UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi नाटक Chapter 4 सूत-पुत्र

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 4
Chapter Name सूत-पुत्र (डॉ० गंगासहाय प्रेमी)
Number of Questions 17
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi नाटक Chapter 4 सूत-पुत्र (डॉ० गंगासहाय प्रेमी)

प्रश्न 1:
‘सूत-पुत्र’ नाटक का कथा-सार संक्षेप में लिखिए।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक की कथावस्तु लिखिए।
उत्तर:
‘सूत-पुत्र’ नाटक के लेखक डॉ० गंगासहाय प्रेमी हैं। इस नाटक के कथासूत्र ‘महाभारत’ से लिये गये हैं। परशुराम जी उत्तराखण्ड के आश्रम में निवास करते हैं। उन्होंने प्रतिज्ञा की है कि वह केवल ब्राह्मणों को ही धनुष चलाना सिखाएँगे, क्षत्रियों को नहीं। ‘कर्ण’ एक महान् धनुर्धर बनना चाहते हैं; अतः वे स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम जी से धनुर्विद्या सीखने लगते हैं। एक दिन परशुराम जी, कर्ण की जंघा पर सिर रखकर सोये हुए होते हैं कि एक कीड़ा कर्ण की जंघा पर कोटने लगता है, जिससे रक्तस्राव होने लगता है। रक्तस्राव होने पर भी ‘कर्ण’ दर्द सहन कर जाते हैं। कर्ण की सहनशीलता को देखकर परशुराम जी को उसके क्षत्रिय होने का सन्देह होता है। पूछने पर कर्ण उन्हें सत्य बता देते हैं। परशुराम जी क्रुद्ध होकर शाप देते हैं कि अन्त समय में तुम हमारे द्वारा सिखाई गयी विद्या को भूल जाओगे। कर्ण वहाँ से वापस चले आते हैं।

डॉ० गंगासहाय प्रेमी कृत सूत-पुत्र’ नाटक के दूसरे अंक में द्रौपदी के विवाह का वर्णन है। पांचाल-नरेश द्रुपद के यहाँ उनकी अद्वितीया सुन्दरी पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर होता है। स्वयंवर की शर्त के अनुसार प्रतिभागी को खौलते तेल की कड़ाही में ऊपर लगे खम्बे पर एक घूमते चक्र में बंधी मछली की आँख बेधनी थी। अनेक राजकुमार इसमें असफल हो जाते हैं। कर्ण अपनी विद्या पर विश्वास कर मछली की आँख बेधने आते हैं, लेकिन अपने परिचय से राजा द्रुपद को सन्तुष्ट नहीं कर पाते और द्रुपद उन्हें प्रतियोगिता के लिए अयोग्य घोषित कर देते हैं।

कर्ण के तेजस्वी रूप तथा विद्रोही स्वभाव से प्रसन्न होकर दुर्योधन ने उसे अपने राज्य के एक प्रदेश ‘अंग देश’ का राजा घोषित कर दिया, किन्तु ऐसा करके भी दुर्योधन, कर्ण की पात्रता और क्षत्रियत्व को पुष्ट नहीं कर पाता। यह प्रसंग ही दुर्योधन व कर्ण की मित्रता का सेतु सिद्ध होता है। ब्राह्मण वेश में अर्जुन और भम सभा-मण्डप में आते हैं। अर्जुन मछली की आँख बेधकर द्रौपदी से विवाह कर लेते हैं। अर्जुन तथा भीम को दुर्योधन पहचान लेता है। दुर्योधन द्रौपदी को बलपूर्वक छीनने के लिए कर्ण से कहता है, परन्तु कर्ण इसे अनैतिक कार्य के लिए तैयार नहीं होते। दुर्योधन अर्जुन से संघर्ष करता है, परन्तु घायल होकर वापस आ जाता है और कर्ण को बताता है कि ब्राह्मण वेशधारी और कोई नहीं अर्जुन और भीम ही हैं। इस बात में भी कोई सन्देह नहीं रह जाता है कि पाण्डवों को लाक्षागृह में जलाकर मार डालने की उसकी योजना असफल हो गयी है। कर्ण पाण्डवों को बड़ा भाग्यशाली बताता है।

डॉ० गंगासहाय प्रेमी कृत ‘सूत-पुत्र’ नाटक के तीसरे अंक में कर्ण के तपोस्थान का वर्णन है। कर्ण सूर्य भगवान् की उपासना करते हैं। सूर्य भगवान् साक्षात् दर्शन देकर उसे कवच तथा कुण्डल देते हैं और उनके जन्म का सारा रहस्य उन्हें बताते हैं। साथ ही आशीर्वाद देते हैं कि जब तक ये कवच-कुण्डल तुम्हारे शरीर पर रहेंगे, तब तक तुम्हारा कोई अनिष्ट नहीं होगा। सूर्य भगवान् कर्ण को आगामी भारी संकटों से सचेत करते हैं और कहते हैं कि इन्द्र तुमसे इन कवच और कुण्डल की माँग करेंगे। कर्ण के पिछले जीवन की कथा भी सूर्य भगवान् उन्हें बता देते हैं, लेकिन माता का नाम नहीं बताते। कुछ समय बाद इन्द्र; अर्जुन की रक्षा के लिए ब्राह्मण वेश में आकर दानवीर कर्ण से कवच व कुण्डल का दान ले लेते हैं। कर्ण की दानशीलता से प्रसन्न होकर वे उन्हें एक अमोघ शक्ति प्रदान करते हैं, जिसका वार कभी खाली नहीं जाता। इन्द्र कर्ण को यह रहस्य भी बता देते हैं कि कुन्ती से, सूर्य के द्वारा, कुमारी अवस्था में उनका जन्म हुआ है। इस जानकारी के कुछ समय बाद कुन्ती कर्ण के आश्रम में आती है और कर्ण को बताती है कि वे उनके ज्येष्ठ पुत्र हैं। वह कर्ण से रणभूमि में पाण्डवों को न मारने का वचन चाहती है; परन्तु कर्ण ऐसा करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं। वे कुन्ती को आश्वासन देते हैं कि वे अर्जुन के अतिरिक्त अन्य किसी पाण्डव को नहीं मारेंगे। कुन्ती कर्ण को आशीर्वाद देकर चली जाती है। नाटक का तीसरा अंक यहीं समाप्त हो जाता है।

डॉ० गंगासहाय प्रेमी द्वारा रचित ‘सूर्त-पुत्र’ नाटक के चौथे (अन्तिम) अंक में अर्जुन तथा कर्ण के युद्ध का वर्णन है। यह अंक नाटक का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और प्रभावित करने वाला अंक है। इसमें नाटक के नायक कर्ण की दानवीरता, बाहुबल और दृढ़प्रतिज्ञता जैसे गुणों का उद्घाटन हुआ है। कर्ण और अर्जुन को युद्ध होता है। कर्ण अपने बाणों के प्रहार से अर्जुन के रथ को युद्ध-क्षेत्र में पीछे हटा देते हैं। कृष्ण कर्ण की प्रशंसा करते हैं, जो अर्जुन को अच्छी नहीं लगती। कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि तुम्हारी पताका पर ‘महावीर’, रथ के पहियों पर ‘शेषनाग और तीनों लोकों का भार लिये मैं रथ पर स्वयं प्रस्तुत हुँ, फिर भी कर्ण ने रथ को पीछे हटा दिया, निश्चय ही वह प्रशंसा का पात्र है। युद्धस्थल में कर्ण के रथ का पहिया दलदल में फँस जाता है। अर्जुन निहत्थे कर्ण को बाण-वर्षा करके घायल कर देते हैं। कर्ण मर्मान्तक रूप से घायल हो गिर पड़ते हैं और सन्ध्या हो जाने के कारण युद्ध बन्द हो जाता है। श्रीकृष्ण कर्ण की दानवीरता एवं प्रतिज्ञा-पालन की प्रशंसा करते हैं। कर्ण की दानवीरता की परीक्षा लेने के लिए श्रीकृष्ण व अर्जुन घायल कर्ण के पास सोने का दान माँगने जाते हैं। कर्ण उन्हें । अपने सोने के दाँत तोड़कर देता है, परन्तु रक्त लगा होने के कारण अशुद्ध बताकर कृष्ण उन्हें लेना स्वीकार नहीं करते। तब रक्त लगे दाँतों की शुद्धि के लिए कर्ण बाण मारकर धरती से जल निकालता है और दाँतों को धोकर ब्राह्मण वेषधारी कृष्ण को दे देता है। अब श्रीकृष्ण और अर्जुन वास्तविक रूप में प्रकट हो जाते हैं। श्रीकृष्ण कर्ण से लिपट जाते हैं और अर्जुन कर्ण के चरण पकड़ लेते हैं। यहीं पर ‘सूत-पुत्र’ नाटक की कथा का मार्मिक व अविस्मरणीय अन्त होता है।

प्रश्न 2:
‘सूत-पुत्र’ नाटक के प्रथम अंक की कथा को संक्षेप में लिखिए।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक के किसी एक अंक की कथा पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
‘सूत-पुत्र’ नाटक के लेखक डॉ० गंगासहाय प्रेमी हैं। इस नाटक के कथासूत्र ‘महाभारत’ से लिये गये हैं। परशुराम जी उत्तराखण्ड के आश्रम में निवास करते हैं। उन्होंने प्रतिज्ञा की है कि वह केवल ब्राह्मणों को ही धनुष चलाना सिखाएँगे, क्षत्रियों को नहीं। ‘कर्ण’ एक महान् धनुर्धर बनना चाहते हैं; अतः वे स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम जी से धनुर्विद्या सीखने लगते हैं। एक दिन परशुराम जी, कर्ण की जंघा पर सिर रखकर सोये हुए होते हैं कि एक कीड़ा कर्ण की जंघा पर कोटने लगता है, जिससे रक्तस्राव होने लगता है। रक्तस्राव होने पर भी ‘कर्ण’ दर्द सहन कर जाते हैं। कर्ण की सहनशीलता को देखकर परशुराम जी को उसके क्षत्रिय होने का सन्देह होता है। पूछने पर कर्ण उन्हें सत्य बता देते हैं। परशुराम जी क्रुद्ध होकर शाप देते हैं कि अन्त समय में तुम हमारे द्वारा सिखाई गयी विद्या को भूल जाओगे। कर्ण वहाँ से वापस चले आते हैं।

प्रश्न 3:
‘सूत-पुत्र’ नाटक के द्वितीय अंक की कथा का सार संक्षेप में लिखिए।
या
द्रौपदी स्वयंवर की कथा ‘सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर लिखिए।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर द्रौपदी-स्वयंवर में कर्ण का जो अपमान हुआ उस पर प्रकाश डालिए।
या
कर्ण और दुर्योधन में मित्रता किस प्रकार हुई ? ‘सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर बताइट।
या
“द्रौपदी स्वयंवर’ का कथानक अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
डॉ० गंगासहाय प्रेमी कृत सूत-पुत्र’ नाटक के दूसरे अंक में द्रौपदी के विवाह का वर्णन है। पांचाल-नरेश द्रुपद के यहाँ उनकी अद्वितीया सुन्दरी पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर होता है। स्वयंवर की शर्त के अनुसार प्रतिभागी को खौलते तेल की कड़ाही में ऊपर लगे खम्बे पर एक घूमते चक्र में बंधी मछली की आँख बेधनी थी। अनेक राजकुमार इसमें असफल हो जाते हैं। कर्ण अपनी विद्या पर विश्वास कर मछली की आँख बेधने आते हैं, लेकिन अपने परिचय से राजा द्रुपद को सन्तुष्ट नहीं कर पाते और द्रुपद उन्हें प्रतियोगिता के लिए अयोग्य घोषित कर देते हैं।

कर्ण के तेजस्वी रूप तथा विद्रोही स्वभाव से प्रसन्न होकर दुर्योधन ने उसे अपने राज्य के एक प्रदेश ‘अंग देश’ का राजा घोषित कर दिया, किन्तु ऐसा करके भी दुर्योधन, कर्ण की पात्रता और क्षत्रियत्व को पुष्ट नहीं कर पाता। यह प्रसंग ही दुर्योधन व कर्ण की मित्रता का सेतु सिद्ध होता है। ब्राह्मण वेश में अर्जुन और भम सभा-मण्डप में आते हैं। अर्जुन मछली की आँख बेधकर द्रौपदी से विवाह कर लेते हैं। अर्जुन तथा भीम को दुर्योधन पहचान लेता है। दुर्योधन द्रौपदी को बलपूर्वक छीनने के लिए कर्ण से कहता है, परन्तु कर्ण इसे अनैतिक कार्य के लिए तैयार नहीं होते। दुर्योधन अर्जुन से संघर्ष करता है, परन्तु घायल होकर वापस आ जाता है और कर्ण को बताता है कि ब्राह्मण वेशधारी और कोई नहीं अर्जुन और भीम ही हैं। इस बात में भी कोई सन्देह नहीं रह जाता है कि पाण्डवों को लाक्षागृह में जलाकर मार डालने की उसकी योजना असफल हो गयी है। कर्ण पाण्डवों को बड़ा भाग्यशाली बताता है।

प्रश्न 4:
‘सूत-पुत्र’ नाटक के तृतीय अंक की कथा का सार अपने शब्दों में लिखिए।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक के तृतीय अंक में कर्ण-इन्द्र अथवा कर्ण-कुन्ती संवाद का सारांश लिखिए।
या
सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर कर्ण के अन्तर्द्वन्द्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
डॉ० गंगासहाय प्रेमी कृत ‘सूत-पुत्र’ नाटक के तीसरे अंक में कर्ण के तपोस्थान का वर्णन है। कर्ण सूर्य भगवान् की उपासना करते हैं। सूर्य भगवान् साक्षात् दर्शन देकर उसे कवच तथा कुण्डल देते हैं और उनके जन्म का सारा रहस्य उन्हें बताते हैं। साथ ही आशीर्वाद देते हैं कि जब तक ये कवच-कुण्डल तुम्हारे शरीर पर रहेंगे, तब तक तुम्हारा कोई अनिष्ट नहीं होगा। सूर्य भगवान् कर्ण को आगामी भारी संकटों से सचेत करते हैं और कहते हैं कि इन्द्र तुमसे इन कवच और कुण्डल की माँग करेंगे। कर्ण के पिछले जीवन की कथा भी सूर्य भगवान् उन्हें बता देते हैं, लेकिन माता का नाम नहीं बताते। कुछ समय बाद इन्द्र; अर्जुन की रक्षा के लिए ब्राह्मण वेश में आकर दानवीर कर्ण से कवच व कुण्डल का दान ले लेते हैं। कर्ण की दानशीलता से प्रसन्न होकर वे उन्हें एक अमोघ शक्ति प्रदान करते हैं, जिसका वार कभी खाली नहीं जाता। इन्द्र कर्ण को यह रहस्य भी बता देते हैं कि कुन्ती से, सूर्य के द्वारा, कुमारी अवस्था में उनका जन्म हुआ है। इस जानकारी के कुछ समय बाद कुन्ती कर्ण के आश्रम में आती है और कर्ण को बताती है कि वे उनके ज्येष्ठ पुत्र हैं। वह कर्ण से रणभूमि में पाण्डवों को न मारने का वचन चाहती है; परन्तु कर्ण ऐसा करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं। वे कुन्ती को आश्वासन देते हैं कि वे अर्जुन के अतिरिक्त अन्य किसी पाण्डव को नहीं मारेंगे। कुन्ती कर्ण को आशीर्वाद देकर चली जाती है। नाटक का तीसरा अंक यहीं समाप्त हो जाता है।

प्रश्न 5:
‘सूत-पुत्र’ नाटक के चतुर्थ अंक की समीक्षा कीजिए।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक के अन्तिम अंक की कथा संक्षेप में लिखिए।
या
‘सूत-पुत्र के चतुर्थ अंक के आधार पर सिद्ध कीजिए कि कर्ण युद्धवीर होने के साथ-साथ दानवीर भी था।
उत्तर:
डॉ० गंगासहाय प्रेमी द्वारा रचित ‘सूर्त-पुत्र’ नाटक के चौथे (अन्तिम) अंक में अर्जुन तथा कर्ण के युद्ध का वर्णन है। यह अंक नाटक का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और प्रभावित करने वाला अंक है। इसमें नाटक के नायक कर्ण की दानवीरता, बाहुबल और दृढ़प्रतिज्ञता जैसे गुणों का उद्घाटन हुआ है। कर्ण और अर्जुन को युद्ध होता है। कर्ण अपने बाणों के प्रहार से अर्जुन के रथ को युद्ध-क्षेत्र में पीछे हटा देते हैं। कृष्ण कर्ण की प्रशंसा करते हैं, जो अर्जुन को अच्छी नहीं लगती। कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि तुम्हारी पताका पर ‘महावीर’, रथ के पहियों पर ‘शेषनाग और तीनों लोकों का भार लिये मैं रथ पर स्वयं प्रस्तुत हुँ, फिर भी कर्ण ने रथ को पीछे हटा दिया, निश्चय ही वह प्रशंसा का पात्र है। युद्धस्थल में कर्ण के रथ का पहिया दलदल में फँस जाता है। अर्जुन निहत्थे कर्ण को बाण-वर्षा करके घायल कर देते हैं। कर्ण मर्मान्तक रूप से घायल हो गिर पड़ते हैं और सन्ध्या हो जाने के कारण युद्ध बन्द हो जाता है। श्रीकृष्ण कर्ण की दानवीरता एवं प्रतिज्ञा-पालन की प्रशंसा करते हैं। कर्ण की दानवीरता की परीक्षा लेने के लिए श्रीकृष्ण व अर्जुन घायल कर्ण के पास सोने का दान माँगने जाते हैं। कर्ण उन्हें । अपने सोने के दाँत तोड़कर देता है, परन्तु रक्त लगा होने के कारण अशुद्ध बताकर कृष्ण उन्हें लेना स्वीकार नहीं करते। तब रक्त लगे दाँतों की शुद्धि के लिए कर्ण बाण मारकर धरती से जल निकालता है और दाँतों को धोकर ब्राह्मण वेषधारी कृष्ण को दे देता है। अब श्रीकृष्ण और अर्जुन वास्तविक रूप में प्रकट हो जाते हैं। श्रीकृष्ण कर्ण से लिपट जाते हैं और अर्जुन कर्ण के चरण पकड़ लेते हैं। यहीं पर ‘सूत-पुत्र’ नाटक की कथा का मार्मिक व अविस्मरणीय अन्त होता है।

