UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 9 Strategies for Enhancement in Food Production

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Chapter Chapter 9
Chapter Name Strategies for Enhancement in Food Production
Number of Questions Solved 43
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 9 Strategies for Enhancement in Food Production (खाद्य उत्पादन में वृद्धि की कार्यनीति)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
मानव कल्याण में पशुपालन की भूमिका की संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
उत्तर
मानव कल्याण में पशुपालन की भूमिका (Role of Animal Husbandry in Human Welfare)-विश्व की बढ़ती जनसंख्या के साथ खाद्य उत्पादन की वृद्धि एक प्रमुख आवश्यकता है। पशुपालन पर लागू होने वाले जैविक सिद्धान्त खाद्य उत्पादन बढ़ाने के हमारे प्रयासों में मुख्य भूमिका निभाते हैं। पशुपालन, पशु प्रजनन तथा पशुधन वृद्धि की एक कृषि पद्धति है। पशुपालन का सम्बन्ध पशुधन जैसे-भैंस, गाय, सुअर, घोड़ा, भेड़, ऊँट, बकरी आदि के प्रजनन तथा उनकी देखभाल से होता है जो मानव के लिए लाभप्रद हैं। इसमें कुक्कुट पालन तथा मत्स्य पालन भी शामिल हैं। मत्स्यकी (fisheries) में मत्स्यों (मछलियों), मृदुकवची (मोलस्क) तथा क्रस्टेशिआई (प्रॉन, क्रैब आदि) का पालन-पोषण, उनको पकड़ना (शिकार) बेचना आदि शामिल हैं। अति प्राचीनकाल से मानव द्वारा मधुमक्खी, रेशमकीट, झींगा, केकड़ा, मछलियाँ, पक्षी, सुअर, भेड़, ऊँट आदि का प्रयोग उनके उत्पादों जैसे- दूध, अण्डे, मांस, ऊन, रेशम, शहद आदि प्राप्त करने के लिए किया जाता रहा है।

डेरी उद्योग (dairying) एक पशुप्रबन्धन है जिससे मानव खपत के लिए दुग्ध तथा इसके उत्पाद प्राप्त होते हैं। कुक्कुट का प्रयोग भोजन (मांस) प्राप्त करने के लिए अथवा उनके अण्डों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। मधुमक्खी पालन शहद के उत्पादन के लिए मधुमक्खियों के छत्तों का रख-रखाव है। शहद उच्च पोषक महत्त्व का एक आहार है तथा आयुर्वेद औषधियों में भी इसका प्रयोग किया जाता है। मधुमक्खियों से मोम भी प्राप्त होता है, मोम का प्रयोग कान्तिवर्द्धक सौन्दर्य प्रसाधनों में तथा विभिन्न प्रकार के पॉलिश वाले उद्योगों में किया जाता है। एक गणना के अनुसार विश्व का 70 प्रतिशत से भी अधिक पशुधन भारत तथा चीन में है।

प्रश्न 2.
यदि आपके परिवार के पास एक डेरी फार्म है, तब आप दुग्ध उत्पादन में उसकी गुणवत्ता तथा मात्रा में सुधार लाने के लिए कौन-कौन से उपाय करेंगे?
उत्तर
डेरी फार्म प्रबन्धन से दुग्ध की गुणवत्ता में सुधार तथा उसका उत्पादन बढ़ता है। मूल रूप से डेरी फार्म में रहने वाले पशुओं की नस्ल की गुणवत्ता पर ही दुग्ध उत्पादन निर्भर करता है। क्षेत्र की जलवायु एवं परिस्थितियों के अनुरूप उच्च उत्पादन एवं रोग प्रतिरोधक क्षमता वाली नस्लों को अच्छी नस्ल माना जाता है। उच्च उत्पादन क्षमता प्राप्त करने के लिए पशुओं की अच्छी देखभाल, जिसमें उनके रहने के लिए अच्छा आवास तथा पर्याप्त स्वच्छ जल एवं रोगमुक्त वातावरण होना आवश्यक है। पशुओं को भोजन देते समय चारे की गुणवत्ता तथा मात्रा पर ध्यान दिया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त दुग्धीकरण तथा दुग्ध उत्पादों के भण्डारण और परिवहन के दौरान स्वच्छता तथा पशुओं का कार्य करने वाले व्यक्ति के स्वास्थ्य का महत्त्व सर्वोपरि है। पशु चिकित्सक का नियमित जाँच हेतु आना अनिवार्य है। इन सभी कठोर उपायों को सुनिश्चित करने के लिए सही-सही रिकॉर्ड रखने एवं समय-समय पर निरीक्षण की आवश्यकता होती है। इससे समस्याओं की पहचान और उनका समाधान शीघ्रतापूर्वक निकालना सम्भव हो जाता है।

प्रश्न 3.
नस्ल शब्द से आप क्या समझते हैं? पशु प्रजनन के क्या उद्देश्य हैं?
उत्तर
नस्ल (Breed) – पशुओं का वह समूह जो वंश तथा सामान्य लक्षणों जैसे- सामान्य दिखावट, आकृति, आकार, संरूपण आदि में समान हों, एक नस्ल के कहलाते हैं।
पशु प्रजनन का उद्देश्य (Objectives of Animal Breeding) – पशु प्रजनन, पशुपालन का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। पशु प्रजनन का उद्देश्य पशुओं के उत्पादन को बढ़ाना तथा उनके उत्पादों की वांछित गुणवत्ता में सुधार करना है। कृत्रिम प्रजनन द्वारा उच्च दुग्ध उत्पादन वाली नस्ल की मादाओं तथा उच्च गुणवत्ता वाले मांस (कम वसा वाले मांस) प्रदान करने वाली नस्लों को सफलतापूर्वक जनित किया गया है जिससे अल्पकाल में ही बड़ी संख्या में पशुधन में वृद्धि सम्भव है।

प्रश्न 4.
पशु प्रजनन के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली विधियों के नाम बताएँ। आपके अनुसार कौन – सी विधि सर्वोत्तम है? क्यों?
उत्तर
पशु प्रजनन के लिए आधुनिक समय में निम्नलिखित विधियाँ प्रयोग में लाई जा रही हैं –
1. अन्तःप्रजनन (Inbreeding) – एक ही नस्ल के पशुओं के मध्य जब प्रजनन होता है तो वह अन्तःप्रजनन कहलाता है। इस विधि में एक नस्ल से उत्तम किस्म का नर तथा उत्तम किस्म की मादा को पहले अभिनिर्धारित किया जाता है तथा जोड़ों में उनका संगम कराया जाता है। ऐसे संगम से जो संतति उत्पन्न होती है, उस संतति का मूल्यांकन किया जाता है तथा भविष्य में कराए जाने वाले संगम के लिए अत्यन्त उत्तम किस्म के नर तथा मादा की पहचान की जाती है। इससे सामान्यत: जनन क्षमता तथा उत्पादन दोनों को बनाए रखने में सहायता मिलती है।

2. बहिःप्रजनन (Out breeding) – इसमें एक ही नस्ल की या भिन्न-भिन्न नस्लों या भिन्न प्रजातियों के सदस्य भाग लेते हैं। यह निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है –

  1. बहिःसंकरण (Out-crossing) – इसमें एक ही नस्ल के ऐसे पशुओं का चयन किया जाता है जो 4-6 पीढ़ियों तक किसी भी वंशावली में संयुक्त (उभय) पूर्वज नहीं होते। इससे अन्तः प्रजनन अवसादन या अवर्नमन (depression) समाप्त हो जाता है। इस संगम के फलस्वरूप प्राप्त संतति बहिःसंकर (out-cross) कहलाती है।
  2. संकरण (Hybridization) – संकरण किसी जीव की ऐच्छिक विशिष्टताओं के संरक्षण एवं प्रसार की महत्त्वपूर्ण युक्ति है। जन्तु संकरण द्वारा मानवोपयोगी पशु-पक्षियों की नस्ल सुधारकर अधिकाधिक लाभ प्राप्त किया जाता है। संकरण दो विभिन्न नस्लों के वांछनीय गुणों के संयोजन में सहायक होता है। इससे नई नस्ल जो वर्तमान नस्लों से श्रेष्ठ होती हैं, प्राप्त की जाती हैं जैसे-हिसरडेल (Hisardale) नस्ल की भेड़ का विकास बीकानेरी भेड़ (ewes) तथा मैरीनो रेम्स (मेढ़ा-rams) से किया गया है।
  3. अन्त:विशिष्ट संकरण (Interspecific hybridization) – जब विभिन्न प्रजातियों के नर तथा मादा पशुओं के मध्य संकरण कराया जाता है तो इसे अन्त:विशिष्ट संकरण (interspecific hybridization) कहते हैं। उदाहरण के लिए-गधा तथा घोड़ा अलग-अलग जाति के पशु हैं, किन्तु इन पशुओं के आपस में संकरण द्वारा खच्चर उत्पन्न कराया जाता है। खच्चर गधे एवं घोड़े से अधिक शक्तिशाली होता है।

कृत्रिम निषेचन (Artificial Insemination) – इस विधि में वांछित गुणों वाले नर पशुओं के वीर्य को वीर्य बैंकों में सुरक्षित रखते हैं तथा आवश्यकतानुसार इच्छित मादा पशु के गर्भाशय में एक विशेष पिचकारी द्वारा वीर्य को पहुँचा दिया जाता है।
भारत में संकरण विधि द्वारा जन्तुओं की नस्ल सुधार हेतु अनेक शासकीय एवं अशासकीय अनुसन्धान संस्थान आई०सी०ए०आर० (ICAR-Indian Council of Agriculture Research) के अधीन कार्यरत हैं। इन संस्थानों में कार्यरत वैज्ञानिकों के शोध एवं प्रयासों द्वारा गाय, भैंस, भेड़, बकरी, घोड़ा, ऊँट, कुक्कुट, मछली आदि जन्तुओं की नस्ल एवं उपयोगिता में गुणात्मक सुधार हुआ है। फलतः अनेक जन्तु उत्पादों में विश्व में भारत को अग्रणी स्थान प्राप्त है। कृत्रिम वीर्य-सेचन सबसे अच्छी (सर्वोत्तम) पशु प्रजनन विधि है। इससे अल्प समय में उच्च गुणवत्ता वाले पशुओं को सफलतापूर्वक जनित किया जाता है।

