UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 6 श्रम एव विजयते (गद्य – भारती)

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 6
Chapter Name श्रम एव विजयते (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 6
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 6 श्रम एव विजयते  (गद्य – भारती)

पावसाश

श्रम की परिभाषा (अर्थ)-उद्देश्यपूर्वक किया गया प्रयत्न श्रम कहलाता है। कर्म के बिना मनुष्यों को ही नहीं, पशु-पक्षियों को भी जीवन-निर्वाह कठिन है। कर्म, बिना श्रम के नहीं हो सकता। इसीलिए कहा जाता है कि ‘श्रम ही जीवन है’ और श्रम का अभाव ‘निर्जीवता’। कर्म से ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्षादि पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती है। |

श्रम का महत्त्व–उत्साह मनुष्य को श्रम में लगाता है और श्रम मनुष्य को कर्म में प्रवृत्त करता है। इस प्रकार कर्म और श्रम इन दोनों की पारस्परिक सापेक्षता है। श्रमपरायण मानव भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति करता है। परिश्रमी मनुष्य ‘करो या मरो’ की भावना को प्रमाणित करता है। (UPBoardSolutions.com) इसीलिए श्रमपरायण मनुष्य को अपना लक्ष्य सदैव अधिक-से- अधिक समीप आता हुआ प्रतीत होता है। उद्यम के बिना तो भाग्य भी निरर्थक ही सिद्ध होता है। ,

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श्रम ही सन्मित्र है-श्रम मानव का उत्तम मित्र है। जैसे मित्र विपत्ति आने पर सहानुभूतिपूर्वक कष्टो को दूर करके मित्र का हित करता है, उसी प्रकार श्रम भी मनुष्य का मनोबल बढ़ाकर कल्याण करता है। श्रम योग से कम नहीं है। योग की तरह श्रम में भी चित्त की एकाग्रता आवश्यक है। श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ कहकर श्रम का ही महत्त्व बताया है। श्रमशील मानव कष्टों की परवाह न (UPBoardSolutions.com) करके अपने कार्य को पूर्ण करता हुआ योगी ही है। ऐसे मनुष्य की सफलता निश्चित ही होती है। “उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः” उक्ति भी इसी बात की पुष्टि करती है।

अमहीनता अभिशाप है-श्रमहीनता से ही मानव निर्बल, उदासीन, उत्साहरहित और अन्त में निराश हो जाता है। उसे अपने ऊपर भी भरोसा नहीं रहता। वह लोगों द्वारा केवल अपयश प्राप्त करता है। वह परालम्बन को श्रेष्ठ समझने लगता है। इस प्रकार आलस्य अर्थात् श्रमहीनता मनुष्य के शरीर में स्थित होकर उसका महाशत्रु बन जाता है।

कर्म और भाग्य-आलस्य ऐसा शत्रु है, जो किसी भी व्यक्ति की शक्ति को क्षीण करता है। जो व्यक्ति परिश्रम करने पर भी सफलता नहीं पाता, वह अपने भाग्य को कोसता हुआ परिश्रम को व्यर्थ मानने लगता है। वह यह नहीं जानता कि पूर्वजन्म में किया गया कर्म ही भाग्य होता है। अतः मनुष्य को श्रमपूर्वक (UPBoardSolutions.com) नियमित रूप से कर्म करते रहना चाहिए। कर्म से सहित मानवों से कर्मशील मनुष्य श्रेष्ठ होते :श्रमपूर्वक नियमित रूप से कर्म करते रहना चाहिए। कर्म से सहित मानवों से कर्मशील मनुष्य श्रेष्ठ होते

श्रम का शक्ति से सम्बन्ध–बलशाली ही कार्य करने में समर्थ है, यह विचार भ्रमपूर्ण है। छोटे-से शरीर वाले दीमक एक बड़ी बाँबी बना देते हैं और उससे थोड़ी-सी बड़ी मधुमक्खियाँ जरा-जरा-सा मधु लाकर मधु का एक भण्डारे संचित कर लेती हैं। अतः श्रम के लिए बल की नहीं, वरन् दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है। श्रम के लाभ-परिश्रम मनुष्य के अपने पोषण के लिए ही नहीं है, क्रन् मनुष्य किये गये कर्मो से (UPBoardSolutions.com) दूसरों का भी उपकार करता है। किसान परिश्रम से अन्न उत्पन्न कर लोगों का पोषण करता है। श्रमिक अपने परिश्रम से उत्पादन की वृद्धि करता है। मानव पाताल में, अगाध जल में, आकाश में, सुदुर्गम पर्वत पर, घने जंगल में भी श्रम से कठिन कार्य पूरे करता है। देश की प्रगति पसीने की बूंदों पर ही निर्भर है।

उद्योगों में श्रमिकों की स्थिति-जिस राष्ट्र में श्रम में निष्ठा रखने वाले लोग होते हैं, वहाँ उत्पादन बढ़ता है और किसी वस्तु का अभाव नहीं होता है। आजकल अनेक वस्तुओं के उत्पादन के लिए उद्योगशालाओं (फैक्ट्रियों) में हजारों श्रमिक कार्य करते हैं। हमारे देश में दो प्रकार के कारखाने हैं–सरकारी और व्यक्तिगत (प्राइवेट)। सरकारी उद्योगों का लक्ष्य लौह आदि कच्चा माल तैयार करना, बड़ी मशीनें बनाना तथा रसायन तैयार करना है। यहाँ लाभ कमानी उद्देश्य नहीं है। प्राइवेट फैक्ट्रियों में तो लाभ कमाना ही (UPBoardSolutions.com) उद्देश्य होता है, क्योंकि उनमें धनी अपनी पूँजी और श्रमिक अपना श्रम लगाते हैं। उद्योगशालाओं का प्रबन्ध धनिकों के हाथ में ही होती है; अतः वे अधिक लाभ लेते हैं, श्रमिकों को थोड़ा देता है। इससे पूँजीपतियों और श्रमिकों में अनेक विवाद उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार के विवादों को निपटाने के लिए सरकार ने ‘श्रम मन्त्रालय तथा ‘श्रम न्यायालय की स्थापना की है। श्रमिकों के अधिकारों और हितों की रक्षा हेतु सरकार अनेक नियम-कानून भी बना चुकी है; फिर भी विकसित देशों की तुलना में हमारे देश के श्रमिकों की दशा नहीं सुधरी है और न ही उत्पादन बढ़ा है। जब तक हम पवित्र मन से श्रम नहीं करेंगे, तब तक सफलता प्राप्त नहीं हो सकती है।

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गद्यांशों को ससन्दर्भ अनुवाद 

(1) सोद्देश्यं कर्मणि क्रियमाणः प्रयत्नः श्रम। निखिलमपि विश्वं कर्मणि प्रतिष्ठितम्। कर्म विना न केवलं मानवस्य अपितु पशुपक्षिणामपि जीवननिर्वाहः सुदुष्करः। धर्मार्थकाममोक्षादिपुरुषार्थाः कर्मणैव लब्धं शक्यन्ते। क्षमेण विना तु साफल्यं खपुष्पायितमेव। अतएव श्रम एवं जीवनं तदभावश्च अस्तित्वभयमिति निश्चीयते। ।

शब्दार्थ-
सोद्देश्यं = उद्देश्य के साथ।
निखिलम् = सम्पूर्ण।
प्रतिष्ठितम् = आधारित, स्थित।
सुदुष्करः = अत्यधिक कठिन।
कर्मणैव = कर्म के द्वारा ही।
खपुष्पायितम् = आकाश-कुसुम के समान, असम्भव।

सन्दर्थ
प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘श्रम एव विजयते’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

संकेत
इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में श्रम के अर्थ तथा महत्त्व को बताया गया है।

अनुवाद
उद्देश्यपूर्वक कर्म के लिए किया गया प्रयत्न श्रम कहलाता है। सम्पूर्ण संसार ही कर्म पर आधारित है। कर्म के बिना केवल मानव का ही नहीं, अपितु पशु-पक्षियों का भी जीवन-निर्वाह अत्यन्त कठिन है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि पुरुषार्थ कर्म से ही प्राप्त हो सकते हैं। श्रम के बिना तो सफलता आकाश-कुसुम के समान असम्भव है। इसलिए श्रम ही जीवन है और उसका अभाव अर्थात् श्रम का न होना (जीवन के) अस्तित्व को खतरा है, यह निर्विवाद सत्य है।

(2) कर्मण्युत्साह श्रमस्य प्रयोजकः श्रमश्च कर्मणि, नियोजकः इत्यनयोः परस्परम् अपेक्षित्वम्। श्रमो न केवलं भौतिक क्षमतां तनोति अपितु आत्मशक्तेरप्युत्कर्ष जनयति। (UPBoardSolutions.com) श्रमशीलो जनः ‘कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्’ इति भावनामेव सततं प्रमाणयति। येन लक्ष्यं स्वयमेव समीपतरम् आगच्छदिव प्रतिभाति। उद्यमहीनं तु मन्ये कर्मफलप्रदाता विधिरपि अजोगलस्तनमिव निरर्थकं मन्यते। यथोक्तञ्च

उद्यमः साहसं धैर्यं, बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र साहाय्यकृत् विभुः॥

शब्दार्थ-
प्रयोजकः = प्रयोक्ता (कराने वाला)।
अपेक्षित्वं = अपेक्षित होना।
तनोति = बढ़ाता है।
उत्कर्षम् = उन्नति को।
जनयति = उत्पन्न करता है।
प्रमाणयति = प्रमाणित करता है।
समीपतरम् = अत्यधिक निकट।
आगच्छदिव = आता हुआ-सा।
प्रतिभाति = प्रतीत होता है।
प्रदाता = देने वाला।
विधिः = ब्रह्मा।
अजागलस्तनमिव = बेकरी के गले के स्तन के समान।
साहाय्यकृत = सहायक, सहयोगी।
विभुः = ईश्वर, व्यापक।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में श्रम के महत्त्व को बताया गया है।

अनुवाद
कर्म में उत्साह श्रम का कराने वाला है और श्रम कर्म में लगाने वाला है। इस प्रकार दोनों की आपस में आवश्यकता (निर्भरता) है। श्रम केवल भौतिक योग्यता को ही नहीं बढ़ाता, अपितु 
आत्मबल की उन्नति को भी उत्पन्न करता है। परिश्रमी मनुष्य “कार्य पूरा करूंगा या शरीर को नष्ट कर दूंगा।” इस भावना को ही निरन्तर प्रमाण मानता है, जिससे लक्ष्य स्वयं ही समीप आता हुआ-सा प्रतीत होता है। उद्यमहीन मनुष्य को कर्म के फल को देने वाले ब्रह्मा भी बकरी के गले के स्तन के समान व्यर्थ. ही समझता है। जैसा कि कहा गया है| उद्यम, साहस, धीरज, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम-ये छः जहाँ होते हैं, वहाँ ईश्वर भी सहायता करता है।

(3) श्रम एव जीवनस्य सन्मित्रम्।यथा सन्मित्रं विपन्नदशायां मित्रं प्रति सहानुभूतिं प्रकटयति, तस्य कष्टान्यपहाय सर्वथा हितसाधनं करोति तस्य जीवनं च जीवितुं काम्य- माकलयति तथैवे अमोऽपि मानवस्य मनोबलं वर्धयित्वा कल्याणं वितनोति। श्रमेण विना क्व कर्मकौशलम्? यथा योगे (UPBoardSolutions.com) चित्तस्यैकाग्रताऽपरिहार्या तथैव श्रमेऽपि। श्रीमद्भगवद्गीतायां योगः कर्मसु कौशलम्’ इति प्रमाणयता योगिराजेन श्रीकृष्णेन प्रकारान्तरेण श्रमस्यैव महिमा प्रतिष्ठापितः। कष्टान्यविगणय्य स्वकार्यं पूरयितुं यतमानः श्रमशीलः नरः वस्तुतः युञ्जानो योगी एव भवति। साफल्यं तत्र सुनिश्चितमेव।’उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः’ इति उक्तिस्तदेव द्रढयति। |

शब्दार्थ-
सन्मित्रम् = उत्तम मित्र।
विपन्नदशायाम् = विपत्ति की हालत में प्रकटयति = प्रकट करता है।
अपहाय = दूर करके।
काम्यमाकलयति (काम्यम् + आकलयति) = कामना (चाहने) का आकलन करता है।
वर्धयित्वा = बढ़ाकर।
वितनोति = विस्तार करता है।
क्व = कहाँ।
अपरिहार्या = न छोड़ने योग्य।
अविगणय्य = न गिनकर, परवाह न करके।
यतमानः = प्रयत्नशील, प्रयास करता हुआ।
युञ्जानः = योगाभ्यास में लगा हुआ।
उपैति = पास जाती है।
द्रढयति = मजबूत बनाता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में श्रम को प्राणियों का मित्र बताते हुए उसे योग के सदृशं कहा गया है।

अनुवाद
श्रम ही जीवन का उत्तम मित्र है। जैसे अच्छा मित्र विपत्ति की दशा में मित्र के प्रति सहानुभूति प्रकट करता है, उसके कष्टों को दूर कर सब प्रकार से उसका हित करता है, उसके जीवन को जीने के लिए चाहने योग्य समझता है, उसी प्रकारे श्रम भी मनुष्य के मनोबल को बढ़ाकर कल्याण को करता है। श्रम के बिना कर्म में कुशलता कहाँ? अर्थात् परिश्रमपूर्वक जो कर्म नहीं किया जाता, वह सुफल नहीं होता है। जिस प्रकार योग में चित्त की एकाग्रता छोड़ी नहीं जा सकती, उसी प्रकार श्रम में भी। श्रीमद्भगवद्गीता में “कर्म में कुशलता ही (UPBoardSolutions.com) योग है’ यह प्रमाणित करते हुए योगिराज श्रीकृष्ण ने दूसरे प्रकार से श्रमकी ही महिमा स्थापित की है। कष्टों की गिनती (गणना) न करके अपने कार्य को पूरा करने के लिए प्रयत्न करता हुआ मनुष्य वस्तुतः (वास्तव में) योग में लगा हुआ योगी ही होता है। उसमें (व्यक्ति की) सफलता तो निश्चित है ही। ‘लक्ष्मी उद्योगी पुरुष के पास जाती है’ यह उक्ति उसी (पूर्वोक्त कथन) की पुष्टि करती है।

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(4) श्रमेण हीनः मानवः निर्बलः उदासीनः उत्साहहीनः अन्ते च सर्वत्र निराशो भवति। शरीरस्थबलमजानन् स्वस्मिन्नपि न विश्वसिति। विषण्णमनाः जनेभ्यः केवलमपकीर्तिमेवार्जयति। स्वावलम्बमविगणय्य परावलम्बं श्रेयस्करं मनुते। कश्चित् समर्थोऽपि जने आलस्यात् श्रमं न कुरुते। यत्किञ्चिदवाप्यापि तुष्यति। शरीरस्थेन आलस्यरूपिणा शत्रुणा तस्य शक्तिः शनैः-शनैः क्षीयते। यः कश्चित् परिश्रमे कृतेऽपि सिद्धि न लभते; मन:कामना न पूर्यते; तर्हि ‘विधिरनतिक्रमणीयः’ इति मत्वा भाग्यं कुत्सयन् प्रयत्नं परिश्रमञ्च व्यर्थमाकलयति। से

तथ्यमिदं न वेत्ति यत् प्राग्विहितं कर्म एव भाग्यमिति सर्वैः स्वीक्रियते। वस्तुतः कर्मविरतेभ्यो जनेभ्यः कर्मशीलाः मानवाः श्रेष्ठा। तथा चोक्तम् श्रीमद्भगवद्-गीतायाम्

नियतं कुरु कर्म त्वं, कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिध्येदकर्मणः॥

शब्दार्थ-
केवलमपकीर्तिमेवार्जयति (केवलम् + अपकीर्तिम् + एव + अर्जयति) = केवल . अयश ही कमाता है।
स्वावलम्बमविगणय्ये (स्व + अवलम्बम् + अविगणय्य) = अपने सहारे की गणना न करके।
मनुते = मानता है।
यत्किञ्चिदवाप्यापि (यत् + किञ्चिद् + अवाप्य + अपि) = जो कुछ प्राप्त करके भी।
तुष्यति = सन्तोष करता है।
क्षीयते = कम हो जाती है।
विधिः अनतिक्रमणीयः = भाग्य का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता।
कुत्सयन् = कोसता हुआ।
व्यर्थम् आकलयति = बेकार समझता है।
प्राग्विहितम् = पूर्व (जन्म) में किया गया।
कर्मविरतेभ्यः = कर्म से उदासीन।
नियतं = निश्चित रूप से।
ज्यायः = बड़ा।
शरीरयात्रा = जीवन-निर्वाह।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में श्रमहीनता से श्रमशीलता को श्रेष्ठ बताया गया है।

अनुवाद
श्रम से हीन मनुष्य कमजोर, उदासीन, उत्साहरहित और अन्त में सभी स्थानों पर निराश हो जाता है। शरीर की शक्ति को न जानता हुआ अपने पर ही विश्वास नहीं करता है। दु:खी मन होकर लोगों से केवल बदनामी को ही प्राप्त करता है। स्वावलम्बन की उपेक्षा करके दूसरे पर निर्भरता (परावलम्बन) को ही कल्याणकारी मानता है। कोई व्यक्ति समर्थ होता हुआ भी आलस्य के कारण श्रम नहीं करता है। थोड़ा-सा पाकर भी सन्तुष्ट हो जाता है। शरीर में स्थित आलस्य-रूपी शत्रु उसकी शक्ति को धीरे-धीरे नष्ट कर देता है। जो कोई (UPBoardSolutions.com) परिश्रम करने पर भी सफलता को नहीं प्राप्त करता है, उसके मन की इच्छा पूरी नहीं होती है, तब ‘भाग्य न टालने योग्य होता है, ऐसा मानकर भाग्य को कोसता हुआ प्रयत्न और परिश्रम को व्यर्थ समझ लेती है। वह इस तथ्य को नहीं जानता कि “पूर्व (जन्म) में किया गया कर्म ही भाग्य होता है, यह सभी स्वीकार करते हैं। निश्चय ही (वास्तव में) कर्म से उदासीन लोगों से परिश्रमी मनुष्य श्रेष्ठ । जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है

तुम निश्चित कर्म को करो; क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म न करने से तुम्हारा जीवन-निर्वाह भी असम्भव है।

(5) ऐतरेयब्राह्मणे सुराधिपः पुरन्दरः राज्ञः हरिश्चन्द्रस्यात्मजहितमुपदिशन् सुखैश्वर्यमवाप्तुं परिश्रमस्यावश्यकतां वैशद्येन प्रकाशयति। यथा हि

चरन्चै मधु विन्दति चरन् स्वादुमुदुम्बरम्।।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो ने तन्द्रयते चरन्॥

बलिष्ठतनुः एव महत् कार्य सम्पादयितुं समर्थ इति भ्रमात्मको विचारः यतो हि क्षुद्रा पिपीलिका महान्तं वल्मीकं निर्माति। स्तोकं स्तोकं कृत्वा क्षुद्रा मधुमक्षिका विपुलं मधुराशिं सञ्चिनोति। अतएव श्रमस्य कृते दृढसङ्कल्पः यथोपेक्ष्यते न तथा शारीरिकस्य बलस्यापेक्षा। |

शब्दार्थ—
सुराधिपः = देवताओं के राजा।
पुरन्दरः = इन्द्र।
अवाप्तुम् = प्राप्त करने के लिए।
वैशद्येन = स्पष्ट रूप से, विस्तार से प्रकाशयति = प्रकाशित (प्रकट) करता है।
चरन् = चलता हुआ।
विन्दति = प्राप्त करता है।
स्वादुम् उदुम्बरम् = स्वादिष्ट गूलर फल को।
तन्द्रयते = आलस्य करता है।
बलिष्ठतनुः =.शक्तिशाली शरीर वाला।
सम्पादयितुं = पूरा करने के लिए।
पिपीलिका = चींटी।
वल्मीकम् = मिट्टी का ढेर।
स्तोकं स्तोकं कृत्वा = थोड़ा-थोड़ा करके।
विपुलं = अधिक।
मधुराशिं = अत्यधिक शहद को।
सञ्चिनोति = एकत्र करती है।
यथा अपेक्ष्यते = जिस प्रकार आवश्यक है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में इस बात को भ्रमात्मक बताया गया है कि शक्तिशाली शरीर वाला ही महान् कार्य कर सकता है।

अनुवाद
ऐतरेय ब्राह्मण में देवताओं के राजा इन्द्र राजा हरिश्चन्द्र के पुत्र को (उसके) हित का उपदेश देते हुए सुख और ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिए परिश्रम की आवश्यकता को विस्तार से प्रकट करते (कहते) हैं। जैसा कि
निश्चय से अर्थात् निरन्तर चलता हुआ (प्राणी) मधु (जिस परिणामरूपी मीठे फल को) प्राप्त करता है। (निरन्तर) चलता हुआ (प्राणी) स्वादिष्ट गूलर के फल को प्राप्त करता है। सूर्य के प्रकाश को देखो, जो चलता हुआ आलस्य नहीं करता है।

बलवान् शरीर वाला ही महान् कार्य को करने में समर्थ है’ यह भ्रमपूर्ण विचार है; क्योंकि तुच्छ चींटी बड़े मिट्टी के ढेर (बाँबी) को बनाती है। तुच्छ मधुमक्खी थोड़ा-थोड़ा करके बहुत अधिक.शहद को इकट्ठा करती है। अतएव श्रम के लिए दृढ़ संकल्प की जितनी आवश्यकता है, उतनी शारीरिक बल की नहीं।

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(6) परिश्रमः मनुजस्यं न केवलं स्वस्यैव पोषणाय, अपितु अपरेषां कृतेऽपि महान् उपकारकः। कृषिप्रधाने देशे कृषकः प्रचण्डग्रीष्मकालस्योष्णतां शीतकालस्य शैत्यञ्च सहभानः। यावद्दिनं कार्यं करोति, महता श्रमेण अन्नान्युत्पाद्य जनानां पोषणं करोति। औद्योगिकप्रतिष्ठानेषु कार्यालयेषु च श्रमिकः श्रमं सम्पाद्योत्पादनस्य वृद्धि करोति। मानवः पृथिव्या अन्तस्तले, अगाधे जले, विस्तृते आकाशे, सुदुर्गमे पर्वते, गहने काननेऽपि श्रमैकसाध्यं दुष्करं कार्यं करोति। श्रमस्वेदबिन्दुभिः पृथ्वीमातुरर्चनं करोति। श्रमस्वेदबिन्दवः एवामूल्यानि मौक्तिकानि येषु देशस्य प्रगतिराश्रिता।

शब्दार्थ-
स्वस्यैव = अपने ही।
अपरेषां कृतेऽपि = दूसरों के लिए भी।
यावद्दिनम् = दिनभर उत्पाद्य = उत्पन्न करके। सम्पाद्य = करके।
अन्तस्तले = भीतर।
अगाधेजले = गहरे पानी में।
श्रमैकसाध्यम् = केवल परिश्रम से होने वाला।
दुष्करं = कठिन।
श्रमस्वेदबिन्दुभिः = पसीने की बूंदों से।
पृथ्वीमातुरर्चनं (पृथ्वी + मातुः + अर्चनम्) = धरती माता की पूजा।
मौक्तिकानि = मोती।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में बताया गया है कि मनुष्य परिश्रम से केवल अपना ही नहीं, अपितु दूसरों का भी उफ्फार करता है। |

अनुवाद
परिश्रम मनुष्य के केवल अपने ही पोषण के लिए नहीं है, अपितु दूसरों के लिए भी महान् उपकार करने वाला है। कृषि-प्रधान देश में किसान भयंकर ग्रीष्म ऋतु की गर्मी को और शीतकाल की ठण्ड को सहन करता हुआ दिनभर कार्य करता है। बड़े (अधिक) श्रम से अन्न पैदा करके लोगों को पोषण करता है। औद्योगिक कारखानों में और कार्यालयों में मजदूर परिश्रम करके उत्पादन को बढ़ाता है। मनुष्य पृथ्वी (UPBoardSolutions.com) के गर्भ में, गहरे जल में, विस्तृत आकाश में, अत्यन्त दुर्गम पर्वत | पर, घने जंगल में भी केवल श्रम से ही हो सकने वाले कठिन कार्य को करता है। पसीने की बूंदों से पृथ्वी माता की पूजा करता है। पसीने की बूंदें ही अमूल्य मोती हैं, जिन पर देश की उन्नति निर्भर करती

