UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 25 प्रारम्भिक बाल्यावस्था में देखभाल (3-6 वर्ष) (Care in Early Childhood (3-6 years))
UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 25 प्रारम्भिक बाल्यावस्था में देखभाल (3-6 वर्ष)
UP Board Class 11 Home Science Chapter 25 विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था से क्या आशय है? इस अवस्था की मुख्य विशेषताएँ भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
बाल-विकास की प्रक्रिया जन्म से पूर्व ही प्रारम्भ हो जाती है तथा किसी-न-किसी रूप में यह जीवन-भर चलती रहती है। बाल-विकास के विभिन्न स्तरों पर भिन्न-भिन्न विशेषताओं एवं लक्षणों का अविर्भाव होता है। विकास की प्रक्रिया के व्यवस्थित अध्ययन के लिए विभिन्न अवस्थाओं का व्यवस्थित अध्ययन करना आवश्यक होता है। बाल-विकास की अवस्थाओं का कोई स्पष्ट विभाजन सम्भव नहीं है, फिर भी विद्वानों में अपने-अपने दृष्टिकोण से बाल-विकास की अवस्थाओं का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। एक सामान्य वर्गीकरण के अन्तर्गत जन्म के उपरान्त इन अवस्थाओं को क्रमशः शैशवावस्था, बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था के रूप में स्वीकार किया गया है। विद्वानों ने बाल्यावस्था को पुनः दो उप-वर्गों में विभाजित किया है जिन्हें क्रमशः पूर्व या प्रारम्भिक बाल्यावस्था तथा उत्तर बाल्यावस्था के रूप में वर्णित किया जाता है। प्रारम्भिक बाल्यावस्था की विशेषताओं, समस्याओं तथा देखभाल का विवरण निम्नवर्णित है –
प्रारम्भिक बाल्यावस्था का अर्थ एवं विशेषताएँ –
बाल-विकास क्रम में शैशवावस्था के उपरान्त आने वाली अवस्था को प्रारम्भिक बाल्यावस्था (Early childhood) के नाम से जाना जाता है। इस अवस्था की आयु-अवधि 2-3 वर्ष से 5-6 वर्ष की आयु तक मानी जाती है। इस अवस्था में बच्चे शैशवावस्था की तुलना में कुछ अधिक विकसित तथा सक्षम हो जाते हैं। उनकी अन्य व्यक्तियों पर निर्भरता कुछ कम हो जाती है। अब उन्हें पूर्ण रूप से असहाय मान कर दिया जाने वाला संरक्षण तथा देखभाल का रूप बदल जाता है। अब बच्चा स्वयं घूमने-फिरने लगता है तथा अपने कुछ साधारण कार्य भी स्वयं करने लगता है। कुछ बड़ा होने पर बच्चा प्ले स्कूल या नर्सरी स्कूल में भी जाने लगता है।
इस अवस्था में बच्चे के मित्र भी बनने लगते हैं तथा खेल-समूह के बच्चों से भी वह सम्पर्क बनाने लगता है। इन सब गतिविधियों का स्पष्ट प्रभाव बच्चे के विकास पर दिखाई देने लगता है। सामाजिक सम्पर्क का दायरा बढ़ जाने के कारण इस अवस्था को ‘सामाजिक अवस्था’ के रूप में भी जाना जाता है। स्पष्ट है कि इस अवस्था में बच्चे का तेजी से सामाजिक विकास होता है। विकास की इस प्रक्रिया के माध्यम से बच्चा अपने सामाजिक पर्यावरण के साथ समायोजन करना भी सीखने लगता है। इस स्थिति में उसमें जिज्ञासा प्रवृत्ति प्रबल होने लगती है तथा वह विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित अधिक-से-अधिक जानकारी प्राप्त करने की कोशिश करने लगता है।
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में होने वाले विकास तथा सम्बन्धित समस्याओं एवं आवश्यक देखभाल के उपायों को जानने के लिए इस अवस्था की मुख्य विशेषताओं को जानना भी आवश्यक है। इस अवस्था की मुख्य विशेषताएँ निम्नवर्णित हैं –
1. आत्मनिर्भरता का विकास – इस अवस्था में बालक की दूसरों पर आश्रितता घट जाती है। वह अपनी शारीरिक तथा मानसिक क्षमता के द्वारा अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं करने का प्रयास करता है। वह अपने कपड़े, जूते स्वयं पहनता है। अपने खिलौने तथा अन्य वस्तुएँ स्वयं समेटना प्रारम्भ कर देता है।
2. प्रबल जिज्ञासा प्रवृत्ति—इस अवस्था की एक मुख्य विशेषता जिज्ञासा प्रवृत्ति का प्रबल होना भी है। बच्चे के सम्पर्क में जो भी वस्तु आती है, उसके सम्बन्ध में वह उपयुक्त जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करता है। अब बालक यह नहीं पूछता कि-‘यह क्या है?’ बल्कि वह पूछता है कि-‘ऐसा क्यों हैं?’
