UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi विज्ञान सम्बन्धी निबन्ध

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi विज्ञान सम्बन्धी निबन्ध are part of UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi विज्ञान सम्बन्धी निबन्ध.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name विज्ञान सम्बन्धी निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi विज्ञान सम्बन्धी निबन्ध

विज्ञान सम्बन्धी निबन्ध

विज्ञान : वरदान या अभिशाप [2009, 10]

सम्बद्ध शीर्षक

  • विज्ञान और समाज [2011]
  • विज्ञान के बढ़ते चरण
  • विज्ञान के चमत्कार [2014]
  • विज्ञान लाभ एवं हानि
  • विज्ञान की देन
  • वैज्ञानिक प्रगति और मानव-जीवन
  • विज्ञान का कल्याणकारी स्वरूप
  • विज्ञान का रचनात्मक स्वरूप [2013, 18]
  • विज्ञान और मानव-कल्याण [2016]

प्रमुख विचार-विन्द

  1. प्रस्तावना,
  2. विज्ञान : वरदान के रूप में—(क) यातायात के क्षेत्र में; (ख) संचार के क्षेत्र में; (ग) दैनन्दिन जीवन में; (घ) स्वास्थ्य एवं चिकित्सा के क्षेत्र में; (ङ) औद्योगिक क्षेत्र में; (च) कृषि के क्षेत्र में; (छ) शिक्षा के क्षेत्र में; (ज) मनोरंजन के क्षेत्र में,
  3. विज्ञान : अभिशाप के रूप में,
  4. उपसंहार

प्रस्तावना-आज का युग वैज्ञानिक चमत्कारों का युग है। मानव-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आज विज्ञान ने आश्चर्यजनक क्रान्ति ला दी है। मानव-समाज की सारी गतिविधियाँ आज विज्ञान से परिचालित हैं। दुर्जेय प्रकृति पर विजय प्राप्त कर आज विज्ञान मानव का भाग्यविधाता बन बैठा है। अज्ञात रहस्यों की खोज में उसने आकाश की ऊँचाइयों से लेकर पाताल की गहराइयाँ तक नाप दी हैं। उसने हमारे जीवन को सब ओर से इतना प्रभावित कर दिया है कि विज्ञान-शून्य विश्व की आज कोई कल्पना तक नहीं कर सकता, किन्तु दूसरी ओर हम यह भी देखते हैं कि अनियन्त्रित वैज्ञानिक प्रगति ने मानव के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है। इस स्थिति में हमें सोचना पड़ता है कि विज्ञान को वरदान समझा जाए या अभिशाप। अतः इन दोनों पक्षों पर समन्वित दृष्टि से विचार करके ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचना उचित होगा।

विज्ञान : वरदान के रूप में आधुनिक मानव का सम्पूर्ण पर्यावरण विज्ञान के वरदानों के आलोक से आलोकित है। प्रातः जागरण से लेकर रात के सोने तक के सभी क्रिया-कलाप विज्ञान द्वारा प्रदत्त साधनों के सहारे ही संचालित होते हैं। प्रकाश, पंखा, पानी, साबुन, गैस स्टोव, फ्रिज, कूलर, हीटर और यहाँ तक कि शीशा, कंघी से लेकर रिक्शा, साइकिल, स्कूटर, बस, कार, रेल, हवाई जहाज, टी०वी०, सिनेमा, रेडियो आदि जितने भी साधनों का हम अपने दैनिक जीवन में उपयोग करते हैं, वे सब विज्ञान के ही वरदान हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि आज का अभिनव मनुष्य विज्ञान के माध्यम से प्रकृति पर विजय पा चुका है-

आज की दुनिया विचित्र नवीन,
प्रकृति पर सर्वत्र है विजयी पुरुष आसीन ।
हैं बँधे नर के करों में वारि-विद्युत भाप,
हुक्म पर चढ़ता उतरता है पवन का ताप ।
है नहीं बाकी कहीं व्यवधान,
लाँघ सकता नर सरित-गिरि-सिन्धु एक समान ॥

विज्ञान के इन विविध वरदानों की उपयोगिता कुछ प्रमुख क्षेत्रों में निम्नलिखित है-
(क) यातायात के क्षेत्र में प्राचीन काल में मनुष्य को लम्बी यात्रा तय करने में बरसों लग जाते थे, किन्तु आज रेल, मोटर, जलपोत, वायुयान आदि के आविष्कार से दूर-से-दूर स्थानों पर बहुत शीघ्र पहुँचा जा सकता है। यातायात और परिवहन की उन्नति से व्यापार की भी कायापलट हो गयी है। मानव केवल धरती ही नहीं, अपितु चन्द्रमा और मंगल जैसे दूरस्थ ग्रहों तक भी पहुंच गया है। अकाल, बाढ़, सूखी आदि प्राकृतिक विपत्तियों से पीड़ित व्यक्तियों की सहायता के लिए भी ये साधन बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं। इन्हीं के चलते आज सारा विश्व एक बाजार बन गया है।

(ख) संचार के क्षेत्र में-बेतार के तार ने संचार के क्षेत्र में क्रान्ति ला दी है। आकाशवाणी, दूरदर्शन, तार, दूरभाष (टेलीफोन, मोबाइल फोन), दूरमुद्रक (टेलीप्रिण्टर, फैक्स) आदि की सहायता से कोई भी समाचार क्षण भर में विश्व के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचाया जा सकता है। कृत्रिम उपग्रहों ने इस दिशा में और भी चमत्कार कर दिखाया है।

(ग) दैनन्दिन जीवन में विद्युत् के आविष्कार ने मनुष्य की दैनन्दिन सुख-सुविधाओं को बहुत बढ़ा दिया है। वह हमारे कपड़े धोती है, उन पर प्रेस करती है, खाना पकाती है, सर्दियों में गर्म जल और गर्मियों में शीतल जल उपलब्ध कराती है, गर्मी-सर्दी दोनों से समान रूप से हमारी रक्षा करती है। आज की समस्त औद्योगिक प्रगति इसी पर निर्भर है।

(घ) स्वास्थ्य एवं चिकित्सा के क्षेत्र में मानव को भयानक और संक्रामक रोगों से पर्याप्त सीमा तक बचाने का श्रेय विज्ञान को ही है। कैंसर, क्षय (टी० बी०), हृदय रोग एवं अनेक जटिल रोगों का इलाज विज्ञान द्वारा ही सम्भव हुआ है। एक्स-रे एवं अल्ट्रासाउण्ड टेस्ट, ऐन्जियोग्राफी, कैट या सीटी स्कैन आदि परीक्षणों के माध्यम से शरीर के अन्दर के रोगों का पता सरलतापूर्वक लगाया जा सकता है। भीषण रोगों के लिए आविष्कृत टीकों से इन रोगों की रोकथाम सम्भव हुई है। प्लास्टिक सर्जरी, ऑपरेशन, कृत्रिम अंगों का प्रत्यारोपण आदि उपायों से अनेक प्रकार के रोगों से मुक्ति दिलायी जा रही है। यही नहीं, इससे नेत्रहीनों को नेत्र, कर्णहीनों को कान और अंगहीनों को अंग देना सम्भव हो सका है।

(ङ) औद्योगिक क्षेत्र में भारी मशीनों के निर्माण ने बड़े-बड़े कल-कारखानों को जन्म दिया है, जिससे श्रम, समय और धन की बचत के साथ-साथ प्रचुर मात्रा में उत्पादन सम्भव हुआ है। इससे विशाल जनसमूह को आवश्यक वस्तुएँ सस्ते मूल्य पर उपलब्ध करायी जा सकी हैं।

(च) कृषि के क्षेत्र में लगभग 121 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाला हमारा देश आज यदि कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हो सका है, तो यह भी विज्ञान की ही देन है। विज्ञान ने किसान को उत्तम बीज, प्रौढ़ एवं विकसित तकनीक, रासायनिक खादे, कीटनाशक, ट्रैक्टर, ट्यूबवेल और बिजली प्रदान की है। छोटे-बड़े बाँधों का निर्माण कर नहरें निकालना भी विज्ञान से ही सम्भव हुआ है।

(छ) शिक्षा के क्षेत्र में मुद्रण-यन्त्रों के आविष्कार ने बड़ी संख्या में पुस्तकों का प्रकाशन सम्भव बनाया है, जिससे पुस्तकें सस्ते मूल्य पर मिल सकी हैं। इसके अतिरिक्त समाचार-पत्र, पत्र-पत्रिकाएँ आदि भी मुद्रण-क्षेत्र में हुई क्रान्ति के फलस्वरूप घर-घर पहुँचकर लोगों का ज्ञानवर्द्धन कर रही हैं। आकाशवाणी-दूरदर्शन आदि की सहायता से शिक्षा के प्रसार में बड़ी सहायता मिली है। कम्प्यूटर के विकास ने तो इस क्षेत्र में क्रान्ति ला दी है।

(ज) मनोरंजन के क्षेत्र में-चलचित्र, आकाशवाणी, दूरदर्शन आदि के आविष्कार ने मनोरंजन को सस्ता और सुलभ बना दिया है। टेपरिकॉर्डर, वी० सी० आर०, वी० सी० डी० आदि ने इस दिशा में क्रान्ति ला दी है और मनुष्य को उच्चकोटि का मनोरंजन सुलभ कराया है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि मानव-जीवन के लिए विज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई वरदान नहीं है।

विज्ञान : अभिशाप के रूप में विज्ञान का एक और पक्ष भी है। विज्ञान एक असीम शक्ति प्रदान करने वाला तटस्थ साधन है। मानव चाहे जैसे इसका इस्तेमाल कर सकता है। सभी जानते हैं कि मनुष्य में दैवी प्रवृत्ति भी है और आसुरी प्रवृत्ति भी। सामान्य रूप से जब मनुष्य की दैवी प्रवृत्ति प्रबल रहती है तो वह मानव-कल्याण से कार्य किया करता है, परन्तु किसी भी समय मनुष्य की राक्षसी प्रवृत्ति प्रबल होते ही कल्याणकारी विज्ञान एकाएक प्रबलतम विध्वंस एवं संहारक शक्ति का रूप ग्रहण कर सकता है। इसका उदाहरण गत विश्वयुद्ध का वह दुर्भाग्यपूर्ण पल है, जब कि हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम-बम गिराया गया था। स्पष्ट है कि विज्ञान मानवमात्र के लिए सबसे बुरा अभिशाप भी सिद्ध हो सकता है। गत विश्वयुद्ध से लेकर अब तक मानव ने विज्ञान के क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति की है; अतः कहा जा सकता है कि आज विज्ञान की विध्वंसक शक्ति पहले की अपेक्षा बहुत बढ़ गयी है।

विध्वंसक साधनों के अतिरिक्त अन्य अनेक प्रकार से भी विज्ञान ने मानव का अहित किया है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथ्यात्मक होता है। इस दृष्टिकोण के विकसित हो जाने के परिणामस्वरूप मानव हृदय की कोमल भावनाओं एवं अटूट आस्थाओं को ठेस पहुंची है। विज्ञान ने भौतिकवादी प्रवृत्ति को प्रेरणा दी है, जिसके परिणामस्वरूप धर्म एवं अध्यात्म से सम्बन्धित विश्वास थोथे प्रतीत होने लगे हैं। मानव-जीवन के पारस्परिक सम्बन्ध भी कमजोर होने लगे हैं। अब मानव भौतिक लाभ के आधार पर ही सामाजिक सम्बन्धों को विकसित करता है।

जहाँ एक ओर विज्ञान ने मानव-जीवन को अनेक प्रकार की सुख-सुविधाएँ प्रदान की हैं वहीं दूसरी ओर विज्ञान के ही कारण मानव-जीवन अत्यधिक खतरों से परिपूर्ण तथा असुरक्षित भी हो गया है। कम्प्यूटर तथा दूसरी मशीनों ने यदि मानव को सुविधा के साधन उपलब्ध कराये हैं तो साथ-साथ रोजगार के अवसर भी छीन लिये हैं। विद्युत विज्ञान द्वारा प्रदत्त एक महान् देन है, परन्तु विद्युत का एक मामूली झटका ही व्यक्ति की इहलीला समाप्त कर सकता है। विज्ञान ने तरह-तरह के तीव्र गति वाले वाहन मानव को दिये हैं। इन्हीं वाहनों की आपसी टक्कर से प्रतिदिन हजारों व्यक्ति सड़क पर ही जान गॅवा देते हैं। विज्ञान के दिन-प्रतिदिन होते जा रहे नवीन आविष्कारों के कारण मानव पर्यावरण असन्तुलन के दुष्चक्र में भी फंस चुका है।

अधिक सुख-सुविधाओं के कारण मनुष्य आलसी और आरामतलब बनता जा रहा है, जिससे उसकी शारीरिक शक्ति का ह्रास हो रहा है और अनेक नये-नये रोग भी उत्पन्न हो रहे हैं। मानव में सर्दी और गर्मी सहने की क्षमता घट गयी है।

वाहनों की बढ़ती संख्या से सड़कें पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो रही हैं तो उनसे निकलने वाले ध्वनि प्रदूषक मनुष्य को स्नायु रोग वितरित कर रहे हैं। सड़क दुर्घटनाएँ तो मानो दिनचर्या का एक अंग हो चली हैं। विज्ञापनों ने प्राकृतिक सौन्दर्य को कुचल डाला है। चारों ओर का कृत्रिम आडम्बरयुक्त जीवन इस विज्ञान की ही देन है। औद्योगिक प्रगति ने पर्यावरण-प्रदूषण की विकट समस्या खड़ी कर दी है। साथ ही गैसों के रिसाव से अनेक व्यक्तियों के प्राण भी जा चुके हैं।

विज्ञान के इसी विनाशकारी रूप को दृष्टि में रखकर महाकवि दिनकर मानव को चेतावनी देते हुए कहते हैं—

सावधान, मनुष्य ! यदि विज्ञान है तलवार।
तो इसे दे फेंक, तजकर मोह, स्मृति के पार ॥
खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार।
काट लेगा अंग, तीखी है बड़ी यह धार ॥

उपसंहार–विज्ञान सचमुच तलवार है, जिससे व्यक्ति आत्मरक्षा भी कर सकता है और अनाड़ीपन में अपने अंग भी काट सकती है। इसमें दोष तलवार का नहीं, उसके प्रयोक्ता का है। विज्ञान ने मानव के सम्मुख असीमित विकास का मार्ग खोल दिया है, जिससे मनुष्य संसार से बेरोजगारी, भुखमरी, महामारी आदि को समूल नष्ट कर विश्व को अभूतपूर्व सुख-समृद्धि की ओर ले जा सकता है। अणु-शक्ति का कल्याणकारी कार्यों में उपयोग असीमित सम्भावनाओं का द्वार उन्मुक्त कर सकता है। बड़े-बड़े रेगिस्तानों को लहराते खेतों में बदलना, दुर्लंघ्य पर्वतों पर मार्ग बनाकर दूरस्थ अंचलों में बसे लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना, विशाल बाँधों का निर्माण एवं विद्युत उत्पादन आदि अगणित कार्यों में इसका उपयोग हो सकता है, किन्तु यह तभी सम्भव है, जब मनुष्य में आध्यात्मिक दृष्टि का विकास हो, मानव-कल्याण की सात्त्विक भावना जगे। अतः स्वयं मानव को ही यह निर्णय करना है कि वह विज्ञान को वरदान रहने दे या अभिशाप बना दे।

धर्म और विज्ञान [2016]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. धर्म और विज्ञान का विरोध,
  3. धर्म और विज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू,
  4. धर्म मनुष्य को भीरु बनाता है और विज्ञान साहसी,
  5. धर्म भी विज्ञान है और विज्ञान भी धर्म है,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-संस्कृत में धर्म को परिभाषित करते हुए कहा गया है–‘ध्रियते लोकोऽनेन, धरति लोकं वा।’ अर्थात् इस संसार के धारण करने योग्य जो भी बातें हैं, वे सभी धर्म हैं और वे सभी बातें धारण करने योग्य हैं, जो संसार के लिए कल्याणकारी हैं। विज्ञान भी उन्हीं सब कार्यों अथवा अनुसन्धानों को करने की अनुमति प्रदान करता है, जो संसार के लिए कल्याणकारी हैं। इस प्रकार धर्म और विज्ञान का उद्देश्य एक ही है।

धर्म और विज्ञान का विरोध-आध्यात्मिक स्तर पर धर्म और विज्ञान दो विपरीत विचारधाराएँ हैं। धर्म परम-सुख (मोक्ष/परमानन्द) की प्राप्ति के लिए भौतिकवाद का विरोध करते हुए उसे त्यागने की बात करता है, जबकि विज्ञान भौतिक संसार से बाहर किसी सुख की सत्ता तो स्वीकार नहीं करता; अतः वह मनुष्य को परम-सुख की प्राप्ति के लिए भौतिकवाद में किण्ठ डूबने के लिए प्रेरित करता है।

धर्म और विज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू-वस्तुत: धर्म और विज्ञान दो विरोधी अवधारणाएँ नहीं हैं, वरन् एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों ही सत्य के रूप का उद्घाटन करते हैं। हाँ, सत्य के उद्घाटन की दोनों की पद्धतियाँ अवश्य ही अलग-अलग हैं। जहाँ एक ओर धर्म ने मानव को मानसिक शान्ति प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर विज्ञान ने भौतिक सुख। धर्म ने मानव के हृदय को परिष्कृत किया है तो विज्ञान ने उसकी बुद्धि को।

धर्म मनुष्य को भीरु बनाता है और विज्ञान साहसी-धर्म सर्वशक्तिमान् एवं अनादि ईश्वर की कल्पना करके मनुष्य को असहाय और भीरु बनाता है। इसी भीरुता के कारण मनुष्य ईश्वर की आलोचना करने से डरता है। ईश्वर के प्रति उसकी अटूट आस्था एवं विश्वास उसे भाग्यवादी बनाकर अकर्मण्य बनाते हैं, जबकि विज्ञान मनुष्य को निर्भीक और साहसी बनाकर उसे निरन्तर कर्म करते हुए रहने की प्रेरणा प्रदान करता है।

धर्म भी विज्ञान है और विज्ञान भी धर्म है-धर्म और विज्ञान का जो विरोध दृष्टिगत होता है, वह धर्म से सम्बन्धित पाखण्डों, अन्धविश्वासों, अन्धश्रद्धा और कर्मकाण्डों की अधिकता और अनिवार्यता के कारण है। वस्तुतः धर्म को यदि हम उसकी परिभाषा के आलोक में देखें तो पाते हैं कि धर्म किसी भी अतार्किक बात की स्वीकृति नहीं देता, वह विज्ञान की भाँति ठोस तर्को का पक्षपाती है। वह भी एक विज्ञान है, जो तर्कों के आधार पर ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करके उसे तर्कपूर्ण विधियों से प्राप्त करने का मार्ग दिखाता है।

धार्मिक लोग जिस भौतिकवाद की दुहाई देकर विज्ञान की आलोचना करते हैं, वह वास्तव में उनका अज्ञान है। विज्ञान केवल मनुष्य के कल्याण का पक्षपाती है, उसने अग्नि की खोज खाना पकाने और ऊर्जा के स्रोत के रूप में मनुष्यमात्र के कल्याण के लिए की, अब अगर कोई उसकी अग्नि से किसी का घर जलाने लगे तो उसमें विज्ञान का क्या दोष? विज्ञान ने तो अपना धर्म निभाते हुए मनुष्यमात्र के कल्याण के लिए अग्नि की खोज की, अब अगर अधर्म का आचरण करके मनुष्य किसी का घर जलाकर विनाश को आमन्त्रण दे तो इससे विज्ञान की धार्मिकता कहाँ कम होती है। धर्म वही है, जिसे प्राणिमात्र के कल्याण केलिए धारण किया जाए तो विज्ञान भी वही है, जिसका प्रत्येक अनुसन्धान प्राणिमात्र के कल्याण के लिए है। इस प्रकार विज्ञान ही धर्म है।।

उपसंहार-आज यदि आवश्यकता है तो विज्ञान एवं धर्म के पारस्परिक समन्वय की है, क्योंकि न तो विज्ञान से विमुख धर्म मनुष्य का कल्याण करने में समर्थ है और न ही विज्ञान धर्म से अलग होकर अपने कल्याणकारी स्वरूप की रक्षा कर सकता है।

कम्प्यूटर : आधुनिक मानव-यन्त्र [2013, 15, 16]

सम्बद्ध शीर्षक

  • कम्प्यूटर के प्रयोग से लाभ तथा हानि [2013]
  • कम्प्यूटर की उपयोगिता [2010]
  • कम्प्यूटर का महत्त्व
  • कम्प्यूटर की आत्मकथा
  • भारत में कम्प्यूटर का महत्त्व [2013, 14, 18]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना : कम्प्यूटर क्या है ?
  2. कम्प्यूटर के उपयोग,
  3. कम्प्यूटर तकनीक से हानियाँ,
  4. कम्यूटर और मानव-मस्तिष्क,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना--कम्प्यूटर असीमित क्षमताओं वाला वर्तमान युग का एक क्रान्तिकारी साधन है। यह एक ऐसा यन्त्र-पुरुष है, जिसमें यान्त्रिक मस्तिष्कों को रूपात्मक और समन्वयात्मक योग तथा गुणात्मक घनत्व पाया जाता है। इसके परिणामस्वरूप यह कम-से-कम समय में तीव्रगति से त्रुटिहीन गणनाएँ कर लेता है। आरम्भ में, गणित की जटिल गणनाएँ करने के लिए ही कम्प्यूटर का आविष्कार किया गया था। आधुनिक कम्प्यूटर के प्रथम सिद्धान्तकार चार्ल्स बैबेज ( सन् 1792-1871 ई०) ने गणित और खगोल-विज्ञान की सूक्ष्म सारणियाँ तैयार करने के लिए ही एक भव्य कम्प्यूटर की योजना तैयार की थी। उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशक में अमेरिकी इंजीनियर हरमन होलेरिथ ने जनगणना से सम्बन्धित आँकड़ों का विश्लेषण करने के लिए पंचका पर आधारित कम्प्यूटर का प्रयोग किया था। दूसरे महायुद्ध के दौरान पहली बार बिजली से चलने वाले कम्प्यूटर बने। इनका उपयोग भी गणनाओं के लिए ही हुआ। आज के कम्प्यूटर केवल गणनाएँ करने तक ही सीमित नहीं रह गये हैं वरन् अक्षरों, शब्दों, आकृतियों और कथनों को ग्रहण करने में अथवा इससे भी अधिक अनेकानेक कार्य करने में समर्थ हैं। आज कम्प्यूटरों का मानव-जीवन के अधिकाधिक क्षेत्रों में उपयोग करना सम्भव हुआ है। अब कम्प्यूटर संचार और नियन्त्रण के भी शक्तिशाली साधन बन गये हैं।

कम्प्यूटर के उपयोग-आज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कम्प्यूटरों के व्यापक उपयोग हो रहे हैं—

(क) प्रकाशन के क्षेत्र में सन् 1971 ई० में माइक्रोप्रॉसेसर का आविष्कार हुआ। इस आविष्कार ने कम्प्यूटरों को छोटा, सस्ता और कई गुना शक्तिशाली बना दिया। माइक्रोप्रॉसेसर के आविष्कार के बाद कम्प्यूटर का अनेक कार्यों में उपयोग सम्भव हुआ। शब्द-संसाधक (वर्ड प्रोसेसर) कम्प्यूटरों के साथ स्क्रीन व प्रिण्टर जुड़ जाने से इनकी उपयोगिता का खूब विस्तार हुआ है। सर्वप्रथम एक लेख सम्पादित होकर कम्प्यूटर में संचित होता है। टंकित मैटर को कम्प्यूटर की स्क्रीन पर देखा जा सकता है और उसमें संशोधन भी किया जा सकता है। इसके बाद मशीनों से छपाई होती है। अब तो अतिविकसित देशों (ब्रिटेन आदि) में बड़े समाचार-पत्रों में सम्पादकीय विभाग में एक सिरे पर कम्प्यूटरों में मैटर भरा जाता है तथा दूसरे सिरे पर तेज रफ्तार से इलेक्ट्रॉनिक प्रिण्टर समाचार-पत्र छापकर निकाल देते हैं।

(ख) बैंकों में कम्प्यूटर का उपयोग बैंकों में किया जाने लगा है। कई राष्ट्रीयकृत बैंकों ने चुम्बकीय संख्याओं वाली चेक-बुक भी जारी कर दी हैं। खातों के संचालन और लेन-देन का हिसाब रखने वाले कम्प्यूटर भी बैंकों में स्थापित हो रहे हैं। आज कम्प्यूटर के द्वारा ही बैंकों में 24 घण्टे पैसों के लेन-देन की ए० टी० एम० (Automated Teller Machine) जैसी सेवाएँ सम्भव हो सकी हैं। यूरोप और अमेरिका में ही नहीं अब भारत में भी ऐसी व्यवस्थाएँ अस्तित्व में आ गयी हैं कि घर के निजी कम्प्यूटरों के जरिये बैंकों से भी लेन-देन का व्यवहार सम्भव हुआ है।

(ग) सूचनाओं के आदान-प्रदान में प्रारम्भ में कम्प्यूटर की गतिविधियाँ वातानुकूलित कक्षों तक ही सीमित थीं, किन्तु अब एक कम्प्यूटर हजारों किलोमीटर दूर के दूसरे कम्प्यूटरों के साथ बातचीत कर सकता है तथा उसे सूचनाएँ भेज सकता है। दो कम्प्यूटरों के बीच यह सम्बन्ध तारों, माइक्रोवेव तथा उपग्रहों के जरिये स्थापित होता है। सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए देश के सभी प्रमुख छोटे-बड़े शहरों को कम्प्यूटर नेटवर्क के जरिये एक-दूसरे से जोड़ने की प्रक्रिया शीघ्र ही पूर्ण होने वाली है। इण्टरनेट जैसी सुविधा से आज देश का प्रत्येक नगर सम्पूर्ण विश्व से जुड़ गया है।

(घ) आरक्षण के क्षेत्र में कम्प्यूटर नेटवर्क की अनेक व्यवस्थाएँ अब हमारे देश में स्थापित हो गयी हैं। सभी प्रमुख एयरलाइन्स की हवाई यात्राओं के आरक्षण के लिए अब ऐसी व्यवस्था है कि भारत के किसी शहर से आपकी समूची हवाई यात्रा के आरक्षण के साथ-साथ विदेशों में आपकी इच्छानुसार होटल भी आरक्षित हो जाएगा। कम्प्यूटर नेटवर्क से अब देश के सभी प्रमुख शहरों में रेल-यात्रा के आरक्षण की व्यवस्था भी अस्तित्व में आ गयी है।

(ङ) कम्प्यूटर ग्राफिक्स में कम्प्यूटर केवल अंकों और अक्षरों को ही नहीं, वरन् रेखाओं और आकृतियों को भी सँभाल सकते हैं। कम्प्यूटर ग्राफिक्स की इस व्यवस्था के अनेक उपयोग हैं। भवनों, मोटरगाड़ियों, हवाई-जहाजों आदि के डिज़ाइन तैयार करने में कम्प्यूटर ग्राफिक्स का व्यापक उपयोग हो रहा है। वास्तुशिल्पी अब अपने डिज़ाइन कम्प्यूटर स्क्रीन पर तैयार करते हैं और संलग्न प्रिण्टर से इनके प्रिण्ट भी प्राप्त कर लेते हैं। यहाँ तक कि कम्प्यूटर चिप्स के सर्किटों के डिजाइन भी अब कम्प्यूटर ग्राफिक्स की मदद से तैयार होने लगे हैं। वैज्ञानिक अनुसन्धान भी कम्प्यूटर के स्क्रीन पर किये जा रहे हैं।

(च) कला के क्षेत्र में कम्प्यूटर अब चित्रकार की भूमिका भी निभाने लगे हैं। चित्र तैयार करने के लिए अब रंगों, तूलिकाओं, रंग-पट्टिका और कैनवास की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी है। चित्रकार अब कम्प्यूटर के सामने बैठता है और अपने नियोजित प्रोग्राम की मदद से अपनी इच्छा के अनुसार स्क्रीन पर रंगीन रेखाएँ प्रस्तुत कर देता है। रेखांकनों से स्क्रीन पर निर्मित कोई भी चित्र ‘प्रिण्ट’ की कुञ्जी दबाते ही, अपने समूचे रंगों के साथ कम्प्यूटर से संलग्न प्रिण्टर द्वारा कागज पर छाप दिया जाता है।

(छ) संगीत के क्षेत्र में कम्प्यूटर अब सुर सजाने का काम भी करने लगे हैं। पाश्चात्य संगीत के स्वरांकन को कम्प्यूटर स्क्रीन पर प्रस्तुत करने में कोई कठिनाई नहीं होती, परन्तु वीणा जैसे भारतीय वाद्य की स्वरलिपि तैयार करने में कठिनाइयाँ आ रही हैं, परन्तु वह दिन दूर नहीं है जब भारतीय संगीत की स्वर-लहरियों को कम्प्यूटर स्क्रीन पर उभारकर उनका विश्लेषण किया जाएगा और संगीत-शिक्षा की नयी तकनीक विकसित की जा सकेंगी।

(ज) खगोल-विज्ञान के क्षेत्र में कम्प्यूटरों ने वैज्ञानिक अनुसन्धान के अनेक क्षेत्रों का समूचा ढाँचा ही बदल दिया है। पहले खगोलविद् दूरबीनों पर रात-रातभर आँखें गड़ाकर आकाश के पिण्डों का अवलोकन करते थे, किन्तु अब किरणों की मात्रा के अनुसार ठीक-ठीक चित्र उतारने वाले इलेक्ट्रॉनिक उपकरण उपलब्ध हो गये हैं। इन चित्रों में निहित जानकारी का व्यापक विश्लेषण अब कम्प्यूटरों से होता है।

(झ) चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन भी एक सरल कम्प्यूटर ही है। मतदान के लिए ऐसी वोटिंग मशीनों का उपयोग सीमित पैमाने पर ही सही अब हमारे देश में भी हो रहा है।

(ज) उद्योग-धन्धों में कम्प्यूटर उद्योग-नियन्त्रण के भी शक्तिशाली साधन हैं। बड़े-बड़े कारखानों के संचालन का काम अब कम्प्यूटर सँभालने लगे हैं। कम्प्यूटरों से जुड़कर रोबोट अनेक किस्म के औद्योगिक उत्पादनों को सँभाल सकते हैं। कम्प्यूटर भयंकर गर्मी और ठिठुरती सर्दी में भी यथावत् कार्य करते हैं। इनका उस पर कोई असर नहीं पड़ता। हमारे देश में अब अधिकांश निजी व्यवसायों में कम्प्यूटर का प्रयोग होने लगा है।

(ट) सैनिक कार्यों में आज प्रमुख रूप से महायुद्ध की तैयारी के लिए नये-नये शक्तिशाली सुपर कम्प्यूटरों का विकास किया जा रहा है। हाशक्तियों की ‘स्टार वार्स’ की योजना कम्प्यूटरों के नियन्त्रण पर आधारित है। पहले भारी कीमत देकर हमारे देश में सुपर कम्प्यूटर आयात किये जा रहे थे; परन्तु अब इन सुपर कम्प्यूटरों का निर्माण हमारे देश में भी किया जा रहा है।

(ठ) अपराध निवारण में अपराधों के निवारण में भी कम्प्यूटर की अत्यधिक उपयोगिता है। पश्चिम के कई देशों में सभी अधिकृत वाहन मालिकों, चालकों, अपराधियों का रिकॉर्ड पुलिस के एक विशाल कम्प्यूटर में संरक्षित होता है। कम्प्यूटर द्वारा क्षण मात्र में अपेक्षित जानकारी उपलब्ध हो जाती है, जो कि अपराधियों के पकड़ने में सहायक सिद्ध होती है। यही नहीं, किसी भी अपराध से सन्दर्भित अनेकानेक तथ्यों में से विश्लेषण द्वारा कम्प्यूटर नये तथ्य ढूंढ़ लेता है तथा किसी अपराधी को कैसा भी चित्र उपलब्ध होने पर वह उसकी सहायता से अपराधी के किसी भी उम्र और स्वरूप की तस्वीर प्रस्तुत कर सकता है।

कम्प्यूटर तकनीक से हानियाँ-जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कम्प्यूटर तकनीकी के निरन्तर बढ़ते जा रहे व्यापक उपयोगों ने जहाँ एक ओर इसकी उपयोगिता दर्शायी है, वहीं दूसरी ओर इसके भयावह परिणामों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि कम्प्यूटर हर क्षेत्र में मानव-श्रम को नगण्य बना देगा, जिससे भारत सदृश जनसंख्या बहुल देशों में बेरोजगारी की समस्या विकराल रूप धारण कर लेगी। विभिन्न विभागों में इसकी स्थापना से कर्मचारी भविष्य के प्रति अनाश्वस्त हो गये हैं।

बैंकों आदि में इस व्यवस्था के कुछ दुष्परिणाम भी सामने आये हैं। दूसरों के खातों के कोड नम्बर जानकर प्रति वर्ष करोड़ों डॉलरों से बैंकों को ठगना अमेरिका में एक आम बात हो गयी है। हमारे देश के बैंकों में बिना कम्प्यूटरों के करोड़ों की ठगी के मामले आये दिन सामने आते रहते हैं। ज्योतिष के क्षेत्र में भी इसके परिणाम शत-प्रतिशत सही नहीं निकले हैं।

कम्प्यूटर और मानव-मस्तिष्क-कम्प्यूटर के सन्दर्भ में ढेर सारी भ्रान्तियाँ जनसामान्य के मस्तिष्क में छायी हुई हैं। कुछ लोग इसे सुपर पावर समझ बैठे हैं, जिसमें सब कुछ करने की क्षमता है। किन्तु उनकी धारणाएँ पूर्णरूपेण निराधार हैं। वास्तविकता तो यह है कि कम्प्यूटर एकत्रित आँकड़ों का इलेक्ट्रॉनिक विश्लेषण प्रस्तुत करने वाली एक मशीन मात्र है। यह केवल वही काम कर सकता है, जिसके लिए इसे निर्देशित किया गया हो। यह कोई निर्णय स्वयं नहीं ले सकता और न ही कोई नवीन बात सोच सकता है। यह मानवीय संवेदनाओं, अभिरुचियों, भावनाओं और चित्त से रहित मात्र एक यन्त्र-पुरुष है, जिसकी बुद्धि-लब्धि (Intelligence Quotient : I.O.) मात्र एक मक्खी के बराबर होती है, यानि बुद्धिमत्ता में कम्प्यूटर मनुष्य से कई हजार गुना पीछे है।।

उपसंहार-निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि कम्प्यूटर टेक्नोलॉजी के भी दो पक्ष हैं। इसको सोच समझकर उपयोग किया जाए तो यह वरदान सिद्ध हो सकता है, अन्यथा यह मानव-जाति की तबाही का साधन भी बन सकता है। इसीलिए कम्प्यूटर की क्षमताओं को ठीक से समझना जरूरी है। इलेक्ट्रॉनिकी शिक्षा एवं साधन; कम्प्यूटर टेक्नोलॉजी की उपेक्षा नहीं कर सकते। लेकिन इनके लिए यदि बुनियादी शिक्षा की समुचित व्यवस्था की जाती, देश में टेक्नोलॉजी के साधन जुटाये जाते और पाश्चात्य संस्कृति में विकसित हुई इस टेक्नोलॉजी को देश की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर धीरे-धीरे अपनाया जाता तो अच्छा होता।।

इण्टरनेट

सम्बद्ध शीर्षक

  • इण्टरनेट : लाभ और हानियाँ [2017, 18]
  • भारत में इण्टरनेट का विकास
  • सूचना प्रौद्योगिकी और मानव-कल्याण [2013, 14]
  • इण्टरनेट की शैक्षिक उपयोगिता [2016]

प्रमुखविचार-बिन्दु–

  1. भूमिका,
  2. इतिहास और विकास,
  3. इण्टरनेट सम्पर्क,
  4. इण्टरनेट सेवाएँ,
  5. भारत में इण्टरनेट,
  6. भविष्य की दिशाएँ,
  7. उपसंहार

भूमिका-इण्टरनेट ने विश्व में जैसा क्रान्तिकारी परिवर्तन किया, वैसा किसी भी दूसरी टेक्नोलॉजी ने नहीं किया। नेट के नाम से लोकप्रिय इण्टरनेट अपने उपभोक्ताओं के लिए बहुआयामी साधन प्रणाली है। यह दूर बैठे उपभोक्ताओं के मध्य अन्तर-संवाद का माध्यम है; सूचना या जानकारी में भागीदारी और सामूहिक रूप से काम करने का तरीका है; सूचना को विश्व स्तर पर प्रकाशित करने का जरिया है और सूचनाओं को अपार सागर है। इसके माध्यम से इधर-उधर फैली तमाम सूचनाएँ प्रसंस्करण के बाद ज्ञान में परिवर्तित हो रही हैं। इसने विश्व-नागरिकों के बहुत ही सुघड़ और घनिष्ठ समुदाय का विकास किया है।

इण्टरनेट विभिन्न टेक्नोलॉजियों के संयुक्त रूप से कार्य का उपयुक्त उदाहरण है। कम्प्यूटरों के बड़े पैमाने पर उत्पादन, कम्प्यूटर सम्पर्क-जाल का विकास, दूर-संचार सेवाओं की बढ़ती उपलब्धता और घटता खर्च तथा आँकड़ों के भण्डारण और सम्प्रेषण में आयी नवीनता ने नेट के कल्पनातीत विकास और उपयोगिता को बहुमुखी प्रगति प्रदान की है। आज किसी समाज के लिए इण्टरनेट वैसी ही ढाँचागत आवश्यकता है जैसे कि सड़कें, टेलीफोन या विद्युत् ऊर्जा।

इतिहास और विकास–इण्टरनेट का इतिहास पेचीदा है। इसका पहला दृष्टान्त सन् 1962 ई० में मैसाचुसेट्स टेक्नोलॉजी संस्थान के जे० सी० आर० लिकप्लाइडर द्वारा लिखे गये कई ज्ञापनों के रूप में सामने आया था। उन्होंने कम्प्यूटर की ऐसी विश्वव्यापी अन्तर्सम्बन्धित श्रृंखला की कल्पना की थी जिसके जरिये वर्तमान इण्टरनेट की तरह ही आँकड़ों और कार्यक्रमों को तत्काल प्राप्त किया जा सकता था। इस प्रकार के नेटवर्क में सहायक बनी तकनीकी सफलता पहली बार इसी संस्थान के लियोनार्ड क्लिनरोक ने सुझायी थी। उनकी यह सूझ पैकेट स्विचिंग नाम की नयी टेक्नोलॉजी थी जो सामान्य टेलीफोन प्रणाली में प्रयुक्त सर्किट स्विचिंग टेक्नोलॉजी से मिलती-जुलती थी। पैकेट स्विचिंग उस पत्र पेटी की तरह थी, जिसका इस्तेमाल चाहे जितने लोग कर सकते थे। इसके जरिये दुनिया में कम्प्यूटर अन्य कम्प्यूटरों से जुड़े बिना भी एक-दूसरे से संवाद कायम कर सकते थे।

इण्टरनेट के इतिहास में 1973 का वर्ष ऐसा था जिसने अनेक मील के पत्थर जोड़े और इस प्रकार अधिक विश्वसनीय और स्वतन्त्र नेटवर्क की शुरुआत हुई। इसी वर्ष में इण्टरनेट ऐक्टिविटीज बोर्ड की स्थापना की गयी। इस वर्ष के नवम्बर महीने में डोमेन नेमिंग सर्विस (डीएनएस) का पहला विवरण जारी किया गया और वर्ष की आखिरी महत्त्वपूर्ण घटना इण्टरनेट का सेना और आम लोगों के लिए उपयोग के वर्गीकरण द्वारा सार्वजनिक नेटवर्क के उदय के रूप में सामने आया तथा इसी के साथ आज प्रचलित इण्टरनेट ने जन्म लिया।

इण्टरनेट का बाद का इतिहास मुख्यत: बहुविध उपयोग का है जो नेटवर्क की आधारभूत संरचना से ही सम्भव हो सका। बहुविध उपयोग की दिशा में पहला कदम फाइल ट्रांसफर प्रणाली का विकास था। इससे दूर-दराज के कम्प्यूटरों के बीच फाइलों का आदान-प्रदान सम्भव हो सका। सन् 1984 ई० में इण्टरनेट से जुड़े कम्प्यूटरों की संख्या 1000 थी जो सन् 1989 ई० में एक लाख के ऊपर पहुँच चुकी थी। 90 के दशक के आरम्भ में इण्टरनेट पर सूचना प्रस्तुति के नये तरीके सामने आये। सन् 1991 ई० में मिनेसोटा विश्वविद्यालय द्वारा तैयार गोफर नामक सरलता से पहुँच योग्य डाक्युमेण्ट प्रस्तुति प्रणाली अस्तित्व में आयी। इससे पहले सन् 1990 ई० में ही टिम बर्नर-ली ने वर्ल्ड वाइड वेब (www) का आविष्कार करके सूचना प्रस्तुति का एक नया तरीका सामने रखा जो सरलता से इस्तेमाल योग्य सिद्ध हुआ।

सन् 1993 ई० में ट्रैफिकल वेब ब्राउजर का आविष्कार इण्टरनेट के क्षेत्र में एक बड़ी घटना थी। इससे न केवल विवरण वरन चित्रों का भी दिग्दर्शन सम्भव हो गया। इस वेब ब्राउजर को मोजाइक कहा गया। इस समय तक इण्टरनेट उपभोक्ताओं की संख्या 20 लाख से अधिक हो गयी थी और आज प्रचलित इण्टरनेट आकार ले चुका था।

इण्टरनेट सम्पर्क–इण्टरनेट का आधार राष्ट्रीय या क्षेत्रीय सूचना इन्फ्रास्ट्रक्चर होता है जो सामान्यत: हाइबैण्ड विड्थ ट्रंक लाइनों से बना होता है और जहाँ से विभिन्न सम्पर्क लाइनें कम्प्यूटरों को जोड़ती हैं जिन्हें आश्रयदाता (होस्ट) कम्प्यूटर कहते हैं। ये आश्रयदाता कम्प्यूटर प्रायः बड़े संस्थानों; जैसे—विश्वविद्यालयों, बड़े उद्यमों और इण्टरनेट कम्पनियों से जुड़े होते हैं और इन्हें इण्टरनेट सर्विस प्रोवाइडर (आईएसपी) कहा जाता है। आश्रयदाता कम्प्यूटर चौबीसों घण्टे काम करते हैं और अपने उपभोक्ताओं को सेवा प्रदान करते हैं। ये कम्प्यूटर विशेष संचार लाइनों के जरिये इण्टरनेट से जुड़े रहते हैं। इनके उपभोक्ताओं/व्यक्तियों के पीसी (पर्सनल कम्प्यूटर) साधारण टेलीफोन लाइन और मोडेम के जरिए इण्टरनेट से जुड़े रहते हैं।

एक सामान्य उपभोक्ता एक निश्चित राशि का भुगतान करके आईएसपी से अपना इण्टरनेट खाता प्राप्त कर लेता है। आईएसपी लॉगइन नेम, पासवर्ड (जिसे उपभोक्ता बदल भी सकता है) और नेट से जुड़ने के लिए कुछ एक जानकारियाँ उपलब्ध करा देता है। एक बार इण्टरनेट से जुड़ जाने पर उपभोक्ता इण्टरनेट की तमाम सेवाओं तक अपनी पहुँच बना सकता है। इसके लिए उसे सही कार्यक्रम का चयन करना होता है। ज्यादातर इण्टरनेट सेवाएँ उपभोक्ता-सर्वर रूपाकार पर काम करती हैं। इनमें सर्वर वे कम्प्यूटर हैं जो नेट से जुड़े हुए व्यक्तिगत कम्प्यूटर उपभोक्ताओं को एक या अधिक सेवाएँ उपलब्ध कराते हैं। इसे सेवा के वास्तविक प्रयोग के लिए उपभोक्ता को उस विशेष सेवा के लिए आश्रित (क्लाइण्ट) सॉफ्टवेयर की जरूरत होती है।

इण्टरनेट सेवाएँ-इण्टरनेट की उपयोगिता उपभोक्ता को उपलब्ध सेवाओं से निर्धारित होती है। इसके उपभोक्ता को निम्नलिखित सेवाएँ उपलब्ध हैं-
(क) ई-मेल-ई-मेल या इलेक्ट्रॉनिक मेल इण्टरनेट का सबसे लोकप्रिय उपयोग है। संवाद के अन्य माध्यमों की तुलना में सस्ता, तेज और अधिक सुविधाजनक होने के कारण इसने दुनिया भर के घरों और कार्यालयों में अपनी जगह बना ली है। इसके द्वारा पहले भाषायी पाठ ही प्रेषित किया जा सकता था, लेकिन अब सन्देश, चित्र, अनुकृति, ध्वनि, आँकड़े आदि भी प्रेषित किये जा सकते हैं।

(ख) टेलनेट-टेलनेट एक ऐसी व्यवस्था है, जिसके माध्यम से उपभोक्ता को किसी दूर स्थित कम्प्यूटर से स्वयं को जोड़ने की सुविधा प्राप्त हो जाती है।

(ग) इण्टरनेट चर्चा (चैट)–नयी पीढ़ी में इण्टरनेट रिले चैट या चर्चा व्यापक रूप से लोकप्रिय है। यह ऐसी गतिविधि है, जिसमें भौगोलिक रूप से दूर स्थित व्यक्ति एक ही चैट सर्वर पर लॉग करके की-बोर्ड के जरिये एक-दूसरे से चर्चा कर सकते हैं। इसके लिए एक वांछित व्यक्ति की आवश्यकता होती है, जो निश्चित समय पर उस लाइन पर सुविधापूर्वक उपलब्ध हो।।

(घ) वर्ल्ड वाइड वेब–यह सुविधा इण्टरनेट के सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रचलित उपयोगों में से एक है। यह इतनी आसान है कि इसके प्रयोग में बच्चों को भी कठिनाई नहीं होती। यह मनचाही संख्या वाले अन्तर्सम्बन्धित डॉक्युमेण्ट का समूह है, जिसमें से प्रत्येक डॉक्युमेण्ट की पहचान उसके विशेष पते से की जा सकती है। इस पर उपलब्ध सबसे महत्त्वपूर्ण सेवाओं में से एक सर्विंग है। इण्टरनेट में शताधिक सर्च इंजन कार्यरत हैं जिनमें गूगल सर्वाधिक लोकप्रिय है।

(ङ) ई-कॉमर्स-इण्टरनेट की प्रगति की ही एक परिणति ई-कॉमर्स है। किसी भी प्रकार के व्यवसाय को संचालित करने के लिए इण्टरनेट पर की जाने वाली कार्यवाही को ई-कॉमर्स कहते हैं। इसके अन्तर्गत वस्तुओं का क्रय-विक्रय, विभिन्न व्यक्तियों या कम्पनियों के मध्य सेवा या सूचना आते हैं।
इन मुख्य सेवाओं के अतिरिक्त इण्टरनेट द्वारा और भी अनेक सेवाएँ प्रदान की जाती हैं, जिनके असीमित उपयोग हैं।

भारत में इण्टरनेट–भारत में इण्टरनेट का आरम्भ आठवें दशक के अन्तिम वर्षों में अनेट (शिक्षा और अनुसन्धान नेटवर्क) के रूप में हुआ था। इसके लिए भारत सरकार के इलेक्ट्रॉनिक विभाग और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने आर्थिक सहायता उपलब्ध करायी थी। इस परियोजना में पाँच प्रमुख संस्थान, पाँचों भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और इलेक्ट्रॉनिक निदेशालय शामिल थे। अनेंट का आज व्यापक प्रसार हो चुका है और वह शिक्षा और शोध समुदाय को देशव्यापी सेवा दे रहा है। एक अन्य प्रमुख नेटवर्क नेशनल इन्फॉर्मेटिक्स सेण्टर (एनआईसी) के रूप में सामने आया, जिसने प्राय: सभी जनपद मुख्यालयों को राष्ट्रीय नेटवर्क से जोड़ दिया। आज देश के विभिन्न भागों में यह 1400 से भी अधिक स्थलों को अपने नेटवर्क के जरिये जोड़े हुए है।

आम आदमी के लिए भारत में इण्टरनेट का आगमन सन् 15 अगस्त, 1995 ई० को हो गया था, जब विदेश संचार निगम लिमिटेड ने देश में अपनी सेवाओं का आरम्भ किया। प्रारम्भ के कुछ वर्षों तक इण्टरनेट की पहुँच काफी धीमी रही, लेकिन हाल के वर्षों में इसके उपभोक्ता की संख्या में जबरदस्त वृद्धि हुई है। सन् 1999 ई० में टेलीकॉम क्षेत्र निजी कम्पनियों के लिए खोल दिये जाने के परिणामस्वरूप अनेक नये सेवा प्रदाता बेहद प्रतिस्पर्धा विकल्पों के साथ सामने आये। भारत में इण्टरनेट के उपभोक्ताओं की संख्या वर्ष अप्रैल 2010 तक 7 करोड़ की संख्या को पार कर चुकी है। भारत में इण्टरनेट का उपयोग करने वाले विश्व की तुलना में 5% हैं और भारत पूरे विश्व में चौथे स्थान पर है। सरकारी एजेंसियाँ इस बात के लिए प्रयासरत हैं कि आईटी का लाभ सामान्य जन तक पहुँचाया जा सके। भारतीय रेल द्वारा कम्प्यूटरीकृत आरक्षण, आन्ध्र प्रदेश सरकार द्वारा शहरों के मध्य सूचना प्रणाली की स्थापना तथा केरल सरकार के सूचना प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा फास्ट रिलायबिल इन्स्टेण्ट एफीशिएण्ट नेटवर्क फॉर डिस्बर्समेण्ट ऑफ सर्विसेज (फ्रेण्ड्स) जैसी पेशकशों ने इस दिशा में देश के आम नागरिकों की अपेक्षाओं को बहुत बढ़ा दिया है।

भविष्य की दिशाएँ-भविष्य के प्रति इण्टरनेट बहुत ही आश्वस्तकारी दिखाई दे रहा है और आज के आधार पर कहीं अधिक प्रगतिशाली सेवाएँ प्रदान करने वाला होगा। भविष्य के नेटवर्क जिन उपकरणों और साधनों को जोड़ेगे, वे मात्र कम्प्यूटर नहीं होंगे, वरन् माईक्रोचिप से संचालित होने के कारण तकनीकी अर्थों में कम्प्यूटर जैसे होंगे। आने वाले समय में केवल कार्यालय ही नहीं निवास, स्कूल, अस्पताल और हवाई अड्डे एक-दूसरे से जुड़े हुए होंगे। व्यक्ति के पास व्यक्तिगत डिजीटल सहायक ऐसे पाम टॉप होंगे, जो वायरलेस और मोबाइल टेक्नोलॉजियों का उपयोग करके किसी भी उपलब्ध नेटवर्क से स्वतः जुड़ जाएँगे। लोग अपने मोबाइल फोन के जरिये ही विभिन्न देयों का भुगतान कर सकेंगे और कारें हाईवे पर भीड़-भाड़ पर नजर रखने और अपने चालकों को सुविधाजनक रास्ते के बारे में सुझाव देने में समर्थ होंगी। इण्टरनेट व्यक्तियों और समुदायों को परस्पर घनिष्ठ रूप से काम के लिए सक्षम बना देगा और भौगोलिक दूरी के कारण आने वाली बाधाओं को समाप्त कर देगा। कम्प्यूटर रचित समुदायों का उदय हो जाएगा और तब दमनकारी शासकों के लिए विश्व में अपनी लोकप्रियता को सुरक्षित रख पाना सम्भव नहीं रह जाएगा। भविष्य में टेक्नोलॉजी का उपयोग संस्कृति, भाषा और विरासत की विविधता की रक्षा के लिए किया जाएगा तथा भविष्य की राजनीतिक व्यवस्था भी इससे अछूती नहीं रहेगी।

उपसंहार-टेक्नोलॉजियों के लोकप्रिय होते ही सामान्य शिक्षित नागरिकों के लिए भी यह पूरी तरह आसान हो जाएगा कि वह कानून-निर्माण की प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी कर सकें। इसके फलस्वरूप कहीं अधिक समर्थ लोकतन्त्र सम्भव हो सकेगा जिसमें निर्वाचित प्रतिनिधियों के उत्तरदायित्व कुछ अलग प्रकार के होंगे। भविष्य की सबसे बड़ी चुनौती इण्टरनेट टेक्नोलॉजी के दोहन की है जिससे समाज के हर वर्ग तक उसके फायदों की पहुँच सम्भव बनायी जा सके। किसी भी टेक्नोलॉजी का उपयोग हमेशा समूचे समाज के लिए होना चाहिए न कि उसको समाज के कुछ वर्गों को वंचित करने के लिए एक औजार के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। एक बार यह उपलब्धि हासिल की जा सके तो वास्तव में सम्भावनाओं की कोई सीमा ही नहीं है। संक्षेप में, क्रान्ति तो अभी आरम्भ ही हुई है।

भारत की वैज्ञानिक प्रगति

सम्बद्ध शीर्षक

  • भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियाँ
  • भारतीय विज्ञान की देन

