UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 16 Source of Income and Items of Expenditure of U.P. Government

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 16
Chapter Name Source of Income and Items of Expenditure of U.P. Government (उत्तर प्रदेश सरकार की आय के स्रोत तथा व्यय की मदें)
Number of Questions Solved 27
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 16 Source of Income and Items of Expenditure of U.P. Government (उत्तर प्रदेश सरकार की आय के स्रोत तथा व्यय की मदें)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
अपने राज्य की सरकार की आय के प्रमुख स्रोतों और व्यय की प्रमुख मदों का विवरण दीजिए। [2006, 09, 11, 12]
या
प्रदेश सरकार की आय के किन्हीं तीन स्रोतों तथा व्यय की किन्हीं तीन मदों का वर्णन कीजिए। [2013]
या
राज्य सरकार की कर आय के प्रमुख स्रोतों का वर्णन कीजिए। [2015, 16]
उत्तर:
प्रदेश सरकार की आय के प्रमुख स्रोत

1. मालगुजारी – यह राज्य सरकार की आय का एक प्रमुख स्रोत है। यह बहुत प्राचीन समय से चला आ रहा है तथा उन व्यक्तियों को देना होता है जिनके पास कृषि भूमि होती है। मालगुजारी निर्धारित करते समय देश के विभिन्न राज्यों में पृथक्-पृथक् नीतियाँ अपनायी गयी हैं। यह भूमि पर लगाया गया एक अवरोही कर है, क्योंकि यह निर्धन तथा धनवान लोगों को समान रूप से देना होता है। मालगुजारी या तो स्थायी होती है अथवा समय-समय पर राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाती है। मालगुजारी या भू-राजस्व का एक प्रमुख गुण यह है कि इनसे राज्य सरकारों को एक निश्चित धनराशि प्राप्त होती है तथा दूसरा प्रमुख गुण यह है कि यह कर सुविधाजनक है, क्योंकि यह कृषकों से उनके निवास स्थान से फसल आने के पश्चात् अमीनों द्वारा वसूल किया जाता है तथा यदि फसल खराब हो जाती है तो सरकार लगान माफ भी कर देती है अथवा कुछ छूट देती है।

2. राज्य उत्पादन कर – भारत के नवीन संविधान के अनुसार केन्द्रीय उत्पादन कर का एक भाग तो राज्य सरकारों को प्राप्त होता ही है, साथ ही उन्हें कुछ नशीली वस्तुओं; जैसे-शराब, अफीम तथा औषधियों पर उत्पादन करे लगाने का अधिकार दिया गया है। ऐसी वस्तुओं के उत्पादन पर राज्य सरकार द्वारा लगाये गये कर ही राज्य उत्पादन कर’ के नाम से जाने जाते हैं। इस कर से उन राज्यों को पर्याप्त आय होती है जिनमें मद्य निषेध लागू नहीं हैं। इस कर को दो उद्देश्यों से लगाया जाता है-प्रथम, आय प्राप्त करने के लिए और द्वितीय, मादक पदार्थों के उपभोग को कम करने के लिए। अब भारत में कुछ राज्यों ने अपने यहाँ मद्य-निषेध लागू कर दिया है।

3. कृषि आयकर – भारत के संविधान के अनुसार राज्य सरकारों को अपने-अपने राज्य में कृषि आयकर लगाने का अधिकार दिया गया है। यह कर कृषकों पर प्रगतिशील दरों पर लगाया जाता है तथा उन व्यक्तियों पर ही लगाया जाता है जिनके पास सीमा से अधिक भूमि होती है।

4. बिक्री-कर – बिक्री-कर राज्य की आय का एक प्रमुख स्रोत है। समाचार-पत्रों को छोड़कर अन्य वस्तुओं की बिक्री पर कर लगाने का अधिकार संविधान के अनुसार राज्य सरकारों को दिया गया है। यह कर एक अवरोही कर होता है। इसका भार निर्धन व्यक्तियों पर अधिक पड़ता है, क्योंकि निर्धन व्यक्ति अपनी आय का लगभग शत-प्रतिशत अपनी आवश्यकता की वस्तुओं को खरीदने पर व्यय करते हैं।

5. प्रशासनिक प्राप्तियाँ – राज्य को अपने प्रशासनिक विभागो, जैसे न्यायालय, जेल, पुलिस, शिक्षा चिकित्सा आदि से फीस और शुल्क के रूप में भी कुछ आय प्राप्त होती है।

6. राजकीय व्यवसाय से प्राप्त आय – राज्य सरकार को सार्वजनिक व्यवसायों से भी आय प्राप्त होती है, उनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं

  •  सार्वजनिक उद्योग – राज्य सरकार कुछ व्यावसायिक कार्यों का संचालन करती है जिनसे उन्हें प्रतिवर्ष कुछ आय प्राप्त होती हैं; जैसे – चुर्क सीमेण्ट का कारखाना आदि से आय।
  •  सिंचाई कार्य – सरकार ने सिंचाई व्यवस्था के लिए नहरें एवं नलकूपों की व्यवस्था की हुई है। सरकारी नहरों व नलकूपों से सिंचाई शुल्क के रूप में उत्तर प्रदेश सरकार को आय प्राप्त होती है।
  • सार्वजनिक निर्माण कार्य – उत्तर प्रदेश सरकार को सरकारी सम्पत्तियों, जैसे – सरकारी मकान, सड़कें, पुल आदि से भी आय प्राप्त होती है।
  •  वनों से आय – राज्य सरकारों को वनों से भी आय प्राप्त होती है। वनों को ठेकों पर देकर तथा उनकी लकड़ी, छाल, कत्था आदि की बिक्री से भी आय प्राप्त होती है।
  •  सड़क तथा जल परिवहन – उत्तर प्रदेश सरकार को सड़क परिवहन तथा जल परिवहन सेवाओं से भी आय प्राप्त होती है।

7. आय-प्राप्ति के अन्य साधन – उत्तर प्रदेश सरकार को अन्य साधनों से भी आय प्राप्त होती है, जिनमें कुछ निम्नलिखित हैं

  • विद्युत शुल्क – राज्य सरकार को विद्युत शुल्क से आय प्राप्त होती है।
  •  यात्री कर – जो व्यक्ति राज्य सड़क परिवहन की बसों में यात्रा करते हैं, उन्हें किराये के अतिरिक्त यात्रा कर भी देना होता है, जिससे राज्य सरकार को आय प्राप्त होती है।
  • स्टाम्प शुल्क – सरकार को स्टाम्प की बिक्री से भी आय प्राप्त होती है।
  •  रजिस्ट्रेशन शुल्क – अचल सम्पत्तियों की बिक्री के लिए सम्पत्ति की रजिस्ट्री कराना अनिवार्य है इसके लिए रजिस्ट्रेशन शुल्क लिये जाते हैं इसी प्रकार संस्था समितियों आदि का रजिस्ट्रेशन कराने पर भी रजिस्ट्रेशन शुल्क देना होता है जिससे सरकार को पर्याप्त आय प्राप्त होती है।
  • मनोरंजन कर – उत्तर प्रदेश सरकार चल-चित्रों, थियेटरो नाटक व अन्य मनोरंजन के साधनों पर कर लगाती है। इससे भी उत्तर प्रदेश सरकार को पर्याप्त आय प्राप्त होती है।

8. आयकर में राज्यों का भाग – आय कर लगाने और वसूल करने का अधिकार केन्द्रीय सरकार का है, परन्तु इस आय में से एक निश्चित भाग राज्यों में बाँटा जाता है। केन्द्रीय उत्पादन करों में राज्यों का हिस्सा – वित्त आयोग की सिफारिश पर केन्द्रीय उत्पादन करों से प्राप्त आय में से एक निश्चित धनराशि प्राप्त होती है।
9. सहायता एवं अनुदान – केन्द्रीय सरकार राज्य सरकारों को अनुदान देती है जिससे वे अपनी पंचवर्षीय योजनाओं एवं विकास कार्यों को क्रियान्वित कर सकें। उत्तर प्रदेश सरकार को भी केन्द्रीय सरकार से अनुदान प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त राज्यों को बाढ़, सूखा, भूकम्प आदि प्राकृतिक विपदाओं से निपटाने के लिए भी केन्द्रीय सरकार विशेष सहायता प्रदान करती है।

उत्तर प्रदेश सरकार की व्यय की प्रमुख मदें
राज्य सरकार के होने वाले समस्त व्ययों को निम्नलिखित दो भागों में विभाजित कर सकते हैं
(अ) विकास व्यय तथा
(ब) गैर-विकास व्यय।

(अ) विकास व्यय

विकास व्यय को पुन: निम्नलिखित दो भागों में विभाजित कर सकते हैं
(क) प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक विकास करने वाली मदे – राज्य सरकारें अपने राज्यों में प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक विकास करने के लिए अग्रलिखित मदों पर व्यय करती हैं

1. कृषि – प्रदेश की सरकार कृषि विकास हेतु विभिन्न कार्यों पर प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये व्यय करती है; जैसे-कृषि प्रदर्शनियों का आयोजन, आदर्श कृषि फार्मों की स्थापना, पौधों के संरक्षण की व्यवस्था, कृषि शिक्षा, कृषि अनुसन्धान आदि।

2. सहकारिता – राज्य सरकार सहकारिता विभाग का संचालन करने के लिए तथा सहकारी समितियों को आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए प्रतिवर्ष बड़ी मात्रा में धन खर्च करती है।

3. पशुपालन – पशुपालन सम्बन्धी कार्यों पर हमारे प्रदेश की सरकार को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये व्यय करने होते हैं; जैसे-पशुओं की चिकित्सा, पशु चिकित्सालयों की व्यवस्था करना, पशुओं की नस्ल में सुधार, कृत्रिम गर्भाधान की व्यवस्था आदि।

4. उद्योग – धन्धे प्रदेश की सरकार अपने प्रदेश में लघु उद्योगों तथा बड़े उद्योगों का विकास करने के लिए प्रतिवर्ष पर्याप्त मात्रा में धन व्यय करती है। औद्योगिक एवं तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था हेतु राज्य सरकार के व्यय में वृद्धि जा रही है।

5. सिंचाई – सिंचाई की प्रदेश में उचित व्यवस्था करने के लिए प्रदेश सरकार बड़ी मात्रा में धन व्यय करती है। यह राज्य सरकार के व्यय का एक प्रमुख साधन है। इसके अन्तर्गत नहरों व नलकूपों को खोदने व उसकी मरम्मत पर होने वाले व्यय, बाँध-निर्माण आदि व्यय होते हैं। सूखा एवं कम वर्षा की कठिनाइयों को दूर करने के लिए सिंचाई सुविधाओं का विस्तार आवश्यक है।

6. सार्वजनिक कार्य – इस मद के अन्तर्गत सड़कों, सरकारी मकानों आदि के निर्माण एवं उनकी मरम्मत पर होने वाले व्यय सम्मिलित किये जाते हैं। सरकार की आय का यह बड़ा भाग इन निर्माण कार्यों पर व्यय होता है।

7. सामुदायिक विकास परियोजनाएँ – इन परियोजनाओं का प्रमुख उद्देश्य गाँवों का सर्वांगीण विकास करना तथा कृषि की उन्नति करना है। अतः अनेक परियोजनाओं को चालू करने में बहुत-सा धन व्यय करना पड़ता है।

8. यातायात – इसके अन्तर्गत सड़क एवं जल परिवहन पर होने वाले व्यय सम्मिलित किये जाते हैं। इस मद पर भी राज्य सरकार को बड़ी धनराशि व्यय करनी पड़ती है।

9. ऋण सेवाएँ – राज्य सरकार अपने राज्य में विभिन्न विकास योजनाओं को चालू करने के लिए जो ऋण लेती है, उसका ब्याज उसे प्रतिवर्ष चुकाना पड़ता है। अतः यह राज्य के व्यय का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। राज्य सरकार द्वारा निरन्तर आन्तरिक ऋण लिये जाने के परिणामस्वरूप ऋण सेवाओं पर ब्याज तथा अन्य भुगतानों की राशि बढ़ती ही जा रही है। राज्य सरकार द्वारा निरन्तर आन्तरिक ऋण लिये जाने के परिणास्वरूप ऋण सेवाओं पर ब्याज तथा अन्य भुगतानों की राशि बढ़ती ही जा रही है।

(ख) परोक्ष रूप से आर्थिक विकास करने वाली मदें – इस प्रकार के कार्यों की मदों का वर्णन हम संक्षेप में निम्नलिखित प्रकार से कर सकते हैं

1. शिक्षा – उत्तर प्रदेश की सरकार की व्यय की मदों में शिक्षा पर होने वाले व्यय का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके अन्तर्गत शिक्षा सम्बन्धी सुविधाओं के प्रसार पर होने वाले समस्त व्यय सम्मिलित हैं। अब इस मद पर होने वाले व्यय की राशि में भी निरन्तर वृद्धि होती जा रही है।
2. समाज कल्याण – समाज कल्याण से सम्बन्धित कार्यों को करने के लिए भी उत्तर प्रदेश सरकार को बहुत-सा धन व्यय करना पड़ता है; जैसे-वृद्ध व्यक्तियों तथा विधवाओं को पेंशन, अनाथ बच्चों की सहायता करना, पतितों का उद्धार करना आदि।
3. श्रम एवं रोजगार – उत्तर प्रदेश सरकार को श्रमिकों के कल्याण कार्यों तथा उन्हें रोजगार दिलाने की उचित व्यवस्था करने पर प्रतिवर्ष बड़ी मात्रा में धन व्यय करना पड़ता है।
4. चिकित्सा तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य – चिकित्सा तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य के अन्तर्गत राज्य सरकार के द्वारा अस्पतालों तथा प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रों को खोलने के व्यय तथा नि:शुल्क चिकित्सा की सुविधा प्रदान करने वाले व्यय सम्मिलित किये जाते हैं।
5. पिछड़े वर्ग के लोगों की सहायतार्थ कार्य – उत्तर प्रदेश सरकार अपने प्रदेश के उन लोगों के आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए कार्य कर रही है जो कि पिछड़े हुए हैं।

(ब) गैर-विकास व्यय
इसके अन्तर्गत निम्नलिखित कुछ प्रमुख व्यय की मदें आती हैं

  1. पुलिस – प्रत्येक राज्य अपने क्षेत्र में शान्ति एवं सुव्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस रखता है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् इस मद पर होने वाले व्यय में भी निरन्तर वृद्धि होती जा रही है।
  2. सामान्य प्रशासन – सामान्य प्रशासन पर भी उत्तर प्रदेश सरकार को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये व्यय करने पड़ते हैं। इस मद के अन्तर्गत राज्यपाल, मुख्यमन्त्री, मन्त्रियों, सचिवालयों, आयुक्तों, जिलाधीशों एवं अन्य सरकारी कर्मचारियों के वेतन आदि से सम्बन्धित व्यय सम्मिलित किये जाते हैं।
  3. जेल – उत्तर प्रदेश सरकार को जेलों पर भी व्यय करना पड़ता है।
  4. न्याय – प्रदेश में न्यायालयों की उचित व्यवस्था करने के लिए भी प्रदेशीय सरकार को धन व्यय करना पड़ता है।
  5. कर वसूली पर आय – राज्य सरकार अपने राज्य में अनेक प्रकार के कर लगाती है। करदाताओं से इन करों को वसूल करने में राज्य सरकार को कुछ धन व्यय करना होता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
उत्तर प्रदेश सरकार की आय, व्यय की अपेक्षा कम है, क्यों? कारण बताइए।
उत्तर:
उत्तर प्रदेश सरकार की आय, व्यय की अपेक्षा कम होने के कारण – स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् राज्य सरकार की आय व व्यय दोनों में वृद्धि हुई है, परन्तु व्यय में वृद्धि आय की अपेक्षा अधिक हुई है। इसका कारण निम्नलिखित है

  1. विकास व्यय में वृद्धि।
  2. ऋण सेवाओं के व्यय में वृद्धि।
  3.  प्रशासनिक व्यय में वृद्धि।
  4.  जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि होना।

उपर्युक्त कारणों से राज्य सरकार का व्यय निरन्तर बढ़ता जा रहा है।
राज्य सरकार की आय कम होने के कारण

  1. राज्य सरकार की आय के स्रोत अपर्याप्त एवं बेलोच हैं।
  2. राज्य सरकार का पर्याप्त ऋण प्राप्त करने में असफल रहना है।
  3. आय का एक बड़ा भाग प्रशासनिक व्यवस्था एवं जनतन्त्रीय संस्थाओं पर व्यय किया जाता है।
  4.  करों का भार निर्धनों पर अधिक तथा धनिकों पर कम होना है।
  5.  उपर्युक्त कारणों से उत्तर प्रदेश सरकार की आय, व्यय की अपेक्षा कम है।

प्रश्न 2
उत्तर प्रदेश सरकार अपने बढ़ते हुए व्यय को किस प्रकार कम कर सकती है?
उत्तर:
उत्तर प्रदेश की आय एवं व्यय दोनों में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है, परन्तु व्यय में वृद्धि आय की अपेक्षा अधिक हुई है। इसका प्रमुख कारण विकास व्यय, ऋण-सेवाएँ व्यय एवं प्रशासनिक व्यय में तीव्र गति से वृद्धि होना है।
उत्तर प्रदेश सरकार की आय बढ़ाने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए

  1.  प्रशासनिक एवं अनावश्यक व्यय कम किये जाने चाहिए।
  2. सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों से अधिक आय प्राप्त करने का प्रयास किया जाना चाहिए।
  3.  करों की चोरी रोकने हेतु प्रभावशाली कदम उठाये जाने चाहिए।
  4.  नवीन करों की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  5.  करों को प्राप्त करने के लिए करों पर होने वाला व्यय कम किया जाए।
  6.  प्रदेश में आवश्यक रूप से बना विशाल मन्त्रिमण्डल का आकार छोटा किया जाने की आवश्यकता है।
    उपर्युक्त उपायों के द्वारा प्रदेश सरकार बढ़ते हुए व्यय के साथ समायोजन कर सकती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
उत्तर प्रदेश सरकार की आय के साधन कम होने के चार कारण लिखिए।
उत्तर:
उत्तर प्रदेश सरकार की आय के साधन अग्रलिखित कारणों से कम हैं

  1. आय स्रोतों में लोच का अभाव है।
  2. राज्य सरकार को केन्द्र पर निर्भर रहना पड़ता है।
  3.  उत्तर प्रदेश की जनसंख्या अन्य राज्यों की अपेक्षा अधिक है।
  4. भू-राजस्व आदि से आय बहुत कम होती है।

प्रश्न 2
राज्य सरकार द्वारा लगाये जाने वाले दो करों के नाम लिखिए।
उत्तर:
राज्य सरकार द्वारा लगाये जाने वाले दो कर निम्नलिखित हैं

  1. कृषि आयकर – भारत के संविधान के अनुसार राज्य सरकारों को अपने-अपने राज्य में कृषि आयकर लगाने का अधिकार दिया गया है। यह कर कृषकों पर प्रगतिशील दरों पर लगाया जाता है तथा उन व्यक्तियों पर ही लगाया जाता है जिनके पास सीमा से अधिक भूमि होती है।
  2. बिक्री-कर – बिक्री-कर राज्य की आय का एक प्रमुख स्रोत है। समाचार-पत्रों को छोड़कर अन्य वस्तुओं की बिक्री पर कर लगाने का अधिकार संविधान के अनुसार राज्य सरकारों को दिया गया है। यह कर एक अवरोही कर होता है। इसका भार निर्धन व्यक्तियों पर अधिक पड़ता है, क्योंकि निर्धन व्यक्ति अपनी आय का लगभग शत-प्रतिशत अपनी आवश्यकता की वस्तुओं को खरीदने पर व्यय करते हैं।

प्रश्न 3
राज्य सरकार द्वारा लगाये जाने वाले किन्हीं दो प्रत्यक्ष और किन्हीं दो अप्रत्यक्ष करों के नाम लिखिए। [2013]
उत्तर:
राज्य सरकार द्वारा लगाये जाने वाले प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर निम्नवत् हैं

प्रत्यक्ष कर – (1) कृषि आयकर तथा (2) सम्पत्ति कर।
अप्रत्यक्ष कर – (1) मनोरंजन कर तथा (2) बिक्री-कर।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
भू-राजस्व के दो गुण बताइए।
उत्तर:
भू-राजस्व के दो गुण हैं

  1.  भू-राजस्व से निश्चित आय प्राप्त होती है तथा
  2. यह कर पर्याप्त सुविधाजनक है।

प्रश्न 2
भू-राजस्व के दो दोष बताइए।
उत्तर:
भू-राजस्व के दो दोष हैं

  1. यह कर अन्यायपूर्ण है तथा
  2.  कर को वसूल करने में कठिनाइयाँ आती हैं।

प्रश्न 3
उत्तर प्रदेश सरकार की आय की दो प्रमुख मदों को लिखिए।
उत्तर:
(1) भू-राजस्व या मालगुजारी तथा
(2) बिक्री-कर।

प्रश्न 4
उत्तर प्रदेश सरकार की व्यय की दो प्रमुख मदों को लिखिए।
उत्तर:
(1) करों, शुल्कों को वसूल करने पर व्यय तथा
(2) सामान्य प्रशासन पर व्यय।

प्रश्न 5
उत्तर प्रदेश सरकार की आय कम होने के दो कारण लिखिए। [2007]
उत्तर:
आय कम होने के दो कारण हैं

  1. राज्य सरकार की आय के स्रोत अपर्याप्त एवं बेलोच हैं तथा
  2.  जनसंख्या का तीव्र गति से बढ़ना।

प्रश्न 6
राज्य सरकार के व्यय को कम करने के दो उपाय बताइए।
उत्तर:

  1.  प्रशासनिक व्यय में कटौती की जाए तथा
  2. अनावश्यक व्यय कम किये जाएँ।

प्रश्न 7
राज्य सरकार द्वारा लगाये जाने वाले किन्हीं चार करों के नाम लिखिए। [2006]
उत्तर:
(1) कृषि आयकर
(2) बिक्री-कर
(3) राज्य उत्पादन कर
(4) मनोरंजन कर।

प्रश्न 8
उत्तर प्रदेश सरकार की व्यय की दो प्रमुख मदों को लिखिए।
उत्तर:
उत्तर प्रदेश सरकार की व्यय की दो प्रमुख मदें हैं

  1.  सार्वजनिक या सामान्य प्रशासन पर व्यय तथा
  2. चिकित्सा, सार्वजनिक स्वास्थ्य व परिवार कल्याण पर व्यय।।

प्रश्न 9
रजिस्ट्री शुल्क किस सरकार की आय का स्रोत है ?
उत्तर:
रजिस्ट्री शुल्क उत्तर प्रदेश सरकार की आय का स्रोत है।

प्रश्न 10
बिक्री-कर किस सरकार के द्वारा लगाया जाता है ?
उत्तर:
बिक्री-कर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लगाया जाता है।

प्रश्न 11
उत्तर प्रदेश सरकार की आय में प्रत्यक्ष करों का अंश अप्रत्यक्ष करों की अपेक्षा कैसा है?
उत्तर:
कम है।

प्रश्न 12
व्यापार कर कौन-सी सरकार लगाती है? [2007]
उत्तर:
व्यापार कर राज्य सरकार लगाती है।

प्रश्न 13:
मनोरंजन कर किसे सरकार के राजस्व से सम्बन्धित है? [2007, 11, 13, 16]
या
मनोरंजन कर कौन-सी सरकार लगाती है? [2014, 16]
उत्तर:
राज्य सरकार।

प्रश्न 14
भारत में कृषि आय कर कौन लगाता है? [2008]
उत्तर:
राज्य सरकार।

प्रश्न 15
भारत में बिक्री कर किस सरकार की आय का प्रमुख स्रोत है? [2014]
उत्तर:
राज्य सरकार की।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
निम्नलिखित में उत्तर प्रदेश सरकार की आय की मद कौन-सी है? [2010]
(क) बिक्री कर
(ख) उपहार कर
(ग) आय कर
(घ) मृत्यु कर
उत्तर:
(क) बिक्री कर।

प्रश्न 2
भू-राजस्व किसकी आय का स्रोत है?
(क) केन्द्रीय सरकार की
(ख) भू स्वामी की
(ग) राज्य सरकार की
(घ) स्थानीय सरकार की
उत्तर:
(ग) राज्य सरकार की।

प्रश्न 3
राज्य उत्पादन शुल्क लगाया जाता है
(क) केन्द्रीय सरकार द्वारा
(ख) राज्य सरकार द्वारा
(ग) स्थानीय सरकार द्वारा।
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) राज्य सरकार द्वारा।

प्रश्न 4
कौन-सा कर राज्य सरकार की आय का स्रोत नहीं है? [2006]
(क) निगम कर
(ख) व्यापार कर
(ग) मूल्य-संवर्धित कर
(घ) मनोरंजन कर
उत्तर:
(क) निगम कर।

प्रश्न 5
सिनेमा पर मनोरंजन कर का भुगतान किसके द्वारा किया जाता है? [2007, 12]
(क) निर्माता द्वारा
(ख) वित्त प्रबन्धक द्वारा
(ग) निर्देशक द्वारा
(घ) दर्शक द्वारा
उत्तर:
(घ) दर्शक द्वारा।

प्रश्न 6
निम्नलिखित में से कौन राज्य सरकारों की आय का सीधा स्रोत नहीं है? [2012]
(क) व्यापार कर
(ख) आय कर
(ग) मनोरंजन कर
(घ) रजिस्ट्री शुल्क
उत्तर:
(ग) मनोरंजन कर।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 20 NITI Aayog, Five Year Plans: Aims and Achievements

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 20 NITI Aayog, Five Year Plans: Aims and Achievements (नीति आयोग, पंचवर्षीय योजनाएँ-लक्ष्य तथा उपलब्धियाँ) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 20 NITI Aayog, Five Year Plans: Aims and Achievements (नीति आयोग, पंचवर्षीय योजनाएँ-लक्ष्य तथा उपलब्धियाँ).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 20
Chapter Name NITI Aayog, Five Year Plans: Aims and Achievements
(नीति आयोग, पंचवर्षीय योजनाएँ-लक्ष्य तथा उपलब्धियाँ)
Number of Questions Solved 36
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 20 NITI Aayog, Five Year Plans: Aims and Achievements (नीति आयोग, पंचवर्षीय योजनाएँ-लक्ष्य तथा उपलब्धियाँ)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
नीति आयोग से क्या तात्पर्य है? इसके प्रमुख उद्देश्य क्या हैं?
या
नीति आयोग की संरचना एवं उद्देश्य या कार्य बताइए।
उत्तर :
नीति आयोग 1950 ई० के दशक में अस्तित्व में आया योजना आयोग अब अतीत की बात हो गया है। इसके स्थान पर 1 जनवरी, 2015 से एक नई संस्था ‘नीति आयोग’ (राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान (National Institution for Transforming India)] अस्तित्व में आ गई है।

प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाला यह आयोग सरकार के बौद्धिक संस्थान के रूप में कार्य करेगा तथा केन्द्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों के लिए भी नीति निर्माण करने वाले संस्थान की भूमिका निभाएगा। यह आयोग केन्द्र व राज्य सरकारों को राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व के महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर रणनीतिक व तकनीकी सलाह भी देगा। इसके अलावा यह सरकार की पंचवर्षीय योजनाओं के भावी स्वरूप आदि के सम्बन्ध में सलाह भी देगा।

