Class 9 Sanskrit Chapter 13 UP Board Solutions महात्मा बुध्द Question Answer

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Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 13
Chapter Name महात्मा बुध्द (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 3
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 13 Mahatma Buddha Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 13 हिंदी अनुवाद महात्मा बुध्द के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांश

जन्म एवं विवाह–प्राचीनकाल में नेपाल में शाक्य क्षत्रियों के वंश में शुद्धोदन नाम के राजा थे। उन्हीं की मायादेवी नामक रानी ने 2544 वें कलिवर्ष में एक पुत्र को जन्म दिया। जन्म के सातवें दिन इनकी माता का स्वर्गवास हो गया। इनका लालन-पालन इनकी मौसी गौतमी ने किया। इनका (UPBoardSolutions.com) नामकरण सिद्धार्थ हुआ। युवावस्था को प्राप्त होने पर इनका विवाह ‘गोपा’ नाम की कन्या के साथ हुआ, जिससे इनको एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम राहुल रखा गया।

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गृहत्याग और बोध-प्राप्ति-मनुष्य और उसके भोगों की नश्वरता को देखकर सिद्धार्थ की राजभोग से विरक्ति हो गयी और एक रात्रि में ये पत्नी और पुत्र को सोता हुआ छोड़कर गृह-त्याग करके चले गये।

पहले ये हिमालय पर्वत की गुफाओं में बसने वाले परिव्राजकों के पास गये, जिन्होंने इनको आर्यमत के तत्त्वों को बताया। वहाँ समाधान प्राप्त न होने पर ये बोधगया आ गये और घोर तपस्या आरम्भ की। यहाँ छ: वर्ष की घोर तपस्या से शरीर दुर्बल हो जाने के कारण इन्हें मूच्छा आ गयी। चेतना-प्राप्त (UPBoardSolutions.com) होने पर इन्होंने पुनः तप आरम्भ कर दिया। इसके बाद फल्गुनी नदी के तट पर एक वट वृक्ष के नीचे बैठकर इन्होंने तप किया, जहाँ इन्हें तत्त्व-ज्ञान की प्राप्ति हुई। अब ये सिद्धार्थ से बुद्ध हो गये और जिस वट वृक्ष के नीचे इन्होंने तप किया था, वह वट वृक्ष बोधिवृक्ष कहलाया। 

शिष्यों को उपदेश-इसके बाद इन्होंने काशी में बहुत-से शिष्यों को उपदेश दिया। जातिगत भेदभाव को ठुकराकर इन्होंने कर्म के आधार पर लोगों को अपने मत में प्रवेश कराया। मगध के राजा बिम्बिसार, अपने पुत्र राहुल तथा पत्नी आदि को इन्होंने अपने मत में प्रवृत्त किया।

निर्वाण-प्राप्ति-कलियुग के 2624वें वर्ष में इन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। विष्णु पुराण में विष्णु का अवतार मानकर इनकी कीर्ति गायी गयी है।

ऐहिक सुखों के प्रति वैराग्य, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शान्ति, समदृष्टि, प्राणियों के प्रति दया, परोपकार, शरणागत की रक्षा, इनके उपदेशों के ये गुण ब्राह्मण मत के समान ही थे, किन्तु प्राणी हिंसा के विषय में इन्होंने इस मत की अत्यधिक निन्दा की।

बौद्धधर्म का प्रसार- कलियुग के 2650वें वर्ष में यह धर्म सम्पूर्ण भारत में फैलता हुआ चीन, जापान एवं श्रीलंका तक जा पहुँचा। बौद्धधर्म मनुष्यमात्र का ही नहीं, वरन् प्राणिमात्र का कल्याण करने वाला धर्म है। उनके बाद अनेक विद्वान् , सन्त, महात्मा, विचारक व महापुरुष उनके धर्म से प्रभावित

पहले हिमालय पर्वत पर घूमते हुए वहाँ की गुफाओं में रहने वाले तपस्वियों के द्वारा आर्यमत के तत्त्वों को भली प्रकार ग्रहण किया। उससे अपनी इच्छित सुख-प्राप्ति को न देखते हुए उन्होंने बुद्धगया में घोर तपस्या औरम्भ की। छ: वर्ष तपस्या करते हुए बीतने पर किसी दिन श्रम की अधिकता से ये (UPBoardSolutions.com) मूर्च्छित हो गये। पलभर में पुनः चेतना को प्राप्त हुए फिर से तप करने में लग गये। इसके पश्चात् फल्गुनी नदी के तट पर पहुँचकर किसी बोधिवृक्ष के मूल में जब यह बैठे रहे, तब सभी पूर्व जन्म के वृतान्तों का ज्ञान हो गया और तत्त्व-ज्ञान को प्राप्त करके ये प्रबुद्ध हो गये।

(3) ततो बुद्धः काश्यामुरुबिल्वे च बहून् शिष्यानविन्दत। सशिष्य एष वीतरागो मुनिः परार्थपराण्यवदातानि कर्माण्याचरन्। गुणैकसारैरुपदेशैर्जनान् जातिभेदमनादृत्य तत इतः स्वमते प्रवेशयामास। |

स मगधेषु राज्ञा बिम्बसारेणातिवेलं पूज्यमानश्चिरमुवास। पुनरुत्सुकस्य पितुर्दर्शनाय कपिलवस्तुनगरं गत्वा स्वपुत्रं राहुलं स्वमते प्रावेशयत्। पितृनिर्वाणात् परतो मातृष्वसारं भार्या च काषायं ग्राहयामास।।

अथ मुनिरनपायिनीं कीर्ति जगति प्रतिष्ठाप्य चतुर्विंशत्युत्तरषट्शताधिकद्विसहस्र (2624) तमे कलिवर्षे निर्वाणं प्रपेदे। एनं मुनिं विष्णोरवतारं पुराणानि कीर्त्तयन्ति।।

शब्दार्थ
ततः = इसके बाद।
काश्यां = काशी में।
उरुबिल्व = महान् बेल का वृक्ष।
अविन्दत = प्राप्त किया।
वीतरागः = वैरागी।
परार्थ पराणि= परोपकार सम्बन्धी।
अवदातानि = शुभ, पवित्र।
अनादृत्य = तिरस्कार करके।
अतिवेलं = अधिक समय तक।
प्रवेशयत् = प्रविष्ट किया।
पितृनिर्वाणात् = पिता के मोक्ष (मुक्ति, मृत्यु) से।
परतः = बाद में।
मातृष्वासरम् = मौसी को।
काषायम् = गेरुआ वस्त्र।
मुनिः अनपायिनीं = मुनि ने नष्ट न होने वाली।
जगति = संसार में।
प्रतिष्ठाप्य = प्रतिष्ठित करके।
निर्वाणम्= मुक्ति को।
प्रपेदे = प्राप्त किया।
कीर्तयन्ति = कीर्ति का वर्णन करते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांशों में ज्ञान-प्राप्ति के बाद गौतम बुद्ध द्वारा अपने पुत्र, मौसी आदि को बौद्ध धर्म में प्रवृत्त करके अक्षय कीर्ति प्राप्त करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
इसके पश्चात् बुद्ध ने काशी में एक विशाल बेल के वृक्ष के नीचे बहुत-से शिष्यों को प्राप्त किया (अर्थात् इन्होंने सर्वप्रथम काशी में उपदेश दिया, जिससे इनके अनेक शिष्य बन गये)। शिष्यों-सहित इस वीतरागी मुनि ने दूसरों के कल्याण के लिए पवित्र कर्मों का आचरण किया। गुणों से सभी मनुष्य एक हैं और उनको बनाने वाला सारतत्त्व भी एक ही है, इस प्रकार से एक गुण और सारतत्त्व के उपदेश द्वारा जाति-भेद का तिरस्कार करके इन्होंने लोगों को अपने मत में प्रवेश दिलाया। | वह बुद्ध मगध राज्य में राजा बिम्बिसार द्वारा अत्यधिक (UPBoardSolutions.com) पूजित हुए लम्बे समय तक रहे। फिर पिता के दर्शन के लिए उत्सुक कपिलवस्तु नगर में जाकर अपने पुत्र राहुल को अपने मत में प्रविष्ट किया। पिता के निर्वाण के बाद मौसी और पत्नी को काषाय (गेरुए वस्त्र) ग्रहण कराये; अर्थात् उनको भी बौद्धभिक्षु बना लिया।

इसके पश्चात् इन मुनि ने अपनी अनश्वर कीर्ति को संसार में प्रतिष्ठापित करके 2624 वें कलिवर्ष में निर्वाण प्राप्त किया। इस मुनि के विष्णु-अवतार की पुराणों में कीर्ति है (अर्थात् पुराणों में इनके विष्णु के अवतार के रूप में बड़ी कीर्ति गायी गयी है)।

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(4) ऐहिकसुखवैराग्यम् अहिंसा, सत्यम् , अस्तेयम्, शान्तिः , समदृष्टिता, भूतदया, परोपकारः, शरणागतपरित्राणाम् इत्येते गुणा आचाराश्च सारभूता बौद्धमते ब्राह्मणमतवदुपदिष्टाः। किन्तु जन्तुहिंसयेश्वरयजनं यद् ब्राह्मणमतेऽङ्गीकृतं तदस्मिन् मतेऽत्यन्तं निन्दितम्।

शब्दार्थ
ऐहिकसुख = इस लोक से सम्बन्धित सुख।
अस्तेयम् = चोरी न करना।
परित्राणाम् = रक्षा करना।
जन्तुहिंसयेश्वरयजनम् (जन्तुहिंसया + ईश्वरयजनम्) = जीवों की हत्या से ईश्वर का यज्ञ।
अङ्गीकृतं = स्वीकृत। |

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में बौद्धमत के उपदेशों और ब्राह्मणमत से उनके साम्य-वैषम्य को बताया गया है।

अनुवाद
इस संसार से सम्बन्धित सुखों के प्रति वैराग्य, अहिंसा, सत्य-भाषण, चोरी न करना, शान्ति, सबको एक समान दृष्टि से देखना, प्राणियों के प्रति दया, परोपकार, शरणागत की रक्षाये बौद्धमत के सारभूतगुण और आचार ब्राह्मणमत के समान उपदिष्ट हैं, किन्तु जन्तु-हिंसा से ईश्वर की पूजा के विषय में ब्राह्मणमत में स्वीकृत मत की इस मत ने अत्यधिक निन्दा की।

(5) इदं मतं कलिवर्षीयस्य षड्विंशतिशतकस्योत्तरार्धेङ्कुरितं भिक्षुसङ्घस्य महतां राज्ञां च . प्रयत्नाद् भारतमखिलमाक्रम्य चीनेषु जापानदेशे लङ्कायां च प्रचारमलभत। (UPBoardSolutions.com)
बौद्धधर्मः मनुष्यमात्रस्य किञ्च प्राणिमात्रस्य कल्याणकृद् धर्मोऽस्ति। अतएव तत्परवर्तिनो विद्वांसः सन्तो महात्मनो विचारकाः महापुरुषाः भगवतो बुद्धस्य सिद्धान्तेनानुप्राणिताः दृश्यन्ते। भिक्षुन् सम्बोध्य लोकमुपादिशत्। सर्वाणि वस्तूनि खल्वनित्यानि, प्रयत्नेनात्मानमुद्धर तस्येयं … भणितिः मनुष्यजातिं तमसः समुद्धरिष्यति।

शब्दार्थ
अखिलम् = सम्पूर्ण
कल्याणकृद् = कल्याण करने वाला।
परिवर्तिनः = बाद के।
दृश्यन्ते = दिखाई देते हैं।
खलु = निश्चित ही।
भणितिः = कथन।
तमसः = अन्धकार से।
समुद्धरिष्यति = उद्धार करेगा।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में बौद्धमत के प्रसार और महत्त्व के विषय में बताया गया है।

अनुवाद
यह मत (बौद्धमत) कलिवर्ष के 2650वें वर्ष में अंकुरित भिक्षुसंघ के और महान् राजाओं के प्रयत्नों से सम्पूर्ण भारत को अपने में व्याप्त करके चीन, जापान और लंका देशों में प्रचार को प्राप्त हुआ।

बौद्धधर्म मनुष्यमात्र का ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र का कल्याण करने वाला धर्म है। इसीलिए उनके | बाद के विद्वान् , सन्त, महात्मा, महापुरुष भगवान् बुद्ध के सिद्धान्तों से अनुप्राणित दिखाई देते हैं। भिक्षुओं को सम्बोधित करके, उन्होंने संसार को उपदेश दिया। सारी वस्तुएँ निश्चय ही अनित्य हैं। प्रयत्न से आत्मा का उद्धार करो-उनका यह कथन मनुष्य जाति का अन्धकार से उद्धार करेगा।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
‘महात्मा बुद्ध’ पाठ का सारांश अपने शब्दों में लिखिए। या ‘महात्मा बुद्ध’ पाठ के आधार पर बुद्ध का जीवन-परिचय संक्षेप में लिखिए।
उत्तर
[संकेत-पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक की सामग्री को अपने शब्दों में लिखें।

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प्ररन 2
गौतम बुद्ध ने किस प्रकार ज्ञान प्राप्त किया?
उत्तर
गृह-त्याग के पश्चात् सर्वप्रथम बुद्ध हिमालय की गुफाओं में रहने वाले तपस्वियों के पास गये। उनसे इन्होंने आर्यमत का तत्त्व-ज्ञान ग्रहण किया लेकिन इस ज्ञान से उनकी सन्तुष्टि नहीं हुई। तत्पश्चात् इन्होंने बुद्धगया में छः वर्ष तक कठोर तपस्या की। कमजोरी के कारण ये मूच्छित हो गये। चेतना आने पर पुनः तप करने में लग गये। अन्ततः फल्गुनी नदी के तट पर स्थित बोधिवृक्ष के नीचे इन्हें तत्त्व-ज्ञान प्राप्त हुआ और ये बुद्ध हो गये।

प्ररन 3
गौतमी, मगध, राहुल और बोधिद्म का परिचय बताइए।
उत्तर
गौतमी-ये गौतम बुद्ध की मौसी (माता की बहन) थीं। इन्होंने ही गौतम बुद्ध का; उनकी माता की मृत्यु के बाद; लालन-पालन किया था। इन्हें गौतम बुद्ध ने गेरुआ वस्त्र धारण कराया 
था।

मगध
यह बौद्ध काल में स्थित एक राज्य था। यहाँ का राजा बिम्बिसार था। यहीं पर बुद्ध ने कई वर्षों तक निकास किया था

राहुल
यह गौतम बुद्ध का गोपा नाम की शाक्य कन्या से उत्पन्न पुत्र था। इसे छोड़कर इन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया था और बाद में इसे भी अपने मत में दीक्षित किया था।

बोधिद्म
गया में फल्गुनी नदी के तट पर स्थित एक वट वृक्ष। इसी के नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था।

प्ररन 3
बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त बताइए। इसकी बाह्मण मत से समानता और भिन्नता बताइए।
उत्तर
संसार के समस्त सुखों से वैराग्य, हिंसा न करना, सत्य बोलना, चोरी न करना, शान्त रहना, समदर्शी होना, प्राणियों परे दया, शरणागत की रक्षा करना आदि बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त (UPBoardSolutions.com) हैं। इन सिद्धान्तों की ब्राह्मण मत से समानता है। प्राणी-हिंसा के द्वारा ईश्वर की पूजा (बलि-विधान) को ब्राह्मण मत में तो स्वीकार किया गया है, लेकिन बौद्ध मते इसके पूर्णरूपेण विरुद्ध है।

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Class 9 Sanskrit Chapter 8 UP Board Solutions भीमसेनप्रतिज्ञा Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 8 भीमसेनप्रतिज्ञा (कथा – नाटक कौमुदी) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 8 भीमसेनप्रतिज्ञा (कथा – नाटक कौमुदी).

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Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 8
Chapter Name भीमसेनप्रतिज्ञा (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 23
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 8 Bhimasena Prathigne Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 8 हिंदी अनुवाद भीमसेनप्रतिज्ञा के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय- भरतमुनि ने अपने नाट्य-शास्त्र में लिखा है कि ब्रह्माजी ने ऋग्वेद से ‘संवाद’, सामवेद से ‘संगीत’, यजुर्वेद से ‘अभिनय तथा अथर्ववेद से ‘रस’ के तत्त्वों को लेकर नाट्यवेद’ के नाम से पंचम वेद की रचना की। संस्कृत नाटकों की रचना के मुले-स्रोत रामायण, महाभारत तथा अन्य पौराणिक ग्रन्थ हैं। इनके आधार पर संस्कृत में अनेक नाटकों की रचनाएँ हुई हैं। । प्रस्तुत पाठ ‘भीमसेनप्रतिज्ञा’ का (UPBoardSolutions.com) संकलन श्री भट्टनारायण द्वारा रचित ‘वेणीसंहारम्’ नामक नाटक से किया गया है। वेणीसंहारम्’ की कथा मुख्य रूप से ‘महाभारत’ के ‘सभा-पर्व’ से ली गयी है। वैसे इस नाटक में उद्योग-पर्व’, ‘भीष्म-पर्व’, ‘द्रोण-पर्व’ तथा ‘शल्य-पर्व’ की भी कुछ घटनाओं का समावेश है। नाटककार के जीवन-काल के विषय में पुष्ट प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये आठवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुए थे।

पाठलाग प्रस्तुत पाठ में भीमसेन के चरित्र में वीर रस का परिपाक और नारी के प्रति सम्मान का भाव व्यक्त हुआ है। पाठगत विषयवस्तु से प्राचीन भारतीय संस्कृति की स्पष्ट झलक प्राप्त होती है। पाठ का सारांश निम्नलिखित है

क्रुद्ध भीमसेन के साथ सहदेव दर्शकों के सम्मुख रंगमंच पर उपस्थित होते हैं। उपस्थित होते ही भीमसेन इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि दुर्योधन ने पाण्डवों के विनाश के लिए अनेकानेक ओछे हथकण्डों को अपनाया है, अतः मेरे जीवित रहते हुए कौरव किसी प्रकार भी सुखी नहीं रह सकते हैं। भीमसेन के इस रोषपूर्ण वचन को सुनकर सहदेव उनसे शान्त रहने का आग्रह करते हुए आसन-ग्रहण करने का निवेदन करते हैं। आसन पर बैठते ही भीमसेन सहदेव से पूछते हैं कि सन्धि का क्या हुआ? सहदेव उन्हें बताते हैं कि वासुदेव कृष्ण दुर्योधन के पास मात्र पाँच-इन्द्रप्रस्थ, वृकप्रस्थ, जयन्त, वारणावत और एक अज्ञात नाम–ग्रामों को दिये जाने के लिए सन्धि-प्रस्ताव लेकर गये थे। इस पर भीमसेन आश्चर्यचकित होकर कहते हैं कि क्या पाँच ग्रामों की सन्धि?’ तत्पश्चात् वे (UPBoardSolutions.com) कहते हैं कि “ठीक है, मेरे ज्येष्ठ भाई किसी भी शर्त पर सन्धि करने के लिए भले ही तैयार हो जाएँ, किन्तु मैं जब तक कौरवों का सर्वनाश नहीं कर लूंगा, मुझे तब तक कोई भी सन्धि स्वीकार्य नहीं होगी। भीमसेन की इस रोषपूर्ण वाणी को सुनकर सहदेव बड़े विनीत भाव से उनसे कहते हैं कि ऐसा करने से तो वंश का नाश हो जाएगा। इस पर क्रुद्ध होकर भीमसेन कहते हैं, कि “उन पर तुझे भी तरस आता है; किन्तु मेरे सम्मुख वह दृश्य आज भी मूर्त रूप से खड़ा है, जिसमें भरी सभा में भीष्म, द्रोण, शकुनि, कर्ण और अन्यान्य जनों के सम्मुख द्रौपदी को अपमानजनक रूप में केश खींचकर लाया गया था और उसे निर्वस्त्र करने का प्रयास किया गया था। क्या तुझे उस दृश्य पर लज्जा नहीं आती?”

