UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 6
Chapter Name Determination of Price Under Perfect Competition (पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण)
Number of Questions Solved 47
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition (पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
पूर्ण प्रतियोगिता की मुख्य विशेषताएँ (लक्षण) बताइए। [2006, 08, 12, 14, 15]
या
पूर्ण प्रतियोगिता का क्या अर्थ है ? पूर्ण प्रतियोगी बाजार की विशेषताएँ बताइए। [2011, 12, 15, 16]
या
पूर्ण प्रतियोगिता की विशेषताओं को समझाइए। [2013]
या
पूर्ण प्रतियोगिता को परिभाषित कीजिए। इसकी किन्हीं चार विशेषताओं की विवेचना कीजिए। [2013]
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता का अर्थ तथा परिभाषाएँ
पूर्ण प्रतियोगिता, बाजार की वह दशा होती है जिसमें क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या अधिक होती है। इसमें कोई भी एक क्रेता अथवा विक्रेता व्यक्तिगत रूप से वस्तु की कीमत को प्रभावित नहीं कर सकता। समस्त बाजार में वस्तु का एक ही मूल्य होता है। पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में फर्म ‘कीमत ग्रहण करने वाली’ (Price taker) होती है, कीमत-निर्धारण करने वाली’ (Price maker) नहीं।

बोल्डिंग के अनुसार, “पूर्ण प्रतियोगिता व्यापार की वह स्थिति है जिसमें प्रचुर संख्या में क्रेता और विक्रेता बिल्कुल एक ही प्रकार की वस्तु के क्रय-विक्रय में लगे होते हैं तथा जो एक-दूसरे के अत्यधिक निकट सम्पर्क में आकर आपस में स्वतन्त्रतापूर्वक वस्तु का क्रय करते हैं।

श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के शब्दों में, “जब प्रत्येक विक्रेता द्वारा उत्पादित वस्तु की माँग पूर्ण रूप से लोचदार होती है तो विक्रेता की दृष्टि से प्रतियोगिता पूर्ण होती है। इसके लिए दो अवस्थाओं का होना अनिवार्य है। पहली-विक्रेताओं की संख्या अधिक होनी चाहिए, किसी एक विक्रेता का उत्पादन वस्तु के कुल उत्पादन का एक बहुत ही थोड़ा भाग होता है। दूसरी – सभी ग्राहक प्रतियोगी विक्रेताओं के बीच चयन करने की दृष्टि से समान होते हैं, जिससे बाजार पूर्ण हो जाता है।

पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की आवश्यक विशेषताएँ या लक्षण
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1.  पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में क्रेताओं तथा विक्रेताओं की संख्या अधिक होनी चाहिए, ताकि कोई एक क्रेता या विक्रेता वस्तु के मूल्य को प्रभावित न कर सके।
  2.  क्रेताओं तथा विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए, अर्थात् उनको बाजार में उस वस्तु के मूल्य तथा एक-दूसरे के विषय में पूर्ण जानकारी होनी चाहिए ताकि कोई विक्रेता बाजार मूल्य से अधिक मूल्य न ले सके और न ही कोई क्रेता अधिक मूल्य दे।
  3.  फर्मों द्वारा उत्पादित तथा बेची जाने वाली वस्तुएँ एकसमान गुण वाली होने के साथ ही अभिन्न भी होनी चाहिए, ताकि क्रेता बिना किसी प्रकार की शंका के उन्हें खरीद सके। साथ ही जब वस्तुएँ अभिन्न होंगी तब समस्त बाजार में उनकी कीमत भी एक रहेगी।
  4. पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में किसी समय-विशेष पर वस्तु की समस्त इकाइयों का मूल्य एक-समान होना चाहिए।
  5. पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में फर्मों का भाग लेना अथवा न लेना सरल व स्वतन्त्र होना चाहिए। उन पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए ताकि अधिक लाभ कमाने की इच्छा से ये एक व्यवसाय से दूसरे व्यवसाय में अथवा एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से भाग ले सकें।
  6. पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में क्रय-विक्रय की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए ताकि कोई भी क्रेता किसी भी स्थान से वस्तु खरीद सके तथा कोई भी विक्रेता किसी भी स्थान पर अपनी वस्तु बेच सके।
  7.  पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में वस्तुओं के मूल्य पर किसी भी प्रकार का नियन्त्रण नहीं होना चाहिए, क्योंकि मूल्य-नियन्त्रण के अभाव में ही माँग एवं सम्भरण (पूर्ति) शक्तियाँ प्रभावपूर्ण ढंग से । अपना कार्य करती हैं।

वास्तविक जीवन में पूर्ण प्रतियोगिता की दशाएँ नहीं पायी जाती हैं और यह विचार बिल्कुल काल्पनिक है। वास्तविक जीवन में पूर्ण प्रतियोगिता के न पाये जाने के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं

  • सभी वस्तुओं की बिक्री में क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या अधिक नहीं होती है। कुछ वस्तुएँ ऐसी भी हो सकती हैं जिनके उत्पादक थोड़ी संख्या में हों, और इसलिए, वे वस्तु की कीमत को प्रभावित कर सकते हैं। इसी प्रकार कुछ क्रेता भी बाजार में अत्यधिक प्रभावशाली हो सकते हैं।
  • अधिकतर बाजार में वस्तुओं में एकरूपता नहीं पायी जाती तथा वे एक जैसी नहीं होती हैं। इसके अतिरिक्त आज बाजारों में विज्ञापन, प्रचार, पैकिंग की भिन्नता आदि के द्वारा उपभोक्ताओं के मस्तिष्क में वस्तु-विभेद उत्पन्न कर दिया जाता है और वे एक वस्तु को दूसरी की अपेक्षा प्राथमिकता देने लगते हैं।
  • क्रेताओं और विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है। प्रायः उन्हें यह मालूम नहीं होता है कि अन्य क्रेताओं और विक्रेताओं के द्वारा किस कीमत पर सौदे किये जा रहे हैं।
  • उत्पत्ति के साधनों में पूर्ण गतिशीलता नहीं पायी जाती है। श्रम, पूँजी तथा अन्य साधनों के आने-जाने में अनेक बाधाएँ आ सकती हैं, जिसके कारण उत्पत्ति के साधनों की गतिशीलता कम हो जाती है।
  • उद्योगों में फर्मों का प्रवेश स्वतन्त्र नहीं होता है और इस सम्बन्ध में बहुत-सी बाधाएँ उत्पन्न की जा सकती हैं।

प्रश्न 2
पूर्ण प्रतिस्पर्धा में मूल्य-निर्धारण कैसे होता है ? स्पष्ट कीजिए। [2009, 10, 16]
या
पूर्ण प्रतियोगिता से आप क्या समझते हैं? इसके अन्तर्गत किसी वस्तु की कीमत का निर्धारण किस प्रकार होता है, समझाइए। [2013, 16]
उत्तर:
(संकेत – पूर्ण प्रतियोगिता के अर्थ के अध्ययन हेतु उपर्युक्त विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का अध्ययन करें]

पूर्ण/प्रतियोगिता प्रतिस्पर्धा में मूल्य-निर्धारण
प्रो० मार्शल प्रथम अर्थशास्त्री थे जिन्होंने पूर्ण प्रतिस्पर्धा में मूल्य-निर्धारण के सम्बन्ध में माँग तथा पूर्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया, जिसे मूल्य का आधुनिक सिद्धान्त भी कहते हैं। प्रो० मार्शल के अनुसार, यह वाद-विवाद व्यर्थ हैं कि मूल्य वस्तु की मॉग से निर्धारित होता है अथवा उसकी पूर्ति से। वास्तव में वह दोनों से निर्धारित होता है।

प्रो० मार्शल के अनुसार, माँग और पूर्ति की दोनों शक्तियाँ मूल्य को निर्धारित करती हैं। किसी वस्तु की सन्तुलन कीमत उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर माँग और पूर्ति की शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ सन्तुलित हो जाती हैं अर्थात् जहाँ पर वस्तु की माँग ठीक उसकी पूर्ति के बराबर होती है। उपयोगिता माँग की शक्तियों के पीछे कार्य करती है और उत्पादन लागत पूर्ति की शक्तियों के पीछे। माँग और पूर्ति में से कौन-सी शक्ति अधिक सक्रिय होती है, यह इस बात पर निर्भर होगा कि बाजार में माँग और पूर्ति को समायोजन के लिए कितना समय मिलता है। समयावधि जितनी अधिक लम्बी होती है उतना ही पूर्ति का प्रभाव अधिक होता है और समयावधि जितनी कम होती है उतना ही माँग का प्रभाव अधिक होता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि किसी वस्तु की कीमत सब उपभोक्ताओं के द्वारा की जाने वाली माँग तभी सब फर्मों की पूर्ति से निर्धारित होती है।

वस्तु की मॉग – वस्तु की माँग उपभोक्ताओं के द्वारा की जाती है। उपभोक्ता किसी वस्तु का मूल्य देने के लिए इसलिए तैयार रहते हैं क्योंकि वस्तुओं में तुष्टिगुण होता है तथा साथ-ही-साथ वे दुर्लभ भी होती हैं। उपभोक्ता किसी वस्तु का अधिक-से-अधिक मूल्य उस वस्तु के सीमान्त तुष्टिगुण के बराबर देने को तैयार होगा।

वस्तु की पूर्ति – वस्तु की पूर्ति उत्पादक (फर्मों) के द्वारा की जाती है। कोई भी विक्रेता या उत्पादक, वस्तु की दुर्लभता एवं उसकी उत्पादन लागत के कारण वस्तु का मूल्य माँगते हैं। कोई भी उत्पादक किसी वस्तु का मूल्य कम-से-कम उसकी सीमान्त उत्पादन लागत से कम लेने के लिए तैयार नहीं होगा। उत्पादक अपनी वस्तु को उस पर आयी सीमान्त उत्पादन लागत से कुछ अधिक मूल्य पर ही बेचना चाहेगा।

सन्तुलन कीमत – किसी वस्तु की कीमत का निर्धारण माँग और पूर्ति की शक्तियों के द्वारा होता है। माँग की जाने वाली वस्तु की मात्रा तथा पूर्ति की मात्रा कीमत के साथ बदलती है। वह कीमत जो बाजार में रहने की प्रवृत्ति रखेगी, ऐसी कीमत होगी जिस पर वस्तु की माँग की मात्रा उसकी पूर्ति की मात्रा के बराबर होगी।

जिस कीमत पर माँग और पूर्ति की शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ सन्तुलित होती हैं, सन्तुलन कीमत कहलाती है। इस कीमत पर माँग और पूर्ति की शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ सन्तुलित होती हैं। इसलिए इसे सन्तुलन की स्थिति कहते हैं। यदि कीमत सन्तुलन कीमत से अधिक होती है तो वस्तु की पूर्ति उसकी माँग से अधिक होगी और विक्रेता अपने स्टॉक को बेचने के लिए कीमत को कम करना चाहेंगे, यदि कीमत सन्तुलन कीमत से कम होती है और वस्तु की माँग उसकी पूर्ति से अधिक होगी तो क्रेता उसकी अधिक कीमत देने को तैयार होंगे। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सन्तुलन कीमत ही निर्धारित होने की प्रवृत्ति रखती है।

पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में किसी वस्तु का मूल्य उसके सीमान्त तुष्टिगुण और सीमान्त उत्पादन लागत के मध्य माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा उस बिन्दु पर निर्धारित होता है। जहाँ वस्तु की माँग और पूर्ति बराबर होती हैं। अत: वस्तु के मूल्य-निर्धारण में माँग और पूर्ति पक्ष दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं।

जिस प्रकार से कागज को काटने के लिए कैंची के दोनों ही फलों की आवश्यकता पड़ती है, ठीक उसी प्रकार किसी वस्तु का मूल्य निर्धारित करने के लिए माँग और पूर्ति दोनों ही आवश्यक हैं, जो एक सन्तुलन बिन्दु से आपस में जुड़ी रहते हैं। यह सन्तुलन बिन्दु ही वस्तु का मूल्य होता है। इस कथन को हम निम्नांकित सारणी तथा रेखाचित्र की सहायता से और अच्छी तरह से स्पष्ट कर सकते हैं

गेहूँ की पूर्ति (किंवटल में) कीमत (प्रति क्विटल ₹में) गेहूँ की माँग (किंवटल में)
100 1500 20
80 1350 40
50 1200 50
40 1000 80
20 850 1300

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि बाजार में केवल ₹1200 प्रति क्विटल का मूल्य ऐसा है जहाँ माँगी जाने वाली मात्रा (माँग) विक्रय हेतु प्रस्तुत मात्रा (पूर्ति) के बराबर है। दूसरे शब्दों में 50 क्विटल गेहूँ की माँग व पूर्ति की सन्तुलन मात्राएँ हैं और ₹1200 प्रति क्विटल का भाव ‘सन्तुलन मूल्य’ है।

रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण
उपर्युक्त तालिका के आधार पर मूल्य-निर्धारण संलग्न रेखाचित्र द्वारा दर्शाया गया है
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रेखाचित्र में Ox-अक्ष पर वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर वस्तु की कीमत दर्शायी गयी है। चित्र में Ss’ पूर्ति वक्र तथा DD’ माँग वक्र है जो विभिन्न मूल्य पर माँग व पूर्ति की विभिन्न मात्राओं को प्रदर्शित करते हैं। माँग व पूर्ति वक्र परस्पर E बिन्दु पर एक-दूसरे को काटते हैं; अतः बिन्दु E सन्तुलन बिन्दु है तथा ₹ 1,200 सन्तुलन कीमत है। अत: गेहूं को बाजार में हैं ₹1,200 पर बेचा जाएगा, क्योंकि इस कीमत पर 50 क्विटल गेहूँ की माँग की जा रही है और 50 क्विटल गेहूं की ही पूर्ति की जाती है। इससे ऊँची या नीची कीमत बाजार में नहीं रह सकती। अतः ₹1,200 गेहूं की सन्तुलन कीमत है।

प्रश्न 3
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत उद्योग द्वारा माँग तथा पूर्ति की मात्रा दीर्घकाल में मूल्य का निर्धारण किस प्रकार किया जाता है ? चित्रों की सहायता से समझाइए।
उत्तर:
दीर्घकाल में मूल्य का निर्धारण
दीर्घकाल में इतना पर्याप्त समय होता है कि वस्तु की पूर्ति को घटा-बढ़ाकर माँग के अनुसार किया जा सकता है। इसमें पूर्ति परिवर्तनशील होती है, इसलिए कीमत-निर्धारण में पूर्ति का प्रभाव माँग की अपेक्षा अधिक होता है। वस्तु की पूर्ति उत्पादन लागत से प्रभावित होती है। दीर्घकाल में किसी वस्तु की कीमत उसकी उत्पादन लागत से ऊपर अथवा बहुत नीचे नहीं रह सकती। यह कीमत माँग और पूर्ति के बीच स्थायी और स्थिर सन्तुलन (Permanent and Stable Equilibrium) का परिणाम होती है। दीर्घकाल में मूल्य की प्रवृत्ति सीमान्त उत्पादन लागत के बराबर होने की होती है।

सीमान्त लागत स्वयं इस बात पर निर्भर रहती है कि उद्योग में उत्पत्ति का कौन-सा नियम कार्यशील है। अतः कीमत-निर्धारण में उत्पत्ति के नियम भी सम्मिलित रहते हैं। उत्पादन के बढ़ने के साथ सामान्य मूल्य की प्रवृत्ति बढ़ने की, घटने की अथवा स्थिर रहने की होगी। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वस्तु का उत्पादन उत्पत्ति ह्रास नियम, उत्पत्ति वृद्धि नियम अथवा उत्पत्ति समता नियम के अनुसार हो रहा है। पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत मूल्य-निर्धारण की प्रक्रिया को उत्पत्ति के नियमों के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं

1. उत्पत्ति वृद्धि नियम या उद्योग द्वारा घटती हुई लागतों में कीमत निर्धारण – यदि कोई उद्योग उत्पत्ति वृद्धि नियम (लागत ह्रास नियम) के अन्तर्गत कार्य करता है तो उत्पादन में वृद्धि के साथ सीमान्त लागत क्रमशः घटती जाती है तथा उत्पादन में कमी होने पर वह क्रमशः बढ़ती जाती है। ऐसी स्थिति में वस्तु की माँग और पूर्ति के बढ़ने पर सामान्य कीमत घट जाएगी और घटने पर बढ़ जाएगी।
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संलग्न चित्र में, Ox-अक्ष पर वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर कीमत और लागत दर्शायी गयी हैं। चित्र में SS पूर्ति की वक्र रेखा है। जो उत्पत्ति वृद्धि नियम के अन्तर्गत कार्य कर रही है। यह ऊपर से नीचे गिरती हुई इस बात को प्रकट करती है कि जैसे-जैसे उत्पादन की मात्रा बढ़ती जाती है, प्रति इकाई उत्पादन लागत घटती जाती है । तथा घटने के साथ बढ़ती है। DD वस्तु का माँग वक्र है जो पूर्ति वक्र SS को E बिन्दु पर काटता है और इसलिए सामान्य कीमत OP है। यदि वस्तु की

माँग बढ़कर D1D1 हो जाती है तो सामान्य कीमत घटकर OP1 हो जाएगी और यदि माँग घटकर D2D2 रह जाती है तो सामान्य कीमत बढ़कर OP2 हो जाएगी। इस प्रकार उत्पादन के बढ़ने पर सामान्य कीमत घटती है तथा घटने पर बढ़ती है।

2. उत्पत्ति ह्रास नियम या उद्योग द्वारा बढ़ती हुई लागतों में मूल्य-निर्धारण – किसी उद्योग में उत्पत्ति ह्रास नियम क्रियाशील होने पर उत्पादन वृद्धि के साथ-साथ सीमान्त उत्पादन लागत बढ़ती जाती है, तब वस्तु की सामान्य कीमत माँग और पूर्ति के बढ़ने पर बढ़ती है तथा घटने पर घटती है।
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चित्र में, Ox-अक्ष पर वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर कीमत और लागत दर्शायी गयी है। चित्र में ss रेखा उत्पत्ति ह्रास नियम के अन्तर्गत कार्य करने वाले उद्योग की पूर्ति रेखा है। जो इस बात को दिखाती है कि उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ सीमान्त उत्पादन व्यय बढ़ता जाता है। DD वस्तु की माँग रेखा है जो Ss पूर्ति रेखा को E बिन्दु पर काटती है; अत: OP सामान्य कीमत है। यदि वस्तु की माँग बढ़कर D1D1 हो जाती है तो वस्तु का उत्पादन OM से बढ़कर OM1 हो जाता है तथा उसकी सीमान्त उत्पादन लागत बढ़ जाती है। सामान्य कीमत OP से बढ़कर OP1 हो जाती वस्तु की माँग एवं पूर्ति है। इसके विपरीत, यदि माँग घटकर D2D2 हो। उत्पत्ति समता नियम के अन्तर्गत मूल्य-निर्धारण जाती है तो उत्पादन लागत पहले की अपेक्षा कम हो जाती है और सामान्य कीमत घटकर OP2 रह जाएगी। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि उत्पत्ति ह्रास नियम लागू होने की दशा में उत्पादन के बढ़ने पर सामान्य कीमत बढ़ जाती है और घटने पर घट जाती है।

