Class 9 Sanskrit Chapter 11 UP Board Solutions बुद्धिर्यस्य बलं तस्य Question Answer

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Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 11
Chapter Name बुद्धिर्यस्य बलं तस्य (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 22
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 11 Buddhiryasya Balam Tasya Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 11 हिंदी अनुवाद बुद्धिर्यस्य बलं तस्य के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय– संस्कृत-साहित्य में कथाओं के माध्यम से न केवल मानव अपितु पशु-पक्षियों की सहज प्रकृति पर भी पर्याप्त सामग्री प्राप्त होती है। ये कथाएँ प्रायः नीतिपरक, उपदेशात्मक और मनोरंजक होती हैं। इस प्रकार के कथा-ग्रन्थों में शुक-सप्तति’ का उल्लेखनीय स्थान है। इसमें 70 कथाओं का संग्रह किया गया है। ये कथाएँ एक तोते के मुख से हरिदत्तं सेठ के पुत्र मदनविनोद की पत्नी के लिए कही गयी हैं। इस ग्रन्थ के लेखक और इसके रचना-काल के विषय में विश्वस्त सामग्री का अभाव है। इसका परिष्कृत और विस्तृत संस्करण श्री चिन्तामणि (UPBoardSolutions.com) भट्ट की रचना प्रतीत होती है तथा संक्षिप्त संस्करण किसी श्वेताम्बर जैन लेखक की। हेमचन्द्र (1088-1172 ई०) ने शुक-सप्तति’ का उल्लेख किया है तथा ‘तूतिनामह’ नाम से यह ग्रन्थ चौदहवीं शताब्दी में फारसी में अनूदित हुआ था। अतः इस ग्रन्थ की रचना काल 1000-1200 ई० के मध्य जाना चाहिए। इस ग्रन्थ की सभी कथाएँ कौतूहलवर्द्धक तथा मनोरंजन हैं। भाषा सरल, सुबोध तथा प्रवाहमयी है। । प्रस्तुत कहानी ‘शुक-सप्तति’ नामक कथा-ग्रन्थ से संगृहीत है। इस कथा में व्याघ्रमारी बुद्धि के प्रभाव से वन में बाघ और शृगाल जैसे हिंसक जीवों से अपनी और अपने पुत्रों की रक्षा करती है।

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पाठ सारांश  

व्याघ्रमारी का परिचय– देउल नाम के किसी गाँव में राजसिंह नाम का एक राजपूत रहता था। उसकी पत्नी बहुत झगड़ालू थी, इसीलिए उसका नाम कलहप्रिया था। वह एक दिन अपने पति से झगड़कर अपने दोनों पुत्रों को साथ लेकर अपने पिता के घर की ओर चल दी। वह ग्राम, नगरों और वनों को पार करती हुई मलय पर्वत के पास उसकी तलहटी में स्थित एक महावन में पहुँची।

व्याघ्र का मिलना- उस वन में उस कलहप्रिया ने एक व्याघ्र को देखा। उसे तथा उसके पुत्रों को देखकर व्याघ्र उनकी ओर झपटा। उस स्त्री ने व्याघ्र को अपनी ओर आता देखकर अपने पुत्रों को चाँटा मारकर कहा कि तुम दोनों क्यों एक-एक व्याघ्र के लिए झगड़ते हो। लो, एक व्याघ्र आ गया है। अभी इसे ही आधा-आधा बाँटकर खा लो। बाद में कोई दूसरा देखेंगे।

भागते हुए व्याघ्र को सियार का मिलना- ऐसा समझकर कि ‘यह कोई व्याघ्रमारी है’, व्याघ्र डरकर भाग गया। उसे भय से भागता हुआ देखकर एक सियार ने हँसकर कहा-“अरे व्याघ्र! किससे डरकर भागे जा रहे हो।’ व्याघ्र ने उससे कहा कि जिस व्याघ्रमारी के बारे में मैंने शास्त्रज्ञों से सुन रखा था, (UPBoardSolutions.com) आज उसे स्वयं देख लिया। इसी डर से भागा जा रहा हूँ। तुम भी घने वन में जाकर छिप जाओ। सियार ने कहा कि आप उस धूर्त स्त्री के पास पुनः चलिए। वह आपकी ओर देखेगी भी नहीं। यदि उसने ऐसा किया तो आप मुझे जान से मार दीजिएगा।

व्याघ्र का सियारसहित व्याघमारी के पास पुनः आना- व्याघ्र ने गीदड़ से कहा कि यदि तुम मुझे उसके पास छोड़कर भाग आये तो। सियार ने कहा कि यदि ऐसी बात है तो आप मुझे अपने गले में बाँध लीजिए। व्याघ्र सियार को अपने गले में बाँधकर पुनः ले गया। व्याघ्रमारी सियार को देखते ही समझ गयी कि यही व्याघ्र को लेकर वापस आया है। अत: वह सियार को ही फटकारती हुई बोली कि तूने मुझे पहले तीन बाघ देने को कहा था और अब एक ही लेकर आ रहा है। ऐसा कहकर व्याघ्रमारी तेजी से उसकी ओर दौड़ी। उसे अपनी ओर आता हुआ देखकर गले में सियार को बाँधा हुआ व्याघ्र वैसे ही फिर भाग खड़ा हुआ। ।

व्याघ्र और सियार का अलग होना– व्याघ्र के गले में बँधा हुआ सियार उसके बेतहाशा भागने के कारण भूमि पर रगड़ खा-खाकर लहू-लुहान हो गया। बहुत दूर जाकर वह अपने को छुड़ाने की इच्छा से वह जोर से हँसा। व्याघ्र ने जब उससे हँसने का कारण पूछा तब उसने कहा कि आपकी कृपा से (UPBoardSolutions.com) ही मैं भी सकुशल इतनी दूर आ गया। अब वह पापिनी यदि हमारे खून के निशानों का पीछा करती हुई आ गयी तो हम जीवित न बचेंगे। इसीलिए मैं हँस रहा था। उसकी बात को ठीक मानकर व्याघ्र सियार को छोड़कर अज्ञात स्थान की ओर भाग खड़ा हुआ। सियार ने भी जीवन के शेष दिन सुख से व्यतीत किये।

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चरित्र-चित्रण

व्याघ्रमारी

परिचय– व्याघ्रमारी देउल ग्राम के राजसिंह की झगड़ालू पत्नी है। झगड़ालू प्रवृत्ति की होने के कारण ही लेखक ने उसका नाम कलहप्रिया रखा है। उसकी चरित्रगत विशेषताएँ इस प्रकार हैं

(1) क्रोधी स्वभाव- व्याघ्रमारी क्रोधी स्वभाव की स्त्री है। यही कारण है कि वह अत्यधिक झगड़ालू है। क्रोध में आकर वह गृह-त्याग जैसा त्रुटिपूर्ण कदम उठाने में भी नहीं हिचकिचाती है। क्रोधान्धता के वशीभूत होकर ही वह पिता के घर पहुँचने के स्थान पर वन में पहुँच जाती है।

(2) यथा नाम तथा गुण- कलहप्रिया पर ‘यथा नाम तथा गुण वाली कहावत अक्षरश: चरितार्थ होती है। वह किसी से भी कलह करने में संकोच नहीं करती है। घर पर वह अपने पति से कलह करती है तो जंगल में व्याघ्र और सियार में भी कलह करा देती है। उसका व्याघ्रमारी नाम भी सार्थक-सा प्रतीत होता है; क्योंकि वह व्याघ्र जैसे शक्तिशाली पशु को भी अपने बुद्धि-चातुर्य से भयभीत कर मैदान छोड़कर भाग जाने के लिए विवश कर देती है।

(3) निर्भीक- निर्भीकता उसके रोम-रोम में समायी प्रतीत होती है। पति से झगड़ा करके अपने दोनों पुत्रों को साथ लेकर वन-मार्ग से होते हुए अपने पिता के घर जाने का उसका निर्णय तथा जंगल में व्याघ्र एवं सियार जैसे हिंसक पशुओं को देखकर भी न घबराना, उसकी निर्भीकता का स्पष्ट प्रमाण (UPBoardSolutions.com) है। यदि वह तनिक भी डर जाती तो उसकी और उसके पुत्रों की जान अवश्य चली जाती; जब कि उसकी निर्भीकता के कारण व्याघ्र स्वयं ही अपनी जान बचाकर भाग खड़ा हुआ।

(4) बुद्धिमती- उसका असाधारण बुद्धिमती होना भी उसके चरित्र का मुख्य गुण है। अपने बुद्धि-चातुर्य से वह व्याघ्र जैसे हिंसक पशु को भयभीत करके उन्हें भाग जाने के लिए विवश करती है। और अपनी तथा अपने पुत्रों की प्राणरक्षा करती है।

निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि व्याघ्रमारी (कलहप्रिया) जहाँ एक लड़ाकू और कलह- कारिणी स्त्री है वहीं वह एक निर्भीक, क्रोधी, शीघ्र निर्णय लेने वाली और विपत्ति में भी धैर्य धारण करने वाली वीरांगना है।

शृगाल

परिचय- शृगाल जंगल का छोटा-सा हिंसक जीव है। वह भय से भागते व्याघ्र को मार्ग में मिलता है और व्याघ्र से उसके भय का कारण पूछता है। अपनी धूर्तता से वह स्वयं अपने प्राण भी संकट में डाल लेता है। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) महाधूर्त- जंगल के जीवों में शृगाल को सबसे धूर्त जीव माना जाता है। प्रस्तुत पाठ का पात्र शृगाल भी इस अवधारणा पर खरा उतरता है। भय से भागते व्याघ्र को देखकर उसकी हँसी से उसकी धूर्तता का बोध होता है। उसकी धूर्तता तब चरम सीमा पर पहुँच जाती है, जब वह व्याघ्र को अपनी (UPBoardSolutions.com) बातों में फंसाकर पुनः कलहप्रिया के निकट ले जाता है। व्याघ्र के डर जाने और कलहप्रिया की निर्भीकता क़ा दण्ड उसे स्वयं भी घायल होकर भुगतना पड़ता है।

(2) निर्भीक एवं साहसी- धूर्त होने के साथ-साथ उसमें निर्भीकता एवं साहस जैसे गुण भी विद्यमान हैं। अपने से कई गुना शक्तिशाली व्याघ्र पर हँसना, व्याघ्र को पुनः कलहप्रिया के पास लेकर आना उसकी निर्भीकता एवं साहस की पुष्टि के लिए पर्याप्त हैं।

(3) बुद्धिमान्- बुद्धिमानी उसका विशिष्ट गुण है। अपनी बुद्धि के द्वारा ही वह व्याघ्र को पुनः कलहप्रिया के पास लाने में सफल हो जाता है और व्याघ्र के गले में बँधा हुआ भी व्याघ्र से अपने प्राणों की रक्षा कर लेता है, यह उसके बुद्धिमान् होने को दर्शाता है।

(4) धैर्यशाली–विपत्ति के समय में भी शृगाल धैर्य को नहीं त्यागता है। व्याघ्र के गले में बँधा हुआ लहूलुहान होने पर भी वह घबराता नहीं है। धैर्यपूर्वक वह अपनी मुक्ति का उपाय सोचता है और अन्ततः अपने प्राणों की रक्षा करने में सफल हो जाता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शृगाल में उपर्युक्त गुणों के अतिरिक्त वाक्पटु, शीघ्र निर्णय लेना इत्यादि गुण विद्यमान हैं।

व्याघ्र

परिचय–प्रस्तुत पाठे के पात्रों में कलहप्रिया के पश्चात् व्याघ्र ही दूसरा प्रमुख पात्र है। वह जंगल का हिंसक, किन्तु मूर्ख जीव है। उसके चरित्र की विशेषताएँ इस प्रकार हैं|

(1) मूर्ख- शक्तिशाली जीव होते हुए भी व्याघ्र मूर्ख है। उसकी मूर्खता का उद्घाटन उस समय होता है, जब वह व्याघ्रमारी द्वारा अपने बेटों को उसे खा लेने का आदेश देते सुनकर ही भाग खड़ा होता है। वह यह भी नहीं सोच पाता कि दो छोटे निहत्थे बालक और एक स्त्री कैसे उसे मारकर खा जाएँगे। ..

(2) भीरु– व्याघ्र बलशाली अवश्य है, किन्तु अत्यधिक भीरु. भी है। कलहप्रिया द्वारा उसको मारकर खा जाने के कथनमात्र से ही वह घबरा जाता है। अपने भीरु स्वभाव के कारण वह अपनी शक्ति को भी भूल जाता है। शृगाल से जंगल में कहीं छिपकर जान बचाने के उसके कथन से भी उसकी भीरुता का बोध होता है।

(3) शक्ति के मद में चूर– व्याघ्र को अपनी शक्ति पर गर्व है। कलहप्रिया को दो बच्चोंसहित देखकर वह फूला नहीं समाता। उन्हें खाने के लिए वह बड़ी वीरता के साथ अपनी पूँछ को भूमि पर पटकता है और तत्पश्चात् उनकी ओर झपटता है। धरती पर पूँछ को पटकना ही उसके शक्ति-मद को इंगित करता है।

(4) अविवेकी- अपने ऊपर उल्लिखित दुर्गुणों के साथ-साथ वह अविवेकी भी है। उसका कोई भी कार्य विवेक से पूर्ण नहीं लगता, चाहे कलहप्रिया को खाने के लिए झपटने का उसका निर्णय हो अथवा शृगाल को गले में बाँधकर पुनः कलहप्रिया के पास आने का निर्णय। मात्र अविवेकी होने के (UPBoardSolutions.com) कारण ही वह दोनों बार भय को प्राप्त होता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि व्याघ्र झूठी मान-प्रतिष्ठा का प्रदर्शन करने वाला अविवेकी, शक्ति के मद में चूर, भीरु और मूर्ख जीव है।।

लघु उत्तरीय संस्कृत प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्‍नो के उत्तर संस्कृत में लिखिए

प्रश्‍न 1
राजसिंहो नाम राजपुत्रः कुत्र अवसत्?
उत्तर
राजसिंहो नाम राजपुत्र: देउलाख्ये ग्रामे अवसत्।

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प्रश्‍न 2
व्याघ्रः कलहप्रियां दृष्ट्वा किम् अकरोत्?
उतर
व्याघ्रः कलहप्रियां दृष्ट्वा पुच्छेन भूमिमाहत्य धावितः।

प्रश्‍न 3
व्याघ्रो जम्बुकं किं कर्तुम् अकथयत्?
उत्तर
व्याघ्रः जम्बुकं किञ्चिद् गूढप्रदेशं गन्तुम् अकथयत्।

प्रश्‍न 4
व्याघमारी जम्बुकं प्रति किं चिन्तितवती?
उत्तर
व्याघ्रमारी चिन्तितवती यदयं व्याघ्रः मृगधूत्तेन आनीतः।

प्रश्‍न 5
व्याघमारी शृगालं किम् अकथयत्?
उत्तर
व्याघ्रमारी शृगालम् अकथयत् यत् त्वया पुरा मह्यं व्याघ्रत्रयं दत्तम्, अद्य त्वम् एकमेव कथम् आनीतवान्।।

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प्रश्‍न 6
जम्बुकेन स्वप्राणान्त्रातुं किं कृतम्?
उत्तर
जम्बुकेन स्वप्राणान् त्रातुं उच्चैः हसितम् उक्तञ्च यदि साऽस्मद्रक्तस्रावसंलग्ना पापिनी पृष्टत: समेति तदा कथं जीवितव्यम्।।

वस्तुनिष्ठ प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए।

1. ‘बुद्धिर्यस्य बलं तस्य’ पाठ किस ग्रन्थ से उधृत है?
(क) कथासरित्सागर’ से
(ख) “शुक-सप्तति’ से।
(ग) ‘पञ्चतन्त्रम्’ से
(घ) “हितोपदेशः’ से ।

2. शुकसप्तति में कुल कितनी कथाएँ संगृहीत हैं और यह किसके मुख से कही गयी हैं?
(क) सत्रह, कबूतर के मुख से ।
(ख) संतासी, मैना के मुख से
(ग) सत्ताइस, शृगाल के मुख से ।
(घ) सत्तर, शुक के मुख से ।

3. राजसिंह किस गाँव का निवासी था?
(क) रामपुर ग्राम का
(ख) शिवपुर ग्राम का
(ग) देउलाख्य ग्राम का ।
(घ) कुसुमपुर ग्राम का

4. कलहप्रिया किसके साथ अपने पिता के घर की ओर चली?
(क) अपने पति के साथ
(ख) अपने सेवक के साथ
(ग) अपने पिता के साथ
(घ) अपने दो पुत्रों के साथ

5. कलहप्रिया ने महाकानन में व्याघ्र को देखकर अपने पुत्रों को चपत लगाकर क्या कहा?
(क) तुम खाना खाने के लिए क्यों लड़ रहे हो।
(ख) तुम बिना बात के क्यों लड़ रहे हो ।
(ग) तुम मार खाने के लिए क्यों लड़ रहे हो।
(घ) तुम एक-एक व्याघ्र को खाने के लिए क्यों लड़ रहे हो

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6. व्याघ्र ने कलहप्रिया को क्या समझा?
(क) अश्वमारी
(ख) गजमारी
(ग) व्याघ्रमारी
(घ) शृगालमारी

7. बाघ को भागता हुआ देखकर शृगाल ने क्या किया?
(क) वह हँसने लगा।
(ख) वह रोने लगा
(ग) उसने बाघ को धैर्य बँधाया
(घ) उसने क्रोध किया

8. कथाकार ने व्याघ्र पर हँसते हुए जम्बुक( सियार) को क्या कहा है?
(क) बुद्धिमान्
(ख), धूर्त
(ग) मृगधूर्त
(घ) शृगाल

9. दुबारा कलहप्रिया के पास जाते हुए बाघ ने क्या किया?
(क) शृगाल को अपने आगे कर लिया
(ख) शृगाल को अपनी पूंछ से बाँध लिया
(ग) शृगाले को अपने गले में बाँध लिया।
(घ) शृगाल की गर्दन पकड़ ली

10. दौड़ते हुए बाघ के गले से छूटने के लिए सियार ने क्या किया?
(क) वह जोर से रोने लगा
(ख) उसने बाघ से निवेदन किया
(ग) वह हँसने लगा।
(घ) उसने मरने का ढोंग किया

11.’•••••••••••••राजसिंहस्य भार्या आसीत्?’ वाक्य में रिक्त-पद की पूर्ति होगी
(क) “कलहप्रिया’ से
(ख) “शान्तिप्रिया’ से
(ग) “भानुप्रिया’ से
(घ) “माधुर्य प्रिया’ से

12. ‘यदि त्वं मां मुक्त्या यासि तदा वेलाप्यवेला स्यात्।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) व्याघ्रः
(ख) शृगालः
(ग) व्याघ्रमारी
(घ) कश्चित् नास्ति

13. ‘तर्हि मां निज ……………… बद्ध्वा चल शीघ्रम्।’ वाक्य में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी
(क) ‘हस्ते से
(ख) “पृष्ठे’ से
(ग) “गले’ से
(घ) “पादे’ से

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14. ‘तदा मम त्वदीया वेला स्मरणीया।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) जम्बुकः
(ख) व्याघ्रः
(ग) व्याघ्रमारी
(घ) कश्चित् नास्ति

15. ‘यतो हि व्याघमारीति या ………………भूयते।’ में वाक्य-पूर्ति होगी
(क) “शास्ये’ से
(ख) ‘लोके से
(ग) ‘पुराणे’ से
(घ) “जना’ से

16. ‘रे रे धूर्त ••••••••••••दत्तं मह्यं व्याघ्रत्रयं पुरा।’ में वाक्य-पूर्ति का पद है–
(क) त्वम्
ख) मया
(ग) त्वया ।
(घ) अहम् । 

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Class 9 Sanskrit Chapter 6 UP Board Solutions कपिलोपाख्यानम् Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 6 कपिलोपाख्यानम् (पद्य-पीयूषम्) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 6 कपिलोपाख्यानम् (पद्य-पीयूषम्).

