UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 5 प्रगति के मानदण्ड

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Board UP Board
Textbook SCERT, UP
Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 5
Chapter Name प्रगति के मानदण्ड
Number of Questions Solved 4
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 5 प्रगति के मानदण्ड

प्रगति के मानदण्ड – जीवन/साहित्यिक परिचय

प्रश्न-पत्र में पाठ्य-पुस्तक में संकलित पाठों में से के पाठों के लेखकों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित एक प्रश्न पूछा जाता है। इस प्रश्न में किन्हीं 4 लेखकों के नाम दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक लेखक के बारे में लिखना होगा। इस प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

जीवन परिचय तथा साहित्यिक उपलब्धियाँ
पण्डित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर, 1916 को मथुरा (उत्तर प्रदेश) के नगला चन्द्रभान में हुआ था। इनके पिता श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय और माता श्रीमती रामप्यारी एक धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। इनके पिता भारतीय रेलवे में नौकरी करते थे, इसलिए इनका अधिकतर समय बाहर ही बीतता था।

पण्डित जी अपने ममेरे भाइयों के साथ खेलते हुए बड़े हुए। जब इनकी आयु 3 वर्ष की थी, तब इनके पिता की मृत्यु हो गई थी। पिता की मृत्यु के बाद इनकी माता बीमार रहने लगी थी। कुछ समय पश्चात् इनकी माता की भी मृत्यु हो गई। इन्होंने पिलानी, आगरा तथा प्रयाग में शिक्षा प्राप्त की। बी. एस. सी., बी. टी. करने के बाद भी इन्होंने नौकरी नहीं की और अपना सारा जीवन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में लगा दिया। अपने छात्र जीवन में ही ये इस आन्दोलन में चले गए थे। बाद में ये राष्ट्रीय स्वयं सेवक के लिए प्रचार-प्रसार करने लगे।

वर्ष 1961 में अखिल भारतीय जन संघ के बनने पर, इन्हें संगठन मन्त्री बनाया गया। उसके बाद वर्ष 1953 में ये अखिल भारतीय जनसंघ के महामन्त्री बनाए गए। महामन्त्री के तौर पर पार्टी में लगभग 15 सालों तक इस पद पर रहकर अपनी इस पार्टी को एक मजबूत आधारशिला दी। कालीकट अधिवेशन वर्ष 1967 में ये अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। 11 फरवरी, 1968 को एक रेल यात्रा के दौरान कुछ असामाजिक तत्वों ने रात को मुगलसराय, उत्तर प्रदेश के आस-पास उनकी हत्या कर दी थी और मात्र 52 साल की आयु में पण्डित जी ने अपने प्राण देश को समर्पित कर दिए।

साहित्यिक सेवाएँ
पण्डित दीनदयाल उपाध्याय महान् चिन्तक और संगठनकर्ता तथा एक ऐसे नेता थे, जिन्होंने जीवनपर्यन्त अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी व सत्यनिष्ठा को महत्त्व दिया। राजनीति के अतिरिक्त साहित्य में भी इनकी गहरी अभिरुचि थी। इनके हिन्दी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न प-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। केवल एक बैठक में ही इन्होंने ‘चन्द्रगुप्त ‘नाटक’ लिख डाला था।

कृतियाँ
इनकी कुछ प्रमुख पुस्तकें इस प्रकार हैं-दो योजनाएँ, राष्ट्र जीवन की दिशा, सम्राट चन्द्रगुप्त, राजनैतिक डायरी, जगत् गुरु शंकराचार्य, एकात्मक मानवतावाद, एक प्रेम कथा, लोकमान्य तिलक की राजनीति, राष्ट्र धर्म, पाँचजन्य।

भाषा-शैली
पण्डित दीनदयाल उपाध्याय जी पत्रकार तो थे ही, साथ में चिन्तक और लेखक भी थे। जनसंघ के राष्ट्र जीवन दर्शन के निर्माता दीन दयाल जी का उद्देश्य स्वतन्त्रता की पुनर्रचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्त्व दृष्टि प्रदान करना था। इन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को ‘एकात्म मानवतावाद’ जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी।

प्रगति के मानदण्ड – पाठ का सार

परीक्षा में ‘पाठ का सार’ से सम्बन्धित कोई प्रश्न नहीं पूछा जाता है। यह केवल विद्यार्थियों को पाठ समझाने के उद्देश्य से दिया गया है।

