UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 13 विद्यादानम्  (कथा – नाटक कौमुदी)

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Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 13
Chapter Name विद्यादानम्  (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 27
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 13 विद्यादानम्  (कथा – नाटक कौमुदी)

परिचय- भारतीय वाङ्मय में वेदों और पुराणों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वेदों की अपेक्षा पुराण सरल, सरस और बोधगम्य हैं। पुराणों में उपदेश कथाओं के माध्यम से दिये गये हैं। ये कथाएँ काल्पनिक न होकर वास्तविक हैं। पुराणों को इतिहास भी माना जाता है। पुराण’ शब्द का अर्थ है–पुराना। इसी आधार पर कहा जाता है कि जो व्यतीत हो जाता है, उसी की चर्चा इतिहास और पुराण दोनों में होती है। दोनों में अन्तर मात्र इतना ही होता है कि पुराणों का दृष्टिकोण धार्मिक होता है, जब कि इतिहास का तथ्यपरक। । पुराणों की कुल संख्या अठारह मानी जाती है। इसमें एक महत्त्वपूर्ण विष्णु पुराण’ भी है। विष्णु पुराण में भूगोल, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, राजवंश-वर्णन एवं श्रीकृष्ण चरित से सम्बद्ध वर्णन हैं। इसके अन्त में कलियुग का वर्णन भी प्राप्त होता है तथा इसके पश्चात् अध्यात्म-मार्ग की (UPBoardSolutions.com) शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उल्लेख है। । प्रस्तुत पाठ के रूप में जो कथा प्रस्तुत है, उसका आधार इसी ‘विष्णु-पुराण’ का छठा अंश है। ‘केशिध्वज’ और ‘खाण्डिक्य’ दोनों विदेह नाम से प्रसिद्ध राजा जनक के पौत्र थे। दोनों ही समझते थे कि विरोध, शत्रुता और वैमनस्य मन का मैल है जो जीवन को सन्तापमय बनाता है। मन के इस मैल को धोने की सामर्थ्य विद्या में ही है। प्रस्तुत पाठ में विद्या के इसी ध्येय को व्यक्त किया गया है।

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पाठ सारांश  

राजा केशिध्वज और खाण्डिक्य आपस में विरोधी होते हुए भी एक-दूसरे की विद्या का आदर करते हैं तथा अवसर आने पर एक-दूसरे को अपनी विद्या दान में देते हैं। ऐसा करने से दोनों के मन का वैमनस्य नष्ट हो जाता है। पाठे का सारांश इस प्रकार है

केशिध्वज और खाण्डिक्य जनक का परिचय- प्राचीनकाल में धर्मध्वजजनक नाम के एक राजा थे। उनके दो पुत्र थे-अमितध्वज और कृतध्वज। कृतध्वज के केशिध्वज नाम का तथा अमितध्वज के खाण्डिक्य-जनक नाम का एक पुत्र था। खाण्डिक्य कर्ममार्ग में तथा केशिध्वज अध्यात्मशास्त्र में निपुण था। दोनों ही एक-दूसरे पर विजय पाना चाहते थे। केशिध्वज के द्वारा राज्य से उतार दिये जाने पर खाण्डिक्य अपने पुरोहित और मन्त्रियों के साथ वन में चले गये। केशिध्वज ने अमरता प्राप्त करने के लिए बहुत-से यज्ञ किये।

केशिध्वज द्वारा यज्ञानुष्ठान– एक बार केशिध्वज ने एक यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उसकी धर्मधेनु को एक सिंह ने मार दिया। उसने ऋत्विजों, कशेरु, शुनक आदि आचार्यों से इसके प्रायश्चित का विधान पूछा। कोई भी उसे यथोचित प्रायश्चिते का विधान बताने में समर्थ नहीं हुआ। अन्तत: उसे ‘. शुनक ने बताया कि केवल खाण्डिक्य ही प्रायश्चित का विधान जानता है, अतः आप उसके पास चले जाइए। ‘केशिध्वज’ (UPBoardSolutions.com) ने उसे अपना वैरी समझते हुए अपने मन में निश्चय किया कि खाण्डिक्य के पास जाने पर यदि वह मुझे मार देगी तो मुझे यज्ञ का फल प्राप्त हो जाएगा और यदि वह मुझे प्रायश्चित बताएगा तो मेरा यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हो जाएगा।

केशिध्वज का खाण्डिक्य के समीप जाना— केशिध्वज रथ पर सवार होकर खाण्डिक्य के पास पहुँचा। केशिध्वज को देखकर ख़ाण्डिक्य ने समझा कि वह उसे मारने आया है; अतः उसने अपने धनुष पर बाण-चढ़ाकर उसे युद्ध के लिए ललकारा। केशिध्वज ने कहा- मैं तुम्हें मारने नहीं, अपितु एक संशय दूर करने आया हूँ। यह सुनकर खाण्डिक्य शान्त हो गया। मन्त्रियों द्वारा केशिध्वज को मारने की सलाह देने पर भी खाण्डिक्य ने सोचा कि इसको मारकर मैं पृथ्वी का राज्य प्राप्त करूंगा और नहीं मारता हूँ तो पारलौकिक विजय प्राप्त करूंगा। दोनों में पारलौकिक विजय श्रेष्ठ है; अतः मुझे इसे न मारकर इसकी शंका का समाधान करना चाहिए।

खाण्डिक्य द्वारा प्रायश्चित्त– विधान का कथन-केशिध्वज ने अपनी यज्ञ की धर्मधेनु के सिंह द्वारा वध का वृत्तान्त बताकर उसका प्रायश्चित पूछो। खाण्डिक्य ने यथाविधि उसे उचित प्रायश्चित बता दिया। प्रायश्चित ज्ञात होने पर राजा केशिध्वज यज्ञ-स्थान पर लौट आया और सहर्ष यज्ञ सम्पन्न कराकर (UPBoardSolutions.com) यज्ञ की समाप्ति पर ब्राह्मणों, सदस्यों और याचकों को खूब दान दिया। अन्त में उसे स्मरण आया कि उसने खाण्डिक्य को गुरु-दक्षिणा नहीं दी हैं।

केशिध्वज द्वारा गुरु-दक्षिणा- केशिध्वज पुनः रथ पर सवार होकर खाण्डिक्य के पास वन में गया और कहा कि मैं तुम्हें गुरु-दक्षिणा देने आया हूँ। मन्त्रियों द्वारा अपहत राज्य माँगने का परामर्श दिये जाने पर भी खाण्डिक्य ने राज्य की माँग नहीं की वरन् उससे कहा कि आप अध्यात्मविद्या के ज्ञाता हैं। अतः ऐसे कर्म का उपदेश दीजिए, जिससे क्लेश की शान्ति हो। केशिध्वज को आश्चर्य हुआ कि उसने (UPBoardSolutions.com) निष्कण्टक राज्य क्यों नहीं माँगा? उसके इस ‘ल्का स्त्र देते हुए खाण्डिक्य ने कहा कि मूर्खजन राज्य की इच्छा करते हैं, मेरे जैसे नहीं। केशिध्वज ने प्रसन्न होकर उससे कहा कि खाण्डिक्य तुम धन्य हो। मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तत्पश्चात् उसे आत्मा का स्वरूप और योग-विद्या की शिक्षा दी। इस प्रकार शिक्षा से दोनों के मन की मलिनता समाप्त हो गयी।

चरित्र-चित्रण 

केशिध्वज 

परिचय- केशिध्वज धर्मध्वज-जनक का पौत्र और कृतध्वज का पुत्र था। वह अध्यात्मविद्या का ज्ञाता था और अमरत्व-प्राप्त करने के लिए अनेक यज्ञों का विधान किया करता था। वह खाण्डिक्य से राज्य छीनकर स्वयं राजा बन बैठा था। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) सांसारिक सुखों में आसक्त- केशिध्वज अध्यात्मवेत्ता होते हुए भी सांसारिक सुख-भोगों में आसक्त था। उसने अपने भाई खाण्डिक्य का राज्य छीनकर हड़प लिया था। अन्त में वह स्वयं अनुभव करता है कि वह अज्ञान से मृत्यु को जीतना चाहता है एवं राज्य और भोगों में लिप्त है।

(2) धर्मभीरु- केशिध्वज धर्मभीरु राजा है तभी वह सिंह द्वारा यज्ञधेनु के मार देने पर विद्वानों से उसका प्रायश्चित पूछता है और विहित प्रायश्चित जानने के लिए ही खाण्डिक्य के पास पहुँचता है। जब तक वह प्रायश्चित नहीं कर लेता, उसे शान्ति नहीं मिलती। यज्ञ के पूरा होने पर वह खाण्डिक्य के पास गुरु-दक्षिणा देने के लिए भी जाता है। इन सभी बातों से उसकी धर्मभीरुता प्रकट होती है।

(3) यज्ञ में रुचि- केशिध्वज अमरत्व प्राप्त करने के लिए अनेक यज्ञ करता है। वह यज्ञ को निर्विघ्न समाप्त करना चाहता है। इसीलिए विघ्न आने पर शत्रु से भी पूछकर वह उसका प्रायश्चित करता है। यज्ञ की समाप्ति पर वह ब्राह्मणों, याचकों और सदस्यों को खूब धन दक्षिणी रूप में देता है। प्रायश्चित (UPBoardSolutions.com) पूछने के लिए शत्रु के पास जाने को, यज्ञ के फल और उसकी निर्विघ्न समाप्ति को वह प्राणों से भी अधिक महत्त्व देता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि वह न केवल यज्ञ का विधान करने का इच्छुक है, अपितु वह यज्ञ की निर्विघ्न समाप्ति भी चाहता है।

(4) अध्यात्म विद्या का ज्ञाता– केशिध्वज अध्यात्मपरायण कृतध्वज का पुत्र है; अत: अध्यात्म विद्या का ज्ञान उसे पैतृकदाय के रूप में प्राप्त हुआ है। खाण्डिक्य भी उसे अंध्यात्म विद्या का विद्वान् मानते हुए उससे आत्मा का स्वरूप और योग-विद्या को सीखता है।

(5) गुणग्राही– केशिध्वज गुणों का आदर करना जानता है और शत्रु से भी विद्या-ग्रहण करने में  संकोच नहीं करता। वह खाण्डिक्य से यज्ञधेनु की हत्या का प्रायश्चित पूछने जाता है और उससे नम्रतापूर्वक व्यवहार करता। खाण्डिक्य के क्रोध करने पर भी वह जरा-भी विचलित नहीं होता। उसका यह गुण उसकी गुण-ग्राहकता में अचल आस्था को प्रदर्शित करता है। इसके साथ ही वह अपने गुणों को दूसरों को प्रदान करने वाला भी है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि केशिध्वजे अध्यात्मज्ञानी, विवेकी और गुणग्राही होते हुए भी सांसारिक सुखों में आसक्त और धर्मभीरु राजा है, जिसमें विवेकशीलता, प्रत्युत्पन्नमतित्व, आत्मबले आदि गुण भी विद्यमान हैं।

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खाण्डिक्य

परिचय-खाण्डिक्य धर्मध्वज-जनक का पौत्र और अमितध्वज का पुत्र था। राज्य हड़प लेने के कारण वह केशिध्वज को अपना शत्रु मानता था। कर्मकाण्ड में उसकी दृढ़ आस्था थी। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं

(1) विवेकी-खाण्डिक्यजनक विवेकी राजा है। किसी भी कार्य को करने से पहले वह अपने मन्त्रियों और पुरोहितों से सलाह लेकर तत्पश्चात् अपने विवेक से काम करता है। वह मन्त्रियों की सलाह को आँख मूंदकर नहीं मानता। केशिध्वज के वन में आने पर वह दोनों ही बार अपने विवेक से कार्य करता है।

(2) प्रतिशोध की भावना से पीड़ित – केशिध्वज द्वारा परास्त किये जाने और राज्य छीन लेने के बाद से ही खाण्डिक्य उससे प्रतिशोध लेने के अवसर की प्रतीक्षा में रहता था। केशिध्वज को वन में पास आता देखकर वह उसे मारने के लिए क्रोध से धनुष उठा लेता है, लेकिन वह इस प्रकार प्रतिशोध से (UPBoardSolutions.com) पृथ्वी के राज्य को प्राप्त करने की अपेक्षा पारलौकिक विजय को श्रेयस्कर मानकर केशिध्वज को नहीं मारता। इस क्रिया से उसका चरित्र एक आदर्श प्रतिशोधी के रूप में दृष्टिगत होता है।

(3) परमार्थ प्रेमी– खाण्डिक्य परमार्थ प्रेमी है। वह शत्रु को सम्मुख आया हुआ देखकर भी परमार्थ के लोभ से उसे नहीं मारता। वह केशिध्वज से गुरु-दक्षिणा के रूप में राज्य न माँगकर परमार्थ विद्या माँगता है। वह परमार्थ विद्या को क्लेश-शान्ति का उपाय मानता है। सांसारिक सुख या राज्यादि की कामना करने वालों को वह मन्दमति मानता है। वह परमार्थ विद्या को ही शाश्वत और स्थायी आनन्द प्रदान करने वाली मानता है।

(4) सन्तोषी व्यक्ति– खाण्डिक्य परम सन्तोषी व्यक्ति था। इसीलिए वह केशिध्वज से दोनों बार राज्य नहीं माँगता। यदि वह चाहता तो उसे राज्य अनायास ही प्राप्त हो जाता; क्योंकि दोनों बार उसके सम्मुख ऐसे ही अवसर उपस्थित थे; किन्तु उसने ऐसा नहीं किया। ये दोनों ही घटनाएँ उसके सन्तोषी व्यक्ति होने की ओर इंगित करती हैं।

