UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 3 न गङ्गदतः पुनरेति कूपम् (कथा – नाटक कौमुदी)

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 3
Chapter Name न गङ्गदतः पुनरेति कूपम् (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 24
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 3 न गङ्गदतः पुनरेति कूपम् (कथा – नाटक कौमुदी)

पाठ-सारांश

परिचय-संस्कृत साहित्य में कथा-लेखन की परम्परा अत्यधिक प्राचीन है। तत्कालीन समय में इन कथाओं की रचना का उद्देश्य धर्म, अर्थ एवं काम की प्राप्ति हुआ करता था। इनके अतिरिक्त संस्कृत वाङ्मय में नीति और उपदेशात्मक कथाओं की भी एक दीर्घ श्रृंखला प्राप्त होती है जिनमें ‘पञ्चतन्त्रम्, ‘हितोपदेशः’, ‘बृहत्कथामञ्जरी’, ‘कथासरित्सागर’, ‘वेतालपञ्चविंशतिका’, ‘भोजप्रबन्ध’, ‘भट्टकद्वात्रिंशतिका’ आदि उल्लेखनीय हैं। इस सभी कथा-श्रृंखलाओं में ‘पञ्चतन्त्रम्’ नामक कथा-संग्रह सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इसके रचयिता (UPBoardSolutions.com) विष्णुशर्मा नाम के एक ब्राह्मण थे। इन्होंने महिलारोप्य नगर के राजा अमरशक्ति के अयोग्य एवं विवेकशून्य पुत्रों को शिक्षित करने के लिए इस ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ. में शिष्टाचार, सदाचार, राजनीति एवं लोक-नीति से सम्बद्ध विषयों का कथाओं के माध्यम से अच्छा प्रतिपादन किया गया है। इसकी कथाओं के माध्यम से प्राप्त ज्ञान के द्वारा राजा अमरशक्ति के पुत्र अत्यधिक ज्ञानी और विवेकशील हो गये।

इस ग्रन्थ में पशु-पक्षियों, मानवों आदि के माध्यम से प्रत्येक कथा को विस्तार दिया गया है। इस ग्रन्थ के पाँच तन्त्र (भाग) हैं-‘मित्रभेदः’, ‘मित्र-सम्प्राप्तिः’, ‘काकोलूकीयम्’, ‘लब्धप्रणाशम् तथा ‘अपरीक्षितकारकम्’। इस ग्रन्थ का रचनाकाल 300 ईस्वी के आसपास माना जाता है। प्रस्तुत कथा इसी ग्रन्थ के चतुर्थ तन्त्र ‘लब्धप्रणाशम्’ से ली गयी है।

भागीदारों से बदला लेने का उपाय- किसी कुएँ में गंगदत्त नाम को मेढकों का राजा रहता था। वह अपने भागीदारों से अत्यधिक परेशान होकर एक दिन रहट की बाल्टी में चढ़कर कुएँ से बाहर निकल आया। उसने अपने भागीदारों से बदला लेने का विचार करके बिल में प्रवेश करते हुए एक काले सर्प को देखा और उसकी सहायता से अपने भागीदारों के विनाश करने का निश्चय किया। उसने बिल के द्वार पर जाकर सर्प को बुलाया और उससे मैत्री करने का प्रस्ताव किया। पहले तो सर्प (प्रियदर्शन) इसके लिए तैयार न हुआ, किन्तु बाद में (UPBoardSolutions.com) गंगदत्त की करुण कहानी सुनकर और उसके द्वारा भोज्य को सुलभतापूर्वक प्राप्त होता देककर उसके मैत्री प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। गंगदत्त ने उसे पक्के कुएँ में रहट के मार्ग से ले जाकर जल के पास स्थित कोटर (वह खोखला अंश, जिसमें पक्षी, साँप आदि रहते हैं।) में बैठकर सुख से भागीदारों का विनाश करने के लिए कहा और अपने परिवार वालों के भक्षण का निषेध कर दिया।

मेढकों का समूल विनाश- गंगदत्त ने सर्प को अपने भागीदार दिखा दिये। सर्प धीरे-धीरे उसके ‘समस्त भागीदारों को, कुछ को उसकी उपस्थिति में और कुछ को उसकी अनुपस्थिति में; चट कर गया। मेढकों के समाप्त हो जाने पर सर्प ने गंगदत्त से कहा कि मैंने तुम्हारे शत्रुओं को खा लिया है, अब मुझे दूसरा भोजन लाकर दो। इसके बाद गंगदत्त ने उसे अपने परिवार का एक मेढक प्रतिदिन देना प्रारम्भ कर दिया। सर्प उसे खाकर उसके पीछे दूसरों को भी खा लेता था। इसी प्रकार एक दिन उसने दूसरे मेढकों को खाकर गंगदत्त के पुत्र यमुनादत्त को भी खा लिया। कुछ दिनों बाद केवल गंगदत्त शेष रह गया।

गंगदत्त को कुएँ से बाहर जाना- एक दिन सर्प प्रियदर्शन ने गंगदत्त से कहा कि मैं भूखा हूँ, मुझे कुछ भोजन दो। गंगदत्त ने कहा कि तुम चिन्ता मत करो, मैं दूसरे कुएँ से मेंढक लाकर तुम्हें दूंगा और वह रहट की बाल्टी में चढ़कर कुएँ से बाहर आ गया। बहुत दिनों तक गंगदत्त के न आने पर प्रियदर्शन ने (UPBoardSolutions.com) अन्य कोटर में रहने वाली गोध्रा से कहा कि तुम गंगदत्त को खोजकर मेरा सन्देश उससे कहो कि यदि दूसरे मेढक नहीं आते हैं तो तुम अकेले ही आ जाओ, मैं (प्रियदर्शन) तुम्हारे बिना नहीं रह सकता।

गंगदत्त का न लौटना- गोधा ने सर्प के कहने से गंगदत्त को खोजकर कहा कि तुम्हारा मित्र (प्रियदर्शन) तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है, तुम वहाँ शीघ्र चलो। तब गंगादत्त ने गोधा से कहा कि “भूखा  कौन-सा पाप नहीं करता; अतः हे भद्रे! प्रियदर्शन से कहो कि गंगदत्त पुनः कुएँ में वापस नहीं जाएगा।’ ऐसा कहकर उसने गोधा को वापस भेज दिया।

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चरित्र-चित्रण

गंगदत्त 
परिचय- मेढकों का राजा गंगदत्त कुएँ में रहता है। वह अपने वंश के मेढकों से बहुत परेशान है। और उनसे बदला लेने की बात सोचकर कुएँ से बाहर आता है। वह मेढक जाति के जन्मजात शत्रु काले सर्प से मित्रता करके अपने वंश का समूल विनाश कर देता है। उसके चरित्र में निम्नांकित । विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं

(1) अविवेकी व्यक्ति का प्रतीक- गंगदत्त एक ऐसे अविवेकी व्यक्ति का प्रतीक है, जो अपने वंश के सगे-सम्बन्धियों का विनाश करने के लिए अपने जन्मजात शत्रु से सहायता लेता है और उनके साथ अपने परिवार के भी समूह विनाश को देखकर पश्चात्ताप की अग्नि में जलता रहता है। (UPBoardSolutions.com) उसे तभी सद्बुद्धि आती है, जब उसका परिवार भी समूल नष्ट हो जाता है। बिना बिचारे जो करै, सो पाछे पछिताय।’ जैसी कहावतें वास्तव में गंगदत्त जैसे अविवेकी व्यक्ति पर ही चरितार्थ होती हैं।

(2) मूर्ख- गंगदत्त इतना मूर्ख मेढक है कि वह अपने जन्मजात शत्रु को अपने परिवार वालों के पास शरण देता है। अन्ततः उसे अपनी मूर्खता का दुष्परिणाम भुगतना ही पड़ता है।

(3) भीरु– गंगदत्त भीरु प्रकृति का है। वह कायरों की भाँति अपने प्राण बचाकर अन्य मेढकों को लाने के बहाने कुएँ से बाहर चला जाता है। गोधा द्वारा बुलाये जाने पर भी वह नहीं आता। उसे डर है। कि सर्प भूखा होने के कारण उसे भी खा जाएगा। उसकी यही दुर्बलता उसमें प्रारम्भ में भी देखने को मिलती है। यदि ऐसा न होता तो वह अपने भागीदारों का सामना करता और उनसे डरकर न भागता। उसकी भीरुता ही उसे पश्चात्तापमय जीवन व्यतीत करने को बाध्य करती है। |

(4) घोर स्वार्थी–गंगदत्त घोर स्वार्थी है। स्वार्थ-साधन के लिए वह औचित्य-अनौचित्य का भी ध्यान नहीं रखता। उसकी स्वार्थपरता का अन्त वंश के संमूलोच्छेद से होता है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि गंगदत्तं प्रतिशोधी स्वभाव का अविवेकी, भीरु और वज्रमूर्ख मेढक है, जो अपने वंशोच्छेद के बाद पश्चात्ताप की अग्नि में जलने के लिए बच जाता है।

प्रियदर्शन 

परिचय- प्रियदर्शन एक काला साँप है। गंगदत्त उससे मित्रता र्करके अपने सगे-सम्बन्धियों के विनाश के लिए उसे कुएँ में ले जाता है। वहाँ प्रियदर्शन गंगदत्त के सम्बन्धियों के साथ-साथ उसके परिवार का भी भक्षण कर जाता है। उसके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ हैं

(1) नीतिज्ञ— प्रियदर्शन नीति को जानने वाला है। गंगदत्त के पुकारने पर वह तुरन्त बिल से बाहर नहीं आता। उसे शंका है कि वह किसी मन्त्र, वाद्य, औषध से आकृष्ट करके उसे बन्धन में डालना चाहता है। वह गंगदत्त के मित्र बनने के प्रस्ताव पर भी सहसा विश्वास नहीं करता है। अन्ततः वह गंगदत्त (UPBoardSolutions.com) को कुलांगार जानकर उससे मित्रता करता है। वह सोचता है कि मैं कुएँ में आराम से रहूँगा और मेंढकों को खा जाऊँगा। अब अपने भोजन की चिन्ता मुझे नहीं करनी होगी।

(2) कपटी- मित्र-प्रियदर्शन गंगदत्त से मित्रता कर कपट करता है। वह वंशद्रोही गंगदत्त से इसलिए मित्रता करता है कि उसे आराम से भोजन मिलेगा। वह गंगदत्त के वंश-के साथ उसके पुत्र और पत्नी को भी खा जाता है और अन्त में गंगदत्त को भी अपनी मीठी बातों में फंसाकर खा जाना चाहता

(3) कृतघ्न- प्रियदर्शन कृतघ्न है। गंगदत्त की मूर्खता से उसे मेढकों के भक्षण का अवसर मिल जाता है, लेकिन उसकी लालसा बढ़ती ही जाती है। वह गंगदत्त के परिवार के मेढकों को खाकर अपनी कृतघ्नता का परिचय देता है। उसे मित्र के साथ विश्वासघात के दोष से मुक्त नहीं किया जा सकता।

(4) मूर्ख- प्रियदर्शन नीतिज्ञ होते हुए भी मूर्ख है। वह गंगदत्त की इस बात पर विश्वास कर लेता है कि वह उसे और मेढक लाकर देगा। अपनी मूर्खता के कारण ही उसे कुएँ में अकेले रहने के लिए विवश होना पड़ता है।

(5) दूरदर्शी- प्रियदर्शन एक दूरदर्शी सर्प है। वह प्रत्येक कार्य को करने से पहले उसके दूरगामी . परिणाम को सोचता है। जब वह इस निष्कर्ष पर पहुँच जाता है कि गंगदत्त के साथ कुएँ में जाने से उसे कोई हानि नहीं है, तब ही वह उसके साथ कुएँ में जाता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है (UPBoardSolutions.com) कि सर्प प्रियदर्शन के चरित्र में उपर्युल्लिखित समस्त विशेषताएँ पूर्णरूपेण विद्यमान हैं। इन विशेषताओं के सन्दर्भ में उसे बुरे-से-बुरे पात्र का प्रतीक माना जा सकती है।

लघु-उत्तरीय संस्कृत प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए

प्रश्‍न 1
गङ्गदत्तः कुत्रे प्रतिवसति स्म?
उत्तर
गङ्गदत्तः एकस्मिन् कुपे प्रतिवसति स्म।

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प्रश्‍न 2
गङ्गदत्तः किं कर्तुं प्रियदर्शनमाहूतवान्?
उत्तर
गङ्गदत्तः स्व दायादानां विनाशं कर्तुं प्रियदर्शनम् आहूतवान्।

प्रश्‍न 3
मण्डूकोभावे सर्पेण गङ्गदत्तः किमभिहितः?
उत्तर
मण्डूकाभावे सर्प: गङ्गदत्तम् अवदत्–भद्र! प्रयच्छ मे किञ्चिद् भोजनम्।

प्रश्‍न 5
गङ्गदत्तः स्वपल्या कथं निन्दितः?.,
उत्तर
गङ्गदत्त: स्वपल्या स्वपक्षक्षयकारणात् निन्दितः।

प्रश्‍न 5
गोधा प्रियदर्शनस्य कं सन्देशं गङ्गदत्तमकथयत्?
उत्तर
गोधा प्रियदर्शनस्य आगम्यतामेकाकिनापि भवता द्रुततरं, यदन्ये मण्डूकाः नागच्छन्ति। इति सन्देशं गङ्गदत्तमकथयत्।

प्रश्‍न 6
का निष्करुणा भवन्ति?
उत्तर
क्षीणाः नराः निष्करुणा भवन्ति।

वस्तुनिष्ठ  प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए

1. ‘न गङ्गदत्तः पुनरेति कूपम्’ नामक पाठ किस ग्रन्थ से लिया गया है?
(क) बृहत्कथामञ्जरी से
(ख) पञ्चतन्त्रम् से 
(ग) हितोपदेश से
(घ) कथासरित्सागर से