राजनीतिक दलों के विषय में लेखक के विचार
लेखक के अनुसार, भारत के अधिकांश राजनीतिक दल पाश्चात्य विचारों को लेकर हीं चलते हैं। वे पश्चिम की किसी-न-किसी राजनीतिक विचारधारा से जुड़े हुए तथा वहाँ के दलों की नकल मात्र हैं। वे भारत की इच्छाओं को पूर्ण नहीं कर सकते और न ही चौराहे पर खड़े विश्वमानव का मार्गदर्शन कर सकते हैं।

मनुष्य के विकास में समाज का दायित्व
लेखक ने मनुष्य के विकास में समाज के दायित्व को महत्वपूर्ण माना है। लेखक के अनुसार इस संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति के भरण-पोषण, शिक्षण, स्वस्थ एवं क्षमता की अवस्था तथा अस्वस्थ एवं अक्षमता की अवस्था में उचित अवकाश की व्यवस्था करने और जीविकोपार्जन की जिम्मेदारी समाज की है। प्रत्येक सभ्य समाज किसी-न-किसी रूप में इसका पालन भी करता है। लेखक ने समाज द्वारा मनुष्य का उचित ढंग से निर्वाह करने को प्रगति का मानदण्ड माना है, इसलिए लेखक का मानना है कि न्यूनतम जीवन स्तर की गारण्टी, शिक्षा, जीविकोपार्जन के लिए रोजगार, सामाजिक सुरक्षा और कल्याण को हमें मूलभूत अधिकार के रूप में स्वीकार करना होगी।

‘मानव सामाजिक व्यवस्था का केन्द्र
एकात्म मानववाद मानव जीवन व सम्पूर्ण सृष्टि के एकमात्र सम्बन्ध का दर्शन है। पण्डित दीनदयाल उपाध्याय जी ने इसका वैज्ञानिक विवेचन किया। उनके अनुसार | हमारी सम्पूर्ण व्यवस्था का केन्द्र मानव होना चाहिए, ‘जो’ जहाँ मनुष्य हैं, वहाँ ब्रह्माण्ड है’, के न्याय के अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि का जीवमान प्रतिनिधि एवं उसका उपकरण है। जिस व्यवस्था में पूर्ण मानव के स्थान पर एकांगी मानव पर विचार किया जाए, वह अधूरी है। लेखक के अनुसार, भारत ने सम्पूर्ण सृष्टि रचना में एकत्व देखा है। हमारा आधार एकात्म मानव है, इसलिए एकात्म मानववाद के आधार पर हमें जीवन की सभी व्यवस्थाओं का विकास करना होगा। “सिद्धान्त और नीति” से सम्पादित ‘प्रगति के मानदण्ड” अध्याय में लेखक ने मनुष्य को सामाजिक व्यवस्था के केन्द्र में रखा है और मनुष्य द्वारा अपने भरण-पोषण में असमर्थ होने पर समाज को उसका दायित्व सौंपा है। साथ ही समाज में व्याप्त कुरीतियों को परम्परा का नाम देकर अपनाए रखने की संकीर्ण मानसिकता व भारतीय एवं पाश्चात्य समाज के सैद्धान्तिक विभेदों को प्रकट करते हुए मनुष्य को अपना बल बदाने तथा विश्व की प्रगति में सहायक भूमिका निभाने के लिए प्रेरित किया है।

भारतीय संस्कृति के प्रति संकीर्ण मानसिकता
लेखक के अनुसार, भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा लेकर चलने वाले कुछ राजनीतिक दल हैं, लेकिन वे भारतीय संस्कृति की सनातनता (प्राचीनता) को उसकी गतिहीनता समझ बैठे हैं, इसलिए ये दल पुरानी रूदियों का समर्थन करते हैं। भारतीय संस्कृति के क्रान्तिकारी तत्त्व की ओर उनकी दृष्टि नहीं जाती। समाज में प्रचलित अनेक कुरीतियों; जैसे छुआछूत, जाति-भेद दहेज, मृत्युभोज, नारी-अवमानना आदिको लेखक ने भारतीय संस्कृति और समाज के लिए रोग के लक्षण माना है। भारत के कई महापुरुष, जो भारतीय परम्परा और संस्कृति के प्रति निष्ठा रखते थे, वे इन बुराइयों के विरुद्ध लड़ें। अन्त में लेखक ने स्पष्ट किया है कि हमारी सांस्कृतिक चेतना के क्षीण होने का कारण रूदियों हैं। एकात्म मानव विचार भारतीय और भारत के बाहर की सभी चिन्ताधाराओं का समान आकलन करके चलता है। उनकी शक्ति और दुर्बलताओं को परखता है और एक ऐसा मार्ग प्रशस्त करता है, जो मानव को अब तक के उसके चिन्तन, अनुभव और उपलब्धि की मंजिल से आगे बढ़ा सके।

