UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 22 प्रत्याशित माता की देख-रेख

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 22 प्रत्याशित माता की देख-रेख (Care of the Expectant Mother)

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 22 प्रत्याशित माता की देख-रेख

UP Board Class 11 Home Science Chapter 22 विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
गर्भावस्था के समय उत्पन्न होने वाले सामान्य लक्षणों का वर्णन कीजिए। अथवा गर्भावस्था के सामान्य लक्षणों का वर्णन कीजिए। अथवा गर्भधारण करने पर गर्भिणी के लक्षणों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
गर्भावस्था के सामान्य लक्षण (Signs of Pregnancy) –
गर्भाधान की क्रिया के पश्चात् नए जीव के विकास की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इस अवस्था को ‘गर्भावस्था’ कहा जाता है। नए जीव के विकास के कारण गर्भवती स्त्री के शरीर में अनेक परिवर्तन होते हैं जो गर्भावस्था के लक्षणों के रूप में प्रकट होने लगते हैं। गर्भावस्था के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं

1. मासिक धर्म का बन्द होना-जब गर्भधारण हो जाता है तो नियमित रूप से होने वाला मासिक रक्तस्राव सामान्य रूप से बन्द हो जाता है। ऐसे समय यदि यह लगातार 3 माह तक बन्द रहता है तो यह समझ लेना चाहिए कि स्त्री निश्चित रूप से गर्भवती है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि किसी स्त्री का मासिक धर्म गर्भधारण के अतिरिक्त कुछ अन्य कारणों से भी बन्द हो सकता है। अत: गर्भधारण के निर्धारण के लिए कुछ अन्य लक्षणों एवं परीक्षणों को भी ध्यान में रखना आवश्यक होता है।

2. सुस्त रहना तथा नींद अधिक आना-गर्भधारण करने के उपरान्त विभिन्न आन्तरिक परिवर्तनों के कारण स्त्रियाँ कुछ सुस्त रहने लगती हैं तथा आलस्य अनुभव करने लगती हैं। इसके साथ ही नींद की अधिक इच्छा होने लगती है।

3. चेहरा-गर्भवती स्त्री के चेहरे पर कुछ परिवर्तन दिखाई देने लगते हैं, उसकी आँखों के नीचे व ऊपर, होंठों के आस-पास का रंग कुछ काला हो जाता है।

4. स्वभाव सम्बन्धी परिवर्तन गर्भधारण करने के साथ-साथ कुछ स्वभावगत परिवर्तन भी दृष्टिगोचर होने लगते हैं। प्रायः स्त्रियों के स्वभाव में कुछ चिड़चिड़ापन आ जाता है तथा वे बात-बात पर झुंझलाहट अनुभव करने लगती हैं। इस स्वभावगत परिवर्तन को भी गर्भधारण का लक्षण माना जा सकता है।

5. जी का बार-बार मिचलाना-जब गर्भधारण हो जाता है तो अधिकतर स्त्रियों का जी मिचलाने लगता है। कभी-कभी ऐसी स्थिति में उल्टियाँ भी हो जाती हैं। यह क्रिया गर्भधारण करने के लगभग तीन माह पश्चात् प्रारम्भ हो जाती है तथा 1 या 1- माह बाद बन्द हो जाती है।

6. गर्भ की हलचल-जब गर्भधारण किए लगभग 4 या 5 महीने का समय हो जाता है तो गर्भ में हलचल प्रारम्भ हो जाती है। गर्भ में ऐसा अनुभव होता है कि कुछ घूम रहा है।

7. बार-बार मूत्र-त्याग की इच्छा-गर्भधारण के उपरान्त स्त्रियों को बार-बार मूत्र-त्याग की इच्छा होती है। प्रायः गर्भाशय के बढ़ जाने से मूत्राशय पर पड़ने वाले दबाव के कारण ऐसा होता है। इस लक्षण को भी गर्भधारण का एक लक्षण माना जा सकता है।

8. पेट की स्थिति –

  • गर्भधारण करने के दो महीने पश्चात्, पेट अधिक चपटा हो जाता है तथा पेट का आकार भी बढ़ जाता है।
  • कोख अण्डाकार हो जाती है।
  • गर्भाशय में स्थित शिशु के हृदय की धड़कन को स्टेथस्कोप द्वारा सुना जा सकता है।
  • गर्भधारण होने से पेट का आकार बढ़ जाता है तथा उसके चारों तरफ का भाग उभर आता है। छठे महीने से स्तन-मुख से सफेद रंग का दूध जैसा द्रव निकलने लगता है।

9. आन्तरिक लक्षण–गर्भधारण करने को निश्चित करने के लिए मूत्र का एक विशिष्ट परीक्षण भी किया जाता है। इस परीक्षण से ज्ञात हो जाता है कि स्त्री ने गर्भधारण कर लिया है। इसके अतिरिक्त आजकल अल्ट्रासाउण्ड द्वारा भी गर्भधारण की जानकारी प्राप्त की जाती है।
अत: उपर्युक्त सभी लक्षणों के आधार पर भली-भाँति पहचाना जा सकता है कि कोई स्त्री गर्भवती है या नहीं।

प्रश्न 2.
गर्भावस्था के समय स्त्री के सामान्य कष्टों का वर्णन कीजिए। अथवा गर्भावस्था के समय स्त्री के सामान्य कष्ट कौन-कौन से हैं? इन्हें कैसे दूर किया जा सकता है?
उत्तर:
गर्भावस्था के सामान्य कष्ट तथा उन्हें दूर करने के उपाय  (Troubles of Pregnancy and their Treatment) –
गर्भावस्था महिला के लिए सामान्य से पर्याप्त भिन्न अवस्था होती है। इस अवस्था में महिला विभिन्न शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तनों से गुजरती है। इन परिवर्तनों के कारण प्रायः अधिकांश स्त्रियों को गर्भावस्था के काल में कुछ-न-कुछ कष्ट अवश्य होते हैं। इन कष्टों से अधिक चिन्तित नहीं होना चाहिए, क्योंकि ये स्वाभाविक होते हैं तथा प्रकृति-प्रदत्त हैं, जो कुछ समय उपरान्त स्वतः समाप्त हो जाते हैं। फिर भी यदि कष्ट का अधिक अनुभव होता हो तो निश्चित रूप से डॉक्टर का परामर्श आवश्यक है। इस काल में होने वाले सामान्य कष्टों का संक्षिप्त परिचय निम्नवर्णित है –

1. जी मिचलाना-गर्भावस्था काल में अनेक महिलाओं का प्रायः सुबह के समय कभी-कभी लगभग दो या तीन मास तक जी मिचलाता है। अत: जिन स्त्रियों को चाय की आदत है, वे प्रायः एक प्याला चाय तथा बिस्कुट ले सकती हैं। इसके विपरीत स्थिति पर भुने चने प्रयोग में लाए जा सकते हैं। खाने-पीने के उपरान्त लेटना आवश्यक है। लेटकर जब उठे तो धीरे-धीरे उठना चाहिए, झटके से नहीं। इतने पर भी जी मिचलाना न रुके तो लौंग, इलायची, पिपरमिण्ट आदि लिया जा सकता है।

2. वमन होना-गर्भावस्था में कुछ स्त्रियों को भोजन ग्रहण करने के तुरन्त उपरान्त वमन हो जाता है। अत: उन्हें भोजन ग्रहण करने से पूर्व लगभग आधा घण्टा विश्राम कर लेना चाहिए। तदुपरान्त रेशे वाली हल्की सब्जी के साथ चबा-चबाकर रोटी खानी चाहिए। पानी का प्रयोग कम करना चाहिए। चिकित्सकों के मतानुसार दवा का सेवन करना चाहिए।
गर्भिणी को स्वत: ही अपना ध्यान रखना चाहिए अन्यथा खाने-पीने की गड़बड़ से शिशु का स्वाभाविक विकास न हो सकेगा। उसे स्वच्छ एवं शुद्ध वायु ग्रहण करनी चाहिए।

3. कलेजे में जलन-बहुत देर तक बैठे रहने अथवा रात्रि में देर से भोजन ग्रहण करने पर गर्भवती को कलेजे में जलन का अनुभव होने लगता है। ऐसा इस कारण होता है, क्योंकि भ्रूण बढ़ने के कारण, भोजनोपरान्त आमाशय को फैलने व फूलने का पर्याप्त स्थान नहीं मिल पाता। इसके लिए तले एवं गरिष्ठ पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। इस अवस्था में पानी में नीबू मिलाकर पीना लाभकारी होता है।

4. मांसपेशियों में ऐंठन-गर्भवती स्त्री के शरीर में यदि कैल्सियम कम हो जाता है तो मांसपेशियाँ ऐंठने लगती हैं। गर्भावस्था के इस कष्ट से बचने के लिए कैल्सियम युक्त विटामिन ‘A’ व ‘D’ का प्रयोग तथा हरी सब्जियों का प्रयोग लाभकारी होता है। खाने के बाद पान खाना भी अच्छा रहता है।

5. टाँगों में सूजन-गर्भावस्था में कभी-कभी कुछ समय तक निरन्तर खड़े रहने से टाँगों व पैरों पर सूजन आ जाती है। ऐसी स्थिति में अधिक समय तक खड़े नहीं रहना चाहिए बल्कि बीच-बीच में विश्राम कर लेना चाहिए। काम आवश्यक हो तो बैठकर पूर्ण करना चाहिए।

6. कब्ज-प्राय: गर्भावस्था में स्त्रियों को कब्ज की शिकायत हो जाती है। इसके फलस्वरूप पेट में गैस बनने लगती है, सिर में दर्द होने लगता है अथवा बवासीर आदि हो जाती है। यदि वमन की शिकायत न हो तो प्रायः शौच जाने से पूर्व ताजा जल ग्रहण करना चाहिए। प्रातः घूमना भी लाभकारी हो सकता है। चोकरयुक्त आटा, छिलके वाली दाल तथा हरी सब्जी का सेवन करना चाहिए। रात्रि में दूध के साथ ईसबगोल की भूसी, मुनक्का, अंजीर आदि ली जा सकती हैं। इतने पर भी कब्ज की शिकायत दूर न हो तो डॉक्टर से परामर्श लेना चाहिए।

7. पीठ में दर्द का होना–समयानुसार भ्रूण का विकास होता है। इसके बढ़ने के साथ उसके भार व आकार में भी वृद्धि होती है। फलस्वरूप मांसपेशियों के खिंचाव से पीठ में पीड़ा होने लगती है। इसके लिए समुचित विश्राम अवश्य करना चाहिए तथा आरामदायक बिस्तर पर ही लेटना चाहिए।

8. निद्रा में कमी आना-गर्भावस्था में गर्भ के बढ़ने से लेटना, उठना आदि कठिन हो जाता है, फलस्वरूप नींद भी नहीं आती। अधिक भोजन कर लेने पर भी कठिनाई होती है; अत: हल्का, सुपाच्य व कम भोजन ग्रहण करना चाहिए। रात्रि में भी सोने से लगभग दो घण्टे पूर्व भोजन ग्रहण कर लेना चाहिए, इससे नींद आने में सुविधा होती है। खुली वायु में यदि टहला जाए तो वह भी अच्छा रहता है।

9. कुछ गम्भीर रोग-कभी-कभी बाँह व टाँग में सूजन आ जाती है, रक्त स्राव होने लगता है अथवा पेडू व कमर में पीड़ा होने लगती है। ऐसी स्थिति में तुरन्त डॉक्टर अथवा नर्स को बुलाना चाहिए।

प्रश्न 3.
गर्भावस्था में आहार में किन-किन भोज्य-तत्त्वों की प्रधानता होनी चाहिए और क्यों? विस्तारपूर्वक लिखिए।
अथवा
“स्वस्थ शिशु के जन्म के लिए माता का भोजन उत्तरदायी है।”इस कथन की पुष्टि कीजिए।
अथवा
एक गर्भवती महिला को सन्तुलित आहार देना क्यों आवश्यक है? गर्भवती महिला के सन्तुलित आहार में किन तत्त्वों की अधिकता होनी चाहिए? कारण सहित समझाइए।
अथवा
एक गर्भवती महिला को सन्तुलित आहार देना क्यों आवश्यक है? सविस्तार वर्णन कीजिए।
अथवा
गर्भिणी के सन्तुलित आहार के अन्तर्गत भोजन के कौन-कौन से तत्त्व आते हैं?
अथवा
गर्भावस्था में किन पौष्टिक तत्त्वों की आवश्यकता होती है? ये तत्त्व किन खाद्य-पदार्थों से प्राप्त किए जा सकते हैं?
उत्तर:
गर्भावस्था में स्त्री की देखभाल एवं स्वास्थ्य रक्षा के लिए उसके आहार के प्रति विशेष रूप से सजग रहना अनिवार्य होता है। आहार की दृष्टि से स्त्रियों के लिए गर्भधारण करने की अवस्था एक विशिष्ट अवस्था है। इस अवस्था में अनेक शारीरिक परिवर्तन एवं वृद्धि होने के कारण स्त्री को अधिक पोषक तत्त्वों तथा भिन्न प्रकार के आहार की आवश्यकता होती है। गर्भावस्था में गर्भस्थ भ्रूण के विकास के लिए भी माता को अतिरिक्त पोषक तत्त्वों की आवश्यकता होती है। गर्भस्थ भ्रूण अपनी आवश्यकता के समस्त पोषक तत्त्व माता के शरीर से ही ग्रहण करता है। अतः यदि माता के आहार में आवश्यक पोषक तत्त्वों की कमी रहती है तो उस दशा में भ्रूण के विकास के लिए आवश्यक तत्त्व माता के रक्त से ही लिए जाते हैं।

इसका प्रतिकूल प्रभाव माता के स्वास्थ्य पर पड़ता है, साथ ही गर्भस्थ शिशु भी अल्प-पोषण का शिकार बन जाता है। इसके अतिरिक्त यह भी एक तथ्य है कि गर्भावस्था में स्त्रियों को जी मिचलाने तथा उल्टियों की समस्या का भी सामना करना पड़ता है; अत: उनके द्वारा ग्रहण किए गए आहार की कुछ मात्रा तो व्यर्थ ही चली जाती है। साथ-ही-साथ इस अवस्था में कभी-कभी आहार के प्रति अरुचि होने के कारण भी सुचारु रूप से आहार ग्रहण नहीं किया जाता। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए गर्भवती स्त्री के आहार का नियोजन विशेष प्रकार से करना अनिवार्य होता है।

गर्भवती स्त्री को साधारण अवस्था की तुलना में काफी अधिक प्रोटीन, लोहा, कैल्सियम तथा विटामिन दिए जाने चाहिए। गर्भावस्था में उचित पौष्टिक एवं सन्तुलित आहार ग्रहण करने से इस अवस्था की सामान्य समस्याएँ एवं कठिनाइयाँ कम हो जाती हैं तथा गर्भस्थ शिशु स्वस्थ होता है। गर्भस्थ शिशु के जन्म के उपरान्त नवजात शिशु का मुख्य आहार माता का दूध ही होता है। अतः स्तनपान कराने के लिए भी माता को स्वयं पौष्टिक आहार ग्रहण करना अनिवार्य होता है। जन्म के समय एक सामान्य शिशु, जिसका वजन 3.2 किग्रा हो, के शरीर में 500 ग्राम प्रोटीन, 30 ग्राम कैल्सियम, 14 ग्राम फॉस्फेट, 0•4 ग्राम आयरन तथा आवश्यक विटामिन भी संचित होते हैं। ये सब पोषक तत्त्व वह माता के शरीर से ही ग्रहण करता है।

इन सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि गर्भावस्था में माता एवं गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य के लिए सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार आवश्यक होता है।

गर्भवती के लिए आवश्यक पौष्टिक आहार  (Necessary Nutritious Food for Pregnant Woman) –

1. ऊर्जा – गर्भावस्था में स्त्री को सामान्य से कुछ अधिक मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता होती है। इसका मुख्य कारण गर्भावस्था में स्त्री का वजन बढ़ जाना तथा चयापचय की दर बढ़ जाना होता है। ICMR ने सुझाव दिया है कि गर्भवती महिला को प्रतिदिन लगभग 300 कैलोरी अतिरिक्त ऊर्जा आवश्यक होती है। दूध पिलाने वाली महिला को ऊर्जा की आवश्यकता सामान्य से कुछ अधिक ही होती है। इस अवस्था में सामान्य से 700 कैलोरी ऊर्जा अधिक लेनी चाहिए।

2. प्रोटीन – विशेषज्ञों का विचार है कि गर्भावस्था में महिला को सामान्य से 10 ग्राम अधिक प्रोटीन प्रतिदिन ग्रहण करनी चाहिए। प्रोटीन की यह अधिक मात्रा गर्भस्थ शिशु के शारीरिक विकास के लिए आवश्यक होती है। इसके अतिरिक्त गर्भावस्था में स्त्री के शरीर में कुछ टूट-फूट होती रहती है, जिसकी मरम्मत के लिए प्रोटीन की अधिक मात्रा लेनी पड़ती है। गर्भावस्था के अन्तिम छह माह में प्रोटीन की अधिक मात्रा अवश्य ही ग्रहण करनी चाहिए। प्रोटीन की अधिक मात्रा ग्रहण करने के लिए गर्भवती के आहार में दूध, पनीर, मांस, मछली, अण्डा, दालें और हरी सब्जियाँ तथा सूखे मेवे तथा फलों की मात्रा सामान्य से कुछ अधिक कर देनी चाहिए।

3. कैल्सियम – गर्भावस्था में स्त्री के आहार में कैल्सियम की मात्रा भी साधारण अवस्था से अधिक होनी चाहिए। यह अतिरिक्त कैल्सियम गर्भस्थ शिशु के शरीर की अस्थियों के निर्माण के लिए प्रयुक्त होता है। गर्भस्थ शिशु जन्म से पूर्व लगभग 30 ग्राम कैल्सियम अपने शरीर में संचित कर लेता है। यदि गर्भावस्था में स्त्री के आहार में कैल्सियम की अतिरिक्त मात्रा नहीं होती तो उस स्थिति में गर्भस्थ भ्रूण अपनी आवश्यकता के लिए माता के शरीर से कैल्सियम लेता है। इससे माता की हड्डियाँ एवं दाँत कमजोर हो जाते हैं। यदि गर्भावस्था में स्त्री कैल्सियम की पर्याप्त मात्रा ग्रहण करती रहती है तो जन्म लेने वाले शिशु को दाँत निकलते समय अधिक कष्ट नहीं होता। विशेषज्ञों का विचार है कि गर्भवती के दैनिक आहार में सामान्य से 500 से 600 मिली ग्राम तक कैल्सियम की अधिक मात्रा होनी चाहिए। कैल्सियम की यह अतिरिक्त मात्रा ग्रहण करने के लिए गर्भवती के आहार में अण्डा, दूध, मछली, पनीर, सेम, फूलगोभी, शलजम, गाजर, चुकन्दर, हरी सब्जियों, बादाम आदि की अधिक मात्रा का समावेश होना चाहिए।

4. आयरन – गर्भावस्था में आयरन या लौह तत्त्व की सामान्य से अधिक मात्रा आवश्यक होती है। यदि आयरन की यह अतिरिक्त मात्रा ग्रहण न की जाए तो गर्भावस्था में महिलाओं को प्रायः रक्त-अल्पता की समस्या का सामना करना पड़ जाता है। गर्भस्थ भ्रूण के विकास के लिए भी आयरन की आवश्यकता होती है। इन आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए विशेषज्ञों का सुझाव है कि गर्भावस्था में प्रतिदिन स्त्री को सामान्य से 10 मिग्रा अधिक आयरन ग्रहण करना चाहिए। गर्भावस्था के अन्तिम तीन माह में आयरन की यह आवश्यकता विशेष रूप से अनुभव की जाती है। आयरन की अतिरिक्त मात्रा ग्रहण करने के लिए गर्भवती स्त्री के आहार में हरी सब्जियों, टमाटर, आँवला, अण्डा, सेब, केला तथा नारंगी आदि का समावेश होना चाहिए।

5. विटामिन ‘A’ – ऐसा विश्वास है कि गर्भावस्था में स्त्री को सामान्य से अधिक मात्रा में विटामिन ‘A’ की आवश्यकता होती है। इस विटामिन की आवश्यकता शारीरिक वृद्धि तथा शारीरिक क्रियाओं को. नियमित रखने के लिए होती है। सामान्य रूप से पर्याप्त मात्रा में प्रोटीनयुक्त आहार ग्रहण करने से विटामिन ‘A’ की आवश्यकता पूरी हो जाती है।

भिन्न-भिन्न क्रियाशीलता वाली गर्भवती स्त्रियों के लिए
आवश्यक पौष्टिक तत्त्व

6. विटामिन ‘D’ – गर्भावस्था में स्त्री के लिए विटामिन ‘D’ का भी विशेष महत्त्व होता है। इस अवस्था में स्त्री के आहार में विटामिन ‘D’ की प्रचुर मात्रा का समावेश होना चाहिए। विटामिन ‘D’ कैल्सियम तथा फॉस्फोरस के साथ मिलकर दाँतों व अस्थियों को दृढ़ता प्रदान करने में सहायक होता है। यदि किसी कारणवश गर्भवती स्त्री को विटामिन ‘D’ की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध नहीं होती तो इसका प्रतिकूल प्रभाव स्त्री तथा भावी सन्तान दोनों पर ही पड़ता है। विटामिन ‘D’ की समुचित प्राप्ति के लिए गर्भवती स्त्री के आहार में दूध, मक्खन, अण्डे की जर्दी तथा मछली के तेल का समावेश होना चाहिए। सूर्य की किरणों से भी शरीर में विटामिन ‘D’ का निर्माण होता है।