(7) यस्मिन् राष्ट्रे श्रमे निष्ठां दधानाः जीविकोपार्जनस्यानुकूलावसरान् लभन्ते, कुटुम्बस्योत्कर्षाय प्रभवन्ति तत्रोत्पादनं रात्रिन्दिवं वर्धते। तत्र कस्यचिद् वस्तुनः अभावो न जायते। निरन्तरमुत्पादनस्य वृद्धिः राष्ट्रस्यार्थिक स्थितिं सुदृढीकृत्य अप्रतिहतविकासाय प्रेरणां ददाति।। |

शब्दार्थ-
निष्ठां = विश्वास, आदर।
दधानाः = धारण करने वाले।
प्रभवन्ति = समर्थ होते हैं।
रात्रिन्दिवम् = रात और दिन।
कस्यचिद् = किसी की।
जायते = होता है।
सुदृढीकृत्य = भली प्रकार दृढ़ (मजबूत) करके।
अप्रतिहतविकासाय = न रुकने वाले (निरन्तर) विकास के लिए।

प्रसंग
प्रस्तुत पद्यांश में श्रम की महत्ता को बताया गया है।

अनुवाद
जिस राष्ट्र में श्रम में निष्ठा रखने वाले लोग जीविका उपार्जन के अनुकूल अवसर पाते हैं, कुटुम्ब की उन्नति के लिए समर्थ होते हैं, वहाँ उत्पादन रात-दिन बढ़ता है। वहाँ किसी वस्तु का अभाव नहीं होता है। निरन्तर उत्पादन की वृद्धि राष्ट्र की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करके बिना रुके विकास की प्रेरणा देती है।

(8) अद्यत्वे सर्वत्रापि नैकप्रकाराणां पदार्थानामुत्पादनं कर्तुं बढ्यः उद्योगशालाः कार्यशालाश्च स्थापिताः सन्ति यत्र सहस्रशः श्रमिकाः कार्य कुर्वन्ति। द्विविधास्तावदिमा उद्योगशालाः। सर्वकारीयक्षेत्रे संस्थापिता वैयक्तिकक्षेत्रे च कृताः। तत्र सर्वकारीयाणाम् उद्योगशालानां मुख्य लक्ष्यं तु अन्यान्योद्योगानामाधारभूतपदार्थानां यथा लौहादिधातून, गुरुणां यन्त्राणां, विविधानां रसायनानामुत्पादनं न तु लाभार्जनम्। किन्तु वैयक्तिक्य उद्योगशालास्तु लाभार्जनोद्देश्येनैव प्रायशः स्थाप्यन्ते। धनिकाः स्वधनं नियोजयन्ति, धनहीनाश्च स्वश्रमम्। (UPBoardSolutions.com) प्रबन्धस्तु धनिकानां तेषां प्रतिनिधीनां वा हस्ते निहितोऽतस्ते अधिकाधिकं लाभांशं जिघृक्षवः श्रमिकेभ्योऽल्पमेव वितरन्ति। एवञ्च धननियोक्तृणां श्रमिकाणां च मध्येऽनेकशः कलहाः भवन्ति, लाभस्यासमानवितरणकारणात्। एवं विधानामन्यासां च, सम्बन्धिनीनां समस्यानां समाधानार्थं श्रमिकाणां कल्याणकृते चास्माकं राष्ट्रे प्रदेशेषु च श्रममन्त्रालयाः श्रमन्यायालयाश्च श्रमिकाणामधिकाराणां रक्षणार्थं विधिसंहिता निर्मिता वर्तते। यदि कश्चिच्छमिकः । कार्यरतो दुर्घटनाग्रस्तो जायते तर्हि क्षतिपूयँ नियमानुसारेण धनराशिर्देयो, भवति।

श्रमिकस्य भविष्यनिधावपि नियोक्त्रा अंशतो धनं देयं भवति। एवं सत्यपि अस्माकं देशे न तु श्रमिकाणामेव दशा तथा ऋद्धिमती वर्तते नापि उद्योगानामुत्पादनं तादृशं भवति यथा यादृशं च जापानामेरिकाब्रिटेनादि विकसितेषु देशेषु, वस्तुतः सत्स्वपि नियमेषु तेषां पूर्णतया पालनस्य वाञ्चैव यावन्नं भवति शुचिमनसा च श्रमेणोत्पादनं न क्रियते तावदुभयमपि कथं सिद्ध्येत्। यथा समन्वितं सैन्यं समन्वितेन प्रयासेन युद्धं जेतुं शक्नोति तथैव प्रबन्धकानां श्रमिकाणां च मध्ये विश्वासानुसरः समन्वय एवं उत्पादनलक्ष्य प्राप्तुं प्रभवति। सारांशोऽयं यत् अमो नाम जयति परं परस्परं सहयोगेन तु सत्वरं सुतरां च विजयते।।

शब्दार्थ-
अद्यत्वे = आजकल।
नैकप्रकाराणाम् = अनेक प्रकारों का।
बढ्यः = बहुत-सी।
द्विविधाः = दो प्रकार की।
सर्वकारीयक्षेत्रे = सरकारी क्षेत्र में।
वैयक्तिकक्षेत्रे = व्यक्तिगत क्षेत्र में।
गुरुणां यन्त्राणां = भारी मशीनों का।
लाभार्जनम् = लाभ कमाना।
नियोजयन्ति = लगाते हैं।
निहितोऽतस्ते (निहितः + अतः + ते) = रखा रहता है, इसलिए वे।
जिघृक्षवः = लेने की (हड़पने) इच्छा करने वाले।
धननियोक्तृणाम् = धन लगाने वालों।
समाधानार्थम् = समाधान के लिए।
विविधसंहिता = तरह-तरह के कानून।
नियोक्त्रा = नियुक्ति देने वाले के द्वारा।
ऋद्धिमती = धन-धान्य वाली।
तादृशं = वैसा।
यादृशं = जैसा।
संत्स्वपि = (सत्सु + अपि) = होने पर भी।
वाञ्छैव = इच्छा ही। यावत् = जब तक।
शुचिमनसा = पवित्र मन से।
समन्वितम् = मिला-जुला।
समन्वयः = एकता।
प्रभवति = समर्थ होता है।
सत्वरम् = शीघ्र। सुतरां = अच्छी तरह।
विजयते = विजय होती है। 

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में उद्योगशाला में कार्यरत श्रमिकों की दशा को सुधारने के उपाय बताये गये हैं।

अनुवाद
आजकल सभी जगह अनेक प्रकार के पदार्थों का उत्पादन करने के लिए बहुत-सी उद्योगशालाएँ एवं कारखाने स्थापित हैं, जहाँ हजारों मजदूर कार्य करते हैं। ये उद्योगशालाएँ दो प्रकार की हैं–सरकारी क्षेत्र में स्थापित और निजी क्षेत्र में बनायी गयी। उनमें सरकारी उद्योगों का मुख्य उद्देश्य (लक्ष्य) तो अन्य दूसरे उद्योगों के आधारभूत पदार्थों; जैसे-लोहा आदि धातुओं का, भारी मशीनों का, अनेक प्रकार के रसायनों का उत्पादन करना है, लाभ कमाना नहीं; किन्तु निजी उद्योग तो प्रायः लाभ कमाने के उद्देश्य से ही स्थापित किये (UPBoardSolutions.com) जाते हैं। धनी लोग अपनी पूँजी को और निर्धन अपने श्रम को लगाते हैं। प्रबन्ध तो धनिकों या उनके प्रतिनिधियों के हाथ में रहता है; अतः वे अधिक-से-अधिक लाभांश लेने (हड़पने) के इच्छुक होते हैं, श्रमिकों को थोड़ी मजदूरी ही बाँटते हैं।

इस प्रकार पूँजी लगाने वाले और मजदूरों के बीच लाभ के असमान वितरण के कारण अनेक प्रकार के झगड़े होते हैं। इस प्रकार की और दूसरे प्रकार की श्रम सम्बन्धी समस्याओं के समाधान के लिए, श्रमिकों की भलाई के लिए हमारे राष्ट्र में और प्रदेशों में श्रम मन्त्रालय और श्रम न्यायालय हैं। मजदूरों के अधिकारों की रक्षा के लिए अनेक कानून बने हुए हैं। यदि कोई मजदूर काम करते हुए दुर्घटनाग्रस्त हो (UPBoardSolutions.com) जाता है तो क्षतिपूर्ति के लिए नियम के अनुसार धनराशि देय होती है। मजदूर की भविष्यनिधि में भी नियोक्ता को आंशिक धन देना होता है। ऐसा होने पर भी हमारे देश में श्रमकिों की दशा उतनी धन-धान्युपूर्ण नहीं है और न ही उद्योगों का उत्पादन वैसा होता है, जैसा कि जापान, ब्रिटेन, अमेरिका

आदि विकसित देशों में। वास्तव में नियमों के होते हुए भी उनके पूर्णरूप से पालन की इच्छा ही जब तक नहीं होती है और पवित्र मन से परिश्रम से उत्पादन नहीं किया जाता है, तब तक दोनों ही बातें कैसे सिद्ध हो सकती हैं; अर्थात् नहीं हो सकती हैं। जिस प्रकार संगठित सेना एकजुट होकर युद्ध को जीत सकती है, उसी प्रकार प्रबन्धकों और श्रमिकों के बीच विश्वास के अनुसार सहयोग ही उत्पादन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। सारांश यह है कि श्रम की जीत होती है, परन्तु आपस में सहयोग से शीघ्र और अच्छी तरह जीत होती है।

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लय उत्तरीय प्ररन 

प्ररन 1
श्रम की परिभाषा लिखकर उसका जीवन में महत्त्व बताइए। |
उत्तर
किसी उद्देश्य से युक्त कर्म के लिए किये जाने वाले प्रयत्न को श्रम कहा जाता है। श्रम मनुष्य के जीवन में भौतिक क्षमता के साथ-साथ आत्मशक्ति का उत्कर्ष भी करता है। परिश्रमी मनुष्य

करो या मरो’ की भावना को प्रभावित करता है। इसीलिए श्रम-परायण मनुष्य को अपना लक्ष्य अधिक-से-अधिक समीप आता हुआ प्रतीत होता है।

प्ररन 2
श्रम को सन्मित्र क्यों कहा गया है?
उत्तर-
एक सन्मित्र (अच्छा मित्र) आपत्ति में पड़े हुए अपने मित्र के प्रति सहानुभूति प्रकट करता है, उसके कष्टों को दूर कर उसका हितसाधन करता है और उसके अच्छे जीवन की कामना करता है। इसी प्रकार श्रम भी मनुष्य के मनोबल को बढ़ाकर उसको कल्याण करता है। इसीलिए श्रम को सन्मित्र कहा गया है।

प्ररन 3
श्रम से होने वाले लाभों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
परिश्रमी मनुष्य के लिए श्रम तो आवश्यक है ही, किन्तु श्रमशील मनुष्य द्वारा किये गये श्रम से दूसरों का भी भला होता है; उदाहरणार्थ-किसान अपने श्रम से उत्पन्न किये गये अन्न से अपने साथ-साथ दूसरों का भी पोषण करता है तथा श्रमिक द्वारा किसी उद्योगशाला में उत्पादित अनेकानेक वस्तुओं से जहाँ उसको स्वयं लाभ होता है, वहीं दूसरे लोगों को भी लाभ पहुँचता है। संस्कृत में एक उक्ति है कि, ‘उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः’, अर्थात् श्रमशील मनुष्यों को ही लक्ष्मी प्राप्त होती है।

प्ररन 4
इन्द्र ने हरिश्चन्द्र के पुत्र को क्या उपदेश दिया?
उत्तर
इन्द्र ने हरिश्चन्द्र के पुत्र को बताया कि सुख एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए परिश्रम की आवश्यकता होती है; क्योंकि निरन्तर चलता हुआ प्राणी मीठा फल प्राप्त करता है। निरन्तर चलता हुआ प्राणी ही स्वादिष्ट गूलर के फल को चखता है। सूर्य का प्रकाश भी निरन्तर चलता हुआ कभी आलस्य नहीं करता।

प्ररन 5
हमारे देश में कितने प्रकार के कारखाने हैं और उनका क्या उद्देश्य है?
उत्तर
हमारे देश में दो प्रकार के कारखाने हैं–
(1) सरकारी क्षेत्र में स्थापित और
(2) व्यक्तिगत क्षेत्र में स्थापित। सरकारी क्षेत्र में स्थापित कारखानों का उद्देश्य लाभ अर्जित करना नहीं होता। इनका उद्देश्य दूसरे उद्योगों के लिए आधारभूत पदार्थों; जैसे-लोहा, भारी मशीनों, विभिन्न रसायनों आदि; का उत्पादन करना होता है। व्यक्तिगत क्षेत्र में प्रायः लाभ कमाने के उद्देश्य से ही कारखाने स्थापित किये जाते हैं।

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प्ररन 6
श्रमिकों के कल्याण के लिए सरकार द्वारा किये गये कार्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
श्रमिकों के कल्याण के लिए सरकार द्वारा निम्नलिखित कार्य किये गये हैं

  1. श्रमिकों की धन सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाने के लिए राष्ट्र और प्रदेशों में श्रम मन्त्रालय’ और ‘श्रम न्यायालय स्थापित किये गये हैं। |
  2. श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए अनेक कानून बनाये गये हैं।
  3. श्रमिकों के दुर्घटनाग्रस्त होने की स्थिति में नियोक्ता द्वारा उसे नियमानुसार धनराशि देनी होती है।
  4. श्रमिकों के लिए भविष्य-निधि का भी प्रावधान किया गया है, जिसमें नियोक्ता को भी श्रमिक के बराबर का अंशदान करना पड़ता है।

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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 13 महात्मा बुध्द (गद्य – भारती)

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 13
Chapter Name महात्मा बुध्द (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 3
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 13 महात्मा बुध्द (गद्य – भारती)

पाठ-सारांश

जन्म एवं विवाह–प्राचीनकाल में नेपाल में शाक्य क्षत्रियों के वंश में शुद्धोदन नाम के राजा थे। उन्हीं की मायादेवी नामक रानी ने 2544 वें कलिवर्ष में एक पुत्र को जन्म दिया। जन्म के सातवें दिन इनकी माता का स्वर्गवास हो गया। इनका लालन-पालन इनकी मौसी गौतमी ने किया। इनका (UPBoardSolutions.com) नामकरण सिद्धार्थ हुआ। युवावस्था को प्राप्त होने पर इनका विवाह ‘गोपा’ नाम की कन्या के साथ हुआ, जिससे इनको एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम राहुल रखा गया।

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गृहत्याग और बोध-प्राप्ति-मनुष्य और उसके भोगों की नश्वरता को देखकर सिद्धार्थ की राजभोग से विरक्ति हो गयी और एक रात्रि में ये पत्नी और पुत्र को सोता हुआ छोड़कर गृह-त्याग करके चले गये।

पहले ये हिमालय पर्वत की गुफाओं में बसने वाले परिव्राजकों के पास गये, जिन्होंने इनको आर्यमत के तत्त्वों को बताया। वहाँ समाधान प्राप्त न होने पर ये बोधगया आ गये और घोर तपस्या आरम्भ की। यहाँ छ: वर्ष की घोर तपस्या से शरीर दुर्बल हो जाने के कारण इन्हें मूच्छा आ गयी। चेतना-प्राप्त (UPBoardSolutions.com) होने पर इन्होंने पुनः तप आरम्भ कर दिया। इसके बाद फल्गुनी नदी के तट पर एक वट वृक्ष के नीचे बैठकर इन्होंने तप किया, जहाँ इन्हें तत्त्व-ज्ञान की प्राप्ति हुई। अब ये सिद्धार्थ से बुद्ध हो गये और जिस वट वृक्ष के नीचे इन्होंने तप किया था, वह वट वृक्ष बोधिवृक्ष कहलाया। 

शिष्यों को उपदेश-इसके बाद इन्होंने काशी में बहुत-से शिष्यों को उपदेश दिया। जातिगत भेदभाव को ठुकराकर इन्होंने कर्म के आधार पर लोगों को अपने मत में प्रवेश कराया। मगध के राजा बिम्बिसार, अपने पुत्र राहुल तथा पत्नी आदि को इन्होंने अपने मत में प्रवृत्त किया।

निर्वाण-प्राप्ति-कलियुग के 2624वें वर्ष में इन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। विष्णु पुराण में विष्णु का अवतार मानकर इनकी कीर्ति गायी गयी है।

ऐहिक सुखों के प्रति वैराग्य, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शान्ति, समदृष्टि, प्राणियों के प्रति दया, परोपकार, शरणागत की रक्षा, इनके उपदेशों के ये गुण ब्राह्मण मत के समान ही थे, किन्तु प्राणी हिंसा के विषय में इन्होंने इस मत की अत्यधिक निन्दा की।

बौद्धधर्म का प्रसार- कलियुग के 2650वें वर्ष में यह धर्म सम्पूर्ण भारत में फैलता हुआ चीन, जापान एवं श्रीलंका तक जा पहुँचा। बौद्धधर्म मनुष्यमात्र का ही नहीं, वरन् प्राणिमात्र का कल्याण करने वाला धर्म है। उनके बाद अनेक विद्वान् , सन्त, महात्मा, विचारक व महापुरुष उनके धर्म से प्रभावित

पहले हिमालय पर्वत पर घूमते हुए वहाँ की गुफाओं में रहने वाले तपस्वियों के द्वारा आर्यमत के तत्त्वों को भली प्रकार ग्रहण किया। उससे अपनी इच्छित सुख-प्राप्ति को न देखते हुए उन्होंने बुद्धगया में घोर तपस्या औरम्भ की। छ: वर्ष तपस्या करते हुए बीतने पर किसी दिन श्रम की अधिकता से ये (UPBoardSolutions.com) मूर्च्छित हो गये। पलभर में पुनः चेतना को प्राप्त हुए फिर से तप करने में लग गये। इसके पश्चात् फल्गुनी नदी के तट पर पहुँचकर किसी बोधिवृक्ष के मूल में जब यह बैठे रहे, तब सभी पूर्व जन्म के वृतान्तों का ज्ञान हो गया और तत्त्व-ज्ञान को प्राप्त करके ये प्रबुद्ध हो गये।

(3) ततो बुद्धः काश्यामुरुबिल्वे च बहून् शिष्यानविन्दत। सशिष्य एष वीतरागो मुनिः परार्थपराण्यवदातानि कर्माण्याचरन्। गुणैकसारैरुपदेशैर्जनान् जातिभेदमनादृत्य तत इतः स्वमते प्रवेशयामास। |

स मगधेषु राज्ञा बिम्बसारेणातिवेलं पूज्यमानश्चिरमुवास। पुनरुत्सुकस्य पितुर्दर्शनाय कपिलवस्तुनगरं गत्वा स्वपुत्रं राहुलं स्वमते प्रावेशयत्। पितृनिर्वाणात् परतो मातृष्वसारं भार्या च काषायं ग्राहयामास।।

अथ मुनिरनपायिनीं कीर्ति जगति प्रतिष्ठाप्य चतुर्विंशत्युत्तरषट्शताधिकद्विसहस्र (2624) तमे कलिवर्षे निर्वाणं प्रपेदे। एनं मुनिं विष्णोरवतारं पुराणानि कीर्त्तयन्ति।।

शब्दार्थ
ततः = इसके बाद।
काश्यां = काशी में।
उरुबिल्व = महान् बेल का वृक्ष।
अविन्दत = प्राप्त किया।
वीतरागः = वैरागी।
परार्थ पराणि= परोपकार सम्बन्धी।
अवदातानि = शुभ, पवित्र।
अनादृत्य = तिरस्कार करके।
अतिवेलं = अधिक समय तक।
प्रवेशयत् = प्रविष्ट किया।
पितृनिर्वाणात् = पिता के मोक्ष (मुक्ति, मृत्यु) से।
परतः = बाद में।
मातृष्वासरम् = मौसी को।
काषायम् = गेरुआ वस्त्र।
मुनिः अनपायिनीं = मुनि ने नष्ट न होने वाली।
जगति = संसार में।
प्रतिष्ठाप्य = प्रतिष्ठित करके।
निर्वाणम्= मुक्ति को।
प्रपेदे = प्राप्त किया।
कीर्तयन्ति = कीर्ति का वर्णन करते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांशों में ज्ञान-प्राप्ति के बाद गौतम बुद्ध द्वारा अपने पुत्र, मौसी आदि को बौद्ध धर्म में प्रवृत्त करके अक्षय कीर्ति प्राप्त करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
इसके पश्चात् बुद्ध ने काशी में एक विशाल बेल के वृक्ष के नीचे बहुत-से शिष्यों को प्राप्त किया (अर्थात् इन्होंने सर्वप्रथम काशी में उपदेश दिया, जिससे इनके अनेक शिष्य बन गये)। शिष्यों-सहित इस वीतरागी मुनि ने दूसरों के कल्याण के लिए पवित्र कर्मों का आचरण किया। गुणों से सभी मनुष्य एक हैं और उनको बनाने वाला सारतत्त्व भी एक ही है, इस प्रकार से एक गुण और सारतत्त्व के उपदेश द्वारा जाति-भेद का तिरस्कार करके इन्होंने लोगों को अपने मत में प्रवेश दिलाया। | वह बुद्ध मगध राज्य में राजा बिम्बिसार द्वारा अत्यधिक (UPBoardSolutions.com) पूजित हुए लम्बे समय तक रहे। फिर पिता के दर्शन के लिए उत्सुक कपिलवस्तु नगर में जाकर अपने पुत्र राहुल को अपने मत में प्रविष्ट किया। पिता के निर्वाण के बाद मौसी और पत्नी को काषाय (गेरुए वस्त्र) ग्रहण कराये; अर्थात् उनको भी बौद्धभिक्षु बना लिया।

इसके पश्चात् इन मुनि ने अपनी अनश्वर कीर्ति को संसार में प्रतिष्ठापित करके 2624 वें कलिवर्ष में निर्वाण प्राप्त किया। इस मुनि के विष्णु-अवतार की पुराणों में कीर्ति है (अर्थात् पुराणों में इनके विष्णु के अवतार के रूप में बड़ी कीर्ति गायी गयी है)।

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(4) ऐहिकसुखवैराग्यम् अहिंसा, सत्यम् , अस्तेयम्, शान्तिः , समदृष्टिता, भूतदया, परोपकारः, शरणागतपरित्राणाम् इत्येते गुणा आचाराश्च सारभूता बौद्धमते ब्राह्मणमतवदुपदिष्टाः। किन्तु जन्तुहिंसयेश्वरयजनं यद् ब्राह्मणमतेऽङ्गीकृतं तदस्मिन् मतेऽत्यन्तं निन्दितम्।

शब्दार्थ
ऐहिकसुख = इस लोक से सम्बन्धित सुख।
अस्तेयम् = चोरी न करना।
परित्राणाम् = रक्षा करना।
जन्तुहिंसयेश्वरयजनम् (जन्तुहिंसया + ईश्वरयजनम्) = जीवों की हत्या से ईश्वर का यज्ञ।
अङ्गीकृतं = स्वीकृत। |

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में बौद्धमत के उपदेशों और ब्राह्मणमत से उनके साम्य-वैषम्य को बताया गया है।

अनुवाद
इस संसार से सम्बन्धित सुखों के प्रति वैराग्य, अहिंसा, सत्य-भाषण, चोरी न करना, शान्ति, सबको एक समान दृष्टि से देखना, प्राणियों के प्रति दया, परोपकार, शरणागत की रक्षाये बौद्धमत के सारभूतगुण और आचार ब्राह्मणमत के समान उपदिष्ट हैं, किन्तु जन्तु-हिंसा से ईश्वर की पूजा के विषय में ब्राह्मणमत में स्वीकृत मत की इस मत ने अत्यधिक निन्दा की।

(5) इदं मतं कलिवर्षीयस्य षड्विंशतिशतकस्योत्तरार्धेङ्कुरितं भिक्षुसङ्घस्य महतां राज्ञां च . प्रयत्नाद् भारतमखिलमाक्रम्य चीनेषु जापानदेशे लङ्कायां च प्रचारमलभत। (UPBoardSolutions.com)
बौद्धधर्मः मनुष्यमात्रस्य किञ्च प्राणिमात्रस्य कल्याणकृद् धर्मोऽस्ति। अतएव तत्परवर्तिनो विद्वांसः सन्तो महात्मनो विचारकाः महापुरुषाः भगवतो बुद्धस्य सिद्धान्तेनानुप्राणिताः दृश्यन्ते। भिक्षुन् सम्बोध्य लोकमुपादिशत्। सर्वाणि वस्तूनि खल्वनित्यानि, प्रयत्नेनात्मानमुद्धर तस्येयं … भणितिः मनुष्यजातिं तमसः समुद्धरिष्यति।

शब्दार्थ
अखिलम् = सम्पूर्ण
कल्याणकृद् = कल्याण करने वाला।
परिवर्तिनः = बाद के।
दृश्यन्ते = दिखाई देते हैं।
खलु = निश्चित ही।
भणितिः = कथन।
तमसः = अन्धकार से।
समुद्धरिष्यति = उद्धार करेगा।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में बौद्धमत के प्रसार और महत्त्व के विषय में बताया गया है।