प्रमुख विचार-बिन्द–

  1. प्रस्तावना,
  2. स्वतन्त्रता पूर्व और पश्चात् की स्थिति,
  3. विभिन्न क्षेत्रों में हुई वैज्ञानिक प्रगति,
  4. उपसंहार

प्रस्तावना—सामान्य मनुष्य की मान्यता है कि सृष्टि का रचयिता सर्वशक्तिमान ईश्वर है, जो इस संसार का निर्माता, पालनकर्ता और संहारकर्ता है। आज विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है कि वह ईश्वर के प्रतिरूप ब्रह्मा (निर्माता), विष्णु (पालनकर्ता) और महेश (संहारकर्ता) को चुनौती देता प्रतीत हो रहा है। कृत्रिम गर्भाधान से परखनली शिशु उत्पन्न करके उसने ब्रह्मा की सत्ता को ललकारा है, बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना कर और लाखों-करोड़ों लोगों को रोजगार देकर उसने विष्णु को चुनौती दी है तथा सर्व-विनाश के लिए परमाणु बम का निर्माण कर उसने शिव को चकित कर दिया है।

विज्ञान का अर्थ है किसी भी विषय में विशेष ज्ञान विज्ञान मानव के लिए कामधेनु की तरह है जो उसकी सभी कामनाओं की पूर्ति करता है तथा उसकी कल्पनाओं को साकार रूप देता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विज्ञान प्रवेश कर चुका है चाहे वह कला का क्षेत्र हो या संगीत और राजनीति का। विज्ञान ने समस्त पृथ्वी और अन्तरिक्ष को विष्णु के वामनावतार की भाँति तीन डगों में नाप डाला है।।

स्वतन्त्रता पूर्व और पश्चात् की स्थिति–बीसवीं शताब्दी को विज्ञान के क्षेत्र में अनेक प्रकार की उपलब्धियाँ हासिल करने के कारण विज्ञान का युग कहा गया है। आज संसार ने ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में बहुत अधिक प्रगति कर ली है। भारत भी इस क्षेत्र में किसी अन्य वैज्ञानिक दृष्टि से उन्नत कहे जाने वाले देशों से यदि आगे नहीं, तो बहुत पीछे या कम भी नहीं है। 15 अगस्त, सन् 1947 में जब अंग्रेजों की गुलामी का जूआ उतार कर भारत स्वतन्त्र हुआ था, तब तक कहा जा सकता है कि भारत वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर शून्य से अधिक कुछ भी नहीं था। सूई तक का आयात इंग्लैण्ड आदि देशों से करना पड़ता था। लेकिन आज सुई से लेकर हवाई जहाज, जलयान, सुपर कम्प्यूटर, उपग्रह तक अपनी तकनीक और बहुत कुछ अपने साधनों से इस देश में ही बनने लगे हैं। लगभग पाँच दशकों में इतनी अधिक वैज्ञानिक प्रगति एवं विकास करके भारत ने केवल विकासोन्मुख राष्ट्रों को ही नहीं, वरन् उन्नत एवं विकसित कहे जाने वाले राष्ट्रों को भी चकित कर दिया है। भारतीय प्रतिभा का लोहा आज सम्पूर्ण विश्व मानने लगा है।

विभिन्न क्षेत्रों में हुई वैज्ञानिक प्रगति–डाक-तार के उपकरण, तरह-तरह के घरेलू इलेक्ट्रॉनिक सामान, रेडियो-टेलीविजन, कारें, मोटर गाड़ियाँ, ट्रक, रेलवे इंजिन और यात्री तथा अन्य प्रकार के डिब्बे, कल-कारखानों में काम आने वाली छोटी-बड़ी मशीनें, कार्यालयों में काम आने वाले सभी प्रकार के सामान, रबर-प्लास्टिक के सभी प्रकार के उन्नत उपकरण, कृषि कार्य करने वाले ट्रैक्टर, पम्पिंग सेट तथा अन्य कटाई-धुनाई–पिसाई की मशीनें आदि सभी प्रकार के आधुनिक विज्ञान की देन माने जाने वाले साधन आज भारत में ही बनने लगे हैं। कम्प्यूटर, छपाई की नवीनतम तकनीक की मशीनें आदि भी आज भारत बनाने लगा है। इतना ही नहीं, आज भारत में अणु शक्ति से चालित धमन भट्टियाँ, बिजली घर, कल-कारखाने आदि भी चलने लगे हैं तथा अणु-शक्ति का उपयोग अनेक शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए होने लगा है। पोखरण में भूमिगत अणु-विस्फोट करने की बात तो अब बहुत पुरानी हो चुकी है।

आज भारतीय वैज्ञानिक अपने उपग्रह तक अन्तरिक्ष में उड़ाने तथा कक्षा में स्थापित करने में सफल हो चुके हैं। आवश्यकता होने पर संघातक अणु, कोबॉल्ट और हाइड्रोजन जैसे बम बनाने की दक्षता भी भारतीय वैज्ञानिकों ने हासिल कर ली है। विज्ञान-साधित उपकरणों, शस्त्रास्त्रों का आज सैनिक दृष्टि से बहुत अधिक महत्त्व बढ़ गया है। अपने घर बैठकर शत्रु देश के दूर-दराज के इलाकों पर आक्रमण कर पाने की वैज्ञानिक विधियाँ और शस्त्रास्त्र आज विशेष महत्त्वपूर्ण हो गये हैं। धरती से धरती तक, धरती से आकाश तक मार कर सकने वाली कई तरह की मिसाइलें भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा बनायी गयी हैं जो आज भारतीय सेना के पास हैं और अन्य अनेक का विकास-कार्यक्रम अनवरत चल रहा है। युद्धक टैंक, विमान, दूर-दूर तक मार करने वाली तोपें आदि भारत में ही बन रही हैं। कहा जा सकता है कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की सहायता से विश्व के सैन्य अभियान जिस दिशा में चल रहे हैं, भारत भी उस दिशा में किसी से पीछे नहीं है। गणतन्त्र दिवस की परेड के अवसर पर प्रदर्शित उपकरणों से यह स्पष्ट हो जाता है। फिर भी भारत को इस दिशा में अभी बहुत कुछ करना है।

विज्ञान ने भारतीयों के रहन-सहन और चिन्तन-शक्ति को पूर्णरूपेण बदल डाला है। भारत हवाई जहाज, समुद्र के वक्षस्थल को चीरने वाले जहाज, आकाश का सीना चीर कर निकल जाने वाले रॉकेट, कृत्रिम उपग्रह आदि के निर्माण में अपना अग्रणी स्थान रखता है। 19 अप्रैल, 1975 को सोवियत प्रक्षेपण केन्द्र से ‘आर्यभट्ट’ नामक उपग्रह का सफल प्रक्षेपण कर भारत ने अन्तरिक्ष युग में प्रवेश किया और तब से आज तक उसने मुड़कर पीछे नहीं देखा। स्क्वैडून लीडर राकेश शर्मा 1984 ई० में रूसी अन्तरिक्ष यात्रियों के साथ अन्तरिक्ष यात्रा भी कर चुके हैं। भास्कर, ऐपल, इन्सेट, रोहिणी जैसे अनेक उपग्रह अन्तरिक्ष में स्थापित कर भारत विश्व की महाशक्तियों के समकक्ष खड़ा है। इन उपग्रहों से हमें मौसम सम्बन्धी जानकारी मिलती है तथा संचार व्यवस्था भी सुदृढ़ हुई है।

आधुनिक विज्ञान की सहायता से आज भारत ने चिकित्सा क्षेत्र में बड़ी प्रगति की है। एक्सरे, लेसर किरणें आदि की सहायता से अब भारत में ही असाध्य समझे जाने वाले अनेक रोगों के उपचार होने लगे हैं। हृदय-प्रत्यारोपण, गुर्दे का प्रत्यारोपण, जैसे कठिन-से-कठिन माने जाने वाले ऑपरेशन आज भारतीय शल्य-चिकित्सकों द्वारा सफलतापूर्वक सम्पादित किये जा रहे हैं। सभी प्रकार की बहुमूल्य प्राण-रक्षक ओषधियों का निर्माण भी यहाँ होने लगा है।

ऊर्जा के क्षेत्र में भी भारतीय वैज्ञानिकों की प्रगति सराहनीय है। इन्होंने नदियों की मदमस्त चाल को बाँधकर उनके जल का उपयोग सिंचाई और विद्युत निर्माण में किया। सौर ऊर्जा, पवन चक्कियाँ, ताप बिजलीघर, परमाणु बिजलीघर आदि ऊर्जा के क्षेत्र में हमारी प्रगति को दर्शाते हैं। महानगरों में गगनचुम्बी इमारतों का निर्माण, सड़कें, फ्लाईओवर, सब-वे आदि हमारी अभियान्त्रिकीय प्रगति को दर्शाते हैं। भारतीय वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के भीतर से जल, अनेक खनिज और समुद्र को चीर कर तेल के कुएँ भी खोज निकाले हैं। बॉम्बे हाई से तेल को उत्खनन इसका जीता-जागता उदाहरण है।

कुछ एक अपवादों को छोड़कर, भारत में अधिकांश कार्य हाथों के स्थान पर मशीनों से हो सकने सम्भव हो गये हैं। मानव का कार्य अब इतना ही रह गया है कि वह इन मशीनों पर नियन्त्रण रखे। आटा पीसने से लेकर गूंधने तक, फसल बोने से लेकर अनाज को बोरियों में भरने, वृक्ष काटने से लेकर फर्नीचर बनाने तक सभी कार्य भारत में निर्मित मशीनों द्वारा सम्पन्न होने लगे हैं। विज्ञान ने मानव के दैनिक जीवन के लिए भी अनेक क्रान्तिकारी सुविधाएँ जुटायी हैं। रेडियो, फैक्स, रंगीन टेलीविजन, टेपरिकॉर्डर, वी० सी० आर०, सी० डी० प्लेयर, दूरभाष, कपड़े धोने की मशीन, धूल-मिट्टी हटाने की मशीन, कूलर, पंखा, फ्रिज, एयरकण्डीशनर, हीटर आदि आरामदायक मशीनें भारत में ही बनने लगी हैं, जिनके अभाव में मानव-जीवन नीरस प्रतीत होता है। घरों में लकड़ी-कोयले से जलने वाली अँगीठी का स्थान कुकिंग गैस ने और गाँवों में उपलों से जलने वाले चूल्हों का स्थान गोबर गैस संयन्त्र ने ले लिया है। चलचित्रों के क्षेत्र में हमारी प्रगति सराहनीय है। कम्प्यूटर का प्रवेश और उसका विस्तार हमारी तकनीकी प्रगति की ओर इंगित करते हैं।

उपसंहार-घर-बाहर, दफ्तर-दुकान, शिक्षा-व्यवसाय, आज कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जहाँ विज्ञान का प्रवेश न हुआ हो। भारत का होनहार वैज्ञानिक हर दिशा, स्थल और क्षेत्र में सक्रिय रहकर अपनी निर्माण एवं नव-नव अनुसन्धान प्रतिभा का परिचय दे रहा है। इतना ही नहीं भारतीय वैज्ञानिकों ने विदेशों में भी भारतीय वैज्ञानिक प्रतिभा की धूम मचा रखी है। आज भारत में जो कृषि या हरित क्रान्ति, श्वेत क्रान्ति आदि सम्भव हो पायी है, उन सबका कारण विज्ञान और उसके द्वारा प्रदत्त नये-नये उपकरण तथा ढंग ही हैं। आज हम जो कुछ भी खाते-पीते और पहनते हैं, सभी के पीछे किसी-न-किसी रूप में विज्ञान को कार्यरत पाते हैं। विज्ञान को कार्यरत करने वाले कोई विदेशी नहीं, वरन् भारतीय वैज्ञानिक ही हैं। उन्हीं की लगन, परिश्रम और कार्य-साधना से हमारा देश भारत आज इतनी अधिक वैज्ञानिक प्रगति कर सका है। भविष्य में यह और भी अधिक, सारे संसार से बढ़कर वैज्ञानिक प्रगति कर पाएगा इस बात में कतई कोई सन्देह नहीं।

मनोरंजन के आधुनिक साधन

सम्बद्ध शीर्षक

  • मनोरंजन के विविध प्रकार

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना : जीवन में मनोरंजन का महत्त्व,
  2. मनोरंजन के साधनों का विकास,
  3. आधुनिक काल में मनोरंजन के विविध साधन–(क) वैज्ञानिक साधन; (ख) अध्ययन; (ग) ललित कला सम्बन्धी; (घ) खेल सम्बन्धी; (ङ) विविध,
  4. उपसंहार

प्रस्तावना : जीवन में मनोरंजन का महत्त्व-जीवन में मनोरंजन मानो सब्जी में नमक की भाँति आवश्यक है। यह मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है। यह उसे प्रसन्नचित्त बनाने की गारण्टी तथा जीवन के कटु अनुभवों को भुलाने की ओषधि दोनों ही है। एक नन्हा शिशु भी इसको आकांक्षी है और एक वयोवृद्ध व्यक्ति के लिए भी यह उतना ही महत्त्वपूर्ण है। बच्चों को बेवजह रोना इस बात का संकेत है कि वह उकता रहा है। यदि वृद्ध सनकी और चिड़चिड़े हो उठते हैं तो उसका कारण भी मनोरंजन का अभाव ही है।

मनोरंजन वस्तुत: हमारे जीवन की सफलता का मूल है। मनोरंजनरहित जीवन हमारे लिए भारस्वरूप बन जाएगा। यह केवल हमारे मस्तिष्क के लिए ही नहीं, शारीरिक स्वास्थ्य-वृद्धि के लिए भी परमावश्यक है। मनोरंजन के विविध रूप-खेलकूद, अध्ययन व सुन्दर दृश्यों के अवलोकन से हमारा हृदय असीम आनन्द से भर उठता है। इससे शरीर के रक्त-संचार को नवीन गति और स्फूर्ति मिलती है तथा हमारे स्वास्थ्य की अभिवृद्धि भी होती है।

मनोरंजन के साधनों का विकास मनोरंजन की इसी गौरव-गरिमा के कारण बहुत प्राचीन काल से ही मानव-समाज मनोरंजन के साधनों का उपयोग करता आया है। शिकार खेलना, रथ दौड़ाना आदि विविध कार्य प्राचीन काल में मनोरंजन के प्रमुख साधन थे, परन्तु आजकल युग के परिवर्तन के साथ-साथ मनोरंजन के साधन भी बदल गये हैं। विज्ञान ने मनोरंजन के क्षेत्र में क्रान्ति कर दी है। आज कठपुतलियों का नाचे जनसमाज की आँखों के लिए उतना प्रिय नहीं रहा, जितना कि सिनेमा के परदे पर हँसते-बोलते नयनाभिराम दृश्य।

आधुनिक काल में मनोरंजन के विविध साधन–
(क) वैज्ञानिक साधन–सिनेमा, रेडियो, टेलीविजन आदि विज्ञान प्रदत्त मनोरंजन के साधनों ने आधुनिक जनसमाज में अत्यन्त लोकप्रियता प्राप्त कर ली है। साप्ताहिक अवकाश के दिनों में जनता की भारी भीड़ सिनेमाघरों की खिड़की पर दृष्टिगोचर होती है। रेडियो तो मनोरंजन का पिटारा है। इसे अपने घर में रख सुन्दर गाने, भाषण, समाचार आदि सुन सकते हैं। टेलीविजन तो इससे भी आगे बढ़ गया है। इसमें तो बोलने वाले को सशरीर अपने नेत्रों के सम्मुख देखा जा सकता है तथा विविध कार्यक्रमों, खेलों आदि के सजीव प्रसारण को देखकर पर्याप्त मनोरंजन किया जा सकता है।

(ख) अध्ययन–साहित्य का अध्ययन भी मनोरंजन की श्रेणी में आता है। यह हमें मानसिक आनन्द देता है और चित्त को प्रफुल्लित करता है। पत्र-पत्रिकाएँ और उपन्यास रेल-यात्रा के दौरान बड़े सहायक होते हैं। साहित्य द्वारा होने वाले मनोरंजन से मन की थकान ही नहीं मिटती, ज्ञान की अभिवृद्धि भी होती है।

(ग) ललित-कला सम्बन्धी--संगीत, नृत्य, अभिनय, चित्रकला आदि ललित-कलाएँ भी मनोरंजन के उत्कृष्ट साधन हैं। संगीत के मधुर स्वरों में आत्म-विस्मृत करने की अपूर्व शक्ति होती है।

(घ) खेल सम्बन्धी–ललित-कलाओं के साथ-साथ खेल भी मनोरंजन के प्रिय विषय हैं। हॉकी, फुटबॉल, क्रिकेट, टेनिस, बैडमिण्टन आदि खेलों से खिलाड़ी एवं दर्शकों का बहुत मनोरंजन होता है। विद्यार्थी वर्ग के लिए खेल बहुत ही हितकर हैं। इनके द्वारा उनका मनोरंजन ही नहीं होता, अपितु स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। बड़े-बड़े नगरों में तो इस प्रकार के खेलों को देखने के लिए हजारों की संख्या में दर्शकगण पैसा व समय खर्च करके आनन्द लूटते हैं। गर्मी की साँय-साँय करती लूओं से भरे वातावरण में घर बैठकर साँप-सीढ़ी, लूडो, ताश, कैरम, शतरंज खूब खेले जाते हैं। ये खेल प्रायः ऐसे लोगों का मनोरंजन अधिक करते हैं, जो घर से बाहर निकलना पसन्द ही नहीं करते या कम निकलते हैं।

(ङ) विविध-कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं, जिन्हें अभीष्ट कार्य को पूर्ण करने में ही आनन्द की प्राप्ति हो जाती है। कुछ लोग अपने कार्य-स्थलों से लौटने के बाद अपने उद्यान को ठीक प्रकार से सँवारने में ही घण्टों व्यतीत कर देते हैं, इससे ही इनका मनोरंजन हो जाती है। कुछ लोगों का मनोरंजन फोटोग्राफी होता है। गले में कैमरा लटकाया और चल दिये घूमने। कहीं मन-लुभावना आकर्षक-सी दृश्य दिखाई दिया और उन्होंने उसे कैमरे में कैद कर लिया। इसी से मन प्रफुल्लित हो उठा। कुछ लोगों का शौक होता है देश-विदेश की टिकटें एकत्रित करने का। इस संग्रह में ही उनका अधिकांश समय बीत जाता है। पुराने लिफाफों पर से टिकटें उतारने में ही उन्हें आनन्द आता है।

मेले-तमाशे, सैर-सपाटे, यात्रा-देशाटन आदि मनोरंजन के विविध साधन हैं। इनसे हमारा मनोरंजन तो होता ही है, साथ-ही-साथ हमारा व्यावहारिक ज्ञान भी बढ़ता है। देशाटन द्वारा विविध स्थान और वस्तुएँ देखने को प्राप्त होती हैं। राहुल सांकृत्यायन तो देशाटन द्वारा अर्जित ज्ञान के कारण ही महापण्डित कहलाये और देशाटन से प्राप्त होने वाले ज्ञान और मिलने वाले मनोरंजन पर ‘घुमक्कड़-शास्त्र’ ही लिख डाला। सन्तों ने तो हर काम को हँसते-खेलते अर्थात् मनोरंजन करते हुए करने को कहा है। यहाँ तक कि ध्यान (Meditation) भी मन को प्रसन्न करते हुए किया जा सकता है—हसिबो खेलिबो धरिबो ध्यानं ।

उपसंहार निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जीवन में अन्य कार्यों की भाँति मनोरंजन भी उचित मात्रा में होना ही चाहिए। सीमा से अधिक मनोरंजन समय जैसी अमूल्य सम्पत्ति को नष्ट करता है। जिस प्रकार आवश्यकता से अधिक भोजन अपच का कारण बन शरीर के रुधिर-संचार में विकार उत्पन्न करता है, उसी प्रकार अधिक मनोरंजन भी हानिकारक होता है। हमें चाहिए कि उचित मात्रा में मनोरंजन करते हुए अपने जीवन को उल्लासमय और सरल बनायें।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi विज्ञान सम्बन्धी निबन्ध help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi विज्ञान सम्बन्धी निबन्ध, drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Franchise and Electoral Methods

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Franchise and Electoral Methods (मताधिकार एवं निर्वाचन-प्रणालियाँ) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Franchise and Electoral Methods (मताधिकार एवं निर्वाचन-प्रणालियाँ).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 8
Chapter Name Franchise and Electoral Methods
(मताधिकार एवं निर्वाचन-प्रणालियाँ)
Number of Questions Solved 38
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Franchise and Electoral Methods (मताधिकार एवं निर्वाचन-प्रणालियाँ)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
वयस्क मताधिकार से आप क्या समझते हैं? इसके गुण तथा दोषों की विवेचना कीजिए। [2009, 10]
या
मताधिकार का क्या अर्थ है? मताधिकार के प्रकारों की व्याख्या कीजिए।
या
सार्वभौमिक मताधिकार के पक्ष में चार तर्क दीजिए। [2010]
या
वयस्क मताधिकार से आप क्या समझते हैं? इसके पक्ष और विपक्ष में तर्क प्रस्तुत कीजिएं। [2013]
या
वयस्क मताधिकार का अर्थ बताइए तथा वर्तमान समय में इसकी आवश्यकता के पक्ष में तर्क दीजिए। [2016]
या
वयस्क मताधिकार के समर्थन का मुख्य आधार क्या है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए। [2007]
या
लोकतान्त्रिक शासन में वयस्क मताधिकार का महत्त्व समझाइए। [2015]
उत्तर
मताधिकार का अर्थ एवं परिभाषा
‘मताधिकार’ शब्द में दो शब्द सम्मिलित हैं- ‘मत’ और ‘अधिकार’। इसका आशय है- राय या मत प्रकट करने का अधिकार। नागरिकशास्त्र के अन्तर्गत मताधिकार का अपना विशिष्ट अर्थ है। इसके अनुसार देश के नागरिकों को शासन संचालन हेतु अपने उम्मीदवारों को चुनने का जो अधिकार प्राप्त होता है, उसे ही ‘मताधिकार’ कहते हैं। यह अधिकार नागरिक का मौलिक अधिकार माना गया है। केवल कुछ विशेष परिस्थितियों में ही नागरिक को मताधिकार से वंचित किया जा सकता है। मताधिकार की परिभाषा देते हुए गार्नर ने लिखा है-“मताधिकार वह अधिकार है जिसे राज्य देश के हित-साधक योग्य व्यक्तियों को प्रदान करता है।” मताधिकार की प्राप्ति के लिए आयु, नागरिकता, निवासस्थान आदि योग्यताएँ महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। कुछ देशों में लिंग व शिक्षा को भी मताधिकार की शर्त माना गया है।

मताधिकार के प्रकार
मताधिकार दो प्रकार का हो सकता है-

  1. सीमित मताधिकार तथा
  2. वयस्क मताधिकार।

1. सीमित मताधिकार
सीमित मताधिकार का अर्थ है कि सम्पूर्ण समाज के कल्याण को ध्यान में रखकर यह अधिकार केवल ऐसे लोगों को ही दिया जाना चाहिए, जिनमें इसके प्रयोग की योग्यता व क्षमता हो। यह मताधिकार शिक्षा, सम्पत्ति या पुरुषों को प्रदान करने तक सीमित किया जा सकता है। ब्लण्टशली, मिल, हेनरीमैन, सिजविक, लैकी इसी विचार के समर्थक हैं। इन विचारकों का मत है कि सम्पूर्ण समाज के हित को ध्यान में रखते हुए मताधिकार केवल ऐसे लोगों को दिया जाना चाहिए, जो मतदान के महत्त्व को समझते हों तथा मतदान करते समय योग्य तथा सक्षम उम्मीदवार की पहचान कर सकें। ये विचारक सम्पत्ति, शिक्षा अथवा लिंग को ही आधार मानकर मतदान को सीमित करना चाहते हैं, इसलिए इसे ‘सीमित मताधिकार’ कहा जाता है। सीमित मताधिकार के समर्थक निम्नलिखित आधारों पर मतदान को सीमित करना चाहते हैं-

(अ) सम्पत्ति का आधार – सम्पत्ति को मताधिकार का आधार मानने वाले विचारक कहते हैं कि मताधिकार केवल उन नागरिकों को ही प्राप्त होना चाहिए, जिनके पास कुछ सम्पत्ति हो तथा जो कर देते हों। यदि सम्पत्तिविहीन या कर न देने वालों को यह अधिकार दिया गया तो वे ऐसे व्यक्तियों को चुनेंगे जो कानूनों द्वारा धनिकों की सम्पत्ति का अधिग्रहण करने का प्रयास करेंगे तथा उने पर अधिक-से-अधिक कर लगाएँगे।

(ब) शिक्षा का आधार – शिक्षा के समर्थक मानते हैं कि निरक्षर अथवा अशिक्षित व्यक्तियों को मताधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। निरक्षर व्यक्तियों में समझदारी नहीं होती है तथा वे राजनीति को नहीं समझते हैं। वे जाति, धर्म व सम्बन्धों से प्रभावित हो जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप वे गलत निर्णय भी ले सकते हैं।

2. वयस्क या सार्वभौमिक मताधिकार
कुछ विद्वानों ने मताधिकार को प्रत्येक नागरिक का प्राकृतिक अधिकार स्वीकार किया है तथा शिक्षा, लिंग, सम्पत्ति एवं अन्य किसी भेदभाव के बिना एक निश्चित आयु तक के सभी व्यक्तियों को मताधिकार प्राप्त होने का विचार प्रतिपादित किया है। मत की इस व्यवस्था को ही वयस्क मताधिकार कहते हैं। वयस्क मताधिकार क्योंकि सभी वयस्क स्त्री-पुरुषों को प्राप्त रहता है, इसलिए इसे सार्वभौम मताधिकार भी कहा जाता है।
विभिन्न राज्यों में वयस्क होने की आयु अलग-अलग है। उदाहरणार्थ-भारत, इंग्लैण्ड तथा अमेरिका में 18 वर्ष पर, स्विट्जरलैण्ड में 20 वर्ष पर, नार्वे में 23 वर्ष पर और हॉलैण्ड में 25 वर्ष पर व्यक्ति वयस्क माना जाता है। साधारणतया पागल, दिवालिये, अपराधी तथा विदेशी मताधिकार से वंचित रखे जाते हैं।

वयस्क मताधिकार के गुण (पक्ष में तर्क)
संसार के अधिकाश देशों में वयस्क मताधिकार प्रचलित है। वयस्क मताधिकार के निम्नलिखित गुणों के कारण इसको मान्यता प्रदान की गयी है-

  1. सभी के हितों की रक्षा – वयस्क मताधिकार द्वारा सभी वर्गों के हितों की रक्षा होती है। यह लोक-सत्ता की वास्तविक अभिव्यक्ति है। गार्नर के अनुसार, “ऐसी सत्ता की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति मताधिकार में ही हो सकती है।”
  2. विकास के समान अवसर – मिल ने कहा है कि “प्रजातन्त्र मनुष्य की समानता को स्वीकार करता है और राजनीतिक समानता तभी हो सकती है जब सभी नागरिकों को मताधिकार दे दिया जाये।
  3. राजनीतिक शिक्षा – वयस्क मताधिकार समस्त नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के राजनीतिक जागृति तथा सार्वजनिक शिक्षा प्रदान करता है।
  4. सभी प्रकार के अधिकार व सम्मान की सुरक्षा – मताधिकार के बिना न तो नागरिकों को अन्य अधिकार प्राप्त होंगे और न उनका सम्मान ही सुरक्षित रहेगा। मताधिकार मिलने से नागरिकों को अन्य नागरिक अधिकार भी स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं।
  5. शासन-कार्यों में रुचि – मताधिकार प्राप्त होने से नागरिक शासन-कार्यों में रुचि लेते हैं, जिससे राष्ट्र शक्तिशाली बनता है और नागरिकों में स्वदेश-प्रेम की भावना उत्पन्न होती है।
  6. लोकतन्त्र का आधार – वयस्क मताधिकार को लोकतन्त्र की नींव तथा आधार कहा जाता है, क्योंकि प्रजातान्त्रिक शासन में राज्य की वास्तविक प्रभुसत्ता मतदाताओं के हाथ में ही होती है।
  7. अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व – सभी नागरिकों को मताधिकार प्राप्त होने से समाज के बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक सभी वर्गों को शासन में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है; अतः समाज के सभी वर्ग सन्तुष्ट रहते हैं।
  8. निरंकुशता पर रोक – वयस्क मताधिकार शासन की निरंकुशता को रोकने के लिए अवरोध का काम करता है।

वयस्क मताधिकार के दोष (विपक्ष में तर्क)
कुछ विद्वानों ने वयस्क मताधिकार की निम्नलिखित दोषों के आधार पर आलोचना की है-

1. मताधिकार का दुरुपयोग सम्भव – विद्वानों का तर्क है कि मात्र वयस्कता के आधार पर सभी लोगों को मताधिकार देने से इस अधिकार के दुरुपयोग की सम्भावना बढ़ जाती है।

2. अयोग्य व्यक्तियों का चुनाव सम्भव – लॉवेल के शब्दों में, “अज्ञानियों को मताधिकार दो, आज ही उनमें अराजकता फैल जाएगी और कल ही उन पर निरंकुश शासन होने लगेगा।’ वयस्क मताधिकार प्रणाली में यदि मतदाता अशिक्षित व अज्ञानी हों तो यही सम्भावना बलवती हो जाती है कि वे अयोग्य व्यक्तियों का चुनाव करेंगे, जो प्रजातन्त्र के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है।

3. धनी वर्ग के हित असुरक्षित – वयस्क मताधिकार की दशा में बहुसंख्यक निर्धन तथा मजदूर जनता प्रतिशोध की भावना से ऐसे प्रतिनिधियों का चुनाव करती है जिनसे धनिकों व पूँजीपतियों के हितों को हानि पहुँचने की सम्भावना रहती है।

4. वोटों की खरीद – वयस्क मताधिकार का एक बहुत बड़ा दोष यह है कि जनता की निर्धनता तथा अज्ञानता का लाभ उठाकर अनेक प्रत्याशी उनके वोटों को धन या अन्य सुविधाओं का लालच देकर खरीद लेते हैं।

5. चुनाव में भ्रष्टाचार – वयस्क मताधिकार की स्थिति में मतदाताओं की संख्या इतनी अधिक होती है कि चुनाव में लोग अनेक प्रकार के भ्रष्ट साधन अपनाने लगते हैं; जैसे—कुछ कमजोर वर्ग के लोगों को वोट डालने से बलपूर्वक रोकना, मतदाताओं के फर्जी नाम दर्ज कराना, किसी के नाम का वोट किसी अन्य के द्वारा डाल देना आदि।

6. रूढ़िवादिता – सामान्य जनता में रूढ़िवादी व्यक्तियों की संख्या अधिक होती है। ये लोग सुधारों तथा प्रगतिशील विचारों का विरोध करते हैं। अत: यदि वयस्क मताधिकार दिया गया तो शासन रूढ़िवादी तथा प्रगतिशील विचारों के विरोधी व्यक्तियों का केन्द्र बन जाएगा। इसीलिए हेनरीमैन ने कहा कि “वयस्क मताधिकार सम्पूर्ण प्रगति का अन्त कर देगा।”

हालाँकि वयस्क मताधिकार के विरोध में कतिपय तर्क दिये गये हैं, परन्तु ये तर्क इसके समर्थन में दिये गये तर्को की तुलना में गौण और महत्त्वहीन हैं। व्यावहारिक अनुभव यह है कि अनेक बार अशिक्षित व्यक्तियों ने भी अपने मताधिकार का प्रयोग अत्यन्त बुद्धिमान व्यक्ति की तुलना में अधिक विवेक के साथ किया है; अत: शिक्षा के आधार पर मताधिकार को सीमित किया जाना ठीक नहीं है। वयस्क मताधिकार का सर्वत्र अपनाया जाना इस बात का प्रमाण है कि वह प्रजातन्त्र की भावनाओं के सर्वथा अनुकूल और अनिवार्य है। लॉस्की के इस कथन में सत्य निहित है, ”वयस्क मताधिकार का कोई विकल्प नहीं है।”

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Franchise and Electoral Methods

प्रश्न 2.
स्त्री-मताधिकार के पक्ष एवं विपक्ष में तर्क दीजिए।
या
महिला मताधिकार के पक्ष और विपक्ष में दो-दो तर्क दीजिए। (2015)
उत्तर
कुछ विद्वानों का विचार है कि मताधिकार स्त्री-पुरुष दोनों को मिलना चाहिए, जब कि अनेक लोग स्त्री-मताधिकार के विरोधी हैं। ऐसे लोग स्त्री-मताधिकार के विपक्ष में विभिन्न तर्क प्रस्तुत करते हैं-
स्त्री-मताधिकार के विपक्ष में तर्क
सामान्यतः स्त्री-मताधिकार के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं-

  1. पारिवारिक जीवन पर कुप्रभाव – स्त्री-मताधिकार से स्त्रियों का कार्यक्षेत्र बढ़ जाता है, फलस्वरूप वे परिवारिक कार्यों के प्रति उदासीन हो जाती हैं। इससे पारिवारिक जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
  2. मत की मात्र पुनरावृत्ति – ऐसा देखा गया है कि स्त्रियाँ अपने पति के परामर्शानुसार ही अपना मत प्रयोग करती हैं। वे स्वविवेक से अपने मत का प्रयोग नहीं करतीं।
  3. राजनीति के प्रति उदासीनता – प्रायः स्त्रियाँ राजनीति के प्रति उदासीन रहती हैं। उनकी तरफ से भले ही कोई-सा दल शासन करे, इससे उन्हें अधिक सरोकार नहीं होता।
  4. शारीरिक दुर्बलता – ऐसा माना जाता है कि स्त्रियाँ शारीरिक रूप से पुरुष की अपेक्षा कम शक्तिशाली होती हैं। उन्हें मताधिकार प्रदान करने का कोई लाभ नहीं। वे कदम-से-कदम मिलाकर पुरुष का साथ नहीं दे सकतीं।
  5. आत्मविश्वास की कमी – परम्परा से स्त्रियाँ पुरुषों पर निर्भर रहती आयी हैं। उनमें आत्म निर्भरता तथा आत्मविश्वास का अभाव होता है।
  6. भावुक प्रवृत्ति – स्त्रियाँ प्रायः भावुक होती हैं। भावुकता की यह प्रवृत्ति राजनीतिक व्यवहार के लिए उपयुक्त स्थिति नहीं है।
  7. भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन – आज की दलगत राजनीति में भ्रष्ट उपायों का प्रयोग बढ़ जाने से स्त्रियों के लिए यह क्षेत्र उपयुक्त नहीं रह गया है।

स्त्री-मताधिकार के पक्ष में तर्क
उपर्युक्त तक के बावजूद स्त्री-मताधिकार के विरोध में आज बहुत कम लोग हैं। लगभग सभी देशों ने आज स्त्री-मताधिकार प्रदान किया हुआ है। स्त्री-मताधिकार के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं-

1. मताधिकार के सम्बन्ध में लिंग-भेद अनुचित – लिंग-भेद एक प्राकृतिक स्थिति है। इस आधार को मताधिकार का आधार बनाना नितान्त अनुचित है। स्त्रियाँ भी पुरुषों के समान स्वतन्त्र, बुद्धिमान व नैतिक गुणों से श्रेष्ठ होती हैं। अत: मात्र स्त्री होने के कारण उन्हें मताधिकार से वंचित करना अनुचित ही नहीं, वरनु अन्यायपूर्ण भी है।

2. पारिवारिक जीवन पर कोई बुरा प्रभाव नहीं – स्त्री-मताधिकार से पारिवारिक जीवन पर कुप्रभाव पड़ता है, इस मत में कोई औचित्य नहीं। वास्तविकता यह है कि स्त्री-मताधिकार से स्त्रियों का दृष्टिकोण व्यापक होता है, उनमें विद्यमान संकुचित विचारधारा का अन्त होता है। उनका वैचारिक क्षेत्र पारिवारिक स्तर से उठकर राष्ट्रीय स्तर तक बढ़ जाता है।

3. राजनीति पर स्वस्थ प्रभाव – यह कहना सर्वथा अनुचित है कि स्त्रियाँ राजनीति के प्रति उदासीन होती हैं। सच तो यह है कि उनके राजनीतिक क्षेत्र में उतर आने से राजनीति में स्वस्थ परम्पराओं का उदय होता है। स्त्रियाँ स्वभावतः शान्ति-प्रिय, व्यवस्था-प्रिय, दयालु तथा सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण रखने वाली होती हैं। स्त्रियों के इन मानवीय गुणों के कारण राजनीति में व्याप्त कठोरता, निर्दयता, बेईमानी, चालबाजी आदि में ह्रास होगा तथा राजनीति में नये आयाम स्थापित होंगे।

4. स्त्रियों को दुर्बल मानना अतार्किक – स्त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा निर्बल होती हैं, इस तर्क में अधिक तथ्य नहीं है। आज प्रत्येक क्षेत्र में स्त्रियाँ न केवल पुरुष के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चल रही हैं, वरन् वे पुरुषों से आगे निकलने के प्रयास में हैं। अतः स्त्रियों को निर्बल मानकर उन्हें मताधिकार से वंचित कर देने का समर्थन करने वाले मिथ्या भ्रम के शिकार हैं।

5. शासन प्रबन्ध हेतु पूर्ण सक्षम – यह मत कि स्त्रियाँ अपने राजनीतिक अधिकारों का सदुपयोग नहीं कर सकतीं और उन्हें मताधिकार नहीं दिया जाना चाहिए, सर्वथा हास्यास्पद है। इतिहास साक्षी है कि स्त्रियों ने सफल शासिका होने के प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। कैथरीन, एलिजाबेथ विक्टोरिया, इन्दिरा गाँधी, मारग्रेट थैचर, भण्डारनायके, बेनजीर भुट्टो, एक्विनो, बेगम खालिदा जिया, जयललिता आदि महिलाओं ने न केवल शासन किया है, वरन् यह सिद्ध कर दिया है कि नारी होना किसी भी प्रकार से कोई दोष नहीं है। नारी प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष की समानता कर सकती है। अतः स्त्री-मताधिकार का विरोधी मत रखना भ्रामक है।

6. आज के युग के सर्वथा अनुकूल – स्त्री-मताधिकार वर्तमान परिस्थितियों में नितान्त आवश्यक हो गया है। आज स्त्रियाँ जीवन के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में पदार्पण कर चुकी हैं। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में तो स्त्री-मताधिकार अपरिहार्य ही है। स्त्रियों का कार्यक्षेत्र बढ़ गया है। ऐसा भी नहीं है कि स्त्री-मताधिकार प्रदान कर देने से उनके प्राकृतिक कार्यों में कोई रुकावट आती हो। यदि कोई महिला किसी देश की प्रधानमन्त्री है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उसका कोई पारिवारिक जीवन ही नहीं। घर में वह पत्नी, माता, बहन, पुत्री आदि रूपों में अपनी पारम्परिक महत्ता बनाये हुए है। अतः इस आधार पर उनको मताधिकार से वंचित करना गलत होगा।

उपर्युक्त पक्ष – विपक्षीय मतों का विवेचन करने पर एक बात जो विशेष रूप से स्पष्ट होती है, वह यह है कि स्त्री-मताधिकार के विपक्ष में दिये गये लगभग सभी तर्क अतार्किक, भ्रामक व पक्षपातपूर्ण हैं। आज स्त्री-मताधिकार लाभप्रद ही नहीं, वरन् परमावश्यक भी है, तभी लोकतन्त्र सुरक्षित रह सकता है। इसी कारण आज लगभग सभी देशों ने स्त्री-मताधिकार प्रदान किया हुआ है।

प्रश्न 3.
प्रतिनिधित्व के विभिन्न तरीकों का परीक्षण कीजिए। [2008]
या
आनुपातिक प्रतिनिधित्व से आप क्या समझते हैं? इसकी विभिन्न प्रणालियों की व्याख्या कीजिए। [2012]
या
‘आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के गुणों एवं दोषों की विवेचना कीजिए। [2010, 13, 14]
उत्तर
अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र में प्रतिनिधित्व की विभिन्न प्रणालियों की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। सम्पूर्ण प्रणालियों में बहुमत प्रणाली को आशातीत समर्थन प्राप्त हुआ है। परन्तु इसमें सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें अल्पसंख्यकों की समुचित प्रतिनिधित्व की स्थिति का अभाव पाया जाता है। इस दोष को दूर करने के उद्देश्य से ही अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए अन्य प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है।

प्रतिनिधित्व की प्रणालियाँ
आधुनिक काल में अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए निम्नलिखित प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है-

  1. आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली।
  2. सीमित मत प्रणाली।
  3. संचित मत. प्रणाली।
  4. एकल मत प्रणाली।
  5. पृथक् निर्वाचन प्रणाली।
  6. सुरक्षित स्थानयुक्त संयुक्त प्रणाली।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व
अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए जिन उपायों का साधारणत: प्रयोग किया जाता है। उनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध उपाय आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional Representation) प्रणाली है। इस प्रणाली का मूल उद्देश्य राज्य के सभी राजनीतिक दलों के हितों का ध्यान रखना एवं उन्हें न्याय प्रदान करना है, जिससे प्रत्येक दल को व्यवस्थापिका में आनुपातिक दृष्टि से लगभग उतना प्रतिनिधित्व अवश्य प्राप्त हो सके, जितना कि न्यूनतम उस वर्ग के लिए युक्तिसंगत हो। प्रतिनिधित्व की इस योजना को जन्म देने वाले 19वीं शताब्दी के एक अंग्रेज विद्वान थॉमस हेयर (Thomas Haire) थे। उन्होंने सन् 1831 ई० में इस प्रणाली का सूत्रपात किया इसीलिए इसे ‘हेयर प्रणाली भी कहते हैं। वर्तमान काल में आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का प्रयोग अनेक रूपों में किया जा रहा है। प्रो० सी० एफ० स्ट्राँग के शब्दों में-“आनुपातिक प्रतिनिधित्व का पृथक् रूप में कोई भी अर्थ नहीं है क्योंकि इसके अनेक प्रकार हैं। वास्तव में इतने अधिक, जितने राज्यों ने उसे अपनाया है और सिद्धान्त रूप में उससे भी अधिक।’ आनुपातिक प्रतिनिधित्व के ये सभी प्रकार इन दो रूपों में विभक्त किए जा सकते हैं-

  1. एकल संक्रमणीय मत प्रणाली (Single Transferable Vote System)
  2. सूची प्रणाली (List System)

1. एकल संक्रमणीय मत प्रणाली – इस प्रणाली में बहुसदस्यीय निर्वाचन-क्षेत्रों का प्रयोग किया जाता है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से तीन या इससे अधिक प्रतिनिधि चुने जा सकते हैं एक निर्वाचन-क्षेत्र से चाहे कितने ही प्रतिनिधि चुने जाने हों किन्तु प्रत्येक मतदाता को केवल एक ही मत देने का अधिकार होता है। परन्तु वह मत-पत्र पर अपनी पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी और इससे अधिक पसन्द का उल्लेख उतनी संख्या में करता है, जितने उम्मीदवार चुने जाने होते हैं। मतदान समाप्त हो जाने पर यह देखा जाता है कि निर्वाचन-क्षेत्र में कुल कितने मत डाले गए और यह संख्या ज्ञात हो जाने पर निश्चित निर्वाचक अंक (Electoral Quota) निकाला जाता है। निश्चित मत-संख्यो मतों की वह संख्या है जो उम्मीदार को विजयी घोषित किए जाने के लिए आवश्यक है। निश्चित मत-संख्या ज्ञात करने का सूत्र इस प्रकार है-
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Franchise and Electoral Methods 1
निश्चित मत संख्या निकाल लेने के बाद सब मतदाताओं की पहली पसन्द (First Preference) के मतपत्र (Ballot-papers) गिन लिए जाते हैं। जिन उम्मीदवारों को निश्चित संख्या के बराबर या उससे अधिक पहली पसन्द के मत प्राप्त होते हैं, वे निर्वाचित घोषित कर दिए जाते हैं। परन्तु यदि इस प्रकार सब स्थानों की पूर्ति नहीं हो पाती है, तो सफल उम्मीदवारों के अतिरिक्त मत (Surplus Votes) अन्य उम्मीदवारों को हस्तान्तरित कर दिए जाते हैं और उन पर अंकित दूसरी पसन्द (Second Preference) के अनुसार विभाजित किए जाते हैं। यदि इस पर भी सब स्थानों की पूर्ति नहीं होती है तो सफल उम्मीदवारों की तीसरी, चौथी, पाँचवीं पसन्द भी इस प्रकार हस्तान्तरित की जाती है और यदि उसके बाद भी कुछ स्थान रिक्त रह जाते हैं तो जिन उम्मीदवारों को सबसे कम मत प्राप्त हुए हैं, वे बारी-बारी से पराजित घोषित कर दिए जाते हैं। और उनके प्राप्त-मत दूसरी, तीसरी, चौथी इत्यादि पसन्द के अनुसार हस्तान्तरित कर दिए जाते हैं। यह प्रक्रिया उस समय तक चलती रहती है, जब तक कि रिक्त स्थानों की पूर्ति न हो जाए। इस प्रणाली का स्पष्ट उद्देश्य यही है कि एक भी मत व्यर्थ न जाए। यह प्रणाली अत्यन्त जटिल है। इसीलिए इसका प्रयोग बहुत कम देशों में होता है, तथापि स्वीडन, फिनलैंड, नार्वे, डेनमार्क आदि देशों में यही प्रणाली प्रचलित है।

2. सूची प्रणाली – सूची प्रणाली आनुपातिक प्रतिनिधित्व का दूसरा रूप है। इस प्रणाली के अन्तर्गत सभी प्रत्याशी अपने-अपने राजनीतिक दलों के अनुसार अलग-अलग सूचियों में सूचीबद्ध किए जाते हैं और प्रत्येक दल अपने उम्मीदवारों की सूची प्रस्तुत करता है, जिसमें दिए गए नामों की संख्या उस निर्वाचन-क्षेत्र से चुने जाने वाले प्रतिनिधियों की संख्या से अधिक नही हो सकती है। मतदाता अपने मत अलग-अलग उम्मीदवारों को नहीं, अपितु किसी भी दल की पूरी-की-पूरी सूची के पक्ष में देते हैं। इसके बाद डाले गए मतों की कुल संख्या को निर्वाचित होने वाले प्रतिनिधियों की संख्या से भाग देकर निर्वाचक अंक (Electoral Quota) निकाल लिया जाता है। तदुपरान्त एक दल द्वारा प्राप्त मतों की संख्या को निर्वाचक अंक से भाग दिया जाता है और इस प्रकार यह निश्चय किया जाता है कि उस दल को कितने स्थान मिलने चाहिए उदाहरणार्थ किसी राज्य से 50 प्रतिनिधि चुने जाते हैं और कुल वैध मतों की संख्या 2,00,000 है तो [latex]\frac { 200000 }{ 50 }[/latex] = 4,000 निर्वाचन अंक हुआ। ऐसी स्थिति में किसी राजनीतिक दल ‘अ ब स’ को 21,000 मत प्राप्त हुए हैं, तब (21,000/4,000=5.25) उस दल के 5 प्रत्याशी विजयी घोषित होंगे। सभी सूची प्रणालियों का आधारभूत सिद्धान्त यही है, परन्तु विभिन्न देशों में थोड़ा-बहुत परिवर्तन अथवा संशोधन करके इसे नए-नए रूप दिए गए हैं और इस प्रकार आज सूची प्रणाली के अनेक प्रकार पाए जाते हैं। ऐसी स्थिति में सूची प्रणाली का कोई सार्वभौमिक सिद्धान्त नहीं है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के गुण
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली व्यवस्थापक-मण्डल में अल्पमतों को प्रतिनिधित्व प्रदान करने का एक सरल उपाय है। इस प्रणाली के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  1. यह प्रणाली अल्पसंख्यक दल को उसकी शक्ति के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्रदान करती है। जिसके फलस्वरूप यह व्यवस्थापिका का यथार्थ प्रतिबिम्ब बन जाती है तथा प्रत्येक अल्पसंख्यक वर्ग सन्तुष्ट हो जाता है।
  2. आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अन्तर्गत व्यवस्थापिका में साधारणतया किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हो पाता है। इस प्रकार यह प्रणाली अल्पमत दलों को बहुमत दल की स्वेच्छाचारिता से बचाकर शासन में उचित भागीदारी का अवसर प्रदान करती है।
  3. आनुपातिक प्रतिनिधित्व के परिणामस्वरूप एक प्रकार की राजनीतिक शिक्षा भी प्राप्त होती है। क्योंकि मतदाताओं के लिए अपना मत देने से पहले विभिन्न उम्मीदवारों तथा विभिन्न दलों की नीतियों के सम्बन्ध में विचार करना आवश्यक हो जाता है।
  4. यह प्रणाली मताधिकार को सार्थक एवं व्यावहारिक बनाती है क्योंकि इसमें प्रत्येक मतदाता को अनेक उम्मीदवारों में से चुनाव की स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। इसमें किसी मतदाता का मत व्यर्थ नहीं जाता है, उससे किसी-न-किसी उम्मीदवार के निर्वाचन में सहायता अवश्य मिलती हैं शुल्ज (Schulz) का मत है- “एकल संक्रमणीय मत पद्धति निर्वाचकों को अपनी पसन्द के उम्मीदवार चुनने में सबसे अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करती है।”
  5. आनुपातिक प्रणाली में उच्च व्यवस्थापिका स्तर की सम्भावना बनी रहती है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के दोष
यदि निर्वाचन का एकमात्र उद्देश्य केवल न्याय अथवा चुनाव लड़ने वाले दलों के बीच अनुपात की स्थापना है तो यह प्रणाली वास्तव में निर्वाचन की आदर्श प्रणाली कही जा सकती है। परन्तु व्यवस्थापिका को केवल विभिन्न दलों तथा वर्गों का प्रतिनिधित्व ही नहीं करना चाहिए, अपितु अपने कर्तव्यों का भी सुचारु रूप से पालन करना चाहिए। इस दृष्टिकोण से आनुपातिक प्रतिनिधित्व के विरुद्ध अनेक तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं, जिनमें से कतिपय विशेष महत्त्वपूर्ण तर्क निम्नलिखित हैं-

  1. यह प्रणाली विशाल राजनीतिक दलों की एकता को नष्ट कर देती है तथा इससे अनेक छोटेछोटे दलों और गुटों का जन्म होता है। इसके परिणामस्वरूप सभी समस्याओं पर राष्ट्रीय हित की दृष्टि से नहीं, वरन् वर्गीय हित की दृष्टि से विचार किया जाता है। सिजविक के शब्दों में “वर्गीय प्रतिनिधित्व आवश्यक रूप से दूषित वर्गीय व्यवस्थापन को प्रोत्साहित करता है।”
  2. आनुपातिक प्रतिनिधित्व ‘अल्पमत विचारधारा को प्रोत्साहन देता है, जिसके परिणामस्वरूप वर्ग-विशेष के हितों और स्वार्थों का उदय होता है। इसके अन्तर्गत व्यवस्थापिका में किसी एक दल का स्पष्ट बहुमत नहीं होता है और मिश्रित मन्त्रिपरिषद् के निर्माण में छोटे-छोटे दलों की स्थिति बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। वे अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए स्वार्थपूर्ण वर्गहित के पक्ष में अपना समर्थन बेच देते हैं, परिणामतः सार्वजनिक जीवन की पवित्रता नष्ट हो जाती है। फाइनर के अनुसार-“इस प्रणाली को अपनाने से प्रतिनिधि द्वारा अपने क्षेत्र की देखभाल प्रायः समाप्त हो जाती है।”
  3. यह प्रणाली व्यावहारिक रूप में बहुत जटिल है। इसकी सफलता के लिए मतदाताओं और उनमें भी अधिक निर्वाचन अधिकारियों को उच्च कोटि की राजनीतिक शिक्षा प्राप्त करनी आवश्यक होती है। मतदाताओं को इसके नियम समझने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। साथ ही मतगणना अत्यन्त जटिले होती है, जिसमें भूल होने की अनेक सम्भावनाएँ रहती हैं।
  4. उपचुनावों में जहाँ केवल एक प्रतिनिधि का चुनाव करना होता है, इस प्रणाली का प्रयोग किया जाना सम्भव नहीं होता है।
  5. आनुपातिक प्रणाली में, विशेषतया सूची प्रणाली में, दलों को संगठन तथा नेताओं का प्रभाव बहुत बढ़ जाता है और साधारण सदस्यों की स्वतन्त्रता नष्ट हो जाती है क्योंकि मतदान का आधार राजनीतिक दल होता है।
  6. अनेक दलों के अस्तित्व के परिणामस्वरूप कोई भी दल अकेले ही सरकार निर्माण की स्थिति में नहीं होता है। अत: संयुक्त मन्त्रिपरिषदों का निर्माण होता है और प्राय: सरकारें अस्थायी होती हैं।
  7. दलीय वर्चस्व होने के कारण मतदाता प्राय: अपने-अपने राजनीतिक दलों को मत देते हैं, अत: इस प्रणाली में निर्वाचकों और प्रतिनिधियों में कोई सम्पर्क नहीं होता है।
  8. इस प्रणाली में समय और धन दोनों का अपव्यय होता है।