3. उत्पत्ति समता नियम या उद्योग द्वारा स्थिर लागतों के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण – यदि उद्योग में स्थिर लागत का नियम क्रियाशील है तब उत्पादन के घटने या बढ़ने पर सीमान्त उत्पादन । लागत अपरिवर्तित रहती है। ऐसी स्थिति में वस्तु की माँग और पूर्ति के घटने-बढ़ने का सामान्य कीमत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
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संलग्न चित्र में, OX-अक्ष पर वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर कीमत दर्शायी गयी है। चित्र में DD माँग वक्र तथा SS पूर्ति वक्र है, जो उत्पत्ति समता नियम के अन्तर्गत काम कर रहा है। इस वक्र की प्रवृत्ति इस बात की ओर संकेत करती है कि उत्पादन स्तर कुछ भी हो, सीमान्त उत्पादन लागत वही रहती है। उद्योग का माँग वक्र DD है जो पूर्ति वक्र ss को E बिन्दु पर काटता है, इसलिए सामान्य कीमत OP है। यदि माँग बढ़कर D1D1 हो जाती है तो सामान्य कीमत OP1 है जो OP के बराबर है। इस प्रकार माँग एवं पूर्ति माँग और पूर्ति के बढ़ने अथवा घटने पर सामान्य कीमत में कोई परिवर्तन नहीं होता।

प्रश्न 4
पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में कार्य करती हुई कोई फर्म अल्पकाल तथा दीर्घकाल में अपना उत्पादन तथा कीमत किस प्रकार निर्धारित करती है? चित्रों की सहायता से स्पष्ट कीजिए। [2013, 15]
या
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत फर्म का अल्पकालीन सन्तुलन आरेख सहित समझाइए। [2009]
या
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में फर्म के अल्पकाल में सन्तुलनों की व्याख्या कीजिए। [2007, 08, 15, 16]
या
पूर्ण प्रतियोगी बाजार में एक फर्म का दीर्घकालीन सन्तुलन चित्र द्वारा प्रदर्शित कीजिए। [2012]
या
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत फर्म की दीर्घकालीन स्थिति (सन्तुलन) का वर्णन कीजिए। [2014]
या
दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत एक फर्म की संस्थिति को समझाइए।[2015]
या
दीर्घकालिक पूर्ण प्रतियोगी बाजार में किसी फर्म के सन्तुलन को दर्शाइए। [2015]
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत किसी फर्म का अल्पकाल में कीमत व उत्पादन का निर्धारण
पूर्ण प्रतियोगिता में किसी फर्म के पास अल्पकाल में इतना पर्याप्त समय नहीं होता है कि वह माँग में वृद्धि होने पर माँग के अनुरूप पूर्ति को बढ़ा सके। इस कारण अल्पकाल में मूल्य-निर्धारण में माँग का प्रभाव पूर्ति की अपेक्षा अधिक होता है। अल्पकाल में फर्म के पास केवल इतना समय होता है कि उत्पत्ति के परिवर्तनशील साधनों को विभिन्न मात्राओं में प्रयोग किया जा सके जिससे कि अधिकतम लाभ हो, किन्तु स्थिर साधनों की मात्रा को नहीं बदला जा सकता। अल्पकालीन बाजार में पूर्ति को पर्याप्त मात्रा में बदलना सम्भव नहीं होता, इसलिए उसे माँग के
साथ पूर्ण रूप में समायोजित नहीं किया जा सकता। अल्पकाल में फर्म को लाभ, शून्य लाभ या हानि भी हो सकती है। इन तीनों स्थितियों की भिन्न-भिन्न व्याख्या निम्नवत् है
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1. अल्पकाल में सामान्य लाभ से अधिक की स्थिति – लाभ कुल आय और कुल लागत के बीच का अन्तर होता है। इसलिए फमैं उतनी ही मात्रा में उत्पादन करती हैं जो इस अन्तर को अधिकतम करने वाली हो। उत्पत्ति नियमों की क्रियाशीलता के कारण प्रारम्भ में उत्पादन बढ़ता है तथा लागतें कम होती हैं। धीरे-धीरे उत्पादन स्थिर रहकर घटना प्रारम्भ होता है और लागतें बढ़ने लगती हैं। अतः फर्म अधिकतम लाभ ऐसे बिन्दु पर प्राप्त करेगी जहाँ उसकी सीमान्त आय, सीमान्त लागत के बराबर हो।
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फर्म का अधिकतम लाभ = (सीमान्त आय – औसत आय = सीमान्त लागंत)
सीमान्त आय संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर उत्पादन/बिक्री की मात्रा तथा OY-अक्ष पर कीमत दर्शायी गयी है।
चित्र में E सन्तुलन बिन्दु है, क्योंकि यहाँ पर सीमान्त फर्म की हानि की स्थिति लागत व सीमान्त आय बराबर हैं। ES = बिक्री की मात्रा है। अतः फर्म अधिकतम लाभ अर्जित कर रही है।

2. अल्पकाल में हानि की स्थिति – पूर्ण प्रतियोगिता में यह भी सम्भव है कि फर्म लाभ अर्जित न कर, हानि की स्थिति में आ जाए। ऐसी स्थिति में फर्म अपनी हानि को न्यूनतम करने का प्रयास करेगी। पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म को हानि तब होती है जब फर्म की औसत लागत, औसत आय से अधिक नै हो।
संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर उत्पादन। बिक्री की मात्रा । तथा OY-अक्ष पर कीमत दर्शायी गयी है। चित्र में E सन्तुलन बिन्दु है (क्योंकि यहाँ पर सीमान्त आय व सीमान्त लागत बराबर हैं)। चित्र में औसत लागत वक्र औसत आय AR से अधिक है, क्योंकि वह किसी भी स्थान पर औसत आय वक्र को स्पर्श नहीं कर रहा है; इसलिए फर्म हानि की स्थिति में है।

3. अल्पकाल में सामान्य या शून्य लाभ की स्थिति – अल्पकाल में पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत जब फर्म की औसत आय, औसत लागत के बराबर होती है, तो इस स्थिति में फर्म शून्य या सामान्य लाभ प्राप्त करती है।

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संलग्न चित्र में, Ox-अक्ष पर उत्पादन बिक्री की मात्रा तथा OY-अक्ष पर कीमत दर्शायी गयी है। चित्र में E सन्तुलन बिन्दु है क्योंकि यहाँ पर सीमान्त आय और सीमान्त लागत बराबर हैं। OS उत्पादन/बिक्री की मात्रा, OP उद्योग द्वारा निर्धारित कीमत, SEE औसत लागत तथा औसत आय है। यह स्थिति सामान्य लाभ या शून्य लाभ को प्रदर्शित करती है। इस स्थिति में फर्म को साम्य उस बिन्दु पर होता है जहाँ सीमान्त लागत, औसत लागत, सीमान्त आय और औसत आय चारों बराबर होते हैं।

पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत दीर्घकाल में कीमत व उत्पादन का निर्धारण
दीर्घकाल में फर्म के पास इतना समय होता है कि वे अपने उत्पादन को पूर्णतया माँग में होने वाले परिवर्तनों के साथ समायोजित कर सकती है। दीर्घकाल में फर्म अपने सभी उत्पत्ति के साधनों में परिवर्तन कर उत्पादन को माँग में होने वाले परिवर्तन के अनुसार परिवर्तित करती है। दीर्घकाल में फर्मे न तो लाभ अर्जित करती हैं और न हानि उठाती हैं, केवल सामान्य लाभ प्राप्त करती है। लाभ की स्थिति में अन्य फर्म उद्योग में प्रवेश कर जाएगी, उत्पादन बढ़ेगा तथा कीमत कम हो जाएगी। हानि की स्थिति में फर्म उद्योग छोड़ जाएगी, उत्पादन कम होगा तथा कीमत बढ़ जाएगी। दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में फर्म केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त कर सकती है।

इस प्रकार दीर्घकाल में फर्म सन्तुलन के लिए दो दशाएँ पूरी होनी चाहिए

  1.  सीमान्त आय (MR) = सीमान्त लागत (MC)
  2.  औसत आय (AR) = औसत लागत (AC)

रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शन
संलग्न चित्र में, OX-अक्ष पर उत्पादन/बिक्री तथा OY-अक्ष पर कीमत दिखायी गयी है। चित्र में, AC फर्म का दीर्घकालीन औसत वक्र है तथा MC दीर्घकालीन सीमान्त लागत वक्र है। PAM फर्म की AR = MR रेखा है, e सन्तुलन बिन्दु है, क्योंकि इस बिन्दु पर MC वक्र, MR वक्र को नीचे से काटता है। इस बिन्दु पर MC = MR है, क्योंकि AR = MR रेखा AC वक्र पर उसके सबसे नीचे बिन्दु पर स्पर्श रेखा (Tangent) है; इसलिए कीमत दीर्घकालीन औसत लागत के बराबर है और फर्म केवल सामान्य लाभ प्राप्त कर रही है।
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लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
एक चित्र की सहायता से पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत अल्पकाल में कीमत-निर्धारण को समझाइए।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में उद्योग द्वारा कीमत-निर्धारण
पूर्ण प्रतियोगिता में उद्योग व फर्म दो अलग-अलग इकाइयाँ होती हैं। उद्योग वृहत् इकाई होती है। तथा फर्म छोटी इकाई। कीमत-निर्धारण की उद्योग तथा फर्मों में भिन्न प्रक्रियाएँ हैं।
प्रो० मार्शल के अनुसार, “पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत या पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में उद्योगों में कीमत का निर्धारण माँग और पूर्ति की शक्तियाँ मिलकर करती हैं। किसी वस्तु की सन्तुलन कीमत उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर माँग और पूर्ति की शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ सन्तुलित हो जाती हैं अर्थात् जहाँ पर वस्तु की माँग उसकी पूर्ति के बराबर होती है। माँग और पूर्ति में से कौन-सी शक्ति अधिक सक्रिय होती है, यह इस बात पर निर्भर होगा कि बाजार में माँग और पूर्ति को समायोजन के लिए कितना समय दिया जाता है।

अल्पकाल में मूल्य का निर्धारण
अल्पकाले उस स्थिति को बताता है जिसमें वस्तुएँ पहले से ही उत्पन्न कर ली गयी होती हैं और समय इतना कम होता है कि उन्हें और अधिक उत्पन्न नहीं किया जा सकता। अल्पकाल में पूर्ति लगभग स्थिर होती है। उसे माँग के अनुसार नहीं बढ़ाया जा सकता। केवल अल्पकाल में परिवर्तनशील साधन; जैसे – कच्चा माल, शक्ति के साधनों आदि की मात्रा में वृद्धि करके कुछ वृद्धि की जा सकती है; परन्तु उसे माँग के बराबर नहीं बढ़ाया जा सकता, क्योंकि मशीनों की उत्पादन क्षमता निश्चित होती है।

और इतने कम समय में नई ‘फर्मे भी उद्योगों में प्रवेश नहीं कर सकतीं। अत: अल्पकाल में कीमत के निर्धारण में मुख्य प्रभाव माँग का रहता है। माँग में वृद्धि होने पर कीमत बढ़ जाती है तथा माँग कम होने पर कीमत कम हो जाती है। अल्पकाल में कीमत माँग और पूर्ति के अस्थायी और अस्थिर सन्तुलन का परिणाम होती है। वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं – (1) शीघ्र नष्ट होने वाली तथा (2) टिकाऊ। शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं की कीमत के निर्धारण में माँग का महत्त्व टिकाऊ वस्तुओं की अपेक्षा अधिक होता है। दोनों ही दशाओं में माँग का महत्त्व पूर्ति की अपेक्षा अधिक होता है।
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संलग्न चित्र में Ox-अक्ष पर वस्तु की मात्रा, पूर्ति एवं माँग तथा OY-अक्ष पर वस्तु की कीमत दर्शायी गयी है। अल्पकाल में पूर्ति निश्चित रहती है, इसलिए पूर्ति वक्र एक सीधी खड़ी रेखा (Vertical Straight Line) होगी। माँग वक्र DD पूर्ति वक्र ss’ को बिन्दु पर काटता है। यह सन्तुलन बिन्दु है। इस स्थिति में सन्तुलन कीमत OP होगी। यदि माँग बढ़कर D1D1 हो जाती है, तो सन्तुलन कीमत OP बढ़कर OP1 हो जाएगी, यदि माँग घटकर D2D2 जाती है तो सन्तुलन कीमत गिरकर OP2 रह जाएगी।

प्रश्न 2
पूर्ण प्रतियोगिता की दशाओं के अन्तर्गत किसी फर्म की कीमत एवं उत्पादन का निर्धारण किस प्रकार होता है ? उपयुक्त रेखाचित्रों की सहायता से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत व उत्पादन का निर्धारण
पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में फर्म की अपनी कोई कीमत-नीति नहीं होती। वह केवल उत्पादन का समायोजन करने वाली होती है। अतः पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में फर्म ‘कीमत ग्रहण करने वाली’ (Price taker) होती है, कीमत-निर्धारण करने वाली’ (Price maker) नहीं। उद्योग द्वारा माँग व पूर्ति के आधार पर कीमत निर्धारित होती है और उस कीमत को उद्योग के अन्तर्गत कार्य करने वाली सभी फर्मे दिया हुआ मान लेती हैं। बाजार में असंख्य फर्म होने के कारण कोई भी व्यक्तिगत फर्म अपनी क्रियाओं द्वारा निर्धारित कीमत को प्रभावित नहीं कर सकती। बाजार में वस्तु की माँग और पूर्ति द्वारा निर्धारित कीमत को फर्म द्वारा स्वीकार किया जाता है और फर्म उस कीमत के आधार पर अपने उत्पादन का समायोजन करती है। पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में फर्म का माँग वक्र एक समानान्तर सीधी रेखा (Horizontal straight line) होती है। यह निर्धारित मूल्य फर्म की औसत आय व सीमान्त आय होती है तथा एक ही रेखा द्वारा प्रदर्शित की जाती है।
निम्नांकित चित्र में उद्योगों द्वारा कीमत का निर्धारण दिखाया गया है तथा फर्म उस कीमत को ग्रहण कर रही है। उद्योग को माँग और पूर्ति का साम्य बिन्दु E तथा कीमत OP है। इसी OP कीमत को फर्म ग्रहण कर लेती है। उद्योग की माँग में वृद्धि हो जाने पर साम्य बिन्दु E1 तथा कीमत बढ़कर OP1 हो
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जाती है, जिसे फर्म को स्वीकार करना पड़ता है तथा फर्म भी OP1 कीमत ग्रहण कर लेती है। अब फर्म की औसत आय तथा सीमान्त आय रेखा P1AM1 हो जाती है। इसी प्रकार माँग में कमी होने पर नया मॉग वक्र D2D2 और कीमत घटकर OP2 हो जाती है। यही कीमत फर्म भी ग्रहण कर लेती है तथा फर्म की औसत व सीमान्त आय रेखा P2AM2 हो जाती है।

स्पष्ट है कि पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में कोई फर्म उद्योग द्वारा निर्धारित कीमत के आधार पर अपनी उत्पादन व बिक्री का कार्य करती है। फर्म अधिकतम लाभ अर्जित करने का प्रयत्न करती है। कोई फर्म केवल सन्तुलन की स्थिति में अधिकतम लाभ प्राप्त करती है। किसी फर्म को सन्तुलन की स्थिति में तब ही कहा जाता है जब उसमें विस्तार अथवा संकुचन करने की कोई प्रवृत्ति न हो। इस स्थिति में ही फर्म अधिकतम लाभ प्राप्त करती है। यदि औसत लागत में सामान्य लाभ सम्मिलित हो तो कीमत के औसत लागत के बराबर होने की दशा में फर्म सामान्य लाभ प्राप्त करेगी।
पूर्ण प्रतियोगिता में एकमात्र स्थिति, जिसमें फर्म सन्तुलन में हो और सामान्य लाभ प्राप्त कर रही हो, वह है जब औसत लागत वक्र, सीमान्त आगम वक़ पर स्पर्श रेखा हो। इस स्थिति में ही औसत आय कीमत के बराबर होती है और फर्म अपनी सब लागतों को पूरा कर लेती है तथा केवल सामान्य लाभ प्राप्त करती है।

फर्म का सन्तुलन या अधिकतम लाभ – संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर उत्पादन तथा OY-अक्ष पर सीमान्त आय वे सीमान्त लागत दर्शायी गयी है। चित्र में E1 बिन्दु सन्तुलन बिन्दु हैं। इस बिन्दु पर सीमान्त आय सीमान्त लागत के बराबर है तथा फर्म अधिकतम उत्पादन कर रही हैं।
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सीमान्त आय रेखा RR के नीचे का क्षेत्र फर्म के लाभ को प्रदर्शित करता है, क्योंकि इस क्षेत्र में सीमान्त आय सीमान्त लागत से अधिक है। इसके विपरीत सीमान्त आय रेखा RR से ऊपर का क्षेत्र जहाँ सीमान्त लागत सीमान्त आय से अधिक है, में फर्म को हानि उठानी पड़ेगी।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
‘पूर्ण प्रतियोगिता एक कल्पनामात्र है, व्यावहारिक नहीं।’ विवेचना कीजिए।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता के लिए जिन आवश्यक तत्त्वों या दशाओं का वर्णन किया गया है वे किसी भी दशा में व्यावहारिक नहीं हैं। यह आवश्यक नहीं है कि एक ही प्रकार की वस्तुओं में समानता हो अर्थात् वस्तुएँ एकसमान नहीं होती हैं। वस्तुओं का क्रय-विक्रय सामान्यत: प्रतिबन्धित होता है। उत्पत्ति के साधन पूर्ण गतिशील नहीं होते। क्रेता-विक्रेता को बाजार की दशाओं का पूर्ण ज्ञान नहीं होने के कारण बाजार में प्रचलित वस्तु के मूल्य में भिन्नता होती है। विज्ञापन, माल की पैकिंग, उधार बिक्री, घर तक माल पहुँचाने की सुविधा तथा छूट आदि सुविधाओं के कारण वस्तु-विभेद एवं मूल्य-विभेद की स्थिति सदा बनी रहती है। उपर्युक्त अनेक कारणों से हम देखते हैं कि पूर्ण प्रतियोगिता वाला बाजार अपूर्ण प्रतियोगिता का बाजार बनकर रह गया है, पूर्ण प्रतियोगिता तो मात्र एक कल्पना बनकर रह गयी है।
पूर्ण प्रतियोगिता की आवश्यक दशाओं में अनेक कमियाँ होने के बावजूद भी अर्थशास्त्र में पूर्ण प्रतियोगिता के अध्ययन का महत्त्व है, क्योंकि पूर्ण प्रतियोगिता द्वारा ही आर्थिक समस्याओं का अध्ययन सुविधापूर्वक सम्पन्न हो सकता है।