स्वयं की शक्ति बढ़ाने पर बल देना
लेखक के अनुसार, पाश्चात्य जगत् ने भौतिक उन्नति तो की, लेकिन उसकी आध्यात्मिक अनुभूति पिछड़ गई अर्थात् वह आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर पाया। वहीं दूसरी ओर’ भारत भौतिक दृष्टि से पिछड़ गया, इसलिए भारत की आध्यात्मिकता शब्द मात्र रह गई। शक्तिहीन व्यक्ति को आत्मानुभूति नहीं हो | सकती। बिना स्वयं को प्रकाशित किए सिद्धि (सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती है। अतः आवश्यक है कि बल की उपासना के आदेश के अनुसार हम अपनी शक्ति को बढ़ाए और स्वयं की उन्नति करने के लिए प्रयत्नशील बनें, जिससे हम अपने रोगों को दूर कर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर सकें तथा विश्व के लिए भार न बनकर | उसकी प्रगति में साधक की भूमिका निभाने में सहायक हो सकें।

गद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-पत्र में गद्य भाग से दो गद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर:::: देने होंगे।

प्रश्न 1.
जन्म लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति के भरण-पोषण की, उसके शिक्षण की, जिससे वह समाज के एक जिम्मेदार घटक के नाते अपना योगदान करते हुए अपने विकास में समर्थ हो सके, उसके लिए स्वस्थ एवं क्षमता की अवस्था में जीविकोपार्जन की और यदि किसी भी कारण वह सम्भव न हो, तो भरण-पोषण की तथा उचित अवकाश की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी समाज की है। प्रत्येक सभ्य समाज इसका किसी-न-किसी रूप में निर्वाह करता है। प्रगति के यही मुख्य मानदण्ड हैं। अतः न्यूनतम जीवन-स्तर की गारण्टी, शिक्षा, जीविकोपार्जन के लिए रोजगार, सामाजिक सुरक्षा और कल्याण को हमें मूलभूत अधिकार के रूप में स्वीकार करना होगा।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) लेखक के अनुसार मनुष्य के विकास में समाज की क्या भूमिका है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार मनुष्य के विकास में समाज की महत्त्वपूर्ण भूमिका है, क्योंकि समाज में जन्म लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति के पालन-पोषण, शिक्षण, जीविका के लिए रोजी रोटी का उचित प्रबन्ध करना समाज की जिम्मेदारी है।

(ii) मनुष्य की प्रगति का मानदण्ड क्या हैं?
उत्तर:
जब समाज मनुष्य के प्रति अपने सभी दायित्वों का निर्वाह पूरी निष्ठा से करता है, तो मनुष्य की प्रगति होती है। समाज द्वारा मनुष्य का पोषण करना ही
प्रगति और विकास का मुख्य मानदण्ड है।

(iii) लेखक के अनुसार व्यक्ति के मूल अधिकार क्या होने चाहिए?
उत्तर:
लेखक के अनुसार मनुष्य के न्यूनतम जीवन स्तर की गारण्टी, शिक्षा, जीवन-यापन के लिए रोजगार, सामाजिक सुरक्षा और कल्याण हमारे मूल अधिकार होने चाहिए।

(iv) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक का उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश में मनुष्य को उसके मूलभूत अधिकारों के प्रति सचेत करना तथा मनुष्य के विकास में समाज के दायित्व का बोध कराना ही लेखक का मूल उद्देश्य है।

(v) ‘न्यूनतम’ व ‘व्यवस्था’ शब्दों के विलोम शब्द लिखिए।
उत्तर:
न्यूनतम् – उच्चतम, व्यवस्था – अव्यवस्था।