अनुवाद
यह मत (बौद्धमत) कलिवर्ष के 2650वें वर्ष में अंकुरित भिक्षुसंघ के और महान् राजाओं के प्रयत्नों से सम्पूर्ण भारत को अपने में व्याप्त करके चीन, जापान और लंका देशों में प्रचार को प्राप्त हुआ।

बौद्धधर्म मनुष्यमात्र का ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र का कल्याण करने वाला धर्म है। इसीलिए उनके | बाद के विद्वान् , सन्त, महात्मा, महापुरुष भगवान् बुद्ध के सिद्धान्तों से अनुप्राणित दिखाई देते हैं। भिक्षुओं को सम्बोधित करके, उन्होंने संसार को उपदेश दिया। सारी वस्तुएँ निश्चय ही अनित्य हैं। प्रयत्न से आत्मा का उद्धार करो-उनका यह कथन मनुष्य जाति का अन्धकार से उद्धार करेगा।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
‘महात्मा बुद्ध’ पाठ का सारांश अपने शब्दों में लिखिए। या ‘महात्मा बुद्ध’ पाठ के आधार पर बुद्ध का जीवन-परिचय संक्षेप में लिखिए।
उत्तर
[संकेत-पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक की सामग्री को अपने शब्दों में लिखें।

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प्ररन 2
गौतम बुद्ध ने किस प्रकार ज्ञान प्राप्त किया?
उत्तर
गृह-त्याग के पश्चात् सर्वप्रथम बुद्ध हिमालय की गुफाओं में रहने वाले तपस्वियों के पास गये। उनसे इन्होंने आर्यमत का तत्त्व-ज्ञान ग्रहण किया लेकिन इस ज्ञान से उनकी सन्तुष्टि नहीं हुई। तत्पश्चात् इन्होंने बुद्धगया में छः वर्ष तक कठोर तपस्या की। कमजोरी के कारण ये मूच्छित हो गये। चेतना आने पर पुनः तप करने में लग गये। अन्ततः फल्गुनी नदी के तट पर स्थित बोधिवृक्ष के नीचे इन्हें तत्त्व-ज्ञान प्राप्त हुआ और ये बुद्ध हो गये।

प्ररन 3
गौतमी, मगध, राहुल और बोधिद्म का परिचय बताइए।
उत्तर
गौतमी-ये गौतम बुद्ध की मौसी (माता की बहन) थीं। इन्होंने ही गौतम बुद्ध का; उनकी माता की मृत्यु के बाद; लालन-पालन किया था। इन्हें गौतम बुद्ध ने गेरुआ वस्त्र धारण कराया 
था।

मगध
यह बौद्ध काल में स्थित एक राज्य था। यहाँ का राजा बिम्बिसार था। यहीं पर बुद्ध ने कई वर्षों तक निकास किया था

राहुल
यह गौतम बुद्ध का गोपा नाम की शाक्य कन्या से उत्पन्न पुत्र था। इसे छोड़कर इन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया था और बाद में इसे भी अपने मत में दीक्षित किया था।

बोधिद्म
गया में फल्गुनी नदी के तट पर स्थित एक वट वृक्ष। इसी के नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था।

प्ररन 3
बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त बताइए। इसकी बाह्मण मत से समानता और भिन्नता बताइए।
उत्तर
संसार के समस्त सुखों से वैराग्य, हिंसा न करना, सत्य बोलना, चोरी न करना, शान्त रहना, समदर्शी होना, प्राणियों परे दया, शरणागत की रक्षा करना आदि बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त (UPBoardSolutions.com) हैं। इन सिद्धान्तों की ब्राह्मण मत से समानता है। प्राणी-हिंसा के द्वारा ईश्वर की पूजा (बलि-विधान) को ब्राह्मण मत में तो स्वीकार किया गया है, लेकिन बौद्ध मते इसके पूर्णरूपेण विरुद्ध है।

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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 12 प्राचीना भारतीयशिक्षाव्यवस्था (गद्य – भारती)

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Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 12
Chapter Name प्राचीना भारतीयशिक्षाव्यवस्था (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 4
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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 12 प्राचीना भारतीयशिक्षाव्यवस्था (गद्य – भारती)

पाठ-सारांश

शिक्षा के स्वरूप—मनुष्य के वचन, शरीर और मन का जिससे संस्कार होता है, जिससे वह अपने अन्दर के पशुत्व को नियन्त्रित करता है और जिससे स्वयं में दया, उदारता आदि गुणों को धारण करता है, उसे शिक्षा कहते हैं। शिशु माता-पिता के पास रहकर ही बहुत शिक्षा प्राप्त करता है। वह माता की गोद में बैठे हुए; परिवार के सदस्यों के आचरण का सूक्ष्म निरीक्षण करके; उसका अनुकरण करता। है। यह उसकी अनौपचारिक शिक्षा है। इसीलिए माता-पिता बालक के आरम्भिक गुरु होते हैं। इसके बाद उसकी औपचारिक शिक्षा (UPBoardSolutions.com) आरम्भ होती है, जिसे वह घर के बाहर गुरु के पास रहकर प्राप्त करता है। यहाँ वह गुरु के आदेशों का पालन करता हुआ कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान प्राप्त करता है। यही उसका व्यावहारिक ज्ञान भी है। जिस देश की जैसी संस्कृति होती है उसके अनुरूप ही वहाँ की । शिक्षा-व्यवस्था भी होती है।

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शिक्षा एवं संस्कृति पर पाश्चात्य प्रभाव-भारत की संस्कृति संसार की समस्त संस्कृतियों से श्रेष्ठ एवं प्राचीन है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। विदेशियों के आक्रमणों ने इसे अत्यधिक प्रभावित किया है। यही कारण है कि आज भारतीय जीवन-शैली पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव दिखाई देता है। इसका कारण हमारी आधुनिक शिक्षा प्रणाली है, जो शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों का स्पर्श भी नहीं करती। इस कारण ही न तो बालक के व्यक्तित्व का विकास हो पाता है और न आत्मा का।।

प्राचीन गुरुकुलीय शिक्षा-व्यवस्था प्राचीनकाल में भारत में गुरुकुलों में शिक्षा दी जाती थी। छात्र ब्रह्मचर्यपूर्वक, यज्ञोपवीत और मेखला धारण करके स्वयं गुरु के पास जाकर विद्या अध्ययन करते थे। गुरु गार्हस्थ्य जीवन समाप्त करके जंगलों में रहकर छात्रों को शिक्षा प्रदान करते थे। छात्र की योग्यता की (UPBoardSolutions.com) परीक्षा लेकर ही गुरु उसकी योग्यतानुसार उसे गुरुकुल में प्रवेश देते थे। गुरुकुल में रहकर छात्र गुरुकुल के नियमों का पालन करते हुए विद्याध्ययन करते थे। वहाँ उसे समिधा लाना, गायें चराना, खेती करना आदि गुरु के काम भी करने होते थे। गुरु अपने शिष्यों को पुत्र के समान प्रेम करते थे। वहीं छात्र, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, त्याग, ध्यान, धारणा और समाधि का भी अभ्यास कर शिक्षा समाप्त करके और गुरु को दक्षिणा देकर वे गृहस्थाश्रम धर्म का पालन करते थे। | गुरु और शिष्य का सम्बन्ध-गुरुकुल में गुरु के समीप रहकर शिष्य अपने चरित्र का विकास करते थे। ज्ञानार्जन के साथ ही वह दया, उदारता, स्वावलम्बन आदि सद्गुणों की शिक्षा भी प्राप्त करते थे। गुरु और शिष्य का सम्बन्ध स्नेहपूर्ण हुआ करता था। शिष्य गुरु के चरणों में प्रणाम करते थे, भक्ति से उनकी सेवा करते थे, विषयों से सम्बन्धित प्रश्न नि:संकोच पूछा करते थे। गुरु तत्त्वदर्शी, ज्ञानी, अध्यापन में रुचि रखने वाले होते थे।

चार सोपान-प्राचीन भारत में युवक ज्ञान के लिए विद्या अध्ययन करते थे। ज्ञान के बोध के अनुसार ही वे आचरण करते थे और आचारवान् होकर ही वे विद्या का प्रचार करते थे। उस समय शिक्षा की चार कोटियाँ अथवा सोपान विद्यमान थे—
(1) अध्ययन,
(2) बोध,
(3) आचरण और
(4) प्रचार।।

विनय-सम्पन्नता
अध्ययन का फल विनय की सम्पन्नता है। पहले विद्या और विनय से सम्पन्न युवक ही समाज में आदर पाता था। विद्या प्राप्त कर लेने के पश्चात् भी अविनयी होने पर

अध्ययन में त्रुटि समझी जाती थी। पिता भी, विद्या पुढ़कर लौटे हुए पुत्र की विद्वत्ता’ को विनय.के • आधार पर ही आँकता था। विद्या और विद्वत्ता की कसौटी विनय ही थी। अविनय से अध्ययन की

अपूर्णता ज्ञात होती थी। छान्दोग्य उपनिषद् के एक प्रसंग में बताया गया है कि गुरु के आश्रम से लौटे हुए अपने पुत्र के अहंकार को देखकर पिता ने उसकी विद्या-प्राप्ति में सन्देह किया था। कुछ प्रश्न पूछने पर उसे उसकी विद्या की अपूर्णता ही ज्ञात हुई थी।

स्त्री-शिक्षा-गुरुकुलीय शिक्षा-पद्धति में युवकों की तरह युवतियाँ भी शिक्षा पाती थीं। गार्गी, वागाम्भृणी आदि विदुषी युवतियाँ इसकी उदाहरण हैं।

बौद्धयुगीन शिक्षा-प्रणाली–बौद्धयुग में गुरुकुलीय शिक्षा-प्रणाली का ह्रास हो गया था। इस काल में विश्वविद्यालयों में शिक्षा दी जाती थी। वलभी, तक्षशिला, नालन्दा आदि विश्वविद्यालय उस समय शिक्षा के प्रधान केन्द्र थे। इन विश्वविद्यालयों में देश-विदेश के विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे। इनमें (UPBoardSolutions.com) पढ़ाने वाले अध्यापक अपने ज्ञान के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध थे। विश्वविद्यालयों में अत्यधिक समृद्ध पुस्तकालय भी होते थे। पढ़ने के इच्छुक छात्रों को योग्यता के आधार पर ही प्रवेश दिया जाता था। चीनी यात्री ह्वेनसाँग ने उन विश्वविद्यालयों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।

उपसंहार–हमारे राष्ट्र के नेताओं का कर्तव्य है कि राष्ट्र की उन्नति के लिए वे पुरातन और नवीन शिक्षा-प्रणालियों का समन्वय करके शिक्षा योजना तैयार करें। तभी देश में राष्ट्रीय पुरुष होंगे और देश उन्नति करेगा।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) मनुष्यस्य वाक्कायमेनसां सम्यक् संस्कारो यया भवति, यया च स जन्पना पशु-निर्विशेष सन्नपि स्वपशुत्वं नियमयति स्वस्मिन् दयादाक्षिण्यादिमानवधर्मान् आधत्ते सा शिक्षेत्यभिधीयते। जन्मकालान्मृत्युं यावत् मनुष्यस्यानुदिनं विकासो भवति। सेयं विकासपरम्परा एकानवरता प्रक्रिया भवति। शिशुः पित्रोराचार्याणाञ्च सन्निधौ स्वत एवानल्पं शिक्षते। मातुरुत्सङ्गे स्थितः शुिशुः कुटुम्बिजनानां दैनन्दिनमाचरणं सूक्ष्मेक्षिकया निरीक्षते तज्जनितकुतूहलेन तदनुकुरुते। सेयं मनुष्यस्य आदिमानौपचारिकी शिक्षा भवति। क्रमशः शिशुत्वमतिक्रम्य (UPBoardSolutions.com) स पित्रोः विधिनिषेधपरानादेशान् पालयन् कर्तव्याकर्त्तव्यज्ञानमर्जयति तद् द्वारा तस्य व्यवहारज्ञानं भवति। एवं पितरौ बालस्याद्यौ गुरू स्तः। मनुष्यमात्रस्यैवं शिक्षा गृहप्राङ्गणादेव प्रारभते। औपचारिकी शिक्षा तदनन्तरं गृहाद बहिर्गुरुसन्निधौ भवति। एतादृश्याः शिक्षाव्यवस्थायाः स्वरूपं प्रतिदेशं भिद्यते। यादृशी संस्कृतिः यस्य देशस्य भवति तदनुरूपा शिक्षाव्यवस्थापि तस्य देशस्य भवति।।

शब्दार्थ
सम्यक् = भली प्रकार से।
संस्कारः = शुद्धि।
पशु-निर्विशेषः = पशु के समान।
स्वपशुत्वं = अपनी पशुता को।
नियमयति = नियन्त्रित करता है।
दाक्षिण्य = चतुरता।
आधत्ते = धारण करता है।
शिक्षेत्यभिधीयते = शिक्षा कहलाती है।
यावत् = जब तक।
अनुदिनम् = प्रतिदिन।
अनवरता = निरन्तरता।
सन्निधौ = पास में।
अनल्पम् = बहुत।
उत्सङ्गे = गोद में।
दैनन्दिनम् = दैनिक।
सूक्ष्मेक्षिकया = सूक्ष्म दृष्टि से।
तदनुकुरुते = उसका अनुकरण करता है।
अर्जयति = अर्जित करता है।
पितरौ = माता-पिता।
बालस्याद्यौ = बच्चे के प्रारम्भिक।
प्रतिदेशम् = प्रत्येक देश में।
भिद्यते = अन्तर होता है।
तदनुरूपा = उसी के अनुसार।

सन्दर्थ
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संगृहीत ‘प्राचीन भारतीयशिक्षाव्यवस्था’ शीर्षक पाठ से उधृत है।
[संकेत-इस पाठ के शेष गद्यांशों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में शिक्षा का औपचारिक और अनौपचारिक स्वरूप बताया गया है।

अनुवाद
मनुष्य की वाणी, मन और शरीर की शुद्धि जिससे भली प्रकार से होती है, जिससे जन्म से पशुओं से अभिन्न होते हुए भी (मनुष्य) अपनी पशुता को नियन्त्रित करता है, स्वयं में दया, उदारता आदि मनुष्य के गुणों को धारण करता है, वह ‘शिक्षा’ कही जाती हैं। जन्म के समय से मृत्यु तक मनुष्य का (UPBoardSolutions.com) नित-प्रति विकास होता है। यह विकासक्रम एक लगातार प्रक्रिया होती है। बच्चा माता-पिता और गुरुओं के पास में स्वयं ही बहुत कुछ सीखता है। माता की गोद में बैठा हुआ बच्चा परिवार वालों के दिनभर के आचरण को सूक्ष्म दृष्टि से देखता है और उससे उत्पन्न उत्सुकता से उसी

प्रभृतयस्ते गुरवो वानप्रस्थाश्रमिणः संन्यासिनो वा सन्तः अरण्येऽवसन्। अध्ययनाध्याप तत्त्वचिन्तनं च तेषां दिनचर्यासीत्। वैराग्यप्रभावात् कामक्रोधादिषरिपूणां सुतरामप्रभावोऽ भवत् तेषां मनस्सु। शुद्धचित्तास्ते तपस्विनो विद्यार्थिनां योग्यतां सम्यक् परीक्ष्य तेषामर्हताञ्च निर्धार्य तदनु तान् स्वान्तेवासिनः अकुर्वन्। अद्यत्वे यथा निर्धारितं शिक्षाशुल्कं दत्वा ये केऽपि जनाः शालासु प्रवेशं लभन्ते विहिताविहितोपायैश्च परीक्षां समुत्तीर्य विद्वत्पदवीधारिणो भवनि, तथा प्राचीनव्यवस्थायां सम्भावना नासीत्। अर्हतां कुमाराणामेव तदा विद्याध्ययनेऽधिकारोऽभवत्। श्रुतिरपि आदिशति

नापुत्राय दातव्यं नाशिष्याय दातव्यम्।
सम्यक् परीक्ष्य दातव्यं मासं षण्मासवत्सरम्॥

शब्दार्थ
पुरा = प्राचीन काल में।
परिसमाप्य = समाप्त करके।
अरण्येषु = वनों में।
बटवः = ब्रह्मचारी छात्र।
अन्तेवासिनः = पास में रहने वाले (शिष्य)।
कृतोपनयनाः (कृत + उपनयना:) = उपनयन संस्कार किये गये।
समेखलाः = करधनी पहने हुए।
सपलाशदण्डः = ढाक का दण्ड धारण किये हुए।
समित्पाणयः भूत्वा = हाथ में समिधा लेकर।
अन्तिकम् = पास।
जग्मुः = जाते थे।
सुतराम् = पूरी तरह से।
अर्हताम् = योग्यता को।
निर्धार्य = निर्धारित करके।
तदनु = उसके बाद।
विहिताविहितोपायैः = उचित और अनुचित उपायों से।
समुत्तीर्य = उत्तीर्ण करके।
नासीत् = नहीं थी।
अर्हताम् = योग्य को।
श्रुतिरपि = वेद भी।
नापुत्राय = अयोग्य पुत्र के लिए नहीं।
नाशिष्याय = अयोग्य शिष्य के लिए नहीं।
पाण्मासवत्सरम् = छः महीने अथवा साल भर।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में प्राचीनकाल में शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों के प्रवेश की व्यवस्था का वर्णन किया गया है। |

अनुवाद
वर्ण और आश्रमों को प्रधानता देने वाले भारतवर्ष में प्राचीनकाल में गुरुकुल की शिक्षा का प्रचलन था। गृहस्थ जीवन को समाप्त करके जो लोग वानप्रस्थी होकर वन में रहते थे, शिक्षा-प्राप्त करने के इच्छुक ब्रह्मचारी छात्र प्रायः उन्हीं के पास रहते थे और वहीं उनकी शिक्षा होती थी। उपनयन-संस्कार किये हुए (जनेऊ धारण किये हुए) बालक ब्रह्मचर्यव्रत रखकर मेखला (तगड़ी) पहने हुए, पलाश का दण्ड लिये हुए, हाथ में समिधा लेकर वेदों के अध्ययन के लिए गुरु के समीप जाते थे। इसके लिए वेद का यह आदेश है-“विशेष ज्ञान के लिए ब्रह्मचारी हाथ में समिधा लेकर वेदपाठी, ब्रह्म में निष्ठा रखने वाले गुरु के पास ही जाये।” द्रोण, वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि वे गुरु हैं, जो वानप्रस्थ आश्रम वाले या संन्यासी होकर जंगल में रहते थे। अध्ययन, अध्यापन और तत्त्वों का चिन्तन करना उनकी (UPBoardSolutions.com) दिनचर्या थी। वैराग्य के प्रभाव से उनके मनों में काम, क्रोध आदि छः शत्रुओं का अत्यधिक अभाव हो जाता था। निर्मल मन वाले वे तपस्वी विद्यार्थियों की योग्यता की अच्छी तरह से जाँच करके और उनकी योग्यता निश्चित करके उसके बाद उन्हें अपना अन्तेवासी (शिष्य) बनाते थे। आजकल जैसा कि निर्धारित शिक्षा-शुल्क (फीस) देकर जो कोई भी लोग विद्यालयों में प्रवेश प्राप्त कर लेते हैं और उचित-अनुचित तरीकों से परीक्षा उत्तीर्ण करके विद्वान् की उपाधि धारण करने वाले हो जाते हैं, वैसी प्राचीन व्यवस्था में सम्भावना नहीं थी। योग्य बालकों का ही उस समय विद्या-अध्ययन में अधिकार होता था। वेद भी आदेश देते हैं अयोग्य पुत्र को (शिक्षा) नहीं देनी चाहिए, न ही अयोग्य शिष्य को (शिक्षा) देनी चाहिए। अच्छी तरह छ: महीने-सालभर जाँच करके ही (शिक्षा) देनी चाहिए।

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(4) गुरुकुलं प्रविश्य ब्रह्मचारिणो गुरुकुलस्य नियमान् सम्यक् यथावत्परिपालयन्तः विद्याध्ययनमकुर्वन्। सममेव समिदाहरणगोचारणकृषिकर्मादिगुर्वाश्रमविहितव्यापारेष्वपि तेषां सहभागित्वं कुटुम्बिवदभवत्। गुरवोऽपि तेषु स्वसुतनिर्विशेषं स्निह्यन्ति स्म। अध्ययनकाले एव यमनयिमासनप्राणायामप्रत्याहारध्यानधारणासमाधीनामभ्यसोऽप्यभवत्। शिक्षासमाप्तौ गुरुदक्षिणां दत्त्वा (UPBoardSolutions.com) स्नातकोपाधिभूषितास्ते प्रत्यावर्तनविधिमनुसृत्य गृहस्थाश्रमे प्रवेशमकुर्वन्। येषां शिष्याणां यावज्जीवनं शिक्षाप्राप्ती अभिरुचिरभवत् ते नैष्ठिकपदवीभाजः सन्तः गुरुकुलेष्वेवावसन्।

शब्दार्थ
प्रविश्य = प्रवेश पाकर।
सममेव = साथ ही।
समिदाहरण (समित् + आहरण) = लकड़ी लाना।
विहितव्यापारेष्वपि = निश्चित कार्यों में भी।
सहभागित्वम्= सहयोग।
स्वसुतनिर्विशेष = अपने पुत्र के समान।
प्रत्याहार = त्याग।
प्रत्यावर्तनविधिम् = शिक्षा प्राप्तकर गुरुकुल से विदा होने की विधि को।
अनुसृत्य = अनुसरण करके।
प्रवेशम् अकुर्वन् = प्रवेश करता था।
यावज्जीवनम् = जीवनपर्यन्त।
अभिरुचिरभवत् = लगन होती थी।
नैष्ठिकपदवीभाजः = नैष्ठिक ब्रह्मचारी की पदवी धारण करने वाले। |

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गुरुकुल में प्रवेश प्राप्त करने के बाद शिक्षा-प्राप्ति की विधि का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
गुरुकुल में प्रवेश पाकर ब्रह्मचारी गुरुकुल के नियमों को पूर्णतया अच्छी तरह पालन करते हुए विद्या-अध्ययन करते थे। साथ ही लकड़ी लाने, गायें चराने, खेती का काम आदि गुरु के आश्रम के योग्य कार्यों में उनका सहयोग परिवार के सदस्यों की तरह होता था। गुरु भी उन पर पुत्र के समान स्नेह करते थे। अध्ययन के समय में ही यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि आदि का अभ्यास हो (UPBoardSolutions.com) जाता था। शिक्षा समाप्त करने पर गुरु को दक्षिणा देकर स्नातक की उपाधि से विभूषित होकर दीक्षान्त विधि को अनुसरण करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते थे। जिन शिष्यों की जीवनपर्यन्त शिक्षा-प्राप्त करने में रुचि होती थी, वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी के पद को ग्रहण करते हुए गुरुकुल में ही रहते थे।

(5) गुरुकुलवासकाले शिष्याः गुरुसन्निधौ स्वचरित्रस्य सर्वाङ्गीणम् विकासमकुर्वन्। ज्ञानार्जनेन सहैव स्वावलम्बनादीनां सदगुणानामात्मन्याधानमपि कृतवन्तः। गुरुशिष्ययोः सम्बन्धः स्नेहसिक्त आसीत् श्रीमद्भगवद्गीतायामुक्तमस्ति

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥

शब्दार्थ
गुरुसन्निधौ = गुरु के पास में।
आत्मन्याधानम् = आत्मा में धारण करना।
प्रणिपातेन = प्रणिपात (प्रणाम) द्वारा।
प्ररिप्रश्नेन = प्रश्न (पूछने) की परिपाटी से।
उपदेक्ष्यन्ति = उपदेश देंगे।
तत्त्वदर्शिनः = तत्त्वद्रष्टा।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गुरु और शिष्य के सम्बन्धों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद

गुरुकुल में रहते समय शिष्य गुरु के पास अपने चरित्र का सर्वांगीण विकास करते. . थे। ज्ञान-प्राप्ति के साथ स्वावलम्बन आदि गुणों को भी आत्मा में धारणा करते थे। गुरु और शिष्य का सम्बन्ध स्नेह से सिंचित (पूर्ण) होता था। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है| ज्ञानी और तत्त्वदर्शी गुरु प्रणाम करने से, सरलतापूर्वक प्रश्न पूछने से और सेवा करने से ही तुझे ज्ञान का उपदेश देंगे। तुम उस ज्ञान को उनके पास जाकर समझो।