प्रश्न 2
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में औसत आय और सीमान्त आय का चित्र बनाइए। [2010]
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 12

प्रश्न 3
नीचे दिये गये रेखाचित्र में दी गयी वक्र रेखाओं के नाम लिखिए।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 13
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 14

प्रश्न 4
संक्षिप्त व्याख्या करें-पूर्ण प्रतिस्पर्धा में लाभ तथा हानि की स्थितियाँ।
उत्तर:
पूर्ण प्रतिस्पर्धा में लाभ तथा हानि की स्थितियाँ–पूर्ण प्रतिस्पर्धा के अन्तर्गत अल्पकाल या दीर्घकाल में कोई भी फर्म मात्र सामान्य लाभ या शून्य लाभ ही प्राप्त करती है।
जब फर्म की औसत आय सीमान्त लागत के बराबर होती है, तो इस स्थिति में फर्म शून्य लाभ या सामान्य लाभ प्राप्त करती है। पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म की हानि की स्थिति तब होगी जब कि फर्म की औसत लागत औसत आय से अधिक हो; परन्तु हानि की स्थिति में फर्म उद्योग छोड़कर चली जाती है, परिणामस्वरूप पूर्ति कम हो जाएगी और कीमत (औसत आय) बढ़कर औसत लागत के बराबर हो जाएगी और फर्म पुनः सामान्य लाभ प्राप्त करेगा।

प्रश्न 5
पूर्ण प्रतियोगिता की कोई चार विशेषताएँ लिखिए। [2014, 15, 16]
उत्तर:
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 के अन्तर्गत देखें।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
“वस्तु की कीमत उसकी उत्पादन लागत से निर्धारित होती है। यह मत किन अर्थशासियों का है ?
उत्तर:
एडम स्मिथ और रिका।

प्रश्न 2
“वस्तु की कीमत उसकी उपयोगिता से निर्धारित होती है। यह मत किन अर्थशास्त्रियों का है?
उत्तर:
वालरा और जेवेन्स का।

प्रश्न 3
माँग तथा पूर्ति का मूल्य सिद्धान्त का प्रतिपादन किस अर्थशास्त्री ने किया ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल ने।

प्रश्न 4
मूल्य-निर्धारण में माँग कब निष्क्रिय रहती है ?
उत्तर:
यदि माँग निश्चित रहती है, किन्तु पूर्ति की दशाएँ बदलती रहती हैं, तो माँग निष्क्रिय रहती है।

प्रश्न 5
पूर्ति कब सक्रिय रहती है ?
उत्तर:
यदि माँग निश्चित रहती है किन्तु पूर्ति की दशाएँ बदलती रहती हैं, तब पूर्ति सक्रिय होती है।

प्रश्न 6
सन्तुलन कीमत किसे कहते हैं ?
उत्तर:
वह कीमत जिस पर माँग और पूर्ति बराबर होती हैं, सन्तुलन कीमत कहलाती है।

प्रश्न 7
मूल्य सिद्धान्त में सर्वप्रथम समय के महत्त्व पर किसे अर्थशास्त्री ने बल दिया ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल ने।

प्रश्न 8
सुरक्षित कीमत किसे कहते हैं ?
उत्तर:
सुरक्षित कीमत वह न्यूनतम कीमत होती है, जिस पर कोई उत्पादक अपनी वस्तु की माँग स्वयं करने लगते हैं और उसे बेचने से मना करते हैं।

प्रश्न 9
सुरक्षित कीमत किस प्रकार के बाजार में पायी जाती है ?
उत्तर:
सुरक्षित कीमत अल्पकालीन बाजार में होती है।

प्रश्न 10
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार के दो लक्षण (विशेषताएँ) लिखिए। [2009, 10, 11, 12, 14, 16]
उत्तर:
(1) क्रेताओं और विक्रेताओं की अधिक संख्या तथा
(2) बाजार को पूर्ण ज्ञान होना।

प्रश्न 11
अर्थशास्त्र में वस्तुएँ कितने प्रकार की मानी गयी हैं ?
उत्तर:
अर्थशास्त्र में वस्तुएँ दो प्रकार की मानी गयी हैं

  1. शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुएँ तथा
  2.  टिकाऊ या दीर्घकाल तक बनी रहने वाली वस्तुएँ।

प्रश्न 12
क्रेता या उपभोक्ता वस्तु-विशेष की माँग क्यों करते हैं ?
उत्तर:
विभिन्न वस्तुओं में पृथक्-पृथक् आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने का गुण या क्षमता होती है। इस कारण किसी वस्तु-विशेष की माँग उसमें निहित तुष्टिगुण के कारण होती है।

प्रश्न 13
कोई फर्म सन्तुलन की स्थिति में कब होती है ?
उत्तर:
कोई फर्म केवल सन्तुलन की स्थिति में ही अधिकतम लाभ प्राप्त करती है। अत: किसी फर्म को सन्तुलन की स्थिति में तब ही कहा जाता है जब उसमें विस्तार अथवा संकुचन करने की कोई प्रवृत्ति न हो।

प्रश्न 14
पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु के मूल्य का निर्धारण किसके द्वारा होता है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु का मूल्य माँग और पूर्ति के द्वारा निर्धारित होता है।

प्रश्न 15
क्या पूर्ण प्रतियोगिता वास्तविक जगत् में सम्भव है ?
उत्तर:
नहीं, पूर्ण प्रतियोगिता वास्तविक जगत् में सम्भव नहीं है।

प्रश्न 16
बाजार की किस दशा में वस्तु की कीमत उत्पादन लागत के बराबर होती है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में दीर्घकाल में वस्तु की कीमत उत्पादन लागत के बराबर होती है।

प्रश्न 17
अर्थशास्त्र में ‘अल्पकाल’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
अल्पकाल से हमारा अभिप्राय उस समयावधि से है, जिसमें केवल विद्यमान साधनों का अधिक अथवा कम प्रयोग करके पूर्ति को घटाया या बढ़ाया तो जा सकता हो, परन्तु साधनों की उत्पादन क्षमता में कोई परिवर्तन न किया जा सकता हो।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में उत्पादकों को प्राप्त होता है केवल
(क) सामान्य लाभ
(ख) असामान्य लाभ
(ग) अतिरिक्त लाभ
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) सामान्य लाभ।

प्रश्न 2
दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में उत्पादकों को होता है [2011]
(क) असामान्य लाभ
(ख) सामान्य लाभ या शून्य लाभ
(ग) अतिरिक्त लाभ
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) सामान्य लाभ या शून्य लाभ।।

प्रश्न 3
पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादन होता है
(क) विषम रूप वस्तुओं का
(ख) एक रूप वस्तुओं को
(ग) (क) व (ख)
(घ) किसी का भी नहीं
उत्तर:
(ख) एक रूप वस्तुओं का।

प्रश्न 4
पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में एक वस्तु का सम्पूर्ण बाजार मूल्य होता है
(क) एक ही
(ख) अलग-अलग
(ग) सामान्य
(घ) ये सभी
उत्तर:
(क) एक ही।

प्रश्न 5
पूर्ण प्रतियोगिता में क्रेता पाये जाते हैं
(क) कम संख्या में
(ख) बराबर
(ग) अधिक संख्या में
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) अधिक संख्या में।

प्रश्न 6
दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म [2011, 12]
(क) हानि वहन करती है।
(ख) असामान्य लाभ प्राप्त करती है।
(ग) सामान्य लाभ प्राप्त करती है।
(घ) कीमत् परिवर्तित कर देती है।
उत्तर:
(ग) सामान्य लाभ प्राप्त करती है।

प्रश्न 7
पूर्ण प्रतियोगिता में सीमान्त आय रेखा और औसत आय रेखा का स्वरूप होता है
(क) नीचे गिरती हुई।
(ख) ऊपर उठती हुई।
(ग) बराबर व क्षैतिज
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) बराबर व क्षैतिज।

प्रश्न 8
पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म असामान्य लाभ प्राप्त करती है, जब [2012]
(क) औसत आय > औसत लागत
(ख) सीमान्त आय < सीमान्त लागत
(ग) औसतं आय > सीमान्त आय ।
(घ) सीमान्त आय > औसत आय
उत्तर:
(क) औसत आय > औसत लागत।

प्रश्न 9
यदि पूर्ति वक्र ऊर्ध्व रेखा के रूप में हो, तो वह किस बाजार का पूर्ति वक्र है?
(क) अल्पकाल का
(ख) अति-अल्पकाल का
(ग) दीर्घकाल का।
(घ) इनमें से किसी का नहीं
उत्तर:
(ख) अति अल्पकाल का।

प्रश्न 10
दीर्घकाल में सामान्य लाभ बाजार की किस दशा में प्राप्त होता है?  [2006]
(क) अपूर्ण प्रतियोगिता
(ख) पूर्ण प्रतियोगिता
(ग) एकाधिकार
(घ) अल्पाधिकार
उत्तर:
(ख) पूर्ण प्रतियोगिता।

प्रश्न 11
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत किस फर्म की माँग रेखा होती है? [2006]
(क) कम लोचदार
(ख) अधिक लोचदार
(ग) पूर्णत: लोचदार
(घ) पूर्णतः बेलोचदार
उत्तर:
(ग) पूर्णत: लोचदार।

प्रश्न 12
निम्नलिखित में से कौन-सी पूर्ण प्रतियोगिता की विशेषता नहीं है? [2006, 14]
(क) क्रेताओं की अधिक संख्या
(ख) विक्रेताओं की अधिक संख्या
(ग) बाजार का पूर्ण ज्ञान
(घ) वस्तु-विभेद
उत्तर:
(घ) वस्तु-विभेद।

प्रश्न 13
पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तुएँ होती हैं [2012]
(क) समरूप
(ख) विभेदित
(ग) निकृष्ट
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) समरूप।

प्रश्न 14
पूर्ण प्रतियोगिता में [2014]
(क) केवल एक फर्म होती है।
(ख) कीमत विभेद होता है।
(ग) वस्तु विभेद होता है।
(घ) समरूप वस्तुएँ होती हैं।
उत्तर:
(घ) समरूप वस्तुएँ होती हैं।

प्रश्न 15
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत सभी फर्मों द्वारा उत्पादित वस्तुएँ [2014]
(क) समरूप होती हैं
(ख) विभेदित होती हैं
(ग) पूरक होती हैं
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) समरूप होती हैं।

प्रश्न 16
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत किसी वस्तु की कीमत का निर्धारण होता है [2014, 16]
(क) क्रेताओं की माँग के द्वारा
(ख) विक्रेताओं की पूर्ति के द्वारा
(ग) उद्योग की माँग-पूर्ति की शक्तियों के द्वारा
(घ) फर्मों की लागतों के द्वारा
उत्तर:
(ग) उद्योग की माँग-पूर्ति की शक्तियों के द्वारा।

प्रश्न 17
पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म का माँग वक्र होता है [2014, 16]
(क) क्षैतिज
(ख) लम्बवत्
(ग) ऋणात्मक ढाल
(घ) धनात्मक ढाल
उत्तर:
(क) क्षैतिज।

प्रश्न 18
दीर्घकाल में एक एकाधिकारी फर्म अर्जित करती है केवल [2016]
(क) असामान्य लाभ
(ख) सामान्य लाभ
(ग) हानि
(घ) न्यूनतम लाभ
उत्तर:
(ख) सामान्य लाभ।

19. पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म सामान्य लाभ प्राप्त करती है [2016]
(क) सीमान्त आय = सीमान्त लागत = औसत आय = औसत लागत
(ख) औसत आय = औसत लागत
(ग) औसत आय = सीमान्त लागत
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(ख) औसत आय = औसत लागत

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 18 Public Services in India: Public Service Commission

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 18
Chapter Name Public Services in India: Public Service Commission
(भारत में सार्वजनिक सेवाएँ-लोक सेवा आयोग)
Number of Questions Solved 31
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 18 Public Services in India: Public Service Commission (भारत में सार्वजनिक सेवाएँ-लोक सेवा आयोग)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
संघीय लोक सेवा आयोग के गठन और कार्यों पर प्रकाश डालिए। [2008, 09, 10, 11, 12, 14, 15]
या
संघ लोक सेवा आयोग के कार्यों पर प्रकाश डालिए। [2009]
या
भारत में सार्वजनिक सेवाओं की कार्यप्रणाली का उल्लेख कीजिए। [2013]
या
संघ लोक सेवा आयोग के गठन और कार्यों को स्पष्ट कीजिए। [2016]
उत्तर :
संविधान के अनुच्छेद 315 (1) के अनुसार, भारत में अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के पदाधिकारियों की नियुक्ति को व्यवस्थित करने तथा तविषयक नियुक्तियों के निमित्त प्रतियोगितात्मक परीक्षाओं को संचालित करने हेतु संघ लोक सेवा आयोग की व्यवस्था की गयी है।

सदस्यों की संख्या एवं नियुक्ति – संघ लोक सेवा आयोग, अखिल भारतीय सेवाओं तथा संघ लोक सेवाओं के सदस्यों की भर्ती, पदोन्नति एवं अनुशासन की कार्यवाही इत्यादि के सम्बन्ध में सरकार को परामर्श देता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 315 (1) से धारा 323 तक, संघ लोक सेवा आयोग के संगठन तथा कार्यों इत्यादि का विस्तृत वर्णन किया गया है। वर्तमान में संघीय लोक सेवा आयोग में 1 अध्यक्ष तथा 10 सदस्यों की व्यवस्था की गयी है। सदस्यों की संख्या राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करती है तथा अध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति ही करता है।

योग्यताएँ – किसी भी योग्य नागरिक को संघ लोक सेवा आयोग का सदस्य नियुक्त किया जा सकता है। आयोग का सदस्य नियुक्त होने के लिए सामान्य योग्यताओं के अतिरिक्त निम्नलिखित योग्यताएं होनी आवश्यक हैं –

  1. वह 65 वर्ष से कम आयु का हो।
  2. दिवालिया, पागल अथवा विवेकहीन न हो।
  3. संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों में से कम-से-कम आधे सदस्य ऐसे व्यक्ति होने चाहिए जो कम-से-कम दस वर्ष तक भारत सरकार अथवा राज्य सरकार के अधीन किसी पद पर कार्य कर चुके हों।

सदस्यों की कार्यावधि – संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति 6 वर्ष के लिए होती है। लेकिन यदि कोई सदस्य इससे पूर्व ही 65 वर्ष का हो जाता है तो उसे अपना पद त्यागना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, उच्चतम न्यायालय के परामर्श पर राष्ट्रपति इन्हें पदच्युत भी कर सकता

पद-मुक्ति – संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यगण अपनी इच्छानुसार राष्ट्रपति को त्याग-पत्र देकर अपने पद से मुक्त भी हो सकते हैं। इसके साथ ही भारत का राष्ट्रपति निम्नलिखित परिस्थितियों में उन्हें अपदस्थ भी कर सकता है –

  1. उन पर दुर्व्यवहार का आरोप लगाया जाए और वह उच्चतम न्यायालय में सत्य सिद्ध हो जाए।
  2. यदि वे वेतन प्राप्त करने वाली अन्य कोई सेवा करने लगे।
  3. यदि वे न्यायालय द्वारा दिवालिया घोषित कर दिये जाएँ।।
  4. यदि वे शारीरिक अथवा मानसिक रूप से कः पालन के अयोग्य सिद्ध हो जाएँ।

वेतन, भत्ते एवं सेवा-शर्ते – आयोग के सदस्यों के वेतन, भत्ते एवं सेवा-शर्तों को निर्धारित करने का अधिकार राष्ट्रपति को प्रदान किया गया है। किसी सदस्य के वेतन, भत्ते एवं सेवा-शर्ते को उसकी पदावधि में परिवर्तित नहीं किया जा सकता।

संघ लोक सेवा आयोग के कार्य

डॉ० मुतालिब ने आयोग के कार्यों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया है – (1) कार्यकारी, (2) नियामक तथा (3) अर्धन्यायिक। परीक्षाओं के माध्यम से लोक महत्त्व के पदों पर प्रत्याशियों का चयन करना आयोग का कार्यकारी कर्तव्य है। भर्ती की पद्धतियों तथा नियुक्ति, पदोन्नति एवं विभिन्न सेवाओं में स्थानान्तरण आदि आयोग के नियामक प्रकृति के कार्य हैं। लोक सेवाओं से सम्बन्धित अनुशासन के मामलों पर सलाह देना आयोग को न्यायिक कार्य है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 320 के अनुसार लोक सेवा आयोग को निम्नांकित कार्य सौंपे गये हैं –

1. परीक्षाओं का आयोजन – संघ लोक सेवा आयोग का प्रमुख कार्य अखिल भारतीय लोक सेवाओं के लिए योग्यतम व्यक्तियों का चयन करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु यह अनेक प्रतियोगी परीक्षाएँ आयोजित करता है। इन परीक्षाओं में जो अभ्यर्थी अपनी योग्यता से पर्याप्त अंक पाता है, उसका चयन कर लिया जाता है। इसके बाद इन व्यक्तियों को सरकारी पदों पर नियुक्ति करने के लिए यह आयोग सरकार से सिफारिश करता है। कुछ पदों के लिए आयोग द्वारा मौखिक परीक्षाओं की व्यवस्था भी की गयी है। मौखिक परीक्षाओं में सफल होने पर सफल अभ्यर्थियों को निर्धारित पदों पर नियुक्त कर दिया जाता है।