प्रश्न 2.
हमारी सम्पूर्ण व्यवस्था का केन्द्र मानव होना चाहिए, जो (‘यत् पिण्डे तद्ब्रह्माण्डे’) के न्याय के अनुसार समष्टि का जीवमान प्रतिनिधि एवं उसका उपकरण है। (भौतिक उपकरण मानव के सुख के साधन हैं, साध्य नहीं।) जिस व्यवस्था में भिन्नरुचिलोक का विचार केवल एक औसत मानव से अथवा शरीर-मन-बुद्धि-आत्मायुक्त, अनेक एषणाओं से प्रेरित पुरुषार्थचतुष्टयशील, पूर्ण मानव के स्थान पर एकांगी मानव का ही विचार किया जाए, वह अधूरा है। हमारा आधार एकात्म मानव है, जो अनेक एकात्म मानववाद (Integral Humanism) के आधार पर हमें जीवन की सभी व्यवस्थाओं का विकास करना होगा।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) लेखक के अनुसार सामाजिक व्यवस्था के केन्द्र में कौन होना चाहिए?
उत्तर:
लेखक के अनुसार हमारी सम्पूर्ण व्यवस्था के मध्य अर्थात् केन्द्र में मनुष्य होना चाहिए। मनुष्य ही ब्रह्माण्ड का आधार है तथा पृथ्वी पर जीव का प्रतिनिधित्व करने वाला तथा उसका साधन मनुष्य ही है।

(ii) मनुष्य का लक्ष्य क्या है?
उत्तर:
टी.वी., इण्टरनेट आदि भौतिक उपकरण मनुष्य को सुख पहुँचाने के साधन हैं, उसका लक्ष्य नहीं हैं। मनुष्य इन साधनों से सुख तो प्राप्त कर सकता है, परन्तु इन्हें अपना लक्ष्य नहीं मान सकता है, क्योंकि मनुष्य का लक्ष्य निरन्तर प्रगति करनी है।

(iii) लेखक के अनुसार कौन-सी व्यवस्था अधूरी कहलाती हैं?
उत्तर:
लेखक के अनुसार जिस व्यवस्था में सम्पूर्ण मानव जाति के स्थान पर अकेले मानव पर विचार किया जाए अर्थात् केवल एक ही मनुष्य के विकास पर बले दिया जाए, वह व्यवस्था अधूरी कहलाती है।

(iv) भारतीय संस्कृति का आधार क्या है?
उत्तर:
भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण आधार एकात्म मानव है। भारत की सम्पूर्ण * सृष्टि में एकत्व दृष्टिगत होता है, इसलिए हमें एकात्म मानवता के आधार पर जीवन में विकास करना होगा।

(v) ‘समष्टि व ‘पूर्ण’ शब्दों के विलोम शब्द लिखिए।
उत्तर:
समष्टि – व्यष्टि, पूर्ण – अपूर्ण।

प्रश्न 3.
भारत के अधिकांश राजनीतिक दल पाश्चात्य विचारों को लेकर ही चलते हैं। वे वहाँ किसी-न-किसी राजनीतिक विचारधारा से सम्बद्ध एवं वहाँ के दलों की अनुकृति मात्र हैं। वे भारत की मनीषा को पूर्ण नहीं कर सकते और न चौराहे पर खड़े विश्वमानव का मार्गदर्शन कर सकते हैं। भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा लेकर चलने वाले भी कुछ राजनीतिक दल हैं, किन्तु वे भारतीय संस्कृति की सनातनता को उसकी गतिहीनता समझ बैठे हैं और इसलिए बीते युग की रूढ़ियों अथवा यथास्थिति का समर्थन करते हैं। संस्कृति के क्रान्तिकारी तत्त्व की ओर उनकी दृष्टि नहीं जाती।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) भारतीय राजनीतिक दलों के विषय में लेखक के क्या विचार हैं?
उत्तर:
लेखक भारतीय राजनीतिक दलों के विषय में विचार व्यक्त करते हुए कहता है कि भारत के अधिकतर राजनीतिक दल पश्चिमी देशों के विचारों से प्रभावित होकर उन्हें ही आधार मानकर चलते हैं। भारतीय दल पश्चिम के राजनीतिक दलों की नकल मात्र है।