(6) अयं श्लोकः गुरुशिष्ययोरादर्शसम्बन्धं स्फुटं प्रकाशयति। स एव शिष्यो ज्ञानार्जने प्रभवति यः गुरोः चरणेषु प्रणिपातं करोति। प्रणिपातस्यात्र कोऽर्थः इति जिज्ञासायां सत्यां वाक्कायमनसां गुरवे समर्पणामिति मन्तव्यं भवति। तेन गुरुशिष्ययोर्मध्येऽभेदबुद्धिरुत्पद्यते। एष एव ज्ञानावाप्तेः ऋजुः मार्गः। समर्पणेन सहैव छात्रस्य बौद्धिकस्वातन्त्र्यस्य रक्षार्थं श्लोके परिप्रश्नानां व्यवस्थापि दृश्यते। गुरु प्रति (UPBoardSolutions.com) अतिशयितः आदरः शिष्यान् विषयसम्बन्धिपरिप्रश्नेभ्यो न वारयति। सेवाभावः शिष्याणां परमो धर्मः। एवं सच्छिष्यलक्षणमत्र निरूपितम्। एवमेव तादृशा एव पुरुषाः गुरुवः भवन्ति ये तत्त्वद्रष्टारो ज्ञानिनश्च सन्ति। सममेव अध्यापनरुचिः तेषां गुरुभावं सर्वथा द्रढयति। एष सम्बन्धः एव शिक्षा समुन्नयति। अद्यत्वे न तादृशः गुरुशिष्ययोः सम्बन्धो दृश्यते। फलतः सर्वत्र शिक्षाप्राप्तिविधौ वैफल्यमेव लक्ष्यते। शिक्षायाः परमां कोटिं प्राप्तां अपि युवानो विनयविरहिताः दिग्भ्रान्ताः अद्य भवन्ति।

शब्दार्थ

स्फुटं = स्पष्ट।
प्रकाशयति = प्रकाशित करता है।
प्रभवति = समर्थ होता है।
प्रणिपातं करोति = प्रणाम करता है।
जिज्ञासायां सत्यां = जानने की इच्छा होने पर।
वाक्कायमनसाम् = वाणी, शरीर और मन का।
मन्तव्यं = मानना चाहिए।
अभेदबुद्धिरुत्पद्यते = अभेद बुद्धि उत्पन्न होती है।
ऋजुः = सरल, सीधा।
परिप्रश्नानाम् = बार-बार पूछने की।
अतिशयितः आदरः = अत्यधिक आदर।
वारयति = रोकता है।
सच्छिष्यलक्षणमत्र (सत् + शिष्य + लक्षणम् + अत्र) = अच्छे शिष्य को लक्षण यहाँ।
सममेव = साथ ही।
द्रढयति = दृढ़ करती है।
समुन्नयति = समुन्नत करती है।
वैफल्यम् एव = विफलता ही।
दिग्भ्रान्ताः = दिशाहीन, भटके हुए।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गुरुकुल की शिक्षा पर विधिवत् प्रकाश डाला गया है।

अनुवाद
यह श्लोक गुरु और शिष्य के आदर्श सम्बन्ध को स्पष्ट करता है। वही शिष्य ज्ञानार्जन में समर्थ होता है, जो गुरु के चरणों में प्रणाम करता है। ‘प्रणिपात’ का यहाँ क्या अर्थ है? ऐसी जानने की इच्छा होने पर वाणी, शरीर और मन को गुरु को अर्पित करना, ऐसा समझना चाहिए। उससे गुरु 
और शिष्य के मध्य अभेद बुद्धि उत्पन्न होती है। यही ज्ञाने-प्राप्ति का सरल मार्ग है। समर्पण के साथ ही छात्र की बौद्धिक स्वतन्त्रता क रक्षा के लिए श्लोक में सरलतापूर्वक प्रश्न पूछने की व्यवस्था भी दिखाई देती है। गुरु के प्रति अत्यधिक आदर शिष्यों को (UPBoardSolutions.com) विषय सम्बन्धी प्रश्न बार-बार पूछने से नहीं रोकता है। सेवा करना शिष्य का परम धर्म है। इस प्रकार उत्तम शिष्य का लक्षण यहाँ बताया गया है। इसी प्रकार वैसे ही पुरुष गुरु होते हैं, जो तत्त्वद्रष्टा और ज्ञानी होते हैं। साथ ही पढ़ाने में लगन उनके गुरु होने को सभी प्रकार से पुष्ट करती है। यह सम्बन्ध ही शिक्षा की उन्नति करता है। आजकल गुरु-शिष्य का वैसा सम्बन्ध नहीं दिखाई पड़ता है। फलस्वरूप सब जगह शिक्षा-प्राप्ति की विधि में विफलता ही दिखाई पड़ती है। शिक्षा की चरमसीमा को प्राप्त हुए युवक भी आज विनयहीन और दिग्भ्रमित होते हैं।

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(7) प्राचीनभारते युवानो बोधार्थम् अधीतिनोऽभवन्। बोधानुकूलं तेषामाचरणमभूत्। आचारवन्तः सन्तः ते विद्यां प्राचारयन्। एवम् अधीतिबोधाचरणप्रचारणानि तदा शिक्षाव्यवस्थायाः चतस्रः कोटयः आसन्।

शब्दार्थ
बोधार्थम् = ज्ञान के लिए।
अधीतिनः = पढ़ने वाले।
बोधानुकूलम् = ज्ञान के अनुरूप।
प्राचारयन् = प्रचार किया।
चतस्रः = चार।
कोटयः = श्रेणियाँ। |

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में बताया गया है कि विद्या की चार श्रेणियाँ होती हैं।

अनुवाद
प्राचीन भारत में युवक ज्ञान के लिए पढ़ते थे। ज्ञान के अनुसार ही उनका आचरण होता था। आचारवान् होकर वे विद्या का प्रचार करते थे। इस प्रकार उस समय पढ़ना, ज्ञान, आचरण और प्रचार शिक्षा-व्यवस्था के चार सोपान होते थे।

(8) ज्ञानिनो गुरवः श्रद्धालवश्छात्राः गुरुकुलस्य मणिकाञ्चनसंयोगं व्यञ्जन्ति स्म। एवं वैशिष्ट्ययुक्ते गुरुकुले पठिता विद्या कथं न सफला भवेत्? अधीतेः फलं विनतिरिति गुरुकुले समाजेऽपि च स्वीकृती आसीत्। विद्याविनयसम्पन्न एव समाजे श्रद्धास्पदं जायते स्म, नहि विद्यासम्पन्नः केवलम्। अधीते स्नातकेऽविनयस्य स्थितिरधीतावेव काचित्रुटिरिति ते अमन्यन्त। पिताऽपि गुरुकुलात् प्रतिनिवृत्तस्य स्नातकभूतस्य स्वसूनोः (UPBoardSolutions.com) विनयसम्पन्नतामेव परीक्षते स्म। विद्यायाः विद्वत्त्वस्य चोभयोः विनय एव तदानीं निकषमासीत्। अविनयेना- ध्ययनस्यैवापूर्णता द्योतिताऽभवत्। छान्दोग्योपनिषदि तादृश एकः प्रसङ्गोऽस्ति। यत्र गुरोराश्रमात्प्रतिनिवृत्तस्य स्वतनयस्य श्वेतकेतोः दर्पमवलोक्य पिता तस्य विद्यावाप्तौ सन्देग्धि।कतिपयैः प्रश्नैः पुत्रं परीक्ष्य स तस्य विद्याया एवापूर्णतामवगच्छति तत्पूर्व्यर्थं स्वयं प्रययते।।

शब्दार्थ
मणिकाञ्चनसंयोगम् = मणि और सुवर्ण का संयोग।
व्यञ्जन्ति स्म = प्रकट करते थे।
विनतिः = विनय, नम्रता।
स्थितिरधीतावेव (स्थितिः + अधीतौ + एव) = होना अध्ययन में ही।
अमन्यत = मानते थे।
स्वसूनोः = अपने पुत्र का।
परीक्षते = स्म परीक्षा करता था।
निकषम् = कसौटी।
द्योतिताऽभवत् = विदित होती थी।
सन्देग्धि = सन्देह करता है।
प्रयतते = प्रयत्न करता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में; शिक्षा का आधार छात्र को विनय सम्पन्न होना; बताया गया है।

अनुवाद
ज्ञानी गुरु और श्रद्धालु छात्र गुरुकुल के मणिकांचन योग को व्यक्त करते थे। इस प्रकार की विशेषता से युक्त गुरुकुल में पढ़ी गयी विद्या कैसे न सफल हो, अर्थात् अवश्य ही सफल होगी। अध्ययन का परिणाम विनय’ है, यह गुरुकुल में और समाज में भी स्वीकार किया गया था। विद्या और विनय से युक्त (युवक) ही समाज में श्रद्धा का पात्र होता था, केवल विद्या से सम्पन्न नहीं। पढ़े हुए स्नातक में अविनय होना, पढ़ने में कोई कमी रह गयी है, ऐसा वे मानते थे। पिता भी गुरुकुल से लौटे हुए स्नातक बने अपने पुत्र की विनयसम्पन्नता की परीक्षा (UPBoardSolutions.com) करता था। विद्या और विद्वत्ता दोनों की कसौटी उस समय विनय ही थी। अविनय से अध्ययन की अपूर्णता ही ज्ञात होती थी। छान्दोग्य उपनिषद् में ऐसा एक प्रसंग है जहाँ गुरु के आश्रम से लौटे हुए अपने पुत्र श्वेतकेतु के गर्व को देखकर पिता उसकी विद्या-प्राप्ति में सन्देह करता है। कुछ प्रश्नों से पुत्र की परीक्षा लेकर वह उसकी विद्या की अपूर्णता को जान जाता है। उसकी पूर्ति के लिए वह (पिता) स्वयं प्रयत्न करता है।

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(9) प्रसङ्गोऽयं गुरुकुलस्य माहात्म्यं स्वीकुर्वन्नपि पित्रोरभिभावकस्य पालकस्य वा शिक्षापूर्तये कर्तव्यमनुदिशति। ये च पितरोऽभिभावकोः वा शिक्षालयमेवालमिति मत्वा विरमन्ति सन्तुष्यन्ति च तेषां तनयाः बोधीप्तौ कृतार्थाः न भवेयुरिति छान्दोग्योपनिषदः प्रसङ्गस्याशयः। | गुरुकुलशिक्षा-व्यवस्थायां यथा युवानस्तथ युवतयोऽपि शिक्षामाप्नुवन्। गार्गीवागाम्भृणीप्रभृतयो नार्यः विद्वत्संसत्सु प्रतिष्ठामलभन्त।

बौद्धकालिके भारते गुरुकुलव्यवस्थायाः ह्रासः प्रारब्धः। तदा शिक्षण कार्यार्थं विश्वविद्यालयाः प्रादुरभवन्। वलभीतक्षशिलानालन्दादयः प्रमुखानि शिक्षाकेन्द्राण्यासन्। |

शब्दार्थ
पित्रोः = माता-पिता का।
अनुदिशति = बतलाता है।
विमन्ति = उदासीन हो जाते हैं।
सन्तुष्यन्ति = सन्तुष्ट करते हैं।
बोधावाप्तौ = (बोध + अवाप्तौ) ज्ञान की प्राप्ति में।
युवतयोऽपि = युवतियाँ भी।
विद्वत्संसत्सु = विद्वानों की सभाओं में।
बौद्धकालिके भारते = बुद्धकालीन भारत में।
ह्रासः = अवनति। प्रादुरभवन् = प्रादुर्भूत हुए।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्य अवतरणों में माता-पिता और अभिभावक को अपने कर्तव्य के प्रति सचेत किया गया है तथा गुरुकुलीय शिक्षा-व्यवस्था के ह्रास एवं विश्वविद्यालयीय शिक्षा-व्यवस्था के प्रादुर्भाव को बताया गया है।

अनुवाद
यह प्रसंग गुरुकुल की महत्ता को स्वीकार करता हुआ भी माता-पिता, अभिभावक  अथवा पालक के शिक्षा-पूर्ति के कर्तव्य को बतलाता है। जो माता-पिता अथवा अभिभावक (शिक्षा के लिए) विद्यालय (को) ही पर्याप्त है, ऐसा मानकर उदासीन हो जाते हैं और सन्तुष्ट हो जाते हैं, उनके पुत्र ज्ञान-प्राप्ति में सफल नहीं होते–यह छान्दोग्य उपनिषद् के प्रसंग का तात्पर्य है।

गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली में जैसे युवक (शिक्षा प्राप्त करते थे) वैसे ही युवतियाँ भी शिक्षा प्राप्त करती थीं। गार्गी, वागाम्भृणी आदि नारियों ने विद्वानों की सभाओं में सम्मान प्राप्त किया था।

बौद्धकाल में भारत में गुरुकुल प्रणाली का पतन प्रारम्भ हो गया था। उस समय शिक्षा-कार्य के लिए विश्वविद्यालयों का प्रादुर्भाव हुआ। वलभी, तक्षशिला, नालन्दा आदि प्रमुख शिक्षा- केन्द्र थे।

(10) तेषु विश्वविद्यालयेषु बहुसङ्ख्यकाः स्वदेशीयविदेशीयाः छात्राः शिक्षामलभन्त। तत्राध्यापनरताः शिक्षकाः स्व-स्वज्ञान-वैभवप्रभावात् सर्वत्र प्रख्याता आसन्। तेषु विश्वविद्यालयेषु सुसमृद्धाः पुस्तकालया आसन्। तत्र प्रपठिषवश्छात्राः पूर्वं द्वारपण्डितैः परीक्षिताः जायन्ते स्म। अर्हतानिर्धारणोपरि तेषां प्रवेशोऽभवत्। चीनदेशीयह्वेनसाङ्गाख्य-महोदयैः तेषां विश्वविद्यालयानां व्यवस्था भूरि-भूरि प्रशंसिता। हा हन्त! (UPBoardSolutions.com) क्रूरकालप्रहारेण तेषामस्तित्वमप्यद्य स्मृतिपर्यवसायि भवति। तेन सममेव भारतस्य भारतीयता समाप्तप्राया दृश्यते। राष्ट्रसमुन्नतये सततं प्रयतमानानां राष्ट्रनेतृणां प्रथमं कर्त्तव्यमस्ति यत्ते नूतनपुरातनशिक्षाव्यवस्थयोः सामानुपातिकं समन्वयं विधाय शिक्षा संयोजयेयुः। तदैव राष्ट्रे राष्ट्रपुरुषाः प्रादुर्भविष्यन्ति, राष्ट्रोन्नतिश्च भविष्यति।।

शब्दार्थ

बहुसङ्ख्य काः = अधिक संख्या में
प्रख्याताः = प्रसिद्ध।
प्रपठिषवः = पढ़ने के इच्छुक।
द्वारपण्डितैः = द्वारपण्डितों के द्वारा।
अर्हतानिर्धारणोपरि = योग्यता निश्चित करने के बाद।
भूरि-भूरि = बहुत अधिक।
स्मृतिपर्यवसायि = स्मृति की समाप्ति।
सततप्रयतमानानाम् = लगातार प्रयत्न करने वालों का।
यत्ते (यत् + ते) = कि वे।
समानुपातिकम् = समान अनुपात में।
समन्वयं = ताल-मेल।
विधाये = करके।
संयोजयेयुः = सुनियोजित करना चाहिए।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में प्राचीन विश्वविद्यालयीय प्रणाली की शिक्षा की प्रशंसा एवं उसकी समाप्ति का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
उन विश्वविद्यालयों में अपने देश के और विदेश के बहुत संख्या में छात्र शिक्षा प्राप्त करते थे। उनमें अध्यापन में लगे हुए शिक्षक अपने ज्ञान के वैभव के प्रभाव से सब जगह प्रसिद्ध थे। उन विश्वविद्यालयों में बहुत समृद्ध पुस्तकालय थे। वहाँ पढ़ने के इच्छुक छात्र पहले द्वार पर स्थित विद्वानों के द्वारा परीक्षित किये जाते थे। योग्यता के आधार पर उनका प्रवेश होता था। चीन देश के ह्वेनसाँग महोदय ने उन विश्वविद्यालयों की (UPBoardSolutions.com) व्यवस्था की बहुत-बहुत प्रशंसा की है। हाय खेद है! समय के कठोर प्रहार से आज उनका अस्तित्व भी स्मृति से परे हो गया है। उसके साथ ही भारत की भारतीयता भी प्रायः समाप्त दिखाई पड़ रही है। राष्ट्र की उन्नति के लिए निरन्तर प्रयत्न करने वाले राष्ट्र के नेताओं का प्रथम कर्तव्य है कि वे नयी और पुरानी शिक्षा-व्यवस्था का समान अनुपात में मेल करके शिक्षा की योजना बनाएँ, तभी राष्ट्र में राष्ट्रभक्त पुरुष उत्पन्न होंगे और राष्ट्र की उन्नति होगी। .

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
प्राचीन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के सम्बन्ध में पठित अंश के आधार पर दस : वाक्य लिखिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत आये शीर्षक ‘प्राचीन गुरुकुलीय शिक्षा-व्यवस्था की सामग्री को अपने शब्दों में लिखें।]

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प्ररन 2
‘प्राचीन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था’ पाठ के आधार पर गुरु-शिष्य सम्बन्धों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत आये शीर्षक ‘गुरु और शिष्य का सम्बन्ध’ की सामग्री को अपने शब्दों में लिखें।]

प्ररन 3
बौद्धयुगीन शिक्षा-पद्धति पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत आये ‘बौद्धयुगीन शिक्षा प्रणाली शीर्षक की सामग्री को अपने शब्दों में लिखें।]

प्ररन 4
शिक्षा के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए इस पर पाश्चात्य प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत आये शीर्षकों; “शिक्षा के स्वरूप और शिक्षा एवं संस्कृति पर पाश्चात्य प्रभाव’; की सामग्री को अपने शब्दों में लिखें।

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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 4 राष्ट्रपिता महात्मा गन्धी (गद्य – भारती)

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 4
Chapter Name राष्ट्रपिता महात्मा गन्धी (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 36
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 4 राष्ट्रपिता महात्मा गन्धी  (गद्य – भारती)

पाठ-सारांश

भारतभूमि पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया है। उनमें महात्मा गाँधी का नाम श्रद्धा के साथ लिया जाता है। सारा संसार उनके स्वदेश-प्रेम, सत्याग्रह और मानवमात्र के प्रति सहज स्नेह को देखकर आश्चर्य करता है। दुबला-पतला शरीर होने पर भी उन्होंने अपने सुदृढ़ आत्मबल से अंग्रेजों के शासन को हिला दिया था। यही कारण था कि विश्वकवि रवीन्द्र ने उन्हें महात्मा’ शब्द से सम्बोधित किया।

प्रारम्भिक जीवन-महात्मा गांधी का जन्म गुजरांत प्रान्त के पोरबन्दर नामक नगर में 2 अक्टूबर, सन् 1869 ई० को हुआ था। इनके पिता का नाम कर्मचन्द और माता का पुतलीदेवी था। गाँधी जी की माता पुतलीदेवी सत्यनिष्ठ व धर्मपरायणा महिला थीं। गाँधी जी के जीवन पर माता के, धार्मिक जीवन (UPBoardSolutions.com) का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। सन् 1888 ई० में उच्च-शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड जाते समय माता ने उन्हें मांस न खाने और मदिरा न पीने का उपदेश दिया। वहाँ अपनी माता जी के उपदेश का पालन करते हुए, इन्होंने कानून की शिक्षा ग्रहण की और अपने देश लौट आये।

दक्षिण अफ्रीका गमन-इंग्लैण्ड से लौटकर गाँधी जी ने बम्बई में वकालत करना प्रारम्भ कर दिया। तभी अफ्रीका निवासी कुछ धनी भारतीय उन्हें एक अभियोग में पैरवी के लिए अफ्रीका ले गये। वहाँ भारतीयों पर अंग्रेजों के अत्याचारों को देखकर इनका हृदय अत्यन्त दुःखी हुआ। वहाँ कचहरियों, दफ्तरों, रेलयानों, मार्गों और सड़कों पर काले-गोरे का भेद दिखाई देता था। वहाँ गाँधी जी जब रेल में प्रथम श्रेणी में यात्रा कर रहे थे, तब गोरों ने उन्हें बाहर धकेल दिया था। इस घटना से दु:खी गाँधी जी ने लोगों को अंग्रेजी शासन से मुक्ति दिलाने (UPBoardSolutions.com) की प्रतिज्ञा की और सत्याग्रह आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। प्रवासी भारतीयों में अंग्रेजी शासन से मुक्ति पाने के लिए एक नयी जागृति उत्पन्न हुई। अंग्रेजों ने गाँधी जी को बार-बार जेल में बन्द किया, परन्तु उनका आन्दोलन उग्रतर होता गया।

भारत वापसी-गाँधी जी सन् 1915 ई० में एक जननेता के रूप में भारत लौट आये। यहाँ उनकी गोपालकृष्ण गोखले से मुलाकात हुई। उनकी सलाह से इन्होंने भारत के विभिन्न भागों का भ्रमण करके लोगों की दीनता, दरिद्रता और अशिक्षा को प्रत्यक्ष देखा। उन्होंने अंग्रेजों के कृपापात्र ऐसे भारतीयों को भी देखा, जो श्रमिकों को अधिक-से-अधिक कष्ट दे सकते थे। इन्होंने परतन्त्रता को सब दुःखों का मूल कारण जानकर उसे नष्ट करने का निश्चय किया। | चम्पारन आन्दोलन-गाँधी जी ने बिहार के चम्पारन जिले में नील की खेती करने वाले किसानों के साथ अंग्रेज भूस्वामियों के अमानवीय अत्याचारों को सम्माप्त करने के लिए आन्दोलन किया। गाँधी जी का यह भारत में प्रथम आन्दोलन था। इस आन्दोलन की सफलता से लोगों ने इन्हें अपना नेता स्वीकार कर लिया और राष्ट्रपिता’ कहना आरम्भ कर दिया। ‘

असहयोग आन्दोलन-भारतीयों पर अंग्रेजों के बढ़ते हुए अत्याचारों को रोकने के लिए गाँधी जी ने सन् 1920 ई० में असहयोग आन्दोलन आरम्भ कर दिया। उन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार विदेशियों की नौकरियों और उपाधियों का परित्याग आदि के द्वारा इस आन्दोलन का स्वरूप निर्धारित किया। भारतीयों ने इस आन्दोलन में निर्भीकता से भाग लिया। हजारों भारतीय बन्दी बना लिये गये और गाँधी जी को भी (UPBoardSolutions.com) छह वर्ष के लिए जेल में डाल दिया गया। गाँधी जी ने इस आन्दोलन में सत्य और अहिंसा नाम के दो अस्त्र भारतीयों को प्रदान किये। सत्याग्रहियों द्वारा ‘चौरी-चौरा’ नामक स्थान पर हुई हिंसा के कारण यह आन्दोलन स्थगित कर दिया गया।

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सविनय अवज्ञा आन्दोलन–गाँधी जी सन् 1926 ई० में जेल से रिहा हुए। सरकार द्वारा नमक पर कर लगाये जाने के विरोध में इन्होंने सन् 1930 ई० में सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ किया। इस आन्दोलन के लिए गाँधी जी के साथ-साथ उस समय के चोटी के स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों ने गुजरात के दाण्डी ग्राम से समुद्र तक पैदल यात्रा की और समुद्र के जल से नमक बनाकर नमक-कानून का उल्लंघन किया। इस आन्दोलन का इतना व्यापक प्रभाव हुआ कि गाँव-गाँव, नगर-नगर, गली-गली में नमक बनाया जाने लगा, जिसे सरकार न रोक सकी।‘अंग्रेजो!