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Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 6
Chapter Name कपिलोपाख्यानम् (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 6 Kapilopakhyan Question Answer (पद्य-पीयूषम्)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 6 हिंदी अनुवाद कपिलोपाख्यानम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय–वेदों के अर्थ को सरल एवं सरस बनाने हेतु महर्षि व्यास ने अठारह पुराणों की रचना की। इन्हीं अठारह पुराणों में स्कन्दपुराण का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। भौगोलिक क्षेत्रों का विस्तृत और विशद विवरण प्रस्तुत करना इस पुराण के विविध खण्डों का वैशिष्ट्य है। इस बृहत्काय पुराण में वेदों की (UPBoardSolutions.com) सामग्री पर्याप्त रूप में मिलती है। यह रचयिता के अलौकिक वैदुष्य का परिचायक है। प्रस्तुत पाठ इसी । पुराण से संकलित है। इस पाठ में कपिला नाम की गाय के माध्यम से सत्यवचन का महत्त्व बताया गया है।

पाठ-सारांश

कपिला का अपने यूथ से बिछड़ना-कपिला नाम की एक धेनु अपने यूथ (समूह) के साथ चरने के लिए वन में गयी थी। हरी-हरी घास चरती हुई वह अपने समूह से बिछुड़कर एक भयंकर गुफा में पहुँच जाती है। जहाँ वह भयंकर दाढ़ों वाले एक बाघ को देखकर डर जाती है।

कपिला का विलाप करना-बाघ को देखकर कपिला गोकुल में बँधे अपने दुधमुंहे बछड़े को स्मरण कर रोने लगती है। विलाप करती हुई गाये को देखकर बाघ ने कहा- “हे धेनो! तुम क्यों व्यर्थ रोती हो? मेरे पास पहुँचने के बाद अब तुम्हारे प्राण नहीं बच सकते। इसलिए अब तुम अपने जीवन की आशा छोड़ दो और अपने इष्ट देवता का स्मरण करो।”

कपिला का सिंह से वार्तालाप-कपिला ने बाध से कहा कि मैं अपने प्राणों के भय से नहीं रो रही हूँ। गौशाला में दुग्ध पीने वाला बछड़ा नित्य की भाँति मेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा। मैं उसे दूध पिलाकर और स्वजनों से मिलकर पुन: लौट आऊँगी। बाघ ने कहा कि तुम्हारी बात का कैसे विश्वास कर लिया (UPBoardSolutions.com) जाए। यदि तुम वापस नहीं लौटी, तो। कपिला ने कहा कि आपका सन्देह उचित ही है। लेकिन मैं आपसे शपथपूर्वक कहती हूँ कि मैं आपके पास लौटकर अवश्य आऊँगी। बाघ ने उसकी शपथ पर विश्वास कर उसे उसके कुल में जाने की अनुमति दे दी।

कपिला का बाड़े में आकर बछड़े को दूध पिलाना-बाघ के द्वारा अनुमति पाकर कपिला पुत्र-प्रेम से विह्वल होकर तीव्र गति से बाड़े की ओर चल दी। उसके शब्द को सुनकर उसका बछड़ा

अपनी पूँछ उठाकर प्रसन्न होता हुआ माँ के सामने आया और बोला कि माँ आज कैसे देर हो गयी? कपिला ने उसे तृप्ति के साथ दूध पीने को कहा और उसके बाद उसे सारी बात कह सुनायी और बताया कि मैं तुम्हारे प्रेम के कारण ही यहाँ आयी हूँ। मुझे अपना जीवन मायावी बाघ को देना है। इसके बाद बछड़े और अन्य प्रिय जनों से विदा लेकर वह बाघ के पास लौटने को तैयार हुई।

बाघ का कपिला को जीवन-दान देना—अपने वचने का निर्वाह कर आती हुई कपिला को देखकर बाघ के नेत्र प्रसन्नता से प्रफुल्लित हो उठे। उसने हर्ष से गद्गद् होकर नम्रतापूर्वक कहा कि

हे कल्याणि! तुम्हारा स्वागत है। तुमने सत्य वचन का निर्वाह किया है। सत्य बोलने वाले और उनका निर्वाह करने वाले का कहीं भी अशुभ नहीं हो सकता। अतः तुम जाओ, मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ। तुम लौटकर वहीं पहुँचो जहाँ तुम्हारा वत्स (पुत्र) और तुम्हारे प्रियजन हैं।”

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

(1)
तत्रैका गौः परिभ्रष्टा स्वयूथात्तृणतृष्णया।
कपिलेति च विख्याता स्वयूथस्याग्रगामिनी ॥

शब्दार्थ
परिभ्रष्टा = बिछुड़ गयी,
अलग हो गयी।
स्वयूथात् = अपने समूह से।
तृणतृष्णया = घास खाने के लालच में
विख्याता = प्रसिद्ध।
अग्रगामिनी = आगे चलने वाली।

सन्दर्थ-
प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ में संगृहीत ‘कपिलोपाख्यानम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत-इस पाठ के शेष श्लोकों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रंस्तुत श्लोक में बताया गया है कि कपिला नाम की गाय अपने समूह के साथ पर्वत पर चरने गयी थी।

अन्वय
तत्र स्वयूथस्य अग्रगामिनी ‘कपिला’ इति विख्याता एका गौः तृणतृष्णया स्वयूथात् परिभ्रष्टा। | व्याख्या-वहाँ अर्थात् उस पर्वत पर, अपने झुण्ड के आगे चलने वाली ‘कपिला’ इस नाम से प्रसिद्ध एक गाय घास खाने के लालच में अपने समूह से बिछुड़ गयी।।

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(2)
अच्छिन्नाग्रतृणम् या तु सदा भक्षयते नृप।
अथ सा गह्वरं प्राप्ता गिरेः शून्यं भयङ्करम् ॥ 

शब्दार्थ
अच्छिन्नाग्रतृणम् = न काटी हुई नोक वाली घास को।
सदा भक्षयते = सदा खाती है।
अथ = पश्चात्।
गह्वरम् = गुफा में।
प्राप्ता = पहुँची।
गिरेः = पर्वत की।
शून्यं = निर्जन, सूनसान।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में गाय के अपने समूह से बिछड़कर एक गुफा में प्रवेश कर जाने का वर्णन है।

अन्वय
हे नृप! या सदा अच्छिन्नाग्रतृणम् भक्षयते, सा अथ गिरेः शून्यं भयङ्करं गह्वरं प्राप्ता।

व्याख्या
हे राजन्! जो गाय सदा न काटी हुई नोक वाली घास को खाती है, वह अब पर्वत की सुनसान भयंकर गुफा में पहुँच गयी। तात्पर्य यह है कि अनुकूल परिस्थितियों में रहने वाली गाय प्रतिकूल परिस्थितियों में फँस गयी।

(3)
तत्राससाद तां व्याघ्रो दंष्ट्ोत्कटमुखावहः ।
सा तं दृष्टवती पापं त्रासमाप मृगीव हि ॥

शब्दार्थ
तत्र = उस गुफा में।
आससाद = प्राप्त किया।
व्याघ्रः = बाघ ने।
दंष्टोत्कटमुखावहः = भयंकर दाढ़ के कारण भयंकर मुख को धारण करने वाला।
तं = उस।
दृष्टवती = देखा।
पापं = दुष्ट को।
त्रासम् = डर।
आप = प्राप्त किया।
मृगीव (मृगी + इव) = हिरनी के समान।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में एक बाघ को देखकर कपिला के डर जाने का वर्णन किया गया है।

अन्वय
तत्र दंष्टोत्कटमुखावह: व्याघ्रः ताम् आससाद। (सा) तं पापं दृष्टवती, मृगी इव त्रासम् आप।

व्याख्या
वहाँ (उस गुफा में) निकले हुए बड़े-बड़े दाँतों (दाढ़) के कारण भयंकर मुख को धारण करने वाला एक व्याघ्र उसके पास पहुँचा। उस गाय ने उस पापी व्याघ्र को देखा तो मृगी (हिरनी) के समान डर गयी।।

(4)
स्मरन्ती गोकुले बद्धं स्व-सुतं क्षीरपायिनम् ।। 
दुःखेन रुदतीं तां स दृष्ट्वोवाच मृगाधिपः ॥

शब्दार्थ
स्मरन्तीं = स्मरण करती हुई।
गोकुले बद्धम् = गौशाला में बँधे हुए।
क्षीरपायिनम् =दूध पीने वाले।
रुदतीम् = रोती हुई (से)।
दृष्ट्वोवाच (दृष्ट्वा + उवाच) = देखकर बोली।
मृगाधिपः = सिंह। |

प्रसंग
व्याघ्र से डरकर कपिला अपने बछड़े को याद करके रोने लगती है, इसी का वर्णन इस श्लोक में हुआ है।

अन्वय
गोकुले बद्धं क्षीरपायिनं स्वसुतं स्मरन्तीं दुःखेन रुदतीं तां दृष्ट्वा सः मृगाधि उवाच।

व्याख्या
गौशाला में बँधे हुए दूध पीने वाले अपने बच्चे को यादर्कर दुःख से रोती हुई उस गाय को देखकर वह पशुओं का राजा अर्थात् व्याघ्र बोला।।

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(5)
किं वृथा रुद्यते धेनो! माम् प्राप्य नहि जीवितम्।।
विद्यते कस्यचिन्मूखें स्मरेष्टदेवतां ततः ॥

शब्दार्थ
किम् = क्यों।
वृथा = व्यर्थ।
रुद्यते = रो रही हो।
मां प्राप्य = मेरे पास पहुँचकर।
जीवितम् = जीवन।
विद्यते = रहता है।
कस्यचित् = किसी का।
स्मर = याद करो।
इष्टदेवताम् = अभीष्ट देवता को।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्याघ्र गाय को अपने इष्ट देव को याद करने को कहता है।

अन्वय
धेनो! किं वृथा रुद्यते। मूखें! मां प्राप्य कस्यचित् जीवितं न हि विद्यते। ततः इष्टदेवतां स्मर।

व्याख्या
हे गाय! तुम व्यर्थ क्यों रो रही हो? हे मूर्ख मुझे पाकर किसी का जीवन नहीं रहता है। अब तुम अपने इष्ट देवता का स्मरण करो। तात्पर्य यह है कि व्याघ्र के पास आ जाने पर किसी का भी जीवित बचना सम्भव नहीं है। इसलिए अब तुम्हें अपना अन्तिम समय समीप जानकर अपने इष्ट-देवता का स्मरण कर लेना चाहिए।

(6)
स्व-जीवितभयाद् व्याघ्र न रोदिमि कथञ्चन।
पुत्रो मे बालको गोठ्यां क्षीरपायी प्रतीक्षते ॥

शब्दार्थ
स्व-जीवितभयाद् = अपने जीवन के भय से।
रोदिमि = रो रही हूँ।
कथञ्चन = किसी भी प्रकार।
गोठ्याम् = गायों के बाड़े में।
क्षीरपायी = दूध पीने वाला दुधमुहाँ।
प्रतीक्षते = प्रतीक्षा कर रहा होगा।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में कपिला गाय बाघ को अपने रोने का कारण बता रही है।

अन्वय
व्याघ्र! स्व-जीवितभयात् कथञ्चन न रोदिमि। क्षीरपायी मे बालकः पुत्रः गोठ्या प्रतीक्षते।

व्याख्या
हे बाघ! मैं अपने जीवन के भय से किसी भी तरह नहीं रो रही हैं। दूध पीने वाला मेरा छोटा बछड़ा गौशाला में मेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा। तात्पर्य यह है कि गाय को अपनी मृत्यु को भय नहीं है। उसे तो चिन्ता इस बात की है कि उसका पुत्र उसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा।
विशेष—इसीलिए कहा गया है कि ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

(7)
पाययित्वा सुतं बालं दृष्ट्वा पृष्ट्वा जनं स्वकम्।
पुनः प्रत्यागमिष्यामि यदि त्वं मन्यसे विभो! ॥

शब्दार्थ
पाययित्वा = पिलाकर।
सुतं = पुत्र को।
बालं = बालक को।
दृष्ट्वा = देखकर।
पृष्ट्वा = पूछकर।
जनं स्वकम् = अपने परिवार के लोगों को।
प्रत्यागमिष्यामि = लौट आऊँगी। मन्यसे मानते हो।
विभो = हे स्वामिन्।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में कपिला बाघ से अपने बछड़े के पास जाने की अनुमति माँग रही है।

अन्वये
विभो! यदि त्वं मन्यसे (तर्हि अहं) बालं सुतं पाययित्वा स्वकं जनं दृष्ट्वा पृष्ट्वा च पुनः प्रत्यागमिष्यामि।।

व्याख्या
(कपिला बाघ से कहती है कि) हे स्वामिन्! यदि तुम अनुमति.दो तो मैं अपने शिशु बछड़े को दूध पिलाकर तथा अपने लोगों को देखकर और उनसे पूछकर पुनः वापस आ जाऊँगी। तात्पर्य यह है कि मेरे वापस लौट आने के बाद तुम मुझे खा लेना।।

(8)
गत्वा स्वसुतसान्निध्यं दृष्ट्वात्मीयं च गोकुलम्।।
पुनरागमनं यत्ते न च तच्छुद्दधाम्यहम्॥

शब्दार्थ
गत्वा = जाकर।
स्वसुतसान्निध्यम् = अपने बछड़े के पास।
आत्मीयं = अपनों को।
पुनरागमनम् (पुनः + आगमनम्) = पुनः लौट आना।
ते = तुम्हारे।
न श्रद्दधामि = विश्वास नहीं करता हूँ।

प्रसंग
कपिला की बाड़े में जाकर लौट आने की बात पर अविश्वास व्यक्त करता हुआ.बाघ .. यह श्लोक कहता है।

अन्वय
स्वसुतसान्निध्यं गत्वा, आत्मीयं गोकुलं च दृष्ट्वा यत् ते पुनः आगमनम् तत् अहं च न श्रद्दधामि। |

व्याख्या
व्याघ्र ने कहा-अपने बच्चे के पास जाकर और अपने आत्मीय लोगों (गायों के झुण्ड) को देखकर जो तुम्हारा पुनः आना है, उस पर मैं विश्वास नहीं करता हूँ। तात्पर्य यह है कि तुम बछड़े के प्रेम का और अपने आत्मीयों का परित्याग करके पुनः आओगी, मैं इसका विश्वास नहीं कर रहा हूँ।

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(9)
शपथैरागमिष्यामि सत्यमेतच्छृणुष्व मे ।
प्रत्ययो यदि ते भूयान्मां मुञ्च त्वं मृगाधिपः॥

शब्दार्थ
शपथैः = मैं शपथपूर्वक कहती हूँ।
आगमिष्यामि = आऊँगी।
सत्यम् एतत् = इस सत्य को।
शृणुष्व = सुनो।
प्रत्ययः = विश्वास।
मां मुञ्च = मुझे छोड़ दो।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में कपिला व्याघ्र को वापस लौट आने का विश्वास दिलाने के लिए शपथ खाती है।

अन्वय
मृगाधिप! शपथैः आगमिष्यामि, इति एतत् मे सत्यं शृणुष्व। यदि ते प्रत्ययः भूयात् , (तर्हि) त्वं मां मुञ्च।।

व्याख्या
(गाय ने कहा-) हे व्याघ्र! मैं शपथपूर्वक कहती हूँ कि मैं आ जाऊँगी, मेरे इस सत्य को सुनो। यदि तुम्हें विश्वास हो तो तुम मुझे छोड़ दो।

(10)
स तस्याः शपथाञ्छुत्वा विस्मयोत्फुल्ललोचनः।
प्रत्ययं च तदा गत्वा व्याघ्रो वाक्यमथाब्रवीत् ॥

शब्दार्थ
तस्याः = उसकी।
शपथाञ्छुत्वा (शपथान् + श्रुत्वा) = शपथों को सुनकर।
विस्मयोत्फुल्ललोचनः = आश्चर्य से विकसित नेत्र वाला।
प्रत्ययं गत्वा = विश्वास को प्राप्त करके।
तदा = तब।
वाक्यं = वचन।
अब्रवीत् = बोला।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्याघ्र के कपिला की शपथ पर विश्वास कर लेने के बारे में बताया गया है।

अन्वय
अथ स: व्याघ्रः तस्याः शपथान् श्रुत्वा विस्मयोत्फुल्ललोचन: प्रत्ययं गत्वा तदा वाक्यम् 
अब्रवीत्।।

व्याख्या
उसकी (कपिला गाय की) कसमों को सुनकर आश्चर्यचकित नेत्रों वाले उस व्याघ्र ने उस समय उसकी बात पर विश्वास करके उस गाय से यह वचने कहा।।

(11)
गच्छ त्वं गोकुले भद्रे! पुनरागमनं कुरु।
न चैतदवगन्तव्यं यदयं वञ्चितो मया ॥

शब्दार्थ
गच्छ त्वं = तुम जाओ।
भद्रे = हे कल्याणी।
पुनः आगमनं कुरु = पुन: लौट आओ।
अवगन्तव्यम् = समझना चाहिए।
यत् = कि।
अयं = यह।
वञ्चितः मया = मैंने धोखा दिया है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्याघ्र कपिला से धोखा न देने की बात कहता है।

अन्वय
भद्रे! त्वं गोकुले गच्छ। पुनः आगमनं कुरु। एतत् च न अवगन्तव्यं यत् अयं मया वञ्चितः।।

व्याख्या
(व्याघ्र बोला-) हे कल्याणी! तुम गौशाला जाओ। वहाँ से पुन: लौट आना और तुम्हें यह नहीं समझना चाहिए कि मैंने इसे धोखा दे दिया है। तात्पर्य है कि गाय की सत्यनिष्ठा का विश्वास करके बाघ ने उसे चेतावनी देकर छोड़ दिया।

(12)
सानुज्ञाता मृगेन्द्रेण कपिला पुत्र-वत्सला।
अश्रुपूर्णमुखी दीना प्रस्थिता गोकुलं प्रति ॥

शब्दार्थ
अनुज्ञाता = अनुमति दी गयी।
मृगेन्द्रेण = पशुओं के राजा द्वारा।
पुत्र-वत्सला = पुत्र पर स्नेह करने वाली।
अश्रुपूर्णमुखी = आँसुओं से भीगे मुख वाली।
दीना = दुःखी।
प्रस्थिता = चल दी।
प्रति = की ओर।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्याघ्र से अनुमति प्राप्त कपिला के गोकुल की ओर आने का वर्णन किया गया है।

अन्वय
मृगेन्द्रेण अनुज्ञाता पुत्रवत्सला सा कपिला अश्रुपूर्णमुखी दीना (सती) गोकुलं प्रति . प्रस्थिता।

व्याख्या
व्याघ्र के द्वारा अनुमति दी गयी पुत्र से प्रेम करने वाली वह कपिला गाय आँसुओं से। पूर्ण मुख वाली और दीन होती हुई गोकुल (गौशाला) की ओर चल दी।

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(13)
तस्याः शब्दं ततः श्रुत्वा ज्ञात्वा वत्सः स्वमातरम्।
सम्मुखः प्रययौ तूर्णमूर्ध्वपुच्छः प्रहर्षितः॥

शब्दार्थ
तस्याः = उसके।
शब्दं = शब्द को।
ततः = इसके बाद।
श्रुत्वा = सुनकर।
ज्ञात्वा = जानकर।
वत्सः = बछड़ा।
स्वमातरं = अपनी माता को।
प्रययौ = गया।
तूर्णम् = शीघ्र।
ऊर्ध्वपुच्छः = ऊपर को पूँछ किये हुए।
प्रहर्षितः = अत्यधिक प्रसन्न होता हुआ।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में कपिला के समीप उसके बछड़े के आने का वर्णन किया गया है।