इसी बीच रंगमंच पर द्रौपदी आती है और वह उन दोनों से उनकी उद्विग्नता का कारण पूछती है। द्रौपदी के प्रश्न का उत्तर देते हुए भीमसेन कहते हैं कि “पाण्डवों के सान्निध्य में रहते हुए भी पांचालराजतनया की ऐसी दीन अवस्था? क्या इससे बढ़कर उद्वेग का अन्य कोई कारण हो सकता है?’ भीमसेन के पीड़ा से भरे वचन सुनकर द्रौपदी उनके पास जाकर निवेदन करती है-“क्या उद्वेग का कोई अन्य कारण (UPBoardSolutions.com) भी है?’ भीमसेन उत्तर देते हैं कि “कौरव वंशरूपी दावानल में कौन कीट-पतंग के समान आचरण कर रहा है? मुक्तकेशिनी इस द्रौपदी को उस दावानल की धूमशिखा समझो।” बस, यहीं कथानक समाप्त हो जाता है।

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चरित्र चित्रण 

भीमसेन

परिचय- भीमसेन पाण्डु और कुन्ती का पुत्र तथा युधिष्ठिर का छोटा भाई था। वह पाण्डवों में सर्वाधिक बलशाली और सुगठित शरीर वाला था। उसने अज्ञातवास के समय युद्ध में सौ कौरवों को

मारने की प्रतिज्ञा की थी। वह युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्ण को सन्धि करने के लिए दूत बनाकर भेजने से क्रुद्ध हो जाता है। उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं

(1) प्रतिशोधक उग्र स्वभाव- भीमसेन उग्र स्वभाव वाला बलशाली योद्धा है। वह परिस्थितिवश द्रौपदी के अपमान को किसी तरह सहन तो कर लेता है, परन्तु उसे अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार है; यहाँ तक कि वह अपने अग्रज युधिष्ठिरसहित सभी भाइयों को (UPBoardSolutions.com) भी अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए त्यागने को तैयार है। उसे प्रतिशोध लिये बिना किसी कीमत पर कौरवों से सन्धि स्वीकार्य नहीं है। इसीलिए वह कौरवों के नाश की बात को बड़ी उग्रवाणी में कहता है। उसका वचन, “भीमसेन के जीवित रहते हुए वे स्वस्थ नहीं रह सकते।’, उसके उग्र स्वभाव का ही उदाहरण है।।

(2) परम वीर- उग्र स्वभाव का होने के साथ-साथ वह परम वीर थे। उसे अपनी वीरता का पूर्ण विश्वास है, तभी तो वह चारों भाइयों को छोड़कर अकेले ही कौरवों से द्रौपदी के अपमान का बदला लेने की बात कहता है। उसके द्वारा युद्ध में सौ कौरवों को मारकर दु:शासन के लहू से द्रौपदी के केशों को सँवारने की प्रतिज्ञा भी उसकी वीरता का साक्ष्य प्रस्तुत करती है।

(3) अत्याचार- विरोधी व स्पष्ट वक्ता-अत्याचार करने वाले से अत्याचार को सहन करने वाला अधिक दोषी माना जाता है। इसलिए भीमसेन किसी अत्याचारे को सहन नहीं करना चाहता। वह द्रौपदी पर कौरवों द्वारा अत्याचार करने का भी विरोध करता है। उस अत्याचार के विरोध में परिस्थितिवश (UPBoardSolutions.com) वह अन्य कुछ तो नहीं कर पाता, किन्तु दुर्योधन की जंघा को तोड़कर वे दुःशासन की छाती को लहू पीकर द्रौपदी के वेणी-बन्धन की प्रतिज्ञा अवश्य करता है। वह सहदेव से स्पष्ट कह देता है कि चाहे सभी भाई सन्धि कर लें, किन्तु मैं सन्धि नहीं करूंगा। उसकी ये स्पष्ट और तर्कपूर्ण टिप्पणियाँ उसके स्पष्ट वक्ता होने का समर्थन करती हैं।

(4) बुद्धिमान्– भीमसेन पूर्ण क्रोधान्ध भी नहीं है, वरन् बुद्धिमान् भी है। वह प्रत्येक बात और उसके अन्तिम परिणाम को भली-भाँति सोचकर ही अपने भाव व्यक्त करता है। वह व्यक्ति के मुख-मण्डल को देखकर उसके अन्त:करण की बात को जान लेने में अति-निपुण है। मुक्तकेशिनी द्रौपदी को देखकर उसकी उदासी के कारण को वह जान लेता है, तभी तो वह कहता है–“इसमें पूछना ही क्या? तुम्हारे खुले केश ही कह रहे हैं कि तुम्हारी उदासी का क्या कारण है?” “

(5) नारी- सम्मान का पक्षधर-भीमसेन का चरित्र ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः सूक्ति से प्रेरित दिखाई पड़ती है। स्त्री का अपमान करने वाले को वह अक्षम्य मानता है, तभी तो वह प्रत्येक कीमत पर द्रौपदी को अपनी जंघा पर बिठाने की इच्छा करने वाले दुर्योधन की जंघा को तोड़ना तथा (UPBoardSolutions.com) द्रौपदी का केश-कर्षण करने वाले दुःशासन की छाती को विदीर्ण कर उसका लहू पीकर नारी-अपमान का बदला लेना चाहता है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भीमसेन एक वीर, क्रोधी, बुद्धिमान, स्पष्ट वक्ता और नारी का सम्मान करने वाला क्षत्रिय है। इसके साथ ही उसमें स्वाभिमान, अदम्य साहस, दृढ़-प्रतिज्ञता और निर्भीकता जैसे अन्य गुण भी विद्यमान हैं।

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द्रौपदी

परिचय-‘भीमसेनप्रतिज्ञा’ के रूप में संकलित नाट्यांश में भीमसेन और सहदेव ही मुख्य पात्र हैं, किन्तु इन दोनों के वार्तालाप का केन्द्रबिन्दु द्रौपदी ही है। वह नाट्यांश के उत्तरार्द्ध में मंच पर प्रवेश करती है और गिनती के संवाद ही बोलती है। उसको देखकर भीमसेन का क्रोध और अधिक भड़क उठता है। उद्दीपन के रूप में इस नाट्यांश में आयी द्रौपदी की कतिपय चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं

(1) मानिनी- द्रौपदी भरी सभा में कौरवों द्वारा किये गये अपने अपमान को भूल नहीं पाती। उसे अपने अपमान का उतना दु:ख नहीं है, जितना उसे इस अपमान को देखकर शान्त रहने वाले अपने पतियों की निर्लज्जता पर है। वह कुछ करने में समर्थ नहीं है; इसीलिए वह अपने पतियों को अपने (UPBoardSolutions.com) अपमान की निरन्तर याद दिलाते रहने के लिए अपने केशों को तब तक खुला रखने की प्रतिज्ञा करती है, जब तक कि वे उसके अपमान का बदला नहीं ले लेते।

(2) क्रोधिनी– मानिनी के साथ-साथ द्रौपदी क्रोधी स्वभाव की भी है। यही क्रोध तो उससे कौरवों का विनाश न होने पर अपने केशों को न सँवारने की प्रतिज्ञा कराता है।

(3) पतियों की अन्धसमर्थक नहीं- द्रौपदी अपने पतियों द्वारा लिये गये निर्णयों की अन्ध्रसमर्थक नहीं है। अपने अपमान पर शान्त रहने वाले पतियों की शान्त-प्रवृत्ति का वह अनुकरण । नहीं करती, वरन् इसके विपरीत आचरण करती है; तभी तो वह भीमसेन को अपने अपमान की बदला लेने के लिए उकसाती है।

(4) पतियों को फटकारने वाली- वह पतियों की उचित-अनुचित बातों को चुपचाप सहन नहीं करती, वरन् समय पर उनका प्रतिकार भी करती है। भीमसेन की बात सुनकर वह अपने शेष चार पतियों के विषय में मन-ही-मन कहती है–‘नाथ, न लज्जन्त एते।’ (नाथ! इनको लज्जा नहीं आती।) वह प्रत्यक्ष रूप में भी मीठी फटकार लगाती हुई कहती है-‘कोऽन्यो मम परिभवेण खिद्यते।’

(5) तीखी, किन्तु मधुरा– द्रौपदी का स्वभाव यद्यपि तीखा है, किन्तु अवसरानुरूप वह मधुर व्यवहार भी करती है। इसमें ये दोनों विपरीत गुण उसी प्रकार समाहित हैं, जिस प्रकार से कटु दवा के ऊपर शक्कर की मीठी परत चढ़ी हो। यद्यपि भीमसेन के क्रोध का कारण वही है और वही (UPBoardSolutions.com) उसे भड़काती भी है, तथापि वह भीमसेन से अधिक क्रोध न करने के लिए कहकर अपने उपर्युक्त दोनों गुणों का परिचय सहज ही दे देती है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि द्रौपदी पौराणिक पात्र अवश्य है, किन्तु यहाँ पर वह अपने _ अधिकारों के प्रति सचेत रहने वाली आधुनिक नवयुवती का प्रतिनिधित्व भी करती है।

लघु-उत्तरीय संस्कृत  प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए

प्रश्‍न 1
क्रुद्धो भीमसेनः केन अनुगम्यमानः प्रविशति?
उत्तर
क्रुद्धो भीमसेनः सहदेवेन अनुगम्यमानः प्रविशति।

प्रश्‍न 2
कृष्णः केन पणेन सन्धि कर्तुं सुयोधनं प्रति प्रहितः?
उत्तर
कृष्णः पञ्चभिः ग्रामैः सन्धि कर्तुं सुयोधनं प्रति प्रहितः।

प्रश्‍न 3
प्रतिज्ञा केन कूता?
उत्तर
प्रतिज्ञा भीमसेनेन कृता।

प्रश्‍न 4
भीमसेनेन का प्रतिज्ञा कृता?
उत्तर
भीमसेनेन कौरवशतं हन्तुं, दुःशासनस्य उरस्य रक्तं पातुं, दुर्योधनस्य ऊरूद्वयं गदया चूरयित्वा द्रौपद्या: केशान् सज्जीकर्तुं प्रतिज्ञामकरोत्।

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प्रश्‍न 5
सन्धिप्रस्तावे के पञ्चग्रामाः आसन्?
उत्तर
सन्धिप्रस्तावे इन्द्रप्रस्थः, वृकप्रस्थः, जयन्तः, वारणावतः कश्चिद् एकः ग्रामः च इति पञ्चग्रामीः आसन्।

प्रश्‍न 6
द्रौपद्याः क्रोधः केन प्रशमितः?
उत्तर
द्रौपद्याः क्रोधः भीमसेनेन प्रशमितः।

प्रश्‍न 7
द्रौपद्याः क्रोधः भीमसेनेन कथं प्रशमितः?
उत्तर
दु:शासनस्य उरस्य रक्तेन अनुरञ्जिताभ्यां हस्ताभ्यां केशानां संयमनस्य प्रतिज्ञां कृत्वा भीमसेनेने द्रौपद्या: क्रोधः प्रशमितः।

वस्तुनिष्ठ प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक | विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए

1. भीमसेनप्रतिज्ञा’ नाट्यांश किस ग्रन्थ से संकलित है?
(क) “विक्रमोर्वशीयम्’ से ।
(ख) ऊरुभंगम्’ से ।
(ग) “वेणीसंहारम्’ से
(घ) “किरातार्जुनीयम्’ से

2. ‘वेणीसंहारम्’ नाटक के रचयिता कौन हैं?
(क) भट्टनारायण
(ख) भास
(ग) महाकवि कालिदास
(घ) भवभूति

3. ‘वेणीसंहारम्’ रचना का मूल-स्रोत कहाँ से लिया गया है?
(क) ‘किरातार्जुनीयम्’ के प्रथम सर्ग से :
(ख) ‘शिशुपालवधम् के तृतीय सर्ग से :
(ग) ‘महाभारत’ के विंदुर पर्व से
(घ) महाभारत के सभापर्व से ।

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4. ‘भीमसेनप्रतिज्ञा’ नामक नाटक का नायक कौन है?
(क) भीम
(ख) दुर्योधन
(ग) सहदेव
(घ) युधिष्ठिर

5. भीमसेन किस बात की प्रतिज्ञा करते हैं?
(क) दुर्योधन की जंघा तोड़ने की
(ख) सन्धि न मानने की
(ग) युधिष्ठिर से अलग होने की
(घ) द्रौपदी के वेणीसंहार की

6. ‘हज्जे बुद्धिमतिके, कथय नाथस्य। कोऽन्यो मम परिभवेण खिद्यते।’ में ‘बुद्धिमतिका’ कहा गया है
(क) चेटी को
(ख) कुन्ती को
(ग) द्रौपदी को
(घ) सुभद्रा को ।

7. भीमसेन क्यों क्रोधित था? |
(क) क्योंकि वह जन्मजात क्रोधी स्वभाव का था।
(ख) क्योंकि उसे धृतराष्ट्र-पुत्रों के नाम से चिढ़ थी।
(ग) क्योंकि दुर्योधन एवं दु:शासन ने पाण्डवों का अपमान किया था
(घ) क्योंकि धर्मराज युधिष्ठिर की ऐसी ही आज्ञा थी।

8. ‘स्वस्था भवन्ति मयि जीवति धार्तराष्टाः।’ में ‘मयि’ पद को प्रयोग करने वाला कौन है?
(क) सहदेव
(ख) दुर्योधन ।
(ग) भीम
(घ) अर्जुन

9. ‘आकृष्य पाण्डववधूपरिधानकेशान्’ में ‘पाण्डववधू’ शब्द किसके लिए प्रयुक्त हुआ है?
(क) उत्तरा
(ख) सुभद्रा
(ग) द्रौपदी
(घ) कुन्ती

10. ‘एवं कृते लोके तावत् स्वगोत्रक्षयाशंकि हृदयमाविष्कृतं भवति।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति ?
(क) श्रीकृष्ण
(ख) द्रौपदी
(ग) सहदेव
(घ) भीमसेन

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11. ‘उदासीनेषु युष्मासु मम मन्युः न पुनः कुपितेषु” में मम’ शब्द का प्रयोग हुआ है
(क) द्रौपदी के लिए
(ख) भीमसेन के लिए
(ग) सहदेव के लिए
(घ) दुर्योधन के लिए।

12. ‘न खल्वमङ्गलानि चिन्तयितुमर्हन्ति भवन्तः कौरवाणाम्।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) सुयोधनः
(ख) भीमसेनः
(ग) सहदेवः
(घ) युधिष्ठिरः

13. ‘भगवान् कृष्णः केन………………” सन्धि कर्तुं सुयोधनं प्रतिहितः।’ वाक्य में रिक्त-पद की पूर्ति होगी
(क)‘पणेन’ से
(ख) “पृथिव्या’ से
(ग) “धनेन’ से
(घ) “मूल्येन’ से

14. ‘प्रयच्छ•••••••यामान्कञ्चिदेकं च पञ्चमम्।’ श्लोक की चरण-पूर्ति होगी
(क) ‘पण्डितो’ से
(ख) ‘मूख’ से
(ग) “चतुरो’ से
(घ) ‘त्रयोः ‘ से

15. ‘न लज्जयति………………”सभायां केशकर्षणम्।’ श्लोक की चरण-पूर्ति होगी– | “
(क) ‘तनयानाम् से
(ख) ‘पुत्राणाम् से
(ग) ‘दाराणाम् से
(घ) “मातृणाम्’ से

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16. ‘मुक्तवेणीं स्पृशन्नेनां कृष्णां धूमशिखामिव।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) भीमसेनः
(ख) सहदेवः
(ग) द्रौपदी
(घ) कृष्णा

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Class 9 Sanskrit Chapter 1 UP Board Solutions गार्गी-याज्ञवल्क्यसंवादः Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 1 गार्गी-याज्ञवल्क्यसंवादः (कथा – नाटक कौमुदी) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 1 गार्गी-याज्ञवल्क्यसंवादः (कथा – नाटक कौमुदी).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 1
Chapter Name गार्गी-याज्ञवल्क्यसंवादः (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 26
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 1 Gargi-Yagyavalkya Samvad Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 1 हिंदी अनुवाद गार्गी-याज्ञवल्क्यसंवादः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय-उपनिषद् ग्रन्थ भारतीय मनीषा की आध्यात्मिक चेतना के प्रतीक हैं। वैदिक साहित्य का अन्तिम भाग होने के कारण इन्हें वेदान्त’ भी कहा जाता है। यद्यपि उपनिषदों की संख्या शताधिक है; किन्तु इनमें प्राचीन एवं प्रामाणिक उपनिषदों की संख्या एकादश ही मानी जाती है। बृहदारण्यक् उपनिषद् इन्हीं में से एक है। प्रस्तुत पाठ इसी उपनिषद् में आये हुए एक आख्याने पर आधारित है, जिसमें मिथिलाधिपति (UPBoardSolutions.com) जनक की सभा में महर्षि याज्ञवल्क्य से परमविदुषी गार्गी वैदुष्यपूर्ण शास्त्रार्थ करती है। याज्ञवल्क्य और गार्गी की इस शास्त्र-चर्चा द्वारा हमें इस बात की भी जानकारी होती है कि प्राचीन भारत में स्त्रियाँ उच्च शिक्षित हुआ करती थीं।।

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पाठ-सारांश

सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी की खोज- प्राचीनकाल में मिथिला के राजा जनक ने एक यज्ञ किया, जिसमें कुरु और पांचाल देशों से विद्वान् ब्राह्मणों को आमन्त्रित किया गया। राजा जनक ने ब्रह्मविद्या में सर्वाधिक पारंगत विद्वान् का पता लगाने की इच्छा से स्वर्ण-जटित शृंगों वाली एक हजार गायें मँगवाकर सर्वश्रेष्ठं ब्रह्मज्ञानी को सभी गायें ले जाने के लिए कहा। राजा जनक की इस घोषणा को सुनकर सभी ब्राह्मण मौन बैठे रहे, कोई भी उन गायों को ले जाने के लिए तैयार नहीं हुआ। इसी बीच याज्ञवल्क्य ने अपने एक शिष्य को सब गायें अपने आश्रम (UPBoardSolutions.com) ले चलने के लिए कहा। याज्ञवल्क्य की इस बात को सुनकर सभा में उपस्थित सभी ब्राह्मण इसे अपना अपमान मानते हुए याज्ञवल्क्य पर क्रोधित हो गये। |