नीति आयोग की अधिशासी परिषद् (Goverming Council) में सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों तथा केन्द्रशासित क्षेत्रों के उपराज्यपालों को शामिल किया गया है। इस प्रकार नीति आयोग का स्वरूप योजना आयोग की तुलना में अधिक संघीय बनाया गया है। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले इस आयोग में एक उपाध्यक्ष व एक मुख्य कार्यकारी अधिकारी (Chief Executive Officer; CEO) का प्रावधान किया गया है। अमेरिका में स्थित कोलम्बिया विश्वविद्यालय में कार्यरत रहे। प्रो० अरविन्द पनगढ़िया को नवगठित आयोग का उपाध्यक्ष तथा योजना आयोग की सचिव रहीं सिंधुश्री खुल्लर को इसका प्रथम सीईओ (1 वर्ष के लिए) नियुक्त किया गया। इनके अलावा प्रसिद्ध अर्थशास्त्री विवेक देवराय व डी०आर०डी०ओ० के पूर्व प्रमुख वी०के० सारस्वत नीति आयोग के पूर्णकालिक सदस्य बनाए गए हैं जबकि 4 केन्द्रीय मन्त्री राजनाथ सिंह (गृह मंत्री), अरुण जेटली (वित्त एवं कॉर्पोरेट मामलों के मंत्री), सुरेश प्रभु (रेल मंत्री) तथा राधा मोहन सिंह (कृषि मंत्री) इस आयोग के पदेन सदस्य हैं। विशेष आमंत्रितों के रूप में तीन केन्द्रीय मन्त्रियों-नितिन गडकरी, स्मृति ईरानी व थावरचन्द गहलोत को इसमें शामिल किया गया है।

नीति आयोग के उद्देश्य अथवा कार्य

नीति आयोग के निम्नलिखित उद्देश्य हैं।

  1. राष्ट्रीय उद्देश्यों को दृष्टिगत रखते हुए राज्यों की सक्रिय भागीदारी के साथ राष्ट्रीय विकास प्राथमिकताओं, क्षेत्रों और रणनीतियों का एक साझा दृष्टिकोण विकसित करेगा। नीति आयोग का विजन विकास को बल प्रदान करने के लिए प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को राष्ट्रीय एजेंडा’ का प्रारूप उपलब्ध कराना है।
  2. महत्त्वपूर्ण हितधारकों तथा समान विचारधारा वाले राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय थिंक टैंक और साथ-ही-साथ शैक्षिक और नीति अनुसंधान संस्थानों के बीच भागीदारी को परामर्श और प्रोत्साहन देगा।
  3. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों, प्रैक्टिसनरों तथा अन्य हितधारकों के सहयोगात्मक समुदाय के जरिए ज्ञान, नवाचार, उद्यमशीलता सहायक प्रणाली तैयार करेगा।
  4. विकास के एजेंडे के कार्यान्वयन में तेजी लाने के क्रम में अन्तर-क्षेत्रीय और अन्तर-विभागीय मुद्दों के समाधान के लिए एक मंच प्रदान करेगा।
  5. सशक्त राज्य ही सशक्त राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। इस तथ्य की महत्ता को स्वीकार करते हुए राज्यों के साथ सतत आधार पर संरचनात्मक सहयोग की पहल और तन्त्र के माध्यम से सहयोगपूर्ण संघवाद को बढ़ावा देगा।
  6. ग्राम स्तर पर विश्वसनीय योजना तैयार करने के लिए तंत्र विकसित करेगा और इसे निरन्तर उच्च स्तर तक पहुँचाएगा।
  7. अत्याधुनिक कला संसाधन केन्द्र का निर्माण जो सुशासन तथा सतत और न्यायसंगत विकास की सर्वश्रेष्ठ कार्यप्रणाली पर अनुसंधान करने के साथ-साथ हितधारकों तक जानकारी पहुँचाने में भी सहायता करेगा।
  8. आवश्यक संसाधनों की पहचान करने सहित कार्यक्रमों और उपायों के कार्यान्वयन के सक्रिय मूल्यांकन और सक्रिय निगरानी की जाएगी ताकि सेवाएँ प्रदान करने में सफलता की सम्भावनाओं को प्रबल बनाया जा सके।
  9. कार्यक्रमों और नीतियों के क्रियान्वयन के लिए प्रौद्योगिकी उन्नयन और क्षमता निर्माण पर ध्यान देना।
  10. आयोग यह सुनिश्चित करेगा कि जो क्षेत्र विशेष रूप से उसे सौंपे गए हैं, उनकी आर्थिक कार्य-नीति और नीति में राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों को शामिल किया गया है अथवा नहीं।
  11. भारतीय समाज के उन वर्गों पर विशेष रूप से ध्यान देगा, जिन तक आर्थिक प्रगति का लाभ न पहुँच पाने का जोखिम होगा।
  12. रणनीतिक और दीर्घावधि के लिए नीति तथा कार्यक्रम का ढाँचा तैयार करेगा और पहल करेगा। साथ ही उनकी प्रगति और क्षमता की निगरानी करेगा। निगरानी और प्रतिक्रिया के आधार पर समय-समय पर संशोधन सहित नवीन सुधार किए जाएँगे।
  13. राष्ट्रीय विकास के एजेंडा और उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अन्य आवश्यक गतिविधियाँ संपादित करना।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 20 NITI Aayog, Five Year Plans: Aims and Achievements

प्रश्न 2.
आर्थिक नियोजन का क्या आशय है? योजना आयोग को संगठन एवं कार्य बताइए।
या
आर्थिक नियोजन से क्या अभिप्राय है? भारत में योजनाबद्ध विकास के संगठन की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
आर्थिक नियोजन

आर्थिक नियोजन को तात्पर्य यह है कि आर्थिक विकास की निश्चित योजना बनाकर राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों कृषि, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य व सामाजिक सेवाओं के सन्तुलित विकास का प्रयत्न किया जाए और इस बात का भी प्रबन्ध किया जाए कि इस विकास के लाभ न केवल कुछ ही व्यक्तियों अथवा वर्गों को वरन् सभी व्यक्तियों और वर्गों को प्राप्त हों। इस प्रकार निश्चित योजनाओं के माध्यम से आर्थिक विकास का जो प्रयत्न किया जाता है उसे ही आर्थिक नियोजन कहते हैं। नियोजित विकास को लागू करने वाला सबसे पहला देश सोवियत संघ है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सोवियत संघ से प्रभावित होकर संशोधित रूप में भारत में नियोजित विकास की धारणा को लागू किया है।

भारत का योजना आयोग

दिसम्बर, 1946 में के०सी० नियोगी की अध्यक्षता में स्थापित एक बोर्ड की सलाह पर 15 मार्च, 1950 को भारत सरकार के एक प्रस्ताव द्वारा योजना आयोग का गठन किया गया। योजना आयोग एक संवैधानिक या विधिक संस्था न होकर एक कार्यकारी संस्था है। योजना आयोग का प्रथम अध्यक्ष तत्कालीन प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू को बनाया गया। योजना आयोग की स्थापना के समय पाँच पूर्णकालिक सदस्य मनोनीत किए गए। देश का प्रधानमंत्री योजना आयोग का पदेन अध्यक्ष होता था। इसके उपाध्यक्ष एवं सदस्यों के लिए कोई निर्धारित योग्यता आधार नहीं था। साथ ही, उपाध्यक्ष एवं सदस्यों का कोई निश्चित न्यूनतम कार्यकाल नहीं होता। उल्लेखनीय है कि भारत द्वारा 1991 में आर्थिक उदारीकरण की नीति को लागू किया गया है। इस नीति के अन्तर्गत आर्थिक विकास में सरकारी क्षेत्र की भूमिका सीमित होती है। इसी आलोक में 1991 के बाद भारत में योजना रणनीति में भी परिवर्तन किया गया है तथा विस्तृत योजना के स्थान पर सांकेतिक योजना (Indicative Planning) की धारणा को अपनाया गया है। इसके अन्तर्गत दीर्घकालीन विकास लक्ष्यों के आलोक में सरकार द्वारा विकास को सुविधाजनक बनाने के प्रयास किये जाते हैं।

योजना आयोग के कार्य

  1. देश के भौतिक, अभौतिक, पूँजीगत एवं मानवीय संसाधनों का अनुमान लगाना।
  2. राष्ट्रीय संसाधनों का अधिकतम सम्भव विदोहन एवं प्रयोग के लिए रणनीति बनाना।
  3. प्राथमिकताओं का निर्धारण करना और इन प्राथमिकताओं के आधार पर योजना के उद्देश्य निर्धारित करके संसाधनों का आबंटन करना।
  4. योजना के सफल संचालन के लिए संभावित अवरोधों को दूर करने के उपाय सरकार को बताना।
  5. योजनावधि में विभिन्न चरणों पर योजना प्रगति का मूल्यांकन करना।
  6. समय-समय पर केन्द्रीय और राज्य सरकारों को आवश्यकता पड़ने पर परामर्श देना।

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प्रश्न 3.
भारत में पंचवर्षीय योजनाओं की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।
या
भारत के आर्थिक विकास में पंचवर्षीय योजनाओं के योगदान का परीक्षण कीजिए। [2016]
उत्तर :
भारत के आर्थिक विकास में पंचवर्षीय योजनाओं का योगदान
भारत के आर्थिक विकास में विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के योगदान को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है।

1. विकास दर आर्थिक प्रगति का महत्त्वपूर्ण मापदण्ड विकास की दर के लक्ष्य की प्राप्ति है। पहली योजना में आर्थिक विकास की दर 3.6% थी, जो बढ़कर दसवीं योजना में 7.80% हो गई, जबकि 12वीं योजना 2012-17 के लिए 9.0% का लक्ष्य रखा गया है।

2. राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय – योजनाकाल में राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई है। भारत में 1950-51 ई० में चालू मूल्यों के आधार पर शुद्ध राष्ट्रीय आय ₹ 9,142 करोड़ थी, जोकि 2009-10 ई० में बढ़कर ₹ 51,88,361 करोड़ तथा 2015-16 ई० में बढ़कर ₹ 119.62 करोड़ हो गई जबकि प्रति व्यक्ति आय ₹ 255 से बढ़कर ₹ 93,231 हो गई अर्थात् राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में निरन्तर वृद्धि हुई है।

3. कृषि उत्पाद – योजनाकाल में कृषि उत्पादन में तीव्र गति से वृद्धि हुई है। सन् 1950-51 ई० में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन मात्र 50.8 मिलियन टन था, जो 2015-16 ई० में बढ़कर 253.16 मिलियन टन हो गया।

4. औद्योगिक उत्पादन – योजनाकाल में औद्योगिक उत्पादन में तीव्र गति से वृद्धि हुई। 1950 51 ई० में, 1993-94 ई० की कीमतों पर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक 7.9 था जो बढ़कर 167 हो गया।

5. बचत एवं विनियोग – योजनाकाल में भारत में बचत एवं विनियोग की दरों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। चालू मूल्य पर सकल राष्ट्रीय आय के प्रतिशत के रूप में 1950-51 ई० में सकल विनियोग और बचत की दरें क्रमशः 10.4% और 9.3% थी, जो कि 2009-10 ई० में क्रमशः 31.0% और 27.2% हो गई।

6. यातायात एवं संचार – यातायात एवं संचार क्षेत्रों में योजनाकाल में उल्लेखनीय प्रगति हुई। 1950-51 ई० में रेलवे लाइनों की लम्बाई 53,600 किमी से बढ़कर 67,312 किलोमीटर हो गई और रेलवे द्वारा ढोए जाने वाले माल की मात्रा 9.3 मि० टन से बढ़कर 887.89 मि० टन । हो गई। वर्ष 2015 में रेलवे द्वारा लगभग 914.8 मि०टन माल ढोया गया। सड़कों की लम्बाई 1,57,000 किमी से बढ़कर 38 लाख किमी हो गई। जहाजरानी की क्षमता 3.9 लाख G.R.T. से बढ़कर 31 लाख G.R.T. हो गई। हवाई परिवहन, बन्दरगाहों की स्थिति और अन्तर्देशीय जल परिवहन का भी विकास किया गया। संचार-व्यवस्था के अन्तर्गत विकास के क्षेत्रों में डाकखानों, टेलीफोन, टेलीग्राफ, रेडियो-स्टेशन एवं प्रसारण-केन्द्रों की संख्या में भी पर्याप्त वृद्धि हुई।

7. शिक्षा – योजनाकाल में शिक्षा का भी व्यापक प्रसार हुआ है। इस अवधि में स्कूलों की संख्या 2,30,683 से बढ़कर 8,21,988 तथा विश्वविद्यालयों और विश्वविद्यालय स्तर की संस्थाओं की संख्या 27 से बढ़कर 306 हो गई है। भारत की साक्षरता की दर 1951 ई० में 16.7% थी जोकि 2011 ई० की जनगणनानुसार 73% हो गई। 11वीं पंचवर्षीय योजनाकाल के मध्य में शिक्षा को मूल अधिकारों में शामिल कर 6 से 14 वर्ष तक की उम्र के बालक-बालिकाओं को अब निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना राज्य को संवैधानिक दायित्व हो गया है।

8. विद्युत उत्पादन क्षमता – योजनाकाल में विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। प्रथम योजना के आरम्भ में भारत में विद्युत उत्पादन क्षमता मात्र 2.3 हजार मेगावाट थी, जो 2011 में एक लाख मेगावाट से भी अधिक हो गई और हर वर्ष इसमें निरन्तर वृद्धि हो रही है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में वर्ष 1950-51 में विद्युत सुविधा मात्र 3,000 गाँवों में उपलब्ध थी, जोकि वर्ष 2010 के अन्त में लगभग 7 लाख गाँवों में उपलब्ध हो गई।

9. बैंकिंग संरचना – प्रथम योजना के आरम्भ में देश में बैंकिंग क्षेत्र अपर्याप्त और असन्तुलित था, परन्तु योजनाकाल में और विशेष रूप से बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् देश की बैंकिंग संरचना में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं। 30 जून, 1969 को व्यापारिक बैंकों की शाखाओं की संख्या 8,262 थी, जो दिसम्बर, 2009 में बढ़कर 82,511 हो गई।

10. स्वास्थ्य सुविधाएँ – योजनाकाल में देश में स्वास्थ्य सुविधाओं में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई। टी०बी० कुछ महामारियों आदि के उन्मूलन तथा परिवार कल्याण कार्यक्रमों में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई। आयोडीन की कमी से होने वाली बीमारियों पर काफी अंकुश लगाना सम्भव हुआ है। राष्ट्रीय कैंसर नियन्त्रण कार्यक्रम में अच्छे नतीजे सामने आए हैं।

11. खाद्य अपमिश्रण रोकथाम – खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकने के लिए 1954 ई० से कार्यक्रम हर पंचवर्षीय योजना में चलाया जा रहा है। आठवीं योजना के दौरान इस कार्यक्रम में बड़ी सफलता मिली लेकिन दसवीं व ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजनाओं के कालखण्ड में मिलावट करने के नए-नए तरीके ढूंढ़ लिए गए विशेष रूप से दूध व मावे के पदार्थों में मिलावट की समस्या गम्भीर व खतरनाक स्तर तक बढ़ चुकी है। खाद्य पदार्थों में मिलावटी अपमिश्रण को रोकने के लिए खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम (1954 का 37) में तीन बार संशोधन किया जा चुका है। मिलावट करने वाले और ऐसा सामान बेचने वालों के खिलफ कार्यवाही सुनिश्चित करने के लिए 11वीं पंचवर्षीय योजना में राज्य पुलिस बल को अधिक कारगर कानूनी अधिकारों से सुसज्जित किया गया।

प्रश्न 4.
भारत की नवीं पंचवर्षीय योजना की विवेचना कीजिए।
या
नवीं पंचवर्षीय योजना का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उत्तर :
नवीं पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल, 1997 से 31 मार्च, 2002)

भारत में आर्थिक नियोजन 1 अप्रैल, 1951 से प्रारम्भ हुआ। 1 अप्रैल, 1997 से नवीं पंचवर्षीय योजना प्रारम्भ हुई थी। इस योजना का कार्यकाल 31 मार्च, 2002 को समाप्त हो गया है।

इस योजना का प्रारम्भिक प्रारूप तत्कालीन योजना आयोग उपाध्यक्ष मधु दण्डवते ने 1 मार्च, 1998 को जारी किया था, जिसे भाजपा सरकार ने संशोधित किया। संशोधित प्रारूप में निहित उद्देश्य, विभिन्न क्षेत्रों के सम्बन्ध में लक्ष्य आदि अग्रलिखित थे –

योजना के उद्देश्य

इस योजना के निम्नलिखित उद्देश्य स्वीकार किये गये थे –

  1. पर्याप्त उत्पादक रोजगार पैदा करना और गरीबी उन्मूलन की दृष्टि से कृषि और विकास को प्राथमिकता देना।
  2. मूल्यों में स्थायित्व लाना और आर्थिक विकास की गति को तेज करना।
  3. सभी लोगों को भागीदारी के विकास के माध्यम से विकास प्रक्रिया की पर्यावरणीय क्षमता सुनिश्चित करना।
  4. जनसंख्या-वृद्धि को नियन्त्रित करना।
  5. सभी के लिए भोजन व पोषण एवं सुरक्षा सुनिश्चित करना, लेकिन समाज के कमजोर वर्गों पर विशेष ध्यान देना।
  6. समाज को मूलभूत न्यूनतम सेवाएँ प्रदान करना तथा समयबद्ध तरीके से उनकी आपूर्ति सुनिश्चित करना; विशेष रूप से पेय जल, प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा व आवास सुविधा के सम्बन्ध में।
  7. महिलाओं तथा सामाजिक रूप से कमजोर वर्गो-अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों व अन्य पिछड़ी जातियों एवं अल्पसंख्यकों को शक्तियाँ प्रदान करना, जिससे कि सामाजिक परिवर्तन लाया जा सके।
  8. पंचायती राज संस्थाओं, सहकारी संस्थाओं को बढ़ावा देना और उनका विकास करना।
  9. आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के प्रयासों को मजबूत करना।

इस प्रकार नौवीं योजना का प्रमुख उद्देश्य ‘न्यायपूर्ण वितरण और समानता के साथ विकास (Growth with Equity and Distributive Justice) करना था। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित चार बातें चिह्नित की गयी थीं –

1. गुणवत्तायुक्त जीवन – इसके लिए गरीबी उन्मूलन व न्यूनतम प्राथमिक सेवाएँ (स्वच्छ पेय जल, प्राथमिक स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा व आवास) उपलब्ध कराने के प्रयास किये जाएँगे।

2. रोजगार संवर्द्धन – रोजगार के अवसर बढ़ाये जाएँगे। कार्य की दशाएँ सुधारी जाएँगी। श्रमिकों को कुल उत्पादन में न्यायोचित हिस्सा दिया जाएगा।

3. क्षेत्रीय सन्तुलन – नौवीं योजना में क्षेत्रीय सन्तुलन को कम किया जाएगा। सार्वजनिक क्षेत्र में उन राज्यों में अधिक निवेश किया जाएगा, जो अपेक्षाकृत कम साधन वाले राज्य हैं। पिछड़े राज्यों या क्षेत्रों में औद्योगीकरण की प्रक्रिया तेज की जाएगी।

4. आत्मनिर्भरता – नौवीं योजना में निम्नलिखित क्षेत्रों को आत्मनिर्भरता के लिए चुना गया है

  1. भुगतान सन्तुलन सुनिश्चित करना।
  2. विदेशी ऋण-भार में कमी लाना।
  3. गैर-विदेशी आय को बढ़ावा देना।
  4. खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना।
  5. प्राकृतिक साधनों का समुचित उपयोग करना।
  6. प्रौद्योगिकीय आत्मनिर्भरता प्राप्त करना।

प्रमुख विकास दरें
नौवीं योजना में विकास के लिए विभिन्न क्षेत्रों में लक्ष्य निम्नलिखित रूप में निर्धारित किये गये थे –

विकास दर : सकल घरेलू उत्पादन (GDP) की 6.5 प्रतिशत
कृषि विकास दर : 3.9 प्रतिशत
खनन विकास दर : 7.2 प्रतिशत
विनिर्माण विकास दर : 8.2 प्रतिशत
विद्युत विकास दर : 9.3 प्रतिशत
सेवा क्षेत्र विकास दर : 6.5 प्रतिशत
घरेलू बचत दर : 26.1 प्रतिशत
उत्पादन निवेश दर : 28.2 प्रतिशत
निर्यात वृद्धि दर : 11.8 प्रतिशत
आयात वृद्धि दर : 10.8 प्रतिशत
चालू खाता घाटा : 2.1 प्रतिशत

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प्रश्न 5.
दसवीं पंचवर्षीय योजना का संक्षिप्त विवरण देते हुए इसकी प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :

दसवीं पंचवर्षीय योजना
राष्ट्रीय विकास परिषद् ने 21 दिसम्बर, 2002 को दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) को स्वीकृति दी। इस योजना में परिषद् के निर्देशों को और बेहतर करने का फैसला किया गया। परिषद् का निर्देश दस वर्ष में प्रति व्यक्ति आय को दोगुना करना तथा प्रतिवर्ष घरेलू उत्पाद की दर आठ प्रतिशत हासिल करने का था। चूंकि आर्थिक विकास ही एक मात्र लक्ष्य नहीं होता है, इसलिए इस योजना का लक्ष्य आर्थिक विकास के लाभ से आम लोगों की जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए ये उद्देश्य निश्चित किये गये हैं-2007 तक गरीबी का अनुपात 26 प्रतिशत से घटाकर 21 प्रतिशत करना, जनसंख्या विकास की दर को (प्रति दस वर्ष) 1991-2001 के 21 प्रतिशत से घटाकर 2001-2011 में 16.2 प्रतिशत करना, लाभप्रद रोजगार की व्यवस्था कम-से-कम श्रम-शक्ति में हो रही वृद्धि के अनुपात में करना, सभी बच्चों को 2003 ई० तक स्कूलों में दाखिल करना और 2007 ई० तक सभी बच्चों की स्कूली पढ़ाई के पाँच साल पूरा करना, साक्षरता और मजदूरी के मामले में फर्क 50 प्रतिशत तक घटाना, साक्षरता की दर वर्ष 1999-2000 के 60 प्रतिशत से बढ़ाकर 2007 ई० तक 75 प्रतिशत तक पहुँचाना, सभी गाँवों में पेयजल पहुँचाना, शिशु मृत्यु-दर वर्ष 1999-2000 के 72 से घटाकर 2007 ई० तक 45 तक पहुँचाना, प्रसूति मृत्यु-दर को वर्ष 1999-2000 के चार से घटाकर 2007 ई० तक दो तक पहुँचाना, वानिकीकरण में वर्ष 1999-2000 के 19 प्रतिशत से बढ़ाकर 2007 ई० में 25 प्रतिशत तक पहुँचाना और नदियों के प्रमुख प्रदूषण स्थलों की सफाई कराना। दसवीं योजना की कई नयी विशेषताएँ हैं, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं –

सर्वप्रथम इस योजना में श्रम-शक्ति के तीव्र विकास को स्वीकार किया है। विकास की मौजूदा दर और उत्पादन के क्षेत्र में मजदूरों की बढ़ती संख्या को देखते हुए देश में बेरोजगारी की सम्भावना बढ़ती जा रही है, जिससे सामाजिक अस्थिरता पैदा हो सकती है। इसीलिए दसवीं योजना में रोजगार के पाँच करोड़ अवसर सृजित करने का लक्ष्य तय किया गया है। इसके लिए कृषि, सिंचाई, कृषिवानिकी, लघु एवं मध्यम उद्योग सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी तथा अन्य सेवाओं के रोजगारपरक क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिया जाएगा।

द्वितीयत: इस योजना में गरीबी और सामाजिक रूप से पिछड़ेपन के मुद्दों पर ध्यान दिया गया है। हालांकि पहले की योजनाओं में भी ये लक्ष्य रहे हैं, पर इस योजना में विशेष लक्ष्य रखे गये हैं। जिन पर विकास के लक्ष्यों के साथ ही निगरानी रखने की व्यवस्था है।

तृतीयतः चूँकि राष्ट्रीय लक्ष्य सन्तुलित क्षेत्रीय विकास के स्तर पर अनिवार्यतः लागू नहीं हो पाते और हर साल की क्षमता और कमियाँ अलग-अलग होती हैं, इसलिए दसवीं योजना में विकास की अलग-अलग कार्यनीति अपनायी गयी हैं। पहली बार राज्यवार विकास के और अन्य लक्ष्य इस तरह तय किये गये हैं जिनकी निगरानी रखी जा सके और इसके लिए राज्यों से भी सलाह ली गयी है जिससे उनकी अपनी विकास योजनाओं को विशेष महत्त्व दिया जा सके।

इस योजना की एक और विशेषता इस बात को महत्त्व देना है कि योजना को ज्यों-का-त्यों लागू करने में प्रशासन एक महत्त्वपूर्ण कारक होता है। इसलिए इस योजना में प्रशासनिक सुधार की एक सूची तय की गयी है।

अन्ततः, मौजूदा बाजारोन्मुखी अर्थव्यवस्था को देखते हुए दसवीं योजना में उन नीतियों और संस्थाओं के स्वरूप पर विस्तार से विचार किया गया है जो जरूरी होंगी। दसवीं योजना में न सिर्फ एक मध्यावधि व्यापक आर्थिक नीति केन्द्र और राज्य दोनों के लिए अत्यन्त सतर्कतापूर्वक तैयार की गयी है, बल्कि हर क्षेत्र के लिए जरूरी नीति और संस्थागत सुधारों को निर्धारित किया गया है।

अर्थव्यवस्था में विर्गत पूँजी के अनुपात में वृद्धि को नौवीं योजना में 4.5 से घटाकर 3.6 होने का अनुमान है। यह उपनिधि मौजूदा क्षमता के बेहतर उपयोग और पूंजी के क्षेत्रवार समुचित प्रावधान और इसके अधिकतम उपयोग के जरिए सम्भव होगी। इसलिए विकास का लक्ष्य हासिल करने के लिए सकल घरेलू उत्पादन के 28.4 प्रतिशत के निवेश दर की आवश्यकता होगी। यह आवश्यकता सकल घरेलू उत्पादन में 26.8 प्रतिशत की बचत और 1.6 प्रतिशत की बाहरी बचत से पूरी की जाएगी अतिरिक्त घरेलू बचत का अधिकतम सरकार में बचत घटे को वर्ष 2001-02 के 4.5 से वर्ष 2006-07 में 0.5 तक कम करके प्राप्त किया जा सकता है।

दसवीं योजना में क्षमता बढ़ाने, उद्यमी ऊर्जा को उन्मुक्त करने तथा तीव्र और सतत विकास को बढ़ावा देने के उपायों का भी प्रस्ताव दिया गया है। दसवीं योजना में कृषि को केन्द्रीय महत्त्व दिया गया है। कृषि क्षेत्र में किये जाने वाले मुख्य सुधार इस प्रकार हैं-वाणिज्य और व्यापार में अन्तर्राज्यीय बाधाओं को दूर करना, आवश्यक उपभोक्ता वस्तु अधिनियम में संशोधन करने, कृषि उत्पाद विपणन कानून में संशोधन, कृषि व्यापार, कृषि उद्योग और निर्यात का उदारीकरण होने पर खेती को प्रोत्साहित करना और कृषि भूमि का पट्टे पर देने और लेने की अनुमति देने, खाद्य क्षेत्र से सम्बन्धित विभिन्न कानूनों को एक व्यापक ‘खाद्य कानून में बदलना, सभी वस्तुओं में वायदा व्यापार को अनुमति तथा भण्डारण और व्यापार के पूँजी-निवेश पर प्रतिबन्धों को हटाना।

सुधार के कुछ अन्य प्रमुख उपायों में एसआईसीए को निरस्त करना और परिसम्पत्ति के हस्तान्तरण को सुगम बनाने के लिए दिवालिया घोषित करने और फोर क्लोजर के कानूनों को मजबूत करना, श्रम कानूनों में सुधार, ग्राम और लघु उद्योग क्षेत्रों की नीतियों में सुधार तांकि बेहतर ऋण प्रौद्योगिकी, विपणन और कुशल कारीगरों की उपलब्धता सम्भव हो, विद्युत विधेयक का शीघ्र कार्यान्वयन, कोयला राष्ट्रीयकरण संशोधन विधेयक और संचार समरूप विधेयक में संशोधन, निजी सड़क परिवहन यात्री सेवा को मुक्त करना तथा सड़क की मरम्मत आदि में निजी क्षेत्र की भागीदारी सुनिश्चित करना, नागरिक उड्डयन नीति को शीघ्र मंजूरी देना, इस क्षेत्र को शीघ्र विनियमित करना और प्रमुख हवाई अड्डों पर निजी भागीदारी के जरिए विकास शामिल है। बढ़ता क्षेत्रीय असन्तुलन भी चिन्ता का विषय है। दसवीं योजना में सन्तुलित और समान क्षेत्रीय विकास का लक्ष्य तय किया गया है। इस पर आवश्यक ध्यान देने के लिए योजनाओं में राज्यवार लक्ष्य निर्धारित किये गये हैं। तत्काल नीतिगत और प्रशासनिक सुधारों की जरूरत को भी स्वीकृति दे दी गयी है।