प्रश्न 5.
मौन (मधुमक्खी) पालन से आप क्या समझते हैं? हमारे जीवन में इसका क्या महत्त्व है?
या
मधुमक्खियों द्वारा निर्माण किये जाने वाले दो प्रमुख उत्पादों के नाम लिखिए। (2018)
उत्तर
मौन पालन (मधुमक्खी पालन-Bee Keeping)-शहद के उत्पादन के लिए मधुमक्खियों के छत्तों का रख-रखाव ही मधुमक्खी पालन अथवा मौन पालन (Bee keeping) कहलाता है। मधुमक्खी पालन का व्यवसाय किसी भी क्षेत्र में जहाँ जंगली झाड़ियों, फलों के बगीचों तथा लहलहाती फसलों के पर्याप्त कृषि क्षेत्र या चरागाह हों किया जा सकता है। मधुमक्खी पालन यद्यपि अपेक्षाकृत आसान है, परन्तु इसके लिए विशेष प्रकार के कौशल की आवश्यकता होती है। मधुमक्खी पालन प्राचीनकाल से चला आ रहा एक कुटीर उद्योग है। मधुमक्खियों से शहद तथा मोम प्राप्त होता है। शहद का उपयोग आयुर्वेदिक औषधियों में किया जाता है। मोम का उपयोग कान्तिवर्द्धक वस्तुओं की तैयारी तथा विभिन्न प्रकार के पॉलिश वाले उद्योगों में किया जाता है। पुष्पीकरण के समय यदि मधुमक्खी के छत्तों को खेतों के बीच में रख दिया जाए तो इससे पौधों की परागण क्षमता बढ़ जाती है और इस प्रकार फसल तथा शहद दोनों के उत्पादन में सुधार हो जाता है।

प्रश्न 6.
खाद्य उत्पादन को बढ़ाने में मत्स्यकी की भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर
मत्स्यकी की भूमिका (Role of Fishery) – मत्स्यपालन के अन्तर्गत मछली पालने के तरीकों एवं इनके रख-रखाव और उपयोग के बारे में अध्ययन किया जाता है। मछलियों से मांस (प्रोटीन का स्रोत), तेल इत्यादि प्राप्त होता है। मत्स्यकी एक प्रकार का उद्योग है, जिसका सम्बन्ध मछली अथवा अन्य जलीय जीव को पकड़ना, उनका प्रसंस्करण (processing) तथा उन्हें बेचने से होता है। हमारी जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग आहार के रूप में मछली, मछली उत्पादों तथा अन्य जलीय जन्तुओं पर आश्रित है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में मत्स्यकी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह समुद्र तटीय राज्यों में अनेक लोगों को आय तथा रोजगार प्रदान करती है। बहुत-से लोगों के लिए यह जीविका का एकमात्र साधन है। मत्स्यकी की बढ़ती हुई माँग को देखते हुए इसके उत्पादन को बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रकार की तकनीकें अपनाई जा रही हैं। नीली क्रान्ति (Blue Revolution) मछली उत्पादन से जुड़ी है। इसके अन्तर्गत अलवणीय तथा लवणीय जलीय प्राणियों के उत्पादन में-द्धि की जाती है।

मछली उत्तम प्रोटीन का खाद्य संसाधन है। मछलियों की अलवणीय नस्लों कतला, रोहू, मृगल, सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प आदि प्रमुख हैं। कतला मछलियों की वृद्धि सबसे तेज होती है। समुद्री मछलियों के अतिरिक्त झींगा (prawn), केकड़ा (crabs), लॉबस्टर (lobster), ऑयस्टर (oyester) आदि प्रमुख समुद्री खाद्य संसाधन हैं।

प्रश्न 7.
पादप प्रजनन में भाग लेने वाले विभिन्न चरणों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर
पादप प्रजनन (Plant Breeding) – पादप प्रजनन कार्यक्रम अत्यन्त सुव्यवस्थित रूप से पूरे विश्व के सरकारी संस्थानों तथा व्यापारिक संस्थानों द्वारा चलाए जाते हैं। फसल की एक नई
आनुवंशिक नस्ल के प्रजनन में निम्नलिखित मुख्य चरण होते हैं –
(क) परिवर्तनशीलता का संग्रहण (Collection of Variability) – किसी भी प्रजनन कार्यक्रम का मूलाधार आनुवंशिक परिवर्तनशीलता है। बहुत-सी फसलों में यह गुण उन्हें अपनी पूर्ववर्ती आनुवंशिक जंगली प्रजातियों से प्राप्त होता है। किसी फसल में पाए जाने वाले सभी जीन्स के विविध ऐलील (alleles) के समस्त संग्रहण (पादप बीजों के रूप में) को उसका जननद्रव्य (जर्मप्लाज्म) संग्रहण कहते हैं।

(ख) जनकों का मूल्यांकन तथा चयन (Evaluation and Selection of Parents) – पादपों को उनके लक्षणों के वांछनीय संयोजन के साथ अभिनिर्धारित किए जाने के लिए जननद्रव्य (जर्मप्लाज्म) को मूल्यांकित किया जाता है। चयन किए गए पादपों की संख्या वृद्धि कर उनका प्रयोग संकरण की प्रक्रिया में किया जाता है। इस प्रकार वांछनीय एवं शुद्ध वंशक्रम तैयार कर लिया जाता है।

(ग) चयनित जनकों के मध्य संकरण (Cross hybridization among the Selected Parents) – वांछित लक्षणों को बहुधा दो भिन्न जनकों से प्राप्त कर संयोजित किया जाता है। यह संकरण (hybridization) द्वारा सम्भव है कि जनकों के संकरण से वांछित आनुवंशिक लक्षणों का संगम एक पौधे में हो सके। जैसे—उच्च प्रोटीन गुणवत्ता वाले जनक तथा रोग प्रतिरोधक जनक के संयोजन से वांछित (उच्च प्रोटीन-गुणवत्ता एवं रोग प्रतिरोधक) आनुवंशिक लक्षणों वाला पौधा प्राप्त किया जा सकता है।

(घ) श्रेष्ठ पुनर्योगज का चयन तथा परीक्षण (Selection and Testing of Super Recombinant) – प्रजनन उद्देश्य को प्राप्त करने में चयन की यह प्रक्रिया अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसके अन्तर्गत संकरों (hybrids) की संतति से ऐसे पादपों का चयन किया जाता है जिनमें वांछित लक्षण संयोजित हों। स्वपरागण द्वारा शुद्ध लक्षणों को प्राप्त किया जाता है।

(ङ) नए कंषणों का परीक्षण, निर्मुक्त होना तथा व्यापारिकरण (Testing, Release and Commercialization of New Cultivars) – नए चयनित वंशक्रम को उनके उत्पादन तथा अन्य गुणवत्ता; रोगप्रतिरोधकता आदि गुणों के आधार पर मूल्यांकित किया जाता है। मूल्यांकित पौधों को अनुसन्धान वाले खेतों में जहाँ उपयुक्त उर्वरक; सिंचाई तथा अन्य शस्य प्रबन्धन उपलब्ध हों, वहाँ उगाया जाता है तथा उसमें उपर्युक्त गुणों का मूल्यांकन किया जाता है। इसके पश्चात् चयनित पादपों के बीजों को व्यापारिक स्तर पर उगाने के लिए निर्गत कर दिया जाता है।

प्रश्न 8.
जैव प्रबलीकरण का क्या अर्थ है? व्याख्या कीजिए। (2015, 16, 17)
उत्तर
जैव प्रबलीकरण (Biofortification) – उन्नत खाद्य गुणवत्ता रखने वाली फसलों में पादप प्रजनन को जैव प्रबलीकरण कहते हैं। जैव प्रबलीकरण द्वारा प्राप्त उच्च विटामिन, खनिज, प्रोटीन तथा स्वास्थ्यवर्द्धक वसा वाली प्रजनित फसलें जनस्वास्थ्य को सुधारने के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रायोगिक माध्यम होती हैं। उन्नत पोषक गुणवत्ता के लिए निम्नलिखित को सुधारने के उद्देश्य से प्रजनन किया जाता है –

  1. प्रोटीन की मात्रा तथा गुणवत्ता,
  2. तेल की मात्रा तथा गुणवत्ता,
  3. विटामिन की मात्रा,
  4. सूक्ष्मपोषक तथा खनिज की मात्रा।

जैव प्रबलीकरण के द्वारा ही मक्का, गेहूँ तथा धान की उच्च गुणवत्ता वाली किस्में विकसित की गई हैं। सन् 2000 में विकसित की गई मक्का में ऐमीनो एसिड, लाइसीन तथा ट्रिप्टोफैन की दुगुनी मात्रा विकसित की गई। गेहूं की किस्म (एटलस 66 कृष्य) जिसमें उच्च प्रोटीन मात्रा है, विकसित की गई हैं। धान की उच्च लौह तत्त्व वाली किस्म विकसित की गई, इसमें सामान्यत: प्रयोग में लाई गई किस्मों की तुलना में लौह तत्त्व की मात्रा पाँच गुना अधिक है। भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली ने प्रचुर मात्रा में विटामिन तथा खनिज वाली सब्जियों की फसलें विकसित की हैं।

प्रश्न 9.
विषाणु मुक्त पादप तैयार करने के लिए पादप को कौन-सा भाग सबसे अधिक उपयुक्त है। तथा क्यों?
उत्तर
विषाणु मुक्त पादप तैयार करने के लिए पादप का शीर्ष तथा कक्षीय भाग (विभज्योतक) सबसे अधिक उपयुक्त होता है, क्योंकि यह भाग विषाणु से अप्रभावित रहता है।

प्रश्न 10.
सूक्ष्मप्रवर्धन द्वारा पादपों के उत्पादन के मुख्य लाभ क्या हैं?
उत्तर
सूक्ष्मप्रवर्धन (Micropropagation) – ऊतक संवर्धन द्वारा हजारों की संख्या में पादपों को उत्पन्न करने की विधि सूक्ष्मप्रवर्धन कहलाती है। इनमें प्रत्येक पादप आनुवंशिक रूप से मूल पादप के समान होते हैं जिससे वे तैयार किए जाते हैं। ये सोमाक्लोन (somaclones) कहलाते हैं। अधिकांश महत्त्वपूर्ण खाद्य पादपों जैसे-टमाटर, केला, सेब आदि का बड़े पैमाने पर उत्पादन इस विधि द्वारा किया गया है।

इस विधि द्वारा अत्यन्त ही अल्प अवधि में हजारों पादप तैयार किए जा सकते हैं। इस विधि का अन्य महत्त्वपूर्ण उपयोग रोगग्रसित पादपों से स्वस्थ पादपों को प्राप्त करना है। यद्यपि पादप विषाणु से संक्रमित है, परन्तु विभज्योतक (शीर्ष तथा कक्षीय) विषाणु से अप्रभावित रहती है। अत: विभज्योतक (मेरिस्टेम) को अलग करके उन्हें विट्रो संवर्धन में उगाया जाता है, ताकि विषाणु मुक्त पादप तैयार हो सकें। वैज्ञानिकों को केला, गन्ना, आलू आदि संवर्धित विभज्योतक तैयार करने में काफी सफलता मिली है।

वैज्ञानिकों ने पादपों से एकल कोशिकाएँ अलग की हैं तथा उनकी कोशिकाभित्ति का पाचन हो जाने से प्लाज्मा झिल्ली द्वारा घिरा नग्न प्रोटोप्लास्ट पृथक् किया जा सका है। प्रत्येक किस्म में वांछनीय लक्षण विद्यमान होते हैं। पादपों की दो विभिन्न किस्मों से अलग किया गया प्रोटोप्लास्ट युग्मित होकर संकर प्रोटोप्लास्ट उत्पन्न करता है जो आगे चलकर नए पादप को जन्म देता है। यह संकर कायिक संकर (somatic hybrid) कहलाता है तथा यह प्रक्रम कायिक संकरण (somatic hybridization) कहलाता है।

