UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 5 गीतामृतम्

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 5
Chapter Name गीतामृतम्
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 5 गीतामृतम्

श्लोकों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) तं तथा ……………………… मधुसूदनः।।

[कृपयाविष्ठमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् (कृपया +आविष्टम् +अश्रुपूर्ण +आकुल + ईक्षणम्) = करुणा से युक्त (दयनीय), आँसुओं से परिपूर्ण व्याकुल नेत्रों वाले (अर्जुन)। विषीदन्तम् = दुःखी होते हुए (विषाद करते हुए)। मधुसूदनः = भगवान् कृष्ण।]

सन्दर्भ – यह श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘गीतामृतम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। इस पाठ में कुरुक्षेत्र की रणभूमि में दुःखित होते हुए अर्जुन को भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा प्रबोध दिये जाने का वर्णन
[ विशेष – इस पाठ के समस्त श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

अनुवाद – भगवान् कृष्ण ने उस प्रकार से दयनीय, आँसुओं से परिपूर्ण व्याकुल नेत्रों वाले, (और) दुःखी होते हुए उस (अर्जुन) से यह वाक्य कहा।

(2) क्लै व्यं ……………… परन्तप।

[क्लैव्यम् = कायरता को। मा स्म गमः = मत प्राप्त हो। पार्थ – अर्जुन (पृथा या कुन्ती के पुत्र)। नैतत्त्वय्युपपद्यते (न+एतत् +त्वयि +उपपद्यते) = यह तेरे योग्य नहीं है। क्षुद्रम् -तुच्छ| हृदय- दौर्बल्यम् = हृदय की दुर्बलता को। त्यक्त्वा = छोड़कर। उत्तिष्ठ – उठ खड़ा हो। परन्तप = हे शत्रुओं को ताप (पीड़ा) पहुँचाने वाले (अर्जुन)।]

अनुवाद – हे पृथापुत्र (अर्जुन)! कायरता को मत प्राप्त हो (अर्थात् कायर मत बन)। यह (कायरता की) बात करना तेरे योग्य नहीं है। हे शत्रुसन्तापकारी! तू हृदय की (इस) तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर (युद्ध के लिए) उठ खड़ा हो।।

(3) अशोच्यानन्वशोचस्त्वं …………………………. पण्डिताः ।।

[ अशोच्यानन्वशोचस्त्वं (अशोच्यान् +अन्वशोचः +त्वं) =शोक न करने योग्य लोगों के लिए शोक करता है तू। प्रज्ञावादांश्च (प्रज्ञावादान +च) = और पण्डितों के से वचनों को। गतासूनगतासूश्च (गतासून + अगतासून +च) =मरे हुओं (गत -निकल गये; असून =प्राण जिनके) और जीवितों के लिए। नानुशोचन्ति (न + अनुशोचन्ति) = शोक नहीं करते।]

अनुवाद – (हे अर्जुन!) तुम शोक न करने योग्य (लोगों) के लिए शोक कर रहे हो और बुद्धिमानों जैसी बात (भी) कर रहे हो। (जब कि) मरे हुओं के लिए और जीवितों के लिए पण्डितजन (विद्वान् व्यक्ति) शोक नहीं
करते हैं।

(4) देहिनोऽस्मिन् ……………… न मुह्यति।।

[ देहिनोऽस्मिन् (देहिनः + अस्मिन्) = जीवात्मा की इस (में)। देहे = शरीर में। जरा = वृद्धावस्था। देहान्तरप्राप्तिर्षीरस्तत्र (देहान्तरप्राप्तिः + धीरः +तत्र) – दूसरा शरीर प्राप्त होना। बुद्धिमान् (धीर!) इस विषय में (तत्र)| मुह्यति = मोहित होता है (भ्रम में पड़ता है)।]

अनुवाद – जैसे जीवात्मा को इस शरीर में कुमारावस्था, यौवन तथा बुढ़ापा प्राप्त होता है, वैसे ही दूसरा शरीर भी प्राप्त होता है। इसमें बुद्धिमान् व्यक्ति मोहग्रस्त नहीं होता। आशय यह है कि जैसे व्यक्ति को कौमार्य, यौवन और बुढ़ापे से किसी प्रकार का शोक नहीं होता; क्योंकि वह यह जानता है कि ये तो शरीर के धर्म हैं, जो होंगे ही। इसी प्रकार उसे यह भी समझ लेना चाहिए कि दूसरा शरीर धारण करना अर्थात् पुनर्जन्म होना भी शरीर का ही धर्म है। इससे जीवात्मा नहीं बदलता; अतः शोक का कोई कारण नहीं।