शासन व्यवस्था योजनाओं को लागू करने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारक होता है। इस दिशा में कुछ आवश्यक उपाय इस प्रकार है–बेहतर जन भागीदारी, खासतौर पर पंचायती राज संस्थानों और शहरी स्थानीय निकायों को मजबूत बनाकर, नागरिक समाज को शामिल करना, खासतौर पर स्वैच्छिक संगठनों को विकास में भागीदारी की भावना बनाकर, सूचना के अधिकार सम्बन्धी कानून को लागू करना, पारदर्शिता, क्षमता और जिम्मेदारी की भावना को बढ़ावा देने के लिए लोक सेवाओं में सुधार, कार्यकाल को संरक्षण, पुरस्कृत और दण्डित करने की बेहतर और समान व्यवस्था, सरकार के आकार और उसकी भूमिका को ठीक करना, राजस्व और न्यायिक सुधार तथा अच्छे प्रशासन के लिए सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
नीति आयोग पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
नीति आयोग शब्द ‘नेशनल इन्स्टीट्यूट फॉर ट्रांस्फांर्मिंग इंडिया का संक्षिप्त रूप है। नीति आयोग का गठन योजना आयोग के स्थान पर किया गया है, जो 1 जनवरी, 2015 को गठित किया गया। योजना आयोग के समान ही नीति आयोग का अध्यक्ष भी प्रधानमंत्री ही होता है। नीति आयोग का गठन इस प्रकार होगा –

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नीति आयोग के थिंक टैंक के रूप में स्थापित किया गया है, जो राष्ट्रीय उद्देश्यों को दृष्टिगत रखते हुए उनकी सक्रिय भागीदारी के साथ विकास प्राथमिकताओं क्षेत्रों और राजनीतियों का एक साझा दृष्टिकोण विकसित करेगा।

प्रश्न 2.
योजना क्या है ? इसका क्या महत्त्व है ? [2012]
या
भारत के योजना आयोग पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने देश के सामाजिक विकास की भावी रूपरेखा तैयार करने के लिए, नवम्बर, 1947 ई० में पण्डित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में आर्थिक कार्यक्रम समिति गठित की थी। इस समिति ने 25 जनवरी, 1948 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें एक स्थायी योजना अयिोग की स्थापना की सिफारिश की गयी। इस सुझाव के अनुरूप भारत सरकार के 15 मार्च, 1950 के एक सुझाव के अनुसार योजना आयोग की स्थापना की गयी।

प्रस्ताव में समाजवादी ढाँचे पर नवीन आर्थिक व्यवस्था की स्थापना में सरकार की सहायता के लिए योजना आयोग के महत्त्व को स्वीकार किया गया। प्रस्ताव में यद्यपि ‘समाजवाद’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया, परन्तु निहितार्थ यही था। यह माना गया कि योजना आयोग की सरकार के लिए सलाहकारी भूमिका होगी। उक्त प्रस्ताव के अनुच्छेद 6 में स्पष्ट किया गया कि योजना आयोग अपनी संस्तुति केन्द्रीय मन्त्रालय को देगा। योजना बनाने और संस्तुतियाँ तैयार करने में यह केन्द्र सरकार के मन्त्रियों और राज्य सरकारों से निकट का सम्पर्क बनाये रखेगा। संस्तुतियों को लागू करने का दायित्व राज्य सरकारों का होगा। इन अपेक्षाओं के साथ सरकार ने देश के समस्त संसाधनों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर विकास का एक ढाँचा तैयार करने के लिए 15 मार्च, 1950 को योजना आयोग की स्थापना की।

प्रश्न 3.
नीति आयोग तथा योजना आयोग में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
योजना आयोग और नीति आयोग में अन्तर

नीति आयोग राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व के विभिन्न नीतिगत मुद्दों पर केन्द्र और राज्य सरकारों को जरूरी रणनीतिक व तकनीकी परामर्श देगा। साथ ही, इसमें मुख्यमन्त्रियों और निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को भी महत्त्व दिया जाएगा। इसके विपरीत योजना आयोग की प्रकृति केन्द्रीयकृत थी, साथ ही उसमें कभी मुख्यमन्त्रियों की सलाह नहीं ली जाती थी। मुख्यमन्त्रियों को यदि कभी सुझाव देना भी होता था, तो वे विकास समिति को देते थे और जिनकी समीक्षा के बाद योजना आयोग को उस बाबत जानकारी दी जाती थी। इसके अलावा, उसमें निजी क्षेत्र की कोई भागीदारी नहीं थी। नीति आयोग में देश भर के शोध संस्थानों और विश्वविद्यालय से व्यापक स्तर पर परामर्श लिए जाएँगे तथा विश्वविद्यालय और शोध संस्थानों के प्रतिनिधियों को भी इसमें शामिल किया जाएगा। योजना आयोग में ऐसा कुछ भी नहीं था। शायद इसलिए कभी दिवंगत प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने योजना आयोग को जोकरों का समूह कहा था। हालाँकि उन्होंने इसे भंग करने की कोई कोशिश नहीं की।

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प्रश्न 4.
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012)

भारत की ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के दृष्टिकोण-पत्र को राष्ट्रीय विकास परिषद् ने 9 दिसम्बर, 2006 को स्वीकृति प्रदान की। योजना (2007-2012) के निर्धारित लक्ष्य निम्नलिखित हैं –

  • जीडीपी वृद्धि दर का लक्ष्य बढ़ाकर 9 प्रतिशत कर दिया गया।
  • वर्ष 2016-17 तक प्रति व्यक्ति आय दोगुनी हो जायेगी।
  • 7 करोड़ नए रोजगार का सृजन किया जायेगा।
  • शिक्षित बेरोजगार दर को घटाकर 5 प्रतिशत से कम कर दिया जायेगा।
  • वर्तमान में स्कूली बच्चों के पढ़ाई छोड़ने की दर 52 प्रतिशत है, इसे घटाकर 20 प्रतिशत किया जायेगा।
  • साक्षरता दर में वृद्धि कर 75 प्रतिशत तक पहुँचाना।
  • जन्म के समय नवजात शिशु मृत्यु दर को घटाकर 28 प्रति हजार किया जायेगा।
  • मातृ मृत्यु दर को घटाकर प्रति हजार जन्म पर 1 करने का लक्ष्य।
  • सभी के लिए वर्ष 2009 तक स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना।
  • लिंगानुपात दर को सुधारते हुए वर्ष 2011-12 तक प्रति हजार 935 और वर्ष 2016-17 तक 950 प्रति हजार करने का लक्ष्य।
  • वर्ष 2009 तक सभी गाँवों एवं गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों तक बिजली पहुँचाई जायेगी।
  • नवम्बर, 2007 तक प्रत्येक गाँव में दूरभाष की सुविधा उपलब्ध होगी।
  • वर्ष 2011-12 तक प्रत्येक गाँव को ब्रॉडबैंड से जोड़ दिया जायेगा।
  • वर्ष 2009 तक 1,000 की जनसंख्या वाले गाँवों को सड़क की सुविधा होगी।
  • वनीकरण की अवस्था में 5 प्रतिशत की वृद्धि की जायेगी।
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित स्वच्छ वायु के मापदण्डों को लागू किया जायेगा।
  • नदियों की सफाई के क्रम में शहरों से प्रदूषित जल का उपचार किया जायेगा।
  • गरीबी अनुपात को 15 प्रतिशतांक तक घटाया जायेगा।
  • दशकीय जनसंख्या वृद्धि दर को वर्ष 2001-2011 के बीच 16.2 प्रतिशत तक घटाकर लाना। 2011 की जनगणना के आँकड़ों के अनुसार 2001-11 के मध्य जनसंख्या वृद्धि की
  • दर 17.64 रही है जो कि 11वीं योजना के लक्ष्य से पीछे है।

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प्रश्न 5.
बारहवीं पंचवर्षीय योजना के प्रस्तावित प्रारूप पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-17)

राष्ट्रीय विकास परिषद् (एन०डी०सी०) ने 2012-17 तक चलने वाली 12वीं योजना को मंजूरी दे दी है। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में 27 दिसम्बर, 2012 को 57वीं एन०डी०सी० की बैठक में यह योजना दी गई। इस योजना में वृद्धि का लक्ष्य 8.2 फीसदी से घटाकर 8.0 फीसदी किया गया है। योजना के पाँच साल में पाँच करोड़ रोजगार के अवसर पैदा करने और बिजली, सड़क, पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं में निवेश बढ़ाने पर जोर दिया गया है। योजना दस्तावेज में कृषि, बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास के क्षेत्रों को प्राथमिकता दी गई है। 12वीं योजना में केन्द्र का सकल योजना आकार ₹ 43,33,739 रहने का अनुमान है, जबकि राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों को सफल योजना व्यय ₹ 37,16000 करोड़ प्रस्तावित है।

इससे पहले 12वीं योजना के दृष्टिकोण-पत्र में 9.0 फीसदी आर्थिक वृद्धि का लक्ष्य रखने का सुझाव था। लेकिन वैश्विक आर्थिक चिन्ताओं और घरेलू अर्थव्यवस्था में गहराती सुस्ती के चलते सितम्बर 2012 में इसे कम करके 8.2 फीसदी कर दिया गया था। चालू वित्त वर्ष 2012-13 के दौरान आर्थिक वृद्धि 5.7 से 5.9 फीसदी के दायरे में रहने का अनुमान लगाया गया है। पिछले एक दशक में यह सबसे कम आर्थिक वृद्धि होगी।

12 वीं योजना के लक्ष्य

  • सरकारी कामकाज के ढंग सुधारे जाएँगे इसके लिए सरकारी कार्यक्रम नए सिरे से तय किए जाएँगे।
  • शत-प्रतिशत वयस्क साक्षरता हासिल करने का लक्ष्य।
  • स्वास्थ्य और शिक्षा पर फोकस किया जाएगा, स्वास्थ्य पर खर्च को जीडीपी के 1.3 से
  • बढ़ाकर 2.0-2.5 फीसदी किया जाएगा। ० एफडीआई नीति को उदार बनाकर मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को नई गति प्रदान करने पर जोर दिया जायेगा।

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प्रश्न 6.
राष्ट्रीय विकास परिषद् (NDC) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
या
राष्ट्रीय विकास परिषद् के प्रमुख कार्य बताइए।
उत्तर :
राष्ट्रीय विकास परिषद् (NDC)

6 अगस्त, 1952 को नियोगी समिति की संस्तुति पर सरकार के एक प्रस्ताव द्वारा राष्ट्रीय विकास परिषद् का गठन किया गया। यह एक गैर-सांविधिक निकाय है। प्रधानमंत्री इस परिषद् के पदेन अध्यक्ष होते हैं। राष्ट्रीय विकास परिषद् की स्थापना योजना आयोग की सलाह पर की गयी थी। राष्ट्रीय विकास परिषद् के अनुमोदन के उपरान्त ही कोई पंचवर्षीय योजना अन्तिम रूप प्राप्त करती है। यह एक गैर-सांविधिक निकाय है जिसका उद्देश्य राज्यों और योजना आयोग के बीच सहयोग का वातावरण बनाकर आर्थिक नियोजन को सफल बनाना है। वर्तमान समय में सभी राज्यों के मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्रिपरिषद् के सभी सदस्य, केन्द्रशासित प्रदेशों के प्रशासक तथा योजना आयोग के सभी सदस्य राष्ट्रीय विकास परिषद् के पदेन सदस्य होते हैं। राष्ट्रीय विकास परिषद् (NDC) के प्रमुख कार्य हैं –

  1. योजना आयोग को प्राथमिकताएँ निर्धारण में परामर्श देना।
  2. योजना के लक्ष्यों के निर्धारण में योजना आयोग को सुझाव देना।
  3. योजना को प्रभावित करने वाले आर्थिक एवं सामाजिक घटकों की समीक्षा करना।
  4. योजना आयोग द्वारा तैयार की गई योजना का अध्ययन करके उसे अन्तिम रूप देना तथा स्वीकृति प्रदान करना।
  5. राष्ट्रीय योजना के संचालन का समय-समय पर मूल्यांकन करना।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
आर्थिक नियोजन का क्या अर्थ है?
उत्तर :
एक निश्चित समय में पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों व लक्ष्यों की पूर्ति के लिए अपनाये गये कार्यक्रमों को आर्थिक नियोजन अथवा विकास योजनाएँ कहते हैं। विकास योजनाओं के अन्तर्गत भावी विकास के उद्देश्यों को निर्धारित किया जाता है और उनकी प्राप्ति के लिए आर्थिक क्रियाओं का एक केन्द्रीय सत्ता द्वारा नियमन व संचालन होता है। अलग-अलग क्षेत्रों; जैसे-कृषि उद्योग, सेवा आदि के लिए लक्ष्य निर्धारित किये जाते हैं। इन लक्ष्यों को एक निश्चित अवधि में पूरा करने के लिए राष्ट्र के दुर्लभ साधनों के प्रयोग की एक ‘व्यूह-रचना’ तैयार की जाती है। इस व्यूह-रचना के विभिन्न कार्यक्रमों को एक केन्द्रीय सत्ता की देख-रेख में इस प्रकार क्रियान्वित किया जाता है। कि दुर्लभ साधनों का सर्वोत्तम उपयोग हो और निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति हो सके।

संक्षेप में, “आर्थिक नियोजन से अभिप्राय, एक केन्द्रीय सत्ता द्वारा देश में उपलब्ध प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों का सन्तुलित ढंग से, एक निश्चित अवधि के अन्तर्गत निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति करना है जिससे देश का तीव्र आर्थिक विकास किया जा सके।

प्रश्न 2
योजना आयोग के चार कार्य बताइए। [2008, 14]
उत्तर :
विकास कार्यों की परामर्शदात्री संस्था के रूप में योजना आयोग एक शीर्षस्थ संस्था है। 15 मार्च, 1950 को किये गये प्रस्ताव के अनुसार देश के सामाजिक विकास के सन्दर्भ में योजना आयोग के चार कार्यों का उल्लेख निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है –

  1. संसाधनों का अनुमान करना – योजना आयोग का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य देश में उपलब्ध पदार्थगत, पूँजीगत और मानवीय संसाधनों का अनुमान करना है।
  2. संसाधनों का सन्तुलित उपयोग – योजना आयोग संसाधनों के प्रभावी और सन्तुलित उपयोग के लिए योजनाएँ बनाता है।
  3. प्राथमिकताओं का निर्धारण – योजना आयोग विभिन्न विकास/कार्यक्रमों की प्राथमिकता का निर्धारण करता है जिससे राष्ट्रीय आवश्यकता के अनुरूप विकास के लिए विभिन्न वरीयता प्राप्त क्षेत्रों का त्वरित विकास किया जा सके।
  4. विकास के बाधक तत्त्वों का आकलन – योजना आयोग आर्थिक विकास के विभिन्न बाधक तत्त्वों की जानकारी कराता है और उसके निराकरण के उपाय खोजता है।।

प्रश्न 3.
भारत में पंचवर्षीय योजनाओं के चार प्रमुख उद्देश्यों का वर्णन कीजिए। [2013]
या
पंचवर्षीय योजनाओं के चार प्रमुख उद्देश्य बताइए।
उत्तर :
पंचवर्षीय योजनाओं के चार प्रमुख उद्देश्य निम्नवत् हैं –

  1. कृषि, विद्युत एवं सिंचाई का विकास करना।
  2. औद्योगीकरण करके समाजवादी समाज की स्थापना करना।।
  3. लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाना (विशेष रूप से कमजोर वर्ग में)।
  4. गरीबी उन्मूलन एवं ग्रामीण विकास करना।

प्रश्न 4.
आर्थिक नियोजन की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए
उत्तर :
आर्थिक नियोजन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. नियोजित अर्थव्यवस्था आर्थिक संगठन की एक पद्धति है।
  2. आर्थिक नियोजन की समस्त क्रियाविधि एक केन्द्रीय सत्ता द्वारा सम्पन्न की जाती है।
  3. आर्थिक नियोजन सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में लागू होता है।
  4. नियोजन के अन्तर्गत साधनों का वितरण प्राथमिकताओं के अनुसार विवेकपूर्ण नीति से किया जाता है?
  5. नियोजन में पूर्ण, पूर्व निश्चित एवं निर्धारित उद्देश्य होते हैं।
  6. उद्देश्य की पूर्ति हेतु एक निश्चित अवधि निर्धारित की जाती है।
  7. उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में नियन्त्रण स्थापित किए जाते हैं।
  8. आर्थिक नियोजन की सफलता के लिए जन-सहयोग की आवश्यकता होती है।
  9. नियोजन सामान्यतया एक निरन्तर दीर्घकालीन प्रक्रिया है।

प्रश्न 5.
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के चार लक्ष्यों का उल्लेख कीजिए। [2008]
उत्तर :
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजनाओं के चार लक्ष्य निम्नलिखित हैं –

  1. विकास दर के लक्ष्य को बढ़ाकर 10% कर दिया गया।
  2. निर्धनता अनुपात में 15% तक की कमी लाना
  3. उच्च गुणवत्ता युक्त रोजगारोन्मुखी योजनाओं को प्रारम्भ करना
  4. दशकीय जनसंख्या वृद्धि दर को 16% के स्तर पर लाकर स्थिर करना।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
नीति आयोग का गठन कब किया गया?
उत्तर :
नीति आयोग का गठन 1 जनवरी, 2015 को किया गया।

प्रश्न 2.
नीति आयोग का अध्यक्ष कौन होता है?
उत्तर :
नीति आयोग का अध्यक्ष प्रधानमन्त्री होता है।

प्रश्न 3.
नीति आयोग का प्रथम उपाध्यक्ष किसे नियुक्त किया गया?
उत्तर :
नीति आयोग का प्रथम उपाध्यक्ष अरविन्द पनगढ़िया को नियुक्त किया गया।

प्रश्न 4.
‘बम्बई योजना किसके द्वारा तैयार की गयी थी?
उत्तर :
‘बम्बई योजना’ बम्बई के आठ उद्योगपतियों द्वारा तैयार की गयी थी।

प्रश्न 5
प्रथम पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल बताइए। [2008]
या
भारत की प्रथम पंचवर्षीय योजना कब प्रारम्भ हुई? [2014]
उत्तर :
1 अप्रैल, 1951 से 31 मार्च, 1956 तक।

प्रश्न 6.
चतुर्थ पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल बताइए।
उत्तर :
1 अप्रैल, 1969 से 31 मार्च, 1974 तक।

प्रश्न 7.
योजना आयोग का अध्यक्ष कौन होता था ?
उत्तर :
प्रधानमन्त्री।

प्रश्न 8.
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल बताइए।
उत्तर :
1 अप्रैल, 2007 से 31 मार्च, 2012 तक।

प्रश्न 9
राष्ट्रीय विकास परिषद् का अध्यक्ष कौन होता है? [2009, 11]
उत्तर :
राष्ट्रीय विकास परिषद् का अध्यक्ष भारत का प्रधानमन्त्री होता है।

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प्रश्न 10
योजना आयोग की स्थापना कब हुई थी? [2009, 11]
उत्तर :
योजना आयोग की स्थापना 1950 ई० में हुई थी।

प्रश्न 11.
वित्त आयोग का गठन कौन करता है? उसका कार्यकाल कितना होता है? [2010]
उत्तर :
वित्त आयोग का गठन भारत का राष्ट्रपति करता है। इसका गठन हर पाँचवें वर्ष या आवश्यकतानुसार उससे पहले भी किया जा सकता है। व्यवहार में एक वित्त आयोग का कार्यकाल प्रायः एक वर्ष या दो वर्ष का रहा है।

प्रश्न 12.
12वीं पंचवर्षीय योजना कब आरम्भ हुई? [2013]
उत्तर :
12वीं पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल, 2012 को आरम्भ हुई।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
भारत में योजना आयोग की स्थापना हुई [2009, 11]
(क) 1947 ई० में
(ख) 1948 ई० में
(ग) 1950 ई० में
(घ) 1956 ई० में

प्रश्न 2.
देश में राष्ट्रीय विकास परिषद् की स्थापना हुई –
(क) 15 अगस्त, 1947 को।
(ख) 20 जनवरी, 1950 को
(ग) 22 अक्टूबर, 1956 को
(घ) 6 अगस्त, 1956 को

प्रश्न 3.
योजना आयोग का अध्यक्ष होता है [2010, 12, 13]
(क) वित्तमन्त्री
(ख) योजना मन्त्री
(ग) प्रधानमन्त्री
(घ) राष्ट्रपति

प्रश्न 4.
Planned Economy for India (प्लाण्ड इकोनॉमी फॉर इण्डिया) पुस्तक के लेखक हैं –
(क) के० सी० पन्त
(ख) मनमोहन सिंह
(ग) जवाहरलाल नेहरू
(घ) एम० विश्वेश्वरैया

प्रश्न 5.
योजना आयोग के प्रथम अध्यक्ष थे [2007]
(क) सरदार पटेल
(ख) पं० जवाहरलाल नेहरू
(ग) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(घ) डॉ० सम्पूर्णानन्द

प्रश्न 6.
नीति आयोग के प्रथम अध्यक्ष कौन हैं [2016]
(क) नरेन्द्र मोदी
(ख) अरुण जेटली
(ग) अरविन्द पनगढ़िया
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 7.
भारत में नीति आयोग का पदेन अध्यक्ष कौन होता है? [2016]
(क) भारत का राष्ट्रपति
(ख) भारत का प्रधानमन्त्री
(ग) भारत का उपराष्ट्रपति
(घ) भारत का विदेशमन्त्री

प्रश्न 8.
नीति आयोग की स्थापना हुई –
(क) जनवरी, 2015 में
(ख) दिसम्बर, 2014 में
(ग) फरवरी, 2016 में
(घ) अप्रैल, 2015 में

उत्तर

  1. (ग) 1950 ई० में
  2. (घ) 6 अगस्त, 1956 ई० को
  3. (ग) प्रधानमन्त्री
  4. (घ) एम० विश्वेश्वरैया
  5. (ख) पं० जवाहरलाल नेहरू
  6. (क) नरेन्द्र मोदी
  7. (ख) भारत का प्रधानमन्त्री
  8. (क) जनवरी, 2015 में।

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 20 Indian Modern Banking System

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 20 Indian Modern Banking System (भारतीय आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 20 Indian Modern Banking System (भारतीय आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 20
Chapter Name Indian Modern Banking System (भारतीय आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था)
Number of Questions Solved 70
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 20 Indian Modern Banking System (भारतीय आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
बैंक किसे कहते हैं ? बैंकों के कार्य एवं उनकी उपयोगिता समझाइए।
या
बैंक से आप क्या समझते हैं? बैंकों के किन्हीं दो प्रमुख कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2014]
उत्तर:
बैंक के कार्यों के आधार पर बैंक की विभिन्न परिभाषाएँ दी गयी हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  1.  भारतीय बैंकिंग कम्पनी अधिनियम, 1949 के अनुसार, “बैंकिंग का अर्थ, है उधार देने अथवा विनियोग करने के उद्देश्य से जनता से ऐसी जमा स्वीकार करना जो माँग पर या किसी अन्य प्रकार से चेक, ड्राफ्ट, आदेश या अन्य किसी माध्यम से देय हो।’

  2.  फिण्डले शिराज के अनुसार, “बैंकर वह व्यक्ति, फर्म या कम्पनी है जिसके पास व्यापार के लिए ऐसा स्थान हो जहाँ वह जमा के खाते; जमा या मुद्रा संग्रह या सिक्कों द्वारा खोले। जिस खाते से रुपये का भुगतान या हस्तान्तरण, चेक, ड्राफ्ट या आदेश द्वारा होता है अथवा जहाँ स्टॉक, बॉण्ड, धातु, विनिमय-बिल, प्रतिज्ञा-पत्र को प्रतिभूति मानकर ऋण दिया जाता है अथवा जहाँ इसको भुनाने या विक्रय का कार्य होता है।”
  3. किनले के अनुसार, “बैंक एक ऐसी संस्था है जो सुरक्षा का ध्यान रखते हुए ऐसे व्यक्तियों को ऋण देती है जिन्हें इसकी आवश्यकता है और जिसके पास व्यक्ति अपना बचा हुआ धन सुरक्षित रखते हैं।”
    उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि बैंक वह संस्था है जो मुद्रा तथा साख का लेन-देन करती है।

बैंक के कार्य एवं उपयोगिता
वर्तमानकाल में बैंकों का सर्वाधिक महत्त्व है। बैंक के बहुमुखी कार्यों के कारण इनकी निरन्तर उपयोगिता बढ़ती जा रही है। इस उपयोगिता को निम्नलिखित शीर्षकों में व्यक्त किया जा सकता है

1. जमा प्राप्त करना – जनता से जमा प्राप्त करना समस्त बैंकिंग क्रिया का आधार है। बैंक ऐसे व्यक्तियों से, जिनके पास बचत है, उनका धन जमा करते हैं। उन व्यक्तियों को इसका सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि बैंक में रुपया सुरक्षित रहता है। दूसरे, उस पर ब्याज मिलता है; तीसरे, चेक के द्वारा भुगतान की सुविधा रहती है।

2. साख सुविधाएँ प्रदान करना –
बैंक अपने ग्राहकों को उनको आवश्यकता पर साख या ऋण सम्बन्धी सुविधाएँ प्रदान करते हैं। यह बैंक का महत्त्वपूर्ण कार्य है।

3. धन व मूल्यवान वस्तुओं की सुरक्षा – बैंक जनता का धन बैंक में व मूल्यवान् वस्तुएँ लॉकर्स में रखने की सुविधा प्रदान करते हैं और इस सुविधा हेतु ये नाममात्र का शुल्क लेते हैं।

4. भुगतान की सुविधा – बैंक अपने ग्राहकों की जमाराशि के भुगतान की सुविधा प्रदान करते हैं। कोई ग्राहक स्वयं अथवा अपने प्रतिनिधि के माध्यम से अपनी जमा धनराशि चेक, विड्राल फार्म आदि के द्वारा निकाल सकता है।

5. धन का स्थानान्तरण – बैंक, चेक तथा बैंक ड्राफ्ट द्वारा धन का स्थानान्तरण करने में सहायता पहुँचाता है। इससे जनता को अत्यधिक सुविधा होती है।

6. साख-निर्माण का कार्य – बैंकों से साख का निर्माण होता है, जिससे देश की मुद्रा की मात्रा में वृद्धि होती है। साख-निर्माण से औद्योगिक तथा व्यापारिक विकास में सहायता मिलती है।

7. पूँजी-निर्माण में सहायक – बैंक जनता के धन को विभिन्न खातों में जमा करने की सुविधा देते हैं तथा जमा पर ब्याज देकर जनता को बचत करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। यह बचत उद्योगों तथा व्यापार में विनियोजित की जाती है। इससे पूँजी-निर्माण होता है।

8. विदेशी व्यापार में सहायता – विदेशी व्यापार में बैंकों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। बैंकों के द्वारा विदेशी भुगतान की व्यवस्था की जाती है। ये विदेशी व्यापार में धन भी लगाते हैं और बिलों के भुगतान में सहायता भी करते हैं।

9. उद्योगपतियों, व्यापारियों, कारीगरों और किसानों की सहायता – वर्तमान युग में व्यापारिक बैंक व्यापारियों की, औद्योगिक बैंक उद्योगपतियों की तथा भूमि विकास बैंक किसानों की अत्यधिक सहायता कर रहे हैं।

10. राजकीय अर्थ प्रबन्ध में सहायता – बैंक राजकीय अर्थ प्रबन्ध में योगदान देते हैं तथा बैंक नोटों का निर्गमन कर देश की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