प्रश्न 6:
नाट्य-कला की दृष्टि से ‘सूत-पुत्र की समीक्षा कीजिए।
या
अभिनय और रंगमंच की दृष्टि से ‘सूत-पुत्र की समीक्षा कीजिए।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक के उद्देश्य पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक की संवाद-योजना की समीक्षा कीजिए।
या
‘सूत-पुत्र की कथावस्तु की समीक्षा कीजिए।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक की भाषा-शैली की विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक की भाषा पर प्रकाश डालिए।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक के देश-काल एवं वातावरण पर प्रकाश डालिए।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक की मौलिक विशेषताएँ लिखिए।
‘सूत-पुत्र’ नाटक के नाट्य-शिल्प पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:

‘सूत-पुत्र’ नाटक की तात्त्विक समीक्षा

नाट्य-कला की दृष्टि से डॉ० गंगासहाय प्रेमी कृत ‘सूत-पुत्र’ नाटक की तात्त्विक समीक्षा निम्नवत् है

(1) कथानक – यह ‘महाभारत की कथा से सम्बन्धित ऐतिहासिक नाटक है। इस नाटक में दानवीर कर्ण के जीवनकाल की घटनाओं का वर्णन है। नाटक चार अंकों में विभाजित है। चौथे अंक में तीन दृश्य प्रस्तुत किये गये हैं। कथा का आरम्भ कर्ण-परशुराम संवाद से तथा कथा का विकास परशुराम द्वारा कर्ण को आश्रम से निकालने की घटना के द्वारा होता है। इन्द्र द्वारा कवच-कुण्डल माँग लेने की घटना नाटक की चरम सीमा’ को प्रस्तुत करती है। कुन्ती-कर्ण संवाद के समय नाटक ‘उतार’ पर होता है तथा विभिन्न सोपानों को पार करता हुआ कर्ण के सम्पूर्ण जीवनकाल की घटनाओं को प्रस्तुत करता है। कथानक सुसंगठित, लोक-प्रसिद्ध तथा घटनाप्रधान है। सभी अंक तथा दृश्य एक सूत्र में बँधे हैं।

कथानक यद्यपि महाभारतकालीन ऐतिहासिक पात्रों एवं घटनाओं पर आधारित है, किन्तु लेखक ने इसके माध्यम से वर्तमान समाज में व्याप्त जाति एवं वर्ण-व्यवस्था से सम्बद्ध विसंगतियों का भी परोक्ष प्रकाशन किया है। नारी-शिक्षा का अभाव, नारी की सामाजिक दयनीयता, समाज में नारियों की विवशता आदि का चित्रण वर्तमान विसंगतियों की ओर ही संकेत करती है।

(2) पात्र एवं चरित्र-चित्रण – लेखक ने ‘सूत-पुत्र’ नाटक के अधिकांश पात्रों का चयन ‘महाभारत’ से किया है। लेखक का मत है कि ‘महाभारत’ की घटनाएँ ऐतिहासिक हैं। नाटक के प्रमुख पात्र कर्ण, श्रीकृष्ण, अर्जुन, परशुराम, दुर्योधन इत्यादि हैं। गौण पात्रों में भीम, कुन्ती, सूर्य, इन्द्र इत्यादि हैं। गौणातिगौण श्रेणी के अन्य पात्र भी हैं, जिनका उल्लेख-मात्र ही नाटक में है। यह सम्पूर्ण नाटक कर्ण के चरित्र को ही प्रकाशित करता है। अन्य पात्रों का चयन कर्ण के चरित्र की विशेषताओं को प्रकाशित करने एवं उसकी सामाजिक-मानसिक ताड़ना को स्वर देने के लिए किया गया है।

(3) संवाद-योजना ( कथोपकथन) – नाटक के संवाद पात्रानुकूल हैं। सरसता तथा भाव- अभिव्यंजना संवादों के अनन्य गुण हैं। नाटक में गीतों का प्रयोग भी हुआ है। स्वगत कथन अधिक हैं, जिससे कथा-प्रवाह में कुछ रुकावट आती है। संवाद-योजना की दृष्टि से नाटक श्रेष्ठ है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है

पहला स्वर-विशालकाय जी ! आप कड़ाह तक गये, यही बहुत है।
दूसरा स्वर-मोटे जी को कोई दुःख नहीं, अपनी असफलता का।।

कर्ण तथा परशुराम के कुछ स्वाभाविक संवादों के उदाहरण भी द्रष्टव्य हैं

परशुराम मैं तुम्हें प्रतिज्ञा याद दिलाना चाहता हूँ, जो तुमने मुझसे विद्या पढ़ने से पहले की थी। तुम मेरी सिखाई गयी विद्या किसी को सिखाओगे नहीं कर्ण!।
कर्ण – मुझे यह भली-भाँति स्मरण है गुरुदेव ! आप स्मरण न कराते, तब भी मैं उस प्रतिज्ञा का पालन करता।

प्रासंगिक कथाओं के चित्रण में वार्तालाप का सहारा लेकर नाटककार ने संवादों को लम्बा होने से बचा लिया। है। संवाद-योजना में नाटककार ने अपनी योग्यता, मौलिकता एवं कल्पना-शक्ति का अच्छा परिचय दिया है। नाटक के संवादों में कहीं भी शिथिलता नहीं है।

(4) देश-काल और वातावरण – देश-काल और वातावरण की दृष्टि से प्रस्तुत नाटक की पृष्ठभूमि पौराणिक है, परन्तु नाटककार ने नारी के स्थान को समाज में स्थापित करने के लिए आधुनिक परिवेश को भी प्रस्तुत किया है। वेशभूषा, युद्ध के उपकरण, स्वयंवर, धर्म इत्यादि की मान्यताओं की दृष्टि से ऐतिहासिक-पौराणिक वातावरण की संयोजना में लेखक को सफलता मिली है। परशुराम का आश्रम, द्रुपद-नरेश द्वारा आयोजित स्वयंवर-सभा, युद्धभूमि आदि को तत्कालीन वातावरण के अनुरूप सृजित करने में नाटककार ने सफलता प्राप्त की है।

(5) अभिनेयता अथवा रंगमंचीयता – अभिनेयता की दृष्टि से ‘सूत-पुत्र’ नाटक अधिक श्रेष्ठ प्रतीत नहीं होता। चार अंकों का मंचन कुछ अधिक लम्बा हो जाता है। फिर चौथे अंक में तो दृश्यों की संख्या भी तीन है। इस प्रकार मंच पर छह से अधिक सेट लगाने पड़ेंगे। पठनीयता की दृष्टि से नाटक उचित है।

(6) भाषा-शैली – नाटक की भाषा खड़ी बोली है और पात्रों के पूर्णतया अनुकूल है। संस्कृत के शब्दों का अधिक प्रयोग है। उर्दू, फारसी के शब्द अपेक्षाकृत कम हैं। चक्कर में पड़ना, अंगारे बरसना, फूलों की शय्या इत्यादि लोकोक्ति और मुहावरों का सुन्दर प्रयोग किया गया है। शैली की दृष्टि से नाटक संवादात्मक तथा सम्भाषण-प्रधान है। स्वगत शैली तथा काव्य शैली का प्रयोग भी हुआ है। प्रसाद तथा ओज-गुण, शैली की विशेषता हैं। नाटक में वीर रस की प्रधानता है, अतः इसमें ओजगुण सर्वत्र द्रष्टव्य है। कहीं-कहीं हास्य-व्यंग्य का पुट भी परिलक्षित होता है। भाषा का एक उदाहरण द्रुपद नरेश के कथन में द्रष्टव्य है

“तब तुम इस प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकते। ब्राह्मण का काम अकिंचन बनकर चल सकता है, पर क्षत्रिय को तो भूमि का स्वामी होना ही चाहिए। तुम साधारण व्यक्ति होकर मेरी कन्या से विवाह की कल्पना कैसे कर सके? यदि लक्ष्यवेध में सफल हो गये तो उसे खिलाओगे क्या? तुम स्वयं को साधारण व्यक्ति बता रहे हो। मेरे दास तक असाधारण धनी हैं। तुम अपने स्थान पर लौट जाओ।”

(7) उद्देश्य – इस नाटक का उद्देश्य आधुनिक समाज में जाति और धर्म की समस्या, विवाह पूर्व उत्पन्न सन्तान की समस्या इत्यादि का उद्घाटन करके इन समस्याओं के उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त करना है। कर्ण के दानवीर, युद्धवीर, गुरुभक्त तथा आदर्श मानवोचित उदात्त गुणों को प्रस्तुत करना भी नाटक का उद्देश्य है। नाटककार नाटक के माध्यम से वांछित उद्देश्य की प्राप्ति में सफल रहा है।

प्रश्न 7:
सत-पुत्र नाटक के आधार पर कर्ण की चारित्रिक विशेषताएँ लिखिए
या
‘सूत-पुत्र के नायक कर्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘महाभारत’ के सभी पात्रों पर कुछ-न-कुछ लांछन लगा हुआ है, पर कर्ण का चरित्र सभी प्रकार से उज्ज्वल है।” ‘सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि कर्ण सभी प्रकार से महान था।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक के नायक के चरित्र पक्ष की विवेचना कीजिए।
या
‘सूत्र-पुत्र’ नाटक के प्रमुख पात्र की विशेषताएँ लिखिए।
या
‘सूत-पुत्र के प्रमुख पात्र कर्ण के जीवन से आपको क्या प्रेरणा मिलती है ?
या
कर्ण के चरित्र पर प्रकाश डालिए।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक के प्रमुख पात्र का चरित्र-चित्रण संक्षेप में कीजिए।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक के पुरुष पात्रों में आपको कौन-सा पात्र प्रिय है और क्यों ? तर्कसहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
डॉ० गंगासहाय प्रेमी के सूत-पुत्र’ नाटक का नायक कर्ण है। कर्ण के महान् चरित्र को प्रस्तुत कर उसकी महानता का सन्देश देना ही नाटककार का अभीष्ट है। कर्ण का जन्म कुन्ती द्वारा कौमार्य अवस्था में किये गये सूर्यदेव के आह्वान का परिणाम था। लोकलाज के भय से उसने कर्ण को एक घड़े में रखकर गंगा में प्रवाहित कर दिया। वहीं से कर्ण सूत-पत्नी राधा को मिला तथा राधा ने ही उसका पालन-पोषण किया। राधा द्वारा पालन-पोषण किये जाने के कारण कर्ण राधेय’ या ‘सूत-पुत्र’ कहलाया। असवर्ण परिवार में पालन-पोषण होने के कारण उसे पग-पग पर अपमान सहना पड़ा। अन्यायी और दुराचारी दुर्योधन की मित्रता भी उसकी असफलता का कारण बनी; क्योंकि मित्रता निभाने के लिए उसे अन्याय में भी उसका साथ देना पड़ा और अन्याय की अन्त में पराजय होती है तथा अन्यायी का साथ देने वाला भी बच नहीं पाता। कर्ण वीर, साहसी, दानवीर, क्षमाशील, उदार, बलशाली तथा सुन्दर था। यह सब होते हुए भी पग-पग पर अपमानित होने के कारण वह आजीवन तिल-तिल कर जलता रहा। उसका जीवन फूलों की शय्या नहीं, वरन् काँटों का बिछौना ही रहा।

कर्ण का चरित्र-चित्रण

कर्ण के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ थीं

(1) सुन्दर आकर्षक युवक – नाटककार ने कर्ण के रूप के विषय में लिखा है-“कर्ण तीस-पैंतीस वर्ष का हृष्ट-पुष्ट सुदर्शन युवा है। उसका शरीर लम्बा-छरहरा किन्तु भरा हुआ, रंग उज्ज्वल, गोरा, नाक ऊँची, नुकीली और आँखें बड़ी-बड़ी हैं।” इस प्रकार कर्ण एक सुन्दर आकर्षक युवक है।

(2) तेजस्वी तथा प्रतिभाशाली – कर्ण का व्यक्तित्व प्रतिभाशाली है। वह अपने पिता सूर्य के समान तेजस्वी है। कर्ण ऐसा पहला व्यक्ति है, जिसके तेजस्वी रूप से दुर्योधनं जैसा अभिमानी व्यक्ति भी द्रौपदी-स्वयंवर में पहली बार देखकर ही प्रभावित होता है और अपना मित्र बनाने के लिए वह उसे अंगदेश का अधिपति बना देता है।

(3) सच्चा गुरुभक्त – कर्ण गुरुभक्त शिष्य है। गुरु परशुराम उसकी जंघा पर सिर रखकर सोते हैं, तभी एक कीड़ा उसकी जंघा को काटने लगता है। कीड़े के काटने पर उसकी जंघा से रक्तस्राव होता रहा, परन्तु कष्ट सहकर भी वह गुरु-निद्रा भंग नहीं होने देता। यद्यपि गुरु उसे शाप देते हैं, फिर भी वह किसी से उनकी निन्दा नहीं सुन सकता- “मेरे गुरु की निन्दा में अपने अब यदि एक भी शब्द कहा तो यह स्वयंवर-मण्डप युद्धस्थल में बदल जाएगा।” गुरु में कर्ण की अटूट श्रद्धा और भक्ति है। कर्ण की गुरु-भक्ति की प्रशंसा स्वयं गुरु परशुराम भी करते हैं-‘विद्याभ्यास के प्रति तुम्हारी तन्मयता से मैं सदा प्रभावित रहा हूँ। मेरे लिए तुम प्राण भी दे सकते हो।’

(4) धनुर्विद्या में प्रवीण – कर्ण ने धनुष चलाने की शिक्षा परशुराम जी से प्राप्त की। कर्ण अपने समय का सर्वश्रेष्ठ बाण चलाने वाला है। अनुपम धनुर्धारी अर्जुन भी उसे पराजित करने में समर्थ नहीं होता। साधारण योद्धाओं से युद्ध करना तो कर्ण अपनी शान के विरुद्ध समझता है।

(5) नारी के प्रति श्रद्धाभाव – कर्ण के प्रति सबसे बड़ा अन्याय स्वयं नारीस्वरूपा उसकी माँ ने किया है, परन्तु फिर भी वह नारी के प्रति श्रद्धाभाव रखता है “नारी विधाता का वरदान है। नारी सभ्यता, संस्कृति की प्रेरणा है। नारी का अपहरण कभी भी सह्य नहीं हो सकता।”

(6) दानवीर – कर्ण के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता उसकी दानवीरता है। उसके सामने से कोई भी याचक खाली हाथ नहीं लौटता। अपनी रक्षा के अमोघ साधन कवच और कुण्डल भी वह इन्द्र के माँगने पर दान कर देता है। इस सम्बन्ध में अपने पिता सूर्य की सलाह भी वह नहीं मानता। वह इन्द्र से कहता है-“मुझे जितना कष्ट हो रहा है, उससे कई गुना सुख भी मिल रहा है।”

(7) विश्वासपात्र मित्र – वह एक सच्चा मित्र है। दुर्योधन कर्ण को अपना मित्र बनाता है और कर्ण जीवन भर उसकी मित्रता का निर्वाह करता है। कुन्ती के कहने पर भी वह दुर्योधन से मित्रता के बन्धनों को तोड़कर विश्वासघाती नहीं बनना चाहता।

