UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 14 Movements of Ocean Water

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 14 Movements of Ocean Water (महासागरीय जल संचलन)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

1. बहुवैकल्पिक प्रश्न
प्रश्न (i) महासागरीय जल की ऊपर व नीचे की गति किससे सम्बन्धित है?
(क) ज्वार ।
(ख) तरंग
(ग) धाराएँ।
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-(क) ज्वार।

प्रश्न (ii) वृहत ज्वार आने को क्या कारण है?
(क) सूर्य और चन्द्रमा का पृथ्वी पर एक ही दिशा में गुरुत्वाकर्षण बल
(ख) सूर्य और चन्द्रमा द्वारा एक-दूसरे की विपरीत दिशा से पृथ्वी पर गुरुत्वाकर्षण बल
(ग) तट रेखा का दन्तुरित होना |
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं ।
उत्तर-(क) सूर्य और चन्द्रमा का पृथ्वी पर एक ही दिशा में गुरुत्वाकर्षण बल।।

प्रश्न (iii) पृथ्वी तथा चन्द्रमा की न्यूनतम दूरी कब होती है?
(क) अपसौर
(ख) उपसौर
(ग) उपभू ।
(घ) अपभू
उत्तर-(ग) उपभू।

प्रश्न (iv) पृथ्वी उपसौर की स्थिति कब होती है?
(क) अक्टूबर
(ख) जुलाई ।
(ग) सितम्बर
(घ) जनवरी
उत्तर-(घ) जनवरी।।

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) तरंगें क्या हैं?
उत्तर-तरंगें वास्तव में ऊर्जा हैं जल नहीं, जो महासागरीय सतह के आर-पार गति करती हैं। समुद्र का जल पवनों के चलने से ऊपर उठता एवं गिरता हुआ प्रतीत होता है। हवाओं के प्रभाव से यह जल लहरदार आकृतियों में दिखाई देता है। इसलिए इनको तरंगें या लहरें (waves) कहते हैं।

प्रश्न (ii) महासागरीय तरंगें ऊर्जा कहाँ से प्राप्त करती हैं?
उत्तर-तरंगें ऊर्जा वायु से प्राप्त करती हैं। वायु के कारण ही तरंगें महासागर में गति करती हैं तथा ऊर्जा को तट रेखा पर निर्मुक्त करती हैं।

प्रश्न (iii) ज्वार-भाटा क्या है?
उत्तर-चन्द्रमा एवं सूर्य के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से समुद्रतल में निश्चित समय पर आने वाले परिवर्तन को ‘ज्वार-भाटा’ कहा जाता है। ज्वार’ सागर के जल के ऊपर उठने की प्रक्रिया है अर्थात् जब सागरीय जल सूर्य एवं चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति द्वारा एकत्रित होकर तीव्रता से ऊपर उठता है तो उसे ज्वार’ कहते हैं। जिन स्थानों से जल खिंचकर आता है वहाँ जल का तल नीचा हो जाता है, जिसे ‘भटा’ कहा जाता है।

प्रश्न (iv) ज्वार-भाटा उत्पन्न होने के क्या कारण हैं? .
उत्तर-ज्वार-भाटा, चन्द्रमा एवं सूर्य की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का परिणाम है। इसके अतिरिक्त ज्वार-भाटा की उत्पत्ति के लिए अपकेन्द्रीय बल भी उत्तरदायी है जो गुरुत्वाकर्षण शक्ति को संतुलित करता है। अतः गुरुत्वाकर्षण बल और अपकेन्द्रीय बल दोनों मिलकर पृथ्वी पर दो महत्त्वपूर्ण ज्वार-भाटाओं को उत्पन्न करते हैं। चन्द्रमा की ओर वाले पृथ्वी के भाग पर एक ज्वार-भाटा उत्पन्न होता है, जब विपरीत भौग पर चन्द्रमा का गुरुत्वीय आकर्षण बल उसकी दूरी के कारण कम होता है, तब अपकेन्द्रीय बल दूसरी तरफ ज्वार उत्पन्न करता है (चित्र 14.1)।
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प्रश्न (v) ज्वार-भाटा नौसंचालन से कैसे सम्बन्धित है? ।
उत्तर-ज्वार-भाटा नौसंचालन एवं मछुआरों को उनके कार्य में सहयोग प्रदान करता है। नौसंचालन में ज्वारीय प्रवाह अत्यधिक सहयोगी होता है। विशेषकर ज्वारनदमुख के भीतर जहाँ प्रवेशद्वार पर छिछले रोधिका होते हैं वहाँ पर ज्वार-भाटा से जल की आपूर्ति हो जाने पर नौका संचालन अत्यन्त सरल हो जाता है। अत: उथले समुद्रों में दीर्घ ज्वार से जहाज बन्दरगाह तक आ जाते हैं और भाटे के समय चले जाते हैं।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (1) जलधाराएँ तापमान को कैसे प्रभावित करती हैं? उत्तर-पश्चिमी यूरोप के तटीय क्षेत्रों के तापमान को ये किस प्रकार प्रभावित करती हैं?
उत्तर-जलधाराएँ किसी प्रदेश की जलवायु एवं विशेषकर तापमान को बहुत प्रभावित करती हैं। जिस प्रकार की जलवायु होगी वैसा ही प्रभाव उस क्षेत्र पर भी पड़ता है। गर्म जलधाराएँ जिस क्षेत्र में प्रभावित होती हैं उस क्षेत्र के तापमान में वृद्धि हो जाती है और ठण्डी जलधाराएँ उस क्षेत्र के तापमान को कम कर देती हैं। यह प्रभाव पश्चिमी यूरोप तथा उत्तरी-पूर्वी एशिया में विशेष रूप से देखा जा सकता है जहाँ क्रमशः गल्फस्ट्रीम एवं क्यूरोसिवो जलधाराएँ तापमान में परिवर्तन उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी मानी जाती हैं। उत्तरी अन्ध महासागर में यूरोप का पश्चिमी तट उत्तर अटलाण्टिक ड्रिफ्ट के गर्म जल के प्रभाव से जाड़ों में यूरेशिया के भीतरी भागों व कनाडा के पूर्वी तट की अपेक्षा लगभग 10° से 15° सेल्सियस तर्क अधिक गर्म रहता है। इसी कारण नॉर्वे का तट व्यापार के लिए जाड़ों में भी खुला रहता है, जबकि उन्हीं अक्षांशों में स्थित साइबेरिया का तट हिम से जम जाता है।

प्रश्न (ii) जलधाराएँ कैसे उत्पन्न होती हैं?
या जलधाराओं की उत्पत्ति के क्या कारण हैं? वर्णन कीजिए।
उत्तर-महासागरीय जलधाराओं की उत्पत्ति के निम्नलिखित कारण हैं
1. तापमान की भिन्नता-सागरीय जल के तापमान में क्षैतिज एवं लम्बवत् भिन्नताएँ पाई जाती हैं। जल निम्न तापमान के कारण ठण्डा होकर नीचे बैठ जाता है, जिस कारण विषुवत रेखीय क्षेत्रों से जल ध्रुवों की ओर प्रवाहित होने लगता है। उत्तरी एवं दक्षिणी विषुवत्रेखीय जलधाराएँ इसी प्रकार की हैं।

2. लवणता की भिन्नता-महासागरीय जल की लवणता में पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है। लवणता की भिन्नता से सागरीय जल का घनत्व भी परिवर्तित हो जाता है। उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों से जल कम घनत्व या कम लवणता वाले भागों से विषुवत् रेखा की ओर प्रवाहित होने लगता है। इस प्रकार सागरीय जल में लवणता के घनत्व में भिन्नता के कारण जलधाराओं की उत्पत्ति हो जाती है। हिन्द महासागर के जल को लाल सागर की ओर प्रवाह इसका उत्तम उदाहरण है।

3. प्रचलित पवनों का प्रभाव-प्रचलित पवनें वर्षेभर नियमित रूप से प्रवाहित होती हैं और ये अपने मार्ग में पड़ने वाली जलराशि को पवन की दिशा के अनुकूल धकेलती हुई चलती हैं जिससे जलराशि प्रवाहित होने लगती है। उदाहरण के लिए-पछुआ पवनों के प्रभाव से क्यूरोसिवो व गल्फस्ट्रीम की धाराओं को गति व दिशा मिलती है (चित्र 14.2)।

4. वाष्पीकरण व वर्षा-पृथ्वी तल पर वाष्पीकरण व वर्षा में पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है। जहाँ वाष्पीकरण अधिक होता है वहाँ सागर तल नीचा हो जाता है; अत: उच्च-तल के क्षेत्रों से सागरीय जल निम्न जल-तल की ओर प्रवाहित होने लगता है जिससे जलधाराओं की उत्पत्ति हो जाती है। ठीक इसी प्रकार अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सागरीय जल-तल में वृद्धि हो जाती है। ऐसे क्षेत्रों से जल निम्न वर्षा तथा निम्न जल-तल वाले भागों की ओर एक धारा के रूप में प्रवाहित होने लगता है।

5. पृथ्वी की दैनिक गति-पृथ्वी अपने अक्ष पर तीव्र गति से घूमती हुई सूर्य के सम्मुख लगभग 24 घण्टे में एक चक्कर पूरा कर लेती है। पृथ्वी की घूर्णन गति के कारण सागरीय जल उत्तरी गोलार्द्ध में दाईं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बाईं ओर घूम जाता है। पृथ्वी की घूर्णन गति का प्रभाव जलधाराओं के प्रवाह एवं उनकी गति पर भी पड़ता है।

इसके अतिरिक्त वायुभारे की भिन्नता, ऋतु परिवर्तन, समुद्रतटीय आकृति आदि ऐसे कारक हैं जो महासागरों में जलधाराओं की उत्पत्ति में सहायक होते हैं।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. निम्नलिखित में से कौन-सी समुद्री धारा गर्म धारा है?
(क) कनारी
(ख) पेरू
(ग) क्यूराइल
(घ) क्यूरोसिवो
उत्तर-(घ) क्यूरोसिवो।

प्रश्न 2. निम्नलिखित में से कौन-सी समुद्री धारा गर्म धारा नहीं है?
(क) ब्राजील
(ख) गल्फस्ट्रीम
(ग) कनारी
(घ) क्यूरोसिवो
उत्तर-(ग) कनारी।

प्रश्न 3. निम्नलिखित में से कौन-सी महासागरीय ठण्डी धारा है?
(क) कैलीफोर्नियन
(ख) क्यूरोसिवो ।
(ग) क्यूराइल
(घ) गल्फस्ट्रीम
उत्तर-(ग) क्यूराइल।

प्रश्न 4. निम्नलिखित में से कौन एक उत्तरी अंध महासागर की धारा है?
(क) बेंगुएला धारा
(ख) फाकलैण्ड धारा
(ग) लैब्रेडोर धारा ।
(घ) अगुलहास धारा
उत्तर-(ग) लैब्रेडोर धारा।

प्रश्न 5. निम्नलिखित में से कौन गर्म समुद्री धारा है?
(क) लैब्रेडोर धारा
(ख) ब्राजील धारा
(ग) कैलीफोर्निया धारा ।
(घ) पश्चिम ऑस्ट्रेलिया धारा
उत्तर-(घ) पश्चिम ऑस्ट्रेलिया धारा।।

प्रश्न 6. निम्नलिखित में से कौन-सी समुद्री धारा ठण्डी धारा है?
(क) ब्राजील धारा
(ख) हम्बोल्ट (पेरू) धारा
(ग) क्यूरोसिवो धारा
(घ) गल्फस्ट्रीम
उत्तर-(ख) हम्बोल्ट (पेरू) धारा।

प्रश्न 7. निम्नलिखित में से कौन-सी एक गर्म महासागरीय धारा है।
(क) कैलीफोर्निया
(ख) कनारी
(ग) ब्राजील ।
(घ) बंगुएला
उत्तर-(ग) ब्राजील।

प्रश्न 8. निम्नलिखित में से कौन एक ठण्डी धारा है?
(क) ब्राजील ।
(ख) क्यूराइल
(ग) गल्फस्ट्रीम
(घ) क्यूरोसिवो
उत्तर-(ख)क्यूराइल।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. महासागरीय मग्नतट से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-यह समुद्र के नितल का अति मन्द ढालयुक्त भाग है, जो महाद्वीप के चारों ओर फैला हुआ है।

प्रश्न 2. महासागरीय जल की लवणता को समझाइए।
उत्तर-सागरीय जल में लवणों की उपस्थिति से उत्पन्न खारेपन को महासागरीय जल की लवणता कहा जाता है।

प्रश्न 3. महासागरीय जलधाराएँ क्या हैं?
उत्तर-जब सागरों एवं महासागरों का जल नियमित रूप से एक निश्चित दिशा में प्रवाहित होने लगता है तो उसे महासागरीय जलधारा कहते हैं। जलधाराएँ सागरों में उसी प्रकार प्रवाहित होती हैं, जैसे स्थलीय भागों में नदियाँ एवं नाले।

प्रश्न 4. महासागरीय जलधारा के दो प्रभाव लिखिए।
उत्तर-महासागरीय जलधारा के दो प्रभाव निम्नलिखित हैं

  • महासागरीय जलधाराओं का निकटवर्ती क्षेत्र की जलवायु पर व्यापक प्रभाव पड़ना।
  • ठण्डी एवं गर्म जलधाराओं के सम्मिश्रण से मत्स्य क्षेत्रों का विकास।

प्रश्न 5. उत्तरी अन्ध महासागर की धाराओं के नाम लिखिए।
उत्तर-उत्तरी अन्ध महासागर की धाराओं में उत्तरी विषुवतीय धारा, गल्फस्ट्रीम धारा, उत्तरी अटलाण्टिक ड्रिफ्ट, लैब्रेडोर धारा और कनारी धारा प्रमुख हैं।

प्रश्न 6. सारंगैसो सागर कहाँ है? इसका यह नाम क्यों पड़ा है?
उत्तर-सारगैसो सागर उत्तरी अन्ध महासागर में स्थित है। इस क्षेत्र की धाराएँ एक चक्र के रूप में घूमती हैं। इस स्थिर व शान्त जल क्षेत्र में अनेक प्रकार की घास-फूस भी एकत्र हो जाती है जिसमें सारगैसो घास की अधिकता होने के कारण इसे सारगैसो सागर कहा जाता है।

प्रश्न 7. हिन्द महासागर की धाराओं के नाम लिखिए।
उत्तर-1. दक्षिणी भूमध्यरेखीय जलधारा, 2. मौजाम्बिक जलधारा, 3. अगुलहास जलधारा, 4. पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की धारा, 5. मेष्मकालीन मानसून प्रवाह एवं उत्तर-पूर्वी मानसून प्रवाह आदि हिन्द महासागर की धाराएँ हैं।

प्रश्न 8. प्रशान्त महासागर तथा अन्ध महासागर की एक-एक ठण्डी एवं गर्म जलधारा का आर्थिक महत्त्व बतलाइए।
उत्तर-न्यूफाउण्डलैण्ड के समीप अन्ध महासागर की गर्म गल्फस्ट्रीम तथा लैब्रेडोर की ठण्डी धारा एवं जापाने तट पर प्रशान्त महासागर की क्यूरोसिवो गर्म और क्यूराइल ठण्डी धाराओं के मिलने से घना कुहरा उत्पन्न होता है। ये क्षेत्र संसार के सबसे महत्त्वपूर्ण मत्स्य आखेट क्षेत्र के रूप में विकसित हैं।

प्रश्न 9. पृथ्वी के सागर तल पर प्रतिदिन दो बार ज्वार-भाटा क्यों आता है।
उत्तर-पृथ्वी के सागर तल पर प्रतिदिन दो बार ज्वार-भाटा आने का प्रमुख कारण मुरुत्वाकर्षण शक्ति एवं पृथ्वी के अपकेन्द्रीय बल का प्रभाव है।

प्रश्न 10. दीर्घ ज्वार क्या है? यह पूर्णिमा और अमावस्या को ही क्यों आता है?
या वृहत् ज्वार की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-जब सागरीय ज्वार की ऊँचाई औसत ज्वार से 20% अधिक होती है जो उसे दीर्घ ज्वार कहते हैं। यह पूर्णिमा और अमावस्या को इसलिए आता है क्योंकि इन तिथियों में सूर्य व चन्द्रमा की संयुक्त शक्ति पृथ्वी पर अपना सर्वाधिक प्रभाव डालती है।

प्रश्न 11. अर्द्ध-दैनिक ज्वार-भाटा किसे कहते हैं?
उत्तर-जब कहीं दिन में दो बार ज्वार-भाटा आता है तो उसे अर्द्ध-दैनिक ज्वार-भाटा कहते हैं। यह प्रति 12 घण्टे 26 मिनट पश्चात् आता है।

प्रश्न 12. तरंग की गति कैसे निर्धारित होती है?
उत्तर-तरंग की गति उसके दैर्घ्य तथा आवर्तकाल से सम्बन्धित है और निम्नलिखित सूत्र से ज्ञात की जा सकती है
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प्रश्न 13. ऊँचाई एवं आवृत्ति के आधार पर ज्वार-भाटा का वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर-ऊँचाई के आधार पर-1. वृहत् ज्वार, 2. निम्न ज्वार।।
आवृत्ति के आधार पर—

  1. अर्द्ध-दैनिक ज्वार,
  2. दैनिक ज्वार,
  3. मिश्रित ज्वार।

प्रश्न 14. उन तीन आकर्षण शक्तियों को बताइए जो ज्वार के निर्माण में योगदान करती हैं?
उत्तर-ज्वार के निर्माण में योगदान देने वाली तीन आकर्षण शक्तियाँ निम्नलिखित हैं1. चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति, 2. सूर्य की आकर्षण शक्ति, 3. पृथ्वी की आकर्षण शक्ति।

प्रश्न 15. महासागरीय जल की तीन गतियाँ कौन-सी हैं?
उत्तर-महासागरीय जल की तीन गतियाँ निम्नलिखित हैं

  • तरंग,
  • धाराएँ,
  • ज्वार-भाटा।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. महासागरीय धाराओं के तटवर्ती भागों पर क्या प्रभाव होते हैं?
उत्तर-महासागरीय धाराएँ अपने स्वभाव के अनुसार तटवर्ती भागों की जलवायु मत्स्याखेट तथा व्यापार को प्रभावित करती हैं-

1. जलवायु पर प्रभाव- ठण्डी धाराएँ तटवर्ती भागों की जलवायु को शुष्क बना देती हैं, क्योंकि इनके ऊपर से बहकर आने वाली पवनें शुष्क तथा शीतल होती हैं, जो वर्षा नहीं करा पातीं। यही कारण है कि बेग्युला की धारा, पीरू की धारा, कनारी की धारा, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की धारा तथा कैलीफोर्निया की धारा के तटवर्ती भागों की जलवायु शुष्क मरुस्थली होती है। विश्व के विशाल
मरुस्थल इन्हीं धाराओं के कारण उष्ण तथा शुष्क हैं।

2. मत्स्याखेट पर प्रभाव-जहाँ गर्म तथा ठण्डी धाराएँ परस्पर मिलती हैं वहाँ सघन कोहरा पैदा होता है। यह दशा मछलियों के विकास के लिए उत्तम होती है तथा वहाँ मछली पकड़ने का कार्य बड़े पैमाने पर होता है। जापान के निकट गर्म क्यूरोसिवो तथा ठण्डी ओयाशियो की धारा और न्यूफाउण्डलैण्ड के निकट गर्म गल्फस्ट्रीम और ठण्डी लैब्रेडोर धाराओं के मिलने से यही दशा पैदा
होती है। ये क्षेत्र मत्स्याखेट के लिए उत्तम हैं।

3. व्यापार पर प्रभाव-उत्तरी गोलार्द्ध में उच्च अक्षांशों में जहाँ तटों के निकट गर्म धाराएँ बहती हैं, वे तट शीतकाल में भी हिमाच्छादित नहीं होते; अत: व्यापार के लिए खुले रहते हैं। उदाहरणार्थ-पश्चिमी यूरोप के तट गर्म उत्तरी अटलांटिक ड्रिफ्ट के कारण व्यापार के लिए वर्ष-भर खुले रहते हैं, जबकि उन्हीं अक्षांशों में स्थित साइबेरिया (रूस) के पूर्वी तट शीतकाल में जम जाते हैं।

प्रश्न 2. महासागरीय जलधारा एवं ज्वार-भाटे में अन्तर बताइए।
उत्तर-महासागरीय जलधाराएँ एवं ज्वार-भाटे दोनों ही महासागरीय गतियाँ हैं, किन्तु ज्वार-भाटा एक स्थानीय तथा अल्पकालिक गति है जिसमें सागर या महासागर तटों पर निश्चिंत समय पर दिन में दो बार सागरीय जल चढ़ता एवं उतरता रहता है। इनकी उत्पत्ति पृथ्वी पर चन्द्रमा तथा सूर्य की आकर्षण शक्ति के कारण होती है।

ज्वार-भाटों के विपरीत महासागरीय जलधाराओं में जल का संचलन (गतिं) निरन्तर होता रहता है। इनमें जले का प्रवाह एक निश्चित दिशा में होता है। इनकी उत्पत्ति पृथ्वी के घूर्णन (परिभ्रमण), प्रचलित पवनों, तापमानों एवं लवणता की भिन्नताओं तथा तटरेखा की आकृति के कारण होती है।

प्रश्न 3. किसी स्थान पर प्रतिदिन निश्चित समय पर ज्वार-भाटा क्यों नहीं आते हैं?
उत्तर-ज्वार प्रत्येक स्थान पर 24 घण्टे में दो बार आता है। लेकिन ज्वार आने का समय नियमित रूप से एक ही नहीं रहता है। इसका मुख्य कारण यह है कि पृथ्वी 24 घण्टे में अपनी कक्षा पर एक चक्कर पूरा करती है। पृथ्वी अपना यह चक्कर पश्चिम से पूर्व की ओर लगाती है। चन्द्रमा भी अपनी धुरी पर घूमते हुए पृथ्वी को चक्कर लगाता है; अत: चन्द्रमा अगले एक दिन में अपने निश्चित ज्वार केन्द्र से कुछ आगे बढ़ जाता है। इस कारण ज्वार केन्द्र को चन्द्रमा के इस नवीन केन्द्र के ठीक नीचे तक या चन्द्रमा के सामने पहुँचने में 52 मिनट का समय अधिक लगता है। इस प्रकार प्रति अगले दिन ज्वार केन्द्र को चन्द्रमा के सामने आने में कुल 24 घण्टे 52 मिनट लगते हैं। इसी कारण अगला ज्वार ठीक 12 घण्टे बाद न आकर 12 घण्टे 26 मिनट बादं आता है। यह 26 मिनट की देरी प्रतिदिन होती रहती है, जो कि ज्वार आने के प्रत्येक समय में परिवर्तन सिद्ध करती है। यही स्थिति ज्वार केन्द्र के विपरीत भाग में रहती है, जहाँ ज्वार 12 घण्टे 26 मिनट पश्चात् आता है।

प्रश्न 4. लघु तथा दीर्घ ज्वार में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-लघु ज्वार-यह ज्वार कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष की सप्तमी और अष्टमी तिथियों में सूर्य और चन्द्रमा के पृथ्वी के साथ समकोणीय स्थिति में आने के कारण आता है। इस समकोणीय स्थिति के द्वारा सूर्य और चन्द्रमा पृथ्वी के महासागरीय जल को अनेक दिशाओं में आकर्षित करते हैं। इस कारण महासागरों में ज्वार की ऊँचाई अन्य तिथियों की अपेक्षा कम रह जाती है। दीर्घ

ज्वार-यह ज्वार पूर्णिमा एवं अमावस्या के दिन सूर्य, पृथ्वी एवं चन्द्रमा के एक सीध में स्थित होने के कारण आता है। इस स्थिति के कारण ज्वार की ऊँचाई अन्य दिनों की अपेक्षा बीस प्रतिशत अधिक हो जाती है।

प्रश्न 5. महासागरीय धाराएँ कितने प्रकार की होती हैं?
उत्तर-महासागरीय धाराएँ गति तथा तापमान के आधार पर दो वर्गों में विभाजित की जाती हैं
1. गति के आधार पर-गति के आधार पर महासागरीय धाराएँ दो प्रकार की होती हैं
(i) स्ट्रीम-तीव्र गति से प्रवाहित होने वाली धारा स्ट्रीम कहलाती है। उत्तरी अन्ध महासागर की गल्फस्ट्रीम इसका मुख्य उदाहरण है।
(ii) इिफ्ट-वे महासागरीय धाराएँ जो धीमी गति से प्रवाहित होती हैं उन्हें ड्रिफ्ट या अपवाह कहते हैं। ऑस्ट्रेलिया के दक्षिण में पश्चिमी अपवाह इसका एक अच्छा उदाहरण है।

2. तापमान के आधार पर-तापमान के आधार पर महासागरीय धाराएँ दो प्रकार की होती हैं
(i) गर्म धाराएँ-वे महासागरीय धाराएँ जिनका जल गर्म होता है, उन्हें गर्म जलधाराएँ कहते हैं। गल्फस्ट्रीम तथा क्यूरोसिवो आदि इसी प्रकार की जलधाराएँ हैं।
(ii) ठण्डी जलधाराएँ-वे महासागरीय जलधाराएँ जिनका जल ठण्डा होता है उनको ठण्डी | जलधारा कहते हैं। लैब्रेडोर, क्यूराइल आदि इसी प्रकार की धाराएँ हैं।

प्रश्न 6. ज्वार प्रतिदिन 50 मिनट विलम्ब से क्यों आता है?
या दो ज्वारों के बीच ठीक बारह घण्टे का अन्तर क्यों नहीं होता है?
उत्तर-ज्वार 24 घण्टे में प्रत्येक स्थान पर प्राय: दो बार आता है, परन्तु यह निश्चित रूप से एक ही समय पर नहीं आता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि पृथ्वी 24 घण्टे में अपना पूरा एक चक्कर पश्चिम से पूरब दिशा में घूर्णन करते हुए लगाती है। चन्द्रमा भी अपने अक्ष पर घूर्णन करते हुए पृथ्वी का चक्कर लगाता है। पृथ्वी की इस परिभ्रमण गति से ज्वार पश्चिम से पूरब की ओर बढ़ता है। इस ज्वार केन्द्र के एक पूरे चक्कर के बाद भी चन्द्रमा अपनी गति से कुछ आगे निकल जाता है जिसका प्रमुख कारण पृथ्वी का परिक्रमण है। इस प्रकार ज्वार केन्द्र को चन्द्रमा के केन्द्र तक या चन्द्रमा के समक्ष पहुँचने में 52 मिनट का समय और लग जाता है। इस ज्वार केन्द्र को पुनः चन्द्रमा के समक्ष आने में कुल 24 घण्टे 52 मिनट लगते हैं। इसी कारण ज्वार ठीक 12 घण्टे बाद न आकर 12 घण्टे 26 मिनट के बाद आता है तथा यह 26 मिनट की देरी प्रतिदिन होती रहती है, जो कि ज्वार आने के प्रत्येक समय में परिवर्तन सिद्ध करती है। ऐसी ही स्थिति ज्वार केन्द्र के विपरीत भागों में रहती है।

प्रश्न 7. ज्वार-भाटा के लाभ तथा तटीय क्षेत्रों पर इसका प्रभाव बतलाइए।
उत्तर-ज्वार-भाटा का प्रभाव नौका-परिवहन पर अत्यधिक पड़ता है। ज्वार द्वारा कुछ नदियाँ बड़े जलयानों के चलाने योग्य बन जाती हैं। हुगली तथा टेम्स नदियाँ ज्वारीय धाराओं के कारण ही नाव योग्य हो सकी हैं तथा कोलकाता व लन्दन महत्त्वपूर्ण पत्तन बन सके हैं। इसी कारण ये दोनों पतन नदी पत्तन कुहलाते हैं। ज्वारीय ऊर्जा को भी आज महत्त्वपूर्ण समझा जाने लगा है। ज्वर के द्वारा समुद्रतटीय नगरों के कूड़ा-करकट व गन्दगी के ढेर प्रतिदिन बहकर समुद्र में चले जाते हैं। ज्वार-भाटा का तटीय भागों में प्रभाव व्यापक स्तर पर दिखाई देता है। ज्वार के समय मछलियाँ व अनेक मूल्यवान पदार्थ समुद्री किनारे पर आ जाते हैं, जहाँ किनारे उथले हैं वहाँ नौकाएँ तट पर आसानी से पहुँच जाती हैं। इस प्रकार ज्वार-भाटा का समीपवर्ती जन-जीवन पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 8. उत्तर-पश्चिी यूरोप के तटीय क्षेत्रों को उत्तरी अटलाण्टिक प्रवाह से प्राप्त दो प्रमुख लाभों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-1. उत्तरी अटलाण्टिके प्रवाह के परिणामस्वरूप गर्म जल प्रवाहमान रहता है तथा तटीय भाग अधिक गर्म बने रहते हैं। अत: उत्तर-पश्चिमी यूरोप का तटीय क्षेत्र जलयानों के लिए वर्षभर खुला रहता है।

2. गर्म तथा ठण्डी जलधाराओं के मिलन-स्थल पर कुहरा अधिक पड़ता है। ऐसे स्थान मत्स्य उत्पादन के लिए उर्वर होते हैं। उत्तरी अटलाण्टिक प्रवाह के कारण उत्तर-पश्चिमी यूरोप के तटीय क्षेत्र मत्स्य उत्पादन में विश्व में प्रमुख स्थान बनाए हुए हैं।

प्रश्न 9. ज्वार-भाटा क्या है। इसके समय और ऊँचाई में विभिन्नता की विवेचना कीजिए।
उत्तर-सागर एवं महासागरीय जल की गतियों में ज्वार-भाटा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गति है, क्योंकि चन्द्रमा एवं सूर्य के आकर्षण से उत्पन्न ज्वारीय तरंगें नियमित रूप से ऊपर उठतीं तथा नीचे गिरती हैं, इससे सागर का जल आगे-पीछे होता रहता है। सागरीय जल सूर्य और चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति द्वारा एकत्रित होकर जब तीव्रता से ऊपर उठता है तो उसे ज्वार कहते हैं। जिन स्थानों से जल खिंचकर आता है वहाँ जल का तल नीचा हो जाता है, जो भाटा कहलाता है।

ज्वार एवं भाटी के मध्य सागरीय जल सतह का अन्तर ज्वार-परिसर कहलाता है। खुले सागरों में जल की गति अधिक होने पर यह मात्र एक या दो फुट होता है, परन्तु उथले सागरों एवं खाड़ियों में स्थल के घर्षण के कारण ज्वार का अन्तर अधिक पाया जाता है। ब्रिटेन की टेम्स नदी के मुहाने पर 23 फुट का अन्तर देखा गया है, जबकि कनाडा की फण्डी खाड़ी में 70 फुट का अन्तर पाया गया है। इसके अतिरिक्त विभिन्न स्थानों पर ज्वार-भाटा की ऊँचाई में भी भिन्नता पाई जाती है। ज्वार की ऊँचाई पर तट रेखा का प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए झीलों में ज्वार की ऊँचाई केवल कुछ इंच ही होती है। भूमध्य सागर एवं बाल्टिक सागर में भी केवल 2 फुट ऊँचे ज्वार आते हैं। यही नहीं, विभिन्न स्थानों पर ज्वार-भाटा आने का समय भी भिन्न-भिन्न होता है। इसी कारण ज्वार की अवधि भी प्रत्येक स्थान पर भिन्न-भिन्न हो जाती है।

प्रश्न 10. महासागरीय जलधाराओं के मानव-जीवन पर पड़ने वाले किन्हीं दो प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-महासागरीय जलधाराओं का निकटवर्ती क्षेत्रों के मानव-जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसके दो प्रभाव निम्नलिखित हैं—

1. ठण्डी एवं गर्म जलधाराओं के मिलने से धुन्ध एवं कुहरा उत्पन्न होता है जो मत्स्य व्यवसाय के लिए आदर्श भौगोलिक सुविधाएँ प्रदान करता है। इस प्रकार तटवर्ती क्षेत्रों में मानव के आर्थिक व्यवसाय का विकास होता है। उदाहरण के लिए–गल्फस्ट्रीम की गर्म जलधारा तथा लैब्रेडोर की ठण्डी जलधाराओं से न्यूफाउण्डलैण्ड के समीप ग्राण्ड बैंक मछली पकड़ने के प्रमुख केन्द्र के रूप
में विकसित हुआ है।

2. महासागरीय धाराओं का निकटवर्ती क्षेत्रों की जलवायु, वर्षा, व्यापार एवं कृषि पर गहरा एवं व्यापक प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए-जापान के पश्चिमी तट पर प्रवाहित गर्म क्यूरोसिवों धारा की सुशिमा शाखा के कारण तापमान पूर्वी तट की अपेक्षा अधिक रहता है तथा यहाँ कृषि कार्य के लिए उपयुक्त जलवायु-दशाएँ उपलब्ध हो जाती हैं।

प्रश्न 11. तरंगों की मुख्य विशेषताएँ बतलाइए।
या तरंगों के सम्बन्ध में प्रमुख तथ्यों का विवरण दीजिए।
उत्तर-तरंगों के सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य या विशेषताएँ महत्त्वपूर्ण हैं

  1. तरंग-शिखर एवं गर्त-एक तरंग के उच्चतम एवं निम्नतम बिन्दुओं को क्रमशः तरंग का शिखर एवं गर्त कहा जाता है।
  2. तरंग की ऊँचाई-तरंग की गति के अधःस्थल से शिखर के ऊपरी भाग तक की ऊर्ध्वाधर दूरी तरंग की ऊँचाई होती है (चित्र 14.3)।
  3. तरंग आयाम-तरंग की ऊँचाई का आधा उसका आयाम कहलाता है।
  4. तरंग काल-तरंग काल एक निश्चित बिन्दु से गुजरने वाले दो लगातार शिखरों या गर्तों के बीच का समयान्तराल है।
  5. तरंगदैर्ध्य-दो लगातार शिखरों या गर्ती के बीच की क्षैतिज दूरी तरंगदैर्ध्य कहलाती है।
  6. तरंग गति-जल के माध्यम से तरंग की गति करने की दर को तरंग गति कहते हैं। इसे नॉट में मापा जाता है।
  7. तरंग आकृति-एक सेकण्ड के समय अन्तराल में दिए गए बिन्दु से गुजरने वाली तरंगों की संख्या तरंग आवृत्ति कहलाती है।
    UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 14 Movements of Ocean Water (महासागरीय जल संचलन) img 4

प्रश्न 12. तरंगें कैसे निर्मित होती हैं? इनके मुख्य प्रकार बताईए।
उत्तर-तरंगें महासागरीय जल में दोलन गति की प्रतीके हैं। इनसे समुद्री धरातल निरन्तर ऊपर उठता और नीचे धंसता रहता है। मुख्य रूप से तरंगों का निर्माण पवनों से होता है। समुद्र की सतह पर जब पवन दाब और घर्षण के रूप में अपनी ऊर्जा का प्रयोग करता है तबै तरंगें उत्पन्न होती हैं। पवन द्वारा निर्मित ये तरंगें निम्नलिखित तीन प्रकार की होती हैं

  • सी-ये जटिल और परिवर्तनशील स्वभाव की तरंगें हैं। ये अस्त-व्यस्त तरंगी रूपरेखा का निर्माण करती हैं।
  • स्वेल-ये नियमित तरंगें हैं जो समान ऊँचाई और आवर्तकाल के साथ एक निश्चित रूप में | प्रवाहित होती हैं।
  • सर्फ-तटीय क्षेत्रों में इन टूटती हुई तरंगों को सर्फ (फोनिल लहर) कहते हैं।

प्रश्न 13. महासागरीय धाराएँ क्या हैं? इनकी मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर-जब सागरों एवं महासागरों का जल नियमित रूप से एक निश्चित दिशा में प्रवाहित होने लगता है तो उसे महासागरीय जलधारा कहते हैं। जलधाराएँ सागरों में उसी प्रकार प्रवाहित होती हैं जैसे स्थलीय भागों में नदियाँ एवं नाले। जलधाराओं को सागरीय नदियाँ भी कह सकते हैं। सामान्यत: धाराओं की गति 2 से 10 किमी प्रति घण्टा तक ऑकी गई है। गति एवं विस्तार आदि की दृष्टि से जलधाराओं को ड्रिफ्ट, धारा एव स्ट्रीम आदि नामों से पुकारा जाता है। जलधाराएँ ठण्डी एवं गर्म दोनों प्रकार की ह्येती हैं अर्थात् जो जलधाराएँ। ध्रुवों की ओर से प्रवाहित होती हैं, वे ठण्डी जलधाराएँ कहलाती हैं, जबकि विषुवत् रेखा से प्रवाहित होने वाली जलधाराएँ गर्म जल की धाराएँ कहलाती हैं।

प्रश्न 14. दक्षिणी प्रशान्त महासागर की प्रमुख जलधाराओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-दक्षिणी प्रशान्त महासागर की जलधाराएँ
दक्षिणी प्रशान्त महासागर की प्रमुख जलधाराएँ निम्नलिखित हैं
1. पीरू जलधारा-अण्टार्कटिक प्रवाह दक्षिणी अमेरिका के दक्षिणी भाग से टकराकर केपहार्न अन्तरीप के निकट उततर की ओर को मुड़ जाता है। पीरू के तट पर पहुँचने के कारण इसे पीरू की धारा के नाम से पुकारते हैं। यह धारा उत्तर की ओर दक्षिणी विषुवत् धारा से जा मिलती है। यह एक शीतल जलधारा है जिसे सर्वप्रथम हम्बोल्ट नाम के नाविक ने देखा था; अतः उनके नाम
पर इसे हम्बोल्ट की धारा भी कहा जाता है।

2. दक्षिणी विषुवत्रखीय धारा-यह एक उष्ण जलधारा है जिसकी उत्पत्ति दक्षिणी गोलार्द्ध की दक्षिणी-पूर्व सन्मार्गी पवनों के कारण होती है। यह विषुवत् रेखा के दक्षिण में 3° से 10° अक्षांशों के मध्य प्रवाहित होती है। यह धारा दक्षिणी अमेरिका के पश्चिमी तटों से होती हुई ऑस्ट्रेलिया तक पहुँचती है। न्यूगिनी तट के निकट यह दो शाखाओं में बँट जाती है। यह धारा 1,300 किमी की दूरी तक प्रवाहित होती है।

3. पूर्वी ऑस्ट्रेलियन धारा-न्यूगिनी तट के निकट दक्षिणी विषुवत्रेखीय धारा दो शाखाओं में विभक्त हो जाती है। इसकी जो शाखा ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर प्रवाहित होती है उसे पूर्वी ऑस्ट्रेलियन गर्म जलधारा अथवा न्यूसाउथ की धारा के नाम से पुकारते हैं।

4. अण्टार्कटिक-प्रवाह-यह एक ठण्डी जलधारा है जिसकी उत्पत्ति अण्टार्कटिक महासागरीय भागों में होती है। यह धारा पछुवा पवनों के प्रभाव से पश्चिम से पूर्व की ओर प्रवाहित होती है। यह धारा बहुत मन्द गति से प्रवाहित होती है।

प्रश्न 15. अन्ध महासागर एवं प्रशान्त महासागर की जलधाराओं का समीपवर्ती क्षेत्र की जलवायु पर प्रभाव बताइए।
उत्तर- अन्ध महासागर की धाराओं का समीपवर्ती क्षेत्रों की जलवायु पर प्रभाव
उत्तरी अन्ध महासागर में यूरोप का पश्चिमी तट उत्तर अटलाण्टिक ड्रिफ्ट के गर्म जल के प्रभाव से जाड़ों में यूरेशिया के भीतरी भागों व कनाडा के पूर्वी तट की अपेक्षा लगभग 10° से 15° सेल्सियस तक अधिक गर्म रहता है। इसी कारण नॉर्वे का तट व्यापार के लिए जाड़ों में भी खुला रहता है, जबकि उन्हीं अक्षांशों में स्थित साइबेरिया का तट हिम से जम जाता है। कनारी (उत्तर) और बेंगुला (दक्षिण) की ठण्डी धाराओं के कारण पश्चिमी अफ्रीका के उष्ण मरुस्थलीय तटों पर भीतरी भागों की अपेक्षा अधिक आर्द्रता रहँती है। जहाँ कहीं ठण्डी या गर्म जलधाराएँ मिलती हैं, वहाँ कुहरा अधिक पड़ता है। ऐसे क्षेत्र मत्स्य उत्पादन के लिए उत्तम होते हैं, क्योंकि इस प्रकार की जलवायु में मछलियों का भोज्य पदार्थ-प्लेंकटन अधिक मात्रा में उत्पन्न होता है।

समीपवर्ती क्षेत्रों की जलवायु पर प्रशान्त महासागर की धाराओं का प्रभाव ।
प्रशान्त महासागर की सभी धाराएँ अपने निकटवर्ती क्षेत्रों की जलवायु पर गहरा प्रभाव डालती हैं। जापान के तट पर ठण्डी एवं गर्म जलधाराओं के मिलने से धुन्ध एवं कुहरा उत्पन्न हो जाता है जिससे यहाँ भारी मात्रा में मछलियाँ पकड़ी जाती हैं। इसके अतिरिक्त इन जलधाराओं का निकटवर्ती क्षेत्रों की जलवायु, वर्षा, व्यापार, कृषि एवं सागरीय जीव-जन्तुओं पर भी गहरा एवं व्यापक प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए-जापान के पश्चिमी तट पर प्रवाहित गर्म क्यूरोसिवो धारा की सुशिमा शाखा के कारण तापमान पूर्वी तट की अपेक्षा अधिक रहता है जबकि पश्चिमी तट साइबेरिया से आने वाली अति ठण्डी पवनों के लिए भी खुला रहता है। गर्म अलास्का धारा के कारण अलास्को का तट भीलरी भागों की अपेक्षा जाड़ों में अधिक उष्ण रहता है। ठण्डी कैलीफोर्निया धारा भी गर्मियों में उत्तरी अमेरिका के पश्चिमतटीय भागों की जलवायु को शीतल कर देती है, जबकि भीतरी मरुस्थलीय भागों में उच्च ताप पाया जाता है। ||

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. सागरीय धाराएँ किन्हें कहते हैं? प्रशान्त महासागर की धाराओं का वर्णन कीजिए।
या महासागरीय जलधाराएँ क्या हैं? इनकी उत्पत्ति के कारणों की सोदाहरण विवेचना कीजिए।
या उत्तरी प्रशान्त महासागर की प्रमुख जलधाराओं का वर्णन कीजिए तथा उनमें से किसी एक धारा के समीपवर्ती क्षेत्र की जलवायु पर प्रभाव बताइए।
या टिप्पणी लिखिए—(क) उत्तरी प्रशान्त महासागर की प्रमुख धाराएँ। (ख) क्यूरोसिवो जलधारा।।
उत्तर-सागरीय धाराएँ
जिस प्रकार धरातल पर नदियाँ प्रवाहित होती हैं, उसी प्रकार सागरों एवं महासागरों में धाराएँ एक विशाल जलराशि के साथ एक दिशा में प्रवाहित होती हैं। ये धाराएँ अधिक शक्तिशाली एवं प्रभावशाली होती हैं। ये धाराएँ महासागरों के ऊपरी तल पर ही नहीं, अपितु सागरों की निश्चित गहराई में भी एक निश्चित दिशा में प्रवाहित होती हैं। कुछ धाराएँ महाद्वीपीय तट के किनारे-किनारे प्रवाहित होती हैं, जबकि कुछ सागरों के बीचों-बीच प्रवाहित होती हैं, जिन्हें सागरीय धाराओं के नाम से जाना जाता है।