अन्वय
ततः तस्याः शब्दं श्रुत्वा, स्वमातरं ज्ञात्वा वत्सः तूर्णम् ऊर्ध्वपुच्छ: प्रहर्षित: (सन्) सम्मुखः प्रययौ।

व्याख्या
इसके बाद (गाय के गौशाला में पहुँचने के बाद) उसके शब्द को सुनकर और उसे अपनी माता जानकर बछड़ा शीघ्र ऊपर को पूँछ किये प्रसन्न होता हुआ दौड़कर सामने आ गया।

(14)
पिब पुत्र स्तनं पश्चात् कारणं चापि मे शृणु।
आगताऽहं तवस्नेहात् कुरु तृप्तिं यथेप्सिताम् ॥

शब्दार्थ
दार्थ-पिब = पी लो।
पश्चात् = बाद में।
मे = मुझसे।
शृणु = सुनो।
आगता = आयी हुई।
तव = तुम्हारे।
स्नेहात् = स्नेह के कारण।
कुरु = करो।
तृप्तिम् = सन्तुष्टि को।
यथेप्सिताम् = इच्छानुसार।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में कपिला अपने बछड़े को समझाती है कि मैं तुम्हारे प्रेम के कारण यहाँ आयी हूँ।

अन्वय
पुत्र! स्तनं पिब। पश्चात् में कारणं च अपि शृणु। अहम् तव स्नेहात् आगता (अस्मि), (त्वं) यथेप्सितां तृप्तिं कुरु। | व्याख्या -हे पुत्र! तुम मेरे स्तन के दूध को पी लो। इसके बाद मेरे आने के कारण को भी सुनो। मैं तुम्हारे स्नेह से आयी हूँ। तुम इच्छानुसार तृप्ति कर लो।

(15)
व्याघस्य कामरूपस्य दातव्यं जीवितं मया।
तेनाहं शपथैर्मुक्ता कारणात्तव पुत्रक॥

शब्दार्थ
कामरूपस्य = इच्छानुसार रूप धारण करने वाला।
दातव्यं = देना चाहिए।
जीवितम् = जीवन।
मया = मेरे द्वारा।
तेन = उसके द्वारा।
शपथैः = कसमें खाने के द्वारा।
मुक्ता = छोड़ी गयी हूँ।
कारणात् = कारण से।
तव = तुम्हारे।
पुत्रक = हे पुत्र!। प्रसंग-पूर्ववत्।।

अन्वय
पुत्रक! मया कामरूपस्य व्याघ्रस्य जीवितं दातव्यम्। तेन अहं तव कारणात् शपथैः मुक्ता (अस्मि)।

व्याख्या
हे पुत्र! मुझे इच्छानुसार रूप धारण करने वाले (मायावी) व्याघ्र को अपना जीवन देना है। उसके द्वारा मैं तुम्हारे कारण शपथों के आधार पर छोड़ी गयी हूँ।

(16)
एवमुक्त्वा च कपिला गती यत्र मृगाधिपः।।
अथासौ कपिलां दृष्ट्वा विस्मयोत्फुल्ललोचनः ॥

शब्दार्थ
एवं = इस प्रकार।
उक्त्वा = कहकर।
गता = गयी।
यत्र = जहाँ।
मृगाधिपः = व्याघ्र।
विस्मयोत्फुल्ललोचनः = विस्मय से विकसित नेत्रों वाला।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है कि कपिला को वापस आया देखकर व्याघ्र किस प्रकार आश्चर्यचकित होती है।

अन्वय
कपिला च (वत्सं) एवम् उक्त्वा यत्र मृगाधिपः (आसीत्) (तत्र) गता। अथ असौ कपिलां दृष्ट्वा विस्मयोत्फुल्ललोचनः अभवत्।

व्याख्या
और कपिला बछड़े को पूर्वोक्त प्रकार से कहकर जहाँ व्याघ्र था, वहाँ चली गयी। इसके बाद वह (व्याघ्र) कपिला को देखकर विस्मय से विकसित नेत्रों वाला हो गया। तात्पर्य है कि कपिला को देखकर व्याघ्र अत्यधिक आश्चर्यचकित हो गया।

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(17)
अब्रवीत् प्रश्रितं वाक्यं हर्ष-गद्गदया गिरा।
स्वागतं तव कल्याणि, कपिले सत्यादिनि ।।

शब्दार्थ
अब्रवीत् = बोला।
प्रश्रितम् = विनयपूर्वक।
हर्षगद्गदया = प्रसन्नता के कारण गद्गद।
गिरा = वाणी से।
सत्यवादिनि = हे सत्य बोलने वाली।

प्रसंग-
पूर्ववत्।।

अन्वये
(सः व्याघ्रः) हर्ष गद्गदया गिरा प्रश्रितं वाक्यम् अब्रवीत्। हे कल्याणि! सत्यवादिनि! कपिले! तव स्वागतम् (अस्तु)।।

व्याख्या
उस व्याघ्र ने हर्ष से गद्गद वाणी में उस गाय से विनयपूर्ण वचन कहे। हे कल्याणमयी! सत्य बोलने वाली कपिला! तुम्हारा स्वागत है। तात्पर्य यह है कि व्याघ्र कपिला की सत्यवादिता पर प्रसन्न होकर उसका स्वागत करता है।

(18)
नहि सत्यवतां किञ्चिदशुभं विद्यते क्वचित् ।
तस्माद् गच्छ मया मुक्ता यत्राऽसौ तनयस्तव ॥

शब्दार्थ
सत्यवताम् = सत्यवादियों का।
किञ्चिद् = कुछ भी।
अशुभं = बुरा।
विद्यते = होता है।
क्वचित् = कहीं भी।
गच्छ = जाओ।
मुक्ता = मुक्त की गयी।
यत्र = जहाँ।
असौ = वह। तनयः = पुत्र।

प्रसंग
कपिला की सत्यप्रियता से प्रसन्न होकर व्याघ्र उसे मुक्त कर देता है। इसी का वर्णन इस श्लोक में किया गया है।

अन्वय
सत्यवतां क्वचित् किञ्चित् अशुभं नहि विद्यते। तस्माद् भय मुक्ता (त्वं) यत्र असौ । तव तनयः (अस्ति), (तत्र) गच्छ। –

व्याख्या
(व्याघ्र कहता है कि) सत्य बोलने वालों का कहीं पर कोई अशुभ नहीं होता है। इस कारण से मेरे द्वारा मुक्त की गयी तुम, जहाँ तुम्हारा वह पुत्र है, वहीं जाओ। तात्पर्य यह है कि व्याघ्र कपिला को मुक्त कर देता है। विशेष—उचित ही कहा है-‘सत्यमेव जयते।’

सूक्तिपरक वाक्यांश की व्याख्या

(1)
नहि सत्यवतां किञ्चिदशुभं विद्यते क्वचित् ।

सन्दर्थ
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘कपिलोपाख्यानम्’ पाठ से अवतरित है।

प्रसंग

कपिला जब अपने कहे अनुसार व्याघ्र के पास लौट आती है, तब व्याघ्र उसकी सत्यप्रियता से अत्यधिक प्रसन्न होकर उसे मुक्त कर देता है और यह सूक्ति कहता है।

अर्थ
सत्य वचन बोलने वालों का कहीं भी कुछ भी अशुभ (अहित) नहीं होता है।

व्याख्या
जो व्यक्ति सत्य वचन का पालन करते हैं, उनका कहीं भी कोई भी अनिष्ट नहीं होता है। कपिला नाम की धेनु व्याघ्र के द्वारा घिर जाने पर अपने बछड़े को दूध पिलाकर उसका आहार बनने हेतु पुनः लौट आने का शपथपूर्वक आश्वासन देती है। व्याघ्र उसके विश्वास पर बछड़े को दूध पिलाने के लिए उसे मुक्त कर देता है। कपिला गौशाला में जाकर अपने बछड़े को दूध पिलाकर अपने कथनानुसार पुनः व्याघ्र के पास लौट आती है। व्याघ्र उसके सत्य-पालन से प्रभावित होकर उसे मुक्त कर देता है। इस प्रकार सत्य को पालन करने के कारण कपिला का कोई अनिष्ट नहीं हुआ। कहा भी गया है-‘सत्यमेव जयते।’

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) शपथैरागमिष्यामि ••••••••••••••••••••• मृगाधिपः ॥ (श्लोक 9)
संस्कृता-
पुत्रवत्सला कपिला गौः व्याघ्रम् उवाच–हे व्याघ्र! इदम् अहं प्रतिजाने यत् पुत्रं दुग्धं पाययित्वा अहम् अत्र पुनः आगमिष्यामि। मम वचनं कदापि न व्यभिचरिष्यति। यदि त्वं मयि विश्वसिसि तु मां मुञ्च।

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(2) नहि सत्यवतां :••••••••••••••••••••• तनयस्तव ॥ (श्लोक 18 )
संस्कृतार्थः–
यदा पुत्रवत्सला कपिला स्ववत्सं दुग्धं पाययित्वा स्ववचोऽनुसारं सिंहस्य समीपे पुनरायाति, तदा सिंह: तस्याः सत्यपालनेन प्रसन्नः भवति कथयति च-हे कपिले! अस्मिन् जगति सत्यस्य पालकानां कुत्रापि किञ्चिदपि अनिष्टं न भवति। त्वं सत्यवादिनी असि, तव अपि अहम् अनिष्टं न करिष्यामि। अहं त्वां मुक्तां करोमि, त्वं तत्रैव गच्छ, यत्र तव वत्सः अस्ति।

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Class 9 Sanskrit Chapter 11 UP Board Solutions परमवीरः अब्दुलहमीदः Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 11 परमवीरः अब्दुलहमीदः (गद्य – भारती) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 11 परमवीरः अब्दुलहमीदः (गद्य – भारती).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 11
Chapter Name परमवीरः अब्दुलहमीदः (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 3
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 11 Param Vir Abdul Hamid Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 11 हिंदी अनुवाद परमवीरः अब्दुलहमीदः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांश

यह भारतभूमि विद्वानों, देशभक्तों और वीरों की जननी है। आधुनिक समय में भी ऐसे अनेक वीर हुए हैं, जिन्होंने स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी। चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ आदि ऐसे ही देशभक्त हैं। दूसरी ओर ऐसे भी अनेक देशभक्त वीर हैं, जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए शत्रुओं का मुकाबला करते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। ऐसे ही देशभक्त परमवीरों में (UPBoardSolutions.com) अब्दुल हमीद का नाम बड़ी श्रद्धा से याद किया जाता है, जिन्होंने सन् 1965 ई० में भारत-पाकिस्तान युद्ध में वीरतापूर्वक लड़ते हुए वीरगति पायी थी!

जन्म एवं शिक्षा-वीर हमीद का जन्म सन् 1933 ई० में उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के धुमआपुर ग्राम में एक साधारण मुस्लिम परिवार में हुआ था। बचपन से ही पहलवानी करने और लाठी चलाने में इनकी रुचि थी। ये पढ़ने की अपेक्षा क्रीड़ा-अभ्यास को अधिक पसन्द करते थे। बार-बार अभ्यास करके इन्होंने अचूक निशाना लगाना सीख लिया था। एक बार इन्होंने रात्रि में उल्लू की आवाज सुनकर और उस पर निशाना लगाकर उसे मार गिराया था। उसी समय इन्होंने सैनिक बनकर मातृभूमि की रक्षा करने का (UPBoardSolutions.com) दृढ़-संकल्प कर लिया। 7 दिसम्बर, सन् 1954 ई० में इन्होंने सेना में प्रवेश लिया। ‘ग्रेवोडियर्स रेजीमेंटल प्रशिक्षण केन्द्र में प्रशिक्षण प्राप्त करके ये सैनिक हो गये और छ: वर्ष के भीतर ही लान्सनायक के पद पर नियुक्त होकर वर्षभर में हवलदार हो गये।

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युद्ध में सैनिक रूप में नियुक्ति-चीन के आक्रमण के समय इनकी नियुक्ति नेफा क्षेत्र में हुई थी। यहीं इन्हें प्रथम बार युद्ध का सामना करना पड़ा। अपनी कर्तव्यनिष्ठा, शौर्य और साहस के कारण इन्होंने सैनिक अधिकारियों के हृदय पर अपनी धाक जमा ली। सन् 1965 ई० में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया। उस समय इन्हें लाहौर क्षेत्र में ‘कसूर’ स्थान पर तैनात किया गया था। उस युद्ध में पाकिस्तान के पास अमेरिका के दुभेद्य और दूरमारक आधुनिक पैटन टैंक थे। भारत अपने पुराने पैटन टैंकों को लेकर ही युद्ध कर रहा था, लेकिन उसके सैनिकों का मनोबल ऊँचा था।

अप्रतिम शौर्य-प्रदर्शन–अब्दुल हमीद अपने दिव्य उत्साह से युद्ध-क्षेत्र में गोले फेंक रहे थे। वे अपनी जीप में चढ़कर पाकिस्तानी टैंकों पर गोलों की बौछार करते हुए पाकिस्तानी सेना को रोक रहे थे। उनकी जीप को लक्ष्य बनाकर पाकिस्तानी टैंक उन पर गोला फेंकने ही वाला था कि अब्दुल हमीद ने विद्युत गति से उछलकर और हथगोला फेंककर उस टैंक को नष्ट कर दिया। यह देखकर दूसरे (UPBoardSolutions.com) पाकिस्तानी टैंक ने आक्रमण कर दिया। उसे भी अब्दुल हमद ने हथगोले से ध्वस्त कर दिया, लेकिन दुःख है कि तीसरे पैटन टैंक से फेंके गये एक गोले से उनका प्राणान्त हो गया। उस समय उनके मुख परे मातृभूमि की रक्षा करने से उत्पन्न सन्तोष झलक रहा था।

सम्मानित-अब्दुल हमीद जिस मातृभूमि की गोद में बड़ा हुआ, उसके प्रति अपने कर्तव्य के पूरा कर धन्य हो गया। भारत सरकार ने उस परमवीर को परमवीर चक्र की उपाधि से सम्मानित किया ‘उत्तर प्रदेश सरकार ने भी उसके परिवार की बड़ी सहायता की और उसकी स्मृति को चिरस्थायी रखने के लिए उसके ग्राम का नाम ‘हमीपुर’ रख दिया।

 निश्चय ही मातृभूमि के चरणों पर भक्तिपूर्वक सिर समर्पित करने वाले, यश शरीर वाले, स्वर देवता-स्वरूप वे श्रेष्ठ वीर मनुष्य धन्य हैं।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) एषा शस्यश्यामला भारतभूमिर्महतां मनीषिण, विलक्षणानां विपश्चित स्वप्राणेष्वप्यनासक्तानां देशभक्तानां परमधीराणां च युद्धवीराणां जननी। आस्तां तावदस्या प्राक्तनो लोकातिक्रान्तो गरिमा। आधुनिकेऽपि काले चन्द्रशेखरभक्तसिंहरामप्रसादादिभिः बहुभिर्युवाभिरस्याः स्वातन्त्र्यस्य हेतवे स्वजीवनमपि प्रदत्तम्, अपरैश्चानेकैस्तरुणैस्तथाधिगत स्वतन्त्रतां परिरक्षितुं शत्रूणामभिमुखं सुदृढं संस्थाय तेषां विनाशं कुर्वद्भिः स्वप्राणा एवं उत्सृष्टाः।यौवनं परिगणितं, ने कुटुम्बं चिन्तितं नाप्यायुष्यं (UPBoardSolutions.com) समीहितम्। स्मारं स्मारं तेषामभिधानमद्यापि . हृदयमगाधया श्रद्धया प्लावितं सदनुभवति यद्गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च स्विङ्गं न च वयः। तादृशं वीराणामेवान्यतमः श्रीअब्दुलहमीदो नाम यः पञ्चषष्ट्युत्तरैकोनविंशतिशततमे (1965) ईसवीये संवत्सरे कसूरयुद्धे पाकिस्तानिभिः सैनिकैरभियुध्यन् असूनपिविहाय तेषां भारताभिमुख गतिं सम्यगुपारौत्सीत्।।

शब्दार्थ
शस्यश्यामला = फसलों से हरी-भरी।
विलक्षणानां = अनोखे, आश्चर्यजनक।
विपश्चिताम् = विद्वानों की।
अनासक्तानाम् = प्रेम न करने वाले।
आस्ताम् = रहे।
प्राक्तनः = पुराना।
लोकातिक्रान्तः = लोक का अतिक्रमण करने वाली,
अलौकिक। हेतवे = के लिए।
तथाधिगताम् = उस प्रकार प्राप्त हुई।
परिरक्षितुं = रक्षा करने के लिए।
संस्थाय = खड़े होकर।
उत्सृष्टाः = त्याग दिये।
समीहितम् = इच्छा की।
तेषामभिधानमद्यापि = उनका नाम आज भी।
प्लावितम् = सराबोर, डूबे हुए।
वयः = आयु।
सैनिकैरभियुध्यन् (सैनिकैः + अभि + युध्यन्) = सैनिकों के साथ विरोध में युद्ध करता हुआ।
असूनपि = प्राणों को भी।
उपारौत्सीत् = रोक दिया। |

सन्दर्भ
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘परमवीरः अब्दुलहमीदः’ शीर्षक से अवतरित है।

[संकेत-इस पाठ के शेष गद्यांशों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में देश की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए आत्म-बलिदान करने वाले वीरों में अब्दुल हमीद का स्मरण किया गया है। । अनुवाद—यह धान्य से परिपूर्ण हरी-भरी भारतभूमि महान् बुद्धिमानों, विलक्षण विद्वानों, अपने प्राणों का मोह न करने वाले देशभक्तों, अत्यन्त धैर्यशालियों और युद्धवीरों की माता है। इसकी उस प्राचीन अलौकिक महिमा को रहने दें (अर्थात् उसकी तो बात ही क्या) आधुनिक समय में भी चन्द्रशेखर, भगतसिंह, रामप्रसाद आदि बहुत-से युवकों ने इसकी स्वतन्त्रता के लिए अपना जीवन भी दे दिया। दूसरे अनेक तरुणों ने उस प्रकार (कठिनाई) से प्राप्त हुई स्वतन्त्रता की रक्षा करने के लिए शत्रुओं के सामने मजबूती से खड़े रहकर (UPBoardSolutions.com) उनका विनाश करते हुए अपने प्राण भी त्याग दिये। न युवावस्था की परवाह की, न कुटुम्ब की चिन्ता की, न अधिक आयु की इच्छा की। उनके नाम को याद कर-करके आज भी हृदय अगाध श्रद्धा से भरा हुआ अच्छा अनुभव करता है कि गुणियों में गुण ही पूजा के योग्य होते हैं, लिंग और उम्र नहीं।’ उस प्रकार के वीरों में एक श्री अब्दुल हमीद का नाम है, जिसने सन् 1965 ई० में कसूर युद्ध में पाकिस्तान के सैनिकों के साथ युद्ध करते हुए प्राणों को भी त्यागकर उनकी भारत की ओर बढ़ती गति को भली-भाँति रोक दिया।