(8) प्रबल नैतिक – कर्ण उच्चकोटि के संस्कारों से युक्त है, अतः वह नैतिकता को अपने जीवन में विशेष महत्त्व प्रदान करता है। द्रौपदी के अपहरण की बात पर वह दुर्योधन से कहता है- “दूसरे अनुचित करते हैं इसलिए हम भी अनुचित करें, यह नीति नहीं है। किसी की पत्नी का अपहरण परम्परा से निन्दनीय है।”
कुन्ती ने जब कर्ण से उसके जन्म की वास्तविकता बतायी और उसे अपने भाइयों के पास आ जाने के लिए कहा, तब भी कर्ण ने दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ा। कर्ण का यह कार्य नैतिकता से परिपूर्ण है। किसी व्यक्ति को आश्वासन देकर बीच में छोड़ना नैतिकता नहीं है। यदि भीष्म पितामह और कर्ण के व्यवहार को इस कसौटी पर परखें तो कर्ण को ही उत्तम कहना पड़ेगा। भीष्म पितामह जहाँ परिस्थितियाँ न बदलने पर भी बदल गये वहाँ कर्ण परिस्थितियाँ बदलने पर भी नहीं बदला। कुन्ती ने कर्ण को ममता में फाँसने के साथ-साथ राज्य प्राप्ति का लालच भी दिया था, पर कर्ण सभी आकर्षणों से अप्रभावित रहा। जब कुन्ती ने बार-बार मातृत्व की दुहाई दी तो भी उसने युद्धस्थल में अर्जुन के अतिरिक्त अन्य किसी भी पाण्डव का वध न करने की शपथ ली। जन्म एवं पालन-पोषण सम्बन्धी अपवाद के कारण कर्ण को चाहे जो कह लिया जाए, वैसे उसके चरित्र में कहीं भी कोई भी कालिमा नहीं है। कर्ण स्वनिर्मित व्यक्ति था। उसने किसी को न कभी धोखा दिया और न अकारण किसी से बैर-विरोध मोल लिया। महाभारत के सभी पात्रों पर कुछ-न-कुछ लांछन लगा हुआ है, पर कर्ण इस दृष्टि से सभी प्रकार से उज्ज्वल है। उसने जीवन में केवल एक बार झूठ बोला और वह भी धनुर्विद्या सीखने के लिए। किसी को धोखा देने अथवा हानि पहुँचाने वाले असत्य भाषण से इसकी तुलना नहीं की जा सकती।

इन सबके अतिरिक्त कर्ण सच्चा मित्र, अद्वितीय दानी, निर्भीक, दृढ़प्रतिज्ञ तथा महान् योद्धा है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि कर्ण उदात्त स्वभाव वाला धीर-वीर नायक है।

प्रश्न 8:
‘सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर कर्ण तथा दुर्योधन के चरित्र की तुलना कीजिए।
उत्तर:
डॉ० गंगासहाय ‘प्रेमी’ कृते ‘सूते-पुत्र’ नाटक में कर्ण मुख्य पात्र है और दुर्योधन गौण पात्र। दुर्योधन के चरित्र को समायोजन इस नाटक में कर्ण के चरित्र की विशेषताओं को स्पष्ट करने एवं ऐतिहासिक तत्त्वों को प्रासंगिक बनाने के लिए किया गया है।

कर्ण एवं दुर्योधन का चरित्र-चित्रण

(1) नारी के प्रति श्रद्धा भाव – कर्ण नारी जाति के प्रति निष्ठावान एवं श्रद्धावान है। यद्यपि वह अपनी माता की भूल के कारण आजीवन दुःख और अपमान सहता है, तथापि उसके मन में नारी के लिए असीम आदर की भावना विद्यमान है। वह कहता है-”नारी विधाता का वरदान है। “नारी सत्यता, संस्कृति की प्रेरणा है। नारी का अपहरण कभी भी सह्य नहीं हो सकता।” दुर्योधन की भावना नारी के प्रति कर्ण की भावना के बिल्कुल विपरीत है। उसके मन में नारी के प्रति श्रद्धा भाव नहीं है, तभी तो वह द्रौपदी का अपहरण कर लेना चाहता है।

(2) सच्चा तथा विश्वासपात्र मित्र – कर्ण एक सच्चा तथा विश्वास करने योग्य मित्र है। इसी कारण दुर्योधन कर्ण को अपना मित्र बनाता है। वह जीवन भर उसकी मित्रता का निर्वाह करता है। दूसरी ओर दुर्योधन भी एक सफल कूटनीतिज्ञ तथा मित्रता का निर्वाह करने वाला राजपुरुष है।

(3) प्रबल नैतिकता – कर्ण उच्चकोटि के संस्कारों से युक्त है, अत: वह नैतिकता को अपने जीवन में विशेष महत्त्व प्रदान करता है। द्रौपदी के अपहरण कर लेने की बात पर कर्ण दुर्योधन से कहता है-“दूसरे अनुचित करते हैं इसलिए हम भी अनुचित करें, यह नीति नहीं है। किसी की पत्नी का अपहरणपरम्परा से निन्दनीय है।” दुर्योधन नीति सम्बन्धी तथ्यों को नहीं मानता और द्रौपदी का अपहरण कर लेना चाहता है। उसके चरित्र में यह एक बड़ा दोष है।

(4) विचारवान्सू – त-पुत्र’ नाटक का प्रमुख पात्र ‘कर्ण’ एक विचारवान् और सुन्दर युवक होने के
साथ-ही-साथ गुरुभक्त भी है। गुरु से शापित होने पर भी वह गुरु की अवज्ञा नहीं करता है। कर्ण में वीरोचित सभी गुण विद्यमान हैं। दुर्योधन वीर और महत्त्वाकांक्षी तो है, परन्तु विचारवान् नहीं है। कर्ण के रथ का सारथी शल्य को बनाते समय वह उसके स्वभाव के सम्बन्ध में नहीं सोचता है। इस प्रकार उपर्युक्त गुणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि कर्ण और दुर्योधन परम मित्र होते हुए भी विरोधी भावनाओं और गुणों से युक्त हैं।

प्रश्न 9:
‘सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर श्रीकृष्ण की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

श्रीकृष्ण का चारित्र-चित्रण 

डॉ० गंगासहाय प्रेमी कृत ‘सूत-पुत्र’ नाटक का कथानक संस्कृत के महाकाव्य महाभारत’ पर आधारित है। यद्यपि इस नाटक का कंथानक पूर्ण रूप से कर्ण को केन्द्रबिन्दु मानकर ही अग्रसर होता है, परन्तु श्रीकृष्ण भी एक प्रभावशाली पात्र के रूप में उपस्थित हुए हैं।

प्रस्तुत नाटक में श्रीकृष्ण की चारित्रिक विशेषताओं को निम्नवत् प्रस्तुत किया गया है-

(1) वीरता के प्रशंसक – यद्यपि श्रीकृष्ण अर्जुन के मित्र हैं और उसके सारथी भी, परन्तु वे कर्ण की वीरता एवं शक्ति के प्रशंसक हैं। उन्हें इस बात पर प्रसन्नता होती है कि कर्ण सभी प्रकार से सुरक्षित अर्जुन के रथ को पीछे हटा देता है। वे कहते हैं – ”धन्य हो कर्ण ! तुम्हारे समान धनुर्धर सम्भवतः पृथ्वी पर दूसरा नहीं है।”

(2) कुशल राजनीतिज्ञ  – कर्ण के पास, सूर्य के द्वारा दिये गये कवच-कुण्डलों को इन्द्र को दान कर देने पर, इन्द्र से प्राप्त एक अमोघ शक्ति थी जिसे कर्ण अर्जुन के वध के लिए सुरक्षित रखना चाहता है; परन्तु श्रीकृष्ण कर्ण की उस शक्ति का प्रयोग घटोत्कचे पर करा देते हैं। यह श्रीकृष्ण की दूरदर्शिता एवं कुशल राजनीति का ही परिणाम था।

(3) कुशल वक्ता – श्रीकृष्ण कुशल वक्ता के रूप में प्रस्तुत हुए हैं। अर्जुन निहत्थे कर्ण पर बाण नहीं चलाना चाहता था। श्रीकृष्ण उसके भावों को उत्तेजित करते हैं और इस तरह बात करते हैं कि अर्जुन को धनुष पर बाण चढ़ाने के लिए विवश होना पड़ता है।

(4) अवसर को न चूकने वाले – कर्ण के ऊपर बाण छोड़ने के लिए वे अर्जुन से कहते हैं – ”अगर तुम इस अवस्था में कर्ण पर बाण नहीं चलाओगे तो दूसरी अवस्था में वह तुम्हें बाण चलाने नहीं देगा।” वे अर्जुन से कहते हैं–”यही समय है, जब तुम कर्ण को अपने बाणों का लक्ष्य बनाकर सदा के लिए युद्ध-भूमि में सुला सकते हो।’ ………शीघ्रता करो ! अवसर का लाभ उठाओ।”

(5) महाज्ञानी – श्रीकृष्ण ज्ञानी पुरुष के रूप में प्रस्तुत हुए हैं। वे अर्जुन से कहते हैं-“मृत्यु को देखकर बड़े-बड़े योद्धा, तपस्वी और ज्ञानी तक व्याकुल हो उठते हैं।” वे अर्जुन को समझाते हैं “शरीर के साथ आत्मा को बन्धन बहुत दृढ़ होता है।” इस प्रकार उनके ज्ञान और विद्वत्ता का स्पष्ट आभास मिलती है।

(6) पश्चात्ताप की भावना – श्रीकृष्ण को इस बात का पश्चात्ताप है कि कर्ण का वध न्यायोचित ढंग से नहीं हुआ। वे मानते हैं-”हमने अपनी विजय-प्राप्ति के स्वार्थवश कर्ण के साथ जो कुछ अन्याय किया है, हम इस प्रकार यश दिलाकर उसे भी थोड़ा हल्का कर सकेंगे।”

अस्तु; श्रीकृष्ण रंगमंच पर यद्यपि कुछ देर के लिए नाटक के अन्त में ही आते हैं, तथापि इतने से ही उनके : व्यक्तित्व की झलक स्पष्ट रूप से मिल जाती है।

प्रश्न 10:
‘सूत-पुत्र नाटक के आधार पर कुन्ती का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक के प्रमुख नारी-पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर:

कुन्ती का चरित्र-चित्रण

डॉ० गंगासहाय प्रेमी कृत ‘सूत-पुत्र’ नाटक की प्रमुख नारी-पात्र है कुन्ती। उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) मातृ-भावना – कुन्ती का हृदय मातृ-भावना से परिपूर्ण है। युद्ध का निश्चय सुनते ही वह अपने पुत्रों के कल्याण के लिए व्याकुल हो उठती है। यद्यपि उसने कर्ण का परित्याग कर दिया था और किसी के सामने भी उसे अपने पुत्र के रूप में स्वीकार नहीं किया था; किन्तु अपने मातृत्व के बल पर ही वह उसके पास जाती है। और कहती है-“तुम मेरी पहली सन्तान हो कर्ण ! मैंने लोकापवाद के भय से ही तुम्हारा त्याग किया था।”

(2) कुशल नीतिज्ञ – कुन्ती अपने पुत्रों की विजय और कुशल-क्षेम के लिए अपने त्यक्त-पुत्र कर्ण (जिसे असवर्ण घोषित कर दिया गया था) को अपने पक्ष में करने का प्रयास करती है। जब कर्ण यह कहता है कि पाण्डव यदि मुझे सार्वजनिक रूप में अपना भाई स्वीकार करें तब ही उनकी रक्षा करना मेरा कर्तव्य हो सकता है, तो कुन्ती तत्काल ही कह देती है—“कर्णं तुम्हारे पाँचों अनुज सार्वजनिक रूप से तुम्हें अपना अग्रज स्वीकार करने को प्रस्तुत हैं।” जब कि पाण्डवों को उस समय तक यह भी नहीं मालूम हो पाया था कि कर्ण हमारे बड़े भाई हैं। कुन्ती उसे राज्य एवं द्रौपदी के पाने का भी लालच दिखाती है, जो स्वयंवर के समय उसे असवर्ण कहकर अस्वीकार कर चुकी थी। इस प्रकार उसमें राजनीतिक कुशलता भी पूर्ण रूप से विद्यमान थी।

(3) स्पष्टवादिता – स्पष्टवादिता कुन्ती के चरित्र का सबसे बड़ा गुण है। वह माता होकर भी अपने पुत्र कर्ण के सामने अपने कौमार्य में उसे जन्म देने के प्रसंग और उसे अपना पुत्र होने की बात कहते नहीं हिचकती। कर्ण द्वारा यह पूछे जाने पर कि तुमने किस आवश्यकता की पूर्ति के लिए सूर्यदेव से सम्पर्क स्थापित किया, वह कहती है-“पुत्र! तुम्हारी माता के मन में वासना का भाव बिल्कुल नहीं था।” जब कर्ण उससे यह पूछता है कि विवाह के बाद तुमने देव-ओह्वान मन्त्र का क्यों उपयोग किया; तब कुन्ती अपने पति की शापजन्य असमर्थता का उल्लेख करती है और बताती है कि वे–पाण्डु तथा धृतराष्ट्र-भी “अपने पिताओं की सन्तान नहीं, मात्र माताओं की सन्तान हैं।”

(4) वाक्पटु – कुन्ती बातचीत में भी बहुत कुशल है। वह अपनी बातें इतनी कुशलता से कहती है कि कर्ण एक नारी, एक माँ की विवशता को समझकर उसकी भूलों पर ध्यान न दे तथा उसकी बात मान ले। वह कर्ण की बातों में निहित भावों को समझ जाती है और उनका तत्काल तर्कपूर्ण उत्तर देती है। वह कर्ण को पहले पुत्र और बाद में कर्ण कहकर अपने मनोभावों को प्रदर्शित कर देती है और इस प्रकार अपनी वाक्-पटुता का परिचय देती है। वह कहती है-“चलती हूँ पुत्र ! नहीं, नहीं, कर्ण ! मुझे तुम्हारे आगे याचना करके भी खाली हाथ लौटना पड़ रहा है।”

(5) सूक्ष्म दृष्टि – कुन्ती में प्रत्येक विषय को परखने और तदनुकूल कार्य करने की सूक्ष्म दृष्टि थी। कर्ण जब उससे कहता है कि तुम यह कैसे जानती हो कि मैं तुम्हारा वही पुत्र हूँ जिसको तुमने गंगा की धारा में प्रवाहित कर दिया था; तब कुन्ती उससे कहती है-”क्या तुम्हारे पैरों की अँगुलियाँ मेरे पैरों की अँगुलियों से मिलती-जुलती नहीं हैं।”

इस प्रकार नाटककार ने थोड़े ही विवरण में कुन्ती के चरित्र को कुशलता से दर्शाया है। नाटककार ने विभिन्न स्थलों पर कुन्ती के कथनों के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि एक माता द्वारा पुत्रों के कल्याण की कामना करना उसका स्वार्थ नहीं, वरन् उसकी सहज प्रकृति का परिचायक है।

प्रश्न 11:
परशुराम का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
परशुराम की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

परशुराम का चरित्र-चित्रण

डॉ० गंगासहाय प्रेमी द्वारा रचित ‘सूत-पुत्र’ नाटक में परशुराम को ब्राह्मणत्व एवं क्षत्रियत्व के गुणों से समन्वित महान् तेजस्वी और दुर्धर्ष योद्धा के रूप में चित्रित किया गया है। परशुराम कर्ण के गुरु हैं। इनके पिता का नाम जमदग्नि है। परशुराम अपने समय के धनुर्विद्या के अद्वितीय ज्ञाता थे। नाटक के अनुसार इनकी चारित्रिक विशेषताओं का विवेचन निम्नवत् है

(1) ओजयुक्त व्यक्तित्व – परशुराम का व्यक्तित्व ओजयुक्त है। नाटककार ने उनके व्यक्तित्व का चित्रण इस प्रकार किया है-”परशुराम की अवस्था दो सौ वर्ष के लगभग है। वे हृष्ट-पुष्ट शरीर वाले सुदृढ़ व्यक्ति हैं। चेहरे पर सफेद, लम्बी-घनी दाढ़ी और शीश पर लम्बी-लम्बी श्वेत जटाएँ हैं।”

(2) महान् धनुर्धर – परशुराम अद्वितीय धनुर्धारी हैं। सुदूर प्रदेशों से ब्राह्मण बालक इनके पास हिमालय की घाटी में स्थित आश्रम में शस्त्र-विद्या ग्रहण करने आते हैं। इनके द्वारा दीक्षित शिष्यों को उस समय अद्वितीय माना जाता था। भीष्म पितामह भी इन्हीं के प्रिय शिष्यों में से एक थे।

(3) मानव-स्वभाव के पारखी-परशुराम मानव – स्वभाव के अचूक पारखी हैं। वे कर्ण के क्षत्रियोचित व्यवहार से जाने जाते हैं कि यह ब्राह्मण न होकर क्षत्रिय-पुत्र है। वे उससे निस्संकोच कहते हैं “तुम क्षत्रिय हो कर्ण! तुम्हारे माता-पिता दोनों ही क्षत्रिय रहे हैं।”

(4) आदर्श गुरु – परशुराम एक आदर्श गुरु हैं। वे शिष्यों को पुत्रवत् स्नेह करते हैं और उनके कष्ट-निवारण के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। कर्ण की जंघा में कीड़ा काट लेता है और मांस में प्रविष्ट हो जाता है, जिससे रक्त की धारा प्रवाहित होने लगती है। इससे परशुराम का हृदय द्रवित हो उठता है। वे तुरन्त उसके घाव पर नखरंजनी का प्रयोग करते हैं और कर्ण को सान्त्वना देते हैं। यह घटना गुरु परशुराम के सहृदय होने को प्रमाणित करती है।