3. संग्रह प्रवृत्ति का जाग्रत होना इस अवस्था में बालक की संग्रह प्रवृत्ति भी जाग्रत हो जाती है। वह खिलौने, वीडियो गेम्स, गोलियाँ आदि जो कुछ भी वातावरण से प्राप्त होता है, उनका संग्रह करने लगता है। बच्चे को वेशभूषा में लगी जेब का इस्तेमाल करना आ जाता है।
4.खेल-कूद का विकास-प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बच्चा विभिन्न खेलों में रुचि लेने लगता है। वह अपने समान आयु के बच्चों के साथ खेलना चाहता है। वह सामाजिकता की ओर अग्रसर होने लगता है।
5. सामूहिक प्रवृत्ति की परिपक्वता-इस अवस्था में बालक की सामूहिक प्रवृत्ति में परिपक्वता आ जाती है। अब वह मण्डली बनाकर रहने के लिए नाना प्रकार के प्रयास करता है। वह सामूहिक खेलों में अधिक रुचि लेने लगता है।
6. पूर्व अनुभवों को पुनः स्मरण करना-प्रारम्भिक बाल्यावस्था के दौरान ही पूर्व अनुभवों का पुन:स्मरण करने लगता है। आवश्यकता पड़ने पर यह विचार करने लगता है कि पहले हमने यह कार्य किया था। हम इस वस्तु अथवा व्यक्ति को देख-चुके हैं आदि।
7.कल्पना में वास्तविकता का स्थान-जब बालक शैशवावस्था में होता है तब वह अवास्तविक काल्पनिक जगत में विचरण करता है, परन्तु जब वह थोड़ा बड़ा होता है तब वह उसकी अधिक कल्पना करता है जो उसके वास्तविक जीवन से सम्बन्धित होता है।
8. बहिर्मुखी व्यक्तित्व-इस अवस्था में बालक का व्यक्तित्व बहिर्मुखी होता है। वह हमेशा वातावरण के प्रति सजग रहता है। वह प्रायः अन्य बालकों के साथ समायोजित होकर रहने का यथासम्भव प्रयास करता है।
9. अनुभव में वृद्धि–इस अवस्था में बालक को परिवार के बाहर स्कूल, पड़ोस तथा संगी-साथियों से नित नये अनुभव प्राप्त होते हैं, जिनसे न केवल उसके ज्ञान में वृद्धि होती है बल्कि वह जीवन की वास्तविकता से भी परिचित होने लगता है।
10. सामाजिक एवं नैतिक विकास-इस अवस्था में बालक का सामाजिक एवं नैतिक विकास भी प्रारम्भ हो जाता है। जो भी आज्ञाएँ या निर्देश उसे समूह के द्वारा प्राप्त होते हैं, उन्हें वह मानने के लिए सदैव तैयार रहता है। उसमें आज्ञापालन, सहयोग, सहिष्णुता आदि गुणों का भी विकास होने लगता है।
प्रश्न 2.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में होने वाले शारीरिक विकास तथा गामक या क्रियात्मक विकास का विवरण।
उत्तरः
पूर्व बाल्यावस्था में विकास के सभी पक्षों का समुचित विकास होता है। इस अवस्था में होने वाले शारीरिक तथा गामक या क्रियात्मक विकास का सामान्य विवरण निम्नवर्णित है
1. शारीरिक विकास-पूर्व बाल्यावस्था शारीरिक रूप से पुष्ट होने की अवस्था है। इस अवस्था में शारीरिक विकास एवं वृद्धि की दर शैशवावस्था की दर से कम होती है। इस अवस्था में बालक के वजन तथा लम्बाई में वृद्धि होती है। शरीर के अंगों के अनुपात में परिवर्तन होने लगता है। पाँच वर्ष के बालक का सिर प्रौढ़ व्यक्ति के सिर से लगभग 10% छोटा होता है। इस अवस्था में सामान्य रूप से अस्थायी दाँत भी होते हैं। लड़कियों की तुलना में लड़कों का वजन एवं लम्बाई अधिक होती है।
इस अवस्था में बालक स्नायु तन्त्र तथा अन्य अंगों का भी समुचित विकास होता है। शरीर के पाचन तन्त्र का भी विकास होता है तथा परिणामस्वरूप बालक की भूख तथा आहार की आवश्यकता में भी वृद्धि होती है। शरीर के पाचन तन्त्र के साथ-साथ बालक के कंकाल तन्त्र तथा पेशी संस्थान में भी समुचित विकास होता है। शरीर की सभी अस्थियाँ तथा पेशियाँ विकसित एवं मजबूत होने लगती हैं। इस अवस्था में आकर बालक का अपने विसर्जन संस्थान पर भी समुचित नियन्त्रण हो जाता है। इस अवस्था में बालक की मुखाकृति तथा जबड़े की बनावट में भी परिवर्तन आने लगता है तथा सिर के बाल भी काले तथा चमकदार होने लगते हैं।
2. गामक या क्रियात्मक विकास—इस अवस्था में बालक का समुचित गामक या क्रियात्मक विकास (Motor Development) भी होता है। इस अवस्था में होने वाले गामक या क्रियात्मक विकास प्रारम्भिक बाल्यावस्था में देखभाल 253 की दर कुछ अधिक होती है। इसके लिए बालक द्वारा की जाने वाले शारीरिक गतिविधियों तथा अभ्यास की अधिकता जिम्मेदार होती है। शरीर के क्रमशः परिपक्व होने के कारण भी क्रियात्मक विकास में वृद्धि होती है। यदि बालक को समुचित प्रोत्साहन मिलता रहे तो उसके क्रियात्मक विकास में सराहनीय वृद्धि हो सकती है। इस अवस्था में होने वाले बालक के गामक विकास को दैनिक जीवन के प्रायः सभी क्रियाकलापों में देखा जा सकता है।
अब बालक अपने कपड़े-जूते स्वयं पहनने लगता है। शौच के लिए कमोड पर बैठने लगता है, तीन पहिये वाली साइकिल या अन्य गाड़ी आदि चलाने लगता है। बालक अपनी किताब कॉपी के पन्ने सुचारु रूप से पलटने लगता है। पेन-पेन्सिल को सही ढंग से पकड़ने लगता है तथा अपनी सभी वस्तुओं, खिलौनों तथा पुस्तकों आदि को समेटकर निर्धारित स्थान पर रखना सीख जाता है। वह स्वयं आहार ग्रहण करता है, चम्मच आदि का प्रयोग भी भली-भाँति सीख लेता है। इस अवस्था में बालक गतिशील खेलों तथा दौड़-भाग की गतिविधियों को भी सफलतापूर्वक करने लगता है। स्पष्ट है कि प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बालक का पर्याप्त गामक विकास हो जाता है तथा वह शारीरिक गतियों में समुचित समायोजन भी सीख लेता है।
प्रश्न 3.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में होने वाले संवेगात्मक विकास तथा सामाजिक विकास का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बालक के सामाजिक सम्पर्क का दायरा विस्तृत होता है तथा उसे परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के भी सम्पर्क में रहना पड़ता है। ऐसे में बालक में कुछ संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं तथा सामाजिक विकास की प्रक्रिया तेज हो जाती है। इस अवस्था में होने वाले संवेगात्मक तथा सामाजिक विकास का विवरण निम्नवर्णित है