अश्‍वल की पराजय-राजा जनक के होता (यज्ञ कराने वालों पुरोहित) अश्‍वल के पूछने पर कि क्या आप सर्वोच्च ब्रह्मज्ञ हैं, याज्ञवल्क्य ने कहा कि मैं इन गायों को अपनी आवश्यकता की पूर्ति हेतु ले जा रहा हूँ, ब्रह्मज्ञानी होने के कारण नहीं।’ यह सुनकर अश्वल आदि ब्राह्मणों ने याज्ञवल्क्य को शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी, उनसे शास्त्रार्थ किया और पराजित हो गये।

गार्गी द्वारा प्रश्न और याज्ञवल्क्य द्वारा उत्तर-अश्‍वल आदि अनेक ब्राह्मण विद्वानों के पराजित हो जाने पर वचक्रु ऋषि की पुत्री गार्गी ने याज्ञवल्क्य से ब्रह्मविद्या से सम्बन्धित अत्यधिक गूढ़ प्रश्न पूछे। याज्ञवल्क्य ने बड़ी धीरता से सभी प्रश्नों के क्रम से युक्तिसंगत उत्तर दिये। दोनों के मध्य हुए वार्तालाप का संक्षिप्त-सार इस प्रकार है-जल कहाँ है? अन्तरिक्ष लोक में। अन्तरिक्ष लोक कहाँ है? गन्धर्व लोकों पर पूर्ण रूप से आश्रित है। गन्धर्वलोक किसमें व्याप्त है? अदित्यलोकों में। आदित्यलोक

किसमें व्याप्त है? चन्द्रलोकों में। चन्द्रलोक कहाँ है? नक्षत्रलोकों में। विस्तृत नक्षत्रलोक किसमें व्याप्त है? देवलोक में। देवलोक कहाँ है? इन्द्रलोक में समाहित है। इन्द्रलोक किसमें व्याप्त है? प्रजापति : लोकों में। समस्त प्रजापति लोक किसमें व्याप्त हैं? ब्रह्मलोकों में। ब्रह्मलोक कहाँ है? इस प्रश्न के (UPBoardSolutions.com) उत्तर में याज्ञवल्क्य ने कहा-गार्गी! ब्रह्मलोक को अतिक्रान्तकर प्रश्न मत करो अन्यथा तुम्हारा सिर धड़ से पृथक् होकर गिर जाएगा। याज्ञवल्क्य के ऐसा कहते ही गार्गी शान्त हो गयी।

उद्दालक की पराजय- गार्गी के पश्चात् उद्दालक ने याज्ञवल्क्य से कुछ और प्रश्न पूछे। उन । प्रश्नों का समुचित उत्तर प्राप्त कर वे भी पराजित हुए।

गार्गी के अन्य दो प्रश्न–उद्दालक के पराजित हो जाने पर गार्गी ने उपस्थित ब्राह्मणों से अनुमति पाकर याज्ञवल्क्य से पुन: दो प्रश्न और किये—प्रथम, द्युलोक से ऊपर और पृथ्वीलोक से नीचे क्या है? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि यह सब, आकाश में व्याप्त है।’ गार्गी ने द्वितीय प्रश्न पूछा कि वह आकाश किस पर आश्रित है?’ याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि ‘आकाश तो अविनाशी ब्रह्म में ही ओत-प्रोत है।’

गार्गी की सन्तुष्टि-याज्ञवल्क्य के युक्तिसंगत उत्तरों से सन्तुष्ट होकर गार्गी ने उपस्थित सभी ब्राह्मणों के समक्ष घोषणा की कि आप में से कोई भी याज्ञवल्क्य को ब्रह्मविद्या में नहीं जीत सकता; अतः आप सभी विद्वान् उन्हें ससम्मान प्रणाम करके अपने-अपने स्थान को वापस चले जाएँ। । प्रस्तुत पाठ से हमें यह शिक्षा मिलती है कि व्यक्ति को पूर्ण ज्ञान-सम्पन्न होने पर भी कभी ज्ञानाभिमान नहीं करना चाहिए, क्रोध को सदैव नम्रता से जीतना चाहिए, सत्य बात को बिना किसी आपत्ति के स्वीकार कर लेना चाहिए तथा ब्रह्मज्ञान निस्सीम है, यह मानना चाहिए।

चरित्र – चित्रण

गार्गी

परिचय-गार्गी महर्षि वचक्रु की पुत्री थी। गर्ग गोत्र में उत्पन्न होने के कारण उसका नाम गार्गी रख दिया गया था। लोगों की इस दिग्भ्रमित अवधारणा को; कि प्राचीनकाल में स्त्रियों को शिक्षा नहीं दी जाती थी; इस प्रकरण के माध्यम से दिशा दी गयी है कि उस समय स्त्रियाँ पुरुषों के समान उच्च शिक्षा (UPBoardSolutions.com) प्राप्त हुआ करती थीं। गार्गी की विद्वत्ता से इसकी पुष्टि भी हो जाती है। गार्गी की मुख्य चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं|

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(1) परम-विदुषी– गार्गी अपने समय की एक असाधारण विदुषी महिला थी। विद्वानों में उनकी गणना की जाती थी। आज भी विदुषी महिलाओं में गार्गी का नाम सर्वप्रथम लिया जाता है। राजा जनक की सभा में उसने याज्ञवल्क्य से ब्रह्मविद्या पर शास्त्रार्थ किया था और अपने प्रश्नों से विद्वत्समाज को चकित कर दिया था। उसकी शास्त्रार्थ-पद्धति भी बड़ी सुलझी हुई और रोचक थी। उसे ब्रह्मविद्या, वेदशास्त्रों का उच्च ज्ञान था। उसके सामने सभी विद्वान् नतशिर रहते थे।

(2) निरभिमानिनी-परम-विदुषी होते हुए भी गार्गी सरल हृदय थी। उसे अपने ज्ञान का लेशमात्र भी गर्व नहीं था। याज्ञवल्क्य द्वारा ब्रह्मलोक से ऊपर के प्रश्न करने से मना करने पर वह चुप हो जाती है। वह याज्ञवल्क्य से पुनः प्रश्न करने के लिए ब्राह्मणों से अनुमति माँगती है (UPBoardSolutions.com) और प्रश्न के उत्तर से प्रभावित होकर, उनकी विद्वत्ता को स्वीकार कर वह याज्ञवल्क्य को नमन करती है। वह हठधर्मिणी और कुतर्की नहीं है।

(3) निर्भीक एवं स्पष्टवक्ता- गार्गी विदुषी होने के साथ-साथ अत्यधिक निर्भीक थी। वह राजा जनक की विद्वभूयिष्ठ सभा में अकेली याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ करने का साहस रखती थी। उसके प्रत्येक प्रश्न के पीछे उसका आत्मविश्वास और निर्भीकता छिपी हुई थी। शास्त्रार्थ के अन्त में, वह निर्भीकतापूर्वक सभी विद्वानों से स्पष्ट कह देती है कि कोई भी याज्ञवल्क्य को पराजित नहीं कर सकता।

(4) सुसंस्कृत एवं शीलसम्पन्ना– गार्गी विदुषी होने के साथ-साथ सुसंस्कृत भी है। वह सभी ब्राह्मणों के क्रोधित होने पर भी क्रोधित नहीं होती और शास्त्रार्थ में याज्ञवल्क्य के लिए विद्वज्जनोचित सम्बोधन प्रयुक्त करती है; यथा-”भगवन्! गन्धर्व लोकाः कस्मिन्?” ब्रह्मर्षे कुत्र खलु ब्रह्मलोकाः?” वह याज्ञवल्क्य के “हे गार्गि! ब्रह्मलोकमप्यतिक्रम्य ततः ऊर्ध्वस्य तदाधारस्य प्रश्न मा कुरु, अन्यथा चेत्ते मूर्नः पतनं भविष्यति।” वाक्य को सुनकर भी उत्तेजित नहीं होती। यह उसकी शीलसम्पन्नता का उत्कृष्ट उदाहरण है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि गार्गी परम-विदुषी, निर्भीक और निरभिमानिनी होने के .. साथ-साथ उच्चकुलोत्पन्न एवं विनीत आदर्श भारतीय महिला है। उसकी बुद्धि तार्किक और तीक्ष्ण है। हमें गार्गी जैसी विदुषी भारतीय महिलाओं पर गर्व होना चाहिए।

लघु-उत्तरीय संस्कृत प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए-

प्रश्‍न 1
जनकः कः आसीत्?
उत्तर
जनक: मिथिलायाः नृपः आसीत्।।

प्रश्‍न 2
जनकस्य यज्ञे कुतः ब्राह्मणाः समागताः? उत्तर-जनकस्य यज्ञे कुरु-पाञ्चालदेशेभ्यः ब्राह्मणाः समागताः।

प्रश्‍न 3
याज्ञवल्क्यः स्वशिष्यं किमकथयत्?
उत्तर
याज्ञवल्क्यः स्वशिष्यम् अकथयत्-हे सोमाई! एता: गाः अस्मद्गृहान् नयतु।’

प्रश्‍न 4
जनकस्य होता कः आसीत्?
उत्तर
जन उत्तर–जनकस्य होता अश्वलनामा ब्राह्मणः आसीत्।

प्रश्‍न 5
ब्राह्मणाः सकोपं कं किमूचुः?
उत्तर
ब्राह्मणाः सकोपं याज्ञवल्क्यम् ऊचुः यत् कथं नः अनादृत्य त्वमात्मानं ब्रह्मिष्ठं मन्यसे?

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प्रश्‍न 6
अश्वलेन पृष्टः याज्ञवल्क्यः किमुदतरत्?
उत्तर
अश्वलेन परिपृष्टः याज्ञवल्क्यः उदरत् यत् अस्माभिः गोकामनया एवं गाः नीता, न तु ब्रह्मिष्ठत्वाभिमानात्।।

प्रश्‍न 7
प्रथमं गार्गी याज्ञवल्क्यम् किमपृच्छत्?
उत्तर
प्रथमं गार्गी याज्ञवल्क्यम् अपृच्छत् यत् इदं दृश्यमानं पार्थिवं सर्वमप्सु ओतञ्च प्रोतञ्च, ता: आपः कस्मिन् खलु ओताः प्रोताश्च।

प्रश्‍न 8
याज्ञवल्क्यः गार्गी किं प्रत्युवाच प्रथमम्?
उत्तर
याज्ञवल्क्यः गार्गी प्रथमं प्रत्युवाच यत् ताः आपः वायो ओताश्च प्रोताश्च सन्ति।

प्रश्‍न 9
गाग्र्याः द्वितीयप्रश्नस्य याज्ञवल्क्यः किमुत्तरं दत्तवान्?
उत्तर
गाग्र्याः द्वितीयप्रश्नस्य याज्ञवल्क्यं उत्तरं दत्तवान् यत् ‘आकाशस्त्वक्षरे परब्रह्मण्येव ओतश्च प्रोतश्च।

प्रश्‍न 10
याज्ञवल्क्येन प्रयुक्ता गार्गी किमकथयत्?
उत्तर
याज्ञवल्क्येन प्रयुक्ता गार्गी ‘ब्रह्मवादं प्रति याज्ञवल्क्यस्य जेता नास्ति’ इति अकथयत्।

वस्तुनिष्ठ  प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए

1. ‘गार्गी-याज्ञवल्क्यसंवादः’ नामक पाठ किस उपनिषद् से संगृहीत है?
(क) श्वेताश्वतर से
(ख) माण्डूक्य से।
(ग) बृहदारण्यक से
(घ) छान्दोग्य से

2. ‘गार्गी-याज्ञवल्क्यसंवाद’ में यज्ञ करने वाले व्यक्ति थे
(क) जनक 
(ख) याज्ञवल्क्य
(ग) उद्दालक
(घ) अश्वल

3. राजा जनक के यज्ञ में किन देशों से विद्वान् आये थे? 
(क) पांचाल देश से
(ख) मिथिला देश से।
(ग) पांचाल और कुरु देशों से 
(घ) कुरु देश से

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4. जनक के होता (यज्ञ कराने वाला पुरोहित ) का नाम था
(क) उद्दालक
(ख) अश्वल
(ग) याज्ञवल्क्य
(घ) गार्गी

5. राजा जनक ने किसको सुवर्णजटित सींगों वाली हजार गायें ले जाने के लिए कहा?
(क) सर्वश्रेष्ठ मुनि को
(ख) सर्वश्रेष्ठ होता को
(ग) सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मविद् को 
(घ) सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण को

6. गार्गी के पश्चात् याज्ञवल्क्य से किसने शास्त्रार्थ किया?
(क) अश्वल ने
(ख) सोमार्स ने
(ग) उद्दालक ने
(घ) जनक ने

7. शास्त्रार्थ में कौन विजयी घोषित किया गया?
(क) अश्वल
(ख) उद्दालक
(ग) याज्ञवल्क्य
(घ) गार्गी

8. याज्ञवल्क्य ने गार्गी के मूर्धापतन की बात क्यों कही?
(क) याज्ञवल्क्य गार्गी के प्रश्न का उत्तर नहीं जानते थे
(ख) याज्ञवल्क्य गार्गी को भयभीत करना चाहते थे।
(ग) याज्ञवल्क्य शास्त्रार्थ समाप्त करना चाहते थे।
(घ) याज्ञवल्क्य ब्रह्मज्ञान की निर्धारित सीमा का अतिक्रमण नहीं चाहते थे

9. गार्गी ने याज्ञवल्क्य के मूर्धापतन की बात क्यों कही?
(क) गार्गी याज्ञवल्क्य से बदला लेना चाहती थी ।
(ख) गार्गी याज्ञवल्क्य के ब्रह्मज्ञान की परीक्षा लेना चाहती थी ।
(ग) गार्गी याज्ञवल्क्य को पराजित करना चाहती थी।
(घ) गार्गी राजा जनक की गायें ले जाना चाहती थी। .

10.’राजा ……….. स्वजिज्ञासाप्रशमनार्थं स्वगोष्ठे स्वर्णशृङ्गयुताम् गवां सहस्रमवरुरोध।’ में रिक्त स्थान में आएगा
(क) जनकः
(ख) दशरथः
(ग) हरिश्चन्द्रः
(घ) हर्षवर्द्धनः

11. ‘हे सोमाई! एताः गाः अस्मद् गृहान् नयतु।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) याज्ञवल्क्यः
(ख) अश्वलः
(ग) गार्गी.
(घ) उद्दालकः

12. गार्गी कस्याः पुत्री आसीत्?
(क) उद्दालकस्य
(ख) विश्वामित्रस्य
(ग) वचक्रुः
(घ) वशिष्ठस्य।

13.’युष्माकं मध्ये इमं याज्ञवल्क्यं ब्रह्मवादं प्रति नैवास्ति कश्चिदपि •••••••••।’ में रिक्त स्थान में आएगा
(क) जयति ।
(ख) जयावे
(ग) जयेव
(घ) जेता।

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14.’हे ब्राह्मणाः! इमं याज्ञवल्क्य महं प्रश्नद्वयं•••••••• में वाक्य-पूर्ति होगी
(क) प्रक्ष्यामि’ से
(ख) वदिष्यामि’ से।
(ग) “कथयामि’ से
(घ) “भविष्यामि’ से

15. इन्द्रलोकेषु कस्मिन् लोके समाहिताः?
(क) आदित्यलोकाः
(ख) गन्धर्वलोकाः
(ग) नक्षत्रलोकाः
(घ) देवलोकाः 

16.’अन्तरिक्षलोकाः••••••••••• लोकेष कात्स्येन आश्रिताः।’ में वाक्य-पूर्ति होगी–
(क) ‘आदित्य’ से
(ख) ‘चन्द्र’ से
(ग) ‘नक्षत्र से
(घ) “गन्धर्व’ से

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Class 9 Sanskrit Chapter 12 UP Board Solutions प्राचीना भारतीयशिक्षाव्यवस्था Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 12 प्राचीना भारतीयशिक्षाव्यवस्था (गद्य – भारती) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 12 प्राचीना भारतीयशिक्षाव्यवस्था (गद्य – भारती).

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Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 12
Chapter Name प्राचीना भारतीयशिक्षाव्यवस्था (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 4
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 12 Prachin Bhartiya Shiksha Pranali Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 12 हिंदी अनुवाद प्राचीना भारतीयशिक्षाव्यवस्था के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांश

शिक्षा के स्वरूप—मनुष्य के वचन, शरीर और मन का जिससे संस्कार होता है, जिससे वह अपने अन्दर के पशुत्व को नियन्त्रित करता है और जिससे स्वयं में दया, उदारता आदि गुणों को धारण करता है, उसे शिक्षा कहते हैं। शिशु माता-पिता के पास रहकर ही बहुत शिक्षा प्राप्त करता है। वह माता की गोद में बैठे हुए; परिवार के सदस्यों के आचरण का सूक्ष्म निरीक्षण करके; उसका अनुकरण करता। है। यह उसकी अनौपचारिक शिक्षा है। इसीलिए माता-पिता बालक के आरम्भिक गुरु होते हैं। इसके बाद उसकी औपचारिक शिक्षा (UPBoardSolutions.com) आरम्भ होती है, जिसे वह घर के बाहर गुरु के पास रहकर प्राप्त करता है। यहाँ वह गुरु के आदेशों का पालन करता हुआ कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान प्राप्त करता है। यही उसका व्यावहारिक ज्ञान भी है। जिस देश की जैसी संस्कृति होती है उसके अनुरूप ही वहाँ की । शिक्षा-व्यवस्था भी होती है।

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शिक्षा एवं संस्कृति पर पाश्चात्य प्रभाव-भारत की संस्कृति संसार की समस्त संस्कृतियों से श्रेष्ठ एवं प्राचीन है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। विदेशियों के आक्रमणों ने इसे अत्यधिक प्रभावित किया है। यही कारण है कि आज भारतीय जीवन-शैली पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव दिखाई देता है। इसका कारण हमारी आधुनिक शिक्षा प्रणाली है, जो शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों का स्पर्श भी नहीं करती। इस कारण ही न तो बालक के व्यक्तित्व का विकास हो पाता है और न आत्मा का।।

प्राचीन गुरुकुलीय शिक्षा-व्यवस्था प्राचीनकाल में भारत में गुरुकुलों में शिक्षा दी जाती थी। छात्र ब्रह्मचर्यपूर्वक, यज्ञोपवीत और मेखला धारण करके स्वयं गुरु के पास जाकर विद्या अध्ययन करते थे। गुरु गार्हस्थ्य जीवन समाप्त करके जंगलों में रहकर छात्रों को शिक्षा प्रदान करते थे। छात्र की योग्यता की (UPBoardSolutions.com) परीक्षा लेकर ही गुरु उसकी योग्यतानुसार उसे गुरुकुल में प्रवेश देते थे। गुरुकुल में रहकर छात्र गुरुकुल के नियमों का पालन करते हुए विद्याध्ययन करते थे। वहाँ उसे समिधा लाना, गायें चराना, खेती करना आदि गुरु के काम भी करने होते थे। गुरु अपने शिष्यों को पुत्र के समान प्रेम करते थे। वहीं छात्र, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, त्याग, ध्यान, धारणा और समाधि का भी अभ्यास कर शिक्षा समाप्त करके और गुरु को दक्षिणा देकर वे गृहस्थाश्रम धर्म का पालन करते थे। | गुरु और शिष्य का सम्बन्ध-गुरुकुल में गुरु के समीप रहकर शिष्य अपने चरित्र का विकास करते थे। ज्ञानार्जन के साथ ही वह दया, उदारता, स्वावलम्बन आदि सद्गुणों की शिक्षा भी प्राप्त करते थे। गुरु और शिष्य का सम्बन्ध स्नेहपूर्ण हुआ करता था। शिष्य गुरु के चरणों में प्रणाम करते थे, भक्ति से उनकी सेवा करते थे, विषयों से सम्बन्धित प्रश्न नि:संकोच पूछा करते थे। गुरु तत्त्वदर्शी, ज्ञानी, अध्यापन में रुचि रखने वाले होते थे।

