर्मान्तक रूप से घायल हो जाता है और गिर पड़ता है। सन्ध्या हो जाने पर युद्ध बन्द हो जाता हैं। श्रीकृष्ण कर्ण की दानवीरता की परीक्षा लेने के लिए युद्धभूमि में पड़े कर्ण से सोना माँगते हैं। कर्ण अपना सोने का दाँत तोड़कर और उसे जल से शुद्ध कर ब्राह्मण वेशधारी श्रीकृष्ण को देता हैं। श्रीकृष्ण एवं अर्जुन अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होते हैं। श्रीकृष्ण कर्ण से लिपट जाते हैं और अर्जुन कर्ण का चरण-स्पर्श करते हैं। यहीं पर नाटक समाप्त हो जाता है।

प्रश्न 5.
नाट्य-कला की दृष्टि से ‘सूत-पुत्र’ नाटक की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2016)
अथवा
अपना नाट्य-कला की दृष्टि से सूत-पुत्र की समीक्षा कीजिए। (2011)
अथवा
नाट्य-कला की दृष्टि से ‘सूत-पुत्र’ नाटक की विशेषताओं का वर्णन कीजिए। (2014, 13, 12, 11)
उत्तर:
नाटककार डॉ. गंगासहाय ‘प्रेमी’ ने ‘सूत पुत्र’ नाटक को कर्ण के जीवन चरित्र को आधार बनाकर लिखा है। नाट्य तत्त्वों के आधार पर इस नाटक की समीक्षा निम्न है- इस प्रश्न के उत्तर के लिए प्रश्न 7,8,9,10 को देखें।

प्रश्न 6.
‘सूत-पुत्र’ नाटक की कथावस्तु लिखिए। (2011, 10)
अथवा
‘सतूपुत्र’ नाटक के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि इसमें विभिन्न सामाजिक समस्याओं को उजागर किया गया है। (2018)
उत्तर:
‘महाभारत’ की कथा से सम्बन्धित प्रस्तुत नाटक एक ऐतिहासिक नाटक है, जिसमें दानवीर कर्ण के जीवन काल की महत्त्वपूर्ण घटनाओं को रेखांकित किया गया है। चार अंकों में विभाजित इस नाटक की कथा का आरम्भ कर्ण परशुराम संवाद से तथा कथा का विकास परशुराम द्वारा कर्ण को आश्रम से निकालने की घटना से होता हैं। इन्द्र द्वारा कवच-कुण्डल माँग लेने की घटना नाटक को चरम सीमा पर पहुंचाती है, जहाँ से कर्ण की पराजय निश्चित लगने लगती है। कुन्ती-कर्ण संवाद के समय नाटक अपने चर्मोत्कर्ष पर पहुंचता है, जो विभिन्न सोपानों को पार करता हुआ कर्ण के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं को प्रस्तुत करता है। कथानक सुसंगठित, लोक प्रसिद्ध एवं घटना प्रधान है। नाटक के सभी अंक एवं दृश्य एक-दूसरे से अच्छी तरह गुंथे हुए एक सूत्र में पिरोए गए हैं।

प्रस्तुत नाटक का कथानक हालाँकि महाभारत काल के ऐतिहासिक पात्रों एवं घटनाओं पर आधारित है, किन्तु लेखक ने इसे वर्तमान समाज में व्याप्त जाति एवं वर्ण व्यवस्था सम्बन्धी कुरीतियों एवं विषमताओं को स्पष्ट रूप से सामने लाने का एक माध्यम बनाया है। नारी शिक्षा की समस्या, नारी की सामाजिक परिस्थिति में गिरावट, नारी समाज की विवशता एवं मजबूरियों आदि का चित्रण चमिान काल में भी विद्यमान समस्याओं की ओर ही इशारा करता है। ‘सूत पुत्र’ नाटक का देशकाल एवं वातावरण महाभारतकालीन है, जिसका चित्रण नाटककार ने अत्यन्त सफलतापूर्वक किया है। परशुराम को आश्रम, द्रुपद नरेश द्वारा आयोजितं स्वयंवर -सभा, युद्धभूमि आदि को तत्कालीन वातावरण के अनुरूप सृजित करने में नाटककार ने सफलता प्राप्त की है। नाटक में संवादों की योजना भी देशकाल एवं वातावरण को ध्यान में रखकर की गई हैं।

प्रश्न 7.
‘सूत-पुत्र’ नाटक की कथोपकथन/संवाद-योजना की दृष्टि से समीक्षा कीजिए। (2013)
उत्तर:
प्रस्तुत नाटक के कथोपकथन या संवाद पूर्णतः स्वाभाविक, सारगर्भित, बोधगम्य, सरल, स्पष्ट, मार्मिक एवं प्रवाहपूर्ण हैं। संवाद कहीं-कही संक्षिप्त हैं, तो कहीं कहीं लम्बे भी। नाटककार ने संवादों को पात्रानुकूल एवं आवश्यकतानुसार ही रखा है। अनावश्यक रूप से उनका कहीं भी विस्तार नहीं किया गया है। सरसता एवं भाव-अभिव्यंजना इस नाटक के संवादों के अन्य महत्त्वपूर्ण गुण हैं। संवाद तर्कप्रधान एवं पात्रों के चरित्र के विकास में सहायक हैं। प्रासंगिक कथाओं के चित्रण में नाटककार ने वार्तालाप का सहारा लेकर अपनी योग्यता, मौलिकता एवं कल्पना-शक्ति को अच्छा परिचय दिया है। नाटक में गीतों का प्रयोग भी हुआ है। स्वगत कथन अधिक हैं, जिससे नाटक के प्रवाह में कुछ रुकावट आती है। इसके अतिरिक्त नाटक के संवादों में कहीं भी शिथिलता नहीं है। इस तरह, संवाद योजना की दृष्टि से ‘सूत-पुत्र’ एक श्रेष्ठ नाटक है।

प्रश्न 8.
‘सूत-पुत्र’ नाटक की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए। (2011)
उत्तर:
प्रस्तुत नाटक की भाषा सरल, स्वाभाविक एवं शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली है। नाटक में हालाँकि संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग किया गया है, किन्तु भाषा पाठकों के लिए कठिन एवं दुरूह नहीं है। पात्रों के अनुकूल नाटक की भाषा में चित्रात्मकता के दर्शन भी होते हैं। स्थान-स्थान पर सूक्ति, व्यंग्य एवं मुहावरों का प्रयोग मिलता है। शैली की दृष्टि से नाटक संवादात्मक एवं सम्भाषण प्रधान है। स्वगत शैली एवं काव्य शैली का प्रयोग भी हुआ है। प्रसाद तथा ओज गुण नाटक की शैली की विशेषता हैं। नाटक में वीर रस की प्रधानता है, इसलिए इसमें ओज गुण सर्वत्र द्रष्टव्य हैं। कहीं कहीं हास्य व्यंग्य का पुट भी परिलक्षित होता है। लक्ष्य बेधने में असफल एक राजा का स्वागत दर्शक इस प्रकार करते हैंपहला स्वर- विशालकाय जी! आप कड़ाहे तक गए, यही बहुत है। दूसरी स्वर- मोटे जी को कोई दु:ख नहीं है, अपनी असफलता की। नाटक की भाषा पूर्णतः सशक्त एवं प्रवाहमयी है।

प्रश्न 9.
अभिनय और रंगमंच की दृष्टि से ‘सूत-पुत्र’ की समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
‘सूत-पुत्र’ नाटक अभिनय एवं रंगमंचीय दृष्टिकोण से अधिक श्रेष्ठ प्रतीत नहीं होता। यह नाटक चार अंकों में विभाजित है। चार अंकों का मंचन कुछ अधिक लम्बा हो जाता है। चौथे अंक में दृश्यों की संख्या तीन है। इस प्रकार मंच पर उसे अधिक सेट लगाने पड़ेंगे। इन कमियों के अतिरिक्त इसमें पात्रो, संवादों आदि के रंगमंचीय स्वरूप को ध्यान में रखा गया है। तकनीकी संवाद और संवाद सुबोधता का भी उचित ध्यान रखा गया हैं। पठनीयता की दृष्टि से यह नाटक अत्यधिक उपयुक्त है, लेकिन रंगमंचीयता की दृष्टि से लम्बे संवाद कहीं-कहीं असुविधाजनक हो गए हैं।

प्रश्न 10.
‘सूत-पुत्र’ नाटक के उद्देश्य पर अपने विचार प्रकट कीजिए। (2015)
उत्तर:
‘सूत-पुत्र’ नाटक के नाटककार का उद्देश्य महाभारतकालीन ऐतिहासिक तथ्यों को प्रस्तुत करके वर्तमान भारतीय समाज की विसंगतियों की ओर पाठकों एवं दर्शकों का ध्यान आकृष्ट करना है। नाटककार ने इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर नाटक में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ अपनी कल्पना का सुन्दर समायोजन किया है, जिसे निम्न बिन्दुओं के रूप में समझा जा सकता है।

  1. जाति एवं वर्ण-व्यवस्था सम्बन्धी विसंगतियों को कर्ण-परशुराम संवाद द्वारा दर्शाया गया है।
  2. जाति-वर्ण व्यवस्था की विडम्बना को कर्ण-द्रुपद संवाद द्वारा भी दर्शाया गया है।
  3. नारी की सामाजिक स्थिति को कर्ण-कुन्ती संवाद से स्पष्ट किया गया है।
  4. उच्च वर्ण की मदान्धता को कर्ण-शल्य संवाद रेखांकित करता है।

इस प्रकार, प्रस्तुत नाटक के माध्यम से नाटककार ने सामाजिक विसंगतियों को रेखांकित कर, उन पर कुठाराघात करके उसकी अप्रासंगिकता को स्पष्ट किया है। महाभारतकालीन कथानक को लेकर लिखे गए इस नाटक के प्रमुख पात्रों में कर्ण, श्रीकृष्ण, अर्जुन, परशुराम, दुर्योधन आदि हैं, जबकि गौण पात्रों में भीम, कुन्ती, सूर्य, इन्द्र इत्यादि हैं। इसके अतिरिक्त कुछ पात्र ऐसे भी हैं, जिनका नाम मात्र का उल्लेख ही नाटक में किया गया है। प्रस्तुत नाटक मुख्य रूप से कर्ण के चरित्र को ही उभारता है। अन्य पात्रों को चयन कर्ण के चरित्र की विशेषताओं को ही प्रकट करने तथा उनकी सामाजिक-मानसिक को स्वर देने के लिए किया गया है।

प्रश्न 11.
‘सूत-पुत्र’ नाटक की विशेषताओं का संक्षेप में उल्लेख कीजिए। (2017, 16)
अथवा
‘सूतपुत्र’ नाटक की सामान्य विशेषताओं को लिखिए। (2018)
अथवा
‘सूतपुत्र’ नाटक की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2018)
अथवा

सूतपुत्र नाटक की विशेषताएँ लिखिए। (2018)
अथवा
‘सूत-पुत्र’ नाटक की मौलिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए। (2017)
उत्तर:
‘सूत-पुत्र’ नाटक में नाटककार ने ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से सामाजिक, राजनैतिक, जातिगत आदि घटनाओं एवं व्यवस्थाओं को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इस आधार पर ‘सूत-पुत्र’ नाटक की विशेषताएँ निम्नलिखित है।