7. अन्य विटामिन – ICMR के विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि गर्भवती महिला को सामान्य से कुछ अधिक मात्रा में विटामिन्स; जैसे 0.2 मिग्रा थायमिन, 0.2 मिग्रा राइबोफ्लेविन, 0.2 मिग्रा निकोटिनिक एसिड की अधिक आवश्यकता होती है। इसी प्रकार कुछ मात्रा में फोलिक एसिड तथा विटामिन B12 भी अधिक दिया जाना चाहिए। – उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट हो जाता है कि गर्भावस्था में स्त्री तथा गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य एवं शरीर के सुचारु विकास के लिए पर्याप्त मात्रा में पौष्टिक एवं सन्तुलित आहार दिया जाना अनिवार्य होता है। वास्तव में गर्भस्थ शिशु का स्वास्थ्य भी माता के आहार पर निर्भर करता है। गर्भावस्था में आवश्यक तत्त्वों की मात्रा उपर्युक्त तालिका द्वारा दर्शायी गई है।

प्रश्न 4.
“गर्भावस्था में माता की शारीरिक तथा मानसिक अवस्था का गर्भस्थ शिशु के विकास पर प्रभाव पड़ता है।” इस कथन की पुष्टि विस्तारपूर्वक कीजिए।
उत्तर:
भ्रूण का निर्माण पिता के शुक्राणु तथा माता के अण्डाणु (ovum) के संयोग से होता है, परन्तु भ्रूण का विकास एवं पोषण केवल माता के शरीर से प्राप्त होने वाले तत्त्वों से ही होता है। गर्भस्थ शिशु का विकास पूर्ण रूप से माता के शरीर पर ही निर्भर रहता है। इस स्थिति में गर्भस्थ शिशु का विकास माता की शारीरिक तथा मानसिक अवस्था पर निर्भर रहना नितान्त स्वाभाविक है।

माता की शारीरिक अवस्था का गर्भस्थ शिशु पर प्रभाव  (Effect of Mother’s Physical State on the Child in Womb) –
गर्भस्थ शिशु के शरीर का विकास माता के शरीर से प्राप्त तत्त्वों द्वारा ही होता है। इस स्थिति में यदि माता की शारीरिक अवस्था सामान्य नहीं है तो गर्भस्थ शिशु को पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्त्व प्राप्त नहीं हो पाते तथा गर्भस्थ शिशु दुर्बल एवं अभावग्रस्त रह जाता है। उसकी मांसपेशियों तथा हड्डियों का समुचित विकास नहीं हो पाता। यदि माता के शरीर में कैल्सियम, फॉस्फोरस आदि खनिजों की न्यूनता हो तो निश्चित रूप से गर्भस्थ शिशु की अस्थियों का सामान्य विकास नहीं हो पाता। इसी प्रकार गर्भस्थ शिशु के विकास के लिए प्रोटीन की भी पर्याप्त मात्रा की आवश्यकता होती है।

प्रोटीन की यह मात्रा प्राप्त करने के लिए माता की शारीरिक अवस्था अच्छी होनी आवश्यक है। माता के शरीर में प्रोटीन की कमी होने की दशा में गर्भस्थ शिशु भी प्रोटीन कुपोषण का शिकार हो सकता है। पोषक तत्त्व प्रदान करने के अतिरिक्त एक अन्य रूप में भी गर्भावस्था में माता की शारीरिक अवस्था गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य एवं विकास को प्रभावित करती है। यदि गर्भावस्था में माता किसी गम्भीर संक्रामक रोग की शिकार हो तो निश्चित रूप से रोग का संक्रमण गर्भस्थ शिशु में भी पहुँच जाता है। गर्भस्थ शिशु द्वारा अर्जित किया जाने वाला संक्रमण अत्यधिक गम्भीर होता है तथा इसका गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव शिशु के विकास पर पड़ता है। उदाहरण के लिए गर्भावस्था में यदि माता एड्स, सिफलिस या टी०बी० जैसे किसी संक्रामक रोग से पीड़ित हो तो निश्चित रूप से गर्भस्थ शिशु भी सम्बन्धित रोग का शिकार हो जाता है।

माता की मानसिक अवस्था का गर्भस्थ शिशु पर प्रभाव  (Effect of Mother’s Mental State on the Child in Womb) –
शारीरिक अवस्था के अतिरिक्त, गर्भावस्था में माता की मानसिक अवस्था भी गर्भस्थ शिश के विकास को प्रभावित करती है। यदि गर्भावस्था में माता भय, चिन्ता अथवा क्रोध जैसे प्रबल संवेगों से ग्रस्त रहती है तो निश्चित रूप से गर्भस्थ शिशु के मानसिक एवं संवेगात्मक विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। गर्भस्थ शिशु जन्म लेने के उपरान्त प्रायः संवेगात्मक अस्थिरता का शिकार रहा करता है। वास्तव में यदि गर्भावस्था में माता की मानसिक अवस्था सामान्य नहीं होती तो उसकी विभिन्न अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का स्राव भी असन्तुलित हो जाता है। इसका प्रभाव रक्त के माध्यम से गर्भस्थ शिशु पर भी पड़ता है। कुछ मनोवैज्ञानिकों का तो यहाँ तक कहना है कि गर्भावस्था में माता की मानसिक व मनोवैज्ञानिक अवस्था का प्रभाव जन्म लेने वाले शिशु के सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं विकास पर पड़ता है।

उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि गर्भावस्था में माता की शारीरिक तथा मानसिक अवस्था का प्रभाव गर्भस्थ शिशु के विकास पर अनिवार्य रूप से पड़ता है। गर्भावस्था में स्त्री को अपने शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहना चाहिए। हर प्रकार के संक्रमण से बचना चाहिए और यदि किसी प्रकार का संक्रमण हो भी जाए तो उसका तुरन्त उपचार करना चाहिए। गर्भस्थ शिशु के सुचारु विकास के लिए पर्याप्त मात्रा में सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार ग्रहण करना चाहिए। आहार में ऊर्जा, प्रोटीन, कैल्सियम, आयरन तथा विटामिन्स की अतिरिक्त मात्रा ग्रहण करनी चाहिए। इसके साथ-साथ गर्भावस्था में माता को प्रसन्नचित्त रहना चाहिए तथा संवेगात्मक उत्तेजनाओं से बचना चाहिए। उसे धार्मिक एवं आध्यात्मिक विचारों का मनन करना चाहिए। इन समस्त गतिविधियों का अनुकूल प्रभाव गर्भस्थ शिशु के विकास पर पड़ता है।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 22 लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
मातृ-कला एवं शिशु-कल्याण से क्या आशय है?
उत्तर:
मातृ-कला एवं शिशु-कल्याण का अर्थ मातृत्व का हमारे समाज के लिए सर्वाधिक महत्त्व है। इसीलिए मातृत्व से सम्बन्धित बहुपक्षीय ज्ञान का व्यवस्थित अध्ययन किया जाने लगा है। मातृत्व सम्बन्धी इस ज्ञान का अध्ययन ‘मातृ-कला’ (mother craft) के अन्तर्गत किया जाता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि ‘मातृ-कला’ वह विषय-क्षेत्र है, जिसके अन्तर्गत मातृत्व सम्बन्धी व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है।

मातृत्व के साथ अनिवार्य रूप से शिशु का जन्म भी सम्बद्ध होता है। शिशु के जन्म तथा जन्म के उपरान्त उसके उचित पालन-पोषण का विशेष महत्त्व होता है। शिशु के पालन-पोषण पर ही उसका भविष्य निर्भर करता है। शिशु के व्यवस्थित पालन-पोषण सम्बन्धी तथ्यों का अध्ययन ‘शिश-कल्याण’ के अन्तर्गत किया जाता है। इस प्रकार ‘शिशु-कल्याण’ वह विषय-क्षेत्र है जिसके अन्तर्गत शिशु के जन्म एवं उसके पालन-पोषण सम्बन्धी नियमों आदि का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है।

उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि ‘मातृ-कला’ तथा ‘शिशु-कल्याण’ दोनों आपस में घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं। इसीलिए इन दोनों विषय-क्षेत्रों का एक साथ ही अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 2.
मातृ-कला एवं शिशु-कल्याण के अध्ययन-क्षेत्र का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
मातृ-कला एवं शिशु-कल्याण का अध्ययन-क्षेत्र –
मातृ-कला एवं शिशु-कल्याण का अध्ययन-क्षेत्र पर्याप्त व्यापक है। संक्षेप में मातृ-कला तथा शिशु-कल्याण के अध्ययन-क्षेत्र का विवरण निम्नवर्णित है –

  • मातृत्व के अर्थ एवं विभिन्न पक्षों का अध्ययन।
  • गर्भावस्था से सम्बन्धित समस्त तथ्यों का अध्ययन।
  • परिवार नियोजन तथा परिवार-कल्याण सम्बन्धी अध्ययन।
  • प्रसूता एवं नवजात शिशु का अध्ययन।
  • बाल्यावस्था तक क्रमिक रूप से होने वाले विकास का अध्ययन।
  • शिशु के स्वास्थ्य का बहुपक्षीय अध्ययन।
  • व्यक्तिगत स्वास्थ्य के नियमों एवं व्यावहारिक पक्ष का अध्ययन।

प्रश्न 3.
मातृ-कला एवं शिशु-कल्याण के महत्त्व का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
मातृ-कला एवं शिशु-कल्याण का महत्त्व –
गृहविज्ञान के अन्तर्गत “मातृ-कला’ एवं ‘शिशु-कल्याण’ नामक विषय-क्षेत्र का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है। इस विषय के अध्ययन-क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि यह एक विस्तृत विषय-क्षेत्र है तथा इसका सम्बन्ध माता, शिशु तथा इन दोनों के आपसी सम्बन्धों के प्राय: सभी पक्षों से है। मातृ-कला एवं शिशु-कल्याण एक व्यावहारिक एवं उपयोगी विषय है। यह कोई सैद्धान्तिक महत्त्व का विषय नहीं है बल्कि इसका सम्बन्ध दैनिक जीवन से है। प्रत्येक युवती भावी माँ होती है।

स्त्री ही चूँकि माँ बनती है। अत: उसके लिए ‘मातृ-कला’ एवं ‘शिशु-कल्याण’ सम्बन्धी ज्ञान परम आवश्यक है। इस ज्ञान से जहाँ एक ओर स्त्रियों का अपना जीवन सरल एवं विभिन्न समस्याओं से मुक्त होता है, वहीं दूसरी ओर बच्चों के उत्तम पालन-पोषण में सहायता प्राप्त होती है। इस विषय के उचित ज्ञान के अभाव में अनेक प्रकार के भ्रम एवं समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं। इसीलिए आधुनिक युग में प्रत्येक बालिका, युवती एवं गृहिणी के लिए ‘मातृ-कला’ एवं ‘शिशु-कल्याण’ सम्बन्धी अध्ययन एवं ज्ञान आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

प्रश्न 4.
मातृत्व से पहले महिला को मानसिक रूप से तैयार क्यों होना चाहिए?
उत्तर:
मातृत्व से पहले मानसिक तैयारी मातृत्व एक शारीरिक एवं जैविक प्रक्रिया है तथा इसके लिए महिला को शारीरिक रूप से परिपक्व होना अनिवार्य है, परन्तु इसके साथ-ही-साथ मातृत्व से पहले महिला को मानसिक रूप से भी तैयार होना चाहिए। वास्तव में मातृत्व एक गम्भीर विषय है तथा इसके साथ अनेक दायित्व तथा कार्य सम्बद्ध हैं। जन्म लेने वाले शिशु के उचित पालन-पोषण एवं विकास का दायित्व माता पर होता है। मातृत्व से परिवार का विस्तार होता है। परिवार पर आर्थिक जिम्मेदारियाँ बढ़ती हैं तथा माता-पिता की अपनी दैनिक दिनचर्या में भी अनेक प्रकार के परिवर्तन करने पड़ते हैं। विश्राम एवं मनोरंजन आदि में भी कटौती करनी पड़ती है; अत: इन समस्त तथ्यों को ध्यान में रखकर ही महिला को मानसिक रूप से मातृत्व के लिए तैयार होना चाहिए।

प्रश्न 5.
गर्भवती स्त्री की देखभाल करना क्यों आवश्यक है? गर्भवती स्त्री की देखभाल करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर:
गर्भवती स्त्री की देखभाल –
गर्भावस्था महिला के जीवन में विशेष महत्त्व की अवस्था या काल होता है। गर्भावस्था में महिला के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु के सुचारु विकास तथा उसके भावी जीवन एवं स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर व्यापक देखभाल की आवश्यकता होती है। वास्तव में गर्भस्थ शिशु हर प्रकार से माँ पर निर्भर करता है तथा उससे घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध होता है। गर्भवती स्त्री की आवश्यक देखभाल के अन्तर्गत मुख्य रूप से निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है –

  • व्यक्तिगत स्वच्छता का ध्यान रखना
  • स्वास्थ्य रक्षा का ध्यान रखना
  • सन्तुलित एवं आवश्यक आहार की व्यवस्था करना
  • चिकित्सक से नियमित रूप से जाँच करवाना।

प्रश्न 6.
गर्भावस्था में स्त्री के आहार-नियोजन के लिए ध्यान रखने योग्य बातों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
गर्भावस्था में आहार-नियोजन के लिए
ध्यान रखने योग्य बातें –
एक गर्भवती स्त्री के लिए आहार-नियोजन करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए –

  • यह एक ज्ञात तथ्य है कि गर्भावस्था में स्त्री को साधारण अवस्था की तुलना में अधिक मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता होती है। ऊर्जा की इस अतिरिक्त मात्रा को प्राप्त करने के लिए गर्भवती के आहार में अधिक कार्बोज का समावेश नहीं होना चाहिए बल्कि ऊर्जा प्राप्ति के लिए प्रोटीन, खनिज तथा विटामिन युक्त आहार ग्रहण करना चाहिए। इससे मोटापा नहीं बढ़ता।
  • गर्भावस्था में स्त्री को सदैव बिना छने हुए अर्थात् चोकरयुक्त आटे को ही रोटी के लिए इस्तेमाल करना चाहिए। इससे कब्ज से बचने में सहायता मिलती है तथा विटामिन्स भी प्राप्त होते हैं।
  • गर्भवती स्त्री के आहार में जहाँ तक सम्भव हो अधिक तली हुई तथा मिर्च मसालेदार खाद्य सामग्री का समावेश नहीं होना चाहिए।
  • गर्भवती स्त्री को सदैव ताजा तथा सफाई से पकाया हुआ आहार ग्रहण करना चाहिए। बासी तथा देर से रखा आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए।
  • जहाँ तक सम्भव हो सके गर्भवती स्त्री के दैनिक आहार में दूध एवं दूध से बने पदार्थों का समावेश अवश्य ही होना चाहिए।
  • भोजन के प्रति रुचि बनाए रखने के लिए आहार के मीनू में परिवर्तन करते रहना चाहिए।
  • जहाँ तक सम्भव हो दैनिक आहार में मौसम के फलों का समावेश अवश्य होना चाहिए। ताजे फलों के अतिरिक्त मेवे आदि भी लिए जा सकते हैं।
  • गर्भवती स्त्री के आहार को इस प्रकार से तैयार करना चाहिए कि खाद्य सामग्री के पौष्टिक तत्त्व नष्ट न हों। इसके लिए सब्जियों को या तो छीलें ही नहीं और यदि छीलना अनिवार्य हो तो पतला छिलका ही उतारें। काटने से पहले सब्जी को धोएँ, काटकर न धोएँ। चावलों को अधिक न धोएँ तथा चावलों के माँड को अलग न करें। इसके अतिरिक्त खाद्य सामग्री को अधिक तले या भूने नहीं। इससे पौष्टिक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं।
  • यदि सामान्य आहार से सभी विटामिन एवं खनिज समुचित मात्रा में उपलब्ध न हों तो इनकी पूर्ति के लिए अलग से गोलियाँ ली जानी चाहिए।
  • यदि वमन की शिकायत न हो तो गर्भवती स्त्री को काफी मात्रा में पानी भी अवश्य पीना चाहिए।
  • रात का भोजन सोने के दो घण्टे पूर्व अवश्य ही ग्रहण कर लेना चाहिए। इसके साथ-साथ विशेष रूप से ध्यान रखने योग्य बात यह है कि भोजन ग्रहण करते समय गर्भवती स्त्री अपने आपको हर प्रकार की चिन्ता से मुक्त रखे।

प्रश्न 7.
गर्भावस्था में स्त्री के सामान्य कार्य-कलापों तथा विश्राम की आवश्यकता को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गर्भावस्था में सामान्य कार्य-कलाप तथा विश्राम –
गर्भावस्था सामान्य अवस्था से भिन्न अवस्था है, परन्तु इस अवस्था में भी शरीर की समस्त क्रियाएँ सामान्य रूप से होती हैं। अत: जहाँ तक सम्भव हो महिला को अपनी दिनचर्या सामान्य ही रखनी चाहिए; अर्थात् परिश्रम, व्यायाम तथा विश्राम नियमित रूप से करने चाहिए। केवल विश्राम ही करना उचित नहीं है। स्त्री को अपने घरेलू दैनिक कार्य सामान्य रूप से करते रहना चाहिए।

गर्भवती को उन कार्यों से बचना चाहिए, जिनमें अधिक परिश्रम और शक्ति लगे। रात में पूर्ण विश्राम करना चाहिए। कम-से-कम आठ घण्टे अवश्य सोना चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि सम्भव हो तो दिन में भी, भोजन ग्रहण करने के बाद एक-दो घण्टे या तो सो जाए अन्यथा आराम से लेटना चाहिए। गर्भवती स्त्री को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि वह निरन्तर लम्बी अवधि तक कार्य में न लगी रहे। कार्य के बीच-बीच में अल्पकालीन विश्राम करना भी लाभप्रद होता है। किसी भी स्थिति में अधिक थकान नहीं होनी चाहिए।

प्रश्न 8.
स्पष्ट कीजिए कि गर्भावस्था में शारीरिक स्वच्छता का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
उत्तर:
गर्भावस्था में शारीरिक स्वच्छता –
गर्भावस्था में स्त्री को हर प्रकार की शारीरिक स्वच्छता का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए। उसे नियमित रूप से स्नान करना चाहिए। सामान्य रूप से गुनगुने पानी से ही स्नान करना चाहिए। गर्भावस्था में दाँतों को स्वस्थ बनाए रखने के लिए कैल्सियम की अधिक मात्रा ग्रहण करनी चाहिए। गर्भावस्था में आँतों की सफाई का भी अधिक ध्यान रखना चाहिए। कब्ज से बचना चाहिए, परन्तु जुलाब की कोई तेज दवा नहीं लेनी चाहिए। गर्भावस्था में स्त्री को अपने स्तनों की स्वच्छता का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए। यदि गर्भावस्था में स्तनों की नियमित रूप से सफाई नहीं की जाती तो इस बात की आशंका रहती है कि कहीं स्तन-मुख के दुग्ध निकालने वाले छिद्र बन्द न हो जाएँ। गर्भावस्था में अधिक कसी हुई चोली भी नहीं पहननी चाहिए। गर्भावस्था में स्त्री को अपनी वेशभूषा का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए। उसे साफ-सुथरे तथा ढीले-ढाले वस्त्र ही धारण करने चाहिए। गर्भवती को ऊँची एड़ी वाले सैण्डिल नहीं पहनने चाहिए।

प्रश्न 9.
गर्भावस्था में किए जाने वाले व्यायाम का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर:
गर्भावस्था में व्यायाम हल्का व्यायाम गर्भिणी स्त्री के लिए विशेष लाभदायक है। बहत-सी स्त्रियाँ गर्भवती होने पर काम छोड़कर आलसी हो जाती हैं, यह गलत है। काम करते रहने से मांसपेशियाँ मजबूत रहती हैं और प्रसव के समय कष्ट नहीं होता है। हाँ, गर्भिणी स्त्री को भारी चीज नहीं उठानी चाहिए। घरेलू काम करना भी एक प्रकार का व्यायाम ही है, तथापि यहाँ व्यायाम सम्बन्धी कुछ ऐसी क्रियाएँ बताई जा रही हैं जो गर्भावस्था में लाभप्रद हैं –

  • पाँव अलग करके खड़ा होना चाहिए और हाथों को कमर पर रखना चाहिए। कमर से शरीर को एक ओर फिर दूसरी ओर झुकाना चाहिए। सिर को सीधा रखना चाहिए और लम्बी साँस खींचनी चाहिए।
  • पाँव लम्बे करके और हाथों को कमर पर रखकर जमीन पर बैठना चाहिए। कन्धों को धीरे-धीरे पीछे गिराना चाहिए।
  • हाथों को साइड में रखकर पीठ के बल लेटना चाहिए। फिर दोनों पैरों को धीरे-धीरे बिना अधिक जोर दिए, जितना ऊँचा हो सके उठाना चाहिए।
  • व्यायाम करते समय ढीले वस्त्र पहनने चाहिए। आरम्भ में प्रत्येक व्यायाम को तीन बार से अधिक नहीं करना चाहिए। व्यायाम इतना करना चाहिए कि अधिक थकावट न हो। व्यायाम करते समय लम्बी साँस अवश्य लेनी चाहिए।

