UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Organs of Government: Legislature, Executive and Judiciary

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 5
Chapter Name Organs of Government: Legislature, Executive and Judiciary
(सरकार के अंग-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका)
Number of Questions Solved 71
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Organs of Government: Legislature, Executive and Judiciary (सरकार के अंग-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
सरकार के प्रमुख अंग कौन-कौन से हैं? लोकतन्त्र में व्यवस्थापिका का क्या महत्त्व है? इसके कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
व्यवस्थापिका के कार्यों का वर्णन कीजिए तथा इसका कार्यपालिका से सम्बन्ध बताइए। [2012]
या
व्यवस्थापिका के मुख्य कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2010, 14]
या
व्यवस्थापिका के कार्यों की व्याख्या कीजिए। वर्तमान युग में व्यवस्थापिका के ह्रास के क्या कारण हैं? [2014, 16]
या
व्यवस्थापिका के आधारभूत कार्यों का वर्णन कीजिए और संसदात्मक प्रणाली में इसकी विशिष्ट भूमिका पर भी प्रकाश डालिए। [2007, 14]
या
व्यवस्थापिका का अर्थ तथा उसके कार्य बताइए। व्यवस्थापिका की महत्ता पर भी प्रकाश डालिए।
या
व्यवस्थापिका के संगठन पर प्रकाश डालिए तथा इसके कार्यों का वर्णन कीजिए। [2010]
या
व्यवस्थापिका के कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए और वर्तमान समय में व्यवस्थापिका की शक्तियों में हास के कारण बताइए। [2016]
उत्तर
सरकार के प्रमुख अंग।
सभी व्यक्तियों द्वारा सरकार को एक से अधिक अंगों में विभाजित करने की आवश्यकता अनुभव की गयी है। कुछ व्यक्तियों द्वारा सरकार को व्यवस्थापन तथा शासन विभाग इन दो अंगों में विभाजित किया गया है। कुछ व्यक्तियों द्वारा सरकार को 5 या 6 अंगों में विभाजित करने का प्रयत्न किया गया है, परन्तु सामान्य धारणा यही है कि प्रमुख रूप से सरकार के निम्नलिखित तीन अंग होते हैं-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। व्यवस्थापिका कानून बनाने और राज्य की नीति को निश्चित करने का कार्य करती है, कार्यपालिका इन कानूनों को कार्यरूप में परिणतं कर शासन का संचालन करती है और न्यायपालिका व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों के आधार पर न्याय प्रदान करने और संविधान की व्याख्या व रक्षा करने का कार्य करती है।

व्यवस्थापिका का अर्थ
व्यवस्थापिका सरकार का वह अंग है, जो राज्य प्रबन्ध चलाने के लिए कानूनों का निर्माण करता है, पुराने कानूनों का संशोधन करता है तथा आवश्यकता पड़ने पर उन्हें रद्द भी कर सकता है। व्यवस्थापिका को सरकार के अन्य अंगों से श्रेष्ठ माना जाता है; क्योंकि लोकतन्त्रीय राज्यों में व्यवस्थापिका लोगों की एक प्रतिनिधि सभा होती है। लॉस्की के शब्दों में, “कार्यपालिका एवं न्यायपालिका की शक्तियों की सीमा व्यवस्थापिका द्वारा बतायी गयी इच्छा होती है।”

व्यवस्थापिका का संगठन
कानून-निर्माण और सरकार की नीति-निर्धारण का कार्य व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है। व्यवस्थापिका का संगठन दो रूपों में किया जा सकता है। व्यवस्थापिका या तो एक सदन हो सकता है अथवा दो सदन। जिस व्यवस्थापिका में एक सदन होता है, उसे एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका और जिसमें दो सदन होते हैं, उसे द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका कहा जाता है। द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में प्रथम सदन को निम्न सदन (Lower House) और द्वितीय सदन को उच्च सदन (Upper House) कहा जाता है। प्रथम सदन की शक्ति पर अंकुश रखने तथा उसके द्वारा किये। गये कार्यों पर पुनर्विचार करने के लिए ही द्वितीय सदन की आवश्यकता अनुभव की गयी।

आधुनिक काल में अधिकांश देशों में द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका प्रणाली को ही अपनाया गया है। भारत, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में व्यवस्थापिका में दो सदन ही पाये जाते हैं, जबकि पुर्तगाल, ग्रीस, चीन, तुर्की आदि देशों में व्यवस्थापिका में केवल एक सदन है।

व्यवस्थापिका के कार्य
वर्तमान समय में लोकतन्त्रीय राज्यों में व्यवस्थापिका द्वारा निम्नलिखित प्रमुख कार्य सम्पादित किये जाते हैं।

  1. कानून-निर्माण सम्बन्धी कार्य – विधायिका का महत्त्वपूर्ण कार्य विधि-निर्माण करना है। व्यवस्थापिका कानून का प्रारूप तैयार करती है, उस पर वाद-विवाद कराती है, प्रारूप में संशोधन कराती है तथा कानून को अन्तिम रूप देती है।
  2. विमर्शात्मक कार्य एवं जनमत-निर्माण – व्यवस्थापिका के सदनों में जन-कल्याण से सम्बन्धित विभिन्न नीतियों और योजनाओं पर विचार-विमर्श होता है। व्यवस्थापिका राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार-विमर्श और वांछित सूचनाएँ प्रस्तुत कर जनमत का निर्माण करती है।
  3. वित्त सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका का एक महत्त्वपूर्ण कार्य राष्ट्र की वित्त-व्यवस्था पर नियन्त्रण रखना भी है। प्रजातान्त्रिक देशों में व्यवस्थापिका प्रत्येक वित्तीय वर्ष के आरम्भ में . उस वर्ष के अनुमानित बजट को स्वीकृत करती है। इसकी स्वीकृति के बिना नये कर लगाने तथा आय-व्यय से सम्बन्धित कार्य नहीं किये जा सकते हैं।
  4. न्याय सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका क्रो न्याय-क्षेत्र में भी कुछ कार्य करने पड़ते हैं। भारत ; की संसद को उच्च कार्यपालिका के पदाधिकारियों पर महाभियोग लगाने और उनके निर्णय का अधिकार प्राप्त है। इसी प्रकार उसे सदन की मानहानि की स्थिति में सदन को निर्णय देने एवं दोषी व्यक्ति को दण्ड देने का अधिकार प्राप्त है।
  5. कार्यपालिका पर नियन्त्रण – प्रत्यक्ष रूप से व्यवस्थापिका प्रशासन में भाग नहीं लेती, लेकिन प्रशासन पर उसका नियन्त्रण निश्चित रूप से होता है। संसदात्मक शासन-प्रणाली में विधायिका प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछकर, अविश्वास, निन्दा, स्थगन तथा कटौती के प्रस्ताव रखकर, मन्त्रियों द्वारा प्रस्तुत किये गये विधेयकों तथा अन्य प्रस्तावों को अस्वीकार करने आदि के माध्यम से कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखती है। अध्यक्षात्मक शासन में व्यवस्थापिका कार्यपालिका पर अप्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रण रखती है।
  6. निर्वाचन सम्बन्धी कार्य – अनेक देशों में व्यवस्थापिका को कुछ निर्वाचन सम्बन्धी कार्य भी करने पड़ते हैं। भारत में संसद के दोनों सदन उपराष्ट्रपति का निर्वाचन करते हैं। स्विट्जरलैण्ड में व्यवस्थापिका मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों, न्यायाधीशों तथा प्रधान सेनापति का निर्वाचन करती है।
  7. नियुक्ति सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका समय-समय पर किन्हीं विशेष कार्यों की जाँच करने के लिए आयोगों और समितियों की नियुक्ति का कार्य भी करती है। इसके अलावा व्यवस्थापिका द्वारा इंग्लैण्ड, अमेरिका, भारत आदि देशों में कार्यरत सरकारी निगमों के कार्यों और क्रियाकलापों पर भी पूर्ण नियन्त्रण रखा जाता है।

इस प्रकार, व्यवस्थापिका शासन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। वह विधि-निर्माण के अतिरिक्त प्रशासन, न्याय, वित्त, संविधान, निर्वाचन आदि क्षेत्रों में अनेक कार्य करती है।

व्यवस्थापिका की महत्ता
सरकार के तीनों ही अंगों द्वारा महत्त्वपूर्ण कार्य किये जाते हैं, लेकिन इन तीनों में व्यवस्थापन विभाग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। व्यवस्थापन विभाग ही उन कानूनों का निर्माण करता है जिनके आधार पर कार्यपालिका शासन करती है और न्यायपालिका न्याय प्रदान करने का कार्य करती है। इस प्रकार व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्य के लिए आवश्यक आधार प्रदान करती है। व्यवस्थापन विभाग केवल कानूनों का ही निर्माण नहीं करता, वरन् प्रशासन की नीति भी निश्चित करता है और संसदात्मक शासन-व्यवस्था में तो कार्यपालिका पर प्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रण भी रखता है। संविधान में संशोधन का कार्य भी व्यवस्थापिका के द्वारा ही किया जाता है।
अत: यह कहा जा सकता है कि व्यवस्थापन विभाग सरकार के दूसरे अंगों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण स्थिति रखता है।

शक्ति में हास के कारण
विधायिका के महत्त्व में कमी और इसकी शक्तियों के पतन के लिए कई कारण उत्तरदायी रहे हैं। संक्षेप में विधायिका के पतन के निम्नलिखित कारण हैं।

1. कार्यपालिका की शक्तियों में असीम वृद्धि – पूर्व की तुलना में विभिन्न कारणों से कार्यपालिका का अधिक महत्त्वपूर्ण होना स्वाभाविक है। अनेक विद्वान यह मानते हैं कि इसकी शक्तियों में वृद्धि का विपरीत प्रभाव विधायिका पर पड़ता है। इसीलिए विगत शताब्दी में अनेक राष्ट्रों में विधायिका की संस्था और कमजोर हुई है।

2. प्रतिनिधायन के०सी० ह्वीयर – के मतानुसार प्रतिनिधायन द्वारा कार्यपालिका ने विधायिका की कीमत पर अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया है। इस सिद्धान्त के फलस्वरूप कार्यपालिका को विधि-निर्माण का अधिकार प्राप्त हो गया। व्यवहार में विभिन्न कारणों से विधायिका ने स्वतः कार्यपालिका को यह शक्ति प्रदान की। अतः विधि-निर्माण का जो मुख्य कार्यं विधायिका के कार्य-क्षेत्र के अन्तर्गत था। वह भी प्रतिनिधायन के कारण उसके क्षेत्राधिकार से निकलता चला गया।

3. संचार साधनों की भूमिका – रेडियो और टेलीविजन विज्ञान के ऐसे चमत्कार हैं, जिन्होंने कार्यपालिका के प्रधान को जनता के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध जोड़ा। संचार साधनों के ऐसे. विकास से कार्यपालिका के प्रधान द्वारा विधायिका को नजरअन्दाज कर सीधा जनसम्पर्क स्थापित किया। जाने लगा जिसका प्रतिकूल प्रभाव विधायिका की शक्तियों पर पड़ता गया।

4. दबाव गुटों और हितसमूहों का विकास – बीसवीं शताब्दी में विधायिका के सदस्यों का एक मुख्य कार्य जन-शिकायतों को सरकार तक पहुँचाना रहा, लेकिन दबाव गुटों और हितसमूहों के विकास के कारण उसकी इस भूमिका में भी कमी आई। पिछली शताब्दी में नागरिक संगठित हितसमूहों का सदस्य होता गया। परिणामस्वरूप विधायिका की अनदेखी कर कार्यपालिका से वह सीधा सम्पर्क जोड़ लेता था और अपनी माँगों को मनवाने के सन्दर्भ में सफलता प्राप्त करता था। अतः विधायिका पृष्ठभूमि में चली गई और निर्णय-प्रक्रिया में कार्यपालिका ही मुख्य भूमिका अदा करती रही।

5. परामर्शदात्री समितियों और विशेषज्ञ समितियों का विकास – प्रत्येक मन्त्रालय और विभाग में सलाहकार समितियाँ गठित होने लगी हैं तथा विशेषज्ञों के संगठन बनाए जाने लगे हैं। विधेयकों का प्रारूप तैयार करने में इनसे सलाह ली जाती है। सदन में जब विचार-विमर्श होता है और सदस्यों द्वारा संशोधन प्रस्तुत किए जाते हैं, तब यह कहकर उन्हें चुप कर दिया जाता है कि इस पर विशेषज्ञों की सलाह ली जा चुकी है। फलस्वरूप विधायिका के समक्ष ऐसे प्रस्तावों को स्वीकृत करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं रह जाता है।

6. युद्ध और संकट की स्थिति – प्रायः सभी लोकतान्त्रिक देशों में राज्याध्यक्ष ही सेना का प्रधान होता है, सैनिक मामलों में विधायिका कुछ भी नहीं कर सकती। अतः युद्ध या अन्य संकटकाल के समय विधायिका नहीं अपितु कार्यपालिका सर्वेसर्वा बन जाती है, ऐसी कठिन परिस्थितियों में तुरन्त निर्णय लेने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए सन् 1971 के युद्ध में भारत की तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने स्वतन्त्र रूप से युद्ध-नीति का संचालन किया था। अमेरिका में भी राष्ट्रपति निक्सन ने वियतनाम युद्ध के दौरान कई बार कांग्रेस की अवहेलना की थी। फॉकलैण्ड युद्ध में भी ब्रिटिश प्रधानमन्त्री श्रीमती मार्ग रेट थैचर ने देश का नेतृत्व स्वयं किया था। अतः युद्ध या संकट के समय कार्यपालिको ऐसी स्थिति ला देती है, जिसमें विधायिका के समक्ष उसे स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं रह जाता है। यह प्रक्रिया बीसवीं शताब्दी में प्रारम्भ हुई।

