UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi खण्डकाव्य Chapter 6 श्रवणकुमार

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 6
Chapter Name श्रवणकुमार (डॉ० शिवबालक शुक्ल)
Number of Questions 6
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi खण्डकाव्य Chapter 6 श्रवणकुमार (डॉ० शिवबालक शुक्ल)

प्रश्न 1.
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की कथावस्तु पर प्रकाश डालिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 18]
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की प्रमुख घटनाओं का क्रमबद्ध वर्णन कीजिए। [2009]
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के ‘अयोध्या’ सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए। [2011, 13, 15, 16]
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के ‘दशरथ’ खण्ड की कथा का सार लिखिए। [2012]
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के चौथे सर्ग ‘श्रवण’ की कथावस्तु लिखिए। [2016, 18]
या
‘अवणकुमार’ खण्डकाव्य के छठे सर्ग ‘सन्देश’ की कथा अपने शब्दों में लिखिए। [2011, 14, 15, 17]
या
‘श्रवणकुमार’ के ‘आश्रम’ शीर्षक सर्ग की कथा संक्षेप में अपने शब्दों में लिखिए।
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के प्रमुख सामाजिक प्रसंगों का वर्णन कीजिए। [2017]
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के आधार पर प्रथम सर्ग की कथावस्तु लिखिए। [2017]
या
‘श्रवणकुमार’ काव्य के ‘श्रवण’ शीर्षक सर्ग का सारांश लिखिए। [2014]
या
‘श्रवणकुमार खण्डकाव्य के सातवें (सप्तम) सर्ग ‘अभिशाप का सारांश लिखिए। [2009, 10, 12, 13, 15, 16, 17]
या
‘श्रवणकुमार’ के सर्गों का नामोल्लेख करते हुए ‘निर्वाण’ (अष्टम) सर्ग का सारांश लिखिए।
या
‘श्रवणकुमार’ के आखेट सर्ग की कथा संक्षेप में अपने शब्दों में लिखिए। [2011, 12]
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के तीसरे सर्ग ‘आखेट’ की कथावस्तु का उद्घाटन कीजिए। [2016]
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के सर्गों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के किसी मार्मिक अंश (श्रवण सर्ग) की कथा का उल्लेख कीजिए। [2012, 13, 14]
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के जो कारुणिक प्रसंग जनमानस को बहुत प्रभावित करते हैं, उन पर प्रकाश डालिए। [2013]
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के कारुणिक प्रसंग का वर्णन कीजिए। [2015]
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के कथानक में महाराज दशरथ की भूमिका पर प्रकाश डालिए। [2013]
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के ‘निर्वाण’ सर्ग की कथावस्तु लिखिए। [2018]
उत्तर
डॉ० शिवबालक शुक्ल द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘श्रवणकुमार’ की कथा ‘वाल्मीकि रामायण’ के ‘अयोध्याकाण्ड’ के श्रवणकुमार प्रसंग पर आधारित है। इस खण्डकाव्य का सर्गानुसार कथानक निम्नवत् है-

प्रथम सर्ग : अयोध्या

प्रथम सर्ग में ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के कथानक की पृष्ठभूमि तैयार की गयी है। इसमें अयोध्या नगरी की स्थापना, उसका नामकरण, राज्यकुल के वैभव एवं उसकी गौरवमयी विशेषताओं का वर्णन किया गया है; यथा-

सरि सरयू के पावन तट पर है साकेत नगर छविमान ।
जिसमें श्री शोभा वैभव के कभी तने थे विपुल वितान॥
मनु-वंशज इक्ष्वाकु भूप की कीर्ति-पताका लोक-ललाम ।
अनुपम शोभाधाम अयोध्या चित्ताकर्षक अति अभिराम ॥

कवि ने यह भी बताया कि अयोध्या में सर्वत्र नैतिकता और सदाचार विद्यमान है। इस नगरी में सभी वस्तुओं का विक्रय उचित मूल्य पर होता है। यहाँ के नर-नारी परस्पर यथोचित सम्मान करते हैं। इस प्रकार अयोध्या का जीवन सहज और आनन्द से परिपूर्ण है। इस सर्ग में अयोध्या की रम्य-प्रकृति का चित्रण भी किया गया है।
ऐसी अयोध्या के शब्द-वेध-निपुण राजकुमार दशरथ एक दिन शिकार करने की योजना बनाते हैं-

ऐसे वातावरण भव्य में दशरथ-उर में उठी उमंग ।
देखें सरयू-वन में मृगया आज दिखाती है क्या रंग ॥

द्वितीय सर्ग : आश्रम

द्वितीय सर्ग के आरम्भ में सरयू नदी के वन-प्रान्तर के रमणीक आश्रम का मनोहारी चित्रण हुआ है, जिसमें श्रवणकुमार और उसके नेत्रहीन माता-पिता सानन्द निवास कर रहे हैं। इस आश्रम में सर्वत्र सुखशान्ति है जहाँ सदैव शरद् एवं वसन्त का वैभव व्याप्त रहता है। स्वच्छ जल से भरे तालाबों में कमल खिले हुए हैं। यहाँ मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग सब परस्पर सहज प्रेम-भाव से रहते हैं। यहाँ द्वेष और कटुता नाममात्र को भी नहीं है। आश्रम के वर्णन में कवि ने भारतीय दर्शन का चिन्तन प्रस्तुत किया है। आश्रम के शान्त-सौन्दर्यमय प्राकृतिक एवं आध्यात्मिक वातावरण में ही युवक श्रवणकुमार के चरित्र का विकास होता है। वह माता-पिता की आज्ञानुसार ही नित्य-प्रति कार्य करता है तथा उनकी सेवा में लगा रहता है-

जननी और जनक को श्रद्धा-सहित नवाकर शीश ।
आह्निक-क्रिया निवृत्ति-हेतु जाता सरयू-तट पा आशीष ॥

तृतीय सर्ग : आखेट

तृतीय सर्ग में एक ओर दशरथ मृग-शावक के वध का स्वप्न देखते हैं। दूसरी ओर श्रवणकुमार जब जल लेने जाता है तो उसकी बायीं आँख फड़कने लगती है। शकुन-अपशकुन तथा स्वप्न-विचार से दोनों ही अशुभ हैं। स्वप्न में मृग-शावक-वध से दशरथ व्याकुल हो जाते हैं। वे ब्रह्म-मुहूर्त में जागकर आखेट हेतु वने। की ओर चल देते हैं।

दूसरी ओर; उसी समय श्रवणकुमार के माता-पिता को बहुत अधिक प्यास लगती है और वह माता-पिता की आज्ञानुसार नदी से जल लेने चल देता है। जल में पात्र डूबने की ध्वनि को किसी हिंसक पशु की ध्वनि समझकर दशरथ शब्दभेदी बाण चला देते हैं, जो सीधे श्रवणकुमार के हृदय में जाकर लगता है। श्रवणकुमार का चीत्कार सुनकर दशरथ विस्मय, चिन्ता और शोक में डूब जाते हैं। उन्हें हतप्रभ एवं किंकर्तव्यविमूढ़ देख उनका सारथी उन्हें सान्त्वना देता है।

प्रस्तुत सर्ग में श्रवणकुमार की मातृ-पितृ-भक्ति, शकुन-अपशकुन तथा दशरथ की आखेट-रुचि पर प्रकाश डाला गया है।

चतुर्थ सर्ग : श्रवण

चतुर्थ सर्ग का आरम्भ श्रवणकुमार के मार्मिक विलाप से होता है। उसकी समझ में यह नहीं आता कि उसका कोई शत्रु नहीं, फिर भी उस पर किसने बाण छोड़ दिया ? बाण लगने पर भी उसे अपनी चिन्ता नहीं, वरन् अपने वृद्ध एवं प्यासे माता-पिता की चिन्ता है-

मुझे बाण की पीड़ा सम्प्रति इतनी नहीं सताती है ।
पितरों के भविष्य की चिन्ता जितनी व्यथा बढ़ाती है ॥

दशरथ आहत श्रवणकुमार को देखकर तथा उसके मार्मिक क्रन्दन को सुनकर व्याकुल हो जाते हैं।
श्रवणकुमार के आँखें खोलने पर सारथी बताता है कि ये अजपुत्र दशरथ हैं और मृगया (शिकार) के भ्रम में आज इनसे यह भयंकर भूल हो गयी है। श्रवणकुमार कहता है कि राजन्! मुझे मारकर आपने एक नहीं वरन् एक साथ तीन प्राणियों के प्राण लिये हैं। मेरे अन्धे माता-पिता आश्रम में प्यासे बैठे हुए मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। आप यह जल का पात्र लेकर वहाँ जाइए और उन्हें मेरे प्राण-त्याग की सूचना दे दीजिए। यह कहकर श्रवणकुमार प्राण त्याग देता है। उसके शव को सारथी की देखभाल में छोड़ अत्यन्त दु:खी मन से दशरथ जलपात्र लेकर आश्रम की ओर चल देते हैं।
इस सर्ग में कवि ने श्रवणकुमार के सात्त्विक जीवन, उसके कारुणिक अन्त और दशरथ के मन में उत्पन्न आत्मग्लानि एवं शोकाकुलता का बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है।

पंचम सर्ग : दशरथ

पंचम सर्ग को आरम्भ दशरथ के अन्तर्द्वन्द्व, विषाद, आत्मग्लानि और अपराध-भावना से होता है। दशरथ दु:खी एवं चिन्तित भाव से सिर झुकाए आश्रम की ओर जा रहे थे और सोच रहे थे कि इस घटना के कारण हृदय पर लगे घाव का प्रायश्चित वे किस प्रकार करें–

हाय चलेगी युग-युगान्त तक अब मेरी यह पाप कथा।
जो मुझको ही नहीं वंशजों को भी देगी मर्म व्यथा ॥

इसी प्रकार के मानसिक उद्वेगों से आकुल-व्याकुल दशरथ आश्रम पहुँच जाते हैं।

षष्ठ सर्ग : सन्देश

षष्ठ सर्ग में श्रवणकुमार के माता-पिता की असहाय दशा तथा दशरथ के क्षोभ का बड़ा ही मार्मिक चित्रण हुआ है। श्रवणकुमार के माता-पिता उसके आने की प्रतीक्षा में व्याकुल हैं। दशरथ की पदचाप सुनकर वे पूछते हैं-

श्रवण-पिता ने कहा, ”आज प्रिय क्योंकर तुमने किया विलम्ब ?
करती रही विविध आशंका अब तक वत्स तुम्हारी अम्ब ।”

ऋषि-दम्पति पर्याप्त समय तक अपने पुत्र के गुणों का वर्णन करते रहते हैं। तत्पश्चात् दशरथ उन्हें जल-ग्रहण करने के लिए कहते हैं तो वे शंकित होकर उनका परिचय पूछते हैं। अन्त में दशरथ उन्हें वह हृदय-विदारक दुर्घटना का समाचार सुना देते हैं, जिसे सुनते ही वे करुण विलाप कर उठते हैं और हाहाकार करते अपने मृतक पुत्र के स्पर्श के लिए दशरथ के साथ चल देते हैं।

सप्तम सर्ग : अभिशाप

‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के सप्तम सर्ग में ऋषि-दम्पति का करुण विलाप चित्रित हुआ है। सरयू-तट पर अपने मृतक पुत्र के शरीर को स्पर्शकर उनके धैर्य का बाँध टूट जाता है। वे विलाप करते-करते अचेत हो जाते हैं। कुछ देर बाद वे सचेत होते हैं तो पुनः विलाप कर उठते हैं-

कौन हमारे लिए विपिन से कन्द मूल फल लायेगा ।
कौन अतिथि-सा हमें खिलाने में सच्चा सुख पायेगा ।

इस प्रकार श्रवणकुमार के माता-पिता उसके गुणों और सुकर्मों का स्मरण कर-करके हृदयविदारक विलाप करते हैं। अन्त में श्रवणकुमार के पिता दशरथ से कहते हैं कि यद्यपि आपने यह पाप अनजाने में किया है, परन्तु पाप तो पाप ही है। इसलिए—

पुत्र-शोक से कलप रहा हूँ जिस प्रकार मैं, अजनन्दन ।
सुत-वियोग में प्राण तजोगे इसी भाँति करके क्रन्दन ।

अष्टम सर्ग : निर्वाण

इस सर्ग में शाप के कारण दशरथ बहुत अधिक दु:खी हैं। पर्याप्त विलाप करने के बाद श्रवणकुमार के पिता को यह आत्मबोध होता है कि मेरे उदार एवं शान्त हृदय में क्रोध कैसे आ गया ? मैंने तो व्यर्थ ही दशरथ को शाप दे दिया। मेरे पुत्र का वध तो नियति के विधान के अनुसार दशरथ के हाथों ही होना था। फिर इसमें किसी का क्या दोष ?
वे श्रवणकुमार को जलांजलि देने के लिए उठते हैं, तभी दिव्य रूपधारी श्रवणकुमार कहता है-

मैं प्रतिकृत हो गया आपकी सेवा परिचर्या कर तात ।।
मुझे श्रेष्ठ पद मिला आज है पा आशीष तुम्हारा मात ।।

पुत्र-शोक में व्याकुल ऋषि-दम्पति रुदन करते-करते प्राण-त्याग देते हैं और सारथी द्वारा तैयार की गयी चिता में श्रवणकुमार एवं उसके पिता-माता तीनों के नश्वर शरीर भस्म हो जाते हैं।

नवम सर्ग : उपसंहार

नवम सर्ग में दशरथ दुःखी हृदय से अयोध्या लौट आते हैं। अपयश फैलने के भय से वे वन की दुर्घटना किसी को भी नहीं बताते, किन्तु राम के वन-गमन के समय वे भावविह्वल होकर कौशल्या से यह सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाते हैं तथा पुत्र-वियोग में तड़पते हुए प्राण त्याग देते हैं।

प्रश्न 2.
श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के नायक (प्रमुख पात्र) श्रवणकुमार का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2009, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17]
या
‘श्रवणकुमार’ में वर्णित मातृ एवं पितृभक्ति का संक्षेप में उल्लेख कीजिए। [2009]
या
‘श्रवणकुमार’ के किसी एक पात्र की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
या
“‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य का नायक वह आदर्श पात्र है जो युगों-युगों तक अनुकरणीय रहेगा।” इस कथन के आधार पर श्रवणकुमार का चरित्रांकन कीजिए।
या
वर्तमान सामाजिक एवं सांस्कृतिक संकट की बेला में श्रवणकुमार का चरित्र भावी युवा पीढ़ी का संवाहक बन सकता है। सतर्क उत्तर दीजिए।
या
कुमार के चारु-चरित पर, संस्कार का प्रचुर प्रभाव।” कथन के आलोक में श्रवणकुमार के चरित्र पर प्रकाश डालिए। [2010]
उत्तर
श्रवणकुमार प्रस्तुत खण्डकाव्य का प्रमुख पात्र है। ‘श्रवणकुमार’ की कथा आरम्भ से अन्त तक उसी से सम्बद्ध है; अत: इस खण्डकाव्य का नायक श्रवणकुमार है। उसकी प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं–
(1) मातृ-पितृभक्त-श्रवणकुमार का नाम ही मातृ-पितृभक्ति का पर्याय बन चुका है। श्रवणकुमार अपने माता-पिता का एकमात्र आदर्श पुत्र है। वह प्रात:काल से सायंकाल तक अपने वृद्ध एवं नेत्रहीन माता-पिता की सेवा में लगा रहता है। दशरथ के बाण से बिद्ध होकर भी श्रवणकुमार को अपने प्यासे माता-पिता की ही चिन्ता सता रही है*

मुझे बाण की पीड़ा सम्प्रति इतनी नहीं सताती है ।
पितरों के भविष्य की चिन्ता जितनी व्यथा बढ़ाती है ॥

(2) निश्छल एवं सत्यवादी-श्रवणकुमार के पिता वैश्य वर्ण के और माता शूद्र वर्ण की थीं। जब दशरथ ब्रह्म-हत्या की सम्भावना व्यक्त करते हैं तो श्रवणकुमार उन्हें सत्य बता देता है–

वैश्य पिता माता शूद्रा थी मैं यों प्रादुर्भूत हुआ ।
संस्कार के सत्य भाव से मेरा जीवन पूत हुआ ॥

श्रवणकुमार स्पष्टवादी है। वह किसी से कुछ नहीं छिपाता। वह सत्यकाम, जाबालि आदि के समान ही अपने कुल, गोत्र आदि का परिचय देता है।
(3) क्षमाशील एवं सरल स्वभाव वाला-श्रवणकुमार का स्वभाव बहुत ही सरल है। उसके मन में किसी के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध एवं वैर नहीं है। दशरथ के बाण से बिद्ध होने पर भी वह अपने समीप आये सन्तप्त दशरथ का सम्मान ही करता है।
(4) भारतीय संस्कृति का सच्चा प्रेमी-श्रवणकुमार भारतीय संस्कृति का सच्चा प्रेमी है। चार वेद और छ: दर्शन ही भारतीय संस्कृति के आधार हैं। धर्म के दस लक्षणों को वह अपने जीवन में धारण किये है-

दम अस्तेय अक्रोध सत्य धृति, विद्या क्षमा बुद्धि सुकुमार।
शौच तथा इन्द्रिय-निग्रह हैं, दस सदस्य मेरे परिवार ॥

वेद के अनुसार माता, पिता, गुरु, अतिथि तथा पति के लिए पत्नी और पत्नी के लिए पति ये पाँच ‘देवता’ कहलाते हैं तथा ये ही पूजा के योग्य हैं। श्रवणकुमार भी माता, पिता, गुरु और अतिथि की देवतुल्य पूजा करता है।

(5) आत्मसन्तोषी-श्रवणकुमार को किसी वस्तु के प्रति लोभ-मोह नहीं है। उसे भोग एवं ऐश्वर्य की तनिक भी चाह नहीं है। वह तो सन्तोषी स्वभाव का है-

वल्कल वसन विटप देते हैं, हमको इच्छा के अनुकूल।
नहीं कभी हमको छू पाती, भोग ऐश्वर्य वासन्न-धूल ॥

(6) संस्कारों को महत्त्व देने वाला-श्रवणकुमार समदर्शी है। वह किसी के प्रति भी भेदभाव नहीं रखता तथा कर्म, शील एवं संस्कारों को महत्त्व देता है। उसके जीवन में पवित्रता संस्कारों के प्रभाव के कारण ही है-

विप्र द्विजेतर के शोणित में अन्तर नहीं रहे यह ध्यान ।
नहीं जन्म के संस्कार से, मानव को मिलता सम्मान ॥

(7) अतिथि-सत्कारी-भारतीय परम्परा के अनुसार अतिथि का स्वागत-सत्कार महापुण्य का कार्य है। श्रवणकुमार इस गुण से युक्त है। वह बाण द्वारा घायल पड़ा है, जब दशरथ उसके पास पहुँचते हैं। वह दशरथ को अपना अतिथि मानता है, क्योंकि वह उसके वन में आये हैं। वह दशरथ का स्वागत करना चाहता है। वह उनसे हर प्रकार की कुशल-मंगल पूछता है और अपने नेत्रों के जल से दशरथ के चरण धो लेना चाहता है।
इस प्रकार श्रवणकुमार उदार, परोपकारी, सर्वगुणसम्पन्न तथा खण्डकाव्य का नायक है।