प्रश्न 11.
पत्ती में कर्तातक पादप के प्रवर्धन में जिस माध्यम का प्रयोग किया जाता है, उसके विभिन्न घटकों का पता लगाओ।
उत्तर
इस माध्यम के निम्नलिखित घटक होते हैं –

  1. एक्सप्लाण्ट (शीर्षस्थ या कक्षस्थ कलिकाओं का भाग)
  2. संवर्धन माध्यम (सूक्रोज, अकार्बनिक लवण, विटामिन, अमीनो अम्ल )
  3. वृद्धि नियन्त्रक (ऑक्सिन, साइटोकाइनिन)

प्रश्न 12.
शस्य पादपों के किन्हीं पाँच संकर किस्मों के नाम बताएँ, जिनका विकास भारतवर्ष में हुआ है।
उत्तर

  1. शर्बती सोनोरा (गेहूं की किस्म)
  2. गंगा 5 (मक्का की किस्म)
  3. साबरमती BC-S/55 (धान की किस्म)
  4. पूसा-240 (चने की किस्म)
  5. पूसा बोतड (सरसों की किस्म)

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
सामाजिक एवं बहुरूपी कीट है (2017)
(क) घरेलू मक्खी
(ख) मधुमक्खी
(ग) मच्छर
(घ) कॉकरोच
उत्तर
(ख) मधुमक्खी

प्रश्न 2.
निम्न में से कौन-सा उत्पाद मधुमक्खी से प्राप्त किया जाता है? (2017)
(क) शहद
(ख) मोम
(ग) रेशम
(घ) शहद और मोम
उत्तर
(घ) शहद और मोम

प्रश्न 3.
कच्चा रेशम का निर्माण किसके द्वारा होता है? (2018)
(क) नर रेशम कीट
(ख) मादा रेशम कीट
(ग) नर व मादा दोनों रेशम कीट
(घ) कैटरपिलर लारवा
उत्तर
(घ) कैटरपिलर लारवी

प्रश्न 4.
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान कहाँ स्थित है?
(क) हैदराबाद
(ख) शिमला
(ग) भोपाल
(घ) नई दिल्ली
उत्तर
(घ) नई दिल्ली

प्रश्न 5.
पादप प्रजनन की मुख्य विधि है (2017)
(क) वरण
(ख) प्रसंकरण
(ग) प्रवेशन
(घ) इनमें से सभी
उत्तर
(घ) इनमें से सभी

प्रश्न 6.
पादप प्रजनन द्वारा उन्नत खाद्य गुणवत्ता वाले पौधों का निर्माण कहलाता है- (2017)
(क) बायोफोर्टीफिकेशन
(ख) बायोमेगनिफिकेशन
(ग) बायोडिग्रेडेशन
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(क) बायोफोर्टीफिकेशन

प्रश्न 7.
यदि किसी पौधे में दूसरी एक या अधिक जीन्स का प्रवेश करा दिया जाए, तो पौधा कहलाएगा (2017)
(क) ट्रान्सग्रेसिव
(ख) ट्रान्सजेनिक
(ग) त्रिगुणित
(घ) त्रिसोमिक
उत्तर
(ख) ट्रान्सजेनिक

प्रश्न 8.
बी०टी० फसलों के उत्पादन में निम्नलिखित में से कौन भाग लेता है? (2017)
(क) शैवाल
(ख) फफूदी
(ग) जीवाणु
(घ) ये सभी
उत्तर
(ग) जीवाणु

प्रश्न 9.
बी०टी० कपास में कीटनाशक के रूप में एक प्रकार का होता है- (2017)
(क) प्रोटीन
(ख) “लिपिड
(ग) कार्बोहाइड्रेट
(घ) विटामिन
उत्तर
(क) प्रोटीन

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पशुपालन के दो लाभ बताइए। (2015)
उत्तर

  1. दुधारू पशुओं को पालने से हमें उनसे दूध प्राप्त होता है।
  2. पाले गये पशुओं के गोबर का प्रयोग खाद के रूप में किया जाता है जिससे मृदा की उर्वरता बनी रहती है।

प्रश्न 2.
शहतूत के रेशमकीट का वैज्ञानिक नाम लिखिए। (2017)
उत्तर
बॉम्बिक्स मोराइ (Bombyx mori)

प्रश्न 3.
मधुमक्खी की दो प्रजातियों के जन्तु वैज्ञानिक नाम लिखिए। (2014, 16)
उत्तर
एपिस मेलीफेरो (Apis melifero) तथा एपिस इण्डिका (Apis indica)।

प्रश्न 4.
भारत में हरित क्रान्ति का जनक किसे कहते हैं? (2015)
उत्तर
भारत में हरित क्रान्ति का जनक डॉ० एम०एस० स्वामीनाथन को कहते हैं।

प्रश्न 5.
किन्हीं दो बी०टी० फसलों के नाम लिखिए। इनके निर्माण में भाग लेने वाले मुख्य जीवाणु का भी नाम लिखिए। (2017)
उत्तर

  1. BT कपास
  2. BT बैंगन।

BT फसलों के निर्माण के लिए बैसीलस थूरीनजिएंसिस नामक जीवाणु का उपयोग किया जाता है।

प्रश्न 6.
दलहनी पौधों के लिए नाइट्रोजन युक्त खाद की ज्यादा आवश्यकता नहीं पड़ती हैं क्यों? (2014)
उत्तर
दलहनी पौधों की जड़ों में प्रकृति में उपस्थित मुक्त नाइट्रोजन गैस का स्थिरीकरण करने वाले जीवाणु (राइजोबियम, नाइट्रोबैक्टर आदि) पाये जाते हैं जिनके कारण उन्हें नाइट्रोजन युक्त खाद की ज्यादा आवश्यकता नहीं पड़ती हैं।

प्रश्न 7.
एकल कोशिका प्रोटीन देने वाले दो जीवों के नाम लिखिए। (2017)
उत्तर
स्पाइरुलीना एवं यीस्ट।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पशुपालन क्या है? इसमें सुधार लाने की विभिन्न विधियों का वर्णन कीजिए। (2015)
उत्तर
पशुपालन
पशुपालन, व्यावहारिक जीव विज्ञान की वह शाखा है जो पालतू पशुओं को मितव्ययितापूर्ण एवं स्वस्थ रखने की कला का ज्ञान कराती है। पशुपालन में सुधार लाने की विभिन्न विधियाँ निम्नवत् हैं

  1. आस-पास का तापमान (Near by Temperature) – पशुओं के आस-पास लगभग 20°C ताप उपयुक्त रहता है। ताप में अधिक भिन्नता होने पर चारा ग्रहण क्षमता तथा पाचन क्रिया प्रभावित होने से उत्पादन घटता है।
  2. धूप या विकिरण (Sunshine or Radiation) – मौसम के अनुसार पशुओं को धूप या विकिरण से बचाने का प्रबन्ध करना चाहिए ताकि शरीर में ताप/ऊर्जा सन्तुलन में सहायता मिले।
  3. भोजन व पानी का प्रबन्ध (Arrangement of Food and Water) – पशुओं के लिए पर्याप्त व सन्तुलित भोजन व पानी का प्रबन्ध होना चाहिए। गर्मी में अपेक्षाकृत पानी की अधिक आवश्यकता होती है।
  4. उचित व्यवहार (Good Behaviour) – पशुओं के साथ दया व मित्रतापूर्ण व्यवहार करने से उनका दुग्ध उत्पादन बढ़ता है।
  5. स्वास्थ्य परीक्षण (Health Checkup) – पशुओं का नियमित अन्तराल पर स्वास्थ्य परीक्षण कराना चाहिए तथा बीमारी के लक्षण दिखाई देते ही उसको पृथक् कर देना चाहिए और योग्य पशु चिकित्सक से उपचार कराना चाहिए।
  6. खुरों की छटाई (Hoof Triming) – खुरों को समय-समय पर काटते रहना चाहिए क्योंकि एक ही स्थान पर रहने से उनके खुर बढ़ जाते हैं, चलने में कठिनाई होती है।
  7. व्यायाम (Exercise) – पशुओं को चारागाह में भेजकर या अन्य किसी माध्यम से घुमाने वव्यायाम की व्यवस्था होनी चाहिए।
  8. सींग रोधन – पशुओं की पारस्परिक सुरक्षा तथा अपनी सुरक्षा हेतु सींग रोधन अपनाना चाहिए।
  9. बिछावन व्यवस्था – पशुशाला या पशु बाँधने के स्थान पर मौसम के अनुसार सूखा भूसा, लकड़ी का बुरादा या रेत आदि का प्रयोग बिछावन के रूप में अवश्य करें।
  10. बाह्य-परजीवियों से रक्षा (Protection from External Parasites) – पशु के रहने के स्थान पर मक्खियाँ, जू, खटमले, पिस्सू, चीचड़ी आदि पैदा न होने दें। ये सभी पशु की दैहिक क्रियाओं पर बुरा प्रभाव डालती हैं। अतः सफाई के साथ-साथ कीटनाशकों का प्रयोग करें।
  11. अपशिष्टों से बचाव – घर की सड़ी-गली खाद्य वस्तुओं अथवा अन्य अपशिष्टों को पशुओं को नहीं देना चाहिए, ऐसा करना उनके लिए प्राण घातक भी हो सकता है।

प्रश्न 2.
मधुमक्खी के बीच संचार का वर्णन कीजिए। (2013)
उत्तर
बहुत पहले से लोग जानते हैं कि जब कोई मधुमक्खी (स्काउट मक्खी – scout bee) भोजन के किसी नये स्रोत का पता लगाकर छत्ते में लौटती है तो इसके शीघ्र बाद ही छत्ते से कई भोजन-संग्रहकर्ता मक्खियाँ, स्काउट मक्खी को साथ लिये बिना ही, स्वतन्त्र रूप से नये स्रोत की ओर उड़ जाती हैं। अतः स्पष्ट है कि स्काउट मक्खियाँ भोजन के नये स्रोतों की सूचना भोजन-संग्रहकर्ता मक्खियों को देती हैं। सदियों से वैज्ञानिक मधुमक्खियों में इस सूचना-प्रसारण की विधि का पता लगाने का प्रयास करते रहे हैं। अर्नेस्ट स्पाइट्ज़नर (Ernest Spytzner, 1788) ने पहले-पहल बताया कि स्काउट मक्खियाँ कुछ विशिष्ट प्रकार की गतियों (movements) द्वारा सूचना-प्रसारण करती हैं। इन गतियों को अब “मधुमक्खी के नाच (bee dances)’ कहते हैं। सन् 1946 से 1969 तक अनवरत अनुसंधान के फलस्वरूप, प्रो० कार्ल वॉन फ्रिश (Karl Von Frisch) ने “मधुमक्खी के नाच’ की व्याख्या करने में सफलता पाई और इसके लिये नोबेल पुरस्कार जीता। उन्होंने पता लगाया कि सूचना-प्रसारण के लिये भोजन-खोजकर्ता या स्काउट मक्खियाँ दो प्रकार का “नाच’ करती हैं। (चित्र 7.1)-(1) गोल नाच तथा (2) दुम-दोलनी नाच।
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1. गोल नाच (Round Dance) – इस नाच में स्काउट मक्खी क्रमशः दाईं-बाईं ओर गोल-गोल चक्कर काटती है। ऐसे नाच द्वारा सूचना-प्रसारण तब किया जाता है जब नया भोजन-स्रोत निकट (छत्ते से 75 मीटर तक) ही होता है। इसमें स्रोत की दिशा की सूचना प्रसारित नहीं होती; स्काउट मक्खी द्वारा लाई गई फूलों की सुगन्ध से ही भोजन-संग्रहकर्ता मक्खियों का मार्गनिर्देशन हो जाता है और ये निर्दिष्ट फूलों तक पहुँच जाती हैं।