7. संकट व तनाव की अवस्था का युग – रॉबर्ट सी० बोन ने 20वीं शताब्दी को ”चिन्ता का युग” कहा है। उक्त शसाब्दी में विभिन्न देशों में किसी-न-किसी कारण से प्रायः ही संकट के बादल मंडराते रहे, जो न केवल सरकारों को बल्कि नागरिकों को भी तनाव की स्थिति में ला देते थे। संचार-साधनों के विकास के कारण विश्व की घटनाओं का समाचार निरन्तर रेडियो तथा टेलीविजन द्वारा मिलना सामान्य बात थी। ऐसी स्थिति में कार्यपालिका ही उनकी आशा का केन्द्र बनी। यही कारण है कि चिन्ता के उस युग में विधायिका लोगों को आश्वस्त करने की भूमिका नहीं निभा सकी। यह कार्य कार्यपालिका का हो गया। आज कार्यपालिका सर्वशक्तिमान बनने की दिशा में बढ़ रही है।

प्रश्न 2.
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण एवं दोषों (पक्ष एवं विपक्ष) का वर्णन कीजिए। [2007, 10, 12]
या
व्यवस्थापिका के द्वितीय सदन की उपयोगिता पर एक निबन्ध लिखिए। [2016]
उत्तर
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण/उपयोगिता (पक्ष में तर्क)
द्वि-सदनात्मक या द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका के पक्ष में जो तर्क दिये जाते हैं, वे निम्नलिखित हैं-

1. उतावलेपन से उत्पन्न भूलों पर पुनर्विचार – द्वितीय सदन का प्रमुख कार्य प्रथम सदन के उतावलेपन से उत्पन्न भूलों पर विचार करना है। प्रथम सदन में नवयुवक तथा जोशीले सदस्यों की प्रधानता रहती है। वे आवेश में आकर ऐसे कानूनों का निर्माण कर डालते हैं जो जनहित में नहीं होते। द्वितीय सदन में, जिसमें अधिकांश अनुभवी तथा गम्भीर व्यक्ति होते हैं, प्रथम सदन द्वारा पारित कानूनों का पुनरावलोकन करके उत्पन्न भूलों को दूर कर देते हैं। ब्लंटशली ने ठीक ही लिखा है कि “दो आँखों की अपेक्षा चार आँखें सदा अच्छा देखती हैं, विशेषतया जब किसी विषय पर विभिन्न दृष्टिकोणों पर विचार करना आवश्यक हो।’ लॉस्की के अनुसार, “नियन्त्रण संशोधन तथा रुकावट डालने में जो काम द्वितीय सदन करता है, उससे उसकी आवश्यकता स्वयं सिद्ध है।”

2. प्रथम सदन की निरंकुशता पर रोक – एक-सदनात्मक व्यवस्था में उसके निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी हो जाने की पूरी सम्भावना रहती है, किन्तु द्वि-सदनात्मक व्यवस्था में इस प्रकार की सम्भावना का अन्त हो जाता है। ब्राइस का कहना है, “दो सदनों की आवश्यकता इस विश्वास पर आधारित है कि एक सदन की स्वाभाविक प्रवृत्ति घृणापूर्ण, अत्याचारी तथा भ्रष्ट बन जाने की ओर होती है, जिसे रोकने के लिए एकसमान सत्ताधारी द्वितीय सदन का अस्तित्व आवश्यक है।” इस प्रकार द्वितीय सदन की विद्यमान स्वतन्त्रता की गारण्टी व कुछ सीमा तक अत्याचार से सुरक्षा भी है।

3. स्वतन्त्रता की रक्षा का उत्तम साधन – लॉर्ड एक्टन का कहना है कि “स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए द्वितीय सदन अत्यन्त आवश्यक है। यह नीतियों में सन्तुलन स्थापित करता है तथा अल्पसंख्यकों की रक्षा और प्रथम सदन के दोषों को दूर करता है।’

4. प्रथम सदन के कार्य – भार में कमी–द्वितीय सदन विवादास्पद कार्यों को अपने हाथ में लेकर प्रथम सदन की कार्य-भार हल्का कर देता है और उसे अधिक सुचारु रूप से कार्य करने का अवसर प्रदान करता है। आधुनिक प्रगतिशील देशों में एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका अपने उत्तरदायित्व को पूर्ण रूप से निभाने में असमर्थ होती है; अत: द्वितीय सदन की आवश्यकता है।

5. कार्यपालिका की स्वतन्त्रता में वृद्धि – द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में दोनों सदन एकदूसरे पर नियन्त्रण रखते हैं। फलतः कार्यपालिका व्यवस्थापिका की कठपुतली होने से बच जाती है और उसे कार्य करने में काफी स्वतन्त्रता मिल जाती है। गैटिल ने ठीक ही कहा है। कि दोनों सदन एक-दूसरे पर रुकावट का कार्य करके कार्यपालिका को अधिक स्वतन्त्रता देते हैं और अन्त में इससे दोनों विभागों के सर्वोत्कृष्ट हितों की अभिवृद्धि होती है।”

6. अल्पसंख्यकों और विशिष्ट हितों को प्रतिनिधित्व – व्यवस्थापिका में द्वितीय सदन के होने से अल्पसंख्यकों और विशिष्ट हितों को भी समुचित प्रतिनिधित्व मिल जाता है।

7. संघीय राज्यों के लिए विशेष उपयोगी – संघीय व्यवस्था में द्वितीय सदन विशेष रूप से उपयोगी होता है। प्रथम सदन साधारण नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है, जब कि द्वितीय सदन संघ राज्यों की इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। अनेक संघीय राज्यों के द्वितीय सदन में संघ की इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाता है।

8. सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति – प्रायः योग्य और अनुभवी व्यक्ति दलबन्दी और निर्वाचन से दूर रहते हैं और वे प्रथम सदन के निर्वाचन में भाग नहीं लेते हैं। ऐसे व्यक्तियों को द्वितीय सदन में मनोनीत कर दिया जाता है। इस प्रकार देश को सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति हो जाती है।

9. नीति में स्थायित्व – द्वितीय सदन के सदस्य प्रथम सदन के सदस्यों से अधिक योग्य होते हैं, साथ ही उनकी संख्या भी कम होती है। यह एक स्थायी सदन होता है। इसके निर्णयों में विचारशीलता और गम्भीरता रहती है। इसका परिणाम यह होता है कि द्वितीय सदन की नीतियों में अधिक स्थायित्व आ जाता है।

10. प्रथम सदन का सहयोगी – द्वितीय सदन प्रथम सदन का सहयोगी होता है। इस सम्बन्ध में हेनरीमैन ने लिखा है कि ‘‘बिल्कुल न होने से किसी भी सरकार का द्वितीय सदन अच्छा है, क्योंकि एक व्यवस्थित द्वितीय सदन प्रथम का शत्रु नहीं, बल्कि उसकी सुरक्षा के लिए आवश्यक अंग है।” द्वि-सदनात्मक प्रणाली में दोनों सदन एक-दूसरे के सहयोगी होते हैं।

11. जनमत जानने का अच्छा साधन – जब कोई विधेयक प्रथम सदन से पारित होकर दूसरे सदन में विचारार्थ भेजा जाता है, तब जनता को इस बीच के समय में उसे पर अपना विचार व्यक्त करने का अवसर प्राप्त होता है, क्योंकि वहाँ पर विधेयक पर विचार करने में कुछ समय अवश्य लग जाता है। इस सम्बन्ध में लॉर्ड ब्राइस ने लिखा है कि “द्वितीय सदन का मुख्य कार्य केवल इतना विलम्ब करना होना चाहिए जिससे जनता को निम्न सदन द्वारा प्रस्तुत ऐसे विधेयकों पर अपना मत व्यक्त करने का अवसर मिल सके जिनके सम्बन्ध में शासन के पास पहले से जनता का कोई आदेश नहीं है।”

द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के दोष (विपक्ष में तर्क)
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं-

1. रूढ़िवादिता – द्वितीय सदन रूढ़िवादी होता है, क्योंकि उसके अधिकांश सदस्य धनी एवं अनुदार प्रवृत्ति के होते हैं। इसलिए वे प्रगतिशील एवं सुधारात्मक विधेयकों के पारित होने में बाधक सिद्ध होते हैं। इस सम्बन्ध में लॉस्की ने लिखा है कि “अत्यन्त उपयोगी सुधारों में द्वितीय सदन को विलम्ब लगाने की शक्ति देना सम्भवत: कालान्तर में विनाश को जन्म देना है और जन-क्रान्ति का मार्ग निर्मित करना है।”

2. अनावश्यक या हानिकारक – प्रसिद्ध फ्रांसीसी विचारक ऐबेसेयीज का कहना है कि “कानून जनता की इच्छा है। जनता की एक ही समय में तथा एक ही विषय पर दो विभिन्न इच्छाएँ नहीं हो सकतीं। अतएव जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली परिषद् आवश्यक रूप से एक ही होनी चाहिए। जहाँ कहीं दो सदन होंगे, मतभेद तथा विरोध अवश्यम्भावी होंगे तथा जनता की इच्छा अकर्मण्यता का शिकार बन जाएगी।” वह पुनः कहता है कि यदि द्वितीय सदन का प्रथम सदन से मतभेद हो तो यह उसकी शैतानी है और यदि वह उससे सहमत है। तो उसका अस्तित्व अनावश्यक है। चूंकि वह या तो सहमत होगा या असहमत; अतएव उसका अस्तित्व किसी दिशा में भी लाभदायक नहीं है।

3. उत्तरदायित्व का अभाव – आलोचकों का कहना है कि द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में प्रथम सदन अपने उत्तरदायित्व के प्रति उदासीन हो जाता है।

4. संगठन की कठिनाई – द्वितीय सदन के संगठन के सम्बन्ध में कोई आदर्श प्रणाली नहीं है। यदि द्वितीय सदन सामान्य मताधिकार के आधार पर निर्वाचित है तो वह निम्न सदन की पुनरावृत्ति मात्र रह जाता है और यदि उसका निर्वाचन उच्च सम्पत्तिगत योग्यता के आधार पर हुआ है तो वह रूढ़िवादी तथा प्रतिक्रियावादी होगा। यदि द्वितीय सदन वंशानुगत है तो वह निम्न सदन के हितों एवं उनकी आकांक्षाओं का विरोधी होगा। यदि वह अंशतः निर्वाचित तथा अंशतः मनोनीत है तो स्वयं अपने विपरीत विभाजित होने के कारण किसी भी रचनात्मक कार्य के लिए उपयुक्त नहीं होगा और यदि वह कार्यपालिका अथवा निम्न सदन द्वारा नियुक्त है तो नियुक्त करने वाली सत्ता के अतिरिक्त यह और किसी का प्रतिनिधित्व नहीं करेगा।

5. धन का अपव्यय – द्वि-सदनात्मक प्रणाली में धन के अपव्यय में अधिक वृद्धि हो जाती है। तथा इससे अनावश्यक विलम्ब भी होता है, क्योंकि दूसरे सदन में विचारार्थ कोई विधेयक भेजना केवल देरी करना ही है। फिर इस अपव्यय का भार जनता को अतिरिक्त करों के रूप में वहन करना पड़ता है। यह धन द्वितीय सदन की अपेक्षा जनहित के कार्यों में उचित रूप से लगाया जा सकता है।

6. प्रजातन्त्रीय प्रणाली का विरोध – आयंगर का कहना है कि “यद्यपि द्वि-सदनात्मक शासन प्रणाली जनतन्त्र के अन्दर एक प्राचीन परम्परा है, किन्तु यह प्रणाली जनतन्त्र पर विश्वास करने में हिचकिचाती है और अल्पसंख्यकों को ही सन्तुष्ट करने का प्रयास करती है। कभी-कभी द्वितीय सदन हारे हुए नेताओं का सुरक्षित भण्डार सिद्ध हो सकता है।

7. भूल-सुधार का महत्त्वहीन दावा – यह कहना कि प्रथम सदन आवेश में आकर जनहित विरोधी कानूनों का निर्माण कर सकता है, उचित नहीं है; क्योंकि प्रथम सदन प्रत्येक विधेयक पर तीन बार विचार करता है। इस प्रकार उसमें किसी प्रकार की भूल रह जाने की बहुत कम सम्भावना रह जाती है। द्वितीय सदन में केवल विधेयक पर प्रथम सदन के तर्क-वितर्क ही दोहराये जाते हैं। इसी प्रकार के विचार व्यक्त करते हुए लॉस्की ने लिखा है, “आधुनिक युग में व्यवस्थापन एकाएक कानून की पुस्तक पर नहीं आ जाता, प्रायः प्रत्येक विधेयक विचार एवं विश्लेषण की एक लम्बी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप कानून बना है। अतः जल्दबाजी के व्यवस्थापन को रोकने की दृष्टि से दूसरे सदन को महत्त्व राजनीति की वर्तमान दशा में अत्यन्त कम हो गया है।’

8. संघर्ष तथा मतभेद की सम्भावना – जहाँ द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका होती है वहाँ संघर्ष तथा मतभेद की सम्भावना बनी रहती है। इससे शासन-व्यवस्था में शिथिलता उत्पन्न हो जाती है। फ्रेंकलिन के शब्दों में, “द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका एक ऐसी गाड़ी के समान है जिसके दोनों सिरों पर एक-एक घोड़ा हो और वे दोनों घोड़ा-गाड़ी को अपनी-अपनी ओर खींच रहे हों ।”

9. अल्पमतों को प्रतिनिधित्व देने हेतु अन्य सन्तोषजनक प्रबन्ध सम्भव – द्वितीय सदन के आलोचकों का मत है कि अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए दूसरे सदन की व्यवस्था आवश्यक नहीं है। अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए संविधान में दूसरे उपाय किये जा सकते हैं, जिस तरह भारतीय संविधान में आंग्ल-भारतीय समुदाय, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित किये गये हैं।