(5) य एनं …………………….. न हन्यते।।

[एनम = इस (आत्मा) को वेति = समझता है। यश्चैनम् (यः +च+एनम्) = और जो इसको। विज्ञानीतो – जानते हैं। अयं = यह। हन्ति = मारता है। हन्यते = मारा जाता है।]

अनुवाद – जो (व्यक्ति) इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा हुआ मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते (अर्थात् अज्ञानी हैं ); क्योंकि यह आत्मा न (तो) मारता है (और) न (ही) मारा जाता है (यह अमर है)।

(6) वासांसि जीर्णानि ………………………. नवानि देही।।

[ वासांसि = वस्त्रों को। जीर्णानि = पुराने। नरोऽपराणि (नरः + अपराणि) = मनुष्य दूसरों को। जीर्णान्यन्यानि (जीर्णानि +अन्यानि) = पुरानों को (त्यागकर) दूसरों (नयों को)। संयाति प्राप्त होता है। देही = जीवात्मा।]

अनुवाद – जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण ( धारण) करता है वैसे (ही) जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता (ग्रहण करता) है (तब संसार कहता है कि किसी का जन्म हुआ है या मृत्यु हुई है)।

(7) नैनं छिन्दन्ति ……………………….. शोषयति मारुतः।।

[नैनं (न + एनम) = न तो इस (जीवात्मा) को। छिन्दन्ति = काटते हैं। चैनं (च +एनम्) = और इसको। लेदयन्त्यापः (लेदयन्ति +आपः) = जल गीला करते हैं। ]

अनुवाद – इस आत्मा को शस्त्रादि नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गीला कर सकते और (इसको) वायु नहीं सुखा सकती (अर्थात् किसी भी भौतिक पदार्थ से यह नष्ट नहीं किया जा सकता)।

(8) जातस्य हि ……………………….. शोचितुमर्हसि।।

[जातस्य – पैदा होने वाले की| हि – क्योंकि ध्रुवः – निश्चित। तस्मादपरिहार्येऽर्थे (तस्मात + अपरिहार्ये +अर्थे) = इस कारण अनिवार्य विषय में। शोचितुमर्हसि (शोचितुम् +अर्हसि) = शोक करने योग्य हो (तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। ]

अनुवाद – क्योंकि जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है, इसलिए तुम्हें ऐसे विषय में शोक नहीं करना चाहिए, जिसका कोई उपाय न हो (अर्थात् जन्म-मृत्यु के इस क्रम को कोई नहीं बदल सकता। तब फिर इसके विषय में शोक करने से क्या लाभ ?)।

(9) यदृच्छया …………………………….. युद्धमीदृशम्।।
[ यदृच्छया = अपने आप| चोपपन्नम् (च+उपपन्नम्) = और प्राप्त हुए। स्वर्गद्वारमपावृतम् (स्वर्गद्वारम् +अपावृतम्) = खुले हुए स्वर्गद्वार को। सुखिनः = भाग्यवान्। युद्धमीदृशम् (युद्धम् +ईदृशम्)= ऐसा युद्ध।]

अनुवाद – हे अर्जुन! अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार-रूप ऐसे युद्ध को भाग्यवान् क्षत्रिय (ही) पाते हैं (अर्थात् तू भाग्यशाली है कि तुझे यह युद्ध लड़ने का अवसर प्राप्त हो रहा है; क्योंकि धर्मयुद्ध क्षत्रिय को सीधे स्वर्ग प्राप्त कराता है)।

(10) हतो वा ………………….. कृतनिश्चयः।।

[ हतः = मरकर वा = या (तो)। जित्वा = जीतकर। भोक्ष्यसे = (तू) भोगेगा। महीम् = पृथ्वी को। तस्मादुत्तिष्ठ (तस्मात् + उत्तिष्ठ) = इसलिए उठो। कौन्तेय = हे कुन्ती पुत्र (अर्जुन)!! कृतनिश्चयः = निश्चय करके।]

अनुवादे – या तो तू (युद्ध में) मरकर स्वर्ग को प्राप्त होगा या (युद्ध) जीतकर पृथ्वी का भोग करेगा। (इस प्रकार तेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं।) इसलिए तू युद्ध (करने) का निश्चय करके उठ खड़ा हो।

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