UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi बैंक/विभिन्न व्यवसायों से सम्बन्धित ऋण-प्राप्ति हेतु आवेदन-पत्र

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name बैंक/विभिन्न व्यवसायों से सम्बन्धित ऋण-प्राप्ति हेतु आवेदन-पत्र
Number of Questions 4
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi बैंक/विभिन्न व्यवसायों से सम्बन्धित ऋण-प्राप्ति हेतु आवेदन-पत्र

प्रश्न 1.
ऋण-प्राप्ति हेतु भारतीय स्टेट बैंक के शाखा प्रबन्धक को आवेदन-पत्र लिखिए। [2010]
या
भारतीय स्टेट बैंक के शाखा प्रबन्धक को निजी कम्प्यूटर प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना हेतु ऋण-प्राप्ति के लिए एक आवेदन-पत्र लिखिए।
या
अपना कुटीर उद्योग प्रारम्भ करने हेतु किसी बैंक के प्रबन्धक को ऋण प्रदान करने हेतु एक पत्र लिखिए। [2009, 14, 17]
या
अपने निकटस्थ बैंक के शाखा-प्रबन्धक के नाम एक प्रार्थना-पत्र लिखिए, जिसमें निजी रोजगार के लिए ऋण लेने का निवेदन किया गया हो। [2013,14, 15]
या
इलाहाबाद बैंक के शाखा प्रबन्धक को फसली ऋण योजनान्तर्गत ऋण-प्राप्ति हेतु एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2015]
या
अपना कुटीर उद्योग प्रारम्भ करने हेतु किसी बैंक के प्रबन्धक को ऋण प्रदान करने हेतु एक पत्र लिखिए। [2016]
[बैंक के नाम में स्वयं परिवर्तन कर लें।]
उत्तर
सेवा में,
प्रबन्धक, भारतीय स्टेट बैंक, गोलाकुआँ, शोहराबगेट शाखा, मेरठ।
महोदय,
पिछले दिनों माननीय प्रधानमन्त्री महोदय ने प्रधानमन्त्री रोजगार योजना का शुभारम्भ किया था, जिसमें शिक्षित बेरोजगारों को एक लाख रुपए का ऋण देने का प्रावधान है। मैं भी बी० ए० पास एक शिक्षित बेरोजगार युवक हूँ और इस योजना का लाभ उठाकर एक लाख रुपए का ऋण लेकर इससे बॉल पेन बनाने का लघु उद्योग आरम्भ करना चाहता हूँ। इस हेतु आपकी सेवा में अपने विवरणसहित अपनी भावी योजना का संक्षिप्त प्रारूप प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो कि इस प्रकार है-
UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi बैंकविभिन्न व्यवसायों से सम्बन्धित ऋण-प्राप्ति हेतु आवेदन-पत्र img 1
श्रीमान जी से मेरा नम्र निवेदन है कि मेरे इस ऋण आवेदन-पत्र को स्वीकृत करके मुझे ऋण प्रदान कर कृतार्थ करें।
धन्यवाद सहित!
संलग्नक-
(1) आयु प्रमाण-पत्र,
(2) योग्यता प्रमाण-पत्रे,
(3) स्थायी निवास प्रमाण-पत्र,
(4) आय प्रमाण-पत्र।
दिनांक : 18/05/2014

भवदीय
किशनचन्द्र धानुक

प्रश्न 2.
केनरा बैंक के प्रबन्धक को अध्ययनार्थ ऋण-प्राप्ति हेतु एक पत्र लिखिए।
या
भारतीय स्टेट बैंक के शाखा प्रबन्धक को निजी उच्च शिक्षा-अध्ययन (चिकित्सा अथवा इंजीनियरिंग) हेतु शिक्षा ऋण प्राप्ति के लिए एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 17]
या
उच्च शिक्षा ग्रहण करने हेतु ऋण प्राप्त करने के लिए बैंक मैनेजर को एक प्रार्थना-पत्र लिखिए। [2018]
उत्तर
सेवा में,
श्रीमान शाखा प्रबन्धक महोदय,
केनरा बैंक, शहर शाखा, वाराणसी।

विषय-अध्ययन के लिए ऋण-प्राप्ति हेतु

महोदय,
मैं, विकास कुमार जैन ने चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ से बी० एस-सी० (भौतिकी, रसायन और गणित) परीक्षा प्रथम श्रेणी में 70% अंकों के साथ उत्तीर्ण की है। मैंने एम० बी० ए० (द्वि-वर्षीय पाठ्यक्रम) में प्रवेश लिया है और साथ-साथ प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षा के लिए तैयारी भी करना चाहता हूँ। मेरा अध्ययन अबाध चलता रहे, इसके लिए मुझे * 2,00,000.00 की आवश्यकता है। मुझे पता चला है कि आपके बैंक की अनेक ऋण योजनाओं में से एक योजना के अन्तर्गत अध्ययन के लिए भी ऋण प्रदान किया जाता है। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपके द्वारा प्रदत्त ऋण की भुगतान-प्रक्रिया अध्ययन पूर्ण होते ही यथाशीघ्र शुरू कर दी जाएगी।

उपर्युक्त उद्देश्य हेतु आपके सक्रिय सहयोग की अपेक्षा है।
धन्यवाद!
दिनांक :………………………….
संलग्नसभी उत्तीर्ण परीक्षाओं की अंक-प्रतियाँ व प्रमाण-पत्र।

भवदीय
विकास कुमार जैन
ठठेरवाड़ी, मेरठ।

प्रश्न 3.
अपने पिता जी की ओर से भारतीय स्टेट बैंक के प्रबन्धक को पत्र लिखकर ट्रैक्टर खरीदने के लिए ऋण स्वीकृत कराने का अनुरोध कीजिए।
उत्तर
सेवा में, 30-6-2017
श्रीमान प्रबन्धक महोदय,
भारतीय स्टेट बैंक, मुख्य शाखा
सोनीपत, हरियाणा।

विषय-ट्रैक्टर खरीदने के लिए ऋण की स्वीकृति हेतु आवेदन

महोदय,
निवेदन है कि मेरे पिता जी एक प्रगतिशील कृषक हैं, जिनके पास खेती योग्य उपजाऊ सत्तर एकड़ भूमि है। इस भूमि पर खेती से उन्हें पर्याप्त आमदनी हो जाती है।

मुझे खण्ड विकास अधिकारी द्वारा विदित हुआ कि आपके बैंक ने किसानों को आसान किश्तों पर ट्रैक्टर खरीदने हेतु ऋण देने के लिए एक योजना प्रारम्भ की है।

अपने पिता की आर्थिक स्थिति की पुष्टि में जमीन के कागजातों तथा मकान की रजिस्ट्री की छाया प्रतियाँ संलग्न कर रहा हूँ जिससे आपको हमारी आर्थिक स्थिति तथा ऋण अदायगी सम्बन्धी अर्हताओं का आकलन करने में कोई कठिनाई न हो।

आपसे निवेदन है कि आप मेरे पिता को इस योजना के अन्तर्गत ट्रैक्टर खरीदने के लिए ऋण की स्वीकृति प्रदान करने का कष्ट करें।
धन्यवाद!

भवदीय
मंगल सेन आर्य
आत्मज श्री बुध सेन आर्य
मकान नं० 646, गाँधी नगर
सोनीपत, हरियाणा।

प्रश्न 4.
यू०पी० ग्रामीण बैंक, इलाहाबाद के शाखा प्रबन्धक को फसल बीमा के अन्तर्गत प्राप्त होने वाली कृषक धनराशि के सम्बन्ध में एक प्रार्थना-पत्र लिखिए। [2016]
उत्तर
सेवा में,
श्रीमान शाखा प्रबन्धक,
इलाहाबाद बैंक, शहर शाखा, मेरठ।

विषय-फसल बीमा के अन्तर्गत कृषक धनराशि की प्राप्ति हेतु

महोदय,
निवेदन यह है कि प्रार्थी ने आपकी शाखा से अपनी पाँच बीघे धान की फसल का बीमा करवाया था। इसकी पॉलिसी संख्या 126796 तथा बीमा धनराशि 9,000/- है। प्रार्थी की फसल पानी के अभाव (बारिश का अभाव, नहर का सूख जाना व बिजली की किल्लत) के कारण सूख गई, जिसके कारण उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा है। फिलहाल प्रार्थी के सामने आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया है। इस सम्बन्ध में सम्बन्धित अधिकारियों को समय रहते सूचना दी जा चुकी है।

अतः आपसे अनुरोध है कि जल्द-से-जल्द प्रार्थी को उसके फसली बीमे की धनराशि दिलाने की कृपा करें।
धन्यवाद सहित।
दिनांक : …………………………

प्रार्थी
रामदुलारे
गाँव : रोहटा

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 2 Indian Education in Buddhist Period

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 2 Indian Education in Buddhist Period (बौद्ध-काल में भारतीय शिक्षा)are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 2 Indian Education in Buddhist Period (बौद्ध-काल में भारतीय शिक्षा).

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Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 2
Chapter Name Indian Education in Buddhist Period (बौद्ध-काल में भारतीय शिक्षा)
Number of Questions Solved 46
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 2 Indian Education in Buddhist Period (बौद्ध-काल में भारतीय शिक्षा)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
बौद्धकालीन शिक्षा के उद्देश्यों एवं आदर्शों का उल्लेख कीजिए।
बौद्ध शिक्षा-प्रणाली के क्या उद्देश्य थे? वर्तमान में उनकी प्रासंगिकता की विवेचना कीजिए।
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा के उद्देश्य
बौद्धकालीन शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे-
1. सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास-बौद्धकालीन शिक्षा का बदकालीन शिक्षा के उद्देश्य उद्देश्य व्यक्तित्व के ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक तीनों पक्षों सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास का विकास करना था।
बौद्ध धर्म का प्रचार

2. बौद्ध धर्मक़ा प्रचार–बौद्धकालीन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य चरित्र-निर्माण बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार एवं ग्रहण करना था, जिससे कि लोगों में निर्वाण की मात धर्म के प्रति श्रद्धा, विश्वास एवं आस्था बढ़े।
सामाजिक योग्यता और कुशलता

3. चरित्र-निर्माण सादगीपूर्ण और पवित्र जीवन, ब्रह्मचर्य, का विकास संयम तथा सदाचार द्वारा विद्यार्थियों के चरित्र का निर्माण करना। राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय भावना

4. निर्वाण की प्राप्ति-बौद्धकालीन शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य का विकास जीवन के दुःख, कष्ट, रोग वं मृत्यु से मनुष्य को निर्वाण प्राप्त कराना था।

5. सामाजिक योग्यता और कुशलता का विकास–शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञान और कौशल का समन्वय इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया गया था। इस काल में धर्म का अर्थ आध्यात्मिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का पालन करने से लिया जाता था और व्यक्ति की शिक्षा उसे यह क्षमता प्रदान करती थी कि वह अपने आपको समाज का एक योग्य सदस्य बनाए।

6. राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय भावना का विकास–बौद्धकालीन शिक्षा का एक उद्देश्य राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय भावना का विकास भी था। इसके लिए बौद्ध भिक्षु अपने देश और विदेश में भ्रमण करते थे और वे अपनी ही वेशभूषा, भाषा व आचार-विचार का प्रयोग करते थे। । उल्लेखनीय है कि बौद्ध शिक्षा प्रणाली के उपर्युक्त वर्णित उद्देश्य वर्तमान में भी अपनी प्रासंगिकता को बनाए हुए हैं। वर्तमान में शिक्षा को जीवन के मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया है, क्योंकि इसी से व्यक्ति का कल्याण सम्भव है।

चरित्र-निर्माण की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए नैतिक शिक्षा को प्राथमिकता दी जा रही है। भारत जैसे सीमित संसाधन एवं जनसंख्या आधिक्य वाले विकासशील देश में, समाज एवं राष्ट्र की उन्नति हेतु मानव संसाधन विकास में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इसी प्रकार समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, . गरीबी, वर्ग-भेद आदि समस्याओं हेतु शिक्षा का प्रचार अपरिहार्य आवश्यकता है।

बौद्धकालीन शिक्षा के आदर्श
बौद्धकालीन शिक्षा के प्रमुख आदर्श निम्नलिखित थे-

  1. जीवन और शिक्षा में घनिष्ठ सम्बन्ध था तथा जीवन के आदर्श शिक्षा में भी अपनाए गए थे। इसलिए विद्यार्थियों को सरल, शुद्ध, पवित्र व सात्विक जीवन व्यतीत करना पड़ता था।
  2. समाज सेवा बौद्ध शिक्षा का दूसँग आदर्श था। उपसम्पदा संस्कार सम्पन्न होने पर विद्यार्थी भिक्षु बन जाता था और वह बौद्ध धर्म एवं मठ की सेवा करता था। भिक्षु का कार्य समाज में भ्रमण करना और धर्म के सिद्धान्तों से जन-साधारण को शिक्षित-दीक्षित करना था।
  3. विश्व कल्याण बौद्ध शिक्षा का तीसरा आदर्श था। धर्म का प्रचार करने वाले भारत से बाहर भी गए और सम्पूर्ण जीवन वे मनुष्यों को जीवन के सत्यों का ज्ञान देते रहे, जिससे सम्पूर्ण विश्व के लोगों का कल्याण हो सके। बौद्ध धर्म में विश्व कल्याण की भावना होने के कारण ही उसका व्यापक प्रचार हुआ।
  4. बौद्धकालीन शिक्षा जनतान्त्रिक आदर्शों पर आधारित थी। इसमें समानता, स्वतन्त्रता और सामाजिक हित की भावना निहित थी। सभी लोग बिना किसी भेदभाव के समान रूप से शिक्षा ग्रहण करने और निर्वाण प्राप्त करने के अधिकारी थे।

प्रश्न 2
बौद्धकालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएँ
भारतीय शिक्षा के इतिहास में ईसा से पूर्व छठी शताब्दी में शिक्षा के क्षेत्र में कुछ परिवर्तन हुए। इस काल, जिसे बौद्धकाल कहा जाता है, की शिक्षा को बौद्धकालीन शिक्षा कहा जाता है। वैदिक धर्म एवं ब्राह्मण-उपनिषद् धर्म के पालन करने वालों में बहुत-से अवगुण, अन्धविश्वास, आडम्बर तथा जातीय । भेदभाव आदि आ गए थे। इस कारण यह आवश्यक था कि समाज के सदस्यों को धर्म के मूल सिद्धान्तों के प्रति प्रबुद्ध किया जाए इसलिए देश में एक नए सम्प्रदाय का उदय हुआ, जिसे महात्मा बुद्ध के अनुयायियों ने, उनके नाम से, जन्म दिया था। यह बौद्ध धर्म के नाम से प्रचलित हुआ। इस धर्म के अभ्युदय, विकास एवं प्रसार के कारण भारतीय शिक्षा का भी विकास हुआ और इसे बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली का नाम दिया गया। बौद्धकालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं|

1. समन्वित शिक्षा-धार्मिक परिवर्तन के कारण बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएँ बौद्धकालीन शिक्षा-प्रणाली में आरम्भ में केवल बौद्ध धर्म की शिक्षा दी जाती थी, बाद में सभी धर्मों के मानने वाले शिक्षा लेने लगे,
समन्वित शिक्षा इसलिए बौद्ध और अबौद्ध सभी विषयों की शिक्षा दी गई। केवल चाण्डाल, गम्भीर रोगों से ग्रस्त रोगियों तथा अपराधी व्यक्तियों को शिक्षा लेने का अधिकार नहीं था।

2. धार्मिक संस्कार–बौद्धकालीन शिक्षा का आरम्भ विकास ‘पवज्जा’ या ‘प्रव्रज्या संस्कार से होता था। यह संस्कार 8 वर्ष की जनतान्त्रिक भावना व्यापक शिक्षा, आयु में होता था। इसमें बालक-बालिका अपने माता-पिता के घर राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय को छोड़कर व पीले वस्त्र पहनकर गुरु के सामने नतमस्तक होता दृष्टिकोण का विकास था, प्रार्थना करता था और गुरु उसे स्वीकार करता था।

सामान्य शिक्षा, तकनीकी शिक्षा दूसरे संस्कार विद्यार्थी द्वारा तीन प्रण’ करना था, वह ‘समनेर’ और धार्मिक शिक्षा या ‘श्रमण’ कहलाता था। तीन प्रण ये थे—

  1. बुद्धम् शरणम् जनसाधारण की भाषा शिक्षा को गच्छामि।
  2. धम्मं शरणम् गच्छामि।
  3. सधं शरणम् गच्छामि। इसके माध्यम संस्कार के समय विद्यार्थी को निम्नांकित नियमों का पालन करने की शिक्षा का व्यवस्थीकरण प्रतिज्ञा लेनी पड़ती थी
    • किसी जीव की हिंसा मत करो।
    • अशुद्ध आचरण से दूर रहो।
    • असत्य भाषण मत करो।
    • कुसमय भोजन न करो।
    • मादक वस्तुओं का प्रयोग न करो।
    • नृत्य और तमाशों से दूर रहो।
    • बिना दिए हुए किसी की वस्तु को ग्रहणून करो।
    • बहुमूल्य पदार्थ दान में न लो।
    • किसी की निन्दा मत करो।
    • श्रृंगार की वस्तुओं का उपभोग न करो।

तीसरा संस्कार ‘उपसम्पदा’ का था, यह 20 वर्ष की आयु में सम्पन्न होता था। इस संस्कार के बाद शिष्य भिक्षु और शिष्या भिक्षुणी हो जाते थे। इसे संस्कार के होने से शिष्य आजीवन धर्म के लिए कार्य करता था। मठ और विहार के साथ संलग्न शिक्षालयों में ये शिक्षा देते थे।

3. धार्मिक भावना का विकास–बौद्धकालीन शिक्षा का आधार बौद्ध धर्म था। बुद्ध और उनके धर्म तथा संघ की शरण में रहना तथा बौद्ध धर्म के इस नियमों का पालन करना ही शिक्षा था।

4. वैयक्तिक और सामाजिक विकास-बौद्धकालीन शिक्षा आरम्भ में वैयक्तिक रूप से व्यक्ति को धर्म का ज्ञान कराती थी। बाद में उसका लक्ष्य ऐसे व्यक्तित्व एवं चरित्र का विकास करना हो गया जो समाज को आगे ले जा सके।

5. जनतान्त्रिक भावना–शिक्षा के माध्यम से समाज के सभी लोगों में समानता और स्वतन्त्रता की श्रेष्ठ भावना लाने का प्रयत्न किया जाता था ताकि चारों वर्गों के लोग परस्पर मिल-जुलकर जीवन व्यतीत करें।

6. व्यापक शिक्षा–बौद्ध काल में भारतीय संस्कृति का भौतिक पक्ष काफी समृद्ध हो चुका था और इस काल में शिक्षा लौकिक एवं धार्मिक दोनों प्रकार की थी। बालक और बालिका, ज्ञानी और व्यवसायी दोनों शिक्षा प्राप्त करते थे। शासन और जनसाधारणेदोनों के लिए शिक्षा की उत्तम व्यवस्था थी। इस प्रकारे बौद्ध काल में शिक्षा का क्षेत्र व्यापक था।

7. राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास–बौद्ध धर्म में शिक्षा लेकर लोग विदेशों में जाते थे और विदेशों से आए लोगों का स्वागत करते थे। बौद्ध विद्वान् एवं भिक्षु इसे अपना कर्तव्य मानते थे कि वे राष्ट्रीय धर्म, ज्ञान, बुद्धि, सभ्यता आदि को अपने देश में तथा दूसरे देशों में फैलाएँ। इस प्रकार शिक्षा द्वारा लोगों में राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास किया जाता था।

8. सामान्य शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और धार्मिक शिक्षा–बौद्धकालीन शिक्षा की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इस काल में लोग शिल्प कौशल या तकनीकी शिक्षा को उतना ही उपयोगी और आवश्यक समझते थे, जितनी दर्शन, धर्म, भाषा आदि की शिक्षा को।

9. जनसाधारण की भाषा शिक्षा का माध्यम-वैदिक शिक्षा के अन्तर्गत शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी। इससे केवल उच्च वर्ग के लोग ही शिक्षा प्राप्त कर सकते थे और इससे जनसाधारण में शिक्षा का प्रचार नहीं होता था। अत: बौद्ध काल में शिक्षा का विकास जनसाधारण की भाषा पालि में किया गया।

10. शिक्षा का व्यवस्थीकरण–बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्थित थी। प्राथमिक शिक्षा पाठशालाओं में और उच्च शिक्षा विश्वविद्यालयों में दी जाती थी। इसके साथ ही माध्यमिक विद्यालयों और तकनीकी शिक्षा संस्थाओं की व्यवस्था भी अवश्य ही रही होगी।

प्रश्न 3
वैदिक और बौद्ध शिक्षा-प्रणालियों की समानताओं और असमानताओं की विवेचना कीजिए।
या वैदिककाल तथा बौद्ध-शिक्षा की समानताओं तथा असमानताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर
प्राचीनकाल में भारत में विकसित होने वाली दो मुख्य शिक्षा प्रणालियों को क्रमशः वैदिक शिक्षा या हिन्दू-ब्राह्मणीय शिक्षा तथा बौद्धकालीन शिक्षा के रूप में जाना जाता है। बौद्धकालीन शिक्षा बौद्ध धर्म एवं दर्शन की सैद्धान्तिक मान्यताओं पर आधारित थी, परन्तु यह भी सत्य है कि बौद्ध धर्म भी एक भारतीय धर्म था तथा बौद्धकालीन शिक्षा भारतीय सामाजिक परिस्थितियों में ही विकसित हुई थी।