10. संघीय व्यवस्था के लिए अनावश्यक – दलबन्दी के उदय हो जाने के बाद संघीय शासन व्यवस्था में द्वितीय सदन का होना आवश्यक नहीं रह गया है, क्योंकि द्वितीय सदन के प्रतिनिधि राज्यों के हितों और आवश्यकताओं को दृष्टि में न रखकर अपने दलों के स्वार्थों का ही ध्यान रखते हैं। इस प्रकार वे राज्यों के प्रतिनिधि न बनकर वास्तविक रूप में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि बनकर रह जाते हैं। इस सम्बन्ध में रॉबर्टसन ने लिखा है, “संघ राज्यों की विशेष परिस्थितियों को छोड़कर द्वितीय सदन के पक्ष में कोई मान्य सैद्धान्तिक तर्क नहीं है और उसके | विरुद्ध उठाये गये सैद्धान्तिक तक का अभी समुचित उत्तर नहीं दिया गया है।”

उपर्युक्त तक में सत्य का अंश है, फिर भी अधिकांश देशों में द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका की स्थापना की गयी है। शायद इसका कारण यह है कि उच्च सदन के निर्माण से बहुत-सी समस्याओं का समाधान हो जाता है। इसमें सन्देह नहीं कि द्वितीय सदन पूर्ण जागरूकता के साथ प्रथम सदन द्वारा पारित किये गये विधेयकों पर पुनर्विचार करे तो लोकप्रिय सदन की जल्दबाजी और मनमानी पर उपयोगी एवं आवश्यक प्रतिबन्ध लग सकता है. इसके अतिरिक्त विभिन्न वर्गों को प्रतिनिधित्व दिये जाने पर कानून-निर्माण का कार्य अधिक पूर्णता के साथ किये जाने की आशा की जा सकती है। रैम्जे म्योर के अनुसार, “द्वितीय सदन का महत्त्वपूर्ण उपयोग यह है कि उसमें राष्ट्रीय नीति के सामान्य प्रश्नों पर ठण्डे वातावरण में शान्ति के साथ विचार होता है जैसा कि निम्न सदन में असम्भव है। किन्तु यह आवश्यक है कि द्वितीय सदन की रचना में कुछ सुधार हो। जे०एस० मिल के शब्दों में, “यदि एक सदन जनता की सभा हो तो दूसरा सदन राजनीतिज्ञों की सभा हो।’

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प्रश्न 3.
व्यवस्थापिका कार्यपालिका पर किस प्रकार नियन्त्रण रखती है? विवेचना कीजिए।
या
संसदीय व्यवस्था में कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका के मध्य उचित सम्बन्धों की विवेचना कीजिए। [2007]
या
संसदीय शासन-प्रणाली में व्यवस्थापिका किस प्रकार कार्यपालिका को नियन्त्रित करती है? [2007, 13]
उत्तर
सरकार के तीनों अंगों में व्यवस्थापिका का स्थान महत्त्वपूर्ण समझा जाता है, क्योंकि व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों के आधार पर ही कार्यपालिका शासन करती है तथा न्यायपालिका न्याय प्रदान करती है। इस प्रकार व्यवस्थापिका शासन का मूलाधार है। इसके अतिरिक्त व्यवस्थापिका जनता द्वारा निर्वाचित संस्था है, यह जन-आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। इस कारण भी लोकतन्त्र में इसका बहुत अधिक महत्त्व होना नितान्त स्वाभाविक है।
कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका के सम्बन्ध की प्रकृति ही शासन की दो प्रमुख प्रणालियोंसंसदात्मक (Parliamentary) प्रणाली और अध्यक्षात्मक (Presidential) प्रणाली में भेद स्थापित करती है। संसदात्मक प्रणाली में कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका के मध्य सम्बन्ध बहुत घनिष्ठ होता है।

कार्यपालिका को व्यवस्थापिका की एक समिति कहा जा सकता है। अध्यक्षात्मक शासन-प्रणाली में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका सिद्धान्त रूप में सर्वथा एक-दूसरे से अलग होते हैं, परन्तु शासने की आवश्यकताएँ इन्हें पूर्णरूपेण पृथकू नहीं रहने देती हैं। इस प्रकार व्यवहार रूप में दोनों एक-दूसरे को नियन्त्रित और मर्यादित करती हैं। प्रत्येक राज्य में कार्यपालिका को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कुछ विधायी कार्य करने पड़ते हैं और व्यवस्थापिका को कुछ कार्यपालिका सम्बन्धी कार्य करने पड़ते हैं। कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के सम्बन्ध का अध्ययन दो रूपों में किया जा सकता है-

  1. कार्यपालिका की विधायी शक्तियाँ और उसका व्यवस्थापिका पर नियन्त्रण।
  2. व्यवस्थापिका की प्रशासनिक शक्तियाँ और उसका कार्यपालिका पर नियन्त्रण।

1. कार्यपालिका की विधायी शक्तियाँ और उसका व्यवस्थापिका पर नियन्त्रण- कार्यपालिका कई प्रकार से विधायी अर्थात् कानून- निर्माण सम्बन्धी कार्यों में भाग लेती है। संसदीय शासन-प्रणाली वाले देशों में कार्यपालिका को व्यवस्थापिका का अधिवेशन बुलाने, उसको स्थगित करने तथा समाप्त करने का अधिकार होता है। वह निम्न सदन को भंग करके नये चुनाव के लिए आदेश दे सकती है, परन्तु अध्यक्षात्मक शासन-प्रणाली वाले देशों में कार्यपालिका व्यवस्थापिका को समय-समय पर देश की कानून सम्बन्धी आवश्यकताओं से अवगत कराती रहती है और उसका उचित नेतृत्व और पथ-प्रदर्शन करती है। कार्यपालिका समस्त विधेयकों का प्रारूप (Draft) तैयार करती है और व्यवस्थापिका में उन्हें प्रस्तुत करती है तथा विपक्ष की आलोचनाओं को सहन करती हुई पारित कराती है। अध्यक्षात्मक प्रणाली में कार्यपालिका अप्रत्यक्ष रूप से विधायी कार्य को प्रभावित करती है। दूसरे शब्दों में, इस प्रणाली में राष्ट्रपति को केवल सन्देशों के माध्यम से ही व्यवस्थापिका का ध्यान आलोचनाओं की ओर आकर्षित करने का अधिकार होता है। अमेरिका के राष्ट्रपति को व्यवस्थापिका (काँग्रेस) को सन्देश भेजने का अधिकार है।

संसदात्मक तथा अध्यक्षात्मक दोनों प्रकार की प्रणालियों में कार्यपालिका को अध्यादेश जारी करने तथा व्यवस्थापिका द्वारा पारित विधेयकों के सम्बन्ध में निषेधाधिकार प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त होता है। ब्रिटेन की संसद सम्राट् के निषेधाधिकार की उपेक्षा नहीं कर सकती। बहुत-से राज्यों में व्यवस्थापिका बहुमत के आधार पर इसे अस्वीकार कर सकती है। हैमिल्टन के अनुसार, “निषेधाधिकार कार्यपालिका के लिए कवच का काम करता है। कुछ देशों में प्रतिनिध्यात्मक विधायी प्रणाली का प्रयोग किया जाने लगा है, जिसके कारण कार्यपालिका की विधायी शक्तियों को क्षेत्र और अधिक विकसित हो गया है।

2. व्यवस्थापिका की प्रशासनिक शक्तियाँ और उसका व्यवस्थापिका पर नियन्त्रण – दूसरी ओर कार्यपालिका भी कई प्रकार से व्यवस्थापिका द्वारा नियन्त्रित होती है। संसदीय प्रणाली में यह नियन्त्रण अध्यक्षात्मक प्रणाली की अपेक्षा अधिक होता है। संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका का जीवन व्यवस्थापिका की इच्छा पर निर्भर होता है। दूसरे शब्दों में, कार्यपालिका उस समय तक अपने पद पर बनी रहती है जब तक कि उसे व्यवस्थापिका का विश्वास प्राप्त है। व्यवस्थापिका अविश्वास प्रस्ताव पारित करके, कार्यपालिका के शासन सम्बन्धी आचरण की निन्दा का प्रस्ताव स्वीकृत करके, अनुदान स्वीकार करके अथवा सरकार द्वारा प्रस्तुत किसी प्रस्ताव को अस्वीकृत करके मन्त्रिमण्डल को अपने पद से हटा सकती है। अध्यक्षात्मक शासन-प्रणाली में इस प्रकार के नियन्त्रण उपलब्ध नहीं होते हैं। इसमें कार्यपालिका को नियन्त्रित करने के दूसरे साधन हैं। अमेरिका में लोक सदन (House of Representatives) राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा पद से हटा सकता है। इसी प्रकार सीनेट को कार्यपालिका द्वारा की गयी उच्च नियुक्तियों को स्वीकृति प्रदान करने का अधिकार है तथा राष्ट्रपति द्वारा प्रत्येक सन्धि के लिए उसकी अनुमति प्राप्त करना आवश्यक होता है।

कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के सम्बन्धों के उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों ही एक-दूसरे पर नियन्त्रण रखती हैं। ऐसी स्थिति में यह अत्यन्त आवश्यक होता है कि इन दोनों के सम्बन्ध परस्पर सहयोगपूर्ण होने चाहिए। यदि पारस्परिक सहयोग नहीं रहेगा तो शासन-कार्य सुचारु रूप से चलना असम्भव हो जायेगा।

प्रश्न 4.
कार्यपालिका से आप क्या समझते हैं? इसके विविध रूपों का वर्णन कीजिए। [2010, 14]
या
कार्यपालिका के प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिए। [2011]
या
कार्यपालिका क्या है? आधुनिक काल में इसके बढ़ते हुए महत्त्व के क्या करण हैं? [2007, 11, 13]
या
कार्यपालिका के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए। [2016]
या
कार्यपालिका के प्रमुख कार्यों एवं महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2009, 11, 14]
या
कार्यपालिका से आप क्या समझते हैं? कार्यपालिका के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए। वर्तमान समय में कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि के कारणों का उल्लेख कीजिए। [2014]
उत्तर
कार्यपालिका सरकार का दूसरा प्रमुख अंग है। इतना ही नहीं, ‘सरकार’ शब्द का आशय कार्यपालिका से ही होता है। कार्यपालिका ही व्यवस्थापिका द्वारा बनाये गये कानूनों को क्रियान्वित करती है और उनके आधार पर प्रशासन का संचालन करती है।

गार्नर ने कार्यपालिका का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “व्यापक एवं सामूहिक अर्थ में कार्यपालिका के अधीन वे सभी अधिकारी, राज्य-कर्मचारी तथा एजेन्सियाँ आ जाती हैं, जिनका कार्य राज्य की इच्छा को, जिसे व्यवस्थापिका ने व्यक्त कर कानून का रूप दे दिया है, कार्यरूप में परिणत करना है।”
गिलक्रिस्ट के अनुसार, “कार्यपालिका सरकार का वह अंग है, जो कानूनों में निहित जनता की इच्छा को लागू करती है।

कार्यपालिका के विविध रूप (प्रकार)
कार्यपालिका के निम्नलिखित रूप होते हैं-

  1. नाममात्र की कार्यपालिका – ऐसी कार्यपालिका; जिसके अन्तर्गत एक व्यक्ति, जो सिद्धान्त रूप से शासन का प्रधान होता है तथा जिसके नाम से शासन के समस्त कार्य किये जाते हैं, परन्तु वह स्वयं किसी भी अधिकार का प्रयोग नहीं करता; नाममात्र की होती है। ब्रिटेन की सम्राज्ञी तथा भारत का राष्ट्रपति नाममात्र की कार्यपालिका हैं।
  2. वास्तविक कार्यपालिका – वास्तविक कार्यपालिका उसे कहते हैं जो वास्तव में कार्यकारिणी की शक्तियों का प्रयोग करती है। ब्रिटेन, फ्रांस तथा भारत में मन्त्रिपरिषद् वास्तविक कार्यपालिका के उदाहरण हैं।
  3. एकल कार्यपालिका – एकल कार्यपालिका वह होती है, जिसमें कार्यपालिका की सम्पूर्ण शक्तियाँ एक व्यक्ति के अधिकार में होती हैं। अमेरिका का राष्ट्रपति एकल कार्यपालिका का उदाहरण है।
  4. बहुल कार्यपालिका – बहुल कार्यपालिका में कार्यकारिणी शक्ति किसी एक व्यक्ति में निहित न होकर अधिकारियों के समूह में निहित होती है। इस प्रकार की कार्यपालिका स्विट्जरलैण्ड में है।
  5. पैतृक कार्यपालिका – पैतृक कार्यपालिका उस कार्यपालिका को कहते हैं, जिसके प्रधान का पद पैतृक अथवा वंश-परम्परा के आधार पर होता है। ऐसी कार्यपालिका ग्रेट ब्रिटेन में है।
  6. निर्वाचित कार्यपालिका – जहाँ कार्यपालिका के प्रधान का निर्वाचन किया जाता है, वहाँ निर्वाचित कार्यपालिका होती है। ऐसी कार्यपालिका भारत तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में है।
  7. संसदात्मक कार्यपालिका – इसमें शासन-सम्बन्धी अधिकार मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों में निहित होते हैं। वे व्यवस्थापिका (भारत में संसद) के सदस्यों में से ही चुने जाते हैं और अपनी नीतियों के लिए व्यक्तिगत रूप से तथा सामूहिक रूप से उसी के प्रति उत्तरदायी होते हैं। व्यवस्थापिका मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पारित करके उसे पदच्युत कर सकती है। ब्रिटेन तथा भारत में ऐसी ही कार्यपालिका है।
  8. अध्यक्षात्मक कार्यपालिका – इसमें मुख्य कार्यपालिका व्यवस्थापिका से पृथक् तथा स्वतन्त्र होती है और उसके प्रति उत्तरदायी नहीं होती। संयुक्त राज्य अमेरिका में इसी प्रकार की कार्यपालिका है। वहाँ पर कार्यपालिका का प्रधान राष्ट्रपति होता है, जिसका निर्वाचन चार वर्ष के लिए किया जाता है। इस अवधि के पूर्व महाभियोग के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रक्रिया द्वारा उसे अपदस्थ नहीं किया जा सकता। वह अपने कार्य के लिए वहाँ की कांग्रेस (व्यवस्थापिका) के प्रति उत्तरदायी नहीं है। वह अपनी सहायता के लिए मन्त्रिमण्डल का निर्माण कर सकता है, परन्तु उनके किसी भी परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है।