(5) श्रेष्ठ ब्राह्मण – परशुराम एक श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं। वे विद्या-दान को ब्राह्मण का सर्वप्रमुख कार्य मानते हैं। जो ब्राह्मण धनलोलुप हैं, परशुराम की दृष्टि में वे नीच तथा पतित हैं, इसीलिए वे द्रोणाचार्य को निम्नकोटि का ब्राह्मण मानते हैं और कहते हैं-”द्रोणाचार्य तो पतित ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण क्षत्रिय का गुरु हो सकता है, सेवक अथवा वृत्तिभोगी नहीं।”

(6) उदारमना – परशुराम सहृदय तथा उदारमना हैं। वे अपने कर्तव्यपालन में वज्र के समान कठोर हैं, लेकिन दूसरों की दयनीय दशा को देखकर द्रवीभूत भी हो जाते हैं। ब्राह्मण का छद्म रूप धारण करने के कारण वे कर्ण को शाप दे देते हैं, लेकिन जब कर्ण की शोचनीय तथा दुःख-भरी दशा का अवलोकन करते हैं तो वे उसके प्रति सहृदय हो जाते हैं। वे कहते हैं-”जिस माता से तुम्हें ममता और वात्सल्य मिलना चाहिए था, उससे तुमने कठोर निर्मम निर्वासन पाया। जिस गुरु से तुम्हें वरदान मिलना चाहिए था, उसी ने तुम्हें शाप दिया।” उनके इस कथन से उनके उदारमना होने की पुष्टि होती है।

(7) कर्तव्यनिष्ठ – परशुराम एक कर्त्तव्यनिष्ठ व्यक्ति हैं। कर्त्तव्यपालन में वे बड़ी-से-बड़ी बाधाओं को सहर्ष स्वीकार करने को उद्यत रहते हैं। उनकी कर्तव्यनिष्ठा से प्रभावित होकर कर्ण उनसे कहता है-”आपके हृदय में कोई कठोरता अथवा निर्ममता नहीं रही है। आपने जिसे कर्त्तव्य समझा है, जीवन भर उसी का पालन निष्ठापूर्वक किया है।”

(8) महाक्रोधी – यद्यपि परशुराम जी में अनेक गुण हैं, तथापि क्रोध पर अभी उन्होंने पूर्णतया विजय नहीं पायी है। क्रोध में आकर वे अपने महान् त्यागी शिष्य कर्ण को भी जब शाप दे देते हैं तो संवेदनशील पाठक का हृदय हाहाकार कर उठता है। वह मानव मन के इस विकराल विकार को, ऋषियों तक को अपना शिकार बनाते देखता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि परशुराम तपोनिष्ठ तेजस्वी ब्राह्मण हैं। वे एक आदर्श शिक्षक तथा उदार हृदय के स्वामी हैं। उनमें ब्राह्मणत्व तथा क्षत्रियत्व दोनों के गुणों का अद्भुत समन्वय है।

प्रश्न 12:
‘सूत-पुत्र’ नाटक के नायक कर्ण के अन्तर्द्वन्द्व पर प्रकाश डालिए।
या
“क्या सारा महत्त्व जाति का ही है ?” कर्ण के इस संवाद के माध्यम से वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसका वर्णन कीजिए।
या
“कर्ण आधुनिक युवा वर्ग का प्रतिनिधि चरित्र है।’ विश्लेषित कीजिए।
उत्तर:
डॉ० गंगासहाय प्रेमी कृत ‘सूत-पुत्र’ नाटक के नायक कर्ण का मानसिक अन्तर्द्वन्द्व कई स्थानों पर । उसके संवादों के माध्यम से प्रकट होता है। प्रथम चरण में वह अपने गुरु परशुराम के सामने इस द्वन्द्व को प्रकट करता है। वह जानना चाहता है कि क्या उसकी अयोग्यता मात्र इसलिए है कि वह किसी विशेष जाति से सम्बन्धित है। दूसरी बार द्रौपदी स्वयंवर में वह द्रुपद-नरेश से इस प्रश्न का उत्तर चाहता है। वह उनसे पूछता है। कि जब स्वयंवर में योग्यता का निर्धारण धनुर्विद्या की कसौटी पर किया जाना है तो कुल-शील, जाति अथवा वर्ण सम्बन्धी प्रतिबन्धों का क्या औचित्य है? उसका यही अन्तर्द्वन्द्व इन्द्र, सूर्य एवं कुन्ती के समक्ष भी प्रकट होता है। वह सामाजिक मान्यताओं एवं व्यवस्थाओं की विसंगतियों के उत्तर चाहता है। वह प्रत्येक को अपनी विचारात्मक तर्कशक्ति के आधार पर इन विसंगतियों के प्रति सहमत कर लेता है, किन्तु उसे क्षोभ इस बात का है कि सभी अपनी विवशता प्रकट करते हुए इस लक्ष्मण-रेखा का अतिक्रमण करने से डरते हैं। कर्ण की व्यथा प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति के अन्तर्मन को गहराई से झकझोर देती है। नाटककार ने कर्ण के अन्तर्मन में उत्पन्न इन प्रश्नों के माध्यम से वर्तमान समय के जाति-वर्ण-व्यवस्था सम्बन्धी रूढ़ियों से ग्रस्त भारतीय समाज के विचारों पर चोट की है। कर्ण के प्रति हुए अन्याय की मूल समस्या अनेक महापुरुषों द्वारा प्रयास किये जाने के बाद भी हमारे देश में आज तक समाधान नहीं पा सकी है।

प्रश्न 13:
सूत-पुत्र’ के सर्वाधिक मार्मिक स्थल पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
डॉ० गंगासहाय प्रेमी कृत ‘सूत-पुत्र’ नाटक में कर्ण की जीवन-लीला का अन्त; इस नाटक का सर्वाधिक मार्मिक स्थल है। कर्ण युद्धभूमि में आहत होकर मरणासन्न अवस्था में पड़ा है। शरीर के छिन्न-भिन्न होने से वह अत्यन्त पीड़ा का अनुभव कर रहा है। इसी समय कृष्ण उसकी दानवीरता एवं साहस की परीक्षा लेने पहुँच जाते हैं। वे उससे ब्राह्मण-वेश में जाकर सुवर्ण का दान माँगते हैं। युद्ध-भूमि में कर्ण के पास देने के लिए कुछ भी नहीं है। वह उनसे अपने दो सोने के दाँत उखाड़ लेने का निवेदन करता है। कृष्ण के ऐसा करने से मना कर देने पर वह उनसे पत्थर देने का आग्रह करता है, जिससे वह अपने दाँत तोड़कर उन्हें दान दे सके। कृष्ण जब इससे भी मना कर देते हैं, तब वह घायलावस्था में घिसटते हुए पत्थर उठाता है और अपने दाँत तोड़कर उन्हें देता है। कृष्ण उन रक्तरंजित दाँतों को अपवित्र बताकर दान लेने से मना कर देते हैं। इस पर वह बड़ी कठिनाई से अपना धनुष उठाता है और धरती पर बाण का प्रहार करके जल की धारा प्रवाहित करता है तथा उस जलधारा में अपने टूटे हुए दाँत धोकर कृष्ण को देता है। प्रसन्न होकर कृष्ण उसके सामने अपने रूप को प्रकट करके उसे साधुवाद देते हैं।
नाटककार ने कर्ण के अन्तिम समय में कृष्ण द्वारा ली गयी इस परीक्षा का चित्रण करके कर्ण के चरित्र को महान् दानी के रूप में प्रतिष्ठित किया है। कृष्ण ने स्वयं अपनी परीक्षा का उद्देश्य भी यही बताया है।

प्रश्न 14:
सूत-पुत्र’ नाटक के सन्देश पर प्रकाश डालिए।
या
‘सूत-पुत्र नाटक के उद्देश्य (प्रतिपाद्य) पर विचार व्यक्त कीजिए।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक की रचना में नाटककार का क्या उद्देश्य था और उसकी पूर्ति में उसको कहाँ तक सफलता मिली है ? संक्षेप में लिखिए।
या
‘सूत-पुत्र में प्राचीन कथा में वर्तमान की समस्या पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर:

‘सूत-पुत्र’ नाटक का सन्देश या उद्देश्य

लेखक श्री गंगासहाय प्रेमी की दृष्टि में ‘सूत-पुत्र’ नाटक का मुख्य उद्देश्य ‘महाभारत के मनस्वी, संघर्षशील एवं कर्मठ व्यक्तित्व कर्ण के प्रति पाठकों एवं दर्शकों की सहानुभूति उत्पन्न करता है। कुन्ती की एक सामान्य-सी भूल के परिणामस्वरूप कर्ण का सारा जीवन कष्टप्रद एवं अपमानजनक बन जाता है। इसी का उल्लेख प्रस्तुत नाटक में किया गया है।

इस मुख्य उद्देश्य के अतिरिक्त नाटककार ने अपने पात्रों के मुख से स्थान-स्थान पर नारी की विवशता, वर्ण-व्यवस्था की वास्तविकता, कुमारी माता की समस्या, असवर्गों के प्रति भेदभाव, नारी-शिक्षा, नैतिकता आदि के औचित्य के प्रति भी संकेत कराये हैं। नाटककार ने अपने उद्देश्य को सफलतापूर्वक चित्रित किया है। नारी-शिक्षा के उद्देश्य को नाटककार ने कर्ण के मुख से इस प्रकार वर्णित कराया है

“पुरुषों ने यह कभी नहीं सोचा कि यदि नारियाँ शिक्षित, सन्तुष्ट, स्वस्थ एवं मनस्विनी नहीं होतीं तो उनके जन्मे एवं उनकी छाया में पले हुए पुरुषों में ये गुण कहाँ से आ सकते थे?”

महाभारत काल में समाज ने जिन समस्याओं का सामना किया था, लगभग वही सामाजिक व सांस्कृतिक समस्याएँ आधुनिक समाज में भी व्याप्त हैं। नाटककार ने वर्तमान काल की इन्हीं समस्याओं को महाभारत काल की कथा के माध्यम से स्वर दिया है।

प्रश्न 15:
डॉ० गंगासहाय प्रेमी ने अपने नाटक ‘सूत-पुत्र’ में प्राचीन कथा को आधार बनाकर वर्तमान की किन ज्वलन्त समस्याओं को चित्रित किया है ? संक्षिप्त उत्तर दीजिए।
या
‘सूत-पुत्र’ नाटक की प्रासंगिकता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
‘सूत-पुत्र’ नाटक के लेखक डॉ० गंगासहाय प्रेमी ने सूत-पुत्र की कथा ‘महाभारत’ महाकाव्य से ली है। कथानक प्राचीन होते हुए भी वर्तमान काल की ज्वलन्त समस्याओं को सँजोये हुए है। जिन समस्याओं का निदान एवं समाधान खोजने में देश के नेता एवं समाज-सुधारक चिन्तित दिखाई पड़ते हैं, उन्हीं समस्याओं का शिकार महाभारतकालीन समाज भी था। तत्कालीन समस्याओं का उल्लेख निम्नवत् किया जा सकता है

  1.  अवैध सन्तान एवं जन-अपवाद की समस्या,
  2. वर्ण-भेद की जटिलता,
  3. क्षत्रिय एवं शूद्रों में व्याप्त भेदभाव,
  4.  नारी के प्रति हीन भावना,
  5. नारी-अपहरण की समस्या,
  6. स्वार्थपरता,
  7.  स्वार्थ-साधना के लिए छल-प्रपंच का प्रयोग तथा
  8. पारस्परिक ईष्र्या-द्वेष की भावना।

प्रश्न 16:
‘सूत-पुत्र नाटक की ऐतिहासिकता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
लेखक डॉ० गंगासहाय प्रेमी कृत सूतपुत्र एक ऐतिहासिक नाटक है, जिसमें इतिहास और कल्पना का मणिकांचन संयोग हुआ है। नाटक के पात्र और उसकी घटनाएँ महाभारत से सम्बन्धित हैं। नाटक के पात्र कर्ण, कुन्ती, परशुराम, दुर्योधन, श्रीकृष्ण आदि प्रसिद्ध ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। कर्ण द्वारा झूठ बोलकर विद्या सीखना, पता चलने पर परशुराम का कर्ण को शाप देना; द्रौपदी का स्वयंवर, अर्जुन का मछली की आँख को बेधना कर्ण द्वारा अपने परिचय से द्रुपद को सन्तुष्ट न कर पाना, द्रौपदी के लिए दुर्योधन का अर्जुन से संघर्ष करना, इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच कुण्डल माँगना, कुन्ती का कर्ण को अपना ज्येष्ठ पुत्र बताना आदि प्रमुख महाभारतकालीन ऐतिहासिक घटनाएँ हैं। इस नाटक में ऐतिहासिक तत्त्वों को भी सफलतापूर्वक दर्शाया गया है। अतः हम कह सकते हैं कि ‘सूत-पुत्र’ नाटक एक सफल ऐतिहासिक नाटक है।

प्रश्न 17:
सूत-पुत्र नाटक के शीर्षक की उपयुक्तता पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर:
सम्पूर्ण नाटक की कथा ‘सूत-पुत्र कर्ण के इर्द-गिर्द ही घूमती है और कर्ण अपनी माता कुन्ती, इन्द्र और श्रीकृष्ण के समझाने पर भी सूत-पुत्र की छवि को त्यागकर क्षत्रिय राजकुमार कर्ण नहीं बनना चाहता। वह अपने आप को सूत-पुत्र बनाये रखकर दुर्योधन की मित्रता के लिए अपने प्राण न्योछावर कर देना चाहता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नाटक का ‘सूत-पुत्र’ शीर्षक सर्वथा उपयुक्त और सार्थक है।

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi सांस्कृतिक निबन्ध : सूक्तिपरक

UP Board Solutions for Class 10 Hindi सांस्कृतिक निबन्ध : सूक्तिपरक

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सांस्कृतिक निबन्ध: सूक्तिपरक

12. परहित सरिस धरम नहिं भाई [2010, 14, 16, 17]

सम्बद्ध शीर्षक

  • वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे
  • परोपकार का महत्त्व [2011, 14]
  • परोपकार ही जीवन है। [2012, 13]

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. परोपकार का अर्थ,
  3. परोपकार : एक स्वाभाविक गुण,
  4. परोपकार : मानव का धर्म,
  5. परोपकार : आत्मोत्थान का मूल,
  6. परोपकारी महापुरुषों के उदाहरण,
  7. प्रेम : परोपकार का प्रतिरूप,
  8. उपसंहार

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प्रस्तावना–संसार में परोपकार से बढ़कर कोई धर्म नहीं हैं। सन्त-असन्त और अच्छे-बुरे व्यक्ति का अन्तर परोपकार से प्रकट होता है। जो व्यक्ति परोपकार के लिए अपने शरीर की बलि दे देता है, वह सन्त या अच्छा व्यक्ति है। अपने संकुचित (UPBoardSolutions.com) स्वार्थ से ऊपर उठकर मानव-जाति का नि:स्वार्थ उपकार करना ही मनुष्य का प्रधान कर्तव्य है। जो मनुष्य जितना पर-कल्याण के कार्य में लगा रहता है, वह उतना ही महान् बनता है। जिस समाज में दूसरे की सहायता करने की भावना जितनी अधिक होती है, वह समाज उतना ही सुखी और समृद्ध होता है। इसलिए तुलसीदास जी ने कहा है

परहित सरिस धरम नहिं भाई ।पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।

परोपकार का अर्थ-परोपकार से तात्पर्य है-दूसरों का हित करना। जब हम स्वार्थ से प्रेरित होकर दूसरे का हित साधन करते हैं, तब वह परोपकार नहीं होता। परोपकार स्वार्थपूर्ण मन से नहीं हो सकता है। उसके लिए हृदय की पवित्रता और शुद्धता आवश्यक है। परोपकार क्षमा, दया, त्याग, बलिदान, प्रेम, ममता आदि गुणों का व्यक्त रूप है। महर्षि व्यास ने परोपकार को पुण्य की संज्ञा दी है; यथा—

अष्टादश पुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम्।।
परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥

परोपकारः एक स्वाभाविक गुण–परोपकार की भावना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। यह भावना मनुष्य में ही नहीं, पशु-पक्षियों, वृक्ष और नदियों तक में पायी जाती है। प्रकृति भी सदा परोपकारयुक्त दिखाई देती है। मेघ वर्षा का जल स्वयं नहीं पीते, वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते, नदियाँ दूसरों के उपकार के लिए ही बहती हैं। सूर्य सबके लिए प्रकाश वितरित करता है, चन्द्रमा अपनी शीतल किरणों से सबको शान्ति देता है, सुमन सर्वत्र अपनी सुगन्ध फैलाते हैं, गाय हमारे पीने के लिए ही दूध देती है। कवि रहीम का कथन है–

तरुवर फल नहिं खाते हैं, सरवर पियहिं न पान ।
कहि रहीम परकाज हित, सम्पति सँचहिं सुजान ॥

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परोपकार : मानव का धर्म-परोपकार मनुष्य का धर्म है। भूखों को अन्न, प्यासे को पानी, वस्त्रहीन को वस्त्र, पीड़ितों और रोगियों की सेवा-सुश्रुषा मानव का परम धर्म है। संसार में ऐसे ही व्यक्तियों के नाम अमर होते हैं, जो दूसरों के लिए मरते और जीवित रहते हैं। (UPBoardSolutions.com) तुलसीदास की ये पंक्तियाँ कितनी महत्त्वपूर्ण

