UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 10 Wages: Meaning and Theory

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 10
Chapter Name Wages: Meaning and Theory (मजदूरी : अर्थ एवं सिद्धान्त)
Number of Questions Solved 27
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 10 Wages: Meaning and Theory (मजदूरी : अर्थ एवं सिद्धान्त)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
मजदूरी किसे कहते हैं? वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करने वाले घटक बताइए।
या
नकद मजदूरी एवं असल मजदूरी से क्या तात्पर्य है ? असल मजदूरी को प्रभावित करने वाले कारकों का विश्लेषण कीजिए। [2011]
या
नकद मजदूरी और असल मजदूरी में अन्तर बताइए। असल मजदूरी के निर्धारक घटक बताइए।
उत्तर:
मजदूरी का अर्थ एवं परिभाषा
मजदूरी श्रम के प्रयोग का पुरस्कार है। इसके अन्तर्गत वे सब भुगतान सम्मिलित होते हैं जो श्रम को उसके द्वारा उत्पादन में की गयी सेवाओं के बदले में किये जाते हैं। “राष्ट्रीय लाभांश का वह भाग जो श्रमिकों को उनके (शारीरिक या मानसिक) श्रम के बदले में प्रतिफल के रूप में दिया जाता है, मजदूरी कहलाता है।”
मजदूरी की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैंवाघ के अनुसार, “मजदूरी में श्रमिक के द्वारा प्राप्त समस्त आय व भुगतान सम्मिलित होते हैं।”
प्रो० बेन्हम के अनुसार, किसी श्रमिक के द्वारा की गयी सेवाओं के उपलक्ष्य में, सेवायोजकों के द्वारा, समझौते के अनुसार किये जाने वाले मौद्रिक भुगतान को मजदूरी के रूप में परिभाषित किया जाता है।”
प्रो० सेलिगमैन के अनुसार, “श्रम का वेतन मजदूरी है।”
प्रो० एली के अनुसार, “श्रम की सेवाओं के लिए प्रदान की जाने वाली कीमतें ‘मजदूरी होती हैं।”
आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने मजदूरी शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया है। उनके अनुसार, किसी भी प्रकार के मानव श्रम के बदले में दिया जाने वाला प्रतिफल मजदूरी है, चाहे वह प्रति घण्टा, प्रतिदिन अथवा अधिक समय के अनुसार दिया जाए और उसका भुगतान मुद्रा, सामान या दोनों के रूप में हो।” अतः सभी प्रकार के मानव श्रम के बदले दिये जाने वाले प्रतिफल को मजदूरी कहते हैं।

मजदूरी के प्रकार / भेद
श्रमिकों को श्रम के बदले में जो मजदूरी प्राप्त होती है वह या तो मुद्रा के रूप में प्राप्त हो सकती है या वस्तुओं व सेवाओं के रूप में। इस आधार पर मजदूरी को दो भागों में बाँटा जा सकता है

1. नकद या मौद्रिक मजदूरी – “मुद्रा के रूप में श्रमिक को जो भुगतान किया जाता है, उसे मौद्रिक मजदूरी या नकद मजदूरी कहते हैं।”

प्रो० सेलिगमैन के अनुसार, “मौद्रिक मजदूरी उस मजदूरी को बतलाती है जो मुद्रा के रूप में दी जाती है।”
यदि एक मजदूर को कारखाने में काम करने पर ₹15 प्रतिदिन मजदूरी मिलती है, तब ये  ₹15 मजदूर की नकद मजदूरी है।।

2. असल या वास्तविक मजदूरी – श्रमिक को नकद मजदूरी के रूप में प्राप्त मुद्रा के बदले में प्रचलित मूल्य पर जितनी वस्तुएँ तथा सेवाएँ प्राप्त होती हैं, वे सब मिलकर उसकी असल या वास्तविक मजदूरी को सूचित करती हैं। वास्तविक मजदूरी के अन्तर्गत उन सब वस्तुओं तथा सेवाओं को भी सम्मिलित किया जाता है जो श्रमिक को नकद मजदूरी के अतिरिक्त प्राप्त होती हैं; जैसे-कम कीमत पर मिलने वाला राशन, बिना किराये का मकान, पहनने के लिए मुफ्त वर्दी आदि अन्य सुविधाएँ।

एडम स्मिथ ने वास्तविक मजदूरी की व्याख्या इस प्रकार की है, “श्रमिक की वास्तविक मजदूरी में आवश्यक तथा जीवनोपयोगी सुविधाओं की वह मात्रा सम्मिलित होती है जो उसके श्रम के बदले में दी जाती है। उसकी नाममात्र (मौद्रिक) मजदूरी में केवल मुद्रा की मात्रा ही सम्मिलित होती है। श्रमिक वास्तविक मजदूरी के अनुपात में ही गरीब अथवा अमीर, अच्छी या कम मजदूरी पाने वाला होता है, न कि नाममात्र मजदूरी के अनुपात में।”

प्रो० मार्शल के अनुसार, “वास्तविक मजदूरी में केवल उन्हीं सुविधाओं तथा आवश्यक वस्तुओं को शामिल नहीं करना चाहिए जो सेवायोजक के द्वारा प्रत्यक्ष रूप में श्रम के बदले में दी जाती हैं, बल्कि उसके अन्तर्गत उन लाभों को सम्मिलित करना चाहिए जो व्यवसाय-विशेष से सम्बन्धित होते हैं और जिसके लिए उसे कोई विशेष व्यय नहीं करना होता।”

असल या वास्तविक मजदूरी को निर्धारित करने वाले तत्त्व
असल मजदूरी निम्नलिखित तत्त्वों से निर्धारित होती है

1. द्रव्य की क्रय-शक्ति – द्रव्य की क्रय-शक्ति का श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। श्रमिक की असल मजदूरी इस बात पर निर्भर करती है कि वह मजदूरी के रूप में प्राप्त द्रव्य से कितनी वस्तुएँ एवं सेवाएँ खरीद सकता है। यदि द्रव्य की क्रय-शक्ति अधिक है तो श्रमिक अपनी मौद्रिक आय से वस्तुओं और सेवाओं की अधिक मात्रा खरीद सकेंगे और उनकी – वास्तविक मजदूरी अधिक होगी। मुद्रा की क्रय-शक्ति कम होने की स्थिति में श्रमिक की वास्तविक मजदूरी भी कम हो जाती है, क्योंकि वे अपनी मौद्रिक आय द्वारा बाजार से बहुत कम सामान खरीद पाते हैं। अतः स्पष्ट है कि श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी मुद्रा की क्रय-शक्ति पर निर्भर करती है।

2. अतिरिक्त सुविधाएँ – कुछ व्यवसायों में मजदूरों को मौद्रिक मजदूरी के अतिरिक्त अन्य सुविधाएँ एवं लाभ भी प्राप्त होते हैं; जैसे – मुफ्त सामान, सस्ता राशने, चिकित्सा सुविधा, पहनने के लिए वर्दी एवं यात्रा के लिए मुफ्त रेलवे पास आदि। इन अतिरिक्त लाभों के कारण वास्तविक मजदूरी में वृद्धि होती है। अतः किसी व्यवसाय में जितनी अधिक सुविधाएँ श्रमिक को मिलती हैं उतनी ही अधिक उनकी वास्तविक मजदूरी होती है।

3. अतिरिक्त आय की सम्भावना – यदि किसी व्यवसाय में श्रमिक अपने कार्य-विशेष के अतिरिक्त अन्य स्रोतों से भी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से आय में वृद्धि कर सकता है तो उस व्यवसाय में श्रमिक की असल मजदूरी अधिक मानी जाएगी।

4. कार्य की प्रकृति – वास्तविक मजदूरी को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला तत्त्व, कार्य की प्रकृति है। कुछ व्यवसाय अधिक थका देने वाले, जोखिमपूर्ण तथा अरुचिकर होते हैं; जैसे-ईंट ढोना, लोहा पीटना, हवाई जहाज चलाना, मेहतर का कार्य आदि। ऐसे व्यवसायों में लगे हुए श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी कम मानी जाती है। इसके विपरीत कुछ व्यवसाय रुचिकर, स्वास्थ्यप्रद एवं शान्तिपूर्ण होते हैं; जैसे-शिक्षक, वकील, डॉक्टर आदि का कार्य। इस प्रकार के व्यवसायों में लगे हुए लोगों की वास्तविक आय पहले प्रकार के व्यवसाय में लगे श्रमिकों की अपेक्षा अधिक होती है।

5. रोजगार को स्थायित्व – रोजगार का स्थायी होना भी श्रमिक की वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करता है। यदि रोजगार स्थायी है तो मौद्रिक मजदूरी कम होते हुए भी अधिक मानी जाएगी। तथा श्रमिक उस रोजगार में अपनी सेवाएँ देना पसन्द करेंगे। इसके विपरीत अस्थायी नियुक्ति में श्रमिक की असल मजदूरी कम होगी। इसी प्रकार मौसमी व्यवसायों में काम करने वाले श्रमिकों की असल मजदूरी अस्थायी रूप से कार्यरत श्रमिकों की अपेक्षा समान वेतन मिलने पर भी अधिक मानी जाती है।

6. भावी प्रोन्नति की आशा – जिन व्यवसायों में श्रमिक को उज्ज्वल भविष्य की आशा होती है, उनमें मौद्रिक मजदूरी कम होते हुए भी वास्तविक मजदूरी अधिक होती है। श्रमिकों को भावी उन्नति की आशा से जो सन्तोष मिलता है, वह वास्तविक आय में वृद्धि करता है।

7. काम करने की दशाएँ – कुछ व्यवसायों में काम करने की दशाएँ ठीक नहीं होतीं। उनमें स्वच्छ वायु, उचित प्रकाश व आराम की सुविधा आदि का अभाव होता है। श्रमिकों को खड़े-खड़े दूषित वातावरण में मशीनें चलानी पड़ती हैं। ऐसे व्यवसायों की वास्तविक मजदूरी कम मानी जाती है। इसके विपरीत सरकारी कार्यालयों एवं जिन व्यवसायों में उचित एवं स्वच्छ जल, वायु, प्रकाश, उत्तम फर्नीचर आदि की व्यवस्था एवं मालिकों का श्रमिकों के प्रति सद्व्यवहार होता है, उन व्यवसायों में वास्तविक मजदूरी अधिक होती है।

8. काम के घण्टे एवं अवकाश की सुविधा – काम करने के घण्टे एवं छुट्टियाँ भी असल मजदूरी को प्रभावित करती हैं। जिन श्रमिकों को कम घण्टे काम करना पड़ता है और अवकाश अधिक मिलता है उन श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी, अधिक घण्टों तक काम करने वाले एवं उचित छुट्टियाँ न मिलने वालों की अपेक्षा अधिक होती है। यदि दोनों श्रमिकों को समान मौद्रिक मजदूरी मिलती है, तब काम की दशाओं में भिन्नता होने के कारण वास्तविक मजदूरी में भी भिन्नता हो जाती है।

9. आश्रितों को काम मिलने की सुविधा – जिस व्यवसाय में श्रमिकों के आश्रितों को काम मिलने की सम्भावना होती है अथवा श्रमिक के परिवार के अन्य सदस्यों को काम मिल जाती है, उने व्यवसायों में श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी अधिक मानी जाती है। इस प्रकार के व्यवसायों में मौद्रिक मजदूरी कम होते हुए भी श्रमिक कार्य करनी पसन्द करेगा, क्योंकि कुल मिलाकर उसकी पारिवारिक आय बढ़ जाती है।

10. प्रशिक्षण की अवधि एवं व्यय – प्रत्येक कार्य को सीखने में कुछ समय लगता है और उस पर व्यय भी करना पड़ता है। किसी काम को सीखने में कितना समय एवं धन व्यय करना पड़ता है, इसका भी वास्तविक मजदूरी पर प्रभाव पड़ता है। जिन व्यवसायों के प्रशिक्षण में अधिक लम्बा समय तथा काफी व्यय करना पड़ता है, उस व्यवसाय में काम करने वाले श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी उन व्यवसायों की अपेक्षा कम मानी जाती है जिन व्यवसायों के काम सीखने में समय एवं धन का अधिक व्यय नहीं करना पड़ता।

11. व्यापार सम्बन्धी व्यय – कुछ व्यवसायों में कार्य करने वालों को अपनी कुशलता एवं योग्यता बनाये रखने के लिए पर्याप्त मात्रा में व्यय करना पड़ता है; जैसे-वकील तथा शिक्षकों को पुस्तकों, समाचार-पत्रों तथा पत्रिकाओं वे फर्नीचर आदि पर व्यय करना पड़ता है, किन्तु एक साधारण श्रमिक को इस प्रकार का व्यय नहीं करना पड़ता है। जिन व्यवसायों में व्यावसायिक व्यये अधिक होता है उनमें नकद मजदूरी अधिक होते हुए भी वास्तविक मजदूरी कम होती है, उन व्यवसायों की अपेक्षा उनमें किसी प्रकार का व्यावसायिक व्यय नहीं करना पड़ता।

12. व्यवसाय की सामाजिक प्रतिष्ठा – जिन व्यवसायों में सामाजिक प्रतिष्ठा अधिक प्राप्त होती है उन व्यवसायों में नकद मजदूरी कम होते हुए भी वास्तविक मजदूरी अधिक होती है तथा जिन कार्यों को करने से सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचती है उस व्यवसाय में अधिक नकद मजदूरी होते हुए भी वास्तविक मजदूरी कम होती है।

प्रश्न 2
मजदूरी-निर्धारण की माँग और पूर्ति का सिद्धान्त या मजदूरी के आधुनिक सिद्धान्त की पूर्णरूपेण व्याख्या कीजिए। [2007, 08, 10, 12, 15]
या
मजदूरी के आधुनिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2013, 15]
उत्तर:
मजदूरी-निर्धारण की माँग और पूर्ति का सिद्धान्त (आधुनिक सिद्धान्त)

मजदूरी-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त, माँग और पूर्ति का सिद्धान्त (Demand and Supply Theory) है। जिस प्रकार बाजार में किसी वस्तु की कीमत का निर्धारण उसकी माँग और पूर्ति की. शक्तियों के सन्तुलन द्वारा निर्धारित होता है, ठीक उसी प्रकार श्रम का मूल्य (मजदूरी) भी उसकी माँग और पूर्ति की शक्तियों से निर्धारित होता है।

श्रम की माँग – श्रम उत्पादन का एक अनिवार्य तथा सक्रिय उपादान है। इस कारण एक उत्पादक उत्पादन कार्य को सम्पादित करने के लिए श्रम की माँग करता है। जिस प्रकार मांग पक्ष की ओर से किसी वस्तु की कीमत उसके सीमान्त तुष्टिगुण (Marginal Utility) द्वारा निर्धारित होती है, ठीक उसी प्रकारे उत्पादक या उद्यमकर्ता श्रम की माँग करते समय उसकी सीमान्त उत्पादकता को ध्यान में रखता है। कोई भी उत्पादक श्रम की सीमान्त उत्पादकता के अनुसार श्रमिक की मजदूरी की अधिकतम सीमा निर्धारित करता है। इस सीमा से अधिक मजदूरी देने के लिए वह तैयार नहीं होता है। किसी मजदूर की सीमान्त उत्पादकता से अभिप्राय सीमान्त श्रमिक की उत्पादकता से होता है। सीमान्त उत्पादकता उत्पादन के अन्य साधनों को पूर्ववत् रखकर एक अतिरिक्त श्रमिक को बढ़ा देने अथवा घटी देने से उत्पादन की मात्रा में जो वृद्धि अथवा कमी होती है वह उसके द्वारा ज्ञात कर ली जाती है। यदि मजदूरी सीमान्त उत्पादकता से अधिक होगी तो सेवायोजक को हानि होगी और वह कम मजदूरों की माँग करेगा और यदि मजदूरी सीमान्त उत्पादन से कम है तो सेवायोजक या उद्यमी तब तक श्रम की माँग करता जाता है, जब तक श्रमिकों की मजदूरी उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर होती है।

श्रम की पूर्ति – श्रम की पूर्ति से अभिप्राय है कि श्रमिक प्रचलित मजदूरी की दरों पर अपने श्रम कों कितनी मात्रा में देने के लिए तत्पर हैं। सामान्यत: मजदूरी की दरें जितनी ऊँची होती हैं, श्रम की पूर्ति उतनी ही अधिक होती है। जिस प्रकार उत्पादक अपनी वस्तु की कीमत सीमान्त उत्पादन लागत से कम लेने के लिए तैयार नहीं होता है, ठीक उसी प्रकार श्रमिक अपने श्रम के बदले अपनी न्यनतम आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जितनी मजदूरी आवश्यक है, लेने के लिए तैयार होगा। इससे कम मजदूरी वह किसी भी स्थिति में नहीं लेगा, क्योंकि श्रमिक की कार्यक्षमता तथा रहन-सहन पर मजदूरी का प्रभाव पड़ता है। अतः श्रमिक अपने रहन-सहन के स्तर एवं प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए नीची मजदूरी की दर पर कार्य करने को तत्पर नहीं होगा, भले ही उसे अपने व्यवसाय में ही क्यों न परिवर्तन करना पड़े।

श्रम की मॉग एवं पूर्ति का सन्तुलन – श्रमिक की मजदूरी उसकी माँग और पूर्ति की सापेक्ष शक्तियों द्वारा उस बिन्दु पर निश्चित होती है जिस पर श्रम की माँग और पूर्ति का सन्तुलन स्थापित हो जाता है। उद्यमी द्वारा दी जाने वाली मजदूरी अर्थात् सीमान्त उत्पादिता जो कि उसकी अधिकतम सीमा होती है तथा श्रमिकों का उत्पादन व्यय अर्थात् सीमान्त त्याग या जीवन निर्वाह व्यय जो कि मजदूरी की निम्नतम सीमा होती है। इन दोनों सीमाओं के बीच मजदूरी उस बिन्द पर निर्धारित होती है जहाँ पर श्रम की माँग और पूर्ति में सन्तुलन हो जाता है। इन दोनों पक्षों में जो भी पक्ष प्रबल होता है वह मोल-भाव की शक्ति के द्वारा अपनी सीमा के निकट मजदूरी निर्धारित करने में सफल रहता है। यदि उद्यमी पक्ष प्रबल है तब मजदूरी सीमान्त त्याग के निकट निर्धारित होगी और यदि श्रमिकों का पक्ष प्रबल है तो मजदूरी का निर्धारण सीमान्त उत्पादिता के निकट होगा।

उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण – निम्न तालिका में मजदूरी की विभिन्न दरों पर श्रमिकों (मजदूरों) की माँग एवं पूर्ति की मात्राएँ दिखायी गयी है
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 10 Wages Meaninng and Theory 1
पर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि जैसे-जैसे दैनिक मजदूरी की दर बढ़ती जाती है वैसे-वैसे श्रमिकों की माँग में बराबर कमी होती जाती है। ₹15 मजदूरी की दर पर श्रमिकों की माँग एवं पूर्ति में साम्य है। अतः मजदूरी की दर का निर्धारण ₹15 प्रतिदिन होगा।

रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण – संलग्न चित्र में Ox-अक्ष पर श्रमिकों की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर दैनिक मजदूरी (₹ में) दिखायी गयी है। DD’ श्रम की माँग एवं ss श्रम की पूर्ति है
SS’ रेखाएँ हैं। ये रेखाएँ एक-दूसरे को E बिन्दु पर काटती हैं। यही । बिन्दु सन्तुलन बिन्दु है; अत: मजदूरी ₹150 प्रतिदिन निश्चित होगी। क्योंकि इस बिन्दु पर कुल माँम वक्र, कुल पूर्ति वक्र को काटता है।
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लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
मजदूरी के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
मजदूरी का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त
मजदूरी के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के प्रतिपादक, जे० बी० क्लार्क, प्रो० वॉन थयून तथा जेवेन्स आदि थे। मजदूरी के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के अनुसार, श्रमिकों की मजदूरी श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता के मूल्य के बराबर होने की प्रवृत्ति रखती है। सिद्धान्त हमें यह बतलाता है कि पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में मजदूरी श्रम की सीमान्त उत्पादकता से निश्चित होती है और साम्य बिन्दु पर वह उसके बराबर होती है।

श्रमिक की माँग उसके द्वारा किये जाने वाले उत्पादन के लिए की जाती है। उद्योगपति कभी भी श्रमिक को उससे अधिक मजदूरी नहीं देगा जितना कि वह उसके लिए पैदा करता है अर्थात् जो श्रमिक की सीमान्त उत्पादकता है।

सीमान्त उत्पादकता का अर्थ उत्पादन की उस मात्रा से है जो कि अन्य साधनों के पूर्ववत् रहने पर एक अतिरिक्त श्रमिक के बढ़ा देने अथवा घटा देने से बढ़ अथवा घट जाती है। उदाहरण के लिए-10 श्रमिक अन्य साधनों के साथ मिलकर 100 इकाइयों का उत्पादन करते हैं। यदि एक श्रमिक और बढ़ा दिया जाए तब यदि 110 इकाइयों का उत्पादन हो जाए तो श्रम की सीमान्त उत्पादकता 110 -100 = 10 इकाइयों के बराबर होगी। इस स्थिति में ग्यारहवाँ श्रमिक सीमान्त श्रमिक है तथा उसके द्वारा 10 इकाइयों का उत्पादन होता है।

इस प्रकार श्रमिकों की मजदूरी का निर्धारण श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता से होता है। यदि मजदूरी सीमान्त उत्पादकता से अधिक होगी, तो मालिक को हानि होगी और वे कम श्रमिकों को काम पर लगाएँगे और यदि मजदूरी सीमान्त उत्पादकता से कम है, तो उद्यमी अधिक श्रमिकों की माँग करेंगे। अत: सेवायोजक सन्तुलन की स्थिति स्थापित करके उस सीमा तक श्रमिकों को काम पर लगाएगा जहाँ पर श्रमिकों की मजदूरी उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर होती है।

मजदूरी-निर्धारण के सम्बन्ध में सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त का प्रयोग करते समय श्रम की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को ध्यान में रखना चाहिए—

  1. श्रमिक सामूहिक रूप से मजदूरी-निर्धारण के उद्देश्य से श्रम संघ बना सकते हैं। ऐसी स्थिति में मजदूरी ‘सीमान्त उत्पादकता’ से ऊँची हो सकती है।
  2.  श्रम की अपनी स्वतन्त्र इच्छा होती है। श्रमिक यह निर्णय लेने में स्वतन्त्र होते हैं कि वे किस दिन काम करेंगे अथवा नहीं।

सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की आलोचनाएँ

  1. यह सिद्धान्त केवल श्रम के माँग पक्ष पर ही ध्यान देता है, श्रम के पूर्ति पक्ष की ओर ध्यान नहीं देता।
  2. यह सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि श्रम की विभिन्न इकाइयाँ एक-सी होती हैं, परन्तु । वास्तव में ऐसा नहीं होता है। श्रम की विभिन्न इकाइयों में पर्याप्त भिन्नता हो सकती है।
  3. यह सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि श्रम में पूर्ण गतिशीलता होती है। श्रम की पूर्ण गतिशीलता की मान्यता गलत है।
  4. यह सिद्धान्त अवास्तविक तथा अव्यावहारिक है। यह सिद्धान्त पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में लागू होता है, परन्तु पूर्ण प्रतियोगिता व्यवहार में नहीं पायी जाती।

प्रश्न 2
नकद मजूदरी और असल मजदूरी में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2006, 10, 11, 12, 14, 15, 16]
या
वास्तविक मजदूरी एवं मौद्रिक मजदूरी में अन्तर लिखिए। वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करने वाले तत्वों को समझाइए। [2016]
या
मौद्रिक तथा वास्तविक मजदूरी में अन्तर लिखिए। [2015, 16]
उत्तर:
नकद तथा असल मजदूरी में अन्तर
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वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करने वाले तत्त्व

  1. श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी द्रव्य की क्रय-शक्ति पर निर्भर करती है।
  2. श्रमिकों को मिलने वाली अतिरिक्त सुविधाएँ भी वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करती हैं।
  3. कार्य करने का स्थान एवं काम करने की दशाएँ श्रमिक की वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करती हैं।
  4. कार्य की प्रकृति से भी वास्तविक मजदूरी प्रभावित होती है।
  5. श्रमिक को जिन व्यवसायों में अतिरिक्त आय की सम्भावना होती है उन व्यवसायों में वास्तविक आय अधिक होती है। इस प्रकार अतिरिक्त आय से वास्तविक मजदूरी प्रभावित होती है।
  6. रोजगार को स्थायी होना भी अक्सर वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करता है।
  7. भावी प्रोन्नति के अवसर वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करते हैं।
  8.  कार्य करने के घण्टे एवं अवकाश से भी वास्तविक मजदूरी प्रभावित होती है।
  9. आश्रितों को काम मिलने की सम्भावनाएँ भी वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करती है।
  10.  व्यवसाय की सामाजिक प्रतिष्ठा भी वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करती है।

प्रश्न 3
“ऊँची मजदूरी सस्ती होती है, जबकि नीची मजदूरी महँगी।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
ऊँची मजदूरी सस्ती होती है, जबकि नीची मजदूरी महँगी

उल्लिखित कथन सत्य है। इसे निम्नवत् स्पष्ट किया जा सकता है
प्रत्येक उत्पादक श्रमिक को उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर मजदूरी देना चाहता है अर्थात् उसके कार्य के परिणाम को देखना चाहता है। यदि उत्पादक ने श्रमिक को अधिक मजदूरी दी है तथा श्रमिक ने उसके बदले में श्रेष्ठ व उत्तम कार्य किया है तब यह अधिक मजदूरी भी सस्ती कहलाएगी, क्योंकि उसके द्वारा किया गया कार्य श्रेष्ठ व स्थायी होगा। इसके विपरीत, यदि श्रमिक को बहुत कम (न्यूनतम) मजदूरी देकर उससे सेवाएँ प्राप्त की जाती हैं तो वास्तव में वह मजदूरी सस्ती होते हुए भी महँगी होगी, क्योंकि कम मजदूरी लेने वाला श्रमिक प्रायः अधिक योग्य, निपुण एवं कार्यकुशल नहीं होगा, उसका स्वास्थ्य भी उत्तम नहीं होगा।

इस प्रकार कम मजदूरी वाला श्रमिक उत्तम, स्थायी वे श्रेष्ठ कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि वह कार्य में निपुण नहीं होगा। हो सकता है उसे दी गयी मजदूरी उसकी सीमान्त उत्पादिता से भी कम हो। इस प्रकार सस्ती मजदूरी महँगी होती है। जो व्यक्ति श्रमिकों को अधिक मजदूरी देता है वह श्रमिकों से अधिक व श्रेष्ठ कार्य की अपेक्षा करता है, अधिक मजदूरी से प्रोत्साहित होकर श्रमिक भी श्रेष्ठ व अधिक कार्य करते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति श्रमिकों को कम मजदूरी देते हैं वे श्रमिकों से अधिक वे उत्तम कार्य की अपेक्षा नहीं कर सकते तथा श्रमिक भी कम मजदूरी लेकर अच्छा व अधिक कार्य नहीं कर सकता।

यदि श्रमिकों को ऊँची मजदूरी दी जाती है, तब ऊँची मजदूरी से श्रमिकों का रहन-सहन का स्तर ऊँचा होता है तथा रहन-सहन ऊँचा होने से श्रमिकों की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है। कार्यक्षमता में वृद्धि होने से उत्पादन अधिक व श्रेष्ठ होता है, परिणामस्वरूप उत्पादन कार्य की उत्पादन लागत कम आती है, जिसके कारण उत्पादक को लाभ प्राप्त होता है। अधिक लाभ मिलने के कारण उत्पादक को अधिक मजदूरी भी कम दिखायी देती है। इसके अतिरिक्त ऊँची मजदूरी देने के कारण बाजार से कार्यकुशल श्रमिक प्राप्त हो जाते हैं, जो श्रेष्ठ व अधिक उत्पादन करते हैं, जिससे उत्पादन लागत कम आती है। इस कारण ऊँची मजदूरी भी कम प्रतीत होती है।

इसके विपरीत भी उत्पादक श्रमिकों को नीची मजदूरी देते हैं। उन्हें कम मजदूरी पर योग्य एवं कुशल श्रमिक प्राप्त नहीं होते हैं, जिसके अभाव में श्रेष्ठ व अधिक उत्पादन नहीं हो पाता है, जिसके कारण सस्ती मजदूरी अधिक मजदूरी प्रतीत होती है। अत: यह कथन सत्य है कि ऊँची मजदूरी सस्ती होती है, जबकि नीची मजदूरी महँगी होती है।

प्रश्न 4
मजदूरी-निर्धारण में श्रम संघ की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मजदूरी-निर्धारण में मजदूरी के नियमों के अतिरिक्त अन्य शक्तियों का भी प्रभाव पड़ता है, क्योंकि श्रम में कुछ मौलिक विशेषताएँ होती हैं। इन शक्तियों में श्रम संघ अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

उद्योगपतियों की तुलना में श्रमिकों में मोलभाव करने की क्षमता कम होती है। यद्यपि यह समझा जाता है कि मजदूरी उद्योगपतियों तथा श्रमिकों के बीच स्वतन्त्र प्रतियोगिता के आधार पर निर्धारित होती है, किन्तु व्यवहार में श्रमिक अनेक कारणों से मोलभाव करने में स्वतन्त्र नहीं होते। परिणाम यह होता है कि मजदूरों को उद्योगपतियों द्वारा दी गयी मजदूरी ही स्वीकार करनी पड़ती है जो प्रायः जीवन-निर्वाह व्यय के निम्नतम स्तर के आस-पास होती है। यही कारण है कि प्रायः मिल मालिक श्रमिकों का शोषण करते हैं तथा इस शोषण से बचने के लिए श्रमिक अपना संगठन बनाते हैं। वी० वी० गिरि के अनुसार, “श्रमिक संघ श्रमिकों द्वारा अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिए बनाये गये ऐच्छिक संगठन हैं।” मजदूरी-निर्धारण में श्रम संघों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। श्रम संघ नेताओं का विचार है कि श्रम संघ स्थायी रूप से मजदूरी में वृद्धि करा सकते हैं और भारत में पिछले वर्षों में श्रम संघ के प्रयत्नों के कारण ही मजदूरी की दरों में वृद्धि हुई है।

श्रम संघ मजदूरी-निर्धारण को अग्रलिखित प्रकार से प्रभावित कर सकते हैं

  1.  श्रम संघ मजदूरी की माँग एवं पूर्ति दोनों को प्रभावित कर सकते हैं। उनके द्वारा ये मजदूरी-निर्धारण पर अपना प्रभाव डालते हैं। श्रम संघ श्रमिकों की पूर्ति को नियन्त्रित करके तथा श्रमिकों की माँग में वृद्धि कराकर मजदूरी की दर में वृद्धि कराने का प्रयास कर सकते हैं।
  2. श्रम संघ मजदूरों की सौदा करने की शक्ति में वृद्धि करके भी उनकी मजदूरी में वृद्धि कराते हैं। श्रमिक संघ श्रमिकों को संगठित कर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप श्रमिकों की सौदा करने की । शक्ति में निश्चय ही वृद्धि हो जाती है। हड़ताल आदि के माध्यम से श्रम संघ सेवायोजकों को श्रमिकों की अधिकतम सीमान्त उत्पादकता के बराबर मजदूरी देने हेतु बाध्य करते हैं।
  3.  श्रमिक संघ श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता में वृद्धि करने का प्रयास करते हैं। श्रम संघ श्रमिकों की भलाई के बहुत-से ऐसे कार्य करते हैं जिससे उनकी कार्यकुशलता बढ़ जाती है, जिसके कारण वे अधिक उत्पादन करने में सक्षम हो जाते हैं। इस प्रकार उन्हें स्वत: ही ऊँची मजदूरी मिलने लगती है।

इस प्रकार, श्रम संघ मजदूरी-निर्धारण में अपना योगदान देकर मजदूरों की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने का प्रयास करते रहते हैं। वर्तमान में जो श्रमिकों की सुरक्षा तथा आर्थिक अवस्था एवं सुविधाओं में वृद्धि हुई है, इसका श्रेय श्रमिक संगठनों को ही है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार मजदूरी का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
या
मजदूरी किसे कहते हैं?
उत्तर:
आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने मजदूरी शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया है। उनके अनुसार, “किसी भी प्रकार के मानव-श्रम के बदले में दिया जाने वाला प्रतिफल मजदूरी है, चाहे वह प्रति घण्टा, प्रति दिन अथवा अधिक समय के अनुसार दिया जाए और चाहे उसका भुगतान मुद्रा, सामान या दोनों के रूप में हो। अत: सभी प्रकार के मानव-श्रम के बदले में दिये जाने वाले प्रतिफल को मजदूरी कहा जाना चाहिए।”

प्रश्न 2
वास्तविक मजदूरी क्या है ? समझाइए। [2007, 08, 09, 11]
उत्तर:
वास्तविक मजदूरी के अन्तर्गत उन सब वस्तुओं तथा सेवाओं को भी सम्मिलित किया जाता है जो श्रमिक को नकद मजदूरी के अतिरिक्त प्राप्त होती है। एडम स्मिथ के अनुसार, “श्रमिक की वास्तविक मजदूरी में आवश्यक तथा जीवन उपयोगी सुविधाओं की वह मात्रा सम्मिलित होती है जो उसके श्रम के बदले में दी जाती है। उसकी नाममात्र मजदूरी में केवल मुद्रा की मात्रा ही सम्मिलित होती है। श्रमिक वास्तविक मजदूरी के अनुपात में ही निर्धन में ही निर्धन अथवा धनी; अच्छी या कम मजदूरी पाने वाला होता है; न कि नाममात्र मजदूरी के अनुपात में।”

प्रश्न 3
‘मजदूरी-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त समझाइए।
उत्तर:
मजदूरी-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त माँग और पूर्ति के सामान्य सिद्धान्त का एक विशिष्ट रूप है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने इस सिद्धान्त के द्वारा मजदूरी-निर्धारण की समस्या का विश्लेषण पूर्ण प्रतियोगिता तथा अपूर्ण प्रतियोगिता दोनों की दशाओं में करने का प्रयत्न किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार मजदूरी उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर श्रम की माँग श्रम की पूर्ति के ठीक बराबर होती है।

प्रश्न 4
मजदूरी भुगतान की विधियाँ लिखिए। [2015]
या
मजदूरी भुगतान के किन्हीं दो आधारों को लिखिए। [2015]
उत्तर:
मजदूरी भुगतान की निम्नलिखित दो विधियाँ हैं

  1.  समयानुसार मजदूरी का भुगतान – जब श्रमिकों की मजदूरी काम करने के समय के अनुसार निश्चित की जाती है तो उसे समयानुसार मजदूरी कहते हैं। इस प्रकार की मजदूरी का भुगतान एक प्रकार का काम करने वाले श्रमिकों को एक ही दर से मजदूरी दी जाती है यद्यपि उनकी कार्यकुशलता में अन्तर होता है।
  2.  कार्यानुसार मजदूरी का भुगतान – इस भुगतान विधि में मजदूरों को उनके द्वारा किये गये काम के अनुसार भुगतान दिया जाता है।

निश्चित उत्तरीय प्रल (1 अंक)

प्रश्न 1
नकद मजदूरी से क्या अभिप्राय है ? [2006, 14]
या
मौद्रिक मजदूरी का अर्थ लिखिए। [2009]
उत्तर:
मुद्रा के रूप में श्रमिकों को जो भुगतान किया जाता है उसे मौद्रिक मजदूरी या नकद मजदूरी कहा जाता है या मुद्रा के रूप में एक श्रमिक को अपनी सेवाओं के बदले में जो कुछ मिलता है। वह उसकी नकद मजदूरी होती है।

प्रश्न 2
मजदूरी का जीवन-निर्वाह सिद्धान्त से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
मजदूरी के जीवन-निर्वाह सिद्धान्त के अनुसार मजदूरी की दर स्वत: जीवन-निर्वाह स्तर के द्वारा निर्धारित की जाती है। मजदूरी की दर मुद्रा की उस मात्रा के बराबर रहने की प्रवृत्ति रखती है। जो श्रमिकों को जीवन-निर्वाह स्तर पर बनाये रखने के लिए आवश्यक होती है।

प्रश्न 3
मजदूरी कोष सिद्धान्त से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
जे० एस० मिल के अनुसार, मजदूरी श्रम की माँग और पूर्ति पर निर्भर होती है अथवा वह जनसंख्या और पूँजी के अनुपात के द्वारा निश्चित की जाती है। जनसंख्या से अभिप्राय श्रमिकों की उस संख्या से है जो बाजार में अपना श्रम बेचने के लिए आते हैं और पूँजी से अभिप्राय चल पूँजी की उस मात्रा से है जो पूँजीपति प्रत्यक्ष रूप से श्रम को खरीदने पर व्यय करते हैं।

प्रश्न 4
मजदूरी कोष सिद्धान्त के अनुसार मजदूरी की दर का निर्धारण किस प्रकार होता है?
उत्तर:
मजदूरी कोष सिद्धान्त के अनुसार मजदूरी दर का निर्धारण निम्नलिखित सूत्र से किया जा सकता है
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 10 Wages Meaninng and Theory 4

प्रश्न 5
मजदूरी-निर्धारण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त क्या है ? [2010]
उत्तर:
मजदूरी-निर्धारण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त हमें बताता है कि पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में मजदूरी श्रम की सीमान्त उत्पादकता से निश्चित होती है और साम्य बिन्दु पर वह उसके बराबर होती है।

प्रश्न 6
श्रमिक की वास्तविक आर्थिक स्थिति का अनुमान मौद्रिक मजदूरी से लगाया जा सकता है या उसकी वास्तविक मजदुरी से। बताइए।
उत्तर:
श्रमिक की वास्तविक आर्थिक स्थिति का अनुमान केवल उसकी मौद्रिक आय को देखकर नहीं लगाया जा सकता। इसके लिए हमें उसकी असल मजदूरी को देखना होता है।

प्रश्न 7
वास्तविक मजदूरी को निर्धारित करने वाले दो तत्त्वों को बताइए।
उत्तर:
(1) मुद्रा की क्रय-शक्ति तथा
(2) कार्य करने की दशाएँ।

प्रश्न 8
मजदूरी कोष सिद्धान्त किन बातों पर निर्भर है ?
उत्तर:
मजदूरी कोष सिद्धान्त दो बातों पर निर्भर है

  1. मजदूरी कोष तथा
  2. रोजगार की। तलाश करने वाले श्रमिकों की संख्या।

प्रश्न 9
मजदूरी की दरों में भिन्नता के कोई दो कारण बताइए।
उत्तर:
मजदूरी की दरों में भिन्नता के निम्नलिखित दो कारण हैं

  1.  श्रमिकों की कार्यकुशलता एवं योग्यता में अन्तर तथा
  2.  काम का स्वभाव।

प्रश्न 10
मजदूरी के दो प्रकार लिखिए। [2011]
उत्तर:
(1) नकद मजदूरी व
(2) असल मजदूरी।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
मजदूरी का जीवन-निर्वाह सिद्धान्त का समर्थन किया है
(क) एडम स्मिथ ने
(ख) माल्थस ने
(ग) रिकाड ने
(घ) कार्ल माक्र्स ने।
उत्तर:
(क) एडम स्मिथ ने।

प्रश्न 2
मजदूरी कोष सिद्धान्त को अन्तिम रूप दिया
(क) एडम स्मिथ ने
(ख) रिकाडों ने
(ग) माल्थस ने
(घ) जे० एस० मिल ने
उत्तर:
(घ) जे० एस० मिल ने।

प्रश्न 3
मजदूरी का अवशेष अधिकारी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया
(क) वाकर ने
(ख) एडम स्मिथ ने
(ग) प्रो० मार्शल ने
(घ) जे० एस० मिल ने
उत्तर:
(क) वाकर ने।

प्रश्न 4
मजदूरी = कुल उपज – (लगान + लाभ + ब्याज) यह मजदूरी का सिद्धान्त है
(क) मजदूरी कोष सिद्धान्त
(ख) मजदूरी की माँग और पूर्ति का सिद्धान्त
(ग) मजदूरी का अवशेष अधिकारी सिद्धान्त
(घ) मजदूरी को सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त
उत्तर:
(ग) मजदूरी का अवशेष अधिकारी सिद्धान्त।।

प्रश्न 5
मजदूरी-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त है
(क) माँग और पूर्ति के सामान्य सिद्धान्त का विशिष्ट रूप
(ख) सीमान्त उत्पादिता सिद्धान्त का शुद्ध रूप
(ग) मजदूरी कोष सिद्धान्त को विकसित रूप
(घ) मजदूरी का जीवन निर्वाह सिद्धान्त का परिवर्तित रूप
उत्तर:
(क) माँग और पूर्ति के सामान्य सिद्धान्त का विशिष्ट रूप।

प्रश्न 6
वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करने वाला तत्त्व है [2016]
(क) मुद्रा की क्रय शक्ति
(ख) भत्ते
(ग) कार्य का स्वभाव
(घ) ये सभी
उत्तर:
(घ) ये सभी।

प्रश्न 7
किसने कहा, “श्रम की सेवा के लिए दिया गया मूल्य मजदूरी है? [2015]
(क) मार्शल
(ख) कीन्स
(ग) माल्थस
(घ) शुम्पीटर
उत्तर:
(क) मार्शल।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi समस्यापरक निबन्ध

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name समस्यापरक निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi समस्यापरक निबन्ध

समस्यापरक निबन्ध

भारत की वर्तमान प्रमुख समस्याएँ

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. कश्मीर की समस्या,
  3. भाषा की समस्या,
  4. जातिवाद व साम्प्रदायिकता की समस्या,
  5. क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता की समस्या,
  6. अस्पृश्यता की समस्या,
  7. जनसंख्या एवं बेकारी की समस्या,
  8. स्त्री-शिक्षा की समस्या,
  9. बाल-विवाह एवं दहेज प्रथा की समस्या,
  10. मूल्य-वृद्धि एवं भ्रष्टाचार की समस्या,
  11. उपसंहार

प्रस्तावना-भारत एक विशाल देश है। यहाँ अनेक धर्मों और सम्प्रदायों के लोग निवास करते हैं। वर्षों तक गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहने के कारण गुलामी की प्रवृत्ति मानसिक रूप से हमारे ऊपर अपना अस्तित्व बनाये हुए है। देश के महान् नेताओं ने सोचा था कि देश के विभाजन और प्राप्त स्वतन्त्रता के बाद देश जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद आदि के चोले को उतारकर फेंक देगा तथा एक शक्तिशाली-सुदृढ़ राष्ट्र के रूप में विश्व-मंच पर उभर सकेगा। लेकिन इतने दिनों की दीर्घकालीन गुलामी का कष्ट भोगने के बाद भी हमारे बाह्य व आन्तरिक मतभेद, द्वेष व कलह अभी तक मिट नहीं सके हैं।

एक राष्ट्र को सबल बनने के लिए दूसरे राष्ट्रों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है और उसके विकास के मार्ग में अनेक समस्याएँ आती हैं। 15 अगस्त, 1947 ई० को जब भारत ने स्वतन्त्रता के बाद शिशु रूप में जन्म लिया, तभी से अनेक समस्याओं रूपी रोगों ने इसे घेर लिया। इनमें से कुछ समस्याओं का समाधान हो चुका है और कुछ समस्याएँ आज भी देश को जर्जर कर रही हैं।

कश्मीर की समस्या-अंग्रेजों की “फूट डालो और राज करो’ की नीति ने मूल रूप से कश्मीर समस्या को हवा दी। फलतः इसके विलय की समस्या को लेकर भारत और पाकिस्तान में आपसी मतभेद पैदा हो गया। इस मतभेद को दूर करने के लिए दोनों देशों के नेताओं ने शिमला में एकत्रित होकर आपस में समझौता किया, लेकिन उसके बावजूद आज भी पाकिस्तान भारत के प्रति द्वेष भावना रखे हुए है। वह सैनिक बल से कश्मीर को हड़पने की योजना बनाता रहता है तथा उसके लिए सक्रिय रूप से सदैव प्रयास भी करता रहता है। इसके कुछ भाग पर उसने अधिकार कर लिया है और शेष भाग को हड़पने को नाजायज इरादा रखता है। विकसित देशों की गुटबन्दियों के कारण संयुक्त राष्ट्र भी कश्मीर समस्या का कोई समाधान नहीं खोज सका है। उधर पाकिस्तान कश्मीर में वर्षों से घुसपैठियों के द्वारा आतंक फैलाये हुए है। इन आतंकवादी गतिविधियों पर नियन्त्रण पाने के लिए और राज्य का बहुमुखी विकास करने की दृष्टि से सन् 1989 में कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। पाक प्रशिक्षित घुसपैठियों और आतंकवादियों ने कश्मीर में कहर ढा रखा है।

आज वहाँ सर्वत्र अशान्ति व अराजकता फैली हुई है। वहाँ के अल्पसंख्यक हिन्दू अपना सब कुछ छोड़कर शरणार्थी बन गये हैं। पाकिस्तान निरन्तर कश्मीर, पंजाब और राजस्थान की सीमाओं से प्रशिक्षित आतंकवादियों को भारत में प्रवेश करा रहा है, जिससे अवैध तस्करी को बढ़ावा मिल रहा है। थोड़े-थोड़े अन्तराल के बाद पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सीमा-चौकियों पर गोलाबारी और हमले करते रहते हैं जिसका भारतीय सीमा सुरक्षा बल भी मुंहतोड़ जवाब देता रहता है। निष्कर्षत: पाकिस्तान के सभी प्रधानमन्त्री और राष्ट्राध्यक्ष युद्धोन्माद में जी रहे हैं। इस सन्दर्भ में अनेक बार हुई वार्ताएँ विफल हो गयी हैं। 16 जुलाई, 2001 को आगरा शिखर वार्ता का एक तल्ख वातावरण में हुआ समापन, इसी श्रृंखला की एक कड़ी है। इस पर भी हमारा देश शान्ति का पक्षधर है और इस समस्या का समाधान भी शान्ति से ही करना चाहता है।

भाषा की समस्या-सम्पूर्ण राष्ट्र की भाषा हिन्दी अथवा अंग्रेजी अथवा कोई अन्य भारतीय भाषा हो, इस प्रश्न को लेकर देश में लोगों का आपसी मनमुटाव बहुत दिनों तक बना रहा और अब हिन्दी के राष्ट्रभाषा बन जाने पर भी अन्य भाषा-भाषी क्षेत्र इसका विरोध करते रहते हैं। आज भाषावाद राजनीति का चोला धारण किये हुए है। इसी भाषावाद के आधार पर पृथक्-पृथक् राज्यों की माँग बलवती होती है और अपनी बोली या विभाषा के आधार पर अनेक आन्दोलन होते हैं। इस समस्या का एकमात्र समाधान यह है कि हम राष्ट्रभाषा को संकीर्ण मानसिकता की दृष्टि से न देखें, वरन् उसे समाज की अभिव्यक्ति मानकर उसका सम्मान करें। इसी तरह सभी क्षेत्रीय भाषाओं को भी एक समान सम्मान दिया जा सकता है।

जातिवाद व साम्प्रदायिकता की समस्या-जातीयता और साम्प्रदायिकता आदि भी ऐसी ही संकीर्ण भावनाएँ हैं, जो राष्ट्र की प्रगति में बाधक सिद्ध होती हैं। जातीय प्रथा के कारण ही एक जाति दूसरी जाति के प्रति घृणा और द्वेष की भावना रखती है। विगत वर्षों में जातिगत आधार पर हो रहे आरक्षण के विवाद पर लोगों ने तोड़-फोड़, आगजनी और आत्मदाह जैसे कदम उठाये और देश की राष्ट्रीय एकता को झकझोर दिया। इसी प्रकार देश में साम्प्रदायिक भावना की प्रबलता भी दिखाई पड़ती है। साम्प्रदायिकता धर्म को संकुचित दृष्टिकोण है। स्वतन्त्रता के पश्चात् देश की राजनीति में आये घटियापन के कारण प्रत्याशियों का निर्धारण भी अब जाति और सम्प्रदाय के मतदाताओं की संख्या के आधार पर किया जाता है। यह साम्प्रदायिक विद्वेष भारत की प्रमुख समस्याओं में से एक है, जिसका निदान समय रहते नहीं किया गया तो यह बहुत बड़ी समस्या का रुख अख्तियार कर लेगा।

क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता की समस्या-जातीयता का ही विशाल रूप आज हमें प्रान्तीयता की भावना में परिवर्तित हुआ प्राप्त होता है। प्रान्तीयता के पचड़े में पड़ कर पंजाबी-पंजाबी का, मद्रासी-मद्रासी का और गुजराती-गुजराती का ही विकास चाहता है। इससे प्रान्तों में कलह पैदा होता है और प्रान्तीय अलगाववादी भावना बलवती होने लगती है। हमें संकीर्णता त्याग कर; हम सब भारतीय हैं, एक ही देश के निवासी हैं, एक ही धरती के अन्न-जल से हमारा पोषण होता है; इन भावनाओं का आदर करना चाहिए। इसके साथ-साथ क्षेत्रीयता के नाम पर पृथकता का घिनौना खेल खेल रहे राजनेताओं की स्वार्थी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना भी आवश्यक है।

अस्पृश्यता की समस्या-यह भी हमारे देश की प्रमुख समस्या है। यह हिन्दू समाज का सबसे बड़ा कलंक है। पुरातन युग में धर्म की दुहाई देकर धर्म के ठेकेदारों ने समाज के एक आवश्यक अंग को समाज से दूर कर, उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया। इन्हें शूद्र कहकर छूत-छात की प्रथा को जन्म दिया। सन्तोष का विषय है कि वर्तमान भारत में इस ओर ध्यान दिया गया है। भारतीय संविधान ने हरिजनों को समानता का अधिकार प्रदान किया है।

जनसंख्या एवं बेकारी की समस्या--जनसंख्या की दृष्टि से भारत का विश्व में दूसरा स्थान है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद बढ़ते-बढ़ते देश की जनसंख्या अब 121 करोड़ से भी अधिक हो गयी है। माल्थस के मतानुसार, “मानव में सन्तान पैदा करने की प्रवृत्ति स्वाभाविक होती है। इसी इच्छा और प्रवृत्ति के कारण जनसंख्या की वृद्धि होती है। हमारे देश में जनसंख्या की इस वृद्धि के अनुपात से उद्योग-धन्धों का विकास नहीं हो पा रहा है, जिससे देश में बेकारी की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। आज भूमि की कमी से कृषक और पदों के अभाव में शिक्षित लोग बेकार बैठे हैं। खाली मस्तिष्क शैतान का घर होता है। आज बेकारी के कारण वह सब कुछ अपने चरम रूप में हो रही है जैसा स्वामी रामतीर्थ ने कहा था, “जब किसी देश की जनसंख्या इतनी बढ़ जाती है कि आवश्यकतानुसार सभी को सामग्री प्राप्त नहीं होती, तब देश में भ्रष्टाचार को जन्म होता है। भारत सरकार जनसंख्या की इस वृद्धि को रोकने और बेकारी की समस्या को हल करने का पर्याप्त प्रयास कर रही है।