1. संवेगात्मक विकास–जहाँ तक संवेगात्मक विकास का प्रश्न है, इस अवस्था में संवेगात्मक अस्थिरता बनी रहती है। किसी भी समय कोई संवेग प्रबल हो जाता है। प्रायः बालक किसी भी कारण से शीघ्र ही क्रोधित या भयभीत हो जाता है। इस अवस्था में ईर्ष्या का संवेग भी प्रबल होने लगता है। इसका मुख्य रूप अपने ही भाई या बहन से ईर्ष्या के रूप में देखा जा सकता है। बच्चे क्रोध में प्रायः चीखते-चिल्लाते हैं, पैर पटकते, चुटकी काटते हैं, साँस रोक लेते हैं तथा शरीर को कड़ा कर लेते हैं।
इस अवस्था में क्रोध को प्यार एवं सहानुभूति से नियन्त्रित किया जा सकता है। बालक के भय संवेग को उसकी समझदारी बढ़ाकर नियन्त्रित किया जा सकता है। इस अवस्था में बालकों में द्वेष का भाव भी प्रबल हो जाया करता है। इनका विकास क्रोधपूर्ण विरोध के परिणामस्वरूप होता है। द्वेष के प्रबल होने पर बालक का व्यवहार काफी असामान्य हो जाता है तथा वह इसके अन्तर्गत बिस्तर पर पेशाब करना, अँगूठा चूसना या सिरदर्द व पेट दर्द का बहाना करने लगता है। इस अवस्था में बालक में जिज्ञासा तथा हर्ष के भाव भी पर्याप्त रूप से विकसित होने लगते हैं। इन भावों के समुचित विकास के लिए माता-पिता को विशेष रूप से प्रोत्साहित करना चाहिए।
2. सामाजिक विकास-इस अवस्था में बालक का सामाजिक विकास भी तेजी से होता है। इसमें सर्वाधिक योगदान खेल-समूह तथा विद्यालय के वातावरण का होता है। यदि बालक का शारीरिक एवं संवेगात्मक विकास सामान्य हो तो निश्चित रूप से इस अवस्था में बालक का सामाजिक विकास भी सुचारु रूप में होता है। बालक के अच्छे सामाजिक विकास के लिए आवश्यक है कि बच्चों के माता-पिता तथा अभिभावकों का स्नेहपूर्ण एवं सक्रिय व्यवहार हो। सुखद सामाजिक सम्पर्क से बालक के सामाजिक विकास की प्रक्रिया सुचारु रूप से चलती है। इस अवस्था में बालक प्राय: समूह में खेलते हैं। सामूहिक गतिविधियों से बालक में सामूहिक भावना, सहयोग तथा स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के सामाजिक गुणों का यथा सम्भव विकास होता है।
इस अवस्था में बच्चों में यदि किसी बात से लड़ाई-झगड़ा भी हो जाता है तो शीघ्र ही मित्रता हो जाती है। इस अवस्था में बच्चे में अन्य बच्चों के साथ सहमति या असहमति, आज्ञा पालन या अवज्ञा, नेतृत्व या अनुसरण की प्रवृत्तियों का भी समुचित विकास देखा जाता है। यदि व्यवहार में देखा जाए तो इस अवस्था में बालक के व्यवहार में नकारात्मक प्रवृत्ति प्राय: अधिक पायी जाती है। उसके अधिकांश उत्तर नकारात्मक रूप में ही होते हैं। इसके लिए प्राय: कड़ा अनुशासन तथा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार की कमी ही मुख्य कारण हुआ करते हैं। अतः बालक की इस प्रवृत्ति को नियन्त्रित करने के लिए अभिभावकों को चाहिए कि सामान्य अनुशासन तथा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार को ही प्राथमिकता दें।
प्रश्न 4.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में उत्पन्न होने वाली समस्याओं का सामान्य परिचय दें। इस अवस्था की एक मुख्य समस्या के रूप में अनावश्यक गुस्सा करने की समस्या’ के कारणों तथा निराकरण के उपायों एवं देखभाल का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तरः
बाल-विकास के सुचारु अध्ययन के लिए विकास की प्रत्येक अवस्था में उत्पन्न होने वाली समस्याओं को भी जानना आवश्यक होता है तथा उचित देखभाल के अन्तर्गत सम्बन्धित समस्याओं के निराकरण के उपाय किए जाते हैं ।
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में उत्पन्न होने वाली अधिकांश समस्याएँ शारीरिक तथा व्यवहार सम्बन्धी होती हैं। यह काल व्यक्तित्व के निर्माण का काल होता है तथा व्यक्तित्व निर्माण के मार्ग में आने वाली विभिन्न बाधाओं के कारण विभिन्न समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं। इन समस्याओं के निराकरण के लिए माता-पिता तथा शिक्षकों को हर समय सचेत रहना चाहिए तथा प्रत्येक समस्या को प्रबल रूप ग्रहण करने से बचाना चाहिए।
यदि इस काल की समस्याओं का समुचित निराकरण न किया जाए तो बालक के व्यक्तित्व विकास पर गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। प्रारम्भिक बाल्यावस्था की अधिकांश समस्याओं को बालक के असामान्य व्यवहार से जाना जा सकता है। इस अवस्था की मुख्य समस्याएँ हैं-अनावश्यक गुस्सा करना, बिना कारण ही भयभीत हो जाना, बिस्तर गीला करना, दाँतो से नाखून काटना तथा प्रायः झूठ बोलना। इन समस्याओं के कारणों तथा निवारण के उपायों का सामान्य विवरण निम्नवर्णित है –
अनावश्यक गुस्सा करना –
गुस्सा करना एक सामान्य प्रवृत्ति है जो कि प्रत्येक व्यक्ति में किसी-न-किसी रूप में जन्म से ही पायी जाती है। एक सीमा में गुस्सा करना तो स्वभाव की एक सामान्य प्रवृत्ति है। छोटे बच्चे की यदि कोई आवश्यकता पूरी नहीं होती या उसकी वस्तु छीन ली जाती है तो वह तुरन्त गुस्सा करता है। इसे समस्या नहीं माना जाता। जब कोई बालक सामान्य से अधिक तथा बार-बार गुस्सा या क्रोध करने लगता है तो उसके इस व्यवहार को एक समस्या माना जाने लगता है। इस प्रकार की समस्यात्मक व्यवहार में बालक प्रायः चिल्लाता है, हाथ-पैर पटकता है, वस्तुएँ फेंकता या तोड़ता है। अनावश्यक गुस्सा करने वाला बालक सामाजिक समायोजन स्थापित करने में असफल रहता है तथा उसके व्यक्तित्व पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अनावश्यक गुस्सा करने की समस्या के मुख्य कारणों तथा समस्या निवारण के उपायों का विवरण निम्नवर्णित है-
समस्या के कारण – अनावश्यक गुस्सा करने के असामान्य व्यवहार के विकास के लिए विभिन्न कारण जिम्मेदार हो सकते हैं। सर्वप्रथम यदि बच्चे भी अधिकांश इच्छाओं की पूर्ति न करके उनकी निरन्तर अवहेलना की जाती है तो बालक में गुस्से की आदत प्रबल हो जाती है। बच्चे द्वारा सामान्य रूप से किए जाने वाले कार्यों में अनावश्यक बाधाओं के बार-बार आने से भी बच्चा असामान्य रूप से गुस्सा करने लगता है। किसी भी कारण से बच्चे में यदि ईर्ष्या की भावना प्रबल हो जाए तो भी बच्चा गुस्सैल बन जाता है।