धाराओं की उत्पत्ति के कारण
1. तापमान की भिन्नता-सागरीय जल के तापमान में क्षैतिज एवं लम्बवत् भिन्नता पायी जाती है। भूमध्यरेखीय क्षेत्रों में अधिक गर्मी के कारण समुद्री जल गर्म हो जाता है, जबकि उच्च एवं ध्रुवीय क्षेत्रों में जल निम्न तापमान के कारण ठण्डा होकर नीचे बैठ जाता है, जिस कारण भूमध्यरेखीय क्षेत्रों का जल ध्रुवों की तरफ प्रवाहित होने लगता है। उत्तरी एवं दक्षिणी भूमध्यरेखीय धाराएँ इसी प्रकार की धाराएँ हैं।

2. लवणता की भिन्नता-महासागरीय जल में लवणता में पर्याप्त भिन्नता पायी जाती है। लवणता की भिन्नता से सागरीय जल का घनत्व परिवर्तित हो जाता है। उत्तरी कम घनत्व वाले भागों या कम लवणता वाले भागों से जल अधिक लवणता वाले जलीय भागों की ओर प्रवाहित होने लगता है, जिससे जलधाराओं की उत्पत्ति हो जाती है। हिन्द महासागर में लाल सागर की तरफ इसका प्रवाह उत्तम उदाहरण है।

3. प्रचलित पवनों का प्रभाव-प्रचलित पवनें वर्ष-भर नियमित रूप से प्रवाहित होती हैं और ये पवनें अपने मार्ग में पड़ने वाली जलराशि को पवन की दिशा के अनुकूल धकेलती हैं और जलराशि प्रवाहित होने लगती है। पछुवा हवाओं के प्रभाव से क्यूरोसिवो व गल्फस्ट्रीम की धाराओं को गति |व दिशा मिलती है।

4. वाष्पीकरण व वर्षा-पृथ्वीतल पर वाष्पीकरण वे वर्षा में पर्याप्त भिन्नता पायी जाती है। जहाँ वाष्पीकरण अधिक होता है वहाँ सागरतल नीचा हो जाता है; अत: उच्च तल के क्षेत्रों से सागरीय जल प्रवाहित होने लगता है और जलधाराओं का निर्माण हो जाता है। ठीक इसी प्रकार अधिक वर्षा के क्षेत्रों में सागर जल-तल में वृद्धि हो जाती है और ऐसे क्षेत्रों में जल निम्न वर्षा वाले तथा निम्न जल-तल वाले भागों की तरफ एक धारा के रूप में बहने लगता है।

5. पृथ्वी की दैनिक गति-पृथ्वी अपनी कीली पर तीव्र गति से घूमती हुई 24 घण्टे में एक पूरा चक्कर लगा लेती है। पृथ्वी की घूर्णन गति के कारण ही सागरीय जल उत्तरी गोलार्द्ध में दाहिनी ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बायीं ओर घूम जाता है। पृथ्वी की घूर्णन गति को प्रभाव जलधाराओं के प्रवाह एवं गति पर पड़ता है।।

इसके अलावा वायुभार की भिन्नता, ऋतु-परिवर्तन, समुद्रतटीय आकृति आदि ऐसे कारक हैं जो महासागरों में जलधाराओं की उत्पत्ति में सहायक होते हैं।

प्रशान्त महासागर की धाराएँ

प्रशान्त महासागर की प्राकृतिक संरचना तथा जल-तल की स्थिति में परिवर्तन के कारण इन धाराओं की दिशा एवं गति में भी परिवर्तन होता रहता है। प्रशान्त महासागर की धाराओं का विवरण निम्नलिखित है

1. उत्तरी भूमध्यरेखीय गर्म धारा-इस जलधारा की उत्पत्ति उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका महाद्वीपों के मिलन-स्थल पर पश्चिमी दिशा से होती है। यह जलधारा इस तट के पश्चिम की ओर चलकर सम्पूर्ण महासागर से होती हुई फिलीपाइन द्वीप समूह से टकराती है तथा उत्तर की ओर मुड़ जाती है। यहाँ पर इसकी दो शाखाएँ हो जाती हैं–पहली शाखा दक्षिण की ओर मुड़कर अपनी दिशा पूर्व की ओर मोड़ लेती है, जिसे प्रति-भूमध्यरेखीय धारा के नाम से पुकारते हैं। दूसरी शाखा उत्तर की ओर ताईवान द्वीप पर पहुँचती है तथा यही शाखा आगे की ओर क्यूरोसिवो की धारा बन जाती है। शीत ऋतु में इसकी दक्षिणी सीमा 5° उत्तरी अक्षांश तथा ग्रीष्म ऋतु में 10° उत्तरी अक्षांश पर स्थिर रहती है।

2. दक्षिणी भूमध्यरेखीय गर्म धारा-दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप के पश्चिमी भाग में लगभग 3°से 10° दक्षिणी अक्षांशों के मध्य यह धारा पश्चिम की ओर प्रवाहित होती है। इसकी गति तीव्र एवं मन्द होती रहती है। इस धारा की औसत गति 30 किमी प्रतिदिन है, परन्तु कभी-कभी यह 150 किमी प्रतिदिन की गति से भी प्रवाहित होती है। पश्चिम की ओर प्रवाहित होती हुई यह जलधारा ऑस्ट्रेलिया के उत्तर में न्यूगिनी तट से टकराती है, तो दो भागों में विभाजित हो जाती है। पहली शाखा उत्तर की ओर प्रति-भूमध्यरेखीय धारा से मिल जाती है तथा इसकी दिशा में पूर्व की ओर परिवर्तन हो जाता है। दूसरी शाखा ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी भाग में दक्षिण की ओर प्रवाहित होती हुई पुनः अपनी दिशा पूरब की ओर मोड़ लेती है।

3. प्रति-भूमध्यरेखीय धारा-जिस प्रकार उत्तरी तथा दक्षिणी हिन्द महासागर में प्रति- भूमध्यरेखीय धारा की स्थिति है, उसी प्रकार उत्तरी तथा दक्षिणी प्रशान्त महासागर के मध्य प्रति- भूमध्यरेखीय धारा प्रवाहित होती है। यह धारा दो कारणों से चलती है—पहला कारण पूरब से पश्चिम की ओर बहती हुई उत्तरी तथा दक्षिणी भूमध्यरेखीय धारा। जब यह फिलीपाइन द्वीप समूह तथा न्यूगिनी द्वीप से टकराती है तो अपने दायीं-बायीं ओर घूम जाती है। अन्दर की ओर दोनों जलधाराओं का जल प्रति- भूमध्यरेखीय धारा को जन्म देता है। यह धारा पश्चिम से पूरब की ओर प्रवाहित होती है। इस धारा के प्रवाह का दूसरा कारण पश्चिम से पूरब की ओर प्रवाहित होने वाली व्यापारिक हवाओं द्वारा एकत्रित जल को पूरब की ओर सामान्य ढाल से प्रवाहित कराना है तथा इसका पनामा की खाड़ी में प्रवेश कर जाना है।।

4. क्यूरोसिवो धारा-गर्म जल की यह धारा अपने विकास तथा गति में एक परिपक्व धारा है। इसमें अनेक धाराएँ मिली हुई हैं। इसका प्रवाह क्षेत्र ताईवाने द्वीप से लेकर बेरिंग जलडमरूमध्य तक है। इसकी निम्नलिखित शाखाएँ हैं

(i) क्यूरोसिवो की गर्म जलधारा-यह उत्तरी भूमध्यरेखीय गर्म धारा का ही सिलसिला है। जो उत्तर की ओर मुड़ते ही क्यूरोसिवो धारा के नाम से जानी जाती है। इसका प्रवाह क्षेत्र | ताईवान द्वीप से रियूक्यू द्वीप तक है।

(ii) क्यूरोसिव प्रसरण-जापान के पूर्वी तट पर 35° उत्तरी अक्षांश के समीप क्यूरोसिवो धारा अपने जल का दो भागों में प्रसरण कर देती है। इसका कारण पृथ्वी की परिभ्रमण गति तथा पछुवी हवाओं का प्रवाहित होना है। इसकी पहली शाखा पूरब की ओर चली जाती है। तथा दूसरी उत्तर-पूर्व की ओर तट का अनुसरण करते हुए आगे की ओर बढ़ जाती है। लगभग 55° उत्तरी अक्षांश पर जापान के होकैडो द्वीप के पूर्वी तट पर, दूसरी शाखा उत्तर की ओर से आने वाली क्यूराइल की ठण्डी धारा से टकराकर पूर्व की ओर मुड़ जाती है। ठण्डी एवं गर्म जलधाराओं के मिलन से यहाँ पर भारी कोहरा पड़ता रहता है।

(iii) उत्तरी प्रशान्त महासागरीय प्रवाह-पछुवा पवनों के प्रभाव एवं क्यूरोसिवो धारा के बहने के साथ यह धारा पूर्व की ओर प्रवाहित होती है तथा 150° पूर्वी देशान्तर के समीप अपनी गति के कारण इसके जल का कुछ भाग दक्षिण की ओर मुड़ जाता है तथा इससे एक धारा निर्मित होती है। यह धारा उत्तरी अमेरिका महाद्वीप के पश्चिमी तट से टकराकर दो भागों में बँट जाती है—पहली शाखा दक्षिण की ओर कैलीफोर्निया की धारा के नौम से जानी जाती है। इसकी दूसरी शाखा पुनः दो शाखाओं में बँटकर बेरिंग सागर तथा अलास्का की खाड़ी में विलीन हो जाती है।

(iv) सुशिमा धारा-क्यूरोसिवो की गर्म जलधारा की यह उपशाखा जापान के दक्षिण में शिकोकू द्वीप से टकराती है जिससे इसका कुछ जल दक्षिण में स्थित जापान सागर में प्रवेश कर जाता है, जिसे सुशिमा धारा के नाम से पुकारा जाता है।

(v) प्रति-क्यूरोसिवो धारा-यह एक छोटी उपधारा है, जो क्यूरोसिवो के उत्तर-पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित होती है। इसकी स्थिति उत्तरी अमेरिका तथा हवाई द्वीप के मध्य में है।

5. क्यूराइल की ठण्डी जलधारा-ठण्डे जल की यह धारा ओयाशियो के नाम से भी जानी जाती है। आर्कटिक महासागर से बहता हुआ जलबेरिंग सागर से प्रवाहित होकर दक्षिण की ओर जाता है। जापान के उत्तर में 50° उत्तरी अक्षांश के समीप दक्षिण से प्रवाहित गर्म क्यूरोसिवो की धारा से टकराकर इसका प्रवाह पूरब की ओर हो जाता है तथा कुछ जल जापान तट के सहारे-सहारे दक्षिण की ओर प्रवाहित हो जाता है।

6. कैलीफोर्निया धारा-ठण्डे जल की यह धारा कैलीफोर्निया खाड़ी की धारा के नाम से भी जानी जाती है। यह उत्तरी प्रशान्त महासागरीय धारा का अग्रभाग है। इस जलधारा पर उत्तर-पश्चिम तथा दक्षिण की ओर से प्रवाहित व्यापारिक पवनों का अधिक प्रभाव पड़ता है। कैलीफोर्निया खाड़ी के सहारे- सहारे यह उत्तर-दक्षिण प्रवाहित होती है तथा दक्षिण की ओर उत्तरी भूमध्यरेखीय धारा में मिल जाती है।

7. अलास्का की धारा-उत्तरी प्रशान्त महासागरीय प्रवाह की एक शाखा उत्तरी अमेरिकी पश्चिमी तट पर प्रवाहित होती हुई अलास्का की खाड़ी में चली जाती है, जिसे अलास्का की ठण्डी जलधारा के नाम से जाना जाता है।

8. पीरू धारा-यह धारा दक्षिण प्रशान्त महासागर में दक्षिणी अमेरिका के पश्चिमी तट पर दक्षिण से उत्तर की ओर प्रवाहित होने वाली ठण्डे जल की मुख्य धारा है। पीरू तट से प्रवाहित होने के कारण इसका नाम पीरू धारा पड़ा। इसे हम्बोल्ट धारा भी कहते हैं। इसकी औसत गति 27 किमी प्रतिदिन है। यह 150 किमी की चौड़ाई में प्रवाहित होती है।

9. पूर्वी ऑस्ट्रेलियन धारा-यह दक्षिणी भूमध्यरेखीय धारा का अग्रभाग है, जो ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर उत्तर से दक्षिण की ओर प्रवाहित होती है। यह एक गर्म जल की धारा है जो यहाँ के तापमान को ऊँचा बनाये रखने में सहायक है। 40° दक्षिणी अक्षांश पर पछुवा पवनों तथा पृथ्वी के परिभ्रमण गति के कारण यह धारा पूरब की ओर मुड़ जाती है जो आगे चलकर दक्षिणी अमेरिका के पश्चिमी तट तक पहुँच जाती है।

10. पछुवा-पवन-प्रवाह-दक्षिणी प्रशान्त महासागर में पछुवा हवाओं के प्रभाव से यह धारा पश्चिम से पूरब की ओर अधिक विस्तार के साथ गरजती हुई प्रवाहित होती है, जिसे पछुवा-पवन-प्रवाह के नाम से जाना जाता है। लगभग 45° दक्षिणी अक्षांश पूरब की ओर इसकी दो शाखाएँ हो जाती हैं—पहली हार्न अन्तरीप से होकर अन्ध महासागर में प्रवेश कर जाती है तथा दूसरी उत्तर की ओर प्रवाहित होती हुई पीरू की ठण्डी जलधारा से मिल जाती है।

जलवायु पर प्रभाव–प्रशान्त महासागर की सभी धाराएँ अपने निकटवर्ती क्षेत्रों की जलवायु पर गहरा प्रभाव डालती हैं। जापान के तट पर ठण्डी एवं गर्म जलधाराओं के मिलने से धुन्ध एवं कोहरा उत्पन्न होता है, जिससे यहाँ पर भारी मात्रा में मछलियाँ पकड़ी जाती हैं। इसके लिए जलधाराएँ ही उत्तरदायी हैं। इसके अतिरिक्त इन जलधाराओं का निकटवर्ती क्षेत्रों की जलवायु, वर्षा, व्यापार, कृषि एवं सांगरीय जीव-जन्तुओं पर भी गहरा एवं व्यापक प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, जापान के पश्चिमी तट पर बहने वाली गर्म क्यूरोसिवो धारा की सुशिमा शाखा द्वारा ताप पूर्वी तट की अपेक्षा ऊँचे रहते हैं, जबकि पश्चिमी तट साइबेरिया से आने वाली अति ठण्डी हवाओं के लिए भी खुला है। गर्म अलास्का धौरा के कारण अलास्का का तट भीतरी भागों की अपेक्षा जाड़ों में गर्म रहता है। ठण्डी कैलीफोर्निया धारा भी गर्मियों में तटीय भागों की जलवायु को शीतले कर देती है, जबकि भीतरी मरुस्थलीय भाग में उच्च ताप पाया जाता है।

प्रश्न 2. अन्ध महासागर की प्रमुख जलधाराओं का वर्णन कीजिए तथानिकटवर्ती क्षेत्र पर उनका प्रभाव स्पष्ट कीजिए।
या दक्षिणी अन्ध महासागरीय धाराओं का वर्णन कीजिए तथा तटवर्ती जलवायु पर उनके प्रभाव की विवेचना कीजिए।
या उत्तरीय प्रशान्त महासागर की धाराओं का वर्णन कीजिए।
या टिप्पणी लिखिए–गल्फस्ट्रीम। ।
या अटलाण्टिक महासागर की धाराओं का वर्णन कीजिए।
या उत्तरीय अन्ध महासागर की किन्हीं दो धाराओं का तटीय जलवायु पर प्रभाव का वर्णन कीजिए।
उत्तर-अन्ध महासागर की प्रमुख जलधाराएँ
अन्ध महासागर का जल एक निश्चित प्रणाली के अनुरूप प्रवाहित होता है जो निश्चित क्रम वाली जलधाराओं को जन्म देता है। अन्ध महासागर में उत्तरी तथा दक्षिणी जलधाराओं का पृथक्-पृथक् क्रम पाया जाता है। अतः अन्ध महासागर की प्रमुख जलधाराओं का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है

(अ) उत्तरी अन्ध महासागर की जलधाराएँ
उत्तरी अन्ध महासागर की प्रमुख जलधाराएँ निम्नलिखित हैं

1. उत्तरी विषुवतरेखीय धारा-विषुवत् रेखा के उत्तरी भाग में उत्तरी-पूर्वी व्यापारिक पवनों के कारण जो गर्म जलधारा पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है, उत्तरी विषुवत्रेखीय जलधारा कहलाती है। यह जल-धारा 0° अक्षांश से 10° अक्षांशों के मध्य प्रवाहित होती है। पश्चिमी द्वीप समूह के निकट यह धारा तट से टकराकर दो शाखाओं में बँट जाती है। इसकी एक शाखा उत्तर की ओर अमेरिका के तट के सहारे प्रवाहित होने लगती है जिसे एण्टिलीज धारा कहा जाता है। इसकी दूसरी शाखा कैरेबियन सागर में प्रवेश करके आगे जाकर यूकाटन चैनल में सम्मिलित हो जाती है।

2. गल्फस्ट्रीम-मल्फस्ट्रीम नामक गर्म जलधारा की उत्पत्ति मैक्सिको की खाड़ी से होती है। अतः इसे खाड़ी धारा या गल्फस्ट्रीम की संज्ञा दी गयी है। यह धारा 20° उत्तरी अक्षांश से 60° उत्तरी अक्षांशों के मध्य बहती है। इस धारा का तापमान 28° सेग्रे तथा गति 5 किमी प्रति घण्टा है। यह 1 किमी गहरी तथा 48 किमी चौड़ी है। यह खाड़ी से आगे उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तट के सहारे-सहारे बहकर फ्लोरिडा तथा एण्टिलीज की धाराओं का सहयोग लेकर आगे बढ़ती है। न्यूफाउण्डलैण्ड तट के निकट इसका संगम लैब्रेडोर की ठण्डी जलधारा से होने के कारण घना कोहरा उत्पन्न होता है। पछुवा पवनों के प्रभाव के कारण यह धारा कई उपशाखाओं में बँट जाती है। इस धारा की एक शाखा पूर्व की ओर बहकर सारगैसो सागर में विलीन हो जाती है। इसका कुछ भाग उत्तरी-पश्चिमी यूरोप से टकरा कर कनारी की धारा में जुड़ जाता है। उत्तरी अटलाण्टिक ड्रिफ्ट इसका ही अगला भाग़ है। आइसलैण्ड एवं इंग्लैण्ड के मध्य पहुँचकर गल्फस्ट्रीम का रूप समाप्त हो जाता है।

3. कनारी की धारा-यह एक ठण्डी ज्ञलधारा है जो अफ्रीका के तट के सहारे मेडीरा से केपवर्डे तक प्रवाहित होती है। व्यापारिक पवनें इस धारा को दिशा और गति प्रदान करती हैं। ये पवनें इस धारा का रुख सारगैसो सागर की ओर को कर देती हैं। सागर की तली को शीतल जल ऊपर आकर कनारी की धारा के रूप में बहने लगता है।

4. लैब्रेडोर की धारा-यह भी शीतल जलधारा है जो ग्रीनलैण्ड के उत्तर-पश्चिम में बैफीन की खाड़ी एवं डेविस जलडमरूमध्य से दक्षिण की ओर लैब्रेडोर के तट के सहारे-सहारे बहती है। न्यूफाउण्डलैण्ड के तट के निकट यह गल्फस्ट्रीम धारा से मिल जाती है और घना कोहरा उत्पन्न करती है।

5. पूर्वी ग्रीनलैण्ड धारा-यह एक ठण्डी जलधारा है जो ग्रीनलैण्ड के उत्तरी-पूर्वी तट पर ध्रुवीय पवनों के प्रवाह से उत्तर-पूर्व दिशा की ओर बहती है। उत्तरी अटलाण्टिक ड्रिफ्ट इसमें आकर मिल
जाती है।

6. सारगैसो सागर-उत्तरी अटलाण्टिक महासागर के मध्य में जलधाराओं का एक गोलाकार क्रम बन जाता है, जिसके मध्य में शान्त जल पाया जाता है। शान्त जल का यह क्षेत्र सारगैसो नाम से पुकारा जाता है। इस भाग में सारगैसो नामक घास एकत्र हो जाने के फलस्वरूप भी इसे सारगैसो का नाम दिया गया है। इस सागरीय क्षेत्र का विस्तार 11,000 वर्ग किमी है। इस प्रकार का विचित्र सागर विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाता।

(ब) दक्षिणी अन्ध ( अटलाण्टिक) महासागर की जलधाराएँ
दक्षिणी अन्ध (अटलाण्टिक) महासागर की प्रमुख जलधाराएँ निम्नलिखित हैं

1. दक्षिणी विषुवतरेखीय धारा-उत्तरी विषुवत्रेखीय जलधारा के समानान्तर 0° दक्षिण से 20° दक्षिणी अक्षांशों के मध्य दक्षिणी-पूर्वी पवनों के कारण जो धारा जन्म लेती है, उसे दक्षिणी विषुवत्रेखीय धारा कहा जाता है। यह धारा विषुवत् रेखा के सहारे पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है। दक्षिणी अमेरिका के सैनॉक अन्तरीप के निकट इस रेखा के दो भाग हो जाते हैं। इनमें से एक शाखा उत्तरी विषुवत्रेखीय धारा में मिल जाती है, जबकि दूसरी शाखा दक्षिण की ओर ब्राजील तट के सहारे बह निकलती है।

2. विपरीत विषुवत्रखीय धारा-उत्तरी एवं दक्षिणी विषुवत्रेखीय धाराओं के बीच विपरीत दिशा में जो धारा प्रवाहित होती है, उसे विपरीत विषुवत्रेखीय धारा कहते हैं।

3. ब्राजील की धारा-यह एक गर्म जलधारा है जो सैनरॉक अन्तरीप के निकट दक्षिण में ब्राजील तट के सहारे 40°दक्षिणी अक्षांशों तक प्रवाहित होती है। आगे चलकर यह पछुवा हवाओं के प्रभाव से पूर्व की ओर को मुड़ जाती है। यहाँ यह फाकलैण्ड की ठण्डी जलधारा से मिलकर कोहरा उत्पन्न करती है।

4. फाकलैण्ड धारा-फाकलैण्ड के उत्तर में बहने वाली ठण्डी धारा फाकलैण्ड धारा कहलाती है। यह धारा अपने साथ ध्रुवीय क्षेत्र से हिमखण्ड एवं हिमशिलाएँ बहाकर लाती है। बाद में यह ब्राजील धारा में मिलकर कोहरा उत्पन्न करती है।

5. दक्षिणी अटलाण्टिक ड्रिफ्ट-यह एक शीतल जलधारा है जो पछुवा पवनों से प्रभावित होकर दक्षिणी अफ्रीका के पश्चिमी तट की ओर अग्रसर होती है।

6. अण्टार्कटिक ड्रिफ्ट या पश्चिमी पवन प्रवाह-पृथ्वी की घूर्णन गति के कारण पछुवा पवनों के | प्रभाव से जो ठण्डी धारा जन्म लेती है उसे अण्टार्कटिक ड्रिफ्ट कहते हैं। यह शीतल जलधारा सम्पूर्ण भूमण्डल का परिभ्रमण करती है।

7. बेंग्युला धारा-दक्षिणी अटलाण्टिक ड्रिफ्ट पूर्व की ओर बहकर अफ्रीका के दक्षिणी- पश्चिमी तट से टकराकर उत्तर की ओर तट के सहारे बहकर बेंग्युला धारा बन जाती है, उत्तर में गिनी की खाड़ी से बहती हुई यह धारी दक्षिणी विषुवत्रेखीय धारा से मिलकर आगे बढ़ जाती है।

जलवायु पर प्रभाव-अन्ध महासागर की धाराएँ अपने निकटवर्ती क्षेत्रों की जलवायु पर विशेष प्रभाव डालती हैं। ये गल्फस्ट्रीम न्यूफाउण्डलैण्ड के निकट कोहरा उत्पन्न करती हैं। इसकी उष्णता के प्रभाव से ही उत्तरी-पश्चिमी यूरोप के तटवर्ती भागों में आकर्षक समशीतोष्ण जलवायु रहती है तथा यह तट वर्ष-भर जलयानों के आवागमन के लिए खुला रहता है, जबकि उन्हीं अक्षांशों में स्थित साइबेरिया का तट शीतलता के कारण जम जाता है। ब्राजील की गर्म जलधारा और फाकलैण्ड की शीतल जलधाराएँ। मिलकर कोहरा उत्पन्न कर देती हैं।

प्रश्न 3. ज्वार-भाटा किसे कहते हैं? ज्वार-भाटे के प्रकार बताइए।
या महासागरीय ज्वार-भाटा के कारणों की विवेचना कीजिए तथा तटीय क्षेत्रों के आर्थिक जीवन पर उनके प्रभावों का विश्लेषण कीजिए।
या टिप्पणी लिखिए-लघु ज्वार।।
या दीर्घ ज्वार आने का कारण बताइए। या ज्वार-भाटा क्या है तथा उसकी उत्पत्ति कैसे होती है? उसके प्रमुख प्रकारों का वर्णन कीजिए।
या ज्वार की उत्पत्ति की विवेचना कीजिए तथा मानव-जीवन पर इसके पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन कीजिए।
उत्तर-ज्वार-भाटा (Tides)–महासागरीय जल की अस्थिर गतियों में ज्वार-भाटा का विशेष महत्त्व है। सागरीय जल के उभार या उठाव को ज्वार (tide) तथा जल के नीचे होने को भाटा (ebb) कहते हैं। इससे समुद्र-तल निरन्तर घटता-बढ़ता अथवा उद्वेलित होता रहता है और जल आगे-पीछे होता रहता है। इन सागरीय गतियों के कारण समुद्र-तल में सदैव परिवर्तन होता रहता है। इसके अतिरिक्त सागरीय तरंगें, लहरें, धाराएँ आदि भी ज्वार-भाटे में सहायक होती हैं। ज्वार-भाटा की मुख्य विशेषता है कि सूर्य एवं चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति द्वारा सागर का जल ऊपर उठता है एवं नीचे गिरता है। सागरीय जल का तरंगों के रूप में आगे बढ़ना ज्वार कहलाता है। यदि इन तरंगों द्वारा उठे जलं का तल सर्वाधिक होता है तो उसे उच्च ज्वार कहते हैं। इसके उपरान्त वही तरंगें पीछे की ओर हटकर निम्न जल-तल का निर्माण करती हैं, इसे भाटा अथवा निम्न ज्वार कहते हैं। इस प्रकार सूर्य एवं चन्द्रमा की आकर्षण शक्तियाँ जल-तल को नित्य-प्रति क्रमश: ऊपर-नीचे करती रहती हैं, जिसे ज्वार-भाटा कहते हैं।

ज्वार-भाटा प्रतिदिन दो बार आता है, अर्थात् दो बार सागर का जल ऊपर उठता है एवं दो बार नीचे उतरता है। ज्वार-भाटे के समय नदियों के जल-तल में भी परिवर्तन आता रहता है। जब सागर में ज्वार का समय होता है तो नदियों की जल-धारा का तल ऊपर उठ जाता है। इसके विपरीत भाटा के समय नदियों की धारा का जल-तल नीचे की ओर होकर बड़ी तीव्र गति से बहने लगता है। समुद्रों एवं नदियों के जल-तल के ऊपर चढ़ने एवं नीचे गिरने के मध्य समय में बहुत कम अन्तर होता है। अतः सागरीय ज्वार-भाटा तथा इससे सम्बन्धित सभी क्रियाओं का सम्बन्ध सूर्य तथा चन्द्रमा की पारस्परिक आकर्षण शक्ति ही है।

ज्वार-भाटे की उत्पत्ति के कारण
हम जानते हैं कि सौर-परिवार के सदस्य परस्पर आकर्षण में बँधे हुए हैं। पृथ्वीतल पर सूर्य एवं चन्द्रमा दोनों की ही आकर्षण शक्ति का प्रभाव पड़ता है। चन्द्रमा की अपेक्षा सूर्य पृथ्वी से बहुत दूर है। अत: पृथ्वीतल पर उसकी आकर्षण शक्ति चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति की लगभग आधी (5/11) है। अतः स्पष्ट है कि ज्वार-भाटे की उत्पत्ति में सूर्य की अपेक्षा चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति का विशेष प्रभाव पड़ता है। परन्तु दोनों का संयुक्त प्रभाव ज्वार को विशालता प्रदान करता है। ज्वार-भाटा उत्पन्न होने की प्रक्रिया को समझने के लिए हमें निम्नलिखित तथ्यों की ओर ध्यान देना चाहिए

  1. ज्वार-भाटा उत्पन्न करने वाले दो बल गुरुत्वाकर्षण बल और अपकेन्द्र बल हैं।
  2. गुरुत्वाकर्षण बल चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी की पारस्परिक क्रिया है। चन्द्रमा और सूर्य का गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी की निकट दिशा में सबसे अधिक, पृथ्वी के केन्द्र पर उससे कम और पृथ्वी के । दूसरी ओर अर्थात् अधिकतम दूरी पर सबसे कम होता है।
  3. अपकेन्द्र बल पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न होता है जो पृथ्वी के सभी भागों में समान होता है और | गुरुत्वाकर्षण बल की विपरीत दिशा में कार्य करता है। यह बल पृथ्वी के केन्द्र पर गुरुत्वाकर्षण बल के बराबर ही होता है।
  4. पृथ्वी की निकट दिशा पर गुरुत्वाकर्षण बल की अपकेन्द्र बल से अधिकता के कारण ज्वार उत्पन्न | होता है तथा पृथ्वी के दूसरी ओर उसी समय ज्वार की उत्पत्ति अपकेन्द्र बल की गुरुत्वाकर्षण बल से अधिकता के कारण होती है।
  5. इस प्रकार पृथ्वी के प्रत्येक भाग में प्रतिदिन दो बार ज्वार उठते हैं। जिन दो स्थानों से जल क्षैतिज गति करता हुआ ज्वार के स्थानों को चला जाता है उन स्थानों पर भाटे आते हैं। अत: प्रत्येक स्थान पर प्रतिदिन दो ज्वार उठते हैं और दो भाटे आते हैं।

ज्वार-भाटा के प्रकार

चन्द्रमा तथा पृथ्वी की गतियों के कारण सागरों तथा महासागरों में ज्वार-भाटा आता है। इन पर महासागरों के विशाल आकार का भी प्रभाव पड़ता है। विषुवत् रेखा तथा उसके आस-पास के सागरीय क्षेत्रों में ज्वार-भाटा का प्रभाव अधिक रहता है। यहाँ दो बार उच्च ज्वार तथा दो बार निम्न ज्वार का क्रम जारी रहता है, जब कि ध्रुवों के समीपवर्ती भागों में एक बार उच्च ज्वार तथा एक बार निम्न ज्वार ही उठता है। अध्ययन की सुविधा हेतु ज्वार-भाटी को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है

1. वृहत् अथवा दीर्घ ज्वार- ज्वार-भाटा की उत्पत्ति में चन्द्रमा की विशेष भूमिका रहती है, परन्तु सूर्य का भी विशेष प्रभाव अंकित किया जाता है। सूर्य, पृथ्वी एवं चन्द्रमा एक-दूसरे को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इसीलिए चन्द्रमा के आकर्षण के अतिरिक्त सूर्य भी सम्पूर्ण महासागरीय जल को अपनी ओर आकर्षित करता है। सूर्य द्वारा पृथ्वी के आकर्षण का प्रभाव इसलिए भी कम दिखाई पड़ता है, क्योंकि सूर्य चन्द्रमा की अपेक्षा पृथ्वी से अधिक दूर स्थित है। सूर्य की आकर्षण शक्ति को प्रभाव उस समय अधिक दिखाई पड़ता है जब उसके सहयोग से चन्द्रमा महासागरों में उच्च ज्वार उत्पन्न करता है।
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उच्च ज्वार का निर्माण उस समय होता है जब सूर्य, पृथ्वी एवं चन्द्रमा तीनों एक सीध में स्थित होते हैं। यह स्थिति पूर्णिमा एवं अमावस्या के दिन होती है। पूर्णिमा तथा अमावस्या के दिन वृहत् ज्वार की ऊँचाई अन्य दिनों की अपेक्षा 20 प्रतिशत अधिक होती है। इस प्रकार की दशा माह में दो बार उत्पन्न होती है। इसे ही वृहत् अथवा दीर्घ-ज्वार कहते हैं।

2. लघु ज्वार-यह ज्वार पूर्णिमा तथा अमावस्या के अतिरिक्त तिथियों में आता है। सूर्य से पृथ्वी और चन्द्रमा की स्थिति सदैव परिवर्तित होती रहती है। कृष्णपक्ष एवं शुक्लपक्ष की सप्तमी और अष्टमी तिथियों में सूर्य और चन्द्रमा पृथ्वी के साथ समकोणीय स्थिति उत्पन्न करते हैं। इस समकोणीय स्थिति के द्वारा सूर्य और चन्द्रमा पृथ्वी के महासागरीय जल को अनेक दशाओं में आकर्षित करते हैं। इसीलिए महासागरों में ज्वार की ऊँचाई अन्य तिथियों की अपेक्षा कम रह जाती है, जिसे लघु ज्वार कहते हैं। औसत रूप से ज्वार अपनी ऊँचाई में इन्हीं तिथियों में 20 प्रतिशत कम रहता है।
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3. उच्च तथा निम्न ज्वार-चन्द्रमा अपने अण्डाकार पथ पर पृथ्वी की परिक्रमा करता है। इस अण्डाकार पथ पर परिभ्रमण करता हुआ चन्द्रमा पृथ्वी से निकटतम दूरी अर्थात् 3,56,000 किमी पर आ जाता है तो इस स्थिति को निम्न ज्वार कहते हैं। इस समय चन्द्रमा की ज्वार उत्पादक शक्ति औसत रूप में सर्वाधिक होती है जो उच्च ज्वार उत्पन्न करती है। इसके विपरीत, जब चन्द्रमा पृथ्वी से अधिकतम दूरी अर्थात् 4,07,000 किमी पर स्थित होता है। तो वह उच्च ज्वार कहलाता है। चन्द्रमा की अधिकतम दूरी होने पर इसका ज्वार उत्पादक बल निम्नतम रह जाता है। इससे ज्वार की स्थिति भी न्यूनतम रह जाती है। इस ज्वार की ऊँचाई औसत ज्वार की अपेक्षा 20 प्रतिशत कम रह जाती है।

4. अयनवृत्तीय या भूमध्यरेखीय ज्वार-जिस प्रकार सूर्य अपनी परिभ्रमण गति में उत्तरायण एवं दक्षिणायण होता है, उसी प्रकार चन्द्रमा भी अपनी इस गति के कारण उत्तरायण एवं दक्षिणायण होता रहता है, परन्तु चन्द्रमा की यह स्थिति 294 दिन में पूर्ण होती है। जब चन्द्रमा का झुकाव उत्तरायण में होता है तो चन्द्र-किरणें कर्क रेखा के समीप सीधी तथा लम्बवत् पड़ती हैं जो उच्च ज्वार में वृद्धि कर देती हैं। यह ज्वार पश्चिम दिशा की ओर अधिक बढ़ता है। यही स्थिति चन्द्र-किरणों के दक्षिणायण होने पर मकर रेखा पर होती है। इस प्रकार कर्क एवं मकर रेखाओं पर उत्पन्न होने वाले ज्वार को अयनवृत्तीय ज्वार कहते हैं। चन्द्रमा की किरणें विषुवत् रेखा पर प्रत्येक माह लम्बवत् होने के कारण ज्वार की दैनिक असमानता समाप्त हो जाती है। इसी कारण दो उच्च ज्वार तथा दो निम्न ज्वार की ऊँचाइयाँ बराबर हो जाती हैं, जिसे भूमध्यरेखीय ज्वार कहते हैं।

5. दैनिक ज्वार-भाटा-दैनिक ज्वार-भाटा प्रत्येक दिन एक ही स्थान पर एक ज्वार एवं एक भाटा के रूप में आता है। प्रत्येक ज्वार में सदैव 52 मिनट का अन्तर रहता है। दैनिक ज्वार-भाटा को सूर्य, पृथ्वी तथा चन्द्रमा की स्थिर गतियाँ समयानुसार प्रभावित करती रहती हैं। दैनिक ज्वार-भाटा 24 घण्टे बाद आता है।

6. अर्द्ध-दैनिक ज्वार-भाटा-एक दिन में एक ही स्थान पर दो बार आने वाले ज्वार-भाटा को अर्द्ध-दैनिक ज्वार-भाटा कहते हैं। यह ज्वार प्रत्येक दिन 24 घण्टे 26 मिनट बाद आता है। इस ज्वार-भाटा में जल का उठना एवं गिरना क्रमशः समान रहता है।

7. मिश्रित ज्वार-भाटा-इस ज्वार में अर्द्ध-दैनिक ज्वार-भाटा की समान ऊँचाइयों में अन्तर आ जाता है। कुछ विद्वानों ने दैनिक तथा अर्द्ध-दैनिक ज्वार-भाटा की ऊँचाइयों में अन्तर को मिश्रित ज्वार-भाटा कहा है।

ज्वार-भाटे के प्रभाव

ज्वार-भाटे का प्रभाव नौका-परिवहन पर अत्यधिकं पड़ता है। ज्वार द्वारा कुछ नदियाँ बड़े जलयानों के चलाने योग्य बन जाती हैं। हुगली तथा टेम्स नदियाँ ज्वारीय धाराओं के कारण ही नाव्य हो सकी हैं तथा कोलकाता व लन्दन महत्त्वपूर्ण पत्तन बन सके हैं। ज्वारीय ऊर्जा को भी आज महत्त्वपूर्ण समझा जाने लगा है। ज्वार के द्वारा समुद्रतटीय नगरों के कूड़े व गन्दगी के ढेर बहकर समुद्र में चले जाते हैं।

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UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 9 Solar Radiation, Heat Balance and Temperature

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 9 Solar Radiation, Heat Balance and Temperature (सौर विकिरण, ऊष्मा संतुलन एवं तापमान)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

1. बहुवैकल्पिक प्रश्न
प्रश्न (i) निम्न में से किस अक्षांश पर 21 जून की दोपहर सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं?
(क) विषुवत् वृत्त पर
(ख) 23.5° उ०
(ग) 66.5° द०
(घ)66.5° उ०
उत्तर-(ख) 23.5° उ०।

प्रश्न (ii) निम्न में से किस शहर में दिन ज्यादा लम्बा होता है?
(क) तिरुवनन्तपुरम
(ख) हैदराबाद
(ग) चण्डीगढ़
(घ) नागपुर
उत्तर-(ग) चण्डीगढ़।

प्रश्न (iii) निम्नलिखित में से किस प्रक्रिया द्वारा वायुमण्डल मुख्यतः गर्म होता है?
(क) लघु तरंगदैर्घ्य वाले सौर विकिरण से
(ख) लम्बी तरंगदैर्घ्य वाले स्थलीय विकिरण से
(ग) परावर्तित सौर विकिरण से।
(घ) प्रकीर्णित सौर विकिरण से।
उत्तर-(ख) लम्बी तरंगदैर्घ्य वाले स्थलीय विकिरण से।।

प्रश्न (iv) निम्न पदों को उसके उचित विवरण के साथ मिलाएँ
1. सूर्यातप (अ) सबसे कोष्ण और सबसे शीत महीनों के मध्य तापमान का अन्तर
2. एल्बिडो (ब) समान तापमान वाले स्थानों को जोड़ने वाली रेखा।
3. समताप रेखा (स) आने वाला सौर विकिरण ।
4. वार्षिक तापान्तर (द) किसी वस्तु के द्वारा परावर्तित दृश्य प्रकाश का प्रतिशत।
उत्तर-(1) (स), 2. (द) 3. (ब), 4. (अ)।।

प्रश्न (v) पृथ्वी के विषुवत वृत्तीय क्षेत्रों की अपेक्षा उत्तरी गोलार्द्ध के उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों का तापमान अधिकतम होता है, इसका मुख्य कारण है
(क) विषुवतीय क्षेत्रों की अपेक्षा उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में कम बादल होते हैं।
(ख) उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में गर्मी के दिनों की लम्बाई विषुवत्तीय क्षेत्रों से ज्यादा होती है।
(ग) उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में ग्रीनहाउस प्रभाव’ विषुवतीय क्षेत्रों की अपेक्षा ज्यादा होता है।
(घ) उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र विषुवतीय क्षेत्रों की अपेक्षा महासागरीय क्षेत्रों के ज्यादा करीब है।
उत्तर—(क) विषुवतीय क्षेत्रों की अपेक्षा उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में कम बादल होते हैं।

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) पृथ्वी पर तापमान का असमान वितरण किस प्रकार जलवायु और मौसम को प्रभावित करता है?
उत्तर-पृथ्वी पर कुछ स्थान शीत जलवायु वाले हैं तथा कुछ स्थान उष्ण मरुस्थलीय हैं जबकि कुछ शीतोष्ण जलवायु के अन्तर्गत सम्मिलित हैं। वास्तव में इसका मुख्य कारण पृथ्वी पर तापमान का असमान वितरण है। इतना ही नहीं पृथ्वी के उच्च पर्वतीय भागों में हिम के रूप में वर्षा होती है और मैदानी भागों में जल के रूप में। इसका कारण भी यही है क्योंकि उच्च पर्वतीय भागों पर तापमान कम और मैदानी भागों में तापमान अधिक रहता है। अत: पृथ्वी पर तापमान का असमान वितरण जलवायु और मौसम को सबसे अधिक प्रभावित करता है। जहाँ तापमान अधिक पाया जाता है वहाँ उष्ण जलवायु मिलती है किन्तु जहाँ तापमान निम्न रहता है वहाँ शीत जलवायु रहती है। वस्तुत: तापमान जलवायु व मौसम का निर्धारक तत्त्व है, इसीलिए पृथ्वी के सभी स्थान तापमान भिन्नता के कारण असमान जलवायु प्रदेशों के रूप में पहचाने जाते हैं।

प्रश्न (ii) वे कौन-से कारक हैं जो पृथ्वी पर तापमान के वितरण को प्रभावित करते हैं?
उत्तर-पृथ्वी पर तापमान वितरण में पर्याप्त असमानताएँ मिलती हैं। इस असमानता के प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं। 1. अक्षांश, 2. समुद्रतल से ऊँचाई, 3. समुद्रतल से दूरी, 4. पवनों की दिशा, 5. स्थानीय कारक।

प्रश्न (iii) भारत में मई में तापमाने सर्वाधिक होता है, लेकिन उत्तर अयनांत के बाद तापमान अधिकतम नहीं होता। क्यों?
उत्तर-भारत में मुख्य रूप से मार्च के बाद गर्मी ऋतु प्रारम्भ हो जाती है। मई एवं जून देश में प्रचण्ड गर्मी के महीने होते हैं, इनमें भी मई मौसम में अधिक तापमान अंकित किया जाता है। किन्तु उत्तर अयनांत के बाद तापमान में गिरावट आरम्भ हो जाती है, क्योंकि दिन की अवधि में परिवर्तन आ जाता है।