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(2) अस्य वीरपुङ्गवस्य जन्म त्रयस्त्रिशदुत्तरैकोनविंशतिशततमे (1933) ख्रीष्टाब्दे अस्माकं प्रदेशस्य गाजीपुरमण्डलस्य धुमआपुराह्वये ग्रामे अतिसाधारणे मुहम्मदीयकुटुम्बे जातम्। बाल्यादेवास्य मल्लविद्यायष्टिचालनादिषु शारीरिकबलोपचयाधायिनीषु क्रीडासु सहजेवाभिरुचिरासीत्। सैनिकगुणानात्मसात्कर्तुं दृढनिश्चयोऽसौ पौनःपुन्येन तथा अभ्यस्यति स्म यथा लक्ष्यवेधादिक्रीडास्वपि प्रावीण्यमुपागमत्। अक्षराभ्यासादधिकमस्मै क्रीडाभ्यासोऽरोचत। तदयं चतुर्थकक्षां यावदेवाधीतवान्। श्रूयते यदेकस्यां निशि (UPBoardSolutions.com) कस्यचिदूलूकस्य विरोवमेवानुसृत्य लक्ष्ये प्रहरताऽनेनासौ न्यपाति। ततः क्षणादेव चासौ सैनिको भूत्वा मातृभूमे रक्षणाय समकल्पत। सौभाग्यात्तस्यायं मनोरथश्चतुःपञ्चाशदुत्तरैकोनविंशतिशततमे (1954) वर्षे दिसम्बरमासस्य सप्तमेऽहनि पर्यपूर्यत यदासौ सेनायां प्रवेशं प्राप्तवान्। चतुर्दशमासान् यावद् राजस्थानस्य नसीराबादसैनिकशिविरे ‘ग्रेवोडियर्स रेजीमेण्टल’ प्रशिक्षणकेन्द्रे सैनिकप्रशिक्षणं प्राप्य अब्दुलहमीदः पूर्णतया सैनिकोऽभवत् षड्वर्षाभ्यन्तरे च लान्सनायकपदे न्ययुज्यते वर्षमात्रेण च हवलदारपदमाप्तवान्।

शब्दार्थ
वीरपुङ्गवस्य = श्रेष्ठ वीर को।
धुमआपुराह्वये (धुमआपुर + आह्वये) = धुमआपुर नाम के।
मुहम्मदीय कुटुम्बे = मुस्लिम वंश में।
मल्लविद्यायष्टिचालनादिषु = कुश्ती लड़ने, लाठी चलाने आदि में।
बलोपचय = बलवर्द्धक।
आत्मसात्कर्तुम् = अपनाने के लिए।
पौनः पुन्येन = बार-बार।
लक्ष्यवेध = निशाना लगाना।
प्रावीण्यम् = कुशलता।
उपागमत् = प्राप्त की।
विरावम् = शोर।
न्यपाति = गिरा दिया।
पर्यपूर्यत = पूर्ण हो गया।
न्ययुज्यत = नियुक्त कर दिया गया।
आप्तवान् = प्राप्त कर लिया।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में अब्दुल हमीद के जन्म, शिक्षा, अभिरुचि एवं सेना में भर्ती होने का वर्णन है।

अनुवान
इस श्रेष्ठ वीर का जन्म सन् 1933 ई० में हमारे प्रदेश (उत्तर प्रदेश) के गाजीपुर जिले के धुमआपुर नरक ग्राम में अत्यन्त साधारण मुस्लिम परिवार में हुआ था। बचपन से ही इसकी पहलवानी, लाठी चलाने आदि शारीरिक शक्तिवर्द्धक क्रीड़ाओं में स्वाभाविक ही लगन थी। सैनिक के गुणों को अपनाने के लिए दृढ़-निश्चय वाले उसने बार-बार इतना अभ्यास किया कि निशान लगाने आदि खेलों में भी कुशलता प्राप्त कर ली। इसे अक्षरों के अभ्यास (विद्याभ्यास) की अपेक्षा क्रीड़ा का अभ्यास अच्छा लगता था, इसलिए इसने चौथी कक्षा तक ही पढ़ाई की। सुना जाता है कि एक रात में किसी उल्लू के शोर का ही अनुसरण करके लक्ष्य पर प्रहार करते हुए इसने उसे गिरा (UPBoardSolutions.com) दिया। उस क्षण से ही उसने सैनिक बनकर मातृभूमि की रक्षा का संकल्प लिया। सौभाग्य से उसके मन की यह इच्छा सन् 1954 ई० में दिसम्बर महीने के सातवें दिन (सात तारीख को) पूर्ण हो गयी, जब उसने सेना में प्रवेश कर लिया। चौदह महीने तक राजस्थान के नसीराबाद सैनिक शिविर में ग्रेवोडियर्स रेजीमेण्ट’ नामक प्रशिक्षण केन्द्र में सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त करके अब्दुल हमीद पूर्णरूप से सैनिक हो गया और छह वर्ष के अन्दर ही लान्सनायक के पद पर नियुक्त कर दिया गया और वर्षभर में हवलदार का पद प्राप्त कर लिया।

(3) भारतसीमान्ते चीनदेशस्याक्रमणकाले श्रीअब्दुलहमीदो नेफाक्षेत्रे नियुक्त आसीत्। तत्रैवासौ युद्धस्याद्यं साक्ष्यमकरोत्। कर्तव्यनिष्ठाद्वितीयेन स्वेनानन्यसाधारणेनौजसा सः सैनिकाधिकारिणामविलम्बं दृष्टिमाकृष्य तूर्णमेव हृदयेषु अपि पदमदधात्। मातृभूमेः कृते प्राणानपि मुञ्चतो मे चेतो न तनुकमपि व्यथिष्यते, प्रत्युत प्राप्यैव तादृशं सुयोगं परां मुदमेवापत्स्यति इति नैकधासौ स्वमित्राण्यचीकथयत्। मनोनीतस्तादृशोऽवसरोऽपि नातिविलम्बेनागतः। पञ्चषष्ट्युत्तरैकोनविंशतिशततमे (1965) वर्षे दैवदुर्विपाकात् पाकिस्तानेन भारतवर्षे आक्रमणं कृतम्। श्रीअब्दुलहमीदश्च लवपुरसमक्षेत्रे कसूरनाम्नि स्थले सैनिकनियोगमादिष्टों युद्धनिरतः संवृत्तः। पाकिस्तानं प्रति सदैव पक्षपातिना अमेरिकादेशेन पाकिस्तानायातिशक्तिशालिनो दूरमारका अभेद्यत्वेन प्रसिद्धाः (UPBoardSolutions.com) पैटनटैङ्काः प्राचुर्येण प्रदत्ता आसन्। तच्छक्तिदृप्ताः पाकिस्तानिनः सैनिकास्तानग्रे कृत्वा भारतसैन्ये गोलकानि वर्षन्तो दुर्दान्ता दानवा नाकमिव भारतधरामधिचिकीर्षतस्तस्यान सीमसु प्रविष्टाः। तेषां प्रतिरोधाय भारतसैनिका अपि गोलकानि वर्षन्ति स्म, किन्तु तेषां पुरातनाष्टैङ्का ने तथा दुर्भेद्या दूरमारका शक्तिशालिनश्च आसन् तथापि मातृभुवं रक्षितुं मनोबलं तु आकाशं स्पृशति स्म।क्रियासिद्धिः सत्वे भवति महतां नोपकरणे’ इति भृशं विश्वसन्तस्तेषामात्मा कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्’ इति मुहुर्मुहुः शूराभ्यस्ते समये वर्तमानो ‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्’ इति भगवतो वाक्यं स्मारयन् तेषां मनसि पैटनटैङ्कादपि गरीयसीं दृढतामुपाबध्नात्।।

शब्दार्थ
आद्यम् = पहली बार।
साक्ष्यम् = सामना।
अकरोत् = किया।
ओजसा = बल से
अविलम्बम् = जल्दी।
तूर्णम् = शीघ्र।
पदमधात् = स्थान बना लिया।
तनुकमपि = थोड़ा भी
व्यथयिष्यते = व्यथित करेगा।
मुदम् = प्रसन्नता को।
नैकधा = अनेक बार।
अचीकथयत् = कहा
नाति-विलम्बेन = अधिक देर से नहीं, शीघ्र ही।
लवपुरसमरक्षेत्रो = लाहौर युद्ध क्षेत्र में
दूरमारकाः = दूर तक मार करने वाले।
प्राचुर्येण = अधिक मात्रा में।
तच्छक्तिदृप्ताः = उनकी शकि से अहंकारयुक्त।
नाकम् = स्वर्ग।
क्रियासिद्धिः सत्वे भवति महतां नोपकरणे = वीरों या महापुरुष की कार्य-सफलता बल में रहती है, साधन में नहीं।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्य महीम् = मारा गया तो स्वर्ग जाएगा, जीता रहा तो पृथ्वी का भोग करेगा।
कार्यं वा साधयेयम् देहं व पातयेयम् = कार्य सिद्ध करूंगा या शरीर नष्ट कर लूंगा।
स्मारयन् = याद दिलाते हुए। उपाबध्नात् : बाँध दी।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में चीन के आक्रमण के समय अब्दुल हमीद के उच्च मनोबल का वर्ण किया गया है।

अनुवाद
भारत के सीमान्त प्रदेश में चीन देश के आक्रमण के समय श्री अब्दुल हमीद नेप क्षेत्र में नियुका थे। वहीं उसने युद्ध का पहली बार सामना किया। कर्तव्यनिष्ठा के कारण अद्विती अपने अनन्य असाधारण बल से उसने सैनिक अधिकारियों की दृष्टि आकृष्ट कर शीघ्र ही हृदयों पर १

स्थान बना लिया। “मातृभूमि के लिए प्राणों को भी त्यागते हुए मेरा चित्त तनिक भी दु:खी नहीं होगा, प्रत्युत् उस प्रकार के सुअवसर को प्राप्त करके ही अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त करेगा”, ऐसा वह अनेक . | बार अपने मित्रों को कहता था। मनचाहा वैसा अवसर भी शीघ्र ही आ गया। सन् 1965 ई० में दुर्भाग्य | से पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया। श्री अब्दुल हमीद लवपुर (लाहौर) के युद्ध-क्षेत्र में | ‘कसूर’ नाम के स्थान पर सैनिक के कर्तव्य का आदेश पाकर युद्ध करने लगे थे। पाकिस्तान के प्रति

हमेशा ही पक्षपात करने वाले अमेरिका देश ने पाकिस्तान को अत्यन्त शक्तिशाली, दूर तक मार करने | वाले, अभेद्य होने में प्रसिद्ध पैटन टैंक अधिक मात्रा में दे रखे थे। उनकी शक्ति से गर्वीले पाकिस्तान के

सैनिक उनको आगे करके भारत की सेना पर गोले बरसाते हुए ऐसे लग रहे थे जैसे स्वर्ग पर दुर्दान्त दानव अधिकार करना चाहते हों और वे उसकी सीमाओं में घुस गये। उनको (UPBoardSolutions.com) रोकने के लिए भारत के सैनिक भी गोले बरसा रहे थे, किन्तु उनके पुराने टैंक वैसे दुभेद्य, दूर तक मार करने वाले और शक्तिशाली नहीं थे, तो भी मातृभूमि की रक्षा करने के लिए उनका मनोबल आकाश को छू रहा था।

क्रिया की सिद्धि साध्य में होती है, साधन में नहीं” इसका अत्यधिक विश्वास करते हुए उनकी आत्मा | ने “कार्य को सिद्ध करू या शरीर को नष्ट कर दें इस प्रकार वीरों के द्वारा बार-बार अभ्यास किये गये। | समय में स्थित होते हुए “मारे जाकर स्वर्ग को प्राप्त करोगे अथवा जीतकर पृथ्वी को भोगोगे’-इस | प्रकार भगवान् के वाक्य का स्मरण करते हुए उनके मन में पैटन टैंक से भी बड़ी दृढ़ता बाँध दी।

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(4) तथाभूतेन दिव्योत्साहेन दीपितः श्रीहमीदस्तु नृत्यन्मृत्युना तद् भयावहं युद्धं कन्दुकक्रीडनमिव, युद्धक्षेत्रं क्रीडाक्षेत्रमिव, गोलकजातं च कुन्दुकमिव मन्यमानो जीपवाहनमारूढ़ः पैटनटैङ्कानां छायायामग्रेसरन् पाकिस्तानिसैन्यमुपरोद्धं तेषां टैङ्केषु गोलकानि प्रक्षिपन् अभिमुखमागतः। टैङ्करक्षितैर्रिपुसैनिकैर्हमीदस्य जीपयानै शतत्रयहस्तदूरं दृष्टं तदधिलक्ष्य च महाभीषणो गोलकक्षेपः कर्तुमारब्धः। तत्क्षणमेव हमीदेन विद्युद्गत्या हस्तगोलकं प्रक्षिप्य सः टैङ्को विनाशितः। तद् दृष्ट्वा अपरेण पाकिस्तानटैङ्केन हमीदस्योपरि आक्रमणं कृतम्, किन्तु (UPBoardSolutions.com) वीरोत्तमेनानेन सोऽपि हस्तगोलकेन तथैव ध्वंसं नीतः। अहो! वैचित्र्यम् , भारतवीरवरस्य तस्य शौर्यस्य येनोत्तमोपकरणा अपि शत्रवो निरुद्धाः। हस्तिशशकयोरिव झञ्झादीपयोरिव सङ्घर्षोऽसौ प्रतिभाति स्म। परन्तु हा! हन्त! हन्त! रणशिरसि वर्तमानस्यास्य भारतवीरधौरेयस्यानुपदमेव तृतीयस्मात् पाकिस्तानटैङ्कात् प्रक्षिप्तेनैकेन गोलकेन प्राणान्तो जातः। मृतस्याप्यस्य वदने | मातृभूमिरक्षार्थं प्राणोत्सर्गजनितः सन्तोषः सुतरामङ्कित आसीत्। क्षणभङ्गुरेऽस्मिन् संसारे

कलेवरं तु भङ्गुरम्। तस्य विनिमयेन विमलकीर्तेरर्जनं न खलु पुष्कलमूल्यम्। परमवीरेणानेन | निःसन्दिग्धं प्रमाणितं यत् स्वल्पोपकरणैरेव स्वौजसा महान्ति कार्याणि यैः सम्पाद्यन्ते त एव महान्तो न तु साधनसम्पन्नाः।।

शब्दार्थ
दिव्योत्साहेन = अलौकिक उत्साह से।
दीपितः = प्रकाशमान्।
नृत्यन्मृत्युना = मृत्यु |
का नृत्य। कन्दुकक्रीडनमिव = गेंद के खेल के समान।
छायायामग्रेसरन् = छाया में आगे बढ़ता हुआ।
उपरोदधुम् = रोकने के लिए।
प्रक्षिपन् = फेंकता हुआ।
शतत्रयहस्तदुरम् = तीन-सौ हाथ दूर।
तदभिलक्ष्य = उसे निशाना बनाकर।
विद्युद्गत्या = बिजली के समान तेज गति से।
हस्तगोलकं= हाथ का गोला (हैण्डग्रेनेड)।
ध्वंसं नीतः = नष्ट कर दिया।
निरुद्धाः = रोक दिये गये।
हस्तिशश- कयोरिव = हाथी और खरगोश के समान।
झञ्झादीपयोरिव = तूफान और दीपक के समान।
वीरधौरेयस्य= वीरों में अग्रणी।
अनुपदमेव = पीछे ही।
वदने= मुख पर।
भङ्गुरम्= नाशवान्।
कलेवरं = शरीर।
विनिमयेन = बदले से।
पुष्कृलमूल्यम् = अधिक मूल्य पर।
स्वौजसा = अपने बल से। |

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में पाकिस्तानी सेना के साथ जूझते हुए रणबाँकुरे अब्दुल हमीद के अप्रतिम शौर्य-प्रदर्शन एवं मृत्यु का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
उस प्रकार के अलौकिक उत्साह से प्रकाशमान् श्री हमीद मृत्यु से नाचते हुए, उस यावह युद्ध को गेंद के खेल के समान, युद्ध-क्षेत्र को खेल के मैदान के समान और गोलों के समूह को गेंद के समान मानते हुए जीप पर सवार होकर पैटन टैंकों की छाया में आगे चलते हुए, पाकिस्तान की सेना को रोकने के लिए उनके टैंकों पर गोले फेंकता हुआ सामने आ गया। टैंकों की रक्षा करने गले शत्रुओं के सैनिकों ने हमीद की जीप को तीन सौ हाथ दूर पर देखा और उसको निशाना बनाकर नत्यन्त भयानक गोले फेंकना आरम्भ कर दिया। उसी क्षण हमीद ने बिजली के समान तेजगति से थगोला फेंककर उस टैंक को ध्वस्त कर दिया। यह देखकर पाकिस्तान के दूसरे टैंक ने हमीद के

ऊपर आक्रमण कर दिया, किन्तु इस श्रेष्ठ वीर ने उसे भी हथगोले से उसी प्रकार नष्ट कर दिया। अहो! भारत के वीर और उसकी बहादुरी की विलक्षणता आश्चर्यकारी है, जिसने उत्तम उपकरणों वाले शत्रु को भी रोक दिया। वह संघर्ष हाथी और खरगोश के समान, तूफान और दीपक के समान प्रतीत हो रहा था, परन्तु बारम्बार खेद है! युद्ध-स्थल में स्थित भारत के वीरों में अग्रणी इस वीर का इसके पीछे ही पाकिस्तान के (UPBoardSolutions.com) तीसरे टैंक से फेंके गये एक गोले से प्राणान्त हो गया। मरे हुए भी इसके मुख पर मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राण-त्याग से उत्पन्न हुआ अत्यधिक सन्तोष अंकित था। इस नशवान् संसार में शरीर तो अधिक नाशवान है। उसके बदले में देने से (शरीर-त्याग से) पवित्र यश की प्राप्ति का अधिक मूल्य है। इस परमवीर ने नि:सन्देह प्रमाणित कर दिया कि थोड़े-से साधनों के द्वारा अपने बल से, जिनके द्वारा महान् कार्य पूर्ण किये जाते हैं, वे ही महान् हैं, साधनसम्पन्न लोग नहीं। |

(5) एवमसौ परश्शतैर्महारथैरभिमन्युरिव बलवद्भिर्युध्यन् सखायामिवालिङ्ग्य मृत्युमितिहासपुरुषो जातः। यस्य देशस्य रजसि क्रीडित्वा तेन बाल्यं नीतम् , यस्यान्नजलाभ्यां तस्य देहः पुष्टिमगात् , यस्य वायौ तेन सततं श्वसितम् , तं प्रति स्वकर्तव्यं परिपूर्य सः कृतार्थोऽभवत्। भारतशासनेनासौ शूरशिरोमणिर्मरणानन्तरं परमवीरचक्रेण सम्मानितः। उत्तप्रदेशशासनेन च तस्य कुटुम्बस्य भूयसी सहायता कृता तस्य स्मृतेश्च चिरस्थायितायै तस्य ग्रामस्य नामापि हमीदपुरमिति कृतम्।

रक्षणाय जनुभूमेः प्राणानपि त्यजन्ति ये।
यशोदेहेन जीवन्तो-मार्गमन्यान् दिशन्ति ते॥
मातृपादयोर्भक्त्या शिरः पुष्पसमर्पकाः।।
यशःकायाः स्वयंदेवा धन्या वीरवरा नराः॥

शब्दार्थ
परश्शतैः = सैकड़ों से अधिक।
बलवद्भिः = बलवानों से।
आलिङ्ग्य = आलिंगन करके।
रजसि = मिट्टी में।
नीतम् = बिताया।
श्वसितम् = साँस ली।
परिपूर्य = पूर्ण करके।
मरणोपरान्तम् = मरने के बाद।
भूयसी = बहुत।
चिरस्थायितायै = बहुत समय तक स्थायी रखने के लिए।
जनुभूमेः = जन्मभूमि की।
यशोदेहेन = यश रूपी शरीर से।
दिशन्ति = बतलाते हैं।
शिरःपुष्पसमर्पकाः = शीश रूपी पुष्प समर्पित करने वाले।
वीरवराः = वीरों में श्रेष्ठ।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में अब्दुल हमीद के वीरगति को प्राप्त करने पर उसके सम्मान का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
इस प्रकार वह सैकड़ों से अधिक बलवान् महारथियों से युद्ध करते हुए अभिमन्यु के समान मृत्यु का मित्र के समान आलिंगन करके इतिहास-पुरुष हो गया। जिस देश की धूल में खेलकर उसने बचपन बिताया, जिसके अन्न और जल से उसका शरीर पुष्ट हुआ, जिसकी वायु में उसने निरन्तर श्वास (UPBoardSolutions.com) लिया, उसके प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण करके वह धन्य हो गया। भारत सरकार ने इस शूर शिरोमणि को मरने के बाद परमवीर चक्र से सम्मानित किया। उत्तर प्रदेश सरकार ने उसके परिवार की बहुत सहायता की तथा उसकी स्मृति को लम्बे समय तक स्थायी रखने के लिए उसके गाँव का नाम भी ‘हमीदपुर’ कर दिया।

जो लोग जन्मभूमि की रक्षा के लिए प्राणों को भी त्याग देते हैं, वे यशः शरीर से जीवित रहते हुए दूसरों को मार्ग बताते हैं। मातृभूमि के चरणों में सिररूपी पुष्प को समर्पित करने वाले, यशः शरीर वाले, स्वयं देवतास्वरूप वे श्रेष्ठ वीर मनुष्य धन्य हैं।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
इस पाठ से आपको क्या शिक्षा मिलती है?