कार्यपालिका के कार्य
कार्यपालिका के कार्य वास्तव में सरकार के स्वरूप पर निर्भर करते हैं। आधुनिक राज्यों में कार्यपालिका का महत्त्व बढ़ता जा रहा है तथा इसके मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-
1. कानूनों को लागू करना और शान्ति-व्यवस्था बनाये रखना – कार्यपालिका का प्रथम कार्य व्यवस्थापिका द्वारा बनाये गये कानूनों को राज्य में लागू करना तथा देश में शान्तिव्यवस्था को बनाये रखना होता है। कार्यपालिका का कार्य कानूनों को लागू करना है, चाहे वह कानून अच्छा हो या बुरा। कार्यपालिका देश में शान्ति व कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए पुलिस आदि का प्रबन्ध भी करती है।

2. नीति-निर्धारण सम्बन्धी कार्य – कार्यपालिका का एक महत्त्वपूर्ण कार्य नीति-निर्धारण करना है। संसदीय सरकार में कार्यपालिका अपनी नीति-निर्धारित करके उसे संसद के समक्ष प्रस्तुत करती है। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका को अपनी नीतियों को विधानमण्डल के समक्ष प्रस्तुत नहीं करना पड़ता है। वस्तुतः कार्यपालिका ही देश की आन्तरिक तथा विदेशनीति को निश्चित करती है और उस नीति के आधार पर ही अपना शासन चलाती है। नीतियों को लागू करने के लिए शासन को कई विभागों में बाँटा जाता है।

3. नियुक्ति सम्बन्धी कार्य – कार्यपालिका को देश का शासन चलाने के लिए अनेक कर्मचारियों की नियुक्ति करनी पड़ती है। प्रशासनिक कर्मचारियों की नियुक्ति अधिकतर प्रतियोगिता परीक्षाओं के आधार पर की जाती है। भारत में राष्ट्रपति, उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, राजदूतों, एडवोकेट जनरल, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति करता है। अमेरिका में राष्ट्रपति को उच्चाधिकारियों की नियुक्ति के लिए सीनेट की स्वीकृति लेनी पड़ती है। अमेरिका का राष्ट्रपति उन सभी कर्मचारियों को हटाने कां अधिकार रखता है, जिन्हें कांग्रेस महाभियोग के द्वारा नहीं हटा सकती।

4. वैदेशिक कार्य – दूसरे देशों से सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य कार्यपालिका के द्वारा ही किया जाता है। विदेश नीति को कार्यपालिका ही निश्चित करती है तथा दूसरे देशों में अपने राजदूतों को भेजती है और दूसरे देशों के राजदूतों को अपने देश में रहने की स्वीकृति प्रदान करती है। दूसरे देशों से सन्धि या समझौते करने के लिए कार्यपालिका को संसद की स्वीकृति लेनी पड़ती है। अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में कार्यपालिका का अध्यक्ष या उसका प्रतिनिधि भाग लेता है।

5. विधि-सम्बन्धी कार्य – कार्यपालिका के पास विधि-सम्बन्धी कुछ शक्तियाँ भी होती हैं। संसदीय सरकार में कार्यपालिका की विधि-निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है तथा मन्त्रिमण्डल के सदस्य व्यवस्थापिका के ही सदस्य होते हैं। वे व्यवस्थापिका की बैठकों में , भाग लेते हैं और प्रस्ताव प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में 95 प्रतिशत प्रस्ताव मन्त्रियों द्वारा ही प्रस्तुत किये जाते हैं, क्योंकि मन्त्रिमण्डल का व्यवस्थापिका में बहुमत होता है, इसलिए प्रस्ताव आसानी से पारित हो जाते हैं। संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल के समर्थन के बिना कोई प्रस्ताव – पारित नहीं हो सकता। संसदीय सरकार में कार्यपालिका को व्यवस्थापिका का अधिवेशन बुलाने का अधिकार भी होता है। जब व्यवस्थापिका का अधिवेशन नहीं हो रहा होता है, उस समय कार्यपालिका को अध्यादेश जारी करने का अधिकार भी प्राप्त होता है।

6. वित्तीय कार्य – राष्ट्रीय वित्त पर व्यवस्थापिका का नियन्त्रण होता है। वित्तीय व्यवस्था बनाये रखने में कार्यपालिका की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, परन्तु कार्यपालिका ही बजट तैयार करके उसे व्यवस्थापिका में प्रस्तुत करती है। कार्यपालिका को व्यवस्थापिका में बहुमत का समर्थन प्राप्त होने के कारण उसे बजट पारित कराने में किसी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता। नये कर लगाने व पुराने कर समाप्त करने के प्रस्ताव भी कार्यपालिका ही व्यवस्थापिका में प्रस्तुत करती है। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका स्वयं बजट प्रस्तुत नहीं करती, अपितु बजट कार्यपालिका की देख-रेख में ही तैयार किया जाता है। भारत में वित्तमन्त्री बजट प्रस्तुत करता है।

7. न्यायिक कार्य – न्याय करना न्यायपालिका का मुख्य कार्य है, परन्तु कार्यपालिका के पास भी कुछ न्यायिक शक्तियाँ होती हैं। बहुत-से देशों में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश कार्यपालिका द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। कार्यपालिका के अध्यक्ष को अपराधी के दण्ड को क्षमा करने अथवा कम करने का भी अधिकार होता है। भारत और अमेरिका में राष्ट्रपति को क्षमादान का अधिकार प्राप्त है। ब्रिटेन में यह शक्ति सम्राट् के पास है। राजनीतिक अपराधियों को क्षमा करने का अधिकार भी कई देशों में कार्यपालिका को ही प्राप्त है।

8. सैनिक कार्य – देश की बाह्य आक्रमणों से रक्षा के लिए कार्यपालिका अध्यक्ष सेना का अध्यक्ष भी होता है। भारत तथा अमेरिका में राष्ट्रपति अपनी-अपनी सेनाओं के सर्वोच्च सेनापति (कमाण्डर-इन- चीफ) हैं। सेना के संगठन तथा अनुशासन से सम्बन्धित नियम कार्यपालिका द्वारा ही बनाये जाते हैं। आन्तरिक शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए भी सेना की सहायता ली जा सकती है। सेना के अधिकारियों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा ही की जाती है तथा संकटकालीन स्थिति में कार्यपालिका सैनिक कानून लागू कर सकती है। भारत का राष्ट्रपति संकटकालीन घोषणा कर सकता है।

9. संकटकालीन शक्तियाँ – देश में आन्तरिक संकट अथवा किसी विदेशी आक्रमण की स्थिति में कार्यपालिका का अध्यक्ष संकटकाल की घोषणा कर सकता है। संकटकाल में कार्यपालिका बहुत शक्तिशाली हो जाती है और संकट का सामना करने के लिए अपनी इच्छा से शासन चलाती है।

10. उपाधियाँ तथा सम्मान प्रदान करना – प्रायः सभी देशों की कार्यपालिका के पास विशिष्ट व्यक्तियों को उनकी असाधारण तथा अमूल्य सेवाओं के लिए उपाधियाँ और सम्मान प्रदान करने का अधिकार होता है। भारत और अमेरिका में यह अधिकार राष्ट्रपति के पास है, जब कि ब्रिटेन में सम्राट् के पास।
कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि के कारण

व्यवस्थापिका की शक्ति के कम होने तथा कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि होने के निम्नलिखित कारण हैं-

1. लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा – वर्तमान में सभी देशों में राज्य को लोक कल्याणकारी संस्था माना जाता है। वह जनता की भलाई के अनेक कार्य करता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, सामाजिक व आर्थिक सुधार, वेतन-निर्धारण आदि इसी के कार्य-क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं। उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया जाता है और जनहित की योजनाएँ क्रियान्वित की जाती हैं। इससे कार्यपालिका का कार्य-क्षेत्र बढ़ जाता है तथा वह व्यापक हो जाती है।

2. दलीय पद्धति – आधुनिक प्रजातन्त्र राजनीतिक दलों के आधार पर संचालित होता है। दलों के आधार पर ही व्यवस्थापिका व कार्यपालिका का संगठन होता है। संसदीय शासन में बहुमत प्राप्त दल ही कार्यपालिका का गठन करता है। दलीय अनुशासन के कारण कार्यपालिका अधिनायकवादी शक्तियाँ ग्रहण कर लेती है और अपने दल के बहुमत के कारण उसे व्यवस्थापिका का भय नहीं रहता है। व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी रहते हुए भी कार्यपालिका शक्तिशाली होती जा रही है। ब्रिटेन में द्विदलीय पद्धति ने भी कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि की है।

3. प्रतिनिधायन – व्यवस्थापिका कार्यों की अधिकतम तथा व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण कानूनों के सिद्धान्त तथा रूपरेखा की रचना कर शेष नियम बनाने हेतु कार्यपालिका को सौंप देती है। इससे व्यवहार में कानून बनाने का एक व्यापक क्षेत्र कार्यपालिका को प्राप्त हो जाता है तथा कार्यपालिका की शक्तियों में असाधारण वृद्धि हो जाती है।

4. समस्याओं की जटिलता – वर्तमान में राज्य को अनेक जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिसके लिए विशेष ज्ञान, अनुभव व योग्यता की आवश्यकता होती है। व्यवस्थापिका के सामान्य योग्यता के निर्वाचित सदस्य इन समस्याओं के समाधान में असमर्थ रहते हैं। कार्यपालिका ही इन समस्त समस्याओं का समाधान करती है, इसलिए उसकी शक्तियों की वृद्धि का स्वागत किया जाता है।

5. नियोजन – आज का युग नियोजन का युग है। सभी राष्ट्र अपने विकास के लिए नियोजन की प्रक्रिया को अपनाते हैं। योजनाएँ तैयार करना, उन्हें लागू करना तथा उनका मूल्यांकन करना कार्यपालिका द्वारा ही सम्पन्न होता है। इससे कार्यपालिका का व्यापक क्षेत्र में आधिपत्य हो जाता है।

6. अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध तथा विदेशी व्यापार – आधुनिक युग में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध तथा युद्ध एवं शान्ति के प्रश्न अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गए हैं। ये कार्यपालिका द्वारा ही सम्पन्न होते हैं। इसी प्रकार विदेशी व्यापार, विदेशी सहायता तथा विदेशी पूँजी या विदेशों में पूँजी से सम्बन्धित कार्यों को कार्यपालिका द्वारा सम्पादित करना एक सामान्य प्रक्रिया है। इनसे कार्यपालिका का महत्त्व सरकार के अन्य अंगों से अधिक हो गया है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में साम्यवाद के प्रचार तथा प्रसार को रोकने के लिए अमेरिकी कांग्रेस द्वारा राष्ट्रपति को अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। इससे राष्ट्रपति की शक्तियों में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हो गई है।

7. कार्यपालिका को व्यवस्थापिका के विघटन का अधिकार – वर्तमान में संसदीय शासन में व्यवस्थापिका को विघटित करने का कार्यपालिका को पूर्ण अधिकार है। मन्त्रिमण्डल की इस शक्ति के कारण कार्यपालिकों का व्यवस्थापिका पर आधिपत्य हो गया है। अध्यक्षात्मक शासन में कार्यपालिका व्यवस्थापिका को पदच्युत नहीं कर सकती। इस कारण व्यवस्थापिका शक्तिशाली ही बनी रहती है।
आधुनिक युग की प्रवृत्ति कार्यपालिका शक्ति के निरन्तर विस्तार की ओर अग्रसर है। लिप्सन के शब्दों में, “मतदाता द्वारा राज्य को सौंपा गया प्रत्येक नया कर्तव्य और शासन द्वारा प्राप्त की गई प्रत्येक अतिरिक्त शक्ति ने कार्यपालिका की सत्ता और महत्त्व में वृद्धि की है।”

कार्यपालिका का महत्त्व
कार्यपालिका शक्ति को प्राथमिक अर्थ है विधानमण्डल द्वारा अधिनियन्त्रित कानूनों का पालन कराना। किन्तु आधुनिक राज्य में यह कार्य उतना साधारण नहीं जितना कि अरस्तू के युग में था। राज्यों के कार्यों में अनेक गुना विस्तार हो जाने के कारण व्यवहार में सभी अवशिष्ट कार्य कार्यपालिका के हाथों में पहुँच गये हैं तथा इसकी महत्ता दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही है। आज कार्यपालिका प्रशासन की वह शक्ति है जिससे राज्य के सभी कार्य सम्पादित किये जाते हैं।
आज कार्यपालिका का महत्त्व इस कारण भी है कि नीति-निर्धारण तथा उसकी कार्य में परिणति, व्यवस्था बनाये रखना, सामाजिक तथा आर्थिक कल्याण का प्रोन्नयन, विदेश नीति का मार्गदर्शन, राज्य का साधारण प्रशासन चलाना आदि सभी महत्त्वपूर्ण कार्य, कार्यपालिका ही सम्पादित करती है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Organs of Government: Legislature, Executive and Judiciary

प्रश्न 5.
न्यायपालिका के कार्यों का वर्णन कीजिए। [2007, 11, 14]
या
आधुनिक काल में न्यायपालिका के कार्यों में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि हो गई है।” इस कथन के आलोक में न्यायपालिका के कार्यों का वर्णन कीजिए। [2016]
या
आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था में न्यायपालिका के कार्यों की समीक्षा कीजिए। [2013, 16]
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता क्यों आवश्यक है? इसकी स्वतन्त्रता बनाए रखने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए? [2009, 14]
या
आधुनिक लोकतन्त्र में स्वतन्त्र न्यायपालिका का क्या महत्त्व है? न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने के लिए क्या कदम उठाये जाने चाहिए? [2016]
या
आधुनिक राज्य में न्यायपालिका के कार्यों एवं उसकी बढ़ती हुई महत्ता की व्याख्या कीजिए। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने हेतु क्या व्यवस्था की जानी चाहिए? [2007, 09, 10, 12, 13]
या
आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्यों में न्यायपालिका के कार्यों तथा स्वतन्त्र न्यायपालिका के महत्त्व का वर्णन कीजिए। [2014]
उत्तर
न्यायपालिका के कार्य
आधुनिक लोकतन्त्रात्मक प्रणाली में न्यायपालिका को मुख्यत: निम्नलिखित कार्य करने पड़ते है-