  1. ऐतिहासिकता नाटक के प्रारम्भ में ही नाटककार ने कर्ण एवं परशुराम संवाद को प्रस्तुत किया है। नाटक का कथानक ऐतिहासिक पात्रों एवं घटनाओं पर आधारित हैं। नाटककार ने इन ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से वर्तमान समाज में व्याप्त वर्ण-व्यवस्था एवं जाति-व्यवस्था से सम्बन्धित विसंगतियों पर प्रहार किया है। प्रस्तुत नाटक में कर्ण के चरित्र की विशेषताएँ उसकी सामाजिक प्रताड़नाओं, मानसिक क्लेश, जाति एवं वर्ण आदि सामाजिक रूढ़ियों पर आधारित क्रूरता आदि को प्रदर्शित करते हुए अपने चमत्कर्ष पर पहुँचती हैं।
  2. गुरु-शिष्य के सम्बन्ध ‘सूत-पुत्र’ नाटक में नाटककार ने गुरु-शिष्य के सम्बन्धों को भी प्रस्तुत किया हैं। ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि आदर्श गुरु वह होता है, जो सभी प्रकार से अपने शिष्यों की सेवा करे, उसकी गलती पर उसे सचेत करे तथा शिष्य को भी सर्वथा यह ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने गुरु का कभी तिरस्कार न करे। प्रस्तुत नाटक में नाटककार ने परशुराम और भीष्म के माध्यम से इसे स्पष्ट किया है।
  3. नारी के प्रति श्रद्धा भाव नाटककार ने कर्ण के माध्यम से नारी के प्रति अगाध श्रद्धा की भावना को प्रदर्शित करने का प्रयास किया है। ‘सूत-पुत्र’ नाटक में कर्ण जैसा पात्र नारी (अपनी माता) के द्वारा अपमान सहन करता है, परन्तु फिर भी कर्ण के हृदय में नारी के प्रति आदर, सम्मान व श्रद्धा का भाव बना रहता है।
  4. समाज में व्याप्त विसंगतियों का चित्रण ‘सूत-पुत्र’ नाटक में नाटककार ने अपने पात्रों के माध्यम से नारी की विवशता, वर्ण-व्यवस्था, जाति-व्यवस्था, नारी-शिक्षा, नैतिकता, असवर्गों के प्रति भेदभाव आदि विसंगतियों का चित्रण करके यह बताने का प्रयास किया है कि महाभारत काल में भी समाज ने जिन-जिन समस्याओं का सामना किया था, वे समस्याएँ आज भी व्याप्त हैं।

पात्र एवं चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 12.
‘सुत-पुत्र’ नाटक के आधार पर उसके नायक (कर्ण) का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2018)
अथवा
अपनी ‘सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर कर्ण के चरित्र की विशेषताएँ बताइए। (2018)
अथवा
‘सूत-पुत्र’ नाटक के नायक की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
‘सूत-पुत्र’ नाटक के नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2017, 16)
अथवा
‘सूत-पुत्र’ नाटक के प्रमुख पुरुष पात्र (नायक) कर्ण का चरित्र चित्रण कीजिए। (2015, 14, 13, 12, 11, 10)
अथवा
‘सूत-पुत्र’ नाटक के नायक के चरित्र पक्ष की विवेचना कीजिए। (2017)
उत्तर:
डॉ. गंगासहाय ‘प्रेमी’ द्वारा लिखित नाटक ‘सूतपुत्र’ के नायक कर्ण के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ निहित हैं

  1. गुरुभक्ति कर्ण सच्चा गुरुभक्त है। वह अपने गुरु के लिए सर्वस्व त्याग करने को तत्पर है। अत्यधिक कष्ट सहकर भी वह अपने गुरु परशुराम की निद्रा को बाधित नहीं होने देता है। गुरु द्वारा शाप दिए जाने के पश्चात् भी वह अपने गुरु की निन्दा सुनना पसन्द नहीं करता। द्रौपदी-स्वयंवर के समय उसकी गुरुभक्ति स्पष्ट रूप से दिखती है।
  2. प्रवीण धनुर्धारी कर्ण धुनर्विद्या में अत्यधिक प्रवीण है। वह अपने समय का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी है, जिसके सामने अर्जुन को टिकना भी मुश्किल लगता है, इसलिए इन्द्र देवता ने अर्जुन की रक्षा के लिए कर्ण से ब्राह्मण वेश धारण कर कवच-कुण्डल माँग लिए।
  3. प्रबल नैतिकतावादी कर्ण उच्च स्तर के संस्कारों से युक्त है। वह नैतिकता को अपने जीवन में विशेष महत्त्व देता है। इसी नैतिकता के कारण वह द्रौपदी के अपहरण सम्बन्धी दुर्योधन के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देता है।
  4. श्रेष्ठ दानवीरता कर्ण अपने समय का सर्वश्रेष्ठ दानवीर था। उसकी दानवीरता अनुपम है। युद्ध में अर्जुन की विजय को सुनिश्चित करने के लिए इन्द्र ने कवच-कुण्डल माँगा, सारी वस्तुस्थिति समझते हुए भी कर्ण ने इसका दान दे दिया। इतना ही नहीं, युद्धभूमि में मृत्यु शय्या पर पड़े कर्ण ने श्रीकृष्ण द्वारा ब्राह्मण वेश में सोना दान में माँगने पर अपना सोने का दाँत उखाड़कर दे दिया।
  5. महान् योना कर्ण एक महान योद्धा है। वह एक सच्चा महारथी हैं। वह अर्जुन के रथ को अपनी बाण वर्षा से पीछे धकेल देता हैं, जिस रथ पर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण बैठे हुए थे।
  6. नारी के प्रति श्रद्धा भाव नारी जाति के प्रति कर्ण में गहरी निष्ठा एवं श्रद्धा है। वह नारी को विधाता का वरदान मानता है।
  7. सच्चा मित्र कर्ण अपने जीवन के अन्त समय तक अपने मित्र दुर्योधन के प्रति गहरी निष्ठा रखता है। दुर्योधन के प्रति उसकी मित्रता को कोई भी व्यक्ति कम नहीं कर सका इस प्रकार, कर्ण का व्यक्तित्व अनेक श्रेष्ठ मानवीय भावों से पूर्ण है।

प्रश्न 13.
सूत-पुत्र के आधार पर श्रीकृष्ण के चरित्र पर प्रकाश डालिए। (2013, 12, 11)
अथवा
‘सूतपुत्र’ नाटक के आधार पर श्रीकृष्ण की चारित्रिक विशेषताएँ बताइए। (2018)
उत्तर:
डॉ. गंगा सहाय ‘प्रेमी’ द्वारा लिखित ‘सूत-पुत्र’ में कर्ण के पश्चात् सबसे प्रभावशाली एवं केन्द्रीय चरित्र श्रीकृष्ण का है।
जिनके व्यक्तित्व की निम्नलिखित विशेषताएँ द्रष्टव्य हैं।

  1. महाज्ञानी श्रीकृष्ण एक ज्ञानी पुरुष के रूप में प्रस्तुत हुए हैं। युद्धभूमि में अर्जुन के व्याकुल होने पर वे उन्हें जीवन का सार एवं रहस्य समझाते हैं। वे तो स्वयं भगवान के ही रूप हैं। अतः संसार के बारे में उनसे अधिक ज्ञान और किसी को क्या हो सकता है।
  2. कुशल राजनीतिज्ञ श्रीकृष्ण का चरित्र एक ऐसे कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसके कारण अर्जुन महाभारत के युद्ध में विजयी बनने में सक्षम हो सके। कर्ण को इन्द्र से प्राप्त अमोघ अस्त्र को श्रीकृष्ण ने घटोत्कच पर चलवाकर अर्जुन की विजय सुनिश्चित कर दी।
  3. वीरता या उच्च कोटि के गुणों के प्रशंसक अर्जुन के पक्ष में शामिल होने के। पश्चात् भी श्रीकृष्ण कर्ण की वीरता की प्रशंसा किए बिना न रह सके। वे कर्ण की धनुर्विद्या की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हैं।
  4. कुशल वक्ता श्रीकृष्ण एक कुशल एवं चतुर वक्ता के रूप में सामने आते हैं। श्रीकृष्ण अपनी कुशल बातों से अर्जुन को हर समय प्रोत्साहित करते रहते हैं तथा अन्ततः युद्ध में उन्हें विजयी बनवाते हैं।
  5. अवसर का लाभ उठाने वाले वस्तुत: श्रीकृष्ण समय या अवसर के महत्त्व को पहचानते हैं। आया हुआ अवसर फिर लौटकर नहीं आता और उनकी रणनीति आए हुए प्रत्येक अवसर का भरपूर लाभ उठाने की रही है। वे अवसर को चूकते नहीं हैं। यही कारण है कि कर्ण पराजित हो जाता है और अर्जुन को विजय प्राप्त होती हैं।
  6. पश्चाताप की भावना श्रीकृष्ण भगवान का स्वरूप होते हुए भी मानवीय भावनाएँ रखते हैं, इसलिए उनमें पश्चाताप की भावनाएँ भी आती हैं। उन्हें इस बात का पश्चाताप है कि उन्होंने कर्ण के साथ न्यायोचित व्यवहार नहीं किया। निहत्थे कर्ण पर अर्जुन द्वारा बाण-वर्षा कराकर उन्होंने नैतिक रूप से उचित व्यवहार नहीं किया। उन्हें इस बात का गहरा पश्चाताप है, लेकिन कूटनीति एवं रणनीति इसी व्यवहार को उचित ठहराती है।

इस प्रकार, श्रीकृष्ण का चरित्र नाटक में कुछ समय के लिए ही सामने आता है, लेकिन वह अत्यन्त ही प्रभावशाली एवं सशक्त है, जो पाठकों एवं दर्शकों पर अपना गहरा प्रभाव डालता है।

प्रश्न 14.
‘सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर कुन्ती का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2016)
अथवा
‘सूत-पुत्र’ नाटक के किसी एक स्त्री पात्र का चरित्र-चिरण कीजिए। (2016)
अथवा
‘सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर कुन्ती की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
डॉ. गंगासहाय ‘प्रेमी’ द्वारा रचित ‘सूत-पुत्र’ नाटक की प्रमुख नारी पात्र कुन्ती है। उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. तेजस्वी व्यक्तित्व प्रस्तुत नाटक के तीसरे अंक में कुन्ती के दर्शन होते हैं, जब वह कर्ण के पास जाती है, उस समय वह विधवा वेश में होती है। उसके बाल काले और लम्बे हैं। उसने शरीर पर श्वेत साड़ी धारण कर रखी है, वह अत्यन्त सुन्दर दिखाई देती है। उसका व्यक्तित्व भारतीय विधवा का पवित्र, मनोहारी एवं तेजस्वी व्यक्तित्व है।
  2. मातृभावना कुन्ती का हृदय मातृभावना से परिपूर्ण है। जैसे ही वह युद्ध का निश्चय सुनती है, वह अपने पुत्रों के लिए व्याकुल हो उठती है। उसने आज तक कर्ण को पुत्र रूप में स्वीकार नहीं किया था, किन्तु फिर भी अपने मातृत्व के बल पर वह उसके पास जाती है और उसके सामने सत्य को स्वीकार करती है कि वह उसकी पहली सन्तान है, जिसका उसने परित्याग कर दिया था।
  3. स्पष्टवादिता कुन्ती स्पष्टवाद है। माँ होकर भी वह कर्ण के सामने उसके जन्म और अपनी भूल की कथा को स्पष्ट कह देती है। कर्ण द्वारा यह पूछे जाने पर कि किस आवश्यकता की पूर्ति के लिए तुमने सूर्यदेव से सम्पर्क स्थापित किया था? वह कहती हैं-“पुत्र! तुम्हारी माता के मन में वासना का भाव बिल्कुल नहीं था।”
  4. वाकपटु कुन्ती बातचीत में बहुत कुशल है। वह अपनी बात इतनी कुशलता से कहती है कि कर्ण एक माँ की विवशता को समझ कर तथा उसकी भूलों पर ध्यान न देकर उसकी बात मान ले। वह पहले कर्ण को पुत्र और बाद में कर्ण कहकर अपने मन के भावों को प्रकट करती हैं।
  5. सूक्ष्म द्रष्टा कुन्ती में प्रत्येक विषय को परखने और उसके अनुसार कार्य करने की सूक्ष्म दृष्टि थी। कर्ण जब उससे कहता है कि तुम यह कैसे जानती हो कि मैं तुम्हारा वही पुत्र हूँ जिसे तुमने गंगा की धारा में प्रवाहित कर दिया था वह कहती है “क्या तुम्हारे पैरों की उँगलियाँ मेरे पैरों की उँगलियों से मिलती-जुलती नहीं हैं?”
  6. कुशलनीतिज्ञ कुन्ती को राजनीति का सहज ज्ञान प्राप्त था। वह महाभारत युद्ध की समस्त राजनीति भली-भाँति समझ रही थी। वह कर्ण को अपने पक्ष में करना चाहती है, क्योंकि वह यह जानती है कि दुर्योधन की हठवादिता कर्ण के बल पर टिकी है और उसी के भरोसे वह पाण्डवों को नष्ट करना चाहता है। जब कर्ण यह कहता है कि पाण्डव यदि सार्वजनिक रूप से मुझे अपना भाई स्वीकार करें तो उनकी रक्षा करना मेरा कर्तव्य हो सकता है तो वह तत्काल कह देती है-“कर्ण तुम्हारे पाँचों भाई तुम्हें अपना अग्रज स्वीकार करने को प्रस्तुत है।” यद्यपि पाँचों पाण्डवों को तब तक यह पता भी नहीं था कि कर्ण उनके बड़े भाई हैं।