प्रश्न 3.
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के चरित्रों में देवोपम गुणों के साथ-साथ मानव-सुलभ दुर्बलताएँ भी दिखाई देती हैं। इस कथन के सम्बन्ध में अपने विचार लिखिए।
उत्तर
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के चरित्र-चित्रण में काव्यकार डॉ० शिवबालक शुक्ल ने अपनी अनुपम रचनाधर्मिता का परिचय दिया है। उनके द्वारा गढ़े चरित्र जहाँ एक ओर देवोपम हैं, वहीं दूसरी ओर उनमें मानव-सुलभ दुर्बलताएँ भी दृष्टिगत होती हैं। यही उनके चरित्रों की सर्वप्रमुख विशेषता है। पात्र चाहे श्रवणकुमार हो या उसके अन्धे माता-पिता अथवा अयोध्या नरेश दशरथ, सभी पात्रों का चरित्रांकन बड़े मनोयोग से किया गया है।

श्रवणकुमार में सत्यवादिता, संस्कारों को महत्ता देने की प्रवृत्ति, क्षमाशीलता और आत्म-सन्तोष जैसे गुण उसे देवोपम बनाते हैं, वहीं माता-पिता से अत्यधिक मोह, मृत्यु से भय आदि दुर्बलताएँ उसे साधारण मानव सिद्ध करते हैं।

दशरथ के चरित्र में भी जहाँ न्यायप्रियता, सत्यवादिता, उदारता और कर्तव्यनिष्ठा जैसे देवोपम गुण विद्यमान हैं, वहीं स्वप्न को देखकर मन में शंकित होना; श्रवण के अन्धे माता-पिता द्वारा शापित होने पर शाप की परिणति के विषय में सोचकर दु:खी होना और इस घटना के लोक में प्रचलित हो जाने पर कुल-परम्परा पर लगने वाले कलंक की चिन्ता करना आदि उनके चरित्र की ऐसी दुर्बलताएँ हैं, जो उन्हें साधारणजन के समकक्ष ला खड़ी करती हैं।

इसी प्रकार श्रवण के पिता का चरित्र भी गुणों एवं दुर्बलताओं से युक्त है। वे जहाँ पुत्र-मृत्यु का समाचार सुनकर अपना विवेक खो बैठते हैं और दशरथ को शाप दे डालते हैं, वहीं बाद में अपने किये पर पश्चात्ताप करते हैं कि मैंने दशरथ को व्यर्थ ही शाप दे डाला। इनका पहला कार्य जहाँ मानव-सुलभ दुर्बलता का परिचायक है, वहीं उस पर पश्चात्ताप करना उनके देवोपम-चरित्र का।

प्रश्न 4.
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के आधार पर दशरथ का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
उत्तर
रघुवंशी राजा अज के पुत्र दशरथ ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य में आरम्भ से अन्त तक विद्यमान हैं। मूल रूप से दशरथ इस खण्डकाव्य के प्राण हैं। दशरथ की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) उत्तम-कुलोत्पन्न–राजा दशरथ उत्तम-कुलोत्पन्न हैं। उनका वंश ‘इक्ष्वाकु’ नाम से प्रसिद्ध है। पृथु, त्रिशंकु, सगर, दिलीप, रघु, हरिश्चन्द्र और अज; दशरथ के इतिहासप्रसिद्ध पूर्वज रहे हैं। उन्हें अपने वंश पर गर्व है

क्षत्रिय हूँ मम शिरा जाल में रघुवंशी है रक्त प्रवाह ।।
हस्ति पोत अथवा मृगेन्द्र के पाने की है उत्कट चाह ॥

(2) लोकप्रिय-शासक-राजा दशरथ प्रजावत्सल एवं योग्य शासक हैं। उनके राज्य में सबको न्याय मिलता है, चोरी कहीं नहीं होती है, प्रजा सब प्रकार से सुखी व सन्तुष्ट है तथा विद्वज्जनों का यथोचित सत्कार होता है–

सुख समृद्धि आमोदपूर्ण था कौशलेश का शुभ शासन।
दुःख था केवल एक दुःख को, जिसे मिला था निर्वासन ॥

(3) धनुर्विद्या में निपुण कुमार दशरथ धनुर्विद्या में निपुण और शब्दभेदी बाण चलाने में पारंगत हैं। आखेट में उनकी विशेष रुचि है

शब्द-भेद के निपुण अहेरी, रविकुल के भावी भूपाल ।
लक्ष्य करें मृग महिष नाग वृक, शूकर सिंह व्याघ्र विकराल ॥

इसीलिए श्रावण मास में वर्षा के अनन्तर जब चारों ओर हरियाली छाई रहती है, तब वे आखेट का निश्चय करते हैं।
(4) विनम्र एवं दयालु–दशरथ में तनिक भी अहंकार नहीं है। दूसरे का दुःख देखकर वे बहुत अधिक व्याकुल हो जाते हैं। स्वप्न में मृग-शावक के वध से ही वे दु:खी हो उठते हैं-

करने को गये समुद्यत, ढाढ भार करके रोदने ।
नेत्र खुल गये स्वप्न समझकर किया पार्श्व का परिवर्तन ॥

(5) संवेदनशील एवं पश्चात्ताप करने वाले–दशरथ अपने किये अनुचित कार्य पर आत्मग्लानि से भर उठते हैं तथा उसका प्रायश्चित्त करते रहते हैं। श्रवणकुमार की हत्या पर उनके प्रायश्चित्त एवं आत्मग्लानि उनके सच्चे पश्चात्ताप पर किया गया आर्तनाद है-

मलहम कौन भयंकर व्रण पर जिसका लेप करू जाकर।
भू में धसँ गि गिरिवर से सरि में डूब मसँ जाकर ॥

अपने इस कुकृत्य पर उन्हें अपने नहीं, अपने कुल के अपयश का दुःख सता रहा है-

हाय चलेगी युग युगान्त तक अब मेरी यह पाप कथा।
जो मुझको ही नहीं वंशजों को भी देगी मर्म व्यथा ॥

अपने द्वारा किये गये कर्म पर दु:खी होकर वे अन्ततः धरती माता से ही कह उठते हैं-

फटो धरणि, मैं समा सकुँ तुम करो ग्रहण, मम भाग्य जगे।
पर वसुन्धरे! मुझे शरण दे-तुम्हें न कहीं कलंक लगे ।

(6) आत्म-तपस्वी-दशरथ न्यायप्रिय होने के साथ-साथ आत्म-तपस्वी भी हैं। वे अपने अपराध को स्वयं अक्षम्य मानते हैं-

करें मुनीश क्षमा वे होंगे, निस्पृह करुणा सिंन्धु अगाध ।
पर मेरे मन न्यायालय में क्षम्य नहीं है यह अपराध ॥

(7) अपराध-बोध से ग्रसित-श्रवणकुमार के पिता द्वारा शाप दिये जाने पर दशरथ काँप उठते हैं। वे अयोध्या लौटकर यद्यपि लोकनिन्दा के भय से किसी को भी यह दुर्घटना नहीं बताते, किन्तु अपने अपराध की वेदना उनके हृदय में कसकती ही रहती है। वे जानते हैं कि समस्त प्राणियों को अपने कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है। इसलिए वे किसी से कुछ कहे बिना भी अपना अपराध स्वीकार कर लेते हैं। कवि कहता है–

रही खरकती हाय शूल-सी पीड़ा उर में दशरथ के।
” ग्लानि-त्रपा, वेदना विमण्डित शाप-कथा वे कह न सके।

(8) तेजस्वी-दशरथ एक तेजस्वी राजकुमार हैं। जब वह श्रवणकुमार के पास पहुँचते हैं तो वह उनके रूप से प्रभावित हो उठता है। उनके प्रत्येक अंग से तेज मानो फूटा पड़ता है। श्रवण उनसे निवेदन करता है-

रूपवान् है तेज आपका, अंग-अंग से फूट रहा।
परिचय दें उर उत्सुकता है, सचमुच धीरज छूट रहा ॥

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि दशरथ का चरित्र महान् गुणों से विभूषित है जो कि प्रायश्चित्त और आत्म-ग्लानि की अग्नि में तपकर और भी शुद्ध हो गया है। कवि दशरथ को चरित्र-चित्रण करने में पूर्ण सफल रहा है।

प्रश्न 5.
पंचम एवं सप्तम सर्ग के आधार पर दशरथ के अन्तर्द्वन्द्व पर प्रकाश डालिए। [2010]
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के पंचम सर्ग में चित्रित दशरथ के अन्तर्द्वन्द्व का सोदाहरण वर्णन कीजिए। [2012]
या
“‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के पंचम सर्ग में दशरथ के अन्तर्द्वन्द्व का व्यापक चित्रण है।” इस कथन को सोदाहरण प्रमाणित कीजिए।
या
‘श्रवणकुमार’ में चित्रित महाराज दशरथ का मानसिक अन्तर्द्वन्द्व स्पष्ट कीजिए।
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य में प्रस्तुत महाराज दशरथ के मानसिक असमंजस का वर्णन कीजिए।
या
“दशरथ का अन्तर्द्वन्द्व ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की अनुपम निधि है।” इस उक्ति के आलोक में दशरथ का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर

दशरथ का अन्तर्द्वन्द्व

‘श्रवणकुमार’ के पंचम सर्ग में दशरथ की मानसिकता, पश्चात्ताप तथा आत्मग्लानि से पूर्ण आन्तरिक दशा को व्यापक अभिव्यक्ति दी गयी है। दशरथ के हाथों श्रवणकुमार का प्राणान्त हो चुका है, जिससे वे दुःख, ग्लानि, भय एवं करुणा के भाव में भरे सोच रहे हैं कि क्या श्रवणकुमार के माता-पिता भी श्रवणकुमार की तरह उदार-हृदय होंगे और उन्हें क्षमा कर देंगे अथवा वे उन्हें कठोर शाप दे देंगे।
दशरथ के मन में अपने कुल के दुर्भाग्य पर भी भावावेग उमड़ता है। वे सोचते हैं कि क्या उनके कुल के सभी सदस्यों के भाग्य में शापित होना ही लिखा है तथा क्या उनको भी अपने पूर्वजों की तरह (दशरथ के पूर्वज भी विभिन्न कारणों से शापित होते रहे थे) शापित होना पड़ेगा-

रघुकुल में शापित होने की, परम्परागत परिपाटी।
पार पड़ेगी करनी ही हाँ, दुःख की यह दुर्गम घाटी ॥

इस सर्ग में लज्जा, ग्लानि, चिन्ता, शंका, भय आदि से ग्रस्त दशरथ के संकल्प-विकल्प प्रकट हुए हैं।
‘श्रवणकुमार’ के सप्तम सर्ग में भी देशरथ के अन्तर्मन में निहित भावों को मार्मिक चित्रण किया गया है। श्रवणकुमार के शव को उठाकर उसके माता-पिता के सामने लाते हुए दशरथ स्वयं भी जीवित लाश के समान ही हैं। वे ग्लानि, पश्चात्ताप, विवशता और करुणा के आधिक्य के कारण अपना विवेक खो बैठे हैं, जिससे उन्हें दिशा और दुर्गम-पथ की कठिनाइयों का ज्ञान नहीं हो रहा है। वे चेतनाशून्य से उस शव को उठाकर श्रवणकुमार के माता-पिता के पास लाते हैं-

अनुभव-दिग्सूक्ति का नहीं थी बेचारे दशरथ के पास,
दिग्भ्रम हुआ, पाथ-पथ दुर्गम, हृदय क्षुब्ध, मन हुआ उदास ।

किसी के पुत्र को मृत्यु की गोद में सुलाने के पश्चात् उसके शव को लेकर उसके माता-पिता के पास जाने वाले संवेदनशील-सहृदय व्यक्ति की मानसिकता क्या होती है, इसको कवि शिवबालक शुक्ल ने दशरथ के अन्तर्मन की दशा के सजीव चित्रण में भली प्रकार दर्शाया है।
[ संकेत-इस सामग्री के अतिरिक्त दशरथ की मानसिकता में विनम्रता, दयालुता, उदारता तथा आत्म-तपस्विता का समन्वय दृष्टिगत होता है। दशरथ के चरित्र-चित्रण से इन गुणों की सामग्री ग्रहण कर उसका यहाँ उल्लेख करना चाहिए। ]

प्रश्न 6.
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के मार्मिक स्थलों का सोदाहरण निदर्शन कीजिए।
या
“‘श्रवणकुमार’ काव्य के अभिशाप सर्ग में करुण रस का सांगोपांग वर्णन है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
या
‘श्रवणकुमार’ के कथानक के मार्मिक स्थल की समीक्षा कीजिए।
उत्तर
डॉ० शिवबालक शुक्ल द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘श्रवणकुमार’ की कथा वाल्मीकिरामायण के अयोध्याकाण्ड’ के श्रवणकुमार–प्रसंग पर आधारित है। कवि ने इस कथा को युगानुरूप परिवर्तित कर सर्वथा नये रूप में प्रस्तुत किया है। ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की कथा नौ सर्गों में विभक्त है, जिनमें अन्तिम छ: सर्गों में करुण रस की पवित्र धारा प्रवाहित हुई है। बाण लगने पर श्रवण का मार्मिक क्रन्दन, दशरथ की आत्मग्लानि, श्रवण के माता-पिता का करुण-विलाप, उनका दशरथ को शाप देना, श्रवण के माता-पिता का पुत्र-शोक में प्राण त्यागना और दशरथ का दु:खी मन से अयोध्या लौटना ऐसे कारुणिक प्रसंग हैं जिन्हें पढ़कर किसी भी सहृदय पाठक का मन करुणा से आप्लावित हो उठता है। इस कारुणिकता का ही यह प्रभाव है कि यह कथानक भारतीय जनमानस की स्मृति में अमिट हो गया है और श्रवणकुमार का नाम मातृ-पितृभक्ति का पर्याय बन गया है। यही इस सर्ग का वैशिष्ट्य है और इसीलिए यह पाठकों को सबसे अधिक प्रभावित भी करता है।

‘अभिशाप’ इस खण्डकाव्य का सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण सर्ग है, जिसमें वात्सल्य की गंगा और करुण रस की यमुना का सुन्दर संगम हुआ है। इसमें करुण रस के सभी अंगों की सहज अभिव्यक्ति हुई है। यही इस सर्ग का वैशिष्ट्य भी है। श्रवण का शव, उसके माता-पिता के मनोभावों, पूर्व स्मृतियों एवं शव-स्पर्श, शीश-पटकना, रोना आदि में आलम्बन, उद्दीपन एवं अनुभाव के दर्शन होते हैं। प्रलाप, चिन्ता, स्मरण, गुणकथन और अभिलाषा आदि वृत्तियों की सहायता से शोक की करुण रस में परिणति इस सर्ग में द्रष्टव्य है। इसके साथ ही कथावस्तु का सबसे महत्त्वपूर्ण अंश भी इसी सर्ग में है। इसके अतिरिक्त इस सर्ग में श्रवण के पिता का चरित्र देवत्व और मनुष्यत्व के बीच संघर्ष करता हुआ दिखाई देता है। ऋषि होकर भी वे क्रोध को रोक न सके और पुत्र-वध से उत्पन्न रोष के कारण, दशरथ को शाप दे दिया–

पुत्र-शोक में कलप रहा हूँ, जिस प्रकार मैं अज-नन्दन।
सुत-वियोग में प्राण तजोगे, इसी भाँति करके क्रन्दन ॥

श्रवण की माता के विलाप में भी करुण रस का स्रोत निम्नवत् फूट पड़ता है-

मणि खोये भुजंग-सी जननी, फन-सा पटक रही थी, शीश।।
अन्धी आज बनाकर मुझको, किया न्याय तुमने जगदीश ?

तो उधर वात्सल्य रस की गंगा भी प्रवाहित होती दिखाई देती हैं-

धरा स्वर्ग में रहो कहीं भी ‘माँ’ मैं रहूँ सदा अय प्यार।
रहो पुत्र तुम, ठुकराओ मत मुझ दीना का किन्तु दुलार ॥

यह सर्ग जहाँ काव्यगत विशेषताओं की दृष्टि से विशिष्ट है, वहीं यह अपने उदात्त विचारों एवं विश्लेषण के कारण भी विशिष्ट है। श्रवणकुमार के पिता पुत्र-वध के कारण दशरथ के प्रति रोष में हैं, किन्तु उनके द्वारा अपराध की स्वीकृति कर लेने के कारण वे उनके प्रति सहानुभूति भी रखते हैं।

इस सर्ग के अन्त में ऋषि दम्पति में मानवीय दुर्बलता भी दिखाई गयी है। भले ही उन्होंने क्रोधवश दशरथ को शाप दे दिया, किन्तु दशरथ की निरपराध पत्नी के प्रति सहानुभूति भी दिखाई गयी है कि बेचारी नारी गेहूँ के साथ घुन की भाँति पिसेगी। अपने पुत्रहन्ता और उसकी पत्नी के प्रति यह संवेदनात्मक भाव, वह भी उस समय जब पुत्र का शव सामने हो, मानवादर्श की चरम सीमा को दर्शाता है।

इस सर्ग में दशरथ की आन्तरिक अनुभूति एवं उनके अन्तर्मन का द्वन्द्व भी अपनी विशिष्टता रखता है। पश्चात्ताप और अपराध-बोध से दबा हुआ एक राजेश्वर; श्रवण के माता-पिता के सामने उनके पुत्र के शव के साथ जिस मन:स्थिति में खड़ा है, वह कवि की कल्पना-शक्ति की अनुभवात्मक संवेदना का परिचय देता है और उसकी उस स्थिति की अभिव्यक्ति में रसों का जो अद्भुत समन्वय हुआ है, वह सराहनीय है।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi खण्डकाव्य Chapter 5 त्यागपथी

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 5
Chapter Name त्यागपथी (रामेश्वर शुक्ल अञ्चल)
Number of Questions 4
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi खण्डकाव्य Chapter 5 त्यागपथी (रामेश्वर शुक्ल अञ्चल)