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2. ‘पञ्चतन्त्रम्’ के रचयिता कौन हैं?
(क) महाकवि भास
(ख) पण्डित विष्णु शर्मा
(ग) गुणाढ्य ।
(घ) शर्ववर्मा

3. पंण्डित विष्णु शर्मा ने पञ्चतन्त्रम् की रचना किसलिए की थी?
(क) अपने पुत्रों को शिक्षा देने के लिए।
(ख) सातवाहन के पुत्रों को शिक्षा देने के लिए
(ग) अमरशक्ति के पुत्रों को शिक्षा देने के लिए।
(घ) अमरशक्ति को शिक्षा देने के लिए

4. गंगदत्त कौन है?
(क) एक मगरमच्छ
(ख) एक सर्प
(ग) एक कछुआ
(घ) एक मेंढक

5. गंगदत्त कहाँ रहता था? 
(क) सरोवर में
(ख) कूप में,
(ग) बिल में
(घ) कोटर में

6. प्रियदर्शन किसका नाम है? 
(क) गंगदत्त के पुत्र का
(ख) यमुनादत्त के पिता का
(ग) एक मगरमच्छ का
(घ) एक सर्प का 

7. गंगदत्त प्रियदर्शन को कुएँ में क्यों लाया था? …………।
(क) वह प्रियदर्शन को अपना घर दिखाना चाहता था ,
(ख) प्रियदर्शन गंगदत्त का सम्बन्धी था ।
(ग) गंगदत्त प्रियदर्शन को दिखाकर अपने बन्धुओं को डराना चाहता था ।
(घ) गंगदत्त प्रियदर्शन के द्वारा अपने भागीदारों का विनाश कराना चाहता था।

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8. गंगदत्त की पत्नी ने गंगदत्त की निन्दा क्यों की?
(क) गंगदत्त द्वारा लाये गये सर्प ने उसके पुत्र यमुनादत्त को खा लिया था
(ख) गंगदत्त अपने बन्धुओं के साथ मित्रता से नहीं रह रहा था।
(ग) गंगदत्त की पत्नी को प्रियदर्शन से भय लगता था ।
(घ) प्रियदर्शन सर्प ने गंगदत्त की पत्नी को खाना चाहा था।

9. ‘स्वभाववैरी त्वमस्माकम्’ में किसको किसका वैरी कहा गया है?
(क) मेढक को गोधा का
(ख) गोधा को मेढक का
(ग) मेढक को साँप का
(घ) साँप को मेढक का

10. प्रियदर्शन सर्प ने गंगदत्त मेढक को कुएँ से बाहर क्यों जाने दिया?
(क) प्रियदर्शन कुएँ में अकेला रहना चाहता था,
(ख) प्रियदर्शन ने गंगदत्त के द्वारा अपने घर सन्देश भेजा था।
(ग) गंगदत्त ने बाहर से मेढकों को लाने का आश्वासन दिया था
(घ) गंगदत्त के शरीर से बहुत दुर्गन्ध आती थी।

11. गंगदत्त लौटकर कुएँ में क्यों नहीं गया?
(क) उसको कुएँ से अच्छा निवासस्थान मिल गया था।
(ख) उसको कुएँ में शीत सताती थी।
(ग) उसको प्रियदर्शन द्वारा खाये जाने का भय था
(घ) वह कुएँ में उतरने में असमर्थ था

12. ‘बुभुक्षितः किं न करोति पापं’ इस पंक्ति में बुभुक्षित किसको कहा गया है?
(क) गंगदत्त को
(ख) यमुनादत्त को
(ग) प्रियदर्शन को
(घ) गोधा को

13. ‘न गङ्गदत्तः पुनरेति कूपम्’, पाठ में कपटी मित्र कौन है?
(क) गोधा
(ख) यमुनादत्त
(ग) गंगदत्त
(घ) प्रियदर्शन

14. ‘भो गङ्गदत्त, बुभुक्षितोऽहम्। निःशेषिताः सर्वे मण्डूकाः।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) गोधा ।
(ख) यमुनादत्तः
(ग) प्रियदर्शनः
(घ) मण्डूक

15. ‘अथ मण्डूकाभावे सर्पणाभिहितम्-भद्र, निःशेषितास्ते •••••••••••।’ में वाक्यपूर्ति होगी–
(क) परिजनाः
(ख) रिपवः
(ग) सुहृदाः
(घ) मित्राणि

16. ‘भो! अश्रद्धेयमेतत् यत्तृणानाम् अग्निना सह सङ्गमः।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) गोधा
(ख) यमुनादत्त
(ग) प्रियदर्शनः
(घ) मण्डूकः

17. ‘तस्य मध्ये जलोपान्ते रम्यतरं कोटरम् अस्ति।’ वाक्यस्य वक्ता कोऽस्ति?
(क) गोधा
(ख) यमुनादत्तः
(ग) गङ्गदत्तः
(घ) प्रियदर्शन:

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18. ‘अथान्यदिने सर्पेणगङ्गदत्तसुतो •••••••••• भक्षितः।’ वाक्य में रिक्त-स्थान में जाएगी
(क) प्रियदर्शनो
(ख) सरयूदत्तो
(ग) भगीरथो,
(घ) यमुनादत्तो

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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 2 वत्सराजनिग्रहः (कथा – नाटक कौमुदी)

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Subject Sanskrit
Chapter Chapter 2
Chapter Name वत्सराजनिग्रहः (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 29
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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 2 वत्सराजनिग्रहः (कथा – नाटक कौमुदी)

परिचय–महाकवि भास संस्कृत नाट्य-साहित्य में अपना अन्यतम स्थान रखते हैं। स्वयं महाकवि कालिदास ने उनकी प्रशंसा की है। श्री टी० गणपति शास्त्री द्वारा उनका समय ईसा पूर्व चतुर्थ.

शताब्दी निश्चित किया गया है। इनके द्वारा लिखित नाटकों की संख्या ‘तेरहू’ है, जिनमें ‘स्वप्नवासवदत्तम्’, ‘प्रतिमानाटकम्’, ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायणम्’ आदि अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। इनकी भाषा प्रभावोत्पादक और मुहावरेदार है तथा शैली अत्यन्त प्रौढ़ है। इनके नाटकों की विशिष्टता यह है कि ये

आज भी सफलता के साथ अभिनीत किये जा सकते हैं। । प्रस्तुत अंश महाकवि भास द्वारा रचित ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायणम्’ नाटक के प्रथम अंक से संगृहीत है। इसमें उज्जयिनी के राजा चण्डप्रद्योत द्वारा कृत्रिम नीलहस्ती के व्याज से वत्सराज उदयन को बन्दी बनाने तथा उसके मन्त्री यौगन्धरायण द्वारा अपने स्वामी को छुड़ाने की प्रतिज्ञा करने का वर्णन है।

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पाठ-सारांश

यौगन्धरायण की सालक से बातचीत–यौगन्धरायण को यह समाचार मिलता है कि उज्जयिनी का राजा चण्डप्रद्योत कृत्रिम नीलहस्ती (नीला हाथी) बनाकर वत्सराज उदयन के साथ छल करना चाहता है। वत्सराज उदयन अगले दिन ही नागवन को जाने वाले थे, अत: वह पहले ही सालक के साथ स्वामी (उदयन) से मिलना चाहता है। राजमाता यौगन्धरायण और सालक को उदयन के लिए पत्र और रक्षासूत्र देना चाहती हैं। | हंसक द्वारा उदयन के नागवन पहुँचने की सूचना-इसी बीच वत्सराज (उदयन) के पास से हंसक आता है और मन्त्री यौगन्धरायण को सूचना देता है कि स्वामी (उदयन) वत्सराज एक दिन पहले ही बालुका. तीर्थ से नर्मदा को पार करके केवल राजछत्र धारण करके हाथियों का मर्दन करने योग्य थोड़ी-सी सेना लेकर नागवन चले गये हैं। वहाँ कुछ योजन चलकर (UPBoardSolutions.com) उन्होंने भयंकर हाथियों के एक झुण्ड को देखा। उस झुण्ड में से कोई पैदल सिपाही स्वामी (उदयन) के सम्मुख आया और उसने बताया कि एक कोस की दूरी पर उसने चमेली और साल के वृक्षों से ढके हुए शरीर वाले, नाखून और दाँतरहित ‘नील कुवलय तनु’ नामक एक नीला हाथी देखा है। उस छली सैनिक को उपहारस्वरूप सौ स्वर्णमुद्राएँ देकर स्वामी ने नील बलाहक हाथी से उतरकर, सुन्दर पाटल घोड़े पर बैठकर केवल बीस पैदल सिपाहियों को साथ लेकर उस ‘नील ‘कुवलय तनु’ नामक हाथी को पकड़ने के लिए प्रस्थान कर दिया। उस छली सैनिक द्वारा बताये गये स्थान पर पहुँचकर स्वामी (उदयन) ने वहाँ साल वृक्षों की छाया में कुछ कम दूरी से उस कृत्रिम नीले हाथी को देखा। स्वामी (उदयन) ने घोड़े से उतरकर जैसे ही वीणा हाथ में ली वैसे ही एक महान् बलशाली सिंह पीछे से प्रकट हुआ।

वत्सराज उदयन का बन्दी बनाया जाना—उसी समय बहुत अधिक सेना के साथ वह मिथ्या हाथी प्रकट हुआ। तब वत्सराज उदयन ने उससे युद्ध करना आरम्भ किया। लगातार युद्ध करने से थककर, प्रहारों से घायल होकर, घोड़े के गिर जाने पर वत्सराज उदयन भी बेहोश हो गये। तब कठोर (UPBoardSolutions.com) लताओं से बाँधकर बेहोश उदयन को कठोर यन्त्रणाएँ दी गयीं। उदयन के होश में आने पर वे प्रतिपक्षी तो भाग गये, लेकिन उनमें से एक वत्सराज का वध करने की इच्छा से तलवार लेकर दौड़ा, लेकिन रक्तरंजित धरती पर वह दुष्ट स्वयं फिसल कर गिर पड़ा।

शालंकायन द्वारा उदयन की रक्षा-उसी समय ‘दुस्साहस मत करो’ कहता हुआ प्रद्योत का मन्त्री शालंकायन उस स्थान पर आया और उसने प्रणाम करके स्वामी को बन्धन से मुक्त कर दिया। तब वह सज्जन उपचारसहित शान्ति वचन कहकर स्वामी को पालकी में बैठाकर उज्जयिनी की ओर ले गया। इसी बीच रक्षासूत्र लेकर आयी हुई विजया से यौगन्धरायण ने पूज्या माताजी को स्वामी के पकड़ लिये जाने की बात न बताने के लिए कहा।

यौगन्धरायण द्वारा प्रतिज्ञा-हंसक ने यौगन्धरायण को बताया कि मुझे स्वामी (उदयन) ने सन्देश देने के लिए आपके (यौगन्धरायण के) पास भेजा है। तब यौगन्धरायण (UPBoardSolutions.com) मोचयामि न राजानम्, नास्मि यौगन्धरायणः’ (अर्थात् यदि मैं राजा को नहीं छुड़ाता हूँ, तो मैं यौगन्धरायण नहीं हूँ) कहकर राजा को शत्रु से मुक्त कराने की कठिन प्रतिज्ञा करता है।

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चरित्र – चित्रण

वत्सराज उदयन

परिचय–प्रस्तुत पाठ में वत्सराज उदयन प्रत्यक्ष रूप से मंच पर नहीं आते। पात्रों के वार्तालाप से ही उनके विषय में कुछ परिचय मिलता है। उदयन कौशाम्बी के राजा और नाटक के नायक हैं। उन्हें ।

‘वत्सराज’ के विशेषण से सम्बोधित किया जाता है। वह एक निश्चिन्त प्रकृति के और मृगया-प्रेमी शासक हैं। उज्जयिनी का राजा चण्डप्रद्योत उन्हें छलपूर्वक बन्दी बना लेता है। उदयन को मुक्त कराने के लिए ही उनका मन्त्री यौगन्धरायण प्रतिज्ञा करता है। उदयन की प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं|

(1) कला मर्मज्ञ-वत्सराज उदयन कला-प्रेमी शासक हैं। संगीत के वे महान् ज्ञाता हैं। वीण बजाने में तो वे इतने निपुण हैं कि क्रुर हाथियों को भी अपनी वीणा के मधुर स्वरों से मदमस्त कर उन्हें अपने वश में कर लेते हैं। उनका वीणावादन द्वारा हाथियों को पकड़ने का कौशल ही उनको बन्दी (UPBoardSolutions.com) बनाये जाने का कारण बनता है। वह समय-समय पर कला-गोष्ठियों और प्रदर्शनियों का आयोजन का कलाकारों का सम्मान करते हैं। वह स्वयं अपनी महारानी वासवदत्ता को वीणावादन की शिक्षा देते हैं। प्रत्येक कलाविद् की भाँति वह स्वभाव से रसिक और कोमल है।

(2) मृगया-प्रेमी-वत्सराज उदयन की मृगया (शिकार खेलने) में विशेष रुचि है। उनके मृगया-प्रेम से उनके मन्त्री इत्यादि सभी राज-पुरुष चिन्तित रहते हैं। उनकी मृगया में रुचि कम करने के लिए ही एक बार उनका प्रधानमन्त्री यौगन्धरायण मृगया के समय उनकी प्राणप्रिय रानी वासवदत्ता को छिपा देता है, जिसके वियोग में उदयन अत्यन्त दु:खी होते हैं। मृगया में वे निपुण भी हैं, तभी तो नील-कुवलय हाथी को पकड़ने के लिए बहुत थोड़ी-सी सेना लेकर प्रस्थान करते हैं। नील कुवलय हाथी को देखकर वे स्वयं हाथ में वीणा लेकर अकेले उसे पकड़ने का प्रयत्न करते हैं।