(5) तत्त्वज्ञानी– खांण्डिक्य अपने द्वारा सम्पादित होने वाले समस्त कार्यों के अन्तर्भूत तत्त्वों को जान लेने के पश्चात् ही उनको सम्पादन करता था। वह कर्मकाण्ड के सभी विधानों के (UPBoardSolutions.com) सारभूत तत्त्वों का ज्ञाता और अद्वितीयवेत्ता था। यह बात शुनक द्वारा केशिध्वज को; प्रायश्चित विधान के तत्त्व को जानने के लिए; उनके पास भेजे जाने वाले प्रसंग से भली-भाँति स्पष्ट हो जाती है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि खाण्डिक्य सांसारिक सुखों को महत्त्व न देकर परमार्थ को महत्त्व देता है। केशिध्वज से आत्मज्ञान प्राप्त करके वह अपने मन में वैमनस्य की मलिनता को धो डालता है।

लघु उत्तरीय संस्कृत  प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिएप्रश्

प्रश्‍न 1
केशिध्वजः कस्य सूनुः आसीत्?
उत्तर
केशिध्वजः कृतध्वजस्य सूनुः आसीत्।

प्रश्‍न 2
खाण्डिक्यजनकः कस्य पुत्रः आसीत्?
उत्तर
खाण्डिक्यजनकः अमितध्वजस्य पुत्रः आसीत्।

प्रश्‍न 3
खाण्डिक्यः कथं वनं जगाम?
उत्तर
केशिध्वजेन पराजितः राज्यादवरोपितः सन् खाण्डिक्य: वनं जगाम।

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प्रश्‍न 4
केशिध्वजस्य धर्मधेनुं कः जघान?
उत्तर
केशिध्वजस्य धर्मधेनुं एकः सिंह: जघान।

प्रश्‍न 5
प्रायश्चितविषये ऋत्विजः किम् ऊचुः?
उत्तर
प्रायश्चितविषये न वयं जानीमः, अत्र कशेरु: प्रष्टव्यः इति ऋत्विजः ऊचुः।

प्रश्‍न 6
कशेरुः केशिध्वजं किमब्रवीत्?
उत्तर
कशेरुः ‘नाहं जानामि, भार्गवं शुनकं पृच्छ, सः नूनं वेत्स्यति’ इति केशिध्वजम् अब्रवीत्।

प्रश्‍न 7
भार्गवो शुनकः राजानं किमाह?
उत्तर 
भार्गवः शुनकः राजानमाह यत् “न कशेरुः न चाहं, वान्यः कश्चिज्जानाति, केवलं खाण्डिक्य: जानाति, यो भवता पराजितः।”

प्रश्‍न 8
पुरोहितः मन्त्रिणश्च खाण्डिक्यं किमुचुः?
उत्तर
पुरोहितः मन्त्रिणश्च खाण्डिक्यम् ऊचुः यत् वंशगतः शत्रुरेषु हन्तव्यः, हतेऽस्मिन् सर्वा पृथ्वी तव वश्या भविष्यति।।

प्रश्‍न 9
केशिध्वजम् आयान्तं दृष्ट्वा खाण्डिक्यः किमुवाच?
उत्तर
केशिध्वजम् आयान्तं दृष्ट्वा खाण्डिक्यः उवाच यत् त्वं मां हन्तुम् आगतः, त्वाम् अहं हनिष्यामि, त्वं मम राज्यहरो रिपुः इति।।

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प्रश्‍न 10
खाण्डिक्येन केशिध्वजः कथं न हेत:?
उत्तर-खाण्डिक्येन पारलौकिकं जयम् अवाप्तं केशिध्वजः न हतः।

प्रश्‍न 11
खाण्डिक्यः केशिध्वजं कां गुरुदक्षिणाम् अयाचत्?
उत्तर
खाण्डिक्यः केशिध्वजम् गुरुदक्षिणारूपेण अध्यात्मविद्याम् अयाचत्।।

वस्तुनिष्ठ प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है।शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए

1. विद्यादानम्’ नामक पाठ किस ग्रन्थ से उदधृत है?
(क) “श्रीमद्भागवत् पुराण’ से
(ख) ‘अग्निपुराण’ से
(ग) ‘महाभारत से
(घ) विष्णुपुराण’ से

2. विष्णुपुराण की रचना किसके द्वारा की गयी?
(क) महर्षि वाल्मीकि के द्वारा
(ख) महर्षि वशिष्ठ’ के द्वारा
(ग) “महर्षि विश्वामित्र के द्वारा
(घ) महर्षि वेदव्यास के द्वारा

3. धर्मध्वज के पुत्रों के नाम क्या थे?
(क) केशिध्वज और अमितध्वज
(ख) अमितध्वज और कृतध्वज
(ग) कृतध्वज और केशिध्वज
(घ) केशिध्वज और खाण्डिक्य-जनक

4. खाण्डिक्य-जनक किसके पुत्र थे?
(क) अमितध्वज के
(ख) केशिध्वज के
(ग) धर्मध्वज के .
(घ) कृतध्वज के

5. खाण्डिक्य वन में क्यों चला गया था?
(क) क्योंकि नगर में उसका दम घुटता था
(ख) क्योंकि वह केशिध्वज से पराजित हो गया था।
(ग) क्योंकि वह तपस्या करना चाहता था।
(घ) क्योंकि उसके लिए वन का निवास रुचिकर था

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6. सिंह ने किसकी धर्मधेनु को मार डाला था?
(क) केशिध्वज की
(ख) अमितध्वज की
(ग) धर्मध्वज की
(घ) कृतध्वज की

7. केशिध्वज क्या धारण करके खाण्डिक्य के पास पहुँचा था? 
(क) कृष्णाजिन
(ख) वल्कल
(ग) कवच
(घ) राजसी वस्त्र

8. केशिध्वज किसका प्रायश्चित करना चाहता था?
(क) उसने अपने पुरोहित का अपमान किया था
(ख) उसके यज्ञ की यज्ञधेनु को सिंह ने मार डाला था
(ग) वह अधिक यज्ञ नहीं कर सका था।
(घ) उसने अपने भाई का राज्य छीना था ।

9. खाण्डिक्यजनक के मन्त्रियों ने केशिध्वज के प्रायश्चित पूछने के लिए आने पर उसे परामर्श दिया कि
(क) उसे प्रायश्चित बताकर पारलौकिक विजय प्राप्त करनी चाहिए
(ख) प्रायश्चित्त पूछने के लिए आये शत्रु को प्रायश्चित नहीं बताना चाहिए
(ग) विद्या सीखने के लिए आये हुए को नहीं मारना चाहिए
(घ) वंशगत शत्रु केशिध्वज को मार डालना चाहिए।

10. केशिध्वज के मन को सन्तोष क्यों नहीं था?
(क) क्योंकि उसने अपनी प्रजा को कष्ट दिया था।
(ख) क्योंकि उसने खाण्डिक्य को गुरुदक्षिणा नहीं दी थी
(ग) क्योंकि उसने खाण्डिक्य से क्षमायाचना नहीं की थी।
(घ) क्योंकि उसने यज्ञ के पुरोहित को दक्षिणा नहीं दी थी।

11. खाण्डिक्य ने केशिध्वज से गुरुदक्षिणा में राज्य क्यों नहीं माँगा?
(क) क्योंकि खाण्डिक्य को राज्य से घृणा हो गयी थी,
(ख) क्योंकि खाण्डिक्य के पास स्वयं बड़ा राज्य था।
(ग) क्योंकि खाण्डिक्य के मन्त्रियों ने राज्य न लेने की सलाह दी थी
(घ) क्योंकि खाण्डिक्यं आत्मज्ञान को क्लेश शान्त करने वाला समझता था

12. ‘मूर्खाः कामयन्ते राज्यादिकं न तु मादृशाः।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) केशिध्वजः
(ख) अमितध्वजः
(ग) खाण्डिक्यजनकः
(घ) धर्मध्वजः

13. ‘…………..” कर्ममार्गे केशिध्वजश्च अध्यात्मशास्त्रे निपुणः आसीत्।’ वाक्य में रिक्त-पद की पूर्ति होगी।
(क) “खाण्डिक्यः’ से
(ख) ‘कृतध्वजः’ से
(ग) “अमितध्वजः’ से
(घ) “धर्मध्वजः’ से

14. ‘रे मूढ़! किं मृगाः कृष्णचर्मरहिताः भवन्ति?’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) केशिध्वजः
(ख) धर्मध्वजः
(ग) खाण्डिक्यः
(घ) अमितध्वजः

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15. किन्तु मया हतोऽयं पारलौकिकविजयं प्राप्स्यति, अहञ्च •••••••” ।’ वाक्य में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी
(क) राजकोषम्’ से ।
(ख) राजसिंहासनम्’ से
(ग) “धनम्’ से
(घ) “पृथिवीम्’ से

16. क्षत्रियः सन्नपि त्वं निष्कण्टकं राज्यं कथं न याचसे?’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) केशिध्वजः
(ख) धर्मध्वजः।
(ग) खाण्डिक्यः
(घ) अमितध्वजः

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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 12 यज्ञरक्षा (कथा – नाटक कौमुदी)

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Subject Sanskrit
Chapter Chapter 12
Chapter Name यज्ञरक्षा (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 26
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 12 यज्ञरक्षा (कथा – नाटक कौमुदी)

परिचय– महर्षि वाल्मीकि द्वारा विरचित ‘रामायण’ तथा महामुनि वेदव्यास द्वारा विरचित ‘महाभारत’ दोनों ही ग्रन्थ कवियों और नाटककारों के लिए, अति प्राचीन काल से ही, प्रेरणा-स्रोत रहे हैं। ये ग्रन्थ न केवल संस्कृत कवियों के लिए अपितु प्राकृत, अपभ्रंश आदि के कवियों के लिए भी आश्रय-ग्रन्थ रहे हैं। इनमें उल्लिखित चरित्रों को आधार बनाकर अगणित महाकाव्यों, खण्डकाव्यों, मुक्तककाव्यों, नाटकों आदि की रचना हुई है। (UPBoardSolutions.com) ‘अनर्घराघव’ भगवान् राम के जीवन को आधार बनाकर विरचित नाटक है। इसकी कथा वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ से ली गयी है। इसके रचयिता मुरारि हैं। इनके पिता का नाम वर्धमानक था। इनका जन्म-समय विद्वानों द्वारा सन् 800 ईसवी के लगभग स्वीकार किया गया है। यह सात अंकों वाला नाटक है, जो यत्र-तत्र कवि-कल्पना से समन्वित है। इससे नाटक की कथा अतिशय रोचक हो गयी है। भाषा पर कविवर मुरारि का असाधारण अधिकार है तथा नाटक में इन्होंने यत्र-तत्र अपने व्याकरण सम्बन्धी ज्ञान का सफल प्रदर्शन किया है।
प्रस्तुत पाठ ‘अनर्घराघव’ के प्रथम अंक से संकलित है।

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पाठ सारांश  

प्रस्तुत अंश में महर्षि विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा हेतु राक्षसों का  वध करने के लिए महाराज दशरथ से उनके दो पुत्रों, राम और लक्ष्मण, की याचना करते हैं। पुत्रों के वियोग का दु:ख अनुभव करते हुए भी दशरथ अपने दोनों पुत्रों को मुनि के साथ भेज देते हैं। राम विश्वामित्र के आश्रम में यज्ञ के रक्षार्थ दुष्टों का वध करना आवश्यक धर्म मानते हुए राक्षसों का संहार करते हैं। पाठ का सारांश इस प्रकार है

विश्वामित्र द्वारा राम की याचना– प्रतिहारी महाराज दशरथ को सूचना देता है कि द्वार पर मुनिवर विश्वामित्र आये हैं। वामदेव; जो कि दशरथ के कुल-पुरोहित हैं; यथोचित सम्मानपूर्वक विश्वामित्र को प्रवेश कराते हैं। विश्वामित्र प्रवेश करते ही कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ से उनका कुशलक्षेम पूछते हैं। दशरथ अपने आसन से उठकर विश्वामित्र का स्वागत करके उन्हें प्रणाम करते हैं। आवश्यक वार्तालाप के पश्चात् दशरथ विश्वामित्र से उनके आने का कारण पूछते हैं। विश्वामित्र बताते हैं कि वे यज्ञ की रक्षा के लिए राम को कुछ दिन तक अपने (UPBoardSolutions.com) आश्रम में ले जाना चाहते हैं। यह सुनकर राम का वियोग हो जाने की बात सोचकर दशरथ अत्यधिक उदास हो जाते हैं। विश्वामित्र दशरथ से कहते हैं। कि राम अब बालक नहीं रहे, वे सूर्य के समान तेजस्वी हैं। दशरथ वामदेव की सहमति से राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेजना स्वीकार कर लेते हैं। विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को अपने साथ लेकर आश्रम की ओर प्रस्थान करते हैं।
आश्रम में पहुँचकर राम और लक्ष्मण वहाँ की रमणीयता और पावनता को देखकर अत्यधिक प्रसन्न होते हैं। |

राम द्वारा राक्षसों का विनाश-
नेपथ्य से राक्षसों द्वारा यज्ञ में विघ्न डालने की ध्वनि सुनाई पड़ती है। राम धनुष लेकर वायव्य अस्त्र का सन्धान कर राक्षसों का संहार करते हैं, लेकिन उनके साथ आयी हुई ताड़का (स्त्री जाति) का वध करने के कारण राम अत्यन्त लज्जित और दुःखी होते हैं। विश्वामित्र (UPBoardSolutions.com) राम को गले लगाकर उनके इस वीरोचित कार्य को उचित बताते हुए उन्हें आशीर्वाद देते हैं। अन्त में मुनि विश्वामित्र को प्रणाम कर राम और लक्ष्मण समेत सभी अपने-अपने स्थान को चले जाते हैं।