प्रश्न 10.
गर्भवती महिला के स्वास्थ्य से गर्भस्थ शिशु का क्या सम्बन्ध है?
उत्तर:
गर्भवती महिला के स्वास्थ्य का गर्भस्थ शिशु से सम्बन्ध –
गर्भवती महिला के स्वास्थ्य और गर्भस्थ शिशु का घनिष्ठ सम्बन्ध है। वास्तव में गर्भस्थ शिशु माँ के शरीर से सम्बद्ध होता है। उसका पोषण एवं विकास माँ के शरीर के माध्यम से ही होता है। इस स्थिति में यदि माँ स्वस्थ है तो गर्भस्थ शिशु का स्वास्थ्य भी अच्छा होता है एवं उसका विकास भी सामान्य होता है। इसके विपरीत यदि माँ का स्वास्थ्य सामान्य नहीं है अर्थात् वह किसी अभावजनित रोग से पीड़ित है अथवा किसी संक्रामक रोग से पीड़ित है तो उस स्थिति में गर्भस्थ शिशु के विकास एवं स्वास्थ्य के विकृत होने की बहुत अधिक आशंका रहती है। उदाहरण के लिए यदि कोई महिला तपेदिक या एड्स आदि रोगों से ग्रस्त है तो गर्भस्थ शिशु भी संक्रमित हो सकता है। इसी प्रकार गर्भवती महिला के संवेगात्मक असन्तुलन का प्रतिकूल प्रभाव भी गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास पर पड़ सकता है।

प्रश्न 11.
गर्भवती स्त्री को यात्रा में क्या सावधानी रखनी चाहिए?
उत्तर:
गर्भवती स्त्री द्वारा यात्रा के समय सावधानियाँ –
गर्भावस्था में यदि कोई विशेष कष्ट या समस्या न हो तो छोटी यात्रा करने में किसी प्रकार का डर या कष्ट नहीं होता, परन्तु यदि महिला लम्बी रेल या हवाई यात्रा करने की योजना बनाए तो उसे सर्वप्रथम अपनी महिला चिकित्सक से पूरी जाँच करवाकर परामर्श लेना अनिवार्य होता है। यदि चिकित्सक अनुमति दे देती है तो गर्भवती महिला सावधानीपूर्वक यात्रा कर सकती है। गर्भावस्था में यात्रा तभी करनी चाहिए जब रेल में सीट रिजर्व हो और लेटने की सुविधा उपलब्ध हो। लम्बी यात्रा करते समय महिला को ढीले-ढाले वस्त्र धारण करने चाहिए तथा ऊँची एड़ी की सैण्डिल या चप्पल बिल्कुल नहीं पहननी चाहिए। यात्रा के दौरान अपने खान-पान का विशेष ध्यान रखना चाहिए। यदि महिला को वमन की शिकायत हो तो उसकी भी समुचित व्यवस्था रखनी चाहिए। इसके अतिरिक्त यात्रा के दौरान यह ध्यान रखना चाहिए कि निरन्तर लम्बे समय तक पैर लटकाकर न बैठे। इससे टाँगों में सूजन आ सकती है। यदि चिकित्सक द्वारा कुछ औषधियों के सेवन का परामर्श दिया गया हो तो उन्हें अपने साथ अवश्य रखें तथा ठीक समय पर उनका सेवन करती रहें। यात्रा के दौरान प्रसन्नचित्त रहें, किसी प्रकार का तनाव न लें।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 22 अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
‘मातृ-कला’ से क्या आशय है?
उत्तर:
‘मातृ-कला’ वह विषय-क्षेत्र है जिसके अन्तर्गत मातृत्व सम्बन्धी व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 2.
‘शिशु-कल्याण’ से क्या आशय है?
उत्तर:
‘शिशु-कल्याण’ वह विषय-क्षेत्र है जिसके अन्तर्गत शिशु के जन्म एवं उसके पालन-पोषण सम्बन्धी नियमों आदि का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 3.
गर्भावस्था के चार सामान्य कष्टों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. जी मिचलाना
  2. वमन होना
  3. कलेजे में जलन तथा
  4. कब्ज की शिकायत।

प्रश्न 4.
गर्भावस्था में स्त्री को अतिरिक्त आहार की आवश्यकता क्यों होती है?
अथवा
गर्भावस्था में पोषक तत्त्वों की माँग क्यों बढ़ जाती है?
उत्तर:
गर्भस्थ शिशु की आहार सम्बन्धी आवश्यकता स्त्री के शरीर से ही पूर्ण होती है, इस कारण से गर्भावस्था में स्त्री को अतिरिक्त आहार एवं पोषक तत्त्वों की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 5.
गर्भवती स्त्री का क्या आहार होना चाहिए?
उत्तर:
गर्भवती स्त्री को पौष्टिक, सन्तुलित तथा सुरुचिकर आहार ग्रहण करना चाहिए। उसके आहार में प्रोटीन, लौह-खनिज, कैल्सियम तथा विटामिनों की मात्रा सामान्य से अधिक होनी चाहिए।

प्रश्न 6.
गर्भावस्था में स्त्री को किन खनिज लवणों की अतिरिक्त मात्रा की आवश्यकता होती है?
उत्तर:
गर्भावस्था में स्त्री को कैल्सियम तथा आयरन नामक खनिज लवणों की अतिरिक्त मात्रा की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 7.
कैल्सियम गर्भिणी के लिए क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
गर्भस्थ शिशु की हड्डियों के विकास के लिए गर्भिणी के आहार में कैल्सियम की अधिक मात्रा का समावेश होना चाहिए। यदि गर्भिणी स्त्री के आहार में कैल्सियम की पर्याप्त मात्रा नहीं होती तो गर्भिणी की हड्डियाँ तथा दाँत कमजोर हो जाते हैं।

प्रश्न 8.
रक्ताल्पता से आप क्या समझती हैं?
उत्तर:
रक्ताल्पता का शाब्दिक अर्थ है-रक्त की कमी होना परन्तु वास्तव में रक्त में हीमोग्लोबिन की मात्रा घट जाना ही रक्ताल्पता है। गर्भावस्था में प्राय: यह समस्या उत्पन्न हो जाती है।

प्रश्न 9.
गर्भावस्था में स्त्री को दैनिक घरेलू कार्य करने चाहिए या छोड़ देने चाहिए?
उत्तर:
गर्भावस्था में स्त्री को समस्त दैनिक घरेलू कार्य करते रहना चाहिए परन्तु अधिक परिश्रम तथा भारी वजन उठाने के कार्यों से बचना चाहिए।

प्रश्न 10.
गर्भावस्था में स्त्री को अपना मानसिक स्वास्थ्य कैसे सामान्य रखना चाहिए?
उत्तर:
गर्भावस्था में स्त्री को प्रसन्नचित्त रहना चाहिए तथा संवेगात्मक उत्तेजनाओं से बचना चाहिए। उसे धार्मिक एवं आध्यात्मिक विचारों का मनन करना चाहिए।

प्रश्न 11.
प्रत्याशित माता को कौन-कौन से टीके लगाए जाते हैं?
उत्तर:
प्रत्याशित माता को सामान्य रूप से टिटेनस से बचाव का टीका लगाया जाता है। इसके अतिरिक्त आवश्यकता पड़ने पर आयरन तथा विटामिन के टीके भी लगाए जाते हैं। अन्य किसी संक्रमण की आशंका होने पर सम्बन्धित टीके लगाए जाते हैं।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 22 बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

निर्देश : निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चयन कीजिए –

1. विद्यालय में पढ़ने वाली युवतियों के लिए ‘मातृ-कला’ एवं ‘शिशु-कल्याण’ का अध्ययन –
(क) अनावश्यक है
(ख) आवश्यक एवं लाभकारी है
(ग) ऐच्छिक होना चाहिए
(घ) व्यर्थ है।
उत्तर:
(ख) आवश्यक एवं लाभकारी है।

2. गर्भधारण करने के प्रारम्भिक लक्षण हैं –
(क) मासिक धर्म बन्द होना
(ख) जी का बार-बार मिचलाना
(ग) सुस्त रहना तथा नींद अधिक आना
(घ) उपर्युक्त सभी लक्षण।
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी लक्षण।

3. गर्भावस्था में सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार आवश्यक होता है –
(क) स्त्री को प्रसन्न करने के लिए
(ख) शिशु को सुन्दर बनाने के लिए
(ग) माता एवं गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य के लिए
(घ) अनावश्यक होता है।
उत्तर:
(ग) माता एवं गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य के लिए।

4. ‘मातृ-कला’ एवं ‘शिशु-कल्याण’ के अन्तर्गत अध्ययन किया जाता है –
(क) गर्भावस्था से सम्बन्धित समस्त तथ्यों का
(ख) प्रसूता एवं नवजात शिशु का
(ग) बाल्यावस्था तक क्रमिक रूप.से होने वाले विकास का
(घ) उपर्युक्त सभी तथ्यों का।
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी तथ्यों का।

5. गर्भावस्था में ध्यान रखना चाहिए –
(क) सन्तुलित आहार का –
(ख) समुचित विश्राम का
(ग) शारीरिक स्वच्छता का
(घ) उपर्युक्त सभी का।
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी का।

6. गर्भावस्था में धूम्रपान से –
(क) माँ का मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहता है
(ख) गर्भस्थ शिशु पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
(ग) कोई प्रभाव नहीं पड़ता
(घ) माँ एवं शिशु दोनों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
उत्तर:
(घ) माँ एवं शिशु दोनों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

7. गर्भवती महिला को –
(क) असन्तुलित आहार लेना चाहिए
(ख) कम आहार लेना चाहिए
(ग) केवल फल लेना चाहिए
(घ) दोगुना आहार लेना चाहिए।
उत्तर:
(घ) दोगुना आहार लेना चाहिए।

8. गर्भावस्था में महिला को मिलना चाहिए –
(क) केवल फल
(ख) केवल दूध
(ग) सन्तुलित आहार
(घ) जो भी उपलब्ध हो।
उत्तर:
(ग) सन्तुलित आहार।

9. उत्तम स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है –
(क) मक्खन
(ख) मिठाई
(ग) सन्तुलित आहार
(घ) मनपसन्द व्यंजन।
उत्तर:
(ग) सन्तुलित आहार।

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UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 14 उद्यान, खेल के मैदान तथा खुले स्थान

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 14 उद्यान, खेल के मैदान तथा खुले स्थान (Gardens, Playground and Open Places)

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 14 उद्यान, खेल के मैदान तथा खुले स्थान

UP Board Class 11 Home Science Chapter 14 लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
उद्यान किसे कहते हैं? ये कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तरः
उद्यान तथा इसके प्रकार –
उद्यान उस स्थान को कहते हैं जहाँ फल-फूल एवं सब्जियों आदि के पेड़-पौधों को प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रदर्शन के दृष्टिकोण से लगाया जाता है। ये स्थल रमणीक तथा आनन्ददायक होते हैं। उद्यान अनेक प्रकार के होते हैं; यथा –

  • जनता उद्यान
  • चिकित्सालय उद्यान
  • पाठशाला उद्यान
  • गृह उद्यान।

इन सभी प्रकार के उद्यानों का प्रमुख उद्देश्य जनता को शुद्ध वायुयुक्त शान्तिप्रिय स्थान प्रदान करने के साथ-साथ प्रकृति का ज्ञान कराना होता है। अधिकांश जनता नगरों की घनी बस्तियों में रहती है, जहाँ मीलों दूर तक पेड़-पौधे दिखाई नहीं देते हैं। इन घनी बस्तियों में रहने वालों के स्वास्थ्य लाभ के लिए ही सरकार नगर के मध्य भाग के ऐसे स्थान पर जनता उद्यान बनवाती है, जहाँ नगर के अधिकांश लोग स्वेच्छा से आकर पेड़-पौधों की सुन्दरता को देखने के साथ-साथ शुद्ध वायु का सेवन करें, मन बहलाएं और इन प्राकृतिक पौधों के विषय में ज्ञान प्राप्त करें।

पाठशाला भवन की सुन्दरता बढ़ाने तथा बच्चों के स्वास्थ्य की दृष्टि से अधिकांश स्कूलों में पाठशाला उद्यान लगाया जाता है। इसी प्रकार चिकित्सालय की सुन्दरता बढ़ाने, रोगियों और उनके साथ रहने वालों के मनोरंजन, चिकित्सालय की वायु को शुद्ध करने आदि के उद्देश्य से अस्पतालों के मैदान में चिकित्सालय उद्यान लगाए जाते हैं। कुछ घरों में भी भवन के आगे अथवा पीछे उपलब्ध खुले स्थान पर लघु वाटिका या उद्यान बना लिया जाता है। इस प्रकार के उद्यान को गृह उद्यान कहा जाता है।

प्रश्न 2.
उद्यानों की उपयोगिता स्पष्ट कीजिए।
अथवा
नगरों में सार्वजनिक उद्यानों का महत्त्व लिखिए।
अथवा
मानव जीवन में उद्यानों की उपयोगिता लिखिए।
उत्तरः
उद्यानों का महत्त्व प्रत्येक व्यक्ति को शुद्ध वायु की आवश्यकता होती है। शुद्ध वायु के अभाव में अनेक प्रकार के रोग फैलते हैं, जिनसे व्यक्ति का स्वास्थ्य खराब हो जाता है तथा मृत्यु दर बढ़ जाती है। यही कारण है कि जहाँ कहीं भी थोड़े-से स्थान में अधिक लोग रहते हैं या सघन आबादी होती है, वहाँ स्वच्छ वायु और सूर्य के प्रकाश की कमी के कारण रोगों का साम्राज्य होता है तथा बालकों की मृत्यु-दर अधिक होती है। इन्हीं बुराइयों को दूर करने के उद्देश्य से नगर निर्माण के समय इस बात पर ध्यान दिया जाता है कि प्रत्येक मकान में सूर्य का प्रकाश और वायु का अच्छा आवागमन हो और कूड़े-करकट तथा गन्दे पानी के निकास का उचित प्रबन्ध हो ताकि गन्दगी न फैल सके।

इन स्थानों या मकानों में रहने वालों को बाग की शुद्ध वायु और पेड़-पौधों के सम्पर्क में लाने के लिए सरकार जनता उद्यान बनवाती है। इसके अतिरिक्त यहाँ छायादार सघन वृक्ष लगाए जाते हैं ताकि उनके नीचे बैठकर व्यक्ति प्रकृति का आनन्द उठा सके। यहाँ घुमावदार सुन्दर रास्ते तथा घास के सुन्दर मैदान इत्यादि इसीलिए बनाए जाते हैं ताकि अधिक-से-अधिक लोग यहाँ घूमकर या बैठकर शुद्ध वायु प्राप्त कर सकें। घरों में खुले स्थान का अभाव होने की स्थिति में अनेक व्यक्ति इन उद्यानों में ही आकर व्यायाम अथवा योगाभ्यास करते हैं।

इस प्रकार उद्यान, वायु को शुद्ध करने (वायु प्रदूषण समाप्त करने), मनोरंजन, ज्ञानवर्द्धन, स्वास्थ्य आदि के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान हैं।

प्रश्न 3.
टिप्पणी लिखिए-खेल के मैदान, खले स्थान व पार्क।
अथवा
टिप्पणी लिखिए-खेल के मैदानों तथा खुले स्थानों का महत्त्व।
उत्तरः
खेल के मैदान, खुले स्थान व पार्क –
जनता के स्वास्थ्य एवं मनोरंजन के उद्देश्य से नगरपालिका अथवा कुछ अन्य संस्थाओं द्वारा नगर में खेल के मैदान, खुले स्थानों एवं पार्कों की व्यवस्था की जाती है। इन स्थानों में लोग प्रात:काल या सन्ध्या के समय टहलने आते हैं और दिन के समय बालक, युवा, स्त्री, पुरुष आदि अनेक प्रकार से अपना मनोरंजन करते हैं। कोलकाता, मुम्बई, दिल्ली जैसे बड़े नगरों में, जहाँ 6-7. मंजिल के फ्लैटों में लोग रहते हैं, सन्ध्या के समय अपनी थकान उतारने और मनोरंजन के लिए ये इन स्थानों पर भ्रमण करते हैं इसलिए इन स्थानों में बाल उद्यानों (Children’s Park) के बनाने का विशेष आयोजन किया जाता रहा है।

इन उद्यानों में बालकों के खेलने के सभी प्रकार के उपकरण रखे जाते हैं। यहाँ आकर बच्चे खेल-खेल में शारीरिक व्यायाम और शुद्ध वायु का सेवन दोनों ही कार्य करते हैं। इस प्रकार उद्यानों के द्वारा शारीरिक और मानसिक विकास होता है। शुद्ध वायु और शुद्ध व ताजे फल और सब्जियाँ प्राप्त होती हैं जिनसे व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा रहता है। स्कूल या पाठशाला में उद्यान बनवाने का भी यही उद्देश्य होता है कि बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास साथ-साथ हो और उनका स्वास्थ्य अच्छा बना रहे।

पार्क नगर की शोभा में भी वृद्धि करते हैं तथा पर्यावरण में आवश्यक सन्तुलन बनाए रखने में भी सहायक होते हैं।

प्रश्न 4.
हमारे लिए वनों का क्या महत्त्व है?
उत्तरः
वनों का महत्त्व –
स्वास्थ्य की दृष्टि से वन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होते हैं। इनके महत्त्व का विवरण इस प्रकार दिया गया है

  • वनों से ही वातावरण का प्रदूषण (Pollution) नियन्त्रित होता है।
  • वनों से वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ी हुई मात्रा कम की जाती है तथा ऑक्सीजन की कमी को पूरा किया जाता है। ऑक्सीजन स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए ही नहीं बल्कि जीवित रहने के लिए भी आवश्यक है।
  • वनों से अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ प्राप्त होते हैं जो भोजन की समस्या को हल करते हैं।
  • अनेक प्रकार की औषधियाँ वनों से ही प्राप्त होती हैं जो अनेक प्रकार के रोगों से शरीर को – मुक्त कराती हैं।
  • वनों के उचित अनुपात से पृथ्वी के तल का तापमान भी नियमित रहता है तथा अधिक नहीं बढ़ता। यदि पृथ्वी पर वनों का क्षेत्र घटता है तो निश्चित रूप से पृथ्वी तल के तापमान में वृद्धि होगी।
  • वन वर्षा लाने में सहायक होते हैं तथा साथ ही बाढ़-नियन्त्रण में भी योगदान देते हैं। पेड़ मिट्टी के कटाव को रोकते हैं।

प्रश्न 5.
स्कूल में खुले स्थानों तथा खेल के मैदानों के महत्त्व का उल्लेख कीजिए।
अथवा
विद्यालयों में खेल के मैदान का क्या महत्त्व है?
अथवा
खेल के मैदान की क्या उपयोगिता है?
उत्तरः
अध्ययनरत छात्र-छात्राओं के सर्वांगीण विकास के लिए खेल-कूद, व्यायाम आदि आवश्यक हैं। शारीरिक विकास यदि पूर्ण रूप से नहीं हुआ तो मस्तिष्क भी भली-भाँति विकसित नहीं हो सकेगा। स्वास्थ्य तथा शरीर के भली-भाँति विकास के लिए अन्य बातों के अतिरिक्त दो बातें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं –

  1. शुद्ध अप्रदूषित पर्यावरण तथा
  2. खेल-कूद, व्यायाम, प्राणायाम, योग आदि।

उपर्युक्त दोनों आवश्यकताओं के लिए विद्यार्थियों के प्रयोगार्थ विद्यालय में खुले स्थानों तथा खेल के मैदानों की अति आवश्यकता होती है।

स्कूलों में खुले स्थानों का महत्त्व –
पर्यावरण की शुद्धता, किसी भी स्थान पर, वहाँ उपलब्ध खुले स्थानों पर निर्भर करती है। विद्यालयों में विद्यार्थी यदि अध्ययन कक्ष में ही रहता है तो उसके अध्ययन कक्ष के आस-पास ऐसे खुले स्थान होने आवश्यक हैं जिनसे कमरों में वायु का आवागमन हो सके। मानसिक विकास भी बिना शुद्ध पर्यावरण के सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त, खुले स्थान विद्यालय का आकर्षण बढ़ाते हैं, इस प्रकार ये मनोरंजन के लिए भी आवश्यक हैं। समय-समय पर अथवा विशेष अवसरों पर सांस्कृतिक, सामाजिक आदि समारोहों, आयोजनों अथवा उत्सवों के लिए भी इस प्रकार के स्थलों का होना महत्त्वपूर्ण है।

स्कूलों में खेल के मैदानों का महत्त्व –
खेल-कूद से मनोरंजन के साथ-साथ शारीरिक विकास में भी सहायता मिलती है। खेल-कूद के अनेक लाभ हैं; जैसे –

  • शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है।
  • समय का सदुपयोग होता है। बच्चा गन्दी आदतों आदि से बचा रहता है।
  • सहकारिता की भावना बढ़ती है क्योंकि वे साथ-साथ खेलते-कूदते हैं।
  • चारित्रिक तथा नैतिक विकास होता है।
  • श्वसन क्षमता में वृद्धि होने से मानसिक पुष्टता में भी वृद्धि होती है। स्पष्ट है खेलकूद के लिए विद्यालयों में खेल के मैदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 14 अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
उद्यान से क्या आशय है?
उत्तरः
उद्यान उस स्थान को कहते हैं जहाँ फल-फूल एवं सब्जियों आदि के पेड़-पौधों को प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रदर्शन के दृष्टिकोण से लगाया जाता है।

प्रश्न 2.
उद्यानों के मुख्य प्रकार कौन-कौन से होते हैं?
उत्तरः
उद्यानों के मुख्य प्रकार हैं-जनता उद्यान, चिकित्सालय उद्यान, पाठशाला उद्यान तथा गृह उद्यान।

प्रश्न 3.
उद्यान का क्या महत्त्व है? अथवा उद्यानों की उपयोगिता स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
उद्यान वायु-प्रदूषण को नियन्त्रित करते हैं। ये जन-सामान्य के लिए मनोरंजन, ज्ञानवर्द्धन तथा स्वास्थ्यवर्द्धन के प्राकृतिक साधन हैं।

प्रश्न 4.
पेड़-पौधों से मुख्य लाभ क्या होता है?
उत्तरः
पेड़-पौधे ऑक्सीजन विसर्जित करके तथा कार्बन डाइ-ऑक्साइड ग्रहण करके वातावरण को शुद्ध बनाए रखते हैं।