विश्लेषणात्मक समीक्षा – उपर्युक्त दोषों के कारण ही अनेक राजनीतिक विद्वान् आनुपातिक प्रतिनिधित्व को अनुपयोगी और जटिल निर्वाचन प्रणाली कहते हैं। वास्तव में राष्ट्रीय निर्वाचकों में आनुपातिक प्रणाली को अपनाना एक प्रकार से अव्यवस्था उत्पन्न करना है क्योंकि यह व्यवस्थापिका की सत्ता को निर्बल बना देती है। यह प्रणाली मन्त्रिपरिषदों के स्थायित्व तथा एकरूपता को नष्ट कर संसदीय शासन को असम्भव बना देती है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का औचित्य निर्धारण एवं उपयोगिता
प्रथम महायुद्ध के उपरान्त फ्रांस, जर्मनी, आयरलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया, पोलैण्ड आदि अनेक यूरोपीय देशों ने इस प्रणाली को अपनाया था, परन्तु अब इसकी उपयोगिता कम होती जा रही है।
और अनेक देशों ने तो इस परित्याग तक कर दिया है। ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत तथा अन्य अनेक देशों ने अपने साधारण निर्वाचनों के लिए कभी इस प्रणाली को अपनाया ही नहीं, यद्यपि आजकल ब्रिटेन तथा अमेरिका में आनुपातिक प्रतिनिधित्व संस्थाएँ इस प्रणाली को लोकप्रिय बनाने का प्रयास कर रही हैं।

संसदीय निर्वाचनों में तो बहुत कम देश ही इस प्रणाली का प्रयोग करते हैं, परन्तु व्यवस्थापक मण्डलों, स्थानीय निकायों और गैर-सरकारी समुदायों की विभिन्न समितियों का निर्वाचन साधारणतया इस प्रणाली के अनुसार ही होता है। हमारी संविधान सभा का निर्वाचन भी आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार ही हुआ था। नए संविधान के अन्तर्गत राज्यसभा के सदस्य राज्यों की विधानसभाओं द्वारा इसी प्रणाली के आधार पर निर्वाचित होते हैं और राज्यों के उच्च सदनों जैसे भारत में विधान परिषदों और व्यवस्थापक-मण्डल की समितियों के निर्माण में भी इसी निर्वाचन प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। भारत के राष्ट्रपति का निर्वाचन भी आधुनिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की एकल-संक्रमणीय मत प्रणाली के आधार पर होता है।

प्रश्न 4.
प्रत्यक्ष निर्वाचन के गुणों और दोषों का मूल्यांकन कीजिए।
या
प्रत्यक्ष निर्वाचन के चार गुण बताइए। [2010]
उत्तर
प्रत्यक्ष निर्वाचन
यदि निर्वाचक प्रत्यक्ष रूप से अपने प्रतिनिधि निर्वाचित करें, तो उसे प्रत्यक्ष निर्वाचन कहा जाता है। यह बिल्कुल सरल विधि है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक मतदाता निर्वाचन स्थान पर विभिन्न उम्मीदवारों में से किसी एक उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करता है और जिस उम्मीदवार को सर्वाधिक मत प्राप्त होते हैं, उसे विजयी घोषित कर दिया जाता है। भारत, इंग्लैण्ड, अमेरिका, कनाडा, स्विट्जरलैण्ड आदि देशों में व्यवस्थापिका के प्रथम सदन के निर्माण हेतु यही पद्धति अपनायी गयी है।

प्रत्यक्ष निर्वाचन के गुण

  1. प्रजातन्त्रात्मक धारणा के अनुकूल – यह जनता को प्रत्यक्ष रूप से अपने प्रतिनिधि निर्वाचित करने का अवसर देती है; अत: स्वाभाविक रूप से यह पद्धति प्रजातन्त्रीय व्यवस्था के अनुकूल है।
  2. मतदाता और प्रतिनिधि के मध्य सम्पर्क – इस पद्धति में जनता अपने प्रतिनिधि को प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित करती है; अतः जनता और उसके प्रतिनिधि के बीच उचित सम्पर्क बना रहता है और दोनों एक-दूसरे की भावनाओं से परिचित रहते हैं। इसके अन्तर्गत जनता अपने प्रतिनिधियों के कार्य पर निगरानी और नियन्त्रण भी रख सकती है।
  3. राजनीतिक शिक्षा – जब जनता अपने प्रतिनिधि को प्रत्यक्ष रूप से चुनती है तो विभिन्न दल और उनके उम्मीदवार अपनी नीति और कार्यक्रम जनता के सामने रखते हैं, जिससे जनता को बड़ी राजनीतिक शिक्षा मिलती है और उनमें राजनीतिक जागरूकता की भावना का उदय होता है। इससे सामान्य जनता को अपने अधिकार और कर्तव्यों का अधिक अच्छे प्रकार से ज्ञान भी हो जाता है।
  4. राजनीतिक अधिकार का प्रयोग – प्रत्यक्ष निर्वाचन जनता को अपने राजनीतिक अधिकार का प्रयोग करने का अवसर प्रदान करता है।

प्रत्यक्ष निर्वाचन के दोष

  1. सामान्य निर्वाचकों का मत त्रुटिपूर्ण – आलोचकों का कथन है कि जनता में अपने मत का उचित प्रयोग करने की क्षमता नहीं होती। मतदाता अधिक योग्य और शिक्षित न होने के कारण नेताओं के झूठे प्रचार और जोशीले भाषणों के प्रभाव में बह जाते हैं और निकम्मे, स्वार्थी और चालाक उम्मीदवारों को चुन लेते हैं।
  2. सार्वजनिक शिक्षा का तर्क त्रुटिपूर्ण – प्रत्यक्ष निर्वाचन के अन्तर्गत किया जाने वाला चुनाव अभियान शिक्षा अभियान नहीं होता, अपितु यह तो निन्दा, कलंक और झूठ का अभियान होता है। चुनाव में उम्मीदवारों और उनकी नीतियों को ठीक प्रकार से समझाने के बजाय उनके सामने व्यक्तियों और समस्याओं का विकृत चित्र प्रस्तुत किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप मतदाता गुमराह हो जाता है।
  3. बुद्धिमान व्यक्ति निर्वाचन से दूर – प्रत्यक्ष निर्वाचन में चुनाव अभियान नैतिकता के निम्नतम स्तर तक गिर जाने के कारण बुद्धिमान एवं निष्कपट व्यक्ति निर्वाचन से दूर भागते हैं। जब ऐसे व्यक्ति उम्मीदवार के रूप में आगे नहीं आते, तो देश को स्वभावतः हानि पहुँचती है।
  4. अपव्ययी और अव्यवस्थाजनक – इस प्रकार के चुनाव पर बहुत अधिक खर्च आता है। और बड़े पैमाने पर इसका प्रबन्ध करना होता है। अत्यधिक जोश-खरोश के कारण अनेक बार दंगे-फसाद भी हो जाते हैं।

प्रश्न 5.
मताधिकार की महत्ता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
वर्तमान समय में अप्रत्यक्ष अथवा प्रतिनिध्यात्मक लोकतन्त्र ही लोकतान्त्रिक शासन का एकमात्र व्यावहारिक रूप है। इस व्यवस्था में सामान्य जनता प्रतिनिधि चुनती है और ये प्रतिनिधि शासन का संचालन करते हैं। प्रतिनिधियों को चुनने के इस अधिकार को ही सामान्यत: मताधिकार अथवा निर्वाचन का अधिकार कहा जाता है, जो कि लोकतन्त्र का आधार है। इसकी महत्ता निम्नलिखित बातों से स्पष्ट हो जाती है-

1. नितान्त औचित्यपूर्ण – राज्य के कानूनों और कार्यों का प्रभाव समाज के केवल कुछ ही व्यक्तियों पर नहीं, वरन् सब व्यक्तियों पर पड़ता है; अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपना मत देने और शासन की नीति का निश्चय करने का अधिकार होना चाहिए। जॉन स्टुअर्ट मिल ने इसी आधार पर वयस्क मताधिकार को नितान्त औचित्यपूर्ण बताया है।

2. लोकसत्ता की वास्तविक अभिव्यक्ति – लोकसत्ता बीसवीं सदी का सबसे महत्त्वपूर्ण विचार है और आधुनिक प्रजातन्त्रवादियों का कथन है कि अन्तिम सत्ता जनता में ही निहित है। डॉ० गार्नर के शब्दों में, “ऐसी सत्ता की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति सार्वजनिक मताधिकार में ही हो सकती है।”

3. अल्पसंख्यकों के अधिकार सुरक्षित – वयस्क मताधिकार अल्पसंख्यकों को अपने प्रतिनिधियों द्वारा अपने हितों की रक्षा का पूरा अवसर देता है। ये प्रतिनिधि व्यवस्थापिका में विधेयकों के सम्बन्ध में अल्पसंख्यकों को दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं और इस प्रकार अल्पसंख्यक अपने हितों की रक्षा में विधिकर्ताओं की सहायता ले सकते हैं।

4. राष्ट्रीय एकीकरण का साधन – इस प्रणाली के अन्तर्गत राष्ट्र की शक्ति एवं एकता मेंवृद्धि होती है। अपने ही प्रतिनिधियों द्वारा बनाये गये कानूनों का पालन लोगों को एक-दूसरे के निकट लाता है और राष्ट्रीय एकीकरण में सहायक होता है। वयस्क मताधिकार को अपनाने पर जनता में क्रान्ति की सम्भावना कम हो जाती है, क्योंकि जनता स्वयं द्वारा निर्मित सरकार को पूर्ण सहयोग देती है।

5. सार्वजनिक शिक्षा का साधन – वयस्क मताधिकार सार्वजनिक शिक्षा और राजनीतिक जागृति का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण साधन है। मताधिकार व्यक्ति की राजनीतिक उदासीनता दूर कर देता है और उसको यह अनुभव कराता है कि राज्य शासन में उसका भी हाथ है। ऐसी स्थिति में वह देश के सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में अधिक रुचि लेना प्रारम्भ कर देता है।

6. आत्मसम्मान में वृद्धि – सार्वजनिक मताधिकार नागरिकों में आत्मसम्मान की भावना पैदा करता है। मताधिकार का जनता पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है और जनता यह महसूस करती है कि राज्य की अन्तिम शक्ति उसी के हाथ में है। इससे उनके आत्मसम्मान में वृद्धि होती है और जैसा कि ब्राइस कहते हैं, “इससे उनके नैतिक चरित्र का उत्थान होता है।”

7. सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति रुचि में वृद्धि – वयस्क मताधिकार की व्यवस्था में जब नागरिकों को मताधिकार का प्रयोग करना होता है तो स्वाभाविक रूप में उनके द्वारा सार्वजनिक समस्याओं पर विचार किया जाता है और सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति उनकी रुचि में वृद्धि होती है।

8. देशभक्ति की भावना में वृद्धि – वयस्क मताधिकार के परिणामस्वरूप नागरिक राज्य और शासन के प्रति अपनत्व की भावना अनुभव करते हैं और उनमें देशभक्ति की भावना बढ़ती है। ऐसी स्थिति में वे देश के लिए बड़े-से-बड़ा बलिदान करने को तत्पर हो जाते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
मताधिकार सम्बन्धी सिद्धान्तों को समझाइए।
उत्तर
मताधिकार सम्बन्धी सिद्धान्त
मताधिकार दिए जाने के सम्बन्ध में विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। इससे सम्बन्धित कुछ प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

1. प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के अनुसार मताधिकार एक प्राकृतिक अधिकार है तथा सभी व्यक्तियों को समान रूप से इसे प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार मत देने का अधिकार स्वाभाविक है और यह अधिकार मनुष्य को प्राकृतिक रूप से प्राप्त होता है। इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक मॉण्टेस्क्यू, टामस पेन तथा रूसो हैं।

2. वैधानिक अथवा कानूनी सिद्धान्त – इसे सिद्धान्त के अनुसार मताधिकार प्राकृतिक अधिकार नहीं है, बल्कि यह राज्य द्वारा प्रदान किया गया अधिकार है। कानूनी सिद्धान्त के अन्तर्गत नागरिक द्वारा मताधिकार का दावा नहीं किया जा सकता है।

3. नैतिक सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के अनुसार मताधिकार नैतिक मान्यताओं पर आधारित होता है। यह राजनीतिक मामलों में व्यक्ति द्वारा अपने विचारों को अभिव्यक्ति करने का एक माध्यम मात्र है। मताधिकार व्यक्ति का नैतिक और आध्यात्मिक विकास करता है तथा यह मानव के व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक है।

4. सामुदायिक सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के अनुसार मताधिकार सामुदायिक जीवन का एक प्रमुख अंग है, इसलिए सीमित क्षेत्र में मताधिकार मिलना चाहिए। यह सिद्धान्त इटली और जर्मनी की देन है।

5. सामन्तवादी सिद्धान्त – यह सिद्धान्त मध्य युग में प्रचलित हुआ। इस सिद्धान्त के अनुसार मताधिकार केवल उन्हीं व्यक्तियों को प्राप्त होना चाहिए, जिनका समाज में उच्च स्तर हो तथा जो सम्पत्ति के स्वामी हों।

6. सार्वजनिक कर्तव्य का सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के अनुसार मतदान एक सार्वजनिक कर्तव्य है। अत: मतदान अनिवार्य होना चाहिए। बेल्जियम, नीदरलैण्ड्स, चेक गणराज्य व स्लोवाकिया देशों में मतदान अनिवार्य है। इन देशों में मताधिकार का प्रयोग न करना दण्डनीय माना गया है।

प्रश्न 2.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के गुणों को लिखिए। [2008, 14]
या
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2014]
उत्तर
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के गुण
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली व्यवस्थापक मण्डल में अल्पमतों को प्रतिनिधित्व प्रदान करने का एक सरल उपाय है। इस प्रणाली के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  1. सभी वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व – यह प्रणाली प्रत्येक दल को उसकी शक्ति के अनुपात में ही प्रतिनिधित्व प्रदान करती है। इस प्रकार व्यवस्थापिका लोकमत का यथार्थ प्रतिबिम्ब बन जाती है।
  2. बहुमत की निरंकुशता का भय नहीं – आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अन्तर्गत व्यवस्थापिका में साधारणतया किसी एक दल का स्पष्ट बहुमत नहीं हो पाता। इस प्रकार यह प्रणाली अल्पमत दलों को बहुमत दल के अत्याचारों से सुरक्षित करके शासन में उचित रूप से भाग लेने की क्षमता प्रदान करती है।
  3. राजनीतिक शिक्षा की व्यवस्था – आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली नागरिकों को राजनीतिक शिक्षा भी प्रदान करती है, क्योंकि मतदाताओं के लिए अपना मत देने से पहले विभिन्न उम्मीदवारों तथा विभिन्न दलों की नीतियों के विषय में विचार करना आवश्यक हो जाता है।
  4. कोई मत व्यर्थ नहीं जाता – यह प्रणाली मताधिकार को सार्थक एवं व्यावहारिक बनाती है, क्योंकि इसमें प्रत्येक मतदाता को अनेक उम्मीदवारों में से कुछ उम्मीदवारों को चुनने की स्वतन्त्रता होती है। इसमें किसी मतदाता का मत व्यर्थ नहीं होता है, उससे किसी-न-किसी उम्मीदवार के निर्वाचन में सहायता अवश्य मिलती है। शुल्ज के अनुसार-“एकल संक्रमणीय मत प्रणाली निर्वाचकों को अपनी पसन्द के उम्मीदवार चुनने में सबसे अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करती है।”
  5. व्यवस्थापिका का उच्च स्तर – आनुपातिक प्रणाली के अन्तर्गत निर्वाचकगण उच्च आचरण एवं स्वतन्त्र विचार वाले हो सकते हैं। परिणामस्वरूप उनके प्रतिनिधि स्वतन्त्र रूप से चुने जाएँ और व्यवस्थापिका का स्तर उच्च हो, ऐसी आशा की जा सकती है।
  6. अधिक लोकतान्त्रिक – बहुत-से विद्वान इस पद्धति को अधिक लोकतान्त्रिक मानते हैं, क्योंकि इससे सभी वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है। लॉर्ड एक्टन के शब्दों में-“यह पद्धति अत्यधिक लोकतान्त्रिक है…………”

प्रश्न 3
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के दोषों को लिखिए।
उत्तर
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के दोष
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के दोष निम्नवत् हैं-

1. दलों की एकता नष्ट होती – यह प्रणाली बड़े राजनीतिक दलों की एकता नष्ट कर देती है, क्योंकि संकीर्ण हितों पर आधारित अनेक क्षेत्रीय अथवा स्थानीय दलों के निर्माण की प्रक्रिया तीव्र हो सकती है।

2. अनेक दलों और स्वार्थी गुटों का जन्म – आनुपातिक प्रतिनिधित्व ‘अल्पमत विचारधारा को प्रोत्साहन देता है, जिसके परिणामस्वरूप वर्ग-विशेष के हितों और स्वार्थों का जन्म होता है। इसके अन्तर्गत व्यवस्थापिका में किसी दल का स्पष्ट बहुमत नहीं होता है और मिश्रित मन्त्रिमण्डल के निर्माण में छोटे-छोटे दलों की स्थिति महत्त्वपूर्ण हो जाती है। वे अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए स्वार्थपूर्ण वर्गहित में अपना समर्थन बेच देते हैं। परिणामतः सार्वजनिक जीवन की पवित्रता नष्ट हो जाती है। फाइनर के अनुसार-“इस प्रणाली को अपनाने से प्रतिनिधि द्वारा अपने क्षेत्र की देखभाल प्रायः समाप्त हो जाती है।”

3. जटिल प्रणाली – यह प्रणाली व्यावहारिक रूप से अत्यन्त जटिल हैं। इसकी सफलता के लिए मतदाताओं में और उनसे भी अधिक निर्वाचन अधिकारियों में उच्चकोटि के ज्ञान की आवश्यकता होती है। मतदाताओं में और इसके नियम समझने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। साथ ही मतगणना अत्यन्त जटिल है, जिसमें भूल होने की भी अनेक सम्भावनाएँ हैं।

4. उपचुनाव की व्यवस्था नहीं – उपचुनाव में, जहाँ केवल एक प्रतिनिधि का चुनाव करना होता है, इस प्रणाली का प्रयोग असम्भव है। फाइनर के अनुसार-“उपचुनाव से यह ज्ञात होता है कि हवा किस ओर बह रही है, किन्तु इस प्रकार के उपचुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में सम्भव नहीं हैं।”

5. नेताओं के प्रभाव में वृद्धि – आनुपातिक प्रणाली में, विशेषतया सूची प्रणाली में राजनीतिक दलों तथा नेताओं का प्रभाव एवं महत्त्व बहुत बढ़ जाता है और साधारण सदस्यों की स्वतन्त्रता लगभग समाप्त हो जाती है।

6. मतदाताओं तथा प्रतिनिधियों में सम्बन्ध नहीं – बहुसदस्यीय क्षेत्र होने के कारण मतदाताओं और उनके प्रतिनिधियों में परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं होता, क्योंकि निर्वाचन क्षेत्र काफी बड़े होते हैं। निर्वाचन क्षेत्र के विस्तृत हो जाने के कारण व्यय भी बढ़ जाता है।

7. अस्थायी सरकारें – इस पद्धति से सामान्यतया संयुक्त सरकारें बनती हैं और वे अस्थायी होती हैं।

प्रश्न 4.
प्रादेशिक अथवा भौगोलिक प्रतिनिधित्व प्रथा का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
प्रादेशिक अथवा भौगोलिक प्रतिनिधित्व प्रथा
आधुनिक लोकतन्त्रात्मक शासन में निर्वाचन हेतु देश को विभिन्न क्षेत्रों में विभाजित कर, सरकार के गठन के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव किया जाता है। समस्त देश को भौगोलिक भागों (क्षेत्रों) में विभाजित कर दिया जाता है। निर्वाचन क्षेत्र एकसदस्यीय अथवा बहुसदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र हो सकता है। एक प्रतिनिधि उस निर्वाचन क्षेत्र में रहने वाले सभी निर्वाचकों का प्रतिनिधित्व करता है, चाहे वह कोई भी व्यवसाय करता हो। इस प्रथा को प्रादेशिक अथवा भौगोलिक प्रतिनिधित्व प्रथा’ कहते हैं, किन्तु इस प्रथा का घोर विरोध किया गया। प्रादेशिक अथवा भौगोलिक प्रतिनिधित्व प्रथा के आलोचकों का कथन है कि प्रतिनिधित्व का आधार क्षेत्रीय न होकर कार्यविशेष से सम्बन्धित होना चाहिए। इसको व्यावसायिक प्रतिनिधित्व नाम भी दिया गया है। डिग्बी ने व्यावसायिक प्रतिनिधित्व का समर्थन करते हुए कहा है, “व्यवसाय, वाणिज्य, उद्योग-धन्धे यहाँ तक कि विज्ञान, धर्म आदि राष्ट्रीय जीवन की बड़ी शक्तियों को प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाना चाहिए।’ इमैनुअल ऐबीसीएज का मत है-“समाज के उद्योगों एवं व्यवसायों का व्यवस्थापिका में विशेष रूप से प्रतिनिधित्व होना चाहिए।

व्यावसायिक प्रतिनिधित्व के पक्ष में कहा जाता है कि यह जनतन्त्रात्मक आदर्शों के अनुकूल प्रतिनिधित्व की एकमात्र वास्तविक प्रणाली है। इसके समर्थकों का दृष्टिकोण है कि निर्वाचन क्षेत्र में रहने वाले व्यक्तियों की विभिन्न आवश्यकताएँ तथा इच्छाएँ होती हैं। व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व केवल व्यवसायों तथा आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व ही कर सकता है। व्यावसायिक प्रतिनिधित्व के कारण निर्वाचित प्रतिनिधि का ध्यान अपने सभी कार्यकर्ताओं के हितों पर अधिक रहता है। औद्योगीकरण के साथ व्यावसायिक प्रतिनिधित्व की माँग तीव्र हुई है। साम्यवादियों तथा बहुलवादियों ने भी इस प्रतिनिधित्व का पूर्ण समर्थन किया है। इसे “कार्य-विशेष सम्बन्धी प्रतिनिधित्व प्रणाली” भी कहते हैं।

प्रश्न 5.
प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष निर्वाचन-प्रणालियों के बारे में बताइए।
उत्तर
सामान्यतया निर्वाचन की दो प्रणालियाँ हैं- प्रत्यक्ष निर्वाचन और अप्रत्यक्ष निर्वाचन।
प्रत्यक्ष निर्वाचन – प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली से तात्पर्य ऐसी निर्वाचन प्रणाली से है जिसमें मतदाता स्वयं अपने प्रतिनिधि चुनते हैं। प्रत्यक्ष निर्वाचन में जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि ही व्यवस्थापिका के सदस्य और मुख्य कार्यपालिका के अंग बनते हैं। यह बहुत सरल विधि है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक मतदाता मतदान-केन्द्र पर विभिन्न प्रत्याशियों में से किसी एक प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करता है और जिस प्रत्याशी को सर्वाधिक मत प्राप्त होते हैं उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। यह प्रणाली सर्वाधिक लोकप्रिय प्रणाली है। सामान्यत: विश्व के प्रत्येक प्रजातान्त्रिक देश में व्यवस्थापिका के निम्न सदन के सदस्य प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा ही चुने जाते हैं।

अप्रत्यक्ष निर्वाचन – इस प्रणाली के अन्तर्गत मतदाता सीधे अपने प्रतिनिधि नहीं चुनते हैं। वरन् वे पहले एक निर्वाचक-मण्डल को चुनते हैं। यह निर्वाचक-मण्डल बाद में अन्य प्रतिनिधियों को चुनते हैं। इस प्रकार जनता प्रत्यक्ष रूप से प्रतिनिधियों को निर्वाचन नहीं करती है; अतः इसे अप्रत्यक्ष निर्वाचन–प्रणाली कहा जाता है। भारत के राष्ट्रपति तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति दोनों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से होता है। भारत, फ्रांस आदि देशों में व्यवस्थापिका के द्वितीय सदन का निर्वाचन भी अप्रत्यक्ष निर्वाचन-प्रणाली द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 6.
आदर्श प्रतिनिधित्व प्रणाली की विशेषताएँ बताइए।
या
आदर्श निर्वाचन-प्रणाली के चार प्रमुख तत्त्वों को बताइए। [2012]
उत्तर
आदर्श निर्वाचन प्रणाली के लिए अनेक बातें आवश्यक हैं, जिनमें से निम्न चार प्रमुख हैं-

1. प्रतिनिधि के कार्यकाल का उचित निर्धारण – आदर्श निर्वाचन-प्रणाली में प्रतिनिधियों का कार्यकाल न बहुत अधिक और न बहुत कम होना चाहिए। 3 से 5 वर्ष तक के कार्यकाल को प्रायः उचित कहा जा सकता है।

2. अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व की उचित व्यवस्था – अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व की उचित व्यवस्था होनी चाहिए, क्योंकि ऐसा न होने से अल्पसंख्यक वर्गों के व्यक्तियों की निष्ठा देश के प्रति नहीं होगी तथा उनके हितों को भी उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा। इस सम्बन्ध में अल्पसंख्यक वर्गों के लिए सीटों के आरक्षण की व्यवस्था को अपनाया जा सकता है। इसके साथ-साथ पृथक् निर्वाचन-प्रणाली न अपनाकर संयुक्त निर्वाचन-प्रणाली को ग्रहण किया जाना चाहिए।

3. सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार – लोकतन्त्र के मूल सिद्धान्तों में से एक सिद्धान्त समानता है और सभी नागरिकों को समान राजनीतिक शक्ति वयस्क मताधिकार की व्यवस्था के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। इसलिए सभी वयस्क नागरिकों को बिना किसी प्रकार के भेदभाव के मताधिकार प्राप्त होना चाहिए।

4. गुप्त मतदान की व्यवस्था – आदर्श निर्वाचन-प्रणाली में मतदान गुप्त विधि से होना चाहिए, जिससे मत की गोपनीयता बनी रहे और मतदाता स्वतन्त्र होकर अपनी इच्छानुसार मताधिकार का प्रयोग कर सकें।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
वयस्क मताधिकार क्या है? [2014]
या
सार्वभौमिक मताधिकार पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2010]
उत्तर
वयस्क या सार्वभौमिक मताधिकार वयस्क मताधिकार से तात्पर्य है कि मतदान का अधिकर एक निश्चित आयु के नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के प्राप्त होना चाहिए। वयस्क मताधिकार की आयु का निर्धारण प्रत्येक देश में वहाँ के नागरिक के वयस्क होने की आयु पर निर्भर करता है। भारत में वयस्क होने की आयु 18 वर्ष है। अतः भारत में मताधिकार की आयु भी 18 वर्ष है। वयस्क मताधिकार से तात्पर्य है कि दिवालिए, पागल व अन्य किसी प्रकार की अयोग्यता वाले नागरिकों को छोड़कर अन्य सभी वयस्क नागरिकों को मताधिकार प्राप्त होना चाहिए। मताधिकार में सम्पत्ति, लिंग अथवा शिक्षा जैसा कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। मॉण्टेस्क्यू, रूसो, टॉमस पेन इत्यादि विचारक वयस्क मताधिकार के समर्थक हैं। वर्तमान में विश्व के लगभग सभी देशों में वयस्क मताधिकार की व्यवस्था है।

प्रश्न 2.
महिला (स्त्री) मताधिकार पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
स्त्री-मताधिकार
स्त्रियों के लिए मताधिकार प्राप्त करने की माँग प्रजातन्त्र के विकास तथा विस्तार के साथ ही प्रारम्भ हुई। यदि मताधिकार प्रत्येक व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार है, तो स्त्रियों को भी यह अधिकार प्राप्त होना चाहिए। 19वीं शताब्दी में बेन्थम, डेविड हेयर, सिजविक, ऐस्मीन तथा जे०एस० मिल ने स्त्री मताधिकार का समर्थन किया। इंग्लैण्ड में 1918 ई० में सार्वभौमिक मताधिकार अधिनियम पारित करके 30 वर्ष की आयु वाली स्त्रियों को मताधिकार प्रदान किया गया। 10 वर्ष बाद यह आयु-सीमा घटाकर 21 वर्ष कर दी गई। सन् 1920 में संयुक्त राज्य अमेरिका में पुरुषों के समान स्त्रियों को भी समान अधिकार प्रदान किया गया। भारतीय संविधान में प्रारम्भ से ही स्त्रियों को पुरुषों के समान मताधिकार दिया गया है।

प्रश्न 3.
मताधिकार का महत्त्व बताते हुए दो तर्क दीजिए।
उत्तर
मताधिकार का महत्त्व बताते हुए दो तर्क निम्नवत् हैं-

1. नितान्त औचित्यपूर्ण  – राज्य के कानूनों और कार्यों का प्रभाव समाज के केवल कुछ ही व्यक्तियों पर नहीं, वरन् सब व्यक्तियों पर पड़ता है; अत: प्रत्येक व्यक्ति को अपना मत देने | और शासन की नीति का निश्चय करने का अधिकार होना चाहिए। जॉन स्टुअर्ट मिल ने इसी आधार पर वयस्क मताधिकार को नितान्त औचित्यपूर्ण बताया है।

2. लोकसत्ता की वास्तविक अभिव्यक्ति – लोकसत्ता बीसवीं सदी का सबसे महत्त्वपूर्ण विचार है और आधुनिक प्रजातन्त्रवादियों का कथन है कि अन्तिम सत्ता जनता में ही निहित है। डॉ० गार्नर के शब्दों में, “ऐसी सत्ता की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति सार्वजनिक मताधिकार में ही हो सकती है।

प्रश्न 4.
गुप्त मतदान तथा द्वितीय मत-प्रणाली पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
गुप्त मतदान

1. गुप्त मतदान – जब मतदाता इस प्रकार गोपनीय विधि से मत देता है कि उसे कोई अन्य व्यक्ति नहीं जान सके कि उसने किसे मत दिया है तो इसे गुप्त मतदान कहते हैं। इस प्रकार मतदाता स्वतन्त्रतापूर्वक अपने मतदान का प्रयोग कर सकते हैं और उन पर किसी के दबाव की आशंका नहीं रहती। हेरिंग्टन तथा काउण्ट अण्डरेसी ने गुप्त मतदान का प्रबल समर्थन किया है। आजकल विश्व के सभी लोकतान्त्रिक देशों में गुप्त मतदान-प्रणाली द्वारा ही चुनाव होते हैं। आदर्श रूप में प्रकट मतदान की प्रणाली अच्छी हो सकती है, किन्तु व्यवहार में गुप्त मतदान की प्रणाली ही सर्वश्रेष्ठ है।

2. द्वितीय मत – प्रणाली मतदाताओं के व्यापक प्रतिनिधित्व के लिए द्वितीय मतदान-प्रणाली अपनायी जाती है। इस प्रणाली में प्रत्याशी को विजयी होने के लिए डाले गये मतों का 50 प्रतिशत से अधिक भाग प्राप्त होना आवश्यक होता है। जब एक ही स्थान के लिए दो से अधिक प्रत्याशी चुनाव लड़ते हैं और किसी भी प्रत्याशी को मतदान में पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं होता तो अधिक मत प्राप्त करने वाले दो प्रत्याशियों के बीच दुबारा मतदान होता है और जिस प्रत्याशी को निरपेक्ष बहुमत प्राप्त हो जाता है वह विजयी घोषित कर दिया जाता है। फ्रांस के राष्ट्रपति के निर्वाचन में इस प्रणाली को अपनाया जाता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
वयस्क मताधिकार के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2007, 08, 09, 12, 15]
उत्तर

  1. अल्पसंख्यको के अधिकारों का सुरक्षित होना तथा
  2. लोकमत की वास्तविक अभिव्यक्ति होना।

प्रश्न 2.
वयस्क मताधिकार के दो दोष लिखिए।
उत्तर

  1. शासनाधिकार अशिक्षित व्यक्तियों के हाथ में होना तथा
  2. भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन।

प्रश्न 3.
निर्वाचन पद्धति कितने प्रकार की होती है?
या
निर्वाचन की कोई एक प्रणाली बताइए।
उत्तर
निर्वाचन पद्धति दो प्रकार की होती है-

  1. प्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति तथा
  2. अप्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Franchise and Electoral Methods

प्रश्न 4.
अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने की दो पद्धतियों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति तथा
  2. सीमित मत-प्रणाली।

प्रश्न 5.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व के दो प्रकार बताइए।
उत्तर

  1. एकल संक्रमणीय प्रणाली तथा
  2. सूची-प्रणाली।

प्रश्न 6.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के दो गुण लिखिए।
उत्तर

  1. प्रत्येक वर्ग या दल को उचित प्रतिनिधित्व तथा
  2. अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा।

प्रश्न 7.
वयस्क मताधिकार के दो गुण बताइए। [2008]
उत्तर

  1. राष्ट्रीय एकीकरण में वृद्धि तथा
  2. जनसाधारण को शासकों के चयन का अधिकार।

प्रश्न 8.
प्रत्यक्ष निर्वाचन के दो गुण बताइए।
उत्तर

  1. सरलता तथा
  2. लोकतान्त्रिक धारणा के अनुकूल।

प्रश्न 9.
प्रत्यक्ष निर्वाचन के दो दोष बताइए।
उत्तर

  1. अपव्ययी व्यवस्था तथा
  2. प्रतिभावान व्यक्तियों की निर्वाचन से दूरी।

प्रश्न 10.
अप्रत्यक्ष निर्वाचन के दो गुण बताइए।
उत्तर

  1. योग्य व्यक्तियों के निर्वाचन की अधिक सम्भावना तथा
  2. पेशेवर राजनीतिज्ञों का अभाव।

प्रश्न 11.
अप्रत्यक्ष निर्वाचन के दो दोष बताइए।
उत्तर

  1. भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन तथा
  2. दल-प्रणाली के कुप्रभाव।

प्रश्न 12.
आदर्श निर्वाचन-प्रणाली का एक प्रमुख तत्त्व क्या है?
उत्तर
गुप्त मतदान की व्यवस्था आदर्श निर्वाचन-प्रणाली का एक प्रमुख तत्त्व है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Franchise and Electoral Methods

प्रश्न 13.
भारत में वयस्क मताधिकार की न्यूनतम आयु क्या है? [2007, 11, 13, 16]
उत्तर
भारत में वयस्क मताधिकार की आयु 18 वर्ष है।

प्रश्न 14.
स्विट्जरलैण्ड में वयस्क होने की आयु क्या है?
उत्तर
स्विट्जरलैण्ड में वयस्क होने की आयु 20 वर्ष है।

प्रश्न 15.
वयस्क मताधिकार क्या है? [2011]
उत्तर
निश्चित आयु प्राप्त करने के बाद सभी वयस्क नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के मत देने का अधिकार प्राप्त होना ही वयस्क मताधिकार है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1. सीमित मताधिकार विचारधारा के समर्थक हैं-
(क) बार्कर
(ख) जे० एस० मिल
(ग) डॉ० गार्नर
(घ) प्लेटो

2. वयस्क मताधिकार विचारधारा के समर्थक हैं-
(क) ब्लण्टशली
(ख) बेन्थम
(ग) सर हेनरीमैन
(घ) जॉन स्टुअर्ट मिल

3. “वयस्क मताधिकार का कोई विकल्प नहीं है।” यह किसका कथन है? [2010]
(क) लॉस्की
(ख) ब्राइस
(ग) ब्लण्टशली
(घ) अरस्तू

4. किसने कहा-“मत देने का अधिकार उन्हीं को प्राप्त होना चाहिए जिनमें बौद्धिक योग्यता की एक सुनिश्चित मात्रा विद्यमान हो, चाहे वे स्त्री हो या पुरुष।” [2010]
(क) अब्राहम लिंकन
(ख) जवाहरलाल नेहरू
(ग) टी० एच० ग्रीन
(घ) जे० एस० मिल

5. “सर्वजनीन मताधिकार का कोई विकल्प नहीं है।” यह किसका कथन है? [2012]
(क) अरस्तू
(ख) ब्राइस
(ग) लॉस्की
(घ) गार्नर

6. आनुपातिक प्रतिनिधित्व की पद्धति का प्रतिपादन किसके द्वारा किया गया है? [2014, 16]
(क) थॉमस हेयर
(ख) जे० एस० मिल।
(ग) सर हेनरी मेन
(घ) ब्राइस

7. थॉमस हेयर का नाम किस निर्वाचन प्रणाली से सम्बन्धित है? [2016]
(क) प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली
(ख) अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली
(ग) सीमित मतदान प्रणाली
(घ) आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली

8. भारत में प्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति को सबसे पहले कब लागू किया गया? [2016]
(क) सन् 1909
(ख) सन् 1919
(ग) सन् 1935
(घ) सन् 1950

उत्तर

  1. (ख) जे० एस० मिल,
  2. (घ) जॉन स्टुअर्ट मिल,
  3. (क) लॉस्की,
  4. (क) अब्राहम लिंकन,
  5. (ग) लॉस्की,
  6. (क) थॉमस हेयर,
  7. (घ) आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली,
  8. (ग) सन् 1935

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Franchise and Electoral Methods (मताधिकार एवं निर्वाचन-प्रणालियाँ) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Franchise and Electoral Methods (मताधिकार एवं निर्वाचन-प्रणालियाँ), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 13 Indian National Movement (1885-1919 AD)

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 13 Indian National Movement (1885-1919 AD) (भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन (1885-1919 ई०) are the part of UP Board Solutions for Class 12 History. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 13 Indian National Movement (1885-1919 AD) (भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन (1885-1919 ई०).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 13
Chapter Name Indian National Movement
(1885-1919 AD)
(भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन
(1885-1919 ई०)
Number of Questions Solved 19
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 13 Indian National Movement (1885-1919 AD) (भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन (1885-1919 ई०)

अभ्यास

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में गोपालकृष्ण गोखले की भूमिका का वर्णन कीजिए।
उतर:
गोपालकृष्ण गोखले कांग्रेस के उदारवादी नेता थे। जब से वे कांग्रेस में आये, मृत्युपर्यन्त अपनी विद्वता, नीतिमत्ता, ज्ञान और सात्विक स्वभाव के कारण उस पर छाए रहे। गाँधी जी के राजनीतिक गुरु गोखले ने 1905 ई० में बनारस अधिवेशन की अध्यक्षता की। बंगाल विभाजन तथा इसके परिणामों के बारे में ब्रिटिश जनता को अवगत कराने के लिए वे 1906 ई० में इंग्लैण्ड गए। वहाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1905 ई० में इन्होंने ‘सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डिया सोसायटी’ नामक संस्था स्थापित की, जिसका मुख्य उद्देश्य भारत के राष्ट्रीय हितों का संवर्धन करना,

भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करना तथा इनमें पारस्परिक सौहार्द बढ़ाना था। गोखले ने सरकार से इस बात का अनुरोध किया कि नमक पर टैक्स कम किया जाए। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इण्डियन सिविल सर्विस का भारतीयकरण हो। गोखले यह भी चाहते थे कि सेना पर होने वाले व्यय को घटाया जाए। भारतीय मामलों से सम्बन्धित प्रश्नों पर बातचीत के लिए गोखले कई बार इंग्लैण्ड गए। ‘अनिवार्य शिक्षा विधेयक को व्यवस्थापिका परिषद् में उन्हीं के द्वारा प्रस्तुत किया गया था। गोखले ने भारतीय समाज में व्याप्त कई बुराइयों का भी विरोध किया। 1915 ई० में 49 वर्ष की आयु में गोखले का निधन हो गया।

प्रश्न 2.
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में बाल गंगाधर तिलक के योगदान का वर्णन कीजिए।
उतर:
बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस के उग्रवादी दल के प्रतिभासम्पन्न नेता थे। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रवादी विचारधारा के जन्मदाता वे ही थे। उन्होंने ही सबसे पहला नारा लगाया “स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे प्राप्त करके ही रहूँगा।” वास्तव में, उन्होंने देश में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन को तीव्र गति प्रदान की थी तथा कांग्रेस के आन्दोलन को जन आन्दोलन में परिवर्तित करने का सराहनीय कार्य किया था।

प्रश्न 3.
बाल गंगाधर तिलक व गोपालकृष्ण गोखले के विचारों की भिन्नता पर टिप्पणी कीजिए।
उतर:
तिलक और गोखले दोनों ऊँचे दर्जे के देशभक्त थे। दोनों ने जीवन में भारी त्याग किया था, परन्तु उनके स्वभाव एक-दूसरे से बहुत भिन्न थे। यदि हम उस समय की भाषा का प्रयोग करें तो कह सकते है कि गोखले नरम विचारों के थे और तिलक गरम विचारों के। गोखले मौजूदा संविधान को मात्र सुधारना चाहते थे लेकिन तिलक उसे नए सिरे से बनाना चाहते थे। गोखले को नौकरशाही के साथ मिलकर कार्य करना था, तिलक को उससे अनिर्वायत: संघर्ष करना था। गोखले जहाँ सम्भव हो, सहयोग करने तथा जहाँ जरूरी हो, विरोध करने की नीति के पक्षपाती थे। तिलक का झुकाव रुकावट तथा अडुंगा डालने की नीति की ओर था। गोखले को प्रशासन तथा उनके सुधार की मुख्य चिन्ता थी, तिलक के लिए राष्ट्र तथा उसका निर्णय मुख्य था।

गोखले का आदर्श थाप्रेम और सेवा, तिलक का आदर्श था- सेवा और कष्ट सहना। गोखले विदेशियों को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करते थे, तिलक का तरीका विदेशियों को देश से हटाना था। गोखले दूसरों की सहायता पर निर्भर करते थे, तिलक अपनी सहायता स्वयं करना चाहते थे। गोखले उच्च वर्ग और शिक्षित लोगों की ओर देखते थे, तिलक सर्वसाधारण या आम जनता की ओर। गोखले का अखाड़ा था- कौंसिल भवन, तिलक का मंच था-गाँव की चौपाल। गोखले अंग्रेजी में लिखते थे, तिलक मराठी में। गोखले का उद्देश्य था- स्वशासन, जिसके लिए लोगों को अंग्रेजों द्वारा पेश की गई कसौटी पर खरा उतरकर अपने को योग्य साबित करना था, तिलक का उद्देश्य था- स्वराज्य, जो प्रत्येक भारतवासी का जन्मसिद्ध अधिकार था और जिसे वे बिना किसी बाधा की परवाह किए लेकर ही रहेंगे। गोखले अपने समय के साथ थे, जबकि तिलक अपने समय के बहुत आगे।।

प्रश्न 4.
होमरूल आन्दोलन का विवरण दीजिए।
उतर:
होमरूल आन्दोलन स्वशासन प्राप्त करने का वैधानिक संगठन था। सन् 1916 ई० में आयरिश महिला श्रीमति एनी बेसेण्ट ने
मद्रास (चेन्नई) और लोकमान्य गंगाधर तिलक ने बम्बई में होमरूल लीग की स्थापना की। लीग का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत वैधानिक तरीकों से स्वशासन प्राप्त करना और इस दशा में जनमत तैयार करना था। तिलक ने अपने ‘मराठा’ तथा ‘केसरी’ व एनी बेसेन्ट ने ‘कॉमलवील’ तथा ‘न्यू इण्डिया’ समाचार-पत्रों द्वारा गृह-शासन का जोरदार प्रचार किया। शीघ्र ही यह आन्दोलन सम्पूर्ण भारत में फैल गया। इसी आन्दोलन के दौरान तिलक ने “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा दिया। इंग्लैण्ड में भी होमरूल लीग की स्थापना हुई। मजदूर दल के नेता ‘होराल्ड लास्की’ ने इसे प्रोत्साहन दिया।

प्रश्न 5.
मार्ले-मिण्टो सुधार पर टिप्पणी कीजिए।
उतर:
मार्ले-मिण्टो सुधार( 1909 ई० )- मार्ले-मिण्टो सुधार वस्तुतः मुसलमानों को खुश करने, नरमपंथियों को उलझन में डालने और अतिवादियों को शान्त करने का प्रयास था। संक्षेप में इस सुधार का उद्देश्य अधिकार देने के स्थान पर ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का अनुसरण करना था। इस अधिनियम की निम्नलिखित विशेषताएँ थीं

  1. इसके द्वारा केन्द्रीय लेजिस्टलेटिव के सदस्यों की संख्या बढ़ाकर अब 69 कर दी गई, किन्तु न उनके अधिकार बढ़े और न ही उनकी शक्तियाँ।।
  2. अधिनियम के अनुसार वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् तथा प्रान्तीय कार्यकारिणी परिषदों में एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति का प्रावधान किया गया।
  3. इस अधिनियम का सबसे बड़ा दोष मुसलमानों के लिए पृथक् चुनाव मण्डल प्रदान करना था। इसका आशय यह था कि मुसलमान सम्प्रदाय को भारतीय राष्ट्र से पूर्णतया पृथक् वर्ग के रूप में स्वीकार किया गया। इस अधिनियम की उल्लेखनीय उपलब्धि यह भी रही कि इसके द्वारा भारत सचिव की परिषद् तथा भारत के गवर्नर जनरल की कार्यपालिका परिषद् में भारतीय सदस्यों का समावेश किया गया।
  4. इस प्रकार इस अधिनियम में सुधारों के नाम पर चुनाव पद्धति में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया ताकि भारतीय राष्ट्रवादियों की एकता को तोड़कर उन्हें विभिन्न भागों में बाँट दिया जाए। यह अधिनियम एक कूटनीतिक चाल साबित हुआ। इसके माध्यम से मुसलमान युवकों को कांग्रेस में जाने से रोका गया और उग्र राष्ट्रवादियों के भारतीय कांग्रेस में आने पर नियन्त्रण किया गया। महान् उदारवादी मदनमोहन मालवीय और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इन सुधारों की तीव्र आलोचना की। वहीं मुस्लिम लीग इन सुधारों से बहुत प्रसन्न थी।

प्रश्न 6.
उदारवादियों की दो उपलब्धियों की व्याख्या कीजिए।
उतर:
उदारवादियों की दो उपलब्धियाँ निम्नवत् हैं|
(i) भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का आधार तैयार करना- यद्यपि उदारवादियों को प्रत्यक्ष रूप से कोई सफलता प्राप्त न हो सकी। तथापि अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने भविष्य में होने वाले आन्दोलनों के लिए पृष्ठभूमि तैयार की। यदि वे प्रारम्भिक काल में ही पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग करने लगते अथवा ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सक्रिय प्रतिरोध की नीति को अपनाते तो सम्भवतया उनके आन्दोलन को शैशवकाल में ही कुचल दिया जाता और स्वतन्त्रता की दिशा में आगामी रणनीति इच्छित रूप में सफल न हो पाती। के०एम० मुंशी के शब्दों में- “यदि पिछले 30 वर्षों में कांग्रेस के रूप में एक अखिल भारतीय संस्था देश के राजनीति क्षेत्र में कार्यरत न होती तो ऐसी अवस्था में गाँधी जी का कोई विस्तृत आन्दोलन सफल न होता।”

(ii) भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892 ई०- उदारवादियों की सफलता को 1892 ई० के भारतीय परिषद् अधिनियम के सन्दर्भ में भी लिया जा सकता है। यद्यपि यह भारतीयों को सन्तुष्ट न कर सका, लेकिन फिर भी देश के संवैधानिक विकास की दिशा में यह एक निश्चित प्रगतिशील कदम था।।

प्रश्न 7.
बंगाल के विभाजन के प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उतर:
सन् 1905 ई० में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन की घोषणा कर दी जिसके परिणाम स्वरूप बंगाल में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण देश में विद्रोह का तूफान उठ खड़ा हुआ। इससे भारत में गरम आन्दोलन की जो विचारधारा उत्पन्न हुई उसे स्वदेशी आन्दोलन की संज्ञा दी गई। बंगाल विभाजन से देश में समस्त राष्ट्रवादी विचारों को भयंकर आघात पहुँचा तथा इस नीति ने साम्प्रदायिक समस्या को कई गुणा बढ़ा दिया। इसके विरोध में सम्पूर्ण देश में जन-सभाओं का आयोजन किया गया।

प्रश्न 8.
नरम दल के प्रतिष्ठाता कौन थे?
उतर:
नरम दल के प्रतिष्ठाता गोपालकृष्ण गोखले थे। सन् 1905 ई० में उन्होंने ‘सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डिया सोसायटी’ नामक संस्था की स्थापना की, जिसका प्रमुख उद्देश्य भारत के राष्ट्रीय हितों का संवर्धन करना, भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करना तथा पारस्परिक सौहार्द बढ़ाना था।

प्रश्न 9.
आप एनी बेसेण्ट और उनके होमरूल संघ के विषय में क्या जानते हैं? या होमरूल आन्दोलन से आप क्या समझते हैं?
उतर:
श्रीमति ऐनी बेसेण्ट- ये एक आयरिश महिला थीं। सन् 1893 ई० में श्रीमति ऐनी बेसेण्ट भारत आईं और अडयार (मद्रास) स्थित थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्ष बनीं। श्रीमति ऐनी बेसेण्ट ने हिन्दू धर्म की बड़ी प्रशंसा की और बालगंगाधर तिलक के साथ मिलकर भारत की स्वाधीनता के लिए होमरूल आन्दोलन चलाया। ये एक बार कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्ष भी बनीं। इन्होंने शिक्षा के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया था। होमरूल आन्दोलन के लिए लघुउत्तरीय प्रश्न संख्या-4 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 10.
अतिवादी दल के प्रतिष्ठाता कौन थे?
उतर:
अतिवादी दल के प्रतिष्ठाता बाल गंगाधर तिलक थे। उन्होंने अंग्रेजी शासन का विरोध करने के लिए स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग एवं विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार पर जोर दिया। अखाड़ा, लाठी, गणपति व शिवाजी महोत्सवों के द्वारा तिलक ने महाराष्ट्र में नवजागृति का संचार किया। इनका नारा था- “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूँगा।”

प्रश्न 11.
नरम दल के नेताओं के नाम बताओ।
उतर:
नरम दल के प्रमुख नेता गोपालकृष्ण गोखले, दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, फीरोजशाह मेहता, रास बिहारी घोष, पंडित मदन मोहन मालवीय आदि थे।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रथम चरण की विवेचना कीजिए।
उतर:
राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रथम चरण (1885-1919 ई०)- प्रारम्भ में कांग्रेस के आन्दोलन की गति बहुत धीमी थी। इसका मुख्य कारण कांग्रेस का शैशवकाल था। यह समय सुधारवादी तथा वैधानिक युग के नाम से भी विख्यात है। इस समय कांग्रेस पर उदारवादियों का प्रभाव रहा। इन उदारवादियों ने विनय-अनुनय की नीति अपनाई, परन्तु उनकी इस नीति ने 19वीं शताब्दी के अन्तिम एवं 20 वीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरणों में अतिवादी विचारधारा को जन्म दिया। 1885-1905 ई० के दौरान कांग्रेस का मुख्य उद्देश्य संवैधानिक, आर्थिक, प्रशासनिक सुधार एवं नागरिक अधिकारों की सुरक्षा की माँग करना था। इस समय तक कांग्रेस को जनसमर्थन भी प्राप्त नहीं हो सका था। मुख्य रूप से शिक्षित मध्य वर्ग तक ही इसका प्रभाव रहा। प्रारम्भ में कांग्रेस ने उदारवादी रुख अपनाया।

उदारवादी आन्दोलन का युग- प्रारम्भिक बीस वर्षों में कांग्रेस आम जनता के कष्ट निवारण हेतु ब्रिटिश सरकार को प्रार्थना पत्र ही भेजती रही। इस चरण के प्रमुख कांग्रेसी नेता गोपालकृष्ण गोखले, पंडित मदन मोहन मालवीय, दादाभाई नौरोजी आदि थे। ये सभी नेता शान्तिपूर्वक अंग्रेजी सरकार से अपनी माँगें मनवाने के पक्ष में थे परन्तु इनकी उदारवादी प्रवृत्ति का कांग्रेस को कोई लाभ नहीं हुआ क्योंकि स्वार्थी व कुटिल अंग्रेजों पर प्रार्थना-पत्र व याचना-पत्र कोई प्रभाव नहीं डाल पाए और न ही उदारवादी नेता अंग्रेजों पर किसी भी प्रकार का दबाव बनाने में सफल हो पाए।

1885-1905 ई० के काल को उदारवादियों का काल अथवा उदार राष्ट्रवाद का काल भी कहा जाता है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस प्रारम्भ में अत्यन्त नरम थी। आरम्भ से ही कांग्रेस का दृष्टिकोण विशुद्ध राष्ट्रीय रहा। इसने किसी वर्ग विशेष के हित का समर्थन नहीं किया वरन् सभी प्रश्नों पर राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाया। प्रारम्भिक दौर में कांग्रेस की पूरी बागडोर नरम राष्ट्रवादियों के हाथ में थी। इस समय भारतीय राजनीति में ऐसे व्यक्तियों का प्रभाव था, जो उन अंग्रेजों के प्रति श्रद्धा रखते थे, जिनका उदारवादी विचारधारा में विश्वास था। दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, फीरोजशाह मेहता, रासबिहारी घोष, गोपालकृष्ण गोखले इत्यादि नेता नरमपंथी विचारों के प्रमुख स्तम्भ थे।

