Class 9 Sanskrit Chapter 6 UP Board Solutions श्रम एव विजयते Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 6 श्रम एव विजयते (गद्य – भारती) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 6 श्रम एव विजयते (गद्य – भारती).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 6
Chapter Name श्रम एव विजयते (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 6
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 6 Shram Ev Vijayate Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 6 हिंदी अनुवाद श्रम एव विजयते के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पावसाश

श्रम की परिभाषा (अर्थ)-उद्देश्यपूर्वक किया गया प्रयत्न श्रम कहलाता है। कर्म के बिना मनुष्यों को ही नहीं, पशु-पक्षियों को भी जीवन-निर्वाह कठिन है। कर्म, बिना श्रम के नहीं हो सकता। इसीलिए कहा जाता है कि ‘श्रम ही जीवन है’ और श्रम का अभाव ‘निर्जीवता’। कर्म से ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्षादि पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती है। |

श्रम का महत्त्व–उत्साह मनुष्य को श्रम में लगाता है और श्रम मनुष्य को कर्म में प्रवृत्त करता है। इस प्रकार कर्म और श्रम इन दोनों की पारस्परिक सापेक्षता है। श्रमपरायण मानव भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति करता है। परिश्रमी मनुष्य ‘करो या मरो’ की भावना को प्रमाणित करता है। (UPBoardSolutions.com) इसीलिए श्रमपरायण मनुष्य को अपना लक्ष्य सदैव अधिक-से- अधिक समीप आता हुआ प्रतीत होता है। उद्यम के बिना तो भाग्य भी निरर्थक ही सिद्ध होता है। ,

UP Board Solutions

श्रम ही सन्मित्र है-श्रम मानव का उत्तम मित्र है। जैसे मित्र विपत्ति आने पर सहानुभूतिपूर्वक कष्टो को दूर करके मित्र का हित करता है, उसी प्रकार श्रम भी मनुष्य का मनोबल बढ़ाकर कल्याण करता है। श्रम योग से कम नहीं है। योग की तरह श्रम में भी चित्त की एकाग्रता आवश्यक है। श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ कहकर श्रम का ही महत्त्व बताया है। श्रमशील मानव कष्टों की परवाह न (UPBoardSolutions.com) करके अपने कार्य को पूर्ण करता हुआ योगी ही है। ऐसे मनुष्य की सफलता निश्चित ही होती है। “उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः” उक्ति भी इसी बात की पुष्टि करती है।

अमहीनता अभिशाप है-श्रमहीनता से ही मानव निर्बल, उदासीन, उत्साहरहित और अन्त में निराश हो जाता है। उसे अपने ऊपर भी भरोसा नहीं रहता। वह लोगों द्वारा केवल अपयश प्राप्त करता है। वह परालम्बन को श्रेष्ठ समझने लगता है। इस प्रकार आलस्य अर्थात् श्रमहीनता मनुष्य के शरीर में स्थित होकर उसका महाशत्रु बन जाता है।

कर्म और भाग्य-आलस्य ऐसा शत्रु है, जो किसी भी व्यक्ति की शक्ति को क्षीण करता है। जो व्यक्ति परिश्रम करने पर भी सफलता नहीं पाता, वह अपने भाग्य को कोसता हुआ परिश्रम को व्यर्थ मानने लगता है। वह यह नहीं जानता कि पूर्वजन्म में किया गया कर्म ही भाग्य होता है। अतः मनुष्य को श्रमपूर्वक (UPBoardSolutions.com) नियमित रूप से कर्म करते रहना चाहिए। कर्म से सहित मानवों से कर्मशील मनुष्य श्रेष्ठ होते :श्रमपूर्वक नियमित रूप से कर्म करते रहना चाहिए। कर्म से सहित मानवों से कर्मशील मनुष्य श्रेष्ठ होते

श्रम का शक्ति से सम्बन्ध–बलशाली ही कार्य करने में समर्थ है, यह विचार भ्रमपूर्ण है। छोटे-से शरीर वाले दीमक एक बड़ी बाँबी बना देते हैं और उससे थोड़ी-सी बड़ी मधुमक्खियाँ जरा-जरा-सा मधु लाकर मधु का एक भण्डारे संचित कर लेती हैं। अतः श्रम के लिए बल की नहीं, वरन् दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है। श्रम के लाभ-परिश्रम मनुष्य के अपने पोषण के लिए ही नहीं है, क्रन् मनुष्य किये गये कर्मो से (UPBoardSolutions.com) दूसरों का भी उपकार करता है। किसान परिश्रम से अन्न उत्पन्न कर लोगों का पोषण करता है। श्रमिक अपने परिश्रम से उत्पादन की वृद्धि करता है। मानव पाताल में, अगाध जल में, आकाश में, सुदुर्गम पर्वत पर, घने जंगल में भी श्रम से कठिन कार्य पूरे करता है। देश की प्रगति पसीने की बूंदों पर ही निर्भर है।

उद्योगों में श्रमिकों की स्थिति-जिस राष्ट्र में श्रम में निष्ठा रखने वाले लोग होते हैं, वहाँ उत्पादन बढ़ता है और किसी वस्तु का अभाव नहीं होता है। आजकल अनेक वस्तुओं के उत्पादन के लिए उद्योगशालाओं (फैक्ट्रियों) में हजारों श्रमिक कार्य करते हैं। हमारे देश में दो प्रकार के कारखाने हैं–सरकारी और व्यक्तिगत (प्राइवेट)। सरकारी उद्योगों का लक्ष्य लौह आदि कच्चा माल तैयार करना, बड़ी मशीनें बनाना तथा रसायन तैयार करना है। यहाँ लाभ कमानी उद्देश्य नहीं है। प्राइवेट फैक्ट्रियों में तो लाभ कमाना ही (UPBoardSolutions.com) उद्देश्य होता है, क्योंकि उनमें धनी अपनी पूँजी और श्रमिक अपना श्रम लगाते हैं। उद्योगशालाओं का प्रबन्ध धनिकों के हाथ में ही होती है; अतः वे अधिक लाभ लेते हैं, श्रमिकों को थोड़ा देता है। इससे पूँजीपतियों और श्रमिकों में अनेक विवाद उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार के विवादों को निपटाने के लिए सरकार ने ‘श्रम मन्त्रालय तथा ‘श्रम न्यायालय की स्थापना की है। श्रमिकों के अधिकारों और हितों की रक्षा हेतु सरकार अनेक नियम-कानून भी बना चुकी है; फिर भी विकसित देशों की तुलना में हमारे देश के श्रमिकों की दशा नहीं सुधरी है और न ही उत्पादन बढ़ा है। जब तक हम पवित्र मन से श्रम नहीं करेंगे, तब तक सफलता प्राप्त नहीं हो सकती है।

UP Board Solutions

गद्यांशों को ससन्दर्भ अनुवाद 

(1) सोद्देश्यं कर्मणि क्रियमाणः प्रयत्नः श्रम। निखिलमपि विश्वं कर्मणि प्रतिष्ठितम्। कर्म विना न केवलं मानवस्य अपितु पशुपक्षिणामपि जीवननिर्वाहः सुदुष्करः। धर्मार्थकाममोक्षादिपुरुषार्थाः कर्मणैव लब्धं शक्यन्ते। क्षमेण विना तु साफल्यं खपुष्पायितमेव। अतएव श्रम एवं जीवनं तदभावश्च अस्तित्वभयमिति निश्चीयते। ।

शब्दार्थ-
सोद्देश्यं = उद्देश्य के साथ।
निखिलम् = सम्पूर्ण।
प्रतिष्ठितम् = आधारित, स्थित।
सुदुष्करः = अत्यधिक कठिन।
कर्मणैव = कर्म के द्वारा ही।
खपुष्पायितम् = आकाश-कुसुम के समान, असम्भव।

सन्दर्थ
प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘श्रम एव विजयते’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

संकेत
इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में श्रम के अर्थ तथा महत्त्व को बताया गया है।

अनुवाद
उद्देश्यपूर्वक कर्म के लिए किया गया प्रयत्न श्रम कहलाता है। सम्पूर्ण संसार ही कर्म पर आधारित है। कर्म के बिना केवल मानव का ही नहीं, अपितु पशु-पक्षियों का भी जीवन-निर्वाह अत्यन्त कठिन है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि पुरुषार्थ कर्म से ही प्राप्त हो सकते हैं। श्रम के बिना तो सफलता आकाश-कुसुम के समान असम्भव है। इसलिए श्रम ही जीवन है और उसका अभाव अर्थात् श्रम का न होना (जीवन के) अस्तित्व को खतरा है, यह निर्विवाद सत्य है।

(2) कर्मण्युत्साह श्रमस्य प्रयोजकः श्रमश्च कर्मणि, नियोजकः इत्यनयोः परस्परम् अपेक्षित्वम्। श्रमो न केवलं भौतिक क्षमतां तनोति अपितु आत्मशक्तेरप्युत्कर्ष जनयति। (UPBoardSolutions.com) श्रमशीलो जनः ‘कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्’ इति भावनामेव सततं प्रमाणयति। येन लक्ष्यं स्वयमेव समीपतरम् आगच्छदिव प्रतिभाति। उद्यमहीनं तु मन्ये कर्मफलप्रदाता विधिरपि अजोगलस्तनमिव निरर्थकं मन्यते। यथोक्तञ्च

उद्यमः साहसं धैर्यं, बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र साहाय्यकृत् विभुः॥

शब्दार्थ-
प्रयोजकः = प्रयोक्ता (कराने वाला)।
अपेक्षित्वं = अपेक्षित होना।
तनोति = बढ़ाता है।
उत्कर्षम् = उन्नति को।
जनयति = उत्पन्न करता है।
प्रमाणयति = प्रमाणित करता है।
समीपतरम् = अत्यधिक निकट।
आगच्छदिव = आता हुआ-सा।
प्रतिभाति = प्रतीत होता है।
प्रदाता = देने वाला।
विधिः = ब्रह्मा।
अजागलस्तनमिव = बेकरी के गले के स्तन के समान।
साहाय्यकृत = सहायक, सहयोगी।
विभुः = ईश्वर, व्यापक।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में श्रम के महत्त्व को बताया गया है।

अनुवाद
कर्म में उत्साह श्रम का कराने वाला है और श्रम कर्म में लगाने वाला है। इस प्रकार दोनों की आपस में आवश्यकता (निर्भरता) है। श्रम केवल भौतिक योग्यता को ही नहीं बढ़ाता, अपितु 
आत्मबल की उन्नति को भी उत्पन्न करता है। परिश्रमी मनुष्य “कार्य पूरा करूंगा या शरीर को नष्ट कर दूंगा।” इस भावना को ही निरन्तर प्रमाण मानता है, जिससे लक्ष्य स्वयं ही समीप आता हुआ-सा प्रतीत होता है। उद्यमहीन मनुष्य को कर्म के फल को देने वाले ब्रह्मा भी बकरी के गले के स्तन के समान व्यर्थ. ही समझता है। जैसा कि कहा गया है| उद्यम, साहस, धीरज, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम-ये छः जहाँ होते हैं, वहाँ ईश्वर भी सहायता करता है।

(3) श्रम एव जीवनस्य सन्मित्रम्।यथा सन्मित्रं विपन्नदशायां मित्रं प्रति सहानुभूतिं प्रकटयति, तस्य कष्टान्यपहाय सर्वथा हितसाधनं करोति तस्य जीवनं च जीवितुं काम्य- माकलयति तथैवे अमोऽपि मानवस्य मनोबलं वर्धयित्वा कल्याणं वितनोति। श्रमेण विना क्व कर्मकौशलम्? यथा योगे (UPBoardSolutions.com) चित्तस्यैकाग्रताऽपरिहार्या तथैव श्रमेऽपि। श्रीमद्भगवद्गीतायां योगः कर्मसु कौशलम्’ इति प्रमाणयता योगिराजेन श्रीकृष्णेन प्रकारान्तरेण श्रमस्यैव महिमा प्रतिष्ठापितः। कष्टान्यविगणय्य स्वकार्यं पूरयितुं यतमानः श्रमशीलः नरः वस्तुतः युञ्जानो योगी एव भवति। साफल्यं तत्र सुनिश्चितमेव।’उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः’ इति उक्तिस्तदेव द्रढयति। |

शब्दार्थ-
सन्मित्रम् = उत्तम मित्र।
विपन्नदशायाम् = विपत्ति की हालत में प्रकटयति = प्रकट करता है।
अपहाय = दूर करके।
काम्यमाकलयति (काम्यम् + आकलयति) = कामना (चाहने) का आकलन करता है।
वर्धयित्वा = बढ़ाकर।
वितनोति = विस्तार करता है।
क्व = कहाँ।
अपरिहार्या = न छोड़ने योग्य।
अविगणय्य = न गिनकर, परवाह न करके।
यतमानः = प्रयत्नशील, प्रयास करता हुआ।
युञ्जानः = योगाभ्यास में लगा हुआ।
उपैति = पास जाती है।
द्रढयति = मजबूत बनाता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में श्रम को प्राणियों का मित्र बताते हुए उसे योग के सदृशं कहा गया है।

अनुवाद
श्रम ही जीवन का उत्तम मित्र है। जैसे अच्छा मित्र विपत्ति की दशा में मित्र के प्रति सहानुभूति प्रकट करता है, उसके कष्टों को दूर कर सब प्रकार से उसका हित करता है, उसके जीवन को जीने के लिए चाहने योग्य समझता है, उसी प्रकारे श्रम भी मनुष्य के मनोबल को बढ़ाकर कल्याण को करता है। श्रम के बिना कर्म में कुशलता कहाँ? अर्थात् परिश्रमपूर्वक जो कर्म नहीं किया जाता, वह सुफल नहीं होता है। जिस प्रकार योग में चित्त की एकाग्रता छोड़ी नहीं जा सकती, उसी प्रकार श्रम में भी। श्रीमद्भगवद्गीता में “कर्म में कुशलता ही (UPBoardSolutions.com) योग है’ यह प्रमाणित करते हुए योगिराज श्रीकृष्ण ने दूसरे प्रकार से श्रमकी ही महिमा स्थापित की है। कष्टों की गिनती (गणना) न करके अपने कार्य को पूरा करने के लिए प्रयत्न करता हुआ मनुष्य वस्तुतः (वास्तव में) योग में लगा हुआ योगी ही होता है। उसमें (व्यक्ति की) सफलता तो निश्चित है ही। ‘लक्ष्मी उद्योगी पुरुष के पास जाती है’ यह उक्ति उसी (पूर्वोक्त कथन) की पुष्टि करती है।

UP Board Solutions

(4) श्रमेण हीनः मानवः निर्बलः उदासीनः उत्साहहीनः अन्ते च सर्वत्र निराशो भवति। शरीरस्थबलमजानन् स्वस्मिन्नपि न विश्वसिति। विषण्णमनाः जनेभ्यः केवलमपकीर्तिमेवार्जयति। स्वावलम्बमविगणय्य परावलम्बं श्रेयस्करं मनुते। कश्चित् समर्थोऽपि जने आलस्यात् श्रमं न कुरुते। यत्किञ्चिदवाप्यापि तुष्यति। शरीरस्थेन आलस्यरूपिणा शत्रुणा तस्य शक्तिः शनैः-शनैः क्षीयते। यः कश्चित् परिश्रमे कृतेऽपि सिद्धि न लभते; मन:कामना न पूर्यते; तर्हि ‘विधिरनतिक्रमणीयः’ इति मत्वा भाग्यं कुत्सयन् प्रयत्नं परिश्रमञ्च व्यर्थमाकलयति। से

तथ्यमिदं न वेत्ति यत् प्राग्विहितं कर्म एव भाग्यमिति सर्वैः स्वीक्रियते। वस्तुतः कर्मविरतेभ्यो जनेभ्यः कर्मशीलाः मानवाः श्रेष्ठा। तथा चोक्तम् श्रीमद्भगवद्-गीतायाम्

नियतं कुरु कर्म त्वं, कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिध्येदकर्मणः॥

शब्दार्थ-
केवलमपकीर्तिमेवार्जयति (केवलम् + अपकीर्तिम् + एव + अर्जयति) = केवल . अयश ही कमाता है।
स्वावलम्बमविगणय्ये (स्व + अवलम्बम् + अविगणय्य) = अपने सहारे की गणना न करके।
मनुते = मानता है।
यत्किञ्चिदवाप्यापि (यत् + किञ्चिद् + अवाप्य + अपि) = जो कुछ प्राप्त करके भी।
तुष्यति = सन्तोष करता है।
क्षीयते = कम हो जाती है।
विधिः अनतिक्रमणीयः = भाग्य का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता।
कुत्सयन् = कोसता हुआ।
व्यर्थम् आकलयति = बेकार समझता है।
प्राग्विहितम् = पूर्व (जन्म) में किया गया।
कर्मविरतेभ्यः = कर्म से उदासीन।
नियतं = निश्चित रूप से।
ज्यायः = बड़ा।
शरीरयात्रा = जीवन-निर्वाह।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में श्रमहीनता से श्रमशीलता को श्रेष्ठ बताया गया है।

अनुवाद
श्रम से हीन मनुष्य कमजोर, उदासीन, उत्साहरहित और अन्त में सभी स्थानों पर निराश हो जाता है। शरीर की शक्ति को न जानता हुआ अपने पर ही विश्वास नहीं करता है। दु:खी मन होकर लोगों से केवल बदनामी को ही प्राप्त करता है। स्वावलम्बन की उपेक्षा करके दूसरे पर निर्भरता (परावलम्बन) को ही कल्याणकारी मानता है। कोई व्यक्ति समर्थ होता हुआ भी आलस्य के कारण श्रम नहीं करता है। थोड़ा-सा पाकर भी सन्तुष्ट हो जाता है। शरीर में स्थित आलस्य-रूपी शत्रु उसकी शक्ति को धीरे-धीरे नष्ट कर देता है। जो कोई (UPBoardSolutions.com) परिश्रम करने पर भी सफलता को नहीं प्राप्त करता है, उसके मन की इच्छा पूरी नहीं होती है, तब ‘भाग्य न टालने योग्य होता है, ऐसा मानकर भाग्य को कोसता हुआ प्रयत्न और परिश्रम को व्यर्थ समझ लेती है। वह इस तथ्य को नहीं जानता कि “पूर्व (जन्म) में किया गया कर्म ही भाग्य होता है, यह सभी स्वीकार करते हैं। निश्चय ही (वास्तव में) कर्म से उदासीन लोगों से परिश्रमी मनुष्य श्रेष्ठ । जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है