इस स्थिति में वैदिक शिक्षा तथा बौद्धकालीन शिक्षा में कुछ समानताएँ होना नितान्त स्वाभाविक ही था, परन्तु वैदिक-धर्म तथा बौद्ध धर्म में कुछ मौलिक तथा सैद्धान्तिक अन्तर भी है। दोनों धर्मों का सामाजिक व्यवस्था स्तरीकरण तथा जीवन के उद्देश्यों आदि के प्रति दृष्टिकोण भिन्न है। इस स्थिति में दोनों धर्मों द्वारा विकसित की गयी शिक्षा-प्रणालियों में कुछ स्पष्ट अन्तर पाया जाता है। इस स्थिति में वैदिक-शिक्षा तथा बौद्धकालीन शिक्षा के तुलनात्मक विवरण को प्रस्तुत करने के लिए इन शिक्षा-प्रणालियों में पायी जाने वाली समानताएँ तथा असमानताएँ अग्रलिखित हैं–

वैदिक तथा बौद्ध शिक्षा की समानताएँ
डॉ० अल्तेकर के अनुसार, “जहाँ तक सामान्य शैक्षिक सिद्धान्त या प्रयोग की बात है, हिन्दुओं और बौद्ध में कोई विशेष अन्तर नहीं था। दोनों प्रणालियों के समान आदर्श थे और दोनों समान विधियों का अनुसरण करती थी। इस स्थिति में इन दोनों शिक्षा-प्रणालियों में विद्यमान समानताओं का विवरण निम्नवर्णित है

  1. दोनों शिक्षा प्रणालियाँ हर प्रकार के बाहरी नियन्त्रण से मुक्त थी अर्थात् वे अपने आप में स्कतन्त्र थी। दोनों शिक्षा व्यवस्थाओं में राज्य अथवा किसी अन्य सत्ता का कोई हस्तक्षेप नहीं था।
  2. दोनों ही शिक्षा-प्रणालियों में शिक्षण की मौखिक विधि को अपनाया गया था।
  3. वैदिक तथा बौद्ध शिक्षा-प्रणालियों में समान रूप में छात्रों को दिनचर्या तथा सामान्य जीवन के | नियमों का पालन करना पड़ता था।
  4. दोनों ही शिक्षा प्रणालियों में अनुशासन की गम्भीर समस्या नहीं थी तथा अनुशासन बनाये रखने | के लिए कठोर या शारीरिक दण्ड का प्रावधान नहीं था।
  5. दोनों शिक्षा-प्रणालियाँ धर्म-प्रधान थीं अर्थात् शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक एवं नैतिक मूल्यों को समुचित महत्त्व दिया गया था।
  6. दोनों ही शिक्षा-प्रणालियों में शैक्षिक-प्रक्रिया में कुछ संस्कारों को विशेष महत्त्व दिया गया था।
  7. दोनों ही शैक्षिक व्यवस्थाओं में शिक्षा पूर्ण रूप से निःशुल्क थी अर्थात् शिक्षा ग्रहण करने के लिए किसी प्रकार का शुल्क देने का प्रावधान नहीं था।
  8. किसी भी शिक्षा-प्रणाली का मूल्यांकन करते समय गुरु-शिष्य सम्बन्धों को अवश्य ध्यान में रखा जाता है। वैदिक शिक्षा तथा बौद्ध-शिक्षा के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि इन दोनों शिक्षा प्रणालियों में गुरु-शिष्य सम्बन्ध बहुत ही मधुर, स्नेहपूर्ण, पवित्र तथा पारस्परिक व कर्तव्यों पर आधारित थे। यह समानता विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
  9. ये दोनों ही शिक्षा-प्रणालियाँ विभिन्न निर्धारित नियमों द्वारा परिचालित होती थीं। शिक्षा प्रारम्भ | करने की आयु शिक्षा की अवधि आदि पूर्ण रूप से नियमित तथा निश्चित थी।
  10. वैदिक शिक्षा तथा बौद्ध शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत शैक्षिक वातावरण सम्बन्धी समानता थी। गुरुकुल तथा बौद्ध मठ सामान्य रूप से गाँव या नगर से कुछ दूर प्राकृतिक रमणीक वातावरण में ही स्थापित किये जाते थे।
  11. वैदिक शिक्षा तथा बौद्ध-शिक्षा में समान रूप से छात्रों द्वारा सादा तथा सरल जीवन व्यतीत किया जाता था तथा सदाचार को विशेष महत्त्व दिया जाता था। व्यवहार में सादा जीवन उच्च-विचार के आदर्श को अपनाया जाता था।

वैदिक तथा बौद्ध शिक्षा की असमानताएँ
वैदिक तथा बौद्ध शिक्षा प्रणालियों में विद्यमान असमानताओं का सामान्य विवरण निम्नवर्णित है|

  1. वैदिक काल में शिक्षा की व्यवस्था मुख्य रूप से गुरुकुलों में होती थी, जबकि बौद्धकाल में यह
    व्यवस्था बौद्ध-मठों एवं विहारों में होती थी। वैदिक काल में सामान्य विद्यालय नहीं थे, परन्तु | बौद्धकाल में इस प्रकार के विद्यालय स्थापित हो गये थे।
  2. “वैदिक काल में शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी, जबकि बौद्धकाल में शिक्षा का माध्यम पालि | भाषा तथा कुछ क्षेत्रीय भाषाएँ थीं।।
  3. वैदिक काल में शिक्षा प्रदान करने का कार्य ब्राह्मण करते थे, जबकि बौद्धकाल में ऐसा बन्धन नहीं था। किसी भी जाति का योग्य व्यक्ति शिक्षा प्रदान कर सकता था।
  4. वैदिक काल में शिक्षा का स्वरूप व्यक्तिगत एवं पारिवारिक था, जबकि बौद्धकाल में यह स्वरूप । सामूहिक एवं संस्थागत था।
  5. वैदिक काल में केवल सवर्णो को शिक्षा प्रदान की जाती थी, जबकि बौद्धकाल में किसी प्रकार का जातिगत भेदभाव नहीं था।
  6. वैदिक काल में छात्रों का जीवन अधिक कठोर एवं तपोमय था, जबकि बौद्धकाल में यह कठोरता घट गयी।
  7. वैदिक काल में शिक्षा अनिवार्य रूप से शिक्षके-केन्द्रित थी, जबकि बौद्धकाल में छात्रों को भी कुछ स्वतन्त्रता एवं अधिकार प्राप्त थे।
  8. वैदिक काल में वैदिक धर्म, दर्शन एवं साहित्य की शिक्षा दी जाती थी परन्तु बौद्ध-शिक्षा के अन्तर्गत बौद्ध धर्म एवं दर्शन को शिक्षा के पाठ्यक्रम में अधिक महत्त्व दिया जाता था।
  9.  वैदिककालीन प्रायः सभी शिक्षण-संस्थाओं में एकतन्त्रवादी सत्ता-व्यवस्था का बोलबाला था, परन्तु बौद्धकाल में प्राय: सभी शिक्षण संस्थाओं में जनतान्त्रिक सत्ता-व्यवस्था को प्राथमिकता दी जाती थी।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
बौद्धकालीन शिक्षा में गुरु-शिष्य सम्बन्धों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
डॉ० ए०एस० अल्तेकर ने लिखा है, “गुरु-शिष्य के बीच पिता-पुत्र का सम्बन्ध होता था। वे परस्पर श्रद्धा, विश्वास और स्नेह से बंधे रहते थे।”
गुरु के प्रति, भक्ति और प्रेम व्यापक एवं सर्वमान्य था। गुरु भी शिष्यों को सही मार्ग पर ले जाता था।
1. गुरु का कर्तव्य-गुरु का लक्ष्य हर छात्र को धर्म, नैतिकता, आध्यात्मिकता एवं बौद्धिकता प्रदान करना होता था। इस उत्तरदायित्व को वह भली प्रकार से वहन करता था। गुरु छात्र की सभी आवश्यकताओं को पूरी करता था। शिष्यों को आगे बढ़ाना, उनकी शंकाओं को दूर करना, उनकी रुचि के अनुकूल विषयों का ज्ञान देना, उन्हें जाग्रत एवं जिज्ञासु करना, संघ के जीवन के लिए तैयार करना, नियम न मानने के कारण दण्ड देना, सुधास्ना तथा पुनः सही मार्ग पर छात्रों को लाना गुरु का ही काम था।

गुरु छोटी-छोटी कक्षाओं में शिष्यों को बाँटकर शिक्षा देता था और व्यक्तिगत रूप से उन पर ध्यान रखता था। पढ़ाए गए पाठ की रोज जाँच करता था। पुराने पाठ के याद कर लेने के बाद ही नए पाठ का ज्ञान दिया जाता था। छात्र को उसकी शक्ति एवं क्षमता के अनुरूप शिक्षा दी जाती थी। वार्षिक परीक्षा नहीं होती थी। सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने पर शिक्षा पूरी समझी जाती थी। शिक्षा देने का पूरा भारे गुरु लेता था। गुरु शिष्यों का बौद्धिक, शारीरिक एवं धार्मिक विकास करता था।

2.शिष्य का कर्तव्य-प्रत्येक विद्यार्थी का कर्तव्य था नैतिक एवं ब्रह्मचर्यपूर्ण जीवन बिताना, संघ के नियमों एवं गुरु के आदेशों का पालन करना, गुरु की सेवा में लगे रहना, भोजन एवं आचरण की दृष्टि से शुद्ध-सरल जीवन जीना, स्वाध्याय में लगे रहना, मानवीय गुणों का विकास करना, सत्य का पालन, हिंसा न करना, आमोद-प्रमोद व मनोरंजन से दूर रहना, गुरु के साथ शास्त्रार्थ करना, ज्ञान की खोज में भ्रमण करना, समाज को दीक्षित करने के लिए प्रयत्न करना, समाज सेवा आदि। इस प्रकार, गुरु के आदर्शों, आदेशों और आचरण का अनुसरण करके शिष्य भी सिद्ध हो जाता था और उसे सिद्धि बिहारक’ की उपाधि मिलती थी।
इस काल में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध आदर्शमय, त्यागमय एवं कर्त्तव्यमय होता था, परन्तु यह सम्बन्ध शिक्षा काल तक ही सीमित रहता था। निर्धन छात्र गुरु की विशिष्ट सेवा करता था। वह गुरु के दैनिक कार्यों में सुहयोग देता था। बौद्धग्रन्थ महावग्गा में गुरु-शिष्य के सम्बन्ध में विशद् वर्णन दिया गया है।

प्रश्न 2
बौद्धकालीन शिक्षा के पाठ्यक्रम का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा का पाठ्यक्रम प्रारम्भिक, उच्च, औद्योगिक और व्यावसायिक वर्गों में बँटा हुआ था

  1. प्रारम्भिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में साधारण लिखना-पढ़ना, गणित, पंच विद्या (शब्द विद्या, शिल्प विद्या, चिकित्सा विद्या, हेतु विद्या व अध्यात्म विद्या) सम्मिलित थे।
  2. उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक रूप से प्रायः सभी विषय पढ़ाए जाते थे; यथा–धर्म, भाषा, इतिहास, भूगोल, ज्योतिष, राजनीति, न्याय, शिल्प, कला प्रशासन आदि।
  3. औद्योगिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में केवल कला-कौशल और व्यावसायिक शिक्षा में केवल व्यवसाय उद्योग विषय रखे गए थे। इस प्रकार बौद्धकालीन शिक्षा के पाठ्यक्रम में चार बातें प्रमुख थीं
    •  धार्मिक शिक्षा–बौद्ध धर्म के ग्रन्थ-त्रिपिटक-सुत्त पिटक, विनय पिटक व अभिधम्म पिटक का अध्यय
    •  हिन्दू दर्शन–वेद, पुराण, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द, सांख्य, योग, न्याय वैशेषिक आदि का अध्ययन।
    • भाषाएँ–पालि, संस्कृत, तिब्बती, चीनी आदि भाषाओं का अध्ययन।
    • विज्ञान व कला-विज्ञान, चिकित्सा, शिल्प, तर्कशास्त्र, विधिशास्त्र तथा कला के विषयों का अध्ययन।

मिलिन्दपन्हो और अन्य बौद्ध ग्रन्थों में आखेट विद्या, धनुर्विद्या, जादू, सैन्य विज्ञान, प्रकृति अध्ययन, लेखा विज्ञान, मुद्रा विज्ञान, शल्यशास्त्र, अस्त्र विज्ञान आदि विषयों का भी उल्लेख मिलता है।

प्रश्न 3
बौद्धकालीन शिक्षा के प्रबन्ध का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा के कई स्तर थे-

  1. प्रारम्भिक शिक्षा,
  2. उच्च शिक्षा,
  3. व्यावसायिक शिक्षा,
  4. ललित कलाओं की शिक्षा। स्त्री-शिक्षा की भी समुचित व्यवस्था थी। विद्यालय, विश्वविद्यालय तथा शिक्षा केन्द्रों की भी व्यवस्था की गई थी। इसी प्रकार सभी वर्गों तथा जातियों के लिए जनसाधारण शिक्षा का भी प्रबन्ध था।

शिक्षा के लिए आर्थिक व्यवस्था समाज के द्वारा की जाती थी। शासन, नगर श्रेष्ठ (सेठ) व अन्य धनी लोग धन तथा सम्पत्ति देकर शिक्षा की व्यवस्था करते थे, परन्तु शैक्षिक प्रबन्ध में इन्हें कोई अधिकार प्राप्त नहीं था। अधिकांश विद्यार्थी नि:शुल्क शिक्षा प्राप्त करते थे। कुछ शिक्षा केन्द्रों में शिक्षा शुल्क भी देना पड़ता था। भोजन और ओवास व्यवस्था छात्रावासों में होती थी।

इस काल में शैक्षिक व्यवस्था मठाधीश या विहार के प्रधान के हाथ में थी। उसी के अधीन सभी भिक्षु. होते थे, जो धार्मिक और लौकिक शिक्षा के लिए उत्तरदायी होते थे। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में प्रवेश देने का, शिक्षा की अघधि, शिक्षा के सत्र, अध्ययन का समय, अवकाश आदि का पूरा अधिकार मठाधीश को होता था।

प्रशासन की व्यवस्था संघ संचालक द्वारा होती थी। उसके सहयोगी अन्य अध्यापक एवं विद्यार्थी भी होते थे। प्रशासन के संचालन में सहायता देने के लिए अनेक समितियाँ भी होती थीं।। शैक्षणिक समिति के कार्य थे—छात्रों का प्रवेश लेना, तत्सम्बन्धी नियम बनाना, पाठ्यक्रम तैयार करना, अध्यापन के लिए अध्यापक नियुक्त करना, परीक्षा लेना, प्रमाण-पत्र देना, पुस्तकालय का संचालन करना, पुस्तकें लिखवाना तथा उन्हें सुरक्षित रखना आदि।

प्रबन्ध समिति का कार्य था–अर्थ भार लेना, विद्यालय भवन बनवाना, विद्यालय की सामग्री की देखभाल करना, छात्रावास का प्रबन्ध करना; भोजन आदि की व्यवस्था करना, नौकरों की नियुक्ति करना, चिकित्सा का प्रबन्ध करना आदि प्रबन्ध समिति के कार्य थे।

प्रश्न 4
बौद्धकालीन शिक्षा में अपनाई जाने वाली मुख्य शिक्षा-विधियों का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर
बौद्ध काल में शिक्षण की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित थीं-

  1. शिक्षक द्वारा शिक्षण विधि-प्रतिदिन शिक्षक द्वारा प्रातः 7 बजे से 11 बजे तक और फिर 2 बजे से सायं 5 या 6 बजे तक शिक्षा दी जाती थी। पहले पुराने पाठ का स्मरण कराया जाता था, तत्पश्चात् नया पाठ पढ़ाया जाता था।
  2. प्रवचन या व्याख्यान विधि-शिक्षक अपनी इच्छानुसार विषय के ऊपर प्रवचन या व्याख्यान देता था। शिक्षक शुद्ध उच्चारण और कण्ठस्थलीकरण पर विशेष बल देता था।
  3. वाद-विवाद विधि-शिक्षक सत्यों को प्रमाणित करने के लिए वाद-विवाद और शास्त्रार्थ विधि का प्रयोग करते थे। इस विधि में सिद्धान्त, हेतु, उदाहरण, साम्य, विरोध, प्रत्यक्ष, अनुमान तथा निष्कर्ष या आगम प्रमाणों का प्रयोग किया जाता था।
  4. प्रश्नोत्तर विधि-शिक्षक छात्रों की शंकाओं का समाधान विषयों के स्पष्टीकरण और छात्रों में जिज्ञासा उत्पन्न करने के लिए प्रश्नोत्तर विधि का प्रयोग करते थे।
  5. मॉनीटोरियल विधि-कक्षा के कुशाग्र बुद्धि छात्र द्वारा या उच्च कक्षा के छात्रों द्वारा निम्न कक्षा के छात्रों को पढ़ाने का प्रबन्ध किय्य जाता था।
  6. पुस्तक अध्ययन विधि-सम्यक् ज्ञान पुस्तक में रहता था, अतएव पुस्तक अध्ययन की विधि अपनाई गई थी।
  7. सम्मेलन विधि-पूर्णिमा और प्रतिपदा के दिन संघ के सभी छात्र एवं अध्यापक एक साथ मिलते थे और वहीं ज्ञान-धर्म की चर्चा होती थी।
  8. निदिध्यासन विधि-धर्म एवं अध्यात्म के विषय के लिए यह विधि अपनाई जाती थी। इससे अन्तर्ज्ञान प्राप्त किया जाता था।
  9. देशाटन, भ्रमण और निरीक्षण विधि—छात्र विभिन्न स्थानों में भ्रमण व देशाटन करके ज्ञान प्राप्त करते थे और प्रकृति की विभिन्न वस्तुओं का निरीक्षण करते थे।
  10. व्यावसायिक व प्रयोगात्मक विधि-व्यावसायिक एवं औद्योगिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए छात्र कुशल कारीगरों की देख-रेख में रहता था और दक्षता तथा प्रवीणता का अर्जन करता था। वह स्वयं काम करता था और अन्य लोगों के काम करने के तरीके का अवलोकन भी करता था।

प्रश्न 5
आधुनिक भारतीय शिक्षा के लिए बौद्ध-शिक्षा की देन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
आधुनिक भारतीय शिक्षा के लिए बौद्ध-शिक्षा की देन बौद्धकालीन भारतीय शिक्षा की कुछ मौलिक विशेषताएँ थीं, जिनके कारण इस शिक्षा-प्रणाली ने सम्पूर्ण भारतीय शिक्षा-व्यवस्था पर विशेष प्रभाव डाला। बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली एवं व्यवस्था के कुछ तत्त्व ऐसे थे जिनका अनुकरण आगामी भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में भी किया जाता रहा तथा आज भी हमारी शिक्षा में उन्हें किसी-न-किसी रूप में देखा जा सकता है। इन तत्त्वों को बौद्धकालीन शिक्षा की आधुनिक भारतीय शिक्षा की देन माना जा सकता है। इन तत्त्वों या कारकों का सामान्य परिचय निम्नवर्णित है-

  1. आधुनिक युर्ग में सब कहीं पाये जाने वाले सामान्य विद्यालय मूल रूप से बौद्धकालीन शिक्षा-प्रणाली की ही देन है, क्योंकि सर्वप्रथम बौद्धकाल में ही सामान्य विद्यालय स्थापित हुए थे।
  2. वर्तमान समय में सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था है, इसे प्रारम्भ करने का श्रेय भी बौद्धकालीन शिक्षा-प्रणाली को ही था।
  3. आधुनिक युग में स्त्री-शिक्षा को विशेष आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है। इस अवधारणा को भी सर्वप्रथम बौद्धकालीन शिक्षा-प्रणाली में ही प्रस्तुत किया गया था; अतः इसे भी बौद्ध-शिक्षा की ही देन माना जाता है।
  4. आधुनिक युग में छात्रों के सुचारु शारीरिक विकास के लिए विद्यालयों में खेल-कूद तथा शारीरिक व्यायाम की विशेष व्यवस्था की जाती है। इस व्यवस्था को भी सर्वप्रथम बौद्धकालीन शिक्षा-व्यवस्था में ही लागू किया गया था; अत: इसे उसी की देन माना जाता है।
  5. वर्तमान समय में प्राविधिक तथा विज्ञान सम्बन्धी शिक्षा को विशेष महत्त्व दिया जाता है। इस प्रकार की शिक्षा का प्रचलन भी सर्वप्रथम बौद्धकाल में ही हुआ था; अतः वर्तमान शिक्षा के लिए यह बौद्धकालीन शिक्षा की ही देन माना जा सकता है।
  6. बौद्धकालीन शिक्षा की एक अन्य सराहनीय देन है–शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक शिक्षा तथा लाभप्रद विषयों को सम्मिलित करना। आज भी इस वर्ग की शिक्षा को अति आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
  7. आधुनिक युग में शिक्षा के क्षेत्र में लौकिक तथा सामान्य विषयों के समावेश को विशेष प्राथमिकता दी जाती है। इस प्रचलन को भी बौद्धकाल में ही प्रारम्भ किया गया था।
  8. बौद्धकालीन शिक्षा की एक देन शिक्षा के क्षेत्र में सामूहिक प्रणाली को अपनाना, शिक्षण के लिए। बहु-शिक्षक व्यवस्था को लागू करना भी है। आज भी इन व्यबस्थाओं को अपनाया जा रहा है।
  9. बौद्धकालीन शिक्षा की एक देन शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न स्तरों की शिक्षा की अवधि को निर्धारित करना भी रही है।
  10. आज प्रत्येक शिक्षण संस्था के सँभी नियम पूर्व-निर्धारित तथा निश्चित होते हैं। शिक्षण संस्थाओं में इस व्यवस्था को प्रारम्भ करने का श्रेय बौद्धकालीन शिक्षा को ही है; अत: इसे भी उसकी देन माना जा सकता है।
  11. आज शिक्षा के क्षेत्र में अवसरों की समानता की अवधारणा को आवश्यक माना जा रहा है। मौलिक रूप से यह अवधारणा बौद्ध शिक्षा की ही देन है।
  12. आज अधिकांश विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने वाले बालक अपने घरों में अपने परिवार के साथ
    ही रहते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में इस व्यवस्था को प्रारम्भ करने का श्रेय बौद्ध शिक्षा-प्रणाली को ही | है, अत: इस व्यवस्था को भी बौद्ध शिक्षा की देन ही स्वीकार किया जाता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
बुद्ध के समय में पबज्जा (प्रव्रज्या) संस्कार कैसे मनाया जाता था?
उत्तर
प्रव्रज्या संस्कार’ बौद्ध शिक्षा प्रणाली की प्रमुख विशेषता थी। यह संस्कार बालक की शिक्षा प्रारम्भ करने के अवसर पर आयोजित किया जाता था। ‘पबज्जा’ का शाब्दिक अर्थ है-‘बाहर जाना। अत: यह संस्कार,बालक द्वारा अपना घर छोड़कर शिक्षा ग्रहण के लिए किसी बौद्ध मठ के लिए गमन करने का द्योतक है। | पबज्जा संस्कार का विवरण ‘विनयपिटक’ में दिया गया है। इसके अनुसार, इस अवसर पर बालक सिर के बाल मुंडवाकर एवं पीले वस्त्र धारण कर मठ के भिक्षुओं के सम्मुख एक श्लोक का तीन बार पाठ करता था। यह श्लोकोथा “बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि” इस प्रकार विधिवत् शपथ ग्रहण करने के उपरान्त बालक को प्रधान भिक्षु द्वारा सामान्य उपदेश दिया जाता था, जिसमें उसे मुख्य रूप से दस आदेश दिए जाते थे। उदाहरणत: चोरी न करना, जीवहत्या न करना, असत्य न बोलना अशुद्ध आचरण नहीं करना आदि।