बच्चे की स्वतन्त्र गतिविधियों पर अनावश्यक रूप से प्रतिबन्ध लगने से भी गुस्से की प्रवृत्ति प्रबल होने लगती है। बच्चे के द्वारा किए जाने वाले कार्यों की यदि निरन्तर आलोचना की जाती रहे तो भी बच्चा खिन्न होकर गुस्सा या क्रोध करने लगता है। कुछ निरन्तर लम्बे समय तक चलने वाले रोग या बच्चे की शारीरिक असमर्थता भी बच्चे को गुस्सैल बना देती है। कुछ विद्वानों ने अनावश्यक गुस्से को आनुवंशिक भी माना है। यदि बच्चे के माता-पिता भी अत्यधिक गुस्सैल हों तो उस स्थिति में आनुवंशिकता के आधार पर बच्चे में यह प्रवृत्ति आ जाती है।
समस्या का निवारण एवं देखभाल – बच्चे के अनावश्यक रूप से गुस्सा करने की समस्या के निवारण के लिए समुचित रूप से ध्यान रखना तथा उपाय करना आवश्यक होता है। अभिभावकों को चाहिए कि बच्चों की उचित इच्छाओं तथा आवश्यकताओं को पूरा करते रहें। कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे बच्चा चिड़ता हो। बच्चों के सामान्य कार्यों में बाधा नहीं डालनी चाहिए तथा कठोर नियन्त्रण से भी बचना चाहिए। बच्चों के सामान्य कार्यों एवं व्यवहार की अनावश्यक रूप से आलोचना नहीं करनी चाहिए तथा प्रत्येक अच्छे कार्य की खूब प्रशंसा करनी चाहिए।
यदि बच्चा ईर्ष्यावश क्रोध करता हो तो उसके ईर्ष्या भाव को शान्त करना चाहिए। इसके लिए स्नेहपूर्ण व्यवहार तथा सहयोग की प्रवृत्ति को प्रेरित करना चाहिए। ध्यान रहे जिस समय बच्चा अधिक गुस्से के आवेश में हो, उस समय बच्चे को डाँटना या पीटना नहीं चाहिए बल्कि प्यार एवं दुलार से नियन्त्रित करना चाहिए। यदि बच्चा किसी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या के कारण गुस्सैल बन गया हो तो उसकी सम्बन्धित समस्या के निवारण के उपाय करने चाहिए। इसके साथ ही बच्चे को अपने क्रोधी स्वभाव को छोड़ने के लिए सकारात्मक रूप से प्रेरित भी करते रहना चाहिए।
प्रश्न 5.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में प्रायः देखी जाने वाली एक समस्या है ‘बिना कारण के भयभीत होना’। इस समस्या के मुख्य कारणों तथा निराकरण के उपायों एवं देखभाल का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तरः
वैसे तो भय या भयभीत होना मानव स्वभाव का एक गुण या लक्षण है। वयस्क व्यक्ति भी अनेक परिस्थितियों में भयभीत हो जाते हैं परन्तु उनके भयभीत होने के पीछे कोई स्पष्ट कारण या खतरा निहित होता है। इसे असामान्य व्यवहार नहीं माना जाता परन्तु बच्चों में अनेक बार बिना पर्याप्त कारणों के ही भयभीत होने की प्रवृत्ति विकसित हो जाती है। इस प्रवृत्ति को असामान्य व्यवहार तथा व्यवहारगत समस्या माना जाता है। बच्चे प्राय: काल्पनिक खतरों से डरते हैं। इस रूप में डरना अनेक बार व्यक्तित्व के विकास में बाधक बन जाता है। अनावश्यक रूप से डरने वाला बच्चा दब्बू बन जाता है तथा उसमें समुचित आत्मविश्वास का भी विकास नहीं हो पाता। बच्चों में बिना कारण के भयभीत होने की समस्या के कारणों तथा उसके निवारण के उपायों का विवरण निम्नवर्णित है –
समस्या के कारण – अनावश्यक रूप से भयभीत होने की प्रवृत्ति के लिए विभिन्न कारण जिम्मेदार हो सकते हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि यदि गर्भावस्था में माँ अनावश्यक भय से ग्रस्त रहती है तो जन्म लेने वाला शिशु भी बिना कारण के भयभीत होने लगता है। यदि बच्चों को प्राय: भय उत्पन्न करने वाली कहानियाँ-किस्से सुनाए जाते रहें तो भी बच्चे के मन में भय घर कर जाता है। यदि बच्चे में आत्मविश्वास की कमी हो तो भी इस बात की आशंका रहती है कि वह भयग्रस्त रहने लगे। प्रायः बच्चा असहाय तथा कमजोर होने के कारण भी भयग्रस्त रहने लगता है। यदि परिवार के सदस्य किन्हीं कारणों से डरकर रहने वाले बन गए हों तो उस परिवार में बच्चे भी भयग्रस्त रहने लगते हैं।
समस्या का निवारण एवं देखभाल – बच्चों में व्याप्त होने वाली अनावश्यक भय की समस्या को रोकने तथा निवारण के लिए समुचित उपाय किए जाने चाहिए। सर्वप्रथम प्रत्येक भावी माता को गर्भावस्था में अपने आप को हर प्रकार के अनावश्यक तथा काल्पनिक भय से मुक्त रहना चाहिए। उसे पूर्ण आत्म-विश्वास तथा उत्साह में रहना चाहिए। यदि बच्चा किसी वस्तु, घटना या पशु आदि से डरने लगे तो उसके इस भय को समाप्त करने के लिए योजनाबद्ध ढंग से प्रयास करने चाहिए। उदाहरण के लिए अधिकांश बच्चे बिल्ली-कुत्ते तथा अँधेरे से डरते हैं।
ऐसे अभिभावकों को चाहिए कि वे किसी पालतू बिल्ली-कुत्ते को पुचकार कर अपने निकट लाएँ तथा बच्चे को बताएं कि इनसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं। इसी प्रकार अँधेरे स्थान पर प्रकाश करके दिखाना चाहिए कि वहाँ तो डरने वाला कोई कारक है ही नहीं। बच्चों को भयभीत होने से बचाने के लिए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उन्हें डरावने कहानीकिस्से न सुनाए जाएँ तथा न ही टी०वी० पर प्रसारित होने वाले इस प्रकार के कार्यक्रम ही दिखाएँ। यदि बच्चा अनावश्यक रूप से डरने लगा ही तो उसकी इस आदत का उपहास न करें बल्कि उसे वीरता एवं साहस से कार्य करने के लिए प्रेरित करें।
प्रश्न 6.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बच्चों की उचित देखभाल के लिए ध्यान रखने योग्य बातों का विवरण दीजिए।
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था व्यक्तित्व विकास के लिए विशेष महत्त्वपूर्ण होती है। इस अवस्था में सुचारु विकास तथा समस्याओं के नियन्त्रण के लिए अग्रलिखित बातों को ध्यान में रखना उपयोगी सिद्ध होता है –
- माता-पिता तथा शिक्षकों का दायित्व है कि यदि बालक में स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई दोष या समस्या हो तो उसके निराकरण के लिए यथाशीघ्र प्रयास करने चाहिए।