प्रश्न 5.
विद्यालय में खेल के मैदान क्यों आवश्यक होते हैं?
उत्तरः
विद्यालय के छात्रों के खेलने तथा उत्तम संवातन के लिए खेल के मैदान आवश्यक होते हैं। प्रश्न 6-वनों का मुख्य महत्त्व क्या है? उत्तर-वन पर्यावरण में सन्तुलन बनाए रखते हैं।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 14 बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

निर्देश : निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चयन कीजिए –
1. नगरों में उद्यानों की उपयोगिता है –
(क) नागरिकों के भ्रमण के स्थल हैं
(ख) बच्चों के खेलने के स्थल हैं
(ग) नगर की शोभा में वृद्धि करते हैं
(घ) उपर्युक्त सभी उपयोगिताएँ।
उत्तरः
(घ) उपर्युक्त सभी उपयोगिताएँ।

2. हमारे लिए वन महत्त्वपूर्ण हैं –
(क) पर्यावरण में सन्तुलन बनाए रखने के लिए
(ख) लकड़ी, औषधियाँ एवं अन्य सामग्रियों की प्राप्ति के लिए
(ग) वर्षा को आकर्षित करने तथा बाढ़-नियन्त्रण के लिए
(घ) उपर्युक्त सभी महत्त्व।
उत्तरः
(घ) उपर्युक्त सभी महत्त्व।

UP Board Solutions for Class 11 Home Science

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 16 समाजशास्त्र : एक परिचय

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 16 समाजशास्त्र : एक परिचय (Sociology: An Introduction)

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 16 समाजशास्त्र : एक परिचय

UP Board Class 11 Home Science Chapter 16 विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र (Sociology) से आप क्या समझती हैं? इसकी विभिन्न परिभाषाएँ (Definitions) लिखिए तथा अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
समाजशास्त्र से तात्पर्य (Meaning of Sociology) –
परिचय-किसी भी विषय का व्यवस्थित अध्ययन करने से पूर्व, उस विषय की एक स्पष्ट एवं निश्चित परिभाषा निर्धारित कर लेनी चाहिए। समाजशास्त्र के अध्ययन के लिए भी इसके अर्थ एवं परिभाषा को जान लेना परम आवश्यक है। समाजशास्त्र एक नवविकसित विज्ञान है; अतः इसका अर्थ क्रमश: स्पष्ट एवं सुनिश्चित हो रहा है। यही कारण है कि इस विषय के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों में अभी तक मतैक्य नहीं है, परन्तु फिर भी अब लगभग समान रूप से यह स्वीकार किया जाने लगा है कि समाजशास्त्र वह विज्ञान है, जो मानवीय सम्बन्धों, सम्बन्धों के प्रकार, स्वरूप, क्रियाओं एवं घटनाओं का समाज के सन्दर्भ में वैज्ञानिक अध्ययन करता है।

समाजशास्त्र की विभिन्न परिभाषाएँ (Definitions of Sociology) –
समाजशास्त्र की विभिन्न विद्वानों ने निम्नलिखित परिभाषाएँ दी हैं –

  • रॉस के अनुसार-“समाजशास्त्र, सामाजिक तथ्यों का ज्ञान है।”
  • गिडिंग्स के अनुसार -“विकास क्रम में सामूहिक रूप से लगे हुए भौतिक, जैविक तथा मानसिक कारणों द्वारा हुए समाज के जन्म, विकास, ढाँचे और क्रियाओं का वर्णन समाजशास्त्र है।”
  • मैकाइवर और पेज के अनुसार-“समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के विषय में है। सामाजिक सम्बन्धों के इस जाल को हम ‘समाज’ कहते हैं।”
  • जिन्सबर्ग के अनुसार-“समाजशास्त्र को समाज के अध्ययन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।”
  • एबल के अनुसार-“समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों, उनके प्रकारों, उनके स्वरूपों, जो कुछ उनको प्रभावित करता है और जिसको वे प्रभावित करते हैं, उनका वैज्ञानिक अध्ययन है।” ।
  • मैक्स वेबर के अनुसार-“समाजशास्त्र वह विज्ञान है जोकि सामाजिक क्रियाओं की अर्थपूर्ण व्याख्या करते हुए समझाने की कोशिश करता है।”
  • बेनेट और ट्यूमिन के अनुसार-“समाजशास्त्र सामाजिक जीवन के ढाँचे और कार्यों का विज्ञान है।”
  • ऑगबर्न तथा निमकॉफ के अनुसार-“समाजशास्त्र सामाजिक जीवन का वैज्ञानिक अध्ययन है।”
  •  ग्रीन के अनुसार-“समाजशास्त्र संश्लेषणात्मक और सामान्यीकरण करने वाला वह विज्ञान है, जो मनुष्यों और सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करता है।”
  • दुर्थीम के अनुसार-“समाजशास्त्र सामूहिक प्रतिनिधियों का विज्ञान है।”

समाजशास्त्र की परिभाषाओं की सामान्य विवेचना (General Discussion of Definitions of Sociology) –
समाजशास्त्र की उपर्युक्त विभिन्न परिभाषाओं का अध्ययन करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि समाजशास्त्र की परिभाषाओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है –

(क) प्रथम भाग के अन्तर्गत उन समाजशास्त्रियों की परिभाषाएँ आती हैं, जो समाजशास्त्र की परिधि में मानव का सम्पूर्ण जीवन ले आते हैं।
(ख) दूसरे वर्ग के अन्तर्गत वे परिभाषाएँ आती हैं जिनमें विद्वान समाजशास्त्र को मानवीय सम्बन्धों के विशेष पक्ष तक ही सीमित रखना चाहते हैं।

यदि उपर्युक्त दोनों भागों या वर्गों की परिभाषाओं का अध्ययन करें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वास्तव में समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है, जिसमें हम सामाजिक. जीवन, सामाजिक सम्बन्धों, कार्यों तथा समाज के स्वरूप का व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक अध्ययन करते हैं।

प्रश्न 2.
समाजशास्त्र (Sociology) के विषय-क्षेत्र (Scope) की विवेचना कीजिए।
उत्तरः
समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र (Scope of Sociology) –
विषय-क्षेत्र का तात्पर्य एक ऐसी सम्भावित सीमा से होता है जिसके अन्तर्गत ही किसी ज्ञान को विकसित किया जाता है। यद्यपि सभी विद्वान यह मानते हैं कि समाजशास्त्र में सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन होना चाहिए, तथापि इसी प्रश्न को लेकर समाजशास्त्र के अध्ययन-क्षेत्र के विषय में विद्वानों में मतभेद रहा है। इस विवाद ने मुख्य रूप से दो सम्प्रदायों को जन्म दिया है। एक सम्प्रदाय को हम विशेषात्मक अथवा स्वरूपात्मक सम्प्रदाय (Specialistic or Formal School) कहते हैं, जिसके अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष सामाजिक विज्ञान है।

दूसरा सम्प्रदाय समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र को व्यापक बनाने के पक्ष में है, इसे हम समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School) कहते हैं। इसके अनुसार, समाजशास्त्र सामान्य विज्ञान है, जिसमें सभी प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन किया जाना चाहिए। इन दोनों सम्प्रदायों का दृष्टिकोण समझने से समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है जो निम्न प्रकार है –

(1) विशेषात्मक सम्प्रदाय (Specialistic School) –
इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक जॉर्ज सिमेल, वीरकान्त, वॉन वीज, मैक्स वेबर, रॉस, पार्क, बर्गेज तथा टानीज आदि हैं। इन विद्वानों के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान के रूप में है; अतः समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के सम्बन्ध में इस सम्प्रदाय के मानने वाले निम्नलिखित विशेषताएँ बतलाते हैं –

  • इस सम्प्रदाय के समर्थकों के अनुसार समाजशास्त्र का क्षेत्र सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करना होना चाहिए।
  • समाज के विभिन्न पक्षों का अध्ययन विभिन्न सामाजिक विज्ञान; जैसे राजनीतिशास्त्र, इतिहास,अर्थशास्त्र आदि करते हैं; अतः समाजशास्त्र में इनके अध्ययन की आवश्यकता नहीं।
  • समाजशास्त्र का एक विशिष्ट निश्चित क्षेत्र होना चाहिए।
  • समाजशास्त्र एक स्वतन्त्र विज्ञान है।
  • समाजशास्त्र एक विश्लेषणात्मक विज्ञान है।

समाजशास्त्र के विशेषात्मक सम्प्रदाय के विचारों को समझने के लिए प्रमुख समाजशास्त्रियों की विचारधाराएँ – इस सम्प्रदाय के प्रमुख विद्वानों के विचार इस प्रकार हैं –

(अ) जॉर्ज सिमेल के विचार-स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक जॉर्ज सिमेल (George Simmel) ही हैं। जॉर्ज सिमेल ने स्पष्ट किया है कि समाजशास्त्र का सम्बन्ध सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों के अध्ययन से है। समाजशास्त्र विशिष्ट विज्ञान है तथा वह केवल सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का ही अध्ययन करता है। उसके अनुसार सामाजिक सम्बन्धों की अन्तर्वस्तु का अध्ययन अन्य विशिष्ट सामाजिक विज्ञानों के अन्तर्गत किया जाता है। सिमेल ने मुख्य रूप से प्रतिस्पर्धा, प्रभुत्व, अनुकरण, श्रम-विभाजन तथा अधीनता आदि सामाजिक सम्बन्धों का वर्णन किया है। सिमेल के अनुसार समाजशास्त्र को अन्तर्वस्तु से कोई वास्ता नहीं, उसे तो केवल सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूप का अध्ययन करना है।

(ब) वीरकान्त के विचार-जर्मन समाजशास्त्री वीरकान्त के अनुसार, समाजशास्त्र का कार्य समाज के उन तत्त्वों का अन्वेषण करना है, जिनकी उत्पत्ति सामाजिक सम्बन्धों के कारण होती है; उदाहरण के लिए—प्रेम, द्वेष, लज्जा, सहकारिता आदि। ये वे तत्त्व हैं, जिनसे मानसिक एकता उत्पन्न होती है। अन्य शब्दों में, ये सम्बन्धित व्यक्तियों को एक-दूसरे से बाँधते हैं। समाजशास्त्र में इन मूल तत्त्वों या सम्बन्धों का ही अध्ययन किया जाता है। इनके अनुसार व्यक्तियों और व्यक्ति-समूहों को बाँधने वाले मानसिक बन्धनों या तत्त्वों का अध्ययन समाजशास्त्र का विषय है। इस प्रकार समाजशास्त्र का मुख्य कार्य मनुष्यों के मध्य सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने वाले तत्त्वों का अध्ययन करना है।

(स) मैक्स वेबर के विचार-मैक्स वेबर (Max Weber) के अनुसार, समाजशास्त्र सामाजिक क्रिया को समझने और व्याख्या करने में सहायक होता है। उनके अनुसार सामाजिक व्यवहार दो व्यक्तियों के मध्य तब होता है जबकि वे एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं और परस्पर कोई व्यवहार या अन्त:क्रिया करते हैं। इस पर भी यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक व्यवहार सामाजिक व्यवहार ही हो। उदाहरण के लिए-दो व्यक्ति साइकिल से टकरा जाते हैं, इस प्रकार का टकराना भौतिक घटना है, परन्तु उन व्यक्तियों में से एक का दूसरे की चोट के लिए खेद व्यक्त करना और क्षमा माँगना एक सामाजिक क्रिया है। इस प्रकार वेबर के अनुसार समाजशास्त्र का कार्य सामाजिक क्रिया की व्याख्या करना है।

विशेषात्मक सम्प्रदाय की आलोचना-विशेषात्मक सम्प्रदाय की फ्रेंच तथा ब्रिटिश समाजशास्त्रियों ने निम्नलिखित आलोचना की है –

  • समाजशास्त्र, सामाजिक सम्बन्धों के सूक्ष्म तथा अमूर्त स्वरूपों के अध्ययन तक सीमित नहीं है।
  • इस सम्प्रदाय के समर्थकों के अनुसार स्वरूप और अन्तर्वस्तु एक-दूसरे से अलग हैं, परन्तु यथार्थ में सामाजिक सम्बन्धों में स्वरूप और अन्तर्वस्तु को अलग नहीं किया जा सकता।
  • इस सम्प्रदाय के समर्थकों का यह कहना सत्य प्रतीत नहीं होता कि समाजशास्त्र से ही सामाजिक सम्बन्धों के रूपों का अध्ययन किया जाता है।
  • यह विचारधारा समाज के सदस्यों को कम महत्त्व देती है।
  • इस सम्प्रदाय ने समाजशास्त्र के क्षेत्र को अत्यधिक संकुचित कर दिया है।

(2) समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School) –
इस सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक फ्रेंच तथा ब्रिटिश समाजशास्त्री हैं। इस सम्प्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र को अपना क्षेत्र सीमित व संकुचित न बनाकर विस्तृत तथा व्यापक बनाना चाहिए। इस. सम्प्रदाय के मुख्य समर्थक हैं-दुर्थीम, हॉबहाउस, सोरोकिन, जिन्सबर्ग तथा मोटवानी।

इस सम्प्रदाय के समर्थकों के अनुसार समाजशास्त्र ‘विज्ञानों का विज्ञान’ है। सभी विज्ञान उसके क्षेत्र में आ जाते हैं और वह सभी को अपने में समन्वित करता है। सामाजिक जीवन के समस्त भाग परस्पर सम्बन्धित हैं, इस कारण किसी एक पक्ष का अध्ययन करने से सम्पूर्ण बात को हम नहीं समझ सकते। ऐसी दशा में आवश्यक है कि हम समाजशास्त्र के अन्तर्गत सम्पूर्ण सामाजिक जीवन का व्यवस्थित अध्ययन करें। केवल सूक्ष्म सिद्धान्तों का अध्ययन करने से काम नहीं चलेगा। मोटवानी के अनुसार—“समाजशास्त्र जीवन को पूरी तरह और एक समग्र रूप में देखने का प्रयास करता है।” इस प्रकार समाजशास्त्र के क्षेत्र के अन्दर समाज के सामाजिक सम्बन्धों का सामान्य अध्ययन होना चाहिए।

समाजशास्त्र के इस सम्प्रदाय के विचारों को समझने के लिए प्रमुख समाजशास्त्रियों की विचारधाराएँ –
इस सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक दुर्थीम हैं जिन्होंने समाजशास्त्र को तीन भागों में विभाजित किया है –

  • सामाजिक रचनाशास्त्र-इसके अन्तर्गत वे समस्त विषय आ जाते हैं जिनका आधार भौगोलिक होता है; जैसे-जनसंख्या का घनत्व और उसका वितरण।
  • सामाजिक क्रियाशास्त्र सामाजिक क्रियाशास्त्र में उन प्रक्रियाओं और व्यवस्थाओं का अध्ययन किया जाता है, जो समाज के अस्तित्व और सत्ता को बनाए रखने में सहायक होती हैं। ये प्रक्रियाएँ धार्मिक व राजनीतिक होती हैं।
  • सामान्य समाजशास्त्र-इसके अन्तर्गत विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के सामान्य सिद्धान्त तथा नियमों की खोज की जाती है, किसी विशेष पक्ष पर बल नहीं दिया जाता।

दुर्थीम के अनुसार प्रत्येक समाज में कुछ विचार, धारणाएँ एवं भावनाएँ होती हैं, जिनका पालन सम्बन्धित समाज के अधिकांश सदस्य करते हैं। ये विचार एवं धारणाएँ सम्बन्धित समाज के सामाजिक जीवन का सामूहिक प्रतिनिधित्व करती हैं। दुर्थीम के अनुसार समाजशास्त्र का कार्य इसी सामूहिक प्रतिनिधित्व का अध्ययन करना है। इस स्थिति में स्पष्ट है कि समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान होना चाहिए।

समन्वयात्मक सम्प्रदाय की आलोचना–समाजशास्त्र के समन्वयात्मक सम्प्रदाय की भी विभिन्न आधारों पर आलोचना की गई है। सामान्य रूप से कहा जाता है कि यदि समन्वयात्मक सम्प्रदाय के विचारों को मान लिया जाए तो उस स्थिति में समाजशास्त्र का महत्त्व ही समाप्त हो जाएगा। समाजशास्त्र उन्हीं तथ्यों का दोबारा अध्ययन करेगा, जिनका अध्ययन पहले ही विभिन्न विज्ञानों द्वारा हो चुका होगा। इसके अतिरिक्त, समाजशास्त्र को सामान्य विज्ञान स्वीकार कर लेने से इसका क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत हो जाएगा, जिसका व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक अध्ययन कर पाना कठिन हो जाएगा।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि समाजशास्त्र की विषय-वस्तु के समुचित अध्ययन के लिए समन्वयात्मक तथा विशेषात्मक दोनों दृष्टिकोणों के समन्वय की आवश्यकता है। केवल एक ही दृष्टिकोण को अपनाने से हमारी समस्याओं का हल नहीं हो पाएगा। अन्य शब्दों में, समाजशास्त्र के पूर्ण अध्ययन के लिए विशिष्ट व सामान्य दोनों पक्षों का अध्ययन आवश्यक है। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो समाजशास्त्र को एक जटिल विज्ञान के रूप में परिणत कर देंगे। यथार्थ में विशेषात्मक और समन्वयात्मक विचारधाराएँ एक-दूसरे की विरोधी नहीं वरन् पूरक हैं।

प्रश्न 3.
गृहविज्ञान विषय में समाजशास्त्रीय ज्ञान का समावेश होना क्यों आवश्यक है? विस्तारपूर्वक लिखिए।
अथवा
गृहविज्ञान की छात्राओं के लिए समाजशास्त्रीय ज्ञान का क्या महत्त्व है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
मुख्य रूप से बालिकाओं को पढ़ाया जाने वाला गृहविज्ञान (Home Science) विषय अपने आप में कोई स्वतन्त्र विषय नहीं है। गृहविज्ञान का संगठन विभिन्न सामाजिक एवं भौतिक विज्ञानों के कुछ ऐसे अंशों के समन्वय से हुआ है, जिनका ज्ञान घर तथा सामाजिक परिवेश के सामान्य क्रिया-कलापों में भाग लेने तथा पारिवारिक जीवन की दैनिक समस्याओं के समाधान हेतु आवश्यक है। इस स्थिति में गृहविज्ञान के अन्तर्गत विभिन्न विषयों का व्यावहारिक दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाता है। अन्य विषयों के साथ-साथ गृहविज्ञान के अन्तर्गत समाजशास्त्र का, विशेष रूप से पारिवारिक समाजशास्त्र का भी अध्ययन किया जाता है। गृहविज्ञान के दृष्टिकोण से समाजशास्त्रीय ज्ञान का विशेष महत्त्व है।

गृहविज्ञान के लिए समाजशास्त्रीय ज्ञान का महत्त्व (Importance of Sociological Knowledge to Home Science) –
गृहविज्ञान एक व्यावहारिक विज्ञान है, जिसके अध्ययन का उद्देश्य व्यक्ति एवं परिवार के जीवन को अधिक उन्नत, समृद्ध, सरल एवं विभिन्न प्रकार की समस्याओं से मुक्त बनाना है। व्यक्ति एवं परिवार का जीवन समाज में ही व्यतीत होता है। अतः समाज एवं समस्त सामाजिक परिस्थितियों का व्यक्ति एवं परिवार के जीवन पर प्रभाव पड़ना नितान्त अनिवार्य है।

सामाजिक मान्यताएँ, प्रथाएँ तथा समस्याएँ निश्चित रूप से व्यक्ति एवं परिवार के जीवन को प्रभावित करती हैं। इस स्थिति में इन समाजशास्त्रीय तथ्यों की समुचित जानकारी आवश्यक है। इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ही गृहविज्ञान के अन्तर्गत समाजशास्त्रीय ज्ञान का समावेश किया जाता है। अब प्रश्न उठता है कि समाजशास्त्रीय ज्ञान का गृहविज्ञान के सन्दर्भ में क्या महत्त्व है? अध्ययन की सुविधा के लिए इस महत्त्व को दो वर्गों में बाँटा जा सकता हैप्रथम वर्ग में गृह के सन्दर्भ में समाजशास्त्रीय ज्ञान के महत्त्व का वर्णन किया जाएगा तथा द्वितीय वर्ग में समाज के सन्दर्भ में समाजशास्त्रीय ज्ञान के महत्त्व को स्पष्ट किया जाएगा।

(1) गृह के सन्दर्भ में समाजशास्त्रीय ज्ञान का महत्त्व –
(i) समाजशास्त्र उत्तम पारिवारिक जीवन-यापन में सहायक है-समाजशास्त्र के अन्तर्गत विवाह एवं परिवार से सम्बन्धित सम्पूर्ण तथ्यों का सैद्धान्तिक अध्ययन किया जाता है। विवाह के नियमों, उद्देश्यों तथा समस्याओं आदि का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है। इसी प्रकार ‘परिवार’ नामकं सामाजिक संस्था का भी विस्तृत अध्ययन समाजशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है। समाजशास्त्र से प्राप्त होने वाली यह सम्पूर्ण जानकारी उत्तम पारिवारिक जीवन यापन करने में सहायक सिद्ध होती है। पारिवारिक जीवन के संचालन में स्त्री अर्थात् गृहिणी की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। आज की छात्राएँ ही भावी गृहिणियाँ हैं, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए गृहविज्ञान विषय में समाजशास्त्रीय ज्ञान का समुचित समावेश किया जाता है।