स्त्री-शिक्षा की समस्या--समाज रूपी गाड़ी को चलाने के लिए स्त्री और पुरुष दो पहिये हैं। इनमें से किसी एक के अभाव और कमजोर होने पर समाज को सन्तुलन बिगड़ सकता है। अस्तु, समाज में पुरुष के समान स्त्री का भी शिक्षित, समर्थ और योग्य होना परमावश्यक है। पुरातन युग में समुचित शिक्षा के कारण स्त्रियाँ विदुषी हुआ करती थीं। मध्य युग में मुस्लिम आक्रमण काल में परदा प्रथा का जन्म हुआ। फलतः स्त्रियाँ विवेकहीन और अन्धविश्वासी बन गयीं। इस कारण उनमें शिक्षा का स्तर निरन्तर गिरता ही रहा। देश के स्वतन्त्र होने के सढ़सठ वर्षों के बाद आज भी देश की लगभग आधी स्त्री-जनसंख्या पूर्णरूपेण निरक्षर है। अब भारत सरकार इस ओर विशेष ध्यान दे रही है तथा इनकी समस्याओं को सुलझाने के लिए संविधान में भी स्पष्ट निर्देश हैं।

बाल-विवाह एवं दहेज-प्रथा की समस्या-पुरातन युग में बाल-विवाह का प्रचलन था, किन्तु आज भी अशिक्षित व अल्पशिक्षित समाज में बहुत-ही छोटी अवस्था में विवाहों का प्रचलन है। बाल-विवाह का प्रभाव आयु पर भी पड़ता है। सरकार ने कानून का निर्माण कर बाल-विवाह पर अंकुश लगाने का प्रयास किया है। आजकल विवाहों में पर्याप्त धन की माँग वर पक्ष द्वारा कन्या पक्ष से की जाती है, जिससे समाज लड़की के जन्म होने को ही बुरा समझने लगा है। मध्ययुग में तो कन्या का जन्म ही अभिशाप माना जाता था। इस दहेज रूपी समस्या का उन्मूलन किया जाना चाहिए। दहेज लेने व देने वाले को कानून के अन्तर्गत दण्डित करने के प्रावधान भी किये गये हैं।

मूल्यवृद्धि एवं भ्रष्टाचार की समस्या-आज कमरतोड़ महँगाई सम्पूर्ण समाज पर अपना प्रभाव जमाये हुए है। आज का सामान्य मनुष्य अपनी आय से अपने व अपने परिवार के लिए भरपेट भोजन भी नहीं जुटा पाता। फलत: वह भ्रष्ट साधनों को अपनाता है। रिश्वत, काला बाजार, सिफारिश और अनुचित साधनों की प्रवृत्ति, सभी इस भ्रष्टाचार के परिवर्तित रूप हैं। बड़े-बड़े नेता, मन्त्री, अधिकारी, व्यापारी और सरकारी कर्मचारी सभी इसमें पूणरूपेण लिप्त हैं। भ्रष्टाचार की इसी प्रवृत्ति के कारण तस्करी की नयी-नयी योजनाएँ बन रही हैं जिन पर अंकुश लगाने के लिए सरकार पर्याप्त प्रयास कर रही है, लेकिन इस पर आंशिक अंकुश ही सम्भव हो सका है।

उपसंहार-इन प्रमुख समस्याओं के अतिरिक्त भी, आतंकवाद, काले धन की वृद्धि आदि; अनेकानेक समस्याएँ हैं जो राष्ट्र की प्रगति और राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक हैं। इन समस्याओं के निराकरण के लिए केवल सरकार को ही नहीं, वरन् समस्त भारतीयों को एकजुट होकर सम्मिलित प्रयास करना चाहिए। इस दिशा में धार्मिक महापुरुषों, समाज-सुधारकों, बुद्धिजीवियों, विद्यार्थियों और महिलाओं को विशेष रूप से सक्रिय होना चाहिए। जनता को यह समझना चाहिए कि किसी जाति या सम्प्रदाय से जोड़कर हमें अलग-अलग स्वरूप देने वाले राजनीतिज्ञ देश के सच्चे भक्त और सेवक नहीं हैं, अपितु स्वार्थी और सत्तालोलुप हैं। यह स्वाथ और पद-लोलुपता तभी समाप्त होगी, जब देश की जनता अपने आपको एक समझेगी और समग्र भारत में अपने को प्रतिष्ठापित कर देगी। तब वह दिन दूर नहीं रह जाएगा जब भारत विश्व में पुनः सोने की चिड़िया कहलाएगा।

भारत में जनसंख्या-वृद्धि की समस्या [2010]

सम्बद्ध शीर्षक

  • जनसंख्या-विस्फोट और निदान
  • जनसंख्या-वृद्धि : कारण और निवारण [2015]
  • बढ़ती जनसंख्या : एक गम्भीर समस्या
  • परिवार नियोजन
  • बढ़ती जनसंख्या बनी आर्थिक विकास की समस्या
  • जनसंख्या नियन्त्रण [2012, 13]
  • बढ़ती जनसंख्या : रोजगार की समस्या [2014]

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. जनसंख्या-वृद्धि से उत्पन्न समस्याएँ
  3. जनसंख्या-वृद्ध के कारण
  4. जनसंख्या-वृद्ध को नियति करने के उपाय
  5. उपसंहार

प्रस्तावना-जनसंख्या-वृद्धि की समस्या भारत के सामने विकराल रूप धारण करती जा रही है। सन् 1930-31 ई० में अविभाजित भारत की जनसंख्या 20 करोड़ थी, जो अब केवल भारत में 121 करोड़ से ऊपर पहुँच चुकी है। जनसंख्या की इस अनियन्त्रित वृद्धि के साथ दो समस्याएँ मुख्य रूप से जुड़ी हुई हैं-(1) सीमित भूमि तथा (2) सीमित आर्थिक संसाधन।’ अनेक अन्य समस्याएँ भी इसी समस्या से अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हैं; जैसे-समस्त नागरिकों की शिक्षा, स्वच्छता, चिकित्सा एवं अच्छी वातावरण उपलब्ध कराने की समस्या। इन समस्याओं का निदान न होने के कारण भारत क्रमशः एक अजायबघर बनता जा रहा है जहाँ चारों ओर व्याप्त अभावग्रस्त, अस्वच्छ एवं अशिष्ट फरवेश से किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को विरक्ति हो उठती है और मातृभूमि की यह दशा लज्जो का विषय बन जाती है।

जनसंख्या-वृद्धि से उत्पन्न समस्याएँ-विनोबा जी ने कहा था, जो बच्चा एक मुँह लेकर पैदा होता है, वह दो हाथ लेकर आता है।” आशय यह है कि दो हाथों से पुरुषार्थ करके व्यक्ति अपनी एक मुँह तो भर ही सकता है। पर यह बात देश के औद्योगिक विकास से जुड़ी है। यदि देश की अर्थव्यवस्था बहुत सुनियोजित हो तो वहाँ रोजगार के अवसरों की कमी नहीं रहती। लघु उद्योगों से करोड़ों लोगों का पेट भरता था। अब बड़ी मशीनों और उनसे अधिक शक्तिशाली कम्प्यूटरों के कारण लाखों लोग बेरोजगार हो गये और अधिकाधिक होते जा रहे हैं। आजीविका की समस्या के अतिरिक्त जनसंख्या-वृद्धि के साथ एक ऐसी समस्या भी जुड़ी हुई है, जिसका समाधान किसी के पास नहीं। वह है सीमित भूमि की समस्या।

भारत का क्षेत्रफल विश्व का कुल 2.4 प्रतिशत ही है, जबकि यहाँ की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या की लगभग 17 प्रतिशत है; अत: कृषि के लिए भूमि का अभाव हो गया है। इसके परिणामस्वरूप भारत की सुख-समृद्धि में योगदान करने वाले अमूल्य जंगलों को काटकर लोग उससे प्राप्त भूमि पर खेती करते जा रहे हैं, जिससे अमूल्य वन-सम्पदा का विनाश, दुर्लभ वनस्पतियों का अभाव, पर्यावरण प्रदूषण की समस्या, वर्षा पर कुप्रभाव एवं अमूल्य जंगली जानवरों के वंशलोप का भय उत्पन्न हो गया है। उधर हस्त-शिल्प और कुटीर उद्योगों के चौपट हो जाने से लोग आजीविका की खोज में ग्रामों से भागकर शहरों में बसते जा रहे हैं, जिससे कुपोषण, अपराध, आवास आदि की विकट समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं।

जनसंख्या वृद्धि का सबसे बड़ा अभिशाप है–किसी देश के विकास को अवरुद्ध कर देना; क्योंकि बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए खाद्यान्न और रोजगार जुटाने में ही देश की सारी शक्ति लग जाती है, जिससे अन्य किसी दिशा में सोचने का अवकाश नहीं रहता।

जनसंख्या-वृद्धि के कारण–प्राचीन भारत में आश्रम-व्यवस्था द्वारा मनुष्य के व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन को नियन्त्रित कर व्यवस्थित किया गया था। 100 वर्ष की सम्भावित आयु का केवल चौथाई भाग (25 वर्ष) ही गृहस्थाश्रम के लिए था। व्यक्ति का शेष जीवन शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों के विकास तथा समाज-सेवा में ही बीतता था। गृहस्थ जीवन में भी संयम पर बल दिया जाता था। इस प्रकार प्राचीन भारत का जीवन मुख्यतः आध्यात्मिक और सामाजिक था, जिसमें व्यक्तिगत सुख-भोग की गुंजाइश कम थीं। आध्यात्मिक वातावरण की चतुर्दिक व्याप्ति के कारण लोगों की स्वाभाविक प्रवृत्ति ब्रह्मचर्य, संयम और सादे जीवन की ओर थी। फिर उस समय विशाल भू-भाग में जंगल फैले हुए थे, नगर कम थे। अधिकांश लोग ग्रामों में या ऋषियों के आश्रमों में रहते थे, जहाँ प्रकृति के निकट-सम्पर्क से उनमें सात्त्विक भावों का संचार होता था। आज परिस्थिति उल्टी है। आश्रम-व्यवस्था के नष्ट हो जाने के कारण लोग युवावस्था से लेकर मृत्युपर्यन्त गृहस्थ ही बने रहते हैं, जिससे सन्तानोत्पत्ति में निरन्तर वृद्धि हुई है|

ग्रामों में कृषि योग्य भूमि सीमित है। सरकार द्वारा भारी उद्योगों को बढ़ावा दिये जाने से हस्तशिल्प और कुटीर उद्योग चौपट हो गये हैं, जिससे गाँवों को आर्थिक ढाँचा लड़खड़ा गया है। इस प्रकार सरकार द्वारा गाँवों की लगातार उपेक्षा के कारण वहाँ विकास के अवसर अनुपलब्ध होते जा रहे हैं, जिससे ग्रामीण युवक नगरों की ओर भाग रहे हैं, जिससे ग्राम-प्रधान भारत शहरीकरण का कारण बनता जा रहा है। उधर शहरों में स्वस्थ मनोरंजन के साधन स्वल्प होने से अपेक्षाकृत सम्पन्न वर्ग को प्रायः सिनेमा या दूरदर्शन पर ही निर्भर रहना पड़ता है, जो कृत्रिम पाश्चात्य जीवन-पद्धति का प्रचार कर वासनाओं को उभारता है। इसके अतिरिक्त बाल-विवाह, गर्म जलवायु, रूढ़िवादिता, चिकित्सा-सुविधाओं के कारण मृत्यु-दर में कमी आदि भी जनसंख्या वृद्धि की समस्या को विस्फोटक बनाने में सहायक हुए हैं।

जनसंख्या-वृद्धि को नियन्त्रित करने के उपाय–जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करने का सबसे स्वाभाविक और कारगर उपाय तो संयम या ब्रह्मचर्य ही है। इससे नर, नारी, समाज और देश सभी का कल्याण है, किन्तु वर्तमान भौतिकवादी युग में जहाँ अर्थ और काम ही जीवन का लक्ष्य बन गये हैं, वहाँ ब्रह्मचर्य- पालन आकाश-कुसुम हो गया है। फिर सिनेमा, पत्र-पत्रिकाएँ, दूरदर्शन आदि प्रचार के माध्यम भी वासना को उद्दीप्त करके पैसा कमाने में लगे हैं। उधर अशिक्षा और बेरोजगारी इसे हवा दे रही है। फलतः सबसे पहले आवश्यकता यह है कि भारत अपने प्राचीन स्वरूप को पहचानकर अपनी प्राचीन संस्कृति को उज्जीवित करे। प्राचीन भारतीय संस्कृति, जो अध्यात्म-प्रधान है, के उज्जीवन से लोगों में संयम की ओर स्वाभाविक प्रवृत्ति बढ़ेगी, जिससे नैतिकता को बल मिलेगा और समाज में विकराल रूप धारण करती आपराधिक प्रवृत्तियों पर स्वाभाविक अंकुश लगेगा; क्योंकि कितनी ही वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय समस्याएँ व्यक्ति के चरित्रोन्नयन से हल हो सकती हैं। भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए अंग्रेजी की शिक्षा को बहुत सीमित करके संस्कृत और भारतीय भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन पर विशेष बल देना होगा।

इसके अतिरिक्त पश्चिमी देशों की होड़ में सम्मिलित होने का मोह त्यागकर अपने देशी उद्योग-धन्धों, हस्तशिल्प आदि को पुन: जीवनदान देना होगा। भारी उद्योग उन्हीं देशों के लिए उपयोगी हैं, जिनकी जनसंख्या बहुत कम है; अत: कम हाथों से अधिक उत्पादन के लिए भारी उद्योगों की स्थापना की जाती है। भारत जैसे विपुल जनसंख्या वाले देश में लघु-कुटीर उद्योगों के प्रोत्साहन की आवश्यकता है, जिससे अधिकाधिक लोगों को रोजगार मिल सके और हाथ के कारीगरों को अपनी प्रतिभा के प्रकटीकरण एवं विकास का अवसर मिल सके।

जनसंख्या-वृद्धि को नियन्त्रित करने के लिए लड़के-लड़कियों की विवाह-योग्य आयु बढ़ाना भी उपयोगी रहेगा। साथ ही समाज में पुत्र और पुत्री के सामाजिक भेदभाव को कम करना होगा। पुत्र-प्राप्ति के लिए सन्तानोत्पत्ति का क्रम बनाये रखने की अपेक्षा छोटे परिवार को ही सुखी जीवन का आधार बनाया जाना चाहिए तथा सरकार की ओर से सन्तति निरोध का कड़ाई से पालन कराया जाना चाहिए।

इसके अतिरिक्त प्रचार-माध्यमों पर प्रभावी नियन्त्रण के द्वारा सात्त्विक, शिक्षाप्रद एवं नैतिकता के पोषक मनोरंजन उपलब्ध कराये जाने चाहिए। ग्रामों में सस्ते-स्वस्थ मनोरंजन के रूप में लोक-गीतों, लोक-नाट्यों (नौटंकी, रास, रामलीला, स्वांग आदि), कुश्ती, खो-खो आदि की पुरानी परम्परा को नये स्वरूप प्रदान करने की आवश्यकता है। साथ ही जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों से भी ग्रामीण और अशिक्षित जनता को भली-भाँति अवगत कराया जाना चाहिए।

जहाँ तक परिवार नियोजन के कृत्रिम उपायों के अवलम्बन का प्रश्न है, उनका भी सीमित उपयोग किया जा सकता है। वर्तमान युग में जनसंख्या की अति त्वरित-वृद्धि पर तत्काल प्रभावी नियन्त्रण के लिए गर्भ-निरोधक ओषधियों एवं उपकरणों का प्रयोग आवश्यक हो गया है। परिवार नियोजन में देशी जड़ी-बूटियों के उपयोग पर भी अनुसन्धान चल रहा है। सरकार ने अस्पतालों और चिकित्सालयों में नसबन्दी की व्यवस्था की है तथा परिवार नियोजन से सम्बद्ध कर्मचारियों के प्रशिक्षण के लिए केन्द्र एवं राज्य स्तर पर अनेक प्रशिक्षण संस्थान भी खोले हैं।

उपसंहार-जनसंख्या-वृद्धि को नियन्त्रित करने का वास्तविक स्थायी उपाय तो सरल और सात्त्विक जीवन-पद्धति अपनाने में ही निहित है, जिसे प्रोत्साहित करने के लिए सरकार को ग्रामों के आर्थिक विकास पर विशेष ध्यान देना चाहिए, जिससे ग्रामीणों का आजीविका की खोज में शहरों की ओर पलायन रुक सके। वस्तुतः ग्रामों के सहज प्राकृतिक वातावरण में संयम जितना सरल है, उतना शहरों के घुटन भरे आडम्बरयुक्त जीवन में नहीं। शहरों में भी प्रचार-माध्यमों द्वारा प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रचार एवं स्वदेशी भाषाओं की शिक्षा पर ध्यान देने के साथ-साथ ही परिवार नियोजन के कृत्रिम उपायों–विशेषतः आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों के प्रयोग पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। समान नागरिक आचार-संहिता प्राथमिक आवश्यकता है, जिसे विरोध के बावजूद अविलम्ब लागू किया जाना चाहिए। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जनसंख्या-वृद्धि की दर घटाना आज के युग की सर्वाधिक जोरदार माँग है, जिसकी उपेक्षा आत्मघाती होगी।

आतंकवाद : समस्या एवं समाधान [2009, 15, 18]

सम्बद्ध शीर्षक

  • आतंकवाद के निराकरण के उपाय
  • आतंकवाद : एक चुनौती [2017]
  • आतंकवाद की विभीषिका
  • भारत में आतंकवाद की समस्या [2012]
  • आतंकवाद : एक समस्या [2014]
  • आतंकवाद : कारण और निवारण
  • आतंकवाद का समाधान
  • भारत में आतंकवाद के बढ़ते कदम [2013, 14]
  • भारत में आतंकवाद की समस्या और समाधान [2013, 16]

प्रमुख विचार-विन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. आतंकवाद का अर्थ,
  3. आतंकवाद : एक विश्वव्यापी समस्या,
  4. भारत में आतंकवाद,
  5. जिम्मेदार कौन ?
  6. आतंकवाद के विविध रूप,
  7. आतंकवाद का समाधान,
  8. उपसंहार

प्रस्तावना मनुष्य भय से निष्क्रिय और पलायनवादी बन जाता है। इसीलिए लोगों में भय उत्पन्न करके कुछ असामाजिक तत्त्व अपने नीच स्वार्थों की पूर्ति करने का प्रयास करने लगते हैं। इस कार्य के लिए वे हिंसापूर्ण साधनों का प्रयोग करते हैं। ऐसी स्थितियाँ ही आतंकवाद का आधार हैं। आतंक फैलाने वाले आतंकवादी कहलाते हैं। ये कहीं से बनकर नहीं आते। ये भी समाज के एक ऐसे अंग हैं जिनका काम आतंकवाद के माध्यम से किसी धर्म, समाज अथवा राजनीति का समर्थन कराना होता है। ये शासन का विरोध करने में बिलकुल नहीं हिचकते तथा जनता को अपनी बात मनवाने के लिए विवश करते रहते हैं।

आतंकवाद का अर्थ-‘आतंक + वाद’ से बने इस शब्द का सामान्य अर्थ है-आतंक का सिद्धान्त। यह अंग्रेजी के टेररिज़्म शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। ‘आतंक’ का अर्थ होता है-पीड़ा, डर, आशंका। इस प्रकार आतंकवाद एक ऐसी विचारधारा है, जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बल प्रयोग में विश्वास रखती है। ऐसा बल-प्रयोग प्रायः विरोधी वर्ग, समुदाय या सम्प्रदाय को भयभीत करने और उस पर अपनी प्रभुता स्थापित करने की दृष्टि से किया जाता है। आतंक, मौत, त्रास ही इनके लिए सब कुछ होता है। आतंकवादी यह नहीं जानते कि—

कौन कहता है कि मौत को अंजाम होना चाहिए।
जिन्दगी को जिन्दगी का पैगाम होना चाहिए ।|

आतंकवाद : एक विश्वव्यापी समस्या–आज लगभग समस्त विश्व में आतंकवाद सक्रिय है। ये आतंकवादी समस्त विश्व में राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए सार्वजनिक हिंसा और हत्याओं का सहारा ले रहे हैं। भौतिक दृष्टि से विकसित देशों में तो आतंकवाद की इस प्रवृत्ति ने विकराल रूप ले लिया है। कुछ आतंकवादी गुटों ने तो अपने अन्तर्राष्ट्रीय संगठन बना लिये हैं। जे० सी० स्मिथ अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘लीगल कण्ट्रोल ऑफ इण्टरनेशनल टेररिज़्म’ में लिखते हैं कि इस समय संसार में जैसा तनावपूर्व वातावरण बना हुआ है, उसको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भविष्य में अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद में और तेजी आएगी। किसी देश द्वारा अन्य देश में आतंकवादी गुटों को समर्थन देने की घटनाएँ बढ़ेगी; राजनयिकों की हत्याएँ, विमान-अपहरण की घटनाएँ बढ़ेगी और रासायनिक हथियारों का प्रयोग अधिक तेज होगा। श्रीलंका में तमिलों, जापान में रेड आर्मी, भारत में सिक्ख-होमलैण्ड और स्वतन्त्र कश्मीर चाहने वालों आदि के हिंसात्मक संघर्ष आतंकवाद की श्रेणी में आते हैं।

भारत में आतंकवाद–स्वाधीनता के पश्चात् भारत के विभिन्न भागों में अनेक आतंकवादी संगठनों द्वारा आतंकवादी हिंसा फैलायी गयी। इन्होंने बड़े-बड़े सरकारी अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया और इतना आतंक फैलाया कि अनेक अधिकारियों ने सेवा से त्यागपत्र दे दिये। भारत के पूर्वी राज्यों नागालैण्ड, मिजोरम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल और असोम में भी अनेक बार उग्र आतंकवादी हिंसा फैली, किन्तु अब यहाँ असम के बोडो आतंकवाद को छोड़कर शेष सभी शान्त हैं। बंगाल के नक्सलवाड़ी से जो नक्सलवादी आतंकवाद पनपा था, वह बंगाल से बाहर भी खूब फैला। बिहार तथा आन्ध्र प्रदेश अभी भी उसकी भयंकर आग से झुलस रहे हैं।

कश्मीर घाटी में भी पाकिस्तानी तत्त्वों द्वारा प्रेरित आतंकवादी प्रायः राष्ट्रीय पर्वो (15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्टूबर आदि) पर भयंकर हत्याकाण्ड कर अपने अस्तित्व की घोषणा करते रहते हैं। इन्होंने कश्मीर की सुकोमल घाटी को अपनी आतंकवादी गतिविधियों का केन्द्र बनाया हुआ है। आये दिन निर्दोष लोगों की हत्याएँ की जा रही हैं और उन्हें आतंकित किया जा रहा है, जिससे वे अपने घर, दुकानें और कारखाने छोड़कर भाग खड़े हों। ऐसा कोई भी दिन नहीं बीतता जिस दिन समाचार-पत्रों में किसी आतंकवादी घटना में दस-पाँच लोगों के मारे जाने की खबर न छपी हो। स्वातन्त्र्योत्तर आतंकवादी गतिविधियों में सबसे भयंकर रहा पंजाब का आतंकवाद। बीसवीं शताब्दी की नवी दशाब्दी में पंजाब में जो कुछ हुआ, उससे पूरा देश विक्षुब्ध और हतप्रभ रह गया।

पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित सीमा पार से कश्मीर और अब देश के अन्य भागों में बरपायी जाने वाली और दिल दहला देने वाली घटनाएँ आतंकवाद का सबसे घिनौना रूप हैं। सीमा पार के आतंकवादी हमलों में अब तक एक लाख से भी अधिक लोगों की जाने जा चुकी हैं। हाल के वर्षों में संसद पर हमला हुआ, इण्डियन एयर लाइन्स के विमान 814 का अपहरण कर उसे कन्धार ले जाया गया, फिर चिट्टी सिंहपुरा में सिक्खों का कत्लेआम किया गया, अमरनाथ यात्रियों पर हमले किये गये तथा मुंबई में रेलवे स्टेशन व होटल ताज पर हमला किया गया।

जिम्मेदार कौन ?-आतंकवादी गतिविधियों को गुप्त और अप्रत्यक्ष रूप से प्रश्रय देने वाला अमेरिका भी अन्ततः अपने खोदे हुए गड्ढे में खुद ही गिर गया। राजनैतिक मुखौटों में छिपी उसकी काली करतूतें अविश्वसनीय रूप से उजागर हो गयीं जब उसके प्रसिद्ध शहर न्यूयॉर्क में 11 सितम्बर, 2001 को ‘वर्ल्ड ट्रेड टावर’ पर आतंकवादी हमला हुआ। अन्य देशों पर हमले करवाने में अग्रगण्य इस देश पर हुए इस वज्रपात पर सारा संसार अचम्भित रह गया। ओसामा बिन लादेन’ नामक हमले के उत्तरदायी आतंकवादी को ढूंढने में अमेरिकी सरकार ने जो सरगर्मियाँ दिखायीं उसने सिद्ध कर दिया कि जब तक कोई देश स्वयं पीड़ा नहीं झेलता तब तक उसे पराये की पीड़ा का अनुभव नहीं हो सकता। भारत वर्षों से चीख-चीख कर सारे विश्व के सामने यह अनुरोध करता आया था कि पाकिस्तान अमेरिका द्वारा दी गयी आर्थिक और अस्त्र-शस्त्र सम्बन्धी सहायता का उपयोग भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों के लिए कर रहा है, अत: अमेरिका पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित करे और उसे किसी भी किस्म की सहायता देना बन्द करे; किन्तु भारतीयों की मृत्यु के लिए अमेरिका के पास उत्तर था-

खत्म होगा न जिन्दगी का सफर ।
मौत बस रास्ता बदलती है।

जैसे भारतीयों पर होने वाले इस प्रकार के हमले कोई मायने ही नहीं रखते। यदि किसी मायूस बच्चे से भी पूछे तो अनवरत आतंकवादी गतिविधियों के शिकार-क्षेत्र का वह निवासी बस यूँ ही कुछ कह सकेगा–

वैसे तो तजुर्बे की खातिर, नाकाफी है यह उम्र मगर।
हमने तो जरा से अरसे में, मत पूछिए क्या-क्या देखा है ॥

आतंकवाद के विविध रूप-भारत के आतंकवादी गतिविधि निरोधक कानून 1985 में आतंकवाद पर विस्तार से विचार किया गया है और आतंकवाद को तीन भागों में बाँटा गया है-

  1. समाज के एक वर्ग विशेष को अन्य वर्गों से अलग-थलग करने और समाज के विभिन्न वर्गों के . बीच व्याप्त आपसी सौहार्द को खत्म करने के लिए की गयी हिंसा।
  2. ऐसा कोई कार्य, जिसमें ज्वलनशील, बम तथा आग्नेयास्त्रों का प्रयोग किया गया हो।
  3. ऐसी हिंसात्मक कार्यवाही, जिसमें एक या उससे अधिक व्यक्ति मारे गये हों या घायल हुए हों, आवश्यक सेवाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा हो तथा सम्पत्ति को हानि पहुँची हो। इसके अन्तर्गत प्रमुख व्यक्तियों का अपहरण या हत्या या उन्हें छोड़ने के लिए सरकार के सामने उचित-अनुचित माँगें रखना, वायुयानों का अपहरण, बैंक डकैतियाँ आदि सम्मिलित हैं।

आतंकवाद को समाधान-भारत में विषमतम स्थिति तक पहुँचे आतंकवाद के समाधान पर सम्पूर्ण देश के विचारकों और चिन्तकों ने अनेक सुझाव रखे, किन्तु यह समस्या अभी भी अनसुलझी ही है।

इस समस्या का वास्तविक हल ढूँढ़ने के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि साम्प्रदायिकता का लाभ उठाने वाले सभी राजनीतिक दलों की गतिविधियों में परिवर्तन हो। साम्प्रदायिकता के इस दोष से आज भारत के सभी राजनीतिक दल न्यूनाधिक रूप में दूषित अवश्य हैं।

दूसरे, सीमा-पार से प्रशिक्षित आतंकवादियों के प्रवेश और वहाँ से भेजे जाने वाले हथियारों व विस्फोटक पदार्थों पर कड़ी चौकसी रखनी होगी तथा सुरक्षा बलों को आतंकवादियों की अपेक्षा अधिक अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से लैस करना होगा।

तीसरे, आतंकवाद को महिमामण्डित करने वाली युवकों की मानसिकता बदलने के लिए आर्थिक सुधार करने होंगे।
चौथे, राष्ट्र की मुख्यधारा के अन्तर्गत संविधान का पूर्णतः पालन करते हुए पारस्परिक विचार-विमर्श से सिक्खों, कश्मीरियों और असमियों की माँगों को न्यायोचित समाधान करना होगा और तुष्टीकरण की नीति को त्यागकर समग्र राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता की भावना को जाग्रत करना होगा।

पाँचवें कश्मीर के आतंकवाद को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सख्ती से कुचलना होगा। इसके लिए सभी राजनैतिक दलों को सार्थक पहल करनी होगी।
यदि सम्बन्धित पक्ष इन बातों का ईमानदारी से पालन करें तो इस महारोग से मुक्ति सम्भव है।

उपसंहार—यह एक विडम्बना ही है कि महावीर, बुद्ध, गुरु नानक और महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषों की जन्मभूमि पिछले कुछ दशकों से सबसे अधिक अशान्त हो गयी है। देश की 121 करोड़ जनता ने हिंसा की सत्ता को स्वीकार करते हुए इसे अपने दैनिक जीवन का अंग मान लिया है। भारत के विभिन्न भागों में हो रही आतंकवादी गतिविधियों ने देश की एकता और अखण्डता के लिए संकट उत्पन्न कर दिया है। आतंकवाद का समूल नाश ही इस समस्या का समाधान है। टाडा के स्थान पर भारत सरकार द्वारा एक नया आतंकवाद निरोधक कानून पोटा लाया गया जिसे दूसरी सरकार ने यह कहते हुए कि ये सख्त और व्यापक कानून आतंकवाद को समाप्त करने की गारण्टी नहीं है; इन्हें समाप्त कर दिया। आतंकवाद पर सम्पूर्णता से अंकुश लगाने की इच्छुक सरकार को अपने उस प्रशासनिक तन्त्र को भी बदलने पर विचार करना चाहिए, जो इन कानूनों पर अमल नहीं करता है, तब ही इस समस्या का स्थायी समाधान निकल पाएगा।

पर्यावरण-प्रदूषण : समस्या और समाधान [2009, 10, 11, 13, 14, 17, 18]

सम्बद्ध शीर्षक

  • पर्यावरण और प्रदूषण [2011]
  • पर्यावरण का महत्त्व
  • बढ़ता प्रदूषण और उसके कारण
  • बढ़ता प्रदूषण और पर्यावरण
  • प्रदूषण के दुष्परिणाम
  • पर्यावरण संरक्षण का महत्त्व [2013]
  • असन्तुलित पर्यावरण : प्राकृतिक आपदाओं का कारण [2014]
  • विश्व परिदृश्य में पर्यावरण प्रदूषण
  • धरती की रक्षा : पर्यावरण सुरक्षा [2013, 15, 16, 18]
  • पर्यावरण-प्रदूषण : कारण और निवारण [2014, 15]
  • पर्यावरण-असन्तुलन [2015]

प्रागविगार-

  1. प्रस्तावना, तूपण का अर्थ,
  2. प्रदूषण के प्रकार–(क) वायुदु; (ख) जल-प्रदूषण; (ग) ध्वनिप्र ;
  3. रेडियोधर्मी प्रदूषण, (ङ) रासायनिक प्रदूषण,
  4. प्रदूषण की समस्या तथा उससे हानि,
  5. समस्या का समाधान,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-जो हमें चारों ओर से परिवृत किये हुए है, वहीं हमारा पर्यावरण है। इस पर्यावरण के प्रति जागरूकता आज की प्रमुख आवश्यकता है; क्योंकि यह प्रदूषित हो रहा है। प्रदूषण की समस्या प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत के लिए अज्ञात थी। यह वर्तमान युग में हुई औद्योगिक प्रगति एवं शस्त्रास्त्रों के निर्माण के फलस्वरूप उत्पन्न हुई है। आज इसने इतना विकराल रूप धारण कर लिया है कि इससे मानवता के विनाश का संकट उत्पन्न हो गया है। मानव-जीवन मुख्यत: स्वच्छ वायु और जल पर निर्भर है, किन्तु यदि ये दोनों ही चीजें दूषित हो जाएँ तो मानव के अस्तित्व को ही भय पैदा होना स्वाभाविक है; अतः इस भयंकर समस्या के कारणों एवं उनके निराकरण के उपायों पर विचार करना मानवमात्र के हित में है। ध्वनि प्रदूषण पर अपने विचार व्यक्त करते हुए नोबेल पुरस्कार विजेता रॉबर्ट कोच ने कहा था, “एक दिन ऐसा आएगा जब मनुष्य को स्वास्थ्य के सबसे बड़े शत्रु के रूप में निर्दयी शोर से संघर्ष करना पड़ेगा।” लगता है कि वह दुःखद दिन अब आ गया है।

प्रदूषण का अर्थ-स्वच्छ वातावरण में ही जीवन का विकास सम्भव है। पर्यावरण का निर्माण प्रकृति के द्वारा किया गया है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त पर्यावरण जीवधारियों के अनुकूल होता है। जब इस पर्यावरण में किन्हीं तत्त्वों का अनुपात इस रूप में बदलने लगता है, जिसका जीवधारियों के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की सम्भावना होती है तब कहा जाता है कि पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। यह प्रदूषित वातावरण जीवधारियों के लिए अनेक प्रकार से हानिकारक होता है। जनसंख्या की असाधारण वृद्धि एवं औद्योगिक प्रगति ने प्रदूषण की समस्या को जन्म दिया है और आज इसने इतना विकराल रूप धारण कर लिया है कि इससे मानवता के विनाश का संकट उत्पन्न हो गया है। औद्योगिक तथा रासायनिक कूड़े-कचरे के ढेर से पृथ्वी, हवा तथा पानी प्रदूषित हो रहे हैं।

प्रदूषण के प्रकार-आज के वातावरण में प्रदूषण निम्नलिखित रूपों में दिखाई पड़ता है
(क) वायु-प्रदूषण-वायु जीवन का अनिवार्य स्रोत है। प्रत्येक प्राणी को स्वस्थ रूप से जीने के लिए शुद्ध वायु की आवश्यकता होती है, जिस कारण वायुमण्डल में इसका विशेष अनुपात होना आवश्यक है। जीवधारी साँस द्वारा ऑक्सीजन ग्रहण करता है और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ता है। पेड़-पौधे कार्बन डाइ- ऑक्साइड लेते हैं और हमें ऑक्सीजन प्रदान करते हैं। इससे वायुमण्डल में शुद्धता बनी रहती है, परन्तु मनुष्य की अज्ञानता और स्वार्थी प्रवृत्ति के कारण आज वृक्षों का अत्यधिक कटाव हो रहा है। घने जंगलों से ढके पहाड़ आज नंगे दीख पड़ते हैं। इससे ऑक्सीजन का सन्तुलन बिगड़ गया है और वायु अनेक हानिकारक गैसों से प्रदूषित हो गयी है। इसके अलावा कोयला, तेल, धातुकणों तथा कारखानों की चिमनियों के धुएँ से हवा में अनेक हानिकारक गैसें भर गयी हैं, जो प्राचीन इमारतों, वस्त्रों, धातुओं तथा मनुष्यों के फेफड़ों के लिए अत्यन्त घातक हैं।

(ख) जल-प्रदूषण-जीवन के अनिवार्य स्रोत के रूप में वायु के बाद प्रथम आवश्यकता जल की ही होती है। जल को जीवन कहा जाता है। जल का शुद्ध होना स्वस्थ जीवन के लिए बहुत आवश्यक है। देश के प्रमुख नगरों के जल का स्रोत हमारी सदानीरा नदियाँ हैं, फिर भी हम देखते हैं कि बड़े-बड़े नगरों के गन्दे नाले तथा सीवरों को नदियों से जोड़ दिया जाता है। विभिन्न औद्योगिक व घरेलू स्रोतों से नदियों व अन्य जल-स्रोतों में दिनों-दिन प्रदूषण पनपता जा रहा है। तालाबों, पोखरों व नदियों में जानवरों को नहलाना, मनुष्यों एवं जानवरों के मृत शरीर को जल में प्रवाहित करना आदि ने जल-प्रदूषण में बेतहाशा वृद्धि की है। कानपुर, आगरा, मुम्बई, अलीगढ़ और न जाने कितने नगरों के कल-कारखानों का कचरा गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों को प्रदूषित करता हुआ सागर तक पहुँच रहा है।

(ग) ध्वनि-प्रदूषण-ध्वनि-प्रदूषण आज की एक नयी समस्या है। इसे वैज्ञानिक प्रगति ने पैदा किया है। मोटरकार, ट्रैक्टर, जेट विमान, कारखानों के सायरन, मशीनें, लाउडस्पीकर आदि ध्वनि के सन्तुलन को बिगाड़कर ध्वनि-प्रदूषण उत्पन्न करते हैं। तेज ध्वनि से श्रवण-शक्ति का ह्रास तो होता ही है, साथ ही कार्य करने की क्षमता पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं। अत्यधिक ध्वनि-प्रदूषण से मानसिक विकृति तक हो सकती है।

(घ) रेडियोधर्मी प्रदूषण-आज के युग में वैज्ञानिक परीक्षणों का जोर है। परमाणु परीक्षण निरन्तर होते ही रहते हैं। इनके विस्फोट से रेडियोधर्मी पदार्थ वायुमण्डल में फैल जाते हैं और अनेक प्रकार से जीवन को क्षति पहुँचाते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के समय हिरोशिमा और नागासाकी में जो परमाणु बम गिराये गये थे, उनसे लाखों लोग अपंग हो गये थे और आने वाली पीढ़ी भी इसके हानिकारक प्रभाव से अभी भी अपने को बचा नहीं पायी है।

(ङ) रासायनिक प्रदूषण-कारखानों से बहते हुए अवशिष्ट द्रव्यों के अतिरिक्तं उपज में वृद्धि की दृष्टि से प्रयुक्त कीटनाशक दवाइयों और रासायनिक खादों से भी स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ये पदार्थ पानी के साथ बहकर नदियों, तालाबों और अन्तत: समुद्र में पहुँच जाते हैं और जीवन को अनेक प्रकारे से हानि पहुँचाते हैं।

प्रदूषण की समस्या तथा उससे हानियाँ-निरन्तर बढ़ती हुई मानव जनसंख्या, रेगिस्तान का बढ़ते जाना, भूमि का कटाव, ओजोन की परत का सिकुड़ना, धरती के तापमान में वृद्धि, वनों के विनाश तथा औद्योगीकरण ने विश्व के सम्मुख प्रदूषण की समस्या पैदा कर दी है। कारखानों के धुएँ से, विषैले कचरे के बहाव से तथा जहरीली गैसों के रिसाव से आज मानव-जीवन समस्याग्रस्त हो गया है। आज तकनीकी ज्ञान के बल पर मानव विकास की दौड़ में एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में लगा है। इस होड़ में वह तकनीकी ज्ञान का ऐसा गलत उपयोग कर रहा है, जो सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए विनाश का कारण बन सकता है।

युद्ध में आधुनिक तकनीकों पर आधारित मिसाइलों और प्रक्षेपास्त्रों ने जन-धन की अपार क्षति तो की ही है साथ ही पर्यावरण पर भी घातक प्रभाव डाला है, जिसके परिणामस्वरूप स्वास्थ्य में गिरावट, उत्पादन में कमी और विकास प्रक्रिया में बाधा आयी है। वायु-प्रदूषण का गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव मनुष्यों एवं अन्य प्राणियों के स्वास्थ्य पर पड़ता है। सिरदर्द, आँखें दुखना, खाँसी, दमा, हृदय रोग आदि किसी-न-किसी रूप में वायु प्रदूषण से जुड़े हुए हैं। प्रदूषित जल के सेवन से मुख्य रूप से पाचन-तन्त्र सम्बन्धी रोग उत्पन्न होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रति वर्ष लाखों बच्चे दूषित जल पीने के परिणामस्वरूप उत्पन्न रोगों से मर जाते हैं। ध्वनि-प्रदूषण के भी गम्भीर और घातक प्रभाव पड़ते हैं। ध्वनि-प्रदूषण (शोर) के कारण शारीरिक और मानसिक तनाव तो बढ़ता ही है, साथ ही श्वसन-गति और नाड़ी-गति में उतार-चढ़ाव, जठरान्त्र की गतिशीलता में कमी तथा रुधिर परिसंचरण एवं हृदय पेशी के गुणों में भी परिवर्तन हो जाता है तथा प्रदूषणजन्य अनेकानेक बीमारियों से पीड़ित मनुष्य समय से पूर्व ही मृत्यु का ग्रास बन जाता है।

समस्या का समाधान-महान् शिक्षाविदों और नीति-निर्माताओं ने इस समस्या की ओर गम्भीरता से ध्यान दिया है। आज विश्व का प्रत्येक देश इस ओर सजग है। वातावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए वृक्षारोपण सर्वश्रेष्ठ साधन है। मानव को चाहिए कि वह वृक्षों और वनों को कुल्हाड़ियों का निशाना बनाने के बजाय उन्हें फलते-फूलते देखे तथा सुन्दर पशु-पक्षियों को अपना भोजन बनाने के बजाय उनकी सुरक्षा करे। साथ ही भविष्य के प्रति आशंकित, आतंकित होने से बचने के लिए सबको देश की असीमित बढ़ती जनसंख्या को सीमित करना होगा, जिससे उनके आवास के लिए खेतों और वनों को कम न करना पड़े। कारखाने और मशीनें लगाने की अनुमति उन्हीं व्यक्तियों को दी जानी चाहिए, जो औद्योगिक कचरे और मशीनों के धुएँ को बाहर निकालने की समुचित व्यवस्था कर सकें।

संयुक्त राष्ट्र संघ को चाहिए कि वह परमाणु-परीक्षणों को नियन्त्रित करने की दिशा में कदम उठाये। तकनीकी ज्ञान का उपयोग खोये हुए पर्यावरण को फिर से प्राप्त करने पर बल देने के लिए किया जाना चाहिए। वायु-प्रदूषण से बचने के लिए हर प्रकार की गन्दगी एवं कचरे को विधिवत् समाप्त करने के उपाय निरन्तर किये जाने चाहिए। जल-प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए औद्योगिक संस्थानों में ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि व्यर्थ पदार्थों एवं जल को उपचारित करके ही बाहर निकाला जाए तथा इनको जल-स्रोतों से मिलने से रोका जाना चाहिए। इंग्लैण्ड में लन्दन का मैला पहले टेम्स नदी में गिरकर जल को दूषित करता था। अब वहाँ की सरकार ने टेम्स नदी के पास एक विशाल कारखाना बनाया है, जिसमें लन्दन की सारी गन्दगी और मैला मशीनों से साफ होकर उत्तम खाद बन जाती है और साफ पानी टेम्स नदी में छोड़ दिया जाता है। अब इस पानी में मछलियाँ पहले से कहीं अधिक संख्या में पैदा हो रही हैं। ध्वनि-प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए भी प्रभावी उपाय किये जाने चाहिए। सार्वजनिक रूप से लाउडस्पीकरों आदि के प्रयोग को नियन्त्रित किया जाना चाहिए।

उपसंहार--पर्यावरण में होने वाले प्रदूषण को रोकने व उसके समुचित संरक्षण के लिए समस्त विश्व में एक नयी चेतना उत्पन्न हुई है। हम सभी का उत्तरदायित्व है कि चारों ओर बढ़ते इस प्रदूषित वातावरण के खतरों के प्रति सचेत हों तथा पूर्ण मनोयोग से सम्पूर्ण परिवेश को स्वच्छ व सुन्दर बनाने का यत्न करें। वृक्षारोपण का कार्यक्रम सरकारी स्तर पर जोर-शोर से चलाया जा रहा है तथा वनों की अनियन्त्रित कटाई को रोकने के लिए भी कठोर नियम बनाये गये हैं। इस बात के भी प्रयास किये जा रहे हैं। कि नये वन-क्षेत्र बनाये जाएँ और जनसामान्य को वृक्षारोपण के लिए प्रोत्साहित किया जाए। इधर न्यायालय द्वारा प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को महानगरों से बाहर ले जाने के आदेश दिये गये हैं तथा नये उद्योगों को लाइसेन्स दिये जाने से पूर्व उन्हें औद्योगिक कचरे के निस्तारण की समुचित व्यवस्था कर पर्यावरण विशेषज्ञों से स्वीकृति प्राप्त करने को अनिवार्य कर दिया गया है। यदि जनता भी अपने ढंग से इन कार्यक्रमों में सक्रिय सहयोग दे और यह संकल्प ले कि जीवन में आने वाले प्रत्येक शुभ अवसर पर कम-से-कम एक वृक्ष अवश्य लगाएगी तो निश्चित ही हम प्रदूषण के दुष्परिणामों से बच सकेंगे और आने वाली पीढ़ी को भी इसकी काली छाया से बचाने में समर्थ हो सकेंगे।

भारत में भ्रष्टाचार की समस्या

सम्बद्ध शीर्षक

  • भ्रष्टाचार : समस्या और निराकरण [2011, 12, 13]
  • भ्रष्टाचार : कारण और निवारण (2011, 13, 14, 15)
  • भ्रष्टाचार से निपटने के उपाय [2009]
  • भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन-जागरण [2012]
  • भ्रष्टाचार उन्मूलन : एक बड़ी समस्या [2012, 13]
  • भ्रष्टाचार : उन्मूलन-समस्या : समाधान (2016)
  • भ्रष्टाचार : एक सामाजिक बुराई [2012]
  • भ्रष्टाचार-नियन्त्रण में युवा वर्ग का योगदान [2013, 14, 18]
  • भ्रष्टाचार-निवारण [2013]
  • भ्रष्टाचार : महान् अभिशाप [2013]

प्रमुख विचार-विन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. प्रचार के विविध रूप—(क) राजनीतिक प्रष्टाचार; (ख) प्रशासनिक प्रष्टाचार, (ग) व्यावसायिक टाचार; (घ) शैक्षणिक भ्रष्टाचार,
  3. भ्रष्टाचार के कारण,
  4. प्रष्टाचार दूर करने के उपाय—(क) प्राचीन भारतीय संस्कृति को प्रोत्साहन; (ख) चुनाव-प्रक्रिया में परिवर्तन; (ग) अस्वाभाविक प्रतिबन्यों की समाप्ति; (घ) कर प्रणाली का सरलीकरण, (ङ) शासन और प्रशासन व्यय में कटौती; (च) देशभक्ति की प्रेरणा देना; (छ) कानून को अधिक कठोर बनाना; (ज) अष्ट व्यक्तियों का सामाजिक बहिष्कार,
  5. उपसंहारा

प्रस्तावना-भ्रष्टाचार देश की सम्पत्ति का आपराधिक दुरुपयोग है। ‘भ्रष्टाचार का अर्थ है–‘भ्रष्ट आचरण’ अर्थात् नैतिकता और कानून के विरुद्ध आचरण। जब व्यक्ति को न तो अन्दर की लज्जा या धर्माधर्म का ज्ञान रहता है (जो अनैतिकता है) और न बाहर का डर रहता है (जो कानून की अवहेलना है) तो वह संसार में,जघन्य-से-जघन्य पाप कर सकता है, अपने देश, जाति व समाज को बड़ी-से-बड़ी हानि पहुँचा सकता है, यहाँ तक कि मानवता को भी कलंकित कर सकता है। दुर्भाग्य से आज भारत इस भ्रष्टाचाररूपी सहस्रों मुख वाले दानव के जबड़ों में फँसकर तेजी से विनाश की ओर बढ़ता जा रहा है। अतः इस दारुण समस्या के कारणों एवं समाधान पर विचार करना आवश्यक है।

भ्रष्टाचार के विविध रूप—पहले किसी घोटाले की बात सुनकर देशवासी चौंक जाते थे, आज नहीं चौंकते। पहले घोटालों के आरोपी लोक-लज्जा के कारण अपना पद छोड़ देते थे, पर आज पकड़े जाने पर भी कुछ राजनेता इस शान से जेल जाते हैं, जैसे-वे किसी राष्ट्र-सेवा के मिशन पर जा रहे हों। इसीलिए समूचे प्रशासन-तन्त्र में भ्रष्ट आचरण धीरे-धीरे सामान्य बनता जा रहा है। आज भारतीय जीवन का कोई भी क्षेत्र सरकारी या गैर-सरकारी, सार्वजनिक या निजी–ऐसा नहीं, जो भ्रष्टाचार से अछूता हो। इसीलिए भ्रष्टाचार इतने अगणित रूपों में मिलता है कि उसे वर्गीकृत करना सरल नहीं है। फिर भी उसे मुख्यत: तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है—

  1. राजनीतिक,
  2. प्रशासनिक,
  3. व्यावसायिक तथा
  4. शैक्षणिक।

(क) राजनीतिक भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार का सबसे प्रमुख रूप यही है जिसकी छत्रछाया में भ्रष्टाचार के शेष सारे रूप पनपते और संरक्षण पाते हैं। इसके अन्तर्गत मुख्यत: लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव जीतने के लिए अपनाया गया भ्रष्ट आचरण आता है। संसार में ऐसा कोई भी कुकृत्य, अनाचार या हथकण्डा नहीं है जो भारतवर्ष में चुनाव जीतने के लिए न अपनाया जाता हो। कारण यह है कि चुनावों में विजयी दल ही सरकार बनाता है, जिससे केन्द्र और ‘प्रदेशों की सारी राजसत्ता उसी के हाथ में आ जाती है। इसलिए येन केन प्रकारेण’ अपने दल को विजयी बनाना ही राजनीतिज्ञों का एकमात्र लक्ष्य बन गया है। इन राजनेताओं की शनि-दृष्टि ही देश में जातीय प्रवृत्तियों को उभारती एवं देशद्रोहियों को पनपाती है। देश की वर्तमान दुरावस्था के लिए ये भ्रष्ट राजनेता ही दोषी हैं। इनके कारण देश में अनेकानेक घोटाले हुए हैं।

(ख) प्रशासनिक भ्रष्टाचार-इसके अन्तर्गत सरकारी, अर्द्ध-सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं, संस्थानों, प्रतिष्ठानों या सेवाओं (नौकरियों) में बैठे वे सारे अधिकारी आते हैं जो जातिवाद, भाई-भतीजावाद, किसी प्रकार के दबाव या कामिनी-कांचन के लोभ या अन्यान्य किसी कारण से अयोग्य व्यक्तियों की नियुक्तियाँ करते हैं, उन्हें पदोन्नत करते हैं, स्वयं अपने कर्तव्य की अवहेलना करते हैं और ऐसा करने वाले अधीनस्थ कर्मचारियों को प्रश्रय देते हैं या अपने किसी भी कार्य या आचरण से देश को किसी मोर्चे पर कमजोर बनाते हैं। चाहे वह गलत कोटा-परमिट देने वाला अफसर हो या सेना के रहस्य विदेशों के हाथ बेचने वाला सेनाधिकारी या ठेकेदारों से रिश्वत खाकर शीघ्र ढह जाने वाले पुल, सरकारी भवनों आदि का निर्माण करने वाला इंजीनियर या अन्यायपूर्ण फैसले करने वाला न्यायाधीश या अपराधी को प्रश्रय देने वाला पुलिस अफसर, भी इसी प्रकार के भ्रष्टाचार के अन्तर्गत आते हैं।

(ग) व्यावसायिक भ्रष्टाचार-इसके अन्तर्गत विभिन्न पदार्थों में मिलावट करने वाले, घटिया माल तैयार करके बढ़िया के मोल बेचने वाले, निर्धारित दर से अधिक मूल्य वसूलने वाले, वस्तु-विशेष का कृत्रिम अभाव पैदा करके जनता को दोनों हाथों से लूटने वाले, कर चोरी करने वाले तथा अन्यान्य भ्रष्ट तौर-तरीके अपनाकर देश और समाज को कमजोर बनाने वाले व्यवसायी आते हैं।

(घ) शैक्षणिक भ्रष्टाचार-शिक्षा जैसा पवित्र क्षेत्र भी भ्रष्टाचार के संक्रमण से अछूता नहीं रहा। अत: आज डिग्री से अधिक सिफारिश, योग्यता से अधिक चापलूसी का बोलबाला है। परिश्रम से अधिक बल धन में होने के कारण शिक्षा का निरन्तर पतन हो रहा है।

भ्रष्टाचार के कारण-भ्रष्टाचार की गति नीचे से ऊपर को न होकर ऊपर से नीचे को होती है अर्थात् भ्रष्टाचार सबसे पहले उच्चतम स्तर पर पनपता है और तब क्रमशः नीचे की ओर फैलता जाता है। कहावत है-‘यथा राजा तथा प्रजा’। इसका यह आशय कदापि नहीं कि भारत में प्रत्येक व्यक्ति भ्रष्टाचारी है। पर इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि भ्रष्टाचार से मुक्त व्यक्ति इस देश में अपवादस्वरूप ही मिलते हैं।

कारण है वह भौतिकवादी जीवन-दर्शन, जो अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से पश्चिम से आया है। यह जीवन-पद्धति विशुद्ध भोगवादी है-‘खाओ, पिओ और मौज करो’ ही इसका मूलमन्त्र है। यह परम्परागत भारतीय जीवन-दर्शन के पूरी तरह विपरीत है। भारतीय मनीषियों ने चार पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि को ही मानव-जीवन का लक्ष्य बताया है। मानव धर्मपूर्वक अर्थ और काम का सेवन करते हुए मोक्ष का अधिकारी बनता है। पश्चिम में धर्म और मोक्ष को कोई जानता तक नहीं। वहाँ तो बस अर्थ (धन-वैभव) और काम (सांसारिक सुख-भोग या विषय-वासनाओं की तृप्ति) ही जीवन का परम पुरुषार्थ माना जाता है। पश्चिम में जितनी भी वैज्ञानिक प्रगति हुई है, उस सबका लक्ष्य भी मनुष्य के लिए सांसारिक सुख-भोग के साधनों का अधिकाधिक विकास ही है।

भ्रष्टाचार दूर करने के उपाय-भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाये जाने चाहिए. (क) प्राचीन भारतीय संस्कृति को प्रोत्साहन-जब तक अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से भोगवादी पाश्चात्य संस्कृति प्रचारित होती रहेगी, भ्रष्टाचार कम नहीं हो सकता। अत: सबसे पहले देशी भाषाओं, विशेषत: संस्कृत, की शिक्षा अनिवार्य करनी होगी। भारतीय भाषाएँ जीवन-मूल्यों की प्रचारक और पृष्ठपोषक हैं। उनसे भारतीयों में धर्म का भाव सुदृढ़ होगा और लोग धर्मभीरु बनेंगे।

(ख) चुनाव-प्रक्रिया में परिवर्तनवर्तमान चुनाव-पद्धति के स्थान पर ऐसी पद्धति अपनानी पड़ेगी, जिसमें जनता स्वयं अपनी इच्छा से भारतीय जीवन-मूल्यों के प्रति समर्पित ईमानदार व्यक्तियों को खड़ा करके बिना धन व्यय के चुन सके। ऐसे लोग जब विधायक या संसद-सदस्य बनेंगे तो ईमानदारी और देशभक्ति का आदर्श जनता के सामने रखकर स्वच्छ शासन-प्रशासन दे सकेंगे। अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए और जो विधायक यो सांसद अवसरवादिता के कारण दल बदलें, उनकी सदस्यता समाप्त कर पुनः चुनाव में खड़े होने की व्यवस्था पर रोक लगानी होगी। जाति और धर्म के नाम का सहारा लेकर वोट माँगने वालों को चुनाव-प्रक्रिया से ही प्रतिबन्धित कर दिया जाना चाहिए। जब चपरासी और चौकीदारों के लिए भी योग्यता निर्धारित होती है, तब विधायकों और सांसदों के लिए क्यों नहीं ?