- शिक्षकों तथा अभिभावकों को चाहिए कि बच्चों की जिज्ञासा प्रवृति को शान्त करने का हर सम्भव प्रयास करें। बच्चों को हर प्रकार की आवश्यक जानकारी सही ढंग से उपलब्ध कराएँ।
- बच्चों की सामूहिक प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने के लिए आवश्यक साधन एवं अवसर उपलब्ध कराए जाएँ। बच्चों के लिए सामूहिक खेलों की व्यवस्था होनी चाहिए।
- विद्यालय में शिक्षकों को चाहिए कि वे नेतृत्व की क्षमता वाले बच्चों का विशेष प्रशिक्षण दें।
- बच्चों को व्यक्तित्व विकास के लिए समय-समय पर सरस्वती यात्राओं का आयोजन किया जाना चाहिए।
- विद्यालय में शिक्षकों को बालकों के समक्ष अच्छे-अच्छे सामूहिक खेलों का नमूना प्रस्तुत करना चाहिए।
- बच्चों को स्वयं करके सीखने के अवसर प्रदान करने चाहिए, क्योंकि उनकी विविध प्रकार के कार्यों को करने की तीव्र प्रवृत्ति होती है।
- अभिभावकों तथा शिक्षकों को चाहिए कि बालकों में आत्म संयम, स्वावलम्बन, आज्ञापालन, अनुशासन, विनयशीलता, उत्तरदायित्व आदि गुणों का विकास करें।
- बालकों के प्रति प्रेम तथा सहानुभूति का व्यवहार किया जाना चाहिए। उन्हें कठोर अनुशासन तथा दण्ड से मुक्त रखना चाहिए।
- बालकों को विभिन्न प्रकार के अन्धविश्वासों, दूषित प्रथाओं एवं छल-कपट की बातों से दूर रखना चाहिए।
- बालकों को व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित आवश्यक जानकारी दी जानी चाहिए। उन्हें यौन शोषण की समस्या के प्रति जागरूक बनाना चाहिए।
- बच्चों की ‘संचय-प्रवृत्ति’ का सदुपयोग करने के लिए उन्हें अच्छी-अच्छी वस्तुओं को संचित करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
- बच्चों के नैतिक एवं सामाजिक विकास के लिए समुचित प्रयास किए जाने चाहिए।
UP Board Class 11 Home Science Chapter 25 लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
टिप्पणी लिखिए-‘प्रारम्भिक बाल्यावस्था में भाषागत विकास’।
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बालक का भाषागत विकास तेजी से होता है। इसके लिए बच्चे का खेल-समूह तथा विद्यालय का वातावरण जिम्मेदार होता है। इस अवस्था में पायी जाने वाली प्रबल जिज्ञासा प्रवृत्ति के परिणास्वरूप भी बालक का भाषागत विकास तेजी से होता है। इस अवस्था में बालक की भाषा में क्रिया, सर्वनाम, संयोजक तथा विभक्ति सूचक शब्दों का भी पर्याप्त समावेश हो जाता है। सामान्य रूप से बालक सुबह, दोपहर, शाम, रात, सर्दी-गर्मी तथा बरसात आदि शब्दों का भी सही अर्थों में प्रयोग करने लगता है। यही नहीं वह सार्वजनिक रूप से ‘नमस्कार’, ‘धन्यवाद’, ‘क्षमा करें’, ‘सॉरी’ आदि शब्दों को भी बोलना सीख लेता है।
यह सत्य है कि इस अवस्था में बालक के भाषागत विकास में वृद्धि होती है परन्तु इस अवस्था में बालक की भाषा में अनेक त्रुटियाँ तथा उच्चारण सम्बन्धी दोष भी पाए जाते हैं। इसके लिए अभिभावकों तथा शिक्षकों को सुधारने के समुचित उपाय करने चाहिए। इस अवस्था में बच्चों के भाषागत विकास में पर्याप्त विविधता देखी जा सकती है। इसके लिए बच्चे की आर्थिक-सामाजिक स्थिति शैक्षिक वातावरण तथा आवासीय क्षेत्र आदि कारक जिम्मेदार होते हैं। वर्तमान समय में टी०वी० के विभिन्न कार्यक्रम भी बच्चों के भाषागत विकास को गम्भीरता से प्रभावित करते हैं। जहाँ तक हो सके बच्चों को वहीं कार्यक्रम दिखाने चाहिए जो बच्चों के लिए प्रसारित किए जाते हैं। नगरीय वातावरण तथा ग्रामीण वातावरण भी बच्चों के भाषागत विकास को भिन्न-भिन्न रूप में प्रभावित करते हैं।
प्रश्न 2.
टिप्पणी लिखिए–’प्रारम्भिक बाल्यावस्था में दाँतों से नाखून काटने की समस्या या असामान्य व्यवहार’।
उत्तर
दाँतों से नाखून काटना –
बाल्यावस्था में दाँतों से नाखून काटना भी एक व्यवहार सम्बन्धी असामान्यता या समस्या है। यह व्यवहार एक असामान्य व्यवहार है तथा इससे विभिन्न हानियाँ हो सकती हैं। सर्वप्रथम यह व्यवहार देखने में भद्दा तथा अशोभनीय प्रतीत होता है। इसके साथ ही यह कार्य स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। प्रायः नाखूनों में गन्दगी तथा कुछ कीटाणु होते हैं। ऐसे में दाँतों से नाखून काटने से किसी रोग के संक्रमण की बहुत अधिक आशंका रहती है।
समस्या के कारण – दाँतों से नाखून काटने की असामान्य आदत के लिए विभिन्न कारण जिम्मेदार हो सकते हैं। इस असामान्य व्यवहार का एक मुख्य कारण बच्चे में संवेगात्मक तनाव का प्रबल होना है। बच्चा अपने संवेगात्मक तनाव को कम करने के लिए यह असामान्य व्यवहार करता है। इसके साथ ही परिवार एवं अपने समूह से तिरस्कृत या उपेक्षित बालक भी इस आदत का शिकार हो सकता है। यदि बच्चा स्वभाव से चिड़चिड़ा तथा बेचैन रहता हो तो यह आदत विकसित हो जाती है। हीनता की भावना का शिकार बालक भी ऐसा असामान्य व्यवहार कर सकता है। कभी-कभी बच्चे के पास करने के लिए कोई काम न हो तथा वह अपने आप को खाली महसूस करता हो तो भी इस आदत के बनने की आशंका रहती है।
समस्या का निराकरण – सामान्य स्वास्थ्य तथा व्यक्तित्व के सुचारु विकास के लिए बच्चे में दाँतों से नाखून काटने की आदत का निराकरण करना आवश्यक होता है। इसके लिए कुछ उपाय करने पड़ते हैं। सर्वप्रथम इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बच्चा कभी यह महसूस न करे कि उसका तिरस्कार किया जा रहा है। बच्चे के संवेगात्मक तनाव को समाप्त करने का हर सम्भव उपाय करना चाहिए। इस असामान्य व्यवहार को करने वाले बच्चे में यदि हीन भावना व्याप्त हो तो उसे समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
इसके लिए समय-समय पर बच्चे की प्रशंसा करनी चाहिए। इस आदत को छुड़ाने का एक अच्छा व्यावहारिक उपाय है-बच्चे को किसी-न-किसी कार्य में व्यस्त रखना। बच्चे को किसी खेल या ड्राइंग बनाने आदि के कार्य में व्यस्त रखना चाहिए। ऐसे में बच्चे के हाथ खाली नहीं रहेंगे तथा उसे दाँत से नाखून काटने का अवसर ही उपलब्ध नहीं होगा।
प्रश्न 3.