1. न्याय करना – न्यायपालिका का मुख्य कार्य न्याय करना है। कार्यपालिका कानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को पकड़कर न्यायपालिका के समक्ष प्रस्तुत करती है। न्यायपालिका उन समस्त मुकदमों को सुनती है जो उसके सामने आते हैं तथा उन पर अपना न्यायपूर्ण निर्णय देती है।

2. कानूनों की व्याख्या करना – न्यायपालिका विधानमण्डल में बनाये हुए कानूनों की व्याख्या के साथ-साथ उन कानूनों की व्याख्या भी करती है जो स्पष्ट नहीं होते। न्यायपालिका के द्वारा की गयी कानून की व्याख्या अन्तिम होती है और कोई भी व्यक्ति उस व्याख्या को मानने से इन्कार नहीं कर सकता।

3. कानूनों का निर्माण – साधारणतया कानून निर्माण का कार्य विधानमण्डल करता है, परन्तु कई दशाओं में न्यायपालिका भी कानूनों का निर्माण करती है। कानून की व्याख्या करते समय न्यायाधीश कानून के कई नये अर्थों को जन्म देते हैं, जिससे कानूनों का स्वरूप ही बदल जाता है और एक नये कानून का निर्माण हो जाता है। कई बार न्यायपालिका के सामने ऐसे मुकदमे भी आते हैं, जहाँ उपलब्ध कानूनों के आधार पर निर्णय नहीं किया जा सकता। ऐसे समय पर न्यायाधीश न्याय के नियमों, निष्पक्षता तथा ईमानदारी के आधार पर निर्णय करते हैं। यही निर्णय भविष्य में कानून बन जाते हैं।

4. संविधान का संरक्षण – संविधान की सर्वोच्चता को बनाये रखने का उत्तरदायित्व न्यायपालिका पर होता है। यदि व्यवस्थापिका कोई ऐसा कानून बनाये, जो संविधान की धाराओं के विरुद्ध हो तो न्यायपालिका उस कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है। न्यायपालिका की इस शक्ति को न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) का नाम दिया गया है। संविधान की व्याख्या करने का अधिकार भी न्यायपालिका को प्राप्त होता है। इसी प्रकार न्यायपालिका संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करती है।

5. संघ का संरक्षण – जिन देशों ने संघात्मक शासन-प्रणाली को अपनाया है, वहाँ न्यायपालिका संघ के संरक्षक के रूप में भी कार्य करती है। संघात्मक शासन-प्रणाली में कई बार केन्द्र तथा राज्यों के मध्य विभिन्न प्रकार के मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं, इनका निर्णय न्यायपालिका द्वारा ही किया जाता है। न्यायपालिका का यह कार्य है कि वह इस बात का ध्यान रखे कि केन्द्र राज्यों के कार्य में हस्तक्षेप न करे और न ही राज्य केन्द्र के कार्यों में।

6. नागरिक अधिकारों का संरक्षण – लोकतन्त्र को जीवित रखने के लिए नागरिकों की स्वतन्त्रता और अधिकारों की सुरक्षा अत्यन्त आवश्यक है। यदि इनकी सुरक्षा नहीं की जाती तो कार्यपालिका निरंकुश और तानाशाह बन सकती है। नागरिकों की स्वतन्त्रता तथा अधिकारों की सुरक्षा न्यायपालिका द्वारा की जाती है। अनेक राज्यों में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की व्यवस्था का संविधान में उल्लेख कर दिया गया है जिससे उन्हें संविधान और न्यायपालिका को संरक्षण प्राप्त हो सके। इस प्रकार न्यायपालिका का विशेष उत्तरदायित्व होता है कि वह सदैव यह दृष्टि में रखे कि सरकार का कोई अंग इन अधिकारों का अतिक्रमण न कर सके।

7. परामर्श देना – कई देशों में न्यायपालिका कानून सम्बन्धी परामर्श भी देती है। भारत में राष्ट्रपति किसी भी विषय पर उच्चतम न्यायालय से परामर्श ले सकता है, परन्तु इस सलाह को मानना या न मानना राष्ट्रपति पर निर्भर है।

8. प्रशासनिक कार्य – कई देशों में न्यायालयों को प्रशासनिक कार्य भी करने पड़ते हैं। भारत में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय तथा अधीनस्थ न्यायालयों पर प्रशासकीय नियन्त्रण रहता है।

9. आज्ञा-पत्र जारी करना – न्यायपालिका जनता को आदेश दे सकती है कि वे अमुक कार्य नहीं कर सकते और यह किसी कार्य को करवा भी सकती है। यदि वे कार्य न किये जाएँ तो न्यायालय बिना अभियोग चलाये दण्ड दे सकता है अथवा मानहानि का अभियोग लगाकर जुर्माना आदि भी कर सकता है।

10. कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड के कार्य – न्यायपालिका कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड का भी कार्य करती है, जिसका अर्थ है कि न्यायपालिका को भी सभी मुकदमों के निर्णयों तथा सरकार को दिये गये परामर्शो का रिकॉर्ड भी रखना पड़ता है। इन निर्णयों तथा परामर्शों की प्रतियाँ किसी भी समय प्राप्त की जा सकती हैं।

न्यायपालिका का महत्त्व
व्यक्ति एक विचारशील प्राणी है और इसके साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति के अपने कुछ विशेष स्वार्थ भी होते हैं। व्यक्ति के विचारों और उसके स्वार्थों में इस प्रकार के भेद होने के कारण उनमें परस्पर संघर्ष नितान्त स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त शासन-कार्य करते हुए शासक वर्ग ‘अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर सकता है। ऐसी स्थिति में सदैव ही एक ऐसी सत्ता की आवश्यकता रहती है जो व्यक्तियों के पारस्परिक विवादों को हल कर सके और शासक वर्ग को अपनी सीमाओं में रहने के लिए बाध्य कर सके। इन कार्यों को करने वाली सत्ता का नाम ही न्यायपालिका है।

राज्य के आदिकाल से लेकर आज तक किसी-न-किसी रूप में न्याय विभाग का अस्तित्व सदैव ही रहा है और सामान्य जनता के दृष्टिकोण से न्यायिक कार्य का सम्पादन सर्वाधिक महत्त्व रखता है। राज्य में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की व्यवस्था चाहे कितनी ही पूर्ण और श्रेष्ठ क्यों न हो, परन्तु यदि न्याय करने में पक्षपात किया जाता है, अनावश्यक व्यय और विलम्ब होता है। या न्याय विभाग में अन्य किसी प्रकार का दोष है तो जनजीवन नितान्त दु:खपूर्ण हो जाएगा। न्याय विभाग के सम्बन्ध में ब्राइस ने अपनी श्रेष्ठ शब्दावली में कहा है कि न्याय विभाग की कुशलता से बढ़कर सरकार की उत्तमता की दूसरी कोई भी कसौटी नहीं है, क्योंकि किसी और चीज से नागरिक की सुरक्षा और हितों पर इतना प्रभाव नहीं पड़ता है, जितना कि उसके इस ज्ञान से कि वह एक निश्चित, शीघ्र व अपक्षपाती न्याय शासन पर निर्भर रह सकता है। वर्तमान समय में तो न्यायपालिका का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है, क्योकि अभियोगों के निर्णय के साथ-साथ न्यायपालिका संविधान की व्याख्या और रक्षा का कार्य भी करती है।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता बनाये रखने हेतु उपाय
स्वतन्त्र न्यायपालिका उत्तम शासन की कसौटी है। इसलिए यह आवश्यक है कि न्यायपालिका का संगठन और कार्यविधि ऐसी हो जिससे वह बिना किसी भय और दबाव के स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य कर सके। स्वतन्त्र न्यायपालिका बनाये रखने के लिए निम्नलिखित व्यवस्था होनी चाहिए-

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति और कार्यकाल – अधिकांश देशों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनके कार्यकाल का निर्धारण कार्यपालिका के द्वारा किया जाता है। नियुक्ति का आधार योग्यता और प्रतिभा को बनाया जाता है।

2. न्यायाधीशों का वेतन – न्यायाधीशों को वेतन के रूप में अच्छी धनराशि मिलनी चाहिए। उचित वेतन होने पर ही वे निष्पक्षता और ईमानदारी से काम कर पाएँगे।

3. न्यायाधीशों की पदोन्नति – न्यायाधीशों की पदोन्नति के भी निश्चित नियम होने चाहिए। योग्यता और वरिष्ठता के आधार पर ही न्यायाधीशों की पदोन्नति होनी चाहिए। पदोन्नति का अधिकार नियुक्त करने वाली संस्था या कार्यपालिका को न होकर उच्चतम न्यायालय को होना चाहिए।

4. न्यायाधीशों को हटाना – न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने के लिए भी एक निश्चित प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिए। न्यायाधीशों को भ्रष्ट या अयोग्य होने पर ही उनके पद से हटाया जाना चाहिए।

5. न्याय तथा शासन सम्बन्धी कार्यों का विभाजन – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी अनिवार्य है कि शासन तथा न्याय विभाग दोनों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग हों। यदि कार्यपालिका और न्यायपालिका पृथक् नहीं हैं तो न्यायाधीश अपने प्रशासनिक उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए अपनी न्यायिक शक्तियों का दुरुपयोग कर सकते हैं।

6. न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पद देने से अलग रखा जाना – सेवानिवृत्त होने के बाद किसी भी न्यायाधीश को अन्य किसी सरकारी पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए।

7. न्यायाधीशों के निर्णयों, कार्यों और चरित्र की अनुचित आलोचना पर प्रतिबन्ध – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों के कार्यकाल में कोई भी उनके वैयक्तिक चरित्र अथवा कार्यों पर टिप्पणी न करे और उनके निर्णयों की आलोचना न करे।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
द्विसदनीय व्यवस्थापिका क्यों आवश्यक है? उसकी उपयोगिता के पक्ष में दो कारण बताइए।
या
द्विसदनात्मक विधानमण्डल (व्यवस्थापिका) की दो विशेषताएँ बताइए। [2009, 10]
या
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2010]
या
व्यवस्थापिका में उच्च सदन होने के चार लाभों का उल्लेख कीजिए।
या
द्विसंसदीय व्यवस्थापिका के लाभ बताइए। [2010, 14]
या
व्यवस्थापिका में दूसरे सदन का होना आवश्यक है।” इस कथन की विवेचना कीजिए। [2010]
उत्तर
अधिकांश सभ्य देशों में द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका को अपनाया गया है। दूसरा सदन पहले सदन के प्रतिनिधियों द्वारा कानून निर्माण करते समय आवेश, जल्दबाजी व अदूरदर्शिता से काम लेने पर अंकुश लगाता है। अतः दूसरा सदन नियन्त्रक व सुधारक का कार्य करते हुए पहले। सदन के कार्यों की समीक्षा करता है। भारत सहित तमाम देशों में यही व्यवस्था लागू है। एक सदन वाली व्यवस्था कुछ देशों तक सिमटकर रह गई है, जिसमें धर्मप्रधान देश, सर्वाधिकारीवादी सरकारे तथा तानाशाही वाले कुछ राष्ट्र शामिल हैं। दूसरे सदन की आवश्यकता से सम्बन्धित कुछ बिन्दु निम्नलिखित हैं-

  1. यह पहले सदन की जल्दबाजी पर रोक लगाता है।
  2. यह सदन ज्ञानी व अनुभवी लोगों का प्रतिनिधित्व करता है।
  3. यह व्यवस्थापिका की कार्यकुशलता को बढ़ाता है।
  4. यह लोकमत को जागरूक करने में सहायक है, जिससे जनता कानूनों के सम्बन्ध में अपनी राये प्रकट कर सकती है।
  5. यह लोकमत को जागरूक करने में सहायक है, जिससे जनता कानूनों के सम्बन्ध में अपनी राय प्रकट कर सकती है।

उपर्युक्त कारणों के आधार पर कहा जा सकता है कि एक सभ्य व प्रजातान्त्रिक राष्ट्र में व्यवस्थापिका में दूसरे सदन का भी होना लाभकारी व आवश्यक है।

द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण/लाभ/उपयोगिता
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका की उपयोगिता (गुण/लाभ/) के पक्ष में चार तर्क निम्नलिखित है-

1. संघीय राज्यों के लिए विशेष उपयोगी – संघीय व्यवस्था में द्वितीय सदन विशेष रूप से उपयोगी होता है। प्रथम सदन साधारण नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि द्वितीय सदन संघ राज्यों की इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। अनेक संघीय राज्यों के द्वितीय सदन में संघ की इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाता है।

2. सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति – प्रायः योग्य और अनुभवी व्यक्ति दलबन्दी और निर्वाचन से दूर रहते हैं और वे प्रथम सदन के निर्वाचन में भाग नहीं लेते हैं। ऐसे व्यक्तियों को द्वितीय सदन में मनोनीत कर दिया जाता है। इस प्रकार देश को सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति हो जाती है।

3. नीति में स्थायित्व – द्वितीय सदन के सदस्य प्रथम सदन के सदस्यों से अधिक योग्य होते हैं, साथ ही उनकी संख्या भी कम होती है। यह एक स्थायी सदन होता है। इसके निर्णयों में विचारशीलता और गम्भीरता रहती है। इसका परिणाम यह होता है कि द्वितीय सदन की नीतियों में अधिक स्थायित्व आ जाता है।

4. कार्यपालिका की स्वतन्त्रता में वृद्धि – द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में दोनों सदन एकदूसरे पर नियन्त्रण रखते हैं। फलतः कार्यपालिका व्यवस्थापिका की कठपुतली होने से बच जाती है और उसे कार्य करने में काफी स्वतन्त्रता मिल जाती है। गैटिल ने ठीक ही कहा है कि “दोनों सदन एक-दूसरे पर रुकावट का कार्य करके कार्यपालिका को अधिक स्वतन्त्रता देते हैं और अन्त में इससे दोनों विभागों के सर्वोत्कृष्ट हितों की अभिवृद्धि होती हैं।”