चार सोपान-प्राचीन भारत में युवक ज्ञान के लिए विद्या अध्ययन करते थे। ज्ञान के बोध के अनुसार ही वे आचरण करते थे और आचारवान् होकर ही वे विद्या का प्रचार करते थे। उस समय शिक्षा की चार कोटियाँ अथवा सोपान विद्यमान थे—
(1) अध्ययन,
(2) बोध,
(3) आचरण और
(4) प्रचार।।

विनय-सम्पन्नता
अध्ययन का फल विनय की सम्पन्नता है। पहले विद्या और विनय से सम्पन्न युवक ही समाज में आदर पाता था। विद्या प्राप्त कर लेने के पश्चात् भी अविनयी होने पर

अध्ययन में त्रुटि समझी जाती थी। पिता भी, विद्या पुढ़कर लौटे हुए पुत्र की विद्वत्ता’ को विनय.के • आधार पर ही आँकता था। विद्या और विद्वत्ता की कसौटी विनय ही थी। अविनय से अध्ययन की

अपूर्णता ज्ञात होती थी। छान्दोग्य उपनिषद् के एक प्रसंग में बताया गया है कि गुरु के आश्रम से लौटे हुए अपने पुत्र के अहंकार को देखकर पिता ने उसकी विद्या-प्राप्ति में सन्देह किया था। कुछ प्रश्न पूछने पर उसे उसकी विद्या की अपूर्णता ही ज्ञात हुई थी।

स्त्री-शिक्षा-गुरुकुलीय शिक्षा-पद्धति में युवकों की तरह युवतियाँ भी शिक्षा पाती थीं। गार्गी, वागाम्भृणी आदि विदुषी युवतियाँ इसकी उदाहरण हैं।

बौद्धयुगीन शिक्षा-प्रणाली–बौद्धयुग में गुरुकुलीय शिक्षा-प्रणाली का ह्रास हो गया था। इस काल में विश्वविद्यालयों में शिक्षा दी जाती थी। वलभी, तक्षशिला, नालन्दा आदि विश्वविद्यालय उस समय शिक्षा के प्रधान केन्द्र थे। इन विश्वविद्यालयों में देश-विदेश के विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे। इनमें (UPBoardSolutions.com) पढ़ाने वाले अध्यापक अपने ज्ञान के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध थे। विश्वविद्यालयों में अत्यधिक समृद्ध पुस्तकालय भी होते थे। पढ़ने के इच्छुक छात्रों को योग्यता के आधार पर ही प्रवेश दिया जाता था। चीनी यात्री ह्वेनसाँग ने उन विश्वविद्यालयों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।

उपसंहार–हमारे राष्ट्र के नेताओं का कर्तव्य है कि राष्ट्र की उन्नति के लिए वे पुरातन और नवीन शिक्षा-प्रणालियों का समन्वय करके शिक्षा योजना तैयार करें। तभी देश में राष्ट्रीय पुरुष होंगे और देश उन्नति करेगा।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) मनुष्यस्य वाक्कायमेनसां सम्यक् संस्कारो यया भवति, यया च स जन्पना पशु-निर्विशेष सन्नपि स्वपशुत्वं नियमयति स्वस्मिन् दयादाक्षिण्यादिमानवधर्मान् आधत्ते सा शिक्षेत्यभिधीयते। जन्मकालान्मृत्युं यावत् मनुष्यस्यानुदिनं विकासो भवति। सेयं विकासपरम्परा एकानवरता प्रक्रिया भवति। शिशुः पित्रोराचार्याणाञ्च सन्निधौ स्वत एवानल्पं शिक्षते। मातुरुत्सङ्गे स्थितः शुिशुः कुटुम्बिजनानां दैनन्दिनमाचरणं सूक्ष्मेक्षिकया निरीक्षते तज्जनितकुतूहलेन तदनुकुरुते। सेयं मनुष्यस्य आदिमानौपचारिकी शिक्षा भवति। क्रमशः शिशुत्वमतिक्रम्य (UPBoardSolutions.com) स पित्रोः विधिनिषेधपरानादेशान् पालयन् कर्तव्याकर्त्तव्यज्ञानमर्जयति तद् द्वारा तस्य व्यवहारज्ञानं भवति। एवं पितरौ बालस्याद्यौ गुरू स्तः। मनुष्यमात्रस्यैवं शिक्षा गृहप्राङ्गणादेव प्रारभते। औपचारिकी शिक्षा तदनन्तरं गृहाद बहिर्गुरुसन्निधौ भवति। एतादृश्याः शिक्षाव्यवस्थायाः स्वरूपं प्रतिदेशं भिद्यते। यादृशी संस्कृतिः यस्य देशस्य भवति तदनुरूपा शिक्षाव्यवस्थापि तस्य देशस्य भवति।।

शब्दार्थ
सम्यक् = भली प्रकार से।
संस्कारः = शुद्धि।
पशु-निर्विशेषः = पशु के समान।
स्वपशुत्वं = अपनी पशुता को।
नियमयति = नियन्त्रित करता है।
दाक्षिण्य = चतुरता।
आधत्ते = धारण करता है।
शिक्षेत्यभिधीयते = शिक्षा कहलाती है।
यावत् = जब तक।
अनुदिनम् = प्रतिदिन।
अनवरता = निरन्तरता।
सन्निधौ = पास में।
अनल्पम् = बहुत।
उत्सङ्गे = गोद में।
दैनन्दिनम् = दैनिक।
सूक्ष्मेक्षिकया = सूक्ष्म दृष्टि से।
तदनुकुरुते = उसका अनुकरण करता है।
अर्जयति = अर्जित करता है।
पितरौ = माता-पिता।
बालस्याद्यौ = बच्चे के प्रारम्भिक।
प्रतिदेशम् = प्रत्येक देश में।
भिद्यते = अन्तर होता है।
तदनुरूपा = उसी के अनुसार।

सन्दर्थ
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संगृहीत ‘प्राचीन भारतीयशिक्षाव्यवस्था’ शीर्षक पाठ से उधृत है।
[संकेत-इस पाठ के शेष गद्यांशों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में शिक्षा का औपचारिक और अनौपचारिक स्वरूप बताया गया है।

अनुवाद
मनुष्य की वाणी, मन और शरीर की शुद्धि जिससे भली प्रकार से होती है, जिससे जन्म से पशुओं से अभिन्न होते हुए भी (मनुष्य) अपनी पशुता को नियन्त्रित करता है, स्वयं में दया, उदारता आदि मनुष्य के गुणों को धारण करता है, वह ‘शिक्षा’ कही जाती हैं। जन्म के समय से मृत्यु तक मनुष्य का (UPBoardSolutions.com) नित-प्रति विकास होता है। यह विकासक्रम एक लगातार प्रक्रिया होती है। बच्चा माता-पिता और गुरुओं के पास में स्वयं ही बहुत कुछ सीखता है। माता की गोद में बैठा हुआ बच्चा परिवार वालों के दिनभर के आचरण को सूक्ष्म दृष्टि से देखता है और उससे उत्पन्न उत्सुकता से उसी

प्रभृतयस्ते गुरवो वानप्रस्थाश्रमिणः संन्यासिनो वा सन्तः अरण्येऽवसन्। अध्ययनाध्याप तत्त्वचिन्तनं च तेषां दिनचर्यासीत्। वैराग्यप्रभावात् कामक्रोधादिषरिपूणां सुतरामप्रभावोऽ भवत् तेषां मनस्सु। शुद्धचित्तास्ते तपस्विनो विद्यार्थिनां योग्यतां सम्यक् परीक्ष्य तेषामर्हताञ्च निर्धार्य तदनु तान् स्वान्तेवासिनः अकुर्वन्। अद्यत्वे यथा निर्धारितं शिक्षाशुल्कं दत्वा ये केऽपि जनाः शालासु प्रवेशं लभन्ते विहिताविहितोपायैश्च परीक्षां समुत्तीर्य विद्वत्पदवीधारिणो भवनि, तथा प्राचीनव्यवस्थायां सम्भावना नासीत्। अर्हतां कुमाराणामेव तदा विद्याध्ययनेऽधिकारोऽभवत्। श्रुतिरपि आदिशति

नापुत्राय दातव्यं नाशिष्याय दातव्यम्।
सम्यक् परीक्ष्य दातव्यं मासं षण्मासवत्सरम्॥

शब्दार्थ
पुरा = प्राचीन काल में।
परिसमाप्य = समाप्त करके।
अरण्येषु = वनों में।
बटवः = ब्रह्मचारी छात्र।
अन्तेवासिनः = पास में रहने वाले (शिष्य)।
कृतोपनयनाः (कृत + उपनयना:) = उपनयन संस्कार किये गये।
समेखलाः = करधनी पहने हुए।
सपलाशदण्डः = ढाक का दण्ड धारण किये हुए।
समित्पाणयः भूत्वा = हाथ में समिधा लेकर।
अन्तिकम् = पास।
जग्मुः = जाते थे।
सुतराम् = पूरी तरह से।
अर्हताम् = योग्यता को।
निर्धार्य = निर्धारित करके।
तदनु = उसके बाद।
विहिताविहितोपायैः = उचित और अनुचित उपायों से।
समुत्तीर्य = उत्तीर्ण करके।
नासीत् = नहीं थी।
अर्हताम् = योग्य को।
श्रुतिरपि = वेद भी।
नापुत्राय = अयोग्य पुत्र के लिए नहीं।
नाशिष्याय = अयोग्य शिष्य के लिए नहीं।
पाण्मासवत्सरम् = छः महीने अथवा साल भर।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में प्राचीनकाल में शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों के प्रवेश की व्यवस्था का वर्णन किया गया है। |

अनुवाद
वर्ण और आश्रमों को प्रधानता देने वाले भारतवर्ष में प्राचीनकाल में गुरुकुल की शिक्षा का प्रचलन था। गृहस्थ जीवन को समाप्त करके जो लोग वानप्रस्थी होकर वन में रहते थे, शिक्षा-प्राप्त करने के इच्छुक ब्रह्मचारी छात्र प्रायः उन्हीं के पास रहते थे और वहीं उनकी शिक्षा होती थी। उपनयन-संस्कार किये हुए (जनेऊ धारण किये हुए) बालक ब्रह्मचर्यव्रत रखकर मेखला (तगड़ी) पहने हुए, पलाश का दण्ड लिये हुए, हाथ में समिधा लेकर वेदों के अध्ययन के लिए गुरु के समीप जाते थे। इसके लिए वेद का यह आदेश है-“विशेष ज्ञान के लिए ब्रह्मचारी हाथ में समिधा लेकर वेदपाठी, ब्रह्म में निष्ठा रखने वाले गुरु के पास ही जाये।” द्रोण, वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि वे गुरु हैं, जो वानप्रस्थ आश्रम वाले या संन्यासी होकर जंगल में रहते थे। अध्ययन, अध्यापन और तत्त्वों का चिन्तन करना उनकी (UPBoardSolutions.com) दिनचर्या थी। वैराग्य के प्रभाव से उनके मनों में काम, क्रोध आदि छः शत्रुओं का अत्यधिक अभाव हो जाता था। निर्मल मन वाले वे तपस्वी विद्यार्थियों की योग्यता की अच्छी तरह से जाँच करके और उनकी योग्यता निश्चित करके उसके बाद उन्हें अपना अन्तेवासी (शिष्य) बनाते थे। आजकल जैसा कि निर्धारित शिक्षा-शुल्क (फीस) देकर जो कोई भी लोग विद्यालयों में प्रवेश प्राप्त कर लेते हैं और उचित-अनुचित तरीकों से परीक्षा उत्तीर्ण करके विद्वान् की उपाधि धारण करने वाले हो जाते हैं, वैसी प्राचीन व्यवस्था में सम्भावना नहीं थी। योग्य बालकों का ही उस समय विद्या-अध्ययन में अधिकार होता था। वेद भी आदेश देते हैं अयोग्य पुत्र को (शिक्षा) नहीं देनी चाहिए, न ही अयोग्य शिष्य को (शिक्षा) देनी चाहिए। अच्छी तरह छ: महीने-सालभर जाँच करके ही (शिक्षा) देनी चाहिए।

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(4) गुरुकुलं प्रविश्य ब्रह्मचारिणो गुरुकुलस्य नियमान् सम्यक् यथावत्परिपालयन्तः विद्याध्ययनमकुर्वन्। सममेव समिदाहरणगोचारणकृषिकर्मादिगुर्वाश्रमविहितव्यापारेष्वपि तेषां सहभागित्वं कुटुम्बिवदभवत्। गुरवोऽपि तेषु स्वसुतनिर्विशेषं स्निह्यन्ति स्म। अध्ययनकाले एव यमनयिमासनप्राणायामप्रत्याहारध्यानधारणासमाधीनामभ्यसोऽप्यभवत्। शिक्षासमाप्तौ गुरुदक्षिणां दत्त्वा (UPBoardSolutions.com) स्नातकोपाधिभूषितास्ते प्रत्यावर्तनविधिमनुसृत्य गृहस्थाश्रमे प्रवेशमकुर्वन्। येषां शिष्याणां यावज्जीवनं शिक्षाप्राप्ती अभिरुचिरभवत् ते नैष्ठिकपदवीभाजः सन्तः गुरुकुलेष्वेवावसन्।

शब्दार्थ
प्रविश्य = प्रवेश पाकर।
सममेव = साथ ही।
समिदाहरण (समित् + आहरण) = लकड़ी लाना।
विहितव्यापारेष्वपि = निश्चित कार्यों में भी।
सहभागित्वम्= सहयोग।
स्वसुतनिर्विशेष = अपने पुत्र के समान।
प्रत्याहार = त्याग।
प्रत्यावर्तनविधिम् = शिक्षा प्राप्तकर गुरुकुल से विदा होने की विधि को।
अनुसृत्य = अनुसरण करके।
प्रवेशम् अकुर्वन् = प्रवेश करता था।
यावज्जीवनम् = जीवनपर्यन्त।
अभिरुचिरभवत् = लगन होती थी।
नैष्ठिकपदवीभाजः = नैष्ठिक ब्रह्मचारी की पदवी धारण करने वाले। |

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गुरुकुल में प्रवेश प्राप्त करने के बाद शिक्षा-प्राप्ति की विधि का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
गुरुकुल में प्रवेश पाकर ब्रह्मचारी गुरुकुल के नियमों को पूर्णतया अच्छी तरह पालन करते हुए विद्या-अध्ययन करते थे। साथ ही लकड़ी लाने, गायें चराने, खेती का काम आदि गुरु के आश्रम के योग्य कार्यों में उनका सहयोग परिवार के सदस्यों की तरह होता था। गुरु भी उन पर पुत्र के समान स्नेह करते थे। अध्ययन के समय में ही यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि आदि का अभ्यास हो (UPBoardSolutions.com) जाता था। शिक्षा समाप्त करने पर गुरु को दक्षिणा देकर स्नातक की उपाधि से विभूषित होकर दीक्षान्त विधि को अनुसरण करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते थे। जिन शिष्यों की जीवनपर्यन्त शिक्षा-प्राप्त करने में रुचि होती थी, वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी के पद को ग्रहण करते हुए गुरुकुल में ही रहते थे।

(5) गुरुकुलवासकाले शिष्याः गुरुसन्निधौ स्वचरित्रस्य सर्वाङ्गीणम् विकासमकुर्वन्। ज्ञानार्जनेन सहैव स्वावलम्बनादीनां सदगुणानामात्मन्याधानमपि कृतवन्तः। गुरुशिष्ययोः सम्बन्धः स्नेहसिक्त आसीत् श्रीमद्भगवद्गीतायामुक्तमस्ति

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥

शब्दार्थ
गुरुसन्निधौ = गुरु के पास में।
आत्मन्याधानम् = आत्मा में धारण करना।
प्रणिपातेन = प्रणिपात (प्रणाम) द्वारा।
प्ररिप्रश्नेन = प्रश्न (पूछने) की परिपाटी से।
उपदेक्ष्यन्ति = उपदेश देंगे।
तत्त्वदर्शिनः = तत्त्वद्रष्टा।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गुरु और शिष्य के सम्बन्धों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद

गुरुकुल में रहते समय शिष्य गुरु के पास अपने चरित्र का सर्वांगीण विकास करते. . थे। ज्ञान-प्राप्ति के साथ स्वावलम्बन आदि गुणों को भी आत्मा में धारणा करते थे। गुरु और शिष्य का सम्बन्ध स्नेह से सिंचित (पूर्ण) होता था। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है| ज्ञानी और तत्त्वदर्शी गुरु प्रणाम करने से, सरलतापूर्वक प्रश्न पूछने से और सेवा करने से ही तुझे ज्ञान का उपदेश देंगे। तुम उस ज्ञान को उनके पास जाकर समझो।

(6) अयं श्लोकः गुरुशिष्ययोरादर्शसम्बन्धं स्फुटं प्रकाशयति। स एव शिष्यो ज्ञानार्जने प्रभवति यः गुरोः चरणेषु प्रणिपातं करोति। प्रणिपातस्यात्र कोऽर्थः इति जिज्ञासायां सत्यां वाक्कायमनसां गुरवे समर्पणामिति मन्तव्यं भवति। तेन गुरुशिष्ययोर्मध्येऽभेदबुद्धिरुत्पद्यते। एष एव ज्ञानावाप्तेः ऋजुः मार्गः। समर्पणेन सहैव छात्रस्य बौद्धिकस्वातन्त्र्यस्य रक्षार्थं श्लोके परिप्रश्नानां व्यवस्थापि दृश्यते। गुरु प्रति (UPBoardSolutions.com) अतिशयितः आदरः शिष्यान् विषयसम्बन्धिपरिप्रश्नेभ्यो न वारयति। सेवाभावः शिष्याणां परमो धर्मः। एवं सच्छिष्यलक्षणमत्र निरूपितम्। एवमेव तादृशा एव पुरुषाः गुरुवः भवन्ति ये तत्त्वद्रष्टारो ज्ञानिनश्च सन्ति। सममेव अध्यापनरुचिः तेषां गुरुभावं सर्वथा द्रढयति। एष सम्बन्धः एव शिक्षा समुन्नयति। अद्यत्वे न तादृशः गुरुशिष्ययोः सम्बन्धो दृश्यते। फलतः सर्वत्र शिक्षाप्राप्तिविधौ वैफल्यमेव लक्ष्यते। शिक्षायाः परमां कोटिं प्राप्तां अपि युवानो विनयविरहिताः दिग्भ्रान्ताः अद्य भवन्ति।