2. राष्ट्रपति को प्रतिवेदन – संघीय लोक सेवा आयोग को अपने कार्यों से सम्बन्धित एक वार्षिक रिपोर्ट (प्रतिवेदन) राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करनी पड़ती है। यदि सरकार इस आयोग द्वारा प्रस्तुत की गयी रिपोर्ट की कोई सिफारिश नहीं मानती है तो राष्ट्रपति इसका कारण रिपोर्ट में लिख देता है और इसके उपरान्त संसद इस पर विचार करती है। इस रिपोर्ट का लाभ यह है। कि इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि किन विभागों में इस आयोग ने स्वेच्छा से कितनी नियुक्तियाँ की हैं और सरकार ने कहाँ तक आयोग के कार्यों में हस्तक्षेप किया है।

3. संघ सरकार को परामर्श – संघ लोक सेवा आयोग अखिल भारतीय लोक सेवाओं के कर्मचारियों की नियुक्ति की विधि, पदोन्नति, स्थानान्तरण आदि के विषय में संघ सरकार को परामर्श देता है। यह सरकारी कर्मचारियों की किसी प्रकार की शारीरिक या मानसिक क्षति हो जाने पर संघ सरकार को उनकी क्षतिपूर्ति का परामर्श भी देता है और उससे सिफारिश भी करता है। यद्यपि सरकार आयोग के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है, किन्तु सामान्यतः आयोग की सिफारिशों तथा उसके परामर्श को स्वीकार कर ही लिया जाता है, क्योकि आयोग के सदस्य बहुत कुशल और अनुभवी होते हैं।

4. विशेष सेवाओं की योजना सम्बन्धी सहायता – उस दशा में जब दो या दो से अधिक राज्य किन्हीं विशेष योग्यता वाली सेवाओं के लिए भर्ती की योजना बनाने या चलाने की प्रार्थना करें तो संघ लोक सेवा आयोग उन्हें ऐसा करने में सहायता करता है।

प्रश्न 2
राज्य लोक सेवा आयोग के गठन एवं कार्यों का वर्णन कीजिए। [2007]
या
राज्य के लोक सेवा आयोग के गठन की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
राज्य लोक सेवा आयोग या उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग

प्रत्येक राज्य का एक लोक सेवा आयोग होता है। अतः उत्तर प्रदेश राज्य का अपना एक लोक सेवा आयोग है।

रचना या संगठन (सदस्यों की नियुक्ति) – उत्तर प्रदेश अथवा अन्य किसी राज्य के लोक सेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति, सदस्यों की संख्या तथा उनकी सेवा-शर्तों का निर्धारण राज्यपाल करता है। उत्तर प्रदेश राज्य के लोक सेवा आयोग के सदस्यों की संख्या वर्तमान समय में 9 है। इनमें से एक सदस्य अध्यक्ष का कार्य करता है।

योग्यताएँ व कार्यकाल – राज्य लोक सेवा आयोग में भी कम-से-कम आधे सदस्य ऐसे होने आवश्यक हैं जो कम-से-कम 10 वर्ष तक केन्द्र अथवा किसी राज्य सरकार के अधीन किसी पद पर कार्य कर चुके हों। आयोग के सदस्यों की नियुक्ति 6 वर्ष के लिए होती है, परन्तु यदि कोई सदस्य 6 वर्ष पूर्व ही 62 वर्ष का हो जाता है तो उसे अपने पद से सेवानिवृत्त होना होता है। कोई भी सदस्य 6 वर्ष के कार्यकाल अथवा 62 वर्ष की आयु के पूर्व स्वयं भी राज्यपाल को अपना त्याग-पत्र दे सकता है।

पद से हटाना – राज्यपाल आयोग के अध्यक्ष अथवा किसी सदस्य को दुराचार या दुर्व्यवहार के आरोप के आधार पर पदच्युत कर सकता है, परन्तु इसके पूर्व उच्चतम न्यायालय से इन आरोपों की जाँच और पुष्टि आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय से जाँच की अवधि में राज्यपाल सम्बन्धित सदस्य को निलम्बित कर सकता है।

इसके अतिरिक्त, निम्नलिखित परिस्थितियों में भी राज्यपाल को अधिकार होता है कि वह राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष या सदस्य को पदच्युत कर सके

  1. यदि न्यायालय ने उसे दिवालिया घोषित कर दिया हो।
  2. यदि वह अपने पद के अलावा अन्य कोई नौकरी या वेतनभोगी कार्य करने लगा हो।
  3. यदि वह किसी शारीरिक या मानसिक असाध्य रोग से पीड़ित हो गया हो।

सदस्यता पर प्रतिबन्ध व छूटें – संविधान द्वारा राज्य लोक सेवा आयोग के सभापति एवं सदस्य बनने के सम्बन्ध में कुछ प्रतिबन्ध भी लगाये गये हैं, जो निम्नलिखित हैं –

  1. कोई भी व्यक्ति एक बार सदस्यता की अवधि समाप्त हो जाने पर दुबारा उसी राज्य के लोक सेवा आयोग का सदस्य नहीं बन सकता।
  2. राज्य लोक सेवा आयोग का कोई सदस्य अवधि समाप्त होने पर उसी आयोग का सभापति तथा अन्य किसी राज्य के आयोग का सदस्य या सभापति बन सकता है।
  3. किसी राज्य लोक सेवा आयोग का सभापति (चेयरमैन) अवधि की समाप्ति पर संघीय लोक सेवा आयोग का सदस्य या सभापति अथवा किसी दूसरे राज्य के लोक सेवा आयोग का सभापति बन सकता है।
  4. राज्य लोक सेवा आयोग की सदस्य या सभापति संघ अथवा किसी राज्य सरकार के अधीन अथवा उससे बाहर कोई भी नौकरी नहीं कर सकता।

ये प्रतिबन्ध आयोग के सदस्यों की निष्पक्षता को बनाये रखने के लिए लगाये गये हैं।

वेतन, भत्ते व सेवा-शर्ते – राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों को राज्यपाल द्वारा निर्धारित वेतन व भत्ते मिलते हैं। आयोग के सदस्यों व अन्य कर्मचारियों के वेतन और भत्ते आदि राज्य की संचित निधि से दिये जाते हैं और उनके लिए विधानमण्डल की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती। राज्य आयोग के सदस्यों के वेतन, भत्तों, छुट्टी, पेन्शन तथा सेवा की शर्तों में उनके कार्यकाल में कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।

राज्य लोक सेवा आयोग के कार्य

उत्तर प्रदेश या अन्य किसी राज्य के लोक सेवा आयोग के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं

1. प्रतियोगी परीक्षाओं की व्यवस्था – राज्य लोक सेवा आयोगका प्रमुख कार्य राज्य की सरकारी सेवाओं के पदों पर नियुक्ति के लिए मौखिक या लिखित, अथवा दोनों ही प्रकार की प्रतियोगिता परीक्षाओं की व्यवस्था करना और उनके परिणामों के आधार पर उम्मीदवारों का चयन करके उनकी नियुक्ति के लिए राज्यपाल से सिफारिश करना है।

2. परामर्श देना – संविधान में की गयी व्यवस्था के अनुसार राज्य लोक सेवा आयोग का कार्य निम्नलिखित विषयों में राज्यपाल को परामर्श देना है –

  1. असैनिक सेवाओं तथा असैनिक पदों पर भर्ती की प्रणाली के सम्बन्ध में परामर्श।
  2. असैनिक सेवाओं और पदों पर नियुक्ति, पदोन्नति, पदावनति तथा स्थानान्तरण के सम्बन्ध में अपनाये जाने वाले नियमों के सम्बन्ध में परामर्श।
  3. असैनिक सेवाओं में राज्य सरकार के अधीन काम करने वाले कर्मचारियों के अनुशासन के सम्बन्ध में परामर्श।
  4. राज्य सरकार के किसी कर्मचारी द्वारा सरकारी कार्य को पूरा करते हुए शारीरिक चोट या धन की क्षतिपूर्ति के लिए किये गये दावे के सम्बन्ध में परामर्श।
  5. राज्य सरकार के किसी कर्मचारी द्वारा पेन्शन या सरकारी मुकदमे में अपनी रक्षा में व्यय किये गये धन की क्षतिपूर्ति के दावे के सम्बन्ध में परामर्श।
  6. राज्यपाल द्वारा भेजे गये अन्य किसी भी मामले के सम्बन्ध में परामर्श

3. वार्षिक रिपोर्ट देना – राज्य लोक सेवा आयोग को अपने कार्यों की वार्षिक रिपोर्ट राज्यपाल के पास भेजनी होती है। राज्यपाल द्वारा यह रिपोर्ट विधानमण्डल के दोनों सदनों के समक्ष रखी जाती है। रिपोर्ट में आयोग द्वारा अपनी उन सिफारिशों का भी उल्लेख किया जाता है। जो राज्य सरकार द्वारा न मानी गयी हों। सरकार को इस सम्बन्ध में विधानमण्डल के समक्ष अपना स्पष्टीकरण देना होता है।

प्रश्न 3.
भारतीय सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार पर एक निबन्ध लिखिए। [2016]
उत्तर :
भारतीय सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार

शाब्दिक अर्थों में भ्रष्टाचार का आशय भ्रष्ट अथवा बिगड़े हुए आचरण से है। सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार का अभिप्राय ऐसे आचरण से है, जिसकी आशा लोक सेवकों से नहीं की जाती। लोक सेवकों द्वारा प्राप्त शक्ति, सत्ता एवं स्थिति का उपयोग जन-कल्याण की अपेक्षा अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु किया जाना ही ‘भ्रष्ट आचरण’ माना जाता है। किसी व्यक्ति के किसी कार्य को करने के बदले रिश्वत लेना, भेंट स्वीकार करना, बेईमानी, गबन, अपने पुत्र-पुत्रियों एवं सगे-संबंधियों को नौकरी दिलाना, अवैध एवं अनुचित तरीकों से धन प्राप्त करना, अपनी सरकारी स्थिति एवं प्रभाव का दुरुपयोग अपनी स्वार्थ सिद्धि हेतु करना आदि लोक सेवकों के भ्रष्ट आचरण के प्रकार हैं।

सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार के कारण।

भारतीय सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार के प्रमुख रूप से निम्नलिखित कारण हैं।

1. अंग्रेजों की धरोहर – स्वाधीनता पूर्व ब्रिटिश भारत में उच्चाधिकारियों में भ्रष्टाचार कितना अधिक व्याप्त था इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि तत्कालीन समय में वायसराय अथवा गवर्नर अपने पद से अवकाश ग्रहण करने से पूर्व राजाओं से विदाई लेने के नाम पर देशी रियासतों का दौरा किया करते थे, यद्यपि इनका वास्तविक प्रयोजन उनसे उपहार एवं भेटें प्राप्त करना होता था।

2. युद्धकालीन परिस्थितियाँ – द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप उत्पन्न परिस्थितियों के कारण देश में खाद्यान्नों सहित अन्य वस्तुओं का इतना अधिक अभाव हो गया कि सरकार ने बाध्य होकर व्यापार करने हेतु लाइसेंस एवं परमिट देना आरम्भ कर दिया। इससे भी भ्रष्टाचार को काफी प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। आजादी के पश्चात् देश के त्वरित आर्थिक विकास हेतु उपयुक्त योजनाओं का निर्माण करने तथा उपलब्ध समस्त संसाधनों पर प्रभावी नियन्त्रण स्थापित करने और उपभोक्ताओं को समस्त वस्तुओं एवं सामग्री का वितरण राशन प्रणाली के आधार पर सीमित मात्रा में करने के उद्देश्य की पूर्ति हेतु लाइसेंस, परमिट और कोटा की व्यवस्था प्रारम्भ की गई। इस व्यवस्था के अंतर्गत कारखानों से निश्चित मात्रा में वस्तुएँ प्राप्त करने के परमिट एवं अधिकार-पत्र कुछ विशेष व्यक्तियों को ही दिए जाने लगे। इस व्यवस्था का कु-परिणाम देश में व्यापक रूप से कालाबाजारी शुरू होने के रूप में सामने आया।

3. नैतिक मूल्यों में गिरावट – किसी भी विकसित समाज में शहरीकरण और औद्योगीकरण पर निरन्तर बल प्रदान किया जाता है, जिससे सामाजिक एवं वैयक्तिक मूल्यों में तथा आगे भौतिक मूल्यों में गिरावट आती है। विकास एवं समृद्धि बढ़ने के साथ-साथ मनुष्य की भौतिक आवश्यकताएँ बढ़ती जाती हैं और जो वस्तुएँ पूर्ण विलास की वस्तुएँ मानी जाती थीं, वे अब जीवन की आवश्यकताएँ बनती चली जाती हैं। इन समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धन अनिवार्य रूप से अपेक्षित है। ऐसा माना जाता है कि ईमानदारीपूर्वक धन कमाना काफी दुष्कर हैं अत: इस हेतु अनैतिक उपायों का सहारा लिया जाता है।

4. लालफीताशाही – सरकारी फाइलों को लाल फीते से बाँधे जाने को ही प्रशासनिक शब्दावली में ‘लालफीताशाही’ कहा जाता हैं। भारत में सरकारी कार्यालयों में कार्य सम्पन्न करने की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल एवं विलम्बकारी है। इनमें इतने अधिक नियमों एवं उपनियमों का संजाल विस्तृत है कि कोई भी कार्य चाहकर भी शीघ्रतापूर्वक सम्पन्न नहीं किया जा सकता फिर वह चाहे कितना ही महत्त्वपूर्ण जन-कल्याण सम्बन्ध विषय ही क्यों न हो? लाल फीते से बंधी फाइलों को एक अधिकारी की मेज से दूसरे अधिकारी की मेज तक पहुँचाने में काफी अधिक समय लग जाता है। फाइलों की यह स्थिति अधिकारियों के लिए रिश्वत हेतु आधार का सृजन करती है। अपना कार्य यथाशीघ्र कराने हेतु लोग सरकारी अधिकारियों को विभिन्न प्रकार से रिश्वत देने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करते। इस प्रकार की रिश्वतखोरी ऐसे विभागों में अधिक पाई जाती है जहाँ नागरिकों का सरकार के साथ सम्पर्क अधिक रहता है। इस प्रमुख विभाग के विभागों में प्रमुख हैं—व्यापार, उद्योग, सार्वजनिक निर्माण, कर, संचार एवं यातायात।

5. व्यापारी एवं औद्योगिक वर्ग – वर्तमान व्यापारी एवं औद्योगिक वर्ग में भ्रष्ट करने की आकांक्षा और योग्यता दोनों ही पर्याप्त मात्रा में पाई जाती हैं। आज अपना काम निकलवाने हेतु सुरा एवं सुन्दरियाँ भ्रष्टाचार के नए स्वरूप हो गए हैं। व्यावसायिक घरानों द्वारा ‘जन-सम्पर्क अधिकारियों एवं सम्बन्ध कायम रखने वाले व्यक्तियों को बड़ी संख्या में नियुक्त किया जाता है। ये व्यक्ति शासकीय अधिकारियों को अपने निकृष्ट उद्देश्यों की पूर्ति में सहायता प्रदान करने हेतु धन अथवा अन्य लाभ प्रदान करते हैं।

6. वेतन में असमानता – भारत में कर्मचारियों के वेतन में काफी अधिक असमानता पाई जाती है। अधिक वेतन के कारण जहाँ उच्चाधिकारी आरामदायक जीवन का यापन करते हैं, वहीं निचले स्तरों पर कार्यरत कर्मचारी कम वेतन के कारण ऐसा जीवन यापन नहीं कर पाते। आरामदायक और विलासितापूर्ण जीवन जीने की आकांक्षा उन्हें अनुचित साधनों से धन कमाने के लिए प्रेरित करती है। इस प्रकार वेतन में असमानता का प्रशासन पर व्यापक रूप से अनैतिक एवं विनाशकारी प्रभाव पड़ता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
सार्वजनिक सेवाओं का महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
सार्वजनिक सेवाओं का महत्त्व

किसी भी देश की शासन-व्यवस्था को सही रूप देने के लिए लोक सेवाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। ये आयोग लोक सेवाओं में योग्यता को एकमात्र मापदण्ड स्वीकार कर लोकतन्त्र के अर्थ व उसके व्यवहार को अभिव्यक्त करते हैं। ये प्रशासन को निष्पक्ष उपकरण प्रदान कर उसे राजनीतिक संस्थाओं के सम्भावित दबावों से बचाते हैं। संघ लोक सेवा आयोग के भूतपूर्व अध्यक्ष ए० आर० किदवई के शब्दों में, “संसदीय लोकतन्त्र में लोक सेवाओं में गुण-दोषों के आधार पर भर्ती की व्यवस्था होना आवश्यक होता है और यह काम लोक सेवा आयोग के माध्यम से ही होता है।” एम० वी० पायली के अनुसार, “किसी भी देश के प्रशासन का स्तर एवं कार्यक्षमता का आधार वहाँ की लोक सेवा के सदस्यों की मानसिक शक्ति प्रशिक्षण एवं सत्यनिष्ठा है।”

संविधान और उसके द्वारा आयोजित सरकार, शरीर एवं मस्तिष्क हैं तथा लोक सेवा आयोग हाथ के समान है। शासन को ही सही ढंग से चलाने के लिए कुशल, सुयोग्य, दक्ष, विद्वान् तथा ईमानदार पदाधिकारियों की उतनी ही आवश्यकता है जितनी मनुष्य को वायु की तथा मछली को पानी की। राज्य के द्वारा मनुष्य अपनी सारी इच्छाएँ पूरी करना चाहता है। यह तभी सम्भव है जब राज्य की शासन नीति को कार्यान्वित करने वाले केवल योग्य ही नहीं, अपितु पूर्ण रूप से सचेत एवं अनुभवशील व्यक्ति हों। लोक सेवा आयोग इसी कार्य को सम्पन्न करता है। ये स्थायी होते हैं। और इनके फलस्वरूप इनमें कार्य करने वाले व्यक्ति राज्य कार्य-प्रणाली के विषय में जन-निर्वाचित प्रतिनिधियों अथवा मन्त्रियों से अधिक व्यावहारिक ज्ञान रखते हैं। किसी भी सरकारी नीति का कुशल संचालन लोक सेवा के अन्तर्गत कार्य करने वाले मनुष्यों की दक्षता एवं कार्यकुशलता पर निर्भर रहता है। विलोबी का मत है कि “सार्वजनिक सेवाओं के प्रशासन के सम्बन्ध में कोई केन्द्रीय व्यवस्था करना बहुत आवश्यक है। सेवकों की नियुक्ति और उनके सामान्य प्रशासन के लिए एक केन्द्रीय निकाय होना चाहिए, जो निरन्तर इस बात को देखे कि जिन सिद्धान्तों पर सेवाओं की नियुक्ति होती है, उन सिद्धान्तों का पालन होता है अथवा नहीं।” इसी उद्देश्य से भारतीय संविधान में अखिल भारतीय सार्वजनिक सेवाओं के लिए एक ‘संघीय लोक सेवा आयोग की व्यवस्था की गयी है। साथ ही प्रत्येक राज्य में भी ‘राज्य लोक सेवा आयोग’ की स्थापना की गयी है। लोक सेवा आयोग का कार्य सरकारी अधिकारियों की नौकरी की दशाएँ, नियुक्ति, पदोन्नति आदि के सन्दर्भ में सरकार को परामर्श देना होता है।