(ii) सामाजिक स्थिति के निर्धारण में सहायक-समाजशास्त्र ही ‘सामाजिक स्थिति’ के आधारों, वर्गों तथा सम्बद्ध भूमिकाओं का अध्ययन करता है। सामान्य रूप से पारम्परिक समाजों में व्यक्ति की स्थिति उसके परिवार के सन्दर्भ में ही निर्धारित होती है। इससे भिन्न, आधुनिक समाजों में व्यक्ति के व्यक्तिगत गुणों, क्षमताओं एवं उपलब्धियों के आधार पर ही उसकी सामाजिक स्थिति निर्धारित की जाती है। गृहविज्ञान के अन्तर्गत जब इन समाजशास्त्रीय तथ्यों का अध्ययन कर लिया जाता है तो गृहिणियाँ अपनी तथा अपने परिवार की सामाजिक स्थिति के प्रति जागरूक रहती हैं। वे अपनी सामाजिक स्थिति को उन्नत बनाने के लिए भी आवश्यक प्रयास कर सकती हैं।

(iii) स्त्रियों के लिए समाजशास्त्रीय ज्ञान का महत्त्व-परिवार में स्त्रियों का क्या स्थान है? स्त्रियों के पारिवारिक अधिकार क्या हैं? पारिवारिक सम्पत्ति में स्त्रियों का क्या अधिकार है? स्त्रियों के शोषण एवं उत्पीड़न के क्या कारण हैं तथा उन पर रोक लगाने वाले कानून कौन-कौन से हैं? इस प्रकार के अनेक तथ्यों की व्यवस्थित जानकारी समाजशास्त्र से प्राप्त होती है। यदि गृहविज्ञान के अन्तर्गत इन उपयोगी समाजशास्त्रीय तथ्यों का समावेश कर दिया जाता है तो आज की छात्राएँ अपने भावी गृहस्थ जीवन में लाभान्वित होती हैं। वे अनेक प्रकार के शोषण से बच जाती हैं तथा अपने अधिकारों की माँग कर सकती हैं। इस दृष्टिकोण से कहा जा सकता है कि स्त्रियों के लिए समाजशास्त्रीय ज्ञान का विशेष महत्त्व है।

(2) समाज के सन्दर्भ में समाजशास्त्रीय ज्ञान का महत्त्व –
आधुनिक युग में स्त्रियों का कार्य-क्षेत्र परिवार तक ही सीमित नहीं रह गया है। अब स्त्रियाँ विस्तृत समाज में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में स्त्रियाँ पुरुषों के समान ही भूमिका निभाती हैं। इस स्थिति में अनिवार्य है कि स्त्रियों को सामाजिक विषयों की समुचित जानकारी हो। यही कारण है कि गृहविज्ञान में समाजशास्त्रीय ज्ञान का समावेश किया जाता है। समाज के सन्दर्भ में समाजशास्त्रीय ज्ञान के महत्त्व का संक्षिप्त विवरण अग्रलिखित है –

(i) सामाजिक नियोजन के लिए उपयोगी-वर्तमान युग नियोजन का युग है। सामाजिक प्रगति एवं विकास के लिए प्रत्येक क्षेत्र में नियोजन की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। इस सामाजिक नियोजन में स्त्रियों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उदाहरण के लिए-मातृत्व एवं बाल-कल्याण, पिछड़े वर्गों का कल्याण, विकलांगों का पुनर्वास, विस्थापितों का पुनर्वास, श्रमिकों का कल्याण, जन-स्वास्थ्य तथा जनशिक्षा एवं जनसंख्या नियन्त्रण आदि अनेक ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें नियोजन की अत्यधिक आवश्यकता है तथा इन क्षेत्रों में स्त्रियों द्वारा भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जा सकती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए गृहविज्ञान के अन्तर्गत सम्बद्ध समाजशास्त्रीय ज्ञान को सम्मिलित किया जाता है।

(ii) सामाजिक समस्याओं के समाधान में सहायक-प्रत्येक गृहिणी अपने परिवार तथा समाज से सम्बद्ध समस्याओं से किसी-न-किसी रूप में अवश्य ही प्रभावित होती है। सामाजिक समस्याओं का समुचित समाधान एवं निराकरण तभी सम्भव है जबकि समाज की महिलाएँ भी इस दिशा में प्रयास करें। सामाजिक समस्याओं के वास्तविक स्वरूप, उनके कारणों तथा निवारण के उपायों का व्यवस्थित अध्ययन समाजशास्त्र के अन्तर्गत ही किया जाता है।

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए ही समाजशास्त्रीय ज्ञान का समावेश गृहविज्ञान विषय में किया जाता है। इस रूप में सामाजिक समस्याओं का अध्ययन करने के उपरान्त छात्राएँ अपने भावी जीवन में सामाजिक समस्याओं के समाधान एवं उन्मूलन में उल्लेखनीय योगदान दे सकती हैं। हमारे समाज की कुछ उल्लेखनीय सामाजिक समस्याएँ हैं—दहेज प्रथा, छुआछूत, जाति प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह तथा बेमेल विवाह आदि। इसी प्रकार बालक-बालिका भेद तथा लड़कियों का तिरस्कार भी एक गम्भीर सामाजिक समस्या है। इन समस्याओं से मुक्ति के लिए समाजशास्त्रीय ज्ञान आवश्यक है।

(iii) सामाजिक सहिष्णुता की वृद्धि में सहायक-पारम्परिक रूप से ही भारतीय समाज अनेक प्रकार की भिन्नताओं से युक्त रहा है। हमारे समाज में धर्म, जाति, प्रजाति तथा भाषा आदि के दृष्टिकोण से पर्याप्त विविधता है। इस प्रकार की विविधता के परिणामस्वरूप हमारे समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक प्रकार के विरोध भी विकसित होते रहते हैं जो सामाजिक तनाव को भी जन्म दे सकते हैं तथा सामाजिक दूरी को भी बढ़ावा देते हैं।

समाजशास्त्र का अध्ययन यह स्पष्ट करता है कि वास्तव में हमारे समाज एवं संस्कृति में, विविधता में एकता है। बाहरी रूप से दिखाई देने वाली भिन्नता के पीछे एक मौलिक एकता निहित है। इसके साथ-साथ समाजशास्त्रीय ज्ञान से स्पष्ट होता है कि सामाजिक भिन्नता का आशय ऊँच-नीच या भेदभाव नहीं है। इस प्रकार के समाजशास्त्रीय ज्ञान को प्राप्त करके छात्र-छात्राओं में सामाजिक सहिष्णुता का विकास होता है।

उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि गृहविज्ञान की छात्राओं को समाजशास्त्रीय ज्ञान प्रदान करना नितान्त आवश्यक है। यह ज्ञान उनके, उनके परिवार के तथा सम्पूर्ण समाज के जीवन को उन्नत एवं समस्यामुक्त बनाने में सहायक हो सकता है।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 16 लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र की प्रकृति स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
समाजशास्त्र की प्रकृति समाजशास्त्र एक विज्ञान है। एक विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र की विशेषताओं का उल्लेख करके हम समाजशास्त्र की प्रकृति को स्पष्ट कर सकते हैं। सर्वप्रथम हम कह सकते हैं कि समाजशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है। समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों का व्यवस्थित अध्ययन करता है। इस प्रकार समाजशास्त्र प्राकृतिक विज्ञानों से भिन्न है। समाजशास्त्र की प्रकृति को स्पष्ट करने वाला दूसरा तथ्य यह है कि समाजशास्त्र आदर्शात्मक विज्ञान नहीं है, यह एक तथ्यात्मक विज्ञान है।

समाजशास्त्र क्या है?’ का अध्ययन करता है, न कि ‘क्या होना चाहिए’ का। समाजशास्त्र अमूर्त सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करने के कारण एक अमूर्त विज्ञान है। समाजशास्त्र एक व्यावहारिक विज्ञान है; अर्थात् यह विशुद्ध विज्ञान । नहीं है। समाजशास्त्र की एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता यह है कि यह विज्ञान एक सामान्य विज्ञान है; अर्थात् यह विशिष्ट विज्ञान नहीं है।

प्रश्न 2.
गृहविज्ञान के अन्तर्गत समाजशास्त्रीय अध्ययन क्यों किया जाता है?
उत्तरः
गृहविज्ञान के अन्तर्गत समाजशास्त्रीय अध्ययन –
गृहविज्ञान एक व्यावहारिक महत्त्व का विज्ञान है। गृहविज्ञान के अन्तर्गत उन समस्त विषयों का अध्ययन किया जाता है, जो उत्तम जीवन के लिए उपयोगी होते हैं। जहाँ तक समाजशास्त्र के अध्ययन का प्रश्न है, यह अध्ययन अनिवार्य रूप से उत्तम जीवन व्यतीत करने में सहायक होता है। समाजशास्त्र का ज्ञान उत्तम पारिवारिक जीवनयापन में सहायक होता है। इसके ज्ञान से व्यक्ति की सामाजिक स्थिति की समुचित जानकारी प्राप्त की जा सकती है। समाजशास्त्र का ज्ञान महिलाओं को उनके पारिवारिक एवं सामाजिक अधिकारों की उचित जानकारी प्रदान करता है।

इस दृष्टिकोण से गृहविज्ञान के अन्तर्गत समाजशास्त्र का अध्ययन करना आवश्यक माना जाता है। इसके अतिरिक्त समाजशास्त्र के अध्ययन से बालिकाओं को विभिन्न सामाजिक समस्याओं के विषय में तटस्थ ज्ञान की प्राप्ति होती है तथा इस ज्ञान से सामाजिक सहिष्णुता में भी वृद्धि होती है। इस दृष्टिकोण से भी गृहविज्ञान के अन्तर्गत समाजशास्त्र का अध्ययन किया जाता है।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 16 अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
समाज की इकाई क्या है?
उत्तरः
‘परिवार’ समाज की इकाई है।

प्रश्न 2.
समाजशास्त्र की मैकाइवर तथा पेज द्वारा प्रतिपादित परिभाषा लिखिए।
उत्तरः
“समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के विषय में है। सामाजिक सम्बन्धों के इस जाल को हम समाज कहते हैं।”

प्रश्न 3.
समाजशास्त्र के क्षेत्र सम्बन्धी दो प्रमुख सम्प्रदाय कौन-कौन से हैं?
उत्तरः
समाजशास्त्र के क्षेत्र सम्बन्धी दो मुख्य सम्प्रदाय हैं –

  1. विशेषात्मक अथवा स्वरूपात्मक सम्प्रदाय तथा
  2. समन्वयात्मक सम्प्रदाय।

प्रश्न 4.
समाजशास्त्र के विशेषात्मक सम्प्रदाय के मुख्य समर्थक कौन हैं?
उत्तरः
समाजशास्त्र के विशेषात्मक सम्प्रदाय के मुख्य समर्थक हैं—जॉर्ज सिमेल, वीरकान्त, वॉन वीज, मैक्स वेबर, रॉस, पार्क, बर्गेज तथा टानीज।

प्रश्न 5.
समाजशास्त्र के समन्वयात्मक सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक कौन हैं?
उत्तरः
समाजशास्त्र के समन्वयात्मक सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक हैं—दुर्थीम, हॉबहाउस, सोरोकिन, जिन्सबर्ग तथा मोटवानी।

प्रश्न 6.
गृहविज्ञान के अध्ययन का मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तरः
गृहविज्ञान के अध्ययन का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति एवं परिवार के जीवन को अधिक उन्नत, समृद्ध, सरल एवं विभिन्न प्रकार की समस्याओं से मुक्त बनाना है।

प्रश्न 7.
पारिवारिक जीवन के लिए समाजशास्त्र का ज्ञान क्यों महत्त्वपूर्ण माना जाता है?
उत्तरः
पारिवारिक जीवन के लिए समाजशास्त्र का ज्ञान उत्तम जीवन यापन करने में सहायक सिद्ध होता है।

प्रश्न 8.
स्त्रियों के लिए समाजशास्त्र का ज्ञान क्यों उपयोगी माना जाता है?
उत्तरः
समाजशास्त्र का ज्ञान स्त्रियों को उनके पारिवारिक अधिकारों से अवगत कराने के कारण उपयोगी माना जाता है।

प्रश्न 9.
व्यक्ति का समाज के प्रति क्या कर्त्तव्य होता है?
उत्तरः
व्यक्ति का समाज के प्रति कर्त्तव्य है—विवाह करना, परिवार स्थापित करना तथा सम्पूर्ण समाज की सुख-समृद्धि में आवश्यक योगदान प्रदान करना।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 16 बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

निर्देश : निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चयन कीजिए –
1. मनुष्य –
(क) एकान्तप्रिय प्राणी है
(ख) सामाजिक प्राणी है
(ग) असामाजिक प्राणी है
(घ) बुद्धिहीन प्राणी है।
उत्तरः
(ख) सामाजिक प्राणी है।

2. समाज की इकाई है –
(क) स्कूल
(ख) परिवार
(ग) समुदाय
(घ) घर।
उत्तरः
(ख) परिवार।

3. “समाजशास्त्र सामाजिक जीवन का वैज्ञानिक अध्ययन है।” यह कथन किसका है –
(क) मैकाइवर तथा पेज
(ख) ऑगबर्न तथा निमकॉफ
(ग) ग्रीन
(घ) दुर्थीम।
उत्तरः
(ख) ऑगबर्न तथा निमकॉफ।

4. समाजशास्त्र के स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के मुख्य समर्थक हैं
(क) जॉर्ज सिमेल
(ख) दुर्थीम
(ग) सोरोकिन
(घ) मोटवानी।
उत्तरः
(क) जॉर्ज सिमेल।

5. समाजशास्त्र के समन्वयात्मक सम्प्रदाय के मुख्य समर्थक हैं –
(क) दुर्थीम
(ख) जॉर्ज सिमेल
(ग) मैक्स वेबर
(घ) वीरकान्त।
उत्तरः
(क) दुर्थीम।

6. गृह के सन्दर्भ में समाजशास्त्रीय ज्ञान का महत्त्व है –
(क) उत्तम पारिवारिक जीवन-यापन में सहायक
(ख) सामाजिक स्थिति के निर्धारण में सहायक
(ग) स्त्रियों के लिए उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण
(घ) उपर्युक्त सभी महत्त्व।
उत्तरः
(घ) उपर्युक्त सभी महत्त्व।

7. समाज के सन्दर्भ में समाजशास्त्रीय ज्ञान का महत्त्व है –
(क) सामाजिक नियोजन के लिए उपयोगी
(ख) सामाजिक समस्याओं के समाधान में सहायक
(ग) सामाजिक सहिष्णुता की वृद्धि में सहायक
(घ) उपर्युक्त सभी महत्त्व।
उत्तरः
(घ) उपर्युक्त सभी महत्त्व।

UP Board Solutions for Class 11 Home Science

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 23 प्रसवकालीन तैयारियाँ 

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 23 प्रसवकालीन तैयारियाँ (Preparations Regarding Confinement)

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 23 प्रसवकालीन तैयारियाँ

UP Board Class 11 Home Science Chapter 23 विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
यदि घर पर ही प्रसव कराना हो तो मुख्य रूप से क्या-क्या तैयारियाँ करनी अनिवार्य होती हैं?
अथवा
प्रसव यदि घर पर कराना हो तो इसके लिए नर्स या दाई के चुनाव, स्थान, आवश्यक सामग्री तथा अन्य व्यवस्थाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
घर पर प्रसव –
(Confinement in House)
घर पर प्रसव कराने में बहुत-सी कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं जिससे स्त्री और शिशु दोनों को ही कष्ट होता है और कभी-कभी उनका जीवन भी संकट में पड़ जाता है। इस समय डॉक्टरी सहायता बहुत आवश्यक होती है। घर पर यह सुविधा कठिन हो जाती है। फिर भी, यदि घर पर ही प्रसव कराना हो तो निम्नवर्णित तथ्यों एवं तैयारियों को ध्यान में रखना आवश्यक है –

1. नर्स या दाई का चुनाव-प्रसव के लिए योग्य दाई या नर्स का होना आवश्यक है। यदि प्रसव अस्पताल में हो तो नर्स या दाई का नियुक्त होना आवश्यक नहीं है। जब यह स्पष्ट हो जाए कि गर्भिणी को प्रसव-पीड़ा प्रारम्भ हो गई है, उसी समय ऐसी दाई को बुलाना चाहिए जो कि अपने काम में अनुभवी, चतुर और दक्ष हो, प्रसूता से स्नेह और मधुर वचन बोले, उसे धैर्य बँधाए। दाई व नर्स बहरी व गूंगी न हो।

2. प्रसव कक्ष का चुनाव-सर्वप्रथम प्रसूता के लिए चुना गया कमरा अच्छा, हवादार तथा साफ-सुथरा होना चाहिए, जिसमें दुर्गन्ध न आती हो। उसमें सीलन भी न हो और धूप भी आती हो। यह कक्ष किसी शौचालय के पास न हो। प्रसव कक्ष शोरगुल से दूर रहना चाहिए ताकि प्रसूता को पूर्ण विश्राम मिल सके। प्रसूता के लिए समुचित विश्राम अनिवार्य है।
यदि जाड़े हों तो घर में कोयलों की धुआँरहित आग दहकती रखें (क्योंकि धुआँ बालक और प्रसूता दोनों के लिए हानिकारक होता है। जिससे कि ठण्डक उस घर में न आने पाए और वायु भी शुद्ध होती रहे। उस घर की जमीन और दीवार लिपी-पुती और सूखी होनी चाहिए। दरवाजों और खिड़कियों पर परदे लगवा देने चाहिए।

3. प्रसव के लिए आवश्यक सामग्री-घर पर प्रसव कराने की दशा में निम्नलिखित सामग्री की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए
(i) खूब कसा हुआ पलंग, जिस पर गुदगुदा बिछौना हो और मोमजामा बिछा हो। प्रसव के समय इस पलंग का सिरहाना पैताने से एक फुट ऊँचा रहना चाहिए। (ii) पेट पर लपेटने का गाढ़े का कपड़ा। (iii) रेशम। (iv) ब्लेड। (v) गुनगुना पानी। (vi) आग। (vii) तेल। (viii) बेसन या साबुन। (ix) पुराने कपड़े।

प्रसूता के लिए निम्नलिखित वस्तुओं का होना आवश्यक है –
(i) एक पौण्ड उत्तम स्वच्छ रुई। (ii) एक बड़ा रबड़ का टुकड़ा लगभग दो मीटर लम्बा। (iii) तीन … दर्जन सेनेटरी पैड्स। (iv) एक सेनेटरी पेटी। (v) एक डिब्बा सेफ्टी पिन। (vi) एक डिटॉल की शीशी। (vii) हाथ धोने के बर्तन। (viii) एनैमिल का तसला तथा बाल्टी। (ix) नाखून साफ करने का ब्रुश। (x) मछली का तेल लगभग दो औंस। (xi) रबड़ की थैली गर्म पानी के लिए। (xii) दो या तीन साफ तौलिए।

4. शिशु के लिए आवश्यक सामग्री-(i) पाउडर लगभग दो औंस। (ii) उत्तम प्रकार की वैसलीन। (iii) एक बोतल जैतून का तेल। (iv) एक टिकिया उत्तम साबुन। (v) बोरिक पाउडर। (vi) गर्म पानी की बोतल। (vii) एक पैकिट छोटे सेफ्टी पिन। (viii) कुछ अच्छी पट्टियाँ। (ix) कुछ धुले हुए साफ पुराने कपड़े।

5. प्रसूता के लिए वस्त्र आदि – (i) 6 धोती। (ii) 6 ब्लाउज । (iii) 6 पेटीकोट। (iv) 6 चोली।
जाड़ों के दिनों में ऊनी स्वेटर, ऊनी शाल भी होना आवश्यक है। सफेद चादरें पलंग पर बिछाने के लिए, कम-से-कम 4 सफेद धुली चादरें ओढ़ने के लिए, एक दरी, जाड़ों में गद्दा, तकिये, कम्बल या लिहाफ।

6.शिशु के लिए वस्त्र-गर्म शाल शिशु को लपेटने के लिए, गर्म मौजे, फ्रॉक, कुर्ते, दो ढीले कोट रेशमी, 2 ढीले बास्केट। इसके अतिरिक्त डेढ़-दो दर्जन नेपकिन भी अवश्य तैयार रखने चाहिए। पहनने वाले कपड़ों का चुनाव मौसम को ध्यान में रखकर ही किया जाना चाहिए।

घर पर प्रसव कराने की दशा में सर्वाधिक आवश्यक सावधानी है – हर प्रकार की स्वच्छता एवं शुद्धता की व्यवस्था करना। इसके अभाव में संक्रमण की आशंका रहती है। इसके अतिरिक्त प्रसव के लिए अनुभवी महिला चिकित्सक अथवा प्रशिक्षित दाई की व्यवस्था भी आवश्यक होती है। अप्रशिक्षित दाई अथवा किसी घरेलू स्त्री द्वारा प्रसव कराने पर माँ एवं शिशु के जीवन को खतरा हो सकता है।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 23 लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
प्रसव से क्या आशय है? प्रसव के लिए आवश्यक तैयारियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
प्रसव तथा उसके लिए आवश्यक तैयारियाँ –
प्रसव – प्रसव वह प्राकृतिक क्रिया है, जिसके द्वारा गर्भस्थ शिशु गर्भ से बाहर आता है। शिशु का गर्भ से बाहर आना ही प्रसव कहलाता है। इसी को शिशु का जन्म लेना भी कहते हैं। यह अवसर बड़ा महत्त्वपूर्ण होता है। इस अवसर पर स्त्री एवं बच्चे के जीवन की सुरक्षा के लिए बहुत सावधानी से काम लेना पड़ता है। इस अवसर के लिए पहले से कुछ-न-कुछ तैयारी करना आवश्यक होता है।