चरित्र चित्रण

राम 

परिचय–श्रीराम अयोध्या के महाराज दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र हैं। वे विनीत, धीर, साहसी, वीर, आज्ञाकारी, पितृभक्त और गुरुभक्त हैं। विश्वामित्र राम को यज्ञ के रक्षार्थ अपने साथ आश्रम में ले जाने के लिए दशरथ से माँगते हैं। वे वहाँ पहुँचकर विघ्नकर्ता राक्षसों का वध करते हैं। उनकी चारित्रिक विशेषताएँ अग्र प्रकार हैं

(1) विनीत– श्रीराम स्वभाव से विनीत और शिष्ट हैं। वे पिता और गुरुजन के आज्ञापालक हैं। दशरथ का आदेश पाते ही वे शीघ्र राजसभा में पहुँच जाते हैं। महाराज दशरथ के कहने से वे महामुनि विश्वामित्र को प्रणाम करते हैं। विश्वामित्र के साथ जाने के लिए कहने पर वे अपना कोई मत प्रकट नहीं करते, वरन् वामदेव और पिताजी उनके लिए जैसा कहें, वे वैसा करने को तैयार हैं। इससे राम की नम्रता और शिष्टता प्रकट होती है। |

(2) अनुपम वीर- श्रीराम अतुलित वीर और पराक्रमशाली हैं। वे विश्वामित्र के साथ उनके आश्रम में जाकर वीरतापूर्वक दुष्टों का संहार करते हैं। मारीच और ताड़का जैसे अनेक राक्षसों को मात्र एक बाण (वायव्य शस्त्र) से धराशायी कर देते हैं। इससे उनकी अनुपम वीरता प्रकट होती है।

(3) अद्वितीय धनुर्धर- राम बाण-सन्धान में अद्वितीय हैं। जब दशरथ राम को किशोर मानते हुए विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा हेतु भेजने में संकोच करते हैं तब विश्वामित्र राम के अद्वितीय धनुर्धर रूप को उनके सामने प्रस्तुत करते हुए उन्हें सूर्य के समान तेजस्वी बताते हैं। एक बाण से कई राक्षसों का वध करना भी उनके अद्वितीय धनुर्धर होने की पुष्टि करता है। |

(4) धर्मभीरु– श्रीराम मर्यादापालक हैं। वे ताड़का (स्त्री जाति) का वध करने के बाद दु:खी हो जाते हैं। यद्यपि ताड़का का वध उन्होने विश्वामित्र की आज्ञा से किया है, फिर भी वे स्त्री के वध से दु:खी हैं और उसको मारने से लज्जा और कष्ट का अनुभव करते हैं। विश्वामित्र के कहने पर; “तुमने (UPBoardSolutions.com) अपने कर्तव्य का पालन किया है और तुम्हारा यह कार्य वीरोचित है, तुम्हें लज्जा नहीं करनी चाहिए।’ धैर्य धारण करते हैं। |

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि राम का चरित्र एक आदर्श मानवीय चरित्र है। वे योग्य पुत्र, धर्मभीरु, अद्वितीय धनुर्धर और परम विनीत हैं।

वामदेव 

परिचय- अयोध्या नरेश दशरथ के कुल-पुरोहित पद को विभूषित करने वाले वामदेव ऋषियों के आदर्श हैं। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के आश्रम में उनका निवास है। उनकी चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं

(1) प्रतिष्ठाप्राप्त ऋषि- वामदेव एक प्रतिष्ठाप्राप्त ऋषि हैं। विश्वामित्र भी उन्हें ‘सखा’ कहकर सम्बोधित करते हैं। इससे उनकी विश्वामित्र से समकक्षता भी सिद्ध होती है। दशरथ के प्रतिनिधि रूप में वे ही विश्वामित्र का स्वागत करने और उन्हें राजमहल में ले जाने हेतु उपस्थित होते हैं। इससे उनकी विश्वसनीयता और राजकुल द्वारा बहुमानिता स्पष्ट होती है। |

(2) महाज्ञानी– महर्षि वामदेव ज्ञानपुंज हैं। वे प्रत्येक बात को गम्भीरता से सोचकर उस पर अपना निर्णय देते हैं। विश्वामित्र द्वारा राम-लक्ष्मण को माँगे जाने पर दशरथ पुत्र-मोह के कारण उन्हें विश्वामित्र को देना नहीं चाहते, तब महर्षि वामदेव ही अपने उपदेश से उन्हें कर्तव्य का बोध कराते हैं। वामदेव के कहने पर दशरथ राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के हाथों सौंप देते हैं।

(3) सत्परामर्शदाता- दशरथ के कुल-पुरोहित होने के कारण उनका कर्तव्य है कि वे राजा को उचित-अनुचित का बोध कराकर उसे उचित मार्ग पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करें। वे अपने इस कर्तव्य को बड़ी कुशलता से पूर्ण करते हैं। दशरथ जब-जब दुविधा में पड़ते हैं, तब-तब वे उनको (UPBoardSolutions.com) अपने परामर्श से कर्तव्य-विमुख होने से रोकते हैं। राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेजने के सन्दर्भ में वे कहते हैं कि “हे राजन्! महर्षि विश्वामित्र याचक हैं और आप दाता। महायज्ञ की रक्षा करनी है और राम उसकी रक्षा करेंगे। मैं राम को भेजने की अनुमति प्रदान करता हूँ।” ऐसा कहकर वे दशरथ को दुविधा के अथाह सागर से उबार लेते हैं।

(4) विवेकशील- वामदेव की विवेकशीलता अनुकरणीय है। महाराज दशरथ किसी भी कार्य में ऊहापोह की स्थिति उत्पन्न होने पर वामदेव की शरण में जाते हैं और उनके विवेकनिमज्जित परामर्श को पाकर स्वयं को धन्य मानते हैं। अपने पुत्रों को राक्षसों के आंतक से आच्छादित अरण्य में भेजने जैसे महत्त्वपूर्ण ल्पर दशरथ वामदेव जैसे विवेकी की सहमति-असहमति जानकर ही उन्हें विश्वामित्र के साथ भेजते हैं।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि वामदेव राजकुल तथा ऋषियों में लब्धप्रतिष्ठ हैं। उनके ज्ञान, विवेक और परामर्श के सभी अभिलाषी हैं।

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विश्वामित्र

परिचय- जन्म से क्षत्रिय तथा कर्म-योग से ब्राह्मण महर्षि विश्वामित्र त्रिकालदर्शी ऋषि हैं। वे जिस कार्य को करने की अपने मन में ठान लेते हैं, उसे पूर्ण करके ही चैन की साँस लेते हैं। अपने यज्ञ में राक्षसों द्वारा विघ्न डालने की आशंका पर वे यज्ञ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए दशरथ के पास उनके पुत्र राम-लक्ष्मण को माँगने जाते हैं। राम को शाश्वत यश दिलाने की पृष्ठभूमि में निश्चित ही इनकी भूमिको प्रशंसनीय है। इनके चरित्र की विशेषताएँ इस प्रकार हैं|

(1) महर्षियोचित सौम्य- क्षत्रिय होते हुए भी विश्वामित्र सौम्य की मूर्ति हैं। वे प्रत्येक से बड़ी सौम्यता के साथ मिलते हैं। वे जहाँ महर्षि वामदेव के लिए ‘सखे वामदेव!’ का सम्बोधन प्रयुक्त करते हैं, वहीं दशरथ को भी वे सखे दशरथ!’ कहकर सम्बोधित करते हैं; यह उनकी सौम्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वामदेव से महर्षि वशिष्ठ की सपरिवार कुशलता को पूछा जाना उनके व्यवहार-ज्ञान का परिचायक है।

(2) वात्सल्य-प्रेम से ओत-प्रोत- महर्षि विश्वामित्र वात्सल्य-प्रेम के मानो सतत प्रवाह हैं। राम-लक्ष्मण को वे पुत्रवत् मानते हैं। राम द्वारा ताड़का-वध पर पश्चात्ताप करने पर वे स्नेहसिक्त वचनों से उन्हें यह विश्वास दिलाते हैं कि ताड़का-वध किसी भी दृष्टि से निन्दनीय नहीं है। इतना ही नहीं, वे राम के कार्य को उचित ठहराते हैं और पुत्रवत् वात्सल्य प्रदर्शित करते हुए भाव-विभोर होकर राम को गले से लगा लेते हैं।

(3) महान् गुणज्ञ- स्वयं गुणों की खान विश्वामित्र गुणों के महान् पारखी और उनका सम्मान करने वाले हैं। वे राम के गुणों से परिचित हैं तभी तो दशरथ के द्वारा अल्पवय राम को वन में भेजने की शंका का निवारण करते हुए वे दशरथ से राम के गुणों का बखान करते हैं। राम के लिए यह कहना कि ‘वह (UPBoardSolutions.com) तो सूर्य के समान अपने तेज से समस्त भूमण्डल को प्रकाशित करने वाले तेजस्वी हैं, उनके गुणज्ञ होने का ही साक्ष्य है।

(4) सम्यक् प्रयोक्ता – विश्वामित्र समयोचित तथा व्यक्ति से उसकी शक्ति एवं गुणोचित कार्य कराने के पक्षधर हैं। स्वयं महर्षि होने के कारण वे महान् यज्ञ प्रयोक्ती भी हैं। राम-लक्ष्मण को वे अपने क्षत्रियोचित गुणों के कारण ही राक्षसों का विनाश करने के लिए प्रेरित करते हैं।

निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि विश्वामित्र ब्रह्म एवं क्षात्र तेज-सम्पन्न, व्यवहार- कुशल, गुणज्ञ, सम्यक् प्रयोक्ता एवं वात्सल्यमय स्वभाव के लब्धप्रतिष्ठित महर्षि हैं।

लघु-उतरीय संस्कृत प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए

प्रश्‍न 1
वामदेवः कः आसीत्?
उत्तर
वामदेवः दशरथस्य कुलपुरोहितः आसीत्।

प्रश्‍न 2
रामलक्ष्मणौ कौशिकेन सह कुत्र अगच्छताम्?
उत्तर
रामलक्ष्मणौ कौशिकेन सह तस्य आश्रमम् अगच्छताम्।

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प्रश्‍न 3
विश्वामित्रः दशरथं किमकथयत्?
उत्तर 
रामभद्रेण कतिपयरात्रम् अस्माकम् आश्रमपदं सनाथी करिष्यते’ इति विश्वामित्रः दशरथम् अकथयत्।

प्रश्‍न 4
आश्रमं दृष्ट्वा लक्ष्मणः रामं प्रति किमकथयत्?
उत्तर
आश्रमं दृष्ट्वा लक्ष्मणः रामं प्रति अकथयत् यत् आर्य! रमणीयमितो वर्तते, अहो पशूनामप्यपत्यवात्सल्यम्।

प्रश्‍न 5
रामः कामताडयत्?
उत्तर
राम: ताडकाम् अताडयत्।

प्रश्‍न 6
वशिष्ठस्य अन्यत् किन्नामासीत्?
उत्तर
वशिष्ठस्य अन्यत् नाम मैत्रावरुणिः आसीत्।

प्रश्‍न 7
विश्वामित्रः कस्मात् कारणात् दशरथमुपागतः?
उत्तर
विश्वामित्र: यज्ञरक्षार्थं रामं याचितुं दशरथमुपागतः।

प्रश्‍न 8
ताडकामारणं कथम् अनुचितम् आसीत्?
उत्तर
ताडका एका नारी आसीत्। अत: ताडकामारणम् अनुचितम् आसीत्। .

प्रश्‍न 9
सुबाहुमारीचौ की आस्ताम्?
उत्तर
सुबाहुमारीचौ हिंस्रा: राक्षसाः आस्ताम्।।

प्रश्‍न 10
विश्वामित्र आश्रमे गत्वा रामेण किं कृतम्?
उत्तर
विश्वामित्रस्य आश्रमे गत्वा रामेण राक्षसबलम् उन्मूलयति स्म।

वस्तुनिष्ठ प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उतर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए

1. ‘यज्ञ-रक्षा’ पाठ के लेखक कौन हैं?
(क) आचार्य विष्णुभट्ट
(ख) मुरारि
(ग) महाकवि कालिदास
(घ) महर्षि वाल्मीकि

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2. ‘यज्ञ-रक्षा’ नामक नाट्यांश किस ग्रन्थ से संकलित किया गया है? |
(क) उत्तर रामचरितम्’ से ।
(ख) अनर्घराघव’ से।
(ग) “रावणवधम्’ से
(घ) “प्रतिमानाटकम्’ से

3. विद्वानों के द्वारा मुरारि का समय क्या निर्धारित किया गया है? |
(क) 800 ई०
(ख) 400 ई०
(ग) 600 ई०
(घ) 750 ई०

4. ‘यज्ञ-रक्षा’ पाठ में किस ऋषि के यज्ञ की रक्षा की बात कही गयी है?
(क) विश्वामित्र के
(ख) वशिष्ठ के
(ग) वामदेव के
(घ) श्रृंगी के

5. विश्वामित्र राम-लक्ष्मण को अपने आश्रम में क्यों ले आना चाहते थे?
(क) क्योंकि उन्हें उनसे बहुत प्रेम था
(ख) क्योंकि वे उनकों शिक्षा देना चाहते थे
(ग) क्योंकि वे उनसे अपनी सेवा कराना चाहते थे।
(घ) क्योंकि वे उनसे यज्ञ की रक्षा कराना चाहते थे।

6. ‘देव भगवान्कौशिको द्वारमध्यास्ते’ वाक्यांश में ‘कौशिक’ शब्द किसके लिए प्रयुक्त हुआ
(क) “वामदेव’ के लिए।
(ख) वशिष्ठ’ के लिए
(ग) “विश्वामित्र के लिए
(घ) “दशरथ’ के लिए