कुछ अंग्रेज भी उदारवादी विचारधारा के समर्थक थे, जिनमें छूम, विलियम वेडरवर्न, जॉर्ज यूल, स्मिथ प्रमुख थे। इन्हीं उदारवादी नेताओं ने कांग्रेस का दो दशकों (1885-1905 ई०) तक मार्गदर्शन किया। ये उदारवादी भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को अभिशाप नहीं वरन् वरदान समझते थे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का यह कथन उदारवादियों की मनोवृत्ति को स्पष्ट करता है, “अंग्रेजों के न्याय, बुद्धि और दयाभाव में हमारी दृढ़ आस्था है। विश्व की महानतम प्रतिनिधि संस्था, संसदों की जननी ब्रिटिश कॉमन सदन के प्रति हमारे हृदय में असीम श्रद्धा है।” कांग्रेस की प्रसिद्धी बढ़ती गई। उसकी लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1885 ई० में इसके 72 सदस्य थे, जो 1890 ई० में 2,000 तक पहुंच गए।

कांग्रेस के उदारवादी नेताओं की यह धारणा थी कि अंग्रेज सच्चे और न्यायप्रिय हैं। कांग्रेस के आरम्भिक नेताओं का मानना था कि ब्रिटिश सरकार के समक्ष सार्वजनिक मुद्दों से सम्बन्धित माँगों को रखकर देश के प्रबुद्ध देशवासियों, नेताओं व कार्यकर्ताओं के मध्य राष्ट्रीय एकता की भावना जाग्रत की जा सकती है। कांग्रेस के 12वें अधिवेशन पर मुहम्मद रहीमतुल्ला ने कहा था कि, संसार में सूर्य के नीचे शायद ही कोई इतनी ईमानदार जाति हो, जितना की अंग्रेज।”

कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में संवैधानिक सुधारों की माँग की गई, जिसमें 1885 ई० के अधिनियम द्वारा निर्मित भारत सचिव व इण्डियन कौंसिल को समाप्त करने को कहा गया, क्योंकि उसमें कोई भी भारतीय प्रतिनिधि नहीं था। प्रान्तों में भी विधान परिषदों के पुनर्गठन की माँग रखी गई। इन माँगों के फलस्वरूप 1892 ई० का इण्डियन कौंसिल ऐक्ट पास हुआ, जिसके अनुसार केन्द्रीय एवं प्रान्तीय विधायिकाओं की सदस्य संख्या में वृद्धि की गई।

इस समय कांग्रेस ने देश की स्वतन्त्रता की माँग नहीं की, केवल भारतीयों के लिए रियायतें ही माँगी। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में बाल गंगाधर तिलक ने स्वराज्य शब्द का प्रयोग किया। किन्तु न तो यह शब्द लोकप्रिय हुआ और न ही इसका कांग्रेस के प्रस्तावों में उल्लेख था। न्यायपालिका के क्षेत्र में कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष माँग रखी कि शासन और न्याय कार्यों को अलग रखा जाए। अपने चौथे अधिवेशन में कांग्रेस ने माँग रखी कि भूमि कर को स्थायी, कम व निश्चित किया जाए और किसानों को शोषण से बचाने के लिए कानूनों में सुधार किए जाएँ। नागरिकों के सम्बन्ध में राजद्रोह सम्बन्धी कानून को वापस लिए जाने की माँग की। भारतीय सेना का देश से बाहर प्रयोग न किया जाए तथा सैनिक सेवा में भारतीयों को उच्च स्थान दिए जाएँ। कांग्रेस ने प्रशासन सुधार, प्रेस की स्वतन्त्रता आदि माँगों को भी सरकार के सम्मुख रखा। हालाँकि उदारवादियों का दृष्टिकोण देशहित में था परन्तु वे सरकार के समक्ष अपनी माँगें याचनापूर्वक व हीन शब्दों में रखते थे। जबकि सरकार का रुख प्रतिरोधात्मक था। अत: उनकी माँगों की उपेक्षा की गई। अन्ततः सरकार कांग्रेस को नापसन्द करने लगी।।

प्रश्न 2.
“भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारम्भिक चरण में उदारवादियों का आधिपत्य था।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरी प्रश्न संख्या-1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
राष्ट्रीय आन्दोलन में अतिवादियों के उदय की समीक्षा कीजिए।
उतर:
अतिवादियों अथवा गरम दल का उदय (1905-1919 ई०)- उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक कांग्रेस की नरमपंथी नीतियों के विरुद्ध असन्तोष बढ़ता जा रहा था। कांग्रेस के पुराने नेताओं और उनकी भिक्षा-याचना की नीति के फलस्वरूप कांग्रेस में एक नए तरुण दल का उदय हुआ, जो पुराने नेताओं के ढोंग एवं आदर्शों का कड़ा आलोचक बन गया। फलत: कांग्रेस दो गुटों में बँटने लगी- नरमपंथी और गरमपंथी। नरमपंथी नेताओं ने देश में राजनीतिक ढाँचे का तो निर्माण कर लिया था, परन्तु उसे वैचारिक स्थायित्व न मिला। वे अपनी विद्वता, देशभक्ति और समर्पण भावना में किसी से पीछे न थे, परन्तु उन्हें न तो अंग्रेजों की ईमानदारी और न्यायप्रियता पर सन्देह था और न ही उनका अपना कोई जनाधार। उन्होंने अपने भाषणों, विचारों और लेखों द्वारा शिक्षित समाज को राजनीतिक शिक्षा के सिद्धान्तों से परिचित कराया था, परन्तु अब आवश्यकता उसके व्यावहारिक प्रयोग की थी।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को स्थापित हुए 20 वर्ष हो चुके थे, परन्तु उसके फायदे समाज के सम्मुख दृष्टिगोचर नहीं हो रहे थे। नरमपंथियों का सम्पर्क मुख्यत: कुछ पढ़े-लिखे प्रबुद्ध लोगों तक ही सीमित था। उनकी पहुँच सामान्य जनता, कृषक, मजदूर, मध्यम वर्ग तक न थी। भारतीय जनमानस के बढ़ते हुए असन्तोष, सरकार की अकर्मण्यता और कांग्रेस की उदासीनता की अभिव्यक्ति राष्ट्रीय चेतना के रूप में हुई। इसके उन्नायक लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और विपिनचन्द्र पाल थे। उन्होंने भारतीय जनमानस में आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, देशभक्ति और साहस की भावना का संचार किया। अतिवादियों ने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए निम्नलिखित तरीके अपनाए

  • निष्क्रिय विरोध अर्थात् सरकारी सेवाओं, न्यायालयों, स्कूलों तथा कॉलेजों का बहिष्कार कर ब्रिटिश सरकार का विरोध।
  • स्वदेशी को बढ़ावा तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार।
  • राष्ट्रीय शिक्षा के द्वारा नए राष्ट्र का निर्माण।

राष्ट्रवादियों के अतिवादी विचार 1857 ई० के विद्रोह के बाद धीरे- धीरे बढ़ रहे थे। बदलती हुई परिस्थितियों में सरकार के द्वारा दमन किए जाने के बावजूद अतिवादी विचार तेजी से बढ़े। शताब्दी के अन्त तक असन्तोष की लहर ग्रामीण समाज, किसानों तथा मजदूरों तक फैल गई। इन परिस्थितियों ने कई नेताओं को अपनी माँगों और कार्यवाही को लेकर वाकपटु बना दिया। ये नेता अतिसुधारवादी या अतिवादी के नाम से जाने गए।

क्रान्तिकारी राष्ट्रीयता के बढ़ने के अनेक कारण थे। राजनीतिक रूप से जागरूक लोगों का नरमपंथी नेतृत्व के सिद्धान्तों तथा उनके कार्य के तरीकों से मोहभंग हो चुका था। 1892 ई० के भारतीय कौंसिल अधिनियम से लोगों को बहुत निराशा हुई तथा प्लेग और अकाल जैसी आपदाओं में ब्रिटिश सरकार द्वारा ठीक से प्रबंधन न किए जाने पर उनके प्रति कड़वाहट बढ़ती गई। दमनकारी ब्रिटिश नीतियों; जैसे-1898 ई० के राजद्रोह के विरुद्ध कानून और 1899 ई० के राजकीय गोपनीयता अधिनियम ने आग में घी का काम किया। इसके अन्य कारणों में आयरलैण्ड और रूस का क्रान्तिकारी आन्दोलन जैसी अन्तर्राष्ट्रीय घटनाएँ, निवेशों में भारतीयों का अपमान, अरविन्द घोष, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और विपिनचन्द्र पाल जैसे नेताओं के नेतृत्व में एक क्रान्तिकारी राष्ट्रवादी विचारों की शाखा का अस्तित्व में आना, शिक्षा प्रसार के बावजूद बेरोजगारी का बढ़ना आदि थे। अन्तत: लॉर्ड कर्जन की नीतियों के कारण हुए 1905 ई० के बंगाल विभाजन से जन-विरोध भड़क उठा।

प्रश्न 4.
गरम राष्ट्रवाद के उदय के क्या कारण थे?
उतर:
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में गरमवादी विचारधारा के उदय के निम्नलिखित कारण थे
(i) शासन द्वारा कांग्रेस की माँगों की उपेक्षा तथा 1892 ई० के सुधार कानून की अपर्याप्तता- उदारवादी नेताओं की अंग्रेजों की न्यायप्रियता तथा ईमानदारी में गहन आस्था थी। अतः उन्हें पूरी आशा थी कि ब्रिटिश सरकार उनके द्वारा प्रस्तावित सुधार प्रस्तावों को अवश्य ही अपनाएगी। उदारवादियों की प्रार्थनाओं और माँगों की पूर्ति के सन्दर्भ में ब्रिटिश शासन ने जो कुछ दिया, वह 1892 ई० का कौसिल एक्ट था। यह सुधार कानून निराशाजनक और अपर्याप्त था। इस अधिनियम द्वारा भारतीयों को वास्तविक अधिकार नहीं दिए गए थे। निर्वाचन की प्रणाली भी अप्रत्यक्ष ही रखी गई थी। कांग्रेस इन सुधारों से अप्रसन्न थी।

कांग्रेस निरन्तर विधानपरिषदों के विस्तार, निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि, परिषदों के अधिकारों के विस्तार, न्याय-सुधार तथा सिविल सर्विस परीक्षा भारत में कराए जाने की माँग करती रही, परन्तु सरकार ने उन्हें पूरा नहीं किया। एस०एन० बनर्जी का मत है- “विधानपरिषदों में निर्मित विधियाँ पूर्व-निश्चित होती थीं एवं वादविवाद औपचारिकता मात्र होता था, जिसे कुछ व्यक्ति धोखा कह सकते हैं।” लाला लाजपत राय ने कहा था-“भारतीयों को अब भिखारी बने रहने में सन्तोष नहीं करना चाहिए और उन्हें अंग्रेजों की कृपा पाने के लिए गिड़गिड़ाना नहीं चाहिए।’

(ii) हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान- कांग्रेस के उदारवादी नेता- गोपालकृष्ण गोखले, मदनमोहन मालवीय, रासबिहारी घोष आदि भारत और इंग्लैण्ड के सम्बन्धों को बड़े सम्मान की दृष्टि से देखते थे और ब्रिटिश संस्कृति की श्रेष्ठता में विश्वास रखते थे, जबकि गरम विचारधारा वाले नेता- बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, अरविन्द घोष और विपिनचन्द्र पाल इन विचारों से अप्रसन्न थे। उनके विचारों पर स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, श्रीमती ऐनी बेसेण्ट के इस विचार का प्रभाव पड़ा कि भारत की वैदिक संस्कृति पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति से कहीं अधिक श्रेष्ठ है।

धार्मिक पुनर्जागरण के प्रभाव से भारतीयों के मन तथा मस्तिष्क में पाश्चात्य वेशभूषा, शिक्षा, विचारधारा और जीवन पद्धति के विरुद्ध गहन प्रतिक्रिया थी। अरविन्द घोष का मत था- “स्वतन्त्रता हमारे जीवन का एक उद्देश्य है और हिन्दू धर्म हमारे उद्देश्य की पूर्ति करेगा। ……….. राष्ट्रीयता एक धर्म है और ईश्वर की देन है।” इस नवजागरण के प्रभाव के कारण ही उदारवाद ने अति राष्ट्रवाद का स्वरूप ग्रहण कर लिया। ऐनी बेसेण्ट ने कहा था कि सम्पूर्ण हिन्दू प्रणाली पश्चिमी सभ्यता से बढ़कर है। स्वामी दयानन्द तथा स्वामी विवेकानन्द के दिव्य विचारों से प्रभावित होकर अमेरिका के ‘दि न्यूयॉर्क हेराल्ड’ने सम्पादकीय टिप्पणी की थी कि हमें अनुभव हो रहा है कि उन सरीखे धर्म के विद्वत्जनों के देश में ईसाई पादरी भेजना कितनी बड़ी मूर्खता है।

(iii) आर्थिक शोषण- ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीतियों से भी युवा वर्ग में तीव्र आक्रोश व्याप्त था। सरकार की आर्थिक नीति का मूल लक्ष्य अंग्रेज व्यापारियों तथा उद्योगपतियों का हित करना था, न कि भारतीयों का। भारत सरकार ने भारतीय आर्थिक हितों को नि:संकोच ब्रिटिश व्यापारिक हितों के रक्षार्थ बलिदान कर दिया था। ब्रिटिश सरकार निरन्तर भारत विरोधी आर्थिक नीतियों का अनुसरण कर रही थी। पहले सूती माल पर आयात कर 5% था, सरकार ने इसे घटाकर 3.5% कर दिया और सरकार ने भारतीय मिलों पर 3.5% उत्पादन कर लगा दिया।

इससे भारतीय मिलों का काम-काज ठप हो गया। इस स्थिति ने भारतीयों के लिए बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न कर दी। सरकार की आर्थिक नीति के विरुद्ध भारतीयों में घोर असन्तोष व्याप्त हो गया। वे सरकारी नीति का विरोध करने लगे और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया जाने लगा। शिक्षित भारतीयों को भी अपनी योग्यतानुसार सरकारी पदों की प्राप्ति नहीं हुई, इसलिए उनमें भी असन्तोष की भावनाएँ तीव्र हो गईं। ए०आर० देसाई के शब्दों में- “शिक्षित भारतीयों में बेकारी से उत्पन्न राजनीतिक असन्तोष भारत में गरम राष्ट्रवाद के उदय का एक प्रमुख कारण रहा।” ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीति के कारण भारतीय वस्तुएँ महँगी हो गईं व विदेशी वस्तुएँ सस्ती हो गईं, जिसके कारण प्रतिस्पर्धा में भारतीय वस्तुएँ पीछे छूट गईं।

(iv) अकाल और प्लेग का प्रकोप- उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में देश में अकाल के भीषण बादल मँडराने लगे। 1876 ई० से 1900 ई० तक 25 वर्षों में देश में 18 बार अकाल पड़ा। 1896-97 ई० में बम्बई में सबसे भयंकर अकाल पड़ा। इस अकाल का प्रभाव 70 हजार वर्ग मील के क्षेत्र पर पड़ा तथा लगभग दो करोड़ लोग इसके शिकार हुए। यदि सरकार ने अपनी पूर्ण क्षमता और उत्साह से सहायता कार्य का बीड़ा उठाया होता तो अकाल इतना भीषण रूप धारण नहीं करता। अभी अकाल का घाव भरा भी न था कि बम्बई प्रेसीडेंसी में 1897-98 ई० में प्लेग का प्रकोप व्याप्त हो गया। पूना के आस-पास भयंकर प्लेग फैल गया, जिसमें सरकारी विज्ञप्ति के अनुसार 1 लाख 73 हजार व्यक्तियों की मृत्यु हुई।

प्लेग कमिश्नर रैंड ने सैनिकों को सेवा-कार्य सौंपा और उन्हें घरों में घुसने, निरीक्षण करने और रोगग्रस्त व्यक्तियों को अस्पताल पहुँचाने का दायित्व सौंपा। सैनिकों के अनैतिक कृत्यों से हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएँ आहत हुईं। अनेक स्थानों पर दंगे प्रारम्भ हो गए। एक नवयुवक दामोदर हरि चापेकर ने रैंड तथा उनके सहयोगी लेफ्टिनेन्ट ऐर्ट को अपनी गोली का शिकार बनाया। सरकार इन क्रान्तिकारी गतिविधियों से तिलमिला उठी और उसने कठोर कदम उठाए। महाराष्ट्र में अत्याचार का ताण्डव शुरू हो गया। ‘केसरी’ के सम्पादक तिलक को सरकार विरोधी भावनाएँ उभारने के लिए 18 मास के कठोर कारावास का दण्ड दिया गया। इससे देश में विद्रोह का तूफान उमड़ पड़ा। दामोदर हरि चापेकर द्वारा रैंड की हत्या यह सूचना दे रही थी कि भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रता का प्रवेश हो चुका है।

(v) अंग्रेजों की जाति विभेद की नीति- भारत तथा अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों में भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार का एक प्रमुख कारण अंग्रेजों द्वारा अपनाई गई जाति विभेद की नीति थी। भारतीयों को निम्न जाति का समझा जाता था। आंग्ल-भारतीय समाचार-पत्र खुले रूप में अंग्रेजों को भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार करने की भावना को प्रोत्साहन देते थे। लॉर्ड कर्जन की नीतियों ने जाति विभेद की नीति को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया। उन्होंने अपने एक भाषण में स्पष्ट कहा था- “पश्चिमी लोगों में सभ्यता और पूर्वी लोगों में मक्कारी पाई जाती है। इन जाति विभेद की नीतियों ने भारतीयों में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आक्रोश की भावना को उत्तेजित किया और उन्हें अति राष्ट्रवादी बना दिया।

(vi) अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का प्रभाव- इस काल में विदेशों में कुछ ऐसी घटनाएँ हुईं, जिनका भारतीयों पर विशेष प्रभाव पड़ा। इन घटनाओं के प्रभाव के कारण भारतीयों में दीनता और निराशा के स्थान पर राष्ट्रीय उत्साह और साहस की भावना का उदय हुआ। ऐसी प्रथम घटना 1897 ई० में अफ्रीका के एक छोटे से राष्ट्र अबीसीनिया द्वारा इटली को पराजित किया जाना था। गैरेट के शब्दों में- “इटली की हार ने 1897 ई० में तिलक के आन्दोलन को बल प्रदान किया। इसी प्रकार 1905 ई० में जापान द्वारा इटली को पराजित किए जाने की घटना से भारतीयों में यह भावना सुदृढ़ हुई कि अनन्य देशभक्ति, बलिदान और राष्ट्रीयता की भावना को अपने जीवन में उतारकर ही भारतीय स्वतन्त्रता के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।

अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में घटित इन घटनाओं का भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इसके अतिरिक्त इसी समय मित्र, फारस व टर्की में स्वाधीनता संघर्ष चल रहा था। आयरलैण्ड में स्वशासन के लिए व रूस में जारशाही के विरुद्ध आन्दोलन तीव्र गति से चल रहा था। इन सब घटनाओं ने भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना का व्यापक संचार किया। इन सब घटनाओं के अतिरिक्त इस सम्बन्ध में यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि मैजिनी, गैरीबाल्डी और कावूर के प्रेरक नेतृत्व में इटलीवासियों की राष्ट्रीय एकता एवं स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रयासों का भारतीयों पर विशेष प्रभाव पड़ा। गुरुमुख निहाल सिंह के शब्दों में- “…. भारतीय राष्ट्रीय नेताओं ने अपने देशवासियों में स्वदेश प्रेम जाग्रत करने के लिए इटली के उदाहरण से काम लिया।”

(vii) लॉर्ड कर्जन की दमनकारी नीतियाँ- लॉर्ड लैन्सडाउन और एल्गिन के दमनकारी शासन के बाद 1898 ई० में लॉर्ड कर्जन भारत के वायसराय बनकर आए। कर्जन साम्राज्यवादी प्रवृत्ति के पक्षपाती थे और राजनीतिक आन्दोलनों को पूर्णतः कुचल देने के पक्षधर थे। उन्होंने शासन-सत्ता सँभालते ही ऐसे कार्य करने प्रारम्भ कर दिए कि जनता में विद्रोह की चिंगारी भड़क उठी। उन्होंने केन्द्रीकरण की नीति अपनाई, जिससे साम्राज्यवाद की जड़ें गहराई तक पहुँचाई जा सकें। कलकत्ता कॉर्पोरेशन ऐक्ट (1904 ई०) पारित करके स्वायत्तशासी संस्थाओं पर सरकार का नियन्त्रण करने के लिए 25 निर्वाचित प्रतिनिधियों की संस्था कम कर दी।

भारतीय विश्वविद्यालय ऐक्ट (1904 ई०) के द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में भी सरकार के हस्तक्षेप को बढ़ाया गया। शिक्षित वर्ग में इन परिवर्तनों से बहुत अधिक असन्तोष व्याप्त हो गया और उसने इस विश्वविद्यालय ऐक्ट की कटु आलोचना की। ऑफीशियल सीक्रेट ऐक्ट (1904 ई०) के द्वारा सरकारी सूचनाओं का भेद देना व सरकार के विरोध में समाचार-पत्रों की आलोचना भी अपराध घोषित कर दिया गया। उनकी सैन्य नीति भी बहुत विवादास्पद थी। उन्होंने अधिक मात्रा में सैनिक व्यय किया। उनकी सैन्य नीति का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करना था।

इससे भी भारतीयों में असन्तोष बढ़ा। कर्जन का भारतीयों के प्रति बड़ा अभद्र और अन्यायपूर्ण व्यवहार था। 1905 ई० में एक दीक्षान्त भाषण में उन्होंने कहा था- “भारतीयों में सत्य के प्रति आस्था नहीं है और वास्तव में भारतवर्ष में सत्य को कभी आदर्श ही नहीं माना गया है। एक अन्य स्थान पर उन्होंने कहा था- “भारत राष्ट्र नाम की चीज नहीं है।” अत: लॉर्ड कर्जन की इन नीतियों ने गरम राष्ट्रवादी विचारधारा को पनपने का अवसर प्रदान किया। गोपालकृष्ण गोखले के अनुसार- “कर्जन ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए वही कार्य किया, जो मुगल शासन के लिए औरंगजेब ने किया था।

(viii) बंगाल का विभाजन- बंगाल विभाजन ने गरम राष्ट्रवाद को कार्य-रूप में परिणत होने का अवसर प्रदान किया। 1905 ई० में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन की घोषणा की। इसके परिणामस्वरूप केवल बंगाल में ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण देश में विद्रोह का तूफान उठ खड़ा हुआ। बंगाल के विभाजन के द्वारा कर्जन बंगाल की बढ़ती हुई राष्ट्रीयता की भावना को नष्ट करना चाहते थे। बंगाल विभाजन हिन्दू-मुसलमानों में फूट डालने के उद्देश्य से किया गया था। पूर्वी बंगाल के मुसलमानों को भड़काया गया था कि इस विभाजन का ध्येय उनके बहुमत का प्रान्त बनाना है। पूर्वी बंगाल के गवर्नर सर वैम्फाइल्ड फूलर ने कहा था- “उसकी दो स्त्रियाँ हैं- एक हिन्दू व एक मुसलमान, किन्तु वह दूसरी को अधिक चाहता है।”

बंगाल विभाजन से देश में समस्त राष्ट्रवादी विचारों को भयंकर रूप से आघात पहुँचा। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने स्पष्ट किया था बंगाल का विभाजन हमारे ऊपर बम की तरह गिरा है। हमने समझा कि हमारा घोर अपमान किया गया है।” बंगाल विभाजन का विरोध करने के लिए गोपालकृष्ण गोखले इंग्लैण्ड तक पहुँचे, किन्तु वहाँ उनके विरोधी स्वरों पर ध्यान नहीं दिया गया और वे निराशावस्था में ही भारत लौटे। उन्होंने कहा भी था- “नवयुवक यह पूछने लगे कि संवैधानिक उपायों का क्या लाभ है, यदि इनका परिणाम बंगाल का विभाजन ही होना था।” बंगाल विभाजन के विषय में डॉ० जकारिया का कथन है- “उद्देश्य और प्रभाव की दृष्टि से बंगाल का विभाजन-कार्य नितान्त धूर्ततापूर्ण था।” वस्तुत: बंगाल विभाजन का उद्देश्य भारतीयों की राष्ट्रीयता की भावना को कुचलना था, परन्तु व्यवहार में इसका विपरीत परिणाम निकला और गरमवादी राष्ट्रीयता की भावना सम्पूर्ण देश में फैल गई। इसके विरोध में सम्पूर्ण देश में जनसभाओं का आयोजन किया गया। अकेले बंगाल में ही 1,000 सभाएँ की गईं।

(ix) विदेशों में भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार- विदेशों में भारतीयों के प्रति बहुत अधिक दुर्व्यवहार किया जा रहा था। अफ्रीका से लौटकर डॉ० बी०सी० मुंजे ने कहा था कि हमारे शासक यह विश्वास नहीं करते कि हम भी मनुष्य हैं। भारतीयों के साथ दक्षिण अफ्रीका में अत्यन्त अपमानजनक व्यवहार किया गया। उन्हें प्रथम श्रेणी में रेल यात्रा की अनुमति नहीं थी। वे पगडण्डी पर नहीं चल सकते थे। रात्रि में 9 बजे के बाद घर से बाहर नहीं निकल सकते थे। इन्हीं अत्याचारों को समाप्त कराने के लिए गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह आन्दोलन का संचालन किया। इस आन्दोलन का प्रभाव भारतीय जनता पर भी पड़ा।

(x) नवयुवकों का भिक्षावृत्ति वाली नीति पर से विश्वास समाप्त हो जाना- कांग्रेस के प्रथम काल (1885-1905 ई०) में कांग्रेस की नीति उदारवादी तथा भिक्षावृत्ति वाली थी। किन्तु युवकों का एक ऐसा वर्ग बन गया था, जिसका इस नीति पर से विश्वास ही उठ गया और वे उग्र नीति का समर्थन करने लगे। इन उग्र राष्ट्रवादियों के तीन प्रमुख नेता थे- लाल, बाल तथा पाला ये नेता अटूट देशभक्त और ब्रिटिश शासन के कट्टर विरोधी थे। बालगंगाधर तिलक के शब्दों में, “हमारा आदर्श

दया की भिक्षा माँगना नहीं, अपितु आत्मनिर्भरता है। इसके साथ ही उनका नारा था- “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।” गरम विचारों वाले राष्ट्रवादियों के कार्यक्रम में विदेशी वस्तुओं तथा संस्थाओं का बहिष्कार करना और स्वदेशी आन्दोलन तथा राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना करना मुख्य मुद्दे थे। डॉ० ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में“उनके उपदेश, संगठन-पद्धति, विदेश विरोधी प्रचार और व्यायामशालाओं ने विद्रोह के ऐसे बीज बोए, जिनके अत्यधिक
व्यापक परिणाम हुए।”

(xi) राजनीतिक कारण- गरम राष्ट्रवाद का उदय होने तथा विकास में राजनीतिक कारणों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। सन् 1892 से 1904 ई० तक ब्रिटेन में कंजर्वेटिव पार्टी का शासन रहा, जिसने उग्र साम्राज्यवादी नीति को अपनाया। वे भारतीयों को किसी भी रूप में राजनीतिक अधिकार प्रदान करने तथा राजनीतिक संस्थाओं की संरचनाओं एवं शक्तियों में किसी भी प्रकार के परिवर्तन करने के पक्ष में नहीं थे। उनके द्वारा ऐसे कानूनों का निर्माण किया गया, जो भारतीयों के हितों के विरुद्ध थे। इसलिए धीरे-धीरे भारतीयों का ब्रिटिश न्यायप्रियता पर से विश्वास उठने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि अब स्वयं उदारवादी भी खुलकर ब्रिटेन की भारत विरोधी एवं साम्राज्यवादी नीतियों की आलोचना करने लगे।

(xii) पाश्चात्य क्रान्तिकारी आन्दोलनों तथा विचारधाराओं का प्रभाव- भारतीय नवयुवकों पर पाश्चात्य देशों में चलाए जा रहे क्रान्तिकारी आन्दोलनों, साहित्य एवं सिद्धान्तों ने बहुत गहरा प्रभाव डाला। विभिन्न देशों में स्वतन्त्रता के लिए चलाए गए आन्दोलनों ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत में भी संवैधानिक आन्दोलनों के द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्त करना कोई आसान कार्य नहीं है। सफलता को तो केवल शक्ति, विद्रोह एवं क्रान्ति के मार्ग के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। आयरलैण्ड का आदर्श भारतीय नवयुवकों के समक्ष था, जहाँ स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए उन्हें अपने रक्त का बलिदान करना पड़ा। इन परिस्थितियों से बाध्य होकर उदारवादियों में से ही ऐसे नवयवुकों का उदय हुआ, जिन्होंने ब्रिटिश सरकार की अनौचित्यपूर्ण नीतियों का विरोध करने का साहस किया। ऐसे ही नवयुवकों की विचारधारा को गरम राष्ट्रवाद के नाम से जाना जाता है। आगे चलकर इसी विचारधारा ने क्रान्तिकारी विचारधारा को जन्म दिया।

प्रश्न 5.
उदारवाद व गरम राष्ट्रवाद की विचारधाराओं में क्या अन्तर था?
उतर:
उदारवादी और गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी दोनों ही भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की दो विचारधाराएँ रही हैं। इन दोनों विचारधाराओं का अन्तर निम्नप्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है
(i) यद्यपि दोनों का मूल उद्देश्य एक था- स्वशासन की प्राप्ति, लेकिन स्वशासन के सम्बन्ध में दोनों के दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न | थे। उदारवादी ब्रिटिश शासन की अधीनता में प्रतिनिधित्व तथा संसदीय संस्थाओं की स्थापना करना चाहते थे तथा वे क्रमिक राजनीतिक सुधारों के पक्ष में थे। इसके विपरीत, गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी विदेशी शासन के कट्टर विरोधी तथा किसी भी रूप में उसके अस्तित्व के विरोधी थे।

(ii) उदारवादियों को अंग्रेजों की न्यायप्रियता में पूर्ण विश्वास था, जबकि गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों को अंग्रेजों की नीयत तथा उदारता में तनिक भी विश्वास नहीं था।

(iii) उदारवादियों के विचार में ब्रिटेन तथा भारत के हितों में मूलभूत विरोध नहीं था। इसके विपरीत, गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों की धारणा यह थी कि ब्रिटेन तथा भारत के हित एक-दूसरे से नितान्त विपरीत हैं।

(iv) उदारवादी भिक्षावृत्ति जैसे साधनों के समर्थक थे, जबकि गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी इन साधनों को अपनाना सम्मान के विरुद्ध समझते थे। गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों के प्रमुख साधन विदेशी वस्तुओं एवं संस्थाओं का बहिष्कार, स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा थे और बहिष्कार इनका सबसे प्रमुख साधन था।

(v) उदारवादी पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के पोषक थे, जबकि गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी प्राचीन हिन्दू धर्म, सभ्यता और संस्कृति तथा उसके आधार पर विकसित हिन्दू राष्ट्रीयता के समर्थक थे।

(vi) उदारवादियों के नेता गोपालकृष्ण गोखले थे और गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों के नेता बाल गंगाधर तिलक थे।

(vii) उदारवादी नौकरशाही व्यवस्था को पसन्द करते थे, किन्तु गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी इस व्यवस्था के विरोधी थे।

(viii) उदारवादी सरकार के साथ सहयोग करने में विश्वास रखते थे, किन्तु गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी सरकार से असहयोग करने के पक्षपाती थे।

(ix) उदारवादियों का आदर्श प्रेम व सेवा था, जबकि गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों का आदर्श सेवा और कष्ट सहना था।

(x) उदारवादी स्वशासन में विश्वास रखते थे और गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों की स्वराज्य में आस्था थी।

प्रश्न 6.
गोपालकृष्ण गोखले व बाल गंगाधर तिलक का परिचय देते हुए दोनों की विचारधारा के अन्तर को समझाइए।
उतर:
गोपालकृष्ण गोखले- कांग्रेस के उदारवादी नेताओं में गोपालकृष्ण गोखले का प्रमुख स्थान है। ये एक प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे। इनका जन्म 9 मई, 1866 ई० को महाराष्ट्र के एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सन् 1902 ई० में ये फर्युसन कॉलेज के प्रधानाध्यापक पद से सेवानिवृत्त हुए तथा अपनी बुद्धिमता और कर्त्तव्यपरायणता के कारण ‘सार्वजनिक सभा’ के मन्त्री बने। यह सभा बम्बई की एक प्रमुख राजनीतिक संस्था थी। सन् 1889 ई० में इन्होंने भारतीय राष्ट्रीयता कांग्रेस में प्रवेश किया।

सन् 1902 ई० में ये केन्द्रीय व्यवस्थापिका के सदस्य निर्वाचित हुए। सदस्य बनने के बाद इन्होंने नमक-कर-उन्मूलन, सरकारी नौकरियों में चुनाव, अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के प्रसार, स्वतन्त्र भारतीय अर्थव्यवस्था आदि के पक्ष में सराहनीय प्रयत्न किए। मिण्टो-मालें सुधार योजना के निर्माण में उनका सक्रिय योगदान रहा था। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए भी प्रयत्न किया। उनके अपने देश के प्रति नि:स्वार्थ सेवा-भाव को देखकर, लॉर्ड कर्जन जैसे व्यक्ति ने भी उनकी प्रशंसा में कहा था, “ईश्वर ने आपको असाधारण योग्यता दी है और आपने बिना किसी शर्त के इसको देश-सेवा में लगा दिया है।

सन् 1905- 1907 ई० में उन्होंने ब्रिटिश सरकार के प्रतिक्रियावादी कार्यों का कड़ा विरोध किया। इसके साथ ही स्वतन्त्रता को संवैधानिक ढंग से प्राप्त करने में भी प्रयत्न किया। इन्होंने सन् 1905 ई० में भारत सेवक समिति नामक संस्था की स्थापना की। इस संस्था का लक्ष्य मातृ-भाषा के प्रति आदर की भावना उत्पन्न करना और ऐसे सार्वजनिक कार्यकताओं को शिक्षित करना था, जो देश के उन्नति के लिए संवैधानिक रूप से कार्य करें। गोखले ने भारत में सुधारों की एक योजना भी तैयार की, जिसे गोखले की ‘राजनीतिक वसीयत’ या ‘इच्छा-पत्र’ कहा जाता है।

बाल गंगाधर तिलक- बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस के उग्रवादी दल के प्रतिभासम्पन्न नेता थे। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रवादी विचारधारा के वे ही जन्मदाता थे। उन्होंने ही सबसे पहले नारा लगाया, “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।” वास्तव में, उन्होंने ही देश में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन को तीव्र गति प्रदान की थी तथा कांग्रेस के आन्दोलन को जन-आन्दोलन में परिवर्तित करने का सराहनीय कार्य किया था।

बाल गंगाधर तिलक का जन्म 12 जुलाई, 1856 ई० में रत्नागिरि के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। अपना अध्ययन कार्य समाप्त करने के बाद वे ‘दक्षिण शिक्षा समिति द्वारा स्थापित पूना के न्यू इंग्लिश स्कूल में गणित के अध्यापक नियुक्त हो गए। तिलक जी स्वभाव से निर्भीक, दृढ़-निश्चयी एवं स्वाभिमानी थे। इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन देश की सेवा में समर्पित कर दिया। 1 अगस्त, 1920 ई० को ये 64 वर्ष की आयु पूरी कर स्वर्ग सिधार गए।

तिलक और गोखले की विचारधारा में अन्तर- तिलक एवं गोखले दोनों उच्चकोटि के महान् देशभक्त एवं राष्ट्रीय नेता थे किन्तु दोनों के विचारों में मौलिक अन्तर था। डॉ० पट्टाभि सीतारमैय्या ने अपने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में तिलक और गोखले की तुलना इस प्रकार की है- तिलक और गोखले दोनों ऊँचे दर्जे के देशभक्त थे। दोनों ने जीवन में भारी त्याग किया था, परन्तु उनके स्वभाव एक-दूसरे से बहुत भिन्न थे। यदि हम उस समय की भाषा का प्रयोग करें तो कह सकते हैं कि गोखले नरम विचारों के थे और तिलक गरम विचारों के। गोखले मौजूदा संविधान को मात्र सुधारना चाहते थे लेकिन तिलक उसे नए सिरे से बनाना चाहते थे। गोखले को नौकरशाही के साथ मिलकर कार्य करना था, तिलक को उससे अनिवार्यतः संघर्ष करना था। गोखले जहाँ सम्भव हो, सहयोग करने तथा जहाँ जरूरी हो, विरोध करने की नीति के पक्षपाती थे।

तिलक का झुकाव रुकावट तथा अडंगा डालने की नीति की ओर था। गोखले को प्रशासन तथा उनके सुधार की मुख्य चिन्ता थी, तिलक के लिए राष्ट्र तथा उसका निर्णय मुख्य था। गोखले का आदर्श था- प्रेम और सेवा, तिलक का आदर्श था- सेवा और कष्ट सहना। गोखले विदेशियों को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करते थे, तिलक का तरीका विदेशियों को देश से हटाना था। गोखले दसरों की सहायता पर निर्भर करते थे, तिलक अपनी सहायता स्वयं करना चाहते थे। गोखले उच्च वर्ग और शिक्षित लोगों की ओर देखते थे, तिलक सर्वसाधारण या आम जनता की ओर। गोखले का अखाड़ा था- कौंसिल भवन, तिलक का मंच था- गाँव की चौपाल। गोखले अंग्रेजी में लिखते थे, तिलक मराठी में। गोखले का उद्देश्य था- स्वशासन, जिसके लिए लोगों को अंग्रेजों द्वारा पेश की गई कसौटी पर खरा उतरकर अपने को योग्य साबित करना था, तिलक का उद्देश्य था- स्वराज्य, जो प्रत्येक भारतवासी का जन्मसिद्ध अधिकार था और जिसे वे बिना किसी बाधा की परवाह किए लेकर ही रहेंगे। गोखले अपने समय के साथ थे, जबकि तिलक अपने समय के बहुत आगे।।

प्रश्न 7.
होमरूल तथा माले मिण्टो सुधार पर टिप्पणी कीजिए।
उतर:
होमरूल आन्दोलन (1916 ई०)- स्वशासन प्राप्त करने का यह वैधानिक संगठन था। एनी बेसेण्ट ने 1 सितम्बर, 1916 में मद्रास (चेन्नई) में होमरूल लीग की स्थापना की। इसकी आठ स्थानों पर शाखाएँ खोली गई। मद्रास (चेन्नई) के चीफ जस्टिस सुब्रह्मण्यम् अय्यर का इसमें महत्वपूर्ण योगदान रहा। वस्तुतः होमरूल आन्दोलन की शुरूआत ही लोकमान्य तिलक ने की थी। मार्च, 1916 में तिलक ने पूना में होमरूल लीग की स्थापना की। लीग का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत सभी वैधानिक तरीकों से स्वशासन प्राप्त करना और इस दिशा में जनमत तैयार करना था। तिलक ने अपने मराठा तथा केसरी व एनी बेसेण्ट ने अपने ‘कॉमन वील’ तथा ‘न्यू इण्डिया’ नामक समाचार-पत्रों के माध्यम से गृह-शासन की माँग का जोरदार प्रचार किया। शीघ्र ही यह आन्दोलन समस्त भारत में फैल गया। इसी आन्दोलन के दौरान तिलक ने ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा दिया था। इंग्लैण्ड में भी होमरूल लीग की स्थापना हुई। मजदूर दल के नेता ‘होराल्ड लास्की’ ने इसे प्रोत्साहन दिया।

1917 ई० तक होमरूल आन्दोलन अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया। सरकार ने तिलक और एनी बेसेण्ट के बढ़ते हुए प्रभाव को गम्भीरता से देखा एवं दमनकारी नीति अपनाई। एनी बेसेण्ट को गिरफ्तार कर लिया तथा तिलक पर भी दिल्ली और पंजाब में आने पर प्रतिबन्ध लगाए गए। एनी बेसेण्ट की गिरफ्तारी के विरोध में जगह-जगह सभाएँ हुईं। स्थान-स्थान पर प्रदर्शन किए गए। मजबूर होकर सरकार ने एनी बेसेण्ट को छोड़ दिया। इन्हीं दिनों 20 अगस्त, 1917 को भारत सचिव मॉण्टेग्यू की प्रसिद्ध घोषणा हुई, इस घोषणा के अनुसार भारत में धीरे-धीरे उत्तरदायी सरकार देने का प्रावधान रखा गया। इस घोषणा के बाद होमरूल आन्दोलन समाप्त हो गया। मार्ले-मिण्टो सुधार (1909 ई०)- उत्तर के लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या-5 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित के विषय में संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए

(क) मुस्लिम लीग
(ख) गदर पार्टी
(ग) उदारवादी व अतिवादी
(घ) लखनऊ समझौता

उतर:
(क) मुस्लिम लीग- हिन्दू और मुसलमानों में पारस्परिक वैमनस्य पैदा करना बंगाल विभाजन का प्रमुख उद्देश्य था। लॉर्ड कर्जन अपने इस उद्देश्य में लगभग सफल हो चुका था। अब मुसलमानों को बंगाल विभाजन के पक्ष में करने के लिए अंग्रेजों ने प्रयास करना शुरू कर दिया। अंग्रेज सरकार ने भारतीय मुसलमानों को कांग्रेस विरोधी किसी संस्था को बनाने के लिए प्रेरित किया। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु अंग्रेजों के समर्थक ढाका के नवाब सलीमुल्ला खाँ ने ‘मोहम्मडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस के अवसर पर मुसलमानों के सामने एक अलग राजनीतिक संस्था बनाने का प्रस्ताव रखा। 30 दिसम्बर, 1906 ई० को नवाब बकर-उल-मुल्क की अध्यक्षता में मुस्लिम लीग’ की स्थापना करने का निर्णय लिया गया।

इस निर्णय से ब्रिटिश सरकार को बहुत प्रसन्नता हुई। क्योंकि उनकी ‘फूट डालो राज करो’ की नीति सफल हो रही थी। जल्दी ही तत्कालीन अंग्रेजी वायसराय लॉर्ड मिण्टो के निजी सचिव डनलप स्मिथ ने अलीगढ़ कॉलेज के प्रधानाचार्य आर्कबोल्ड को पत्र लिखकर मुसलमानों का एक शिष्टमण्डल अपनी माँगों के साथ वायसराय से मिलने के लिए आमंत्रित किया। अतः 1 अक्टूबर, 1906 ई० को आगा खाँ के नेतृत्व में एक मुस्लिम शिष्टमण्डल लॉर्ड मिण्टो से मिला। लॉर्ड मिण्टो ने मुसलमानों की माँगों को पूरा करने का आश्वासन दिया। परिणामस्वरूप 30 दिसम्बर, 1906 ई० में इसी शिष्टाण्डल ने मुस्लिम लीग की स्थापना की। इस लीग का पहला अधिवेशन नवाब सलीमुल्ला खाँ के नेतृत्व में ढाका में हुआ। अत: मुस्लिम लीग की स्थापना अंग्रेजो की ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति की सबसे बड़ी सफलता थी।

(ख) गदर पार्टी आन्दोलन- लाला हरदयाल ने 10 मई, 1913 को कैलिफोर्निया के यूली नामक नगर की एक सभा में गदर पार्टी की स्थापना की। पार्टी ने ‘गदर समाचार-पत्र’ भी निकाला। प्रथम महायुद्ध के समय गदर पार्टी ने इंग्लैण्ड के शत्रुओं से साँठगाँठ कर भारत में 21 फरवरी, 1915 को सशस्त्र क्रान्ति की योजना बनाई। लाहौर इसकी योजना का केन्द्र था। विष्णु गणेश पिंगले और रासबिहारी इसके प्रमुख आयोजक थे। किन्तु इस योजना का पता अंग्रेज अधिकारियों को लगने से यह असफल रही। उन्होंने लगभग सभी नेताओं तथा समर्थकों को गिरफ्तार कर लिया। गदर आन्दोलनकर्ताओं में से सत्रह व्यक्तियों को फाँसी के तख्ते पर लटका दिया गया। कई लोगों को आजीवन कारावास मिला। इनके अतिरिक्त गदर आन्दोलन से सम्बन्धित दो दर्जन अन्य सिक्खों को भी फाँसी दे दी गई। गदर पार्टी आन्दोलन में लाला हरदयाल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

इनकी गतिविधियों का केन्द्र अमेरिका रहा। भारत में भी इसके विस्तार के प्रयत्न हुए। इस हेतु अनेक प्रतिनिधिमण्डल भारत भेजे गए। भारत सरकार को अमेरिका व कनाड़ा से सिक्खों के आगमन से गहरी चिन्ता हुई। कामा गाता मारू नामक एक जलयान तीन सौ इक्यावन यात्रियों के साथ 26 सितम्बर, 1914 को हुगली पहुँचा। भारत सरकार ने 29 अगस्त को विदेशियों के लिए एक अध्यादेश पारित किया, जिसके अन्तर्गत किसी का भी भारत आगमन अवैध माना जा सकता था। इन भारतीयों को भी उपर्युक्त नियम के अन्तर्गत रोकने की कोशिश की गई। बजबज नामक बन्दरगाह पर जहाज पहुँचने पर तलाशी हुई और संघर्ष हुआ। अठारह यात्री मार दिए गए और लगभग पच्चीस यात्री घायल हो गए। वास्तव में यह विद्रोह नहीं था, क्रूर हत्याकाण्ड था। कुछ यात्रियों को पंजाब भेज दिया गया। इसी भॉति 29 अक्टूबर, 1915 को एक-दूसरा जहाज एस० एस० तोशामारू’ भारत पहुंचा।

(ग) उदारवादी व अतिवादी- सन् 1885- 1905 ई० के काल को उदारवादियों का काल अथवा उदार राष्ट्रवाद का काल भी कहा जाता है। प्रारम्भिक दौर में कांग्रेस की पूरी बागडोर उदारवादियों के हाथ में थी। इस समय भारतीय-राजनीति में ऐसे व्यक्तियों का प्रभाव था, जो उन अंग्रेजों में श्रद्धा रखते थे, जिनका उदारवादी विचारधारा में विश्वास था। दादा भाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, फीरोजशाह मेहता, रासबिहारी घोष, पंडित मदन मोहन मालवीय, गोपालकृष्ण गोखले आदि नेता उदारवादी विचारधारा के प्रमुख नेता थे। कुछ अंग्रेज भी उदारवादी विचारधारा के समर्थक थे, जिनमें छूम, विलियम वेडरवर्न, जॉर्ज यूल, स्मिथ प्रमुख थे। उदारवादी नेताओं ने कांग्रेस का दो दशकों (1885-1905 ई०) तक मार्गदर्शन किया। ये उदारवादी भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को अभिशाप नहीं वरन् वरदान समझते थे।

1895-1905 ई० के काल में भारत और विदेशों में कुछ ऐसी घटनाएँ हुईं और कुछ ऐसी शक्तियाँ क्रियाशील हुई, जिन्होंने भारतीय राष्ट्र के अपेक्षाकृत युवा वर्ग को पूर्ण स्वतंत्रता की माँग के लिए प्रेरित किया और कांग्रेस के पुराने नेताओं और उनकी भिक्षा-नीति के फलस्वरूप कांग्रेस में नए दल का उदय हुआ, जो पुराने नेताओं के ढोंग और आदर्शों का कड़ा आलोचक बन गया। यह दल अतिवादी कहलाया। अतिवादी विचारधारा के समर्थकों में आत्मबलिदान और स्वतंत्रता की भावना के साथ-साथ, प्रबल देश-प्रेम तथा विदेशी शासन के प्रति घृणा थी। इस विचारधारा के समर्थक उग्र नीति का प्रयोग चाहते थे। जिसके अन्तर्गत विदेशी वस्तुओं और शासन का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग एवं स्वशासन की स्थापना आदि को सम्मिलित किया जा सकता था। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय, विपिन चन्द्रपाल, अरविन्द घोष आदि अतिवादी प्रमुख नेता थे।

(घ) लखनऊ समझौता- 1907 ई० में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में कांग्रेस में फूट पड़ने से अतिवादी नेता, उदारवादी कांग्रेस से पृथक् हो गए। 1907 ई० से 1915 ई० तक कांग्रेस पर उदारवादी नेताओं का प्रभुत्व बना रहा। इस समय तक कांग्रेस अपनी भिक्षावृत्ति की नीतियों के कारण एक उत्साहहीन संस्था का रूप धारण कर चुकी थी। इसी पृष्ठभूमि में बम्बई (मुम्बई) कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस के संविधान में संशोधन कर दिया, जिसके अनुसार 1916 ई० में अतिवादी नेता कांग्रेस में प्रवेश कर सकते थे। 1916 ई० में कांग्रेस और मुस्लिम लीग का अधिवेशन लखनऊ में एक साथ ही आयोजित हुआ।

यह दो दृष्टियों से महत्वपूर्ण था- एक, इसमें अतिवादियों का पुन: प्रवेश और दूसरा, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मध्य समझौता। इस समझौते के अन्तर्गत कांग्रेस ने अस्थायी रूप से मुसलमानों के लिए साम्प्रदायिक निर्वाचन की बात मान ली और मुस्लिम लीग ने कांग्रेस की स्वशासन की मॉग का समर्थन करना स्वीकार कर लिया। यह समझौता लखनऊ पैक्ट के नाम से विख्यात है। इस प्रकार अनजाने में एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हो गई जिसकी परिणति भारत विभाजन के रूप में हुई। रोचक बात यह है कि लखनऊ समझौते में एक ओर बाल गंगाधर तिलक और एनी बेसेण्ट और दूसरी ओर मुहम्मद अली जिन्ना की अग्रणी भूमिका थी।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 13 Indian National Movement (1885-1919 AD) (भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन (1885-1919 ई०) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 13 Indian National Movement (1885-1919 AD) (भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन (1885-1919 ई०), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 10 Wages: Meaning and Theory

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 10 Wages: Meaning and Theory (मजदूरी : अर्थ एवं सिद्धान्त) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 10 Wages: Meaning and Theory (मजदूरी : अर्थ एवं सिद्धान्त).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 10
Chapter Name Wages: Meaning and Theory (मजदूरी : अर्थ एवं सिद्धान्त)
Number of Questions Solved 27
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 10 Wages: Meaning and Theory (मजदूरी : अर्थ एवं सिद्धान्त)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
मजदूरी किसे कहते हैं? वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करने वाले घटक बताइए।
या
नकद मजदूरी एवं असल मजदूरी से क्या तात्पर्य है ? असल मजदूरी को प्रभावित करने वाले कारकों का विश्लेषण कीजिए। [2011]
या
नकद मजदूरी और असल मजदूरी में अन्तर बताइए। असल मजदूरी के निर्धारक घटक बताइए।
उत्तर:
मजदूरी का अर्थ एवं परिभाषा
मजदूरी श्रम के प्रयोग का पुरस्कार है। इसके अन्तर्गत वे सब भुगतान सम्मिलित होते हैं जो श्रम को उसके द्वारा उत्पादन में की गयी सेवाओं के बदले में किये जाते हैं। “राष्ट्रीय लाभांश का वह भाग जो श्रमिकों को उनके (शारीरिक या मानसिक) श्रम के बदले में प्रतिफल के रूप में दिया जाता है, मजदूरी कहलाता है।”
मजदूरी की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैंवाघ के अनुसार, “मजदूरी में श्रमिक के द्वारा प्राप्त समस्त आय व भुगतान सम्मिलित होते हैं।”
प्रो० बेन्हम के अनुसार, किसी श्रमिक के द्वारा की गयी सेवाओं के उपलक्ष्य में, सेवायोजकों के द्वारा, समझौते के अनुसार किये जाने वाले मौद्रिक भुगतान को मजदूरी के रूप में परिभाषित किया जाता है।”
प्रो० सेलिगमैन के अनुसार, “श्रम का वेतन मजदूरी है।”
प्रो० एली के अनुसार, “श्रम की सेवाओं के लिए प्रदान की जाने वाली कीमतें ‘मजदूरी होती हैं।”
आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने मजदूरी शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया है। उनके अनुसार, किसी भी प्रकार के मानव श्रम के बदले में दिया जाने वाला प्रतिफल मजदूरी है, चाहे वह प्रति घण्टा, प्रतिदिन अथवा अधिक समय के अनुसार दिया जाए और उसका भुगतान मुद्रा, सामान या दोनों के रूप में हो।” अतः सभी प्रकार के मानव श्रम के बदले दिये जाने वाले प्रतिफल को मजदूरी कहते हैं।

मजदूरी के प्रकार / भेद
श्रमिकों को श्रम के बदले में जो मजदूरी प्राप्त होती है वह या तो मुद्रा के रूप में प्राप्त हो सकती है या वस्तुओं व सेवाओं के रूप में। इस आधार पर मजदूरी को दो भागों में बाँटा जा सकता है

1. नकद या मौद्रिक मजदूरी – “मुद्रा के रूप में श्रमिक को जो भुगतान किया जाता है, उसे मौद्रिक मजदूरी या नकद मजदूरी कहते हैं।”