(3) विलासी एवं कर्तव्यपराङ्मुख-कला-प्रेमी उदयन स्वभावोचित विलासी राजा हैं। प्रजा के सुख-दुःख से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। वे प्रतिपल वासवदत्ता के प्रेम में आकण्ठ निमग्न रहते हैं। अथवा वीणावादन में संलग्न रहते हैं। उनके शासन का सम्पूर्ण कार्यभार प्रधानमन्त्री यौगन्धरायण के ऊपर है।

(4) धीरललित नायक-नाट्यशास्त्रियों ने नायकों के मुख्य रूप से चार भेद बताये हैंधीरोदात्त, धीरोद्धत, धीरललित एवं धीरप्रशान्त। उदयन धीरललित कोटि के नायक हैं। इस प्रकार के नायक की विशेषता यह होती है कि वह प्रजा के प्रति अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन नहीं करता है। और करता भी है तो अत्यल्प मात्रा में। वत्सराज उदयन की भी यही दशा है।

(5) वीर एवं साहसी-वीर एवं साहसी एक राजा के मुख्य गुण हैं। उदयन इन गुणों से सम्पन्न राजा है। युद्ध अथवा शिकार के लिए वे अधिक सेना को आवश्यक नहीं मानते। नील कुवलय हाथी को पकड़ने के लिए वे वीरता का परिचय देते हुए अकेले ही आगे बढ़ते हैं। चण्डप्रद्योत की सेना से वे साहस (UPBoardSolutions.com) के साथ लड़ते हुए घायल होकर गिर पड़ते हैं। उन्हें होश में आती देखकर उनके शत्रु उन्हें छोड़कर भाग खड़े होते हैं; यह तथ्य उनके वीर एवं साहसी होने की पुष्टि करता है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि वत्सराज उदयन कोमल एवं निश्चिन्त प्रकृति के, श्रृंगारी, रसिक, कला-प्रेमी, सुन्दर एवं युवा शासक हैं।

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यौगन्धरायण

परिचय-प्रस्तुत नाट्यांश में यौगन्धरायण ही प्रभावशाली पात्र के रूप में मंच पर अवतरित होता है। वह नृत्सराज उदयन का स्वामिभक्त एवं नीति-निपुण प्रधानमन्त्री है। उसके नाम पर ही नाटक का नाम ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायणम्’ रखा गया है। उसका चरित्रांकन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है

(1) राजनीति-निपुणे मन्त्री–यौगन्धरायण राऊँनीति में निपुण योग्य मन्त्री है। वह प्रत्येक कार्य को योजनाबद्ध रूप से सम्पन्न करता है। उसके राजनीतिक ज्ञान से प्रभावित होकर ही उदयन ने उसे अपना प्रधान अमात्य नियुक्त किया है और वही शासन का सम्पूर्ण कार्य भी देखता है। (UPBoardSolutions.com) उदयन को बन्दी बनाये जाने की सूचना राजमाता को न देने के लिए विजया को आदेश देना उसकी नीति-निपुणता का परिचायक है।

(2) स्वामिभक्त कुशल मन्त्री-कुशल मन्त्री के लिए राजा का विश्वासपात्र एवं स्वामिभक्त होना अनिवार्य है। यौगन्धरायण में ये दोनों गुण विद्यमान हैं। उदयन उसे अपने राज्य का समस्त कार्य देखने का उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपता है, जिसे वह पूर्ण निष्ठा के साथ सम्पन्न करता है। उसका यह गुण उसके कुशल मन्त्री होने का द्योतक है। स्वामिभक्ति तो उसके रक्त की एक-एक बूंद में समायी।हुई है। उदयन के बन्दी बनाये जाने का समाचार सुनकर वह तुरन्त अपने स्वामी को मुक्त कराने की .: प्रतिज्ञा करता है

यदि शत्रुबलग्रस्तो राहुणा चन्द्रमा इव ।
मोचयामि न राजानं नास्ति यौगन्धरायणः ॥

(3) दूरदर्शी-मन्त्रियोचित गुणों से सम्पन्न यौगन्धरायण दूरदर्शी मन्त्री है। वह चन्द्रप्रद्योत के छल की बात जानकर सालक के साथ उदयन के नागवन जाने से पूर्व मिलना चाहता है और उन्हें सम्भावित विपत्ति से अवगत कराना चाहता है। उसकी आशंका अन्ततः सही निकलती है। उदयन के बन्दी बनाये जाने की सूचना राजमाता को न देने के लिए विजया से कहना भी उसके दूरदर्शी होने का द्योतक है।

(4) कर्तव्यपरायण-जो व्यक्ति स्वयं कर्तव्यपरायण हो, वह दूसरों को भी उसी रूप में देखना चाहता है। यौगन्धरायण स्वयं कर्तव्यपरायण मन्त्री है तभी तो वह हंसक से उदयन को बन्दी बनाये जाने की सूचना पाकर उत्तेजित स्वर में पूछता है कि “रुमण्वान् उस समय कहाँ था? उसके होते हुए यह (UPBoardSolutions.com) विपत्ति कैसे आयी?” उसे आशंका होती है कि कहीं रुमण्वान् के कर्तव्यच्युत् होने के कारण ही तो राजा (उदयन) बन्दी नहीं बनाये गये हैं। इसलिए वह उत्तेजित हो जाता है।

(5) वीर-यौगन्धरायण महान् वीर भी है। अपने स्वामी उदयन को बन्दी बनाये जाने की सूचना पाकर वह तनिक भी विचलित नहीं होता, अपितु वीरता के साथ आयी हुई विपत्ति के निवारण का उपाय सोचता है और अन्ततः अपने स्वामी को मुक्त कराने की प्रतिज्ञा करता है। यह घटना उसके वीर पुरुष होने का साक्ष्य प्रस्तुत करती है। | निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि यौगन्धरायण, राष्ट्रप्रेमी, प्रजावत्सल, कर्तव्यपरायण, वीर, साहसी, कुशल राजनीतिज्ञ, दूरदर्शी और विशिष्ट गुणों से युक्त व्यक्ति है।

हंसक

परिचय-प्रस्तुत नाट्यांश में यौगन्धरायण के पश्चात् हंसक ही प्रमुख पात्र है। निर्मुण्डक के साथ मंच पर प्रवेश करने के पश्चात् वह अन्त तक मंच पर बना रहता है और यौगन्धरायण को वस्तुस्थिति से अवगत कराने के साथ-साथ आगामी योजना में भी वह उसका सहायक बनता है। उसकी प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) श्रेष्ठ सन्देशवाहक-हंसक एक श्रेष्ठ सन्देशवाहक है। वह यौगन्धरायण को अपने स्वामी (उदयन) को बन्दी बनाये जाने की सूचना देता है और सम्पूर्ण वृत्तान्त को क्रमशः कह देता (UPBoardSolutions.com) है। एक-एक घटना का वर्णन वह विस्तार के साथ करता है। उसकी संवाद-प्रेषण की कुशलता को जानकर ही सम्भवत: उदयन उसे ही अपना सन्देश यौगन्धरायण तक पहुँचाने के लिए चुनते हैं। |

(2) स्वामिभक्त–यौगन्धरायण की भाँति हंसक भी स्वामिभक्त है। उदयन को बन्दी बनाये जाने से वह दु:खी है। अपने स्वामी को बन्दी बनाये जाने की पीड़ा उसके इन शब्दों में स्पष्ट रूप से झलकती। है-
‘अस्यानर्थस्योत्पादकः कश्चिन्पदातिः भत्तरमुपस्थितः।”••••••••• ततः सुवर्णशत प्रदानेन तं नृशंसं प्रतिपूज्य भक्तम्’ इत्यादि संवादों से शत्रु के प्रति उसकी ग्लानि एवं स्वामी के प्रति स्वामिभक्ति प्रकट होती है।

(3) विश्वासपात्र –सेवक का मुख्य गुण स्वामी का विश्वासपात्र होना है। हंसक अपने स्वामी का विश्वासपात्र सच्चा सेवक है तभी तो उदयन अपने बन्दी बनाये जाने का समाचार यौगन्धरायण को देने के लिए उसे नियुक्त करते हैं। यौगन्धरायण भी उससे मन्त्रणा करता है। निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि हंसक वाक्पटु, श्रेष्ठ सन्देशवाहक, स्वामिभक्त व सच्चा सेवक है। सेवक है। 

शालकायन

प्रस्तुत पाठ में शालंकायन भी मंच पर नहीं आता है। वह राजा चण्ड प्रद्योत का मन्त्री है। वह साहसी, बुद्धिमान्, शिष्ट और सज्जन है। वह युद्ध-स्थल में जाकर राजा उदयन को प्रणाम करता है, शान्त वचनों से उन्हें धैर्य बँधाता है और बन्धन से मुक्त कर देता है। वह अपने स्वामी के शत्रु के प्रति भी शिष्टाचार का व्यवहार करता है तथा सैनिक को उदयन का वध करने से रोककर अपने दयावान होने का परिचय भी देता है।

लघु-उत्तीय संस्कृत  प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिएप्रश्न

प्रश्‍न 1
यौगन्धरायणः कः आसीत्?
उत्तर
यौगन्धरायणः वत्सराजस्य उदयनस्य अमात्यः आसीत्।

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प्रश्‍न 2
प्रतिसरा किमर्थं युज्यते?
उत्तर
प्रतिसरा रक्षार्थं युज्यते।

प्रश्‍न 3
राजा उदयनः नीलहस्तिनं वशीकर्तुं कुत्रं गतः? तत्र किं दृष्टम्?
उत्तर
राजा उदयनः नीलहस्तिनं वशीकर्तुं नागवनं गतः। तत्र सः गजबूंथम् एकं पदाति च अपश्यत्।।

प्रश्‍न 4
तेन का नदी तीर्णा?
उत्तर
तेन नर्मदा नदी तीर्णा।

प्रश्‍न 5
कतिभिः पदातिभिः सह राजा प्रयातः?
उत्तर
राजा विंशत्या पदातिभिः सह प्रयातः

प्रश्‍न 6
‘कृतकहस्ती’ इति तेन कथं ज्ञातम्?
उत्तर
यदा स हस्ती सैन्येन सह प्रकटितः तदा राज्ञा सः कृतकहस्ती इति ज्ञातः

प्रश्‍न 7
कथं मोहं गतो राजा? ।
उत्तर
अनुबद्धदिवसयुद्धपरिश्रान्तः बहुप्रहारनिपतिततुरगः स राजा मोहं गतः

प्रश्‍न 8
केन विमुक्तेः राजा?
उत्तर
प्रद्योतस्य अमात्येन शालङ्कायनेन विमुक्तः राजा उदयनः।

प्रश्‍न 9
यौगन्धरायणेन का प्रतिज्ञा कृता?
उत्तर
“यदि शत्रुबलग्रस्तं राजानं न मोचयामि, नाहमस्मि यौगन्धरायणः”, इति यौगन्ध- रायणेन प्रतिज्ञा कृता।।

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प्रश्‍न 10
राजा कुत्रानीतः?
उत्तर
राजा उज्जयिनीम् आनीतः।।

वस्तुनिष्ठ  प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए-

1. ‘वत्सराजनिग्रहः’ नामक पाठ महाकवि भास के किस नाटक से संगृहीत है?
(क) प्रतिमानाटकम्
(ख) स्वप्नवासवदत्तम् ।
(ग) दूतवाक्यम् ।
(घ) प्रतिज्ञायौगन्धरायणम् ।

2. ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायणम्’ नाटक के नाटककार हैं–
(क) महाकवि भवभूति
(ख) महाकवि शुद्रक
(ग) महाकवि कालिदास
(घ) महाकवि भास

3. निम्नलिखित में से कौन-सी रचना महाकवि भास द्वारा लिखी हुई नहीं है ?
(क) स्वप्नवासवदत्तम् ।
(ख) प्रतिज्ञायौगन्धरायणम् ।
(ग) उत्तररामचरितम्
(घ) प्रतिमानाटकम्

4. ‘वत्सराजनिग्रहः’ नाट्य-रचना में ‘वत्सराज’ कौन है?
(क) कौशाम्बी का राजा
(ख) कौशाम्बी का मन्त्री
(ग) उज्जयिनी का राजा
(घ) उज्जयिनी का मन्त्री

5. वत्सराज किस विद्या में निपुण थे?
(क) अश्वविद्या में
(ख) शासन-संचालन में
(ग) शस्त्रविद्या में
(घ) वीणावादन में …

6. उदयन नर्मदा नदी को पार करके कहाँ गये थे?
(क) कौशाम्बी
(ख) बालुका तीर्थ :
(ग) उज्जयिनी ।
(घ) नागवन

7. उदयन कहाँ का राजा था?
(क) उज्जयिनी का
(ख) कौशाम्बी का
(ग) काशी का
(घ) मगध का

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8. उदयन अश्व पर चढ़कर कितने सैनिकों के साथ हाथी को पकड़ने के लिए गया?
(क) बीस
(ख) तीस
(ग) चालीस
(घ) पचास

9. चण्डप्रद्योत ने उदयन के साथ किसके द्वारा छल किया?
(क) वीणा के द्वारा
(ख) पाटल घोड़े के द्वारा
(ग) नील कुवलय हाथी के द्वारा।
(घ) नीलबलाहक हाथी के द्वारा

10. यौगन्धरायण किसका मन्त्री है?
(क) चण्डप्रद्योत का
(ख) शालंकायन का
(ग) हंसक का
(घ) उदयन का

11. यौगन्धरायण में कौन है? नहीं था?
(क) राजभक्ति
(ख) प्रजामंगल और स्वामिभक्ति
(ग) मृगयाप्रेम।
(घ) कूटनीतिज्ञ

12. उदयन के बन्दी होने की सूचना यौगन्धरायण को कौन देता है?
(क) सालक
(ख) हंसक
(ग) शालंकायन
(घ) विजया