भारत छोड़ो आन्दोलन–अंग्रेज शासकों ने सबल भारत को विखण्डित करने के लिए हिन्दू-मुस्लिम, अस्पृश्यता, वर्ण आदि की समस्याओं को उभारा। महात्मा जी ने अनशन द्वारा भारत की अखण्डता की रक्षा की। अनेक आन्दोलन चलाये जाने पर भी अंग्रेजों द्वारा भारत को स्वतन्त्रता देने में रुचि नहीं दिखाई गयी; अतः 8 अगस्त, सन् 1942 ई० में बम्बई में कांग्रेस के अधिवेशन में महात्मा जी ने अंग्रेजो! भारत छोड़ो’ नारे की घोषणा की। तुरन्त ही नेहरू, आजाद आदि प्रमुख भारतीय नेताओं को बन्दी बना लिया गया। इस समाचार को सुनकर जनता में क्षोभ फैल गया। उन्होंने बिना नेता के ही देशव्यापी आन्दोलन चलाया। सरकारी भवनों और कार्यालयों (UPBoardSolutions.com) पर तिरंगा झण्डा फहराना उनका मुख्य लक्ष्य था। अपनी छाती फैलाकर यहाँ गोली मारो’, ‘यहाँ गोली मारो’ चिल्लाते हुए वीर बालक घूमने लगे। अंग्रेजों की गोलियाँ भी उनकी गति को न रोक सकीं। एक के गोली लगने पर दूसरा उसका स्थान ले लेता था, परन्तु ध्वज को नीचे न गिरने देता था। इस अनुपम बलिदान से विदेशी शासन हिल गया। 15 अगस्त,सन् 1947 ई० को अंग्रेज भारत को भारतवासियों को सौंपकर स्वदेश चले गये और भारत स्वतन्त्र हो गया।

सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता-गाँधी जी सत्याग्रह द्वारा सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त कराना चाहते थे। उन्होंने अहमदनगर में साबरमती नदी के तट पर अपना आश्रम बनाया। बाद में यह आश्रम वर्धा के पास सेवाग्राम में लाया गया। यहाँ गाँधी जी ने स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग व ग्रामोद्योगों के प्रचार द्वारा जनता को दरिद्रता से मुक्ति दिलाने हेतु उन्हें चरखे से सूत बनाना सिखाया। उन्होंने इस सबके (UPBoardSolutions.com) लिए बुनियादी शिक्षा का स्वरूप प्रस्तुत किया। उनका विश्वास था कि शिक्षा से ही सामाजिक बुराइयों को दूर किया जा सकता है।

रामराज्य की कल्पना-गाँधी जी अपने मन में कल्पित रामराज्य का साकार चित्र भारत-भूमि पर देखना चाहते थे; अतः उन्होंने भारत में कोई दुःखी, अज्ञानी, अवगुणी न रहे, श्रम की प्रतिष्ठा हो, दलितों और शोषितों के प्रति स्नेह हो आदि द्वारा रामराज्य की कल्पना की। उनके मार्ग का अनुसरण करके हम अपने देश का उत्थान कर सकते हैं।

33 वर्षों तक अंग्रेजों के साथ जूझने और देश को स्वतन्त्र कराने वाले गाँधी जी 30 जनवरी, सन् 1948 ई० को एक विक्षिप्त भारतीय की गोली से आहत होकर ‘राम-राम’ (UPBoardSolutions.com) कहते हुए परलोक सिधार गये। उनके द्वारा मानवों के कल्याण के लिए प्रज्वलित ज्योति सदा प्रकाश देती रहेगी, इसमें सन्देह नहीं है।

गघांशों का सासन्दर्भ अनुवाद

(1) बहवो महापुरुषाः स्वजन्मनाऽमुं भारतभुवं समलञ्चक्रुः। तेषु विशिष्टगुणाकरेषु श्रद्धास्पदेषु महापुरुषेषु महात्मनो गान्धिनो नाम को वी न जानाति? न केवल भारतवर्ष, समग्रं विश्वं तस्य स्वदेशानुरागं सत्यं प्रति तस्याग्रहं, मानवमात्रप्रति तस्य सहजस्नेहमवलोक्य, विस्मितमिव तिष्ठति। क्षीणकायोऽसौ महापुरुषः प्रस्तरादपि कठोरः रिक्तहस्तोऽपि स्वतपोबलेन आङ्ग्लैजातिशासनमकम्पयत्। यदासौ स्वसत्याहिंसास्त्राभ्यां स्वमातृभूमेः पारतत्र्यशृङ्खलामुच्छेत्तुं निश्चिकाय, तदाऽन्येऽनेके स्मयमाना अब्रुवन् , सत्यमहिंसाञ्चानुसृत्य क्वचित् गिरिकानने निर्जने वा प्रदेशे तपश्चरितुं कश्चित् क्षमते न तु क्रूरकुटिलनीतिकलाकलुषितैः वैदेशिकशासकैः सह योद्धं क्षमेत। परं गान्धिना तत्सर्वं कृतं यदन्येभ्यः शशशृङ्गमिवासीत्।

विश्वकविः रवीन्द्रस्तस्याप्रतिमं नूतनमिव क्रियाकौशलमात्मनः सबलत्वं च प्रत्यक्षीकृत्य . ‘महात्मा’ शब्देन तं सम्बोधितवान्।

शब्दार्थ-
अमुं = इस।
भारतभुवं = भारतभूमि को।
समलञ्चक्रुः = भली-भाँति सुशोभित किया।
विशिष्टगुणाकरेषु = विशिष्ट गुणों के भण्डारों में।
श्रद्धास्पदेषु = श्रद्धा के पात्रों में।
तस्याग्रहम् = उनके आग्रह को।
सहजस्नेहमवलोक्य = स्वाभाविक प्रेम को देखकर।
विस्मितम् =आश्चर्यचकित।
क्षीणकायः = पतले-दुबले शरीर वाला।
प्रस्तरात् = पत्थर से।
उच्छेत्तुम् = काटने के लिए।
निश्चिकाय = निश्चित किया।
स्मयमाना = आश्चर्य करते हुए।
अनुसृत्य = अनुसरण करके।
कानने = वन में।
क्षमते = समर्थ हो सकता है।
योदधुं = युद्ध करने के लिए।
क्षमेत = समर्थ।
शशशृंम् = खरगोश के सींग; अर्थात् असम्भव वस्तु।
प्रत्यक्षीकृत्य = साक्षात् देखकर।।

सन्दर्भ
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित राष्ट्रपिता महात्मा गान्धी’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

संकेत
इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में महात्मा गाँधी के दृढ़-निश्चयी एवं देश-प्रेमी स्वभाव के विषय में बताया गया है।

अनुवाद
बहुत-से महापुरुषों ने अपने जन्म से इस भारतभूमि को सुशोभित किया है। उन विशिष्ट गुणों के अँण्डार, श्रद्धा के योग्य महापुरुषों में महात्मा गाँधी का नाम कौन नहीं जानता है? केवल भारतवर्ष ही नहीं, सम्पूर्ण संसार अपने देश के प्रति उनके प्रेम, सत्य के प्रति उनके आग्रह, मनुष्यमात्र के प्रति उनके स्वाभाविक स्नेह को देखकर विस्मित-सा रह जाता है। दुर्बल शरीर वाले पत्थर से भी कठोर इस महापुरुष ने खाली हाथ होते हुए भी अपने तप की शक्ति से अंग्रेजों के शासन को हिला दिया। जब उन्होंने अपने सत्य और अहिंसा के अस्त्रों (UPBoardSolutions.com) से अपनी मातृभूमि की पराधीनता की जंजीर को तोड़ने का निश्चय किया, तब दूसरे अनेक आश्चर्य करते हुए बोले-“सत्य और अहिंसा का अनुसरण करके कहीं पर्वतों, वनों या निर्जन । प्रदेश में तप करने में कोई समर्थ हो सकता है, किन्तु क्रूर, कुटिल, नीति-कला में कलुषित विदेशी शासकों । के साथ युद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकता है। परन्तु गाँधी जी ने वह सब किया, जो दूसरों के लिए खरगोश के सींग के समान अर्थात् असम्भव वस्तु था।

विश्वकवि रवीन्द्र ने उनके अनुपम और नवीन क्रिया-कौशल को और आत्मा की सबलता को प्रत्यक्ष देखकर ही उन्हें महात्मा’ शब्द से सम्बोधित किया। |

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(2) महात्मा गान्धी सौराष्ट्रमण्डले पोरबन्दरनाम्नि लघुनगरे ऊनसप्तत्युत्तराष्टादशशततमे ख्रीष्टाब्दे अक्टूबरमासस्य द्वितीये दिनाङ्के स्वजन्मना धरणीतलमलञ्चकार। तस्य पिता कर्मचन्दः माता च पुतलीदेवी आस्ताम। पुत्रानाम्ना सह पितुर्नामापि प्रयोक्तव्यमिति। तत्रत्यपरम्परानुसारं स मोहनदासकर्मचन्दगान्धीति नाम्ना प्रसिद्धो जातः।

शब्दार्थ
ऊनसप्तत्युत्तराष्टादशशततमे = 1869 में। धरणीतलमलञ्चकार (धरणीतलं + अलं + चकार) = धरणी (पृथ्वी) तल को सुशोभित किया। प्रयोक्तव्यम् = प्रयोग करना चाहिए। तत्रत्यपरम्परानुसारं = वहाँ की परम्परा के अनुसार।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी के जन्म-स्थान और माता-पिता का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
महात्मा गाँधी ने सौराष्ट्र (गुजरात) प्रान्त में पोरबन्दर नाम के छोटे नगर में 1869 ई० में अक्टूबर मास की दो तारीख को अपने जन्म से पृथ्वीमण्डल को सुशोभित किया। उनके पिता कर्मचन्द और माता पुतलीदेवी थे। “पुत्र के नाम के साथ पिता का नाम भी प्रयोग करना चाहिए ऐसी वहाँ की परम्परा के अनुसार वे ‘मोहनदास कर्मचन्द गाँधी’ इस नाम से प्रसिद्ध हुए। |

(3) गान्धिमहोदयस्य जननी ‘पुतली देवी’ सातिशयं सत्यरता, धर्मपरायणा, व्रतोपवासादिविधौ श्रद्दधाना श्रद्धेया चासीत्। गान्धिनः जीवनपद्धत्यां तस्य मातुष्प्रभावः सुस्पष्टं दरीदृश्यते। अष्टाशीत्युत्तराष्टादशशततमे वर्षे उच्चशिक्षार्थं से इङ्ग्लैण्डदेशं जगाम। प्रस्थानकाले जननी मांसादिभक्षणं न कर्तुं मदिरां न स्पष्टुम् तमनुशास्ति स्म। गान्धी मातुः शिक्षामनुसरन्नेव तत्र शिक्षा जग्राह। अधिवक्त्र्युपाधिनात्मानमलङ्कृत्य स्वदेशं प्रत्याजगाम।

शब्दार्थ-
सातिशयं = अत्यधिक।
श्रद्दधाना = श्रद्धा रखती हुई (श्रद्धा रखने वाली)।
दरीदृश्यते = दिखाई पड़ता है।
अष्टाशीत्युत्तराष्टादशशततमे = 1888 में।
स्पष्टुम् = स्पर्श करने के लिए।
अनुशास्ति स्म = उपदेश दिया।
जग्राह = ग्रहण की।
अधिवक्त्र्युपाधिनात्मानम- लङ्कृत्य (अधिवक्तृ + उपाधिनी + आत्मानम् + अलङ्कृत्य) = बैरिस्टर की उपाधि से अपने आपको सुशोभित करके।
प्रत्याजगाम = लौट आया।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी पर पड़े माता के प्रभाव और उनकी शिक्षा का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
गाँधी जी की माता ‘पुतलीदेवी’ अत्यन्त सत्यनिष्ठ, धार्मिक, व्रत-उपवास आदि में श्रद्धा रखने वाली और श्रद्धा के योग्य थीं। गाँधी जी की जीवन-पद्धति पर उनकी माता का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। 1888 ईसवी वर्ष में वे उच्च-शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड देश गये। जाते समय माता ने मांसादि न खाने और मदिरा को न छूने का उपदेश दिया था। गाँधी जी ने माता की शिक्षा का अनुसरण करते हुए ही वहाँ शिक्षा ग्रहण की। वकालत की उपाधि से अपने को अलंकृत करके अपने देश लौट आये।

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(4) इंग्लैण्डदेशाद् प्रतिनिवृत्य मुम्बईनगरे अधिवक्तृकर्म प्रारब्धं स यदा सयनोऽभवद् तदैव अफ्रिकादेशे निवसन्तः कतिपये धनिनो भारतीयाः अफ्रिकादेशस्थे न्यायालये स्वन्यायपक्षस्य प्रस्तुत्यर्थं गान्धिनम् अफ्रिकादेशमनयन्। तत्र अफ्रिकादेशे आङ्ग्लजातीयानी शासनमासीत्। तत्र निवसतः भारतीयान्प्रति आङ्ग्लशासकानां तदधिकारिणाञ्च घोरमत्याचारं वीक्ष्य तस्य हृदयं भृशमयत। वयं श्वेताः (UPBoardSolutions.com) यूयं कृष्णा इत्यपूर्वो भेदः तैः प्रचारितः। न्यायालयेषु, कार्यालयेषु, रेलयानेषु पथिषु वीथीषु चैष भेदः दृश्यते स्म। एकदा गान्धिमहोदयः रेलयानस्य प्रथमश्रेण्या गच्छनासीत्। रेलयानस्य प्रथमश्रेण्यां यात्रार्थं श्वेताङ्गा एवाधिकृता आसन्। अतः श्वेताधिकारिणः रेलयानात्तं बलाबहिश्चक्रुः।

शब्दार्थ—
प्रतिनिवृत्य = लौटकर।
सयत्नः = प्रयत्नशील।
प्रस्तुत्यर्थम् = प्रस्तुत करने के लिए।
अनयत् = ले गये। वीक्ष्य = देखकर।
भृशम् = अत्यधिक।
अद्यत = दु:खी हुए। वीथीषु = गलियों .. में।
गच्छन्नासीत् = जा रहे थे।
बलाबहिश्चक्रुः = बलपूर्वक बाहर कर दिया। .

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के प्रति गौरांगों के घोर अत्याचारों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
इंग्लैण्ड देश से लौटकर मुम्बई नगर में जब वे वकालतं का काम प्रारम्भ करने के लिए प्रयत्नशील थे, तभी अफ्रीका देश के रहने वाले कुछ धनी भारतीय अफ्रीका के न्यायालय में अपने न्याय-पक्ष को प्रस्तुत करने के लिए गाँधी जी को अफ्रीका देश ले गये। वहाँ अफ्रीका देश में अंग्रेज जाति का शासन था। वहाँ रहने वाले भारतीयों के प्रति अंग्रेज शासकों और उनके अधिकारियों के घोर अत्याचारों को देखकर उनका हृदय बहुत दुःखित हुआ। हम श्वेत हैं, तुम काले हो, यह अपूर्व भेद उन्होंने चला रखा था। कचहरियों, दफ्तरों, रेलगाड़ियों, (UPBoardSolutions.com) रास्तों, गलियों में यह भेद दिखाई पड़ता था। एक दिन गाँधी जी रेलगाड़ी की प्रथम श्रेणी में जा रहे थे। रेलगाड़ी की प्रथम श्रेणी में यात्रा करने के लिए गौरांग ही अधिकृत थे; अत: गोरे अधिकारियों ने उन्हें रेलगाड़ी से बलपूर्वक बाहर कर दिया।

(5) घटनैषा गान्धिनः जीवनसरणिमेव पर्यवर्त्तयत्। राज्यसभायामवमानितः कौटिल्यो नन्दवंशासनोच्छेदाय यथा सङ्कल्पं व्यधात् तथैव गान्धी अपि आङ्ग्लशासनाज्जनेभ्यो मुक्तिं प्रदापयितुं प्रतिजज्ञे। अन्यायं सोढ्वा जीवनं तदपेक्षया मरणमेव वरमित्युदघुष्यासौ स्वसत्याग्रहान्दोलनं तत्र प्रारभत। सत्याग्रहान्दोलनं सर्वथा नूतनमश्रुतपूर्वमासीत्। नूतनं जनानाकर्षयति हि। अफ्रिकादेशवासिषु (UPBoardSolutions.com) भारतीयेषु चाङ्ग्लशासनादुन्मुक्तये नवा जागर्तिः सागरे ऊर्मिमालेव समुत्थिता। आङ्ग्लशासकैर्गान्धिमहोदयः बहुबारं कारागारे निक्षिप्तः परमेतेन तस्य सङ्कल्पः दृढात् दृढतरो जीतः। अधिवक्तृरूपेणाफ्रिकादेशं गतः जननेतृ- रूपेणासौ पञ्चदशोत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे भारतं स्वमातृभूमिं प्रत्याजगामा ।

शब्दार्थ-
घटनैषा = यह घटना।
जीवनसरणिम् = जीवन के मार्ग को।
पर्यवर्त्तयत् = बदल दिया।
अवमानितः = अपमानित हुए।
व्यधात् = धारण किया।
प्रदापयितुम्= दिलाने के लिए।
प्रतिजज्ञे = प्रतिज्ञा की।
सोढ्वा = सहन करके।
उदघुष्य = घोषणा करके।
अभुतपूर्वम् = पहले कभी न सुना गया।
नवा = नयी।
जागर्तिः = जागरण।
ऊर्मिमालेव = लहरों के समूह की तरह।
कारागारे = जेल में।
निक्षिप्तः = डाला।
दृढात् दृढतरो = दृढ़ से दृढ़तर।
पञ्चदशोत्तरैकोनविंशतिशततमे = 1915 ई० में।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में अंग्रेजों द्वारा अपमानित किये जाने पर गाँधी जी द्वारा अफ्रीका में सत्याग्रह आन्दोलन करने एवं वहाँ रहने वाले भारतीयों में नयी चेतना जगाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
इस घटना ने गाँधी जी के जीवन-मार्ग को ही बदल दिया। उन्होंने अंग्रेजी शासन को समूल नष्ट करने का संकल्प उसी तरह ले लिया, जिस तरह चाणक्य ने राज्यसभा में अपमानित होकर

नन्दवंश के शासन को समाप्त करने का संकल्प लिया था। “अन्याय को सहकर जीने की अपेक्षा मरना । ही अच्छा है, यह घोषणा करके, उन्होंने वहाँ अपनी सत्याग्रह आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। सत्याग्रह आन्दोलन सब प्रकार से नया तथा पहले कभी न सुना गया था। नवीनता लोगों को आकृष्ट करती ही है। अफ्रीका देश में रहने वाले. भारतीयों में अंग्रेजी शासन से मुक्ति के लिए नयी जागृति समुद्र में लहरों के समूह की (UPBoardSolutions.com) तरह उठ गयी। अंग्रेज शासकों ने गाँधी जी को बहुत बार जेल में डाला, परन्तु इससे उनको संकल्पे मजबूत से और मजबूत होता गया। वकील के रूप में अफ्रीका गये हुए वे जननेता के रूप में 1915 ई० में अपनी मातृ-भूमि भारत लौट आये।।

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(6) अत्रागत्य अखिलभारतीयकाङ्ग्रेसदलस्य विश्रुतस्य गोखले’ इति संज्ञया ख्यातस्य गोपालकृष्णगोखलेमहोदयस्य सान्निध्यं तेनावाप्तम्। तस्य परामर्शमनुसृत्य गान्धी भारतस्य विभिन्नभागानां यात्रां कृत्वां जनदशया प्रत्यक्षमवगतोऽभवत्। यात्राप्रसंङ्गे तेन प्रत्यक्षीकृतं यद् विशिष्टजनेषु एव राष्ट्रभावना व्यापृता तामेवाधिश्रित्य तिष्ठति।

शब्दार्थ-
अत्रागत्य (अत्र + आगत्य) = यहाँ आकर।
विश्रुतस्य = प्रसिद्ध संज्ञया = नाम से।
ख्यातस्य = विख्यात।
सान्निध्यम् = समीपता, सम्पर्क।
अवाप्तम् = प्राप्त किया।
अनुसृत्य = अनुसरण करके।
प्रत्यक्षमवगतोऽभवत् (प्रत्यक्षम् + अवगतः + अभवत्) = प्रत्यक्ष जानकार हुए।
व्यापता = फैली हुई थी।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में भारत लौटे हुए गाँधी जी को भारत की प्रत्यक्ष दशा के ज्ञात होने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
यहाँ आकर उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस दल के बहुत प्रसिद्ध, ‘गोखले’ नाम से विख्यात गोपालकृष्ण गोखले के सान्निध्य को प्राप्त किया। उनकी सलाह का अनुसरण करके गाँधी जी भारत के विभिन्न भागों की यात्रा करके लोगों की दशा से प्रत्यक्ष रूप से अवगत हो गये। यात्रा के समय उन्होंने प्रत्यक्ष देखा कि विशेष लोगों में ही राष्ट्रभावना फैली हुई है, (और वह) उसी का सहारा लेकर बैठी है; अर्थात् इस भावना को प्रसार नहीं हो रहा है।

(7) भारतीयेषु व्याप्तं दैन्यं, दारिद्रयमशिक्षा चासौ दृष्टवान्। श्रमिकाणामेव सततपरिश्रमेणार्जितवित्तबलेन, शैत्यतापप्रभावशून्यासु विशालासु सौधशालासु निवसन्तः किं नाम कष्टमित्यजानन्तस्तान् श्रमिकान् विविधैः क्लेशैः पीडयन्तः को वा कियत् कष्टं दातुं क्षमेतेति स्पर्धाशीलाः आङ्ग्लशासकानां प्रीतिमवाप्तुं तत्पराः आङ्ग्लानां कृपाश्रयभूताः वैभवशालिनो, भारतीयाः गान्धिनः दृष्टिपथमागताः। श्रमिकभूतानां (UPBoardSolutions.com) दैन्यपराभूतजीवनानां जीवनं धनिभिः पालितेभ्यः श्वभ्योऽपि हीनतरं गान्धिना दृष्टम्। तस्य हृदयं सहस्रधा विदीर्णम्। पारतन्त्र्यमेवैतस्य हेतुरिति हेतुरेवोच्छेद्यः स मनसि निश्चिकाय।।

शब्दार्थ-
अर्जितवित्तबलेन = कमाये हुए धन के बल से।
शैत्यतापप्रभावशून्यासु = ठण्ड और गर्मी के प्रभाव से रहित।
सौधशालासु = भवनों में कियत् = कितना।
स्पर्धाशीलाः = होड़ में लगे हुए।
प्रीतिमवाप्तुम् = प्रसन्नता को प्राप्त करने में लगे हुए।
पराभूत = पराजित, विवश।पालितेभ्यः = पालितों (आश्रितों) के लिए।
श्वभ्यः = कुत्तों से।
विदीर्णम् = टूट गया।
उच्छेद्यः = दूर करने योग्य।
निश्चिकाय = निश्चित किया।

प्रसंग
अफ्रीका से भारत लौटकर गाँधी जी ने भारतीयों की दीनता, दरिद्रता और अशिक्षा को प्रत्यक्ष देखा और उसके मूल कारण परतन्त्रता को निश्चित किया। इसी का वर्णन प्रस्तुत गद्यांश में किया गया है।

अनुवाद
(उन्होंने) भारतीयों में व्याप्त दीनता, दरिद्रता और अशिक्षा को देखा। मजदूरों के ही लगातार परिश्रम से कमाये हुए धन के बल से शीत और ताप के प्रभाव से रहित विशाल महलों में रहते हुए, ‘कष्ट क्या है?’ यह न जानते हुए, उन मजदूरों को अनेक कष्टों से पीड़ित करते हुए ‘कौन कितना कष्ट देने में समर्थ है?’ इस प्रकार की होड़ में लगे हुए, अंग्रेज शासकों की प्रसन्नता को प्राप्त करने में लगे हुए, अंग्रेजों के कृपापात्र, (UPBoardSolutions.com) ऐश्वर्यसम्पन्न भारतवासी गाँधी जी की दृष्टि में आये। गाँधी जी ने दीनता से व्याप्त जीवन वाले मजदूर लोगों के जीवन को धनी लोगों द्वारा पालित कुत्तों से भी बदतर देखा और उनका हृदय हजारों टुकड़ों में फट गया। उन्होंने गुलामी ही इसका कारण है; अत: कारण ही मिटाने योग्य है, ऐसा मन में निश्चय किया।

(8) बिहारप्रान्ते चम्पारणजनपदे नीलकृषकैः सह आङ्ग्लैः भूस्वामिभिः क्रियमाणममानवीयमत्याचारं समापयुितं सत्याग्रहं सः समारब्धवान्। तेन भूस्वामिनः क्रूरतरान् स्वात्याघारान् परित्यक्तुं विवशा अभवन्। गान्धिनः स्वदेशभूमावयं प्रथमः सत्याग्रहः प्रथमश्च तस्य विजयः आसीत्।।

शब्दार्थ-
नीलकृषकैः = नील की खेती करने वाले कृषक।
क्रियमाणम् = किये गये।
अमानवीय = क्रूर।
समापयितुम् = समाप्त करने के लिए।
समारब्धवान् = आरम्भ किया।
परित्यक्तुम् = छोड़ने के लिए।
स्वदेशभूमावयम् (स्वदेशभूमौ + अयम्) = अपने देश की भूमि पर यह।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी के प्रथम सत्याग्रह और प्रथम विजय का वर्णन है। |

अनुवाद
उन्होंने (गाँधी जी ने) बिहार प्रान्त में चम्पारन जिले में नील की खेती करने वाले किसानों के साथ अंग्रेज जमींदारों के द्वारा किये गये अमानवीय अत्याचार को समाप्त करने के लिए। सत्याग्रह आरम्भ किया। उससे जमींदार अपने क्रूरता भरे अत्याचारों को छोड़ने के लिए विवश हो गये। अपने देश की भूमि पर गाँधी जी का यह प्रथम सत्याग्रह और उनकी पहली विजय थी।