प्रश्न 2.
व्यवस्थापिका के दो कार्यों का उल्लेख कीजिए तथा किन्हीं दो तरीकों का वर्णन कीजिए जिनसे व्यवस्थापिका कार्यपालिका पर नियन्त्रण स्थापित करती है। [2014]
या
व्यवस्थापिका द्वारा कार्यपालिका पर नियन्त्रण के दो साधन बताइए। [2016]
या
कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखने के लिए विधायिका कौन-से साधन अपनाती है? ऐसे किन्हीं चार साधनों का उल्लेख कीजिए। [2014, 16]
उत्तर
सरकार के तीनों अंगों द्वारा महत्त्वपूर्ण कार्य किये जाते हैं, लेकिन इन तीनों में व्यवस्थापक विभाग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। सामान्यतया व्यवस्थापिका निम्नलिखित साधनों से कार्यपालिका पर नियन्त्रण करती है।

  1. आर्थिक नियन्त्रण – वर्तमान समय में व्यवस्थापिका कानून-निर्माण के साथ-साथ राष्ट्रीय वित्त पर नियन्त्रण करने का कार्य भी करती है। व्यवस्थापिका की स्वीकृति के बिना, कार्यपालिका आय-व्यय से सम्बन्धित कोई कार्य नहीं कर सकती।
  2. प्रशासन सम्बन्धी कार्यों पर नियन्त्रण – संसदात्मक शासन में व्यवस्थापिका प्रश्नों, स्थगन प्रस्तावों, निन्दा प्रस्तावों और अविश्वास प्रस्तावों के माध्यम से कार्यपालिका पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण रखती है और कार्यपालिका का अस्तित्व व्यवस्थापिका की इच्छा पर निर्भर करता है।
  3. समितियों और आयोगों की नियुक्ति द्वारा नियन्त्रण – विधानमण्डल समय-समय पर किन्हीं विशेष कार्यों की जाँच करने के लिए समितियों और आयोगों की नियुक्ति का कार्य करता है और इनके माध्यम से कार्यपालिका के कार्यों की छानबीन करता है।
  4. जनभावनाओं की अभिवृद्धि द्वारा नियन्त्रण – लोकतन्त्र में व्यवस्थापिका एक ऐसा स्थान है जहाँ पर जनता के प्रतिनिधि सरकार (कार्यपालिका) का ध्यान जनता के कष्टों की ओर आकर्षित करते हैं और शासन को जनहित के कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं।

व्यवस्थापिका के दो कार्य
व्यवस्थापिका के दो कार्य निम्नवत हैं-

  1. कानूनों का निर्माण – व्यवस्थापिका का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य कानूनों का निर्माण करना है। यह आवश्यकता के अनुसार नए कानून बनाती है, पुराने कानूनों में संशोधन करती है और अनावश्यक कानूनों को रद्द करती है।
  2. संविधान में संशोधन – व्यवस्थापिका को संविधान करने का अधिकार भी प्राप्त होता है। संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न प्रकार की है। इंग्लैण्ड में व्यवस्थापिका (ब्रिटिश संसद) ही सर्वोपरि है। वह साधारण कानूनों के समान ही संविधान में संशोधन कर सकती है। परन्तु संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत में संशोधन की विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है।

प्रश्न 3.
कार्यपालिका के निर्माण (नियुक्ति) की प्रमुख विधियों को लिखिए।
उत्तर
आधुनिक समय में कार्यपालिका की नियुक्ति विभिन्न देशों में अलग-अलग पद्धतियों से की जाती है। इस विषय में निम्नलिखित पद्धतियाँ प्रमुख हैं-

1. वंशानुगत पद्धति – इस पद्धति का सम्बन्ध राजतन्त्रीय शासन से है। इसमें पद की अवधि आजीवन होती है और उत्तराधिकार ज्येष्ठाधिकार कानून द्वारा शासित होता है। प्राचीन व मध्य युग में कार्यपालिका के निर्माण की यह सर्वाधिक प्रचलित पद्धति रही है। यद्यपि वर्तमान समय में यह पद्धति लोकप्रिय नहीं है, किन्तु ब्रिटेन, स्वीडन, डेनमार्क, जापान आदि देशों में नाममात्र की कार्यपालिका की नियुक्ति वंशानुगत पद्धति के आधार पर की जाती है।

2. जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन – कुछ देशों में कार्यपालिका का चुनाव जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। मैक्सिको, ब्राजील, पेरू आदि लैटिन अमेरिकी देशों में राष्ट्रपति को सर्वसाधारण जनता द्वारा ही निर्वाचित किया जाता है।

3. जनता द्वारा अप्रत्यक्ष निर्वाचन – इस पद्धति में सर्वसाधारण जनता द्वारा एक निर्वाचक मण्डल का निर्वाचन किया जाता है और इस निर्वाचक मण्डल द्वारा कार्यकारिणी का चुनाव किया जाता है। अमेरिका के राष्ट्रपति के निर्वाचन की यही पद्धति है, किन्तु व्यवहार में राष्ट्रपति के चुनाव ने प्रत्यक्ष चुनाव का रूप ग्रहण कर लिया है।

4. व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचन – इस पद्धति में कार्यपालिका को व्यवस्थापिका द्वारा चुना जाता है। स्विट्जरलैण्ड में कार्यपालिका प्रधान के चुनाव की यही पद्धति है।

5. मनोनयन – संसदात्मक शासन-व्यवस्था वाले देशों में सम्राट् या राष्ट्रपति तो नाममात्र की कार्यपालिका होती है; अत: इन शासन-व्यवस्थाओं में वास्तविक कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रिपरिषद् की नियुक्ति का प्रश्न अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। ब्रिटेन में जिस राजनीतिक दल को ‘लोक-सदन’ (House of Commons) में बहुमत प्राप्त होता है, सम्राट् के द्वारा उस दल के नेता को प्रधानमन्त्री पद पर नियुक्त किया जाता है। इसी व्यक्ति द्वारा साधारणतया अपने ही राजनीतिक दल से सहयोगियों की टीम को चुनकर मन्त्रिपरिषद् का निर्माण किया जाता है। भारत में इसी पद्धति का अनुसरण किया गया है। वास्तविक कार्यपालिका के निर्माण के सम्बन्ध में यही पद्धति सर्वाधिक सन्तोषजनक पायी गयी है।

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प्रश्न 4.
कार्यपालिका के चार कार्यों का वर्णन कीजिए। [2012]
या
आधुनिक राज्यों में कार्यपालिका के किन्हीं चार कार्यों का समुचित उदाहरण सहित उल्लेख कीजिए। [2009, 11, 12, 13, 14, 16]
उत्तर
कार्यपालिका के कार्य कार्यपालिका के चार कार्य निम्नवत् हैं-

1. आन्तरिक शासन सम्बन्धी कार्य – प्रत्येक राज्य, राजनीतिक रूप में संगठित समाज है। और इस संगठित समाज की सर्वप्रथम आवश्यकता शान्ति और व्यवस्था बनाये रखना होता है। तथा यह कार्य कार्यपालिका के द्वारा ही किया जाता है। इसके अतिरिक्त व्यापार और यातायात, शिक्षा और स्वास्थ्य से सम्बन्धित सुविधाओं की व्यवस्था और कृषि पर नियन्त्रण, आदि कार्य भी कार्यपालिका द्वारा ही किये जाते हैं।

2. सैनिक कार्य – सामान्यतया राज्य की कार्यपालिका का प्रधान सेनाओं के सभी अंगों (स्थल, जल और वायु) के प्रधान के रूप में कार्य करता है और विदेशी आक्रमण से देश की रक्षा करना कार्यपालिका का महत्त्वपूर्ण कार्य होता है। अपने इस कार्य के अन्तर्गत कार्यपालिका आवश्यकतानुसार युद्ध अथवा शान्ति की घोषणा कर सकती है।

3. विधि-निर्माण सम्बन्धी कार्य – कार्यपालिका के विधि-निर्माण सम्बन्धी कार्य बहुत कुछ सीमा तक शासन-व्यवस्था के स्वरूप पर निर्भर करते हैं। सभी प्रकार की शासन-व्यवस्थाओं में कार्यपालिका को विधानमण्डल का अधिवेशन बुलाने और स्थगित करने का अधिकार होता है। संसदात्मक शासन में तो कार्यपालिका विधि-निर्माण के क्षेत्र में व्यवस्थापिका का नेतृत्व करती है और विशेष परिस्थितियों में लोकप्रिय सदन को भंग करते हुए नव-निर्वाचन का आदेश दे सकती है। वर्तमान समय में तो यहाँ तक कहा जा सकता है कि कार्यपालिका ही व्यवस्थापिका की स्वीकृति से कानूनों का निर्माण करती है।

4. वित्तीय कार्य – यद्यपि वार्षिक बजट स्वीकृत करने का कार्य व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है, किन्तु इस बजट का प्रारूप तैयार करने का कार्य कार्यपालिका ही कर सकती है। कार्यपालिका का वित्त विभाग आय के विभिन्न साधनों द्वारा प्राप्त आय के उपभोग पर विचार करता है।

प्रश्न 5.
कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि के चार कारण दीजिए।
या
आधुनिक लोकतन्त्र में कार्यपालिका के बढ़ते हुए प्रभाव के चार कारण लिखिए। [2009, 14]
उत्तर
कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं|

1. साधारण योग्यता के व्यक्तियों का चुनाव – व्यवस्थापिका के सदस्य प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर चुने जाते हैं और अधिक योग्यता वाले व्यक्ति चुनाव के पचड़े में पड़ना नहीं चाहते। अत: बहुत कम योग्यता वाले व्यक्ति और पेशेवर राजनीतिज्ञ व्यवस्थापिका में चुनकर आ जाते हैं। ये कम योग्य व्यक्ति अपने कार्यों व आचरण से व्यवस्थापिका की गरिमा को कम करते हैं।

2. जनकल्याणकारी राज्य की धारणा – वर्तमान समय में जनकल्याणकारी राज्य की धारणा के कारण राज्य के कार्य बहुत अधिक बढ़ गये हैं और इन बढ़े हुए कार्यों को कार्यपालिका द्वारा ही किया जा सकता है। अतः व्यवस्थापिका की शक्तियों में निरन्तर कमी और कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि होती जा रही है।

3. दलीय पद्धति – दलीय पद्धति के विकास ने भी व्यवस्थापिका की शक्ति में कमी और कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि कर दी है। संसदात्मक लोकतन्त्र में बहुमत दल के समर्थन पर टिकी हुई कार्यपालिका बहुत अधिक शक्तियाँ प्राप्त कर लेती है।

4. प्रदत्त व्यवस्थापन – वर्तमान समय में कानून निर्माण का कार्य बहुत अधिक बढ़ जाने और इस कार्य के जटिल हो जाने के कारण व्यवस्थापिका के द्वारा अपनी ही इच्छा से कानून निर्माण की शक्ति कार्यपालिका के विभिन्न विभागों को सौंप दी जाती है। इसे ही प्रदत्त व्यवस्थापन कहते हैं और इसके कारण व्यवस्थापिका की शक्तियों में कमी तथा कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि हो गयी है।

प्रश्न 6.
लोकतन्त्र में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के दो उपायों का उल्लेख कीजिए। [2007, 10]
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के दो उपाय लिखिए। [2016]
उत्तर
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता
न्यायपालिका का कार्यक्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है और उसके द्वारा विविध प्रकार के कार्य किये जाते हैं, लेकिन न्यायपालिका इस प्रकार के कार्यों को उसी समय कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सकती है जबकि न्यायपालिका स्वतन्त्र हो। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से हमारा आशय यह है कि न्यायपालिका को कानूनों की व्याख्या करने और न्याय प्रदान करने के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रूप से अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए और उन्हें कर्त्तव्यपालन में किसी से अनुचित तौर पर प्रभावित नहीं होना चाहिए। सीधे-सादे शब्दों में इसका आशय यह है कि न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका किसी राजनीतिक दल, किसी वर्ग विशेष और अन्य सभी दबावों से मुक्त रहते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करे।
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित करने के दो उपाय निम्नलिखित हैं-

  1. न्यायाधीश की योग्यता – न्यायाधीशों का पद केवल ऐसे ही व्यक्तियों को दिया जाए जिनकी व्यावसायिक कुशलता और निष्पक्षता सर्वमान्य हो। राज्य-व्यवस्था के संचालन में न्यायाधिकारी वर्ग का बहुत अधिक महत्त्व होता है और अयोग्य न्यायाधीश इस महत्त्व को नष्ट कर देंगे।
  2. कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से पृथक् रखा जाना चाहिए। एक ही व्यक्ति के सत्ता अभियोक्ता और साथ-ही-साथ न्यायाधीश होने पर स्वतन्त्र न्याय की आशा नहीं की जा सकती है।

प्रश्न 7.
न्यायपालिका के दो कार्यों का उल्लेख कीजिए तथा स्वतन्त्र न्यायपालिका के पक्ष में दो तर्क प्रस्तुत कीजिए।
या
लोकतन्त्रात्मक शासन में स्वतन्त्र न्यायपालिका की आवश्यकता एवं महत्ता पर प्रकाश डालिए। [2010, 14]
उत्तर
किसी लोकतन्त्रात्मक शासन में एक स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका सर्वथा अनिवार्य है। इसे आधुनिक और प्रगतिशील संविधानों एवं शासन-व्यवस्था का प्रमुख लक्षण माना जाता है। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के महत्त्व को निम्नलिखित रूपों में प्रकट किया जा सकता है।