11. आर्थिक मामलों में सलाह – बैंक एक अच्छा मित्र तथा आर्थिक सलाहकार होता है। आर्थिक मामलों में बैंक सरकार को भी परामर्श देते हैं।

12. मुद्रा-प्रणाली में लोच व मुद्रा-मूल्यों पर नियन्त्रण-बैंक, साख-निर्माण द्वारा मुद्रा की मात्रा में लोच उत्पन्न करते हैं तथा मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन कर मुद्रा-मूल्यों पर भी नियन्त्रण रखते हैं।
आज के युग में बैंक अनेक कार्य तथा सेवाएँ करते हैं। इसीलिए ये किसी भी देश की उन्नत व्यवस्था के प्रतीक माने जाते हैं।

प्रश्न 2
भारत में कितने प्रकार के बैंक कार्य कर रहे हैं? इनके कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बैंकों के कार्य के आधार पर भारत में निम्नलिखित बैंक कार्य कर रहे हैं

  1.  केन्द्रीय बैंक,
  2.  व्यापारिक बैंक,
  3.  औद्योगिक बैंक,
  4. कृषि बैंक व भूमि बन्धक बैंक,
  5. विदेशी विनिमय बैंक,
  6. देशी बैंकर,
  7. सहकारी बैंक तथा
  8. सेविंग्स बैंक।

1. केन्द्रीय बैंक – केन्द्रीय बैंक देश की सम्पूर्ण बैंकिंग व्यवस्था के शीर्ष पर स्थित होता है। हमारे देश में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया’ देश का केन्द्रीय बैंक है। केन्द्रीय बैंक देश का राष्ट्रीय बैंक होता है।
कार्य

  1.  पत्र-मुद्रा निर्गमित करने का एकाधिकार,
  2.  देश के सभी बैंकों पर नियन्त्रण,
  3.  साख पर नियन्त्रण,
  4.  सरकारी बैंक का कार्य,
  5.  देश की मौद्रिक तथा आर्थिक नीतियों को संचालित करना,
  6.  विदेशी मुद्रा को कोष रखना,
  7. सरकार का आर्थिक सलाहकार,
  8. बैंकों का बैंक तथा
  9. जनकल्याण के लिए विभिन्न कार्य।

2. व्यापारिक बैंक – व्यापारिक बैंक वे बैंक होते हैं, जिनका सम्बन्ध विशेष रूप से व्यापारियों से होता है। ये बैंक मुख्यत: व्यापारियों को ही ऋण देते हैं, इसलिए इन्हें व्यापारिक बैंक कहते हैं। इन। बैंकों की स्थापना संयुक्त पूँजी कम्पनी की भाँति की जाती है। भारत के अधिकांश संयुक्त पूँजी बैंक ही व्यापारिक बैंक हैं।

कार्य

  1. जनता से जमा स्वीकार करना,
  2.  रुपया उधार देना,
  3.  बिलों का भुगतान,
  4. एजेण्टों के रूप में कार्य करना,
  5. धन का हस्तान्तरण करना,
  6. मूल्यवान वस्तुओं व धातुओं को सुरक्षित रखना तथा
  7. अंशों व ऋण-पत्रों का क्रय-विक्रय करना।

3. औद्योगिक बैंक – उद्योगों को दीर्घकालीन ऋण सुविधाएँ देने वाले बैंकों को औद्योगिक बैंक कहा जाता है। भारत में औद्योगिक विकास बैंक, औद्योगिक वित्त निगम वे राज्य वित्त निगम औद्योगिक बैंक के रूप में कार्य कर रहे हैं।
कार्य

  1. लम्बी अवधि के लिए जमी स्वीकार करना,
  2.  दीर्घकालीन औद्योगिक ऋण देना,
  3. अंशों व ऋण-पत्रों का अभिगोपन करना,
  4. अन्य सेवाएँ प्रदान करना; जैसे-अंशों का क्रय-विक्रय करना, औद्योगिक फर्मों को विनियोग सम्बन्धी परामर्श देना आदि।

4. कृषि बैंक व भूमि बन्धक बैंक – ऐसे बैंक जो किसानों को कृषि कार्य हेतु दीर्घकालीन ऋण प्रदान करते हैं, भूमि विकास या भूमि बन्धक बैंक कहलाते हैं।

कार्य – भूमि विकास बैंकों का मुख्य कार्य किसानों को दीर्घकालीन ऋण देना है। ऋण निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए दिए जाते हैं

  1.  नयी भूमि खरीदने के लिए,
  2. भूमि को कृषि योग्य बनाने के लिए,
  3. सिंचाई की व्यवस्था करने, कुआँ, ट्यूबवेल आदि के लिए,
  4.  कृषि सम्बन्धी भारी औजार या मशीन; जैसे-ट्रैक्टर आदि क्रय हेतु,
  5. किसी अन्य उत्पादन कार्य के लिए,
  6. मकान आदि निर्माण के लिए,
  7. पुराने ऋणों के भुगतान हेतु तथा
  8.  भूमि में स्थायी सुधार के लिए।

5. विदेशी विनिमय बैंक – विदेशी विनिमय बैंक से अभिप्राय उन बैंकों से है जो विदेशी विनिमय का कार्य करते हैं अथवा विदेशी व्यापार में आर्थिक सहायता प्रदान करते हैं। भारत में विनिमय बैंक दो प्रकार के हैं

  • भारतीय विनिमय बैंक – ये ऐसे बैंक हैं जिनका प्रधान कार्यालय भारत में है और जिन्होंने अपनी शाखाएँ विदेशी विनिमय कार्य हेतु विदेशों में खोली हुई हैं।
  •  विदेशी विनिमय बैंक – ऐसे बैंक जिनको प्रधान कार्यालय विदेशों में है और भारत में विनिमय कार्यों के लिए अपनी शाखाएँ खोले हुए हैं। ऐसे बैंकों को विदेशी विनिमय बैंक कहा जाता है।

कार्य – विदेशी विनिमय बैंकों का प्रमुख कार्य एक देश की मुद्रा को दूसरे देश की मुद्रा में बदलना तथा विदेशी विनिमय प्रपत्रों का क्रय-विक्रय करना होता है।

6. देशी बैंकर – “स्वदेशी बैंक वह असंगठित बैंक है, जो कि ऋण देने के साथ-साथ जमा स्वीकार करता है अथवा हुण्डियों का व्यापार करता है अथवा दोनों व्यवहार करता है।”
कार्य

  1. ऋण प्रदान करना,
  2.  जमा स्वीकार करना तथा
  3. हुण्डियों का व्यवसाय करना।

7. सहकारी बैंक – सहकारी बैंक या सहकारी साख समितियों से आशय ऐसे सहकारी संगठन से है, जो बैंकिंग व्यवसाय (धन जमा करना व धन उधार देना) करते हैं।

हेनरी वुल्फ के अनुसार, “सहकारी बैंकिंग एक ऐसी एजेन्सी है जो छोटे वर्ग के व्यक्तियों से व्यवहार करने की स्थिति में है तथा जो अपनी शर्तों के अनुसार उनकी जमा को स्वीकार करती है वे ऋण प्रदान करती है।”

कार्य

  1.  जमा स्वीकार करना,
  2.  ऋण प्रदान करना तथा
  3.  अपने सदस्यों के कल्याण हेतु अन्य बैंकिंग सुविधाएँ प्रदान करना।

8. सेविंग्स बैंक – जनता में बचत की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने के लिए, भारत में सरकार ने डाकघर में रुपया जमा करने की सुविधा प्रदान की है। इसे डाकघर सेविंग्स बैंक कहते हैं।
कार्य

  1.  निर्धन एवं कम आय वाले व्यक्तियों में बचत की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना,
  2.  उनकी बचतों को जमा करना व सुरक्षित रखना तथा
  3. छोटी-छोटी बचतों से विशाल पूँजी-निर्माण करके उसे उत्पादक कार्यों में लगाना।

प्रश्न 3
रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के कार्यों का वर्णन कीजिए। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के वर्जित कार्य भी बताइए।
या
भारतीय रिजर्व बैंक के प्रमुख कार्यों को समझाइए। [2000, 07, 08, 09 10, 11, 12, 14, 15]
उत्तर:
भारत में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया केन्द्रीय बैंक है। केन्द्रीय बैंक होने के कारण उसे वे सभी कार्य करने पड़ते हैं जो एक केन्द्रीय बैंक द्वारा सम्पादित किये जाते हैं। डी० कॉक के अनुसार, एक केन्द्रीय बैंक के मुख्य कार्य इस प्रकार हैं

  1. नोटों का निर्गमन,
  2. सरकार का बैंकर, एजेण्ट एवं परामर्शदाता,
  3. व्यापारिक बैंकों के नकद कोषों का संरक्षक,
  4. राष्ट्र की अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा के कोष का रक्षक,
  5.  बैंकों का बैंक एवं अन्तिम ऋणदाता,
  6. केन्द्रीय भुगतान एवं हस्तान्तरण का बैंकर तथा
  7. साख का नियन्त्रक।

भारत का रिजर्व बैंक इन सभी कार्यों को करता है; अतः वह देश का केन्द्रीय बैंक है। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के कार्यों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

  • केन्द्रीय बैंकिंग सम्बन्धी कार्य तथा
  • साधारण बैंकिंग कार्य।

(i) केन्द्रीय बैंकिंग सम्बन्धी कार्य
1. नोटों का निर्गमन – रिजर्व बैंक को भारत में नोट निर्गमन का एकाधिकार प्राप्त है। इस कार्य को बैंक का नोट निर्गमन विभाग करता है। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के ₹10, 20, 50, 100, 500 तथा ₹ 2,000 की मुद्रा का निर्गमन करता है। केवल एक रुपये का नोट भारत सरकार द्वारा निकाला जाता था। यह नोट एक रुपये के सिक्के की भाँति ही है। वर्तमान में भारतीय रिजर्व बैंक ने ₹ 2 तथा ₹ 5 के नये नोटों की छपाई भी बन्द कर दी है और ₹ 2, 5 तथा 10 का सिक्का प्रचलित किया गया है। नोट जारी करने के लिए बैंके न्यूनतम आरक्षण पद्धति का प्रयोग करता है। नोटों के निर्गमन के लिए ₹200 करोड़ की न्यूनतम निधि रखना आवश्यक होता है जिसमें ₹115 करोड़ का सोना और सोने की मुद्राएँ तथा १ 85 करोड़ की विदेशी प्रतिभूतियाँ रखी जाती हैं।

2. सरकार के बैंक के रूप में कार्य – रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया सरकार का बैंक है। सरकारी बैंकर के रूप में यह निम्नलिखित कार्य करता है

  • सरकार का रुपया जमा करता है और सरकार के आदेशानुसार रुपये का भुगतान करता है।
  •  सरकार को ऋण देता है, उसके लिए ऋण की व्यवस्था के साथ-साथ सरकारी ऋण-पत्रों को बेचने की भी व्यवस्था करता है।
  •  सरकारी कोषों का स्थानान्तरण करता है।
  • भारत सरकार एवं राज्य सरकारों के लिए विदेशी विनिमय का प्रबन्ध करता है।
  • भारत सरकार एवं राज्य सरकारों को आर्थिक परामर्श देता है तथा आर्थिक नीतियों का निर्धारण भी करता है।
  • अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक में सरकार का प्रतिनिधित्व करता है।

3. बैंकों के बैंक के रूप में कार्य – रिजर्व बैंक देश के सभी अनुसूचित बैंकों का बैंक है। देश की बैंकिंग व्यवस्था को उचित प्रकार से चलाने तथा बैंकों पर नियन्त्रण रखने हेतु यह निम्नलिखित कार्य करता है

  • प्रत्येक बैंकिंग संस्था को चाहे वह भारतीय हो अथवा विदेशी, भारतवर्ष में बैंकिंग का व्यवसाय करने के लिए रिजर्व बैंक से लाइसेन्स लेना पड़ता है।
  •  समस्त अनुसूचित बैंकों को अपने कुल माँग जमा तथा मियादी जमा को 3% भाग रिजर्व बैंक के पास जमा करना पड़ता है। रिजर्व बैंक इसको 15% तक बढ़ा सकता है। इस धनराशि का रिजर्व बैंक इन्हीं बैंकों के आर्थिक संकट के समय अन्तिम ऋणदाता के रूप में आर्थिक सहायता देने के लिए उपयोग करता है।
  • रिजर्व बैंक, बैंक-दर में कमी अथवा वृद्धि करके तथा खुले बाजार की क्रियाओं के द्वारा बैंक की साख-नीति पर नियन्त्रण रखता है।
  •  रिजर्व बैंक किसी भी अनुसूचित बैंक का निरीक्षण कर सकता है
  • वह अनुसूचित बैंकों के लिए विदेशी विनिमय का क्रय-विक्रय करता है।
  • वह निकासी गृह की सुविधा प्रदान करता है।
  • बैंकों को रिजर्व बैंक के पास साप्ताहिक विवरण भेजने पड़ते हैं, जिससे उसे उसकी दशा का अप-टू-डेट ज्ञान रहता है और वह आवश्यकता पड़ने पर उचित कदम उठाता है।

4. विनिमय दर में स्थिरता बनाये रखना – रिजर्व बैंक का महत्त्वपूर्ण कार्य रुपये की विनिमय दर को स्थिर बनाये रखना है। इस कार्य के लिए रिजर्व बैंक निश्चित दरों पर विदेशी विनिमय का क्रय-विक्रय करता रहता है। रिजर्व बैंक विदेशी विनिमय के क्षेत्र में एक ओर तो रुपये का बाहरी मूल्य बनाये रखने का प्रयत्न करता है तो दूसरी ओर उपलब्ध विदेशी विनिमय का राष्ट्र-हित में प्रयोग करता है। भारत में विदेशी विनिमय का दुरुपयोग सोने की तस्करी के कारण होता था। इसको समाप्त करने के लिए भारत सरकार ने 9 जनवरी, 1963 को ‘स्वर्ण नियन्त्रण आदेश’ लागू किया। इस प्रकार रिजर्व बैंक विदेशी विनिमय पर नियन्त्रण रखता है।

5. साख नियन्त्रण का कार्य – केन्द्रीय बैंक के रूप में रिजर्व बैंक का प्रमुख कार्य साख नियन्त्रण है। साख नियन्त्रण से आशय देश के व्यापारिक बैंकों में संस्थाओं द्वारा दिये जाने वाले ऋणों पर नियन्त्रण करना है। रिजर्व बैंक देश की आर्थिक परिस्थितियों व आवश्यकताओं को देखते हुए बैंक ऋणों की मात्रा को नियमित करता है। रिजर्व बैंक साख नियन्त्रण हेतु बैंक-दर नीति, खुले बाजार की क्रियाएँ तथा परिवर्तनशील कोषानुपात की नीति को अपनाता है। बैंक:-दर में परिवर्तन करके वह साख की मात्रा को नियन्त्रित करता है।

6. कृषि-साख की व्यवस्था – रिजर्व बैंक अपने ‘कृषि-साख विभाग द्वारा कृषि से सम्बन्धित समस्याओं के बारे में विचार-विमर्श करता है। यह प्रादेशिक सरकारों, भारत सरकार तथा सहकारी बैंकों को समय-समय पर कृषि-साख पर परामर्श देता है। कृषि-साख के लिए यह 2% ब्याज दर पर सहकारी बैंकों को ऋण देता है।

7. समाशोधन  – गृह का कार्य-रिजर्व बैंक देश का केन्द्रीय बैंक होने के कारण समाशोधन का कार्य भी करता है। समस्त देशों के प्रतिनिधि एक पूर्वनिर्धारित दिनांक को एकत्रित होकर अपने-अपने लेन-देन का कुल विवरण प्रस्तुत करते हैं। रिजर्व बैंक प्रस्तुत विवरण के अनुसार प्रत्येक बैंक खाते में प्रविष्टियाँ कर देता है। इस प्रकार रिजर्व बैंक, सदस्य बैंकों में रुपये के स्थानान्तरण को सुविधाजनक बनाता है।

8. औद्योगिक वित्त की व्यवस्था – रिजर्व बैंक अप्रत्यक्ष रूप से औद्योगिक साख प्रदान करने में भी सहायता देता है। ‘इण्डस्ट्रियल फाइनेन्स कॉर्पोरेशन’ तथा राज्य वित्त निगम’ आदि संस्थाओं के शेयर खरीदकर रिजर्व बैंक उद्योगों को मध्यकालीन व दीर्घकालीन ऋण प्रदान करके औद्योगिक वित्त की व्यवस्था को सहायता प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त ‘इण्डस्ट्रियल डेवलपमेण्ट बैंक रिजर्व बैंक की आश्रित संस्था है, जो औद्योगिक साख की शीर्ष संस्था के रूप में कार्य करती है। रिजर्व बैंक बड़े-बड़े उद्योगों की सहायता के लिए राष्ट्रीय औद्योगिक साख (दीर्घकालीन कोष) का निर्माण करता है।

9. आर्थिक शोध – कार्य और आँकड़े एकत्रित करना-रिजर्व बैंक का एक विशेष विभाग है। ‘रिसर्च तथा स्टैटिस्ट्रिक्स विभाग’। यह विभाग आर्थिक और मौद्रिक समस्याओं को अध्ययन करता है और इस सम्बन्ध में अपने निष्कर्ष प्रस्तुत करता है। रिजर्व बैंक प्रति वर्ष अपने कार्यों की वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित कराता है तथा औद्योगिक उत्पादन आदि से सम्बन्धित आँकड़े एकत्रित करता है और प्रकाशित कराता है।

(ii) साधारण बैकिंग कार्य
उपर्युक्त कार्यों के अतिरिक्त रिजर्व बैंक अन्य साधारण बैंकिंग सम्बन्धी कार्य भी करता है, जो निम्नलिखित हैं

  1. बिना ब्याज के जमा स्वीकार करना।
  2. 10 दिन की अवधि के बिलों का बट्टा करना और क्रय-विक्रय करना।
  3. भारत सरकार, राज्य सरकारों तथा अनुसूचित बैंकों को 90 दिन की अवधि के लिए जमानत पर ऋण देना।
  4.  कृषि-कार्यों में सहायता पहुंचाने के लिए 15 मास के बिलों का बट्टा करना अथवा क्रय-विक्रय करना।
  5. सदस्य बैंकों से कम-से-कम ₹ 1 लाख रुपये के विदेशी विनिमय का क्रय-विक्रय करना।
  6.  अपने कार्यों को उचित रूप से चलाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय बैंकों तथा अन्य विदेशी केन्द्रीय बैंकों में अपना खाता खोलना।
  7.  विविध कार्य; जैसे – सोने, चाँदी, हीरे-जवाहरात एवं प्रतिभूतियों को अपने अधीन रखना तथा सोने, चाँदी व सोने के सिक्कों को खरीदना व बेचना आदि।

रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के वर्जित कार्य
रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया एक्ट के अनुसार, कुछ ऐसे कार्य भी हैं जो रिजर्व बैंक द्वारा नहीं किये जा सकते। यह प्रतिबन्ध इसलिए लगाया गया है जिससे कि रिजर्व बैंक अन्य बैंकों से प्रतियोगिता न कर सके। ये कार्य निम्नलिखित हैं

  1.  रिजर्व बैंक अपनी जमाराशियों पर ब्याज नहीं दे सकता है।
  2.  यह अपने लिए कार्यालयों को छोड़कर किसी प्रकार की अचल सम्पत्ति का क्रय नहीं कर सकता और इसके आधार पर ऋण नहीं दे सकता है।
  3.  यह किसी बैंक अथवा कम्पनी के अंश नहीं खरीद सकता और ऐसे अंशों की आड़ पर ऋण भी नहीं दे सकता है।
  4.  यह बिना जमानत के ऋण नहीं दे सकता।
  5. यह किसी भी प्रकार की व्यापारिक, वाणिज्य एवं उद्योग क्रियाओं में भाग नहीं ले सकता है। और न ही किसी प्रकार की आर्थिक सहायता दे सकता हैं।

प्रश्न 4
भारत में स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना के उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए। स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया के वर्जित कार्यों का वर्णन कीजिए। [2008]
या
भारतीय स्टेट बैंक के कार्यों का वर्णन करें। [2010]
उत्तर:
स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया
1 जुलाई, 1955 ई० को इम्पीरियल बैंक ऑफ इण्डिया का राष्ट्रीयकरण करके स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना की गयी।

सरकार के वित्तीय सहयोग से निजी अंशधारियों द्वारा 1806 ई० में बैंक ऑफ बंगाल, 1840 ई० में बैंक ऑफ बॉम्बे तथा 1843 ई० में बैंक ऑफ मद्रास की स्थापना की गयी। यह तीनों बैंक प्रेसिडेन्सी बैंक कहलाते थे। प्रेसिडेन्सी बैंकों को 1862 ई० तक कागजी नोट निर्गमन का अधिकार भी प्राप्त था। वर्ष 1921 में तीनों प्रेसिडेन्सी बैंकों को मिलाकर इम्पीरियल बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना की गयी।

1 जुलाई, 1955 ई० को इम्पीरियल बैंक का आंशिक राष्ट्रीयकरण करके उसका नाम स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया कर दिया गया, वर्तमान में स्टेट बैंक देश की सबसे बड़ा व्यापारिक बैंक है। भारतीय स्टेट बैंक का केन्द्रीय कार्यालय मुम्बई में है। इसके चोदई अन्य क्षेत्रीय कार्यालय भी हैं। जून, 2013 ई० के अन्त में भारतीय स्टेट बैंक समूह की कुल 15,003 शाखाएँ कार्य कर रही थीं। स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया के कुल अंशों का 55% अंश रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के पास रहता है, शेष 45% अन्य व्यक्तियों के पास हो सकता है। इस समय 92 प्रतिशत अंश रिजर्व बैंक के पास हैं। स्टेट बैंक का प्रबन्ध एक केन्द्रीय संचालक बोर्ड करता है।

स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना के उद्देश्य
इसके उद्देश्य निम्नलिखित थे

  1. स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना का आधारभूत उद्देश्य यह था कि यह देश में ग्रामीण साख का विकास और बैंकिंग का प्रचार व प्रसार करेगा।
  2.  स्टेट बैंक की स्थापना का उद्देश्य बचतों को प्रोत्साहित करना था, जिससे देश के आर्थिक विकास में सहयोग मिल सके।
  3.  स्टेट बैंक की स्थापना का उद्देश्य धन के स्थानान्तरण की सस्ती सेवा प्रदान करना था, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग का विकास हो सके।
  4.  स्टेट बैंक की स्थापना के समय ग्रामीण क्षेत्रों में लघु उद्योगों को प्रोत्साहित करने का दायित्व भी स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया को ही सौंपा गया था। अत: लघु उद्योगों को आर्थिक सहायता एवं परामर्श देने का उत्तरदायित्व भी स्टेट बैंक का ही है।
  5. स्टेट बैंक को एक महत्त्वपूर्ण कार्य यह भी सौंपा गया कि वह सारे देश में शाखाओं का एक जाल बिछाकर बैंकिंग के विकास में सहायक बने। विशेष रूप से देश के उन भागों में साख व बैंकिंग का विकास करे जहाँ ये सुविधाएँ पहले से उपलब्ध नहीं हैं।
  6.  इसकी स्थापना के अन्य उद्देश्य थे
    •  धन के हस्तान्तरण की सुविधा प्रदान करना,
    • रिजर्व बैंक की साख-नियन्त्रण नीति में सहयोग करना,
    •  आर्थिक दृष्टि से दुर्बल व्यक्तियों की सहायता करना आदि।

स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया के कार्य
भारतीय स्टेट बैंक के कार्यों को दो भागों में विभाजित किया गया है
(i) रिजर्व बैंक के प्रतिनिधि के रूप में तथा
(ii) व्यापारिक बैंक के रूप में।

(i) रिजर्व बैंक के प्रतिनिधि के रूप में
देश के केन्द्रीय बैंक का एजेण्ट होने के कारण जिन स्थानों पर भारतीय रिजर्व बैंक के कार्यालये नहीं हैं वहाँ भारतीय स्टेट बैंक रिजर्व बैंक के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है। ये कार्य निम्नलिखित हैं

  1. सरकार के बैंकर के रूप में – सरकार के बैंकर के रूप में यह जनता से सरकार की ओर से धन वसूल करता है और सरकार के आदेशानुसार इसका भुगतान भी करती है। यह सार्वजनिक ऋणों की व्यवस्था भी करता है।
  2. बैंकों के बैंक के रूप में – स्टेट बैंक अन्य बैंकों को ऋण देता है वे उनके बिलों को बट्टा करता है। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की ओर से समाशोधन-गृह का कार्य करता है। बैंकों के कोषों का स्थानान्तरण करता है तथा व्यापारिक बैंकों को सलाह भी देता है।

(ii) व्यापारिक बैंक के रूप में
व्यापारिक बैंक के रूप में स्टेट बैंक निम्नलिखित कार्य करता है

  1.  ग्राहकों के विभिन्न खातों में जमा स्वीकार करना।
  2.  अंशों, ऋण-पत्रों तथा विभिन्न प्रतिभूतियों के आधार पर ऋण प्रदान करना तथा नकद साख देना।
  3. जनता की बहुमूल्य वस्तुओं को सुरक्षित रखना अर्थात् लॉकर्स की सुविधाएँ उपलब्ध कराना।
  4.  ग्राहकों के लिए रुपया भेजने की सुविधा प्रदान करना।
  5.  ग्रामीण क्षेत्रों में बचतों को प्रोत्साहित करना तथा उनको संग्रह करना।
  6. शाखाओं का जाल बिछाकर बैंकिंग का प्रचार व प्रसार करना।
  7. ग्रामीण साख की पूर्ति बढ़ाने के लिए एक शक्तिशाली एजेन्सी का कार्य करना।
  8.  लघु उद्योगों को आर्थिक सहायता एवं परामर्श देने का कार्य करना।
  9.  व्यापार तथा कृषि को वित्तीय एवं साख सम्बन्धी सुविधाएँ प्रदान करना।
  10. विनिमय बिलों को भुनाना तथा उनका क्रय-विक्रय करना।
  11.  बैंक की पूँजी का सरकारी ऋण-पत्रों, अंशों तथा अन्य प्रतिभूतियों में विनियोजन करना।
  12.  ट्रस्टों, एक्जीक्यूटर आदि के रूप में सम्पत्तियों का प्रबन्ध करना।
  13. पेन्शन कोषों का संचालन करना।
  14.  किसी सहकारी समिति या कम्पनी को उसकी सम्पत्तियों की प्रतिभूति पर, किसी भी अवधि का ऋण देना अथवा कैश क्रेडिट खोलना।
  15.  स्वर्ण तथा चाँदी का क्रय-विक्रय करना।
  16. रिजर्व बैंक की स्वीकृति से किसी भी बैंकिंग कम्पनी के अंशों को खरीदना व बेचना अथवा अपने संरक्षण में किसी बैंकिंग कम्पनी को स्थापित करना या उसका संचालन करना।
  17.  केन्द्रीय सरकार की अनुमति से अन्य कोई भी कार्य करना।

स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया के वर्जित कार्य
भारतीय स्टेट बैंक के वर्जित कार्य निम्नलिखित हैं

  1. यह अपने अंशों पर या अचल सम्पत्ति की जमानत पर 6 माह से अधिक की अवधि के लिए ऋण या अग्रिम नहीं दे सकता।।
  2.  यह अपने कार्यालयों व कर्मचारियों के निवास के अतिरिक्त किसी प्रकार की अचल सम्पत्ति नहीं खरीद सकता।।
  3.  यह ऐसे बिलों की पुनः कटौती नहीं कर सकता जिनकी परिपक्वता 6 महीने से अधिक की होती है। कृषि-साख के सम्बन्ध में यह अवधि 15 माह रखी गयी है।
  4. यह किसी फर्म अथवा किसी व्यक्ति को निश्चित राशि से अधिक राशि बिना जमानत के नहीं दे सकता।
  5. यह ऐसे बिलों को नहीं भुना सकता जिन पर दो विश्वसनीय हस्ताक्षर नहीं हैं।
  6. यह विदेशी विनिमय व्यवसाय नहीं कर सकता।
  7. यह उद्योगों को उनकी सम्पत्ति की जमानत पर मध्यमकालीन ऋण 7 वर्ष की अवधि के लिए ही दे सकता है तथा अपने कर्मचारियों द्वारा बनायी गयी सहकारी भवन निर्माण समितियों को भी 6 माह से अधिक के लिए रुपया उधार दे सकती है।