वस्तुतः ये आदेश विद्यार्थियों के लिए आचार-संहिता के समान थे। इस उपदेश के उपरान्त बालक को मठ की सदस्यता प्राप्त हो जाती थी तथा उसे नव-शिष्य, श्रमण या सामनेर कहा जाता था।

प्रश्न 2
बौद्धकालीन शिक्षा में अनुशासन की क्या व्यवस्था थी ?
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा में छात्रों के लिए अनुशासित रहना अति आवश्यक था। प्रत्येक छात्र को विद्यालय के नियमों तथा रहन-सहन एवं खान-पान के नियमों का पालन करना पड़ता था। नियम और अनुशासन भंग तथा दुराचरण पर गुरु विद्यार्थी को दण्ड देता था, विद्यालय से निकाल देता था तथा विद्याध्ययन से कुछ समय के लिए वंचित कर देता था। छात्रों के प्रत्येक अपराध की सूचना गुरु द्वारा संघ को दी जाती थी और संघ की ‘प्रतिभारत’ सभा द्वारा दण्ड दिया जाता था। इसमें विद्यार्थी अपना अपराध सभी के सामने स्वीकार करता था। अनुशासनहीनता बढ़ने पर सभी छात्र दण्ड पाते थे।

प्रश्न 3
बौद्धकाल में स्त्री-शिक्षा की क्या व्यवस्था थी ?
उत्तर
बौद्धकाल में स्त्रियों अर्थात् बालिकाओं को शिक्षा दिए जाने की सुचारु व्यवस्था थी। इसका प्रमाण है कि इस काल में अनेक विदुषी स्त्रियों का उल्लेख हुआ है; जैसे–अनुपमा, सुमेधा, विजयंका तथा शुभा। बौद्धकाल में अनेक स्त्रियों ने बौद्ध-धर्म के प्रचार एवं प्रसार में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। परन्तु यह भी सत्य है कि बौद्धकाल में केवल उच्च वर्ग के परिवारों की स्त्रियाँ ही उत्तम शिक्षा प्राप्त कर पाती थीं। वास्तव में बौद्ध मठों में प्रारम्भ में स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध था। अत: बालिकाओं की शिक्षा की कोई सार्वजनिक व्यवस्था नहीं थी।

प्रश्न 4
बौद्धकालीन शिक्षा-व्यवस्था में समाज के किन वर्गों के व्यक्तियों को शिक्षा प्राप्त करने, का अधिकार प्राप्त नहीं था ?
उत्तर
बौद्ध मान्यताओं के अनुसार वर्ण या जातिगत भेदभाव की कोई महत्त्व नहीं था; अतः इस आधार पर समाज के किसी वर्ग को शिक्षा के अधिकार से वंचित नहीं किया गया था। सभी वर्गों एवं जातियों के बालक मठों में एक-साथ शिक्षा प्राप्त केरते थे। परन्तु बौद्धकालीन शैक्षिक नियमों के अनुसार चाण्डालों को शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार से वंचित स्ख़ा गया था। चाण्डालों के अतिरिक्त अन्य दस आधारों पर भी किसी व्यक्ति को शिक्षा प्राप्ति के अधिकार से वंचित किया जा सकता था। ये आधार थे-

  1. नपुंसक व्यक्ति,
  2. दास अथवा ऋणग्रस्त व्यक्ति,
  3. राजा की नौकरी में संलग्न व्यक्ति,
  4. डाकू व्यक्ति,
  5. कारावास से भागा हुआ व्यक्ति,
  6. अंग-भंग व्यक्ति,
  7. विकृत शरीर वाला व्यक्ति,
  8. राज्य द्वारा दण्डित व्यक्ति,
  9. जिस व्यक्ति को माता-पिता ने शिक्षा प्राप्त करने की आज्ञा न दी हो,
  10. क्षय, कोढ़ तथा खुजली आदि संक्रामक रोगों से पीड़ित व्यक्ति।

प्रश्न 5
बौद्धकालीन शिक्षा के मुख्य गुणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा के निम्नलिखित मुख्य गुणों का उल्लेख किया जा सकता है

  1. प्राथमिक एवं उच्च स्तर पर सभी प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था होना।
  2. जाति-पाँति के भेदभाव को दूर कर धनी व निर्धन, पुरुष व स्त्री सभी लोगों के लिए शिक्षा का प्रबन्ध होना।
  3. विभिन्न प्रकार के विद्यालयों, विश्वविद्यालयों तथा शिक्षा केन्द्रों की स्थापना होना।
  4. जीवनोपयोगी, ज्ञानात्मक एवं कौशलात्मक विषयों को संगठित करना।
  5. संयम, नियम-पालन, अनुशासन व आदर्शों पर ध्यान देना।
  6. पाठ्य-पुस्तके,रचना, सुरक्षा तथा पुस्तकालयों का विकास करना।
  7. स्त्री शिक्षा, व्यवसायिक, शिल्प एवं ललित कलाओं की शिक्षा का विकास करना।
  8. प्राचीन आधार पर होते हुए भी नवीन शिक्षा की ओर उन्मुख होना।
  9. सामाजिक एवं सामुदायिक जीवन की प्रगति पर बल देना।
  10. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय भावना से छात्रों का नैतिक, धार्मिक, ज्ञानात्मक, आर्थिक एवं राजनीतिक विकास करना।

प्रश्न 6
बौद्धकालीन शिक्षा के मुख्य दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा में निम्नलिखित दोष थे

  1. धार्मिक ज्ञान पर विशेष बल देना।
  2. तकनीकी कौशल के विषयों की शिक्षा का अभाव होना।
  3. सैनिक तथा शारीरिक शिक्षा का अभाव होना।
  4. समाज की ओर ध्यान होते हुए भी निवृत्ति मार्ग का अनुसरण करना।
  5. शिक्षा में शारीरिक श्रम के महत्त्व की उपेक्षा होना।
  6. शिक्षकों तथा छात्रों में अनुशासन-संयम के नियमों में शिथिलता होना।
  7. अनाचार फैलने से स्त्री शिक्षा का विकास अवरुद्ध होना।
  8. लोकतन्त्र के नाम पर स्वेच्छाचारिता का प्रवेश और विकास होना।
  9. जनसाधारणका दृष्टिकोण संकुचित और दूषित हो जाना।
  10. शिक्षा और जीवन दोनों की प्रगति रुक-सी गई।

प्रश्न 7
‘शरणत्रयी’ से आप क्या समझते हैं ?
उतर
बौद्धकालीन शिक्षा की मान्यताओं के अनुसार जब बालक की शिक्षा प्रारम्भ की जाती थी तब बालक बौद्ध मठ की शरण में जाता था। इस अवसर पर बालक को एक श्लोक का उच्चारण करना पड़ता था—“बुद्ध शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि।” इस प्रचलन या परम्परा को ही ‘शरणत्रयी’ के रूप में जाना जाता था।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली के नियमानुसार बालक की शिक्षा आरम्भं करते समय किस संस्कार को आयोजित किया जाता था ?
उत्तर
बालक की शिक्षा को एम्भ करते समय प्रव्रज्या संस्कार आयोजित किया जाता था।

प्रश्न 2
बौद्धकालीन शिक्षा में प्राथमिक शिक्षा का माध्यम कौन-सी भाषा थी ?
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा में पालि भाषा के माध्यम से प्राथमिक शिक्षा प्रदान की जाती थी।

प्रश्न 3
बौद्धकाल में मुख्य रूप से शिक्षण की किस प्रणाली को अपनाया जाता था ?
उत्तर
बौद्धकाल में मुख्य रूप से शिक्षण की मौखिक प्रणाली को अपनाया जाता था।

प्रश्न 4
बौद्धकालीन शिक्षा के दो मुख्य स्तर कौन-कौन-से थे ?
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा के दो मुख्य स्तर थे—प्राथमिक शिक्षा तथा उच्च शिक्षा।

प्रश्न 5
बौद्धकालीन सामान्य शिक्षण संस्थानों को किस नाम से जाना जाता था?
उत्तर
बौद्धकालीन सामान्य शिक्षण संस्थाओं को बौद्ध मठ के नाम से जाना जाता था।

प्रश्न 6
बौद्धकालीन शिक्षा का परम उद्देश्य क्या स्वीकार किया गया था ?
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा को परम उद्देश्य निर्वाण की प्राप्ति माना गया था।

प्रश्न 7
आलोचकों के अनुसार बौद्धकालीन शिक्षा में जीवन के किस पक्ष को समुचित महत्त्व प्रदान नहीं किया गया था ?
उत्तर
आलोचकों के अनुसार बौद्धकालीन शिक्षा में जीवन के लौकिक पक्ष को समुचित महत्त्व प्रदान नहीं किया गया था।

प्रश्न 8
बौद्धकाल में बालक की शिक्षा के पूर्ण होने के अवसर पर किस संस्कार को सम्पन्न किया जाता था ?
उत्तर
बौद्धकाल में बालक की शिक्षा के पूर्ण होने के अवसर पर उपसम्पदा संस्कार सम्पन्न किया जाता था।

प्रश्न 9
बौद्धकालीन शिक्षा-प्रणाली में किस वर्ग के व्यक्तियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया था ?
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा-प्रणाली में चाण्डाल वर्ग के व्यक्तियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया था।

प्रश्न 10
बौद्ध काल में स्थापित किन्हीं दो प्रमुख विश्वविद्यालयों के नाम लिखिए।
उत्तर
1. नालन्दा विश्वविद्यालय तथा
2. विक्रमशिला विश्वविद्यालय।

प्रश्न 11
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. बौद्धकालीन शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थी को आत्मनिर्भर तथा स्वावलम्बी बनाना था।
  2. बौद्ध काल में शिक्षा का माध्यम जनसाधारण की भाषा संस्कृत थी।
  3. बौद्ध काल में शिक्षा के क्षेत्र में शारीरिक विकास तथा सैन्य प्रशिक्षण को विशेष महत्त्व दिया जाता था।
  4. बौद्ध काल में प्राथमिक शिक्षा के मुख्य केन्द्र बौद्ध मठ थे।
  5. बौद्ध काल में शिक्षा का मुख्य स्वरूप लिखित ही था।

उत्तर

  1. असत्य,
  2. असत्य,
  3. असत्य,
  4. सत्य,
  5. असत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
बौद्ध धर्म के प्रवर्तक कौम थे ?
(क) महावीर स्वामी
(ख) गौतम बुद्ध
(ग) शंकराचार्य
(घ) अश्वघोष
उत्तर
(ख) गौतम बुद्ध

प्रश्न 2
“बौद्ध शिक्षा प्राचीन हिन्दू या ब्राह्मण शिक्षा-प्रणाली का केवल एक रूप थी।” यह कथन किसका है ?
(क) ए०एस० अल्तेकर
(ख) आर०के० मुकर्जी
(ग) डी०पी० मुकर्जी
(घ) कीथ
उत्तर
(ख)आर०के० मुकर्जी

प्रश्न 3
बौद्ध शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य था
(क) चरित्र-निर्माण
(ख) व्यक्तित्व का विकास
(ग) जीविकोपार्जन
(घ) निर्वाण-प्राप्ति
उत्तर
(घ) निर्वाण-प्राप्ति

प्रश्न 4
बौद्ध शिक्षा का ज्ञान किस लेखक के यात्रा-विवरण से होता है?
(क) सुंमाचीन
(ख) फाह्याने
(ग) ह्वेनसाँग
(घ) इत्सिग
उत्तर
(ग) ह्वेनसाँग

प्रश्न 5
बौद्ध काल में प्राथमिक शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे
(क) देव मन्दिर
(ख) बौद्ध मठ
(ग) बौद्ध विहार
(घ) बौद्ध संघाराम
उत्तर
(ख)बौद्ध मठ

प्रश्न 6
बौद्ध काल में शिक्षा आरम्भ होने की आयु थी
(क) 5 वर्ष
(ख) 7 वर्ष
(ग) 8 वर्ष
(घ) 12 वर्ष
उत्तर
(ग) 8 वर्ष

प्रश्न 7
बौद्ध काल में शिक्षा प्रारम्भ का संस्कार था
(क) उपनयन
(ख) उपसम्पदा
(ग) पबज्जा
(घ) समावर्तन
उत्तर
(ग) पबज्जा

प्रश्न 8
बौद्ध काल में शिक्षा का माध्यम कौन-सी भाषा थी? बौद्ध मठों एवं विहारों में शिक्षा का माध्यम कौन-सी भाषा थी?
(क) पालि
(ख) प्राकृत
(ग) संस्कृत
(घ) मगधी
उत्तर
(क) पालि

प्रश्न 9
बौद्ध काल में शिक्षा का विश्वप्रसिद्ध केन्द्र था
(क) जौनपुर
(ख) उज्जैन
(ग) नालन्दा
(घ) अमरावती
उत्तर
(ग) नालन्दा

प्रश्न 10
बौद्ध काल के किस ग्रन्थ में उस समय प्रचलित व्यावसायिक शिक्षा के 19 विषयों का उल्लेख मिलता है
(क) बौद्धचरित
(ख) विनयपिटक
(ग) ललितविस्तर
(घ) मिलिन्दपन्हो
उत्तर
(घ) मिलिन्दन्हो

प्रश्न 11
विक्रमशिला विश्वविद्यालेस की स्थापना हुई थी
(क) बौद्ध काल में
(ख) वैदिक काल में
(ग) मुस्लिम काल में
(घ) ब्रिटिश काल में
उत्तर
(क) बौद्ध काल में

प्रश्न 12
नालन्दा विश्वविद्यालय वर्तमान समय में किस नगर के निकट स्थित है?
(क) पटना
(ख) राँची
(ग) आगरा
(घ) कोलकाता
उत्तर
(क) पटना

प्रश्न 13
प्रव्रज्या संस्कार का सम्बन्ध है
(क) वैदिक शिक्षा से
(ख) बौद्ध शिक्षा से.
(ग) मुस्लिम शिक्षा से
(घ) ब्रिटिश शिक्षा से
उत्तर
(ख) बौद्ध शिक्षा से

प्रश्न 14
बौद्रकालीन शिक्षा में किस संस्कार के पश्चात् बालक को ‘श्रमण’ कहा जाता था?
(क) पबज्जा
(ख) उपसम्पदा
(ग) उपनयन
(घ) समावर्तन
उत्तर
(ख) उपसम्पदा

प्रश्न 15
बौद्ध कौल में छात्रों को किस संस्कार के बाद मठों में शिक्षा ग्रहण करने हेतु प्रवेश
दिया जाता था ?
(क) उपनयन
(ख) प्रव्रज्या
(ग) शरणत्रयी
(घ) बिस्मिल्लाह
उत्तर
(ख) प्रव्रज्या

प्रश्न 16
भारत का सर्वप्रथम विश्वविद्यालय कौन-सा था ?
(क) तक्षशिला
(ख) नालन्दा
(ग) वल्लभी –
(घ) विक्रमशिला
उत्तर
(ख) नालन्दा

प्रश्न 17
बौद्ध काल में ‘महोपाध्याय किसे पढाते थे?
(क) सामनेर
(ख) गृहस्थ
(ग) शिक्षक
(घ) धम्म
उत्तर
(घ) धम्म

प्रश्न 18
मठ व्यवस्था महत्त्वपूर्ण तत्त्व था
(क) वैदिक शिक्षा का
(ख) इस्लाम शिक्षा को
(ग) जैन शिक्षा का
(घ) बौद्ध शिक्षा का
उत्तर
(घ) बौद्ध शिक्षा का

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi नियुक्ति आवेदन-पत्र

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi नियुक्ति आवेदन-पत्र are part of UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi नियुक्ति आवेदन-पत्र.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name नियुक्ति आवेदन-पत्र
Number of Questions 3
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi नियुक्ति आवेदन-पत्र

कुछ महत्त्वपूर्ण बातें

  1. अन्य पत्रों के समान आवेदन तथा प्रार्थना-पत्र में पत्र-लेखक अपना नाम-पतादि प्रारम्भ में नहीं लिखता और न ही प्रारम्भ में दिनांक लिखा जाता है। आवेदक अपना पता पत्र-समाप्ति पर अन्त में हस्ताक्षर के नीचे दायीं ओर लिखता है और बायीं ओर दिनांक लिखा जाता है।
  2. इन पत्रों का प्रारम्भ प्रथम पंक्ति में बायीं ओर कोने में सेवा में’ या ‘प्रति’ लिखने से होता है।
  3. ‘सेवा में लिखकर दूसरी पंक्ति में बायीं ओर से कुछ स्थान छोड़कर उद्दिष्ट अधिकारी का पदनाम और पता लिखा जाता है।
  4. सम्बोधन के रूप में मान्यवर/मान्य महोदय/महोदया लिखना चाहिए।
  5. निवेदन प्रारम्भ करते हुए प्रारम्भिक विनय-वाक्य लिखना चाहिए; जैसे—सादर निवेदन है/सविनय निवेदन है आदि।
  6. आवेदन का सम्पूर्ण कथ्य लिखने के उपरान्त शिष्टाचार के लिए सधन्यवाद लिखना चाहिए।
  7. स्वनिर्देश के रूप में भवदीय/विनीत/प्रार्थी लिखना चाहिए। स्वनिर्देश के नीचे हस्ताक्षर और पूरा पता देना चाहिए।
  8. अन्त में संलग्न प्रपत्रों की सूची देनी चाहिए। आवेदन-पत्र की दो शैलियाँ होती हैं—
    • प्रपत्र शैली तथा
    • पत्र शैली। दोनों ही शैली के उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं।

प्रश्न 1.
लिपिक पद हेतु हिन्दी में प्रपत्र शैली में एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2009, 11]
या
अपनी शैक्षिक योग्यताओं का उल्लेख करते हुए किसी उद्योग प्रबन्धक को लिपिक के पद पर नियुक्ति हेतु एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2018]
या
अपने जनपद के जिलाधिकारी को उनके कार्यालय में रिक्त लिपिक पद पर नियुक्ति पाने के लिए एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2009, 13]
या
प्रधानाचार्य/प्रबन्धक महोदय को लिपिक पद पर नियुक्ति हेतु एक प्रार्थना-पत्र लिखिए। [2012, 13, 14, 15, 17]
या
स्थानीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में लिपिक के रिक्त पद पर नियुक्ति हेतु विद्यालय के प्रबन्धक महोदय को एक प्रार्थना-पत्र लिखिए। [2016, 18]
उत्तर
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9. शुल्क विवरण-पोस्टल आर्डर संलग्न (संख्या 05921, दिनांक : ………………………………) मैं घोषणा करती हूँ कि आवेदित पद के लिए सभी निर्धारित अर्हताएँ मुझमें हैं। मैंने जो सूचनाएँ इस आवेदन-पत्र में दी हैं, वे सही हैं। यदि इनमें से कोई भी जानकारी गलत पायी जाये तो मेरी उम्मीदवारी निरस्त कर दी जाये।।

10. संलग्नकों की संख्या : तीन भवदीया
दिनांक : 14 मई, 2014 हस्ताक्षर

[ नाम : …………………………….]