प्रश्न (iv) साइबेरिया के मैदान में वार्षिक तापान्तर सर्वाधिक होता है। क्यों?
उत्तर-साइबेरिया के मैदान में वार्षिक तापान्तर सर्वाधिक होता है। इसका मुख्य कारण यहाँ जलवायु पर समुद्री धाराओं का विशेष प्रभाव है। इस भाग में कोष्ण महासागरीय धारा गल्फस्ट्रीम तथा उत्तरी अटलांटिक महासागरीय ड्रिफ्ट की उपस्थिति से उत्तरी अन्ध महासागर अधिक गर्म हो जाता है जो यूरेशिया के मैदानी भागों के तापमान में परिवर्तन कर देता है। इसलिए साइबेरिया के मैदानी भाग जो अन्ध महासागर के अधिक निकट हैं वहाँ वार्षिक तापान्तर अधिक पाया जाता है।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (1) अक्षांश और पृथ्वी के अक्ष का झुकाव किस प्रकार पृथ्वी की सतह पर प्राप्त होने वाली विकिरण की मात्रा को प्रभावित करते हैं?
उत्तर-पृथ्वी पर सूर्यातप की प्राप्ति अक्षांश और पृथ्वी के अक्ष के झुकाव द्वारा निर्धारित होती है। पृथ्वी का अक्ष सूर्य के चारों ओर परिक्रमण की समतल कक्षा से [latex s=2]66\frac { { 1 }^{ o } }{ 2 } [/latex] का कोण बनाता है, इसके कारण सभी अक्षांशों पर सूर्य की किरणों का नति कोण समान नहीं होता है। यह कोण उच्च अक्षांशों अर्थात् ध्रुवों पर कम होता है तथा निम्न अक्षांशों अर्थात् भूमध्य रेखा पर अधिक होता है। यही कारण है कि भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांशों पर तापमान कम होता जाता है। चित्र 9.1 को देखने से स्पष्ट होता है कि ध्रुवों पर सूर्य की किरणें तिरछी पड़ने से वह अधिक क्षेत्र परे फैलती हैं; अतः इन किरणों को पृथ्वी का अधिक स्थान घेरना पड़ता है, इसलिए कम ताप की प्राप्ति होती है जबकि भूमध्यरेखा पर सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं। इन किरणों का घनत्व कम क्षेत्र को अधिक तापमान प्रदान करता है। अतः पृथ्वी का गोलाकार स्वरूप, उसका अपने अक्ष पर झुकाव और अक्षांश ऐसे तथ्य हैं जो पृथ्वी की सतह पर प्राप्त होने वाली विकिरणों की मात्रा से प्रभावित होते हैं और पृथ्वी के तापमान वितरण में असमानता उत्पन्न करते हैं।

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प्रश्न (ii) पृथ्वी और वायुमण्डल किस प्रकार ताप को सन्तुलित करते हैं? इसकी व्याख्या करें।
उत्तर–वास्तव में पृथ्वी तापमान (ऊष्मा) का न तो संचय करती है न ही ह्रास, बल्कि यह अपने तापमान को स्थिर रखती है। ऐसा तभी सम्भव है, जब सूर्य विकिरण द्वारा सूर्यातप के रूप में प्राप्त उष्मा एवं पार्थिव विकिरण द्वारा अन्तरिक्ष में संचलित ताप बराबर हो। चित्र 9.2 से स्पष्ट है कि यदि यह मान लें कि वायुमण्डल की ऊपरी सतह पर प्राप्त सूर्यातप 100 प्रतिशत है तो 100 इकाइयों में से 35 इकाइयाँ पृथ्वी के धरातल पर पहुँचने से पहले ही अन्तरिक्ष में परावर्तित हो जाती हैं। शेष 65 इकाइयाँ अवशोषित होती हैं। इनमें 14 वायुमण्डल में तथा 51 पृथ्वी के धरातल को प्राप्त होती हैं। पृथ्वी द्वारा अवशोषित ये 51 इकाइयाँ पुनः पार्थिव विकिरण के रूप में लौटा दी जाती हैं। इनमें से 17 इकाइयाँ तो सीधे अन्तरिक्ष में चली जाती हैं और 34 इकाइयाँ वायुमण्डल द्वारा अवशोषित होती हैं। (देखिए चित्र 9.2 अ) (6 इकाइयाँ स्वयं वायुमण्डल द्वारा, 9 इकाइयाँ संवहन द्वारा और 19 इकाइयाँ संघनन की गुप्त उष्मा के रूप में चित्र 9.2 ब) वायुमण्डल द्वारा 48 इकाइयों का अवशोषण होता है। इनमें 14 इकाइयाँ सूर्यापत की ओर 34 इकाइयाँ पार्थिव विकिरण की होती हैं। वायुमण्डल विकिरण द्वारा इनको भी अन्तरिक्ष में वापस लौटा देता है। अतः पृथ्वी के धरातल तथा वायुमण्डल से अन्तरिक्ष में वापस लौटने वाली विकिरण की इकाइयाँ क्रमश: 17 और 48 हैं, जिनका योग 65 होता है (चित्र 9.2 ब)। वापस लौटने वाली ये इकाइयाँ उन 65 इकाइयों को सन्तुलन कर देती हैं जो सूर्य से प्राप्त होती हैं। यही पृथ्वी का 100 इकाइयों का ऊष्मा बजट है।
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 9 Solar Radiation, Heat Balance and Temperature (सौर विimg 2
यही कारण है कि पृथ्वी पर ऊष्मा के इतने बड़े स्थानान्तरण के होते हुए भी उष्मा सन्तुलन बना रहता है। इसीलिए पृथ्वी न तो बहुत गर्म होती है न ही अधिक ठण्डी, बल्कि मानव एवं जीव-जंतुओं के अनुकूल तापमान रखती है।

प्रश्न (iii) जनवरी में पृथ्वी के उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध के बीच तापमान के विश्वव्यापी वितरण की तुलना करें।
उत्तर-जनवरी में पृथ्वी के उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध के बीच तापमान के विश्वव्यापी वितरण की तुलना जनवरी के भू-पृष्ठीय वायु तापक्रम समदाब रेखा मानचित्र 9.3 द्वारा स्पष्टत: समझी जा सकती है। इस समय उत्तरी गोलार्द्ध में समदाब रेखाएं महासागरों की ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में महाद्वीपों की ओर विचलित हो जाती हैं। मानचित्र से स्पष्ट है कि भूमध्य रेखा से उत्तरी गोलार्द्ध की ओर तापमान तेजी से घटते हुए उत्तरी अटलाण्टिक महासागर में शून्य तक तथा इसके बाद उत्तर की ओर -25° तक पहुँच जाता है। इसका मुख्य कारण कोष्ण महासागरीय धारा गल्फस्ट्रीम तथा उत्तरी अटलाण्टिक महासागरीय ड्रिफ्ट की उपस्थिति है, इसके कारण उत्तरी अन्ध महासागर गर्म हो जाता है। अत: यहाँ तापमान उत्तरी ध्रुव की अपेक्षा अधिक ही रहता है, जबकि इसके उत्तर की ओर जाने पर तापमान -25° से भी अधिक गिर जाता है।
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दक्षिणी गोलार्द्ध इस समय उत्तरी गोलार्द्ध की अपेक्षा अधिक गर्म रहता है। मानचित्र 9.3 पर अंकित समदाब रेखाओं से स्पष्ट है कि यहाँ दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका तथा ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप के मध्य भाग पर 20° एवं 30° समदाब रेखाएँ प्रवाहित होती हैं। केवल दक्षिण की ओर जाने पर इस गोलार्द्ध में तापमान गिरता है। फिर भी यहाँ दक्षिणी भाग का तापमान 10°C के आस-पास ही रहता है। जबकि उत्तरी गोलार्द्ध में तापमान हिमांक बिन्दु से भी नीचे पहुँच जाता है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. विषुवत रेखा पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं|
(क) तिरछी
(ख) लम्बवत्
(ग) समानान्तर
(घ) इनमें से किसी प्रकार की नहीं
उत्तर-(ख) लम्बवत्।

प्रश्न 2. ध्रुवीय प्रदेशों में तापमान बहुत ही कम होता है, इसका कारण है
(क) सूर्य की किरणों का लम्बवत् पड़ना ।
(ख) सूर्योदय न होना
(ग) सूर्य की किरणों का तिरछा पड़ना
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-(ग) सूर्य की किरणों का तिरछा पड़ना।

प्रश्न 3. पृथ्वी की सूर्य से लगभग दूरी है
(क) 24.96 करोड़ किमी
(ख) 19.46 करोड़ किमी
(ग) 14.69 करोड़ किमी
(घ) 14.96 करोड़ किमी
उत्तर-(घ) 14.96 करोड़ किमी।

प्रश्न 4. तापमान को नापते हैं
(क) फारेनहाइट से
(ख) सेण्टीग्रेड से
(ग) रियूमर से
(घ) इन सभी से
उत्तर-(घ) इन सभी से।।

प्रश्न 5. उत्तरी तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में तापमान में अन्तर पाया जाता है, क्योंकि
(क) वर्षा में अन्तर है।
(ख) जल तथा स्थल के वितरण में असमानता है।
(ग), वाष्पीकरण की दर में अन्तर
(घ) सूर्यातप का वितरण असमान है।
उत्तर-(घ) सूर्यातप का वितरण असमान है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. सूर्यामिताप या सूर्यातप से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-पृथ्वी को प्राप्त होने वाले सूर्य के ताप को सूर्यातप कहते हैं।

प्रश्न 2. पृथ्वी तक सूर्य का प्रकाश पहुँचने में कितना समय लगता है?
उत्तर-सूर्य से पृथ्वीतल तक प्रकाश पहुँचने में 8 मिनट 22 सेकण्ड का समय लगता है।

प्रश्न 3. सूर्यातप को प्रभावित करने वाले दो प्रमुख कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-1. सूर्य की किरणों का सापेक्ष तिरछापन तथा 2. सूर्य में प्रकाश की अवधि।

प्रश्न 4. धरातल पर तापमानों के क्षैतिज वितरण को प्रभावित करने वाले दो कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-

  • अक्षांशीय स्थिति तथा
  • समुद्रतल से ऊँचाई।

प्रश्न 5. भूमण्डल पर तापीय कटिबन्धों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-

  • उष्ण कटिबन्ध,
  • शीतोष्ण कटिबन्ध एवं
  • शीत कटिबन्ध।

प्रश्न 6. तापमान की सामान्य ह्रास दर से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-औसत रूप से वायुमण्डल में प्रति 165 मीटर की ऊँचाई पर 1°C तापमान कम हो जाता है, जिसे तापमान की सामान्य ह्रास दर कहते हैं।

प्रश्न 7. तापमान विलोम क्या है?
या तापमान की विलोमता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-ऐसी अवस्था जिसमें धरातल के निकट कम तापमान तथा ऊपर अधिक तापमान हो, उसे ताप की विलोमता कहते हैं।

प्रश्न 8. ताप की विलोमता के लिए दो आवश्यक दशाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-

  • लम्बी रातें तथा
  • मेघरहित आकाश।

प्रश्न 9. तापमान विलोमता के लिए प्रमुख अनुकूल दशा क्या होनी चाहिए?
उत्तर-तापमान विलोमता मुख्यतः अन्तरापर्वतीय घाटियों में उत्पन्न होती है, क्योंकि यहाँ जाड़े की ठण्डी । रातों में आकाश साफ तथा वायु शुष्क एवं शान्त होती है।

प्रश्न 10. समताप रेखाओं से क्या अभिप्राय है? ।
उत्तर-समताप रेखाएँ वे कल्पित रेखाएँ हैं जो मानचित्र पर समान तापमान वाले स्थानों को मिलाकर खींची जाती हैं।

प्रश्न 11. पार्थिव विकिरण का क्या अर्थ है?
उत्तर-सूर्यातप का पृथ्वी की सतह से होने वाले विकिरण को पार्थिव विकिरण कहते हैं। यह विकिरण लम्बी तरंगों के रूप में होता है। इसी विकिरण प्रक्रिया द्वारा वायुमण्डल नीचे से ऊपर की ओर गर्म होता है।

प्रश्न 12. सूर्य की तिरछी किरणों का पृथ्वी पर क्या परिणाम होता है?
उत्तर-पृथ्वी पर सूर्य की तिरछी किरणें शीत और शीतोष्ण कटिबन्ध पर पड़ती हैं। इन किरणों के कारण दोनों कटिबन्धों पर ग्रीष्म एवं शीत ऋतु के दौरान ताप की अधिक भिन्नताएँ पाई जाती हैं अर्थात् कम ताप प्राप्त होता है।

प्रश्न 13. पृथ्वी पर तापमान वितरण में भूमि के ढाल का प्रभाव बताइए।
उत्तर-स्थलाकृतियों के जो ढाल सूर्य की किरणों के सम्मुख पड़ते हैं, उन पर ताप अपेक्षाकृत अधिक पाया जाता है। इसी कारण उत्तरी गोलार्द्ध में पर्वतों के दक्षिणी ढालों पर, उत्तरी ढालों की अपेक्षा अधिक तापमान पाया जाता है।

प्रश्न 14, पृथ्वी के तापमान को प्रभावित करने वाली वायुदाब घटनाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-तूफान, आँधी, बादल, वर्षा, ओस, कुहरा, तुषार व हिमपात आदि सभी परोक्ष एवं अपरोक्ष रूप से तापमान को प्रभावित करते हैं। मेघों का आवरण सूर्य की किरणों को धरातल तक पहुँचने एवं पार्थिव ऊष्मा के पुनः विकिरण में अवरोध पैदा करता है जिससे तापमान प्रभावित होता है।

प्रश्न 15. तापान्तर क्या है?
उत्तर-अधिकतम तथा न्यूनतम तापमान के अन्तर को ‘तापान्तर’ कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है—(1) दैनिक तापान्तर तथा (2) वार्षिक तापान्तर।

प्रश्न 16. पृथ्वी का एल्बिडो किसे कहते हैं?
उत्तर-पृथ्वी के धरातल पर पहुँचने से पहले ही विकिरण की परावर्तित मात्रा को पृथ्वी का एल्बिडो कहते हैं। यह परावर्तित मात्रा 49 इकाई के रूप में होती है।

प्रश्न 17, क्या कारण है कि तापमान उत्तुंगता बढ़ने के साथ घटता है?
उत्तर-उत्तुंगता या ऊँचाई (Altitude) बढ़ने के साथ तापमान वास्तव में घटता है। हम जानते हैं कि वायुमण्डल पार्थिव विकिरण द्वारा नीचे की परतों में पहले गर्म होता है। यही कारण है कि समुद्र तल के स्थानों पर तापमान अधिक तथा ऊँचे भाग में स्थित स्थानों पर तापमान कम होता है।

प्रश्न 18. समताप रेखाओं की दिशा अधिकतर पूर्व-पश्चिम क्यों रहती है?
उत्तर-जनवरी तथा जुलाई माह के समताप मानचित्रों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि समताप रेखाओं की दिशा मुख्यतः पूर्व-पश्चिम होती है, क्योंकि समान अक्षांशों पर स्थित अनेक स्थानों पर तापमान समान पाया जाता है। अतः जब इन समान तापमान वाले स्थानों को मिलाकर रेखाएँ खींची जाती हैं तो उन रेखाओं की दिशा पूर्व-पश्चिम की ओर होती है।

प्रश्न 19. निम्नलिखित के लिए एक उपयुक्त शब्द चुनिए
(i) समान तापमान वाले स्थानों को जोड़ने वाली रेखा,
(ii) लघु तरंगों में सूर्य से आने वाला विकिरण,
(iii) ऊष्मा का आने वाला एवं जाने वाला तापान्तर,
(iv) सूर्य की किरणों का कोण जब वे पृथ्वी पर आती हैं।
उत्तर-(i) समताप रेखा, (i) सूर्यातप, (ii) ऊष्मा सन्तुलन, (iv) आपतन कोण।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. सूर्यातप एवं भौमिक विकिरण में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-सूर्यातप–सूर्य से पृथ्वी तक पहुँचने वाली विकिरण ऊर्जा को सूर्यातप कहते हैं। यह ऊर्जा लघु तरंगों के रूप में सूर्य से पृथ्वी पर पहुँचती है। यह पृथ्वी पर ऊर्जा का मुख्य स्रोत है। यहाँ होने वाली अधिकांश भौतिक एवं जैविक घटनाएँ इसी ऊर्जा से नियन्त्रित होती हैं।

भौमिक विकिरण-पृथ्वी द्वारा विकिरित ऊर्जा को भौमिक या पार्थिव विकिरण कहते हैं। वायुमण्डल भौमिक विकिरण द्वारा ही गर्म होता है। यह प्रक्रिया लम्बी तरंगों द्वारा पूरी होती है।

प्रश्न 2. अभिवहन तथा संवहन की तुलनात्मक व्याख्या कीजिए।
उत्तर-अभिवहन–अभिवहन ऊष्मा का क्षैतिज दिशा में स्थानान्तरण है। इस प्रक्रिया में जब ठण्डे प्रदेशों में गर्म वायुराशि जाती है तो उनको गर्म कर देती है। इससे ऊष्मा का संचार निम्न अक्षांशीय क्षेत्रों से उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में भी होता है। इसके अतिरिक्त वायु द्वारा संचालित समुद्री धाराएँ भी उष्ण कटिबन्धों से ध्रुवीय क्षेत्रों में ऊष्मा का संचार करती हैं।

संवहन-जब पृथ्वी को स्पर्श करके वायु के कणगर्म होते हैं तो वह हल्के होकर ऊपर उठते हैं और फिर ऊपर से ठण्डे होकर नीचे आते हैं। इस प्रक्रिया से संवहन धाराएँ उत्पन्न हो जाती हैं। इन धाराओं की प्रकृति गैसीय या तरल पदार्थों में जाने की होती है। इससे ऊष्मा का संचार होता है जो संवहन कहलाता है।

प्रश्न 3. यान्त्रिक प्रतिलोमन क्या है? इसकी उत्पत्ति के क्या कारण हैं?
उत्तर-यह प्रतिलोमन धरातल से ऊपर वायुमण्डल में होता है। इसकी उत्पत्ति मूलतः वायुमण्डल में वायु के ऊपर-नीचे (लम्बवत्) गतिशील होने से होती है। इसकी उत्पत्ति में निम्न दो प्रक्रियाएँ महत्त्वपूर्ण हैं—(अ) कभी-कभी नीचे की गर्म वायु तीव्र गति से ऊपर उठ जाती है तथा ऊपर की ठण्डी व भारी वायु नीचे धरातल की ओर आ जाती है और प्रतिलोमन की दशा पैदा करी देती है। (ब) मध्य अक्षांशों चक्रवातों के कारण भी यान्त्रिक प्रतिलोमन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

प्रश्न 4. लम्बवत तापमान या तापमान विलोमता की क्या आर्थिक उपयोगिता है?
उत्तर-वस्तुतः तापमान का लम्बवत् वितरण एवं तापमान की विलोम दशाएँ वायुमण्डलीय देशाओं और आर्थिक दृष्टि से क्शेिष महत्त्व रखती हैं। मेघों का स्वरूप, वर्षा की मात्रा, वायुमण्डल की दृश्यता आदि पर तापमान विलोमता का स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। पर्वतीय ढालों पर कृषि तथा मानव बसाव की आदर्श दशाएँ भी तापमान विलोमता के कारण ही उत्पन्न होती हैं। तापमान विलोमती के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में एक ही ऋतु में विभिन्न प्रकार की कृषि उपजें उत्पन्न होती हैं। जो वर्तमान में आर्थिक दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। अतः लम्बवत् तापमान की असमानताएँ प्राकृतिक और आर्थिक दोनों दृष्टियों से उपयोगी हैं।

प्रश्न 5. सूर्यातप पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-‘सूर्यातप’ अंग्रेजी भाषा के Insolation शब्द का हिन्दी रूपान्तरण है। Insolation से तात्पर्य In Coming Solar Radiation है। वास्तव में, सूर्य से निरन्तर तरंगों के रूप में ताप शक्ति प्रसारित होती रहती है। यही ताप शक्ति धरातल तक पहुँचकर उसे ऊष्मा प्रदान करती है। सूर्य से प्राप्त होने वाली यही ऊर्जा सूर्यातप कहलाती है। सूर्यातप विद्युत चुम्बकीय तरंगों द्वारा वायुमण्डल की 32,000 किमी मोटी परत को पार कर लघु तरंगों के रूप में धरातल पर आती हैं, जिसे सौर विकिरण (Solar Radiation) की प्रक्रिया कहते हैं। अत: वायुमण्डल अधिकतर सीधे सूर्य की किरणों से ऊष्मा प्राप्त नहीं कर पाता है। वह इन किरणों से केवल 19% ताप ही जल-वाष्प एवं धूलकणों के माध्यम से प्राप्त कर पाता है। वस्तुत: गर्म होती हुई पृथ्वी को स्पर्श करके ही वायुमण्डल गर्म हो जाता है, जिसे वायुमण्डल का परोक्ष रूप से गर्म होना कहते हैं।

प्रश्न 6. पृथ्वी पर तापमान वितरण को प्रदर्शित करने के लिए अक्षांश रेखाओं की भाँति समदाब रेखाओं का उपयोग क्यों किया जाता है?
उत्तर-वायुमण्डल एवं भूपटल पर ताप एवं ऊर्जा का प्रधान स्रोत सूर्य है। पृथ्वी पर तापमान की मात्रा सर्वत्र एक-समान नहीं पाई जाती है। भूमण्डल पर ताप का क्षैतिज वितरण प्रदर्शित करने के लिए विषुवत् रेखा को आधार माना जाता है। धरातल पर तापमान का क्षैतिज वितरण समताप रेखाओं (Isotherms) द्वारा प्रकट किया जाता है। समताप रेखाएँ वे काल्पनिक रेखाएँ होती हैं जो मानचित्रों में समान ताप वाले स्थानों को मिलाते हुए खींची जाती हैं। इन रेखाओं के सिरों पर तापमान सेल्सियस या फारेनहाइट में अंकित कर दिया जाता है। ये रेखाएँ किसी स्थान-विशेष पर केवल औसत तापमान को ही प्रकट करती हैं। भूपटल पर तापमान का क्षैतिज वितरण दिखाने के लिए इन्हीं रेखाओं के आधार पर मानचित्र बनाए जाते हैं। हम जानते हैं कि पृथ्वी अपने क्षैतिज अक्ष पर लम्बवत् अक्ष से [latex s=2]23\frac { 1^{ o } }{ 2 } [/latex] झुकी हुई है। इसी झुकाव तथा दैनिक गति के कारण पृथ्वी की सूर्य से सापेक्ष दूरियाँ परिवर्तित होती रहती हैं। अतः भूमध्य रेखा से उत्तर एवं दक्षिण की ओर की दूरी बढ़ने के साथ-साथ तापमान में उत्तरोत्तर कमी आती जाती है। यही कारण है कि ताप कटिबन्यों को अक्षांश रेखाओं की भाँति निर्धारित किया जाता है।

प्रश्न 7. दक्षिणी गोलार्द्ध की अपेक्षा उत्तरी गोलार्द्ध में समताप रेखाएँ अधिक अनियमित क्यों होती
उत्तर-हम जानते हैं कि उत्तरी गोलार्द्ध में महाद्वीप अधिक हैं तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में महासागर अधिक है। महाद्वीप या स्थलखण्ड शीघ्र गर्म होते हैं तथा शीघ्र ही ठण्डे हो जाते हैं। इसके विपरीत महासागर देर से गर्म होते हैं और देर में ही ठण्ड़े होते हैं। इसलिए समताप रेखाएँ महाद्वीपों की अपेक्षा महासागरों की ओर अधिक नियमित रहती हैं। यही कारण है कि उत्तरी गोलार्द्ध की अपेक्षा दक्षिणी गोलार्द्ध में तापमान परिवर्तन बहुत कम रहता है और उत्तरी गोलार्द्ध में समताप रेखाओं की अनियमितता बनी रहती है।

प्रश्न 8. पृथ्वी की सतह पर कुल ऊष्मा बजट में भिन्नता क्यों होती है?
या पृथ्वी के कुछ क्षेत्रों में ताप अतिरेक क्यों पाया जाता है?
उत्तर-पृथ्वी की सतह पर प्राप्त विकिरण की मात्रा में भिन्नता पाई जाती है। वास्तव में पृथ्वी के कुछ भागों में विकिरण सन्तुलन में अधिशेष (Surplus) पाया जाता है, जबकि कुछ भागों में ऋणात्मक सन्तुलन होता है। चित्र 9.4 से स्पष्ट है कि शुद्ध विकिरण में अधिशेष 40° उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांशों में अधिक है, परन्तु ध्रुवों के पास इसमें कमी (Deficit) है। ऐसा उष्ण कटिबन्ध ताप संचयन के कारण बहुत अधिक गर्म नहीं होता और न के कारण है। फलस्वरूप उष्ण कटिबन्ध ताप संचयन के कारण बहुत अधिक गर्म नहीं होता और न ही उच्च अक्षांश ताप की अत्यधिक कमी के कारण पूरी तरह जमे हुए हैं। इस प्रकार पृथ्वी के उष्ण कटिबन्ध एवं शीत कटिबन्ध में मानव एवं जीव-जन्तु के लिए तापमान लगभग अनुकूल बना रहता है।
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प्रश्न 9. तापमान के ऊध्र्वाधर वितरण से आप क्या समझते हैं?
या तापमान की सामान्य ह्रास दर का क्या अर्थ है?
उत्तर-तापमान का ऊर्ध्वाधर अध्ययन एक महत्त्वपूर्ण विषय है। सामान्यतः ऊँचाई के साथ-साथ तापमान कम होता जाता है। तापमान में इस गिरावट की दर एक डिग्री सेल्सियस प्रति 165 मीटर है। इसे सामान्य ह्रास दर कहते हैं। इस प्रकार ऊध्र्वाधर तापमान की सबसे बड़ी विशेषता है ऊँचाई के साथ-साथ तापमान में होने वाली कमी। किन्तु इसमें ऊँचाई के साथ तापमान घटने की कोई समान गति नहीं होती है। यह मौसम, स्थिति एवं दिन की अवधि के अनुसार कम व अधिक होता रहता है, परन्तु औसतन प्रति किमी की ऊँचाई पर 6.5 सेल्सियस कम होता है। सन् 1899 ई० में टेसेराइन व 1902 ई० में आसमन (Asman) नामक वैज्ञानिकों ने बताया है कि लगभग 12 किमी की ऊँचाई पर तापमान कम होना प्रायः रुक जाता है। फिर भी तापमान के ऊध्र्वाधर वितरण में यह एक मान्य तथ्य है कि वायुमण्डल की सबसे निचली परत (क्षोभमण्डल) जो धरातले के सम्पर्क में रहती हैं, सबसे अधिक गर्म होती है। यहीं से वायु की अन्य परतें गर्म होनी शुरू होती हैं। अतः हम जैसे-जैसे वायुमण्डल में ऊपर आते हैं। तापमान क्रमशः घटता जाता है।

प्रश्न 10. तापमान विलोमता के क्या कारण हैं? वर्णन कीजिए।
या तापमान विलोमता उत्पन्न करने वाली दशाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-तापमान की विलोमता में निम्नलिखित करण/दशाएँ सहायक होती हैं
1. लम्बी रात्रि-रात्रि के समय वायुमण्डल से ताप का विकिरण होता है तथा धीरे-धीरे वायुमण्डल ठण्डा होता रहता है। रात्रि जितनी लम्बी होगी, विकिरण भी उतना ही अधिक होगा। रात्रि के अन्तिम पहर में पृथ्वी तल का तापमान वायुमण्डल की अपेक्षा कम हो जाता है। इस प्रकार ऊपरी वायुमण्डल में ताप अधिक तथा धरातल के निकटवर्ती भागों मे ताप कम हो जाता है। फलतः विलोमता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

2. स्वच्छ वायुमण्डल-रात्रि के समय जब आकाश अपेक्षाकृत अधिक स्वच्छ रहता है तो धरातल से विकिरित तापमान को वह नहीं रोक पाता जिससे विकिरित ताप शीघ्र ही वायुमण्डल में नष्ट हो जाता है। इस प्रकार लगातार विकिरण से धरातल ठण्डा होता जाता है, जबकि वायुमण्डल के उच्च भागों में अधिक तापमान पाया जाता है।

3. शीतल एवं शुष्क वायु-शीतल एवं शुष्क वायु में पृथ्वी से विकिरित ताप को ग्रहण करने की अधिक क्षमता होती है अतः धरातल ठण्डा ही रहता है, जबकि पृथ्वी से विकिरित तापमान ऊपरी भागों में एकत्रित हो जाती है तथा वायुमण्डल का ऊपरी भाग अधिक गर्म हो जाता है। इससे । विलोमता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

4. शान्त वायु-जिन क्षेत्रों में रात्रि को वायु शान्त पाई जाती है, वहाँ धरातल से तापमान के विकिरण की प्रक्रिया निरन्तर होती रहने के कारण धरातल शीघ्र ही ठण्डी हो जाता है। फलतः धरातल के निकटवर्ती भाग में वायु की परतें भी शीतल हो जाती हैं। इसके साथ ही वायुमण्डल के ऊपरी भागों में ताप के एकत्रीकरण द्वारा तापमान बढ़ जाता है। इस प्रकार विलोमता की स्थिति पैदा हो जाती है।

5. हिमाच्छादित प्रदेश-जिन शीतप्रधान क्षेत्रों में हिम जमी रहती है, वहाँ धरातल पर निम्न तापमान पाए जाते हैं। क्योंकि हिम सूर्य की किरणों को शीघ्र की परावर्तित कर देती है। इस प्रकार धरातल तापमान ग्रहण नहीं कर पाता तथा ने ही गर्म हो पाता है। अत: ताप विलोमता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

प्रश्न 11. वायुमण्डल किस प्रकार गर्म होता है? विकिरण की इस प्रक्रिया के कारण एवं महत्त्व बताइए।
उत्तर-सूर्य द्वारा विकिरित सौर ऊर्जा को सूर्यापत कहते हैं। पृथ्वी पर यह लघु तरंगों के रूप में आता है। पृथ्वी द्वारा विकिरित ऊर्जा ही भौमिक या पार्थिव विकिरण कहलाती है। वायुमण्डल पार्थिव विकिरण एवं शोषित विकिरण द्वारा गर्म होता है, किन्तु इसके गर्म होने में पार्थिव या भौतिक विकिरण का विशेष योगदान होता है। इसका मुख्य कारण निम्नलिखित है-

वायुमण्डल लघु तरंगों को अवशोषित नहीं कर पाता। फिर भी वायुमण्डल को बहुत कम ऊर्जा प्राप्त होती है। किन्तु लम्बी तरंगों को वायुमण्डल शीघ्र अवशोषित कर लेता है, क्योंकि वायुमण्डल में व्याप्त गैस, जलवाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड अधिक ऊष्मा ग्रहण करने में सहयोग प्रदान करते हैं। इससे वायुमण्डल की निचली परतें ऊपरी परतों की अपेक्षा अधिक गर्म होती हैं।

प्रश्न 12. समपात रेखाओं के खिसकने की प्रवृत्ति किस ओर होती है-स्थल की ओर या जल की ओर? व्याख्या कीजिए।
उत्तर-उत्तरी गोलार्द्ध में जनवरी की समताप रेखाएँ ध्रुवों पर महासागरों की ओर तथा भूमध्य रेखा पर महाद्वीपों की ओर झुकी हुई होती है। जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में इनकी प्रवृत्ति विपरीत होती है अर्थात् भूमध्यरेखा पर महासागरों की ओर तथा ध्रुवों पर महाद्वीपों की ओर जुलाई महीने में समपात रेखाओं की प्रवृत्ति स्थल से समुद्र पर करते हुए भूमध्यरेखा की ओर तथा स्थलखण्ड को पार करते हुए ध्रुवों की ओर होती है। अतः तापमान प्रवणता ग्रीष्म ऋतु में शीत ऋतु की अपेक्षा मन्द होती है।

इस प्रकार समताप रेखाएँ उत्तरी गोलार्द्ध की अपेक्षा दक्षिणी गोलार्द्ध में अधिक नियमित होती हैं। वस्तुत: समताप रेखाओं की प्रवृत्ति अधिकतर स्थलखण्ड की ओर खिसकने की होती है क्योंकि स्थल का स्वभाव ऊष्मा को शीघ्रता से ग्रहण करने का होता है जबकि सागर या जलीय क्षेत्र देर में ऊष्मा ग्रहण करते हैं तथा देर में ही ठण्डे होते हैं। अतः ग्रीष्मकाल में समदाब रेखाएँ ध्रुवों की ओर तथा शीतकाल में भूमध्य रेखा की ओर खिसकती हैं।

प्रश्न 13. तापमान असंगति क्या है? यह कितने प्रकार की होती है? ।
उत्तर-तापमान असंगति-समुद्र तल से विभिन्न स्थलों की ऊँचाई, जल एवं स्थल की विषमता, प्रचलित पवन तथा समुद्री धाराओं के कारण एक ही अक्षांश पर स्थित विभिन्न स्थानों के तापमान में अन्तर पाया जाता है। किसी स्थान के औसत तापमान और उस अक्षांश के औसत तापमान के अन्तर को ‘तापमान असंगति’ कहते हैं। यह तापमान के औसत से विचलन की मात्रा और दिशा को प्रदर्शित करती है। तापमान असंगति उत्तरी गोलार्द्ध में अधिकतम तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में न्यूनतम पाई जाती है। तापमाने असंगति के प्रकार–तापमान असंगति दो प्रकार की होती है-(i) ऋणात्मक तथा (ii) धनात्मक।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. तापमान के क्षैतिज वितरण को प्रभावित करने वाले कारकों की व्याख्या कीजिए तथा पृथ्वी
को ताप कटिबन्धों में विभाजित कीजिए। |
या तापमान के क्षैतिज वितरण को प्रभावित करने वाले कारकों की विवेचना कीजिए।
या भूमण्डल को प्रमुख ताप कटिबन्धों में विभक्त कर वर्णन कीजिए।
उत्तर- वायुमण्डल के तापमान को प्रभावित करने वाले कारक
धरातल पर तापमान का वितरण जलवायु को निर्धारित करता है। इसके अतिरिक्त वनस्पति, जीव-जन्तुओं एवं मानव तथा उसके क्रियाकलाप तापमान द्वारा प्रभावित होते हैं। वायुमण्डल का ताप निम्नलिखित कारकों द्वारा प्रभावित होता है

1. अक्षांशीय स्थिति-सूर्यातप अक्षांशीय स्थिति पर निर्भर करता है। विषुवत् रेखा पर सूर्यातप की . “अधिकतम मात्रा होती है। विषुवत् रेखा से उच्च अक्षांशों (उत्तर एवं दक्षिण) की ओर बढ़ने पर। ताप में कमी होती जाती है, क्योंकि सूर्य की किरणों के सापेक्ष तिरछेपन का प्रभाव पड़ता है। विषुवत् रेखा से ध्रुवों की ओर औसत तापमान क्रमशः घटता जाता है, परन्तु अधिकतम तापमान विषुवत् रेखा पर न होकर कर्क रेखा (ग्रीष्म ऋतु) तथा मकर रेखा (शीत ऋतु) पर होता है, क्योंकि सूर्य की स्थिति उत्तरायण एवं दक्षिणायण क्रमश: 6-6 माह में बदलती रहती है।

2. समुद्र-तल से ऊँचाई-समुद्र तल से लम्बवत् दूरी बढ़ने के साथ-साथ ताप में कमी होती जाती है। धरातल के समीप वाली वायु सबसे अधिक गर्म होती है तथा इसकी परतें भी मोटी होती हैं, जबकि ऊँचाई में वृद्धि के साथ-साथ वायु की परतें हल्की होती चली जाती हैं तथा वायु का तापमान भी कम होता जाता है। समुद्र-तल से प्रति 165 मीटर की ऊँचाई पर 1° सेग्रे ताप में कमी होती जाती है, जिस कारण उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में हिमपात होता है।

3. थल एवं जल का वितरण-स्थल की यह प्रकृति होती है कि वे सूर्यातप के प्रभाव से शीघ्र ही गर्म हो जाते हैं तथा शीघ्र ही ठण्डे हो जाते हैं। इसके विपरीत जल क्षेत्र देर से गर्म एवं देर से ही ठण्डे होते हैं। इसी कारण धरातलीय ताप में भिन्नता पायी जाती है। जल के प्रभाव से उनके निकटवर्ती भागों की जलवायु समकारी होने की प्रवृत्ति रखती है, जबकि महाद्वीपों के आन्तरिक भागों में थल की अधिकता के कारण जलवायु में विषमता उत्पन्न हो जाती है।

4. समुद्र से दूरी-समुद्रतटीय भागों का तापमान समान रहता है, क्योंकि इन भागों में दैनिक तापान्तर बहुत ही कम होता है, परन्तु जैसे-जैसे सागरीय तटों से स्थल भागों की दूरी बढ़ती जाती है, | तापान्तर भी बढ़ता जाता है।

5. सागरीय धाराएँ-विषुवत् रेखा से ध्रुवों की ओर गर्म जलधाराएँ प्रवाहित होती हैं, जो शीतोष्ण एवं शीत कटिबन्धीय प्रदेशों के तटीय भागों के तापमान में वृद्धि कर देती हैं। इसके विपरीत ध्रुवीय प्रदेशों से विषुवतीय प्रदेशों की ओर शीतल जलधाराएँ प्रवाहित होती हैं, जो उष्ण कटिबन्ध के तटीय प्रदेशों के तापमान में कमी कर देती हैं। दो विपरीत धाराओं के मिलने से कोहरे की उत्पत्ति होती है।

6. प्रचलित पवनें-निम्न अक्षांशों से उच्च अक्षांशों की ओर प्रवाहित उष्ण पवनें तापमान को बढ़ा देती हैं, जबकि ध्रुवों की ओर से प्रवाहित पवनें निम्न अक्षांशों के तापमान में कमी कर देती हैं। प्रचलित पवनों के कारण ही जलधाराओं का प्रभाव तटवर्ती क्षेत्रों तक पहुँचता है। जल भागों से स्थल भागों की ओर प्रवाहित पवनें तापान्तर में कमी कर देती हैं। इसी प्रकार चक्रवातों के आगमन के समय तापमान बढ़ जाता है तथा समाप्ति पर घट जाता है।

7. धरातलीय विषमता-सामान्य रूप से किसी स्थान के तापमान पर धरातल के ढाल तथा उसकी प्रकृति का प्रभाव पड़ता है। हिमाच्छादित प्रदेशों में सूर्यातप के परावर्तन के कारण तापमान कम हो जाता है। मरुस्थलीय भागों में बलुई मिट्टी के द्वारा ताप का अधिक अवशोषण करने के फलस्वरूप तापमान में एकाएक वृद्धि हो जाती है। पर्वतीय भागों के जो ढाल सूर्य की किरणों के सामने पड़ते हैं, वे अधिक सूर्यातप ग्रहण कर लेते हैं। शीतल पवनों के मार्ग में पर्वतीय अवरोध आ जाने के कारण यह किसी प्रदेश के तापमान को कम करने से रोकता है।

8. मिट्टी की प्रकृति-अधिक गहरे रंग की मिट्टियाँ ताप का अधिक अवशोषण कर लेती हैं जिससे तापमान में वृद्धि हो जाती है। इसके विपरीत हल्के रंग की मिट्टियाँ कम मात्रा में ताप का अवशोषण करती हैं, जिससे तापमान में वृद्धि नहीं हो पाती। काली मिट्टी के प्रदेशों में 8 से 14 प्रतिशत तक ताप का परावर्तन हो जाता है। बालू-प्रधान क्षेत्रों में चीका मिट्टी की अपेक्षा ताप का अधिक अवशोषण होता है।

9. मेघाच्छादन-सूर्य की किरणों को पृथ्वी तक पहुँचने में बादलों द्वारा बाधा उत्पन्न होती है, क्योंकि ये ताप को परावर्तित कर देते हैं। बादलरहित क्षेत्रों में तापमान अधिक होता है। ऐसे प्रदेशों में जहाँ पर हर समय बादल छाये रहते हैं, तापमान अधिक नहीं हो पाता है।

तापमान का क्षैतिजीय वितरण

सामान्य रूप से धरातल पर तापमान का वितरण समताप रेखाओं (Isotherms) द्वारा प्रदर्शित किया। जाता है। समुद्र-तल से समान तापमान वाले स्थानों को मिलाने वाली रेखाओं को ‘समताप रेखा’ कहा जाता है। ये रेखाएँ पूर्व से पश्चिम दिशा में मानचित्रों पर निर्मित की जाती हैं, जो प्रायः अक्षांश रेखाओं के समानान्तर ही होती हैं। इससे स्पष्ट होता है कि तापमान के क्षैतिजीय वितरण पर अक्षांशों का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। स्थल एवं जलखण्डों के मिलन-स्थलों पर समताप रेखाओं में झुकाव आ जाता है। इसका प्रमुख कारण जल एवं थल भागों के गर्म एवं ठण्डा होने की प्रकृति में पर्याप्त अन्तर होना है। दक्षिणी गोलार्द्ध में जल की अधिकता के कारण समताप रेखाएँ दूर-दूर तथा सपाट होती हैं। इसके विपरीत उत्तरी गोलार्द्ध में थल भाग की अधिकता के कारण समताप रेखाएँ पास-पास तथा तापमान की भिन्नता के कारण अधिक झुकाव वाली होती हैं। समताप रेखाएँ समीप होने से तापमान की तीव्रता को. प्रकट करती हैं।

तापमान को प्रादेशिक वितरण भी क्षैतिजीय वितरण को ही प्रकट करता है। ताप वितरण की समानता तथा उनकी विशेषताओं को आधार मानकर सम्पूर्ण ग्लोब को कुछ मण्डलों में विभाजित कर लिया जाता है। इन मण्डलों का विभाजन तथा सीमांकन अक्षांशीय आधार पर किया जाता है। इस आधार पर ग्लोब को निम्नलिखित तीन कटिबन्धों में विभाजित किया जा सकता है
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1. उष्ण कटिबन्ध
पृथ्वी की घूर्णन गति के कारण कर्क तथा मकर रेखाओं (23 1/2%° उत्तरी एवं 23 1/2° दक्षिणी अक्षांश) के मध्य सूर्य की किरणें वर्ष में दो बार लम्बवत् चमकती हैं। इसीलिए भूमध्य रेखा के आस-पास वाले भागों में उच्चतम तापमान रहने के कारण शीत ऋतु नाममात्र को भी नहीं होती, जबकि कर्क तथा मकर रेखाओं के समीपवर्ती भागों में ग्रीष्म एवं शीत ऋतुएँ क्रमशः आरम्भ हो जाती हैं। अत: विषुवत् रेखा के समीप दोनों ओर शीत ऋतु रहित इस कटिबन्ध को उष्ण कटिबन्ध

2. शीतोष्ण कटिबन्ध ।
इस कटिबन्ध का विस्तार 23 1/2° से.66 1/2%° उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांशों (ध्रुव वृत्तों) के मध्य है। यहाँ पर सूर्य की किरणों के सापेक्ष तिरछापन प्रारम्भ हो जाता है। इस कटिबन्ध में दिन तथा रात की अवधि ऋतु के अनुसार घटती-बढ़ती रहती है, परन्तु यह अवधि 24 घण्टे से अधिक नहीं हो पाती है। तापमान में घट-बढ़ के कारण ही इसे शीतोष्ण कटिबन्ध कहते हैं। स्थिति के अनुसार इसे निम्नलिखित दो भागों में बाँटा जा सकता है

(अ) उत्तरी शीतोष्ण कटिबन्ध-इस कटिबन्ध का विस्तार कर्क रेखा से उत्तरी ध्रुव वृत्त तक है। सूर्य की उत्तरायण स्थिति में उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्म ऋतु होती है। इसी कारण यहाँ ग्रीष्म तथा शीतकाल : का तापान्तर भी अधिक होता है।