तुम निश्चित कर्म को करो; क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म न करने से तुम्हारा जीवन-निर्वाह भी असम्भव है।

(5) ऐतरेयब्राह्मणे सुराधिपः पुरन्दरः राज्ञः हरिश्चन्द्रस्यात्मजहितमुपदिशन् सुखैश्वर्यमवाप्तुं परिश्रमस्यावश्यकतां वैशद्येन प्रकाशयति। यथा हि

चरन्चै मधु विन्दति चरन् स्वादुमुदुम्बरम्।।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो ने तन्द्रयते चरन्॥

बलिष्ठतनुः एव महत् कार्य सम्पादयितुं समर्थ इति भ्रमात्मको विचारः यतो हि क्षुद्रा पिपीलिका महान्तं वल्मीकं निर्माति। स्तोकं स्तोकं कृत्वा क्षुद्रा मधुमक्षिका विपुलं मधुराशिं सञ्चिनोति। अतएव श्रमस्य कृते दृढसङ्कल्पः यथोपेक्ष्यते न तथा शारीरिकस्य बलस्यापेक्षा। |

शब्दार्थ—
सुराधिपः = देवताओं के राजा।
पुरन्दरः = इन्द्र।
अवाप्तुम् = प्राप्त करने के लिए।
वैशद्येन = स्पष्ट रूप से, विस्तार से प्रकाशयति = प्रकाशित (प्रकट) करता है।
चरन् = चलता हुआ।
विन्दति = प्राप्त करता है।
स्वादुम् उदुम्बरम् = स्वादिष्ट गूलर फल को।
तन्द्रयते = आलस्य करता है।
बलिष्ठतनुः =.शक्तिशाली शरीर वाला।
सम्पादयितुं = पूरा करने के लिए।
पिपीलिका = चींटी।
वल्मीकम् = मिट्टी का ढेर।
स्तोकं स्तोकं कृत्वा = थोड़ा-थोड़ा करके।
विपुलं = अधिक।
मधुराशिं = अत्यधिक शहद को।
सञ्चिनोति = एकत्र करती है।
यथा अपेक्ष्यते = जिस प्रकार आवश्यक है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में इस बात को भ्रमात्मक बताया गया है कि शक्तिशाली शरीर वाला ही महान् कार्य कर सकता है।

अनुवाद
ऐतरेय ब्राह्मण में देवताओं के राजा इन्द्र राजा हरिश्चन्द्र के पुत्र को (उसके) हित का उपदेश देते हुए सुख और ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिए परिश्रम की आवश्यकता को विस्तार से प्रकट करते (कहते) हैं। जैसा कि
निश्चय से अर्थात् निरन्तर चलता हुआ (प्राणी) मधु (जिस परिणामरूपी मीठे फल को) प्राप्त करता है। (निरन्तर) चलता हुआ (प्राणी) स्वादिष्ट गूलर के फल को प्राप्त करता है। सूर्य के प्रकाश को देखो, जो चलता हुआ आलस्य नहीं करता है।

बलवान् शरीर वाला ही महान् कार्य को करने में समर्थ है’ यह भ्रमपूर्ण विचार है; क्योंकि तुच्छ चींटी बड़े मिट्टी के ढेर (बाँबी) को बनाती है। तुच्छ मधुमक्खी थोड़ा-थोड़ा करके बहुत अधिक.शहद को इकट्ठा करती है। अतएव श्रम के लिए दृढ़ संकल्प की जितनी आवश्यकता है, उतनी शारीरिक बल की नहीं।

UP Board Solutions

(6) परिश्रमः मनुजस्यं न केवलं स्वस्यैव पोषणाय, अपितु अपरेषां कृतेऽपि महान् उपकारकः। कृषिप्रधाने देशे कृषकः प्रचण्डग्रीष्मकालस्योष्णतां शीतकालस्य शैत्यञ्च सहभानः। यावद्दिनं कार्यं करोति, महता श्रमेण अन्नान्युत्पाद्य जनानां पोषणं करोति। औद्योगिकप्रतिष्ठानेषु कार्यालयेषु च श्रमिकः श्रमं सम्पाद्योत्पादनस्य वृद्धि करोति। मानवः पृथिव्या अन्तस्तले, अगाधे जले, विस्तृते आकाशे, सुदुर्गमे पर्वते, गहने काननेऽपि श्रमैकसाध्यं दुष्करं कार्यं करोति। श्रमस्वेदबिन्दुभिः पृथ्वीमातुरर्चनं करोति। श्रमस्वेदबिन्दवः एवामूल्यानि मौक्तिकानि येषु देशस्य प्रगतिराश्रिता।

शब्दार्थ-
स्वस्यैव = अपने ही।
अपरेषां कृतेऽपि = दूसरों के लिए भी।
यावद्दिनम् = दिनभर उत्पाद्य = उत्पन्न करके। सम्पाद्य = करके।
अन्तस्तले = भीतर।
अगाधेजले = गहरे पानी में।
श्रमैकसाध्यम् = केवल परिश्रम से होने वाला।
दुष्करं = कठिन।
श्रमस्वेदबिन्दुभिः = पसीने की बूंदों से।
पृथ्वीमातुरर्चनं (पृथ्वी + मातुः + अर्चनम्) = धरती माता की पूजा।
मौक्तिकानि = मोती।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में बताया गया है कि मनुष्य परिश्रम से केवल अपना ही नहीं, अपितु दूसरों का भी उफ्फार करता है। |

अनुवाद
परिश्रम मनुष्य के केवल अपने ही पोषण के लिए नहीं है, अपितु दूसरों के लिए भी महान् उपकार करने वाला है। कृषि-प्रधान देश में किसान भयंकर ग्रीष्म ऋतु की गर्मी को और शीतकाल की ठण्ड को सहन करता हुआ दिनभर कार्य करता है। बड़े (अधिक) श्रम से अन्न पैदा करके लोगों को पोषण करता है। औद्योगिक कारखानों में और कार्यालयों में मजदूर परिश्रम करके उत्पादन को बढ़ाता है। मनुष्य पृथ्वी (UPBoardSolutions.com) के गर्भ में, गहरे जल में, विस्तृत आकाश में, अत्यन्त दुर्गम पर्वत | पर, घने जंगल में भी केवल श्रम से ही हो सकने वाले कठिन कार्य को करता है। पसीने की बूंदों से पृथ्वी माता की पूजा करता है। पसीने की बूंदें ही अमूल्य मोती हैं, जिन पर देश की उन्नति निर्भर करती

(7) यस्मिन् राष्ट्रे श्रमे निष्ठां दधानाः जीविकोपार्जनस्यानुकूलावसरान् लभन्ते, कुटुम्बस्योत्कर्षाय प्रभवन्ति तत्रोत्पादनं रात्रिन्दिवं वर्धते। तत्र कस्यचिद् वस्तुनः अभावो न जायते। निरन्तरमुत्पादनस्य वृद्धिः राष्ट्रस्यार्थिक स्थितिं सुदृढीकृत्य अप्रतिहतविकासाय प्रेरणां ददाति।। |

शब्दार्थ-
निष्ठां = विश्वास, आदर।
दधानाः = धारण करने वाले।
प्रभवन्ति = समर्थ होते हैं।
रात्रिन्दिवम् = रात और दिन।
कस्यचिद् = किसी की।
जायते = होता है।
सुदृढीकृत्य = भली प्रकार दृढ़ (मजबूत) करके।
अप्रतिहतविकासाय = न रुकने वाले (निरन्तर) विकास के लिए।

प्रसंग
प्रस्तुत पद्यांश में श्रम की महत्ता को बताया गया है।

अनुवाद
जिस राष्ट्र में श्रम में निष्ठा रखने वाले लोग जीविका उपार्जन के अनुकूल अवसर पाते हैं, कुटुम्ब की उन्नति के लिए समर्थ होते हैं, वहाँ उत्पादन रात-दिन बढ़ता है। वहाँ किसी वस्तु का अभाव नहीं होता है। निरन्तर उत्पादन की वृद्धि राष्ट्र की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करके बिना रुके विकास की प्रेरणा देती है।

(8) अद्यत्वे सर्वत्रापि नैकप्रकाराणां पदार्थानामुत्पादनं कर्तुं बढ्यः उद्योगशालाः कार्यशालाश्च स्थापिताः सन्ति यत्र सहस्रशः श्रमिकाः कार्य कुर्वन्ति। द्विविधास्तावदिमा उद्योगशालाः। सर्वकारीयक्षेत्रे संस्थापिता वैयक्तिकक्षेत्रे च कृताः। तत्र सर्वकारीयाणाम् उद्योगशालानां मुख्य लक्ष्यं तु अन्यान्योद्योगानामाधारभूतपदार्थानां यथा लौहादिधातून, गुरुणां यन्त्राणां, विविधानां रसायनानामुत्पादनं न तु लाभार्जनम्। किन्तु वैयक्तिक्य उद्योगशालास्तु लाभार्जनोद्देश्येनैव प्रायशः स्थाप्यन्ते। धनिकाः स्वधनं नियोजयन्ति, धनहीनाश्च स्वश्रमम्। (UPBoardSolutions.com) प्रबन्धस्तु धनिकानां तेषां प्रतिनिधीनां वा हस्ते निहितोऽतस्ते अधिकाधिकं लाभांशं जिघृक्षवः श्रमिकेभ्योऽल्पमेव वितरन्ति। एवञ्च धननियोक्तृणां श्रमिकाणां च मध्येऽनेकशः कलहाः भवन्ति, लाभस्यासमानवितरणकारणात्। एवं विधानामन्यासां च, सम्बन्धिनीनां समस्यानां समाधानार्थं श्रमिकाणां कल्याणकृते चास्माकं राष्ट्रे प्रदेशेषु च श्रममन्त्रालयाः श्रमन्यायालयाश्च श्रमिकाणामधिकाराणां रक्षणार्थं विधिसंहिता निर्मिता वर्तते। यदि कश्चिच्छमिकः । कार्यरतो दुर्घटनाग्रस्तो जायते तर्हि क्षतिपूयँ नियमानुसारेण धनराशिर्देयो, भवति।

श्रमिकस्य भविष्यनिधावपि नियोक्त्रा अंशतो धनं देयं भवति। एवं सत्यपि अस्माकं देशे न तु श्रमिकाणामेव दशा तथा ऋद्धिमती वर्तते नापि उद्योगानामुत्पादनं तादृशं भवति यथा यादृशं च जापानामेरिकाब्रिटेनादि विकसितेषु देशेषु, वस्तुतः सत्स्वपि नियमेषु तेषां पूर्णतया पालनस्य वाञ्चैव यावन्नं भवति शुचिमनसा च श्रमेणोत्पादनं न क्रियते तावदुभयमपि कथं सिद्ध्येत्। यथा समन्वितं सैन्यं समन्वितेन प्रयासेन युद्धं जेतुं शक्नोति तथैव प्रबन्धकानां श्रमिकाणां च मध्ये विश्वासानुसरः समन्वय एवं उत्पादनलक्ष्य प्राप्तुं प्रभवति। सारांशोऽयं यत् अमो नाम जयति परं परस्परं सहयोगेन तु सत्वरं सुतरां च विजयते।।

शब्दार्थ-
अद्यत्वे = आजकल।
नैकप्रकाराणाम् = अनेक प्रकारों का।
बढ्यः = बहुत-सी।
द्विविधाः = दो प्रकार की।
सर्वकारीयक्षेत्रे = सरकारी क्षेत्र में।
वैयक्तिकक्षेत्रे = व्यक्तिगत क्षेत्र में।
गुरुणां यन्त्राणां = भारी मशीनों का।
लाभार्जनम् = लाभ कमाना।
नियोजयन्ति = लगाते हैं।
निहितोऽतस्ते (निहितः + अतः + ते) = रखा रहता है, इसलिए वे।
जिघृक्षवः = लेने की (हड़पने) इच्छा करने वाले।
धननियोक्तृणाम् = धन लगाने वालों।
समाधानार्थम् = समाधान के लिए।
विविधसंहिता = तरह-तरह के कानून।
नियोक्त्रा = नियुक्ति देने वाले के द्वारा।
ऋद्धिमती = धन-धान्य वाली।
तादृशं = वैसा।
यादृशं = जैसा।
संत्स्वपि = (सत्सु + अपि) = होने पर भी।
वाञ्छैव = इच्छा ही। यावत् = जब तक।
शुचिमनसा = पवित्र मन से।
समन्वितम् = मिला-जुला।
समन्वयः = एकता।
प्रभवति = समर्थ होता है।
सत्वरम् = शीघ्र। सुतरां = अच्छी तरह।
विजयते = विजय होती है। 

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में उद्योगशाला में कार्यरत श्रमिकों की दशा को सुधारने के उपाय बताये गये हैं।

अनुवाद
आजकल सभी जगह अनेक प्रकार के पदार्थों का उत्पादन करने के लिए बहुत-सी उद्योगशालाएँ एवं कारखाने स्थापित हैं, जहाँ हजारों मजदूर कार्य करते हैं। ये उद्योगशालाएँ दो प्रकार की हैं–सरकारी क्षेत्र में स्थापित और निजी क्षेत्र में बनायी गयी। उनमें सरकारी उद्योगों का मुख्य उद्देश्य (लक्ष्य) तो अन्य दूसरे उद्योगों के आधारभूत पदार्थों; जैसे-लोहा आदि धातुओं का, भारी मशीनों का, अनेक प्रकार के रसायनों का उत्पादन करना है, लाभ कमाना नहीं; किन्तु निजी उद्योग तो प्रायः लाभ कमाने के उद्देश्य से ही स्थापित किये (UPBoardSolutions.com) जाते हैं। धनी लोग अपनी पूँजी को और निर्धन अपने श्रम को लगाते हैं। प्रबन्ध तो धनिकों या उनके प्रतिनिधियों के हाथ में रहता है; अतः वे अधिक-से-अधिक लाभांश लेने (हड़पने) के इच्छुक होते हैं, श्रमिकों को थोड़ी मजदूरी ही बाँटते हैं।

इस प्रकार पूँजी लगाने वाले और मजदूरों के बीच लाभ के असमान वितरण के कारण अनेक प्रकार के झगड़े होते हैं। इस प्रकार की और दूसरे प्रकार की श्रम सम्बन्धी समस्याओं के समाधान के लिए, श्रमिकों की भलाई के लिए हमारे राष्ट्र में और प्रदेशों में श्रम मन्त्रालय और श्रम न्यायालय हैं। मजदूरों के अधिकारों की रक्षा के लिए अनेक कानून बने हुए हैं। यदि कोई मजदूर काम करते हुए दुर्घटनाग्रस्त हो (UPBoardSolutions.com) जाता है तो क्षतिपूर्ति के लिए नियम के अनुसार धनराशि देय होती है। मजदूर की भविष्यनिधि में भी नियोक्ता को आंशिक धन देना होता है। ऐसा होने पर भी हमारे देश में श्रमकिों की दशा उतनी धन-धान्युपूर्ण नहीं है और न ही उद्योगों का उत्पादन वैसा होता है, जैसा कि जापान, ब्रिटेन, अमेरिका

आदि विकसित देशों में। वास्तव में नियमों के होते हुए भी उनके पूर्णरूप से पालन की इच्छा ही जब तक नहीं होती है और पवित्र मन से परिश्रम से उत्पादन नहीं किया जाता है, तब तक दोनों ही बातें कैसे सिद्ध हो सकती हैं; अर्थात् नहीं हो सकती हैं। जिस प्रकार संगठित सेना एकजुट होकर युद्ध को जीत सकती है, उसी प्रकार प्रबन्धकों और श्रमिकों के बीच विश्वास के अनुसार सहयोग ही उत्पादन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। सारांश यह है कि श्रम की जीत होती है, परन्तु आपस में सहयोग से शीघ्र और अच्छी तरह जीत होती है।

UP Board Solutions

लय उत्तरीय प्ररन 

प्ररन 1
श्रम की परिभाषा लिखकर उसका जीवन में महत्त्व बताइए। |
उत्तर
किसी उद्देश्य से युक्त कर्म के लिए किये जाने वाले प्रयत्न को श्रम कहा जाता है। श्रम मनुष्य के जीवन में भौतिक क्षमता के साथ-साथ आत्मशक्ति का उत्कर्ष भी करता है। परिश्रमी मनुष्य

करो या मरो’ की भावना को प्रभावित करता है। इसीलिए श्रम-परायण मनुष्य को अपना लक्ष्य अधिक-से-अधिक समीप आता हुआ प्रतीत होता है।

प्ररन 2
श्रम को सन्मित्र क्यों कहा गया है?
उत्तर-
एक सन्मित्र (अच्छा मित्र) आपत्ति में पड़े हुए अपने मित्र के प्रति सहानुभूति प्रकट करता है, उसके कष्टों को दूर कर उसका हितसाधन करता है और उसके अच्छे जीवन की कामना करता है। इसी प्रकार श्रम भी मनुष्य के मनोबल को बढ़ाकर उसको कल्याण करता है। इसीलिए श्रम को सन्मित्र कहा गया है।

प्ररन 3
श्रम से होने वाले लाभों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
परिश्रमी मनुष्य के लिए श्रम तो आवश्यक है ही, किन्तु श्रमशील मनुष्य द्वारा किये गये श्रम से दूसरों का भी भला होता है; उदाहरणार्थ-किसान अपने श्रम से उत्पन्न किये गये अन्न से अपने साथ-साथ दूसरों का भी पोषण करता है तथा श्रमिक द्वारा किसी उद्योगशाला में उत्पादित अनेकानेक वस्तुओं से जहाँ उसको स्वयं लाभ होता है, वहीं दूसरे लोगों को भी लाभ पहुँचता है। संस्कृत में एक उक्ति है कि, ‘उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः’, अर्थात् श्रमशील मनुष्यों को ही लक्ष्मी प्राप्त होती है।

प्ररन 4
इन्द्र ने हरिश्चन्द्र के पुत्र को क्या उपदेश दिया?
उत्तर
इन्द्र ने हरिश्चन्द्र के पुत्र को बताया कि सुख एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए परिश्रम की आवश्यकता होती है; क्योंकि निरन्तर चलता हुआ प्राणी मीठा फल प्राप्त करता है। निरन्तर चलता हुआ प्राणी ही स्वादिष्ट गूलर के फल को चखता है। सूर्य का प्रकाश भी निरन्तर चलता हुआ कभी आलस्य नहीं करता।