बिस्तर पर मूत्र-त्याग की समस्या से क्या आशय है? अथवा टिप्पणी लिखिए-बिस्तर गीला करना।
उत्तरः
बच्चे द्वारा बिस्तर पर मूत्र-त्याग –
जन्म के बाद प्रारम्भिक काल में बालक का शौच एवं मूत्र-त्याग पर किसी प्रकार का नियन्त्रण नहीं होता तथा ये क्रियाएँ स्वतः ही चलती रहती हैं। इस काल में बच्चा बिस्तर पर या जहाँ भी होता है वहीं मूत्र-त्याग कर देता है। परन्तु धीरे-धीरे बच्चे को उचित स्थान पर ही मूत्र-त्याग के लिए प्रेरित किया जाता है तथा सामान्य रूप से तीन-चार वर्ष का बालक मूत्र-त्याग को नियन्त्रित कर लेता है। वह प्रायः उचित स्थान पर ही मूत्र-त्याग करता है, परन्तु यदा-कदा सोते समय बिस्तर पर ही मूत्र-त्याग कर दिया करता है।
यदि यह क्रिया यदा-कदा ही होती है तो उसे असामान्य नहीं माना जाता, परन्तु जब ऐसा नियमित रूप से होने लगता है तथा आयु बढ़ने के साथ भी यह आदत नहीं छूटती तब इसे एक असामान्य बात तथा समस्या के रूप में माना जाने लगता है। यह समस्या कई बार 10-12 वर्ष के बच्चों के साथ देखी जा सकती है। इस असामान्य व्यवहार के शिकार हुए बच्चे कभी-कभी जाग्रत अवस्था में भी कपड़ों में मूत्र-त्याग कर दिया करते हैं। ऐसा प्रायः किसी उत्तेजना या भय की स्थिति में हुआ करता है। इस असामान्य व्यवहार के शिकार बच्चों में हीन भावना घर कर जाती है तथा उसमें आत्मविश्वास कम होने लगता है। इस असामान्य व्यवहार के निवारण के लिए उचित प्रयास किए जाने चाहिए।
प्रश्न 4.
बच्चे द्वारा बिस्तर पर मूत्र-त्याग के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
बच्चे द्वारा बिस्तर पर मूत्र-त्याग के कारण –
बिस्तर अथवा कपड़ों में ही मूत्र-त्याग कर देने के असामान्य व्यवहार के सम्भावित कारणों का संक्षिप्त परिचय निम्नवर्णित है –
- यदि प्रारम्भ से ही बच्चे को मल-मूत्र त्याग का उचित प्रशिक्षण दे दिया जाए तो इस असामान्य व्यवहार के विकसित होने की सम्भावना कम रहती है।
- सोने के लिए उचित एवं आरामदायक बिस्तर न होना। सर्दियों के मौसम में बिस्तर का ठण्डा होना भी एक महत्त्वपूर्ण कारण हो सकता है।
- यदि बालक का पर्याप्त बौद्धिक विकास न हो तो भी यह समस्या हो सकती है। मन्दबुद्धि बालकों का मांसपेशियों एवं अन्य संस्थानों पर नियन्त्रण नहीं होता; अत: वे प्रायः अनियमित रूप से मल-मूत्र त्याग दिया करते हैं।
- बच्चे द्वारा सामान्य से अधिक मात्रा में तरल पदार्थ विशेष रूप से ठण्डे तरल पदार्थ (शर्बत आदि) ग्रहण करना भी बिस्तर गीला करने का कारण बन सकता है।
- पाचन क्रिया के अनियमित होने पर भी कभी-कभी बच्चा सोते हुए मूत्र-त्याग कर देता है।
- संवेगात्मक तनाव के परिणामस्वरूप भी यह असामान्य व्यवहार हो सकता है। यदि कभी बच्चों को भूत-प्रेत की भयानक कहानियाँ या बातें सोने से पहले सुनाई जाएँ तो भी रात को सोते हुए बिस्तर पर ही मूत्र-त्याग हो सकता है।
- अधिक शर्मीले एवं संवेदनशील बच्चों को प्राय: यह शिकायत हो जाती है।
- परिवार में बच्चे का किसी प्रकार का तिरस्कार होने पर भी यह समस्या उत्पन्न हो सकती है। कभी-कभी छोटे भाई-बहन को अभिभावकों द्वारा अधिक प्यार किए जाने पर भी यह समस्या खड़ी हो जाती है।
- किसी भी कारण से बच्चों में हीनभावना जाग्रत होने पर या आत्मविश्वास में कमी आ जाने पर भी बिस्तर गीला करने की समस्या उठ सकती है।
- बच्चों में असुरक्षा एवं भय की भावना प्रबल होने पर भी बिस्तर गीला करने की आदत पड़ सकती है।
- किसी शारीरिक दोष के कारण भी यह असामान्य क्रिया हो सकती है। गुर्दो के दोष या नाड़ी संस्थान के समुचित नियन्त्रण के अभाव में भी यह समस्या उत्पन्न हो सकती है।
प्रश्न 5.
बच्चों द्वारा बिस्तर पर मूत्र-त्याग की समस्या के निवारण के उपाय बताइए।
उत्तरः
बिस्तर पर मूत्र-त्याग समस्या का निवारण –
बच्चों द्वारा बिस्तर गीला करने की समस्या के निवारण के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं –
- बच्चों को मल-मूत्र त्याग के लिए यथासम्भव उचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
- यदि बच्चा संवेगात्मक तनाव या अस्थिरता का शिकार हो तो उसके संवेगात्मक तनाव को समाप्त करने के लिए उपाय किए जाने चाहिए। इसके लिए बच्चे को प्यार तथा धैर्य से समझाना एवं बहलाना चाहिए। ऐसे बच्चों को कभी भी डाँटना, फटकारना या पीटना नहीं चाहिए। बिस्तर गीला करने की बात को लेकर इनकी न तो हँसी उड़ानी चाहिए और न ही उन्हें शर्मिन्दा करना चाहिए।
- बच्चे को यह अनुभव कराना चाहिए कि वह हर प्रकार से सुरक्षित है। उसमें आत्मविश्वास भी जाग्रत करना चाहिए।
- बच्चे की पाचन क्रिया का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए तथा सोने से कम-से-कम दो घण्टे पूर्व ही भोजन करवा देना चाहिए।
- सोने से पहले बच्चे को अधिक मात्रा में कोई भी तरल पदार्थ पीने के लिए नहीं देना चाहिए।
- सोने से पहले बच्चे को मूत्र-त्याग करवा देना चाहिए तथा रात में भी एक-दो बार उठाकर बच्चे को मूत्र-त्याग करवा देना चाहिए।
प्रश्न 6.
टिप्पणी लिखिए–’बालक की जिज्ञासा की सन्तुष्टि’।
उत्तरः
बालक की जिज्ञासा की सन्तुष्टि –
बालकों में जिज्ञासा की प्रवृत्ति बड़ी प्रबल होती है। वे व्यापक जगत के विषय में अधिक-से-अधिक जानना चाहते हैं। इस उद्देश्य से वे माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों से तरह-तरह के प्रश्न पूछा करते हैं। बालकों के कुछ प्रश्न कभी-कभी अतार्किक तथा अटपटे भी होते हैं। इससे कभी-कभी माता-पिता खीज जाते हैं तथा बच्चे को डाँटकर चुप करा देते हैं। यह उचित नहीं है। बच्चे के सभी प्रश्नों का धैर्यपूर्वक उत्तर देना चाहिए तथा उसकी जिज्ञासा को जहाँ तक सम्भव हो सके अवश्य ही सन्तुष्ट करना चाहिए।
बच्चों की जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने के लिए जहाँ तक हो सके सरल एवं स्पष्ट भाषा को अपनाना चाहिए। बच्चे की जिज्ञासा की सन्तुष्टि से उसका मानसिक एवं बौद्धिक विकास सुचारु रूप से होता है। यही नहीं इसका उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत यदि बालक की जिज्ञासा का दमन किया जाता है तो उसका प्रतिकूल प्रभाव बालक के व्यक्तित्व पर पड़ता है। ऐसे में बालक कुछ कुण्ठाओं का शिकार हो सकता है।
प्रश्न 7.