(ब) दक्षिणी शीतोष्ण कटिबन्ध-इस कटिबन्ध का विस्तार मकर रेखा से दक्षिणी ध्रुव वृत्त तक है। सूर्य की दक्षिणायण स्थिति में दक्षिणी गोलार्द्ध में ग्रीष्म ऋतु हो जाती है; अत: ऋतुओं के क्रमशः परिवर्तन के कारण ग्रीष्म एवं शीतकाल में तापान्तर अधिक होता है।

3. शीत कटिबन्ध
इस कटिबन्ध का विस्तार दोनों गोलार्डो में 66 1/2° से उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव केन्द्रों तक है। इन क्षेत्रों में सूर्य की किरणों के सापेक्ष तिरछेपन का व्यापक प्रभाव पड़ता है जिससे औसत तापमान निम्न रहता है। दिन-रात की अवधि 24 घण्टे से अधिक हो जाती है। ध्रुवों पर छ: महीने के दिन तथा क्रमशः छः महीने की रातें होती हैं। सूर्य की किरणें कभी भी लम्बवत् नहीं चमकती हैं। इसीलिए यह कटिबन्ध हिम से ढका रहता है। इसे दो निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है

(अ) उत्तरी शीत कटिबन्ध-इस कटिबन्ध का विस्तार उत्तरी ध्रुव वृत्त से उत्तरी ध्रुव तक है। यहाँ पर कठोर शीत पड़ती है तथा वर्ष भर ये भाग हिम से ढके रहते हैं।
(ब) दक्षिणी शीत कटिबन्ध-इस ताप कटिबन्ध का विस्तार दक्षिणी ध्रुव वृत्त से दक्षिणी ध्रुव तक है। सूर्य की किरणों के सापेक्ष तिरछेपन के कारण छ: माह के दिन तथा छ: माह की रातें होती हैं। यह कटिबन्ध सदैव बर्फ से ढका रहता है। यहाँ पर कठोर शीत पड़ती है।

प्रश्न 2. ताप की विलोमता या व्युत्क्रमण से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार की होती है?
या वायुमण्डल में तापमान विलोम का वर्णन कीजिए।
उत्तर-तापमान का विलोम अथवा ताप का व्युत्क्रमण
वायुमण्डल में ऊँचाई के अनुसार तापमान कम होता जाता है। ऐसा मुख्य रूप से 8 किमी से 18 किमी की ऊँचाई तक ही होता है। सामान्य रूप से प्रति किमी की ऊँचाई पर 65° सेग्रे ताप कम हो जाता है, परन्तु कुछ विशेष परिस्थितियों में तापमान घटने के स्थान पर बढ़ जाता है, जिसे ऋणात्मक ताप-पतन दर (Negative Lapse Rate of Temperature) कहते हैं। इससे तापमान की ऊर्ध्वाधर प्रवणता बदल जाती है। इस अवस्था में वायु की गर्म परतें ऊपर पहुँच जाती हैं तथा शीतल परतें नीचे आ जाती हैं। तापमान की इस दशा को तापमान का विलोम या तापमान का प्रतिलोमन अथवा ताप का व्युत्क्रमण कहा जाता है।
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 9 Solar Radiation, Heat Balance and Temperature (सौर विimg 6
ताप का यह प्रतिलोमन धरातल के निकट भी हो सकता है तथा ऊँचाई पर भी। परन्तु धरातल के निकट होने वाला प्रतिलोमन अस्थायी होता है, जबकि ऊँचाई पर होने वाला प्रविंलोमन स्थायी होता है; क्योंकि अधिक ऊँचाई पर वायु की परतों को ठण्डा होने में अधिक समय लग जाता है। तापीय प्रतिलोमन ध्रुवीय प्रदेशों, हिमाच्छादित प्रदेशों एवं घाटियों में अधिक होता है। गर्म एवं ठण्डी धाराओं के मिलन-स्थल पर भी इस प्रकार की अवस्थाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। तापमान के सम्बन्ध में ट्रिवार्था ने कहा है कि “ऐसी अवस्था जिसमें शीत-प्रधान वायु धरातल के चित्र निकट व उष्ण वायु ऊपर पायी जाती है, तापमान का व्युत्क्रमण कहलाता है।”

तापीय विलोमता के प्रकार

ताप की विलोमता के निम्नलिखित प्रकार हैं
1. धरातलीय विलोमता (Surface Inversion)-इस प्रकार की ताप विलोमता पृथ्वी के विकिरण द्वारा अधिक ऊर्जा के प्रवाहित होने से होती है। विपरीत अर्थात् शीतल एवं उष्ण वायुराशियों के आगमन से भी धरातलीय विलोमता उत्पन्न हो जाती है।

2. उच्च धरातलीय विलोमता (Upper Surface Inversion)-धरातल से कुछ ऊँचाई पर वायु-राशियों के अवतलन से इस प्रकार की विलोमता उत्पन्न होती है। यह प्रतिचक्रवातों पर निर्भर करता है। वायु की उष्ण परतें ऊपर तथा शीतल परतें नीचे हो जाती हैं। इससे वायुमण्डल में स्थिरता आ जाती है।

वायुमण्डल की ओजोन परत के ऊपर सर्वाधिक ताप तथा निचली परत में कम ताप मिलता है। यह भी उच्च धरातलीय विलोमता का उदाहरण है।

3. वाताग्री विलोमता (Frontal Inversion)-जब उष्ण एवं शीत प्रधान वायुराशियाँ पास-पास होती हैं, तो उष्ण वायु शीतल वायु के ऊपर फैल जाती है। जिस ओर इन वायुराशियों का ढालें होता है, उसे वाताग्र (Front) कहते हैं। तापक्रम एवं आर्द्रता के कारण यह विलोमता उत्पन्न होती है।

तापीय विलोमता का महत्त्व

मानव तथा आर्थिक विकास पर तापीय विलोमती का प्रभाव महत्त्वपूर्ण है। इसके द्वारा मौसम तथा जलवायु दोनों ही प्रभावित होते हैं। मेघों की बनावट, वर्षा तथा वायुमण्डल की पारदर्शकता पर इसका विशेष प्रभाव पड़ता है। इससे कोहरे की उत्पत्ति होती है। गर्म एवं ठण्डी धाराओं के मिलने से भी कोहरे की उत्पत्ति होती है। यह मछली व्यवसाय के लिए भी उपयोगी है। कहीं-कहीं पर कोहरा फसलों के लिए लाभदायक होता है। कोहरे के कारण अरब में यमन की पहाड़ियों पर कहवे की खेती सम्भव हो पायी है, क्योंकि यह सूर्य की किरणों के तीक्ष्ण प्रभाव को कम कर देता है, परन्तु कोहरे के प्रभाव से फसलों को सूर्य का प्रकाश नहीं मिल पाता, जिससे नाइट्रोजन की कमी हो जाती है तथा फसलें पीली पड़ जाती हैं। पहाड़ी ढालों पर फलों की खेती में ताप का व्युत्क्रमण सहायक होता है।

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UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 13 Water

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 13 Water (महासागरीय जल)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

1. बहुवैकल्पिक प्रश्न
प्रश्न (i) उस तत्त्व की पहचान करें जो जलीय चक्र का भाग नहीं है-
(क) वाष्पीकरण
(ख) वर्षण
(ग) जलयोजन
(घ) संघनन
उत्तर-(ग) जलयोजन।।

प्रश्न (i) महाद्वीपीय ढाल की औसत गहराई निम्नलिखित के बीच होती है|
(क) 2-20 मीटर ।
(ख) 20-200 मीटर
(ग) 200-2,000 मीटर ।
(घ) 2,000-20,000 मीटर
उत्तर-(ख) 20-200 मीटर।

प्रश्न (ii) निम्नलिखित में से कौन-सी लघु उच्चावच आकृति महासागरों में नहीं पाई जाती है?
(क) समुद्री टोला ।
(ख) महासागरीय गभीर
(ग) प्रवालद्वीप ।
(घ) निमग्न द्वीप
उत्तर-(ग) प्रवालद्वीप।

प्रश्न (iv) लवणता को प्रति समुद्री जल में घुले हुए नमक (ग्राम) की मात्रा से व्यक्त किया जाता है
(क) 10 ग्राम
(ख) 100 ग्राम
(ग) 1,000 ग्राम
(घ) 10,000 ग्राम
उत्तर-(ग) 1,000 ग्राम

प्रश्न (v) निम्न में से कौन-सा सबसे छोटा महासागर है?
(क) हिन्द महासागर
(ख) अटलाण्टिक महासागर
(ग) आर्कटिक महासागर ।
(घ) प्रशान्त महासागर
उत्तर-(ग) आर्कटिक महासागर।

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) हम पृथ्वी को नीला ग्रह क्यों कहते हैं?
उत्तर-जल हमारे सौरमण्डल का दुर्लभ पदार्थ है। सौरमण्डल में पृथ्वी ग्रह के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं जल नहीं है। इस दृष्टि से पृथ्वी के जीवन सौभाग्यशाली हैं कि यह एक जलीय ग्रह है, अन्यथा पृथ्वी पर जीव-जन्तुओं का अस्तित्व ही नहीं होता। वस्तुतः सौभाग्य से पृथ्वी के धरातल पर जल की प्रचुर आपूर्ति है। इसीलिए पृथ्वी को नीला ग्रह कहा जाता है।

प्रश्न (ii) महाद्वीपीय सीमान्त क्या होता है?
उत्तर-महाद्वीपीय सीमान्त वह क्षेत्र है जहाँ महासागर महाद्वीपों से मिलते हैं। प्रत्येक महाद्वीप का सीमान्त उथले समुद्रों तथा खाड़ियों से घिरा होता है। इसकी ढाल प्रवणता अत्यन्त कम होती है, जिसका औसत लगभग 1 डिग्री या इससे भी कम हो सकता है।

प्रश्न (ii) विभिन्न महासागरों के सबसे गहरे गर्गों की सूची बनाइए।
उत्तर-महासागरीय गर्त महासागरों के सबसे गहरे भाग होते हैं। अभी तक महासागरों में लगभग 57 गर्ते की खोज की गई है जिसमें सबसे अधिक गर्त प्रशान्त महासागर में स्थित है। प्रमुख महासागरीय गर्गों की संख्या इस प्रकार है1. प्रशान्त महासागर 32, 2. अटलाण्टिक महासागर 19, 3. हिन्द महासागर 6.

प्रश्न (iv) ताप प्रवणता क्या है?
उत्तर-महासागरीय गहराई में जहाँ तापमान में तीव्र कमी आती है उसे ताप प्रवणता कहते हैं। ऐसा अनुमान है कि जल के कुल आयतन का लगभग 90 प्रतिशत गहरे महासागर में ताप प्रवणता के नीचे पाया जाता है। इस क्षेत्र में तापमान 0° सेल्सियस पहुँच जाता है।

प्रश्न (v) समुद्र में नीचे जाने पर आप ताप की किन परतों का सामना करेंगे? गहराई के साथ तापमान में भिन्नता क्यों आती है?
उत्तर-महासागर की सतह से विभिन्न गहराई तक जल के तापमान के आधार पर कई परतें मिलती हैं। सामान्यतः मध्य एवं निम्न अक्षांशों में ऐसी हीं निम्नलिखित तीन ताप परतें मिलती हैं-

  • गर्म महासागरीय जल की सबसे ऊपरी परत जो लगभग 500 मीटर मोटी होती है, का तापमान 20°C से 25°C के बीच होता है।
  • ताप प्रवणता परतं जो पहली परत के नीचे स्थित होती है, में गहराई बढ़ने के साथ तापमान में तीव्र | गिरावट आती है।
  • बहुत अधिक ठण्डी परत जो गम्भीर महासागरीय तली तक विस्तृत होती है।

महासागरों में उच्च तापमान प्रायः उसकी ऊपरी सतह पर ही पाया जाता है, क्योंकि महासागर का यह भाग प्रत्यक्ष रूप से सूर्य की ऊष्मा प्राप्त करता है। इसके साथ गहराई पर जाने में सूर्य का ताप कम प्राप्त होता है, इसलिए सागरीय जल के तापमान में गहराई बढ़ने के साथ-साथ भिन्नताएँ मिलती हैं।

प्रश्न (vi) समुद्री जल की लवणता क्या है?
उत्तर-महासागरीय जल के खारेपन अथवा उसमें स्थित लवण की मात्रा को ही महासागरीय लवणता कहते हैं। महासागरीय जल की औसत लवणता लगभग 35 प्रति हजार अर्थात् 1000 ग्राम समुद्री जल में 35 ग्राम लवण पाया जाता है।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) जलीय चक्र के विभिन्न तत्त्व किस प्रकार अन्तर-सम्बन्धित है?
उत्तर–जल एक चक्र के रूप में महासागर से धरातल पर और धरातल से महासागर तक चलने वाली पक्रिया है। यह चक्र पृथ्वी पर, पृथ्वी के नीचे तथा ऊपर वायुमण्डल में जल के संचलन की व्यवस्था करता है। पृथ्वी पर जलचक्र करोड़ों वर्षों से कार्यरत है और आगे भी पृथ्वी पर जब तक जीवन है, यह चक्र सक्रिय रहेगा। सभी प्रकार के जीव इसी जलचक्र पर निर्भर हैं। जलचक्र से सम्बन्धित तत्त्व, जो परस्पर अन्तर-सम्बन्धित पक्रिया में जलचक्र को सक्रिय रखते हैं, निम्नलिखित हैं-

1. वाष्पीकरण-वाष्पीकरण जलचक्र का सबसे महत्त्वपूर्ण घटक है। महासागर से वायुमण्डल का परिसंचलन इसी प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न होता है। इस प्रक्रिया में सौर ताप से जल गर्म होकर वाष्प के रूप में वायुमण्डल में जाता है।

2. संघनन-जल के गैसीय अवस्था से द्रवीय अवस्था में परिवर्तन को संघनन कहते हैं। जलचक्र में संघनन का कार्य वायुमण्डल में सम्पन्न होता है। इसी प्रक्रिया में महासागर का जल वायुमण्डल से धरातल पर पहुँचता है।

3. अवक्षेपण-इस प्रक्रिया में वायुमण्डले की जलवाष्प जल-बूंदों में जलवृष्टि के रूप में पृथ्वी पर आती है।

इस प्रकार वाष्पीकरण, संघनन एवं अवक्षेपण तत्त्वों द्वारा जलचक्र की प्रक्रिया सतत् चलती रहती है। (चित्र 13.1)।
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 13 Water (महासागरीय जल) img 1

प्रश्न (ii) महासागरों के तापमान वितरण को प्रभावित करने वाले कारकों को परीक्षण कीजिए।
उत्तर-महासागरीय जल के तापमान वितरण को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं
1. अक्षांश-ध्रुवों की ओर सौर विकिरण की मात्रा घटने के कारण महासागरों के सतही जल का तापमान विषुवत् वृत्त से ध्रुवों की ओर घटता जाता है।

2. स्थल तथा जल का असमान वितरण-उत्तरी गोलार्द्ध के महासागर दक्षिणी गोलार्द्ध के महासागरों की अपेक्षा स्थल के बहुत बड़े भाग से सम्बद्ध हैं। इसलिए उत्तरी गोलार्द्ध दक्षिणी | गोलार्द्ध की अपेक्षा अधिक ऊष्मा ग्रहण करता है।

3. प्रचलित हवाएँ-स्थलों की ओर से महासागरों की ओर चलने वाली हवाएँ समुद्री सतह के गर्म जल को तट से दूर धकेल देती हैं जिसके परिणामस्वरूप नीचे का ठण्डा जल ऊपर की ओर आ
जाता है। परिणामस्वरूप इस प्रक्रिया से समुद्र के तापमान में वृद्धि हो जाती है।

4. महासागरीय धाराएँ-गर्म समुद्री धाराएँ ठण्डे क्षेत्रों के जल का तापमान बढ़ा देती हैं, जबकि ठण्डी धाराएँ गर्म समुद्री क्षेत्रों के जल का तापमान कम कर देती हैं। उदाहरण के लिए-गल्फ-स्ट्रीम गर्म जलधारा यूरोप के पश्चिमी तट के जल का तापमान बढ़ा देती है। इसके विपरीत लेब्रेडोर की ठण्डी जलधारा उत्तरी अमेरिका के उत्तरी-पूर्वी तट के तापमान को कम कर देती है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. निम्नलिखित में से कौन महासागरीय तली में सबसे ऊपर स्थित होता है?
(क) महाद्वीपीय मग्नतट
(ख) महाद्वीपीय मग्नढाल
(ग) महासागरीय द्रोणी
(घ) महासागरीय गर्त
उत्तर-(क) महाद्वीपीय मग्नतट।

प्रश्न 2. निम्नलिखित में विश्व का सर्वाधिक लवणता वाला सागर कौन-सा है?
(क) मृत सागर ।
(ख) बाल्टिक सागर
(ग) काला सागर
(घ) अजोव सागर
उत्तर-(क) मृत सागर।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. महासागरीय मग्न तट से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-यह समुद्र के नितल का अति मन्द ढालयुक्त भाग है, जो महाद्वीप के चारों ओर फैला हुआ है।

प्रश्न 2. महासागरीय जल की लवणता को समझाइए।
उत्तर-सागरीय जल में लवणों की उपस्थिति से उत्पन्न खारेपन को महासागरीय जल की लवणता कहा जाता है।

प्रश्न 3. महासागरों के तलीय उच्चावच का रेखाचित्र बनाइए।
उत्तर-
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 13 Water (महासागरीय जल) img 2

प्रश्न 4. विश्व के महासागरीय गत का वितरण लिखिए।
उतर-विश्व के लगभग 7% भाग पर, महासागरीय गर्गों का विस्तार है। कुल 57 गर्गों में से 32 प्रशान्त महासागर में, 19 अटलाण्टिक महासागर में और 6 हिन्द महासागर में स्थित हैं। मेरियाना (प्रशान्त महासागर) नाम का महासागरीय गर्त लगभग 11 किमी गहरा है जो विश्व का सर्वाधिक गहरा महासागरीय गर्त है।

प्रश्न 5. विश्व के किस भाग में महाद्वीपीय मग्नतट की अनुपस्थिति मिलती है?
उतर-विश्व में दक्षिणी अमेरिका के पश्चिमी तट पर महाद्वीपीय मग्नतट लगभग अनुपस्थित मिलते हैं।

प्रश्न 6. महासागरीय जल के तापमान वितरण की प्रमुख विशेषता क्या है?
उत्तर-महासागरीय जल के तापमान वितरण में क्षेत्रीय विविधता पाई जाती है। भूमध्यरेखा के समीप महासागरीय जल सबसे अधिक गर्म और ध्रुवों की ओर क्रमशः ठण्डा होता जाता है।

प्रश्न 7. विश्व के सर्वाधिक लवणता वाले क्षेत्र बतलाइए।
उत्तर-विश्व में सर्वाधिक लवणता वाले क्षेत्र आयनमण्डल में पाए जाते हैं। अटलाण्टिक महासागर में आयनमण्डलों के समीप लवणता लगभग 37 प्रति हजार है। स्थल से घिरे समुद्रों में संयुक्त राज्य अमेरिका की ग्रेट साल्ट लेक में 220, मृत सागर में 240 तथा तुर्की की वान झील में 330 प्रति हजार लवणती सबसे अधिक है।

प्रश्न 8. विश्व के समुद्रों की औसत लवणता मात्रा कितनी है?
उत्तर-समुद्र के एक हजार ग्राम जल में औसत 35 ग्राम लवण घोल के रूफ़ में विद्यमान हैं। इस प्रकार विश्व के समुद्री जल की औसत लवणता 35 प्रति हजार (35%) है।

प्रश्न 9. विश्व के कम एवं अधिक लवणता वाले क्षेत्रों के नाम लिखिए।
उत्तर-विश्व के कम और अधिक लवणता वाले क्षेत्र निम्नानुसार हैं

  • भूमध्य रेखा पर कम लवणता,
  • व्यापारिक पवनों के क्षेत्रों (आयनमण्डल) के समीप कम लवणता,
  • पछुआ पवनों के क्षेत्रों में कम लवणता,
  • ध्रुवीय प्रदेशों में कम लवणता।

प्रश्न 10. सागरीय मैदानों का विस्तार कहाँ मिलता है?
उत्तर-सागरीय मैदानों का विस्तार 20° उत्तरी अक्षांश से 60° दक्षिणी अक्षांशों के मध्य अधिक पाया जाता है। महासागरों के विचार से प्रशान्त महासागर में सागरीय मैदान अधिक मिलते हैं।

प्रश्न 11. महाद्वीपीय ढालों की उत्पत्ति कैसे हुई है?
उत्तर-महासागरीय ढाल महासागरीय तल का एक सँकरा भाग होता है। इनकी उत्पत्ति महाद्वीपों के किनारे मुड़ने तथा अवसादों की मोटी परत एकत्रित होने के फलस्वरूप हुई है।

प्रश्न 12. विश्व के प्रसिद्ध महासागरीय पठार का नाम व स्थिति लिखिए।
उत्तर-विश्व का प्रसिद्ध महासागरीय पठार अटलाण्डिटक महासागर के मध्य में स्थित मध्य अटलाण्टिक कटक’ है। इसके अतिरिक्त पूर्वी प्रशान्त महासागर में स्थित ‘एल्बटरॉस पठार’ भी सागरीय पठार का अच्छा उदाहरण है।

प्रश्न 13. महासागरीय जल की लवणता समझाइए।
उत्तर-सागरीय जल के भाग तथा उसमें घुले हुए पदार्थों के भार के अनुपात को लवणता कहते हैं। एक किग्रा समुद्री जल में घुले हुए ठोस पदार्थों की मात्रा ही लवणता है। सामान्यतया महाद्वीपीय जल में प्रति हजार ग्राम में 35 ग्राम लवणता पाई जाती है (35%)।

प्रश्न 14. पृथ्वी के कितने भाग पर जल पाया जाता है?
उत्तर-पृथ्वी के 71% भाग पर जल पाया जाता है।

प्रश्न 15. समुद्र विज्ञान से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-समुद्र विज्ञान वह विज्ञान है जिसमें समुद्र के जल, जलधारा, ज्वारभाटा तथा अन्य सम्बन्धित तथ्यों का अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 16. प्रमुख महासागरों के नाम लिखिए।
उत्तर-प्रमुख महासागरों के नाम निम्नलिखित हैं–

  1. प्रशान्त महासागर,
  2. अटलाण्टिक महासागर,
  3. हिन्द महासागर,
  4. आर्कटिक महासागर,
  5. दक्षिणी हिम महासागर।।

प्रश्न17. विश्व का सबसे बड़ा महासागर एवं सबसे गहरा गर्त कौन-सा है?
उत्तर-विश्व का सबसे बड़ा महासागर प्रशान्त महासागर एवं सबसे गहरा गर्त मेरियाना (11,033 मीटर) है जो प्रशान्त महासागर में स्थित है। |

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. महासागरीय तलीय उच्चावच पर प्रकाश डालिए तथा इसकी लपरेखा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-महासागरीय तल
महासागरों की तली को धरातल अत्यन्त विषम होता है। भूपटल की भाँति सागरीय तली में भी पर्वत, पठार, मैदान, गर्त आदि पाए जाते हैं, जिन्हें महासागरीय उच्चावच कहते हैं। पृथ्वी के ऊँचे भागों की अपेक्षा महासागर कहीं अधिक गहरे हैं। महासागरों की गहराई पर प्रकाश डालते हुए प्रो० जॉन मूरे ने लिखा है-“3,500 मीटर से अधिक ऊँचा भाग समस्त भूमण्डल का मात्र 1% है, जबकि समुद्रों में 3,500 मीटर से अधिक गहरे भाग 46% हैं। वस्तुतः महासागरीय नितल का अधिकांश भाग 3 किमी से 6 किमी तक गहरा है।

महासागरीय तल की रूपरेखा

महासागरीय नितल को उच्चावच की दृष्टि से निम्नलिखित भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है

  1. महाद्वीपीय मग्नतट (Continental Shelf),
  2. महाद्वीपीय ढाल (Continental Slope),
  3. गहन सागरीय मैदान (Deep Sea Plains),
  4. महासागरीय पठार (Oceanic Plateaus),
  5. महासागरीय गर्त (Oceanic Deeps)।

प्रश्न 2. महाद्वीपीय मग्नतट का क्या अर्थ है? इनकी मुख्य विशेषताएँ बतलाइए।
उत्तर-महाद्वीपीय मग्नतट महासागरों व महाद्वीपों के मिलन-स्थल होते हैं। इसका ढाल 1° से 3° तक, गहराई 200 मीटर तक तथा चौड़ाई कुछ किमी से 1,000 किमी तक होती है। विश्व में सबसे अधिक मग्नतट अन्ध महासागर में विद्यमान हैं। महाद्वीपीय मग्नतटों की मुख्य विशेषताएँ निम्नांकित हैं–

  • पृथ्वी पर महासागरों के कुल क्षेत्रफल का लगभग 7.5 से 8.5% भाग महाद्वीपीय मग्नतट के रूप में अवस्थित है।
  • महाद्वीपीय मग्नतट समुद्री खाद्य पदार्थों की उपलब्धता, मत्स्य आखेट और खनिज तेल एवं गैस उत्पादन के प्रमुख क्षेत्र होते हैं।
  • महाद्वीपीय मग्नतट मत्स्य उत्पादन के अनुकूल क्षेत्र होते हैं। विश्व के विशालतम मत्स्य संग्रहण क्षेत्र डॉगर बैंक और ग्राण्ड बैंक इन्हीं तटों पर स्थित मिलते हैं।
  • ये तट प्रकाश और गर्मी की उपस्थिति के कारण जल-जीवों तथा सागरीय वनस्पति के विपुल । भण्डार होते हैं।

प्रश्न 3. महासागरीय लवणता वितरण की विभिन्नता के दो महत्त्वपूर्ण कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-महासागरों में लवणता वितरण की भिन्नता के दो महत्त्वपूर्ण कारण निम्नांकित हैं
1: स्वच्छ जल की आपूर्ति-महासागरों में स्वच्छ जल की आपूर्ति जितनी अधिक मात्रा में होती है, लवणता उतनी ही कम होती है। इसीलिए भूमध्य रेखा के निकट वर्षा की अधिकता के कारण | लवणता कम तथा आयन रेखाओं के निकट कम वर्षा होने के कारण लवणता अधिक मिलती है।

2. वाष्पीकरण की मात्रा एवं तीव्रता-वाष्पीकरण की मात्रा की अधिकता के कारण लवणता की मात्रा में वृद्धि होती है। कर्क व मकर रेखाओं के निकट निर्मल आकाश व प्रखर सूर्य की किरणों के कारण वाष्पीकरण की मात्रा अधिक रहती है। इसी कारण लाल सागर में लवणता 40% मिलती है।

प्रश्न 4. अन्ध महासागर एवं प्रशान्त महासागर की तापमान विभिन्नताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-अन्ध महासागर-अन्ध महासागर में गर्म एवं ठण्डी धाराओं का प्रभाव समताप रेखाओं के वितरण पर विशेष रूप से षड़ता है। उत्तरी अन्ध महासागर में समताप रेखाएँ पश्चिम की ओर परस्पर मिलती हैं, जबकि उत्तर-पूर्व में समताप रेखाएँ दूर-दूर स्थित हैं। मध्यवर्ती अन्ध महासागर में समताप रेखाओं का वितरण बड़ा ही असंयमित है, क्योंकि यहाँ सागर एवं मौसम की दिशा अनिश्चित रहती है।

प्रशान्त महासागर-प्रशान्त महासागर में समताप रेखाएँ प्रायः अक्षांश रेखाओं के समानान्तर मिलती हैं, क्योंकि यह महासागर आकार में सबसे बड़ा है, जिससे स्थलीय क्षेत्रों एवं पवनों का विशेष प्रभाव यहाँ नहीं पड़ता है। यहाँ विषुवत् रेखा के समीपवर्ती भागों में तापमान 25° सेल्सियस पाया जाता है जो घटते-घटते 60° उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांशों के समीपवर्ती भागों में हिमांक बिन्दु के समीप पहुँच जाता है। दक्षिणी प्रशान्त महासागर में स्थलखण्ड की कमी के कारण समताप रेखाएँ लगभग पूर्व-पश्चिम दिशा में ही विस्तृत मिलती हैं।

प्रश्न 5. महासागरीय उच्चावच की दो आकृतियों-मध्य महासागरीय कटक एवं समुद्री टीला का वर्णन कीजिए।
उत्तर-1. मध्य महासागरीय कटक-मध्य महासागरीय कटक पर्वतों की दो श्रृंखलाओं से बनी आकृति है जो एक विशाल अवनमन द्वारा अलग होती है। इन पर्वत श्रृंखलाओं के शिखर की ऊँचाई 2,500 मीटर तक हो सकती है। किन्तु इनमें से कुछ समुद्र की सतह तक भी पहुँच जाती हैं; जैसे—आइसलैण्ड, जो मध्य अटलाण्टिक कटक का एक भाग है।

2. समुद्री टीला-ये नुकीले शिखरों वाले सागरीय पर्वत हैं। ये पर्वत या टीले महासागरीय सतह तक | नहीं पहुँच पाते हैं। इनकी उत्पत्ति ज्वालामुखी द्वारा होती है। इनकी ऊँचाई प्रायः 3,000 से 4,500 मीटर के आसपास होती है।

प्रश्न 6. प्रशान्त महासागर के उच्चावच की तुलना हिन्द महासागर के उच्चावच से कीजिए।
उत्तर- प्रशान्त महासागर एवं हिन्द महासागर के उच्चावच की तुलना
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 13 Water (महासागरीय जल) img 3

प्रश्न 7, थर्मोक्लाइन तथा होलोक्लाइन में अन्तर बताइए।
उत्तर-थर्मोक्लाइन-थर्मोक्लाइन होलोक्लाइन के नीचे होती है। यहाँ लवणता की मात्रा बहुत कम पाई जाती है। इसकी मात्रा 34.6 तथा 34.9 प्रतिशत तक होती है। इसी को थर्मोक्लाइन क्षेत्र कहा जाता है।
होलोक्लाइन-इसकी स्थिति ऊपरी सतह पर उथले धरातल पर होती है। यहाँ उच्च लवणता पाई जाती है। इसके बाद लवणता कम होती जाती है।

प्रश्न 8. महासागरीय जल के तापमान के क्षैतिज वितरण का वर्णन कीजिए।
उत्तर-महासागरीय जल के तापमान का क्षैतिज वितरण
महासागरीय जल के तापमान का क्षैतिज वितरण पर भूमध्य-रेखा का विशेष प्रभाव पड़ता है प्रायः विषुवत् रेखा से ध्रुवों की ओर प्रत्येक अक्षांश पर औसत रूप से 1/2°C ताप कम हो जाता है, परन्तु दक्षिणी गोलार्द्ध में महासागरीय जल का तापमान उत्तरी गोलार्द्ध की अपेक्षा कम पाया जाता है। महासागरीय जल के तापमान का क्षैतिज वितरण मानचित्रों में समताप रेखाओं (Isotherms) द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है। हिन्द महासागर में 15°C की समताप रेखा अधिकतम तापमान के प्रदेशों को घेरती है (चित्र 13.3)। महासागरों के उत्तर-पश्चिमी भागों में समताप रेखाएँ देशान्तर रेखाओं के लगभग समान्तर हैं। मध्यवर्ती अन्ध महासागर में समताप रेखाएँ बड़ी ही असंयमित हैं, क्योंकि यहाँ मौसम की दशाएँ अनिश्चित रहती हैं। भूमध्यसागर में अन्ध महासागर की अपेक्षा तापमान उच्च रहता है। इसके विपरीत बाल्टिक सागर एवं हडसन नदी की खाड़ी में तापमान कम रहता है। कैरिबियन सागर में तापमान उच्च रहता है, क्योंकि व्यापारिक पवनें इस सागर की ओर चलती हैं।
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प्रशान्त महासागर में समताप रेखाएँ प्रायः अक्षांश रेखाओं के समानान्तर मिलती हैं। किन्तु दक्षिणी प्रशान्त महासागर में स्थलखण्ड की कमी के कारण समस्राप रेखाएँ लगभग पूर्व-पश्चिम दिशा में ही विस्तृत मिलती हैं। ॥

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. महासागरों के तल के विन्यास का वर्णन कीजिए।
या महासागरों के सामान्य तलीय उच्चावच का वर्णन कीजिए।
या महाद्वीपीय मग्ल ढाल क्या है?
उत्तर-महासागरीय तल-पृथ्वीतल के 70.8% भाग पर जल का विस्तार मिलती है। जल का यह भण्डार स्थिर है। लगभग 29.2% भाग पर स्थलमण्डल का विस्तार पाया जाता है। यदि सागरों एवं महासागरों के सम्पूर्ण जल को स्थल पर फैला दिया जाए तो पृथ्वीतल पर तीन किमी गहरा सागर हिलोरें लेने लगेगा। इस प्रकार उत्तरी गोलार्द्ध में थल भाग (75%) की अधिकता के कारण उसे स्थल गोलार्द्ध एवं दक्षिणी गोलार्द्ध में जल के आधिक्य (90%) के कारण उसे जल गोलार्द्ध कहा जाता है।

पृथ्वीतल पर यह जल महासागरों, सागरों, खाड़ियों एवं झीलों आदि से मिलता है। प्रशान्त, अन्ध, हिन्द, आर्कटिक एवं अण्टार्कटिका–पाँच महासागर तथा भूमध्य, उत्तरी मलय, कैलीफोर्निया, लाल तथा अण्डमान आदि प्रमुख सागर हैं। फारस, हड़सन, मैक्सिको तथा बंगाल की खाड़ियाँ महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। झीलें सागरीय तटों के समीप तथा महाद्वीपों के आन्तरिक भागों में स्थित हैं। सुपीरियर, मिशीगन, घूरन, इरी, ओण्टेरिया, विक्टोरिया, बाल्कश, मानसरोवर आदि मुख्य झीलें हैं। महासागरों की औसत गहराई 3,800 मीटर है।

आधुनिक वैज्ञानिक युग में यन्त्रों, उपकरणों एवं गोताखोरों द्वारा सागरों एवं महासागरों की तली के उच्चावचों के विषय में पर्याप्त जानकारी प्राप्त हुई है। अब तो महासागरों की तली के मानचित्र भी बना लिये गये हैं। पश्चिमी प्रशान्त महासागर की गहराई सबसे अधिक अर्थात् 11.9 किमी है।

महासागरीय तली का विन्यास–महासागरीय तली के विन्यास को जानने के लिए निम्नलिखित बातों का ज्ञान होना अति आवश्यक है
(अ) सागरतल की गहराई एवं (ब) उस स्थान पर जलयान की स्थिति।
सागरतलों की जानकारी के लिए वैज्ञानिकों ने ध्वनि-तरंगों की प्रतिध्वनि विधि को खोज निकाला है। सागरों की गहराई जलयानों में लगे स्वचालित यन्त्रों द्वारा एक ग्राफ पर स्वयं ही अंकित होती रहती है। इस प्रक्रिया में जलयान के निचले भाग द्वारा जल में ध्वनि-तंरगें उत्पन्न की जाती हैं, जो सागरों की तली से टकराकर वापस लौटती हैं। इससे पता चलता है कि सागरीय तल सपाट नहीं है। इसमें बहुत-से पर्वत, पहाड़ियाँ, खाइयाँ एवं समतल मैदान मिलते हैं। ये खाइयाँ इतनी गहरी होती हैं कि इसमें विश्व के सबसे ऊँचे पर्वत ‘एवरेस्ट’ की चोटी भी समा सकती है। सागरों एवं महासागरों में विभिन्न स्थलाकृतियाँ देखने को मिलती हैं, जिनका विवरण निम्नवत् है

1. महाद्वीपीय मग्न तट-सागरों एवं महासागरों में अथाह जलराशि होती है जिससे यह आस-पास के तटीय भागों में फैल जाती है। अत: महाद्वीपों या स्थलों के वे भाग जो जलमग्न होते हैं, महाद्वीपीय मग्न तट कहलाते हैं। इन भागों में जल छिछला होता है तथा गहराई भी 200 फैदम तक होती है। इनका ढाल स्थल से सागर की ओर होता है।

महाद्वीपीय मग्न तट की तली सभी भागों में समान नहीं होती, इनमें गड्ढे, टीले, घाटियाँ आदि पाये जाते हैं। कहीं-कहीं पर इनका तल कठोर शैलों द्वारा निर्मित होता है। कुछ भागों में बालू एवं कीचड़ के जमाव भी मिलते हैं। इनमें कुछ भाग ऊपर उठ जाते हैं, जो सागरीय जल के द्वीप के समान दिखाई पड़ते हैं। महाद्वीपीय मग्न तट कहीं पर ऊँचे उठ रहे हैं और कहीं पर नीचे धंस रहे हैं। इन पर अपरदन कारकों द्वारा अवसादों का निर्माण होता रहता है। सूर्य के प्रकाश के कारण महाद्वीपीय मग्न तट पर वनस्पति तथा जन्तु जीवित रहते हैं। ये क्षेत्र महत्त्वपूर्ण मत्स्य उत्पादक क्षेत्रों के रूप में विकसित हो गये हैं।

2. महाद्वीपीय मग्न ढाल-महाद्वीपीय मग्न् तट के किनारे पर जब ढाल अचानक ही तेज हो जाता है। तो उसे महाद्वीपीय मग्न ढाल कहते हैं। यह ढाल 35 से 61 मीटर प्रति किमी होता है। इसका एक सिरा मग्न तट से जुड़ा होता है तथा दूसरा सिरा समुद्री फर्श से मिल जाता है।
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3. गहरे सागरीय बेसिन-सागरों एवं महासागरों का 2/3 भाग गहरे बेसिन या फर्श द्वारा निर्मित है। इसकी लम्बाई 37 से 43 किमी तक होती है। यहाँ लम्बी पहाड़ियाँ, पठार, ज्वालामुखी, पर्वत शिखर आदि स्थलाकृतियाँ पायी जाती हैं। सागरीय जल में ये पहाड़ियाँ द्वीप की भाँति दिखाई देती हैं। इस प्रकार की स्थलाकृतियाँ प्रशान्त महासागर में देखने को मिलती हैं।

4. सागरीय गर्त-सागरीय तली में स्थित लम्बे, सँकरे एवं गहरे स्थल-स्वरूप को सागरीय गर्त कहते हैं। प्रशान्त महासागर एवं कैरेबियन सागर में यह गर्त अधिक पाये जाते हैं। इनकी गहराई 7 से 9 किमी तक होती है। पर्वत-निर्माणकारी घटनाओं द्वारा इन सागरीय गतें की उत्पत्ति होती है।

5. अन्तःसागरीय गम्भीर खड्ड-महाद्वीपीय मग्न तट और मग्न ढालों पर ‘वी’-आकार के तीव्र ढाल वाली दीवारों के साथ बने गड्ढों को अन्त:सागरीय गम्भीर खड्ड कहते हैं। सागरों में ये खड्ड नदियों के मुहानों के पास होते हैं। इनकी गहराई 2 से 3 किमी तक होती है।

6. सागरीय पर्वत-सागरीय फर्श पर ऊँची परन्तु शीर्षयुक्त जलमग्न स्थलाकृति को सागरीय पर्वत कहते हैं। इनका आकार शंकु की भाँति होता है। अलास्का खाड़ी में इस प्रकार के अनेक पर्वत देखे जा सकते हैं।

7. सागरीय कटक-सागरीय भागों में फैली लम्बी एवं सँकरे आकार की जलमग्न पर्वत-श्रेणियाँ सागरीय कटक कहलाती हैं। अन्ध महासागर में इस प्रकार की अनेक़ स्थलाकृतियाँ मिलती हैं। प्रशान्त महासागर में ये कटक नहीं मिलतीं। हिन्द महासागर में इनका विस्तार उत्तर-दक्षिण दिशा में है।

प्रश्न 2. महासागरों में लवणता के असमान वितरण का वर्णन कीजिए तथा उसके कारणों की विवेचना कीजिए।
या महासागरीय लवणता से आप क्या समझते हैं? उसके वितरण को प्रभावित करने वाले चार कारकों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-महासागरीय जल की लवणता–सम्पूर्ण ग्लोब के 70.8% भाग पर जलमण्डल का विस्तार है। परन्तु सागरों एवं महासागरों का यह जल पीने-योग्य नहीं होता, क्योंकि इसमें अनेक लवणों का मिश्रण रहता है। सागरीय जल में लवणों की उपस्थिति से उत्पन्न खारेपन को महासागरीय जल की लवणता कहा जाता है। खारेपन की यह मात्रा उन सभी खनिजों से मिलती है जो इनके जल में स्वतन्त्र रूप से एक निश्चित अनुपात में मिलते रहते हैं। भिन्न-भिन्न सागरों एवं महासागरों में लवणता की मात्रा में भिन्नता पायी जाती है। यह लवणता प्रति 1000 ग्राम जल में घुले हुए नमक द्वारा प्रकट की जाती है। उदाहरण के लिए, यदि 1,000 ग्राम जल में 21 ग्राम नमक है तो इस जल की लवणता 21 प्रति सहस्र होगी।
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भूमि पर प्रवाहित होता हुआ जल अर्थात् नदियाँ प्रतिवर्ष 16 करोड़ टन खनिज पदार्थ बहाकर सागरों एवं महासागरों के गर्भ में जमा करती हैं। इस जल में कार्बोनेट, सोडियम तथा सिलिकेट आदि लवणों की अधिकता होती है। इस जल में 35 ग्राम नमक प्रति 1,000 ग्राम होता है। सागरों एवं महासागरों के जल का । खारापन अधिक होता है, क्योंकि इनके जल का मैग्नीशियम सल्फेट वाष्पीकरण होता रहता है जिससे इनमें नमक की मात्रा की वृद्धि होती रहती है। सागरीय जल में सल्फेट तथा क्लोराइड आदि लवण अधिक मिलते हैं। अतः इस जल की लवणता का मूल कारण नदियों का जल, जल का – वाष्पीकरण अधिक मात्रा में होना, समुद्री जल-जीव एवं रासायनिक क्रियाओं को होना है।

लवणता की रचना—यह अनुमान लगाया गया है कि सागरों एवं महासागरों के जल में लवणता की मात्रा 50 लाख अरब टन है। सामान्य रूप से प्रति 1,000 ग्राम जल में लवणता की औसत मात्रा 35 ग्राम है; अर्थात् 3.5 प्रतिशत नमक है। इन लवणों में सोडियम क्लोराइड सबसे अधिक होता है। प्रति 1,000 ग्राम सागरीय जल में विभिन्न लवणों की मात्रा संलग्न तालिका के अनुसार है।।

सागरीय जल में लवणों का अनुपात सभी स्थानों पर एकजैसा मिलता है, परन्तु उनकी मात्रा में परिवर्तन हो सकता है। इसका प्रमुख कारण सागरीय जलधाराओं का एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रवाहित होते रहना है। इसी कारण यह अनुपात सदैव स्थिर रहता है।

सागरीय जल की लवणता में भिन्नता के कारण ।

सागरों एवं महासागरों के जल की लवणता में भिन्नता के निम्नलिखित कारण हैं
1. स्वच्छ जल की पूर्ति–जलाशयों में स्वच्छ जल की पूर्ति लवणता की मात्रा को कम कर देती है। उदाहरण के लिए, विषुवत् रेखा के समीपवर्ती भागों में स्वच्छ जले की पूर्ति के कारण सागरीय लवणता कम पायी जाती है। इसके विपरीत उपोष्ण तथा शीतोष्ण कटिबन्धीय भागों के सागरों तथा महासागरों में स्वच्छ जल की कमी के कारण लवणता अधिक पायी जाती है। इसी कारण भूमध्यसागरीय जल में लवणता की मात्रा अधिक पायी जाती है।