प्रश्न 5
व्यापारिक बैंक की परिभाषा दीजिए और उसके कार्यों को समझाइए। [2009, 13, 15, 16]
या
भारत में व्यापारिक बैंकों के मुख्य कार्यों का वर्णन कीजिए तथा देश के आर्थिक विकास में इनकी भूमिका का मूल्यांकन कीजिए। [2011]
या
व्यापारिक बैंकों का आर्थिक विकास में महत्त्व समझाइए। [2015]
या
व्यापारिक बैंकों के कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2009, 13, 15]
उत्तर:
भारत में व्यापारिक बैंक अथवा मिश्रित पूँजी वाले बैंक से अभिप्राय सामान्यतः उस बैंक से है जिसकी स्थापना भारतीय बैंकिंग कम्पनी अधिनियम के अनुसार की गयी है और जो व्यापारिक बैंक के कार्य करता है। ये बैंक व्यापारियों एवं अन्य व्यक्तियों से जमा प्राप्त करते हैं तथा ऋण देते हैं। ये बैंक मुख्यत: व्यापारियों को ऋण देते हैं। इस कारण से इन्हें व्यापारिक बैंक कहा जाता है।

प्रो० फिण्डले शिराज के अनुसार, “बैंक उस व्यक्ति, फर्म यो कम्पनी को कहते हैं, जिसके पास कोई व्यापारिक स्थान हो, जहाँ द्रव्य या करेन्सी को जमा करके साख का कार्य किया जाता हो और जिसकी जमा का ड्राफ्ट, चेक या ऑर्डर द्वारा भुगतान किया जाता हो या स्टॉक, बॉण्ड बुलियन पर द्रव्य उधार दिया हो या जहाँ ऋण-पत्रों को बट्टे पर या बेचने के वास्ते लिया जाता हो।’

आधुनिक बैंक अथवा व्यापारिक बैंक के कार्य
व्यापारिक बैंकों के कार्य निम्नलिखित हैं

1. रुपया जमा करना – बैंक जनता को बेचत के लिए प्रोत्साहित करके विभिन्न खातों में जमा प्राप्त करते हैं। ये जमा धनराशि पर ब्याज देते हैं तथा ग्राहकों द्वारा माँग करने पर इन्हें वापस करने के लिए उत्तरदायी होते हैं। बैंक अपने ग्राहकों से धन चालू, सावधि एवं सेविंग्स बैंक खातों में जमा के रूप में स्वीकार करते हैं।

2. रुपया उधार देना – व्यापारिक बैंकों का दूसरा प्रमुख कार्य रुपया उधार देना है। बैंक अपने ग्राहकों को उनकी आवश्यकता पर ऋण देता है तथा इन ऋणों पर ब्याज भी प्राप्त करता है। ऋणों पर प्राप्त होने वाला ब्याज ही बैंक की आय का प्रमुख स्रोत होता है। बैंकों द्वारा केवल उत्पादक या व्यापारिक कार्यों के लिए ही प्रायः ऋण दिया जाता है। बैंक निम्नलिखित प्रकार से ऋण प्रदान करता है

  • माल तथा प्रतिभूतियों को गिरवी रखकर अग्रिम ऋण देना।
  •  नकद साख तथा अधिविकर्ष आदि सुविधाओं के द्वारा व्यापारियों को ऋण देना।
  •  विनिमय बिलों का भुनाना स्वीकार करना तथा क्रय-विक्रय करना।

3. साख पत्र जारी करना – व्यापारिक बैंक अपने ग्राहकों की सुविधा के लिए उधारे प्रपत्र जारी करता है; जैसे-चेक, हुण्डी, ड्राफ्ट, विनिमय बिल आदि। बैंकों के कारण ही इनका चलन और विस्तार हुआ है।

4. बहुमूल्य वस्तुओं की सुरक्षा – व्यापारिक बैंक अपने ग्राहकों को मूल्यवान् वस्तुओं; जैसेआभूषण (गहने, जेवर), हीरे-जवाहरात, बहुमूल्य कागज-पत्र आदि; को सुरक्षित रखने के लिए लॉकर्स की सुविधा भी प्रदान करते हैं। इस सेवा के लिए बैंक अपने ग्राहकों से कुछ धनराशि किराये के रूप में लेता है।

5. धन का हस्तान्तरण – व्यापारिक बैंक अपने ग्राहकों के धन को एक स्थान से दूसरे स्थान पर बड़ी दक्षता व मितव्यीयता के साथ भेजने का कार्य भी करते हैं।

6. यात्री चेक की सुविधा – यात्रियों की सुविधा के लिए व्यापारिक बैंकों द्वारा चेक व साख-पत्रों का निर्गमन किया जाता है। ये कहीं भी भुनाये जा सकते हैं।

7. विदेशी विनिमय में सहायता या विदेशी मुद्रा का क्रय-विक्रय – अन्तर्राष्ट्रीय भुगतानों में व्यापारिक बैंकों को महत्त्वपूर्ण स्थान है। बैंक विदेशी बिलों का क्रय-विक्रय, बैंक ड्राफ्ट और टेलीग्राफिक ट्रांसफरों (TT) के द्वारा विदेशी विनिमय में सहायता पहुँचाता है वे एक देश की मुद्रा को दूसरे देश की मुद्रा में परिवर्तित करता है।

8. साख सम्बन्धी सूचना देना – व्यापारिक बैंक अपने ग्राहकों की आर्थिक स्थिति व साख सम्बन्धी सूचनाएँ भी देते हैं। इसके आधार पर व्यवसायी उधार तथा क्रय-विक्रय सम्बन्धी निर्णय लेते हैं।

9. व्यापारिक सूचनाएँ तथा आँकड़े एकत्रित करना – व्यापारिक बैंक अपने कर्मचारियों द्वारा व्यापारिक सूचनाएँ तथा उपयोगी आँकड़े एकत्रित कराकर उन्हें प्रकाशित कराते हैं। इन सूचनाओं से बैंक के ग्राहकों को लाभ होता है।

10. ग्राहकों की ओर से विनिमय बिल स्वीकार करना – आजकल अधिकांश लेन-देन उधार या साख में किये जाते हैं। जब कोई क्रेता विनिमय बिल पर सहमति देकर उधार क्रय करना चाहता हो, परन्तु विक्रेता को उसकी साख पर विश्वास न हो तो क्रेता अपने बैंक से विनिमय बिल स्वीकृत कराकर माल खरीद सकता है। बैंक द्वारा बिले स्वीकार किये जाने पर ग्राहक इसके आधार पर सरलता से माल उधार प्राप्त कर सकता है।

11. साख-पत्रों का भुगतान करना – ग्राहक अपने प्राप्त विपत्रों; जैसे-चेक, हुण्डी, प्रतिज्ञा-पत्र, विनिमय बिल आदि को रुपया वसूल करने के लिए अपने खातों में जमा कर देते हैं। बैंक चेक, हुण्डी, बिल आदि का रुपया वसूल करके अपने ग्राहक के खाते में जमा करता है।

12. ग्राहकों की ओर से भुगतान – ग्राहकों के आदेशानुसार व्यापारिक बैंक उनकी ओर से विभिन्न व्ययों; जैसे-जीवन बीमा प्रीमियम, ऋण की किस्ते, ब्याज, आयकर तथा किराये आदि का समय-समय पर भुगतान करते हैं।

13. ट्रस्टी, कानूनी प्रतिनिधि व प्रबन्धक के कार्य – व्यापारिक बैंक अपने ग्राहकों की सम्पत्तियों की सुरक्षा के लिए ट्रस्टी, कानूनी प्रतिनिधि व प्रबन्धक की तरह भी कार्य करता है तथा अपने ग्राहकों की ओर से पासपोर्ट तथा यात्रा सम्बन्धी सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए पत्र-व्यवहार भी करता है।

14. भुगतान प्राप्त करना – व्यापारिक बैंक अपने ग्राहकों की ओर से अंश-पत्रों पर लाभांश, ऋण-पत्रों पर ब्याज व अन्य भुगतान एकत्रित करते हैं।

15. प्रतिभूतियों का क्रय – विक्रय-व्यापारिक बैंक अपने ग्राहकों के आदेशानुसार उनके लिए विभिन्न स्थानों से प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय करते हैं।

16. आर्थिक सलाह देना – व्यापारिक बैंक अपने ग्राहकों को आर्थिक मामलों में सलाह भी देते हैं। विनियोग की सुविधाओं तथा उचित विनियोग आदि के विषय में भी ऐसे बैंक सहायता करते हैं।

देश के आर्थिक विकास में व्यापारिक बैंकों की भूमिका–वर्तमान समय में देश के आर्थिक विकास में व्यापारिक बैंकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। आज के युग में बैंक सेवाओं का उपयोग आवश्यक हो गया है। अधिकांश लेन-देन आजकल बैंकों के माध्यम से ही होने लगे हैं। बैंक बचत को प्रोत्साहन देते हैं, रुपये को सुरक्षित रखते हैं व पूँजी-निर्माण में सहायता पहुँचाते हैं। इस प्रकार देश में व्यर्थ पड़ी पूंजी का प्रयोग देश के आर्थिक विकास और निर्माण में लगाने में सहायता पहुँचाते हैं। रुपये का एक स्थान से दूसरे स्थान तक सस्ते में और सुरक्षित रूप से स्थानान्तरण करने में बैंकों को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान है। व्यापारिक बैंक न केवल व्यापारियों और उद्योगपतियों की सहायता करते हैं, वरन् किसानों और कारीगरों की भी सहायता करते हैं। इस प्रकार आज देश के आर्थिक विकास में बैंकों का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

प्रश्न 6
बैंकों के राष्ट्रीयकरण से आप क्या समझते हैं ? भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का प्रमुख उद्देश्य क्या रहा है? क्या राष्ट्रीयकरण से इन उद्देश्यों की पूर्ति हुई है ? [2009, 15, 16]
या
भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के मुख्य उद्देश्य क्या रहे हैं? बैंकों के राष्ट्रीयकरण से भारत को क्या लाभ हुए हैं? मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
जब किसी देश की सरकार उस देश के किसी उद्योग, व्यवसाय अथवा किसी जन-उपयोगी संस्था को अपने हाथों में लेकर उसका संचालन व नियन्त्रण करती है, तब उसे राष्ट्रीयकरण कहते हैं। बैंकों के राष्ट्रीयकरण से अभिप्राय सरकार द्वारा बैंकों को अपने अधिकार में ले लेना है। राष्ट्रीयकरण हो जाने के पश्चात् बैंकों से निजी स्वामित्व ही समाप्त हो जाता है तथा बैंकिंग व्यवसाय सामाजिक नियन्त्रण में आ जाता है।

भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण – जुलाई, 1969 ई० में कांग्रेस के बंगलौर अधिवेशन में पारित किये गये आर्थिक प्रस्ताव को कार्यान्वित करने के लिए स्वर्गीय प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने स्वयं वित्त मन्त्रालय का कार्यभार सँभाला और 19 जुलाई, 1969 ई० को 50 करोड़ से अधिक निक्षेप वाले 14 बड़े भारतीय वाणिज्य बैंकों का राष्ट्रपति के एक अध्यादेश के द्वारा राष्ट्रीयकरण किया गया तथा बाद में संसद द्वारा अगस्त, 1969 ई० में बैंकिंग कम्पनी (कब्जा और हस्तान्तरण) विधेयक पारित किया गया। 15 अप्रैल, 1980 ई० को 6 और बड़े अनुसूचित बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया।

राष्ट्रीयकरण की आवश्यकता या उद्देश्य
भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया गया

1. एकाधिकारी प्रवृत्तियों को रोकने के लिए –  बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पूर्व बैंकिंग व्यवस्था पर कुछ पूँजीपतियों का प्रभुत्व था, जिससे बैंकों पर एकाधिकारी प्रवृत्ति बढ़ती जा रही थी। एकाधिकारी प्रवृत्ति पर नियन्त्रण करने के लिए बैंकों के राष्ट्रीयकरण की आवश्यकता थी।

2. देश में सुदृढ़ बैकिंग व्यवस्था स्थापित करने के लिए  – देश में बैंकों की कुल संख्या देश की कुल आवश्यकता से बहुत ही कम थी; अत: देश की बैंकिंग व्यवस्था को सुदृढ़ करने तथा शाखाओं का विस्तार करने के लिए बैंकों के राष्ट्रीयकरण की आवश्यकता थी, जिससे जनता के लिए बैंकिंग सुविधाओं को अधिक उपयोगी बनाया जा सके।

3. बैंकों की अवांछनीय क्रियाओं पर नियन्त्रण के लिए –  बैंकों के संचालक थोड़ी-सी अंश पूँजी के आधार पर बैंकों के समस्त जमा धन को अपने निजी हितों में उपयोग करते थे तथा अपने से सम्बन्धित कम्पनियों में धन का विनियोग करके लाभ अर्जित करते थे। इन अवांछनीय क्रियाओं पर नियन्त्रण के उद्देश्य से बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया।

4. ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सुविधाओं के विस्तार के लिए –  बैंकों के राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग का प्रचार एवं प्रसार करना था, जिससे ग्रामीण क्षेत्र में कृषि तथा लघु उद्योगों के लिए साख की उचित व्यवस्था हो सके और ग्रामीण क्षेत्र में बैंक कम आय वाले व्यक्तियों, छोटे किसानों, व्यापारियों आदि को ऋण सुविधाएँ प्रदान कर सकें।

5. समाजवादी. समाज की स्थापना के लिए  – समाजवादी समाज की स्थापना के लिए यह आवश्यक है कि अर्थव्यवस्था के खास मोर्चे पर सरकार का नियन्त्रण हो। इस उद्देश्य को बताते हुए बैंक राष्ट्रीयकरण के अवसर पर अपने रेडियो भाषण में श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कहा था, “हमारा समाज निर्धन है तथा पिछड़ा हुआ है। हमें विकास करना है। विभिन्न वर्गों-गरीब और अमीर में विषमता कम करनी है। इसके लिए आवश्यक है कि हमारी अर्थव्यवस्था के खास मोर्चे पर सरकार के द्वारा जनता का कब्जा हो और यह सब राष्ट्रीयकरण द्वारा ही सम्भव है।’

6. देश के सन्तुलित आर्थिक विकास के लिए –  बैंकों के राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य देश का सन्तुलित आर्थिक विकास करना था, जिससे बैंक अपने वित्तीय साधनों का अधिकांश भाग पिछड़े व अल्पविकसित क्षेत्रों में लगा सकें।

राष्ट्रीयकरण से लाभ
भारत में समाजवादी समाज के निर्माण के लिए तथा देश का तीव्र गति से आर्थिक विकास करने हेतु बैंकों के राष्ट्रीयकरण का निर्णय 19 जुलाई, 1969 ई० को किया गया। राष्ट्रीयकरण के पश्चात् भारतीय बैंकिंग व्यवस्था में पर्याप्त सुधार हुआ। राष्ट्रीयकरण करते समय बैंकों से यह आशा की गयी थी कि वे ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी शाखाओं का विस्तार करेंगे तथा देश की कृषि, कुटीर उद्योगों, छोटे-बड़े सभी उद्योगों एवं व्यवसायों को आर्थिक सहायता प्रदान करके उन्हें नवजीवन प्रदान करने में उपयोगी सिद्ध होंगे। इस दिशा में राष्ट्रीयकृत बैंकों ने निम्नलिखित कार्य किये हैं

1. राष्ट्रीयकरण के पश्चात् अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की संख्या में वृद्धि – जून, 1969 ई० में देश में बैंकों की कुल संख्या 89 ही थी, जिनमें से अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की संख्या 73 तथा गैर-अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की संख्या 16 थी। 30 जून, 2009 की स्थिति के अनुसार भारतीय वाणिज्यिक बैंकिंग व्यवस्था में 171 वाणिज्यिक बैंक हैं जिनमें से 81 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों सहित 113 बैंक सरकारी क्षेत्र में हैं, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को छोड़कर सरकारी क्षेत्र के शेष 27 बैंकों में से 19 राष्ट्रीकृत बैंक, एस०सी०आई० ग्रुप के 7 बैंक और आई०डी०वी०आई० बैंक लि० हैं।

2. बैकिंग शाखाओं का विस्तार – राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंकिंग शाखाओं का विस्तार तीव्र गति से हुआ है। 19 जुलाई, 1969 ई० को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों व राष्ट्रीयकृत बैंकों की शाखाओं की संख्या मात्र 8,321 थी, जो जून, 2011 ई० में बढ़कर 72,000 से भी ऊपर हो गयी।

3. बैंकों के सन्तुलित विकास के प्रयास – राष्ट्रीयकरण से पूर्व व्यापारिक बैंक शहरी अथवा विकसित क्षेत्रों में ही अपनी शाखाएँ खोलते थे तथा देश के अनेक क्षेत्रों में कोई भी बैंक नहीं था। इसे असन्तुलन को दूर करने हेतु अधिकांश बैंकों द्वारा अपनी शाखाएँ ग्रामीण क्षेत्रों में भी खोली जा रही हैं। 1969 ई० के पश्चात् सभी अनुसूचित बैंकों द्वारा खोली गयी शाखाओं को 50 प्रतिशत शाखाएँ ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित की गयी हैं।

4. समाज के अत्यधिक निर्धन व पिछड़े वर्ग को सुविधा – राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंकों द्वारा देश के सामान्य नागरिकों, विशेषकर गरीबी की रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वालों को कम ब्याज की दर पर ऋण वितरित किया जा रहा है। समाज के कमजोर वर्गों के लिए आवासीय योजनाएँ भी चलायी जा रही हैं। इस प्रकार के कार्यक्रम भी अपनाये गये हैं जिनसे बेरोजगारों को काम मिल सके तथा अर्द्ध-रोजगारों की आर्थिक स्थिति में सुधार हो सके।

5. जमा धनराशि में वृद्धि – राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंकों की जमाराशि में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। जून, 1969 में अनुसूचित बैंकों की जमाराशि ₹4,646 करोड़ थी, जो वर्ष 2011 ई० में बढ़कर ₹ 14,67,909 करोड़ हो गयी।

6. कृषि साख – राष्ट्रीयकरण के उपरान्त कृषि विकास के लिए किसानों को कम ब्याज की दर पर तथा सरलतापूर्वक ऋण प्राप्त होने लगे हैं जिससे कृषि-क्षेत्र में स्थायी सुधार हुआ है, कृषि उत्पादन बढ़ा है और किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार आया है।

7. लघु एवं कुटीर उद्योगों की साख में वृद्धि – राष्ट्रीयकरण हो जाने से लघु एवं कुटीर उद्योगों को मिलने वाली साख-सुविधाओं में पर्याप्त वृद्धि हुई है। लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास के लिए सबसे बड़ी समस्या वित्त की थी। वित्त के अभाव में लघु एवं कुटीर उद्योगों का पतन होता जा रहा था। बैंकों का राष्ट्रीयकरण होने से लघु एवं कुटीर उद्योगों के लिए सस्ती ब्याज-दर पर ऋण मिलने लगे हैं।

8. बचतों को प्रोत्साहन – बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंक की शाखाओं का विस्तार विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में हुआ है; अत: ग्रामीण व्यक्तियों में बैंकिंग के विषय में ज्ञान बढ़ा है। बचतों को बैंकों में जमा करने से बचतों को प्रोत्साहन मिला है तथा बैंक पूँजी संग्रह करने लगे हैं।

9. आर्थिक नियोजन में सहायक – भारत का आर्थिक विकास नियोजन के माध्यम से किया जा रहा है; अत: बैंक जनता से छोटी-छोटी बचतों का संग्रह करके सरकार के नियोजन पूर्ति के उद्देश्य हेतु ऋण प्रदान कर रहे हैं।

स्पष्ट है कि बैंको के राष्ट्रीयकरण द्वारा भारत में समाजवादी समाज की स्थापना करने में महत्त्वपूर्ण योगदान मिल रहा है। कृषक, भूमिहीन श्रमिक जो निर्धनता की रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे थे, बैंकों के करण के पश्चात् उनकी दशा में सुधार हुआ है; बैंकों का राष्ट्रीयकरण मात्र एक साधन है, साध्य आवश्यकता इस बात की है कि बैंकों को जनता का सहयोगी बनाया जाए।

प्रश्न 7
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के कारण अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं। राष्ट्रीयकृत बैंकों के सुधार हेतु सुझाव दीजिए।
उत्तर:
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के सफल क्रियान्वयन में कुछ कठिनाइयाँ हुईं, जिनके कारण अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं, जो निम्नलिखित हैं

1. कार्य में शिथिलता – राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंकों के कार्यों में शिथिलता आ गयी है। अब बैंक कर्मचारी उतने परिश्रम से कार्य नहीं करते जितने परिश्रम से वे पहले करते थे।

2. भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन –
  राष्ट्रीयकृत बैंकों में भ्रष्टाचार अधिक पनप गया है। जनता को ऋण प्रदान करते समय कर्मचारी वर्ग या अन्य मध्यस्थों को रिश्वत या कमीशन देना पड़ता है।

3. नौकरशाही या अफसरशाही –
राष्ट्रीयकरण के बाद बैंक कर्मचारियों में जनसेवा की भावना का ह्रास हुआ है। बैंक कर्मचारी ग्राहकों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते। इसलिए बैंकों द्वारा ग्राहकों को दी जाने वाली सेवाओं के स्तर में कमी आयी है।

4. योग्य व प्रशिक्षित कर्मचारियों की समस्या –
यद्यपि बैंक शाखाओं में विस्तार हुआ है, लेकिन नयी शाखाओं में काम करने के लिए कुशल एवं प्रशिक्षित कर्मचारियों की व्यवस्था नहीं की जा सकी है। ग्रामीण क्षेत्रों में आवासीय सुविधाएँ उपलब्ध न होने के कारण योग्य व अनुभवी कर्मचारी वहाँ नहीं जाना चाहते हैं जिनके अभाव में बैंक का कार्य सुचारु रूप से नहीं चल पाता है।

5. जमा धनराशि में अपर्याप्त वृद्धि –
जिस तीव्र गति से बैंकों की शाखाओं में वृद्धि हुई है, उस गति से जमा राशियाँ नहीं बढ़ी हैं।

6. मूल्य-वृद्धि रोकने में असफल –
कुछ आलोचकों का कहना है कि राष्ट्रीयकृत बैंक कीमत-वृद्धि को रोकने में असमर्थ रहे हैं। वे कीमत-वृद्धि के लिए बैंकों को ही दोषी मानते हैं, क्योंकि इन बैंकों ने साख-विस्तार किया है, जिसके परिणामस्वरूप कीमतों में वृद्धि हुई है।

7. ऋण की वसूली में कठिनाई –
छोटे व कमजोर वर्ग के लोगों से ऋण की वसूली करना एक कठिन समस्या हो गयी है। निम्न वर्ग को उत्पादक-कार्य हेतु दिया गया ऋण उपभोग कार्य में प्रयुक्त हो जाता है, जिससे बैंकों को हानि होती है।

8. अधिक व्यय –
बैंकिंग शाखाओं का विस्तार करने से बैंकों का व्यय-भार बढ़ता है। ग्रामीण शाखाओं में बैंकों को अधिक कार्य नहीं मिल पाता है, अर्थात् ऋण देने के अतिरिक्त जमा नाममात्र की प्राप्त होती है, जिसके कारण लाभ के स्थान पर हानि ही होती है।

9. ऋण लेने में असुविधा –
भारतीय कृषक, कारीगर एवं निर्धन वर्ग के लोगों के पास ऋण लेने के लिए जमानत के रूप में मूल्यवान् वस्तुएँ प्राय: नहीं होती हैं; अतः वे इन बैंकों से अधिक लाभ नहीं उठा पाते हैं। बैंक केवल उत्पादक-कार्यों हेतु ऋण देते हैं, जब कि निर्धन वर्ग को अनुत्पादक (उपभोग) कार्यों के लिए भी ऋण की आवश्यकता पड़ती है। ये बैंक इन्हें इस प्रकार की सहायता नहीं पहुँचा सके हैं।

10. राजनीतिज्ञों का प्रभाव –
बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने बैंकों में राजनीतिज्ञों के प्रभाव को बढ़ा दिया है। राजनीतिज्ञों के हस्तक्षेप के कारण बैंकों की डूबती हुई राशियों में वृद्धि हो रही है।

राष्ट्रीयकृत बैंकों के सुधार हेतु सुझाव
देश में समाजवादी समाज की स्थापना के लिए बैंकों को राष्ट्रीयकरण किया गया था। बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुए आज लगभग 36 वर्ष हो चुके हैं, फिर भी समाज के दुर्बल वर्गों का पर्याप्त आर्थिक विकास नहीं हो सका है और न ही जीवन-स्तर ऊँचा हो पाया है। अतः बैंकों की कार्यप्रणाली में सुधार की आवश्यकता है। बैंकों में सुधार लाने हेतु निम्नलिखित उपाय करने चाहिए

  1. बैंकों को जनता का सहयोगी बनाया जाए।
  2. बैंकों के कर्मचारियों में जनसेवा की भावना जागृत की जाए।
  3.  देश के समन्वित आर्थिक विकास की योजना बनायी जाए।
  4.  कृषि एवं लघु उद्योगों को ऋण देने का एक निश्चित कार्यक्रम बनाया जाए।
  5. बैंकों का प्रशासन व प्रबन्ध कुशल बैंकरों के हाथों में रहे, न कि सरकारी प्रशासनिक अधिकारियों के हाथों में।
  6.  बैंक कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण सुविधाओं में वृद्धि की जानी चाहिए।
  7. बैंकों को नौकरशाही एवं राजनीतिक प्रभाव से दूर रखना चाहिए।
  8.  बैंकों को जनता में बचत की भावना प्रोत्साहित करके अपने निक्षेपों को बढ़ाना चाहिए।
  9. बैंकों को अपने व्यय घटाने चाहिए।
  10.  बैंकों के लिए उचित वातावरण बनाया जाए। बैंकों को ग्राहकों के साथ मधुर व सद्व्यवहार करना चाहिए।

प्रश्न 8
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना एवं उनके कार्यों का विवरण दीजिए।
उत्तर:
भारत में 1904 ई० से सहकारी संस्थाओं द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों के लिए साख की व्यवस्था की जाती रही है, और प्रायः सभी ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक सहकारी बैंक कार्यशील हैं। इसके अतिरिक्त स्टेट बैंक समूह तथा 20 निजी व्यापारिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 31 हजार से अधिक बैंकिंग कार्यालय स्थापित किये जा चुके हैं। इन सुविधाओं के होते हुए भी भारत सरकार ने 1975 ई० में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक स्थापित करने की घोषणा की, जिसके मुख्यतः दो कारण थे

(अ) छोटे किसानों की उपेक्षा होना – सहकारी तथा व्यापारिक बैंकों ने भारत के ग्रामीण क्षेत्रों एवं छोटे किसानों की साख सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करने में रुचि नहीं दिखायी।
(ब) ग्रामीण मनोवृत्ति वाले कार्यकर्ता – ग्रामीण साख-व्यवस्था व्यापारिक बैंकों में कार्यशील शहरी मनोवृत्ति वाले व्यक्तियों द्वारा नहीं की जा सकती। इन व्यक्तियों का मानक एवं वेतन-स्तर ग्रामीण साख-सुविधाओं के विस्तार एवं प्रबन्ध के अनुकूल नहीं था। अत: ग्रामीण क्षेत्रों के छोटे किसानों, सामान्य कारीगरों तथा भूमिहीन श्रमिकों की साख-सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ग्रामीण दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों द्वारा बैंक की स्थापना आवश्यक समझी गयी।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक की स्थापना एवं वर्तमान स्थिति
भारत में ग्रामीण साख की कमी को दूर करने के उद्देश्य से सरकार ने 26 सितम्बर, 1975 ई० को एक अध्यादेश द्वारा देश भर में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की घोषणा की और 2 अक्टूबर, 1975 ई० को पाँच क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक स्थापित किये गये