13. यौगन्धरायण ने विजया को उदयन के बन्दी होने का समाचार उनकी माता को देने से क्यों मना कर दिया?
(क) क्योंकि उदयन की ऐसी ही आज्ञा थी। |
(ख) क्योंकि राजनीतिक दृष्टि से यह उचित नहीं था।
(ग) क्योंकि उदयन की माता दुर्बल हृदय की थीं।
(घ) क्योंकि मन्त्री यौगन्धरायण राजमाता से रुष्ट थे

14. ‘नागयूथम्’ शब्द का क्या अभिप्राय है?
(क) हाथियों का झुण्ड
(ख) घोड़ों का झुण्ड |
(ग) नागों का झुण्ड
(घ) सिंहों का झुण्ड

15.’••••••••••नाम प्रद्योतस्य अमात्यः।’ में वाक्य-पूर्ति होगी
(क) यौगन्धरायणो
(ख) सालको
(ग) हंसको
(घ) शालङ्कायनो

16. ‘इदानीं रुमण्वान् क्व गतः? इदानीम् अश्वारोहणीयं क्व गतम्?’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति ?
(क) यौगन्धरायणः
(ख) शालङ्कायनः
(ग) उदयनः
(घ) हंसक

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17.’अस्त्येष चक्रवर्ती …………….. नीलकुवलयतनुर्नाम हस्तिशिक्षायां पठितः।’ वाक्य में रिक्त स्थान में आएगा
(क) ऊष्ट्रः
(ख) अश्वः
(ग) राजा
(घ) हस्ती

18. ‘अहो नु खलु वत्सराजभीरुत्वं प्रद्योयतस्य।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(कु) सालकः :
(ख) प्रद्योतः
(ग) यौगन्धरायणः
(घ) हंसकः

19. ‘यदि शत्रुबलग्रस्तो राहुणा चन्द्रमा इव।’ वाक्यस्य वक्ताकः अस्ति?
(क) यौगन्धरायणः
(ख) उदयन:
(ग) शालङ्कायनः
(घ) चण्डप्रद्योतः

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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 1 गार्गी-याज्ञवल्क्यसंवादः (कथा – नाटक कौमुदी)

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 1
Chapter Name गार्गी-याज्ञवल्क्यसंवादः (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 26
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 1 गार्गी-याज्ञवल्क्यसंवादः (कथा – नाटक कौमुदी)

परिचय-उपनिषद् ग्रन्थ भारतीय मनीषा की आध्यात्मिक चेतना के प्रतीक हैं। वैदिक साहित्य का अन्तिम भाग होने के कारण इन्हें वेदान्त’ भी कहा जाता है। यद्यपि उपनिषदों की संख्या शताधिक है; किन्तु इनमें प्राचीन एवं प्रामाणिक उपनिषदों की संख्या एकादश ही मानी जाती है। बृहदारण्यक् उपनिषद् इन्हीं में से एक है। प्रस्तुत पाठ इसी उपनिषद् में आये हुए एक आख्याने पर आधारित है, जिसमें मिथिलाधिपति (UPBoardSolutions.com) जनक की सभा में महर्षि याज्ञवल्क्य से परमविदुषी गार्गी वैदुष्यपूर्ण शास्त्रार्थ करती है। याज्ञवल्क्य और गार्गी की इस शास्त्र-चर्चा द्वारा हमें इस बात की भी जानकारी होती है कि प्राचीन भारत में स्त्रियाँ उच्च शिक्षित हुआ करती थीं।।

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पाठ-सारांश

सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी की खोज- प्राचीनकाल में मिथिला के राजा जनक ने एक यज्ञ किया, जिसमें कुरु और पांचाल देशों से विद्वान् ब्राह्मणों को आमन्त्रित किया गया। राजा जनक ने ब्रह्मविद्या में सर्वाधिक पारंगत विद्वान् का पता लगाने की इच्छा से स्वर्ण-जटित शृंगों वाली एक हजार गायें मँगवाकर सर्वश्रेष्ठं ब्रह्मज्ञानी को सभी गायें ले जाने के लिए कहा। राजा जनक की इस घोषणा को सुनकर सभी ब्राह्मण मौन बैठे रहे, कोई भी उन गायों को ले जाने के लिए तैयार नहीं हुआ। इसी बीच याज्ञवल्क्य ने अपने एक शिष्य को सब गायें अपने आश्रम (UPBoardSolutions.com) ले चलने के लिए कहा। याज्ञवल्क्य की इस बात को सुनकर सभा में उपस्थित सभी ब्राह्मण इसे अपना अपमान मानते हुए याज्ञवल्क्य पर क्रोधित हो गये। |

अश्‍वल की पराजय-राजा जनक के होता (यज्ञ कराने वालों पुरोहित) अश्‍वल के पूछने पर कि क्या आप सर्वोच्च ब्रह्मज्ञ हैं, याज्ञवल्क्य ने कहा कि मैं इन गायों को अपनी आवश्यकता की पूर्ति हेतु ले जा रहा हूँ, ब्रह्मज्ञानी होने के कारण नहीं।’ यह सुनकर अश्वल आदि ब्राह्मणों ने याज्ञवल्क्य को शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी, उनसे शास्त्रार्थ किया और पराजित हो गये।

गार्गी द्वारा प्रश्न और याज्ञवल्क्य द्वारा उत्तर-अश्‍वल आदि अनेक ब्राह्मण विद्वानों के पराजित हो जाने पर वचक्रु ऋषि की पुत्री गार्गी ने याज्ञवल्क्य से ब्रह्मविद्या से सम्बन्धित अत्यधिक गूढ़ प्रश्न पूछे। याज्ञवल्क्य ने बड़ी धीरता से सभी प्रश्नों के क्रम से युक्तिसंगत उत्तर दिये। दोनों के मध्य हुए वार्तालाप का संक्षिप्त-सार इस प्रकार है-जल कहाँ है? अन्तरिक्ष लोक में। अन्तरिक्ष लोक कहाँ है? गन्धर्व लोकों पर पूर्ण रूप से आश्रित है। गन्धर्वलोक किसमें व्याप्त है? अदित्यलोकों में। आदित्यलोक

किसमें व्याप्त है? चन्द्रलोकों में। चन्द्रलोक कहाँ है? नक्षत्रलोकों में। विस्तृत नक्षत्रलोक किसमें व्याप्त है? देवलोक में। देवलोक कहाँ है? इन्द्रलोक में समाहित है। इन्द्रलोक किसमें व्याप्त है? प्रजापति : लोकों में। समस्त प्रजापति लोक किसमें व्याप्त हैं? ब्रह्मलोकों में। ब्रह्मलोक कहाँ है? इस प्रश्न के (UPBoardSolutions.com) उत्तर में याज्ञवल्क्य ने कहा-गार्गी! ब्रह्मलोक को अतिक्रान्तकर प्रश्न मत करो अन्यथा तुम्हारा सिर धड़ से पृथक् होकर गिर जाएगा। याज्ञवल्क्य के ऐसा कहते ही गार्गी शान्त हो गयी।

उद्दालक की पराजय- गार्गी के पश्चात् उद्दालक ने याज्ञवल्क्य से कुछ और प्रश्न पूछे। उन । प्रश्नों का समुचित उत्तर प्राप्त कर वे भी पराजित हुए।

गार्गी के अन्य दो प्रश्न–उद्दालक के पराजित हो जाने पर गार्गी ने उपस्थित ब्राह्मणों से अनुमति पाकर याज्ञवल्क्य से पुन: दो प्रश्न और किये—प्रथम, द्युलोक से ऊपर और पृथ्वीलोक से नीचे क्या है? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि यह सब, आकाश में व्याप्त है।’ गार्गी ने द्वितीय प्रश्न पूछा कि वह आकाश किस पर आश्रित है?’ याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि ‘आकाश तो अविनाशी ब्रह्म में ही ओत-प्रोत है।’

गार्गी की सन्तुष्टि-याज्ञवल्क्य के युक्तिसंगत उत्तरों से सन्तुष्ट होकर गार्गी ने उपस्थित सभी ब्राह्मणों के समक्ष घोषणा की कि आप में से कोई भी याज्ञवल्क्य को ब्रह्मविद्या में नहीं जीत सकता; अतः आप सभी विद्वान् उन्हें ससम्मान प्रणाम करके अपने-अपने स्थान को वापस चले जाएँ। । प्रस्तुत पाठ से हमें यह शिक्षा मिलती है कि व्यक्ति को पूर्ण ज्ञान-सम्पन्न होने पर भी कभी ज्ञानाभिमान नहीं करना चाहिए, क्रोध को सदैव नम्रता से जीतना चाहिए, सत्य बात को बिना किसी आपत्ति के स्वीकार कर लेना चाहिए तथा ब्रह्मज्ञान निस्सीम है, यह मानना चाहिए।

चरित्र – चित्रण

गार्गी

परिचय-गार्गी महर्षि वचक्रु की पुत्री थी। गर्ग गोत्र में उत्पन्न होने के कारण उसका नाम गार्गी रख दिया गया था। लोगों की इस दिग्भ्रमित अवधारणा को; कि प्राचीनकाल में स्त्रियों को शिक्षा नहीं दी जाती थी; इस प्रकरण के माध्यम से दिशा दी गयी है कि उस समय स्त्रियाँ पुरुषों के समान उच्च शिक्षा (UPBoardSolutions.com) प्राप्त हुआ करती थीं। गार्गी की विद्वत्ता से इसकी पुष्टि भी हो जाती है। गार्गी की मुख्य चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं|

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(1) परम-विदुषी– गार्गी अपने समय की एक असाधारण विदुषी महिला थी। विद्वानों में उनकी गणना की जाती थी। आज भी विदुषी महिलाओं में गार्गी का नाम सर्वप्रथम लिया जाता है। राजा जनक की सभा में उसने याज्ञवल्क्य से ब्रह्मविद्या पर शास्त्रार्थ किया था और अपने प्रश्नों से विद्वत्समाज को चकित कर दिया था। उसकी शास्त्रार्थ-पद्धति भी बड़ी सुलझी हुई और रोचक थी। उसे ब्रह्मविद्या, वेदशास्त्रों का उच्च ज्ञान था। उसके सामने सभी विद्वान् नतशिर रहते थे।

(2) निरभिमानिनी-परम-विदुषी होते हुए भी गार्गी सरल हृदय थी। उसे अपने ज्ञान का लेशमात्र भी गर्व नहीं था। याज्ञवल्क्य द्वारा ब्रह्मलोक से ऊपर के प्रश्न करने से मना करने पर वह चुप हो जाती है। वह याज्ञवल्क्य से पुनः प्रश्न करने के लिए ब्राह्मणों से अनुमति माँगती है (UPBoardSolutions.com) और प्रश्न के उत्तर से प्रभावित होकर, उनकी विद्वत्ता को स्वीकार कर वह याज्ञवल्क्य को नमन करती है। वह हठधर्मिणी और कुतर्की नहीं है।

(3) निर्भीक एवं स्पष्टवक्ता- गार्गी विदुषी होने के साथ-साथ अत्यधिक निर्भीक थी। वह राजा जनक की विद्वभूयिष्ठ सभा में अकेली याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ करने का साहस रखती थी। उसके प्रत्येक प्रश्न के पीछे उसका आत्मविश्वास और निर्भीकता छिपी हुई थी। शास्त्रार्थ के अन्त में, वह निर्भीकतापूर्वक सभी विद्वानों से स्पष्ट कह देती है कि कोई भी याज्ञवल्क्य को पराजित नहीं कर सकता।

(4) सुसंस्कृत एवं शीलसम्पन्ना– गार्गी विदुषी होने के साथ-साथ सुसंस्कृत भी है। वह सभी ब्राह्मणों के क्रोधित होने पर भी क्रोधित नहीं होती और शास्त्रार्थ में याज्ञवल्क्य के लिए विद्वज्जनोचित सम्बोधन प्रयुक्त करती है; यथा-”भगवन्! गन्धर्व लोकाः कस्मिन्?” ब्रह्मर्षे कुत्र खलु ब्रह्मलोकाः?” वह याज्ञवल्क्य के “हे गार्गि! ब्रह्मलोकमप्यतिक्रम्य ततः ऊर्ध्वस्य तदाधारस्य प्रश्न मा कुरु, अन्यथा चेत्ते मूर्नः पतनं भविष्यति।” वाक्य को सुनकर भी उत्तेजित नहीं होती। यह उसकी शीलसम्पन्नता का उत्कृष्ट उदाहरण है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि गार्गी परम-विदुषी, निर्भीक और निरभिमानिनी होने के .. साथ-साथ उच्चकुलोत्पन्न एवं विनीत आदर्श भारतीय महिला है। उसकी बुद्धि तार्किक और तीक्ष्ण है। हमें गार्गी जैसी विदुषी भारतीय महिलाओं पर गर्व होना चाहिए।

लघु-उत्तरीय संस्कृत प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए-

प्रश्‍न 1
जनकः कः आसीत्?
उत्तर
जनक: मिथिलायाः नृपः आसीत्।।

प्रश्‍न 2
जनकस्य यज्ञे कुतः ब्राह्मणाः समागताः? उत्तर-जनकस्य यज्ञे कुरु-पाञ्चालदेशेभ्यः ब्राह्मणाः समागताः।

प्रश्‍न 3
याज्ञवल्क्यः स्वशिष्यं किमकथयत्?
उत्तर
याज्ञवल्क्यः स्वशिष्यम् अकथयत्-हे सोमाई! एता: गाः अस्मद्गृहान् नयतु।’

प्रश्‍न 4
जनकस्य होता कः आसीत्?
उत्तर
जन उत्तर–जनकस्य होता अश्वलनामा ब्राह्मणः आसीत्।

प्रश्‍न 5
ब्राह्मणाः सकोपं कं किमूचुः?
उत्तर
ब्राह्मणाः सकोपं याज्ञवल्क्यम् ऊचुः यत् कथं नः अनादृत्य त्वमात्मानं ब्रह्मिष्ठं मन्यसे?