(ग) अस्वाभाविक प्रतिबन्धों की समाप्ति-सरकार ने कोटा-परमिट आदि के जो हजारों प्रतिबन्ध लगा रखे हैं, उनसे व्यापार बहुत कुप्रभावित हुआ है। फलत: व्यापारियों को विभिन्न विभागों में बैठे अफसरों को खुश करने के लिए भाँति-भाँति के भ्रष्ट हथकण्डे अपनाने पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में भले और ईमानदार लोग व्यापार की ओर उन्मुख नहीं हो पाते। इन प्रतिबन्धों की समाप्ति से व्यापार में योग्य लोग आगे आएँगे, जिससे स्वस्थ प्रतियोगिता को बढ़ावा मिलेगा और जनता को अच्छा माल सस्ती दर पर मिल सकेगा।

(घ) कर-प्रणाली का सरलीकरण-सरकार ने हजारों प्रकार के कर लगा रखे हैं, जिनके बोझ से व्यापार पनप नहीं पाता। फलत: व्यापारी को अनैतिक हथकण्डे अपनाने को विवश होना पड़ता है; अतः सरकार को सैकड़ों करों को समाप्त करके कुछ गिने-चुने कर ही लगाने चाहिए। इन करों की वसूली प्रक्रिया भी इतनी सरल और निर्धान्त हो कि अशिक्षित या अल्पशिक्षित व्यक्ति भी अपना कर सुविधापूर्वक जमा कर सके और भ्रष्ट तरीके अपनाने को बाध्य न हो। इसके लिए देशी भाषाओं का हर स्तर पर प्रयोग नितान्त वांछनीय है।

(ङ) शासन और प्रशासन व्यय में कटौती-आज देश के शासन और प्रशासन (जिसमें विदेशों में स्थित भारतीय दूतावास भी सम्मिलित हैं), पर इतना अन्धाधुन्ध व्यय हो रहा है कि जनता की कमर टूटती जा रही है। इस व्यय में तत्काल बहुत अधिक कटौती करके सर्वत्र सादगी का आदर्श सामने रखा जाना । चाहिए, जो प्राचीनकाल से ही भारतीय जीवन-पद्धति की विशेषता रही है। साथ ही केन्द्रीय और प्रादेशिक सचिवालयों तथा देश-भर के प्रशासनिक तन्त्र के बेहद भारी-भरकम ढाँचे को छाँटकर छोटा किया जाना चाहिए।

(च) देशभक्ति की प्रेरणा देना-सबसे महत्त्वपूर्ण है कि वर्तमान शिक्षा-पद्धति में आमूल-चूल परिवर्तन कर उसे देशभक्ति को केन्द्र में रखकर पुनर्गठित किया जाए। विद्यार्थी को, चाहे वह किसी भी धर्म, मत या सम्प्रदाय का अनुयायी हो, आरम्भ से ही देशभक्ति का पाठ पढ़ाया जाए। इसके लिए प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति, भारतीय महापुरुषों के जीवनचरित आदि पाठ्यक्रम में रखकर विद्यार्थी को अपने देश की मिट्टी, इसकी परम्पराओं, मान्यताओं एवं संस्कृति पर गर्व करना सिखाया जाना चाहिए।

(छ) कानून को अधिक कठोर बनाना-भ्रष्टाचार के विरुद्ध कानून को भी अधिक कठोर बनाया जाए। इसके लिए वर्षों से चर्चा का विषय बना लोकपाल विधेयक’ भी भारत जैसे देश; जहाँ प्रत्येक स्तर पर भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी ही व्याप्त हैं; के लिए नाकाफी ही है।

(ज) प्रष्ट व्यक्तियों का सामाजिक बहिष्कार-भ्रष्टाचार से किसी भी रूप में सम्बद्ध व्यक्तियों का सामाजिक बहिष्कार किया जाए, ‘अर्थात् लोग उनसे किसी भी प्रकार का सम्बन्ध न रखें। यह उपाय प्रष्टाचार रोकने में बहुत सहायक सिद्ध होगा।

उपसंहार-भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे को आता है, इसलिए जब तक राजनेता देशभक्त और सदाचारी न होंगे, भ्रष्टाचार का उन्मूलन असम्भव है। उपयुक्त राजनेताओं के चुने जाने के बाद ही पूर्वोक्त सारे उपाय अपनाये जा सकते हैं, जो भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने में पूर्णत: प्रभावी सिद्ध होंगे। आज हर एक की जबान पर एक ही प्रश्न है कि क्या होगा इस महान्–सनातन राष्ट्र का ? कैसे मिटेगा यह भ्रष्टाचार, अत्याचार और दुराचार ? यह तभी सम्भव है, जब चरित्रवान् तथा सर्वस्व-त्याग और देश-सेवा की भावना से भरे लोग राजनीति में आएँगे और लोकचेतना के साथ जीवन को जोड़ेंगे।

भारत में बेरोजगारी की समस्या

सम्बद्ध शीर्षक

  • बेरोजगारी : कारण एवं निवारण [2018]
  • बेरोजगारी : समस्या और समाधान [2011]
  • शिक्षित बेरोजगारों की समस्या
  • बेरोजगारी की विकराल समस्या
  • बेरोजगारी की समस्या [2015]
  • बेरोजगारी दूर करने के उपाय बेरोजगारी : एक अभिशाप [2013]
  • बढ़ती जनसंख्या : रोजगार की समस्या [2014]
  • बेरोजगारी : कारण एवं निवारण [2015]

प्रमुख विचार-विन्द–

  1. प्रस्तावना,
  2. प्राचीन भारत की स्थिति,
  3. वर्तमान स्थिति,
  4. बेरोजगारी से अभिप्राय,
  5. भारत में बेरोजगारी का स्वरूप,
  6. बेरोजगारी के कारण,
  7. समस्या का समाधान,
  8. उपसंहा

प्रस्तावना—मनुष्य की सारी गरिमा, जीवन का उत्साह, आत्म-विश्वास व आत्म-सम्मान उसकी आजीविका पर निर्भर करता है। बेकार या बेरोजगार व्यक्ति से बढ़कर दयनीय, दुर्बल तथा दुर्भाग्यशाली कौन होगा? परिवार के लिए वह बोझ होता है तथा समाज के लिए कलंक। उसके समस्त गुण, अवगुण कहलाते हैं और उसकी सामान्य भूलें अपराध घोषित की जाती हैं। इस प्रकार वर्तमान समय में भारत के सामने सबसे विकराल और विस्फोटक समस्या बेकारी की है; क्योंकि पेट की ज्वाला से पीड़ित व्यक्ति कोई भी पाप कर सकता है-‘बुभुक्षितः किं न करोति पापम्।’ हमारा देश ऐसे ही युवकों की पीड़ा से सन्तप्त है।

प्राचीन भारत की स्थिति-प्राचीन भारत अनेक राज्यों में विभक्त था। राजागण स्वेच्छाचारी न थे। वे मन्त्रिपरिषद् के परामर्श से कार्य करते हुए प्रजा की सुख-समृद्धि के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते थे। राजदरबार से हजारों लोगों की आजीविका चलती थी, अनेक उद्योग-धन्धे फलते-फूलते थे। प्राचीन भारत में यद्यपि बड़े-बड़े नगर भी थे, पर प्रधानता ग्रामों की ही थी। ग्रामों में कृषि योग्य भूमि का अभाव न था। सिंचाई की समुचित व्यवस्था थी। फलत: भूमि सच्चे अर्थों में शस्यश्यामला (अनाज से भरपूर) थी। इन ग्रामों में कृषि से सम्बद्ध अनेक हस्तशिल्पी काम करते थे; जैसे-बढ़ई, खरादी, लुहार, सिकलीगर, कुम्हारे, कलयीगर आदि। साथ ही प्रत्येक घर में कोई-न-कोई लघु उद्योग चलता था; जैसे—सूत कातना, कपड़ा बुनना, इत्र-तेले का उत्पादन करना, खिलौने बनाना, कागज बनाना, चित्रकारी करना, रँगाई का काम करना, गुड़-खाँड बनाना आदि।

उस समय भारत का निर्यात व्यापार बहुत बढ़ा-चढ़ा था। यहाँ से अधिकतर रेशम, मलमल आदि भिन्न-भिन्न प्रकार के वस्त्र और मणि, मोती, हीरे, मसाले, मोरपंख, हाथीदाँत आदि बड़ी मात्रा में विदेशों में भेजे जाते थे। दक्षिण भारत गर्म मसालों के लिए विश्वभर में विख्यात था। यहाँ काँचे का काम भी बहुत उत्तम होता था। हाथीदाँत और शंख की अत्युत्तम चूड़ियाँ बनती थीं, जिन पर बारीक कारीगरी होती थी।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्राचीन काल की असाधारण समृद्धि का मुख्य आधार कृषि ही नहीं, अपितु अगणित लघु उद्योग-धन्धे एवं निर्यात-व्यापार था। इन उद्योग-धन्धों का संचालन बड़े-बड़े पूँजीपतियों के हाथों में न होकर गण-संस्थाओं (व्यापार संघों) द्वारा होता था। यही कारण था कि प्राचीन भारत में बेकारी का नाम भी कोई न जानता था।

प्राचीन भारत के इस आर्थिक सर्वेक्षण से तीन निष्कर्ष निकलते हैं—

  1. देश की अधिकांश जनता किसी-न-किसी उद्योग-धन्धे, हस्तशिल्प या वाणिज्य-व्यवसाय में लगी थी।
  2. भारत में निम्नतम स्तर तक स्वायत्तशासी या लोकतान्त्रिक संस्थाओं का जाल बिछा था।
  3. सारे देश में एक प्रकार का आर्थिक साम्यवाद विद्यमान था अर्थात् धन कुछ ही हाथों या स्थानों में केन्द्रित न होकर न्यूनाधिक मात्रा में सारे देश में फैला हुआ था।

वर्तमान स्थिति–जब सन् 1947 ई० में देश लम्बी पराधीनता के बाद स्वतन्त्र हुआ तो आशा हुई कि प्राचीन भारतीय अर्थतन्त्र की सुदृढ़ता की आधारभूत ग्राम-पंचायतों एवं लघु उद्योग-धन्धों को उज्जीवित कर देश को पुनः समृद्धि की ओर बढ़ाने हेतु योग्य दिशा मिलेगी, पर दुर्भाग्यवश देश का शासनतन्त्र अंग्रेजों के मानस-पुत्रों के हाथों में चला गया, जो अंग्रेजों से भी ज्यादा अंग्रेजियत में रँगे हुए थे। परिणाम यह हुआ कि देश में बेरोजगारी बढ़ती ही गयी। इस समय भारत की जनसंख्या 121 करोड़ से भी ऊपर है जिसमें 10% अर्थात् 12.1 करोड़ से भी अधिक लोग पूर्णतया बेरोजगार हैं।

बेरोजगारी से अभिप्राय-बेरोजगार, सामान्य अर्थ में, उस व्यक्ति को कहते हैं जो शारीरिक रूप से कार्य करने के लिए असमर्थ न हो तथा कार्य करने का इच्छुक होने पर भी उसे प्रचलित मजदूरी की दर पर कोई कार्य न मिलता हो। बेकारी को हम तीन वर्गों में बाँट सकते हैं-अनैच्छिक बेकारी, गुप्त व आंशिक बेकारी तथा संघर्षात्मक बेकारी। अनैच्छिक बेरोजगारी से अभिप्राय यह है कि व्यक्ति प्रचलित वास्तविक मजदूरी पर कार्य करने को तैयार है, परन्तु उसे रोजगार प्राप्त नहीं होता। गुप्त व आंशिक बेरोजगारी से आशय किसी भी व्यवसाय में आवश्यकता से अधिक व्यक्तियों के कार्य पर लगने से है। संघर्षात्मक बेरोजगारी से अभिप्राय यह है कि बेरोजगारी श्रम की माँग में सामयिक परिवर्तनों के कारण होती है और अधिक समय तक नहीं रहती। साधारणतया किसी भी अधिक जनसंख्या वाले राष्ट्र में तीनों प्रकार की बेरोजगारी पायी जाती है।

भारत में बेरोजगारी का स्वरूप-जनसंख्या के दृष्टिकोण से भारत का स्थान विश्व के सबसे अधिक जनसंख्या वाले देशों में चीन के पश्चात् है। यद्यपि वहाँ पर अनैच्छिक बेरोजगारी पायी जाती है, तथापि भारत में बेरोजगारी का स्वरूप अन्य देशों की अपेक्षा कुछ भिन्न है। यहाँ पर संघर्षात्मक बेरोजगारी भीषण रूप से फैली हुई है। प्रायः नगरों में अनैच्छिक बेरोजगारी और ग्रामों में गुप्त बेरोजगारी का स्वरूप देखने में आता है। शहरों में बेरोजगारी के दो रूप देखने में आते हैं-औद्योगिक श्रमिकों की बेकारी तथा दूसरे, शिक्षित वर्ग में बेकारी। भारत एक कृषि-प्रधान देश है और यहाँ की लगभग 75% जनता गाँव में निवास करती है जिसका मुख्य व्यवसाय कृषि है। कृषि में मौसमी अथवा सामयिक रोजगार प्राप्त होता है; अत: कृषि व्यवसाय में संलग्न जनसंख्या का अधिकांश भाग चार से छ: मास तक बेकार रहता है। इस प्रकार भारतीय ग्रामों में संघर्षात्मक बेरोजगारी अपने भीषण रूप में विद्यमान है।

बेरोजगारी के कारण हमारे देश में बेरोजगारी के अनेक कारण हैं। इनमें से कुछ प्रमुख कारणों का उल्लेख निम्नलिखित है

  1. जनसंख्या–बेरोजगारी का प्रमुख कारण है-जनसंख्या में तीव्रगति से वृद्धि। विगत कुछ दशकों में भारत में जनसंख्या का विस्फोट हुआ है। हमारे देश की जनसंख्या में प्रतिवर्ष लगभग 2.5% की वृद्धि हो जाती है; जबकि इस दर से बढ़ रहे व्यक्तियों के लिए हमारे देश में रोजगार की व्यवस्था नहीं है।
  2. शिक्षा-प्रणाली-भारतीय शिक्षा सैद्धान्तिक अधिक है। इसमें पुस्तकीय ज्ञान पर ही विशेष ध्यान दिया जाता है; फलतः यहाँ के स्कूल-कॉलेजों से निकलने वाले छात्र निजी उद्योग-धन्धे स्थापित करने योग्य नहीं बन पाते।
  3. कुटीर उद्योगों की उपेक्षा–ब्रिटिश सरकार की कुटीर उद्योग विरोधी नीति के कारण देश में कुटीर उद्योग-धन्धों का पतन हो गया; फलस्वरूप अनेक कारीगर बेकार हो गये। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भी कुटीर उद्योगों के विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया; अत: बेरोजगारी में निरन्तर वृद्धि होती गयी।
  4. औद्योगीकरण की मन्द प्रक्रिया-पंचवर्षीय योजनाओं में देश के औद्योगिक विकास के लिए जो कदम उठाये गये उनसे समुचित रूप से देश का औद्योगीकरण नहीं किया जा सका है। फलतः बेकार व्यक्तियों के लिए रोजगार के साधन नहीं जुटाये जा सके हैं।
  5. कृषि का पिछड़ापन-भारत की लगभग दो-तिहाई जनता कृषि पर निर्भर है। कृषि की पिछड़ी हुई दशा में होने के कारण कृषि बेरोजगार की समस्या व्यापक हो गयी है।
  6. कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों की कमी–हमारे देश में कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों की कमी है। अत: उद्योगों के सफल संचालन के लिए विदेशों से प्रशिक्षित कर्मचारी बुलाने पड़ते हैं। इस कारण से देश के कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों के बेकार हो जाने की भी समस्या हो जाती है।

इनके अतिरिक्त मानसून की अनियमितता, भारी संख्या में शरणार्थियों का आगमन, मशीनीकरण के फलस्वरूप होने वाली श्रमिकों की छंटनी, श्रम की माँग एवं पूर्ति में असन्तुलन, आर्थिक संसाधनों की कमी आदि से भी बेरोजगारी में वृद्धि हुई है। देश को बेरोजगारी से उबारने के लिए इनका समुचित समाधान नितान्त आवश्यक है।
समस्या का समाधान–

  1. सबसे पहली आवश्यकता है हस्तोद्योगों को बढ़ावा देने की। इससे स्थानीय प्रतिभा को उभरने का सुअवसर मिलेगा। भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश के लिए लघु उद्योग-धन्धे ही ठीक हैं, जिनमें अधिक-से-अधिक लोगों को काम मिल सके। मशीनीकरण उन्हीं देशों के लिए उपयुक्त होता है, जहाँ कम जनसंख्या के कारण कम हाथों से अधिक काम लेना हो।
  2. दूसरी आवश्यकता है मातृभाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने की, जिससे विद्यार्थी शीघ्र ही शिक्षित होकर अपनी प्रतिभा का उपयोग कर सकें। साथ ही आज स्कूल-कॉलेजों में दी जाने वाली अव्यावहारिक शिक्षा के स्थान पर शिल्प-कला, उद्योग-धन्धों आदि से सम्बद्ध शिक्षा दी जानी चाहिए, जिससे कि पढ़ाई समाप्त कर विद्यार्थी तत्काल रोजी-रोटी कमाने योग्य हो जाए।
  3. बड़ी-बड़ी मिलें और फैक्ट्रियाँ, सैनिक शस्त्रास्त्र तथा ऐसी ही दूसरी बड़ी चीजें बनाने तक सीमित कर दी जाएँ। अधिकांश जीवनोपयोगी वस्तुओं का उत्पादन घरेलू उद्योगों से ही हो।
  4. पश्चिमी शिक्षा ने शिक्षितों में हाथ के काम को नीचा समझने की जो मनोवृत्ति पैदा कर दी है, उसे ‘श्रम के गौरव’ (Dignity of Labour) की भावना पैदा करके दूर किया जाना चाहिए।
  5. लघु उद्योग-धन्धों के विकास से शिक्षितों में नौकरियों के पीछे भागने की प्रवृत्ति घटेगी; क्योंकि नौकरियों में देश की जनता का एक बहुत सीमित भाग ही खप सकता है। लोगों को प्रोत्साहन देकर हस्त-उद्योगों एवं वाणिज्य-व्यवसाय की ओर उन्मुख किया जाना चाहिए। ऐसे लघु-उद्योगों में रेशम के कीड़े पालना, मधुमक्खी-पालन, सूत कातना, कपड़ा बुनना, बागवानी, साबुन बनाना, खिलौने, चटाइयाँ, कागज, तेल-इत्र आदि न जाने कितनी वस्तुओं का निर्माण सम्भव है। इसके लिए प्रत्येक जिले में जो सरकारी लघु-उद्योग कार्यालय हैं; वे अधिक प्रभावी ढंग से काम करें। वे इच्छुक लोगों को सही उद्योग चुनने की सलाह दें, उन्हें ऋण उपलब्ध कराएँ तथा आवश्यकतानुसार कुछ तकनीकी शिक्षा दिलवाने की भी व्यवस्था करें। इसके साथ ही इनके उत्पादों की बिक्री की भी व्यवस्था कराएँ। यह सर्वाधिक आवश्यक है; क्योंकि इसके बिना शेष सारी व्यवस्था बेकार साबित होगी। सरकार के लिए ऐसी व्यवस्था करना कठिन नहीं है; क्योंकि वह स्थान-स्थान पर बड़ी-बड़ी प्रदर्शनियाँ आयोजित करके तैयार माल बिकवा सकती है, जब कि व्यक्ति के लिए, विशेषत: नये व्यक्ति के लिए, यह सम्भव नहीं।।
  6. इसके साथ ही देश की तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या पर भी रोक लगाना अत्यावश्यक हो गया है।

उपसंहार-सारांश यह है कि देश के स्वायत्तशासी ढाँचे और लघु उद्योग-धन्धों के प्रोत्साहन से ही बेरोजगारी की समस्या का स्थायी समाधान सम्भव है। हमारी सरकार भी बेरोजगारी की समस्या के उन्मूलन के लिए जागरूक है और उसके द्वारा इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम भी उठाये गये हैं। परिवार नियोजन (कल्याण), बैंकों का राष्ट्रीयकरण, एक स्थान से दूसरे स्थान पर कच्चा माल ले जाने की सुविधा, कृषि-भूमि की चकबन्दी, नये-नये उद्योगों की स्थापना, प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना आदि अनेकानेक ऐसे कार्य हैं, जो बेरोजगारी को दूर करने में एक सीमा तक सहायक सिद्ध हो रहे हैं। इन कार्यक्रमों को और अधिक विस्तृत, प्रभावकारी और ईमानदारी से कार्यान्वित किये जाने की आवश्यकता है।

दहेज-प्रथा : एक सामाजिक अभिशाप

सम्बद्ध शीर्षक

  • दहेज : समस्या और समाधान
  • हमारे समाज का कोढ़ : दहेज-प्रथा
  • दहेज-प्रथा : अतीत और वर्तमान [2011]

प्रमुख विचार-विन्द–

  1. प्रस्तावना,
  2. दहेज-प्रथा का स्वरूप,
  3. दहेज-प्रथी की विकृति के कारण,
  4. दहेज-प्रथा से हानियाँ,
  5. दहेज प्रथा को समाप्त करने के उपाय,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-दहेज-प्रथा यद्यपि प्राचीन काल से चली आ रही है, पर वर्तमान काल में इसने जैसा विकृत रूप धारण कर लिया है, उसकी कल्पना भी किसी ने न की थी। हिन्दू समाज के लिए आज यह एक अभिशाप बन गया है, जो समाज को अन्दर से खोखला करता जा रहा है। अत: इस समस्या के स्वरूप, कारणों एवं समाधान पर विचार करना. नितान्त आवश्यक है।

दहेज-प्रथा का स्वरूप-कन्या के विवाह के अवसर पर कन्या के माता-पिता वर-पक्ष के सम्मानार्थ जो दान-दक्षिणी भेटस्वरूप देते हैं, वह दहेज कहलाता है। यह प्रथा बहुत प्राचीन है। ‘श्रीरामचरितमानस’ के अनुसार जानकी जी को विदा करते समय महाराज जनक ने प्रचुर दहेज दिया था, जिसमें धन-सम्पत्ति, हाथी-घोड़े, खाद्य-पदार्थ आदि के साथ दास-दासियाँ भी थीं। यही दहेज का वास्तविक स्वरूप है, अर्थात् इसे स्वेच्छा से दिया जाना चाहिए।

कुछ वर्ष पहले तक यही स्थिति थी, किन्तु आज इसका स्वरूप अत्यधिक विकृत हो चुका है। आज वर-पक्ष अपनी माँगों की लम्बी सूची कन्या-पक्ष के सामने रखता है, जिसके पूरी न होने पर विवाह टूट जाता है। इस प्रकार यह लड़के का विवाह नहीं, उसकी नीलामी है, जो ऊँची-से-ऊँची बोली बोलने वाले के पक्ष में छूटती है। विवाह का अर्थ है—दो समान गुण, शील, कुल वाले वर-कन्या का गृहस्थ-जीवन की सफलता के लिए परस्पर सम्मान और विश्वासपूर्वक एक सूत्र में बँधना। इसी कारण पहले के लोग कुल-शील को सर्वाधिक महत्त्व देते थे। फलतः 98 प्रतिशत विवाह सफल होते थे, किन्तु आज तो स्थिति यहाँ तक विकृत हो चुकी है कि इच्छित दहेज पाकर भी कई पति अपनी पत्नी को प्रताड़ित करते हैं और उसे आत्महत्या तक के लिए विवश कर देते हैं या स्वयं मार डालते हैं।

दहेज-प्रथा की विकृति के कारण-दहेज-प्रथा को जो विकृततम रूप आज दीख पड़ता है उसके कई कारण हैं, जिनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं–
(क) भौतिकवादी जीवन-दृष्टि-अंग्रेजी शिक्षा के अन्धाधुन्ध प्रचार के फलस्वरूप लोगों का जीवन पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होकर घोर भौतिकवादी बन गया है, जिनमें अर्थ (धन) और काम (सांसारिक सुख-भोग) की ही प्रधानता हो गयी है। प्रत्येक व्यक्ति अपने यहाँ अधिक-से-अधिक शान-शौकत की चीजें रखना चाहता है और इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेता है। यही दहेज-प्रथा की विकृति का सबसे प्रमुख कारण है।

(ख) वर-चयन का क्षेत्र सीमित-हिन्दुओं में विवाह अपनी ही जाति में करने की प्रथा है और जाति के अन्तर्गत भी कुलीनता-अकुलीनता का विचार होता है। फलत: वर-चयन का क्षेत्र बहुत सीमित हो जाता है। अपनी कन्या के लिए अधिकाधिक योग्य वर प्राप्त करने की चाहत लड़के वालों को दहेज माँगने हेतु प्रेरित करती है।

(ग) विवाह की अनिवार्यता–हिन्दू समाज में कन्या का विवाह माता-पिता का पवित्र दायित्व माना जाता है। यदि कन्या अधिक आयु तक अविवाहित रहे तो समाज माता-पिता की निन्दा करने लगता है। फलतः कन्या के हाथ पीले करने की चिन्ता वर-पक्ष द्वारा उनके शोषण के रूप में सामने आती है।

(घ) स्पर्धा की भावना-रिश्तेदार या पास-पड़ोस की कन्या की अपेक्षा अपनी कन्या को मालदार या उच्चपदस्थ वर के साथ ब्याहने के लिए लगी होड़ का परिणाम भी माता-पिता के लिए घातक सिद्ध होता है। कई कन्या-पक्ष वाले वर-पक्ष वालों से अपनी कन्या के लिए अच्छे वस्त्राभूषण एवं बारात को तड़क-भड़क से लाने की माँग केवल अपनी झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से कर देते हैं, जिससे वर-पक्ष वाले अधिक दहेज की माँग करते हैं।

(ङ) रिश्वतखोरी-अधिक धन कमाने की लालसा में विभिन्न पदों पर बैठे लोग अनुचित साधनों द्वारा पर्याप्त धन कमाते हैं। इसका विकृत स्वरूप दहेज के रूप में कम आय वाले परिवारों को प्रभावित करता है।

दहेज-प्रथा से हानियाँ-दहेज-प्रथा की विकृति के कारण आज सारे समाज में एक भूचाल-सा आ गया है। इससे समाज को भीषण आघात पहुँच रहा है। कुछ प्रमुख हानियाँ निम्नलिखित हैं

(क) नवयुवतियों को प्राण-नाश-समाचार-पत्रों में प्रायः प्रतिदिन ही दहेज के कारण किसी-न-किसी नवविवाहिता को जीवित जला डालने अथवा मार डालने के एकाधिक लोमहर्षक एवं हृदयविदारक समाचार निकलते ही रहते हैं। कभी-कभी वांछित दहेज न ला पाने के कारण वधू की पूर्ण उपेक्षा कर दी जाती है अथवा उसे मायके भेजकर एक प्रकार से अघोषित विवाह-विच्छेद (तलाक) की स्थिति उत्पन्न कर दी जाती है, जिससे उसका जीवन दुर्वह बन जाता है। इस प्रकार इस कुप्रथा के कारण न जाने कितनी ललनाओं का जीवन नष्ट होता है, जो अत्यधिक शोचनीय है।

(ख) ऋणग्रस्तता-दहेज जुटाने की विवशता के कारण कितने ही माता-पिताओं की कमर आर्थिक दृष्टि से टूट जाती हैं, उनके रहने के मकान बिक जाते हैं या वे ऋणग्रस्त हो जाते हैं और इस प्रकार कितने ही सुखी परिवारों की सुख-शान्ति सदा के लिए नष्ट हो जाती है। फलतः कन्या का जन्म आजकल एक अभिशाप माना जाने लगा है।

(ग) भ्रष्टाचार को बढ़ावा-इस प्रथा के कारण भ्रष्टाचार को भी प्रोत्साहन मिला है। कन्या के दहेज के लिए अधिक धन जुटाने की विवशता में पिता भ्रष्टाचार का आश्रय लेता है। कभी-कभी इसके कारण वह अपनी नौकरी से हाथ धोकर जेल भी जाता है या दर-दर को भिखारी बन जाता है।

(घ) अविवाहित रहने की विवशता-दहेज रूपी दानव के कारण कितनी ही सुयोग्य लड़कियाँ अविवाहित जीवन बिताने को विवश हो जाती हैं। कुछ भावुक युवतियाँ स्वेच्छा से अविवाहित रह जाती हैं और कुछ विवाहिता युवतियों के साथ घटित होने वाली ऐसी घटनाओं से आतंकित होकर अविवाहित रह जाना पसन्द करती हैं।

(ङ) अनैतिकता को प्रोत्साहन-अधिक आयु तक कुँआरी रह जाने वाली युवतियों में से कुछ तो किसी युवक से अवैध सम्बन्ध स्थापित कर अनैतिक जीवन जीने को बाध्य होती हैं और कुछ यौवन-सुलभ वासना के वशीभूत होकर गलत लोगों के जाल में फँस जाती हैं, जिससे समाज में अगणित विकृतियाँ एवं विशृंखलताएँ उत्पन्न हो रही हैं।

(च) अनमेल विवाह–इस प्रथा के कारण अक्सर माता-पिता को अपनी सुयोग्य-सुशिक्षिता कन्या को किसी अल्पशिक्षित युवक से ब्याहना पड़ता है या किसी सुन्दर युवती को किसी कुरूप या अधिक आयु वाले को पति रूप में सहन करना पड़ता है, जिससे उसका जीवन नीरस हो जाता है।

(छ) अयोग्य बच्चों का जन्म-जहाँ अनमेल विवाह हो रहे हैं, वहाँ योग्य सन्तान की अपेक्षा आकाश-कुसुम के समान है। सन्तान का उत्तम होना तभी सम्भव है, जब कि माता और पिता दोनों में पारस्परिक सामंजस्य हो। सारांश यह हैं कि दहेज-प्रथा के कारण समाज में अत्यधिक अव्यवस्था और अशान्ति उत्पन्न हो गयी है तथा गृहस्थ-जीवन इस प्रकार लांछित हो रहा है कि सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची हुई है।

दहेज-प्रथा को समाप्त करने के उपाय–दहेज स्वयं अपने में गर्हित वस्तु नहीं, यदि वह स्वेच्छया प्रदत्त हो, पर आज जो उसका विकृत रूप दीख पड़ता है, वह अत्यधिक निन्दनीय है। इसे मिटाने के लिए निम्नलिखित उपाय उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं

(क) जीवन के भौतिकवादी दृष्टिकोण में परिवर्तन-जीवन का घोर भौतिकवादी दृष्टिकोण, जिसमें केवल अर्थ और काम ही प्रधान है, बदलना होगा। जीवन में अपरिग्रह और त्याग की भावना पैदा करनी होगी। इसके लिए हम बंगाल, महाराष्ट्र एवं दक्षिण का उदाहरण ले सकते हैं। ऐसी घटनाएँ इने प्रदेशों में प्रायः सुनने को नहीं मिलतीं, जब कि हिन्दी-प्रदेश में इनकी बाढ़ आयी हुई है। यह स्वाभिमान की भी माँग है कि कन्या-पक्ष वालों के सामने हाथ न फैलाया जाए और सन्तोषपूर्वक अपनी चादर की लम्बाई के अनुपात में पैर फैलाये जाएँ।।

(ख) नारी-सम्मान की भावना का पुनर्जागरण-हमारे यहाँ प्राचीन काल में नारी को गृहलक्ष्मी माना जाता था और उसे बड़ा सम्मान दिया जाता था। प्राचीन ग्रन्थों में कहा गया है—यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता। सचमुच सुगृहिणी गृहस्थ-जीवन की धुरी है, उसकी शोभा है तथा सम्मति देने वाली मित्र और एकान्त की सखी है। यह भावना समाज में जगनी चाहिए और बिना भारतीय संस्कृति को उज्जीवित किये यह सम्भव नहीं।।

(ग) कन्या को स्वावलम्बी बनाना–वर्तमान भौतिकवादी परिस्थिति में कन्या को उचित शिक्षा देकर आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनाना भी नितान्त प्रयोजनीय है। इससे यदि उसे योग्य वर नहीं मिल पाता तो वह अविवाहित रहकर भी स्वाभिमानपूर्वक अपना जीवनयापन कर सकती है। साथ ही लड़की को अपने मनोनुकूल वर चुनने की स्वतन्त्रता भी मिलनी चाहिए।

(घ) नवयुवकों को स्वावलम्बी बनाना-दहेज की माँग प्रायः युवक के माता-पिता करते हैं। युवक यदि आर्थिक दृष्टि से माँ-बाप पर निर्भर हो, तो उसे उनके सामने झुकना ही पड़ता है। इसलिए युवक को स्वावलम्बी बनने की प्रेरणा देकर उनमें आदर्शवाद जगाया जा सकता है, इससे वधू के मन में भी अपने पति के लिए सम्मान पैदा होगा।

(ङ) वर-चयन में यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना-कन्याओं के माता-पिताओं को भी चाहिए। कि वे अपनी कन्या के रूप, गुण, शिक्षा, समता एवं अपनी आर्थिक स्थिति का सम्यक् विचार करके ही वर का चुनाव करें। हर व्यक्ति यदि ऊँचे-से-ऊँचा वर खोजने निकलेगा तो परिणाम दुःखद ही होगा।

(च) विवाह-विच्छेद के नियम अधिक उदार बनाना-हिन्दू-विवाह के विच्छेद का कानून पर्याप्त जटिल और समयसाध्य है, जिससे कई युवक या उसके माता-पिता वधू को मार डालते हैं; अतः नियम इतने सरल होने चाहिए कि पति-पत्नी में तालमेल न बैठने की स्थिति में दोनों का सम्बन्ध विच्छेद सुविधापूर्वक हो सके।

(छ) कठोर दण्ड और सामाजिक बहिष्कार-अक्सर देखने में आता है कि दहेज के अपराधी कानूनी जटिलताओं के कारण साफ बच जाते हैं, जिससे दूसरों को भी ऐसे दुष्कृत्यों की प्रेरणा मिलती है। अतः समाज को भी इतना जागरूक बनना पड़ेगा कि जिस घर में बहू की हत्या की गयी हो उसका पूर्ण सामाजिक बहिष्कार करके कोई भी व्यक्ति अपनी कन्या वहाँ न ब्याहे।

(ज) दहेज विरोधी कानून का कड़ाई से पालन-जहाँ कहीं भी दहेज का आदान-प्रदान हो, वहाँ प्रैशासन का हस्तक्षेप परमावश्यक है। ऐसे लोगों को तुरन्त पुलिस के हवाले कर देना चाहिए।

(झ) नारी-जागरण की अनिवार्यता देश की सरकार स्त्री-शिक्षा पर प्रचुर मात्रा में धन व्यय कर रही है। इसका एकमात्र उद्देश्य यही है कि नारी-जाति में जागृति आये और वे साहसपूर्वक अपने ऊपर होने वाले किसी भी अन्याय के प्रति खुलकर सामने आ सकें। इसके लिए संविधान भी उन्हें विशेष संरक्षण देता है। अतः भारत की ललनाओं को यह चाहिए कि वे दहेज प्रथा का प्राणपण से विरोध करें और माता-पिता को आश्वस्त कर दें कि वे स्वयं उन्नति कर सच्चरित्र जीवन व्यतीत करेंगी और मनोनुकूल वर मिलने पर ही उससे विवाह करेंगी।

उपसंहार–सारांश यह है कि दहेज-प्रथा एक अभिशाप है, जिसे मिटाने के लिए समाज और शासन के साथ-साथ प्रत्येक युवक और युवती को भी कटिबद्ध होना पड़ेगा। जब तक समाज में जागृति नहीं होगी, दहेज-प्रथा के दैत्य से मुक्ति पाना कठिन है। राजनेताओं, समाज-सुधारकों तथा युवक-युवतियों सभी के सहयोग से दहेज-प्रथा का अन्त हो सकता है। सम्प्रति, समाज में नव-जागृति आयी है और इस दिशा में सक्रिय कदम उठाये जा रहे हैं।

बेलगाम महँगाई [2010]

सम्बद्ध शीर्षक

  • महँगाई की समस्या और उसका समाधान [2012]
  • महँगाई : समस्या और समाधान [2011]
  • बढ़ती महँगाई : कारण और निदान [2011]
  • महँगाई की समस्या [2013, 14]
  • महँगाई से परेशान : भारत का इंसान [2014]
  • महँगाई की समस्या : कारण और निवारण (2015)
  • महँगाई की समस्या और इंसान [2016]

प्रमुख विचार-विन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. महँगाई के कारण—(क) जनसंख्या में तीव्र वृद्धि; (ख) कृषि उत्पादन-व्यय में वृद्धि; (ग) कृत्रिम रूप से वस्तुओं की आपूर्ति में कमी; (घ) मुद्रा-प्रसार; (ङ) प्रशासन में शिथिलता; (च) घाटे का बजट, (छ) असंगठित उपभोक्ता; (ज) धन को असमान वितरण
  3. महंगाई के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली कठिनाइयाँ,
  4. महँगाईको दूर करने के लिए सुझाव,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना-भारत की आर्थिक समस्याओं के अन्तर्गत महँगाई की समस्या एक प्रमुख समस्या है। वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि का क्रम इतना तीव्र है कि जब आप किसी वस्तु को दोबारा खरीदने जाते हैं तो वस्तु का मूल्य पहले से अधिक बढ़ा हुआ होता है।
दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ती इस महँगाई की मार का वास्तविक चित्रण प्रसिद्ध हास्य कवि काका हाथरसी की निम्नलिखित पंक्तियों में हुआ है-

पाकिट में पीड़ा भरी कौन सुने फरियाद ?
यह महँगाई देखकर वे दिन आते याद॥
वे दिन आते याद, जेब में पैसे रखकर,
सौदा लाते थे बाजार से थैला भरक॥
धक्का मारा युग ने मुद्रा की क्रेडिट ने,
थैले में रुपये हैं, सौदा है पाकिट में।

महँगाई के कारण वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि अर्थात् महँगाई के बहुत से कारण हैं। इन कारणों में अधिकांश कारण आर्थिक हैं तथा कुछ कारण ऐसे भी हैं, जो सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था से सम्बन्धित हैं। इन कारणों का संक्षिप्त विवरण अग्रवत् है-

(क) जनसंख्या में तीव्र वृद्धि-भारत में जनसंख्या-विस्फोट ने वस्तुओं की कीमतों को बढ़ाने की दृष्टि से बहुत अधिक सहयोग दिया है। जितनी तेजी से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, उतनी तेजी से वस्तुओं को उत्पादन नहीं हो रहा है। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ है कि अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में निरन्तर वृद्धि हुई है।

(ख) कृषि उत्पादन-व्यय में वृद्धि-हमारा देश कृषि-प्रधान है। यहाँ की अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। गत वर्षों से कृषि में प्रयुक्त होने वाले उपकरणों, उर्वरकों आदि के मूल्यों में बहुत अधिक वृद्धि हुई है; परिणामस्वरूप उत्पादित वस्तुओं के मूल्य में भी वृद्धि होती जा रही है। अधिकांश वस्तुओं के मूल्य प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कृषि पदार्थों के मूल्यों से सम्बद्ध होते हैं। इस कारण जब कृषि-मूल्य में वृद्धि हो जाती है तो देश में अधिकांशतः वस्तुओं के मूल्य अवश्यमेव प्रभावित होते हैं।

(ग) कृत्रिम रूप से वस्तुओं की आपूर्ति में कमी-वस्तुओं का मूल्य माँग और पूर्ति पर आधारित होता है। जब बाजार में वस्तुओं की पूर्ति कम हो जाती है तो उनके मूल्य बढ़ जाते हैं। अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से भी व्यापारी वस्तुओं को कृत्रिम अभाव पैदा कर देते हैं, जिसके कारण महँगाई बढ़ जाती है।

(घ) मुद्रा-प्रसार-जैसे-जैसे देश में मुद्रा-प्रसार बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे ही महँगाई बढ़ती जाती है। तृतीय पंचवर्षीय योजना के समय से ही हमारे देश में मुद्रा-प्रसार की स्थिति रही है, परिणामतः वस्तुओं के मूल्य बढ़ते ही जा रहे हैं। कभी जो वस्तु एक रुपए में मिला करती थी उसके लिए अब लगभग सौ रुपए तक खर्च करने पड़ जाते हैं।

(ङ) प्रशासन में शिथिलता-सामान्यतः प्रशासन के स्वरूप पर ही देश की अर्थव्यवस्था निर्भर करती है। यदि प्रशासन शिथिल पड़ जाता है तो मूल्य बढ़ते जाते हैं, क्योंकि कमजोर शासन व्यापारी वर्ग पर नियन्त्रण नहीं रख पाता। ऐसी स्थिति में वस्तुओं के मूल्यों में अनियन्त्रित और निरन्तर वृद्धि होती रहती है।

(च) घाटे का बजट विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु सरकार को बहुत अधिक मात्रा में पूँजी की व्यवस्था करनी पड़ती है। पूँजी की व्यवस्था करने के लिए सरकार अन्य उपायों के अतिरिक्त घाटे की बजट प्रणाली को भी अपनाती है। घाटे की यह पूर्ति नये नोट छापकर की जाती है, परिणामत: देश में मुद्रा की पूर्ति आवश्यकता से अधिक हो जाती है। जब ये नोट बाजार में पहुँचते हैं तो वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि करते हैं।

(छ) असंगठित उपभोक्ता वस्तुओं का क्रय करने वाला उपभोक्ता वर्ग प्रायः असंगठित होता है, जबकि विक्रेता या व्यापारिक संस्थाएँ अपना संगठन बना लेती हैं। ये संगठन इस बात का निर्णय करते हैं। कि वस्तुओं का मूल्य क्या रखा जाए और उन्हें कितनी मात्रा में बेचा जाए। जब सभी सदस्य इन नीतियों का पालन करते हैं तो वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होने लगती है। वस्तुओं के मूल्यों में होने वाली इस वृद्धि से उपभोक्ताओं को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

(ज) धन का असमान वितरण-हमारे देश में धन को असमान वितरण महँगाई का मुख्य कारण है। जिनके पास पर्याप्त धन है, वे लोग अधिक पैसा देकर साधनों और सेवाओं को खरीद लेते हैं। व्यापारी धनवानों की इस प्रवृत्ति का लाभ उठाते हैं और महँगाई बढ़ती जाती है। वस्तुत: विभिन्न सामाजिक-आर्थिक विषमताओं एवं समाज में व्याप्त अशान्ति पूर्ण वातावरण का अन्त करने के लिए धन का समान वितरण होना आवश्यक है। कविवर दिनकर के शब्दों में भी-

शान्ति नहीं तब तक, जब तक
सुख भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को बहुत अधिक हो ।
नहीं किसी को कम हो।

(3) महँगाई के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली कठिनाइयाँ-महँगाई नागरिकों के लिए अभिशाप स्वरूप है। हमारा देश एक गरीब देश है। यहाँ की अधिकांश जनसंख्या के आय के साधन सीमित हैं। इस कारण साधारण नागरिक और कमजोर वर्ग के व्यक्ति अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाते। बेरोजगारी इस कठिनाई को और भी अधिक जटिल बना देती है। व्यापारी अपनी वस्तुओं का कृत्रिम अभाव कर देते हैं। इसके कारण वस्तुओं के मूल्य में अनियन्त्रित वृद्धि हो जाती है। परिणामतः कम आय वाले व्यक्ति बहुत-सी वस्तुओं और सेवाओं से वंचित रह जाते हैं। महँगाई के बढ़ने से कालाबाजारी को प्रोत्साहन मिलता है। व्यापारी अधिक लाभ कमाने के लिए वस्तुओं को अपने गोदामों में छिपा देते हैं। महँगाई बढ़ने से देश की अर्थव्यवस्था कमजोर हो जाती है।

(4) महँगाई को दूर करने के लिए सुझाव-यदि महँगाई इसी दर से ही बढ़ती रही तो देश के आर्थिक विकास में बहुत-सी बाधाएँ उपस्थित हो जाएँगी। इससे अनेक प्रकार की सामाजिक बुराइयाँ भी जन्म लेंगी; अतः महँगाई के इस दानव को समाप्त करना परम आवश्यक है।