प्रो० सेलिगमैन के अनुसार, “मौद्रिक मजदूरी उस मजदूरी को बतलाती है जो मुद्रा के रूप में दी जाती है।”
यदि एक मजदूर को कारखाने में काम करने पर ₹15 प्रतिदिन मजदूरी मिलती है, तब ये  ₹15 मजदूर की नकद मजदूरी है।।

2. असल या वास्तविक मजदूरी – श्रमिक को नकद मजदूरी के रूप में प्राप्त मुद्रा के बदले में प्रचलित मूल्य पर जितनी वस्तुएँ तथा सेवाएँ प्राप्त होती हैं, वे सब मिलकर उसकी असल या वास्तविक मजदूरी को सूचित करती हैं। वास्तविक मजदूरी के अन्तर्गत उन सब वस्तुओं तथा सेवाओं को भी सम्मिलित किया जाता है जो श्रमिक को नकद मजदूरी के अतिरिक्त प्राप्त होती हैं; जैसे-कम कीमत पर मिलने वाला राशन, बिना किराये का मकान, पहनने के लिए मुफ्त वर्दी आदि अन्य सुविधाएँ।

एडम स्मिथ ने वास्तविक मजदूरी की व्याख्या इस प्रकार की है, “श्रमिक की वास्तविक मजदूरी में आवश्यक तथा जीवनोपयोगी सुविधाओं की वह मात्रा सम्मिलित होती है जो उसके श्रम के बदले में दी जाती है। उसकी नाममात्र (मौद्रिक) मजदूरी में केवल मुद्रा की मात्रा ही सम्मिलित होती है। श्रमिक वास्तविक मजदूरी के अनुपात में ही गरीब अथवा अमीर, अच्छी या कम मजदूरी पाने वाला होता है, न कि नाममात्र मजदूरी के अनुपात में।”

प्रो० मार्शल के अनुसार, “वास्तविक मजदूरी में केवल उन्हीं सुविधाओं तथा आवश्यक वस्तुओं को शामिल नहीं करना चाहिए जो सेवायोजक के द्वारा प्रत्यक्ष रूप में श्रम के बदले में दी जाती हैं, बल्कि उसके अन्तर्गत उन लाभों को सम्मिलित करना चाहिए जो व्यवसाय-विशेष से सम्बन्धित होते हैं और जिसके लिए उसे कोई विशेष व्यय नहीं करना होता।”

असल या वास्तविक मजदूरी को निर्धारित करने वाले तत्त्व
असल मजदूरी निम्नलिखित तत्त्वों से निर्धारित होती है

1. द्रव्य की क्रय-शक्ति – द्रव्य की क्रय-शक्ति का श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। श्रमिक की असल मजदूरी इस बात पर निर्भर करती है कि वह मजदूरी के रूप में प्राप्त द्रव्य से कितनी वस्तुएँ एवं सेवाएँ खरीद सकता है। यदि द्रव्य की क्रय-शक्ति अधिक है तो श्रमिक अपनी मौद्रिक आय से वस्तुओं और सेवाओं की अधिक मात्रा खरीद सकेंगे और उनकी – वास्तविक मजदूरी अधिक होगी। मुद्रा की क्रय-शक्ति कम होने की स्थिति में श्रमिक की वास्तविक मजदूरी भी कम हो जाती है, क्योंकि वे अपनी मौद्रिक आय द्वारा बाजार से बहुत कम सामान खरीद पाते हैं। अतः स्पष्ट है कि श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी मुद्रा की क्रय-शक्ति पर निर्भर करती है।

2. अतिरिक्त सुविधाएँ – कुछ व्यवसायों में मजदूरों को मौद्रिक मजदूरी के अतिरिक्त अन्य सुविधाएँ एवं लाभ भी प्राप्त होते हैं; जैसे – मुफ्त सामान, सस्ता राशने, चिकित्सा सुविधा, पहनने के लिए वर्दी एवं यात्रा के लिए मुफ्त रेलवे पास आदि। इन अतिरिक्त लाभों के कारण वास्तविक मजदूरी में वृद्धि होती है। अतः किसी व्यवसाय में जितनी अधिक सुविधाएँ श्रमिक को मिलती हैं उतनी ही अधिक उनकी वास्तविक मजदूरी होती है।

3. अतिरिक्त आय की सम्भावना – यदि किसी व्यवसाय में श्रमिक अपने कार्य-विशेष के अतिरिक्त अन्य स्रोतों से भी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से आय में वृद्धि कर सकता है तो उस व्यवसाय में श्रमिक की असल मजदूरी अधिक मानी जाएगी।

4. कार्य की प्रकृति – वास्तविक मजदूरी को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला तत्त्व, कार्य की प्रकृति है। कुछ व्यवसाय अधिक थका देने वाले, जोखिमपूर्ण तथा अरुचिकर होते हैं; जैसे-ईंट ढोना, लोहा पीटना, हवाई जहाज चलाना, मेहतर का कार्य आदि। ऐसे व्यवसायों में लगे हुए श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी कम मानी जाती है। इसके विपरीत कुछ व्यवसाय रुचिकर, स्वास्थ्यप्रद एवं शान्तिपूर्ण होते हैं; जैसे-शिक्षक, वकील, डॉक्टर आदि का कार्य। इस प्रकार के व्यवसायों में लगे हुए लोगों की वास्तविक आय पहले प्रकार के व्यवसाय में लगे श्रमिकों की अपेक्षा अधिक होती है।

5. रोजगार को स्थायित्व – रोजगार का स्थायी होना भी श्रमिक की वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करता है। यदि रोजगार स्थायी है तो मौद्रिक मजदूरी कम होते हुए भी अधिक मानी जाएगी। तथा श्रमिक उस रोजगार में अपनी सेवाएँ देना पसन्द करेंगे। इसके विपरीत अस्थायी नियुक्ति में श्रमिक की असल मजदूरी कम होगी। इसी प्रकार मौसमी व्यवसायों में काम करने वाले श्रमिकों की असल मजदूरी अस्थायी रूप से कार्यरत श्रमिकों की अपेक्षा समान वेतन मिलने पर भी अधिक मानी जाती है।

6. भावी प्रोन्नति की आशा – जिन व्यवसायों में श्रमिक को उज्ज्वल भविष्य की आशा होती है, उनमें मौद्रिक मजदूरी कम होते हुए भी वास्तविक मजदूरी अधिक होती है। श्रमिकों को भावी उन्नति की आशा से जो सन्तोष मिलता है, वह वास्तविक आय में वृद्धि करता है।

7. काम करने की दशाएँ – कुछ व्यवसायों में काम करने की दशाएँ ठीक नहीं होतीं। उनमें स्वच्छ वायु, उचित प्रकाश व आराम की सुविधा आदि का अभाव होता है। श्रमिकों को खड़े-खड़े दूषित वातावरण में मशीनें चलानी पड़ती हैं। ऐसे व्यवसायों की वास्तविक मजदूरी कम मानी जाती है। इसके विपरीत सरकारी कार्यालयों एवं जिन व्यवसायों में उचित एवं स्वच्छ जल, वायु, प्रकाश, उत्तम फर्नीचर आदि की व्यवस्था एवं मालिकों का श्रमिकों के प्रति सद्व्यवहार होता है, उन व्यवसायों में वास्तविक मजदूरी अधिक होती है।

8. काम के घण्टे एवं अवकाश की सुविधा – काम करने के घण्टे एवं छुट्टियाँ भी असल मजदूरी को प्रभावित करती हैं। जिन श्रमिकों को कम घण्टे काम करना पड़ता है और अवकाश अधिक मिलता है उन श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी, अधिक घण्टों तक काम करने वाले एवं उचित छुट्टियाँ न मिलने वालों की अपेक्षा अधिक होती है। यदि दोनों श्रमिकों को समान मौद्रिक मजदूरी मिलती है, तब काम की दशाओं में भिन्नता होने के कारण वास्तविक मजदूरी में भी भिन्नता हो जाती है।

9. आश्रितों को काम मिलने की सुविधा – जिस व्यवसाय में श्रमिकों के आश्रितों को काम मिलने की सम्भावना होती है अथवा श्रमिक के परिवार के अन्य सदस्यों को काम मिल जाती है, उने व्यवसायों में श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी अधिक मानी जाती है। इस प्रकार के व्यवसायों में मौद्रिक मजदूरी कम होते हुए भी श्रमिक कार्य करनी पसन्द करेगा, क्योंकि कुल मिलाकर उसकी पारिवारिक आय बढ़ जाती है।

10. प्रशिक्षण की अवधि एवं व्यय – प्रत्येक कार्य को सीखने में कुछ समय लगता है और उस पर व्यय भी करना पड़ता है। किसी काम को सीखने में कितना समय एवं धन व्यय करना पड़ता है, इसका भी वास्तविक मजदूरी पर प्रभाव पड़ता है। जिन व्यवसायों के प्रशिक्षण में अधिक लम्बा समय तथा काफी व्यय करना पड़ता है, उस व्यवसाय में काम करने वाले श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी उन व्यवसायों की अपेक्षा कम मानी जाती है जिन व्यवसायों के काम सीखने में समय एवं धन का अधिक व्यय नहीं करना पड़ता।

11. व्यापार सम्बन्धी व्यय – कुछ व्यवसायों में कार्य करने वालों को अपनी कुशलता एवं योग्यता बनाये रखने के लिए पर्याप्त मात्रा में व्यय करना पड़ता है; जैसे-वकील तथा शिक्षकों को पुस्तकों, समाचार-पत्रों तथा पत्रिकाओं वे फर्नीचर आदि पर व्यय करना पड़ता है, किन्तु एक साधारण श्रमिक को इस प्रकार का व्यय नहीं करना पड़ता है। जिन व्यवसायों में व्यावसायिक व्यये अधिक होता है उनमें नकद मजदूरी अधिक होते हुए भी वास्तविक मजदूरी कम होती है, उन व्यवसायों की अपेक्षा उनमें किसी प्रकार का व्यावसायिक व्यय नहीं करना पड़ता।

12. व्यवसाय की सामाजिक प्रतिष्ठा – जिन व्यवसायों में सामाजिक प्रतिष्ठा अधिक प्राप्त होती है उन व्यवसायों में नकद मजदूरी कम होते हुए भी वास्तविक मजदूरी अधिक होती है तथा जिन कार्यों को करने से सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचती है उस व्यवसाय में अधिक नकद मजदूरी होते हुए भी वास्तविक मजदूरी कम होती है।

प्रश्न 2
मजदूरी-निर्धारण की माँग और पूर्ति का सिद्धान्त या मजदूरी के आधुनिक सिद्धान्त की पूर्णरूपेण व्याख्या कीजिए। [2007, 08, 10, 12, 15]
या
मजदूरी के आधुनिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2013, 15]
उत्तर:
मजदूरी-निर्धारण की माँग और पूर्ति का सिद्धान्त (आधुनिक सिद्धान्त)

मजदूरी-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त, माँग और पूर्ति का सिद्धान्त (Demand and Supply Theory) है। जिस प्रकार बाजार में किसी वस्तु की कीमत का निर्धारण उसकी माँग और पूर्ति की. शक्तियों के सन्तुलन द्वारा निर्धारित होता है, ठीक उसी प्रकार श्रम का मूल्य (मजदूरी) भी उसकी माँग और पूर्ति की शक्तियों से निर्धारित होता है।

श्रम की माँग – श्रम उत्पादन का एक अनिवार्य तथा सक्रिय उपादान है। इस कारण एक उत्पादक उत्पादन कार्य को सम्पादित करने के लिए श्रम की माँग करता है। जिस प्रकार मांग पक्ष की ओर से किसी वस्तु की कीमत उसके सीमान्त तुष्टिगुण (Marginal Utility) द्वारा निर्धारित होती है, ठीक उसी प्रकारे उत्पादक या उद्यमकर्ता श्रम की माँग करते समय उसकी सीमान्त उत्पादकता को ध्यान में रखता है। कोई भी उत्पादक श्रम की सीमान्त उत्पादकता के अनुसार श्रमिक की मजदूरी की अधिकतम सीमा निर्धारित करता है। इस सीमा से अधिक मजदूरी देने के लिए वह तैयार नहीं होता है। किसी मजदूर की सीमान्त उत्पादकता से अभिप्राय सीमान्त श्रमिक की उत्पादकता से होता है। सीमान्त उत्पादकता उत्पादन के अन्य साधनों को पूर्ववत् रखकर एक अतिरिक्त श्रमिक को बढ़ा देने अथवा घटी देने से उत्पादन की मात्रा में जो वृद्धि अथवा कमी होती है वह उसके द्वारा ज्ञात कर ली जाती है। यदि मजदूरी सीमान्त उत्पादकता से अधिक होगी तो सेवायोजक को हानि होगी और वह कम मजदूरों की माँग करेगा और यदि मजदूरी सीमान्त उत्पादन से कम है तो सेवायोजक या उद्यमी तब तक श्रम की माँग करता जाता है, जब तक श्रमिकों की मजदूरी उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर होती है।

श्रम की पूर्ति – श्रम की पूर्ति से अभिप्राय है कि श्रमिक प्रचलित मजदूरी की दरों पर अपने श्रम कों कितनी मात्रा में देने के लिए तत्पर हैं। सामान्यत: मजदूरी की दरें जितनी ऊँची होती हैं, श्रम की पूर्ति उतनी ही अधिक होती है। जिस प्रकार उत्पादक अपनी वस्तु की कीमत सीमान्त उत्पादन लागत से कम लेने के लिए तैयार नहीं होता है, ठीक उसी प्रकार श्रमिक अपने श्रम के बदले अपनी न्यनतम आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जितनी मजदूरी आवश्यक है, लेने के लिए तैयार होगा। इससे कम मजदूरी वह किसी भी स्थिति में नहीं लेगा, क्योंकि श्रमिक की कार्यक्षमता तथा रहन-सहन पर मजदूरी का प्रभाव पड़ता है। अतः श्रमिक अपने रहन-सहन के स्तर एवं प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए नीची मजदूरी की दर पर कार्य करने को तत्पर नहीं होगा, भले ही उसे अपने व्यवसाय में ही क्यों न परिवर्तन करना पड़े।

श्रम की मॉग एवं पूर्ति का सन्तुलन – श्रमिक की मजदूरी उसकी माँग और पूर्ति की सापेक्ष शक्तियों द्वारा उस बिन्दु पर निश्चित होती है जिस पर श्रम की माँग और पूर्ति का सन्तुलन स्थापित हो जाता है। उद्यमी द्वारा दी जाने वाली मजदूरी अर्थात् सीमान्त उत्पादिता जो कि उसकी अधिकतम सीमा होती है तथा श्रमिकों का उत्पादन व्यय अर्थात् सीमान्त त्याग या जीवन निर्वाह व्यय जो कि मजदूरी की निम्नतम सीमा होती है। इन दोनों सीमाओं के बीच मजदूरी उस बिन्द पर निर्धारित होती है जहाँ पर श्रम की माँग और पूर्ति में सन्तुलन हो जाता है। इन दोनों पक्षों में जो भी पक्ष प्रबल होता है वह मोल-भाव की शक्ति के द्वारा अपनी सीमा के निकट मजदूरी निर्धारित करने में सफल रहता है। यदि उद्यमी पक्ष प्रबल है तब मजदूरी सीमान्त त्याग के निकट निर्धारित होगी और यदि श्रमिकों का पक्ष प्रबल है तो मजदूरी का निर्धारण सीमान्त उत्पादिता के निकट होगा।

उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण – निम्न तालिका में मजदूरी की विभिन्न दरों पर श्रमिकों (मजदूरों) की माँग एवं पूर्ति की मात्राएँ दिखायी गयी है
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 10 Wages Meaninng and Theory 1
पर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि जैसे-जैसे दैनिक मजदूरी की दर बढ़ती जाती है वैसे-वैसे श्रमिकों की माँग में बराबर कमी होती जाती है। ₹15 मजदूरी की दर पर श्रमिकों की माँग एवं पूर्ति में साम्य है। अतः मजदूरी की दर का निर्धारण ₹15 प्रतिदिन होगा।

रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण – संलग्न चित्र में Ox-अक्ष पर श्रमिकों की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर दैनिक मजदूरी (₹ में) दिखायी गयी है। DD’ श्रम की माँग एवं ss श्रम की पूर्ति है
SS’ रेखाएँ हैं। ये रेखाएँ एक-दूसरे को E बिन्दु पर काटती हैं। यही । बिन्दु सन्तुलन बिन्दु है; अत: मजदूरी ₹150 प्रतिदिन निश्चित होगी। क्योंकि इस बिन्दु पर कुल माँम वक्र, कुल पूर्ति वक्र को काटता है।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 10 Wages Meaninng and Theory 2

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
मजदूरी के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
मजदूरी का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त
मजदूरी के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के प्रतिपादक, जे० बी० क्लार्क, प्रो० वॉन थयून तथा जेवेन्स आदि थे। मजदूरी के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के अनुसार, श्रमिकों की मजदूरी श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता के मूल्य के बराबर होने की प्रवृत्ति रखती है। सिद्धान्त हमें यह बतलाता है कि पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में मजदूरी श्रम की सीमान्त उत्पादकता से निश्चित होती है और साम्य बिन्दु पर वह उसके बराबर होती है।

श्रमिक की माँग उसके द्वारा किये जाने वाले उत्पादन के लिए की जाती है। उद्योगपति कभी भी श्रमिक को उससे अधिक मजदूरी नहीं देगा जितना कि वह उसके लिए पैदा करता है अर्थात् जो श्रमिक की सीमान्त उत्पादकता है।

सीमान्त उत्पादकता का अर्थ उत्पादन की उस मात्रा से है जो कि अन्य साधनों के पूर्ववत् रहने पर एक अतिरिक्त श्रमिक के बढ़ा देने अथवा घटा देने से बढ़ अथवा घट जाती है। उदाहरण के लिए-10 श्रमिक अन्य साधनों के साथ मिलकर 100 इकाइयों का उत्पादन करते हैं। यदि एक श्रमिक और बढ़ा दिया जाए तब यदि 110 इकाइयों का उत्पादन हो जाए तो श्रम की सीमान्त उत्पादकता 110 -100 = 10 इकाइयों के बराबर होगी। इस स्थिति में ग्यारहवाँ श्रमिक सीमान्त श्रमिक है तथा उसके द्वारा 10 इकाइयों का उत्पादन होता है।

इस प्रकार श्रमिकों की मजदूरी का निर्धारण श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता से होता है। यदि मजदूरी सीमान्त उत्पादकता से अधिक होगी, तो मालिक को हानि होगी और वे कम श्रमिकों को काम पर लगाएँगे और यदि मजदूरी सीमान्त उत्पादकता से कम है, तो उद्यमी अधिक श्रमिकों की माँग करेंगे। अत: सेवायोजक सन्तुलन की स्थिति स्थापित करके उस सीमा तक श्रमिकों को काम पर लगाएगा जहाँ पर श्रमिकों की मजदूरी उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर होती है।

मजदूरी-निर्धारण के सम्बन्ध में सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त का प्रयोग करते समय श्रम की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को ध्यान में रखना चाहिए—

  1. श्रमिक सामूहिक रूप से मजदूरी-निर्धारण के उद्देश्य से श्रम संघ बना सकते हैं। ऐसी स्थिति में मजदूरी ‘सीमान्त उत्पादकता’ से ऊँची हो सकती है।
  2.  श्रम की अपनी स्वतन्त्र इच्छा होती है। श्रमिक यह निर्णय लेने में स्वतन्त्र होते हैं कि वे किस दिन काम करेंगे अथवा नहीं।

सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की आलोचनाएँ

  1. यह सिद्धान्त केवल श्रम के माँग पक्ष पर ही ध्यान देता है, श्रम के पूर्ति पक्ष की ओर ध्यान नहीं देता।
  2. यह सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि श्रम की विभिन्न इकाइयाँ एक-सी होती हैं, परन्तु । वास्तव में ऐसा नहीं होता है। श्रम की विभिन्न इकाइयों में पर्याप्त भिन्नता हो सकती है।
  3. यह सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि श्रम में पूर्ण गतिशीलता होती है। श्रम की पूर्ण गतिशीलता की मान्यता गलत है।
  4. यह सिद्धान्त अवास्तविक तथा अव्यावहारिक है। यह सिद्धान्त पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में लागू होता है, परन्तु पूर्ण प्रतियोगिता व्यवहार में नहीं पायी जाती।

प्रश्न 2
नकद मजूदरी और असल मजदूरी में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2006, 10, 11, 12, 14, 15, 16]
या
वास्तविक मजदूरी एवं मौद्रिक मजदूरी में अन्तर लिखिए। वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करने वाले तत्वों को समझाइए। [2016]
या
मौद्रिक तथा वास्तविक मजदूरी में अन्तर लिखिए। [2015, 16]
उत्तर:
नकद तथा असल मजदूरी में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 10 Wages Meaninng and Theory 3
वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करने वाले तत्त्व

  1. श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी द्रव्य की क्रय-शक्ति पर निर्भर करती है।
  2. श्रमिकों को मिलने वाली अतिरिक्त सुविधाएँ भी वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करती हैं।
  3. कार्य करने का स्थान एवं काम करने की दशाएँ श्रमिक की वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करती हैं।
  4. कार्य की प्रकृति से भी वास्तविक मजदूरी प्रभावित होती है।
  5. श्रमिक को जिन व्यवसायों में अतिरिक्त आय की सम्भावना होती है उन व्यवसायों में वास्तविक आय अधिक होती है। इस प्रकार अतिरिक्त आय से वास्तविक मजदूरी प्रभावित होती है।
  6. रोजगार को स्थायी होना भी अक्सर वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करता है।
  7. भावी प्रोन्नति के अवसर वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करते हैं।
  8.  कार्य करने के घण्टे एवं अवकाश से भी वास्तविक मजदूरी प्रभावित होती है।
  9. आश्रितों को काम मिलने की सम्भावनाएँ भी वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करती है।
  10.  व्यवसाय की सामाजिक प्रतिष्ठा भी वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करती है।

प्रश्न 3
“ऊँची मजदूरी सस्ती होती है, जबकि नीची मजदूरी महँगी।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
ऊँची मजदूरी सस्ती होती है, जबकि नीची मजदूरी महँगी

उल्लिखित कथन सत्य है। इसे निम्नवत् स्पष्ट किया जा सकता है
प्रत्येक उत्पादक श्रमिक को उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर मजदूरी देना चाहता है अर्थात् उसके कार्य के परिणाम को देखना चाहता है। यदि उत्पादक ने श्रमिक को अधिक मजदूरी दी है तथा श्रमिक ने उसके बदले में श्रेष्ठ व उत्तम कार्य किया है तब यह अधिक मजदूरी भी सस्ती कहलाएगी, क्योंकि उसके द्वारा किया गया कार्य श्रेष्ठ व स्थायी होगा। इसके विपरीत, यदि श्रमिक को बहुत कम (न्यूनतम) मजदूरी देकर उससे सेवाएँ प्राप्त की जाती हैं तो वास्तव में वह मजदूरी सस्ती होते हुए भी महँगी होगी, क्योंकि कम मजदूरी लेने वाला श्रमिक प्रायः अधिक योग्य, निपुण एवं कार्यकुशल नहीं होगा, उसका स्वास्थ्य भी उत्तम नहीं होगा।

इस प्रकार कम मजदूरी वाला श्रमिक उत्तम, स्थायी वे श्रेष्ठ कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि वह कार्य में निपुण नहीं होगा। हो सकता है उसे दी गयी मजदूरी उसकी सीमान्त उत्पादिता से भी कम हो। इस प्रकार सस्ती मजदूरी महँगी होती है। जो व्यक्ति श्रमिकों को अधिक मजदूरी देता है वह श्रमिकों से अधिक व श्रेष्ठ कार्य की अपेक्षा करता है, अधिक मजदूरी से प्रोत्साहित होकर श्रमिक भी श्रेष्ठ व अधिक कार्य करते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति श्रमिकों को कम मजदूरी देते हैं वे श्रमिकों से अधिक वे उत्तम कार्य की अपेक्षा नहीं कर सकते तथा श्रमिक भी कम मजदूरी लेकर अच्छा व अधिक कार्य नहीं कर सकता।

यदि श्रमिकों को ऊँची मजदूरी दी जाती है, तब ऊँची मजदूरी से श्रमिकों का रहन-सहन का स्तर ऊँचा होता है तथा रहन-सहन ऊँचा होने से श्रमिकों की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है। कार्यक्षमता में वृद्धि होने से उत्पादन अधिक व श्रेष्ठ होता है, परिणामस्वरूप उत्पादन कार्य की उत्पादन लागत कम आती है, जिसके कारण उत्पादक को लाभ प्राप्त होता है। अधिक लाभ मिलने के कारण उत्पादक को अधिक मजदूरी भी कम दिखायी देती है। इसके अतिरिक्त ऊँची मजदूरी देने के कारण बाजार से कार्यकुशल श्रमिक प्राप्त हो जाते हैं, जो श्रेष्ठ व अधिक उत्पादन करते हैं, जिससे उत्पादन लागत कम आती है। इस कारण ऊँची मजदूरी भी कम प्रतीत होती है।

इसके विपरीत भी उत्पादक श्रमिकों को नीची मजदूरी देते हैं। उन्हें कम मजदूरी पर योग्य एवं कुशल श्रमिक प्राप्त नहीं होते हैं, जिसके अभाव में श्रेष्ठ व अधिक उत्पादन नहीं हो पाता है, जिसके कारण सस्ती मजदूरी अधिक मजदूरी प्रतीत होती है। अत: यह कथन सत्य है कि ऊँची मजदूरी सस्ती होती है, जबकि नीची मजदूरी महँगी होती है।

प्रश्न 4
मजदूरी-निर्धारण में श्रम संघ की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मजदूरी-निर्धारण में मजदूरी के नियमों के अतिरिक्त अन्य शक्तियों का भी प्रभाव पड़ता है, क्योंकि श्रम में कुछ मौलिक विशेषताएँ होती हैं। इन शक्तियों में श्रम संघ अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

उद्योगपतियों की तुलना में श्रमिकों में मोलभाव करने की क्षमता कम होती है। यद्यपि यह समझा जाता है कि मजदूरी उद्योगपतियों तथा श्रमिकों के बीच स्वतन्त्र प्रतियोगिता के आधार पर निर्धारित होती है, किन्तु व्यवहार में श्रमिक अनेक कारणों से मोलभाव करने में स्वतन्त्र नहीं होते। परिणाम यह होता है कि मजदूरों को उद्योगपतियों द्वारा दी गयी मजदूरी ही स्वीकार करनी पड़ती है जो प्रायः जीवन-निर्वाह व्यय के निम्नतम स्तर के आस-पास होती है। यही कारण है कि प्रायः मिल मालिक श्रमिकों का शोषण करते हैं तथा इस शोषण से बचने के लिए श्रमिक अपना संगठन बनाते हैं। वी० वी० गिरि के अनुसार, “श्रमिक संघ श्रमिकों द्वारा अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिए बनाये गये ऐच्छिक संगठन हैं।” मजदूरी-निर्धारण में श्रम संघों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। श्रम संघ नेताओं का विचार है कि श्रम संघ स्थायी रूप से मजदूरी में वृद्धि करा सकते हैं और भारत में पिछले वर्षों में श्रम संघ के प्रयत्नों के कारण ही मजदूरी की दरों में वृद्धि हुई है।

श्रम संघ मजदूरी-निर्धारण को अग्रलिखित प्रकार से प्रभावित कर सकते हैं

  1.  श्रम संघ मजदूरी की माँग एवं पूर्ति दोनों को प्रभावित कर सकते हैं। उनके द्वारा ये मजदूरी-निर्धारण पर अपना प्रभाव डालते हैं। श्रम संघ श्रमिकों की पूर्ति को नियन्त्रित करके तथा श्रमिकों की माँग में वृद्धि कराकर मजदूरी की दर में वृद्धि कराने का प्रयास कर सकते हैं।
  2. श्रम संघ मजदूरों की सौदा करने की शक्ति में वृद्धि करके भी उनकी मजदूरी में वृद्धि कराते हैं। श्रमिक संघ श्रमिकों को संगठित कर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप श्रमिकों की सौदा करने की । शक्ति में निश्चय ही वृद्धि हो जाती है। हड़ताल आदि के माध्यम से श्रम संघ सेवायोजकों को श्रमिकों की अधिकतम सीमान्त उत्पादकता के बराबर मजदूरी देने हेतु बाध्य करते हैं।
  3.  श्रमिक संघ श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता में वृद्धि करने का प्रयास करते हैं। श्रम संघ श्रमिकों की भलाई के बहुत-से ऐसे कार्य करते हैं जिससे उनकी कार्यकुशलता बढ़ जाती है, जिसके कारण वे अधिक उत्पादन करने में सक्षम हो जाते हैं। इस प्रकार उन्हें स्वत: ही ऊँची मजदूरी मिलने लगती है।

इस प्रकार, श्रम संघ मजदूरी-निर्धारण में अपना योगदान देकर मजदूरों की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने का प्रयास करते रहते हैं। वर्तमान में जो श्रमिकों की सुरक्षा तथा आर्थिक अवस्था एवं सुविधाओं में वृद्धि हुई है, इसका श्रेय श्रमिक संगठनों को ही है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार मजदूरी का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
या
मजदूरी किसे कहते हैं?
उत्तर:
आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने मजदूरी शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया है। उनके अनुसार, “किसी भी प्रकार के मानव-श्रम के बदले में दिया जाने वाला प्रतिफल मजदूरी है, चाहे वह प्रति घण्टा, प्रति दिन अथवा अधिक समय के अनुसार दिया जाए और चाहे उसका भुगतान मुद्रा, सामान या दोनों के रूप में हो। अत: सभी प्रकार के मानव-श्रम के बदले में दिये जाने वाले प्रतिफल को मजदूरी कहा जाना चाहिए।”

प्रश्न 2
वास्तविक मजदूरी क्या है ? समझाइए। [2007, 08, 09, 11]
उत्तर:
वास्तविक मजदूरी के अन्तर्गत उन सब वस्तुओं तथा सेवाओं को भी सम्मिलित किया जाता है जो श्रमिक को नकद मजदूरी के अतिरिक्त प्राप्त होती है। एडम स्मिथ के अनुसार, “श्रमिक की वास्तविक मजदूरी में आवश्यक तथा जीवन उपयोगी सुविधाओं की वह मात्रा सम्मिलित होती है जो उसके श्रम के बदले में दी जाती है। उसकी नाममात्र मजदूरी में केवल मुद्रा की मात्रा ही सम्मिलित होती है। श्रमिक वास्तविक मजदूरी के अनुपात में ही निर्धन में ही निर्धन अथवा धनी; अच्छी या कम मजदूरी पाने वाला होता है; न कि नाममात्र मजदूरी के अनुपात में।”

प्रश्न 3
‘मजदूरी-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त समझाइए।
उत्तर:
मजदूरी-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त माँग और पूर्ति के सामान्य सिद्धान्त का एक विशिष्ट रूप है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने इस सिद्धान्त के द्वारा मजदूरी-निर्धारण की समस्या का विश्लेषण पूर्ण प्रतियोगिता तथा अपूर्ण प्रतियोगिता दोनों की दशाओं में करने का प्रयत्न किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार मजदूरी उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर श्रम की माँग श्रम की पूर्ति के ठीक बराबर होती है।

प्रश्न 4
मजदूरी भुगतान की विधियाँ लिखिए। [2015]
या
मजदूरी भुगतान के किन्हीं दो आधारों को लिखिए। [2015]
उत्तर:
मजदूरी भुगतान की निम्नलिखित दो विधियाँ हैं

  1.  समयानुसार मजदूरी का भुगतान – जब श्रमिकों की मजदूरी काम करने के समय के अनुसार निश्चित की जाती है तो उसे समयानुसार मजदूरी कहते हैं। इस प्रकार की मजदूरी का भुगतान एक प्रकार का काम करने वाले श्रमिकों को एक ही दर से मजदूरी दी जाती है यद्यपि उनकी कार्यकुशलता में अन्तर होता है।
  2.  कार्यानुसार मजदूरी का भुगतान – इस भुगतान विधि में मजदूरों को उनके द्वारा किये गये काम के अनुसार भुगतान दिया जाता है।

निश्चित उत्तरीय प्रल (1 अंक)

प्रश्न 1
नकद मजदूरी से क्या अभिप्राय है ? [2006, 14]
या
मौद्रिक मजदूरी का अर्थ लिखिए। [2009]
उत्तर:
मुद्रा के रूप में श्रमिकों को जो भुगतान किया जाता है उसे मौद्रिक मजदूरी या नकद मजदूरी कहा जाता है या मुद्रा के रूप में एक श्रमिक को अपनी सेवाओं के बदले में जो कुछ मिलता है। वह उसकी नकद मजदूरी होती है।

प्रश्न 2
मजदूरी का जीवन-निर्वाह सिद्धान्त से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
मजदूरी के जीवन-निर्वाह सिद्धान्त के अनुसार मजदूरी की दर स्वत: जीवन-निर्वाह स्तर के द्वारा निर्धारित की जाती है। मजदूरी की दर मुद्रा की उस मात्रा के बराबर रहने की प्रवृत्ति रखती है। जो श्रमिकों को जीवन-निर्वाह स्तर पर बनाये रखने के लिए आवश्यक होती है।

प्रश्न 3
मजदूरी कोष सिद्धान्त से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
जे० एस० मिल के अनुसार, मजदूरी श्रम की माँग और पूर्ति पर निर्भर होती है अथवा वह जनसंख्या और पूँजी के अनुपात के द्वारा निश्चित की जाती है। जनसंख्या से अभिप्राय श्रमिकों की उस संख्या से है जो बाजार में अपना श्रम बेचने के लिए आते हैं और पूँजी से अभिप्राय चल पूँजी की उस मात्रा से है जो पूँजीपति प्रत्यक्ष रूप से श्रम को खरीदने पर व्यय करते हैं।

प्रश्न 4
मजदूरी कोष सिद्धान्त के अनुसार मजदूरी की दर का निर्धारण किस प्रकार होता है?
उत्तर:
मजदूरी कोष सिद्धान्त के अनुसार मजदूरी दर का निर्धारण निम्नलिखित सूत्र से किया जा सकता है
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 10 Wages Meaninng and Theory 4

प्रश्न 5
मजदूरी-निर्धारण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त क्या है ? [2010]
उत्तर:
मजदूरी-निर्धारण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त हमें बताता है कि पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में मजदूरी श्रम की सीमान्त उत्पादकता से निश्चित होती है और साम्य बिन्दु पर वह उसके बराबर होती है।

प्रश्न 6
श्रमिक की वास्तविक आर्थिक स्थिति का अनुमान मौद्रिक मजदूरी से लगाया जा सकता है या उसकी वास्तविक मजदुरी से। बताइए।
उत्तर:
श्रमिक की वास्तविक आर्थिक स्थिति का अनुमान केवल उसकी मौद्रिक आय को देखकर नहीं लगाया जा सकता। इसके लिए हमें उसकी असल मजदूरी को देखना होता है।

प्रश्न 7
वास्तविक मजदूरी को निर्धारित करने वाले दो तत्त्वों को बताइए।
उत्तर:
(1) मुद्रा की क्रय-शक्ति तथा
(2) कार्य करने की दशाएँ।

प्रश्न 8
मजदूरी कोष सिद्धान्त किन बातों पर निर्भर है ?
उत्तर:
मजदूरी कोष सिद्धान्त दो बातों पर निर्भर है

  1. मजदूरी कोष तथा
  2. रोजगार की। तलाश करने वाले श्रमिकों की संख्या।

प्रश्न 9
मजदूरी की दरों में भिन्नता के कोई दो कारण बताइए।
उत्तर:
मजदूरी की दरों में भिन्नता के निम्नलिखित दो कारण हैं

  1.  श्रमिकों की कार्यकुशलता एवं योग्यता में अन्तर तथा
  2.  काम का स्वभाव।

प्रश्न 10
मजदूरी के दो प्रकार लिखिए। [2011]
उत्तर:
(1) नकद मजदूरी व
(2) असल मजदूरी।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
मजदूरी का जीवन-निर्वाह सिद्धान्त का समर्थन किया है
(क) एडम स्मिथ ने
(ख) माल्थस ने
(ग) रिकाड ने
(घ) कार्ल माक्र्स ने।
उत्तर:
(क) एडम स्मिथ ने।

प्रश्न 2
मजदूरी कोष सिद्धान्त को अन्तिम रूप दिया
(क) एडम स्मिथ ने
(ख) रिकाडों ने
(ग) माल्थस ने
(घ) जे० एस० मिल ने
उत्तर:
(घ) जे० एस० मिल ने।

प्रश्न 3
मजदूरी का अवशेष अधिकारी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया
(क) वाकर ने
(ख) एडम स्मिथ ने
(ग) प्रो० मार्शल ने
(घ) जे० एस० मिल ने
उत्तर:
(क) वाकर ने।

प्रश्न 4
मजदूरी = कुल उपज – (लगान + लाभ + ब्याज) यह मजदूरी का सिद्धान्त है
(क) मजदूरी कोष सिद्धान्त
(ख) मजदूरी की माँग और पूर्ति का सिद्धान्त
(ग) मजदूरी का अवशेष अधिकारी सिद्धान्त
(घ) मजदूरी को सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त
उत्तर:
(ग) मजदूरी का अवशेष अधिकारी सिद्धान्त।।

प्रश्न 5
मजदूरी-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त है
(क) माँग और पूर्ति के सामान्य सिद्धान्त का विशिष्ट रूप
(ख) सीमान्त उत्पादिता सिद्धान्त का शुद्ध रूप
(ग) मजदूरी कोष सिद्धान्त को विकसित रूप
(घ) मजदूरी का जीवन निर्वाह सिद्धान्त का परिवर्तित रूप
उत्तर:
(क) माँग और पूर्ति के सामान्य सिद्धान्त का विशिष्ट रूप।

प्रश्न 6
वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करने वाला तत्त्व है [2016]
(क) मुद्रा की क्रय शक्ति
(ख) भत्ते
(ग) कार्य का स्वभाव
(घ) ये सभी
उत्तर:
(घ) ये सभी।

प्रश्न 7
किसने कहा, “श्रम की सेवा के लिए दिया गया मूल्य मजदूरी है? [2015]
(क) मार्शल
(ख) कीन्स
(ग) माल्थस
(घ) शुम्पीटर
उत्तर:
(क) मार्शल।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 10 Wages: Meaning and Theory (मजदूरी : अर्थ एवं सिद्धान्त) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 10 Wages: Meaning and Theory (मजदूरी : अर्थ एवं सिद्धान्त), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi समस्यापरक निबन्ध

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi समस्यापरक निबन्ध are part of UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi समस्यापरक निबन्ध.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name समस्यापरक निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi समस्यापरक निबन्ध

समस्यापरक निबन्ध

भारत की वर्तमान प्रमुख समस्याएँ

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. कश्मीर की समस्या,
  3. भाषा की समस्या,
  4. जातिवाद व साम्प्रदायिकता की समस्या,
  5. क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता की समस्या,
  6. अस्पृश्यता की समस्या,
  7. जनसंख्या एवं बेकारी की समस्या,
  8. स्त्री-शिक्षा की समस्या,
  9. बाल-विवाह एवं दहेज प्रथा की समस्या,
  10. मूल्य-वृद्धि एवं भ्रष्टाचार की समस्या,
  11. उपसंहार

प्रस्तावना-भारत एक विशाल देश है। यहाँ अनेक धर्मों और सम्प्रदायों के लोग निवास करते हैं। वर्षों तक गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहने के कारण गुलामी की प्रवृत्ति मानसिक रूप से हमारे ऊपर अपना अस्तित्व बनाये हुए है। देश के महान् नेताओं ने सोचा था कि देश के विभाजन और प्राप्त स्वतन्त्रता के बाद देश जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद आदि के चोले को उतारकर फेंक देगा तथा एक शक्तिशाली-सुदृढ़ राष्ट्र के रूप में विश्व-मंच पर उभर सकेगा। लेकिन इतने दिनों की दीर्घकालीन गुलामी का कष्ट भोगने के बाद भी हमारे बाह्य व आन्तरिक मतभेद, द्वेष व कलह अभी तक मिट नहीं सके हैं।

एक राष्ट्र को सबल बनने के लिए दूसरे राष्ट्रों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है और उसके विकास के मार्ग में अनेक समस्याएँ आती हैं। 15 अगस्त, 1947 ई० को जब भारत ने स्वतन्त्रता के बाद शिशु रूप में जन्म लिया, तभी से अनेक समस्याओं रूपी रोगों ने इसे घेर लिया। इनमें से कुछ समस्याओं का समाधान हो चुका है और कुछ समस्याएँ आज भी देश को जर्जर कर रही हैं।

कश्मीर की समस्या-अंग्रेजों की “फूट डालो और राज करो’ की नीति ने मूल रूप से कश्मीर समस्या को हवा दी। फलतः इसके विलय की समस्या को लेकर भारत और पाकिस्तान में आपसी मतभेद पैदा हो गया। इस मतभेद को दूर करने के लिए दोनों देशों के नेताओं ने शिमला में एकत्रित होकर आपस में समझौता किया, लेकिन उसके बावजूद आज भी पाकिस्तान भारत के प्रति द्वेष भावना रखे हुए है। वह सैनिक बल से कश्मीर को हड़पने की योजना बनाता रहता है तथा उसके लिए सक्रिय रूप से सदैव प्रयास भी करता रहता है। इसके कुछ भाग पर उसने अधिकार कर लिया है और शेष भाग को हड़पने को नाजायज इरादा रखता है। विकसित देशों की गुटबन्दियों के कारण संयुक्त राष्ट्र भी कश्मीर समस्या का कोई समाधान नहीं खोज सका है। उधर पाकिस्तान कश्मीर में वर्षों से घुसपैठियों के द्वारा आतंक फैलाये हुए है। इन आतंकवादी गतिविधियों पर नियन्त्रण पाने के लिए और राज्य का बहुमुखी विकास करने की दृष्टि से सन् 1989 में कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। पाक प्रशिक्षित घुसपैठियों और आतंकवादियों ने कश्मीर में कहर ढा रखा है।

आज वहाँ सर्वत्र अशान्ति व अराजकता फैली हुई है। वहाँ के अल्पसंख्यक हिन्दू अपना सब कुछ छोड़कर शरणार्थी बन गये हैं। पाकिस्तान निरन्तर कश्मीर, पंजाब और राजस्थान की सीमाओं से प्रशिक्षित आतंकवादियों को भारत में प्रवेश करा रहा है, जिससे अवैध तस्करी को बढ़ावा मिल रहा है। थोड़े-थोड़े अन्तराल के बाद पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सीमा-चौकियों पर गोलाबारी और हमले करते रहते हैं जिसका भारतीय सीमा सुरक्षा बल भी मुंहतोड़ जवाब देता रहता है। निष्कर्षत: पाकिस्तान के सभी प्रधानमन्त्री और राष्ट्राध्यक्ष युद्धोन्माद में जी रहे हैं। इस सन्दर्भ में अनेक बार हुई वार्ताएँ विफल हो गयी हैं। 16 जुलाई, 2001 को आगरा शिखर वार्ता का एक तल्ख वातावरण में हुआ समापन, इसी श्रृंखला की एक कड़ी है। इस पर भी हमारा देश शान्ति का पक्षधर है और इस समस्या का समाधान भी शान्ति से ही करना चाहता है।

भाषा की समस्या-सम्पूर्ण राष्ट्र की भाषा हिन्दी अथवा अंग्रेजी अथवा कोई अन्य भारतीय भाषा हो, इस प्रश्न को लेकर देश में लोगों का आपसी मनमुटाव बहुत दिनों तक बना रहा और अब हिन्दी के राष्ट्रभाषा बन जाने पर भी अन्य भाषा-भाषी क्षेत्र इसका विरोध करते रहते हैं। आज भाषावाद राजनीति का चोला धारण किये हुए है। इसी भाषावाद के आधार पर पृथक्-पृथक् राज्यों की माँग बलवती होती है और अपनी बोली या विभाषा के आधार पर अनेक आन्दोलन होते हैं। इस समस्या का एकमात्र समाधान यह है कि हम राष्ट्रभाषा को संकीर्ण मानसिकता की दृष्टि से न देखें, वरन् उसे समाज की अभिव्यक्ति मानकर उसका सम्मान करें। इसी तरह सभी क्षेत्रीय भाषाओं को भी एक समान सम्मान दिया जा सकता है।

जातिवाद व साम्प्रदायिकता की समस्या-जातीयता और साम्प्रदायिकता आदि भी ऐसी ही संकीर्ण भावनाएँ हैं, जो राष्ट्र की प्रगति में बाधक सिद्ध होती हैं। जातीय प्रथा के कारण ही एक जाति दूसरी जाति के प्रति घृणा और द्वेष की भावना रखती है। विगत वर्षों में जातिगत आधार पर हो रहे आरक्षण के विवाद पर लोगों ने तोड़-फोड़, आगजनी और आत्मदाह जैसे कदम उठाये और देश की राष्ट्रीय एकता को झकझोर दिया। इसी प्रकार देश में साम्प्रदायिक भावना की प्रबलता भी दिखाई पड़ती है। साम्प्रदायिकता धर्म को संकुचित दृष्टिकोण है। स्वतन्त्रता के पश्चात् देश की राजनीति में आये घटियापन के कारण प्रत्याशियों का निर्धारण भी अब जाति और सम्प्रदाय के मतदाताओं की संख्या के आधार पर किया जाता है। यह साम्प्रदायिक विद्वेष भारत की प्रमुख समस्याओं में से एक है, जिसका निदान समय रहते नहीं किया गया तो यह बहुत बड़ी समस्या का रुख अख्तियार कर लेगा।

क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता की समस्या-जातीयता का ही विशाल रूप आज हमें प्रान्तीयता की भावना में परिवर्तित हुआ प्राप्त होता है। प्रान्तीयता के पचड़े में पड़ कर पंजाबी-पंजाबी का, मद्रासी-मद्रासी का और गुजराती-गुजराती का ही विकास चाहता है। इससे प्रान्तों में कलह पैदा होता है और प्रान्तीय अलगाववादी भावना बलवती होने लगती है। हमें संकीर्णता त्याग कर; हम सब भारतीय हैं, एक ही देश के निवासी हैं, एक ही धरती के अन्न-जल से हमारा पोषण होता है; इन भावनाओं का आदर करना चाहिए। इसके साथ-साथ क्षेत्रीयता के नाम पर पृथकता का घिनौना खेल खेल रहे राजनेताओं की स्वार्थी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना भी आवश्यक है।

अस्पृश्यता की समस्या-यह भी हमारे देश की प्रमुख समस्या है। यह हिन्दू समाज का सबसे बड़ा कलंक है। पुरातन युग में धर्म की दुहाई देकर धर्म के ठेकेदारों ने समाज के एक आवश्यक अंग को समाज से दूर कर, उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया। इन्हें शूद्र कहकर छूत-छात की प्रथा को जन्म दिया। सन्तोष का विषय है कि वर्तमान भारत में इस ओर ध्यान दिया गया है। भारतीय संविधान ने हरिजनों को समानता का अधिकार प्रदान किया है।

जनसंख्या एवं बेकारी की समस्या--जनसंख्या की दृष्टि से भारत का विश्व में दूसरा स्थान है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद बढ़ते-बढ़ते देश की जनसंख्या अब 121 करोड़ से भी अधिक हो गयी है। माल्थस के मतानुसार, “मानव में सन्तान पैदा करने की प्रवृत्ति स्वाभाविक होती है। इसी इच्छा और प्रवृत्ति के कारण जनसंख्या की वृद्धि होती है। हमारे देश में जनसंख्या की इस वृद्धि के अनुपात से उद्योग-धन्धों का विकास नहीं हो पा रहा है, जिससे देश में बेकारी की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। आज भूमि की कमी से कृषक और पदों के अभाव में शिक्षित लोग बेकार बैठे हैं। खाली मस्तिष्क शैतान का घर होता है। आज बेकारी के कारण वह सब कुछ अपने चरम रूप में हो रही है जैसा स्वामी रामतीर्थ ने कहा था, “जब किसी देश की जनसंख्या इतनी बढ़ जाती है कि आवश्यकतानुसार सभी को सामग्री प्राप्त नहीं होती, तब देश में भ्रष्टाचार को जन्म होता है। भारत सरकार जनसंख्या की इस वृद्धि को रोकने और बेकारी की समस्या को हल करने का पर्याप्त प्रयास कर रही है।

स्त्री-शिक्षा की समस्या--समाज रूपी गाड़ी को चलाने के लिए स्त्री और पुरुष दो पहिये हैं। इनमें से किसी एक के अभाव और कमजोर होने पर समाज को सन्तुलन बिगड़ सकता है। अस्तु, समाज में पुरुष के समान स्त्री का भी शिक्षित, समर्थ और योग्य होना परमावश्यक है। पुरातन युग में समुचित शिक्षा के कारण स्त्रियाँ विदुषी हुआ करती थीं। मध्य युग में मुस्लिम आक्रमण काल में परदा प्रथा का जन्म हुआ। फलतः स्त्रियाँ विवेकहीन और अन्धविश्वासी बन गयीं। इस कारण उनमें शिक्षा का स्तर निरन्तर गिरता ही रहा। देश के स्वतन्त्र होने के सढ़सठ वर्षों के बाद आज भी देश की लगभग आधी स्त्री-जनसंख्या पूर्णरूपेण निरक्षर है। अब भारत सरकार इस ओर विशेष ध्यान दे रही है तथा इनकी समस्याओं को सुलझाने के लिए संविधान में भी स्पष्ट निर्देश हैं।

बाल-विवाह एवं दहेज-प्रथा की समस्या-पुरातन युग में बाल-विवाह का प्रचलन था, किन्तु आज भी अशिक्षित व अल्पशिक्षित समाज में बहुत-ही छोटी अवस्था में विवाहों का प्रचलन है। बाल-विवाह का प्रभाव आयु पर भी पड़ता है। सरकार ने कानून का निर्माण कर बाल-विवाह पर अंकुश लगाने का प्रयास किया है। आजकल विवाहों में पर्याप्त धन की माँग वर पक्ष द्वारा कन्या पक्ष से की जाती है, जिससे समाज लड़की के जन्म होने को ही बुरा समझने लगा है। मध्ययुग में तो कन्या का जन्म ही अभिशाप माना जाता था। इस दहेज रूपी समस्या का उन्मूलन किया जाना चाहिए। दहेज लेने व देने वाले को कानून के अन्तर्गत दण्डित करने के प्रावधान भी किये गये हैं।

मूल्यवृद्धि एवं भ्रष्टाचार की समस्या-आज कमरतोड़ महँगाई सम्पूर्ण समाज पर अपना प्रभाव जमाये हुए है। आज का सामान्य मनुष्य अपनी आय से अपने व अपने परिवार के लिए भरपेट भोजन भी नहीं जुटा पाता। फलत: वह भ्रष्ट साधनों को अपनाता है। रिश्वत, काला बाजार, सिफारिश और अनुचित साधनों की प्रवृत्ति, सभी इस भ्रष्टाचार के परिवर्तित रूप हैं। बड़े-बड़े नेता, मन्त्री, अधिकारी, व्यापारी और सरकारी कर्मचारी सभी इसमें पूणरूपेण लिप्त हैं। भ्रष्टाचार की इसी प्रवृत्ति के कारण तस्करी की नयी-नयी योजनाएँ बन रही हैं जिन पर अंकुश लगाने के लिए सरकार पर्याप्त प्रयास कर रही है, लेकिन इस पर आंशिक अंकुश ही सम्भव हो सका है।

उपसंहार-इन प्रमुख समस्याओं के अतिरिक्त भी, आतंकवाद, काले धन की वृद्धि आदि; अनेकानेक समस्याएँ हैं जो राष्ट्र की प्रगति और राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक हैं। इन समस्याओं के निराकरण के लिए केवल सरकार को ही नहीं, वरन् समस्त भारतीयों को एकजुट होकर सम्मिलित प्रयास करना चाहिए। इस दिशा में धार्मिक महापुरुषों, समाज-सुधारकों, बुद्धिजीवियों, विद्यार्थियों और महिलाओं को विशेष रूप से सक्रिय होना चाहिए। जनता को यह समझना चाहिए कि किसी जाति या सम्प्रदाय से जोड़कर हमें अलग-अलग स्वरूप देने वाले राजनीतिज्ञ देश के सच्चे भक्त और सेवक नहीं हैं, अपितु स्वार्थी और सत्तालोलुप हैं। यह स्वाथ और पद-लोलुपता तभी समाप्त होगी, जब देश की जनता अपने आपको एक समझेगी और समग्र भारत में अपने को प्रतिष्ठापित कर देगी। तब वह दिन दूर नहीं रह जाएगा जब भारत विश्व में पुनः सोने की चिड़िया कहलाएगा।

भारत में जनसंख्या-वृद्धि की समस्या [2010]

सम्बद्ध शीर्षक

  • जनसंख्या-विस्फोट और निदान
  • जनसंख्या-वृद्धि : कारण और निवारण [2015]
  • बढ़ती जनसंख्या : एक गम्भीर समस्या
  • परिवार नियोजन
  • बढ़ती जनसंख्या बनी आर्थिक विकास की समस्या
  • जनसंख्या नियन्त्रण [2012, 13]
  • बढ़ती जनसंख्या : रोजगार की समस्या [2014]