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प्रश्न 2.
सरकारी महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति के लिए लोक सेवा आयोग अभ्यर्थियों का चयन करता है। यदि यह कार्य कैबिनेट मन्त्रियों को सौंप दिया जाए तो लोकतान्त्रिक सरकार की कार्यप्रणाली पर सम्भवतः क्या प्रभाव पड़ेगा? दो तर्क दीजिए। (2010)
उत्तर :
लोक सेवा आयोग संवैधानिक संस्था है जिसको संविधान से शक्ति व अधिकारों की प्राप्ति होती है। अत: उसके क्रियाकलाप निष्पक्ष होते हैं और समसामयिक आवश्यकताओं के अनुकूल रहते हैं। भारत में लोकतन्त्र अर्थात् भीड़तन्त्र का शासन है जिसमें किसी की जवाबदेही नहीं बनती है। मन्त्री भी विधायिका के हिस्से होते हैं जहाँ वोटों की दूषित राजनीति हावी रहती है। भारतीय प्रजातन्त्र शैशवावस्था में ही रेंग रहा है अतः लोक सेवकों की नियुक्ति के कार्य को लोक सेवा आयोग से लेकर मंत्रियों को आवंटित करने पर बड़े विपरीत परिणाम आएँगे जो देश को नैराश्य के गर्त में आकर डुबो देंगे। मूल रूप से लोकतान्त्रिक सरकार की कार्यप्रणाली पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ सकता है –

1. भर्ती किए गए कर्मचारी संविधान के प्रति निष्ठा न रखकर मन्त्रियों के प्रति भक्ति जाग्रत करने लगेंगे।
2. आज राजनीति में घनघोर भ्रष्टाचार व्याप्त है, ऐसे कुप्रबन्धन के दौर में अभ्यर्थियों के चयन में भी भ्रष्टाचार का बोलबाला बड़े पैमाने पर होने लगेगा,और भाई-भतीजावाद भी पनपेगा, इसकी आशंका निर्मूल नहीं है।

प्रश्न 3
लोकसेवाओं का महत्त्व बताइए। [2015]
उत्तर :
लोकसेवाओं का महत्त्व

लोकसेवाओं के सदस्य अनुभव एवं ज्ञान की निधि होते हैं। यद्यपि सैद्धान्तिक रूप में कानूननिर्माण का कार्य व्यवस्थापिका द्वारा और इन कानून को कार्य रूप में परिणत करने तथा प्रशासनिक नीति निर्धारित करने का कार्य कार्यपालिका द्वारा किया जाता है, किन्तु वास्तव में कानून-निर्माण तथा प्रशासन का संचालन इन दोनों ही क्षेत्रों में लोक सेवाओं द्वारा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया जाता है। वर्तमान समय के जटिल कानूनों के प्रारूपों का निर्माण सम्बन्धित नीति-निर्धारण और उसका लागू करने का कार्य भी लोक सेवाओं के सदस्य ही करते हैं। वस्तुतः एक राज्य का प्रशासन लोक सेवाओं की कार्यक्षमता पर ही निर्भर करता है। प्रो० लॉस्की ने लिखा, “प्रत्येक राज्य अपने सार्वजनिक अधिकारियों के गुणों पर बहुत अधिक सीमा तक निर्भर करता है।”

यद्यपि व्यवस्थापिका और न्यायपालिका भी सरकार के महत्त्वपूर्ण अंग हैं, किन्तु व्यवहार में सरकार का तात्पर्य कार्यपालिका से ही होता है और कार्यपालिका के भी जो दो अंग होते हैंराजनीतिक कार्यपालिका और स्थायी कार्यपालिका अर्थात् लोक सेवाएँ–उनमें व्यवहार की दृष्टि से राजनीतिक कार्यपालिका की अपेक्षा लोक सेवाएँ अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।

चाहे संसदीय शासन हो या अध्यक्षात्मक शासन, शासन कार्य मन्त्रियों और लोक सेवा पदाधिकारियों के पारस्परिक सहयोग से चलता है और इस पारस्परिक सम्बन्ध की विशेषता यह है कि मन्त्रिगण नौसिखिये (amature) होते हैं, लेकिन स्थायी पदाधिकारी अपने कार्य के विशेषज्ञ होते हैं। ऐसी स्थिति में सामान्यतया सभी बातों के सम्बन्ध में मन्त्रिगण लोक सेवा पदाधिकारियों के परामर्श के अनुसार ही कार्य करते हैं।

प्रश्न 4.
संघीय लोक सेवा आयोग के दो कार्य बताइए। [2008, 10, 11, 13, 15,16]
उत्तर :
संविधान के अनुच्छेद 220 के अनुसार संघीय लोक सेवा आयोग के दो कार्य निम्नवत् हैं।

1. नियुक्ति सम्बन्धी कार्य (प्रतियोगिता परीक्षाओं की व्यवस्था) लोक सेवा आयोग का एक प्रमुख कार्य शासन के प्रमुख पदों हेतु चयन कर नियुक्ति की व्यवस्था करना है। विभिन्न विभागों में रिक्त हुए स्थानों की सूचना शासन द्वारा लोक सेवा आयोग को दी जाती है। आयोग इन स्थानों की पूर्ति के लिए लिखित या मौखिक अथवा दोनों प्रकार की परीक्षाएँ आयोजित करता है। आयोग परीक्षा के नियम तथा कार्यक्रम व प्रार्थी की योग्यता के विषय में कुछ बातें निर्धारित करके उनका प्रकाशन समाचार-पत्रों में करता है। वह परीक्षाओं में भाग लेने के लिए सम्पूर्ण भारत या कुछ परिस्थितियों में किन्हीं विशेष क्षेत्रों के निवासियों से प्रार्थना-पत्र आमन्त्रित करता है। इन परीक्षाओं के आधार पर उनके द्वारा रिक्त स्थानों की पूर्ति हेतु सुयोग्य व्यक्तियों का चयन किया जाता है। 2011 की परीक्षाओं से आयोग ने परीक्षा प्रणाली में व्यापक फेर बदल किया है। अब प्रारम्भिक परीक्षा में अलग-अलग वैकल्पिक विषयों की व्यवस्था समाप्त कर दी गयी है तथा सभी अभ्यर्थियों को एक ही सामान्य रुझाने परीक्षा (Common Aptitude Test-CAT) में भाग लेना होगा। भविष्य में मुख्य परीक्षा में भी वैकल्पिक विषयों को समाप्त किये जाने की योजना है।

2. राज्य सरकारों की सहायता करना यदि दो या दो से अधिक संघीय लोक सेवा आयोग से किसी ऐसी नौकरी पर नियुक्ति की योजना बनाने में सहायता की प्रार्थना करें, जिसमें विशेष योग्यता सम्पन्न व्यक्तियों की आवश्यकता हों, तो संघीय आयोग इस कार्य में राज्यों की सहायता करेगा।

प्रश्न 5.
राज्य लोक सेवा आयोग के दो प्रमुख कार्य बताइए। [2015, 16]
उत्तर :
उत्तर प्रदेश या अन्य किसी राज्य के लोक सेवा आयोग के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं।

1. प्रतियोगी परीक्षाओं की व्यवस्था –  राज्य लोक सेवा आयोग का प्रमुख कार्य राज्य की सरकारी सेवाओं के पदों पर नियुक्ति के लिए मौखिक या लिखित, अथवा दोनों ही प्रकार की प्रतियोगिता परीक्षाओं की व्यवस्था करना और उनके परिणामों के आधार पर उम्मीदवारों का चयन करके उनकी नियुक्ति के लिए राज्यपाल से सिफारिश करना है।

2. परामर्श देना – संविधान में की गयी व्यवस्था के अनुसार राज्य लोक सेवा आयोग का कार्य निम्नलिखित विषयों में राज्यपाल को परामर्श देना है।

  1. असैनिक सेवाओं तथा असैनिक पदों पर भर्ती की प्रणाली के सम्बन्ध में परामर्श।
  2. असैनिक सेवाओं और पदों पर नियुक्ति, पदोन्नति, पदावनति तथा स्थानान्तरण के सम्बन्ध में अपनाये जाने वाले नियमों के सम्बन्ध में परामर्श।
  3. असैनिक सेवाओं में राज्य सरकार के अधीन काम करने वाले कर्मचारियों के अनुशासन के सम्बन्ध में परामर्श।
  4. राज्य सरकार के किसी कर्मचारी द्वारा सरकारी कार्य को पूरा करते हुए शारीरिक चोट या धन की क्षतिपूर्ति के लिए किये गये दावे के सम्बन्ध में परामर्श।
  5. राज्य सरकार के किसी कर्मचारी द्वारा पेन्शन या सरकारी मुकदमे में अपनी रक्षा में व्यय किये गये धन की क्षतिपूर्ति के दावे के सम्बन्ध में परामर्श
  6. राज्यपाल द्वारा भेजे गये अन्य किसी भी मामले के सम्बन्ध में परामर्श।

प्रश्न 6
राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों की स्वतन्त्रता पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
आयोग के सदस्यों की स्वतन्त्रता। भारत में लोक सेवा आयोगों को संवैधानिक स्थिति एवं संरक्षण प्रदान किया गया है, जबकि ब्रिटेन, अमेरिका और अन्य अनेक देशों में ऐसा नहीं है। वहाँ इनका गठन और संचालन व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों के आधार पर होती है। इस प्रकार, भारत में लोक सेवा आयोगों की स्थिति अधिक सुदृढ़ तथा स्वतन्त्र है। लोक सेवा आयोग के सदस्यों की स्वतन्त्रता के लिए संविधान में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गयी हैं –

  1. सुरक्षित कार्यकाल – आयोग के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष या 62 वर्ष की आयु तक निर्धारित कर दिया गया है जिससे कि वे निष्पक्षता और स्वतन्त्रता के साथ कार्य कर सकें। यह भी व्यवस्था कर दी गयी है कि कोई सदस्य दुबारा अपने पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता है।
  2. पदच्युति कठिन – आयोग के किसी सदस्य को संविधान द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही हटाया या निलम्बित किया जा सकता है।
  3. पर्याप्त और सुरक्षित वेतन – भत्ते-आयोग के सदस्यों के लिए पर्याप्त वेतन और भत्तों की व्यवस्था की गयी है और नियुक्ति के बाद इनकी सेवा शर्तों में कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।
  4. व्यय संचित निधि पर भारित – आयोग पर हुआ व्यय संघ अथवा राज्य की संचित निधि पर भारित है। अत: इस व्यय पर संसद या राज्य विधानमण्डल को मतदान करने का अधिकार नहीं है।
  5. अवकाश प्राप्ति के बाद आवश्यक प्रतिबन्ध – आयोग के अध्यक्ष या सदस्य कार्यकाल की समाप्ति के बाद किसी सरकारी पद पर नियुक्त नहीं किये जा सकते, केवल आयोगों में ही पदोन्नति के रूप में उनकी पुनः नियुक्ति हो सकती है।

संविधान की उपर्युक्त व्यवस्थाओं से स्पष्ट है कि आयोग के सदस्यों को निष्पक्षता से अपना कार्य करने के लिए यथेष्ट स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है। इन व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में संघीय लोक सेवा आयोग के एक भूतपूर्व सदस्य वी० सिंह ने कहा था, “संविधान द्वारा की गयी ये व्यापक व्यवस्थाएँ लोक सेवा आयोग की स्वतन्त्रता की गारण्टी देती हैं और कार्यपालिका के हस्तक्षेप से उन्हें पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करती हैं।”

प्रश्न 7.
भारत में सार्वजनिक सेवाओं के इतिहास पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
भारत में सार्वजनिक सेवाओं का इतिहास

आधुनिक सार्वजनिक सेवाओं का विकास भारत में ब्रिटिश काल से आरम्भ हुआ। वारेन हेस्टिग्स तथा लॉर्ड कार्नवालिस ने भारत में भू-राजस्व की वसूली के लिए सरकारी कर्मचारियों की नियुक्ति का आरम्भ किया। 1781 ई० में सर्वप्रथम ‘राजस्व मण्डल’ का गठन किया गया, जिसका कार्य राजस्व अधिकारियों की नियुक्ति करना था। 1787 ई० में जिला कलक्टर, मजिस्ट्रेट तथा जजों के पदों को एकीकृत किया गया और इन्हें प्रतिज्ञाबद्ध’ सिविल सर्विस का नाम दिया गया। लॉर्ड वेलेजली ने सर्वप्रथम सरकारी अधिकारियों को प्रशिक्षण हेतु फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता भेजा। 1813 ई० में इंग्लैण्ड के हेलिबरी नामक स्थान पर सिविल सर्विस के अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिए एक कॉलेज स्थापित किया गया। यह कॉलेज 1858 ई० तक चलता रहा।

स्वतन्त्र भारत में भारतीय सिविल सेवा (आई०सी०एस०) का स्थान भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई०ए०एस०) ने ले लिया। इसके साथ ही एक नई सेवा भारतीय विदेश सेवा (आई०एफ०एस०) का गठन किया गया। पूर्ववर्ती लोक सेवा आयोग का स्थान संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) ने ले लिया तथा परीक्षा में सफल उम्मीदवारों के लिए प्रशासनिक प्रशिक्षण की राष्ट्रीय अकादमी’, मसूरी तथा विशेषीकृत प्रशिक्षण अभिकरणों की स्थापना की गई। 27 जून, 1970 को केन्द्रीय सचिवालय में सेवा संवर्ग विभाग भी खोल दिया गया। वर्तमान समय में भारत में तीन अखिल भारतीय सेवाएँ, 59 केन्द्रीय सेवा ग्रुप ‘ए’ तथा अनेक राज्य स्तरीय लोक सेवाएँ हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
किन्हीं दो अखिल भारतीय सेवाओं के नाम बताइए। इसकी नियुक्ति में संघ लोक सेवा आयोग की क्या भूमिका है? [2008, 10, 11, 13, 15]
उत्तर :
दो अखिल भारतीय सेवाओं के नाम हैं –

  1. भारतीय प्रशासनिक सेवा तथा
  2. भारतीय पुलिस सेवा।।

संघ लोक सेवा आयोग अखिल भारतीय सेवाओं के लिए योग्यतम व्यक्तियों का चुनाव करता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए, आयोग में जो वांछित अंक प्राप्त कर लेते हैं, उसकी मौखिक परीक्षा ली जाती है। मौखिक परीक्षा में सफल होने पर अभ्यर्थी को निर्धारित पदों पर नियुक्त कर दिया जाता है।

प्रश्न 2.
संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की पद-मुक्ति कैसे होती है? [2008, 10, 16]
उत्तर :
संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यगण अपनी इच्छानुसार राष्ट्रपति को त्याग-पत्र देकर अपने पद से मुक्त हो सकते हैं। इसके साथ ही भारत का राष्ट्रपति निम्नलिखित परिस्थितियों में उन्हें अपदस्थ भी कर सकता है –

  1. उन पर दुर्व्यवहार का आरोप लगाया जाए और वह उच्चतम न्यायालय में सत्य सिद्ध हो जाए।
  2. यदि वे वेतन प्राप्त करने वाली अन्य कोई सेवा करने लगे।
  3. यदि वे न्यायालय द्वारा दिवालिया घोषित कर दिये जाएँ।
  4. यदि वे शारीरिक अथवा मानसिक रूप से कर्तव्यपालन के अयोग्य सिद्ध हो जाएँ।

प्रश्न 3.
सार्वजनिक या लोक सेवा का अर्थ बताइए।
उत्तर :
सार्वजनिक या लोक सेवा का अर्थ

सामान्य अर्थ में सरकारी सेवा को सार्वजनिक या लोक सेवा कहा जाता है। कुछ विद्वानों ने लोक सेवाओं को नौकरशाही’ का नाम दिया है। फाइनर ने इसे ‘मेज का शासन’ कहा है। वास्तव में लोक सेवा का आशय उस संगठन से है जिसमें कार्यकुशल, प्रशिक्षित तथा कर्तव्यपरायण कर्मचारी होते हैं तथा जिसमें आदेश की एकता’ तथा ‘पद सोपान’ के सिद्धान्त का पालन किया जाता है।

स्थायित्व, राजनीतिक रूप से तटस्थता, उच्च अधिकारियों का निचले स्तर के अधिकारियों पर शासन, आदेश की एकता (उच्च अधिकारी के आदेश का पालन सभी कर्मचारियों द्वारा किया जाना) लोक सेवा की प्रमुख विशेषताएँ मानी जाती हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
संविधान के किस अनुच्छेद के अन्तर्गत संघ के लिए एक लोक सेवा आयोग व प्रत्येक राज्य के लिए एक लोक सेवा आयोग की व्यवस्था की गयी है?
उत्तर :
संविधान के अनुच्छेद 315 के अन्तर्गत।

प्रश्न 2
संघ लोक सेवा आयोग का व्यय किस पर भारित होता है?
उत्तर :
संघ लोक सेवा आयोग का व्यय भारत सरकार की संचित निधि पर भारित होता है।

प्रश्न 3.
संघ लोक सेवा आयोग का गठन कब किया गया?
उत्तर :
1926 ई० में ली आयोग के द्वारा संघ लोक सेवा आयोग का गठन किया गया।

प्रश्न 4.
भारतीय लोक सेवाओं का जनक किसे कहा जाता है?
उत्तर :
लॉर्ड मैकाले को भारतीय लोक सेवाओं का जनक कहा जाता है।

प्रश्न 5.
संघ लोक सेवा आयोग की प्रथम महिला अध्यक्ष होने का गौरव किसको प्राप्त है?
उत्तर :
संघ लोक सेवा आयोग की प्रथम महिला अध्यक्ष होने का गौरव श्रीमती रोज मिलन मैथ्यू को प्राप्त है।