प्ररन 5
हमारे देश में कितने प्रकार के कारखाने हैं और उनका क्या उद्देश्य है?
उत्तर
हमारे देश में दो प्रकार के कारखाने हैं–
(1) सरकारी क्षेत्र में स्थापित और
(2) व्यक्तिगत क्षेत्र में स्थापित। सरकारी क्षेत्र में स्थापित कारखानों का उद्देश्य लाभ अर्जित करना नहीं होता। इनका उद्देश्य दूसरे उद्योगों के लिए आधारभूत पदार्थों; जैसे-लोहा, भारी मशीनों, विभिन्न रसायनों आदि; का उत्पादन करना होता है। व्यक्तिगत क्षेत्र में प्रायः लाभ कमाने के उद्देश्य से ही कारखाने स्थापित किये जाते हैं।

UP Board Solutions

प्ररन 6
श्रमिकों के कल्याण के लिए सरकार द्वारा किये गये कार्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
श्रमिकों के कल्याण के लिए सरकार द्वारा निम्नलिखित कार्य किये गये हैं

  1. श्रमिकों की धन सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाने के लिए राष्ट्र और प्रदेशों में श्रम मन्त्रालय’ और ‘श्रम न्यायालय स्थापित किये गये हैं। |
  2. श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए अनेक कानून बनाये गये हैं।
  3. श्रमिकों के दुर्घटनाग्रस्त होने की स्थिति में नियोक्ता द्वारा उसे नियमानुसार धनराशि देनी होती है।
  4. श्रमिकों के लिए भविष्य-निधि का भी प्रावधान किया गया है, जिसमें नियोक्ता को भी श्रमिक के बराबर का अंशदान करना पड़ता है।

We hope the UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 6 श्रम एव विजयते  (गद्य – भारती) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 6 श्रम एव विजयते (गद्य – भारती), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

Class 9 Sanskrit Chapter 7 UP Board Solutions जडभरतः Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 7 जडभरतः (कथा – नाटक कौमुदी) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 7 जडभरतः (कथा – नाटक कौमुदी).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 7
Chapter Name जडभरतः (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 25
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 7 Jada Bharata Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 7 हिंदी अनुवाद जडभरतः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय- भारतीय वाङमय में पुराणों का विशिष्ट स्थान है। इनकी संख्या कुल अठारह मानी गयी है। पुराणों में श्रीमद्भागवत पुराण एक अनुपम, ऐतिहासिक एवं धार्मिक ग्रन्थ है। इसमें समस्त पुराणों का सार संगृहीत है। इसीलिए अन्य पुराणों की तुलना में इसका सर्वाधिक प्रचार-प्रसार है। इसमें बारह स्कन्ध और अठारह हजार श्लोक हैं। प्रस्तुत कथा श्रीमद्भागवत् पुराण के पंचम स्कन्ध में वर्णित है।।
राजर्षि भरत एक महान् भक्त थे, किन्तु एक मृगशावक के मोह में पड़कर मृत्यु के समय भी उसी का स्मरण करते रहे और अगले जन्म में मृगयोनि में उत्पन्न हुए। भगवत्कृपा से पूर्वजन्म का स्मरण बना रहने से मृगयोनि को त्यागकर पुन: उच्च ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए और संसार से विरक्त रहकर (UPBoardSolutions.com) अवधूत वृत्ति से जीवन व्यतीत करते रहे। इन्होंने चोरों के सरदार का चण्डिका देवी के द्वारा विनाश कराया तथा राजा रहूगण को उपदेश देकर उनका अज्ञान दूर किया।

UP Board Solutions

पाठ-सारांश

राजा भरत– प्राचीनकाल में भारत में एक धर्मनिष्ठ और प्रजापालक भरत नाम के राजा हुए। बहुत समय तक राज्य करके, पुत्रों को राज्य-भार देकर वे स्वयं मुनि पुलह के आश्रम में हरिक्षेत्र चले गये। वहाँ वे भगवत्पूजा में सुखपूर्वक अपना जीवन बिताने लगे।

हरिण-शावक का मोह- एक दिन भरत गण्डकी नदी के किनारे ईश्वर-नाम का जप कर रहे थे। वहाँ जल पीने के लिए आयी हुई हिरनी सिंह के भयंकर शब्द को सुनकर नदी के पार चली गयी। नदी लाँघते समय उसका गर्भ नदी के प्रवाह में गिर पड़ा। जल-प्रवाह में बहते हुए मृगशिशु को उठाकर राजर्षि भरत अपने आश्रम में ले आये और बड़े प्रेम से उस्का पालन-पोषण करने लगे। जब वह मृगशावक बड़ा हुआ तो वह ऋषि को छोड़कर भाग गया। उसके वियोग में भरत इतने दु:खी हुए कि उसका स्मरण करते-करते ही उन्होंने प्राण (UPBoardSolutions.com) त्याग दिये और अपने अगले जन्म में मृगयोनि को प्राप्त किया। भगवदाराधना के कारण उनकी पूर्वजन्म की स्मृति नष्ट नहीं हुई थी। अपने मृगयोनि में जन्म लेने के मृगशावक के मोह के कारण को जानकर उन्हें बहुत दु:ख हुआ और वैराग्य-प्राप्त कर उन्होंने मृग-शरीर को त्याग दिया।

ब्राह्मण कुल में जन्म- भरत ने अगले जन्म में अंगिरा गोत्र के ब्राह्मण कुल में जन्म लिया। ब्राह्मण जाति में भी वह भगवान् का ध्यान करते हुए जड़, अन्धे, बहरे के समान आचरण करते थे। पिता की मृत्यु के बाद उनके भाइयों ने उन्हें जड़ (मूर्ख) जानकर घर से निकल दिया। घर छोड़ने के बाद वह मैले-कुचैले वस्त्र पहनकर तत्पश्चात् सर्दी, गर्मी, बरसात में बिना शरीर ढके और बिना स्नान किये घूमते रहते थे।

देवी के द्वारा, रक्षा- एक बार चोरों का सरदार पुत्र-प्राप्ति की इच्छा से देवी को बलि देने के लिए लाये गये पुरुष के भाग जाने पर भरत को चण्डी देवी के मन्दिर में बलि हेतु ले गया। (UPBoardSolutions.com) चोरों ने उन्हें देवी के सामने बैठाया और उनका सिर काटने के लिए तलवार उठायी। भद्रकाली ने ब्राह्मण को बलि के अयोग्य मानते हुए प्रकट होकर क्रोध से पापी चोरों के सिर काट दिये।

राजा रहूगण को उपदेश– एक बार सिन्धु-सौवीर देशों के राजा रहूगण ने कपिलाश्रम को जाते समय भरत को हृष्ट-पुष्ट समझकर पालकी ढोने के काम में लगा लिया। भरत पालकी ढोते समय भूमि को शुद्ध देखकर चल रहे थे; अतः पालकी को बार-बार ऊपर-नीचे होते देख रहूगण ने भरत को व्यंग्य भरे शब्द कहे। उपहास करते हुए रहूगण से जड़भरत ने कहा-“हे राजन्! आप ठीक कहते हैं। यदि कोई बोझ है तो वह शरीर का है, मेरा नहीं। मोटापा, दुबलापन, बीमारी आदि शरीर की हैं, मेरी नहीं; क्योंकि मैं देह के अभिमान से मुक्त हूँ।”

राजा ने ब्राह्मण के शास्त्रसम्मत वचन सुनकर पालकी से उतरकर उन्हें प्रणाम किया और पूछा कि आप दत्तात्रेय आदि में से कौन-से अवधूत हैं? मैं इन्द्र के वज्र से, शिव के शूल से, यम के दण्ड से भी इतना नहीं डरता, जितना ब्राह्मण कुल के अपमान से डरता हूँ। विज्ञान, रूप और प्रभाव को छिपाये जड़वत् घूमने वाले आप कौन हैं? तब जड़भरत ने राजा से कहा कि “हे राजन्! तुम अज्ञानी होते हुए भी ज्ञानी की तरह (UPBoardSolutions.com) बोल रहे हो। जब तक यह जीव माया को छोड़कर आत्म-तत्त्व को नहीं जानता, तब तक संसार में भटकता रहता है। इस प्रकार जड़भरत रहूगण को तत्त्व-ज्ञान का उपदेश देकर पुनः स्वच्छन्द विचरण करने लगे। राजा रहूगण ने भी देहाभिमान को त्याग दिया।

चरित्र चित्रण

जड़भरत

परिचय-जड़भरत का जन्म राजपरिवार में हुआ था। बाद में मृग-शिशु के मोह में पड़कर इन्होंने मृगयोनि में जन्म लिया। अन्त में अंगिरा गोत्र के ब्राह्मण कुल में जन्म लिया। इनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) महान् ईश्वर-भक्त–जड़भरत राजा होते हुए भी ईश्वर के परम भक्त थे। राज्य का सुख भोगकर ये भगवद्-भजन के लिए हरिक्षेत्र चले गये थे। ये अनेक पुष्प, तुलसी, जल से भगवान् की पूजा किया करते थे। मृग की योनि में भी इन्हें भगवत्कृपा से पूर्व जन्म का स्मरण था। ब्राह्मण कुल में (UPBoardSolutions.com) जन्म लेने पर इन्होंने अपने असली स्वरूप को छिपाकर जड़, अन्ध और बधिर के समाने आचरण किया। अपने तीनों ही जन्मों में ये पूर्वजन्म के ज्ञाता रहे और सद्भावक भी। सांसारिक मायाजन्य पापकर्म इन्हें किसी भी जन्म में छू तक नहीं पाया था। नर बलि दिये जाने के लिए प्रस्तुत किये जाने पर देवी द्वारा रक्षा किया जाना इनकी भगवद्-भक्ति का ही प्रभाव था।

(2) मृग-शावक के प्रति मोह- भगवत्पूजी में सुखपूर्वक जीवन बिताने पर भी भरत को मृर्ग-शावक का पालन करने के कारण उसके प्रति मोह हो गया था। उसके भाग जाने पर इन्होंने बहुत विलाप किया और उसी का स्मरण करते हुए देह-त्याग किया।

(3) समत्व योगी- जड़भरत की मान-अपमान में कोई रुचि नहीं थी। ब्राह्मण कुल में जन्म पाकर भी ये अपने वास्तविक स्वरूप को छिपाकर जड़, अन्ध और बधिरवत् आचरण करते रहे, जिसके परिणामस्वरूप भाइयों द्वारा घर से निकाल दिये गये। ये मैले-कुचैले वस्त्र पहनकर, सर्दी, गर्मी, वर्षा में शरीर को न ढककर, बिना स्नान किये विचरण करते थे। अज्ञ जनों के उपहास की इन्हें परवाह न थी। चोरों द्वारा नर बलि (UPBoardSolutions.com) के लिए ले जाने पर भी इन्होंने विरोध नहीं किया। ये राजा रहूगण द्वारा पालकी ढोने के काम में लगाये गये और इन्होंने उसके व्यंग्य-वचनों को ऐसे सह लिया, जैसे किसी ने कुछ कहा ही नहीं।

(4) अहिंसक वृत्ति- पालकी ढोते समय साफ भूमि देखकर चलना उनकी अहिंसक वृत्ति का परिचायक है।

(5) उच्च ज्ञानी एवं सदुपदेशक- जड़भरत परम ज्ञानी थे। रहूगण द्वारा अपमान किये जाने पर . भी उन्होंने उसे तत्त्व-ज्ञान की शिक्षा दी। उन्हें देहाभिमान नहीं था। सांसारिक माया को वे संसारपरिभ्रमण का कारण मानते थे। वे ब्रह्मनिष्ठ एवं आत्मज्ञानी पुरुष थे। उन्होंने राजा रहूगण को जिस उपदेशामृत का पान कराया उससे राजा रहूगण का देहाभिमान छूट गया और उसने सत्संगति के लिए ज्ञान के महत्त्व को (UPBoardSolutions.com) भली-भाँति जान लिया। अन्ततः उसने भी राज-पाठ को छोड़ दिया और देहाभिमान । से मुक्त हो गयी। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जड़भरत अहिंसक वृत्ति के, समत्वयोगी, अध्यात्मनिष्ठ, परम ज्ञानी एवं ईश्वर-भक्त पुरुष थे।

लघु उत्तरीय संस्कृत  प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित  प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए

प्रश्‍न 1
नृपः भरतः सर्वं विहाय कुत्र गतः?
उत्तर
नृपः भरतः सर्वं विहाय पुलहाश्रमं हरिक्षेत्रम् अगच्छत्।

UP Board Solutions

प्रश्‍न 2
राजर्षिः मृगयोनिं कथं प्राप्तः?
उत्तर
राजर्षे: मरणकाले मृगशावके आसक्तिः आसीत्, अतएव राजर्षिः मृगयोनिं प्राप्तः।

प्रश्‍न 3
भरतः मृगशरीरं विहाय कस्मिन् कुले जन्म लेभे?
उत्तर
भरत: मृगशरीरं विहाय अङ्गिरागोत्रस्य ब्राह्मणकुले जन्म लेभे?

प्रश्‍न 4
भद्रकाली देवी भरतस्य रक्षणाय किमकरोत्?
उत्तर
भद्रकाली देवी भरतस्य रक्षणाय पापिष्ठानां चौराणां वधमकरोत्।

प्रश्‍न 5
चौरराजः कस्माद् हेतोः पुरुषपशु भद्रकाल्यै दातुमियेष?
उत्तर
चौरराजः पुत्र कामनया पुरुषपशु भद्रकाल्यै दातुमियेष।

प्रश्‍न 6
रहूगणः कः आसीत्?
उत्तर
रहूगण: सिन्धुः सौवीरदेशयोः राजा आसीत्।।

प्रश्‍न 7
भरतः रहूगणाय किमुपादिशत्?
उत्तर
भरत: रहूगणाय देहाभिमानं त्यक्तुं मनोरूपं शत्रु हन्तुं हरेश्चरणोपासितुं च उपादिशत्।

वस्तुनिष्ठ प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए-

1. ‘जडभरतः’ नामक पाठ किस ग्रन्थ से लिया गया है?
(क) ‘अग्निपुराण’ से
(ख)’रामायण’ से
(ग) “श्रीमद्भागवत् पुराण’ से
(घ) ‘महाभारत’ से

UP Board Solutions

2. ‘श्रीमद्भागवत् पुराण’ के रचयिता कौन हैं?
(क) मनु
(ख) महर्षि अंगिरा
(ग) महर्षि वेदव्यास ।
(घ) महर्षि वाल्मीकि

3. ‘श्रीमद्भागवत्’ पुराण में कितने स्कन्ध और कितने श्लोक हैं?
(क) 12 स्कन्ध, 18 हजार श्लोक
(ख) 18 स्कन्ध, 12 हजार श्लोक
(ग) 18 स्कन्ध, 18 हजारे श्लोक
(घ) 5 स्कन्ध, 15 हजार श्लोक।

4. राजा भरत क्या करके पुलहाश्रम हरिक्षेत्र गये?
(क) बहुत काल तक राज्य-सुख भोगकर
(ख) पुत्रों में धन का विभाजन करके
(ग) सभी सम्पत्ति त्यागकर
(घ) उपर्युक्त तीनों कार्य करके

5. भरत किस नदी के तट पर प्रणव-जप कर रहे थे?
(क) गंगा के
(ख) नर्मदा के
(ग) गण्डकी के
(घ) गोमती के

6. भरत अगले जन्म में किस योनि में उत्पन्न हुए?
(क) देवयोनि में
(ख) गोयोनि में .
(ग) सिंहयोनि में ।
(घ) मृगयोनि में

7. चोरों के राजा द्वारा दी जा रही बलि से जड़भरत की रक्षा कैसे हुई?
(क) जड़भरत अवसर देखकर भाग आये
(ख) पुरोहित ने उन्हें बलि के अयोग्य बताया।
(ग) चोरों के राजा को जड़भरत पर दया आ गयी।
(घ) चण्डी ने प्रकट होकर जड़भरत की रक्षा की

8. ‘सिन्धसौवीर’ देश के राजा का नाम था
(क) भरत
(ख) रहूगण
(ग) पुलह
(घ) दत्तात्रेय

UP Board Solutions

9. रहूगण ने जडभरत की बातों से उनको क्या समझा?
(क) तत्त्वज्ञानी
(ख) असत्यभाषी
(ग) मूर्ख
(घ) पागल

10. रहूगण ने पालकी से उतरकर किसको प्रणाम किया?
(क) जड़भरत को ,
(ख) दत्तात्रेय को।
(ग) चोरों के सरदार को
(घ) भद्रकाली को

11. ‘त्वं सत्यं जानासि ज्ञानिनस्तु मिथ्यात्वेन जानन्ति’, में त्वं’ शब्द किसके लिए प्रयुक्त हुआ। है?
(क) जड़भरत के लिए।
(ख) रहूगण के लिए।
(ग) भद्रकालीन के लिए
(घ) चोरों के सरदार के लिए

12. ‘हे राजन्! त्वमविद्वानपि ज्ञानीव वदसि। अतस्त्वं ज्ञानिनां मध्ये श्रेष्ठो न भवसि।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) चौरराजः
(ख) रहूगणः
(ग) जडभरतः
(घ) भद्रकाली

13. ‘तं श्रुत्वा हरिणी •••••••••• सहसैव नदीमुल्लङ्कितवती।’ वाक्य में रिक्त-पद की पूर्ति होगी
(क) “वृकभयेन’ से ।
(ख) ‘गजभयेन से
(ग) ‘सिंहभयेन’ से
(घ) “शृगालभयेन’ से

14. ‘चौरराजः ••••••••••• सन् भद्रकाल्यै पुरुषपशुमालब्धं प्रवृत्तः।’ वाक्य में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी
(क) ‘सिद्धिकाम:’ से
(ख) अर्थकामः’ से
(ग) ‘राज्यकामःसे।
(घ) “पुत्रकाम: से

15. साधु गच्छत्, कथं यानं विषमं नीयते?’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) रहूगणः
(ख) चौरराजः
(ग) जडभरतः
(घ) वोढारः