परहित बस जिनके मन माहीं । तिन्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥

परोपकार को इतनी महत्ता इसलिए दी गयी है, क्योंकि इससे मनुष्य की पहचान होती है। इस प्रकार सच्चा मनुष्य वही है जो दूसरों के लिए अपना सर्वस्व निछावर करने को तत्पर रहता है।

परोपकार : आत्मोत्थान की मूल-मनुष्य क्षुद्र से महान् और विरल से विराट तभी बनता है जब उसकी परोपकार-वृत्ति विस्तृत होती जाती है। भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि उसने प्राणिमात्र के हित को मानव-जीवन का लक्ष्य बताया है। एक धर्मप्रिय व्यक्ति की जीवनचर्या पक्षियों को दाना और पशुओं को चारा देने से प्रारम्भ होती है। यही व्यक्ति का समष्टिमय स्वरूप है। ज्यों-ज्यों आत्मा में उदारता बढ़ती जाती है, उतनी ही अधिक आनन्द की उपलब्धि होती जाती है और अपने समस्त कर्म जीव-मात्र के लिए समर्पित करने की भावना तीव्रतर होती जाती है

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः ।।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत् ॥

अर्थात् सभी लोग सुखी हों, निरोगी हों, कल्याणयुक्त हों। दुःख-कष्ट कोई न भोगे। यही सर्व कल्याणमय भावना सन्तों का मुख्य लक्षण है।

परोपकारी महापुरुषों के उदाहरण-महर्षि दधीचि ने राक्षसों के विनाश के लिए अपनी हड्डियाँ देवताओं को दे दी। राजा शिवि ने कबूतर की रक्षा के लिए बाज को अपने शरीर का मांस काट-काटकर दे दिया। गुरु गोविन्द सिंह हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपने बच्चों सहित बलिदान हो गये। राजकुमार सिद्धार्थ ने संसार को दु:ख से छुड़ाने के लिए राजसी सुख-वैभव का त्याग कर दिया। लोक-हित के लिए महात्मा ईसा सूली पर चढ़ गये और सुकरात ने विष (UPBoardSolutions.com) का प्याला पी लिया। महात्मा गाँधी ने देश की अखण्डता के लिए अपने सीने पर गोलियाँ खायीं। इस प्रकार इतिहास का एक-एक पृष्ठ परोपकारी महापुरुषों की पुण्यगाथाओं से भरा पड़ा है।

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प्रेम: परोपकार का प्रतिरूप—प्रेम और परोपकार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्राणिमात्र के प्रति स्नेह-वात्सल्य की भावना परोपकार से ही जुड़ी हुई है। प्रेम में बलिदान और उत्सर्ग की भावना प्रधान होती है। जो पुरुष परोपकारी होता है, वह दूसरों के हित के लिए अपने सर्वस्व निछावर हेतु तत्पर रहता है। परोपकारी व्यक्ति कष्ट उठाकर, तकलीफ का अनुभव करके भी परोपकार वृत्ति का त्याग नहीं करता। जिस प्रकार मेहदी लगाने वाले के हाथ में भी अपना रंग रचा देती है, उसी प्रकार परोपकारी व्यक्ति की संगति सदा सबको सुख देने वाली होती है।

उपसंहार–परोपकार मानव-समाज का आधार है। समाज में व्यक्ति एक-दूसरे की सहायता व सहयोग की सदा आकांक्षी रहता है। परोपकार सामाजिक जीवन की धुरी है, उसके बिना सामाजिक जीवन गति नहीं कर सकता। परोपकार मानव-जाति का आभूषण है। ‘परोपकाराय सतां विभूतयः’ अर्थात् सत्पुरुषों का अलंकार तो परोपकार ही है। हमारा कर्तव्य है कि हम परोपकारी महात्माओं से प्रेरित होकर अपने जीवन-पथ को प्रशस्त करें और कवि मैथिलीशरण (UPBoardSolutions.com) गुप्त के इस लोक-कल्याणकारी पावन सन्देश को चारों दिशाओं में प्रसारित करें

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

13. पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं

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  • स्वतन्त्रता का महत्त्व

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. स्वतन्त्रता का सुख
  3. परतन्त्रता का दुःख,
  4. पराधीनता के विविध रूप-राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक,
  5. स्वाधीनता की महत्ता,
  6. स्वाधीनता के लिए संघर्ष,
  7. उपसंहार

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प्रस्तावना–स्वाधीनता में महान् सुख है और पराधीनता में किंचित्-मात्र भी सुख नहीं। पराधीनता दु:खों की खान है। स्वाभिमानी व्यक्ति एक दिन भी परतन्त्र रहना पसन्द नहीं करता। उसका स्वाभिमान परतन्त्रता के बन्धन को तोड़ देना चाहता है। पराधीन व्यक्ति को चाहे कितना ही सुख, भोग और ऐश्वर्य प्राप्त हो, वह उसके लिए विष तुल्य ही है। पराधीन व्यक्ति की बुद्धि कुण्ठित हो जाती है, उसकी योग्यता का विकास अवरुद्ध हो जाता है, स्वतन्त्र चिन्तन का प्रवाह रुक जाता है और उसको पग-पग पर अपमानित व प्रताड़ित होना पड़ता है।

स्वतन्त्रता का सुख-मुक्त गगन में उन्मुक्त उड़ान भरने में जो आनन्द है, वह पिंजरे में कहाँ ? कल-कल नाद करने वाली नदियाँ भी पर्वतों की छाती को चीरकर आगे बढ़ जाती हैं। सिंह और चीते जैसे हिंसक पशु भी कठघरा तोड़कर बाहर निकलने को बेचैन रहते हैं। (UPBoardSolutions.com) हिरन, खरगोश आदि वन्य जीव तो मुक्त विचरण कर प्रसन्न रहते हैं। जब पशु-पक्षी-फूल-पत्ती आदि को भी स्वतन्त्रता से इतना उन्मुक्त प्यार है तो विवेकशील व्यक्ति परतन्त्र रहना कैसे पसन्द करेगा ? एक अंग्रेज लेखक का यह कथन कितना सत्य है– ‘It is better to be in hell than to be a slave in heaven.’ अर्थात् स्वर्ग में दास बनकर रहने से नरक में रहना कहीं अधिक अच्छा है। महर्षि व्यास ने भी प्रकारान्तर से यही बात कही है-‘पारतन्त्र्यं महोदुःखं स्वातन्त्र्यं परमं सुखम्।

परतन्त्रता का दुःख-परतन्त्रता वास्तव में मानव के लिए कलंक है। उसे जीवन के हर क्षेत्र में पराश्रित रहना पड़ता है। उसकी प्रतिभा, कला-कौशल और योग्यता दूसरों के लिए होती है। उसका लाभ वह स्वयं नहीं ले पाता। वह पराधीनता के बन्धन में जकड़ा हुआ होने से आत्महीनता और तुच्छता का अनुभव करता है। वह अपने जीवन को उपेक्षित और पीड़ित समझता है और ऐसे जीवन को स्वप्न में भी नहीं चाहता।

पराधीनता अभिशाप है। पराधीनता मानव, समाज अथवा राष्ट्र के लिए कभी हितकर नहीं हो सकती। पराधीनता से उन्नति और विकास के सभी मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। पराधीन राष्ट्र सभी सुख-साधनों से हीन होकर दूसरे शासकों की कठपुतली बन जाते हैं।

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पराधीनता के विविध रूप-पराधीनता चाहे व्यक्ति की हो या राष्ट्र की दोनों ही गर्हित हैं। जिस प्रकार व्यक्तिगत पराधीनता से व्यक्ति का विकास रुक जाता है, उसी प्रकार राष्ट्र की पराधीनता से राष्ट्र पंगु बन जाता है। पराधीनता के अनेकानेक रूप होते हैं, जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं–
(क) राजनीतिक-राजनीतिक पराधीनता सबसे भयावह हैं। इसके अन्तर्गत एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र का गुलाम बनकर रहना पड़ता है। राजनीतिक पराधीनता शासित देश के गौरव व सम्मान को खत्म कर उसे उपहास व घृणा का पात्र बना देती है।
(ख) आर्थिक–आज किसी देश को पराधीन रख पाना बहुत कठिन है। इसलिए शक्तिशाली राष्ट्रों; विशेषकर अमेरिका ने एक नया तरीका अपनाया है। वह राष्ट्रों को आर्थिक सहायता यो ऋण देकर उनके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करता है। यह पराधीनता भविष्य में बहुत कष्टकर होती है।
(ग) सांस्कृतिक—इसका तात्पर्य यह है कि किसी देश पर अपनी भाषा और साहित्य थोपकर (UPBoardSolutions.com) मानसिक दृष्टि से उसे अपना गुलाम बना लिया जाए। अंग्रेजों ने भारत में अंग्रेजी का प्रचलन कर तथा पाश्चात्य संस्कृति के प्रचार के माध्यम से देश को मानसिक गुलामी प्रदान की है।
(घ) सामाजिक-सामाजिक पराधीनता से आशय है–विभिन्न वर्गों में असमानता का होना। अंग्रेजों ने इसके लिए विभिन्न वर्गों में भेदभाव को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने जातीयता, प्रान्तीयता व छुआछूत को भड़काकर देश में सर्वत्र अशान्ति और द्वेष-भावना को जाग्रत किया।

स्वाधीनता की महत्ता–स्वाधीनता का कोई सानी नहीं। स्वाधीनता की शीतल छाया में संस्कृति, सभ्यता और समृद्धि बढ़ती है। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इसकी अनुभूति करते हुए ईश्वर से कामना की है-“जहाँ मन में कोई डर न हो और मस्तक गर्व से ऊँचा हो, जहाँ ज्ञान के प्रवाह पर कोई प्रतिबन्ध न हो और स्पष्ट विचारों की निर्मल सरिता निरर्थक रूढ़िग्रस्तता के मरुस्थल में लुप्त न हो जाए, हे परमपिता! ऐसी स्वाधीनता के स्वर्ग में मेरा देश जाग्रत हो।”

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स्वाधीनता के लिए संघर्ष-स्वतन्त्रता मनुष्य को जन्मसिद्ध अधिकार है। इस अधिकार को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक समाज और प्रत्येक राष्ट्र को सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। आज हम भारतवासी राजनीतिक दृष्टिकोण से स्वाधीन हैं, परन्तु हम आज भी मानसिक रूप से विदेशियों (अंग्रेजों) के गुलाम हैं। हमें शीघ्र ही इस मानसिक गुलामी से भी मुक्त होना चाहिए।

उपसंहार-आज हमारा सौभाग्य है कि हम मुक्त भूमि पर मुक्त गगन के नीचे मुक्ति-गीत गा रहे हैं। हमारा देश चिर स्वतन्त्र बना रहे, इसके लिए हमें आपसी द्वेषभाव व वर्ग-विद्वेष को भूलकर राष्ट्रीय चेतना जाग्रत कर देश के गौरव और अक्षुण्णता को कायम रखने के लिए संकल्प लेना चाहिए। कश्मीर से कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण देश एक है; अत: एकत्व की भावना को दृढ़ और मूर्त रूप देकर हमें गौरवशाली राष्ट्र का निर्माण करना चाहिए।

14. आचारः परमो धर्मः

सम्बद्ध शीर्षक

  • सदाचार का महत्त्व
  • जीवन में सदाचार का महत्त्व [2014]

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. सदाचार का अर्थ,
  3. सच्चरित्रता,
  4. धर्म की प्रधानता,
  5. शील : सदाचार की शक्ति,
  6. सदाचार : सम्पूर्ण गुणों का सार,
  7. उपसंहार

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प्रस्तावना-सदाचार मनुष्य का लक्षण है। सदाचार को धारण करना मानवता को प्राप्त करना है। सदाचारी व्यक्ति समाज में पूजित होता है। आचारहीन का कोई भी सम्मान नहीं करता, कोई भी उसका साथ नहीं देता, वेद भी उसका कल्याण नहीं करते।’ (UPBoardSolutions.com) आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः’-अर्थात् वेद भी आचारहीन व्यक्ति का उद्धार नहीं कर सकते।

सदाचार का अर्थ-सदाचार’ शब्द संस्कृत के ‘सत्’ और ‘आचार’ शब्दों से मिलकर बना है। इसका अर्थ है-सज्जन का आचरण अथवा शुभ आचरण। सत्य, अहिंसा, ईश्वर-विश्वास, मैत्री-भाव, महापुरुषों का अनुसरण करना आदि बातें सदाचार में गिनी जाती हैं। इस सदाचार को धारण करने वाला व्यक्ति सदाचारी कहलाता है। इसके विपरीत आचरण करने वाले व्यक्ति को दुराचारी कहते हैं।

सच्चरित्रता-सदाचार का महत्त्वपूर्ण अंग सच्चरित्रता है। सच्चरित्रता सदाचार का सर्वोत्तम साधन है। प्रसिद्ध कहावत है कि “यदि धन नष्ट हो जाए तो मनुष्य का कुछ भी नहीं बिगड़ता, स्वास्थ्य बिगड़ जाने पर कुछ हानि होती है और चरित्रहीन होने पर मनुष्य का सर्वस्व नष्ट हो जाता है। मनुष्य में जो कुछ भी मनुष्यत्व है, उसका प्रतिबिम्ब उसका चरित्र है। आचारहीन मनुष्य तो निरा पशु या राक्षस है।

सच्चरित्रता की सबसे आवश्यक बात है-भय की प्रवृत्ति पर नियन्त्रण करना। भय की प्रवृत्ति को वश में करके ही हमारे हृदय में ऊँचे आदर्श और स्वस्थ प्रेरणाएँ पनप सकती हैं। जो भय के वश में हो गया। हो, उसके चरित्र का विकास नहीं होता। उसकी शक्ति, आत्मबल और महत्त्वाकांक्षाएँ दुर्बल हो जाती हैं। इसी भय के कारण वह सत्य बात नहीं कर पाता और कदम-कदम पर कायरों की भाँति दूसरों के सामने घुटने टेकता है।

जीवन में अच्छे चारित्रिक संस्कारों का विकास हो सके, इसके लिए आवश्यक है कि बुरे वातावरण से स्वयं को दूर रखा जाए। यदि आपका वातावरण दूषित है तो आपका चरित्र भी गिर जाएगा। इसीलिए अपने चरित्र-निर्माण के लिए सदैव भले या बुद्धिमान् लोगों को संग करना चाहिए, बुरे लोगों का साथ छोड़ देना चाहिए तथा शुभ विचारों को मन में लाना चाहिए।

धर्म की प्रधानता–भारत एक आध्यात्मिक देश है। यहाँ की संस्कृति एवं सभ्यता धर्मप्रधान है। धर्म से मनुष्य की लौकिक एवं आध्यात्मिक उन्नति होती है। लोक और परलोक की भलाई धर्म से ही सम्भव है। धर्म आत्मा को उन्नत करता है और उसे पतन की ओर जाने से रोकता है। धर्म के यदि इस रूप को ग्रहण किया जाए तो धर्म को सदाचार का पर्यायवाची भी कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में सदाचार में वे गुण हैं,
जो धर्म में हैं। सदाचार के आधार पर ही धर्म की स्थिति सम्भव है। जो आचरण (UPBoardSolutions.com) मनुष्य को ऊँचा उठाये, उसे चरित्रवान् बनाये, वह धर्म है, वही सदाचार है। सदाचारी होना ही धर्मात्मा होना है। महाभारत में कहा गया है-‘आचारः धर्मः’ अर्थात् धर्म की उत्पत्ति आचार से ही होती है।

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शील : सदाचार की शक्ति-शील मानसिक उच्छंखलता के लिए अंकुश है। सदाचार मनुष्य की काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि वृत्तियों से रक्षा करता है। अहिंसा की भावना से मन की क्रूरता समाप्त होती है। और उसमें करुणा, सहानुभूति एवं दया की भावना जाग्रत होती है। क्षमा, सहनशीलता आदि गुणों से मनुष्य का नैतिक उत्थान होता है और मानव से लेकर पशु-पक्षी तक के प्रति उदारता की भावना पैदा होती है। इस प्रकार सदाचार का गुण धारण करने से मनुष्य का चरित्र उज्ज्वल होता है, उसमें कर्तव्यनिष्ठा एवं धर्मनिष्ठा पैदा होती है जो उसे अलौकिक शक्ति की प्राप्ति कराने में सहायक होती है।

सदाचार : सम्पूर्ण गुणों का सार-सदाचार मनुष्य के सम्पूर्ण गुणों का सार है, जो उसके जीवन को सार्थकता प्रदान करता है। इसकी तुलना में विश्व की कोई भी मूल्यवान् वस्तु नहीं टिक सकती। व्यक्ति चाहे संसार के वैभव का स्वामी हो या सम्पूर्ण विद्याओं का पण्डित अथवा शस्त्र-संचालन में कुशल योद्धा, यदि वह सदाचार से रहित है तो कदापि पूजनीय नहीं हो सकता। सदाचार का बल संसार की सबसे बड़ी शक्ति है, जो कभी भी पराजित नहीं हो सकती। सदाचार के बल से मनुष्य मानसिक दुर्बलताओं का नाश करता है। जिस प्रकार दिग्दर्शक यन्त्र के बिना जहाज निर्दिष्ट स्थान पर नहीं पहुँच सकता, उसी प्रकार सदाचार के बिना मनुष्य कभी भी अपने जीवन-लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता।