महँगाई को दूर करने के लिए सरकार को समयबद्ध कार्यक्रम बनाने होंगे। किसानों को सस्ते मूल्य पर खाद, बीज और उपकरण आदि उपलब्ध कराने होंगे, जिसमें कृषि उत्पादनों के मूल्य कम हो सकें। मुद्रा-प्रसार को रोकने के लिए घाटे के बजट की व्यवस्था समाप्त करनी होगी अथवा घाटे को पूरा करने के लिए नये नोट छपवाने की प्रणाली को बन्द करना होगा। जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए अनवरत प्रयास करने होंगे। सरकार को इस बात का भी प्रयास करना होगा कि शक्ति और साधन कुछ विशेष लोगों तक सीमित न रह जाएँ और धन का उचित रूप में बँटवारा हो सके। सहकारी वितरण संस्थाएँ इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। इन सभी के लिए प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त और कर्मचारियों को पूरी निष्ठी तथा कर्तव्यपरायणता के साथ कार्य करना होगा।

(5) उपसंहार-महँगाई की वृद्धि के कारण हमारी अर्थव्यवस्था में अनेक प्रकार की जटिलताएँ उत्पन्न हो गयी हैं। घाटे की अर्थव्यवस्था ने इस कठिनाई को और अधिक बढ़ा दिया है। यद्यपि सरकार की ओर से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में किये जाने वाले प्रयासों द्वारा महँगाई की इस प्रवृत्ति को रोकने का निरन्तर प्रयास किया जा रहा है, तथापि इस दिशा में अभी तक पर्याप्त सफलता नहीं मिल सकी है।

यदि समय रहते महँगाई के इस दानव को वश में नहीं किया गया तो हमारी अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी और हमारी प्रगति के समस्त मार्ग बन्द हो जाएँगे, भ्रष्टाचार अपनी जड़े जमा लेगा और नैतिक मूल्य पूर्णतया समाप्त हो जाएँगे।

भारतीय जातिवाद की समस्या

सम्बद्ध शीर्षक

  • जाति-प्रथा : परम्परा, अभिशाप और उन्मूलन
  • जातिवाद की समस्या : कारण और निवारण [2016]

प्रमुख विचार-विन्द-

  1. प्रस्तावना,
  2. जाति-व्यवस्था का सामान्य परिचय,
  3. जाति-प्रथा की विशेषताएँ,
  4. जाति-प्रथा से होने वाली हानियों,
  5. जाति-प्रथा का उन्मूलन,
  6. उपसंहारी

प्रस्तावना–प्रत्येक समाज में सदस्यों के कार्य और पद (Role and Status) को निश्चित करने के लिए और सामाजिक नियन्त्रण के लिए कुछ सामाजिक व्यवस्थाएँ की जाती हैं। संसार के प्रत्येक समाज में यह व्यवस्थाएँ किसी-न-किसी रूप में पायी जाती हैं। भारतीय (विशेषकर हिन्दू समाज की) वर्ण-व्यवस्था उसी समाजिक व्यवस्था की एक प्रमुख संस्था है। वर्ण-व्यवस्था का स्वरूप विकृत होकर जाति-प्रथा बन गया है। हम जब जाति-प्रथा, जातिवाद अथवा भारतीय जाति-प्रथा आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं तब हमारा तात्पर्य हिन्दू समाज में प्रचलित जाति-व्यवस्था से होता है। भारतवर्ष जाति-व्यवस्था को भण्डार है। भारत में मुसलमान और ईसाई सहित शायद ही कोई ऐसा समूह हो, जो जाति-प्रथा न मानता हो अथवा उसके द्वारा ग्रस्त न हो।

अत्यन्त प्रचीन काल में हमारे देश में गुण और कर्म के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का निर्धारण किया गया था और उसे सामाजिक कल्याण के लिए अत्यन्त उपयोगी और आवश्यक समझा गया था। उस समय वर्ण का क्या अभिप्राय था तथा उस व्यवस्था का रूप क्या था? इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं। इतना सुनिश्चित है कि भारत की वर्णाश्रम-व्यवस्था का निर्माण व्यक्ति और समाज दोनों ही स्तरों पर जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए किया गया था। भ्रम एवं कर्तव्य का विभाजन उसका प्रमुख उद्देश्य था। मनुस्मृति में प्रत्येक वर्ण के कर्तव्यों का निरूपण उपलब्ध होता है। न तो वर्गों के अधिकारों का विधान है। और न उनके सापेक्ष महत्त्व की ऊँच-नीच की चर्चा ही की गयी है। श्रम-विभाजन को लक्ष्य करके बनाई गई। व्यवस्था का समर्थन आधुनिक काल में भी कई विचारकों द्वारा किया गया है।

समय के प्रवाह के साथ वर्ण-व्यवस्था का रूप परिवर्तित हो गया और उसने जाति-व्यवस्था अथवा जाति प्रथा का रूप धारण कर लिया। विभिन्न व्यवसायों के आधारों पर अनेक जातियाँ उप-जातियाँ बन गयी हैं। इस व्यवस्था में अनेक दोष भी आ गये हैं, उसने जातिवाद को प्रश्रय दे दिया है, उसमें छोटे-बड़े, ऊँच-नीच की भावना जैसी अनेक बुराइयों का समावेश हो गया है। आज तो ‘गौड़ों में भी और’ अथवा ‘आठ कनौजियो नौ चूल्हे’ वाली कहावत चरितार्थ होती है। भारत में पायी जाने वाली जातियों एवं उप-जातियों की संख्या तीन हजार से कुछ अधिक ही है। यह व्यवस्था वस्तुत: भारतीय समाज के ऊपर एक कलंक के रूप में बहुचर्चित वस्तु बन गयी है।

स्वतन्त्रता के पश्चात् जातिवाद एक अभिशाप के रूप में उभरकर आया है। चुनावों के समय इसका घृणित रूप दृष्टिगोचर होता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको जातिवाद के विरुद्ध घोषित करता है, जातिवाद को पेट भरकर कोसता है, परन्तु वोट प्राप्त करते समय वह जाति-बिरादरी के नाम की दुहाई अवश्य देता है। चुनाव हेतु उम्मीदवार का चयन इस बात को ध्यान में रखकर किया जाता है कि सम्बन्धित चुनावक्षेत्र में किस जाति के कितने वोट हैं तथा जाति-बिरादरी की दुहाई देकर कितने वोट प्राप्त किये जा सकते हैं? जातिवाद के नाम पर निर्वाचित व्यक्ति अपने साथ जातिवाद का झोला-चोंगा लेकर जाता है। वह जातिवाद के आधार पर अपने आदमियों का भला करना चाहता है, उसके प्रतिनिधित्व की माँग करता है आदि स्वतन्त्रता के पहले जो जाति-प्रथा थी, वह अब जातिवाद बन गयी है। उसने सामाजिक स्तर पर अस्पृश्यता को जन्म दिया था। इसने व्यक्ति-स्तर की अस्पृश्यता की प्रतिष्ठा की है। जातियाँ समाप्त हो रही हैं, जातिवाद पनप रहा है। आरक्षण के नाम पर जातिवाद की जड़े दिनोंदिन गहरी होती जा रही हैं।

जाति-व्यवस्था को सामान्य परिचय-भारतीय सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत जाति-व्यवस्था (प्रथा) व्यक्ति की सामाजिक स्थिति निर्धारित करती है और बहुत-कुछ उसके व्यवसाय पर भी निश्चित करती है। | जाति की विभिन्न परिभाषाएँ प्रस्तुत की गयी हैं और उसको स्पष्ट करने के लिए अनेक व्यख्याएँ प्रस्तुत की गयी हैं। निष्कर्ष रूप में इस व्यवस्था के स्वरूप को इस प्रकार समझा जा सकता है-“जाति जन्म के आधार पर सामाजिक संस्तरण और खण्ड-विभाजन की वह गतिशील व्यवस्था है जो खाने-पीने, विवाह, पेशा और सामाजिक सहवासों के सम्बन्ध में अनेक या कुछ प्रतिबन्धों को अपने सदस्यों पर लागू करती है।”—(N.K. Dutta. Origin and Growth of Castes in India). । उक्त उद्धरण में ‘गतिशील’ शब्द विशेष महत्त्वपूर्ण है। धन एवं प्रतिष्ठा के बल पर कोई भी व्यक्ति अपने ऊपर लगाये जाने वाले जातीय प्रतिबन्धों को अस्वीकार कर देता है एवं जाति बदल देता है तथा अपने रहन-सहने को बदल देता है। इसी प्रकार यह व्यवस्था गतिशील है। अन्तिम रूप से जाति-प्रथा की कोई परिभाषा ही प्रस्तुत नहीं की जा सकती है।

जाति-प्रथा की विशेषताएँ–विभिन्न विचारकों ने जाति-प्रथा की विशेषताओं तथा उसके कार्यों के सन्दर्भ में अपने विचार व्यक्त किये हैं। सारांश रूप में वे निम्नलिखित प्रकार हैं—
(1) जाति-प्रथा का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज को संगठित करना है। विदेशियों के अनेक आक्रमणों के बावजूद इस प्रथा ने हिन्दू समाज में धार्मिक और सामाजिक स्थिरता को बनाये रखा है।

(2) गिलबर्ट के शब्दों में, “भारतवर्ष ने जातियों की एक व्यवस्था विकसित की है जो सामाजिक समन्वय की एक योजना के रूप में है और संघर्षरत प्रादेशिक राष्ट्रों की यूरोपीय व्यवस्था की तुलना में खरी उतरती है।”

(3) यह प्रथा हिन्दू समाज का खण्डात्मक विभाजन (Segmental division of society) करती है। इसके अनुसार, प्रत्येक खण्ड के घटकों की स्थिति, पद, स्थान और कार्य भी सुनिश्चित हो जाते हैं। डॉ० जी०एस० घुरिये के अनुसार इस खण्ड-विभाजन-व्यवस्था का तात्पर्य इस प्रकार है-“जाति-प्रथा की आबद्ध समाज में सामुदायिक भावना सीमित होती है और वह समग्र समाज द्वारा न होकर एक समुदाय-विशेष मात्र जाति के सदस्यों के प्रति सीमित रहती है-इसके द्वारा अपनी जाति के प्रति उस जाति-विशेष के सदस्यों का कर्तव्यबोध होता है। इस कर्तव्यबोध के साथ कतिपय नियम जुड़े रहते हैं। यह बोध उन्हें अपने पर और निर्धारित कार्यों के प्रति दृढ़ बनाये रखता है। यदि कोई इसका उल्लंघन करता है तो उसकी निन्दा की जाती है, कभी उसको जाति-बहिष्कृत भी कर दिया जाता है।”

(4) इस खण्डनात्मक विभाजन की व्यवस्था में ऊँच-नीच का एक संस्तरण (Hierarchy) होता है। और इसमें प्रत्येक जाति का स्थान अथवा सामाजिक स्तर जन्म भर के लिए निश्चित हो जाता है। इस संस्तरण का क्रम इस प्रकार है-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र। यह क्रम ब्राह्मणों से आरम्भ होकर क्रमशः नीचे की ओर चलता जाता है। यह संस्तरण जन्म पर आधारित होने के कारण बहुत कुछ स्थिर एवं दृढ़ है। ब्राह्मण से लेकर शूद्र वर्गों के मध्य अनेक जातियाँ हैं, जो परस्पर श्रेष्ठता-निम्नता स्थापित करती रहती हैं। शहरों अथवा किसी दूरस्थ स्थान पर जो लोग एक-दूसरे को गहराई से नहीं जानते हैं, वहाँ लोग अपनी जाति-सम्बन्धी वास्तविकता छिपाकर अन्य जाति वालों के साथ विवाह सम्बन्ध करने का अवसर निकाल लेते हैं।

(5) जाति-प्रथा ने समाज में सभी आवश्यक कार्यों को विभिन्न जातियों में विभाजित कर दिया है। अध्यापन से लेकर कूड़ा उठाने तक के काम निश्चित हैं, कर्म-फल के सिद्धान्त में विश्वास होने के कारण सब लोग अपना-अपना काम निष्ठापूर्वक करते हैं। प्रत्येक जाति का मनुष्य कोई भी काम व्यक्ति-विशेष अथवा जाति विशेष के लिए न करके समग्र समाज के लिए करता है।

(6) प्रत्येक जाति के घटकों की शिक्षा की सीमाएँ एवं औद्योगिक प्रशिक्षण की सम्भावनाएँ सुनिश्चित होती हैं।

(7) इस व्यवस्था के अन्तर्गत अनेक जातियों में अपने पृथक् देवी-देवता तथा भिन्न धार्मिक विधियाँ होती हैं। श्री ए०आर० देसाई ने ठीक ही लिखा है, “जाति ही समाज के धार्मिक जीवन में अपने सदस्य की स्थिति को निश्चित करती है।”

(8) आधुनिक काल में राजनीतिक क्षेत्र में जातिगत सुरक्षा एवं संरक्षण की पद्धति प्रचलित हो गयी है। प्रत्येक जाति चुनावों में अपनी जाति के प्रत्याशियों की सहायता करती है। इस प्रकार निर्वाचित होने वाले सदस्य अपनी जाति के हितों की रक्षा करते हैं। यह दूसरी बात है कि इस पद्धति ने जातिवाद के कोढ़ को जन्म दिया है, जो राष्ट्रीय जीवन को क्रमशः क्षरित कर रहा है।

जाति-प्रथा से होने वाली हानियाँ-जाति-प्रथा के कारण दो बहुत बड़े अहित हुए हैं। एक तो, ऊँच-नीच की भावना पनपी है और दूसरे, हमारे समाज में छुआछूत की दूषित परम्परा चल पड़ी है। ये दोनों कुप्रथाएँ नैतिक दृष्टि से ही नहीं, सामाजिक और राष्ट्रीय दृष्टि से भी विनाशकारी सिद्ध हुई हैं। इनके कारण हिन्दू समाज का विघटन हुआ है तथा राष्ट्रीय भावना का क्षरण हुआ है। प्रतिवर्ष हजारों शूद्र अथवा हरिजन समाज में सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिए हिन्दू धर्म को त्यागकर अन्य धर्मों में (इस्लाम, ईसाई धर्म अथवा बौद्ध धर्म में) दीक्षित हो जाते हैं। धर्म-परिवर्तन की यह प्रक्रिया हिन्दू समाज को खोखला और क्षीणकाय बना रही है। समाज में द्वितीय श्रेणी के नागरिक की भाँति जीवन व्यतीत करने को विवश हरिजन अब यह भी कहने लगे हैं कि वे हिन्दू हैं ही नहीं। देहुली का दौरा करके लौटकर आने के बाद श्रीमती गांधी ने जो वक्तव्य दिया या उसका एक वाक्य ऐसा था जो हरिजनों को अहिन्दू घोषित करता है-“यह झगड़ा हिन्दुओं और हरिजनों के बीच का था।”

पं० जवाहरलाल नेहरू ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘Discovery of India’ में लिखा है कि जाति-प्रथा से सांस्कृतिक और सामाजिक प्रगति तो हुई परन्तु राजनीतिक सफलता के अभाव में विदेशियों की विजय को सरल कर दिया। सन् 1947 में राजनीतिक स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भी वह हमारी राजनीतिक सफलता में बाधक बनी हुई है। हमारे राजनीतिक नेता प्रत्येक सामाजिक बुराई और पिछड़ेपन के लिए जाति-प्रथा को बुरा-भला कहते हैं, परन्तु अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए जातिवाद को उभारते हैं। वोट की राजनीति से जाति-प्रथा के तलछट को अभूतपूर्व रूप में उजागर किया है। हम जाति-प्रभा की राख पर अपने जनतन्त्र की नींव तो रखना चाहते हैं, परन्तु साथ-साथ यह भी चाहते हैं कि जाति-प्रथा का जहर नष्ट न होने पाये।

राजनीति के क्षेत्र की यह विषम मान्यता हमारी प्रगति के पथ की सबसे बड़ी बाधा बन गयी है। लोकतन्त्रीय व्यवस्था को यह मूल मन्त्र है कि निर्वाचन सर्वथा स्वतन्त्र, कार्यक्रमनिष्ठ और भेद-भावरहित हो, परन्तु हमारे देश के कर्णधारों ने केन्द्रीय स्तर से लेकर नीचे ग्राम पंचायतों के स्तर तक के समस्त निर्वाचनों का आधार जातिवाद बना रखा है। इसके अनुसार दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। सरकारी नियुक्तियों में, शिक्षा संस्थाओं के प्रवेश में, छात्रवृत्तियों में, सर्वत्र आरक्षण एवं पक्षपात की नीतियाँ बद्धमूल हुई हैं और हो रही हैं। जाति-प्रथा को सामाजिक अभिशापों के लिए उत्तरदायी ठहराते हुए वोटों की शतरंज खेलने वाले राजनीतिक नेता तथाकथित निम्न एवं दलित वर्गों को सवर्ण हिन्दुओं के विरुद्ध भड़काते रहते हैं। विष-वपन की इस प्रक्रिया द्वारा वर्ग विग्रह के बीज बोकर सामाजिक विघटन किया जा रहा है। अभी हाल में घटित होने वाली घटनाएँ किसी सीमा तक इस प्रकार के निष्कर्ष प्रस्तुत कर रही हैं कि लूटमार, हत्या, अपहरण, बलात्कार आदि अपराध भी जातिवाद के आधार पर किये जाने लगे हैं और सरकार भी अपनी वोट की राजनीति के पोषण के लिए सहायता और सुरक्षा की योजनाओं को जातिवाद के आधार पर कार्यान्वित करने का कार्यक्रम तैयार करना चाहती है।

जाति-प्रथा का उन्मूलन-नवजागरण, शिक्षा का प्रसार, राजनीतिक चेतना, आर्थिक उन्नति आदि के फलस्वरूप जाति-प्रथा की व्यवस्थाएँ स्वत: शिथिल होती जा रही हैं। सरकारी तौर पर भी हरिजनों को विशेष अधिकार, आरक्षण, संरक्षण प्रदान करके उनको सामाजिक समानता की ओर ले जाने के प्रयत्न किये जा रहे हैं। आधुनिक प्रगतिशील वातावरण के फलस्वरूप पारस्परिक सम्पर्क के अवसरों में वृद्धि हुई हैं, खान-पान सम्बन्धी प्रतिबन्ध शिथिल हुए हैं, विवाहादि सम्बन्धों की मान्यताएँ बदल गयी हैं और अन्तर्जातीय विवाह के प्रति दृष्टिकोण में उदारता आने लगी है। औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप व्यवसायों की सुविधाएँ बढ़ी हैं और इस संदर्भ में लगे हुए प्रतिबन्ध तेजी के साथ समाप्त हो रहे हैं, अब शर्मा लौंड्री, गुप्ता बूटे हाउस, वाल्मीकि भोजनालय प्राय: देखने को मिल जाते हैं। कहने का तात्पर्य है कि स्वाभाविक प्रक्रिया तथा सरकारी प्रयत्नों के फलस्वरूप जाति-प्रथा बहुत-कुछ शिक्षित हो गयी है और हो रही है। हमारे राजनीति के व्यवसायी नेतागण यदि वोट की राजनीति से खेलना बन्द कर दें तथा जातिवाद के नाम पर होने वाली पदयात्राएँ नियन्त्रित हों तो जाति-प्रथा से उत्पन्न होने वाली बुराइयों को दूर किया जा सकता है।

उपसंहार-इसमें कोई सन्देह एवं विवाद नहीं है कि जाति-प्रथा में अनेक दोष आ गये हैं और उनके कारण सामाजिक प्रगति में बाधाएँ आई हैं और आती रहती हैं, परन्तु जाति-प्रथा को समाप्त कर देने मात्र से ही समस्त सामाजिक-सांस्कृतिक अभिशापों से हमारी मुक्ति सम्भव नहीं होगी। हमारे राजनीति-जीवी नेता जाति-प्रथा के विरोध की ढाल के पीछे जातिवाद को प्रश्रय दे रहे हैं। इससे वर्ग-विग्रह को प्रोत्साहन प्राप्त हो रहा है और एक प्रकार के गृहयुद्ध को आमन्त्रण दिया जा रहा है। मंडल आयोग की संस्तुतियों को लागू करने की घोषणा के प्रतिक्रियास्वरूप होने वाली घटनाएँ इसका प्रमाण हैं। यह तो सुनिश्चित है कि वर्तमान रूप में जाति-प्रथा का कोई भविष्य नहीं रह गया है, परन्तु यह भी समझ लेना चाहिए कि इससे मुक्ति पाने के लिए राजनीतिक जातिवाद का रास्ता न तो उपयुक्त है और न इच्छित फल ही देने वाला है।

गंगा प्रदूषण

सम्बद्ध शीर्षक

  • जल-प्रदूषण [2014]
  • देश की भलाई : गंगा की सफाई (2015)
  • गंगा प्रदूषण मुक्ति अभियान [2016]

प्रमुख विचार-विन्द-

  1. प्रस्तावना,
  2. गंगा-जल के प्रदूषण के प्रमुख कारण-औद्योगिक कचरा व रसायन तथा तक एवं उनकी स्थियों का विसर्जन,
  3. गंगा प्रदूषण दूर करने के पाय,
  4. उपसंहार

प्रस्तावना-देवनदी गंगा ने जहाँ जीवनदायिनी के रूप में भारत को धन-धान्य से सम्पन्न बनाया है। वहीं माता के रूप में इसकी पावन धारा ने देशवासियों के हृदयों में मधुरता तथा सरसता का संचार किया है। गंगा मात्र एक नदी नहीं, वरन् भारतीय जन-मानस के साथ-साथ समूची भारतीयता की आस्था का जीवंत प्रतीक है। हिमालय की गोद में पहाड़ी घाटियों से नीचे कल्लोल करते हुए मैदानों की राहों पर प्रवाहित होने वाली गंगा पवित्र तो है ही, वह मोक्षदायिनी के रूप में भी भारतीय भावनाओं में समाई है। भारतीय सभ्यतासंस्कृति का विकास गंगा-यमुना जैसी अनेकानेक पवित्र नदियों के आसपास ही हुआ है। गंगा-जल वर्षों तक बोतलों, डिब्बों आदि में बन्द रहने पर भी खराब नहीं होता था। आज वही भारतीयता की मातृवत पूज्या गंगा प्रदूषित होकर गन्दे नाले जैसी बनती जा रही है, जोकि वैज्ञानिक परीक्षणगत एवं अनुभवसिद्ध तथ्य है। गंगा के बारे में कहा गया है

नदी हमारी ही है गंगा, प्लावित करती मधुरस-धारा,
बहती है क्या कहीं और भी, ऐसी पावन कल-कल धारा।

गंगा-जल के प्रदूषण के प्रमुख कारण–पतितपावनी गंगा के जल के प्रदूषित होने के बुनियादी कारणों में से एक कारण तो यह है कि प्रायः सभी प्रमुख नगर गंगा अथवा अन्य नदियों के तट पर और उसके आस-पास बसे हुए हैं। उन नगरों में आबादी का दबाव बहुत बढ़ गया है। वहाँ से मूल-मूत्र और गन्दे पानी की निकासी की कोई सुचारु व्यवस्था न होने के कारण इधर-उधर बनाये गये छोटे-बड़े सभी गन्दे नालों के माध्यम से बहकर वह गंगा या अन्य नदियों में आ मिलता है। परिणामस्वरूप कभी खराब न होने वाला गंगाजल भी आज बुरी तरह से प्रदूषित होकर रह गया है।

औद्योगिक कचरा व रसायन-वाराणसी, कोलकाता, कानपुर आदि न जाने कितने औद्योगिक नगर गंगा के तट पर ही बसे हैं। यहाँ लगे छोटे-बड़े कारखानों से बहने वाला रासायनिक दृष्टि से प्रदूषित पानी, कचरा आदि भी गन्दे नालों तथा अन्य मार्गों से आकर गंगा में ही विसर्जित होता है। इस प्रकार के तत्त्वों ने जैसे वातावरण को प्रदूषित कर रखा है, वैसे ही गंगाजल को भी बुरी तरह प्रदूषित कर दिया है।

मृतक एवं उनकी अस्थियों का विसर्जन-वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि सदियों से आध्यात्मिक भावनाओं से अनुप्राणित होकर गंगा की धारा में मृतकों की अस्थियाँ एवं अवशिष्ट राख तो बहाई जा ही रही है, अनेक लावारिस और बच्चों के शव भी बहा दिये जाते हैं। बाढ़ आदि के समय मरे पशु भी धारा में आ मिलते हैं। इन सबने भी गंगा-जल-प्रदूषण की स्थितियाँ पैदा कर दी हैं। गंगा के प्रवाह स्थल और आसपास से वनों का निरन्तर कटाव, वनस्पतियों, औषधीय तत्त्वों का विनाश भी प्रदूषण का एक बहुत बड़ा कारण है। गंगा-जल को प्रदूषित करने में न्यूनाधिक इन सभी का योगदान है।

गंगा प्रदूषण दूर करने के उपाय–विगत वर्षों में गंगा-जल का प्रदूषण समाप्त करने के लिए एक योजना बनाई गई थी। योजना के अन्तर्गत दो कार्य मुख्य रूप से किए जाने का प्रावधान किया गया था। एक तो यह कि जो गन्दे नाले गंगा में आकर गिरते हैं या तो उनकी दिशा मोड़ दी जाए या फिर उनमें जलशोधन करने वाले संयन्त्र लगाकर जल को शुद्ध साफ कर गंगा में गिरने दिया जाए। शोधन से प्राप्त मलबा बड़ी उपयोगी खाद को काम दे सकता है। दूसरा यह कि कल-कारखानों में ऐसे संयन्त्र लगाए जाएँ जो उस जल का शोधन कर सकें तथा शेष कचरे को भूमि के भीतर दफन कर दिया जाए। शायद ऐसा कुछ करने का एक सीमा तक प्रयास भी किया गया, पर काम बहुत आगे नहीं बढ़ सका, जबकि गंगा के साथ जुड़ी भारतीयता का ध्यान रख इसे पूर्ण करना बहुत आवश्यक है।

आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टि अपनाकर तथा अपने ही हित में गंगा-जल में शव बहाना बन्द किया जा सकता है। धारा के निकास स्थल के आसपास वृक्षों, वनस्पतियों आदि का कटाव कठोरता से प्रतिबंधित कर कटे स्थान पर उनका पुनर्विकास कर पाना आज कोई कठिन बात नहीं रह गई है। अन्य ऐसे कारक तत्त्वों का भी थोड़ा प्रयास करके निराकरण किया जा सकता है, जो गंगा-जल को प्रदूषित कर रहे हैं। भारत सरकार भी जल-प्रदूषण की समस्या के प्रति जागरूक है और इसने सन् 1974 में ‘जल-प्रदूषण निवारण अधिनियम’ भी लागू किया है।

उपसंहार– आध्यात्मिक एवं भौतिक प्रकृति के अद्भुत संगम भारत के भूलोक को गौरव तथा प्रकृति का पुण्य स्थल कहा गया है। इस भारत-भूमि तथा भारतवासियों में नये जीवन तथा नयी शक्ति का संचार करने का श्रेय गंगा नदी को जाता है।

“गंगा आदि नदियों के किनारे भीड़ छवि पाने लगी।
मिलकर जल-ध्वनि में गल-ध्वनि अमृत बरसाने लगी।
सस्वर इधर श्रुति-मंत्र लहरी, उधर जल लहरी कहाँ
तिस पर उमंगों की तरंगें, स्वर्ग में भी क्यों रहा?”

गंगा को भारत की जीवन-रेखा तथा गंगा की कहानी को भारत की कहानी माना जाता है। गंगा की महिमा अपार है। अतः गंगा की शुद्धता के लिए प्राथमिकता से प्रयास किये जाने चाहिए।

प्राकृतिक आपदाएँ और उनका प्रबन्धन (2016)

सम्बद्ध शीर्षक

  • मनुष्य और प्रकृति
  • प्राकृतिक आपदाएँ [2009]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. भूमिका
  2. आपदा का अर्थ,
  3. प्रमुख प्राकृतिक आपदाएँ: कारण और निवारण,
  4. आपदा प्रबन्धन हेतु संस्थानिक तन्त्र,
  5. उपसंहार

भूमिका-पृथ्वी की उत्पत्ति होने के साथ मानव सभ्यता के विकास के समान प्राकृतिक आपदाओं का इतिहास भी बहुत पुराना है। मनुष्य को अनादि काल से ही प्राकृतिक प्रकोपों का सामना करना पड़ा है। ये प्रकोप भूकम्प, ज्वालामुखीय उद्गार, चक्रवात, सूखा (अकाल), बाढ़, भू-स्खलन, हिम-स्खलन आदि विभिन्न रूपों में प्रकट होते रहे हैं तथा मानव-बस्तियों के विस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करते रहे हैं। इनसे हजारों-लाखों लोगों की जानें चली जाती हैं तथा उनके मकान, सम्पत्ति आदि को पर्याप्त क्षति पहुँचती है। सम्पूर्ण विश्व में प्राकृतिक आपदाओं के कारण समाज के कमजोर वर्ग के लोग बड़ी संख्या में हताहत हो रहे हैं। आज हम वैज्ञानिक रूप से कितने ही उन्नत क्यों न हो गये हों, प्रकृति के विविध प्रकोप हमें बार-बार यह स्मरण कराते हैं कि उनके समक्ष मानव कितना असहाय है।

आपदा का अर्थ-प्राकृतिक प्रकोप मनुष्यों पर संकट बनकर आते हैं। इस प्रकारे संकट प्राकृतिक या मानवजनित वह भयानक घटना है, जिसमें शारीरिक चोट, मानव-जीवन की क्षति, सम्पत्ति की क्षति, दूषित वातावरण, आजीविका की हानि होती है। इसे मनुष्य द्वारा संकट, विपत्ति, विपदा, आपदा आदि अनेक रूप में जाना जाता है। आपदा को सामान्य अर्थ संकट या विपत्ति है, जिसका अंग्रेजी पर्याय ‘disaster’ है। किसी निश्चित स्थान पर भौतिक घटना का घटित होना, जिसके कारण हानि की सम्भावना हो, प्राकृतिक खतरे के रूप में जाना जाता है। ये घटनाएँ सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचों एवं विद्यमान व्यवस्था को ध्वस्त कर देती हैं जिनकी पूर्ति के लिए बाहरी सहायता की आवश्यकता होती है।

प्रमुख प्राकृतिक आपदाएँ : कारण और निवारण–प्राकृतिक आपदाएँ अनेक हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं
(1) भूकम्प–भूकम्प भूतल की आन्तरिक शक्तियों में से एक है। भूगर्भ में प्रतिदिन कम्पन होते हैं; लेकिन जब ये कम्पन अत्यधिक तीव्र होते हैं तो ये भूकम्प कहलाते हैं। साधारणतया भूकम्प एक प्राकृतिक एवं आकस्मिक घटना है, जो भू-पटल में हलचल अथवी लहर पैदा कर देती है। इन हलचलों के कारण पृथ्वी अनायास ही वेग से काँपने लगती है।
भूगर्भशास्त्रियों ने ज्वालामुखीय उद्गार, भू-सन्तुलन में अव्यवस्था, जलीय भार, भू-पटल में सिकुड़न, प्लेट विवर्तनिकी आदि को भूकम्प आने के कारण बताये हैं।
भूकम्प ऐसी प्राकृतिक आपदा है जिसे रोक पाना मनुष्य के वश में नहीं है। मनुष्य केवल भूकम्पों की भविष्यवाणी करने में कुछ अंशों तक सफल हुआ है। साथ-साथ भूकम्प के कारण सम्पत्ति को होने वाली क्षति को कम करने के कुछ उपाय भी उसने ढूंढ़ निकाले हैं।

(2) ज्वालामुखी–ज्वालामुखी एक आश्चर्यजनक व विध्वंसकारी प्राकृतिक घटना है। यह भूपृष्ठ पर प्रकट होने वाली एक ऐसी विवर (क्रेटर या छिद्र) है जिसका सम्बन्ध भूगर्भ से होता है। इससे तप्त लावा, पिघली हुई शैलें तथा अत्यन्त तप्त गैसें समय-समय पर निकलती रहती हैं। इससे निकलने वाले पदार्थ भूतल पर शंकु (cone) के रूप में एकत्र होते हैं, जिन्हें ज्वालामुखी पर्वत कहते हैं। इसे ज्वालामुखीय उद्गार कहते हैं। ज्वालामुखी एक आकस्मिक तथा प्राकृतिक घटना है जिसकी रोकथाम करना अभी मानव के वश में नहीं है।

(3) भू-स्खलन-भूमि के एक सम्पूर्ण भाग अथवा उसके विखण्डित एवं विच्छेदित खण्डों के रूप में खिसक जाने अथवा गिर जाने को भू-स्खलन कहते हैं। यह भी बड़ी प्राकृतिक आपदाओं में से एक है। भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में, भू-स्खलन एक व्यापक प्राकृतिक आपदा है जिससे बारह महीने जान और माल का नुकसान होता है।
भू-स्खलन अनेक प्राकृतिक और मानवजनित कारकों के परस्पर मेल के परिणामस्वरूप होता है। वर्षा की तीव्रता, खड़ी ढलाने, ढलानों का कड़ापन, अत्यधिक कटी-फटी चट्टानों की परतें, भूकम्पीय गतिविधि, दोषपूर्ण जल-निकासी आदि प्राकृतिक कारण हैं तथा वनों की अन्धाधुन्ध कटाई, अकुशल खुदाई, खनन तथा उत्खनन, पहाड़ियों पर अत्यधिक भवन निर्माण आदि मानवजनित।।

भू-स्खलन एक प्राकृतिक आपदा है, तथापि वानस्पतिक आवरण में वृद्धि इसको नियन्त्रित करने का सर्वाधिक प्रभावशाली, सस्ती व उपयोगी साधन है, क्योंकि यह मृदा अपरदन को रोकता है।

(4) चक्रवात-चक्रवात भी एक वायुमण्डलीय विक्षोभ है। चक्रवात का शाब्दिक अर्थ है-चक्राकार हवाएँ। वायुदाब की भिन्नता से वायुमण्डल में गति उत्पन्न होती है। अधिक गति होने पर वायुमण्डल की दशा अस्थिर हो जाती है और उसमें विक्षोभ उत्पन्न होता है।

चक्रवातों का मूल कारण वायुमण्डल में ताप और वायुदाब की भिन्नता है। अधिक वायुदाब क्षेत्रों से ठण्डी चक्करदार हवाएँ निम्न दाब की ओर चलती हैं और चक्रवात का रूप धारण कर लेती हैं।

चक्रवात मौसम से जुड़ी आपदा है। इसकी चेतावनी के उपरान्त लोगों को सुरक्षित स्थानों पर भेजा जा सकता है। चक्रवातों के वेग को बाधित करने के लिए, उनके आने के मार्ग में ऐसे वृक्ष लगाये जाने चाहिए जिनकी जड़ें मजबूत हों तथा पत्तियाँ नुकीली व पतली हों।

(5) बाढ़-वर्षाकाल में अधिक वर्षा होने पर प्रायः नदियों का जल तटबन्धों को तोड़कर आस-पास के निचले क्षेत्रों में फैल जाता है, जिससे वे क्षेत्र जलमग्न हो जाते हैं। इसी, को बाढ़ कहते हैं। बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है किन्तु जब यह मानव-जीवन व सम्पत्ति को क्षति पहुँचाती है तो यह प्राकृतिक आपदा कहलाती है।

बाढ़ की स्थिति से बचाव के लिए जल-मार्गों को यथासम्भव सीधा रखना चाहिए तथा बाढ़ सम्भावित क्षेत्रों में जल के मार्ग को मोड़ने के लिए कृत्रिम ढाँचे बनाये जाने चाहिए। सम्भावित क्षेत्रों में कृत्रिम जलाशयों तथा आबादी वाले क्षेत्रों में बाँध का निर्माण किया जाना चाहिए।

(6) सूखा-सूखा वह स्थिति है जिसमें किसी स्थान पर अपेक्षित तथा सामान्य वर्षा से कम वर्षा होती है। यह गर्मियों में भयंकर रूप धारण कर लेता है। यह एक मौसम सम्बन्धी आपदा है जो किसी अन्य विपत्ति की अपेक्षा धीमी गति से आता है।

प्रकृति तथा मनुष्य दोनों ही सूखे के मूल कारणों में हैं। अत्यधिक चराई तथा जंगलों की कटाई, ग्लोबल वार्मिंग, कृषियोग्य समस्त भूमि का अत्यधिक उपयोग तथा वर्षा के असमान वितरण के कारण सूखे की स्थिति पैदा हो जाती है। हरित पट्टियों के निर्माण के लिए भूमि को आरक्षण, कृत्रिम उपायों द्वारा जल संचय, विभिन्न नदियों को आपस में जोड़ना आदि सूखे के निवारण के प्रमुख उपाय हैं।

(7) समुद्री लहरें—समुद्री लहरें कभी-कभी विनाशकारी रूप धारण कर लेती हैं और इनकी ऊँचाई कभी-कभी 15 मीटर तथा इससे भी अधिक तक होती है। ये तट के आस-पास की बस्तियों को तबाह कर देती हैं। तटवर्ती मैदानी इलाकों में इनकी रफ्तार 50 किमी प्रति घण्टा तक हो सकती है। इन विनाशकारी समुद्री लहरों को ‘सूनामी’ कहा जाता है।

समुद्र तल के पास या उसके नीचे भूकम्प आने पर समुद्र में हलचल पैदा होती है और यही हलचले विनाशकारी सूनामी का रूप धारण कर लेती है। दक्षिण पूर्व एशिया में आयी विनाशकारी सूनामी लहरें भूकम्प का ही परिणाम थीं। समुद्र की तलहटी में भू-स्खलन के कारण भी ऐसी लहरें उत्पन्न होती हैं।

आपदा प्रबन्धन हेतु संस्थानिक तन्त्र--प्राकृतिक आपदाओं को रोक पाना सम्भव नहीं है, परन्तु जोखिम को कम करने वाले कार्यक्रमों के संचालन हेतु संस्थानिक तन्त्र की आवश्यकता व कुशल संचालन के लिए सन् 2004 में भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन नीति’ बनायी गयी है जिसके अन्तर्गत केन्द्रीय स्तर पर राष्ट्रीय आपात-स्थिति प्रबन्धन प्राधिकरण’ का गठन किया जा रहा है तथा सभी राज्यों में राज्य स्तरीय आपात स्थिति प्रबन्ध प्राधिकरण’ का गठन प्रस्तावित है। ये प्राधिकरण केन्द्र व राज्य स्तर पर आपदा प्रबन्धन हेतु समस्त कार्यों की दृष्टि से शीर्ष संस्था होंगे। ‘राष्ट्रीय संकट प्रबन्धन संस्थान, दिल्ली भारत सरकार का एक संस्थान है, जो सरकारी अफसरों, पुलिसकर्मियों, विकास एजेन्सियों, जन-प्रतिनिधियों तथा अन्य व्यक्तियों को संकट प्रबन्धन हेतु प्रशिक्षण प्रदान करता है। राज्य स्तर पर स्टेट इन्स्टीट्यूट्स ऑफ रूरल डेवलपमेण्ट, ऐडमिनिस्ट्रेटिव ट्रेनिंग इन्स्टीट्यूट्स, विश्वविद्यालयों आदि को यह उत्तरदायित्व सौंपा गया है। इंजीनियरिंग संस्थान; जैसे—इण्डियन इन्स्टीट्यूट्स ऑफ टेक्नोलॉजी, रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज, स्कूल्स ऑफ आर्किटेक्चर आदि भी इंजीनियरों को आपदा प्रबन्धन का प्रशिक्षण देते हैं।

उपसंहार-विद्यार्थियों को आपदा प्रबन्धन का ज्ञान दिया जाना चाहिए इस विचार के अन्तर्गत सभी पाठ्यक्रमों में आपदा प्रबन्धन को सम्मिलित किया जा रहा है। यह प्रयास है कि पारिस्थितिकी के अनुकूल आपदा प्रबन्धन में विद्यार्थियों का ज्ञानवर्धन होता रहे; क्योंकि आपदा प्रबन्धन के लिए विद्यार्थी उत्तम एवं प्रभावी यन्त्र है, जिसका योगदान आपदा प्रबन्धन के विभिन्न चरणों; यथा–आपदा से पूर्व, आपदा के समय एवं आपदा के बाद; की गतिविधियों में लिया जा सकता है। इसके लिए विद्यार्थियों को जागरूक एवं संवेदनशील बनाना चाहिए।

आपदाओं को दैविक घटना’ या दैविक आपदा के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए और यह नहीं सोचना चाहिए कि इन पर मनुष्य का कोई वश नहीं है। इन आपदाओं को समझने के लिए केवल वैज्ञानिकों पर ही नहीं छोड़ देना चाहिए। हमें जिम्मेदार नागरिक की भाँति इनके बारे में सोचना चाहिए तथा अपने कल को इनसे सुरक्षित बनाने के लिए स्वयं को तैयार रखनी चाहिए।

बाढ़ समस्या : कारण और निवारण (2017)

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. भूमिका
  2. बाढ़ो के कारण
  3. बाढ़ो का प्रकोप
  4. बाढ़ नियन्त्रण के उपाय

भूमिका–बाढ़ का साधारण अर्थ निरन्तर कई दिनों तक भू-क्षेत्र का जल से आवृत्त होना है। सामान्यत: बाढ़ों को नदियों से सम्बद्ध माना जाता है। लोग ऐसा मानते हैं कि बाढ़े अधिकतम प्रवाह के दौरान तटबन्ध तोड़कर नदियों की विशाल जलराशि के एकत्रण से उत्पन्न होती हैं। बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है जो वर्षा के कारण उत्पन्न होती है, किन्तु जनजीवन एवं सम्पत्ति को हानि पहुँचाने पर यह एक प्रकोप को रूप धारण कर लेती है। यह भी उल्लेखनीय है कि बाढ़े मानवीय क्रियाओं से उग्र होकर आपदा बन जाती हैं। बाढ़े प्राय: कॉप तथा बाढ़ के मैदानों में बहने वाली नदियों से सम्बद्ध होती हैं। विश्व का लगभग 3.5% क्षेत्र बाढ़ के मैदानों से निर्मित है जहाँ विश्व की लगभग 16.5% जनसंख्या निवास करती है। भारत में गंगा, यमुना, चम्बल, रामगंगा, गोमती, घाघरा, गण्डक, कोसी, दामोदर, ब्रह्मपुत्र, महानदी, कृष्णा, गोदावरी, ताप्ती, नर्मदा, लूनी, माही आदि तथा संयुक्त राज्य में मिसीसिपी-मिसौरी, चीन में यांग्त्सी तथा ह्वांग्हो, म्यांमार में इरावदी, पाकिस्तान में सिन्धु, नाइजरिया में नाइजर तथा इटली में पो नदी बाढ़ग्रस्त होती हैं।

बाढों के कारण बाढ़ों के कारण प्राकृतिक एवं मानवीय दोनों ही हैं। प्राकृतिक कारणों में—

  1. लम्बे समय तक भारी वर्षा का होना,
  2. नदियों के मोड़दार मार्ग,
  3. बाढ़ के विस्तृत मैदान,
  4. नदियों के मार्ग में ढाले का आकस्मिक रूप से टूटना (समाप्ति),
  5. नदियों की धाराओं में तलछट पदार्थों (अवसादों) के जमा होने से नदी का प्रवाह रुकना आदि हैं।

मानवीय कारकों में—

  1. भवन-निर्माण तथा नगरीकरण में वृद्धि,
  2. नदी के जल को जान-बूझकर दूसरे मार्ग से बहाना,
  3. पुलों, अवरोधकों, जलाशयों आदि का निर्माण,
  4. कृषि प्रणालियाँ,
  5. निर्वनीकरण,
  6. भूमि उपयोग में परिवर्तन आदि हैं। इन सब कारणों से नदी में बाढ़ आती हैं, किनारों पर भूमि स्खलन तथा अवपतन होते हैं, नदी अपरदन में वृद्धि होती है, नदी की धाराओं में परिवर्तन होता है, तली में अवसादन तथा बजरी, रेत आदि का निक्षेप होता है।

भारी वर्षा तथा शुष्क/अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में आकस्मिक रूप से अधिक वर्षा बाढ़ों का प्रमुख कारण है। ब्रह्मपुत्र नदी एवं हिमालय की नदियाँ अधिक बाढ़ग्रस्त होती हैं। बंगाल की दामोदर नदी भी बाढ़ों के लिए कुख्यात है।

नदी के ऊपरी संग्रहण क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निर्वनीकरण नदियों में बाढ़ों का सबसे महत्त्वपूर्ण मानवीय कारक है। विगत दशकों में विश्व भर में बड़े पैमाने पर वन काटे गये हैं जिसके कारण बाढ़ों की आवृत्ति तथा परिमाण में वृद्धि हुई है। वृक्षों की जड़े धरातल के वाही जल को सोख लेती हैं जिससे भूमिगत जल के परिमाण में भी वृद्धि होती है। यही नहीं, वृक्षों की शाखाएँ एवं सघन वितान (Canopy) वर्षा को मूसलाधार रूप में धरातल पर पड़ने नहीं देते। इसके विपरीत, वनों के अभाव में वर्षा की बूंदें धरातल पर सीधी गिरकर वाही जल के रूप में बहने लगती हैं। धरातलीय वाही जल में वृद्धि होने से मृदा अपरदन भी अधिक होता है जिससे नदियों के अवसाद बोझ में वृद्धि होती है। नदी के तल में अवसादन क्रिया अधिक होने से वर्षाकाल में जल आस-पास के क्षेत्रों में फैल जाता है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में आने वाली बाढ़ों का प्रमुख कारण हिमालयी क्षेत्र में निर्वनीकरण ही है।

बाढ़ों का प्रकोप–भारत ही नहीं संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे विकसित देश भी नदियों की बाढ़ों से ग्रस्त रहते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में मिसीसिपी-मिसौरी नदियाँ बाढ़ों के लिए कुख्यात हैं। टैनेसी, कोलोरेडो, हवाइट, रेड, अरकन्सास, ईल, सवाना, वेबाश, ओयो, पोटोमैक, मिसौरी, डेलाबेयर, मियामी, विलामेट तथा कोलम्बिया नदियाँ भी बाँधों के लिए कुख्यात हैं।

चीन की ह्वांग्हो नदी आज भी बाढ़ों के प्रकोप के कारण ‘चीन को शोक’ कहलाती है। 1887 में इसकी बाढ़ से दस लाख लोगों की मृत्यु हुई थी। 1993 में संयुक्त राज्य अमेरिका की मिसीसिपी-मिसौरी नदियों द्वारा बाढ़ के विनाश से 15,000 मिलियन डॉलर की सम्पत्ति नष्ट हुई तथा 75,000 लोगों के घर उजड़ गये। 1927 में मिसीसिपी नदी में बाढ़ के कारण पेन्सिलवेनिया राज्य (संयुक्त राज्य अमेरिका) में 50 लोगों की मृत्यु हुई, 2,50,000 बेघरबार हो गये तथा 2,000 मिलियन डॉलर की सम्पत्ति नष्ट हो गयी। इसके अतिरिक्त कृषि, व्यवसाय, परिवहन आदि क्षेत्रों में भी भारी क्षति हुई।

भारत के सर्वाधिक बाढ़ प्रवण क्षेत्र तथा बाढ़ग्रस्त क्षेत्र उत्तरीय भारत में गंगा के मैदानी क्षेत्र हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार तथा आन्ध्र प्रदेश राज्यों में देश में बाढ़ों से होने वाली कुल क्षति का 62% मिलता है। प्रतिवर्ष निर्वनीकरण, मृदा अपरदन में वृद्धि, नगरीकरण में वृद्धि, बाढ़ के मैदानों में बस्तियों की वृद्धि, घाटी के पाश्र्यों में कृषि कार्यों के लिए भूमि का अतिक्रमण, पुलों, तटबन्धों आदि का निर्माण इत्यादि कारणों से बाढ़ों की आवृत्ति तथा परिमाण में निरन्तर वृद्धि हो रही है।

बाढ़ नियन्त्रण के उपाय-यह उल्लेखनीय है कि बाढ़े एक प्राकृतिक परिघटना है तथा इससे पूर्णतः मुक्ति सम्भव नहीं है, किन्तु इसके प्रभाव को मनुष्य अपनी तकनीकी क्षमता द्वारा अवश्य कम कर सकता है। बाढ़ नियन्त्रण के निम्नलिखित उपाय सम्भव हैं

(1) प्रथम तथा सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय वर्षा की तीव्रता तथा उससे उत्पन्न धरातलीय भार को नियन्त्रित करना है। मनुष्य वर्षा की तीव्रता को तो कम नहीं कर सकता है, किन्तु धरातलीय वाह (वाही जल) को नदियों तक पहुँचने पर देरी अवश्य कर सकता है। यह उपाय बाढ़ों के लिए कुख्यात नदियों के जल संग्राहक पर्वतीय क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण द्वारा सम्भव है। वृक्षारोपण द्वारा जल के धरातल के नीचे रिसाव को प्रोत्साहन मिलता है जिससे वाही जल की मात्रा कुछ सीमा तक कम हो जाती है। वृक्षारोपण से मृदा अपरदन में भी कमी आती है तथा नदियों में अवसादों की मात्रा कम होती है। अवसादन में कमी होने पर नदियों में तल बहाने की क्षमता बढ़ जाती है। इस प्रकार बाढ़ों की आवृत्ति तथा परिमाण में कमी की जा सकती है।

(2) घुमावदार मार्ग से होकर बहने पर नदियों में जल बहने की क्षमता में कमी आती है। इसके लिए नदियों के मार्गों को कुछ स्थानों पर सीधा करना उपयुक्त रहता है। यह कार्य मोड़ों को कृत्रिम रूप से काटकर किया जा सकता है, किन्तु यह उपाय बहुत व्ययपूर्ण है। दूसरे, विसर्पण (Meandering) एक प्राकृतिक प्रक्रम है, नदी अन्यत्र विसर्प बना लेगी। वैसे यह उपाय निचली मिसीसिपी में ग्रीनविले (संयुक्त राज्य अमेरिका) के निकट 1933 से 1936 में अपनाया गया, जिसके तहत नदी का मार्ग 530 किमी से घटाकर 185 किमी कर दिया गया।

(3) नदी में बाढ़ आने के समय जल के परिमाण को अनेक इंजीनियरी उपायों द्वारा; जैसे-भण्डारण जलाशय बनाकर; किया जा सकता है। ये बाँध बाढ़ के अतिरिक्त जल को संचित कर लेते हैं। इसे जल की सिंचाई में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। यदि जलाशयों के साथ बाँध भी बना दिया जाता है तो इससे जल विद्युत उत्पादन में भी सफलता मिलती है। ऐसे उपाय 1913 में ओह्यो राज्य (संयुक्त राज्य अमेरिका) में मियामी नदी पर किये गये थे तथा बहुत प्रभावी एवं लोकप्रिय सिद्ध हुए। 1993 के पूर्व टेनेसी बेसिन भी बाढ़ों के लिए कुख्यात था, किन्तु 1933 में टैनेसी घाटी प्राधिकरण (TVA) द्वारा अनेक बाँध तथा जलाशय बनाकर इस समस्या का निदान सम्भव हुआ। वही टैनेसी बेसिन अब एक स्वर्ग बन गया है। टैनेसी घाटी परियोजना से प्रेरित होकर भारत में भी दामोदार घाटी निगम (DvC) की स्थापना की गयी तथा दामोदर नदी तथा इसकी सहायक नदियों पर चार बड़े बाँध एवं जलाशय बनाये गये। इसी प्रकार तापी नदी पर कई बाँध एवं जलाशय के निर्माण से नदी की निचली घाटी तथा सूरत नगर को बाढ़ के प्रकोप से बचा लिया गया है।