प्रश्न 2.
सहायक अध्यापक पद के लिए पत्र शैली में शिक्षा-निदेशक के नाम एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2014]
या
किसी विद्यालय के प्रबन्धक के नाम हिन्दी प्रवक्ता पद हेतु अपनी नियुक्ति के लिए आवेदन-पत्र लिखिए। [2013]
या
अपने जनपद के किसी विद्यालय में शिक्षक के रूप में कार्य करने के लिए अपना आवेदन-पत्र विद्यालय-प्रबन्धक को प्रस्तुत कीजिए। [2015]
उत्तर
सेवा में,
शिक्षा निदेशक,
लखनऊ।

विषय-सहायक अध्यापक पद के लिए आवेदन-पत्र महोदय,

दिनांक 11 मार्च, 2010 के ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशित आपके विज्ञापन के उत्तर में मैं हिन्दी में सहायक अध्यापक पद के लिए आवेदन कर रहा हूँ। मेरी शैक्षणिक योग्यताओं एवं अन्य जानकारियों का विवरण इस प्रकार है-
UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi नियुक्ति आवेदन-पत्र img 3
अन्य गतिविधियाँ-विद्यालय तथा महाविद्यालय स्तर पर हुई वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में प्रथम पुरस्कार विजेता, कुछ एक सांस्कृतिक कार्यक्रमों के सफल संचालन का अनुभव।
स्थायी पता-15A, सी-ब्लॉक, शास्त्रीनगर, मेरठ।
मेरी अध्यापन में अत्यधिक रुचि है। यदि आपने इस पद का उत्तरदायित्व मुझे सौंपा, तो मैं पूर्ण निष्ठा से उसका निर्वाह करूंगा तथा कभी शिकायत का अवसर नहीं दूंगा।
सेवा का अवसर प्रदान कर कृतार्थ करें।
धन्यवाद! भवदीय
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प्रश्न 3.
बेसिक शिक्षा अधिकारी को प्राइमरी शिक्षक के पद के लिए आवेदन-पत्र लिखिए। [2010]
या
समाचार-पत्र में दिये गये विज्ञापन के आधार पर सहायक अध्यापक पद पर नियुक्ति हेतु अपने जनपद के जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी को एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2013]
या
समाचार-पत्र में प्रकाशित विज्ञापन के आधार पर ग्राम पंचायत अधिकारी पद पर नियुक्ति हेतु अपने जनपद के जिला पंचायत राज अधिकारी को एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2014]
या
समाचार-पत्र में प्रकाशित विज्ञापन के आधार पर लेखपाल पद पर नियुक्ति हेतु अपने जनपद के जिला अधिकारी को एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2016]
उत्तर
सेवा में,
बेसिक शिक्षा अधिकारी,
मेरठ (उ० प्र०)

विषय-प्राइमरी शिक्षक के पद हेतु आवेदन-पत्र

महोदय,
आपके कार्यालय द्वारा कल दिनांक …………. को दैनिक जागरण’ में प्रकाशित विज्ञापन के प्रत्युत्तर में मैं अपना आवेदन-पत्र प्रस्तुत कर रही हूँ। मुझसे सम्बन्धित विवरण निम्नवत् है-
UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi नियुक्ति आवेदन-पत्र img 5
शैक्षणिक योग्यताएँ–
(क) 2002 ई० में उ० प्र० वोर्ड से 62% अंक लेकर हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण की।
(ख) 2004 ई० में उ० प्र० बोर्ड से 61% अंक लेकर इण्टरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण की।
(ग) 2006 ई० में दो वर्षीय बी० टी० सी० प्रशिक्षण कोर्स (उ० प्र०) से किया।
अनुभव-सितम्बर, 2006 से अब तक जनता विद्यालय, मेरठ में प्राथमिक शिक्षक के रूप में कार्य कर रहा हूँ।
आशा है कि आप सेवा का अवसर प्रदान कर कृतार्थ करेंगे।
दिनांक :…………………………. भवदीय
रूपेश कुमार
संलग्नक-सभी प्रमाण-पत्रों की सत्यापित प्रतिलिपियाँ व अनुभव प्रमाण की मूल प्रति।।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Liberty and Equality

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Liberty and Equality (स्वतन्त्रता और समानता) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Liberty and Equality (स्वतन्त्रता और समानता).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 3
Chapter Name Liberty and Equality (स्वतन्त्रता और समानता)
Number of Questions Solved 37
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Liberty and Equality (स्वतन्त्रता और समानता)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा इसके विभिन्न प्रकारों की व्याख्या कीजिए। [2010, 14, 16]
या
स्वतन्त्रता क्यों आवश्यक है? सकारात्मक स्वतन्त्रता तथा नकारात्मक स्वतन्त्रता की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए। [2012]
या
स्वतन्त्रता से आप क्या समझते हैं? नागरिकों को प्राप्त विभिन्न स्वतन्त्रताओं का उल्लेख कीजिए। [2014]
या
स्वतन्त्रता के विभिन्न प्रकारों का सविस्तार वर्णन कीजिए। [2007]
उत्तर
स्वतन्त्रता जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकार है। बर्स के अनुसार- “स्वतन्त्रता न केवल सभ्य जीवन का आधार है, वरन् सभ्यता का विकास भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर ही निर्भर करता है। स्वतन्त्रता मानव की सर्वप्रिय वस्तु है। व्यक्ति स्वभाव से स्वतन्त्रता चाहता है क्योंकि व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए स्वतन्त्रता सबसे आवश्यक तत्त्व है। मानव के समस्त अधिकारों में स्वतन्त्रता का अधिकार सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके अभाव में अन्य अधिकारों का उपयोग नहीं हो सकता है।

स्वतन्त्रता का अर्थ

स्वतन्त्रता का अर्थ निम्न दो रूपों में स्पष्ट किया जाता है-
1. स्वतन्त्रता का नकारात्मक अर्थ
‘स्वतन्त्रता’ शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘लिबर्टी’ (Liberty) शब्द का हिन्दी अनुवाद है। ‘लिबर्टी’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के लिबर’ (Liber) शब्द से हुई। ‘लिबर’ का अर्थ ‘बन्धनों का न होना होता है। अतः स्वतन्त्रता का शाब्दिक अर्थ ‘बन्धनों से मुक्ति’ है अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी बन्धन के अपनी इच्छानुसार सभी कार्यों को करने की सुविधा प्राप्त होना ही ‘स्वतन्त्रता है।
वस्तुतः स्वतन्त्रता का यह अर्थ अनुचित है क्योंकि यदि हम कहें कि कोई भी व्यक्ति किसी की हत्या करने के लिए स्वतन्त्र है, तो यह स्वतन्त्रता न होकर अराजकता है। इस दृष्टि से मैकेंजी ने ठीक ही लिखा है, “पूर्ण स्वतन्त्रता जंगली गधे की आवारागर्दी की स्वतन्त्रता है।”
इस सम्बन्ध में बार्कर (Barker) का मत है- “कुरूपता के अभाव को सौन्दर्य नहीं कहते, इसी प्रकार बन्धनों के अभाव को स्वतन्त्रता नहीं कहते, अपितु अवसरों की प्राप्ति को स्वतन्त्रता कहते हैं।”

2. स्वतन्त्रता का सकारात्मक अर्थ
स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ मनुष्य के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा तथा ऐसे बन्धनों का अभाव है, जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास में बाधक हों। स्वतन्त्रता के सकारात्मक पक्ष को स्पष्ट करते हुए ग्रीन ने लिखा है, “योग्य कार्य करने अथवा उसके उपयोग करने की सकारात्मक शक्ति को स्वतन्त्रता कहते हैं। इसी प्रकार सकारात्मक पक्ष के सम्बन्ध में लॉस्की का कथन है,
स्वतन्त्रता से अभिप्राय ऐसे वातावरण को बनाए रखना है, जिसमें कि व्यक्ति को अपना पूर्ण विकास करने का अवसर मिले। स्वतन्त्रता का उदय अधिकारों से होता है। स्वतन्त्रता पर विवेकपूर्ण प्रतिबन्ध आरोपित करने का पक्षधर है।

स्वतन्त्रता की परिभाषाएँ
स्वतन्त्रता की कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाओं का विवेचन निम्नलिखित है-

  • लॉस्की के अनुसार – “स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ राज्य की ओर से ऐसे वातावरण का निर्माण करना है, जिसमें कि व्यक्ति आदर्श नागरिक जीवन व्यतीत करने योग्य बन सके तथा अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सके।
  • मैकेंजी के अनुसार – “स्वतन्त्रता सब प्रकार के बन्धनों का अभाव नहीं, अपितु तर्करहित प्रतिबन्धों के स्थान पर तर्कसंगत प्रतिबन्धों की स्थापना है।”
  • बार्कर के अनुसार – “स्वतन्त्रता प्रतिबन्धों का अभाव नहीं, परन्तु वह ऐसे नियन्त्रणों का अभाव है, जो मनुष्य के विकास में बाधक हो।”
  • हरबर्ट स्पेंसर के अनुसार – “प्रत्येक व्यक्ति जो चाहता है, वह करने के लिए स्वतन्त्र है, बशर्ते कि वह किसी अन्य व्यक्ति की समान स्वतन्त्रता का अतिक्रमण न करे।”
  • रूसो के अनुसार – “उन कानूनों का पालन करना जिन्हें हम अपने लिए निर्धारित करते हैं, स्वतन्त्रता है।”
  • मॉण्टेस्क्यू के अनुसार – “स्वतन्त्रता उन सब कार्यों को करने का अधिकार है जिनकी स्वीकृति कानून देता है।”
  • ग्रीन के अनुसार- “स्वतन्त्रता उन कार्यों को करने अथवा उन वस्तुओं के उपभोग करने की शक्ति है जो करने या उपभोग के योग्य हैं।”

उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि स्वतन्त्रता स्वेच्छाचारिता का नाम नहीं है। आप वहीं तक स्वतन्त्र हैं जहाँ तक दूसरे की स्वतन्त्रता बाधित नहीं होती। ऐसी स्थिति में सामान्य मापदण्डों का ध्यान रखना पड़ता है।

स्वतन्त्रता के प्रकार (रूप)
स्वतन्त्रता के विभिन्न रूप तथा उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

1. प्राकृतिक स्वतन्त्रता – इस प्रकार की स्वतन्त्रता के तीन अर्थ लगाए जाते हैं। पहला अर्थ यह है कि स्वतन्त्रता प्राकृतिक होती है। वह प्रकृति की देन है तथा मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र होता है। इसी विचार को व्यक्त करते हुए रूसो ने लिखा है, “मनुष्य स्वतन्त्र उत्पन्न होता है; किन्तु वह सर्वत्र बन्धनों में जकड़ा हुआ है।” (Man is born free but everywhere he is in chains.) इस प्रकार प्राकृतिक स्वतन्त्रता का अर्थ मनुष्यों की अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता है। दूसरे अर्थ के अनुसार, मनुष्य को वही स्वतन्त्रता प्राप्त हो, जो उसे प्राकृतिक अवस्था में प्राप्त थी। तीसरे अर्थ के अनुसार, प्रत्येक मनुष्य स्वभावत: यह अनुभव करता है कि स्वतन्त्रता का विचार इस रूप में मान्य है कि सभी समान हैं और उन्हें व्यक्तित्व के विकास हेतु समान सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिए।

2. नागरिक स्वतन्त्रता – नागरिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय व्यक्ति की उन स्वतन्त्रताओं से है। जिनको एक व्यक्ति समाज या राज्य का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है। गैटिल के शब्दों में, “नागरिक स्वतन्त्रता उन अधिकारों एवं विशेषाधिकारों को कहते हैं, जिनकी सृष्टि राज्यं अपने नागरिकों के लिए करता है।” सम्पत्ति अर्जित करने और उसे सुरक्षित रखने की स्वतन्त्रता, विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा कानून के समक्ष समानता आदि स्वतन्त्रताएँ नागरिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत ही सम्मिलित की जाती हैं।

3. राजनीतिक स्वतन्त्रता – इस स्वतन्त्रता के अनुसार प्रत्येक नागरिक बिना किसी वर्णगत, लिंगगत, वंशगत, जातिगत, धर्मगत भेदभाव के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से शासन-कार्यों में भाग ले सकता है। इस स्वतन्त्रता की व्याख्या करते हुए लॉस्की ने लिखा है, “राज्य के कार्यों में सक्रिय भाग लेने की शक्ति ही राजनीतिक स्वतन्त्रता है।” राजनीतिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत मताधिकार, निर्वाचित होने का अधिकार तथा सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार, राजनीतिक दलों तथा दबाव-समूहों के निर्माण आदि सम्मिलित किए जाते हैं। शान्तिपूर्ण साधनों के आधार पर सरकार का विरोध करने का अधिकार भी राजनीतिक स्वतन्त्रता में सम्मिलित किया जाता है।

4. आर्थिक स्वतन्त्रता – आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार अथवी अपने श्रम के अनुसार पारिश्रमिक प्राप्त करने की स्वतन्त्रता है। आर्थिक स्वतन्त्रता की परिभाषा देते हुए लॉस्की ने लिखा है, “आर्थिक स्वतन्त्रता से मेरा अभिप्राय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रतिदिन की जीविका उपार्जित करने की स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए। वस्तुतः यह स्वतन्त्रता रोजगार प्राप्त करने की स्वतन्त्रता है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार या अपने श्रम के अनुसार पारिश्रमिक प्राप्त करने की स्वतन्त्रता प्राप्त हो तथा किसी प्रकार भी उसके.श्रम का दूसरे के द्वारा शोषण न किया जा सके।
5. धार्मिक स्वतन्त्रता – प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने की सुविधा ही धार्मिक स्वतन्त्रता कहलाती है। इस प्रकार की स्वतन्त्रता के लिए यह आवश्यक है कि राज्य किसी धर्म-विशेष के साथ पक्षपात न करके सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करे। साथ ही किसी व्यक्ति को बलपूर्वक धर्म परिवर्तन हेतु प्रेरित न किया जाए और न ही उसकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई जाए।

6. नैतिक स्वतन्त्रता – व्यक्ति को अपनी अन्तरात्मा के अनुसार व्यवहार करने की पूरी सुविधा प्राप्त होना ही नैतिक स्वतन्त्रता है। काण्ट, हीगल, ग्रीन आदि विद्वानों ने नैतिक स्वतन्त्रता का प्रबल समर्थन किया है।

7. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता – व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अर्थ है कि व्यक्ति के उन कार्यों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए, जिनका सम्बन्ध केवल उसके व्यक्तित्व से ही हो। इस प्रकार के कार्यों में भोजन, वस्त्र, धर्म तथा पारिवारिक जीवन को सम्मिलित किया जा सकता है।

8. सामाजिक स्वतन्त्रता – सभी व्यक्तियों को समाज में अपना विकास करने की सुविधा प्राप्त होना ही सामाजिक स्वतन्त्रता है। समाज में प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक, क्रिया-कलापों आदि में बिना किसी भेदभाव के सम्मिलित होने के लिए स्वतन्त्र है।

9. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता – राष्ट्रीय स्वतन्त्रता; राजनीतिक स्वतन्त्रता तथा आत्म-निर्णय के अधिकार से सम्बन्धित है। इस प्रकार की स्वतन्त्रता के अन्तर्गत राष्ट्र को भी स्वतन्त्र होने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए।

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता की परिभाषा दीजिए तथा उसका कानून के साथ सम्बन्ध स्थापित कीजिए। [2011, 15]
या
कानून और स्वतन्त्रता के मध्य सम्बन्धों की विवेचना कीजिए। [2015]
उत्तर
स्वतन्त्रता की परिभाषा
[संकेत–स्वतन्त्रता की परिभाषा हेतु विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 का अध्ययन करें]
स्वतन्त्रता और कानून का सम्बन्ध
स्वतन्त्रता और कानून के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय पर राजनीतिक विचारकों में बहुत अधिक मतभेद है और इस सम्बन्ध में प्रमुख रूप से निम्नलिखित दो विचारधाराओं का प्रतिपादन किया गया है-

1. अराजकतावादियों और व्यक्तिवादियों के विचार – प्रथम विचारधारा को प्रतिपादन, अराजकतावादी और व्यक्तिवादी विचारकों द्वारा किया गया है। अराजकतावादियों के अनुसार, स्वतन्त्रता का तात्पर्य व्यक्तियों की अपनी इच्छानुसार कार्य करने की शक्ति का नाम है और राज्य के कानून शक्ति पर आधारित होने के कारण व्यक्तियों की इच्छानुसार कार्य करने में बाधक होते हैं, अतः स्वतन्त्रता और कानून परस्पर विरोधी हैं। अराजकतावादी ‘विलियम गॉडविन’ के शब्दों में, “कानून सबसे अधिक घातक प्रकृति की संस्था है। व्यक्तिवादी भी राज्य को एक आवश्यक बुराई मानते हुए कानून और स्वतन्त्रता को परस्पर विरोधी बताते हैं। उनका कथन है कि “एक की मात्रा जितनी अधिक होगी, दूसरे की मात्रा उतनी ही कम | हो जायेगी।

2. आदर्शवादियों के विचार – अराजकतावादी और व्यक्तिवादी धारणा के नितान्त विपरीत आदर्शवादी विचारकों और राजनीति विज्ञान के वर्तमान विद्वानों ने इस विचार का प्रतिपादन किया है कि कानून स्वतन्त्रता को सीमित नहीं करते वरन् स्वतन्त्रता की रक्षा और उसमें वृद्धि करते हैं। विलोबी के अनुसार, “जहाँ नियन्त्रण होते हैं, वहीं स्वतन्त्रता का अस्तित्व होता है।’ लॉक और रिची के द्वारा भी यही मत व्यक्त किया गया है और हॉकिन्स ने तो यहाँ तक कहा है कि “व्यक्ति जितनी अधिक स्वतन्त्रता चाहता है उतनी ही अधिक सीमा तक उसे शासन की अधीनता स्वीकार कर लेनी चाहिए।’

इन आदर्शवादी विद्वानों का दृष्टिकोण बहुत कुछ सीमा तक सही है और कानून निम्नलिखित तीन प्रकार से व्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा करते और उसमें वृद्धि करते हैं-

1. कानून व्यक्ति की स्वतन्त्रता की अन्य व्यक्तियों के हस्तक्षेप से रक्षा करते हैं- यदि समाज के अन्तर्गत किसी भी प्रकार के कानून न हों तो समाज के शक्तिशाली व्यक्ति निर्बल व्यक्तियों पर अत्याचार करेंगे और संघर्ष की इस अनवरत प्रक्रिया में किसी भी व्यक्ति की स्वतन्त्रता सुरक्षित नहीं रहेगी।

2. कानून व्यक्ति की स्वतन्त्रता की राज्य के हस्तक्षेप से रक्षा करते हैं- साधारणतया वर्तमान समय के राज्यों में दो प्रकार के कानून होते हैं—साधारण कानून और संवैधानिक कानून। इन दोनों प्रकार के कानूनों में से संवैधानिक कानूनों द्वारा राज्य के हस्तक्षेप से व्यक्ति की स्वतन्त्रता को रक्षित करने का कार्य किया जाता है। भारत और अमेरिका आदि राज्यों के संविधानों में मौलिक अधिकारों की जो व्यवस्था है, वह इस सम्बन्ध में श्रेष्ठ उदाहरण है। यदि राज्य इन मौलिक अधिकारों (संवैधानिक कानूनों) के विरुद्ध कोई कार्य करता है तो व्यक्ति न्यायालय की शरण लेकर राज्य के हस्तक्षेप से अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा कर सकता है।

3. स्वतन्त्रता के नकारात्मक स्वरूप के अतिरिक्त इसका एक सकारात्मक स्वरूप भी होता है- स्वतन्त्रता के सकारात्मक स्वरूप का तात्पर्य है व्यक्ति को व्यक्तित्व के विकास हेतु आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करना। कानून व्यक्तियों के व्यक्तित्व के विकास की सुविधाएँ प्रदान करते हुए उन्हें वास्तविक स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं। वर्तमान समय में लगभग सभी राज्यों द्वारा जनकल्याणकारी राज्य के विचार को अपना लिया गया है और राज्य कानूनों के : माध्यम से एक ऐसे वातावरण के निर्माण में संलग्न हैं जिनके अन्तर्गत व्यक्ति अपने व्यक्तित्व : का पूर्ण विकास कर सकें। राज्य के द्वारा की गयी अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था, अधिकतम श्रम और न्यूनतम वेतन के सम्बन्ध में कानूनी व्यवस्था, जनस्वास्थ्य का प्रबन्ध आदि कार्यों द्वारा नागरिकों को व्यक्तित्व के विकास की सुविधाएँ प्राप्त हो रही हैं और इस प्रकार राज्य नागरिकों को वास्तविक स्वतन्त्रता प्रदान कर रहा है।

यदि राज्य सड़क पर चलने के सम्बन्ध में किसी प्रकार के नियमों का निर्माण करता है, मद्यपान पर रोक लगाता है या टीके की व्यवस्था करता है तो राज्य के इन कार्यों से व्यक्तियों की स्वतन्त्रता सीमित नहीं होती, वरन् उसमें वृद्धि ही होती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि साधारण रूप से राज्य के कानून व्यक्तियों की स्वतन्त्रता की रक्षा और उसमें वृद्धि करते हैं।
स्वतन्त्रता और कानून के इस घनिष्ठ सम्बन्ध के कारण ही रैम्जे म्योर ने लिखा है कि “कानून और स्वतन्त्रता इस प्रकार अन्योन्याश्रित और एक-दूसरे के पूरक हैं।”

सभी कानून स्वतन्त्रता के साधक नहीं लेकिन राज्य द्वारा निर्मित सभी कानूनों के सम्बन्ध में इस प्रकार की बात नहीं कही जा सकती है कि वे मानवीय स्वतन्त्रता में वृद्धि करते हैं। यदि शासन अपने ही स्वार्थों को दृष्टि में रखकर कानूनों का निर्माण करता है, जनसाधारण के हितों की अवहेलना करता है और बिना किसी विशेष कारण के नागरिकों की स्वतन्त्रताएँ सीमित करता है। तो राज्य के इन कानूनों से व्यक्तियों की स्वतन्त्रता सीमित ही होती है। उदाहरणार्थ, हिटलर और मुसोलिनी द्वारा निर्मित अनेक कानून स्वतन्त्रता के विरुद्ध थे।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सभी कानून नागरिकों की स्वतन्त्रता में वृद्धि नहीं करते, वरन्। ऐसा केवल उन्हीं कानूनों के सम्बन्ध में कहा जा सकता है जिनके सम्बन्ध में, लॉस्की के शब्दों में व्यक्ति यह अनुभव करते हैं कि मैं इन्हें स्वीकार कर सकता और इनका पालन कर सकता हूँ।”
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यदि राज्य का कानून जनता की इच्छा पर आधारित है तो वह स्वतन्त्रता का पोषक होगा और यदि वह निरंकुश शासन की इच्छा का परिणाम है तो स्वतन्त्रता का विरोधी हो सकता है।