इस प्रकार नाटककार ने कुन्ती का चरित्र-चित्रण अत्यन्त कुशलता से किया है। उन्होंने थोड़े ही विवरण में कुन्ती के चरित्र को कुशलता से दर्शाया है।

प्रश्न 15.
‘सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर परशुराम के चरित्र पर प्रकाश डालिए। (2017, 12, 11, 10)
उत्तर:
सूत-पुत्र नाटक में श्री गंगासहाय ‘प्रेमी ने परशुराम को ब्राह्मणत्व एवं क्षत्रियत्व के गुणों से युक्त दर्शाया है। वे महान् तेजस्वी एवं दुर्धर्ष योद्धा हैं। परशुराम, कर्ण के गुरु हैं। इनके पिता का नाम जमदग्नि है। परशुराम उस समय के धनुर्विद्या में अद्वितीय ज्ञाता थे। सूत-पुत्र नाटक के आधार पर परशुराम की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. अतितीय धनुर्धर परशुराम उस समय के अद्वितीय धनुर्धर हैं। धनुष विद्या में वे प्रख्यात हैं। इसी कारण दूर के प्रदेशों से भी ब्राह्मण बालक इनके पास हिमालय की घाटी में स्थित आश्रम में शस्त्र विद्या सीखने के लिए आते हैं। इनके द्वारा जिनको उस समय दीक्षित किया जाता था, उन शिष्यों को अद्वितीय माना जाता था। भीष्म पितामह भी इन्हीं के शिष्य थे।
  2. मानवीय स्वभाव के ज्ञाता परशुराम मानवीय स्वभाव के भी जानकार थे। वे कर्ण के क्षत्रियोचित व्यवहार से जान जाते हैं कि यह ब्राह्मण नहीं है, अपितु क्षत्रिय है। वे उससे निस्संकोच कह भी देते हैं कि-“तुम क्षत्रिय हो कर्ण! तुम्हारे माता-पिता दोनों ही क्षत्रिय रहे हैं।”
  3. सहदय एवं आदर्श गुरु परशुराम सहृदय एवं आदर्श गुरु हैं। वे अपने सभी शिष्यों को समान दृष्टि से देखते हैं तथा पुत्र के समान प्रेम करते हैं और उनके कष्टों को दूर करने के लिए हर समय तैयार रहते हैं। एक दिन कर्ण की जंघा में कीड़ा काट लेता है और मांस में घुस जाता है, जिससे खून की धारा बह निकलती है। इससे परशुराम का हदय द्रवित हो जाता है। वे तुरन्त उसके घाव पर नखरचनी को लगा देते हैं और कर्ण को सान्तवना देते हैं। इस घटना से परशुराम के सहृदय होने का पता चलता है।
  4. श्रेष्ठ ब्राह्मण परशुराम एक उच्च कुलीन ब्राह्मण हैं। वे ब्राह्मण का प्रमुख कार्य विद्या दान करना बताते हुए कहते हैं कि जो ब्राह्मण धन का लालची है, वह ब्राह्मण नहीं, वह अधम तथा नीच है। द्रोणाचार्य के विषय में उनकी धारणा है कि वे निम्न कोटि के ब्राह्मण हैं और उनके विषय में कहते हैं। कि-“द्रोणाचार्य तो पतित ब्राह्मण है। ब्राह्मण क्षत्रिय का गुरु हो सकता है, सेवक अथवा वृत्तिभोगी नहीं।”
  5.  निष्ठावान एवं दयालु परशुराम अपने कर्तव्य के प्रति पूर्णरूपेण निष्ठावान हैं। वे अपने कर्तव्य का पालन करने में वज्र के समान कठोर हैं, लेकिन दूसरों की दयनीय स्थिति को देखकर दया से द्रवित भी हो जाते हैं। इसी कारण वे कर्ण को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लेते हैं और दीक्षा देने लगते हैं।
  6.  क्रोधी एवं उदार परशुराम हृदय से उदार भी हैं। वे कर्ण की अत्यन्त दयनीय स्थिति को देखकर उन्हें अपना शिष्य बना लेते हैं, लेकिन ब्राह्मण का छद्म रूप धारण करने के कारण वे कर्ण को श्राप भी देते हैं, लेकिन जब कर्ण की दयनीय एवं दुःख से परिपूर्ण दशा को देखते हैं, तो उन्हें उस पर दया आ जाती है और वे कहते हैं कि-“जिस माता से तुम्हें ममता और वात्सल्य मिलना चाहिए था उसी ने तुम्हें श्राप दिया। उनके इस प्रकार कहने से उनके उदार होने का पता चलता है।
  7. ओजस्वी व्यक्तित्व परशुराम का व्यक्तित्व ओजस्यी है। नायक में लेखक ने उनके व्यक्तित्व का चित्रण ऐसे किया है-“परशुराम की अवस्था दो सौ वर्ष के लगभग है। वे हष्ट-पुष्ट शरीर वाले सुदृढ़ व्यक्ति हैं। चेहरे पर सफेद लम्बी-घनी दाढ़ी और शीश पर लम्बी-लम्बी श्वेत जटाएँ हैं।’

उपरोक्त चारित्रिक गुणों को दृष्टिगत रखते हुए हम कह सकते हैं कि परशुराम, कर्तव्यनिष्ठ, उदार, ओजस्वी मानव स्वभाव के ज्ञाता एवं महान् ब्राह्मण हैं। वे एक आदर्श शिक्षक है तथा उनमें ब्राह्मणत्व तथा क्षत्रियत्व दोनों ही गुणों का अद्भुत समन्वय दृष्टिगोचर होता है।

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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 4 आलोक-वृत्त

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Board UP Board
Textbook SCERT, UP
Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 4
Chapter Name आलोक-वृत्त
Number of Questions Solved 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 4 आलोक-वृत्त

कथावस्तु पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 1.
‘आलोक-वृत’ खण्डकाव्य की प्रमुख घटना को संक्षेप में लिखिए। (2018)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का कथानक संक्षेप में लिखिए। (2016)
अथवा
“आलोक-वृत्त खण्डकाव्य में स्वतन्त्रता संग्राम की झाँकी के दर्शन होते हैं।” स्पष्ट कीजिए। (2016)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ को कथासार अपने शब्दों में लिखिए। (2016)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य की प्रमुख घटना का वर्णन कीजिए। (2016)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ खण्ड काव्य की कथावस्तु पर प्रकाश डालिए। (2016)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य का सारांश अपने शब्दों में लिखिए। (2014)
अथवा
कथावस्तु की दृष्टि से ‘आलोक-वृत्त’ की समीक्षा कीजिए। (2013)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ के आधार पर वर्ष 1942 की जनक्रान्ति का सोदाहरण वर्णन कीजिए। (2014, 13, 11, 10, 09, 08)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य में वर्णित प्रमुख घटनाओं का उल्लेख कीजिए। (2018, 14, 13)
उत्तर:
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य की रचना कविवर गुलाब खण्डेलवाल द्वारा की गई है। इस खण्डकाव्य की कथा युगपुरुष महात्मा गाँधी के जीवन पर आधारित है। इस खण्डकाव्य की कथावस्तु निम्नलिखित है।

प्रथम सर्ग : भारत को स्वर्णिम अतीत

(2012, 11)

1869 ई. में महात्मा गाँधी का जन्म पोरबन्दर नामक स्थान पर हुआ था। गाँधीजी का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि समस्त दानवी एवं पाश्विक शक्तियाँ भी उनके सामने टिक न सकीं। ब्रिटिश शासन भयभीत हो गया।

गाँधीजी ने अपने साहस और शक्ति से शासन के क्वर अत्याचारों और दमनात्मक कार्यों से पीड़ित जनता को शक्ति प्रदान की। गाँधीजी के रूप में भारतीय जनता को नया जीवनस्रोत मिली।

द्वितीय सर्ग : गाँधीजी का प्रारम्भिक जीवन

(2017, 12)

‘आलोक-वृत’ खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए। (2018)

युवा होने पर गाँधीजी का विवाह कस्तूरबा के साथ हो गया। कुछ समय पश्चात् ही उनके पिताजी का स्वर्गवास हो गया। उनकी मृत्यु के समय गाँधीजी अपने पिता के पास नहीं थे। फिर उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए वह इंग्लैण्ड चले गए। गाँधीजी की माताजी को यह डर सता रहा था कि उनका पुत्र विदेश में जाकर मांस-मदिरा का सेवन न करने लगे। अतः विदेश जाने से पहले उन्होंने अपने पुत्र से वचन लिया

मद्य मांस-मदिराक्षी से बचने की शपथ दिलाकर।
माँ ने तो दी विदा पुत्र को मंगल-तिलक लगाकर।”

अपनी शिक्षा समाप्त कर जब गाँधीजी स्वदेश लौटे, तो उन्हें ज्ञात हुआ कि उनकी माताजी उन्हें छोड़कर स्वर्ग सिधार गई हैं। यह सुनकर उन्हें अत्यधिक कष्ट हुआ।

तृतीय सर्ग : गाँधीजी का अफ्रीका प्रवास (2012)

आलोक-वृत खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग की कथावस्तु पर प्रकाश डालिए। (2018)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का कथानक संक्षेप में लिखिए। (2016)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ के तृतीय सर्ग में वर्णित गाँधीजी के मानसिक संघर्ष को अपने शब्दों में लिखिए। (2014, 13)
उत्तर:
दक्षिण अफ्रीका में एक बार गाँधीजी रेल में प्रथम श्रेणी में यात्रा कर रहे थे। एक गोरे ने उन्हें अपमानित करके गाड़ी से नीचे उतार दिया। रंगभेद की इस नीति को देखकर वह बहुत दुःखी हुए। वह शान्त भाव से एकान्त में बैठे ठिठुरते रहे। वे वहाँ बैठे-बैठे भारतीयों की दुर्दशा पर चिन्तन करने लगे। उन्होंने अपनी जन्मभूमि से दूर विदेश की भूमि पर बैठकर मानवता के उद्धार का संकल्प लिया। सत्य और अहिंसा के इस मार्ग को उन्होंने सत्याग्रह का नाम दिया। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में सैकड़ों सत्याग्रहियों का नेतृत्व किया और संघर्ष में विजय प्राप्त की।