(4) तटबन्ध, बाँध तथा दीवारें बनाकर भी बाढ़ के जल को संकीर्ण धारा के रूप में रोका जा सकता है। ये दीवारें मिट्टी, पत्थर या कंकरीट की हो सकती है। दिल्ली, इलाहाबाद, लखनऊ आदि अनेक नगरों में इस प्रकार के उपाय किये गये हैं। चीन तथा भारत में कृत्रिम कगारों का निर्माण बहुत प्राचीन काल से प्रचलित रहा है। कोसी (बिहार) तथा महानन्दा नदियों पर भी बाढ़ नियन्त्रण हेतु इसी प्रकार के उपाय किये गये हैं।

(5) 1954 में केन्द्रीय बाढ़ नियन्त्रण बोर्ड के गठन तथा राज्य स्तर पर बाढ़ नियन्त्रण बोर्ड की स्थापना भी बाढ़ नियन्त्रण में लाभकारी रही है। भारत में बाढ़ की भविष्यवाणी तथा पूर्व चेतावनी की प्रणाली 1959 में दिल्ली में बाढ़ की स्थिति मॉनीटर करने हेतु प्रारम्भ की गयी। तत्पश्चात् देश भर में प्रमुख नदी बेसिनों में बाढ़
की दशाओं को मॉनीटर करने हेतु एक नेटवर्क बनाया गया। बाढ़ की भविष्यवाणी के ये केन्द्र वर्षा सम्बन्धी, डिस्चार्ज दर आदि आँकड़े एकत्रित करते हैं तथा अपने अधिकार क्षेत्र के निवासियों को विशिष्ट नदी बेसिन के सन्दर्भ में बाढ़ की पूर्व चेतावनी देते हैं।

बढ़े बेटियाँ, पढ़ें बेटियाँ। [2016]

सम्बद्ध शीर्षक

  • बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ

स्त्रियों की उन्नति या अवनति पर ही राष्ट्र की उन्नति या अवनति निर्भर करती है। स्त्री काँटेदार झाड़ी को फल बनाती है, दरिद्र-से-दरिद्र मनुष्य के घर को भी सुशील स्त्री स्वर्ग बना देती है।

-गोल्डस्मिथ

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्ताव,
  2. योजना के उद्देश्य,
  3. ‘बढ़े बेटियाँ’ से आशय,
  4. बेटियों को बढ़ाने के उपाय—(क) पढ़ें बेटियाँ, (ख) सामाजिक सुरक्षा, (ग) रोजगार के समान अवसरों की उपलब्धता,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना-कहते हैं कि सुघड़, सुशील और सुशिक्षित स्त्री दो कुलों का उद्धार करती है। विवाहपर्यन्त वह अपने मातृकुल को सुधारती है और विवाहोपरान्त अपने पतिकुल को। उनके इस महत्त्व को प्रत्येक देश-काल में स्वीकार किया जाता रहा है, किन्तु यह विडम्बना ही है कि उनके अस्तित्व और शिक्षा पर सदैव से संकट छाया रहा है। विगत कुछ दशकों में यह संकट और अधिक गहरा हुआ है, जिसका परिणाम यह हुआ कि देश में बालक-बालिका लिंगानुपात सन् 1971 ई० की जनगणना के अनुसार प्रति एक हजार बालकों पर 930 बालिका था, जो सन् 1991 ई० में घटकर 927 हो गया। सन् 2011 ई० की जनगणना में यह सुधरकर 943 हो गया। मगर इसे सन्तोषजनक नहीं कहा जा सकता। जब तक बालक-बालिका लिंगानुपात बराबर नहीं हो जाती तब तक किसी भी प्रगतिशील बुद्धिवादी समाज को विकसित अथवा प्रगतिशील समाज की संज्ञा नहीं दी जा सकती। महिला सशक्तीकरण की बात करना भी तब तक बेमानी ही है। माननीय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी जी ने इस तथ्य के मर्म को जाना-समझा और सरकारी स्तर पर एक योजना चलाने की रूपरेखा तैयार की। इसके लिए उन्होंने 22 जनवरी, 2015 को हरियाणा राज्य से ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना की शुरुआत की।

योजना के उद्देश्य-योजना के महत्त्व और महान् उद्देश्य की दृष्टिगत रखते हुए बेटी बचाओ, बेटी पढ़ओ’ योजना की शुरुआत भारत सरकार के बाल विकास मन्त्रालय, स्वास्थ्य मन्त्रालय, परिवार कल्याण मन्त्रालय और मानव संसाधन विकास मन्त्रालय की संयुक्त पहल से की गई। इस योजना के दोहरे लक्ष्य के अन्तर्गत न केवल लिंगानुपात की असमानता की दर में सन्तुलन लाना है, बल्कि कन्याओं को शिक्षा दिलाकर देश के विकास में उनकी भागेदारी को सुनिश्चित करना है। सौ करोड़ रुपयों की शुरुआती राशि के साथ इस योजना के माध्यम से महिलाओं के लिए कल्याणकारी सेवाओं के प्रति जागरूकता फैलाने का कार्य किया जा रहा है। सरकार द्वारा लिंग समानता के कार्य को मुख्यधारा से जोड़ने के अतिरिक्त स्कूली पाठ्यक्रमों में भी लिंग समानता से जुड़ा एक अध्याय रखा जाएगा। इसके आधार पर विद्यार्थी, अध्यापक और समुदाय कन्या शिशु और महिलाओं की आवश्यकताओं के प्रति अधिक संवेदनशील बनेंगे तथा समाज का सौहार्दपूर्ण विकास होगा। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना के अन्तर्गत जिन महत्त्वपूर्ण गतिविधियों पर कार्य किया जा रहा है, वे इस प्रकार हैं-

  • स्कूल मैनेजमेण्ट कमेटियों को सक्रिय करना, जिससे लड़कियों की स्कूलों में भर्तियाँ हो सकें।
  • स्कूलों में बालिका मंच की शुरुआत।
  • कन्याओं के लिए शौचालय निर्माण।
  • बन्द पड़े शौचालयों को फिर से शुरू करना।
  • कस्तूरबा गांधी बाल विद्यालयों को पूरा करना।
  • पढ़ाई छोड़ चुकी लड़कियों को माध्यमिक स्कूलों में फिर भर्ती करने के लिए व्यापक अभियान।
  • माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में लड़कियों के लिए छात्रावास शुरू करना।

‘बढे बेटियाँ’ से आशय-‘बेटी बचाओ’ योजना के रूप में इसका सबसे बड़ा उद्देश्य बालिकाओं के लिंगानुपात को बालकों के बराबर लाना है। मगर यहाँ प्रश्न यह खड़ा होता है कि हम बेटियों के लिंगानुपात को बराबर करके उनकी दशा और दिशा में परिवर्तन लाकर उन्हें देश-दुनिया के विकास की मुख्यधारा में सम्मिलित कर पाएँगे। यदि लिंगानुपात स्त्रियों के देश और समाज के विकास की मुख्यधारा से जुड़ने का मानक होता तो देश की संसद में स्त्रियों के 33 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा न खड़ा होता। मगर पुरुषों के लगभग बराबर जनसंख्या होने के बाद भी हमारी वर्तमान 543 सदस्यीय लोकसभा में महिलाओं की संख्या मात्र 62 है, जबकि लिंगानुपात के अनुसार यह स्वाभाविक रूप में पुरुषों की संख्या के लगभग आधी होनी चाहिए थी। इसलिए बेटियों को बचाकर उनकी संख्या में वृद्धि करने के साथ-साथ यह भी आवश्यक है। कि वे निरन्तर आगे बढ़े। उनकी प्रगति के मार्ग की प्रत्येक बाधा को दूर करके उन्हें उन्नति के उच्चतम शिखर तक पहुँचाने का मार्ग प्रशस्त करें। ‘बढ़े बेटियाँ’ नारे का उद्देश्य और आशय भी यही है।

बेटियों को बढ़ाने के उपाय-हमारी बेटियाँ आगे बढ़े और देश के विकास में अपना योगदान करें, इसके लिए अनेक उपाय किए जा सकते हैं, जिनमें से कुछ मुख्य उपाय इस प्रकार हैं

(क) पढ़ें बेटियाँ-बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण और मुख्य उपाय यही है कि हमारी बेटियाँ बिना किसी बाधा और सामाजिक बन्धनों के उच्च शिक्षा प्राप्त करें तथा स्वयं अपने भविष्य का निर्माण करने में सक्षम हों। अभी तक देश में बालिकाओं की शिक्षा की स्थिति सन्तोषजनक नहीं है। शहरी क्षेत्रों में तो बालिकाओं की स्थिति कुछ ठीक भी है, किन्तु ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति बड़ी दयनीय है। बालिकाओं की अशिक्षा के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा यह है कि लोग उन्हें ‘फराया धन’ मानते हैं। उनकी सोच है कि विवाहोपरान्त उसे दूसरे के घर जाकर घर-गृहस्थी का कार्य सँभालना है, इसलिए बढ़ने-लिखने के स्थान पर उसका घरेलू कार्यों में निपुण होना अनिवार्य है। उनकी यही सोच बेटियों के स्कूल जाने के मार्ग बन्द करके घर की चहारदीवारी में उन्हें कैद कर देती है। बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए सबसे पहले समाज की इसी नीच सोचे को परिवर्तित करना होगा।

(ख) सामाजिक सुरक्षा-बेटियाँ पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर बनें और देश के विकास में अपना योगदान दें, इसके लिए सबसे आवश्यक यह है कि हम समाज में ऐसे वातावरण का निर्माण करें, जिससे घर से बाहर निकलनेवाली प्रत्येक बेटी और उसके माता-पिता का मन उनकी सुरक्षा को लेकर सशंकित न हो। आज बेटियाँ घर से बाहर जाकर सुरक्षित रहें और शाम को बिना किसी भय अथवा तनाव के घर वापस लौटें, यही सबसे बड़ी आवश्यकता है। आज घर से बाहर बेटियाँ असुरक्षा का अनुभव करती हैं, वे शाम को जब तक सही-सलामत घर वापस नहीं आ जातीं, उनके माता-पिता की साँसे गले में अटकी रहती हैं। उनकी यही चिन्ता बेटी को घर के भीतर कैद रखने की अवधारणा को बल प्रदान करती है। जो माता-पिता किसी प्रकार अपने दिल पर पत्थर रखकर अपनी बेटियों को पढ़ा-लिखाकर योग्य बना भी देते हैं, वे भी उन्हें रोजगार के लिए घर से दूर इसलिए नहीं भेजते कि ‘जमाना ठीक नहीं है। अत: बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए इस जमाने को ठीक करना आवश्यक है, अर्थात् हमें बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें सामाजिक सुरक्षा की गारण्टी देनी होगी।

(ग) रोजगार के समान अवसरों की उपलब्धता-अनेक प्रयासों के बाद भी बहुत-से सरकारी एवं गैर-सरकारी क्षेत्र ऐसे हैं, जिनको महिलाओं के लिए उपयुक्त नहीं माना गया है। सैन्य-सेवा एक ऐसा ही महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसमें महिलाओं को पुरुषों के समान रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं हैं। यान्त्रिक अर्थात् टेक्नीकल क्षेत्र विशेषकर फील्ड वर्क को भी महिलाओं की सेवा के योग्य नहीं माना जाता है इसलिए इन क्षेत्रों में सेवा के लिए पुरुषों को वरीयता दी जाती है। यदि हमें बेटियों को आगे बढ़ाना है तो उनके लिए सभी क्षेत्रों में रोजगार के समान अवसर उपलब्ध कराने होंगे। यह सन्तोष का विषय है कि अब सैन्य और यान्त्रिक आदि सभी क्षेत्रों में महिलाएँ रोजगार के लिए आगे आ रही हैं और उन्हें सेवा का अवसर प्रदान कर उन्हें आगे आने के लिए प्रोत्साहित भी किया जा रहा है।

उपसंहार-बेटियाँ पढ़े और आगे बढ़े, इसका दायित्व केवल सरकार पर नहीं है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति पर इस बात का दायित्व है कि वह अपने स्तर पर वह हर सम्भव प्रयास करे, जिससे बेटियों को पढ़ने और आगे बढ़ने को प्रोत्साहन मिले। हम यह सुनिश्चित करें कि जब हम घर से बाहर हों तो किसी भी बेटी की सुरक्षा पर हमारे रहते कोई आँच नहीं आनी चाहिए। यदि कोई उनके मान-सम्मान को ठेस पहुँचाने की तनिक भी चेष्टा करे तो आगे बढ़कर उसे सुरक्षा प्रदान करनी होगी और उनके मान-सम्मान से खिलवाड़ करनेवालों को विधिसम्मत दण्ड दिलाकर अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना होगा, जिससे हमारी बेटियाँ उन्मुक्त गगन में पंख पसारे नित नई ऊँचाइयों को प्राप्त कर सकें।

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 14 Tax

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 14 Tax (कर) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 14 Tax (कर).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 14
Chapter Name Tax (कर)
Number of Questions Solved 49
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 14 Tax (कर)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
कर क्या है ? एक अच्छी कर-प्रणाली के गुण बताइए। [2009, 10, 14, 15]
उत्तर:
कर का अर्थ – कर एक अनिवार्य अंशदान है जो करदाता सरकार को देता है, करदातों को कर के बदले में प्रत्यक्ष लाभ का कोई आश्वासन नहीं दिया जाता है। करों का उपयोग सार्वजनिक हित में किया जाता है।

कर की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
डॉ० डाल्टन के अनुसार, “कर किसी सार्वजनिक सत्ता द्वारा लगाया हुआ एक अनिवार्य अंशदान है, चाहे इसके बदले में करदाता को उसकी सेवाएँ प्रदान की गयी हों अथवा नहीं। यह कर किसी कानूनी अपराध की संज्ञा के रूप में नहीं लगाया जाता है।”
प्रो० टेलर के शब्दों में, “वे अनिवार्य भुगतान जो सरकार को बिना किसी प्रत्यक्ष लाभ की आशा में करदाता द्वारा दिये जाते हैं, कर हैं।’
फिण्डले शिराज के अनुसार, “कर सरकारी अधिकारियों द्वारा वसूल किये जाने वाले वे अनिवार्य अंशदान हैं जो सार्वजनिक व्यय को पूरा करने के लिए वसूल किये जाते हैं और जिनका किसी विशेष लाभ से कोई सम्बन्ध नहीं होता।”

कर के लक्ष्ण अथ्वा विशेषताएँ
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कर में निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं

  1.  कर एक अनिवार्य अंशदान या भुगतान है जिसका भुगतान करदाता को अवश्य करना पड़ता है।
  2. सरकार द्वारा कर से प्राप्त आय का प्रयोग सार्वजनिक हित के लिए किया जाता है।
  3. सरकार करदाता को कर के बदले में प्रत्यक्ष लाभ प्रदान करने का कोई आश्वासने नहीं देती है। अर्थात् यह आवश्यक नहीं कि करदाता को उसी अनुपात से लाभ हो, जिस अनुपात में उसने कर दिये हैं।
  4.  करों के भुगतान में करदाता को त्याग करना पड़ता है।
  5. सरकार सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने हेतु अतिरिक्त करारोपण कर सकती है; जैसे-शराब, अफीम आदि मादक पदार्थों पर रोक लगाने हेतु।
  6.  सरकार समाज में धन के समान वितरण हेतु करारोपण में वृद्धि एवं कमी कर सकती है।

एक अच्छी कर-प्रणाली के गुण विशेषताएँ
एक अच्छी कर-प्रणाली में निम्नलिखित गुण होने चाहिए

  1.  कर-प्रणाली सरल एवं सुविधाजनक होनी चाहिए, जिससे करदाता को कर का भुगतान करने में मानसिक कष्ट न हो।
  2.  एक अच्छी कर-प्रणाली अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त पर आधारित होती है।
  3.  कर-प्रणाली प्रगतिशील होनी चाहिए! अर्थात् कर-प्रणाली ऐसी हो जिससे कर का भार धनी वर्ग पर अधिक व निर्धन वर्ग पर कम पड़े।
  4. एक अच्छी कर-प्रणाली में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के करों का समावेश होता है।
  5. एक अच्छी कर-प्रणाली में लोच का गुण पाया जाता है। अर्थात् आवश्यकतानुसार करों की मात्रा में वृद्धि व कमी की जा सके।
  6.  कर-प्रणाली मितव्ययी होनी चाहिए।
  7.  एक अच्छी कर-प्रणाली विलासिता एवं मादक वस्तुओं के उपभोग को हतोत्साहित करती है।
  8. बचत एवं पूँजी-निर्माण को प्रोत्साहित करना अच्छी कर-प्रणाली का गुण है।
  9. एक अच्छी कर-प्रणाली आर्थिक विकास को गति प्रदान करती है।
  10.  एक अच्छी कर-प्रणाली में उत्पादकता का गुण होता है।
  11.  एक अच्छी कर-प्रणाली में करों का भार समाज पर कम पड़ता है।
  12.  कर-प्रणाली में निश्चितता का गुण भी होना चाहिए।

अत: एक अच्छी कर-प्रणाली के लिए आवश्यक है कि उसमें करारोपण के आधारभूत सिद्धान्तों; जैसे- समानता, निश्चितता, मितव्ययिता, सुविधा, लोच, उत्पादकता आदि गुणों का होना आवश्यक है।

प्रश्न 2
प्रत्यक्ष करों से आप क्या समझते हैं ? प्रत्यक्ष करों के गुण और दोषों की विवेचना कीजिए। [2007, 10, 11, 12, 13, 16]
उत्तर:
प्रत्यक्ष कर
जब किसी कर का करापात (Impact of Tax) और करों का भार (Tax Incidence) एक ही व्यक्ति पर पड़ता है, तो वह करे प्रत्यक्ष कर कहलाता है।
प्रत्यक्ष कर जिस व्यक्ति पर लगाए जाते हैं, उसका भुगतान उसी व्यक्ति द्वारा किया जाता है। करदाता उसका भार दूसरों पर नहीं टाल (Shift) सकता है।

  1. प्रो० जॉन स्टुअर्ट मिल के अनुसार, “प्रत्यक्ष कर उन्हीं व्यक्तियों से लिया जाता है जिनसे उन्हें लेने का सरकार का उद्देश्य है।”
  2.  प्रो० डाल्टन के अनुसार, “प्रत्यक्ष कर का भुगतान वास्तव में वही व्यक्ति करता है जिस पर यह वैधानिक रूप से लगाया जाता है।”
  3.  प्रो० जे० के० मेहता के अनुसार, “प्रत्यक्ष कर वह है जो पूर्णरूपेण उस व्यक्ति द्वारा चुकाया जाता है जिस पर वह लगाया जाता है।”

प्रत्यक्ष कर के उदाहरण, आय कर, उत्तराधिकार कर, निगम कर, मृत्यु कर, उपहार कर, कृषि आय-कर आदि।

प्रत्यक्ष करों के गुण (लाभ)
प्रत्यक्ष करों के मुख्य गुण निम्नलिखित हैं

  1. न्यायपूर्ण – प्रत्यक्ष कर न्यायपूर्ण होते हैं, क्योंकि ये कर व्यक्तियों की करदान क्षमता के आधार पर लगाये जाते हैं। इन करों का भार धनी वर्ग पर अधिक तथा निर्धनों पर कम पड़ती है। प्रत्यक्ष कर की दरें बहुधा प्रगतिशील होती हैं।
  2.  मितव्ययिता – प्रत्यक्ष करों में मितव्ययिता पायी जाती है, क्योंकि इन करों को वसूल करने में राज्य को अधिक व्यय नहीं करना पड़ता है।
  3. निश्चितता – प्रत्यक्ष करों में निश्चितता का गुण भी पाया जाता है, क्योंकि इन करों के सम्बन्ध में करदाता को पूर्ण जानकारी रहती है।
  4. लोचता – प्रत्यक्ष कर लोचदार होते हैं। सरकार इन करों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन कर सकती है।
  5.  नागरिक चेतना – प्रत्यक्ष कर नागरिक स्वयं जमा करता है तथा स्वयं ही उसका भार वहन करता है। इस कारण वह यह जानने का प्रयास करता है कि दिये गये कर का उपयोग सार्वजनिक हित के कार्यों में हो रहा है अथवा नहीं। इस प्रकार कर का भुगतान करने के पश्चात् व्यक्ति में आदर्श नागरिकता एवं कर्तव्यपरायणता की भावना जागृत होती है।
  6. उत्पादकता – प्रत्यक्ष कर उत्पादक होते हैं। करों की मात्रा में थोड़ी-सी वृद्धि से ही अधिक आय प्राप्त हो जाती है जिसका उपयोग देश के आर्थिक विकास में किया जा सकता है।
  7. समानता – प्रत्यक्ष कर प्रगतिशील होते हैं। ये कर धनी व्यक्तियों पर अधिक मात्रा में तथा निर्धन वर्ग पर कम मात्रा में लगाये जाते हैं। इस प्रकार प्रत्यक्ष कर आर्थिक असमानता समाप्त कर समाज में समानता लाने का प्रयास करते हैं।

प्रत्यक्ष करों के दोष (हानियाँ)
प्रत्यक्ष करों के दोष निम्नलिखित हैं

1. करों की चोरी – प्रत्यक्ष करों में सबसे बड़ा अवगुण यह है कि व्यक्ति इन करों का भुगतान ईमानदारी के साथ नहीं करते हैं। समाज में अधिक आय प्राप्त करने वाले वर्ग एवं व्यापारी वर्ग झूठे हिसाब-किताब बनाकर व अपनी आय कम प्रदर्शित करके करों से बचने का प्रयास करते हैं।

2. असुविधाजनक – प्रत्यक्ष कर असुविधाजनक व कष्टप्रद होते हैं। करदाता को आय-व्यय का विवरण तैयार कर अधिकारी के सम्मुख रखना पड़ता है तथा उसे पूर्ण रूप से सन्तुष्ट करना पड़ता है। कर अधिकारी के सन्तुष्ट न होने पर करदाता को पर्याप्त असुविधा होती है।

3. बेईमानी को प्रोत्साहन – प्रत्यक्ष कर का भार सच्चे व ईमानदार व्यक्तियों पर अधिक पड़ता है, क्योंकि बेईमान व्यक्ति झूठे हिसाब-किताब व रिश्वत द्वारा इन करों से बच जाते हैं। अन्य व्यक्ति भी इन करों से बचने का मार्ग ढूंढ़ने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार इन करों से बेईमानी व भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन मिलता है।

4. करों की मनमानी दरें – प्रत्यक्ष करों की दरें सरकार स्वेच्छापूर्वक निर्धारित करती है। इन करों के निर्धारण में किसी प्रकार का वैधानिक आधार नहीं होता है। राज्य या सरकार द्वारा कभी-कभी उच्च करारोपण से उद्योग-धन्धे बन्द हो जाते हैं तथा उच्च करों की दर से प्रभावित होकर लोग अपनी आय में वृद्धि करना तथा उत्पादन कार्य बन्द कर देते हैं।

5. प्रत्यक्ष कर निर्धन वर्ग पर नहीं लगाये जा सकते – प्रत्यक्ष कर सभी नागरिकों के ऊपर नहीं लगाये जाते हैं। एक निश्चित सीमा से कम आय वाले लोग इन करों से मुक्त रहते हैं। नैतिक दृष्टि से यह उचित नहीं है। इस कर के कारण समाज धनी वर्ग एवं निर्धन वर्ग में विभक्त हो जाता है। कुछ समय पश्चात् इन वर्गों में संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है।

6. सीमित क्षेत्र – प्रत्यक्ष कर कुछ व्यक्तियों से लिया जाता है। इस प्रकार आय के लिए समाज के कुछ थोड़े-से व्यक्तियों ( धनी वर्ग) पर ही निर्भर रहना पड़ता है।

7. अफसरशाही – प्रत्यक्ष करों के सम्बन्ध में अधिकांश निर्णय अधिकारियों द्वारा लिये जाते हैं। निर्णय करने में अधिकारीगण भ्रष्ट तरीके अपनाते हैं, जिससे समाज में अफसरशाही का बोलबाला रहता है।

8. अपर्याप्त आय – प्रत्यक्ष करों से प्राप्त आय अधिकांशत: बहुत कम होती है। फलतः सार्वजनिक आय का थोड़ा-सा ही अंश इन करों से प्राप्त होता है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि प्रत्यक्ष करों के उपर्युक्त दोष प्रशासनिक कार्य-प्रणाली के कारण हैं, सिद्धान्तों के कारण नहीं। अत: इन दोषों के बावजूद ये कर अत्यधिक लाभदायक माने जाते हैं।

प्रश्न 3
अप्रत्यक्ष करों से आप क्या समझते हैं? इनके गुण एवं दोषों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
परोक्ष कर या अप्रत्यक्ष कर
अप्रत्यक्ष कर वे कर होते हैं जिनका करापात एक व्यक्ति पर तथा कराघात का भुगतान या कर भार दूसरे व्यक्ति पर पड़ता है अर्थात् सरकार द्वारा कर जिस व्यक्ति पर लगाया जाता है, वह कर के भार को दूसरे व्यक्ति के ऊपर टाल देता है।
परोक्ष करों की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं।

  1.  प्रो० डाल्टन के अनुसार, “परोक्ष कर एक व्यक्ति पर लगाया जाता है, किन्तु उसका भुगतान पूर्णतयों या आंशिक रूप से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किया जाता है।’
  2.  प्रो० जे० एस० मिल के अनुसार, “परोक्ष कर एक ऐसे व्यक्ति से इस आशा से लिया जाता है कि वह इसे किसी दूसरे व्यक्ति से वसूल कर अपनी क्षतिपूर्ति कर लेगा।’

अप्रत्यक्ष करों के उदाहरण – बिक्री कर, आयात-निर्यात कर, उत्पादन कर, मनोरंजन कर आदि।
अप्रत्यक्ष करों के गुण (लाभ) अप्रत्यक्ष करों के गुण निम्नलिखित हैं।

1. सुविधाजनक – अप्रत्यक्ष कर सुविधाजनक होते हैं, क्योंकि करदाता को कर का भुगतान करते समय इस बात का आभास नहीं होता कि वह कर का भुगतान कर रहा है। कर वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य में ही सम्मिलित रहते हैं; अत: करदाता को इनका भार अनुभव नहीं होता है। सरकार के लिए भी ये सुविधाजनक रहते हैं, क्योंकि सरकार इन करों को उत्पादकों या व्यापारियों से प्रत्यक्ष रूप से सरलतापूर्वक प्राप्त कर लेती है।

2. करवंचन कठिन होता है – अप्रत्यक्ष करों की करदाता चोरी नहीं कर पाता है, क्योंकि ये कर वस्तुओं के मूल्य में सम्मिलित होते हैं। जब कोई उपभोक्ता वस्तुएँ खरीदता है तो उसे ये कर आवश्यक रूप से देने पड़ते हैं। ये कर उत्पादकों एवं व्यापारियों द्वारा राजकोष में जमा किये जाते हैं।

3. न्यायपूर्ण – ये कर न्यायपूर्ण होते हैं, क्योंकि समाज का प्रत्येक व्यक्ति इन करों का भुगतान करता है। जो व्यक्ति अधिक वस्तुओं एवं सेवाओं का उपयोग करता है उसे अधिक कर देने पड़ते हैं। तथा जो व्यक्ति वस्तुओं एवं सेवाओं का कम प्रयोग करता है उसे कम करों का भुगतान करना पड़ता है। इस प्रकार ये कर प्रत्यक्ष करों की अपेक्षा श्रेष्ठ माने जाते हैं।

4. सामाजिक हित की दृष्टि से उत्तम – अप्रत्यक्ष कर सामाजिक लाभ की दृष्टि से उत्तम होते हैं, क्योंकि सरकार करों की मात्रा में वृद्धि करके इस प्रकार की उपभोग वस्तुओं के प्रयोग को हतोत्साहित कर सकती है जिनका समाज पर कुप्रभाव पड़ता है; जैसे – शराब, गाँजा, अफीम आदि मादक पदार्थों पर उच्च कर लगाकर इनके उपयोग को कम किया जा सकता है।

5. लोचदार – अप्रत्यक्ष करों की प्रकृति लोचदार होती है, आवश्यक वस्तुओं पर कर में थोड़ी-सी वृद्धि करके सरकार अपनी आय में वृद्धि कर सकती है।

6. विस्तृत आधार – अप्रत्यक्ष करों का आधार विस्तृत होता है, क्योंकि सरकार को अनेक स्रोतों से आय प्राप्त होती है। सरकार अनेक मदों पर थोड़ी-थोड़ी मात्रा में कर लगाकर, अधिक आय प्राप्त करने में सफल रहती है।

अप्रत्यक्ष करों के दोष (हानियाँ)
अप्रत्यक्ष करों के दोष निम्नलिखित हैं

1. कर-भार परिवर्तन से हानि – अप्रत्यक्ष करों में कर का भार एक-दूसरे पर टालने का प्रयास किया जाता है, जिसके कारण अन्तिम व्यक्ति पर इन करों का भार अधिक पड़ता है। उदाहरण के लिए – बिक्री कर फर्म देती है, फर्म इसका भार थोक व्यापारियों पर टाल देती है, थोक व्यापारी फुटकर व्यापारी पर तथा फुटकर व्यापारी मूल्य वृद्धि करके उपभोक्ताओं पर टाल देता है। इस प्रक्रिया से वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि हो जाती है जिसका प्रभाव निर्धन उपभोक्ताओं पर अधिक पड़ता है।

2. मितव्ययिता का अभाव – इन करों को वसूल करने में सरकार को अधिक व्यय करना पड़ता है। इस कारण ये मितव्ययी नहीं होते हैं।
3. न्यायसंगत नहीं – अप्रत्यक्ष कर प्रायः वस्तुओं एवं सेवाओं के उपभोग पर लगाये जाते हैं। इसलिए इनका भार निर्धन वर्ग पर अधिक पड़ता है।

4. ये कर अनिश्चित होते हैं – परोक्ष करों से होने वाली आय अनिश्चित होती है, क्योंकि अप्रत्यक्ष कर वस्तुओं की बिक्री की मात्रा पर निर्भर होते हैं। उपभोक्ताओं की माँग का पूर्वानुमान लगाना कठिन होता है; अत: यह कहा जा सकता है कि अप्रत्यक्ष कर अनिश्चित होते हैं।

5. करों की चोरी का प्रयास – अप्रत्यक्ष करों की चोरी का प्रयास किया जाता है। उदाहरण के लिए-सरकार बिक्री कर लगाती है। विक्रेता वस्तुओं की बिक्री का झूठा लेखा-जोखा रखता है तथा बिक्री कर को राजकोष में जमा नहीं करता है, जबकि उपभोक्ताओं से वसूल कर लिया जाता है।

6. नागरिकता की भावना का अभाव – करदाताओं को अप्रत्यक्ष करों का भुगतान करते समय कर भार अनुभव नहीं होता है। अतः उन्हें इस विषय में किसी प्रकार की रुचि नहीं होती है कि कर का उपभोग जनहित की दृष्टि से हो रहा है अथवा नहीं। अत: ये कर करदाताओं में उत्तम नागरिकता की भावना जागृत करने में असमर्थ रहते हैं।

7. प्रभावपूर्ण माँग में कमी – अप्रत्यक्ष करों की दरों में वृद्धि करने से वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं, जिनके कारण वस्तुओं की माँग में कमी आती है। माँग में इस कमी का प्रभाव उत्पादन एवं राष्ट्रीय आय दोनों पर पड़ता है जिससे राष्ट्र के आर्थिक विकास में बाधा पड़ती है।।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
“प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष कर एक-दूसरे के पूरक होते हैं। इस कथन की विवेचना कीजिए। [2007, 11]
उत्तर:
प्रत्यक्ष एवं परोक्ष (अप्रत्यक्ष) करों का सम्बन्ध–प्रत्यक्ष एवं परोक्ष करों के विषय में विचारकों में मत-भिन्नता है। कुछ विचारक प्रत्यक्ष करों का समर्थन करते हैं तो कुछ परोक्ष करों का। हम इस विवाद में न पड़कर कि प्रत्यक्ष कर की अपेक्षा परोक्ष कर उत्तम हैं या परोक्ष कर की अपेक्षा प्रत्यक्ष कर श्रेष्ठ हैं, यह कह सकते हैं कि ये कर एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में इन दोनों प्रकार के करों में समन्वय होना नितान्त आवश्यक है।

प्रो० डाल्टन के अनुसार, “इस विचार के पक्ष में कि परोक्ष करों की तुलना में प्रत्यक्ष कर अधिक अच्छे हैं, कुछ व्यावहारिक बातों को छोड़कर कोई सैद्धान्तिक आधार नहीं है। आधुनिक समुदायों में अधिकांश प्रत्यक्ष करों का भुगतान निर्धनों की अपेक्षा धनिकों द्वारा अधिक होता है और अप्रत्यक्ष करों के सम्बन्ध में स्थिति इसके विपरीत है। यदि प्रत्यक्ष कर को सब व्यक्तियों पर समान व्यक्तिगत कर तक सीमित कर दिया जाए तथा केवल धनी व्यक्तियों द्वारा खरीदी जाने वाली वस्तुओं तक परोक्ष करारोपण सीमित कर दिया जाए तो स्थिति पूर्णतः बदल जाएगी।”

प्रत्यक्ष करों व अप्रत्यक्ष करों के सम्बन्ध में ग्लैडस्टन ने लिखा है कि “मैं प्रत्यक्ष और परोक्ष करों के विषय में इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं सोच सकता कि मैं उनको दो आकर्षक बहनों के समान मान लें जो लन्दन के सुन्दर संसार से आयी हैं। दोनों ही विपुल भाग्यशाली हैं, दोनों के माता-पिता एक हैं, मेरा विश्वास है कि दोनों के माता-पिता आवश्यकता’ व ‘आविष्कार हैं। इन दोनों में अन्तर केवल इतना हो सकता है जितना कि दो बहनों में होता है।”

प्रत्यक्ष कर व परोक्ष कर एक-दूसरे के पूरक हैं। प्रत्यक्ष करों के दोषों को परोक्ष करों के द्वारा तथा परोक्ष करों के दोषों को प्रत्यक्ष करों द्वारा दूर किया जा सकता है। प्रो० डी० मार्को का मत है कि “प्रत्यक्ष व परोक्ष कर एक-दूसरे के पूरक हैं तथा प्रत्यक्ष करारोपण द्वारा उत्पन्न घर्षणात्मक प्रभाव को परोक्ष करों द्वारा दूर किया जा सकता है। मार्को का विचार है कि प्रत्यक्ष करों के भुगतान में करदाता को तीव्र मानसिक कष्ट होता है, क्योंकि प्रत्यक्ष कर के रूप में जो धनराशि करदाता द्वारा दी जाती है उसका करदाता को प्रत्यक्ष लाभ प्राप्त नहीं होता है, इसलिए वह करों की चोरी करने का प्रयास करता है, परन्तु अप्रत्यक्ष करों से कोई भी नहीं बच सकता है।

उसे इन करों का भुगतान अवश्य ही करना पड़ेगा। इस प्रकार प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष कर एक-दूसरे के विरोधी न होकर पूरक हैं। प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के करों का उद्देश्य सरकार को आय प्राप्त कराना है। अतः सरकार को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों प्रकार के करों से आय प्राप्त करनी चाहिए। दोनों प्रकार के करों द्वारा सरकार की आय का प्रवाह निरन्तर बना रहता है जिसके माध्यम से राष्ट्र का आर्थिक विकास एवं जन-कल्याणकारी कार्य सम्पन्न किये जाते हैं।
उपर्युक्त व्याख्या से स्पष्ट है कि दोनों प्रकार के करों का उद्देश्य एवं कार्य समान हैं; अतः हम इन्हें एक-दूसरे के विरोधी न कहकर पूरक कह सकते हैं।

प्रश्न 2
प्रत्यक्ष कर एवं अप्रत्यक्ष कर क्या है? इसमें अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2010, 11, 18]
या
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों की तुलनात्मक व्याख्या कीजिए। [2012]
या
प्रत्यक्ष कर एवं अप्रत्यक्ष कर में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2014, 15, 18]
उत्तर:
प्रत्यक्ष कर – प्रो० डाल्टन के अनुसार, “प्रत्यक्ष कर का भुगतान वास्तव में वही व्यक्ति करता है जिस पर यह वैधानिक रूप से लगाया जाता है।”
प्रत्यक्ष कर जिस व्यक्ति पर लगाया जाता है उसका भुगतान उसी व्यक्ति द्वारा किया जाता है। करदाता उसका भार दूसरों पर नहीं टाल सकता है।

अप्रत्यक्ष कर –
प्रो० डाल्टन के अनुसार, “अप्रत्यक्ष कर एक व्यक्ति पर लगाया जाता है, किन्तु उसका भुगतान पूर्णतया या आंशिक रूप से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किया जाता है।”

अप्रत्यक्ष कर वे कर होते हैं जिनका कराधान एक व्यक्ति पर तथा कराधान का भुगतान या कर-भार दूसरे व्यक्ति पर पड़ता है अर्थात् कर जिस व्यक्ति पर लगाया जाता है वह कर के भार को दूसरे व्यक्ति के ऊपर ल देता है।
प्रत्यक्ष एवं परोक्ष करों में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 14 Tax (कर) 1

प्रश्न 3
कर के सिद्धान्तों को समझाइए।
उत्तर:
कर के सिद्धान्त निम्नलिखित हैं

  1. समानता का सिद्धान्त – कर इस प्रकार लगाए जाने चाहिए कि सभी करदाताओं पर कर का भार समान रूप से पड़े; अर्थात् धनी वर्ग पर कर अधिक तथा निर्धन वर्ग पर कम कर लगाये जाने चाहिए।
  2. सुविधा का सिद्धान्त – कर इस प्रकार के होने चाहिए कि करदाता के लिए सुविधाजनक हों। कर देने की पद्धति एवं समय इस प्रकार निर्धारित किया जाए जिसमें करदाता को सुविधा हो।
  3. मितव्ययिता का सिद्धान्त – करों का निर्धारण इस प्रकार से किया जाना चाहिए कि करों को वसूल करते समय कम-से-कम खर्च हो तथा करों की प्राप्ति अधिक-से-अधिक हो। उपभोग जनहित की दृष्टि से हो रहा है अथवा नहीं। अत: ये कर करदाताओं में उत्तम नागरिकता की भावना जागृत करने में असमर्थ रहते हैं।
  4. निश्चितता का सिद्धान्त – कर अधिनियम में कर सम्बन्धी सभी बातें निश्चित व स्पष्ट रूप से वर्णित होनी चाहिए।
  5.  पर्याप्तता का सिद्धान्त – करों का निर्धारण इस प्रकार से किया जाना चाहिए कि करों से सरकार को पर्याप्त आय प्राप्त हो सके।
  6.  लोच का सिद्धान्त – कर-प्रणाली इस प्रकार की होनी चाहिए, जिसमें लोच का गुण विद्यमान हो अर्थात् सरकार आवश्यकतानुसार करों की मात्रा में वृद्धि कर सके।
  7.  सरलता का सिद्धान्त – कर-प्रणाली इस प्रकार की होनी चाहिए जिसे करदाता सरलतापूर्वक समझ सके।
  8.  उत्पादकता का सिद्धान्त – कर-प्रणाली इस प्रकार की होनी चाहिए कि सरकार को वर्तमान में पर्याप्त आय प्राप्त हो सके तथा भविष्य के लिए आय का स्रोत बना रहे।
  9. विविधता का सिद्धान्त – कर-प्रणाली इस प्रकार की होनी चाहिए कि उसमें विविधता हो अर्थात् कर अनेक प्रकार के होने चाहिए जिससे देश का प्रत्येक नागरिक जनहित के कार्यों में सहयोग दे सके।

प्रश्न 4
कर की परिभाषा दीजिए एवं एक अच्छी कर-प्रणाली की विशेषताएँ लिखिए। [2008, 14, 16]
या
एक अच्छी कर प्रणाली की क्या-क्या विशेषताएँ होती हैं? लिखिए। [2016]
उत्तर:
एक अच्छी कर-प्रणाली में निम्नलिखित गुण होने चाहिए

  1.  कर – प्रणाली सरल एवं सुविधाजनक होनी चाहिए, जिससे करदाता को कर का भुगतान करने में मानसिक कष्ट न हो।
  2. एक अच्छी कर – प्रणाली अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त पर आधारित होती है।
  3.  कर – प्रणाली प्रगतिशील होनी चाहिए! अर्थात् कर-प्रणाली ऐसी हो जिससे कर का भार धनी वर्ग पर अधिक व निर्धन वर्ग पर कम पड़े।
  4.  एक अच्छी कर – प्रणाली में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के करों का समावेश होता है।
  5.  एक अच्छी कर – प्रणाली में लोच का गुण पाया जाता है। अर्थात् आवश्यकतानुसार करों की मात्रा में वृद्धि व कमी की जा सके।
  6.  कर – प्रणाली मितव्ययी होनी चाहिए।
  7. एक अच्छी कर – प्रणाली विलासिता एवं मादक वस्तुओं के उपभोग को हतोत्साहित करती है।
  8.  बचत एवं पूँजी – निर्माण को प्रोत्साहित करना अच्छी कर-प्रणाली का गुण है।
  9.  एक अच्छी कर – प्रणाली आर्थिक विकास को गति प्रदान करती है।
  10.  एक अच्छी कर – प्रणाली में उत्पादकता का गुण होता है।
  11. एक अच्छी कर – प्रणाली में करों का भार समाज पर कम पड़ता है।
  12.  कर – प्रणाली में निश्चितता का गुण भी होना चाहिए।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
प्रगतिशील कर प्रणाली की किन्हीं चार सुविधाओं का उल्लेख कीजिए। [2013]
उत्तर:
प्रगतिशील कर प्रणाली की चार सुविधाएँ निम्नवत् हैं

  1.  चूंकि प्रगतिशील कर प्रणाली आय पर निर्भर करती है, इसलिए अधिक आय वाले व्यक्ति को अधिक तथा कम आय वाले व्यक्ति को कम कर देना पड़ता है।
  2. चूंकि प्रगतिशील कर प्रणाली द्वारा कम आय वाले लोगों छूट प्रदान की जाती है इसलिए अनेक लोग इस प्रणाली का समर्थन करते हैं; क्योंकि अधिकांश लोग इसी श्रेणी से सम्बन्धित होते हैं।
  3.  यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य उच्च आय वर्ग से निम्न आय वर्ग में आ जाता है तो उसे इन करों से मुक्ति मिल जाती है अर्थात् उसे कर नहीं देना पड़ता है।
  4.  यह कर प्रणाली आय की असमानता को कम करने की सहायता प्रदान करती है।

प्रश्न 2
कर लगाने के उद्देश्यों को बताइए।
उत्तर:
कर निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लगाये जाते हैं

  1. देश की आन्तरिक एवं बाह्य सुरक्षा की व्यवस्था करने के लिए करों के माध्यम से धन एकत्रित किया जाता है।
  2. समाज में धन के वितरण की असमानताओं को कम करने के लिए कर लगाये जाते हैं।
  3.  कुछ वस्तुओं का प्रयोग समाज के लिए हानिकारक होता है; अत: इस प्रकार की वस्तुओं के उपभोग को हतोत्साहित करने के लिए भी सरकार इन वस्तुओं पर अधिक कर लगाती है; जैसे – मादक पदार्थ एवं विलासिता की वस्तुएँ।
  4. जन कल्याणकारी कार्यों के लिए भी सरकार कर लगाती है; जैसे–शिक्षा, चिकित्सा, यातायात, स्वास्थ्य आदि सुविधाएँ प्रदान करने के लिए सरकार को धन की आवश्यकता होती है जिसे करों के द्वारा प्राप्त किया जाता है।
  5.  आयात एवं निर्यात पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए भी सरकार को विभिन्न वस्तुओं पर कर लगाना पड़ता है।
  6. वस्तुओं के मूल्यों में स्थिरता बनाए रखने के लिए भी कर लगाने पड़ते हैं।
  7. बचतों को प्रोत्साहित करने के लिए भी सरकार कर लगाती है। बचत की विभिन्न योजनान्तर्गत करों में छूट प्रदान की जाती है जिससे प्रेरित होकर नागरिक बचत करते हैं।

प्रश्न 3
कर के लक्षण अथवा विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कर में निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं

  1.  कर एक अनिवार्य अंशदान या भुगतान है जिसका भुगतान करदाता को अवश्य करना पड़ता है।
  2.  सरकार द्वारा कर से प्राप्त आय का प्रयोग सार्वजनिक हित के लिए किया जाता है।
  3.  सरकार करदाता को कर के बदले में प्रत्यक्ष लाभ प्रदान करने का कोई आश्वासने नहीं देती है। अर्थात् यह आवश्यक नहीं कि करदाता को उसी अनुपात से लाभ हो, जिस अनुपात में उसने कर दिये हैं।
  4. करों के भुगतान में करदाता को त्याग करना पड़ता है।
  5.  सरकार सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने हेतु अतिरिक्त करारोपण कर सकती है; जैसे-शराब, अफीम आदि मादक पदार्थों पर रोक लगाने हेतु।
  6. सरकार समाज में धन के समान वितरण हेतु करारोपण में वृद्धि एवं कमी कर सकती है।

प्रश्न 4
आनुपातिक कर-प्रणाली किसे कहते हैं ? तालिका द्वारा स्पष्ट कीजिए। [2010, 14]
उत्तर:
आनुपातिक कर-प्रणाली वह कर-प्रणाली है जिसमें कर की दरें समान रहती हैं अर्थात् आय-वृद्धि के साथ-साथ कर की दरों में वृद्धि नहीं होती है। सभी करदाता समान दर से कर देते हैं, किन्तु कर की कुल धनराशि में उसी अनुपात में वृद्धि होती है जिस अनुपात में आय में वृद्धि होती है।
आनुपातिक कर-प्रणाली का तालिका द्वारा स्पष्टीकरण
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 14 Tax (कर) 2

प्रश्न 5
प्रगतिशील कर-प्रणाली या आरोही कर की दर को तालिका द्वारा स्पष्ट कीजिए। [2010, 14]
या
प्रगतिशील (वर्धमान) कर से आप क्या समझते हैं? [2014, 15]
या
प्रतिगायी कर का अर्थ लिखिए। [2016]
उत्तर:
प्रगतिशील कर-प्रणाली वह कर – प्रणाली है जिसमें आय की वृद्धि के साथ-साथ करों की दरें बढ़ती जाती हैं अर्थात् आय-वृद्धि के साथ कर की प्रतिशत दरों में वृद्धि होती है तथा कर की कुल राशि में भी वृद्धि होती जाती है।

प्रो० टेलर
के शब्दों में, “प्रगतिशील करारोपण में जैसे-जैसे कर योग्य आय बढ़ती जाती है, कर की प्रभावपूर्ण दरों में वृद्धि होती जाती है।”
प्रगतिशील कर-प्रणाली का तालिका द्वारा स्पष्टीकरण
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 14 Tax (कर) 3

प्रश्न 6
अवरोही कर-प्रणाली किसे कहते हैं ? तालिका द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
अवरोही कर-प्रणाली वह कर-प्रणाली है जिसमें आय-वृद्धि के साथ-साथ कर की दरें कम होती जाती हैं।
अवरोही कर-प्रणाली का तालिका द्वारा स्पष्टीकरण कर
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 14 Tax (कर) 4

प्रश्न 7
ह्रासमान आरोही कर प्रणाली को समझाइए।
उत्तर:
ह्रासमान आरोही कर-प्रणाली वह प्रणाली होती है, जिसमें आय-वृद्धि के साथ कर की दरों में मन्द गति से वृद्धि होती है तथा कुछ समय पश्चात् कर की दरें क्रमशः गिरने लगती हैं।
ह्रासमान आरोही कर-प्रणाली का तालिका द्वारा स्पष्टीकरण
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 14 Tax (कर) 5

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
‘कर’ का अर्थ बताइए। [2007, 11, 12, 13, 15]
उत्तर:
कर किसी सार्वजनिक सत्ता द्वारा लगाया हुआ एक अनिवार्य अंशदान है चाहे इसके बदले में करदाता को उसकी सेवाएँ प्रदान की गयी हों अथवा नहीं, करों का उपयोग सार्वजनिक हित में किया जाता है।

प्रश्न 2
प्रत्यक्ष कर की एक परिभाषा लिखिए। [2009, 10, 13, 16]
उत्तर:
जब किसी कर का करापात और करों का भार एक ही व्यक्ति पर पड़ता है। वह कर प्रत्यक्ष कर कहलाता है।

प्रश्न 3
प्रत्यक्ष करों के दो गुण लिखिए। [ 2009,11]
उत्तर:
प्रत्यक्ष करों के दो गुण हैं

  1. प्रत्यक्ष करों में निश्चितता होती है तथा
  2.  प्रत्यक्ष कर मितव्ययी होते हैं।

प्रश्न 4
प्रत्यक्ष करों की दो हानियाँ लिखिए।
उत्तर:
प्रत्यक्ष करों की दो हानियाँ है

  1.  प्रत्यक्ष कर में करदाता को मानसिक व शारीरिक दोनों प्रकार के कष्ट होते हैं तथा
  2.  करवंचन या कर की चोरी

प्रश्न 5
अप्रत्यक्ष कर की परिभाषा लिखिए। [2012, 13, 14, 16]
उत्तर:
अप्रत्यक्ष कर एक व्यक्ति पर लगाया जाता है, किन्तु उसका भुगतान पूर्णतया या आंशिक रूप से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 6
परोक्ष (अप्रत्यक्ष करों के दो गुण लिखिए। [2011, 13]
उत्तर:
परोक्ष करों के दो गुण हैं

  1.  परोक्ष कर सुविधाजनक होते हैं क्योंकि करदाता को इस कर के भार का अनुभव नहीं होता तथा
  2.  कर-प्रणाली का विस्तृत आधार होता है।