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प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता एवं समानता का सम्बन्ध स्पष्ट कीजिए। [2007, 12, 14]
या
“स्वतन्त्रता की समस्या का केवल एक ही हल है और वह हल समानता में निहित है।” इस कथन की विवेचना कीजिए। [2010, 14]
या
समानता को परिभाषित कीजिए तथा स्वतन्त्रता के साथ इसके सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए। [2009]
या
स्वतन्त्रता और समानता के पारस्परिक सम्बन्धों की विवेचना कीजिए। [2007, 11, 12, 14]
या
“स्वतन्त्रता और समानता एक-दूसरे के पूरक हैं।” इस कथन की विवेचना कीजिए। [2011, 15, 16]
उत्तर
समानता का अर्थ साधारण रूप से समानता का अर्थ यह लगाया जाता है कि सभी व्यक्तियों को ईश्वर ने बनाया है; अतः सभी समान हैं और इसी कारण सभी को समान सुविधाएँ व आय का समान अधिकार होना चाहिए। इस प्रकार का मत व्यक्त करने वाले व्यक्ति प्राकृतिक समानता में विश्वास व्यक्त करते हैं, किन्तु यह विचार भ्रमपूर्ण है, क्योंकि प्रकृति ने ही मनुष्यों को बुद्धि, बल तथा प्रतिभा के आधार पर समान नहीं बनाया है। अप्पादोराय के शब्दों में, “यह स्वीकार करना कि सभी मनुष्य समान हैं, उतना ही भ्रमपूर्ण है जितना कि यह कहना कि भूमण्डल समतल है।”

मनुष्यों में असमानता के दो कारण हैं- प्रथम, प्राकृतिक और द्वितीय, सामाजिक या समाज द्वारा उत्पन्न। अनेक बार यह देखने में आता है कि प्राकृतिक रूप से समान होते हुए भी व्यक्ति असमान हो जाते हैं, क्योंकि आर्थिक समानता के अभाव में सभी को अपने व्यक्तित्व का विकास करने के समान अवसर उपलब्ध नहीं हो पाते। इस प्रकार समाज द्वारा उत्पन्न परिस्थितियाँ मनुष्य के बीच असमानता उत्पन्न कर देती हैं।

नागरिकशास्त्र की अवधारणा के रूप में समानता से हमारा तात्पर्य समाज द्वारा उत्पन्न इस असमानता का अन्त करने से होता है। दूसरे शब्दों में, समानता का तात्पर्य अवसर की समानता से है। सभी व्यक्तियों को अपने विकास के लिए समान सुविधाएँ व समान अवसर प्राप्त हों, ताकि किसी भी व्यक्ति को यह कहने का अवसर न मिले कि यदि उसे यथेष्ट सुविधाएँ प्राप्त होतीं तो वह अपने जीवन का विकास कर सकता था। इस प्रकार समाज में जाति, धर्म व भाषा के आधार पर व्यक्तियों में किसी प्रकार का भेद न किया जाना अथवा इन आधारों पर उत्पन्न विषमता का अन्त करना ही समानता है। समानता की परिभाषा व्यक्त करते हुए लॉस्की ने लिखा है कि “समानता मूल रूप से समतल करने की प्रक्रिया है। इसीलिए समानता का प्रथम अर्थ विशेषाधिकारों का अभाव और द्वितीय अर्थ अवसरों की समानता से है।”

समानता के दो पक्ष: नकारात्मक और सकारात्मक – समानता की परिभाषा का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि समानता के दो पक्ष हैं- (1) नकारात्मक तथा (2) सकारात्मक। नकारात्मक पक्ष से तात्पर्य है कि सामाजिक क्षेत्र में किसी के साथ किसी प्रकार का भेदभाव न हो तथा सकारात्मक पक्ष का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने अधिकाधिक विकास के लिए समान अवसर प्राप्त हों। उदाहरणार्थ-शिक्षा की आवश्यकता सबके लिए होती है; अतः राज्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने सब नागरिकों को शिक्षा प्राप्त करने का समान अवसर प्रदान करे।

समानता के विविध रूप
समानता के विविध रूपों में नागरिक समानता, सामाजिक समानता, राजनीतिक समानता, आर्थिक समानता, प्राकृतिक समानता, धार्मिक समानता एवं सांस्कृतिक और शिक्षा सम्बन्धी समानता प्रमुख हैं।

स्वतन्त्रता और समानता का सम्बन्ध
स्वतन्त्रता और समानता के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय पर राजनीतिशास्त्रियों में पर्याप्त मतभेद हैं और इस सम्बन्ध में प्रमुख रूप से दो विचारधाराओं का प्रतिपादन किया गया है, जो इस प्रकार हैं-

1. स्वतन्त्रता और समानता परस्पर विरोधी हैं- कुछ व्यक्तियों द्वारा स्वतन्त्रता और समानता के जन-प्रचलित अर्थों के आधार पर इन्हें परस्पर विरोधी बताया गया है। उनके अनुसार स्वतन्त्रता अपनी इच्छानुसार कार्य करने की शक्ति का नाम है, जब कि समानता का तात्पर्य प्रत्येक प्रकार से सभी व्यक्तियों को समान समझने से है। इस आधार पर सामान्य व्यक्ति ही नहीं, वरन् डी० टॉकविले और एक्टन जैसे विद्वानों द्वारा भी इन्हें परस्पर विरोधी माना गया है। लॉर्ड एक्टन एक स्थान पर लिखते हैं कि समानता की उत्कृष्ट अभिलाषा के कारण स्वतन्त्रता की आशा ही व्यर्थ हो गयी है।

2. स्वतन्त्रता और समानता परस्पर पूरक हैं- उपर्युक्त प्रकार की विचारधारा के नितान्त विपरीत दूसरी ओर विद्वानों का एक बड़ा समूह है, जो स्वतन्त्रता और समानता को परस्पर विरोधी नहीं वरन् पूरक़ मानते हैं। रूसो, टॉनी, लॉस्की और मैकाइवर इस मत के प्रमुख समर्थक हैं और अपने मत की पुष्टि में इन विद्वानों ने निम्नलिखित तर्क दिये हैं-

स्वतन्त्रता और समानता को परस्पर विरोधी बताने वाले विद्वानों द्वारा स्वतन्त्रता और समानता की गलत धारणा को अपनाया गया है। स्वतन्त्रता का तात्पर्य ‘प्रतिबन्धों के अभाव’ या स्वच्छन्दता से नहीं है, वरन् इसका तात्पर्य केवल यह है कि अनुचित प्रतिबन्धों के स्थान पर उचित प्रतिबन्धों की व्यवस्था की जानी चाहिए और उन्हें अधिकतम सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए, जिससे उनके द्वारा अपने व्यक्तित्व का विकास किया जा सके। इसी प्रकार पूर्ण समानता एक काल्पनिक वस्तु है और समानता का तात्पर्य पूर्ण समानता जैसी किसी काल्पनिक वस्तु से नहीं, वरन् व्यक्तित्व के विकास हेतु आवश्यक और पर्याप्त सुविधाओं से है, जिससे सभी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें और इस प्रकार उस असमानता का अन्त हो सके, जिसका मूल कारण सामाजिक परिस्थितियों का भेद है। इस प्रकार स्वतन्त्रता और समानता दोनों ही व्यक्तित्व के विकास हेतु नितान्त आवश्यक हैं।

प्रश्न 4.
समता (समानता) का अर्थ स्पष्ट कीजिए। इसके कितने प्रकार होते हैं? उनका वर्णन कीजिए। [2009, 14, 16]
या
समानता का अर्थ स्पष्ट कीजिए। समानता के विविध रूपों का वर्णन कीजिए। [2008, 10, 16]
(संकेत-समानता के अर्थ हेतु विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 3 का अध्ययन करें)
उत्तर
समानता के भेद अथवा प्रकार समानता के विभिन्न भेदों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-

1. प्राकृतिक समानता – प्लेटो के अनुसार, “प्राकृतिक समानता से अभिप्राय यह है कि सब मनुष्य जन्म से समान होते हैं। स्वाभाविक रूप से सभी व्यक्ति समान हैं, हम सबका निर्माण एक ही विश्वकर्मा ने एक ही मिट्टी से किया है। हम चाहे अपने को कितना ही धोखा दें, ईश्वर को निर्धन, किसान और शक्तिशाली राजकुमार सभी समान रूप से प्रिंय हैं।” आधुनिक युग में प्राकृतिक समानता को कोरी कल्पना माना जाता है। कोल के अनुसार, “मनुष्य शारीरिक बल, पराक्रम, मानसिक योग्यता, सृजनात्मक शक्ति, समाज-सेवा की भावना और सम्भवतः सबसे अधिक कल्पना-शक्ति में एक-दूसरे से मूलतः भिन्न हैं।” संक्षेप में, वर्तमान युग में प्राकृतिक समानता का आशय यह है कि प्राकृतिक रूप से नैतिक आधार पर ही सभी व्यक्ति समान हैं तथा समाज में व्याप्त विभिन्न प्रकार की असमानताएँ कृत्रिम हैं।

2. सामाजिक समानता – सामाजिक समानता का अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को समाज में समान अधिकार प्राप्त हों और सबको समान सुविधाएँ मिलें। जिस समाज में जन्म, जाति, धर्म, लिंग इत्यादि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता, वहाँ सामाजिक समानता होती है। संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा जो मानव-अधिकारों की घोषणा की गयी है, उसमें सामाजिक समानता पर विशेष बल दिया गया है।

3. नागरिक या कानूनी समानता – नागरिक समानता का अर्थ नागरिकता के समान अधिकारों से होता है। नागरिक समानता के लिए यह आवश्यक है कि सब नागरिकों के मूलाधिकार सुरक्षित हों तथा सभी नागरिकों को समान रूप से कानून का संरक्षण प्राप्त हो। नागरिक समानता की पहली अनिवार्यता यह है कि समस्त नागरिक कानून के समक्ष समान हों। यदि कानून धन, पद, जाति अथवा अन्य किसी आधार पर भेद करता है तो उससे नागरिक समानता समाप्त हो जाती है और नागरिकों में असमानता का उदय होता है।

4. राजनीतिक समानता – जब राज्य के सभी नागरिकों को शासन में भाग लेने का समान अधिकार प्राप्त हो तो वहाँ के लोगों को राजनीतिक समानता प्राप्त रहती है। राजनीतिक समानता के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को मत देने, निर्वाचन में खड़े होने तथा सरकारी नौकरी प्राप्त करने का समान अधिकार होता है। उनके साथ जाति, धर्म यो अन्य किसी आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता। राजनीतिक समानता लोकतन्त्र की आधारशिला होती है।

5. धार्मिक समानता – धार्मिक समानता का अर्थ यह है कि धार्मिक मामलों में राज्य तटस्थ हो और सब नागरिकों को अपनी इच्छा से धर्म मानने की स्वतन्त्रता हो। राज्य धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव न करे। प्राचीन और मध्यकाल में इस प्रकार की धार्मिक समानता का अभाव था, परन्तु आज धर्म और राजनीति एक-दूसरे से अलग हो गये हैं और सामान्यतः राज्य नागरिकों के धार्मिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता।

6. आर्थिक समानता – आर्थिक समानता का अभिप्राय यह है कि समाज में धन के वितरण की उचित व्यवस्था हो तथा मनुष्यों की आय में बहुत अधिक असमानता नहीं होनी चाहिए। लॉस्की के अनुसार, “आर्थिक समानता का अभिप्राय यह है कि राज्य में सभी को समान सुविधाएँ तथा अवसर प्राप्त हों।’ इस सन्दर्भ में लॉर्ड ब्राइस का मत है कि “समाज से सम्पत्ति के सभी भेदभाव समाप्त कर दिये जाएँ तथा प्रत्येक स्त्री-पुरुष को भौतिक साधनों एवं सुविधाओं का समान भाग दिया जाए।”
संक्षेप में, आर्थिक समानता से सम्बन्धित प्रमुख बातें इस प्रकार हैं-

  • समाज में सभी को समान रूप से व्यवसाय चुनने की स्वतन्त्रता हो।
  • प्रत्येक मनुष्य को इतना वेतन या पारिश्रमिक अवश्य प्राप्त हो कि वह अपनी न्यूनतम आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके।
  • राज्य में उत्पादन और उपभोग के साधनों का वितरण और विभाजन इस प्रकार से हो कि आर्थिक शक्ति कुछ ही व्यक्तियों या वर्गों के हाथों में केन्द्रित न हो सके। सी० ई० एम० जोड के अनुसार, “स्वतन्त्रता का विचार, जो राजनीतिक विचारधारा में बहुत महत्त्वपूर्ण है, जब आर्थिक क्षेत्र में लागू किया गया तो उससे विनाशकारी परिणाम निकले, जिसके फलस्वरूप समाजवादी और साम्यवादी विचारधाराओं का उदय हुआ, जो आर्थिक समानता पर विशेष बल देती हैं और जिनकी यह निश्चित धारणा है कि आर्थिक समानता के अभाव में वास्तविक राज़नीतिक स्वतन्त्रता कदापि प्राप्त नहीं हो सकती।’ वास्तविकता यह है कि आर्थिक समानता सभी प्रकार की स्वतन्त्रताओं का आधार है और आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता केवल एक भ्रम है। प्रो० जोड के अनुसार, “आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता एक भ्रम है।”
  • सुदृढ़ राजनीतिक एवं नागरिक समानता की कल्पना अपेक्षित आर्थिक समानता की पृष्ठभूमि पर ही की जा सकती है।

7. शैक्षिक एवं सांस्कृतिक समानता – शैक्षिक समानता का अभिप्राय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने तथा अन्य योग्यताएँ विकसित करने का समान अवसर मिलना चाहिए और शिक्षा के क्षेत्र में जाति, धर्म, वर्ण और लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। समानता का तात्पर्य यह है कि सांस्कृतिक दृष्टि से बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक सभी वर्गों को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति बनाये रखने का अधिकार होना चाहिए। इसका महत्त्व इसी बात से सिद्ध हो जाता है कि इसे भारतीय संविधान में मूल अधिकारों के अन्तर्गत रखा जाता है।

8. नैतिक समानता – इस समानता के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने चरित्र का विकास करने के लिए अन्य व्यक्तियों के समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए।

9. राष्ट्रीय समानता – प्रत्येक राष्ट्र समान है, चाहे कोई राष्ट्र छोटा हो या बड़ा। इसलिए प्रत्येक राष्ट्र को विकास करने के समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
“आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता एक भ्रम है।” इस कथन की विवेचना कीजिए। [2011, 13, 16]
उत्तर
लॉस्की, रूसो, मैकाइवर, सी०ई०एम० जोड आदि विचारक स्वतन्त्रता एवं समानता को एक-दूसरे को पूरक मानते हैं। इन विद्वानों का मत है कि आर्थिक समानता के अभाव में स्वतन्त्रता का अस्तित्व निरर्थक है। प्रो०.पोलार्ड के अनुसार, “स्वतन्त्रता की समस्या का केवल एक हल है और वह हल समानता में निहित है।”

सी०ई०एम० जोड के अनुसार, “स्वतन्त्रता का विचार, जो राजनीतिक विचारधारा में बहुत महत्त्वपूर्ण है, जब आर्थिक क्षेत्र में लागू किया गया तो उससे विनाशकारी परिणाम निकले, जिसके फलस्वरूप समाजवादी और साम्यवादी विचारधाराओं का उदय हुआ, जो आर्थिक समानता पर विशेष बल देती है और जिनकी यह निश्चित धारणा है कि आर्थिक समानता के अभाव में वास्तविक राजनीतिक स्वतन्त्रता कदापि प्राप्त नहीं हो सकती।’ वास्तविकता यह है कि आर्थिक समानता सभी प्रकार की स्वतन्त्रताओं का आधार है और आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता केवल एक भ्रम है। प्रो० जोड के अनुसार, “आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता एक भ्रम है।”

विद्वानों का मत है कि जब तक प्रत्येक नागरिक को आर्थिक क्षेत्र में समान अवसर प्रदान किये जाते हैं तब तक राजनीतिक स्वतन्त्रता की अवधारणा केवल एक भ्रम है। उनका मानना है कि यदि समाज में आर्थिक समानता नहीं है तो धनिक वर्ग अन्य वर्गों का शोषण करेगा तथा उनकी राजनीतिक स्वतन्त्रता को भी प्रभावित करेगा। ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाएगी कि राजनीतिक सत्ता पूँजीपतियों में निहित हो जाएगी और राजनीतिक स्वतन्त्रता तथा समानता केवल शब्दों तक ही सीमित रह जाएगी। इस विचारधारा को मानने वाले विद्वान् निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते हैं

  1. आर्थिक विषमता का फल पूँजीपतियों को ही मिलता है। उनका राजनीतिक क्षेत्र में प्रभुत्व रहता है और परिणामस्वरूप जनसाधारण के लिए राजनीतिक स्वतन्त्रता का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।
  2. निर्धनता आर्थिक विषमता का ही परिणाम होती है। निर्धन वर्ग पूँजीपतियों से धन लेकर उनके पक्ष में मतों को बेच देता है और राजनीतिक स्वतन्त्रता मात्र कहने की बात रह जाती है।
  3. बहुधा धनिक वर्ग धन के बल पर सरकारी पदों को प्राप्त कर लेता है और योग्य परन्तु निर्धन व्यक्ति यह पद प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं। इस प्रकार आर्थिक विषमता राजनीतिक स्वतन्त्रता का हनन करती है।
  4. आर्थिक विषमता के कारण निर्धन व्यक्ति के अधिकारों तथा उसकी स्वतन्त्रता पर कुठाराघात होता रहता है। निर्धनता के कारण ऐसा व्यक्ति न्यायालय की शरण भी नहीं ले पाता तथा चुपचाप शोषण व उत्पीड़न को सहता रहता है।
  5. निर्धन व्यक्ति अपनी रोजी-रोटी के चक्कर में ही फंसे रहते हैं। उनको अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता का आभास भी नहीं होता। निर्धन व्यक्तियों में शिक्षा का अभाव होता है। इस कारण धनिक वर्ग प्रेस तथा विचाराभिव्यक्ति के साधनों पर अधिकार होने के कारण निर्धन वर्ग के लोगों को आसानी से अपने प्रभाव में ले लेता है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतन्त्रता केवल एक भ्रम है।

प्रश्न 2.
“स्वतन्त्रता व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए आवश्यक है।” विवेचना कीजिए।
या
“स्वतन्त्रता उचित प्रतिबन्धों की व्यवस्था है।” विवेचना कीजिए।
उत्तर
स्वतन्त्रता अमूल्य वस्तु है और उसका मानवीय जीवन में बहुत अधिक महत्त्व है। स्वतन्त्रता का मूल्य व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर समान है। स्वतन्त्रता का महत्त्व न होता तो विभिन्न देशों में लाखों व्यक्तियों द्वारा स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान न दिया जाता। मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिकारों का अस्तित्व नितान्त आवश्यक है।
और इन विविध अधिकारों में स्वतन्त्रता का स्थान निश्चित रूप से सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य का सम्पूर्ण भौतिक, मानसिक एवं नैतिक विकास स्वतन्त्रता के वातावरण में ही सम्भव है।

स्वतन्त्रता की व्याख्या करते हुए लॉस्की ने भी कहा है कि “स्वतन्त्रता उस वातावरण को बनाए रखती है जिसमें व्यक्ति को जीवन को सर्वोत्तम विकास करने की सुविधा प्राप्त हो।” इस प्रकार स्वतन्त्रता का तात्पर्य ऐसे वातावरण और परिस्थितियों की विद्यमानता से है जिसमें व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सके। स्वतन्त्रता निम्नलिखित आदर्श दशाएँ प्रस्तुत करती हैं-

  1. न्यूनतम प्रतिबन्ध – स्वतन्त्रता का प्रथम तत्त्व यह है कि व्यक्ति के जीवन पर शासन और समाज के दूसरे सदस्यों की ओर से न्यूनतम प्रतिबन्ध होने चाहिए, जिससे व्यक्ति अपने विचार और कार्य-व्यवहार में अधिकाधिक स्वतन्त्रता का उपभोग कर सके तथा अपना विकास सुनिश्चित कर सके।
  2. व्यक्तित्व विकास हेतु सुविधाएँ – स्वतन्त्रता का दूसरा तत्त्व यह है कि समाज और राज्य द्वारा व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व के विकास हेतु अधिकाधिक सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए।

इस प्रकार स्वतन्त्रता जीवन की ऐसी अवस्था का नाम है जिसमें व्यक्ति के जीवन पर न्यूनतम प्रतिबन्ध हों और व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास हेतु अधिकतम सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं।

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता का महत्त्व बताइए।
उत्तर
स्वतन्त्रता का महत्त्व
मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिकारों का अस्तित्व नितान्त आवश्यक है और व्यक्ति के विविध अधिकारों में स्वतन्त्रता का स्थान निश्चित रूप में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। बर्टेण्ड रसैल कहते हैं, “स्वतन्त्रता की इच्छा व्यक्ति की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है और इसी के आधार पर सामाजिक जीवन का निर्माण सम्भव है। मनुष्य का सम्पूर्ण भौतिक, मानसिक एवं नैतिक विकास स्वतन्त्रता के वातावरण में ही सम्भव है।