7. ‘श्रवणानामलङ्कारः कपोलस्य तु कुण्डलम्।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति? |
(क) वामदेवः
(ख) राम-लक्ष्मणः
(ग) दशरथः
(घ ) विश्वामित्रः

8. ‘शिवाः सन्तु पन्थानो वत्सयो रामलक्ष्मणयोः।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) वामदेवः
(ख) दशरथः
(ग) विश्वामित्रः
(घ) वशिष्ठः

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9. ‘मैत्रावरुण’ किसको कहा गया है?
(क)विश्वामित्र को
(ख) दशरथ को
(ग) वशिष्ठ को
(घ) वामदेव को ,

10. राम ने राक्षसों का वध किससे किया?
(क) वरुणास्त्र’ से
(ख) ब्रह्मास्त्र’ से
(ग) “पाशुपतास्त्र’ से
(घ) “वायव्यास्त्र’ से

11. राम ने विश्वामित्र के आश्रम में किन राक्षसों पर बाण चलाये?
(क) मारीच पर
(ख) सुबाहु पर
(ग) ताड़का पर
(घ) उपर्युक्त तीनों पर

12. ‘सखे वामदेव! चिरेण दशरथो द्रष्टव्य इति सर्वमनोरथानामुपरि वर्तामहे।’ वाक्यस्य वक्ता | कः अस्ति ?
(क) वशिष्ठः
(ख) मैत्रावरुणिः
(ग) कौशिकः
(घ) दशरथः

13. ‘न खलु प्रकाशमन्तरेणं तुहिन ••••••••••••• उज्जिहीते।’ वाक्य में रिक्त-पद की पूर्ति होगी
(क) चन्द्रः’ से
(ख) ‘नक्षत्र:’ से
(ग) “भानु:’ से
(घ) “उडुपति:’ से

14. ‘कौशिकोऽर्थी भवान्दाता रक्षणीयो…………..।’ श्लोक की चरण-पूर्ति होगी .
(क) ‘महाहनुः’ से
(ख) “महाक्रतुः’ से
(ग) “महाऋतुः’ से
(घ) “महातपः’ से।

15. भगवन्विश्वामित्र! सावित्रौ रामलक्ष्मणावभिवादयेते।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) वशिष्ठः
(ख) दशरथः
(ग) रामलक्ष्मणः
(घ) वामदेवः

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16. ‘अहो विचित्रमिदमायतनं •••••••••••• पदं नाम भगवतो गाधिनन्दनस्य।’ में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी
(क) ‘सिद्धाश्रम’ से
(ख) “कौशिकाश्रम’ से
(ग) “सुराश्रम’ से ‘
(घ) “वशिष्ठाश्रम’ से।

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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 11 बुद्धिर्यस्य बलं तस्य (कथा – नाटक कौमुदी)

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 11 बुद्धिर्यस्य बलं तस्य (कथा – नाटक कौमुदी) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 11 बुद्धिर्यस्य बलं तस्य (कथा – नाटक कौमुदी).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 11
Chapter Name बुद्धिर्यस्य बलं तस्य (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 22
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 11 बुद्धिर्यस्य बलं तस्य (कथा – नाटक कौमुदी)

परिचय– संस्कृत-साहित्य में कथाओं के माध्यम से न केवल मानव अपितु पशु-पक्षियों की सहज प्रकृति पर भी पर्याप्त सामग्री प्राप्त होती है। ये कथाएँ प्रायः नीतिपरक, उपदेशात्मक और मनोरंजक होती हैं। इस प्रकार के कथा-ग्रन्थों में शुक-सप्तति’ का उल्लेखनीय स्थान है। इसमें 70 कथाओं का संग्रह किया गया है। ये कथाएँ एक तोते के मुख से हरिदत्तं सेठ के पुत्र मदनविनोद की पत्नी के लिए कही गयी हैं। इस ग्रन्थ के लेखक और इसके रचना-काल के विषय में विश्वस्त सामग्री का अभाव है। इसका परिष्कृत और विस्तृत संस्करण श्री चिन्तामणि (UPBoardSolutions.com) भट्ट की रचना प्रतीत होती है तथा संक्षिप्त संस्करण किसी श्वेताम्बर जैन लेखक की। हेमचन्द्र (1088-1172 ई०) ने शुक-सप्तति’ का उल्लेख किया है तथा ‘तूतिनामह’ नाम से यह ग्रन्थ चौदहवीं शताब्दी में फारसी में अनूदित हुआ था। अतः इस ग्रन्थ की रचना काल 1000-1200 ई० के मध्य जाना चाहिए। इस ग्रन्थ की सभी कथाएँ कौतूहलवर्द्धक तथा मनोरंजन हैं। भाषा सरल, सुबोध तथा प्रवाहमयी है। । प्रस्तुत कहानी ‘शुक-सप्तति’ नामक कथा-ग्रन्थ से संगृहीत है। इस कथा में व्याघ्रमारी बुद्धि के प्रभाव से वन में बाघ और शृगाल जैसे हिंसक जीवों से अपनी और अपने पुत्रों की रक्षा करती है।

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पाठ सारांश  

व्याघ्रमारी का परिचय– देउल नाम के किसी गाँव में राजसिंह नाम का एक राजपूत रहता था। उसकी पत्नी बहुत झगड़ालू थी, इसीलिए उसका नाम कलहप्रिया था। वह एक दिन अपने पति से झगड़कर अपने दोनों पुत्रों को साथ लेकर अपने पिता के घर की ओर चल दी। वह ग्राम, नगरों और वनों को पार करती हुई मलय पर्वत के पास उसकी तलहटी में स्थित एक महावन में पहुँची।

व्याघ्र का मिलना- उस वन में उस कलहप्रिया ने एक व्याघ्र को देखा। उसे तथा उसके पुत्रों को देखकर व्याघ्र उनकी ओर झपटा। उस स्त्री ने व्याघ्र को अपनी ओर आता देखकर अपने पुत्रों को चाँटा मारकर कहा कि तुम दोनों क्यों एक-एक व्याघ्र के लिए झगड़ते हो। लो, एक व्याघ्र आ गया है। अभी इसे ही आधा-आधा बाँटकर खा लो। बाद में कोई दूसरा देखेंगे।

भागते हुए व्याघ्र को सियार का मिलना- ऐसा समझकर कि ‘यह कोई व्याघ्रमारी है’, व्याघ्र डरकर भाग गया। उसे भय से भागता हुआ देखकर एक सियार ने हँसकर कहा-“अरे व्याघ्र! किससे डरकर भागे जा रहे हो।’ व्याघ्र ने उससे कहा कि जिस व्याघ्रमारी के बारे में मैंने शास्त्रज्ञों से सुन रखा था, (UPBoardSolutions.com) आज उसे स्वयं देख लिया। इसी डर से भागा जा रहा हूँ। तुम भी घने वन में जाकर छिप जाओ। सियार ने कहा कि आप उस धूर्त स्त्री के पास पुनः चलिए। वह आपकी ओर देखेगी भी नहीं। यदि उसने ऐसा किया तो आप मुझे जान से मार दीजिएगा।

व्याघ्र का सियारसहित व्याघमारी के पास पुनः आना- व्याघ्र ने गीदड़ से कहा कि यदि तुम मुझे उसके पास छोड़कर भाग आये तो। सियार ने कहा कि यदि ऐसी बात है तो आप मुझे अपने गले में बाँध लीजिए। व्याघ्र सियार को अपने गले में बाँधकर पुनः ले गया। व्याघ्रमारी सियार को देखते ही समझ गयी कि यही व्याघ्र को लेकर वापस आया है। अत: वह सियार को ही फटकारती हुई बोली कि तूने मुझे पहले तीन बाघ देने को कहा था और अब एक ही लेकर आ रहा है। ऐसा कहकर व्याघ्रमारी तेजी से उसकी ओर दौड़ी। उसे अपनी ओर आता हुआ देखकर गले में सियार को बाँधा हुआ व्याघ्र वैसे ही फिर भाग खड़ा हुआ। ।

व्याघ्र और सियार का अलग होना– व्याघ्र के गले में बँधा हुआ सियार उसके बेतहाशा भागने के कारण भूमि पर रगड़ खा-खाकर लहू-लुहान हो गया। बहुत दूर जाकर वह अपने को छुड़ाने की इच्छा से वह जोर से हँसा। व्याघ्र ने जब उससे हँसने का कारण पूछा तब उसने कहा कि आपकी कृपा से (UPBoardSolutions.com) ही मैं भी सकुशल इतनी दूर आ गया। अब वह पापिनी यदि हमारे खून के निशानों का पीछा करती हुई आ गयी तो हम जीवित न बचेंगे। इसीलिए मैं हँस रहा था। उसकी बात को ठीक मानकर व्याघ्र सियार को छोड़कर अज्ञात स्थान की ओर भाग खड़ा हुआ। सियार ने भी जीवन के शेष दिन सुख से व्यतीत किये।

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चरित्र-चित्रण

व्याघ्रमारी

परिचय– व्याघ्रमारी देउल ग्राम के राजसिंह की झगड़ालू पत्नी है। झगड़ालू प्रवृत्ति की होने के कारण ही लेखक ने उसका नाम कलहप्रिया रखा है। उसकी चरित्रगत विशेषताएँ इस प्रकार हैं

(1) क्रोधी स्वभाव- व्याघ्रमारी क्रोधी स्वभाव की स्त्री है। यही कारण है कि वह अत्यधिक झगड़ालू है। क्रोध में आकर वह गृह-त्याग जैसा त्रुटिपूर्ण कदम उठाने में भी नहीं हिचकिचाती है। क्रोधान्धता के वशीभूत होकर ही वह पिता के घर पहुँचने के स्थान पर वन में पहुँच जाती है।

(2) यथा नाम तथा गुण- कलहप्रिया पर ‘यथा नाम तथा गुण वाली कहावत अक्षरश: चरितार्थ होती है। वह किसी से भी कलह करने में संकोच नहीं करती है। घर पर वह अपने पति से कलह करती है तो जंगल में व्याघ्र और सियार में भी कलह करा देती है। उसका व्याघ्रमारी नाम भी सार्थक-सा प्रतीत होता है; क्योंकि वह व्याघ्र जैसे शक्तिशाली पशु को भी अपने बुद्धि-चातुर्य से भयभीत कर मैदान छोड़कर भाग जाने के लिए विवश कर देती है।

(3) निर्भीक- निर्भीकता उसके रोम-रोम में समायी प्रतीत होती है। पति से झगड़ा करके अपने दोनों पुत्रों को साथ लेकर वन-मार्ग से होते हुए अपने पिता के घर जाने का उसका निर्णय तथा जंगल में व्याघ्र एवं सियार जैसे हिंसक पशुओं को देखकर भी न घबराना, उसकी निर्भीकता का स्पष्ट प्रमाण (UPBoardSolutions.com) है। यदि वह तनिक भी डर जाती तो उसकी और उसके पुत्रों की जान अवश्य चली जाती; जब कि उसकी निर्भीकता के कारण व्याघ्र स्वयं ही अपनी जान बचाकर भाग खड़ा हुआ।

(4) बुद्धिमती- उसका असाधारण बुद्धिमती होना भी उसके चरित्र का मुख्य गुण है। अपने बुद्धि-चातुर्य से वह व्याघ्र जैसे हिंसक पशु को भयभीत करके उन्हें भाग जाने के लिए विवश करती है। और अपनी तथा अपने पुत्रों की प्राणरक्षा करती है।

निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि व्याघ्रमारी (कलहप्रिया) जहाँ एक लड़ाकू और कलह- कारिणी स्त्री है वहीं वह एक निर्भीक, क्रोधी, शीघ्र निर्णय लेने वाली और विपत्ति में भी धैर्य धारण करने वाली वीरांगना है।

शृगाल

परिचय- शृगाल जंगल का छोटा-सा हिंसक जीव है। वह भय से भागते व्याघ्र को मार्ग में मिलता है और व्याघ्र से उसके भय का कारण पूछता है। अपनी धूर्तता से वह स्वयं अपने प्राण भी संकट में डाल लेता है। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) महाधूर्त- जंगल के जीवों में शृगाल को सबसे धूर्त जीव माना जाता है। प्रस्तुत पाठ का पात्र शृगाल भी इस अवधारणा पर खरा उतरता है। भय से भागते व्याघ्र को देखकर उसकी हँसी से उसकी धूर्तता का बोध होता है। उसकी धूर्तता तब चरम सीमा पर पहुँच जाती है, जब वह व्याघ्र को अपनी (UPBoardSolutions.com) बातों में फंसाकर पुनः कलहप्रिया के निकट ले जाता है। व्याघ्र के डर जाने और कलहप्रिया की निर्भीकता क़ा दण्ड उसे स्वयं भी घायल होकर भुगतना पड़ता है।

(2) निर्भीक एवं साहसी- धूर्त होने के साथ-साथ उसमें निर्भीकता एवं साहस जैसे गुण भी विद्यमान हैं। अपने से कई गुना शक्तिशाली व्याघ्र पर हँसना, व्याघ्र को पुनः कलहप्रिया के पास लेकर आना उसकी निर्भीकता एवं साहस की पुष्टि के लिए पर्याप्त हैं।

(3) बुद्धिमान्- बुद्धिमानी उसका विशिष्ट गुण है। अपनी बुद्धि के द्वारा ही वह व्याघ्र को पुनः कलहप्रिया के पास लाने में सफल हो जाता है और व्याघ्र के गले में बँधा हुआ भी व्याघ्र से अपने प्राणों की रक्षा कर लेता है, यह उसके बुद्धिमान् होने को दर्शाता है।

(4) धैर्यशाली–विपत्ति के समय में भी शृगाल धैर्य को नहीं त्यागता है। व्याघ्र के गले में बँधा हुआ लहूलुहान होने पर भी वह घबराता नहीं है। धैर्यपूर्वक वह अपनी मुक्ति का उपाय सोचता है और अन्ततः अपने प्राणों की रक्षा करने में सफल हो जाता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शृगाल में उपर्युक्त गुणों के अतिरिक्त वाक्पटु, शीघ्र निर्णय लेना इत्यादि गुण विद्यमान हैं।

व्याघ्र

परिचय–प्रस्तुत पाठे के पात्रों में कलहप्रिया के पश्चात् व्याघ्र ही दूसरा प्रमुख पात्र है। वह जंगल का हिंसक, किन्तु मूर्ख जीव है। उसके चरित्र की विशेषताएँ इस प्रकार हैं|

(1) मूर्ख- शक्तिशाली जीव होते हुए भी व्याघ्र मूर्ख है। उसकी मूर्खता का उद्घाटन उस समय होता है, जब वह व्याघ्रमारी द्वारा अपने बेटों को उसे खा लेने का आदेश देते सुनकर ही भाग खड़ा होता है। वह यह भी नहीं सोच पाता कि दो छोटे निहत्थे बालक और एक स्त्री कैसे उसे मारकर खा जाएँगे। ..