शब्दार्थ

स्फुटं = स्पष्ट।
प्रकाशयति = प्रकाशित करता है।
प्रभवति = समर्थ होता है।
प्रणिपातं करोति = प्रणाम करता है।
जिज्ञासायां सत्यां = जानने की इच्छा होने पर।
वाक्कायमनसाम् = वाणी, शरीर और मन का।
मन्तव्यं = मानना चाहिए।
अभेदबुद्धिरुत्पद्यते = अभेद बुद्धि उत्पन्न होती है।
ऋजुः = सरल, सीधा।
परिप्रश्नानाम् = बार-बार पूछने की।
अतिशयितः आदरः = अत्यधिक आदर।
वारयति = रोकता है।
सच्छिष्यलक्षणमत्र (सत् + शिष्य + लक्षणम् + अत्र) = अच्छे शिष्य को लक्षण यहाँ।
सममेव = साथ ही।
द्रढयति = दृढ़ करती है।
समुन्नयति = समुन्नत करती है।
वैफल्यम् एव = विफलता ही।
दिग्भ्रान्ताः = दिशाहीन, भटके हुए।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गुरुकुल की शिक्षा पर विधिवत् प्रकाश डाला गया है।

अनुवाद
यह श्लोक गुरु और शिष्य के आदर्श सम्बन्ध को स्पष्ट करता है। वही शिष्य ज्ञानार्जन में समर्थ होता है, जो गुरु के चरणों में प्रणाम करता है। ‘प्रणिपात’ का यहाँ क्या अर्थ है? ऐसी जानने की इच्छा होने पर वाणी, शरीर और मन को गुरु को अर्पित करना, ऐसा समझना चाहिए। उससे गुरु 
और शिष्य के मध्य अभेद बुद्धि उत्पन्न होती है। यही ज्ञाने-प्राप्ति का सरल मार्ग है। समर्पण के साथ ही छात्र की बौद्धिक स्वतन्त्रता क रक्षा के लिए श्लोक में सरलतापूर्वक प्रश्न पूछने की व्यवस्था भी दिखाई देती है। गुरु के प्रति अत्यधिक आदर शिष्यों को (UPBoardSolutions.com) विषय सम्बन्धी प्रश्न बार-बार पूछने से नहीं रोकता है। सेवा करना शिष्य का परम धर्म है। इस प्रकार उत्तम शिष्य का लक्षण यहाँ बताया गया है। इसी प्रकार वैसे ही पुरुष गुरु होते हैं, जो तत्त्वद्रष्टा और ज्ञानी होते हैं। साथ ही पढ़ाने में लगन उनके गुरु होने को सभी प्रकार से पुष्ट करती है। यह सम्बन्ध ही शिक्षा की उन्नति करता है। आजकल गुरु-शिष्य का वैसा सम्बन्ध नहीं दिखाई पड़ता है। फलस्वरूप सब जगह शिक्षा-प्राप्ति की विधि में विफलता ही दिखाई पड़ती है। शिक्षा की चरमसीमा को प्राप्त हुए युवक भी आज विनयहीन और दिग्भ्रमित होते हैं।

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(7) प्राचीनभारते युवानो बोधार्थम् अधीतिनोऽभवन्। बोधानुकूलं तेषामाचरणमभूत्। आचारवन्तः सन्तः ते विद्यां प्राचारयन्। एवम् अधीतिबोधाचरणप्रचारणानि तदा शिक्षाव्यवस्थायाः चतस्रः कोटयः आसन्।

शब्दार्थ
बोधार्थम् = ज्ञान के लिए।
अधीतिनः = पढ़ने वाले।
बोधानुकूलम् = ज्ञान के अनुरूप।
प्राचारयन् = प्रचार किया।
चतस्रः = चार।
कोटयः = श्रेणियाँ। |

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में बताया गया है कि विद्या की चार श्रेणियाँ होती हैं।

अनुवाद
प्राचीन भारत में युवक ज्ञान के लिए पढ़ते थे। ज्ञान के अनुसार ही उनका आचरण होता था। आचारवान् होकर वे विद्या का प्रचार करते थे। इस प्रकार उस समय पढ़ना, ज्ञान, आचरण और प्रचार शिक्षा-व्यवस्था के चार सोपान होते थे।

(8) ज्ञानिनो गुरवः श्रद्धालवश्छात्राः गुरुकुलस्य मणिकाञ्चनसंयोगं व्यञ्जन्ति स्म। एवं वैशिष्ट्ययुक्ते गुरुकुले पठिता विद्या कथं न सफला भवेत्? अधीतेः फलं विनतिरिति गुरुकुले समाजेऽपि च स्वीकृती आसीत्। विद्याविनयसम्पन्न एव समाजे श्रद्धास्पदं जायते स्म, नहि विद्यासम्पन्नः केवलम्। अधीते स्नातकेऽविनयस्य स्थितिरधीतावेव काचित्रुटिरिति ते अमन्यन्त। पिताऽपि गुरुकुलात् प्रतिनिवृत्तस्य स्नातकभूतस्य स्वसूनोः (UPBoardSolutions.com) विनयसम्पन्नतामेव परीक्षते स्म। विद्यायाः विद्वत्त्वस्य चोभयोः विनय एव तदानीं निकषमासीत्। अविनयेना- ध्ययनस्यैवापूर्णता द्योतिताऽभवत्। छान्दोग्योपनिषदि तादृश एकः प्रसङ्गोऽस्ति। यत्र गुरोराश्रमात्प्रतिनिवृत्तस्य स्वतनयस्य श्वेतकेतोः दर्पमवलोक्य पिता तस्य विद्यावाप्तौ सन्देग्धि।कतिपयैः प्रश्नैः पुत्रं परीक्ष्य स तस्य विद्याया एवापूर्णतामवगच्छति तत्पूर्व्यर्थं स्वयं प्रययते।।

शब्दार्थ
मणिकाञ्चनसंयोगम् = मणि और सुवर्ण का संयोग।
व्यञ्जन्ति स्म = प्रकट करते थे।
विनतिः = विनय, नम्रता।
स्थितिरधीतावेव (स्थितिः + अधीतौ + एव) = होना अध्ययन में ही।
अमन्यत = मानते थे।
स्वसूनोः = अपने पुत्र का।
परीक्षते = स्म परीक्षा करता था।
निकषम् = कसौटी।
द्योतिताऽभवत् = विदित होती थी।
सन्देग्धि = सन्देह करता है।
प्रयतते = प्रयत्न करता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में; शिक्षा का आधार छात्र को विनय सम्पन्न होना; बताया गया है।

अनुवाद
ज्ञानी गुरु और श्रद्धालु छात्र गुरुकुल के मणिकांचन योग को व्यक्त करते थे। इस प्रकार की विशेषता से युक्त गुरुकुल में पढ़ी गयी विद्या कैसे न सफल हो, अर्थात् अवश्य ही सफल होगी। अध्ययन का परिणाम विनय’ है, यह गुरुकुल में और समाज में भी स्वीकार किया गया था। विद्या और विनय से युक्त (युवक) ही समाज में श्रद्धा का पात्र होता था, केवल विद्या से सम्पन्न नहीं। पढ़े हुए स्नातक में अविनय होना, पढ़ने में कोई कमी रह गयी है, ऐसा वे मानते थे। पिता भी गुरुकुल से लौटे हुए स्नातक बने अपने पुत्र की विनयसम्पन्नता की परीक्षा (UPBoardSolutions.com) करता था। विद्या और विद्वत्ता दोनों की कसौटी उस समय विनय ही थी। अविनय से अध्ययन की अपूर्णता ही ज्ञात होती थी। छान्दोग्य उपनिषद् में ऐसा एक प्रसंग है जहाँ गुरु के आश्रम से लौटे हुए अपने पुत्र श्वेतकेतु के गर्व को देखकर पिता उसकी विद्या-प्राप्ति में सन्देह करता है। कुछ प्रश्नों से पुत्र की परीक्षा लेकर वह उसकी विद्या की अपूर्णता को जान जाता है। उसकी पूर्ति के लिए वह (पिता) स्वयं प्रयत्न करता है।

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(9) प्रसङ्गोऽयं गुरुकुलस्य माहात्म्यं स्वीकुर्वन्नपि पित्रोरभिभावकस्य पालकस्य वा शिक्षापूर्तये कर्तव्यमनुदिशति। ये च पितरोऽभिभावकोः वा शिक्षालयमेवालमिति मत्वा विरमन्ति सन्तुष्यन्ति च तेषां तनयाः बोधीप्तौ कृतार्थाः न भवेयुरिति छान्दोग्योपनिषदः प्रसङ्गस्याशयः। | गुरुकुलशिक्षा-व्यवस्थायां यथा युवानस्तथ युवतयोऽपि शिक्षामाप्नुवन्। गार्गीवागाम्भृणीप्रभृतयो नार्यः विद्वत्संसत्सु प्रतिष्ठामलभन्त।

बौद्धकालिके भारते गुरुकुलव्यवस्थायाः ह्रासः प्रारब्धः। तदा शिक्षण कार्यार्थं विश्वविद्यालयाः प्रादुरभवन्। वलभीतक्षशिलानालन्दादयः प्रमुखानि शिक्षाकेन्द्राण्यासन्। |

शब्दार्थ
पित्रोः = माता-पिता का।
अनुदिशति = बतलाता है।
विमन्ति = उदासीन हो जाते हैं।
सन्तुष्यन्ति = सन्तुष्ट करते हैं।
बोधावाप्तौ = (बोध + अवाप्तौ) ज्ञान की प्राप्ति में।
युवतयोऽपि = युवतियाँ भी।
विद्वत्संसत्सु = विद्वानों की सभाओं में।
बौद्धकालिके भारते = बुद्धकालीन भारत में।
ह्रासः = अवनति। प्रादुरभवन् = प्रादुर्भूत हुए।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्य अवतरणों में माता-पिता और अभिभावक को अपने कर्तव्य के प्रति सचेत किया गया है तथा गुरुकुलीय शिक्षा-व्यवस्था के ह्रास एवं विश्वविद्यालयीय शिक्षा-व्यवस्था के प्रादुर्भाव को बताया गया है।

अनुवाद
यह प्रसंग गुरुकुल की महत्ता को स्वीकार करता हुआ भी माता-पिता, अभिभावक  अथवा पालक के शिक्षा-पूर्ति के कर्तव्य को बतलाता है। जो माता-पिता अथवा अभिभावक (शिक्षा के लिए) विद्यालय (को) ही पर्याप्त है, ऐसा मानकर उदासीन हो जाते हैं और सन्तुष्ट हो जाते हैं, उनके पुत्र ज्ञान-प्राप्ति में सफल नहीं होते–यह छान्दोग्य उपनिषद् के प्रसंग का तात्पर्य है।

गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली में जैसे युवक (शिक्षा प्राप्त करते थे) वैसे ही युवतियाँ भी शिक्षा प्राप्त करती थीं। गार्गी, वागाम्भृणी आदि नारियों ने विद्वानों की सभाओं में सम्मान प्राप्त किया था।

बौद्धकाल में भारत में गुरुकुल प्रणाली का पतन प्रारम्भ हो गया था। उस समय शिक्षा-कार्य के लिए विश्वविद्यालयों का प्रादुर्भाव हुआ। वलभी, तक्षशिला, नालन्दा आदि प्रमुख शिक्षा- केन्द्र थे।

(10) तेषु विश्वविद्यालयेषु बहुसङ्ख्यकाः स्वदेशीयविदेशीयाः छात्राः शिक्षामलभन्त। तत्राध्यापनरताः शिक्षकाः स्व-स्वज्ञान-वैभवप्रभावात् सर्वत्र प्रख्याता आसन्। तेषु विश्वविद्यालयेषु सुसमृद्धाः पुस्तकालया आसन्। तत्र प्रपठिषवश्छात्राः पूर्वं द्वारपण्डितैः परीक्षिताः जायन्ते स्म। अर्हतानिर्धारणोपरि तेषां प्रवेशोऽभवत्। चीनदेशीयह्वेनसाङ्गाख्य-महोदयैः तेषां विश्वविद्यालयानां व्यवस्था भूरि-भूरि प्रशंसिता। हा हन्त! (UPBoardSolutions.com) क्रूरकालप्रहारेण तेषामस्तित्वमप्यद्य स्मृतिपर्यवसायि भवति। तेन सममेव भारतस्य भारतीयता समाप्तप्राया दृश्यते। राष्ट्रसमुन्नतये सततं प्रयतमानानां राष्ट्रनेतृणां प्रथमं कर्त्तव्यमस्ति यत्ते नूतनपुरातनशिक्षाव्यवस्थयोः सामानुपातिकं समन्वयं विधाय शिक्षा संयोजयेयुः। तदैव राष्ट्रे राष्ट्रपुरुषाः प्रादुर्भविष्यन्ति, राष्ट्रोन्नतिश्च भविष्यति।।

शब्दार्थ

बहुसङ्ख्य काः = अधिक संख्या में
प्रख्याताः = प्रसिद्ध।
प्रपठिषवः = पढ़ने के इच्छुक।
द्वारपण्डितैः = द्वारपण्डितों के द्वारा।
अर्हतानिर्धारणोपरि = योग्यता निश्चित करने के बाद।
भूरि-भूरि = बहुत अधिक।
स्मृतिपर्यवसायि = स्मृति की समाप्ति।
सततप्रयतमानानाम् = लगातार प्रयत्न करने वालों का।
यत्ते (यत् + ते) = कि वे।
समानुपातिकम् = समान अनुपात में।
समन्वयं = ताल-मेल।
विधाये = करके।
संयोजयेयुः = सुनियोजित करना चाहिए।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में प्राचीन विश्वविद्यालयीय प्रणाली की शिक्षा की प्रशंसा एवं उसकी समाप्ति का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
उन विश्वविद्यालयों में अपने देश के और विदेश के बहुत संख्या में छात्र शिक्षा प्राप्त करते थे। उनमें अध्यापन में लगे हुए शिक्षक अपने ज्ञान के वैभव के प्रभाव से सब जगह प्रसिद्ध थे। उन विश्वविद्यालयों में बहुत समृद्ध पुस्तकालय थे। वहाँ पढ़ने के इच्छुक छात्र पहले द्वार पर स्थित विद्वानों के द्वारा परीक्षित किये जाते थे। योग्यता के आधार पर उनका प्रवेश होता था। चीन देश के ह्वेनसाँग महोदय ने उन विश्वविद्यालयों की (UPBoardSolutions.com) व्यवस्था की बहुत-बहुत प्रशंसा की है। हाय खेद है! समय के कठोर प्रहार से आज उनका अस्तित्व भी स्मृति से परे हो गया है। उसके साथ ही भारत की भारतीयता भी प्रायः समाप्त दिखाई पड़ रही है। राष्ट्र की उन्नति के लिए निरन्तर प्रयत्न करने वाले राष्ट्र के नेताओं का प्रथम कर्तव्य है कि वे नयी और पुरानी शिक्षा-व्यवस्था का समान अनुपात में मेल करके शिक्षा की योजना बनाएँ, तभी राष्ट्र में राष्ट्रभक्त पुरुष उत्पन्न होंगे और राष्ट्र की उन्नति होगी। .

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
प्राचीन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के सम्बन्ध में पठित अंश के आधार पर दस : वाक्य लिखिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत आये शीर्षक ‘प्राचीन गुरुकुलीय शिक्षा-व्यवस्था की सामग्री को अपने शब्दों में लिखें।]

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प्ररन 2
‘प्राचीन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था’ पाठ के आधार पर गुरु-शिष्य सम्बन्धों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत आये शीर्षक ‘गुरु और शिष्य का सम्बन्ध’ की सामग्री को अपने शब्दों में लिखें।]

प्ररन 3
बौद्धयुगीन शिक्षा-पद्धति पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत आये ‘बौद्धयुगीन शिक्षा प्रणाली शीर्षक की सामग्री को अपने शब्दों में लिखें।]

प्ररन 4
शिक्षा के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए इस पर पाश्चात्य प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत आये शीर्षकों; “शिक्षा के स्वरूप और शिक्षा एवं संस्कृति पर पाश्चात्य प्रभाव’; की सामग्री को अपने शब्दों में लिखें।

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Class 9 Sanskrit Chapter 4 UP Board Solutions राष्ट्रपिता महात्मा गन्धी Question Answer

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 4
Chapter Name राष्ट्रपिता महात्मा गन्धी (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 36
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 4 Rashtrapita Mahatma Gandhi Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 4 हिंदी अनुवाद राष्ट्रपिता महात्मा गन्धी के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांश

भारतभूमि पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया है। उनमें महात्मा गाँधी का नाम श्रद्धा के साथ लिया जाता है। सारा संसार उनके स्वदेश-प्रेम, सत्याग्रह और मानवमात्र के प्रति सहज स्नेह को देखकर आश्चर्य करता है। दुबला-पतला शरीर होने पर भी उन्होंने अपने सुदृढ़ आत्मबल से अंग्रेजों के शासन को हिला दिया था। यही कारण था कि विश्वकवि रवीन्द्र ने उन्हें महात्मा’ शब्द से सम्बोधित किया।

प्रारम्भिक जीवन-महात्मा गांधी का जन्म गुजरांत प्रान्त के पोरबन्दर नामक नगर में 2 अक्टूबर, सन् 1869 ई० को हुआ था। इनके पिता का नाम कर्मचन्द और माता का पुतलीदेवी था। गाँधी जी की माता पुतलीदेवी सत्यनिष्ठ व धर्मपरायणा महिला थीं। गाँधी जी के जीवन पर माता के, धार्मिक जीवन (UPBoardSolutions.com) का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। सन् 1888 ई० में उच्च-शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड जाते समय माता ने उन्हें मांस न खाने और मदिरा न पीने का उपदेश दिया। वहाँ अपनी माता जी के उपदेश का पालन करते हुए, इन्होंने कानून की शिक्षा ग्रहण की और अपने देश लौट आये।

दक्षिण अफ्रीका गमन-इंग्लैण्ड से लौटकर गाँधी जी ने बम्बई में वकालत करना प्रारम्भ कर दिया। तभी अफ्रीका निवासी कुछ धनी भारतीय उन्हें एक अभियोग में पैरवी के लिए अफ्रीका ले गये। वहाँ भारतीयों पर अंग्रेजों के अत्याचारों को देखकर इनका हृदय अत्यन्त दुःखी हुआ। वहाँ कचहरियों, दफ्तरों, रेलयानों, मार्गों और सड़कों पर काले-गोरे का भेद दिखाई देता था। वहाँ गाँधी जी जब रेल में प्रथम श्रेणी में यात्रा कर रहे थे, तब गोरों ने उन्हें बाहर धकेल दिया था। इस घटना से दु:खी गाँधी जी ने लोगों को अंग्रेजी शासन से मुक्ति दिलाने (UPBoardSolutions.com) की प्रतिज्ञा की और सत्याग्रह आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। प्रवासी भारतीयों में अंग्रेजी शासन से मुक्ति पाने के लिए एक नयी जागृति उत्पन्न हुई। अंग्रेजों ने गाँधी जी को बार-बार जेल में बन्द किया, परन्तु उनका आन्दोलन उग्रतर होता गया।

भारत वापसी-गाँधी जी सन् 1915 ई० में एक जननेता के रूप में भारत लौट आये। यहाँ उनकी गोपालकृष्ण गोखले से मुलाकात हुई। उनकी सलाह से इन्होंने भारत के विभिन्न भागों का भ्रमण करके लोगों की दीनता, दरिद्रता और अशिक्षा को प्रत्यक्ष देखा। उन्होंने अंग्रेजों के कृपापात्र ऐसे भारतीयों को भी देखा, जो श्रमिकों को अधिक-से-अधिक कष्ट दे सकते थे। इन्होंने परतन्त्रता को सब दुःखों का मूल कारण जानकर उसे नष्ट करने का निश्चय किया। | चम्पारन आन्दोलन-गाँधी जी ने बिहार के चम्पारन जिले में नील की खेती करने वाले किसानों के साथ अंग्रेज भूस्वामियों के अमानवीय अत्याचारों को सम्माप्त करने के लिए आन्दोलन किया। गाँधी जी का यह भारत में प्रथम आन्दोलन था। इस आन्दोलन की सफलता से लोगों ने इन्हें अपना नेता स्वीकार कर लिया और राष्ट्रपिता’ कहना आरम्भ कर दिया। ‘

असहयोग आन्दोलन-भारतीयों पर अंग्रेजों के बढ़ते हुए अत्याचारों को रोकने के लिए गाँधी जी ने सन् 1920 ई० में असहयोग आन्दोलन आरम्भ कर दिया। उन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार विदेशियों की नौकरियों और उपाधियों का परित्याग आदि के द्वारा इस आन्दोलन का स्वरूप निर्धारित किया। भारतीयों ने इस आन्दोलन में निर्भीकता से भाग लिया। हजारों भारतीय बन्दी बना लिये गये और गाँधी जी को भी (UPBoardSolutions.com) छह वर्ष के लिए जेल में डाल दिया गया। गाँधी जी ने इस आन्दोलन में सत्य और अहिंसा नाम के दो अस्त्र भारतीयों को प्रदान किये। सत्याग्रहियों द्वारा ‘चौरी-चौरा’ नामक स्थान पर हुई हिंसा के कारण यह आन्दोलन स्थगित कर दिया गया।

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सविनय अवज्ञा आन्दोलन–गाँधी जी सन् 1926 ई० में जेल से रिहा हुए। सरकार द्वारा नमक पर कर लगाये जाने के विरोध में इन्होंने सन् 1930 ई० में सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ किया। इस आन्दोलन के लिए गाँधी जी के साथ-साथ उस समय के चोटी के स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों ने गुजरात के दाण्डी ग्राम से समुद्र तक पैदल यात्रा की और समुद्र के जल से नमक बनाकर नमक-कानून का उल्लंघन किया। इस आन्दोलन का इतना व्यापक प्रभाव हुआ कि गाँव-गाँव, नगर-नगर, गली-गली में नमक बनाया जाने लगा, जिसे सरकार न रोक सकी।‘अंग्रेजो!