16. “हे वीर! यदि कश्चिद् भारः स्यात् स हि वोढुः देहस्य न मम।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) रहूगणः
(ख) चौरराजः
(ग) जडभरतः
(घ) भद्रकाली

17. ‘हे राजन्! त्वमविद्वानपि ••••••••••वदसि।’ वाक्य में रिक्त-पद की पूर्ति होगी ।
(क) ज्ञानीव
(ख) अज्ञानीव
(ग) मूढेव
(घ) जडमिव

UP Board Solutions

18. ‘तव मुर्हतमात्रसङ्गात् मम अविवेको नष्टः।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति? ।
(क) रहूगणः
(ख) जडभरतः
(ग) चौरराजः
(घ) चण्डिका

We hope the UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 7 जडभरतः (कथा – नाटक कौमुदी) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 7 जडभरतः (कथा – नाटक कौमुदी) , drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

 

Class 9 Sanskrit Chapter 14 UP Board Solutions पुण्यसलिलागङ्गा Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 14 पुण्यसलिलागङ्गा (गद्य – भारती) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 14 पुण्यसलिलागङ्गा (गद्य – भारती).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 14
Chapter Name पुण्यसलिलागङ्गा (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 3
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 14 Punyasalila Ganga Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 14 हिंदी अनुवाद पुण्यसलिलागङ्गा के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांश

गंगा का महत्त्व-गंगा का संसार की सभी नदियों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह भारतीयों के लिए जीवनदायिनी है, सुख-शान्ति और समृद्धि प्रदान करने वाली है। इसमें स्नान करने, जल पीने अथवा इसका नाम लेने मात्र से भी मनुष्य धन्य हो जाता है। इसके सम्पर्क मात्र से मनुष्य के दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों ताप (कष्ट) नष्ट (समाप्त) हो जाते हैं।

UP Board Solutions

उद्गम-गंगा हिमालय के दो स्थानों से निकलती है। इसकी एक धारा उत्तरकाशी में गोमुख से उत्पन्न होकर भागीरथी कहलाती है और दूसरी धारा जो चमोली जिले के अलकापुरी में बर्फ पिघलने से निकलती है, ‘अलकनन्दा’ नाम से प्रसिद्ध हुई। देवप्रयाग में भागीरथी और अलकनन्दा की धारा ने एक होकर ‘गंगा’ नाम धारण कर लिया। । पौराणिक स्वरूप-पुराणों के अनुसार स्वर्ग में ‘देवी गंगा ब्रह्मा के कमण्डल में द्रवीभूत रूप में स्थित थी। फिर भगीरथ के तप के प्रभाव से राजा सागर के साठ हजार भस्मीभूत पुत्रों का उद्धार करने हेतु (UPBoardSolutions.com) पृथ्वी पर आयी और ‘भागीरथी’ कहलाने लगी। भगवान् विष्णु के चरणों के नखों से उत्पन्न होने के कारण इसे ‘विष्णु-नदी’ कहते हैं। भगीरथ के मार्ग का अनुसरण करते हुए महामुनि जह्न की यज्ञस्थली को डुबोने के कारण कुपित जह्न ने गंगा के जल को पी लिया था, लेकिन देवताओं और ऋषियों द्वारा प्रसन्न किये जाने पर उन्होंने इसे कर्ण-विवर से भूमि पर गिरा दिया था; अत: ‘जाह्नवी नाम से प्रसिद्ध हुई।

नाम की सार्थकता-‘गम्’ धातु में गन् प्रत्यय और स्त्रीलिंग के ‘टाप् प्रत्यय के योग से ‘गंगा’ शब्द बना है, जिसका अर्थ है–निरन्तर गतिशील रहना। निरन्तर बहते रहने के कारण ही इस नदी का ‘गंगा’ नाम सार्थक है।। | गंगा का उपकार-गंगा हिमालय की दुर्लंघ्य चट्टानों को चूर्ण करती हुई, सघन वनों की बाधाओं को पार कती हुई, गुफाओं में प्रवाहित होती हुई, पर्वत की तलहटियों में वेग से बहती हुई, ऊँचे-नीचे पर्वत प्रदेशों को लाँघती हुई हरिद्वार से समतल प्रदेश में आती है। भारतभूमि को धन-धान्यसम्पन्न बनाने के लिए गंगा का महान् उपकार है। गंगा कृषिप्रधान भारत देश में अन्नोत्पादन में जितनी सहायता करती हैं, उतनी सहायता अन्य कोई नदी नहीं करती। इसके तटीय प्रदेशों में उत्पन्न वनस्पतियों और ओषधियों के अवर्णनीय लाभ हैं। इस प्रकार गंगा हमारे लिए बहुत ही उपयोगी नदी है।

प्राकृतिक शोभा-गंगा की प्राकृतिक शोभा सबके चित्त को प्रसन्नता प्रदान करती है। इसके तटवर्ती देखने योग्य स्थानों को देखकर विदेशी पर्यटक भी इसकी प्रशंसा करते हैं। सूर्य की किरणों और चन्द्रमा की रश्मियों से इसके जल की शोभा अत्यधिक बढ़ जाती है। गंगा-तटों पर स्थित घाटों की निराली शोभा को देखकर अपरिमित सुख और शान्ति मिलती है।

तीर्थस्थल और गंगा की पवित्रता-गंगा के तट पर बदरीनाथ, पञ्चप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, पढ़मुक्तेश्वर, तीर्थराज प्रयाग, वाराणसी आदि तीर्थस्थान हैं। आदिकवि वाल्मीकि और ऋषि भरद्वाज के आश्रम भी गंगा के तट पर ही थे। गंगा-तट रामानुज, कबीर, तुलसी आदि महापुरुषों के प्रेरणा-स्थल रहे हैं। गुरु तेगबहादुर ने इसी के तट पर घोर तप किया था। श्रृंगेरी मठ में स्थित शिव-विग्रह पर गंगा का जल चढ़ाना (UPBoardSolutions.com) महान् पुण्य-कार्य समझा जाता है। । हिमालय से समुद्र तक गंगा के तट पर स्नान, देवाराधना, दान, यज्ञ आदि पुण्यप्रद कार्य होते हैं। हरिद्वार और प्रयाग में कुम्भ स्नान, वाराणसी में भगवान् विश्वनाथ के दर्शन का लाभ पुण्यात्मा ही प्राप्त करते हैं। इसके तीर्थों पर धर्मशास्त्र, वेद, पुराणादि का पठन-पाठन और व्याख्यान होता है। देश-देशान्तर से आये हुए धनी-निर्धन, साधारण-असाधारण भक्तजन एक ही घाट पर स्नान करते हैं-इस प्रकार यह गंगा भारत की एकता और अखण्डता को दृढ़ बनाती है।

ऐतिहासिक महत्त्व-गंगा के तट पर काशी में रघुवंशी राजाओं ने विश्व-विजय के बाद अश्वमेध यज्ञ किये थे। प्रयाग में इसी के तट पर आयोजित मेले में महाराज हर्षवर्धन अपने शरीर के वस्त्रों को छोड़कर याचकों को सर्वस्व दान दे देते थे। हस्तिनापुर, कन्नौज, प्रतिष्ठानपुर, पाटलिपुत्र (पटना), काशी आदि इसी के तटों पर स्थित नगर प्राचीनकाल में प्रसिद्ध राजाओं की राजधानी थे।

औद्योगिक महत्त्व-आधुनिक काल में गंगा के तट पर अनेक औद्योगिक संस्थान हैं जिनमें इसकी विशाल जलराशि का सदुपयोग होता है। इसके जल-प्रवाह की सहायता से विद्युत-निर्माण होता है। इसी के तट पर बुलन्दशहर जिले के नरौरा’ नामक स्थान पर अणुशक्ति से संचालित विद्युत्-गृह है।

UP Board Solutions

विशेषताएँ–गंगा का जल स्वच्छ, शीतल, प्यास बुझाने वाला, पीने में स्वादिष्ट और रुचिवर्द्धक, रोगनाशक और कभी खराब न होने वाला होता है। वैज्ञानिकों ने जल की परीक्षा करके सिद्ध कर दिया है कि गंगा-जल में रोग के जीवाणु स्वयं नष्ट हो जाते हैं। हिन्दू लोग गंगा के पवित्र जल को घरों में रखते हैं और देवी-देवताओं के पूजन-कार्य में इसका उपयोग करते हैं। यह जल बहुत समय तक भी दूषित नहीं होता है। मरणासन्न व्यक्ति के गले में इसके जल को औषध के रूप में डाला जाता है। । जल-प्रदूषण की समस्या–भारत देश का दुर्भाग्य है कि लोग स्वार्थ के कारण गंगा के जल को प्रदूषित करते जा रहे हैं। बड़े उद्योगों के रासायनिक अपशिष्ट इसके (UPBoardSolutions.com) जल में घुलकर इसे दूषित कर रहे हैं। बड़े नगरों की समस्त गन्दगी को गंगा के जल में ही मिला दिया जाता है। मरे हुए पशु और मानवों के शव गंगा के जल में प्रवाहित कर दिये जाते हैं। गंगा के तट पर स्थित मन्दिरों और धर्मशालाओं में समाज-विरोधी तत्त्व प्रवेश कर अनैतिक कार्य करते हैं। लोग प्रमाद और अज्ञान के कारण लोक-कल्याणकारी गंगा के जल को दूषित कर अमृत में विष घोल रहे हैं। सबको पवित्र करने वाली गगा अब अपनी शुद्धि के लिए मानवे का मुंह ताक रही है।

प्रदूषण दूर करने का प्रयास–प्रदूषित गंगा के जल के प्रदूषण को दूर करने के लिए भारत सरकार ने केन्द्रीय विकास प्राधिकरण की स्थापना की है। सिनेमा, दूरदर्शन, रेडियो, समाचार-पत्र आदि संचार माध्यमों के माध्यम से गंगा के प्रदूषण को रोकने के लिए जनचेतना जाग्रत की जा रही है, परन्तु सरकार ही अकेले इस महान् कार्य को नहीं कर सकती। इसमें बालक, वृद्ध, स्त्री-पुरुष सभी के सहयोग की परम आवश्यकता है।

यदि मन-वचन-काय और पूरी निष्ठा से गंगा के प्रदूषण को दूर करने का संकल्प करें तो गंगा की पावनता की रक्षा हो सकती है।

शोंगद्यां का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) गङ्गायाः न केवल भारतवर्षे, अपितु निखिलविश्वस्य नदीषु महत्त्वपूर्ण स्थानं क्र्तते। इयं खलु भारतीयप्राणिनां जीवनप्रदा सुखशान्तिसमृद्धिविधायिनी च नदीति नास्ति सन्देहकणिकावलेशः। यतो हि भारतीयानां मतानुसारमियं न केवलमैहिकानि सुखान्येव वितरति परञ्च -पारलौकिकं लक्ष्यमपि (UPBoardSolutions.com) पूरयति। सुरधुन्यामस्यामवगाहनेन जलस्पर्शेन अथ च नामसङ्कीर्तनमात्रेण मानवो धन्यो जायते। ‘गङ्गा तारयति वै पुंसां दृष्टा, पीताऽवगाहिता’ इति श्रद्धाभावनया मुमुक्षुः गङ्गातीरमाश्रित्य सर्वदास्याः कृपामीहते। सत्यम् , मनुजस्य दैहिकदैविक भौतिकतापत्रयमस्याः सम्पर्कमात्रेण विनश्यति। तथा चोक्तम्| गङ्गां पश्यति यः स्तौति स्नाति भक्त्या पिबेज्जलम् ।से स्वर्गज्ञानममलं योगं मोक्षं च विन्दति ॥

शब्दार्थ
निखिलविश्वस्य = सम्पूर्ण संसार की।
खलु = निश्चय ही।
जीवनप्रदा = जीवन प्रदान करने वाली।
विधायिनी = करने वाली।
कणिकावलेशः = कणभर भी।
यते हि = क्योंकि।
ऐहिकानि = सांसारिक।
पूरयति = पूरा करती है।
सुरधुन्याम् = गंगा में।
अगाहनेन = स्नान करने से।
सङ्कीर्तन = कथन, वर्णन।
मुमुक्षुः = मोक्ष-प्राप्त करने का इच्छुक।
ईहते = चाहता है।
विनश्यति = नष्ट हो जाता है।
अमलं = पवित्र
विन्दति = प्राप्त करता है।

सन्दर्थ
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘पुण्यसलिला गङ्गा’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।
[संकेत–इस पाठ के शेष गद्यांशों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा की महिमा का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
गंगा का केवल भारतवर्ष में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण संसार की नदियों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह निश्चय ही भारतीय प्राणियों को जीवन, सुख, शान्ति और समृद्धि को प्रदान करने वाली  
नदी है, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है; क्योंकि भारतीयों के मत के अनुसार यह केवल ऐहिक (सांसारिक) सुखों को ही नहीं देती है, अपितु पारलौकिक लक्ष्य को भी पूर्ण करती है। इस गंगा नदी में स्नान करने से, जल का स्पर्श करने से और नाम का उच्चारण करनेमात्र से मनुष्य धन्य हो जाता है। | ‘निश्चय ही पुरुषों की देखी गयी, पान की गयी, स्नान की गयी गंगा (UPBoardSolutions.com) सांसारिक कष्टों से छुटकारा देकर मोक्ष प्रदान करती है। ऐसा श्रद्धा की भावना से मोक्ष-प्राप्त करने का इच्छुक व्यक्ति गंगा के तट पर पहुँचकर सदा इसकी कृपा चाहता है। सत्य ही, मनुष्य के दैहिक (शारीरिक), दैविक और भौतिक तीनों ताप इसके समागम से नष्ट हो जाते हैं। जैसा कि कहा है–

जो (मनुष्य) भक्ति से गंगा को देखता है, स्तुति करता है, स्नान करता है और जल पीता है; वह निर्मल स्वर्ग, ज्ञान, योग और मोक्ष को प्राप्त करता है। |

UP Board Solutions

(2) सुरधुनीयम् आदौ हिमवतः स्थानद्वयात् निःसृता। धारैका भारतस्योत्तराखण्डे उत्तरकाशीजनपदे गोमुखात् प्रसूता भागीरथी। द्वितीया’चमोली’ जनपदे अलकापुर्या हिमप्रस्रवणात् निर्गतालकनन्देति विदिता। गङ्गोत्रीभागीरथ्योः उद्गमस्थले विस्तृता सुरम्या वनस्थली प्रथिता। देवप्रयागे भागीरथ्यलकनन्दयोः सङ्गमानन्तरं संयुक्तधारा ‘गङ्गा’ इति लोके प्रसिद्धा। वेदपुराणादीनां मतेन पुरा देवी’ रूपा गङ्गा स्वर्गे एव वसति स्म।द्रवीभूताचसा विधातुः कमण्डलौ संस्थिता। कपिलमुनिशापेन भस्मीभूतषष्टिसहस्रसगरपुत्रान् समुद्धर्तु (UPBoardSolutions.com) भगीरथस्य तपःप्रभावेण वसुन्धरामानीता लोके भागीरथी’ इति नाम्ना ख्याता। भगवतः विष्णोः पदनखोद्भूता अतः विष्णुनही इति ज्ञाता। भगीरथस्य वत्मनुसरतीयं गिरिगह्वरकोनननगरग्रामान्प्लावयन्ती महामुनेः जह्रोः यज्ञस्थली प्लवयितुमारभत। सञ्जातक्रोधः मुनिः निखिलं जलप्रवाहे क्षणमात्रेणापिबत्। भग्नमनोरथः नृपः रुष्टं महामुनिं प्रसादयितुं प्रायतत। देवानामृषीणां तस्या- राधनेन च विगतक्रोधो महात्मा कर्णरन्ध्राभ्यामशेषमुदकं निष्कास्य वसुन्धरायां पातयामास, अतएव जाह्नवीति प्रसिद्धा।

शब्दार्थ
सुरधुनी = गंगा का एक.नाम।
आदौ = प्रारम्भ में।
हिमवतः = हिमालय के।
धारैका = एक धार।
प्रसूता = उत्पन्न हुई।
प्रस्रवणात् = पिघलने से।
निर्गता = निकली।
प्रथिता = प्रसिद्ध
विधातुः = ब्रह्माजी के।
षष्टिसहस्र = साठ हजार।
वसुन्धराम् आनीता = धरती पर लायी गयी।
ख्याता = प्रसिद्ध हुई।
ज्ञाता = जानी गयी।
वत्र्मानुसरन्ती = मार्ग का अनुसरण करती हुई।
प्लावयन्ती = डुबोती हुई।
जह्रोः = जह्न की।
सञ्जतक्रोधः = क्रोधित हुए।
निखिलं = सम्पूर्ण को।
रुष्टम् = क्रोधित हुए।
प्रसादयितुम् = प्रसन्न करने के लिए।
प्रायुतत = प्रयत्न किया।
कर्णरन्ध्राभ्यामशेषमुदकं (कर्ण + रन्ध्राभ्याम् + अशेषम् + उदकम्) = कानों के दोनों क्षिद्रों से पूरे जल को।
निष्कास्य = निकालकर
पातयामास = गिरा दिया।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा के उद्गम स्थान के साथ-साथ भागीरथी, अलकनन्दा, विष्णुनदी, जाह्नवी, आदि नामों के प्रसिद्ध होने का कारण बताया गया है।

अनुवाद
यह गंगा प्रारम्भ में हिमालय के दो स्थानों से निकली। एक धारा भारत के उत्तराखण्ड में उत्तरकाशी जिले में गोमुख (स्थान का नाम) से उत्पन्न हुई ‘भागीरथी’ कहलायी। दूसरी (धारा) चमोली जिले में अलकापुरी में बर्फ के पिघलने से निकली ‘अलकनन्दा’ जानी गयी। गंगोत्री और भागीरथी के उद्गम स्थान पर फैली हुई सुन्दर वनस्थली प्रसिद्ध है। ‘देवप्रयाग में भागीरथी और अलकनन्दा के मिलने के पश्चात् मिली हुई धारा ‘गंगा’ इस नाम से संसार में प्रसिद्ध है। वेद, पुराण