या

अब्दुल हमीद का बलिदान हमें क्या प्रेरणा देता है?
उत्तर
इस पाठ से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मनुष्य के गुण पूजनीय होते हैं। मनुष्य दृढ़, संकल्प और प्रयत्न से अपने मनोरथ को पूर्ण करने में समर्थ होता है। कार्य की सिद्धि साध्य में होती है, साधन में नहीं। पाकिस्तान के पास अभेद्य पैटन टैंक थे और भारत के पास पुराने टैंक, लेकिन भारत के सैनिकों का मनोबल ऊँचा था; अतः वे युद्ध में विजयी हुए। मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की चिन्ता भी नहीं करनी चाहिए।

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प्ररन 2
परमवीर अब्दुल हमीद की जीवनी अंश के आधार पर अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक की सामग्री को अपने शब्दों में लिखिए। .

प्ररन 3
युद्ध में अब्दुल हमीद ने जो वीरता दिखाई उसका वर्णन कीजिए।
उत्तर
[संकेत—‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत आये शीर्षकों-‘युद्ध में सैनिक रूप । में नियुक्ति’ और ‘अप्रतिम शौर्य-प्रदर्शन की सामग्री को संक्षेप में लिखें।]

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Class 9 Sanskrit Chapter 10 UP Board Solutions भारतवर्षम् Question Answer

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 10
Chapter Name भारतवर्षम् (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 5
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 10 Bharatvarsham Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 10 हिंदी अनुवाद भारतवर्षम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांश

नामकरण-हमारे देश का नाम भारत है। ‘भरत’ शब्द से ‘भारत’ नाम पड़ा। हमारे देश में ‘भरत’ नाम से चार महापुरुष हुए—
(1) दशरथ के पुत्र राम के छोटे भाई भरत,
(2) हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त और शकुन्तला से उत्पन्न भरत,
(3) नाट्शास्त्र के प्रणेता ‘भरत’ मुनि,
(4) भागवत् पुराण में वर्णित जड़ भरत’। भागवत् के अनुसार जड़ भरत’ के नाम से ही हमारे देश का नाम ‘भारत’ पड़ा। भायाम् (तेजसि) रतत्वादेव भारतम्-इस विग्रह से भी ‘भारत’ नाम सार्थक होता है। मुसलमान शासकों ने ‘सिन्धु नदी के नाम से यहाँ के निवासियों को ‘हिन्दू’ और देश को हिन्दुस्थान’ कहा। यूरोपीय लोग हमारे देश को ‘इण्डिया’ कहते हैं। ।

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प्रहरी हिमालय-भारत के उत्तर में पर्वतराज हिमालय स्थित है। संसार के सबसे ऊँचे पर्वत हिमालय की चोटियाँ सदैव बर्फ से ढकी रहती हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इसके प्रदेशों में ‘येति’ नाम के हिम मानवे रहते हैं। इसकी उपत्यकाओं में घने वन, असीम ओषधियाँ, फल और फूल तथा अनेक प्रकार के पशु-पक्षी रहते हैं। यह चिरकाल से प्रहरी के समान भारत की रक्षा करता चला आ रही है। चीन के द्वारा हमारे भू-भाग पर कब्जा कर लेने के बाद, हमारे सैनिक रात-दिन इसके हिमाच्छादित शिखरों पर रहकर देश की रक्षा (UPBoardSolutions.com) करते हैं। इसकी गोद में जम्मू-कश्मीर, हिमाचले, सिक्किम, अरुणाचल आदि प्रदेश स्थित हैं। भूटान और नेपाल स्वतन्त्र राज्य भी इसी पर्वत पर स्थित हैं। इसके प्रदेशों पर स्थित अमरनाथ, बदरीनाथ, केदारनाथ, वैष्णव देवी आदि तीर्थों पर प्रतिवर्ष हजारों यात्री जाते हैं। श्रीनगर, पहलगाँव, शिमला, नैनीताल, मसूरी दार्जिलिंग आदि इसी पर्वत पर बसे नगर हैं, जहाँ गर्मियों में लोग पर्यटन के लिए जाते हैं।

तीन दिशाओं में समुद्र-
भारत के दक्षिण में हिन्द महासागर, पूर्व में बंगाल की खाड़ी और पश्चिम में अरब महासागर है। इसके पश्चिमोत्तर भाग में पाकिस्तान और पूर्वोत्तर भाग में ‘बाँग्लादेश है।पहले ये दोनों देश भारत के ही प्रदेश थे। दक्षिण में कन्याकुमारी है, जहाँ तीन समुद्रों का संगम होता है।

तटीय-प्रदेश-कन्याकुमारी के दक्षिण भाग में समुद्र पार हमारी पड़ोसी देश श्रीलंका है। हिन्द महासागर में लक्षद्वीप’ और बंगाल की खाड़ी में ‘अण्डमान भारत के अभिन्न प्रदेश हैं। समुद्र-तट पर गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आन्ध्र, उड़ीसा, बंगाल आदि भारत के ही प्रदेश हैं। इन नगरों में बड़े बन्दरगाह हैं, जहाँ से असंख्य जलपोतों द्वारा व्यापारिक माल का आयात-निर्यात होता है। सागर के तटों पर मत्स्य-ग्रहण के भी अनेक केन्द्र स्थित हैं।

प्राकृतिक सुषमा–भारत पर प्रकृति देवी की विशेष कृपा है। यहाँ छह ऋतुएँ होती हैं। सूर्य और चन्द्रमा का सर्वाधिक प्रकाश इसी देश में फैलता है। सूर्यास्त और चन्द्रास्त के मनोरम दृश्य भारत में ही देखे जा सकते हैं। इसके उत्तरी भाग में सिन्धु, बेतवा, सतलज, सरस्वती, गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र आदि; इसके मध्य में नर्मदा और चम्बल तथा इसके दक्षिण भाग में गोदावरी, कावेरी, कृष्णा, पेरिषार, महानदी आदि नदियाँ भारतभूमि की उपज बढ़ाती हैं। इन नदियों के तटों पर हरिद्वार, प्रयाग, काशी,गया आदि तीर्थस्थान हैं, जहाँ हजारों यात्री स्नान (UPBoardSolutions.com) करके धर्म-लाभ करते हैं। विशेष अवसरों पर कुम्भ । जैसे महामेले लगते हैं। भारत के वन परम मनोहारी हैं, हिमालय पर देवदार के तथा सागर के तटीय : प्रदेशों में नारियल और सुपारी के सुन्दर वन हैं। प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण ही कश्मीर को ‘पृथ्वी का स्वर्ग’ कहा जाता है। हमारे राष्ट्रगीत में भी भारत के प्रमुख प्रदेशों, पर्वतों और नदियों का उल्लेख है।

संसार का गुरु-भारत को संसार का गुरु कहा जाता है। यहाँ केवल उपनिषदों और उत्तरवेदान्त की आध्यात्मिकता ही नहीं है, वरन् वेद और स्मृतियों में प्रतिपादित नैतिक आचार तथा योगाभ्यास विदेशियों के आकर्षण के केन्द्र बने हुए हैं। वे भारत के आश्रमों में रहकर शान्ति प्राप्त करते हैं। अपने देशों में भी उन्होंने भारत जैसे आश्रम स्थापित किये हैं। वे काम और अर्थ पुरुषार्थों को भारत की प्राचीन उपलब्धि मानते हैं। वात्स्यायन के यौन-विज्ञान तथा चाणक्य के राजनीति-विज्ञान का उल्लेख किये बिना इतिहास प्रारम्भ नहीं करते। (UPBoardSolutions.com) शल्यविज्ञान का आविर्भाव सुश्रुत से ही माना जाता है। गणित के अंकों का लेखन सर्वप्रथम भारत में ही हुआ। बाद में अरब और यूरोपीय देशों ने इसे जाना। आज भी अंकों को ‘हिन्दसा’ (हिन्द से आया हुआ) कहते हैं। ब्रिटेन आदि देशों में आज भी माध्यमिक स्कूलों में योगासनों की शिक्षा दी जाती है। गाँधी जी द्वारा उद्घोषित ‘अहिंसा परमो धर्मः’ व ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना विश्व भर में विश्वशान्ति के अद्वितीय उपाय माने जाते हैं।

कला की प्रगति-भारत की वास्तुकला और शिल्पकला को देखकर विदेशी चकित रह जाते हैं। खजुराहो और कोणार्क के मन्दिरों की शिल्पकला को देखने के लिए सम्पूर्ण विश्व से लाखों पर्यटक यहाँ आते हैं। ताजमहल और कुतुबमीनार आज भी भारत का गौरव बढ़ा रहे हैं। ‘ताजमहल’ को संसार के आश्चर्यों में गिना जाता है। भारतीय मूर्तिकला पर विदेशी इतने मुग्ध हैं कि लाखों रुपये खर्च करके भी वैध-अवैध उपायों से इसे प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहते हैं।

महापुरुषों की पवित्र भूमि-इस गरिमाशाली देश भारत में नचिकेता के समान ज्ञानपिपासु, सत्यकाम के समान सत्यवादी, बालक ध्रुव के समान तपस्वी, अभिमन्यु के समान वीर किशोर, एकलव्य-उद्दालक-कौत्स सरीखे गुरुभक्त-शिष्य, शिवि-मयूरध्वज-कर्ण के सदृश परमदानी, हरिश्चन्द्र-युधिष्ठिर के समान सत्यपालक, भरत-लक्ष्मण के समान आदर्श भाई, दशरथ जैसे पिता, मैत्रेयी-गार्गी-भारती के समान विदुषी महिलाएँ, (UPBoardSolutions.com) रजिया-दुर्गाबाई-लक्ष्मीबाई के समान वीरांगनाएँ, सीता-सवित्री-गान्धारी के समान सती-स्त्रियाँ, भगत सिंह, चन्द्रशेखर और सुखदेव जैसे देशभक्त, महावीर, बुद्ध और गाँधी जैसे सन्त-महात्मा इस पावनभूमि पर उत्पन्न हुए हैं। दूसरे देशों में तो ईश्वर ने कहीं अपना दूत भेजा तो कहीं पुत्र, परन्तु भारत में तो वे मानव रूप धारण करके स्वयम् अवतीर्ण होते रहे हैं।

राजनीतिक और आर्थिक प्रगति-आज समस्त संसार में भारत का अपना विशिष्ट स्थान है। भारत ने अपनी स्वतन्त्रता प्राप्त करके पराधीन देशों की सहायता करने की घोषणा की। सभी देशों की प्रभुसत्ता का भारत ने सदा समादर किया है। साम्यवादी और पूँजीवादी देशों से अपने को अलग रखकर निर्गुट स्वतन्त्र राष्ट्रों का संगठन किया और गौरांगों की रंगभेद-नीति के विरुद्ध दृढ़ जनमत तैयार किया। आधुनिक विज्ञान, उद्योग और यान्त्रिकी के क्षेत्र में विकास करते हुए इसने अनेक नये आविष्कार किये और कृषि का पर्याप्त उत्पादन बढ़ाया। जिस देश में पहले सूई भी नहीं बनती थी, वहाँ अब आधुनिक यन्त्रों के निर्माण हो रहे हैं। इंग्लैण्ड-अमेरिका जैसे विकसित राष्ट्रों को भी हस्तशिल्प की वस्तुएँ एवं अभियान्त्रिकीय सूक्ष्म यन्त्र प्रदान किये जा रहे हैं। वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की जितनी अधिकता भारत में है, उतनी अन्य देशों में नहीं। भारत की परिश्रमशीलता से अन्य देश भी भली-भाँति परिचित

समस्याएँ—यद्यपि भारत का अतीत एवं गौरव सम्मान के उच्च आसन पर प्रतिष्ठित है, किन्तु इससे भारत के भविष्य का निर्माण नहीं हो सकता। वर्तमान में उपलब्ध सुविधाओं और सम्पत्ति का सदुपयोग परमावश्यक है। भारत में कुछ समस्याएँ मुँह फैलाये खड़ी हैं। विदेशी नहीं चाहते कि भारत राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में प्रगति करे; अतः वे आपस में फूट डालकर झगड़े कराते रहते हैं। विदेशियों द्वारा भड़काने (UPBoardSolutions.com) पर कुछ धर्मान्ध पंजाब में आतंकवाद फैला रहे हैं। प्रतिवर्ष अनेक साम्प्रदायिक झगड़े होते हैं, जिनमें निर्दोष व्यक्ति मारे जाते हैं और जन-धन की भारी क्षति और देश की शक्ति का ह्रास होता है। हमको आपस में मित्रतापूर्वक रहना चाहिए, क्योंकि देश की मुख्यधारा से मिलने में ही देश का कल्याण है। राजनीति द्वारा धर्म का संकट उपस्थित करना देश के लिए अहितकर

हमारे देश में दूसरी बड़ी समस्या जनसंख्या की वृद्धि की है। जनसंख्या की वृद्धि से देश के . विकास की गति रुक जाती है और विकास के अवसर, नष्ट हो जाते हैं; अतः हमें परिवार कल्याण की योजनाओं पर अमल करना चाहिए। हमारे सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को बोलबाला है। अनुचित लाभ के लिए किसी को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए।

यह हमारी जन्मभूमि है, जिस पर हमने जन्म लिया है। किसी का शव जलाया जाये या दफनाया जाये—दोनों में क्या अन्तर है? सबको भारतमाता की मिट्टी में विलीन होना है। आपस में झगड़ने और जन्मभूमि के प्रति विद्रोह से क्या लाभ? उसका हमें हमेशा सम्मान करना चाहिए। कहा भी गया है-”जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।”

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गद्यांशों का सस अनुवाद

(1) भारतं नामास्माकं जन्मभूमिः। भरतनामानश्चत्वारो महापुरुषा अस्मिन् देशे अति प्राचीनकाले.बभूवुः। एको मर्यादापुरुषोत्तमरामचन्द्रस्यानुजो दाशरथिर्भरतः, हस्तिनापुराधीशस्य पुरुवंशीयस्य दुष्यन्तस्य सुतश्शाकुन्तलेयः द्वितीयः, अभिनयकुशलो नाट्यशास्त्रप्रणेता भरतमुनिश्च तृतीयः, श्रीमद्भागवते वर्णितो ब्रह्मस्वरूपो जडभरतश्चतुर्थः। भागवते तत्रैव प्रतिपादितमस्ति ”अजनाभं नामैतद्वर्ष भारतमिति यत् (UPBoardSolutions.com) आरभ्य व्यपदिशन्ति” तेनेदं प्रतीयते यद जडभरतस्य नामैव अस्माकं देशस्य संज्ञा अनुसरतीति। वयं तु एवं मन्यामहे यत् सर्वदा सर्वथा च “भायाम् तेजसि रतत्वादेव भारतमिति” अस्माकं प्राणप्रियस्य देशस्य प्राचीनं नाम। कालान्तरे सिन्धुनदीसंज्ञामनुसृत्य मुहम्मदीयैरत्रत्यवासिनो हिन्दुनाम्ना कथिता, देशश्च हिन्दुस्थानमिति। तथैव यूरोपीयैरितरैश्च‘‘इण्डिया” इति नाम कृतम्।

शब्दार्थ-
बभूवुः = हुए।
अनुजः = छोटा भाई।
दाशरथिः भरतः = दशरथ के पुत्र भरत।
सुतश्शाकुन्तलेयः = शकुन्तला का पुत्र।
प्रणेता = रचना करने वाले
प्रतिपादितमस्ति = सिद्ध किया है।
व्यपदिशन्ति = कहते हैं।
प्रतीयते = प्रतीत होता है।
अनुसरति = अनुसरण करता है।
मन्यामहे = मानते हैं।
अनुसृत्य = अनुसरण करके।
यूरोपीयैरितैश्च (यूरोपीयैः + इतरैः + च) = यूरोप के निवासियों ने तथा अन्यों ने। |

सन्दर्थ
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘भारतवर्षम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत-इस पाठ के शेष गद्यांशों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।] प्रसंग-इस गद्यांश में भारत के ‘भारत’ नामकरण होने का कारण बताया गया है।

अनुवाद
भारत हमारी जन्मभूमि है। अति प्राचीन समय में हमारे देश में ‘भरत’ नाम के चार महापुरुष हुए। एक तो मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र के छोटे भाई, दशरथ के पुत्र भरत; दूसरे हस्तिनापुर के राजा, पुरुवंशीय दुष्यन्त के शकुन्तला से उत्पन्न पुत्रं भरते; तीसरे अभिनयकला में कुशल, नाट्यशास्त्र के रचयिता भरतमुनि और चौथे श्रीमद्भागवत् में वर्णित ब्रह्मस्वरूप जड़भरत। भागवत् में वहीं पर बताया गया है-“अज की नाभि से उत्पन्न यह वर्ष भारत, जिसके आरम्भ करके कहते हैं। उससे यह प्रतीत होता है कि जड़भरत के नाम का ही अनुसरण हमारे (UPBoardSolutions.com) देश का नाम कर रहा है (अर्थात् हमारे देश का नाम ‘भारत’ जड़भरत के नाम का अनुसरण कर रहा है)। हम तो ऐसा मानते हैं कि सदा और सब प्रकार से तेज (भा) में संलग्न (रत) रहने के कारण ही भारत है, ऐसा प्राणों से प्यारे हमारे देश का प्राचीन नाम है। बाद में सिन्धु नदी के नाम का अनुसरण करके मुसलमानों ने यहाँ के निवासियों को ‘हिन्दू’ नाम से और देश को ‘हिन्दुस्थान’ कहा है। उसी प्रकार यूरोप के निवासियों ने और अन्यों ने ‘इण्डिया’ नाम,रख दिया।

(2) अस्योत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजो विराजते। संसारस्य पर्वतेषु उत्तुङ्गतमस्यास्य गिरेरुच्छ्रिताः शिखरमालाः सर्वदैव हिमाच्छादितास्तिष्ठन्ति तस्मादेवायं हिमालयः कथ्यते। एतानि शिखराणि देशीयानां विदेशीयानां च पर्वतारोहिणामाकर्षणकेन्द्राण्यपि वर्तन्ते। एवं विश्वस्यते (UPBoardSolutions.com) यत् तुषाराच्छादितेष्वस्य प्रदेशेषु ‘येति’ इति जातीयाः केचन हिममानवा अपि प्राप्यन्ते। हिमावेष्टितोऽयमद्रिर्भारतस्य मूनि विधिना स्थापितं सितं किरीटमिव विभाति यस्योपत्यकासु प्रसृतानि गहनानि वनानि मरकतमणिपङ्क्तीनां शोभामनुहरन्ति। एषु वनेषु निः सीमा ओषधिसम्पत् पुष्पद्धिश्च भवतः। बहुप्रकाराणि फलानि उत्पद्यन्ते, नानाविधाः।