2. वाष्पीकरण-वाष्पीकरण क्रिया में जल का बहुत-सा भाग वाष्प बनकर वायुमण्डल में मिल जाता है। इससे सागरीय जल की लवणता में वृद्धि हो जाती है। वाष्पीकरण की अधिकता उच्च ताप, शुष्क वायु, वायु की तेज गति एवं आकाश की स्वच्छता पर निर्भर करती है। उष्ण कटिबन्ध में इस प्रकार की दशाएँ पायी जाती हैं, जिससे इन प्रदेशों में स्थित सागरों में लवणता की मात्रा भी। अधिक मिलती है। इसके विपरीत ध्रुवीय प्रदेशों में निम्न तापमान एवं वाष्पीकरण की कैमी के कारण लवणता कम पायी जाती है।

3. पवनों की प्रकृति-पवनों की तीव्रता एवं शुष्कता जल के अधिक वाष्पीकरण में सहायक होती है; अतः ऐसे क्षेत्रों में सागरीय लवणता भी अधिक मिलती है। यही कारण है कि कर्क एवं मकर रेखाओं के समीपवर्ती सागरीय भागों में लवणता की अधिकता पायी जाती है।

4. सागरीय धाराएँ-समुद्र-तल की ऊपरी सतह में नीचे की सतह की अपेक्षा अधिक लवणता होती है। सागरों में जो धाराएँ प्रवाहित होती हैं, वे ऊपरी सतह के जल को बहा ले जाती हैं, जिससे उस स्थान की लवणता कम हो जाती है। ऊपरी सतह का यह जल जिन भागों में पहुँचता है, वहाँ सागरीय जल की लवणता में वृद्धि कर देता है।

5. जल-जीवों की उपस्थिति-महासागरीय जीव भी लवणता को प्रभावित करते हैं। जिन सागरीय भागों में स्वच्छ एवं मृदु जल होता है, उसमें सिलिको एवं कैल्सियम कार्बोनेट की अधिकता होती है, परन्तु इस जल में उत्पन्न इन तत्त्वों का शोषण जल-जीवों द्वारा कर लिया जाता है, जिससे सागरीय जल की लवणता में वृद्धि हो जाती है।

लवणता का वितरण ।

यदि हम ग्लोब पर स्थित जलाशयों का अध्ययन करें तो पता चलता है कि सबसे कम सागरीय खारापन ध्रुवीय प्रदेशों में मिलता है। इसके विपरीत संबसे अधिक खारापन कर्क एवं मकर रेखाओं के निकटवर्ती सागरीय भागों में पाया जाता है। इसका मुख्य कारण उच्च ताप, कम वर्षा, स्वच्छ आकाश, गर्म शुष्क एवं तीव्र वायु प्रवाह है। सागरीय लवणता का वितरण निम्नलिखित है

1. महासागरीय लवणता-कर्क एवं मकर रेखाओं के समीपवर्ती भागों में लवणता की मात्रा सबसे अधिक अर्थात् 3.6 प्रतिशत है। इनसे आगे ध्रुवों की ओर लवणता की मात्रा कम होती जाती है। भूमध्य रेखा पर लवणता की मात्रा 3.4 प्रतिशत है, जिसका कारण स्वच्छ जल की प्राप्ति का होना है। ध्रुवीय प्रदेशों में लवणता की मात्रा 3.0 प्रतिशत रह जाती है या इससे भी कम मिलती है, जिसका प्रमुख कारण ताप में कमी, वाष्पीकरण का कम होना तथा हिम द्वारा शुद्ध जल की प्राप्ति का होते रहना है।

सागरों में सबसे अधिक लवणता सारगैसो सागर (उत्तरी अटलांटिक महासागर) में है, जहाँ पर इसकी मात्रा 3.8 प्रतिशत है। इसका कारण उच्च ताप, कम वर्षा, आकाश की स्वच्छता, उष्ण एवं शुष्क पवनों का प्रवाहित होना तथा सूर्य की किरणों की तीव्रता का होना है। वाष्पीकरण की तीव्रता सागरीय जल के खारेपन में वृद्धि करती रहती है।।

2. सागरीय लवणता-सागरीय लवणता महासागरों से भिन्न होती है। इन सागरों का सम्बन्ध खाड़ियों तथा जलडमरूमध्य द्वारा महासागरों में होता है। भूमध्ये सागर में सबसे अधिक लवणता 3.9% है। स्वेज नहर के समीप यह मात्रा बढ़कर 4.1% हो जाती है। फारस की खाड़ी में 4.8% लवणता की मात्रा मिलती है। इसका मुख्य कारण वर्षा का अभाव, स्वच्छ जल की कमी, उच्च ताप एवं वाष्पीकरण की तीव्रता का होना है। काला सागर में लवणता की मात्रा 1.8% है। उत्तरी ध्रुव के निकटवर्ती भागों में लवणता और भी कम हो जाती है; जैसे—-बाल्टिक सागर में 1.5%,
बोथानिया की खाड़ी में 0.8% तथा फिनलैएड की खाड़ी में केवल 0.2% रह जाती है।

3. आन्तरिक जलाशयों में लवणता-इस वर्ग में आन्तरिक सागर एवं झीलें सम्मिलित हैं। विश्व में लवणता की सबसे अधिक मात्रा जोर्डन के समीप मृत सागर में 23.8% है। इसका प्रमुख कारण उच्च तापमान, अत्यधिक वाष्पीकरण तथा शुष्क एवं उष्ण पवनों का प्रवाहित होना है। कैस्पियन,सागर के दक्षिणी भाग में काराबुगा खाड़ी में लवणता 17.0% तथा उत्तरी भाग में केवल 1.4% है। इसका प्रमुख कारण कैस्पियन सागर के उत्तरी भाग में यूराल तथा वोल्गा नदियों द्वारा स्वच्छ जल की पूर्ति करते रहना है। झीलों में सर्वाधिक लवणता की मात्रा तुर्की की वान झील में 33.0% है। उत्तरी अमेरिका महाद्वीप की महान झीलों में भी लवणता की मात्रा अधिक मिलती है, जहाँ पर सुपीरियर झील में यह मात्रा 22.0% है।

इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि उच्च ताप, वर्षा का अभाव, अत्यधिक वाष्पीकरण, उष्ण एवं शुष्क पवनों का प्रवाह, स्वच्छ जल की आपूर्ति का पूर्ण अभाव तथा स्वच्छ एवं स्पष्ट आकाश आदि तथ्य सागरीय लवणता को प्रभावित करते हैं।

प्रश्न 3. महासागरीय जल के तापमान के लम्बवत वितरण की विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर- महासागरीय जल के तापमान का लम्बवत् वितरण
महासागरीय जल के तापमान का प्रमुख स्रोत सूर्य है। इसके अतिरिक्त भूगर्भ का ताप, जल को आपसी दबाव भी ताप प्रदान करते हैं। वायुमण्डल की भाँति जलमण्डल में गति के कारण ताप के वितरण में भिन्नता मिलती है। महासागरीय ताप वितरण की विशेषताओं को विवरण निम्नलिखित है–
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महासागरीय जल अधिकतम ताप सूर्य से प्राप्त करता है जिस कारण सागरों की ऊपरी परत का जल सर्वाधिक ताप ग्रहण करता है। और गहराई के साथ जल में ताप की उपस्थिति कम होती जाती है, परन्तु तापमान की ह्रास दर सभी गहराइयों पर एक-सी है नहीं होती है। प्राय: 2,000 मीटर की गहराई तक तापमान तेजी से घटता है। 180 मीटर की गहराई का 16° सेल्सियस तापमान है। 2,000 मीटर की गहराई पर घटकर केवल 2° सेल्सियस रह जाता है, परन्तु 4,000 मीटर की गहराई तक केवल 0.4° सेल्सियस ही घटता है तथा वहाँ 1.6° सेल्सियस ताप पाया जाता है। ऐसा अनुमान है कि आयतन की दृष्टि से लगभग 85% महासागरीय जल का तापमान 2 से 4° सेल्सियस के मध्य रहता है (चित्र 13.5)।।

महासागरों में तोप के लम्बवत् वितरण पर जलमग्न अवरोधों का बड़ा प्रभाव पड़ता है। ये अवरोध महासागरों के ताप में विभिन्नताएँ पैदा करते हैं। उदाहरण के लिए लाल सागर में 2,100 मीटर की गहराई पर भी 21° सेल्सियस ताप पाया जाता है, जबकि हिन्द महासागर में इस गहराई पर केवल 2° सेल्सियस ताप पाया जाता है। वस्तुत: जलमग्न अवरोधों के कारण ही महासागरीय जल के लम्बवत् ताप वितरण में अन्तर पाया जाता है; क्योंकि ये अवरोध जल का मिश्रण नहीं होने देते हैं।

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UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 7 Landforms and their Evolution

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 7 Landforms and their Evolution (भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

1. बहुवैकल्पिक प्रश्न
प्रश्न (i) स्थलरूप विकास की किस अवस्था में अधोमुख कटाव प्रमुख होता है?
(क) तरुणावस्था ।
(ख) प्रथम प्रौढ़ावस्था
(ग) अन्तिम प्रौढ़ावस्था ।
(घ) वृद्धावस्था
उत्तर-(क) तरुणावस्था।

प्रश्न (ii) एक गहरी घाटी जिसकी विशेषता सीढ़ीनुमा खड़े ढाल होते हैं, किस नाम से जानी जाती है?
(क) ‘U’ आकार घाटी ।
(ख) अन्धी घाटी
(ग) गॉर्ज
(घ) कैनियन
उत्तर-(ग) गॉर्ज। ।।

प्रश्न (iii) निम्न में से किन प्रदेशों में रासायनिक अपक्षय प्रक्रिया यान्त्रिक अपक्षय प्रक्रिया की अपेक्षा अधिक़ शक्तिशाली होती है?
(क) आर्द्र प्रदेश
(ख) शुष्क प्रदेश
(ग) चूना-पत्थर प्रदेश
(घ) हिमनद प्रदेश
उत्तर-(क) आर्द्र प्रदेश।

प्रश्न (iv) निम्न में से कौन-सा वक्तव्य लैपीज (Lapies) को परिभाषित करता है?
(क) छोटे से मध्य आकार के उथले गर्त
(ख) ऐसे स्थलरूप जिनके ऊपरी मुख वृत्ताकार वे नीचे से कीप के आकार के होते हैं।
(ग) ऐसे स्थलरूप जो धरातल से जल के टपकने से बनते हैं।
(घ) अनियमित धरातल जिनके तीखे कटक व खाँच हों |
उत्तर-(घ) अनियमित धरातल जिनके तीखे कटक व खाँच हों।

प्रश्न (v) गहरे, लम्बे व विस्तृत गर्त या बेसिन जिनके शीर्ष दीवारनुमा खड़े ढाल वाले व किनारे खड़े व अवतल होते हैं उन्हें क्या कहते हैं?
(क) सर्क
(ख) पाश्विक हिमोढ़
(ग) घाटी हिमनद
(घ) एस्कर
उत्तर-(क) सर्क।

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीज़िए
प्रश्न (i) चट्टानों में अधः कर्तित विसर्प और मैदानी भागों में जलोढ़ के सामान्य विसर्प क्या बताते हैं?
उत्तर-बाढ़ प्रभावी मैदानी क्षेत्रों में नदियाँ मन्द ढाल के कारण वक्रित होकर बहती हैं, इसलिए पार्श्व अपरदन अधिक करती है और सामान्य विसर्प का निर्माण होता है जो अधिक चौड़ा होता है। तीव्र ढाल वाले चट्टानी भागों में नदियाँ पार्श्व अपरदन की अपेक्षा अधोतल या गहरा अपरदन करती हैं, इसलिए जो विसर्प बनते हैं वे अधिक गहरे होते हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि चट्टानी भागों में अध:कर्तित विसर्प को गहरा होने के कारण गॉर्ज या कैनियन के रूप में देखा जा सकता है जबकि मैदानी भागों में यह सामान्य विसर्प होते हैं। क्योंकि दोनों क्षेत्रों में भिन्न उच्चावच/दाल के कारण नदी अपरदन की प्रकृति में परिवर्तन हो गया है।

प्रश्न (ii) घाटी रन्ध्र अथवा युवाला का विकास कैसे होता है?
उत्तर-चूना-पत्थर चट्टानों के तल पर घुलन क्रिया के कारण छोटे व मध्यम आकार के छिद्रों से घोल गर्यो का निर्माण होता है। घुलन क्रिया की अधिकता एवं कन्दराओं के गिरने से इनका आकार बढ़ता जाता है तथा ये परस्पर मिलते जाने से बहुत बड़ा आकार ग्रहण कर लेते हैं। इनके आकार विस्तार के आधार पर ही इन्हें भिन्न नामों से जाना जाता है; जैसे—विलियन रन्ध्र, घोल रन्ध्र आदि। अतः जब विभिन्न घोल रन्ध्रों के नीचे बनी कन्दराओं की छत गिरती है तो विस्तृत खाइयों का विकास होता है जिन्हें घाटी रन्ध्र (Valley Sinks) या युवाला (Uvalas) कहते हैं।

प्रश्न (iii) चूनायुक्त चट्टानी प्रदेशों में धरातलीय जल प्रवाह की अपेक्षा भौमजल प्रवाह अधिक पाया जाता है, क्यों?
उत्तर-चुनायुक्त चट्टानें अधिक पारगम्य एवं कोमल होती हैं। इन चट्टानों पर भूपृष्ठीय जल छिद्रों से होकर भूमिगत जल के रूप में क्षैतिजह रूप से प्रभावित होता है, क्योंकि इन चट्टानों की प्रकृति जल को नीचे की ओर स्रवण करने की है। अत: चूनायुक्त चट्टानों में मेल प्रक्रिया के कारण धरातलीय जल प्रवाह की अपेक्षा भौमजल प्रवाह अधिक पाया जाता है।

प्रश्न (iv) हिमनद घाटियों में कई रैखिक निक्षेपण स्थलरूप मिलते हैं। इनकी अवस्थिति के नाम बताएँ।
उत्तर-हिमनद घाटियों में निक्षेपणात्मक कार्य द्वारा निम्नलिखित रैखिक स्थलरूप निर्मित होते हैं(1) हिमोढ़, (2) एस्कर, (3) हिमानी धौत मैदान, (4) ड्रमलिन। उपर्युक्त सभी स्थलरूपों का निर्माण हिम के पिघलने पर होता है; अत: ये सभी स्थलरूप हिम के साथ लाए गए मलबे द्वारा निर्मित हैं जो हिम के जल रूप में परिवहन हो जाने पर निक्षेपित मलबे द्वारा निर्मित होते हैं। इसलिए इनकी अवस्थिति उच्च अक्षांशों की अपेक्षा निम्न अक्षांशों पर अधिक होती है।

प्रश्न (v) मरुस्थली क्षेत्रों में पवन कैसे अपना कार्य करती है? क्या मरुस्थलों में यही एक कारक अपरदित स्थलरूपों का निर्माण करता है?
उत्तर-मरुस्थली क्षेत्रों में पवन अपना अपरदनात्मक कार्य अपवाहन एवं घर्षण द्वारा करती है। अपवाहन में पवन धरातल से चट्टानों के छोटे कण व धूल उठाती है। वायु की परिवहन प्रक्रिया में रेत एवं बजरी आदि औजारों की तरह धरातलीय चट्टानों पर चोट पहुँचाकर घर्षण करती है। इस प्रकार मरुस्थलों में पवन अपने इस अपरदनात्मक कार्य से कई रोचक स्थलरूपों का निर्माण करती है और जब पवन की गति अत्यन्त मन्द हो जाती है तथा उसके मार्ग में अवरोध उत्पन्न हो जाता है, निक्षेपण कार्य से स्थलरूपों को निर्मित करती है। मरुस्थलीय क्षेत्रों में पवन के अतिरिक्त प्रवाहित जल भी चादर बाढ़ (Sheet flood) द्वारा कुछ स्थलरूपों का निर्माण करता है।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए

(i) आई व शुष्क जलवायु प्रदेशों में प्रवाहित जल ही सबसे महत्त्वपूर्ण भू-आकृतिक कारक है। विस्तार से वर्णन करें।
उत्तर- आर्द्र प्रदेशों में जहाँ अत्यधिक वर्षा होती है, प्रवाहित जल सबसे महत्त्वपूर्ण भू-आकृतिक कारक है जो धरातल के निम्नीकरण के लिए उत्तरदायी है। प्रवाहित जल के दो तत्त्व हैं। एक धरातल पर परत के रूप में फैला हुआ प्रवाह है; दूसरा रैखिक प्रवाह है। जो घाटियों में नदियों, सरिताओं के रूप में बहता है। प्रवाहित जल द्वारा निर्मित अधिकतर अपरदित । स्थलरूप ढाल प्रवणता के अनुरूप बहती हुई नदियों की आक्रमण युवावस्था से संबंधित हैं। कालांतर में तेज ढाल लगातार अपरदन के कारण मंद ढाल में परिवर्तित हो जाते हैं और परिणामस्वरूप नदियों का वेग कम हो जाता है, जिससे निक्षेपण आरंभ होता है। तेज ढाल से बहती हुई सरिताएँ भी कुछ निक्षेपित भू-आकृतियाँ बनाती हैं, लेकिन ये नदियों के मध्यम तथा धीमे ढाल पर बने आकारों की अपेक्षा बहुत कम होते हैं। प्रवाहित जल की ढाल जितना मंद होगा, उतना ही अधिक निक्षेपण होगा। जब लगातार अपरदन के कारण नदी तल समतल हो जाए, तो अधोमुखी कटाव कम हो जाता है और तटों का पार्श्व अपरदन बढ़ जाता है और इसके फलस्वरूप पहाड़ियाँ और घाटियाँ समतल मैदानों में परिवर्तित हो जाती हैं। शुष्क क्षेत्रों में अधिकतर स्थलाकृतियों का निर्माण बृहत क्षरण और प्रवाहित जल की चादर बाढ़ से होता है। यद्यपि मरुस्थलों में वर्षा बहुत कम होती है, लेकिन यह अल्प समय में मूसलाधार वर्षा के रूप में होती है। मरुस्थलीय चट्टानें अत्यधिक वनस्पतिविहीन होने के कारण तथा दैनिक तापांतर के कारण यांत्रिक एवं रासायनिक अपक्षय से अधिक प्रवाहित होती हैं। मरुस्थलीय भागों में भू-आकृतिकयों का निर्माण सिर्फ पवनों से नहीं बल्कि प्रवाहित जले से भी होता है।

(ii) चूना चट्टानें आई व शुष्क जलवायु में भिन्न व्यवहार करती हैं, क्यों? चूना प्रदेशों में प्रमुख व मुख्य भू-आकृतिक प्रक्रिया कौन-सी है और इसके क्या परिणाम हैं?
उत्तर- चूना-पत्थर एक घुलनशील पदार्थ है, इसलिए चूना-पत्थर आर्द्र जलवायु में कई स्थलाकृतियों का निर्माण करता है जबकि शुष्क प्रदेशों में इसका कार्य आर्द्र प्रदेशों की अपेक्षा कम होता है। चूना-पत्थर एक घुलनशील पदार्थ होने के कारण चट्टान पर इसके रासायनिक अपक्षय का प्रभाव सर्वाधिक होता है, लेकिन शुष्क जलवायु वाले प्रदेशों में यह अपक्षय के लिए अवरोधक होता है। इसका मुख्य कारण यह है। कि लाइमस्टोन की रचना में समानता होती है तथा परिवर्तन के कारण चट्टान में फैलाव तथा संकुचन नहीं होता है, जिस कारण चट्टान का बड़े-बड़े टुकड़ों में विघटन अधिक मात्रा में नहीं हो पाता है। चूना-पत्थर या डोलोमाइट चट्टानों के क्षेत्र में भौमजल द्वारा घुलन क्रिया और उसकी निक्षेपण प्रक्रिया से बने ऐसे स्थलरूपों को कार्ट स्थलाकृति का नाम दिया गया है। अपरदनात्मक तथा निक्षेपणात्मक दोनों प्रकार के स्थलरूप कार्ट स्थलाकृतियों की विशेषताएँ हैं। अपरदित स्थलरूप घोलरंध्र, कुंड, लेपीज और चूना-पत्थर चबूतरे हैं। निक्षेपित स्थलरूप कंदराओं के भीतर ही निर्मित होते हैं। चूनायुक्त चट्टानों के अधिकतर भाग गर्ते व खाइयों के हवाले हो जाते हैं और पूरे क्षेत्र में अत्यधिक अनियमित, पतले व नुकीले कटक आदि रह जाते हैं, जिन्हें लेपीज कहते हैं। इन कटकों या लेपीज का निर्माण चट्टानों की संधियों में भिन्न घुलन क्रियाओं द्वारा होता है। कभी-कभी लेपीज के विस्तृत क्षेत्र समतल चुनायुक्त चबूतरों में परिवर्तित हो जाते हैं।

(iii) हिमनद ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों को निम्न पहाड़ियों व मैदानों में कैसे परिवर्तित करते हैं या किस प्रक्रिया से यह कार्य संपन्न होता है, बताइए?
उत्तर- प्रवाहित जल की अपेक्षा हिमनद प्रवाह बहुत धीमा होता है। हिमनद प्रतिदिन कुछ सेंटीमीटर या इससे कम से लेकर कुछ मीटर तक प्रवाहित हो सकते हैं। हिमनद मुख्यतः गुरुत्वबल के कारण गतिमान होते हैं। हिमनदों से प्रबल अपरदन होता है, जिसका कारण इसके अपने भार से उत्पन्न घर्षण है। हिमनद द्वारा घर्षित चट्टानी पदार्थ इसके तल में ही इसके साथ घसीटे जाते हैं या घाटी के किनारों पर अपघर्षण व घर्षण द्वारा अत्यधिक अपरदन करते हैं। हिमनद, अपक्षयरहित चट्टानों का भी प्रभावशाली अपरदन करते हैं, जिससे ऊँचे पर्वत छोटी पहाड़ियों व मैदानों में परिवर्तित हो जाते हैं। हिमनद के लगातार संचालित होने से हिमनद का मलबा हटता रहता है, जिससे विभाजक नीचे हो जाता है और कालांतर में ढाल इतने निम्न हो जाते हैं कि हिमनद की संचलन शक्ति समाप्त हो जाती है तथा निम्न पहाड़ियों व अन्य निक्षेपित स्थलरूपों वाला एक हिमानी धौत रह जाता है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर ||

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1. मरुस्थलों में कोमल और कठोर शैलों के लम्बवत् एकान्तर क्रम से स्थित होने पर बनते हैं
(क) ज्यूगेन
(ख) जालीदार शैल
(ग) छत्रक शिला
(घ) यारडंग
उत्तर-(घ) यारडंग।

प्रश्न 2. अन्धी घाटियाँ अपरदन के किस कारक से उत्पन्न होती हैं?
(क) नदी से ।
(ख) हिमानी से
(ग) पवन से
(घ) भूमिगत जल से
उत्तर-(घ) भूमिगत जल से।

प्रश्न 3. निम्नलिखित में से कौन-सी आकृति वायु द्वारा बनती है? |
(क) विसर्प ।
(ख) डुमलिन
(ग) बालुका-स्तूप
(घ) जलोढ़ पंख
उत्तर-(ग) बालुका-स्तूप।

प्रश्न 4. यारडंग का सम्बन्ध निम्नलिखित में से अपरदन के किस अभिकर्ता से है?
(क) भूमिगत जल
(ख) नदी
(ग) पवन
(घ) हिमानी
उत्तर-(ग) पवन।।

प्रश्न 5. निम्नलिखित में से कौन-सी आकृति नदी के कार्य द्वारा बनती है?
(क) हिमोढ़
(ख) चाप झील
(ग) अवकूट
(घ) इन्सेलबर्ग
उत्तर-(ख) चाप झील।

प्रश्न 6. अपक्षेप मैदान का सम्बन्ध निम्नलिखित में से अपरदन के किस अभिकर्ता से है?
(क) नदी
(ख) हिमानी ।
(ग) पवन
(घ) भूमिगत जल
उत्तर-(क) नदी।

प्रश्न 7. ‘यू’ -आकार की घाटी का सम्बन्ध निम्नलिखित में से अपरदन के किस अभिकर्ता से है?
(क) नदी ।
(ख) पवन
(ग) भूमिगत जल
(घ) हिमानी
उत्तर-(घ) हिमानी। ।

प्रश्न 8. “बालुका-स्तूप” का सम्बन्ध निम्नलिखित अपरदन अभिकर्ताओं में से किस अभिकर्ता से है?
(क) नंदी
(ख) भूमिगत जल
(ग) हिमानी
(घ) पवन
उत्र्तर-(घ) पवन।

प्रश्न 9. निम्नलिखित स्थलाकृतियों में से कौन एक नदी के अपरदन कार्य से सम्बन्धित है?
(क) ‘यू’-आकार की घाटी
(ख) वी’-आकार की घाटी ।
(ग) बरखान।
(घ) यारडंग
उत्तर-(ख) ‘वी’-आकार की घाटी।

प्रश्न 10. निम्नलिखित में से कौन-सी स्थालाकृति हिमानी के अपरदन से बनी है?
(क) अंधी घाटी
(ख) हिमोढ़
(ग) तटबंध
(घ) लोयस
उत्तर-(ख) हिमोढ़।

प्रश्न 11. प्राकृतिक पुल अपरदनात्मक स्थलरूप है
(क) बहते जल का
(ख) भूमिगत जल का
(ग) हिमानी का ।
(घ) पवन का
उत्तर-(ख) भूमिगत जल का।

प्रश्न 12. निम्नलिखित में से कौन-सी स्थलाकृति नदी द्वारा निर्मित है?
(ख) बरखान
(ग) गोखुर झील
(घ) कन्दरा
उत्तर-(ग) गोखुर झील।

प्रश्न 13. हिमोढ़ के निर्माण के लिए निम्नलिखित में से कौन अभिकर्ता उत्तरदायी है?
(क) वायु ।
(ख) नदी
(ग) हिमानी
(घ) भूमिगत जल
उत्तर-(ग) हिमानी।।

प्रश्न 14. ‘बरखान का सम्बन्ध निम्नलिखित अपरदन अभिकर्ताओं में से किससे है?
(क) भूमिगत जल
(ख) पवन
(ग) हिमानी
(घ) नदी ।
उत्तर-(ख) पवन।

प्रश्न 15. निम्नलिखित में से किस स्थलरूप का निर्माण हिमानी द्वारा किया गया है?
(क) बालुका स्तूप
(ख) U-आकार की घाटी ।
(ग) V-आकार की घाटी ।
(घ) घोल रन्ध्र
उत्तर-(ख) U-आकार की घाटी।।

प्रश्न 16. निम्नलिखित स्थलाकृतियों में से कौन भूमिगत जल का अपरदनात्मक कार्य है?
(क) कन्दरा स्तम्भ
(ख) आश्चुताश्म
(ग) निश्चुताश्म
(घ) प्राकृतिक पुल
उत्तर-(घ) प्राकृतिक पुल।। ||

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. टार्न क्या है? इसका निर्माण कैसे होता है?
उत्तर- नदी द्वारा निर्मित झील को टार्न कहते हैं। इसका निर्माण पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन की क्रिया द्वारा खिलाखण्डों से नदी का मार्ग अवरुद्ध हो जाने के फलस्वरूप होता है।

प्रश्न 2. इन्सेलबर्ग क्या है? ये कहाँ मिलते हैं?
उत्तर- वायु अपरदन द्वारा निर्मित गोलाकार पहाड़ियों को इन्सेलबर्ग कहते हैं। यह स्थलाकृति अल्जीरिया तथा नाइजीरिया (अफ्रीका) में अधिक मिलती है।

प्रश्न 3. अपरदन के कारकों का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर- 1. बहता हुआ जल (नदी), 2. हिमानी, 3. पवन, 4. सागरीय लहरें तथा 5. भूमिगत जल।

प्रश्न 4. नदी का अपरदन कितने प्रकार का होता है?
उत्तर- नदी का अपरदन दो प्रकार का होता है

  1. लम्बवत् अपरदन-जिसमें नदी की तलहटी गहरी की जाती है।
  2. पाश्विक अपरदन–जिसमें नदी के किनारे क्रमानुसार कट जाते हैं, इसी के द्वारा नदी टेढ़ा-मेढ़ा मार्ग बनाकर चलती है।

प्रश्न 5. बहते हुए जल (नदी) की अपरदन क्रिया से उत्पन्न दो स्थलाकृतियों के नाम लिखिए।
उत्तर- 1. जल-प्रपात तथा 2. ‘वी’-आकार की घाटी।

प्रश्न 6. नदी के दो निक्षेपणात्मक आकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- 1. बाढ़ का मैदान तथा 2. डेल्टा।

प्रश्न 7. लटकती घाटी अपरदन के किस साधन से उत्पन्न होती है?
उत्तर-लटकती घाटी हिमानी द्वारा उत्पन्न होती है।

प्रश्न 8. हिमोढ अपरदन के किस कारक द्वारा निर्मित होते हैं?
उत्तर-हिमोढ़ हिमानी के निक्षेपणात्मक कारक से निर्मित होते हैं।

प्रश्न 9. कार्ट स्थलाकृतियाँ कहाँ पायी जाती हैं?
उत्तर-कार्ट स्थलाकृतियाँ चूना-पत्थर जैसी घुलनशील चट्टानों में पायी जाती हैं।

प्रश्न 10. बालुका-स्तूप कहाँ और कैसे बनते हैं?
उत्तर-बालुका-स्तूप मरुस्थलों में पवन की निक्षेप क्रिया से बनते हैं।

प्रश्न 11. कन्दरा स्तम्भ कैसे बनते हैं?
उत्तर-कन्दरा स्तम्भों का निर्माण घुलनशील शैलों के क्षेत्रों में भूमिगत जल की घुलन क्रिया तथा निक्षेपण के द्वारा होता है।

प्रश्न 12. नदी की जीर्णावस्था (वृद्धावस्था) में बनने वाली किसी एक आकृति का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-नदी की जीर्णावस्था (वृद्धावस्था) में बनने वाली प्रमुख आकृति डेल्टा है।

प्रश्न 13. गंगा-ब्रह्मपुत्र का डेल्टा किस प्रकार की डेल्टा है?
उत्तर-गंगा-ब्रह्मपुत्र का डेल्टा चापाकार डेल्टा है।

प्रश्न 14. पंजाकार डेल्टा का एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर-मिसीसिपी डेल्टा।

प्रश्न 15. हिमानी द्वारा निर्मित मुख्य अपरदनात्मक स्थलाकृतियों के नाम बताइए।
उत्तर-हिमानी द्वारा निर्मित मुख्य अपरदनात्मक स्थलाकृतियाँ हैं—‘यू’ आकार की घाटी, लटकती घाटी, सर्क, हिमश्रृंग, पुच्छ तथा गिरिशृंग।

प्रश्न 16. वायु द्वारा निर्मित मुख्य अपरदनात्मक स्थलाकृतियों के नाम बताइए।
उत्तर-वायु द्वारा निर्मित मुख्य अपरदनात्मक स्थलाकृतियाँ हैं—वातगर्त, इन्सेलबर्ग, छत्रक, शिला, भूस्तम्भ, ज्यूगेन, यारडंग तथा ड्राइकान्टर।

प्रश्न 17. जलोढ़ पंख से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-प्रौढ़ावस्था में नदी द्वारा निर्मित भू-आकृतियों में जलोढ़ पंख मुख्य आकृति है। पर्वतपदीय भागों में नदी बजरी, पत्थर, कंकड़, बालू, मिट्टी आदि पदार्थों का निक्षेपण शंकु के रूप में करती है। इनके बीच से अनेक छोटी-छोटी धाराएँ निकलती है। इस प्रकार के अनेक शंकु मिलकर पंखे जैसी आकृति का निर्माण करते हैं जिससे उन्हें जलोढ़ पंख का नाम दिया गया है।

प्रश्न 18. नदी की युवावस्था में बनने वाली दो आकृतियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-1. ‘V’ आकार की घाटी तथा 2. जल-प्रपात या झरना।

प्रश्न 19. नदी की प्रौढावस्था में बनने वाली दो आकृतियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-1. जलोढ़ पंख तथा 2. नदी विसर्प।

प्रश्न 20. हिमानी के निक्षेपण कार्य से निर्मित दो भू-आकृतियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-1. हिमनद हिमोढ़ तथा 2. एस्कर।

प्रश्न 21. ‘यू’ आकार की घाटी की किन्हीं दो विशेषताओं को लिखिए।
उत्तर-1. इसका तल चौरस तथा गहरा होता है।
2. इसके किनारों का ढाल खड़ा होता है।

प्रश्न 22. बरखान का निर्माण किस क्रिया द्वारा होता है ?
उत्तर-बरखान का निर्माण पवन की निक्षेपणात्मक क्रिया द्वारा होता है।

प्रश्न 23. अन्धी घाटी किसे कहते हैं ?
उत्तर-जब धरातलीय नदियाँ घोल रन्ध्र, विलयन रन्ध्र आदि छिद्रों से प्रवेश करती हैं तो आगे चलकर अचानक ही इनका जल समाप्त हो जाता है। इन्हें ही अन्धी घाटियाँ कहते हैं।

प्रश्न 24. हिमरेखा क्या होती है?
उत्तर-हिमरेखा वह काल्पनिक रेखा है जिससे ऊपर आर्द्रता सदैव हिम के रूप में पाई जाती है।

प्रश्न 25. पाश्विक हिमोढों का आधिक्य कहाँ मिलता है?
उत्तर-पाश्विक हिमोढ़ों का आधिक्य ग्रीनलैण्ड एवं अलास्का में अधिक मिलता है। यहाँ इनकी ऊँचाई 300 मीटर तक होती है।

प्रश्न 26. हिमानी जलोढ़ निक्षेप द्वारा कौन-कौन-सी स्थलाकृतियाँ बनती हैं?
उत्तर-हिमानी जलोढ़ निक्षेप द्वारा एस्कर, केम तथा हिमनद अपक्षेप मैदान आदि स्थलाकृतियाँ बनती

प्रश्न 27. हिमनद कटक (एस्कर) क्या व कैसे बनते हैं?
उत्तर-हिमानी निक्षेप से बने लम्बे किन्तु कम ऊँचाई वाले टेढ़े-मेढ़े कटक हिमानी कटक कहलाते हैं। देखने पर ये कटक प्राकृतिक बाँध जैसे प्रतीत होते हैं। ये बालू, मिट्टी और गोलाश्म से निर्मित होते हैं। इन पदार्थों का निक्षेपण हिमानी के अन्दर बहने वाली जल-धाराओं द्वारा लाए गए अवसाद से होता है।

प्रश्न 28. डेल्टा और एस्चुअरी में अन्तर बताइए।
उत्तर-डेल्टा–त्रिभुजाकार होता है जो नदी मुहाने पर निक्षेपण की क्रिया से बनता है। एस्चुअरी-‘वी’ (V) आकृति में किसी नदी का ज्वारीय मुहाना है।

प्रश्न 29. घोल रन्ध्र (स्वालो होल्स) से सम्बन्धित स्थलाकृतियों के नाम लिखिए।
उत्तर-घोल रन्ध्र से सम्बन्धित स्थलाकृतियों में विलयन रन्ध्र, डोलाइन, घोलपटल, ध्वस्त रन्ध्र, कार्ट खिड़की, कार्ट झील, युवाला, पोलिज आदि प्रमुख हैं। |

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. नदी की प्रौढावस्था का विवरण दीजिए।
उत्तर-यह नदी की मैदानी अवस्था होती है। युवावस्था के बाद जैसे ही नदी पर्वत प्रदेश से मैदानों में प्रवेश करती है, उसका वेग एकदम मन्द हो जाता है। इस अवस्था में नदी में सहायक नदियों के मिलने से जल की मात्रा तो बढ़ जाती है परन्तु जल में तेज गति न होने के कारण उसकी वहन शक्ति क्षीण हो जाती है। अतः पर्वतीय क्षेत्रो से लाए गए अवसाद तथा शिलाखण्डों को नदी पर्वतपदीय क्षेत्रों में ही जमा कर देती है, जिसे पर्वतपदीय मैदान कहते हैं। गंगा नदी ऋषिकेश एवं हरिद्वार के निकट ऐसे ही अवसादों का निक्षेप करती है। इस अवस्था में नदी गहरे कटाव की अपेक्षा पाश्विक अपरदन (Lateral Erosion) अधिक करती है। कभी-कभी नदी क्रा एक किनारा खड़े ढाल वाला तथा दूसरा प्रायः समतल होता है। ऐसी दशा में नदी खड़े किनारे की ओर अपरदन तथा समतल किनारे की ओर निक्षेपण का कार्य करती है। इस अवस्था में नदी अपनी घाटी को चौड़ा करने का कार्य ही अधिक करती है।।

प्रश्न 2. नदी के निक्षेपणात्मक कार्य का विवरण दीजिए।
उत्तर-समतल मैदानी क्षेत्रों में प्रवाहित होने वाली नदी में वेग की कमी के कारण भारी पदार्थों को बहाकर ले जाने की क्षमता कम रह जाती है; अतः नदी उन पदार्थों का अपनी तली एवं किनारों पर निक्षेप करने लगती है। बाढ़ के मैदानों एवं डेल्टाओं का निर्माण इसी निक्षेपण क्रिया का परिणाम है। पर्वतीय क्षेत्रों से जैसे ही नदी मैदानों में प्रवेश करती है, भारी-भारी शिलाखण्डों को वहीं पर्वतीय प्रदेशों में छोड़ देती है जो पर्वतपदीय मैदान कहलाता है। मैदानी क्षेत्रों में हल्के पदार्थों का ही निक्षेप हो पाता है, जबकि डेल्टाई क्षेत्रों तक बारीक मिट्टी एवं बालू के महीन कण ही पहुँच पाते हैं। सागर अथवा महासंगार में मिलने से पहले नदी अपने डेल्टा का निर्माण निक्षेपण कार्य द्वारा ही करती है।

प्रश्न 3. नदी के परिवहन सम्बन्धी कार्य को समझाइए।
उत्तर-नदियों का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य शैलचूर्ण या मलबे का स्थानान्तरण है। यह स्थानान्तरण नदी की घाटी में उसके उद्गम से मुहाने तक कहीं भी हो सकता है। यही स्थानान्तरण नदी का परिवहन कार्य कहलाता है। प्रत्येक नदी में परिवहन की एक सीमा होती है। इस सीमा से अधिक जलोढ़क होने पर नदी उसका परिवहन नहीं कर पाती है। वस्तुतः नदी के वेग, जल की मात्रा, प्रवणता आदि कारकों से नदी को जो शक्ति प्राप्त होती है उसमें घर्षण तथा अपरदन के पश्चात् जो शक्ति बचती है उससे परिवहन करती है। इससे निम्नांकित सूत्र द्वारा व्यक्त किया जा सकता है

परिवहन = नंदी की कुल शक्ति – घर्षण में नष्ट शक्ति – अपरदन में नष्ट शक्ति

गिलबर्ट के अनुसार नदी की परिवहन शक्ति उसके वेग में छठे घात के तुल्य होती है अर्थात् यदि नदी । का वेग दुगुना हो जाए तो उसकी परिवहन शक्ति 64 गुना बढ़ जाती है।

प्रश्न 4. नदी के अपरदनात्मक कार्य से उत्पन्न दो स्थलाकृतियों की विवेचना कीजिए।
उत्तर-नदी की युवावस्था मे अपरदन द्वारा उत्पन्न दो स्थलाकृतियाँ निम्नलिखित हैं
1. V’ आकार की घाटी-पर्वतीय क्षेत्र में नदी को निम्न कटाव अधिक सक्रिय होने के कारण वह अंग्रेजी के अक्षर V-आकार की घाटी का निर्माण करती है। कुछ नदियाँ लगातार अपनी घाटी के तल को गहरा करती जाती हैं। इस गहरी V-आकार की घाटी को कन्दरा (Gorge) कहते हैं। कन्दरा का निर्माण वहाँ होता है जहाँ कठोर शैलें पाई जाती हैं। कन्दरा का विस्तृत रूप कैनियन (Canyon) कहलाता है।

2. जल-प्रपात-पर्वतीय क्षेत्रों में नदी द्वारा निर्मित जल-प्रपात एक प्रमुख स्थलाकृति है। जब नदी ऊँची पर्वत-श्रेणियों से नीचे की ओर प्रवाहित होती है, तो धरातलीय ढाल की असमानता के कारण मार्ग में अनेक जल-प्रपात या झरने बनाती है, परन्तु यदि उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में नदी के प्रवाह-मार्ग में कोमल एवं कठोर चट्टाने एक साथ आ जाएँ तो जल कोमल चट्टानों का आसानी से अपनदन कर देता है जबकि कठोर चट्टानों को अपरदन करने में वह सफल नहीं हो पाता। इस प्रकारे प्रवाहित जल अकस्मात ऊँचाई से नीचे की ओर गिरने लगता है जिसे जल प्रपात या झरना
कहते हैं।

प्रश्न 5. नदी के निक्षेपण कार्य द्वारा निर्मित डेल्टा के मुख्य प्रकार बतलाइए।
उत्तर-संरचना एवं आकार के आधार पर डेल्टा तीन प्रकार के होते हैं
1. चापाकार डेल्टा-जब नदी की जलवितरिकाएँ मोटे जलोढ़ का निक्षेप इस प्रकार करती हैं कि बीच की मुख्य धारा आगे बढ़कर अधिक निक्षेप करती है तो चापाकार डेल्टा का निर्माण होता है। सिन्धु, ह्वांग्हो गंगा, पो, राइन आदि नदियों के डेल्टा चापाकार डेल्टा के प्रमुख उदाहरण हैं।

2. पंजाकार डेल्टा-सागर में मिलने से पूर्व नदी की धारा अनेक उपशाखाओं में बँट जाती है। प्रत्येक शाखा के पाश्र्वो पर महीन अवसाद का निक्षेप हो जाता है। यह निक्षेप पक्षियों के पंजे की भाँति दिखलाई पड़ता है, जिससे इसे पंजाकार डेल्टा कहा जाता है। मिसीसिपी नदी का डेल्टा इसका उत्तम उदाहरण है।

3. ज्वारनदमुख डेल्टा-इस प्रकार के डेल्टा का निर्माण नदियों के पूर्वनिर्मित मुहानों पर होता है। कभी-कभी नदी, धारा की तीव्र गति के कारण अवसादों को बहा ले जाती है। दूसरी ओर ज्वार-भाटा भी निक्षेप किए हुए मलबे को बहाकर सागर में ले जाता है; अतः पूर्ण डेल्टा नहीं बन पाता। एसे डेल्टाओं को ज्वारनदमुख डेल्टा कहते हैं। राइन नदी का डेल्टा इसका प्रमुख उदाहरण है।

प्रश्न 6. लम्बवत एवं अनुप्रस्थ बालू के स्तूप कहाँ व कैसे बनते हैं?
उत्तर-1. लम्बवत् बालू के टीले-इन टीलों का आकार वायु की दिशा में, लम्बवत् होता है। ये लम्बे तथा समान आकार वाले होते हैं जो निरन्तर वायु की दिशा में आगे की ओर खिसकते रहते हैं। इनकी ऊँचाई 230 मीटर तक होती है। भारत के समुद्रतटीय क्षेत्रों में शक्तिशाली मानसूनी पवनों द्वारा लम्बवत् टीले ही अधिक निर्मित होते हैं। अफ्रीका के सहारा मरुस्थल में ऐसे टीले बहुत अधिक संख्या में पाए जाते हैं।