भारत छोड़ो आन्दोलन–अंग्रेज शासकों ने सबल भारत को विखण्डित करने के लिए हिन्दू-मुस्लिम, अस्पृश्यता, वर्ण आदि की समस्याओं को उभारा। महात्मा जी ने अनशन द्वारा भारत की अखण्डता की रक्षा की। अनेक आन्दोलन चलाये जाने पर भी अंग्रेजों द्वारा भारत को स्वतन्त्रता देने में रुचि नहीं दिखाई गयी; अतः 8 अगस्त, सन् 1942 ई० में बम्बई में कांग्रेस के अधिवेशन में महात्मा जी ने अंग्रेजो! भारत छोड़ो’ नारे की घोषणा की। तुरन्त ही नेहरू, आजाद आदि प्रमुख भारतीय नेताओं को बन्दी बना लिया गया। इस समाचार को सुनकर जनता में क्षोभ फैल गया। उन्होंने बिना नेता के ही देशव्यापी आन्दोलन चलाया। सरकारी भवनों और कार्यालयों (UPBoardSolutions.com) पर तिरंगा झण्डा फहराना उनका मुख्य लक्ष्य था। अपनी छाती फैलाकर यहाँ गोली मारो’, ‘यहाँ गोली मारो’ चिल्लाते हुए वीर बालक घूमने लगे। अंग्रेजों की गोलियाँ भी उनकी गति को न रोक सकीं। एक के गोली लगने पर दूसरा उसका स्थान ले लेता था, परन्तु ध्वज को नीचे न गिरने देता था। इस अनुपम बलिदान से विदेशी शासन हिल गया। 15 अगस्त,सन् 1947 ई० को अंग्रेज भारत को भारतवासियों को सौंपकर स्वदेश चले गये और भारत स्वतन्त्र हो गया।

सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता-गाँधी जी सत्याग्रह द्वारा सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त कराना चाहते थे। उन्होंने अहमदनगर में साबरमती नदी के तट पर अपना आश्रम बनाया। बाद में यह आश्रम वर्धा के पास सेवाग्राम में लाया गया। यहाँ गाँधी जी ने स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग व ग्रामोद्योगों के प्रचार द्वारा जनता को दरिद्रता से मुक्ति दिलाने हेतु उन्हें चरखे से सूत बनाना सिखाया। उन्होंने इस सबके (UPBoardSolutions.com) लिए बुनियादी शिक्षा का स्वरूप प्रस्तुत किया। उनका विश्वास था कि शिक्षा से ही सामाजिक बुराइयों को दूर किया जा सकता है।

रामराज्य की कल्पना-गाँधी जी अपने मन में कल्पित रामराज्य का साकार चित्र भारत-भूमि पर देखना चाहते थे; अतः उन्होंने भारत में कोई दुःखी, अज्ञानी, अवगुणी न रहे, श्रम की प्रतिष्ठा हो, दलितों और शोषितों के प्रति स्नेह हो आदि द्वारा रामराज्य की कल्पना की। उनके मार्ग का अनुसरण करके हम अपने देश का उत्थान कर सकते हैं।

33 वर्षों तक अंग्रेजों के साथ जूझने और देश को स्वतन्त्र कराने वाले गाँधी जी 30 जनवरी, सन् 1948 ई० को एक विक्षिप्त भारतीय की गोली से आहत होकर ‘राम-राम’ (UPBoardSolutions.com) कहते हुए परलोक सिधार गये। उनके द्वारा मानवों के कल्याण के लिए प्रज्वलित ज्योति सदा प्रकाश देती रहेगी, इसमें सन्देह नहीं है।

गघांशों का सासन्दर्भ अनुवाद

(1) बहवो महापुरुषाः स्वजन्मनाऽमुं भारतभुवं समलञ्चक्रुः। तेषु विशिष्टगुणाकरेषु श्रद्धास्पदेषु महापुरुषेषु महात्मनो गान्धिनो नाम को वी न जानाति? न केवल भारतवर्ष, समग्रं विश्वं तस्य स्वदेशानुरागं सत्यं प्रति तस्याग्रहं, मानवमात्रप्रति तस्य सहजस्नेहमवलोक्य, विस्मितमिव तिष्ठति। क्षीणकायोऽसौ महापुरुषः प्रस्तरादपि कठोरः रिक्तहस्तोऽपि स्वतपोबलेन आङ्ग्लैजातिशासनमकम्पयत्। यदासौ स्वसत्याहिंसास्त्राभ्यां स्वमातृभूमेः पारतत्र्यशृङ्खलामुच्छेत्तुं निश्चिकाय, तदाऽन्येऽनेके स्मयमाना अब्रुवन् , सत्यमहिंसाञ्चानुसृत्य क्वचित् गिरिकानने निर्जने वा प्रदेशे तपश्चरितुं कश्चित् क्षमते न तु क्रूरकुटिलनीतिकलाकलुषितैः वैदेशिकशासकैः सह योद्धं क्षमेत। परं गान्धिना तत्सर्वं कृतं यदन्येभ्यः शशशृङ्गमिवासीत्।

विश्वकविः रवीन्द्रस्तस्याप्रतिमं नूतनमिव क्रियाकौशलमात्मनः सबलत्वं च प्रत्यक्षीकृत्य . ‘महात्मा’ शब्देन तं सम्बोधितवान्।

शब्दार्थ-
अमुं = इस।
भारतभुवं = भारतभूमि को।
समलञ्चक्रुः = भली-भाँति सुशोभित किया।
विशिष्टगुणाकरेषु = विशिष्ट गुणों के भण्डारों में।
श्रद्धास्पदेषु = श्रद्धा के पात्रों में।
तस्याग्रहम् = उनके आग्रह को।
सहजस्नेहमवलोक्य = स्वाभाविक प्रेम को देखकर।
विस्मितम् =आश्चर्यचकित।
क्षीणकायः = पतले-दुबले शरीर वाला।
प्रस्तरात् = पत्थर से।
उच्छेत्तुम् = काटने के लिए।
निश्चिकाय = निश्चित किया।
स्मयमाना = आश्चर्य करते हुए।
अनुसृत्य = अनुसरण करके।
कानने = वन में।
क्षमते = समर्थ हो सकता है।
योदधुं = युद्ध करने के लिए।
क्षमेत = समर्थ।
शशशृंम् = खरगोश के सींग; अर्थात् असम्भव वस्तु।
प्रत्यक्षीकृत्य = साक्षात् देखकर।।

सन्दर्भ
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित राष्ट्रपिता महात्मा गान्धी’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

संकेत
इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में महात्मा गाँधी के दृढ़-निश्चयी एवं देश-प्रेमी स्वभाव के विषय में बताया गया है।

अनुवाद
बहुत-से महापुरुषों ने अपने जन्म से इस भारतभूमि को सुशोभित किया है। उन विशिष्ट गुणों के अँण्डार, श्रद्धा के योग्य महापुरुषों में महात्मा गाँधी का नाम कौन नहीं जानता है? केवल भारतवर्ष ही नहीं, सम्पूर्ण संसार अपने देश के प्रति उनके प्रेम, सत्य के प्रति उनके आग्रह, मनुष्यमात्र के प्रति उनके स्वाभाविक स्नेह को देखकर विस्मित-सा रह जाता है। दुर्बल शरीर वाले पत्थर से भी कठोर इस महापुरुष ने खाली हाथ होते हुए भी अपने तप की शक्ति से अंग्रेजों के शासन को हिला दिया। जब उन्होंने अपने सत्य और अहिंसा के अस्त्रों (UPBoardSolutions.com) से अपनी मातृभूमि की पराधीनता की जंजीर को तोड़ने का निश्चय किया, तब दूसरे अनेक आश्चर्य करते हुए बोले-“सत्य और अहिंसा का अनुसरण करके कहीं पर्वतों, वनों या निर्जन । प्रदेश में तप करने में कोई समर्थ हो सकता है, किन्तु क्रूर, कुटिल, नीति-कला में कलुषित विदेशी शासकों । के साथ युद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकता है। परन्तु गाँधी जी ने वह सब किया, जो दूसरों के लिए खरगोश के सींग के समान अर्थात् असम्भव वस्तु था।

विश्वकवि रवीन्द्र ने उनके अनुपम और नवीन क्रिया-कौशल को और आत्मा की सबलता को प्रत्यक्ष देखकर ही उन्हें महात्मा’ शब्द से सम्बोधित किया। |

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(2) महात्मा गान्धी सौराष्ट्रमण्डले पोरबन्दरनाम्नि लघुनगरे ऊनसप्तत्युत्तराष्टादशशततमे ख्रीष्टाब्दे अक्टूबरमासस्य द्वितीये दिनाङ्के स्वजन्मना धरणीतलमलञ्चकार। तस्य पिता कर्मचन्दः माता च पुतलीदेवी आस्ताम। पुत्रानाम्ना सह पितुर्नामापि प्रयोक्तव्यमिति। तत्रत्यपरम्परानुसारं स मोहनदासकर्मचन्दगान्धीति नाम्ना प्रसिद्धो जातः।

शब्दार्थ
ऊनसप्तत्युत्तराष्टादशशततमे = 1869 में। धरणीतलमलञ्चकार (धरणीतलं + अलं + चकार) = धरणी (पृथ्वी) तल को सुशोभित किया। प्रयोक्तव्यम् = प्रयोग करना चाहिए। तत्रत्यपरम्परानुसारं = वहाँ की परम्परा के अनुसार।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी के जन्म-स्थान और माता-पिता का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
महात्मा गाँधी ने सौराष्ट्र (गुजरात) प्रान्त में पोरबन्दर नाम के छोटे नगर में 1869 ई० में अक्टूबर मास की दो तारीख को अपने जन्म से पृथ्वीमण्डल को सुशोभित किया। उनके पिता कर्मचन्द और माता पुतलीदेवी थे। “पुत्र के नाम के साथ पिता का नाम भी प्रयोग करना चाहिए ऐसी वहाँ की परम्परा के अनुसार वे ‘मोहनदास कर्मचन्द गाँधी’ इस नाम से प्रसिद्ध हुए। |

(3) गान्धिमहोदयस्य जननी ‘पुतली देवी’ सातिशयं सत्यरता, धर्मपरायणा, व्रतोपवासादिविधौ श्रद्दधाना श्रद्धेया चासीत्। गान्धिनः जीवनपद्धत्यां तस्य मातुष्प्रभावः सुस्पष्टं दरीदृश्यते। अष्टाशीत्युत्तराष्टादशशततमे वर्षे उच्चशिक्षार्थं से इङ्ग्लैण्डदेशं जगाम। प्रस्थानकाले जननी मांसादिभक्षणं न कर्तुं मदिरां न स्पष्टुम् तमनुशास्ति स्म। गान्धी मातुः शिक्षामनुसरन्नेव तत्र शिक्षा जग्राह। अधिवक्त्र्युपाधिनात्मानमलङ्कृत्य स्वदेशं प्रत्याजगाम।

शब्दार्थ-
सातिशयं = अत्यधिक।
श्रद्दधाना = श्रद्धा रखती हुई (श्रद्धा रखने वाली)।
दरीदृश्यते = दिखाई पड़ता है।
अष्टाशीत्युत्तराष्टादशशततमे = 1888 में।
स्पष्टुम् = स्पर्श करने के लिए।
अनुशास्ति स्म = उपदेश दिया।
जग्राह = ग्रहण की।
अधिवक्त्र्युपाधिनात्मानम- लङ्कृत्य (अधिवक्तृ + उपाधिनी + आत्मानम् + अलङ्कृत्य) = बैरिस्टर की उपाधि से अपने आपको सुशोभित करके।
प्रत्याजगाम = लौट आया।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी पर पड़े माता के प्रभाव और उनकी शिक्षा का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
गाँधी जी की माता ‘पुतलीदेवी’ अत्यन्त सत्यनिष्ठ, धार्मिक, व्रत-उपवास आदि में श्रद्धा रखने वाली और श्रद्धा के योग्य थीं। गाँधी जी की जीवन-पद्धति पर उनकी माता का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। 1888 ईसवी वर्ष में वे उच्च-शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड देश गये। जाते समय माता ने मांसादि न खाने और मदिरा को न छूने का उपदेश दिया था। गाँधी जी ने माता की शिक्षा का अनुसरण करते हुए ही वहाँ शिक्षा ग्रहण की। वकालत की उपाधि से अपने को अलंकृत करके अपने देश लौट आये।

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(4) इंग्लैण्डदेशाद् प्रतिनिवृत्य मुम्बईनगरे अधिवक्तृकर्म प्रारब्धं स यदा सयनोऽभवद् तदैव अफ्रिकादेशे निवसन्तः कतिपये धनिनो भारतीयाः अफ्रिकादेशस्थे न्यायालये स्वन्यायपक्षस्य प्रस्तुत्यर्थं गान्धिनम् अफ्रिकादेशमनयन्। तत्र अफ्रिकादेशे आङ्ग्लजातीयानी शासनमासीत्। तत्र निवसतः भारतीयान्प्रति आङ्ग्लशासकानां तदधिकारिणाञ्च घोरमत्याचारं वीक्ष्य तस्य हृदयं भृशमयत। वयं श्वेताः (UPBoardSolutions.com) यूयं कृष्णा इत्यपूर्वो भेदः तैः प्रचारितः। न्यायालयेषु, कार्यालयेषु, रेलयानेषु पथिषु वीथीषु चैष भेदः दृश्यते स्म। एकदा गान्धिमहोदयः रेलयानस्य प्रथमश्रेण्या गच्छनासीत्। रेलयानस्य प्रथमश्रेण्यां यात्रार्थं श्वेताङ्गा एवाधिकृता आसन्। अतः श्वेताधिकारिणः रेलयानात्तं बलाबहिश्चक्रुः।

शब्दार्थ—
प्रतिनिवृत्य = लौटकर।
सयत्नः = प्रयत्नशील।
प्रस्तुत्यर्थम् = प्रस्तुत करने के लिए।
अनयत् = ले गये। वीक्ष्य = देखकर।
भृशम् = अत्यधिक।
अद्यत = दु:खी हुए। वीथीषु = गलियों .. में।
गच्छन्नासीत् = जा रहे थे।
बलाबहिश्चक्रुः = बलपूर्वक बाहर कर दिया। .