प्रश्न 1.
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की कथावस्तु (कथानक) को संक्षेप में (अपने शब्दों में) लिखिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के प्रथम एवं द्वितीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए। [2015, 17]
या
‘त्यागपथी’ काव्यग्रन्थ की प्रमुख घटनाओं का क्रमबद्ध उल्लेख कीजिए। [2009, 10]
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का सारांश लिखिए।[2011, 14, 15, 16, 17, 18]
या
‘त्यागपथी’ के तीसरे सर्ग का कथानक (कथा/कथावस्तु) अपने शब्दों में लिखिए। [2016]
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के चौथे सर्ग के आधार पर राज्यश्री, हर्षवर्द्धन और दिवाकर मित्र के वार्तालाप का सारांश लिखिए। [2014]
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग की कथावस्तु लिखिए। [2016, 18]
या
‘त्यागपथी’ के प्रथम तीन सर्यों के आधार पर सम्राट् हर्षवर्द्धन के जीवन की कहानी लिखिए।
या
‘त्यागपथी’ के पंचम (अन्तिम) सर्ग की कथा अपनी भाषा (अपने शब्दों) में लिखिए। [2013, 14, 15, 16, 17]
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में पंचग सर्ग में वर्णित घटनाओं को अपने शब्दों में लिखिए।
या
आपको ‘त्यागपथी’ का कौन-सा सर्ग रुचिकर प्रतीत होता है और क्यों ? उस सर्ग का कथानक अपनी भाषा में लिखिए। [2009]
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के पंचम संर्ग’ की कथावस्तु का उल्लेख कीजिए। [2015, 18]
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के द्वितीय संर्ग’ की कथा अपने शब्दों में लिखिए।[2014, 15]
या
‘त्यागपथी’ में वर्णित भारत की राजनीतिक उथल-पुथल का वर्णन कीजिए। [2012, 13]
[ संकेत : प्रथम, द्वितीय व तृतीय सर्ग का सारांश संक्षेप में लिखें। ]
उत्तर
श्री रामेश्वर शुक्ल अञ्चल द्वारा रचित ‘त्यागपथी’ ऐतिहासिक खण्डकाव्य की कथा पाँच सर्गों में विभाजित है। इसमें छठी शताब्दी के प्रसिद्ध सम्राट् हर्षवर्धन के त्याग, तप और सात्विकता का वर्णन किया गया है। सम्राट् हर्ष की वीरता का वर्णन करते हुए कवि ने इस खण्डकाव्य में राजनीतिक एकता और विदेशी आक्रान्ताओं के भारत से भागने का भी वर्णन किया है। इस खण्डकाव्य का सर्गानुसार कथानक निम्नवत् है-

प्रथम सर्ग

थानेश्वर के राजकुमार हर्षवर्द्धन वन में आखेट हेतु गये थे। वहीं उन्हें अपने पिता प्रभाकरवर्द्धन के विषम ज्वर-प्रदाह का समाचार मिलता है। कुमार तुरन्त लौट आते हैं। वे पिता के रोग का बहुत उपचार करवाते हैं, परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिलती। हर्षवर्द्धन के बड़े भाई राज्यवर्द्धन उत्तरापथ पर हूणों से युद्ध करने में लगे थे। हर्षवर्द्धन ने दूत के साथ अपने अग्रज को पिता की अस्वस्थता का समाचार पहुँचाया। इधर हर्षवर्द्धन की माता अपने पति की दशा बिगड़ती देख आत्मदाह के लिए तैयार हो जाती हैं। हर्ष ने उन्हें बहुत समझाया, पर वे नहीं मानीं और हर्ष के पिता की मृत्यु से पूर्व ही वे आत्मदाह कर लेती हैं। कुछ समय पश्चात् राजा प्रभाकरवर्द्धन की भी मृत्यु हो जाती है। पिता का अन्तिम संस्कार कर हर्षवर्द्धन शोकाकुल मन से राजमहल में लौट आते हैं। उन्हें इस बात की बड़ी चिन्ता है कि पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर अनुजा (बहन) राज्यश्री तथा अग्रज (भाई) राज्यवर्द्धन की क्या दशा होगी ?

द्वितीय सर्ग

राज्यवर्द्धन हुणों को परास्त कर सेनासहित अपने नगर सकुशल लौट आते हैं। शोकविह्वल हर्षवर्द्धन की दशा देख वे बिलख-बिलखकर रोते हैं। माता-पिता की मृत्यु से शोकाकुल राज्यवर्द्धन वैराग्य लेने का निश्चय कर लेते हैं, किन्तु तभी उन्हें समाचार मिलता है कि मालवराज ने उनकी छोटी बहन राज्यश्री के पति गृहवर्मन को मार डाला है तथा राज्यश्री को कारागार में डाल दिया है। राज्यवर्द्धन वैराग्य को भूल मालवराज का विनाश करने चल देते हैं। राज्यवर्द्धन गौड़ नरेश को पराजित कर देते हैं, परन्तु गौड़ नरेश छलपूर्वक उनकी हत्या करवा देता है। हर्षवर्द्धन को जब यह समाचार मिलता है तो वे विशाल सेना लेकर मालवराज से युद्ध करने के लिए चल पड़ते हैं। मार्ग में हर्षवर्द्धन को समाचार मिलता है कि उनकी छोटी बहन राज्यश्री बन्धनमुक्त होकर; विन्ध्याचल की ओर वन में चली गयी है। यह समाचार पाकर हर्षवर्द्धन बहन को खोजने वन की ओर चल देते हैं। वन में दिवाकर मित्र के आश्रम में उन्हें एक भिक्षुक से यह समाचार मिलता है कि राज्यश्री आत्मदाह करने वाली है। वे शीघ्र ही पहुँचकर राज्यश्री को आत्मदाह करने से बचा लेते हैं। वे दिवाकर मित्र और राज्यश्री को अपने साथ ले कन्नौज लौट आते हैं।

तृतीय सर्ग

हर्षवर्द्धन अपनी बहन के छीने हुए राज्य को पुन: प्राप्त करने के लिए अपनी विशाल सेना के साथ कन्नौज पर आक्रमण कर देते हैं। वहाँ अनीतिपूर्वक अधिकार जमाने वाला मालव-कुलपुत्र भाग जाता है। राज्यवर्द्धन का हत्यारा गौड़पति-शशांक भी अपने गौड़-प्रदेश को भाग जाता है। सभी लोग हर्षवर्द्धन से कन्नौज का राजा बनने की प्रार्थना करते हैं, परन्तु हर्ष अपनी बहन का राज्य लेने से मना कर देते हैं। वे अपनी बहन से सिंहासन पर बैठने को कहते हैं, परन्तु बहन भी राज-सिंहासन ग्रहण करने से मना कर देती है। फिर हर्षवर्द्धन ही कन्नौज के संरक्षक बनकर अपनी बहन के नाम से वहाँ का शासन चलाते हैं।

इसके बाद छः वर्षों तक हर्षवर्द्धन का दिग्विजय-अभियान चलता है। उन्होंने कश्मीर, पञ्चनद, सारस्वत, मिथिला, उत्कल, गौड़, नेपाल, वल्लभी, सोरठ आदि सभी राज्यों को जीतकर तथा यवन, हूण और अन्य विदेशी शत्रुओं का नाश करके देश को अखण्ड और शक्तिशाली बनाकर एक सुसंगठित राज्य बनाया। अपनी बहन के स्नेहवश वे अपनी राजधानी भी कन्नौज को ही बनाते हैं और अनेक वर्षों तक धर्मपूर्वक शासन करते हैं। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी तथा धर्म, संस्कृति और कला की भी पर्याप्त उन्नति हो रही थी।

चतुर्थ सर्ग

राज्यश्री एक बड़े राज्य की शासिका होकर भी दु:खी है। वह सब कुछ छोड़कर गेरुए वस्त्र धारणकर भिक्षुणी बनना चाहती है। वह हर्षवर्द्धन से संन्यास ग्रहण करने की आज्ञा माँगने जाती है तो हर्षवर्द्धन उसे समझाते हैं कि तुम तो मन से संन्यासिनी ही हो। यदि तुम गेरुए वस्त्र ही धारण करना चाहती हो तो अपने वचनानुसार मैं भी तुम्हारे साथ ही संन्यास ले लूंगा। तभी दिवाकर मित्र आकर उन्हें समझाते हैं कि वास्तव में आप दोनों भाई-बहन का मन संन्यासी है, किन्तु आज देश की रक्षा एवं सेवा संन्यास-ग्रहण करने से अधिक महत्त्वपूर्ण है। दिवाकर मित्र के समझाने पर दोनों संन्यास का विचार त्याग कर देशसेवा में लग जाते हैं।

पंचम सर्ग

हर्षवर्द्धन एक आदर्श सम्राट् के रूप में शासन करते हैं। उनके राज्य में प्रजा सब प्रकार से सुखी है, विद्वानों की पूजा की जाती है। सभी प्रजाजन आचरणवान्, धर्मपालक, स्वतन्त्र तथा सुरुचिसम्पन्न हैं। महाराज हर्षवर्द्धन सदैव जन-कल्याण एवं शास्त्र-चिन्तन में लगे रहते हैं। अपने भाई के ऐसे धर्मानुशासन को देखकर राज्यश्री भी प्रसन्न रहती है। सम्पूर्ण राज्य एकता के सूत्र में बँधा हुआ है। एक बार हर्षवर्द्धन तीर्थराज प्रयाग में सम्पूर्ण राजकोष को दान कर देने की घोषणा करते हैं

हुई थी घोषणा सम्राट की साम्राज्य भर से,
करेंगे त्याग सारा कोष ले संकल्प कर में ।

सब कुछ दान करके वे अपनी बहन से माँगकर वस्त्र पहनते हैं। इसके पश्चात् प्रत्येक पाँच वर्ष बाद वे इसी प्रकार अपना सर्वस्व दान करने लगे। इस दान को वे प्रजा-ऋण से मुक्ति का नाम देते हैं। अपने जीवन में वे छ: बार इस प्रकार के सर्वस्व-दान का आयोजन करते हैं। हर्षवर्द्धन संसारभर में भारतीय संस्कृति का प्रसार करते हैं। इस प्रकार कर्तव्यपरायण, त्यागी, परोपकारी, परमवीर, महाराज हर्षवर्द्धन का शासन सब प्रकार से सुखकर तथा कल्याणकारी सिद्ध होता है।

प्रश्न 2.
‘त्यागपथी’ के प्रमुख पात्रों का परिचय देते हुए बताइए कि आपको कौन-सा पात्र सर्वाधिक प्रभावित करता है और क्यों ?
उत्तर
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में प्रभाकरवर्द्धन तथा उनकी पत्नी यशोमती, उनके दो पुत्र (राज्यवर्द्धन और हर्षवर्द्धन), एक पुत्री (राज्यश्री), कन्नौज, मालव, गौड़ प्रदेश के राजाओं के अतिरिक्त आचार्य दिवाकर, सेनापति भण्ड आदि अनेक पात्र हैं। खण्डकाव्य का नायक हर्षवर्द्धन है तथा काव्य की नायिका होने का गौरव उसकी बहन राज्यश्री को प्राप्त हुआ है। इन सभी पात्रों में मुझे हर्षवर्द्धन का चरित्र सबसे अधिक प्रभावित करता है; क्योंकि वह एक आदर्श भाई एवं पुत्र; देश-प्रेमी, अजेय-योद्धा, श्रेष्ठ शासक, महान् त्यागी, धर्मपरायण और महादानी है।।

प्रश्न 3.
‘त्यागपथी’ के नायक अथवा प्रमुख पात्र (हर्षवर्द्धन) का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
या
‘त्यागपथी’ काव्य के आधार पर हर्षवर्द्धन की चारित्रिक विशेषताएँ बताइए। [2009, 11, 12, 14, 15, 16, 18]
या
” ‘त्यागपथी’ के हर्षवर्द्धन का चरित्र देशप्रेम का प्रखरतम (आदर्श) उदाहरण है।” उपयुक्त उदाहरण देते हुए इस कथन को प्रमाणित कीजिए। [2011]
या
” ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में सम्राट हर्षवर्द्धन का चरित्र ही केन्द्र है और उसी के चारों ओर कथानक का चक्र घूमता है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के नाम को ध्यान में रखकर हर्षवर्द्धन का चरित्रांकन कीजिए। [2015]
या
हर्षवर्द्धन का चरित्र, आचरण का संवाहक है। सिद्ध कीजिए।
या
“‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में हर्ष एक इतिहास पुरुष के रूप में चित्रित है।” इस उक्ति के आलोक में हर्ष का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ के हर्षवर्द्धन का चरित्र आज के युवकों पर कितना प्रभावकारी है? [2009]
या
“हर्ष एक सच्चा त्यागपथी था।” उक्ति के आधार पर हर्ष का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2010, 11]
या
“शौर्य था साकार नृप में अवतरित था ज्ञान।” कथन के आधार पर ‘त्यागपथी’ के हर्षवर्द्धन के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिए। [2010, 11]
उत्तर
थानेश्वर के महाराज प्रभाकरवर्द्धन के छोटे पुत्र हर्षवर्द्धन के चरित्र की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) नायक–हर्षवर्द्धन ‘त्यागपथी’ के नायक हैं। इस खण्डकाव्य की सम्पूर्ण कथा का केन्द्र वही हैं। सम्पूर्ण घटनाचक्र उन्हीं के चारों ओर घूमता है। कथा आरम्भ से अन्त तक हर्षवर्द्धन से ही सम्बद्ध रहती है।।
(2) आदर्श पुत्र एवं भाई-इस खण्डकाव्य में हर्षवर्द्धन एक आदर्श पुत्र एवं आदर्श भ्राता के रूप में पाठकों के समक्ष आते हैं। अपने पिता के रुग्ण होने का समाचार पाकर वे आखेट से तुरन्त लौट आते हैं और यथासामर्थ्य उनकी चिकित्सा करवाते हैं। पिता के स्वस्थ न होने तथा माता द्वारा आत्मदाह करने की बात सुनकर वे भाव-विह्वल हो जाते हैं। वे अपनी माता से कहते हैं-

मुझ मन्द पुण्य को छोड़ न माँ तुम भी जाओ।
छोड़ो विचार यह मुझे चरण से लिपटाओ ।

आदर्श पुत्र के समान ही वे आदर्श भाई का कर्तव्य भी पूरा करते हैं। वे अपनी बहन राज्यश्री को अग्निदाह करने एवं संन्यास लेने से रोकते हैं-

दोनों करों से घेरकर छोटी बहिन के भाल को।
भूल खड़े थे निकट जलती चिता की ज्वाल को ।

बड़े भाई राज्यवर्द्धन के प्रति भी उनका अपार प्रेम है-

बाहर चले जब राज्यवर्द्धन हर्ष पीछे चल पड़े।
ज्यों वन-गमन में राम के पीछे चले लक्ष्मण अड़े।

(3) देश-प्रेमी-हर्षवर्द्धन सच्चे देश-प्रेमी हैं। उन्होंने छोटे राज्यों को एक साथ मिलाकर विशाल राज्य की स्थापना की। देश की एकता एवं रक्षा हेतु वे बड़े-से-बड़ा युद्ध करने से भी नहीं हिचकते थे। उन्होंने एक बड़े राज्य की स्थापना ही नहीं की, वरन् धर्मपूर्वक शासन भी किया। देश सेवा ही उनके जीवन का व्रत है।

(4) अजेय योद्धा--हर्षवर्द्धन एक अजेय योद्धा हैं। विद्रोही उनके तेजबल के आगे ठहर नहीं पाता। कोई भी राजा उन्हें पराजित नहीं कर सका। भारत के इतिहास में महाराज हर्षवर्द्धन की दिग्विजय, उनका युद्ध-कौशल और उनकी अनुपम वीरती आज भी स्वर्णाक्षरों में लिखी है। उनकी वीरता एवं कुशल शासन का ही यह परिणाम था कि ”उठा पाया न सिर कोई प्रवंचक।”

(5) श्रेष्ठ शासक-महाराज हर्षवर्द्धन एक श्रेष्ठ शासक हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन प्रजा के हितार्थ ही समर्पित है। उनका शासन धर्म-शासन है। उनके शासन में सभी जनों को समान न्याय एवं सुख उपलब्ध है-

शान्ति शुभता का व्रती था हर्ष का शासन ।
था लिया जिसने प्रजा-हित राजसिंहासन ॥
थी सकल साम्राज्य में सुख श्री उमड़ आयी।
थी चतुर्दिक न्याय समता की विभा छायी ॥

वे सदैव प्रजा के कल्याण में लगे रहते थे और स्वयं को प्रजा का सेवक समझते थे। उनका मत था-

नहीं अधिकार नृप को पास रखे धन प्रजा का,
करे केवल सुरक्षा देश-गौरव की ध्वजा का।।

(6) महान् त्यागी-हर्षवर्द्धन महान् त्यागी एवं आत्म-संयमी हैं। आत्म-संयम एवं सर्वस्व त्याग करने के कारण ही कवि ने उन्हें ‘त्यागपथी’ के नाम से पुकारा है। पिता की मृत्यु के पश्चात् वे अपने बड़े भाई के अधिकार को ग्रहण करना नहीं चाहते। इसी प्रकार कन्नौज को राज्य भी वे अपनी बहन के नाम पर चलाते हैं। प्रयाग में छ: बार अपना सर्वस्व प्रजा के लिए दे देना उनके महान् त्याग का प्रमाण है। वे राजकोष को प्रजा की सम्पत्ति मानते हैं। इसीलिए वे उसे प्रजा को ही दान कर देते हैं। वे अपने पहनने के वस्त्र भी अपनी बहन राज्यश्री से माँगकर पहनते हैं-

दिये सम्राट् ने निज वस्त्र आभूषण वहाँ परे ।
बहिन से भीख में माँग वसन पहिना वहाँ पर ॥

(7) धर्मपरायण–हर्षवर्द्धन के जीवन में धर्मपरायणता कूट-कूटकर भरी हुई है। वे जन-सेवा में ही अपना जीवन लगा देते हैं-

रहे कल्याण मानवमात्र का ही धर्म मेरा,
रहे सर्वस्व-त्यागी पुण्य पर विश्वास मेरा।

उन्होंने शैव, शाक्त, वैष्णव और वेद-मत को एक साथ रखा। उन्होंने किसी के प्रति भी भेदभाव नहीं बरता।

(8) कर्त्तव्यनिष्ठ एवं दृढनिश्चयी-सम्राट हर्ष ने आजीवन अपने कर्तव्य का पालन किया। प्रारम्भ में इच्छा न होते हुए भी इन्होंने अपने भाई के कहने पर राज्य सँभाला और प्रत्येक संकटापन्न स्थिति में भी अपने कर्तव्य को निभाया। बहन राज्यश्री को वनों में खोजकर वे अपनी कर्तव्यनिष्ठा का परिचय देते हैं-

मैं स्वयं जाऊँगा बहिन को ढूँढ़ने वन प्रान्त में,
पाए बिना उसको न क्षण भर हो सकेंगा शान्त मैं।

भाई की छल से की गयी हत्या का समाचार सुनकर उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी, उससे उनके दृढ़निश्चय का पता चलता है-

लेकर चरण रज आर्य की करता प्रतिज्ञा आज मैं,
निर्मूल कर दूंगा धरा से अधर्म गौड़ समाज मैं ।।

(9) महादानी—त्यागपथी के हर्षवर्द्धन आत्मसंयमी तथा महादानी हैं। महान् त्यागी होने के कारण ही कवि ने उन्हें ‘त्यागपथी’ नाम से पुकारा है। पिता की मृत्यु के पश्चात् वे अपने बड़े भाई का अधिकार ग्रहण नहीं करना चाहते। कन्नौज विजय के बाद भी वे कन्नौज का सिंहासन राज्यश्री को देना चाहते हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि हर्ष का चरित्र एक महान् राजा, आदर्श भाई, आदर्श पुत्र और महान् त्यागी का चरित्र है, जिसके लिए प्रजा की सुख-सुविधा ही सर्वोपरि है और वह अपने मानवीय कर्तव्यों के प्रति भी निष्ठावान है।