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(9) चम्पारणान्दोलने तस्य नेतृत्वक्षमता प्रमाणिता जाता। समग्रोऽपि देशः स्वनेतृरूपेण समङ्गीचकार। गान्धिमहोदयोऽपि भारतमेकसूत्रे निबध्नन् देशाय राष्ट्ररूपमददात्। जनाः स्वकृतज्ञता ज्ञापयन्तस्तं राष्ट्रपितेत्यब्रुवन्।।

शब्दार्थ-
समग्रः = सम्पूर्ण।
अङ्गीचकार = स्वीकार कर लिया।
निबध्नन् = बाँधता हुआ।
ज्ञापयन्तः = जनाते (व्यक्त करते) हुए।
अब्रुवन् = बोले।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी की नेतृत्व-क्षमता की प्रामाणिकता के बारे में बताया गया है।

अनुवाद
चम्पारन (बिहार) जिले के आन्दोलन में उनकी (गाँधी जी की) नेतृत्व की योग्यता प्रमाणित हो गयी। सम्पूर्ण देश ने उन्हें अपने नेता के रूप में स्वीकार कर लिया। गाँधी जी ने भी भारत को एक सूत्र में बाँधते हुए देश को राष्ट्र का रूप प्रदान किया। लोगों ने अपनी कृतज्ञता को प्रकट करते हुए उन्हें राष्ट्रपिता’ कहा।

(10) विंशत्युत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे प्रतिदिनमेधमानानाङ्ग्लशासकानामत्याचारान् प्रतिरोद्धमसौ असहयोगाख्यमान्दोलनं प्रवर्तयामास। वैदेशिकवस्तूनि परिहर्त्तव्यानि, वैदेशिकसेवाः परित्यक्तव्याः, वैदेशिकशिक्षालयेषु न पठितव्यम् , वैदेशिकोपाधयः परिहातव्याः, राष्ट्रियविद्यालयाः स्थापयितव्यास्तेषु पठितव्यमिति तत्स्वरूपं तेन व्याख्यातम्। भारतीयजनाः तस्मिन्नान्दोलने, भूयसोत्साहन सम्मिलिता (UPBoardSolutions.com) अभवन्। महात्मन् आत्मशक्त्या निःशस्त्रिणोऽपि भारतीयाः निर्भीका अभवन्। दण्डात् तेषां किं भयं ये दण्डमेव स्वेच्छया आलिङ्गितुं सन्नद्धाः।

शाब्दार्थ-
एधमानान् = बढ़ते हुए।
प्रतिरोद्धम् = रोकने के लिए।
प्रवर्तयामास = चलाया।
परिहर्त्तव्यानि = छोड़ देनी चाहिए।
स्थापयितव्याः = स्थापना करनी चाहिए।
भूयसा = अत्यधिक।
आलिङ्गितुम् = आलिंगन (चुम्बन) करने के लिए।
सन्नद्धाः = तैयार।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी द्वारा चलाये गये असहयोग आन्दोलन का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
सन् 1920 ई० में अंग्रेज शासकों के प्रतिदिन बढ़ते हुए अत्याचारों को रोकने के लिए उन्होंने ‘असहयोग’ नाम का आन्दोलन चलाया। विदेश की वस्तुएँ छोड़ देनी चाहिए, विदेशियों की नौकरियों को त्याग देना चाहिए, विदेशियों के स्कूलों में नहीं पढ़ना चाहिए, विदेशियों की उपाधियों को छोड़ देना चाहिए, राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना करनी चाहिए, उन्हीं में पढ़ना चाहिए, उन्होंने उसको ऐसा स्वरूप बतलाया। (UPBoardSolutions.com) भारतवासी उस आन्दोलन में अत्यन्त उत्साह से सम्मिलित हुए। महात्मा जी के आत्मबल से शस्त्ररहित होते हुए भी भारतवासी निडर हो गये। उनको दण्ड का क्या भय है, जो दण्ड को ही अपनी इच्छा से गले लगाने को तैयार हैं।

(11) उपाधिधारिभिरुपाधयः परित्यक्तताः शिक्षार्थिभिः शिक्षकैश्च शिक्षालयाः परित्यक्ताः, वैदेशिकवस्त्राणि वह्नौ दग्धानि। सहस्रशो भारतीयाः बन्दीकृताः। महात्माऽपि राजद्रोहारोपे षड्वर्षाणि यावत् कारागारे निक्षिप्तः। जनाः वैदेशिकदमनचक्रेणाक्रान्ताः भृशमुत्पीडिताः जाताः।।

शब्दार्थ-
वह्नौ = अग्नि में दग्धानि = जला दिये।
निक्षिप्तः = डाल दिया।
भृशम् उत्पीडिताः = अत्यधिक पीड़ित।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी द्वारा चलाये गये असहयोग आन्दोलन में भारतीयों के . सम्मिलित होने का एवं अंग्रेजी सरकार द्वारा किये गये दमन-चक्र का वर्णन है। ।

अनुवाद
उपाधिधारियों ने उपाधियाँ त्याग दीं। विद्यार्थियों और शिक्षकों ने विद्यालय छोड़ दिये। विदेशी वस्त्र अग्नि में जला दिये गये। हजारों भारतवासी बन्दी बना लिये गये। महात्मा जी को भी राजद्रोह के अपराध में छ: वर्ष के लिए जेल में डाल दिया गया। लोग विदेशियों के दमन-चक्र से आक्रान्त हुए अत्यधिक पीड़ित हो गये।

(12) आन्दोलनेऽस्मिन् महात्मना सत्याहिंसारूपे अस्त्रद्वयं भारतीयेभ्यः प्रदत्तम्। स्वराज्यापेक्षयाऽप्येते महत्त्वपूर्ण स्त इति तस्य दृढं मतमासीत्। अतएव चौरी-चौरा नामके (UPBoardSolutions.com) स्थाने सत्याग्रहिभिः प्रवर्तितां हिंसावृत्तिमाकण्र्य महात्मना सत्याग्रहः झटिति स्थगितः। इतरे भारतीया नेतारः महात्मन एतेन निश्चयेन विस्मिताः खिन्नाश्चाभूवन्। परं जना अनुशासनस्य महन्निदर्शनं प्रस्तुतवन्तः। महात्मनो माहात्म्यं तदानीं परां कोटिमवाप्नोत्।

शब्दार्थ-
प्रवर्तिताम् = चलायी जा रही।
आकर्य = सुनकर।
झटिति = तत्काल, तुरन्त।
महन्निदर्शनम् (महत् + निदर्शनम्) = बड़ा उदाहरण।
परां कोटिम् अवाप्नोत् = चरम सीमा को प्राप्त हुआ।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी के द्वारा आन्दोलन के स्थगित किये जाने का वर्णन है।’

अनुवाद
इस आन्दोलन में महात्मा जी ने सत्य और अहिंसा के रूप में दो अस्त्र भारतीयों को प्रदान किये। अपने राज्य की अपेक्षा से भी ये दोनों महत्त्वपूर्ण हैं, ऐसा उनका पक्का विचार था। इसलिए ‘चौरी-चौरा’ नामक स्थान पर सत्याग्रहियों के द्वारा चलायी जा रही हिंसावृत्ति को सुनकर महात्मा जी ने सत्याग्रह आन्दोलन को तत्काल स्थगित कर दिया। दूसरे भारतीय नेता महात्मा जी के इस निश्चय से विस्मित और खिन्न हो गये। परन्तु लोगों ने अनुशासन का महान् उदाहरण प्रस्तुत किया। महात्मा जी का महत्त्व उस समय ‘चरम सीमा को प्राप्त हुआ।

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(13) वैदेशिकशासनेन जीवनाय परमोपयोगिनि वस्तुनि लवणे करं निर्धारितम्। एतन्निरोद्धं त्रिंशदुत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे ‘सविनयावज्ञाख्यान्दोलनं तेन प्रारब्धम्। तदर्थं गुर्जरप्रान्तस्यै दाण्डीग्रामाद् समुद्रपर्यन्तं पदयात्रा तेन विहिता। दाण्डीग्रामादासमुद्रमेषा यात्रा ग्रामाद् ग्राम प्रेयन्ती (UPBoardSolutions.com) सहस्रशो जनान् नरान् नारीश्चात्मन्यामेलितवती समुद्रतटमुपगम्य सागरजलाल्लवणं निर्माय तैः जनैः महात्मना च तद्विधानस्य सविनयमवज्ञा कृता। ग्रामें ग्रामे नगरे नगरे वीथीषु वीथीषु लवणनिर्माणं संवृत्तम्। शासनं तन्निरोद्धं न शशाक। वायुवेगेनोन्मत्तान् सागरतरङ्गान् किं तटबन्धः रोद्धं क्षमेत? |

शब्दार्थ-
लवणे करें = नमक पर कर (टैक्स)।
एतत् निरोद्धम् = इसे रोकने के लिए।
विहिता = की।
आसमुद्रम् = समुद्र तक।
प्रेरयन्ती = प्रेरणा देती हुई।
ऑमेलितवती = मिल लिया।
निर्माय = बनाकर।
विधानस्य = कानून की।
अवज्ञा = अवहेलना।
वीथीषु = गलियों में।
संवृत्तम् = सम्पन्न हुआ।
न शशाक = समर्थ नहीं हुआ।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में विदेशी सरकार द्वारा नमक पर लगाये गये कर के विरोध में गाँधी जी द्वारा चलाये गये सविनय अवज्ञा आन्दोलन का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
विदेशी सरकार ने जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी वस्तु नमक पर कर (टैक्स) लगा दिया। इसे रोकने के लिए उन्होंने गाँधी जी ने) सन् 1930 ईसवी में ‘सविनय अवज्ञा’ नाम का आन्दोलन प्रारम्भ किया। इसके लिए उन्होंने गुजरात प्रान्त के दाण्डी ग्राम से समुद्र तक पैदल यात्रा की। दाण्डी ग्राम से (UPBoardSolutions.com) समुद्र तल की इस यात्रा ने गाँव-गाँव को प्रेरित करते हुए हजारों लोगों (स्त्री-पुरुषों) को अपने में मिला लिया। समुद्र के तट पर जाकर सागर के जल से नमक बनाकर उन लोगों और महात्मा जी के द्वारा उस कानून की विन

यपूर्वक अवहेलना की गयी। गाँव-गाँव, नगर-नगर, गली-गली में नमक बनाया गया। शासन के लिए उसे रोकना सम्भव न रहा। वायु के वेग से मतवाली सागर की तरंगों को क्या तट का बाँध रोक सकता है? (अर्थात् नहीं रोक सकता)।

(14) महात्मनः गान्धिनः सत्याहिंसाभ्यां भृशमुद्विग्नाः कुटिलराजनयकुशलाः वैदेशिक शासकाः हिन्दु-मुस्लिम-स्पृश्यास्पृश्यादिवर्णसमस्यामुद्घाट्य महात्मनः प्रभावादेकसूत्रे आबद्धं सबलं भारतं विखण्डयितुमुपचक्रिरे। महात्मा अनशनव्रतेन तेषां तेषां पक्षग्राहिणां च प्रयत्न निष्फलं चकार। महात्मा गान्धी स्वप्राणानपि अविगणय्य राष्ट्रस्यैकत्वमखण्डत्वरक्षत्।

शब्दार्थ-
उद्विग्नाः = परेशान हुए।
उद्घाट्य = उभारकर, फैलाकर।
चिखण्डयितुम् = खण्डित करने के लिए।
उपचक्रमे = प्रारम्भ किया।
अविगणय्य = न गिनकर, परवाह न करके।
ऐकत्वमखण्डत्वम् = एकता, अखण्डता।
अरक्षत् = बचाया।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी के द्वारा अंग्रेजों की कुटिल नीति के विफल किये जाने का वर्णन है।

अनुवाद
महात्मा गाँधी की सत्य और अहिंसा से बहुत परेशान हुए कुटिल राजनीति में चतुर विदेशी शासकों ने हिन्दू-मुसलमान, छुआछूत आदि की जातीय समस्या को उभार कर महात्मा जी के प्रभाव से एक सूत्र में बँधे हुए शक्तिशाली भारत के टुकड़े करने प्रारम्भ कर दिये। महात्मा जी ने अनशन व्रत (UPBoardSolutions.com) के द्वारा उन-उन पक्ष लेने वालों (शासकों और उनके अनुयायियों) के प्रयत्न को व्यर्थ कर दिया। महात्मा गाँधी ने अपने प्राणों की भी परवाह न करके राष्ट्र की एकता और अखण्डता की रक्षा की।

(15) महात्मनो नेतृत्वे बहूनि आन्दोलनानि प्रवृत्तानि जातानि। वैदेशिकशासकैस्तथापि भारताय स्वातन्त्र्यं प्रदातुं रुचिर्न प्रदर्शिता। बहुविधं व्याजमालम्ब्य कालात्ययमेव ते कुर्वन्त आसन्। अतः द्वाचत्वारिंशदुत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे अगस्तमासस्याष्टमे दिनाङ्के मुम्बईनगरे सम्पन्ने काङ्ग्रेसाधिवेशने महात्मना घोषितम्-आङ्ग्ला भारतं त्यजत। त्यज भारतमिति नाम्ना विश्रुतमिदमान्दोलनं भारतमुक्तेः सरणि सरलां चकार। सद्य एव तत्रोपस्थिताः नेहरू-आजादपटेल-प्रसाद-देसाई-प्रभृतयः प्रमुखनेतारो महात्मना सह निगृहीताः कारागारे च बन्दीकृताः। वृत्तमिदं विद्युद्गत्या भारतवर्षे जनेषु प्रावर्त्तत। समग्रो देशः झञ्झावातेन विक्षुब्धसागर इव सङ्क्षुब्धः सञ्जातः। नेतृभिः विनाऽपि सम्पूर्णदेशमभिव्याप्य जनान्दोलनं प्रारब्धम्। ग्रामे ग्रामे नगरे नगरे स्वविवेकेन स्वरीतया चान्दोलनमिदं जनाः समचालयन्। राजकीयभवनेषु कार्यालयेषु च स्वत्रिवर्णध्वजारोपणमेवासीन्मुख्य लक्ष्यम्। ध्वजारोपणयज्ञे बहवः युवकाः कुमाराश्च स्वप्राणान् अत्यजन्। तेषां शरीरं गुलिकाभिः हतं भूमावपतत् किन्तु ध्वजो नाऽपतत्।

पततस्तस्मात्कश्चिदन्योध्वजमगृह्णात्। तदानीन्तनमद्भुतं शौर्य्यमप्रतिमं साहसं देशप्रेम्णः लोकोत्तरं निदर्शनं प्रस्तुतं भारतीयैःस्ववक्षः प्रसार्य स्वहस्तेन च प्रदश्र्य (UPBoardSolutions.com) अत्र गुलिकां मारय’ ‘अत्र गुलिकां मारय’ इति नदन्तः कुमारवीराः आसन्। आग्नेयास्त्रेभ्यः सततं प्रक्षिप्ताः गुलिकास्तेषां गतिमवरोद्धं नाऽशक्नुवन्। गुलिकया कश्चिन्निहतश्चेपरः तत्स्थानमगृह्णात्। अहिंसयाऽनुप्राणितास्ते वीराः प्रतिरोधमकुर्वाणाः मृत्योर्वरणमकुर्वन्। इत्थमासीदस्माकं युववर्गस्य छात्राणां च मरणस्पर्धा।

शब्दार्थ-
प्रवृत्तानि जातानि = शुरू (जारी) हुए।
प्रदातुम् = प्रदान करने के लिए।
व्याजम् आलम्ब्य = बहानों का सहारा लेकर।
कालात्ययम् = समय बिताना।
सरणिम् = मार्ग को।
सद्य एव = तुरन्त ही।
निगृहीताः = पकड़ लिये गये।
प्रावर्त्तत = फैल गया।
झञ्झावातेन = आँधी-तूफान से।
सङ्क्षुब्धः = व्याकुल।
सञ्जातः = हो गया।
स्वरीत्या = अपनी रीति से।
अत्यजन् = त्याग दिये।
गुलिकाभिः = गोलियों से।
स्ववक्षः = अपनी छाती।
प्रसार्य = फैलाकर आग्नेयास्त्रेभ्यः = बन्दूकों द्वारा।
प्रक्षिप्ताः = फेंकी गयीं, दागी गयीं।
नदन्तः = चिल्लाते हुए।
प्रतिरोधम् = रुकावट।
वरणम् = चमन। मरणस्पर्धा = मरने की होड़।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में महात्मा गाँधीजी के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का रोमांचक वर्णन किया गया है।

अनुवाद
महात्मा जी के नेतृत्व में बहुत-से आन्दोलन शुरू हुए, तो भी विदेशी शासकों ने स्वतन्त्रता प्रदान करने में रुचि नहीं दिखायी। अनेक प्रकार के बहाने बनाकर वे समय ही व्यतीत करते रहे। इसलिए सन् 1942 ईसवी में अगस्त महीने की 8 तारीख को बम्बई (अब मुम्बई) नगर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में महात्मा जी ने घोषणा की “अंग्रेजो! भारत छोड़ो।” “भारत छोड़ो’ इस नाम से प्रसिद्ध इस आन्दोलन ने भारत की स्वतन्त्रता का मार्ग सरल कर दिया। तत्काल ही वहाँ उपस्थित नेहरू, आजाद, पटेल, प्रसाद, देसाई (UPBoardSolutions.com) आदि प्रमुख नेताओं को महात्मा जी के साथ पकड़ लिया गया और जेल में बन्दी बना दिया गया। यह समाचार बिजली की गति से भारतवर्ष के लोगों में फैल गया। सारा देश तूफान से विक्षुब्ध सागर की तरह क्षुब्ध हो गया। नेताओं के बिना भी सम्पूर्ण देश में
जनान्दोलन शुरू हो गया। गाँव-गाँव में, नगर-नगर में अपने विवेक से और अपने ढंग से लोगों ने इस ‘ आन्दोलन को चलाया। सरकारी इमारतों और दफ्तरों पर अपना तिरंगा झण्डा फहराना ही इस | (आन्दोलन) का मुख्य लक्ष्य था। ध्वज को फहराने के यज्ञ में बहुत-से युवकों और बालकों ने अपने । प्राण न्योछावर कर दिये।

उनका शरीर गोलियों से घायल होकर भूमि पर गिरा किन्तु (उनके हाथों का) ध्वज नहीं गिरा। गिरते हुए उससे (व्यक्ति से) ध्वज कोई दूसरा ले लेता था। उस समय अद्भुत वीरता और अतुल साहस को दिखाकर भारतीयों ने देश-प्रेम का अलौकिक उदाहरण प्रस्तुत किया। अपनी छाती को फैलाकर और अपने हाथ से दिखाकर “यहाँ गोली मारो, यहाँ गोली मारो” इस प्रकार वीर बालक चिल्ला रहे थे। बन्दूकों से लगातार (UPBoardSolutions.com) फेंकी (चलायी) गयी गोलियाँ भी उनकी गति को नहीं रोक सकीं। यदि कोई गोली से मरता तो दूसरा उसका स्थान ले लेता था। अहिंसा से अनुप्राणित उन वीरों ने प्रतिरोध न करते हुए मृत्यु का वरण किया। इस प्रकार यह हमारे युवावर्ग और छात्रों के मरने की होड़ थी।

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(16) अनेनाप्रतिमेनात्मोत्सर्गकर्मणा वैदेशिकशासनं प्रकम्पते स्म। सप्तचत्वारिंश| दुत्तरैकोनविंशतिशततमे अगस्तमासस्य पञ्चदशदिनाङ्के भारतस्य शासनं भारतीयेभ्यः समर्थ्य वैदेशिकाः शासकाः स्वदेशं गताः। भारतं स्वतन्त्रमभवत्।।

शब्दार्थ-
आत्मोत्सर्गकर्मणा = आत्मबलिदान के कार्य से।
प्रकम्पते स्म = काँप गया।
समर्थ्य = सौंपकर।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में स्वतन्त्रता-प्राप्ति का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
इस अतुलनीय आत्म-बलिदान के कार्य से विदेशियों का शासन काँप गया। सन् 1947 ईसवी में अगस्त महीने की 15 तारीख को विदेशी शासक भारत के शासन को भारतीयों को सौंपकर अपने देश को चले गये। भारत स्वतन्त्र हो गया।

(17) सः स्वसत्याग्रहेण राजनीतिकं सामाजिकमार्थिकञ्च स्वातन्त्र्यं प्राप्तुं प्रायतत। अफ्रिकादेशादागत्य स अहमदनगरस्यान्तिके साबरमतीनद्यतटे आश्रमं स्थापितवान्। तत्र त्रिविधं लक्ष्यमभिलक्ष्य नराः नार्यश्च शिक्षिताः जाताः, पश्चादसावाश्रमः वर्धासमीपं सेवाग्राममानीतः। (UPBoardSolutions.com) तत्र राजनीतिककार्यक्रमात्पृथक् रचनात्मक कार्यक्रमः तेन प्रारब्धः। स्वदेशिवस्तूनामुपयोगः ग्रामोद्योगस्य प्रचारः दारिद्रयान्मुक्तेरुपायश्च गान्धिना समुपदिष्टाः। तेन चर्खायन्त्रेण कार्पाससूत्रनिर्माणं प्रशिक्षितम्। वैदेशिकशासने भारतीयहस्तशिल्पं वस्तूनिर्माणकलाकौशलं विनष्टम्। तत्पुनरुज्जीव्यैव दारिद्रयान्मुक्तिः सम्भवेति तस्य दृढ़ो विचारः आसीत्। एतदर्थ स आधारभूत

कलाकौशलसम्पृक्तां शिक्षानीतिं प्रास्तौत्। अज्ञानादेवीस्पृश्यतादिदोषाः समाजे समुत्पन्नाः | शिक्षया एव तदूरीकर्तुं शक्यन्ते इति तेनोक्तम्।

शब्दार्थ-
प्रायतत = प्रयत्न किया।
अन्तिके = पास।
अभिलक्ष्य = सामने रखकर।
समुपदिष्टाः = उपदेश दिया।
कार्पाससूत्रनिर्माणम् = सूती धागा बनाना।
तत्पुनरुज्जीव्यैवे (तत् + पुनः + उज्जीव्य + एव) = उसे पुनः जीवित करके ही।
सम्पृक्तां = अच्छी प्रकार मिली हुई को।
प्रास्तौत् = प्रस्तुत किया।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी द्वारा चलाये गये रचनात्मक कार्यक्रमों का वर्णन है। |

अनुवाद
उन्होंने अपने सत्याग्रह से राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता को प्राप्त करने का प्रयत्न किया। अफ्रीका से आकर उन्होंने अहमदनगर के समीप साबरमती नदी के किनारे एक आश्रम स्थापित किया था। वहाँ तीन प्रकार के लक्ष्य को लेकर नर-नारी शिक्षित हुए। बाद में यह (UPBoardSolutions.com) आश्रम वर्धा के पास सेवाग्राम, में लाया गया। वहाँ उन्होंने राजनीतिक कार्यक्रम से अलग रचनात्मक कार्यक्रम प्रारम्भ किया। गाँधी जी ने अपने देश की वस्तुओं का उपयोग, ग्रामोद्योग का प्रचार और गरीबी से छुटकारे के उपाय का उपदेश दिया।

उन्होंने चर्खा यन्त्र से सूती धागे का निर्माण करना सिखाया। विदेशियों के शासन में भारतीय हस्तकला, वस्तु-निर्माण का कला-कौशल नष्ट हो गया था। उसको पुनर्जीवित करके ही गरीबी से छुटकारा सम्भव हो सकता है, यह उनका दृढ़ विचार था। इसके लिए उन्होंने बुनियादी कला-कौशल से मिली शिक्षा-नीति को प्रस्तुत किया। “अज्ञान से ही छुआछूत आदि दोष समाज में उत्पन्न हुए हैं, शिक्षा से ही उन्हें दूर किया जा सकता है, ऐसा उन्होंने बताया।

(18) स्वमनसि भारतभुवः प्रकल्पिततस्या चित्रस्यानुरूपं भारतराष्ट्रं द्रष्टुं स कामयते स्म। अतस्तेन भारते रामराज्यस्य कल्पना कृता। तस्मिन् कश्चिद् दीनः, न कश्चिद् दुःखी, न कश्चिद्बुधः, न वा कश्चिद् गुणहीनः भविष्यति। श्रमं प्रति प्रतिष्ठा सर्वान्प्रति समदर्शित्वं दलितान् शोषितान्प्रति स्नेहः (UPBoardSolutions.com) साधनस्यापि पवित्रत्वं सर्वधर्मान्प्रति सहिष्णुतादिभावाः तस्य , जीवनदर्शनस्याङ्गभूता आसन्। |