2. अनुप्रस्थ बालू के स्तूप-जब मन्द गति से प्रवाहित होने वाली वायु के मार्ग में बाधा उत्पन्न होती है तो छोटे तथा असमान आकार के टीलों का निर्माण होता जाता है। इनका विस्तार पवन की दिशा के अनुप्रस्थ रूप में होता है। इन टीलों का आकार भी विषम होता है। इन स्तूपों का ढाल वायु की दिशा की ओर मन्द तथा विपरीत दिशा की ओर तीव रहता है। वायु की विपरीत दिशा की ओर बालू का जमाव न होने के कारण ये खोखले हो जाते हैं।

प्रश्न 7. भूमिगत जल की निक्षेपण क्रिया द्वारा निर्मित दो स्थलरूपों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-भूमिगत जल की निक्षेपण क्रिया द्वारा निर्मित दो स्थलरूप निम्नलिखित हैं
1. आश्चुताश्म-भूमिगत जल द्वारा निर्मित कन्दराओं के जल में वर्षाजल के कारण कार्बन डाइ-ऑक्साइड गैस मिली होने से कार्बोनिक अम्ल तैयार हो जाता है। यह अम्ल चूने की चट्टानों पर रासायनिक क्रिया करता है। इस प्रकार खनिजयुक्त जल बूंद-बूंद कर गुफाओं की छत से नीचे टपकता रहता है। छत से लटके चूने के इस स्तम्भ को आश्चुताश्म कहा जाता है।

2. कन्दरा स्तम्भ–कन्दरा की छत से टपकने वाले घोल द्वारा कन्दरा की छत एवं फर्श पर क्रमशः निर्मित आश्चुताश्म एवं निश्चुताश्म के परस्पर मिल जाने से स्तम्भ की रचना होती है, जिसे कन्दरा स्तम्भ या चूने का स्तम्भ (Limestone Pillars) कहा जाता है। कभी-कभी कन्दरा की छत से रिसने वाला पदार्थ कन्दरा के फर्श से जा मिलता है अथवा कन्दरा की छत से टपकने वाला पदार्थ फर्श से ऊपर की ओर बढ़ता हुआ छत से मिल जाता है। अतः इन दोनों अवस्थाओं में कन्दरा स्तम्भ की रचना हो जाती है।

प्रश्न 8. हिमोढ कैसे बनते हैं? ये कितने प्रकार के होते हैं?
या हिमानी द्वारा निर्मित हिमोढों को एक आरेख द्वारा प्रदर्शित कीजिए।
उत्तर-हिमनद अपने साथ शिलाखण्ड, कंकड़, पत्थर, बालू एवं मिट्टी के अवसाद को बहाकर लाता है। ये पदार्थ हिमानी के अपरदन कार्य में सहायता करते हैं। जब यह हिम पिघल जाती है तब जल धाराओं के रूप में बहकर आगे की ओर निकल जाता है, परन्तु अवसाद वहीं एकत्र हो जाती है अर्थात् यह अवसाद हिमानी के मार्ग तथा किनारों पर जम जाती है। इस एकत्रित अवसाद के हिम के साथ प्रवाहित होने की प्रक्रिया को हिमोढ़ या मोरेन (Moraines) कहते हैं। हिमानी द्वारा किये गये। निक्षेपण विभिन्न प्रकार के होते हैं। हिमोढ़ में बालू, मिट्टी, कंकड़, पत्थर से लेकर विशाल शिलाखण्ड तक होते हैं। जब हिमानी समाप्त होती है तो वह घाटी के विभिन्न स्थानों पर हिमोढ़ों का निर्माण करती है। अत: स्थिति। के अनुसार हिमोढ़ को निम्नलिखित भागों में विभाजित कर सकते हैं
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 7 Landforms and their Evolution 4
1. पाश्विक हिमोढ़ (Lateral Moraines)-हिमानी के दोनों पाश्र्वो के सहारे एक सीधी रेखा में निक्षेपित मलबा जो शिलाखण्ड, बालू, मिट्टी तथा पत्थरों के अर्द्ध-चन्द्राकार ढेर के रूप में होता है, पाश्विक हिमोढ़ कहलाता है। ऐसे हिमोढ़ों का आधिक्य ग्रीनलैण्ड एवं अलास्का में अधिक पाया जाता है। अलास्का में कई स्थानों पर हिमोढ़ की ऊँचाई 1000 फुट तक देखी गयी है, परन्तु इनकी सामान्य ऊँचाई 100 फुट तक ही पायी जाती है।

2. मध्यस्थ हिमोढ़ (Medial Moraines)-दो हिमनदों के मिलन-स्थल पर उनके पार्श्व परस्पर जुड़ जाते हैं। इस प्रकार उनके मध्य में जमे हुए अवसाद को मध्यस्थ हिमोढ़ की संज्ञा दी जाती है। अत: दोनों हिमानियों के मध्य में कंकड़-पत्थरों की श्रृंखला के रूप में स्थित अवसाद को मध्यस्थ हिमोढ़ कहा जाता है।

3. तलस्थ हिमोढ़ (Ground Moraines)-हिमानी अपनी तली के द्वारा पर्याप्त.अवसाद ढोती है। हिम के पिघलने पर यह अवसाद घाटी की तली में चारों ओर बिखरा रह जाता है, जिसे तंलस्थ हिमोढ़ के नाम से पुकारा जाता है। दक्षिणी कनाडा में इस प्रकार की हिमानियाँ तथा हिमोढ़ अधिक पाये जाते हैं। तलस्थ हिमोढ़ के क्षेत्रों में झीलें एवं दलदल बहुत मिलती हैं।

4. अन्तिम हिमोढ़ (Terminal Moraines)-हिमनद की अन्तिम सीमा जब पिघलने लगती है तो हिमनद द्वारा लाया गया बहुत-सा पदार्थ वहाँ अर्द्ध-चन्द्राकार रूप में एकत्रित होने लगता है। इस | जमाव को अन्तिम हिमोढ़ कहते हैं। इन हिमोढ़ों को निक्षेप प्रायः श्रेणियों के रूप में होता है तथा इनका आकार भी अर्द्ध-चन्द्राकार रूप में होता है।

प्रश्न 9. बरखान या अर्द्ध-चन्द्राकार बालू के टीलों का निर्माण किस प्रकार होता है? ।
उत्तर-बरखान या अर्द्ध-चन्द्राकार बालू के टीकों (Parabolic Sand-dunes) की आकृति अर्द्ध-चन्द्राकार होती है, इसलिए इन्हें बरखान या चापाकार टीलों की नाम से भी पुकारा जाता है। इन टीलों का निर्माण तीव्रगामी पवन के मार्ग में अचानक बाधा उपस्थित हो जाने के फलस्वरूप होता है। इनकी भुजाएँ। लम्बाई में पवन की दिशा की ओर फैली हुई होती हैं। इन टीलों का वायु की दिशा की ओर का ढाल उत्तल अर्थात् मन्द तथा विपरीत दिशी का ढाल अवतल अर्थात् तीव्र होता है। जहाँ वायु सभी दिशाओं से चलती है, वहाँ इनका आकार गोलाकार हो जाता है। ये टीले समूह में पाए जाते हैं। अफ्रीका के सहारा मरुस्थल में अर्द्ध-चन्द्राकार बालू की टीलों की प्रधानता मिलती है।

प्रश्न 10. वायु के कार्य बतलाइए तथा अपरदन कार्य की प्रक्रिया समझाइए।
उत्तर-वायु के कार्य
अन्य कारकों की भाँति वायु के कार्यों को भी तीन भागों में बाँटा जा सकता है

  1. वायु का अपरदनात्मक कार्य (Erosional Work of Wind),
  2. वायु का परिवहनात्मक कार्य (Transportational Work of Wind) तथा |
  3. वायु को निक्षेपणात्मक कार्य (Depositional work of wind)

वायु का अपरदनात्मक कार्य

वायु का अपरदनात्मक कार्य अपवाहन (Deflation) और अपघर्षण (Abrasion) की क्रिया द्वारा सम्पन्न होता है। अपवाहन अर्थात् उड़ाकर ले जाने की क्रिया द्वारा वायु मरुस्थलों में उथले बेसिन बना देती है जिन्हें वात गर्त कहते हैं। जब इन वात गर्ता में वायु द्वारा अपरदित बालू का उठान जल-स्तर तक पहुँच जाता है तो मरुद्यान (Oasis) निर्मित हो जाते हैं। तीव्र वायु अपने साथ कंकड़-पत्थर, शिलाखण्ड एवं बालू लेकर शैलों पर तीव्र प्रहार करती है तथा शैलों को रेगमाल की भाँति खरोंच देती है। इस प्रकार वायु भौतिक अपरदन का कार्य अधिक करती है। अपघर्षण का सबसे अधिक प्रभाव ऊँची उठी हुई शैलों पर पड़ता है। वायु के साथ उड़कर चलने वाले पदार्थ परस्पर भी खण्डित होते रहते हैं, जिसे सन्निघर्षण की क्रिया कहते हैं। इसके अतिरिक्त ये बालू के कण मार्ग में पड़ने वाली शैलों को अपने प्रहार से घिसते हैं तो उस क्रिया को अपघर्षण कहा जाता है।

प्रश्न 11. मरुस्थलों में झील कैसे बनती है? वाजदा और प्लाया को समझाइए।
उत्तर-मरुस्थलों में मैदानों की स्थिति महत्त्वपूर्ण होती है। पर्वतों में स्थित द्रोणी की ओर से जब जल आता है तो कुछ समय में यह मैदान जल से भर जाता है और उथली झील का निर्माण हो जाता है। इस उथली झील को प्लाया (Playas) कहते हैं। इसमें जल थोड़े समय के लिए ही रहता है, क्योंकि मरुस्थलों में वाष्पीकरण की तीव्रता के कारण जल शीघ्र सूख जाता है। जब प्लाया को जल सूख जाता है तो यह सूखी झील प्लाया मैदान कहलाती है। यदि इस प्लाया मैदान का ढाल पर्वतीय क्षेत्रों में 1-5° होता है तो इसे वाजदा कहते हैं।

प्रश्न 12. रोधिकाएँ क्या हैं? इनसे सम्बन्धित स्थलरूप बताइए।
उत्तर-रोधिकाएँ जलमग्न आकृतियाँ हैं। जब यही रोधिकाएँ जल के ऊपर दिखाई देती हैं तो इनको रोध (Barriers) कहा जाता है। ऐसी रोधिकाएँ जिनका एक भाग खाड़ी के शीर्ष स्थल से जुड़ा हो तो उसे स्पिट (Spit) कहा जाता है जब रोधिका तथा स्पिट किसी खाड़ी के मुख पर निर्मित होकर इसके मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं तब लैगून (Lagoon) का निर्माण होता है। कालान्तर में जब यहीं लैंगून स्थल से आए तलछट द्वारा भर जाती है तो तटीय मैदान का निर्माण होता है।

प्रश्न 13. समुद्र तट पर बनी अपतटीय रोधिकाओं का सुनामी आपदा को रोकने में क्या मध है?
उत्तर-समुद्र तट पर बनी रोधिकाएँ अपतटीय रोधिका कहलाती हैं। वास्तव में ये प्राकृतिक स्थलाकृति सुनामी आपदा के समय महत्त्वपूर्ण रक्षाकवच सिद्ध होती हैं। इन रोधिकाओं के कारण सुनामी के समय सागर का जल तट से टकराकर वापस समुद्र की ओर चला जाता है। इसलिए अपतट रोधिकाएँ सुनामी के समय सागरीय जल को तट से बाहर जाने से रोकने में विशेष सहयोग प्रदान करती हैं। अपतट रोधिकाओं के अतिरिक्त सागर तट पर स्थित रोध, पुलिन तथा पुलिन स्तूप आदि ऐसी ही स्थलाकृतियाँ हैं जो सुनामी की प्रबलता को कम करती हैं। इसलिए सागरीय स्थलाकृतियों को संरक्षण प्रदान करना चाहिए क्योकि ये मानवीय बस्तियों को सागरीय तूफान से सुरक्षा प्रदान करती हैं।

प्रश्न 14. जलोढ़ पंख एवं जलोढ़ शंकु और रॉक बेसिन तथा टार्न में अन्तर बताइए।
उत्तर-1. जलोढ़ पंख एवं जलोढ़ शंकु-मैदानी क्षेत्रों में धरातलीय ढाल कम होने के कारण नदी का वेग बहुत मन्द हो जाता है अत: उसकी परिवहन क्षमता भी बहुत ही कम रह जाती है। नदी अवसाद को अपने साथ पर्वतीय क्षेत्रों से बहाकर लाती है तथा उन्हें आगे ले जाने में असमर्थ रहने के कारण उनका निक्षेप वहीं पर्वतपदीय क्षेत्रों में कर देती है। इस क्षेत्र में नदी बजरी, मिट्टी, बालू, कंकड और कॉप मिट्टी का जमाव अर्द्ध-चन्द्राकार रूप में करती है, जिसे जलोढ़ पंख कहते हैं। इसमें महीन कणों का निक्षेपण किनारे पर दूर-दूर तथा मोटे कणों का निक्षेपण पास-पास होता है। जब पर्वतीय नदी अपेक्षाकृत ऊँचे भाग से मैदान में उतरती है तो जलोढ़ पंख निर्मित होते हैं किन्तु क्रमशः निक्षेपण द्वारा इनकी ऊँचाई बढ़ती जाती है जिससे शंक्वाकार आकृति का निर्माण होता है। यही आकृति जलोढ़ शंकु कहलाती है।

2. रॉक बेसिन तथा टार्न-यह हिमनद द्वारा बनी स्थलाकृति है। वास्तव में सर्क की तली (Basin) में हिमनद के अत्यधिक दबाव तथा अपरदन से कालान्तर में एक गड्ढे का निर्माण होता है, जिसे रॉक बेसिन कहते हैं। जब तापमान अधिक होने पर हिम पिघल जाता है तो रॉक बेसिन में जल भरा रह जाता है। इस प्रकार एक झील का निर्माण होता है, जिसे टार्न कहते हैं।

प्रश्न 15, बाढ़ के मैदान एवं प्राकृतिक तटबन्ध किस प्रकार निर्मित होते हैं?
उत्तर-बाढ़ के मैदान-मैदानी भागों में नदी की वहन शक्ति बहुत ही कम हो जाती है। अत: वह अपनी तली में अवसाद जमा करती है, जिससे नदी का जल दोनों किनारों की ओर दूर-दूर तक फैल जाता है। ऐसी स्थिति में क्षमता से अधिक जल हो जाने पर नदी में बाढ़ आ जाती है। बाढ़ समाप्त हो जाने पर नदी का जल उस प्रदेश में बालू एवं काँप मिट्टी का एक विशाल निक्षेप छोड़ जाता है। इस प्रकार बार-बार बाढ़ आने से लहरदार समतल कॉप के मैदान बन जाते हैं, जिन्हें बाढ़ के मैदानों के नाम से पुकारा जाता है।

प्राकृतिक तटबन्ध–जिस समय नदी में बाढ़ आती है वह अपने किनारों पर बालू, बजरी तथा मिट्टी आदि अवसाद का निक्षेप कर देती है। इस प्रकार किनारों पर नदी के समानान्तर दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे बाँध से बन जाते हैं, जिन्हें प्राकृतिक तटबन्ध कहते हैं। ये प्राकृतिक तटबन्ध नदी के जल को नदी के किनारों के बाहर फैलने से रोकते हैं।

प्रश्न 16. गोखुर झील या धनुषाकार झील किस प्रकार निर्मित होती है?
उत्तर-गोखुर (धनुषाकार) झील-मैदानी भागों में नदियों का वेग मन्द हो जाता है तथा प्रवाह के लिए नदियाँ ढालू मार्ग कोमल चट्टानों को खोजती रहती हैं। इसी स्वभाव के कारण नदी की धारा में जगह-जगह घुमाव या मोड़ पड़ जाते हैं, जिन्हें विसर्प या नदी मोड़ कहते हैं। प्रारम्भ में नदी द्वारा निर्मित मोड़ छोटे-छोटे होते हैं परन्तु धीरे-धीरे इनका आकार बढ़कर घुमावदार होता जाता है। जब ये विसर्प बहुत विशाल और घुमावदार हो जाते हैं, तब बाढ़ के समय नदी का तेजी से बहता हुआ जल घूमकर बहने के स्थान पर सीधे ही मोड़ की संकरी ग्रीवा को काटकर प्रवाहित होने लगता है तथा नदी को मोड़ मुख्य धारा से कटकर अलग हो : जाता है। इस प्रकार उस पृथक् हुए मोड़ से एक झील का निर्माण होता है। इस झील की आकृति धनुष के आकार या गाय के खुर जैसी होती है इसलिए नदी मोड़ एवं जलधारा की तीव्र गति से बनी यह झील गोखुर झील या धनुषाकार झील कहलाती है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. नदी अथवा बहते हुए जल के अपरदन कार्य का उसकी विभिन्न अवस्थाओं में वर्णन कीजिए।
या निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए
(अ) V” आकार की घाटी
(ब) जल-प्रपात
(स) गोखुर झील
(द) डेल्टा
या नदी के अपरदन कार्य द्वारा निर्मित भू-आकृतियों का वर्णन कीजिए। इन आकृतियों का मानव के लिए क्या महत्त्व है?
या नदी के अपरदन तथा निक्षेप द्वारा निर्मित किन्हीं पाँच भू-आकृतियों की विवेचना कीजिए।
या डेल्टा का निर्माण किस प्रकार होता है?
या नदी द्वारा निर्मित दो अपरदनात्मक स्थलरूपों का वर्णन कीजिए।
या छाड़न या गोखुर झील क्या है?
उत्तर-धरातल पर अपरदन के बाह्य कारकों में नदियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नदियों का जल ढाल की ओर प्रवाहित होता है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि नदियाँ प्रतिवर्ष समुद्रों में लगभग 27,460 घन किमी जलराशि बहाकर लाती हैं। नदियों में जल की आपूर्ति हिमानियों एवं वर्षा से होती है। इस प्रकार “स्वाभाविक एवं गम्भीर रूप से धरातल पर बहने वाला जल नदी कहलाता है।” धरातल पर जितनी भी जलधाराएँ हैं, वे सभी स्वतन्त्र रूप से बहती हुई मिल जाती हैं। इस प्रकार नदियों का यह अपवाह-क्षेत्र उन सभी नदियों का कार्य-क्षेत्र होता है, जिसे नदी-बेसिन के नाम से पुकारते हैं।

नदी अथवा प्रवाहित जल के कार्य

नदी, अपरदन का एक शक्तिशाली कारक है। नदियाँ अपघर्षण तथा सन्निघर्षण द्वारा अपनी घाटियों को काट-छाँट कर चौड़ा करती जाती हैं तथा मलबे को प्रवाहित कर अन्यत्र स्थान पर जमा कर देती हैं। इनके फलस्वरूप धरातल पर विभिन्न स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। जिनका विवरण निम्नवत् है

1. नदी का अपरदनात्मक कार्य (Erosional Work of River)-नदी द्वारा अपरदन कार्य दो रूपों में सम्पन्न होता है-(अ) रासायनिक एवं (ब) भौतिक या यान्त्रिक अपरदन। रासायनिक अपरदन में नदी-जल घुलनशील तत्त्वों द्वारा चट्टानों को अपने में घुलाकर काटता रहता है, जबकि यान्त्रिक अपरदन में नदी-तल या किनारों का अपरदन अपरदनात्मक तत्त्वों से होता रहता है। नदियों द्वारा अपरदन की इस क्रिया में पाश्विक अपरदन तथा लम्बवत् अपरदन होता है। इस प्रकार नदी द्वारा अपरदन कार्य बड़ा ही व्यापक है। उद्गम से लेकर मुहाने तक नदी के कार्यों को तीन भागों में विभाजित किया जाता है-

  • पर्वतीय भाग या युवावस्था,
  • मैदानी भाग या प्रौढ़ावस्था तथा
  • डेल्टाई भाग या वृद्धावस्था।

2. नदी का परिवहन कार्य (Transportational Work of River)-नदी का परिवहन कार्य भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। नदी के जल के साथ बहने वाले शिलाखण्ड आपस में टकराकर चलते रहते हैं तथा नदी-तल को भी कुरेदते हुए प्रवाहित होते हैं। इससे इनका आकार छोटा होता जाता है। इस प्रकार नदियाँ कंकड़, पत्थर, बजरी, रेत, मिट्टी आदि भारी मात्रा में जमा करती जाती हैं। नदियाँ जब मैदानी भागों में प्रवेश करती हैं तो उनके वेग एवं तीव्रता में कमी आ जाती है। इससे नदियाँ अपनी तली तथा किनारों पर निक्षेप करते हुए प्रवाहित होती हैं। इसीलिए पर्वतपदीय क्षेत्रों में बड़े-बड़े शिलाखण्ड पाये जाते हैं। नदी द्वारा परिवहन करने की क्षमता जल की मात्रा एवं उसकी गति पर निर्भर करती है।

3. नदी का निक्षेपणात्मक कार्य (Depositional work of River)-नदी की जलधारा अपंरदित पदार्थों को प्रवाहित करती हुई मार्ग में जहाँ कहीं भी जमाव कर देती है, वह निक्षेपण कहलाता है। निक्षेपण अपरदन क्रिया का प्रतिफल होता है। इस जमाव में बालू, मिट्टी, कंकड़, पथरी, बजरी आदि सभी छोटे-बड़े पदार्थ होते हैं जो नदियों द्वारा झीलों, सागरों अथवा महासागरों तक ले जाये जाते हैं। जैसे ही नदियाँ मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती हैं, उनमें भारी पदार्थों को वहन करने की क्षमता नहीं रह पाती। इसी कारण अनुकूल दशा मिलते ही नदियाँ अपनी तली एवं पाश्र्वो पर अवसाद का निक्षेप करने लगती हैं। भारी पदार्थों को नदियाँ पर्वतीय क्षेत्रों में वहन करती हैं तथा उसका निक्षेप पर्वतपदीय क्षेत्रों में करती हैं। मैदानी क्षेत्रों में हल्के पदार्थों का ही निक्षेप हो पाता है। जलाशयों में मिलने से पहले नदियाँ विस्तृत डेल्टाओं का निर्माण करती हैं, क्योंकि यहाँ तक बारीक मिट्टी तथा बालू ही पहुँच पाती है। डेल्टाई क्षेत्रों में नदियों का प्रवाह मार्ग समुद्र तल के लगभग समानान्तर हो जाता है; अतः यहाँ जल चारों ओर फैल जाता है। निक्षेपण की क्रिया में विभिन्न भू-आकृतियों की रचना होती है। जलोढ़ पंख, विसर्पण, छाड़न झील, तट-बाँध, वेदिका, बाढ़ के मैदान एवं नदी की चौड़ी घाटी प्रमुख भू-आकृतियाँ हैं।

नदी की अवस्थाएँ

नदियाँ अपने अपरदन, परिवहन एवं निक्षेपण का कार्य अपनी विभिन्न अवस्थाओं के अन्तर्गत सम्पादित करती हैं। बहता हुआ जल अथवा नदी अपने उद्गम स्थल (पर्वतीय क्षेत्र) से लेकर अपने संगम स्थल (मुहाना) तक तीन अवस्थाओं से गुजरती है तथा अनेक स्थलाकृतियों का निर्माण करती है, जिसका विवरण निम्नलिखित है–

1. युवावस्था (Youthful Stage)-पर्वतीय क्षेत्रों में वर्षा तथा हिमानी के पिघलने से छोटी- छोटी जलधाराओं का जन्म होता है। इस समय नदियों में जल की मात्रा कम तथा ढाल तीव्र होने के कारण वेग अधिक होता है। इस प्रकार युवावस्था में नदियाँ ऊबड़-खाबड़ पर्वतीय क्षेत्र में प्रवाहित होती हैं। पर्वतीय भागों में मुख्य नदी धीरे-धीरे अपनी घाटी को गहरा करना प्रारम्भ कर देती है तथा इसमें अनेक सहायक नदियाँ आकर मिलने लगती हैं। इस अवस्था में नदियाँ अपने तल का अधिक कटाव करती हैं जिससे गॉर्ज, कन्दरा, जल-प्रपात, जल-गर्तिकाएँ, कुण्ड आदि स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। युवावस्था में नदी निम्नलिखित भू-आकृतियाँ बनाती है

(i) ‘v’ आकार की घाटी-नदियों द्वारा निर्मित गहरी एवं सँकरी घाटियों को ‘v’ आकार की घाटी कहते हैं। इनका आकार अंग्रेजी वर्णमाला के.’V’ अक्षर की भाँति होता है, जिससे इन्हें v’ आकार की घाटी कहते हैं। इनके किनारे तीव्र ढाल वाले होते हैं। ये घाटियाँ किनारों पर चौड़ी तथा तली में अधिक संकुचित होती हैं। कुछ नदियाँ अपनी घाटी को और अधिक गहरा करती जाती हैं। इस अत्यधिक गहरी ‘V’ आकार की घाटी को कन्दरा (Gorge) कहते हैं। उदाहरण के लिए-भारत की सिन्धु, सतलुज, नर्मदा, कृष्णा, चम्बल आदि नदियाँ अनेक स्थानों पर कन्दराओं का निर्माण करती हैं। भाखड़ा बॉध तो सतलुज नदी की कन्दरा पर ही निर्मित है। कम चौड़ी, अधिक गहरी तथा अधिक सँकरी घाटी को कैनियन कहते हैं।
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(ii) जल-प्रपात या झरना (Waterfal)- यह नदी अपरदन द्वारा निर्मित प्राकृतिक सौन्दर्य में वृद्धि करने वाली प्राकृतिक स्थलाकृति है। जब कोई नदी उच्च पर्वत-श्रेणियों से नीचे की ओर गिरती है तो ढाल में असमानता के कारण जल-प्रपातों का निर्माण करती है। नदी का जल मार्ग में पड़ने । वाली कठोर चट्टानों को नहीं काट पाता, परन्तु कोमल चट्टानों को आसानी से काट देता है। कुछ समय पश्चात् कठोर चट्टान को भी सहारा न मिल पाने के कारण वह शिलाखण्ड भी टूटकर गिर जाता है। इस प्रकार, “नदी प्रवाह की ऐसी असमानता जिसमें नदी का जल एकदम ऊपर से नीचे की ओर गिरता है, जल-प्रपात या झरना कहलाता है।” जल निरन्तर शैलों को काटता रहता है जिससे इन प्रपातों की ऊँचाई कम होने लगती है।
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2. प्रौढ़ावस्था (Mature Stage)-नदी जब युवावस्था को पार कर मैदानी भागों में प्रवेश करती है। तो यह उसकी प्रौढ़ावस्था होती है। इस समय नदी का वेग कुछ कम हो जाता है तथा नदी द्वारा किये जाने वाले कटाव कार्य में कुछ कमी आती है। इस अवस्था में नदी अपनी घाटी को चौड़ा करना प्रारम्भ कर देती है।.नदी इस समय पाश्विक अपरदन अधिक करती है। इस अवस्था में नदी अपने साथ लाये हुए मलबे को जमा करना प्रारम्भ कर देती है। इससे जलोढ़-पंख, जलोढ़-शंकु, गोखुर झीलें, बाढ़ के मैदान आदि स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। इस अवस्था में नदी मैदानी भागों में बहुत मन्द गति से प्रवाहित होती है जिससे प्रवाह मोड़ों एवं बाढ़ के मैदानों का निर्माण करते हुए नदी आगे बढ़ती है। प्रौढ़ावस्था में नदी निम्नांकित भू-आकृतियों का निर्माण करती है

(i) जलोढ़ पंख (Alluvial Fans)-पर्वतीय क्षेत्रों से जैसे ही नदी मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती है तो नदी की प्रवाह गति मन्द पड़ जाती है, जिसके कारण उसकी अपवाह क्षमता भी कम रह जाती है। अतः नदी भारी पदार्थों को अपने साथ प्रवाहित करने में असमर्थ रहती है और उनका निक्षेप करना प्रारम्भ कर देती है। पर्वतपदीय भागों में नदी बजरी, पत्थर, कंकड़, बालू, मिट्टी आदि पदार्थों का निक्षेपण शंकु के रूप में करती है। इनके बीच से होकर अनेक छोटी-छोटी धाराएँ निकल जाती हैं। इस प्रकार के अनेक शंकु मिलकर पंखे जैसी आकृति का निर्माण करते हैं जिससे उन्हें जलोढ़ पंख का नाम दिया जाता है।

(ii) नदी विसर्प अथवा नदी मोइ (River Meanders)-जब नदी घाटी में उतरती है तो उंसका प्रवाह मन्द पड़ जाता है। इससे नदियों के अवसाद ढोने की शक्ति कम हो जाती है। अत: ऐसी दशा में नदियाँ अपने साथ लाये हुए अवसाद को किनारों पर छोड़ती जाती हैं, परन्तु उसके मार्ग में थोड़ा-सा भी अवरोध उसके प्रवाह को आसानी से इधर-उधर मोड़ देता है। ये मोड़ ही नदी विसर्प कहलाते हैं।

(iii) धनुषाकार झीलें अथवा गोखुर झीलें (Oxbow Lakes)-प्रारम्भ में नदी-मोड़ या विसर्प छोटे होते हैं, परन्तु धीरे-धीरे इनका आकार बड़ा तथा घुमावदार होता जाता है। जब ये विसर्प अधिक बड़े तथा घुमावदार होते हैं, तब नदी घुमावदार दिशा में प्रवाहित न होकर सीधे ही प्रवाहित होने लगती है तथा नदी का यह मोड़ कटकर मुख्य धारा से बिल्कुल अलग हो जाता है। इससे एक झील-सी निर्मित हो जाती है जिसकी आकृति धनुष के आकार में अथवा गाय के खुर के समान हो । जाती है। अत: इसे धनुषाकार झील अथवा छाड़न या गोखुरं झील कहते हैं।
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(iv) बाढ़ के मैदान (Flood Plains)-मैदानी प्रदेशों में नदियों की प्रवाह शक्ति क्षीण हो जाने के कारण उसकी तली में मलबा एकत्रित होना प्रारम्भ हो जाता है जिससे नदी को जल दोनों किनारों की ओर दूर तक फैल जाता है। एक समय ऐसा आता है कि नदी और अधिक जल को धारण करने की क्षमता नहीं रख पाती तथा यह जल किनारों को पार कर बाहर की ओर फैल जाता है। एवं नदी में बाढ़ आ जाती है। जैसे ही बाढ़ समाप्त होती है तो बालू एवं कांप मिट्टी के निक्षेप बाढ़-क्षेत्र पर छा जाते हैं तथा इसमें लहरें-सी पड़ जाती हैं। इन्हें ही बाढ़ के मैदान के नाम से जाना जाता है।

(v) प्राकृतिक तटबन्ध (Natural Levees)-नदी जब बाढ़ से युक्त होती है तो वह अपने किनारों पर बजरी, कंकड़, बालू तथा मिट्टी आदि का जमाव कर देती है. जिससे किनारों पर ऊँचे-ऊँचे बाँध बन जाते हैं। इन्हें ही प्राकृतिक तटबन्ध के नाम से पुकारा जाता है।

3. वृद्धावस्था या जीर्णावस्था (Old Stage)-नदी के अन्तिम अवस्था में आते ही उसकी सामान्य स्थिति में बड़ा परिवर्तन हो जाता है। इस अवस्था में नदी मैदानी क्षेत्र से निकलकर डेल्टाई प्रदेश में प्रवेश करती है। नदी अपने सम्पूर्ण जल सहित आधार तल (Base level) तक पहुँच जाती है। इस समय नदी का अपरदन कार्य पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप नदी-घाटी की गहराई बहुत कम हो जाती है तथा नदी की चौड़ाई निरन्तर बढ़ती जाती है। इस अवस्था में नदियों के बाढ़ के मैदान अत्यधिक विस्तृत हो जाते हैं तथा नदी की भार वहन करने की शक्ति क्षीण हो जाती है। नदी अपने मुहानों पर डेल्टाओं का निर्माण करती है। इसी अवस्था में एस्चुअरी, बालुका-द्वीप एवं बालुका-भित्ति का निर्माण होता है तथा नदी डेल्टा बनाती हुई महासागर में गिर जाती है और अपना अस्तित्व सदा के लिए समाप्त कर देती है। वृद्धावस्था में निम्नलिखित स्थलाकृतियों का निर्माण होता है

(i) डेल्टा (Delta)—प्रत्येक नदी अपनी अन्तिम अवस्था में सागर, झील अथवा महासागर में गिरती है तो गिरने वाले स्थान पर अपने छ साथ लाये हुए अवसाद को एकत्रित करती रहती है। यह अवसाद लाखों वर्ग किमी क्षेत्र में एकत्रित हो जाते हैं तथा इसकी साधारण ऊँचाई समुद्र तल से अधिक होती है; अतः इस उठे हुए भाग को ही डेल्टा कहते हैं। इस डेल्टा शब्द को ग्रीक भाषा के अक्षर A (डेल्टा) से लिया गया है, क्योंकि इस स्थल स्वरूप का आकार भी इस अक्षर से मिलता-जुलता है। डेल्टा छोटे-बड़े कई प्रकार के होते हैं। इनका जमाव विशालतम पंखे जैसा होता है। इसके द्वारा नदी के मार्ग में अवरोध डाला जाता है। इसीलिए नदी उसे कई स्थानों पर काट देती है। कहीं-कहीं कुछ भाग ऊँचे खड़े रह जाते हैं, जिन्हें मोनाडनाक कहते हैं। इनकी आकृति त्रिभुजाकार होती है। आकृति के अनुसार डेल्टा निम्नलिखित प्रकार के होते हैं–
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(अ) चापाकार या धनुषाकार डेल्टा-नदी की अवसाद में कंकड़, पत्थर, मिट्टी, बालू आदि जल में घुले रहते हैं। कुछ अवसाद बहुत ही बारीक होते हैं। अत: ऐसी नदी जो अपने साथ लाये हुए अवसाद को मध्य में अधिक तथा किनारों पर कम मात्रा में निक्षेपित करती है, चापाकार या धनुषाकार आकृति का निर्माण करती है, जिसे चापाकार डेल्टा कहते हैं। सिन्धु, पो, राइन तथा गंगा-ब्रह्मपुत्र के डेल्टा इसी प्रकार के हैं।

(ब) पंजाकार डेल्टा-चिड़िया के पंजे की शक्ल में डेल्टाओं का निर्माण बारीक कणों से होता है, जो चूनायुक्त जल में घोल के रूप में घुले रहते हैं। बारीक कण भारी होने के कारण नदी के बहाव में सागर की तली में दूर-दूर तक पहुंच जाते हैं तथा तली में बैठते जाते हैं। अनेक.दिशाओं से आने वाली नदियाँ आपस में मिलकर अपने पाश्र्वो पर मोटी अवसाद जमा कर देती हैं जिनसे यह निक्षेप पक्षी के पंजे की भाँति हो जाता है, इसीलिए इसे पंजाकोर डेल्टा कहते हैं।

(स) ज्वारनदमुखी डेल्टा-इस प्रकार के डेल्टा का निर्माण नदियों के पूर्वनिर्मित मुहानों पर होता है। ऐसे मुहाने जो नीचे को धंसे हुए होते हैं, उनमें अवसाद एक लम्बी, सँकरी धारा के रूप में जमा होती जाती है। नदियों के इस मुहाने को एस्चुअरी कहते हैं। यह अवसाद ज्वार-भाटे द्वारा सागरों में ले जायी जाती है। इसी कारण यह पूर्ण रूप से डेल्टा नहीं बन पाता।

(ii) बालुका-द्वीप एवं बालुका-भित्ति-मन्द गति के कारण नदी अपने साथ लाये अवसाद को आगे बहाकर ले जाने में असमर्थ रहती है, क्योंकि जलगति क्षीण होती है। अतः अवसाद स्थान-स्थान पर कम होती जाती है। इस प्रकार नदी के बाढ़ के मैदान या चौड़ी घाटियों में बालू के द्वीप एवं बालुका-भित्ति का निर्माण होता है। इनका आकार भिन्न-भिन्न होता है। इन्हें भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है।

नदी के निक्षेपण कार्य से निर्मित भू-आकृतियों का मानव के लिए महत्त्व

नदी के निक्षेपण कार्य से बनी भू-आकृतियाँ मानव के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुई हैं। जलोढ़ पंखों से बने नदी के मैदान कृषि, उद्योग, परिवहन एवं मानव बसाव की दृष्टि से बहुत उपयोगी हैं। धनुषाकार झीलें सिंचाई, पेयजल एवं नौका विहार की सुविधाएँ प्रदान करके मानव के हित में वृद्धि करती हैं। इनसे जलवायु पर भी समकारी प्रभाव पड़ता है।

डेल्टाओं से उपजाऊ भूमि का निर्माण होता है। विश्व में गंगा, सिन्धु, ब्रह्मपुत्र, अमेजन और नील नदियाँ उपजाऊ डेल्टाओं का निर्माण करती हैं। डेल्टाई क्षेत्र चावल, जूट तथा गन्ना आदि फसलों के उत्पादन की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। अधिक उपजाऊ होने के कारण डेल्टाई क्षेत्रों में घनी जनसंख्या पायी जाती है। गंगा का डेल्टा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

प्रश्न 2. हिमानी द्वारा अपरदन एवं निक्षेपण से निर्मित स्थलाकृतियों का वर्णन कीजिए।
या हिमानी द्वारा निर्मित तीन अपरदनात्मक एवं दो निक्षेपणात्मक स्थलरूपों का वर्णन कीजिए।
या हिंमानी के अपरदन एवं निक्षेपण कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-हिमानी या हिमनद
स्थायी हिम क्षेत्रों से बर्फ की मोटी चादर का भार, ढाल के प्रभाव एवं गुरुत्वाकर्षण शक्ति के प्रभाव से ढाल की ओर खिसकने लगता है। इसी खिसकते हुए हिमखण्ड को हिमानी अथवा हिमनद कहते हैं। अपरदन के अन्य कारकों की भाँति हिमानी भी विशिष्ट भू-आकृतियों को जन्म देती है। विश्व में उच्च अक्षांशों एवं शीत-प्रधान प्रदेशों में हिमानियों का विस्तार मिलता है। हिमवृष्टि के समय वायुमण्डल में उपस्थित जलवाष्प का भी योग रहती है। हिम-कण हल्के एवं असंगठित होते हैं। काफी हिमवर्षा होने के बाद हिम के निरन्तर दबाव पड़ने के फलस्वरूप हिम-कण ठोस चट्टानों में बदल जाते हैं। शीत-प्रधान प्रदेशों में लगभग 9 माह हिमवर्षा होती है। विश्व के केवल ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप को छोड़कर प्रत्येक महाद्वीप में हिम क्षेत्र पाये जाते हैं। हिमनद भी अन्य कारकों की भाँति अपरदन, परिवहन तथा निक्षेपण का कार्य करता है।

हिमानी के कार्य

हिमानी निम्नलिखित तीन कार्यों को सम्पन्न करती है-

1. हिमानी का अपरदनात्मक कार्य
हिमानी द्वारा अपरदन का कार्य उस समय अधिक होता है जब उसके साथ कंकड़, बजरी और पत्थर प्रवाहित होते हों। हिम के साथ चलने वाले कंकड़ और पत्थर रेगमाल की भाँति कार्य करते हैं जिससे अपघर्षण की क्रिया होती है। इनकी सहायता से हिमानी अपनी तली तथा किनारों को घिसकर चिकना करती रहती है तथा साथ-ही धरातल को खुरचते हुए प्रवाहित होती है। इसके द्वारा सर्क, हिमशृंग आदि भू-आकृतियाँ निर्मित होती हैं।

हिमानी का अपरदन कार्य उसकी गति तथा उसके साथ प्रवाहित कंकड़-पत्थर पर अधिक निर्भर करता है। रैमसे एवं टिण्डल नामक विद्वानों ने बताया है कि हिमानी न केवल अपने अपरदन कार्यों द्वारा विभिन्न भू-आकृतियों का निर्माण करती है, बल्कि पहले से विकसित स्थलरूपों में परिवर्तन भी करती है। हिमानी अपरदन के द्वारा सुन्दर प्राकृतिक भू-दृश्यों का निर्माण करती है।

हिमानीकृत अपरदन से निर्मित भू-आकृतियाँ–हिमानीकृत अपरदन में बड़ी भिन्नता पायी जाती है, क्योंकि इसका यह कार्य बहुत ही धीमी गति से होता है। हिमानी द्वारा अपरदन कार्य से निम्नलिखित भू-आकृतियों का निर्माण होता है

(अ) ‘यू आकार की घाटी (‘U’ Shaped Valley)-हिमानी पर्वतीय क्षेत्रों में ऐसी घाटियों से प्रवाहित होती है जिनके ढाल खड़े तथा तली चौरस एवं सपाट होती है। घाटियों का अपरदन होने से इनका आकार अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षर ‘यू’ (U) की भाँति हो जाता है। विस्तृत हिमानी क्षेत्र में इन घाटियों के ऊपर सहायक घाटियाँ लटकती दिखाई देती हैं। इन घाटियों का निर्माण पहले से विकसित नदी-घाटियों में होता है। बाद में हिमानीकृत अपरदन कार्य से इसका विस्तार एवं विकास कर लेती है। ‘यू’ आकार की घाटी के निर्माण में निम्नांकित विशेषताएँ होती हैं-(i) इस घाटी का भौतिक आकार अंग्रेजी के ‘यू’ (U) अक्षर जैसा होता है, (ii) इसका तल चौरस तथा गहरा होता है, (iii) ‘यू’ आकार की घाटी के किनारों का ढाल खड़ा होता है, (iv) इसमें छोटे-छोटे हिमोढ़ों का अभाव होता है, (v) इन घाटियों का विकास उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में होता है एवं (vi) इस घाटी के निर्माण में आग्नेय तथा परतदार चट्टानों का योग होता है।
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(ब) लटकती घाटी (Hanging Valley)-मुख्य हिमानी तथा उसकी सहायक हिमानियों के मध्य अपरदन के फलस्वरूप जो आकृति बनती है, उसे लटकती हुई घाटी अथवा निलम्बी घाटी कहते हैं। मुख्य हिमानी का अपरदन सहायक हिमानियों की अपेक्षा अधिक होता है, क्योंकि मुख्य हिमानी सहायक हिमानियों से अधिक गहरी होती है। इसी कारण सहायक हिमानियों की घाटियाँ मुख्य हिमानी से जहाँ मिलती हैं, वहाँ इनका ढाल तीव्र एवं खड़ा होता है। इसीलिए इन घाटियों की हिम लटकती हुई प्रतीत होती है।

(स) सर्क या हिमज गह्वर (Cirque)-उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में हिमानी ढालों पर गड्ढे बनाती हुई प्रवाहित होती है। हिमानी के अपरदन से गड्ढे धीरे-धीरे काफी चौड़े एवं गहरे होते जाते हैं। ऐसे । विशाल, चौड़े तथा गहरे गत को हिमज गह्वर कहते हैं। इनकी आकृति कटोरे की भाँति होती है। इन्हें कोरी या कारेन अथवा सर्क भी कहते हैं।

(द) हिमश्रृंग एवं हिमपुच्छ (Crag and Tail)-हिमानी द्वारा ऊँचे उठे भागों पर जब अपरदन द्वारा ऊबड़-खाबड़ खड़ा ढाल निर्मित हो जाता है तो हिमशृंग की आकृति का निर्माण होता है। इनका ढाल तीव्र होता है, जबकि दूसरी ओर ढाल मन्द होता है जो एक लम्बी एवं पतली पूँछ के आकार का होता है, जिसे हिमपुच्छ कहते हैं।