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के प्रति गौरांगों के घोर अत्याचारों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
इंग्लैण्ड देश से लौटकर मुम्बई नगर में जब वे वकालतं का काम प्रारम्भ करने के लिए प्रयत्नशील थे, तभी अफ्रीका देश के रहने वाले कुछ धनी भारतीय अफ्रीका के न्यायालय में अपने न्याय-पक्ष को प्रस्तुत करने के लिए गाँधी जी को अफ्रीका देश ले गये। वहाँ अफ्रीका देश में अंग्रेज जाति का शासन था। वहाँ रहने वाले भारतीयों के प्रति अंग्रेज शासकों और उनके अधिकारियों के घोर अत्याचारों को देखकर उनका हृदय बहुत दुःखित हुआ। हम श्वेत हैं, तुम काले हो, यह अपूर्व भेद उन्होंने चला रखा था। कचहरियों, दफ्तरों, रेलगाड़ियों, (UPBoardSolutions.com) रास्तों, गलियों में यह भेद दिखाई पड़ता था। एक दिन गाँधी जी रेलगाड़ी की प्रथम श्रेणी में जा रहे थे। रेलगाड़ी की प्रथम श्रेणी में यात्रा करने के लिए गौरांग ही अधिकृत थे; अत: गोरे अधिकारियों ने उन्हें रेलगाड़ी से बलपूर्वक बाहर कर दिया।

(5) घटनैषा गान्धिनः जीवनसरणिमेव पर्यवर्त्तयत्। राज्यसभायामवमानितः कौटिल्यो नन्दवंशासनोच्छेदाय यथा सङ्कल्पं व्यधात् तथैव गान्धी अपि आङ्ग्लशासनाज्जनेभ्यो मुक्तिं प्रदापयितुं प्रतिजज्ञे। अन्यायं सोढ्वा जीवनं तदपेक्षया मरणमेव वरमित्युदघुष्यासौ स्वसत्याग्रहान्दोलनं तत्र प्रारभत। सत्याग्रहान्दोलनं सर्वथा नूतनमश्रुतपूर्वमासीत्। नूतनं जनानाकर्षयति हि। अफ्रिकादेशवासिषु (UPBoardSolutions.com) भारतीयेषु चाङ्ग्लशासनादुन्मुक्तये नवा जागर्तिः सागरे ऊर्मिमालेव समुत्थिता। आङ्ग्लशासकैर्गान्धिमहोदयः बहुबारं कारागारे निक्षिप्तः परमेतेन तस्य सङ्कल्पः दृढात् दृढतरो जीतः। अधिवक्तृरूपेणाफ्रिकादेशं गतः जननेतृ- रूपेणासौ पञ्चदशोत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे भारतं स्वमातृभूमिं प्रत्याजगामा ।

शब्दार्थ-
घटनैषा = यह घटना।
जीवनसरणिम् = जीवन के मार्ग को।
पर्यवर्त्तयत् = बदल दिया।
अवमानितः = अपमानित हुए।
व्यधात् = धारण किया।
प्रदापयितुम्= दिलाने के लिए।
प्रतिजज्ञे = प्रतिज्ञा की।
सोढ्वा = सहन करके।
उदघुष्य = घोषणा करके।
अभुतपूर्वम् = पहले कभी न सुना गया।
नवा = नयी।
जागर्तिः = जागरण।
ऊर्मिमालेव = लहरों के समूह की तरह।
कारागारे = जेल में।
निक्षिप्तः = डाला।
दृढात् दृढतरो = दृढ़ से दृढ़तर।
पञ्चदशोत्तरैकोनविंशतिशततमे = 1915 ई० में।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में अंग्रेजों द्वारा अपमानित किये जाने पर गाँधी जी द्वारा अफ्रीका में सत्याग्रह आन्दोलन करने एवं वहाँ रहने वाले भारतीयों में नयी चेतना जगाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
इस घटना ने गाँधी जी के जीवन-मार्ग को ही बदल दिया। उन्होंने अंग्रेजी शासन को समूल नष्ट करने का संकल्प उसी तरह ले लिया, जिस तरह चाणक्य ने राज्यसभा में अपमानित होकर

नन्दवंश के शासन को समाप्त करने का संकल्प लिया था। “अन्याय को सहकर जीने की अपेक्षा मरना । ही अच्छा है, यह घोषणा करके, उन्होंने वहाँ अपनी सत्याग्रह आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। सत्याग्रह आन्दोलन सब प्रकार से नया तथा पहले कभी न सुना गया था। नवीनता लोगों को आकृष्ट करती ही है। अफ्रीका देश में रहने वाले. भारतीयों में अंग्रेजी शासन से मुक्ति के लिए नयी जागृति समुद्र में लहरों के समूह की (UPBoardSolutions.com) तरह उठ गयी। अंग्रेज शासकों ने गाँधी जी को बहुत बार जेल में डाला, परन्तु इससे उनको संकल्पे मजबूत से और मजबूत होता गया। वकील के रूप में अफ्रीका गये हुए वे जननेता के रूप में 1915 ई० में अपनी मातृ-भूमि भारत लौट आये।।

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(6) अत्रागत्य अखिलभारतीयकाङ्ग्रेसदलस्य विश्रुतस्य गोखले’ इति संज्ञया ख्यातस्य गोपालकृष्णगोखलेमहोदयस्य सान्निध्यं तेनावाप्तम्। तस्य परामर्शमनुसृत्य गान्धी भारतस्य विभिन्नभागानां यात्रां कृत्वां जनदशया प्रत्यक्षमवगतोऽभवत्। यात्राप्रसंङ्गे तेन प्रत्यक्षीकृतं यद् विशिष्टजनेषु एव राष्ट्रभावना व्यापृता तामेवाधिश्रित्य तिष्ठति।

शब्दार्थ-
अत्रागत्य (अत्र + आगत्य) = यहाँ आकर।
विश्रुतस्य = प्रसिद्ध संज्ञया = नाम से।
ख्यातस्य = विख्यात।
सान्निध्यम् = समीपता, सम्पर्क।
अवाप्तम् = प्राप्त किया।
अनुसृत्य = अनुसरण करके।
प्रत्यक्षमवगतोऽभवत् (प्रत्यक्षम् + अवगतः + अभवत्) = प्रत्यक्ष जानकार हुए।
व्यापता = फैली हुई थी।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में भारत लौटे हुए गाँधी जी को भारत की प्रत्यक्ष दशा के ज्ञात होने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
यहाँ आकर उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस दल के बहुत प्रसिद्ध, ‘गोखले’ नाम से विख्यात गोपालकृष्ण गोखले के सान्निध्य को प्राप्त किया। उनकी सलाह का अनुसरण करके गाँधी जी भारत के विभिन्न भागों की यात्रा करके लोगों की दशा से प्रत्यक्ष रूप से अवगत हो गये। यात्रा के समय उन्होंने प्रत्यक्ष देखा कि विशेष लोगों में ही राष्ट्रभावना फैली हुई है, (और वह) उसी का सहारा लेकर बैठी है; अर्थात् इस भावना को प्रसार नहीं हो रहा है।

(7) भारतीयेषु व्याप्तं दैन्यं, दारिद्रयमशिक्षा चासौ दृष्टवान्। श्रमिकाणामेव सततपरिश्रमेणार्जितवित्तबलेन, शैत्यतापप्रभावशून्यासु विशालासु सौधशालासु निवसन्तः किं नाम कष्टमित्यजानन्तस्तान् श्रमिकान् विविधैः क्लेशैः पीडयन्तः को वा कियत् कष्टं दातुं क्षमेतेति स्पर्धाशीलाः आङ्ग्लशासकानां प्रीतिमवाप्तुं तत्पराः आङ्ग्लानां कृपाश्रयभूताः वैभवशालिनो, भारतीयाः गान्धिनः दृष्टिपथमागताः। श्रमिकभूतानां (UPBoardSolutions.com) दैन्यपराभूतजीवनानां जीवनं धनिभिः पालितेभ्यः श्वभ्योऽपि हीनतरं गान्धिना दृष्टम्। तस्य हृदयं सहस्रधा विदीर्णम्। पारतन्त्र्यमेवैतस्य हेतुरिति हेतुरेवोच्छेद्यः स मनसि निश्चिकाय।।

शब्दार्थ-
अर्जितवित्तबलेन = कमाये हुए धन के बल से।
शैत्यतापप्रभावशून्यासु = ठण्ड और गर्मी के प्रभाव से रहित।
सौधशालासु = भवनों में कियत् = कितना।
स्पर्धाशीलाः = होड़ में लगे हुए।
प्रीतिमवाप्तुम् = प्रसन्नता को प्राप्त करने में लगे हुए।
पराभूत = पराजित, विवश।पालितेभ्यः = पालितों (आश्रितों) के लिए।
श्वभ्यः = कुत्तों से।
विदीर्णम् = टूट गया।
उच्छेद्यः = दूर करने योग्य।
निश्चिकाय = निश्चित किया।

प्रसंग
अफ्रीका से भारत लौटकर गाँधी जी ने भारतीयों की दीनता, दरिद्रता और अशिक्षा को प्रत्यक्ष देखा और उसके मूल कारण परतन्त्रता को निश्चित किया। इसी का वर्णन प्रस्तुत गद्यांश में किया गया है।

अनुवाद
(उन्होंने) भारतीयों में व्याप्त दीनता, दरिद्रता और अशिक्षा को देखा। मजदूरों के ही लगातार परिश्रम से कमाये हुए धन के बल से शीत और ताप के प्रभाव से रहित विशाल महलों में रहते हुए, ‘कष्ट क्या है?’ यह न जानते हुए, उन मजदूरों को अनेक कष्टों से पीड़ित करते हुए ‘कौन कितना कष्ट देने में समर्थ है?’ इस प्रकार की होड़ में लगे हुए, अंग्रेज शासकों की प्रसन्नता को प्राप्त करने में लगे हुए, अंग्रेजों के कृपापात्र, (UPBoardSolutions.com) ऐश्वर्यसम्पन्न भारतवासी गाँधी जी की दृष्टि में आये। गाँधी जी ने दीनता से व्याप्त जीवन वाले मजदूर लोगों के जीवन को धनी लोगों द्वारा पालित कुत्तों से भी बदतर देखा और उनका हृदय हजारों टुकड़ों में फट गया। उन्होंने गुलामी ही इसका कारण है; अत: कारण ही मिटाने योग्य है, ऐसा मन में निश्चय किया।

(8) बिहारप्रान्ते चम्पारणजनपदे नीलकृषकैः सह आङ्ग्लैः भूस्वामिभिः क्रियमाणममानवीयमत्याचारं समापयुितं सत्याग्रहं सः समारब्धवान्। तेन भूस्वामिनः क्रूरतरान् स्वात्याघारान् परित्यक्तुं विवशा अभवन्। गान्धिनः स्वदेशभूमावयं प्रथमः सत्याग्रहः प्रथमश्च तस्य विजयः आसीत्।।

शब्दार्थ-
नीलकृषकैः = नील की खेती करने वाले कृषक।
क्रियमाणम् = किये गये।
अमानवीय = क्रूर।
समापयितुम् = समाप्त करने के लिए।
समारब्धवान् = आरम्भ किया।
परित्यक्तुम् = छोड़ने के लिए।
स्वदेशभूमावयम् (स्वदेशभूमौ + अयम्) = अपने देश की भूमि पर यह।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी के प्रथम सत्याग्रह और प्रथम विजय का वर्णन है। |

अनुवाद
उन्होंने (गाँधी जी ने) बिहार प्रान्त में चम्पारन जिले में नील की खेती करने वाले किसानों के साथ अंग्रेज जमींदारों के द्वारा किये गये अमानवीय अत्याचार को समाप्त करने के लिए। सत्याग्रह आरम्भ किया। उससे जमींदार अपने क्रूरता भरे अत्याचारों को छोड़ने के लिए विवश हो गये। अपने देश की भूमि पर गाँधी जी का यह प्रथम सत्याग्रह और उनकी पहली विजय थी।

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(9) चम्पारणान्दोलने तस्य नेतृत्वक्षमता प्रमाणिता जाता। समग्रोऽपि देशः स्वनेतृरूपेण समङ्गीचकार। गान्धिमहोदयोऽपि भारतमेकसूत्रे निबध्नन् देशाय राष्ट्ररूपमददात्। जनाः स्वकृतज्ञता ज्ञापयन्तस्तं राष्ट्रपितेत्यब्रुवन्।।

शब्दार्थ-
समग्रः = सम्पूर्ण।
अङ्गीचकार = स्वीकार कर लिया।
निबध्नन् = बाँधता हुआ।
ज्ञापयन्तः = जनाते (व्यक्त करते) हुए।
अब्रुवन् = बोले।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी की नेतृत्व-क्षमता की प्रामाणिकता के बारे में बताया गया है।

अनुवाद
चम्पारन (बिहार) जिले के आन्दोलन में उनकी (गाँधी जी की) नेतृत्व की योग्यता प्रमाणित हो गयी। सम्पूर्ण देश ने उन्हें अपने नेता के रूप में स्वीकार कर लिया। गाँधी जी ने भी भारत को एक सूत्र में बाँधते हुए देश को राष्ट्र का रूप प्रदान किया। लोगों ने अपनी कृतज्ञता को प्रकट करते हुए उन्हें राष्ट्रपिता’ कहा।

(10) विंशत्युत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे प्रतिदिनमेधमानानाङ्ग्लशासकानामत्याचारान् प्रतिरोद्धमसौ असहयोगाख्यमान्दोलनं प्रवर्तयामास। वैदेशिकवस्तूनि परिहर्त्तव्यानि, वैदेशिकसेवाः परित्यक्तव्याः, वैदेशिकशिक्षालयेषु न पठितव्यम् , वैदेशिकोपाधयः परिहातव्याः, राष्ट्रियविद्यालयाः स्थापयितव्यास्तेषु पठितव्यमिति तत्स्वरूपं तेन व्याख्यातम्। भारतीयजनाः तस्मिन्नान्दोलने, भूयसोत्साहन सम्मिलिता (UPBoardSolutions.com) अभवन्। महात्मन् आत्मशक्त्या निःशस्त्रिणोऽपि भारतीयाः निर्भीका अभवन्। दण्डात् तेषां किं भयं ये दण्डमेव स्वेच्छया आलिङ्गितुं सन्नद्धाः।

शाब्दार्थ-
एधमानान् = बढ़ते हुए।
प्रतिरोद्धम् = रोकने के लिए।
प्रवर्तयामास = चलाया।
परिहर्त्तव्यानि = छोड़ देनी चाहिए।
स्थापयितव्याः = स्थापना करनी चाहिए।
भूयसा = अत्यधिक।
आलिङ्गितुम् = आलिंगन (चुम्बन) करने के लिए।
सन्नद्धाः = तैयार।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी द्वारा चलाये गये असहयोग आन्दोलन का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
सन् 1920 ई० में अंग्रेज शासकों के प्रतिदिन बढ़ते हुए अत्याचारों को रोकने के लिए उन्होंने ‘असहयोग’ नाम का आन्दोलन चलाया। विदेश की वस्तुएँ छोड़ देनी चाहिए, विदेशियों की नौकरियों को त्याग देना चाहिए, विदेशियों के स्कूलों में नहीं पढ़ना चाहिए, विदेशियों की उपाधियों को छोड़ देना चाहिए, राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना करनी चाहिए, उन्हीं में पढ़ना चाहिए, उन्होंने उसको ऐसा स्वरूप बतलाया। (UPBoardSolutions.com) भारतवासी उस आन्दोलन में अत्यन्त उत्साह से सम्मिलित हुए। महात्मा जी के आत्मबल से शस्त्ररहित होते हुए भी भारतवासी निडर हो गये। उनको दण्ड का क्या भय है, जो दण्ड को ही अपनी इच्छा से गले लगाने को तैयार हैं।

(11) उपाधिधारिभिरुपाधयः परित्यक्तताः शिक्षार्थिभिः शिक्षकैश्च शिक्षालयाः परित्यक्ताः, वैदेशिकवस्त्राणि वह्नौ दग्धानि। सहस्रशो भारतीयाः बन्दीकृताः। महात्माऽपि राजद्रोहारोपे षड्वर्षाणि यावत् कारागारे निक्षिप्तः। जनाः वैदेशिकदमनचक्रेणाक्रान्ताः भृशमुत्पीडिताः जाताः।।

शब्दार्थ-
वह्नौ = अग्नि में दग्धानि = जला दिये।
निक्षिप्तः = डाल दिया।
भृशम् उत्पीडिताः = अत्यधिक पीड़ित।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी द्वारा चलाये गये असहयोग आन्दोलन में भारतीयों के . सम्मिलित होने का एवं अंग्रेजी सरकार द्वारा किये गये दमन-चक्र का वर्णन है। ।

अनुवाद
उपाधिधारियों ने उपाधियाँ त्याग दीं। विद्यार्थियों और शिक्षकों ने विद्यालय छोड़ दिये। विदेशी वस्त्र अग्नि में जला दिये गये। हजारों भारतवासी बन्दी बना लिये गये। महात्मा जी को भी राजद्रोह के अपराध में छ: वर्ष के लिए जेल में डाल दिया गया। लोग विदेशियों के दमन-चक्र से आक्रान्त हुए अत्यधिक पीड़ित हो गये।

(12) आन्दोलनेऽस्मिन् महात्मना सत्याहिंसारूपे अस्त्रद्वयं भारतीयेभ्यः प्रदत्तम्। स्वराज्यापेक्षयाऽप्येते महत्त्वपूर्ण स्त इति तस्य दृढं मतमासीत्। अतएव चौरी-चौरा नामके (UPBoardSolutions.com) स्थाने सत्याग्रहिभिः प्रवर्तितां हिंसावृत्तिमाकण्र्य महात्मना सत्याग्रहः झटिति स्थगितः। इतरे भारतीया नेतारः महात्मन एतेन निश्चयेन विस्मिताः खिन्नाश्चाभूवन्। परं जना अनुशासनस्य महन्निदर्शनं प्रस्तुतवन्तः। महात्मनो माहात्म्यं तदानीं परां कोटिमवाप्नोत्।

शब्दार्थ-
प्रवर्तिताम् = चलायी जा रही।
आकर्य = सुनकर।
झटिति = तत्काल, तुरन्त।
महन्निदर्शनम् (महत् + निदर्शनम्) = बड़ा उदाहरण।
परां कोटिम् अवाप्नोत् = चरम सीमा को प्राप्त हुआ।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी के द्वारा आन्दोलन के स्थगित किये जाने का वर्णन है।’

अनुवाद
इस आन्दोलन में महात्मा जी ने सत्य और अहिंसा के रूप में दो अस्त्र भारतीयों को प्रदान किये। अपने राज्य की अपेक्षा से भी ये दोनों महत्त्वपूर्ण हैं, ऐसा उनका पक्का विचार था। इसलिए ‘चौरी-चौरा’ नामक स्थान पर सत्याग्रहियों के द्वारा चलायी जा रही हिंसावृत्ति को सुनकर महात्मा जी ने सत्याग्रह आन्दोलन को तत्काल स्थगित कर दिया। दूसरे भारतीय नेता महात्मा जी के इस निश्चय से विस्मित और खिन्न हो गये। परन्तु लोगों ने अनुशासन का महान् उदाहरण प्रस्तुत किया। महात्मा जी का महत्त्व उस समय ‘चरम सीमा को प्राप्त हुआ।

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(13) वैदेशिकशासनेन जीवनाय परमोपयोगिनि वस्तुनि लवणे करं निर्धारितम्। एतन्निरोद्धं त्रिंशदुत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे ‘सविनयावज्ञाख्यान्दोलनं तेन प्रारब्धम्। तदर्थं गुर्जरप्रान्तस्यै दाण्डीग्रामाद् समुद्रपर्यन्तं पदयात्रा तेन विहिता। दाण्डीग्रामादासमुद्रमेषा यात्रा ग्रामाद् ग्राम प्रेयन्ती (UPBoardSolutions.com) सहस्रशो जनान् नरान् नारीश्चात्मन्यामेलितवती समुद्रतटमुपगम्य सागरजलाल्लवणं निर्माय तैः जनैः महात्मना च तद्विधानस्य सविनयमवज्ञा कृता। ग्रामें ग्रामे नगरे नगरे वीथीषु वीथीषु लवणनिर्माणं संवृत्तम्। शासनं तन्निरोद्धं न शशाक। वायुवेगेनोन्मत्तान् सागरतरङ्गान् किं तटबन्धः रोद्धं क्षमेत? |

शब्दार्थ-
लवणे करें = नमक पर कर (टैक्स)।
एतत् निरोद्धम् = इसे रोकने के लिए।
विहिता = की।
आसमुद्रम् = समुद्र तक।
प्रेरयन्ती = प्रेरणा देती हुई।
ऑमेलितवती = मिल लिया।
निर्माय = बनाकर।
विधानस्य = कानून की।
अवज्ञा = अवहेलना।
वीथीषु = गलियों में।
संवृत्तम् = सम्पन्न हुआ।
न शशाक = समर्थ नहीं हुआ।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में विदेशी सरकार द्वारा नमक पर लगाये गये कर के विरोध में गाँधी जी द्वारा चलाये गये सविनय अवज्ञा आन्दोलन का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
विदेशी सरकार ने जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी वस्तु नमक पर कर (टैक्स) लगा दिया। इसे रोकने के लिए उन्होंने गाँधी जी ने) सन् 1930 ईसवी में ‘सविनय अवज्ञा’ नाम का आन्दोलन प्रारम्भ किया। इसके लिए उन्होंने गुजरात प्रान्त के दाण्डी ग्राम से समुद्र तक पैदल यात्रा की। दाण्डी ग्राम से (UPBoardSolutions.com) समुद्र तल की इस यात्रा ने गाँव-गाँव को प्रेरित करते हुए हजारों लोगों (स्त्री-पुरुषों) को अपने में मिला लिया। समुद्र के तट पर जाकर सागर के जल से नमक बनाकर उन लोगों और महात्मा जी के द्वारा उस कानून की विन