यदि हम प्रकृति पर दृष्टि डालें तो भी यह बात स्पष्ट हो जाती है कि स्वतन्त्रता के बिना किसी भी वस्तु का विकास सम्भव नहीं है। पेड़-पौधे भी स्वतन्त्रता के वातावरण में ही विकसित हो सकते हैं। जो पौधा या पेड़ किसी विशाल वृक्ष की छाया या दबाव में पड़ जाता है, उसका विकास रुक जाता है। इसी प्रकार पिंजड़े में बन्द पक्षी या सर्कस के क्रठहरे में बन्द शेर सही अर्थों में पक्षी या शेर नहीं रहते वे अपना सारभूत तत्त्व खो देते हैं। सृष्टि के इन प्राणियों के सम्बन्ध में जो बात सत्य है, वह विवेकशील मनुष्य के सम्बन्ध में और भी अधिक सत्य है। मनुष्य का भौतिक, बौद्धिक तथा नैतिक विकास स्वतन्त्रता के बिना सम्भव ही नहीं है। इसी आधार पर जे०एस० मिल द्वारा अपनी पुस्तक ‘On Liberty’ में स्वतन्त्रता को मानव-जीवन का मूल आधार बताया गया है। बर्स ने ठीक ही लिखा है कि स्वतन्त्रता न केवल सभ्य जीवन का आधार है, वरन् सभ्यता का विकास भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर ही निर्भर करता है। इसी प्रकार महाकवि तुलसीदास ने ‘श्रीरामचरितमानस’ में लिखा है ‘करि विचार देखहुँ मन माहीं, पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं।’

स्वतन्त्रता अमूल्य वस्तु है और उसका मानवीय जीवन में बहुत अधिक महत्त्व है। यह बात व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और राष्ट्रीय स्वतन्त्रता दोनों के ही सम्बन्ध में सत्य है। स्वतन्त्रता का महत्त्व न होता, तो विभिन्न देशों में लाखों व्यक्तियों द्वारा स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान न दिया जाता। इटली के प्रसिद्ध देशभक्त मैजिनी (Mazzini) का कथन है कि “स्वतन्त्रता के अभाव में आप अपना कोई कर्तव्य पूरा नहीं कर सकते। अतएव आपको स्वतन्त्रता का अधिकार दिया जाता है और जो भी शक्ति आपको इस अधिकार से वंचित रखना चाहती हो, उससे जैसे भी बने, अपनी स्वतन्त्रता छीन लेना आपका कर्तव्य है।”

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प्रश्न 4.
“स्वतन्त्रता तथा कानून परस्पर विरोधी हैं।” इस विचार को मान्यता प्रदान करने वालों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
कुछ विद्वानों का विचार है कि स्वतन्त्रता तथा कानून परस्पर विरोधी हैं, क्योंकि कानून स्वतन्त्रता पर अनेक प्रकार के बन्धन लगाता है। इस विचार को मान्यता देने वालों में व्यक्तिवाद, अराजकतावादी, श्रम संघवादी तथा कुछ अन्य विद्वान् हैं। इस मत के अलग-अलग विचार अग्रलिखित हैं-

  1. व्यक्तिवादियों के विचार – व्यक्तिवादी विचारधारा राज्य के कार्यों को सीमित करने के पक्ष में है। व्यक्तिवादियों के अनुसार, “वही शासन-प्रणाली श्रेष्ठ है जो सबसे कम शासन करती है। जितने कम कानून होंगे, उतनी ही अधिक स्वतन्त्रता होगी।
  2. अराजकतावादियों के विचार – अराजकतावादियों की मान्यता है कि राज्य अपनी शक्ति के प्रयोग से व्यक्ति की स्वतन्त्रता को नष्ट करता है। इसीलिए अराजकतावादी राज्य को समाप्त कर देने के समर्थक हैं। अराजकतावादी विचारक विलियम गॉडविन के मतानुसार, “कानून सर्वाधिक घातक प्रकृति की संस्था है।”……………“राज्य का कानून, दमन तथा उत्पीड़न का | एक नवीन यन्त्र है।
  3. श्रम संघवादियों के विचार – मजदूर संघवादियों की मान्यता है कि राज्य के कानून व्यक्ति की स्वतन्त्रता को सीमित करते हैं। इन कानूनों का प्रयोग सदैव ही पूँजीपतियों के हितों को बढ़ावा देने हेतु किया गया है। इससे मजदूरों की स्वतन्त्रता नष्ट होती है। चूंकि राज्य के कानून मजदूरों के हितों का विरोध कर पूँजीपतियों का समर्थन करते हैं, इसलिए मजदूर संघवादी भी राज्य को समाप्त करने के पक्षधर हैं।
  4. बहुलवादियों के विचार – बहुलवादियों की मान्यता है कि राज्य के पास भी जितनी अधिक सत्ता होगी, व्यक्ति को उतनी ही कम स्वतन्त्रता होगी। इसलिए राज्य-सत्ता को अलग-अलग समूहों में विभाजित कर दिया जाना चाहिए।

उपर्युक्त विभिन्न विचारों के अध्ययनोपरान्त हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि कानून एवं स्वतन्त्रता में कोई सम्बन्ध नहीं है, अर्थात् ये परस्पर विरोधी हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1
नागरिक स्वतन्त्रता पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
नागरिक स्वतन्त्रता
समाज का सदस्य होने के कारण व्यक्ति को जो स्वतन्त्रता प्राप्त होती है, उसको नागरिक स्वतन्त्रता की उपमा दी जाती है। नागरिक स्वतन्त्रता की रक्षा राज्य करता है। इसमें नागरिकों की निजी स्वतन्त्रता, धार्मिक स्वतन्त्रता, सम्पत्ति का अधिकार, विचार-अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, इकट्टे होने तथा संघ इत्यादि बनाने की स्वतन्त्रता सम्मिलित हैं। गैटिल ने नागरिक स्वतन्त्रता का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है कि “नागरिक स्वतन्त्रता का तात्पर्य उन अधिकारों एवं विशेषाधिकारों से है जिन्हें राज्य अपनी प्रजा हेतु उत्पन्न करता है तथा उन्हें सुरक्षा प्रदान करता है।”

नागरिक स्वतन्त्रता विभिन्न राज्यों में अलग-अलग होती है। जहाँ लोकतन्त्रीय राज्यों में यह स्वतन्त्रता अधिक होती है, वहीं तानाशाही राज्यों में कम। भारत के संविधान में नागरिक स्वतन्त्रता का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2.
आर्थिक स्वतन्त्रता पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
आर्थिक स्वतन्त्रता
आर्थिक स्वतन्त्रता से आशय आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी उस स्थिति से है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए अपना जीवन-यापन कर सके। लॉस्की के शब्दों में, “आर्थिक स्वतन्त्रता का यह अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीविका अर्जित करने की समुचित सुरक्षा तथा सुविधा प्राप्त हो।’

जिस राज्य में भूख, गरीबी, दीनता, नग्नता तथा आर्थिक अन्याय होगा वहाँ व्यक्ति कभी भी स्वतन्त्र नहीं होगा। व्यक्ति को पेट की भूख, अपने बच्चों की भूख तथा भविष्य में दिखाई देने वाली आवश्यकताएँ प्रत्येक पल दु:खी करती रहेंगी। व्यक्ति कभी भी स्वयं को स्वतन्त्र अनुभव नहीं करेगा तथा न ही वह नागरिक एवं राजनीतिक स्वतन्त्रता का भली-भाँति उपभोग कर सकेगा। अतः राजनीतिक एवं नागरिक स्वतन्त्रता को हासिल करने के लिए आर्थिक स्वतन्त्रता का होना परमावश्यक है। लेनिन ने उचित ही कहा है कि “आर्थिक स्वतन्त्रता के अभाव में राजनीतिक अथवा नागरिक स्वतन्त्रता अर्थहीन है।’

प्रश्न 3.
क्या स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं?
या
समानता के आवेश ने स्वतन्त्रता की आशा को व्यर्थ कर दिया।” इस कथन का परीक्षण कीजिए।
उत्तर
इंस विचारधारा के समर्थकों में डी० टॉकविले, लॉर्ड एक्टन तथा क्रोचे प्रमुख हैं। इनके अनुसार, स्वतन्त्रता एवं समानता एक-दूसरे के विरोधी हैं। स्वतन्त्रता समानता को नष्ट करती है तथा समानता स्वतन्त्रता का विनाश करती है। इस विचारधारा के अनुसार स्वतन्त्रता का अर्थ व्यक्ति की अपनी इच्छानुसार कार्य करने की शक्ति है। व्यक्ति के ऊपर सभी प्रकार के बन्धनों तथा नियन्त्रणों का अभाव ही स्वतन्त्रता है। समानता का आशय सभी क्षेत्रों में बरोबरी से है। अतः स्वतन्त्रता से समानता का हनन होता है तथा समानता से स्वतन्त्रता का अन्त हो जाता है, क्योंकि पूर्ण समानता राज्य के नियन्त्रण से ही सम्भव है तथा राज्य का नियन्त्रण स्वतन्त्रता को समाप्त कर देता है। ऐसी स्थिति में स्वतन्त्रता एवं समानता में से एक की स्थापना ही सम्भव है; अतः ये दोनों परस्पर विरोधी हैं। लॉर्ड एक्टन के अनुसार, समानता की अभिलाषा ने स्वतन्त्रता की आशा को व्यर्थ कर दिया है।”

प्रश्न 4.
धार्मिक स्वतन्त्रता से क्या आशय है?
उत्तर
व्यक्ति धर्म पर किसी प्रकार का बन्धन स्वीकार नहीं करता। यही कारण है कि आज अनेक राज्यों में व्यक्ति को कोई भी धर्म मानने, प्रचार करने तथा धारण करने की स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है। भारतीय संविधान में भी धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार प्रदान किया गया है।
धर्मतन्त्र राज्यों में राज्य का एक धर्म होता है तथा उसी धर्म के अनुयायियों को विशेष सुविधाएँ प्राप्त होती हैं; जबकि धर्मनिरपेक्ष राज्य में व्यक्ति को अपनी इच्छा का कोई भी धर्म धारण करने की स्वतन्त्रता होती है तथा सभी धर्म एकसमान होते हैं।

प्रश्न 5.
राष्ट्रीय स्वतन्त्रता से क्या आशय है?
उत्तर
यह स्वतन्त्रता सभी प्रकार की स्वतन्त्रताओं तथा अधिकारों की आधारशिला है। राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का तात्पर्य राष्ट्र की स्वतन्त्रता से है। जिस प्रकार व्यक्ति को स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए ठीक उसी प्रकार से एक राष्ट्र को भी अपने पूर्ण विकास के लिए स्वतन्त्र होना आवश्यक है। राष्ट्रीय स्वतन्त्रता राज्य की आन्तरिक एवं बाह्य स्वाधीनता है। जो राष्ट्र अपने आन्तरिक प्रशासन तथा बाह्य सम्बन्धों के स्थापन में स्वतन्त्र होता है, किसी दूसरे देश के अधीन नहीं होता; वह स्वतन्त्र और सम्प्रभु राष्ट्र होता है। लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों तथा नियमों के अधीन प्रत्येक राष्ट्र की स्वतन्त्रता पर कुछ प्रतिबन्ध रहता है।

प्रश्न 6.
स्वतन्त्रता नैतिक गुणों के विकास में कैसे सहायक होती है?
उत्तर
स्वतन्त्रता व्यक्ति में प्रेम, दया, सहानुभूति, त्याग, सहयोग इत्यादि नैतिक गुणों को विकसित करके सामाजिक सभ्यता का विकास करती है जो मानवीय मूल्यों के लिए परमावश्यक है।
स्वतन्त्रता के बिना व्यक्ति के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं हो सकता। स्वतन्त्रता के माध्यम से ही वे साधन उपलब्ध कराये जाते हैं जिनसे व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास का मार्ग प्रशस्त होता है।

प्रश्न 7.
समानता की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर
समानता की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं-

  1. आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति – समानता की यह विशेषता है कि व्यक्ति कम-से-कम अपनी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके तथा अपने जीवन का निर्वाह कर सके।
  2. प्रगति के समान अवसर – समानता का एक सकारात्मक पक्ष है जिसका अर्थ यह है कि सभी व्यक्तियों को बिना किसी भेदभाव के उनके व्यक्तित्व के विकास हेतु समान अवसर सुलभ होने चाहिए।
  3. विशेष अधिकारों की अनुपस्थिति – समानता में यह निहित है कि किसी भी वर्ग विशेष के व्यक्ति को लिंग, वंश, जन्म-स्थान, धर्म तथा राजनीतिक पद के आधार पर ऐसे कुछ भी विशेष अधिकार नहीं मिलने चाहिए जिनसे कि अन्य व्यक्ति वंचित हों।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता मनुष्य के लिए किस प्रकार उपयोगी है?
उत्तर
स्वतन्त्रता मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती है।

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता को परिभाषित करें। [2014]
उत्तर
“स्वतन्त्रता उस वातावरण को बनाये रखना है जिसमें व्यक्ति को अपने जीवन का सर्वोत्तम विकास करने की सुविधा प्राप्त हो।’

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प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता के दो भेद या प्रकार बताइए। [2009, 10, 14]
उत्तर

  1. नागरिक स्वतन्त्रता तथा
  2. राजनीतिक स्वतन्त्रता।

प्रश्न 4.
समानता का वास्तविक अर्थ लिखिए।
उत्तर
समानता प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शक्तियों के उपयोग करने का यथाशक्ति समान अवसर प्रदान करने का प्रयत्न है।

प्रश्न 5.
समानता के दो प्रकार या भेद बताइए। [2010]
उत्तर

  1. आर्थिक समानता तथा
  2. राजनीतिक समानता।

प्रश्न 6.
किन्हीं दो राजनीतिक स्वतन्त्रताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. राष्ट्र को स्वतन्त्र होने का अधिकार तथा
  2. प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शासन के कार्यों में भाग लेने का अधिकार।

प्रश्ग 7.
सकारात्मक स्वतन्त्रता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
सकारात्मक स्वतन्त्रता एक पूर्ण मानव के रूप में कार्य करने की स्वतन्त्रता है। यह मानव का विकास करने की शक्ति है।

प्रश्न 8.
प्राकृतिक स्वतन्त्रता से रूसो का क्या अभिप्राय है?
उत्तर
रूसो के शब्दों में, मनुष्य जन्मतः स्वतन्त्र है, परन्तु सर्वत्र जंजीरों में जकड़ा हुआ है।

प्रश्न 9.
आर्थिक स्वतन्त्रता के विषय में लेनिन ने क्या कहा है?
उत्तर
लेनिन ने कहा है कि आर्थिक स्वतन्त्रता के अभाव में राजनीतिक अथवा नागरिक स्वतन्त्रता अर्थहीन है।

प्रश्न 10.
लॉस्की ने ‘समानता की क्या परिभाषा दी है?
उत्तर
लॉस्की के अनुसार, समानता प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शक्तियों का उपयोग करने हेतु यथाशक्ति समान अवसर प्रदान करने का प्रयत्न है।

प्रश्न 11.
कानून के समक्ष समानता का क्या अर्थ है? [2013]
उत्तर
जब सभी के लिए बिना किसी भेदभाव के एक-से कानून तथा एक-से न्यायालय होते हैं, तब नागरिकों को कानूनी समानता प्राप्त हो जाती है।

प्रश्न 12.
राजनीतिक स्वतन्त्रताओं के दो उदाहरण दीजिए। [2013, 16]
उत्तर

  1. मत देने का अधिकार तथा
  2. चुनाव लड़ने का अधिकार।

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प्रश्न 13.
‘ऑन लिबर्टी’ नामक ग्रन्थ किसने लिखा ? [2010, 11, 14]
उत्तर
जे० एस० मिल ने।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1. स्वतन्त्रता के नकारात्मक पहलू का विचारक था-
(क) ग्रीन
(ख) गाँधी जी
(ग) लास्की
(घ) रूसो

2. स्वतन्त्रता के सकारात्मक (वास्तविक) पहलू का विचारक था
(क) हॉब्स
(ख) सीले
(ग) कोल
(घ) मैकेंजी

3. स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं।” इस विचारधारा का समर्थक था-
(क) लॉस्की
(ख) सी० ई० एम० जोड
(ग) क्रोचे
(घ) पोलार्ड

4. “स्वतन्त्रता एवं समानता एक-दूसरे के पूरक हैं।” इस विचारधारा का समर्थक है-
(क) डी० टॉकविले
(ख) लॉर्ड एक्टन
(ग) क्रोचे
(घ) लॉस्की

5. “आर्थिक समानता के बिना राज़नीतिक स्वतन्त्रता एक भ्रम है।” यह कथन किसका है? [2014]
(क) लॉस्की का,
(ख) प्रो० जोड का
(ग) रूसो का
(घ) क्रोचे का

6. नागरिक स्वतन्त्रता निम्नलिखित में से किसे कहते हैं?
(क) रोजगार पाने की स्वतन्त्रता
(ख) कानून के समक्ष समानता
(ग) चुनाव लड़ने की स्वतन्त्रता
(घ) राजकीय सेवा प्राप्त करने की स्वतन्त्रता

7. ‘लिबर्टी (स्वतन्त्रता) की व्युत्पत्ति लिबर’ शब्द से हुई है, जो शब्द है- [2007, 13]
(क) संस्कृत भाषा का
(ख) लैटिन भाषा का
(ग) फ्रांसीसी भाषा का
(घ) हिब्रू भाषा का

8. “स्वतन्त्रता अति-शासन की विरोधी है।” यह कथन किसका है? [2011]
(क) कोल
(ख) सीले
(ग) लॉस्की
(घ) ग्रीन

9. यदि किसी व्यक्ति को आवागमन की स्वतन्त्रता नहीं प्राप्त है, तो उसे निम्नांकित में से किस स्वतन्त्रता से वंचित किया जा सकता है? [2013]
(क) नागरिक स्वतन्त्रता
(ख) प्राकृतिक स्वतन्त्रता
(ग) आर्थिक स्वतन्त्रता
(घ) धार्मिक स्वतन्त्रता

उत्तर

  1. (घ) रूसो,
  2. (घ) मैकेंजी,
  3. (ग) क्रोचे,
  4. (घ) लॉस्की,
  5. (ख) प्रो० जोड का,
  6. (ख) कानून के समक्ष समानता,
  7. (ख) लैटिन भाषा का,
  8. (ख) सीले,
  9. (ख) प्राकृतिक स्वतन्त्रता।

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 1 Exchange: Exchange System

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 1 Exchange: Exchange System (विनिमय : विनिमय प्रणालियाँ) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 1 Exchange: Exchange System (विनिमय : विनिमय प्रणालियाँ).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 1
Chapter Name Exchange: Exchange System (विनिमय : विनिमय प्रणालियाँ)
Number of Questions Solved 29
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 1 Exchange: Exchange System (विनिमय : विनिमय प्रणालियाँ)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
अर्थशास्त्र में विनिमय से आप क्या समझते हैं ? विनिमय से होने वाले लाभों एवं हानियों का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
प्रो० मार्शल के अनुसार, “दो पक्षों के बीच होने वाले धन के ऐच्छिक, वैधानिक तथा पारस्परिक हस्तान्तरण को ही विनिमय कहते हैं।”
प्रो० जेवेन्स के अनुसार, “कम आवश्यक वस्तुओं से अधिक आवश्यक वस्तुओं की अदल-बदल को ही विनिमय कहते हैं।”
ऐ० ई० वाघ के अनुसार, “हम एक-दूसरे के पक्ष में स्वामित्व के दो ऐच्छिक हस्तान्तरणों को विनिमय के रूप में परिभाषित कर सकते हैं।’
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि वस्तुओं के आदान-प्रदान को विनिमय कहते हैं, परन्तु वस्तुओं के सभी आदान-प्रदान को विनिमय नहीं कहा जा सकता। अर्थशास्त्र में केवल वही आदान-प्रदान विनिमय कहलाता है जो पारस्परिक, ऐच्छिक एवं वैधानिक हो।

विनिमय से लाभ
विनिमय क्रिया से प्राप्त लाभ निम्नवत् हैं

1. आवश्यकता की वस्तुओं की प्राप्ति – आवश्यकताओं में वृद्धि के कारण ही विनिमय का जन्म हुआ। आज व्यक्ति अपनी सभी आवश्यकताओं की वस्तुएँ स्वयं उत्पादित नहीं कर सकता। आवश्यकताओं की वृद्धि के कारण पारस्परिक निर्भरता बढ़ गयी है। विनिमय के माध्यम से व्यक्ति अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ प्राप्त कर सकता है। विनिमय के कारण ही आयात-निर्यात होता है।

2. प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण दोहन –
ज्ञान व सभ्यता के विकास के साथ-साथ आवश्यकताओं में भी तीव्र गति से वृद्धि हुई है तथा वस्तुओं की माँग बढ़ी है। इसीलिए वस्तुओं के . अधिक उत्पादन की आवश्यकता हुई। अधिक उत्पादन संसाधनों के कुशलतम दोहन पर ही निर्भर करता है। विनिमय के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम उपयोग किया जाता है।

3. बड़े पैमाने पर उत्पादन –
वर्तमान प्रतियोगिता व फैशन के युग में वस्तुओं का उत्पादन केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही नहीं, वरन् देश-विदेश के व्यक्तियों की माँग को भी ध्यान में रखकर बड़े पैमाने पर मशीनों द्वारा किया जाता है, जिससे वस्तुओं की बढ़ती हुई माँग को पूरा किया जा सके।

4. बाजार का विस्तार –
विनिमय के कारण ही वस्तुओं का आयात-निर्यात सम्भव हो सका है। विनिमय के क्षेत्र में वृद्धि के साथ-साथ वस्तुओं का बाजार भी विस्तृत होता जाता है। बड़े पैमाने पर वस्तुओं का उत्पादन होने से बढ़े हुए उत्पादन को निर्यात करके बाजार का क्षेत्र विस्तृत किया जा सकता है।

5. जीवन –
स्तर में सुधार विनिमय द्वारा आवश्यकता की वस्तुएँ सरलतापूर्वक कम कीमत पर उपलब्ध हो जाने से लोगों के जीवन-स्तर में सुधार होता है। अपने देश में अप्राप्त वस्तुएँ विदेशों से मँगाई जा सकती हैं। अत: विनिमय के माध्यम से लोगों का जीवन-स्तर ऊँचा होता है।