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प्रश्‍न 6
अश्वलेन पृष्टः याज्ञवल्क्यः किमुदतरत्?
उत्तर
अश्वलेन परिपृष्टः याज्ञवल्क्यः उदरत् यत् अस्माभिः गोकामनया एवं गाः नीता, न तु ब्रह्मिष्ठत्वाभिमानात्।।

प्रश्‍न 7
प्रथमं गार्गी याज्ञवल्क्यम् किमपृच्छत्?
उत्तर
प्रथमं गार्गी याज्ञवल्क्यम् अपृच्छत् यत् इदं दृश्यमानं पार्थिवं सर्वमप्सु ओतञ्च प्रोतञ्च, ता: आपः कस्मिन् खलु ओताः प्रोताश्च।

प्रश्‍न 8
याज्ञवल्क्यः गार्गी किं प्रत्युवाच प्रथमम्?
उत्तर
याज्ञवल्क्यः गार्गी प्रथमं प्रत्युवाच यत् ताः आपः वायो ओताश्च प्रोताश्च सन्ति।

प्रश्‍न 9
गाग्र्याः द्वितीयप्रश्नस्य याज्ञवल्क्यः किमुत्तरं दत्तवान्?
उत्तर
गाग्र्याः द्वितीयप्रश्नस्य याज्ञवल्क्यं उत्तरं दत्तवान् यत् ‘आकाशस्त्वक्षरे परब्रह्मण्येव ओतश्च प्रोतश्च।

प्रश्‍न 10
याज्ञवल्क्येन प्रयुक्ता गार्गी किमकथयत्?
उत्तर
याज्ञवल्क्येन प्रयुक्ता गार्गी ‘ब्रह्मवादं प्रति याज्ञवल्क्यस्य जेता नास्ति’ इति अकथयत्।

वस्तुनिष्ठ  प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए

1. ‘गार्गी-याज्ञवल्क्यसंवादः’ नामक पाठ किस उपनिषद् से संगृहीत है?
(क) श्वेताश्वतर से
(ख) माण्डूक्य से।
(ग) बृहदारण्यक से
(घ) छान्दोग्य से

2. ‘गार्गी-याज्ञवल्क्यसंवाद’ में यज्ञ करने वाले व्यक्ति थे
(क) जनक 
(ख) याज्ञवल्क्य
(ग) उद्दालक
(घ) अश्वल

3. राजा जनक के यज्ञ में किन देशों से विद्वान् आये थे? 
(क) पांचाल देश से
(ख) मिथिला देश से।
(ग) पांचाल और कुरु देशों से 
(घ) कुरु देश से

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4. जनक के होता (यज्ञ कराने वाला पुरोहित ) का नाम था
(क) उद्दालक
(ख) अश्वल
(ग) याज्ञवल्क्य
(घ) गार्गी

5. राजा जनक ने किसको सुवर्णजटित सींगों वाली हजार गायें ले जाने के लिए कहा?
(क) सर्वश्रेष्ठ मुनि को
(ख) सर्वश्रेष्ठ होता को
(ग) सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मविद् को 
(घ) सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण को

6. गार्गी के पश्चात् याज्ञवल्क्य से किसने शास्त्रार्थ किया?
(क) अश्वल ने
(ख) सोमार्स ने
(ग) उद्दालक ने
(घ) जनक ने

7. शास्त्रार्थ में कौन विजयी घोषित किया गया?
(क) अश्वल
(ख) उद्दालक
(ग) याज्ञवल्क्य
(घ) गार्गी

8. याज्ञवल्क्य ने गार्गी के मूर्धापतन की बात क्यों कही?
(क) याज्ञवल्क्य गार्गी के प्रश्न का उत्तर नहीं जानते थे
(ख) याज्ञवल्क्य गार्गी को भयभीत करना चाहते थे।
(ग) याज्ञवल्क्य शास्त्रार्थ समाप्त करना चाहते थे।
(घ) याज्ञवल्क्य ब्रह्मज्ञान की निर्धारित सीमा का अतिक्रमण नहीं चाहते थे

9. गार्गी ने याज्ञवल्क्य के मूर्धापतन की बात क्यों कही?
(क) गार्गी याज्ञवल्क्य से बदला लेना चाहती थी ।
(ख) गार्गी याज्ञवल्क्य के ब्रह्मज्ञान की परीक्षा लेना चाहती थी ।
(ग) गार्गी याज्ञवल्क्य को पराजित करना चाहती थी।
(घ) गार्गी राजा जनक की गायें ले जाना चाहती थी। .

10.’राजा ……….. स्वजिज्ञासाप्रशमनार्थं स्वगोष्ठे स्वर्णशृङ्गयुताम् गवां सहस्रमवरुरोध।’ में रिक्त स्थान में आएगा
(क) जनकः
(ख) दशरथः
(ग) हरिश्चन्द्रः
(घ) हर्षवर्द्धनः

11. ‘हे सोमाई! एताः गाः अस्मद् गृहान् नयतु।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) याज्ञवल्क्यः
(ख) अश्वलः
(ग) गार्गी.
(घ) उद्दालकः

12. गार्गी कस्याः पुत्री आसीत्?
(क) उद्दालकस्य
(ख) विश्वामित्रस्य
(ग) वचक्रुः
(घ) वशिष्ठस्य।

13.’युष्माकं मध्ये इमं याज्ञवल्क्यं ब्रह्मवादं प्रति नैवास्ति कश्चिदपि •••••••••।’ में रिक्त स्थान में आएगा
(क) जयति ।
(ख) जयावे
(ग) जयेव
(घ) जेता।

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14.’हे ब्राह्मणाः! इमं याज्ञवल्क्य महं प्रश्नद्वयं•••••••• में वाक्य-पूर्ति होगी
(क) प्रक्ष्यामि’ से
(ख) वदिष्यामि’ से।
(ग) “कथयामि’ से
(घ) “भविष्यामि’ से

15. इन्द्रलोकेषु कस्मिन् लोके समाहिताः?
(क) आदित्यलोकाः
(ख) गन्धर्वलोकाः
(ग) नक्षत्रलोकाः
(घ) देवलोकाः 

16.’अन्तरिक्षलोकाः••••••••••• लोकेष कात्स्येन आश्रिताः।’ में वाक्य-पूर्ति होगी–
(क) ‘आदित्य’ से
(ख) ‘चन्द्र’ से
(ग) ‘नक्षत्र से
(घ) “गन्धर्व’ से

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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 8 नारी-महिमा (पद्य-पीयूषम्)

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Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 8
Chapter Name नारी-महिमा (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter नारी-महिमा (पद्य-पीयूषम्)

परिचय-सामाजिक एवं व्यक्तिगत जीवन के विविध पक्षों पर प्रकाश डालने वाले ग्रन्थों को स्मृति कहते हैं। श्रुति’ से जिस प्रकार वेद, ब्राह्मण, आरण्यक् और उपनिषद् ग्रन्थों का बोध होता है; उसी प्रकार ‘स्मृति’ को ग्रन्थकारों ने धर्मशास्त्र का पर्याय माना है। धर्मशास्त्र उस शास्त्र को कहते हैं, जिसमें राजा-प्रजा के अधिकार, कर्तव्य, सामाजिक आचार-विचार, व्यवस्था, वर्णाश्रम, धर्मनीति, सदाचार और शासन सम्बन्धी नियमों और व्यवस्थाओं का वर्णन होता है। स्मृतियाँ अनेक हैं किन्तु प्रमुख स्मृतियों की संख्या अठारह मानी जाती है। मनु, (UPBoardSolutions.com) याज्ञवल्क्य, अत्रि, विष्णु, हारीत, उशनस्, अंगिरा, यम, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, दक्ष, गौतम, वसिष्ठ, नारद, भृगु आदि प्रमुख स्मृतिकार माने जाते हैं। मनु को मानव जाति के आदि पुरुष के रूप में वेदों में भी स्मरण किया गया है। मनु द्वारा रचित ‘मनुस्मृति’ न केवल सर्वाधिक प्राचीन है अपितु यह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भी है। न्यायालयों में भी हिन्दू-विधि के लिए मनुस्मृति’ को ही प्रामाणिक माना जाता हैं।

प्रस्तुत पाठ के श्लोक ‘मनुस्मृति’ के द्वितीय अध्याय से संगृहीत हैं। इन श्लोकों में समाज और परिवार में नारी के महत्त्व को बताया गया है। अनेक लोग प्राचीन भारत में नारी की स्थिति को निम्न और अपमानपूर्ण बताते हैं। इन संगृहीत श्लोकों से उनकी धारणा भ्रान्तिपूर्ण सिद्ध होती है।

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पाठ-सारांश

जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। जहाँ नारियों की पूजा नहीं होती, वहाँ सभी क्रियाएँ असफल हो जाती हैं। स्त्रियों के प्रसन्न रहने पर पूरा कुल प्रसन्न रहता है। इसीलिए नारियाँ सदैव आभूषण, वस्त्र एवं भोजन द्वारा पूजनीय हैं। सांसारिक ऐश्वर्य की इच्छा करने वाले मनुष्यों को चाहिए कि सदैव उत्सवों में इनका सत्कार करें। कल्याण चाहने वाले पिता, भाइयों, पति, देवरों द्वारा नारियों का सम्मान (UPBoardSolutions.com) किया जाना चाहिए तथा इन्हें अलंकारों से भूषित किया जाना चाहिए। उपाध्याय से दस गुना आचार्य, आचार्य से सौ गुना पिता तथा पिता से हजार गुना माता गौरव में बढ़कर होती है। स्त्रियाँ सौभाग्यशालिनी तथा पुण्यशालिनी होती हैं। ये गृह की शोभा तथा लक्ष्मी होती हैं। इसलिए इनकी विशेष रूप से रक्षा की जानी चाहिए।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

(1)
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते, सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ॥

शब्दार्थ
यत्र = जहाँ, जिस घर, स्थान, समाज या देश में।
नार्यः = स्त्रियाँ।
पूज्यन्ते = पूजी जाती हैं।
रमन्ते = निवास करते हैं। तत्र । वहाँ।
यत्रैतास्तु (यत्र + एताः + तु) = जहाँ ये नारियाँ।
सर्वास्तत्रफलाः (सर्वाः + तत्र + अफलाः) = वहाँ सभी क्रियाएँ निष्फल होती हैं।

सन्दर्भ
प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘नारी-महिमा’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत-इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में स्त्रियों के महत्त्व का वर्णन किया गया है।

अन्वय
यत्र नार्यः तु पूज्यन्ते, तत्र देवताः रमन्ते। यत्र एताः तु ने पूज्यन्ते, तत्र सर्वाः क्रिया: अफलाः (भवन्ति)।

व्याख्या
जिस देश, समाज या घर में स्त्रियाँ पूजी जाती हैं; अर्थात् सम्मानित होती हैं, वहाँ देवता प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं। जहाँ पर ये पूजी, अर्थात् सम्मानित नहीं की जाती हैं, वहाँ पर किये गये यज्ञादि सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं।

(2)
स्त्रियां तु रोचमानायां, सर्वं तद्रोचते कुलम् ।
तस्यां त्वरोचमानायां, सर्वमेव न रोचते ॥

शब्दार्थ
स्त्रियां = स्त्रियों के।
रोचमानायाम् = वस्त्र, आभूषण आदि से प्रसन्न रहने पर।
रोचते  = अच्छा लगता है, शोभित होता है।
अरोचमानायाम् = अच्छी न लगने पर।
सर्वमेव = सभी कुछ।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में स्त्री के पारिवारिक महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है।

अन्वय
स्त्रियां तु रोचमानायां सर्वं तद् कुलं रोचते। तस्याम् अरोचमानायां तु सर्वम् एव न रोचते।

व्याख्या
स्त्रियों के आभूषण-वस्त्र आदि से प्रसन्न रहने पर उसका वह सारा कुल शोभित होता है। उनके प्रसन्न न रहने पर सभी कुछ अच्छा नहीं लगता है। तात्पर्य यह है कि जिस घर में स्त्रियाँ सुखी हैं, उसी घर में समृद्धि और प्रसन्नता विद्यमान रहती हैं। जहाँ स्त्रियाँ प्रसन्न नहीं रहती हैं, वहाँ कुछ भी अच्छा नहीं लगता है; अर्थात् सम्पूर्ण कुल मलिन रहता है।

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(3)
तस्मादेताः सदा पूज्या, भूषणाच्छादनाशनैः।
भूतिकामैनरैर्नित्यं, सत्यकार्येषुत्सवेषु च ॥

शब्दार्थ
सदा पूज्याः = सर्वदा पूजनीय हैं।
भूषणाच्छादनाशनैः = (भूषण + आच्छादन + अशनैः) = आभूषणों, वस्त्रों और भोजन के द्वारा
भूतिकामैः = समृद्धि चाहने वालों को।
सत्कार्येषुत्सवेषु (सत्कार्येषु + उत्सवेषु) = सत्कार्यों में और विवाहादि उत्सवों में। |

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में सत्कार्यों और उत्सवों के अवसर पर नारी को सम्मानित करने की बात कही गयी है।

अन्वय
तस्मात् भूतिकामैः नरैः सत्कार्येषु उत्सवेषु च एताः भूषणाच्छादनाशनैः सदा पूज्याः।।

व्याख्या
इस कारण से समृद्धि चाहने वाले मनुष्यों को शुभ कार्यों और उत्सवों में इनका अर्थात् स्त्रियों का आभूषण, वस्त्र और भोजन द्वारा सदा सम्मान करना चाहिए।

(4)
पितृभिर्भातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा। । 
पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः ॥

शब्दार्थ
पितृभिः = पिता आदि द्वारा।
भ्रातृभिः = भाइयों द्वारा।
पतिभिः = पति द्वारा।
देवरैः = देवरों द्वारा।
भूषयितव्याश्च = वस्त्र और अलंकार द्वारा सजाना चाहिए।
बहुकल्याणम् ईप्सुभिः = अधिक कल्याण चाहने वालों को।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में परिवारजनों द्वारा नारी को सम्मानित करने की बात कही गयी है।