प्रश्न 4.
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के आधार पर राज्यश्री का चरित्र-चित्रण (चरित्रांकन) कीजिए। [2009, 11, 12, 13, 14, 15, 16]
या
‘त्यागपथी’ के प्रमुख नारी-पात्र राज्यश्री की चारित्रिक विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए/लिखिए। [2013, 15, 16, 17]
या
‘त्यागपथी’ में निरूपित राज्यश्री की चारित्रिक छवि पर सोदाहरण प्रकाश डालिए।
उत्तर
राज्यश्री सम्राट हर्षवर्द्धन की छोटी बहन है। हर्षवर्द्धन के चरित्र के बाद राज्यश्री का चरित्र ही ऐसा है, जो पाठकों के हृदय एवं मस्तिष्क पर छा जाता है। राज्यश्री के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं-
(1) माता-पिता की लाडली-राज्यश्री अपने माता-पिता को प्राणों से भी प्यारी है। कवि कहता है|

माँ की ममता की मूर्ति राज्यश्री सुकुमारी।
थी सदा पिता को, माँ को प्राणोपम प्यारी ॥

(2) आदर्श नारी–राज्यश्री आदर्श पुत्री, आदर्श बहन और आदर्श पत्नी के रूप में हमारे समक्ष आती है। वह यौवनावस्था में विधवा हो जाती है तथा गौड़पति द्वारा बन्दिनी बना ली जाती है। भाई राज्यवर्द्धन की मृत्यु के बाद वह कारागार से भाग जाती है और वन में भटकती हुई एक दिन आत्मदाह के लिए उद्यत हो जाती है; किन्तु अपने भाई हर्षवर्द्धन द्वारा बचा लेने पर वह तन-मन-धन से प्रजा की सेवा में ही अपना जीवन अर्पित कर देती है। हर्ष द्वारा राज्य सौंपे जाने पर भी वह राज्य स्वीकार नहीं करती। यही है उसका आदर्श रूप, जो सबको आकर्षित करता है–

विपुल साम्राज्य की अग्रज सहित वह शासिका थी,
अभ्यन्तर से तथागत की अनन्य उपासिका थी।

(3) देश-भक्त एवं जन-सेविका–राज्यश्री के मन में देशप्रेम और लोक-कल्याण की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। हर्ष के समझाने पर वह अपने वैधव्य का दु:ख झेलती हुई भी देश-सेवा में लगी रहती है। देशप्रेम के कारण राज्यश्री संन्यासिनी बनने का विचार भी छोड़ देती है तथा शेष जीवन को देशसेवा में ही लगाने का व्रत लेती है-

करूंगी साथ उनके मैं हमेशा राष्ट्र-साधन
अहिंसा नीति का होगा सभी विधिपूर्ण पालन ॥
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प्रजा के हित समर्पित है व्रती जीवन तुम्हारा।
सभी का हित सभी को सुख, तुम्हें दिन-रात प्यारा ।।

(4) करुणामयी नारी–राज्यश्री ने माता-पिता की मृत्यु तथा पति और बड़े भाई की मृत्यु के अनेक दुःख झेले। इन दुःखों ने उसे करुणा की मूर्ति बना दिया। अपने अग्रज हर्षवर्द्धन से मिलते समय उसकी कारुणिक दशा अत्यन्त मार्मिक प्रतीत होती है–

सतत बिलखती थी बहिन माता-पिता की याद कर ।
ले नाम सखियों का, उमड़ती थी नदी-सी वारि भर ॥
था साखु अग्रज धैर्य देता माथ उसका ढाँपकर ।
रोती रही अविरल बहिन बेतस लता-सी काँपकर ।।

(5) त्यागमयी नारी–राज्यश्री का जीवन त्याग की भावना से आलोकित है। भाई हर्षवर्द्धन द्वारा कन्नौज का राज्य दिये जाने पर भी वह उसे स्वीकार नहीं करती। वह कहती है–

स्वीकार न मुझको कान्यकुब्ज सिंहासन।
बैठो उस पर तुम करो शौर्य से शासन ।।

वह राज्य-कार्य के बन्धन में पड़ना नहीं चाहती; क्योंकि वह मन से संन्यासिनी है। हर्षवर्द्धन के समझाने पर भी वह नाममात्र की ही शासिका बनी रहती है। प्रयाग महोत्सव के समय हर्षवर्द्धन के साथ राज्यश्री भी अपना सर्वस्व प्रजा के हितार्थ त्याग देती है–

लुटाती थी बहन भी पास का सब तीर्थस्थल में,
पहिन दो वस्त्र केवल दीपती थी छवि विमल में ।।

(6) सुशिक्षिता एवं ज्ञान-सम्पन्न राज्यश्री सुशिक्षिता एवं शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न है। जब आचार्य दिवाकर मित्र संन्यास धर्म का तात्त्विक विवेचन करते हुए उसे मानव-कल्याण के कार्य में लगने का उपदेश देते हैं तब राज्यश्री इसे स्वीकार कर लेती है और आचार्य की आज्ञा का पूर्णरूपेण पालन करती है।
इस प्रकार राज्यश्री का चरित्र एक आदर्श भारतीय नारी का चरित्र है। उसके पातिव्रत-धर्म, देश-धर्म, करुणा और कर्तव्यनिष्ठा के आदर्श निश्चय ही अनुकरणीय हैं।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi खण्डकाव्य Chapter 4 आलोकवृत्त

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 4
Chapter Name आलोकवृत्त (गुलाब खण्डेलवाल)
Number of Questions 3
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi खण्डकाव्य Chapter 4 आलोकवृत्त (गुलाब खण्डेलवाल)

प्रश्न 1.
‘आलोकवृत्त’ की कथावस्तु (कथानक अथवा सारांश) पर संक्षेप में प्रकाश डालिए। [2009, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य का सारांश अपने शब्दों में लिखिए। [2016]
या
‘आलोकवृत्त’ के आधार पर द्वितीय सर्ग की कथावस्तु का निरूपण कीजिए। [2011, 12, 13]
या
‘आलोकवृत्त’ के आधार पर सन् 1942 ई० की जनक्रान्ति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
या
‘आलोकवृत्त’ काव्य में वर्णित स्वतन्त्रता-प्राप्ति की प्रमुख घटनाओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2013]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के आधार पर चतुर्थ सर्ग का सारांश लिखिए। [2011, 14, 15, 18]
या
‘आलोकवृत्त’ के आधार पर गाँधी जी के अफ्रीका-प्रवास के जीवन पर प्रकाश डालिए। [2010, 12, 13]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य की प्रमुख घटना का वर्णन कीजिए। [2016]
या
“‘आलोकवृत्त’ काव्य भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का संक्षिप्त इतिहास है।” विवेचन कीजिए। [2013]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के सप्तम सर्ग में कथित ‘भारत छोड़ो आन्दोलन पर प्रकाश डालिए।
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के ‘सप्तम सर्ग’ के कथानक पर प्रकाश डालिए। [2015]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के प्रथम एवं द्वितीय सर्ग की कथावस्तु पर प्रकाश डालिए। [2016, 18]
या
‘आलोकवृत्त’ के दूसरे एवं तीसरे सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए। [2015]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग’ की कथावस्तु अपने शब्दों में लिखिए। [2016]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के पंचम सर्ग के आधार पर ‘असहयोग आन्दोलन’ की भूमिका पर सोदाहरण प्रकाश डालिए। [2011]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के अन्तर्गत प्रथम तथा द्वितीय सर्ग में वर्णित घटनाओं का उल्लेख कीजिए। [2012]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के षष्ठ सर्ग में वर्णित नमक सत्याग्रह के सन्दर्भ में गाँधी जी की दांडी यात्रा का वर्णन कीजिए। [2009, 11, 12]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के सप्तम सर्ग में निरूपित सन् 1942 ई० की जनक्रान्ति का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए। [2010, 14]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के सप्तम सर्ग का कथानक अपनी भाषा में लिखिए। [2016, 17, 18]
या
‘आलोकवृत्त’ के अष्टम सर्ग की कथावस्तु प्रस्तुत कीजिए। [2013, 14]
या
‘आलोकवृत्त’ के अन्तिम सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए। [2015]
उत्तर
‘आलोकवृत्त’ के कथानक में आठ सर्ग हैं, जिनकी कथावस्तु संक्षेप में निम्नलिखित है-

प्रथम सर्ग : भारत का स्वर्णिम अतीत

प्रथम सर्ग में कवि ने भारत के अतीत के गौरव तथा तत्कालीन पराधीनता का वर्णन किया है। कवि ने बताया है कि भारत वेदों की भूमि रहा है। भारतवर्ष ने ही संसार को सर्वप्रथम ज्ञान की ज्योति दी थी, किन्तु दुर्भाग्यवश एक समय ऐसा आया कि भारतवासी यह भूल गये कि हम कितने गौरवमण्डित थे ? इसका परिणाम यह हुआ कि भारतवर्ष सैकड़ों वर्ष तक दासता की बेड़ियों में जकड़ा रहा। सन् 1857 ई० की क्रान्ति के पश्चात् गुजरात के पोरबन्दर’ नामक स्थान पर एक दिव्य ज्योतिर्मय विभूति मोहनदास करमचन्द गाँधी के रूप में प्रकट हुई, जिसने हमें विदेशियों की दासता से मुक्त करवाया।

द्वितीय सर्ग : गाँधी जी का प्रारम्भिक जीवन

द्वितीय सर्ग में गाँधी जी के जीवन के क्रमिक विकास पर प्रकाश डाला गया है। वे बचपन में कुसंगति में फँस गये थे, किन्तु शीघ्र ही उन्होंने अपने पिता के समक्ष अपनी त्रुटियों पर पश्चात्ताप किया और दुर्गुणों को सदैव के लिए छोड़ने की प्रतिज्ञा की और आजीवन उसका निर्वाह किया। इसके बाद कस्तूरबा के साथ गाँधी जी का विवाह हुआ। इसके कुछ समय बाद उनके पिताजी का देहान्त हो गया। वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड गये। उनकी माँ ने विदेश में रहकर मांस-मदिरा का प्रयोग न करने के लिए समझाया–

मद्य-मांस-मदिराक्षी से बचने की शपथ दिलाकर।
माँ ने तो दी विदा पुत्र को मंगल तिलक लगाकर ।।

इंग्लैण्ड में सात्त्विक जीवन व्यतीत करते हुए भी वे एक दिन एक कलुषित स्थान पर पहुँच गये, लेकिन उन्होंने अपने चरित्र को कलुषित होने से बचा लिया। वहाँ से वे बैरिस्टर बनकर भारत लौटे। भारत आने पर उन्हें उनकी माता के देहान्त का दु:खद समाचार मिला। यहीं पर द्वितीय सर्ग की कथा समाप्त हो जाती है।

तृतीय सर्ग : गाँधी जी का अफ्रीका-प्रवास

तृतीय सर्ग में गाँधी जी के अफ्रीका में निवास का वर्णन है। एक बार रेलगाड़ी में यात्रा करते समय एक गोरे अंग्रेज ने उन्हें काला होने के कारण अपमानित करके रेलगाड़ी से नीचे उतार दिया। रंगभेद की इस कुटिल नीति से गाँधी जी के हृदय को बहुत दुःख पहुँचा। वे भारतीयों की दुर्दशा से चिन्तित हो उठे। यहाँ पर कवि ने गाँधी जी के मन में उत्पन्न अन्तर्द्वन्द्व का बड़ा सुन्दर चित्रण किया है। गाँधी जी ने सत्य और अहिंसा का सहारा लेकर असत्य और हिंसा का सामना करने का दृढ़ निश्चय किया। अपनी जन्मभूमि से दूर विदेश की भूमि पर उन्होंने मानवता के उद्धार का प्रण लिया-

पशु-बल के सम्मुख आत्मा की शक्ति जगानी होगी।
मुझे अहिंसा से हिंसा की आग बुझानी होगी।

सत्य और अहिंसा के इस मार्ग को उन्होंने सत्याग्रह का नाम दिया। गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में सैकड़ों सत्याग्रहियों का नेतृत्व किया। दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष-समाप्ति के साथ ही तृतीय सर्ग समाप्त हो जाता है।

चतुर्थ सर्ग : गाँधी जी का भारत आगमन

चतुर्थ सर्ग में गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट आते हैं। भारत आकर गाँधी जी ने लोगों को स्वतन्त्रता प्राप्त करने हेतु जाग्रत किया। उन्होंने साबरमती नदी के तट पर अपना आश्रम बनाया। अनेक लोग गाँधी जी के अनुयायी हो गये, जिनमें डॉ० राजेन्द्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, विनोबा भावे, ‘राजगोपालाचारी’, सरोजिनी नायडू, ‘दीनबन्धु’, मदनमोहन मालवीय, सुभाषचन्द्र बोस आदि प्रमुख थे। अंग्रेज देश की जनता पर भारी अत्याचार कर रहे थे। गाँधी जी ने चम्पारन में नील की खेती को लेकर आन्दोलन आरम्भ किया; जिसमें वे सफल हुए। एक अंग्रेज द्वारा अपनी पत्नी के हाथों गाँधी जी को विष देने तक का प्रयास किया गया, परन्तु वह स्त्री गाँधी जी के दर्शन कर ऐसा न कर सकी। इसके विपरीत उन दोनों का हृदय-परिवर्तन हो गया। इसी सर्ग में खेड़ा-सत्याग्रह का वर्णन भी हुआ है। कवि ने इस सत्याग्रह में सरदार वल्लभभाई पटेल का चरित्र-चित्रण विशेष रूप से किया है।

पंचम सर्ग : असहयोग आन्दोलन

इस सर्ग में कवि ने यह चित्रित किया है कि गाँधी जी के नेतृत्व में स्वाधीनता आन्दोलन निरन्तर बढ़ता गया। अंग्रेजों की दमन-नीति भी बढ़ती गयी। गाँधी जी के नेतृत्व में स्वतन्त्रता-प्रेमियों का समूह नागपुर पहुँचता है। नागपुर के कांग्रेस-अधिवेशन में गाँधी जी के ओजस्वी भाषण ने भारतवर्ष के लोगों में नयी स्फूर्ति भर दी, किन्तु अंग्रेजों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति ने हिन्दुओं-मुसलमानों में साम्प्रदायिक दंगे करवा दिये। गाँधी जी को बन्दी बना लिया गया। उन्होंने सत्याग्रह का कार्यक्रम स्थगित कर दिया। कारागार से छूटने के बाद उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता, शराब-मुक्ति, हरिजनोत्थान, खादी-प्रचार आदि रचनात्मक कार्यों में अपना सम्पूर्ण समय लगाना आरम्भ कर दिया। हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए गाँधी जी ने इक्कीस दिनों का उपवास रखा-

आत्मशुद्धि का यज्ञ कठिन यह पूरा होने को जब आया।
बापू ने इक्कीस दिनों के अनशन का संकल्प सुनाया।

फिर लाहौर में पूर्ण स्वतन्त्रता के प्रस्ताव के साथ ही पाँचवाँ सर्ग समाप्त हो जाता है।

षष्ठ सर्ग : नमक सत्याग्रह

इस सर्ग में गाँधी जी द्वारा चलाये गये नमक-सत्याग्रह का वर्णन हुआ है। गाँधी जी ने समुद्रतट पर बसे ‘डाण्डी’ नामक स्थान की पैदल यात्रा 24 दिनों में पूरी की। नमक आन्दोलन में हजारों लोगों को बन्दी बनाया गया। अंग्रेज सरकार ने लन्दन में ‘गोलमेज सम्मेलन बुलाया, जिसमें गाँधी जी को आमन्त्रित किया गया। इसके परिणामस्वरूप सन् 1937 ई० में ‘प्रान्तीय स्वराज्य की स्थापना हुई। इसके साथ ही षष्ठ सर्ग समाप्त हो जाता है।

सप्तम सर्ग : सन् 1942 की जनक्रान्ति

द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। अंग्रेज सरकार भारतीयों को सहयोग तो चाहती थी, किन्तु उन्हें पूर्ण अधिकार देना नहीं चाहती थी। क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद 1942 ई० में गाँधी जी ने अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का नारा दिया। सम्पूर्ण देश में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। इसका वर्णन कवि ने बड़े ही सजीव रूप से किया है–

थे महाराष्ट्र-गुजरात उठे, पंजाब-उड़ीसा साथ उठे।
बंगाल इधर, मद्रास उधर, मरुथल में थी ज्वाला घर-घर ॥

कवि ने इस आन्दोलन का वर्णन अत्यधिक ओजस्वी भाषा में किया है। बम्बई अधिवेशन के बाद गाँधी जी सहित सभी भारतीय नेता जेल में डाल दिये जाते हैं। पूरे देश में इसकी विद्रोही प्रतिक्रिया होती है। कवि के शब्दों में,

जब क्रान्ति लहर चल पड़ती है, हिमगिरि की चूल उखड़ती है।
साम्राज्य उलटने लगते हैं, इतिहास पलटने लगते हैं ।

इस सर्ग में कवि ने गाँधी जी एवं कस्तूरबा के मध्य हुए एक वार्तालाप का भी भावपूर्ण चित्रण किया है। जिसमें गाँधी जी के मानवीय स्वभाव और कस्तूरबा की सेवा-भावना, मूक त्याग और बलिदान का सम्यक् निरूपण किया है।

अष्टम सर्ग : भारतीय स्वतन्त्रता का अरुणोदय

अष्टम सर्ग का आरम्भ भारत की स्वतन्त्रता से किया गया है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् देशभर में हिन्दू-मुस्लिम-साम्प्रदायिक दंगे हो जाते हैं। गाँधी जी को इससे बहुत दु:ख हुआ। वे ईश्वर से प्रार्थना करते है-

प्रभो ! इस देश को सत्पथ दिखाओ, लगी जो आग भारत में बुझाओ ।
मुझे दो शक्ति इसको शान्त कर दें, लपट में रोष की निज शीश धर हूँ॥

इस कल्याण-कामना के साथ ही यह खण्डकाव्य समाप्त हो जाता है।

प्रश्न 2.
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के आधार पर गाँधी जी की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। [2010, 11, 13, 14, 15, 16, 18]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के नायक का चरित्र-चित्रण (चरित्रांकन) कीजिए। [2016,18]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के नायक (प्रमुख पात्र) गाँधी जी का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2009, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 18]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के नायक की (चारित्रिक) विशेषताएँ लिखिए। [2015, 16, 17]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के आधार पर महात्मा गाँधी के जीवन व राष्ट्रीय आदर्शों पर प्रकाश डालिए। [2015]
या
“‘आलोकवृत्त’ में गाँधी जी का कृतित्व ही नहीं उनका जीवन-दर्शन और चिन्तन भी अभिव्यक्त हुआ है।” इस कथन की सार्थकता प्रमाणित कीजिए। [2012]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के आधार पर गाँधी जी के व्यक्तित्व की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2011]
उत्तर
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के आधार पर गाँधी जी के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार है।

(1) सामान्य मानवीय दुर्बलताएँ–गाँधी जी का आरम्भिक जीवन एक साधारण मनुष्य की भाँति मानवीय दुर्बलताओं वाला रहा है। उन्होंने एक बार अपने गुरु से छुपकर मांस-भक्षण किया था; उदाहरणार्थ–