(2) भीरु– व्याघ्र बलशाली अवश्य है, किन्तु अत्यधिक भीरु. भी है। कलहप्रिया द्वारा उसको मारकर खा जाने के कथनमात्र से ही वह घबरा जाता है। अपने भीरु स्वभाव के कारण वह अपनी शक्ति को भी भूल जाता है। शृगाल से जंगल में कहीं छिपकर जान बचाने के उसके कथन से भी उसकी भीरुता का बोध होता है।

(3) शक्ति के मद में चूर– व्याघ्र को अपनी शक्ति पर गर्व है। कलहप्रिया को दो बच्चोंसहित देखकर वह फूला नहीं समाता। उन्हें खाने के लिए वह बड़ी वीरता के साथ अपनी पूँछ को भूमि पर पटकता है और तत्पश्चात् उनकी ओर झपटता है। धरती पर पूँछ को पटकना ही उसके शक्ति-मद को इंगित करता है।

(4) अविवेकी- अपने ऊपर उल्लिखित दुर्गुणों के साथ-साथ वह अविवेकी भी है। उसका कोई भी कार्य विवेक से पूर्ण नहीं लगता, चाहे कलहप्रिया को खाने के लिए झपटने का उसका निर्णय हो अथवा शृगाल को गले में बाँधकर पुनः कलहप्रिया के पास आने का निर्णय। मात्र अविवेकी होने के (UPBoardSolutions.com) कारण ही वह दोनों बार भय को प्राप्त होता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि व्याघ्र झूठी मान-प्रतिष्ठा का प्रदर्शन करने वाला अविवेकी, शक्ति के मद में चूर, भीरु और मूर्ख जीव है।।

लघु उत्तरीय संस्कृत प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्‍नो के उत्तर संस्कृत में लिखिए

प्रश्‍न 1
राजसिंहो नाम राजपुत्रः कुत्र अवसत्?
उत्तर
राजसिंहो नाम राजपुत्र: देउलाख्ये ग्रामे अवसत्।

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प्रश्‍न 2
व्याघ्रः कलहप्रियां दृष्ट्वा किम् अकरोत्?
उतर
व्याघ्रः कलहप्रियां दृष्ट्वा पुच्छेन भूमिमाहत्य धावितः।

प्रश्‍न 3
व्याघ्रो जम्बुकं किं कर्तुम् अकथयत्?
उत्तर
व्याघ्रः जम्बुकं किञ्चिद् गूढप्रदेशं गन्तुम् अकथयत्।

प्रश्‍न 4
व्याघमारी जम्बुकं प्रति किं चिन्तितवती?
उत्तर
व्याघ्रमारी चिन्तितवती यदयं व्याघ्रः मृगधूत्तेन आनीतः।

प्रश्‍न 5
व्याघमारी शृगालं किम् अकथयत्?
उत्तर
व्याघ्रमारी शृगालम् अकथयत् यत् त्वया पुरा मह्यं व्याघ्रत्रयं दत्तम्, अद्य त्वम् एकमेव कथम् आनीतवान्।।

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प्रश्‍न 6
जम्बुकेन स्वप्राणान्त्रातुं किं कृतम्?
उत्तर
जम्बुकेन स्वप्राणान् त्रातुं उच्चैः हसितम् उक्तञ्च यदि साऽस्मद्रक्तस्रावसंलग्ना पापिनी पृष्टत: समेति तदा कथं जीवितव्यम्।।

वस्तुनिष्ठ प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए।

1. ‘बुद्धिर्यस्य बलं तस्य’ पाठ किस ग्रन्थ से उधृत है?
(क) कथासरित्सागर’ से
(ख) “शुक-सप्तति’ से।
(ग) ‘पञ्चतन्त्रम्’ से
(घ) “हितोपदेशः’ से ।

2. शुकसप्तति में कुल कितनी कथाएँ संगृहीत हैं और यह किसके मुख से कही गयी हैं?
(क) सत्रह, कबूतर के मुख से ।
(ख) संतासी, मैना के मुख से
(ग) सत्ताइस, शृगाल के मुख से ।
(घ) सत्तर, शुक के मुख से ।

3. राजसिंह किस गाँव का निवासी था?
(क) रामपुर ग्राम का
(ख) शिवपुर ग्राम का
(ग) देउलाख्य ग्राम का ।
(घ) कुसुमपुर ग्राम का

4. कलहप्रिया किसके साथ अपने पिता के घर की ओर चली?
(क) अपने पति के साथ
(ख) अपने सेवक के साथ
(ग) अपने पिता के साथ
(घ) अपने दो पुत्रों के साथ

5. कलहप्रिया ने महाकानन में व्याघ्र को देखकर अपने पुत्रों को चपत लगाकर क्या कहा?
(क) तुम खाना खाने के लिए क्यों लड़ रहे हो।
(ख) तुम बिना बात के क्यों लड़ रहे हो ।
(ग) तुम मार खाने के लिए क्यों लड़ रहे हो।
(घ) तुम एक-एक व्याघ्र को खाने के लिए क्यों लड़ रहे हो

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6. व्याघ्र ने कलहप्रिया को क्या समझा?
(क) अश्वमारी
(ख) गजमारी
(ग) व्याघ्रमारी
(घ) शृगालमारी

7. बाघ को भागता हुआ देखकर शृगाल ने क्या किया?
(क) वह हँसने लगा।
(ख) वह रोने लगा
(ग) उसने बाघ को धैर्य बँधाया
(घ) उसने क्रोध किया

8. कथाकार ने व्याघ्र पर हँसते हुए जम्बुक( सियार) को क्या कहा है?
(क) बुद्धिमान्
(ख), धूर्त
(ग) मृगधूर्त
(घ) शृगाल

9. दुबारा कलहप्रिया के पास जाते हुए बाघ ने क्या किया?
(क) शृगाल को अपने आगे कर लिया
(ख) शृगाल को अपनी पूंछ से बाँध लिया
(ग) शृगाले को अपने गले में बाँध लिया।
(घ) शृगाल की गर्दन पकड़ ली

10. दौड़ते हुए बाघ के गले से छूटने के लिए सियार ने क्या किया?
(क) वह जोर से रोने लगा
(ख) उसने बाघ से निवेदन किया
(ग) वह हँसने लगा।
(घ) उसने मरने का ढोंग किया

11.’•••••••••••••राजसिंहस्य भार्या आसीत्?’ वाक्य में रिक्त-पद की पूर्ति होगी
(क) “कलहप्रिया’ से
(ख) “शान्तिप्रिया’ से
(ग) “भानुप्रिया’ से
(घ) “माधुर्य प्रिया’ से

12. ‘यदि त्वं मां मुक्त्या यासि तदा वेलाप्यवेला स्यात्।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) व्याघ्रः
(ख) शृगालः
(ग) व्याघ्रमारी
(घ) कश्चित् नास्ति

13. ‘तर्हि मां निज ……………… बद्ध्वा चल शीघ्रम्।’ वाक्य में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी
(क) ‘हस्ते से
(ख) “पृष्ठे’ से
(ग) “गले’ से
(घ) “पादे’ से

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14. ‘तदा मम त्वदीया वेला स्मरणीया।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) जम्बुकः
(ख) व्याघ्रः
(ग) व्याघ्रमारी
(घ) कश्चित् नास्ति

15. ‘यतो हि व्याघमारीति या ………………भूयते।’ में वाक्य-पूर्ति होगी
(क) “शास्ये’ से
(ख) ‘लोके से
(ग) ‘पुराणे’ से
(घ) “जना’ से

16. ‘रे रे धूर्त ••••••••••••दत्तं मह्यं व्याघ्रत्रयं पुरा।’ में वाक्य-पूर्ति का पद है–
(क) त्वम्
ख) मया
(ग) त्वया ।
(घ) अहम् । 

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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 10 त्याग एवं परो धर्मः (कथा – नाटक कौमुदी)

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 10
Chapter Name त्याग एवं परो धर्मः (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 27
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 10 त्याग एवं परो धर्मः (कथा – नाटक कौमुदी)

परिचय-हमारे देश की रत्नगर्भा वसुन्धरा में स्थित राजस्थान की धरती सदा से ही वीर-प्रसविणी रही है। विदेशी आक्रमणों के झंझावात को मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश ने जिस अदम्य साहस एवं वीरता से झेला है उसकी मिसाल विश्व-इतिहास में अन्यत्र नहीं मिलती। महाराणा प्रताप इसी राजवंश रूपी गनन के प्रचण्ड मार्तण्ड हैं, जिनकी प्रखर किरणों के समक्ष मुगल सम्राट् अकबर का कान्ति-मण्डल भी निस्तेज प्रतीत होता है। मातृभूमि की रक्षा हेतु राणा प्रताप को अकबर के साथ अनेक युद्ध करने पड़ते हैं, जिसमें उनका सारा राज्य छिन जाता है और उनको पर्वत-कन्दराओं और निर्जन वनों में रहकर कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करना पड़ता है। अकस्मात् घटित एक घटना (UPBoardSolutions.com) से राणा प्रताप विचलित तो होते हैं, परन्तु उनका स्वाभिमान उन्हें अकबर से सन्धि करने से रोकता है। अकबर से निरन्तर युद्ध करते रहने के कारण महाराणा प्रताप सेना और कोष के अभाव से चिन्ताकुल रहते हैं। तब ही उनका वंशानुगत मन्त्री भामाशाह उन्हें अपने जीवन की अर्जित समस्त सम्पत्ति समर्पित क़र देता है। प्रस्तुत पाठ में भामाशाह और प्रताप के त्यागमय जीवन-वृत्तान्त का वर्णन है।

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पाठ सारांश  

प्रताप की विपन्न दशा- अरावली पर्वत के ऊपर की भूमि पर विपन्नावस्था में बैठे हुए महाराणा प्रताप मन्त्रियों के साथ भावी योजना पर विचार-विमर्श कर रहे हैं। उसी समय उन्हें अपने पुत्र के रोने का करुण स्वर सुनाई देता है। महाराणा प्रताप उसका आलिंगन करके उसे चुप कराते हुए उससे रोने का कारण पूछते हैं। बालक अपने रोने का कारण अपना भूखा होना बताता है। उसी समय राजमहिषी घास की (UPBoardSolutions.com) रोटी का एक टुकड़ा लेकर आती है। बालक रोटी का टुकड़ा लेकर दूर चला जाता है। उसी समय उसकी रोटी का टुकड़ा एक वन-बिलाव लेकर भाग जाता है और बालक फिर रोने लगता है। प्रताप के पूछने पर राजमहिषी बताती है कि और रोटी नहीं है तथा बालक को चुप कराने के लिए वह उसे एक गुफा के भीतर ले जाती है।’

प्रताप की चिन्ता- महाराणा प्रताप एक शिला पर बैठकर अपनी दशा पर दुःखी हो रहे हैं और स्वयं से कह रहे हैं कि मुझे धिक्कार है, जो मेरे जीवित रहते हुए भी मेरा पुत्र भूखा रह जाता है। उनके लिए यह कष्ट असह्य हो जाता है। वे मातृभूमि की रक्षा का व्रत छोड़कर दिल्ली नरेश से सन्धि करने का विचार करने लगते हैं। अचानक नेपथ्य से आने वाली किसी ध्वनि को सुनकर वे विचार-विरत हो जाते हैं। पुनः चिन्ताकुल होकर सोचते हैं कि मेरे पास मातृभूमि की रक्षा के लिए न तो धन है और न ही पर्याप्त सेना।

भामाशाह का अपूर्व त्याग- उसी समय अपने सेवकों के साथ भामाशाह वहाँ पहुँचता है और महाराणा प्रताप को विपन्न और चिन्तित अवस्था में देखता है। प्रताप मातृभूमि की स्वतन्त्रता की चिन्ता से व्याकुल हैं, इस बात को वह पहले से ही जानता है। भामाशाह देश की रक्षा के लिए अपनी सारी पूँजी प्रताप के चरणों में अर्पित कर देता है। महाराणा प्रताप भामाशाह का आलिंगन करके उसकी प्रशंसा करते हैं। दोनों की जय-जयकार होती है।