चतुर्थ सर्ग : गाँधीजी का भारत आगमन

‘आलोक-वृत’ के चतुर्थ सर्ग की घटना का उल्लेख कीजिए। (2018)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ के चतुर्थ सर्ग का सारांश लिखिए। (2016)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग की कथा संक्षेप में लिखिए है (2013, 14)
उत्तर:
गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आ जाते हैं। भारत आकर उन्होंने लोगों को स्वतन्त्रता प्राप्त करने हेतु जाग्रत किया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, विनोबा भावे, सरोजिनी नायडू, सुभाषचन्द्र बोस, मदनमोहन मालवीय आदि अनेक प्रमुख देशप्रेमी उनके अनुयायी बन गए।

गाँधीजी के आह्वान पर देश के महान् नेता एकजुट होकर सत्याग्रह की तैयारी में जुट गए। गाँधीजी ने चम्पारण में नील की खेती को लेकर आन्दोलन प्रारम्भ किया, जिसमें वे सफल रहे। उनके भाषण सुनकर विदेशी सरकार विषम स्थिति में पड़ जाती थी। इस आन्दोलन में सरदार वल्लभभाई पटेल का व्यक्तित्व अच्छी तरह निखरकर सामने आया।

पंचम सर्ग : असहयोग आन्दोलन

‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य के पंचम सर्ग (असहयोग आन्दोलन) की कथा पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए। (2011)
उत्तर:
गाँधीजी के नेतृत्व में स्वाधीनता आन्दोलन निरन्तर बढ़ता गया। अंग्रेजों की दमन नीति भी बढ़ती गई। गाँधीजी के ओजस्वी भाषण ने भारतीयों में नई स्फूर्ति भर दी, लेकिन अंग्रेजों की ‘फूट डालो और शासन करों’ की नीति ने यत्र-तत्र साम्प्रदायिक दंगे करवा दिए। गाँधीजी को बन्दी बना लिया गया।

जेल में गाँधीजी अस्वस्थ हो गए। अतः उन्हें छोड़ दिया गया। जेल से आकर गाँधीजी हरिजनोद्धार, हिन्दू-मुस्लिम एकता, शराब मुक्ति, खादी प्रचार आदि के रचनात्मक कार्यों में लग गए।

हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए गाँधीजी ने इक्कीस दिनों का उपवास रखा-

“आत्मशुद्धि का यज्ञ कठिन यह, पूरा होने को जब आया।
बापू ने इक्कीस दिनों के, अनशन का संकल्प सुनाया।”

षष्ठ सर्ग : नमक सत्याग्रह

“आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य के षष्ठ सर्ग (नमक सत्याग्रह) का सारांश अपने शब्दों में लिखिए। (2011)
उत्तर:
अंग्रेजों के द्वारा लगाए गए नमक कानून को तोड़ने के लिए गाँधीजी ने समुद्र तट पर बसे ‘डाण्डी’ नामक स्थान तक की पैदल यात्रा 24 दिनों में पूरी की। नमक आन्दोलन में हजारों लोगों को बन्दी बनाया गया।

तत्पश्चात् अंग्रेज शासकों ने ‘गोलमेज सम्मेलन’ बुलाया, जिसमें गाँधीजी को बुलाया गया। इस कॉन्फ्रेन्स के साथ-साथ कवि ने वर्ष 1937 के ‘प्रान्तीय स्वराज्य’ की स्थापना सम्बन्धी कार्यकलापों का सुन्दर वर्णन किया है।

सप्तम सर्ग : वर्ष 1942 की जनक्रान्ति’ (2013)

‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य के सप्तम सर्ग में निरूपित वर्ष 1942 की जनक्रान्ति का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए। (2017)
उत्तर:
द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। अंग्रेज सरकार भारतीयों को सहयोग तो चाहती थी, परन्तु उन्हें पूर्ण अधिकार देना नहीं चाहती थी।

क्रिप्स मिशन की असफलता के पश्चात् वर्ष 1942 में गाँधीजी ने ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ छेड़ दिया। सम्पूर्ण देश में विद्रोह की ज्वाला धधक उठी-

“थे महाराष्ट्र-गुजरात उठे, पंजाब-उड़ीसा साथ उठे-
बंगाल इधर, मद्रास उधर, मरुस्थल में थी ज्वाला घर-घर।”

कवि ने इस आन्दोलन का बड़ा ही ओजस्वी भाषा में वर्णन किया है। ‘बम्बई अधिवेशन’ के बाद गाँधीजी सहित सभी भारतीय नेता जेल में डाल दिए गए। इस पर सम्पूर्ण भारत में विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। कवि ने पूज्य बापू एवं कस्तूरबा के मध्य हुए वार्तालाप का बड़ा सुन्दर चित्रण किया है।

अष्टम सर्ग : भारतीय स्वतन्त्रता का अरुणोदय

देशवासियों के अथक प्रयासों और बलिदानों के फलस्वरूप भारत स्वतन्त्र हो । गया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के साथ ही देश में साम्प्रदायिक झगड़े आरम्भ हो गए। हिंसा की अग्नि चारों ओर भड़क उठी। इन सब को देखकर बापू अत्यन्त व्यथित हो गए।
वे कह उठे-

प्रभो! इस देश को सत्यपथ दिखाओ,
लगी जो आग भारत में, बुझाओ।
मुझे दो शक्ति इसको शान्त कर दें ,
लपट में रोष की निज शीश धर दें।”

प्रश्न 2.
‘आलोक-वृत’ खण्डकाव्य की प्रमुख विशेषताओं को संक्षेप में लिखिए। (2018)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2018, 17)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य की विशेषताओं का निरूपण कीजिए। अथना कथानक की दृष्टि से ‘आलोक-वृत्त’ की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2016)
अथवा
खण्डकाव्य के लक्षणों के आधार पर ‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य की कथावस्तु की समीक्षा कीजिए। (2018, 11, 10)
अथवा
खण्डकाव्य की दृष्टि से ‘आलोक-वृत्त’ का मूल्यांकन कीजिए। (2011)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य की विशेषताएँ लिखिए। (2014)
उत्तर:
कवि गुलाब खण्डेलवाल द्वारा रचित ‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य में महात्मा गाँधी के जीवन को चित्रित किया गया है।
इसका कथावस्तु सम्बन्धी विवेचन इस प्रकार है।

1. कथानक की व्यापकता ‘आलोक वृत्त’ खण्डकाव्य की कथानक महात्मा गाँधी के जीवन-वृत्त पर आधारित है। इसमें महात्मा गाँधी के सदाचार एवं मानवता के गुणों से प्रकाशित व्यक्तित्व को चित्रित किया गया है। उन्होने भारतीय संस्कृति की चेतना को अपने सदगुणों एवं सदविचारों से प्रकाशित किया है। उन्होंने सत्य, प्रेम, अहिंसा आदि मानवीय भावनाओं का प्रकाश फैलाया है। अत: इस जीवन-वृत्त को आलोक-वृत्त कहा जा सकता है। यह कथानक महात्मा गाँधी के जीवन-वृत्त पर आधारित है, पर साथ-ही-साथ इसमें पं. मोतीलाल नेहरू, पं. मदनमोहन मालवीय, महात्मा गांधी की माता, उनकी पत्नी, सरदार वल्लभभाई पटेल, पं. जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद आदि के जीवन को झाकियां भी सम्मिलित हैं।

2. कथा का संगठन ‘आलोक वृत्त’ खण्डकाव्य का आरम्भ भारत के गौरवमय अतीत से होता है। कथा का प्रारम्भ 1857 ई. के पश्चात् की दयनीय स्थिति के वर्णन से प्रारम्भ हुआ है तथा गाँधीजी की जन्म की घटना को भी इसमें दिखाया गया है। इसके साथ ही इसमें गाँधीजी के समय तत्कालीन भारत की दुर्दशा का भी वर्णन किया गया है। शिक्षा ग्रहण करने गांधीजी का इंग्लैण्ड जाना, वहाँ बैरिस्टर बनना, दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह करना तथा तत्पश्चात् कथा का उतार दर्शाया गया है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् सम्पूर्ण देश में फैली साम्प्रदायिक हिंसा के कारण गाँधीजी का दुःखी होना और ईश्वर से प्रार्थना करने के साथ ही इस खण्डकाव्य की समाप्ति होती जाती है।

3. संवाद योजना कथावस्तु के विस्तार के कारण इस खण्डकाव्य में संवाद योजना को प्रमुखता प्रदान नहीं की गई है। यह खण्डकाव्य प्रमुख रूप से वर्णनात्मक ही है, पर फिर भी विभिन्न स्थानों पर गाँधीजी के संक्षिप्त संवाद प्रस्तुत किए गए हैं। कुछ अन्य पात्रों द्वारा भी संवादों का प्रयोग किया गया है, किन्तु इसे नगण्य ही कहा जाएगा। पात्र एवं चरित्र-चित्रण प्रस्तुत खण्डकाव्य में मुख्य चरित्र महात्मा गांधी का व्यक्तित्व है। उनका चरित्र एक धीरोदात्त नायक के रूप में विकसित हुआ है। यद्यपि उनमें कुछ दुर्वलताएँ भी हैं, परन्तु अपनी ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, सरलता और लगन के बल पर वे अपनी दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। वे अपने प्रेम से शत्रुओं के हृदय को भी जीत लेते हैं। उनका अहिंसा का सिद्धान्त मानव हृदय की एकता और सभी के प्रति समानता के भाव पर आधारित है। प्रस्तुत खण्डकाव्य में गाँधीजी को चरित्र नायक बनाकर उनके प्रेरणाप्रद विचारों को वाणी प्रदान की गई है। कुछ अन्य महापुरुषों की झलकियों को भी पात्र रूप में समायोजित किया गया है, लेकिन वे केवल महात्मा गांधी के चरित्र पर प्रकाश डालने हेतु कथा में संगठित किए गए हैं।

4. पात्र एवं चरित्र-चित्रण प्रस्तुत खण्डकाव्य में मुख्य चरित्र महात्मा गाँधी का व्यक्तित्व हैं। उनका चरित्र एक धीरोदात्त नायक के रूप में विकसित हुआ है। यद्यपि उनमें कुछ दुर्बलताएं भी हैं, परन्तु अपनी ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, सरलता और लगन के बल पर वे अपनी दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। वे अपने प्रेम से शत्रुओं के हृदय को भी जीत लेते हैं। उनका अहिंसा का सिद्धान्त मानव हृदय की एकता और सभी के प्रति समानता के भाव पर आधारित है। प्रस्तुत खण्डकाव्य में गाँधीजी को चरित्र नायक बनाकर उनके प्रेरणाप्रद विचारों को वाणी प्रदान की गई हैं। कुछ अन्य महापुरुषों की झलकियों को भी पात्र रूप में समायोजित किया गया है, लेकिन वे केवल महात्मा गाँधी के चरित्र पर प्रकाश डालने हेतु कथा में संगठित किए गए हैं।

5. उददेश्य इस कथा के संगठन का उद्देश्य राष्ट्रीयता, सत्य, अहिंसा, मानवीयता आदि सद्गुणों के प्रति भावनात्मक संवेग उत्पन्न करके समाज में उनका महत्त्व स्थापित करना है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आलोक वृत्त में गाँधीजी जैसे महानायक के गुणों को आधार बनाकर काव्य की रचना की गई है। कथा की पृष्ठभूमि विस्तृत है। गौण पात्रों का चित्रण नायक के चरित्र की विशेषताओं को प्रकाशित करने हेतु किया गया है।

प्रश्न 3.
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य में सत्य और अहिंसा का सुन्दर सन्देश दिया गया है। स्पष्ट कीजिए। (2017)
अथवा
“आलोक-वृत्त’ पीड़ित मानवता को सत्य और अहिंसा का सन्देश देता है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए। (2016)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य के उद्देश्य (सन्देश) को स्पष्ट कीजिए। (2014, 13, 11, 10)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य के नामकरण की सार्थकता को स्पष्ट करते हुए उसके उद्देश्य पर प्रकाश डालिए। (2013)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ में निहित मानव कल्याण के सन्देश की विवेचना कीजिए।
अथवा
“आलोक-वृत्त खण्डकाव्य पीड़ित मानवता को सत्य एवं अहिंसा का शाश्वत सन्देश देता है।” इस कथन की विवेचना कीजिए। (2014, 13, 11)
उत्तर:

‘आलोक-वृत्त’ : शीर्षक की सार्थकता (2013)

कविवर गुलाब खण्डेलवाल ने ‘आलोक वृत्त’ खण्डकाव्य में महात्मा गाँधी के व्यक्तित्व को चित्रित किया है। महात्मा गाँधी के चरित्र को हम प्रकाशस्वरूप कह सकते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने सद्गुणों एवं सद्विचारों से भारतीय संस्कृति की चेतना को प्रकाशित किया है। उन्होंने विश्व में सत्य, प्रेम, अहिंसा आदि भावनाओं का प्रकाश फैलाया। इस दृष्टिकोण से यह शीर्षक उपयुक्त है। यह गाँधी जी के जीवन, उनके चरित्र, गुणों, सिद्धान्तों एवं दर्शन को पूर्णरूप से परिभाषित करता हुआ एक साहित्यिक एवं दार्शनिक शीर्षक है।

आलोक-वृत्त : उद्देश्य (सन्देश) श्री खण्डेलवाल की रचना ‘आलोक-वृत्त’ में उनके उद्देश्य इस प्रकार परिलक्षित होते हैं।

  1. देशप्रेम की भावना को जागृत करना इस खण्डकाव्य का सर्वप्रथम उद्देश्य देशवासियों में स्वदेश प्रेम की भावना जागृत करना है। यह खण्डकाव्य भारतीय जनों के हृदय में भारत के गौरवमय अतीत का वर्णन करके देशप्रेम की भावना जगाना चाहता है।
  2. सत्य और अहिंसा का महत्व इस खण्डकाव्य के माध्यम से कवि ने सत्य और अहिंसा के महत्त्व को दर्शाया है। कवि का मानना है कि सत्य और अहिंसा ऐसे अस्त्र हैं, जिनके बल पर हम विरोधियों को भी परास्त कर सकते हैं। कवि ने गाँधीजी के उदाहरण द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि सत्य और अहिंसा के द्वारा हम प्रत्येक संकल्प को पूरा कर सकते हैं।
  3. त्याग और बलिदान की भावना का सन्देश महात्मा गाँधी ने देश को स्वतन्त्र कराने के लिए महान् त्याग एवं अपना सर्वस्व बलिदान किया। वे अनेक बार जेल गए और उन्होंने अनेक कष्टों को सहन किया। इस प्रकार कवि गाँधीजी के उदाहरण को प्रस्तुत करके देश के युवकों को देश के लिए त्याग और बलिदान करने की प्रेरणा देता है।
  4. साधनों की पवित्रता में विश्वास गाँधीजी का विचार था कि मनुष्य को सदैव पवित्र आचरण अपनाना चाहिए और साधनों को भी पवित्र होना चाहिए अर्थात् वह जो भी साधन अपनाए, वे पवित्र होने चाहिए। उन्होंने देश को स्वतन्त्र कराने के लिए छल-कपट और हिंसा का आश्रय कभी नहीं लिया। उन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए प्रेम, सत्य, अहिंसा जैसे साधनों का प्रयोग किया, जिसमें वे सफल भी रहे।
  5. राष्ट्रीय एकता एवं सहयोग की भावना अंग्रेज शासकों ने हमारे देश में फूट के बीज बोकर परस्पर घृणा एवं हिंसा के भाव भर दिए थे। आज का भारत प्राचीन भारत के समान ही विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों का संगम हैं। हमारे देश को स्वतन्त्रता तभी सुरक्षित रह सकती है, जब हम धर्म, सम्प्रदाय एवं जातिगत भावनाओं से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता को बनाए रखें।

इसी को ध्यान में रखकर यह सन्देश दिया गया है कि हमें साम्प्रदायिक एवं प्रान्तीय भेद-भाव को भूलकर राष्ट्र की एकता बनाए रखनी चाहिए। इस प्रकार आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य गाँधीजी के जीवन चरित्र को माध्यम बनाकर लोगों को राष्ट्र प्रेम, सत्य, अहिंसा, परोपकार, न्याय, सदाचार आदि की प्रेरणा देने के उद्देश्य में सफल रहा है।

प्रश्न 4.
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए। (2015)
उत्तर:
कवि गुलाब खण्डेलवाल द्वारा रचित ‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य की भाषा-शैली इस प्रकार है।

  1. भाषा-शैली ‘आलोक वृत्त की भाषा अत्यन्त सुन्दर और मन को छूने वाली है। भाषा विचारों और भावों के अनुरूप हैं। प्रारम्भ से लेकर अन्त तक ओज गुण का निर्वाह हुआ है, परन्तु जिन प्रसंगों में माधुर्य की अपेक्षा है, वहाँ भाषा अत्यन्त मधुर रूप ग्रहण कर लेती है। प्रसाद गुण तो इसकी प्रत्येक पंक्ति में देखा जा सकता है। ‘आलोक-वृत्त’ की शैली प्रमुख रूप से वर्णनात्मक है। साथ ही संवादात्मक भी है, किन्तु शैली का स्वरूप वर्णनात्मक ही हैं। कथावस्तु के विस्तृत स्वरूप को देखते हुए कवि ने इस शैली को अपनाया है, किन्तु इस वर्णनात्मक शैली में भावात्मकता को स्थान देकर उन्होंने भावों को कुशल अभिव्यक्ति दी है।
  2. अलंकार-योजना ‘आलोक-वृत्त’ में अलंकारों का प्रयोग दर्शनीय है। कहीं पर भी वे सप्रयास लाए हुए प्रतीत नहीं होते। अलंकारों ने कहीं पर भी भाषा को बोझिल नहीं किया है।
  3. छन्द-योजना ‘आलोक-वृत्त’ में छन्दों की विविधता है। 16 मात्राओं के छोटे छन्द से लेकर 32 मात्राओं के लम्बे छन्दों का प्रयोग इसमें सफलतापूर्वक किया गया है। प्रथम सर्ग में मुक्त छन्द का प्रयोग हुआ हैं। सर्गों के मध्य में गीत-योजना भी की गई है, जिससे राष्ट्रीय भावनाओं की वृद्धि में सहयोग मिला है। इस प्रकार यह द्रष्टव्य है कि ‘आलोक-वृत्त’ में गाँधी जैसे महान् लोकनायक के गुणों को आधार बनाकर काव्य-रचना की गई है। कथा की पृष्ठभूमि विस्तृत है, किन्तु कवि ने गाँधीजी की चारित्रिक विशेषताओं को स्पष्ट करने हेतु आवश्यक प्रसंगों का चयन कर उसे इस प्रकार संगठित एवं विकसित किया है कि वह खण्डकाव्य के उपयुक्त बन गई है। गौण पात्रों का चित्रण नायक के चरित्र की विशेषताओं को प्रकाशित करने हेतु किया गया है। आदर्शपूर्ण भावनाओं की स्थापना हेतु रचित इस काव्य-ग्रन्थ में यद्यपि रसों एवं छन्दों की विविधता है, तथापि इससे खण्डकाव्य के उद्देश्य एवं उसके विधा सम्बन्धी तत्त्वों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। अत: इस काव्य-ग्रन्थ को एक सफल खण्डकाव्य कहना उपयुक्त होगा।

चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 5.
‘आलोक-तृत’ खण्डकाव्य के आधार पर महात्मा गाँधी की चरित्रगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2018)
अथवा
‘आलोकवृत’ खण्डकाव्य के आधार पर गाँधी जी के जीवन की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख कीजिए। (2018)
अथवा
आलोक-तृत खण्डकाव्य के प्रमुख पात्र का चरित्रांकन कीजिए। (2018)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य के ऐसे पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए, जिसने आपको अधिक प्रभावित किया हो। (2017)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य के नायक का चरित्र-चित्रण (चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए) कीजिए। (2018, 16)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य के आधार पर नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2015)
अथवा
आलोक-वृत्त के नायक का चरित्रांकन कीजिए। धना ‘आलोक-तृत्त’ के आधार पर गाँधीजी की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2018, 14, 13, 12, 11, 10)
अथवा
“आलोक-वृत्त खण्डकाव्य में गाँधीजी का व्यक्तित्व सर्वोपरि है।” इस कथन की पुष्टि कीजिए। (2012)
अथवा
“आलोक-वृत्त में गाँधीजी का चरित्र धीरोदात्त नायक के रूप में प्रस्फुटित हुआ है।” इस कथन के आधार पर गाँधीजी की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2013, 10)
अथवा
‘आलोक वृत्त’ खण्डकाव्य में वर्णित गाँधीजी के मानसिक संघर्ष को अपने शब्दों में लिखिए। (2013)
अथवा
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य के नायक की विशेषताएँ बताइए। (2017)
उत्तर:
‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य के प्रमुख पात्र का चरित्रांकन कीजिए। उत्तर ‘आलोक वृत्त’ खण्डकाव्य के नायक महात्मा गाँधी हैं। कवि ने इन्हें एक लोकनायक के रूप में प्रस्तुत किया है। इनका जीवन एवं इनके कार्य हमारे लिए सदैव प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। गाँधीजी की चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं।

1. देशप्रेमी गाँधीजी के चरित्र की सर्वप्रथम विशेषता है—उनका देशप्रेमी होना। गाँधीजी अपने देश से इतना प्रेम करते थे कि उन्होंने अपना तन, मन, धन सब कुछ देश के लिए समर्पित कर दिया। वे अनेक बार कारागार में गए। अंग्रेजों के अपमान और अत्याचार सहे।

2. सत्य और अहिंसा के उपासक गाँधीजी देश की स्वतन्त्रता सत्य और अहिंसा के बल पर प्राप्त करना चाहते थे। वे अहिंसा को महान् शक्तिशाली अस्त्र मानते रहे। उन्होंने अपने जीवन में हिंसा न करने का दृढ़ निश्चय किया। कोई विरला व्यक्ति ही इस प्रकार अहिंसा का पूर्णरूप से पालन कर सकता है।

3. ईश्वर के प्रति आस्थावान गाँधीजी पुरुषार्थी तो हैं, पर ईश्वर के प्रति दृढ़ आस्थावान भी हैं। उन्होंने अपने जीवनकाल में जो कुछ भी किया, ईश्वर को साक्षी मानकर ही किया। उनका मानना था कि साधन पवित्र होने चाहिए और परिणाम की इच्छा नहीं करनी चाहिए। परिणाम ईश्वर पर ही छोड़ देने चाहिए।

4. मानवीय मूल्यों के प्रति निष्ठावान गाँधीजी ने अपने जीवन में मानवीय मूल्यों एवं सदाचरण को सदैव बनाए रखा। वे मानव-मानव में अन्तर नहीं मानते थे। वे समानता के सिद्धान्त में विश्वास करते हैं। उनके अनुसार जाति, धर्म, वर्ण एवं रूप के आधार पर भेदभाव करना अनुचित है। वे कहते थे कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं।’

5 स्वतन्त्रता प्रेमी गाँधीजी के जीवन का मुख्य उद्देश्य देश को स्वतन्त्र करवाना है। वे भारत माता की स्वतन्त्रता के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। वे देशवासियों को गुलामी की जंजीरों को काटने के लिए प्रेरित करते हैं।

6. हिन्दू-मुस्लिम एकता के समर्थक उन्होंने सदैव हिन्दू और मुसलमानों को एक साथ रहने की प्रेरणा दी। वे ‘विश्वबन्धुत्व’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना से ओत-प्रोत थे। वे सभी को सुखी देखना चाहते थे। वे जीवन भर जनता को एकता के सूत्र में बाँधने के लिए प्रयास करते रहे और हिन्दू-मुसलमानों को भाई-भाई की तरह रहने की प्रेरणा देते रहे।