1. लोकतन्त्र की रक्षा हेतु – लोकतन्त्र के अनिवार्य तत्त्व स्वतन्त्रता और समानता हैं। नागरिकों की स्वतन्त्रता और कानून की दृष्टि से व्यक्तियों की समानता—इन दो उद्देश्यों की प्राप्ति स्वतन्त्र न्यायपालिका द्वारा ही सम्भव है। इस दृष्टि से स्वतन्त्र न्यायपालिका को ‘लोकतन्त्र का प्राण’ कहा जाता है।

2. संविधान की रक्षा हेतु – आधुनिक युग के राज्यों में संविधान की सर्वोच्चता का विचार प्रचलित है। संविधान की रक्षा का दायित्व न्यायपालिका का होता है। न्यायपालिका द्वारा इस दायित्व का भली-भाँति निर्वाह उस समय ही सम्भव है, जब न्यायपालिका स्वतन्त्र और निष्पक्ष हो। स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की धाराओं की स्पष्ट व्याख्या करती है तथा व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका के उन कार्यों को जो संविधान के विरुद्ध होते हैं, अवैध घोषित कर देती है। इस प्रकार स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की रक्षा करती है।

3. न्याय की रक्षा हेतु – न्यायपालिका का प्रथम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य न्याय करना है। न्यायपालिका यह कार्य तभी ठीक प्रकार से कर सकती है, जबकि वह निष्पक्ष और स्वतन्त्र हो तथा व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के प्रभाव से पूर्ण रूप से मुक्त हो।

4. नागरिक अधिकारों की रक्षा हेतु – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व अन्य कारणों की अपेक्षा नागरिक अधिकारों की रक्षा की दृष्टि से अधिक है। इसके लिए न्यायपालिका का स्वतन्त्र और निष्पक्ष होना अत्यन्त आवश्यक है।

न्यायपालिका के दो कार्य न्यायपालिका के दो कार्य निम्नलिखित हैं-

1. कानूनों की व्याख्या करना – कानूनों की भाषा सदैव स्पष्ट नहीं होती है और अनेक बार कानूनों की भाषा के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार की प्रत्येक परिस्थिति में कानूनों की अधिकारपूर्ण व्याख्या करने का कार्य न्यायपालिका ही करती है। न्यायालयों द्वारा की गयी इस प्रकार की व्याख्याओं की स्थिति कानून के समान ही होती है।

2. लेख जारी करना  – सामान्य नागरिकों या सरकारी अधिकारियों के द्वारा जब अनुचित या अपने अधिकार-क्षेत्र के बाहर कोई कार्य किया जाता है तो न्यायालय उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए विविध प्रकार के लेख जारी करता है। इस प्रकार के लेखों में बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश और प्रतिषेध आदि लेख प्रमुख हैं।

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प्रश्न 8.
‘न्यायिक सक्रियतावाद’ से क्या आशय है?
या
‘न्यायिक सक्रियतावाद’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
न्यायिक सक्रियतावाद का आशय है- “संविधान, कानून और अपने दायित्वों के प्रसंग में कानूनी व्याख्या से आगे बढ़कर सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों और सामाजिक-आर्थिक न्याय की आवश्यकता को दृष्टि में रखते हुए संविधान और कानून की रचनात्मक व्याख्या करते हुए न्यायपालिका का जनसाधारण के हितों की रक्षा के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना।”
न्यायिक सक्रियतावाद के विविध रूप और मान्यताएँ इस प्रकार हैं-

  1. जनहितकारी अभियोगों को मान्यता।
  2. कानूनी-न्याय के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक न्याय पर बल।
  3. न्यायपालिका को शासन की स्वेच्छाचारिता पर नियन्त्रण का अधिकार है।
  4. न्यायपालिका शासन को आवश्यक निर्देश दे सकती है।

न्यायिक सक्रियतावाद के आधार पर न्यायपालिका ने सम्बद्ध देशों की समस्त राजव्यवस्था में बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण स्थिति प्राप्त कर ली है।
न्यायपालिका द्वारा अपनाई गई न्यायिक सक्रियतावाद की यह स्थिति बहुत अधिक विवाद का विषय बनी हुई है। आलोचकों का कहना है कि न्यायपालिका ‘न्यायिक सक्रियतावाद’ के आधार पर ‘व्यवस्थापिका के तीसरे सदन’ की भूमिका निभाने की चेष्टा कर रही है। कुछ अन्य इसे एक तरह की न्यायिक तानाशाही’ कहते हैं। ये आलोचनाएँ अतिशयोक्तिपूर्ण होते हुए भी इनमें ‘सत्य के अंश हो सकते हैं, लेकिन स्थिति का दूसरा पक्ष यह है कि जब केन्द्रीय और राज्य स्तर की विधायी और कार्यपालिका संस्थाएँ अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक नहीं रहीं, तब न्यायपालिका ने परिस्थितियों से प्रेरित और बाध्य होकर ही न्यायिक सक्रियता की स्थिति को अपनाया है। इस प्रकार आज की स्थिति के लिए स्वयं न्यायपालिका उत्तरदायी नहीं है। न्यायपालिका ने अपनी इस भूमिका के आधार पर जनता में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के प्रति विश्वास को बनाए रखा है और सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों के प्रहरी की भूमिका निभाई है।
न्यायिक सक्रियता के महत्त्व को स्वीकार करते हुए भी यह मानना होगा कि न्यायिक सक्रियता मात्र एक अस्थायी स्थिति ही हो सकती हैं। एक ऐसी लक्ष्मण रेखा अंकित करने की आवश्यकता है जिससे न्यायपालिका व्यवस्थापिका या कार्यपालिका के दायित्वों को न हथिया ले।’

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
द्वि-सदनात्मकवाद (द्वि-सदन-पद्धति) का अर्थ बताइए। (2013)
उत्तर
द्वि-सदनात्मक प्रणाली ऐतिहासिक विकास तथा संयोग का परिणाम है। यह व्यवस्था ब्रिटिश संवैधानिक विकास की देन है। इंग्लैण्ड की संसद जो विश्व की सबसे प्राचीन संसद है, संयोग से द्वि-सदनात्मक हो गई है। अन्य प्रजातान्त्रिक देशों में भी ब्रिटिश परम्परा का अनुसरण किया गया। पोलस्की के शब्दों में, “यह केवल ऐतिहासिक संयोग की बात है। कि इंग्लैण्ड की व्यवस्थापिका द्वि-सदनात्मक थी और उसी का अनुसरण अन्य देशों में भी किया गया। विलोबी ने कहा है-“यदि ब्रिटिश संसद द्वि-सदनात्मक न होती तो शायद संसार के विधानमण्डल भी द्वि-सदनात्मक नहीं होते।” आज सभी बड़े प्रजातान्त्रिक राज्यों में व्यवस्थापिका के दो सदन होते हैं। एक सदन को उच्च सदन या द्वितीय सदन और दूसरे सदन को निम्न या प्रथम सदन कहते हैं।

प्रश्न 2.
व्यवस्थापिका का महत्त्व लिखिए। [2007]
उत्तर
व्यवस्थापिका का महत्त्व
सरकार के सभी अंगों में व्यवस्थापिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। गार्नर के अनुसार-“राज्य की इच्छा जिन अंगों द्वारा व्यक्त होती है, उनमें व्यवस्थापिका का स्थान नि:सन्देह सर्वोच्च है।” गिलक्रिस्ट का कथन है—“व्यवस्थापिका शक्ति का अधिक भाग है।” वास्तव में व्यवस्थापिका यदि अपने कार्यों को सम्पादित न करे, तो कार्यपालिका और न्यायपालिका भी अपना दायित्व पूरा नहीं कर सकती हैं। व्यवस्थापिका केवल कानूनों का निर्माण ही नहीं करती है, वरन् प्रशासन से सम्बन्धित नीतियों का निर्धारण भी करती है तथा कार्यपालिका की शक्ति पर भी नियन्त्रण स्थापित करती है। संसदात्मक शासन प्रणाली में व्यवस्थापिका के कार्यों में अधिक वृद्धि हो जाती है।

प्रश्न 3.
एक सदनात्मक व्यवस्थापिका के दो लाभ स्पष्ट कीजिए।
या
एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका के दो गुण बताइए।
या
“एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका में जहाँ धन व समय की बचत होती है वहीं कार्य में गतिरोध भी कम आता है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका वाले देशों में व्यवस्थापन-कार्य में धन और समय की पर्याप्त बचत हो जाती है, क्योंकि एक ही सदन होने से विधेयक को दूसरे सदन में भेजने की आवश्यकता नहीं रह जाती। इससे दूसरे सदन में होने वाली समय और धन की बर्बादी को रोका जा सकता है। लॉर्ड ब्राइस के शब्दों में, “यदि द्वितीय सदन प्रथम सदन का विरोध करता है तो अहितकर है और यदि वह उसके साथ सहयोग करता है तो अनावश्यक है।

प्रश्न 4.
कार्यपालिका के विभिन्न प्रकारों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2016]
उत्तर
कार्यपालिका के विभिन्न प्रकार कार्यपालिका के विभिन्न प्रकार निम्नलिखित हैं-

1. नाममात्र की कार्यपालिका – वह व्यक्ति जो सैद्धान्तिक रूप से शासन का प्रधान है तथा जिसके नाम से शासन के समस्त कार्य किए जाते हैं एवं स्वयं किसी भी अधिकार का प्रयोग नहीं करता, नाममात्र का कार्यपालक प्रधान होता है और इस प्रकार की कार्यपालिका नाममात्र की कार्यपालिका होती है। उदाहरणार्थ इंग्लैण्ड का सम्राट तथा भारत का राष्ट्रपति नाममात्र की कार्यपालिका हैं। नाममात्र की कार्यपालिका के अधिकारों के प्रयोग मन्त्रिपरिषद् करती है तथा वास्तविक कार्यकारिणी की शक्तियाँ मन्त्रिपरिषद् में निहित होती है।

2. वास्तविक कार्यपालिका – वास्तविक कार्यपालिका उसे कहते हैं, जो वास्तव में कार्यकारिणी की शक्तियों का प्रयोग करती है। इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा भारत की मन्त्रिपरिषद् वास्तविक कार्यपालिका का उदाहरण हैं।

3. एकल कार्यपालिका – एकल कार्यपालिका उसे कहते हैं, जिसमें कार्यपालिका की सम्पूर्ण शक्तियाँ एक व्यक्ति के अधिकार में होती हैं। अमेरिका का राष्ट्रपति एकल कार्यपालिका का ही उदाहरण है।

4. बहुल कार्यपालिका – इस प्रकार की कार्यपालिका में कार्यकारिणी शक्ति किसी एक व्यक्ति में निहित न होकर अनेक अधिकारियों के समूह में निहित होती है। इस प्रकार की कार्यपालिका स्विट्जरलैण्ड में है। वहाँ कार्यपालिका-सत्ता सात सदस्यों की एक परिषद् में निहित होती है।

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प्रश्न 5.
न्यायिक समीक्षा क्या है? [2016]
उत्तर
न्यायिक समीक्षा का अर्थ
न्यायिक समीक्षा का अर्थ है-एक कानून या आदेश की समीक्षा और वैधता निर्धारित करने के लिए न्यायपालिका की शक्ति को प्रदर्शित करना। विधायी कार्यों की न्यायिक समीक्षा का अर्थ वह शक्ति है जो विधायिका द्वारा पारित कानून को संविधान में निहित प्रावधानों और विशेषकर संविधान के भाग-3 के अनुसार सुनिश्चित करती है। निर्णयों की न्यायिक समीक्षा के मामले में, उदाहरण के लिए जब एक कानून को इस आधार पर चुनौती दी गयी कि इसे बिना किसी प्राधिकरण या अधिकार से विधायिका द्वारा पारित किया गया है, विधायिका द्वारा पारित किया गया कानून वैध है। या नहीं, इसके बारे में फैसला लेने का अधिकार अदालत के पास सुरक्षित होता है। इसके अलावा हमारे देश में किसी भी विधायिका के पास ऐसी कोई शक्ति नहीं है कि वे अदालतों द्वारा दिए गए निर्णय की अवज्ञा या उपेक्षा कर सकें।
अदालतों के पास न्यायिक समीक्षा की व्यापक शक्तियाँ हैं। इन शक्तियों का बड़ी सावधानी और नियन्त्रण के साथ प्रयोग किया जाता है। इन शक्तियों की निम्न सीमाएँ हैं-

  1. इसके पास केवल निर्णय तक पहुँचने में प्रक्रिया का सही ढंग से पालन किया गया है या नहीं देखने की ही अनुमति होती है, लेकिन स्वयं निर्णय लेने की अनुमति नहीं होती है।
  2. इसे केवल हमारे सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय जैसी अदालतों को सौंपा जाता है।
  3. जब तक बिल्कुल जरूरी न हो तब तक नीतिगत मामलों और राजनीतिक सवालों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
  4. एक बार कानून के पारित होने पर यह स्थिति बदलने के साथ असंवैधानिक हो सकता है। यह शायद कानून प्रणाली में खालीपन पैदा कर सकती है। इसलिए यह कहा जा सकता है। कि अदालत द्वारा दिए गए निर्देश तभी बाध्यकारी होंगे जब तक कानून अधिनियमित नहीं हो जाते हैं अर्थात् यह प्राकृतिक रूप से अस्थायी है।
  5. यह कानून की व्याख्या और उसे अमान्य कर सकता है, लेकिन खुद कानून नहीं बना सकता है।

प्रश्न 6.
कार्यपालिका और न्यायपालिका में सम्बन्ध बताइए।
उत्तर
लोकतन्त्र की सफलता के लिए कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से पृथक् रहना आवश्यक माना जाता है, परन्तु व्यवहार में इनका पारस्परिक सम्बन्ध घनिष्ठ होता है। क्योंकि न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका में निहित होता है। इन दोनों का सम्बन्ध निम्नलिखित रूपों में स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका के प्रधान द्वारा ही की जाती है।
  2. कार्यपालिका व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों को लागू करती है और न्यायपालिका कानूनों का उल्लंघन करने वालों को दण्डित करती है तथा शक्ति का अतिक्रमण करने से कार्यपालिका को रोकती है।
  3. न्यायपालिका के दण्डात्मक निर्णयों का कार्यान्वयन कार्यपालिका ही करती है।
  4. न्यायपालिका कार्यपालिका के भ्रष्ट कर्मचारियों को भी दण्डित करने का अधिकार रखती है। तथा कर्तव्यविमुख होने की अवस्था में किसी भी विभाग के विभागाध्यक्ष से आख्या माँग सकती है तथा तत्सम्बन्धित आदेश दे सकती है।
  5. न्यायपालिका के निर्णयों की आलोचना करने का अधिकार कार्यपालिका को नहीं है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
सरकार के शक्ति-विभाजन की उपयोगिता बताइए।
उत्तर
इसमें नागरिक निरंकुश नहीं हो पाता तथा शासन में सुगमता व कार्यकुशलता की वृद्धि होती है।