टिप्पणी लिखिए-बच्चों के विकास में खेल का महत्त्व।
उत्तरः
बच्चों के लिए खेल का महत्त्व –
बाल-विकास में खेल का अत्यधिक महत्त्व है। बाल-विकास के विभिन्न पक्षों को सुचारु बनाने में खेलों का विशेष योगदान होता है। सर्वप्रथम खेलों से बच्चों का शारीरिक विकास सुचारु होता है। खेल से शरीर सुदृढ़ होता है तथा उसकी वृद्धि एवं विकास को गति प्राप्त होती है। इसी प्रकार खेल के माध्यम से बच्चों का सामाजिक विकास भी सुचारु रूप से होता है।
खेल के माध्यम से बच्चे सहयोग, समानता, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा अनुशासन जैसे सामाजिक गुणों को सरलता से आत्मसात कर लेते हैं परिणामस्वरूप उनका उत्तम सामाजिक विकास हो जाता है। जहाँ तक संवेगात्मक विकास का प्रश्न है, उसमें भी खेल से समुचित योगदान प्राप्त होता है। खेलों से संवेगात्मक तनाव दूर होता है तथा संवेगात्मक स्थिरता एवं आवश्यक नियन्त्रण की क्षमता का विकास होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि बाल-विकास में खेलों का बहुपक्षीय महत्त्व है।
प्रश्न 8.
बालकों द्वारा अंगूठा चूसने की समस्या का सामान्य परिचय दीजिए।
अथवा
बालक के अँगूठा चूसने की आदत पर दो बिन्दु लिखिए।
अथवा
बालक की अंगूठा चूसने की आदत आप कैसे छुड़ाएँगी?
उत्तरः
बालक का अंगूठा चूसना –
जब बालक बहुत छोटा होता है तो उसको केवल अपने शरीर से ही प्रेम होता है। उसका अँगूठा चूसना इसी प्रेम का प्रदर्शन है। अंगूठा चूसने से उसे कोई रस नहीं मिलता लेकिन उसे इसकी आदत पड़ जाती है और उसे छोड़ना मुश्किल पड़ जाता है। कुछ बच्चे जब काफी बड़े हो जाते हैं, तब भी इस आदत को नहीं छोड़ते हैं। उन्हें उनके माता-पिता और घर के सदस्य बहुत धमकाते हैं। धमकाने पर तो अँगूठा बाहर निकल आता है लेकिन थोड़ी देर बाद फिर वही आदत शुरू हो जाती है। इस आदत को छुड़ाने के लिए माता-पिता अँगूठे पर मिर्च या अन्य कोई कड़वी वस्तु लगा देते हैं तथा बच्चे को यह भी समझाते हैं कि अँगूठा चूसने से वह पतला पड़ जाएगा।
वास्तव में इस प्रकार के उपाय उचित नहीं हैं। इस समस्या के निदान के लिए विभिन्न उपाय किए जा सकते हैं। सर्वप्रथम बच्चे को सही समय पर आहार दिया जाना चाहिए ताकि वह भूखा न रहे। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे का हाथ खाली न रहे। हाथ में कोई खिलौना दे देना चाहिए। अनेक बार अंगूठा चूसने की आदत के पीछे कोई मनोवैज्ञानिक कारण भी हो सकता है। ऐसे में बच्चे का संवेगात्मक सन्तुलन बनाए रखना चाहिए। उसका किसी भी प्रकार से तिरस्कार नहीं किया जाना चाहिए। बच्चे को हर प्रकार से सन्तुष्ट एवं प्रसन्न रखने का प्रयास किया जाना चाहिए।
प्रश्न 9.
टिप्पणी लिखिए – ‘बालक का हकलाना’।
उत्तरः
बालक का हकलाना –
बच्चों में कुछ रोग या दोष जन्म से ही विद्यमान होते हैं। इन पर विजय प्राप्त करना बहुत कठिन है इसी प्रकार का एक दोष हकलाना भी है। हकलाना एक भाषा सम्बन्धी दोष है। इस दोष में बालक शब्दों का उचित एवं स्पष्ट उच्चारण नहीं कर पाता। यदि बच्चा भय के कारण हकलाता है तो उसका भय दूर किया जा सकता है। हकलाने वाले बच्चों के साथ प्रेम तथा सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए। कुछ बच्चे बड़े होने पर हकलाना स्वयं ही छोड़ देते हैं, कुछ हकलाना कम कर देते हैं लेकिन कुछ बच्चे जीवन भर हकले ही बने रहते हैं। यदि मुँह या जीभ में किसी प्रकार का दोष हो तो उसके निवारण से भी हकलाना ठीक हो जाता है, परन्तु मुख्य रूप से मनोवैज्ञानिक उपचार ही उपयोगी होता है।
प्रश्न 10.
भाई-बहनों में पायी जाने वाली ईर्ष्या का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तरः
भाई-बहनों में ईर्ष्या भाई-बहनों में ईर्ष्या का पाया जाना एक मनोवैज्ञानिक दोष है। भाई-बहनों में ईर्ष्या, घर के वातावरण के कारण पैदा होती है। कुछ लोग लड़कों को अधिक प्यार करते हैं और लड़कियों को हीन भावना से देखते हैं। लड़कियों की उपेक्षा की जाती है। ऐसी स्थिति में भाई-बहनों में ईर्ष्या का होना स्वाभाविक है।
कभी-कभी ईर्ष्या दोनों के स्वभाव में अन्तर होने के कारण भी हो जाती है। ईर्ष्या को दूर करना माता-पिता का परम कर्तव्य है। प्रेम न होने से घर में वातावरण दूषित हो जाता है। घर का एक सदस्य दूसरे को बुरी भावना से देखता है जिससे मस्तिष्क में अशान्ति रहती है। संरक्षकों को चाहिए कि अपने पुत्र तथा पुत्री के साथ एक-सा व्यवहार करें जिससे ईर्ष्या होने का प्रश्न ही न उठे।
प्रश्न 11.
स्पष्ट कीजिए कि बच्चे झूठ क्यों बोलते हैं?