उपसंहार-वर्तमान युग में पाश्चात्य पद्धति की शिक्षा के प्रभाव से भारत के युवक-युवतियाँ सदाचार को निरर्थक समझने लगे हैं तथा सदाचार-विरोधी जीवन को आदर्श मानने लगे हैं। इसी कारण युवा वर्ग पतन की ओर बढ़ रहा है तथा उसके जीवन में विश्रृंखलता, (UPBoardSolutions.com) अनुशासनहीनता, उच्छृखलता बढ़ती जा रही है। लुटते हुए आचरण की रक्षा के लिए युवा वर्ग को सचेत होना चाहिए। उन्हें राम, कृष्ण, हरिश्चन्द्र, युधिष्ठिर, गाँधी एवं नेहरू के चरित्र को आदर्श मानकर सदाचरणप्रिय होना चाहिए। राष्ट्र का वास्तविक अभ्युत्थान तभी हो सकेगा, जब हमारे देशवासी सदाचारी बनेंगे।

15. का बरखा जब कृषी सुखाने

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  • समय का सदुपयोग
  • अब पछताये होत क्या, जब चिड़ियाँ चुग गयीं खेत
  • मन पछितैहैं अवसर बीते

रूपरेखा

  1. प्रस्तावना,
  2. समय का महत्त्व,
  3. समय का सदुपयोग,
  4. समय के सदुपयोग से लाभ,
  5. समय के दुरुपयोग से हानि,
  6. समय के सदुपयोग के कुछ उदाहरण,
  7. समय के दुरुपयोग की समस्या,
  8. उपसंहार

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प्रस्तावना—समय सबसे बड़ा धन है। जिसने समय के प्रवाह को जाना, समय की चाल को पहचाना; वह लघु से महान् और रंक से राजा बन गया। जो समय के मूल्य को नहीं पहचानता, वह समय के बीत जाने पर पछताता है। जो समय पर जागा नहीं, निद्रा-तन्द्रा-आलस्यवश पड़ा रहा, निश्चय ही उसका भाग्य भी सोया रहा। समय पर न किया जाने वाला कार्य उसी प्रकार व्यर्थ है, जिस प्रकार दीपक बुझ जाने पर तेल डालना अथवा चोर के भाग जाने पर सावधान होना।

प्रकृति के समस्त कार्य समय पर संचालित होते हैं। सूर्य और चन्द्रमा निश्चित समय पर उदय और अस्त होते हैं तथा ऋतुओं को आगमन निश्चित समय पर होता है, परन्तु मानव ही ऐसा प्राणी है, जो समय के मूल्य को नहीं पहचानता और समय के बीत जाने पर (UPBoardSolutions.com) पछताता है। कहा गया है–

समय चूकि पुनि का पछताने। का बरखा जब कृषी सुखाने ।

समय का महत्त्व-मानव-जीवन में समय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कई क्षण मिलकर जीवन का रूप लेते हैं। एक क्षण को नष्ट करने का अर्थ है, जीवन के एक अंश को नष्ट करना। जीवन में समय बहुत थोड़ा है। यदि इसका उपयोग न किया गया तो जीवन व्यर्थ ही चला जाएगा। समय के सदुपयोग से ही जीवन सार्थक बनता है। समय के एक क्षण को संसार के समस्त ऐश्वर्य से भी क्रय नहीं किया जा सकता

आयुषः क्षण एकोऽपि, न लभ्यः स्वर्णकोटिकैः।
सचेन्निरर्थकं नीतः, का नु हानिस्ततोऽधिकाः॥

समय का सदुपयोग-समय के सदुपयोग का अर्थ है–निर्धारित समय पर नियमपूर्वक काम करना। जो लोग समय का सदुपयोग करते हैं, वे जीवन में सफल होते हैं। नियत समय काम करने से कठिन-से-कठिन काम भी सरल हो जाते हैं तथा ठीक समय पर कार्य न करने से सुगम कार्य भी कठिन हो जाते हैं। जो लोग आज का काम कल पर छोड़ते हैं, वे आलसी हैं। ऐसे ही लोगों के लिए एक विद्वान् ने कहा है-‘Yesterday never comes’, अर्थात् बीता हुआ कल कभी वापस नहीं आता।।

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प्रत्येक कार्य की महत्ता के अनुसार उसका समय निर्धारित करना चाहिए। एक क्षण भी व्यर्थ की बातों के लिए नहीं छोड़ना चाहिए; क्योंकि “An empty mind, is devil’s workshop.” यदि हम अच्छे कार्यों में समय लगाते हैं तो हम उसका सदुपयोग करते हैं। यद्यपि समय के सदुपयोग की कोई निर्णायक रेखा नहीं होती, तथापि सामान्य रूप से उचित समय पर काम करने को समय का सदुपयोग कहा जाता है।

समय के सदुपयोग से लाभ-समय का सदुपयोग करने के अनेकानेक लाभ हैं। जो विद्यार्थी समय को सदुपयोग कर लेते हैं, वे परीक्षा में प्रथम आते हैं। समय के सदुपयोग से दरिद्र धनवान् बन जाते हैं। यदि हम किसी महापुरुष के जीवन को देखें तो हमें ज्ञात होगा कि वे समय के सदुपयोग से ही महान् बने हैं। मनुष्य समय के सदुपयोग से अपनी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक; अर्थात् सर्वांगीण उन्नति कर सकता है। समय के सदुपयोग से आत्मविश्वास की भावना जाग्रत होती है।

समय के दुरुपयोग से हानि–समय को व्यर्थ खोकर कोई भी सुखी नहीं हो सका। (UPBoardSolutions.com) जिन्होंने समय को नष्ट किया, समय ने उन्हें नष्ट कर दिया। अपनी सेना के कुछ मिनट देर से पहुँचने के कारण नेपोलियन बोनापार्ट को नेल्सन से पराजित होना पड़ा था। समय का दुरुपयोग करने वाला जीवन में आस्था और आत्मविश्वास खो बैठता है। वह अकर्मण्य व असफलता से पीड़ित होकर जीवन से निराश हो जाता है।

समय के सदुपयोग के उदाहरण—इतिहास इस बात का साक्षी है कि जो व्यक्ति समय का ध्यान रखता है, समय उसका ध्यान रखता है। समय की उपेक्षा करने वाला समय से भी उपेक्षित रहता है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए, सभी ने समय के महत्त्व को समझा और उसका पूर्ण उपयोग किया। महावीर स्वामी ने अपने शिष्य से कहा था-“हे गौतम! क्षण का भी प्रमोद मत कर। जो रात्रियाँ जा रही हैं, वे वापस लौटने वाली नहीं हैं; अत: शुभ संकल्पपूर्वक उनका उपयोग आत्म-साधना के लिए कर।’

समय के दुरुपयोग की समस्या-समय को व्यर्थ खोने वालों में भारतीयों की तुलना नहीं। कार्यालयों में सभी कर्मचारी पास-पास कुर्सियाँ डालकर गप्पों में समय बिता देते हैं। यहाँ पर हिन्दुस्तानी समय के अनुसार काम होता है; अर्थात् निर्धारित समय से दो, तीन, चार घण्टे बाद तक। देश के उच्चकोटि के नेता किसी सभा में समय पर नहीं पहुँचते। भारत में समय के इस अपव्यय से समय का सदुपयोग करने वालों को बड़ी परेशानी होती है। समय को गंवाना हमारे चरित्र का अंग बन गया है। इस दोष को दूर किये बिना राष्ट्र की उन्नति सम्भव ही नहीं है।

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उपसंहार-समय बड़ा अमूल्य है। जो समय का सदुपयोग करता है, वह अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है तथा जो समय का दुरुपयोग करता है, वह अपने जीवन को नष्ट करता है। माता-पिता, अभिभावक, अध्यापक तथा नेताओं का परम कर्तव्य है कि वे छात्रों को समय के सदुपयोग की प्रेरणा प्रदान करें; क्योंकि राष्ट्र के सम्यक् उत्थान के लिए समय का सदुपयोग नितान्त आवश्यक है। समय का सदुपयोग करके ही अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य को सुरक्षित और प्रगतिशील बनाये रखा जा सकता है। कबीर ने समय की गति को समझा था, इसलिए उन्होंने जीवन की सफलता का राज बताते हुए कहा था

काल्हि करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलै होयगी, बहुरि करैगो कब ।।

16. उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः

सम्बद्ध शीर्षक

  • परिश्रम से लाभ [2013]
  • श्रम का महत्त्व [2011, 15]
  • श्रम ही सफलता की कुंजी है [2014]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. स्वावलम्बी की विशेषताएँ,
  3. स्वावलम्बन के लाभ,
  4. स्वावलम्बियों के उदाहरण,
  5. स्वावलम्बन की शिक्षा,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना–स्वावलम्बन जीवन के लिए परमावश्यक हैं। यह प्रतिभावान मनुष्य का लक्षण है, उन्नति को मूल है, बड़प्पन का साधन है और सुखमय जीवन का स्रोत है। स्वावलम्बन का अर्थ अपना सहारा या अपने ऊपर निर्भर होना है। स्वावलम्बी व्यक्ति या राष्ट्र ही (UPBoardSolutions.com) स्वतन्त्र रह सकता है। जो देश या व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं के लिए दूसरों का मुंह ताकते हैं, वे स्वतन्त्र नहीं रह सकते। यह शारीरिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का साधन है। अंग्रेजी की एक प्रसिद्ध कहावत है-“God helps those who help themselves.” अर्थात् ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। प्रसिद्ध कहावत ‘बिना मरे स्वर्ग किसने देखा’ भी सही अर्थों में स्वावलम्बन की ही शिक्षा देती है।

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स्वावलम्बी की विशेषताएँ-स्वावलम्बी व्यक्ति स्वतन्त्र होता है। उसका अपने पर अधिकार होता है। वह बड़े-बड़े धनिकों तथा शक्तिवानों की भी परवाह नहीं करता। तानसेन के गुरु स्वामी हरिदास ने ‘सन्तन को कहा सीकरी सो काम’ कहकर अकबर का निमन्त्रण ठुकरा दिया था। स्वावलम्बी व्यक्ति सबके साथ विनम्रता का व्यवहार करके अपने काम में संलग्न रहता है। उस पर चाहे कितनी भी विपत्ति क्यों न आ जाए, किसी भी बाधा के सामने वह हार नहीं मानता तथा हमेशा अपने कार्य में सफल होता है। स्वावलम्बी सरलता का व्यवहार करता है, किसी के साथ छल-कपट नहीं करता। उसमें त्याग, तपस्या और सेवाभाव होता है, लालच नहीं होता। वह स्वाभिमान की रक्षा के लिए बड़े-से-बड़े वैभव को तिनके के समान त्याग देता है। उसमें असीम उत्साह और आत्मविश्वास होता है।

स्वावलम्बन के लाभ-स्वावलम्बन का गुण प्रत्येक परिस्थिति में लाभकारी होता है। स्वावलम्बी व्यक्ति आत्मविश्वास के कारण उन्नति कर सकता है। उसमें स्वयं काम करने एवं सोचने-विचारने की सामर्थ्य होती है। वह किसी भी काम को करने के लिए किसी के सहारे की प्रतीक्षा नहीं करता। वह अकेला ही कार्य करने के लिए आगे बढ़ता है। उसे अपना काम करने में सच्चा आनन्द मिलता है। जिस प्रकार बैसाखी के सहारे चलने वाले व्यक्ति की बैसाखी छीन ली जाए तो उसका चलना बन्द हो जाता है; उसी प्रकार जो व्यक्ति दूसरों के सहारे की आशा करता है, उसका मार्ग निश्चित ही अवरुद्ध होता है।

नेपोलियन बोनापार्ट के कथनानुसार, ‘असम्भव शब्द मूर्खा के शब्दकोश में होता है।’ विघ्न-बाधाएँ स्वावलम्बियों के मार्ग को अवरुद्ध नहीं कर पातीं। महापुरुषों ने स्वावलम्बन के कारण ही उन्नति की है। स्वावलम्बी की सभी प्रशंसा करते हैं। उसे यश और गौरव की प्राप्ति होती है।

स्वावलम्बियों के उदाहरण—संसार के सभी महापुरुष स्वावलम्बन के कारण ही महान् बने हैं। छत्रपति शिवाजी ने थोड़े-से मराठों को एकत्र कर हिन्दुओं की निराशा से रक्षा की थी। एक लकड़हारे का लड़का’ अब्राहम लिंकन स्वावलम्बन से ही अमेरिका का राष्ट्रपति बना था। बेंजामिन फ्रेंकलिन ने स्वावलम्बन का पाठ पढ़ा और विज्ञान के क्षेत्र में नाम कमाया। माइकल फैराडे प्रारम्भ में जिल्दसाजी का कार्य किया करते थे, पर स्वावलम्बन के (UPBoardSolutions.com) बल पर ही वे संसार के महान् वैज्ञानिक बने। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर दीन ब्राह्मण की सन्तान थे, किन्तु भारत में उन्होंने जो यश अर्जित किया, उसका रहस्य स्वावलम्बन ही है। कवीन्द्र रवीन्द्र ने नदी के तट पर मात्र दस विद्यार्थियों को बैठाकर ही शान्ति-निकेतन की स्थापना की थी। गाँधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में स्वावलम्बन के बल पर गोरे शासकों के अत्याचारों का दमन कियाथा। उन्होंने
आत्मबल के द्वारा ही भारत को परतन्त्रता के पाश से मुक्त कराया था। नेताजी सुभाषचन्द्र बोले ‘आजाद हिन्द फौज का संगठन करके अंग्रेजों के छक्के छुड़ाये थे।

स्वावलम्बन की शिक्षा–स्वावलम्बन का गुण वैसे तो किसी भी आयु में हो सकता है, परन्तु बालकों में यह शीघ्र उत्पन्न किया जा सकता है। उन्हें ऐसी परिस्थिति में डालकर जहाँ कोई सहारा देने वाला न हो, स्वावलम्बन का पाठ सिखाया जा सकता है। आजकल स्वावलम्बन की विशेष आवश्यकता है। प्रकृति से भी हमें स्वावलम्बन की शिक्षा मिलती है। पशु-पक्षियों के बच्चे जैसे ही चलने-फिरने लगते हैं, वे अपना । रास्ता स्वयं खोज लेते हैं और अपना घर स्वयं बनाते हैं। हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है कि हम बात-बात में सरकार का मुंह ताकते हैं और आवश्यकता की पूर्ति न होने पर हम उसे दोषी तो ठहराते हैं, पर अपनी उन्नति के लिए स्वयं कुछ नहीं करते। किसी विचारक ने ठीक ही कहा है कि “पतन से भी महत्त्वपूर्ण पतन यह है कि किसी को स्वयं पर ही भरोसा न हो।”

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उपसंहार-इस प्रकार स्वावलम्बन उन्नति की प्रथम सीढ़ी है। स्वावलम्बन से जीवन-भर शान्ति और सन्तोष प्राप्त होता है। इससे निडरता, परिश्रम और धैर्य आदि गुणों का विकास होता है। इसी से समाज और राष्ट्र की उन्नति होती है। स्वावलम्बन पर सब प्रकार का वैभव निछावर किया जा सकता है। गुप्त जी ने कहा भी है

‘स्वावलम्बन की एक झलक पर, निछावर है कुबेर का कोष।’

17. पर उपदेश कुशल बहुतेरे [2014, 18]

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. पर उपदेश द्वारा अहं की सन्तुष्टि,
  3. विचार से आचार श्रेष्ठ,
  4. आचरण का ही प्रभाव पड़ता है,
  5. अनाचरित उपदेश प्रभावक नहीं होता,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-दूसरों को उपदेश देना बहुत ही आसान कार्य है; क्योंकि दूसरों को उपदेश देने में स्वयं का कुछ नहीं लगता; बस जरा-सी जीभ ही हिलानी पड़ती है। परन्तु इसे आचरण में उतारना कोई हँसी-खेल नहीं है। यह हवा में गाँठ लगाने के सदृश कठिन ही नहीं, अपितु अति कठिन है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने ‘श्रीरामचरितमानस में मानव-जीवन को प्रेरणा देने वाली व योग्य दिशा-निर्देश करने वाली कितनी ही सूक्तियाँ सँजो रखी हैं, जिनमें से एक यह भी है। मेघनाद जब युद्ध में मारा जाता है तो मन्दोदरी आदि रावण की रानियाँ विलाप (UPBoardSolutions.com) कर रोने लगती हैं। उस समय रावण जगत् की नश्वरता आदि का बखानकर उन्हें समझाने लगता है। इसी अवसर पर गोस्वामी जी लिखते हैं

तिन्हहिं ग्यान उपदेसा रावन। आपुन मंद कथा सुभ पावन ॥
पर उपदेश कुशल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥

अर्थात् रावण उन्हें तो उपदेश देने लगा, पर स्वयं उसका आचरण क्या था? एक असहाय परायी नारी को बलपूर्वक उठा लाना, उसके लिए समस्त लंका-राज्य, बन्धु-बान्धव, स्वजन-परिजन को विनष्ट करा डालना। इस प्रकार वह स्वयं तो था पापाचारी, पर बातें बड़ी ऊँची और शुभ करता था। ऐसे ही व्यक्तियों को लक्ष्य करते हुए कबीर ने लिखा है

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अपना मन निश्चल नहीं, और बँधावत धीर।
पानी मिले न आप को, औरहु बकसत हीर॥

सचमुच दूसरों को उपदेश देने में बहुत-से लोग बड़े कुशल होते हैं; पर उसे स्वयं अपने आचरण में उतारकर दिखाने वाले बिरले ही होते हैं।

पर उपदेश द्वारा अहं की सन्तुष्टि—किसी विद्वान् व्यक्ति का कथन है कि “परोपदेश पाण्डित्यं’, अर्थात् दूसरों को उपदेश देने में लोग अपनी पण्डिताई अथवा विद्वत्ता का प्रदर्शन करते हैं।

वस्तुत: मनुष्य में दूसरों को उपदेश देने की प्रवृत्ति बहुत सामान्य है। इसका कारण यह है कि इस प्रकार वह दूसरों पर अपनी श्रेष्ठता, अपनी विद्वत्ता की धाक जमाकर अपने अहं को सन्तुष्ट करना चाहता है। यह भी देखने में आता है कि जो जितना खोखला होता है, आचरण से गिरा होता है, दूसरों को उपदेश देने में वह उतना ही उत्साह प्रकट करता है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण कदाचित् यही है कि आचरण-हीनता से उसके अन्दर हीनता की जो एक ग्रन्थि बन जाती है, उसे वह इस प्रकार के आडम्बर से दबाना चाहता है।

विचार से आचार श्रेष्ठ-किसी विचारक का कथन है, “आचरण का एक कण सम्पूर्ण भाषण से कहीं अधिक श्रेष्ठ है।” एक लघुकथा से यह बात अधिक स्पष्ट हो जाती है—कौरव-पाण्डव बाल्यावस्था में गुरुजी के पास विद्याध्ययन के लिए गये। गुरुजी ने पहला पाठ दिया, (UPBoardSolutions.com) ‘सत्यं वद’ (सत्य बोलो)। अन्य बच्चों ने तो पाठ तत्काल याद करके सुना दिया, पर युधिष्ठिर न सुना सके। एक-एक करके कई दिन बीत गये। युधिष्ठिर यही कहते रहे-“पाठ अभी ठीक से याद नहीं हुआ। एक दिन बोले-“याद हो गया।” गुरुजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा-“युधिष्ठिर, जरा-सा पाठ याद करने में तुम्हें इतना समय कैसे लग गया?’ युधिष्ठिर ने नम्रतापूर्वक कहा-“गुरुदेव! आपके दिये पाठ के शब्द रटने थोड़े ही थे, उन्हें तो व्यवहार में उतारना था। मुझसे कभी-कभी असत्य भाषण हो जाता था। अब इतने दिनों के अभ्यास से ही उस दुर्बलता को दूर कर सका हूँ। इसी से कहता हूँ कि पाठ याद हो गया।” गुरुदेव युधिष्ठिर की ऐसी निष्ठा देखकर गद्गद हो गये। उन्होंने उन्हें गले से लगा लिया। इसी आचरण के बल पर युधिष्ठिर आगे चल कर धर्मराज कहलाये।

आचरण का ही प्रभाव पड़ता है-आज के नेताओं में उपदेश देने की कला प्रचुरता से विद्यमान है। वे मंच पर खड़े होकर भोली-भाली जनता के समक्ष मितव्ययिता का उपदेश देते हैं, परन्तु स्वयं पाँच सितारा । होटलों में आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त वैभव का उपभोग करते हैं। सत्य ही कहा है-

कथनी मीठी खाँड़ सी, करनी विष की लोय।
कथनी तज करनी करै, तो विष से अमृत होय॥

महापुरुषों के लक्षण बताते हुए एक विचारक ने कहा है, “ने जैसा सोचते हैं, वे कहते हैं और जैसा कहते हैं, वैसा ही करते हैं।’ मन से, वचन से और कर्म से वे क रूप होते हैं। जो केवल कहते ही हैं, तदनुरूप आचरण नहीं करते, उनकी बातो का लोगों पर कोई प्रभाव नहीं होता। आदरणीय बापू जी उपदेश देने से पूर्व स्वयं आचरण करते थे। स्वयं आचरण करके ही उसे दूसरों से करने के लिए कहते थे। यह है उन असाधारण पुरुषों की बात, जो वाक्शुरता में नहीं, आचरण की शूरता में विश्वास रखते थे। ऐसे लोगों की वाणी से ऐसा ओज प्रकट होता है कि सुनने वाला प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यह है कथनी और करनी की एकता का प्रभाव। (UPBoardSolutions.com) वास्तव में कथनी को करनी में परिणत करके दिखाने वाले लोग असाधारण होते हैं। ऐसे ही आचारनिष्ठ लोगों से जन-जीवन प्रभावित होता है।

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अनाचरित उपदेश प्रभावक नहीं होता–जो व्यक्ति अपनी लच्छेदार भाा में प्रभावोत्पादक उपदेश देता है, लेकिन स्वयं उस उपदेश के अनुसार आचरण नहीं करता: ऐसे लोगों की प्रभावकता अधिक समय तक नहीं टिकती। ‘ढोल की पोल’ भन्ना कितने दिनों तक छिपी रह सकती हैं। ऐसे लोगों का उपदेश ‘थोथा चना बाजे घना’ के अनुसार कोरी बकवास ही समझा जाता है। सफेद पोशाक पहनकर, मुग्धकारी और मनमोहक वाणी में बोलने वालों की जब कलई खुल जाती है तो जनता में ऐसे लोग घृणा के पात्र बन जाते हैं।

उपसंहार-समाज में ऐसे लोगों की भरमार है, जिनकी कथनी और करन में कोई तालमेल ही नहीं। ऐसे ही लोगों से समाज में पाखण्ड और मिथ्याचार पनपते हैं तथा सच्चाई छिप जाती है। फलतः इनसे समाज का हित होना तो दूर, अहित ही होता है। तोला भर आचरण सेर (UPBoardSolutions.com) खोखले उपदेश से बढ़कर है, इसीलिए एक विद्वान् ने लिखा है-‘Example is better than precept.’ (उपदेश से आचरण भला)।

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UP Board Solutions for Class 7 Hindi Chapter 9 मेघ बजे, फूले कदम्ब (मंजरी)

UP Board Solutions for Class 7 Hindi Chapter 9 मेघ बजे, फूले कदम्ब (मंजरी)

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समस्त पद्याशों की व्याख्या

मेघ बजे

धिन-धिन-धा ……………………….. धिन-धिन-धा….।

संदर्भ:
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘मंजरी’ के ‘मेघ बजे, फूले (UPBoardSolutions.com) कदम्ब’ नामक कविता से उद्धत की गई हैं। इसके रचयिता वैद्यनाथ मिश्र ‘नागार्जुन’ हैं।

प्रसंग:
प्रस्तुत कविता में कवि ने बादलों की उमड़-घुमड़ एवं उनकी ध्वनि का मार्मिक चित्रण किया है।

व्याख्या:
धिन-धिन-धा और धमक-धमक के साथ बादल गर्जना करने लगे। बादलों में बिजली चमक ली। बादलों की गर्जना हुई, मेंढक ने बोलना शुरू कर दिया। धरती का ऊपरी तले पानी से धुल गया। कीचड़ भी चंदन समान लग रहा है क्योंकि पानी बरसने से जमीन (UPBoardSolutions.com) जोतने योग्य हो गई। इस कार हुल का स्वागत होने लगा। बादल धिन-धिन करके गर्जना करने लगे।

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फूले कदम्ब……………………. फूले कदम्ब।

संदर्भ:

पूर्ववत् ।

प्रसंग:
अवि ने सावन में फैली हरियाली तथा फूले हुए कदम्ब का सजीव चित्रण किया है।

व्याश्या:
सावन के महीने में कदम्ब फूल आ जाते हैं। उनकी प्रत्येक टहनी पर गेंद के समान वह अब भी बरस रहा है। ललचाई आँखों से पपीहा स्वाति नक्षत्र की बूंद के लिए तरस रहा है। मेरा मन कहता है कि कदम्ब पर बैठ जाऊँ। कदम्ब फूले हुए हैं। (UPBoardSolutions.com)

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प्रश्न-अभ्यास

कुछ करने को

प्रश्न 1:
चित्र देखिए और बताइए कि वर्षा ऋतु में गाँव में रहने वालों के समक्ष क्या-क्या समस्याएँ हो सकती हैं और उनके निदान के लिए क्या उपाय हो सकते हैं?
उत्तर:
वर्षा के दिनों में गाँव के लोगों की समस्याएँ- सड़क (UPBoardSolutions.com) कच्ची होने के कारण पानी भर जाता है जिससे आवागमन की समस्या पैदा हो जाती है। लकड़ी, उपले आदि के गीले होने पर सूखे ईंधन की समस्या बढ़ जाती है।
UP Board Solutions for Class 7 Hindi Chapter 9 मेघ बजे, फूले कदम्ब (मंजरी) image - 1

उपाय:
सड़कों की मरम्मत कराकर तथा नालियों को पक्की तथा गहरी बनाकर पानी के निकास की व्यवस्था की जा सकती है। जिससे कीचड़ से बचा जा सकता है। गाँव में वर्षा के दिनों में एल०पी०जी० गैस का प्रयोग करके सूखे ईंधन की समस्या से बचा जा सकता है।

प्रश्न 2:
आपने कविता में पढ़ा-धिन-धिन-धा, धमक-धमक मेघ बजे। (UPBoardSolutions.com) यह तबले का एक बोल है, इसी तरह अन्य वाद्ययंत्रों के भी बोल होते हैं। पता लगाएँ- ढोल, सितार, बाँसुरी, हारमोनियम के कौन-कौन से बोल होते हैं?
उत्तर:
ढोल – ढम – ढम
सितार – टींग – टींग
बाँसुरी – पीऊँ – पीऊँ
हारमोनियम – सा रे गा मा….

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विचार और कल्पना

प्रश्न 1:
निम्नांकित कविता को धयान से पढ़िए
बिजली चमकी कड़कड़-कड़।
बादल गरजा गड़-गड़-गड़। पानी बरसा तड़-तड़-तड़।
नानी बोली पढ़-पढ़-पढ़।

यह कविता आपके ही एक साथी द्वारा लिखी गयी है। (UPBoardSolutions.com) आप भी कविता लिख सकते हैं। नीचे लिखे शब्दों की मदद से ऐसी ही एक कविता की रचना कीजिए
धमक, चमक, दमक, महक
उत्तर:
बादल आया धमक   –  धमक
बिजली चमकी चमक  –  चमक
धरा रही है दमक  –  दमक
खिल गए फूल सब महक  –  महक।

प्रश्न 2:
बताइए, निम्नांकित ऋतुओं में आप अपने आस-पास क्या-क्या परिवर्तन देखते हैं
(क) बरसात में
( ख ) जाड़े में
(ग) गर्मी में
उत्तर:
(क) बरसात में: बरसात में चारों ओर कीचड़ फैल जाता है। कीड़े-मकोड़ों की वृद्धि हो जाती है। चारों ओर हरियाली छा जाती है।
(ख) जाड़े में : जाड़े में लोग स्वेटर, जर्सी आदि ऊनी वस्त्र पहनते हैं। (UPBoardSolutions.com) पानी बहुत ठण्डा हो जाता है। रातें बड़ी तथा दिन छोटे हो जाते हैं। दिन की अपेक्षा रातें ठण्डी होती हैं।
(ग) गर्मी में : गर्मी में लोग सूती तथा हल्के वस्त्र पहनते हैं। गर्मी के मौसम में दिन भर गर्म हवाएँ चलती हैं। दिन बड़े तथा रात छोटी हो जाती है। रात की अपेक्षा दिन अधिक गर्म रहता है।

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कविता से

प्रश्न 1:

(क) “धरती का हृदय धुला’ और ‘दादुर का कंठ खुला’ से क्यो आशय है?

उत्तर:
धरती को हृदय धुला’ से कवि का आशय यह है कि बादलों के बरसने से प्यासी धरा तृप्त हो गई, धूल चंदन रूपी कीचड़ बन गई, क्योंकि भूमि जोतने योग्य बन गई। ‘दादुर का कंठ खुला से कवि का आशय है-बादलों के बरसने से प्रसन्न मेंढक टर्र-टर्र कर गाने लगे। (UPBoardSolutions.com)

(ख) “जाने कब से तू तरस रहा” पंक्ति में ‘तू’ किसके लिए प्रयुक्त हुआ है?
उत्तर:
यहाँ ‘तू’ पपीहा के लिए प्रयुक्त हुआ है। वह स्वाति नक्षत्र की बूंद के लिए तरसता रहता है।

(ग) कवि ने कदम्ब के फूलों की तुलना ‘कन्दुक’ से क्यों की है?
उत्तर:
कन्दुक का अर्थ है-गेंद। गेंद गोल होती है। (UPBoardSolutions.com) कदम्ब के फूलों की गोल आकृति के कारण उनकी तुलना कन्दुक से की गई है।

प्रश्न 2. इन पंक्तियों का भाव स्पष्ट कीजिए

(क) पंक बना हरिचन्दन
हल का है अभिनन्दन
उत्तर:
कवि कहता है बादल के बरसने से जो कीचड़ बन रहा है, वह भी हरिचंदन के समान है। क्योंकि इसी कीचड़ में किसान फसल बोने की तैयारी कर रहे हैं। हल का अभिनंदन हो रहा है, किसान, उसे काँधे पर लिए खेतों की ओर निकल पड़े हैं। (UPBoardSolutions.com)

(ख) बादल का कोप नहीं रीता
जाने कब से वो बरस रहा
ललचाई आँखों से नाहक
जाने कब से तू तरस रहा
उत्तर:
ये पंक्तियाँ पपीहे को इंगितकर लिखी गई हैं। कवि कहता है कि बादल का कोप रीता नहीं है यानी वह लगातार बरस रहा है और बहुत समय से बरस रहा है लेकिन पपीहे की प्यास अभी भी नहीं बुझ रही। वह तो ललचाई आँखों से अभी (UPBoardSolutions.com) भी स्वाति नक्षत्र में बरसनेवाली उस एक बूंद की प्रतीक्षा में प्यासा है।

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भाषा की बात

प्रश्न 1:
निम्नांकित शब्दों के तुकान्त शब्द कविता से छाँटकर लिखिए
खुला, हरिचन्दन्, दमक, रीता, बरस, झूले।
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 7 Hindi Chapter 9 मेघ बजे, फूले कदम्ब (मंजरी) image - 2
प्रश्न 2:
कविता की निम्नांकित पंक्तियों को पढ़िए
‘ललचाई आँखों से नाहक
जाने कब से तू तरस रहा’ इनमें ‘नाहक’ शब्द का प्रयोग हुआ है। (UPBoardSolutions.com) यह शब्द अरबी भाषा का है, जिसमें ‘ना’ उपसर्ग लगा हुआ है। ‘ना’ उपसर्ग रहित (नहीं) के अर्थ में प्रयोग होता है। इसी तरह के और भी शब्द हैं जैसे- नासमझ…………। आप इस प्रकार के चार शब्दों को ढूंढकर लिखिए।
उत्तर:
नादान, नाराज, नापसन्द, नालायक।

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UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 4

UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 4 are part of UP Board Class 12 Hindi Model Papers. Here we have given UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 4.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Hindi
Model Paper Paper 4
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 4

समय 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक 100

खण्ड ‘क’

निर्देश
(i) प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
(ii) सभी प्रश्नों के उत्तर देने अनिवार्य हैं।
(iii) सभी प्रश्नों हेतु निर्धारित अंक उनके सम्मुख अंकित हैं

प्रश्न 1.
(क) आदिकाल का नाम ‘वीरगाथा काल’ किस इतिहासकार ने रखा है? (1)
(a) हजारीप्रसाद द्विवेदी
(b) महावीर प्रसाद द्विवेदी
(c) शान्तिप्रिय द्विवेदी |
(d) रामचन्द्र शुक्ल

(ख) “खलिक बारी’ के रचयिता हैं। (1)
(a) अमीर खुसरों
(b) अबुल फजल
(c) ख्वाजा अहमद
(d) अब्दुर्रहमान

(ग) निम्नलिखित में से कौन अपनी व्यंग्य-रचनाओं के लिए प्रसिद्ध हैं? (1)
(a) श्यामसुन्दर दास
(b) गुलाब राय
(c) हरिशंकर परसाई :
(d) रामचन्द्र शुक्ल

(घ) ‘रूपक रहस्य’ रचना है ।(1)
(a) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की
(b) श्यामसुन्दर दास की
(c) वासुदेवशरण अग्रवाल की
(d) जैनेन्द्र कुमार की

(ङ) ‘तन्त्रालोक से यन्त्रालोक तक रचना की विधा है। (1)
(a) भेट वार्ता
(b) संस्मरण
(c) रिपोर्ताज
(d) यात्रा-वृत्त