प्रश्न 2.
व्यवस्थापिका के चार कार्य बताइए। या व्यवस्थापिका के दो कार्य बताइए। [2013]
उत्तर

  1. कानूनों का निर्माण करना,
  2. संविधान में संशोधन करना,
  3. कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखना तथा
  4. वित्तीय कार्य करना।

प्रश्न 3.
भारत में कितने सदनों वाली व्यवस्थापिका है ?
उत्तर
भारत में दो सदनों वाली व्यवस्थापिका है।

प्रश्न 4.
एक-सदनीय व्यवस्थापिका के दो गुण बताइए। [2010]
उत्तर

  1. प्रबल उत्तरदायित्व की भावना तथा
  2. समय और धन की बचत।

प्रश्न 5.
एक-सदनीय व्यवस्थापिका के दो दोष बताइए।
उत्तर

  1. सदन के निरंकुश होने की आशंका तथा
  2. राज्यों के उचित प्रतिनिधित्व का अभाव।

प्रश्न 6.
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2014]
उत्तर

  1. द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में द्वितीय सदन प्रथम सदन की निरंकुशता पर रोक लगाता है।
  2. द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के कार्य में परिपक्वता उत्पन्न होती है।

प्रश्न 7.
द्वि-सदनात्मक विधानमण्डल (व्यवस्थापिका) की दो मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर

  1. इस व्यवस्था में दोनों सदन एक-दूसरे पर नियन्त्रण रखते हैं।
  2. इस व्यवस्था में अल्पसंख्यकों तथा विशिष्ट हित को भी समुचित प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है।

प्रश्न 8.
द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका के दो दोष लिखिए। [2012]
उत्तर

  1. दोनों सदनों के बीच प्रायः टकराव की सम्भावना बनी रहती है।
  2. राज्य के व्यय में वृद्धि हो जाती है।

प्रश्न 9.
द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका के दो लाभ बताइए।
उत्तर

  1. प्रथम सदन की निरंकुशता पर नियन्त्रण तथा
  2. स्वतन्त्रता की रक्षा का उत्तम साधन।

प्रश्न 10.
सरकार का कौन-सा अंग वार्षिक बजट पास करने का कार्य करता है ?
उत्तर
व्यवस्थापिका।

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प्रश्न 11.
भारत की केन्द्रीय व्यवस्थापिका का नाम क्या है?
उत्तर
भारत की केन्द्रीय व्यवस्थापिका का नाम ‘संसद है।

प्रश्न 12.
व्यवस्थापिका द्वारा कार्यपालिका को नियन्त्रित करने का एक साधन लिखिए।
उत्तर
‘काम रोको प्रस्ताव रखकर।

प्रश्न 13.
सरकार के तीनों अंगों के नाम लिखिए। (2010)
उत्तर

  1. व्यवस्थापिका
  2. कार्यपालिका तथा
  3. न्यायपालिका।

प्रश्न 14.
कार्यपालिका के दो प्रमुख कार्य बताइए। [2008, 11, 16]
उत्तर

  1. कार्यपालिका व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों को कार्यान्वित करती है तथा
  2. विदेश नीति का संचालन करती है।

प्रश्न 15
कार्यपालिका की नियुक्ति की दो विधियाँ बताइए।
उत्तर

  1. निर्वाचन पद्धति तथा
  2. वंशानुगत पद्धति।

प्रश्न 16.
किन देशों में व्यवस्थापिका के दोनों सदनों द्वारा कार्यपालिका के अध्यक्ष या समिति का चुनाव होता है?
उत्तर
स्विट्जरलैण्ड, यूगोस्लाविया और तुर्की।

प्रश्न 17.
किन देशों में कार्यपालिका के अध्यक्ष का निर्वाचन प्रत्यक्ष रूप से मतदाताओं के मतों द्वारा होता है?
उत्तर
फ्रांस, ब्राजील, चिली, पेरू, मैक्सिको, घाना आदि।

प्रश्न 18.
भारत में राष्ट्रपति का चुनाव कैसे होता है?
उत्तर
भारत में राष्ट्रपति का चुनाव जनता द्वारा अप्रत्यक्ष तरीके से किया जाता है। एक निर्वाचन मण्डल के सदस्य राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं।

प्रश्न 19.
अध्यक्षात्मक शासन में राष्ट्रपति विधि-निर्माण को कैसे प्रभावित कर सकता है?
उत्तर
अध्यक्षात्मक शासन में राष्ट्रपति व्यवस्थापिका को सन्देश भेजकर और ‘विलम्ब निषेधाधिकार का प्रयोग करके सीमित रूप से विधि-निर्माण को प्रभावित कर सकता है।

प्रश्न 20.
कार्यपालिका का एक न्यायिक कार्य बताइए।
उत्तर
प्रशासनिक विभाग द्वारा अर्थदण्ड देना, कार्यपालिका का एक न्यायिक कार्य है।

प्रश्न 21.
नाममात्र की कार्यपालिका का एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर
भारत का राष्ट्रपति व ब्रिटेन की सम्राज्ञी नाममात्र की कार्यपालिका के उदाहरण हैं।

प्रश्न 22.
बहुल कार्यपालिका का एक लक्षण बताइए।
उत्तर
इस व्यवस्था में कार्यकारिणी सम्बन्धी शक्तियाँ एक व्यक्ति के हाथों में निहित न होकर अनेक व्यक्तियों की एक परिषद् अथवा अनेक अधिकारियों के समूह में निहित होती हैं।

प्रश्न 23.
कार्यपालिका के किन्हीं दो रूपों का उल्लेख कीजिए। [2010]
उत्तर

  1. एकल कार्यपालिका तथा
  2. बहुल कार्यपालिका।

प्रश्न 24.
न्यायाधीशों की नियुक्ति की विधियाँ लिखिए।
उत्तर

  1. जनता द्वारा निर्वाचन,
  2. व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचन तथा
  3. कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति।

प्रश्न 25.
ऐसे एक देश का नाम लिखिए जहाँ न्यायपालिका निर्वाचित होती है।
उत्तर
स्विट्जरलैण्ड ऐसा देश है जहाँ न्यायपालिका निर्वाचित होती है।

प्रश्न 26.
न्यायपालिका के दो कार्य बताइए। [2011, 12, 15]
उत्तर
न्यायपालिका के दो कार्य हैं-

  1. कानूनों की व्याख्या करना तथा निर्णय देना एवं
  2. मौलिक अधिकारों की रक्षा करना।

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प्रश्न 27.
न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता बनाये रखने के दो उपाय बताइए।
उत्तर

  1. योग्य व प्रतिभावान न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ तथा
  2. न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण।

प्रश्न 28.
एक आदर्श न्यायाधीश के दो प्रमुख गुण लिखिए। [2016]
उत्तर

  1. निष्पक्षता तथा
  2. कानूनों का पूर्ण ज्ञान।

प्रश्न 29.
स्वतन्त्र न्यायपालिका के दो गुणों का उल्लेख कीजिए। [2013]
उत्तर

  1. निष्पक्ष न्याय की प्राप्ति तथा
  2. नागरिकों की स्वतन्त्रता एवं अधिकारों की रक्षा।

प्रश्न 30.
शक्ति-पृथक्करण के सिद्धान्त का प्रतिपादक कौन था? [2015]
उत्तर
मॉण्टेस्क्यू शक्ति-पृथक्करण सिद्धान्त का प्रतिपादक व समर्थक है।

प्रश्न 31.
किस प्रकार की शासन प्रणाली में नाममात्र की और वास्तविक कार्यपालिका होती [2012]
उत्तर
संसदात्मक शासन प्रणाली में।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1. किस देश में उच्च सदन का गठन वंश-परम्परा के आधार पर होता है ?
(क) इटली में
(ख) जापान में
(ग) इंग्लैण्ड में
(घ) कनाडा में

2. किस देश में उच्च सदन के सदस्य सरकार द्वारा मनोनीत किये जाते हैं ?
(क) इंग्लैण्ड में
(ख) भारत में
(ग) अमेरिका में
(घ) कनाडा में

3. भारत में उपराष्ट्रपति का चुनाव करते हैं-
(क) सभी मतदाती ।
(ख) विभिन्न राज्यों के विधानसभा-सदस्य
(ग) निर्वाचन मण्डल
(घ) संसद के दोनों सदन

4. व्यवस्थापिका का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है- [2011, 13, 15, 16]
(क) कानून बनवाना
(ख) कार्यपालिका पर नियन्त्रण
(ग) संविधान संशोधन
(घ) बजट पास करना

5. सरकार के अंगों की संख्या कितनी है?
(क) एक
(ख) दो
(ग) तीन
(घ) चार

6. व्यवस्थापिका का कार्य नहीं है- [2015]
(क) कानून बनाना
(ख) बजट पास करना
(ग) कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखना
(घ) बजट बनाना

7. प्रत्यायोजित व्यवस्थापन में निम्नलिखित में से किसके अधिकारों की वृद्धि होती है? [2011, 14]
(क) व्यवस्थापिका
(ख) कार्यपालिका
(ग) न्यायपालिका
(घ) राष्ट्रपति

8. अध्यक्षात्मक कार्यपालिका है-
(क) इंग्लैण्ड में
(ख) चीन में
(ग) जापान में
(घ) संयुक्त राज्य अमेरिका में

9. नाममात्र की कार्यपालिका है-
(क) संयुक्त राज्य अमेरिका में
(ख) फ्रांस में
(ग) पाकिस्तान में
(घ) इंग्लैण्ड में

10. बहुलवादी कार्यपालिका का उदाहरण है-
(क) भारत
(ख) चीन
(ग) स्पेन
(घ) स्विट्जरलैण्ड

11. नाममात्र की और वास्तविक कार्यपालिका में अन्तर किस सरकार का लक्षण है?
(क) संसदात्मक
(ख) अध्यक्षात्मक
(ग) राजतन्त्र
(घ) संघात्मक

12. कार्यपालिका का कार्यकाल किस सरकार में निश्चित होता है?
(क) संघात्मक
(ख) अध्यक्षात्मक
(ग) संसदात्मक
(घ) एकात्मक

13. कार्यपालिका का कार्य है- [2007]
(क) कानून बनाना
(ख) विधानसभा के अध्यक्ष का चुनाव करना
(ग) बजट पारित करना
(घ) प्रशासन चलाना या विधि को लागू करना

14. न्यायपालिका का अर्थ है- [2008, 09, 11, 12, 13, 14]
(क) प्रशासन चलाना
(ख) कानून बनाना
(ग) सुरक्षा प्रदान करना
(घ) संविधान की रक्षा करना

15. न्यायपालिका का प्रमुख कार्य है- [2012, 15]
(क) कानूनों का निर्माण करना
(ख) कानूनों को लागू करना।
(ग) कानूनों की व्याख्या करना
(घ) अच्छे कानूनों के लिए सलाह देना

16. न्यायपालिका की स्वतन्त्रता महत्त्वपूर्ण है-
(क) लोकतन्त्र की रक्षा हेतु
(ख) देश की शान्ति हेतु
(ग) देश की बाहरी सुरक्षा हेतु
(घ) देश की प्रगति हेतु

17. सर्वप्रथम किस देश में न्यायाधीशों का निर्वाचन जनसाधारण द्वारा किया गया?
(क) इंग्लैण्ड में
(ख) जर्मनी में
(ग) भारत में
(घ) फ्रांस में

18. संघात्मक शासन में केन्द्र एवं राज्यों के मध्य संवैधानिक विवादों के समाधान की जिम्मेदारी किस पर है?
(क) संसद
(ख) राष्ट्रपति
(ग) न्यायपालिका
(घ) प्रधानमन्त्री

19. न्यायपालिका का निम्नलिखित में से कौन-सा कार्य नहीं है? [2008, 12]
(क) संविधान की रक्षा करना
(ख) मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करना।
(ग) न्यायिक पुनरावलोकन
(घ) कानूनों का कार्यान्वयन करना

20. निम्नलिखित में से कौन-सा सरकार का अंग नहीं है? [2011]
(क) कार्यपालिका
(ख) व्यवस्थापिका
(ग) लोकमत
(घ) न्यायपालिका

21. निम्नलिखित में से कौन-सा सरकार का आवश्यक अंग है? [2011, 13, 14, 15]
(क) राजनीतिक दल
(ख) न्यायपालिका
(ग) जनमत
(घ) निर्वाचन आयोग

उत्तर

  1. (ग) इंग्लैण्ड में,
  2. (घ) कनाड़ा में,
  3. (घ) संसद के दोनों सदन,
  4. (क) कानून बनवाना,
  5. (ग) तीन,
  6. (घ) बजट बनाना,
  7. (घ) राष्ट्रपति,
  8. (घ) संयुक्त राज्य अमेरिका में,
  9. (घ) इंग्लैण्ड में,
  10. (घ) स्विट्जरलैण्ड,
  11. (क) संसदात्मक,
  12. (ख) अध्यक्षात्मक,
  13. (घ) प्रशासन चलाना या विधि को लागू करना,
  14. (घ) संविधान की रक्षा करना,
  15. (ग) कानूनों की व्याख्या करना,
  16. (क) लोकतन्त्र की रक्षा हेतु,
  17. (घ) फ्रांस में,
  18. (ग) न्यायपालिका,
  19. (घ) कानूनों का कार्यान्वयन करना,
  20. (ग) लोकमत,
  21. (ख) न्यायपालिका

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