शब्दार्थ
स्वमनसि = अपने मन में।
प्रकल्पितं = कल्पना किया गया।
कामयते स्म = चाहते थे।
अबुधः = अंज्ञानी।
समदर्शित्वम् = समान दृष्टित्व।
अङ्गभूताः = प्राणभूत या मुख्य आधार।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी की रामाराज्य की कल्पना का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
वे अपने मन में भारतभूमि के कल्पित चित्र के अनुसार ही भारत राष्ट्र को देखना चाहते थे। इसलिए उन्होंने भारत में रामराज्य की कल्पना की थी। उसमें न कोई दीन, न कोई दुःखी, न कोई अज्ञानी अथवा न कोई गुणहीन होगा। श्रम की प्रतिष्ठा, सबके प्रति समानदर्शिता, दलितों और शोषितों के प्रति स्नेह, साधनों की भी पवित्रता, सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता आदि का भाव उनके जीवन-दर्शन के अंगभूत (अंगस्वरूप) थे।

(19) महात्मना गान्धिना प्रदर्शितो मार्गे व्यापको वर्तते। तत्प्रदर्शितमार्गमनुसृत्यैव वयं स्वराष्ट्रस्याभ्युत्थानं विधातुं शक्नुमः।त्रयस्त्रिंशद्वर्षाणि यावद वैदेशिकैः शासकैः सह सङ्घर्षरत अष्टचत्वारिंशदूत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे जनवरीमासस्य त्रिंशे दिनाङ्के भारतीयेनैव केनचिन्मत्तेन दिल्लीनगरे हिंसितः (UPBoardSolutions.com) ‘हे राम’ इत्युच्चरन् मृत्युलोकमुत्सृज्य दिवङ्गतः। तत्प्रज्वालितं ज्योतिः विश्वस्मिन् विश्वे मानवजातेः परित्राणाय सततं प्रकाशं दास्यतीति नाऽत्र संशयलेशः।

शब्दार्थ-
अनुसृत्यैव (अनुसृत्य + एव) = अनुसरण करके ही।
अभ्युत्थानं = उन्नति।
विधातुं = करने के लिए।
शक्नुमः = सकते हैं।
त्रयस्त्रिंशद्वर्षाणि = तैंतीस वर्ष।
यावत् = तक।
उन्मत्तेन = पागल द्वारा।
हिंसितः = मारे गये।
उत्सृज्य = छोड़कर।
दिवंगत = स्वर्ग को चले गये।
प्रज्वालितं = जलाया हुआ।
विश्वस्मिन्= इस संसार में।
परित्राणाय = रक्षा के लिए।
संशयलेशः = थोड़ा-सा भी सन्देह।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी की हत्या किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
महात्मा गाँधी के द्वारा दिखाया गया मार्ग व्यापक है। उनके द्वारा दिखाये गये मार्ग का अनुसरण करके ही हम अपने राष्ट्र की उन्नति करने में समर्थ हो सकते हैं। | तैंतीस वर्ष तक विदेशी शासकों के साथ संघर्ष करते हुए सन् 1948 ईसवी में जनवरी महीने की तीस तारीख को किसी एक (UPBoardSolutions.com) उन्मत्त (विक्षिप्त) भारतवासी के द्वारा ही दिल्ली नगर में मारे गये, ‘हे राम’ का उच्चारण करते हुए मनुष्यलोक को छोड़कर स्वर्ग सिधार गये। उनके द्वारा जलाई गयी ज्योति इस संसार में मानव-जाति की रक्षा के लिए निरन्तर प्रकाश देगी, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
गाँधी जी के प्रारम्भिक जीवन और शिक्षा पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत ‘प्रारम्भिक जीवन’ शीर्षक देखें।

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प्ररन 2
महात्मा गाँधी के दक्षिण अफ्रीका में किये गये कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों और अंग्रेजों की रंग-भेद की नीति को देखकर गाँधी जी को बहुत दु:ख हुआ। गाँधी जी ने वहाँ अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने हेतु सत्याग्रह
आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। इससे वहाँ अंग्रेजी शासन के विरुद्ध जन-जागृति उत्पन्न हुई। सन् 1919 ई० में वे भारत वापस लौट आये।

प्ररन 3
गाँधी जी के चम्पारन आन्दोलन के विषय में लिखिए। या महात्मा गाँधी को ‘राष्ट्रपिता’ किस कारण कहा गया?
उत्तर
संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत ‘चम्पारन आन्दोलन’ शीर्षक देखें।

प्ररन 4
महात्मा गाँधी द्वारा ‘असहयोग आन्दोलन’, ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ और ‘ ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ कब-कब किये गये? इनका संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर
संकेत-‘पाठे-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत इन आन्दोलनों से सम्बद्ध अनुच्छेद देखें।

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UP Board Solutions for Class 9 Social Science History Chapter 8 पहनावे का सामाजिक इतिहास

UP Board Solutions for Class 9 Social Science History Chapter 8 पहनावे का सामाजिक इतिहास

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
अठारहवीं शताब्दी में पोशाक शैलियों और सामग्री में आए बदलावों के क्या कारण थे?
उत्तर:

  1. लोगों की आर्थिक स्थिति ने उनके वस्त्रों में अंतर ला दिया।
  2. स्त्रियों में सौन्दर्य की भावना ने उनके वस्त्रों में परिवर्तन ला दिया।
  3. समानता को महत्त्व देने के लिए लोग साधारण वस्त्र पहनने लगे।
  4. राजतंत्र व शासक वर्ग के विशेषाधिकार समाप्त कर दिए गए।
  5. फ्रांसीसी क्रान्ति ने सम्प्चुअरी कानूनों को समाप्त कर दिया।
  6. फ्रांस के रंग लाल, नीला तथा सफेद, देशभक्ति के प्रतीक बन गए अर्थात् इन तीनों रंगों के वस्त्र लोकप्रिय होने लगे।
  7. लोगों की वस्त्रों के प्रति रुचियाँ अलग-अलग थीं।
  8. तंग लिबास व कॉर्सेट पहनने से युवतियों में अनेक बीमारियाँ तथा विरूपताएँ आने लगीं थीं।
  9. यूरोप में सस्ते व अपेक्षाकृत सुंदर भारतीय वस्त्रों की माँग बढ़ गयी थी।
  10. फांसीसी क्रान्ति के उपरान्त फ्रांस में महिलाएँ और पुरुष दोनों ही आरामदेह व ढीले-ढाले वस्त्र पहनने लगे थे, जिनका अन्य यूरोपीय देशों पर प्रभाव पड़ा।

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प्रश्न 2.
फ्रांस में सम्प्चुअरी कानून क्या थे?
उत्तर:
सन् 1294 से 1789 ई0 की फ्रांसीसी क्रान्ति तक फ्रांस के लोगों को सम्प्चुअरी कानूनों का पालन करना पड़ता था। इन कानूनों द्वारा समाज के निम्न वर्ग के व्यवहार को नियंत्रित (UPBoardSolutions.com) करने का प्रयास किया गया। फ्रांसीसी समाज के विभिन्न वर्गों के लोग किस प्रकार के वस्त्र पहनेंगे इसका निर्धारण विभिन्न कानूनों द्वारा किया जाता था।
इन कानूनों को सम्प्चुअरी कानून (पोशाक संहिता) कहा जाता था। फ्रांस में सम्प्चुअरी कानून इस प्रकार थे-

  1. किसी व्यक्ति के सामाजिक स्तर द्वारा यह निर्धारित होता था कि कोई व्यक्ति एक वर्ष में कितने कपड़े खरीद सकता था।
  2. साधारण व्यक्तियों द्वारा कुलीनों जैसे कपड़े पहनने पर पूर्ण पाबंदी थी।
  3. शाही खानदान तथा उनके संबंधी ही बेशकीमती कपड़े (एमइन, फर, रेशम, मखमल अथवा जरी आदि) पहनते थे।
  4. निम्न वर्गों के लोगों को खास-खास कपड़े पहनने, विशेष व्यंजन खाने, खास तरह के पेय (मुख्यतः शराब) पीने और शिकार खेलने की अनुमति नहीं थी।

यथार्थ में ये कानून लोगों के सामाजिक स्तर को प्रदर्शित करने के लिए बनाए गए थे। उदाहरण के लिए रेशम, फर, एर्माइन मखमल, जरी जैसी कीमती वस्तुओं का प्रयोग केवल राजवंश के लोग ही कर सकते थे। अन्य वर्गों के लोग इसका प्रयोग नहीं कर सकते थे।

प्रश्न 3.
यूरोपीय पोशाक संहिता और भारतीय पोशाक संहिता के बीच दो फर्क बताइए।
उत्तर:
यूरोपीय और भारतीय पोशाक संहिता के बीच दो अंतर निम्नलिखित हैं-

  1. यूरोपीय पोशाक संहिता में तंग वस्त्रों को महत्त्व दिया जाता था जबकि भारतीय पोशाक संहिता में आरामदेह तथा ढीले- ढाले वस्त्रों को अधिक महत्त्व दिया जाता था।
  2. यूरोपीय पोशाक संहिता कानूनी समर्थन पर आधारित थी, जबकि भारतीय पोशाक संहिता को सामाजिक समर्थन प्राप्त था।
  3. यूरोप के लोग हैट पहनते थे जिसे वे स्वयं से उच्च सामाजिक स्तर के लोगों के सामने सम्मान प्रकट करने के लिए उतारते थे जबकि भारत के लोग अपने को गर्मी से बचाने के लिए पगड़ी पहनते थे और यह सम्मान का सूचक थी। इसे इच्छानुसार बार-बार नहीं उतारा जाता था।

प्रश्न 4.
1805 में अंग्रेज अफसर बेंजमिन होइन ने बंगलोर में बनने वाली चीजों की एक सूची बनाई थी, जिसमें निम्नलिखित उत्पाद भी शामिल थे-

  • अलग-अलग किस्म और नाम वाले जनाना कपड़े।
  • मोटी छींट।
  • मखमल।
  • रेशमी कपड़े।

बताइए कि बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में इनमें से कौन-कौन से किस्म के कपड़े प्रयोग से बाहर चले गए होंगे, और क्यों?
उत्तर:
20वीं सदी के प्रारंभिक देशकों में इनमें से रेशमी और मखमल के कपड़ों का प्रयोग सीमित हो गया होगा क्योंकि-

  1. यह कपड़े यूरोपीय कपड़ों की तुलना में बहुत महंगे थे।
  2. स्वदेशी आंदोलन ने लोगों में रेशमी वस्त्रों का त्याग करने को प्रेरित किया।
  3. इस समय तक इंग्लैण्ड के कारखानों में बना सूती कपड़ा भारत के बाजारों में बिकने लगा था। यह कपड़ा देखने में सुंदर, हल्का व सस्ता था।

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प्रश्न 5.
उन्नीसवीं सदी के भारत में औरतें परंपरागत कपड़े क्यों पहनती रहीं जबकि पुरुष पश्चिमी कपड़े पहनने लगे थे? इससे समाज में औरतों की स्थिति के बारे में क्या पता चलता है?
उत्तर:
19वीं सदी में भारत में केवल उन्हीं उच्च वर्गीय भारतीयों ने पश्चिमी कपड़े पहनना आरंभ किया जो अंग्रेजों के संपर्क में आए थे। साधारण भारतीय समुदाय इस काल में परंपरागत भारतीय वस्त्रों को ही पहनता था। हमारा समाज मुख्यतः पुरुष प्रधान है और महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे पारिवारिक सम्मान को बनाए रखें। उनसे सुशील एवं अच्छी गृहिणी बनने की अपेक्षा की जाती थी। वे पुरुषों जैसे वस्त्र (UPBoardSolutions.com) नहीं पहन सकती थीं और इसलिए, उन्होंने पारंपरिक परिधान पहनना जारी रखा। यह सीधे तौर पर महिलाओं को समाज में निम्न दर्जा हासिल होने का सूचक है। इस काल में साधारण महिलाओं की सामाजिक स्थिति घरेलू जिम्मेदारियों के निर्वहन तक ही सीमित थी परंतु उच्च वर्गीय महिलाएँ शिक्षित होने के साथ-साथ राजनीति तथा समाजसेवा जैसे महत्त्वपूर्ण कार्यों से जुड़ी हुई थीं।

प्रश्न 6.
विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि महात्मा गाँधी ‘राजद्रोही मिडिल टेम्पल वकील से ज्यादा कुछ नहीं हैं और ‘अधनंगे फकीर का दिखावा कर रहे हैं। चर्चिल ने यह वक्तव्य क्यों दिया और इससे महात्मा गाँधी की पोशाक की प्रतीकात्मक शक्ति के बारे में क्या पता चलता है?
उत्तर:
इस समय महात्मा गाँधी की छवि भारतीय जनता में एक ‘महात्मा’ एवं मुक्तिदाता के रूप में उभर रही थी। गाँधी जी की वेशभूषा सादगी, पवित्रता और निर्धनता का प्रतीक थी जो भारतीय जनता के विचारों और स्थिति को प्रतिबिम्बित करती थी। इस कारण महात्मा गाँधी की पोशाक की प्रतीकात्मक शक्ति चर्चिल के साम्राज्यवाद का विरोध करती हुई प्रतीत हुई और उन्होंने महात्मा गाँधी के विषय में प्रश्नगत् टिप्पणी की।

प्रश्न 7.
समूचे राष्ट्र को खादी पहनाने का गाँधीजी का सपना भारतीय जनता के केवल कुछ हिस्सों तक ही सीमित क्यों रहा?
उत्तर:
प्रत्येक भारतीय को खादी के वस्त्र पहनाने का आँधीजी का स्वप्न कुछ हिस्सों तक सीमित रहने के निम्नलिखित कारण थे-

  1. भारत का उच्च अभिजात्य वर्ग मोटी खादी के स्थान पर हल्के व बारीक कपड़े पहनना पसंद करता था।
  2. अनेक भारतीय पश्चिमी शैली के वस्त्रों को (UPBoardSolutions.com) पहनना आत्मसम्मान का प्रतीक मानते थे।
  3. सफेद रंग की खादी के कपड़े महंगे थे, तथा उनका रख-रखाव भी कठिन था, जिसके कारण निम्न वर्ग के मेहनतकश लोग इसे पहनने से बचते थे। इसलिए महात्मा गाँधी के विपरीत बाबा साहब अम्बेडकर जैसे अन्य राष्ट्रवादियों ने पाश्चात्य शैली का सूट पहनना कभी नहीं छोड़ा। सरोजनी नायडू और कमला नेहरू जैसी महिलाएँ भी हाथ से बुने सफेद, मोटे कपड़ों की जगह रंगीन व डिजाइनदार साड़ियाँ पहनती थीं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ब्रह्मिका साड़ी देश के किस भाग में अधिक लोकप्रिय थी?
उत्तर:
यह साड़ी प्रमुख रूप से बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में लोकप्रिय थी।

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प्रश्न 2.
रवीन्द्रनाथ टैगोर किस पोशाक को राष्ट्रीय पोशाक के रूप में डिजाइन करना चाहते थे?
उत्तर:
वे हिन्दू और मुसलमान दोनों प्रमुख समुदायों के मेल से पोशाक डिजाइन करना चाहते थे, जिसमें बटनदार लंबा कोट पुरुषों के लिए सबसे उपयुक्त पोशाक थी।

प्रश्न 3.
महात्मा गाँधी ने लुंगी-कुर्ता पहनने का प्रयोग कब शुरू किया?
उत्तर:
1913 ई० में डरबन (दक्षिण अफ्रीका) में महात्मा गाँधी ने पहली बार यह परिधान धारण किया।

प्रश्न 4.
फ्रांस में सम्प्चुअरी कब से कब तक लागू रहे?
उत्तर:
फ्रांस में सम्प्चुअरी कानून 1294 ई0 से 1789 ई0 तक प्रभावी रहा।

प्रश्न 5.
विक्टोरियाई समाज में महिलाओं की स्थिति बताइए। उत्तर- विक्टोरियाई समाज में बचपन से ही महिलाओं को आज्ञाकारी, खिदमती, सुशील तथा दब्बू होने की शिक्षा दी जाती थी। प्रश्न 6. पादुका सम्मान से क्या आशय है?
उत्तर:
अंग्रेजों की ऐसी सोच थी कि भारतीय किसी भी पवित्र स्थान में घुसने से पहले जूते उतारते हैं, इसलिए किसी भी सरकारी संस्था में प्रवेश करने से पहले उन्हें जूते उतारने चाहिए। इस नियम को ‘पादुका सम्मान के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 7.
1870 ई0 के दशक में अमेरिका में पोशाक सुधार के समर्थकों के क्या विचार थे?
उत्तर:

  1. कपड़ों को सरल बनाया जाए।
  2. कार्सेट का परित्याग किया जाए।
  3. स्कर्ट की लंबाई छोटी की जाए।

प्रश्न 8.
त्रावणकोर रियासत की शनार जाति पर लागू प्रतिबन्धों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. ऊँची जाति वालों के सामने शनार स्त्री-पुरुष शरीर के ऊपरी भाग को नहीं ढंक सकते थे।
  2. शनार लोग सोने के आभूषण नहीं पहन सकते थे।
  3. शंनार लोग जूते नहीं पहन सकते थे।
  4. शनार लोग छतरी लेकर नहीं चल सकते थे।

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प्रश्न 3.
20वीं सदी की शुरुआत में कृत्रिम रेशों से बने कपड़ों की माँग क्यों बढ़ गयी थी?
उत्तर:
ये कपड़े पूर्व प्रचलित कपड़ों की तुलना में सस्ते, हल्के, आरामदायक होते थे। इन कपड़ों को पहमनी और साफ करना आसान था।

प्रश्न 10.
दकियानूसी वर्ग के लोग क्यों पोशाक सुधार का विरोध कर रहे थे?
उत्तर:
उनका ऐसा मानना था कि इससे महिलाओं की शालीनता, खूबसूरती और जनानापन समाप्त हो जाएगा।

प्रश्न 11.
सम्प्चुअरी कानूनों के अंतर्गत राजा-रजवाड़े किस तरह की पोशाक पहन सकते थे?
उत्तर:
इस कानून के अन्तर्गत राजा-रजवाड़े एर्माइन, रेशम, फर, मखमल या जरी की बनी पोशाक ही पहन सकते थे।

प्रश्न 12.
विश्व युद्धों के कारण महिला परिधानों में आए किन्हीं दो बदलावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
विश्व युद्धों के कारण महिला परिधानों में आए दो बदलाव –

  1. यूरोप में औरतों ने जेवर और बेशकीमती कपड़े पहनने छोड़ दिए।
  2. चटख रंगों के स्थान पर हल्के रंग के कपड़े पहने जाने लगे।

प्रश्न 13.
ब्रिटेन में नई सामग्री से नई प्रौद्योगिकी ने किस तरह के सुधार लाने में सहायता की?
उत्तर:
17वीं सदी से पहले फ्लैक्स, लिनेन या ऊन से बने बहुत कम कपड़े प्रयोग में लाए जाते थे। किंतु 1600 ई. के बाद भारत के साथ व्यापार के चलते सस्ती व रखरखाव में आसान भारतीय छींट यूरोप लाई गई। उन्नीसवीं सदी में यूरोप में अधिकाधिक लोगों की सूती कपड़ों तक पहुँच हो गई। बीसवीं (UPBoardSolutions.com) सदी के प्रारंभ तक सस्ते, टिकाऊ एवं रखरखाव तथा धुलाई में आसान कृत्रिम रेश से बने कपड़े प्रयोग किए जाने लगे।

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प्रश्न 14.
1830 के दशक में महिला पत्रिकाओं ने पारंपरिक वस्त्रों के पहनने से किस तरह के नकारात्मक प्रभावके बारे में बतलाया?
उत्तर:
महिला पत्रिकाओं ने बताना शुरू कर दिया कि तंग लिबास व कॉर्सेट पहनने से महिलाओं में विभिन्न तरह की बीमारियाँ और विरूपताएँ आ जाती हैं। ऐसे पहनावे जिस्मानी विकास में बाधा पहुँचाते हैं, इनसे रक्त प्रवाह भी अवरुद्ध होता है। मांसपेशियाँ अविकसित रह जाती हैं और रीढ़ झुक जाती है।

प्रश्न 15.
इंग्लैण्ड की लड़कियों को बचपन में क्या शिक्षा दी जाती थी?
उत्तर:
इंग्लैण्ड की लड़कियों को बचपन में घर व स्कूल में यह शिक्षा दी जाती थी कि पतली कमर रखना उनका नारी सुलभ कर्तव्य है। सहनशीलता स्त्रीत्व का आवश्यक गुण है। आकर्षक व स्त्रियोचित दिखने के लिए उनका कॉर्सेट पहनना आवश्यक था। इसके लिए शारीरिक कष्ट या यातना भोगना मामूली बात मानी जाती थी।

प्रश्न 16.
जेकोबिन क्लब्ज़ के सदस्य स्वयं को क्या कहते थे?
उत्तर:
जेकोबिन क्लब्ज के लोग स्वयं को सेन्स क्लोट्टीज कहते थे।

प्रश्न 17.
इंग्लैण्ड में नेशनल डेस सोसाइटी’ की स्थापना कब की गयी?
उत्तर:
इंग्लैण्ड में सन् 1881 में नेशनल ड्रेस सोसाइटी की स्थापना की गयी।

प्रश्न 18.
स्वदेशी आंदोलन ने किस बात पर विशेष बल दिया?
उत्तर:
भारत में बने माल का अधिक-से-अधिक देशवासियों द्वारा प्रयोग और विदेशी माल का बहिष्कार।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय पहनावे पर स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव बताइए।
उत्तर:
भारत में 20वीं शताब्दी के प्रथम दशक में बंगाल विभाजन के विरोधस्वरूप देश भर में स्वदेशी को अपनाने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने के निमित्त एक जन-आंदोलन आरंभ हुआ। इस आंदोलन के मूल में वस्त्रों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। सस्ते और हल्के ब्रिटिश कपड़ों के प्रचलन के कारण बड़ी संख्या में भारतीय बुनकर बेरोजगार हो गए थे। जब लॉर्ड कर्जन ने 1905 ई० में बंगाल को विभाजित करने का फैसला किया तो ‘बंग-भंग की प्रतिक्रिया में स्वदेशी आंदोलन ने जोर पकड़ा। देशवासियों से अपील की गई कि वे तमाम तरह के विदेशी उत्पादों का बहिष्कार करें और माचिस तथा सिगरेट जैसी चीजों को बनाने के लिए खुद उद्योग लगाएँ। खादी का इस्तेमाल देशभक्ति का कर्तव्य बन गया। महिलाओं से अनुरोध किया गया कि रेशमी कपड़े व काँच की चूड़ियों को फेंक दें और शंख की चूड़ियाँ पहनें। हथकरघे पर बने मोटे कपड़े को लोकप्रिय बनाने के लिए अनेक प्रयास किए गए।

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प्रश्न 2.
अंग्रेजों ने भारत पर राजनैतिक नियंत्रण स्थापित करने के लिए अपने कपड़ा उद्योग को सुधारने के लिए किस प्रकार प्रयास किया?
उत्तर:
अंग्रेज सर्वप्रथम भारत में वस्त्रों को व्यापार करने के लिए आए थे। 17वीं शताब्दी तक विश्व के कुल वस्त्र उत्पादन का एक चौथाई भारत में होता था। किन्तु इंग्लैण्ड में हुई औद्योगिक क्रान्ति ने कताई और बुनाई का मशीनीकरण कर दिया। इसके फलस्वरूप कच्चे माल के रूप में कपास और नील (UPBoardSolutions.com) की माँग बढ़ गयी। परिणामस्वरूप विश्व बाजार में भारत की स्थिति बदल गयी। वस्त्र निर्यातक भारत अब कच्चे माल का निर्यातक बन गया।
अंग्रेजों ने भारत पर राजनैतिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए इसका दो तरीके से इस्तेमाल किया-

  1. वे भारतीय किसानों को नील जैसी फसल की खेती के लिए बाध्य कर पाए और अंग्रेजों द्वारा बनाया गया महीन वे सस्ता कपड़ा भारत में निर्मित मोटे कपड़े का स्थान लेने लगा।
  2. भारत पर राजनीतिक हुकूमत के सहारे ब्रिटेन ने भारतीय बाजार में सस्ते व मिल में बने हुए बारीक वस्त्र पेश किए।
    इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय वस्त्रों के माँग के अभाव में भारतीय बुनकर बड़ी संख्या में बेरोजगार हो गए। मुर्शिदाबाद, मछलीपट्टनम् और सूरत जैसे-प्रमुख सूती वस्त्र केन्द्रों का पतन हो गया जबकि इसी दौरान ब्रिटिश कपड़ा उद्योग केन्द्र का तेजी से विकास हुआ।