खगमृगाश्च वसन्ति। एवमनुश्रूयते यदन्तकाले सद्रौपदीकाः पाण्डवी हिमालयमारोहन्त एव स्वर्गमाप्ताः। दीर्घकालं यावदसौ पर्वतः प्रहरीव स्थितो भारतस्य रक्षामकरोत् अद्यत्वे तु अस्य रक्षा भारतेन करणीया आपतिता, यतो हि अस्माकं प्रतिवेशी चीनदेशः कञ्चिद् भूभागं स्वकीयं कृत्वा यदा कदा भारतीयसीम्न उल्लङ्घनं हिमालयस्य पारात् करोति। तदनेकत्रास्माकं शूराः सैन्ययुवानोऽत्युच्छितेषु हिमाच्छादितेषु स्थानेषु दिवानिशं दृढ़ तिष्ठन्तो रक्षन्ति। हिमालयस्यै वोत्सेऽस्माकं गणराज्यस्य जम्मूकश्मीर-हिमालचल-अरुणाचलप्रदेशाः सन्ति। भूताननामकं भारतरक्षितं स्वतन्त्रं राज्यं भारतमित्रं संसारस्यैकमात्रं हिन्दुराष्ट्रं नैपालराज्यं च वर्तते। (UPBoardSolutions.com) अमरनाथवैष्णवदेवी-गङ्गोत्री-यमुनोत्री-केदारनाथ-बद्रीनाथादीनि नैकानि सुप्रसिद्धानि तीर्थान्यपि हिमालयस्य क्रोडे विराजन्ते। यत्र देशस्य प्रत्येकं भूभागात् प्रतिवर्षं सहस्रशस्तीर्थयात्रिण आगच्छन्ति। श्रीनगर-पहलगाँव- शिमला-नैनीताल-मसूरी-दार्जिलिङ्गादीनि मनोरमनगराण्यपि अत्रैव वर्तन्ते यत्र बहवो जनाः ग्रीष्मर्तुतापात् अत्रागत्य त्राणं लभन्ते।।

शब्दार्थ-
अस्योत्तरस्यां (अस्य + उत्तरस्याम्) = इसकी उत्तर दिशा में।
नगाधिराजः = पर्वतों का राजा।
उत्तुंगतमस्यास्य = सबसे ऊँची इसकी।
उच्छूिताः = ऊँची।
हिमाच्छादितास्तिष्ठन्ति = बर्फ से ढंकी रहती हैं।
विश्वस्यते = विश्वास किया जाता है।
केचन = कोई।
प्राप्यन्ते = पाये जाते हैं।
अद्रिः = पर्वत।
मूनि = माथे पर।
विधिना = विधाता के द्वारा।
सितम् = श्वेत।
किरीटम् इव = मुकुट के समान।
उपत्यकासु = निचली घाटियों (तलहटियों) में।
प्रसृतानि = फैले हुए।
गहनानि = घने।
मरकतमणिपङ्क्तीनां = मरकत-मणियों की पंक्तियों की।
शोभामनुहरन्ति = शोभा धारण करते हैं।
एवमनुश्रूयते = ऐसा सुना जाता है।
सद्रौपदीकाः = द्रौपदीसहित।
प्रहरीव = पहरेदार के समान।
अद्यत्वे = आजकल।
आपतिता = आ पड़ी है।
प्रतिवेशी = पड़ोसी।
सीम्नः = सीमा का पारात् = पार से।
दिवानिशम् = रात-दिन।
उत्से = गोद में।
क्रोडे = गोद में।
सहस्रशः = हजारों।
ग्रीष्मर्तुतापात् (ग्रीष्मऋतु: + तापात्) = ग्रीष्म ऋतु के ताप से।
त्राणं लभन्ते = रक्षा पाते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में भारत की उत्तर दिशा में स्थित हिमालय पर्वत की महिमा और भारत के लिए उसके महत्त्व का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
इसकी उत्तर दिशा में देवताओं की आत्मास्वरूप हिमालय नाम का पर्वतों का राजा सुशोभित है। संसार के पर्वतों में सबसे ऊँची इस पर्वत की ऊँची शिखरमालाएँ सदा ही बर्फ से ढकी रहती हैं, इसी कारण से यह ‘हिमालय’ कहा जाता है। ये चोटियाँ देश-विदेश के पर्वतारोहियों के आकर्षण का केन्द्र भी हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि बर्फ से ढके हुए इसके प्रदेशों में ‘येति जाति के कुछ हिम-मानव भी पाये जाते हैं। बर्फ से ढका हुआ यह पर्वत भारत के मस्तक पर ब्रह्मा के द्वारा रखे गये श्वेत मुकुट के समान सुशोभित हो रहा है, जिसकी तलहटियों में फैले हुए घने वन मरकत मणि की पंक्तियों की शोभा को हरते हैं; अर्थात् वे मरकत मणियों से भी अधिक सुन्दर हैं। इन वनों में सीमारहित औषध-सम्पत्ति और पुष्प-समृद्धि होती है। बहुत प्रकार के फल उत्पन्न होते हैं और (UPBoardSolutions.com) अनेक प्रकार के पशु-पक्षी रहते हैं। ऐसा सुना जाता है कि अन्तिम समय में द्रौपदीसहित पाण्डव हिमालय पर चढ़ते हुए स्वर्ग पहुँच गये। लम्बे समय तक इस पर्वत ने पहरेदार के समान खड़े रहकर भारत की रक्षा की, किन्तु आज इसकी रक्षा भारत को करनी पड़ रही है; क्योंकि हमारा पड़ोसी चीन देश कुछ भू-भाग को दबाकर हिमालय के पार से कभी-कभी भारत की सीमा का उल्लंघन करता है। अनेक जगहों पर हमारे बहादुर सेना के जवान बुहत ऊँचे बर्फ से ढके स्थानों पर रात-दिन मजबूती से खड़े रहकर उसकी रक्षा करते हैं। हिमालय की ही गोद में हमारे गणराज्य के जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश हैं। भूटान नाम का भारतरक्षित स्वतन्त्र राज्य और भारत का मित्र, संसार का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र नेपाल राज्य है। अमरनाथ, वैष्णव देवी, गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बदरीनाथ आदि अनेक प्रसिद्ध तीर्थस्थान भी हिमालय की गोद में सुशोभित हैं, जहाँ देश के प्रत्येक भूभाग से प्रतिवर्ष हजारों तीर्थयात्री आते हैं। श्रीनगर, पहलगाँव, शिमला, नैनीताल, मसूरी, दार्जिलिंग आदि सुन्दर नगर भी यहीं हैं, जहाँ बहुत-से लोग भयंकर गर्मी से यहाँ आकर छुटकारा पाते हैं।

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(3) भारतस्य दक्षिणस्यां दिशि हिन्दमहासागरः, प्राच्यां बङ्गसमुद्रः, प्रतीच्यामरब- सागरश्च वर्तन्ते। पश्चिमोत्तरदिग्भागे सम्प्रति ‘पाकिस्तानः पूर्वोत्तरस्मिश्च ‘बाङ्लादेशः’ तिष्ठति। पूर्वमिमावण्यस्माकं भारतस्यैव भागावस्तां राजनीतिकारणाद् वैदेशिकानां षड्यन्त्राणामस्माकमेव एकस्य (UPBoardSolutions.com) वर्गस्य कतिपयनेतृणां हठधर्मितायाश्च कारणात् पार्थक्यं संञ्जातम्। दक्षिणस्यां दिशि भारतस्य दूरतमो भूभागः ‘कन्याकुमारी’ नाम्ना प्रसिद्धो यत्र त्रयाणां सागराणा सङ्गमो भारतस्य चरणप्रक्षालनं कुर्वन्नतिशयपावनतां भजते।।

शब्दार्थ
प्राच्याम् = पूर्व दिशा में।
प्रतीच्याम् = पश्चिम दिशा में।
सम्प्रति = इस समय।
भागावस्ताम् (भागौ + आस्ताम्) = दोनों भाग थे।
पार्थक्यम् = अलगाव।
सञ्जातम् = हो गयी।
सङ्गमः = मिलना।
पावनतां भजते = पवित्रता को प्राप्त करता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में भारत के पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में स्थित समुद्रों, स्थानों और देशों का वर्णन है।।

अनुवाद-
भारत की दक्षिण दिशा में हिन्द महासागर, पूर्व दिशा में बङ्ग-समुद्र (बंगाल की खाड़ी) और पश्चिम दिशा में अरब महासागर है। इसकी पश्चिमोत्तर दिशा में अब पाकिस्तान और पूर्वोत्तर दिशा में बांग्लादेश स्थित हैं। पहले ये दोनों (पाकिस्तान और बांग्लादेश) भी हमारे भारत के ही भाग थे, किन्तु राजनीतिक कारणों से, विदेशियों के षड्यन्त्रों से, हमारे ही एक वर्ग के कुछ नेताओं की हठधर्मिता के कारण अलगाव (विभाजन) हो गया। दक्षिण दिशा में भारत का सुन्दर प्रदेश ‘कन्याकुमारी’ नाम से प्रसिद्ध है, जहाँ तीन सागरों का संगम भारत के पद प्रक्षालन करता (पैरों को धोता) हुआ अत्यन्त पवित्र हो जाता है।

(4) पारेसागरं चतुर्योजनमात्रे श्रीलङ्का नामाऽस्माकं प्रतिवेशी देशो विद्यते। एतदपि न जातु विस्मरणीयं यद् हिन्दमहासागरे ‘लक्षद्वीप’ नामा बङ्गसमुद्रे ‘अण्डमान’ नामा द्वीपसमूहश्चापि अस्माकं भारतस्यैव अविच्छिन्नौ प्रदेशौ स्तः। गुर्जर-महाराष्ट्र-कर्णाटक-केरल-तमिल-आन्ध्रउत्कल-बङ्गाज्यानां भूमि सागरः स्पृशति तस्मादेते तटीयप्रदेशाः कथ्यन्ते। यत्र अनेकानि महान्ति पत्तनानि विद्यन्ते येषु असङ्ख्यजलपोतानां (UPBoardSolutions.com) साहाय्येन वैदेशिकैर्विनिमेयानां पण्यानां निर्यातमायातं च क्रियेते। प्राचीनकालेऽपि भारतवर्षस्य नौपरिवहनव्यवस्था अतीव समृद्धा आसीत्। अनेकैद्वीपैर्देशान्तरैश्च साकं सागरमार्गेण वाणिज्यं प्रचलति स्म। एवमेव सागरतटीयजलेषु मत्स्यग्रहणव्यापारोऽधुनातनो महानुद्योगः परिणतः।।

शब्दार्थ
पारेसागरम् = सागर के पार। चतुर्योजनमाने = मात्र चार योजन पर। न जातु = कभी नहीं। अविच्छिन्नौ = अभिन्न। कर्णाट = कर्नाटक। उत्कल = उड़ीसा। पत्तनानि = बन्दरगाह (वह स्थान जहाँ जलयान आकर रुकते हैं और विविध सामग्री लेकर विदेशों को जाते हैं)। पण्यानाम् = विक्रेय वस्तुओं का। क्रियेते = किये जाते हैं। अतीव = बहुत अधिक। साकं = साथ। अधुनातनः = आधुनिक। परिणतः = हो गया है। प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में भारत के समुद्रतटीय प्रदेशों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
समुद्र के पार केवल चार योजन पर श्रीलंका नाम का हमारा पड़ोसी देश है। यह भी कभी नहीं भूलना चाहिए कि हिन्द महासागर में लक्षद्वीप नाम का और बंगाल की खाड़ी में अण्डमान नाम का द्वीपसमूह भी हमारे भारत के ही अभिन्न प्रदेश हैं। गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिल, आन्ध्र, उड़ीसा और बंगाल राज्यों की भूमि को सागर स्पर्श करता है, इसलिए ये तटीय प्रदेश कहे जाते हैं। यहाँ अनेक बड़े बन्दरगाह हैं, जिनमें असंख्य जलयानों की सहायता से विदेशियों द्वारा विनिमय के योग्य व व्यापारिक वस्तुओं का निर्यात और (UPBoardSolutions.com) आयात किया जाता है। प्राचीनकाल में भी भारत की नौका-परिवहन की व्यवस्था अत्यन्त समृद्ध थी। अनेक द्वीपों और दूसरे देशों के साथ सागर के मार्ग से व्यापार चलता था। इसी प्रकार समुद्र के तट के जल में मछली पकड़ने का धन्धा आजकले का महान् उद्योग बन गया है।

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(5) प्रकृतिदेव्याः भारते महती कृपा वर्तते। षभिः ऋतुभिर्विरोज़मानम् ऋतुचक्रमत्रैव परिवर्तते। सूर्याचन्द्रमसोः प्रकाशो यथाऽत्र प्रसरति तथा संसारस्यात्यल्पेषु एव देशेषु स्यात्? सूर्यास्तस्य चन्द्रास्तस्य च सूर्यचन्द्रयोः अस्तमनवेलायाः मनोरमाणि दृश्यानि यथा अत्रं भवन्ति तथा नान्यत्र। सकलेऽपि भारते देशे नदीनां प्राकृतिकं जलं प्रसृतं येनात्रत्या भूमिरत्युर्वरा सञ्जाता। सिन्धु-वितस्ता-शतद्-सरस्वती-गङ्गा-यमुना-ब्रह्मपुत्रादयः सरित उत्तरभागे, चर्मण्वती नर्मदादयो मध्यभागे, गोदावरी-कावेरी-कृष्णा-पेरिषार-महा- नद्यादयश्च दक्षिणभागे प्रवहन्ति। एतासां तटेषु हरिद्वार-प्रयाग-काशी-गयादीनि बहूनि तीर्थस्थानानि विद्यन्ते। यत्र प्रतिदिनं सहस्रशो (UPBoardSolutions.com) यात्रिणः स्नानं कृत्वा धर्मं चिन्वन्ति। विशेषेष्वसरेषु, तु कुम्भसदृशानि मेलकानि भवन्ति। यत्र देशस्य प्रतिकोणतः सहस्त्रशो लक्षशो जना आगत्य सम्मिलन्ति। देशस्य वास्तविकीमेकतां च वाचं विनैव सुतरां मुखरयन्ति। भारतस्य वनानां शोभापि परमहृद्या। हिमालयेषु देवदारुवृक्षाणामुच्छायो गगनं चुम्बति तर्हि सागरतटीयप्रदेशेषु नारिकेलपूगादिवृक्षाणां घना वनराजयः समुद्रजलमात्मनो दर्पणमिवाकलयन्ति। प्राकृतिकसुषमा

कारणादेव कश्मीरस्तु पृथ्वीस्थः स्वर्ग एवं मन्यते। अस्माकं राष्ट्रगाने भारतस्य प्रमुखानां प्रदेशानां पर्वतानां नीदनाञ्च कीर्तनं वर्तते। अपरस्मिन् च वन्दे मातरमित्याख्ये गते च अस्याः भुवः सुजलत्वं सुफलत्वं शस्यश्यामलत्वञ्च वण्र्यन्ते। |

शब्दार्थ
प्रकृतिदेव्याः = प्रकृति रूपी देवी की।
परिवर्तते = बदलता है।
प्रसरति = फैलता है।
स्यात् = हो सकता है।
नान्यत्र = दूसरी जगह नहीं।
प्रसृतं = बहता है।
अत्युर्वरा = अधिक उपजाऊ।
सञ्जाताः = हो गयी हैं।
वितस्ता = व्यास।
शतद् = सतलज।
चर्मण्वती = चम्बल।
चिन्वन्ति = चुनते हैं, संचय करते हैं।
मेलकानि = मेले।
प्रतिकोणतः = प्रत्येक कोने से।
लक्षशः = लाखों
वाचं विनैव = बिना कहे ही।
सुतरां = भली प्रकार।
मुखरयन्ति = मुखर होते हैं, बोलते हैं।
हृद्या = सुन्दर।
चुम्बति = चूमती है।
पुगादि = सुपाड़ी आदि।
दर्पणामिवाकलयन्ति = दर्पण-सा प्रकट करते हैं।
पृथ्वीस्थः = पृथ्वी पर स्थित।
अपरस्मिन् = दूसरे में।
शस्य = फसल।
वण्र्यन्ते = वर्णित किये जाते

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में भारत के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
भारत पर प्रकृति देवी की महान् कृपा है। छह ऋतुओं से सुशोभित ऋतु-चक्र यहीं  पर बदलता है। सूर्य और चन्द्रमा का प्रकाश जैसा यहाँ फैलता है, वैसा संसार के बहुत थोड़े ही देशों में होता है। सूर्यास्त, चन्द्रास्त और सूर्य-चन्द्र के डूबने के समय के जैसे सुन्दर दृश्य यहाँ होते हैं, वैसे अन्यत्र नहीं। सारे ही भारत देश में नदियों का प्राकृतिक जाल फैला हुआ है, जिससे यहाँ की भूमि अत्यधिक उपजाऊ हो गयी है। उत्तर भाग में सिन्धु, बेतवा, सतलज, सरस्वती, गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र आदि नदियाँ; मध्य भाग में चम्बल, नर्मदा आदि और दक्षिण भाग में गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, पेरिषार आदि महानदियाँ बहती हैं। इनके तटों पर हरिद्वार, प्रयाग, काशी, गया आदि बहुत-से तीर्थस्थान विद्यमान हैं, जहाँ प्रतिदिन हजारों यात्री स्नान करके धार्मिक कार्यक्रमों में लगते हैं (धर्मार्जन करते हैं)। (UPBoardSolutions.com) विशेष अवसरों पर तो कुम्भ जैसे (विशाल) मेले होते हैं, जहाँ देश के प्रत्येक कोने से हजारों, लाखों लोग आकर सम्मिलित होते हैं और देश की सच्ची एकता को बिना कहे ही अच्छी तरह प्रकट करते हैं। भारत के वनों की शोभा भी परम रमणीय है। हिमालय पर देवदारु के वृक्षों की ऊँचाई आकाश को चूमती है तो संसार के तटीय प्रदेशों में नारियल, सुपारी आदि वृक्षों की घनी वन पंक्तियाँ समुद्र के जल , को अपने दर्पण के समान समझती हैं। प्राकृतिक शोभा के कारणों से ही कश्मीर पृथ्वी का स्वर्ग ही माना जाता है। हमारे राष्ट्रगान में भारत के प्रमुख प्रदेशों, पर्वतों और नदियों की कीर्ति (को वर्णन) है। और दूसरे ‘वन्देमातरम्’ नाम के गीत में इस पृथ्वी की सुजलता, सुफलता और शस्य-श्यामलता वर्णित है।

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(6) अयमस्माकं भारतदेशः संसारस्य गुरूरप्युच्यते। न केवलमुपनिषदामुत्तरवेदान्तस्य चाध्यात्मिकता, श्रुतिस्मृत्यादिषु प्रतिपादितो नैतिक आचारस्तथा विविधसिद्धिप्रदाता योगाभ्यास एवाद्यत्वेऽपि विदेशीयानामाकर्षणकारणं येन तेऽधुनानेकेष्वाश्रमेष्वत्र शान्ति मृगयमाणाः साधनां कुर्वन्ति स्वदेशेष्वपि तथाविधान् आश्रमांश्च संस्थापयन्ति। हरे कृष्णाद्यनेकसम्प्रदायानुभाव्य भक्तिमार्गमवलम्बन्तेऽपि च कामार्थाविति पुरुषार्थद्वयेऽपि ‘भारतस्य प्राचीनामुपलब्धिं बहु मन्यन्ते। वात्स्यायनं चाणक्यं चानुद्धृत्य यौन-विज्ञानस्य ‘राजनीतिविज्ञानस्य चेतिहासमापि प्रारब्धं न पारयन्ति। अनुल्लिख्य च सुश्रुतं न | शल्यक्झिानस्याविर्भावं प्रस्तोतुं शक्यते। गणितविद्यायामूलम् अङ्कलेखनप्रणाली सर्वप्रथम भारते एव आविर्भूता, ततश्च भारतीयेभ्यो अरब-देशीयैरवगतात। (UPBoardSolutions.com) अधुनापि अङ्क ‘हिन्दसा’ (हिन्दात् = भारतात् आगतः) इति कथयन्ति। यूरोपीयैस्तु तत्पश्चादेवारबवासिभ्यः सङ्ख्यालेखनप्रकारः शिक्षितः। स्वास्थ्यकृते योगासनशिक्षा तु ब्रिटेनादिदेशेषु अनेकत्र माध्यमिकविद्यालयेषु प्रचलिता। भारतजन्मा बौद्धधर्मोऽद्यापि कोटिभिर्विदेशीयानामनुस्रियते। महात्मा गान्धिना पुनरुद्घोषितो “अहिंसा परमो धर्मः” अद्यापि विश्वशान्तेरद्वितीय उपायः स्वीक्रियते। किन्तु हन्त! मिथः अविश्वसद्भिः परस्परं विभ्यभिस्तथोच्चैराकक्षमाणैः संसारस्य नैकैर्हठिभिर्नेतृभिस्तुदनुपालने वैवश्यमनुभूयते। त्यक्तेन भुञ्जीथा इत्यार्षसिद्धान्तमनुसृत्य ‘वसुधैव कुटुम्बकमिति’ आदर्श प्राप्ता जना एव विश्वशान्ति स्थापयितुं समर्था न तु आयुधेभ्यो धावमानाः मृत्युपण्याः कुशासकाः विश्वराजनेतारः।