प्रश्न 2.
(क) “श्रृंगार शिरोमणि’ के रचनाकार हैं। (1)
(a) जसवन्त सिंह द्वितीय
(b) द्विजदेव
(c) ग्वाल
(d) बेनीबन्दीजन

(ख) सोमनाथ’ की स्चना है। (1)
(a) अंगदर्पण
(b) रस प्रबोध
(c) रसपीयूषनिधि
(d) पदावली ।

(ग) हरी घास पर क्षण भर’ के रचयिता हैं। (1)
(a) त्रिलोचन
(b) अज्ञेय
(c) केदारनाथ अग्रवाल
(d) प्रभाकर माचवे

(घ) सही सुमेलित है। (1)
(a) भारत-भारती/महाकाव्य
(b) प्रणभंग/चरितकाव्य
(c) गीतिका/वीरकाव्य
(d) रश्मिरथी/खण्डकाव्य

(ङ) निम्नलिखित में से कौन-सी पन्त जी की प्रगतिवादी रचना मानी जाती हैं? (1)
(a) पल्लव
(b) युगान्त
(c) गुंजन
(d) वीणा

प्रश्न 3.
निम्नलिखित अवतरणों को पढ़कर उनपर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।(5 x 2 = 10)
इच्छाएँ नाना हैं और नानाविधि हैं और उसे प्रवृत्त रखती हैं। उस प्रवृत्ति से वह रह-रहकर थक जाता है और निवृत्ति चाहता है। यह प्रवृत्ति और निवृत्ति का चक्र उसको द्वन्द्व से थका मारता है। इस संसार को अभी राग-भाव से वह चाहता है कि अगले क्षण उतने ही विराग भाव से वह उसका विनाश चाहता है। पर राग-द्वेष की वासनाओं से अन्त में झुंझलाहट और छटपटाहट 
ही उसे हाथ आती है। ऐसी अवस्था में उसका सच्चा भाग्योदय कहलाएगा | अगर वह नत-नम्र होकर भाग्य को सिर आँखों लेगा और प्राप्त कर्त्तव्य में ही अपने पुरुषार्थ की इति मानेगा।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रवृत्ति-निवृत्ति के चक्र में फैसा मनुष्य क्यों थक जाता है?
(ii) प्रेम और ईष्र्या की वासनाओं में पड़कर व्यक्ति की स्थिति कैसी हो । 
जाती है?
(iii) लेखक के अनुसार मनुष्य का सच्चा भाग्योदय कब सम्भव है?
(iv) प्रवृत्ति, राग’ शब्दों के क्रमश: विलोम शब्द लिखिए।
(v) ‘राग-द्वेष का समास विग्रह करके समास का भेद भी लिखिए।

अथवा
आज के अनेक आर्थिक और सामाजिक विधानों की हम जाँच करें, तो पता चलेगा कि वे हमारी सांस्कृतिक चेतना के क्षीण होने के कारण युगानुकूल परिवर्तन और परिवर्द्धन की कमी से बनी हुई रूदियों, परकीयों के साथ संघर्ष की परिस्थिति से उत्पन्न माँग को पूरा करने के लिए अपनाए गए उपाय अथवा परकीयों द्वारा थोपी गई या उनका अनुकरण कर स्वीकार की गई व्यवस्थाएँ मात्र हैं। भारतीय संस्कृति के नाम पर उन्हें जिन्दा रखा जा सकता। उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है तथा इसके लेखक कौन हैं?
(ii) लेखक के अनुसार भारतीय सांस्कृतिक चेतना के कमजोर होने का मुख्य 
कारण क्या हैं?
(iii) युगानुरूप परिवर्तन एवं विकास नहीं होने का मुख्य कारण क्या है?
(iv) भारतीय नीतियाँ एवं सिद्धान्त किस प्रकार विदेशियों की नकल मात्र 
बनकर रह गए हैं?
(v) ‘परिस्थिति’, व सांस्कृतिक’ शब्दों में क्रमश: उपसर्ग एवं प्रत्यय छाँटकर 
लिखिए।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित काव्यांशों को पढ़कर उनपर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए। (5 x 2 = 10)
भई थकित छबि चकित हेरि हर-रूप मनोहर। है आनहि के प्रान रहे तन घरे धरोहर।। भयो कोप कौ लोप चोप औरै उमगाई। चित चिकनाई चढ़ी कढ़ी सब रोष, रुखाई।। कृपानिधान सुजान सम्भु हिय की गति जानी। दियौ सौस पर ठाम बाम करि कै मनमानी।। सकुचति ऐचति अंग गंग सुख संग लजानी। जटाजूट हिम कूट सघन बन सिमटि समानी।। उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने किसका वर्णन किया हैं?
(ii) गंगा का क्रोध किस प्रकार शान्त हुआ?
(iii) “सकुचति ऐचति अंग गंग सुख संग लजानी।” पंक्ति का आशय स्पष्ट 
कीजिए।
(iv) शिवजी की जटाओं में स्थान पाकर गंगा की स्थिति में क्या परिवर्तन हुआ?
(v) प्रस्तुत पद्यांश में कौन-सा रस निहित है?

अथवा

झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर!
राग–अमर! अम्बर में भर निज रोर!
झर झर झर निर्झर-गिरि-सर में,
घर, मरु तरु-मर्मर, सागर में,
सरित-तड़ित-गति–चकित पवन में मन में,
विजन-गहंन-कानन में,
आनन-आनन में,
रव घोर कठोरराग–अमर!
अम्बर में भर निज रोर!
अरे वर्ष के हर्ष!
बरस तू बरस बरस रसधार!
पार ले चल तू मुझको बहा,
दिखा मुझको भी निज ।
गर्जन-भैरव-संसार!

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत पशि किस कविता से अवतरित है तथा इसके कवि कौन हैं?
(ii) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने बादल के किस रूप का वर्णन किया है?
(iii) “पार ले चल तू मुझको, बहा दिखा मुझको भी निज’–पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
(iv) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने बादलों से क्या आह्वान किया है?
(v) ‘निर्भर’ और ‘संसार’ शब्द में से उपसर्ग शब्दांश छाँटकर लिखिए।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित लेखकों में से किसी एक लेखक का जीवन परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए (4)
(क) मोहन राकेश ।
(ख) वासुदेवशरण अग्रवाल ।
(ग) जैनेन्द्र कुमार |
(घ) सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’

प्रश्न 6.
निम्नलिखित कवियों में से किसी एक का जीवन परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए। (4)
(क) महादेवी वर्मा ।
(ख) मैथिलीशरण गुप्त
(ग) जयशंकर प्रसाद
(घ) सुमित्रानन्दन पन्त

प्रश्न 7.
(क) ‘खून का रिश्ता’ अथवा ‘पंचलाइट’ कहानी के नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए। (4)
अथवा
‘कर्मनाशा की हार’ अथवा ‘बहादुर’ कहानी का कथानक संक्षेप में निम्तिए।

(ख) स्वपठित नाटक के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नों में से किसी एक प्रश्न | का उत्तर दीजिए।
(i) ‘कुहासा और किरण’ एक समस्या मूलक नाटक है। सिद्ध कीजिए। अधा ‘कुहासा और किरण’ नाटक के शीर्षक की सार्थकता पर अपने विचार 
व्यक्त कीजिए।
(ii) ‘आन का मान’ नाटक की समीक्षा नाटकीय तत्वों की दृष्टि से कीजिए। अथवा ‘आन का मान’ नाटक के आधार पर औरंगजेब का चरित्र-चित्रण 
कीजिए।
(iii) ‘गरुड़ध्वज’ नाटक के तृतीय अंक की कथा अपने शब्दों में लिखिए। अथवा ‘गरुड़ध्वज’ नाटक में किस समस्या को उठाया गया है? स्पष्ट 
कीजिए।
(iv) ‘सूत-पुत्र’ नाटक के नायक कर्ण के अन्तर्द्वन्द्व पर अपने शब्दों में 
| प्रकाश डालिए। अयना ‘सूतपुत्र’ नाटक के तृतीय अंक में वर्णित कुन्ती एवं कर्ण के संवाद को अपने शब्दों में लिखिए।
(v) राजमुकुट’ नाटक के कथानक को अपने शब्दों में लिखिए। अधना ‘राजमुकुट’ नाटक के आधार पर शक्तिसिंह का चरित्र-चित्रण 
कीजिए।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित खण्डकाव्यों में से स्वपठित खण्डकाव्य के आधार पर किसी एक प्रश्न का उत्तर दीजिए। (4)
(क) “श्रवण कुमार खण्डकाव्य में करुणा एवं प्रेम की विह्वल मन्दाकिनी 
प्रवाहित होती है।”—इस कथन की विवेचना कीजिए। अथवा
‘दशरथ का अन्तर्दन्द्र श्रवण कुमार’ खण्डकाव्य की अनुपम निधि है।” | इस उक्ति के आलोक में दशरथ का चरित्र-चित्रण कीजिए।

(ख) ‘मुक्तियज्ञ’ नाटक के कथानक की विशेषताएँ लिखिए।
अथवा
‘मुक्तियज्ञ’ नाटक के शीर्षक की सार्थकता पर प्रकाश डालिए।

(ग) “त्यागपथी खण्डकाव्य में सम्राट हर्षवर्द्धन का चरित्र ही केन्द्र में है और उसी के चारों ओर कथानक का चक्र घूमता है।”
इस कथन को 
स्पष्ट कीजिए।
अथवा
खण्डकाव्य की विशेषताओं के आधार पर ‘त्यागपथी’ का मूल्यांकन 
कीजिए। |

(घ) रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग का कथासार अपने शब्दों में । लिखिए।
अथवा
जैसा कर्ण के चरित्र में ऐसे कौन-से गुण हैं, जो उसे महामानव की कोटि तक 
उठा देते हैं? ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के आधार पर स्पष्ट कीजिए।

(ङ) ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य की कथा की मुख्य घटनाओं को अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य के आधार पर द्रौपदी का चरित्र चित्रण  कीजिए। |

(च) ‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
आलोक-वृत्त खण्डकाव्य पीड़ित मानवता को सत्य एवं अहिंसा का सन्देश देता है। इस कथन की विवेचना कीजिए।

खण्ड ‘ख’

प्रश्न 1.
निम्नलिखित अवतरणों का सन्दर्भ-सहित हिन्दी में अनुवाद कीजिए। 
(5 + 5 = 10)
(क)
याज्ञवल्क्यो मैत्रेयीमुवाच-मैत्रेयी! उद्यास्यन् अहम् अस्मात् स्थानादस्मि। 
ततस्तेऽनया कात्यायन्या विच्छेदं करवाणि इति। मैत्रेयी उवाचयदीयं सर्वा पृथ्वी विनेन पूर्णा स्यात् तत् किं तेनाहममृता स्यामिति। याज्ञवल्क्य उवाच-नेति। यर्थापकरणवतां जीवनं तथैव ते जीवन स्यात्। अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन इति। सा मैत्रेयी उवाच-येनाहं नामृता स्याम् किमहं तेन कुर्याम् यदेव भगवान् केवलममृतत्वसाधन जानाति, तदेव में ब्रूहि। याज्ञवल्क्य उवाच-प्रिया नः सती त्वं प्रियं भाषसे। एहि, उपविश, व्याख्यास्यामि ते अमृतत्वसाधनम्।
अथवा
हिन्दी-संस्कृताङ्ग्लभाषासु अस्य समान अधिकारः आसीत् ।। हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्थानानामुत्थानायअयं निरन्तर प्रयत्नमकरोत् शिक्षयैव देशे समाजे च नवीन: प्रकाशः उदेति अतः श्रीमालवीयः वाराणस्यां काशीविश्वविद्यालयस्य संस्थापनमकरोत्। अस्य निर्माणाय अयं जनान् । धनम् अयाचत जनाश्च महत्यस्मिन् ज्ञानयज्ञे प्रभूतं धनमस्मै प्रायच्छन्, तेन निर्मितोऽयं विशाल: विश्वविद्यालयः भारतीयानां दानशीलतायाः श्रीमालवीयस्य यशसः च प्रतिमूर्तिरिव विभाति। साधारणस्थितिकोऽपि जनः महतोत्साहेन, मनस्वितया, पौरुषेण च असाधारणमपि कार्य कर्तुं क्षमः इत्यदर्शयत् मनीषिमूर्धन्यः मालवीयः। एतदर्थमेव जनास्तं महामना 
इत्युपाधिना अमिधातुमारब्धवन्तः।

(ख)
स्वनैर्धनानां प्लवगा: प्रबुद्ध विहाय निद्रा चिरसन्निरुहाम्।
अनेकरूपाकृतिवर्णनादा: नवाम्बुधाराभिहता नदन्ति।
मत्ता गजेन्द्रा मुदिता गवेन्द्रः वनेषु विक्रान्ततर मृगेन्द्राः ।
रम्या नगेन्द्रा निभृता नरेन्द्राः प्रक्रीडितो वारिधरैः सुरेन्द्रः।
अथवा
राज्यं नाम नृपात्मजैसहृदयैर्जित्वा रिपून् भुज्यते।।
तल्लोके न तु याच्यते न च पुनर्दीनाग्न वा दीयते।।
काङ्क्षा चेन्नृपतित्वमाप्तुमचिरात् कुर्वन्तु ते साहसम्।
स्वैरं वा प्रविशन्तु शान्तमतिभिर्जुष्टं शमायाश्रमम्॥

प्रश्न 2.
निम्नलिखित प्रश्नों में से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में दीजिए। (4+4=8)
(क) अन्यदा भोजः कुत्र अगच्छत्?
(ख) राजहंसः पषिन्मथे कस्मै दुहितरम् अददात् ?
(ग) मालवीयमहोदयस्य प्रारम्भिक शिक्षा कुत्र अभवत्?
(घ) वासुदेव कस्य दौत्येन कुत्र गत:?

प्रश्न 3.
(क) ‘वीभत्स’ अथवा ‘वियोग श्रृंगार रस की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए। (2)
(ख) ‘उपमा’,अथवा यमक अलंकार की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए। (2)
(ग) ‘वसन्ततिलका’ अथवा ‘सोरठा’ का लक्षण एवं उदाहरण लिखिए। (2)

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से किसी एक विषय पर अपनी भाषा-शैली में निबन्ध 
लिखिए। (9) 
(क) वर्तमान शिक्षा प्रणाली के गुण-दोष
(ख) दूरदर्शन की उपयोगिता
(ग) मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना
(घ) स्वदेश प्रेम ।
(इ) वर्तमान समय में समाचार-पत्रों का महत्व

5.
(क)
(i) ‘सत् + चयन’ अथवा हुरिः + चन्द्र की संन्धि कीजिए। (1)
(ii) उल्लासः अथवा सन्चयनम में से किसी एक का सन्धि-विच्छेद | कीजिए। (1)
(iii) मोऽनुस्वारः अथवा प्रभुत्वा में से कौन-सी सन्धि है? (2)

(ख)
(i) ‘एषु’ रूप है ‘इदम्’ (पुल्लिग) शब्द का  (1/2)
(a) चतुर्थी एकवचन
(b) पञ्चमी बहुवचन
(c) चतुर्थी बहुवचन
(d) सप्तमी बहुवचन

(ii) ‘जगत् तृतीया बहुवचन को रूप होगा (1/2)
(a) जगद्भिः
(b) जगद्भ्यः
(c) जगभ्याम्
(d) जगताम्।

(ग)
(i) ‘कृ’ धातु के लुट् लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन का रूप लिखिए। (1)
(ii) ‘पोयथ’ रूप किस धातु, किस लकार, किस पुरुष तथा किस वचन का (1)

(घ)
(i) निम्नलिखित में से किसी एक शब्द में धातु एवं प्रत्यय का योग स्पष्ट 
कीजिए। दृष्टम्, शयित्वा, स्थातव्यम् (1)
(ii) निम्नलिखित में से किसी एक शब्द में प्रत्यय बताइए।
गतिमती, ब्राह्मणता, कटुत्व (1)

(ङ)
निम्नलिखित रेखांकित पदों में से किन्हीं दो में प्रयुक्त विभक्ति तथा उससे सम्बन्धित नियम का उल्लेख कीजिए। (2)
(i) मातुः दय कन्या प्रति स्निग्धं भवति।
(ii) छात्रासु लता श्रेष्ठा।
(iii) अहमपि त्वया साधं यास्यामि।

(च)
निम्नलिखित में से किसी एक का विग्रह करके समास का नाम लिखिए।
(i) दीर्घकशी
(ii) उपराजम्
(iii) रक्तवर्णः (2)

प्रश्न 6.
निम्नलिखित वाक्यों में से किन्हीं चार वाक्यों का संस्कृत में अनुवाद कीजिए।  (4)
(क) हमें राष्ट्रभाषा का आदर करना चाहिए।
(ख) मैं कल वाराणसी नगर जाऊँगा।
(ग) कश्मीर की शोभा पर्यटकों का मन मोह लेती है।
(घ) दरिंद्र को भिक्षा देना पुण्यकार्य है।
(ङ) मेरे विद्यालय के पास एक फुलवारी हैं।

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