2. दुम-दोलनी नाच (Tail-wagging or “Shuffle” Dance) – स्काउट मक्खियाँ इस नाच द्वारा सूचना-प्रसारण तब करती हैं जब नया भोजन-स्रोत छत्ते से 75 मीटर से अधिक दूर होता है।
इस नाच द्वारा भोजन-स्रोत की दूरी एवं सूर्य के संदर्भ में इसकी दिशा के ज्ञान का भी प्रसारण होता है। इसमें स्काउट मक्खी पहले एक सीधी रेखा पर तेजी से चलती है। फिर इस रेखा के एक ओर अर्धवृत्ताकार पथ पर चल कर वापस इसी सीधी रेखा पर चलती है। फिर इस रेखा के दूसरी ओर अर्धवृत्ताकार पथ पर चलकर वापस सीधी रेखा पर चलती है। यही गति बार-बार दोहराई जाती है। सीधी रेखा पर चलते समय यह उदर के पिछले अर्थात् पुच्छ भाग को तेजी से दायें-बायें हिलाती रहती है और साथ ही पंखों को फड़-फड़ाकर एक मन्द गति ध्वनि उत्पन्न करती रहती है।

सीधी रेखा पर मक्खी की गति की दिशा से, सूर्य की वर्तमान स्थिति के अनुसार, भोजन-स्रोत की दिशा का ज्ञान होता है। पूर्ण नाच की दर तथा सीधी रेखा पर चलते समय दुम-दोलनी की दर एवं ध्वनि की तीव्रता से स्रोत की दूरी का ज्ञान होता है। यदि सीधी रेखा पर मक्खी छत्ते में ऊपर से नीचे की ओर चलती है तो स्रोत छत्ते से सूर्य की ओर न होकर विपरीत दिशा में होता है और यदि यह गति नीचे से ऊपर की ओर होती है तो स्रोत सूर्य की दिशा में होता है। यदि स्रोत सूर्य की दिशा से किसी कोण पर होता है तो सीधी रेखा भी तद्नुसार ऊपर से नीचे या नीचे से ऊपर की ओर न होकर उसी कोण पर होती है। नाच के समय भोजन-संग्रहकर्ता मक्खियाँ स्काउट मक्खी को छु-छूकर स्पर्श-ज्ञान द्वारा तथा स्काउट मक्खी के पंखों की फड़-फड़ाहट की ध्वनि की श्रवण-संवेदना द्वारा सूचना ग्रहण करती हैं।

प्रश्न 3.
पीडक जन्तु (पेस्ट) किसे कहते हैं? किन्हीं दो कृषि पीडक कीटों के नाम, उनसे होने वाली हानि एवं उत्पादन पर प्रभाव तथा उनके नियंत्रण के उपायों का वर्णन कीजिए। (2014)
उत्तर
पीड़क जन्तु-मनुष्य भोजन के लिए कृषि द्वारा भूमि से अनाज, फल, सब्जी आदि उगाता है, लेकिन कोई भी फसल ऐसी नहीं होती जिससे अनेक प्रकार के कीट अपना भोजन प्राप्त न करते हों। पेड़-पौधों की जड़ों, तनों, पत्तियों, कलियों, फूलों, बीजों आदि पर विभिन्न प्रकार के कीट आक्रमण करते हैं। लगभग एक-तिहाई फसल के भागीदार ये कीट बन जाते हैं। इससे हमारे देश को लगभग 500 करोड़ और अकेले उत्तर प्रदेश को 50 करोड़ की हानि प्रतिवर्ष होती है। इन हानिकारक कीटों को ही हम पीड़क जन्तु या पीड़क कीट कहते हैं।

दो कृषि पीइक कीटों के नाम – दो मुख्य कृषि पीड़क कीटों के नाम निम्नवत् हैं।
1. टिड्डी
2. ईख की गिडार
हानि एवं उत्पादन पर प्रभाव

  1. फसल को टिड्डियों से बहुत हानि होती है। एक टिड्डी दल में करोड़ों तक की संख्या में टिड्डियाँ हो सकती हैं जो कुछ ही मिनटों में सम्पूर्ण फसल का सफाया कर देती हैं, जिससे उत्पादन शून्य भी हो सकता है।
  2. ईख की गिडार गन्ने के तने को भीतर से खोखला कर देती है जिससे उत्पादन घट जाता है।

नियंत्रण के उपाय – निम्नलिखित उपायों द्वारा पीड़क कीटों को नियन्त्रित किया जा सकता है।

  1. यान्त्रिक नियन्त्रण,
  2. भौतिक नियन्त्रण
  3. जैविक नियन्त्रण (बन्ध्याकरण, कीट भक्षण, परजीविता),
  4. सांस्कृतिक नियन्त्रण,
  5. वैज्ञानिक नियन्त्रण तथा
  6. रासायनिक नियन्त्रण।

प्रश्न 4.
पादप प्रजनन का महत्त्व बताइए। (2015)
उत्तर
पादप प्रजनन का महत्त्व
पादप प्रजनन से फसलों की वांछित गुणों व उच्च गुणवत्ता वाली प्रजातियों को विकसित किया जा सकता है। पादप प्रजनन के निम्न प्रमुख लाभ हैं –
1. उत्पादन में वृद्धि (Increase in Production) – तेजी से बढ़ती जनसंख्या के कारण खाद्य संसाधनों को बढ़ाने की आवश्यकता है। पादप प्रजनन द्वारा फसली पौधों की पैदावार व गुणवत्ता को बढ़ाना सम्भव हुआ है। हरित क्रान्ति (green revolution) नामक प्रयास से भारत में गेहूं की नयी, उन्नत फसलें विकसित की गयी हैं। भारतीय वैज्ञानिकों ने गेहूँ की 591-किस्मों से NP-4, NP-52, कल्याण सोना-227, सोनोरा-64 जैसी उन्नत किस्में तैयार की हैं। गेहूँ के अतिरिक्त मक्का, धान, जौ, गन्ना की भी उन्नत किस्में विकसित की गयी हैं।

2. गुणवत्ता में सुधार (Improvement in Quality) – पादप प्रजनन से हम स्वेच्छा से पौधों के | श्रेष्ठ गुणों का विकास करके पौधों की गुणवत्ता सुधार सकते हैं। फसली पौधों की गुणवत्ता में
सुधार का अर्थ है-अधिक पैदावार, रोग प्रतिरोधकता आदि। चने की G-24 किस्म का दाना गहरे भूरे रंग का होता है तथा Pb 7, I-58 व G-17 के साथ इसके संकरण से C-158 व C-132 जैसी गुणवान किस्में विकसित की गयी हैं।

3. रोग व पीइक प्रतिरोधकता (Resistivity for Diseases and Insects) – पौधों में विषाणु, जीवाणु, कवक आदि से विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। उदाहरण-आलू में अंगमारी (blight) रोग, गन्ने में लाल विगलन (red-rot) व काले किट्ट (black rust) का रोग आदि कवकजनित होते हैं। पादप प्रजनन द्वारा पौधों की रोग प्रतिरोधी किस्में विकसित की गयी हैं। उदाहरण-गेहूँ की C-228, C-253 व चने की GP-17, GP-24 आदि।

4. विशेष मृदा व विशेष जलवायु हेतु किस्में (Varieties for Particular Soil and Climate) – भारतवर्ष में प्रत्येक क्षेत्र की जलवायु व मृदा विभिन्न प्रकार की है। मृदा व जलवायु की विभिन्नता को ध्यान में रखते हुए पादप-प्रजनन द्वारा पौधों की ऐसी किस्में उत्पन्न की गयी हैं जो विभिन्न प्रकार की मृदा व जलवायु में विकसित हो सकती हैं। उदाहरण – पंजाब की मृदा मूंगफली की वृद्धि के लिए अनुकूलित नहीं है। अतः पादप प्रजनन द्वारा मूंगफली की ऐसी किस्में उत्पन्न की गयी हैं जो ऊसर व रेतीली मृदा में भी उग सकती हैं। पादप प्रजनन से पतन प्रतिरोधी किस्में (varieties resistant to lodging) भी तैयार की गई हैं।

प्रश्न 5.
खाद्य उत्पादन में दलहनी पौधों की भूमिका का वर्णन कीजिए। (2014)
उत्तर
दलहनी पौधों के अन्तर्गत दाल वाले पौधे; जैसे-अरहर, चना, मूंग, उड़द आदि सम्मिलित होते हैं। दालें प्रोटीन का मुख्य स्रोत होती हैं क्योंकि इनमें प्रोटीन प्रचुर मात्रा में उपस्थित होती है। यदि हम खाद्य उत्पादन में दलहनी पौधों का विस्तार करेंगे तो ये हमें दो प्रकार से लाभ पहुँचाएँगी –

  1. हमें प्रोटीन का एक अच्छा स्रोत प्राप्त होगा तथा
  2. भूमि उपजाऊ होगी क्योकि दलहनी पौधे मृदा की उपजाऊ शक्ति में वृद्धि करते हैं। इनकी जड़ों में कुछ विशिष्ट जीवाणुओं की गाँठे होती हैं जो मृदा में नाइट्रोजन के स्तर को बढ़ाती हैं।

प्रश्न 6.
जैविक आवर्धन पर टिप्पणी लिखिए। (2015)
उत्तर
अनेक प्रकार के कीटनाशक पदार्थ (pesticides), खरपतवारनाशी (weedicides) व अन्य क्लोरीनयुक्त पदार्थ ऐसे पदार्थ हैं जिनका जीवधारियों द्वारा बहुत कम विघटन होता है, अर्थात् ये अक्षयकारी (non-biodegradable) होते हैं। इनका उपयोग कृषि की उपज बढ़ाने के लिए किया जाता है। ये पदार्थ खाद्य श्रृंखला के द्वारा पौधों व जन्तुओं के शरीर में जाते हैं और वहीं पर संचित होते रहते हैं। इनकी सान्द्रता प्रत्येक ट्रॉफिक स्तर पर बढ़ती जाती है और उच्च उपभोक्ता में अधिकतम हो जाती है। इस क्रिया को जैविक आवर्धन (biological magnification or biological amplification) कहते हैं।