प्रश्न 6
अखिल भारतीय सेवाओं के नाम लिखिए। या दो अखिल भारतीय सेवाओं के नाम बताइए। [2008, 10, 11, 13]
उत्तर :
अखिल भारतीय सेवाओं के नाम हैं –

  1. I.A.S. भारतीय प्रशासनिक सेवा
  2. I.P S. भारतीय पुलिस सेवा तथा
  3. I.Es. भारतीय विदेश सेवा।

प्रश्न 7.
राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों का कार्यकाल बताइए।
उत्तर :
राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष है, परन्तु वे 62 वर्ष की आयु तक ही अपने पद पर रह सकते हैं।

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प्रश्न 8.
संघ लोक सेवा आयोग तथा राज्य लोक सेवा आयोग का मुख्य कार्य क्या है?
उत्तर :
दोनों का मुख्य कार्य प्रतियोगी परीक्षाओं का आयोजन कर कर्मचारियों का चयन करना है। प्रश्न 9 राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति कौन करता है? उत्तर राज्यपाल।

प्रश्न 10.
संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति कौन करता है? [2016]
उत्तर :
संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री के परामर्श से करता है।

प्रश्न 11
संघ लोक सेवा आयोग के किन्हीं दो कार्यों का उल्लेख कीजिए। (2008)
उत्तर :

  1. संघ की सरकार में नियुक्ति के लिए परीक्षा का संचालन करना।
  2. आयोग को निर्देशित किये गये किसी विषय पर तथा किसी अन्य विषय पर जिसे यथास्थिति राष्ट्रपति समुचित आयोग को निर्देशित करें, परामर्श देना।

प्रश्न 12.
संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की सेवानिवृत्ति आयु क्या है? [2013]
उत्तर :
संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की सेवानिवृत्ति आयु 65 वर्ष है।

प्रश्न 13.
राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति कौन करता है? [2016]
उत्तर
राज्यपाल।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों की नियुक्ति किसके द्वारा की जाती है ?
(क) संसद
(ख) राष्ट्रपति
(ग) मन्त्रिपरिषद्
(घ) प्रधानमन्त्री

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में कौन-सी अखिल भारतीय सेवा नहीं है?
(क) आई० ए० एस०
(ख) आई० पी० एस०
(ग) आई० सी० एस०
(घ) आई० एफ० एस०

प्रश्न 3.
नयी अखिल भारतीय सेवाएँ स्थापित करने का अधिकार किसको है? [2013]
(क) राष्ट्रपति
(ख) लोकसभा
(ग) संघीय लोक सेवा आयोग
(घ) राज्यसभा

प्रश्न 4.
ब्रिटिश भारत के लोक सेवा आयोग के प्रथम सदस्य कौन थे? [2014]
(क) सर रोज बार्कर
(ख) लॉर्ड मैकाले
(ग) लॉर्ड ली।
(घ) वारेन हेस्टिंग्स

प्रश्न 5.
निम्न में से केन्द्रीय लोक सेवा आयोग का कौन-सा कार्य है? [2014]
(क) खाली पदों का विज्ञापन करना।
(ख) परीक्षाओं का प्रबन्ध करना
(ग) (क) और (ख) दोनों
(घ) (क) और (ख) दोनों नहीं

प्रश्न 6.
सर्वप्रथम ‘राजस्व मण्डल’ को गठन कब किया? [2014]
(क) 1750 ई०
(ख) 1781 ई०
(ग) 1805 ई०
(घ) 1820 ई०

उत्तर :

  1. (ख) राष्ट्रपति
  2. (ग) आई० सी० एस०
  3. (ग) संघीय लोक सेवा आयोग
  4. (क) सर रोज बार्कर
  5. (ख) परीक्षाओं का प्रबन्ध करना
  6. (ख) 1781 ई०।

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UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 4

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पूर्णाक : 70
समय : 3 घण्टे 15 मिनट

निर्देश: प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
नोट:

    • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
    • आवश्यकतानुसार अपने उत्तरों की पुष्टि नामांकित रेखाचित्रों द्वारा कीजिए।
    • सभी प्रश्नों के निर्धारित अंक उनके सम्मुख

प्रश्न 1.
सही विकल्प चुनकर अपनी उत्तर पुस्तिका में लिखिए।
(क) हर्षे तथा चेज ने प्रयोग द्वारा सिद्ध किया कि [1]
(A) प्रोटीन का निर्माण RNA द्वारा होता है।
(B) DNA आनुवंशिक पदार्थ है।
(C) DNA द्विकुण्डलित होता है।
(D) DNA के द्वारा ही RNA का निर्माण होता है।

(ख) प्राथमिक उपभोक्ता है। [1]
(A) बाज
(B) शेर
(C) मृग
(D) भेड़िया

(ग) PCR की खोज किसने की? [1]
(A) जेम्स ग्रिफिथ
(B) जेम्स एलरिक ने
(C) कैरी मुलिस ने
(D) नैथन तथा स्मिथ ने

(घ) स्पाइरुलिना प्रसिद्ध है। [1]
(A) एगारोज निर्माण के लिए
(B) SCP निर्माण के लिए
(C) क्राईजीन के उत्पादन के लिए
(D) प्रतिजैविक निर्माण के लिए

प्रश्न 2.
(क) शुक्राणु में एक्रोसोम का क्या महत्त्व है? [1]
(ख) विश्व की सबसे समृद्ध जैव-विविधता कहाँ पाई जाती है? [1]
(ग) DNA अणु को वाँछित खण्डों में पृथकू करने के लिए किस एन्जाइम का उपयोग किया जाता है? [1]
(घ) पादपों में बहुगुणिता उत्पन्न कराने के लिए कौन-सा रसायन प्रयुक्त करते हैं? [1]
(ङ) ऐसे पादपों को क्या कहते हैं जो जल से संतृप्त स्थानों पर पाए जाते हैं। तथा पूर्णरूप या आंशिक रूप से जल में डूबे रहते हैं? [1]

प्रश्न 3.
(क) मेण्डल के युग्मकों की शुद्धता तथा स्वतन्त्र अपव्यूहन नियम पर प्रकाश डालिए [1+1]
(ख) पराग कण का स्वच्छ नामांकित चित्र बनाते हुए इसकी एक विशेषता बताइए। [1+1]
(ग) नवडार्विनवाद पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए। [1+1]
(घ) विश्व वन्य जीव कोष (WWF) क्या है? इसके उद्देश्य लिखिए। [2]
(ड़) ट्रान्सजेनिक किस विधि द्वारा प्राप्त होते हैं? इसके निर्माण के उद्देश्यों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [1+1]

प्रश्न 4.
(क) निएण्डरथल मानव के जीवाश्म कहाँ और किस युग की चट्टानों से प्राप्त हुए? इनकी कपाल गुहा का ‘आयतन कितना था? इनके कोई दो प्रमुख लक्षण बताइए। [1+1]
(ख) निम्न में अन्तर कीजिए [1 1/2+1 1/2]

  1. प्रतिजीविता एवं सहोपकारिता
  2. उत्पादक एवं उपभोक्ता

(ग) प्रतिजैविक औषधियाँ क्या हैं? ये किन पादपों से प्राप्त होती हैं? उदाहरण सहित बताइए। [1+2]
(घ) यदि आपको अपने घर से अपनी जीव विज्ञान प्रयोगशाला में एक जीवाणु का नमूना ले जाना हो, तो आप किस प्रकार का नमूना अपने साथ ले जाएँगें और क्यों? [3]

प्रश्न 5.
(क) मानव नर जननांगों से सम्बन्धित सहायक ग्रन्थियाँ कौन-सी हैं? संक्षेप में लिखिए। [3]
(ग) पारितन्त्र विविधता क्या है? इसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन ” कीजिए। [1 1/2+1 1/2]
(ख) एड्स क्या है? इसका विषाणु शरीर के किस भाग को प्रभावित करता है? इसका संचरण किस प्रकार होता है? [1+1+1]
(ग) पारितन्त्र विविधता क्या है? इसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन ” कीजिए। [1/2+14]
(घ) प्रत्यूर्जता क्या है? इसकी अनुक्रिया से किस इम्यूनोग्लोब्यूलिन का निर्माण होता है? [1+2]

प्रश्न 6.
(क) निम्न पर टिप्पणी लिखिए। [1 1/2+1 1/2]

  1. टर्नर सिण्ड्रोम
  2. क्राई-डू-चैट सिण्ड्रोम

(ख) निम्न पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए। [1+1+1]

  • अण्डोत्सर्ग
  • शुक्रकायान्तरण
  •  रजोनिवृत्ति

(ग) जैव-पेटेन्ट क्या है? इसका प्रमुख उद्देश्य क्या है? [1+2]
(घ) योग्यतम् की उत्तरजीविता का सिद्धान्त’ क्या है? इसे किसने प्रतिपादित किया? [2 +1]

प्रश्न 7.
जैव-विविधता से संरक्षण की आवश्यकता का वर्णन करते हुए इनकी प्रमुख संरक्षण विधियाँ बताइए। [5]
अथवा
मधुमक्खी पालन पर विस्तृत टिप्पणी कीजिए। [5]

प्रश्न 8.
ठोस अपशिष्ट क्या होता है? ठोस अपशिष्ट को वर्गीकृत करते हुए इनके निस्तारण की प्रमुख विधियाँ बताइए। [1+2+2]
अथवा
मानव में प्रोटीन-संश्लेषण की प्रक्रिया का सचित्र वर्णन कीजिए। [1+1+1+2]

प्रश्न 9.
आनुवंशिकीय रूपान्तरित फसलों की उपयोगिता तथा सम्भावित हानियों का वर्णन करें। [1+4]
अथवा
RCH कार्यक्रम क्या है? इसके प्रमुख उद्देश्य को विस्तारपूर्वक समझाइए। [1+4]

Answers

उत्तर 1.
(क) (B)
(ख) (C)
(ग) (C)
(घ) (B)

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 18 National Income

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 18 National Income (राष्ट्रीय आय) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 18 National Income (राष्ट्रीय आय).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 18
Chapter Name National Income (राष्ट्रीय आय)
Number of Questions Solved 34
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 18 National Income (राष्ट्रीय आय)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
राष्ट्रीय आय क्या है ? विस्तारपूर्वक समझाइए।
उत्तर:
राष्ट्रीय आय का अर्थ एवं परिभाषाएँ
‘राष्ट्रीय आय अथवा लाभांश उत्पादन के साधनों द्वारा किसी एक निश्चित समय में (प्रायः एक वर्ष में) उत्पादन किये गये पदार्थों एवं सेवाओं की शुद्ध मात्रा होती है अर्थात् एक वर्ष की अवधि में किसी देश में जितनी वस्तुओं और सेवाओं का कुल उत्पादन होता है, उसे ही उस देश की वास्तविक
राष्ट्रीय आय कहते हैं। राष्ट्रीय आय या राष्ट्रीय लाभांश की परिभाषा भिन्न-भिन्न अर्थशास्त्रियों ने भिन्न प्रकार से दी है, जिनमें से कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

(i) प्रो० मार्शल के अनुसार – ‘किसी देश के श्रम और पूँजी उसके प्राकृतिक साधनों पर कार्य करके, प्रतिवर्ष भौतिक तथा अभौतिक पदार्थों तथा समस्त प्रकार की सेवाओं की एक शुद्ध मात्रा उत्पन्न करते हैं। इसमें विदेशी विनियोग से प्राप्त आय भी जोड़ देनी चाहिए। यही देश की शुद्ध वास्तविक वार्षिक आय या राष्ट्रीय लाभांश है।’

शुद्ध आय से मार्शल का अभिप्राय है, कुल उत्पादन (Gross Product) में से ये राशियाँ घटा देनी चाहिए

  1. चल पूँजी का प्रतिस्थापना व्यय,
  2. अचल पूँजी का मूल्य ह्रास, मरम्मत और प्रतिस्थापना के लिए किया गया व्यय,
  3. कर,
  4. बीमे की प्रीमियम आदि।

गुण – मार्शल की परिभाषा सरल और स्पष्ट है। मार्शल की परिभाषा में निम्नलिखित बातें पायी जाती हैं

  1. राष्ट्रीय लाभांश देश में उत्पन्न होने वाली वास्तविक उत्पत्ति (Net Product) का योग है।
  2.  इसमें सभी प्रकार की सेवाएँ भी सम्मिलित की जाती हैं।
  3. इसमें विदेशों से प्राप्त होने वाली निबल आय भी सम्मिलित की जाती है।
  4. राष्ट्रीय लाभांश की गणना प्रतिवर्ष की जाती है।

प्रो० मार्शल की परिभाषा की आलोचनाएँ

  •  राष्ट्रीय आय की गणना अत्यन्त कठिन है। प्रो० मार्शल ने पदार्थों एवं सेवाओं को राष्ट्रीय आय की गणना का आधार माना है; अत: उनकी गणना करना तथा समस्त पदार्थों का मूल्य ज्ञात करना कठिन होता है। इस कारण राष्ट्रीय आय की गणना ठीक-ठीक नहीं हो सकती।।
  • प्रो० मार्शल की परिभाषा सैद्धान्तिक दृष्टि से अत्यन्त श्रेष्ठ होते हुए भी व्यावहारिक दृष्टि से पूर्ण नहीं है।

(ii) प्रो० पीगू के विचार –  पीगू ने मार्शल की परिभाषा की कमियों को दूर करने का प्रयत्न किया। प्रो० पीगू ने राष्ट्रीय लाभांश की निम्नलिखित परिभाषा दी है-“राष्ट्रीय लाभांश किसी समुदाय की वास्तविक आय (जिसमें विदेशों से प्राप्त आय भी सम्मिलित है) का वह भाग है जो द्रव्य के द्वारा मापा जा सकता है।”

प्रो० पीगू ने राष्ट्रीय आय में उत्पत्ति के केवल उसी भाग को सम्मिलित किया है जिसका द्रव्य में मूल्यांकन किया जा सकता है।

आलोचनाएँ

  • प्रो० पीगू की परिभाषा में संकीर्णता का दोष विद्यमान है, क्योंकि प्रो० पीगू के अनुसार, राष्ट्रीय आय समस्त उत्पादन नहीं, वरन् उसका केवल वह भाग है जिसे द्रव्य में मापा जा सकता है।
  •  प्रो० पीगू की परिभाषा में विरोधाभास पाया जाता है। यदि कोई कार्य द्रव्य के बदले में किया जाए तब वह राष्ट्रीय आय में सम्मिलित किया जाएगा और यदि वही कार्य सेव-भाव से किया जाए तो राष्ट्रीय आय में सम्मिलित नहीं किया जाएगा।

गुण – प्रो० पीगू की परिभाषा में संकीर्णता एवं विरोधाभास के अवगुण होते हुए भी यह अधिक व्यावहारिक है तथा इसके द्वारा राष्ट्रीय लाभांश की गणना सरलतापूर्वक की जा सकती है।
प्रो० फिशर के विचार – प्रो० मार्शल तथा प्रो० पीयू ने राष्ट्रीय आय की परिभाषा उत्पादन की दृष्टि से की है, जबकि प्रो० फिशर ने राष्ट्रीय आय की परिभाषा उपभोग की दृष्टि से की है।

(iii) प्रो० फिशर के अनुसार, “राष्ट्रीय लाभांश अथवा आय में केवल वे सेवाएँ सम्मिलित की जा सकती हैं जो कि अन्तिम उपभोक्ताओं को प्राप्त होती हैं, चाहे वे सेवाएँ भौतिक परिस्थितियों से उत्पन्न हुई हों या मानवीय परिस्थितियों से।
प्रो० फिशर ने अपनी परिभाषा में इस बात पर विशेष बल दिया है कि राष्ट्रीय आय में वर्ष की वास्तविक उत्पत्ति का केवल वह भाग सम्मिलित किया जाता है जिसका प्रत्यक्ष रूप से उपभोग किया जाता है। उन्होंने बताया कि एक पियानो या ओवर कोट जो इस वर्ष मेरे लिए बनाया गया है, इस वर्ष की आय का अंश नहीं है, बल्कि केवल पूँजी में वृद्धि है। केवल वे सेवाएँ जो इस वर्ष के भीतर मुझे प्राप्त हैं, आय में सम्मिलित की जाएँगी।

आलोचना
प्रो० फिशर का मत तर्कसंगत है, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से अनुपयुक्त है, क्योंकि इस आधार पर राष्ट्रीय आय की गणना करना असम्भव है।
उपर्युक्त तीनों विचारकों की परिभाषाओं का विश्लेषण करने के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रो० मार्शल की परिभाषा ही अधिक उचित है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
राष्ट्रीय आय की निम्न संकल्पनाओं का सामान्य परिचय दीजिए [2010]
(अ) सकल घरेलू उत्पाद (G.D.P),
(ब) सकल राष्ट्रीय उत्पाद (G.N.P),
(स) शुद्ध घरेलू उत्पाद (N.D.P),
(द) निवल राष्ट्रीय उत्पाद (N.N.P)
या
राष्ट्रीय आय की विभिन्न संकल्पनाओं की व्याख्या कीजिए। [2008, 14]
या
सकल घरेलू उत्पाद क्या है? [2012, 13]
या
सकल घरेलू उत्पाद और सकल राष्ट्रीय उत्पाद का अर्थ लिखिए। [2012]
या
निवल राष्ट्रीय उत्पाद क्या है? [2012]
या
सकल राष्ट्रीय उत्पाद को परिभाषित कीजिए। [2012]
या
शुद्ध घरेलू उत्पाद को परिभाषित कीजिए। [2013]
उत्तर:
(अ) सकल घरेलू उत्पाद (G.D.P.)
देश में एक वर्ष की अवधि में उत्पादित समस्त वस्तुओं और सेवाओं के मौद्रिक मूल्य के योग को सकल घरेलू उत्पाद कहते हैं। इसमें केवल अन्तिम वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों को ही लिया जाता है। अन्तिम वस्तु वह वस्तु है जो उपभोग कर ली जाती है तथा जिसका उपयोग अन्य किसी वस्तु के उत्पादन में कच्चे माल के रूप में नहीं किया जाता। सकल घरेलू उत्पाद में यह आवश्यक नहीं कि उत्पादन देश के नागरिकों के द्वारा ही हो। उसमें कुछ भाग उन विदेशियों की उत्पादक सेवाओं का परिणाम हो सकता है जिन्होंने अपनी पूँजी तथा तकनीकी ज्ञान का उपयोग करके देश में कुल उत्पादन के कुछ भाग का उत्पादन किया है।