प्रश्न 7
परोक्ष करों की दो हानियाँ लिखिए।
या
अप्रत्यक्ष करों के किन्हीं दो दोषों का उल्लेख कीजिए। [2006]
उत्तर:
परोक्ष करों की दो हानियाँ (दोष) हैं

  1. परोक्ष कर न्यायसंगत नहीं होते तथा
  2.  समाज में असमानता उत्पन्न करने में सहायक हैं।

प्रश्न 8
आयकर किस प्रकार का कर है ?
उत्तर:
आयकर प्रत्यक्ष कर है।

प्रश्न 9
प्रत्यक्ष कर के दो उदाहरण दीजिए। [2015]
या
किन्हीं दो प्रत्यक्ष करों के नाम लिखिए। [2014, 15]
उत्तर:
(1) आयकर तथा
(2) सम्पत्ति कर।

प्रश्न 10
परोक्ष (अप्रत्यक्ष) कर के दो उदाहरण दीजिए।
या
किन्हीं दो अप्रत्यक्ष करों के नाम लिखिए। [2009,14,15]
उत्तर:
(1) बिक्री कर तथा
(2) मनोरंजन कर।

प्रश्न 11
कर की दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
(1) कर एक अनिवार्य अंशदान है तथा
(2) कर की आय सार्वजनिक हित के कार्यों में व्यय की जाती है।

प्रश्न 12
भारत में करों से अपेक्षाकृत कम आय प्राप्त होती है। दो कारण बताइए।
उत्तर:
(1) लोग करों की चोरी करते हैं तथा
(2) बड़े राजनेता करों का भुगतान नहीं करते।

प्रश्न 13:
‘कर’ तथा ‘फीस’ में अन्तर बताइए। [2012]
उत्तर:
कर किसी सत्ता द्वारा लगाया हुआ एक अनिवार्य अंशदान है, चाहे इसके बदले में करदाता को उसकी सेवाएँ प्रदान की गयी हों अथवा नहीं, जबकि फीस किसी संस्था या व्यक्ति को दिया गया कर अंशदान है जो उसे उसकी सेवाओं के बदले में दिया जाता है।

प्रश्न 14
किस कर प्रणाली के अन्तर्गत आय बढ़ने के साथ कर की दर बढ़ती है? [2008]
उत्तर:
प्रगतिशील कर प्रणाली।

प्रश्न 15
आनुपातिक कर किसे कहते हैं ? [2010, 16]
उत्तर:
जब विभिन्न आय वाले व्यक्तियों व संस्थाओं पर एक ही अनुपात में कर लगाये जाते हैं, तो उन्हें ‘आनुपातिक कर’ कहते हैं।

प्रश्न 16
आरोही कर किसे कहते हैं ?
उत्तर:
जब कर की मात्रा में आय की वृद्धि के साथ-साथ वृद्धि होती जाती है, तो ऐसे कर को ‘आरोही कर’ कहते हैं।

प्रश्न 17
अवरोही कर किसे कहते हैं ?
उत्तर:
जब अधिक आय वालों की अपेक्षा कम आय वालों से अनुपात में अधिक कर लिया जाता है, तो इसे ‘अवरोही कर’ कहते हैं।

प्रश्न 18
प्रगतिशील करों के दो गुण लिखिए।
उत्तर:
(1) प्रगतिशील कर न्यायसंगत होते हैं।
(2) आय की असमानता को कम करने में सहायक होते हैं।

प्रश्न 19
करारोपण के किन्हीं दो उददेश्यों को बताइए। [2007]
उत्तर:
(1) देश की आन्तरिक एवं बाह्य सुरक्षा हेतु धन की व्यवस्था करने के लिए।
(2) आय की असमानता कम करने के लिए।

प्रश्न 20
उस कर का नाम लिखिए जिसकी दर, आधार बढ़ने पर भी स्थिर रहती है। [2013]
उत्तर:
आनुपातिक कर।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
कर एक भुगतान है
(क) अनिवार्य
(ख) ऐच्छिक
(ग) अनिवार्य-ऐच्छिक
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) अनिवार्य।

प्रश्न 2
निम्न में से कौन-सा कर प्रत्यक्ष कर है ?
(क) बिक्री कर
(ख) उत्पादन शुल्क
(ग) सम्पत्ति कर
(घ) मनोरंजन कर
उत्तर:
(ग) सम्पत्ति कर।

प्रश्न 3
निम्न में से कौन-सा कर अप्रत्यक्ष कर है ?
(क) आयकर
(ख) निगम कर
(ग) सम्पत्ति कर
(घ) व्यापार कर
उत्तर:
(घ) व्यापार कर।

प्रश्न 4
जो कर प्रत्यक्ष रूप से व्यक्तियों की आय पर लगाये जाते हैं, उन्हें कहते हैं
(क) अप्रत्यक्ष कर
(ख) प्रत्यक्ष कर
(ग) प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) प्रत्यक्ष कर।

प्रश्न 5
निम्न में से कौन-सा कर प्रत्यक्ष कर है?
(क) बिक्री कर
(ख) पूँजी लाभ कर
(ग) उत्पादन शुल्क
(घ) मनोरंजन कर
उत्तर:
(ख) पूँजी लाभ कर।

प्रश्न 6
निम्नलिखित में से कौन-सा कर प्रत्यक्ष कर है? [2010, 16]
(क) बिक्री कर
(ख) उत्पादन शुल्क
(ग) आयकर
(घ) मनोरंजन कर।
उत्तर:
(ग) आयकर।

प्रश्न 7
निम्नलिखित में से कौन-सा कर किसी अन्य पर हस्तान्तरित नहीं किया जा सकता है? [2006]
(क) उत्पादक शुल्क
(ख) व्यापार कर
(ग) केन्द्रीय बिक्री कर
(घ) आयकर
उत्तर:
(घ) आयकर।

प्रश्न 8
निम्नलिखित में से कौन-सा अप्रत्यक्ष कर नहीं है? [2006, 10]
(क) आय कर
(ख) निगम कर
(ग) सम्पत्ति कर
(घ) आबकारी शुल्क
उत्तर:
(क) आय कर।

प्रश्न 9
कौन-सा कर प्रत्यक्ष कर नहीं है? [2006]
(क) आय कर
(ख) निगम कर
(ग) सम्पत्ति कर
(घ) आबकारी शुल्क
उत्तर:
(घ) आबकारी शुल्क।

प्रश्न 10
निम्नलिखित में से कौन-सा प्रत्यक्ष कर है? [2006]
(क) उपहार कर
(ख) सेवा शुल्क
(ग) उत्पाद शुल्क
(घ) मनोरंजन कर
उत्तर:
(क) उपहार कर।

प्रश्न 11
निम्नलिखित में से कौन-सा कर प्रत्यक्ष कर नहीं है? [2008]
(क) आय कर
(ख) निगम कर
(ग) सम्पत्ति कर
(घ) मनोरंजन कर
उत्तर:
(घ) मनोरंजन कर।

प्रश्न 12
कौन-सा कर आय की असमानता दूर करने में सहायक है?
(क) आनुपातिक
(ख)प्रगतिशील
(ग) प्रतिगामी
(घ) अधोगामी
उत्तर:
(ख) प्रगतिशील।

प्रश्न 13
यदि किसी कर की दर, आधार बढ़ने के साथ बढ़ती है, तो उस कर को कहते हैं [2013]
(क) प्रत्यक्ष कर
(ख) अप्रत्यक्ष कर
(ग) प्रगतिशील कर
(घ) प्रतिगामी कर
उत्तर:
(ग) प्रगतिशील कर।

प्रश्न 14
निम्न में से कौन-सा प्रत्यक्ष कर है? [2014, 15, 16]
(क) सेवा कर
(ख) आय कर
(ग) बिक्री कर
(घ) मनोरंजन कर ।
उत्तर:
(ख) आय कर

प्रश्न 15
आय कर है
(क) एक अप्रत्यक्ष कर
(ख) एक आनुपातिक कर
(ग) एक प्रतिगामी कर
(घ) एक प्रगतिशील कर
उत्तर:
(घ) एक प्रगतिशील कर।

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 8 Expansion of British Company: Imperialistic Policy

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 8
Chapter Name Expansion of British Company:
Imperialistic Policy
(अंग्रेजी कम्पनी का विस्तार-
साम्राज्यवादी नीति)
Number of Questions Solved 17
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 8 Expansion of British Company: Imperialistic Policy (अंग्रेजी कम्पनी का विस्तार- साम्राज्यवादी नीति)

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लॉर्ड कार्नवालिस के स्थायी बन्दोबस्त पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उतर:
कार्नवालिस ने भारत आकर यहाँ के कृषकों की स्थिति का आकलन किया तथा स्थायी बन्दोबस्त की स्थापना की। यह स्थायी बन्दोबस्त ब्रिटिश राज्य के अन्त तक रहा। इस प्रबन्ध के द्वारा भारत की भूमि जमींदारों की मान ली गई तथा उन्हें कृषकों से एक निश्चित धनराशि प्राप्त करने का अधिकार दिया गया। वह धनराशि कृषकों को भी मालूम थी तथा यदि कोई जमींदार कृषक से अधिक धन वसूल करना चाहता तो कृषक को अदालत में जाकर न्याय प्राप्त करने का अधिकार था। जमींदारों को एक निश्चित धनराशि प्रतिवर्ष कर के रूप में सरकार को देनी पड़ती थी। इस प्रकार सरकार की आय निश्चित एवं स्थायी हो गई। उसमें कमी अथवा वृद्धि नहीं की जा सकती थी। जमींदारों को अपनी भूमि विक्रय करने का भी अधिकार प्रदान किया गया। अतः जब तक जमींदार निश्चित लगान को देते रहेंगे उनकी भूमि को जब्त नहीं किया जाएगा। जमींदार किसान को पट्टा देंगे जिसमें उसके लगान की मात्रा लिखी होगी तथा उससे अधिक धन वसूल करने का अधिकार जमींदार को नहीं होगा।

प्रश्न 2.
लॉर्ड वेलेजली की सहायक संधि क्या थी? इसके गुणों का वर्णन कीजिए।
उतर:
कम्पनी को सर्वोच्च शक्ति बनाने के उद्देश्य से लॉर्ड वेलेजली ने एक नई नीति को प्रतिपादित किया जो सहायक संधि के नाम से जानी जाती है। सहायक संधि की प्रमुख शर्ते निम्न प्रकार थीं

  • सहायक सन्धि स्वीकार करने वाला देशी राज्य अपनी विदेश नीति को कम्पनी के सुपुर्द कर देगा।
  • वह बिना कम्पनी की अनुमति के किसी अन्य राज्य से युद्ध, सन्धि या मैत्री नहीं कर सकेगा।
  • इस सन्धि को स्वीकार करने वाले देशी राजाओं के यहाँ एक अंग्रेजी सेना रहती थी, जिसका व्यय राजा को उठाना होता था।
  • देशी राजाओं को अपने दरबार में एक ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखना होता था।
  • यदि सहायक सन्धि स्वीकार करने वाले देशी राजाओं के मध्य झगड़ा हो जाता है, तो अंग्रेज मध्यस्थता कर जो भी निर्णय देंगे वह देशी राजाओं को स्वीकार करना पड़ेगा।
  • कम्पनी उपर्युक्त शर्तों के बदले सहायक सन्धि स्वीकार करने वाले राज्य की बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा की गारन्टी लेती थी तथा देशी शासकों को आश्वासन देती थी कि वह उन राज्यों के आन्तरिक शासन में हस्तक्षेप नहीं करेगी।

इस प्रकार सहायक सन्धि द्वारा राज्यों की विदेश नीति पर कम्पनी का सीधा नियन्त्रण स्थापित हो गया। यह वेलेजली की साम्राज्यवादी पिपासा को शान्त करने का अचूक अस्त्र बन गया।

सहायक सन्धि के गुण- सहायक सन्धि अंग्रेजों के लिए बड़ी लाभकारी सिद्ध हुई। उन्हें इस सन्धि से निम्नलिखित लाभ हुए

  • कम्पनी के साधनों में वृद्धि
  • कम्पनी के सैन्य व्यय में कमी
  • कम्पनी के राज्य की बाह्य आक्रमण से सुरक्षा
  • फ्रांसीसी प्रभाव का अन्त
  • कम्पनी के प्रदेशों में शान्ति
  • वेलेजली के साम्राज्यवादी उद्देश्यों की पूर्ति

प्रश्न 3.
पिण्डारियों के दमन का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उतर:
लॉर्ड हेस्टिग्स के समय में पिण्डारियों ने भीषण उपद्रव मचा रखा था। कम्पनी के अधीन क्षेत्रों में पिण्डारियों की लूटमार से अंग्रेज चिन्तित हो उठे। अत: गर्वनर जनरल लॉर्ड हेस्टिग्स ने पिण्डारियों को समूल नष्ट करने का निश्चय किया और एक विशाल सेना तैयार की। उसने अपनी सेना को दो भागों में विभक्तकर पिण्डारियों को चारों ओर से घेर लिया। असंख्य पिण्डारियों को मौत के घाट उतार दिया गया तथा अनेक प्राणरक्षा हेतु पलायन कर गए। उनके सभी दल बिखर गए। पिण्डारियों के नेता अमीर खाँ ने अधीनता स्वीकार कर ली तथा करीम खाँ ने गोरखपुर जिले में छोटी सी जागीर लेकर अपने आप को अलग कर लिया। वासिल मुहम्मद को बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया गया, जहाँ उसने आत्महत्या कर ली। उनके सबसे वीर नेता चीतू ने जंगल में शरण ली और वहीं पर उसे चीते ने खा लिया। बचे-खुचे लोगों ने कृषि-पेशा अपना लिया। इस प्रकारलॉर्ड हेस्टिग्स ने पिण्डारियों का पूर्णतया दमन कर दिया।

प्रश्न 4.
लॉर्ड बैंटिंग के चार सामाजिक सुधार लिखिए।
उतर:
लॉर्ड बैटिंग के चार सामाजिक सुधार निम्नलिखित हैं

  • शिक्षा-सम्बन्धी सुधार
  • सती प्रथा का अन्त
  • नर-बलि प्रथा का अन्त
  • दास प्रथा का अन्त।

प्रश्न 5.
रणजीत सिंह कौन था? उसके चरित्र के कोई दो गुण बताइए।
उतर:
रणजीत सिंह का जन्म 2 नवम्बर, 1780 में एक जाट परिवार में हुआ था। इनके पिता महसिंह सुकरचकिया मिस्ल के सरदार थे। उनकी माँ का नाम राजकौर था, जो जींद के शासक गणपति सिंह की पुत्री थी। छोटी-सी उम्र में चेचक की वजह से महाराजा रणजीत सिंह की एक आँख की रोशनी जाती रही। 1792 ई० में जब रणजीत सिंह की आयु केवल 12 वर्ष थी, गुजरात में उनके पिता की मृत्यु हो गई, अत: उनकी माता राजकौर ने उन्हें सिंहासन पर बैठा दिया और स्वयं उनकी संरक्षिका बन गई। 12 अप्रैल, 1801 को रणजीत ने महाराजा की उपाधि ग्रहण की। गुरु नानक के एक वंशज ने उनकी ताजपोशी सम्पन्न कराई। उन्होंने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया और सन् 1802 में अमृतसर की ओर रुख किया।

कुशल कूटनीतिज्ञ एवं वीरता रणजीत सिंह के चरित्र के दो गुण थे।

प्रश्न 6.
लॉर्ड डलहौजी ने यातायात तथा संचार-व्यवस्था में क्या सधार किए?
उतर:
लॉर्ड डलहौजी ने भारत में रेल, सड़क और तार विभाग को अत्यन्त महत्व दिया। भारत में रेलवे व्यवस्था का प्रारम्भ करने का श्रेय लॉर्ड डलहौजी को ही प्राप्त है। उसने ग्रांड ट्रंक रोड का पुनर्निमाण कराया तथा रेल एवं डाक व तार की व्यवस्था की। 1853 ई० में बम्बई से थाणे तक पहली रेलवे लाइन बनी। लॉर्ड डलहौजी ने सम्पूर्ण भारत के लिए रेलवे लाइन की योजना बनाई जो बाद में सम्पन्न हो सकी। तार लाइन का निर्माण भी सर्वप्रथम लॉर्ड डलहौजी के काल में हुआ। 1853 ई० से 1856 ई० तक विस्तृत क्षेत्र में तार लाइन बिछा दी गई, जिससे कलकत्ता (कोलकाता) और पेशावर तथा बम्बई (मुम्बई) और मद्रास (चेन्नई) के मध्य निकट सम्पर्क हो सका।

प्रश्न 7.
टीपू सुल्तान का पतन कैसे हुआ?
उतर:
तृतीय मैसूर युद्ध में अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान की शक्ति पर घातक प्रहार किए। सन् 1799 ई० में लॉर्ड वेलेजली ने टीपू सुल्तान के राज्य पर चारों ओर से आक्रमण कर दिया। जनरल हैरिस ने मलावल्ली के स्थान पर टीपू को पराजित किया। सदासीर के युद्ध में भी टीपू पराजित हुआ। टीपू ने भाग कर अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टम में शरण ली। अंग्रेजी सेना ने दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया। टीपू अत्यन्त वीरतापूर्वक युद्ध करता हुआ किले के फाटक पर ही वीरगति को प्राप्त हो गया। इस प्रकार 4 मई, 1799 ई० को श्रीरंगपट्टम का पतन हो गया।

प्रश्न 8.
लॉर्ड डलहौजी की राज्य हड़प नीति क्या थी? संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उतर:
जिस प्रकार वेलेजली ने ‘सहायक संधि’ द्वारा अंग्रेजी साम्राज्य का विस्तार किया था, ठीक उसी प्रकार लॉर्ड डलहौजी ने राज्य हड़प नीति द्वारा भारत में अंग्रेजी साम्राज्य का विस्तार किया। लॉर्ड डलहौजी की वास्तविक प्रसिद्धि का कारण उसकी साम्राज्यवादी नीति थी। साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण में उसने तीन उपाय किए। पहला युद्ध, दूसरा कुशासन एवं तीसरा राज्य हड़पनीति या गोद निषेद नीति। उस समय अनेक ऐसे राज्य थे, जिनके शासक सन्तान हीन थे। डलहौजी ने दत्तक पुत्र को गोद लेने के अधिकार को छीनकर ऐसे सन्तान हीन शासकों के राज्य ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिए।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“क्लाइव को ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक माना जाता है।” इस कथन के आलोक में क्लाइव की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
उतर:
रॉबर्ट क्लाइव कम्पनी में एक सामान्य लिपिक से सेवा प्रारम्भ करके गर्वनर के पद तक पहुँचने में सफल रहा। वह निर्भीक सेनानायक था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी जो एक व्यापारिक संस्था मात्र थी, उसे क्लाइव ने राजनीतिक संस्था में परिवर्तित करके ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना का सूत्रपात किया। अंग्रेजों ने उसके कार्यों की बड़ी प्रशंसा की है। लॉर्ड कर्जन ने लिखा है, क्लाइव, अंग्रेज जाति में महान् आत्मा का व्यक्ति था। वह उन व्यक्तियों में से था जो मानव के भाग्य निर्माण के लिए इस विश्व में अवतरित होते हैं।” विंसेंट स्मिथ ने भी लिखा है, “क्लाइव ने जिस योग्यता और दृढ़ता का परिचय भारत में ब्रिटिश राज्य की नींव डालने में दिया, उसके लिए वह ब्रिटिश जनता के मध्य सदैव के लिए याद किया जाएगा।” अपनी योग्यता वह अर्काट के घेरे एवं चाँदा साहब की विजय के दौरान दिखा चुका था। मीरजाफर के साथ षड्यन्त्र रचकर बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को प्लासी के युद्ध में परास्त कर बंगाल में कम्पनी की राजनीतिक प्रभुता स्थापित करने वाला क्लाइव ही था।

क्लाइव का मूल्यांकन करते हुए डॉ० ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- “उसने नवाब को नाममात्र का शासक बना दिया, उसे भलाई करने के साधनों तथा शक्ति से वंचित कर दिया और स्वयं उत्तरदायित्व लेने से दूर भागा। उसकी योजनाओं में न कोई नई बात थी और न मौलिकता थी, उसने डूप्ले तथा बुसी का पदानुगमन किया था और उसकी सफलता अनुकूल परिस्थितियों तथा विश्वासघात के कारण थी, न कि उसकी प्रतिभा के कारण।” हालाँकि क्लाइव का यह मूल्यांकन सर्वथा उचित प्रतीत होता है और भारतीयों के दृष्टिकोण से उसके कृत्य अक्षम्य हैं तथापि उसने अपने देश का महान् हित किया। उसके विरोधियों ने भी अन्त में यह बात स्वीकार कर ली कि उसने जो कुछ भी छलकपट, विश्वासघात तथा बेईमानी की, वह अपने राष्ट्र के हित के लिए की।

सर्वप्रथम दक्षिणी भारत में कर्नाटक के युद्धों में विजय प्राप्त कराने में उसका महत्वपूर्ण हाथ रहा तथा बाद में प्लासी के युद्ध द्वारा उसने बंगाल में जिस क्रान्ति का सम्पादन किया, उससे ब्रिटिश साम्राज्य की भारत में स्थापना सम्भव हो सकी। परन्तु इन सफलताओं का कारण उसका युद्धकौशल न होकर उसकी कूटनीति ही है। चार्ल्स विल्सन ने ठीक ही कहा है- “क्लाइव अपनी योजनाओं में योग्यतापूर्ण संयोजन की भी उपेक्षा करता जान पड़ता है।” बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी मुगल सम्राट से प्राप्त करके उसने कम्पनी का हित किया। प्लासी का युद्ध, जो भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का बीजारोपण करता है, उसी के द्वारा सम्पन्न किया गया। यद्यपि कुछ इतिहासकार उसे ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक नहीं मानते। इस सम्बन्ध में मार्विन डेविस का कथन है-

“जिस प्रकार बाबर नहीं बल्कि अकबर मुगल साम्राज्य की नींव डालने वाला था, उसी प्रकार भारत में अंग्रेजी साम्राज्य स्थापित करना क्लाइव का नहीं बल्कि उसके उत्तराधिकारियों का कार्य था। उसकी प्रतिभा इतनी सीमित थी कि इतने बड़े कार्य को वह कर ही नहीं सकता था। उसमें इतनी संवेदना, कल्पना-शक्ति, ज्ञान, संयम, धैर्य और अध्यवसाय नहीं थे कि वह एक नई और महान् व्यवस्था की स्थापना कर सकता।” यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि क्लाइव के उत्तराधिकारियों और विशेषकर वारेन हेस्टिग्स को भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव सुदृढ़ करने के लिए अथक परिश्रम करना पड़ा किन्तु इससे क्लाइव के कार्य के महत्व को कम नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 2.
वारेन हेस्टिग्स की प्रारम्भिक कठिनाईयों व सुधारों का विस्तृत वर्णन कीजिए।
उतर:
(i) हेस्टिग्स की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ- वारेन हेस्टिग्स को 1772 ई० में कर्टियर के पश्चात् बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया गया था, उस समय भारत में अंग्रेजी कम्पनी की स्थिति अच्छी नहीं थी। बंगाल में अव्यवस्था व्याप्त थी। संक्षेप में उसके सम्मुख निम्नलिखित प्रमुख कठिनाइयाँ थीं
(क) बंगाल में अराजकता- बंगाल में उस समय चारों ओर अराजकता का साम्राज्य व्याप्त था। अंग्रेजी कम्पनी और बंगाल के नवाब आपस में लड़ते रहते थे। दुर्भाग्य से इसी समय बंगाल में एक अकाल पड़ा, जिससे बंगाल की आन्तरिक समस्या और बढ़ गई।

(ख) द्वैध शासन-
क्लाइव द्वारा लागू किए गए द्वैध शासन में अनेक दोष विद्यमान थे, जिससे बंगाल की दशा दयनीय हो गई थी। बंगाल की जनता अंग्रेजों को घृणा की दृष्टि से देखने लग गई थी। ऐसी स्थिति में कम्पनी का बंगाल में प्रभुत्व कायम रखना बहुत मुश्किल था।

(ग) रिक्त कोष-
कम्पनी के कर्मचारियों की अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार से कम्पनी का कोष खाली हो गया था। ऐसी विकट परिस्थिति में बंगाल की व्यवस्था को सम्भालना मुश्किल था।

(घ) विरोधियों द्वारा उत्पन्न समस्याएँ-
अंग्रेजों के विरोधी मराठों ने अपनी शक्ति को पुनः संगठित कर उत्तर तथा दक्षिण में अपना प्रभुत्व जमा लिया था। शाहआलम भी मराठों के संरक्षण में चला गया। इधर हैदरअली अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बना हुआ था। निजाम भी अंग्रेजों से रुष्ट था।

(ii) वारेन हेस्टिग्स के सुधार- वारेन हेस्टिग्स प्रारम्भ में अनेक आन्तरिक एवं बाह्य कठिनाइयों से घिरा हुआ था, भारत को सुदृढ़ करने के लिए अधिक आवश्यकता आन्तरिक सुधारों की थी। हेस्टिग्स ने 1772 से 1774 ई० तक कम्पनी की स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए अनेक सुधार किए। उसके द्वारा किए गए सुधार निम्नलिखित हैं

(क) लगान सम्बन्धी सुधार-
वारेन हेस्टिग्स ने पंचवर्षीय प्रबन्ध स्थापित किया। भूमि की बोली लगाई जाती थी। जो व्यक्ति सबसे अधिक लगान देने को तत्पर होता, उसे पाँच वर्ष के लिए भूमि ठेके पर दे दी जाती थी। यद्यपि इस व्यवस्था का कृषकों पर बुरा प्रभाव पड़ा, क्योंकि भूमिपति बलपूर्वक किसानों से धन वसूल करते थे, परन्तु कम्पनी की आय में इस व्यवस्था से वृद्धि हुई। लगान वसूल करने के लिए प्रत्येक जिले में एक कलेक्टर की नियुक्ति की गई, जिसकी सहायता के लिए एक भारतीय दीवान होता था। हेस्टिग्स ने अनेक निरर्थक करों को हटा दिया।

(ख) आर्थिक सुधार-
जिस समय वारेन हेस्टिग्स गवर्नर बना था, कम्पनी का राजकोष रिक्त था। अतः आर्थिक सुधारों की नितान्त आवश्यकता थी। उसने बंगाल के नवाब की पेंशन घटाकर 16 लाख रुपए कर दी तथा दिल्ली के बादशाह शाहआलम द्वितीय की पेंशन बन्द कर दी, क्योंकि वह मराठों के संरक्षण में चला गया था। शाहआलम द्वितीय से कड़ा तथा इलाहाबाद के जिले लेकर अवध के नवाब शुजाउद्दौला को 50 लाख रुपए में बेच दिए गए। नवाब शुजाउद्दौला से उसने एक सन्धि की तथा बनारस का जिला और 40 लाख रुपए के बदले में उसे सैनिक सहायता देने का वचन दिया। इन सुधारों से भी कम्पनी की आर्थिक स्थिति पूर्णतया तो दृढ़ नहीं हो सकी परन्तु हेस्टिग्स के आर्थिक सुधार सराहनीय थे।

(ग) शासन सम्बन्धी सुधार-
वारेन हेस्टिग्स ने सर्वप्रथम क्लाइव द्वारा स्थापित द्वैध शासन व्यवस्था का अन्त किया। मुहम्मद रजा खाँ तथा सिताबराय पर अभियोग चलाकर उन्हें पदच्युत कर दिया गया तथा द्वैध शासन का अन्त कर दिया गया। बंगाल के नवाब से शासन सम्बन्धी अधिकार छीनकर उसे पेंशन दे दी गई। हेस्टिग्स ने कलकत्ता को केन्द्र बनाया तथा राजकोष मुर्शिदाबाद से हटाकर कलकत्ता ले गया। भारतीय कलेक्टरों के स्थान पर उसने अंग्रेज कलेक्टर नियुक्त किए।

(घ) न्याय सम्बन्धी सुधार-
न्याय के क्षेत्र में हेस्टिग्स ने महत्वपूर्ण सुधार किए। प्रत्येक जिले में एक फौजदारी और एक दीवानी अदालत स्थापित की गई तथा दोनों अदालतों के क्षेत्र निर्धारित कर दिए गए। अपील की दो उच्च अदालतें सदर निजामत अदालत तथा सदर दीवानी अदालत कलकत्ता में स्थापित की गईं। न्यायाधीशों को नकद वेतन देने की व्यवस्था की गई, जिससे वे ईमानदारी से कार्य कर सकें। प्रत्येक जिले में एक फौजदार की नियुक्ति की गई, जिसका कार्य अपराधियों को पकड़कर न्यायालय के समक्ष उपस्थित करना था। हिन्दू-मुस्लिम कानूनों को संकलित करने का भी वारेन हेस्टिग्स ने प्रयास किया। फौजदारी अदालतों में भारतीय न्यायाधीशों की नियुक्ति की गई, जो देश के नियमों से परिचित होने के कारण उत्तम ढंग से न्याय कर सकते थे।

(ङ) सार्वजनिक सुधार-
भारतीयों की दशा को सुधारने के लिए भी हेस्टिग्स ने अथक प्रयास किया

(अ) द्वैध शासन व्यवस्था का अन्त-
द्वैध शासन का अन्त करके उसने बंगाल के निवासियों पर महान् उपकार किया।

(ब) डाकुओं का दमन-
इस समय राजनीतिक अव्यवस्था के कारण देश में चारों ओर डाकुओं का बाहुल्य हो गया था। हेस्टिग्स ने डाकुओं का निर्दयतापूर्वक दमन कराया। अनेक डाकुओं को फाँसी पर लटका दिया गया।

(स) संन्यासियों का रूप धारण किए डाकुओं का विनाश-
इस समय देश में साधुओं का वेश धारण कर | डाकुओं ने पर्यटन का बहाना बनाकर लूटमार कर अराजकता फैला रखी थी। हेस्टिग्स ने उनका भी कठोरतापूर्वक दमन कराया।

(द) पुलिस का संगठन-
पुलिस अफसरों के अधिकार बढ़ा दिए गए तथा प्रत्येक जिले में एक पुलिस अफसर की नियुक्ति की गई, जिस पर जिले की सुव्यवस्था का दायित्व होता था। व्यापारिक क्षेत्र में सुधार- कम्पनी का मुख्य उद्देश्य भारत में व्यापार की उन्नति कर स्वयं को सुदृढ़ बनाना था। व्यापारिक दृष्टिकोण से कम्पनी की स्थिति खराब थी। अत: हेस्टिग्स ने दस्तक प्रथा का अन्त कर कर्मचारियों के निजी व्यापार पर प्रतिबन्ध लगा दिया। हेस्टिग्स ने जमींदारों द्वारा स्थापित समस्त चुंगी चौकियों को समाप्त कर केवल कलकत्ता, हुगली, ढाका, मुर्शिदाबाद और पटना में चुंगी चौकियाँ स्थापित की।

सभी सामान चाहे वह यूरोपियन हो या भारतीय समान दर से चुंगी की व्यवस्था की गई। इन सुधारों से व्यापार को प्रोत्साहन मिला और आय में वृद्धि हुई। कलकत्ता में व्यापारियों को आर्थिक सुविधाएँ प्रदान करने के लिए एक बैंक की स्थापना की। तिब्बत के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए हेस्टिग्स ने तिब्बत में एक व्यापारिक मिशन भेजा। उसने कलकत्ता में टकसाल की भी स्थापना की।

प्रश्न 3.
लॉर्ड कार्नवालिस के सुधारों का विस्तृत वर्णन कीजिए।
उतर:
लॉर्ड कार्नवालिस के सुधारों को हम चार भागों में विभक्त कर सकते हैं
(i) भूमि का स्थायी बन्दोबस्त
(ii) न्याय सम्बन्धी सुधार
(iii) व्यापारिक सुधार
(iv) शासन-सम्बन्धी सुधार
(i) भूमि का स्थायी बन्दोबस्त- अब तक कम्पनी वार्षिक ठेके के आधार पर लगान वसूल करती थी। सबसे ऊँची बोली बोलने वाले को ही जमीन दी जाती थी। इससे कम्पनी और किसान दोनों को ही परेशानी हो रही थी। अतः कार्नवालिस ने 1790 ई० में यह योजना पेश की कि जमींदारों को भू-स्वामी स्वीकर कर निश्चित लगान के बदले निश्चित अविध के लिए उन्हें जमीन दे दी जाए। संचालकों की अनुमति से 1790 ई० में बंगाल के जमीदारों के साथ ‘दससाला’ प्रबन्ध स्थापित किया गया। बाद में 1793 ई० में बंगाल और बिहार में इस व्यवस्था को चिर-स्थायी व्यवस्था या स्थायी बन्दोबस्त के नाम से घोषित किया गया। इस व्यवस्था के अनुसार, जमींदार भू-स्वामी बन गए। किसानों की स्थिति रैयतमात्र ही रह गई। जमींदारों को निश्चित अवधि के भीतर वसूल किए गए लगान का 10/11 हिस्सा कम्पनी को देना था और 1/11 भाग अपने खर्च के लिए रखना था। लगान की राशि निश्चित कर दी गई। इस व्यवस्था के अन्तर्गत हानि और लाभ दोनों ही विद्यमान थे।

लाभ- इस बन्दोबस्त से अंग्रेजों ने जमींदारों को भूमि का स्वामी बना दिया। इससे दो लाभ हुए-प्रथम, राजनीतिक दृष्टि से अंग्रेजों को भारत में एक ऐसा वर्ग प्राप्त हो गया, जो प्रत्येक स्थिति में अंग्रेजों का साथ देने को तैयार था। द्वितीय, इससे आर्थिक दृष्टि से लाभ हुआ। जमींदारों ने कृषि में स्थायी रुचि लेना आरम्भ किया क्योंकि कृषि के उत्पादन में वृद्धि होने से अधिकांश लाभ उन्हीं का था। सरकार को उन्हें निश्चित लगान देना था, जबकि उत्पादन में वृद्धि होने से वे स्वयं किसानों से अधिक लगान ले सकते थे। इस कारण कृषि की उन्नति से धीरे-धीरे बंगाल और बिहार पुन: धनवान सूबे बन गए।

इस व्यवस्था से कम्पनी की आय भी निश्चित हो गई और उसे योजनाएँ लागू करने में आसानी हुई। इस प्रकार अब कम्पनी के कर्मचारियों को लगान की व्यवस्था करने से मुक्ति मिल गई और वे अधिक स्वतन्त्रता से न्याय, शासन और कम्पनी के व्यापार की ओर ध्यान दे सकते थे। हानि- इस बन्दोबस्त में किसानों के हित का कोई ध्यान नहीं रखा गया था। उनका भूमि पर कोई अधिकार न रहा और लगान के विषय में वे पूर्णत: जमींदारों की दया पर छोड़ दिए गए। इस व्यवस्था के अन्तर्गत बिचौलियों की संख्या में वृद्धि हुई और किसानों का शोषण बढ़ा। इसी कारण इस व्यवस्था के अन्तर्गत उच्च-स्तर पर सामन्तवादी शोषण और निम्न स्तर पर दासता की भावना को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ।

(ii) न्याय-सम्बन्धी सुधार- न्याय के क्षेत्र में कार्नवालिस ने अनेक महत्वपूर्ण सुधार किए

(क) कलेक्टरों को मजिस्ट्रेटों के अधिकार-
कार्नवालिस ने 1787 ई० में उन जिलों को छोड़कर, जहाँ पर उच्च न्यायालय स्थापित थे, न्याय के अधिकार पुनः कलेक्टरों को प्रदान कर दिए तथा कुछ फौजदारी मुकदमों का निर्णय करने का अधिकार भी कलेक्टरों को दिया गया। फौजदारी के क्षेत्र में भी कार्नवालिस ने सुधार किए। फौजदारी की मुख्य अदालत मुर्शिदाबाद के स्थान पर पुनः कलकत्ता में स्थापित की गई, जिसके अध्यक्ष गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल के सदस्य होते थे।

(ख) जिला अदालतों का अन्त-
कार्नवालिस ने जिले की अदालतों को समाप्त करके कलकत्ता, ढाका, पटना तथा मुर्शिदाबाद में प्रान्तीय अदालतों की स्थापना करवाई। 5,000 रुपए से अधिक मूल्य के मामलों की अपील सपरिषद् सम्राट के यहाँ ही हो सकती थी।

(ग) कार्नवालिस कोडा-
1793 ई० में कार्नवालिस कोड के अनुसार जजों की नियुक्ति की गई तथा उन्हें न्याय सम्बन्धी अधिकार प्रदान किए गए। फौजदारी मुकदमों में मुस्लिम कानून प्रयोग में लाया गया। अंग-भंग के स्थान पर कठोर कैद की सजा देने का प्रावधान किया गया। निचली(लोअर)अदालतों की स्थापना-चार जिलों की अदालतों के अतिरिक्त निचली अदालतों की भी स्थापना की गई, जिनके अधिकारी मुंसिफ होते थे। मुंसिफ अदालत को 50 रुपए तक के मुकदमे सुनने का अधिकार था।

(ङ) दौरा अदालतों का पुनर्गठन-
दौरा करने वाली अदालतों का पुनर्गठन कराया गया तथा उनमें तीन न्यायाधीश नियुक्त किए गए, जो जिलाधीश के निर्णय के विरुद्ध अपील सुनते थे।

(च) दरोगाओं की नियुक्ति-
देश की शान्ति एवं सुरक्षा के लिए प्रत्येक जिले में कई दरोगाओं की नियुक्ति की गई, जो मजिस्ट्रेट के अधीन होते थे।

(iii) व्यापारिक सुधार- कार्नवालिस ने व्यापार के क्षेत्र में निम्नलिखित सुधार किए
(क) कार्नवालिस ने कम्पनी की आय बढ़ाने के लिए व्यापार बोर्ड का पुनर्गठन किया। बोर्ड के सदस्यों की संख्या 12 से घटाकर 5 कर दी।
(ख) प्रत्येक व्यापारी केन्द्र पर एक-एक रेजीडेण्ट की नियुक्ति की गई, जिसका मुख्य कार्य यह देखना था कि कम्पनी का व्यापार उचित ढंग से हो रहा है या नहीं। ठेकेदारों से माल खरीदने की व्यवस्था समाप्त कर दी गई तथा रेजीडेण्ट उत्पादकों से सीधा सम्पर्क स्थापित कर माल खरीदने लगे।
(ग) जुलाहों से माल खरीदने के सम्बन्ध में यह नियम बना दिया गया कि कम्पनी जितना माल खरीदना चाहेगी, उसका पूरा मूल्य पेशगी के तौर पर दिया जाएगा तथा जुलाहे उतना ही माल देने हेतु बाध्य होंगे, जितना रुपया उन्होंने पेशगी लिया है।
(घ) भारतीय कारीगरों और उत्पादकों की सुरक्षा के लिए भी 1778 ई० में विभिन्न कानून बनाए गए।

(iv) शासन-सम्बन्धी सुधार- कम्पनी में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए कार्नवालिस ने शासन-सम्बन्धी अनेक सुधार किए—
(क) योग्यता के आधार पर नियुक्ति- कम्पनी के कर्मचारी धन कमाने में लगे रहते थे तथा कर्तव्य की उपेक्षा करते थे। इस समय बनारस के रेजीडेण्ट का प्रतिमास वेतन तत्कालीन सिक्के की दर के आधार पर 1,000 रुपए अथवा 1,350 रुपए वार्षिक होता था, जो कि इस पद के अनुरूप काफी अच्छा वेतन था, परन्तु फिर भी लॉर्ड कार्नवालिस के साक्ष्य के आधार पर वह परोक्ष एवं अपरोक्ष रूप से व्यक्तिगत व्यापार तथा भ्रष्टाचार द्वारा एक मोटी धनराशि 40,000 रुपए वार्षिक अपने वेतन के अतिरिक्त कमाता था। कार्नवालिस ने कलेक्टरों तथा जजों के भ्रष्ट होने पर खेद प्रकट किया और इन दोषों को दूर करने के लिए कम्पनी में सिफारिशों के स्थान पर योग्यता के आधार पर कर्मचारियों की नियुक्ति की व्यवस्था की गई।

(ख) उच्च सरकारी पदों से भारतीय वंचित-
कार्नवालिस को भारतीयों पर विश्वास नहीं था तथा उसने 500 पौण्ड वार्षिक से अधिक वेतन वाले पदों पर यूरोपियन्स को रखना आरम्भ किया। इस प्रकार उच्च पदों के द्वार भारतीयों के लिए बन्द कर दिए गए।

(ग) वेतन में वृद्धि-
रिश्वतखोरी तथा भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए उसने कम्पनी के कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि कर दी, जिससे वे लोग ईमानदारी से कार्य कर सकें।

प्रश्न 4.
तृतीय मैसूर युद्ध के कारण व घटनाओं पर एक टिप्पणी लिखिए। श्रीरंगपट्टम की संधि की शर्ते लिखिए।
उतर:
तृतीय मैसूर युद्ध के कारण

  1. टीपू ने विभिन्न आन्तरिक सुधारों द्वारा अपनी स्थिति को मजबूत करने की कोशिश की, जिसके कारण अंग्रेजों, निजाम एवं मराठों को भय उत्पन्न हो गया।
  2. 1787 ई० में फ्रांस एवं टर्की में टीपू द्वारा अपने दूत भेजकर उनकी मदद प्राप्त करने की कोशिश की गई, जिससे अंग्रेजों में शंका उत्पन्न हो गई।
  3. मंगलौर सन्धि टीपू व अंग्रेजों के मध्य एक अस्थायी युद्धविराम था, क्योंकि दोनों की महत्वाकांक्षाओं व स्वार्थों में टकराव था। अत: दोनों गुप्त रूप से एक-दूसरे के विरुद्ध युद्ध की तैयारी कर रहे थे।
  4. अंग्रेजों द्वारा टीपू पर यह आरोप लगाया गया कि उसने अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसियों से गुप्त समझौता किया है।
  5. कार्नवालिस और टीपू के बीच संघर्ष के कारणों के सम्बन्ध में इतिहासकारों के दो मत हैं। कुछ का मानना है कि कम्पनी ने भारत में साम्राज्य–विस्तार की नीति के कारण टीपू से संघर्ष किया। कुछ का कहना है कि टीपू ने स्वयं ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी थीं, जिससे संघर्ष अवश्यम्भावी हो गया था।
  6. टीपू ने ट्रावनकोर के हिन्दू शासक पर आक्रमण कर दिया, जिसको अंग्रेजों का संरक्षण प्राप्त था। टीपू की इस कार्यवाही पर अंग्रेजों ने युद्ध की घोषणा कर दी।

घटनाएँ- 29 दिसम्बर, 1789 ई० को टीपू ने ट्रावनकोर के राजा पर आक्रमण कर दिया। कार्नवालिस ने कुछ प्रदेशों का लालच देकर 1 जून, 1790 ई० को मराठों व 4 जुलाई, 1790 ई० को निजाम से सन्धि कर ली। इस प्रकार कार्नवालिस ने चतुरता से दोनों शक्तियों को साथ लेकर तीसरी भारतीय शक्ति को कुचलने की चाल चली। कार्नवालिस 1791 ई० में बंगलौर (बंगलुरु) पर अधिकार करने के बाद टीपू की राजधानी श्रीरंगपट्टम के नजदीक पहुँच गया। टीपू ने भी आगे बढ़कर कोयम्बटूर पर अधिकार कर लिया परन्तु शीघ्र ही टीपू पराजित होने लगा। अन्त में अंग्रेजों ने उसकी राजधानी श्रीरंगपट्टम को भी घेरकर 1792 ई० में उस पर अधिकार कर लिया। 23 मार्च, 1792 को दोनों पक्षों के बीच श्रीरंगपट्टम की सन्धि हो गई।

श्रीरंगपट्टम की सन्धि- मार्च 1792 ई० में टीपू श्रीरंगपट्टम की सन्धि करने के लिए बाध्य हो गया। इस समय यदि कार्नवालिस चाहता तो टीपू के समस्त राज्य को छीन सकता था। परन्तु उसे भय था कि मराठों तथा निजाम के साथ विभाजन करने की विकट समस्या उत्पन्न हो जाएगी, अतः उसने टीपू का सम्पूर्ण राज्य तो नहीं छीना परन्तु उसे शक्तिहीन बनाकर छोड़ दिया। सन्धि के द्वारा टीपू का आधा राज्य छीन लिया गया तथा तीनों शक्तियों को वितरित कर दिया गया। सबसे बड़ा भाग कम्पनी को मिला। कम्पनी को मालाबार, कुर्ग तथा डिण्डीगान के प्रदेश मिले, निजाम को कृष्णा नदी के तटीय प्रदेश दिए गए तथा कृष्णा एवं तुंगभद्रा नदी के मध्य का भाग मराठों को प्राप्त हुआ। युद्ध के व्यय के रूप में टीपू को 30 लाख रुपए तथा अपने दो पुत्र बन्धक
के रूप में देने पड़े।

प्रश्न 5.
वेलेजली की सहायक संधि की नीति पर प्रकाश डालिए।
उतर:
वेलेजली की सहायक संधि नीति- वेलेजली एक घोर साम्राज्यवादी गवर्नर था। कम्पनी शासन के विस्तार के लिए उसने जो सरल और प्रभावशाली अस्त्र व्यवहार में लिया, वह सहायक सन्धि के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार की सन्धि की व्यवस्था भारत में सर्वप्रथम फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने की थी। आवश्यकतानुसार वह भारतीय नरेशों को सैनिक सहायता देता तथा बदले में उनसे धन प्राप्त करता था। बाद में क्लाइव एवं कार्नवालिस ने भी इसका सहारा लिया, परन्तु इस व्यवस्था को सुनिश्चित एवं व्यापक स्वरूप प्रदान करने का श्रेय वेलेजली को ही है। सहायक सन्धि की प्रमुख शर्ते निम्नलिखित थीं

  • सहायक सन्धि स्वीकार करने वाला देशी राज्य अपनी विदेश नीति को कम्पनी के सुपुर्द कर देगा।
  • वह बिना कम्पनी की अनुमति के किसी अन्य राज्य से युद्ध, सन्धि या मैत्री नहीं कर सकेगा।
  • इस सन्धि को स्वीकार करने वाले देशी राजाओं के यहाँ एक अंग्रेजी सेना रहती थी, जिसका व्यय राजा को उठाना होता था।
  • देशी राजाओं को अपने दरबार में एक ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखना होता था।
  • यदि सहायक सन्धि स्वीकार करने वाले देशी राजाओं के मध्य झगड़ा हो जाता है, तो अंग्रेज मध्यस्थता कर जो भी निर्णय देंगे वह देशी राजाओं को स्वीकार करना पड़ेगा।
  • कम्पनी उपर्युक्त शर्तों के बदले सहायक सन्धि स्वीकार करने वाले राज्य की बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा की गारन्टी लेती थी तथा देशी शासकों को आश्वासन देती थी कि वह उन राज्यों के आन्तरिक शासन में हस्तक्षेप नहीं करेगी। इस प्रकार सहायक सन्धि द्वारा राज्यों की विदेश नीति पर कम्पनी का सीधा नियन्त्रण स्थापित हो गया। यह वेलेजली की साम्राज्यवादी पिपासा को शान्त करने का अचूक अस्त्र बन गया।

सहायक सन्धि के गुण- सहायक सन्धि अंग्रेजों के लिए बड़ी लाभकारी सिद्ध हुई। उन्हें इस सन्धि से निम्नलिखित लाभ हुए
(i) कम्पनी के साधनों में वृद्धि- इस सन्धि द्वारा अंग्रेजों को विभिन्न भारतीय शक्तियों से जो धन और प्रदेश मिले, उनसे कम्पनी के साधनों का बहुत विस्तार हुआ। कम्पनी, भारत में अब सर्वोच्च सत्ता बन गई। अब उसका देशी राज्यों की बाह्य नीति पर पूर्णरूप से नियन्त्रण स्थापित हो गया।
(ii) सैन्य व्यय में कमी- इस सन्धि के द्वारा वेलेजली ने अपनी सेनाओं को देशी राजाओं के यहाँ रखा। इस सेना का व्यय देशी राजाओं को देना पड़ता था। इससे कम्पनी की आर्थिक स्थिति मजबूत हो गई।
(iii) कम्पनी के राज्य की बाह्य आक्रमण से सुरक्षा- इस सन्धि के अनुसार देशी राजाओं के यहाँ अंग्रेजी सेना रहती थी। इससे लाभ यह हुआ कि कम्पनी का राज्य बाह्य आक्रमणों से पूर्ण रूप से सुरक्षित हो गया और कम्पनी अनेक युद्ध करने से बच गई।
(iv) फ्रांसीसी प्रभाव का अन्त- इस सन्धि के अनुसार कोई भी देशी राजा अपने यहाँ बिना अंग्रेजों की स्वीकृति के किसी विदेशी को अपनी सेवा में नियुक्त नहीं कर सकता था। इससे भारत में फ्रांसीसी प्रभाव का अन्त हो गया।
(v) कम्पनी के प्रदेशों में शान्ति- इस सन्धि के अनुसार देशी रियासतों के आपसी झगड़े समाप्त हो गए, जिससे वहाँ के लोग शान्तिपूर्वक रहने लगे। अंग्रेजी साम्राज्य के अधिक सुरक्षित हो जाने के कारण वहाँ के नागरिकों का जीवन अधिक समृद्ध और सुरक्षित हो गया।
(vi) वेलेजली के उद्देश्यों की पूर्ति- लॉर्ड वेलेजली घोर साम्राज्यवादी था। इस सन्धि ने उसकी साम्राज्य–विस्तार की भूख को शान्त कर दिया।

सहायक सन्धि के कुप्रभाव ( दोष)- सहायक सन्धि जहाँ कम्पनी के लिए वरदान सिद्ध हुई, वहीं भारतीय रियासतों पर इसका अत्यन्त ही बुरा प्रभाव पड़ा। इसने देशी राज्यों की स्वतन्त्रता समाप्त कर दी तथा उन्हें पूर्णत: कम्पनी पर आश्रित रहने के लिए बाध्य कर दिया।
(i) देशी राजाओं का शक्तिहीन होना- इस सन्धि से देशी राजा शक्तिहीन और निर्बल हो गए। उनके राज्य की बाह्य नीति पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। देशी राजा बिना अंग्रेजों की अनुमति के न तो किसी से सन्धि कर सकते थे और न ही युद्ध कर सकते थे। वास्तव में वेलेजली की सहायक सन्धि ने देशी राजाओं को शक्तिहीन बना दिया।
(ii) आर्थिक संकट- कम्पनी की सेना रखने वाले राज्यों को सेना का सम्पूर्ण व्यय देना पड़ता था। इस कारण उनको आर्थिक संकट का भी सामना करना पड़ा।
(iii) बेकारी की समस्या- देशी राज्यों को अपने यहाँ अनिवार्य रूप से अंग्रेजी सेना रखनी पड़ती थी। अतः देशी राजाओं ने अपनी स्थायी सेना भंग कर दी, जिसके कारण बर्खास्त सैनिक बेरोजगार हो गए और वे असामाजिक और आपराधिक गतिविधियों में भाग लेकर चारों तरफ अव्यवस्था एवं अशान्ति में वृद्धि करने लगे।
(iv) देशी राजाओं का विलासी और निष्क्रिय होना- आन्तरिक एवं बाह्य सुरक्षा की गारन्टी प्राप्त होने पर देशी राज्य कम्पनी के समर्थक और सहायक बन गए। उनकी राष्ट्रीयता एवं आत्मगौरव की भावना समाप्त हो गई। उनका सारा समय भोगविलास में व्यतीत होने लगा तथा प्रजा पर अत्याचार बढ़ गए।