  1. मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) – सिण्डीकेट बैंक,
  2. गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) – स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया,
  3. भिवानी (हरियाणा) – पंजाब नेशनल बैंक,
  4. जयपुर (राजस्थान) – यूनाइटेड कॉमर्शियल बैंक,
  5.  माल्दा (पश्चिम बंगाल) – यूनाइटेड बैंक ऑफ इण्डिया।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक वर्तमान में सिक्किम और गोवा के अतिरिक्त सभी राज्यों में कार्य कर रहे हैं। जून, 2005 ई० के अन्त में 196 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की 14,484 शाखाएँ देश के 25 राज्यों के 523 जिलों में कार्य कर रही थीं। केलकर समिति की सिफारिशों को ध्यान में रखकर सरकार ने अप्रैल, 1987 ई० के बाद से कोई क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक स्थापित नहीं किया है।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों में विलय की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी है। इन बैंकों को एक करने तथा उन्हें सशक्त बनाने के विचार के साथ भारत सरकार ने सितम्बर, 2005 में चरणबद्ध तरीके से इन बैंकों को मिलाने की प्रक्रिया शुरू की। 31 अगस्त, 2005 को 42 नए बैंक गठित किये गये हैं। इन बैंकों को 16 राज्यों में 18 बैंकों ने प्रायोजित किया है। अब इनकी संख्या 196 से घटकर कुल 82 ही (46 विलयीकृत तथा 36 पृथक्) रह गई है।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की पूँजी एवं प्रबन्ध – इन बैंकों में से प्रत्येक की अधिकृत पूँजी ₹25 लाख है जिसमें से 50 प्रतिशत केन्द्रीय सरकार द्वारा, 15 प्रतिशत सम्बन्धित राज्य सरकार द्वारा तथा शेष 35 प्रतिशत प्रायोजन करने वाले सरकारी क्षेत्र के व्यापारिक बैंकों द्वारा खरीदी गयी है।
प्रत्येक बैंक का प्रबन्ध एक निदेशक मण्डल द्वारा किया जाता है, जिसमें 9 सदस्य होते हैं और पूँजी भागीदारों द्वारा मनोनीत किये जाते हैं।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का कार्य-विवरण
ग्रामीण बैंकों का कार्य-क्षेत्र प्राय: एक या दो जिलों तक ही सीमित होता है। ये बैंक छोटे किसानों, ग्रामीण कारीगरों तथा सामान्य वर्ग के व्यापारियों एवं उत्पादकों के लिए ऋण की व्यवस्था करते हैं। इन बैंकों द्वारा दिये गये ऋणों पर कम ब्याज लिया जाता है, जो सहकारी समितियों द्वारा वसूल किये गये ब्याज दर से अधिक नहीं होता।
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना का मुख्य उद्देश्य छोटे एवं सीमान्त किसानों, कृषि-मजदूरों, कारीगरों तथा छोटे उद्यमियों को उधार एवं अन्य प्रकार की वित्तीय सुविधाएँ उपलब्ध कराना था। इन बैंकों को भी अनुसूचित व्यापारिक बैंक का संवैधानिक दर्जा प्राप्त है।
ग्रामीण बैंकों के कर्मचारियों की वेतन-दरें विभिन्न राज्यों में कार्यशील सरकारी कर्मचारियों के वेतनों के अनुरूप निर्धारित की गयी हैं। इन दरों का निर्धारण करते समय सम्बन्धित क्षेत्र के सरकारी तथा स्थानीय मण्डलों के कर्मचारियों की वेतन-दरों को आधार माना गया है।

इन बैंकों की कार्यप्रणाली बहुत सरल है और अधिकांश लेन-देन का लेखा-जोखा स्थानीय भाषा में किया जाता है। इन बैंकों के ग्राहकों को फार्म आदि भरने में बैंक कर्मचारियों द्वारा सहायता देने को प्रावधान किया गया है।
ग्रामीण बैंकों का प्रयोग सर्वथा नवीन प्रयोग है जिसका उद्देश्य भारत के निर्माण क्षेत्रों में उत्पादक क्रियाओं को गति प्रदान करना है। इस प्रयोग को सफल बनाने के लिए ग्रामीण भावना एवं ग्रामीण दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों को ही इसका संचालन भार दिया गया है जिससे वह ग्रामीण जनता के लिए ‘ग्रामीण दृष्टिकोण वाली साख की व्यवस्था कर सकें।

प्रश्न 9
राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना एवं इसके कार्यों का वर्णन व प्रगति का मूल्यांकन कीजिए।
या
भारत में राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक के उद्देश्यों पर प्रकाश डालिए। [2014]
उत्तर:
देश की कृषि एवं ग्रामीण आवश्यकताओं की पूर्ति में वृद्धि करने एवं विभिन्न संस्थाओं के कार्यों में समन्वय करने के लिए एक राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक स्थापित करने का निर्णय दिसम्बर, 1979 ई० में तत्कालीन प्रधानमन्त्री चौधरी चरणसिंह के मन्त्रिमण्डल द्वारा लिया गया था, जिसको श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार द्वारा साकार रूप दिया गया।

1. स्थापना – राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक 12 जुलाई, 1982 ई० को स्थापित किया गया जिसने 15 जुलाई, 1982 ई० से कृषि एवं ग्रामीण आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शीर्ष संस्था के रूप में कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। नाबार्ड का भारतीय रिजर्व बैंक से सीधा सम्बन्ध है।

2. पूँजी – आरम्भ में नाबार्ड की चुकता पूँजी ₹ 100 करोड़ थी, जिसमें भारत सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक को बराबर-बराबर योगदान था। बाद में नाबार्ड की चुकता पूँजी बढ़ाकर ₹ 500 करोड़ कर दी गयी। इसमें भारतीय रिजर्व बैंक तथा केन्द्र सरकार का अंशदान क्रमशः ₹ 400 तथा ₹ 100 करोड़ था। दिसम्बर, 2000 ई० में नाबार्ड के कार्य-क्षेत्र का विस्तार करने के लिए इसे और अधिक स्वायत्तता प्रदान करने की आवश्यकता हुई। इसके लिए नाबार्ड के 1981 ई० के अधिनियम में संशोधन किया गया। इस संशोधन विधेयक-2000 ई० को राष्ट्रपति द्वारा जनवरी, 2001 ई० में स्वीकृति दिये जाने के बाद इस अधिनियम के तहत नाबार्ड की प्राधिकृत पूँजी ₹500 करोड़ से बढ़ाकर ₹5,000 करोड़ कर दी गयी ।

3. प्रबन्ध – इस बैंक का प्रबन्ध करने के लिए एक संचालक मण्डल बनाया गया है। इस संचालक मण्डल की नियुक्ति रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की सलाह से भारत सरकार करती है। रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर को इस बैंक को सभापति (चेयरमैन) नियुक्त किया गया है। सभापति और प्रबन्ध संचालक के अतिरिक्त इस बैंक के दस संचालक होते थे। इस समय इस बैंक में 15 सदस्यों का संचालक मण्डल है, जिसमें

  1. 2 संचालक ग्रामीण अर्थशास्त्र व ग्रामीण विकास के विशेषज्ञों में से,
  2. 3 संचालक सहकारी व वाणिज्यिक बैंकों के अनुभवी व्यक्तियों में से,
  3. 3 संचालक रिजर्व बैंक के संचालकों में से,
  4. 3 संचालक केन्द्रीय सरकार के अधिकारियों में से,
  5. 2 संचालक राज्य सरकार के अधिकारियों में से,
  6.  एक या अधिक पूर्णकालिक संचालक केन्द्रीय सरकार द्वारा चयनित किये जाते हैं।

सभापति व प्रबन्ध संचालक का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है, लेकिन अन्य संचालकों को कार्यकाल 3 वर्ष का। इस बैंक का संचालक मण्डल एक सलाहकार मण्डल बनाएगा जिसका कार्य समय-समय पर उन मामलों पर सलाह देना होगा जिसे बोर्ड द्वारा सौंपा जाएगा। वर्तमान में इस बैंक के 28 क्षेत्रीय कार्यालय व 336 से अधिक जिला-स्तरीय कार्यालय हैं।

4. कार्य – इस बैंक को वे सभी काम दिये गये हैं जो रिजर्व बैंक के कृषि साख विभाग द्वारा किये जाते थे। यह बैंक कृषि-साख को एक छत के नीचे लाने का कार्य कर रहा है और अल्पकालीन, मध्यकालीन व दीर्घकालीन ऋणों की व्यवस्था कर रहा है। जिस प्रकार औद्योगिक विकास के लिए औद्योगिक विकास बैंक हैं, उसी प्रकार कृषि विकास के लिए यह बैंक सर्वोच्च बैंक है, जो सभी एजेन्सियों के कार्य में समन्वय करते हुए कृषि-साख का विस्तार करता है।
इस बैंक को कृषि पुनर्वित्त विकास निगम के वे सभी कार्य भी सौंप दिये गये हैं, जो यह निगम करता था। इसी प्रकार राष्ट्रीय कृषि दीर्घकालीन कोष व राष्ट्रीय कृषि-साख (स्थायीकरण) कोष भी रिजर्व बैंक ने इस बैंक को हस्तान्तरित कर दिये हैं।

यह बैंक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बॉण्ड यो ऋण-पत्र जारी कर सकता है, जिसे पर केन्द्रीय सरकार की मूलधन व ब्याज की वापसी की गारण्टी होगी। यह बँक कृषि के सम्बन्ध में सभी प्रकार की साख की व्यवस्था करता है; जैसे-उत्पादन व विपणन ऋण, राज्य सरकारों को ऐसी ही संस्थाओं के पूँजी लाभ के लिए ऋण।

इस बैंक के कार्यों को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है

  1. कृषि साख-संस्थाओं को एक छत के नीचे लाकर अल्पकालीन, मध्यकालीन और दीर्घकालीन ऋणों की व्यवस्था करना।
  2.  समन्वित ग्रामीण विकास को प्रोन्नत करने तथा सभी प्रकार के उत्पादन और विनियोग के लिए एक पुनर्वित्त संस्थान के रूप में कार्य करना।
  3.  सहकारी ऋण-समितियों की हिस्सा पूँजी में योगदान देने के लिए राज्य सरकारों को 20 वर्ष की लम्बी अवधि तक के लिए दीर्घकालीन ऋण देना।
  4.  विकेन्द्रित क्षेत्रों के विकास के लिए केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, योजना आयोग एवं अन्य संस्थाओं की क्रियाओं का उचित समन्वय करना।
  5. प्राथमिक सहकारी बैंकों को छोड़कर अन्य सहकारी बैंकों तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का निरीक्षण करना।
  6. अनुसन्धान एवं विकास निधि बनाकर कृषि एवं ग्रामीण विकास में शोध को प्रोत्साहित करना।

नाबार्ड की प्रगति एवं मूल्यांकन
नाबार्ड द्वारा वर्ष 1999-2000 में कृषि-विकास के लिए राज्य सहकारी बैंकों, व्यावसायिक बैंकों तथा ग्रामीण बैंकों को ₹ 6,080 करोड़ की सहायता उपलब्ध करायी गयी। इसमें से 88% सहायता अल्पकालीन थी तथा शेष मध्यम एवं दीर्घकालीन।

ग्रामीण ऋण के क्षेत्र का प्रबन्ध करने वाले शिखर-संस्थान के रूप में नाबार्ड ग्रामीण वित्तीय संस्थाओं को उनके संसाधनों को बढ़ाने के लिए तथा अतिरिक्त वित्त सुविधा देने में सक्षम बनाने के लिए; अपनी स्थापना के समय से ही एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। अपनी स्थापना के समय से ही नाबार्ड राज्य सरकारी बैंक को, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को और राज्य सरकारों को अल्पावधि एवं मध्यावधि ऋण के लिए पुनर्वित्त सुविधाएँ प्रदान कर रहा है। नाबार्ड राज्य सरकारी बैंकों को और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को मुख्य रूप से अल्पावधि के ऋण प्रदान करता है; जबकि राज्य सरकारों को दीर्घावधि के लिए ऋण सुविधाएँ प्रदान करता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
भारतीय रिजर्व बैंक किस प्रकार व्यापारिक बैंकों द्वारा सृजित साख का नियन्त्रण करता है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
रिजर्व बैंक देश का केन्द्रीय बैंक होने के कारण साख-व्यवस्था के नियन्त्रण का कार्य करता है। साख-नियन्त्रण की विभिन्न विधियों के द्वारा रिजर्व बैंक देश में साख की मात्रा को नियन्त्रित करके अर्थव्यवस्था में स्थायित्व बनाये रखने का प्रयत्न करता है। यह साख-नियन्त्रण के लिए निम्नलिखित क्रियाएँ करता है

1. बैंक-दर में परिवर्तन के द्वारा – यदि केन्द्रीय बैंक देखता है कि समाज में साख की मात्रा तेजी के साथ बढ़ रही है और उसे कम करना आवश्यक है तो वह बैंक-दर को बढ़ा देता है। बैंक-दर में वृद्धि होने के कारण अन्य बैंकों को भी अपनी ब्याज की दर को बढ़ाना पड़ता है, क्योंकि वे ऋणों के लिए केन्द्रीय बैंक पर निर्भर होते हैं। इस प्रकार बैंक-दर के बढ़ने से बाजार में ब्याज की दर भी बढ़ जाती है। ब्याज की दर में वृद्धि हो जाने के कारण अब ऋण लेकर विनियोग करना उतना लाभपूर्ण नहीं रहता, जितना कि पहले था; अत: व्यवसायी कम मात्रा में ऋण लेते हैं। इस प्रकार साख का नियन्त्रण होता है।

2. खुले बाजार की क्रियाओं के द्वारा – साख-नियन्त्रण के उद्देश्य से केन्द्रीय बैंक द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों के क्रय-विक्रय करने को खुले बाजार की क्रियाएँ कहा जाता है। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया जब यह अनुभव करता है कि साख की मात्रा में वृद्धि हो रही है, तब वह सरकारी प्रतिभूतियों को बेचना प्रारम्भ कर देता है। सरकारी प्रतिभूतियों को बेचने से बाजार में मुद्रा की मात्रा कम हो जाती है और साख नियन्त्रित हो जाती है।

3. बैंकों के रक्षित-निधि के अनुपात में परिवर्तन द्वारा – रिजर्व बैंक अन्य बैंकों की रक्षित-निधि के अनुपात में परिवर्तन करके भी साख का नियन्त्रण कर सकता है। देश में प्रत्येक बैंक को अपनी जमा का एक निश्चित अनुपात रिजर्व बैंक के पास अनिवार्य रूप से रखना होता है। साख को नियन्त्रित करने के लिए रिजर्व बैंक व्यापारिक बैंकों के द्वारा रखी जाने वाली सुरक्षित निधि का अनुपात बढ़ा देता है।

4. अन्य उपाय – बैंकिंग कम्पनीज ऐक्ट ने रिजर्व बैंक को व्यापारिक बैंकों पर नियन्त्रण रखने के लिए अनेक अधिकार दिये हैं, जिनके द्वारा वह साख को नियन्त्रित करता हैं

  1. बैंकों को बैंकिंग कार्य के लिए लाइसेन्स देना।
  2.  बैंकों की संख्या एवं नयी शाखाओं पर नियन्त्रण करना।
  3. बैंकों का निरीक्षण करना।
  4. बैंकों की ऋण-नीति निर्धारित करना।
  5. बैंकों को प्रत्यक्ष आदेश देकर साख का नियन्त्रण करना।

प्रश्न 2
रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना कब हुई ? इसका प्रबन्ध किसके द्वारा होता है। तथा इसके कितने विभाग हैं ?
उत्तर:
प्रत्येक देश में मुद्रा और साख-व्यवस्था का नियन्त्रण करने के लिए एक ऐसी संस्था की
आवश्यकता होती है, जो देश की मुद्रा-व्यवस्था को नियमित और संचालित कर सके। इस कार्य के लिए 1934 ई० में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया ऐक्ट’ पारित किया गया। 1 अप्रैल, 1935 ई० को भारत में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के नाम से एक केन्द्रीय बैंक की स्थापना की गयी। अपनी स्थापना के समय से ही रिजर्व बैंक ने केन्द्रीय बैंक के रूप में कार्य करना आरम्भ कर दिया था। भारत सरकार ने 1 जनवरी, 1949 ई० को रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया का राष्ट्रीयकरण कर दिया। आज भी रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया, केन्द्रीय बैंक के रूप में सफलतापूर्वक कार्य कर रहा है।

प्रबन्ध-रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया का प्रबन्ध भारत सरकार एक केन्द्रीय संचालक मण्डल द्वारा करती है। इस समय इस बोर्ड में 20 सदस्य हैं

  1. 1 गवर्नर भारत सरकार द्वारा नियुक्त।
  2.  4 उप-गवर्नर, भारत सरकार द्वारा नियुक्त।
  3. 10 मनोनीत संचालक, भारत सरकार द्वारा मनोनीत।
  4. 4 निर्वाचित संचालक, स्थानीय बोर्डों द्वारा निर्वाचित
  5. 1 मनोनीत सरकारी अधिकारी, भारत सरकार द्वारा मनोनीत।

कार्यालय – रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया का मुख्य कार्यालय मुम्बई में स्थित है। इसके स्थानीय कार्यालय नई दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बंगलुरु, कानपुर, अहमदाबाद, हैदराबाद, पटना तथा नागपुर में हैं।

विभाग – रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के सफल कार्य-संचालन हेतु बैंक ने निम्नलिखित विभाग बनाये हुए हैं

  1.  निर्गमन विभाग,
  2.  बैंकिंग विभाग,
  3. बॅकिंग विकास विभाग,
  4.  बैंकिंग क्रियाओं का विभाग,
  5.  कृषि साख विभाग,
  6. विनिमय नियन्त्रण विभाग,
  7.  औद्योगिक वित्त विभाग,
  8. गैर-बैंकिंग कम्पनीज विभाग,
  9. कानून-विभाग तथा
  10.  शोध एवं अंक विभाग।

प्रश्न 3
स्वदेशी (देशी) बैंक एवं आधुनिक बैंक में अन्तर बताइए।
उत्तर:
देशी बैंक व आधुनिक बैंक में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 20 Indian Modern Banking System 1
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 20 Indian Modern Banking System 2
प्रश्न 4
राष्ट्रीयकृत बैंकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के प्रथम चरण के अन्तर्गत 19 जुलाई, 1969 ई० को निम्नलिखित 14 ऐसे बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया, जिनकी जमाराशि ₹50 करोड़ या उससे अधिक थी

  1. सेण्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया,
  2.  बैंक ऑफ इण्डिया,
  3.  पंजाब नेशनल बैंक,
  4. बैंक ऑफ बड़ौदा,
  5.  यूनाइटेड कॉमर्शियल बैंक,
  6. कैनरा बैंक,
  7.  यूनाइटेड बैंक ऑफ इण्डिया,
  8.  देना बैंक,
  9. यूनियन बैंक ऑफ इण्डिया,
  10. इलाहाबाद बैंक,
  11. सिण्डीकेट बैंक,
  12.  इण्डियन ओवरसीज बैंक,
  13.  इण्डियन बैंक तथा
  14.  बैंक ऑफ महाराष्ट्र।

इन चौदह बैंकों की सम्पूर्ण सम्पत्ति, कोष, दायित्व आदि सरकारी अधिकार में आ गये। इनके अतिरिक्त राष्ट्रीयकरण के द्वितीय चरण में 15 अप्रैल, 1980 ई० को अन्य 6 बड़े अनुसूचित बैंकों का भी राष्ट्रीयकरण किया गया। इस राष्ट्रीयकरण के निर्णय से ऐसे बैंक ही प्रभावित हुए जिनका कारोबार 14 मार्च, 1980 ई० को ₹ 200 करोड़ या उससे अधिक था। राष्ट्रीयकृत 6 बड़े अनुसूचित बैंकों के नाम निम्नलिखित हैं

  1.  आन्ध्र बैंक लिमिटेड,
  2. कॉर्पोरेशन बैंक लिमिटेड,
  3. न्यू बैंक ऑफ इण्डिया,
  4. ओरियण्टल बैंक ऑफ कॉमर्स,
  5.  पंजाब एण्ड सिन्ध बैंक तथा
  6. विजया बैंक।

इस प्रकार कुल राष्ट्रीयकृत बैंकों की संख्या 20 हो गयी। विगत वर्षों से चली आ रही निरन्तर हानि के कारण 4 सितम्बर, 1993 ई० को न्यू बैंक ऑफ इण्डिया का पंजाब नेशनल बैंक में विलय कर दिया गया। परिणामस्वरूप अब राष्ट्रीयकृत बैंकों की संख्या 19 ही रह गयी है।

प्रश्न 5
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कमजोरियों को दूर करने के लिए सुझाव दीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कमियों एवं समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में इन बैंकों की कार्य-प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है, जिसके लिए निम्नलिखित सुझाव प्रस्तावित हैं

  1. इन बैंकों की शाखाओं का विस्तार, जो कुछ ही क्षेत्रों अथवा प्रान्तों तक ही सीमित है, सम्पूर्ण देश में किया जाना चाहिए जिससे क्षेत्रीय असन्तुलन की स्थिति न उत्पन्न हो सके।
  2. स्वीकृत ऋणों के प्रयोग पर निगरानी रखी जानी चाहिए जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि ऋण का प्रयोग उसी कार्य में किया गया है जिस कार्य के लिए लिया गया है।
  3. वित्तीय समस्या के सम्बन्ध में इन बैंकों को रिजर्व बैंक अथवा अन्य प्रायोजक बैंकों से रियायती दरों पर आवश्यकतानुसार वित्त उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
  4. इस बैंक द्वारा केवल उत्पादक कार्यों के लिए ही ऋण उपलब्ध कराया जाना चाहिए। लाभार्थियों का चयन करते समय उनकी ऋण वापसी की क्षमता का भी आकलन कर लेना चाहिए।
  5. इन बैंकों को चाहिए कि वे अपने कार्य-क्षेत्र में अधिक-से-अधिक बचतों को अपनी ओर आकर्षित करें तथा लागत घटाकर एवं कार्यकुशलता बढ़ाकर हानियों को कम करने का प्रयास करें जिससे उनकी जीवन-क्षमता बनी रहे सके।
  6.  बैंक कर्मचारियों को लगन, निष्ठा एवं ईमानदारी से कार्य करने के लिए उनकी वेतन विसंगतियों, सुविधाओं एवं प्रोन्नति सम्बन्धी समस्याओं का निदान करना चाहिए जिससे वे सही दिशा में कार्य कर सकें।

प्रश्न 6
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कार्यप्रणाली के सम्बन्ध में केलकर समिति के सुझावों को संक्षेप में प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कार्यप्रणाली का अध्ययन करने के लिए नियुक्त केलकर समिति का मूलभूत निष्कर्ष यह है कि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का वृहत् शाखा विस्तार, कम लागत की। कार्य-प्रणाली, स्थानीय वातावरण से तादात्म्य और कमजोर वर्ग की सेवा का राष्ट्रीय दृष्टिकोण देखते । हुए ग्रामीण साख की इकाई के रूप में ये बैंक सर्वथा अनुकूल हैं तथा व्यापारिक बैंक एवं सहकारी संस्थाओं के साथ अस्तित्व में रहकर ये एक पूरक संस्था की भूमिका सफलता से निभा सकते हैं, किन्तु इनकी कार्यक्षमता को बढ़ाना आवश्यक है। इसके सम्बन्ध में कमेटी ने निम्नलिखित सुझाव दिये हैं

  1. इन बैंकों को केवल कमजोर वर्ग को ही ऋण देना चाहिए। हितग्राहियों के लाभ को दृष्टि में रखकर, बैंकों के लक्ष्य के अनुसार ही ऋण दिया जाना चाहिए।
  2. राष्ट्रीय ग्रामीण एवं विकास बैंक नाबार्ड को ग्रामीण बैंकों का अध्ययन कर, बेहतर प्रबन्ध एवं नियन्त्रण की दृष्टि से बैंकों को विभाजित कर देना चाहिए और दो या दो से अधिक लघु तथा अनार्थिक इकाइयों को एक इकाई में बदल लेना चाहिए।
  3. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के महत्त्व को देखते हुए नयी शाखाएँ उन्हीं स्थानों पर खोली जानी चाहिए जहाँ साख-सुविधाओं का अभाव हो और निर्धन एवं कमजोर वर्ग का बाहुल्य।
  4. ग्रामीण बैंकों को ऋण आवंटन की ऐसी प्रणाली अपनानी चाहिए कि बकाया राशि की समस्या उत्पन्न ही न हो।
  5.  प्रायोजित करने वाले व्यापारिक बैंकों को ग्रामीण बैंकों की कार्यप्रणाली एवं प्रगति पर नजर रखनी चाहिए तथा सम्बन्धित गतिविधियों पर उचित सलाह देनी चाहिए।
  6.  नाबार्ड को ग्रामीण बैंकों के कार्यों पर नजर रखनी चाहिए और इस सम्बन्ध में नीतियाँ एवं निर्देश जारी करने चाहिए।

केलकर समिति के उक्त सुझावों के पूर्व ग्रामीण बैंकों की कार्यप्रणाली का अध्ययन करने के लिए प्रो० एम० एल० दाँतवाला की अध्यक्षता में 1977-78 ई० में भी एक समिति गठित की गयी थी। इस समिति का निष्कर्ष था कि ग्रामीण बैंकों का बड़ा उत्तरदायित्व उन कमजोर वर्ग के ग्रामीणों में साख उपलब्ध कराना है, जो ग्रामीण साहूकारों की दया पर निर्भर हो जाते हैं। बैंक को रियायती दर पर मात्र ऋण ही नहीं देना है, बल्कि ऋण की उत्पादकता भी देखनी है तथा इस सम्बन्ध में गहन विस्तार योजना आवश्यक है।

प्रश्न 7
भारतीय स्टेट बैंक की सफलताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
स्थापना के समय भारतीय स्टेट बैंक को निम्नलिखित दायित्व सौंपे गये थे

  •  बैंकिंग विकास,
  •  ग्रामों में बैंकिंग सुविधाएँ तथा सस्ते ऋण की व्यवस्था, जिसमें कृषि के लिए ऋण-विशेष महत्त्वपूर्ण है,
  •  लघु उद्योगों के विकास के लिए सहायता, एक शक्तिशाली एवं साधन-सम्पन्न बैंक संगठन जो देश के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान कर सके।

स्टेट बैंक की सफलताओं को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत रखा जा सकता है
1. बैकिंग विकास – स्टेट बैंक परिवार द्वारा देश में बैंकिंग सुविधाओं का तेजी से विस्तार किया गया है। 1969 ई० में स्टेट बैंक समूह की कुल शाखाएँ 2,462 थीं, जो 30 जून, 2013 ई० में बढ़कर 1,50,03 हो गयी हैं।

2. ग्रामीण बैकिंग –
स्टेट बैंक शाखा विस्तार कार्यक्रम से ग्रामों में बैंकिंग सुविधाओं का विशेष विकास हुआ है। स्टेट बैंक समूह की 42% शाखाएँ ग्रामीण क्षेत्रों में ही कार्यरत हैं।

3. ग्रामीण साख –
स्टेट बैंक द्वारा सहकारी बैंकों, लघु लद्योगों तथा कृषि योजनाओं के ऋण की अनेक सुविधाओं की व्यवस्था की गयी है। इनमें अल्पकालीन एवं मध्यकालीन आर्थिक सुविधाएँ प्रमुख हैं।

4. लघु उद्योग –
भारतीय स्टेट बैंक ने लघु उद्योगों के वित्त पोषण के लिए ‘साहसी योजना’, ‘उदार साख योजना’ आदि आरम्भ की हैं।

5. विदेशी विनिमय तथा वित्त –
स्टेट बैंक द्वारा विदेशों को माल निर्यात के लिए निर्यात सम्वर्द्धन योजना जारी की गयी है जिसके अन्तर्गत निर्यातकों को सुविधाजनक ऋण दिये जाते हैं।