(ब) सकल राष्ट्रीय उत्पाद (G.N.P)
सकल राष्ट्रीय उत्पाद किसी देश के नागरिकों द्वारा किसी दी हुई समयावधि में (सामान्यतया एक वर्ष में) उत्पादित कुल अन्तिम वस्तुओं तथा सेवाओं का मौद्रिक मूल्य होता है।
किसी देश की सकल उत्पत्ति (G.N.P) देश के नागरिकों द्वारा एक निश्चित समयावधि में उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं का मौद्रिक मूल्य होता है। अत: सकल घरेलू उत्पाद में देशवासियों द्वारा देश के बाहर उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य को भी सम्मिलित किया जाता है।
अतः सकल राष्ट्रीय उत्पाद में विदेशों में निवेश एवं विदेशों में प्रदान की गयी अन्य साधन सेवाओं के लिए देश के नागरिकों को विदेशों से प्राप्त आय को सकल घरेलू उत्पाद में जोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार देश के अन्दर विदेशियों द्वारा उत्पादित आय को सकल घरेलू उत्पाद में से घटा दिया जाना चाहिए। सकल राष्ट्रीय उत्पाद को निम्नलिखित समीकरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है
G.N.P = G.D.P +X – M
उपर्युक्त समीकरण में G.N.P = सकल राष्ट्रीय उत्पाद,
G.D.P = सकल घरेलू उत्पाद,
X = देशवासियों द्वारा विदेशों में अजत आय,
M = विदेशियों द्वारा देश में अर्जित आय।।
उपर्युक्त समीकरण से स्पष्ट है कि x = M है, तो G.N.P = G.D.P के होगा।

(स) शुद्ध घरेलू उत्पाद (N.D.P.)
सकल घरेलू उत्पाद में से ह्रास व्यय को घटाकरं शुद्ध घरेलू उत्पाद ज्ञात किया जाता है।
सुत्र शुद्ध घरेलू उत्पाद = सकल घरेलू उत्पाद – घिसावट

(द) निवल राष्ट्रीय उत्पाद (N.N.P)
निवल राष्ट्रीय उत्पाद ज्ञात करने के लिए सकल राष्ट्रीय उत्पाद (G.N.P) में से मूल्य ह्रास व्यय, चल पूँजी का प्रतिस्थापन व्यय, अचल पूँजी का मूल्य ह्रास, मरम्मत और प्रतिस्थापना के लिए किया गया व्यय, कर, बीमे की प्रीमियम आदि को घटाना होता है।
गणितीय समीकरण – N.N.P = G.N.P – Depreciation
शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद = सकल राष्ट्रीय उत्पाद – ह्रास
इसे शुद्ध राष्ट्रीय आय भी कहते हैं।

प्रश्न 2
राष्ट्रीय आय की गणना-विधियाँ कौन-कौन-सी हैं ? समझाइए।
या
राष्ट्रीय आय मापने की प्रमुख विधियाँ बताइए। [2009, 10]
या
राष्ट्रीय आय अनुमान की विभिन्न अवधारणाओं की व्याख्या कीजिए।
या
राष्ट्रीय आय क्या है? राष्ट्रीय आय के आकलन (नापने) की किसी एक विधि की विवेचना कीजिए। [2013, 14]
या
राष्ट्रीय आय क्या है? इसे मापने की उत्पादन गणना विधि अथवा आय गणना विधि में से किसी एक विधि का वर्णन कीजिए। [2013]
या
राष्ट्रीय आय मापने की किसी एक विधि को समझाइए। [2014]
या
राष्ट्रीय आय को अनुमानित करने की उत्पादन विधि का वर्णन कीजिए। [2015]
या
राष्ट्रीय आय मापने की उत्पादन विधि को समझाइए। [2015, 16]
उत्तर:
[संकेत-राष्ट्रीय आय की परिभाषा के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 देखें।

राष्ट्रीय आय की गणना-विधियाँ 
राष्ट्रीय आय की गणना करने के लिए निम्नलिखित विधियों का प्रयोग किया जाता है

1. उत्पादन गणना-विधि – इस विधि में देश के सभी प्रकार के उत्पादकों का कुल उत्पादन ज्ञात किया जाता है। कुल उत्पादन ज्ञात करने के लिए वे समस्त वस्तुएँ व सेवाएँ जिनका विक्रय किया गया है, स्वयं प्रयोग की गयी वस्तुएँ तथा बचे हुए स्टॉक को जोड़ दिया जाता है। कुल उत्पादन में से ह्रास व अप्रचलन घटाकर शुद्ध उत्पादन ज्ञात कर लिया जाता है। सभी उत्पादकों के शुद्ध उत्पादन के योग में समस्त राष्ट्र का वास्तविक कुल घरेलू उत्पादन तथा शुद्ध विदेशी आय जोड़ देने से कुल राष्ट्रीय लाभांश ज्ञात हो जाता है। इस रीति के अन्तर्गत एक वर्ष में वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन के मौद्रिक मूल्य का योग निकाला जाता है तथा देश के वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन सम्बन्धी आँकड़े एकत्रित किये जाते हैं। इस विधि को वस्तु-सेवा गणना-विधि भी कहा जाता है।
इस विधि का प्रमुख दोष यह है कि इसमें कभी-कभी वस्तुओं की दोहरी गणना हो जाती है। दूसरे, इस रीति के अनुसार सेवाओं का मूल्यांकन करना कठिन हो जाता है।

2. आय गणना-विधि – इस विधि में देश के सभी व्यक्तियों की आय ज्ञात करके उन्हें जोड़ दिया जाता है। इस प्रकार कुल राष्ट्रीय आय ज्ञात हो जाती है। इस विधि को प्रयोग में लाने के लिए जो व्यक्ति आयकर देते हैं उनकी आय तो आय कर विभाग से मालूम कर ली जाती है और जो लोग आयकर नहीं देते, उनकी आय पारिवारिक बजट व अन्य सूचनाएँ एकत्रित करके ज्ञात की जाती है। परन्तु जो व्यक्ति आय कर नहीं देते उनके सम्बन्ध में वास्तविक जानकारी प्राप्त करना एक कठिन कार्य है। इसलिए आय का सही ज्ञान नहीं हो पाता है।

3. व्यय गणना-रीति – इस रीति के अनुसार सभी नागरिकों द्वारा किया गया व्यय एवं बचतों को जोड़ दिया जाता है। यही जोड़ राष्ट्रीय आय कहलाता है। इस बात को हम इस प्रकार कह सकते हैं। कि व्यक्तिगत आय = उपभोग व्यय + बचते या राष्ट्रीय आय = राष्ट्रीय उपभोग व्यय + राष्ट्रीय बचते। किसी देश का विनियोग राष्ट्रीय बचत पर निर्भर होता है या बचतों के बराबर होता है। इसलिए इस रीति को ‘उपभोग विनियोग रीति’ भी कहा जाता है। इस विधि की सबसे बड़ी कमी यह है कि देश के सभी व्यक्तियों के उपभोग व्यय सम्बन्धी आँकड़ों व बचतों की सही जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती है। इस कारण राष्ट्रीय आय की गणना करना कठिन होता है।

4. मिश्रित विधि – इस विधि के समर्थक डॉ० वी० के० आर० वी० राव हैं। इस प्रणाली में उत्पादन गणना-रीति व आय गणना-रीति दोनों का मिला-जुला उपयोग किया जाता है। कृषि, खनिज तथा उद्योगों के क्षेत्र में उत्पादन गणना-रीति और व्यापार, परिवहन, प्रशासनिक सेवाओं व अन्य सेवाओं आदि के क्षेत्र में आय गणना-रीति का उपयोग किया जाता है। भारत की राष्ट्रीय आय का अनुमान लगाने के लिए राष्ट्रीय आय समिति ने इसी गणना विधि का प्रयोग किया था। इस मिली-जुली विधि का प्रयोग हमारे देश के लिए उपयुक्त है।

प्रश्न 3
राष्ट्रीय आय की गणना सम्बन्धी कठिनाइयों का वर्णन कीजिए। [2007, 16]
या
राष्ट्रीय आय क्या है ? भारत की राष्ट्रीय आय की गणना में मुख्य कठिनाइयों को बताइए।
उत्तर:
(संकेत–राष्ट्रीय आय की परिभाषा के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का उत्तर देखें।)
भारत में राष्ट्रीय आय की गणना सम्बन्धी कठिनाइयाँ
भारत में राष्ट्रीय आय को ज्ञात करने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना होता है। इनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं

1. वस्तुओं व सेवाओं का मूल्य मुद्रा में जानने में कठिनाई  – राष्ट्रीय आय की गणना मुद्रा या द्रव्य में की जाती है। परन्तु हम अपने दैनिक जीवन में देखते हैं कि अनेक वस्तुएँ तथा सेवाएँ ऐसी होती । हैं जिनके मूल्य को द्रव्य में नहीं मापा जा सकता; जैसे-माँ व स्त्री की सेवाएँ, प्रेम, दया, अपने द्वारा उत्पादित वस्तुओं को स्वयं उपभोग करना आदि। राष्ट्रीय आय की गणना के लिए समस्त उत्पादित वस्तुओं का द्राव्यिक मूल्य ज्ञात करना अनिवार्य है। भारत में कृषक स्व-उत्पादित वस्तुओं का एक बड़ा भाग स्वयं ही उपभोग कर लेते हैं। अत: भारत में कृषि क्षेत्र में उत्पादित वस्तुओं का ठीक-ठीक द्राव्यिक मूल्य ज्ञात करना अत्यन्त कठिन कार्य है।

2. आँकड़ों का विश्वसनीय न होना – राष्ट्रीय आय का अनुमान तभी ठीक प्रकार से लगाया जा सकता है, जबकि उत्पादन आय से सम्बन्धित प्राप्त होने वाले आँकड़े ठीक एवं विश्वसनीय हों। परन्तु भारत की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग अशिक्षित है। अत: वह अपने आय-व्यय का हिसाब ठीक प्रकार से नहीं रख पाता है, जिसके कारण राष्ट्रीय आय की गणना करने में कठिनाई आती है।

3. व्यावसायिक विशिष्टीकरण का अभाव – हम जानते हैं कि देश में जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग कृषि कार्य में लगा हुआ है। कृषि पर जनसंख्या का भार इतना अधिक है कि कृषकों की जीविका केवल कृषि से नहीं चल पाती है। अतः अपनी जीविका को चलाने के लिए कुटीर उद्योग चलाने पड़ते हैं या लघु उद्योगों में कार्य करना होता है। इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि देश में व्यावसायिक विशिष्टीकरण का अत्यन्त अभाव है जिससे देश की राष्ट्रीय आय को अनुमान करना अत्यन्त कठिन कार्य हो जाता है।

4. विभिन्न क्षेत्रों की भिन्न-भिन्न परिस्थितियाँ – भारत में विभिन्न क्षेत्रों की परिस्थितियाँ भिन्न-भिन्न हैं। अत: किसी क्षेत्र विशेष सम्बन्धी जानकारी को अन्य क्षेत्रों में प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। इसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आय की गणना में अनेक व्यावसायिक बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

5. दोहरी गणना की सम्भावना बनी रहना – राष्ट्रीय आय में प्राय: दोहरी गणना की सम्भावना बनी रहती है।

6. अविकसित देशों में राष्ट्रीय आय की उचित गणना का न होना – प्रायः अविकसित देशों में राष्ट्रीय आय की उचित गणना नहीं हो पाती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि अविकसित देशों की अर्थव्यवस्था में अनेक वस्तुओं व सेवाओं का आदान-प्रदान द्रव्य के माध्यम से नहीं होता है।

7. मूल्य ह्रास का सही अनुमान न होना – मूल्य ह्रास वे प्रतिस्थापन का अनुमान सही ने लगा पाना, क्योंकि ये अनुमानित समय के पूर्व ही घटित हो सकते हैं; अतः सही राष्ट्रीय आय की गणना कठिन है।

8. मूल्यांकन की समस्या – उत्पादन गणना विधि के अनुसार उत्पादित वस्तुओं की मात्राओं को मूल्यों से गुणा करके विभिन्न गुणनफलों के योग को राष्ट्रीय आय कहा जाता है। परन्तु इसमें यह कठिनाई है कि गणना करते समय थोक या फुटकर कौन-सी कीमत से गणना करनी चाहिए, स्पष्ट नहीं होता।

9. हस्तान्तरण आय और उत्पादक आय में भेद करना कठिन – जबे सरकार बाजार से ऋण लेकर उनका प्रयोग अनुत्पादक कार्यों में करती है, तब ऐसे ऋणों पर ब्याज ‘हस्तान्तरण आय कहलाती है। परन्तु जब उनको प्रयोग उत्पादक कार्यों में होता हैं तो उन ऋणों पर ब्याज उत्पादक आय’ कहलाती है। राष्ट्रीय आय में हस्तान्तरण आय को नहीं जोड़ा जाता, जबकि उत्पादक आय को जोड़ा जाता है। यह ज्ञात करना कठिन है कि ऋण का कितना भाग उत्पादक है और कितना अनुत्पादक, जिससे राष्ट्रीय आय का अनुमान सही नहीं होता है।

10. कुटीर उद्योगों का उत्पादन – कुटीर उद्योग प्रायः अशिक्षित व्यक्तियों द्वारा संचालित होते हैं जो कि अपने व्यवसाय के ठीक-ठीक आँकड़े रखने में असमर्थ होते हैं। अत: इस क्षेत्र के उत्पादक आँकड़े अविश्वसनीय होते हैं।

11. वस्तुओं और सेवाओं का चुनाव – वस्तुओं और सेवाओं के चुनाव के सम्बन्ध में यह निर्णय करना अत्यधिक कठिन हो जाता है कि अमुक वस्तु अर्द्धनिर्मित है या अन्तिम।

प्रश्न 4
राष्ट्रीय आय से आप क्या समझते हैं? इसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2009, 10, 14]
उत्तर:
[संकेत – शीर्षक ‘राष्ट्रीय आय से आप क्या समझते हैं?’ के लिए इसी अध्याय के विस्तृत उत्तरीय प्रश्न सं० 1 के उत्तर को देखिए।]

राष्ट्रीय आय का महत्त्व
1. राष्ट्रीय आय से देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति का ज्ञान होता है – किसी राष्ट्र की आर्थिक सम्पन्नता उसके द्वारा प्रतिवर्ष उपार्जित आय पर निर्भर होती है। किसी देश की राष्ट्रीय आय को देखकर यह अनुमान लगा लिया जाता है कि देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति किस प्रकार की है ? यदि किसी देश की राष्ट्रीय आय कम है तो इसका अर्थ है कि देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि करने की आवश्यकता है।

2. भविष्य का विकास सम्बन्धी प्रवृत्तियों का ज्ञान – राष्ट्रीय आय से किसी देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति का ही नहीं बल्कि उसके भावी विकास का भी पता लग जाता है। यदि राष्ट्रीय आय में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है तब भविष्य में आर्थिक विकास अच्छा होगा तथा लोगों का जीवन-स्तर ऊँचा होगा। यदि देश में राष्ट्रीय आय कम है तथा उसकी विकास दर भी कम है तो इसका स्पष्ट अर्थ है। कि देश का भविष्य उज्ज्वल नहीं है।

3. देश के आर्थिक कल्याण का ज्ञान – किसी देश की राष्ट्रीय आय तथा उसके आर्थिक कल्याण में घनिष्ठ सम्बन्ध है, “राष्ट्रीय आय को आर्थिक कल्याण का मापक कहा जाता है। अन्य बातें समान रहने पर किसी देश की राष्ट्रीय आय जितनी अधिक होती है उसका आर्थिक कल्याण भी उतना ही अधिक होता है तथा राष्ट्रीय आय के कम हो जाने पर आर्थिक कल्याण घट जाता है।

4. राष्ट्रीय आय से देश के लोगों के रहन – सहन के स्तर का ज्ञान-राष्ट्रीय आय को देखकर यह पता लग जाता है कि देश के लोगों का रहन-सहन का स्तर किस प्रकार का है। देश में प्रति व्यक्ति आय जितनी अधिक होती है लोगों का ज़ीवन-स्तर भी उतना ही ऊँचा होता है। प्रति व्यक्ति आय का कम होना निम्न जीवन-स्तर का सूचक होता है।

5. भिन्न देशों की आर्थिक प्रगति की तुलना – राष्ट्रीय आय के द्वारा दो विभिन्न देशों की आर्थिक प्रगति की तुलना की जा सकती है तथा यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि देश के आर्थिक विकास के लिए अभी कितनी सम्भावनाएँ शेष हैं।

6. आर्थिक नियोजन में महत्त्व – राष्ट्रीय आय को देखकर ही देश के भावी विकास सम्बन्धी योजनाएँ तैयार की जाती हैं। देश के आर्थिक नियोजन को सफल बनाने के लिए राष्ट्रीय आय का ज्ञान आवश्यक है।

7. राष्ट्रीय आय का पूँजी-निर्माण में महत्त्व – पूँजी-निर्माण किसी देश के आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है। पूँजी-निर्माण बचत पर निर्भर होता है, बचत प्रति व्यक्ति आय एवं राष्ट्रीय आय से प्रभावित होती है; अतः राष्ट्रीय आय पूँजी-निर्माण को प्रभावित करती है।

प्रश्न 5
राष्ट्रीय आय के आर्थिक विकास में योगदान की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रीय आय एवं आर्थिक विकास
आर्थिक विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा दीर्घकाल में किसी अर्थव्यवस्था की वास्तविक राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है। अत: किसी देश के द्वारा अपनी वास्तविक राष्ट्रीय आय बढ़ाने हेतु सभी उत्पादन साधनों का कुशलतम प्रयोग करना ही आर्थिक विकास है।

आर्थिक विकास और राष्ट्रीय आय का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। किसी देश का आर्थिक विकास करने का अर्थ उस देश की राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के साथ-साथ देश के सर्वांगीण विकास एवं सामाजिक कल्याण में वृद्धि करना भी है, जिससे उसके प्रत्येक निवासी का जीवन-स्तर ऊँचा उठ सके तथा मानव के आर्थिक कल्याण में वृद्धि हो सके। इसी प्रकार यदि किसी देश की राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है तो इसका भी यही अर्थ है कि देश के आर्थिक विकास का प्रयत्न किया जा रहा है। राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होने से निर्धनता दूर होगी, देशवासियों को पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध हो सकेंगी और उनका जीवन सुखमय होगा।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि राष्ट्रीय आय व आर्थिक विकास एक-दूसरे के सहयोगी हैं।’ किसी देश में राष्ट्रीय आय में उत्तरोत्तर वृद्धि उसकी आर्थिक प्रगति की सूचक होती है। राष्ट्रीय आय के आधार पर ही विकसित, विकासशील व पिछड़े देशों के मध्य तुलना की जाती है। प्रायः उच्च राष्ट्रीय आय व उच्च प्रति व्यक्ति आय वाले देशों को विकसित देश कहा जाता है। इसके विपरीत कम आय वाले देशों को विकासशील देश कहा जाता है। इस प्रकारे स्पष्ट है कि आर्थिक विकास व राष्ट्रीय आय में घनिष्ठ सम्बन्ध है।