सहायक सन्धि की नीति का क्रियान्वयन- वेलेजली ने इस सन्धि को व्यावहारिक रूप प्रदान करने का तुरन्त निश्चय कर लिया तथा सर्वप्रथम अपने मित्र राज्यों को सहायक सन्धि स्वीकार करने पर बाध्य किया। जिन शक्तियों से युद्ध करना पड़ा, उन पर विजय प्राप्त करके भी बलपूर्वक सहायक सन्धि लागू की गई तथा जब वेलेजली भारत से लौटा, वह लगभग सभी प्रमुख शक्तिशाली राज्यों में सहायक सन्धि लागू कर चुका था।

प्रश्न 6.
लॉर्ड डलहौजी के चरित्र का मूल्यांकन कीजिए।
उतर:
लॉर्ड डलहौजी के चरित्र का मूल्यांकन निम्न बिन्दुओं के आधार पर किया जा सकता है
(i) अंग्रेजी शासन का वफादार- लॉर्ड डलहौजी अपने मूल राष्ट्र ब्रिटेन के प्रति समर्पित था। उसके राष्ट्र-प्रेम ने लॉर्ड डलहौजी की अन्तर्राष्ट्रीयता अथवा मानवता की भावनाओं को संकुचित कर दिया। भारतीयों के प्रति उसका व्यवहार अत्यन्त कटु, बर्बर एवं अमानुषिक था। उनकी भावनाओं अथवा भलाई पर उसने कभी भी कोई ध्यान नहीं किया। उसने जो भी सुधार किए, उनका उद्देश्य अंग्रेजों और उनकी सरकार का हित था।

(ii) इच्छा-शक्ति का धनी-
लॉर्ड डलहौजी में अद्भुत इच्छा-शक्ति थी। जिस बात को वह एक बार निश्चित कर लेता था, उससे कभी डिगता नहीं था तथा उसकी पूर्ति के प्रयास में वह निरन्तर संलग्न रहता था। उसे अपने देश एवं उसकी प्रतिष्ठा से अगाध प्रेम था तथा उसकी वृद्धि करने में उसने उचित-अनुचित का भी ध्यान नहीं रखा। उसके कार्यों से उसके देश की ख्याति बढ़ी। उसको आर्थिक एवं राजनीतिक लाभ प्राप्त हुए तथा उसका साम्राज्य विस्तार हुआ।

(iii) परिश्रमी-
लॉर्ड डलहौजी घोर परिश्रमी था तथा दिन-रात के अथक परिश्रम से उसने न केवल भारत में अनेक राज्यों पर विजय प्राप्त की वरन् अनेक राज्यों को अपनी कूटनीति से ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। उसमें क्रियात्मक प्रतिभा थी। गोद-निषेध नीति के समान उच्चकोटि की नीति को जन्म देने का श्रेय लॉर्ड डलहौजी को ही है।

(iv) प्रतिभाशाली व्यक्ति-
लॉर्ड डलहौजी अत्यन्त प्रतिभशाली, कर्तव्यपरायण एवं क्रियाशील व्यक्ति था। भारत में आकर शीघ्र ही वह यहाँ की परिस्थितियों से अवगत हो गया तथा भारत के छोटे-छोटे शक्तिहीन राज्यों को समाप्त करके भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को विशाल एवं संगठित बनाने का कार्य उसने आरम्भ कर दिया।

(v) एकपक्षीय तर्क को आधार बनाने वाला शासक-
लॉर्ड डलहौजी में तर्कशीलता की भावना अत्यन्त प्रबल थी तथा तर्क का आश्रय लेकर वह प्रत्येक कार्य करता था। देशी नरेशों के राज्यों का अपहरण भी उसने तर्क के आधार पर ही किया, यद्यपि उसका तर्क एकपक्षीय ही था।

(vi) स्वेच्छाचारी-
लॉर्ड डलहौली की सबसे बड़ी दुर्बलता थी कि वह योग्य व्यक्तियों के परामर्श को भी नहीं मानता था। इसलिए वह किसी का भी कृपापात्र न बन सका। उसके अधीन कर्मचारी उसके दुर्व्यवहार के कारण उससे भयभीत रहते थे और हृदय से उनका प्रेम उसे प्राप्त न था। यदि अपने सहयोगियों के साथ उसका व्यवहार अधिक सभ्यतापूर्ण होता तो उसे अपने लक्ष्य की प्राप्ति में और भी अधिक सफलता मिल सकती थी।

(vii) आधुनिक भारत का निर्माता-
लॉर्ड डलहौजी ने जो सुधार भारत में किए, उसके आधार पर उसे आधुनिक भारत का निर्माता कहा जा सकता है। उसके सुधार इतने क्रान्तिकारी थे कि भारतवासी उनसे भयभीत हो उठे और वे सोचने लगे कि इन सुधारों के द्वारा उनके धर्म में हस्तक्षेप किया जा रहा है। किन्तु कुछ समय पश्चात् भारतीयों को उन सुधारों की उपयोगिता का अहसास हो सका।

(viii) महान् साम्राज्यवादी-
लॉर्ड डलहौजी महान् साम्राज्यवादी गवर्नर जनरल था तथा भारत में उसने सदैव इसी नीति का अनुसरण किया। उसके काल में उसकी यह नीति सर्वथा सफल रही किन्तु भारतीयों में उसकी नीति के कारण अंग्रेजों के प्रति अविश्वास एवं घृणा की भावनाएँ प्रबल हो गईं और उसके लौटते ही भारत में महान् क्रान्ति का विस्फोट हुआ। अंग्रेज विद्वानों ने लॉर्ड डलहौजी का मूल्यांकन करते हुए उसकी बहुत प्रशंसा की है। उसे भारत के उच्चतम कोटि के चार प्रमुख साम्राज्यवादी गवर्नर जनरलों में स्थान प्राप्त है।

क्लाइव के द्वारा प्रारम्भ किए गए साम्राज्य निर्माण के कार्य को पूर्ण करने वाला लॉर्ड डलहौजी ही था। शक्तिहीन देशी राजाओं को समाप्त करके उसने भारत में एक सुदृढ़ राज्य स्थापित किया तथा भारत को प्राकृतिक सीमाएँ प्रदान की। उसने सेना का पुनर्सगठन किया, जो गदर को निष्फल बनाने में समर्थ हो सकी। उसमें केवल विजेता के ही गुण नहीं थे वरन् वह एक कुशल निर्माता एवं शासक भी था। अन्य किसी गवर्नर-जनरल में एकसाथ ही तीन गुणों का उचित सम्मिश्रण मिलना दुर्लभ है। जहाँ तक उसकी साम्राज्यवादी नीति का प्रश्न है, डॉ० ईश्वरी प्रसाद की यह बात नितान्त उचित लगती है कि “साम्राज्यवाद का प्रेत जनमत की परवाह नहीं करता। वह तो तलवार की धार से अपना लक्ष्य पूरा करता है।”

इसी प्रकार वी०ए० स्मिथ के अनुसार- “लॉर्ड डलहौजी एक महान् विजेता और कुशल निर्माणकर्ता ही नहीं था, बल्कि वह एक उच्चकोटि का सुधारक भी था। एक विजेता और साम्राज्य विस्तारक के रूप में लॉर्ड डलहौजी ने भारतीयों पर कुठाराघात किया, परन्तु एक सुधारक के रूप में उसका नाम आज भी बड़े गौरव के साथ लिया जाता है।”

प्रश्न 7.
लॉर्ड बैंटिक की नीति उदार थी।’ इस कथन के आलोक में उसके सुधारों का वर्णन कीजिए।
उतर:
लॉर्ड विलियम बैंटिंक की नीति- स्वभाव और मानसिक दृष्टिकोण से वह उदार विचारों वाला शासक था। पी०ई० रॉबर्ट्स के अनुसार- “लार्ड विलियम बैंटिंक अपने समय का सर्वथा उदार विचारों वाला व्यक्ति था। उसका युग सहानुभूतिपूर्ण तथा संसदीय सुधारों का युग था तथा वह उसके सर्वथा अनुरूप था।” वह शान्तिप्रिय था और सुधार कार्य की उसमें प्रबल इच्छा थी। वह उन्मुक्त व्यापार एवं उन्मुक्त प्रतियोगिता की नीति का समर्थक था और उसका विश्वास था कि राज्य को जनता के जीवन में कम-से-कम हस्तक्षेप करना चाहिए। फिर भी लोकहितकारी कार्यों का सम्पादन करने में वह किसी प्रकार के संकोच का अनुभव नहीं करता था। वह सुधारों का प्रबल पक्षपाती था तथा उदार विचार वाला होने के कारण अंग्रेजों की उग्र एवं साम्राज्यवादी नीति का विरोधी था।

बैंटिंक के सुधार- बैंटिंक ने निम्नलिखित सुधार किए हैं
(i) प्रशासनिक और न्यायिक सुधार- सर्वप्रथम बैंटिंक ने प्रशासनिक सुधारों की तरफ ध्यान दिया। वस्तुत: लॉर्ड कार्नवालिस के पश्चात् किसी भी गवर्नर जनरल ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया। प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था में सुधार लाने के लिए बैंटिंक ने अग्रलिखित कार्य किए

  • अभी तक कम्पनी के महत्वपूर्ण पदों पर ज्यादातर अंग्रेज अधिकारी नियुक्त थे। बैंटिंक ने अब भारतीयों को भी योग्यता के आधार पर प्रशासनिक सेवा में भर्ती करना आरम्भ कर दिया।
  • बैंटिंक ने लगान-सम्बन्धी सुधार करते हुए जमीन की किस्म एवं उपज के आधार पर लगान की राशि तय कर दी। इस व्यवस्था का काम एक बोर्ड ऑफ रेवेन्यू के जिम्मे सौंपा गया। यह व्यवस्था 30 वर्षों के लिए लागू की गई। इससे कम्पनी, जमींदार तथा किसान तीनों को लाभ हुए।
  • बैंटिंक ने पुलिस-व्यवस्था में भी सुधार किए। उसने पटेलों एवं जमींदारों को भी पुलिस-सम्बन्धी अधिकार प्रदान किए। अपराधियों पर नियन्त्रण रखने के उद्देश्य से प्रत्येक जिले में पुलिस की स्थायी ड्यूटी लगाई गई।
  • 1832 ई० में बैंटिंक ने इलाहाबाद में सदर दीवानी अदालत तथा सदर निजामत अदालत की स्थापना की। इसका उद्देश्य पश्चिमी प्रान्तों की जनता को राहत पहुँचाना था।
  • 1832 ई० में बैंटिंक ने एक कानून पारित कर बंगाल में जूरी प्रथा को आरम्भ किया, जिससे यूरोपियन जजों को सहायता देने के लिए जूरी के रूप में भारतीयों की सहायता प्राप्त की जा सके।
  • बैंटिंक ने न्यायालयों में देशी भाषा के प्रयोग पर अधिक बल दिया, इससे पूर्व न्यायालयों में फारसी भाषा का प्रयोग अधिक होता था।
  • बैंटिंक के शासन में लॉर्ड मैकॉले द्वारा दण्ड संहिता का निर्माण किया गया। इस प्रकार कानूनों को एक स्थान पर संगृहीत कर दिया गया, जिससे न्याय प्रणाली में पर्याप्त सुधार हुआ।

(ii) शिक्षा-सम्बन्धी सुधार- लॉर्ड बैंटिंक ने शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण सुधार किए। मैकाले ने 2 फरवरी, 1835 ई० के अपने स्मरण-पत्र में प्राच्य शिक्षा की खिल्ली उड़ाई एवं अपनी योग्यता प्रस्तुत की, जिसका उद्देश्य यह था कि भारत में “एक ऐसा वर्ग बनाया जाए, जो रंग तथा रक्त से तो भारतीय हो, परन्तु प्रवृत्ति, विचार, नैतिकता तथा बुद्धि से अंग्रेज हो।” बैंटिंक ने मैकाले की यह नीति (योजना) स्वीकार कर ली। फलस्वरूप भारत में अंग्रेजी को प्रोत्साहन दिया गया। अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार के लिए अनुदान दिए गए तथा कलकत्ता में एक मेडिकल कॉलेज की स्थापना की गई। इससे भारतीय पाश्चात्य ज्ञान के सम्पर्क में आए।

(iii) सती प्रथा का अन्त- भारत में सती प्रथा एक घोर सामाजिक बुराई थी, जिसका काफी समय से चलन था। 4 दिसम्बर, 1829 ई० को बैंटिंक ने एक कानून पारित कर सती प्रथा को नर हत्या का अपराध घोषित कर दिया। सती प्रथा को समाप्त करने में बैंटिंक को महान समाज सुधारक राजा राममोहन राय का भरपूर सहयोग मिला। ठगों का दमन- उन्नीसवीं सदी के पहले चार दशकों तक बनारसी ठगों का देशभर में खासकर उत्तर भारत के कई इलाकों में बड़ा आतंक था। ठगी के इस महाजाल को पूरी तरह से नेस्तनाबूद करने में बैंटिंक व स्लीमैन समेत ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कई सिपहसालारों के भी पसीने छूट गए थे। अतः बैंटिंक द्वारा ठगों का दमन करना भी महत्वपूर्ण कार्य था।

मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात् ठगों के प्रभाव में काफी वृद्धि हो चुकी थी। इन्हें जमींदार तथा उच्च अधिकारियों का संरक्षण प्राप्त था। ठगों के अत्याचारों से जनता त्रस्त थी। ठगों का अन्त करने के लिए बैंटिंक ने कर्नल स्लीमैन के साथ बड़े ही व्यवस्थित ढंग से कार्यवाही प्रारम्भ की। उसने एक के बाद एक, दूसरे गिरोह को पकड़ा और उन्हें कठोर सजाएँ दीं। उसने लगभग 2,000 ठगों को बन्दी बनाया। इनमें से उसने 1,300 को मृत्युदण्ड दिया। 500 ठगों को जबलपुर स्थित सुधार-गृह में भेज दिया गया तथा शेष को देश से निष्कासित कर दिया। बैंटिंक के इस कठोर कदम से 1837 ई० तक संगठित तौर पर काम करने वाले ठगों के गिरोहों का सफाया हो गया।

(v) नर-बलि की प्रथा का अन्त- भारत के कुछ हिस्सों में नर-बलि की प्रथा भी प्रचलित थी। यह प्रथा असभ्य एवं जंगली जातियों के बीच व्याप्त थी। वे अपने देवता को प्रसन्न करने के लिए निरपराध व्यक्तियों को भी पकड़कर उनकी बलि चढ़ा दिया करते थे। एक कानून बनाकर बैंटिंक ने इस कुप्रथा को बन्द करवा दिया।

(vi) दास प्रथा का अन्त- भारत में दास प्रभा भी प्राचीनकाल से ही प्रचलित थी। दासों की खरीद-बिक्री होती थी। उनसे जानवरों की तरह व्यवहार किया जाता था। बैंटिंक ने 1832 ई० में कानून बनाकर दास प्रथा को भी समाप्त कर दिया।

(vii) हिन्दू उत्तराधिकार कानून में सुधार- हिन्दू उत्तराधिकार नियम में यह दोष व्याप्त था कि अगर कोई व्यक्ति अपना धर्म बदल लेता है तो उसे पैतृक सम्पत्ति के अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा। बैंटिंक ने घोषणा की कि “धर्म-परिवर्तन करने की स्थिति में उसे पैतृक सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा। उसे नियमानुसार पैतृक सम्पत्ति का भाग मिलेगा।

(viii) बाल-वध निषेध- सती प्रथा के समान बाल-वध की भी कुप्रथा प्रचलित थी। अनेक स्त्रियाँ अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपने बच्चों की बलि चढ़ाने की मनौतियाँ मानती थीं और उनकी बलि चढ़ा देती थीं। राजपूतों में तो कन्या का जन्म ही अपमान का द्योतक था। अत: कन्या के जन्म लेते ही उसकी हत्या कर दी जाती थी। इसलिए बैंटिंक ने बंगाल रेग्यूलेशन ऐक्ट के द्वारा इस कुप्रथा को बन्द करवा दिया।

(ix) जनहितोपयोगी कार्य- बैंटिंक ने जनहित की सुविधा के लिए भी अनेक कार्य करवाए। नहरों, सड़कों, कुओं आदि का निर्माण भी करवाया।

(x) आर्थिक सुधार- बैंटिंक जिस समय भारत आया, कम्पनी की स्थिति ठीक नहीं थी। बर्मा (म्यांमार) युद्ध ने कम्पनी का कोष करीब-करीब रिक्त कर दिया था। उसने आर्थिक सुधार करते हुए असैनिक अधिकारियों के वेतन और भत्ते बन्द कर दिए। अनावश्यक पदों की समाप्ति कर दी। कलकत्ता (कोलकाता) से 400 मील की सीमा में निवास करने वाले सैनिक अधिकारियों को केवल आधा भत्ता दिया जाना निश्चित कर दिया, इससे कम्पनी को लगभग 1,20,000 पौण्ड की वार्षिक बचत हुई। धन की बचत के लिए उसने उच्च पदों पर कम वेतन देकर भारतीयों को नियुक्त कर दिया, जिससे भारतीयों का अंग्रेजों के प्रति असन्तोष भी कम हो गया। बैंटिंक ने लगान मुक्त भूमि का सर्वेक्षण कर उसे जब्त कर लिया तथा उस पर लगान लगा दिया। बैंटिंक के इस कार्य से कम्पनी को करीब 3 लाख रुपए की अतिरिक्त राशि प्राप्त होने लगी

प्रश्न 8.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए|
(क) बेसिन की संधि
(ख) गोरखा युद्ध
(ग) रणजीत सिंह का शासन-प्रबन्ध
(घ) प्रथम आंग्ल-सिक्ख युद्ध
(ङ) द्वितीय ब्रह्मा युद्ध
(च) नवीन चार्टर एक्ट
उतर:
(क) बेसिन की संधि- पेशवा बाजीराव द्वितीय ने दिसम्बर 1802 ई० में बेसीन की सन्धि पर हस्ताक्षर कर दिए, जिसके द्वारा पेशवा, जो मराठों का नेता माना गया था, सहायक सन्धि को मानने को प्रस्तुत हो गया। पेशवा ने एक सहायक अंग्रेजी सेना रखने की स्वीकृति दे दी, जिसके व्यय के लिए 26 लाख रुपए वार्षिक आय का एक प्रदेश कम्पनी को दे दिया गया। सूरत पर से भी पेशवा ने अपना दावा त्याग दिया तथा अपनी बाह्य नीति के अनुसरण के लिए उसने अंग्रेजों का नियन्त्रण स्वीकार कर लिया। इसके बदले में अंग्रेजों ने पेशवा की सहायता करने का वचन दिया। सर आर्थर वेलेजली के अनुसार- “यह सन्धि एक शून्य (पेशवा की शक्ति) से की गई थी।

बेसीन की सन्धि लॉर्ड वेलेजली की सबसे बड़ी कूटनीतिक विजय थी। पेशवा, जो मराठों का सरदार था, के अंग्रेजों के संरक्षण में आने का अभिप्राय था, सम्पूर्ण मराठों का अंग्रेजों के सरंक्षण में आ जाना। मराठा जाति, जो एकमात्र भारतीय जाति थी, जिससे अंग्रेजों की शक्ति के विनाश की आशा की जा सकती थी, इस सन्धि द्वारा अंग्रेजों के संरक्षण में आ गई। सिन्धिया इस समय भारत का सबसे शक्तिशाली सरदार था, जिसने मुगल सम्राट तक को दहला रखा था तथा दक्षिण में पेशवा का जो सबसे बड़ा समर्थक था, उसका बेसीन की सन्धि को स्वीकार कर लेना बड़ा महत्व रखता था, क्योंकि इस प्रकार उत्तरी तथा दक्षिणी भारत को अंग्रेजों ने अपने संरक्षण में ले लिया। भारतीय तथा अंग्रेज दोनों इतिहासकारों ने ब्रिटिश साम्राज्य के भारत में विस्तार के इतिहास में इस सन्धि को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना है। वेलेजली ने यह सोचा था कि पेशवा द्वारा बेसीन की सहायक सन्धि कर लिए जाने पर मराठा सरदार अंग्रेजों की प्रभुता स्वीकार कर लेंगे किन्तु उसकी यह धारणा गलत साबित हुई।

बेसीन की सन्धि का समाचार सुनकर मराठा सरदार अत्यन्त क्रुद्ध हुए। उनका मानना था कि पेशवा ने उनके परामर्श के बिना ही मराठों तथा देश की स्वतन्त्रता को अंग्रेजों के हाथ बेच दिया है। अत: उसका प्रतिकार करने के लिए उन्होंने युद्ध की तैयारियाँ आरम्भ कर दी। परन्तु इस संकटकाल में भी मराठे संगठित नहीं हो सके। होल्कर ने मराठा संघ में सम्मिलित होने से इन्कार कर दिया परन्तु सिन्धिया तथा भोंसले संगठित हो गए। गायकवाड़ इस युद्ध में तटस्थ रहा।

(ख) गोरखा युद्ध- हेस्टिग्स को सर्वप्रथम नेपाल के गोरखों के साथ युद्ध करना पड़ा। हिमालय की तराई में फैले हुए नेपाल राज्य के निवासी ‘गोरखा’ कहलाते हैं। पूर्व में सिक्किम से पश्चिम में सतलुज तक इनका राज्य फैला हुआ था। गोरखा जाति अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध थी।
(i) गोरखा शक्ति का उदय- चौदहवीं शताब्दी में यहाँ राजपूतों का राज्य था, परन्तु धीरे-धीरे यह राज्य छिन्न-भिन्न होकर शक्तिहीन हो गया। 17 वीं शताब्दी में पृथ्वीनारायण नामक गोरखा सरदार के नेतृत्व में नेपाल को पुन: संगठित किया गया, तब से गोरखा शक्ति का निरन्तर विकास होने लगा। अंग्रेज भी नेपाल से अपने व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करना चाहते थे परन्तु इस उद्देश्य में उन्हें सफलता नहीं मिली। 1802 ई० में जब कम्पनी के हाथ में गोरखपुर का जिला आ गया तो कम्पनी के राज्य की सीमाएँ नेपाल राज्य को स्पर्श करने लगीं तथा तभी से दोनों में संघर्ष होने लगे क्योंकि दोनों राज्यों की कोई सीमा निश्चित नहीं थी।

(ii) आक्रामक गतिविधियाँ- सर जॉर्ज बालों तथा लॉर्ड मिण्टो की अहस्तक्षेप की नीति से उत्साहित होकर गोरखों ने कम्पनी के सीमान्त प्रदेशों पर आक्रमण करना आरम्भ कर दिया तथा कुछ प्रदेश छीन भी लिए। शिवराज तथा बुटवल के प्रदेशों पर गोरखों का अधिकार होने के कारण युद्ध आवश्यक हो गया तथा 1814 ई० में नेपाल के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी गई।

(iii) युद्ध की घटनाएँ- चार सेनाएँ भेजकर लॉर्ड हेस्टिग्स ने नेपाल को चारों ओर से घेर लिया परन्तु गोरखों की वीरता देखकर अंग्रेजों के छक्के छूट गए। बल से जब विजय प्राप्त नहीं हो सकी तब अंग्रेजों ने छलपूर्वक गोरखों को मिलाने का प्रयास किया। गोरखों के सेनापति को बहुत प्रयास करने पर भी अंग्रेज अपना मित्र बनाने में असमर्थ रहे। छापामार रणपद्धति के द्वारा गोरखों ने अंग्रेजों को कई स्थानों पर पराजित किया। पहाड़ी प्रदेशों में मार्गों की कठिनाई के कारण अंग्रेज आगे बढ़ने में असमर्थ रहे तथा उनकी सेनाएँ पीछे हटने लगीं।

पी० ई० रॉबर्ट्स के अनुसार- “यद्यपि गोरखों की संख्या केवल 12,000 थी तथा अंग्रेजी सेना 34,000 के लगभग थी। फिर भी यह 1814-15 ई० का अभियान भयानक रूप से असफल होता लग रहा था। जावा की लड़ाई का नायक जनरल गिलेस्पी एक पहाड़ी किले पर मारा गया। जनरल मार्टिण्डेल ज्याटेक में रोक दिया गया। मुख्यतः पल्पा और राजधानी काठमाण्डू पर हुए हमले असफल कर दिए गए और केवल जनरल ऑक्टर लोनी ही सुदूर पश्चिम में अपनी स्थिति बनाए रख सका।”

(iv) कूटनीति की सफलता और सिगौली की सन्धि- अन्तत: धन का लोभ देकर अंग्रेजों ने अनेक गोरखों को अपनी सेना में भर्ती कर लिया। फलस्वरूप विवश होकर नेपाल के राजा ने सन्धि करना स्वीकार किया। 1816 ई० में सिगौली की सन्धि हो गई, जिसके द्वारा कुमायूँ तथा गढ़वाल के समस्त प्रदेश अंग्रेजों को प्राप्त हुए तथा नेपाल के राजा ने काठमाण्डू में ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखना स्वीकार कर लिया। नेपाल के राज्य को स्वतन्त्र रहने दिया गया परन्तु बाह्य देशों के निवासियों को वह अपने यहाँ नौकरी नहीं दे सकता था।

(v) गोरखा युद्ध के लाभ- गोरखों के साथ मित्रता स्थापित करने से कम्पनी को अनेक लाभ हुए। सर्वप्रथम गोरखा जाति के समान शक्तिशाली एवं वीर जाति का सहयोग अंग्रेजों को प्राप्त हुआ था। अंग्रेजों ने गोरखों की पृथक् सेना का निर्माण किया, जिसने आवश्यकता पड़ने पर विशेष रूप से 1857 ई० की क्रान्ति में अंग्रेजों की महान् सेवा की। सिगौली सन्धि के द्वारा जो पर्वतीय प्रदेश अंग्रेजों को प्राप्त हुए, वहाँ अल्मोड़ा, शिमला, नैनीताल, रानीखेत आदि प्रमुख पहाड़ी नगरों का निर्माण कराया गया, जहाँ पर गर्मी से बचने के लिए अंग्रेजों ने निवास स्थान बनाए।

(ग) महाराजा रणजीत सिंह का शासन-प्रबन्ध
(i) राज्य एवं शासन का संगठन- महाराजा रणजीत सिंह ने अपने विशाल साम्राज्य के लिए एक सुव्यवस्थित शासन पद्धति का निर्माण किया तथा यह सिद्ध कर दिया कि वे केवल एक कूटनीतिक विजेता ही नहीं वरन् कुशल शासक भी हैं। महाराजा रणजीत सिंह से पूर्व सिक्खों के संघ को ‘खालसा’ कहते थे। इसमें अनेक मिस्लें होती थीं, जिनके मुखिया ‘सरदार’ कहलाते थे। सभी सरदार आन्तरिक क्षेत्र में स्वतन्त्र थे तथा खालसा का कार्य सामूहिक उन्नति करना था। खालसा के संचालन के लिए एक गुरुमठ होता था, जिसकी बैठक प्रतिवर्ष अमृतसर में होती थी। किन्तु रणजीत सिंह के राज्य से पूर्व सरदार बहुधा उद्दण्ड और अनियन्त्रित थे तथा खालसा के महत्व की प्रायः अवहेलना करते थे।

(ii) निरंकुश राजतन्त्र- महाराजा रणजीत सिंह ने पंजाब में सिक्खों का एकछत्र राजतन्त्रात्मक साम्राज्य निर्मित किया तथा स्वेच्छाचारी सरदारों पर जुर्माना करके तथा उनकी सम्पत्ति छीनकर उन्हें निर्बल बना दिया। उन्होंने उत्तराधिकार नियम भंग कर दिया तथा सरदार की मृत्यु के उपरान्त उसकी सम्पूर्ण सम्पत्ति हड़पने की नीति प्रचलित की। महाराजा ने एक विशाल सेना का संगठन करके सामन्तों को भयभीत किया। रणजीत सिंह स्वयं सामन्तों की सेना का निरीक्षण भी करते थे, जिस कारण सामन्त महाराजा से आतंकित रहते थे। महाराजा ने निरंकुश एवं स्वच्छ शासन पद्धति को अपनाया परन्तु प्रजाहित का उन्होंने सदैव ध्यान रखा। उनकी स्वेच्छाचारी नीति पर नियन्त्रण रखने के लिए भी अनेक संस्थाएँ थी। प्रथम अकालियों का संगठन तथा कुलीन वर्ग जिस पर उनकी सेना की वास्तविक शक्ति आधारित थी। उन्होंने हिन्दू एवं मुसलमानों को समान रूप से उच्च पद दिए तथा योग्यता का सदा सम्मान किया।

(iii) शासन व्यवस्था- उनके उच्चकोटि के सुव्यवस्थित शासन की अंग्रेजों ने भी प्रशंसा की है। सुविधा के लिए उन्होंने अपने राज्य को चार प्रान्तों में विभाजित किया था। ये प्रान्त कश्मीर, लाहौर, मुल्तान तथा पेशावर थे। इनका शासन नाजिम के हाथ में होता था, जिसकी नियुक्ति स्वयं महाराजा करते थे। नाजिम के नीचे कदीर होते थे। मुकद्दम, पटवारी, कानूनगो उनकी सहायता के लिए होते थे। इन सभी पदाधिकारियों को मासिक वेतन दिया जाता था। प्रान्तों पर केन्द्र का पूर्ण संरक्षण एवं नियन्त्रण था।।

(iv) राजस्व प्रबन्ध- रणजीत सिंह के साम्राज्य में भूमि कर या राजस्व व्यवस्था अविकसित तथा अवैज्ञानिक थी। जागीरदार ही सरकार और जनता के बीच की कड़ी होते थे। राज्य द्वारा लगान की कोई निश्चित दर निश्चित नहीं की गई थी। सामान्यतया लगान उत्पादन का 33% से 40% तक होता था, यह भूमि की उर्वरता के अनुसार लिया जाता था। लगान वसूल करने के लिए सरकार की ओर से मुकद्दम तथा पटवारी होते थे। चुंगी के द्वारा भी राज्य को काफी आय होती थी। विलासिता एवं आवश्यकता की वस्तुओं पर चुंगी समान रूप से लगाई जाती थी, जिससे कर का भार सम्पूर्ण जनता समान रूप से वहन करे।।

(v) सैन्य प्रबन्ध- महाराजा रणजीत सिंह ने सैनिक शक्ति पर आधारित राज्य होने के कारण एक विशाल सेना का संगठन किया। रैपल ग्रिफिन के अनुसार, “महाराजा एक बहादुर सिपाही थे-दृढ़, अल्पव्ययी, चुस्त, साहसी तथा धैर्यशील।” उनसे पहले अश्वारोही सेना का विशेष महत्व था परन्तु महाराजा ने तोपखाना तथा पैदल सेना में अत्यधिक वृद्धि की। सैन्य शिक्षण के लिए उन्होंने शिक्षित यूरोपियनों की नियुक्ति की। परिणामस्वरूप रणजीत सिंह की सेना इतनी शक्तिशाली हो गई कि अंग्रेज भी उनसे भयभीत रहते थे।

उनकी सेना में लगभग 40000 अश्वारोही तथा 40,000 पैदल तथा तोपखाना था। सैनिकों को नकद वेतन मिलता था। उनकी एक विशेष सेना फौज-ए-खास कहलाती थी। इसके संगठन का भार फ्रांसीसी सेनापति वेण्टुरा तथा एलॉर्ड के ऊपर था। उन्होंने ही इस सेना का संगठन फ्रांसीसी प्रणाली के आधार पर किया। महाराजा रणजीत सिंह ने मराठों की छापामार रण-पद्धति का परित्याग कर दिया तथा सामन्ती संगठन के आधार पर राज्य की सेना की व्यवस्था की। इस प्रकार उनकी रण-कुशल सेना अत्यन्त शक्तिशाली बन गई तथा उसी के बल पर इतना विस्तृत साम्राज्य निर्मित करने में वे सफल रहे। इसी आधार पर महाराजा रणजीतसिंह को एक कुशल प्रशासक, साहसी, योग्य तथा कार्यकुशल प्रबन्धक माना गया है।

(vi) न्याय-व्यवस्था- रणजीत सिंह ने प्राचीन न्याय-पद्धति को ही अपनाया था। उनके राज्य में लिखित कानून तथा दण्ड-व्यवस्था का सर्वथा अभाव था। अधिकांशतः ग्रामीण जनता स्वयं ही अपने झगड़ों का निर्णय कर लेती थी। कस्बों में कारदार न्याय विभाग के कर्मचारी होते थे तथा नगरों में नाजिम न्याय का कार्य करते थे। केन्द्र में सर्वोच्च न्यायालय ‘अदालत-उल आला’ होती थी। जिसका प्रधान पद महाराजा स्वयं ग्रहण करते थे। अपराधियों को अधिकतर जुर्माने का दण्ड मिलता था। प्राणदण्ड बहुत कम दिया जाता था। कारागार के दण्ड की कोई व्यवस्था नहीं थी।

महाराजा रणजीत सिंह स्वयं न्यायप्रिय थे तथा उनका न्याय निष्पक्ष होता था। मन्त्रियों को अपने विभागों के मुकदमों का निर्णय करने का अधिकार होता था। महाराजा स्वयं भी राजधानी में प्रतिदिन अपना दरबार लगाते थे और मकदमों की सनवाई करते थे। अपराधों के लिए दण्ड प्रायः कठोर दिए जाते थे। भ्रष्टाचार और घसखोरी ? का दण्ड रणजीत सिंह स्वयं दिया करते थे। कभी-कभी वे अपने कर्मचारियों को राज्य का दौरा करने तथा जनता की शिकायतें सुनने के लिए भेजा करते थे। राज्य की न्याय-व्यवस्था काफी खर्चीली थी और मुकदमों का निर्णय भी प्रायः विलम्ब से होता था। अत: जनसाधारण न्यायालयों की शरण लेने में कतराते थे।

(घ) प्रथम आंग्ल-सिक्ख युद्ध- प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध होने के निम्नलिखित कारण थे

  1. रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद सेना और शासन में जो अनुशासनहीनता और अव्यवस्था फैल गई थी, उसका लाभ उठाकर अंग्रेज कम्पनी ने राजनीतिक व सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण पंजाब को अपने साम्राज्य में मिलाने का निश्चय किया।
  2. राजा दिलीप सिंह की माता झिन्दन अत्यन्त महत्वाकांक्षी और षड्यन्त्रकारी स्त्री थी। सेना ने ही दिलीप सिंह को गद्दी पर बिठाया था और उसे संरक्षिका नियुक्त किया था। शासन पर सेना का ही वास्तविक प्रभुत्व था, जिसे हटाकर झिन्दन स्वयं वास्तविक शासक बनना चाहती थी। अतः उसने सेना के चंगुल से निकलने का यह उपाय निकाला कि उसे अंग्रेजों से उलझाकर शक्तिहीन कर दिया जाए।
  3. प्रथम अफगान युद्ध के समय अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य की सीमा पर एक विशाल सेना एकत्रित कर रखी थी। सेना की संख्या में वे लगातार वृद्धि कर रहे थे, परिणामस्वरूप सिक्खों में अंग्रेजों के विरुद्ध रोष व्याप्त हो गया था।
  4. सिक्ख साम्राज्य के कुछ प्रमुख पदाधिकारी अंग्रेजों से गुप्त पत्र-व्यवहार कर रहे थे, जिससे उन्हें सिक्खों की सैनिक कार्यवाहियों और तैयारियों का पहले से ही पता लग रहा था। इन विश्वासघातियों से अंग्रेजों को युद्ध छेड़ने का प्रोत्साहन मिला। उधर रानी झिन्दन ने भी सिक्ख सेना को अंग्रेजों के विरुद्ध भड़का रखा था।

युद्ध की घटनाएँ- दिसम्बर 1845 ई० में सिक्ख सेना ने सतलुज नदी पार करके अंग्रेजी सेना पर आक्रमण कर दिया। प्रथम संघर्ष मुदकी नामक स्थान पर हुआ, जिसमें कुछ सिक्ख नेताओं के विश्वासघात के कारण सिक्खों की हार हुई, यद्यपि वे बहुत वीरता से लड़े। 21 दिसम्बर को फिरोजशाह नामक स्थान पर दूसरा युद्ध हुआ, इसमें भी अंग्रेजों की जीत हुई। तीसरा और अन्तिम संघर्ष सुबराव के मैदान में हुआ, इसमें भी सिक्खों की आपसी फूट और विश्वासघात के कारण पराजय हुई। इन तीनों युद्धों में सिक्ख बहुत वीरता से लड़े और उन्होंने अंग्रेजों को अपार क्षति पहुँचाई, लेकिन कुछ प्रमुख सिक्ख नेताओं व सेनापतियों के विश्वासघात के कारण उनको पराजय का मुख देखना पड़ा। इसके अतिरिक्त पंजाब की अन्य सिक्ख रियासतों ने अंग्रेजों का ही साथ दिया।

लाहौर की सन्धि-1 मार्च, 1846 ई० में दोनों पक्षों के बीच सन्धि हुई, जिसकी शर्ते निम्नलिखित थीं

  • दिलीप सिंह को पंजाब का राजा और उसकी माता झिन्दन को उसकी संरक्षिका बना रहने दिया गया। अंग्रेजों ने यह आश्वासन दिया कि वे सिक्ख राज्य के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, लेकिन दिलीप सिंह की रक्षा के लिए लाहौर में एक ब्रिटिश सेना रखने की शर्त स्वीकार कर ली गई।
  • सतलुज नदी के बाईं ओर के सब क्षेत्र अंग्रेजों को मिले, जिसमें सतलुज व व्यास के मध्य के सब इलाके और काँगड़ा प्रदेश सम्मिलित थे।
  • युद्ध के हर्जाने के रूप में अंग्रेजों ने डेढ़ करोड़ रुपयों की माँग की। सिक्खों के पास इतना रुपया नहीं था, अत: उन्होंने कश्मीर की रियासत डोगरा राजा गुलाब सिंह को 75 लाख रुपए में बेच दी और वह रुपया अंग्रेजों को दे दिया। गुलाब सिंह को अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।
  • सिक्ख सेना की संख्या 30 हजार घुड़सवार व पैदल निश्चित कर दी गई।
  • सिक्खों ने वचन दिया कि बिना कम्पनी की आज्ञा के वे किसी विदेशी को अपने यहाँ नौकर नहीं रखेंगे।
  • पंजाब से अंग्रेजी सेना को गुजरने का अधिकार दिया गया।
  • लाहौर में सर हेनरी लारेंस को रेजीडेण्ट नियुक्त किया गया।

लाहौर की सन्धि अस्थायी सिद्ध हुई। हेनरी लारेंस ने राजमाता झिन्दन और लाल सिंह पर कश्मीर में विद्रोह कराने का आरोप लगाकर पदच्युत कर दिया और सिक्खों से 16 दिसम्बर, 1846 ई० को भैरोवाल की सन्धि की। इस सन्धि के अनुसार पंजाब का प्रशासन चलाने के लिए अंग्रेजों के समर्थक आठ सिक्ख सरदारों की एक संरक्षण समिति बनाई गई और हेनरी लारेंस को इसका अध्यक्ष बनाया गया। एक अंग्रेजी सेना लाहौर में रखी गई, जिसके व्यय के लिए 22 लाख रुपए वार्षिक दरबार द्वारा देना निश्चित कर दिया गया। लाल सिंह को बन्दी बनाकर देहरादून भेज दिया गया तथा झिन्दन को डेढ़ लाख रुपया वार्षिक पेंशन देकर बनारस भेज दिया गया। इस प्रकार अंग्रेजों ने पंजाब में अपना पूर्ण आधिपत्य स्थापित कर लिया।

(ङ) द्वितीय ब्रह्मा युद्ध- सामरिक दृष्टि से बर्मा की स्थिति महत्वपूर्ण होने के कारण डलहौजी इसे जीतने के लिए लालायित था। 1852 ई० में ब्रह्मा के साथ अंग्रेजों का द्वितीय युद्ध आरम्भ हो गया। अंग्रेजी सेना का नेतृत्व जनरल गॉडविन और ऑस्टिन ने किया। इस युद्ध के निम्नलिखित कारण थे
(i) अंग्रेजों का दुर्व्यवहार- ब्रह्मा के निवासी प्रथम युद्ध की पराजय से असन्तुष्ट थे तथा अंग्रेज रेजीडेण्ट का व्यवहार उनके लिए असह्य था। याण्डबू की सन्धि के फलस्वरूप रंगून में बहुत-से अंग्रेज व्यापारी बस गए थे तथा व्यापार में अत्यधिक लाभ होने पर भी वे लोग प्राय: चुंगी देने में आनाकानी करते थे।

(ii) ब्रह्मा के उत्तराधिकारी का असन्तोष-
ब्रह्मा के राजा का उत्तराधिकारी याण्डबू की सन्धि को स्वीकार करने को तत्पर नहीं था तथा रेजीडेण्ट के स्थान पर अंग्रेजों का राजदूत रखने को सहमत था। अंग्रेज व्यापारियों की मनमानी से भी वह अत्यन्त क्रुद्ध था। इसी समय कुछ अंग्रेज व्यापारियों ने ब्रह्मावासियों की हत्या कर डाली। अतः उन पर अभियोग चलाया गया। यद्यपि न्यायालय ने उनके साथ अत्यन्त उदारतापूर्ण व्यवहार किया और उनको साधारण जुर्माने का दण्ड देकर ही मुक्त कर दिया।

(iii) लॉर्ड डलहौजी की नीति-
अंग्रेज व्यापारियों ने लॉर्ड डलहौजी से ब्रह्मा की सरकार की शिकायत की। इस पर लॉर्ड डलहौजी ने एकदम यह घोषणा कर दी कि ब्रह्मा की सरकार ने याण्डबू की सन्धि भंग की है। अत: अंग्रेज व्यापारियों की क्षतिपूर्ति के लिए वह एक बड़ी धनराशि अदा करे। लॉर्ड डलहौजी का यह व्यवहार एकदम स्वेच्छाचारी था। इस पर भी ब्रह्मा की सरकार ने युद्ध रोकने के लिए 9,000 रुपए कम्पनी को दिए तथा अंग्रेजों की माँग पर रंगून के गवर्नर को भी पदच्युत कर दिया। परन्तु लॉर्ड डलहौजी तो युद्ध के लिए तैयार बैठा था। अतः उसने सेनाएँ भेजकर ब्रह्मा के विरुद्ध युद्ध की तैयारियाँ आरम्भ कर दीं।

युद्ध की घटनाएँ- रंगून में रह रहे अंग्रेजों की सुरक्षा के बहाने लैम्बर्ट ने रंगून को घेर लिया तथा ब्रह्मा के राजा के जहाज को पकड़ लिया। अपनी सुरक्षा के लिए बर्मियों को गोली चलाने के लिए विवश होना पड़ा। इस क्षतिपूर्ति के लिए ब्रह्मा की सरकार से दस लाख रुपया हर्जाना माँगा गया तथा निश्चित अवधि तक यह रकम न पहुंचने पर लॉर्ड डलहौजी ने युद्ध की घोषणा कर दी।

शीघ्र ही अंग्रेजी सेनाओं ने रंगून पर आक्रमण कर दिया। रंगून को अंग्रेजों ने बुरी तरह लूटा तथा वहाँ की जनता का भीषण संहार किया। तत्पश्चात् इरावती नदी के डेल्टा पर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया। अक्टूबर 1852 ई० तक प्रोम भी अंग्रेजों के हाथ में आ गया। इस समय लॉर्ड डलहौजी स्वयं सैन्य संचालन कर रहा था। प्रोम विजय करते ही दक्षिण ब्रह्मा पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।

युद्ध के परिणाम- दक्षिण ब्रह्मा ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। बंगाल की खाड़ी का पूर्वी तट पूर्णतया अंग्रेजों के प्रभुत्व में आ गया तथा शेष ब्रह्मा का समुद्री मार्गों से सम्बन्ध विच्छेद कर दिया गया। इस प्रान्त में अंग्रेजों को आर्थिक लाभ भी हुआ तथा उनका व्यापार भी ब्रह्मा के साथ तेजी से बढ़ने लगा।

(च) नवीन चार्टर एक्ट- 1853 ई० में 20 वर्ष पूरे हो जाने पर ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने पुन: एक नवीन चार्टर कम्पनी के लिए पारित किया। नवीन चार्टर के द्वारा निम्नलिखित संशोधन किए गए।
(i) शासनावधि में वृद्धि- इस बार 20 वर्ष की अवधि हटाकर यह नियम बनाया गया कि कम्पनी को भारत का शासन तब तक चलाने का अधिकार है, जब तक पार्लियामेण्ट यह अधिकार अपने हाथ में न ले ले। इससे कम्पनी पर पार्लियामेण्ट का प्रभुत्व बढ़ गया।

(ii) प्रतियोगिता परीक्षा की व्यवस्था- कम्पनी डायरेक्टरों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई। इनमें से 6 डायरेक्टर्स सम्राट द्वारा मनोनीत होते थे। कम्पनी की उच्च नौकरियों की नियुक्ति का अधिकार डायरेक्टरों से छीन लिया गया। अब उसके लिए प्रतियोगिता परीक्षा उत्तीर्ण करना अनिवार्य कर दिया गया।

(iii) अध्यक्ष को मन्त्रिमण्डल की सदस्यता- बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष को ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल का सदस्य बना दिया गया तथा उसके अधिकारों में वृद्धि की गई।

(iv) व्यवस्थापिका सभा- एक व्यवस्थापिका सभा का निर्माण किया गया। गवर्नर जनरल की कौंसिल के सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 12 कर दी गई और अब इसमें गवर्नर जनरल की कौंसिल के 4 सदस्य, प्रत्येक प्रान्त के प्रतिनिधि, सेनापति तथा सर्वोच्च न्यायालय के 2 न्यायाधीश होते थे।

(v) बंगाल का पृथक्करण- बंगाल का शासन गवर्नर जनरल से लेकर एक पृथक् लेफ्टिनेण्ट गवर्नर को सौंपा गया। इस प्रकार डलहौजी आधुनिकीकरण में विश्वास रखा था। कूटनीति और सैनिक प्रतिभा के सहारे उसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का अधिकतम विस्तार किया। सर रिचर्ड टेम्पल के अनुसार, “भारत के प्रशासन के लिए इंग्लैण्ड द्वारा भेजे गए प्रतिभा सम्पन्न लोगों में उसके आगे कोई निकल ही नहीं पाया, उसके समकक्ष भी शायद ही कोई ठहरता हो।’

प्रश्न 9.
लॉर्ड डलहौजी द्वारा किए गए सुधारों का वर्णन कीजिए।
या
लॉर्ड डलहौजी के चरित्र का मूल्यांकन कीजिए।
उतर:
लॉर्ड डलहौजी ने निम्नलिखित सुधार किए थे
(i) प्रशासनिक सुधार- डलहौजी ने आठ वर्ष के अपने कार्यकाल में बहुत तेजी के साथ शासन सुधार के कार्य किए। 1854 ई० में बंगाल प्रान्त के शासन का भार लेफ्टिनेण्ट गवर्नर को सौंप दिया गया। अत: डलहौजी के केन्द्रीय शासन को अलगअलग विभागों के आधार पर सुसंगठित किया तथा वह प्रत्येक विभाग का स्वयं निरीक्षण किया करता था। उसने अपनी अद्भुत कार्यक्षमता द्वारा कम्पनी के प्रशासन को स्फूर्ति प्रदान की और इसे पहले की अपेक्षा अधिक कुशल बनाया। प्रत्येक प्रान्त में कमिश्नरी तथा चीफ कमिश्नरों की नियुक्ति की गई और इन्हें गवर्नर-जनरल तथा उसकी कौंसिल के प्रति उत्तरदायी बनाया गया। प्रान्तीय सरकारों का काम मुख्यतः शान्ति एवं सुव्यवस्था स्थापित करना,

कर वसूलना तथा फौजदारी के मकदमों का निर्णय करना था। इस शासन पद्धति का उद्देश्य जनसाधारण की स्थिति में सधार करना नहीं था। लॉर्ड डलहौजी के समय जो लोकहितकारी कार्य किए गए थे, वे प्रान्तीय सरकारों द्वारा नहीं बल्कि वे केन्द्रीय सरकार द्वारा सम्पन्न हुए। प्रान्तीय सरकारों का संगठन इस तरीके से किया गया था कि इसमें कम-से-कम अफसरों से ही काम चल जाता था। जिले के प्रमुख अधिकारी को प्रशासक, राजस्व, न्याय तथा पुलिस इन सभी विभागों से सम्बन्धित कर्तव्यों का निर्वहन करना पड़ता था। कमिश्नरों और जिलाधीशों के सामने कोई निश्चित कानून नहीं थे। वह साधारणतया गवर्नर जनरल के आदेश के अनुसार कार्य करता था। लॉर्ड डलहौजी के सुधारों का मुख्य उद्देश्य केन्द्र की सत्ता को सुदृढ़ बनाना था।

(ii) रेल, डाक और तार विभाग की स्थापना- लॉर्ड डलहौजी ने रेल, डाक और तार विभाग को अत्यन्त महत्व दिया। रेलवे व्यवस्था का प्रारम्भ करने का श्रेय लॉर्ड डलहौजी को ही प्राप्त है। उसने सर्वप्रथम यातायात के साधनों की सुविधा की ओर ध्यान दिया। उसने ग्राण्ड ट्रंक रोड़ का पुनर्निर्माण कराया तथा रेल एवं डाक तथा तार की व्यवस्था की। 1853 ई० में बम्बई से थाणे तक पहली रेलवे लाइन बनी और फिर 1856 ई० में मद्रास असाकुलम तक अन्य रेलवे लाइनें बिछाई गईं। लॉर्ड डलहौजी ने सम्पूर्ण भारत के लिए रेलवे लाइन की योजना बनाई थी, जो कि बाद में सम्पन्न हो सकी। यह ध्यान रखना चाहिए कि रेलवे लाइनों के निर्माण में लॉर्ड डलहौजी का उद्देश्य ब्रिटिश उद्योग-धन्धों की उन्नति करना था, भारत की आर्थिक प्रगति की उसे चिन्ता नहीं थी। तार लाइन का निर्माण भी सर्वप्रथम लॉर्ड डलहौजी के काल में हुआ। 1853 ई० से 1856 ई० के समय में विस्तृत क्षेत्र में तार की लाइनें बिछा दी गईं, जिससे कलकत्ता और पेशावर तथा बम्बई और मद्रास के मध्य निकट सम्पर्क हो सका।