आदि के मतानुसार पहले देवी के रूप में गंगा स्वर्ग में ही रहती थी। पिघली हुई वह ब्रह्माजी के ‘कमण्डल में स्थित थी। कपिल मुनि के शाप से भस्म हुए साठ हजार सगर के पुत्रों का उद्धार करने के लिए भागीरथ के तप के प्रभाव से पृथ्वी पर लायी हुई ‘भागीरथी’ इस नाम से संसार में प्रसिद्ध हुई। भगवान् विष्णु के पैरों के नाखूनों से उत्पन्न हुई, अतः ‘विष्णुनदी’ जानी गयी। भगीरथ के मार्ग का अनुसरण करती हुई, यह (UPBoardSolutions.com) पर्वतों, गुफाओं, वनों, नगरों और ग्रामों को डुबोती हुई इसने महामुनि जहू की यज्ञस्थली को डुबोना प्रारम्भ कर दिया। क्रोधित हुए मुनि ने सम्पूर्ण जल के प्रवाह को क्षणभर में ही पी लिया। मनोरथ नष्ट हुए राजा ने क्रुद्ध महामुनि को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया। देवों और ऋषियों की उसकी (जह्न) आराधना से क्रोधरहित हुए महात्मा ने कानों के छिद्र से सम्पूर्ण जल को निकालकर पृथ्वी पर गिरा दिया। इसीलिए ‘जाह्नवी’ नाम से प्रसिद्ध हुई।।

(3) गङ्गेति नाम सहजं सार्थकञ्च। गम् धातोः औणादिकं गन् प्रत्यये सति स्त्रीत्वात् टापि ‘गङ्गा’ शब्दा निष्पद्यते। अतः सततगमशीलत्वात् ‘गङ्गा’ इति नाम सर्वथाऽन्वर्थम्।

शब्दार्थ
निष्पद्यते = निष्पन्न (पूर्ण) होता है, सिद्ध होता है।
सर्वथान्वर्थम् (सर्वथा + अनु +अर्थम्) = सभी प्रकार अर्थ के अनुसार।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा का व्युत्पत्तिपरक अर्थ दिया गया है।

अनुवाद
‘गंगा’ यह नाम स्वाभाविक और सार्थक है। ‘गम्’ धातु से औणादिक ‘गन्’ प्रत्यय लगाने पर स्त्रीलिंग होने से ‘टाप् प्रत्यय लगाने पर ‘गंगा’ शब्द निष्पन्न होता है। अतः निरन्तर | गमनशील होने के कारण ‘गंगा’ यह नाम अर्थ के अनुसार है। |

(4) इयञ्च गङ्गा हिमालयस्य दुर्लङ्घ्यप्रस्तरखण्डानि चूर्णयन्ती सघनवनानामवरोधं त्रोटयन्ती, गिरिगह्वरेषु प्रविशन्ति उपत्यकाधित्यकासु द्रुतगत्या विहरन्ती नतोन्नतपर्वत-प्रदेशान् लड्यन्ती हरिद्वारे समतलप्रदेशे निर्बाधतया प्रवहति। आर्यावर्तस्य धरित्रीं शस्य-श्यामलां निर्मातुं गङ्गायाः उपकारः अनिर्वचनीयः।।

शब्दार्थ
दुर्लङ्घ्य = कठिनाई से लाँघने योग्य।
प्रस्तरखण्डानि = पत्थर के टुकड़े।
चूर्णयन्ती = चूर-चूर करती हुई।
त्रोटयन्ती = तोड़ती हुई।
गिरिगह्वरेषु = पर्वत की गुफाओं में।
द्रुतगत्या = तेज चाल से।
नतोन्नतपर्वतप्रदेशान् = नीचे-ऊँचे पर्वत के भागों को।
लङ्घयन्ती = लाँघती हुई।
निर्माते = बनाने के लिए।
अनिर्वचनीयः = कहा न जा सकने वाला, अकथनीय

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में दुर्लंघ्य पत्थरों को चूर्ण करके, रुकावटों को हटाकर बहती हुई गंगा के | उपकारों का वर्णन किया गया है

अनुवाद
और यह गंगा हिमालय के कठिनाई से लाँगने  योग्य पत्थरों के टुकड़ों को चूर्ण करती. – हुई, घने वनों की रुकावट को तोड़ती हुई, पर्वतों की गुफाओं में प्रवेश करती हुई, पर्वतों की निचली = और ऊपरी भूमि पर तीव्रगति से विहार करती हुई, नीचे-ऊँचे पर्वत के प्रदेशों को लाँघती हुई हरिद्वार में = समतल भाग में बाधारहित होकर बहती है। आर्यावर्त (भारतवर्ष) की भूमि को हरा-भरा बनाने में गंगा 
का उपकार कहा नहीं जा सकता। 

UP Board Solutions

(5) वस्तुतः देहः अन्नमयः कोषः कृषिश्चान्नस्य मूलम्। कृषिप्रधाने भारते देश गङ्गा – कृषिभूमिं सिञ्चन्ती अन्नोत्पादने यावत् साहाय्यं वितरति तावन्नान्या कापि सरित्। अस्याः क्षेत्रे  समुत्पन्नानां वनस्पतीनामुपकाराः ओषधीनां लाभाश्च अनिवर्चनीय।

शब्दार्थ
समुत्पन्नानां वनस्पतीनाम् = उत्पन्न हुई वनस्पतियों का।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा की कृषि-उपज में वृद्धि करने के गुण का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
वास्तव में शरीर अन्नमय कोष है और कृषि अन्न का मूल है। कृषिप्रधान भारत देश में = गंगा कृर्षि की भूमि को सींचती हुई अन्न के उत्पादन में जितनी सहायता देती है, उतनी दूसरी कोई नदी नहीं। इसके क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले वनस्पतियों के उपकार और ओषधियों के लाभ अकथनीय हैं। |

(6) गङ्गायाः प्रकृतिमनोहारिणी नैसर्गिकी च शोभा सर्वेषां चित्तमाह्लादयति। हृदयहरिणीमम्बुछटा दशैं दशैं मनः मुग्धं भवति। तटवर्तिनां दर्शनीयस्थानानां शोभां द्रष्टुं देशीयाः। विदेशीयाश्च पर्यटकाः नित्यमिमां सेवन्ते। दिवाकरकिरणैः निशाकररश्मिभिश्च जलस्य शोभा | नितरां वर्धते। गङ्गायाः कूले हरिद्वारे, प्रयागे काश्याञ्च घट्टेषु जलसौन्दर्यं मुहुर्मुहुः वीक्षमाणाः – जनाः अनिवर्चनीयं सुखं शान्ति चानुभवन्ति।

शब्दार्थ
नैसर्गिकी = स्वाभाविक, प्राकृतिक।
आह्लादयति = प्रसन्न करती है।
अम्बुच्छटाम् = जल की शोभा को।
रश्मिभिः = किरणों से।
नितराम् = अत्यधिक।
कूले = किनारे।
मुहुर्मुहुः = बार-बार।
वीक्षमाणाः = देखते हुए।
अनुभवन्ति = अनुभव करते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा की शोभा का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
गंगा की प्रकृति से ही मनोहारिणी और स्वाभाविक शोभा सबके चित्त को प्रसन्न करती है। हृदय को आकृष्ट करने वाली जल की शोभा को देख-देखकर मन प्रसन्न हो जाता है। तट पर | स्थित देखने योग्य स्थानों की शोभा को देखने के लिए देश-विदेश के पर्यटक सदा इसके पास बने (UPBoardSolutions.com) रहते हैं (अर्थात् इसके तटीय स्थलों पर ही रहते हैं)। सूर्य की किरणों और चन्द्रमा की रश्मियों में जल 
की सुन्दरता बहुत अधिक बढ़ जाती है। गंगा के किनारे हरिद्वार, प्रयाग और काशी में घाटों पर जल के सौन्दर्य को बारम्बार देखते हुए लोग अकथनीय सुख और शान्ति का अनुभव करते हैं।

(7) गङ्गायाः पावने कूले नैकानि तीर्थस्थानानि वर्तन्ते। तत्र बदरीनाथः, विष्णुनन्दकर्णरुद्रदेवादिपञ्चप्रयागाः ऋषिकेशहरिद्वारगढमुक्तेश्वरतीर्थराजप्रयागवाराणसीत्यादीनि तपः पूतानि अनेकानि तीर्थस्थानानि चिरकालाद् अध्यात्मचिन्तकांनृषींश्च आकर्षयन्ति। आदिकवेः । वाल्मीकेः भरद्वाजर्वेश्चाश्रमौ अस्याः तीरे आस्ताम्। श्रद्धाभाजनानां रामानुज-वल्लभ-कबीरतुलसी-प्रभृति महापुरुषाणां गङ्गातटमेव प्रेरणास्थलम्। वन्दनीयो गुरुतेग-बहादुरः अस्याः पावने पुलिने घोर तपश्चचार। शङ्कराचार्यसंस्थापिते शृङ्गेरीमठे विघ्नेश्वरीय शिवाय गङ्गोदकार्पण महत्पुण्यमिति सर्वेऽपि श्रद्धया स्वीकुर्वन्ति। |

शब्दार्थ
नैकानि = अनेक।
तपःपूतानि = तपस्या से पवित्र।
अध्यात्मचिन्तकान् = आध्यात्मिक (ईश्वर से सम्बद्ध) चिन्तन करने वालों को।
आकर्षयन्ति = आकर्षित करते हैं।
आस्ताम् = थे।
पुलिने = किनारे पर।
विघ्नेश्वराय = विघ्न-बाधाओं के ईश्वर (शंकर) के लिए।
गङ्गोदकार्पणम् (गङ्गा + उदक + अर्पणम्) = गंगा-जल का अर्पण।
स्वीकुर्वन्ति = स्वीकार करते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा के किनारे पर स्थित तीर्थ-स्थानों और उसके माहात्म्य का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
गंगा के पवित्र किनारे पर अनेक तीर्थस्थान हैं। उनमें बद्रीनाथ, विष्णु-नन्द-कर्णरुद्र-देव आदि पाँच प्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, तीर्थराज प्रयाग, वाराणसी आदि तप से पवित्र अनेक तीर्थस्थान चिरकाल से अध्यात्म का चिन्तन करने वालों और ऋषियों को आकृष्ट करते हैं। आदिकवि वाल्मीकि और भरद्वाज ऋषि के आश्रम इसके किनारे पर थे। श्रद्धा के पात्र रामानुज, वल्लभाचार्य, कबीर, तुलसी आदि महापुरुषों का प्रेरणा का स्थान गंगा का तट ही रहा है। वन्दना के योग्य गुरु तेगबहादुर ने इसके पवित्र रेत के तट (टीले) पर घोर तप किया था। शंकराचार्य के द्वारा स्थापित शृंगेरी मठ में विघ्नों का नाश करने वाले शिव को गंगा का जल चढ़ाना महान् पुण्य है’, ऐसी सभी श्रद्धा से स्वीकार करते हैं। |

UP Board Solutions

(8) यद्यपि आहिमालयात् सागरपर्यन्तं गङ्गाजले सर्वत्रापि स्नानं तीरे च देवाराधनयज्ञदानादिकर्माणि श्रेयस्कराणि किन्तु तीर्थस्थानेषु सम्पादितं कृत्यं तु बहुपुण्यप्रदम्। हरिद्वारे, त्रिवेण्याः सङ्गमे च कुम्भस्नानं वाराणस्यां दशाश्वमेधघट्टे जलावगाहानन्तरं गङ्गचूडविश्वनाथस्य दर्शनं केचित् सुकृतिनः एव लभन्ते। तीर्थस्थानेषु प्रतिदिनं वेदपुराणशास्त्रादिमानवकल्याणकारिणां ग्रन्थानामध्ययनमध्यापनं व्याख्यानं च भवन्ति। धर्मशास्त्रविषयकालापेषु सद्विचारस्य सौहार्दस्य मानवैकतायाः च आदर्शः पदे पदे (UPBoardSolutions.com) दृश्यते। देशदेशान्तरागतः सधनः निर्धनः सामान्यो विशिष्टो वा सर्वे एकस्मिन्नेव घट्टे स्नानं कुर्वन्ति। एवंविधायाः भारतीयसंस्कृतेः सभ्यतायाश्च समाजवादं विलोक्य विदेशीयाः आश्चर्यान्विताः भवन्ति। गङ्गा समस्तं भारतं राष्ट्रियैक्यस्याखण्डतायाश्च सूत्रे बद्ध्वा राष्ट्रं सुदृढीकर्तुं महती भूमिका निर्वहति।।

शब्दार्थ
आहिमालयात् = हिमालय से लेकर।
श्रेयस्कराणि = कल्याण करने वाले।
कृत्यम् = कार्य।
बहुपुण्यप्रदम् = अत्यन्त पुण्य देने वाला।
जलावगाहानन्तरम् = जल में स्नान करने के बाद।
गङ्गचूड = जिसके मस्तक पर गंगा है (शिव)।
सुकृतिनः = पुण्यात्मा।
पदे-पदे दृश्यते = कदम-कदम पर दिखाई देता है।
घट्टे = घाट पर।
बद्ध्वा = बाँधकर।
सुदृढीकर्तुम् = सुदृढ़ करने के लिए।
निर्वहति = निभाती है।

प्रसंग
गंगा के तंटों और घाटों पर स्थित तीर्थों पर स्नान करना पुण्यप्रद है। गंगा भारत को एक सूत्र में बाँधने का महत्त्वपूर्ण कार्य करती है, प्रस्तुत गद्यांश में इन्हीं तथ्यों को आलोकित किया गया है।

अनुवाद
यद्यपि हिमालय से समुद्र तक गंगा के जल में सभी जगह स्नान करना और किनारे पर देवों की आराधना, यज्ञ, दान आदि कार्य (सम्पन्न करना) कल्याणकारी हैं, किन्तु तीर्थस्थानों पर किया गया कार्य बहुत पुण्य देने वाला है। हरिद्वार में और त्रिवेणी के स्नान, वाराणसी में दशाश्वमेध घाट पर जल में स्नान करने के बाद भगवान् गंगचूड़ (गंगा है मस्तक पर जिसके) विश्वनाथ के दर्शन कुछ पुण्यात्मा ही प्राप्त करते हैं। तीर्थस्थानों पर प्रतिदिन वेद, पुराण, शास्त्र आदि मानवों का कल्याण करने वाले ग्रन्थों का पठन-पाठन और व्याख्यान होता है। (UPBoardSolutions.com) धर्मशास्त्र के विषयों में सद्विचार, सौहार्द और मानव की एकता को आदर्श पद-पद पर दिखाई देता है। देश-देशान्तरों से आये हुए धनी, निर्धन, साधारण या असाधारण संब एक ही घाट पर स्नान करते हैं। इस प्रकार की भारतीय संस्कृति और सभ्यता को समाजवाद देखकर विदेशी लोग आश्चर्यचकित हो जाते हैं। गंगा समस्त भारत को राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के सूत्र में बाँधकर राष्ट्र को सुदृढ़ करने के लिए बड़ी भूमिका निभाती है।

 (9) गङ्गायाः तटे नैकाः विशिष्टाः ऐतिहासिकस्मरणीयाश्च घटनाः सञ्जाताः। रघु-वंशीयाः नृपतयः निखिलविश्वविजयानन्तरं काश्यां दशाश्वमेधघट्टे अश्वमेधः यज्ञानकुर्वन्। तीर्थराजे प्रयागे आयोजिते मेलापके हर्षवर्धनः स्वपरिधानं व्यतिरिच्य सर्वसम्पदं याचकेभ्यः ददाति स्म।अस्या क्रोडे विविधानि राज्यानि उत्कर्षस्य पराकाष्ठां सम्प्राप्य ह्रासमुपगतानि, हस्तिनापुरकान्यकुब्ज-प्रतिष्ठानपुर-काशी-पाटलिपुत्रादीनि नगराणि राजधानीगौरवमावहन्ति स्म। ऐति- ।। हासिकनगराणां निर्माणे विशिष्टघटनानां सङ्टने च गङ्गाप्रवाहस्य भूमिको नाल्पीयसी।

शब्दार्थ
नैकाः = बहुत से।
स्मरणीयाः = स्मरण करने योग्य।
सञ्जाताः = हुई।
निखिलविश्वविजयानन्तरं = समस्त विश्व की विजय के पश्चात्।
मेलापके = मेले में।
स्वपरिधानम् = अपने वस्त्रों को।
व्यतिरिच्य = अतिरिक्त, छोड़कर।
क्रोडे = गोद में।
उत्कर्षस्य = उन्नति का।
पराकाष्ठां = अन्तिम सीमा को।
ह्रासम् = अवनति।
आवहन्ति स्म = धारण करते ते।
सङ्टने = घटने में।
नाल्पीयसी (न + अल्पीयसी) = कम नहीं है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा के तट पर घटित ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
गंगा के तट पर अनेक विशिष्ट, ऐतिहासिक और स्मरण के योग्य घटनाएँ हुईं। रघुवंश के राजाओं ने सम्पूर्ण संसार की विजय के पश्चात् काशी में दशाश्वमेध घाट पर अश्वमेध यज्ञ किये। तीर्थराज प्रयाग में आयोजित मेले में हर्षवर्धन अपने वस्त्रों को छोड़कर सारी सम्पत्ति याचकों को दे देते थे। इसकी गोद में अनेक राज्य उन्नति की चरमसीमा को प्राप्त करके अवनति को प्राप्त हुए। हस्तिनापुर, कन्नौज, प्रतिष्ठानपुर, काशी, पाटलिपुत्र (पटना) आदि नगर राजधानी के गौरव को धारण करते थे। ऐतिहासिक नगरों के निर्माण में और विशेष घटनाओं के घटने में गंगा के प्रवाह की भूमिका कम नहीं है।

UP Board Solutions

(10) आधुनिककाले गङ्गातटे नानाविधानि औद्योगिककेन्द्राण्यपि वर्तन्ते। इयं विविधौद्योगिकविकासांयानुकूलमवसरं संयोजयति। रेलमोटरयानाविष्कारपूर्वं नदीमार्गाः गमनागमनसाधनान्यसासन्। अस्मिन् क्षेत्रेऽपि गङ्गायाः लब्धं सौविध्यमवर्णनीयम्। औद्योगिकप्रतिष्ठानानां कृते अस्याः (UPBoardSolutions.com) महान् जलराशिः नित्यं प्रयुज्यते। जलप्रवाहसाहाय्येन विद्युद्धारायाः प्रचुरमुत्पादनं सम्पाद्यते येन देशस्य नवनिर्माणं जायते। बुलन्दशहरनामके जनपदे ‘नरौरा’ नामस्थाने गङ्गातटे एतादृशमणुशक्तिसञ्चालितविद्युद्गृहं वर्तते यत्राणु-शक्त्याः समुपयोगः सुतरां क्रियते। ।