प्रश्न 6
भारत में प्रति व्यक्ति आय कम होने के कारण बताइए। [2016]
उत्तर:
भारत में प्रति व्यक्ति आय कम होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

1. कृषि की प्रधानता एवं कृषि का पिछड़ा होना –  भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान है। देश की लगभग जनसंख्या 58.2% जनसंख्या कृषि तथा कृषि से सम्बन्धित कार्य में संलग्न है, जब कि भारत की राष्ट्रीय आय में कृषि का योगदान 22% तक ही है। फिर भी आज भारतीय कृषि पिछड़ी दशा में है, साथ ही कृषक रूढ़िवादी तथा भाग्यवादी हैं। अत: कृषि उत्पादन कम है तथा प्रति व्यक्ति आय आय भी नीची है।

2. औद्योगिक पिछड़ापन यद्यपि पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत पर्याप्त औद्योगिक विकास हुआ है, फिर भी भारत विकसित देशों की तुलना में औद्योगिक दृष्टि से बहुत पीछे है। फलत: प्रति व्यक्ति आय का स्तर नीचा है।

3. जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि भारत की जनसंख्या लगभग 121 करोड़ है और उसमें तीव्र गति से वृद्धि हो रही है। जनाधिक्य के कारण भी प्रति व्यक्ति आय कम रहती है।

4. कम उत्पादकता भारत में प्रति श्रमिक उत्पादकता अन्य देशों की अपेक्षा कम है। इससे प्रति व्यक्ति आय भी कम रहती है।

5. साहस का अभाव भारत में विकसित देशों की अपेक्षा जोखिम उठाकर नवीन उद्योगों की स्थापना करने वाले साहसियों का अभाव है। अत: कुल उत्पादन तथा प्रति व्यक्ति उत्पादन का स्तर नीचा रहता है। अतः प्रति व्यक्ति आय भी कम रहती है।

6. पूँजी का अभाव भारत में बचतें कम होने के कारण पूँजी-निर्माण कम होता है। अत: निवेश भी कम होता है। अतः प्रति व्यक्ति आय कम रहती है।

7. प्राकृतिक साधनों का समुचित प्रयोग न होना नियोजित अर्थव्यवस्था के होते हुए भी देश के प्राकृतिक साधनों का समुचित एवं पूर्ण उपयोग नहीं हो पा रहा है। अतः कुल उत्पादन तथा प्रति व्यक्ति उत्पादन कम रहता है। अतः प्रति व्यक्ति आय भी कम रहती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय में अन्तर बताइए। [2016]
उत्तर:
राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 18 National Income 1

प्रश्न 2
सकल घरेलू उत्पाद और सकल राष्ट्रीय उत्पाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2006, 11, 15]
उत्तर:
सकल घरेलू उत्पाद और सकल राष्ट्रीय उत्पाद में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 18 National Income 2

प्रश्न 3
राष्ट्रीय आय समिति पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
राष्ट्रीय आय समिति
भारत सरकार ने सन् 1949 में एक राष्ट्रीय आय समिति की स्थापना की, जिसके अध्यक्ष प्रो० महालनोबिस थे। राष्ट्रीय आय समिति का कार्य राष्ट्रीय आय सम्बन्धी आँकड़ों को एकत्रित करना और राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय के सन्दर्भ में प्रतिवेदन तैयार करना था। राष्ट्रीय आय अनुमान विधियों में सुधार हेतु सुझाव देना भी समिति का कार्य था। इस समिति ने राष्ट्रीय अनुमान की एक श्रेष्ठ विधि अपनायी। समिति ने आवश्यकतानुसार उत्पादन गणना-रीति व आय गणना-रीति दोनों का प्रयोग किया तथा राष्ट्रीय आय के अनुमान प्रस्तुत किये। राष्ट्रीय आय समिति ने अपनी अन्तिम रिपोर्ट 1954 में दी थी। इस समिति के अनुसार, सन् 1948-49 में देश की कुल राष्ट्रीय आय ₹8,650 करोड़ तथा 1950 में ₹ 9,530 करोड़ थी। इस प्रकार सन् 1950-51 में भारतीय प्रति व्यक्ति आय र 266 थी।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
राष्ट्रीय आय की गणना करने की किन्हीं दो विधियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
(i) उत्पादन गणना-विधि तथा
(ii) आय गणना-विधि।

प्रश्न 2
प्रति व्यक्ति औसत आय की गणना कैसे की जाती है ? [2007, 38, 10, 12, 14, 15]
या
प्रति व्यक्ति आय जानने का सूत्र क्या है? [2015, 14, 15]
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 18 National Income 3

प्रश्न 3
फिशर ने राष्ट्रीय आय की परिभाषा में किस पक्ष पर विशेष महत्त्व दिया है ?
उत्तर:
प्रो० फिशर ने राष्ट्रीय आय की परिभाषा में उत्पादन के स्थान पर उपभोग पक्ष को अधिक महत्त्व दिया है।

प्रश्न 4
शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद को परिभाषित कीजिए। [2017, 08]
उत्तर:
सकल राष्ट्रीय उत्पादन (G.N.P) में से मूल ह्रास व्यय, चल पूँजी का प्रतिस्थापन व्यय, अचल पूँजी का मूल्य ह्रास, मरम्मत और प्रतिस्थापन के लिए किया गया व्यय, कर, बीमे की प्रीमियम आदि को घटाने के पश्चात् जो शेष रहता है उसे शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद कहते हैं।

प्रश्न 5
उस अर्थशास्त्री का नाम बताइए जिसने राष्ट्रीय आय की परिभाषा में उपभोग पक्ष पर बल दिया है।
उत्तर:
प्रो० फिशर।

प्रश्न 6
राष्ट्रीय आय किसी समुदाय की वास्तविक आय जिसमें विदेशों से प्राप्त होने वाली आय भी सम्मिलित रहती है, का वह भाग है, जो द्रव्य द्वारा मापा जा सकता है। यह परिभाषा किस अर्थशास्त्री की है ?
उत्तर:
प्रो० पागू की।

प्रश्न 7
राष्ट्रीय आय को परिभाषित कीजिए। [2007, 14, 15, 16]
उत्तर:
प्रो० मार्शल के अनुसार, “किसी देश का श्रम व पूँजी उस राष्ट्र के प्राकृतिक साधनों पर प्रयुक्त होकर प्रतिवर्ष भौतिक तथा अभौतिक वस्तुओं की निश्चित मात्रा उत्पन्न करती है। इसमें सब प्रकार की सेवाओं विदेशों द्वारा लगाई गयी पूँजी तथा राष्ट्र द्वारा विदेशों में लगाई गयी पूँजी से प्राप्त आय सम्मिलित है।”

प्रश्न 8
प्रो० फिशर द्वारा दी गयी राष्ट्रीय आय की परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
प्रो० फिशर के अनुसार, “वास्तविक राष्ट्रीय आय कुल उत्पादन का वह भाग है जो सम्बन्धित वर्ष में उपभोग किया जाता है।”

प्रश्न 9
कुल राष्ट्रीय उत्पाद किसे कहते हैं ? [2006, 09]
उत्तर:
किसी अर्थव्यवस्था में वस्तुओं व सेवाओं के अन्तिम उत्पादन के मौद्रिक मूल्य (बाजार कीमतों के आधार पर) को कुल राष्ट्रीय आय कहते हैं तथा सेवाओं के अन्तिम भौतिक उत्पादन के योग को कुल राष्ट्रीय उत्पादन कहते हैं।

प्रश्न 10
प्रति व्यक्ति आय क्या है? [2011, 14]
उत्तर:
किसी देश की राष्ट्रीय आय को उस देश की कुल जनसंख्या से भाग देने पर हमें प्रति व्यक्ति आय प्राप्त हो जाती है।

प्रश्न 11
यदि देश में प्रति व्यक्ति आय ₹60,000 हो और देश की जनसंख्या 120 करोड़ हो, तो राष्ट्रीय आय की गणना कीजिए। [2012]
उत्तर:
राष्ट्रीय आय = प्रति व्यक्ति आय x देश की जनसंख्या
= 60,000 x 12000000000 = 720000000000000
= ₹72 लाख करोड़

प्रश्न 12
भारत में प्रति व्यक्ति आय कम होने के मुख्य कारण बताइए। [2008, 10, 16]
उत्तर:
(1) राष्ट्रीय आय में वृद्धि जनसंख्या में वृद्धि की अपेक्षा कम है।
(2) पूँजी निर्माण की गति धीमी है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
राष्ट्रीय आय की गणना की रीतियाँ हैं [2012]
(क) उत्पादन गणना-रीति
(ख) आय गणना-रीति
(ग) व्यय गणना-रीति
(घ) ये तीनों
उत्तर:
(घ) ये तीनों।

प्रश्न 2
राष्ट्रीय आय में द्रव्य को सबसे अधिक महत्त्व दिया है
(क) प्रो० मार्शल ने
(ख) प्रो० पीगू ने
(ग) प्रो० फिशर ने
(घ) एडम स्मिथ ने
उत्तर:
(ख) प्रो० पीगू ने।

प्रश्न 3
कुल उपभोग को राष्ट्रीय आय की गणना के लिए आवश्यक समझते हैं
(क) प्रो० मार्शल
(ख) प्रो० फिशर
(ग) प्रो० पीगू
(घ) प्रो० शूप
उत्तर:
(ख) प्रो० फिशर।

प्रश्न 4
“राष्ट्रीय आय के योग को अन्तिम उत्पाद योग कहा जा सकता है।” यह कथन है
(क) प्रो० मार्शल का
(ख) प्रो० पीगू का
(ग) प्रो० फिशर का
(घ) प्रो० शूप का
उत्तर:
(घ) प्रो० शूप का।

प्रश्न 5
राष्ट्रीय आय एक माप है
(क) देश के कुल निर्यात की
(ख) देश के कुल आयात की।
(ग) देश के कुल उत्पाद की
(घ) देश की कुल सरकारी आय की
उत्तर:
(ग) देश के कुल उत्पाद की।

प्रश्न 6
भारत में प्रति व्यक्ति आय का अनुमान सर्वप्रथम किसने लगाया था? [2007, 09, 11]
(क) गोपालकृष्ण गोखले
(ख) दादाभाई नौरोजी
(ग) महात्मा गांधी
(घ) स्वामी विवेकानन्द
उत्तर:
(ख) दादाभाई नौरोजी।

प्रश्न 7
राष्ट्रीय आय बराबर होती है [2011]
(क) सकल घरेलू उत्पाद (G.D.P) के
(ख) शुद्ध घरेलू उत्पाद (N.D.P) के
(ग) शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद (N.N.P) के
(घ) सकल राष्ट्रीय उत्पाद (G.N.P) के
उत्तर:
(ग) शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद (N.N.P) के।

प्रश्न 8
निम्नलिखित में से कौन राष्ट्रीय आय मापने की विधि नहीं है? [2012]
(क) सम्पत्ति गणना-विधि
(ख) उत्पादन गणना-विधि
(ग) व्यय गणना-विधि
(घ) आय गणना-विधि
उत्तर:
(क) सम्पत्ति गणना-विधि।

प्रश्न 9
बाजार कीमत पर निबल राष्ट्रीय उत्पाद (NNP)- अप्रत्यक्ष कर+सरकारी सहायता = ?
(क) साधन लागतों पर निवल राष्ट्रीय उत्पाद
(ख) बाजार कीमतों पर निवल राष्ट्रीय उत्पाद
(ग) बाजार कीमतों पर निवल घरेलू उत्पाद
(घ) साधन लागतों पर निवल घरेलू उत्पाद
उत्तर:
(क) साधन लागतों पर निवल राष्ट्रीय उत्पाद।

प्रश्न 10
निम्नलिखित में से कौन राष्ट्रीय आय को मापने की विधि नहीं है? [2014]
(क) उत्पादन गणना विधि
(ख) आय गणना विधि
(ग) व्यय गणना विधि
(घ) बचत-विनियोग गणना विधि
उत्तर:
(घ) बचत-विनियोग गणना विधि।

प्रश्न 11
निम्नलिखित में से क्या सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में सम्मिलित नहीं होता? [2014]
(क) एक वर्ष में उत्पादित अन्तिम वस्तुओं व सेवाओं को मौद्रिक मूल्य
(ख) अप्रत्यक्ष कर
(ग) विदेशों से प्राप्त शुद्ध आय
(घ) मूल्य-ह्रास व्यय
उत्तर:
(ख) अप्रत्यक्ष कर।

प्रश्न 12
निम्न में से आर्थिक कल्याण का सर्वोत्तम माप कौन-सा है? [2015]
(क) सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP)
(ख) सकल घरेलू उत्पाद (GDP)
(ग) शुद्ध घरेलू उत्पाद (N.D.P)
(घ) शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद (NNP)
उत्तर:
(ख) सकल घरेलू उत्पाद (GDP)

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UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 3

UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 3 are part of UP Board Class 12 Biology Model Papers. Here we have given UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 3.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Model Paper Paper 3
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 3

पूर्णाक : 70
समय : 3 घण्टे 15 मिनट

निर्देश: प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
नोट:

  • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
  • आवश्यकतानुसार अपने उत्तरों की पुष्टि नामांकित रेखाचित्रों द्वारा कीजिए।
  • सभी प्रश्नों के निर्धारित अंक उनके सम्मुख

प्रश्न  1.
सही विकल्प चुनकर अपनी उत्तर पुस्तिका में लिखिए।
(क) एल्ब्यूमिन रहित बीज किसमें उत्पादित होते हैं? [1]
(A) मक्का
(B) अरण्डी
(C) गेहूँ
(D) मटर

(ख) जल प्रदूषण का सामान्य जीव सूचक है [1]
(A) लेग्ना पेन्साकोस्टेटा
(B) आइकॉर्निया क्रेसीयस
(C) ई कोलाई
(D) एण्टअमीबा हिस्टोलाइटिका

(ग) मानव में शुक्र मातृ कोशिका व अण्ड मातृ कोशिका द्वारा उत्पन्न युग्मकों का अनुपात होता है [1]
(A) 1:1
(B) 1: 3 .
(C) 1:4
(D) 4: 1

(घ) निम्नलिखित में से कौन-सा एक प्रतिबन्धन एण्डोन्यूक्लिएज है? [1]
(A) प्रोटिएज
(B) DNAse I
(C) RNAse
(D) Hind II.

प्रश्न 2.
(क) पूर्वज क्या होते हैं? [1]
(ख) वंशागति के क्रोमोसोमवाद को किसने प्रस्तावित किया? [1]
(ग) इम्यूनिटी शब्द का क्या अर्थ है? [1]
(घ) DNA खण्डों को पृथक् करने के लिए किस विधि का प्रयोग किया जाता है? [1/2+1/2]
(ङ) पारजीनी जन्तु क्या होते हैं? [1]

प्रश्न 3.
(क) जैव-विविधता क्या है? इसके संरक्षण की दो विधियों का उल्लेख कीजिए। [2]
(ख) जैव-प्रोद्यौगिकी तकनीक द्वारा उत्पन्न फसल को क्या कहते हैं? इस तकनीक द्वारा उत्पन्न फसलों के दो लाभ लिखिए। [1+1]
(ग) किन तथ्यों के आधार पर डार्विनवाद की आलोचना की गई [2]
(घ) बन्ध्यता को जीवनक्षम सन्तति न पैदा कर पाने की अयोग्यता के रूप में परिभाषित किया गया है और यह सदैव स्त्री की दोषों के कारण होती है। यह सही क्यों नहीं है? [2]
(ड़) विलौडित हौज बायोरिएक्टर पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2]

प्रश्न 4.
(क) वायुमण्डल में समतापमण्डल की व्याख्या कीजिए। [3]
(ख) उत्परिवर्तनवाद क्या है? ये सिद्धान्त किसने प्रतिपादित किया? [2+1]
(ग) ट्रान्सजेनिक जन्तु किन्हें कहते हैं? इन जन्तुओं के निर्माण की दो महत्त्वपूर्ण विधियों का वर्णन कीजिए। [3]
(घ) टायफॉइड रोग पर टिप्पणी लिखिए। [3]

प्रश्न 5.
(क) बालूक्रमक क्या है? यह किसके अन्तर्गत रखा गया है? व्याख्या करें। [1+2]
(ख) खाद्य टीके का उत्पादने किस प्रकार किया जाता है? [3]
(ग) भ्रूणकोष के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का सचित्र वर्णन कीजिए। [3]
(घ) एक उपयुक्त चित्र की सहायता से स्तन ग्रन्थि के संगठन की व्याख्या कीजिए। [3]

प्रश्न 6.
(क) रेशम किस कीट द्वारा प्राप्त होता है? इस कीट का जीवन चक्र समझाइए। [1+2]
(ख) द्वितीयक वाहित मल उपचार क्या है? यह किस प्रकार किया जाता है? [1+2]
(ग) निम्न पर आलोचनात्मक टिप्पणी कीजिए। [1/2+1/2]

  •  सुपोषिता
  • जैव-आवर्धन

(घ) DNA फिंगरप्रिंटिंग क्या है? इसकी उपयोगिता पर टिप्पणी कीजिए। [1+2]

प्रश्न 7.
निम्न पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।

  1. जीन गन एवं लाइपोसोम
  2. प्रतिरक्षी माध्यित प्रतिरक्षा प्रणाली [2+3]

अथवा
पोषण चक्र क्या होता है? कार्बन के पोषण चक्र का वर्णन कीजिए। 1+4]

प्रश्न 8.
क्या हम मानव विकास को अनुकूलनी विकिरण कह सकते हैं? कारण स्पष्ट कीजिए। [5]
अथवा
अनुलेखन की क्रियाविधि के दीर्धीकरण अवस्था का सचित्र वर्णन कीजिए। [5]

प्रश्न 9.
मानव में 5वें,13वें तथा 21वें गुणसूत्रों से सम्बन्धित विकारों पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए। [5]
अथवा
मानव में युग्मकजनन को विस्तारपूर्वक समझाइए। [5]

Answers

उत्तर 1.
(क) (D)
(ख) (C)
(ग) (D)
(घ) (D)

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