चरित्र चित्रण

महाराणा प्रताप

परिचय– मेवाड़ केसरी महाराणा प्रताप सिसोदिया कुल के भूषण थे। उन्होंने वीरप्रसविणी भारतभूमि के राजस्थान प्रान्त में जन्म लिया था। वे अदम्य साहसी, शक्तिसम्पन्न और स्वाभिमानी थे। अकबर से निरन्तर युद्ध करते-करते वे अपना सब कुछ आँवा बैठते हैं और पर्वत-कन्दराओं-वनों में रहकरे जीवन-यापन के लिए विवश हो जाते हैं। उनके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं ।

(1) अदम्य साहसी एवं वीर- महाराणा प्रताप में अद्भुत साहस एवं अतुल पराक्रम था। वे शत्रु-पक्ष से सदा निर्भीक रहे और निरन्तर युद्ध करते रहे। दिल्ली के सम्राट् अकबर से इस वीर ने ही लोहा लिया और उसकी दासता कभी स्वीकार नहीं की। वे अपने सीमित साधनों और सीमित सेना से ही अकबर से लोह्म लेते रहे। वे विपत्ति में कभी नहीं घबराये। अत्याचार, अन्याय और परतन्त्रता को सहन करना ही सबसे बड़ा (UPBoardSolutions.com) पाप है और सबसे बड़ा पुण्य है, इनके निराकरण के लिए संघर्षरत रहना; इसी को इन्होंने अपने जीवन का सिद्धान्त बना लिया था। इन्होंने मातृभूमि के समक्ष अपनी और अपने परिवार की कभी चिन्ता नहीं की। वे विपन्नता में भी मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए प्रयास करते रहे। |

(2) सहृदय- महाराणा प्रताप सहृदय व्यक्ति थे। पुत्र को भूख से बिलखते देखकर उनको हृदय विचलित हो जाता है। संसार में लोग पुत्र के लिए क्या-क्या उचित-अनुचित नहीं करते, परन्तु पुत्र को दु:खी नहीं देख सकते; लेकिन महाराणा प्रताप का पुत्र भूख से बिलख रहा है। वे पुत्र की इस वेदना से विचलित हो जाते हैं और अकबर से सन्धि करने का विचार करने लगते हैं।

(3) असाधारण स्वाभिमानी- महाराणा प्रताप का स्वाभिमान उन्हें अकबर से सन्धि करने से रोकता है। उन्होंने स्वाभिमान की रक्षा के लिए घास की रोटियाँ खाकर जीवनयापन करना अधिक पसन्द किया, परन्तु स्वाभिमान को नहीं छोड़ा। उन्होंने अकबर की दासता कभी स्वीकार नहीं की, सदा अपना सिर ऊँचा रखा। उन्होंने टूटना सीखा था, मगर झुकना नहीं।

(4) त्याग की जीवन्त मूर्ति- महाराणा प्रताप त्याग की जीवन्त प्रतिमा थे। उनके जीवन का व्रत ‘था कि या तो मेवाड़ को स्वतन्त्र बनाऊँगा अन्यथा शरीर का त्याग कर दूंगा।’ उनकी यह दृढ़ प्रतिज्ञा उनके त्याग की मूर्तिमान कहानी है। वे जीवनपर्यन्त भूमि पर-शयन करते रहे और पत्तल पर भोजन करते रहे; क्योंकि उनका मेवाड़ उनके जीवन-काल में स्वतन्त्र नहीं हो पाया था।

(5) देश-प्रेमी– महाराणा प्रताप मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए अनवरत संघर्ष करते रहे। उन्हें केवल चिन्ता थी तो देश की स्वतन्त्रता की। उन्होंने मेवाड़ की स्वतन्त्रता के लिए अनेक कष्ट सहे। भामाशाह से अतुल धनराशि प्राप्त कर सेना को पुनः एकत्र करके देश को स्वतन्त्र करने हेतु लड़ाई लड़ी। आज भी मेवाड़ के कण-कण में महाराणा प्रताप की देशभक्ति और उनका मातृभूमि के प्रति प्रेम समाया हुआ है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि महाराणा प्रताप मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए शहीद होने वाले वीरों की पंक्ति में अग्रिम स्थान के अधिकारी हैं। वे असाधारण वीर, अप्रतिम साहसी, स्वाभिमानी, कष्ट-सहिष्णु, मातृभूमि के अनन्य सेवक तथा त्याग की जीवन्त मूर्ति थे। 

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भामाशाह

परिचय– देशभक्तों में जहाँ महाराणा प्रताप का नाम अग्रगण्य है, वहीं भामाशाह का नाम भी बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। भामाशाह एक देशभक्त श्रेष्ठ । वे महाराणा प्रताप के वंशानुगत मन्त्री हैं। उनके पास स्वयं की और पूर्वजों की अर्जित अपार सम्पत्ति है। उनके चरित्र की विशेषताएँ इस प्रकार हैं|

(1) महान् देशभक्त- मातृभूमि की रक्षा करते युद्ध में वीरगति प्राप्त करने वालों की गणना ही देशभक्तों में नहीं की जाती, वरन् देश की रक्षा के लिए संसाधन जुटाने वाले लोगों की गणना भी देशभक्तों में ही का जाती है। ऐसे ही एक देशभक्त वीर थे–भामाशाह। वे मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने सम्पूर्ण (UPBoardSolutions.com) जीवन की सम्पत्ति महाराणा के श्रीचरणों में समर्पित करके निराश राणा को पुनः मातृभूमि की रक्षा के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी देशभक्ति को देखकर राणा स्वयं कह उठते हैं–‘यस्या मातृभूमेः त्वादृक् पुत्ररत्नम् विद्यते, न ताम् कश्चिदपि आक्रान्ता पराधीनां कत्तुं शक्तः ।

(2) स्पष्टवक्ता एवं आदर्श मन्त्री- भामाशाह एक आदर्श मन्त्री हैं। उन्हें छल-कपट अथवा मिथ्यालाप नहीं आता। उनका यह कथन है ‘महाराज! निधिरयं मन्त्रिरूपेण अस्माभिः कुलपरम्परया श्रीमद्भ्यः एवोपार्जितः’ उनके इस गुण को स्पष्ट कर देता है। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि यह विपुल धनराशि मेरे कुल द्वारा आप ही से एकत्रित की गयी है।

(3) त्यागी- देशभक्त होने से पहले त्यागी होना अत्यावश्यक है। भामाशाह में यह गुण विद्यमान है। देश के लिए अपने द्वारा अर्जित की गयी सम्पूर्ण सम्पत्ति का त्याग कर देना उनके त्यागी होने का स्पष्ट प्रमाण है। अपने घर आये हुए याचक को दान देते हुए दानियों को तो सहज की देखा जा सकता है किन्तु ऐसे दानी जो दानार्थी को उसके स्थान पर पहुँचकर सर्वस्व दे दें, विश्व-इतिहास में भामाशाह के अतिरिक्त गिने-चुने ही होंगे।

(4) दूरदर्शी- भामाशाह दूरद्रष्टा हैं। वे सोचते हैं कि यदि देश परतन्त्र हो गया तो उनके द्वारा अर्जित समस्त सम्पत्ति को आक्रान्ता लूट ही ले जाएँगे और वे खाली हाथ रह जाएँगे। अब यदि बिना। सम्पत्ति के रहना ही है तो क्यों न वह सम्पूर्ण सम्पत्ति देश की रक्षा के लिए अर्पित कर दी जाये। इससे उनकी यश:-कीर्ति ही बढ़ेगी। कदाचित् यही सोचकर वे अपनी सम्पूर्ण धनराशि देशहित में दे देते हैं। उनकी इस दूरदर्शिता में मातृभूमि की हित-कामना निहित है। |

(5) वीर पुरुष– युद्धवीर, दानवीर, धर्मवीर, दयावीर–वीर पुरुष के चार प्रकार होते हैं। भामाशाह को युद्धवीर नहीं कहा जा सकता; किन्तु वे दानवीर अवश्य हैं। दानवीर व्यक्ति में धर्म (UPBoardSolutions.com) और दया तो निहित होती ही है; क्योंकि इन दोनों गुणों के अभाव में कोई भी व्यक्ति दानी नहीं हो सकता। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भामाशाह जहाँ देशभक्त व आदर्श मन्त्री हैं, वहीं वे दयालु, परम धार्मिक, राजवंश प्रेमी, वीर पुरुष और भारतीय सन्तान हैं। ऐसे ही महापुरुषों पर देश की स्वाधीनता निर्भर करती है।

लघु उत्तरीय संस्कृत  प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए

प्रश्‍न 1
कुत्र अवसत्?
उत्तर
प्रतापः अर्बुदपर्वतस्य अधित्यकायाम् अवसत्।

प्रश्‍न 2
प्रतापः बालकाय भक्षणार्थम् किमददात्?
उत्तर
प्रतापः बालकाय भक्षणार्थं घासकरपट्टिकायाः खण्डम् अददात्।

प्रश्‍न 3
बालकस्य करपट्टिका केनापहृता? ।
उत्तर
बालकस्य करपट्टिका वनमार्जारण अपहृता।

प्रश्‍न 4
वनमार्जारेणापहृते करपट्टिकाशकले राजमहिषी प्रतापं किम् अवोचत्?
उत्तर
वनमाजरेण अपहृते करपट्टिकाशकले राजमहिषी प्रतापम् अवोचत् यत्-नाथ! एतदेव करपट्टिकाकाशकलम् आसीत्। इदानीं नास्ति किमपि अन्यभक्षणाय।।

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प्रश्‍न 5
राजमहिषीवचः निशम्य वीक्ष्य च क्रन्दन्तं बालकं प्रतापः किमचिन्तयत्?
उत्तर
राजमहिषीवच: निशम्य वीक्ष्य च क्रन्दन्तं बालकं प्रताप: स्व परिवारस्य दीनां दशाम्। अचिन्तयत्। ।

प्रश्‍न 6
केन नेपथ्यध्वनिना प्रतापः विरमति?
उत्तर
‘त्वयि सन्धौ गते राजन्! कुत्र गता स्वतन्त्रता।’ इत्यनेन नेपथ्यध्वनिना प्रतापः विरमति।

प्रश्‍न 7
नेपथ्यभाषितं श्रुत्वा प्रतापः किं चिन्तयामास?
उत्तर
नेपथ्यभाषितं श्रुत्वा प्रतापः चिन्तयामास यत् मम पाश्वें वराटिकापि नास्ति, अपेक्षिता सेना न विद्यते, कथं करोमि मातृभूमि रक्षाविधानम्।

प्रश्‍न 8
भामाशाहः कः आसीत्?
उत्तर
भामाशाह: प्रतापस्य कुलक्रमागत: मन्त्री आसीत्।

प्रश्‍न 9
चिन्तामग्नं प्रतापं दृष्ट्वा भामाशाहः किम् अकथयत्?
उत्तर
चिन्तामग्नं प्रतापं दृष्ट्वा भामाशाहः अकथयत् यत् कथं श्रीमन्तः चिन्ताहुताशनपरीताः इव आलक्ष्यन्ते।

प्रश्‍न 10
भामाशाहः प्रतापाय किमददात्? उत्तर-भामाशाहः प्रतापाय प्रभूतं धनम् अददात्।

वस्तुनिष्ठ प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए

1. ‘त्याग एव परो धर्मः’पाठ वर्तमान भारत के किस राज्य से सम्बन्धित है?
(क) राजस्थान से
(ख) उत्तर प्रदेश से
(ग) गुजरात से
(घ) मध्यप्रदेश से

2. ‘त्याग एव परो धर्मः पाठ में किनके त्याग का वर्णन किया गया है?
(क) महाराणा प्रताप और भामाशाह के
(ख) महाराणा प्रताप और अकबर के
(ग) भामाशाह और अकबर के
(घ) इनमें से किसी के नहीं।

3. महाराणा प्रताप का युद्ध किससे और कहाँ हुआ था?
(क) बाबर से, पानीपत में।
(ख) हुमायूँ से, दिल्ली में ।
(ग) अकबर से, हल्दीघाटी में
(घ) औरंगजेब से, पानीपत में।

4.अकबर और महाराणा प्रताप के मध्य हुए युद्धों का अन्ततः क्या परिणाम हुआ?
(क) प्रताप का सम्पूर्ण धन और सेना नष्ट हो गयी |
(ख) प्रताप ने आत्म-समर्पण कर दिया।
(ग) अकबर का कोष खाली हो गया
(घ) अकबर ने हार मान ली

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5. राज्य के हाथ से चले जाने पर महाराणा प्रताप ने किन पहाड़ियों में शरण ली?
(क) सतपुड़ा की पहाड़ियों मे
(ख) अरावली की पहाड़ियों में
(ग) हिमालय की पहाड़ियों में
(घ) विन्ध्य की पहाड़ियों में .

6.महाराणा के पुत्र के रोने का क्या कारण था?
(क) भूख
(ख) प्यास
(ग) वनमार्जारम्
(घ) युद्ध .