यपूर्वक अवहेलना की गयी। गाँव-गाँव, नगर-नगर, गली-गली में नमक बनाया गया। शासन के लिए उसे रोकना सम्भव न रहा। वायु के वेग से मतवाली सागर की तरंगों को क्या तट का बाँध रोक सकता है? (अर्थात् नहीं रोक सकता)।

(14) महात्मनः गान्धिनः सत्याहिंसाभ्यां भृशमुद्विग्नाः कुटिलराजनयकुशलाः वैदेशिक शासकाः हिन्दु-मुस्लिम-स्पृश्यास्पृश्यादिवर्णसमस्यामुद्घाट्य महात्मनः प्रभावादेकसूत्रे आबद्धं सबलं भारतं विखण्डयितुमुपचक्रिरे। महात्मा अनशनव्रतेन तेषां तेषां पक्षग्राहिणां च प्रयत्न निष्फलं चकार। महात्मा गान्धी स्वप्राणानपि अविगणय्य राष्ट्रस्यैकत्वमखण्डत्वरक्षत्।

शब्दार्थ-
उद्विग्नाः = परेशान हुए।
उद्घाट्य = उभारकर, फैलाकर।
चिखण्डयितुम् = खण्डित करने के लिए।
उपचक्रमे = प्रारम्भ किया।
अविगणय्य = न गिनकर, परवाह न करके।
ऐकत्वमखण्डत्वम् = एकता, अखण्डता।
अरक्षत् = बचाया।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी के द्वारा अंग्रेजों की कुटिल नीति के विफल किये जाने का वर्णन है।

अनुवाद
महात्मा गाँधी की सत्य और अहिंसा से बहुत परेशान हुए कुटिल राजनीति में चतुर विदेशी शासकों ने हिन्दू-मुसलमान, छुआछूत आदि की जातीय समस्या को उभार कर महात्मा जी के प्रभाव से एक सूत्र में बँधे हुए शक्तिशाली भारत के टुकड़े करने प्रारम्भ कर दिये। महात्मा जी ने अनशन व्रत (UPBoardSolutions.com) के द्वारा उन-उन पक्ष लेने वालों (शासकों और उनके अनुयायियों) के प्रयत्न को व्यर्थ कर दिया। महात्मा गाँधी ने अपने प्राणों की भी परवाह न करके राष्ट्र की एकता और अखण्डता की रक्षा की।

(15) महात्मनो नेतृत्वे बहूनि आन्दोलनानि प्रवृत्तानि जातानि। वैदेशिकशासकैस्तथापि भारताय स्वातन्त्र्यं प्रदातुं रुचिर्न प्रदर्शिता। बहुविधं व्याजमालम्ब्य कालात्ययमेव ते कुर्वन्त आसन्। अतः द्वाचत्वारिंशदुत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे अगस्तमासस्याष्टमे दिनाङ्के मुम्बईनगरे सम्पन्ने काङ्ग्रेसाधिवेशने महात्मना घोषितम्-आङ्ग्ला भारतं त्यजत। त्यज भारतमिति नाम्ना विश्रुतमिदमान्दोलनं भारतमुक्तेः सरणि सरलां चकार। सद्य एव तत्रोपस्थिताः नेहरू-आजादपटेल-प्रसाद-देसाई-प्रभृतयः प्रमुखनेतारो महात्मना सह निगृहीताः कारागारे च बन्दीकृताः। वृत्तमिदं विद्युद्गत्या भारतवर्षे जनेषु प्रावर्त्तत। समग्रो देशः झञ्झावातेन विक्षुब्धसागर इव सङ्क्षुब्धः सञ्जातः। नेतृभिः विनाऽपि सम्पूर्णदेशमभिव्याप्य जनान्दोलनं प्रारब्धम्। ग्रामे ग्रामे नगरे नगरे स्वविवेकेन स्वरीतया चान्दोलनमिदं जनाः समचालयन्। राजकीयभवनेषु कार्यालयेषु च स्वत्रिवर्णध्वजारोपणमेवासीन्मुख्य लक्ष्यम्। ध्वजारोपणयज्ञे बहवः युवकाः कुमाराश्च स्वप्राणान् अत्यजन्। तेषां शरीरं गुलिकाभिः हतं भूमावपतत् किन्तु ध्वजो नाऽपतत्।

पततस्तस्मात्कश्चिदन्योध्वजमगृह्णात्। तदानीन्तनमद्भुतं शौर्य्यमप्रतिमं साहसं देशप्रेम्णः लोकोत्तरं निदर्शनं प्रस्तुतं भारतीयैःस्ववक्षः प्रसार्य स्वहस्तेन च प्रदश्र्य (UPBoardSolutions.com) अत्र गुलिकां मारय’ ‘अत्र गुलिकां मारय’ इति नदन्तः कुमारवीराः आसन्। आग्नेयास्त्रेभ्यः सततं प्रक्षिप्ताः गुलिकास्तेषां गतिमवरोद्धं नाऽशक्नुवन्। गुलिकया कश्चिन्निहतश्चेपरः तत्स्थानमगृह्णात्। अहिंसयाऽनुप्राणितास्ते वीराः प्रतिरोधमकुर्वाणाः मृत्योर्वरणमकुर्वन्। इत्थमासीदस्माकं युववर्गस्य छात्राणां च मरणस्पर्धा।

शब्दार्थ-
प्रवृत्तानि जातानि = शुरू (जारी) हुए।
प्रदातुम् = प्रदान करने के लिए।
व्याजम् आलम्ब्य = बहानों का सहारा लेकर।
कालात्ययम् = समय बिताना।
सरणिम् = मार्ग को।
सद्य एव = तुरन्त ही।
निगृहीताः = पकड़ लिये गये।
प्रावर्त्तत = फैल गया।
झञ्झावातेन = आँधी-तूफान से।
सङ्क्षुब्धः = व्याकुल।
सञ्जातः = हो गया।
स्वरीत्या = अपनी रीति से।
अत्यजन् = त्याग दिये।
गुलिकाभिः = गोलियों से।
स्ववक्षः = अपनी छाती।
प्रसार्य = फैलाकर आग्नेयास्त्रेभ्यः = बन्दूकों द्वारा।
प्रक्षिप्ताः = फेंकी गयीं, दागी गयीं।
नदन्तः = चिल्लाते हुए।
प्रतिरोधम् = रुकावट।
वरणम् = चमन। मरणस्पर्धा = मरने की होड़।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में महात्मा गाँधीजी के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का रोमांचक वर्णन किया गया है।

अनुवाद
महात्मा जी के नेतृत्व में बहुत-से आन्दोलन शुरू हुए, तो भी विदेशी शासकों ने स्वतन्त्रता प्रदान करने में रुचि नहीं दिखायी। अनेक प्रकार के बहाने बनाकर वे समय ही व्यतीत करते रहे। इसलिए सन् 1942 ईसवी में अगस्त महीने की 8 तारीख को बम्बई (अब मुम्बई) नगर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में महात्मा जी ने घोषणा की “अंग्रेजो! भारत छोड़ो।” “भारत छोड़ो’ इस नाम से प्रसिद्ध इस आन्दोलन ने भारत की स्वतन्त्रता का मार्ग सरल कर दिया। तत्काल ही वहाँ उपस्थित नेहरू, आजाद, पटेल, प्रसाद, देसाई (UPBoardSolutions.com) आदि प्रमुख नेताओं को महात्मा जी के साथ पकड़ लिया गया और जेल में बन्दी बना दिया गया। यह समाचार बिजली की गति से भारतवर्ष के लोगों में फैल गया। सारा देश तूफान से विक्षुब्ध सागर की तरह क्षुब्ध हो गया। नेताओं के बिना भी सम्पूर्ण देश में
जनान्दोलन शुरू हो गया। गाँव-गाँव में, नगर-नगर में अपने विवेक से और अपने ढंग से लोगों ने इस ‘ आन्दोलन को चलाया। सरकारी इमारतों और दफ्तरों पर अपना तिरंगा झण्डा फहराना ही इस | (आन्दोलन) का मुख्य लक्ष्य था। ध्वज को फहराने के यज्ञ में बहुत-से युवकों और बालकों ने अपने । प्राण न्योछावर कर दिये।

उनका शरीर गोलियों से घायल होकर भूमि पर गिरा किन्तु (उनके हाथों का) ध्वज नहीं गिरा। गिरते हुए उससे (व्यक्ति से) ध्वज कोई दूसरा ले लेता था। उस समय अद्भुत वीरता और अतुल साहस को दिखाकर भारतीयों ने देश-प्रेम का अलौकिक उदाहरण प्रस्तुत किया। अपनी छाती को फैलाकर और अपने हाथ से दिखाकर “यहाँ गोली मारो, यहाँ गोली मारो” इस प्रकार वीर बालक चिल्ला रहे थे। बन्दूकों से लगातार (UPBoardSolutions.com) फेंकी (चलायी) गयी गोलियाँ भी उनकी गति को नहीं रोक सकीं। यदि कोई गोली से मरता तो दूसरा उसका स्थान ले लेता था। अहिंसा से अनुप्राणित उन वीरों ने प्रतिरोध न करते हुए मृत्यु का वरण किया। इस प्रकार यह हमारे युवावर्ग और छात्रों के मरने की होड़ थी।

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(16) अनेनाप्रतिमेनात्मोत्सर्गकर्मणा वैदेशिकशासनं प्रकम्पते स्म। सप्तचत्वारिंश| दुत्तरैकोनविंशतिशततमे अगस्तमासस्य पञ्चदशदिनाङ्के भारतस्य शासनं भारतीयेभ्यः समर्थ्य वैदेशिकाः शासकाः स्वदेशं गताः। भारतं स्वतन्त्रमभवत्।।

शब्दार्थ-
आत्मोत्सर्गकर्मणा = आत्मबलिदान के कार्य से।
प्रकम्पते स्म = काँप गया।
समर्थ्य = सौंपकर।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में स्वतन्त्रता-प्राप्ति का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
इस अतुलनीय आत्म-बलिदान के कार्य से विदेशियों का शासन काँप गया। सन् 1947 ईसवी में अगस्त महीने की 15 तारीख को विदेशी शासक भारत के शासन को भारतीयों को सौंपकर अपने देश को चले गये। भारत स्वतन्त्र हो गया।

(17) सः स्वसत्याग्रहेण राजनीतिकं सामाजिकमार्थिकञ्च स्वातन्त्र्यं प्राप्तुं प्रायतत। अफ्रिकादेशादागत्य स अहमदनगरस्यान्तिके साबरमतीनद्यतटे आश्रमं स्थापितवान्। तत्र त्रिविधं लक्ष्यमभिलक्ष्य नराः नार्यश्च शिक्षिताः जाताः, पश्चादसावाश्रमः वर्धासमीपं सेवाग्राममानीतः। (UPBoardSolutions.com) तत्र राजनीतिककार्यक्रमात्पृथक् रचनात्मक कार्यक्रमः तेन प्रारब्धः। स्वदेशिवस्तूनामुपयोगः ग्रामोद्योगस्य प्रचारः दारिद्रयान्मुक्तेरुपायश्च गान्धिना समुपदिष्टाः। तेन चर्खायन्त्रेण कार्पाससूत्रनिर्माणं प्रशिक्षितम्। वैदेशिकशासने भारतीयहस्तशिल्पं वस्तूनिर्माणकलाकौशलं विनष्टम्। तत्पुनरुज्जीव्यैव दारिद्रयान्मुक्तिः सम्भवेति तस्य दृढ़ो विचारः आसीत्। एतदर्थ स आधारभूत

कलाकौशलसम्पृक्तां शिक्षानीतिं प्रास्तौत्। अज्ञानादेवीस्पृश्यतादिदोषाः समाजे समुत्पन्नाः | शिक्षया एव तदूरीकर्तुं शक्यन्ते इति तेनोक्तम्।

शब्दार्थ-
प्रायतत = प्रयत्न किया।
अन्तिके = पास।
अभिलक्ष्य = सामने रखकर।
समुपदिष्टाः = उपदेश दिया।
कार्पाससूत्रनिर्माणम् = सूती धागा बनाना।
तत्पुनरुज्जीव्यैवे (तत् + पुनः + उज्जीव्य + एव) = उसे पुनः जीवित करके ही।
सम्पृक्तां = अच्छी प्रकार मिली हुई को।
प्रास्तौत् = प्रस्तुत किया।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी द्वारा चलाये गये रचनात्मक कार्यक्रमों का वर्णन है। |

अनुवाद
उन्होंने अपने सत्याग्रह से राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता को प्राप्त करने का प्रयत्न किया। अफ्रीका से आकर उन्होंने अहमदनगर के समीप साबरमती नदी के किनारे एक आश्रम स्थापित किया था। वहाँ तीन प्रकार के लक्ष्य को लेकर नर-नारी शिक्षित हुए। बाद में यह (UPBoardSolutions.com) आश्रम वर्धा के पास सेवाग्राम, में लाया गया। वहाँ उन्होंने राजनीतिक कार्यक्रम से अलग रचनात्मक कार्यक्रम प्रारम्भ किया। गाँधी जी ने अपने देश की वस्तुओं का उपयोग, ग्रामोद्योग का प्रचार और गरीबी से छुटकारे के उपाय का उपदेश दिया।

उन्होंने चर्खा यन्त्र से सूती धागे का निर्माण करना सिखाया। विदेशियों के शासन में भारतीय हस्तकला, वस्तु-निर्माण का कला-कौशल नष्ट हो गया था। उसको पुनर्जीवित करके ही गरीबी से छुटकारा सम्भव हो सकता है, यह उनका दृढ़ विचार था। इसके लिए उन्होंने बुनियादी कला-कौशल से मिली शिक्षा-नीति को प्रस्तुत किया। “अज्ञान से ही छुआछूत आदि दोष समाज में उत्पन्न हुए हैं, शिक्षा से ही उन्हें दूर किया जा सकता है, ऐसा उन्होंने बताया।

(18) स्वमनसि भारतभुवः प्रकल्पिततस्या चित्रस्यानुरूपं भारतराष्ट्रं द्रष्टुं स कामयते स्म। अतस्तेन भारते रामराज्यस्य कल्पना कृता। तस्मिन् कश्चिद् दीनः, न कश्चिद् दुःखी, न कश्चिद्बुधः, न वा कश्चिद् गुणहीनः भविष्यति। श्रमं प्रति प्रतिष्ठा सर्वान्प्रति समदर्शित्वं दलितान् शोषितान्प्रति स्नेहः (UPBoardSolutions.com) साधनस्यापि पवित्रत्वं सर्वधर्मान्प्रति सहिष्णुतादिभावाः तस्य , जीवनदर्शनस्याङ्गभूता आसन्। |

शब्दार्थ
स्वमनसि = अपने मन में।
प्रकल्पितं = कल्पना किया गया।
कामयते स्म = चाहते थे।
अबुधः = अंज्ञानी।
समदर्शित्वम् = समान दृष्टित्व।
अङ्गभूताः = प्राणभूत या मुख्य आधार।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी की रामाराज्य की कल्पना का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
वे अपने मन में भारतभूमि के कल्पित चित्र के अनुसार ही भारत राष्ट्र को देखना चाहते थे। इसलिए उन्होंने भारत में रामराज्य की कल्पना की थी। उसमें न कोई दीन, न कोई दुःखी, न कोई अज्ञानी अथवा न कोई गुणहीन होगा। श्रम की प्रतिष्ठा, सबके प्रति समानदर्शिता, दलितों और शोषितों के प्रति स्नेह, साधनों की भी पवित्रता, सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता आदि का भाव उनके जीवन-दर्शन के अंगभूत (अंगस्वरूप) थे।

(19) महात्मना गान्धिना प्रदर्शितो मार्गे व्यापको वर्तते। तत्प्रदर्शितमार्गमनुसृत्यैव वयं स्वराष्ट्रस्याभ्युत्थानं विधातुं शक्नुमः।त्रयस्त्रिंशद्वर्षाणि यावद वैदेशिकैः शासकैः सह सङ्घर्षरत अष्टचत्वारिंशदूत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे जनवरीमासस्य त्रिंशे दिनाङ्के भारतीयेनैव केनचिन्मत्तेन दिल्लीनगरे हिंसितः (UPBoardSolutions.com) ‘हे राम’ इत्युच्चरन् मृत्युलोकमुत्सृज्य दिवङ्गतः। तत्प्रज्वालितं ज्योतिः विश्वस्मिन् विश्वे मानवजातेः परित्राणाय सततं प्रकाशं दास्यतीति नाऽत्र संशयलेशः।

शब्दार्थ-
अनुसृत्यैव (अनुसृत्य + एव) = अनुसरण करके ही।
अभ्युत्थानं = उन्नति।
विधातुं = करने के लिए।
शक्नुमः = सकते हैं।
त्रयस्त्रिंशद्वर्षाणि = तैंतीस वर्ष।
यावत् = तक।
उन्मत्तेन = पागल द्वारा।
हिंसितः = मारे गये।
उत्सृज्य = छोड़कर।
दिवंगत = स्वर्ग को चले गये।
प्रज्वालितं = जलाया हुआ।
विश्वस्मिन्= इस संसार में।
परित्राणाय = रक्षा के लिए।
संशयलेशः = थोड़ा-सा भी सन्देह।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी की हत्या किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
महात्मा गाँधी के द्वारा दिखाया गया मार्ग व्यापक है। उनके द्वारा दिखाये गये मार्ग का अनुसरण करके ही हम अपने राष्ट्र की उन्नति करने में समर्थ हो सकते हैं। | तैंतीस वर्ष तक विदेशी शासकों के साथ संघर्ष करते हुए सन् 1948 ईसवी में जनवरी महीने की तीस तारीख को किसी एक (UPBoardSolutions.com) उन्मत्त (विक्षिप्त) भारतवासी के द्वारा ही दिल्ली नगर में मारे गये, ‘हे राम’ का उच्चारण करते हुए मनुष्यलोक को छोड़कर स्वर्ग सिधार गये। उनके द्वारा जलाई गयी ज्योति इस संसार में मानव-जाति की रक्षा के लिए निरन्तर प्रकाश देगी, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
गाँधी जी के प्रारम्भिक जीवन और शिक्षा पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत ‘प्रारम्भिक जीवन’ शीर्षक देखें।

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प्ररन 2
महात्मा गाँधी के दक्षिण अफ्रीका में किये गये कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों और अंग्रेजों की रंग-भेद की नीति को देखकर गाँधी जी को बहुत दु:ख हुआ। गाँधी जी ने वहाँ अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने हेतु सत्याग्रह
आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। इससे वहाँ अंग्रेजी शासन के विरुद्ध जन-जागृति उत्पन्न हुई। सन् 1919 ई० में वे भारत वापस लौट आये।

प्ररन 3
गाँधी जी के चम्पारन आन्दोलन के विषय में लिखिए। या महात्मा गाँधी को ‘राष्ट्रपिता’ किस कारण कहा गया?
उत्तर
संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत ‘चम्पारन आन्दोलन’ शीर्षक देखें।

प्ररन 4
महात्मा गाँधी द्वारा ‘असहयोग आन्दोलन’, ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ और ‘ ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ कब-कब किये गये? इनका संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर
संकेत-‘पाठे-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत इन आन्दोलनों से सम्बद्ध अनुच्छेद देखें।

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