शब्दार्थ
संयोजयति = प्राप्त कराती है।
सौविध्यम् अवर्णनीयम् = सुविधा अवर्णनीय है।
प्रयुज्यते = प्रयुक्त होती है।
प्रचुरम् उत्पादनम् = अधिक मात्रा में उत्पादन करना।
सम्पाद्यते = सम्पादित किया जाता है।
जनपदे = जिले में।
सुतरां = अच्छी तरह से।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा के औद्योगिक महत्त्व को स्पष्ट किया गया है।

अनुवाद
आधुनिक समय में गंगा के तट पर विविध प्रकार के औद्योगिक केन्द्र भी हैं। यह विविध औद्योगिक विकास के लिए अनुकूल अवसरों को जुटाते हैं। रेलों और मोटरों के आविष्कार से पूर्व नदी के मार्ग गमन और आगमन के साधन थे। इस क्षेत्र में भी गंगा से प्राप्त सुविधा वर्णन से परे है। औद्योगिक कारखानों के लिए इसकी महान् जलराशि नित्य प्रयोग की जाती है। जल के प्रवाह की सहायता से बिजली का प्रचुर उत्पादन (UPBoardSolutions.com) किया जाता है, जिससे देश का नवनिर्माण होता है। बुलन्दशहर नामक जिले में ‘नरौरा’ नामक स्थान पर गंगा के किनारे अणु-शक्तिचालित ऐसा बिजलीघर है, जहाँ अणु-शक्ति का समुचित उपयोग भली-भाँति होता है।

(11) गङ्गाजलस्य वैशिष्ट्यं वैज्ञानिकविश्लेषणेनापि प्रमाणीभूतम्। गङ्गोदकं स्वच्छ, शीतलं, तृषाशामकं, रुचिवर्धकं सुस्वादु रोगापहारि च भवति। तत्र रोगकारकाः जीवाणवः अनायासेन नश्यन्तीति, पाश्चात्यवैज्ञानिकैरपि गङ्गाजलपरीक्षणानिर्विवादतया समुद्घुष्टम्। गङ्गोदकं सर्वविधं पवित्रमिति मत्वा हिन्दुगृहे लघुपात्रे आनीय समादरधिया रक्ष्यते। इदं दीर्घकालेनापि विकृतिं न लभते। मुमूर्षोरपि कण्ठे ‘औषधं जाह्नवीतोयं वैद्यो नारायणो हरिः’ इति मत्वा । गङ्गाजलमेव दीयते। अस्याः महदुपकारमनुभवन्तः जना इमां ‘गङ्गामाता’ इति सम्बोधयन्ति सकलमनोरथसिद्ध्यर्थं पुष्पदीपवस्त्रादीनि समर्पयन्ति च।

शब्दार्थ
वैशिष्ट्यम् = विशिष्टता।
प्रमाणीतम् = प्रमाणित है, सिद्ध है।
तृषाशामकम् = प्यास बुझाने वाला।
रोगापहारि = रोग को दूर करने वाला।
अनायासेन = बिना प्रयत्न के।
निर्विवादतया = विवादरहित रूप से।
समुदघुष्टम् = घोषणा की है।
गङ्गोदकम् = गंगा का जल।
आनीय = लाकर।
समादरधिया = आदर के विचार से।
रक्ष्यते = रखा जाता है।
विकृतिम् = खराब।
मुमूर्षोंः = मरने वाले के।
जाह्नवीतोयम् = गंगा का जल।
दीयते = दिया जाता है।
सम्बोधयन्ति = पुकारते हैं।
समर्पयन्ति = अर्पित करते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा के जल की विशेषता और उपयोगिता बतायी गयी है।

अनुवाद
गंगा के जल की विशेषता वैज्ञानिक विश्लेषण से भी सिद्ध हो चुकी है। गंगा का जल स्वच्छ, शीतल, प्यास बुझाने वाला, रुचि बढ़ाने वाला, स्वादिष्ट और रोग को दूर करने वाला है। उसमें रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणु बिना प्रयत्न किये नष्ट हो जाते हैं। ऐसा पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने भी गंगा, के जल की परीक्षा करके विवादरहित रूप से घोषणा की है। गंगा का जल सब प्रकार से पवित्र है, ऐसा मानकर हिन्दुओं के घर में छोटे बर्तन में लाकर आदर के विचार से रखा जाता है। यह बहुत समय तक भी खराब नहीं होती है। मरते हुए के भी कण्ठ (UPBoardSolutions.com) में गंगा का जल औषध, वैद्य, नारायण हरि हैं’ ऐसा मानकर गंगा का जल ही डाला जाता है। इसके महान् उपकार का अनुभव करते हुए लोग इसे ‘गंगामाता’ नाम से पुकारते हैं और सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने के लिए पुष्प, दीप, वस्त्र आदि चढ़ाते हैं।

(12) हन्त! दौर्भाग्यमिदं यत् साम्प्रतं मनुष्यादेव गङ्गाजलस्य पवित्रताया भयमुपस्थितम्। स्वार्थवशादस्यां तेन बहुविकारा उत्पाद्यन्ते। तटेषु संस्थापितानामौद्योगिकप्रतिष्ठानानां रासायनिकद्रवा अस्याः जले प्रवाह्यन्ते। विपुलजनसङ्ख्याभारतमुवहतां नगराणां मालिन्यं प्रणालिकाभिः गङ्गायाम् प्रक्षिप्यते। घातकरोगाक्रान्तानां मानवानां पशूनाञ्च शवाः वारिधारायां निलीयन्ते। कुलेषु पवित्रमनसा श्रद्धया च निर्मितेष्वैकान्तिकमन्दिरेषु धर्मशालायाञ्च समाजविरोधीनि तत्त्वानि सङ्गच्छन्ते। अज्ञानवशात् ‘प्रमादाच्च मानवः सर्वकल्याणकारिणीं गङ्ग प्रदूषयति, तस्याः जलं प्रदूषयति अमृते विषं मिश्रयति च। हन्त! कीदृशीयं विडम्बना या गङ्गा सर्वशुद्धिकरी प्रख्याता सा सम्प्रति स्वशुद्धये मानवमुखमपेक्षते। मानवस्यैवायं दोषो न गङ्गायाः।

शब्दार्थ
दर्भाग्यमिदम् = यह दुर्भाग्य है।
साम्प्रतम् = इस समय।
उत्पाद्यन्ते = उत्पन्न किये जा रहे हैं।
प्रवाह्यन्ते = बहाये जाते हैं।
मालिन्यम् = मैला, गन्दगी।
प्रणालिकाभिः = नालियों के द्वारा।
निलीयन्ते = डुबाये जाते हैं।
सङ्गच्छन्ते = पहुँचते हैं।
मिश्रयति = मिलाता है।
कीदृशीयं = कैसी यह।
विडम्बना = निन्दनीय बात।
प्रख्याता = प्रसिद्ध है।
मानवमुखमपेक्षते = मनुष्य का मुख देख रही है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में मनुष्यों द्वारा गंगा को प्रदूषित किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
खेद है! यह दुर्भाग्य ही है कि अब मनुष्य से ही गंगा जल की पवित्रता का भय उपस्थित हो गया है। स्वार्थ के कारण वह इसमें बहुत-से-विकार उत्पन्न कर रहा है। तटों पर स्थापति औद्योगिक कारखानों के रासायनिक घोल इसके जल में प्रवाहित किये जाते हैं अधिक जनसंख्या के भार वाले नगरों का मैला नालियों द्वारा गंगा में डाला जाता है। घातक रोग से आक्रान्त मनुष्यों और पशुओं के शव जल की धारा में डुबोये जाते हैं। किनारों पर पवित्र मन और श्रद्धा से बनाये गये एकान्त मन्दिरों और धर्मशालाओं में समाज-विरोधी (UPBoardSolutions.com) तत्त्व मिल जाते हैं। अज्ञान के कारण और प्रमाद से मनुष्य सबका कल्याण करने वाली गंगा को प्रदूषित कर रहा है, उसके जल को प्रदूषित कर रहा है और अमृत में विष घोल रहा है। खेद! यह कैसी विडम्बना (निन्दित बात) है कि जो गंगा सबको पवित्र करने वाली प्रसिद्ध है, वह अब अपनी शुद्धता के लिए मानव का मुँह देख रही है। यह मानव का ही दोष है, गंगा का नहीं।।

UP Board Solutions

(13) सौभाग्यात् भारतीयशासेन गङ्गाप्रदूषणस्य विनाशाय महती योजना सञ्चालिता। केन्द्रीयुविकासप्राधिकरणेन प्रदूषणमपाकर्तुं शुचिताञ्च प्रतिष्ठापयितुं योजनाबद्ध (UPBoardSolutions.com) कार्यमारब्धम्। चलचित्रदूरदर्शनाकाशवाणीसमाचारपत्रादिसञ्चारमाध्यमैः गङ्गाप्रदूषणं निवारयितुं जनचेतना प्रबोध्यते। परं महानयं राष्ट्रियः कार्यक्रमः क्षेत्रञ्च विशालम्। स्वल्पैः जनैः शासनतन्त्रैर्वा तदनुष्ठातुं न शक्यते। तत्र आबालवृद्धानां स्त्रीपुरुषाणां सक्रियसहयोगस्य अहर्निशमावश्यकता वर्तते। यदा सर्वे जनाः मनसा वाचा कर्मणा निष्ठया च गङ्गायाः प्रदूषणमपसारयितुं कृतसङ्कल्पास्तदनुरूपेवाचरणशीलश्च भविष्यन्ति तदैवास्याः नैर्मल्यं रक्षिष्यते पुण्यसलिला गङ्गा जगद्धात्री भविष्यत्येव।

अपरञ्च अहो गङ्गा जगद्धात्री स्नानपानादिभिर्जगत्।
 पुनाति पावनीत्येषा न कथं सेव्यते नृभिः॥

शब्दार्थ
अपाकर्तुं = दूर करने के लिए।
शुचितां = पवित्रता को।
प्रतिष्ठापयितुम् = पुनः लाने के लिए।
योजनाबद्धम् = योजना बनाकर।
निवारयितुम् = मिटाने के लिए।
प्रबोध्यते = जाग्रत की ।जा रही है।
तदनुष्ठातुम् = वह पूरा करने के लिए।
आबालवृद्धानाम् = बच्चों से लेकर बूढ़ों तक का।
अहर्निशं = दिन-रात (चौबीस घण्टे)।
निष्ठया = श्रद्धा से।
अपसारयितुम् = दूर करने के लिए।
नैर्मल्यम् = पवित्रता को।
जगद्धात्री = संसार का पालन करने वाली।
पुनाति = पवित्र करती है।
नृभिः = मनुष्यों के द्वारा।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा के प्रदूषण को रोकने के लिए सरकारी प्रयत्नों और जनता के सहयोग की आवश्यकता का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
सौभाग्य से भारत की सरकार ने गंगा-प्रदूषण समाप्त करने के लिए बड़ी योजन चलायी है। केन्द्रीय विकास प्राधिकरण ने प्रदूषण को दूर करने और पवित्रता को पुनः लाने के लिए योजना बनाकर कार्य आरम्भ कर दिया है। सिनेमा, दूरदर्शन, आकाशवाणी, समाचार-पत्र आदि संचारमाध्यमों के द्वारा गंगा के प्रदूषण को दूर करने के लिए जनचेतना जगायी जा रही है, परन्तु यह राष्ट्रीय कार्यक्रम बड़ा है और क्षेत्र विशाल है। थोड़े लोगों अथवा शासनतन्त्र के द्वारा यह पूरा नहीं किया जा सकता है। उसमें बच्चों से लेकर बूढ़े, स्त्री-पुरुषों तक के (UPBoardSolutions.com) सक्रिय सहयोग की रात-दिन आवश्यकता है। जब सब मनुष्य मन से, वचन से, कार्य से और लगन से गंगा के प्रदूषण को दूर करने के लिए संकल्प (प्रतिज्ञा) करेंगे और उसके अनुसार आचरण करेंगे, तभी इसकी पवित्रता की रक्षा की जा सकेगी। पवित्र जल वाली गंगा संसार का पालन करने वाली होगी ही। और यह 
जगत् का पालन करने वाली गंगा स्नान, जलपान आदि द्वारा संसार को पवित्र करती है। इस प्रकार पवित्र करने वाली यह लोगों के द्वारा कैसे नहीं सेवन की जाती है; अर्थात् अवश्य ही सेवन की जाती है।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
गंगा किस प्रकार धरती पर आयी, इसका वर्णन कीजिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत आये शीर्षक ‘उद्गम’ और ‘पौराणिक स्वरूप की सामग्री को अपने शब्दों में लिखें।

UP Board Solutions

प्ररन 2
गंगा के प्रदूषित होने और प्रदूषण से मुक्ति पर प्रकाश डालिए
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत आये शीर्षकों-‘जल-प्रदूषण की समस्या’ और ‘प्रदूषण दूर करने के प्रयास’–से सम्बन्धित सामग्री को संक्षेप में अपने शब्दों में लिखें।]

प्ररन 3
गंगा के तट पर बसे नगरों, निवास करने वाले धर्माचार्यों तथा लगने वाले मेलों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
गंगा के तट पर बदरीनाथ, पंचप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, तीर्थराज प्रयाग, वाराणसी आदि तीर्थस्थान (नगर) हैं। वाल्मीकि और भरद्वाज के आश्रम भी गंगा के तट पर ही थे। रामानुज, कबीर, तुलसी आदि महापुरुषों के प्रेरणास्थल भी गंगा के तट ही रहे हैं। प्रयाग में गंगा के तट पर लगने वाले मेले में ही हर्षवर्धन अपना सर्वस्व दान किया करते थे।

We hope the UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 14 पुण्यसलिलागङ्गा  (गद्य – भारती)help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 14 पुण्यसलिलागङ्गा (गद्य – भारती), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

 

 

Class 9 Sanskrit Chapter 5 UP Board Solutions अन्योक्तिमौक्तिकानि Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 5 अन्योक्तिमौक्तिकानि (पद्य-पीयूषम्) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 5 अन्योक्तिमौक्तिकानि (पद्य-पीयूषम्).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 5
Chapter Name अन्योक्तिमौक्तिकानि (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 5 Anyokti Mauktikani Question Answer (पद्य-पीयूषम्)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 5 हिंदी अनुवाद अन्योक्तिमौक्तिकानि के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय–प्रस्तुत को कुछ कहने के लिए जब किसी अप्रस्तुत को माध्यम बनाया जाता है, तब उसे अन्योक्ति कहते हैं। संस्कृत-साहित्य में इसे अप्रस्तुत-प्रशंसा अलंकार भी कहा जाता है। इस कथन में जिस पर बात सार्थक होती है उसे प्रस्तुत’ और जिस किसी पर बात रखकर कही जाती है, वह अप्रस्तुत कहलाता है। इसकी आवश्यकता इसलिए होती है कि कभी किसी को सीधे कोई बात कह देने से उसे अपने विषय में कही गयी बात बुरी लग सकती है या अच्छी लगने पर उसे अपने पर अहंकार भी हो सकता है; अतः किसी की बुराई और (UPBoardSolutions.com) प्रशंसा करने का अच्छा एवं प्रभावशाली माध्यम ‘अन्योक्ति’ ही होता है। अन्योक्तियों का प्रयोग साहित्यिक दृष्टि से बहुत प्रभावकारी होता है। अन्योक्तियों में प्रस्तुत की कल्पना अपने अनुभव के आधार पर भी की जा सकती है। प्रस्तुत पाठ में संकलित अन्योक्तियाँ ‘अन्योक्तिमाला’ से ली गयी हैं। इन अन्योक्तियों में प्रस्तुत की कल्पना छात्र स्वयं सरलता से कर सकते हैं।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या 

(1)
आपो विमुक्ताः क्वचिदाप एव क्वचिन्न किञ्चिद् गरलं क्वचिच्च।
यस्मिन् विमुक्ताः प्रभवन्ति मुक्ताः पयोद! तस्मिन् विमुखः कुतस्त्वम्॥

शब्दार्थ
आपः = जल।
विमुक्ताः = छोड़े गये, बरसाये गये।
क्वचित् = कहीं परे।
किञ्चित् = कहीं भी।
गरलम् = विष।
प्रभवन्ति = हो जाते हैं।
मुक्ताः = मोती।
पयोद = हे बादल!।
विमुखः = उदासीन।
कुतः = किस कारण से।

सन्दर्थ
प्रस्तुत अन्योक्ति श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘अन्योक्तिमौक्तिकानि’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत-इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। |

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में बादल के माध्यम से ऐसे धनी व्यक्ति की ओर संकेत किया गया है, जो सत्पात्र को दान न देकर अयोग्य व्यक्ति को दान देता है।

अन्वय
पयोद! (त्वया) विमुक्ता: आपः क्वचित् आपः एव (भवति)। क्वचित् किञ्चित् न (भवति) क्वचित् च गरलं (भवति) यस्मिन् विमुक्ताः (आप) मुक्ताः प्रभवन्ति तस्मिन् त्वं कुतः विमुखः (असि)?