DDT तथा BHC आदि कीटनाशक पदार्थ वसा में घुलनशील होते हैं। अतः ये मनुष्यों व जन्तुओं के वसा ऊतक (adipose tissue) में संचित हो जाते हैं। श्वसन क्रिया में वसा के ऑक्सीकरण के समय ये पदार्थ रुधिर वाहिनियों में प्रवेश करके विषैला प्रभाव दिखाते हैं और इससे कैन्सर तक हो जाता है। इसी को देखते हुए कृषि में DDT के प्रयोग पर प्रतिबन्ध है, परन्तु इसका उपयोग मलेरिँया नियन्त्रण में किया जाता है।

प्रश्न 7.
संकर ओज पर टिप्पणी लिखिए। (2014, 15, 16, 17)
उत्तर
संकर ओज-भिन्न-भिन्न आनुवंशिक संगठन युक्त दो या दो से अधिक जातियों में मौजूद लक्षणों को एक ही जाति में विकसित करने की विधि को संकरण कहते हैं तथा इस प्रकार प्राप्त हुई जातियों को संकर ओज कहते हैं।

प्रश्न 8.
आनुवंशिकीय रूपान्तरित फसलों पर टिप्पणी लिखिए। (2014, 15)
उत्तर
कीट पीड़कों से प्रतिरोधकता विकसित करने की यह पादप प्रजनन विधि है। इस विधि से प्राप्त पौधों पर कीट पीड़कों का कोई प्रभाव नहीं होता। ये पौधे जीवाणु, कवक जीन द्वारा परिवर्तित कर दिये जाते हैं इसलिए इन्हें आनुवंशिकीय रूपान्तरित फसल कहा जाता है। उदाहरणार्थ-बी०टी० फसलें।

प्रश्न 9.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए –

  1. BT कपास तथा
  2. हरित क्रान्ति। (2014, 16, 17)

उत्तर
BT कपास
बैसीलस थूरीनजिएंसिस (Bacillus thuringiensis) नामक जीवाणु ऐसी प्रोटीन (जीव विष) को निर्माण करता है जिसमें अनेक प्रकार के कीटों (तम्बाकू का कीट, सैनिक कीट, मूंग कीट) को नष्ट करने की क्षमता होती है। बैसीलस जीवाणु से बनी जीव विष कीटनाशक होता है, लेकिन जीवाणु में निष्क्रिय होता है। कीट में पहुँचते ही सक्रिय हो जाता है तथा कीटों की मृत्यु हो जाती है। जीव विष को बनाने वाली जीवाणु से जीन को पृथक् करके फसलों में समाविष्ट कर देते हैं। इसी प्रकार BT-कपास नामक पौधे का निर्माण कर लिया गया है। BT-कपास पर शलभ (Ballworms) कृमि का प्रभाव नहीं होता है और उत्पादन बढ़ जाता है। जीव विष को बनाने वाली जीन को क्राई (cry) कहते हैं। ये कई प्रकार की होती हैं।

हरित क्रान्ति
भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारत के सकल घरेलू उत्पादन की लगभग 33 प्रतिशत आय तथा समष्टि की लगभग 62 प्रतिशत जनता को रोजगार कृषि से प्राप्त होता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती बढ़ती हुई जनसंख्या के पोषण की थी क्योंकि यहाँ कृषि योग्य भूमि सीमित थी। इसके लिए वह वृहद् योजना बनाने की आवश्यकता थी जिससे उपलब्ध भूमि में अधिक-से-अधिक पैदावार की जा सके। 1960 ई० के मध्य से पादप प्रजनन की विधियों का उपयोग कर गेहूँ, धान, मक्का आदि की उन्नत संकर किस्में विकसित की गईं। परिणामस्वरूप खाद्य उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि हुई। इसे प्रावस्था को ‘हरित क्रान्ति’ (Green Revolution) के नाम से जाना जाता है। भारत में हरित क्रान्ति के प्रारम्भ हेतु प्रमुख योगदान डॉ० एम०एस० स्वामीनाथन (Dr. M.S. Swaminathan) व डॉ० नॉर्मन बोरलॉग (Dr. Norman Borlog) ने दिया था। अपने इस योगदान के लिए इन्हें अनेक पुरस्कारों द्वारा सम्मानित किया गया।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए –

  1. BT बैंगन तथा
  2. ऊतक संवर्धन। (2014, 16, 17, 18)

या
पूर्ण शक्तता (टोटीपोटेन्सी) किसे कहते हैं? ऊतक संवर्धन की प्रमुख विधियों का चित्रों की सहायता से वर्णन कीजिए। (2015)
या
ऊतक संवर्धन क्या है? इसके अन्तर्गत आने वाले विभिन्न पदों के नाम लिखिए। (2015, 17)
उत्तर
BT बैंगन
बैसीलस थूरीनजिएंसिस नामक जीवाणु ऐसी प्रोटीन का निर्माण करता है जिसमें अनेक प्रकार के कीटों (तम्बाकू का कीट, सैनिक कीट, मूंग कीट) को नष्ट करने की क्षमता होती है। बेसीलस जीवाणु से बना यह जीव विष कीटनाशक होता है। जीवाणु में निष्क्रिय परन्तु कीट में पहुँचते ही सक्रिय हो जाता है जिससे कीटों की मृत्यु हो जाती है। जीव विष को बनाने वाले जीवाणु से जीव को पृथक् करके बैंगन की फसल में समाविष्ट कर देते हैं। इनसे BT बैंगन का निर्माण होता है जिस पर पीड़कों का कोई प्रभाव नहीं होता है।

ऊतक संवर्धन
इस तकनीक का विकास सर्वप्रथम सन् 1902 में गोटलीब हेबर लेन्डटू द्वारा किया गया। भोजन की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए इस तकनीक का उपयोग करते हैं। इसके अन्तर्गत प्रयोगशाला के भीतर पादप कोशिका, ऊतक, अंगों की वृद्धि पात्रों में उपस्थित कृत्रिम संवर्धन माध्यम में करके पौधों की संख्या में अपार वृद्धि करते हैं। एक कोशिका अथवा मूल कोशिका द्वारा पूरा पौधा विकसित करने की क्षमता को पूर्ण शक्तता (टोटीपोटेन्सी) कहते हैं। इस प्रक्रिया को ऊतक संवर्धन (tissue culture) कहते हैं। इस विधि से अल्प काल में हजारों की संख्या में पादपों का उत्पादन किया जाता है। इसे सूक्ष्म प्रवर्धन (micro propagation) भी कहते हैं।

सन् 1957 में स्टीवर्ड नामक वैज्ञानिक ने एकल कोशिका से पूर्ण पौधे की वृद्धि को सिद्ध किया। ऊतक संवर्धन में अनेक वृद्धि नियन्त्रक जैसे- ऑक्सिन (auxin) व साइटोकाइनिन (cytokinine) की आवश्यकता होती है। ऊतक संवर्धन की प्रमुख दो विधियाँ हैं –

  1. प्रयोगशाला में वृद्धि जैसे-कैलस (callus) व निलम्बन संवर्धन,
  2. एक्स प्लान्ट जैसे- मेरीस्टेम संवर्धन, भ्रूण संवर्धक, परागकोश संवर्धन, जीवद्रव्य संवर्धन आदि।

संवर्धन के ये प्रयोग आनुवंशिक इन्जीनियरिंग (genetic engineering) में बहुत लाभदायक हैं, क्योंकि नई किस्म के पौधे उत्पन्न करने में कोशिका संवर्धन एक प्रमुख विधि है।
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प्रश्न 11.
एकल कोशिका प्रोटीन पर टिप्पणी लिखिए।
या
एकल कोशिका प्रोटीन क्या है? किन्हीं दो एकल कोशिका प्रोटीन के वानस्पतिक नाम लिखिए। (2014)
उत्तर
एकल कोशिका प्रोटीन
सूक्ष्मजीवों को मनुष्य तथा पशुओं के पोषण में प्रोटीन के स्रोत के रूप में उपयोग में लाया जा रहा है, जैसे- यीस्ट, स्पाइरुलीना आदि।
एकल कोशिका प्रोटीन द्वारा आवश्यक सभी अमीनो अम्ल शरीर को प्राप्त होते हैं। उच्चवर्गीय पौधों के स्थान पर जीवाणु तथा यीस्ट बेहतर प्रोटीन स्रोत हैं, क्योंकि खाद्य के रूप में प्रयुक्त किए जाने वाले उच्च वर्गीय पौधों में लाइसीन अमीनो अम्ल नहीं पाया जाता है। एकल कोशिका प्रोटीन के उत्पादन के लिए कम जगह की आवश्यकता पड़ती है। इसका उत्पादन जलवायु से भी प्रभावित नहीं होता है। शैवाल, जैसे-स्पाइरुलीना, क्लोरेला तथा सिनेडेस्मस का उपयोग एकल कोशिका प्रोटीन के रूप में किया जा रहा है। स्पाइरुलीना को आलू-संसाधन संयन्त्र से निर्मुक्त अवशिष्ट जल जिसमें स्टार्च की। मात्रा उपस्थित रहती है, में आसानी से उगाया जा सकता है।

यहाँ तक कि इसे भूसा, शीरा, पशु खाद तथा मेल-जल में भी उगाया जा सकता है। स्पाईरुलीना में प्रोटीन के अतिरिक्त खनिज, वसा, कार्बोहाइड्रेट तथा विटामिन भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। प्रदूषित जल में आसानी से उगाए जाने के कारण स्पाइरुलीना का उपयोग पर्यावरणीय प्रदूषण को भी कम करने के लिए किया जाता है। शैवालों के अतिरिक्त कवक, जैसे-यीस्ट (सेकेरोमाइसीज), टॉरुलाप्सिस तथा कैंडिडा का उपयोग भी एकल कोशिका प्रोटीन के रूप में किया जा रहा है। फ्यूजेरियम एवं मशरूम के कवकतन्तु को एकल कोशिका प्रोटीन के रूप में उपयोग बड़े पैमाने पर किया जा रहा है।

गणना की गई है कि 0.5 टन सोयाबीन से 40 किलोग्राम प्रोटीन प्रति 24 घंटे में प्राप्त हो सकती है। इसकी तुलना में 0.5 टन यीस्ट से उसी समय-सीमा में 50 टन प्रोटीन प्राप्त हो सकती है। इसी प्रकार प्रतिदिन 25 किलोग्राम दूध देने वाली गाय 200 ग्राम प्रोटीन पैदा करती है। इसी समय में 250 ग्राम सूक्ष्मजीव; जैसे-मिथायलोफिलस मिथायलोटोपस 25 टन तक प्रोटीन उत्पन्न कर सकते हैं।