करने लगे मांस-भक्षण, गुरुजन की आँख बचाकर।

किन्तु बाद में उन्होंने अपनी इन दुर्बलताओं पर अपनी आत्मिक शक्ति के बल पर पूर्ण विजय पा ली।
(2) देश-प्रेमी-‘आलोकवृत्त’ में गाँधी जी के चरित्र की सर्वप्रथम विशेषता उनका देशप्रेम है। वे देशप्रेम के कारण अनेक बार कारागार जाते हैं, जहाँ उन्हें अंग्रेजों के अपमान-अत्याचार सहने पड़ते हैं। उन्होंने अपना सर्वस्व देश के लिए न्यौछावर कर दिया। भारत के लिए उनका कहना था–

तू चिर प्रशान्त, तू चिर अजेय
सुर-मुनि-वन्दित, स्थित, अप्रमेय
हे सगुण ब्रह्म, वेदादि-गेय
हे चिर अनादि, हे चिर अशेष
मेरे भारत, मेरे स्वदेश ।

(3) सत्य और अहिंसा के प्रबल समर्थक–गाँधी जी देश की स्वतन्त्रता केवल सत्य और अहिंसा के द्वारा ही प्राप्त करना चाहते हैं। असत्य और हिंसा का मार्ग उन्हें अच्छा नहीं लगता। वे कहते हैं-

पशुबल के सम्मुख आत्मा की, शक्ति जगानी होगी।
मुझे अहिंसा से हिंसा की, आग बुझानी होगी।

अहिंसा व्रत का पूर्ण रूप से पालन उनके जैसी कोई बिरला व्यक्ति ही कर सकता है।
(4) दृढ़ आस्तिक-गाँधी जी पुरुषार्थी हैं तो भी वे ईश्वर की सत्ता में अटूट विश्वास रखते हैं। उनका मानना है कि साधन पवित्र होने चाहिए और परिणाम ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए। वे प्रत्येक कार्य ईश्वर को साक्षी मानकर करते हैं। यही कारण है कि वे मात्र पवित्र साधनों को प्रयोग ही उचित समझते हैं-

क्या होगा परिणाम सोच लें, पर क्यों सोचूं, वह तो।
मेरा क्षेत्र नहीं, स्रष्टा का, जो प्रभु करे वही हो ।

(5) स्वतन्त्रता-प्रेमी-गाँधी जी के जीवन का मूल उद्देश्य भारत को स्वतन्त्र करवाना है। वे भारतमाता की स्वतन्त्रता के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। देशवासियों को परतन्त्रता की बेड़ियाँ काटने के लिए प्रेरित करते हुए वे कहते हैं-

जाग तुझे तेरी अतीत, स्मृतियाँ धिक्कार रही हैं।
जाग-जाग तुझे भावी, पीढ़ियाँ पुकार रही हैं ।

(6) मानवतावादी-गाँधी जी मानव-मानव में अन्तर नहीं मानते। वे सबके लिए समानता के सिद्धान्त में विश्वास करते हैं। उन्होंने जीवन-भर ऊँच-नीच, जाति-पाँति और रंग-भेद का डटकर विरोध किया। अछूत कहे जाने वाले भारतीयों के उद्धार के लिए वे सतत प्रयत्नशील रहे। इस भेदभाव से उन्हें बहुत दु:ख होता था-

जिसने मारा मुझे, कौन वह, हाथ नहीं क्या मेरा।
मानवता तो एक, भिन्न, बस उसका मेरा घेरा ।।

(7) भावात्मक, राष्ट्रीय और हिन्दू-मुस्लिम एकता के समर्थक–गाँधी जी ‘विश्वबन्धुत्व’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना से ओत-प्रोत थे। वे सभी को सुखी व समृद्ध देखना चाहते थे। इन्होंने भारत की समग्र जनता को एकता के सूत्र में बाँधने के लिए जीवन-पर्यन्त प्रयास किया और हिन्दू-मुसलमानों को भाई-भाई की तरह रहने की प्रेरणा दी। उनका कहना था–

यदि मिलकर इस राष्ट्रयज्ञ में सब कर्त्तव्य निभायें अपना,
एक वर्ष में ही पूरा हो मेरा रामराज्य का सपना ।

(8) आत्मविश्वासी-गाँधी जी आत्मविश्वास से परिपूर्ण थे, उन्होंने जो कुछ भी किया पूर्ण आत्मविश्वास के साथ किया और उसमें वे सफल भी हुए। उनका मानना था-

शासित की स्वीकृति न मिले तो शासक क्या कर लेगा
यदि आधार मिटे भय का तो एकतन्त्र ठहरेगा।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि एक श्रेष्ठ मानव में जितने भी मानवोचित गुण हो सकते हैं वे सभी महात्मा गाँधी में विद्यमान थे।

प्रश्न 3.
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य की रचना के उद्देश्य (शिक्षा-संदेश) पर प्रकाश डालिए। [2010, 15]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य के नामकरण की सार्थकता को स्पष्ट करते हुए इसके उद्देश्य पर प्रकाश डालिए। [2009]
या
‘आलोकवृत्त’ में निसूचित जीवन के प्रमुख मूल्यों को अपने शब्दों में व्यक्त कीजिए। [2009]
या
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य में जीवन के श्रेष्ठ मूल्य वर्णित हैं। संक्षेप में लिखिए।[2017]
उत्तर
‘आलोकवृत्त’ खण्डकाव्य नामकरण (शीर्षक) की सार्थकता-कवि गुलाब खण्डेलवाल ने ‘आलोकवृत्त’ में महात्मा गाँधी के सदाचार एवं मानवता के गुणों से प्रकाशित व्यक्तित्व को चित्रित किया है। इस खण्डकाव्य का विषय उद्देश्य एवं मूलभाव यही है। महात्मा गाँधी के जीवन को हम प्रकाश स्वरूप कह सकते हैं, क्योंकि उन्होंने भारतीय संस्कृति की चेतना को अपने सद्गुणों एवं सविचारों से प्रकाशित किया है। उन्होंने विश्व में सत्य, प्रेम, अहिंसा आदि मानवीय भावनाओं का प्रकाश फैलाया। अत: हम इस जीवन वृत्त को आलोकवृत्त कह सकते हैं। इस दृष्टिकोण से यह शीर्षक उपयुक्त है। यह महात्मा गाँधी के जीवन, उनके चरित्र, उनके गुणों, सिद्धान्तों एवं दर्शन को पूर्णरूपेण परिभाषित करता हुआ एक साहित्यिक एवं दार्शनिक शीर्षक है।

आलोकवृत्त का उद्देश्य-कवि गुलाब खण्डेलवाल ने महात्मा गाँधी के जीवन व कार्यों के द्वारा हमें देश-प्रेम, भावात्मक एकता, राष्ट्रीय एकता, लोककल्याण की भावना, मानव मूल्यों की स्थापना, साधनों की पवित्रता, सत्य, अहिंसा और प्रेम की भावना आदि का सन्देश दिया है। प्रस्तुत खण्डकाव्य मनुष्य के जीवन में आशा और आलोक विकीर्ण करता हुआ, उसे मानवता के उच्चतम शिखरों की ओर उन्मुख करता हुआ, उसे मानवता और संस्कृति की चेतना के परिष्कृत रूप में प्रस्तुत करता है। अपने इस उद्देश्य को उन्होंने काव्य के नायक महात्मा गाँधी के मुख से कहलवाया है

यदि मिलकर इस राष्ट्रयज्ञ में सब कर्तव्य निभायें अपना,
एक वर्ष में ही पूरा हो मेरा रामराज्य का सपना ।

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UP Board Solutions for Class 12 English Prose Chapter 1 A Girl with a Basket

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject English Prose
Chapter Chapter 1
Chapter Name A Girl with a Basket
Number of Questions Solved 18
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 English Prose Chapter 1 A Girl with a Basket

LESSON at a Glance

William C. Douglas was a judge of the Supreme Court of America. He happened to be in India and was on his way to Ranikhet from Delhi. During this short journey he got a feel of the pulse of India. He was very much impressed by the attitude of a nine-year old girl.

When he was going to Barielly by train on his way to Ranikhet, he got down at a railway station. Immediately, he was surrounded by a group of refugee children and each of them wanted to sell baskets and fans to him. He purchased some baskets and fans from them.

A beautiful nine-year old girl felt disappointed as she was not lucky enough to sell something to the author. The author felt pity for her and put a few coins in one of her baskets. The child with all pride and grace refused to accept the money and returned it to the author. Now, the author had no option but to buy her basket.

The behaviour of the girl gave the author a glimpse of the child’s spirit. She showed exemplary passion for self-respect and self-reliance. The author admits that he had fallen in love with India on this account.

पाठ का हिन्दी अनुवाद क

(1) Thad left …………… and reports.
दिल्ली से मैं हिमालय पर्वत की पहाड़ियों को देखने के लिए चला। मैं बरेली तक रेलगाड़ी से गया और रानीखेत तक कार से। रानीखेत अंग्रेजों की पुरानी सैनिक पहाड़ी है जो 6000 फुट लम्बी पर्वत-श्रृंखलाओं पर स्थित है और इसके सामने 120 मील लम्बा बर्फ से ढका हिमालय का भू-भाग है। रेलगाड़ी धीमी गति से जा रही थी और यह रास्ते के सभी स्टेशनों पर रुकी। गाड़ी के रुकने के प्रत्येक स्थान पर मैं अपने डिब्बे का दरवाजा खोलता था और प्लेटफॉर्म पर घूमता था। प्लेटफॉर्म लोगों की भीड़ से भरे हुए थे जिनमें सभी प्रकार के व्यक्ति सिख, मुसलमान, हिन्दु, सिपाही, व्यापारी, पुजारी, कुली, भिखारी और फेरी वाले थे। लगभग प्रत्येक व्यक्ति नंगे पैरों था और ढीले सफेद कपड़े पहने हुए था। तीन व्यक्तियों से बात करने पर मुझे एक ऐसा व्यक्ति मिला जो अंग्रेजी बोल सके। मैं सांसारिक मामलों पर प्रत्येक बड़े-से-बड़े विषय पर तथा प्रतिदिन के समाचारों पर बातचीत करता था। इस प्रकार मैं देश के लोगों की भावनाओं को जानने का प्रयत्न कर रहा था और सरकारी व्यवहार तथा खबरों के विरुद्ध मत को परखता था।

(2) The route lay …………… drab walls.
रास्ता भारत के सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्रों में से एक क्षेत्र में होकर जाता था। यह ऊपरी गंगा नदी का मैदान था जो समुद्र स्तर से लगभग एक हजार फीट की ऊँचाई पर था, किन्तु गर्म था। गंगा भूरी मिट्टी से भरी हुई, बाढ़ के पानी से उमड़ी हुई थी और उसके बहाव ने हजारों एकड़ धान के खेतों को डुबो रखा था। इसके उत्तर में जंगल थे, जिनमें मनुष्य के सिर से ऊँची-ऊँची घास फैली हुई थी और कहीं-कहीं पेड़ों तथा झाड़ियों के

झुरमुट थे जिनमें चीते, हाथी, अजगर और जहरीले साँपों के घर थे और सभी स्थानों पर समतल धरती आसमान को छूती हुई दिखाई देती थी, किन्तु कहीं पवित्र बरगद के पेड़ या पाखड़ के पेड़ों की कतारें थीं, जिनका आकार मोटे मुड़े हुए तनों वाले (elm) वृक्षों के समान था। दक्षिण-पश्चिम की ओर से गर्म नम हवा बह रही थी। स्टेशनों पर कुछ नर बन्दर तथा कुछ मादा बन्दर जिनसे उनके बच्चे चिपटे हुए थे और पेड़ पर चढ़े हुए थे, पेड़ों पर भोजन की तलाश में झूल रहे थे। जिन गाँवों में से हम गुजरे उनकी दीवारें पानी तथा गोबर मिली हुई मिट्टी की बनी थीं। उनकी नुकीली छतों पर छप्पर पड़े हुए थे और घास के गट्ठर उन बाँसों से बँधे हुए थे, जो ढालदार बल्लियों के ढाँचे पर फैले हुए थे। उस दिन कद्दू की बेलों पर, जो उन पर फैली हुई थीं, फल थे और ये बेलें नीरस दीवारों पर रंग-बिरंगी धारियों में फैली हुई थीं।

(3) At one station …………… tuned the streets.
एक स्टेशन पर लोगों से बातचीत करने के मेरे कार्यक्रम में रुकावट पड़ गई। ज्योंही मैं नीचे उतरा, छोटे बच्चों का एक समूह मेरे चारों ओर इकट्ठा हो गया। ये हाथ से बुनी हुई, सरकण्डे की साधारण रूप और आकार की टोकरियाँ बेच रहे थे। उन्होंने उन टोकरियों को अपने हाथों में ऊँचा पकड़ रखा था और जोर-जोर से चिल्ला रहे थे। मैं उनके शब्दों को नहीं समझ सका, किन्तु उनके शब्द मुझे उनकी इच्छा ठीक ही व्यक्त कर रहे थे।

ये शरणार्थी बच्चे थे। जब भारत और पाकिस्तान के विभाजन का आदेश हुआ, तो लाखों लोगों को विवश होकर अपने पूर्वजों के बसाये हुए मकानों और सामान को उठाना पड़ा। नब्बे लाख लोगों ने पाकिस्तान छोड़ा
और धार्मिक भय के पागलपन से भारत आए। वहाँ से चलते समय वे बहुत गरीब व्यक्ति थे और जब उन्होंने अपनी लम्बी पैदल यात्री की तब वे और अधिक गरीब हो गए, क्योंकि उनके पास थोड़ा-सा भोजन और थोड़ा-सा सामान था। शीघ्र ही उनका भोजन समाप्त हो गया। अपनी यात्रा आरम्भ करने के कुछ ही दिनों बाद वे भूख की कमजोरी के कारण रास्ते में ही गिर गए और जहाँ गिरे वहीं पर मर गए। टोकरी बेचने वाले बच्चे इन शरणार्थियों के पुत्र-पुत्रियाँ थे। वे या उनके माता-पिता या रिश्तेदार नगरों में इकट्ठे हो गए। छोटी-छोटी दुकानें लगाई, छोटी-छोटी वस्तुएँ बनाई और उन्हीं बाजारों में जो पहले ही व्यापारियों से भरे पड़े थे, अपनी जीविका कमाने की कोशिश की। कपड़े या घास का छप्पर-सा बनाकर वे गलियों तथा सड़कों के किनारे रहे।

(4) The peasants …………… had seen,
इन शरणार्थियों में जो किसान थे, वे अपने पूरे जीवन में बहुत थोड़े में ही गुजारा करने के अभ्यस्त थे, क्योंकि एक किसान की सालाना आमदनी औसत 100 डॉलर से अधिक नहीं है। साधारण श्रमिक की औसत आय प्रतिदिन 30 सैण्टे या प्रति सप्ताह दो डॉलर से भी कम थी। दिन भर में उन्हें एक बार भोजन मिलता था जिसमें एक प्याज, एक रोटी, एक कटोरा दाल तथा मट्ठा और शायद बकरी के दूध के पनीर का टुकड़ा होता था। चाय, कॉफी, चर्बी, मिठाइयाँ या मांस बिल्कुल नहीं मिलता था। सौ डॉलर प्रति वर्ष, एक सप्ताह में दो डॉलर भी नहीं होते, फिर इतनी छोटी-सी रकम गरीब लोगों को टोकरियाँ बेचकर कमाना बहुत कठिन है। निःसन्देह यही कारण है कि ये छोटे बच्चे मेरे ऊपर टिड्डी दल के समान टूट पड़े। बच्चों ने मेरे विषय में सोचा कि अमेरिकन होने के नाते मैं अवश्य ही एक धनी ग्राहक होऊँगा।

(5) Tbought one …………… any heart.
कुछ आनों में मैंने एक छोटी टोकरी खरीदी, दूसरी कुछ अधिक पैसों में फल की टोकरी, एक रुपये में एक सुन्दर टोकरी कूड़े के लिए, एक रुपये की एक सुन्दर सिलाई टोकरी, एक-एक या दो-दो आने के कुछ पंखे। मेरे हाथ भर गए और मैंने पचास सैण्ट भी खर्च नहीं किए। बच्चे अपने सामान के विषय में शोर मचाते हुए मेरे निकट आ गए। मैं एक कैदी के समान था, पूरी तरह से घिरा हुआ और हिलने-डुलने में भी असमर्थ। सबसे परिश्रमी तथा जोर देकर अपना माल बेचने वाली नौ वर्ष की एक बालिका ठीक मेरे सामने खड़ी थी। उसके पास एक सुन्दर हैण्डल वाली टोकरी थी और वह इसके लिए डेढ़ रुपया लगभग तीस सैण्ट चाहती थी। वह ईमानदारी से अपने सामान की प्रशंसा करने वाली थी। उसकी आँखों में आँसू थे। वह इस प्रकार अपने सामान की प्रशंसा कर रही थी और ऐसे स्वर में विनती कर रही थी कि प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में दया जाग्रत हो जाएगी।

(6) Myarms were …………… soul of India,
मेरी दोनों भुजाएँ भरी हुई थीं। दूसरी टोकरी की न आवश्यकता थी और न स्थान था। अपनी टोकरियों तथा पंखों को बाईं भुजा पर साधते हुए मैंने अपने कोट की दाईं जेब में हाथ डाला और मुट्ठीभर रेजगारी निकाली। सम्भवतः कुल 15 सैण्ट होंगे। उसे मैंने टोकरी में रख दिया जिसे उस छोटी लड़की ने प्रार्थना की दृष्टि से मेरे सामने कर रखा था। मैंने उसे यह समझाने की कोशिश की कि मैं टोकरी नहीं खरीद सकता, किन्तु उसे खरीदने के स्थान पर मैं उसे एक उपहार दे रहा हूँ। मैंने तुरन्त अनुभव किया कि मैंने उसके साथ कितना अनुचित किया है। नौ वर्ष के बच्चे ने जो फटे-पुराने कपड़े पहने हुए था और भूख से मरने के निकट था, अपनी ठोड़ी ऊपर उठाई, अपना हाथ टोकरी में डाला और एक स्त्री में जो गौरव तथा लज्जा होती है, उसके साथ मेरा धन मुझे लौटा दिया। अब मैं केवल एक ही कार्य कर सकता था। मैंने टोकरी खरीद ली। उसने अपनी आँखें पोंछी, मुस्कराई और प्लेटफॉर्म से नीचे कूद गई तथा घास-फूस की झोपड़ी की ओर चल दी जिसके सदस्यों को आज रात को कम-से-कम 30 सैण्ट तो मिलेंगे ही।

मैंने यह कहानी प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू को सुनाई। मैंने उन्हें बताया कि यही एक कारण है जिससे मैं भारत से प्यार करने लगा।

मैंने भारत के लोगों को देखा, गाँव में रहने वालों को भी और ऊँचे पद वाले व्यक्तियों को भी, उनमें गौरव, शालीनता एवं उच्च नागरिकता की भावना थी। उनमें स्वतन्त्रता के प्रति बड़ी तीव्र इच्छा थी। इस सुन्दर बच्चे ने, जो गन्दे वातावरण और गरीबी में पैदा हुआ था तथा सही भाषा और आचरण से अनभिज्ञ था, मुझे भारत के लोगों की महान् भावना की झलक दे दी।

Understanding the Text

Explanations
Explain one of the following passages with reference to the context :
(1) The platforms were …………… spoke English.
Reference: These lines have been taken from the lesson ‘A Girl with a Basket’ written by W.C. Douglas. [ N.B.: The above reference will be used for all the explanations of this lesson.