प्रसव की तैयारियाँ एवं उनका महत्त्व – प्रसव की तैयारी लगभग दो या तीन मास पूर्व कर लेनी चाहिए। इन तैयारियों पर न केवल माता व शिशु की तत्कालीन सुरक्षा अपितु शिशु का सम्पूर्ण भावी जीवन निर्भर रहता है। प्रसव के समय की तैयारी निम्न प्रकार से करनी चाहिए –

  • प्रसव के स्थान का निर्धारण।
  • प्रसव के लिए योग्य नर्स अथवा दाई का चुनाव।
  • प्रसव क्रिया के लिए आवश्यक वस्तुएँ।
  • शिशु के वस्त्र तथा आवश्यक वस्तुएँ।
  • माता के वस्त्र तथा आवश्यक वस्तुएँ। .
  • उचित डॉक्टर का चुनाव।
  • अनुमानित व्यय की व्यवस्था करना।

प्रसव सम्बन्धी तैयारियाँ आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण होती हैं। वास्तव में इन सभी तैयारियों के आधार पर प्रसव को सामान्य बनाया जा सकता है तथा किसी भी परेशानी का सफलतापूर्वक सामना किया जा सकता है। यदि इस प्रकार की तैयारियां पूरी नहीं की जातीं तो प्रसव के समय विभिन्न परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।

प्रश्न 2.
अस्पताल में प्रसव कराने के मुख्य लाभों का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
अस्पताल में प्रसव कराने के लाभ –
अस्पताल में प्रसव कराने के मुख्य लाभ निम्नलिखित होते हैं –

  • निर्धन स्त्रियों को सरकारी अस्पताल या प्रसव केन्द्रों में नि:शुल्क प्रसव सुविधा मिल जाती है।
  • गर्भवती को अस्पतालों में आवश्यकतानुसार सब प्रकार की डॉक्टरी सहायता तुरन्त प्राप्त हो जाती है। यदि दुर्भाग्यवश प्रसव के समय कोई गम्भीर समस्या उत्पन्न हो जाए तो अस्पताल में विशिष्ट चिकित्सा सहायता मिल जाती है। अस्पताल में ऑक्सीजन, रक्त तथा शल्य क्रिया सम्बन्धी सुविधाएँ सरलता से प्राप्त हो सकती हैं।
  • अस्पताल में प्रसव कराने पर बहुत-सी मानसिक व शारीरिक चिन्ताओं तथा दौड़-धूप से छुटकारा मिल जाता है।
  • अस्पताल में गर्भवती को हवा तथा प्रकाशयुक्त कमरा व सफाई मिल जाती है।

प्रश्न 3.
अस्पताल में प्रसव कराने से होने वाली हानियों या कठिनाइयों का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
अस्पताल में प्रसव कराने से हानियाँ –
अस्पताल में प्रसव कराने पर मुख्य रूप से निम्नलिखित हानियाँ या कठिनाइयाँ होती हैं –

  • परिवार की एक स्त्री को प्रसूता के पास अस्पताल में ही रहना पड़ता है। घर पर प्रसूता की देखभाल सुविधापूर्वक की जा सकती है।
  • साधारणतया अस्पतालों में प्रसव कराने पर व्यय भी अधिक करना पड़ता है।
  • आजकल सरकारी अस्पतालों में बहुत अधिक भीड़ होने लगी है। अनेक बार एक-एक बिस्तर पर दो-दो महिलाओं को लेटना पड़ता है अथवा फर्श पर ही लेटना पड़ता है। ऐसी स्थिति में प्रसूता को आवश्यक आराम एवं सुविधा प्राप्त नहीं हो पाती।
  • जहाँ तक प्राइवेट नर्सिंग होम का प्रश्न है, उनमें व्यय बहुत अधिक होता है; अत: साधारण आर्थिक स्थिति वाले परिवारों के लिए इस व्यय को वहन करना कठिन होता है।

प्रश्न 4.
प्रसूता की तात्कालिक परिचर्या का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
प्रसूता की तात्कालिक परिचर्या –
प्रसव के पश्चात् प्रसूता का शक्तिहीन एवं निढाल होना स्वाभाविक है। इस समय उसे पूर्ण आराम की आवश्यकता होती है; अतः प्रसूता की शुद्धता के उपरान्त उसे आराम से सोते रहने देना चाहिए। उसकी इच्छा यदि पीने की हो तो गर्म दूध दे देना चाहिए अन्यथा जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए।

प्रसव के पश्चात् प्रसूता के गर्भ सम्बन्धी अंगों में परिवर्तन हो जाता है, परन्तु उन्हें स्वाभाविक स्थिति में आने के लिए समय चाहिए; अतः प्रसूता को अधिक-से-अधिक विश्राम की अवस्था में रहने देना चाहिए। गर्भाशय का भार इस समय 2 पौण्ड के लगभग हो जाता है, सामान्य अवस्था में उसे 2 औंस रहना चाहिए। इसे पूर्व-स्थिति में आने के लिए लगभग 40 दिन का समय चाहिए। यदि इस समय प्रसूता की परिचर्या नहीं की जाएगी तो गर्भाशय के स्थानान्तरित होने की सम्भावना रहती है; अतः प्रसव के 7वें दिन से प्रसूता को प्रतिदिन कुछ समय विशेष के लिए उल्टा लेटना चाहिए। प्रसव के पश्चात् लगभग 30-35 दिन तक रक्तस्राव होता रहता है, जो सामान्य बात है।

यदि इसके उपरान्त भी रक्तस्राव होता रहे तो डॉक्टर या नर्स से परामर्श लेना चाहिए। आँवलनाल के बाहर निकालने से गर्भाशय में जख्म हो जाते हैं; अत: उसकी पूर्ण स्वच्छता परमावश्यक है, अन्यथा संक्रमण की आशंका रहेगी। गर्भाशय के बार-बार सिकुड़ने से प्रसव के बाद तीन-चार दिन तक पेट में पीड़ा रहती है। इसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए क्योंकि इस सिकुड़न से ही गर्भाशय अपनी पूर्व-स्थिति में आ पाता है।

प्रसूता के आहार की ओर विशेष रूप से सजग होना चाहिए। उसे बहुत हल्का भोजन, दूध, बादाम, अजवायन, खिचड़ी, दलिया आदि देना चाहिए। छिलके वाली दाल दी जानी चाहिए। प्रसूता के लिए गोंद बहुत लाभदायक है। इससे शरीर की पीड़ा व जख्म को लाभ पहुँचता है। प्रसूता को सवा महीने तक पूर्ण विश्राम करना चाहिए। हाँ, वह शिशु के छोटे-छोटे कार्य कर सकती है।
प्रसूता को स्वयं भी अपने स्वास्थ्य के प्रति सावधानी बरतनी चाहिए। यदि किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव होता हो तो डॉक्टर को दिखाना चाहिए।

प्रश्न 5.
प्रसूता के द्वारा किए जाने वाले व्यायाम का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तरः
प्रसूता के लिए व्यायाम की विधियाँ –
शिशु के जन्म के पश्चात् प्रसूता का शरीर कुछ ढीला-ढाला या बेडौल-सा हो जाता है; अत: उसे सामान्य स्थिति में लाने के लिए, प्रसूता को प्रसव-निवृत्ति के प्रथम दिन से ही व्यायाम का अभ्यास करना चाहिए ताकि उसका शरीर स्वस्थ, लचीला और सुडौल बना रहे। प्रसूता को शिशु के जन्म के पश्चात् प्रतिदिन इस प्रकार से व्यायाम करना उचित रहता है –

  • पहला दिन – प्रसूता को सबसे पहले दिन आराम की अवस्था में कम-से-कम आठ बार गहरी साँस लेनी चाहिए।
  • दूसरा दिन – दूसरे दिन लेटने की अवस्था में घुटनों को मोड़ना और फैलाना चाहिए। यह विधि कई बार, विश्राम करने के बाद करनी चाहिए।
  • तीसरा दिन – गर्भाशय को ठीक अवस्था में लाने के लिए प्रसूता को लेटे-लेटे ही नितम्ब की मांसपेशियों को शौच जाने की भाँति सिकोड़ना और फैलाना चाहिए।
  • चौथा दिन – प्रसूता को बैठकर 4 या 5 बार अपनी बाँहों को मोड़ना तथा फैलाना चाहिए।
  • पाँचवाँ दिन – पाँचवें दिन चित्त लेटकर घुटने व पेट को सिकोड़कर पीठ ऊपर उठानी चाहिए।
  • छठा दिन – चित्त लेटकर घुटनों को एक-साथ मिलाकर उन पर दबाव डालते हुए पेट के भाग को ऊपर उठाना चाहिए। यह क्रिया 4-5 बार करनी चाहिए।
  • सातवाँ दिन – बैठकर, कूल्हों पर हाथ रखकर, ऊपर के धड़ को बारी-बारी से मोड़ना चाहिए।
  • आठवाँ दिन – सिर सीधा रखकर, प्रसूता को बैठकर कूल्हों पर हाथ रखकर, धड़ को गोल चक्कर से घुमाना चाहिए।
  • नवाँ दिन – लेटी हुई अवस्था में पैरों को भीतर की तरफ मोड़कर फैलाना तथा बिस्तर पर ले जाना चाहिए।
  • दसवाँ दिन – सीधे लेटकर, सिर पलंग के ऊपर उठाकर, ठोड़ी से छाती को छूने का प्रयास करना चाहिए।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 23 अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
प्रसव से क्या आशय है?
उत्तरः
प्रसव वह प्राकृतिक क्रिया है, जिसके द्वारा शिशु गर्भ से बाहर आता है। शिशु का गर्भ से बाहर आना ही प्रसव कहलाता है।

प्रश्न 2.
पारम्परिक रूप से प्रसव कहाँ कराया जाता था?
उत्तरः
पारम्परिक रूप से घर पर ही प्रसव कराया जाता था।

प्रश्न 3.
वर्तमान नगरीय समाज में स्त्रियाँ कहाँ प्रसव कराना पसन्द करती हैं?
उत्तरः
वर्तमान नगरीय समाज में स्त्रियाँ अस्पताल में ही प्रसव कराना पसन्द करती हैं।

प्रश्न 4.
घर पर प्रसव कराने पर किस बात का ध्यान रखना आवश्यक है?
उत्तरः
घर पर प्रसव कराने पर सफाई एवं प्रशिक्षित दाई की व्यवस्था को ध्यान में रखना . आवश्यक है।

प्रश्न 5.
गाँव में प्रसव सम्बन्धी क्या समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं?
उत्तरः
गाँव में प्रसव के समय यदि कुशल नर्स/दाई उपस्थित न हो तो प्रसव कराना कठिन होता है। साथ ही प्रसव के लिए आवश्यक दशाएँ भी गाँवों में उपलब्ध नहीं होती हैं।

प्रश्न 6.
प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र कहाँ बनाए गए हैं?
उत्तरः
प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र ग्रामों में बनाए गए हैं।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 23 बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

निर्देश : निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चयन कीजिए –

1. अस्पताल में प्रसव कराना क्यों लाभकारी है –
(क) माँ और शिशु की उचित देखभाल के लिए
(ख) विशिष्ट चिकित्सा के लाभ के लिए
(ग) अस्पताल के कमरे स्वच्छ, हवादार तथा प्रकाशयुक्त होते हैं
(घ) इनमें से सभी। .
उत्तरः
(घ) इनमें से सभी।

2. सरकारी अस्पताल में प्रसव कराने से हानि है –
(क) कोई डॉक्टरी सहायता उपलब्ध नहीं होती
(ख) स्थान की कमी के कारण अनेक असुविधाएँ होती हैं
(ग) अपमान सहना पड़ता है
(घ) कोई हानि नहीं होती।
उत्तरः
(ख) स्थान की कमी के कारण अनेक असुविधाएँ होती हैं।

UP Board Solutions for Class 11 Home Science

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 17 मानवीय आवश्यकताएँ एवं भग्नाशा

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 17 मानवीय आवश्यकताएँ एवं भग्नाशा (Human Needs and Frustration)

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 17 मानवीय आवश्यकताएँ एवं भग्नाशा

UP Board Class 11 Home Science Chapter 17 विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर

विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
‘आवश्यकता’ से आप क्या समझती हैं? अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए।
उत्तरः
व्यक्ति एवं समाज के जीवन में इच्छाओं एवं आवश्यकताओं का विशेष महत्त्व होता है। वास्तव में इच्छाओं से प्रेरित होकर आवश्यकताओं को.अनुभव करना, आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समुचित प्रयास करना तथा आवश्यकताओं की यथार्थ में पूर्ति करना ही जीवन है। यदि व्यक्ति के जीवन में इच्छाएँ एवं आवश्यकताएँ न हों तो जीवन नीरस, उत्साहरहित तथा निरर्थक बन जाता है। आवश्यकताओं की पूर्ति से व्यक्ति को एक विशेष प्रकार के सन्तोष एवं आनन्द की अनुभूति होती है। इसके विपरीत, यदि व्यक्ति की अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती तो व्यक्ति क्रमशः निराश, असन्तुष्ट तथा कुण्ठित हो जाता है।

वास्तव में आवश्यकताएँ अनन्त हो सकती हैं तथा समस्त आवश्यकताओं को एकाएक पूरा नहीं किया जा सकता; अत: आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उनकी प्राथमिकता के आधार पर प्रयास किए जाने चाहिए। व्यक्ति की आवश्यकताओं की अनुभूति एवं पूर्ति का मुख्य स्थल घर एवं परिवार ही है। घर एवं परिवार की व्यवस्था एवं प्रबन्ध में गृहिणी की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इस स्थिति में अनिवार्य है कि प्रत्येक गृहिणी को व्यक्तिगत एवं पारिवारिक आवश्यकताओं का सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक ज्ञान हो। यही कारण है कि गृहविज्ञान के अन्तर्गत ‘आवश्यकताओं का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है।

आवश्यकता का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Need) –
सामान्य रूप से ‘इच्छा’ तथा ‘आवश्यकता’ को समान अर्थों में प्रयोग किया जाता है, परन्तु सैद्धान्तिक रूप में इन दोनों प्रत्ययों में स्पष्ट अन्तर है। वास्तव में व्यक्ति के मन में उत्पन्न होने वाली अनन्त इच्छाओं में से कुछ इच्छाएँ ही आगे चलकर आवश्यकता का रूप ग्रहण कर लेती हैं। ‘इच्छा’ जाग्रत होना मनुष्य की एक स्वभावगत विशेषता है। व्यक्ति के मन में असंख्य इच्छाएँ मुक्त रूप से जन्म लेती रहती हैं। समस्त इच्छाएँ व्यक्ति की भावनाओं द्वारा पोषित होती हैं। जो इच्छाएँ भौतिक जगत की यथार्थताओं से समर्थन प्राप्त कर लेती हैं, उन्हें ही ‘आवश्यकता के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है। वास्तव में व्यक्ति की वह इच्छा उसकी आवश्यकता बन जाती है, जो उसके उपलब्ध भौतिक साधनों के अनुरूप होती है। जिस इच्छा की पूर्ति के लिए व्यक्ति समुचित साधन-सम्पन्न होता है, उस इच्छा को व्यक्ति की आवश्यकता मान लिया जाता है।

‘आवश्यकता’ की अवधारणा को विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण एवं ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया है; यथा –

(1) प्रो० पैन्सन ने ‘आवश्यकता’ को इन शब्दों में परिभाषित किया है-“आवश्यकता व्यक्ति की उस इच्छा को कहते हैं, जिसकी पूर्ति के लिए उसके पास पर्याप्त साधन हों और वह उन साधनों को उस इच्छा की पूर्ति हेतु लगाने को तत्पर हो।” प्रस्तुत परिभाषा द्वारा स्पष्ट है कि वास्तव में वे इच्छाएँ ही ‘आवश्यकता के रूप में स्वीकृति प्राप्त करती हैं, जिनकी पूर्ति के लिए व्यक्ति साधन-सम्पन्न होता है तथा उनकी पूर्ति के लिए स्वयं तैयार भी होता है।

(2) लगभग इसी अर्थ को प्रतिपादित करते हुए स्मिथ एवं पैटर्सन ने भी आवश्यकता की परिभाषा प्रस्तुत की है। उनके शब्दों में – “आवश्यकता किसी वस्तु को प्राप्त करने की वह इच्छा है, जिसको पूरा करने के लिए मनुष्य में योग्यता हो और जो उसके लिए व्यय करने को तैयार हो।”

इन परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि उन समस्त इच्छाओं को हम व्यक्ति की आवश्यकताओं के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए व्यक्ति के पास समुचित साधन हैं तथा साथ-साथ वह व्यक्ति उस इच्छा की पूर्ति के लिए समुचित साधन को प्रयोग में लाने के लिए स्वयं तैयार भी हो। आवश्यकता के इस अर्थ को एक उदाहरण के माध्यम से भी स्पष्ट किया जा सकता है। मान लीजिए, एक व्यक्ति के मन में इच्छा जाग्रत होती है कि उसके पास एक मोटरकार हो।

अपने प्रारम्भिक रूप में यह एक इच्छा-मात्र ही होगी। यदि व्यक्ति के पास मोटरकार खरीदने तथा उसके रखरखाव के लिए पर्याप्त धन नहीं है तो उसकी इस इच्छा को केवल कोरी या कल्पनाजनित इच्छा ही माना जाएगा। उसे हम कदापि ‘आवश्यकता के रूप में स्वीकृति प्रदान नहीं कर सकते। यदि व्यक्ति के पास पर्याप्त धन है तो उसकी यह इच्छा आवश्यकता का रूप ग्रहण कर सकती है।

अब यह देखना होगा कि वह व्यक्ति मोटरकार पर इतना अधिक धन खर्च करने के लिए पूर्ण रूप से तैयार है या नहीं? यदि व्यक्ति सोचता है कि कार खरीदने एवं पेट्रोल आदि का खर्च अनावश्यक है तो उसकी कार खरीदने की इच्छा को आवश्यकता नहीं माना जाएगा। इसके विपरीत, यदि व्यक्ति पूर्णरूप से मोटरकार खरीदने के लिए तैयार हो तो उसकी इस इच्छा को उसकी आवश्यकता स्वीकार किया जा सकता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि प्रायः सभी आवश्यकताएँ सापेक्ष होती हैं; अर्थात् व्यक्ति की परिस्थितियों के साथ-साथ आवश्यकताएँ भी परिवर्तित होती रहती हैं। इसी प्रकार किसी एक व्यक्ति की आवश्यकता किसी अन्य व्यक्ति के लिए व्यर्थ अथवा कोरी काल्पनिक इच्छा ही हो सकती है।

प्रश्न 2.
मानवीय आवश्यकताओं की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा
मानवीय आवश्यकताओं की विशेषताओं का वर्णन उदाहरण सहित कीजिए।
उत्तरः
मानवीय आवश्यकताओं की विशेषताएँ (Characteristics of Human Needs) –
व्यक्ति की आवश्यकताएँ उसके व्यक्तित्व के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। मानवीय आवश्यकताओं की मुख्य विशेषताओं का सामान्य परिचय निम्नलिखित है –

1. आवश्यकताएँ असीमित होती हैं – मनुष्य की आवश्यकताएँ अनन्त तथा असीमित होती हैं, उनको वह कभी भी पूर्ण नहीं कर सकता। मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक आवश्यकताओं से घिरा रहता है। बालक जन्म लेता है तो उसी क्षण से उसको माँ के दूध व वस्त्र की आवश्यकता होती है। जैसे-जैसे बालक बढ़ता जाता है, उसकी आवश्यकताएँ भी बढ़ती जाती हैं। मनुष्य जब मृत्यु के कगार पर होता है, तब भी उसको औषधियों की आवश्यकता होती है।

2. आवश्यकताएँ बार-बार उत्पन्न होती हैं – प्रत्येक मनुष्य के जीवन में आवश्यकताएँ बार-बार उत्पन्न होती हैं; अर्थात् एक व्यक्ति किसी आवश्यकता की कुछ समय के लिए ही सन्तुष्टि कर सकता है। जैसे – मनुष्य भूख लगने पर भोजन करता है, परन्तु वह जिन्दगी भर के लिए एक साथ भोजन नहीं कर सकता। वह अपनी निश्चित समय के लिए तो भूख मिटा सकता है, परन्तु उसको कुछ घण्टों पश्चात् फिर भूख लगेगी और भूख मिटाने के लिए वह फिर भोजन करेगा। इस प्रकार आवश्यकताएँ बार-बार उत्पन्न होती हैं और मनुष्य उनको पूर्ण करने की बार-बार चेष्टा करता है।

3. आवश्यकताओं में प्रतियोगिता रहती है – सभी आवश्यकताओं की प्रकृति समान नहीं होती, उनकी तीव्रता में अन्तर रहता है। सन्तुलित भोजन की आवश्यकता सुन्दर वस्त्र से अधिक है। कार की आवश्यकता बालकों की शिक्षा की आवश्यकता से कम है। सीमित आय के कारण प्रत्येक परिवार को आवश्यकता पूर्ति हेतु प्रबल एवं अधिक अनिवार्य आवश्यकताओं का चुनाव करना होता है; अत: सदैव
अधिक महत्त्वपूर्ण आवश्यकताएँ ही चुनी जाती हैं। इस प्रकार की आवश्यकताओं को मौलिक अथवा प्राथमिक आवश्यकता कहा जाता है।

4. एक आवश्यकता में अनेक आवश्यकताएँ निहित हैं – एक आवश्यकता में अनेक आवश्यकताएँ निहित होती हैं। उदाहरणार्थ-हम एक भवन का निर्माण करते हैं तो भवन का निर्माण पूर्ण होते ही हमारे समक्ष अनेक आवश्यकताएँ आ खड़ी होती हैं। जैसे-भवन की सज्जा के लिए विभिन्न साज-सामान की आवश्यकता पड़ती है आदि।