प्रश्न 12.
केन्द्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान पर टिप्पणी लिखिए। (2015)
उत्तर
केन्द्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान उत्तर प्रदेश की राजधानी, लखनऊ में स्थित है। यहाँ जैव चिकित्सा विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित अनेक वैज्ञानिक कार्यरत हैं। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् स्थापित होने वाली प्रयोगशालाओं में से यह एक है। इस संस्थान का उद्घाटन 17 फरवरी, 1951 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू द्वारा किया गया था। प्रशासनिक और वैज्ञानिक प्रयोजनों के लिए संस्थान को जनशक्ति, तकनीकी और वैज्ञानिक सहायता उपलब्ध कराने के लिए इसे 17 अनुसंधान एवं विकास विभाग और कुछ डिवीजनों में बाँटा गया है। इनके अलावा इस संस्थान के बाहर स्थित दो डाटा सेंटर और एक फील्ड स्टेशन कार्य कर रहे हैं।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मनुष्य के लिए लाभदायक तीन कीटों के जन्तु-वैज्ञानिक नाम लिखिए तथा उनके उत्पाद का उल्लेख कीजिए। उनमें से किसी एक कीट के जीवन चक्र का वर्णन कीजिए। (2011, 12)
या
रेशम कीट पालन किसे कहते हैं ? रेशम कीट का सचित्र जीवन चक्र लिखिए। (2009, 17)
या
आर्थिक महत्त्व के किन्हीं दो कीटों के नाम लिखिए तथा उनके द्वारा उत्पादित पदार्थों का मनुष्य के लिए उपयोग बताइए। (2008,09, 15, 16, 17)
या
किन्हीं दो लाभदायक कीटों का वैज्ञानिक नाम लिखिए तथा उनके द्वारा उत्पादित पदार्थ का नाम एवं मानव द्वारा उपयोग बताइए। (2010, 11, 12, 15)
या
मनुष्य के आर्थिक महत्त्व के किन्हीं तीन कीटों के जन्तु वैज्ञानिक नाम लिखिये तथा इनके द्वारा उत्पादित पदार्थों की उपयोगिता बताइए। भारतवर्ष में पाए जाने वाले रेशम कीट की विभिन्न प्रजातियों के जन्तु वैज्ञानिक नाम लिखिए। (2014)
या
मनुष्य के लिए लाभदायक किन्हीं दो कीटों के जन्तु वैज्ञानिक नाम लिखिए तथा इनके द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले उत्पादों का आर्थिक महत्त्व बताइए। (2013, 14, 15)
या
मानव के लिए लाभदायक दो कीटों के जन्तु वैज्ञानिक नाम लिखिए। (2014, 16)
या
आर्थिक महत्त्व के कीटों की एक सूची दीजिए। इनमें से किसी एक द्वारा उत्पादित उत्पादों का उपयोग लिखिए। (2015)
या
टिप्पणी लिखिए-

  1. रेशम,
  2. लाख (2015)

या
किन्हीं दो लाभदायक कीटों के प्राणि वैज्ञानिक नाम लिखिए तथा उनके उत्पादित पदार्थों का मानव हित में उपयोग बताइए। (2017)
या
रेशम कीट का आर्थिक महत्त्व लिखिए। (2018)
उत्तर
मनुष्य के लिए लाभदायक तीन कीट
1. रेशम कीट (Silkworm = Bombyx mort)
इसकी बॉम्बिक्स मोराइ (Bombyx mori) नामक जाति का शहतूत के वृक्षों पर पालन किया जाता है। इस कीट से उत्तम किस्म का रेशम प्राप्त किया जाता है। इसकी एन्थेरिया पैपिया (Antheraeg pupia) नामक जाति से उच्च कोटि का रेशम टसर प्राप्त किया जाता है।

2. मधुमक्खी (Honey bee = Apis indica)
यह एक सामाजिक, बहुरूपी (polymorphic) कीट है। यह मोम की एक छत्तेनुमा कालोनी बनाकर रहती है। प्रत्येक छत्ते में हजारों की संख्या में षट्भुजीय कोष्ठक होते हैं। अनेक कोष्ठकों को खाद्य भण्डार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है जिनमें यह बहुत मात्रा में शहद (honey) एकत्र रखती है। अन्य कोष्ठकों में इसके बच्चों, अण्डों आदि की देखभाल की जाती है।

एक बड़े छत्ते में एक ऋतु में लगभग 150 किलोग्राम तक शहद प्राप्त हो जाता है। मधु मनुष्य के लिए एक प्राकृतिक शक्तिवर्द्धक एवं रोगाणु रोधक, अम्लीय पदार्थ होता है। इसमें औषधि महत्त्व के लगभग 80 प्रकार के पदार्थ होते हैं।
मधुमक्खी का पूरा छत्ता मोम का बना होता है। मोम प्रायः सफेद अथवा हल्का पीला-सा होता है और अनेक सौन्दर्य प्रसाधनों को तैयार करने के लिए आधार पदार्थ होता है।

3. लाख का कीट (Lac insect = Tachardia lacca)
ये कीट प्रतिकूल वातावरणीय परिस्थितियों तथा शत्रुओं से सुरक्षित रहने के लिए ढाक, साल, पीपल, बरगद, अंजीर आदि वृक्षों पर अण्डे देते समय लाख का रक्षात्मक खोल बनाते हैं। यह 1-2 सेमी मोटी पपड़ी के रूप में होता है। हमारे देश में एक महत्त्वपूर्ण उद्योग के रूप में लाख एकत्र किया जाता है। लाख का उपयोग वार्निश, चमड़ा, मोहरी लाख, बिजली के सामान, खिलौने, बर्तन, चूड़ियाँ आदि बनाने में किया जाता है।

रेशम कीट पालन
रेशम उद्योग का एक रोमांचकारी इतिहास है। कहा जाता है कि लगभग 2600 ईसा पूर्व चीन की एक महारानी सी लिंगची (Si Ling Chi) ने अपनी वाटिका में पेड़ों पर सफेद से रंग के कोकून फलों की भाँति लटके हुए देखे। इन्हें देखकर वह आकर्षित हुई और उनमें से सूक्ष्म धागे उतरवाकर महीन व चमकदार कपड़ा बुनवाया जो बहुत अधिक लोकप्रिय हुआ। चीनियों ने रेशम के उद्योग को बढ़ाया और गुप्त रखा, किन्तु कुछ समय बाद पुजारियों द्वारा यह रहस्य किसी प्रकार से यूरोप पहुँच गया। अब यह उद्योग यूरोप तथा एशिया के अनेक देशों में प्रचलित है किन्तु अमेरिका में जहाँ पर श्रमिकों की समस्या है वहाँ यह सफल नहीं हो सका।

रेशम प्राप्ति के लिए रेशम कीट का पालन करना रेशम कीट पालन या सेरीकल्चर (sericulture) कहलाता है। यह कार्य चीन, जापान, इटली, स्पेन आदि देशों में बहुत बड़े पैमाने पर किया जाता है। भारत में असम, मैसूर आदि स्थानों पर इनका पालन औद्योगिक महत्त्व के लिए किया जाता है। समूचे विश्व में लगभग 3 हजार करोड़ किग्रा रेशम इन्हीं कीटों से प्राप्त किया जाता है। रेशम इसकी कोकून अवस्था से प्राप्त किया जाता है। 25 हजार कोकूनों से लगभग 1 पौण्ड रेशम प्राप्त होता है। रेशम का उपयोग रेशमी वस्त्र, साड़ियों आदि के निर्माण में किया जाता है।

रेशम कीट का जीवन चक्र
रेशम कीट एकलिंगी (unisexual) होने के कारण नर तथा मादा कीट अलग-अलग होते हैं। रेशम कीट शहतूत की पत्तियों पर पाला जाता है। इनका भोजन शहतूत की पत्तियाँ हैं।
1. अण्डे (Eggs) – मादा रेशमकीट एक बार में 300 से 400 अण्डे शहतूत की पत्तियों पर देती | है। अण्डे देने के बाद मादा कीट भोजन लेना बन्द कर देती है और 4-5 दिन में मर जाती है।
2. डिम्भक (Larva) – अण्डे से 8-10 दिन में चिकना व बेलनाकार लारवा निकलता है, जिसे इल्ली या कैटरपिलर (caterpillar) कहते हैं। इसका रंग सफेद होता है तथा शरीर 13 खण्डों में बँटा होता है। यह अधिक सक्रिय होने के कारण तेजी से शहतूत की पत्तियों को खाता है। शरीर के दोनों ओर 8 जोड़ी श्वासरन्ध्र (spiracles) होते हैं। शहतूत की पत्तियों को खाकर यह तेजी से बड़ा होता है और चार बार त्वक्पतन या निर्मोचन करके 30-35 दिन में 7-8 सेमी लम्बा हो जाती है। परिपक्व इल्ली पत्ती खाना बन्द कर देती है। अब इसमें एक जोड़ी लार ग्रन्थियाँ बन जाती हैं जिनसे निकला लसदार पदार्थ हवा में सूखकर रेशम (silk) के रूप में परिवर्तित हो जाता है।

प्यूपा तथा उसका कोठून (Pupa and its Cocoon) – इल्ली जब विश्रामावस्था में आ जाती है तो उसके सिर की दोनों लार ग्रन्थियों (salivary glands) से विकसित रेशम ग्रन्थियों से स्रावित एक प्रकार की चिपचिपा पदार्थ लैबियम (labium) के सूक्ष्म रन्ध्रों द्वारा निकलता जाता है। यह पदार्थ वायु के सम्पर्क में आकर पाँच अति महीन सूत्रों के रूप में सूखता जाता है। इसी समय एक गोंद के समान पदार्थ सेरिसिन (sericin) जो दो अन्य ग्रन्थियों से आता है, इन सूत्रों को आपस में चिपकाकर एक ठोस तन्तु के रूप में बदल जाता है।
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इस समय जब ठोस सूत्र का उत्पादन हो रहा होता है तो इल्ली (कैटरपिलर) प्रकाश से हटकर अँधेरे की ओर जाकर अपने सिर को इस तरह घुमाती है कि रेशम तन्तु शरीर पर लिपटता जाता है और तीन-चार दिनों बाद रेशम के महीन तन्तुओं से बना कोकून (cocoon) इल्ली को अपने अन्दर पूर्णतः बन्द कर लेता है। एक कोकून पर लगभग 1000-1500 मीटर लम्बा रेशम का तन्तु होता है। कोकून के अन्दर विश्रामावस्था में इल्ली भूरे रंग के प्यूपा (pupa) में बदल जाती है।

प्यूपा के शरीर से उदर की टाँगें लुप्त हो जाती हैं, वक्ष पर दो जोड़ा पंख बनते हैं तथा शरीर अब कीट की भाँति हो जाता है। यह शिशु कीट ही कोकून को तोड़कर बाहर निकलता है जो रेशम कीट या रेशम शलभ (moth) कहलाता है। एक रेशम कीट का जीवन चक्र लगभग 56 दिनों में पूर्ण होता है। नर व मादा शलभ कोकूनों से निकलने के शीघ्र बाद ही मैथुन करते हैं तथा 3-4 दिनों में मर जाते हैं।