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. जनसंख्या-वृद्धि से उत्पन्न समस्याएँ
  3. जनसंख्या-वृद्ध के कारण
  4. जनसंख्या-वृद्ध को नियति करने के उपाय
  5. उपसंहार

प्रस्तावना-जनसंख्या-वृद्धि की समस्या भारत के सामने विकराल रूप धारण करती जा रही है। सन् 1930-31 ई० में अविभाजित भारत की जनसंख्या 20 करोड़ थी, जो अब केवल भारत में 121 करोड़ से ऊपर पहुँच चुकी है। जनसंख्या की इस अनियन्त्रित वृद्धि के साथ दो समस्याएँ मुख्य रूप से जुड़ी हुई हैं-(1) सीमित भूमि तथा (2) सीमित आर्थिक संसाधन।’ अनेक अन्य समस्याएँ भी इसी समस्या से अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हैं; जैसे-समस्त नागरिकों की शिक्षा, स्वच्छता, चिकित्सा एवं अच्छी वातावरण उपलब्ध कराने की समस्या। इन समस्याओं का निदान न होने के कारण भारत क्रमशः एक अजायबघर बनता जा रहा है जहाँ चारों ओर व्याप्त अभावग्रस्त, अस्वच्छ एवं अशिष्ट फरवेश से किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को विरक्ति हो उठती है और मातृभूमि की यह दशा लज्जो का विषय बन जाती है।

जनसंख्या-वृद्धि से उत्पन्न समस्याएँ-विनोबा जी ने कहा था, जो बच्चा एक मुँह लेकर पैदा होता है, वह दो हाथ लेकर आता है।” आशय यह है कि दो हाथों से पुरुषार्थ करके व्यक्ति अपनी एक मुँह तो भर ही सकता है। पर यह बात देश के औद्योगिक विकास से जुड़ी है। यदि देश की अर्थव्यवस्था बहुत सुनियोजित हो तो वहाँ रोजगार के अवसरों की कमी नहीं रहती। लघु उद्योगों से करोड़ों लोगों का पेट भरता था। अब बड़ी मशीनों और उनसे अधिक शक्तिशाली कम्प्यूटरों के कारण लाखों लोग बेरोजगार हो गये और अधिकाधिक होते जा रहे हैं। आजीविका की समस्या के अतिरिक्त जनसंख्या-वृद्धि के साथ एक ऐसी समस्या भी जुड़ी हुई है, जिसका समाधान किसी के पास नहीं। वह है सीमित भूमि की समस्या।

भारत का क्षेत्रफल विश्व का कुल 2.4 प्रतिशत ही है, जबकि यहाँ की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या की लगभग 17 प्रतिशत है; अत: कृषि के लिए भूमि का अभाव हो गया है। इसके परिणामस्वरूप भारत की सुख-समृद्धि में योगदान करने वाले अमूल्य जंगलों को काटकर लोग उससे प्राप्त भूमि पर खेती करते जा रहे हैं, जिससे अमूल्य वन-सम्पदा का विनाश, दुर्लभ वनस्पतियों का अभाव, पर्यावरण प्रदूषण की समस्या, वर्षा पर कुप्रभाव एवं अमूल्य जंगली जानवरों के वंशलोप का भय उत्पन्न हो गया है। उधर हस्त-शिल्प और कुटीर उद्योगों के चौपट हो जाने से लोग आजीविका की खोज में ग्रामों से भागकर शहरों में बसते जा रहे हैं, जिससे कुपोषण, अपराध, आवास आदि की विकट समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं।

जनसंख्या वृद्धि का सबसे बड़ा अभिशाप है–किसी देश के विकास को अवरुद्ध कर देना; क्योंकि बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए खाद्यान्न और रोजगार जुटाने में ही देश की सारी शक्ति लग जाती है, जिससे अन्य किसी दिशा में सोचने का अवकाश नहीं रहता।

जनसंख्या-वृद्धि के कारण–प्राचीन भारत में आश्रम-व्यवस्था द्वारा मनुष्य के व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन को नियन्त्रित कर व्यवस्थित किया गया था। 100 वर्ष की सम्भावित आयु का केवल चौथाई भाग (25 वर्ष) ही गृहस्थाश्रम के लिए था। व्यक्ति का शेष जीवन शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों के विकास तथा समाज-सेवा में ही बीतता था। गृहस्थ जीवन में भी संयम पर बल दिया जाता था। इस प्रकार प्राचीन भारत का जीवन मुख्यतः आध्यात्मिक और सामाजिक था, जिसमें व्यक्तिगत सुख-भोग की गुंजाइश कम थीं। आध्यात्मिक वातावरण की चतुर्दिक व्याप्ति के कारण लोगों की स्वाभाविक प्रवृत्ति ब्रह्मचर्य, संयम और सादे जीवन की ओर थी। फिर उस समय विशाल भू-भाग में जंगल फैले हुए थे, नगर कम थे। अधिकांश लोग ग्रामों में या ऋषियों के आश्रमों में रहते थे, जहाँ प्रकृति के निकट-सम्पर्क से उनमें सात्त्विक भावों का संचार होता था। आज परिस्थिति उल्टी है। आश्रम-व्यवस्था के नष्ट हो जाने के कारण लोग युवावस्था से लेकर मृत्युपर्यन्त गृहस्थ ही बने रहते हैं, जिससे सन्तानोत्पत्ति में निरन्तर वृद्धि हुई है|

ग्रामों में कृषि योग्य भूमि सीमित है। सरकार द्वारा भारी उद्योगों को बढ़ावा दिये जाने से हस्तशिल्प और कुटीर उद्योग चौपट हो गये हैं, जिससे गाँवों को आर्थिक ढाँचा लड़खड़ा गया है। इस प्रकार सरकार द्वारा गाँवों की लगातार उपेक्षा के कारण वहाँ विकास के अवसर अनुपलब्ध होते जा रहे हैं, जिससे ग्रामीण युवक नगरों की ओर भाग रहे हैं, जिससे ग्राम-प्रधान भारत शहरीकरण का कारण बनता जा रहा है। उधर शहरों में स्वस्थ मनोरंजन के साधन स्वल्प होने से अपेक्षाकृत सम्पन्न वर्ग को प्रायः सिनेमा या दूरदर्शन पर ही निर्भर रहना पड़ता है, जो कृत्रिम पाश्चात्य जीवन-पद्धति का प्रचार कर वासनाओं को उभारता है। इसके अतिरिक्त बाल-विवाह, गर्म जलवायु, रूढ़िवादिता, चिकित्सा-सुविधाओं के कारण मृत्यु-दर में कमी आदि भी जनसंख्या वृद्धि की समस्या को विस्फोटक बनाने में सहायक हुए हैं।

जनसंख्या-वृद्धि को नियन्त्रित करने के उपाय–जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करने का सबसे स्वाभाविक और कारगर उपाय तो संयम या ब्रह्मचर्य ही है। इससे नर, नारी, समाज और देश सभी का कल्याण है, किन्तु वर्तमान भौतिकवादी युग में जहाँ अर्थ और काम ही जीवन का लक्ष्य बन गये हैं, वहाँ ब्रह्मचर्य- पालन आकाश-कुसुम हो गया है। फिर सिनेमा, पत्र-पत्रिकाएँ, दूरदर्शन आदि प्रचार के माध्यम भी वासना को उद्दीप्त करके पैसा कमाने में लगे हैं। उधर अशिक्षा और बेरोजगारी इसे हवा दे रही है। फलतः सबसे पहले आवश्यकता यह है कि भारत अपने प्राचीन स्वरूप को पहचानकर अपनी प्राचीन संस्कृति को उज्जीवित करे। प्राचीन भारतीय संस्कृति, जो अध्यात्म-प्रधान है, के उज्जीवन से लोगों में संयम की ओर स्वाभाविक प्रवृत्ति बढ़ेगी, जिससे नैतिकता को बल मिलेगा और समाज में विकराल रूप धारण करती आपराधिक प्रवृत्तियों पर स्वाभाविक अंकुश लगेगा; क्योंकि कितनी ही वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय समस्याएँ व्यक्ति के चरित्रोन्नयन से हल हो सकती हैं। भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए अंग्रेजी की शिक्षा को बहुत सीमित करके संस्कृत और भारतीय भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन पर विशेष बल देना होगा।

इसके अतिरिक्त पश्चिमी देशों की होड़ में सम्मिलित होने का मोह त्यागकर अपने देशी उद्योग-धन्धों, हस्तशिल्प आदि को पुन: जीवनदान देना होगा। भारी उद्योग उन्हीं देशों के लिए उपयोगी हैं, जिनकी जनसंख्या बहुत कम है; अत: कम हाथों से अधिक उत्पादन के लिए भारी उद्योगों की स्थापना की जाती है। भारत जैसे विपुल जनसंख्या वाले देश में लघु-कुटीर उद्योगों के प्रोत्साहन की आवश्यकता है, जिससे अधिकाधिक लोगों को रोजगार मिल सके और हाथ के कारीगरों को अपनी प्रतिभा के प्रकटीकरण एवं विकास का अवसर मिल सके।

जनसंख्या-वृद्धि को नियन्त्रित करने के लिए लड़के-लड़कियों की विवाह-योग्य आयु बढ़ाना भी उपयोगी रहेगा। साथ ही समाज में पुत्र और पुत्री के सामाजिक भेदभाव को कम करना होगा। पुत्र-प्राप्ति के लिए सन्तानोत्पत्ति का क्रम बनाये रखने की अपेक्षा छोटे परिवार को ही सुखी जीवन का आधार बनाया जाना चाहिए तथा सरकार की ओर से सन्तति निरोध का कड़ाई से पालन कराया जाना चाहिए।

इसके अतिरिक्त प्रचार-माध्यमों पर प्रभावी नियन्त्रण के द्वारा सात्त्विक, शिक्षाप्रद एवं नैतिकता के पोषक मनोरंजन उपलब्ध कराये जाने चाहिए। ग्रामों में सस्ते-स्वस्थ मनोरंजन के रूप में लोक-गीतों, लोक-नाट्यों (नौटंकी, रास, रामलीला, स्वांग आदि), कुश्ती, खो-खो आदि की पुरानी परम्परा को नये स्वरूप प्रदान करने की आवश्यकता है। साथ ही जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों से भी ग्रामीण और अशिक्षित जनता को भली-भाँति अवगत कराया जाना चाहिए।

जहाँ तक परिवार नियोजन के कृत्रिम उपायों के अवलम्बन का प्रश्न है, उनका भी सीमित उपयोग किया जा सकता है। वर्तमान युग में जनसंख्या की अति त्वरित-वृद्धि पर तत्काल प्रभावी नियन्त्रण के लिए गर्भ-निरोधक ओषधियों एवं उपकरणों का प्रयोग आवश्यक हो गया है। परिवार नियोजन में देशी जड़ी-बूटियों के उपयोग पर भी अनुसन्धान चल रहा है। सरकार ने अस्पतालों और चिकित्सालयों में नसबन्दी की व्यवस्था की है तथा परिवार नियोजन से सम्बद्ध कर्मचारियों के प्रशिक्षण के लिए केन्द्र एवं राज्य स्तर पर अनेक प्रशिक्षण संस्थान भी खोले हैं।

उपसंहार-जनसंख्या-वृद्धि को नियन्त्रित करने का वास्तविक स्थायी उपाय तो सरल और सात्त्विक जीवन-पद्धति अपनाने में ही निहित है, जिसे प्रोत्साहित करने के लिए सरकार को ग्रामों के आर्थिक विकास पर विशेष ध्यान देना चाहिए, जिससे ग्रामीणों का आजीविका की खोज में शहरों की ओर पलायन रुक सके। वस्तुतः ग्रामों के सहज प्राकृतिक वातावरण में संयम जितना सरल है, उतना शहरों के घुटन भरे आडम्बरयुक्त जीवन में नहीं। शहरों में भी प्रचार-माध्यमों द्वारा प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रचार एवं स्वदेशी भाषाओं की शिक्षा पर ध्यान देने के साथ-साथ ही परिवार नियोजन के कृत्रिम उपायों–विशेषतः आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों के प्रयोग पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। समान नागरिक आचार-संहिता प्राथमिक आवश्यकता है, जिसे विरोध के बावजूद अविलम्ब लागू किया जाना चाहिए। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जनसंख्या-वृद्धि की दर घटाना आज के युग की सर्वाधिक जोरदार माँग है, जिसकी उपेक्षा आत्मघाती होगी।

आतंकवाद : समस्या एवं समाधान [2009, 15, 18]

सम्बद्ध शीर्षक

  • आतंकवाद के निराकरण के उपाय
  • आतंकवाद : एक चुनौती [2017]
  • आतंकवाद की विभीषिका
  • भारत में आतंकवाद की समस्या [2012]
  • आतंकवाद : एक समस्या [2014]
  • आतंकवाद : कारण और निवारण
  • आतंकवाद का समाधान
  • भारत में आतंकवाद के बढ़ते कदम [2013, 14]
  • भारत में आतंकवाद की समस्या और समाधान [2013, 16]

प्रमुख विचार-विन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. आतंकवाद का अर्थ,
  3. आतंकवाद : एक विश्वव्यापी समस्या,
  4. भारत में आतंकवाद,
  5. जिम्मेदार कौन ?
  6. आतंकवाद के विविध रूप,
  7. आतंकवाद का समाधान,
  8. उपसंहार

प्रस्तावना मनुष्य भय से निष्क्रिय और पलायनवादी बन जाता है। इसीलिए लोगों में भय उत्पन्न करके कुछ असामाजिक तत्त्व अपने नीच स्वार्थों की पूर्ति करने का प्रयास करने लगते हैं। इस कार्य के लिए वे हिंसापूर्ण साधनों का प्रयोग करते हैं। ऐसी स्थितियाँ ही आतंकवाद का आधार हैं। आतंक फैलाने वाले आतंकवादी कहलाते हैं। ये कहीं से बनकर नहीं आते। ये भी समाज के एक ऐसे अंग हैं जिनका काम आतंकवाद के माध्यम से किसी धर्म, समाज अथवा राजनीति का समर्थन कराना होता है। ये शासन का विरोध करने में बिलकुल नहीं हिचकते तथा जनता को अपनी बात मनवाने के लिए विवश करते रहते हैं।

आतंकवाद का अर्थ-‘आतंक + वाद’ से बने इस शब्द का सामान्य अर्थ है-आतंक का सिद्धान्त। यह अंग्रेजी के टेररिज़्म शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। ‘आतंक’ का अर्थ होता है-पीड़ा, डर, आशंका। इस प्रकार आतंकवाद एक ऐसी विचारधारा है, जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बल प्रयोग में विश्वास रखती है। ऐसा बल-प्रयोग प्रायः विरोधी वर्ग, समुदाय या सम्प्रदाय को भयभीत करने और उस पर अपनी प्रभुता स्थापित करने की दृष्टि से किया जाता है। आतंक, मौत, त्रास ही इनके लिए सब कुछ होता है। आतंकवादी यह नहीं जानते कि—

कौन कहता है कि मौत को अंजाम होना चाहिए।
जिन्दगी को जिन्दगी का पैगाम होना चाहिए ।|

आतंकवाद : एक विश्वव्यापी समस्या–आज लगभग समस्त विश्व में आतंकवाद सक्रिय है। ये आतंकवादी समस्त विश्व में राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए सार्वजनिक हिंसा और हत्याओं का सहारा ले रहे हैं। भौतिक दृष्टि से विकसित देशों में तो आतंकवाद की इस प्रवृत्ति ने विकराल रूप ले लिया है। कुछ आतंकवादी गुटों ने तो अपने अन्तर्राष्ट्रीय संगठन बना लिये हैं। जे० सी० स्मिथ अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘लीगल कण्ट्रोल ऑफ इण्टरनेशनल टेररिज़्म’ में लिखते हैं कि इस समय संसार में जैसा तनावपूर्व वातावरण बना हुआ है, उसको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भविष्य में अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद में और तेजी आएगी। किसी देश द्वारा अन्य देश में आतंकवादी गुटों को समर्थन देने की घटनाएँ बढ़ेगी; राजनयिकों की हत्याएँ, विमान-अपहरण की घटनाएँ बढ़ेगी और रासायनिक हथियारों का प्रयोग अधिक तेज होगा। श्रीलंका में तमिलों, जापान में रेड आर्मी, भारत में सिक्ख-होमलैण्ड और स्वतन्त्र कश्मीर चाहने वालों आदि के हिंसात्मक संघर्ष आतंकवाद की श्रेणी में आते हैं।

भारत में आतंकवाद–स्वाधीनता के पश्चात् भारत के विभिन्न भागों में अनेक आतंकवादी संगठनों द्वारा आतंकवादी हिंसा फैलायी गयी। इन्होंने बड़े-बड़े सरकारी अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया और इतना आतंक फैलाया कि अनेक अधिकारियों ने सेवा से त्यागपत्र दे दिये। भारत के पूर्वी राज्यों नागालैण्ड, मिजोरम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल और असोम में भी अनेक बार उग्र आतंकवादी हिंसा फैली, किन्तु अब यहाँ असम के बोडो आतंकवाद को छोड़कर शेष सभी शान्त हैं। बंगाल के नक्सलवाड़ी से जो नक्सलवादी आतंकवाद पनपा था, वह बंगाल से बाहर भी खूब फैला। बिहार तथा आन्ध्र प्रदेश अभी भी उसकी भयंकर आग से झुलस रहे हैं।

कश्मीर घाटी में भी पाकिस्तानी तत्त्वों द्वारा प्रेरित आतंकवादी प्रायः राष्ट्रीय पर्वो (15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्टूबर आदि) पर भयंकर हत्याकाण्ड कर अपने अस्तित्व की घोषणा करते रहते हैं। इन्होंने कश्मीर की सुकोमल घाटी को अपनी आतंकवादी गतिविधियों का केन्द्र बनाया हुआ है। आये दिन निर्दोष लोगों की हत्याएँ की जा रही हैं और उन्हें आतंकित किया जा रहा है, जिससे वे अपने घर, दुकानें और कारखाने छोड़कर भाग खड़े हों। ऐसा कोई भी दिन नहीं बीतता जिस दिन समाचार-पत्रों में किसी आतंकवादी घटना में दस-पाँच लोगों के मारे जाने की खबर न छपी हो। स्वातन्त्र्योत्तर आतंकवादी गतिविधियों में सबसे भयंकर रहा पंजाब का आतंकवाद। बीसवीं शताब्दी की नवी दशाब्दी में पंजाब में जो कुछ हुआ, उससे पूरा देश विक्षुब्ध और हतप्रभ रह गया।

पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित सीमा पार से कश्मीर और अब देश के अन्य भागों में बरपायी जाने वाली और दिल दहला देने वाली घटनाएँ आतंकवाद का सबसे घिनौना रूप हैं। सीमा पार के आतंकवादी हमलों में अब तक एक लाख से भी अधिक लोगों की जाने जा चुकी हैं। हाल के वर्षों में संसद पर हमला हुआ, इण्डियन एयर लाइन्स के विमान 814 का अपहरण कर उसे कन्धार ले जाया गया, फिर चिट्टी सिंहपुरा में सिक्खों का कत्लेआम किया गया, अमरनाथ यात्रियों पर हमले किये गये तथा मुंबई में रेलवे स्टेशन व होटल ताज पर हमला किया गया।

जिम्मेदार कौन ?-आतंकवादी गतिविधियों को गुप्त और अप्रत्यक्ष रूप से प्रश्रय देने वाला अमेरिका भी अन्ततः अपने खोदे हुए गड्ढे में खुद ही गिर गया। राजनैतिक मुखौटों में छिपी उसकी काली करतूतें अविश्वसनीय रूप से उजागर हो गयीं जब उसके प्रसिद्ध शहर न्यूयॉर्क में 11 सितम्बर, 2001 को ‘वर्ल्ड ट्रेड टावर’ पर आतंकवादी हमला हुआ। अन्य देशों पर हमले करवाने में अग्रगण्य इस देश पर हुए इस वज्रपात पर सारा संसार अचम्भित रह गया। ओसामा बिन लादेन’ नामक हमले के उत्तरदायी आतंकवादी को ढूंढने में अमेरिकी सरकार ने जो सरगर्मियाँ दिखायीं उसने सिद्ध कर दिया कि जब तक कोई देश स्वयं पीड़ा नहीं झेलता तब तक उसे पराये की पीड़ा का अनुभव नहीं हो सकता। भारत वर्षों से चीख-चीख कर सारे विश्व के सामने यह अनुरोध करता आया था कि पाकिस्तान अमेरिका द्वारा दी गयी आर्थिक और अस्त्र-शस्त्र सम्बन्धी सहायता का उपयोग भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों के लिए कर रहा है, अत: अमेरिका पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित करे और उसे किसी भी किस्म की सहायता देना बन्द करे; किन्तु भारतीयों की मृत्यु के लिए अमेरिका के पास उत्तर था-

खत्म होगा न जिन्दगी का सफर ।
मौत बस रास्ता बदलती है।

जैसे भारतीयों पर होने वाले इस प्रकार के हमले कोई मायने ही नहीं रखते। यदि किसी मायूस बच्चे से भी पूछे तो अनवरत आतंकवादी गतिविधियों के शिकार-क्षेत्र का वह निवासी बस यूँ ही कुछ कह सकेगा–

वैसे तो तजुर्बे की खातिर, नाकाफी है यह उम्र मगर।
हमने तो जरा से अरसे में, मत पूछिए क्या-क्या देखा है ॥

आतंकवाद के विविध रूप-भारत के आतंकवादी गतिविधि निरोधक कानून 1985 में आतंकवाद पर विस्तार से विचार किया गया है और आतंकवाद को तीन भागों में बाँटा गया है-

  1. समाज के एक वर्ग विशेष को अन्य वर्गों से अलग-थलग करने और समाज के विभिन्न वर्गों के . बीच व्याप्त आपसी सौहार्द को खत्म करने के लिए की गयी हिंसा।
  2. ऐसा कोई कार्य, जिसमें ज्वलनशील, बम तथा आग्नेयास्त्रों का प्रयोग किया गया हो।
  3. ऐसी हिंसात्मक कार्यवाही, जिसमें एक या उससे अधिक व्यक्ति मारे गये हों या घायल हुए हों, आवश्यक सेवाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा हो तथा सम्पत्ति को हानि पहुँची हो। इसके अन्तर्गत प्रमुख व्यक्तियों का अपहरण या हत्या या उन्हें छोड़ने के लिए सरकार के सामने उचित-अनुचित माँगें रखना, वायुयानों का अपहरण, बैंक डकैतियाँ आदि सम्मिलित हैं।

आतंकवाद को समाधान-भारत में विषमतम स्थिति तक पहुँचे आतंकवाद के समाधान पर सम्पूर्ण देश के विचारकों और चिन्तकों ने अनेक सुझाव रखे, किन्तु यह समस्या अभी भी अनसुलझी ही है।

इस समस्या का वास्तविक हल ढूँढ़ने के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि साम्प्रदायिकता का लाभ उठाने वाले सभी राजनीतिक दलों की गतिविधियों में परिवर्तन हो। साम्प्रदायिकता के इस दोष से आज भारत के सभी राजनीतिक दल न्यूनाधिक रूप में दूषित अवश्य हैं।

दूसरे, सीमा-पार से प्रशिक्षित आतंकवादियों के प्रवेश और वहाँ से भेजे जाने वाले हथियारों व विस्फोटक पदार्थों पर कड़ी चौकसी रखनी होगी तथा सुरक्षा बलों को आतंकवादियों की अपेक्षा अधिक अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से लैस करना होगा।

तीसरे, आतंकवाद को महिमामण्डित करने वाली युवकों की मानसिकता बदलने के लिए आर्थिक सुधार करने होंगे।
चौथे, राष्ट्र की मुख्यधारा के अन्तर्गत संविधान का पूर्णतः पालन करते हुए पारस्परिक विचार-विमर्श से सिक्खों, कश्मीरियों और असमियों की माँगों को न्यायोचित समाधान करना होगा और तुष्टीकरण की नीति को त्यागकर समग्र राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता की भावना को जाग्रत करना होगा।

पाँचवें कश्मीर के आतंकवाद को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सख्ती से कुचलना होगा। इसके लिए सभी राजनैतिक दलों को सार्थक पहल करनी होगी।
यदि सम्बन्धित पक्ष इन बातों का ईमानदारी से पालन करें तो इस महारोग से मुक्ति सम्भव है।

उपसंहार—यह एक विडम्बना ही है कि महावीर, बुद्ध, गुरु नानक और महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषों की जन्मभूमि पिछले कुछ दशकों से सबसे अधिक अशान्त हो गयी है। देश की 121 करोड़ जनता ने हिंसा की सत्ता को स्वीकार करते हुए इसे अपने दैनिक जीवन का अंग मान लिया है। भारत के विभिन्न भागों में हो रही आतंकवादी गतिविधियों ने देश की एकता और अखण्डता के लिए संकट उत्पन्न कर दिया है। आतंकवाद का समूल नाश ही इस समस्या का समाधान है। टाडा के स्थान पर भारत सरकार द्वारा एक नया आतंकवाद निरोधक कानून पोटा लाया गया जिसे दूसरी सरकार ने यह कहते हुए कि ये सख्त और व्यापक कानून आतंकवाद को समाप्त करने की गारण्टी नहीं है; इन्हें समाप्त कर दिया। आतंकवाद पर सम्पूर्णता से अंकुश लगाने की इच्छुक सरकार को अपने उस प्रशासनिक तन्त्र को भी बदलने पर विचार करना चाहिए, जो इन कानूनों पर अमल नहीं करता है, तब ही इस समस्या का स्थायी समाधान निकल पाएगा।

पर्यावरण-प्रदूषण : समस्या और समाधान [2009, 10, 11, 13, 14, 17, 18]

सम्बद्ध शीर्षक

  • पर्यावरण और प्रदूषण [2011]
  • पर्यावरण का महत्त्व
  • बढ़ता प्रदूषण और उसके कारण
  • बढ़ता प्रदूषण और पर्यावरण
  • प्रदूषण के दुष्परिणाम
  • पर्यावरण संरक्षण का महत्त्व [2013]
  • असन्तुलित पर्यावरण : प्राकृतिक आपदाओं का कारण [2014]
  • विश्व परिदृश्य में पर्यावरण प्रदूषण
  • धरती की रक्षा : पर्यावरण सुरक्षा [2013, 15, 16, 18]
  • पर्यावरण-प्रदूषण : कारण और निवारण [2014, 15]
  • पर्यावरण-असन्तुलन [2015]

प्रागविगार-

  1. प्रस्तावना, तूपण का अर्थ,
  2. प्रदूषण के प्रकार–(क) वायुदु; (ख) जल-प्रदूषण; (ग) ध्वनिप्र ;
  3. रेडियोधर्मी प्रदूषण, (ङ) रासायनिक प्रदूषण,
  4. प्रदूषण की समस्या तथा उससे हानि,
  5. समस्या का समाधान,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-जो हमें चारों ओर से परिवृत किये हुए है, वहीं हमारा पर्यावरण है। इस पर्यावरण के प्रति जागरूकता आज की प्रमुख आवश्यकता है; क्योंकि यह प्रदूषित हो रहा है। प्रदूषण की समस्या प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत के लिए अज्ञात थी। यह वर्तमान युग में हुई औद्योगिक प्रगति एवं शस्त्रास्त्रों के निर्माण के फलस्वरूप उत्पन्न हुई है। आज इसने इतना विकराल रूप धारण कर लिया है कि इससे मानवता के विनाश का संकट उत्पन्न हो गया है। मानव-जीवन मुख्यत: स्वच्छ वायु और जल पर निर्भर है, किन्तु यदि ये दोनों ही चीजें दूषित हो जाएँ तो मानव के अस्तित्व को ही भय पैदा होना स्वाभाविक है; अतः इस भयंकर समस्या के कारणों एवं उनके निराकरण के उपायों पर विचार करना मानवमात्र के हित में है। ध्वनि प्रदूषण पर अपने विचार व्यक्त करते हुए नोबेल पुरस्कार विजेता रॉबर्ट कोच ने कहा था, “एक दिन ऐसा आएगा जब मनुष्य को स्वास्थ्य के सबसे बड़े शत्रु के रूप में निर्दयी शोर से संघर्ष करना पड़ेगा।” लगता है कि वह दुःखद दिन अब आ गया है।

प्रदूषण का अर्थ-स्वच्छ वातावरण में ही जीवन का विकास सम्भव है। पर्यावरण का निर्माण प्रकृति के द्वारा किया गया है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त पर्यावरण जीवधारियों के अनुकूल होता है। जब इस पर्यावरण में किन्हीं तत्त्वों का अनुपात इस रूप में बदलने लगता है, जिसका जीवधारियों के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की सम्भावना होती है तब कहा जाता है कि पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। यह प्रदूषित वातावरण जीवधारियों के लिए अनेक प्रकार से हानिकारक होता है। जनसंख्या की असाधारण वृद्धि एवं औद्योगिक प्रगति ने प्रदूषण की समस्या को जन्म दिया है और आज इसने इतना विकराल रूप धारण कर लिया है कि इससे मानवता के विनाश का संकट उत्पन्न हो गया है। औद्योगिक तथा रासायनिक कूड़े-कचरे के ढेर से पृथ्वी, हवा तथा पानी प्रदूषित हो रहे हैं।

प्रदूषण के प्रकार-आज के वातावरण में प्रदूषण निम्नलिखित रूपों में दिखाई पड़ता है
(क) वायु-प्रदूषण-वायु जीवन का अनिवार्य स्रोत है। प्रत्येक प्राणी को स्वस्थ रूप से जीने के लिए शुद्ध वायु की आवश्यकता होती है, जिस कारण वायुमण्डल में इसका विशेष अनुपात होना आवश्यक है। जीवधारी साँस द्वारा ऑक्सीजन ग्रहण करता है और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ता है। पेड़-पौधे कार्बन डाइ- ऑक्साइड लेते हैं और हमें ऑक्सीजन प्रदान करते हैं। इससे वायुमण्डल में शुद्धता बनी रहती है, परन्तु मनुष्य की अज्ञानता और स्वार्थी प्रवृत्ति के कारण आज वृक्षों का अत्यधिक कटाव हो रहा है। घने जंगलों से ढके पहाड़ आज नंगे दीख पड़ते हैं। इससे ऑक्सीजन का सन्तुलन बिगड़ गया है और वायु अनेक हानिकारक गैसों से प्रदूषित हो गयी है। इसके अलावा कोयला, तेल, धातुकणों तथा कारखानों की चिमनियों के धुएँ से हवा में अनेक हानिकारक गैसें भर गयी हैं, जो प्राचीन इमारतों, वस्त्रों, धातुओं तथा मनुष्यों के फेफड़ों के लिए अत्यन्त घातक हैं।

(ख) जल-प्रदूषण-जीवन के अनिवार्य स्रोत के रूप में वायु के बाद प्रथम आवश्यकता जल की ही होती है। जल को जीवन कहा जाता है। जल का शुद्ध होना स्वस्थ जीवन के लिए बहुत आवश्यक है। देश के प्रमुख नगरों के जल का स्रोत हमारी सदानीरा नदियाँ हैं, फिर भी हम देखते हैं कि बड़े-बड़े नगरों के गन्दे नाले तथा सीवरों को नदियों से जोड़ दिया जाता है। विभिन्न औद्योगिक व घरेलू स्रोतों से नदियों व अन्य जल-स्रोतों में दिनों-दिन प्रदूषण पनपता जा रहा है। तालाबों, पोखरों व नदियों में जानवरों को नहलाना, मनुष्यों एवं जानवरों के मृत शरीर को जल में प्रवाहित करना आदि ने जल-प्रदूषण में बेतहाशा वृद्धि की है। कानपुर, आगरा, मुम्बई, अलीगढ़ और न जाने कितने नगरों के कल-कारखानों का कचरा गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों को प्रदूषित करता हुआ सागर तक पहुँच रहा है।

(ग) ध्वनि-प्रदूषण-ध्वनि-प्रदूषण आज की एक नयी समस्या है। इसे वैज्ञानिक प्रगति ने पैदा किया है। मोटरकार, ट्रैक्टर, जेट विमान, कारखानों के सायरन, मशीनें, लाउडस्पीकर आदि ध्वनि के सन्तुलन को बिगाड़कर ध्वनि-प्रदूषण उत्पन्न करते हैं। तेज ध्वनि से श्रवण-शक्ति का ह्रास तो होता ही है, साथ ही कार्य करने की क्षमता पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं। अत्यधिक ध्वनि-प्रदूषण से मानसिक विकृति तक हो सकती है।

(घ) रेडियोधर्मी प्रदूषण-आज के युग में वैज्ञानिक परीक्षणों का जोर है। परमाणु परीक्षण निरन्तर होते ही रहते हैं। इनके विस्फोट से रेडियोधर्मी पदार्थ वायुमण्डल में फैल जाते हैं और अनेक प्रकार से जीवन को क्षति पहुँचाते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के समय हिरोशिमा और नागासाकी में जो परमाणु बम गिराये गये थे, उनसे लाखों लोग अपंग हो गये थे और आने वाली पीढ़ी भी इसके हानिकारक प्रभाव से अभी भी अपने को बचा नहीं पायी है।

(ङ) रासायनिक प्रदूषण-कारखानों से बहते हुए अवशिष्ट द्रव्यों के अतिरिक्तं उपज में वृद्धि की दृष्टि से प्रयुक्त कीटनाशक दवाइयों और रासायनिक खादों से भी स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ये पदार्थ पानी के साथ बहकर नदियों, तालाबों और अन्तत: समुद्र में पहुँच जाते हैं और जीवन को अनेक प्रकारे से हानि पहुँचाते हैं।

प्रदूषण की समस्या तथा उससे हानियाँ-निरन्तर बढ़ती हुई मानव जनसंख्या, रेगिस्तान का बढ़ते जाना, भूमि का कटाव, ओजोन की परत का सिकुड़ना, धरती के तापमान में वृद्धि, वनों के विनाश तथा औद्योगीकरण ने विश्व के सम्मुख प्रदूषण की समस्या पैदा कर दी है। कारखानों के धुएँ से, विषैले कचरे के बहाव से तथा जहरीली गैसों के रिसाव से आज मानव-जीवन समस्याग्रस्त हो गया है। आज तकनीकी ज्ञान के बल पर मानव विकास की दौड़ में एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में लगा है। इस होड़ में वह तकनीकी ज्ञान का ऐसा गलत उपयोग कर रहा है, जो सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए विनाश का कारण बन सकता है।

युद्ध में आधुनिक तकनीकों पर आधारित मिसाइलों और प्रक्षेपास्त्रों ने जन-धन की अपार क्षति तो की ही है साथ ही पर्यावरण पर भी घातक प्रभाव डाला है, जिसके परिणामस्वरूप स्वास्थ्य में गिरावट, उत्पादन में कमी और विकास प्रक्रिया में बाधा आयी है। वायु-प्रदूषण का गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव मनुष्यों एवं अन्य प्राणियों के स्वास्थ्य पर पड़ता है। सिरदर्द, आँखें दुखना, खाँसी, दमा, हृदय रोग आदि किसी-न-किसी रूप में वायु प्रदूषण से जुड़े हुए हैं। प्रदूषित जल के सेवन से मुख्य रूप से पाचन-तन्त्र सम्बन्धी रोग उत्पन्न होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रति वर्ष लाखों बच्चे दूषित जल पीने के परिणामस्वरूप उत्पन्न रोगों से मर जाते हैं। ध्वनि-प्रदूषण के भी गम्भीर और घातक प्रभाव पड़ते हैं। ध्वनि-प्रदूषण (शोर) के कारण शारीरिक और मानसिक तनाव तो बढ़ता ही है, साथ ही श्वसन-गति और नाड़ी-गति में उतार-चढ़ाव, जठरान्त्र की गतिशीलता में कमी तथा रुधिर परिसंचरण एवं हृदय पेशी के गुणों में भी परिवर्तन हो जाता है तथा प्रदूषणजन्य अनेकानेक बीमारियों से पीड़ित मनुष्य समय से पूर्व ही मृत्यु का ग्रास बन जाता है।

समस्या का समाधान-महान् शिक्षाविदों और नीति-निर्माताओं ने इस समस्या की ओर गम्भीरता से ध्यान दिया है। आज विश्व का प्रत्येक देश इस ओर सजग है। वातावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए वृक्षारोपण सर्वश्रेष्ठ साधन है। मानव को चाहिए कि वह वृक्षों और वनों को कुल्हाड़ियों का निशाना बनाने के बजाय उन्हें फलते-फूलते देखे तथा सुन्दर पशु-पक्षियों को अपना भोजन बनाने के बजाय उनकी सुरक्षा करे। साथ ही भविष्य के प्रति आशंकित, आतंकित होने से बचने के लिए सबको देश की असीमित बढ़ती जनसंख्या को सीमित करना होगा, जिससे उनके आवास के लिए खेतों और वनों को कम न करना पड़े। कारखाने और मशीनें लगाने की अनुमति उन्हीं व्यक्तियों को दी जानी चाहिए, जो औद्योगिक कचरे और मशीनों के धुएँ को बाहर निकालने की समुचित व्यवस्था कर सकें।

संयुक्त राष्ट्र संघ को चाहिए कि वह परमाणु-परीक्षणों को नियन्त्रित करने की दिशा में कदम उठाये। तकनीकी ज्ञान का उपयोग खोये हुए पर्यावरण को फिर से प्राप्त करने पर बल देने के लिए किया जाना चाहिए। वायु-प्रदूषण से बचने के लिए हर प्रकार की गन्दगी एवं कचरे को विधिवत् समाप्त करने के उपाय निरन्तर किये जाने चाहिए। जल-प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए औद्योगिक संस्थानों में ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि व्यर्थ पदार्थों एवं जल को उपचारित करके ही बाहर निकाला जाए तथा इनको जल-स्रोतों से मिलने से रोका जाना चाहिए। इंग्लैण्ड में लन्दन का मैला पहले टेम्स नदी में गिरकर जल को दूषित करता था। अब वहाँ की सरकार ने टेम्स नदी के पास एक विशाल कारखाना बनाया है, जिसमें लन्दन की सारी गन्दगी और मैला मशीनों से साफ होकर उत्तम खाद बन जाती है और साफ पानी टेम्स नदी में छोड़ दिया जाता है। अब इस पानी में मछलियाँ पहले से कहीं अधिक संख्या में पैदा हो रही हैं। ध्वनि-प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए भी प्रभावी उपाय किये जाने चाहिए। सार्वजनिक रूप से लाउडस्पीकरों आदि के प्रयोग को नियन्त्रित किया जाना चाहिए।

उपसंहार--पर्यावरण में होने वाले प्रदूषण को रोकने व उसके समुचित संरक्षण के लिए समस्त विश्व में एक नयी चेतना उत्पन्न हुई है। हम सभी का उत्तरदायित्व है कि चारों ओर बढ़ते इस प्रदूषित वातावरण के खतरों के प्रति सचेत हों तथा पूर्ण मनोयोग से सम्पूर्ण परिवेश को स्वच्छ व सुन्दर बनाने का यत्न करें। वृक्षारोपण का कार्यक्रम सरकारी स्तर पर जोर-शोर से चलाया जा रहा है तथा वनों की अनियन्त्रित कटाई को रोकने के लिए भी कठोर नियम बनाये गये हैं। इस बात के भी प्रयास किये जा रहे हैं। कि नये वन-क्षेत्र बनाये जाएँ और जनसामान्य को वृक्षारोपण के लिए प्रोत्साहित किया जाए। इधर न्यायालय द्वारा प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को महानगरों से बाहर ले जाने के आदेश दिये गये हैं तथा नये उद्योगों को लाइसेन्स दिये जाने से पूर्व उन्हें औद्योगिक कचरे के निस्तारण की समुचित व्यवस्था कर पर्यावरण विशेषज्ञों से स्वीकृति प्राप्त करने को अनिवार्य कर दिया गया है। यदि जनता भी अपने ढंग से इन कार्यक्रमों में सक्रिय सहयोग दे और यह संकल्प ले कि जीवन में आने वाले प्रत्येक शुभ अवसर पर कम-से-कम एक वृक्ष अवश्य लगाएगी तो निश्चित ही हम प्रदूषण के दुष्परिणामों से बच सकेंगे और आने वाली पीढ़ी को भी इसकी काली छाया से बचाने में समर्थ हो सकेंगे।

भारत में भ्रष्टाचार की समस्या

सम्बद्ध शीर्षक

  • भ्रष्टाचार : समस्या और निराकरण [2011, 12, 13]
  • भ्रष्टाचार : कारण और निवारण (2011, 13, 14, 15)
  • भ्रष्टाचार से निपटने के उपाय [2009]
  • भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन-जागरण [2012]
  • भ्रष्टाचार उन्मूलन : एक बड़ी समस्या [2012, 13]
  • भ्रष्टाचार : उन्मूलन-समस्या : समाधान (2016)
  • भ्रष्टाचार : एक सामाजिक बुराई [2012]
  • भ्रष्टाचार-नियन्त्रण में युवा वर्ग का योगदान [2013, 14, 18]
  • भ्रष्टाचार-निवारण [2013]
  • भ्रष्टाचार : महान् अभिशाप [2013]

प्रमुख विचार-विन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. प्रचार के विविध रूप—(क) राजनीतिक प्रष्टाचार; (ख) प्रशासनिक प्रष्टाचार, (ग) व्यावसायिक टाचार; (घ) शैक्षणिक भ्रष्टाचार,
  3. भ्रष्टाचार के कारण,
  4. प्रष्टाचार दूर करने के उपाय—(क) प्राचीन भारतीय संस्कृति को प्रोत्साहन; (ख) चुनाव-प्रक्रिया में परिवर्तन; (ग) अस्वाभाविक प्रतिबन्यों की समाप्ति; (घ) कर प्रणाली का सरलीकरण, (ङ) शासन और प्रशासन व्यय में कटौती; (च) देशभक्ति की प्रेरणा देना; (छ) कानून को अधिक कठोर बनाना; (ज) अष्ट व्यक्तियों का सामाजिक बहिष्कार,
  5. उपसंहारा

प्रस्तावना-भ्रष्टाचार देश की सम्पत्ति का आपराधिक दुरुपयोग है। ‘भ्रष्टाचार का अर्थ है–‘भ्रष्ट आचरण’ अर्थात् नैतिकता और कानून के विरुद्ध आचरण। जब व्यक्ति को न तो अन्दर की लज्जा या धर्माधर्म का ज्ञान रहता है (जो अनैतिकता है) और न बाहर का डर रहता है (जो कानून की अवहेलना है) तो वह संसार में,जघन्य-से-जघन्य पाप कर सकता है, अपने देश, जाति व समाज को बड़ी-से-बड़ी हानि पहुँचा सकता है, यहाँ तक कि मानवता को भी कलंकित कर सकता है। दुर्भाग्य से आज भारत इस भ्रष्टाचाररूपी सहस्रों मुख वाले दानव के जबड़ों में फँसकर तेजी से विनाश की ओर बढ़ता जा रहा है। अतः इस दारुण समस्या के कारणों एवं समाधान पर विचार करना आवश्यक है।

भ्रष्टाचार के विविध रूप—पहले किसी घोटाले की बात सुनकर देशवासी चौंक जाते थे, आज नहीं चौंकते। पहले घोटालों के आरोपी लोक-लज्जा के कारण अपना पद छोड़ देते थे, पर आज पकड़े जाने पर भी कुछ राजनेता इस शान से जेल जाते हैं, जैसे-वे किसी राष्ट्र-सेवा के मिशन पर जा रहे हों। इसीलिए समूचे प्रशासन-तन्त्र में भ्रष्ट आचरण धीरे-धीरे सामान्य बनता जा रहा है। आज भारतीय जीवन का कोई भी क्षेत्र सरकारी या गैर-सरकारी, सार्वजनिक या निजी–ऐसा नहीं, जो भ्रष्टाचार से अछूता हो। इसीलिए भ्रष्टाचार इतने अगणित रूपों में मिलता है कि उसे वर्गीकृत करना सरल नहीं है। फिर भी उसे मुख्यत: तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है—

  1. राजनीतिक,
  2. प्रशासनिक,
  3. व्यावसायिक तथा
  4. शैक्षणिक।

(क) राजनीतिक भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार का सबसे प्रमुख रूप यही है जिसकी छत्रछाया में भ्रष्टाचार के शेष सारे रूप पनपते और संरक्षण पाते हैं। इसके अन्तर्गत मुख्यत: लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव जीतने के लिए अपनाया गया भ्रष्ट आचरण आता है। संसार में ऐसा कोई भी कुकृत्य, अनाचार या हथकण्डा नहीं है जो भारतवर्ष में चुनाव जीतने के लिए न अपनाया जाता हो। कारण यह है कि चुनावों में विजयी दल ही सरकार बनाता है, जिससे केन्द्र और ‘प्रदेशों की सारी राजसत्ता उसी के हाथ में आ जाती है। इसलिए येन केन प्रकारेण’ अपने दल को विजयी बनाना ही राजनीतिज्ञों का एकमात्र लक्ष्य बन गया है। इन राजनेताओं की शनि-दृष्टि ही देश में जातीय प्रवृत्तियों को उभारती एवं देशद्रोहियों को पनपाती है। देश की वर्तमान दुरावस्था के लिए ये भ्रष्ट राजनेता ही दोषी हैं। इनके कारण देश में अनेकानेक घोटाले हुए हैं।

(ख) प्रशासनिक भ्रष्टाचार-इसके अन्तर्गत सरकारी, अर्द्ध-सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं, संस्थानों, प्रतिष्ठानों या सेवाओं (नौकरियों) में बैठे वे सारे अधिकारी आते हैं जो जातिवाद, भाई-भतीजावाद, किसी प्रकार के दबाव या कामिनी-कांचन के लोभ या अन्यान्य किसी कारण से अयोग्य व्यक्तियों की नियुक्तियाँ करते हैं, उन्हें पदोन्नत करते हैं, स्वयं अपने कर्तव्य की अवहेलना करते हैं और ऐसा करने वाले अधीनस्थ कर्मचारियों को प्रश्रय देते हैं या अपने किसी भी कार्य या आचरण से देश को किसी मोर्चे पर कमजोर बनाते हैं। चाहे वह गलत कोटा-परमिट देने वाला अफसर हो या सेना के रहस्य विदेशों के हाथ बेचने वाला सेनाधिकारी या ठेकेदारों से रिश्वत खाकर शीघ्र ढह जाने वाले पुल, सरकारी भवनों आदि का निर्माण करने वाला इंजीनियर या अन्यायपूर्ण फैसले करने वाला न्यायाधीश या अपराधी को प्रश्रय देने वाला पुलिस अफसर, भी इसी प्रकार के भ्रष्टाचार के अन्तर्गत आते हैं।

(ग) व्यावसायिक भ्रष्टाचार-इसके अन्तर्गत विभिन्न पदार्थों में मिलावट करने वाले, घटिया माल तैयार करके बढ़िया के मोल बेचने वाले, निर्धारित दर से अधिक मूल्य वसूलने वाले, वस्तु-विशेष का कृत्रिम अभाव पैदा करके जनता को दोनों हाथों से लूटने वाले, कर चोरी करने वाले तथा अन्यान्य भ्रष्ट तौर-तरीके अपनाकर देश और समाज को कमजोर बनाने वाले व्यवसायी आते हैं।

(घ) शैक्षणिक भ्रष्टाचार-शिक्षा जैसा पवित्र क्षेत्र भी भ्रष्टाचार के संक्रमण से अछूता नहीं रहा। अत: आज डिग्री से अधिक सिफारिश, योग्यता से अधिक चापलूसी का बोलबाला है। परिश्रम से अधिक बल धन में होने के कारण शिक्षा का निरन्तर पतन हो रहा है।

भ्रष्टाचार के कारण-भ्रष्टाचार की गति नीचे से ऊपर को न होकर ऊपर से नीचे को होती है अर्थात् भ्रष्टाचार सबसे पहले उच्चतम स्तर पर पनपता है और तब क्रमशः नीचे की ओर फैलता जाता है। कहावत है-‘यथा राजा तथा प्रजा’। इसका यह आशय कदापि नहीं कि भारत में प्रत्येक व्यक्ति भ्रष्टाचारी है। पर इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि भ्रष्टाचार से मुक्त व्यक्ति इस देश में अपवादस्वरूप ही मिलते हैं।

कारण है वह भौतिकवादी जीवन-दर्शन, जो अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से पश्चिम से आया है। यह जीवन-पद्धति विशुद्ध भोगवादी है-‘खाओ, पिओ और मौज करो’ ही इसका मूलमन्त्र है। यह परम्परागत भारतीय जीवन-दर्शन के पूरी तरह विपरीत है। भारतीय मनीषियों ने चार पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि को ही मानव-जीवन का लक्ष्य बताया है। मानव धर्मपूर्वक अर्थ और काम का सेवन करते हुए मोक्ष का अधिकारी बनता है। पश्चिम में धर्म और मोक्ष को कोई जानता तक नहीं। वहाँ तो बस अर्थ (धन-वैभव) और काम (सांसारिक सुख-भोग या विषय-वासनाओं की तृप्ति) ही जीवन का परम पुरुषार्थ माना जाता है। पश्चिम में जितनी भी वैज्ञानिक प्रगति हुई है, उस सबका लक्ष्य भी मनुष्य के लिए सांसारिक सुख-भोग के साधनों का अधिकाधिक विकास ही है।

भ्रष्टाचार दूर करने के उपाय-भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाये जाने चाहिए. (क) प्राचीन भारतीय संस्कृति को प्रोत्साहन-जब तक अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से भोगवादी पाश्चात्य संस्कृति प्रचारित होती रहेगी, भ्रष्टाचार कम नहीं हो सकता। अत: सबसे पहले देशी भाषाओं, विशेषत: संस्कृत, की शिक्षा अनिवार्य करनी होगी। भारतीय भाषाएँ जीवन-मूल्यों की प्रचारक और पृष्ठपोषक हैं। उनसे भारतीयों में धर्म का भाव सुदृढ़ होगा और लोग धर्मभीरु बनेंगे।

(ख) चुनाव-प्रक्रिया में परिवर्तनवर्तमान चुनाव-पद्धति के स्थान पर ऐसी पद्धति अपनानी पड़ेगी, जिसमें जनता स्वयं अपनी इच्छा से भारतीय जीवन-मूल्यों के प्रति समर्पित ईमानदार व्यक्तियों को खड़ा करके बिना धन व्यय के चुन सके। ऐसे लोग जब विधायक या संसद-सदस्य बनेंगे तो ईमानदारी और देशभक्ति का आदर्श जनता के सामने रखकर स्वच्छ शासन-प्रशासन दे सकेंगे। अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए और जो विधायक यो सांसद अवसरवादिता के कारण दल बदलें, उनकी सदस्यता समाप्त कर पुनः चुनाव में खड़े होने की व्यवस्था पर रोक लगानी होगी। जाति और धर्म के नाम का सहारा लेकर वोट माँगने वालों को चुनाव-प्रक्रिया से ही प्रतिबन्धित कर दिया जाना चाहिए। जब चपरासी और चौकीदारों के लिए भी योग्यता निर्धारित होती है, तब विधायकों और सांसदों के लिए क्यों नहीं ?