शब्दार्थ
गुरूरप्युच्यते (गुरुः + अपि + उच्यते) = गुरु भी कहा जाता है।
प्रतिपादितः = ‘सिद्ध किया गया।
मृगयमाणाः = खोजते हुए।
उद्भाव्य = उत्पन्न करके।
अनुधृत्य = बिना उद्धरण
दिये। प्रारब्धम् = प्रारम्भ करना।
अनुल्लिख्य च = उल्लेख किये बिना।
प्रस्तोतुम् शक्यते = प्रस्तुत किया जा सकता है।
अवगता = जानी।
अनुत्रियते = अनुसरण किया जाता है।
स्वीक्रियते = स्वीकार किया जाता है।
हन्त = दुःख है।
मिथः = आपस में
बिभ्यद्भिः = डरने वाले।
वैवश्यम् अनुभूयते = विवशता अनुभव की जाती है।
भुञ्जीथा = भोग करो।
अनुसृत्य = अनुसरण करके।
धावमानाः = दौड़ते हुए।
मृत्युपण्याः = मौत के सौदागर।
विश्वराजनेतारः = विश्व के राजनेता।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में भारत की आध्यात्मिकता, ज्ञान-विज्ञान एवं विश्व-शान्ति की स्थापना में भारतीय नीति की भूमिका का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
यह हमारा भारत देश संसार का गुरु भी कहा जाता है। केवल उपनिषदों और उत्तर वेदान्त की आध्यात्मिकता ही नहीं, वेदों, स्मृतियों आदि में बतलाया गया नैतिक आचार तथा अनेक प्रकार की सिद्धियों को देने वाला योगाभ्यास ही आजकल भी विदेशियों के आकर्षण का कारण है, जिससे वे लोग अब अनेक आश्रमों में यहाँ शान्ति को खोजते हुए साधना करते हैं और अपने देशों में भी उस प्रकार के आश्रमों की (UPBoardSolutions.com) स्थापना करते हैं। हरे कृष्ण’ आदि अनेक सम्प्रदायों को उत्पन्न करके भक्तिमार्ग का अवलम्बन करते हुए भी काम और अर्थ इन दो पुरुषार्थों को भी प्राचीन भारत की बड़ी (महान्) उपलब्धि समझते हैं। वात्स्यायन और चाणक्य का उद्धरण दिये बिना यौन-विज्ञान और राजनीति विज्ञान के इतिहास को भी प्रारम्भ करने में समर्थ नहीं हैं। सुश्रुत का उल्लेख किये बिना शल्य-विज्ञान की उत्पत्ति प्रस्तुत नहीं की जा सकती। गणित विद्या की मूलस्वरूप अंकों को लिखने की प्रणाली सबसे पहले भारत में भी उत्पन्न हुई और इसके बाद भारतीयों से अरब देश वालों ने जानी। आज भी अंकों को ‘हिन्दसा’ (हिन्द या भारत से आया हुआ) कहते हैं। यूरोप वालों ने तो उसके बाद ही अरब देश वालों से संख्या लिखने का तरीका सीखा। स्वास्थ्य के लिए योगासन की शिक्षा तो ब्रिटेन आदि देशों में अनेक जगह माध्यमिक स्कूलों में प्रचलित है। भारत में उत्पन्न बौद्ध धर्म को आज भी करोड़ों विदेशियों द्वारा अनुसरण किया जाता है। महात्मा गाँधी के द्वारा पुनः उद्घोषित ‘अहिंसा परमो धर्मः’ (के नारे) को आज भी विश्व-शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय स्वीकार किया गया है, किन्तु खेद है। आपस में विश्वास न करने वाले, आपस में डरने वाले तथा ऊँची आकांक्षा रखने वाले संसार के अनेक हठी नेता उनका पालन (UPBoardSolutions.com) विवश होकर नहीं करते हैं। ‘त्यक्तेन भुञ्जीथाः’ (त्यागपूर्वक भोग करो) ऋषियों के इस सिद्धान्त का अनुसरण करके ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ (पृथ्वी ही कुटुम्ब के समान है)-इस आदर्श को प्राप्त हुए लोग ही विश्व-शान्ति को स्थापित करने में समर्थ हैं, आयुधों के लिए दौड़ते हुए, मृत्यु का व्यापार करने वाले, बुरे शासक, संसार के राजनेता नहीं।

(7) अस्माकं प्राचीनां वास्तुकलां शिल्पकलां च दशैं दशैं विस्फारितनेत्राणां विकसित देशवास्तव्यानां विस्मयचकिती वागपि न स्फुरति। खुजराहो कोणार्कादिमन्दिराणां स्थापत्यं मूर्तिकलां चावलोकयितुं लक्षशो विदेशीयाः पर्यटका अत्रागच्छन्ति। मुहम्मदीयैरपि शासकैरस्मिन् क्षेत्रे यद्विहितं तदपि ‘ताजमहल-कुतुबमीनारादि’ रूपेण प्रतिष्ठितं भारतीयं गौरवं वर्धयति। तदपि वैदेशिकैः सविस्मयं मुहुर्मुहुः स्तूयते। ताजमहलं तु तैः संसारस्य सप्तसु आश्चर्येषु गण्यते। भारतीयमूर्तिकलायास्तु, वैदेशिकास्तथा प्रशंसकोस्तदर्थं तथोन्मत्ताश्चे जायन्ते यल्लक्षशो रुप्यकाणां व्ययं कृत्वापि अवैधैरप्युपायैस्तास्कर्यादिभिः प्राचीनाः मूर्तीः प्राप्तुं यतन्ते। अहो! प्रशंसनीया तेषां कलाप्रीतिः, निन्दनीयाः अवैधा उपायाः, दयनीया च कलाकृतिदरिद्रता।

शब्दार्थ
वास्तुकला = भवन-निर्माण की कला।
शिल्पकला = शिल्प सम्बन्धी कला।
दशैं दर्श = देख-देखकर।
विस्फारितनेत्राणाम् = फटी हुई आँखों से देखते हुए।
वागपि = वाणी भी।
स्थापत्यम् मूर्तिकलां च = भवन-निर्माण कला और मूर्तिकला।
पर्यटकाः = घूमने वाले।
मुहम्मदीयैः अपि = मुसलमानों के द्वारा भी।
विहितम् = किया।
वर्धयति = बढ़ाती है।
मुहर्मुहुः = बार-बार।
स्तूयते = प्रशंसा की जाती है।
गण्यते = गिना जाता है।
अवैधैः उपायैः = गैरकानूनी तरीकों से।
तास्कर्यादिभिः = चोरी-तस्करी आदि से।
यतन्ते = यत्न करते हैं।
कलाकृतिदरिद्रता = कलाकृतियों की कमी या अभाव।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में भारत की प्राचीन कला के प्रति गौरवानुभूति व्यक्त की गयी है।

अनुवाद
हमारी प्राचीन भवन-निर्माण कला और शिल्पकला को देख-देखकर फटी हुई आँखों से देखते हुए विकसित देश के निवासियों की विस्मय से चकित होकर वाणी भी नहीं निकलती है। खजुराहो, कोणार्क आदि के मन्दिरों की स्थापत्यकला और मूर्तिकला को देखने के लिए लाखों 
विदेशी पर्यटक यहाँ आते हैं। मुसलमान शासकों ने भी इस क्षेत्र में जो किया, वह भी ताजमहल, . कुतुबमीनार आदि के रूप में प्रतिष्ठित होकर भारत के गौरव को बढ़ा रहा है। उसकी भी विदेशियों के द्वारा विस्मय से बार-बार प्रशंसा की जाती है। (UPBoardSolutions.com) ताजमहल को तो वे संसार के सात आश्चर्यों में गिनते हैं। भारत की मूर्तिकला के तो विदेश के लोग इतने प्रशंसक हैं और उनके लिए इतने पागल हो जाते हैं कि लाखों रुपये खर्च करके भी गैरकानूनी तरीकों, चोरी आदि से भी प्राचीन मूर्तियों को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। अहो! उनका कला-प्रेम प्रशंसा के योग्य है, गैरकानूनी तरीके निन्दा के योग्य हैं और कलाकृतियों का अभाव दया के योग्य है।

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(8) अदभुतोऽयं परमगरिमा देशो यत्र नचिकेता इव ज्ञानपिपासवः जाबालेयसत्यकाम इव सत्यवादिनः, ध्रुव इव तपस्विनश्च बालकाः, अभिमन्युरिव शूराः किशोराः, एकलव्योद्दालककौत्ससदृशा गुरुभक्ताः शिष्याः शिविमयूरध्वजकर्णप्रभृतयो दानिनः, हरिश्चन्द्रयुधिष्ठिरादयः सत्यवादिनः, भरतलक्ष्मणसदृशाः भ्रातरः, सीतासावित्री-गान्धारी-सदृश्यः पन्याः, दशरथसदृशाः पितरश्च बभूवुः। (UPBoardSolutions.com) मैत्रोयी-गार्गी-भारती-सदृश्यो विदुष्यो, रजियासुल्ताना-दुर्गावतीलक्ष्मीबाई सदृश्यो वीराङ्गनाः, भक्तसिंहसुखदेव-चन्द्रशेखर-सदृशाः देशभक्ताः, महावीरगौतमबुद्धगान्धितुल्या महात्मानः सन्ताश्चास्या एवं भारतभुवः सन्ततयः आसन्। देशान्तुरेषु धर्मस्य ग्लान्यां सत्यां क्वचिदीश्वरेण स्वकीयो दूतः प्रहितः क्वचिच्च सुतः अत्र तु स्वयं । भगवानेव मानवरूपमाधायावतीर्णः।।

शब्दार्थ
ज्ञानपिपासवः = ज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक।
जाबालेय = जाबालि का पुत्र।
विदुष्यः = विदुषियाँ।
सन्ततयः = सन्ताने।
ग्लान्यां सत्यां = कमी होने पर
प्रहितः = भेजा।
मानवरूपमाधाय = मानव का रूप धारण करके।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में भारत के ज्ञान-पिपासुओं, सत्यवादियों, तपस्वी बालकों, वीर किशोरों, गुरुभक्त शिष्यों, दानियों, सत्यवादियों, आदर्श भाई, पत्नी, पिताओं, विदुषी और वीरांगनाओं, देशभक्तों और सन्तों के प्रति गौरवानुभूति की गयी है।

अनुवाद
अत्यन्त गरिमा वाला यह देश अद्भुत है, जहाँ नचिकेता के समान ज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक; जाबालि के पुत्र सत्यकाम की तरह सत्यवादी; ध्रुव की तरह तपस्वी बालक; अभिमन्यु की तरह वीर किशोर; एकलव्य, उद्दालक और कौत्स के समान गुरुभक्त शिष्य; शिवि, मयूरध्वज, कर्ण जैसे दानी; हरिश्चन्द्र, युधिष्ठिर आदि सत्यवादी; भरत और लक्ष्मण के समान भाई; सीता, सावित्री और गान्धारी के समान पत्नियाँ और दशरथ के समान पिता हुए हैं। मैत्रेयी, गार्गी और भारती के समान विदुषी स्त्रियाँ; रजिया सुल्तान, दुर्गावती, लक्ष्मीबाई जैसी (UPBoardSolutions.com) वीरांगनाएँ; भगतसिंह, सुखदेव और चन्द्रशेखर के समान देशभक्त; महावीर, गौतम बुद्ध और गाँधी के समान महात्मा और सन्त इसी भारत-भूमि की सन्तान थे। दूसरे देशों में धर्म की हानि होने पर कहीं ईश्वर के द्वारा अपना दूत भेजा गया और कहीं पुत्रे, परन्तु यहाँ तो स्वयं भगवान् ने ही मनुष्य का रूप धारण करके अवतार लिया।

(9) अधुनातनेऽप्यनेहसि भारतस्य विश्वस्मिन् भूमण्डले महत्त्वपूर्ण स्थानं वर्तते। स्वकीयाः पारतन्त्र्यशृङ्खला विभज्यास्माभिः सर्वेषामपि पराधीनदेशानां कृते साहाय्यमुघोषितम्। कस्यापि देशस्य प्रभुत्वसत्ता तत्रत्यजनेषु एव निहितेति सडिण्डिमं सिद्धान्तितम्। साम्यवादिदेशानां पुञ्जिवादिदेशानाञ्च वर्गात् पृथक् स्थित्वा विकसतां नवस्वतन्त्राणां देशानां कृते ताटस्थ्यनीतिः प्रचारिता, तेषां च पृथक् सङ्गठनं कृतं यस्य प्रभावो विश्वराजनीत्यां स्पष्टमनुभूयते। विकसितदेशानामार्थिकषड्यन्त्राणामुदघाटनं क्रियते। श्वेताङ्गानां रङ्गभेदनीतेर्विरुद्ध जनमतं सुदृढीकृतम्। भारतीयैः प्रयत्नैरेशियाऽफ्रीकामहाद्वीपीयदेशेषु यद् जागरणं जातं तेनैतेषां देशानां मानोऽपि जगति वर्धितः। आधुनिकविज्ञानौद्योगिकीयान्त्रिक्यादीनां नवज्ञानानां क्षेत्रे (UPBoardSolutions.com) महान् विकासो विहितः। नैके आविष्काराश्च कृताः। कृष्युत्पादनं वर्धितम्। यत्र सूच्यपि नो निर्मीयते स्म तत्राधुना अत्याधुनिकानि यन्त्राणि निर्मीयन्ते। न केवलमविकसितेभ्यो देशेभ्योऽपि तु अमेरिकाब्रिटेन सदृशविकसितदेशेभ्योऽपि न केवलं हस्तशिल्पनिर्मितानि वस्तून्यपि तु उच्चाभियान्त्रिकीनिर्मयाणि सूक्ष्मयन्त्राणि अपि दीयन्ते। वैज्ञानिकानां यान्त्रिक्रीविशेषज्ञानां च यद् बाहुल्यं सम्प्रति । भारते वर्तते तत् संसारे द्वित्रिषु देशेषु भवेन्न वा। सहस्रशो विशेषज्ञा देशान्तराणि गत्वा तत्र तेषामुपचयं कुर्वन्ति। भारतीया यथा श्रमशीला न तथा अन्ये इति देशान्तरेषु प्रतिष्ठितम् तथ्यम्।।

शब्दार्थ
अधुनातनेऽप्यनेहसि = आधुनिक दिनों में भी, आधुनिककाल (आज) में भी।
विश्वस्मिन् भूमण्डले = सम्पूर्ण भूमण्डल पर।
विभज्य = भेदकर या काटकर।
निहितेति (निहिता +इति) = छिपी रहती है, ऐसा।
सडिण्डिमम् = ढिंढोरा पीटकर।
सिद्धान्तितम् = सिद्धान्त रूप में माना।
पुञ्जवादि = पूँजीवादी।
कृते = लिए।
ताटस्थ्यनीतिः = तटस्थता की नीति।
अनुभूयते = अनुभव की ।
जाती है।
सुदृढीकृतम् = मजबूत की।
मानोऽपि = मान भी।
विहितः = किया।
सूच्यपि = सुई भी।
दीयन्ते =दिये जाते हैं।
उपचयम् = वृद्धि।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में संसार के देशों में भारत की राजनीतिक क्षेत्र में सर्वाधिक प्रगपि तथा तकनीकी ज्ञान के विकास का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
आधुनिककाल में भी भारत का सम्पूर्ण भूमण्डल में महत्त्वपूर्ण स्थान है। अपनी पराधीनता की जंजीरों को काटकर हमने सभी पराधीन देशों के लिए सहायता की घोषणा की। किसी भी देश की प्रभुसत्ता वहाँ के लोगों में ही निहितं है, इसको ढिंढोरा पीटकर सिद्धान्ततः सिद्ध किया। साम्यवादी देशों और पूँजीवादी देशों के वर्ग से अलग रहकर विकसित नये स्वतन्त्र हुए देशों के लिए (हमने) तटस्थ नीति (निर्गुट नीति) का प्रचार किया और उसका अलग से संगठन बनाया, जिसका प्रभाव विश्व की राजनीति पर स्पष्ट रूप से अनुभव किया जाता है। विकसित देशों के आर्थिक षड्यन्त्रों का भण्डाफोड़ किया है। गौरांगों की रंगभेद नीति के विरुद्ध जनमत को दृढ़ किया। भारत के प्रयत्नों से एशिया, अफ्रीका महाद्वीप के देशों में जो जागरण हुआ, उससे इन देश का संसार में सम्मान भी बढ़ा। (UPBoardSolutions.com) आधुनिक विज्ञान, औद्योगिकी और अभियान्त्रिक आदि के नये ज्ञान के क्षेत्र में बहुत विकास किया और अनेक आविष्कार (खोज) किये। कृषि का उत्पादन बढ़ाया है। जहाँ सूई भी नहीं बनायी जाती थी, वहाँ अब अति आधुनिक यन्त्र बनाये जा रहे हैं। केवल अविकसित देशों को ही नहीं, वरन् अमेरिका, ब्रिटेन सरीखे विकसित देशों को भी न केवल हस्तशिल्प से बनायी गयी वस्तुएँ, अपितु बड़े अभियान्त्रिकी के लिए बनाये जाने वाले सूक्ष्म यन्त्र भी दिये जा रहे हैं। वैज्ञानिक और अभियान्त्रिकी विशेषज्ञों की जो अधिकता इस समय भारत में है, वह संसार में दो-तीन देशों में भी हो या न हो। हजारों विशेषज्ञ दूसरे देशों में ज़ाकर वहाँ उनकी वृद्धि करते हैं। भारत के लोग जैसे परिश्रमी हैं, वैसे दूसरे नहीं-यह तथ्य दूसरे देशों में स्थापित है।