रेशम उद्योग
प्यूपावरण (puparium) के अन्दर जब कीट प्रौढ़ हो जाता है तो वह अपनी क्षारीय लार से कोकून का एक सिरा गला देता है और इसे तोड़कर बाहर निकल आता है। अब यह अपना स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करता है। ऐसा होने से, चूंकि कोकून कट-फट जाता है और उसके सूत्र टूट जाते हैं तो वह रेशम के धागे प्राप्त करने अर्थात् रेशम उद्योग के लिए बेकार हो जाता है। इसलिए पूर्ण रूप से कीट के बनने तथा उसके निकलने के पूर्व ही रेशम उद्योग के लिए कोकून एकत्र कर लिये जाते हैं।

एकत्र किये गये कोकून जिनके अन्दर कीट होता है, उबलते हुए पानी में डाल दिये जाते हैं ताकि उनके अन्दर उपस्थित कीट मर जाये और कोकूनों से महीन तन्तु बिना कटे-फटे उतार लिया जाये।
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रेशम का तन्तु जो कोकून के ऊपर पाया जाता है वह अत्यधिक महीन होता है अतः रेशम बनाने के लिए 6-6 या 8-8 तन्तुओं को ऐंठकर धागे बनाये जाते हैं जिनसे रेशम का कपड़ा तैयार किया जाता है। 454 ग्राम रेशम लगभग 25000 (पच्चीस हजार) कोकूनों से प्राप्त होता है।

प्रश्न 2.
श्रम विभाजन के संदर्भ में मधुमक्खी के विभिन्न प्रारूपों का उल्लेख कीजिए तथा इनके कार्यों का वर्णन कीजिए। (2013)
उत्तर
मधुमक्खी की कॉलोनी बहुत ही सुव्यवस्थित बस्ती होती है। इसके हजारों सदस्य एक ही परिवार के होते हैं। बहुरूपी सदस्य तीन प्रकार के होते हैं –

  1. केवल एक बड़ी-सी रानी मक्खी (queen),
  2. लगभग 100 नर मक्खियाँ या ड्रोन्स (drones) तथा
  3. हजारों (60 हजार तक) छोटी श्रमिक मक्खियों (workers)।

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रानी मक्खी (The Queen) – यह कॉलोनी की सर्वश्रेष्ठ सदस्य होती है, क्योंकि कॉलोनी का मूल अस्तित्व ही इसी के संदर्भ में होता है। यह सामान्यतः लगभग पाँच वर्ष तक जीवित रहती है और अण्डे देने के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य नहीं करती। इसीलिये इसमें बहुत बड़े अण्डाशय (ovaries) होते हैं। अण्डाशयों के कारण उदर भाग बहुत बड़ा होता है। अत: इसका शरीर एक श्रमिक मक्खी से लगभग पाँच गुना बेड़ा (15 से 20 मिमी लम्बी) और तीन गुना भारी होता है। इसके अन्य अंग-पंख, मुखांग, मस्तिष्क, डंक आदि–कम विकसित होते हैं। लार एवं मोम ग्रंथियाँ नहीं होतीं। इस प्रकार, यह न तो उड़ सकती है और न मधु या मोम बना सकती है। पोषण के लिये इसे पूर्णरूपेण श्रमिक मक्खियों पर निर्भर रहना पड़ता है। इसका डंक कम विकसित होते हुये भी क्रियाशील होता है और इसे यह सुरक्षा (defense) के काम में ला सकती है, परन्तु इसका प्रमुख उपयोग यह अण्डारोपण (oviposition) में करती है। अपने जीवनकाल में यह लगभग पन्द्रह लाख अण्डे देती है। एक दिन में सामान्यत: यह एक से तीन हजार अण्डे देती है, परन्तु अण्डारोपण केवल जननकाल (हमारे देश में शरद ऋतु एवं बसन्त) में होता है।

नर मक्खियाँ या झोन्स (Drones) – छत्ते की लगभग 100 नर मक्खियाँ रानी से काफी छोटी (7 से 15 मिमी लम्बी) परन्तु हृष्ट-पुष्ट होती हैं। इनमें उदर भाग कुछ चौड़ा, पाद लम्बे तथा मस्तिष्क, पंख और नेत्र बड़े होते हैं। इनमें भी लार एवं मोम ग्रन्थियाँ नहीं होतीं। अत: पोषण के लिये ये भी श्रमिक मक्खियों पर निर्भर करती हैं। इनमें डंक भी नहीं होता। अतः ये अपनी सुरक्षा भी नहीं कर सकतीं। इनका एकमात्र कार्य रानी का निषेचन करना होता है। अतः जननकाल में श्रमिक मक्खियाँ इनका उपयुक्त पोषण करती हैं और ये प्राय: छत्ते के बाहर उन्मुक्त उड़-उड़ कर जननकाल में उत्पन्न हुई युवा रानी मक्खियों से सम्भोग करती रहती हैं। जननकाल के बाद, ग्रीष्म ऋतु में, श्रमिक मक्खियाँ नर मक्खियों का तिरस्कार करने लगती हैं और अन्त में गरमी से इन्हें मर जाने के लिये छत्ते से बाहर खदेड़ देती हैं।

श्रमिक मक्खियाँ (Worker Bees) – ये नर मक्खियों से भी छोटी (5 से 10 मिमी लम्बी), परन्तु अपेक्षाकृत अधिक हृष्ट-पुष्ट एवं कुछ गहरे रंग की होती हैं। पंख और मुखांग बहुत मजबूत होते हैं। पूर्ण शरीर पर घने, रोम-सदृश शूक (bristles) होते हैं। दूसरे से पाँचवें उदर खण्डों के अधर तल पर एक-एक जोड़ी जेबनुमा (pocket-like) मोम ग्रन्थियाँ (wax glands) होती हैं। इन ग्रन्थियों द्वारा स्रावित मोम को श्रमिक मक्खियाँ अपने मैन्डिबल्स द्वारा खूब चबा-चबाकर इससे नये कोष्ठक बनाती हैं। इन मक्खियों के पाद फूल से पराग (pollens) एकत्रित करने के लिये उपयोजित होते हैं। सभी पादों पर कड़े शूकों के पराग ब्रुश (pollen brushes)” तथा तीसरी जोड़ी के (मेटाथोरैक्सी) पादों पर एक-एक “पराग डलियाँ (pollen baskets) होती हैं। जब ये मक्खियों फूलों का रस चूसने जाती हैं। तो इनके मुखांगों एवं शूकों से अनेक पराग कण चिपक जाते हैं। पराग ब्रुशों द्वारा शरीर के विभिन्न भागों से छुड़ा-छुड़ाकर पराग कणों को पराग डलियों में इकट्ठा किया जाता है।
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अत्यधिक सक्रिय जीवन होने के कारण श्रमिक मक्खियाँ केवल दो से चार महीनों तक ही जीवित रहती हैं। प्रत्येक मक्खी वयस्क बनने के साथ-साथ पहले ही दिन से अथक परिश्रम में जुट जाती है। अत: इनकी कोई बाल्यावस्था नहीं होती। आयु के साथ-साथ इसके कार्य बदलते रहते हैं। तदनुसार प्रत्येक छत्ते की श्रमिक मक्खियों को निम्नलिखित तीन प्रमुख कालवर्गों (age groups) में बाँटा जा सकता है।
1. अपमार्जक या सफाई मक्खियाँ (Scavenger or Sanitary Bees) – वयस्क होते ही पहले तीन दिन प्रत्येक श्रमिक मक्खी रिक्त कोष्ठकों की सफाई करती है।

2. उपचारिका या आया मक्खियाँ (Nurse or House Bees) – चौथे से लगभग पन्द्रहवें दिन तक प्रत्येक श्रमिक मक्खी छत्ते के रख-रखाव एवं शिशुओं के पालन-पोषण से सम्बन्धित विभिन्न कार्य निम्नलिखित क्रम में करती है।

  1. चौथे से छठे दिन तक यह, “उपमाता या धाय (foster mother)” की भाँति, बड़े शिशुओं को मधु एवं पराग का मिश्रण खिलाती है। कभी-कभी यह छत्ते के आस-पास के वातावरण का जायजा लेने हेतु इसके चारों ओर उड़ती है।
  2. सातवें दिन इसकी मैक्सिलरी ग्रन्थियाँ (maxillary glands) सक्रिय हो जाती हैं। इन ग्रंथियों से एक “शाही जैली (royal jelly)’ का स्रावण होने लगता है। अतः अब श्रमिक मक्खी रानी, युवा शिशुओं तथा उन बड़े शिशुओं को जिनका विकास भावी रानियों में होना होता है, शाही जैली खिलाने का काम करने लगती हैं।
  3. लगभग बारहवें दिन की श्रमिक मक्खी में मोम ग्रन्थियाँ सक्रिय हो जाती हैं। अतः अब मक्खी छत्ते की मरम्मत और नये कोष्ठकों के निर्माण का कार्य करने लगती है। मोम ग्रन्थियों से मोम की पपड़ियाँ-सी स्रावित होती हैं। इन्हें मक्खी अपने बिचले (दूसरी जोड़ी के) पादों द्वारा खुरचकर मैन्डिबल्स द्वारा चबाती है और लार में सान-सानकर उपयोग में लाती है। पुराने कोष्ठकों की दीवारों की टूट-फूट एवं दरारों को भरने हेतु ये मक्खियाँ प्रोपोलिस (propolis) नामक एक गोंद-सदृश पदार्थ भी बनाती है। यह पदार्थ भोजन-संग्रहकर्ता मक्खियों द्वारा पौधों से एकत्रित राल (resin) से बनाया जाता है। बारहवें से लगभग पंद्रहवें दिन तक तीन-चार दिन के इस जीवनकाल में श्रमिक मक्खियाँ, छत्ते की मरम्मत एवं पुनर्निर्माण के अतिरिक्त, अन्य निम्नलिखित कर्तव्य (duties) भी साथ-साथ निभाती रहती हैं।

(a) प्रहरी मक्खियाँ (Sentinel Bees) – इस कर्त्तव्य में श्रमिक मक्खियाँ छत्ते के प्रवेश द्वार पर पहरा देती हैं।
(b) सैनिक मक्खियाँ (Soldier Bees) – इस कर्तव्य में ये घुसपैठियों से छत्ते की सुरक्षा करती हैं। यदि किसी दूसरे परिवार अर्थात् दूसरे छत्ते की मधुमक्खी भी आ जाती है तो सैनिक मक्खियाँ इसे डंकों द्वारा मारकर छत्ते से बाहर फेंक देती हैं। इसके अतिरिक्त ये मक्खियाँ भोजन-संग्रहकर्ता मक्खियों द्वारा लाये गये पुष्परस (nectar) की जॉच भी करती हैं।
(c) रानी की अंगरक्षक मक्खियाँ (Retinue of Queen) – इस कर्त्तव्य में लगभग पचास मक्खियाँ हर समय रानी मक्खी को घेरे रहती हैं; इसके शरीर की सफाई और सुरक्षा करती हैं, इसके मल को छत्ते से बाहर निकालती हैं, समय-समय पर इसे शाही जैली खिलाती हैं तथा इसके द्वारा दिये गये अण्डों को पृथक् कोष्ठकों में पहुँचाती हैं।
(d) संवाती मक्खियाँ (Fanning Bees) – इस कर्त्तव्य में ये मक्खियाँ अण्डों एवं नन्हें शिशुओं को गरम रखने तथा पंखों को बार-बार फड़फड़ाकर छत्ते की दूषित वायु को बाहर निकालने का काम करती हैं।