Context: During his visit of India, the writer travelled from New Delhi to Ranikhet by train. In this lesson he describes his journey and experiences during this visit.

Explanation : In these lines the writer talks about the wayside platforms and the people walking there. On the platforms there were people of all religions and professions. Generally they were barefooted and wearing loose, white garments. About 33% people could speak English. The writer talked with them on current and major topics. In doing so he wanted to know their feelings.

(2) At one station …………… their desire. [2009]
Context: The writer was travelling from New Delhi to Ranikhet by train. He describes the scene of a railway station where the train halted.

Explanation: In these lines the writer says that the train stopped at a station. He was disturbed to talk with the people by a group of children who were selling their hand-woven baskets, fans, with simple designs and pattern. These children were of the people who had come from Pakistan after partition. They had no place to live and no business to earn living properly. They hold the baskets high, shouting words I did not know but understood their desire what they wanted.

(3) They were poor …………… where they let. [2012, 14,16]
Context : The writer was travelling from New Delhi to Ranikhet. At every stop he alighted and talked with the people on current topics. But at one station he was surrounded by some children selling baskets. These were refugee children.

Explanation : In these lines he is telling about these refugee children. The parents of these refugee children had to come to India at the time of partition due to religious fanaticism. When they started their journey, they were very poor and they had very little food and some other items. But their journey was very long and soon their food was exhausted. Now, they were hungry and became very weak. Due to weakness they fell on the way side and died.

(4) The children selling baskets …………… overcrowded.
Context: On his way to Ranikhet by train the writer was surrounded at a station by some children who were selling baskets and fans. The parents of these children were refugees who had to come to India from Pakistan at the time of partition.

Explanation : In these lines the writer says that the children selling baskets were the sons and daughters of these refugees. These people were very poor. So they gathered in the cities for earning some money. They put the wooden stalls on both sides of the roads. They made simple articles and sold them in the market. There were already many shops. Yet they earned some money for their living by selling their articles cheaper.

(5) One hundred dollar …………… market they had seen. [2014]
Context : On a platform the writer was surrounded by children selling baskets. These were the sons and daughters of refugees who had come to India from Pakistan at the time of partition. They were very poor and earned some money by selling simple articles made by their own hands.

Explanation : In these lines the writer has estimated the income of these children and wonders how they could meet the expenses of their living. Their income was not more than two dollars a week and that was by selling the hand-made baskets. The buyers of these baskets were also poor people living there. The writer was a foreigner, an American. So the children thought him a good customer of their articles and so they surrounded him on all sides like locusts to sell their articles.

(6) I was a prisoner …………… any heart. [2009, 11,17,18]
Context : At one station the writer was surrounded with many children selling baskets and fans. These were refugee children. The writer liked these baskets very much. He bought a tiny basket, a fruit basket, a waste paper basket, sewing basket and few fans.

Explanation : At one of the stations many children surrounded the writer. They were selling baskets and fans. The writer felt as if he were a prisoner. He could not move because every child was pressing him to purchase his basket. Among these children there was a beautiful girl of nine years. She had a beautiful basket and demanded a rupee and a half for it. She was very sincere but looked very miserable. Everybody would have felt pity on her.

(7) My arms were full …………… back to me.
Context : At one station the writer was surrounded by many little children who were selling hand-woven baskets and fans. These were refugee children. He bought a tiny basket, a fruit basket, a waste paper basket, a lovely sewing basket and a few fans. His hands were filled. Just then a beautiful girl of nine came and stood before him. She had a lovely basket and wanted a rupee and a half for it. She begged the author to buy it.

Explanation : The writer did not want to buy any more basket as his hands were already full. In order to get rid of the girl, he took out a handful of change (coins) and dropped into the basket of the girl as a gratuity. He tried to convince the girl that he could not buy any more basket. But the writer soon realised that he had done a great offence. The girl had a great sense of self-respect. She took it as an insult. She did not take the money as gift. She was poor and dressed in rags. She was on the point of starvation. Despite her poverty, she kept up her dignity, and returned the money to the writer.

(8) I realized at once …………… that night.
Context : Among the little children selling the baskets, there was a nine year old beautiful girl. She had a lovely basket with a handle. She wanted a rupee and a half for it. But the writer had no need of any more basket. So, he put about 15 cents in her basket as a substitute. But soon the writer realised that he had done a great offence.

Explanation : The writer was not in need of any more basket. So, he gave her fifteen cents as a gratuity. But soon the writer felt that he had done a great mistake. The child was wearing torn clothes and was almost starving. But she did not lose her dignity and self-respect. She at once returned the money to the writer. The writer guessed the matter and purchased the basket. This little child was infact the symbol of grace and dignity of the people of India. The writer was very much impressed by the high character of Indians.

(9) I told this story …………… and citizenship.
Context : A little girl wanted to sell a basket to the writer which he did not need. But just to oblige the girl he put some coins in the basket of that girl which she did not accept and returned with pride and grace.

Explanation : The author narrated the story of the little basket girl to Pt. Nehru, the Prime Minister of India. The author admits that the sense of pride and graciousness displayed by the little girl had charmed him and he started loving India on that account. The writer further admits that Indian people at large, from the simple villager to the person working in big office, have displayed self-respect and flair for brisk fairness and citizenship.

(10) The people I …………… soul of India. (2015, 16, 17, 18)
Context : Some small children at a station were selling baskets and fans. The writer bought some baskets from them. Now he needed no more basket. At the same time a nine-year old girl pressed him to buy her basket also. But the writer gave her fifteen cents as gratuity. That girl returned it to the writer. The writer was much impressed by her grace and dignity.

Explanation : In these lines the writer sums up his views about Indians. The writer noted that Indians had a high sense of self-respect, dignity and citizenship. They were sincere, honest and hard working. He found these qualities in the people of rural as well as urban areas. The Indians were very anxious for their independence also. Even the poor people were honest. They earned money only by working hard. The little girl was the symbol of all these things.

Short Answer Type Questions

Answer one of the following questions in not more than 30 words:
Question 1.
Where was the writer going ? From where did he start ? How did he travel ?
(लेखक कहाँ जा रहा था ? वह कहाँ से चला ? उसने कैसे यात्री की ?)
Answer :
The writer was going from New Delhi to Ranikhet, a hill station on the Himalayas. He travelled upto Bareilly by train and then by car to Ranikhet. (लेखक नई दिल्ली से रानीखेत जा रहा था जो हिमालय पर्वत का एक पहाड़ी स्थान है। वह बरेली तक रेलगाड़ी से और फिर रानीखेत तक कार से गया।)

Question 2.
Give a brief description of the train W. C. Douglas was travelling by.
(उस रेलगाड़ी का वर्णन कीजिए जिससे डब्ल्यू० सी० डगलस यात्रा कर रहे थे।)
Answer :
The train by which W. C. Douglas was travelling was a slow moving train and stopped at all the way stations. (वह गाड़ी जिससे डब्ल्यू० सी० डगलस यात्रा कर रहे थे, एक धीमी चलने वाली गाड़ी थी और रास्ते के सभी स्टेशनों पर रुकती थी।)

Question 3.
What did the writer do to get a feel of the pulse of the nation? [2013]
(लेखक ने लोगों की भावनाओं को जानने के लिए क्या किया ?)
Or
What did the writer do at every stoppage ? Why?
(प्रत्येक स्टेशन पर लेखक क्या करता था ? क्यों ?)
Answer :
William C. Douglas got down from his compartment at every stoppage. He talked to the people of every class to get a feel of the pulse of the nation.
(गाड़ी के रुकने के प्रत्येक स्थान पर लेखक अपने डिब्बे से उतरता था। वह उनकी भावनाओं को जानने के लिए प्रत्येक वर्ग के लोगों से बातचीत करता था।)

Question 4.
Describe the things and scenes the writer saw on his way from New Delhi to Ranikhet.
(उन वस्तुओं एवं दृश्यों का वर्णन कीजिए जो लेखक ने नई दिल्ली से रानीखेत जाते समय रास्ते में देखे।)
Answer :
On his way from Delhi to Ranikhet the writer saw platforms over-crowded with the people of all castes and trades, the rich plains of Ganga, deep thick forests with wild animals and houses made of mud walls.
(दिल्ली से रानीखेत जाते हुए लेखक ने प्रत्येक जाति तथा प्रत्येक व्यापार के लोगों से भरे प्लेटफॉर्म देखे. गंगा का उपजाऊ मैदान देखा और जंगली जानवरों से भरे हुए घने जंगल देखे तथा मिट्टी की दीवारों से बने मकान देखे।)

Question 5.
What disturbed the continuity of the writer’s conversation at one of the stations ?
(लेखक के लोगों से वार्तालाप को एक स्टेशन पर किस बात ने भंग किया ?)
Answer :
At one of the stations a group of young refugee children, who were selling hand-made baskets and fans, disturbed the continuity of the writer’s conversation.
(एक स्टेशन पर छोटे बच्चों के एक समूह ने, जो हाथ से बनी टोकरियाँ एवं पंखे बेच रहे थे, लेखक के वार्तालाप को भंग कर दिया।)

Question 6.
Who were these children selling baskets ? What information does the writer give you about them ? [2012, 16, 18]
(टोकरी बेचने वाले बच्चे कौन थे ? उनके विषय में लेखक आपको क्या जानकारी देता है ?)
Answer :
These children selling baskets were refugee children. They were the sons and daughters of the people who were compelled to run away from Pakistan at the time of partition.
(टोकरी बेचने वाले बच्चे थे। वे उन लोगों के बेटे-बेटियाँ थे जिन्हें विभाजन के समय विवश होकर पाकिस्तान से भागना पड़ा।)

Question 7.
What was the pitiable condition (plight) of the refugees ? What were they doing for a living ? (2018)
(शरणार्थियों की दशा कैसी थी ? अपनी आजीविका चलाने के लिए वे क्या कर रहे थे ?)
Answer :
The condition (plight) of refugees was very pitiable. For a living they were making simple articles and selling them in the market.
(शरणार्थियों की दशा बड़ी दयनीय थी। आजीविका चलाने के लिए वे छोटी-छोटी वस्तुएँ बनाते थे और उन्हें बाजार में बेचते थे।)

Question 8.
What facts did the writer discover about the peasant refugees ?
(लेखक ने किसान शरणार्थियों के विषय में क्या सत्य खोजे ?)
Answer :
The writer discovered that the income of the peasant refugees was very low. They could hardly earn one square meal a day. (लेखक ने पाया कि किसान शरणार्थियों की आमदनी बहुत कम थी और बड़ी मुश्किल से दो समय की रोटी के लिए धन कमा पाते थे।)

Question 9.
What is an average annual income of an agricultural family as given by William C. Douglas ? ? [2016]
(विलियम सी० डगलस के अनुसार एक किसान परिवार की औसत सालाना आमदनी कितनी थी?)
Answer :
According to William C. Douglas the average annual income of an agricultural family was not more than 100 dollars. (William C. Douglas
(के अनुसार एक किसान परिवार की औसत सालाना आमदनी एक सौ डालर से अधिक नहीं थी।)

Question 10.
Why did the refugee children descend like locusts on the writer ?
(शरणार्थी बच्चे लेखक पर टिड्डी दल के समान क्यों टूट पड़े ?) [2015, 18]
Answer :
The refugee children thought that the writer was a rich man. He would buy articles of many children. So they descended on him like locusts.
(शरणार्थी बच्चों ने सोचा कि लेखक एक धनी व्यक्ति है। वह अधिक बच्चों की वस्तुएँ खरीद लेगा। इसलिए वे टिड्डी दल के समान उस पर टूट पड़े।)

Question 11.
What things did the author William C. Douglas buy from the refugee children so that his arms were full ?
(लेखक विलियम सी० डगलस ने शरणार्थी बच्चों से ऐसी कौन-सी वस्तुएँ खरीद लीं कि उसके हाथ भर गए ?)
Answer :
The author William C. Douglas bought from the refugee children many articles as a sewing basket, a wastepaper basket, a fruit basket and few fans, etc. So, his arms were full.
(लेखक ने शरणार्थी बच्चों से बहुत-सी वस्तुएँ खरीदीं; जैसे-एक सिलाई की टोकरी, एक रद्दी की टोकरी, एक फलों की टोकरी, कुछ पंखे आदि। इसलिए उसके हाथ भर गए।)

Question 12.
Which vendor among the children drew the writer’s attention most and why ?
(कौन-से फेरी वाले बच्चे ने लेखक का सबसे अधिक ध्यान आकर्षित किया और क्यों ?)
Answer :
A nine year old beautiful girl drew the writer’s attention most because she was earnestly pleading and begging with tears in her eyes.
(नौ वर्ष की एक सुन्दर लड़की ने लेखक का ध्यान अधिक आकर्षित किया, क्योंकि वह बड़ी ईमानदारी से अपने सामान की प्रशंसा कर रही थी तथा आँखों में आँसू भरकर प्रार्थना कर रही थी।)

Question 13.
What made the writer realise that he had given offence by extending the gratuity to the girl as a substitute for not buying the basket ?
(किस बात से लेखक को यह अनुभव हुआ कि उसने टोकरी न खरीदकर और बदले में एक उपहार देकर उस लड़की के साथ अनुचित व्यवहार किया है ?)
Answer :
The girl returned the gratuity. So the writer felt that the girl was hard-working and self-respecting. So, he realised that he had given offence by extending the gratuity to the girl as a substitute for not buying the basket.
(लड़की ने दान लौटा दिया। इसलिए लेखक जान गया कि लड़की परिश्रमी और स्वाभिमानी है। इसलिए उसने यह अनुभव किया कि टोकरी न खरीदकर तथा लड़की को उसके बदले में उपहार देकर उसने अनुचित कार्य किया है।)

Question 14.
What forced the writer to buy the little girl’s basket ? [2012, 18]
(कौन-सी बात ने लेखक को छोटी लड़की की टोकरी खरीदने के लिए विवश कर दिया?)
Answer :
The little girl returned the gratuity given by the writer. So he was forced to buy her basket.
(छोटी लड़की ने लेखक के द्वारा दिए हुए दान को लौटा दिया। अत: लेखक उसकी टोकरी खरीदने के लिए विवश हो गया।)

Question 15.
Why did millions of people leave Pakistan for India ? (2012, 14, 17]
(लाखों व्यक्तियों ने भारत आने के लिए पाकिस्तान क्यों छोड़ा?)
Or
What misery did partition between India and Pakistan cause to the people ? [2016]
(भारत और पाकिस्तान के बीच बँटवारे ने लोगों को किस मुसीबत में डाल दिया ?)
Answer :
At the time of partition millions of people left Pakistan for India due to fear of religious fanaticism. They became homeless and penniless.
(विभाजन के समय लाखों व्यक्तियों ने धर्मान्धता के कारण भारत आने के लिए पाकिस्तान को छोड़ दिया। वे बिना घरबार के और बिना पैसे के हो गए।)

Question 16.
Why did the writer fall in love with India 3 [2013, 18]
(लेखक भारत से प्रेम क्यों करने लगा ?)
Answer :
The writer found that the people of India were proud and gracious even in poverty. This was the reason he loved India.
(लेखक ने पाया कि भारत के लोग गरीबी में भी स्वाभिमान और शालीनता से भरपूर हैं। यही कारण था कि वह भारत से प्रेम करता था।)

Question 17.
What did the writer think about the people of India ? What picture of our country and the people as a whole did he carry back in his mind ? [2013]
(लेखक ने भारत के लोगों के विषय में क्या सोचा ? वह हमारे देश एवं देश के लोगों की अपने मस्तिष्क में क्या छवि लेकर गया ?)
Or
What does the writer W. C. Douglas say in praise of the people of India ? (2011)
(भारत के लोगों की प्रशंसा के विषय में लेखक डगलस क्या कहते हैं ?)
Answer :
The writer thought that the people of India were self-respecting and very gentle. They preferred starvation to begging.
(लेखक ने सोचा कि भारत के लोग स्वाभिमानी और बड़े सज्जन हैं। वे भीख माँगने के बजाय भूख से मर जाना अधिक पसन्द करते हैं।)

Question 18.
What was the story told to the Prime Minister by William C. Douglas ? [2013]
(विलियम सी० डगलस ने प्रधानमंत्री को कौन-सी कहानी सुनाई ?)
Answer :
The story of the nine year old child who handed the money back to the author was told to the Prime Minister.
(उस नौ वर्ष की बच्ची की कहानी, जिसने लेखक को उसका धन वापिस कर दिया था, प्रधानमंत्री को सुनाई ” गई थी।)

Vocabulary

Choose the most appropriate word or phrase that best completes the sentence:
1. I would ask at least three people before I could find one who English.
(a) knew
(b) understood
(c) spoke
(a) liked

2. In this way I was trying to get a feel of the pulse of the nation, checking opinion …………… official attitudes and reports.
(a) for
(b) about
(c) in favour of
(d) against

3. That day the pumpkin vines that grew over them were in bloom …………… streaks of yellow over drab walls…
(a) trailing
(b) following
(c) moving
(d) running

4. At one station my routine of talking with the people was ……………
(a) checked
(b) interrupted
(c) disturbed
(d) ended

5. Nine million people left Pakistan and came to India driven by the fear of religious ……………
(a) feelings
(b) madness
(c) fanaticism
(d) enthusiasm

6. I, an American, was …………… the most promising market they had seen. [2018]
(a) doubtless
(b) certainly
(c) necessarily
(d) definitely

7. She pleaded and begged in tones that would …………… any heart. [2012, 15, 18]
(a) wring
(b) move
(c) melt
(d) affect

8. …………… baskets and fans on my left arm, I reached into my right coat pocket and got a handful of change.
(a) Keeping
(b) Hanging
(c) Balancing
(d) Putting

9. Imploringly means ……………
(a) sincerely
(b) earnestly
(c) honestly
(d) requestingly

10. She wiped her eyes, smiled and …………… down the platform, headed for some grass
hut that would have at least thirty cents the night.
(a) jumped
(b) ran
(c) dashed
(d) fell

11. The children selling baskets were sons and daughters of these …………… [2015, 16]
(a) refugees
(b) labourers
(c) peasants
(d) prisoners

12. The people of India have a …………… for independence. [2015, 17, 18]
(a) desire
(b) idea..
(c) passion
(d) wish

13. I was going as far as Bareilly …………… train. [2018]
(a) buy
(b) by
(c) bye
(d) bay

14. It was a …………… porter giving me a hint that this was my station.
(a) healthy
(b) handsome
(c) friendly
(d) cruel

15. The most …………… , aggressive vendor was a beautiful girl of nine right in front of me. [2010, 18]
(a) lazy
(b) diligent
(c) intelligent
(d) carefree

16. That, no doubt is the reason these little children descended on me like …………… [2010]
(a) clouds
(b) birds
(c) locusts
(d) flies

17. My arms were …………… and I had not spent fifty cents. [2014, 16, 18]
(a) tied
(b) filled
(c) empty
(d) vacant

18. I bought one …………… basket for a few annas. [2014]
(a) small
(b) great
(d) big

19. The average …………… labourer makes thirty cents a day or less than two dollars a week. [2016, 18]
(a) unskilled
(b) diligent
(c) trained
(d) aggressive

20. I realized at once what …………… I had given. [2018]
(a) favour
(b) rewardl
(c) insult
(d) offence

Answers :
1. (c), 2. (d), 3. (a), 4. (b), 5. (c), 6. (a), 7. (a), 8. (c), 9. (b), 10. (C), 11. (a), 12. (c), 13. (b), 14. (c), 15. (b), 16. (c), 17. (b), 18. (c), 19. (a), 20. (d).