7. स्वदेशी वस्तु एवं खादी को महत्त्व गाँधीजी ने स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने की प्रेरणा दी और उन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया। जन-जन में खादी का प्रचार किया और उसे अपनाने की प्रेरणा दी।

8. आत्मविश्वासी गाँधीजी आत्मविश्वास से परिपूर्ण थे। अपने जीवन में उन्होंने जो भी किया, पूर्ण आत्मविश्वास के साथ किया और उसमें वे सफल भी रहे।

9. सत्याग्रही गाँधीजी ने सत्य की शक्ति पर पूर्ण भरोसा किया। अपने सत्याग्रह के बल पर ही उन्होंने देश को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त करवाया और भारत को आजादी दिलवाई।

अतः कहा जा सकता है कि गाँधीजी एक श्रेष्ठ मानव हैं। उनके निर्मल चरित्र पर उँगली उठाने का साहस किसी में भी नहीं हैं।

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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi नाटक Chapter 3 गरुड़ध्वज

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Board UP Board
Textbook SCERT, UP
Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 3
Chapter Name गरुड़ध्वज
Number of Questions Solved 13
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi नाटक Chapter 3 गरुड़ध्वज

कथावस्तु पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 1.
‘गरुड़ध्वज’ नाटक का कथानक संक्षेप में लिखिए। (2016)
अथवा
‘गरुड़वज़’ नाटक की कथावस्तु अपने शब्दों में लिखिए। (2016)
अथवा
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के कथानक पर प्रकाश डालिए। (2016)
अथवा
‘गरुड़ध्वज़”नाटक के प्रथम अंक की कथा का सार अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
किसी एक अंक की कथा पर संक्षिप्त चर्चा कीजिए। (2017, 10)
उत्तर:
प, लमीनारायण मिश्र द्वारा रचित नाटक ‘गरुड़ध्वज’ के प्रथम अंक की कहानी का प्रारम्भ विदिशा में कुछ प्रहरियों के वार्तालाप से होता है। पुष्कर नामक सैनिक, सेनापति विक्रममित्र को महाराज शब्द से सम्बोधित करता है, तब नागसेन उसकी भूल की ओर संकेत करता है। वस्तुतः विक्रममित्र स्वयं को सेनापति के रूप में ही देखते हैं और शासन का प्रबन्ध करते हैं। विदिशा शृंगवंशीय विक्रममित्र की राजधानी है, जिसके वह योग्य शासक हैं। उन्होंने अपने साम्राज्य में सर्वत्र सुख-शान्ति स्थापित की हुई है और वृहद्रथ को मारकर तथा गरुड़ध्वज की शपथ लेकर राज-काज सँभाला है।

काशीराज की पुत्री वासन्ती मलयराज की पुत्री मलयवती को बताती है कि उसके पिता उसे किसी वृद्ध यवन को सौंपना चाहते थे, तब सेनापति विक्रममित्र ने ही उसका उद्धार किया था। वासन्ती एकमोर नामक युवक से प्रेम करती हैं और वह आत्महत्या करना चाहती है, लेकिन विक्रममित्र की सतर्कता के कारण वह इसमें सफल नहीं हो पाती।

श्रेष्ठ कवि एवं योद्धा कालिदास विक्रममित्र को आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने की प्रतिज्ञा के कारण भीष्म पितामह’ कहकर सम्बोधित करते हैं और इस प्रसंग में एक कथा सुनाते हैं। 87 वर्ष की अवस्था हो जाने के कारण विक्रममित्र वृद्ध हो गए हैं। वे वासन्ती और एकमोर को महल में भेज देते हैं। मलयवती के कहने पर पुष्कर को इस शर्त पर क्षमादान मिल जाता है कि उसे राज्य की ओर से युद्ध लड़ना होगा। उसी समय साकेत से एक यवन-श्रेष्ठि की कन्या कौमुदी का सेनानी देवभूति द्वारा अपहरण किए जाने तथा उसे लेकर काशी चले जाने की सूचना मिलती है। सेनापति विक्रममित्र कालिदास को काशी पर आक्रमण करने के लिए भेजते हैं और यहीं पर प्रथम अंक समाप्त हो जाता है।

प्रश्न 2.
‘गरुड़ध्वज’ के द्वितीय अंक का कथा सार लिखिए। (2017, 14, 12, 11, 10)
अथवा
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के दूसरे सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए। (2018)
उत्तर:
नाटक का द्वितीय अंक राष्ट्रहित में धर्म-स्थापना के संघर्ष का है। इसमें विक्रममित्र की दृढ़ता एवं वीरता का परिचय मिलता है, साथ ही उनके कुशल नीतिज्ञ एवं एक अच्छे मनुष्य होने का भी बोध होता है।

इसमें मान्धाता सेनापति विक्रममित्र को अतिलिक के मन्त्री हलोघर के आगमन की सूचना देता है। कुरु प्रदेश के पश्चिम में तक्षशिला राजधानी वाला यवन प्रदेश का शासक शृंगवंश से भयभीत रहता है। उसका मन्त्री हलधर भारतीय संस्कृति में आस्था रखता था

वह राज्य की सीमा को वार्ता द्वारा सुरक्षित करना चाहता है। विक्रममित्र देवभूति को पकड़ने के लिए कालिदास को काशी भेजने के बाद बताते हैं कि कालिदास का वास्तविक नाम मेघरुद्र था, जो 10 वर्ष की आयु में ही बौद्ध भिक्षुक बन गया था। उन्होंने उसे विदिशा के महल में रखा और उसका नया नाम कालिदास रख दिया। काशी का घेरा डालकर कालिदास काशीराज के दरबार के बौद्ध आचार्यों को अपनी विद्वत्ता से प्रभावित कर लेते हैं तथा देवभूति एवं काशीराज को बन्दी बनाकर विदिशा ले आते हैं। विक्रममित्र एवं हलधर के बीच सन्धि वार्ता होती है, जिसमे हलधर विक्रममित्र की सारी शर्ते स्वीकार कर लेता है तथा अतिलिक द्वारा भेजी गई मॅट विक्रममित्र को देता हैं। भेट में स्वर्ण निर्मित एवं रत्नजड़ित गरुड़ध्वज भी हैं। वह विदिशा में एक शान्ति स्तम्भ का निर्माण करवाता है। इसी समय कालिदास के आगमन पर वासन्ती उसका स्वागत करती है तथा वीणों पर पड़ी पुष्पमाला कालिदास के गले में डाल देती है। इसी समय द्वितीय अंक का समापन हो जाता है।

प्रश्न 3.
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के तृतीय अंक की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए। (2016)
अथवा
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के तृतीय अंक की कथा संक्षेप में लिखिए। (2014, 11)
अथवा
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के तृतीय अंक की कथा अपने शब्दों में प्रस्तुत कीजिए। (2018)
उत्तर:
नाटक के तृतीय अंक की कथा अवन्ति में घटित होती है। गर्दभिल्ल के वंशज महेन्द्रादित्य के पुत्र कुमार विषमशील के नेतृत्व में अनेक चोरों ने शकों के हाथों से मालवा को मुक्त कराया। अवन्ति में महाकाल के मन्दिर पर गरुध्वज फहरा रहा है तथा मन्दिर का पुजारी वासन्ती एवं मलयवती को बताता है कि युद्ध की सभी योजनाएं इसी मन्दिर में बनी हैं। राजमाता से विषमशील के लिए चिन्तित न होने को कहा जाता है, क्योंकि सेना का संचालन स्वयं कालिदास एवं मान्धाता कर रहे हैं। काशीराज अपनी पुत्री वासन्ती का विवाह कालिदास से करना चाहते हैं, जिसे विक्रममित्र स्वीकार कर लेते हैं। विषमशील का राज्याभिषेक किया जाता है और कालिदास को मन्त्रीपद सौंपा जाता है। राजमाता जैनाचार्यों को क्षमा-दान देती हैं और जैनाचार्य अवन्ति का पुनर्निर्माण करते हैं।

कालिदास की मन्त्रणा से विषमशील का नाम आचार्य विक्रममित्र के नाम के पूर्व अंश ‘विक्रम’ तथा पिता महेन्द्रादित्य के नाम के पश्च अंश ‘आदित्य’ को मिलाकर विमादित्य’ रखा जाता है। विक्रममित्र काशी एवं विदिशा राज्यों का भार भी विक्रमादित्य को सौंप कर स्वयं संन्यासी बन जाते हैं। कालिदास अपने स्वामी ‘विक्रमादित्य’ के नाम पर उसी दिन से ‘विक्रम संवत्’ का प्रवर्तन करते हैं। नाटक की कथा यहीं पर समाप्त हो जाती हैं।

प्रश्न 4.
‘गरुड़ध्वज’ नाटक राष्ट्र की एकता और संस्कृति का संदेश अपनी घटनाओं में अभिव्यक्त करता है। इस कथन को सोदाहरण सिद्ध कीजिए। (2018)
अथवा
‘राष्ट्रीय एकता और समरसता की दृष्टि से गरुड़ध्वाज नाटक सफल है। स्पष्ट कीजिए। (2018)
अथवा
‘गरुड़ध्वज़ नाटक राष्ट्रीय एकता एवं संस्कृति का संदेश देता है।’ इस कथना के आधार पर इस नाटक की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2018)
अथवा
गरुड़ध्वज़’ नाटक के कथानक में न्याय और राष्ट्रीय एकता पर विचार व्यक्त कीजिए। (2015)
अथवा
‘गरुड़ध्वज़’ नाटक के शीर्षक की सार्थकता को स्पष्ट कीजिए। (2013)
अथवा
‘गरुड़ध्वज़’ नाटक में ‘राष्ट्र की एकता और संस्कृति की गरिमा’ का सन्देश है। नाटक की इस विशेषता पर प्रकाश डालिए। (2014)
उत्तर:
पण्डित लक्ष्मीनारायण मिश्र द्वारा रचित नाटक ‘गरुड़ध्वज’ में ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के भारतीय इतिहास के युग के एक महत्त्वपूर्ण स्वरूप को चित्रित किया गया है, जो भारत की राष्ट्रीय एकता और प्राचीन संस्कृति को प्रस्तुत करता है। इसमें तत्कालीन न्यायिक-व्यवस्था के स्वरूप को भी दर्शाया गया है।

राष्ट्रीय एकता और भारतीय संस्कृति प्रस्तुत नाटक में मगध, साकेत, अवन्ति एवं मलय देश के एकीकरण की घटना वस्तुत: सुदृढ़ भारत राष्ट्र के निर्माण, उसकी एकता एवं अखण्डता का प्रतीक है। नाटक में प्रस्तुत किए गए विक्रममित्र एवं विषमशील के चरित्र सशक्त भारत के निर्माता एवं राष्ट्रीय एकता व अखण्डता के सन्देशवाहक हैं। नाटककार ने इसमें धार्मिक संकीर्णता एवं स्वार्थपूर्ण भावनाओं के कारण अध:पतन की ओर जा रही देश की स्थिति की ओर ध्यान आकृष्ट किया है तथा इसके माध्यम से वह राष्ट्र की एकता को सुदृढ़ करने का सन्देश भी देता है। नाटक के नायक विक्रममित्र वैदिक संस्कृति एवं भागवत् धर्म के उन्नायक हैं। विष्णु भगवान का उपासक होने के कारण उनका राजचिह्न गरुड़ध्वज है, जो उनके लिए सर्वाधिक पवित्र एवं पूज्य है। वह सर्वत्र सनातन भागवत् धर्म की ध्वजा फहरते देखना चाहते हैं। इस दृष्टि से नाटक का शीर्षक ‘गरुड़ध्वज’ भी पूर्णतः सार्थक सिद्ध होता है।