(य) गिरिशृंग (Horm)-हिमानी द्वारा निर्मित यह एक प्राकृतिक स्थलाकृति है। पर्वतों की चोटियों के | सहारे जब चारों ओर निर्मित सर्क को हिमानी अधिक गहराई में काट लेती है तो इसकी आकृति शिखर की भाँति हो जाती है, जिसे गिरिशृंग के नाम से पुकारा जाता है।

2. हिमानी का परिवहन कार्य
हिमानी का परिवहन कार्य तभी सम्पन्न होता है जब वह अपने उद्गम स्थान से आगे की ओर खिसकती है। अपरदन के अन्य कारकों की भाँति हिमानी भी अपने साथ कंकड़-पत्थर, शिलाखण्ड, बालू-कणे, मिट्टी आदि लेकर आगे बढ़ती है। यह अवसाद हिमानी के अनेक भागों से टकराता हुआ आगे बढ़ता है। हिमानी की तली में रगड़ खाता हुआ मलबा तलस्थ हिमोढ़ों का निर्माण करता है। किनारों पर घिसकर चलता हुआ मलबा पार्श्व हिमोढों का निर्माण करता है। बहुत-सा मलबा हिमानी के सबसे आगे वाले भाग पर रगड़ खाता हुआ चलता है, जिससे अग्रांतस्थ हिमोढ़ का निर्माण होता है। हिमानी के साथ चलने वाले भारी शिलाखण्डों का व्यास 12 मीटर से 15 मीटर तक होता है।

3. हिमानी का निक्षेपणात्मक कार्य
अधिकांशतः हिमानी का निक्षेपण कार्य तभी सम्भव हो पाता है जब हिम पिघलना प्रारम्भ कर देता है। हिमानी अपने साथ लाये गये मलबे को विभिन्न रूपों में जमा करती जाती है। हिमानी के निक्षेपण कार्य से निम्नलिखित भू-आकृतियों का निर्माण होता है

(अ) हिमनद हिमोढ़ (Glacial Moraines)-हिमानी जैसे ही आगे की ओर प्रवाहित होती है, नदी-घाटियों के शिलाखण्ड, बालू, कंकड़-पत्थर, मिट्टी आदि भी इसके साथ आगे की ओर बढ़ते हैं। अधिकांशतः यह मलबा शैलों के टूटने तथा हिमानी की तली एवं किनारों से प्राप्त होता है। इस प्रकार यह अवसाद विभिन्न भागों में एकत्र हो जाती है। एकत्रित अवसाद को ही हिमनद हिमोढ़
कहते हैं।

(ब) हिमनदोढ़ टिब्बा (Drumlin)-हिमानी के निक्षेपण कार्य से निर्मित यह एक टीलेनुमा आकृति होती है जो आकार में उल्टी नाव के समान होती है। हिमानी के सामने वाला भाग खड़े ढाल वाला तथा पीछे का भाग कम ढाल वाला होता है। वास्तव में इस प्रकार की आकृतियों का निर्माण हिमानी के आगे-पीछे हटने पर होता है। जब हिमानी पीछे हटती है तो वह आगे अग्रांतस्थ हिमोढ़ बनाती है। इस प्रकार कई बार आगे-पीछे हटने से एक ही क्रम में अग्रांतस्थ हिमोढ़ों की रचना होती है। जब हिमानी पुनः आगे की ओर प्रवाहित होती है तो पहले से विकसित हिमोढ़ों के ऊपर से होकर आगे बढ़ जाती है। इस प्रकार सामने वाला भाग खड़े ढाल वाला तथा खुरदरा हो जाता है तथा विपरीत ढाल सामान्य होता है, जिसे हिमनदोढ़ टिब्बा कहा जाता है।

(स) एस्कर (Esker)-ये हिमानी एवं जल के मिश्रित प्रभाव द्वारा निर्मित घाटियों में स्थित कम ऊँचे, कम लम्बे तथा कम चौड़े बल खाते हुए टीले के आकार में घाटी के प्रवाह की दिशा में फैले होते हैं। हिमानी के मार्ग में पहले से विकसित जितनी भी भू-आकृतियाँ होती हैं, ये उनके ऊपर बिछ जाते हैं। ये 60 से 90 मीटर ऊँचे तथा 24 किमी तक लम्बे होते हैं।

प्रश्न 3. मरुस्थलीय स्थलाकृतियों के विकास में वायु के कार्यों की विवेचना कीजिए।
या अपरदन एवं निक्षेपण के कारक के रूप में वायु के कार्यों का वर्णन कीजिए तथा इसके द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों की विवेचना कीजिए। |
या पवंन के कार्य तथा उससे उत्पन्न स्थलाकृतियों का विवरण दीजिए।
उत्तर-अपरदन के अन्य कारकों से वायु का कार्य पर्याप्त भिन्नता रखता है, परन्तु अर्द्ध-शुष्क मरुस्थलीय भागों में वायु अपरदन का एक प्रमुख साधन होती है। ध्रुवीय भागों को छोड़कर समस्त स्थलीय भाग का 30% क्षेत्रफल मरुस्थलीय है। अत: वायु व्यापक क्षेत्र पर अपने कार्यों का सम्पादन करती है तथा अपरदन में सहयोग देती है।।

वायु अपने अपरदनात्मक कार्यों द्वारा स्थलीय भाग को अपरदित कर प्राप्त चट्टान-चूर्ण एवं रेत-कणों का कुछ दूरी तक परिवहन करती है तथा अवरोध पर उपस्थित होने पर निक्षेपण की क्रिया द्वारा विभिन्न स्थलरूपों का निर्माण करती है।

(1) वायु का अपरदनात्मक कार्य ।

पवन द्वारा अपरदन का कार्य यान्त्रिक है। यह अपने साथ उड़ाकर ले जाए जाने वाले मोटे बालू-कणों एवं चट्टान-चूर्ण की सहायता से अपरदन कार्य सम्पन्न करती है। यह कार्य वायुमण्डल के निचले स्तरों में अधिक होता है, क्योंकि नीचे की ओर ही धूल-कणों की मात्रा अधिक होती है। शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क भागों में यह कार्य अधिक देखने को मिलता है। वायु द्वारा अपरदन कार्य तीन प्रकार से सम्पन्न होता है–

(i) अपवाहन (Deflation)-इसे उड़ाने का कार्य भी कहते हैं। इसके लिए सतह का पूर्ण रूप से शुष्क होना अति आवश्यक है। इसमें वायु शुष्क एवं असंगठित पदार्थों को अपने साथ उड़ा ले जाती है। यह पदार्थ दूर-दूर तक पवन के साथ उड़ते चले जाते हैं।

(ii) अपघर्षण (Abrasion)-तीव्र वेग वाली वायु अपघर्षण की क्रिया के लिए उपयुक्त होती है। वास्तव में मोटे धूल-कण ही अपरदन के मुख्य यन्त्र हैं। इनके द्वारा चट्टानें घिस-घिसकर चिकनी | हो जाती हैं। धूल-कणों के अपघर्षण से चट्टानों में खरोंचें पड़ जाती हैं। वायु द्वारा अपघर्षण का यह कार्य सतह के समीप अधिक होता है।

(iii) सन्निघर्षण (Attrition)-वायु की तीव्रता में उड़ने वाले कण मार्ग में पड़ने वाली चट्टानों से टकराकर चट्टानों को तो घिसते ही हैं, साथ ही स्वयं टूटकर भी छोटे होते जाते हैं। इस प्रकार से परस्पर टकराने तथा बिखरने की क्रिया को सन्निघर्षण कहते हैं। वायु द्वारा अपरदन कार्य प्रत्येक क्षेत्र में समान गति एवं एक निश्चित समय में होना असम्भव है।

वायु के अपरदन कार्यों पर तथ्यों को भी प्रभाव पड़ता है—(अ) वायु वेग, (ब) धूल-कणों का आकार एवं ऊँचाई, (स) चट्टानों की संरचना एवं (द) जलवायु।।

वायु की अपरदनात्मक स्थलाकृतियाँ।
1. वातगर्त (Blow Out)-भू-सतह के ऊपर वायु के निरन्तर प्रहार से एक ही स्थान की कोमल एवं ढीली चट्टानें अपरदित होती रहती हैं। इसे वायु अपने साथ उड़ा ले जाती है। इस प्रकार उस स्थान पर गर्त-सा निर्मित हो जाता है, जिसे वातगर्त कहते हैं। इनका आकार तश्तरीनुमा होता है।

2. इन्सेलबर्ग (Inselberg)-इन्हें गुम्बदनुमा टीले भी कहते हैं। मरुस्थलीय क्षेत्रों में वायु के अपरदन से कोमल चट्टानें आसानी से कट जाती हैं, परन्तु कठोर चट्टानों के अवशेष ऊँचे-ऊँचे टीलों के रूप में खड़े रह जाते हैं। इस प्रकार के टीलों या टापुओं को इन्सेलबर्ग के नाम से पुकारते हैं। इनका निर्माण नीस अथवा ग्रेनाइट चट्टानों के अपक्षय तथा अपरदन से होता है।
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3. छत्रक शिला (Mushroom Rocks)-मरुस्थलीय भागों में कठोर शैल के ऊपरी आवरण के नीचे कोमल शैल लम्बवत् रूप में मिलती है तो उस पर अपघर्षण के प्रभाव से चट्टानों के निचले भाग इस तरह कट जाते हैं कि उनका आकार छतरीनुमा हो जाता है, जिन्हें छत्रक शिला कहते हैं। सहारा मरुस्थल में इन्हें हमादा के नाम से पुकारते हैं।

4. भू-स्तम्भ (Demoiselles)-शुष्क प्रदेशों में, जहाँ असंगठित मलबे से बनी कोमल चट्टानों के ऊपर कठोर चट्टान की परत जमा हो तो वहाँ वायु द्वारा असंगठित चट्टानों का अपरदन करते रहने से ऊँचे-नीचे टीले बने रह जाते हैं। इनके शिखर कठोर चट्टानों से निर्मित होते हैं। इस प्रकार की भू-आकृतियों को भू-स्तम्भ कहते हैं। मरुस्थलीय नदियों की घाटियों में इस प्रकार के भू-स्तम्भ देखे जा सकते हैं।
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5. ज्यूगेन (Zeugen)-इनकी आकृति ढक्कनदार दवात की भाँति होती है। इस प्रकार की आकृति मरुस्थलीय प्रदेशों में, जहाँ कोमल और कठोर चट्टानों की परतें एक-दूसरी के ऊपर बिछी होती हैं, निर्मित होती हैं। कठोर परतों की दरारों में ओस भरने के कारण तापमान निम्न हो जाता है जिससे दरारें और चौड़ी हो जाती हैं। दरारों के बढ़ने से कोमल चट्टानों की परतें निकल आती हैं। इन परतों का वायु आसानी से अपरदन कर लेती है जिससे चट्टानों के मध्य में घाटियाँ विकसित हो जाती हैं, जिन्हें ज्यूगेन कहते हैं।

6. यारडंग (Yardang)-यारडंग ज्यूगेन के विपरीत अवस्था में निर्मित होता है, अर्थात् जब कोमल और कठोर चट्टानों के स्तर लम्बवत् रूप में मिलते हैं तो वायु कोमल चट्टानों को आसानी से अपरदित कर उड़ा ले जाती है। इससे कठोर चट्टानों के अवशेष खड़े रह जाते हैं। मंगोलिया में इस प्रकार की स्थलाकृतियों को यारडंग कहते हैं।

7. त्रिकोण खण्ड (Dreikanter)-पथरीले मरुस्थलों के शिलाखण्डों पर वायु के अपरदन द्वारा खरोंचें पड़ जाती हैं, जिससे तरह-तरह की नक्काशी-सी हो जाती है। ऐसे शिलाखण्डों को त्रिकोण खण्ड कहते हैं।

(2) वायु का परिवहन कार्य।

वायु की दिशा अनिश्चित होने के कारण इसका परिवहन कार्य निश्चित नहीं होता। वायु भूतल की ऊपरी सतह पर चलती है; अतः अपरदित पदार्थों को बड़े पैमाने पर परिवहन नहीं कर पाती। हल्के पदार्थों का परिवहन दूरवर्ती भागों तक हो जाता है। सामान्यतया वायु के परिवहन द्वारा अपरदित पदार्थों का स्थानान्तरण अधिक दूरी तक नहीं हो पाता, परन्तु आँधी एवं तूफान के समय हजारों किमी की दूरी तक वायु द्वारा अपरदित पदार्थों को पहुंचा दिया जाता है। उदाहरणार्थ—सहारा के रेगिस्तान से चलने वाले तूफान बालू उड़ाकर भूमध्य सागर के पार इटली तथा जर्मनी तक पहुँचा देते हैं।

(3) वायु का निक्षेपणात्मक कार्य।

वायु का निक्षेपण कार्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है। जब वायु की गति मन्द होती है तथा उसके मार्ग में कोई बाधा उपस्थित होती है तो उसके द्वारा वहन किये जाने वाला बहुत-सा पदार्थ भूतल पर बिछता जाता है। हल्के पदार्थ काफी दूर तक वायु के साथ उड़ जाते हैं तथा वहीं पर बिछा दिये जाते हैं। वायु द्वारा निक्षेपणात्मक स्थलाकृतियों की रचना के लिए वायु के मार्ग में विभिन्न अवरोधों; जैसे—वनों, झाड़ियों, दलदलों, नदियों, जलाशयों आदि का होना अति आवश्यक है।

निक्षेपणात्मक स्थलाकृतियाँ

वायु के निक्षेपण कार्यों से निम्नलिखित प्रमुख स्थलाकृतियों का निर्माण होता है
1. तरंग चिह या ऊर्मिका चिह (Ripples Mark)-मरुस्थलीय प्रदेशों में बालू के निक्षेपं लहरों के रूप में दिखाई पड़ते हैं। इनका आकार और क्रम जल में उठने वाली लहरों के समान होता है। इनकी ऊँचाई एक इंच से भी कम होती है। इनकी पंक्तियाँ वायु की दिशा से लम्बवत् होती हैं। इन्हें ऊर्मिका चिह्न भी कहते हैं। वायु की दिशा में परिवर्तन से इनका स्वरूप भी बदलता रहता है।

2. बालुका-स्तूप या बालू के टीले (Sand-Dunes)-बालुका-स्तूप रेत के वे टीले होते हैं जो वायु द्वारा रेत के निक्षेप से निर्मित होते हैं। बालू के टीले उन स्थानों पर अधिक मिलते हैं जहाँ ढीले रेत के कण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हों तथा वायु की दिशा भी प्रायः स्थिर हो। इन टीलों के आकार तथा स्वरूप में पर्याप्त अन्तर मिलता है। बालू के टीलों का निर्माण शुष्क तथा अर्द्ध-शुष्क भागों के अतिरिक्त सागरतटीय क्षेत्रों, झीलों के रेतीले तटों, रेतीले प्रदेशों से बहने वाली नदियों के बाढ़ प्रदेशों आदि स्थानों में होता है। सामान्यतया बालू के टीलों की ऊँचाई 30 मीटर से 60 मीटर तक पायी जाती है, परन्तु लम्बाई कई किमी तक होती है। कुछ टीलों की ऊँचाई 120 मीटर तथा लम्बाई 6 किमी तक देखी गयी है। इनका आकार गोल, नव-चन्द्राकार तथा अनुवृत्ताकार होता है। बालुका-स्तूपों के निर्माण के लिए निम्नलिखित भौगोलिक दशाओं का होना अति आवश्यक है(i) बालू की पर्याप्त मात्रा, (ii) तीव्र वायु-प्रवाह, (iii) वायु-मार्ग में अवरोध की स्थिति, (iv) बालू संचित होने का स्थान एवं (v) वायु का एक निश्चित दिशा में निरन्तर बहते रहना।। बालू के टीलों का जन्म प्रायः घास के गुच्छों, झाड़ी या पत्थर आदि द्वारा वायु के वेग में बाधा पड़ने से होता है। भूतल की अनियमितता भी बालू के टीलों को जन्म देती है। यह बाधा वायु वेग को कम कर देती है जिससे वायु में उपस्थित रेत के कणों का निक्षेप होना आरम्भ हो जाता है। यह निक्षेप विकसित होते-होते बालू के टीले निर्मित हो जाते हैं।

बालुका-स्तूपों के प्रकार (Types of Sand-Dunes)-आकार के आधार पर बालुका-स्तूप निम्नलिखित प्रकार के होते हैं

(i) अनुप्रस्थ बालुका-स्तूप (Transverse Sand-Dunes)- इस प्रकार के बालुका-स्तूप ऐसे क्षेत्रों में पाये जाते हैं, जहाँ वायु काफी समय से एक ही दिशा में बह रही हो। इनकी संरचना वायु की दिशा से लम्बवत् होती है। इन टीलों का शीर्ष वायु के विपरीत तथा रचना अर्द्ध-चन्द्राकार आकृति में होती है। वायु द्वारा निर्मित टीलों से बालू के कण मध्य भाग से उड़ते रहते हैं, जिससे मध्य भाग धीरे-धीरे खोखला हो जाता है।

(ii) समानान्तर बालुका-स्तूप, (Longitudinal Sand-Dunes)-इस प्रकार के बालुका-स्तूप की रचना एक विशेष परिस्थिति में होती है। इनकी आकृति पहाड़ी जैसी होती है। वायु की प्रवाह दिशा के समानान्तर लगातार इनका निर्माण होता रहता है। सहारा मरुस्थल में ऐसे टीलों को ‘सीफ’ नाम से पुकारा जाता है। विश्व में ऐसे बालुका स्तूप अधिक पाये जाते हैं, क्योंकि ये अधिक समय तक स्थिर रहते हैं।

(iii) अर्द्ध-चन्द्राकार बालुका-स्तूप (Parabolic Sand-Dunes)-ऐसे स्तूप की रचना वायु की दिशा के तीव्र प्रवाह के विपरीत बालू को मार्ग में एकत्रित करने से होती है। इनका आकार लम्बाई में अधिक होता है। इन स्तूपों का ढाल वायु की दिशा की ओर मन्द तथा विपरीत दिशा में तीव्र होता है। इन पर वनस्पति उग आती है जिससे ये आगे-पीछे नहीं खिसक पाते। इन टीलों का निर्माण बहुत कम होता है।

बालुका-स्तूपों का पलायन या खिसकना (Migration of Sand-Dunes)– अधिकांश बालुका स्तूप अपने स्थान पर स्थिर नहीं रहते तथा अपना स्थान परिवर्तन करते रहते हैं। बालुका टिब्बों के इस स्थान परिवर्तन को पलायन कहा। जाता है। इससे इन स्तूपों का आकार कम होता रहता है, परन्तु कुछ टीले इस : प्रक्रिया में नष्ट भी हो जाते हैं।
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वायु की दिशा के सामने से बालू-कण शिखर पर पहुँचकर विपरीत ढाल पर एकत्रित होते रहते हैं। इससे वायु के सामने का भाग छोटा और ढाल बढ़ता जाता है। जब अधिक समय तक यही प्रक्रिया होती रहती है तो बालुका-स्तूप वायु की दिशा में स्थानान्तरित होने लगते हैं। टिब्बों का पलायन सभी स्थानों पर समान गति से नहीं होता। पलायन की गति स्थानीय परिस्थितियों पर निर्भर करती है। प्रायः बालुका टिब्बों का पलायन कुछ मीटर प्रतिवर्ष की दर से अधिक नहीं होता, परन्तु कहीं-कहीं पलायन की गति 30 मीटर वार्षिक की दर से अधिक पायी जाती है। संयुक्त राज्य के ओरेगन तट पर विशाल बालुका टिब्बा लगभग 1.2 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पलायन कर रहे हैं।

(iv) बरखान (Barkhans)- ऊँची-नीची पहाड़ियों के मध्य बरखान पाये जाते हैं। कभी-कभी ये इधर-उधर भी बिखर जाते हैं। सहारा मरुस्थल में बरखान के बीच आने-जाने का रास्ता भी होता है, जिसे गासी और कारवाँ के नाम से जानते हैं। इनकी आकृति भी अर्द्ध-चन्द्राकार एवं धनुषाकार होती है। वायु की दिशा बदलने पर बरखान की स्थिति में भी परिवर्तन आ जाता है। इनका
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आकार 100 मील तक लम्बा तथा 600 फीट तक ऊँचा होता है। बरखान के सामने वाला। ढाल मन्द तथा विपरीत वाला ढाले अवतल होता है।

3. लोयस (Loess)-वायु में मिट्टी के बारीक कण लटके रहते हैं। ये दूर-दूर जाकर वायु द्वारा निक्षेपित कर दिये जाते हैं। इस प्रकार वायु द्वारा उड़ाई गयी धूल-कणों के निक्षेप से निर्मित स्थल स्वरूपों को लोयस कहा जाता है। लोयस के निर्माण के लिए धूल आदि आवश्यक सामग्री मरुस्थलीय भागों की रेत, नदियों के बाढ़ क्षेत्र, रेतीले समुद्रतटीय क्षेत्र तथा हिमानी निक्षेपण जनित अवसाद मिलना अति आवश्यक है। लोयस का जमाव समुद्रतल से लेकर 5,000 फीट की ऊंचाई तक पाया जाता है। इसका रंग पीला होता है जिसका प्रमुख कारण ऑक्सीकरण क्रिया का होना है। विश्व में लोयस की मोटाई 300 मीटर तक पायी जाती है। चीन में ह्वांगहो नदी के उत्तर व पश्चिम में लोयस के जमाव मिलते हैं।

4. धूल-पिशाच (Dust-Devil)-इस क्रिया में धूल के कण वायु द्वारा ऊपर उठा दिये जाते हैं। वायु में भंवरें उत्पन्न होने के कारण धूल के महीन कण ऊपर उठकर एक पिशाच का रूप धारण कर लेते हैं। इसे ही ‘धूल-पिशाच’ कहा जाता है।

5. बजादा (Bajada)-मरुस्थलों में अचानक ही वर्षा हो जाने से बाढ़ आ जाती है। अस्थायी नदियाँ तीव्र ढालों पर घाटियाँ काट लेती हैं। ढाल का मलबा तीव्रता से कट जाता है तथा नीचे की ओर जलोढ़ पंख का निर्माण हो जाता है। जब किसी बेसिन में इस प्रकार के कई पंख एक साथ मिल जाते हैं तो एक गिरिपदीय,ढाल क्षेत्र बन जाता है, जिसे ‘बजादा’ कहा जाता है।

6. प्लाया (Playa)-मरुस्थलों में भारी वर्षा होने के कारण कहीं पर गड्ढा-सा बन जाता है। यहाँ पर जल भर जाने से झील निर्मित हो जाती है। ऐसी झीलों को प्लाया झील कहते हैं।

7. बोल्सन (Bolson)-यदि किसी पर्वत से घिरे विस्तृत मरुस्थल के निचले भाग की ओर नदियाँ बाढ़ के समय अवसाद गिराती हैं तो बेसिन का फर्श जलोढ़ मिट्टी से भर जाता है। ऐसे बेसिनों को ‘बोल्सन’ कहते हैं।

प्रश्न 4. भूमिगत जल के अपरदनात्मक कार्य एवं उनसे उत्पन्न स्थलाकृतियों की विवेचना कीजिए।
या भूमिगत जल के परिवहन कार्य का वर्णन कीजिए।
उत्तर-भूमिगत जल मन्द गति से प्रवाहित होता हुआ अपने रासायनिक तथा यान्त्रिक कार्यों द्वारा अपरदन के अन्य कारकों के समान चट्टानों को अपरदित कर उससे प्राप्त मलबे का कुछ सीमा तक परिवहन करता है। तथा अन्त में कोई अवरोध उपस्थित हो जाने पर उसका निक्षेपण कर देता है।

भूमिगत जल द्वारा अपरदनात्मक कार्य

भूमिगत जल का अपरदन कार्य अन्य कार्यों की अपेक्षा कम महत्त्वपूर्ण एवं मन्द गति वाला होता है। यह जल चुनायुक्त प्रदेशों में रन्ध्रयुक्त शैलों में प्रवेश कर जाता है। इसी कारण यह स्वतन्त्र रूप से कार्य नहीं कर पाता। भूमिगत जल द्वारा यान्त्रिक अपरदन वर्षा ऋतु में अधिक होता है, जबकि रासायनिक अपरदन अबैध गति से चलता रहता है। वर्षा का जल भूमि में प्रवेश कर कार्बनयुक्त हो जाता है जिससे वह रासायनिक क्रिया कर चट्टानों को अपने में घोल लेता है तथा विचित्र प्रकार की स्थलाकृतियों को जन्म देता है। इसके अपरदन कार्यों (घोलन) द्वारा निम्नलिखित स्थलाकृतियों का निर्माण होता है

अपरदनात्मक स्थलाकृतियाँ
1. लैपीज या अवकूट (Lappies)-वर्षा का जल चूने की सतहों से होकर नीचे चला जाता है। दरारों के घुलने से उनकी चौड़ाई बढ़ती जाती है और बीच के अवशिष्ट भागों में छोटी-छोटी नुकीली पहाड़ियाँ-सी खड़ी रह जाती हैं। इस प्रकार की स्थलाकृतियों को लैपीज या अवकूट कहा जाता है। इन्हें ‘कारेन’, ‘क्लिट’ तथा ‘बोगाज’ के नाम से भी पुकारते हैं।

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2. घोल रन्ध्र (Sink or Solution Holes)-वर्षा का जल चुनायुक्त प्रदेशों में सक्रिय रहने के कारण पहले छोटे-छोटे छिद्रों का निर्माण करता है। बाद में इन छिद्रों का आकार बड़ा हो जाता है, जिन्हें घोल रन्ध्र कहा जाता है। यह प्रक्रिया अवकूट के बाद में होती है। इनकी गहराई 3 मीटर से 30 मीटर तक पायी जाती है। इन्हें ‘ऐवंस’ तथा ‘स्वालो होल्स’ के नाम से भी पुकारते हैं।

3. युवाला या विलयन रन्ध्र (Uvalas)-घोल रन्ध्र परस्पर मिलकर बड़े छिद्रों का निर्माण करते हैं; अर्थात् घोल रन्ध्र से बड़ी भू-आकृति को विलयन रन्ध्र कहते हैं। कभी-कभी आकार इतना विस्तृत होता है कि इनमें भूमिगत नदियों का लोप हो जाता है जिनसे उनकी धरातलीय घाटियाँ सूख जाती हैं। कभी-कभी इनका निर्माण गुफा के नीचे पॅस जाने से भी होता है। छोटे-छोटे विलयन रन्ध्रों को जामा’ कहते हैं। इन्हें सकुण्ड भी कहा जाता है।

4. पोल्जे या राजकुण्ड (Polje)-सकुण्डों से अधिक बड़े गत को ‘राजकुण्ड’ कहते हैं। वास्तव में यह सकुण्ड का विस्तृत रूप होता है। अनेक सकुण्डों के मिलने से राजकुण्डे का निर्माण होता है। इनका आकार प्रायः 259 वर्ग किमी तक देखा गया है। इन्हें ‘काकपिट’ भी कहा जाता है। इनका विकास जमैका में अधिक हुआ है।

5. पॉकिट घाटियाँ (Pocket Valleys)-इन घाटियों को ‘स्टीप हैड’ भी कहा जाता है। अनेक स्थानों पर मूंगे की चट्टानें इतनी पारगम्य होती हैं कि उनके तीव्र ढाल वाले मुख के आधार से जल । रिसता रहता है। यहाँ पर गड्ढे उत्पन्न हो जाते हैं जिनका सिर सीधा तथा फर्श समतल होता है। घुलन क्रिया द्वारा जब गड्ढे बड़े हो जाते हैं तो इन्हें पॉकिट घाटियाँ भी कहते हैं।

6. अन्धी घाटियाँ या कार्स्ट घाटियाँ (Blind Valleys or Karst Valleys)-जब धरातलीय नदियाँ घोल रन्ध्र, विलयन रन्ध्र आदि छिद्रों से प्रवेश करती हैं तो आगे चलकर अचानक ही इनका जल समाप्त हो जाता है। यदि वर्षा अधिक हो जाये तो नदियाँ कुछ दूर आगे बहने लगती हैं। इस नदी घाटी का आकार अंग्रेजी के ‘U’ अक्षर की भाँति होता है। जैसे ही वर्षा की मात्रा कम होती है, इन घाटियों का जल छिद्रों द्वारा नीचे बहता जाता है एवं घाटी सूख जाती है। इन्हें ही ‘अन्धी घाटियाँ’ अथवा ‘कार्ट घाटियाँ’ कहा जाता है।

7. शुष्क लटकती घाटियाँ (Dry Hanging Valleys)-इन्हें ‘बाउरनेज’ नाम से भी पुकारा जाता है। जो नदियाँ चूना क्षेत्रों के बाहर से बहती हुई आती हैं, वे अपरदन द्वारा अपना मार्ग गहरा काट लेती हैं। इससे वहाँ का जल-स्तर नीचा हो जाता है। इन नदियों की सहायक नदियाँ, जो चूने या चॉक क्षेत्रों में प्रवाहित होती हैं, अधिक जल से युक्त नहीं होतीं तथा उनका जल घोल रन्ध्रों आदि से भूमिगत मार्गों द्वारा बह जाता है जिससे ये शुष्क दिखाई देती हैं। इन्हें शुष्क घाटियाँ कहते हैं। कुछ समय पश्चात् इनको तल मुख्य नदी की अपेक्षा इतना ऊँचा हो जाता है कि इन्हें, शुष्क निलम्बी घाटियाँ अथवा शुष्क लटकती घाटियाँ कहने लगते हैं।

8. हम्स या चूर्ण कूट (Hums)-जब किसी अपारगम्य शैल पर स्थित चूने की शैल घुलन-क्रिया द्वारा पूर्णतया नष्ट हो चुकी होती है तो उसके अन्तिम अवशेष को हम्स या चूर्ण कूट कहते हैं। इनका दूसरा नाम ‘मोनाडनाक’ भी है।

9. टेरा-रोसा (Terra-Rossa)-भूमि द्वारा जब वर्षा का जल सोखा जाता है तो धरातल की ऊपरी | पपड़ी के अनेक अंश घुलकर बह जाते हैं जिससे इस मिट्टी की रासायनिक संरचना में परिवर्तन हो जाता है। प्रायः इस क्रिया में लाल मिट्टी का निर्माण होता है। इसकी परतें कहीं-कहीं मोटी होती हैं। तथा कहीं पर महीन जिससे यह धरातल को ढक लेती है। इन्हें ही ‘टेरा-रोसा’ कहा जाता है।

भूमिगत जल का परिवहन कार्य

मन्द गति होने के कारण भूमिगत जल का परिवहन कार्य अधिक महत्त्व नहीं रखता। वर्षा के जल में कार्बन डाइऑक्साइड गैस होने के कारण इसकी घोलन शक्ति बढ़ जाती है जिससे यह चट्टानों को आगे की ओर बहा ले जाता है। भूमिगत जल घोल के रूप में अधिक कार्य करता है, परन्तु धरातल पर प्रत्यक्ष रूप में इससे कोई भू-आकृति नहीं बनती। यही कारण है कि भूमिगत जल का परिवहन कार्य अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है।

भूमिगत जल का निक्षेपणात्मक कार्य

भूमिगत जल का निक्षेपण कार्य अधिक महत्त्व रखता है, क्योंकि जल में खनिज लवणों को घोलने की अपार शक्ति होती है। इस जल में मैग्नीशियम, कैल्सियम कार्बोनेट, सिलिका एवं लोहांश की अधिकता होती है। इन खनिज लवणों की अधिकता के कारण यह जल अधिक आगे नहीं बढ़ पाता; अतः उसको निक्षेपण प्रारम्भ हो जाता है। निक्षेपण की इस क्रिया के लिए निम्नलिखित दशाओं का होना आवश्यक है-

  • ताप में कमी,
  • दबाव की कमी,
  • वाष्पीकरण का अधिक होना,
  • रासायनिक क्रिया का होना एवं
  • गैसों की कमी।

निक्षेपणात्मक स्थलाकृतियाँ ।
भूमिगत जल की निक्षेपण क्रिया द्वारा निम्नलिखित स्थलाकृतियों का निर्माण होता है– :
1. शिराएँ (Veins)-खनिजयुक्त जल जब संधियों एवं भ्रंशों में पहुँचता है तो खनिज पदार्थ उनमें जमकर शिराओं का रूप धारण कर लेते हैं।

2. सीमेण्ट (Cement)-ढीले तलछट में जब भूमिगत जल सिलिका, कैल्सियम कार्बोनेट, आयरन ऑक्साइड आदि का निक्षेप मिला देता है तो यह तलछट कठोर होकर ठोस रूप धारण कर लेती है। भूमिगत जल द्वारा निक्षेप किये गये ऐसे पदार्थ सीमेण्ट कहलाते हैं।

3. स्टेलेक्टाइट (आश्चुताश्म) (Stalactite)-जब कन्दरा की ऊपरी छत से चूनायुक्त अवसाद रिस-रिसकर नीचे फर्श पर टपकता रहती है तो यह अवसाद अपने साथ घुलन क्रिया द्वारा प्राप्त पदार्थों को समाविष्ट किये रहता। है। इस जल की कार्बन डाइ ऑक्साइड उड़ जाती है और जल में घुला कैल्सियम कार्बोनेट छत पर अन्दर की ओर जम जाता है। ये जमाव लम्बे किन्तु पतले स्तम्भों के रूप में होते हैं। ये कन्दरा की छत की ओर बढ़ते जाते हैं। इन लटकते हुए स्तम्भों को स्टेलेक्टाइट कहा जाता है। चूंकि स्तम्भ ऊपर से नीचे की ओर लटके रहते हैं; अतः इन्हें ‘आकाशी स्तम्भ’ भी कहते हैं। ये स्तम्भ छत की ओर मोटे होते हैं और नीचे की ओर पतले, इसलिए इन्हें ‘अवशैल’ भी कहा जाता है।
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4. स्टेलेग्माइट (निश्चुताश्म) (Stalagmite)-कन्दरा की छत से रिसने वाले जल की मात्रा यदि अधिक होती है तो वह सीधे टपककर कन्दरा के फर्श पर निक्षेपित होना प्रारम्भ हो जाता है। धीरेधीरे निक्षेप द्वारा इन स्तम्भों की ऊँचाई ऊपर की ओर बढ़ने लगती है। इस प्रकार के स्तम्भों को स्टेलेग्माइट कहा जाता है। फर्श की ओर ये मोटे तथा विस्तृत होते हैं, परन्तु ऊपर की ओर पतले तथा ‘नुकीले होते हैं। कन्दरा स्तम्भ

5. कन्दरा स्तम्भ (Cave- Pillars)-स्टेलेग्माइट की अपेक्षा स्टेलेक्टाइट अधिक लम्बे होते हैं। निरन्तर बढ़ते जाने के कारण स्टेलेक्टाइट कन्दरा के फर्श पर पहुँच जाता है। इस प्रकार के स्तम्भ को कन्दरा-स्तम्भ कहते हैं। कभी-कभी स्टेलेक्टाइट एवं स्टेलेग्माइट दोनों के एक-दूसरे की ओर बढ़ने से तथा आपस में मिलने से भी कन्दरा-स्तम्भों का निर्माण हो जाता है।

प्रश्न 5. समुद्र विभेदी अपरदन क्या है? इस क्रिया द्वारा निर्मित मुख्य स्थलाकृतियों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर–समुद्रतटीय प्रदेशों में सागरीय तरंगें अपरदन का महत्त्वपूर्ण साधन होती हैं। इस कार्य में समुद्री धाराएँ, ज्वारभाटा और सागरों में उठे तूफान भी सहयोग प्रदान करते हैं। समुद्रतटीय प्रदेशों में इस प्रकार होने वाला अपरदन ही विभेदी अपरदन कहलाता है। यह अपरदन निम्नलिखित कारकों द्वारा प्रभावित होता है|

  1. सागरीय तरंगों का आकार एवं शक्ति।
  2. ज्वारभाटा की तीव्रता।
  3. जलस्तर के मध्य स्थित तट की ऊँचाई।
  4. चट्टानों की संरचना एवं संगठन।
  5. जल की मात्रा एवं गहराई।।

सागरीय तरंगों द्वारा तीन प्रकार से अपरदन कार्य सम्पन्न होता है

  • सागरीय तरंगें जब अपनी पूरी शक्ति के साथ तट की ओर बढ़ती हैं तो चट्टानों की दरारो में हवा बड़ी तेजी से भरती है। चट्टानों से टकराकर जब सागरीय तरंग वापस होती हैं, तब यह दबी हुई हवा बहुत तेजी से फैलकर चट्टान को तोड़ देती है।
  • जब तरंगें बजरी और बालू से भरी होती हैं, तब तटीय चट्टानों को तेजी से अपरदित करती हैं। क्योंकि इनके साथ जल के अतिरिक्त चट्टानी पदार्थ भी अपरदन में सहयोग प्रदान करता है।
  • चूनायुक्त चट्टानों को सागरीय तरंगें जल के साथ घोलकर अपरदन करती हैं।

स्थलाकृतियाँ-सागरीय तरंगों की अपरदन क्रिया से समुद्री भृगु, गुफा, स्टैक तथा मेहराब आदि स्थलाकृतियाँ निर्मित होती हैं।
1. सागरीय भृगु-समुद्र के सीधे खड़े तट को समुद्री भृगु कहते हैं। प्रारम्भ में सागरीय तरंगें तटीय चट्टानों को अपरदित करके खाँचे बनाती हैं। धीरे-धीरे जब यह खाँचे चौड़े और गहरे हो जाते हैं तो इनका आकार खोखला हो जाता है और तटीय चट्टान का ऊपरी भाग ढहकर गिर जाता है। इस प्रकार समुद्री भृगु अपरदन प्रक्रिया से पीछे हटते रहते हैं। भारत के पश्चिमी तट पर यह स्थलाकृति देखी जाती है।

2. समुद्री गुफा-जब ऊपरी चट्टान कठोर तथा निचली चट्टान कोमल होती है तो सागरीय तरंगें नीचे की कोमल चट्टान का कटाव कर देती हैं तथा ऊपर की कठोर चट्टान बनी रहती है। इस प्रकार समुद्री गुफा बन जाती है। ऊपरी कठोर चट्टान इतनी दृढ़ होती है कि वह बिना आधार के भी टिकी रहती है।

3. समुद्री मेहराब-जब सागरीय तरंगें गुफा के दोनों ओर से अपरदन करती हैं तो चट्टान के आर-पार एक सुरंग बन जाती है और चट्टान का ऊपरी भाग पुल की तरह बना रहता है। इसे समुद्री मेहराब या प्राकृतिक पुल (Natural Bridge) कहते हैं।

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UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 12 World Climate and Climate Change

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 12 World Climate and Climate Change (विश्व की जलवायु एवं जलवायु परिवर्तन)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

1. बहुवैकल्पिक प्रश्न
प्रश्न (1) कोपेन के A प्रकार की जलवायु के लिए निम्न में से कौन-सी दशा अर्हक है?
(क) सभी महीनों में उच्च वर्षा।
(ख) सबसे ठण्डे महीने का औसत मासिक तापमान हिमांक बिन्दु से अधिक
(ग) सभी महीनों का औसत मासिक-तापमान 18° सेल्सियस से अधिक
(घ) सभी महीनों का औसत तापमान 10° सेल्सियस के नीचे ।
उत्तर-(क) सभी महीनों में उच्च वर्षा।

प्रश्न (ii) जलवायु के वर्गीकरण से सम्बन्धित कोपेन की पद्धति को व्यक्त किया जा सकता है
(क) अनुप्रयुक्त
(ख) व्यवस्थित
(ग) जननिक
(घ) आनुभविक
उत्तर-(घ) आनुभविक।।

प्रश्न (ii) भारतीय प्रायद्वीप के अधिकतर भागों को कोपेन की पद्धति के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा
(क) “AP
(ख) “BSh”
(ग) “Cfb”
(घ) “Am”
उत्तर-(घ) “Am”.

प्रश्न (iv) निम्नलिखित में से कौन-सा साल विश्व का सबसे गर्म साल माना गया है?
(क) 1990
(ख) 1998
(ग) 1885
(घ) 1950
उत्तर-(क) 1990.

प्रश्न (v) नीचे लिखे गए चार जलवायु के समूहों में से कौंन आई दशाओं को प्रदर्शित करता है?
(क) A-B-C-E
(ख) A-C-D-E
(ग) B-C-D-E
(घ) A-C-D-F
उत्तर-(ख) A-C-D-E.