उत्तरः
“बच्चे झूठ क्यों बोलते हैं” –
बच्चों से जब कोई गलती हो जाती है तो वे समझते हैं कि गलती के कारण उन पर मार पड़ेगी। उदाहरण के लिए यदि बच्चे से गिलास टूट जाता है तो वह नहीं बताना चाहता कि गलती उससे हो गई है। ऐसी अवस्था में बच्चे को समझाना चाहिए कि गिलास टूट जाने दो, घबराने की कोई बात नहीं है लेकिन झूठ न बोलो। जब बच्चे के मस्तिष्क से भय निकल जाएगा तो वह झूठ नहीं बोलेगा।
कुछ बच्चे माता-पिता से झूठ बोलना सीख जाते हैं। वे झूठ बोलने में कोई बुराई नहीं समझते। झूठ बोलना साधारण बात समझते हैं।
बच्चों को झूठ बोलने से बचाने के लिए उनके हृदय से भय निकाल देना चाहिए। यदि बच्चे से गलती हो जाए तो उसे समझाना चाहिए तथा उसे माफ कर देना चाहिए। बच्चों को झूठ बोलने से रोकने के लिए ऐसी कहानी सुनानी चाहिए जिससे वे यह अनुभव करने लगें कि झूठ बोलने का परिणाम अच्छा नहीं होता। आजकल दूरदर्शन पर भी बच्चों के कुछ शिक्षाप्रद कार्यक्रम प्रसारित होते हैं जो सच बोलने तथा अन्य सद्गुणों को अपनाने की व्यावहारिक शिक्षा प्रदान करते हैं।
UP Board Class 11 Home Science Chapter 25 अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
किस आयु-अवधि को प्रारम्भिक बाल्यावस्था के रूप में निर्धारित किया गया है?
उत्तरः
2-3 वर्ष से 5-6 वर्ष की आयु-अवधि को प्रारम्भिक बाल्यावस्था के रूप में निर्धारित किया गया है।
प्रश्न 2.
एक वाक्य में प्रारम्भिक बाल्यावस्था का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बच्चे शैशवावस्था की तुलना में कुछ अधिक विकसित तथा सक्षम हो जाते हैं। उनकी अन्य व्यक्तियों पर निर्भरता कुछ कम हो जाती है।
प्रश्न 3.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था को अन्य किस रूप में जाना जाता है?
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था को ‘सामाजिक अवस्था’ के रूप में भी जाना जाता है।
प्रश्न 4.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था की दो मुख्य विशेषताएँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था की दो मुख्य विशेषताएँ हैं – (i) आत्मनिर्भरता का विकास तथा (ii) सामूहिक प्रवृत्ति की परिपक्वता।
प्रश्न 5.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में होने वाली अनुभवों में वृद्धि को स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
इस अवस्था में बालक को परिवार के बाहर स्कूल, पड़ोस तथा संगी-साथियों से नित नए अनुभव प्राप्त होते हैं, जिनसे न केवल उसके ज्ञान में वृद्धि होती है बल्कि वह जीवन की वास्तविकता से भी परिचित होने लगता है।
प्रश्न 6.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में होने वाले सामाजिक विकास में सर्वाधिक योगदान किसका होता है?
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में होने वाले सामाजिक विकास में सर्वाधिक योगदान खेल-समूह तथा विद्यालय के वातावरण का होता है।
प्रश्न 7.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था की मुख्य समस्याएँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था की मुख्य समस्याएँ हैं-अनावश्यक गुस्सा करना, बिना कारण ही भयभीत हो जाना, बिस्तर गीला करना तथा दाँतों से नाखून काटना।
प्रश्न 8.
बालकों में अनावश्यक गुस्सा करने की आदत कैसे प्रबल हो जाती है?
उत्तरः
यदि बच्चे की अधिकांश इच्छाओं की पूर्ति न करके उनकी निरन्तर अवहेलना की जाती है तो बच्चे में गुस्से की आदत प्रबल हो जाती है।
प्रश्न 9.
अनावश्यक रूप से भयभीत रहने वाले बच्चे पर इस आदत का क्या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है?
उत्तरः
अनावश्यक रूप से भयभीत रहने वाले बच्चे दब्बू बन जाते हैं तथा उनमें समुचित आत्मविश्वास का भी विकास नहीं हो पाता।
प्रश्न 10.
बच्चों द्वारा बिस्तर गीला करने की समस्या का मुख्य कारण क्या होता है?
उत्तरः
बच्चों द्वारा बिस्तर गीला करने की समस्या का मुख्य कारण है प्रारम्भ में बच्चे को मलमूत्र त्याग का उचित प्रशिक्षण न देना।
प्रश्न 11.
बच्चों में दाँतों से नाखून काटने के असामान्य व्यवहार का मुख्य कारण क्या होता है?
उत्तरः
बच्चों में दाँतों से नाखून काटने के असामान्य व्यवहार का मुख्य कारण बच्चों में संवेगात्मक तनाव का प्रबल होना है।
प्रश्न 12.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में ध्यान रखने योग्य एक मुख्य बात बताइए।
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बच्चों के माता-पिता तथा शिक्षकों का दायित्व है कि यदि बच्चे में स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई दोष या समस्या हो तो उसके निराकरण के लिए यथा शीघ्र प्रयास करने चाहिए।
UP Board Class 11 Home Science Chapter 25 बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर
निर्देश : निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चयन कीजिए –
1. बाल-विकास की प्रक्रिया में शैशवावस्था के उपरान्त आने वाली अवस्था को कहा जाता है –
(क) असहाय अवस्था
(ख) प्रारम्भिक बाल्यावस्था
(ग) बाल्यावस्था
(घ) परिपक्वता की अवस्था।
उत्तरः
(ख) प्रारम्भिक बाल्यावस्था।
2. 2-3 से 5-6 वर्ष की आयु-अवधि को बाल-विकास की अवस्था माना जाता है –
(क) महत्त्वपूर्ण अवस्था
(ख) अस्पष्ट अवस्था
(ग) प्रारम्भिक बाल्यावस्था
(घ) असहाय अवस्था।
उत्तरः
(ग) प्रारम्भिक बाल्यावस्था।
3. प्रारम्भिक बाल्यावस्था की विशेषता है –
(क) आत्मनिर्भरता का विकास
(ख) प्रबल जिज्ञासा प्रवृत्ति
(ग) खेल-कूद का विकास
(घ) उपर्युक्त सभी विशेषताएँ।
उत्तरः
(घ) उपर्युक्त सभी विशेषताएँ।
4. प्रारम्भिक बाल्यावस्था में किस विकास की दर अधिक होती है –
(क) शारीरिक विकास
(ख) सामाजिक विकास
(ग) सम्पूर्ण विकास
(घ) कोई भी नहीं।
उत्तरः
(ख) सामाजिक विकास।
5. प्रारम्भिक बाल्यावस्था में समस्या प्रबल नहीं होती –
(क) अनावश्यक गुस्सा करना
(ख) बिना कारण के भयभीत होना
(ग) यौन समस्याएँ
(घ) दाँतों से नाखून काटना।
उत्तरः
(ग) यौन समस्याएँ।
6. बच्चे के भयभीत होने की समस्या का कारण हो सकता है –
(क) भय उत्पन्न करने वाली कहानियाँ सनाना
(ख) बच्चे में आत्मविश्वास की कमी होना ।
(ग) परिवार में डर या भय का वातावरण होना
(घ) उपर्युक्त में से कोई भी।
उत्तरः
(घ) उपर्युक्त में से कोई भी।