5. आवश्यकताएँ पूरक होती हैं – आवश्यकताएँ एक-दूसरे की पूरक होती हैं। एक आवश्यकता की पूर्ति के लिए बहुधा एक या दो अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करना अनिवार्य होता है। उदाहरण के लिए कार की आवश्यकता के साथ-साथ पेट्रोल की भी आवश्यकता हुआ करती है।

6. आवश्यकताएँ आदत में परिणत हो जाती हैं – जब आवश्यकताओं को बार-बार सन्तुष्ट किया जाता है तो वे आदत में परिणत हो जाती हैं। मनुष्य उनकी पूर्ति का आदी हो जाता है। ऐसी आदतों की पूर्ति के अभाव में उसे कष्ट होता है। जैसे—प्रारम्भ में बहुत-से व्यक्ति शराब या सिगरेट शौक के लिए पीते हैं, बाद में चलकर यही शौक उनकी आदत में बदल जाता है।

7. आवश्यकताएँ ज्ञान की वृद्धि के साथ-साथ बढ़ती हैं – प्राचीनकाल में जब मनुष्य आदिम अवस्था में था तो उसकी आवश्यकताएँ बहुत सीमित थीं; किन्तु जैसे-जैसे उसके ज्ञान एवं साधनों का विकास होता गया वैसे-वैसे उसकी आवश्यकताएँ भी बढ़ती गईं। आज विज्ञान के युग में जैसे-जैसे व्यक्ति को विभिन्न साधनों एवं सेवाओं की जानकारी प्राप्त होती है, वैसे-वैसे व्यक्ति की आवश्यकताओं में भी वृद्धि होती जाती है। आजकल दूरदर्शन पर आधुनिक जीवन-शैली के विस्तृत प्रदर्शन से व्यक्ति एवं परिवार की आवश्यकताओं में निरन्तर वृद्धि हो रही है।

8. आवश्यकता तथा प्रेरक – प्राणी के विभिन्न व्यवहारों के कारणों को समझने के लिए उसकी विभिन्न आवश्यकताओं को समझना आवश्यक है; क्योंकि आवश्यकताएँ ही उसे किसी विशिष्ट दिशा में गतिशील होने के लिए प्रेरणा देती हैं। प्राणियों की आवश्यकताओं में जातीय और वैयक्तिक रुचि का भेद पाया जाता है। उदाहरणार्थ-मनुष्य जाति की आवश्यकता शेर जाति की आवश्यकता से भिन्न होगी और एक व्यक्ति की आवश्यकता दूसरे व्यक्ति की आवश्यकता से भिन्न होगी। वस्तुतः इस भिन्नता के कारण ही जगत का व्यापार इस प्रकार चल रहा है, अन्यथा उसमें या तो शैथिल्य ही आ जाता या उथल-पुथल मच जाती।

9. वर्तमान सम्बन्धी आवश्यकताएँ अधिक प्रबल होती हैं – मानवीय आवश्यकताएँ अनेक प्रकार की होती हैं। कुछ का सम्बन्ध मुख्य रूप से वर्तमान से ही होता है, जबकि कुछ आवश्यकताएँ भविष्य से सम्बन्धित होती हैं। इन दोनों प्रकार की आवश्यकताओं में से वर्तमान सम्बन्धी आवश्यकताएँ अधिक प्रबल होती हैं। अनेक व्यक्ति भविष्य सम्बन्धी आवश्यकताओं की अवहेलना कर देते हैं, भले ही वे आवश्यकताएँ अधिक महत्त्वपूर्ण ही क्यों न हों।

प्रश्न 3.
मनुष्य की आवश्यकताओं का वर्गीकरण करते हुए प्राथमिक एवं गौण आवश्यकताओं की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
मनुष्य की आवश्यक आवश्यकताएँ कौन-कौन सी होती हैं? इनकी पूर्ति किस प्रकार की जा सकती है?
अथवा
परिवार की आवश्यकताओं को कितने वर्गों में बाँटा जा सकता है? उनके विषय में विस्तार से लिखिए।
उत्तरः
आवश्यकताओं का वर्गीकरण (Classification of Needs) –
मनुष्य की आवश्यकताएँ अन्य प्राणियों से अधिक होती हैं, क्योंकि वह सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। परन्तु कुछ आवश्यकताएँ ऐसी हैं, जो मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी प्राणियों में भी समान रूप में पायी जाती हैं; जैसे-साँस लेना, पानी पीना, भोजन करना, मल-मूत्र त्याग करना तथा अपने शरीर के तापक्रम का एक स्थायित्व बनाए रखना।

इन आवश्यकताओं की पूर्ति के अभाव में प्राणी का जीना कठिन हो जाएगा। इसके अतिरिक्त, कुछ अन्य ऐसी आवश्यकताएँ होती हैं, जिनकी पूर्ति के बिना प्राणी का विकास नहीं होगा। जैसे-कुछ लोगों को दूसरों की अपेक्षा अधिक धन अथवा दूसरों से प्रेम या प्रशंसा पाने की आवश्यकता होती है। जिन आवश्यकताओं की पूर्ति के बिना प्राणी का जीना कठिन हो जाता है, उन्हें प्राथमिक अथवा जन्मजात आवश्यकता कहा जा सकता है और अन्य, गौण या अर्जित आवश्यकताएँ कही जा सकती हैं।

आवश्यकताओं के प्राथमिक तथा गौण वर्गीकरण से यह समझना भूल होगी कि प्राथमिक आवश्यकताएँ अधिक प्रबल होती हैं और गौण आवश्यकताएँ अपेक्षाकृत निर्बल हैं। उदाहरणार्थ-किसी व्यक्ति में दूसरों से प्रशंसा प्राप्त करने की इच्छा इतनी प्रबल हो सकती है कि उसकी धुन में वह अपना स्वास्थ्य खोकर मरने के सन्निकट आ सकता है। ऐसी स्थिति में गौण आवश्यकताओं का प्राधान्य हो जाता है और प्राथमिक आवश्यकताएँ अवरोधित हो जाती हैं। एक अर्थ में, गौण आवश्यकता प्राथमिक आवश्यकता से अधिक महत्त्वपूर्ण बन सकती है। उदाहरणार्थ-व्यक्ति अपनी मानहानि अथवा धन का हरण होने पर आत्महत्या करते देखे जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों को मान अथवा धन के बिना जीना व्यर्थ लगता है और वे आत्महत्या तक कर बैठते हैं।

प्राथमिक जन्मजात आवश्यकताओं में हवा, जल, भोजन तथा आत्मरक्षार्थ अन्य साधारण वस्तुओं का नाम लिया जा सकता है। आत्मरक्षा के अतिरिक्त जाति-रक्षा की भी प्राणी में प्रेरणा होती है। इसी आवश्यकता से प्रेरित होकर वह कामेच्छा की पूर्ति करता है तथा सन्तान उत्पन्न करता है। जैसाकि ऊपर स्पष्ट किया गया है; ऐसी आवश्यकताओं को प्राथमिक अथवा स्वाभाविक आवश्यकता ही कहा जाएगा। इन आवश्यकताओं के अतिरिक्त कुछ अन्य ऐसी आवश्यकताएँ होती हैं, जिन्हें व्यक्ति अपने अनुभव के अनुसार अर्जित करता है।

विभिन्न व्यक्तियों के अनुभव भिन्न-भिन्न होते हैं। अतः उनकी अर्जित आवश्यकताओं में भी बड़ा विभेद पाया जा सकता है। इन आवश्यकताओं के विकास में व्यक्ति की इच्छा और आदत का प्रमुख हाथ होता है। किसी व्यक्ति की इच्छा और आदत-पढ़ने-लिखने, दूसरे से प्रशंसा पाने, देशाटन करने अथवा मकान बनवाने की हो सकती है। तदनुसार उसे विभिन्न वस्तुओं अथवा साधनों की आवश्यकता का अनुभव हो सकता है। इस अनुभव से प्रेरित होकर वह विभिन्न प्रकार की क्रियाशीलता प्रदर्शित कर सकता है।

मनुष्य वैसे तो अपने निजी प्रयत्नों के द्वारा ही अपनी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, किन्तु उसके इस कार्य में समाज एवं राज्य भी पर्याप्त सहायता देते हैं। दोनों संस्थाओं के द्वारा ही उसे वे महत्त्वपूर्ण साधन प्रदान किए जाते हैं, जिनके द्वारा वह अपनी विभिन्न आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करता है। उदाहरणार्थ-समाज तथा राज्य अनेक औद्योगिक एवं व्यावसायिक संस्थानों की स्थापना करते हैं, जिनमें कार्य करके व्यक्ति अपनी अनेक दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धनोपार्जन करता है।

इसी प्रकार से वह अपनी सामाजिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए पारस्परिक सम्बन्धों की स्थापना करता है और समाज के विभिन्न वर्गों की सहायता से ही उसकी शिक्षा, आवास, मनोरंजन तथा अन्य अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। इस प्रकार से हम देखते हैं कि व्यक्तिगत रूप में मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में समाज एवं राज्य पर अवलम्बित होता है।

मनुष्य के जीवन का मुख्य उद्देश्य अपनी आवश्यकताओं की समुचित पूर्ति करना होता है। यदि समुचित प्रयास करने के उपरान्त भी किसी व्यक्ति की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती तो व्यक्ति के जीवन एवं व्यक्तित्व पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इस स्थिति में कभी-कभी व्यक्ति अपनी अभावग्रस्त दशा के लिए समाज को जिम्मेदार मान बैठता है। इस धारणा के प्रबल हो जाने पर कुछ व्यक्ति समाज-विरोधी बन जाते हैं। उदाहरण के लिए यदि व्यक्ति पर्याप्त परिश्रम करके भी अपना तथा अपने परिवार का पालन-पोषण नहीं कर पाता तो इस स्थिति में इस बात की सम्भावना रहती है कि वह व्यक्ति समाज-विरोधी बन जाए तथा चोरी, डकैती आदि गतिविधियों में लिप्त हो जाए।

यदि परिवार के सन्दर्भ में प्रमुख आवश्यकताओं की चर्चा की जाए तो कहा जा सकता है कि परिवार की प्रमुख आवश्यकताएँ हैं-पर्याप्त तथा सन्तुलित भोजन, समुचित वस्त्र, समुचित आवास – व्यवस्था, बच्चों के लिए शिक्षा की व्यवस्था, स्वास्थ्य-रक्षा तथा चिकित्सा सुविधा, मनोरंजन की आवश्यकता, बच्चों की देख-भाल, परिवार के सदस्यों में प्रेम, स्नेह तथा सहयोगपूर्ण सम्बन्धों की आवश्यकता तथा पारिवारिक आय एवं बचत की आवश्यकता। इन सभी आवश्यकताओं की समुचित पूर्ति के लिए व्यक्ति एवं परिवार संयुक्त रूप से प्रयास करते हैं। कुछ आवश्यकताएँ धन आदि भौतिक साधनों द्वारा पूरी होती हैं। इसके लिए व्यक्ति एवं परिवार को आर्थिक प्रयास करने पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ आवश्यकताएँ शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक प्रयासों द्वारा पूरी की जाती हैं। व्यक्ति की अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ति का केन्द्र परिवार ही होता है।

प्रश्न 4.
व्यक्ति की आवश्यकताओं की उत्पत्ति के सामान्य नियमों का उल्लेख कीजिए। परिवार द्वारा आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे होती है?
उत्तरः
यह एक व्यावहारिक दृष्टि से सत्यापित तथ्य है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में असंख्य आवश्यकताएँ अनुभव करता है तथा उनकी पूर्ति के लिए तरह-तरह के प्रयास भी करता है। यदि व्यक्ति की कोई आवश्यकता ही प्रबल न हो तो व्यक्ति की क्रियाशीलता भी घट जाती है। अब प्रश्न उठता है कि कोई व्यक्ति किसी आवश्यकता को क्यों और कैसे अनुभव करता है; अर्थात् आवश्यकताओं की उत्पत्ति कैसे होती है? इस विषय में विभिन्न कारणों को आवश्यकताओं की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार माना गया है। इन कारणों को आवश्यकताओं की उत्पत्ति के नियम भी कहा गया है।

आवश्यकताओं की उत्पत्ति के नियम (Rules of Origin of Needs) –
व्यक्ति की आवश्यकताओं के सम्बन्ध में कुछ प्रमुख नियम हैं, जिनका वर्णन निम्न प्रकार किया जा सकता है –

1. शारीरिक रचना और आवश्यकता – शारीरिक रचना के आधार पर आवश्यकताओं का अनुभव होता है। मनुष्य और जानवरों की आवश्यकताओं में अन्तर होता है। मनुष्यों में आपस में यदि शारीरिक भिन्नता है तो उनकी आवश्यकताओं में अन्तर होगा। जैसे—एक अन्धे व्यक्ति को चश्मे की आवश्यकता नहीं होती, जबकि स्वस्थ व्यक्ति को चश्मे की आवश्यकता हो सकती है। इसी प्रकार दिव्यांग (विकलांग) व्यक्ति को बैसाखियों की आवश्यकता होती है, स्वस्थ व्यक्ति को नहीं। अतः स्पष्ट है कि शारीरिक आवश्यकताओं के निर्धारण में शारीरिक रचना भी एक महत्त्वपूर्ण कारक होता है।

2. आवश्यकताएँ तथा आर्थिक स्थिति – व्यक्ति की आवश्यकताओं की उत्पत्ति के पीछे व्यक्ति की आर्थिक स्थिति का भी विशेष हाथ होता है। यदि व्यक्ति की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होती तो उस दशा में व्यक्ति की आवश्यकताएँ सीमित ही रहती हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपनी मूलभूत या प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति ही कठिनता से कर पाता है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है तथा उसके पास अतिरिक्त धन आ जाता है तो निश्चित रूप से व्यक्ति की आवश्यकताओं में वृद्धि हो जाती है; अर्थात् नित्य नई आवश्यकताएँ उत्पन्न होने लगती हैं। .

3. आवश्यकताएँ और आदत – बहुत-सी आवश्यकताएँ आदत पर निर्भर करती हैं। एक सिगरेट पीने की आदत वाले व्यक्ति को सिगरेट की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत, जिस व्यक्ति को सिगरेट पीने की आदत नहीं होती, उसे सिगरेट की कोई आवश्यकता नहीं होती। आदत का आवश्यकताओं पर बहुत प्रभाव पड़ता है। आवश्यकता पड़ने पर ही व्यक्ति चोरी करता है और वह आदत में बदल जाती है। अतः आवश्यकता और आदत में गहरा सम्बन्ध है।

4. आवश्यकताएँ और संस्कृति – बहुत-सी आवश्यकताएँ संस्कृति पर निर्भर करती हैं। जिस समाज में जिस प्रकार के नियम व रीति-रिवाज होते हैं, उन्हीं के आधार पर मनुष्यों की आवश्यकताएँ निर्धारित होती हैं। खान-पान, रहन-सहन के आधार पर आवश्यकताओं का अनुभव होता है। जैसी समाज की संस्कृति होती है, उसी के अनुसार सम्बन्धित व्यक्तियों को चलना पड़ता है। यदि व्यक्ति समाज के नियमों के विपरीत चलेगा तो समाज में उसका अपमान तथा बहिष्कार भी हो सकता है। अतः . आवश्यकताएँ संस्कृति से सम्बन्धित होती हैं।

5. आवश्यकताएँ और वातावरण – वातावरण का भी व्यक्ति की आवश्यकताओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति जैसे वातावरण में रहता है, उसको वैसी ही आवश्यकता महसूस होती है। उदाहरणार्थ—एक रजाई जाड़ों के दिनों में तन ढकने के काम आती है, परन्तु वही रजाई गर्मियों में बेकार है। अत: वातावरण का भी आवश्यकताओं पर प्रभाव पड़ता है। भौतिक वातावरण के अतिरिक्त सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण भी व्यक्ति की आवश्यकताओं के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

6. व्यक्ति का जीवन के प्रति दृष्टिकोण – व्यक्ति की आवश्यकताओं पर उसके जीवनदर्शन का भी प्रभाव पड़ता है। एक भौतिकवादी दृष्टिकोण वाले व्यक्ति की आवश्यकताएँ, अध्यात्मवादी दृष्टिकोण वाले व्यक्ति की आवश्यकताओं से पर्याप्त भिन्न होती हैं।

7. प्रचलन एवं रीति-रिवाज – सामाजिक प्रचलनों एवं रीति-रिवाजों से भी व्यक्ति की आवश्यकताओं का निर्धारण होता है। बहुत-से व्यक्ति अनेक ऐसी वस्तुएँ खरीदा करते हैं, जो केवल फैशन के लिए ही होती हैं।

8. दिखावा तथा अनुकरण – दिखावे की प्रवृत्ति मनुष्य की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। व्यक्ति बहुत-से कार्य केवल इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप ही करता है। अच्छी तथा कीमती साड़ी खरीदना, दावतों का आयोजन करना आदि कार्य अनेक बार केवल दिखावे के लिए ही किए जाते हैं। इस रूप में दिखावा भी हमारी आवश्यकताओं को प्रभावित करता है।

दिखावे के अतिरिक्त अनुकरण भी एक महत्त्वपूर्ण कारक है, जो हमारी आवश्यकताओं को प्रभावित करता है। ऐसा प्रायः देखा या सुना जाता है कि अमुक पड़ोसिन ने रंगीन टी०वी० ले लिया है; अतः हम भी लेंगे। अमुक परिवार के बच्चे कॉन्वेण्ट में पढ़ते हैं, इसलिए हमारे बच्चे भी कॉन्वेण्ट में ही पढ़ेंगे। इस प्रकार अनुकरण की भावना से अनेक आवश्यकताएँ निर्धारित होती हैं।

(नोट-‘परिवार द्वारा आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे होती है?’ इस प्रश्न के उत्तर के लिए अध्याय 18 का विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 2 का उत्तर देखें।)

प्रश्न 5.
भग्नाशा का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। भग्नाशा की उत्पत्ति के कारणों एवं परिस्थितियों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
भग्नाशा से आप क्या समझती हैं? अथवा भग्नाशा के कारणों का वर्णन कीजिए।
अथवा
भग्नाशा का क्या आशय है? भग्नाशा उत्पन्न होने के क्या कारण हैं?
उत्तरः
सामान्य रूप से प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में विभिन्न इच्छाओं एवं सम्बन्धित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यथाशक्ति प्रयास किया करता है। अपने प्रयासों से व्यक्ति द्वारा कुछ या अधिकांश आवश्यकताओं को पूरा कर लिया जाता है तथा कुछ आवश्यकताएँ बिना पूरी हुए ही रह जाती हैं या उन्हें प्राप्त करने का प्रयास छोड़ दिया जाता है। इन परिस्थितियों में जीवन सामान्य रूप से चलता रहता है।

इससे भिन्न कुछ व्यक्तियों के जीवन में कुछ परिस्थितियों एवं कारणों के परिणामस्वरूप उनकी अधिकांश इच्छाएँ एवं आवश्यकताएँ पूर्ण नहीं हो पातीं। ऐसे व्यक्तियों के मन में इच्छाएँ भी जाग्रत होती हैं तथा वे सम्बन्धित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यथाशक्ति प्रयास भी करते हैं, परन्तु निरन्तर प्रयास करने के उपरान्त भी उन्हें अभीष्ट सफलता नहीं प्राप्त होती। इस स्थिति में वे निराश होकर प्रयास करना भी छोड़ देते हैं। निराशा की इस स्थिति को ही भग्नाशा या कुण्ठा (frustration) कहा जाता है।

भग्नाशा का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Frustration) –
शाब्दिक रूप से कहा जा सकता है कि व्यक्ति की आशाओं के भग्न हो जाने के परिणामस्वरूप उत्पन्न मानसिक स्थिति ही भग्नाशा है। व्यक्ति के जीवन में अनेक प्रेरणाएँ निरन्तर रूप से सक्रिय रहा करती हैं। ये प्रेरणाएँ व्यक्ति को सम्बन्धित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रयास करने को बाध्य करती हैं तथा व्यक्ति प्रयास करता है। कभी-कभी समस्त प्रयास करने पर भी व्यक्ति अपने उद्देश्य को प्राप्त . करने में असफल ही रहता है। इस निरन्तर असफलता के कारण व्यक्ति को निराशा का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार की निराशा व्यक्ति को तनावग्रस्त बना देती है। निरन्तर रहने वाली निराशा एवं तनाव की स्थिति व्यक्ति को पूर्ण रूप से असन्तुष्ट तथा पराजित बना देती है। यही मानसिक स्थिति भग्नाशा या कुण्ठा कहलाती है।

भग्नाशा को प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मन ने इन शब्दों में परिभाषित किया है – “भग्नाशा या कुण्ठा जीव की वह अवस्था है, जो किसी प्रेरणात्मक व्यवहार की सन्तुष्टि के कठिन अथवा असम्भव हो जाने के कारण उत्पन्न होती है।” (“Frustration is a state of organism resulting when the motivated behaviour is rendered difficult or impossible.”- N. L. Munn).