(ii) लेखक के अनुसार, भारतीय राजनीतिक दल विकासशील भारत का मार्गदर्शन क्यों नहीं कर सकते?
उत्तर:
लेखक के अनुसार, भारत के अधिकांश राजनीतिक दल, विकासशील भारत का मार्गदर्शन नहीं कर सकते, क्योंकि वे पाश्चात्य विचारों का ही अनुसरण करते हैं। वे भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा का दिखावा मात्र करते हैं।

(iii) पुरानी रूढ़ियों का समर्थन करने वाले दलों के विषय में लेखक का क्या मत है?
उत्तर:
पुरानी रूदियों का समर्थन करने वाले कुछ राजनीतिक दल भारतीय संस्कृति की प्राचीनता और गौरव को विकास के मार्ग की रुकावट समझकर पुरानी रूदियों का समर्थन करते हैं। भारतीय संस्कृति के क्रान्तिकारी तत्वों की ओर इनकी दृष्टि ही नहीं जाती।

(iv) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश में अधिकतर राजनीतिक दलों की पाश्चात्य विचारधाराओं से संचालित होने तथा राजनीतिक दलों की भारतीय संस्कृति के प्रति संकीर्ण मानसिकता को प्रकट करना ही लेखक का मुख्य उद्देश्य है।

(v) ‘राजनीतिक’, व ‘अनुकृति’ शब्दों में क्रमशः प्रत्यय तथा उपसर्ग अँटकर लिखिए।
उत्तर:
राजनीतिक – इक (प्रत्यय), अनुकृति – अनु (उपसर्ग)।

प्रश्न 4.
आज के अनेक आर्थिक और सामाजिक विधानों की हम जाँच करें, तो पता चलेगा कि वे हमारी सांस्कृतिक चेतना के क्षीण होने के कारण युगानुकूल परिवर्तन और परिवर्द्धन की कमी से बनी हुई रूढ़ियों, परकीयों के साथ संघर्ष की परिस्थिति से उत्पन्न माँग को पूरा करने के लिए अपनाए गए उपाय अथवा परकीयों द्वारा थोपी गई या उनका अनुकरण कर स्वीकार की गई व्यवस्थाएँ मात्र हैं। भारतीय संस्कृति के नाम पर उन्हें जिन्दा रखा जा सकता।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है तथा इसके लेखक कौन हैं?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश ‘प्रगति के मानदण्ड पाठ से लिया गया है। इसके लेखक पण्डित दीनदयाल उपाध्याय है।

(i) लेखक के अनुसार भारतीय सांस्कृतिक चेतना के कमजोर होने का मुख्य कारण क्या है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार भारतीय सांस्कृतिक चेतना के कमजोर होने का मुख्य कारण युग के अनुकूल परिवर्तन न करके पुरानी प्रथाओं, रूढियों को अधिक महत्त्व देना है।

(iii) युगानुरूप परिवर्तन एवं विकास नहीं होने का मुख्य कारण क्या है?
उत्तर:
युगानुरूप परिवर्तन एवं विकास नहीं होने का मुख्य कारण हमारी प्राचीन रूढ़ियाँ, परम्पराएँ, कुप्रथाएँ हैं, जिन्हें समकालीन समय में मनुष्य की आवश्यकताओं से अधिक महत्त्व देने के कारण हमारी प्रगति रुक गई।

(iv) भारतीय नीतियाँ एवं सिद्धान्त किस प्रकार विदेशियों की नकल मात्र बनकर रह गए हैं?
उत्तर:
भारतीय नीतियाँ एवं सिद्धान्त विदेशियों की नकल मात्र बनकर रह गए हैं, क्योंकि विदेशियों के साथ होने वाले संघर्ष तथा उन परिस्थितियों से उत्पन्न माँग को पूरा करने के लिए अपनाए गए तरीके या तो विदेशियों द्वारा जबरदस्ती थोपे गए हैं या स्वयं हमने उनकी नकल करके नीतियों एवं सिद्धान्त निर्मित कर लिए हैं।

(v) ‘परिस्थिति’, व सांस्कृतिक’ शब्दों में क्रमशः उपसर्ग एवं प्रत्यय आँटकर लिखिए।
उत्तर:
परिस्थिति – परि (उपसर्ग), सांस्कृतिक – इक (प्रत्यय)

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