6. मध्यकालीन ऋण –
स्टेट बैंक द्वारा उद्योगों के लिए दस वर्ष तक की अवधि के ऋण दिए जा सकते हैं। इन ऋणों के लिए औद्योगिक विकास बैंक पुनर्वित्त व्यवस्था कर देता है।

प्रश्न 8
व्यापारिक बैंकों के महत्त्व तथा लाभों का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
व्यापारिक बैंकों के प्रमुख लाभ व महत्त्व निम्नलिखित हैं

  1. बैंक व्यक्तियों की निष्क्रिय बचतों को सक्रिय बनाकर उत्पादन क्षेत्रों तक पहुँचाते हैं।
  2.  बैंक बहुमूल्य धातुओं के प्रयोग में बचत करते हैं, क्योंकि अब धातुओं व नकदी का प्रयोग न होकर साख मुद्रा (चेक) का प्रयोग बढ़ता जा रहा है।
  3.  बैंक की आकर्षक ब्याज दरें जनता को बचत के लिए प्रोत्साहित करती हैं।
  4.  बैंक उद्योग-धन्धों के लिए अर्थ-प्रबन्ध करते हैं, जिससे उत्पादन में वृद्धि होकर देश के आर्थिक विकास में सहायता मिलती है।
  5.  द्रव्य को एक स्थान से दूसरे स्थान पर कम व्यय पर भेजने में बैंक सहायता प्रदान करते हैं। साथ ही यात्रियों को मुद्रा सम्बन्धी जोखिमों को दूर करने के लिए यात्री चेक की व्यवस्था भी करते हैं।
  6.  बैंक कीमतों में स्थिरता लाने में सहायक होते हैं।
  7.  बैंक विदेशी व्यापार के लिए अर्थ की व्यवस्था करते हैं तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को सफल बनाने का प्रयास करते हैं।
  8. कृषि अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए बैंक कृषकों को विभिन्न प्रकार के ऋण प्रदान करते हैं।
  9. बैंक विनियम का सस्ता माध्यम प्रदान करते हैं।
  10. बैंक द्वारा साख का निर्माण किया जाता है।
  11. साख मुद्रा के परिमाण में परिवर्तन करके बैंक विनिमय माध्यम के परिमाण में घटा-बढ़ी कर सकते हैं और इस प्रकार देश की मुद्रा-प्रणाली में लोच बनी रहती है।
  12. बैंक राजकीय अर्थ-प्रबन्धन में भारी योगदान देते हैं। ये सरकारी ऋणों का प्रबन्ध करते हैं। तथा सरकार के आदेश पर उनको वापस करते हैं।
  13. बैंक अपने ग्राहकों द्वारा जमा किये गये चेक, बिल, हुण्डी, विनियम प्रपत्र आदि का संग्रह करते हैं तथा शेयर, डिबेन्चर आदि की बिक्री में सहायता करते हैं।

इस प्रकार, वर्तमान युग में बैंक वित्तीय सलाहकार एवं प्रतिनिधि व्यवस्थापक का कार्य करते हैं। व्यापार तथा उद्योग के लिए यथोचित मात्रा में पूँजी की व्यवस्था करने के साथ-साथ समाज की बचतों को एक स्थान पर संग्रह कर उन्हें उपयोगी क्षेत्रों में विनियोजित करते हैं तथा देश की आर्थिक योजना के लिए यथासमय धन की व्यवस्था कर देश की आर्थिक उन्नति में सक्रिय योगदान करते हैं।

प्रश्न 9
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के क्या उद्देश्य थे? संक्षेप में लिखिए। [2009]
उत्तर:
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पीछे सरकार के निम्नलिखित उद्देश्य थे

1. आर्थिक केन्द्रीकरण को समाप्त करना – भारत में व्यापारिक बैंकों का स्वामित्व एवं नियन्त्रण कुछ ही अंशधारियों के हाथ में था, फलतः आर्य एवं सम्पत्ति का असमान वितरण होता था। अतः आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण को समाप्त करने के लिए बैंकों को राष्ट्रीयकरण किया गया।

2. कृषि-क्षेत्र का विकास – यद्यपि कृषि भारत का सबसे बड़ा एवं महत्त्वपूर्ण उद्योग है, किन्तु व्यापारिक बैंकों ने कृषि-विकास पर कभी ध्यान नहीं दिया। कृषि की इस उपेक्षा को दूर करने के लिए बैंकों के राष्ट्रीयकरण का कदम उठाया गया।

3. ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों की शाखाओं का विस्तार – व्यापारिक बैंकों ने नगरों तक ही अपने कार्य-क्षेत्र को सीमित रखा। पिछड़े एवं ग्रामीण क्षेत्रों के आर्थिक विकास के लिए बैंकों के राष्ट्रीयकरण को उपयुक्त समझा गया।

4. बैंकों के साधनों का बेहतर प्रयोग – बैंकों के साधनों का उपयोग संचालकों द्वारा अपने हित में किया गया तथा बैंकों की पूँजी का विनियोग उन क्षेत्रों में किया गया जहाँ संचालक चाहते थे। राष्ट्रीयकरण के माध्यम से साधनों के बेहतर प्रयोग का लक्ष्य रखा गया।

5. लघु एवं ग्रामीण उद्योगों को प्रोत्साहित करने का उद्देश्य –  राष्ट्रीयकरण से पूर्व व्यापारिक बैंक केवल बड़े औद्योगिक घरानों के वित्त-पोषक बने हुए थे और लघु एवं ग्रामीण उद्योगों का विकास वित्त के अभाव में सर्वथा उपेक्षित था।

6. सामाजिक नियन्त्रण की असफलता – यद्यपि राष्ट्रीयकरण के पहले बैंकों का सामाजिक नियन्त्रण किया गया, किन्तु यह नीति अधिक प्रभावपूर्ण सिद्ध नहीं हो सकी; अत: बैंकिंग व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिए राष्ट्रीयकरण आवश्यक समझा गया।

7. पंचवर्षीय योजनाओं में व्यापारिक बैंकों की भूमिका – बैंक भारतीय अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्रों की वित्तीय व्यवस्था करने में असफल रहे हैं। अर्थशास्त्रियों का मत था-“व्यापारिक बैंक पंचवर्षीय योजनाओं के सामाजिक उद्देश्य के अनुरूप अपने को ढालने में असफल रहे।” एक नियोजित अर्थव्यवस्था में व्यापारिक बैंकों का निजी नियन्त्रण सर्वथा अनुचित है। यह भारत में योजनाओं के उद्देश्य की प्राप्ति में बाधक रहा है।

प्रश्न 10
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की असफलता के कारण बताइए।
उत्तर:
यद्यपि ग्रामीण बैंकों ने ग्रामीण साख की समस्या को हल करने का प्रयास किया है एवं स्थानीय स्तर पर लोगों की आय एवं रोजगार बढ़ाने में सहायता प्रदान की है, फिर भी इन बैंकों की कुछ कमियाँ हैं जिसके कारण ये पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाये हैं। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की असफलता के मुख्य कारण निम्नलिखित है।

  1. इन बैंकों के विस्तार में क्षेत्रीय असमानता है। इनकी अधिकांश शाखाएँ कुछ ही प्रान्तों में स्थित हैं जो उचित नहीं है।
  2.  अकुशल प्रबन्ध एवं प्रशासन तथा मितव्ययिता के अभाव में देश में कार्यरत अधिकांश क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक घाटे पर चल रहे हैं, जबकि यह आशा की गयी थी कि अपनी स्थापना के 5 वर्षों के भीतर ये अपना एक सशक्त आधार तैयार कर लेंगे।
  3.  क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा वितरित ऋणों की अदायगी समय से नहीं हो पाती है, जिससे इन्हें वित्तीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। भारतीय कृषक गरीब एवं ऋणग्रस्त होने के कारण इन बैंकों के ऋणों का भुगतान करने में अपने को असमर्थ पाता है।
  4. इन बैंकों में कार्यरत कर्मचारियों को अन्य सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कर्मचारियों की अपेक्षा कम सुविधाएँ तथा भावी प्रोन्नति के अवसर कम उपलब्ध हैं। ये कर्मचारी रुचि लेकर कार्य नहीं करते तथा ग्रामीण विकास की योजनाओं के प्रति उदासीन रहते हैं।

प्रश्न 11
केन्द्रीय बैंक द्वारा ग्रहीत साख-नियन्त्रण की दो प्रत्यक्ष विधियों के नाम लिखिए।
या
भारतीय रिजर्व बैंक में कारण-नियन्त्रण की परिणात्मक विधियों की संक्षेप में विवेचना कीजिए। [2014, 16]
उत्तर:
1. बैंक-दर में परिवर्तन के द्वारा – यदि केन्द्रीय बैंक देखता है कि समाज में साख की मात्रा तेजी के साथ बढ़ रही है और उसे कम करना आवश्यक है तो वह बैंक-दर को बढ़ा देता है। बैंक-दर में वृद्धि होने के कारण अन्य बैंकों को भी अपनी ब्याज की दर को बढ़ाना पड़ता है, क्योंकि वे ऋणों के लिए केन्द्रीय बैंक पर निर्भर होते हैं। इस प्रकार बैंक-दर के बढ़ने से बाजार में ब्याज की दर भी बढ़ जाती है। ब्याज की दर में वृद्धि हो जाने के कारण अब ऋण लेकर विनियोग करना उतना लाभपूर्ण नहीं रहता, जितना कि पहले था; अतः व्यवसायी कम मात्रा में ऋण लेते हैं। इस प्रकार साख का नियन्त्रण होता है।

2. खुले बाजार की क्रियाओं के द्वारा – साख-नियन्त्रण के उद्देश्य से केन्द्रीय बैंक द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों के क्रय-विक्रय करने को खुले बाजार की क्रियाएँ कहा जाता है। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया जब यह अनुभव करता है कि साख की मात्रा में वृद्धि हो रही है, तब वह सरकारी प्रतिभूतियों को बेचना प्रारम्भ कर देता है। सरकारी प्रतिभूतियों को बेचने से बाजार में मुद्रा की मात्रा कम हो जाती है और साख नियन्त्रित हो जाती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
व्यापारिक बैंकों के दो प्रमुख कार्य लिखिए। [2011, 13]
उत्तर:
1. रुपया जमा करना – बैंक जनता को बचत के लिए प्रोत्साहित करके विभिन्न खातों में जमा प्राप्त करते हैं। ये जमा धनराशि पर ब्याज देते हैं तथा ग्राहकों द्वारा माँग करने पर इन्हें वापस करने के लिए उत्तरदायी होते हैं। बैंक अपने ग्राहकों से धन चालू, सावधि एवं सेविंग्स बैंक खातों में जमा के रूप में स्वीकार करते हैं।

2. रुपया उधार देना – व्यापारिक बैंकों का दूसरा प्रमुख कार्य रुपया उधार देना है। बैंक अपने ग्राहकों को उनकी आवश्यकता पर ऋण देता है तथा इन ऋणों पर ब्याज भी प्राप्त करता है। ऋणों पर प्राप्त होने वाला ब्याज ही बैंक की आय को प्रमुख स्रोत होता है। बैंकों द्वारा केवल उत्पादक या व्यापारिक कार्यों के लिए ही प्रायः ऋण दिया जाता है। बैंक निम्नलिखित प्रकार से ऋण प्रदान करता है

  •  माल तथा प्रतिभूतियों को गिरवी रखकर अग्रिम ऋण देना।
  •  नकद साख तथा अधिविकर्ष आदि सुविधाओं के द्वारा व्यापारियों को ऋण देना।
  • विनिमय बिलों का भुनाना स्वीकार करना तथा क्रय-विक्रय करना।

प्रश्न 2
रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना के क्या उद्देश्य थे?
उत्तर:
भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे

  1.  मुद्रा एवं साख की नीति में समन्वय स्थापित करना।
  2. रुपये के आन्तरिक एवं बाह्य मूल्य में स्थिरता स्थापित करना।
  3.  बैंकों के नकद कोषों को केन्द्रीकरण करना।
  4. देश में बैंकिंग व्यवस्था का समुचित विकास करना।
  5.  मुद्रा बाजार में समन्वय एवं सहयोग स्थापित करना।
  6.  कृषि साख की उचित व्यवस्था करना।

प्रश्न 3
नाबार्ड के कोई चार कार्य लिखिए। [2013, 15]
उत्तर:
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 9 के अन्तर्गत शीर्षक 4 देखें।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
भारतीय रिजर्व बैंक के दो प्रमुख कार्यों तथा दो वर्जित कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2009, 10, 12, 14, 16]
उत्तर:
प्रमुख कार्य

  1.  नोटों का निर्गमन तथा
  2.  साख का नियन्त्रण।

वजित कार्य

  1. रिजर्व बैंक न तो अपने और न किसी अन्य बैंक के अंशों को खरीद सकता है।
  2. रिजर्व बैंक न तो किसी अचल सम्पत्ति को खरीद सकता है और न ही अचल सम्पत्ति पर ऋण दे सकता है।

प्रश्न 2
भारतीय रिजर्व बैंक का मुख्यालय कहाँ पर स्थित है? [2011, 16]
उत्तर:
भारतीय रिजर्व बैंक का मुख्यालय मुम्बई में स्थित है।

प्रश्न 3
भारतीय रिजर्व बैंक के स्थानीय प्रधान कार्यालय कहाँ-कहाँ पर स्थित हैं?
उत्तर:
भारतीय रिजर्व बैंक के चार स्थानीय प्रधान कार्यालय, नई दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई तथा चेन्नई में स्थापित किये गये हैं।

प्रश्न 4
भारतीय रिजर्व बैंकों की शाखाएँ कहाँ-कहाँ पर स्थित हैं?
उत्तर:
अहमदाबाद, बंगलुरु, भोपाल, भुवनेश्वर, मुम्बई, गुवाहाटी, हैदराबाद, जयपुर, कानपुर, नागपुर, पटना तथा तिरुवन्तपुरम में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की शाखाएँ कार्य कर रही हैं।

प्रश्न 5
इम्पीरियल बैंक का राष्ट्रीयकरण कब किया गया? [2009]
उत्तर:
1 जुलाई, 1955 ई० को इम्पीरियल बैंक का आंशिक राष्ट्रीयकरण किया गया।

प्रश्न 6
पूर्ण रूप से पहला भारतीय बैंक कौन-सा था और उसकी स्थापना कब की गयी थी?
उत्तर:
पूर्ण रूप से पहला भारतीय बैंक ‘पंजाब नेशनल बैंक’ था, इसकी स्थापना 1894 ई० में की गई थी।

प्रश्न 7
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के कोई दो प्रमुख उद्देश्य लिखिए। [2014]
उत्तर:

  1. छोटे विभागों को भरपूर महत्त्व देकर उनका विकास करना।
  2. ग्रामीण मनोवृत्ति वाले कार्यमन्त्रियों की नियुक्ति करना जो ग्रामीण क्षेत्र व वहाँ के निवासियों से भली-प्रकार परिचित हो।

प्रश्न 8
व्यापारिक बैंकों के दो प्रमुख कार्य लिखिए। [2011, 12, 16]
उत्तर:

  1.  रुपया जमा करना तथा
  2. रुपया उधार देना।

प्रश्न 9
19 जुलाई, 1969 ई० को किये गये दो राष्ट्रीयकृत बैंकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) पंजाब नेशनल बैंक तथा
(2) सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया।

प्रश्न 10
15 अप्रैल, 1980 ई० को किन व्यापारिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया?
उत्तर:
15 अप्रैल, 1980 ई० को १ 200 करोड़ से अधिक की जमाराशि वाले बैंकों को राष्ट्रीयकरण किया गया।

प्रश्न 11
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना कब की गयी? [2008, 12, 15]
उत्तर:
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना 1975 ई० में की गयी।

प्रश्न 12
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक किन स्थानों पर कार्यरत नहीं हैं?
उत्तर:
सिक्किम और गोआ में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक कार्यरत नहीं हैं।

प्रश्न 13
भारतीय औद्योगिक विकास बैंक की स्थापना कब की गयी थी?
उत्तर:
भारतीय औद्योगिक विकास बैंक की स्थापना जुलाई, 1964 ई० में की गयी थी।

प्रश्न 14
भारतीय रिजर्व बैंक के मौद्रिक कार्य बताइए। [2008]
उत्तर:
(1) नोटों को निर्गमन।
(2) साख का नियन्त्रण।
(3) विदेशी विनिमय पर नियन्त्रण।
(4) बैंकों के बैंक के रूप में कार्य।

प्रश्न 15
बैंक दर क्या है?
उत्तर:
बैंक दर से अभिप्राय उस दर से हैं, जिस पर केन्द्रीय बैंक सदस्य बैंकों के प्रथम श्रेणी के बिलों की पुनर्कटोती करता है अथवा स्वीकार्य प्रतिभूतियों पर ऋण देता है, कुछ देशों में इसे कटौती-दर भी कहा जाता है। बैंक दर में परिवर्तन करके केन्द्रीय बैंक देश में साख की मात्रा को प्रभावित कर सकता है।

प्रश्न 16
‘राष्ट्रीय कृषि तथा ग्रामीण विकास बैंक’ की स्थापना कब की गयी थी?
उत्तर:
‘राष्ट्रीय कृषि तथा ग्रामीण विकास बैंक की स्थापना 12 जुलाई, 1982 ई० को की गयी थी।

प्रश्न 17
राष्ट्रीय कृषि तथा ग्रामीण विकास बैंक का प्रमुख कार्य बताइए।
उत्तर:
नाबार्ड ग्रामीण ऋण ढाँचे में एक शीर्षस्थ संस्था के रूप में अनेक वित्तीय संस्थाओं (राज्य-भूमि विकास बैंक, राज्य सहकारी बैंक, अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक) को पुनर्वित्त सुविधाएँ प्रदान करता है।

प्रश्न 18
नाबार्ड अपनी ऋण सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति किन साधनों से प्राप्त करता है?
उत्तर:
नाबार्ड अपनी ऋण सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, भारत सरकार, विश्व बैंक तथा अन्य एजेन्सियों से राशियाँ प्राप्त करता है। इसके अतिरिक्त यह ‘राष्ट्रीय ग्रामीण साख (स्थिरीकरण) निधि के संसाधनों को भी प्रयोग करता है।

प्रश्न 19
नाबार्ड (NABARD) की स्थापना कब हुई थी? [2009, 13, 14, 15, 16]
उत्तर:
नाबार्ड की स्थापना 12 जुलाई, 1982 ई० को हुई थी।

प्रश्न 20
अनुसूचित व्यापरिक बैंक को आप कैसे परिभाषित करेंगे ? [2006, 07]
उत्तर:
वे बैंक जो रिजर्व बैंक अधिकतम की द्वितीय अनुसूची में सूचीबद्ध हैं, अनुसूचित व्यापारिक बैंक कहलाते हैं।

प्रश्न 21
भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (SIDBI) की स्थापना कब हुई?
उत्तर:
भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (SIDBI) की स्थाना 1990 ई० में हुई।

प्रश्न 22
नाबार्ड का पूरा नाम लिखिए। [2011]
उत्तर:
नाबार्ड – राष्ट्रीय कृषि तथा ग्रामीण विकास बैंक-हिन्दी में तथा NABARD–National Bank for Agriculture and Rural Development-अंग्रेजी में।

प्रश्न 23
भारत के किन्हीं दो राष्ट्रीयकृत व्यापारिक बैंकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) पंजाब नेशनल बैंक तथा
(2) सेण्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
बैंकों का सर्वप्रथम राष्ट्रीयकरण कब हुआ था?
(क) 19 जुलाई, 1969 ई० में
(ख) 15 अप्रैल, 1980 ई० में
(ग) 31 मार्च, 1992 ई० में
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) 19 जुलाई, 1969 ई० में।

प्रश्न 2
भारत में दूसरी बार 6 व्यापारिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण कब हुआ? [2003]
(क) 19 जुलाई, 1969 ई० में
(ख) 15 अप्रैल, 1980 ई० में
(ग) 31 मार्च, 1992 ई० में
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) 15 अप्रैल, 1980 ई० में।

प्रश्न 3
भारतवर्ष का केन्द्रीय बैंक है
या
भारत के केन्द्रीय बैंक का नाम क्या है? [2010, 11, 14, 15]
(क) सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया
(ख) भारतीय रिजर्व बैंक
(ग) भारतीय स्टेट बैंक
(घ) पंजाब नेशनल बैंक
उत्तर:
(ख) भारतीय रिजर्व बैंक।

प्रश्न 4
रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया (भारतीय रिजर्व बैंक) का राष्ट्रीयकरण किया गया था [2008, 11, 13, 16]
(क) 1 जनवरी, 1949 ई० को
(ख) 19 जुलाई, 1969 ई० को
(ग) 15 अप्रैल, 1980 ई० को
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) 1 जनवरी, 1949 ई० को।

प्रश्न 5
भारतीय रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना हुई थी [2009, 10, 11, 12, 14, 15, 16]
(क) 1 अप्रैल, 1935 ई० को
(ख) 1 जुलाई, 1955 ई० को
(ग) 19 जुलाई, 1969 ई० को
(घ) 15 अप्रैल, 1980 ई० को
उत्तर:
(क) 1 अप्रैल, 1935 ई० को।

प्रश्न 5
भारतीय स्टेट बैंक का केन्द्रीय कार्यालय स्थित है [2010, 11, 12, 13, 14, 15, 16]
(क) दिल्ली में
(ख) मुम्बई में
(ग) कोलकाता में
(घ) श्रीनगर में
उत्तर:
(ख) मुम्बई में।

प्रश्न 7
राष्ट्रीयकरण से पूर्व भारतीय स्टेट बैंक का नाम क्या था?
(क) इम्पीरियल बैंक
(ख) ग्रेट ब्रिटेन बैंक
(ग) ईस्ट इण्डिया कम्पनी बैंक
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) इम्पीरियल बैंक।

प्रश्न 8
भारतीय स्टेट बैंक के कितने सहायक बैंक हैं?
(क) दस
(ख) आठ
(ग) सात
(घ) नौ
उत्तर:
(ग) सात।

प्रश्न 9
निम्नलिखित में कौन-सा बैंक सरकार के बैंक के रूप में कार्य करता है?
(क) सेण्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया
(ख) रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया
(ग) यूनियन बैंक ऑफ इण्डिया
(घ) बैंक ऑफ इण्डिया
उत्तर:
(ख) रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया।

प्रश्न 10
निम्नलिखित में से कौन व्यापारिक बैंकों का प्राथमिक कार्य है?
(क) आँकड़ों का संकलन
(ख) एजेन्सी कार्य
(ग) साख सृजन
(घ) जमा प्राप्त करना
उत्तर:
(घ) जमा प्राप्त करना।

प्रश्न 11
निम्नलिखित में से कौन-सा कार्य व्यावसायिक बैंकों का नहीं है? [2010]
(क) जमाओं को स्वीकार करना
(ख) अग्रिम ऋण
(ग) साख का सृजन
(घ) विदेशी विनिमय का संरक्षक
उत्तर:
(घ) विदेशी विनिमय का संरक्षक।

प्रश्न 12
निम्नलिखित में कौन-सा व्यापारिक बैंकों का कार्य है? [2012]
(क) साख नियन्त्रण
(ख) जमा स्वीकार करना
(ग) विदेशी विनिमय का संरक्षक
(घ) पत्र मुद्रा का निर्गमन
उत्तर:
(ख) जमा स्वीकार करना।

प्रश्न 13
भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अपनाई गई नोट निर्गमन की कोष व्यवस्था है
(क) न्यूनतम
(ख) आनुपातिक
(ग) प्रगतिशील
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) न्यूनतम।

प्रश्न 14
भारतीय रिजर्व बैंक का वित्तीय वर्ष है
(क) जनवरी से दिसम्बर तक
(ख) मार्च से अप्रैल तक
(ग) जुलाई से अगस्त तक
(घ) अक्टूबर से नवम्बर तक
उत्तर:
(क) जनवरी से दिसम्बर तक।

प्रश्न 15
स्टेट ऑफ इण्डिया कब स्थापित हुआ था? [2010]
(क) 1951
(ख) 1955
(ग) 1969
(घ) 1971
उत्तर:
(ख) 1955.

प्रश्न 16
निम्नलिखित में से कौन-सा एक कार्य भारतीय रिजर्व बैंक का नहीं है? [2007, 09]
(क) साख नियन्त्रण
(ख) नोटों का निर्गमन
(ग) जनता को ऋण देना व उनसे जमा स्वीकार करना
(घ) सरकार के बैंक का कार्य करना
उत्तर:
(ग) जनता को ऋण देना व उनसे जमा स्वीकार करना।

प्रश्न 17
भारत में नोटों के निर्गमन पर किस बैंक का एकाधिकार है? [2014, 16]
या
भारत में नोटों के निर्माण का एकाधिकार निम्नलिखित में से किसे प्राप्त है? [2014]
(क) भारतीय रिजर्व बैंक का
(ख) भारतीय स्टेट बैंक का
(ग) बैंक ऑफ इण्डिया का
(घ) इनमें से किसी का नहीं
उत्तर:
(क) भारतीय रिजर्व बैंक का।

प्रश्न 18
भारत का सबसे बड़ा राष्ट्रीयकृत वाणिज्यिक बैंक कौन-सा है? [2011, 16]
(क) स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया
(ख) रिजर्व ऑफ इण्डिया
(ग) सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया
(घ) पंजाब नेशनल बैंक
उत्तर:
(क) स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया।

प्रश्न 19
राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना किस वर्ष में हुई थी? [2013, 14, 16]
(क) 1982
(ख) 1985
(ग) 1988
(घ) 1991
उत्तर:
(क) 1982

प्रश्न 20
राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) का मुख्यालय कहाँ स्थित है? [2015]
(क) दिल्ली
(ख) चेन्नई
(ग) मुम्बई
(घ) कोलकाता
उत्तर:
(ग) मुम्बई।

प्रश्न 21
वर्ष 1969 में कितने व्यापारिक बैंकों को राष्ट्रीयकृत किया गया था ? [2011, 15]
(क) 10
(ख) 14
(ग) 18
(घ) 22
उत्तर:
(ख) 14.