कोलमैन ने भी भग्नाशा की स्थिति का स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार व्यक्ति की प्रेरणाओं के निरन्तर कण्ठित होने से जो आघात की स्थिति उत्पन्न होती है. उसी के परिणामस्वरूप भग्नाशा की मानसिक स्थिति आ जाती है। इस स्थिति के लिए कोलमैन ने मुख्य रूप से दो कारणों को जिम्मेदार माना है। प्रथम कारण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यदि व्यक्ति द्वारा निर्धारित उद्देश्य की प्राप्ति के मार्ग में निरन्तर बाधाएँ आती हैं तो एक स्थिति में भग्नाशा उत्पन्न हो सकती है।

द्वितीय कारण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यदि व्यक्ति के सम्मुख कोई निश्चित एवं समुचित उद्देश्य ही न हो तो भी क्रमश: भग्नाशा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यह भी कहा जा सकता है कि यदि व्यक्ति के प्रेरकों की सन्तुष्टि नहीं होती तथा उनमें संघर्ष होते हैं, तो भग्नाशा या कुण्ठा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। भग्नाशा का प्रतिकूल प्रभाव व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर पड़ सकता है।

भग्नाशा के कारण एवं परिस्थितियाँ (Causes and Conditions of Frustration) –
भग्नाशा के उत्पन्न होने के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित कारण एवं परिस्थितियाँ जिम्मेदार होती है –

1. वस्तु द्वारा उत्पन्न बाधा-अनेक बार वस्तु-विशेष के द्वारा भी भग्नाशा की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। उदाहरण के लिए मान लीजिए, व्यक्ति कोई महत्त्वपूर्ण पत्र लिखना चाह रहा हो, परन्तु उस समय उसे पर्याप्त खोज करने पर भी अपना पेन या सम्बन्धित व्यक्ति के घर का पता न मिले, तो निश्चित रूप से व्यक्ति की खीज बढ़ जाती है तथा अन्तत: वह भग्नाशा का शिकार हो सकता है। यह भग्नाशा, वस्तु द्वारा उत्पन्न होने वाली भग्नाशा ही कही जाएगी।

2. व्यक्ति द्वारा उत्पन्न बाधा-यह स्थिति पहली स्थिति से अधिक भयंकर है। यदि हम किसी चुनाव में खड़े होते हैं और विजय प्राप्त करना चाहते हैं, तो बिल्कुल यही इच्छा किसी दूसरे व्यक्ति के मन में भी उत्पन्न हो सकती है और परिणामस्वरूप दो विरोधी पक्ष बन जाते हैं। दूसरे व्यक्ति के द्वारा हमारे मार्ग में उत्पन्न बाधा हमें निराश कर देती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम स्वयं किसी इच्छा की पूर्ति किसी अन्धविश्वास अथवा किसी दूसरे के कहने के कारण नहीं कर पाते और इस प्रकार निराश होकर रह जाते हैं।

3. दो धनात्मक प्रेरकों का संघर्ष-कभी-कभी एक ही व्यक्ति में दो प्रबल भावनाएँ एक साथ कार्य .करती हैं। एक माँ का बालक उच्च शिक्षार्जन के लिए विदेश जा रहा है। एक ओर माँ की ममता उसे अपने पास रखना चाहती है, पर दूसरी ओर पुत्र के हित की भावना उससे पुत्र को विदेश भेजने का आग्रह करती है। इस स्थिति में दोनों प्रेरकों में से एक चुनना पड़ता है। जिस प्रेरक का मार्ग चुना जाता है, उससे सम्बन्धित क्रियाचक्र पूर्ण हो जाता है, परन्तु दूसरे का अधूरा रह जाता है। यह स्थिति भी भग्नाशा को जन्म दे सकती है।

4. एक धनात्मक एवं एक ऋणात्मक प्रेरक का संघर्ष-जब व्यक्ति में एक धनात्मक प्रेरक उसे आगे ले जाने वाला तथा दूसरा ऋणात्मक प्रेरक (सुस्ती, भय, दूसरों द्वारा आलोचना) परस्पर संघर्ष में आ जाए और व्यक्ति दुविधा में पड़ जाए, तो भी भग्नाशा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसे समय में व्यक्ति अपना मार्ग नहीं चुन पाता है।

5. व्यक्तिगत दोष एवं सीमाएँ-कुछ परिस्थितियों में व्यक्ति के शारीरिक अथवा मानसिक दोष भी भग्नाशा उत्पन्न कर देते हैं। उदाहरण के लिए दिव्यांग (विकलांग) बालक भाग-दौड़ वाले खेलों से वंचित रह जाता है और आगे चलकर जीवन में अधिक परिश्रम न कर सकने के कारण अपनी आवश्यकता के अनुसार धनोपार्जन नहीं कर सकता। इस प्रकार से शारीरिक दोषों के कारण आवश्यकताओं की पूर्ति न हो पाने की वजह से व्यक्ति कुण्ठित हो जाता है।

6. सामर्थ्य से उच्च आकांक्षाएँ-प्रत्येक व्यक्ति की कुछ आकांक्षाएँ होती हैं। प्रत्येक आकांक्षा को पूरा करने के लिए कुछ-न-कुछ सामर्थ्य की आवश्यकता होती है। यदि व्यक्ति की आकांक्षाएँ इतनी ऊँची हों कि उन्हें पूरा करने के लिए व्यक्ति में सामर्थ्य ही न हो, तो इस स्थिति में मानसिक संघर्ष के प्रबल हो जाने पर भग्नाशा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

7. नैतिक परिस्थितियाँ-कुछ नैतिक परिस्थितियाँ एवं सम्बन्धित नैतिक मानदण्ड भी व्यक्ति के जीवन में भग्नाशा या कुण्ठा को जन्म देते हैं। उदाहरण के लिए प्रत्येक समाज में यौन सम्बन्धों के सन्दर्भ में कुछ नैतिक पूर्व-धारणाएँ प्रचलित होती हैं। इन नैतिक मान्यताओं से प्रभावित एवं बाध्य होकर अनेक बार व्यक्ति निराश एवं हताश हो जाते हैं तथा यही निराशा भग्नाशा या कुण्ठा को जन्म देती है।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 17 लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
व्यक्ति के जीवन में आवश्यकताओं के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
जीवन में आवश्यकताओं का महत्त्व –
व्यक्ति के जीवन में आवश्यकताओं का अत्यधिक महत्त्व होता है। वास्तव में व्यक्ति के जीवन के संचालन में उसकी आवश्यकताओं के द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जाती है। जीवन का सुचारु संचालन वास्तव में व्यक्ति की आवश्यकताओं के ही माध्यम से होता है। व्यक्ति अनवरत रूप से विभिन्न आवश्यकताओं को अनुभव करता है, अनुभव की गई आवश्यकताओं की प्राथमिकता को निर्धारित करता है तथा तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यथासम्भव प्रयास करता है।

समुचित प्रयासों द्वारा वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। इस प्रक्रिया के माध्यम से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति से व्यक्ति को एक प्रकार के सुख एवं सन्तोष की प्राप्ति होती है। इसके साथ-साथ व्यक्ति कुछ अन्य इच्छाओं को आवश्यकता की श्रेणी में सम्मिलित कर लेता है तथा उनकी पूर्ति के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। इस प्रकार व्यक्ति का जीवन अग्रसर होता रहता है। आवश्यकताओं के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि ‘आवश्यकताओं का जन्म जीवन के अस्तित्व व सुख के लिए होता है।’

प्रश्न 2.
आवश्यकताओं की पूर्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले अथवा बाधक कारकों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
मनुष्य की आवश्यकताएँ किन कारणों से अपूर्ण रह जाती हैं?
उत्तरः
आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधक कारक –
मनुष्य की आवश्यकताएँ असंख्य होती हैं तथा सभी आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो पातीं। वास्तव में मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के मार्ग में अनेक बाधाएँ उत्पन्न हुआ करती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि मानवीय आवश्यकताओं को विभिन्न कारक प्रभावित करते हैं। इस प्रकार के कुछ कारकों का संक्षिप्त विवरण निम्नवर्णित है –

1. निर्धनता अथवा आर्थिक कारक-व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति के मार्ग में प्रमुख बाधक कारक है धन की कमी या निर्धनता। धनाभाव के कारण मनुष्य अपनी अनिवार्य आवश्यकता को जब पूरा नहीं कर पाता है तो वह समाज का शत्रु बन जाता है। जब उसे भोजन नहीं मिलेगा तो वह चोरी करेगा, लड़ाई-झगड़े करेगा, दूसरे से धन छीनने का प्रयत्न करेगा। गरीब मनुष्य को रिश्तेदार भी हीनता की दृष्टि से देखते हैं। ऐसी अवस्था में व्यक्ति समाज-विरोधी भी बन सकता है।

2. समाज-मनुष्य समाज में रहकर ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। यदि समाज के विभिन्न वर्गों में परस्पर सहयोग की भावना होगी तो आवश्यकताओं की पूर्ति भी सुचारु रूप से होती रहेगी। यदि समाज के विभिन्न वर्ग एक-दूसरे के प्रति विरोधी भावना रखेंगे तो आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा पड़ेगी। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आवश्यकताओं को प्रभावित करने वाले कारकों में समाज का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

3. अज्ञान-विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सम्बन्धित ज्ञान की भी आवश्यकता होती है। समुचित ज्ञान के अभाव की स्थिति में आवश्यकताओं की पूर्ति प्राय: सम्भव नहीं हो पाती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अज्ञान भी आवश्यकताओं की पूर्ति के मार्ग में एक बाधा है।

प्रश्न 3.
निरन्तर बनी रहने वाली भग्नाशा की स्थिति के परिणामों का उल्लेख कीजिए। अथवा टिप्पणी लिखिए-भग्नाशा के परिणाम।
उत्तरः
भग्नाशा के परिणाम निरन्तर बनी रहने वाली भग्नाशा का व्यक्ति के जीवन पर गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। वास्तव में यदि व्यक्ति भग्नाशा का शिकार हो तो उसके जीवन में विभिन्न प्रेरणाओं का कोई महत्त्व नहीं रह जाता; अर्थात् उस व्यक्ति के लिए प्रेरणाएँ निरर्थक हो जाती हैं। इस स्थिति में व्यक्ति किसी भी कार्य को करने के लिए प्रेरित नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपने जीवन को सुचारु रूप से नहीं चला पाता; क्योंकि वह जीवन की सामान्य गतिविधियों को पूरा नहीं कर पाता। व्यक्ति अपने जीवन में हर प्रकार से अभावग्रस्त होने लगता है। उसे सुख, सन्तोष एवं आनन्द की कदापि प्राप्ति नहीं हो पाती। वह न तो उन्नति ही कर पाता है और न ही प्रगति। भग्नाशाग्रस्त व्यक्ति प्रायः निराश, हताश एवं उदासीन बना रहता है। निरन्तर भग्नाशा की स्थिति बनी रहने पर विभिन्न मानसिक रोग हो जाने की भी आशंका रहती है। यही नहीं, प्रबल भग्नाशाग्रस्त व्यक्ति आत्महत्या तक कर सकता है।

प्रश्न 4.
भग्नाशा की स्थिति से छुटकारा पाने के लिए उपयोगी सुझाव दीजिए।
उत्तरः
भग्नाशा से छुटकारा पाने के उपयोगी सुझाव –
भग्नाशा को दूर करने के लिए इसको जन्म देने वाले शारीरिक, सामाजिक व मानसिक कारणों को दूर करना आवश्यक है। भग्नाशाग्रस्त व्यक्ति के साथ समाज का व्यवहार कोमल तथा सौहार्दपूर्ण होना चाहिए और उसकी समस्याओं पर सहानुभूति से विचार करना चाहिए। स्वयं व्यक्ति को भी अपने मन में हीनता की भावना नहीं लानी चाहिए और असन्तोष का परित्याग करते हुए जीवनयापन करना चाहिए। किसी प्रबल प्रेरक को जीवन में स्थान देकर भी भग्नाशा से बचा जा सकता है। भग्नाशा के शिकार हुए व्यक्ति के मित्रों, परिवार के सदस्यों तथा अन्य सम्बन्धित व्यक्तियों का यह कर्त्तव्य होता है कि वे उसे प्रोत्साहित करें तथा जीवन की यथार्थता के प्रति अनुकूल दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करें।

एक बार प्रबल प्रेरणा प्राप्त हो जाने पर भग्नाशा से मुक्त होना सरल हो जाता है। कुशल निर्देशन एवं परामर्श द्वारा भी भग्नाशा से मुक्त हो सकते हैं। भग्नाशा के शिकार व्यक्ति को सुझाव देना चाहिए कि उसका जीवन उसके लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है तथा उसे जीवन में अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य करने हैं। भग्नाशा के शिकार व्यक्ति के सम्मुख उन महान व्यक्तियों के उदाहरण प्रस्तुत किए जाने चाहिए, जिन्होंने अपने स्वयं के प्रयासों, परिश्रम एवं आत्म-विश्वास के बल पर विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है। यदि कुण्ठित व्यक्ति में एक बार आत्म-विश्वास जाग्रत हो जाए तो वह शीघ्र ही भग्नाशा से मुक्त हो सकता है।

प्रश्न 5.
वे कौन-सी विभिन्न आवश्यकताएँ हैं जिनकी बाल्यकाल में पूर्ति न होने के कारण किशोरावस्था में भग्नाशा तथा असामंजस्य उत्पन्न हो जाता है? कारण सहित समझाइए।।
अथवा
वे कौन-सी आवश्यकताएँ हैं जिनकी पूर्ति न होने पर बच्चों में भग्नाशा उत्पन्न हो जाती है?
उत्तरः
प्रत्येक बालक की अनेक ऐसी आवश्यकताएँ होती हैं जो कि उसके बाल्य जीवन में पूर्ण नहीं होती हैं; अतः किशोरावस्था एवं भावी जीवन में उसे भग्नाशा का शिकार होना पड़ता है। बालक की इस प्रकार की मुख्य आवश्यकताएँ निम्नलिखित हैं-

1. उचित पालन-पोषण की आवश्यकता – यदि किसी बालक को खाने के लिए उचित भोजन तथा पहनने के लिए उचित वस्त्र नहीं मिलेंगे तो वह चिड़चिड़े स्वभाव का बन जाता है तथा आगे चलकर जब उसकी किशोरावस्था आती है तो वह समाज के साथ प्रायः सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाता। उसका व्यवहार असामान्य हो जाता है तथा वह अनेक बार प्रबल भग्नाशा का शिकार हो जाता है।

2. माता-पिता के प्यार और संरक्षण की आवश्यकता – यदि किसी बच्चे को बचपन में माता-पिता का प्यार नहीं मिलता तो वह किशोरावस्था में अपने माता-पिता के प्रति बिल्कुल भी कर्तव्यपरायण नहीं रहता है तथा उनको घृणा की दृष्टि से देखता है। इस प्रकार का अभावग्रस्त किशोर भी प्राय: असामान्य एवं कुण्ठित व्यक्तित्व वाला बन जाता है।

3. यौन-शिक्षा की आवश्यकता – प्रत्येक व्यक्ति में बचपन से ही यौनेच्छाएँ विद्यमान रहती हैं। यदि बाल्यावस्था से ही उसे उचित यौन शिक्षा नहीं दी जाती है तो वह अनावश्यक व अनैतिक प्रकार के कार्य करने लगता है तथा अपने रास्ते से हटकर, नैतिकता से पतन की दिशा में अग्रसर हो जाता है। स्पष्ट है कि समुचित यौन-शिक्षा के अभाव में व्यक्ति भग्नाशा का शिकार हो सकता है तथा उसका व्यवहार असामान्य हो सकता है।

4. जिज्ञासा और संवेगात्मक भावनाओं की पूर्ति की आवश्यकता – प्रत्येक व्यक्ति में बचपन से ही जिज्ञासा प्रबल होती है। वह यह जानने की पूर्ण कोशिश करता है कि अमुक कार्य कैसे और क्यों किया जा रहा है। अगर उसकी जिज्ञासा प्रवृत्ति प्रारम्भ से ही दबा दी जाती है तो निश्चय ही वह भग्नाशा का शिकार हो जाता है। अत: प्रत्येक बालक की जिज्ञासा तथा संवेगात्मक भावनाओं की पूर्ति का होना नितान्त आवश्यक है।

5. उचित नियन्त्रण की आवश्यकता – प्रत्येक बालक का प्रारम्भ से ही कोमल मस्तिष्क होता है। प्रत्येक बात का प्रभाव उसके मस्तिष्क पर तुरन्त पड़ता है। अगर बालक कोई गलती करता है तो उसे समझा-बुझाकर किसी कार्य को करने के लिए कहना चाहिए। अगर इस बात के स्थान पर उसे मार-पीटकर समझाने की कोशिश की जाएगी तो वह किशोरावस्था में जाकर बिगड़ जाएगा। अत: बाल्यकाल में बालक पर उचित नियन्त्रण की परम आवश्यकता है।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 17  अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
‘आवश्यकता’ की एक सरल एवं स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तरः
“आवश्यकता व्यक्ति की उस इच्छा को कहते हैं जिसकी पूर्ति के लिए उसके पास पर्याप्त साधन हों और वह उन साधनों को उस इच्छा की पूर्ति हेतु लगाने को तत्पर हो।” – (पैन्सन)

प्रश्न 2.
मुख्य मानवीय आवश्यकताएँ कौन-कौन सी हैं? अथवा मनुष्य की मूल आवश्यकताएँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तरः
मनुष्य की मुख्य (मूल) आवश्यकताएँ हैं – क्रमशः पर्याप्त तथा सन्तुलित भोजन, समुचित वस्त्र, समुचित आवास-व्यवस्था, बच्चों के लिए शिक्षा-व्यवस्था, स्वास्थ्य-रक्षा तथा चिकित्सा सुविधा, मनोरंजन के साधन तथा बच्चों की देखभाल।

प्रश्न 3.
मानवीय आवश्यकताओं की चार मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः

  1. आवश्यकताएँ असीमित होती हैं।
  2. आवश्यकताएँ बार-बार उत्पन्न होती हैं।
  3. आवश्यकताओं में प्रतियोगिता होती है।
  4. आवश्यकताएँ ज्ञान की वृद्धि के साथ-साथ बढ़ती हैं।

प्रश्न 4.
आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा पड़ने से मनुष्य समाज विरोधी क्यों हो जाता है? उदाहरण दीजिए।
उत्तरः
यदि अत्यधिक प्रयास करने पर भी व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाता तथा उसे विभिन्न बाधाओं का सामना करना पड़ता है तो वह इसके लिए समाज को जिम्मेदार मानने लगता है तथा उसका व्यवहार प्रायः समाज विरोधी हो जाता है। उदाहरण के लिए जीविका-उपार्जन न कर पाने वाला व्यक्ति चोरी कर सकता है।

प्रश्न 5.
भग्नाशा से क्या आशय है?
उत्तरः
व्यक्ति की आशाओं के भग्न हो जाने के परिणामस्वरूप उत्पन्न मानसिक स्थिति को भग्नाशा कहते हैं।

प्रश्न 6.
भग्नाशा के दो कारण लिखिए।
उत्तरः

  1. अधिकांश इच्छाओं एवं आवश्यकताओं का पूर्ण न होना।
  2. जीवन में प्रेरणाओं का अभाव होना।

प्रश्न 7.
निरन्तर भग्नाशा की स्थिति का व्यक्ति के व्यक्तित्व पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तरः
निरन्तर भग्नाशा की स्थिति बनी रहने से व्यक्ति का व्यक्तित्व विघटित हो जाता है।

प्रश्न 8.
व्यक्तियों में भग्नाशा उत्पन्न करने वाले सामान्य प्राकृतिक कारक बताइए।
उत्तरः
व्यक्तियों में भग्नाशा उत्पन्न करने वाले सामान्य प्राकृतिक कारक हैं-भूकम्प, बाढ़ अथवा सूखा तथा महामारी आदि प्राकृतिक आपदाएँ।

प्रश्न 9.
भग्नाशा की स्थिति से मुक्त होने का सर्वोत्तम उपाय क्या है?
उत्तरः
भग्नाशा की स्थिति से मुक्त होने का सर्वोत्तम उपाय है—किसी प्रबल प्रेरणा को उत्पन्न करना।

प्रश्न 10.
बच्चों को भग्नाशा से कैसे बचाया जा सकता है?
उत्तरः
उचित परामर्श द्वारा बच्चों को भग्नाशा से बचाया जा सकता है।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 17 बहविकल्पीय प्रश्नोत्तर

निर्देश : निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चयन कीजिए –
1. आवश्यकता व्यक्ति की वह इच्छा है, जिसकी पूर्ति के लिए उसके पास पर्याप्त होने चाहिए –
(क) धन
(ख) साधन
(ग) प्रतिष्ठा
(घ) बचत।
उत्तरः
(ख) साधना

2. परिवार की सर्वाधिक अनिवार्य आवश्यकता है –
(क) भव्य भवन
(ख) भोजन
(ग) मोटर कार
(घ) ये सभी।
उत्तरः
(ख) भोजन।

3. मनुष्य की आवश्यक आवश्यकता क्या है –
(क) टी० वी०
(ख) भोजन
(ग) पढ़ाई
(घ) मनोरंजन।
उत्तरः
(ख) भोजन।

4. मानव की मूलभूत आवश्यकताएँ कौन-कौन सी हैं –
(क) मनोरंजन
(ख) घूमना
(ग) रोटी, कपड़ा और मकान
(घ) व्यायाम।
उत्तरः
(ग) रोटी, कपड़ा और मकान।

5. व्यक्ति की गौण आवश्यकता माना जाता है –
(क) सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार
(ख) प्राकृतिक कारकों से रक्षा करने वाले वस्त्र
(ग) भव्य भवन एवं कीमती गहने
(घ) शिक्षा एवं स्वास्थ्य रक्षा।
उत्तरः
(ग) भव्य भवन एवं कीमती गहने।

6. एक से अधिक कारें, भव्य भवन तथा बहुमूल्य गहने किस वर्ग की आवश्यकताएँ हैं –
(क) प्राथमिक आवश्यकता
(ख) आरामदायक आवश्यकता
(ग) विलासात्मक आवश्यकता
(घ) अनावश्यक आवश्यकता।
उत्तरः
(ग) विलासात्मक आवश्यकता।

7. भग्नाशा को समाप्त किया जा सकता है –
(क) विवाह करके
(ख) औषधियों द्वारा
(ग) पर्याप्त धन उपलब्ध कराकर
(घ) प्रबल प्रेरणा द्वारा।
उत्तरः
(घ) प्रबल प्रेरणा द्वारा।

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