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) जलवायु के वर्गीकरण के लिए कोपेन के द्वारा किन दो जलवायविक चरों का प्रयोग किया गया है?
उत्तर-जलवायु के वर्गीकरण के लिए कोपेन ने आनुभविक पद्धति का सबसे व्यापक उपयोग किया है। उनका वर्गीकरण वर्षा एवं तापमान चरों पर आधारित है जिसमें कोपेन ने वर्षा एवं तापमान के वार्षिक तथा मासिक मध्यमान के आंकड़ों का प्रयोग किया है।

प्रश्न (ii) वर्गीकरण की जननिक प्रणाली आनुभविक प्रणाली से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर-आनुभविक वर्गीकरण प्रेक्षित किए गए तापमान एवं वर्षण से सम्बन्धित आँकड़ों पर आधारित होता है, जबकि जननिक वर्गीकरण में जलवायु को उनके कारणों के आधार पर संगठित करने का प्रयास किया जाता है।

प्रश्न (iii) किस प्रकार की जलवायु में तापमान्तर बहुत कम होता है?
उत्तर-उष्ण कटिबन्धीय आर्द्र जलवायु में तापमान बहुत कम होता है।

प्रश्न (iv) सौर कलंकों में वृद्धि होने पर किस प्रकार की जलवामविक दशाएँ प्रचलित होंगी?
उत्तर-सौर कलंकों की वृद्धि होने पर तापमान कम अर्थात् मौसम ठण्डा और आर्द्र हो जाता है तथा तूफानों की संख्या बढ़ जाती है।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) A एवं B प्रकार की जलवायुओं की जलवायविक दशाओं की तुलना करें।
उत्तर-A एवं B प्रकार की जलवायु दशाओं की तुलना ।
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प्रश्न (ii) c तथा A प्रकार की जलवायु में आप किस प्रकार की वनस्पति पाएँगे?
उत्तर-c-कोष्ण शीतोष्ण [मध्य अक्षांशीय जलवायु–यह जलवायु 30° से 50° अक्षांशों के मध्य मुख्यतः महाद्वीपों के पूर्वी एवं पश्चिमी सीमान्तों पर विस्तृत है। इस जलवायु में सामान्यत: ग्रीष्म ऋतु कोष्ण और शीत ऋतु मृदुल होती है। अत: C प्रकार की जलवायु में प्रायः भूमध्यसागरीय वनस्पति की प्रधानता मिलती है जिसमें जैतून, अंगूर, नारंगी आदि तथा मुलायम लकड़ी वाले वृक्ष मुख्य हैं।

A-उष्णकटिबन्धीय आर्द्र जलवायु–इस जलवायु में भूमध्यरेखीय सदाबहार वनों की प्रधानता पाई जाती है। यह वन अत्यन्त सघन तथा विभिन्न ऊँचाई समूहों में मिलते हैं। इन वनों में कठोर लकड़ी वाले वृक्षों की प्रमुखता रहती है। आबनूस, रोजवुड, लॉगवुड, रबड़, ताड़ आदि इस जलवायु प्रदेश के प्रमुख वृक्ष हैं।

प्रश्न (iii) ग्रीनहाउस गैसों से आप क्या समझते हैं? ग्रीनहाउस गैसों की एक सूची तैयार करें।
उत्तर-ग्रीनहाउस गैस-वे गैसें जो विकिरण की लम्बी तरंगों का अवशोषण करती हैं, ग्रीनहाउस गैसें कहलाती हैं। इन गैसों द्वारा वायुमण्डल तापन की प्रक्रिया होती है जो ग्रीनहाउस प्रभाव कहलाता है, इसीलिए इन गैसों का नाम ग्रीनहाउस गैस है। ग्रीनहाउस गैसों में निम्नलिखित गैसें सम्मिलित हैं

  1. कार्बन डाइऑक्साइड (CO2)
  2. क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स (CFCs)
  3. हैलोन्स (Hellons)
  4. मीथेन (CH4)
  5. नाइट्रसऑक्साइड (N2O)
  6. ओजोन (O3)

इन गैसों के अतिरिक्त नाइट्रिक ऑक्साइड (NO) और कार्बन मोनोक्साइड (CO) गैसें प्रमुख ग्रीनहाउस गैसें हैं।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. उष्ण कटिबन्धीय पतझड़ वाले वन निम्नलिखित में से किस प्रदेश में पाये जाते हैं? |
(क) टुण्ड्रा प्रदेश
(ख) विषुवत्रेखीय प्रदेश
(ग) मानसूनी प्रदेश
(घ) भूमध्यसागरीय प्रदेश
उत्तर (ग) मानसूनी प्रदेश।

प्रश्न 2. सदाबहार वन निम्नलिखित में से किस प्रदेश में पाये जाते हैं?
(क) भूमध्यसागरीय जलवायु प्रदेश
(ख) विषुवतरेखीय जलवायु प्रदेश
(ग) रेगिस्तानी जलवायु प्रदेश
(घ) टैगा जलवायु प्रदेश
उत्तर (ख) विषुवत्रेखीय जलवायु प्रदेश।

प्रश्न 3. रेण्डियर नामकं पशु निम्नलिखित में से किस प्रदेश में पाया जाता है?
(क) टुण्डा प्रदेश ।
(ख) टैगा प्रदेश
(ग) मानसूनी वन प्रदेश
(घ) गर्म मरुस्थलीय प्रदेश
उत्तर (क) टुण्ड्रा प्रदेश।

प्रश्न 4. निम्नलिखित महाद्वीपों में से किसमें भूमध्यरेखीय जलवायु नहीं पायी जाती है?
(क) यूरोप ।
(ख) ऑस्ट्रेलिया, ।
(ग) अफ्रीका
(घ) एशिया
उत्तर (क) यूरोप।

प्रश्न 5. निम्नलिखित में से किस जलवायु प्रदेश में शीत ऋतु नहीं होती है? |
(क) भूमध्यरेखीय
(ख) भूमध्यसागरीय |
(ग) मानसूनी
(घ) चीनतुल्य
उत्तर (क) भूमध्यरेखीय।

प्रश्न 6. सघन वर्षा वन निम्नलिखित में से किस जलवायु प्रदेश में पाये जाते हैं? |
(क) गर्म मरुस्थल
(ख) भूमध्यरेखीय |
(ग) भूमध्यसागरीय
(घ) टैगा
उत्तर (ख) भूमध्यरेखीय।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. जलवायु वर्गीकरण के मुख्य उपागम बताइए।
उत्तर-जलवायु वर्गीकरण के तीन मुख्य उपागम हैं-1. आनुभविक, 2. जननिक, 3. अनुप्रयुक्त।

प्रश्न 2. कोपेन द्वारा जलवायु वर्गीकरण में कौन-सा आधार अपनाया गया है?
उत्तर-कोपेन द्वारा जलवायु र्वीकरण में मुख्य रूप से तापक्रम तथा वर्षा को आधार बनाया गया है।

प्रश्न 3. कौन-सी जलवायु में सबसे कम वार्षिक तापान्तर रहता है?
उत्तर-भूमध्यरेखीय जलवायु में वार्षिक तापान्तर सबसे कम रहता है।

प्रश्न 4. विषुवत्रेखीय जलवायु की प्रमुख विशेषता बतलाइए।
उत्तर-विषुवत्रेखीय जलवायु प्रदेशों में सूर्य की किरणें वर्षभर सीधी पड़ने के कारण उच्च तापमान पाया जाता है (औसत तापमान 27°C)। यहाँ संवहनीय प्रक्रिया द्वारा प्रत्येक दिन तीसरे पहर वर्षा होती है (वार्षिक वर्षा का औसत 200-250 सेमी रहता है)।

प्रश्न 5. भूमध्यसागरीय प्रदेशों की वनस्पति की मुख्य विशेषताएँ बतलाइए।
उत्तर-इस प्रदेश की प्राकृतिक वनस्पति शरद ऋतु में एकत्रित नमी पर निर्भर रहती है। ऐसी वनस्पति में वृक्षों की पत्तियाँ चिकनी, छोटी तथा मोटी एवं जड़े लम्बी होती हैं।

प्रश्न 6. उष्णकटिबन्धीय शुष्क मरुस्थलीय जलवायु की विशेषताएँ बतलाइए।
उत्तर-महाद्वीपों के पश्चिमी किनारों पर स्थित होने के कारण इस जलवायु पर महाद्वीपीय प्रभाव सर्वाधिक रहता है तथा वार्षिक तापान्तर अत्यधिक 17° से 22° सेल्सियस रहता है। विश्व का सर्वाधिक ताप अंकित करने वाला केन्द्र अजीजिया इसी जलवायु प्रदेश में स्थित है। वर्षा का वार्षिक औसत 10 से 12 सेमी रहता है।

प्रश्न 7. टैगा प्रदेश में कौन-कौन से जीव-जन्तु मिलते हैं?
उत्तर-टैगा प्रदेश में समूरधारी पशु पाए जाते हैं जिनमें रेण्डियर, कैरिबो, हिरन, लोमड़ी, भेड़िया, मिंक, एस्माइन आदि प्रमुख हैं। कठोर ठण्ड से बचने के लिए प्रकृति ने इन्हें कोमल एवं लम्बे बाल प्रदान किए हैं।

प्रश्न 8. टुण्ड्रा जलवायु का विस्तार कहाँ पाया जाता है?
उत्तर-टुण्ड्रा जलवायु उत्तरी कनाडा, अलास्का, यूरोप में नॉर्वे, फिनलैण्ड तथा साइबेरिया के उत्तरी भागों में पाई जाती है। उत्तरी ध्रुव के नकट स्थित होने के कारण इन्हें ध्रुवीय निम्न प्रदेश अथवा शीत मरुस्थल भी कहा जाता है।

प्रश्न 9. विश्व के सबसे गर्म स्थान का नाम बताइए।
उत्तर-विश्व के सबसे गर्म स्थान का नाम सहारा मरुस्थल में स्थित अजीजिया (लीबिया) तथा जेकोबाबाद (पाकिस्तान) है, जहाँ 58° सेल्सियस तक तापमान अंकित किए गए हैं।

प्रश्न 10. पिछली शताब्दी में मौसम परिवर्तन की चरम घटना कब हुई?
उत्तर-पिछली शताब्दी (1990 के दशक) में मौसमी परिवर्तन की चरम घटनाएँ घटित हुई हैं। इस दशक में शताब्दी का सबसे गर्म तापमान और विश्व में सबसे भयंकर बाढ़ों को रिकॉर्ड किया गया है।

प्रश्न 11. विश्व में सबसे ठण्डा स्थान कौन-सा है?
उत्तर-विश्व में सबसे ठण्डा स्थान साइबेरिया में स्थित बखयांस्क है, जिसका तापमान -65° सेल्सियस तक अंकित किया गया है।

प्रश्न12. उष्णकटिबन्धीय आर्द्र जलवायु का क्षेत्र बताइए।
उत्तर-उष्णकटिबन्धीय आर्द्र जलवायु (A) भूमध्यरेखा के दोनों ओर 5 से 10° अक्षांशों के मध्ये पाई जाती है। यह जलवायु महाद्वीपों के पूर्वी किनारों को अधिक प्रभावित करती है।

प्रश्न 13. कोपेन ने अपने वर्गीकरण में कौन-कौन से मुख्य जलवायु समूह बताए हैं? नाम लिखिए।
उत्तर-कोपेन ने निम्नलिखित पाँच मुख्य जलवायु समूह बताए हैं—1. A समूह-उष्णकटिबन्धीय आर्द्र जलवायु, 2. B समहशुष्क जलवायु, 3. C समूह-कोष्ण शीतोष्ण (मध्य अक्षांशीय जलवायु), 4. D समूह-शीतल हिम वेन जलवायु, 5. E समूह-शीत जलवायु।

प्रश्न 14. स्टैपी जलवायु की क्या विशेषता है?
उत्तर-स्टैपी जलवायु की मुख्य विशेषताएँ हैं-1. कम वर्षा, 2. कम तापमान, 3. आन्तरिक भागों में अवस्थित, 4. पर्वतीय अवरोधों से प्रभावित।

प्रश्न 15. भारत में जलवायु परिवर्तन का कोई ऐतिहासिक उदाहरण दीजिए।
उत्तर-भारत में आई एवं शुष्क युग आते जाते रहे हैं। पुरातात्त्विक खोजों से पता चला है कि ईसा से लगभग 8000 वर्ष पूर्व राजस्थान मरुस्थल की जलवायु आर्द्र एवं शीतल थी। ईसा से 3000 से 1700 वर्ष पूर्व यहाँ वर्षा अधिक होती थी। |

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. सार्वभौमिक उष्णता क्या है? इसके कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-ग्रीनहाउस प्रभाव से विश्व के तापमान में निरन्तर वृद्धि हो रही है, जिसे सार्वभौमिक उष्णता कहते हैं। इसके मुख्य कारणों में नगरीकरण और औद्योगीकरण से कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस आदि जैव । ईंधनों का अधिक प्रयोग होना है। इन पदार्थों के अधिक उपयोग से वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि हो रही है जो सार्वभौमिक उष्णता का प्रमुख कारण है। आद्योगिक क्रान्ति से पूर्व वायुमण्डल में कार्बन की मात्रा 0.0294 प्रतिशत थी जिसमें औद्योगीकरण के बाद 1980 तक 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसीलिए सार्वभौमिक उष्णता की दर भी तेजी से बढ़ रही है।

प्रश्न 2. बोरियल तथा ध्रुवीय जलवायु को समझाइए।
उत्तर-बोरियल (Boreal)-यह जलवायु ‘E’ समूह के अन्तर्गत आती है। बोरियल जलवायु में ग्रीष्म ऋतु छोटी तथा ठण्डी होती है, जबकि शीत ऋतु लम्बी होती है। इसे जलवायु में औसत तापमान 0° से 10° सेल्सियस के मध्य रहता है। यह जलवायु उच्च मध्य अक्षांशों में पाई जाती हैं।

ध्रुवीय जलवायु (Polar Climate)-ध्रुवीय जलवायु उच्च अक्षांशों में पाई जाती है तथा ऊँचे पर्वतों हिमालय, आल्प्स पर भी यह जलवायु पाई जाती है। यह जलवायु केवल उत्तरी गोलार्द्ध में ही पाई जाती है। इस जलवायु में तापमान 10° सेल्सियस अधिक नहीं होता है। यहाँ ग्रीष्म ऋतु नहीं होती तथा शीत ऋतु भी हिमाच्छादित रहती है।

प्रश्न 3. शुष्क तथा अर्द्ध-शुष्क जलवायु में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-शुष्क जलवायु-शुष्क या मरुस्थलीय जलवायु 20° से 30° अक्षांशों के मध्य दोनों गोलार्डो में पाई जाती है। इस जलवायु में वर्षा अत्यन्त कम होती है, इसलिए वनस्पति का अभाव पाया जाता है। अर्द्ध-शुष्क जलवायु–इस जलवायु को स्टैपी जलवायु भी कहते हैं। यह जलवायु उत्तरी अमेरिका तथा यूरेशिया के पश्चिमी भागों में पाई जाती है। इस जलवायु में वार्षिक वर्षा 20 से 60 सेमी होती है। इस जलवायु में घास के मैदानों को अच्छा विकास होता है।

प्रश्न 4. शीतोष्ण महाद्वीपीय तथा शीतोष्ण सामुद्रिक जलवायु को समझाइए।
उत्तर-शीतोष्ण महाद्वीपीय जलवायु-यह जलवायु मध्य अक्षांशों में महाद्वीपों के आन्तरिक भागों में पाई जाती है। इस जलवायु में शीत ऋतु अत्यन्त ठण्डी तथा ग्रीष्म ऋतु शीतयुक्त होती है। इसमें वार्षिक वर्षा बहुत कम होती है। यह जलवायु उत्तरी-पूर्वी एशिया, पूर्वी कनाडा तथा यूरेशिया में पाई जाती है।

शीतोष्ण सामुद्रिक जलवायु-यह जलवायु शीतोष्ण कटिबन्ध में महाद्वीपों के पश्चिमी भागों में पाई जाती है। इस जलवायु में वर्ष भर शीत ऋतु मृदुल तथा ग्रीष्म ऋतु कोष्ण होती है। औसत तापमान 0°C से अधिक रहता है तथा वर्षा वर्षभर होती रहती है।

प्रश्न 5. भूमध्यसागरीय जलवायु प्रदेशों की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर-भूमध्यसागरीय जलवायु प्रदेशों की प्रमुख प्राकृतिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. यह प्रदेश महाद्वीपों के पश्चिमीतटीय भागों में स्थित है। इसलिए यहाँ भिन्न-भिन्न पवनों का प्रभाव | रहता है। जाड़ों में बोरा तथा मिस्टूल के समान ठण्डी व शुष्क पवनें तथा गर्मियों में सिरॉक्को के समान गर्म व शुष्क पवनें चलती हैं।
2. इन प्रदेशों में वर्षा कम होती है। अधिकांश वर्षा शरद ऋतु में चक्रवातों द्वारा होती है।
3. भूमध्यसागरीय जलवायु प्रदेशों में मिलने वाली सनस्पति अपनी लम्बी जड़ों द्वारा भूमिगत जल पर निर्भर है। मोटी व चिकनी पत्तियों के कारण इन वृक्षों से वाष्पीकरण नहीं होता है। –
4. यहाँ कठोर गर्मी के कारण घास के मैदान छोटे तथा कम पाए जाते हैं। अत: गाय, भैंस आदि बहुत कम संख्या में पाले जाते हैं। भेड़, बकरी, घोड़ा, खच्चर आदि इस प्रदेश के मुख्य पशु हैं। कुछ भागों में सुअर एवं मुर्गीपालन भी किया जाता है।

प्रश्न 6. भूमध्यरेखीय तथा भूमध्यसागरीय जलवायु की तुलना कीजिए।
उत्तर-भूमध्यरेखीय जलवायु भूमध्य रेखा के दोनों ओर 5° अक्षांशों तक पायी जाती है। इसका विस्तार अमेजन बेसिन, कांगो बेसिन तथा पूर्वी द्वीप समूहों में मिलता है। यह जलवायु उष्णार्द्र है तथा वर्षभर समान रहती है। यहाँ कोई शीतकाल नहीं होता। औसत वार्षिक तापमान 27° सेग्रे तक रहता है। वार्षिक वर्षा का औसत 200-300 सेमी रहता है। प्रतिदिन दोपहर को संवहनीय वर्षा होती है। अधिक वर्षा के कारण भूमि दलदली रहती है। यह जलवायु स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तथा असह्य होती है।

भूमध्यसागरीय जलवायु के प्रदेशों का विस्तार 30° से 45° अक्षांशों के मध्य भूमध्य सागर के तटीय भागों, द० अफ्रीका के केप प्रान्त, उत्तरी अमेरिका की कैलीफोर्निया घाटी, दक्षिणी अमेरिका में मध्य चिली तथा ऑस्ट्रेलिया के दक्षिणी भाग पर है। यहाँ की जलवायु सम होती है। वार्षिक तापान्तर कम रहते हैं। ग्रीष्मकाल का औसत तापमान 21° से 26° सेग्रे रहता है। ग्रीष्म काल शुष्क रहता है। शीतकाल में वर्षा होती है।

प्रश्न 7. भूमध्यरेखीय जलवायु की स्थिति एवं जलवायु का विवरण दीजिए।
उत्तर-स्थिति-भूमध्य या विषुवत्रेखीय जलवायु प्रदेश भूमध्य रेखा के 5° उत्तर एवं 5°दक्षिणी अक्षांशों के मध्य स्थित हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में कुछ स्थानों पर इन क्षेत्रों को विस्तार 10° अक्षांशों तक पाया जाता है। इस जलवायु प्रदेश के अन्तर्गत अमेजन बेसिन, कांगो बेसिन, मलेशिया और इण्डोनेशिया आदि क्षेत्र सम्मिलित

जलवायु-विषुवत्रेखीय जलवायु प्रदेशों में सूर्य की किरणें वर्षभर सीधी पड़ने के कारण उच्च तापमान पाया जाता है। इन प्रदेशों में औसत तापमान 27° सेल्सियस रहता है। संवहनीय प्रक्रिया के कारण इन क्षेत्रों में प्रत्येक दिन तीसरे पहर वर्षा होती है। वार्षिक वर्षा का औसत 200-250 सेमी अंकित किया जाता है। इन प्रदेशों की जलवायु मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक एवं कष्टकारक होती है।

प्रश्न “8. भूमध्यसागरीय प्रदेशों से उदाहरण देते हुए समझाइए कि वनस्पति अपनी जलवायु से किस प्रकार समानुकूलन करती है?
उत्तर-भूमध्यसागरीय प्रदेशों में शरद ऋतु में वर्षा होती है, जबकि ग्रीष्मकाल शुष्क रहता है। अतः यहाँ इस प्रकार की वनस्पति उगती है जो शरद ऋतु में एकत्र की गई नमी पर निर्भर रह सके। यहाँ उगने वाले वृक्षों की पत्तियाँ चिकनी, छोटी तथा मोटी होती हैं तथा कुछ पत्तियों पर मोम जैसा चिकना एवं दूध जैसा पदार्थ निकलकर चिपक जाता है। पत्तियों की इसी विशेषता के कारण इन वृक्षों से वाष्पीकरण की क्रिया द्वारा नमी नष्ट नहीं होती है। वृक्षों की छालें लम्बी एवं मोटी होती हैं। अतः यहाँ कम ऊँचाई की चौड़ी पत्ती वाली सदाहरित वनस्पति उगती है।

इस जलवायु प्रदेश में ओक, चीड़, अंजीर, अखरोट, जैतून, नारंगी एवं शहतूत आदि के वृक्ष प्रमुख रूप से उगते हैं। इस प्रकार यहाँ ऐसे वृक्ष उगते हैं जो सरलता से ग्रीष्मकाल की शुष्कता को सहन करने में । सक्षम होते हैं तथा उन्होंने अपनी जलवायु से पूर्ण रूप से समायोजन कर लिया है। तूरस एवं रसदार फलों के लिए यह प्रदेश विश्वविख्यात है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. कोपेन के जलवायु वर्गीकरण के आधार बताइए तथा उनके द्वारा बताए गए जलवायु समूहों (प्रदेशों) का विवरण दीजिए।
उत्तर-कोपेन का जलवायु वर्गीकरण । कोपेन ने विश्व जलवायु वर्गीकरण में आनुभविक पद्धति को अपनाया है। इस पद्धति में कोपेन ने तापमान तथा वर्षण के निश्चित मानों के आधार पर वनस्पति के वितरण से सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया है। कोपेन ने अपने जलवायु वर्गीकरण की सीमाएँ वनस्पति सीमाओं को ध्यान में रखकर बनाई हैं। उनका विचार था कि वनस्पति का उगना और विकास वर्षा की प्रभावशीलता पर निर्भर है। अतः कोपेन ने अपने जलवायु वर्गीकरण के लिए वर्षा और तापमान के मासिक एवं वार्षिक औसत (मध्यमान) आँकड़ों को आधार माना है। उन्होंने जलवायु के समूहों एवं प्रकारों की पहचान के लिए बड़े तथा छोटे अंग्रेजी अक्षरों का प्रयोग किया है। यद्यपि इन्होंने अपना यह जलवायु वर्गीकरण 1918 में प्रस्तुत किया था तथा समय-समय पर इसको संशोधित भी किया है, किन्तु यह वर्गीकरण इतना पुराना होते हुए आज भी लोकप्रिय एवं प्रचलित है।

कोपेन ने विश्व की जलवायु को पाँच मुख्य समूहों तथा 14 उपसमूहों में विभक्त किया है। इन जलवायु समूहों की संक्षिप्त विवरण तालिका इस प्रकार है

तालिका : कोपेन के जलवायु समूह एवं उपसमूह
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प्रश्न 2. उष्ण कटिबन्धीय आर्द्र (Af) (भूमध्यरेखीय जलवायु) तथा उष्ण कटिबन्धीय मानसून जलवायु (Am) की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-उष्ण कटिबन्धीय आर्द्र (Af) जलवायु की विशेषताएँ ।
उष्णकटिबन्धीय आर्द्र जलवायु समूह A उष्णकटिबन्धीय वर्ग की जलवायु है। यह जलवायु विषुवत् वृत्त के निकट पाई जाती है। इस जलवायु के मुख्य क्षेत्र दक्षिण अमेरिका का अमेजन बेसिन, पश्चिमी विषुवतीय अफ्रीका तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया के द्वीप हैं। इसे भूमध्यरेखीय जलवायु प्रदेश कहा जाता है। इस प्रदेश में वर्ष के प्रत्यक माह में दोपहर के बाद गरज और बौछारों के साथ प्रचुर वर्षा होती है। इस वर्षा को संवहनीय वर्षा कहा जाता है। यहाँ तापमान समान रूप से ऊँचा रहता है; अत: वार्षिक तापान्तर नगण्य पाया जाता है। किसी भी दिन अधिकतम तापमान लगभग 30°C और न्यूनतम तापमान लगभग 20°C होता है (चित्र 12.1)। इस जलवायु प्रदेश में सघन सदाबहार वन तथा व्यापक जैव विविधता पाई जाती है। इन प्रदेशों की जलवायु मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक एवं कष्टकारक होती है। इस जलवायु का प्रतिनिधि नगर सिंगापुर है।
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मानसून जलवायु (Am) की विशेषताएँ

इस जलवायु के अन्तर्गत भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, म्यांमार, थाईलैण्ड, फिलीपीन्स, कम्बोडिया, चीन, ताइवान, अफ्रीका महाद्वीप के पूर्वी तट तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिण-पूर्वी तटीय भाग और ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी भाग सम्मिलित हैं। मानसूनी जलवायु प्रदेशों में उच्च तापमन पाया जाता है। सर्वाधिक तापमान ग्रीष्मकाल में अंकित किया जाता है। यहाँ वर्ष में तीन प्रकार के मौसम परिलक्षित होते हैं जो एक चक्र के रूप में पाए जाते हैं (मार्च से जून-ग्रीष्मकाल, जुलाई, से अक्टूबर–वर्षाकाल तथा नवम्बर से फरवरी-शीतकाल)। ग्रीष्मकाल का औसत तापमान 30° सेल्सियस, जबकि शीतकाल का औसत तापमान 10° से 15° सेल्सियस तक पाया जाता है। इसी कारण यहाँ तापान्तर अधिक पाया जाता है। तापमान पर महाद्वीपीयता का प्रभाव स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। तटीय भागों में तापान्तर कम, जबकि आन्तरिक क्षेत्रों में तापान्तर अधिक पाया जाता है। भारत में इस जलवायु का प्रतिनिधि नगर कोलकाता है। उत्तरी भारत में ग्रीष्मकाल में गर्म पवने (लू) चलती हैं। भारत के आन्तरिक क्षेत्रों में तो तापमान 48° सेल्सियस तक अंकित किए जाते हैं, जबकि शीतकाल का तापमान 4° सेल्सियस तक गिर जाता है। मानसूनी वर्षा मुख्यतः पर्वतीय (Orographic) होती है। तटीय भागों में चक्रवातीय वर्षा तथा ग्रीष्मकाल के आरम्भ में सर्वाधिक वर्षा होती है। मानसूनी पवनें पर्वतों से टकराकर सम्मुख ढालों पर तीव्र वर्षा करती हैं। क्रमशः आन्तरिक भागों की ओर बढ़ने पर उनकी आर्द्रता कम होती जाती है, परन्तु वर्षा का वितरण एवं मात्रा असमान होती है (चित्रे 12.2)।

इस प्रदेश में वर्षा एवं तापमान विविधता के कारण वनस्पति में भी विविधता पाई जाती है। यहाँ सदापर्णी और पर्णपाती वन पाए जाते हैं। साल, शीशम, सागौन, जामुने तथा महुआ और विभिन्न प्रकार की झाड़ियाँ इस प्रदेश की प्रमुख वनस्पतियाँ हैं।

प्रश्न 3. उष्णकटिबन्धीय शुष्क जलवायु का सम्बन्ध इस प्रदेश में उगने वाली प्राकृतिक वनस्पति से निर्धारित कजिए।
उत्तर-उष्ण कटिबन्धीय शुष्क मरुस्थलीय जलवायु
यह सहारा तुल्य जलवायु भी कहलाती है जो 15 से 30° अक्षांशों के मध्य दोनों गोलार्थों में महाद्वीपों के पश्चिमी भागों में पाई जाती है। विश्व के सभी उष्ण मरुस्थल इस जलवायु प्रदेश के अन्तर्गत सम्मिलित हैं।

जलवायु–महाद्वीपों के पश्चिमी किनारों पर स्थित होने के कारण यहाँ जलवायु पर महाद्वीपीय प्रभाव सर्वाधिक दिखलाई पड़ता है। दूसरे शब्दों में, वार्षिक तापान्तर अत्यधिक (17° से 22° सेल्सियस) होता है। तापमान के आधार पर यहाँ दो ऋतुएँ परिलक्षित होती हैं-ग्रीष्म एवं शीत ऋतु। ग्रीष्मकाल में यह क्षेत्र अधिकतम मात्रा में सूर्यातप प्राप्त करता है तथा यहाँ विश्व का सर्वाधिक ताप अंकित किया जाता है। (लीबिया में अजीजिया-58° सेल्सियस)। परन्तु यहाँ पर रात्रि का तापमान इतना नीचे गिर जाता है कि दैनिक तापान्तर औसतन 22° से 28° सेल्सियस अंकित किया जाता है। दिन का तापमान शीतकाल में भी 18° सेल्सियस तक पहुँच जाता है, यद्यपि रात्रिकाल में तापमान अत्यधिक कम हो जाता है। इस जलवायु प्रदेश में वर्षा की अनिश्चितता रहती है। कभी वर्षों तक वर्षा की एक बूंद भी नहीं पड़ती है। तो कभी एक साथ इतनी वर्षा हो जाती है कि बाढ़ आ जाती है। अधिकांश क्षेत्रों में वर्षा का औसत 10 से 12 सेमी तक रहता है। जैकोबाबाद (पाकिस्तान) इस जलवाय का प्रतिनिधि नगर है।
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प्राकृतिक वनस्पति-उष्ण मरुस्थल प्रायः वनस्पतिविहीन होते हैं। सहारा एवं अरब के मरुस्थल ऐसे ही उजाड़ प्रदेश हैं। कुछ भागों में विशिष्ट प्रकार की शुष्क वनस्पति पाई जाती है। झाड़ियाँ, छोटी घास व बबूल, खजूर, नागफनी आदि वृक्ष एवं पौधे उगते हैं, जो प्राकृतिक रूप से शुष्क वातावरण में समायोजित होते हैं। इनकी जड़े धरातल से काफी गहराई तक चली जाती हैं जिससे इन्हें नमी प्राप्त होती रहे। इनके तने मोटी छाल वाले एवं पत्तीविहीन होते हैं। यदि कुछ पौधों में पत्तियाँ होती हैं तो वे अत्यन्त मोटी, छीटी, चिकनी एवं काँटेदार होती हैं; जैसे–नागफनी आदि।

प्रश्न 4. पश्चिमी यूरोप तुल्य जलवायु के क्षेत्रों तथा विशेषताओं का विवरण दीजिए।
या पश्चिमी यूरोप तुल्य जलवायु का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए
(अ) स्थिति तथा विस्तार, (ब) जलवायु की विशेषताएँ, (स) प्राकृतिक वनस्पति।
उत्तर- पश्चिमी यूरोप तुल्य जलवायु प्रदेश की विशेषताएँ
स्थिति एवं विस्तार–इस जलवायु प्रदेश का विस्तार उत्तरी एवं दक्षिणी दोनों गोलाद्ध में 45° से 60° अक्षांशों के मध्य महाद्वीपों के पश्चिमी भागों में है। यूरोप महाद्वीप के ग्रेट ब्रिटेन, दक्षिणी नॉर्वे, दक्षिणी-पूर्वी फिनलैण्ड, बेल्जियम, हॉलैण्ड, डेनमार्क, जर्मनी, उत्तरी स्पेन, उत्तरी फ्रांस; उत्तरी अमेरिका महाद्वीप के दक्षिणी अलास्का तथा ब्रिटिश कोलम्बिया; दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप के दक्षिणी चिली; ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप के तस्मानिया तथा दक्षिणी न्यूजीलैण्ड आदि क्षेत्रों की जलवायु इसी प्रकार की है।

जलवायु की विशेषताएँ-पश्चिमी यूरोप तुल्य जलवायु प्रदेश की जलवायु सम है, क्योंकि जलवायु पर सामुद्रिक स्थिति का व्यापक प्रभाव पड़ा है। इनके तटीय भागों में गर्म जल की सागरीय धाराएँ प्रवाहित होती हैं तथा सदैव गर्म पछुवा हवाएँ प्रवाहित होती हैं। इनके प्रभाव के फलस्वरूप इन प्रदेशों में ग्रीष्म ऋतु शीतल एवं शीत ऋतु साधारण ठण्डी होती है। शीतकाल का औसत तापमान 3° से 7° सेग्रे रहता है, जबकि महाद्वीपों के आन्तरिक भागों में तापान्तर बढ़ता जाता है, परन्तु यहाँ पर तापमान कभी भी हिमांक बिन्दु तक नहीं पहुँच पाता।

इस प्रदेश में वर्षा वर्ष भर होती है। ग्रीष्म ऋतु की अपेक्षा शीत ऋतु में वर्षा अधिक होती है। वर्षा का वार्षिक औसत 150 से 250 सेमी है। पर्वतीय भागों में वर्षा का वार्षिक औसत 300 से 400 सेमी, तटीय भागों में 200 से 300 सेमी तथा आन्तरिक मैदानी भागों में 50 से 100 सेमी के मध्य है।।

प्राकृतिक वनस्पति-वर्षा में भिन्नता के कारण पश्चिमी यूरोप तुल्य जलवायु प्रदेश में प्राकृतिक वनस्पति में भी विभिन्नता मिलना स्वाभाविक है। अत्यधिक वर्षा वाले पर्वतीय भागों में नुकीली पत्ती वाले कोणधारी वन उगते हैं जिनमें पाइन, फर, लार्च, चीड़, स्पूस तथा हेमलॉक के वृक्ष मुख्य हैं। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में समुद्रतटीय एवं मैदानी भागों में चौड़ी पत्ती वाले पतझड़ वन मिलते हैं। इनमें ओक, बर्च, बीच, एल्म, मैपिल, चेस्टनट, वॉलनट आदि के वृक्ष प्रमुख हैं। अत्यधिक कम वर्षा वाले भागों में घास के मैदान भी मिलते हैं। वर्तमान समय में इन वनों को काटकर कृषि-योग्य भूमि का विस्तार किया जा रहा है, जिससे वन प्रदेशों का क्षेत्रफल धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।

पशु-जीवन-पर्वतीय घाटियों एवं मैदानों में मिलने वाली घास पर डेयरी पशुपालन उद्योग का विकास हुआहै। पशुओं से दूध प्राप्त किया जाता है जिसके कारण ये प्रदेश पनीर तथा मक्खन के उत्पादन में विश्व में सबसे अग्रणी हैं। डेनमार्क ने दुग्ध उद्योग में विशेष प्रगति की है। पर्वतीय क्षेत्रों में घोड़े तथा सूअर पाले जाते हैं जो यातायात एवं मांस के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं। भेड़-बकरियों से ऊन एवं मांस भी प्राप्त किया जाता है।

आर्थिक विकास—सागरीय स्थिति, वर्ष भर पर्याप्त वर्षा एवं तापमान के कारण इन प्रदेशों में आर्थिक विकास के पर्याप्त संसाधन विकसित हुए हैं। यूरोप का यह प्रदेश विश्व का सबसे उन्नतशील एवं विकसित प्रदेश है। इसके आर्थिक विकास का अध्ययन निम्नलिखित रूपों में किया जा सकता है–

(i) कृषि-इन प्रदेशों में कृषि-कार्य उन्नत दशा में है। कृषि मैदानी प्रदेशों एवं पर्वतीय घाटियों में की जाती है। गेहूँ, जौ, जई, चुकन्दर, आलू आदि मुख्य फसलें हैं। यहाँ पर वसन्तकालीन एवं शीतकालीन दोनों प्रकार का गेहूँ उगाया जाता है।

(ii) खनिज पदार्थ-पश्चिमी यूरोप तुल्यं जलवायु प्रदेश में खनन कार्य प्रगति कर गया है। कोयला, लोहा, चाँदी, सोना, सीसा, जस्ता, बॉक्साइट आदि प्रमुख खनिज पदार्थ मिलते हैं। इस प्रदेश के अन्तर्गत आने वाले देशों की उन्नति का प्रमुख कारण पर्याप्त खनिज-सम्पदा की उपलब्धि का होना है।

(iii) उद्योग-धन्धे-भौगोलिक सुविधाओं के कारण पश्चिमी यूरोप तुल्य जलवायु प्रदेश की अधिकांश जनसंख्या उद्योग-धन्धों में लगी हुई है। लोहा-इस्पात, सूती वस्त्र, ऊनी वस्त्र, कागज एवं लुग्दी तथा लकड़ी काटना प्रधान व्यवसाय हैं। ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी तथा बेल्जियम इस प्रदेश के महत्त्वपूर्ण औद्योगिक देश हैं।

मानव-जीवन-पश्चिमी यूरोप तुल्य जलवायु प्रदेश विश्व के सबसे सम्पन्न एवं उन्नतशीत प्रदेश हैं। यहाँ के निवासी उद्योग-धन्धों में कुशल एवं प्रशिक्षित हैं। विश्व के शिक्षित एवं सभ्य मानव इसी प्रदेश में सबसे अधिक निवास करते हैं। दक्षिणी चिली को छोड़कर सभी देशों ने कला-कौशल के क्षेत्र में विशेष प्रगति की है। अत्यधिक आर्थिक विकास पश्चिमी यूरोपीय देशों की विशेषता है। इस प्रदेश की 50% से अधिक जनसंख्या महानगरों में निवास करती है। समुद्रतटीय पत्तनों एवं निकटवर्ती भागों में स्थित नगरों में जनसंख्या अधिक निवास करती है। लन्दन, पेरिस, बर्लिन, मानचेस्टर आदि स्थान विश्व के विकसित महानगरों में से हैं। इस प्रदेश में मानव को जीवन-यापन के लिए विशेष प्रयास नहीं करने पड़ते। यहाँ सभ्यता एवं संस्कृति को विकास चरम सीमा तक हुआ है। ईसाई धर्मावलम्बी इस क्षेत्र में अधिक निवास करते हैं।

प्रश्न 5. कोष्ण शीतोष्ण (मध्य अक्षांशीय) जलवायु (C) के उपजलवायु समूह बताइए तथा भूमध्यसागरीय (Cs) जलवायु सम्बन्धी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-कोष्ण शीतोष्ण (मध्य अक्षांशीय) जलवायु को C समहों में रखा गया है। इस समूह की जलवायु 30° से 50° अक्षांशों के मध्य मुख्यतः महाद्वीपों के पूर्वी और पश्चिमी सीमान्तों पर विस्तृत है। इस जलवायु को तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है
(i) आर्द्र उपोषण कटिबन्धीय (Cfa), (ii) भूमध्यसागरीय (Csa), (iii) समुद्री पश्चिमतटीय (Cfb)।

भूमध्यसागरीय (Csa) जलवायु–इस जलवायु का अधिकांश विस्तार 30° से 45° अक्षांशों के मध्य है। यह मुख्यतः भूमध्यसागर के समीपवर्ती भागों में पाए जाने के कारण भूमध्यसागरीय जलवायु कहलाती है

जलवायु (तापमान एवं वर्षा)-भूमध्यसागरीय जलवायु प्रदेशों में दो ऋतुएँ होती हैं—शरद एवं ग्रीष्म। यहाँ शरद ऋतु छोटी, कर्म ठण्डी व नम तथा ग्रीष्म ऋतु लम्बी, गर्म एवं शुष्क होती है। इस जलवायु परे शरद ऋतु में ध्रुवों की ओर से तथा ग्रीष्म ऋतु में मरुस्थलों की ओर से आने वाली पवनों का विशेष प्रभाव पड़ता है। यहाँ शरद ऋतु में औसत तापमान 7° से 10° सेल्सियस एवं ग्रीष्म ऋतु में तापमान 21° से 30° सेल्सियस रहता है। शरद ऋतु केवल तीन माह तक होती है। हर महीने में दोपहर का तापमान 13° से 15° सेल्सियस तक रहता है, परन्तु रात का तापमान 8° सेल्सियस तक पहुँच जाता है। इस जलवायु प्रदेश में वर्षा का वार्षिक औसत 30 से 50 सेमी तक रहता है। यहाँ वर्षा शरद ऋतु में चक्रवातों द्वारा होती है। ऐसी वर्षा में बादल अधिक सघन नहीं होते तथा ग्रीष्म ऋतु में इन प्रदेशों के व्यापारिक पवनों की पेटी में आ जाने के कारण वर्षा नहीं हो पाती है। रेडब्लफ (कैलीफोर्निया) इस जलवायु का प्रतिनिधि नगर (चित्र 12.4) है।
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प्रश्न 6. टुण्ड्रा (ET) जलवायु दशाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर–टुण्ड्रा तुल्य जलवायु 10° से 0°C (जुलाई) समताप रेखाओं के मध्य पाई जाती है। इस जलवायु में कनाडा, अलास्का, यूरोप के नॉर्वे, फिनलैण्ड तथा साइबेरिया के उत्तरी भाग सम्मिलित हैं। ध्रुव के निकट स्थित होने के कारण यह जलवायु ध्रुवीय जलवायु भी कहलाती है।

जलवायु (तापमान एवं वर्षण)-टुण्ड्रा प्रदेश की जलवायु अत्यन्त शीतल है। शीत ऋतु अत्यधिक लम्बी एवं कठोर तथा ग्रीष्म ऋतु छोटी परन्तु ठण्डी होती है। वर्ष के अधिकांश भाग में तापमान हिमांक बिन्दु के नीचे बना रहता है। औसत वार्षिक तापमान – 12° सेल्सियस पाया जाता है। ग्रीष्म ऋतु का तापमान 0° से 10° सेल्सियस अंकित किया जाता है। इस प्रकार यहाँ वार्षिक तापान्तर अधिक रहता है। शीतकाल में यहाँ भयंकर बर्फीले तूफान अर्थात् ध्रुवीय वाताग्र चला करते हैं जिससे शीत ऋतु में कठोरता और भी बढ़ जाती है। शीतकाल में यह क्षेत्र न्यूनतम ताप ग्रहण कर पाता है, क्योंकि दिन की लम्बाई बहुत कम होती है। यदि कुछ सूर्यातप प्राप्त होता भी है तो उसका अधिकांश भाग हिम से टकराकर परिवर्तित हो जाता है तथा जो ताप शेष बचता है वह हिम को पिघलाने में नष्ट हो जाता है। दिन व रात की लम्बाई में अत्यधिक अन्तर होने के कारण दैनिक तापान्तर न्यून पाया जाता है। इस प्रदेश का प्रतिनिधि नगर उपरनिविक है (चित्र 12.5)।।

टुण्ड्रा प्रदेश में वर्षा बहुत कम होती है। अधिकांश वर्षा हिमपात के रूप में होती है। यद्यपि ग्रीष्मकाल में वर्षा कभी-कभी जल के रूप में भी हो जाती है, परन्तु इसकी मात्रा कम ही रहती है। यहाँ वर्षा का वार्षिक औसत 30 सेमी से भी कम रहता है। ग्रीष्मकाल में चक्रवातीय वर्षा होती है तथा तटीय क्षेत्रों में कुहरा छाया रहता है।

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प्रश्न 7. भूमण्डलीय तापन के लिए उत्तरदायी गैसें कौन-सी हैं? इनके प्रभाव की विवेचना कीजिए।
या भूमण्डलीय तापन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-भूमण्डलीय तापन पृथ्वी के तापमान में वृद्धि मानवजनित ग्रीनहाउस प्रभाव का एक दुष्परिणाम है। इसकी ओर विश्व समुदाय का ध्यान आकृष्ट करने के लिए 1989 में पर्यावरण दिवस पर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा ‘भूमण्डली तापन : भूमण्डलीय चेतावनी’ (Global warming : Global warming) नामक नारा दिया गया। ग्रीनहाउस गैसों का निरन्तर बढ़ना विश्व तापन का प्रमुख कारण है। वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि प्रति दशके विश्व तापमान में 0.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो रही है। बीसवीं सदी में धरती का औसत तापमान 0.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया। ‘विश्व मौसम संगठन द्वारा पहले 1990, फिर 1995, 1997 तथा 1998 को शताब्दी के सर्वाधिक गर्म वर्ष के रूप में उल्लेख करना विश्व तापमान में निरन्तर वृद्धि का प्रमाण है। भूतापमान में वृद्धि के लिए उत्तरदायी गैसों को ग्रीनहाउस गैस कहा जाता है। ग्रीनहाउस प्रभाव उत्पन्न करने वाली गैसें निम्नलिखित हैं—

1. कार्बन डाइऑक्साइड-ग्रीनहाउस प्रभाव उत्पन्न करने वाली गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड प्रमुख है। तीव्र औद्योगिकीकरण एवं परिवहन साधनों की वृद्धि से इस गैस की मात्रा में निरन्तर वृद्धि हो रही है।

2. मीथेन-कार्बन एवं हाइड्रोजन के मेल से निर्मित यह गैस कार्बन डाई-ऑक्साइड से 21 गुना अधिक ग्रीनहाउस प्रभाव उत्पन्न करती है।

3. नाइट्रस ऑक्साइड-यह अत्यन्त खतरनाक प्रभाव उत्पादक गैस है। वायुमण्डल में इसकी मात्रा कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में बहुत कम है फिर भी यह कार्बन डाइऑक्साइड की अपेक्षा 290 गुना अधिक खतरनाक होती है। ग्रीनहाउस प्रभाव उत्पन्न करने में इस गैस का योगदान 6 प्रतिशत है।

4. क्लोरो-फ्लोरो कार्बन-कलोरो-फ्लोरो कार्बन या सी०एफ०सी० गैसों का निर्माण प्राकृतिक क्रियाओं द्वारा न होकर रासायनिक अभिक्रियाओं द्वारा होता है। यह बीसवीं शताब्दी की देन है। वायुमण्डल में इसका अस्तित्व 130 वर्ष तक बना रहता है। यह गैस ओजोन परत को भारी क्षति पहुँचाती है।

उपर्युक्त उल्लेखनीय हरित गैसों की उपस्थिति के कारण वायुमण्डल एक हरित गृह की भाँति व्यवहार करता है। यद्यपि हरित गृह काँच का बना होता है। काँचै प्रवेशी सौर विकिरण की लघु तरंगों के लिए पारदर्शी होता है तथा बहिर्गामी विकिरण की लम्बी तरंगों के लिए अपारदर्शी है। इसी प्रकार का व्यवहार ग्रीनहाउस गैसों से वायुमण्डल में होने के कारण वर्तमान शताब्दी में भूमण्डलीय तापन की समस्या उत्पन्न हो रही है।

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