प्रश्न 3.
विक्टोरिया कालीन समाज में महिलाओं व पुरुषों की वस्त्र शैलियों की भिन्नता को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
ब्रिटेन में महिलाओं एवं पुरुषों द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों की शैलियों में पर्याप्त भिन्नता थी। इस काल में महिलाओं को बचपन से सुशील और आज्ञाकारी होने की शिक्षा दी जाती थी। आदर्श नारी उसे माना जाता था जो तमाम दुःख दर्द को सह कर भी चुप रहे। जहाँ पुरुषों से धीर-गंभीर, बलवान, आजाद और आक्रामक होने की उम्मीद की जाती थी वहीं औरतों को छुईमुई, निष्क्रिय व दब्बू माना जाता था। पहनावे के रस्मो-रिवाज में भी यह अंतर स्पष्ट रूप से झलकता था। बचपन से ही लड़कियों को सख्त फीतों से बँधे कपड़ों-स्टेज में (UPBoardSolutions.com) कसकर बाँधा जाता था जिससे उनका बदन इकहरा रहे। थोड़ी बड़ी होने पर लड़कियों को बदन से चिपके कॉर्सेट (चुस्त भीतरी कुर्ती) पहनने होते थे। टाइट फीतों से कसी पतली कमर वाली महिलाओं को आकर्षक, शालीन व सौम्य समझा जाता था। इस तरह विक्टोरियाई महिलाओं की अलग छवि बनाने में पोशाक ने अहम् भूमिका निभाई।

प्रश्न 4.
प्रथम विश्व युद्ध के बाद यूरोपीय महिलाओं के परिधान में क्या परिवर्तन आए?
उत्तर:
प्रथम विश्व युद्ध (1914) के शुरू होने के साथ ही महिलाओं के पारंपरिक महिला परिधानों की समाप्ति हो गयी।
इन परिवर्तनों के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-

  1. उन्नीसवीं शताब्दी तक बच्चो के नए स्कूल सादे वस्त्रों पर बल देने और साज-श्रृंगार को निरुत्साहित करने लगे। व्यायाम और खेलकूद लड़कियों के पाठ्यक्रम का अंग बन गए। खेल के समय लड़कियों को ऐसे वस्त्र पहनने पड़ते थे जो इनकी गतिविधि में बाधा न डालें। जब वे काम पर जाती थीं तो वे आरामदेह और सुविधाजनक वस्त्र पहनती थीं।
  2. अनेक यूरोपीय महिलाओं ने आभूषणों तथा विलासमय वस्त्रों का परित्याग कर दिया। फलस्वरूप सामाजिक बंधन टूट गए और उच्च वर्ग की महिलाएँ अन्य वर्गों की महिलाओं के समान दिखाई देने लगीं।
  3. प्रथम विश्व युद्ध की अवधि में अनेक व्यावहारिक आवश्यकताओं के कारण वस्त्रे छोटे हो गए। 1917 ई0 तक ब्रिटेन में 7,00,000 महिलाएँ गोला-बारूद के कारखानों में काम करने लगीं। कामगर महिलाएँ ब्लाउज, पतलून के अतिरिक्त स्कार्फ पहनती थीं जो बाद में खाकी (UPBoardSolutions.com) ओवरआल और टोपी में परिवर्तित हो गया। स्कर्ट की लंबाई कम हो गई। शीघ्र ही पतलून पश्चिमी महिलाओं की पोशाक का अनिवार्य अंग बन गई जिससे उन्हें चलने-फिरने में अधिक आसानी हो गई।
  4. भड़कीले रंगों का स्थान सादे रंगों ने ले लिया। अनेक महिलाओं ने सुविधा के लिए अपने बाल छोटे करवा लिए।

प्रश्न 5.
भारत में स्वदेशी आंदोलन पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
लॉर्ड कर्जन ने ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति बढ़ते विरोध को नियंत्रित करने के लिए बंगाल विभाजन का निर्णय किया। बंगाल विभाजन के इस कदम ने भी भारत में स्वेदशी आंदोलन को बढ़ावा दिया। लोगों ने भारत में प्रचलित प्रत्येक प्रकार के विदेशी सामान का विरोध और बहिष्कार करना आरंभ किया। उन्होंने खादी का प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया, यद्यपि यह मोटी, महँगी तथा रखरखाव में कठिन होती थी। उन्होंने माचिस एवं सिगरेट आदि सामानों के लिए अपने स्वयं के उद्योग स्थापित कर दिए। खादी का प्रयोग देशभक्ति के लिए कर्तव्य बन गया। महिलाओं ने अपने रेशमी कपड़े व काँच की चूड़ियाँ फेंक दीं और सादी शंख की चूड़ियाँ धारण करने लगीं। खुरदरे घर में बनाए गए कपड़ों को लोकप्रिय बनाने के लिए गीतों एवं कविताओं के माध्यम से इनका गुणगान किया गया। इसकी खामियों के बावजूद स्वदेशी के तजुर्बे ने महात्मा गाँधी को यह महत्त्वपूर्ण सीख अवश्य दी कि ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रतीकात्मक हथियार के रूप में कपड़े की कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।

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प्रश्न 6.
शनार महिलाओं के सम्मुख उपस्थित समस्या और उनका समाधान प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
दक्षिणी त्रावणकोर के नायर जमींदारों के यहाँ काम करने वाली शनार (नाडर) ताड़ी निकालने वाली एक जाति थी। नीची जाति का माने जाने के कारण इन लोगों को छतरी लेकर चलने, जूते या सोने के गहने पहनने की मनाही थी। नीची जाति की महिलाओं व पुरुषों से अपेक्षा की जाती थी कि स्थानीय रीति-रिवाज के अनुसार ऊँची जाति वाले लोगों के सामने कभी भी ऊपरी शरीर कोई नहीं ढंकेगा।1820 ई0 के दशक में ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में आकर धर्मांतरित शनार महिलाओं ने अपने तन को ढंकने के लिए उच्च जाति (UPBoardSolutions.com) की महिलाओं की तरह सिले हुए ब्लाउज व कपड़े पहनना प्रारंभ कर दिया। उच्च जाति के लोगों ने शनार महिलाओं के लिए बहुत सी मुसीबतें खड़ी कीं लेकिन शनार महिलाओं ने कपड़े पहनने के तरीके में बदलाव नहीं किया। अंत में त्रावणकोर सरकार द्वारा एक घोषणा द्वारा शनार महिलाओं–चाहे हिंदू हों या ईसाई – को जैकेट आदि से ऊपरी शरीर को अपनी इच्छानुसार ढंकने की अनुमति मिल गई, लेकिन ठीक वैसे ही नहीं जैसे ऊँची जाति की महिलाएँ ढंकती थीं।

प्रश्न 7.
ब्रिटेन में 1915 ई० से पहले ब्रिटेन की महिलाओं के वस्त्रों में होने वाले प्रमुख परिवर्तन कौन-कौन से थे?
उत्तर:
इस अवधि में महिलाओं के परिधानों में निम्नलिखित परिवर्तन हुए-

  1. 1600 के बाद भारत के साथ व्यापार के कारण भारत की सस्ती, सुंदर तथा आसान रख-रखाव वाली भारतीय छींट इंग्लैंड (ब्रिटेन) पहुँचने लगी। अनेक यूरोपीय महिलाएँ इसे आसानी से खरीद सकती थीं और पहले से अधिक वस्त्र जुटा सकती थीं।
  2. 19वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के समय बड़े पैमाने पर सूती वस्त्रों का उत्पादन होने लगा। वह भारत सहित विश्व के अनेक भागों को सूती वस्त्रों का निर्यात भी करने लगा। इस प्रकार सूती कपड़ा बहुत बड़े वर्ग को आसानी से उपलब्ध होने लगा।
    20वीं शताब्दी के आरंभ तक कृत्रिम रेशों से बने वस्त्रों को और अधिक सस्ता कर दिया। इनकी धुलाई तथा उनको संभालना अधिक आसान था।
  3. 17वीं शताब्दी से पहले ब्रिटेन की अति साधारण महिलाओं के पास बहुत ही कम वस्त्र होते थे। ये फ्लैक्स, लिनिन तथा ऊन के बने होते थे जिनकी धुलाई कठिन थी इसलिए उन्होंने उन वस्त्रों को अपनाना आरंभ कर दिया जिनकी धुलाई तथा रख-रखाव अपेक्षाकृत सरल था।
  4. 1870 ई0 के दशक के अंतिम वर्षों में भारी भीतरी वस्त्रों का धीरे-धीरे त्याग कर दिया गया। अब वस्त्र पहले से अधिक हल्के, अधिक छोटे और अधिक सादे हो गए। फिर भी 1914 ई0 तक वस्त्रों की लंबाई में कमी नहीं आई। परंतु 1915 तक स्कर्ट की लंबाई एकाएक कम हो गई। अब यह घुटनों तक पहुँच गई थी।

प्रश्न 8.
विभिन्न भारतवासियों द्वारा राष्ट्रीय पोशाक का डिजाइन तैयार करने के प्रयासों का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
भारत में 19वीं सदी के अंत तक राष्ट्रीयता की भावना प्रबल रूप से बलवती हो उठी थी। ऐसे में अनेक भारतवासी राष्ट्रीय एकता की अभिव्यक्ति करने वाले सांस्कृतिक प्रतीकों के सृजन को तत्पर हो गए। इसी काल खण्ड में राष्ट्रीय पोशाक की खोज राष्ट्र की पहचान को प्रतीकात्मक ढंग से परिभाषित करने की प्रक्रिया का एक हिस्सा बन गयी। विभिन्न भारतवासियों द्वारा राष्ट्रीय पोशाक का डिजाइन तैयार करने के लिए अनेक प्रयास किए गए। 1870 ई0 के दशक में टैगोर खानदान ने भारतीय पुरुषों और महिलाओं के लिए राष्ट्रीय पोशाक (UPBoardSolutions.com) डिजाइन करने का प्रयास किया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सुझाव प्रस्तुत किया कि भारतीय व यूरोपीय पोशाक का मेल करने के बजाय हिन्दू और मुसलमान पोशाक, का मेल करके भारतीय राष्ट्रीय पोशाक निर्मित की जाए। इस तरह बटनदार लंबा कोट-पुरुषों के लिए सबसे उपयुक्त माना गया। इसी तरह पृथक्-पृथक् क्षेत्रों की पारंपरिक वेशभूषा से प्रेरणा ली गयी।

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प्रश्न 9.
‘सम्प्चुअरी कानूनों के खात्में का यह मतलब कत्तई नहीं था कि यूरोपीय देशों में हर कोई एक जैसी पोशाक पहनने लगा हो।’ इस कथन से क्या अर्थ निकलता है?
उत्तर:
सम्प्चुअरी कानूनों की समाप्ति के बाद भेदभाव मात्र कानूनी रूप से समाप्त किए गए थे। लेकिन इसका यह आशय कदापि नहीं था कि यूरोपीय देशों में प्रत्येक व्यक्ति एक जैसी पोशाक पहनने लगा हो। फ्रांसीसी क्रान्ति ने लोगों के सम्मुख समानता का प्रश्न उपस्थित किया तथा कुलीन विशेषाधिकारों तथा उनका समर्थन करने वाले कानूनों को समाप्त कर दिया। लेकिन सामाजिक वर्गों के बीच अंतर पूर्ववत् जारी रहा। स्पष्ट है कि गरीब न तो अमीरों जैसे कपड़े पहन सकते थे न ही वैसा खाना खा सकते थे। फर्क यह था कि अगर वे ऐसा करना चाहते तो अब कानून बीच में नहीं आने वाला था। इस तरह अमीर-गरीब की परिभाषा, उनकी वेशभूषा सिर्फ उनकी आमदनी पर निर्भर हो गई थी न कि सम्प्चुअरी कानूनों के द्वारा निर्धारित की जाती थी।

दीर्थ उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
दो विश्व युद्धों के दौरान महिलाओं की पोशाकों में आए अंतर को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
दो विश्व युद्धों के दौरान महिलाओं की पोशाक में बड़े पैमाने पर परिवर्तन हुए, जिन्हें निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया है-

  1. पैंट पाश्चात्य महिलाओं की पोशाक का अहम् हिस्सा बन गई।
  2. सुविधा के लिए महिलाओं ने बाल कटवाना प्रारंभ कर दिया।
  3. बीसवीं सदी तक कठोर और सादगी-भरी जीवन-शैली गंभीरता और प्रोफेशनले अंदाज का पर्याय बन गयी।
  4. बच्चों के नए विद्यालयों में सादी पोशाक पर जोर दिया गया और तड़क-भड़क को हतोत्साहित किया गया।
  5. बहुत-सी यूरोपीय महिलाओं ने आभूषण (UPBoardSolutions.com) एवं कीमती परिधान पहनना बंद कर दिया।
  6. उच्च वर्गों की महिलाएँ अन्य वर्गों की महिलाओं से मिलने-जुलने लगीं जिससे सामाजिक अवरोधों का पतन हुआ।
  7. प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के मध्य इंग्लैण्ड में 70,000 से अधिक महिलाएँ आयुध कारखानों में काम करती थीं और उन्हें स्कार्फ के साथ ब्लाउज एवं पैंट की कामकाजी वेशभूषा के साथ अन्य चीजें पहननी पड़ती थीं।
  8. हल्के रंगों के वस्त्र पहने जाते थे। इस प्रकारे कपड़े सादे होते गए।
  9. स्कर्ट छोटी होती चली गई।

प्रश्न 2.
फ्रांसिसी क्रान्ति के बाद परिधान संहिता में क्या परिवर्तन हुए?
उत्तर:
सन् 1789 में फ्रांस में हुई क्रान्ति ने विभिन्न वर्गों के बीच व्याप्त पहनावे के अंतर को लगभग समाप्त कर दिया।
इस परिवर्तन का विवरण इस प्रकार है-

  1. लाल टोपी को स्वतंत्रता की निशानी के रूप में पहना जाने लगा।
  2. कीमती वस्त्रों के स्थान पर सादगीपूर्ण वस्त्रों का प्रचलन आरंभ हुआ, जिससे समानता की भावना प्रदर्शित होती थी।
  3. तिरछी टोपियाँ (कॉकेड) और लंबी पतलून भी प्रचलन में आ गई थी। फ्रांसिसी क्रांति के उपरांत यद्यपि परिधान संबंधी कानूनों का अंत हो गया था परंतु आर्थिक विभिन्नता के कारण अब भी निम्न वर्ग उच्च वर्गों के समान वस्त्र नहीं पहन सकता था।
  4. इस परिवर्तन का आरंभ जैकोबिन क्लब के सदस्यों द्वारा हुआ जब उन्होंने कुलीन वर्ग के फैशनदार घुटन्ना पहनने वाले लोगों से अलग दिखने के लिए धारीदार लंबी पतलून पहनने का निर्णय किया। इन सदस्यों को सौं कुलॉत’ (बिना घुटने वाले) कहा जाता था।
  5. महिलाओं और पुरुषों ने ढीले-ढाले आरामदेह वस्त्रों को पहनना आरंभ कर दिया।
  6. वस्त्रों के रंगों के चयन में फ्रांसिसी तिरंगों के तीनों रंगों (नीला, सफेद, लाल) को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा। इन्हें पहनना देशभक्ति का पर्याय बन गया।

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प्रश्न 3.
‘पादुका सम्मान’ विवाद क्या था?
उत्तर:
ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा 19वीं सदी की शुरुआत में शिष्टाचार की पालन करते हुए, शासन कर रहे देशी राजाओं व नवाबों के दरबार में जूते उतार कर जाने की परंपरा प्रचलित थी तत्कालीन कुछ अंग्रेज अधिकारी भारतीय वेशभूषा भी धारण करते थे। लेकिन सन् 1830 में सरकारी समारोहों में उन्हें भारतीय परिधान धारण करके जाने से मनाकर दिया गया। दूसरी ओर भारतीयों को भारतीय वेशभूषा ही धारण करनी होती थी। गवर्नर लार्ड एमहर्ट (1824-1828) इस बात पर दृढ़ रहा कि उसके सम्मुख उपस्थित होने वाले भारतीय सम्मान प्रदर्शित करने के लिए नंगे पाँव आए, लेकिन उसने इस नियम को कठोरतापूर्वक लागू नहीं किया।

लेकिन लॉर्ड डलहौजी ने भारत का गवर्नर जनरल बनने पर इस नियम को दृढ़तापूर्वक लागू किया। अब भारतीयों को किसी भी सरकारी संस्था में प्रविष्ट होते समय जूते उतारने पड़ते थे। इस रस्म को ‘पादुका सम्मान’ कहा गया। जो लोग यूरोपीय परिधान धारण करते थे, उन्हें इस नियम से छूट प्राप्त थी। सरकारी सेवा में कार्यरत बहुत से भारतीय इस नियम से स्वयं को पीड़ित महसूस करने लगे थे। | 1862 ई० में (UPBoardSolutions.com) सूरत की फौजदारी अदालत में लगाने आँकने वाले के पद पर कार्यरत मनोकजी कोवासजी एन्टी ने सत्र न्यायाधीश की अदालत में जूते उतारने से इन्कार कर दिया। अदालत में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई और उन्होंने विरोध जताते हुए बंबई के गवर्नर को पत्र लिखा।

इसके जवाब में अंग्रेजों का कहना था कि चूंकि भारतीय किसी भी पवित्र स्थान या घर में घुसने से पहले जूते उतारते ही हैं, तो वे अदालत में भी वैसा ही क्यों न करें। इस पर भारतीयों ने कहा कि पवित्र जगहों या घर पर जूते उतारने के दो कारण थे। घर पर वे धूल या गंदगी अंदर न जाने पाए इसलिए जूते उतारते थे और पवित्र स्थानों पर वे देवी-देवताओं के प्रति आदर प्रकट करने के लिए जूते उतारते थे और उनका रिवाज था। किन्तु अदालत जैसी सार्वजनिक जगह घरों से अलग थे।

प्रश्न 4.
भारतीय शैली के कपड़ों के प्रति अंग्रेजों की सोच स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
औपनिवेशिक काल में भारतीय लोग स्वयं को गर्मी के ताप से बचाने के लिए पगड़ी बाँधते थे। पगड़ी को इच्छानुसार कहीं भी उतारा नहीं जाता था। अंग्रेज लोग पगड़ी की जगह हैट पहनते थे जो कि उनके सामाजिक स्तर से ऊपर के लोगों के सामने सम्मान प्रदर्शित करने के लिए उतारना पड़ता था। इस सांस्कृतिक विविधता ने भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर दी थी।

ब्रिटिश लोग प्रायः इस बात से अप्रसन्न होते थे कि भारतीय लोग औपनिवेशिक अधिकारियों के सामने अपनी पगड़ी नहीं उतारते। दूसरी ओर कुछ भारतीय राष्ट्रीय अस्मिता को जताने के लिए जान-बूझकर पगड़ी पहनते। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा शिष्टाचार का पालन करते हुए, शासन कर रहे देशी राजाओं व नवाबों के दरबार में जूते उतारकर जाने की परंपरा थी। 1824-1828 के बीच गवर्नर जनरल एमहर्ट इस बात पर अड़ा रहा कि उसके सामने पेश होने वाले हिंदुस्तानी आदर प्रदर्शित करने के लिए नंगे पाँव आएँ, लेकिन इसको सख्ती से लागू नहीं किया गया। जब लॉर्ड डलहौजी भारत का गवर्नर जनरल बना तो ‘पादुका सम्मान की यह रस्म सख्त हो गई और अब भारतीयों को किसी भी सरकारी संस्था में दाखिल होते समय जूते निकालने पड़ते थे। जो लोग यूरोपीय पोशाक पहनते थे उन्हें इस नियम से छूट मिली हुई थी। सरकारी सेवा में कार्यरत बहुत से भारतीय इस नियम से स्वयं को त्रस्त महसूस करने लगे।

1862 ई० में सूरत की फौजदारी अदालत में लगान आँकने वाले के पद पर कार्यरत मनोकजी कोवासजी एन्टी ने सत्र न्यायाधीश की अदालत में जूते उतारने से इन्कार कर दिया। अदालत में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई और उन्होंने विरोध जताते हुए बंबई के गवर्नर (UPBoardSolutions.com) को पत्र लिखा।
इसके जवाब में अंग्रेजों का कहना था कि चूंकि भारतीय किसी भी पवित्र स्थान या घर में घुसने से पहले जूते उतारते ही हैं, तो वे अदालत में भी वैसा ही क्यों न करें। किन्तु भारतीय उनके इस तर्क को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे।

प्रश्न 5.
सफ्रेज आन्दोलन व वस्त्र सुधार को संक्षेप में प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
1830 ई0 के दशक तक इंग्लैण्ड में महिलाओं ने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष आरंभ किया। अब महिलाओं ने कॉर्सेट पहनने का विरोध करना आरंभ किया। वोल्ड आंदोलन के गति पकड़ने के साथ ही पोशाक-सुधार की मुहिम चल पड़ी। महिला पत्रिकाओं ने महिलाओं को इस परिप्रेक्ष्य में जागरुक करना आरंभ किया कि तंग वस्त्रों और कॉर्सेट पहनने
से महिलाओं को कौन-कौन सी शारीरिक और सौन्दर्यपरक विद्रूपताएँ आ जाती हैं।
इस पहनावे से शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव को निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया-

  1. शरीर का प्राकृतिक रूप से विकास नहीं हो पाता है।
  2. रक्त प्रवाह बाधित होता है।
  3. रीढ़ की हड्डी झुक जाती है।
  4. मांसपेशियाँ अविकसित रह जाती हैं।

इंग्लैण्ड में शुरू हुए सफ्रेज आंदोलन ने यूरोप के बाहर अमेरिका को भी प्रभावित किया। महिलाओं ने अपने पहनावे से संबंधित समस्याओं को समाज के समक्ष रखना आरंभ कर दिया जैसे-

  1. स्कर्ट बहुत विशाल होते थे जिसके कारण चलने में परेशानी होती थी।
  2. लंबे स्कर्ट फर्श को साफ करते हुए चलते थे जो बीमारी का कारण थे।
  3. यदि पहनावे को आरामदायक बना दिया जाए तो वे भी कमाई कर सकती हैं और स्वतंत्र हो सकती हैं।

महिलाओं की इन माँगों का तीव्र विरोध भी हुआ उनके अनुसार पारंपरिक शैली छोड़ देने से महिलाओं की खूबसूरती, शालीनता तथा अन्य स्त्रियोचित गुणों का अभाव संभव था। इस प्रकार के विरोध के कारण ही महिला परिधानों में इस प्रकार के परिवर्तन प्रथम विश्व युद्ध के उपरांत ही संभव हो सके।

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प्रश्न 6.
भारतीय वस्त्रों एवं महात्मा गाँधी पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
पोरबन्दर गुजरात में जन्में महात्मा गांधी बचपन में परंपरागत वस्त्र पहनते थे। लेकिन 19 वर्ष की आयु में जब वे कानून की पढ़ाई करने लंदन गए तो वे पश्चिमी पोशाकों की ओर आकृष्ट हुए। 1890 ई० के दशक में दक्षिण अफ्रीका में वकालत करने तक वे कोट-पैंट व पगड़ी पहनते थे। 1913 ई० में दक्षिण अफ्रीकी सरकार के विरोध में जब उन्होंने वहाँ भारतीय कोयला खदान मजदूरों का समर्थन किया तो (UPBoardSolutions.com) उन्हें पश्चिमी वस्त्र व्यर्थ प्रतीत हुए और उन्होंने लुंगी-कुर्ता पहनने का प्रयोग आरंभ किया। साथ ही विरोध करने के लिए खड़े हो गए।

1915 ई. में भारत वापसी पर उन्होंने काठियावाड़ी किसान का रूप धारण कर लिया। अंततः 1921 में उन्होंने अपने शरीर पर केवल एक छोटी-सी धोती को अपना लिया। गाँधीजी इन पहनावों को जीवन भर नहीं अपनाना चाहते थे। वह तो केवल एक या दो महीने के लिए ही किसी भी पहनावे को प्रयोग के रूप में अपनाते थे। परंतु शीघ्र ही उन्होंने अपने इस पहनावे को गरीबों के पहनावे का रूप दे दिया। इसके बाद उन्होंने अन्य वेशभूषाओं का त्याग कर दिया और जीवन भर एक छोटी सी धोती पहने रखी।

इस वस्त्र के माध्यम से वह भारत के साधारण व्यक्ति की छवि पूरे विश्व में दिखाने में सफल रहे। महात्मा गाँधी ने विदेशी वस्त्रों के स्थान पर खादी पहनने के लिए बल दिया। उन्होंने देशवासियों को प्रेरित किया कि वे चरखा चलाएँ और स्वयं के बनाए हुए वस्त्र पहनें। उनके लिए खादी शुद्धता, सादगी और राष्ट्रभक्ति का पर्याय थी। उनके प्रयासों से शीघ्र ही पूरे देश में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने खादी को अपना लिया और खादी वस्त्र राष्ट्रभक्ति का प्रतीक बन गए।

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