व्याख्या
हे बादल! तुम्हारे द्वारा बरसाया गया जल कहीं (जल में) जल ही रहता है, कहीं (गर्म तवे आदि पर) कुछ भी नहीं रहता है और कहीं पर (सर्प आदि के मुख में) विष हो जाता है। जिसमें (सीपी में) बरसाये गये वे (जल), मोती बन जाते हैं, उस सीपी में अपना जल बरसाने से तुम किस कारण से उदासीन हो। तात्पर्य यह है कि हे दानी व्यक्तियो! तुम्हें सत्पात्र को ही दान देना चाहिए।

UP Board Solutions

(2)
जलनिधौ जननं धवलं वपुर्मुररिपोरपि पाणितले स्थितिः ।।
इति समस्त-गुणान्वित शङ्ख भोः! कुटिलता हृदयान्न निवारिता ॥

शब्दार्थ
जलनिधौ = समुद्र में।
जननं = उत्पत्ति।
धवलं = श्वेत।
वपुः = शरीर।
मुररिपोः = मुर नामक दैत्य के शत्रु अर्थात् विष्णु के।
पाणितले = हथेली अर्थात् हाथ में।
समस्तगुणान्वितः = सभी गुणों से युक्त।
कुटिलता = टेढ़ापन।
न निवारिता = दूर नहीं की गयी।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में शंख के माध्यम से ऐसे व्यक्ति के प्रति उक्ति है, जो उच्च कुल में जन्म लेकर और अच्छी संगति पाकर भी दुष्टता नहीं छोड़ता है।

अन्वय
भो शङ्ख! (तव) जननं जलनिधौ (अभवत्), वपुः धवलं (अस्ति), स्थितिः अपि मुररिपोः पाणितले (अस्ति), इति समस्त गुणान्वित (भो शङ्ख तव) हृदयात् कुटिलता ने निवारिता।

व्याख्या
हे शंख! तुम्हारा जन्म समुद्र में हुआ है, तुम्हारा शरीर श्वेत वर्ण का है, तुम्हारा निवास भी मुर के शत्रु अर्थात् विष्णु की हथेली में है। इस प्रकार सभी गुणों से युक्त हे शंख! तुम्हारे हृदय से कुटिलता (टेढ़ापन) दूर नहीं हुआ है। तात्पर्य यह है कि दुष्ट मनुष्य में चाहे कितनी ही अच्छाइयाँ क्यों न हों, वह अपनी दुष्टता को नहीं छोड़ता है।

(3)
अलिरयं नलिनी-दल-मध्यगः कमलिनी-मकरन्द-मदालसः ।
विधिवशात् परदेशमुपागतः कुटजपुष्प-रसं बहु मन्यते ॥

शब्दार्थ
अलिः = भौंरा।
नलिनीदलमध्यगः = कमलिनी की पंखुड़ियों के मध्य में स्थित।
मकरन्दमदालसः = कमल के रस के पान करने में अलसाया हुआ।
विधिवशात् = दैवयोग से।
परदेशमुपागतः = पराये देश में आया हुआ।
कुटजपुष्प-रसं = कुटज के फूल के रस को।
बहु मन्यते = बहुत सम्मान देता है, सम्मान के साथ पान करता है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में भ्रमर के माध्यम से ऐसे व्यक्ति के प्रति उक्ति है, जो सभी प्रकार की सुविधाओं में पला-बढ़ा है। वह विदेश में विषम परिस्थिति को पाकर तुच्छ वस्तु से भी सन्तुष्ट रहता है। |

अन्वय
‘नलिनीदलमध्यगः’ कमलिनी मकरन्द मदालसः अयम् अलिः विधिवशात् परदेशम्। उपागतः (सन्) कुटजपुष्परसं बहु मन्यते।।

व्याख्या
कमलिनी की पंखुड़ियों के मध्य में विचरण करने वाला, कमलिनी के रस को पीकर नशे में अलसाया हुआ यह भौंरा भाग्य से परदेश में आकर कुटज के फूल के रस को ही (UPBoardSolutions.com) बहुत सम्मान दे रहा है। तात्पर्य यह है कि सम्भ्रान्त व्यक्ति चाहे जितनी सुख-सुविधाओं के बीच रहा हो, विपरीत समय आने पर वह तुच्छ वस्तु को भी अत्यधिक महत्त्व देता है।

(4)
उरसि फणिपतिः शिखी ललाटे शिरसि विधुः सुरवाहिनी जटायाम्।।
प्रियसखि! कथयामि किं रहस्यं पुरमथनस्य रहोऽपि संसदेव ॥

शब्दार्थ
उरसि = वक्षःस्थल पर।
फणिपतिः = सर्यों का राजा वासुकि।
शिखी = अग्नि।
ललाटे = मस्तक पर।
शिरसि = सिर पर।
विधुः = चन्द्रमा।
सुरवाहिनी = गंगा।
जटायाम् = जटाओं में।
पुरमथनस्य = त्रिपुर दैत्य को मारने वाले अर्थात् शंकर का।
रहोऽपि = एकान्त भी।
संसदेव = सभा।।

प्रसंग
यह श्लोक ऐसे व्यक्ति को लक्ष्य करके कहा गया है, जो सदा अन्य व्यक्तियों से घिरा रहता है और उसे पत्नी से गोपनीय बात करने के लिए भी एकान्त नहीं मिलता।

अन्वय
प्रिय सखि! उरसि फणिपतिः, ललाटे शिखी, शिरसि विधुः, जटायां सुरवाहिनी (अस्ति), यस्य पुरमथनस्य, रहः अपि संसद् एव, तस्य रहस्यं किं कथयामि?

व्याख्या
(पार्वती जी अपनी प्रिय सखी से कह रही हैं)—हे प्रिय सखि! (मेरे पति के) वक्षःस्थल पर सर्पो का राजा वासुकि, मस्तक पर तीसरा नेत्ररूपी अग्नि, सिर पर चन्द्रमा, जटा में गंगा है, जिस शंकर का एकान्त भी संभा ही है, मैं उनसे अपनी गोपनीय बात कैसे कह सकती हूँ? तात्पर्य यह है कि उन्हें कभी एकान्त मिलता ही नहीं, जिससे कि उनसे अपनी गोपनीय बात कही जा सके।

UP Board Solutions

(5)
एकेन राजहंसेन या शोभा सरसो भवेत् ।
न सा वक-सहस्त्रेण परितस्तीरवासिनी॥

शब्दार्थ
एकेन = एक द्वारा, अकेले।
राजहंसेन = राजहंस के द्वारा।
या = जो।
सरसः = तालाब की।
वक-सहस्रेण = हजारों बगुलों से।
परितः = चारों ओर।
तीरवासिना = तट पर निवास करने वाले से।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यह बताया गया है कि एक गुणवान् व्यक्ति से जो शोभा होती है, वह हजारों गुणहीन व्यक्तियों से भी नहीं होती।

अन्वय
एकेन राजहंसेन सरस: या शोभा भवेत् सा परितः तीरवासिना वर्क-सहस्रेण न भवति)।

व्याख्या
अकेले राजहंस के द्वारा तालाब की जो शोभा होती है, वह तालाब के चारों ओर किनारे पर रहने वाले हजारों बगुलों से भी नहीं होती। तात्पर्य यह है कि एक अत्यन्त विद्वान् व्यक्ति से सभा की जो शोभा हो जाती है, वह हजारों भूख से भी नहीं हो पाती है। |

(6)
अहमस्मि नीलकण्ठस्तव खलु तुष्यामि शब्दमात्रेण।
नाहं जलधर! भवतश्चातक इव जीवनं याचे ॥

शब्दार्थ
नीलकण्ठः = मोर।
तव = तुम्हारे।
खलु = निश्चय ही।
तुष्यामि = सन्तुष्ट होता हैं।
शब्दमात्रेण = शब्दमात्र से।
जलधर = हे बादल।
भवतः = आपके।
इव = समान।
जीवनम् = जल, जीवन।
न याचे = नहीं माँगता हूँ।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में नि:स्वार्थ प्रेम की श्रेष्ठता का वर्णन किया गया है।

अन्वय
जलधर! अहं नीलकण्ठः अस्मि। तव शब्दमात्रेण खलु तुष्यामि। अहं चातकः इव भवतः जीवनं न याचे।

व्याख्या
(मोर बादल से कहता है कि) हे बादल! मैं मोर हूँ। मैं निश्चय ही तुम्हारे शब्दमात्र (गर्जन) से सन्तुष्ट हो जाता हूँ। मैं आपके प्रिय चातक की तरह आपके जीवन (प्राण, जल) को नहीं माँगता हूँ। तात्पर्य यह है कि एक श्रेष्ठ मित्र को अपने किसी सामर्थ्यवान् मित्र से भी अत्यन्त बहुमूल्य वस्तु की मॉग नहीं करनी चाहिए।

(7)
अग्निदाहे न मे दुःखं छेदे न निकषे न वा। 
यत्तदेव महददुःखं गुञ्जया सह तोलनम् ॥

शब्दार्थ
अग्निदाहे = अग्नि में जलाने पर।
छेदे = काटने पर।
निकषे = कसौटी पर कसे जाने पर।
वा = अथवा।
महुद्दुःखं = बड़ा दुःख।
गुञ्जया सह = गुंजा (रत्ती) के साथ।
गुंजा (घंघची) जंगल में पायी जाती है। इसका वजन 1 रत्ती के बराबर माना जाता है। सोना तोलने में पहले इसी के दानों का प्रयोग होता था।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में उस मनस्वी व्यक्ति की मनोव्यथा व्यक्त की गयी है, जिसकी तुलना नीच व्यक्ति से की जाती है।

अन्वय
अग्निदाहे, छेदे निकषे वा मे दु:खं न (अस्ति), यत् गुञ्जया सह तोलनं तद् एव महद् । दुःखम् (अस्ति)।

व्याख्या
सुवर्ण कहता है कि आग में जलाने में,काटने में अथवा कसौटी पर कसे जाने में मुझे दुःख ‘ नहीं है, जो गुंजा (घंघची) के साथ मुझे तोलना है, वही मेरा सबसे बड़ा दुःख है। तात्पर्य यह है कि एक 
मनस्वी व्यक्ति कठिन-से-कठिन परीक्षा देने को सदैव तत्पर रहता है। वह कितने भी कष्टं में रहे, (UPBoardSolutions.com) उसे कोई चिन्ता नहीं होती; लेकिन अपना अवमूल्यन अर्थात् नीचों के साथ तुलना उसे किसी भी स्थिति में सह्य नहीं है।

UP Board Solutions

(8)
सुमुखोऽपि सुवृत्तोऽपि सन्मार्गपतितोऽपि सन्।
सतां वै पादलग्नोऽपि व्यथयत्येव कण्टकः ॥

शब्दार्थ
सुमुखः = सुन्दर मुख वाला (सुन्दर नोक वाला)।
अपि = भी।
सुवृत्तः = अच्छे आचरण वाला, अच्छा गोलाकार।
सन्मार्गपतितः = अच्छे रास्ते अर्थात् साफ-सुथरे मार्ग पर पड़ा हुआ।
सन् = होते हुए।
सतां = सज्जनों के।
पादलग्नः = पैर में लगा हुआ।
व्यथयति = कष्ट देता है।
एव = ही।
कण्टकः = काँटा।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक उस दुष्ट व्यक्ति को लक्ष्य करके कहा गया है, जो सुन्दर मुख वाला, अच्छे आचरण वाला, सज्जनों के मार्ग पर लगा हुआ तथा सज्जनों के आश्रय में पड़ा हुआ होने पर भी उन्हें कष्ट देता है।

अन्वय
सुमुखः अपि, सुवृत्त: अपि, सन्मार्गपतितः अपि, (सन्) सतां पादलग्नः अपि कण्टकः वै व्यथयति एव। | व्याख्या-सुन्दर नोक वाला, अच्छी गोल आकृति वाला, साफ-सुथरे मार्ग में पड़ा हुआ तथा सज्जनों के पैर में गड़ा हुआ होते हुए भी कॉटा सज्जनों को केवल दु:ख ही देता है। तात्पर्य यह है कि दुष्ट चाहे जितने भी भले लोगों के बीच में रहे, वह अपने दुष्ट स्वभाव को नहीं छोड़ता।

(9)
अयि त्यक्तासि कस्तूरि! पामरैः पङ्क-शङ्कया।
अलं खेदेन भूपालाः किं न सन्ति महीतले ।।

शाख्दार्थ
अयि = अरी।
त्यक्तासि = त्यागी गयी।
पामरैः = मूर्खा ने।
पङ्कशङ्कया = कीचड़ की शंका से।
अलं खेदेन = खेद मत करो।
भूपालाः = राजा।
महीतले = पृथ्वी पर।

प्रसंग
इस श्लोक में बताया गया है कि गुणवान् व्यक्ति को अज्ञानियों के द्वारा सम्मान न मिलने पर दु:खी नहीं होना चाहिए, क्योंकि संसार में गुणज्ञों की कमी नहीं है, जो उनके गुणों का आदर करेंगे।

अन्वय
अयि कस्तूरि! पामरैः पङ्कशङ्कया त्यक्ता असि, खेदेन अलम्। किं महीतले भूपालाः न 
सन्ति ।

व्याख्या
हे कस्तूरी! मूर्खा ने तुझे कीचड़ समझकर त्याग दिया है, इसका तुम खेद मत करो। क्या पृथ्वी पर (संसार में) तुम्हारा मूल्य समझने वाले राजी नहीं हैं? तात्पर्य यह है कि हे गुणवान् पुरुष! यदि तुम्हारा दुष्टों के मध्य सम्मान नहीं है तो इसके लिए तुम्हें दु:ख नहीं करना चाहिए। तुम्हारे चाहने वाले अन्यत्र अवश्य हैं।

सूक्तिपरक वाक्य की व्याख्या

(1) सतां वै पादलग्नोऽपि व्यथयत्येव कण्टकः।
सन्दर्य
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के अन्योक्तिमौक्तिकानि’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।।

प्रसंग
इस सूक्ति में अन्योक्ति के माध्यम से सुन्दर, किन्तु दुष्ट व्यक्ति के दुष्टता करते रहने के स्वभाव को बताया गया है।

अर्थ
सज्जनों के पैर में चुभा हुआ काँटा भी पीड़ा ही देता है।

व्याख्या
जिस प्रकार से काँटा सज्जन के पैर में चुभने पर भी उसे कष्ट ही देता है, वह उसके गुणों या सज्जनता से तनिक भी प्रभावित नहीं होता है, उसी प्रकार दुर्जन सज्जनों की संगति में रहने पर भी उनके साथ दुर्जनता ही करता है। चाहे दुर्जन कितना भी सुन्दर, सच्चरित्र और सज्जनों के मार्ग का अनुसरण करता हो, वह अपनी दुर्जनता; अर्थात् दूसरों को हानि पहुँचाने का कार्य नहीं छोड़ सकता।।

UP Board Solutions

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) आपो विमुक्ताः ••••• ••••••••••••••• कुतस्त्व म् ॥ (श्लोक 1)
संस्कृता
वारिदं संलक्ष्य कश्चिद् विज्ञः कथयति–हे वारिद! त्ववियुक्तानि जलानि । क्वचित् जलानि एव तिष्ठन्ति, क्वचिच्च तान्येव जुलानि क्वचित् महत्त्वहीनान्येव भवन्ति क्वचिच्च 
तान्येव जलानि विषरूपेण प्राणहारकानि भवन्ति, परन्तु त्वं स्वजलानि तत्र कथं न पातयसि यंत्र पदं . लब्ध्वा जलानि मुक्तारूपेण महानिधयो भवन्ति।

(2) अलिरयं नलिनी •••••••••••••••••••••••••••••बह मन्यते ॥ (श्लोक 3 )
संस्कृतार्थः-
अस्यां अन्योक्तौ भ्रमरस्य माध्यमेन एतादृशं जनं प्रति उक्तिः अस्ति, यः सर्वविधासु सुविधासु पालितः अभवत् , पुरं विदेशेऽपि सः विषमायां परिस्थितौ सत्यां सन्तुष्टः भवति। यथा भ्रमर: नलिनीनां दलानां मध्ये स्थित्वा पुष्परसं पीत्वा अलसित: भूत्वा अपि विधिवशात् परदेशगमने कुटजस्य पुष्पाणां रसं पीत्वा तथैव तुष्यति।।

(3) एकेन राजहंसेन •••••••••••••••••••••••••••••परितस्तीरवासिना॥ (श्लोक 5)
संस्कृतार्थः-
कविः कथयति यत् कस्यापि सरोवरस्य या शोभा तस्य तीरे वासिना मरालेन भवति, सा शोभा सरोवरं परित: वसतां वकानां सहस्रेण न भवति। एवमेव एकेन सुपुत्रेण एव कुलस्य या शोभा भवति, सा मूर्खशतैः पुत्रैः न भवति।।

(4) अग्निदाहे न मे •••••••••••••••••••••••सह तोलनम् ॥ (श्लोक 7)
संस्कृतार्थः-
सुवर्णः स्वमनोव्यथां प्रकटयन् कथमपि यत् स्वर्णकारः माम् अग्नौ क्षिपति, तस्य मां दु:खं न अस्ति, स: मां छेदयति तस्य अपि दुःखम् अहं न मन्ये, सः मां निकषे घर्षति, सा पीडा अपि मां न व्यथयति। अहं तदा महद् दुःखम् अनुभवामि, यदा सः मम मूल्यं महत्त्वम् अगण्यन् मां गुञ्जया। सह तोलयति। एवम् एव विद्वान् पुरुषः अनेकानि कष्टानि सोढ्वा तथा दुःखं न अनुभवन्ति यथा कोऽपि निपुणः जनन तस्य मूर्खः सह तुलनां करोति।

UP Board Solutions

We hope the UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 5 अन्योक्तिमौक्तिकानि  (पद्य-पीयूषम्) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 5 अन्योक्तिमौक्तिकानि (पद्य-पीयूषम्), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

Class 9 Sanskrit Chapter 5 UP Board Solutions गुणाढ्यवृत्तान्तः Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 5 गुणाढ्यवृत्तान्तः (गद्य – भारती) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 5 गुणाढ्यवृत्तान्तः (गद्य – भारती).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 5
Chapter Name गुणाढ्यवृत्तान्तः (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 4
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 5 Gunadhya Vrttanta Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 5 हिंदी अनुवाद गुणाढ्यवृत्तान्तः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-साराश

सातवाहन का परिचय-महाराष्ट्र में गोदावरी नदी के दक्षिण तट पर प्रतिष्ठानपुर नामक नगर में सातवाहन नाम का एक परगुणग्राही और गुणवान राजा शासन करता था। उसका अनेक गुणों से सम्पन्न गुणाढ्य नाम का एक मन्त्री था। वहाँ राजा, मन्त्री और अधिकारी सभी के मध्य प्राकृत भाषा का ही (UPBoardSolutions.com) प्रचलन था। राजा की एक रानी ‘भारती’ थी, जो कि संस्कृत की विदुषी थी। राजा भारती से अत्यधिक स्नेह करता था।