6. कार्य-कुशलता में वृद्धि –
विनिमय द्वारा लोगों की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। इसका मुख्य कारण आवश्यक वस्तुओं का सरलता से मिलना तथा उन वस्तुओं का उत्पादन करना है, जिनमें कोई व्यक्ति या राष्ट्र निपुणता प्राप्त कर लेता है। एक कार्य को निरन्तर करने से कार्य-निपुणता में वृद्धि होती है।

7. ज्ञान में वृद्धि –
विनिमय द्वारा मनुष्यों का परस्पर सम्पर्क बढ़ता है। फलस्वरूप व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के धर्म, रहन-सहन, भाषा, रीति-रिवाजों आदि का ज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रकार विनिमय द्वारा ज्ञान व सभ्यता में वृद्धि होती है।

8. राष्ट्रों में पारस्परिक मैत्री व सद्भावना –
विनिमय के कारण ही वस्तुओं का आयात-निर्यात सम्भव हो सका है; फलस्वरूप विश्व के विभिन्न राष्ट्र परस्पर निकट आये हैं। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर वस्तुओं की प्राप्ति हेतु निर्भर हो गया है। परिणामस्वरूप विभिन्न राष्ट्रों में मित्रता व सद्भावना बलवती हुई है।

9. विपत्तिकाल में सहायता – 
विनिमय द्वारा प्राकृतिक प्रकोप; जैसे – अकाल, बाढ़, भूकम्प, सूखा आदि के समय एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की सहायता करता है। इस प्रकार विनिमय के कारण परस्पर पास आये राष्ट्र विपत्तिकाल में सहायक सिद्ध होते हैं।

10. विनिमय से दोनों पक्षों को लाभ –
विनिमय द्वारा दोनों पक्षों को कम आवश्यक वस्तुओं के स्थान पर अधिक आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार विनिमय से दो व्यक्तियों या दो राष्ट्रों को लाभ मिलता है।

विनिमय से हानियाँ

1. आत्मनिर्भरता की समाप्ति – विनिमय के कारण व्यक्ति एवं राष्ट्र परस्पर निर्भर हो गये हैं, जिसके कारण आत्मनिर्भरता समाप्त हो गयी है। युद्ध या अन्य संकट के समय एक राष्ट्र अन्य राष्ट्र को वस्तुएँ देना बन्द कर देता है। इस स्थिति में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

2. राजनीतिक पराधीनता –
विनिमय के कारण विस्तारवादी नीति का प्रसार होता है। औद्योगिक दृष्टि से सबल राष्ट्र, निर्बल राष्ट्रों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेते हैं। उदाहरणस्वरूप-इंग्लैण्ड भारत में विनिमय (व्यापार) करने के लिए आया था, लेकिन उसने धीरे-धीरे भारत पर अपना अधिकार कर लिया। इस प्रकार विनिमय से राजनीतिक दासता की भय बना रहता है।

3. प्राकृतिक साधनों का अनुचित उपयोग –
विनिमय के कारण विनिमय क्रिया बलवती होती जाती है। आयात-निर्यात अधिक मात्रा में होने लगते हैं। शक्तिशाली राष्ट्र निर्बल राष्ट्रों के प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग अपने हित में करना प्रारम्भ कर देते हैं, जिससे उनका विकास अवरुद्ध होता जाता है।

4. अनुचित प्रतियोगिता –
विनिमय के कारण प्रत्येक राष्ट्र अपनी अतिरिक्त वस्तुओं को विश्व के बाजार में बेचना चाहता है। प्रत्येक राष्ट्र अपने निर्यात में वृद्धि कर अधिक लाभ प्राप्त करना चाहता है। इस प्रकार एक अनुचित व हानिकारक प्रतियोगिता प्रारम्भ हो जाती है और निर्बल राष्ट्रों को अधिक आर्थिक हानि उठानी पड़ती है।

5. युद्ध की सम्भावना –
शक्तिशाली राष्ट्र अपनी आर्थिक उन्नति हेतु बाजार की प्राप्ति तथा कच्चे माल की आपूर्ति हेतु संघर्ष करता है, जिसके कारण युद्ध की सम्भावना बनी रहती है।

6. असन्तुलित आर्थिक विकास –
विनिमय के कारण प्रत्येक देश उन वस्तुओं का अधिक उत्पादन करता है, जिनकी विदेशों में अधिक माँग होती है। इस प्रकार देश का आर्थिक विकास असन्तुलित रूप में होने लगता है। यह आर्थिक संकट में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न कर देता है जिससे क्षेत्रीय विषमताएँ भी बढ़ने लगती हैं। पर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि विनिमय में दोषों की अपेक्षा गुण अधिक हैं। विनिमय प्रक्रिया में जो दोष दृष्टिगत होते हैं वे मात्र गलत आर्थिक नीतियों के कारण हैं। यदि आर्थिक नीति विश्व-हित को ध्यान में रखकर निर्मित की जाए तो उक्त दोष दूर किये जा सकते हैं। विनिमय एक आवश्यक प्रक्रिया भी है, जिसके अभाव में विश्व की सम्पूर्ण प्रगति की कल्पना नहीं की जा सकती।

प्रश्न 2
वस्तु विनिमय प्रणाली क्या है ? इसके गुण व दोषों का वर्णन कीजिए। [2008, 11, 12]
या
वस्तु विनिमय प्रणाली क्या है ? इसकी कठिनाइयों का उल्लेख कीजिए। [2010]
या
विनिमय पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2012]
या
वस्तु विनिमय प्रणाली क्या है? वस्तु विनिमय प्रणाली के लाभों (गुणों) का वर्णन कीजिए। [2014]
या
संक्षेप में विनिमय में लाभ एवं हानियों का वर्णन कीजिए। [2014]
उत्तर:
आवश्यकता आविष्कारों की जननी है। अतः मनुष्य की आवश्यकताओं में वृद्धि के कारण ही ‘विनिमय’ का आविष्कार (जन्म) हुआ। यह विनिमय अब तक दो रूपों में प्रचलित है

  1.  प्रत्यक्ष विनिमय अथवा वस्तु विनिमय तथा
  2. परोक्ष विनिमय अथवा क्रय-विक्रय प्रणाली।

वस्तु विनिमय प्रणाली वस्तु विनिमय प्रणाली को अदला-बदली की प्रणाली भी कहते हैं जो कि विनिमय की प्राचीन पद्धति है। इस प्रणाली में वस्तुओं तथा सेवाओं को प्रत्यक्ष रूप से आदान-प्रदान किया जाता है अर्थात् जब कोई व्यक्ति अपनी किसी वस्तु या सेवा के बदले किसी अन्य व्यक्ति से अपनी आवश्यकता की कोई वस्तु या सेवा प्राप्त करता है तो इस क्रिया को अदल-बदल या वस्तु विनिमय या प्रत्यक्ष विनिमय कहते हैं। इस प्रणाली के अन्तर्गत मुद्रा (द्रव्य) का प्रयोग नहीं होता बल्कि वस्तुओं तथा सेवाओं का आदान-प्रदान होता है। भारत के ग्रामों में आज भी अनाज के बदले सब्जी ली जाती है या ग्रामों में नाई, बढ़ई, धोबी आदि को उनकी सेवाओं के बदले अनाज दिया जाता है।

वस्तु विनिमय की परिभाषा
प्रो० थॉमस के अनुसार-“एक वस्तु से दूसरी वस्तु के प्रत्यक्ष विनिमय को ही वस्तु विनिमय कहते हैं।”
प्रो० जेवेन्स के अनुसार, “अपेक्षाकृत कम आवश्यक वस्तु से अधिक आवश्यक वस्तुओं का आदान-प्रदान ही वस्तु विनिमय है।”

वस्तु विनिमय प्रणाली के गुण/लाभ
वस्तु विनिमय प्रणाली में निम्नलिखित गुण (लाभ) विद्यमान हैं

1. सरलता – वस्तु विनिमय प्रणाली एक सरल प्रक्रिया है, क्योंकि इसमें वस्तु के बदले वस्तु का लेन-देन होता है। एक व्यक्ति अपनी अतिरिक्त वस्तु दूसरे जरूरतमन्द व्यक्ति को देकर उसके बदले अपनी आवश्यकता की वस्तु उस व्यक्ति से प्राप्त कर लेता है।

2. पारस्परिक सहयोग –
वस्तु विनिमय प्रणाली से आपसी सहयोग में वृद्धि होती है, क्योंकि मनुष्य अपनी अतिरिक्त वस्तुओं को अपने समीप के व्यक्ति को देकर उससे अपनी आवश्यकता की वस्तु प्राप्त कर लेता है, जिससे उनमें पारस्परिक सहयोग की भावना बलवती होती है।

3. धन का विकेन्द्रीकरण –
वस्तु विनिमय प्रणाली में मुद्रा पद्धति के अभाव के कारण धन का केन्द्रीकरण कुछ ही हाथों में न होकर समाज के सीमित क्षेत्र के लोगों में बँट जाता है। वस्तुओं के शीघ्र नष्ट होने के भय के कारण वे वस्तुओं का संग्रहण अधिक मात्रा में नहीं कर पाते हैं। अत: वस्तु विनिमय प्रणाली में सभी पारस्परिक सहयोग की भावना से मानव-हित को सर्वोपरि मानकर कार्य करते हैं।

4. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए उपयुक्त –
विभिन्न देशों की मुद्राओं में भिन्नता के कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के भुगतान की समस्या बनी रहती है, जबकि
वस्तुओं के माध्यम से भुगतान सरलता से हो जाता है। वस्तु विनिमय द्वारा इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकती है।

5. मौद्रिक पद्धति के दोषों से मुक्ति –
वस्तु विनिमय प्रणाली मुद्रा-प्रसार व मुद्रा-संकुचन के दोषों से मुक्त है, क्योंकि इसमें वस्तुएँ मुद्रा से नहीं बल्कि वस्तुओं के पारस्परिक आदान-प्रदान से ही प्राप्त की जाती हैं। इससे वस्तुओं के सस्ते या महँगे होने का भय नहीं रहता। परिणामस्वरूप मुद्रा की मात्रा की वस्तुओं के मूल्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

6. दोनों पक्षों को उपयोगिता का लाभ –
वस्तु-विनिमय की क्रिया उन्हीं व्यक्तियों द्वारा की जाती है, जिनके पास वस्तुओं का आधिक्य होता है, जबकि सम्बन्धित वस्तु की उपयोगिता उस व्यक्ति के लिए अपेक्षाकृत कम होती है। यह सर्वमान्य है कि व्यक्ति कम उपयोगी वस्तु को देकर अधिक उपयोगी वस्तुएँ प्राप्त करना चाहता है। इस प्रकार वस्तु विनिमय की क्रिया में दोनों पक्षों को ही उपयोगिता का लाभ प्राप्त होता है।

वस्तु विनिमय की असुविधाएँ या कठिनाइयाँ या दोष
वस्तु विनिमय प्रणाली की प्रमुख कठिनाइयाँ निम्नवत् हैं

1. दोहरे संयोग का अभाव – वस्तु विनिमय प्रणाली की सबसे बड़ी कठिनाई दोहरे संयोग का अभाव है। इस प्रणाली के अन्तर्गत मनुष्य को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ऐसे व्यक्ति की खोज में भटकना पड़ता है जिसके पास उसकी आवश्यकता की वस्तु हो और वह व्यक्ति अपनी वस्तु देने के लिए तत्पर हो तथा वह बदले में स्वयं की उस मनुष्य की वस्तु लेने के लिए तत्पर हो। उदाहरण के लिए-योगेश के पास गेहूँ हैं और वह गेहूं के बदले चावल प्राप्त करना चाहता है, तो योगेश को ऐसा व्यक्ति खोजना पड़ेगा जिसके पास चावल हों और साथ-ही-साथ वह बदले में गेहूं लेने के लिए तैयार हो। इस प्रकार दो पक्षों का ऐसा पारस्परिक संयोग, जो एक-दूसरे की आवश्यकता की वस्तुएँ प्रदान कर सके, मिलना कठिन हो जाता है।

2. मूल्य के सर्वमान्य माप का अभाव – इस प्रणाली में मूल्य का कोई ऐसा सर्वमान्य माप नहीं होता जिसके द्वारा प्रत्येक वस्तु के मूल्य को विभिन्न वस्तुओं के सापेक्ष निश्चित किया जा सके। इस स्थिति में दो वस्तुओं के बीच विनिमय दर निर्धारित करना कठिन होता है। दोनों पक्ष अपनी-अपनी वस्तु को अधिक मूल्य ऑकते हैं तथा वस्तु विनिमय कार्य में कठिनाई होती है।

3. वस्तु के विभाजन की कठिनाई – कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिनका विभाजन नहीं किया जा सकता; जैसे – गाय, बैल, भेड़, बकरी, कुर्सी, मेज आदि। वस्तु विनिमय प्रणाली में वस्तुओं की अविभाज्यता भी बहुधा कठिनाई का कारण बन जाती है। उदाहरण के लिए-यदि योगेश के पास एक गाय है और वह इसके बदले में खाद्यान्न, कपड़े तथा रेडियो चाहता है, तो इस स्थिति में योगेश को अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ प्राप्त करना कठिन हो जाएगा। वह ऐसे व्यक्ति को शायद ही खोज पाएगा जो उससे गाय लेकर उसकी सभी आवश्यक वस्तुएँ दे सके। साथ ही योगेश के लिए गाय का विभाजन करना भी असम्भव है, क्योंकि विभाजन करने से गाय का मूल्य या तो बहुत ही कम हो जाएगा या कुछ भी नहीं रह जाएगा।

4. मूल्य संचय की असुविधा – वस्तु विनिमय प्रणाली में वस्तुओं को अधिक समय तक संचित करके नहीं रखा जा सकता, क्योंकि वस्तुएँ नाशवान् होती हैं। वस्तुओं के मूल्य भी स्थिर नहीं रहते हैं; अतः वस्तुओं को धन के रूप में संचित करना कठिन होता है।

5. मूल्य हस्तान्तरण की असुविधा – वस्तु विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत वस्तु के मूल्य को हस्तान्तरित करने में कठिनाई उत्पन्न होती है। उदाहरण के लिए-योगेश के पास मेरठ में एक मकान है। यदि वह अब अपने गाँव में रहना चाहता है तो वस्तु विनिमय प्रणाली की स्थिति में वह अपने मकान को न तो बेचकर धन प्राप्त कर सकता है और न ही उस मकान को अपने साथ जहाँ चाहे ले जा सकता है। इस प्रकार उसके सामने बहुत बड़ी असुविधा उत्पन्न हो जाती है।

6. स्थगित भुगतानों में कठिनाई – वस्तु विनिमय प्रणाली में वस्तु के मूल्य स्थिर नहीं होते हैं। तथा वस्तुएँ कुछ समय के पश्चात् नष्ट होनी प्रारम्भ हो जाती हैं। इस कारण उधार लेन-देन में असुविधा रहती है। यदि वस्तुओं के मूल्य का भुगतान तुरन्त न करके कुछ समय के बाद किया जाता है तब सर्वमान्य मूल्य-मापक के अभाव के कारण बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न हो जाती है।

प्रश्न 3
द्रव्य के प्रयोग ने वस्तु विनिमय की कठिनाइयों को किस प्रकार दूर कर दिया है ? समझाइए।
उत्तर:
द्रव्य या मुद्रा के प्रादुर्भाव से वस्तु विनिमय की कठिनाइयों का निवारण
वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाइयों के कारण एक ऐसी वस्तु की आवश्यकता प्रतीत हुई जिसके द्वारा वस्तु विनिमय की कठिनाइयाँ दूर हो सकें तथा विनिमय प्रक्रिया में सुविधा व सरलता हो। इसी आवश्यकता ने मुद्रा (द्रव्य) को जन्म दिया। द्रव्य के माध्यम से अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय-विक्रय प्रणाली प्रारम्भ हुई जिसने वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाइयों का निवारण किया। हैन्सन का यह कथन सत्य है कि, “मुद्रा का जन्म वस्तु विनिमय की कठिनाइयों से सम्बन्धित है।”
द्रव्य के प्रयोग से वस्तु विनिमय की कठिनाइयों का निवारण हो गया है, जो निम्नवत् है

1. आवश्यकताओं के दोहरे संयोग के अभाव का निवारण – द्रव्य के प्रादुर्भाव से आवश्यकताओं के दोहरे संयोग का अभाव समाप्त हो गया है। अब क्रय-विक्रय प्रणाली के अन्तर्गत ऐसे व्यक्ति की खोज नहीं करनी पड़ती जिसके पास आपकी आवश्यकता की वस्तु हो तथा वह बदले में उस वस्तु को स्वीकार कर सके जो आपके पास हो। द्रव्य के प्रयोग से विनिमय प्रक्रिया दो उपविभागों में बँट जाती है—क्रय तथा विक्रय। अपनी अतिरिक्त वस्तु को बाजार में बेचकर मुद्रा प्राप्त की जा सकती है। और द्रव्य के द्वारा अपनी आवश्यकता की वस्तु सरलतापूर्वक बाजार से क्रय की जा सकती है।

2. मूल्यों के सर्वमान्य माप की समस्या का अन्त – द्रव्य के चलन से प्रत्येक वस्तु को मूल्य द्रव्य में व्यक्त किया जाता है। अतः विनिमय करते समय वस्तु विनिमय की भाँति यह चिन्ता नहीं रहती कि क्रय की जाने वाली वस्तु के लिए हमें कितना मूल्य देना पड़ेगा। द्रव्य के प्रचलन से अब सभी वस्तुओं व सेवाओं का मूल्य द्रव्य के द्वारा निर्धारित किया जा सकता है। द्रव्य में सर्वमान्यता का गुण पाये जाने के कारण अब सभी वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्यांकन द्रव्य के माध्यम से सम्भव हो जाता है; अतः द्रव्य ने वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य मापन की समस्या का अन्त कर दिया है।

3. वस्तु विभाजन की कठिनाई का निवारण – वस्तु विनिमय प्रणाली में अविभाज्य वस्तुओं के विनिमय में कठिनाई उत्पन्न होती थी। द्रव्य ने इस समस्या को दूर कर दिया है। अब अविभाज्य वस्तु को विक्रय करके द्रव्य प्राप्त किया जा सकता है तथा इस द्रव्य के माध्यम से आवश्यकता की विभिन्न वस्तुएँ क्रय की जा सकती हैं।

4. मूल्य के संग्रह का कार्य सरल – द्रव्य के प्रादुर्भाव से मूल्य संचय का कार्य सरल व सुविधाजनक हो गया है। अब आवश्यकता से अधिक वस्तुओं को बेचकर द्रव्य प्राप्त कर लिया जाता है तथा उस द्रव्ये को बैंक, डाकघर आदि में जमा करके लम्बे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। मुद्रा का मूल्य स्थिर रहता है तथा यह शीघ्र नष्ट भी नहीं होता है। अतः मूल्य संग्रह की कोई समस्या उत्पन्न नहीं होती है।

5. मूल्य के हस्तान्तरण में सुविधा – वस्तु विनिमय प्रणाली में एक व्यक्ति अपनी सम्पत्ति को या अपने पास संगृहीत मूल्य को एक स्थान से दूसरे स्थान पर सरलता से नहीं ले जा सकता था। वर्तमान समय में द्रव्य ने इस असुविधा को दूर कर दिया है। अब व्यक्ति अपनी चल वे अचल सम्पत्ति का विक्रय करके प्राप्त द्रव्य को जहाँ चाहे ले जा सकता हैं।

6. भावी भुगतान की समस्या का समाधान – द्रव्य के चलन से भावी भुगतान की समस्या का निराकरण हो गया है। मुद्रा के माध्यम से भुगतानों को भावी समय के लिए स्थगित करना या उधार का लेन-देन करना सरल हो गया है।
उपर्युक्तं विवेचन से स्पष्ट है कि द्रव्य के प्रादुर्भाव से वस्तु विनिमय की समस्त कठिनाइयों का निवारण हो गया है। हैन्सन का यह कथन है कि, “मुद्रा का जन्म वस्तु विनिमय की कठिनाइयों से सम्बन्धित है’, सत्य है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
प्रत्यक्ष एवं परोक्ष विनिमय के अन्तर को स्पष्ट कीजिए।
या
वस्तु विनिमय तथा क्रय-विक्रय में अन्तर बताइए।
उत्तर:
विनिमय के दो रूप होते हैं (1) प्रत्यक्ष विनिमय या वस्तु विनिमय या अल-बदल प्रणाली। (2) अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय-विक्रय प्रणाली।।

1. प्रत्यक्ष विनिमय या वस्तु विनिमय प्रणाली – “जब दो व्यक्ति परस्पर अपनी वस्तुओं तथा सेवाओं का प्रत्यक्ष रूप से आदान-प्रदान करते हैं, तब इस प्रकार की क्रिया को हम अर्थशास्त्र में वस्तु विनिमय (Barter) कहते हैं।” वस्तु विनिमय = वस्तु → वस्तु। उदाहरण के लिए–भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी अनाज देकर सब्जी प्राप्त की जाती है तथा नाई, धोबी, बढ़ई आदि को उनकी सेवाओं के बदले में अनाज दिया जाता है।

2. अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय-विक्रय प्रणाली –
जब विनिमय का कार्य मुद्रा (द्रव्य) के माध्यम द्वारा किया जाता है तो इस प्रणाली को क्रय-विक्रय अथवा अप्रत्यक्ष विनिमय कहते हैं। दूसरे शब्दों में, जब कोई व्यक्ति मुद्रा देकर किसी वस्तु या सेवा को क्रय करता है या किसी वस्तु या सेवा को देकर मुद्रा प्राप्त की जाती है, तब इस क्रिया को अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय-विक्रय प्रणाली कहते हैं।
अप्रत्यक्ष विनिमय = वस्तु → मुद्रा → वस्तु।
विनिमय के इन दोनों प्रकार के अन्तर को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है