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(10) उपर्युक्तविवरणेन विदितमेतद्भवति यत् भारतस्यातीतं तथा गौरवम् अद्याप्यस्मान् विश्वस्य सम्मुखं सम्मानस्योच्चैर्वेदिकायां प्रतिष्ठापयति। किन्तु केवलमतीतगौरवं तु भविष्यन्नेव निर्मातुं शक्नोति। वर्तमानकाले उपलब्धानां मानवसंसाधनानां सम्पदां च सर्वोत्तम उपयोगो विधेय येन विकासस्य गतिः प्रवर्धेत। सन्ति कश्चिदुर्दमाः समस्या याः कथमपि समाधेया एव। विदेशीया न वाञ्छन्ति यद् भारतं राजनीतिक्षेत्रे वित्तीयासु चोपलब्धिषु दृढ़ता गच्छेत्। अतस्ते भारतवासिषु मिथो भेदं प्रयुज्य कलहं कारयन्ति। धर्मं भाषां स्वनिवासक्षेत्र वा अग्रे कृत्वा समस्या उत्थाप्यन्ते। पञ्चाम्बुप्रदेशे केचन धर्मान्धा आतङ्कवादमनुसरन्ति विदेशीयैः प्रोत्साहिताः। प्रतिवर्षमनेके साम्प्रयदायिककलहो जायन्ते, निरपराधा जनाः प्रियन्ते, जनसम्पत्तिर्नश्यति देशस्य शक्तिक्षयो भवति। अतः सर्वैरपि अस्माभिः सौहार्देन मिथो वर्तितव्यम्। सर्वेषामपि धर्माणां सांस्कृतिकपरम्पराणां सामाजिकरीतिनामादरः कर्तव्यः। (UPBoardSolutions.com) धर्मसाहसिभिश्चापि अवगन्तव्यं यद् राजनीत्या धर्मस्य सङ्कटः सर्वथा अश्रेयस्करः। देशजीवनस्य प्रधानधारायां सम्यनिमज्जनमेव सर्वेषां मङ्गलम्। द्वितीया तु जनसङ्ख्यायाः समस्या। जनसङ्ख्यायो अत्यधिकवृद्धेः कारणाद् विकासस्य लाभो विलीयते। अतः परिवारकल्याणमप्यवधेयम्। एवमपि सर्वैरवधेयं यत्सार्वजनिकजीवने विशेषतो भ्रष्टचारो रोधनीयः। अनुचितो लाभः न जातु केनापि स्पृहणीयः। तदर्थं न कश्चिदप्यनुरोद्धव्यः प्रोत्साहनीयो वैवश्यं वोपनेयः। न कदापि तथा वर्तितव्यं यद् भारतमातुविरुद्धं भवेत्। स वै अस्माकं जन्मभूमिर्यस्याः रजसि व्यमाविर्भूतान। भवेन्नाम कस्यापि शवो वह्मिसात् परस्य च भूमिसात् को नाम भेदः? अन्ते तु सर्वोऽपि अस्या भारतमातुरेव रजसि विलीनो भवति। तत् कोऽर्थः परस्परं कलहेन जन्मनः मातरं प्रति विद्रोहेण वा। सा तु सर्वदैव माननीया। यतो हि–”

“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।”

शब्दार्थ
अतीतम् = बीता समय।
वेदिकायाम् = चबूतरे पर।
उपलब्धानां = प्राप्त हुई।
विधेयः = करना चाहिए।
प्रवर्धेत = बढ़ती रहे।
दुर्दमाः = दबाने में कठिना
समाधेया = समाधान की जाने योग्य।
वित्तीयासु = धन सम्बन्धों में
प्रयुज्य = प्रयोग करके।
उत्थाप्यन्ते = उभारी जा रही है।
पञ्चाम्बुप्रदेशे = पंजाब में।
अवगन्तव्यम् = जानना चाहिए।
अश्रेयस्करः = अहितकर।
मङ्गलम् = कल्याणकारी।
विलीयते = नष्ट हो रहा है।
अवधेयम् = ध्यान देना चाहिए।
रोधनीयः = रोकना 
चाहिए।
स्पृहणीयः = चाहा जाने योग्य।
जातु = कभी भी।
वैवश्यं = विवशता को।
वोपनेयः (वा + : उपनेयः) = अथवा ले जाना चाहिए।
वर्तितव्यम् = व्यवहार करना चाहिए।
रजसि = धूल में।
वह्निसात् = जलाया जाये।
भूमिसात् भवेत् = दफनाया जाना चाहिए।
स्वर्गादपि (स्वर्गात् + अपि) = स्वर्ग से भी।
गरीयसी = महान्।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में भारत की ज्वलन्त समस्याओं की ओर ध्यानाकृष्ट करके सबको प्रेम से रहने का सन्देश दिया गया है।

अनुवाद
ऊपर बताये गये विवरण से यह मालूम होता है कि भारत का अतीत और गौरव आज भी . हमें संसारे के सामने सम्मान के उच्च सिंहासन पर स्थापित करता है, किन्तु अतीत का गौरव भविष्य का निर्माण नहीं कर सकता है। वर्तमान समय में प्राप्त हुई मानव की सुविधाओं और सम्पत्तियों का सबसे उत्तम उपयोग करना चाहिए, जिससे विकास की गति बढ़े। कुछ दबाने में कठिन दुर्दमनीय समस्याएँ हैं, जिनको किसी तरह समाधान करना ही है। विदेश के लोग नहीं चाहते हैं कि भारत राजनीति के क्षेत्र में और आर्थिक उपलब्धियों में मजबूत बने; अतः वे भारतवासियों में आपस में फूट डालकर झगड़ा कराते रहते हैं। धर्म, भाषा या प्रदेश को आगे रखकर समस्याएँ पैदा की जाती हैं। पंजाब प्रदेश में कुछ धर्मान्ध विदेशियों के द्वारा उकसाये जाकर आतंकवाद का सहारा ले रहे हैं। प्रतिवर्ष अनेक साम्प्रदायिक झगड़े पैदा होते हैं, निर्दोष लोग मारे जाते हैं, जन-सम्पत्ति नष्ट होती है और देश की शक्ति का ह्रास (UPBoardSolutions.com) होता है; अत: हम सबको आपस में भाईचारे से रहना चाहिए। सभी धर्मों, सांस्कृतिक परम्पराओं और सामाजिक रीति-रिवाजों का आदर करना चाहिए; अत: धर्म के अगुवाओं को भी समझ लेना चाहिए कि राजनीति के द्वारा धर्म का संकट पैदा करना सब तरह से अहितकर है। देश के जीवन की मूलधारा में अच्छी तरह मिल जाने में ही सबका कल्याण है। दूसरी जनसंख्या की समस्या है। जनसंख्या बहुत अधिक बढ़ने से विकास का लाभ नष्ट हो जाता है; अतः परिवार कल्याण की ओर भी ध्यान देना चाहिए। यह भी सबको ध्यान देना चाहिए कि सार्वजनिक जीवन में विशेष रूप से भ्रष्टाचार को रोका जाए। किसी को (कभी) भी अनुचित लाभ की इच्छा नहीं करनी चाहिए। उसके लिए न किसी से अनुरोध किया जाए अथवा विवश होकर न प्रोत्साहन दिया जाए। कभी भी ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, जो भारतमाता के प्रतिकूल हो। (निश्चय ही) यह । हमारी जन्मभूमि है, जिसकी धूल में (UPBoardSolutions.com) हम उत्पन्न हुए हैं। किसी को मृत शरीर जलाया जाए या दफनाया जाए-दोनों में क्या अन्तर है? अन्त में तो सभी इस भारतमाता की धूल में मिल जाते हैं। आपस में झगड़ने से अथवा जन्म की माता के प्रति विद्रोह करने से क्या लाभ? वह. तो सदा ही सम्मान के योग्य है; क्योंकि माता और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं।”

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन
भारतवर्ष पर एक छोटा-सा निबन्ध लिखिए। या ‘भारतवर्षम्’ पाठ का सारांश लिखिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत दी गयी सामग्री को संक्षेप में अपने शब्दों में लिखिए।]

प्ररन
भारत की भौगोलिक परिस्थिति का वर्णन ‘भारतवर्षम्’ पाठ के आधार पर कीजिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ शीर्षक के अन्तर्गत आये तीन शीर्षकों-‘प्रहरी हिमालय’, ‘तीन दिशाओं में समुद्र’, ‘तटीय प्रदेश’–की सामग्री को संक्षिप्त रूप में अपने शब्दों में लिखें।

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प्ररन
भारत की प्रमुख समस्याएँ बताइए और उनके समाधान पर प्रकाश डालिए। |
उत्तर
[संकेत—‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत आए शीर्षक ‘समस्याएँ’ की सामग्री को अपने शब्दों में लिखें।]

प्ररन
भारत के प्राचीन गौरव पर ‘भारतवर्षम्’ पाठ के आधार पर प्रकाश डालिए। |
उत्तर
[संकेत-पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत आये तीन शीर्षकों-संसार का गुरु’, ‘कला की प्रगति’, ‘महापुरुषों की पवित्र भूमि’–की सामग्री को संक्षिप्त रूप में अपने शब्दों में लिखें।]

प्ररन
भारतवर्ष का यह नाम किस आधार पर पड़ा है?
उत्तर
[संकेत-पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत आये शीर्षक ‘नामकरण’ की सामग्री को अपने शब्दों में लिखें।]

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Class 9 Sanskrit Chapter 1 UP Board Solutions मङ्गलाचरणम् Question Answer

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 1
Chapter Name मङ्गलाचरणम् (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 1 Manglacharan Question Answer (पद्य-पीयूषम्)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 1 हिंदी अनुवाद मङ्गलाचरणम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय
विश्व-साहित्य में भारत के ‘वेद’ सबसे प्राचीन ग्रन्थ माने जाते हैं। वेदत्रयी’ के आधार पर वेद तीन माने गये-ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद। कालान्तर में कभी ‘अथर्ववेद’ को भी इनके जोड़ दिया गया। वेदों में ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्रों में सम्बन्धित अथाह सामग्री भरी हुई है। प्रस्तुत पाठ में संकलित मन्त्र (UPBoardSolutions.com) इन्हीं वेदों से लिये गये। ये मन्त्र हमारे जीवन के लिए अत्यधिक उपयोगी हैं। विद्यार्थियों द्वारा इन्हें कण्ठस्थ किया जाना चाहिए। इनकी भाषा का स्वरूप संस्कृत का प्राचीनतर रूप है, जिसे विज्ञ जनों द्वारा ‘वैदिक संस्कृत’ नाम दिया गया है।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

(1) (क) आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः

शब्दार्थ
आयन्तु = आयें।
नः = हमारे लिए।
भद्राः = कल्याणकारी।
क्रतवः = विचार, संकल्प।
विश्वतः = चारों ओर (दिशाओं) से।।

सन्दर्य
प्रस्तुत मन्त्र हमारी पाठ्य पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘मङ्गलाचरणम्’ पाठ से उद्धृत है, जो ‘ऋग्वेद’ से लिया गया है।

प्रसंग
प्रस्तुत मन्त्र में देवताओं से अपने कल्याण की प्रार्थना की गयी है।

अन्वय
भद्राः क्रतवः नः विश्वतः आयन्तु।।

व्याख्या
कल्याणकारी विचार हमारे मन में चारों ओर से आयें। तात्पर्य यह है कि कल्याणकारी विचार एवं संकल्प सभी दिशाओं से हमारे हृदय में आये।

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(ख) भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।।

शब्दार्थ
भद्रं = शुभ।
कर्णेभिः = कानों से।
शृणुयाम = सुनें।
पश्येम = देखें।
अक्षिभिः = आँखों से।
यजत्राः = यज्ञ करने वाले हम लोग।

सन्दर्भ
पूर्ववत्।।

प्रसंग
प्रस्तुत मन्त्र में याज्ञिक (यज्ञ करने वाले) देवताओं से प्रार्थना कर रहे हैं कि वे उन्हें बुरे कार्यों से बचाते रहें।

अन्वय
देवाः! यजत्राः (वयंम्) कर्णेभिः भद्रं शृणुयाम। अक्षिभिः भद्रं पश्येम।।

व्याख्या
हे देवो! यज्ञ करने वाले हम लोग कानों से कल्याणकारी वचनों को सुनें, आँखों से शुभ कार्यों को देखें। तात्पर्य यह है कि ईश्वर की उपासना करते हुए ईश्वर के प्रति हमारा भक्ति-भाव 
 निरन्तर बना रहे। हम अपने कानों से सदा अच्छे समाचार सुनते रहें तथा आँखों से अच्छी घटनाएँ। |’, देखते रहें।

(2)
मधु नक्तमुतोषसो मधुमत् पार्थिवं रजः।।
मधुः द्यौरस्तु नः पिता ॥
मधुमान् नो वनस्पतिर्मधुमान् अस्तु सूर्यः । ।
माध्वीर्गावो भवन्तु नः ॥

शब्दार्थ
मधु = मधुर, कल्याणकारी।
नक्तम् = रात्रि।
उत = और।
उषसः = उषाएँ, प्रभात, दिन।
मधुमत् = मधुमय, आनन्दपूर्ण।
पार्थिवं = पृथ्वी (भूमि) से सम्बन्धित, पृथ्वी की।
रजः = मिट्टी, धूल।
द्यौः = आकाश।
अस्तु = हो।
नः = हमारे लिए।
वनस्पतिः = वृक्ष, वृक्ष-समूह, वन।
माध्वीः = आनन्दकारिणी।
गावः = गाएँ।
भवन्तु = हों। |

सन्दर्भ
पूर्ववत्।। प्रसंग-प्रस्तुत मन्त्र में अपने चारों ओर के वातावरण को आनन्दपूर्ण बनाने की प्रार्थना की गयी है।

अन्वयनः
नक्तम् उत उषसः मधु अस्तु। (न:) पार्थिवं रज: मधुमत् (अस्तु)। नः पिताः द्यौः मधु (अस्तु)। (न:) वनस्पतिः मधुमान् (अस्तु)। (नः) सूर्यः मधुमान् अस्तु। न: गावः माध्वीः भवन्तु।|

व्याख्या
हमारी रात्रि और ऊषाकाल (सवेरा) आनन्दमय एवं प्रसन्नता से भरी हों। हमारी मातृभूमि की धूल मधुरता से भरी हो। हमारे पिता आकाश आनन्ददायक हों। हमारे देश की वृक्षादि वनस्पति आनन्ददायक हो। हमारा सूर्य आनन्द प्रदान करने वाला हो। हमारे देश की गायें मधुर (दूध देने वाली) हों। तात्पर्य यह है कि हमारा सम्पूर्ण पर्यावरण हमारे लिए कल्याणकारी हो।

(3)
सं गच्छध्वं सं वदध्वं, सं वो मनांसि जानताम् ।।
समानो मन्त्रः समितिः समानी, समानं मनः सह चित्तमेषाम् ॥

शब्दार्थ
सं गच्छध्वम् = साथ-साथ चलो।
सं वदध्वम् = साथ-साथ (मिलकर) बोलो।
सं जानताम् = अच्छी तरह जानो।
वः = तुम सभी।
मनांसि = मनों को।
मन्त्रः = मन्त्रणा, निश्चय।
समितिः = सभा, गोष्ठी।
समानी = एक समान।
चित्तं = मन।

सन्दर्भ
पूवर्वत्।। प्रसंग-प्रस्तुत मन्त्र में सह-अस्तित्व की भावना पर बल दिया गया है।

अन्वय
(यूयम्) सं गच्छध्वम् , सं वदध्वम् , वः मनांसि सं जानताम्। मन्त्रः समानः (अस्तु), समितिः समानी (अस्तु), मनः समानं (अस्तु), एषां चित्तं सह (अस्तु)। |

व्याख्या
तुम सब एक साथ मिलकर चलो, एक साथ मिलकर बोलो और अपने-अपने मनों को अच्छी तरह समझो। तुम सबका समान विचार हो, समिति (संगठन) समान हो, सबका मन समान हो, इनका चित्त भी एक साथ (एक जैसा) हो।।

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(4)
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान् नेनीयतेऽभीषुभिर् वाजिन इव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु

शब्दार्थ
सुषारथिः (सु + सारथिः) = अच्छा सारथी।
इव = समान, तरह।
नेनीयते = ले जाता है (इच्छानुसार)।
अभीषुभिः = लगामों से।
वाजिनः = घोड़ों को।
हृत्प्रतिष्ठम् = हृदय में प्रतिष्ठित अर्थात् हृदय में
स्थित अजिरं = कभी बूढ़ा न होने वाला।
जविष्ठम् = तीव्र वेग वाला।
शिवसङ्कल्पमस्तु (शिव + सङ्कल्पम् + अस्तु) = कल्याणकारी विचार हो।

सन्दर्भ
प्रस्तुत मन्त्र हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘मङ्गलाचरणम्’ पाठ से उद्धृत है, जो कि शुक्ल यजुर्वेद’ से लिया गया है।

प्रसंग
प्रस्तुत मन्त्र में मन को नियन्त्रित करने एवं शुभ संकल्पों वाला बनाने के लिए प्रार्थना की गयी है।

अन्वय
यत् (मन) मनुष्यान् सुषारथिः अश्वान् इव अभीषुभिः वाजिन इव नेनीयते, यत् हृत्प्रतिष्ठम् , यत् अजिरं जविष्ठम् (चे अस्ति) तत् मे मनः शिवसङ्कल्पम् अस्तु।

व्यख्या
जो (मन) मनुष्यों को उसी प्रकार नियन्त्रित करके ले जाता है, जैसे अच्छा सारथि घोड़ों को लगाम से (नियन्त्रित करके) सही दिशा की ओर ले जाता है। जो मन हृदय में स्थित है, जो बुढ़ापे से रहित अर्थात् वृद्धावस्था में भी युवावस्था के समान अनेक सुखों को भोगने की इच्छा करता है, तीव्र (UPBoardSolutions.com) वेगगामी है; वह मेरा मन सुन्दर विचारों से सम्पन्न बने अर्थात् वह मेरा मन इस प्रकार की कामना करे, जिससे हमारा कल्याण हो सके।

(5)
यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति ।
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥

शब्दार्थ
यः = जो।
भूतम् (भूतकाल में उत्पन्न) = हो चुका है।
भव्यम् = आगे होने वाला है।
अधितिष्ठति = व्याप्त कर स्थित है।
स्वः = स्वर्गलोक।
ज्येष्ठाय = सबसे महान्।
ब्रह्मणे = परमब्रह्म परमात्मा को।
नमः = नमस्कार है।

सन्दर्भ
प्रस्तुतः मन्त्र हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘मङ्गलाचरणम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है, जो कि. ‘अथर्ववेद’ से लिया गया है।

प्रसंग
प्रस्तुत मन्त्र में ब्रह्मा की महिमा बताकर उसे नमस्कार किया गया है। |

अन्वय
यः भूतं च भव्यं च (अस्ति), यः च सर्वम् अधितिष्ठति, स्वः केवलं यस्य (अस्ति) तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः।

व्याख्या
जो भूतकाल में उत्पन्न हुए तथा भविष्यकाल में उत्पन्न होने वाले सभी पदार्थों को व्याप्त करके स्थित है, दिव्य प्रकाश वाला स्वर्ग केवल जिसको है; अर्थात् जिसकी कृपा से ही मनुष्य परमपद को प्राप्त कर सकता है, उस महनीय परमब्रह्म को नमस्कार है।

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सूक्तिपरक वाक्यांशों की याख्या

(1) सं गच्छध्वं सं वदथ्वं।

सन्दर्भ
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्‘ के ‘मङ्गलाचरणम्’ पाठ से ली गयी है।

प्रसंग
ऋग्वेद से संकलित इस सूक्ति में ईश्वर से प्रार्थना की गयी है कि हम सब आपस में प्रेम-भाव से मिलकर कार्य करें।

अर्थ
(हम) साथ-साथ मिलकर चलें और साथ-साथ मिलकर बोलें।

अनुवाद
व्यक्तिगत और सामाजिक उन्नति के लिए आवश्यक है कि हम सभी आपस में प्रेम-भाव से रहें। आपस में प्रेम-भाव होने से एक-दूसरे के प्रति द्वेष और घृणा की भावना स्वतः ही समाप्त हो जाती है। साथ-ही-साथ अहंकार और स्वार्थ की भावना भी नहीं रहती, क्योंकि ये दोनों भाव परस्पर कटुता और कलह उत्पन्न करते हैं। इसीलिए ऋग्वेद में शिक्षा दी गयी है कि हे ईश्वर! इस संसार में हम प्रेम-भाव से मिलकर साथ-साथ चलें और साथ-साथ मिलकर बोलें।

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