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi खण्डकाव्य Chapter 3 रश्मिरथी

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi खण्डकाव्य Chapter 3 रश्मिरथी (रामधारी सिंह दिनकर) are part of UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi खण्डकाव्य Chapter 3 रश्मिरथी (रामधारी सिंह दिनकर).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 3
Chapter Name रश्मिरथी (रामधारी सिंह दिनकर)
Number of Questions 4
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi खण्डकाव्य Chapter 3 रश्मिरथी (रामधारी सिंह दिनकर)

प्रश्न 1.
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य की कथावस्तु (कथानक) का संक्षेप में परिचय लिखिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17]
या
‘रश्मिरथी’ की कथा (सारांश) अपने शब्दों में लिखिए। [2011, 12, 13, 14, 16]
या
‘रश्मिरथी’ के प्रथम सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए। [2017, 18]
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग का सारांश अपने शब्दों में लिखिए। [2016, 18]
या
‘रश्मिरथी’ के तृतीय सर्ग का कथानक अपने शब्दों में लिखिए। [2013, 14, 15, 16]
या
‘रश्मिरथी’ के द्वितीय और तृतीय सर्ग में कृष्ण और कर्ण के संवाद में दोनों के चरित्र की कौन-सी प्रमुख विशेषताएँ प्रकट हुई हैं ? स्पष्ट कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ के चतुर्थ सर्ग की कथावस्तु का संक्षेप में सोदाहरण वर्णन कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ के पंचम सर्ग में कुन्ती-कर्ण के संवाद का सारांश अपने शब्दों में लिखिए। [2011, 12, 13, 14, 15]
या
‘रश्मिरथी’ के पाँचवें (पंचम) सर्ग की कथा (कथावस्तु) अपने शब्दों में लिखिए। [2015, 16]
या
‘रश्मिरथी’ के आधार पर उसके प्रथम और द्वितीय सर्गों की कथावस्तु पर प्रकाश डालिए।
या
‘रश्मिरथी’ के आधार पर सप्तम सर्ग (कर्ण के बलिदान) की कथा संक्षेप में लिखिए। [2011, 14, 15, 16, 17, 18]
या
‘रश्मिरथी’ में वर्णित कर्ण और अर्जुन के युद्ध का सोदाहरण वर्णन कीजिए। [2010, 11]
उत्तर
श्री रामधारीसिंह ‘दिनकर’ द्वारा विरचित खण्डकाव्य ‘रश्मिरथी’ की कथा महाभारत से ली गयी है। इस काव्य में परमवीर एवं दानी कर्ण की कथा है। इस खण्डकाव्य की कथावस्तु सात सर्गों में विभाजित है, जो संक्षेप में निम्नवत् है-

प्रथम सर्ग : कर्ण का शौर्य-प्रदर्शन

प्रथम सर्ग के आरम्भ में कवि ने अग्नि के समान तेजस्वी एवं पवित्र पुरुषों की पृष्ठभूमि बनाकर कर्ण का परिचय दिया है। कर्ण की माता कुन्ती और पिता सूर्य थे। कर्ण कुन्ती के गर्भ से कौमार्यावस्था में उत्पन्न हुए थे, इसलिए कुन्ती ने लोकलाज के भय से उस नवजात शिशु को नदी में बहा दिया, जिसे एक निम्न जाति (सूत) के व्यक्ति ने पकड़ लिया और उसका पालन-पोषण किया। सूत के घर पलकर भी कर्ण शूरवीर, शीलवान, पुरुषार्थी और शस्त्र व शास्त्र मर्मज्ञ बने।
एक बार द्रोणाचार्य ने कौरव व पाण्डव राजकुमारों के शस्त्र-कौशल का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। सभी लोग अर्जुन की बाण-विद्या पर मुग्ध हो गये, किन्तु तभी धनुष-बाण लिये कर्ण भी सभा में उपस्थित हो गया और उसने अर्जुन को द्वन्द्व-युद्ध के लिए चुनौती दी

आँख खोलकर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार ।
फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कारे ॥

कर्ण की इस चुनौती से सम्पूर्ण सभा आश्चर्यचकित रह गयी, तभी कृपाचार्य ने उसका नाम, जाति और गोत्र पूछे। इस पर कर्ण ने अपने को सूत-पुत्र बतलाया। फिर कृपाचार्य ने कहा कि राजपुत्र अर्जुन से समता प्राप्त करने के लिए तुम्हें पहले कहीं का राज्य प्राप्त करना चाहिए। इस पर दुर्योधन ने कर्ण की वीरता से मुग्ध होकर, उसे अंगदेश का राजा बना दिया और अपना मुकुट उतारकर कर्ण के सिर पर रख दिया। इस उपकार के बदले भावविह्वल कर्ण सदैव के लिए दुर्योधन का मित्र बन गया। इधर कौरव कर्ण को ससम्मान अपने साथ ले जाते हैं और उधर कुन्ती भाग्य की दु:खद विडम्बना पर मन मसोसती लड़खड़ाती हुई अपने रथ के पास पहुँचती है।

द्वितीय सर्ग : आश्रमवास

द्वितीय सर्ग का आरम्भ परशुराम के आश्रम-वर्णन से होता है। पाण्डवों के विरोध के कारण द्रोणाचार्य ने जब कर्ण को अपना शिष्य नहीं बनाया तो कर्ण परशुराम के आश्रम में धनुर्विद्या सीखने के लिए जाता है। परशुराम क्षत्रियों को शिक्षा नहीं देते थे। कर्ण के कवच और कुण्डल देखकर परशुराम ने उसे ब्राह्मण कुमार समझा और अपना शिष्य बना लिया।

एक दिन परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर सो रहे थे कि तभी एक विषैला कीट कर्ण की जंघा को काटने लगा। गुरु की निद्रा न खुल जाए, इस कारण कर्ण अपने स्थान से हिला तक नहीं। जंघा से बहते रक्त की धारा के स्पर्श से परशुराम की निद्रा टूट गयी। कर्ण की इस अद्भुत सहनशक्ति को देखकर परशुराम ने कहा कि ब्राह्मण में इतनी सहनशक्ति नहीं होती, इसलिए तू अवश्य ही क्षत्रिय या अन्य जाति का है। कर्ण स्वीकार कर लेता है कि मैं सूत-पुत्र हूँ। क्रुद्ध परशुराम ने उसे तुरन्त अपने आश्रम से चले जाने को कहा और शाप दिया कि मैंने तुझे जो ब्रह्मास्त्र विद्या सिखलायी है, तू अन्त समय में उसे भूल जाएगा-

सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आएगा।
है यह मेरा शाप समय पर, उसे भूल तू जाएगा ।

कर्ण गुरु की चरणधूलि लेकर आँसू भरे नेत्रों से आश्रम छोड़कर चल देता है।

तृतीय सर्ग : कृष्ण सन्देश

कौरवों से जुए में हारने के कारण पाण्डवों को बारह वर्ष का वनवास तथा एक साल का अज्ञातवास भोगना पड़ा। तेरह वर्ष की यह अवधि व्यतीत कर पाण्डव अपने नगर इन्द्रप्रस्थ लौट आते हैं। पाण्डवों की ओर से श्रीकृष्ण कौरवों से सन्धि का प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर जाते हैं। श्रीकृष्ण ने कौरवों को बहुत समझाया, परन्तु दुर्योधन ने सन्धि- प्रस्ताव ठुकरा दिया तथा उल्टे श्रीकृष्ण को ही बन्दी बनाने का असफल प्रयास किया।

दुर्योधन के न मानने पर श्रीकृष्ण ने कर्ण को समझाया कि अब तो युद्ध निश्चित है, परन्तु उसे टालने का एकमात्र यही उपाय है कि तुम दुर्योधन का साथ छोड़ दो; क्योंकि तुम कुन्ती-पुत्र हो। अब तुम ही इस । भारी विनाश को रोक सकते हो। इस पर कर्ण आहत होकर व्यंग्यपूर्वक पूछता है कि आप आज मुझे कुन्ती–पुत्र बताते हैं। उस दिन क्यों नहीं कहा था, जब मैं जाति-गोत्रहीन सूत-पुत्र बना भरी सभा में अपमानित हुआ था। मुझे स्नेह और सम्मान तो दुर्योधन ने ही दिया था। मेरा तो रोम-रोम दुर्योधन का ऋणी है।

फिर भी आप मेरे जन्म का रहस्य युधिष्ठिर को मत बताइएगा; क्योंकि मेरे जन्म का रहस्य जानने पर वे ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण अपना राज्य मुझे दे देंगे और मैं वह राज्य दुर्योधन को दे डालूंगा-

धरती की तो है क्या बिसात ?
आ जाये अगर बैकुण्ठ हाथ ।
उसको भी न्यौछावर कर दें,
कुरुपति के चरणों पर धर हूँ॥

इतना कहकर और श्रीकृष्ण को प्रणाम कर कर्ण चला जाता है।
इस सर्ग की कथा से जहाँ हमें श्रीकृष्ण के महान् कूटनीतिज्ञ और अलौकिक शक्तिसम्पन्न होने की विशिष्टता दृष्टिगोचर होती है वहीं कर्ण के अन्दर हमें सच्चे मित्र और मित्र के प्रति कृतज्ञ होने के गुण दिखाई पड़ते हैं।

चतुर्थ सर्ग : कर्ण के महादान की कथा

इस सर्ग में कर्ण की उदारता एवं दानवीरता का वर्णन किया गया है। कर्ण प्रतिदिन एक प्रहर तक याचकों को दान देता था। श्रीकृष्ण यह बात जानते थे कि जब तक कर्ण के पास सूर्य द्वारा प्रदत्त कवच और कुण्डल हैं, तब तक कर्ण को कोई भी पराजित नहीं कर सकता। इन्द्र ब्राह्मण का वेश धारण करके कर्ण के पास उसकी दानशीलता की परीक्षा लेने आये और कर्ण से उसके कवच और कुण्डल दान में माँग लिये। यद्यपि कर्ण ने छद्मवेशी इन्द्र को पहचान लिया, तथापि उसने इन्द्र को कवच और कुण्डल भी दान दे दिये। कर्ण की इस अद्भुत दानशीलता को देख देवराज इन्द्र का मुख ग्लानि से मलिन प्रड़ गया–

अपना कृत्य विचार, कर्ण का करतब देख निराला।
देवराज का मुखमण्डल पड़ गया ग्लानि से काला ॥

इन्द्र ने कर्ण की बहुत प्रशंसा की। उन्होंने कर्ण को महादानी, पवित्र एवं सुधी कहा तथा स्वयं को प्रवंचक, कुटिल व पापी बताया और कर्ण को एक बार प्रयोग में आने वाला अमोघ एकघ्नी अस्त्र प्रदान किया।

पंचम सर्ग : माता की विनती

इस सर्ग का आरम्भ कुन्ती की चिन्ता से होता है। कुन्ती इस कारण चिन्तित है कि रण में मेरे पुत्र कर्ण और अर्जुन परस्पर युद्ध करेंगे। कुन्ती व्याकुल हो कर्ण से मिलने जाती है। उस समय कर्ण सन्ध्या कर रहा था, आहट पाकर कर्ण का ध्यान टूट जाता है। उसने कुन्ती को प्रणामकर उसका परिचय पूछा। कुन्ती ने बताया कि तू सूत-पुत्र नहीं मेरा पुत्र है। तेरा जन्म मेरी कोख से तब हुआ था, जब मैं अविवाहिता थी। मैंने लोक-लज्जा के भय से तुझे मंजूषा (पेटी) में रखकर नदी में बहा दिया था, परन्तु अब मैं यह सहन नहीं कर सकती कि मेरे ही पुत्र एक-दूसरे से युद्ध करें; अतः मैं तुझसे प्रार्थना करने आयी हूँ कि तुम अपने छोटे भ्राताओं के साथ मिलकर राज्य का भोग करो।

कर्ण ने कहा कि मुझे अपने जन्म के विषय में सब कुछ ज्ञात है, परन्तु मैं अपने मित्र दुर्योधन का साथ कभी नहीं छोड़ सकता। असहाय कुन्ती ने कहा कि तू सबको दान देता है, क्या अपनी माँ को भीख नहीं दे सकता ? कर्ण ने कहा कि माँ! मैं तुम्हें एक नहीं चार पुत्र दान में देता हूँ। मैं अर्जुन को छोड़कर तुम्हारे किसी पुत्र को नहीं मारूंगा। यदि अर्जुन के हाथों मैं मारा गया तो तुम पाँच पुत्रों की माँ रहोगी ही, परन्तु यदि मैंने युद्ध में अर्जुन को मार दिया तो विजय दुर्योधन की होगी और मैं दुर्योधन का साथ छोड़कर तुम्हारे पास आ जाऊँगा। तब भी तुम पाँच पुत्रों की ही माँ रहोगी। कुन्ती निराश मन लौट आती है-

हो रहा मौन राधेय चरण को छूकर, दो बिन्दु अश्रु के गिरे दृगों से चूकर ।
बेटे का मस्तक सँघ बड़े ही दुःख से, कुन्ती लौटी कुछ कहे बिना ही मुख से ।।

षष्ठ सर्ग : शक्ति-परीक्षण

युद्ध में आहत भीष्म शर-शय्या पर पड़े हुए हैं। कर्ण उनसे युद्ध हेतु आशीर्वाद लेने जाता है। भीष्म पितामह उसे नर-संहार रोकने के लिए समझाते हैं, परन्तु कर्ण नहीं मानता और भीषण युद्ध आरम्भ हो जाता है। कर्ण अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारता है, किन्तु श्रीकृष्ण अर्जुन का रथ कर्ण के सामने ही नहीं आने देते; क्योंकि उन्हें भय है कि कर्ण एकघ्नी का प्रयोग करके अर्जुन को मार देगा। अर्जुन को बचाने के लिए श्रीकृष्ण ने भीम-पुत्र घटोत्कचे को युद्धभूमि में उतार दिया। घटोत्कच ने घमासान युद्ध किया, जिससे कौरव-सेना अहि-त्राहि कर उठी। अन्ततः दुर्योधन ने कर्ण से कहा-

हे वीर ! विलपते हुए सैन्य का अचिर किसी विधि त्राण करो,
जब नहीं अन्य गति, आँख मूंद एकघ्नी का सन्धान करो ।
अरि का मस्तक है दूर, अभी अपनों के सीस बचाओ तो,
जो मरण-पाश है पड़ा प्रथम, उसमें से हमें छुड़ाओ तो ॥

कर्ण ने भारी नरसंहार करते हुए घटोत्कच पर एकघ्नी का प्रयोग कर दिया, जिससे घटोत्कच मारा गया। घटोत्कच पर एकघ्नी का प्रयोग हो जाने से अर्जुन अभय हो गया। आज युद्ध में विजयी होने पर भी कर्ण एकत्री का प्रयोग हो जाने से स्वयं को मन-ही-मन पराजित-सा मान रहा था।

सप्तम सर्ग : कर्ण के बलिदान की कथा

‘रश्मिरथी’ का यह अन्तिम सर्ग है। कौरव सेनापति कर्ण ने पाण्डवों की सेना पर भीषण आक्रमण किया। कर्ण की गर्जना से पाण्डव सेना में भगदड़ मच जाती है। युधिष्ठिर युद्धभूमि से भागने लगते हैं तो कर्ण उन्हें पकड़ लेता है, किन्तु कुन्ती को दिये वचन का स्मरण कर युधिष्ठिर को छोड़ देता है। इसी प्रकार भीम, नकुल और सहदेव को भी पकड़-पकड़कर छोड़ देता है। कर्ण का सारथी शल्य उसके रथ को अर्जुन के रथ के निकट ले आता है। कर्ण के भीषण बाण-प्रहार से अर्जुन मूर्च्छित हो जाता है। चेतना लौटने पर श्रीकृष्ण अर्जुन को पुनः कर्ण से युद्ध करने के लिए उत्तेजित करते हैं। दोनों ओर से घमासान युद्ध होता है। तभी कर्ण के रथ का पहिया रक्त के कीचड़ में फँस जाता है। कर्ण रथ से उतरकर पहिया निकालने लगता है। इसी समय श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्ण पर बाण-प्रहार करने के लिए कहते हैं

खड़ा है देखता क्या मौन भोले !
शरासन तान, बस अवसर यही है, घड़ी फिर और मिलने की नहीं है।
विशिख कोई गले के पार कर दे, अभी ही शत्रु का संहार कर दे।

कर्ण धर्म की दुहाई देता है तो श्रीकृष्ण उसे कौरवों के पूर्व कुकर्मों का स्मरण दिलाते हैं। इसी वार्तालाप में अवसर देखकर अर्जुन कर्ण पर प्रहार कर देता है और कर्ण की मृत्यु हो जाती है।
अन्त में युधिष्ठिर आदि सभी कर्ण की मृत्यु पर प्रसन्न हैं, किन्तु श्रीकृष्ण दु:खी हैं। वे युधिष्ठिर से कहते हैं कि विजय तो अवश्य मिली, पर मिली मर्यादा खोकर। वास्तव में चरित्र की दृष्टि से तो कर्ण ही विजयी रहा। आप लोग कर्ण को भीष्म और द्रोणाचार्य की भाँति ही सम्मान दीजिए। यहाँ पर इस खण्डकाव्य की कथा समाप्त हो जाती है।

[विशेष-मुझे इस सर्ग की कथा सर्वाधिक रुचिकर प्रतीत हुई। इस सर्ग में वर्णित कर्ण के शौर्य व साहस की तुलना इतिहास में विरले है। व्यक्ति अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए किस प्रकार पतित हो जाता है, भले ही वह ‘धर्मराज’ कहलाता हो अथवा ‘भगवान्’। यह यहाँ इतनी कलात्मकता से दर्शाया गया है कि मन नि:स्पन्द हो जाता है। अन्त में कर्ण की मृत्यु को ‘जीवन’ और ‘विजय’ से कहीं ऊँचा सिद्ध करते हुए कृष्ण कहते हैं-

दया कर शत्रु को भी त्राण देकर, खुशी से मित्रता कर प्राण देकर,
गया है कर्ण भू को दीन करके, मनुज-कुल को बहुत बलहीन करके।
x                                          x                                                  x
समझकर द्रोण मन में भक्ति भरिए, पितामह की तरह सम्मान करिए,
मनुजता का नया नेता उठा है, जगत् से ज्योति का जेता उठा है।