अन्वय
बहु कल्याणम् ईप्सुभिः पितृभिः, भ्रातृभिः, पतिभिः तथा देवरैः एताः पूज्याः भूषयितव्याः च।।

व्याख्या
अपना अधिक कल्याण चाहने वाले माता-पिता आदि द्वारा, भाइयों द्वारा, पतियों तथा देवरों द्वारा इन स्त्रियों को वस्त्र-आभूषण आदि द्वारा अलंकृत करना चाहिए; अर्थात् स्त्री चाहे जिस रूप में; माता, बहन, पत्नी अथवा अन्य कोई भी; हो, उसका सम्मान अवश्य करना चाहिए।

(5)
उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता ।
सहस्त्रं तु पितृन्माता, गौरवेणीतिरिच्यते ॥

शब्दार्थ
उपाध्यायन्= वेतनभोगी शिक्षक।
आचार्यः = जिसके गुरुकुल में ब्रह्मचारी विद्या ग्रहण करते हैं।
शतम्= सौ गुना।
सहस्रम् = हजार गुना।
गौरवेण= श्रेष्ठता में।
अतिरिच्यते = श्रेष्ठ होती है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में नारी के माता रूप के गौरव का वर्णन किया गया है।

अन्वय
दश उपाध्यायान् (अपेक्ष्य) आचार्यः, आचार्याणां शतं (अपेक्ष्य) पिता, सहस्रं पितृन् (अपेक्ष्य) तु माता गौरवेणे अतिरिच्यते।। व्याख्या-दस उपाध्यायों की अपेक्षा आचार्य श्रेष्ठ होता है। सौ आचार्यों की अपेक्षा पिता श्रेष्ठ होता है। हजार पिता की अपेक्षा माता श्रेष्ठ होती है। तात्पर्य यह है कि सबसे ऊँचा स्थान माता का, उसके पश्चात् पिता का, फिर आचार्य का और तत्पश्चात् उपाध्याय का मान्य होता है।

(6)
पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः ।। 
स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्ताः तस्माद्रक्ष्या विशेषतः ॥

शब्दार्थ
पूजनीया = पूजा अर्थात् सम्मान के योग्य।
महाभागाः = महान् भाग्यशालिनी।
गृहदीप्तयः = घर की शोभास्वरूप।
श्रियः = लक्ष्मी।
उक्ताः = कही गयी हैं।
रक्ष्या = रक्षा करनी चाहिए।
विशेषतः = विशेष रूप से।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है कि स्त्री सभी दृष्टियों से पूजा करके प्रसन्न रखे जाने •. योग्य है।

अन्वय
पूजनीयाः, महाभागाः, पुण्याः गृहदीप्तयः च स्त्रियः गृहस्य श्रियः उक्ता। तस्मात् । विशेषत: रक्ष्याः। |

व्याख्या
सम्मान के योग्य, महाभाग्यशालिनी, पुण्यशीला और घर की शोभास्वरूप स्त्रियाँ घर की लक्ष्मी कही गयी हैं। इसलिए इनकी विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि स्त्री सर्वविध पूजनीय और रक्षणीय है।

सूक्तिपरक वाक्य की व्याख्या

(1)
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। 
सन्दर्थ
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘नारी-महिमा’ पाठ से उद्धृ त है। ।
[संकेत-इस शीर्षक के अन्तर्गत आने वाली शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में नारियों की महिमा बतायी गयी है। अर्थ-जिस स्थान पर नारियों का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं।

व्याख्या
प्रस्तुत सूक्ति में स्त्रियों का सम्मान करने पर बल दिया गया है और कहा गया है कि सदा स्त्रियों का सम्मान करना चाहिए। स्त्रियाँ देवी और लक्ष्मी के समान होती हैं; क्योंकि उनमें मातृत्व पाया जाता है। माता सदा सभी जगह वन्दनीय होती है। नारी के सतीत्व से यमराज भी पराजित हो गये। थे। (UPBoardSolutions.com) स्त्रियों का सम्मान जिस घर में होता है, वह घर स्वर्गतुल्य हो जाता है और उस घर में रहने वाले लोगों का जीवन देवताओं के समान सुखी हो जाता है।

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(2)
सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते।
प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में माता के गौरवशाली स्वरूप का वर्णन किया गया है।

अर्थ
माता गौरव में हजारों पिताओं से बढ़कर होती है।

व्याख्या
माता का पद सर्वाधिक गौरवशाली होता है। उसका. गौरव उपाध्याय, आचार्य और पिता से बढ़कर होता है। समाज में वेतनभोगी शिक्षक का पद भी गौरवशाली होता है, लेकिन वेतनभोगी शिक्षक से आचार्य का पद दस गुना गौरवपूर्ण होता है। सौ आचार्यों से पिता का गौरव अधिक होता है। और हजारों पिताओं से भी माता अधिक गौरवशालिनी होती है। इस प्रकार माता को गौरव गुरु, आचार्य और पिता सबसे अधिक होता है।

(3)
स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्ताः तस्मादक्ष्या विशेषतः ।
प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में स्त्रियों की प्रत्येक परिस्थिति में रक्षा करने की बात कही गयी है।

अर्थ
स्त्रियाँ घर की शोभा कही गयी हैं, इसलिए इनकी विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिए।

व्याख्या
घर की शोभा उसको सजाने-सँवारने तथा घर में आये अतिथियों के मान-सम्मान तथा आदर-सत्कार से होती है। इन सभी कार्यों का उत्तरदायित्व स्त्रियों का होता है। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ ही इन कार्यों को भली प्रकार सम्पादित कर पाती हैं। इसीलिए तो स्त्रियों को घर की शोभा का पर्याय मानकर यह कहा जाने लगा है कि स्त्रियाँ ही घर की शोभा होती हैं।
एक स्त्री घर के इन उत्तरदायित्वों का भली प्रकार (UPBoardSolutions.com) निर्वाह तभी कर पाती है, जब वह अपने को आर्थिक तथा सामाजिक सभी प्रकार से सुरक्षित अनुभव करती है। इसलिए घर की शोभा को बनाये रखने हेतु घर की स्त्रियों को उचित मान-सम्मान और सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए।

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते ••• तत्राफलाः क्रिया ॥ (श्लोक 1)
संस्कृतार्थः-
महर्षिः मनुः मनुस्मृतौ नारीणां सम्मानं कर्तुम् उपदिशति यत् एषु गृहेषु स्थानेषु वा जनाः नारीणां यथोचितं सम्मानं कुर्वन्ति, तेषु गृहेषु सुख-सम्पत् प्रदातारः सुराः निवासं कुर्वन्ति। यत्र एतासां सम्मानं न भवति, तत्र यानि अपि-कर्माणि क्रियन्ते, तानि फलदानि न भवन्ति। अतः नारीणां सम्मानम् अवश्यं करणीयम्।

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(2) स्त्रियां तु रोचमानायां•••न रोचते ॥ (श्लोक 2).
संस्कृतार्थः-
महर्षिः मनुः नारीणां महत्त्वं वर्णयन् कथयति यत् यस्मिन् कुले समाजे वा स्त्रियः स्वयोग्यतया न शोभन्ते, यत् सर्वं कुलं न शोभते। यस्मिन् कुले नारी शोभां प्राप्तुं न शक्नोति तत् सर्वं कुलं समाजे शोभां न प्राप्नोति।

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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 13 आरोग्य-साधनानि (पद्य-पीयूषम्)

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Subject Sanskrit
Chapter Chapter 13
Chapter Name आरोग्य-साधनानि (पद्य-पीयूषम्)
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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 13 आरोग्य-साधनानि (पद्य-पीयूषम्)

परिचय-भारतीय चिकित्सा विज्ञान के दो अमूल्य रत्न हैं-‘चरक-संहिता’ और ‘सुश्रुत-संहिता’। महर्षि चरक ने ईसा से 500 वर्ष पूर्व ‘अग्निवेश-संहिता’ नामक ग्रन्थ का प्रतिसंस्कार करके चरक-संहिता’ की रचना की थी। इसके 200 वर्ष पश्चात् अर्थात् ईसा से लगभग 300 वर्ष पूर्व ‘सुश्रुत-संहिता’ नामक ग्रन्थ की रचना महर्षि सुश्रुत द्वारा की गयी। चरक-संहिता में काय-चिकित्सा को और सुश्रुत-संहिता में शल्य-चिकित्सा (UPBoardSolutions.com) को प्रधानता दी गयी है। इन दोनों ग्रन्थों में रोगों की चिकित्सा के साथ-साथ वे उपाय भी बताये गये हैं, जिनका पालन करने से रोगों की उत्पत्ति ही नहीं होती।

प्रस्तुत पाठ के सभी श्लोक ‘चरक-संहिता’ और ‘सुश्रुत-संहिता’ से संगृहीत किये गये हैं। इन। श्लोकों में आरोग्य की रक्षा के लिए व्यायाम आदि उपायों पर प्रकाश डाला गया है।

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व्यायाम की परिभाषा-जो शारीरिक चेष्टा स्थिरता के लिए बल को बढ़ाने वाली होती है, उसे . व्यायाम कहते हैं।  व्यायाम की आवश्यकता-व्यायाम करने से शरीर में हल्कापन, कार्यक्षमता में स्थिरता, दु:खों को सहन करने की शक्ति, वात; पित्त; कफ आदि विकारों का विनाश और पाचन-क्रिया की शक्ति में वृद्धि होती है।

व्यायाम की मात्रा- मनुष्य को सभी ऋतुओं में प्रतिदिन शारीरिक क्षमता की अर्द्ध मात्रा के अनुसार, व्यायाम करना चाहिए। जब मनुष्य के हृदय में उचित स्थान पर स्थित वायु मुख में पहुँचने लगती है तो उसे बलार्द्ध (शारीरिक क्षमता की अर्द्धमात्रा) कहते हैं। इससे अधिक व्यायाम करने से (UPBoardSolutions.com) शारीरिक थकान हो जाती है, जिससे शारीरिक बल की क्षति होने की सम्भावना होती है।अधिक व्यायाम से हानियाँ–अधिक व्यायाम करने से शरीर और इन्द्रियों की थकान, रुधिर

आदि धातुओं का नाश, प्यास; रक्त-पित्त का दुःसाध्य रोग, सॉस की बीमारी, बुखार, उल्टी आदि हानियाँ होती हैं; अतः शारीरिक शक्ति से अधिक व्यायाम कभी भी नहीं करना चाहिए।

व्यायाम करने के बाद सावधानी– व्यायाम करने के बाद शरीर को चारों ओर से धीरे-धीरे मलना चाहिए; अर्थात् शरीर की मालिश करनी चाहिए।

व्यायाम के लाभ- व्यायाम करने से शरीर की वृद्धि, लावण्य, शरीर के अंगों की सुविभक्तता, पाचन-शक्ति का बढ़ना, आलस्यहीनता, स्थिरता, हल्कापन, स्वच्छता, शारीरिक थकान-इन्द्रियों की थकान–प्यास-ठण्ड-गर्मी आदि को सहने की शक्ति और श्रेष्ठ आरोग्य उत्पन्न होता है। व्यायाम करने से मोटापा घटता है और शत्रु भी व्यायाम करने वाले को पीड़ित नहीं करते हैं। उसे सहसा बुढ़ापा और बीमारियाँ भी नहीं आती हैं। व्यायाम रूपहीन को रूपवान बना देता है। वह स्निग्ध भोजन करने वाले बलशालियों के लिए हितकर है। वसन्त और शीत ऋतु में तो विशेष हितकारी है।

स्नान करने के लाभ- स्नान करने से पवित्रता, वीर्य और आयु की वृद्धि, थकान-पसीना और मैल का नाश, शारीरिक बल की वृद्धि और ओज उत्पन्न होता है।

सिर में तेल लगाना–सिर में तेल लगाने से सिर का दर्द, गंजापन, बालों को पकना एवं झड़ना नहीं होता। सिर की अस्थियों का बल बढ़ता है और बाल काले, लम्बे और मजबूत जड़ों वाले हो जाते हैं।

भोजन के नियम- प्रेम, रुचि या अज्ञान के कारण अधिक भोजन नहीं करना चाहिए। हितकर भोजन भी देखभाल कर करना चाहिए। विषम भोजन से रोगों और कष्टों का होना देखते हुए, बुद्धिमान पुरुष को हितकर, परिमित और समय पर भोजन करना चाहिए।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

(1)
शरीरचेष्टा या चेष्टा स्थैर्यार्था बलश्रद्ध
देहव्यायामसङ्ख्याता मात्रया तां समाचरेत् ॥

शब्दार्थ
शरीरचेष्टा = देह की क्रिया।
चेष्टा = क्रिया अथवा च + इष्टा = अभीष्ट, वांछित।
स्थैयुर्था = स्थिरता के लिए।
बलवद्धिनी = बल को बढ़ाने के स्वभाव वाली।
इष्टा = अभीष्ट।
देहव्यायामसङ्ख्याता = शारीरिक व्यायाम नाम वाली।
मात्रया= थोड़ी मात्रा में, अवस्था के अनुसार।
समाचरेत् = उचित मात्रा से करना चाहिए।

सन्दर्य
प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘आरोग्य-साधनानि’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत-इस पाठ के सभी श्लोकों के लिए सही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में शारीरिक व्यायाम की आवश्यकता बतायी गयी है।।

अन्वय
स्थैर्यार्था बलवद्धिनी च या शरीरचेष्टा इष्टा (अस्ति) (सा) देहव्यायामसङ्ख्याता, तां | मात्रय समाचरेत्।।

व्याख्या
स्थिरता के लिए और बल को बढ़ाने वाली जो शरीर की क्रिया अभीष्ट है, वह शारीरिक व्यायाम के नाम वाली है। उसे अवस्था के अनुसार उचित मात्रा में करना चाहिए अर्थात् व्यायाम आयु और मात्रा के अनुसार ही किया जाना चाहिए। |