न्यायिक-व्यवस्था प्राचीन भारत की न्यायिक व्यवस्था अपनी निष्पक्षता के लिए प्रसिद्ध ही है। अपने परिजनों एवं मित्रों को भी किसी अपराध के लिए समान रूप से कठोर दण्ड दिया जाता था। नाटक के प्रथम अंक की घटना इसका उत्तम उदाहरण है, जिसमें शुगवंश के कुमार सेनानी देवभूति द्वारा श्रेष्ठ अमोघ की कन्या कौमुदी का अपहरण विवाह-मण्डप से कर लिए जाने के समाचार से विक्रममित्र अत्यन्त दुःखी हो जाते हैं तथा अपने सैनिकों को तुरन्त काशी का घेरा डालने एवं देवभूति को पकड़ने का आदेश देते हैं। कालिदास के नेतृत्व में भेजी गई सेना उसे बन्दी बनाकर विक्रममित्र के सामने प्रस्तुत कर देती हैं। आंग साम्राज्य में ही शासक हे देवभूति के प्रति किया गया व्यवहार तत्कालीन निष्पक्ष एवं सुदृढ़ न्यायिक-व्यवस्था को स्पष्ट प्रमाण है।

प्रश्न 5.
‘गरुड़ध्वज़’ नाटक एक ऐतिहासिक नाटक है। समीक्षा कीजिए। (2016)
अथवा
‘गरुड़ध्वज’ नाटक एक ऐतिहासिक नाटक है। कथन की समीक्षा कीजिए। (2016)
अथवा
‘गरुड़ध्वज़’ नाटक के कथानक में ऐतिहासिकता एवं काल्पनिकता का अद्भुत सामंजस्य है। स्पष्ट कीजिए। (2016)
अथवा
‘नाट्यकला की दृष्टि से ‘गरुड़ध्वज’ की समीक्षा कीजिए। अथना ‘गरुड़ध्वज’ नाटक की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। (2018, 17, 14, 12)
अथवा
‘गरुड़ध्वज’ नाटक की कथावस्तु को संक्षेप में लिखिए। (2014, 13, 12, 11, 10)
उत्तर:
नाट्यकला की दृष्टि से पण्डित लक्ष्मीनारायण मिश्र की रचना ‘गरुड़ध्वज’ एक उत्कृष्ट कोटि की रचना है, जिसका तात्विक विवेचन निम्नलिखित है।

‘गरुड़ध्वज’ नाटक की कथावस्तु ऐतिहासिक है, जिसमें इंसा से एक शताब्दी पूर्व के प्राचीन भारत का सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक परिवेश चित्रित किया गया है। प्रथम अंक में विक्रममित्र के चरित्र, काशीराज का अनैतिक चरित्र तथा वासन्ती की असन्तुलित मानसिक दशा के साथ ही समाज में बौद्ध भिशुओं द्वारा किए जा रहे अनाचार का चित्रण किया गया हैं। इसमें विदेशियों के आक्रमण तथा बौद्ध धर्मावलम्बियों द्वारा राष्ट्रहित को तिलांजलि देकर उनकी सहायता किए जाने को वर्णित एवं चित्रित किया गया है।

दूसरे अंक में राष्ट्रहित में किए जाने वाले धर्म की स्थापना से सम्बन्धित संघर्ष को दर्शाया गया है। तीसरे अंक के अन्तर्गत युद्ध में विदेशियों की पराजय, कालकाचार्य एवं काशीराज का पश्चाताप, विक्रममित्र की उदारता तथा आक्रमणकारी हूणों की क्रूर जातिगत प्रकृति को चित्रित किया गया है। इस नाटक का कथानक राज्य के संचालन, धर्म, अहिंसा एवं हिंसा के वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डालता है। नाटक में वर्णित घटनाओं को तत्कालीन समय की समस्याओं से जोड़ने के लिए नाटककार ने नाटक में काल्पनिकता का सुन्दर प्रयोग किया है। उसने धार्मिक संकीर्णता व कट्टरता को त्यागकर उदार व्यक्तित्व का निर्माण करके, देश के प्रति अपने कर्तव्यों को समझने, राष्ट्रीय एकता को बनाने व महिलाओं का सम्मान करने इत्यादि उद्देश्यों को ऐतिहासिक पात्रों के संवादों में अपनी कल्पनाशक्ति का प्रयोग करके उनसे कहलवाया है, जिसने नाटक की रोचकता के स्तर में वृद्धि कर दी है और नाटक को बोझिल होने से बचाया है।

देशकाल और वातावरण

प्रस्तुत नाटक में देशकाल एवं वातावरण के तत्त्व का निर्वाह समुचित ढंग से हुआ है। ईसा पूर्व की सांस्कृतिक, धार्मिक एवं राजनीतिक हलचलों का सुन्दर एवं उचित प्रस्तुतीकरण नाटक में हुआ है। नाटककार ने तत्कालीन सामाजिक वातावरण का चित्रण बड़े ही जीवन्त ढंग से किया है। लगता है जैसे तत्कालीन समाज आँखों के सामने जी उठा है। तत्कालीन समाज में राजमहल, युद्ध भूमि, पूजागृह, सभामण्डल आदि का वातावरण अत्यन्त कुशलता के साथ चित्रित हुआ है। नाम, स्थान एवं वेशभूषा के अन्तर्गत भी देशकाल एवं वातावरण का सुन्दर सामंजस्य देखने को मिलता है। उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर सारांश स्वरूप कहा जा सकता है कि नाटक में ऐतिहासिक तथ्यों का व घटनाओं का भली-भाँति उपयोग किया है, जिनके कारण इसे ऐतिहासिक नाटकों की श्रेणी में सहजता से रखा जा सकता है। साथ ही नाटककार द्वारा काल्पनिकता का प्रयोग करने से नाटक में रोचकता उत्पन्न हुई है।

प्रश्न 6.
‘गरुड़ध्वज’ नाटक की रचना नाटककार ने किन उद्देश्यों से प्रेरित होकर की है? (2014, 13, 12, 11, 10)
उत्तर:
ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के भारतीय इतिहास पर आधारित नाटक ‘गरुड़ध्वज’ में आदियुग या प्राचीन भारत के एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्वरूप को उजागर करने का प्रयास किया गया है। इसमें धार्मिक संकीर्णताओं एवं स्वार्थों के कारण विघटित होने वाले देश की एकता एवं नैतिक पतन की ओर नाटककार ने ध्यान आकृष्ट किया है। इसके अतिरिक्त, वह राष्ट्र को एकता के सूत्र में भी बाँधने का सन्देश भी देता है। इस नाटक के निम्नलिखित उद्देश्य है—

  1. नाटककार धार्मिक संकीर्णता एवं कट्टरता से बाहर निकलकर जन-कल्याण की ओर उन्मुख होता है।
  2. नाटककार स्पष्ट सन्देश देना चाहता है कि देश की रक्षा करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।
  3. नाटक का मूल स्वर धार्मिक भावना की उदारता में निहित है।
  4. राष्ट्रीय एकता एवं जनवादी विचारधारा का समर्थन किया गया है।
  5. नारी के शील एवं सम्मान की रक्षा के लिए प्रेरणा दी गई है।
  6. नाटक में स्वस्थ गणराज्य की स्थापना पर बल दिया गया है।
  7. राष्ट्रहित हेतु एवं अत्याचारों का विरोध करने के उद्देश्य से शस्त्रों के प्रयोग को उचित ठहराया गया है।

प्रश्न 7.
‘गरुड़ध्वज’ की अभिनेयता या रंगमंचीयता पर प्रकाश डालिए। (2012, 11)
उत्तर:
‘गरुड़ध्वज’ नाटक में कुल तीन अंक हैं, जिन्हें सुगमतापूर्वक मंच पर अभिनीत किया जा सकता है। इसमें पात्रों एवं चरित्रों की वेशभूषा का प्रबन्ध भी सहज है, जिसके कारण किसी प्रकार की कठिनाई या समस्या का सामना नहीं करना पड़ता हैं। प्रस्तुत नाटक की रंगमंचीयता के सम्बन्ध में सारी परिस्थितियाँ अनुकूल हैं, लेकिन एक समस्या नाटक की भाषा की दुरूहता एवं इसके पात्रों के कठिन नामों को लेकर हैं, जो कहीं-कहीं सफल संवाद सम्प्रेषण में कठिनाई उत्पन्न करती हैं, लेकिन नाटक की ऐतिहासिकता को ध्यान में रखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रामाणिकता को बनाए रखने तथा, देशकाल एवं वातावरण के. सजीव चित्रण के लिए ऐसा करना आवश्यक था।

प्रश्न 8.
संवाद योजना (कथोपकथन) की दृष्टि से ‘गरुड़ध्वज़’ नाटक की विवेचना कीजिए। (2011, 10)
उत्तर:
किसी भी नाटक का सबसे सबल तत्त्व उसकी संवाद योजना होती है। संवादों के द्वारा ही पात्रों का चरित्र चित्रण किया जाता है। इस दृष्टि से नाटककार ने संवादों का उचित प्रयोग किया है। प्रस्तुत नाटक के संवाद सुन्दर, सरल, संक्षिप्त तथा पात्रों के चरित्र एवं व्यक्तित्व के अनुकूल हैं। प्रायः सभी संवाद सम्बन्धित पात्रों के मनोभावों को प्रकट करने में सफल रहे हैं। इसमें । तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप संवादों की रचना की गई है। संक्षिप्त संवाद अत्यधिक प्रभावशाली बन पड़े हैं।

जैसे–
वासन्ती— ………. नहीं ………. नहीं, बस दो शब्द पूछूगी कवि! लौट आओ ……….
कालिदास–(विस्मय से) क्या है राजकुमारी?
वासन्ती–यहाँ आइए! आज मैं कुमार कार्तिकेय का स्वागत करूगी। उनका वाहन मोर भी यहीं है।
संवादों में कहीं-कहीं हास्य, व्यंग्य, विनोद तथा संगीतात्मकता का पुट भी मिलता है।

प्रश्न 9.
‘गरुड़ध्वज’ नाटक की भाषा-शैली की दृष्टि से समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
लक्ष्मीनारायण मिश्र द्वारा रचित नाटक ‘गरुड़ध्वज’ की भाषा सुगम, सहज एवं सुपरिचित है। हालाँकि इसकी भाषा संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली है, लेकिन पाठक की। सुबोधता का लेखक ने पर्याप्त ध्यान रखा है। सुबोध एवं सहज शैली में लिखे गए इस नाटक में मुहावरों एवं लोकोक्तियों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया गया है। भाषा में । कहीं-कहीं क्लिष्टता हैं, लेकिन वह ऐतिहासिकता को देखते हुए उचित प्रतीत होता है। नाटक की भाषा की स्वाभाविकता पाठकों को अत्यधिक आकर्षित करती है; जैसे-“उसके भीतर जो देवी अंश था, उसी ने उसे कालिदास बना दिया। उसकी । शिक्षा और संस्कार में मैं प्रयोजन मात्र बना था। उसका पालन मैंने ठीक इसी तरह। किया, जैसे यह मेरे अंश का ही नहीं, मेरे इस शरीर का हो।’

पात्र एवं चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 10.
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के नायक की चारित्रिक विशेषताओं को संक्षेप में लिखिए। (2018)
अथवा
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के आधार पर विक्रममित्र का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2018)
अथवा
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के प्रमुख पात्र के चरित्र की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। (2016)
अथवा
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के मुख्य पात्र का चरित्रांकन/चरित्र-चित्रण कीजिए। (2018, 16)
अथवा
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के प्रमुख पुरुष पात्र (नायक) विक्रममित्र का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2014, 13, 12, 11, 10)
अथवा
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2017)
उत्तर:
ऐतिहासिक नाटक ‘गरुड़ध्वज’ के नायक तेजस्वी व्यक्तित्व वाले आचार्य विक्रममित्र हैं। नाटक में उनकी आयु 87 वर्ष दर्शायी गई है। उनके चरित्र एवं व्यक्तित्व की निम्नलिखित विशेषताएँ है-