डलहौजी ने डाक-व्यवस्था की जाँच के लिए 1850 ई० में एक कमीशन नियुक्त किया और उसकी रिपोर्ट के आधार पर इसको पूर्णरूप से पुनर्गठित किया। इस विभाग के सुचारु रूप से संचालन हेतु डायरेक्टर जनरल नियुक्त किया गया। डाक-व्यवस्था को सुधारने का श्रेय भी डलहौजी को ही दिया जाता है। उसने ‘पेनी पोस्टेज प्रथा’ भारत में लागू की, जिसके अनुसार दो पैसे के टिकट के द्वारा भारत के किसी भी भाग में एक लिफाफे द्वारा समाचार भेजा जा सकता था, जिसका वजन 1/2 तोला तक हो सकता था। एक पैसे में एक पोस्टकार्ड देश के किसी भी कोने में भेजा जा सकता था।

(iii) शिक्षा सम्बन्धी सुधार- लॉर्ड डलहौजी के समय में शिक्षा में सुधार करने के लिए सर चार्ल्स वुड के नेतृत्व में एक कमीशन नियुक्त किया गया, जिसकी रिपोर्ट 1854 ई० में प्रकाशित हुई। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में शिक्षा के क्षेत्र में अनेक सुधार किए गए। सर्वप्रथम तीनों प्रेसीडेंसियों में एक-एक विश्वविद्यालय की स्थापना की गई, जिसका कार्य परीक्षा लेना था। इण्टरमीडिएट तथा डिग्री कक्षाओं के लिए कॉलेजों की व्यवस्था की गई तथा प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के लिए अनेक स्कूल खोले गए। प्राथमिक शिक्षा का माध्यम प्रान्तीय भाषा रखा गया। शिक्षा के निरीक्षण के लिए प्रत्येक प्रान्त में एक डायरेक्टर जनरल की नियुक्ति की गई। लॉर्ड डलहौजी के काल में स्त्री शिक्षा के लिए भी कुछ संस्थाएँ गठित की गईं।

(iv) सेना में सुधार- लॉर्ड डलहौजी ने सैनिक क्षेत्र में भी अनेक सुधार किए। लॉर्ड डलहौजी से पूर्व सेना का प्रमुख केन्द्र बंगाल था किन्तु पंजाब के ब्रिटिश राज्य में सम्मिलित हो जाने के कारण उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों की रक्षा करना भी अंग्रेजों के लिए अनिवार्य हो गया। फलत: पश्चिम में भी सेना का केन्द्र बनाया गया तथा मेरठ में अंग्रेजों के तोपखाने की स्थापना की गई। शिमला में सेना की छावनियाँ बनाई गईं, जहाँ पर गवर्नर जनरल अपनी कौंसिल के साथ रहता था, जिससे सेना से उसका निकट सम्पर्क रह सके। लॉर्ड डलहौजी को भारतीयों पर बिलकुल विश्वास नहीं था। अतः उसने गोरखों की एक पृथक् बटालियन बनाई तथा भारतीय सैनिकों को विभिन्न भागों में नियुक्त कर दिया। लॉर्ड डलहौजी ने तो ब्रिटिश सरकार से यह अनुरोध भी किया था कि भारत में अंग्रेज सैनिकों की संख्या बढ़ा दी जाए, जिससे भारतीय सेना द्वारा विद्रोह की कोई आशंका न रहे।

(v) सार्वजनिक कार्य- लार्ड डलहौजी से पूर्व सार्वजनिक कार्य सेना के एक बोर्ड के द्वारा होता था, जिससे नागरिक विभाग के कार्यों की उपेक्षा होती थी किन्तु इस व्यवस्था को समाप्त करके डलहौजी ने सार्वजनिक निर्माण कार्य के लिए एक स्वतन्त्र विभाग निर्मित किया जिसका प्रधान अधिकारी चीफ इंजीनियर होता था। उसकी सहायता के लिए अनेक पदाधिकारी होते थे। लॉर्ड डलहौजी से पहले सरकारी राजस्व का 10% भी सार्वजनिक निर्माण के कार्य में व्यय नहीं किया जाता था किन्तु उसने 2 करोड़ से लेकर 3 करोड़ रुपए तक इस कार्य के लिए व्यय किए, जबकि उसके समय में सरकारी आमदनी 20 करोड़ रुपए थी। सार्वजनिक निर्माण विभाग ने पुनः सड़कें, नहरें तथा पुल बनवाने का उत्तरदायित्व ग्रहण किया।

देश की भौतिक समृद्धि तथा राज्य की आय में वृद्धि हेतु नहरों और सड़कों की कितनी अधिक उपयोगिता है, इसे डलहौजी भली-भाँति समझता था। अत: सिंचाई की सबसे महत्वपूर्ण योजना, जिसका प्रारम्भ 1851 ई० में किया गया था और जो 1859 ई० में पूरी हुई, ऊपरी दोआब की नहर थी। जो रावी, सतलज और व्यास नदियों के मध्यवर्ती प्रदेश में खुदवाई गई। अपर गंगा नहर 1854 ई० में बनकर तैयार हुई। इसके अतिरिक्त मद्रास क्षेत्र में भी सिंचाई के लिए नहरों की योजना कार्यान्वित हुई। लॉर्ड डलहौजी ने ढाका से अराकान तथा कलकत्ता से लेकर शिमला तक सड़कें बनवाई थीं। भारत की ऐतिहासिक सड़क ग्राण्ड ट्रंक रोड के पुनर्निर्माण का कार्य डलहौजी के कार्यकाल में ही सम्पन्न हुआ। यह स्मरण रखना चाहिए कि लॉर्ड डलहौजी ने सड़कों और पुलों का निर्माण केरल और पंजाब प्रान्त तक ही सीमित न रखा बल्कि सम्पूर्ण देश में नहरों, सड़कों एवं पुलों का निर्माण किया गया।

(vi) व्यावसायिक सुधार- लॉर्ड डलहौजी ने स्वतन्त्र व्यापार नीति को अपनाया तथा भारत का व्यापार सबके लिए खोल दिया गया। व्यापार के क्षेत्र में अंग्रेजों का लाभ ही कम्पनी का उद्देश्य था। उसने प्रकाश स्तम्भों की मरम्मत कराई तथा बन्दरगाहों को विस्तृत एवं विशाल करवाया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत के समुद्रतट का सम्पूर्ण व्यापार अंग्रेज पूँजीपतियों के हाथ में चला गया। भारत के व्यवसाय नष्ट हो गए तथा अत्यन्त तीव्र गति से भारत में विदेशों का माल आने लगा, जिससे भारत का आर्थिक शोषण हुआ और भारतीयों की आर्थिक दशा निरन्तर दयनीय होती गई। या लॉर्ड डलहौजी के चरित्र का मूल्यांकन के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-6 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion (जनमत (लोकमत)) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion (जनमत (लोकमत)).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 6
Chapter Name Public Opinion (जनमत (लोकमत))
Number of Questions Solved 25
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion (जनमत (लोकमत))

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
लोकमत से आप क्या समझते हैं? लोकमत की अभिव्यक्ति के कौन-कौन से साधन हैं [2016]
या
जनमत-निर्माण के प्रमुख साधनों का वर्णन कीजिए। [2007, 14]
या
‘जनमत के निर्माण व प्रकट करने के साधन’ पर टिप्पणी लिखिए।
या
जनमत से आप क्या समझते हैं ? स्वस्थ जनमत-निर्माण के आवश्यक साधनों का वर्णन कीजिए। [2007, 09, 12, 13, 14]
या
जनमत के विभिन्न साधनों का उल्लेख कीजिए। [2011, 12, 13, 14]
उत्तर
जनमत (लोकमत) का अर्थ व परिभाषा
साधारण शब्दों में, लोकमत अथवा जनमत का अर्थ सार्वजनिक समस्याओं के सम्बन्ध में जनता के मत से है। आधुनिक प्रजातान्त्रिक युग में लोकमत का विशेष महत्त्व है। डॉ० आशीर्वादम् ने लोकमत के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “जागरूक व सचेत लोकमत स्वस्थ प्रजातन्त्र की प्रथम आवश्यकता है।”
विभिन्न विद्वानों ने जनमत की परिभाषाएँ निम्नवत् दी हैं-

  1. लॉर्ड ब्राइस का मत है कि “सार्वजनिक हित से सम्बद्ध किसी समस्या पर जनता के सामूहिक विचारों को जनमत कहा जा सकता है।”
  2. डॉ० बेनी प्रसाद के शब्दों में, “केवल उसी राय को वास्तविक जनमत कहा जा सकता है जिसका उद्देश्य जनता का कल्याण हो। हम कह सकते हैं कि सार्वजनिक मामलों पर बहुसंख्यक का वह मत जिसे अल्पसंख्यक भी अपने हितों के विरुद्ध नहीं मानते, जनमत कहलाता है।

उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी विषय पर अधिकांश जनता के उस मत को लोकमत अथवा जनमत कहा जाता है जिसमें लोक-कल्याण की भावना निहित हो।

जनमत के निर्माण के साधन
जनमत के निर्माण और उसकी अभिव्यक्ति में अनेक साधन सहायक होते हैं। कुछ मुख्य साधन निम्नलिखित हैं-

  1. समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएँ – जनमत के निर्माण में सबसे प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण अंग प्रेस है। प्रेस के अन्तर्गत समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ तथा अन्य प्रकार का साहित्य आ जाता है। एक विचारक ने इनको आधुनिक सभ्यता का प्रकाश स्तम्भ और प्रजातन्त्र के धर्म-ग्रन्थ कहकर पुकारा है।
  2. सार्वजनिक भाषण – जनमत के निर्माण में सार्वजनिक मंचों पर नेताओं या व्यक्ति-विशेष द्वारा दिये जाने वाले भाषणों का विशेष महत्त्व होता है। इन भाषणों के द्वारा जनता को राजनीतिक शिक्षा प्राप्त होती है और वह सार्वजनिक समस्याओं के प्रति जागरूक बनती है।
  3. शिक्षण संस्थाएँ – स्कूल, कॉलेज व विश्वविद्यालय जैसी शिक्षण संस्थाएँ भी प्रबुद्ध जनमत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। शिक्षण संस्थाएँ विद्यार्थियों में नागरिक चेतना जाग्रत करती हैं और उनके चरित्र-निर्माण में सहायक होती हैं।
  4. राजनीतिक दल – राजनीतिक दल जनमत-निर्माण के सशक्त साधन माने जाते हैं। विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने विचारों तथा कार्यक्रमों को जनता के सामने रखते हैं। इससे जनता को अपना मत बनाने में बड़ी सहायता प्राप्त होती है।
  5. रेडियो, सिनेमा व दूरदर्शन – प्रचार की दृष्टि से रेडियो तथा टेलीविजन प्रेस से भी सशक्त माध्यम हैं। किसी महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक घटना की जानकारी रेडियो तथा दूरदर्शन द्वारा करोड़ों लोगों तक पहुँच जाती है। इसके माध्यम से संसार के विभिन्न भागों के लोग एक ही समय में किसी लोकप्रिय नेता का भाषण अथवा किसी सार्वजनिक विषय पर वाद-विवाद सुन सकते हैं।
  6. निर्वाचन – जनमत के निर्माण में निर्वाचन का भी महत्त्व है। निर्वाचन के समय विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने कार्यक्रमों एवं नीतियों के सम्बन्ध में जनता को जानकारी देकर जनमत को अपने पक्ष में करने का प्रयास करते हैं, किन्तु जनता उसी दल के प्रत्याशी को अपना मत देती है जिसके कार्यक्रमों और नीतियों को वह देश-हित में अच्छा समझती है।
  7. व्यवस्थापिका सभाएँ – व्यवस्थापिका सभाएँ भी जनमत के निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं। व्यवस्थापिका सभाओं में विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि जाते हैं। व्यवस्थापिका सभाओं में होने वाले वाद-विवाद से सम्पूर्ण जनता को देश की महत्त्वपूर्ण समस्याओं के सभी पक्षों का समुचित ज्ञान प्राप्त होता है, जिसके आधार पर उन्हें अपना मत निर्धारित करने में सहायता मिलती है।
  8. धार्मिक संस्थाएँ – लोकमत के निर्माण में धार्मिक संस्थाएँ भी अपना योगदान देती हैं। इसका प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति के चरित्र, विचारों और उसके कार्यों पर पड़ता है। हमारे देश में आर्य समाज, कैथोलिक चर्च, अकाली दल आदि अनेक संस्थाओं ने भी अपने प्रचार द्वारा लोकमत को प्रभावित किया है।
  9. साहित्य – साहित्य भी जनमत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। साहित्य के अध्ययन से जनता के विचारों की संकीर्णता दूर होती है और स्वस्थ जनमत के निर्माण में सहायता मिलती है।
  10. अफवाहें – आधुनिक युग में अफवाहें भी जनमत–निर्माण में योगदान देती हैं। कभी-कभी सच्चाई का पता लगाने हेतु जान-बूझकर अफवाहें भी फैला दी जाती हैं। पत्रकार ऐसी अफवाहों को फीलर (Feeler) के नाम से पुकारते हैं। 1942 ई० में गाँधी जी को किसी अज्ञात स्थान पर नजरबन्द किया गया था। समाचार-पत्रों ने उनकी बीमारी, अनशन आदि अफवाहें छापना प्रारम्भ कर दिया, जिसका जनमत पर व्यापक प्रभाव पड़ा और बाद में सरकार को यह स्पष्ट करना पड़ा कि गाँधी जी कहाँ पर नजरबन्द हैं।

प्रश्न 2.
जनमत से आप क्या समझते हैं ? स्वस्थ जनमत के विकास के मार्ग की प्रमुख बाधाओं का वर्णन कीजिए। [2007, 09, 12]
या
जनमत से आप क्या समझते हैं ? स्वस्थ जनमत के निर्माण की आवश्यक दशाओं का वर्णन कीजिए। [2007, 09, 12]
या
लोकतन्त्र की सफलता की आवश्यक शर्ते क्या हैं? लोकतन्त्र के विरुद्ध बाधाओं को रेखांकित कीजिए। [2016]
या
स्वस्थ जनमत के निर्माण में कौन-सी बाधाएँ आती हैं ? लिखिए। [2012, 14]
उत्तर
(संकेत-जनमत से अभिप्राय के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का उत्तर देखें।)
स्वस्थ जनमत-निर्माण की प्रमुख बाधाएँ।
(लोकतन्त्र के विरूद्ध बाधाएँ)
स्वस्थ जनमत के निर्माण में अनेक बाधाएँ आती हैं, जिनमें प्रमुख बाधाएँ इस प्रकार हैं-

1. निर्धनता और भीषण आर्थिक असमानताएँ – जब समाज के कुछ व्यक्ति बहुत अधिक निर्धन होते हैं, तो इनका सारा समय और शक्ति दैनिक जीवन की आवश्यकताओं के साधन जुटाने में ही चली जाती है और ये सार्वजनिक हित की बातों के सम्बन्ध में विचार नहीं कर पाते। इसी प्रकार जब समाज के अन्तर्गत भीषण आर्थिक असमानताएँ विद्यमान होती हैं, तो इन असमानताओं के परिणामस्वरूप वर्ग-विद्वेष और वर्ग-संघर्ष की भावना उत्पन्न हो जाती है। जब धनी और निर्धन वर्ग एक-दूसरे को अपना निश्चित शत्रु मान लेते हैं तो वे प्रत्येक बात के सम्बन्ध में सार्वजनिक हित की दृष्टि से नहीं, वरन् वर्गीय हित की दृष्टि से विचार करते हैं।

2. निरक्षरता और दूषित शिक्षा-प्रणाली – स्वस्थ लोकमत के निर्माण के लिए यह जरूरी है कि व्यक्ति समाचार-पत्र पढ़े, विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करे और उनके द्वारा परस्पर विचारों का आदान-प्रदान किया जाए, लेकिन ये सभी कार्य पढ़े-लिखे व्यक्तियों द्वारा ही ठीक प्रकार से किये जा सकते हैं, इसलिए निरक्षरता लोकमत के निर्माण के मार्ग की एक बहुत बड़ी बाधा है। स्वस्थ लोकमत के निर्माण हेतु न केवल शिक्षित, वरन् ऐसे नागरिक होने चाहिए। जो स्वतन्त्र रूप से विचार कर सकें और जिनमें सामान्य सूझबूझ हो। इस दृष्टि से दूषित शिक्षा-प्रणाली भी लोकमत के मार्ग की उतनी ही बड़ी बाधा है जितनी कि निरक्षरता।

3. पक्षपातपूर्ण समाचार-पत्र – समाचार-पत्र स्वस्थ लोकमत के निर्माण का कार्य उसी समय कर सकते हैं, जब वे निष्पक्ष हों, लेकिन यदि समाचार-पत्रों पर सरकार को अधिकार हो अथवा वे किन्हीं धनी व्यक्तियों या राजनीतिक दलों के प्रभाव में हों, तो इन पक्षपातपूर्ण समाचार-पत्रों के द्वारा स्वस्थ लोकमत के निर्माण का कार्य ठीक प्रकार से नहीं किया जा सकता। पक्षपातपूर्ण समाचार-पत्र लोकमत को पूर्णतया विकृत कर देते हैं।

4. दोषपूर्ण राजनीतिक दल – यदि राजनीतिक दल आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रम पर आधारित हों, तो ये राजनीतिक दल लोकमत के निर्माण में बहुत अधिक सहायक सिद्ध होते हैं, लेकिन जब इन राजनीतिक दलों का निर्माण जाति और भाषा के प्रश्नों के आधार पर किया जाता है, तो इन दलों के द्वारा धर्म, जाति और भाषा पर आधारित विभिन्न वर्गों के बीच संघर्षों को जन्म देने का कार्य किया जाता है। ये दोषपूर्ण राजनीतिक दल लोकमत के मार्ग को पूर्णतया भ्रष्ट कर देते हैं।

5. सार्वजनिक जीवन के प्रति उदासीनता और राजनीतिक चेतना का अभाव – स्वस्थ लोकमत के निर्माण हेतु आवश्यक है कि जनता सार्वजनिक जीवन में रुचि ले और जनता द्वारा सार्वजनिक जीवन को अपने पारिवारिक जीवन के समान ही समझा जाए, लेकिन जब जनता सार्वजनिक जीवन में कोई रुचि नहीं लेती, कोऊ नृप होउ, हमें का हानि’ का दृष्टिकोण अपना लेती है और अपने अधिकार तथा कर्तव्यों को नहीं समझती, तो ऐसी स्थिति में स्वस्थ लोकमत के निर्माण की आशा नहीं की जा सकती है।

6. वर्गीयता तथा साम्प्रदायिकता – वर्गीयता, जातिवाद, साम्प्रदायिकता आदि भावनाएँ स्वार्थपरता, असहिष्णुता और संकुचित दृष्टिकोण को जन्म देती हैं, जिनसे स्वस्थ जनमत के निर्माण में बाधा पहुँचती है।

स्वस्थ जनमत के निर्माण की बाधाओं को दूर करने के उपाय
(लोकतन्त्र की सफलता की आवश्यक शर्ते)
स्वस्थ जनमत-निर्माण के लिए विशेष अवस्थाओं की आवश्यकता होती है। स्वस्थ जनमत के निर्माण में जो बाधाएँ आती हैं, उनको दूर करके सही अवस्थाओं को उत्पन्न किया जा सकता है। ऐसा करने के लिए निम्नलिखित अवस्थाएँ आवश्यक है-

  1. शिक्षित नागरिक – शुद्ध जनमत-निर्माण के लिए प्रत्येक नागरिक को शिक्षित होना आवश्यक है। शिक्षित नागरिक ही देश की समस्याओं को समझ सकता है। वह नेताओं के भड़कीले भाषणों को सुनकर अपने मत का निर्माण नहीं करता।
  2. निष्पक्ष प्रेस – शुद्ध जनमत-निर्माण के लिए निष्पक्ष प्रेस का होना भी आवश्यक है। प्रेस दलों और पूँजीपतियों से स्वतन्त्र होनी चाहिए, ताकि वह सच्चे समाचार दे सके। स्वस्थ जनमत-निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि प्रेस ईमानदार, निष्पक्ष और संकुचित साम्प्रदायिक भावनाओं से ऊपर हो।
  3. गरीबी का अन्त – स्वस्थ जनमत-निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि गरीबी का अन्त किया जाये, जनता को भरपेट भोजन मिले और मजदूरों का शोषण न हो तथा समाज में आर्थिक समानता हो।
  4. आदर्श शिक्षा-प्रणाली – देश की शिक्षा-प्रणाली आदर्श होनी चाहिए ताकि विद्यार्थियों को दृष्टिकोण व्यापक बन सके और वे धर्म, जाति और क्षेत्र से ऊपर उठकर देश के हित में सोच सकें तथा आदर्श नागरिक बन सके।
  5. राजनीतिक दल आर्थिक तथा राजनीतिक सिद्धान्तों पर आधारित – स्वस्थ जनमतनिर्माण में राजनीतिक दलों का विशेष हाथ होता है। राजनीतिक दल धर्म व जाति पर आधारित न होकर आर्थिक तथा राजनीतिक सिद्धान्तों पर आधारित होने चाहिए।
  6. भाषण तथा विचार व्यक्त करने की स्वतन्त्रता – शुद्ध जनमत-निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि नागरिकों को भाषण देने तथा अपने विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता हो। यदि भाषण देने की स्वतन्त्रता नहीं होगी तो साधारण नागरिक को विद्वानों और नेताओं के विचारों का ज्ञान न होगा, जिससे स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं हो सकेगा।
  7. नागरिकों का उच्च चरित्र – स्वस्थ जनमत-निर्माण के लिए नागरिकों का चरित्र ऊँचा होना चाहिए। नागरिकों में सामाजिक एकता की भावना होनी चाहिए और उन्हें प्रत्येक समस्या पर राष्ट्रीय हित से सोचना चाहिए। उच्च चरित्र का नागरिक अपना मत नहीं बेचता और न ही झूठी बातों का प्रचार करता है। वह उन्हीं बातों तथा सिद्धान्तों का साथ देता है, जिन्हें वह ठीक समझता है।
  8. अफवाह के लिए दण्ड की व्यवस्था – मिथ्या प्रचार और अफवाह फैलाने वाले तत्वों के लिए दण्ड की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। झूठी अफवाहों का तत्काल ही खण्डन किया जाना चाहिए।
  9. राष्ट्रीय आदर्शों की समरूपता – स्वस्थ जनमत के निर्माण के लिए एक अनिवार्य तत्त्व यह है कि राष्ट्र के राज्य सम्बन्धी आदर्शों में जनता के मध्य अत्यधिक मतभेद न हो। इसके साथ ही राष्ट्रीय तत्त्वों में विभिन्नता कम होनी चाहिए। जिस राष्ट्र में धर्म, भाषा, संस्कृति, प्राचीन इतिहास तथा राजनीतिक परम्पराओं के मध्य विभिन्नता होगी, वहाँ इन विषयों से सम्बद्ध सार्वजनिक नीतियों के सम्बन्ध में स्वस्थ जनमत के निर्माण में बाधा पहुँचती है।
  10. साम्प्रदायिकता और संकीर्णता का अभाव – जिस देश में लोग जात-पात, धर्म, नस्ल आदि संकीर्ण विचारों को महत्त्व देते हैं वहाँ स्वस्थ लोकमत का विकास नहीं हो सकता।
  11. न्यायप्रिय बहुमत व सहनशील अल्पमत – यदि बहुमत की प्रवृत्ति अपने आपको ध्यान में रखकर विचार करने की हो जाती है तो निश्चय ही अल्पमत उदासीन होकर असंवैधानिक मार्ग को अपना लेते हैं। स्वार्थी बहुमत व विद्रोही अल्पमत लोकमत के स्वरूप को भ्रष्ट कर देता है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion

प्रश्न 3.
जनतन्त्र (लोकतन्त्र) के प्रहरी के रूप में जनमत का महत्त्व समझाइए। [2010, 11, 12, 15]
या
जनमत क्या है? भारतीय राजनीति में इसकी भूमिका का विवेचन कीजिए।
या
प्रजातन्त्रीय शासन व्यवस्था में जनमत के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए। [2010, 11, 12, 15]
या
जनमत से आप क्या समझते हैं? आधुनिक लोकतन्त्र में जनमत की भूमिका की विवेचना कीजिए। [2016]
(संकेत-जनमत से अभिप्राय के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 का उत्तर देखें।)
उत्तर
लोकतन्त्र में राज्य-प्रबन्ध सदा लोगों की इच्छानुसार चलता है। अत: प्रत्येक राजनीतिक दल और सत्तारूढ़ दल लोकमत को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करता है। जैसा कि ह्यूम ने कहा है, “सभी सरकारें चाहे वे कितनी भी बुरी क्यों न हों, अपनी सत्ता के लिए लोकमत पर निर्भर होती हैं।” लोकमत के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु को शासन का आधार बनाकर कभी कोई शासन नहीं कर सकता। जिस राजनीतिक दल की विचारधारा लोगों को अच्छी लगती है, लोग उसे शक्ति देते हैं।”
लोकमत या जनमत का महत्त्व : जनतन्त्र के प्रहरी के रूप में

1. लोकतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली में सरकार का आधार जनमत होता है- सरकार जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा बनायी जाती है। कोई भी सरकार जनमत के विरुद्ध नहीं जा सकती। सरकार सदैव जनमत को अपने पक्ष में बनाये रखने के लिए जनता में अपनी नीतियों का प्रसार करती रहती है। विपक्षी दल जनमत को अपने पक्ष में मोड़ने का सदैव प्रयत्न करते रहते हैं ताकि सत्तारूढ़ दल को हटाकर अपनी सरकार बना सकें। जो सरकार जनमत के विरोध में काम करती है वह शीघ्र ही हटा दी जाती है। यदि लोकतन्त्रीय सरकार लोकमत के विरुद्ध कानून पारित कर देती है तो उस कानून को सफलता प्राप्त नहीं होती है। यदि हम लोकमत को लोकतन्त्रात्मक सरकार की आत्मा कहें तो गलत न होगा।

2. जनमत सरकार का मार्गदर्शन करता है- जनमत लोकतन्त्रात्मक सरकार का आधार ही नहीं, बल्कि लोकतन्त्र सरकार का मार्गदर्शक भी है। डॉ० आशीर्वादम् के अनुसार, “जागरूक और सचेत जनमत स्वस्थ प्रजातन्त्र की प्रथम आवश्यकता है।” जनमत सरकार को रास्ता भी दिखाता है कि उसे क्या करना है और किस तरह करना है। सरकार कानूनों का निर्माण करते समय जनमत का ध्यान अवश्य रखती है। यदि सरकार को पता हो कि किसी कानून का जनमत विरोध करेगा तो सरकार कानून को वापस ले लेती है।

3. जनमत प्रतिनिधियों की निरंकुशता को नियन्त्रित करता है- लोकतन्त्र में जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनकर भेजती है और जनमत जिस दल के पक्ष में होगा उसी दल की सरकार बनती है। कोई भी प्रतिनिधि अथवा मन्त्री अपनी मनमानी नहीं कर सकता। उन्हें सदैव जनमत का डर रहता है। प्रतिनिधि को पता रहता है कि यदि जनमत उसके विरुद्ध हो गया तो वह चुनाव नहीं जीत सकेगा। इसीलिए प्रतिनिधि सदा जनमत के अनुसार कार्य करता है। इस प्रकार जनमत प्रतिनिधियों को तथा सरकार को मनमानी करने से रोकता है।

4. जनमत नागरिक अधिकारों की रक्षा करता है- लोकतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली में नागरिकों को राजनीतिक एवं सामाजिक अधिकार प्राप्त होते हैं। इन अधिकारों की रक्षा जनमत के द्वारा की जाती है। जनमत सरकार को ऐसा कानून नहीं बनाने देता जिससे जनता के अधिकारों में हस्तक्षेप हो। जब सरकार कोई ऐसा कार्य करती है जिससे जनता की स्वतन्त्रता समाप्त हो तो लोकमत उस सरकार की कड़ी आलोचना करता है।

5. जनमत सरकार को शक्तिशाली एवं दृढ़ बनाता है- जनमत से सरकार को बल मिलता है और वह दृढ़ बन जाती है। जब सरकार को यह विश्वास हो कि जनमत उसके साथ है। तो वह दृढ़तापूर्वक कदम उठा सकती है और प्रगतिशीलता की ओर काम भी कर सकती है। जनमत तो सरकार का आधार होता है और वह शासक को शक्तिशाली बना देता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि लोकतन्त्र शासन-प्रणाली में जनमत का विशेष महत्त्व है। सरकार का आधार जनमत ही होता है और जनमते ही सरकार को रास्ता दिखाता है। सरकार जनमत की अवहेलना नहीं कर सकती और यदि करती है तो उसे आने वाले चुनावों से हटा दिया जाता है। इसीलिए सभी विचारकों का लगभग यही मत है कि लोकतन्त्र के लिए एक सचेत जनमत पहली आवश्यकता है। गैटिल के शब्दों में, “लोकतन्त्रात्मक शासन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि लोकमत कितना सबल है तथा सरकार के कार्यों और नीतियों को किस सीमा तक नियन्त्रित कर सकता है।”

लोकमत के निर्माण में राजनीतिक दलों का योगदान
जनमत के निर्माण में राजनीतिक दल बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रखते हैं। फाइनर के अनुसार, दलों के अभाव में मतदाता या तो नपुंसक हो जायेंगे या विनाशकारी, जो ऐसी असम्भव नीतियों का पालन करेंगे जिससे राजनीतिज्ञ ध्वस्त हो जायेंगे।” जिस राजनीतिक दल के पक्ष में जनमत होता है वही दल शासन पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लेता है। इसीलिए प्रत्येक दल जनमत को अपने पक्ष में रखने का प्रयत्न करता है। जनमतं के निर्माण में राजनीतिक दल निम्नलिखित विधियों से अपना योगदान देते हैं-

1. देश की विभिन्न समस्याओं पर अपने विचार और कार्यक्रमों का प्रस्तुतीकरण – राजनीतिक दल लोगों के सामने देश की विभिन्न समस्याओं पर अपने विचार रखते हैं। और उन समस्याओं को हल करने के लिए अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार राजनीतिक दल जनता का ध्यान देश की महत्त्वपूर्ण समस्याओं की ओर आकर्षित करते हैं। राजनीतिक दल आकर्षक और रचनात्मक कार्यक्रम बनाकर जनमत को अपनी ओर करने का प्रयत्न करते हैं। राजनीतिक दल जनमत को एक विशेष ढाँचे में ढालने का प्रयास करते

2. सार्वजनिक सभाएँ – राजनीतिक दल जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए सार्वजनिक सभाएँ करते हैं। सत्तारूढ़ दल अपनी नीतियों और किये गये कार्यों की प्रशंसा करता है। और विरोधी दल सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों की आलोचना करते हैं। राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा सार्वजनिक सभाओं में दिये गये भाषण समाचार-पत्रों में छपते हैं। इससे जनता को विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं के विचारों को पढ़ने-सुनने का अवसर मिलता है। चुनाव के दिनों में विशेषकर राजनीतिक दल विशाल और छोटी-छोटी सार्वजनिक सभाएँ करते हैं, जिससे लोकमत प्रभावित होता है।

3. दल का साहित्य – राजनीतिक दल जनमत का निर्माण करने में केवल भाषणों तक ही सीमित नहीं रहते, बल्कि वे दल का साहित्य भी जनता में बाँटते हैं। इस साहित्य के द्वारा राजनीतिक दल अपने उद्देश्य, अपनी नीतियों और सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं। बहुत-से राजनीतिक दल अपने समाचार-पत्र भी निकालते हैं। इन सभी साधनों द्वारा राजनीतिक दल अपने विचार जनता और सरकार तक पहुँचाते हैं और जनमत के निर्माण में सहायता करते

4. जनता को राजनीतिक शिक्षा – राजनीतिक दल जनता में राजनीतिक जागृति उत्पन्न करते हैं तथा जनता को राजनीतिक शिक्षा देते हैं। ये सरकार और जनमत के बीच की कड़ी का काम तथा जनता को राजनीतिक गतिविधियों से भी परिचित कराते हैं।

5. विधानमण्डल में बाद-विवाद – राजनीतिक दल व्यवस्थापिका में वाद-विवाद करते हुए अपने विचार प्रकट करते हैं। यही विचार रेडियो और समाचार-पत्रों द्वारा जनता तक पहुँचते हैं। इन विचारों का भी जनमत के निर्माण में काफी प्रभाव पड़ता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
जनमत-निर्माण में सहायक चार साधनों का उल्लेख कीजिए। [2011, 12, 14]
या
स्वस्थ लोकमत के निर्माण में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (टी०वी० चैनल्स आदि) की भूमिका का परीक्षण कीजिए। [2010, 11, 12, 14]
उत्तर
जनमत-निर्माण में सहायक चार साधन निम्नवत् हैं-

1. शिक्षण संस्थाएँ – जनमत के निर्माण में शिक्षण संस्थाएँ महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती हैं। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति लोकहित का महत्त्व समझ चुका होता है तथा स्वस्थ एवं प्रबुद्ध जनमत का निर्माण करने योग्य हो जाता है। शिक्षण संस्थाओं में अनेक प्रकार के समाचार-पत्र व पत्रिकाएँ आती हैं जिनको विद्यार्थी पढ़ते हैं तथा विभिन्न घटनाओं के सम्बन्ध में विचार विमर्श करते हैं एवं अनेक प्रकार की नवीन जानकारी प्राप्त करते हैं। शिक्षण संस्थाओं में प्रमुख राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं पर सेमिनार, सिम्पोजियम तथा वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का आयोजन भी किया जाता है।

2. जनसंचार के साधन – रेडियो, सिनेमा और टी०वी० भी जनमत के निर्माण में पर्याप्त सहयोग देते हैं। रेडियो एवं टी०वी० पर समाचारों के प्रसारण के साथ-साथ देश के प्रमुख नेताओं के मत एवं भाषण प्रसारित किये जाते हैं। महत्त्वपूर्ण विषयों पर संगोष्ठियों, परिचर्चाओं आदि का प्रसारण भी प्रबुद्ध जनमत का निर्माण करता है। इस प्रकार साधारण जनता बड़ी सरलता से देश के बड़े नेताओं और विद्वानों के विचारों से अवगत करता है। इस प्रकार साधारण जनता बड़ी सरलता से देश के बड़े नेताओं और विद्वानों के विचारों से अवगत हो जाती है और अपना मत (जनमत) निर्धारित करने का प्रयास करती है।

3. समाचार-पत्र एवं पत्र-पत्रिकाएँ – समाचार-पत्र एवं पत्र-पत्रिकाएँ जनमत को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण सहयोग देते हैं। इनमें देश-विदेश की नीतियों, घटनाओं, शासन व्यवस्थाओं का वर्णन होता है, जिन्हें पढ़कर जनता अपना मत निर्धारित करती है। इस प्रकार समाचारपत्र साधारण जनता के लिए प्रकाश-स्तम्भ का कार्य करते हैं। जैसा कि गैटिल ने लिखा है-“समाचार-पत्र अपने समाचारों और सम्पादकीय शीर्षकों के माध्यम से तथ्यों का उल्लेख करते हैं।” नेपोलियन ने भी कहा था-“एक लाख तलवारों की अपेक्षा मुझे तीन समाचार पत्रों से अधिक भय है।”

4. राजनीतिक साहित्य – जनमत निर्माण एवं उसको अभिव्यक्त करने की दृष्टि से राजनीतिक साहित्य भी एक अच्छा साधन है। अनेक राजनीतिक दल अपने मत, नीतियों तथा देश की. सामाजिक समस्याओं को व्यक्त करने हेतु राजनीतिक साहित्य का प्रकाशन करते हैं। ऐसे साहित्य में निर्वाचन से पहले प्रकाशित होने वाले घोषणा-पत्रों का विशेष महत्त्व होता है क्योंकि जनता उनके माध्यम से दलों की नीतियों एवं योजनाओं से परिचित होकर अपना मत तय करने में सफल होती है। यह मत अन्ततोगत्वा जनादेश या जनमत का निर्माण करता है।

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प्रश्न 2.
जनमत के महत्त्व को लिखिए। [2010, 11, 12, 14]
या
आधुनिक जनतन्त्र में जनमत की भूमिका को संक्षेप में समझाइए।
उत्तर
आधुनिक जनतन्त्र में जनमत की भूमिका
सामान्य रूप से सभी शासन व्यवस्थाओं में जनमत अथवा लोकमत की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, परन्तु प्रजातन्त्र अथवा जनतन्त्र में इसका विशेष महत्त्व होता है। प्रजातान्त्रिक शासन जनमत से ही अपनी शक्ति प्राप्त करता है तथा उसी पर आधारित होता है। इसीलिए जनमत को जनतन्त्र का आधार कहा जाता है। संगठित जनमत ही जनतन्त्र की सफलता तथा सार्थकता की आधारशिला हैं। जनतन्त्र में जनमत की भूमिका को निम्नलिखित आधारों पर स्पष्ट किया जा सकता है।

  1. शासन की निरंकुशता पर नियन्त्रण – जनतन्त्र में शासन की निरंकुशता पर जनमत के द्वारा नियन्त्रण रखने का कार्य किया जाता है। जनतन्त्र में सरकार को स्थायी बनाने के लिए जनमत के समर्थन तथा सहमति की आवश्यकता होती है। जनमत के बल पर ही सरकारें बनती तथा बिगड़ती हैं।
  2. सरकारी अधिकारियों पर नियन्त्रण – जनमत द्वारा सरकारी अधिकारियों की आलोचना से उन पर नियन्त्रण रखा जाता है।
  3. सरकार का पथ-प्रदर्शन – जनतन्त्र में जनमत सरकार का पथ-प्रदर्शन करता है। जनमत से सरकार को इस बात की जानकारी होती है कि जनता किस प्रकार की व्यवस्था चाहती है। तथा उसके हित में किस प्रकार के कानूनों का निर्माण किया जाए।
  4. सरकार का निर्माण और पतन – जनमत जनतन्त्र का आधार है। जनतन्त्र में सरकार को निर्माण और पतन जनमत पर ही निर्भर करता है। जनमत का सम्मान करने वाला दल सत्ता प्राप्त करता है तथा पुनः सत्ता प्राप्त करने का अवसर बनाए रखता है। जनमत की अवहेलना करने पर शासक दल का स्थान विरोधी दल ले लेता है। ई०बी० शुल्ज के शब्दों में, “जनमत एक प्रबल सामाजिक शक्ति है, जिसकी अवहेलना करने वाला राजनीतिक दल स्वयं अपने लिए संकट आमन्त्रित करता है।”
  5. जनता और सरकार में समन्वय – जनमत जनता और सरकार के विचारों में समन्वय स्थापित करने की एक कड़ी है।
  6. नागरिक अधिकारों का रक्षक – जनमत नागरिकों के अधिकारों और स्वतन्त्रता का भी रक्षक होता है। जागरूक और सचेत जनमत शासक वर्ग को जनता के विचारों से परिचित रखता है। इस प्रकार जनमत नागरिकों के अधिकारों और स्वतन्त्रता की रक्षा करता है। स्वतन्त्रता तथा अधिकारों की रक्षा के लिए जागरूक जनमत की आवश्यकता होती है।
  7. राजनीतिक जागरूकता उत्पन्न करना – जनमत नागरिकों में राजनीतिक जागरूकता उत्पन्न करता है। जनमत से प्रेरित राजनीतिक जागरूकता ही जनतन्त्र का वास्तविक आधार होती है। जनमत द्वारा ही जन-सहयोग प्राप्त किया जाता है।
  8. नैतिक तथा सामाजिक व्यवस्था की रक्षा – जनमत का सामाजिक क्षेत्र में भी अत्यधिक महत्त्व है। जनमत नैतिक तथा सामाजिक व्यवस्था की रक्षा करता है और नागरिकों का ध्यान महत्त्वपूर्ण सामाजिक प्रश्नों तथा समस्याओं की ओर आकृष्ट करता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जनतन्त्र में जनमत का बहुत अधिक महत्त्व है। गैटिल के अनुसार-“जनतान्त्रिक शासन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि जनमत कितना सबल है। तथा सरकार के कार्यों तथा नीतियों को किस सीमा तक नियन्त्रित कर सकता है।” डॉ० आशीर्वादम् के अनुसार, “जागरूक और सचेत जनमत स्वस्थ जनतन्त्र की प्रथम आवश्यकता है। वास्तव में प्रबुद्ध जनमत लोकतन्त्र का पहरेदार है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
लोकमत की कोई दो विशेषताएँ लिखिए। [2012]
या
जनमत अथवा लोकमत की विशेषताएँ (लक्षण) बताइए।
उत्तर
जनमत अथवा लोकमत की परिभाषाएँ यद्यपि एक-दूसरे से भिन्न हैं फिर भी वे उसकी प्रमुख तीन विशेषताओं को स्पष्ट रूप से प्रकट करती हैं-

1. जनसाधारण का मत – जनमत के लिए यह आवश्यक है कि वह जनसाधारण का मत हो। किसी विशेष वर्ग अथवा व्यक्तियों का मत जनमत नहीं हो सकता। विलहेम बोयर ने ठीक ही कहा है कि, “जनमत किसी गुट विशेष का विचार एवं सिद्धान्त मात्र न होकर जनसाधारण की सामूहिक आस्था और विश्वास होता है।”

2. लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित – जनमत की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक विशेषता लोक-कल्याण की भावना होती है। डॉ० बेनी प्रसाद ने कहा है कि “वही मत वास्तविक जनमत होता है जो जन-कल्याण की भावना से प्रेरित हो।” इसी बात को लॉवेल ने इन शब्दों में कहा है कि “जनमत के लिए केवल बहुमत ही पर्याप्त नहीं होता और न ही एक मत की आवश्यकता होती है। किसी भी मत को जनमत का रूप धारण करने के लिए ऐसा होना चाहिए जिसमें चाहे अल्पमत भागीदार न हो, परन्तु भय के कारण नहीं, वरन् दृढ़ विश्वास के कारण स्वीकार करता हो।’

3. विवेक पर आधारित स्थायी विचार – जनमत भावनाओं के अस्थिर आवेग या एक समयविशेष में प्रचलित विचार पर आधारित नहीं होता, अपितु उसका आधार जनता के विवेकपूर्ण और स्थायी विचार होते हैं। स्थायित्व जनमत को अनिवार्य लक्षण है।

प्रश्न 2.
लोकमत की विशेषताओं पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर
लोकमत अथवा जनमत की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं-

  1. यह जनसाधारण के बहुसंख्यक भाग का मत होता है।
  2. यह विवेक पर आधारित मत होता है।
  3. यह लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित होता है।
  4. यह सर्वथा निष्पक्ष होता है।
  5. यह नैतिकता और न्याय की भावना पर आधारित होता है।
  6. जनता की संगठित शक्ति का प्रतीक है।

प्रश्न 3.
समाचार-पत्रों को लोकतन्त्र का चतुर्थ स्तम्भ क्यों कहा गया है ?
उत्तर
समाचार-पत्र एवं प्रेस जनमत के निर्माण के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। समाचार-पत्र देशविदेश की विविध घटनाओं, समस्याओं और विचारों को जन-साधारण तक पहुँचाने का कार्य करते हैं। समाचार-पत्र केवल सामयिक घटनाओं का विवरण ही नहीं देते, वरन् निकट भविष्य में होने वाले परिवर्तनों का आभास देकर जनता के विचारों को प्रभावित करते हैं। समाचार-पत्र जनता की भावनाओं को सरकार तक और सरकार के निर्णयों को जनता तक पहुँचाते हैं। इसी कारण समाचारपत्रों को ‘लोकतन्त्र का चतुर्थ स्तम्भ’ कहा गया है।

प्रश्न 4.
जनमत की अभिव्यक्ति के दो साधन बताइए। [2013]
उत्तर
जनमत की अभिव्यक्ति के दो साधनों का विवरण निम्नवत् है-

  1. निर्वाचन – निर्वाचन व्यक्तियों को जनमत अभिव्यक्त करने का सर्वोत्तम साधन उपलब्ध कराते हैं। निर्वाचन में मतदान के द्वारा अपने मत के माफिक उम्मीदवार को विजयी बनाकर, लोग अपने जनमत की अभिव्यक्ति करते हैं।
  2. समाचार-पत्र और पत्रिकाओं – में अपने विचारों की अभिव्यक्ति के द्वारा भी लोग अपना जनमत अभिव्यक्त करते हैं। देश के समक्ष उपस्थित समस्याओं और उनके समाधान के प्रति जनता अपना मत समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं के माध्यम से प्रभावी ढंग से व्यक्त करती है।

प्रश्न 5.
सोशल मीडिया का जनमत निर्माण में क्या योगदान है? [2016]
उत्तर
स्पेशल मीडिया यानि इण्टरनेट, टेलीविजन, दूरसंचार की आधुनिक प्रणालियाँ और कम्प्यूटर-प्रणाली में जो विचार-विमर्श होता है, उससे भी जनमत के रुझान का पता लगाने में सहयोग मिलता है। रेडियो एवं टेलीविजन पर समाचारों के प्रसारण के साथ-साथ देश के प्रमुख नेताओं के मत एवं भाषण प्रसारित किए जाते हैं। महत्त्वपूर्ण विषयों पर संगोष्ठियों, परिचर्चाओं आदि का प्रसारण भी प्रबुद्ध जनमत का निर्माण करता है। इस प्रकार साधारण जनता बहुत सरलता से देश के बड़े नेताओं और विद्वानों के विचारों से अवगत हो जाती है और अपना मत (जनमत) निर्धारित करने का प्रयास करती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
लोकमत की एक परिभाषा लिखिए। उक्ट लॉर्ड ब्राइस के अनुसार, “सार्वजनिक हित से सम्बद्ध किसी समस्या पर जनता के सामूहिक विचारों को जनमत कहा जा सकता है।”

प्रश्न 2.
जनमत के कोई दो तत्त्व लिखिए।
उत्तर

  1. सार्वजनिक हित पर आधारित तथा
  2. व्यापक सहमति।

प्रश्न 3.
लोकतन्त्र में जनमत के कोई दो महत्त्व बताइए।
उत्तर

  1. जनमत शासन-प्रणाली का आधार होता है तथा
  2. जनमत सरकार की निरंकुशता को नियन्त्रित करता है।

प्रश्न 4.
जनमत-निर्माण के किन्हीं दो साधनों के नाम लिखिए। [2007, 10, 11, 13, 14, 16]
उत्तर

  1. राजनीतिक दल तथा
  2. समाचार-पत्र तथा पत्रिकाएँ।

प्रश्न 5.
स्वस्थ जनमत-निर्माण में किन्हीं दो बाधाओं का वर्णन कीजिए। [2011, 14, 15]
उत्तर

  1. निरक्षरता एवं अज्ञानता तथा
  2. निर्धनता।

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प्रश्न 6.
स्वस्थ जनमत के निर्माण में निर्धनता किस प्रकार बाधक है?
उत्तर
निर्धन व्यक्ति अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति में ही लगा रहता है और उससे सार्वजनिक समस्याओं पर चिन्तन की आशा नहीं की जा सकती जिसके बिना जनमत का निर्माण नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 7.
स्वस्थ जनमत (लोकमत) निर्माण की दो आवश्यक शर्ते बताइए। या स्वस्थ जनमत के विकास की कोई एक शर्त बताइए।
उत्तर

  1. जनमत का शिक्षित होना तथा
  2. प्रेस का निष्पक्ष होना।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1. लोकतन्त्र का चतुर्थ स्तम्भ है- [2015, 16]
(क) समाचार-पत्र
(ख) निष्पक्ष मतदान
(ग) शिक्षा
(घ) सुशिक्षित नागरिक

2. कौन-सा लोकमत का लक्षण नहीं है ?
(क) सार्वजनिक कल्याण की भावना
(ख) विवेक
(ग) अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा
(घ) जन-इच्छा

3. लोकमत का पर्याय क्या है?
(क) सामान्य चेतना
(ख) सामान्य इच्छा
(ग) सामान्य जागरूकता
(घ) सामान्य ज्ञान

4. लोकमत की अभिव्यक्ति केवल सम्भव है-
(क) लोकतन्त्र में
(ख) निरंकुशतन्त्र में
(ग) सर्वाधिकारवाद तन्त्र में
(घ) कुलीनतन्त्र में

5. निम्नलिखित में से स्वस्थ जनमत के निर्माण में कौन-सी बाधा नहीं है?
(क) भाषावाद
(ख) क्षेत्रवाद
(ग) सम्प्रदायवाद
(घ) राजनीतिक जागृति

6. किसके अनुसार ‘सतर्क एवं सुविज्ञ जनमत’ जनतन्त्र की प्रथम आवश्यकता है? [2007]
(क) ब्राइस
(ख) लॉवेल
(ग) डॉ० आशीर्वादम्।
(घ) विल्की

7. भारत में जनमत निर्माण के लिए निम्न में से कौन-सा कारक सूचना प्रदान करता है? [2013]
(क) छोटे समूहों में वार्तालाप
(ख) टी०वी०पर राष्ट्रव्यापी शैक्षिक कार्यक्रमों को देखना
(ग) विशेषज्ञों के भाषण
(घ) उपर्युक्त सभी

8. स्वस्थ जनमत के निर्माण की सबसे बड़ी बाधा है। [2016]
(क) राजनीतिक दल
(ख) पत्र-पत्रिकाएँ
(ग) निरक्षरता
(घ) राजनीतिक चेतना

उत्तर

  1. (क) समाचार-पत्र,
  2. (घ) जन-इच्छा,
  3. (ख) सामान्य इच्छा,
  4. (क) लोकतन्त्र में,
  5. (घ) राजनीतिक जागृति,
  6. (ग) डॉ० आशीर्वादम्,
  7. (घ) उपर्युक्त सभी,
  8. (ग) निरक्षरता

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