(2)
लाघवं कर्मसामर्थ्यं स्थैर्यं दुःखसहिष्णुता।
दोषक्षयोऽग्निवृद्धिश्च व्यायामादुपजायते ॥

शब्दार्थ
लाघवम् = हल्कापन।
कर्मसामर्थ्य = कार्य करने की क्षमता।
स्थैर्यम् = स्थिरता।
दुःखसहिष्णुता = कष्टों को सहन करने की शक्ति।
दोषक्षयः = प्रकोप को प्राप्त वात, पित्त, कफ आदि दोषों का विनाश।
अग्निवृद्धिः = भोजन पचाने वाली अग्नि की वृद्धि।
उपजायते = उत्पन्न होता है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यायाम से होने वाले लाभ बताये गये हैं। ।

अन्वय
व्यायामात् लाघवं, कर्मसामर्थ्य, स्थैर्य, दु:खसहिष्णुता, दोषक्षयः, अग्निवृद्धिः च उपजायते।।।

व्याख्या
व्यायाम करने से शरीर में फुर्तीलापन (हल्कापन), कार्य करने की शक्ति, स्थिरता, दु:खों को सहन करने की शक्ति, वात-पित्त कफ़ आदि दोषों का विनाश और भोजन पचाने वाली अग्नि की वृद्धि उत्पन्न होती है। तात्पर्य यह है कि व्यायाम करने से शरीर की सर्वविध उन्नति होती है।

(3)
सर्वेष्वृतुष्वहरहः पुम्भिरात्महितैषिभिः ।
बलस्यार्धेन कर्त्तव्यो व्यायामो हन्त्यतोऽन्यथा ॥

शब्दार्थ
सर्वेष्वृतुष्वहरहः (सर्वेषु + ऋतुषु + अहरह:) = सभी ऋतुओं में प्रतिदिन।
पुम्भिः = पुरुषों के द्वारा।
आत्महितैषिभिः = अपना हित चाहने वाले।
बलस्य = बल के।
अर्धेन = आधे द्वारा।
कर्तव्यः = करना चाहिए।
हन्ति = हानि पहुँचाता है।
अतोऽन्यथा = इससे विपरीत करने से।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में अधिक व्यायाम करने से होने वाली हानि को बताया गया है।

अन्वये
आत्महितैषिभिः पुम्भिः सर्वेषु ऋतुषु अहरह: बलस्य अर्धेन व्यायामः कर्त्तव्यः। अतोऽन्यथा हन्ति।।

व्याख्या
अपना हित चाहने वाले पुरुषों को सभी ऋतुओं में प्रतिदिन अपनी आधी शक्ति से व्यायाम करना चाहिए। इससे भिन्न करने से यह हानि पहुँचाता है। तात्पर्य यह है कि थकते हुए व्यायाम नहीं करना चाहिए और बहुत हल्का व्यायाम भी नहीं करना चाहिए।

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(4)
हृदि स्थानस्थितो वायुर्यदा वक्त्रं प्रपद्यते।
व्यायामं कुर्वतो जन्तोस्तद् बलार्धस्य लक्षणम् ॥

शब्दार्थ
हृदि = हृदय में।
स्थानस्थितः = उचित स्थान पर ठहरा हुआ।
वक्त्रं प्रपद्यते = मुख में पहुंचने लगती है।
कुर्वतः = करते हुए।
जन्तोः = जन्तु का।
बलार्धस्य = बल का आधा भाग।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में आधे बल का लक्षण बताया गया है।

अन्वय
व्यायामं कुर्वतः जन्तोः हृदि स्थानस्थितः वायुः यदा वक्त्रं प्रपद्यते, तद् बलार्धस्य लक्षणम् (अस्ति)।।

व्याख्या
व्यायाम करने वाले प्राणी के हृदय पर अपने स्थान पर स्थित वायु जब मुख में पहुँचते लगती है, वह आधे बल का लक्षण है। तात्पर्य यह है कि जब व्यायाम करते-करते श्वाँस का आदान-प्रदान मुख के माध्यम से शुरू हो जाए; अर्थात् साँस फूलने लगे; तो इसे आधे बल का लक्षण समझना चाहिए।

(5)
श्रमः क्लमः क्षयस्तृष्णा रक्तपित्तं तामकः ।
अतिव्यायामतः कासो ज्वरश्छदिश्च जायते ॥

शब्दार्थ
श्रमः = थकावट।
क्लमः = इन्द्रियों की थकान।
क्षयः = रक्त आदि धातुओं की कमी।
तृष्णा = प्यास।
रक्तपित्तम् = एक दुःसाध्य रोग।
प्रतामकः = श्वास सम्बन्धी रोग।
कासः = खाँसी।
छर्दिः = उल्टी।
जायते = उत्पन्न हो जाते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में अति व्यायाम करने से होने वाली हानियाँ बतायी गयी हैं।

अन्वय
अतिव्यायामतः श्रमः, क्लमः, क्षयः, तृष्णा, रक्तपित्तम्, प्रतामकः, कासः, ज्वरः, छर्दिः च जायते।

व्याख्या
अधिक व्यायाम करने से शारीरिक थकावट, इन्द्रियों की थकावट, रक्त आदि । धातुओं की कमी, प्यास, रक्तपित्त नामक दु:साध्य रोग, श्वास सम्बन्धी रोग, खाँसी, बुखार और उल्टी आदि रोग हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि अत्यधिक व्यायाम करने से अनेकानेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

(6)
व्यायामहास्यभाष्याध्व ग्राम्यधर्म प्रजागरान् ।
नोचितानपि सेवेत बुद्धिमानतिमात्रया॥ |

शब्दार्थ
हास्य = हास-परिहास।
भाष्य = बोलना।
अध्व = मार्ग-गमन।
ग्राम्यधर्म = स्त्री-सहवास।
प्रजागरान् = जागरण।
उचितान् = उचित, अभ्यस्त।
सेवेत = सेवन करना चाहिए।
अतिमात्रया = अत्यधिक मात्रा में।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यक्ति के लिए असेवनीय बातों के विषय में बताया गया है।

अन्वय
बुद्धिमान व्यायाम-हास्य-भाष्य-अध्व-ग्राम्यधर्म-प्रजागरान् उचित अपि अति मात्रया न सेवेत।।

व्याख्या
बुद्धिमान् पुरुष को व्यायाम, हँसी-मजाक, बोलना, रास्ता तय करना, स्त्री-सहवास और जागरण का अभ्यस्त होने पर भी अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि बुद्धिमान पुरुष को सदैव किसी भी चीज के अति सेवन से बचना चाहिए। |

(7)
शरीरांयासजननं कर्म व्यायामसज्ञितम् ।
तत्कृत्वा तु सुखं देहं विमृदनीयात् समन्ततः ॥

शब्दार्थ
शरीरायसिजननं = शरीर में थकावट उत्पन्न करने वाला।
व्यायाम सञ्जितम् = व्यायाम नाम दिया गया है।
सुखम् = सुखपूर्वक।
विमृद्नीयात् = मलना चाहिए, दबाना चाहिए।
समन्ततः = चारों ओर से।

प्रसंग
व्यायाम के बाद शरीर-मालिश की आवश्यकता पर बल दिया गया है।

अन्वय
व्यायामसज्ञितम् शरीरायासजननं कर्म (अस्ति) तत् कृत्वा तु देहं समन्ततः सुखं विमृद्नीयात्।।

व्याख्या
व्यायाम नाम वाला शरीर में थकावट उत्पन्न करने वाला कर्म है। उसे करने के बाद तो शरीर को चारों ओर से आराम से मसलना चाहिए। तात्पर्य यह है कि व्यायाम करने से शरीर में थकावट उत्पन्न होती है। इसके बाद शरीर की मालिश की जानी चाहिए।

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(8-9)
शरीरोपचयः कान्तिर्गात्राणां सुविभक्तता।
दीप्ताग्नित्वमनालस्यं स्थिरत्वं लाघवं मृजा ॥
श्रमक्लमपिपासोष्णशीतादीनां सहिष्णुता।
आरोग्यं चापि परमं व्यायामादुपजायते ॥

शब्दार्थ
शरीरोपचयः = शरीर की वृद्धि।
कान्तिः = चमक, सलोनापन।
गात्राणां = शरीर का।
सुविभक्तता = अच्छी प्रकार से अलग-अलग विभक्त होना।
दीप्ताग्नित्वम् = पेट की पाचनशक्ति का बढ़ना।
अनालस्यं = आलस्यहीनता, उत्साह।
स्थिरत्वं = स्थिरता, दृढ़ता।
लाघवम् = हल्कापन।
मृजा = स्वच्छता।
श्रमक्लमपिपासोष्णशीतादीनां = शारीरिक थकाने, इन्द्रियों की थकान, प्यास, गर्मी, सर्दी आदि की।
सहिष्णुता = सहन करने की योग्यता।
आरोग्यम् = स्वास्थ्य।
उपजायते = उत्पन्न होता है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक-युगल में व्यायाम के लाभ बताये गये हैं।

अन्वय
व्यायामात् शरीरोपचय, कान्तिः, गात्राणां सुविभक्तता, दीप्ताग्नित्वम्, अनालस्यं, स्थिरत्वं, लाघवं, मृजा, श्रम-क्लम-पिपासा-उष्ण-शीत आदीनां सहिष्णुता परमम् आरोग्यं च अपि उपजायते।

व्याख्या
व्यायाम करने से शरीर की वृद्धि,सलोनापन, शरीर के अंगों को भली प्रकार से । अलग-अलग विभक्त होना; पाचन-क्रिया का बढ़ना; आलस्य का अभाव, स्थिरता, हल्काषन, स्वच्छता, शारीरिक थकावट, इन्द्रियों की थकावट, प्यास, गर्मी-सर्दी आदि को सहने की शक्ति और उत्तम आरोग्य भी उत्पन्न होता है। तात्पर्य यह है कि व्यायाम करने से शरीर सर्वविध पुष्ट होता है।

(10)
न चास्ति सदृशं तेन किञ्चित् स्थौल्यापैकर्षणम्।
न च व्यायामिनं मर्त्यमर्दयन्त्यरयो भयात् ॥

शब्दार्थ
स्थौल्यार्पकर्षणम् = मोटापे (स्थूलता) को कम करने वाला।
व्यायामिनम् = व्यायाम करने वाले को।
मय॑म् = मनुष्य को। अर्दयन्ति= पीड़ित करते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यायाम को मोटापा स्थूलकोयत्व कम करने के साधन के रूप्न में . निरूपित किया गया है।

अन्वय
तेन सदृशं च स्थौल्यापकर्षणं किञ्चित् न (अस्ति)। अरय: व्यायामिनं मर्त्य भयात् न अर्दयन्ति।

व्याख्या
उस (व्यायाम) के समान मोटापे को कम करने वाला अन्य कोई साधन नहीं है। शत्रु लोग भी व्यायाम करने वाले पुरुष को अपने भय से पीड़ित नहीं करते हैं। तात्पर्य यह है कि व्यायाम स्थूलकाता को तो कम करता ही है, व्यक्ति को शत्रु भय से भी मुक्ति दिलाता है।

(11)
न चैनं सहसाक्रम्य जरा समधिरोहति ।।

स्थिरीभवति मांसं च व्यायामाभिरतस्य हि ॥

शब्दार्थ
सहसाक्रम्य = अचानक आक्रमण करके।
जरा = बुढ़ापा।
समधिरोहति = सवार होता है।
स्थिरीभवति = मजबूत हो जाता है।
मांसं = मांसपेशियाँ।
व्यायामाभिरतस्य (व्यायाम + अभिरतस्य) = व्यायाम में तत्पर ।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यायाम के महत्त्व को स्पष्ट किया गया है।

अन्वय
सहसा आक्रम्य एनं जरा न समधिरोहति। व्यायाम अभिरतस्य हि मांसं च स्थिरीभवति।

व्याख्या
सहसा आक्रमण करके बुढ़ापा-इस पर (व्यायाम करने वाले पर) सवार नहीं होता है। व्यायाम में तत्पर मनुष्य का मांस भी मजबूत हो जाता है। तात्पर्य यह है कि व्यायाम करने वाला व्यक्ति शीघ्र बूढ़ा नहीं होता है। उसकी मांसपेशियाँ भी बहुत मजबूत हो जाती हैं।

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(12)
व्यायामक्षुण्णगात्रस्य पद्भ्यामुवर्तितस्य च।।
व्याधयो नोपसर्पन्ति सिंहं क्षुद्रमृगा इव ॥

शब्दार्थ
व्यायामक्षुण्णगात्रस्य = व्यायाम से कूटे गये शरीर वाले।
पद्भ्यां = पैरों से।
उद्वर्तितस्य = रौंदे गये।
नउपसर्पन्ति= पास नहीं जाती हैं।
क्षुद्रमृगाः इव= छोटे-छोटे पशुओं की तरह।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यायाम के महत्त्व को स्पष्ट किया गया है।

अन्वय
व्यायामक्षुण्णगात्रस्य पद्भ्याम् उर्वर्तितस्य च व्याधयः सिंहं क्षुद्रमृगाः इव न उपसर्पन्ति।

व्याख्या
व्यायाम से कूटे गये शरीर वाले और पैरों से रौंदे गये व्यक्ति के पास बीमारियाँ उसी तरह नहीं जाती हैं, जैसे सिंह के पास छोटे-छोटे जानवर नहीं आते हैं। तात्पर्य यह है कि निरन्तर व्यायाम करने से मजबूत शरीर वाला व्यक्ति सामान्य मनुष्यों की तुलना में अधिक बीमार नहीं पड़ता।

(13)
वयोरूपगुणैहनमपि कुर्यात् सुदर्शनम् ।।
व्यायामो हि सदा पथ्यो बलिनां स्निग्धभोजिनाम्।
स च शीते वसन्ते च तेषां पथ्यतमः स्मृतः ॥