7. पुत्र को भूख से व्याकुल देखकर प्रताप ने क्या निश्चय किया?
(क) वहाँ से चले जाने का ।
(ख) भोजन सामग्री लाने का
(ग) अकबर से सन्धि करने का |
(घ) बच्चे को चुप कराने का

8. वनबिलाव बालक के हाथ से क्या छीन ले गया?
(क) रोटी का टुकड़ा
(ख) लड्डू
(ग) खिलौना
(घ) कपड़ा

9. महाराणा प्रताप भामाशाह को अपनी चिन्ता का क्या कारण बताते हैं? |
(क) पत्नी की दीनदशी को
(ख) मातृभूमि की स्वतन्त्रता को
(ग) अपने कुटुम्ब को ।
(घ) अपने पुत्र की भूख को

10. भामाशाह ने प्रताप को धन क्यों दिया?
(क) क्योंकि भामाशाह को उस धन के चोरी जाने का भय था
(ख) भामाशाह के पास धन रखने को स्थान नहीं था।
(ग) क्योंकि भामाशाह मातृभूमि की सेवा करना चाहते थे
(घ) क्योंकि प्रताप ने वह धन मँगाया था ।

11. ‘वत्स! किमर्थम् ………………. ।’ वाक्य में रिक्त-पद की पूर्ति होगी
(क) ‘रोदिहि’ से
(ख) ‘रोदते’ से
(ग) ‘रोदति’ से
(घ) “रोदिषि’ से

12. ‘त्वया वीरप्रसू गोत्रा त्वयि धर्मः प्रतिष्ठितः।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) महाराणा प्रताप
(ख) अकबर ।
(ग) मानसिंह
(घ) कश्चित् नास्ति

13. ‘बुभुक्षय मे प्राणाः उत्क्रामन्ति।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) महाराणा प्रतापः।
(ख) प्रतापस्य बालकः
(ग) प्रतापस्य राजमहिषी
(घ) भामाशाहः

14. ‘क्वेदानीं श्रूयते फेरूणाम् •••••••••• ध्वनिः।’ में रिक्त-पद की पूर्ति होगी
(क) “तीव्रतरो’ से
(ख) ‘कर्णकटुको’ से
(ग) ‘मधुरो’ से
(घ) “कोलाहलो’ से

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15. मयि जीवत्येव ममात्मजः क्षुधार्तः तिष्ठति।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) महाराणा प्रतापः
(ख) प्रतापस्य बालकः
(ग) प्रतापस्य राजमहिषी
(घ) कश्चित् नास्ति ।

16. ‘ …… रक्षणार्थमपेक्षिता सेनापि न विद्यते।’ में वाक्य-पूर्ति होगी
(क) मातृभूमि’ से ।
(ख) ‘आत्मसम्मान’ से
(ग) “प्रजा’ से ।
(घ) ‘सिंहासन’ से ।

17.’…….. अयं मन्त्रिरूपेण अस्माभिः कुलपरम्परया श्रीमद्भ्यः एवोपार्जितः।’ में रिक्त-पद | की पूर्ति होगी ।
(क) “सम्पत्ति’ से
(ख) ‘धनम्’ से
(ग) “निधि’ से
(घ) “वराटिका’ से

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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 9 प्राचीनाः पञ्चवैज्ञानिकाः (कथा – नाटक कौमुदी)

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Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 9
Chapter Name प्राचीनाः पञ्चवैज्ञानिकाः (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 34
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 9 प्राचीनाः पञ्चवैज्ञानिकाः (कथा – नाटक कौमुदी)

परिचय- मनुष्य के मन में ब्रह्माण्ड के ग्रहों, उपग्रहों, नक्षत्रादि को देखकर इनके सम्बन्ध में सृष्टि , के प्रारम्भ से ही जिज्ञासा रही है। भारत के ज्योतिर्विद् आचार्यों ने बड़े परिश्रम से इनके बारे में सूक्ष्म जानकारी प्राप्त की। इस दिशा में सबसे पहले आचार्य वराहमिहिर ने ईसा की चौथी शती के उत्तरार्द्ध में ‘पञ्चसिद्धान्तिका’ नामक ग्रन्थ लिखकर पूर्व-प्रचलित सिद्धान्तों का परिचय दिया। इनके पश्चात्

आर्यभट ने ईसा की छठी शती के पूर्वार्द्ध में ‘आर्यभटीय’ और ‘तन्त्र’ नामक दो ग्रन्थों की रचना की। इनके लगभग सौ वर्षों के पश्चात् भास्कराचार्य (प्रथम) नामक ज्योतिर्विद् ने ‘आर्यभटीय’ पर भाष्य लिखा तथा ‘लघु-भास्कर्य’ और ‘महा-भास्कर्य’ नामक दो ग्रन्थों की रचना कर उन्हीं (आर्यभट) के सिद्धान्तों का प्रसार किया। इनके पश्चात् ब्रह्मगुप्त नाम के अत्यन्त प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य हुए, जिन्होंने ‘खण्डखाद्यक’ और ‘ब्रह्मस्फुट (UPBoardSolutions.com) सिद्धान्त’ नामक दो ग्रन्थों की रचना की। इनके पश्चात् ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी में भास्कराचार्य (द्वितीय) हुए, जिन्होंने चार प्रसिद्ध ज्योतिष-ग्रन्थों ‘लीलावती’, ‘बीजगणित’, ‘सिद्धान्तशिरोमणि’ और ‘करणकुतूहल’ की रचना की। प्रस्तुत पाठ में इन्हीं भारतीय विद्वानों का परिचय कराया गया है।

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पाठ-सारांश

(1) वराहमिहिर— यह रत्नगर्भा भारतभूमि अनेक वैज्ञानिकों की जन्मदात्री रही है। राजा विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में वराहमिहिर नाम के एक गणितज्ञ विद्वान् थे। इनके पिता आदित्यदास भगवान् सूर्य के उपासक थे। सूर्य की उपासना से प्राप्त अपने पुत्र का नाम उन्होंने वराहमिहिर रखा। वराहमिहिर की विद्वत्ता से प्रभावित होकर ‘विक्रमादित्य’ उपाधिधारी सम्राट चन्द्रगुप्त ने इन्हें अपनी सभा के नवरत्नों में स्थान दिया।

वराहमिहिर राजकीय कार्य के पश्चात् अपने समय का उपयोग ग्रहों की गणना और पुस्तक लिखने में किया करते थे। फलित ज्योतिष में अधिक रुचि होते हुए भी इन्होंने अपने ‘वृहत्संहिता नामक ग्रन्थ में ग्रह-नक्षत्र की गणना से संवत् का निर्धारण, सप्तर्षि मण्डल के उदय तथा अस्त के काल को निश्चित किया।

वराहमिहिर ने प्राचीन और मध्यकाल के राजाओं की उत्पत्ति का समय भी निर्धारित किया। इन्होंने अपने ‘पञ्चसिद्धान्तिका’ ग्रन्थ की रचना करके लोगों को पूर्व प्रचलित पितामह, रोमक, पोलिश, सूर्य, वशिष्ठ आदि के सिद्धान्तों से अवगत कराया। इन्होंने पृथ्वी के उत्पत्तिविषयक और धूमकेतु के उत्पत्तिविषयक और धूमकेतु के उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धान्तों की भी खोज की।

(2) आर्यभट्ट– आर्यभट्ट भारत के प्रसिद्ध ज्योतिषी और गणितज्ञ थे। इन्होंने ‘आर्यभटीय’ और ‘तन्त्र’ नामक दो ग्रन्थों की रचना की। इन्होंने आर्यभटीय ग्रन्थ में वृत्त का व्यास और परिधि, अनुपात

आदि विषय प्रस्तुत किये। इन्होंने सूर्य और चन्द्र-ग्रहण के विषय में राहु और केतु द्वारा ग्रसे जाने की प्रचलित धारणी का तर्को से खण्डन किया और सिद्ध किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर सूर्य के चारों ओर चक्कर लग्नाती है। इन्होंने अपने आर्यभटीय ग्रन्थ में शून्य का महत्त्व, रेखागणित, बीजगणित, (UPBoardSolutions.com) अंकगणित आदि के विषयों का अन्तर स्पष्ट किया। इनके कार्यों के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए ही भारत के प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट’ रखा गया।

(3) भास्कराचार्य (प्रथम)- भारतीय खगोल-वैज्ञानिकों में दो भास्कराचार्य हुए। इनमें से प्रथम भास्कराचार्य 600 ईसवी में दक्षिण भारत में हुए। इन्होंने ‘आर्यभटीय भाष्य’, ‘महाभास्कर्य’ और ‘लघुभास्कर्य’ नामक तीन ग्रन्थों की रचना करके आर्यभट्ट के सिद्धान्तों को ही विवेचन किया।

(4) ब्रह्मगुप्त- ब्रह्मगुप्त ने 598 ईसवी में ‘ब्रह्मसिद्धान्त’ ग्रन्थ की रचना की। भास्कर द्वितीय ने इन्हें ‘गणक चक्र-चूड़ामणि’ की उपाधि से विभूषित किया। ब्रह्मगुप्त ने आर्यभट्ट के द्वारा स्थापित सिद्धान्तों का खण्डन किया। इन्होंने पूर्वकाल के श्रीसेन, विष्णुचन्द्र, लाट, प्रद्युम्न आदि विद्वानों के सिद्धान्तों की भी आलोचना की। इनके ‘खण्डखाद्यक’ और ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त’ नामक दो ग्रन्थों का अनुवांद ‘अरबी भाषा में हुआ।

 (5) भास्कराचार्य (द्वितीय)- भास्कराचार्य द्वितीय प्राचीन वैज्ञानिकों में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। इन्होंने अपना जन्म-स्थान ‘विज्जऽविड’ तथा जन्म-समय 1114 ईसवी लिखा है। इनकी प्रसिद्धि ‘सिद्धान्तशिरोमणि’, ‘लीलावती’, ‘बीजगणित’ और ‘करणकुतूहल’ नामक पुस्तकों के कारण हुई। इनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना ‘लीलावती’ है। इनकी ‘सूर्यसिद्धान्त’ पुस्तक के अंग्रेजी अनुवाद को पढ़कर अनेक पाश्चात्य विद्वान् अत्यधिक प्रभावित हुए।

इन्होंने सिद्ध किया कि गोलाकार पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। इन्होंने बताया कि सूर्य के ऊपर चन्द्रमा की छाया पड़ने के कारण सूर्यग्रहण तथा चन्द्रमा के ऊपर पृथ्वी की छाया पड़ने से चन्द्र-ग्रहण होता है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन के पूर्व ही भास्कराचार्य ने बता दिया था कि पृथ्वी अपने केन्द्र से सभी वस्तुओं को खींचती है तथा पृथ्वी ग्रह-नक्षत्रों की आपसी आकर्षणशक्ति से ही इस रूप में स्थित है।

भास्कराचार्य ने बीजगणित विषय में भी अनेक नये तथ्यों का आविष्कार किया था। उन्होंने बाँस की नली की सहायता से ही गणना करके अपने सिद्धान्तों की पुष्टि करके झूठे विचारों का खण्डन किया। बाद में उनके गणित के सिद्धान्त वैज्ञानिक उपकरणों से परीक्षित करने पर शुद्ध पाये गये। वे एक-एक नक्षत्र के बारे में सोचते हुए रात-रातभर नहीं सोते थे। उनके कार्यों की स्मृति में ही आधुनिक भारतीयों ने दूसरे उपग्रह का नाम भास्कर रखा।

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चरित्र चित्रण

 आर्यभट्ट

परिचय- वैदेशिक वैज्ञानिक आये-दिन नित नये सिद्धान्तों के प्रतिपादन की बात करते हैं, जब . कि भारतीय वैज्ञानिकों ने उन सिद्धान्तों का प्रतिपादन आज से हजारों वर्ष पूर्व कर दिया था। यह भारत

की विडम्बना ही है कि हमने अपने वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार नहीं किया, जब कि उन्हीं सिद्धान्तों को दूसरे वैज्ञानिक आज अपने नामों से प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं। हमारे ऐसे ही प्राचीन वैज्ञानिकों में एक नाम है–आर्यभट्ट का। उनके चरित्र की जितनी प्रशंसा की जाये, कम है। उनका चरित्र-चित्रण निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है|

(1) महान् संस्कृतज्ञ– आर्यभट्ट वैज्ञानिक होने के साथ-साथ महान् संस्कृतज्ञ भी थे। उन्होंने उत्कृष्ट संस्कृत में ‘आर्यभटीय’ और ‘तन्त्र’ नामक दो ग्रन्थों की रचना की, जिन पर अनेक भाष्य और व्याख्याएँ लिखी गयीं।

(2) महान् ज्योतिर्विद्- भारत क्या, अपितु विश्व के महान् ज्योतिषाचार्यों की गणना में आर्यभट्ट का स्थान सर्वोपरि है। उन्होंने प्राचीन परम्परा से चली आ रही ज्योतिषविषयक (UPBoardSolutions.com) राहु-केतु जैसे ग्रहों की अवधारणाओं को खण्डन करके उनके विषय में वैज्ञानिक और तर्कसंगत सिद्धान्तों का प्रतिपादन करके ज्योतिष को वैज्ञानिक रूप प्रदान किया। |”

(3) मूर्धन्य खगोलज्ञ- अन्तरिक्ष एवं ग्रहों से सम्बन्धित प्रामाणिक जानकारी महान् वैज्ञानिक आर्यभट्ट ने ही विश्व को उपलब्ध करायी। उन्होंने सर्वप्रथम इस तथ्य का रहस्योद्घाटन किया कि पृथ्वी स्थिर नहीं है, वरन् वह अपने स्थान पर घूमती रहती है। सूर्य, चन्द्रमा, अन्य ग्रहों और उपग्रहों के विषय में भी उन्होंने अनेक रहस्यों का उद्घाटन करके विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया।

(4) श्रेष्ठ गणितज्ञ- आर्यभट्ट एक महान् वैज्ञानिक होने के साथ-साथ एक श्रेष्ठ गणितज्ञ भी थे। उन्होंने अपने ‘आर्यभटीय’ नामक ग्रन्थ में शून्य के महत्त्व को प्रतिपादित करने के अतिरिक्त रेखागणित, बीजगणित और अंकगणित के अनेक सिद्धान्तों के प्रतिपादन के साथ ही इनके सूक्ष्म अन्तरों के विवेचन को भी स्पष्ट किया। | निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि आर्यभट्ट विलक्षण मेधा के धनी वैज्ञानिक थे, जिन्होंने विज्ञान, ज्योतिष, गणित एवं खगोल के क्षेत्र में भारतीय मेधा का लोहा विश्व से मनवाकर हमारे राष्ट्रीय गौरव को उन्नत किया।

कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्‍न

प्रश्‍न 1
आचार्य वराहमिहिर ने सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण एवं सप्तर्षिमण्डल-विषयक किन . तथ्यों को प्रस्तुत किया है? लिखिए।
उत्तर
प्रस्तुत प्रश्न का पूर्व अर्द्धश त्रुटिपूर्ण है; क्योंकि सूर्य-ग्रहण एवं चन्द्र-ग्रहण के विषय में वराहमिहिर ने कोई तथ्य प्रस्तुत नहीं किया है, वरन् इनसे सम्बन्धित तथ्य आर्यभट्ट ने प्रस्तुत किये हैं। : हाँ, सप्तर्षिमण्डल विषयक तथ्य इन्हीं के द्वारा प्रतिपादित हैं। इन्होंने सप्तर्षिमण्डले के उदय तथा अस्त होने के निश्चित समय का उद्घाटन किया था।

प्रश्‍न 2
आचार्य आर्यभट्ट के अवदानों और उनके व्यक्तिगत जीवन के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर
आचार्य आर्यभट्ट ने अवदानस्वरूप वृत्त के व्यास, परिधि, अनुपात आदि गणित-विषयक, सूर्य-ग्रहण, चन्द्र-ग्रहण एवं पृथ्वी के अपने स्थान पर घूमने सम्बन्धी और सूर्य की । परिक्रमा करने के भूगोलविषयक तथ्य प्रस्तुत किये।

इनका जन्म तथा शिक्षा कुसुमपुर में हुई। ये गणित तथा ज्योतिष के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने ‘आर्यभटीय’ तथा ‘तन्त्र’ नामक दो ग्रन्थों की रचना की। इनकी श्लाघनीय खोजों के लिए भारत सरकार ने इनके सम्मान में प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट रखा।

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प्रश्‍न 3
भास्कराचार्य प्रथम कहाँ के निवासी थे? उनके समय और लिखी गयी पुस्तकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
भास्कराचार्य प्रथम दक्षिण भारत के निवासी थे। विद्वान् इनका समय 600 ईसवी निर्धारित करते हैं। इन्होंने आर्यभटीय भाष्य, महाभास्कर्य एवं लघुभास्कर्य नामक तीन ग्रन्थों की रचना की।

प्रश्‍न 4
आचार्य ब्रह्मगुप्त के बारे में पाठ के आधार पर हिन्दी में 15 पंक्तियाँ लिखिए।
उत्तर
महान् ज्योतिर्विद् ब्रह्मगुप्त का जन्म 598 ईसवी में हुआ। भास्कराचार्य प्रथम के उपरान्त इनका आविर्भाव हुआ। इन्होंने ‘ब्रह्मसिद्धान्त’ नामक ग्रन्थ की रचना की। इनकी विद्वत्ता का परिचय इस बात से मिलता है कि भास्कराचार्य द्वितीय ने इन्हें ‘गणकचक्रचूड़ामणि’ की उपाधि से अलंकृत किया। (UPBoardSolutions.com) इन्होंने आर्यभट्ट द्वारा प्रतिपादित एवं भास्कराचार्य प्रथम द्वारा पुनरीक्षित सिद्धान्तों का खण्डन किया। इन्होंने अपने पूर्ववर्ती श्रीसेन, विष्णुचन्द्र, लाट, प्रद्युम्न आदि विद्वानों के सिद्धान्तों की भी सम्यक्

आलोचना की। इनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का प्रायः इनके बाद के सभी वैज्ञानिकों ने अनुकरण किया। इनके सिद्धान्तों की सत्यता, उपयोगिता के कारण ही इनके ग्रन्थों का विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद किया गया। इनके ‘खण्डखाद्यक’ एवं ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त’ नामक दो ग्रन्थों का अनुवाद अरबी भाषा में हुआ। विज्ञान के क्षेत्र में इनका योगदान अविस्मरणीय है।

प्रश्‍न 5
भास्कराचार्य द्वितीय ने किन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया? लिखिए।
उत्तर
भास्कराचार्य द्वितीय ने पृथ्वी के गोल होने, सूर्य के चारों ओर निश्चित कक्षा में पृथ्वी के घूमने, सूर्य के ऊपर चन्द्रमा की छाया पड़ने पर सूर्य-ग्रहण तथा पृथ्वी की छाया चन्द्रमा के ऊपर पड़ने पर चन्द्रग्रहण होने, पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति के होने, ग्रह-नक्षत्रों की आकर्षण शक्ति के कारण पृथ्वी के ब्रह्माण्ड में वर्तमान स्थिति में स्थित होने तथा बीजगणित के अनेकानेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया।

लघु-उतरीय संस्कृत प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के संस्कृत में उत्तर लिखिए

प्रश्‍न 1
अस्मिन् अध्याये वर्णिताः वैज्ञानिकाः के के सन्ति?
उत्तर-
अस्मिन्  अध्याये वर्णिताः वराहमिहिरः, आर्यभट्टः, भास्कराचार्यः प्रथमः, ब्रह्मगुप्तः, भास्कराचार्यः द्वितीय: चेति पञ्चवैज्ञानिकाः सन्ति।

प्रश्‍न 2
तेषां पुस्तकानां नामानि कानि सन्ति?
उत्तर
तेषां पुस्तकानां नामानि निम्नांकितानि सन्ति
वैज्ञानिकाः
वृहत्संहिता
आर्यभट्टः
भास्कराचार्यः (प्रथमः)

ब्रह्मगुप्तः
भास्कराचार्य (द्वितीयः)

पुस्तकानां नामानि  ।

(i) पञ्चसिद्धान्तिका, (ii) वृहत्संहिता। आर्यभट्टः ।
(i) आर्यभटीयम्,       (ii) तन्त्रम्।
(i) आर्यभटीयम् भाष्यम्, (ii) महाभास्कर्यम्,
(ii) लघुभास्कर्यम्। ब्रह्मगुप्तः
(i) खण्डखाद्यक, (ii) ब्रह्मस्फुटसिद्धान्तः भास्कराचार्य (द्वितीयः)
(i) सिद्धान्तशिरोमणिः, (ii) लीलावती,
(iii) बीजगणित, | (iv) करणकुतूहलम्।

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प्रश्‍न 3
ग्रहणविषये पूर्वे का धारणासी?
उत्तर
ग्रहणविषये पूर्वेषां धारणा आसीत् यत् सूर्यचन्द्रमसौ राहु-केतुभ्यां ग्रस्येते।

प्रश्‍न 4
आर्यभटीयं केन विरचितम्?
उत्तर
आर्यभटीयम् आर्यभट्टेन विरचितम्।

प्रश्‍न 5
भास्कराचार्यः केन यन्त्रसाहाय्येन नक्षत्राणां परीक्षणमकरोत्?
उत्तर
भास्कराचार्यः वंशनलिका साहाय्येन नक्षत्राणां परीक्षणमकरोत्।

प्रश्‍न 6
भारतवर्षस्य प्रथमोपग्रहः कस्य नाम सूचयति?
उत्तर
भारतवर्षस्य प्रथमोपग्रहः ‘आर्यभट्टः आर्यभट्टस्य नाम सूचयति।

प्रश्‍न 7
गणकचक्रचूडामणिः कस्य पदव्यासीत्?
उत्तर
गणकचक्रचूडामणिः ब्रह्मगुप्तस्य पदव्यासीत्।

प्रश्‍न 8

वराहमिहिरस्य पितुः नाम किमासीत्?
उत्तर
वराहमिहिरस्य पितुः नाम आदित्यदासः आसीत्।

प्रश्‍न 9
चन्द्रगुप्तविक्रमादित्येन स्वसभायां कस्मै कुत्र च स्थानं दत्तम्।
उत्तर
चन्द्रगुप्तविक्रमादित्येन स्वसभायां वराहमिहिराय नवरत्नेषु स्थानं दत्तम्।

प्रश्‍न 10
आर्यभट्टप्रस्थापितसिद्धान्तानां प्रत्याख्याता कः आसीत्?
उत्तर
आर्यभट्टप्रस्थापितसिद्धान्तानां प्रत्याख्याता ब्रह्मगुप्तः आसीत्?

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प्रश्‍न 11
वराहमिहिरेण स्वग्रन्थे के पञ्चसिंद्धान्तोः प्रस्तुतः?
उत्तर
वराहमिहिरेण स्वग्रन्थे पैतामह-रोमक-पोलिश-सूर्य-वशिष्ठादीनां सिद्धान्ताः प्रस्तुताः

प्रश्‍न 12
भारतवर्षस्य द्वितीयोपग्रहः कस्य नाम सूचयति?
उत्तर
भारतवर्षस्य द्वितीयोपग्रहः ‘भास्करः’ भास्कराचार्य द्वितीयस्य नाम सूचयति।

वस्तुनिष्ठ प्रनोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए

1. विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में से एक कौन थे?
(क) ब्रह्मगुप्त
(ख) वराहमिहिर
(ग) भास्कराचार्य प्रथम
(घ) आर्यभट्ट

2. वराहमिहिर की रचना का क्या नाम है?
(क) करणकुतूहलम् ।
(ख) पञ्चसिद्धान्तिका
(ग) सिद्धान्तशिरोमणि
(घ) तन्त्रम् ।

3. वराहमिहिर राजकीय कार्य से बचे समय का उपयोग किस रूप में करते थे?
(क) ग्रन्थों की रचना करते थे
(ख) अपने परिवार के साथ विनोद करते थे
(ग) भगवान सूर्य की उपासना करते थे
(घ) भ्रमण करते थे ।

4. सूर्य और चन्द्रग्रहण के विषय में प्रचलित अवधारणा का खण्डन किसने किया था?
(क) वराहमिहिर ने
(ख) भास्कराचार्य द्वितीय ने
(ग) ब्रह्मगुप्त ने ।
(घ) आर्यभट्ट ने।

5. भास्कराचार्य प्रथम का समय और विषय-क्षेत्र क्या है?
(क) 498 ई०/गणितज्ञ
(ख) 1114 ई०/ज्योतिर्विद
(ग) 600 ई०/खगोलज्ञ
(घ) 500 ई०/खगोलज्ञ

6. ब्रह्मगुप्त द्वारा ब्रह्मसिद्धान्त’ ग्रन्थ की रचना की गयी ।
(क) 598 ई० में
(ख) 698 ई० में
(ग) 498 ई० में :
(घ) 398 ई० में

7. ‘गणकचक्रचूड़ामणि’ की उपाधि ब्रह्मगुप्त को किसके द्वारा प्रदत्त की गयी थी?
(क) आर्यभट्ट द्वारा
(ख) भास्कराचार्य प्रथम द्वारा।
(ग) भास्कराचार्य द्वितीय द्वारा
(घ) वराहमिहिर द्वारा

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8. ‘पृथ्वी गोल है और सूर्य का चक्कर लगाती है’ इस तथ्य के प्रथम प्रतिपादक थे
(क) ब्रह्मगुप्त ।
(ख) आर्यभट्ट
(ग) भास्कराचार्य द्वितीय
(घ) भास्कराचार्य प्रथम

9.’लीलावती’ और ‘बीजगणित’ नामक रचनाओं के रचयिता हैं.
(क) आदित्यदास
(ख) ब्रह्मगुप्त
(ग) श्रीसेनविष्णुचन्द्र
(घ) भास्कराचार्य द्वितीय

10. भारत द्वारा प्रेषित प्रथम उपग्रह का क्या नाम था?
(क) वराहमिहिर
(ख) भास्कर
(ग) आर्यभट्ट
(घ) एस० एन० एल० वी

11. कस्य जनकः आदित्यदासः आसीत्?
(क) ब्रह्मगुप्तस्य
(ख) भास्कराचार्यस्य
(ग) वराहमिहिरस्य
(घ) आर्यभट्टस्य

12. केन प्रतिपादितं यत् पृथ्वी स्वस्थाने भ्रमन्ती सूर्यं परिक्रामति?
(क) आर्यभट्टेन
(ख) वराहमिहिरेण
(ग) भास्कराचार्येण
(घ) ब्रह्मगुप्तेन ।

13.’•••••••••• उषित्वा आर्यभट्टः विद्यार्जनम् अकरोत्।’ वाक्य में रिक्त स्थान की पूर्ति होगी
(क) ‘प्रयागे’ से
(ख) “कुसुमपुरे’ से
(ग) वाराणस्याम्’ से
(घ) “काम्पिल्ये’ से ।

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14. ‘खण्डखाद्यक ब्रह्मस्फुटसिद्धान्तयोरनुवादः •••••••••••••• भाषायामपि जातः।’ में वाक्य-पूर्ति
(क) “हिन्दी’ से ।
(ख) “लैटिन’ से ,
(ग) “आंग्ल’ से
(घ) “अरबी’ से

15. केन निर्धारितं यद् गोलकाकारा पृथ्वी परिक्रामति सूर्यम्? |
(क) वराहमिहिर ।
(ख) ब्रह्मगुप्त
(ग) आर्यभट्ट
(घ) भास्कराचार्य (द्वितीय)

16. ‘सूर्योपरि चन्द्रस्य छाया यदा पतति तदा ••••••••••••••• भवति।’ वाक्य में रिक्त-पद की पूर्ति होगी
(क) पूर्णिमा’ से
(ख) सूर्यग्रहणम्’ से
(ग) ‘उल्कापातम्’ से
(घ) चन्द्रग्रहणम्’ से

17. बीजगणित विषयेऽपि केन अनेकानां नूतनतथ्यानामाविष्कारः कृतः?
(क) वराहमिहिरेण
(ख) ब्रह्मगुप्तेन
(ग) भास्कराचार्यद्वितीयेन ।
(घ) आर्यभट्टेन

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