क्र०सं० प्रत्यक्ष विनिमय या वस्तु विनिमय प्रणाली अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय-विक्रय प्रणाली
1. जब कोई व्यक्ति अपनी किसी वस्तु या सेवा के बदले किसी अन्य व्यक्ति से अपनी आवश्यकता की कोई वस्तु या सेवा प्राप्त करता है तो उसे प्रत्यक्ष विनिमय या वस्तु विनिमय कहते हैं। जब वस्तुओं एवं सेवाओं का मुद्रा (द्रव्य) के माध्यम से विनिमय होता है तब इसे अप्रत्यक्ष विनिमय कहते हैं।
2. प्रत्यक्ष विनिमय, विनिमय की एक पूर्ण प्रक्रिया है। इस प्रणाली में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को वस्तुएँ या सेवाएँ देता है तथा बदले में उसी समय वस्तुएँ या सेवाएँ प्राप्त करता है। अप्रत्यक्ष विनिमय में विनिमय प्रक्रिया दो उपविभागों-क्रय तथा विक्रय–में विभक्त की जा सकती है। विक्रय तथा क्रय के पश्चात् ही विनिमय प्रक्रिया पूर्ण होती है।
3. प्रत्यक्ष विनिमय में द्रव्य का प्रयोग नहीं होता है। अप्रत्यक्ष विनिमय में द्रव्य का प्रयोग किया जाता है।
4. प्रत्यक्ष विनिमय में आवश्यकता से अतिरिक्त वस्तुओं एवं सेवाओं के बदले आवश्यकता की वस्तुएँ तथा सेवाएँ प्राप्त की जाती हैं। अप्रत्यक्ष विनिमय में वस्तु या सेवा के बदले पहले द्रव्य प्राप्त किया जाता है तथा फिर द्रव्य के बदले आवश्यकता की वस्तुएँ या सेवाएँ प्राप्त की जाती हैं।
5. वस्तु विनिमय प्रणाली को उपयोग केवल सीमित क्षेत्र में ही सम्भव होता है। अप्रत्यक्ष विनिमय का उपयोग विस्तृत क्षेत्र में किया जा सकता है।
6. वस्तु विनिमय का प्रचलन प्रायः उस अवस्था में होता है, जब कि मनुष्य की आवश्यकताएँ बहुत कम, सरल तथा सीमित होती हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं की वृद्धि के कारण ही अप्रत्यक्ष विनिमय के द्वारा अधिकाधिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है।
7. वस्तु विनिमय प्रणाली में वस्तु की अदल-बदल एक व्यक्ति के साथ अर्थात् जिसे आप अपनी वस्तु वस्तु देते हैं, बदले में आप उसकी वस्तु को प्राप्त करते हैं, की जाती है। अप्रत्यक्ष विनिमय में वस्तुओं का क्रय-विक्रय एक ही व्यक्ति के साथ नहीं करना पड़ता है। वस्तु का क्रय एक व्यक्ति से तथा विक्रय अन्य व्यक्ति को किया जाता है।
8. वस्तु विनिमय को प्रचलन केवल ऐसे समाज में होता है जो आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा होता है अथवा जिसमें द्रव्य का चलन नहीं होता है। अप्रत्यक्ष विनिमय सभ्य व विकसित समाज में प्रचलित होता है।

प्रश्न 2
आधुनिक युग में वस्तु विनिमय प्रणाली क्यों सम्भव नहीं है? कारण बताइए। [2007]
उत्तर:
आधुनिक युग में वस्तु विनिमय का स्थान प्राचीनकाल में मनुष्य की आवश्यकताएँ कम, सीमित तथा सरल थीं। द्रव्य का प्रचलन नहीं था। इस कारण वस्तु विनिमय प्रणाली प्रचलित थी। ज्ञान व सभ्यता के विकास के साथ-साथ मनुष्य की आवश्यकताओं में निरन्तर वृद्धि होने के कारण इस प्रणाली में असुविधाएँ उत्पन्न होने लगीं तथा वस्तु विनिमय के लिए जो आवश्यक परिस्थितियाँ या दशाएँ होनी चाहिए थीं, प्रायः उनका लोप भी होने लगा। वर्तमान में वस्तु विनिमय प्रणाली सम्भव नहीं है। अब यह समाप्त होती जा रही है। इसके मुख्य कारण निम्नलिखित हैं

1. आवश्यकताओं में अत्यधिक वृद्धि – आज समाज की आवश्यकताएँ बहुत अधिक बढ़ गयी हैं। उपभोक्ता-स्तर बढ़ने के कारण अधिक वस्तुएँ और उनके व्यापक विनिमय की प्रणाली प्रारम्भ हो गयी है। ऐसी अवस्था में वस्तु विनिमय से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं की जा सकती।

2. उत्पादन में निरन्तर वृद्धि –
आज प्रायः प्रत्येक देश में बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जा रहा है, जिसके कारण उत्पादन बढ़ रहा है। इस अधिक उत्पादन का विनिमय, वस्तु-विनिमय प्रणाली के माध्यम से होना असम्भव है।

3. तीव्र गति से आर्थिक विकास –
आधुनिक युग में प्रत्येक देश आर्थिक नियोजन के माध्यम से अपने आर्थिक विकास की ओर अग्रसर है। इस स्थिति में वस्तु-विनिमय प्रणाली सर्वथा अनुचित है। वितरण की समस्या, विशाल उत्पादन, राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में प्रतियोगिता के कारण वस्तु-विनिमय प्रणाली असम्भव है।

4. मुद्रा या द्रव्य का प्रचलन –
आज प्रायः संसार के सभी देशों में मुद्रा का प्रचलन है। इस स्थिति में वस्तु विनिमय प्रणाली की बातें करना अज्ञप्नता है।

5. व्यापार का विस्तार –
शनैः-शनैः देशी तथा विदेशी व्यापार में वृद्धि होती जा रही है। ऐसी स्थिति में वस्तु विनिमय प्रणाली का उपयोग नहीं किया जा सकता।

6. यातायात के साधनों का विस्तार –
परिवहन के साधनों में विकास के कारण सम्पूर्ण विश्व एक इकाई बन गया है। उत्पादन तथा व्यापार में वृद्धि होती जा रही है। इस कारण वस्तु विनिमय प्रणाली सफल नहीं है।

7. जीवन-स्तर में वृद्धि –
ज्ञान व सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानवीय आवश्यकताएँ तीव्र गति से बढ़ती जा रही हैं। मनुष्यों में उपभोग प्रवृत्ति बढ़ रही है। इस कारण जीवन-स्तर में वृद्धि हो । रही है। शिक्षा का स्तर ऊँचा उठ रहा है। इन परिस्थितियों में आज वस्तु विनिमय प्रणाली की बातें अव्यावहारिक हैं।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अब वस्तु विनिमय प्रणाली समाप्त हो गयी है, परन्तु कुछ पिछड़े हुए तथा अल्प-विकसित क्षेत्रों में इस प्रणाली का प्रचलन आज भी है। भारत के कुछ भागों में अब भी नाई, धोबी, बढ़ई, खेतिहर मजदूर आदि को उनकी सेवाओं के बदले में अनाज दिया जाता है। तथा कुछ वस्तुएँ जैसे सब्जी आदि अनाज के बदले में ही ली जाती हैं। इस कारण आज भी वस्तु विनिमय प्रणाली पूर्णतः समाप्त नहीं हुई है।

प्रश्न 3
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में वस्तु विनिमय प्रणाली आज भी प्रचलित है, क्यों ? समझाइए।
उत्तर:
ग्रामीण क्षेत्रों में वस्तु विनिमय प्रणाली के प्रचलन के कारण

1. ग्रामीण समाज का पिछड़ापन – भारतीय ग्रामीण समाज आज भी पिछड़ी तथा दीन-हीन अवस्था में है। अधिकांश लोग अशिक्षित हैं। वे द्रव्य द्वारा हिसाब-किताब नहीं लगा पाते हैं। वस्तु विनिमय प्रणाली की सरलता आज भी उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर रही है।

2. सीम्मित आवश्यकताएँ – ग्रामीण क्षेत्र आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी हुई अवस्था में हैं। ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण लोगों की आवश्यकताएँ कम हैं, जिसके कारण वस्तु-विनिमय प्रथा आज भी प्रचलित है।

3. यातायात के साधनों का अभाव – ग्रामीण क्षेत्रों में यातायात के साधनों की अपर्याप्तता के कारण वे अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ नगरीय बाजारों से प्राप्त करने में असमर्थ हैं। वे अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ अपने गाँव में ही एक-दूसरे से प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। इस कारण वस्तु विनिमय प्रणाली अब भी विद्यमान है।

4. कृषि पर निर्भरता – ग्रामीण समाज कृषि-प्रधान है। किसान को प्रतिमाह या प्रतिदिन आय प्राप्त नहीं होती है। केवल फसल के समय ही किसान को फसल के रूप में अनाज प्राप्त होता है। अत: वह अपने सभी आश्रितों (जैसे-नाई, धोबी, बढ़ई आदि) को फसल के रूप में ही पूरे वर्ष का पारिश्रमिक दे देता है। इस प्रकार किसान द्रव्य के अभाव में अनाज द्वारा ही अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ प्राप्त करता है। इस कारण आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में वस्तु विनिमय प्रणाली विद्यमान है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में वस्तु विनिमय का प्रयोग आज भी सीमित मात्रा में विद्यमान है; परन्तु यह पूर्ण विनिमय न होकर अल्प मात्रा में ही वस्तु विनिमय है, क्योंकि इस प्रणाली में वस्तुओं के मूल्यांकन का आधार वस्तुतः द्रव्य ही है। अत: वह पूर्ण वस्तु विनिमय नहीं है।

प्रश्न 4
विनिमय से दोनों पक्षों को तुष्टिगुण का लाभ होता है, समझाइए।
उत्तर:
विनिमय से दोनों पक्षों को उपयोगिता तुष्टिगुण का लाभ
विनिमय क्रिया में प्रत्येक पक्ष कम आवश्यक वस्तु देकर अधिक आवश्यक वस्तु प्राप्त करता है। अर्थात् एक पक्ष उस वस्तु को दूसरे व्यक्ति को देता है जो उसके पास आवश्यकता से अधिक है तथा जिसकी कम उपयोगिता है और बदले में उस वस्तु को लेता है जिसकी उसे अधिक आवश्यकता या तुष्टिगुण होता है। अतः विनिमय से दोनों पक्षों को उपयोगिता का लाभ होता है। यदि किसी भी पक्ष को हानि होगी तब विनिमय सम्पन्न नहीं होगा। इस तथ्य का स्पष्टीकरण निम्नलिखित उदाहरण द्वारा किया जा सकता है

उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण – माना प्रिया व अरुणा के पास क्रमशः आम व सेब की कुछ इकाइयाँ हैं। वे परस्पर विनिमय करना चाहते हैं। दोनों को एक-दूसरे की वस्तु की आवश्यकता है। क्रमागत तुष्टिगुण ह्रास नियम के अनुसार, प्रिया व अरुणा की आम व सेब की इकाइयों का तुष्टिगुण क्रमशः घटता जाता है, परन्तु जब विनिमय प्रक्रिया दोनों के मध्य प्रारम्भ होती है तब दोनों के पास आने वाली इकाइयों का तुष्टिगुण अधिक होता है तथा बदले में दोनों अपनी अतिरिक्त इकाइयों का त्याग करती हैं जिनका तुष्टिगुण अपेक्षाकृत कम होता है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक दोनों पक्षों को तुष्टिगुण का लाभ मिलता रहता है।
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उपर्युक्त तालिका के अनुसार प्रिया व अरुणा में विनिमय प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। प्रिया आम की एक इक देकर अरुणा से सेब की एक इकाई प्राप्त करती है। प्रिया को सेब की प्रथम इकाई से प्राप्त तुष्टिगुण से अधिक होता है। उसे सेब की पहली इकाई से 25 इकाई तुष्टिगुण मिलता है। सेब के बदले उपर्युक्त तालिका के अनुसार प्रिया व अरुणा में विनिमय प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। प्रिया आम की एक इकाई देकर अरुणा से सेब की एक इकाई प्राप्त करती है। प्रिया को सेब की प्रथम इकाई से प्राप्त तुष्टिगुण से अधिक होता है। उसे सेब की पहली इकाई से 25 इकाई तुष्टिगुण मिलता है।

सेब के बदले में वह आम की अन्तिम इकाई, जिसका तुष्टिगुण 6 इकाई है, देती है। इस प्रकार उसे 25 – 6 = 19 तुष्टिगुण का लाभ होता है। इसी प्रकार अरुणा सेब की अन्तिम इकाई, जिसका तुष्टिगुण 4 है, को देकर आम की पहली इकाई जिससे उसे 20 तुष्टिगुण मिलता है, प्राप्त करती है। उसे 20 – 4= 16 तुष्टिगुण के बराबर लाभ मिलता है। विनिमय की यह प्रक्रिया आम व सेब की तीसरी इकाई तक निरन्तर चलती रहती है, क्योंकि विनिमय से दोनों पक्षों को लाभ होता रहता है। परन्तु दोनों पक्ष चौथी इकाई के विनिमय हेतु तैयार नहीं होते हैं, क्योंकि अब विनिमय प्रक्रिया से उन्हें हानि होती है। इस प्रकार दोनों पक्ष उस सीमा तक ही विनिमय करते हैं जब तक दोनों पक्षों को लाभ प्राप्त होता है। अत: यह कथन कि विनिमय से दोनों पक्षों को तुष्टिगुण का लाभ प्राप्त होता है, सत्य है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
विनिमय की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
विनिमय में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं

  1. दो पक्षों का होना – विनिमय क्रिया के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों या दो पक्षों का होना आवश्यक है। अकेला व्यक्ति विनिमय प्रक्रिया को सम्पादित नहीं कर सकता।
  2.  वस्तु, सेवा या धन का हस्तान्तरण – विनिमय क्रिया में सदैव वस्तु, सेवा या धन को हस्तान्तरण किया जाता है।
  3.  वैधानिक हस्तान्तरण – विनिमय क्रिया में धन का वैधानिक हस्तान्तरण होता है। धन का अवैधानिक हस्तान्तरण विनिमय नहीं है।
  4.  ऐच्छिक हस्तान्तरण – विनिमय क्रिया में वस्तुओं व सेवाओं अर्थात् धन का हस्तान्तरण ऐच्छिक होता है। किसी दबाव के अन्तर्गत किया गया धन का हस्तान्तरण विनिमय नहीं है।
  5. लेन-देन पारस्परिक होना – धन या वस्तुओं का लेन-देन दो या दो से अधिक पक्षों के बीच पारस्परिक लाभ प्राप्त करने के लिए होता है। विक्रेता वस्तु देकर उसको मूल्य प्राप्त करता है और क्रेता पैसे देकर वस्तु।

उपर्युक्त लक्षणों के आधार पर कहा जा सकता है कि “दो पक्षों के बीच होने वाले धन के ऐच्छिक, वैधानिक तथा पारस्परिक हस्तान्तरण को ही विनिमय कहते हैं।”

प्रश्न 2
विनिमय क्रिया के लिए कौन-कौन से आवश्यक तत्त्व हैं ?
या
विनिमय की शर्ते बताइए।
उत्तर:
विनिमय की शर्ते (तत्त्व) निम्नलिखित हैं

  1. विनिमय क्रिया को सम्पादित करने के लिए दो पक्षों का होना आवश्यक है।
  2.  विनिमय क्रिया तभी सम्भव होगी जब दोनों पक्षों के पास दो या दो से अधिक प्रकार की वस्तुएँ होंगी।
  3. विनिमय तभी सम्भव है जब दोनों पक्षों को एक-दूसरे की वस्तुओं की आवश्यकता हो तथा वे परस्पर विनिमय हेतु स्वेच्छा से तत्पर हों।
  4.  विनिमय क्रिया में दोनों पक्षों को लाभ होना चाहिए, अन्यथा विनिमय सम्भव नहीं होगा।
  5.  विनिमय क्रिया में दो या दो से अधिक वस्तुएँ यथेष्ठ मात्रा में उपलब्ध होनी चाहिए। यदि वस्तुएँ व्यक्ति के पास केवल उसकी आवश्यकता-पूर्ति तक ही सीमित हैं तब विनिमय नहीं हो सकता।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
विनिमय के दो प्रकारों को लिखिए।
उत्तर:
(1) वस्तु विनिमय या प्रत्यक्ष विनिमय तथा
(2) अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय-विक्रय।

प्रश्न 2
वस्तु विनिमय से आप क्या समझते हैं ? [2008, 09, 10, 13, 15]
उत्तर:
“कम आवश्यक वस्तुओं से अधिक आवश्यक वस्तुओं की अदल-बदल को ही वस्तु विनिमय कहते हैं।”

प्रश्न 3
वस्तु विनिमय प्रणाली की दो आवश्यक दशाएँ लिखिए।
उत्तर:
(1) सीमित आवश्यकताएँ तथा
(2) अविकसित अर्थव्यवस्था तथा पिछड़ा समाज।

प्रश्न 4
विनिमय के दो प्रमुख लक्षण बताइए।
उत्तर:
(1) दो पक्षों का होना तथा
(2) वस्तुओं तथा सेवाओं का ऐच्छिक हस्तान्तरण।

प्रश्न 5
आधुनिक युग में वस्तु विनिमय प्रणाली क्यों सम्भव नहीं है ? दो कारण लिखिए। [2007]
उत्तर:
(1) आवश्यकताओं में तीव्र गति से वृद्धि तथा
(2) मुद्रा का प्रचलन।

प्रश्न 6
मौद्रिक विनिमय के दो लाभ बताइए। [2016]
उत्तर:
(1) मूल्य का सर्वमान्य मापन तथा
(2) मूल्य संचय की सुविधा।

प्रश्न 7
प्रत्यक्ष विनिमय एवं अप्रत्यक्ष विनिमय का अर्थ स्पष्ट कीजिए। [2008]
उत्तर:
जब कोई व्यक्ति अपनी किसी वस्तु या सेवा के बदले अन्य व्यक्ति से अपनी आवश्यकता की कोई वस्तु या सेवा प्राप्त करता है, तो उसे प्रत्यक्ष विनिमय कहते हैं। जब वस्तुओं एवं सेवाओं का मुद्रा (द्रव्य) के माध्यम से विनिमय होता है तब इसे अप्रत्यक्ष विनिमय कहते हैं।

प्रश्न 8
विनिमय की आवश्यकता क्यों हुई ?
उत्तर:
मनुष्य की निरन्तर बढ़ती हुई आवश्यकता के कारण उनमें पारस्परिक निर्भरता बढ़ने के फलस्वरूप विनिमय सम्बन्धी क्रियाओं का विकास होता चला गया।

प्रश्न 9
विनिमय के लिए एक आवश्यक शर्त क्या है ?
उत्तर:
विनिमय के लिए दो पक्षों का होना अति आवश्यक है।

प्रश्न 10
विनिमय से प्राप्त किन्हीं दो लाभों को लिखिए।
उत्तर:
(1) आवश्यकता की वस्तुओं की प्राप्ति तथा
(2) बड़े पैमाने पर उत्पादन।

प्रश्न 11
विनिमय से होने वाली किन्हीं दो हानियों को लिखिए। [2016]
उत्तर
(1) आत्मनिर्भरता की समाप्ति तथा
(2) राजनीतिक पराधीनता।

प्रश्न 12
वस्तु विनिमय पद्धति की दो कठिनाइयाँ बताइए। [2014, 16]
उत्तर:
(1) दोहरे संयोग का अभाव तथा
(2) मूल्य-मापन में कठिनाई।

प्रश्न 13
किस विनिमय प्रणाली की कठिनाइयाँ मौद्रिक विनिमय प्रणाली द्वारा दूर हुईं? [2007]
उत्तर:
वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाइयाँ मौद्रिक विनिमय प्रणाली द्वारा दूर हुईं।

प्रश्न 14
क्रय-विक्रय प्रणाली में विनिमय को माध्यम क्या होता है? [2014]
उत्तर:
क्रय-विक्रय प्रणाली में अप्रत्यक्ष विनिमय होता है अर्थात् मुद्रा का प्रयोग होता है।

प्रश्न 15
एक वस्तु को दूसरी वस्तु से बदलने की प्रणाली ” कहलाती है। [2014]
उत्तर:
वस्तु विनिमय।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
“कम आवश्यक वस्तुओं से अधिक आवश्यक वस्तुओं की अदल-बदल को ही विनिमय कहते हैं।” यह कथन है
(क) प्रो० मार्शल का
(ख) एडम स्मिथ का
(ग) जेवेन्स का
(घ) रॉबिन्स को
उत्तर:
(ग) जेवेन्स का।

प्रश्न 2
“दो पक्षों के मध्य होने वाले धन के ऐच्छिक, वैधानिक तथा पारस्परिक हस्तान्तरण को ही विनिमय कहते हैं।” यह कथन किसका है ?
(क) जेवेन्स का
(ख) मार्शल का
(ग) वाघ का
(घ) टॉमस का
उत्तर:
(ख) मार्शल का।

प्रश्न 3
वस्तुओं तथा सेवाओं का प्रत्यक्ष रूप से आदान-प्रदान किया जाता है
(क) क्रय-विक्रय प्रणाली में
(ख) वस्तु विनिमय में
(ग) अप्रत्यक्ष विनिमय में
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) वस्तु विनिमय में।

प्रश्न 4
द्रव्य के माध्यम से किया जाने वाला विनिमय कहलाता है [2017]
(क) वस्तु विनिमय
(ख) प्रत्यक्ष विनिमय
(ग) क्रय-विक्रय
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) क्रय-विक्रय।

प्रश्न 5
विनिमय के लिए आवश्यक है
(क) दो पक्षों का होना
(ख) ऐच्छिक होना।
(ग) वैधानिक होना
(घ) इन सभी का होना
उत्तर:
(घ) इन सभी का होना।

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