(ग) अस्वाभाविक प्रतिबन्धों की समाप्ति-सरकार ने कोटा-परमिट आदि के जो हजारों प्रतिबन्ध लगा रखे हैं, उनसे व्यापार बहुत कुप्रभावित हुआ है। फलत: व्यापारियों को विभिन्न विभागों में बैठे अफसरों को खुश करने के लिए भाँति-भाँति के भ्रष्ट हथकण्डे अपनाने पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में भले और ईमानदार लोग व्यापार की ओर उन्मुख नहीं हो पाते। इन प्रतिबन्धों की समाप्ति से व्यापार में योग्य लोग आगे आएँगे, जिससे स्वस्थ प्रतियोगिता को बढ़ावा मिलेगा और जनता को अच्छा माल सस्ती दर पर मिल सकेगा।

(घ) कर-प्रणाली का सरलीकरण-सरकार ने हजारों प्रकार के कर लगा रखे हैं, जिनके बोझ से व्यापार पनप नहीं पाता। फलत: व्यापारी को अनैतिक हथकण्डे अपनाने को विवश होना पड़ता है; अतः सरकार को सैकड़ों करों को समाप्त करके कुछ गिने-चुने कर ही लगाने चाहिए। इन करों की वसूली प्रक्रिया भी इतनी सरल और निर्धान्त हो कि अशिक्षित या अल्पशिक्षित व्यक्ति भी अपना कर सुविधापूर्वक जमा कर सके और भ्रष्ट तरीके अपनाने को बाध्य न हो। इसके लिए देशी भाषाओं का हर स्तर पर प्रयोग नितान्त वांछनीय है।

(ङ) शासन और प्रशासन व्यय में कटौती-आज देश के शासन और प्रशासन (जिसमें विदेशों में स्थित भारतीय दूतावास भी सम्मिलित हैं), पर इतना अन्धाधुन्ध व्यय हो रहा है कि जनता की कमर टूटती जा रही है। इस व्यय में तत्काल बहुत अधिक कटौती करके सर्वत्र सादगी का आदर्श सामने रखा जाना । चाहिए, जो प्राचीनकाल से ही भारतीय जीवन-पद्धति की विशेषता रही है। साथ ही केन्द्रीय और प्रादेशिक सचिवालयों तथा देश-भर के प्रशासनिक तन्त्र के बेहद भारी-भरकम ढाँचे को छाँटकर छोटा किया जाना चाहिए।

(च) देशभक्ति की प्रेरणा देना-सबसे महत्त्वपूर्ण है कि वर्तमान शिक्षा-पद्धति में आमूल-चूल परिवर्तन कर उसे देशभक्ति को केन्द्र में रखकर पुनर्गठित किया जाए। विद्यार्थी को, चाहे वह किसी भी धर्म, मत या सम्प्रदाय का अनुयायी हो, आरम्भ से ही देशभक्ति का पाठ पढ़ाया जाए। इसके लिए प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति, भारतीय महापुरुषों के जीवनचरित आदि पाठ्यक्रम में रखकर विद्यार्थी को अपने देश की मिट्टी, इसकी परम्पराओं, मान्यताओं एवं संस्कृति पर गर्व करना सिखाया जाना चाहिए।

(छ) कानून को अधिक कठोर बनाना-भ्रष्टाचार के विरुद्ध कानून को भी अधिक कठोर बनाया जाए। इसके लिए वर्षों से चर्चा का विषय बना लोकपाल विधेयक’ भी भारत जैसे देश; जहाँ प्रत्येक स्तर पर भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी ही व्याप्त हैं; के लिए नाकाफी ही है।

(ज) प्रष्ट व्यक्तियों का सामाजिक बहिष्कार-भ्रष्टाचार से किसी भी रूप में सम्बद्ध व्यक्तियों का सामाजिक बहिष्कार किया जाए, ‘अर्थात् लोग उनसे किसी भी प्रकार का सम्बन्ध न रखें। यह उपाय प्रष्टाचार रोकने में बहुत सहायक सिद्ध होगा।

उपसंहार-भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे को आता है, इसलिए जब तक राजनेता देशभक्त और सदाचारी न होंगे, भ्रष्टाचार का उन्मूलन असम्भव है। उपयुक्त राजनेताओं के चुने जाने के बाद ही पूर्वोक्त सारे उपाय अपनाये जा सकते हैं, जो भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने में पूर्णत: प्रभावी सिद्ध होंगे। आज हर एक की जबान पर एक ही प्रश्न है कि क्या होगा इस महान्–सनातन राष्ट्र का ? कैसे मिटेगा यह भ्रष्टाचार, अत्याचार और दुराचार ? यह तभी सम्भव है, जब चरित्रवान् तथा सर्वस्व-त्याग और देश-सेवा की भावना से भरे लोग राजनीति में आएँगे और लोकचेतना के साथ जीवन को जोड़ेंगे।

भारत में बेरोजगारी की समस्या

सम्बद्ध शीर्षक

  • बेरोजगारी : कारण एवं निवारण [2018]
  • बेरोजगारी : समस्या और समाधान [2011]
  • शिक्षित बेरोजगारों की समस्या
  • बेरोजगारी की विकराल समस्या
  • बेरोजगारी की समस्या [2015]
  • बेरोजगारी दूर करने के उपाय बेरोजगारी : एक अभिशाप [2013]
  • बढ़ती जनसंख्या : रोजगार की समस्या [2014]
  • बेरोजगारी : कारण एवं निवारण [2015]

प्रमुख विचार-विन्द–

  1. प्रस्तावना,
  2. प्राचीन भारत की स्थिति,
  3. वर्तमान स्थिति,
  4. बेरोजगारी से अभिप्राय,
  5. भारत में बेरोजगारी का स्वरूप,
  6. बेरोजगारी के कारण,
  7. समस्या का समाधान,
  8. उपसंहा

प्रस्तावना—मनुष्य की सारी गरिमा, जीवन का उत्साह, आत्म-विश्वास व आत्म-सम्मान उसकी आजीविका पर निर्भर करता है। बेकार या बेरोजगार व्यक्ति से बढ़कर दयनीय, दुर्बल तथा दुर्भाग्यशाली कौन होगा? परिवार के लिए वह बोझ होता है तथा समाज के लिए कलंक। उसके समस्त गुण, अवगुण कहलाते हैं और उसकी सामान्य भूलें अपराध घोषित की जाती हैं। इस प्रकार वर्तमान समय में भारत के सामने सबसे विकराल और विस्फोटक समस्या बेकारी की है; क्योंकि पेट की ज्वाला से पीड़ित व्यक्ति कोई भी पाप कर सकता है-‘बुभुक्षितः किं न करोति पापम्।’ हमारा देश ऐसे ही युवकों की पीड़ा से सन्तप्त है।

प्राचीन भारत की स्थिति-प्राचीन भारत अनेक राज्यों में विभक्त था। राजागण स्वेच्छाचारी न थे। वे मन्त्रिपरिषद् के परामर्श से कार्य करते हुए प्रजा की सुख-समृद्धि के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते थे। राजदरबार से हजारों लोगों की आजीविका चलती थी, अनेक उद्योग-धन्धे फलते-फूलते थे। प्राचीन भारत में यद्यपि बड़े-बड़े नगर भी थे, पर प्रधानता ग्रामों की ही थी। ग्रामों में कृषि योग्य भूमि का अभाव न था। सिंचाई की समुचित व्यवस्था थी। फलत: भूमि सच्चे अर्थों में शस्यश्यामला (अनाज से भरपूर) थी। इन ग्रामों में कृषि से सम्बद्ध अनेक हस्तशिल्पी काम करते थे; जैसे-बढ़ई, खरादी, लुहार, सिकलीगर, कुम्हारे, कलयीगर आदि। साथ ही प्रत्येक घर में कोई-न-कोई लघु उद्योग चलता था; जैसे—सूत कातना, कपड़ा बुनना, इत्र-तेले का उत्पादन करना, खिलौने बनाना, कागज बनाना, चित्रकारी करना, रँगाई का काम करना, गुड़-खाँड बनाना आदि।

उस समय भारत का निर्यात व्यापार बहुत बढ़ा-चढ़ा था। यहाँ से अधिकतर रेशम, मलमल आदि भिन्न-भिन्न प्रकार के वस्त्र और मणि, मोती, हीरे, मसाले, मोरपंख, हाथीदाँत आदि बड़ी मात्रा में विदेशों में भेजे जाते थे। दक्षिण भारत गर्म मसालों के लिए विश्वभर में विख्यात था। यहाँ काँचे का काम भी बहुत उत्तम होता था। हाथीदाँत और शंख की अत्युत्तम चूड़ियाँ बनती थीं, जिन पर बारीक कारीगरी होती थी।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्राचीन काल की असाधारण समृद्धि का मुख्य आधार कृषि ही नहीं, अपितु अगणित लघु उद्योग-धन्धे एवं निर्यात-व्यापार था। इन उद्योग-धन्धों का संचालन बड़े-बड़े पूँजीपतियों के हाथों में न होकर गण-संस्थाओं (व्यापार संघों) द्वारा होता था। यही कारण था कि प्राचीन भारत में बेकारी का नाम भी कोई न जानता था।

प्राचीन भारत के इस आर्थिक सर्वेक्षण से तीन निष्कर्ष निकलते हैं—

  1. देश की अधिकांश जनता किसी-न-किसी उद्योग-धन्धे, हस्तशिल्प या वाणिज्य-व्यवसाय में लगी थी।
  2. भारत में निम्नतम स्तर तक स्वायत्तशासी या लोकतान्त्रिक संस्थाओं का जाल बिछा था।
  3. सारे देश में एक प्रकार का आर्थिक साम्यवाद विद्यमान था अर्थात् धन कुछ ही हाथों या स्थानों में केन्द्रित न होकर न्यूनाधिक मात्रा में सारे देश में फैला हुआ था।

वर्तमान स्थिति–जब सन् 1947 ई० में देश लम्बी पराधीनता के बाद स्वतन्त्र हुआ तो आशा हुई कि प्राचीन भारतीय अर्थतन्त्र की सुदृढ़ता की आधारभूत ग्राम-पंचायतों एवं लघु उद्योग-धन्धों को उज्जीवित कर देश को पुनः समृद्धि की ओर बढ़ाने हेतु योग्य दिशा मिलेगी, पर दुर्भाग्यवश देश का शासनतन्त्र अंग्रेजों के मानस-पुत्रों के हाथों में चला गया, जो अंग्रेजों से भी ज्यादा अंग्रेजियत में रँगे हुए थे। परिणाम यह हुआ कि देश में बेरोजगारी बढ़ती ही गयी। इस समय भारत की जनसंख्या 121 करोड़ से भी ऊपर है जिसमें 10% अर्थात् 12.1 करोड़ से भी अधिक लोग पूर्णतया बेरोजगार हैं।

बेरोजगारी से अभिप्राय-बेरोजगार, सामान्य अर्थ में, उस व्यक्ति को कहते हैं जो शारीरिक रूप से कार्य करने के लिए असमर्थ न हो तथा कार्य करने का इच्छुक होने पर भी उसे प्रचलित मजदूरी की दर पर कोई कार्य न मिलता हो। बेकारी को हम तीन वर्गों में बाँट सकते हैं-अनैच्छिक बेकारी, गुप्त व आंशिक बेकारी तथा संघर्षात्मक बेकारी। अनैच्छिक बेरोजगारी से अभिप्राय यह है कि व्यक्ति प्रचलित वास्तविक मजदूरी पर कार्य करने को तैयार है, परन्तु उसे रोजगार प्राप्त नहीं होता। गुप्त व आंशिक बेरोजगारी से आशय किसी भी व्यवसाय में आवश्यकता से अधिक व्यक्तियों के कार्य पर लगने से है। संघर्षात्मक बेरोजगारी से अभिप्राय यह है कि बेरोजगारी श्रम की माँग में सामयिक परिवर्तनों के कारण होती है और अधिक समय तक नहीं रहती। साधारणतया किसी भी अधिक जनसंख्या वाले राष्ट्र में तीनों प्रकार की बेरोजगारी पायी जाती है।

भारत में बेरोजगारी का स्वरूप-जनसंख्या के दृष्टिकोण से भारत का स्थान विश्व के सबसे अधिक जनसंख्या वाले देशों में चीन के पश्चात् है। यद्यपि वहाँ पर अनैच्छिक बेरोजगारी पायी जाती है, तथापि भारत में बेरोजगारी का स्वरूप अन्य देशों की अपेक्षा कुछ भिन्न है। यहाँ पर संघर्षात्मक बेरोजगारी भीषण रूप से फैली हुई है। प्रायः नगरों में अनैच्छिक बेरोजगारी और ग्रामों में गुप्त बेरोजगारी का स्वरूप देखने में आता है। शहरों में बेरोजगारी के दो रूप देखने में आते हैं-औद्योगिक श्रमिकों की बेकारी तथा दूसरे, शिक्षित वर्ग में बेकारी। भारत एक कृषि-प्रधान देश है और यहाँ की लगभग 75% जनता गाँव में निवास करती है जिसका मुख्य व्यवसाय कृषि है। कृषि में मौसमी अथवा सामयिक रोजगार प्राप्त होता है; अत: कृषि व्यवसाय में संलग्न जनसंख्या का अधिकांश भाग चार से छ: मास तक बेकार रहता है। इस प्रकार भारतीय ग्रामों में संघर्षात्मक बेरोजगारी अपने भीषण रूप में विद्यमान है।

बेरोजगारी के कारण हमारे देश में बेरोजगारी के अनेक कारण हैं। इनमें से कुछ प्रमुख कारणों का उल्लेख निम्नलिखित है

  1. जनसंख्या–बेरोजगारी का प्रमुख कारण है-जनसंख्या में तीव्रगति से वृद्धि। विगत कुछ दशकों में भारत में जनसंख्या का विस्फोट हुआ है। हमारे देश की जनसंख्या में प्रतिवर्ष लगभग 2.5% की वृद्धि हो जाती है; जबकि इस दर से बढ़ रहे व्यक्तियों के लिए हमारे देश में रोजगार की व्यवस्था नहीं है।
  2. शिक्षा-प्रणाली-भारतीय शिक्षा सैद्धान्तिक अधिक है। इसमें पुस्तकीय ज्ञान पर ही विशेष ध्यान दिया जाता है; फलतः यहाँ के स्कूल-कॉलेजों से निकलने वाले छात्र निजी उद्योग-धन्धे स्थापित करने योग्य नहीं बन पाते।
  3. कुटीर उद्योगों की उपेक्षा–ब्रिटिश सरकार की कुटीर उद्योग विरोधी नीति के कारण देश में कुटीर उद्योग-धन्धों का पतन हो गया; फलस्वरूप अनेक कारीगर बेकार हो गये। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भी कुटीर उद्योगों के विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया; अत: बेरोजगारी में निरन्तर वृद्धि होती गयी।
  4. औद्योगीकरण की मन्द प्रक्रिया-पंचवर्षीय योजनाओं में देश के औद्योगिक विकास के लिए जो कदम उठाये गये उनसे समुचित रूप से देश का औद्योगीकरण नहीं किया जा सका है। फलतः बेकार व्यक्तियों के लिए रोजगार के साधन नहीं जुटाये जा सके हैं।
  5. कृषि का पिछड़ापन-भारत की लगभग दो-तिहाई जनता कृषि पर निर्भर है। कृषि की पिछड़ी हुई दशा में होने के कारण कृषि बेरोजगार की समस्या व्यापक हो गयी है।
  6. कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों की कमी–हमारे देश में कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों की कमी है। अत: उद्योगों के सफल संचालन के लिए विदेशों से प्रशिक्षित कर्मचारी बुलाने पड़ते हैं। इस कारण से देश के कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों के बेकार हो जाने की भी समस्या हो जाती है।

इनके अतिरिक्त मानसून की अनियमितता, भारी संख्या में शरणार्थियों का आगमन, मशीनीकरण के फलस्वरूप होने वाली श्रमिकों की छंटनी, श्रम की माँग एवं पूर्ति में असन्तुलन, आर्थिक संसाधनों की कमी आदि से भी बेरोजगारी में वृद्धि हुई है। देश को बेरोजगारी से उबारने के लिए इनका समुचित समाधान नितान्त आवश्यक है।
समस्या का समाधान–

  1. सबसे पहली आवश्यकता है हस्तोद्योगों को बढ़ावा देने की। इससे स्थानीय प्रतिभा को उभरने का सुअवसर मिलेगा। भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश के लिए लघु उद्योग-धन्धे ही ठीक हैं, जिनमें अधिक-से-अधिक लोगों को काम मिल सके। मशीनीकरण उन्हीं देशों के लिए उपयुक्त होता है, जहाँ कम जनसंख्या के कारण कम हाथों से अधिक काम लेना हो।
  2. दूसरी आवश्यकता है मातृभाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने की, जिससे विद्यार्थी शीघ्र ही शिक्षित होकर अपनी प्रतिभा का उपयोग कर सकें। साथ ही आज स्कूल-कॉलेजों में दी जाने वाली अव्यावहारिक शिक्षा के स्थान पर शिल्प-कला, उद्योग-धन्धों आदि से सम्बद्ध शिक्षा दी जानी चाहिए, जिससे कि पढ़ाई समाप्त कर विद्यार्थी तत्काल रोजी-रोटी कमाने योग्य हो जाए।
  3. बड़ी-बड़ी मिलें और फैक्ट्रियाँ, सैनिक शस्त्रास्त्र तथा ऐसी ही दूसरी बड़ी चीजें बनाने तक सीमित कर दी जाएँ। अधिकांश जीवनोपयोगी वस्तुओं का उत्पादन घरेलू उद्योगों से ही हो।
  4. पश्चिमी शिक्षा ने शिक्षितों में हाथ के काम को नीचा समझने की जो मनोवृत्ति पैदा कर दी है, उसे ‘श्रम के गौरव’ (Dignity of Labour) की भावना पैदा करके दूर किया जाना चाहिए।
  5. लघु उद्योग-धन्धों के विकास से शिक्षितों में नौकरियों के पीछे भागने की प्रवृत्ति घटेगी; क्योंकि नौकरियों में देश की जनता का एक बहुत सीमित भाग ही खप सकता है। लोगों को प्रोत्साहन देकर हस्त-उद्योगों एवं वाणिज्य-व्यवसाय की ओर उन्मुख किया जाना चाहिए। ऐसे लघु-उद्योगों में रेशम के कीड़े पालना, मधुमक्खी-पालन, सूत कातना, कपड़ा बुनना, बागवानी, साबुन बनाना, खिलौने, चटाइयाँ, कागज, तेल-इत्र आदि न जाने कितनी वस्तुओं का निर्माण सम्भव है। इसके लिए प्रत्येक जिले में जो सरकारी लघु-उद्योग कार्यालय हैं; वे अधिक प्रभावी ढंग से काम करें। वे इच्छुक लोगों को सही उद्योग चुनने की सलाह दें, उन्हें ऋण उपलब्ध कराएँ तथा आवश्यकतानुसार कुछ तकनीकी शिक्षा दिलवाने की भी व्यवस्था करें। इसके साथ ही इनके उत्पादों की बिक्री की भी व्यवस्था कराएँ। यह सर्वाधिक आवश्यक है; क्योंकि इसके बिना शेष सारी व्यवस्था बेकार साबित होगी। सरकार के लिए ऐसी व्यवस्था करना कठिन नहीं है; क्योंकि वह स्थान-स्थान पर बड़ी-बड़ी प्रदर्शनियाँ आयोजित करके तैयार माल बिकवा सकती है, जब कि व्यक्ति के लिए, विशेषत: नये व्यक्ति के लिए, यह सम्भव नहीं।।
  6. इसके साथ ही देश की तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या पर भी रोक लगाना अत्यावश्यक हो गया है।

उपसंहार-सारांश यह है कि देश के स्वायत्तशासी ढाँचे और लघु उद्योग-धन्धों के प्रोत्साहन से ही बेरोजगारी की समस्या का स्थायी समाधान सम्भव है। हमारी सरकार भी बेरोजगारी की समस्या के उन्मूलन के लिए जागरूक है और उसके द्वारा इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम भी उठाये गये हैं। परिवार नियोजन (कल्याण), बैंकों का राष्ट्रीयकरण, एक स्थान से दूसरे स्थान पर कच्चा माल ले जाने की सुविधा, कृषि-भूमि की चकबन्दी, नये-नये उद्योगों की स्थापना, प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना आदि अनेकानेक ऐसे कार्य हैं, जो बेरोजगारी को दूर करने में एक सीमा तक सहायक सिद्ध हो रहे हैं। इन कार्यक्रमों को और अधिक विस्तृत, प्रभावकारी और ईमानदारी से कार्यान्वित किये जाने की आवश्यकता है।

दहेज-प्रथा : एक सामाजिक अभिशाप

सम्बद्ध शीर्षक

  • दहेज : समस्या और समाधान
  • हमारे समाज का कोढ़ : दहेज-प्रथा
  • दहेज-प्रथा : अतीत और वर्तमान [2011]

प्रमुख विचार-विन्द–

  1. प्रस्तावना,
  2. दहेज-प्रथा का स्वरूप,
  3. दहेज-प्रथी की विकृति के कारण,
  4. दहेज-प्रथा से हानियाँ,
  5. दहेज प्रथा को समाप्त करने के उपाय,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-दहेज-प्रथा यद्यपि प्राचीन काल से चली आ रही है, पर वर्तमान काल में इसने जैसा विकृत रूप धारण कर लिया है, उसकी कल्पना भी किसी ने न की थी। हिन्दू समाज के लिए आज यह एक अभिशाप बन गया है, जो समाज को अन्दर से खोखला करता जा रहा है। अत: इस समस्या के स्वरूप, कारणों एवं समाधान पर विचार करना. नितान्त आवश्यक है।

दहेज-प्रथा का स्वरूप-कन्या के विवाह के अवसर पर कन्या के माता-पिता वर-पक्ष के सम्मानार्थ जो दान-दक्षिणी भेटस्वरूप देते हैं, वह दहेज कहलाता है। यह प्रथा बहुत प्राचीन है। ‘श्रीरामचरितमानस’ के अनुसार जानकी जी को विदा करते समय महाराज जनक ने प्रचुर दहेज दिया था, जिसमें धन-सम्पत्ति, हाथी-घोड़े, खाद्य-पदार्थ आदि के साथ दास-दासियाँ भी थीं। यही दहेज का वास्तविक स्वरूप है, अर्थात् इसे स्वेच्छा से दिया जाना चाहिए।

कुछ वर्ष पहले तक यही स्थिति थी, किन्तु आज इसका स्वरूप अत्यधिक विकृत हो चुका है। आज वर-पक्ष अपनी माँगों की लम्बी सूची कन्या-पक्ष के सामने रखता है, जिसके पूरी न होने पर विवाह टूट जाता है। इस प्रकार यह लड़के का विवाह नहीं, उसकी नीलामी है, जो ऊँची-से-ऊँची बोली बोलने वाले के पक्ष में छूटती है। विवाह का अर्थ है—दो समान गुण, शील, कुल वाले वर-कन्या का गृहस्थ-जीवन की सफलता के लिए परस्पर सम्मान और विश्वासपूर्वक एक सूत्र में बँधना। इसी कारण पहले के लोग कुल-शील को सर्वाधिक महत्त्व देते थे। फलतः 98 प्रतिशत विवाह सफल होते थे, किन्तु आज तो स्थिति यहाँ तक विकृत हो चुकी है कि इच्छित दहेज पाकर भी कई पति अपनी पत्नी को प्रताड़ित करते हैं और उसे आत्महत्या तक के लिए विवश कर देते हैं या स्वयं मार डालते हैं।

दहेज-प्रथा की विकृति के कारण-दहेज-प्रथा को जो विकृततम रूप आज दीख पड़ता है उसके कई कारण हैं, जिनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं–
(क) भौतिकवादी जीवन-दृष्टि-अंग्रेजी शिक्षा के अन्धाधुन्ध प्रचार के फलस्वरूप लोगों का जीवन पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होकर घोर भौतिकवादी बन गया है, जिनमें अर्थ (धन) और काम (सांसारिक सुख-भोग) की ही प्रधानता हो गयी है। प्रत्येक व्यक्ति अपने यहाँ अधिक-से-अधिक शान-शौकत की चीजें रखना चाहता है और इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेता है। यही दहेज-प्रथा की विकृति का सबसे प्रमुख कारण है।

(ख) वर-चयन का क्षेत्र सीमित-हिन्दुओं में विवाह अपनी ही जाति में करने की प्रथा है और जाति के अन्तर्गत भी कुलीनता-अकुलीनता का विचार होता है। फलत: वर-चयन का क्षेत्र बहुत सीमित हो जाता है। अपनी कन्या के लिए अधिकाधिक योग्य वर प्राप्त करने की चाहत लड़के वालों को दहेज माँगने हेतु प्रेरित करती है।

(ग) विवाह की अनिवार्यता–हिन्दू समाज में कन्या का विवाह माता-पिता का पवित्र दायित्व माना जाता है। यदि कन्या अधिक आयु तक अविवाहित रहे तो समाज माता-पिता की निन्दा करने लगता है। फलतः कन्या के हाथ पीले करने की चिन्ता वर-पक्ष द्वारा उनके शोषण के रूप में सामने आती है।

(घ) स्पर्धा की भावना-रिश्तेदार या पास-पड़ोस की कन्या की अपेक्षा अपनी कन्या को मालदार या उच्चपदस्थ वर के साथ ब्याहने के लिए लगी होड़ का परिणाम भी माता-पिता के लिए घातक सिद्ध होता है। कई कन्या-पक्ष वाले वर-पक्ष वालों से अपनी कन्या के लिए अच्छे वस्त्राभूषण एवं बारात को तड़क-भड़क से लाने की माँग केवल अपनी झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से कर देते हैं, जिससे वर-पक्ष वाले अधिक दहेज की माँग करते हैं।

(ङ) रिश्वतखोरी-अधिक धन कमाने की लालसा में विभिन्न पदों पर बैठे लोग अनुचित साधनों द्वारा पर्याप्त धन कमाते हैं। इसका विकृत स्वरूप दहेज के रूप में कम आय वाले परिवारों को प्रभावित करता है।

दहेज-प्रथा से हानियाँ-दहेज-प्रथा की विकृति के कारण आज सारे समाज में एक भूचाल-सा आ गया है। इससे समाज को भीषण आघात पहुँच रहा है। कुछ प्रमुख हानियाँ निम्नलिखित हैं

(क) नवयुवतियों को प्राण-नाश-समाचार-पत्रों में प्रायः प्रतिदिन ही दहेज के कारण किसी-न-किसी नवविवाहिता को जीवित जला डालने अथवा मार डालने के एकाधिक लोमहर्षक एवं हृदयविदारक समाचार निकलते ही रहते हैं। कभी-कभी वांछित दहेज न ला पाने के कारण वधू की पूर्ण उपेक्षा कर दी जाती है अथवा उसे मायके भेजकर एक प्रकार से अघोषित विवाह-विच्छेद (तलाक) की स्थिति उत्पन्न कर दी जाती है, जिससे उसका जीवन दुर्वह बन जाता है। इस प्रकार इस कुप्रथा के कारण न जाने कितनी ललनाओं का जीवन नष्ट होता है, जो अत्यधिक शोचनीय है।

(ख) ऋणग्रस्तता-दहेज जुटाने की विवशता के कारण कितने ही माता-पिताओं की कमर आर्थिक दृष्टि से टूट जाती हैं, उनके रहने के मकान बिक जाते हैं या वे ऋणग्रस्त हो जाते हैं और इस प्रकार कितने ही सुखी परिवारों की सुख-शान्ति सदा के लिए नष्ट हो जाती है। फलतः कन्या का जन्म आजकल एक अभिशाप माना जाने लगा है।

(ग) भ्रष्टाचार को बढ़ावा-इस प्रथा के कारण भ्रष्टाचार को भी प्रोत्साहन मिला है। कन्या के दहेज के लिए अधिक धन जुटाने की विवशता में पिता भ्रष्टाचार का आश्रय लेता है। कभी-कभी इसके कारण वह अपनी नौकरी से हाथ धोकर जेल भी जाता है या दर-दर को भिखारी बन जाता है।

(घ) अविवाहित रहने की विवशता-दहेज रूपी दानव के कारण कितनी ही सुयोग्य लड़कियाँ अविवाहित जीवन बिताने को विवश हो जाती हैं। कुछ भावुक युवतियाँ स्वेच्छा से अविवाहित रह जाती हैं और कुछ विवाहिता युवतियों के साथ घटित होने वाली ऐसी घटनाओं से आतंकित होकर अविवाहित रह जाना पसन्द करती हैं।

(ङ) अनैतिकता को प्रोत्साहन-अधिक आयु तक कुँआरी रह जाने वाली युवतियों में से कुछ तो किसी युवक से अवैध सम्बन्ध स्थापित कर अनैतिक जीवन जीने को बाध्य होती हैं और कुछ यौवन-सुलभ वासना के वशीभूत होकर गलत लोगों के जाल में फँस जाती हैं, जिससे समाज में अगणित विकृतियाँ एवं विशृंखलताएँ उत्पन्न हो रही हैं।

(च) अनमेल विवाह–इस प्रथा के कारण अक्सर माता-पिता को अपनी सुयोग्य-सुशिक्षिता कन्या को किसी अल्पशिक्षित युवक से ब्याहना पड़ता है या किसी सुन्दर युवती को किसी कुरूप या अधिक आयु वाले को पति रूप में सहन करना पड़ता है, जिससे उसका जीवन नीरस हो जाता है।

(छ) अयोग्य बच्चों का जन्म-जहाँ अनमेल विवाह हो रहे हैं, वहाँ योग्य सन्तान की अपेक्षा आकाश-कुसुम के समान है। सन्तान का उत्तम होना तभी सम्भव है, जब कि माता और पिता दोनों में पारस्परिक सामंजस्य हो। सारांश यह हैं कि दहेज-प्रथा के कारण समाज में अत्यधिक अव्यवस्था और अशान्ति उत्पन्न हो गयी है तथा गृहस्थ-जीवन इस प्रकार लांछित हो रहा है कि सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची हुई है।

दहेज-प्रथा को समाप्त करने के उपाय–दहेज स्वयं अपने में गर्हित वस्तु नहीं, यदि वह स्वेच्छया प्रदत्त हो, पर आज जो उसका विकृत रूप दीख पड़ता है, वह अत्यधिक निन्दनीय है। इसे मिटाने के लिए निम्नलिखित उपाय उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं

(क) जीवन के भौतिकवादी दृष्टिकोण में परिवर्तन-जीवन का घोर भौतिकवादी दृष्टिकोण, जिसमें केवल अर्थ और काम ही प्रधान है, बदलना होगा। जीवन में अपरिग्रह और त्याग की भावना पैदा करनी होगी। इसके लिए हम बंगाल, महाराष्ट्र एवं दक्षिण का उदाहरण ले सकते हैं। ऐसी घटनाएँ इने प्रदेशों में प्रायः सुनने को नहीं मिलतीं, जब कि हिन्दी-प्रदेश में इनकी बाढ़ आयी हुई है। यह स्वाभिमान की भी माँग है कि कन्या-पक्ष वालों के सामने हाथ न फैलाया जाए और सन्तोषपूर्वक अपनी चादर की लम्बाई के अनुपात में पैर फैलाये जाएँ।।

(ख) नारी-सम्मान की भावना का पुनर्जागरण-हमारे यहाँ प्राचीन काल में नारी को गृहलक्ष्मी माना जाता था और उसे बड़ा सम्मान दिया जाता था। प्राचीन ग्रन्थों में कहा गया है—यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता। सचमुच सुगृहिणी गृहस्थ-जीवन की धुरी है, उसकी शोभा है तथा सम्मति देने वाली मित्र और एकान्त की सखी है। यह भावना समाज में जगनी चाहिए और बिना भारतीय संस्कृति को उज्जीवित किये यह सम्भव नहीं।।

(ग) कन्या को स्वावलम्बी बनाना–वर्तमान भौतिकवादी परिस्थिति में कन्या को उचित शिक्षा देकर आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनाना भी नितान्त प्रयोजनीय है। इससे यदि उसे योग्य वर नहीं मिल पाता तो वह अविवाहित रहकर भी स्वाभिमानपूर्वक अपना जीवनयापन कर सकती है। साथ ही लड़की को अपने मनोनुकूल वर चुनने की स्वतन्त्रता भी मिलनी चाहिए।

(घ) नवयुवकों को स्वावलम्बी बनाना-दहेज की माँग प्रायः युवक के माता-पिता करते हैं। युवक यदि आर्थिक दृष्टि से माँ-बाप पर निर्भर हो, तो उसे उनके सामने झुकना ही पड़ता है। इसलिए युवक को स्वावलम्बी बनने की प्रेरणा देकर उनमें आदर्शवाद जगाया जा सकता है, इससे वधू के मन में भी अपने पति के लिए सम्मान पैदा होगा।

(ङ) वर-चयन में यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना-कन्याओं के माता-पिताओं को भी चाहिए। कि वे अपनी कन्या के रूप, गुण, शिक्षा, समता एवं अपनी आर्थिक स्थिति का सम्यक् विचार करके ही वर का चुनाव करें। हर व्यक्ति यदि ऊँचे-से-ऊँचा वर खोजने निकलेगा तो परिणाम दुःखद ही होगा।

(च) विवाह-विच्छेद के नियम अधिक उदार बनाना-हिन्दू-विवाह के विच्छेद का कानून पर्याप्त जटिल और समयसाध्य है, जिससे कई युवक या उसके माता-पिता वधू को मार डालते हैं; अतः नियम इतने सरल होने चाहिए कि पति-पत्नी में तालमेल न बैठने की स्थिति में दोनों का सम्बन्ध विच्छेद सुविधापूर्वक हो सके।

(छ) कठोर दण्ड और सामाजिक बहिष्कार-अक्सर देखने में आता है कि दहेज के अपराधी कानूनी जटिलताओं के कारण साफ बच जाते हैं, जिससे दूसरों को भी ऐसे दुष्कृत्यों की प्रेरणा मिलती है। अतः समाज को भी इतना जागरूक बनना पड़ेगा कि जिस घर में बहू की हत्या की गयी हो उसका पूर्ण सामाजिक बहिष्कार करके कोई भी व्यक्ति अपनी कन्या वहाँ न ब्याहे।

(ज) दहेज विरोधी कानून का कड़ाई से पालन-जहाँ कहीं भी दहेज का आदान-प्रदान हो, वहाँ प्रैशासन का हस्तक्षेप परमावश्यक है। ऐसे लोगों को तुरन्त पुलिस के हवाले कर देना चाहिए।

(झ) नारी-जागरण की अनिवार्यता देश की सरकार स्त्री-शिक्षा पर प्रचुर मात्रा में धन व्यय कर रही है। इसका एकमात्र उद्देश्य यही है कि नारी-जाति में जागृति आये और वे साहसपूर्वक अपने ऊपर होने वाले किसी भी अन्याय के प्रति खुलकर सामने आ सकें। इसके लिए संविधान भी उन्हें विशेष संरक्षण देता है। अतः भारत की ललनाओं को यह चाहिए कि वे दहेज प्रथा का प्राणपण से विरोध करें और माता-पिता को आश्वस्त कर दें कि वे स्वयं उन्नति कर सच्चरित्र जीवन व्यतीत करेंगी और मनोनुकूल वर मिलने पर ही उससे विवाह करेंगी।

उपसंहार–सारांश यह है कि दहेज-प्रथा एक अभिशाप है, जिसे मिटाने के लिए समाज और शासन के साथ-साथ प्रत्येक युवक और युवती को भी कटिबद्ध होना पड़ेगा। जब तक समाज में जागृति नहीं होगी, दहेज-प्रथा के दैत्य से मुक्ति पाना कठिन है। राजनेताओं, समाज-सुधारकों तथा युवक-युवतियों सभी के सहयोग से दहेज-प्रथा का अन्त हो सकता है। सम्प्रति, समाज में नव-जागृति आयी है और इस दिशा में सक्रिय कदम उठाये जा रहे हैं।

बेलगाम महँगाई [2010]

सम्बद्ध शीर्षक

  • महँगाई की समस्या और उसका समाधान [2012]
  • महँगाई : समस्या और समाधान [2011]
  • बढ़ती महँगाई : कारण और निदान [2011]
  • महँगाई की समस्या [2013, 14]
  • महँगाई से परेशान : भारत का इंसान [2014]
  • महँगाई की समस्या : कारण और निवारण (2015)
  • महँगाई की समस्या और इंसान [2016]

प्रमुख विचार-विन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. महँगाई के कारण—(क) जनसंख्या में तीव्र वृद्धि; (ख) कृषि उत्पादन-व्यय में वृद्धि; (ग) कृत्रिम रूप से वस्तुओं की आपूर्ति में कमी; (घ) मुद्रा-प्रसार; (ङ) प्रशासन में शिथिलता; (च) घाटे का बजट, (छ) असंगठित उपभोक्ता; (ज) धन को असमान वितरण
  3. महंगाई के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली कठिनाइयाँ,
  4. महँगाईको दूर करने के लिए सुझाव,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना-भारत की आर्थिक समस्याओं के अन्तर्गत महँगाई की समस्या एक प्रमुख समस्या है। वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि का क्रम इतना तीव्र है कि जब आप किसी वस्तु को दोबारा खरीदने जाते हैं तो वस्तु का मूल्य पहले से अधिक बढ़ा हुआ होता है।
दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ती इस महँगाई की मार का वास्तविक चित्रण प्रसिद्ध हास्य कवि काका हाथरसी की निम्नलिखित पंक्तियों में हुआ है-

पाकिट में पीड़ा भरी कौन सुने फरियाद ?
यह महँगाई देखकर वे दिन आते याद॥
वे दिन आते याद, जेब में पैसे रखकर,
सौदा लाते थे बाजार से थैला भरक॥
धक्का मारा युग ने मुद्रा की क्रेडिट ने,
थैले में रुपये हैं, सौदा है पाकिट में।

महँगाई के कारण वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि अर्थात् महँगाई के बहुत से कारण हैं। इन कारणों में अधिकांश कारण आर्थिक हैं तथा कुछ कारण ऐसे भी हैं, जो सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था से सम्बन्धित हैं। इन कारणों का संक्षिप्त विवरण अग्रवत् है-

(क) जनसंख्या में तीव्र वृद्धि-भारत में जनसंख्या-विस्फोट ने वस्तुओं की कीमतों को बढ़ाने की दृष्टि से बहुत अधिक सहयोग दिया है। जितनी तेजी से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, उतनी तेजी से वस्तुओं को उत्पादन नहीं हो रहा है। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ है कि अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में निरन्तर वृद्धि हुई है।

(ख) कृषि उत्पादन-व्यय में वृद्धि-हमारा देश कृषि-प्रधान है। यहाँ की अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। गत वर्षों से कृषि में प्रयुक्त होने वाले उपकरणों, उर्वरकों आदि के मूल्यों में बहुत अधिक वृद्धि हुई है; परिणामस्वरूप उत्पादित वस्तुओं के मूल्य में भी वृद्धि होती जा रही है। अधिकांश वस्तुओं के मूल्य प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कृषि पदार्थों के मूल्यों से सम्बद्ध होते हैं। इस कारण जब कृषि-मूल्य में वृद्धि हो जाती है तो देश में अधिकांशतः वस्तुओं के मूल्य अवश्यमेव प्रभावित होते हैं।

(ग) कृत्रिम रूप से वस्तुओं की आपूर्ति में कमी-वस्तुओं का मूल्य माँग और पूर्ति पर आधारित होता है। जब बाजार में वस्तुओं की पूर्ति कम हो जाती है तो उनके मूल्य बढ़ जाते हैं। अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से भी व्यापारी वस्तुओं को कृत्रिम अभाव पैदा कर देते हैं, जिसके कारण महँगाई बढ़ जाती है।

(घ) मुद्रा-प्रसार-जैसे-जैसे देश में मुद्रा-प्रसार बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे ही महँगाई बढ़ती जाती है। तृतीय पंचवर्षीय योजना के समय से ही हमारे देश में मुद्रा-प्रसार की स्थिति रही है, परिणामतः वस्तुओं के मूल्य बढ़ते ही जा रहे हैं। कभी जो वस्तु एक रुपए में मिला करती थी उसके लिए अब लगभग सौ रुपए तक खर्च करने पड़ जाते हैं।

(ङ) प्रशासन में शिथिलता-सामान्यतः प्रशासन के स्वरूप पर ही देश की अर्थव्यवस्था निर्भर करती है। यदि प्रशासन शिथिल पड़ जाता है तो मूल्य बढ़ते जाते हैं, क्योंकि कमजोर शासन व्यापारी वर्ग पर नियन्त्रण नहीं रख पाता। ऐसी स्थिति में वस्तुओं के मूल्यों में अनियन्त्रित और निरन्तर वृद्धि होती रहती है।

(च) घाटे का बजट विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु सरकार को बहुत अधिक मात्रा में पूँजी की व्यवस्था करनी पड़ती है। पूँजी की व्यवस्था करने के लिए सरकार अन्य उपायों के अतिरिक्त घाटे की बजट प्रणाली को भी अपनाती है। घाटे की यह पूर्ति नये नोट छापकर की जाती है, परिणामत: देश में मुद्रा की पूर्ति आवश्यकता से अधिक हो जाती है। जब ये नोट बाजार में पहुँचते हैं तो वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि करते हैं।

(छ) असंगठित उपभोक्ता वस्तुओं का क्रय करने वाला उपभोक्ता वर्ग प्रायः असंगठित होता है, जबकि विक्रेता या व्यापारिक संस्थाएँ अपना संगठन बना लेती हैं। ये संगठन इस बात का निर्णय करते हैं। कि वस्तुओं का मूल्य क्या रखा जाए और उन्हें कितनी मात्रा में बेचा जाए। जब सभी सदस्य इन नीतियों का पालन करते हैं तो वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होने लगती है। वस्तुओं के मूल्यों में होने वाली इस वृद्धि से उपभोक्ताओं को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

(ज) धन का असमान वितरण-हमारे देश में धन को असमान वितरण महँगाई का मुख्य कारण है। जिनके पास पर्याप्त धन है, वे लोग अधिक पैसा देकर साधनों और सेवाओं को खरीद लेते हैं। व्यापारी धनवानों की इस प्रवृत्ति का लाभ उठाते हैं और महँगाई बढ़ती जाती है। वस्तुत: विभिन्न सामाजिक-आर्थिक विषमताओं एवं समाज में व्याप्त अशान्ति पूर्ण वातावरण का अन्त करने के लिए धन का समान वितरण होना आवश्यक है। कविवर दिनकर के शब्दों में भी-

शान्ति नहीं तब तक, जब तक
सुख भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को बहुत अधिक हो ।
नहीं किसी को कम हो।

(3) महँगाई के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली कठिनाइयाँ-महँगाई नागरिकों के लिए अभिशाप स्वरूप है। हमारा देश एक गरीब देश है। यहाँ की अधिकांश जनसंख्या के आय के साधन सीमित हैं। इस कारण साधारण नागरिक और कमजोर वर्ग के व्यक्ति अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाते। बेरोजगारी इस कठिनाई को और भी अधिक जटिल बना देती है। व्यापारी अपनी वस्तुओं का कृत्रिम अभाव कर देते हैं। इसके कारण वस्तुओं के मूल्य में अनियन्त्रित वृद्धि हो जाती है। परिणामतः कम आय वाले व्यक्ति बहुत-सी वस्तुओं और सेवाओं से वंचित रह जाते हैं। महँगाई के बढ़ने से कालाबाजारी को प्रोत्साहन मिलता है। व्यापारी अधिक लाभ कमाने के लिए वस्तुओं को अपने गोदामों में छिपा देते हैं। महँगाई बढ़ने से देश की अर्थव्यवस्था कमजोर हो जाती है।

(4) महँगाई को दूर करने के लिए सुझाव-यदि महँगाई इसी दर से ही बढ़ती रही तो देश के आर्थिक विकास में बहुत-सी बाधाएँ उपस्थित हो जाएँगी। इससे अनेक प्रकार की सामाजिक बुराइयाँ भी जन्म लेंगी; अतः महँगाई के इस दानव को समाप्त करना परम आवश्यक है।

महँगाई को दूर करने के लिए सरकार को समयबद्ध कार्यक्रम बनाने होंगे। किसानों को सस्ते मूल्य पर खाद, बीज और उपकरण आदि उपलब्ध कराने होंगे, जिसमें कृषि उत्पादनों के मूल्य कम हो सकें। मुद्रा-प्रसार को रोकने के लिए घाटे के बजट की व्यवस्था समाप्त करनी होगी अथवा घाटे को पूरा करने के लिए नये नोट छपवाने की प्रणाली को बन्द करना होगा। जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए अनवरत प्रयास करने होंगे। सरकार को इस बात का भी प्रयास करना होगा कि शक्ति और साधन कुछ विशेष लोगों तक सीमित न रह जाएँ और धन का उचित रूप में बँटवारा हो सके। सहकारी वितरण संस्थाएँ इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। इन सभी के लिए प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त और कर्मचारियों को पूरी निष्ठी तथा कर्तव्यपरायणता के साथ कार्य करना होगा।

(5) उपसंहार-महँगाई की वृद्धि के कारण हमारी अर्थव्यवस्था में अनेक प्रकार की जटिलताएँ उत्पन्न हो गयी हैं। घाटे की अर्थव्यवस्था ने इस कठिनाई को और अधिक बढ़ा दिया है। यद्यपि सरकार की ओर से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में किये जाने वाले प्रयासों द्वारा महँगाई की इस प्रवृत्ति को रोकने का निरन्तर प्रयास किया जा रहा है, तथापि इस दिशा में अभी तक पर्याप्त सफलता नहीं मिल सकी है।

यदि समय रहते महँगाई के इस दानव को वश में नहीं किया गया तो हमारी अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी और हमारी प्रगति के समस्त मार्ग बन्द हो जाएँगे, भ्रष्टाचार अपनी जड़े जमा लेगा और नैतिक मूल्य पूर्णतया समाप्त हो जाएँगे।

भारतीय जातिवाद की समस्या

सम्बद्ध शीर्षक

  • जाति-प्रथा : परम्परा, अभिशाप और उन्मूलन
  • जातिवाद की समस्या : कारण और निवारण [2016]

प्रमुख विचार-विन्द-

  1. प्रस्तावना,
  2. जाति-व्यवस्था का सामान्य परिचय,
  3. जाति-प्रथा की विशेषताएँ,
  4. जाति-प्रथा से होने वाली हानियों,
  5. जाति-प्रथा का उन्मूलन,
  6. उपसंहारी

प्रस्तावना–प्रत्येक समाज में सदस्यों के कार्य और पद (Role and Status) को निश्चित करने के लिए और सामाजिक नियन्त्रण के लिए कुछ सामाजिक व्यवस्थाएँ की जाती हैं। संसार के प्रत्येक समाज में यह व्यवस्थाएँ किसी-न-किसी रूप में पायी जाती हैं। भारतीय (विशेषकर हिन्दू समाज की) वर्ण-व्यवस्था उसी समाजिक व्यवस्था की एक प्रमुख संस्था है। वर्ण-व्यवस्था का स्वरूप विकृत होकर जाति-प्रथा बन गया है। हम जब जाति-प्रथा, जातिवाद अथवा भारतीय जाति-प्रथा आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं तब हमारा तात्पर्य हिन्दू समाज में प्रचलित जाति-व्यवस्था से होता है। भारतवर्ष जाति-व्यवस्था को भण्डार है। भारत में मुसलमान और ईसाई सहित शायद ही कोई ऐसा समूह हो, जो जाति-प्रथा न मानता हो अथवा उसके द्वारा ग्रस्त न हो।

अत्यन्त प्रचीन काल में हमारे देश में गुण और कर्म के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का निर्धारण किया गया था और उसे सामाजिक कल्याण के लिए अत्यन्त उपयोगी और आवश्यक समझा गया था। उस समय वर्ण का क्या अभिप्राय था तथा उस व्यवस्था का रूप क्या था? इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं। इतना सुनिश्चित है कि भारत की वर्णाश्रम-व्यवस्था का निर्माण व्यक्ति और समाज दोनों ही स्तरों पर जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए किया गया था। भ्रम एवं कर्तव्य का विभाजन उसका प्रमुख उद्देश्य था। मनुस्मृति में प्रत्येक वर्ण के कर्तव्यों का निरूपण उपलब्ध होता है। न तो वर्गों के अधिकारों का विधान है। और न उनके सापेक्ष महत्त्व की ऊँच-नीच की चर्चा ही की गयी है। श्रम-विभाजन को लक्ष्य करके बनाई गई। व्यवस्था का समर्थन आधुनिक काल में भी कई विचारकों द्वारा किया गया है।

समय के प्रवाह के साथ वर्ण-व्यवस्था का रूप परिवर्तित हो गया और उसने जाति-व्यवस्था अथवा जाति प्रथा का रूप धारण कर लिया। विभिन्न व्यवसायों के आधारों पर अनेक जातियाँ उप-जातियाँ बन गयी हैं। इस व्यवस्था में अनेक दोष भी आ गये हैं, उसने जातिवाद को प्रश्रय दे दिया है, उसमें छोटे-बड़े, ऊँच-नीच की भावना जैसी अनेक बुराइयों का समावेश हो गया है। आज तो ‘गौड़ों में भी और’ अथवा ‘आठ कनौजियो नौ चूल्हे’ वाली कहावत चरितार्थ होती है। भारत में पायी जाने वाली जातियों एवं उप-जातियों की संख्या तीन हजार से कुछ अधिक ही है। यह व्यवस्था वस्तुत: भारतीय समाज के ऊपर एक कलंक के रूप में बहुचर्चित वस्तु बन गयी है।

स्वतन्त्रता के पश्चात् जातिवाद एक अभिशाप के रूप में उभरकर आया है। चुनावों के समय इसका घृणित रूप दृष्टिगोचर होता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको जातिवाद के विरुद्ध घोषित करता है, जातिवाद को पेट भरकर कोसता है, परन्तु वोट प्राप्त करते समय वह जाति-बिरादरी के नाम की दुहाई अवश्य देता है। चुनाव हेतु उम्मीदवार का चयन इस बात को ध्यान में रखकर किया जाता है कि सम्बन्धित चुनावक्षेत्र में किस जाति के कितने वोट हैं तथा जाति-बिरादरी की दुहाई देकर कितने वोट प्राप्त किये जा सकते हैं? जातिवाद के नाम पर निर्वाचित व्यक्ति अपने साथ जातिवाद का झोला-चोंगा लेकर जाता है। वह जातिवाद के आधार पर अपने आदमियों का भला करना चाहता है, उसके प्रतिनिधित्व की माँग करता है आदि स्वतन्त्रता के पहले जो जाति-प्रथा थी, वह अब जातिवाद बन गयी है। उसने सामाजिक स्तर पर अस्पृश्यता को जन्म दिया था। इसने व्यक्ति-स्तर की अस्पृश्यता की प्रतिष्ठा की है। जातियाँ समाप्त हो रही हैं, जातिवाद पनप रहा है। आरक्षण के नाम पर जातिवाद की जड़े दिनोंदिन गहरी होती जा रही हैं।

जाति-व्यवस्था को सामान्य परिचय-भारतीय सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत जाति-व्यवस्था (प्रथा) व्यक्ति की सामाजिक स्थिति निर्धारित करती है और बहुत-कुछ उसके व्यवसाय पर भी निश्चित करती है। | जाति की विभिन्न परिभाषाएँ प्रस्तुत की गयी हैं और उसको स्पष्ट करने के लिए अनेक व्यख्याएँ प्रस्तुत की गयी हैं। निष्कर्ष रूप में इस व्यवस्था के स्वरूप को इस प्रकार समझा जा सकता है-“जाति जन्म के आधार पर सामाजिक संस्तरण और खण्ड-विभाजन की वह गतिशील व्यवस्था है जो खाने-पीने, विवाह, पेशा और सामाजिक सहवासों के सम्बन्ध में अनेक या कुछ प्रतिबन्धों को अपने सदस्यों पर लागू करती है।”—(N.K. Dutta. Origin and Growth of Castes in India). । उक्त उद्धरण में ‘गतिशील’ शब्द विशेष महत्त्वपूर्ण है। धन एवं प्रतिष्ठा के बल पर कोई भी व्यक्ति अपने ऊपर लगाये जाने वाले जातीय प्रतिबन्धों को अस्वीकार कर देता है एवं जाति बदल देता है तथा अपने रहन-सहने को बदल देता है। इसी प्रकार यह व्यवस्था गतिशील है। अन्तिम रूप से जाति-प्रथा की कोई परिभाषा ही प्रस्तुत नहीं की जा सकती है।

जाति-प्रथा की विशेषताएँ–विभिन्न विचारकों ने जाति-प्रथा की विशेषताओं तथा उसके कार्यों के सन्दर्भ में अपने विचार व्यक्त किये हैं। सारांश रूप में वे निम्नलिखित प्रकार हैं—
(1) जाति-प्रथा का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज को संगठित करना है। विदेशियों के अनेक आक्रमणों के बावजूद इस प्रथा ने हिन्दू समाज में धार्मिक और सामाजिक स्थिरता को बनाये रखा है।

(2) गिलबर्ट के शब्दों में, “भारतवर्ष ने जातियों की एक व्यवस्था विकसित की है जो सामाजिक समन्वय की एक योजना के रूप में है और संघर्षरत प्रादेशिक राष्ट्रों की यूरोपीय व्यवस्था की तुलना में खरी उतरती है।”

(3) यह प्रथा हिन्दू समाज का खण्डात्मक विभाजन (Segmental division of society) करती है। इसके अनुसार, प्रत्येक खण्ड के घटकों की स्थिति, पद, स्थान और कार्य भी सुनिश्चित हो जाते हैं। डॉ० जी०एस० घुरिये के अनुसार इस खण्ड-विभाजन-व्यवस्था का तात्पर्य इस प्रकार है-“जाति-प्रथा की आबद्ध समाज में सामुदायिक भावना सीमित होती है और वह समग्र समाज द्वारा न होकर एक समुदाय-विशेष मात्र जाति के सदस्यों के प्रति सीमित रहती है-इसके द्वारा अपनी जाति के प्रति उस जाति-विशेष के सदस्यों का कर्तव्यबोध होता है। इस कर्तव्यबोध के साथ कतिपय नियम जुड़े रहते हैं। यह बोध उन्हें अपने पर और निर्धारित कार्यों के प्रति दृढ़ बनाये रखता है। यदि कोई इसका उल्लंघन करता है तो उसकी निन्दा की जाती है, कभी उसको जाति-बहिष्कृत भी कर दिया जाता है।”

(4) इस खण्डनात्मक विभाजन की व्यवस्था में ऊँच-नीच का एक संस्तरण (Hierarchy) होता है। और इसमें प्रत्येक जाति का स्थान अथवा सामाजिक स्तर जन्म भर के लिए निश्चित हो जाता है। इस संस्तरण का क्रम इस प्रकार है-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र। यह क्रम ब्राह्मणों से आरम्भ होकर क्रमशः नीचे की ओर चलता जाता है। यह संस्तरण जन्म पर आधारित होने के कारण बहुत कुछ स्थिर एवं दृढ़ है। ब्राह्मण से लेकर शूद्र वर्गों के मध्य अनेक जातियाँ हैं, जो परस्पर श्रेष्ठता-निम्नता स्थापित करती रहती हैं। शहरों अथवा किसी दूरस्थ स्थान पर जो लोग एक-दूसरे को गहराई से नहीं जानते हैं, वहाँ लोग अपनी जाति-सम्बन्धी वास्तविकता छिपाकर अन्य जाति वालों के साथ विवाह सम्बन्ध करने का अवसर निकाल लेते हैं।