शब्दार्थ
वयोरूपगुणैः हीनम् = आयु, रूप तथा गुण से हीन (व्यक्ति) को।
कुर्यात् = करना चाहिए।
सुदर्शनम् = सुन्दर दिखाई पड़ने वाला।
पथ्यः = हितकर।
बलिनाम् = शक्तिशालियों का।
स्निग्धभोजिनाम् = चिकनाई से युक्त भोजन करने वाले।
पथ्यतमः = अत्यधिक हितकर।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यायाम के महत्त्व को स्पष्ट किया गया है।

अन्वय
व्यायामः हि वयोरूपगुणैः हीनम् अपि (पुरुष) सुदर्शनं कुर्यात्। सः स्निग्धभोजिनां बलिनां (कृते) सदा पथ्यः, किन्तु शीते वसन्ते च तेषां (कृते) पथ्यतमः स्मृतः।

व्याख्या
निश्चय ही व्यायाम अवस्था, रूप और अन्य गुणों से रहित व्यक्ति को भी देखने में सुन्दर बना देता है। वह चिकनाई से युक्त भोजन करने वाले बलवान् पुरुषों के लिए सदा हितकारी है, किन्तु वसन्त और शीत ऋतु में वह अत्यन्त हितकारी माना गया है। तात्पर्य यह है कि (UPBoardSolutions.com) व्यायाम सौन्दर्यरहित व्यक्ति को भी सौन्दर्यवान् बना देता है। वसन्त और शीत ऋतु में तो इसका किया जाना अत्यधिक हितकारी होता है।

(14)
पवित्रं वृष्यमायुष्यं श्रमस्वेदमलापहम्।।
शरीरबलसन्धानं स्नानमोजस्करं परम् ॥

शब्दार्थ
वृष्यम् = वीर्य की वृद्धि करने वाला।
आयुष्यम् = आयु की वृद्धि करने वाला।
श्रमस्वेद-मलापहम् = थकान, पसीने और मैल को दूर करने वाला।
शरीरबलसन्धानम् = शरीर की शक्ति को बढ़ाने वाला।
ओजस्करम् = कान्ति को बढ़ाने वाला।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में स्नान के लाभ बताये गये हैं।  अन्वये-स्नानं पवित्रं, वृष्यम्, आयुष्यं, श्रम-स्वेद-मलापहं, शरीरबलसन्धानं, परम् ओजस्करं । च (मतम्)।

व्याख्या
स्नान को पवित्रता लाने वाला, वीर्य की वृद्धि करने वाला, आयु को बढ़ाने वाला, थकान-पसीना और मैल को दूर करने वाला, शरीर की शक्ति को बढ़ाने वाला और अत्यन्त ओज । उत्पन्न करने वाला माना गया है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति के लिए स्थान बहुत ही लाभदायक है।

(15)
मेध्यं पवित्रमायुष्यमलक्ष्मीकलिनाशनम्।
पादयोर्मलमार्गाणां शौचाधानमभीक्ष्णशः ॥

शब्दार्थ
मेध्यम् = बुद्धि (मेधा) की वृद्धि करने वाला।
आयुष्यम् = आयुष्य की वृद्धि करने वाला।
अलक्ष्मीकलिनाशनम् = दरिद्रता और पाप को नष्ट करने वाला। पादयोः पैरों की
मलमार्गाणां = मल बाहर निकलने के रास्ते।
शौचाधानम् = सफाई करना।
अभीक्ष्णशः = निरन्तर।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में दोनों पैरों और मल-मार्गों की सफाई के लाभ बताये गये हैं।

अन्वय
पादयोः मलमार्गाणां (च) अभीक्ष्णशः शौचाधानं मेध्यं, पवित्रम्, आयुष्यम्, अलक्ष्मी-कलिनाशनं (च भवति)।

व्याख्या
दोनों पैरों और (भीतरी) मल को निकालने के मार्गों गुदा आदि की निरन्तर सफाई बुद्धि को बढ़ाने वाली, पवित्रता करने वाली, आयु को बढ़ाने वाली और दरिद्रता और पाप को नष्ट करने वाली होती है। तात्पर्य यह है कि शरीर की स्वच्छता शरीर को पवित्र करने वाली और आयु को बढ़ाने वाली तो है ही, निर्धनता को भी नष्ट करती है।

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(16)
नित्यं स्नेहार्दशिरसः शिरःशूलं न जायते ।
न खालित्यं ने पालित्यं न केशाः प्रपतन्ति च ॥

शब्दार्थ
नित्यम् = प्रतिदिन।
स्नेहार्दशिरसः = तेल से गीले सिर वाले का।
शिरःशूलम् = सिर का दर्द।
खालित्यम् = गंजापन।
पालित्यम् = बालों का पक जाना।
प्रपतन्ति = झड़ते हैं, गिरते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में तेल लगाने के गुण बताये गये हैं।

अन्वय
नित्यं स्नेहार्दशिरसः (जनस्य) शिरः शुलं न जायते, न च खालित्यं न (च) पालित्यं (भवति), केशाः न प्रपतन्ति (च)।

व्याख्या
सदा तेल से भीगे सिर वाले व्यक्ति के सिर में दर्द नहीं होता है। उसके न गंजापन होता है, न केश पकते हैं और न बाल झड़ते हैं। तात्पर्य यह है कि सदैव सिर में तेल लगाने वाला व्यक्ति सिर के समस्त अन्त:बाह्य विकारों से मुक्त रहता है।

(17)
बलं शिरःकपालानां विशेषेणाभिवर्धते।
दृढमूलाश्च दीर्घाश्च कृष्णाः केशा भवन्ति च ॥

राख्दार्थ
शिरःकपालानां = सिर की अस्थियों का।
विशेषण = विशेष रूप से।
अभिवर्धते = बढ़ता है।
दृढमूलाः = मजबूत जड़ों वाले।
दीर्घाः = लम्बे।
कृष्णाः = काले।
भवन्ति = होते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में तेल लगाने के गुण बताये गये हैं।

अन्वय
(स्नेहार्द्रशिरसः जनस्य) शिर:कपालानां बलं विशेषेण अभिवर्धते, केशाः दृढमूलाः दीर्घाः, कृष्ण च भवन्ति।

व्याख्या
(तेल से गीले सिर वाले पुरुष की) सिर की अस्थियों को बल विशेष रूप से बढ़ता है। बाल मजबूत जड़ों वाले, लम्बे और काले होते हैं। तात्पर्य यह है कि सदैव सिर में तेल लगाने वाला व्यक्ति सिर के समस्त अन्त:-बाह्य विकारों से मुक्त रहता है।

(18)
इन्द्रियाणि प्रसीदन्ति सुत्वम् भवति चाननम्।।
निद्रालाभः सुखं च स्यान्मूनि तैलनिषेवणात् ॥

शब्दार्थ
इन्द्रियाणि = इन्द्रियाँ।
प्रसीदन्ति= प्रसन्न हो जाती हैं।
सुत्वम् = सुन्दर त्वचा वाला।
निद्रालाभः = नींद की प्राप्ति।
मूर्टिन = सिर पर।
तैलनिषेवणात् = तेल की मालिश करने से।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में सिर पर तेल लगाने के गुण बताये गये हैं।

अन्वय
मूर्छिन तैलनिषेवणात् इन्द्रियाणि प्रसीदन्ति, आननं च सुत्वक् भवति, निद्रालाभः च सुखं स्यात्।।

व्याख्या
सिर पर तेल का सेवन करने से इन्द्रियाँ प्रसन्न हो जाती हैं, मुखे सुन्दर त्वचा वाला हो जाती है और नींद की प्राप्ति सुखपूर्वक होती है। तात्पर्य यह है कि सिर पर तेल लगाने वाला व्यक्ति शारीरिक और मानसिक रूप से प्रसन्न रहता है।

(19)
न रागान्नाप्यविज्ञानादाहारमुपयोजयेत् ।
परीक्ष्य हितमश्नीयाद् देहो स्याहारसम्भवः॥

शब्दार्थ
रागात् = प्रेम या रुचि के कारण।
अविज्ञानात् = बिना जाने हुए।
उपयोजयेत् = उपयोग करना चाहिए।
परीक्ष्य = अच्छी तरह देखभालकर।
अश्नीयात् = खाना चाहिए।
आहारसम्भवः = भोजन से बनने वाला अर्थात् आहार से सम्भव।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में भोजन करने के नियम बताये गये हैं।

अन्वय
(नरः) न रागात् न अपि अविज्ञानात्, आहारम् उपयोजयेत्। परीक्ष्य हितम् अश्नीयात्। हि देहः आहारसम्भवः।

व्याख्या
मनुष्य को न प्रेम या रुचि के कारण और न ही अज्ञान के कारण भोजन का उपयोग करना चाहिए। अच्छी तरह देखभाल कर हितकारी भोजन करना चाहिए। निश्चय ही शरीर भोजन से बनने वाला होता है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को देखभाल कर और स्वास्थ्यवर्द्धक भोजन ही करना चाहिए। प्रेम और रुचि के कारण अधिक भोजन नहीं करना चाहिए।

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(20)
हिताशी स्यान्मिताशी स्यात् कालभोजी जितेन्द्रियः।
पश्यन् रोगान् बहून् कष्टान् बुद्धिमान् विषमशिनात् ॥

शब्दार्थ
हिताशी = हितकर भोजनं करने वाला।
मिताशी = थोड़ा भोजन करने वाला।
कालभोजी = समय पर भोजन करने वाला।
जितेन्द्रियः = अपनी इन्द्रियों को वश में करने वाला।
पश्यन् = देखते हुए।
बहून्= बहुत।
विषमाशनात् = विषम (अंटसंट) भोजन करने से।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में भोजन करने के नियम बताये गये हैं।

अन्वय्
बुद्धिमान् विषमाशनात् बहून् रोगान् कष्टान् च पश्यन् हिताशी स्यात्, मिताशी स्यात्, कालभोजी, जितेन्द्रियः च स्यात्।।

व्याख्या
बुद्धिमान् पुरुष को विषम भोजन करने से होने वाले बहुत-से रोगों और कष्टों को देखते हुए हितकर भोजन करने वाला, परिमित (थोड़ा) भोजन करने वाला, समय पर भोजन करने वाला और जितेन्द्रिय होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को सर्वविध सन्तुलित भोजन करने वाला होना चाहिए।

(21)
नरो हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः।
दाता समः सत्यपरः क्षमावानाप्तोपसेवी च भवत्यरोगः ॥

शब्दार्थ
हिताहार-विहारसेवी = हितकर भोजन और विहार (भ्रमण) का सेवन करने वाला।
समीक्ष्यकारी = विचारकर काम करने वाला।
विषयेष्वसक्तः = विषयों में आसक्ति न रखने वाला।
दाता = दान देने वाला।
समः = सभी जीवों में समान भाव रखने वाला।
सत्यपरः = सत्य ही जिसके लिए सबसे उत्कृष्ट है; अर्थात् सत्य को सर्वोपरि मानने वाला।
क्षमावान् = क्षमाभाव से युक्त।
आप्तोपसेवी = विश्वसनीय व्यक्तियों का संसर्ग करने वाला।
अरोगः = नीरोग।। 

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में निरोग होने के उपाय बताये गये हैं।

अन्वय
हिताहार-विहारसेवी, समीक्ष्यकारी, विषयेषु असक्तः, दाता, समः, सत्येपरः, क्षमावान्, आप्तोपसेवी, च नरः अरोगः भवति।

व्याख्या
हितकर भोजन और विहार (भ्रमण) करने वाला, विचारकर कार्य करने वाला, विषय-वासनाओं में आसक्ति न रखने वाला, दान देने वाला, सुख-दुःख को समान समझने वाला, सत्य बोलने वाला, क्षमा धारण करने वाला और विश्वसनीय-जनों की संगति करने वाला मनुष्य रोगरहित होता है।

सूक्तिपरक वाक्य की व्याख्या

(1)
व्याधयो नोपसर्पन्ति सिंहं क्षुद्रमृगा इव।।
सन्दर्थ
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘आरोग्यसाधनानि’ नामक पाठ से उद्धृत है। .

प्रसंग
इस सूक्ति में व्यायाम की उपयोगिता को बताया गया है।

अर्थ
(व्यायाम करने वाले के) समीप बीमारियाँ उसी प्रकार नहीं जातीं, जिस प्रकार से सिंह के समीप छोटे प्राणी।।

व्याख्या
व्यायाम करने वाले व्यक्ति का शरीर इतना बलिष्ठ और मजबूत हो जाता है कि बीमारियाँ उसके समीप जाते हुए उसी प्रकार भय खाती हैं, जिस प्रकार से छोटे-छोटे जीव सिंह के समीप जाते हुए भय खाते हैं; अर्थात् व्यायाम करने वाला व्यक्ति नीरोगी होता है। अत: व्यक्ति को , नियमित व्यायाम द्वारा अपने शरीर को स्वस्थ रखना चाहिए।

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(2) शरीरबलसन्धानं स्नानमोजस्करं परम्।।

सन्दर्य
पूर्ववत्।

प्रसंग
स्नान के महत्त्व को प्रस्तुत सूक्ति में समझाया गया है।

अर्थ
स्नान शरीर की शक्ति तथा ओज को बहुत अधिक बढ़ाने वाला होता है।

व्याख्या
स्नान करने से शरीर का मैल और पसीना साफ हो जाता है, जिससे शरीर में रक्त को संचार बढ़ जाता है। रक्त-संचार के बढ़ जाने से व्यक्ति अपने शरीर में ऐसी स्फूर्ति का अनुभव करता है, मानो उसमें कहीं से अतिरिक्त शक्ति का समावेश हो गया हो। त्वचा के मैल इत्यादि के धुल जाने (UPBoardSolutions.com) से त्वचा में चमक आ जाती है, जिससे व्यक्ति का चेहरा चमकने लगता है। इसीलिए स्नान को शक्ति तथा ओज को बढ़ाने वाला माना गया है।

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