  1. तेजस्वी एवं ओजस्वी व्यक्तित्व आचार्य विक्रममित्र के तेजस्वी एवं ओजस्वी व्यक्तित्व के कारण ही मन्त्री हलोधर विक्रममित्र से आतंकित दिखाई देता है।
  2. अनुशासनप्रियता स्वयं अनुशासित जीवन जीने वाले विक्रममित्र अन्य लोगों को भी अनुशासित रखने के पक्ष में है। इसी अनुशासन का डर पुष्कर में उनके द्वारा ‘महाराज’ शब्द का प्रयोग करने के समय दिखाई देता है।
  3. देशभक्ति महान् देशभक्त विक्रममित्र का सम्पूर्ण जीवन राष्ट्रीय गौरव को बनाए रखने के लिए समर्पित था। वे राष्ट्रहित के लिए शास्त्र एवं शस्त्र दोनों का प्रयोग करते हैं। देशभक्ति की भावना के कारण ही उन्होंने अनेक राज्यों को संगठित किया।
  4. भागवत् धर्म के उन्नायक विक्रममित्र भागवत् धर्म के अनुयायी थे तथा जीवनभर उसके प्रति समर्पित रहे। इसी कारण उन्हें पूजा-पाठ एवं यज्ञ-अनुष्ठान विशेष रूप से प्रिय थे।
  5. दृढ़प्रतिज्ञ विक्रममित्र एक दृढ़प्रतिज्ञ शासक थे। भीष्म पितामह के समान आजीवन ब्रह्मचारी रहने की अपनी प्रतिज्ञा को उन्होंने दृढ़ता के साथ पूरा किया।
  6. न्यायप्रियता विक्रममित्र एक न्यायप्रिय शासक हैं, जो न्याय के सामने सभी को समान समझते हैं, चाहे वह शुगवंश से जुड़ा हुआ देवभूति ही क्यों न हो? वे न्याय के सम्बन्ध में किसी भी तरह का पक्षपात नहीं होने देते।
  7. विनम्रता एवं उदारता विक्रममित्र एक अनुशासनप्रिय एवं दृढ़ प्रकृति के शासक होने के साथ-साथ विनम्र एवं उदार व्यक्ति भी हैं। वे अपनी विनम्रता एवं उदारता का अनेक जगह प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
  8. जनसेवक विक्रममित्र स्वयं को सत्ता का अधिकारी या सत्तासम्पन्न शासक न मानकर जनसेवक ही समझते हैं। यही कारण है कि वह ‘महाराज’ कहलाना पसन्द नहीं करते तथा स्वयं को सेनापति के सम्बोधन में ज्यादा सन्तुष्टि पाते हैं।

प्रश्न 11.
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के आधार पर वासन्ती की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। (2017)
अथवा
‘गरुड़ध्वज’ नाटक की नायिका का चरित्रांकन /चरित्र-चित्रण कीजिए।
अथवा
नाटक गरुड़ध्वज के आधार पर वासन्ती का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2018, 16, 15, 14, 13, 12)
अथवा
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के प्रमुख स्त्री पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2014, 13, 10)
उत्तर:
ऐतिहासिक नाटक ‘गरुड़ध्वज’ की प्रमुख नारी पात्र वासन्ती है। अतः इसे ही नाटक की नायिका माना जा सकता है। वासन्ती के पिता द्वारा वृद्ध यवन से उसका विवाह कराए जाने के विरोध में विक्रममित्र वासन्ती को विदिशा के महल ले आते हैं तथा उसे सम्मान के साथ सुरक्षा प्रदान करते हैं। बाद में, वासन्ती कालिदास की प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत होती है, जिसके चरित्र की उल्लेखनीय विशेषताएँ इस प्रकार हैं

  1. धार्मिक संकीर्णता की शिकार नाटक के कथानक के काल में भारत में एक विशेष प्रकार की धार्मिक संकीर्णता मौजूद थी, जिसकी शिकार वासन्ती भी होती हैं। उसके व्यक्तित्व में एक अवसाद के साथ-साथ ओज का गुण भी। मौजूद रहता है।
  2. विशाल एवं उदार हृदयी वासन्ती का हृदय अत्यन्त विशाल एवं उदार है, जिसके कारण वह मानव-मात्र के प्रति ही नहीं, अपितु जीव मात्र के प्रति भी अत्यन्त स्नेह एवं सहानुभूति रखती है। उसमें बड़े-छोटे, अपने पराए सभी के लिए समान रूप से प्रेमभाव भरा हुआ है।
  3. आत्मग्लानि से विक्षुब्ध वह आत्मग्लानि से विक्षुब्ध होकर अपने जीवन से छुटकारा पाना चाहती है। इसी क्रम में वह आत्महत्या का प्रयास भी करती है, | परन्तु विक्रममित्र के कारण उसका यह प्रयास असफल हो जाता है।
  4. स्वाभिमानी वासन्ती अनेक विषम परिस्थितियों के पश्चात् भी अपना स्वाभिमान नहीं खोती। वह किसी भी ऐसे राजकुमार के साथ विवाह करने को राजी नहीं है, जो विक्रममित्र के दबाव के कारण ऐसा करने के लिए विवश हो।
  5. सहदयी एवं विनोदप्रिय वासन्ती निराश एवं विक्षुब्ध होने के पश्चात् भी सहृदयी एवं विनोदप्रिय नजर आती है। वह कालिदास के काव्य-रस का पूरा आनन्द उठाती है।
  6. आदर्श प्रेमिका वासन्ती एक सहृदया, सुन्दर एवं आदर्श प्रेमिका सिद्ध होती हैं। वह निष्कलंक एवं पवित्र है। वह अपने उज्वल चरित्र एवं शुद्ध विशाल हृदय के साथ कालिदास को प्रेम करती हैं।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि वासन्ती एक आदर्श नारी पात्र एवं नाटक की। नायिका है, जिसका चरित्र अनेक आधुनिक स्त्रियों के लिए भी अनुकरणीय है।

प्रश्न 12.
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के आधार पर नायिका ‘मलयवती’ का चरित्रांकन कीजिए।
उत्तर:
प, लक्ष्मीनारायण लाल द्वारा रचित ‘गरुड़ध्वज’ नाटक के नारी पात्रों में मलयवती एक प्रमुख महिला पात्र है। इसका चरित्र अत्यधिक आकर्षक, सरल एवं विनोदप्रिय है। मलयवती के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. रूपवती मलयवती मलय देश की राजकुमारी है। वह अत्यधिक रूपवती हैं एवं उसका व्यक्तित्व सरल, सहज एवं आकर्षक है। उसके रूप-सौन्दर्य को देखकर ही कुमार विषमशील विदिशा के राजप्रसाद के उपवन में उसके सौन्दर्य पर मुग्ध हो गए थे।
  2. आदर्श प्रेमिका मलयवती एक आदर्श प्रेमिका है। कुमार विषमशील के प्रति उसके हदय में अत्यधिक प्रेम है। वह उसका मन से वरण करने के उपरान्त एकनिष्ठ भाव से उसके प्रति आसक्त है। उसके प्रति उसका प्रेम सच्चा है, उसे स्वयं पर पूर्ण विश्वास है कि वह उसे प्राप्त कर लेगी। कुमार विषमशील को प्राप्त करने की अपनी दृढ़ इच्छा प्रकट करते हुए वह कहती है “तब मुझे अपने आप में पूर्ण विश्वास है। मैं उन्हें अपनी तपस्या से खोजेंगी…. निर्विकार शंकर प्राप्त हो गए और वे प्राप्त न होंगे।”
  3. विनोदप्रिय स्वभाव राजकुमारी मलयवती प्रसन्नचित्त एवं विनोदी स्वभाव की है। वह अपनी प्रिय सखी वासन्ती से अनेक अवसरों पर हास-परिहास करती है। राजभृत्य द्वारा उसे महाकवि के द्वारा कही गई बातों के बारे में बताने पर वह महाकवि पर व्यंग्य करते हुए कहती हैं क्यों महाकवि को यह सूझी है? इस पृथ्वी की सभी कुमारियाँ कुमार हो जाएँ तब तो अच्छी रही। कह देना महाकवि से इस तरह की उलट-फेर में कुमारों को कुमारियाँ होना होगा और महाकवि भी कहीं उस चक्र में न आ जाएँ।”
  4.  ललित कलाओं में रुचि मलयवती की संगीत, चित्रकला इत्यादि ललित कलाओं में रुचि है। वह ललित कलाओं को सीखने व उनमें निपुण होने के लिए विदिशा जाती है। जहाँ वह मलय देश की चित्रकला व संगीत कला को भी सीखती है।

स्पष्टतः मलयवती के चरित्र एवं व्यक्तित्व में सद्गुणों का समावेश है। अपने इन्हीं गुणों एवं स्वभाव के कारण मलयवती की एक आदर्श राजकुमारी के रूप में छवि मिलती है। मलयवती का सरल, सहज और आकर्षक व्यक्तित्व उसे और अधिक आकर्षक बनाता है।

प्रश्न 13.
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के आधार पर ‘काशिराज’ की चारित्रिक विशेषताएँ उद्घाटित कीजिए।
उत्तर:
‘आन का मान’ नाटक के पुरुष पात्रों में ‘काशिराज’ काशी प्रदेश का राजा है, जो स्वार्थी व अवसरवादी है। काशिराज की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. कायर काशिराज भवनों के साथ युद्ध न करके सन्धि प्रस्ताव में अपनी पुत्री को मेनेन्द्र के पुत्र को दान में दे देता है, जिसकी आयु पचास वर्ष की थी।
  2. स्वार्थी व अवसरवादी काशिराज कालिदास द्वारा बन्दी बनाकर विक्रममित्र के पास विदिशा लाया गया। जहाँ उसने अपनी पुत्री के साथसाथ कालिदास को भी माँग लिया। वह जनता था कि विक्रममित्र कालिदास के पुत्र वात्सल्य रखते हैं। फिर भी उसने अवसर का लाभ उठाया।
  3. आत्मग्लानि वह वासन्ती के समक्ष पश्चाताप करता है और कहता है। युद्ध क्या कर सकेंगा अब … जब असकी अवस्था थी, तब तो मैं भिक्षु मण्डली में धर्मालाप करता रहा। इस देश के सभी माण्डलीक और गुण मुख्य आज युद्ध में हैं, मैं ही तो ऐसा हूँ जो इस कर्तव्य से वंचित हूँ। मैं बड़ा अभागा हूँ, किन्तु तुम्हारे आँसू इस हृदय को छेद देंगे … हाय।”
  4. विलापी तथा देश प्रेमी काशिराज अपने देश व मातृ भूमि के लिए अत्यन्त चिन्तित हैं, जिस पर किसी समय बौद्धों का आधिपत्य था, आज उस भूमि पर भवनों का अधिकार है, जिसके लिए वह विलाप करता हुआ कहता है कि “मातृ भूमि और जातीय गौरव के प्रति निष्ठा बौद्धों में नहीं होती वत्स। वे किसी भी संकीर्ण घेरे में रहना नहीं चाहते … इस देश और जाति के जितने भी बन्न थे, एक-एक करके सभी काटते गए।” वह अपने देश को बचाने के लिए अपनी जन्म भूमि तथा कन्या (घासन्ती) को भी विदेशी को देने से पीछे नहीं हटता।।

निष्कर्षस्वरूप कहा जा सकता हैं कि काशिराज स्वार्थी कायर राजा होने के साथ साथ उसमें अपने देश के प्रति प्रेम च देशभक्ति जैसे गुण भी निहित हैं।

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