3. भोजन-खोजकर्ता (Scout Bees) एवं भोजन-संग्रहकर्ता मक्खियाँ (Foraging or Field Bees) – लगभग पंद्रह दिन की आयु के बाद, प्रत्येक श्रमिक मक्खी अपने जीवन के सबसे कठिन काम में जुट जाती है। भोजन के नये स्रोत की खोज में, या पहले से ज्ञात स्रोतों से जल, पुष्परस एवं पराग एकत्रित करके लाने हेतु यह बार-बार छत्ते से दूर-दूर उड़कर वापस आती है। इस प्रकार यह पुष्परस के लिये छत्ते एवं स्रोत के बीच प्रतिदिन सात से पंद्रह चक्कर लगाती है। स्पष्ट है कि जल भी मधुमक्खी के लिये बहुत आवश्यक होता है। सामान्यतः एक कॉलोनी में प्रतिदिन एक-दो लीटर जल की आवश्यकता होती है। यदि जल की कमी हो जाये तो श्रमिक मक्खियों एक-दो दिन से अधिक जीवित नहीं रह सकतीं।

कुछ वैज्ञानिकों की धारणा है कि उपरोक्त श्रम विभाजन एवं विविध कर्तव्यों के अतिरिक्त, प्रत्येक छत्ते में तीन-चार सबसे पुरानी या वृद्ध श्रमिक मक्खियों को एक नियन्त्रक (controller) दल या नियन्त्रक परिषद (board of directors) होती है जो अन्य सभी मक्खियों की क्रियाओं को नियन्त्रित रखती है।

प्रश्न 3.
मधुमक्खी पालन से आप क्या समझते हैं? मधुमक्खी के जीवन चक्र का सचित्र वर्णन कीजिए। मधुमक्खी पालन द्वारा बनाये हुए पदार्थों के नाम लिखिए। (2014)
या
भारत में पाई जाने वाली किन्हीं दो प्रजाति की शहद की मक्खियों के जन्तु वैज्ञानिक नाम लिखिए। इनमें से किसी एक की पालन विधि का वर्णन कीजिए। (2014)
या
टिप्पणी लिखिए-शहद (मधु) (2015)
या
“मधुवाटिकाएँ क्या हैं? मधुमक्खी के जीवन चक्र का सचित्र वर्णन कीजिए। इनके द्वारा उत्पादित पदार्थों का आर्थिक महत्त्व बताइए। (2017)
उत्तर
मधुमक्खी पालन मधु (शहद) एवं मोम प्राप्त करने हेतु व्यावसायिक स्तर पर मधुमक्खियों को पालना, मधुमक्खी पालन कहलाता है। इसके लिए बड़े-बड़े मधुमक्खी के फॉर्म स्थापित किये जाते हैं, जिन्हें मधुवाटिकाएँ कहते हैं। इनमें मधुमक्खी पालन वैज्ञानिक विधियों से किया जाता है। भारत में पाई जाने वाली दो प्रजाति की शहद की मक्खियों के नाम इस प्रकार हैं-

  1. एपिस इण्डिका;
  2. एपिस मेलीफेरो।

मधुमक्खी का जीवन चक्र
एक नए छत्ते की सारी मधुमक्खियाँ एक ही रानी मक्खी की सन्तानें होती हैं। रानी मक्खी के अण्डे दो प्रकार के होते हैं।

  1. निषेचित द्विगुणित अण्डे (Fertilized Diploid Eggs) – इनमें गुणसूत्रों की संख्या 32 होती है। इनके भ्रूणीय परिवर्धन से सपुंसक रानी मक्खियाँ या नपुंसक श्रमिक मक्खियाँ बनती हैं। सम्भवतः रानी मक्खी के शरीर से स्रावित एक पदार्थ, ऐल्फा कीटोग्लूटेरिक अम्ल के प्रभाव से श्रमिक मक्खियाँ नपुंसक हो जाती हैं।
  2. अनिषेचित एकगुणित अण्डे (Unfertilized Haploid Eggs) – इनमें गुणसूत्रों की संख्या 16 होती है। इनके भ्रूणीय परिवर्धन से नर मक्खियाँ अर्थात् ड्रोन्स (drones) बनते हैं।

छत्ते में तीन प्रकार की मक्खियों के विकास हेतु भिन्न प्रकार के कोष्ठक होते हैं-श्रमिकों के लिए छोटे षट्भुजीय, ड्रोन्स के लिए मध्यम माप के षट्भुजीय तथा रानियों के लिए बड़े त्रिभुजाकार से। भ्रूणीय परिवर्धन का समय भी तीनों प्रकार की मक्खियों के लिए भिन्न होता है-श्रमिक के लिए 21, ड्रोन के लिए 14 तथा रानी के लिए 16 दिन। प्रत्येक अण्डे से लगभग तीन दिन बाद एक छोटा-सा, सुंडी जैसा शिशु या लार्वा निकलता है जिसे ग्रब कहते हैं। दो दिन तक प्रत्येक लार्वा को आया मक्खियाँ शाही जैली खिलाती हैं। इसके बाद, रानियों की लार्वी का पोषण तो शाही जैली से ही किया जाता है, परन्तु ड्रोन्स एवं श्रमिक मक्खियों की लार्वी को केवल मधु एवं पराग दिया जाता है।

सक्रिय पोषण के फलस्वरूप, प्रत्येक लार्वा में तीव्र वृद्धि होती है। इस वृद्धिकाल में लार्वा में पाँच बार त्वपतन (moulting or ecdysis) होता है। पाँचवें त्वक्पतन के बाद, प्रत्येक लार्वा के कोष्ठक को श्रमिक मक्खियाँ मोम की एक टोपी से बन्द कर देती हैं। अपने बन्द कोष्ठक में प्रत्येक लार्वा अपने चारों ओर रेशमी धागे का एक कोकून (cocoon) बना लेता है और कोकून के भीतर, कायान्तरण द्वारा, प्यूपा (pupa) में बदल जाता है। कायान्तरण द्वारा प्रत्येक प्यूपा शीघ्र ही एक युवा मक्खी (imago) में बदल जाता है जो अपने मैन्डीबल्स की सहायता से कोकून तथा मोम की टोपी को काटकर बाहर निकल आती है।
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मधुमक्खी पालन द्वारा बनाए गए पदार्थ
मधुमक्खी पालन द्वारा निम्नलिखित पदार्थ बनाए जाते हैं।
1. मधू (Honey) – मधुमक्खियों के छत्तों से हमें प्रतिवर्ष लाखों किलोग्राम मधु और मोम मिलता है। एक 150 ग्राम भार के छत्ते में मधु के भण्डारण हेतु लगभग 9100 मोम के कोष्ठक होते हैं। जिनमें चार किलोग्राम तक मधु भरा हो सकता है। तद्नुसार एक बड़े छत्ते से एक ऋतु में 150 किलोग्राम तक मधु मिल जाता है। एक किलोग्राम मधु बनाने के लिए एक भोजन-संग्रहकर्ता मक्खी को एक से डेढ़ लाख बार पुष्परस लाना पड़ता है। यदि फूल छत्ते से औसतन 1500 मीटर दूर हों, अर्थात् एक बार पुष्परस लाने हेतु भोजन-संग्रहकर्ता को तीन किलोमीटर उड़ना पड़े तो एक किलोग्राम मधु बनाने के लिए इसे 3,60,000 से 4,50,000 किलोमीटर, अर्थात् पृथ्वी के चारों ओर 8 से 11 बार चक्कर लगाने के बराबर उड़ना पड़ेगा।

मधु मनुष्य के लिए एक प्राकृतिक शक्तिवर्धक (tonic) एवं रोगाणुरोधक (antiseptic), अम्लीय पदार्थ होता है। इसमें औषधीय महत्त्व के लगभग 80 प्रकार के पदार्थ होते हैं। प्रमुख पदार्थ होते हैं ग्लूकोस एवं फ्रक्टोस (glucose and fructose), शर्कराएँ, डायस्टेज, इन्वर्टेज, कैटेलेज, परऑक्सीडेज, लाइपेज (diastase, invertase, catalase, peroxidase, lipase) आदि एन्जाइम, कई लाभदायक लवण, कार्बनिक अम्ल (मैलिक, सिट्रिक, टार्टरिक, ऑक्जेलिक-malic, citric, tartaric, Oxalic acid) तथा विटामिन (vitamins)। मधु को घाव पर लगा देने से घाव में रोगाणुओं का संक्रमण (infection) नहीं होता और घाव के शीघ्र ठीक होने में सहायता मिलती है। अतः फोड़ा-फुन्सी, नासूर आदि के इलाज में इसका उपयोग होता है। आँखों की सफाई के लिए इसका काजल की भाँति उपयोग करते हैं। अनेक आयुर्वेदिक दवाइयाँ मधु के साथ खाई जाती हैं। प्राचीनकाल में मृत मानव शरीर को परिरक्षित रखने हेतु इसे शहद में रखा जाता था।

2. मधुमक्खी का मोम (Beeswax) – मधुमक्खी का पूरा छत्ता मोम का बना होता है। मोम प्रायः सफेद, कभी-कभी हल्का पीला-सा होता है। विविध प्रकार के सौन्दर्य प्रसाधनों (cosmetics) को तैयार करने में आधार पदार्थ (base material) के रूप में इसका व्यापक उपयोग होता है। कई प्रकार के औषधीय मरहम एवं तेल भी इससे बनाए जाते हैं। मूर्तियाँ और मॉडल, पेन्ट (paints), जूतों की पॉलिश, संगमरमर को जोड़ने वाला सरेस (glue), काँच पर लिखने वाली पेन्सिलों आदि को बनाने में भी इसका उपयोग होता है।

3. मधुमक्खी का विष (Bee Venom or Apitoxin) – यह एक तेज अम्ल (acid) होता है जिसमें महत्त्वपूर्ण प्रतिजैविक औषधि (antibiotic drug) के गुण होते हैं। रुधिर में पहुँचने पर यह विष शरीर के सुरक्षा तन्त्र (immunity) को सुदृढ़ बनाता है। अतः अन्य विषैले जन्तुओं के दंश, रुधिरक्षीणता (anaemia), गठिया (rheumatism) आदि कई रोगों, तन्त्रिका तन्त्र की गड़बड़ियों, कई प्रकार के नेत्र एवं चर्म रोगों, उच्च रुधिरचाप आदि के उपचार में इस विष का प्रयोग किया जाता है।

मधुमक्खी के छत्ते के सीमेन्ट पदार्थ (propolis) तथा पराग का भी औषधीय उपयोग किया जाता रहा है। स्वयं मधुमक्खी के शरीर से बनाई गई एक औषधि डिफ्थीरिया (diphtheria) रोग के उपचार के लिए काम में लाई जाती है।

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