भारती द्वारा राजा की संस्कृत अल्पज्ञता पर व्यंग्य-एक बार वसन्त-उत्सव के समय राजा सातवाहन अपनी सभी रानियों के साथ अपने उद्यान की वापी में जलक्रीड़ा कर रहा था। राजा के द्वारा लगातार जलधारा से प्रताड़ित करने पर भारती राजा से बोली-देव, मोदकैर्मा ताडय’। भारती के कहने का अभिप्राय यह था–‘मा उदकैः मां ताडय’ अर्थात् मुझे जल-कणों से मत मारो, किन्तु सातवाहन ने इसका अर्थ-‘मोदकैः मां ताडय।’ अर्थात् ‘मुझे लड्डुओं से मारो,’ समझा। राजा ने एक सेवक द्वारा बहुत-से लड्डू मँगवाये। उन्हें देखकर (UPBoardSolutions.com) भारती ने हँसकर कहा-“राजन्! यहाँ लड्डुओं का क्या प्रसंग? मैंने तो ‘जल से मत मारो’ ऐसा कहा था। तुमने तो कठोर लड्डुओं से मारना शुरू कर दिया। यदि तुम ‘मा’ और ‘उदक’ की सन्धि नहीं जानते तो न सही, किन्तु यहाँ लड्डुओं का कोई प्रसंग नहीं है। वास्तव में तुम अज्ञानी हो।”

राजा की संस्कृत-ज्ञान की इच्छा-रानी के द्वारा इस प्रकार उलाहना पाकर राजा ने पाण्डित्य प्राप्त करने या मरने का निश्चय किया। दूसरे दिन राजा ने गुणाढ्य औ अन्य मन्त्रियों को बुलाकर संस्कृत में पाण्डित्य प्राप्त करने की इच्छा से पूछा कि “मनुष्य प्रयत्नपूर्वक पढ़ने पर कितने समय में संस्कृत का विद्वान् बन सकता है? आप लोग मुझे बताएँ।”

UP Board Solutions

गुणाढ्य द्वारा प्रतिज्ञा-राजा के प्रश्न के उत्तर में गुणाढ्य ने कहा कि “देव! अभ्यास करने से सब कुछ सिद्ध हो जाता है। आप चिन्ता न करें। यद्यपि प्राचीन विद्वान् मानते हैं कि व्यक्ति व्याकरण बारह वर्षों में सीख जाता है, किन्तु मैं आपको केवल छ: वर्षों में ही सिखा दूंगा।” गुणाढ्य के (UPBoardSolutions.com) प्रत्युत्तर में शर्ववर्मा नाम के विद्वान् मन्त्री ने राजा से कहा–हे राजन्! मैं आपको छः महीने में ही सिखा सकता हूँ।’
” शर्ववर्मा द्वारा छ: महीने में सिखाने की बात सुनकर गुणाढ्य बोला-“यदि तुम छः महीने में सिखा दोगे तो मैं जीवनपर्यन्त संस्कृत या प्राकृत का प्रयोग नहीं करूंगा।

बृहत्कथा की रचना-शर्ववर्मा ने अपने कथनानुसार राजा को छः महीने में ही सम्पूर्ण शास्त्रों में पारंगत बना दिया। गुणाढ्य ने पराजित होकर संस्कृत और प्राकृत को छोड़कर विन्ध्य के जंगली लोगों की भाषा ‘पैशाची’ में ‘बृहत्कथा’ की रचना की। यद्यपि ‘बृहत्कथा’ अब प्राप्त नहीं है, किन्तु उसके दो संस्कृत-रूपान्तर बृहत्कथामञ्जरी’ और ‘कथासरित्सागर’ काव्य-रसिकों को आज भी आनन्द प्रदान कर रहे हैं।

गद्यांशों के सवतर्न अद

(1) अस्ति महाराष्ट्रेषु गोदावरीदक्षिणतीरे प्रतिष्ठितं प्रतिष्ठानं नाम नगरम्। तच्च सातवाहनो नाम विश्रुतो गुणग्राही भूपः शास्तिस्य।गुणाढ्यनामा तस्य विविधगुणगणाढ्यो मुख्य सचिवः। राज्ञः सचिवानम् , अन्येषां चाधिकारिणां प्राकृतभाषायां भूयसी प्रीतिरासीत्। तस्य राज्ये सर्वेऽपि जनाः (UPBoardSolutions.com) प्राकृतमेव भाषन्ते स्म। आसीत् , किन्तु महीपालस्य महिषीणां मध्ये ‘भारती’ नाम काचित् संस्कृतविदुषी यस्यां भूपतिः सविशेषं स्निह्यति स्म। |

शब्दार्थ-
प्रतिष्ठितम् = स्थित, बसा हुआ।
विश्रुतः = प्रसिद्ध।
भूपः = राजा।
शास्ति स्म = शासनं करता था।
विविध गुणगणाढ्यो = अनेकानेक गुणो से सम्पन्न।
सचिवः = मन्त्री। भूयसि =बहुत अधिक।
भाषन्ते स्म = बोलते थे।
महिषीणाम् = रानियों के।
विदुषी = शिक्षितं स्त्री।
सविशेष स्निह्यति स्म = बहुत अधिक स्नेह करता था।

सन्दर्थ
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘गुणाढ्यवृत्तान्तः’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

संकेत
इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए. यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में राजा सातवाहन, उसके मन्त्री और अन्य अधिकारियों के प्राकृत भाषा ज्ञान के विषय में बताया गया है।

अनुवाद
महाराष्ट्र प्रान्त में गोदावरी नदी के दक्षिण तट पर प्रतिष्ठान (औरंगाबाद जिले में आधुनिक पैठण) नाम का नगर स्थित था। सातवाहन नाम का प्रसिद्ध गुणग्राही राजा उस पर शासन करता था। उसका विविध गुणों के समूह से सम्पन्न गुणाढ्य नाम का मुख्यमन्त्री था। राजा, मन्त्रियों : और उसके दूसरे (UPBoardSolutions.com) अधिकारियों का प्राकृत भाषा में बहुत अधिक प्रेम था। उसके राज्य में सभी लोग प्राकृत ही बोलते थे, किन्तु उस राजा की रानियों में भारती’ नाम की संस्कृत की कोई विदुषी रानी भी थी, जिससे राजा विशेष प्रेम करता था।

UP Board Solutions

(2) स च सातवाहनः एकदा वसन्तोत्सवसमये जलक्रीडां कर्तुं महिषीभिः साकं प्रासादोद्यानगतवापीम् अवतीर्णः। अचिरादेव ते सर्वे परस्परं जलक्षेपेण क्रीडां कुर्वन्तः मोदमानाश्च अतिष्ठन्। महाराजेन जलधाराभिरजस्त्रम् आहन्यमाना उद्विग्ना भारती हस्ताभ्यां तं निवारयन्ती सहसा अब्रवीत्-‘देव, मोदकैर्मी ताडये” ति। एतदाकण्र्य नृपतिः वचनकरं कञ्चिद् आहूय तेन बहुमोदकान् आनाययत्। तान् आलोक्य (UPBoardSolutions.com) विहस्य सा अभाषत्-राजन् , अत्र जलान्तरे कोऽवसरो मोदकानाम्? ‘उदकैः मां मा सिञ्च’ इत्येवम् उक्तस्वं माम् इदानीं कठिनतरैः मोदकैस्ताडयितुं प्रवृत्तः। माशब्दोदकशब्दयोः सन्धि यदि नैवे जानासि, मा तावद् जानीहि! किन्तु मोदकानामत्र किमपि प्रकरणं नास्ति इत्यपि यदि नैवावगच्छसि, तर्हि भवसि सत्यमेव देवानां प्रियः।

शब्दार्थ—
साकम् = साथ।
प्रासादोद्यानगतवापीम् = महल के उपवन में स्थित बावली (छोटा तालाब) में।
अचिरादेव = शीघ्र ही।
मोदमानाः = प्रसन्न।
अजस्रम् = निरन्तर आहन्यमाना = आहत की जाती हुई।
उद्विग्ना = परेशान हुई।
निवारयन्ती = रोकती हुई।
मोदकैः (मा + उदकैः) = जल से मत।
एतद् आकर्य = यह सुनकर।
वचनकरम् = सेवक को।
आहूय = बुलाकर।
आनाययत् = मँगवाये।
जलान्तरे = पानी के अन्दर।
कठिनतरैः = अत्यधिक कठोर।
माशब्दोदकशब्दयोः = ‘मा’ शब्द तथा ‘उदक’ शब्दों में।
प्रकरणम् = सन्दर्भ।
अवगच्छसि = जानते हो।
भवसि = आप।
देवानां प्रियः = मूर्ख, अज्ञानी।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में राजा सातवाहन को भारती द्वारा; संस्कृत भाषा की अल्पज्ञता के कारण; लज्जित किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
और एक दिन वह सातवाहन वसन्त-उत्सव के समय जलक्रीड़ा करने के लिए रानियों के साथ महल के उपवन में स्थित वीपी में उतरा। शीघ्र ही वे सब आपस में पानी फेंककर खेलते हुए प्रसन्न हो रहे थे। महाराज के द्वारा जलधारा से निरन्तर ताड़ित होती हुई परेशान भारती उसे दोनों हाथों से रोकती हुई सहसा बोली-“महाराज! मुझे जल से मत मारो।” यह सुनकर राजा ने किसी आज्ञाकारी सेवक को बुलाकर उससे बहुत लड्डू मँगवाये। उन्हें देखकर हँसकर वह बोली-“राजन्! यहाँ जल के भीतर लड्डुओं को क्या प्रसंग है? मुझे जल (UPBoardSolutions.com) से मत सींचो’ ऐसा कहे गये तुम मुझे अब अधिक कठोर लड्डुओं से मारने हेतु प्रवृत्त हो रहे हो। यदि तुम ‘मा’ और ‘उदक शब्दों की सन्धि नहीं जानते हो तो मत जानो, किन्तु यहाँ लड्डुओं का कोई भी प्रसंग नहीं है। यदि इतना भी नहीं जानते हो तो आप सत्य में ही अज्ञानी हो।”

(3) तया एवमाधिक्षिप्तो राजा सव्रीडः परित्यक्तजलक्रीडः जातावमानः तत्क्षणं निजावासम् आविशत्। तत्र च परित्यक्ताहारविहारः ‘पाण्डित्यं मृत्यु वा शरणं करवाणीति’ कृतमनाः न मनागपि शान्तिमुपागच्छत्।।

शब्दार्थ-
अधिक्षिप्तः = उलाहना दिया गया।
सब्रीडः = लज्जासहित जातावमानः = अपमानित हुआ।
आविशत् = प्रवेश किया।
करवाणि = करूगा।
कृतमनाः = मन बनाकर।
मनागपि = थोड़ी 
भी।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में बताया गया है कि राजा ने लज्जित होकर संस्कृत सीखने का निश्चय  
किया।

अनुवाद
उसके द्वारा इस प्रकार उलाहना दिया गया राजा लज्जासहित जलक्रीड़ा को छोड़कर अपमानित होकर उसी समय अपने महल में आ गया और वहाँ भोजन और भ्रमण छोड़कर “मैं पाण्डित्य या मृत्यु की शरण प्राप्त करूंगा” ऐसा संकल्प करके जरा भी शान्ति को प्राप्त नहीं हुआ अर्थात् अशान्त ही रहा।

(4) अन्येद्युः गुणाढ्यम् अन्यांश्च सचिवान् आहूय अपृच्छत्-प्रयत्नेन शिक्षमाणः पुमान् कियता कालेन संस्कृतपाण्डित्यम् अधिगच्छतीति मे बूत। एतदाकर्त्य गुणाढ्योऽवदत्-देव, अभ्यासेन सर्वं सिद्धयति इति अलं चिन्तया। द्वादशवर्षेः व्याकरणं श्रूयते’ इति प्राचीनानामुक्तिः । किन्त्वहं त्वां तद् (UPBoardSolutions.com) वर्षषट्केनैव शिक्षयिष्यामि। एतदाकण्र्य शर्ववर्माभिधः तस्य कश्चिद् विपश्चिद् मन्त्री सहसा अभाषत्–राजन् , अहं त्वां मासषट्केनैव शिक्षायितुं पारयामि। एतत् · श्रुत्वा गुणाढ्यः सरोषमवदत्-यदि एवं स्यात्, तर्हि यावज्जीवनम् अहं संस्कृतं प्राकृतं वा न व्यवहामि।

शब्दार्थ-
अन्येद्युः = दूसरे दिन।
आहूय = बुलाकर।
अधिगच्छति = प्राप्त होता है।
अलं चिन्तया = चिन्ता मत कीजिए।
पारयामि = समर्थ हूँ।
सरोषम् = क्रोधसहित।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गुणाढ्य द्वारा छः वर्ष में और शर्ववर्मा द्वारा छः मास में संस्कृत का ज्ञान करा देने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
दूसरे दिन गुणाढ्य और दूसरे मन्त्रियों को बुलाकर (राजा ने पूछा-“प्रयत्न से सिखाया गया पुरुष कितने समय में संस्कृत में विद्वत्ता प्राप्त करता है? यह मुझे बताओ’ यह सुनकर गुणाढ्य बोला-“महाराज! अभ्यास से सब कुछ सिद्ध हो जाता है। चिन्ता मत कीजिए। बारह वर्षों में व्याकरण का ज्ञान प्राप्त होना) सुना जाता है, यह पुराने लोगों का कथन है, किन्तु मैं छ: वर्षों में ही सिखा दूंगा।” यह सुनकर शर्ववर्मा नाम को उसका कोई विद्वान् मन्त्री अचानक बोला-“राजन्! मैं आपको छ: महीने में ही सिखाने में समर्थ हूँ।” यह सुनकर गुणाढ्य क्रोधसहित बोला-“यदि ऐसा हो जाएगा तो मैं जीवनभर संस्कृत या प्राकृत का व्यवहार नहीं करूंगा।’ 

UP Board Solutions

(5) शर्ववर्मणा स्ववचोरक्षणं कृतम्। नियतैरेव अहोभिर्भूपतिः सर्वशास्त्रपारङ्गतोऽभवत्। तेनेत्थं निर्जितो गुणाढ्यः शिष्टभाषां संस्कृतं, जनभाषां प्राकृतं चोभयमपि विहाय, स्वकीयां ‘बृहत्कथा’–नाम्नीं विचित्रकौतुककथामयीं रचनां विन्ध्याटव्यां प्रवर्तमानया पैशाची’ इत्याख्यया वन्यजनभाषया अकरोदिति परम्परया प्रसिद्धम्।

सा चैषा सरसा बृहत्कथा इदानीं लुप्ता। किन्तु तस्याः ‘बृहत्कथामञ्जरी’, ‘कथासरित्सागर’–इत्याख्यं संस्कृतरूपान्तरद्वयम् अद्यापि सहृदयजनानां चेतांसि चमत्करोति।

शब्दार्थ-
स्ववचोरक्षणं कृतं = अपने वचन की रक्षा की।
नियतैः = निश्चित।
अहोभिः = दिनों में।
निर्जितः = हराया गया।
विहाय = छोड़कर।
प्रवर्तमानया = चलने वाली।
अकरोत् इति = किया ऐसा।
लुप्ता = नष्ट हो गयी।
चमत्करोति = आनन्दित करती है।

प्रसंगु
प्रस्तुत गद्यांश में गुणाढ्य द्वारा पैशाची भाषा में बृहत्कथा की रचना किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
शर्ववर्मा ने अपनी बात की रक्षा की। निश्चित दिनों में ही राजा सब शास्त्रों में पारंगत हो गया। उसके द्वारा इस प्रकार पराजित हुए गुणाढ्य ने शिष्ट लोगों की भाषा संस्कृत और जनभाषा प्राकृत दोनों को ही छोड़कर, विचित्र और कौतुक कथाओं से युक्त बृहत्कथा नाम की अपनी रचना को (UPBoardSolutions.com) विन्ध्याटवी में बोली जाने वाली ‘पैशाची’ नाम की जंगली लोगों की भाषा में किया (लिखा)। यह परम्परा से प्रसिद्ध है। 
और वह सरस बृहत्कथा अब नष्ट हो गयी है; अर्थात् अप्राप्य है, किन्तु उसके ‘बृहत्कथामञ्जरी’ और ‘कथासरित्सागर’ नाम के दो संस्कृत के अनुवाद आज भी सहृदय जनों के हृदय को चमत्कृत करते हैं।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
भारती ने सातवाहन को किस कारण मूर्ख कहा? या । राजा सातवाहन ने अपने आपको किस कारण अपमानित अनुभव किया?उत्तर
भारती ने राजा सातवाहन को इसलिए मूर्ख कहा क्योंकि उसने ‘मा’ व ‘उदकैः’ शब्दों की सन्धि का गलत अर्थ ‘मोदकैः’ लगा लिया। वह यह भी नहीं समझ सका कि स्नान करते समय ‘मोदकैः’ अर्थात् लड्डुओं का क्या प्रयोजन हो सकता है। संस्कृत की अपनी अल्पज्ञता के कारण ही उसने स्वयं को अपमानित अनुभव किया। |

प्ररन  2
सातवाहन और उसके मन्त्रियों के परस्पर वार्तालाप को अपनी भाषा में लिखिए। |
उत्तर
सातवाहन ने गुणाढ्य और अन्य मन्त्रियों को बुलाकर पूछा–“प्रयत्नपूर्वक अध्यापन करने पर कोई व्यक्ति कितने समय में संस्कृत में पाण्डित्य प्राप्त करा सकता है।” गुणाढ्य नाम के मन्त्री ने कहा–‘महाराज! संस्कृत के पुराने पण्डितों का कहना है कि बारह वर्षों में मात्र व्याकरण का ज्ञान होता है। किन्तु मैं आपको छः वर्षों में ही व्याकरण सिखा दूंगा।’ इस पर शर्ववर्मा नाम के दूसरे मन्त्री ने कहा-राजन्! मैं आपको छ: महीने में ही संस्कृत सिखा दूंगा।

प्ररन  3
राजा ने अपने अपमान के बदले में क्या किया?
उत्तर
राजा ने अपने अपमान के बदले में अपने एक विद्वान् मन्त्री शर्ववर्मा से छः महीने में संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त किया।

UP Board Solutions

प्ररन  4
गुणाढ्य ने ‘बृहत्कथा’ की रचना किस भाषा में की?
उत्तर
गुणाढ्य ने विन्ध्य के जंगलों में रहने वाले जंगली लोगों के मध्य प्रचलित ‘पैशाची’ नाम की भाषा में ‘बृहत्कथा’ की रचना की।

We hope the UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 5 गुणाढ्यवृत्तान्तः  (गद्य – भारती) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 5 गुणाढ्यवृत्तान्तः  (गद्य – भारती), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.