वस्तुत: कर्ण जैसा व्यक्ति और व्यक्तित्व स्रष्टा ने अभी तक कोई अन्य बनाया ही नहीं। वह अपनी तुलना आप है।)

प्रश्न 2.
‘रश्मिरथी’ के आधार पर नायक (प्रमुख पात्र) कर्ण के चरित्र की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2009, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 18]
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण का चरित्र-चित्रण (चरित्रांकन) कीजिए। [2011, 12, 13, 14, 15, 16, 17]
या
‘रश्मिरथी’ के आधार पर कर्ण की वीरता एवं त्याग का वर्णन कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ में कवि का मुख्य मन्तव्य कर्ण के चरित्र के शीलपक्ष, मैत्रीभाव तथा शौर्य का चित्रण है। सिद्ध कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ के नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2016, 17]
या
‘रश्मिरथी’ के आधार पर कर्ण के मानसिक अन्तर्द्वन्द्व की समीक्षा कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ के माध्यम से कवि ‘दिनकर’ ने महारथी कर्ण के किन गुणों पर प्रकाश डाला है ? अपने शब्दों में लिखिए। [2010]
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य में वर्णित कर्ण की संवेदना पर प्रकाश डालिए। [2012]
या
“‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य में कर्ण के समक्ष अन्य सभी पात्र निस्तेज हो गये हैं।” इस उक्ति के प्रकाश में कर्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
“मित्रता बड़ा अनमोल रतन, कब इसे तोल सकता है धन ?” कथन के आधार पर कर्ण के चरित्र पर प्रकाश डालिए। [2010]
या
‘रश्मिरथी’ के कर्ण के व्यक्तित्व का निरूपण कीजिए। [2010]
उत्तर
‘रश्मिरथी’ कर्ण के चरित्र पर आधारित खण्डकाव्य है। कर्ण का चरित्र शील की प्रतिमूर्ति, शौर्य व पौरुष का अगाध सिन्धु, शक्ति का स्रोत, सत्य-साधना-दान-त्याग का तपोवन तथा आर्य-संस्कृति का आलोकमय तेज है। कर्ण के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं-

(1) नायक—कर्ण ‘रश्मिरथी’ का नायक है। काव्य की सम्पूर्ण कथा कर्ण के ही चारों ओर घूमती है। काव्य का नामकरण भी कर्ण को ही नायक सिद्ध करता है। ‘रश्मिरथी’ का अर्थ है-वह मनुष्य, जिसका रथ रश्मि अर्थात् पुण्य का हो। इस काव्य में कर्ण का चरित्र ही पुण्यतम है। कर्ण के आगे अन्य किसी पात्र का चरित्र नहीं ठहर पाता। कर्ण के सम्बन्ध में कवि के ये शब्द द्रष्टव्य हैं

तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी ।
जाति गोत्र का नहीं, शील का पौरुष का अभिमानी ॥

(2) साहसी और वीर योद्धा-इस खण्डकाव्य के आरम्भ में ही कर्ण हमें एक वीर योद्धा के रूप में दिखाई देता है। शस्त्र-विद्या-प्रदर्शन के समय वह प्रदर्शन-स्थल पर उपस्थित होकर अर्जुन को ललकारता है। तो सब स्तब्ध रह जाते हैं। जब इस पर कृपाचार्य कर्ण से उसकी जाति-गोत्र आदि पूछते हैं तो कर्ण उन्हें सटीक उत्तर देता है–

पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो मेरे भुज बल से।
रवि-समान दीपित ललाट से, और कवच कुण्डल से ॥

(3) सच्चा मित्र-दुर्योधन ने जाति-अपमान से कर्ण की रक्षा उसे राजा बनाकर की, तभी से कर्ण दुर्योधन का अभिन्न मित्र बन गया। कृष्ण और कुन्ती के समझाने पर भी कर्ण दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ता। वह स्पष्ट शब्दों में कह देता है-

धरती की तो है क्या बिसात ? आ जाये अगर बैकुण्ठ हाथ,
उसको भी न्यौछावर कर दें, कुरुपति के चरणों पर धर हूँ ॥

और अन्त समय तक कर्ण अपनी मित्रता के प्रति पूर्ण समर्पित रहता है।

(4) सच्चा गुरुभक्त-कर्ण गुरु के प्रति परम विनयी एवं श्रद्धालु है। कीट कर्ण की जाँघ काटकर भीतर घुस जाता है, रक्त की धारा बहने लगती है, पर कर्ण पैर नहीं हिलाता; क्योंकि हिलने से उसकी जाँघ पर सिर रखकर सोये गुरु की नींद खुल जाएगी। आँखें खुलने पर गुरु को वह अपनी जाति-गोत्र बता देता है। तो वे क्रोधित होकर उसे आश्रम से निकाल देते हैं, परन्तु कर्ण अपनी विनय नहीं छोड़ता और जाते समय गुरु की चरण-धूलि लेता है-

परशुधर के चरण की धूलि लेकर, उन्हें, अपने हृदय की भक्ति देकर,
निराशा से विकल, टूटा हुआ-सा, किसी गिरि-शृंग से छूटा हुआ-सा ।।

(5) परम दानवीर-कर्ण के चरित्र की एक प्रमुख विशेषता यह है कि वह धन-सम्पत्ति की लिप्सा से मुक्त है। इसलिए प्रतिदिन प्रात:काल सन्ध्या-वन्दन करने के बाद वह याचकों को दान देता है। ब्राह्मण-वेश में आये इन्द्र को वह अपने जीवन-रक्षक कवच और कुण्डल तक दान में दे देता है। अपनी माता कुन्ती को युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव को न मारने का अभयदान देता है। कर्ण की दानशीलता के सम्बन्ध में कवि कहता है-

रवि-पूजन के समय सामने, जो भी याचक आता था।
मुँह माँगा वह दान कर्ण से, अनायास ही पाता था।

(6) महान् सेनानी–कौरवों की ओर से कर्ण महाभारत के युद्ध में सेनापति है। वह शर-शय्या पर लेटे भीष्म पितामह से युद्ध हेतु आशीर्वाद लेने जाता है। भीष्म उसके विषय में कहते हैं-

अर्जुन को मिले कृष्ण जैसे। तुम मिले कौरवों को वैसे ॥

युद्ध में कर्ण ने अपने रण-कौशल से पाण्डवों की सेना में हाहाकार मचा दिया। उसकी वीरता की प्रशंसा करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं-

दाहक प्रचण्ड इसका बल है। यह मनुज नहीं कालानल है॥

(7) जाति-प्रथा का विरोधी-कर्ण को जाति और गोत्र के कारण ही भरी सभा में अपमानित होना पड़ा था। इसी कारण उसके मन में जाति और गोत्र के प्रति गहरा विषाद था। इस सम्बन्ध में कर्ण की तिलमिलाहट बड़ी मार्मिक है-

ऊपर सिर पर कनक छत्र, भीतर काले के काले।
शरमाते हैं नहीं जगत् में, जाति पूछने वाले ॥

(8) कृतज्ञ-कर्ण के चरित्र में कृतज्ञता का बड़ा गुण विद्यमान है। जब उसे यह पता लग जाता है कि उसकी माता राजरानी कुन्ती है तो भी वह निम्न जाति राधा के उपकार को नहीं भुलाता; जिसने उसका पालन-पोषण किया था। दुर्योधन ने उसे अंगदेश का राज्य देकर राजपुत्रों के साथ युद्ध का अधिकारी बनाया था, उसके उपकार को भी वह जीवनभर नहीं भुला पाता।

(9) मानसिक अन्तर्द्वन्द्व से ग्रस्त–आरम्भ से अन्त तक कर्ण को मानसिक अन्तर्द्वन्द्व से जूझना पड़ता है। जीवन के प्रत्येक पग पर उसके सामने एक ही प्रश्न खड़ा होता है कि वह अब क्या करे ? शस्त्र-कौशल के समय उसका नाम, जाति तथा गोत्र पूछने पर, द्रोण द्वारा अपना शिष्य न बनाये जाने पर, परशुराम की सेवा करते समय अपनी सहनशक्ति के प्रदर्शन पर, गुरु परशुराम द्वारा शाप देने पर वह दुविधाग्रस्त हो जाता है। श्रीकृष्ण द्वारा उसको उसके जन्म का रहस्य समझाने पर और पाण्डवों के पक्ष में कौरवों का साथ छोड़ देने के लिए कहने पर, माता कुन्ती द्वारा जन्म का रहस्य समझाने तथा कौरवों का साथ छोड़ अपने भाइयों से मिल जाने के लिए कहने आदि अनेक अवसरों पर कर्ण भयंकर अन्तर्द्वन्द्व से ग्रस्त हो जाता है; किन्तु वह प्रत्येक अवसर पर विवेक और धैर्य से अपने अन्तर्द्वन्द्व पर विजय प्राप्त कर; अन्तत: सही निर्णय लेकर अपना मार्ग प्रशस्त करता है।

(10) अन्य विशेषताएँ–कर्ण महाभारत के युद्ध में मारा जाता है, किन्तु उसकी मृत्यु के पश्चात् श्रीकृष्ण उसकी चारित्रिक विशेषताओं का गुणगान करते हुए युधिष्ठिर से कहते हैं-

हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का, दलित हारक, समुद्धारक त्रिया का।
बड़ां बेजोड़ दानी था, सदय था, युधिष्ठिर! कर्ण का अद्भुत हृदय था ।
x                                                   x                                          x
समझकर द्रोण मन में भक्ति भरिए, पितामह की तरह सम्मान करिए ।
मनुजता का नया नेता उठा है, जगत् से ज्योति का जेता उठा है ॥

इस प्रकार हम पाते हैं कि कवि का मुख्य मन्तव्य कर्ण के चरित्र के शीलपक्ष, मैत्रीभाव एवं शौर्य को चित्रण करना रहा है, जिसके लिए उसने कर्ण को राज्य और विजय की गलत महत्त्वाकांक्षाओं से पीड़ित न दिखाकर षड्यन्त्रों, परीक्षाओं और प्रलोभनों की स्थितियों में उसे अडिग चित्रित किया है। यही स्थिति उसको खण्डकाव्य का महान् नायक बना देती है।

प्रश्न 3.
‘रश्मिरथी’ के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2012, 14, 15, 16, 17, 18]
या
‘रश्मिरथी के आधार पर कृष्ण के विराट् व्यक्तित्व को संक्षेप में लिखिए।
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के आधार पर ‘कृष्ण’ की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। (2015)
या
‘रश्मिरथी’ के आधार पर कृष्ण के चरित्र की किन्हीं तीन विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर
रश्मिरथी’ खण्डकाव्य में श्रीकृष्ण के चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ दिखाई देती हैं—

(1) युद्ध-विरोधी-पाण्डवों के वनवास से लौटने के बाद श्रीकृष्ण कौरवों को समझाने के लिए स्वयं हस्तिनापुर जाते हैं और युद्ध टालने का भरसक प्रयास कर करते हैं, किन्तु हठी दुर्योधन नहीं मानता। इसके बाद वे कर्ण को भी समझाते हैं, परन्तु कर्ण भी अपने प्रण से नहीं हटता। अन्त में श्रीकृष्ण कहते हैं-

यश मुकुट मान सिंहासन ले, बस एक भीख मुझको दे दे।
कौरव को तज रण रोक सखे, भू का हर भावी शोक सखे ।

(2) निर्भीक एवं स्पष्टवादी-श्रीकृष्ण केवल अनुनय-विनय ही करना नहीं जानते, वरन् वे निर्भीक एवं स्पष्ट वक्ता भी हैं। जब दुर्योधने समझाने से नहीं मानता तो वे उसे चेतावनी देते हुए कहते हैं-

तो ले मैं भी अब जाता हूँ, अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ ।
याचना नहीं अब रण होगा, जीवन-जय या कि मरण होगा।

(3) शीलवान व व्यावहारिक-श्रीकृष्ण के सभी कार्य उनके शील के परिचायक हैं। वास्तव में वे एक सदाचारपूर्ण समाज की स्थापना करना चाहते हैं। वे शील को ही जीवन का सार मानते हैं-

नहीं पुरुषार्थ केवल जाति में है, विभा का सार शील पुनीत में है।

साथ ही वह सांसारिक सिद्धि और सफलता के सभी सूत्रों से भी अवगत हैं।

(4) गुणों के प्रशंसक-श्रीकृष्ण अपने विरोधी के गुणों का भी आदर करते हैं। कर्ण उनके विरुद्ध लड़ता है, परन्तु श्रीकृष्ण कर्ण का गुणगान करते नहीं थकते-

…………………वीर शत बार धन्य, तुझ-सा न मित्र कोई अनन्य।

(5) महान् कूटनीतिज्ञ-श्रीकृष्ण महान् कूटनीतिज्ञ हैं। पाण्डवों की विजय श्रीकृष्ण की कूटनीति के कारण ही हुई। वे पाण्डवों की ओर के कूटनीतिज्ञ की कार्य कर दुर्योधन की बड़ी शक्ति कर्ण को उससे अलग करने का प्रयत्न करते हैं। उनकी कूटनीतिज्ञता का प्रमाण कर्ण से कहा गया उनका यह कथन है-

कुन्ती का तू ही तनय श्रेष्ठ, बलशील में परम श्रेष्ठ।
मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम, तेरा अभिषेक करेंगे हम ॥

(6) अलौकिक शक्तिसम्पन्न–कवि ने श्रीकृष्ण के चरित्र में जहाँ मानव-स्वभाव के अनुरूप अनेक साधारण विशेषताओं का समावेश किया है, वहीं उन्हें अलौकिक शक्ति-सम्पन्न रूप देकर लीलापुरुष भी सिद्ध किया हैं। जब दुर्योधन उन्हें कैद करना चाहता है, तब वे अपने विराट स्वरूप में प्रकट हो जाते हैं-

हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप विस्तार किया।
डगमग डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले
जंजीर बढ़ाकर साध मुझे, हाँ हाँ दुर्योधन बाँध मुझे।”

इस प्रकार इस खण्डकाव्य में श्रीकृष्ण को श्रेष्ठ कूटनीतिज्ञ, किन्तु महान् लोकोपकारक के रूप में चित्रित करके कवि ने उनके पौराणिक चरित्र को युगानुरूप बनाकर प्रस्तुत किया है। कवि के इस प्रस्तुतीकरण की विशेषता यह है कि इससे कहीं भी उनके पौराणिक स्वरूप को क्षति नहीं पहुंची है। कृष्ण का यह व्यक्तित्व कवि की कविता में युगानुसार प्रकट हुआ है।

प्रश्न 4.
‘रश्मिरथी’ के आधार पर कुन्ती का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2009, 10, 11, 16, 17, 18]
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के किसी नारी पात्र के चरित्र का चित्रण कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ के आधार पर कुन्ती के मातृत्व की समीक्षा कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य में प्रस्तुत कुन्ती के मन की घुटन का विवेचन कीजिए।
उत्तर
कुन्ती पाण्डवों की माता है। अविवाहिता कुन्ती के गर्भ से सूर्यपुत्र कर्ण का जन्म हुआ था। इस प्रकार कुन्ती के पाँच नहीं वरन् छ: पुत्र थे। कुन्ती की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नवत् हैं

(1) वात्सल्यमयी माता–कुन्ती को जब यह ज्ञात होता है कि कर्ण को उसके अन्य पाँच पुत्रों से युद्ध होने वाला है तो वह कर्ण को मनाने उसके पास पहुँच जाती है। उस समय कर्ण सूर्य की उपासना कर रहा था। अपने पुत्र कर्ण के तेजोमय रूप को देख कुन्ती फूली नहीं समाती। सन्ध्या से आँखें खोलने पर कर्ण स्वयं को राधा का पुत्र बताता है तो कुन्ती यह सुनकर व्याकुल हो जाती है-

रे कर्ण! बेध मत मुझे निदारुण शर से।
राधा का सुत तू नहीं, तनय मेरा है ॥

कर्ण के पास से निराश लौटती हुई कुन्ती कर्ण को अपने अंक में भर लेती है, जो उसके वात्सल्य का प्रमाण है।

(2) अन्तर्द्वन्द्व ग्रस्त-जेब कुन्ती के ही पुत्र परस्पर शत्रु बने खड़े हैं, तब कुन्ती के हृदय में अन्तर्द्वन्द्र । भीषण आँधी उठ रही थी। वह इस समय बड़ी ही उलझन में पड़ी हुई हैं। पाँचों पाण्डवों और कर्ण में से किसी की हानि हो, पर वह हानि तो कुन्ती की ही होगी। वह अपने पुत्रों का सुख-दु:ख अपना सुख-दु:ख समझती है-

दो में किसका उर फटे, फटॅगी मैं ही।
जिसकी भी गर्दन कटे, कहूँगी मैं ही ॥

(3) समाज-भीरु-कुन्ती लोक-लाज से बहुत अधिक भयभीत एक भारतीय नारी की प्रतीक है। कौमार्यावस्था में सूर्य से उत्पन्न नवजात शिशु (कर्ण) को वह लोक-निन्दा के भय से गंगा की लहरों में बहा देती है। इस बात को वह कर्ण के समक्ष भी स्वीकार करती है–

मंजूषा में धर वज्र कर मन को,
धारा में आयी छोड़ हृदय के धन को ।

कर्ण को युवा और वीरत्व की प्रतिमूर्ति बने देखकर भी अपनी पुत्र कहने का साहस नहीं कर पाती। जब युद्ध की विभीषिका सम्मुख आ जाती है, तो वह कर्ण से अपनी दयनीय स्थिति को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त करती है-

बेटा धरती पर बड़ी दीन है नारी,
अबला होती, सचमुच योषिता कुमारी ।
है कठिन बन्द करना समाज के मुख को,
सिर उठा न पा सकती पतिता निज सुख को ।

(4) निश्छल-कुन्ती का हृदय छलरहित है। वह कर्ण के पास मन में कोई छल रखकर नहीं, वरन् निष्कपट भाव से गयी थी। यद्यपि कर्ण उसकी बातें स्वीकार नहीं करता, किन्तु कुन्ती उसके प्रति अपना ममत्व कम नहीं करती।

(5) बुद्धिमती और वाक्पटु–कुन्ती एक बुद्धिमती नारी है। वह अवसर को पहचानने तथा दूरगामी परिणाम का अनुमान करने में समर्थ है। कर्ण-अर्जुन युद्ध का निश्चय जानकर वह समुचित कदम उठाती है–

सोचा कि आज भी चूक अगर जाऊँगी, भीषण अनर्थ फिर रोक नहीं पाऊँगी।
फिर भी तू जीता रहे, न अपयश जाने, अब आ क्षणभर मैं तुझे अंक में भर लें ॥

इस प्रकार कवि ने ‘रश्मिरथी’ में कुन्ती के चरित्र में कई उच्चकोटि के गुणों के साथ-साथ मातृत्व के भीषण अन्तर्द्वन्द्व की सृष्टि करके, इस विवश माँ की ममता को महान् बना दिया है।

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