(5) जाति-प्रथा ने समाज में सभी आवश्यक कार्यों को विभिन्न जातियों में विभाजित कर दिया है। अध्यापन से लेकर कूड़ा उठाने तक के काम निश्चित हैं, कर्म-फल के सिद्धान्त में विश्वास होने के कारण सब लोग अपना-अपना काम निष्ठापूर्वक करते हैं। प्रत्येक जाति का मनुष्य कोई भी काम व्यक्ति-विशेष अथवा जाति विशेष के लिए न करके समग्र समाज के लिए करता है।

(6) प्रत्येक जाति के घटकों की शिक्षा की सीमाएँ एवं औद्योगिक प्रशिक्षण की सम्भावनाएँ सुनिश्चित होती हैं।

(7) इस व्यवस्था के अन्तर्गत अनेक जातियों में अपने पृथक् देवी-देवता तथा भिन्न धार्मिक विधियाँ होती हैं। श्री ए०आर० देसाई ने ठीक ही लिखा है, “जाति ही समाज के धार्मिक जीवन में अपने सदस्य की स्थिति को निश्चित करती है।”

(8) आधुनिक काल में राजनीतिक क्षेत्र में जातिगत सुरक्षा एवं संरक्षण की पद्धति प्रचलित हो गयी है। प्रत्येक जाति चुनावों में अपनी जाति के प्रत्याशियों की सहायता करती है। इस प्रकार निर्वाचित होने वाले सदस्य अपनी जाति के हितों की रक्षा करते हैं। यह दूसरी बात है कि इस पद्धति ने जातिवाद के कोढ़ को जन्म दिया है, जो राष्ट्रीय जीवन को क्रमशः क्षरित कर रहा है।

जाति-प्रथा से होने वाली हानियाँ-जाति-प्रथा के कारण दो बहुत बड़े अहित हुए हैं। एक तो, ऊँच-नीच की भावना पनपी है और दूसरे, हमारे समाज में छुआछूत की दूषित परम्परा चल पड़ी है। ये दोनों कुप्रथाएँ नैतिक दृष्टि से ही नहीं, सामाजिक और राष्ट्रीय दृष्टि से भी विनाशकारी सिद्ध हुई हैं। इनके कारण हिन्दू समाज का विघटन हुआ है तथा राष्ट्रीय भावना का क्षरण हुआ है। प्रतिवर्ष हजारों शूद्र अथवा हरिजन समाज में सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिए हिन्दू धर्म को त्यागकर अन्य धर्मों में (इस्लाम, ईसाई धर्म अथवा बौद्ध धर्म में) दीक्षित हो जाते हैं। धर्म-परिवर्तन की यह प्रक्रिया हिन्दू समाज को खोखला और क्षीणकाय बना रही है। समाज में द्वितीय श्रेणी के नागरिक की भाँति जीवन व्यतीत करने को विवश हरिजन अब यह भी कहने लगे हैं कि वे हिन्दू हैं ही नहीं। देहुली का दौरा करके लौटकर आने के बाद श्रीमती गांधी ने जो वक्तव्य दिया या उसका एक वाक्य ऐसा था जो हरिजनों को अहिन्दू घोषित करता है-“यह झगड़ा हिन्दुओं और हरिजनों के बीच का था।”

पं० जवाहरलाल नेहरू ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘Discovery of India’ में लिखा है कि जाति-प्रथा से सांस्कृतिक और सामाजिक प्रगति तो हुई परन्तु राजनीतिक सफलता के अभाव में विदेशियों की विजय को सरल कर दिया। सन् 1947 में राजनीतिक स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भी वह हमारी राजनीतिक सफलता में बाधक बनी हुई है। हमारे राजनीतिक नेता प्रत्येक सामाजिक बुराई और पिछड़ेपन के लिए जाति-प्रथा को बुरा-भला कहते हैं, परन्तु अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए जातिवाद को उभारते हैं। वोट की राजनीति से जाति-प्रथा के तलछट को अभूतपूर्व रूप में उजागर किया है। हम जाति-प्रभा की राख पर अपने जनतन्त्र की नींव तो रखना चाहते हैं, परन्तु साथ-साथ यह भी चाहते हैं कि जाति-प्रथा का जहर नष्ट न होने पाये।

राजनीति के क्षेत्र की यह विषम मान्यता हमारी प्रगति के पथ की सबसे बड़ी बाधा बन गयी है। लोकतन्त्रीय व्यवस्था को यह मूल मन्त्र है कि निर्वाचन सर्वथा स्वतन्त्र, कार्यक्रमनिष्ठ और भेद-भावरहित हो, परन्तु हमारे देश के कर्णधारों ने केन्द्रीय स्तर से लेकर नीचे ग्राम पंचायतों के स्तर तक के समस्त निर्वाचनों का आधार जातिवाद बना रखा है। इसके अनुसार दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। सरकारी नियुक्तियों में, शिक्षा संस्थाओं के प्रवेश में, छात्रवृत्तियों में, सर्वत्र आरक्षण एवं पक्षपात की नीतियाँ बद्धमूल हुई हैं और हो रही हैं। जाति-प्रथा को सामाजिक अभिशापों के लिए उत्तरदायी ठहराते हुए वोटों की शतरंज खेलने वाले राजनीतिक नेता तथाकथित निम्न एवं दलित वर्गों को सवर्ण हिन्दुओं के विरुद्ध भड़काते रहते हैं। विष-वपन की इस प्रक्रिया द्वारा वर्ग विग्रह के बीज बोकर सामाजिक विघटन किया जा रहा है। अभी हाल में घटित होने वाली घटनाएँ किसी सीमा तक इस प्रकार के निष्कर्ष प्रस्तुत कर रही हैं कि लूटमार, हत्या, अपहरण, बलात्कार आदि अपराध भी जातिवाद के आधार पर किये जाने लगे हैं और सरकार भी अपनी वोट की राजनीति के पोषण के लिए सहायता और सुरक्षा की योजनाओं को जातिवाद के आधार पर कार्यान्वित करने का कार्यक्रम तैयार करना चाहती है।

जाति-प्रथा का उन्मूलन-नवजागरण, शिक्षा का प्रसार, राजनीतिक चेतना, आर्थिक उन्नति आदि के फलस्वरूप जाति-प्रथा की व्यवस्थाएँ स्वत: शिथिल होती जा रही हैं। सरकारी तौर पर भी हरिजनों को विशेष अधिकार, आरक्षण, संरक्षण प्रदान करके उनको सामाजिक समानता की ओर ले जाने के प्रयत्न किये जा रहे हैं। आधुनिक प्रगतिशील वातावरण के फलस्वरूप पारस्परिक सम्पर्क के अवसरों में वृद्धि हुई हैं, खान-पान सम्बन्धी प्रतिबन्ध शिथिल हुए हैं, विवाहादि सम्बन्धों की मान्यताएँ बदल गयी हैं और अन्तर्जातीय विवाह के प्रति दृष्टिकोण में उदारता आने लगी है। औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप व्यवसायों की सुविधाएँ बढ़ी हैं और इस संदर्भ में लगे हुए प्रतिबन्ध तेजी के साथ समाप्त हो रहे हैं, अब शर्मा लौंड्री, गुप्ता बूटे हाउस, वाल्मीकि भोजनालय प्राय: देखने को मिल जाते हैं। कहने का तात्पर्य है कि स्वाभाविक प्रक्रिया तथा सरकारी प्रयत्नों के फलस्वरूप जाति-प्रथा बहुत-कुछ शिक्षित हो गयी है और हो रही है। हमारे राजनीति के व्यवसायी नेतागण यदि वोट की राजनीति से खेलना बन्द कर दें तथा जातिवाद के नाम पर होने वाली पदयात्राएँ नियन्त्रित हों तो जाति-प्रथा से उत्पन्न होने वाली बुराइयों को दूर किया जा सकता है।

उपसंहार-इसमें कोई सन्देह एवं विवाद नहीं है कि जाति-प्रथा में अनेक दोष आ गये हैं और उनके कारण सामाजिक प्रगति में बाधाएँ आई हैं और आती रहती हैं, परन्तु जाति-प्रथा को समाप्त कर देने मात्र से ही समस्त सामाजिक-सांस्कृतिक अभिशापों से हमारी मुक्ति सम्भव नहीं होगी। हमारे राजनीति-जीवी नेता जाति-प्रथा के विरोध की ढाल के पीछे जातिवाद को प्रश्रय दे रहे हैं। इससे वर्ग-विग्रह को प्रोत्साहन प्राप्त हो रहा है और एक प्रकार के गृहयुद्ध को आमन्त्रण दिया जा रहा है। मंडल आयोग की संस्तुतियों को लागू करने की घोषणा के प्रतिक्रियास्वरूप होने वाली घटनाएँ इसका प्रमाण हैं। यह तो सुनिश्चित है कि वर्तमान रूप में जाति-प्रथा का कोई भविष्य नहीं रह गया है, परन्तु यह भी समझ लेना चाहिए कि इससे मुक्ति पाने के लिए राजनीतिक जातिवाद का रास्ता न तो उपयुक्त है और न इच्छित फल ही देने वाला है।

गंगा प्रदूषण

सम्बद्ध शीर्षक

  • जल-प्रदूषण [2014]
  • देश की भलाई : गंगा की सफाई (2015)
  • गंगा प्रदूषण मुक्ति अभियान [2016]

प्रमुख विचार-विन्द-

  1. प्रस्तावना,
  2. गंगा-जल के प्रदूषण के प्रमुख कारण-औद्योगिक कचरा व रसायन तथा तक एवं उनकी स्थियों का विसर्जन,
  3. गंगा प्रदूषण दूर करने के पाय,
  4. उपसंहार

प्रस्तावना-देवनदी गंगा ने जहाँ जीवनदायिनी के रूप में भारत को धन-धान्य से सम्पन्न बनाया है। वहीं माता के रूप में इसकी पावन धारा ने देशवासियों के हृदयों में मधुरता तथा सरसता का संचार किया है। गंगा मात्र एक नदी नहीं, वरन् भारतीय जन-मानस के साथ-साथ समूची भारतीयता की आस्था का जीवंत प्रतीक है। हिमालय की गोद में पहाड़ी घाटियों से नीचे कल्लोल करते हुए मैदानों की राहों पर प्रवाहित होने वाली गंगा पवित्र तो है ही, वह मोक्षदायिनी के रूप में भी भारतीय भावनाओं में समाई है। भारतीय सभ्यतासंस्कृति का विकास गंगा-यमुना जैसी अनेकानेक पवित्र नदियों के आसपास ही हुआ है। गंगा-जल वर्षों तक बोतलों, डिब्बों आदि में बन्द रहने पर भी खराब नहीं होता था। आज वही भारतीयता की मातृवत पूज्या गंगा प्रदूषित होकर गन्दे नाले जैसी बनती जा रही है, जोकि वैज्ञानिक परीक्षणगत एवं अनुभवसिद्ध तथ्य है। गंगा के बारे में कहा गया है

नदी हमारी ही है गंगा, प्लावित करती मधुरस-धारा,
बहती है क्या कहीं और भी, ऐसी पावन कल-कल धारा।

गंगा-जल के प्रदूषण के प्रमुख कारण–पतितपावनी गंगा के जल के प्रदूषित होने के बुनियादी कारणों में से एक कारण तो यह है कि प्रायः सभी प्रमुख नगर गंगा अथवा अन्य नदियों के तट पर और उसके आस-पास बसे हुए हैं। उन नगरों में आबादी का दबाव बहुत बढ़ गया है। वहाँ से मूल-मूत्र और गन्दे पानी की निकासी की कोई सुचारु व्यवस्था न होने के कारण इधर-उधर बनाये गये छोटे-बड़े सभी गन्दे नालों के माध्यम से बहकर वह गंगा या अन्य नदियों में आ मिलता है। परिणामस्वरूप कभी खराब न होने वाला गंगाजल भी आज बुरी तरह से प्रदूषित होकर रह गया है।

औद्योगिक कचरा व रसायन-वाराणसी, कोलकाता, कानपुर आदि न जाने कितने औद्योगिक नगर गंगा के तट पर ही बसे हैं। यहाँ लगे छोटे-बड़े कारखानों से बहने वाला रासायनिक दृष्टि से प्रदूषित पानी, कचरा आदि भी गन्दे नालों तथा अन्य मार्गों से आकर गंगा में ही विसर्जित होता है। इस प्रकार के तत्त्वों ने जैसे वातावरण को प्रदूषित कर रखा है, वैसे ही गंगाजल को भी बुरी तरह प्रदूषित कर दिया है।

मृतक एवं उनकी अस्थियों का विसर्जन-वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि सदियों से आध्यात्मिक भावनाओं से अनुप्राणित होकर गंगा की धारा में मृतकों की अस्थियाँ एवं अवशिष्ट राख तो बहाई जा ही रही है, अनेक लावारिस और बच्चों के शव भी बहा दिये जाते हैं। बाढ़ आदि के समय मरे पशु भी धारा में आ मिलते हैं। इन सबने भी गंगा-जल-प्रदूषण की स्थितियाँ पैदा कर दी हैं। गंगा के प्रवाह स्थल और आसपास से वनों का निरन्तर कटाव, वनस्पतियों, औषधीय तत्त्वों का विनाश भी प्रदूषण का एक बहुत बड़ा कारण है। गंगा-जल को प्रदूषित करने में न्यूनाधिक इन सभी का योगदान है।

गंगा प्रदूषण दूर करने के उपाय–विगत वर्षों में गंगा-जल का प्रदूषण समाप्त करने के लिए एक योजना बनाई गई थी। योजना के अन्तर्गत दो कार्य मुख्य रूप से किए जाने का प्रावधान किया गया था। एक तो यह कि जो गन्दे नाले गंगा में आकर गिरते हैं या तो उनकी दिशा मोड़ दी जाए या फिर उनमें जलशोधन करने वाले संयन्त्र लगाकर जल को शुद्ध साफ कर गंगा में गिरने दिया जाए। शोधन से प्राप्त मलबा बड़ी उपयोगी खाद को काम दे सकता है। दूसरा यह कि कल-कारखानों में ऐसे संयन्त्र लगाए जाएँ जो उस जल का शोधन कर सकें तथा शेष कचरे को भूमि के भीतर दफन कर दिया जाए। शायद ऐसा कुछ करने का एक सीमा तक प्रयास भी किया गया, पर काम बहुत आगे नहीं बढ़ सका, जबकि गंगा के साथ जुड़ी भारतीयता का ध्यान रख इसे पूर्ण करना बहुत आवश्यक है।

आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टि अपनाकर तथा अपने ही हित में गंगा-जल में शव बहाना बन्द किया जा सकता है। धारा के निकास स्थल के आसपास वृक्षों, वनस्पतियों आदि का कटाव कठोरता से प्रतिबंधित कर कटे स्थान पर उनका पुनर्विकास कर पाना आज कोई कठिन बात नहीं रह गई है। अन्य ऐसे कारक तत्त्वों का भी थोड़ा प्रयास करके निराकरण किया जा सकता है, जो गंगा-जल को प्रदूषित कर रहे हैं। भारत सरकार भी जल-प्रदूषण की समस्या के प्रति जागरूक है और इसने सन् 1974 में ‘जल-प्रदूषण निवारण अधिनियम’ भी लागू किया है।

उपसंहार– आध्यात्मिक एवं भौतिक प्रकृति के अद्भुत संगम भारत के भूलोक को गौरव तथा प्रकृति का पुण्य स्थल कहा गया है। इस भारत-भूमि तथा भारतवासियों में नये जीवन तथा नयी शक्ति का संचार करने का श्रेय गंगा नदी को जाता है।

“गंगा आदि नदियों के किनारे भीड़ छवि पाने लगी।
मिलकर जल-ध्वनि में गल-ध्वनि अमृत बरसाने लगी।
सस्वर इधर श्रुति-मंत्र लहरी, उधर जल लहरी कहाँ
तिस पर उमंगों की तरंगें, स्वर्ग में भी क्यों रहा?”

गंगा को भारत की जीवन-रेखा तथा गंगा की कहानी को भारत की कहानी माना जाता है। गंगा की महिमा अपार है। अतः गंगा की शुद्धता के लिए प्राथमिकता से प्रयास किये जाने चाहिए।

प्राकृतिक आपदाएँ और उनका प्रबन्धन (2016)

सम्बद्ध शीर्षक

  • मनुष्य और प्रकृति
  • प्राकृतिक आपदाएँ [2009]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. भूमिका
  2. आपदा का अर्थ,
  3. प्रमुख प्राकृतिक आपदाएँ: कारण और निवारण,
  4. आपदा प्रबन्धन हेतु संस्थानिक तन्त्र,
  5. उपसंहार

भूमिका-पृथ्वी की उत्पत्ति होने के साथ मानव सभ्यता के विकास के समान प्राकृतिक आपदाओं का इतिहास भी बहुत पुराना है। मनुष्य को अनादि काल से ही प्राकृतिक प्रकोपों का सामना करना पड़ा है। ये प्रकोप भूकम्प, ज्वालामुखीय उद्गार, चक्रवात, सूखा (अकाल), बाढ़, भू-स्खलन, हिम-स्खलन आदि विभिन्न रूपों में प्रकट होते रहे हैं तथा मानव-बस्तियों के विस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करते रहे हैं। इनसे हजारों-लाखों लोगों की जानें चली जाती हैं तथा उनके मकान, सम्पत्ति आदि को पर्याप्त क्षति पहुँचती है। सम्पूर्ण विश्व में प्राकृतिक आपदाओं के कारण समाज के कमजोर वर्ग के लोग बड़ी संख्या में हताहत हो रहे हैं। आज हम वैज्ञानिक रूप से कितने ही उन्नत क्यों न हो गये हों, प्रकृति के विविध प्रकोप हमें बार-बार यह स्मरण कराते हैं कि उनके समक्ष मानव कितना असहाय है।

आपदा का अर्थ-प्राकृतिक प्रकोप मनुष्यों पर संकट बनकर आते हैं। इस प्रकारे संकट प्राकृतिक या मानवजनित वह भयानक घटना है, जिसमें शारीरिक चोट, मानव-जीवन की क्षति, सम्पत्ति की क्षति, दूषित वातावरण, आजीविका की हानि होती है। इसे मनुष्य द्वारा संकट, विपत्ति, विपदा, आपदा आदि अनेक रूप में जाना जाता है। आपदा को सामान्य अर्थ संकट या विपत्ति है, जिसका अंग्रेजी पर्याय ‘disaster’ है। किसी निश्चित स्थान पर भौतिक घटना का घटित होना, जिसके कारण हानि की सम्भावना हो, प्राकृतिक खतरे के रूप में जाना जाता है। ये घटनाएँ सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचों एवं विद्यमान व्यवस्था को ध्वस्त कर देती हैं जिनकी पूर्ति के लिए बाहरी सहायता की आवश्यकता होती है।

प्रमुख प्राकृतिक आपदाएँ : कारण और निवारण–प्राकृतिक आपदाएँ अनेक हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं
(1) भूकम्प–भूकम्प भूतल की आन्तरिक शक्तियों में से एक है। भूगर्भ में प्रतिदिन कम्पन होते हैं; लेकिन जब ये कम्पन अत्यधिक तीव्र होते हैं तो ये भूकम्प कहलाते हैं। साधारणतया भूकम्प एक प्राकृतिक एवं आकस्मिक घटना है, जो भू-पटल में हलचल अथवी लहर पैदा कर देती है। इन हलचलों के कारण पृथ्वी अनायास ही वेग से काँपने लगती है।
भूगर्भशास्त्रियों ने ज्वालामुखीय उद्गार, भू-सन्तुलन में अव्यवस्था, जलीय भार, भू-पटल में सिकुड़न, प्लेट विवर्तनिकी आदि को भूकम्प आने के कारण बताये हैं।
भूकम्प ऐसी प्राकृतिक आपदा है जिसे रोक पाना मनुष्य के वश में नहीं है। मनुष्य केवल भूकम्पों की भविष्यवाणी करने में कुछ अंशों तक सफल हुआ है। साथ-साथ भूकम्प के कारण सम्पत्ति को होने वाली क्षति को कम करने के कुछ उपाय भी उसने ढूंढ़ निकाले हैं।

(2) ज्वालामुखी–ज्वालामुखी एक आश्चर्यजनक व विध्वंसकारी प्राकृतिक घटना है। यह भूपृष्ठ पर प्रकट होने वाली एक ऐसी विवर (क्रेटर या छिद्र) है जिसका सम्बन्ध भूगर्भ से होता है। इससे तप्त लावा, पिघली हुई शैलें तथा अत्यन्त तप्त गैसें समय-समय पर निकलती रहती हैं। इससे निकलने वाले पदार्थ भूतल पर शंकु (cone) के रूप में एकत्र होते हैं, जिन्हें ज्वालामुखी पर्वत कहते हैं। इसे ज्वालामुखीय उद्गार कहते हैं। ज्वालामुखी एक आकस्मिक तथा प्राकृतिक घटना है जिसकी रोकथाम करना अभी मानव के वश में नहीं है।

(3) भू-स्खलन-भूमि के एक सम्पूर्ण भाग अथवा उसके विखण्डित एवं विच्छेदित खण्डों के रूप में खिसक जाने अथवा गिर जाने को भू-स्खलन कहते हैं। यह भी बड़ी प्राकृतिक आपदाओं में से एक है। भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में, भू-स्खलन एक व्यापक प्राकृतिक आपदा है जिससे बारह महीने जान और माल का नुकसान होता है।
भू-स्खलन अनेक प्राकृतिक और मानवजनित कारकों के परस्पर मेल के परिणामस्वरूप होता है। वर्षा की तीव्रता, खड़ी ढलाने, ढलानों का कड़ापन, अत्यधिक कटी-फटी चट्टानों की परतें, भूकम्पीय गतिविधि, दोषपूर्ण जल-निकासी आदि प्राकृतिक कारण हैं तथा वनों की अन्धाधुन्ध कटाई, अकुशल खुदाई, खनन तथा उत्खनन, पहाड़ियों पर अत्यधिक भवन निर्माण आदि मानवजनित।।

भू-स्खलन एक प्राकृतिक आपदा है, तथापि वानस्पतिक आवरण में वृद्धि इसको नियन्त्रित करने का सर्वाधिक प्रभावशाली, सस्ती व उपयोगी साधन है, क्योंकि यह मृदा अपरदन को रोकता है।

(4) चक्रवात-चक्रवात भी एक वायुमण्डलीय विक्षोभ है। चक्रवात का शाब्दिक अर्थ है-चक्राकार हवाएँ। वायुदाब की भिन्नता से वायुमण्डल में गति उत्पन्न होती है। अधिक गति होने पर वायुमण्डल की दशा अस्थिर हो जाती है और उसमें विक्षोभ उत्पन्न होता है।

चक्रवातों का मूल कारण वायुमण्डल में ताप और वायुदाब की भिन्नता है। अधिक वायुदाब क्षेत्रों से ठण्डी चक्करदार हवाएँ निम्न दाब की ओर चलती हैं और चक्रवात का रूप धारण कर लेती हैं।

चक्रवात मौसम से जुड़ी आपदा है। इसकी चेतावनी के उपरान्त लोगों को सुरक्षित स्थानों पर भेजा जा सकता है। चक्रवातों के वेग को बाधित करने के लिए, उनके आने के मार्ग में ऐसे वृक्ष लगाये जाने चाहिए जिनकी जड़ें मजबूत हों तथा पत्तियाँ नुकीली व पतली हों।

(5) बाढ़-वर्षाकाल में अधिक वर्षा होने पर प्रायः नदियों का जल तटबन्धों को तोड़कर आस-पास के निचले क्षेत्रों में फैल जाता है, जिससे वे क्षेत्र जलमग्न हो जाते हैं। इसी, को बाढ़ कहते हैं। बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है किन्तु जब यह मानव-जीवन व सम्पत्ति को क्षति पहुँचाती है तो यह प्राकृतिक आपदा कहलाती है।

बाढ़ की स्थिति से बचाव के लिए जल-मार्गों को यथासम्भव सीधा रखना चाहिए तथा बाढ़ सम्भावित क्षेत्रों में जल के मार्ग को मोड़ने के लिए कृत्रिम ढाँचे बनाये जाने चाहिए। सम्भावित क्षेत्रों में कृत्रिम जलाशयों तथा आबादी वाले क्षेत्रों में बाँध का निर्माण किया जाना चाहिए।

(6) सूखा-सूखा वह स्थिति है जिसमें किसी स्थान पर अपेक्षित तथा सामान्य वर्षा से कम वर्षा होती है। यह गर्मियों में भयंकर रूप धारण कर लेता है। यह एक मौसम सम्बन्धी आपदा है जो किसी अन्य विपत्ति की अपेक्षा धीमी गति से आता है।

प्रकृति तथा मनुष्य दोनों ही सूखे के मूल कारणों में हैं। अत्यधिक चराई तथा जंगलों की कटाई, ग्लोबल वार्मिंग, कृषियोग्य समस्त भूमि का अत्यधिक उपयोग तथा वर्षा के असमान वितरण के कारण सूखे की स्थिति पैदा हो जाती है। हरित पट्टियों के निर्माण के लिए भूमि को आरक्षण, कृत्रिम उपायों द्वारा जल संचय, विभिन्न नदियों को आपस में जोड़ना आदि सूखे के निवारण के प्रमुख उपाय हैं।

(7) समुद्री लहरें—समुद्री लहरें कभी-कभी विनाशकारी रूप धारण कर लेती हैं और इनकी ऊँचाई कभी-कभी 15 मीटर तथा इससे भी अधिक तक होती है। ये तट के आस-पास की बस्तियों को तबाह कर देती हैं। तटवर्ती मैदानी इलाकों में इनकी रफ्तार 50 किमी प्रति घण्टा तक हो सकती है। इन विनाशकारी समुद्री लहरों को ‘सूनामी’ कहा जाता है।

समुद्र तल के पास या उसके नीचे भूकम्प आने पर समुद्र में हलचल पैदा होती है और यही हलचले विनाशकारी सूनामी का रूप धारण कर लेती है। दक्षिण पूर्व एशिया में आयी विनाशकारी सूनामी लहरें भूकम्प का ही परिणाम थीं। समुद्र की तलहटी में भू-स्खलन के कारण भी ऐसी लहरें उत्पन्न होती हैं।

आपदा प्रबन्धन हेतु संस्थानिक तन्त्र--प्राकृतिक आपदाओं को रोक पाना सम्भव नहीं है, परन्तु जोखिम को कम करने वाले कार्यक्रमों के संचालन हेतु संस्थानिक तन्त्र की आवश्यकता व कुशल संचालन के लिए सन् 2004 में भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन नीति’ बनायी गयी है जिसके अन्तर्गत केन्द्रीय स्तर पर राष्ट्रीय आपात-स्थिति प्रबन्धन प्राधिकरण’ का गठन किया जा रहा है तथा सभी राज्यों में राज्य स्तरीय आपात स्थिति प्रबन्ध प्राधिकरण’ का गठन प्रस्तावित है। ये प्राधिकरण केन्द्र व राज्य स्तर पर आपदा प्रबन्धन हेतु समस्त कार्यों की दृष्टि से शीर्ष संस्था होंगे। ‘राष्ट्रीय संकट प्रबन्धन संस्थान, दिल्ली भारत सरकार का एक संस्थान है, जो सरकारी अफसरों, पुलिसकर्मियों, विकास एजेन्सियों, जन-प्रतिनिधियों तथा अन्य व्यक्तियों को संकट प्रबन्धन हेतु प्रशिक्षण प्रदान करता है। राज्य स्तर पर स्टेट इन्स्टीट्यूट्स ऑफ रूरल डेवलपमेण्ट, ऐडमिनिस्ट्रेटिव ट्रेनिंग इन्स्टीट्यूट्स, विश्वविद्यालयों आदि को यह उत्तरदायित्व सौंपा गया है। इंजीनियरिंग संस्थान; जैसे—इण्डियन इन्स्टीट्यूट्स ऑफ टेक्नोलॉजी, रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज, स्कूल्स ऑफ आर्किटेक्चर आदि भी इंजीनियरों को आपदा प्रबन्धन का प्रशिक्षण देते हैं।

उपसंहार-विद्यार्थियों को आपदा प्रबन्धन का ज्ञान दिया जाना चाहिए इस विचार के अन्तर्गत सभी पाठ्यक्रमों में आपदा प्रबन्धन को सम्मिलित किया जा रहा है। यह प्रयास है कि पारिस्थितिकी के अनुकूल आपदा प्रबन्धन में विद्यार्थियों का ज्ञानवर्धन होता रहे; क्योंकि आपदा प्रबन्धन के लिए विद्यार्थी उत्तम एवं प्रभावी यन्त्र है, जिसका योगदान आपदा प्रबन्धन के विभिन्न चरणों; यथा–आपदा से पूर्व, आपदा के समय एवं आपदा के बाद; की गतिविधियों में लिया जा सकता है। इसके लिए विद्यार्थियों को जागरूक एवं संवेदनशील बनाना चाहिए।

आपदाओं को दैविक घटना’ या दैविक आपदा के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए और यह नहीं सोचना चाहिए कि इन पर मनुष्य का कोई वश नहीं है। इन आपदाओं को समझने के लिए केवल वैज्ञानिकों पर ही नहीं छोड़ देना चाहिए। हमें जिम्मेदार नागरिक की भाँति इनके बारे में सोचना चाहिए तथा अपने कल को इनसे सुरक्षित बनाने के लिए स्वयं को तैयार रखनी चाहिए।

बाढ़ समस्या : कारण और निवारण (2017)

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. भूमिका
  2. बाढ़ो के कारण
  3. बाढ़ो का प्रकोप
  4. बाढ़ नियन्त्रण के उपाय

भूमिका–बाढ़ का साधारण अर्थ निरन्तर कई दिनों तक भू-क्षेत्र का जल से आवृत्त होना है। सामान्यत: बाढ़ों को नदियों से सम्बद्ध माना जाता है। लोग ऐसा मानते हैं कि बाढ़े अधिकतम प्रवाह के दौरान तटबन्ध तोड़कर नदियों की विशाल जलराशि के एकत्रण से उत्पन्न होती हैं। बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है जो वर्षा के कारण उत्पन्न होती है, किन्तु जनजीवन एवं सम्पत्ति को हानि पहुँचाने पर यह एक प्रकोप को रूप धारण कर लेती है। यह भी उल्लेखनीय है कि बाढ़े मानवीय क्रियाओं से उग्र होकर आपदा बन जाती हैं। बाढ़े प्राय: कॉप तथा बाढ़ के मैदानों में बहने वाली नदियों से सम्बद्ध होती हैं। विश्व का लगभग 3.5% क्षेत्र बाढ़ के मैदानों से निर्मित है जहाँ विश्व की लगभग 16.5% जनसंख्या निवास करती है। भारत में गंगा, यमुना, चम्बल, रामगंगा, गोमती, घाघरा, गण्डक, कोसी, दामोदर, ब्रह्मपुत्र, महानदी, कृष्णा, गोदावरी, ताप्ती, नर्मदा, लूनी, माही आदि तथा संयुक्त राज्य में मिसीसिपी-मिसौरी, चीन में यांग्त्सी तथा ह्वांग्हो, म्यांमार में इरावदी, पाकिस्तान में सिन्धु, नाइजरिया में नाइजर तथा इटली में पो नदी बाढ़ग्रस्त होती हैं।

बाढों के कारण बाढ़ों के कारण प्राकृतिक एवं मानवीय दोनों ही हैं। प्राकृतिक कारणों में—

  1. लम्बे समय तक भारी वर्षा का होना,
  2. नदियों के मोड़दार मार्ग,
  3. बाढ़ के विस्तृत मैदान,
  4. नदियों के मार्ग में ढाले का आकस्मिक रूप से टूटना (समाप्ति),
  5. नदियों की धाराओं में तलछट पदार्थों (अवसादों) के जमा होने से नदी का प्रवाह रुकना आदि हैं।

मानवीय कारकों में—

  1. भवन-निर्माण तथा नगरीकरण में वृद्धि,
  2. नदी के जल को जान-बूझकर दूसरे मार्ग से बहाना,
  3. पुलों, अवरोधकों, जलाशयों आदि का निर्माण,
  4. कृषि प्रणालियाँ,
  5. निर्वनीकरण,
  6. भूमि उपयोग में परिवर्तन आदि हैं। इन सब कारणों से नदी में बाढ़ आती हैं, किनारों पर भूमि स्खलन तथा अवपतन होते हैं, नदी अपरदन में वृद्धि होती है, नदी की धाराओं में परिवर्तन होता है, तली में अवसादन तथा बजरी, रेत आदि का निक्षेप होता है।

भारी वर्षा तथा शुष्क/अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में आकस्मिक रूप से अधिक वर्षा बाढ़ों का प्रमुख कारण है। ब्रह्मपुत्र नदी एवं हिमालय की नदियाँ अधिक बाढ़ग्रस्त होती हैं। बंगाल की दामोदर नदी भी बाढ़ों के लिए कुख्यात है।

नदी के ऊपरी संग्रहण क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निर्वनीकरण नदियों में बाढ़ों का सबसे महत्त्वपूर्ण मानवीय कारक है। विगत दशकों में विश्व भर में बड़े पैमाने पर वन काटे गये हैं जिसके कारण बाढ़ों की आवृत्ति तथा परिमाण में वृद्धि हुई है। वृक्षों की जड़े धरातल के वाही जल को सोख लेती हैं जिससे भूमिगत जल के परिमाण में भी वृद्धि होती है। यही नहीं, वृक्षों की शाखाएँ एवं सघन वितान (Canopy) वर्षा को मूसलाधार रूप में धरातल पर पड़ने नहीं देते। इसके विपरीत, वनों के अभाव में वर्षा की बूंदें धरातल पर सीधी गिरकर वाही जल के रूप में बहने लगती हैं। धरातलीय वाही जल में वृद्धि होने से मृदा अपरदन भी अधिक होता है जिससे नदियों के अवसाद बोझ में वृद्धि होती है। नदी के तल में अवसादन क्रिया अधिक होने से वर्षाकाल में जल आस-पास के क्षेत्रों में फैल जाता है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में आने वाली बाढ़ों का प्रमुख कारण हिमालयी क्षेत्र में निर्वनीकरण ही है।

बाढ़ों का प्रकोप–भारत ही नहीं संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे विकसित देश भी नदियों की बाढ़ों से ग्रस्त रहते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में मिसीसिपी-मिसौरी नदियाँ बाढ़ों के लिए कुख्यात हैं। टैनेसी, कोलोरेडो, हवाइट, रेड, अरकन्सास, ईल, सवाना, वेबाश, ओयो, पोटोमैक, मिसौरी, डेलाबेयर, मियामी, विलामेट तथा कोलम्बिया नदियाँ भी बाँधों के लिए कुख्यात हैं।

चीन की ह्वांग्हो नदी आज भी बाढ़ों के प्रकोप के कारण ‘चीन को शोक’ कहलाती है। 1887 में इसकी बाढ़ से दस लाख लोगों की मृत्यु हुई थी। 1993 में संयुक्त राज्य अमेरिका की मिसीसिपी-मिसौरी नदियों द्वारा बाढ़ के विनाश से 15,000 मिलियन डॉलर की सम्पत्ति नष्ट हुई तथा 75,000 लोगों के घर उजड़ गये। 1927 में मिसीसिपी नदी में बाढ़ के कारण पेन्सिलवेनिया राज्य (संयुक्त राज्य अमेरिका) में 50 लोगों की मृत्यु हुई, 2,50,000 बेघरबार हो गये तथा 2,000 मिलियन डॉलर की सम्पत्ति नष्ट हो गयी। इसके अतिरिक्त कृषि, व्यवसाय, परिवहन आदि क्षेत्रों में भी भारी क्षति हुई।

भारत के सर्वाधिक बाढ़ प्रवण क्षेत्र तथा बाढ़ग्रस्त क्षेत्र उत्तरीय भारत में गंगा के मैदानी क्षेत्र हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार तथा आन्ध्र प्रदेश राज्यों में देश में बाढ़ों से होने वाली कुल क्षति का 62% मिलता है। प्रतिवर्ष निर्वनीकरण, मृदा अपरदन में वृद्धि, नगरीकरण में वृद्धि, बाढ़ के मैदानों में बस्तियों की वृद्धि, घाटी के पाश्र्यों में कृषि कार्यों के लिए भूमि का अतिक्रमण, पुलों, तटबन्धों आदि का निर्माण इत्यादि कारणों से बाढ़ों की आवृत्ति तथा परिमाण में निरन्तर वृद्धि हो रही है।

बाढ़ नियन्त्रण के उपाय-यह उल्लेखनीय है कि बाढ़े एक प्राकृतिक परिघटना है तथा इससे पूर्णतः मुक्ति सम्भव नहीं है, किन्तु इसके प्रभाव को मनुष्य अपनी तकनीकी क्षमता द्वारा अवश्य कम कर सकता है। बाढ़ नियन्त्रण के निम्नलिखित उपाय सम्भव हैं

(1) प्रथम तथा सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय वर्षा की तीव्रता तथा उससे उत्पन्न धरातलीय भार को नियन्त्रित करना है। मनुष्य वर्षा की तीव्रता को तो कम नहीं कर सकता है, किन्तु धरातलीय वाह (वाही जल) को नदियों तक पहुँचने पर देरी अवश्य कर सकता है। यह उपाय बाढ़ों के लिए कुख्यात नदियों के जल संग्राहक पर्वतीय क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण द्वारा सम्भव है। वृक्षारोपण द्वारा जल के धरातल के नीचे रिसाव को प्रोत्साहन मिलता है जिससे वाही जल की मात्रा कुछ सीमा तक कम हो जाती है। वृक्षारोपण से मृदा अपरदन में भी कमी आती है तथा नदियों में अवसादों की मात्रा कम होती है। अवसादन में कमी होने पर नदियों में तल बहाने की क्षमता बढ़ जाती है। इस प्रकार बाढ़ों की आवृत्ति तथा परिमाण में कमी की जा सकती है।

(2) घुमावदार मार्ग से होकर बहने पर नदियों में जल बहने की क्षमता में कमी आती है। इसके लिए नदियों के मार्गों को कुछ स्थानों पर सीधा करना उपयुक्त रहता है। यह कार्य मोड़ों को कृत्रिम रूप से काटकर किया जा सकता है, किन्तु यह उपाय बहुत व्ययपूर्ण है। दूसरे, विसर्पण (Meandering) एक प्राकृतिक प्रक्रम है, नदी अन्यत्र विसर्प बना लेगी। वैसे यह उपाय निचली मिसीसिपी में ग्रीनविले (संयुक्त राज्य अमेरिका) के निकट 1933 से 1936 में अपनाया गया, जिसके तहत नदी का मार्ग 530 किमी से घटाकर 185 किमी कर दिया गया।

(3) नदी में बाढ़ आने के समय जल के परिमाण को अनेक इंजीनियरी उपायों द्वारा; जैसे-भण्डारण जलाशय बनाकर; किया जा सकता है। ये बाँध बाढ़ के अतिरिक्त जल को संचित कर लेते हैं। इसे जल की सिंचाई में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। यदि जलाशयों के साथ बाँध भी बना दिया जाता है तो इससे जल विद्युत उत्पादन में भी सफलता मिलती है। ऐसे उपाय 1913 में ओह्यो राज्य (संयुक्त राज्य अमेरिका) में मियामी नदी पर किये गये थे तथा बहुत प्रभावी एवं लोकप्रिय सिद्ध हुए। 1993 के पूर्व टेनेसी बेसिन भी बाढ़ों के लिए कुख्यात था, किन्तु 1933 में टैनेसी घाटी प्राधिकरण (TVA) द्वारा अनेक बाँध तथा जलाशय बनाकर इस समस्या का निदान सम्भव हुआ। वही टैनेसी बेसिन अब एक स्वर्ग बन गया है। टैनेसी घाटी परियोजना से प्रेरित होकर भारत में भी दामोदार घाटी निगम (DvC) की स्थापना की गयी तथा दामोदर नदी तथा इसकी सहायक नदियों पर चार बड़े बाँध एवं जलाशय बनाये गये। इसी प्रकार तापी नदी पर कई बाँध एवं जलाशय के निर्माण से नदी की निचली घाटी तथा सूरत नगर को बाढ़ के प्रकोप से बचा लिया गया है।

(4) तटबन्ध, बाँध तथा दीवारें बनाकर भी बाढ़ के जल को संकीर्ण धारा के रूप में रोका जा सकता है। ये दीवारें मिट्टी, पत्थर या कंकरीट की हो सकती है। दिल्ली, इलाहाबाद, लखनऊ आदि अनेक नगरों में इस प्रकार के उपाय किये गये हैं। चीन तथा भारत में कृत्रिम कगारों का निर्माण बहुत प्राचीन काल से प्रचलित रहा है। कोसी (बिहार) तथा महानन्दा नदियों पर भी बाढ़ नियन्त्रण हेतु इसी प्रकार के उपाय किये गये हैं।

(5) 1954 में केन्द्रीय बाढ़ नियन्त्रण बोर्ड के गठन तथा राज्य स्तर पर बाढ़ नियन्त्रण बोर्ड की स्थापना भी बाढ़ नियन्त्रण में लाभकारी रही है। भारत में बाढ़ की भविष्यवाणी तथा पूर्व चेतावनी की प्रणाली 1959 में दिल्ली में बाढ़ की स्थिति मॉनीटर करने हेतु प्रारम्भ की गयी। तत्पश्चात् देश भर में प्रमुख नदी बेसिनों में बाढ़
की दशाओं को मॉनीटर करने हेतु एक नेटवर्क बनाया गया। बाढ़ की भविष्यवाणी के ये केन्द्र वर्षा सम्बन्धी, डिस्चार्ज दर आदि आँकड़े एकत्रित करते हैं तथा अपने अधिकार क्षेत्र के निवासियों को विशिष्ट नदी बेसिन के सन्दर्भ में बाढ़ की पूर्व चेतावनी देते हैं।

बढ़े बेटियाँ, पढ़ें बेटियाँ। [2016]

सम्बद्ध शीर्षक

  • बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ

स्त्रियों की उन्नति या अवनति पर ही राष्ट्र की उन्नति या अवनति निर्भर करती है। स्त्री काँटेदार झाड़ी को फल बनाती है, दरिद्र-से-दरिद्र मनुष्य के घर को भी सुशील स्त्री स्वर्ग बना देती है।

-गोल्डस्मिथ

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्ताव,
  2. योजना के उद्देश्य,
  3. ‘बढ़े बेटियाँ’ से आशय,
  4. बेटियों को बढ़ाने के उपाय—(क) पढ़ें बेटियाँ, (ख) सामाजिक सुरक्षा, (ग) रोजगार के समान अवसरों की उपलब्धता,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना-कहते हैं कि सुघड़, सुशील और सुशिक्षित स्त्री दो कुलों का उद्धार करती है। विवाहपर्यन्त वह अपने मातृकुल को सुधारती है और विवाहोपरान्त अपने पतिकुल को। उनके इस महत्त्व को प्रत्येक देश-काल में स्वीकार किया जाता रहा है, किन्तु यह विडम्बना ही है कि उनके अस्तित्व और शिक्षा पर सदैव से संकट छाया रहा है। विगत कुछ दशकों में यह संकट और अधिक गहरा हुआ है, जिसका परिणाम यह हुआ कि देश में बालक-बालिका लिंगानुपात सन् 1971 ई० की जनगणना के अनुसार प्रति एक हजार बालकों पर 930 बालिका था, जो सन् 1991 ई० में घटकर 927 हो गया। सन् 2011 ई० की जनगणना में यह सुधरकर 943 हो गया। मगर इसे सन्तोषजनक नहीं कहा जा सकता। जब तक बालक-बालिका लिंगानुपात बराबर नहीं हो जाती तब तक किसी भी प्रगतिशील बुद्धिवादी समाज को विकसित अथवा प्रगतिशील समाज की संज्ञा नहीं दी जा सकती। महिला सशक्तीकरण की बात करना भी तब तक बेमानी ही है। माननीय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी जी ने इस तथ्य के मर्म को जाना-समझा और सरकारी स्तर पर एक योजना चलाने की रूपरेखा तैयार की। इसके लिए उन्होंने 22 जनवरी, 2015 को हरियाणा राज्य से ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना की शुरुआत की।

योजना के उद्देश्य-योजना के महत्त्व और महान् उद्देश्य की दृष्टिगत रखते हुए बेटी बचाओ, बेटी पढ़ओ’ योजना की शुरुआत भारत सरकार के बाल विकास मन्त्रालय, स्वास्थ्य मन्त्रालय, परिवार कल्याण मन्त्रालय और मानव संसाधन विकास मन्त्रालय की संयुक्त पहल से की गई। इस योजना के दोहरे लक्ष्य के अन्तर्गत न केवल लिंगानुपात की असमानता की दर में सन्तुलन लाना है, बल्कि कन्याओं को शिक्षा दिलाकर देश के विकास में उनकी भागेदारी को सुनिश्चित करना है। सौ करोड़ रुपयों की शुरुआती राशि के साथ इस योजना के माध्यम से महिलाओं के लिए कल्याणकारी सेवाओं के प्रति जागरूकता फैलाने का कार्य किया जा रहा है। सरकार द्वारा लिंग समानता के कार्य को मुख्यधारा से जोड़ने के अतिरिक्त स्कूली पाठ्यक्रमों में भी लिंग समानता से जुड़ा एक अध्याय रखा जाएगा। इसके आधार पर विद्यार्थी, अध्यापक और समुदाय कन्या शिशु और महिलाओं की आवश्यकताओं के प्रति अधिक संवेदनशील बनेंगे तथा समाज का सौहार्दपूर्ण विकास होगा। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना के अन्तर्गत जिन महत्त्वपूर्ण गतिविधियों पर कार्य किया जा रहा है, वे इस प्रकार हैं-

  • स्कूल मैनेजमेण्ट कमेटियों को सक्रिय करना, जिससे लड़कियों की स्कूलों में भर्तियाँ हो सकें।
  • स्कूलों में बालिका मंच की शुरुआत।
  • कन्याओं के लिए शौचालय निर्माण।
  • बन्द पड़े शौचालयों को फिर से शुरू करना।
  • कस्तूरबा गांधी बाल विद्यालयों को पूरा करना।
  • पढ़ाई छोड़ चुकी लड़कियों को माध्यमिक स्कूलों में फिर भर्ती करने के लिए व्यापक अभियान।
  • माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में लड़कियों के लिए छात्रावास शुरू करना।

‘बढे बेटियाँ’ से आशय-‘बेटी बचाओ’ योजना के रूप में इसका सबसे बड़ा उद्देश्य बालिकाओं के लिंगानुपात को बालकों के बराबर लाना है। मगर यहाँ प्रश्न यह खड़ा होता है कि हम बेटियों के लिंगानुपात को बराबर करके उनकी दशा और दिशा में परिवर्तन लाकर उन्हें देश-दुनिया के विकास की मुख्यधारा में सम्मिलित कर पाएँगे। यदि लिंगानुपात स्त्रियों के देश और समाज के विकास की मुख्यधारा से जुड़ने का मानक होता तो देश की संसद में स्त्रियों के 33 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा न खड़ा होता। मगर पुरुषों के लगभग बराबर जनसंख्या होने के बाद भी हमारी वर्तमान 543 सदस्यीय लोकसभा में महिलाओं की संख्या मात्र 62 है, जबकि लिंगानुपात के अनुसार यह स्वाभाविक रूप में पुरुषों की संख्या के लगभग आधी होनी चाहिए थी। इसलिए बेटियों को बचाकर उनकी संख्या में वृद्धि करने के साथ-साथ यह भी आवश्यक है। कि वे निरन्तर आगे बढ़े। उनकी प्रगति के मार्ग की प्रत्येक बाधा को दूर करके उन्हें उन्नति के उच्चतम शिखर तक पहुँचाने का मार्ग प्रशस्त करें। ‘बढ़े बेटियाँ’ नारे का उद्देश्य और आशय भी यही है।

बेटियों को बढ़ाने के उपाय-हमारी बेटियाँ आगे बढ़े और देश के विकास में अपना योगदान करें, इसके लिए अनेक उपाय किए जा सकते हैं, जिनमें से कुछ मुख्य उपाय इस प्रकार हैं

(क) पढ़ें बेटियाँ-बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण और मुख्य उपाय यही है कि हमारी बेटियाँ बिना किसी बाधा और सामाजिक बन्धनों के उच्च शिक्षा प्राप्त करें तथा स्वयं अपने भविष्य का निर्माण करने में सक्षम हों। अभी तक देश में बालिकाओं की शिक्षा की स्थिति सन्तोषजनक नहीं है। शहरी क्षेत्रों में तो बालिकाओं की स्थिति कुछ ठीक भी है, किन्तु ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति बड़ी दयनीय है। बालिकाओं की अशिक्षा के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा यह है कि लोग उन्हें ‘फराया धन’ मानते हैं। उनकी सोच है कि विवाहोपरान्त उसे दूसरे के घर जाकर घर-गृहस्थी का कार्य सँभालना है, इसलिए बढ़ने-लिखने के स्थान पर उसका घरेलू कार्यों में निपुण होना अनिवार्य है। उनकी यही सोच बेटियों के स्कूल जाने के मार्ग बन्द करके घर की चहारदीवारी में उन्हें कैद कर देती है। बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए सबसे पहले समाज की इसी नीच सोचे को परिवर्तित करना होगा।

(ख) सामाजिक सुरक्षा-बेटियाँ पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर बनें और देश के विकास में अपना योगदान दें, इसके लिए सबसे आवश्यक यह है कि हम समाज में ऐसे वातावरण का निर्माण करें, जिससे घर से बाहर निकलनेवाली प्रत्येक बेटी और उसके माता-पिता का मन उनकी सुरक्षा को लेकर सशंकित न हो। आज बेटियाँ घर से बाहर जाकर सुरक्षित रहें और शाम को बिना किसी भय अथवा तनाव के घर वापस लौटें, यही सबसे बड़ी आवश्यकता है। आज घर से बाहर बेटियाँ असुरक्षा का अनुभव करती हैं, वे शाम को जब तक सही-सलामत घर वापस नहीं आ जातीं, उनके माता-पिता की साँसे गले में अटकी रहती हैं। उनकी यही चिन्ता बेटी को घर के भीतर कैद रखने की अवधारणा को बल प्रदान करती है। जो माता-पिता किसी प्रकार अपने दिल पर पत्थर रखकर अपनी बेटियों को पढ़ा-लिखाकर योग्य बना भी देते हैं, वे भी उन्हें रोजगार के लिए घर से दूर इसलिए नहीं भेजते कि ‘जमाना ठीक नहीं है। अत: बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए इस जमाने को ठीक करना आवश्यक है, अर्थात् हमें बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें सामाजिक सुरक्षा की गारण्टी देनी होगी।

(ग) रोजगार के समान अवसरों की उपलब्धता-अनेक प्रयासों के बाद भी बहुत-से सरकारी एवं गैर-सरकारी क्षेत्र ऐसे हैं, जिनको महिलाओं के लिए उपयुक्त नहीं माना गया है। सैन्य-सेवा एक ऐसा ही महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसमें महिलाओं को पुरुषों के समान रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं हैं। यान्त्रिक अर्थात् टेक्नीकल क्षेत्र विशेषकर फील्ड वर्क को भी महिलाओं की सेवा के योग्य नहीं माना जाता है इसलिए इन क्षेत्रों में सेवा के लिए पुरुषों को वरीयता दी जाती है। यदि हमें बेटियों को आगे बढ़ाना है तो उनके लिए सभी क्षेत्रों में रोजगार के समान अवसर उपलब्ध कराने होंगे। यह सन्तोष का विषय है कि अब सैन्य और यान्त्रिक आदि सभी क्षेत्रों में महिलाएँ रोजगार के लिए आगे आ रही हैं और उन्हें सेवा का अवसर प्रदान कर उन्हें आगे आने के लिए प्रोत्साहित भी किया जा रहा है।

उपसंहार-बेटियाँ पढ़े और आगे बढ़े, इसका दायित्व केवल सरकार पर नहीं है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति पर इस बात का दायित्व है कि वह अपने स्तर पर वह हर सम्भव प्रयास करे, जिससे बेटियों को पढ़ने और आगे बढ़ने को प्रोत्साहन मिले। हम यह सुनिश्चित करें कि जब हम घर से बाहर हों तो किसी भी बेटी की सुरक्षा पर हमारे रहते कोई आँच नहीं आनी चाहिए। यदि कोई उनके मान-सम्मान को ठेस पहुँचाने की तनिक भी चेष्टा करे तो आगे बढ़कर उसे सुरक्षा प्रदान करनी होगी और उनके मान-सम्मान से खिलवाड़ करनेवालों को विधिसम्मत दण्ड दिलाकर अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना होगा, जिससे हमारी बेटियाँ उन्मुक्त गगन में पंख पसारे नित नई ऊँचाइयों को प्राप्त कर सकें।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi समस्यापरक निबन्ध help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi समस्यापरक निबन्ध, drop a comment below and we will get back to you at the earliest.