प्रश्न 22
भारत में कृषि वित्त प्रदान करने वाली सर्वोच्च संस्था है
(क) भारतीय रिजर्व बैंक
(ख) भारतीय स्टेट बैंक
(ग) राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक
(घ) क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक
उत्तर:
(ग) राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक।

प्रश्न 23
निम्नलिखित में से कौन-सा बैंक राष्ट्रीयकृत बैंक नहीं है? [2016]
(क) पंजाब नेशनल बैंक
(ख) इलाहाबाद बैंक
(ग) एच०डी०एफ०सी० बैंक
(घ) स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया
उत्तर:
(ग) एच०डी०एफ०सी० बैंक।

प्रश्न 24
भारत में, वर्तमान में स्टेट बैंक को छोड़कर कितने बैंक राष्ट्रीयकृत हैं [2016]
(क) 14
(ख) 19
(ग) 20
(घ) 25
उत्तर:
(ग) 19

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 6 Indian Educationist: Pt Madan Mohan Malaviya

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 6 Indian Educationist: Pt Madan Mohan Malaviya (भारतीय शिक्षाशास्त्री-पण्डित मदन मोहन मालवीय) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 6 Indian Educationist: Pt Madan Mohan Malaviya (भारतीय शिक्षाशास्त्री-पण्डित मदन मोहन मालवीय).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 6
Chapter Name Indian Educationist: Pt Madan Mohan Malaviya (भारतीय शिक्षाशास्त्री-पण्डित मदन मोहन मालवीय)
Number of Questions Solved 26
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter  Chapter 6 Indian Educationist: Pt Madan Mohan Malaviya (भारतीय शिक्षाशास्त्री-पण्डित मदन मोहन मालवीय)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पण्डित मदनमोहन मालवीय जी के अनुसार शिक्षा के अर्थ, उद्देश्यों तथा विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
या
पण्डित मदनमोहन मालवीय के शैक्षिक विचारों का वर्णन कीजिए।
या
पण्डित मदन मोहन मालवीय के अनुसार शिक्षा के उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
मालवीय के शैक्षिक विचार
मालवीय जी मुख्यत: एक शिक्षाशास्त्री नहीं थे और न ही उन्होंने किसी पुस्तक में अपने शैक्षिक विचार व्यक्त किए थे। मालवीय जी का कहना था कि मैं कोई शिक्षाशास्त्री नहीं हूं, लेकिन जब हम उनके कार्यों पर दृष्टिपात करते हैं तो उन्हें किसी भी शिक्षाशास्त्री से कम नहीं पाते हैं। अधिकांश शिक्षाशास्त्री तो अपने सिद्धान्तों और सैद्धान्तिक योजनाओं के कारण विख्यात होते हैं, किन्तु मालवीय जी से हमें सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार के शैक्षिक योगदान प्राप्त हुए हैं। उनकी शैक्षिक विचारधारा उनके भाषणों और लेखों से स्पष्ट होती है। संक्षेप में उनके शैक्षिक विचारों का विवेचन निम्नवत् रूप में किया जा सकता है

1. शिक्षा का अर्थ
मालवीय जी के शब्दों में, “शिक्षा का तात्पर्य व्यक्ति में शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं धार्मिक संस्कारों का विकास करना है।”
एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है-“शिक्षा से मेरा अभिप्राय विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा से है।” यद्यपि यह शिक्षा को संकुचित अर्थ है, किन्तु वे इसी संकुचित अर्थ वाली शिक्षा को समुचित उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन बनाकर शिक्षा को विस्तृत अर्थ प्रदान करना चाहते थे। इस प्रकार मालवीय जी के अनुसार, “शिक्षा का तात्पर्य उस प्रक्रिया से है, जिसमें बालक या व्यक्ति के सर्वांगीण विकास को दृष्टि में रखते हुए उनमें शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं धार्मिक संस्कारों का विकास किया जाता है।” हम कह सकते हैं कि मालवीय जी संस्थागत शिक्षा को अधिक महत्त्व देते थे। वास्तव में देश की तत्कालीन परिस्थितियों में शिक्षा के इसी स्वरूप की अधिक आवश्यकता थी।

2. शिक्षा के उद्देश्य
मालवीय जी ने शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताए थे-

  1. चारित्रिक एवं नैतिक विकास करना,
  2. धार्मिक विकास करना
  3. शारीरिक विकास करना
  4. जीविकोपार्जन हेतु तैयार करना
  5. मानसिक विकास करना
  6. सामाजिक भावना का विकास करना
  7. नैतिक भावना का विकास करना
  8. सन्देशात्मक विकास करना
  9. आध्यात्मिक विकास करना।

मालवीय जी ने उच्च शिक्षा के लिए कुछ विशेष उद्देश्य निर्धारित किए थे, जो कि निम्नलिखित हैं

  1. सांस्कृतिक उद्देश्य।
  2. कला और विज्ञान में शोध कार्य को प्रोत्साहन देना।
  3. भारतीय कला-कौशल का पुनरुत्थान करना।

3. शिक्षा के विभिन्न प्रकार या रूप
मालवीय जी विश्वविद्यालयों में विभिन्न प्रकार की शिक्षा देने के पक्ष में थे। शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों के विषय में उनके विचार निम्नलिखित थे

1. विज्ञान और कौशल की शिक्षा-आधुनिक युग की वैज्ञानिक प्रगति को ध्यान में रखते हुए मालवीय जी भारत में विभिन्न विज्ञानों की शिक्षा को आवश्यक समझते थे। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने इस बात पर बल दिया कि विद्यालयों में चिकित्साशास्त्र, शरीर विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, ज्योतिष विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायनशास्त्र, गणिते आदि वैज्ञानिक विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने अन्वेषण एवं प्रयोगात्मक कार्य पर भी विशेष बल दिया। उनका विचार था कि देश की बेकारी और औद्योगिक अवनति को दूर करने के लिए तकनीकी का भी विकास करना चाहिए।

2. कृषि शिक्षा-भारत एक कृषि प्रधान देश है। देश की अधिकांश जनता कृषि-कार्य में लगी हुई है। इसलिए कृषि के विकास पर ही भारत की उन्नति निर्भर है। मालवीय जी का कहना था कि विद्यालयों में कृषि की शिक्षा व्यवस्थित रूप से दी जानी चाहिए, जिससे लोगों को नए-नए कृषि-यन्त्रों, साधनों, बीजों और विधियों की निरन्तर जानकारी प्राप्त होती रहे। साथ ही भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल नई-नई खोजें भी की जा सकें। उन्होंने कृषि के प्रयोगात्मक रूप पर भी अत्यधिक बल दिया।

3. चरित्र-निर्माण की शिक्षा-मालवीय जी का विचार था कि विद्यालयों में ऐसी शिक्षा दी जाती चाहिए जिससे विद्यार्थियों के चरित्र का विकास हो सके और उन्हें उचित-अनुचित का ज्ञान हो जाए। उनको कहना था कि चरित्र को ऊँचा उठाने से व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास सम्भव है और जीवन सुखमय बन सकता है।

4. संगीत एवं ललित कलाओं की शिक्षा-मालवीय जी को विचार था कि विद्यार्थियों में सौन्दर्यानुभूति का विकास करने के लिए और सुखमय राष्ट्रीय जीवन व्यतीत करने के लिए विद्यालयों में संगीत एवं ललित कलाओं—चित्रकला, वास्तुकला, अभिनय कला आदि को पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बना देना चाहिए। इससे जीवन में सरलता आती है और राष्ट्रीय संगीत का पुनर्निर्माण और विकास सम्भव

5. प्राइमरी और अन्य स्तर की शिक्षा-मालवीय जी तत्कालीन प्राथमिक शिक्षा के स्तर से बहुत असन्तुष्ट थे। इसलिए उन्होंने इसमें सुधार करने के लिए सुझाव दिया।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मालवीय जी के जीवन-वृत्त का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
पण्डित मदनमोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर, 1861 ई० को इलाहाबाद में हुआ था। उन्होंने सन् 1884 ई० में बी० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। वे कुछ समय तक दैनिक हिन्दी पत्र ‘हिन्दुस्तान के सम्पादक रहे। उन्होंने स्वयं ‘अभ्युदय नामक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ करवाया था। मालवीय जी का जीवन सरलता तथा पवित्रता का आदर्श जीवन था। वे एक महान् वक्ता थे। उनका हिन्दी, संस्कृत तथा अंग्रेजी तीनों भाषाओं पर असाधारण अधिकार था। मालवीय जी ने अखिल भारतीय कांग्रेस के 1909 ई० के लाहौर और 1918 ई० के दिल्ली अधिवेशन की अध्यक्षता की थी। सन् 1902 ई० में इनका चुनाव प्रान्तीय विधान परिषद् के लिए हुआ। सन् 1910 ई० में वे इम्पीरियल लेजिस्लेंटिव कौंसिल के सदस्य चुन लिए गए और सन् 1920 ई० तक सदस्य रहे।

सन् 1919 ई० में इन्होंने रौलेट ऐक्ट के विरोध में जोरदार ऐतिहासिक भाषण दिया था। सन् 1924 ई० में मालवीय जी भारतीय विधानसभा के सदस्य चुने गए तथा सन् 1927 ई० में वे राष्ट्रीय दल के असेम्बली में नेता रहे। सन् 1931 ई० में मालवीय जी द्वितीय गोलमेज परिषद् की बैठक में भाग लेने के लिए लन्दन गए। सन् 1932 ई० में उन्होंने अखिल भारतीय एकता सम्मेलन का सभापतित्व ग्रहण किया। मालवीय जी हिन्दुत्व के पोषक थे। सनातन धर्म महासभा के वे प्राण समझे जाते थे। इन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना करके अपना नाम अमर कर लिया। 12 नवम्बर, 1946 ई० को इस महान् राजनीतिज्ञ, देशभक्त, समाजोद्धारक तथा शिक्षाशास्त्री ने अपने नश्वर शरीर को त्याग दिया।

प्रश्न 2
शिक्षा के पाठ्यक्रम के विषय में मालवीय जी के विचार प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
मालवीय जी का मत था कि पाठ्यक्रम का आधार व्यक्ति, समाज एवं देश की आवश्यकता, संस्कृति एवं जीवन दर्शन होना चाहिए, इसलिए उन्होंने संस्कृत एवं धर्म की शिक्षा को पाठ्यक्रम का अनिवार्य विषय बनाने पर बल दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने कलात्मक विषयों को भी स्वीकार किया। उनका कहना था कि अंग्रेजी या किसी विदेशी भाषा का अध्ययन तभी करना चाहिए जब कि उससे भारतीय साहित्य, विज्ञान एवं भाषा के अध्ययन में सहायता मिले। उन्होंने पाठ्यक्रम में कुछ ऐसे विषयों को भी स्थान दिया जिनसे विद्यार्थी अपने जीविकोपार्जन की समस्या हल कर सकें; जैसे-चिकित्सा, कानून, अध्यापन आदि। इसके अतिरिक्त उन्होंने सामाजिक विषयों-इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि को भी पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया। मालवीय जी ने सन् 1904 ई० में व्यावहारिक दृष्टिकोण से शिक्षा के एक व्यापक पाठ्यक्रम की रूपरेखा तैयार की, जिसमें प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक का सम्पूर्ण शिक्षा-पाठ्यक्रम निहित था।

प्रश्न 3
शिक्षण विधियों के विषय में मदन मोहन मालवीय के विचारों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
मालवीय जी ने अपनी कोई शिक्षण विधि नहीं बताई है। उन्होंने केवल अपने लेखों में कुछ ऐसी शिक्षण विधियों की ओर संकेत किया है, जो उच्च स्तर की कक्षाओं के लिए उपयुक्त मानी जा सकती हैं। इन शिक्षण विधियों का विवरण इस प्रकार है|

  1.  व्याख्यान या भाषण विधि-मालवीय जी स्वयं एक कुशल वक्ता थे। इसीलिए शिक्षण विधि के रूप में वे भाषण या व्याख्यान को अधिक महत्त्व देते थे। उन्होंने व्याख्यान विधि को ही उच्च शिक्षा के लिए उपयुक्त माना था।
  2. अभ्यास विधि-मालवीय जी ने शिक्षण प्रक्रिया में अभ्यास को विशेष महत्त्व दिया है। उन्होंने बताया कि विद्यार्थी को निरन्तर अभ्यास करते रहना चाहिए, क्योंकि अभ्यास से ज्ञान पुष्ट होता है।
  3. स्वाध्याय विधि-मालवीय जी ने कहा है कि विद्यालय में प्राप्त की गई शिक्षा पर विद्यार्थियों को घर में चिन्तन-मनन तथा तर्क-वितर्क करना चाहिए। इस प्रकार उन्होंने स्वाध्याय विधि का समर्थन किया।
  4. निरीक्षण विधि-उन्होंने निरीक्षण विधि का समर्थन करते हुए छात्रों द्वारा वास्तविक वस्तुओं के निरीक्षण पर बल दिया है।
  5. प्रयोगशाला विधि-मालवीय जी के अनुसार विद्यार्थियों को प्रायोगिक विषयों का ज्ञान प्रयोगशालाओं में प्रदान करना चाहिए। विज्ञान की शिक्षा में इस विधि का बहुत महत्त्व है।

प्रश्न 4
पण्डित मदन मोहन मालवीय के शैक्षिक योगदान का सविस्तार वर्णन कीजिए।
या
पण्डित मदनमोहन मालवीय की शिक्षा जगत में देन महत्त्वपूर्ण है। सिद्ध कीजिए।
या
“पण्डित मदनमोहन मालवीय का योगदान शिक्षा जगत् में महत्त्वपूर्ण है।” विवेचना कीजिए।
उत्तर
पण्डित मदन मोहन मालवीय का शैक्षिक योगदान निम्न प्रकार है|

  1. हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान-मालवीय जी ने हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान करके भारतीय समाज को अमूल्य योगदान दिया। प्राचीन भारत में शिक्षा पूर्णरूप से धर्म पर आधारित थी और धर्म, जीवन तथा शिक्षा आपस में सम्बद्ध थे। धार्मिक विषयों-वेद, पुराण, स्मृति आदि को पाठ्यक्रम में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। अत: मालवीय ने शिक्षा के क्षेत्र में इस परम्परा की पुनस्र्थापना की।
  2. प्राचीनता तथा नवीनता में समन्वय-मालवीय जी ने शिक्षा के क्षेत्र में समन्वयवादी विचारधारा का समर्थन करके प्राचीन एवं आधुनिक भारतीय एवं पाश्चात्य शिक्षा-प्रणालियों का अद्वितीय समन्वय किया।
  3. प्राचीन साहित्य एवं कलाओं का पुनरुत्थान-मालवीय जी का प्रारम्भिक जीवन धार्मिक वातावरण में व्यतीत हुआ था, इसीलिए उन्होंने अपने जीवन काल में हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान का प्रयत्न किया। उन्होंने अपने शिक्षा सम्बन्धी विचारों में भी धर्म को बहुत अधिक महत्त्व दिया।
  4. राष्ट्रीय शिक्षा की समस्या-मालवीय जी ने राष्ट्रीय शिक्षा की समस्या हल करने के लिए नए प्रकार के विद्यालयों की स्थापना की। वे शिक्षा के कार्य को भारतीय परम्पराओं से सम्बद्ध करना चाहते थे। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने चारों वर्षों (क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र) और स्त्रियों के लिए उच्च-शिक्षा स्तर तक की शिक्षा की समुचित व्यवस्था की।
  5. भाषाओं के समन्वय का प्रयास-मालवीय जी ने भाषाओं के समन्वय के सिद्धान्त को भी समर्थन किया। वे एक ओर तो प्राचीन संस्कृति का ज्ञान कराने के लिए संस्कृत भाषा का अध्ययन आवश्यक समझते थे और दूसरी ओर वर्तमान युग की परिस्थितियों के अनुकूल सफल जीवन व्यतीत करने के लिए मातृभाषा के अध्ययन पर बल देते थे। इसके साथ-ही-साथ उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए अंग्रेजी को भी स्वीकार किया है।
  6. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना-मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना करके अपने आदर्शों, मूल्यों एवं विचारों को साकार रूप प्रदान किया। वास्तव में यह मालवीय जी की कर्तव्यपरायणता, कर्मठता, त्याग, तपस्या तथा देशप्रेम का कीर्ति स्तम्भ है। इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘भारती भवन पुस्तकालय’ तथा ‘हिन्दू हॉस्टल’ स्थापित करके भी शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान प्रदान किया।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
शिक्षा के माध्यम के विषय में मालवीय जी के विचार क्या थे?
या
पण्डित मदन मोहन मालवीय के अनुसार शिक्षा के माध्यम का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
मालवीय जी (हिन्दी, हिन्दू-हिन्दुस्थान के नारे के प्रबल समर्थक थे। यही कारण था कि उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता में पलकर भी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने पर बल दिया। उनका मत था कि देशवासियों को एकता के सूत्र में बाँधने के लिए एक सामान्य भाषा होनी चाहिए और यह भाषा केवल हिन्दी ही हो सकती है, क्योंकि हिन्दी जनजीवन के बोलचाल की भाषा है। इसीलिए उन्होंने कहा कि प्राथमिक से लेकर उच्च स्तर तक हिन्दी को शिक्षा का माध्यम बना देना चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने उच्च शिक्षा स्तर पर अंग्रेजी भाषा को माध्यम बनाने की बात कुछ व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण स्वीकार की थी।

प्रश्न 2
विद्यालय के वातावरण के विषय में मालवीय जी के क्या विचार थे?
उत्तर
मालवीय जी का कहना था कि विद्यालय, शान्त, सुरम्य और पवित्र स्थान पर होना चाहिए, जिससे सामाजिक बुराइयों का प्रभाव विद्यालय पर न पड़ सके। विद्यालय में बालकों को ऐसा वातावरण मिलना चाहिए, जिससे उनमें सामाजिक एवं सांस्कृतिक भावनाओं का विकास हो सके। इसके लिए छात्रों के आपसी सम्बन्ध, छात्रों व अध्यापकों के सम्बन्ध तथा अध्यापकों के पारस्परिक सम्बन्ध अच्छे होने चाहिए।

प्रश्न 3.
मालवीय जी के शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासन सम्बन्धी विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
मालवीय जी शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासन अनिवार्य मानते थे, परन्तु मालवीय जी दमनात्मक अनुशासन तथा बाह्य अनुशासन के विरोधी थे। वे अनुशासन की स्थापना के लिए शारीरिक दण्ड को महत्त्व नहीं देते थे। उनका प्रभावात्मक अनुशासन में दृढ़ विश्वास था। वे विद्यार्थी के लिए ब्रह्मचर्य एवं इन्द्रिय-निग्रह को आवश्यक मानते थे। उनका कहना था कि बालक को मन, वचन और कर्म पर नियन्त्रण रखना चाहिए। इस प्रकार वे आत्मीनुशासन के पक्ष में थे। उनका विचार था कि विद्यालय एवं कक्षा में अनुशासन बनाए रखने में शिक्षक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि शिक्षके स्वयं आदर्श चरित्रवान तथा उत्तम गुणों से युक्त हो तो छात्र उसका अनुकरण करके स्वत: ही अनुशासित रहते हैं।

प्रश्न 4
मालवीय जी के अनुसार अध्यापकों के मुख्य गुण क्या होने चाहिए?
उत्तर
मालवीय जी का मत था कि किसी भी शिक्षण विधि की सफलता इसके अध्यापकों पर निर्भर होती है। अध्यापक को प्रभावशाली, चरित्रवान, उदार, सहिष्णु तथा विद्वान् होना चाहिए। उन्होंने सम्पूर्ण शिक्षण प्रक्रिया में अध्यापक को बहुत महत्वपूर्ण बताया है, क्योंकि अध्यापक भावी नागरिकों का समुचित पथ-पदर्शन करता है। कुशल और प्रभावशाली अध्यापकों पर ही देश की प्रगति निर्भर करती है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पण्डित मदनमोहन मालवीय जी का जन्म कब हुआ था?
उत्तर
पं० मदन मोहन मालवीय जी का जन्म 25 दिसम्बर, सन् 1861 को हुआ था।

प्रश्न 2
मालवीय जी के अनुसार शिक्षा का अर्थ क्या है?
उत्तर
मालवीय जी के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य व्यक्ति में शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं । धार्मिक संस्कारों का विकास करना है।

प्रश्न 3
मालवीय जी के अनुसार शिक्षा के पाठ्यक्रम के निर्धारण का आधार क्या होना चाहिए?
उत्तर
मालवीय जी के अनुसार शिक्षा के पाठ्यक्रम के निर्धारण का आधार व्यक्ति, समाज, देश की आवश्यकता, संस्कृति एवं जीवन-दर्शन होना चाहिए।

प्रश्न 4
मालवीय जी ने शिक्षा के किस स्वरूप को प्राथमिकता प्रदान की थी?
उत्तर
मालवीय जी संस्थागत अर्थात् औपचारिक शिक्षा को प्राथमिकता प्रदान करते थे।

प्रश्न 5
मालवीय जी ने शिक्षा के माध्यम के रूप में किस भाषा को अपनाने का सुझाव दिया था?
उत्तर
मालवीय जी ने शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा तथा हिन्दी भाषा को अपनाने का सुझाव दिया था। उनके अनुसार केवल व्यावहारिक कठिनाइयों की दशा में अंग्रेजी भाषा को अपनाया जा सकता है।

प्रश्न 6
मालवीय जी किस शिक्षण विधि के पक्ष में अधिक थे?
उत्तर
मालवीय जी शिक्षण की व्याख्यान विधि के पक्ष में अधिक थे।

प्रश्न 7
मालवीय जी की अनुशासन सम्बन्धी मान्यता क्या थी?
उत्तर
मालवीय जी आत्मानुशासन तथा प्रभावात्मक अनुशासन के पक्ष में थे। वे दमनात्मक अनुशासन के विरुद्ध थे।

प्रश्न 8
मालवीय जी का मुख्य नारा क्या था?
उत्तर
मालवीय जी का मुख्य नारा था-हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्थान।

प्रश्न 9
पण्डित मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित शैक्षिक संस्था का नाम बताइए।
उत्तर
पं० मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित शैक्षिक संस्था का नाम ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय है।

प्रश्न 10
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. मालवीय जी हिन्दी, संस्कृत तथा अंग्रेजी के अच्छे ज्ञाता थे।
  2. मालवीय जी ने राजनीति में कभी भी भाग नहीं लिया था।
  3. मालवीय जी ने ‘अभ्युदय’ नामक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ करवाया था।
  4. मालवीय जी ने अंग्रेजी भाषा को राजभाषा बनाने का समर्थन किया था।
  5. मालवीय जी धार्मिक शिक्षा के विरोधी थे।
  6. मालवीय जी विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा के समर्थक थे।

उत्तर

  1. सत्य
  2. असत्य
  3. सत्य
  4. असत्य
  5. असत्य
  6. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों के दिए गए विकल्पोंसेसेसही विकल्प का चुनावकीजिए
प्रश्न 1
पं० मदनमोहन मालवीय किस हिन्दी दैनिक पत्र के सम्पादक रहे थे?
(क) अमृत बाजार पत्रिका
(ख) पंजाब केसरी
(ग) हिन्दुस्तान ।
(घ) स्वतन्त्र भारत
उत्तर
(ग) हिन्दुस्तान

प्रश्न 2
“शिक्षा से मेरा अभिप्राय विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा से है।”-यह कथन किसका
(क) लाला लाजपत राय,
(ख) स्वामी दयानन्द
(ग) गोपालकृष्ण गोखले
(घ) मदनमोहन मालवीय
उत्तर
(घ) मदनमोहन मालवीय

प्रश्न 3
मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित संस्था है
(क) बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
(ख) भारती भवन पुस्तकालय
(ग) हिन्दू होस्टल
(घ) ये सभी
उत्तर
(घ) ये सभी

प्रश्न 4
मदनमोहन मालवीय ने किस विश्वविद्यालय की स्थापना की थी?
(क) बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
(ख) काशी विद्यापीठ
(ग) सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय
(घ) विश्वभारती विश्वविद्यालय
उत्तर
(क) बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय

प्रश्न 5
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी
(क) 1916 ई० में
(ख) 1917 ई० में
(ग) 1919 ई० में
(घ) 1933 ई० में
उत्तर
(क) 1916 ई० में

प्रश्न 6
मालवीय जी किस प्रकार की शिक्षा को आवश्यक मानते थे?
(क) विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा
(ख) कृषि-शिक्षा
(ग) ललित कलाओं की शिक्षा
(घ) इन सभी प्रकार की शिक्षा
उत्तर
(घ) इन सभी प्रकार की शिक्षा

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 19 Local Self Government

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 19
Chapter Name Local Self Government
(स्थानीय स्वशासन)
Number of Questions Solved 68
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 19 Local Self Government (स्थानीय स्वशासन)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
स्थानीय प्रशासन से आप क्या समझते हैं ? स्थानीय स्वशासन की आवश्यकता तथा महत्त्व बताइए।
उत्तर :
भारत में केन्द्र व राज्य सरकारों के अतिरिक्त, तीसरे स्तर पर एक ऐसी सरकार है। जिसके सम्पर्क में नगरों और ग्रामों के निवासी आते हैं। इस स्तर की सरकार को स्थानीय स्वशासन कहा जाता है, क्योंकि यह व्यवस्था स्थानीय निवासियों को अपना शासन-प्रबन्ध करने का अवसर प्रदान करती है। इसके अन्तर्गत मुख्यतया ग्रामवासियों के लिए पंचायत और नगरवासियों के लिए नगरपालिका उल्लेखनीय हैं। इन संस्थाओं द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति तथा स्थानीय समस्याओं के समाधान के प्रयास किये जाते हैं। व्यावहारिक रूप में वे सभी कार्य जिनका सम्पादन वर्तमान समय में ग्राम पंचायतों, जिला पंचायतों, नगर पालिकाओं, नगर निगम आदि के द्वारा किया जाता है, वे स्थानीय स्वशासन के अन्तर्गत आते हैं।

स्थानीय स्वशासन की आवश्यकता एवं महत्त्व

स्थानीय स्वशासन की आवश्यकता एवं महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है –

1, लोकतान्त्रिक परम्पराओं को स्थापित करने में सहायक – भारत में स्वस्थ लोकतान्त्रिक परम्पराओं को स्थापित करने के लिए स्थानीय स्वशासन व्यवस्था ठोस आधार प्रदान करती है। उसके माध्यम से शासन-सत्ता वास्तविक रूप से जनता के हाथ में चली जाती है। इसके अतिरिक्त स्थानीय स्वशासन-व्यवस्था, स्थानीय निवासियों में लोकतान्त्रिक संगठनों के प्रति रुचि उत्पन्न करती है।

2. भावी नेतृत्व का निर्माण – स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ भारत के भावी नेतृत्व को तैयार करती हैं। ये विधायकों और मन्त्रियों को प्राथमिक अनुभव एवं प्रशिक्षण प्रदान करती हैं, जिससे वे भारत की ग्रामीण समस्याओं से अवगत होते हैं। इस प्रकार ग्रामों में उचित नेतृत्व का निर्माण करने एवं विकास कार्यों में जनता की रुचि बढ़ाने में स्थानीय स्वशासन का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है।

3. जनता और सरकार के पारस्परिक सम्बन्ध – भारत की जनता स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के माध्यम से शासन के बहुत निकट पहुँच जाती है। इससे जनता और सरकार में एक-दूसरे की कठिनाइयों को समझने की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। इसके अतिरिक्त दोनों में सहयोग भी बढ़ता है, जो ग्रामीण उत्थान एवं विकास के लिए आवश्यक है।

4. स्थानीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था के बीच की कड़ी – ग्राम पंचायतों के कार्यकर्ता और पदाधिकारी स्थानीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था के बीच की कड़ी के रूप में कार्य करते हैं। इन स्थानीय पदाधिकारियों के सहयोग के अभाव में नतो राष्ट्र के निर्माण का कार्य सम्भव हो पाता है और नही सरकारी कर्मचारी अपने दायित्व का समुचित रूप से पालन कर पाते हैं।

5. प्रशासकीय शक्तियों का विकेन्द्रीकरण – स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ केन्द्रीय व राज्य सरकारों को स्थानीय समस्याओं के भार से मुक्त करती हैं। स्थानीय स्वशासन की इकाइयों के माध्यम से ही शासकीय शक्तियों एवं कार्यों का विकेन्द्रीकरण किया जा सकता है। लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण की इस प्रक्रिया में शासन-सत्ता कुछ निर्धारित संस्थाओं में निहित होने के स्थान पर, गाँव की पंचायत के कार्यकर्ताओं के हाथों में पहुँच जाती है। भारत में इस व्यवस्था से प्रशासन की कार्यकुशलता में पर्याप्त वृद्धि हुई है।

6. नागरिकों को निरन्तर जागरूक बनाये रखने में सहायक – स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ लोकतन्त्र की प्रयोगशालाएँ हैं। ये भारतीय नागरिकों को अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रयोग की शिक्षा तो देती ही हैं, साथ ही उनमें नागरिकता के गुणों का विकास करने में भी सहायक होती हैं।

7. लोकतान्त्रिक परम्पराओं के अनुरूप – लोकतन्त्र का आधारभूत तथा मौलिक सिद्धान्त यह है कि सत्ता का अधिक-से-अधिक विकेन्द्रीकरण होना चाहिए। स्थानीय स्वशासन की इकाइयाँ इस सिद्धान्त के अनुरूप हैं।

8. नौकरशाही की बुराइयों की समाप्ति – स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में नागरिकों की प्रत्यक्ष भागीदारी से प्रशासन में नौकरशाही, लालफीताशाही तथा भ्रष्टाचार जैसी बुराइयाँ उत्पन्न नहीं होती हैं।

9. प्रशासनिक अधिकारियों की जागरूकता – स्थानीय लोगों की शासन में भागीदारी के कारण प्रशासन उस क्षेत्र की आवश्यकताओं के प्रति अधिक सजग तथा संवेदनशील हो जाता है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि स्थानीय स्वशासन लोकतन्त्र का आधार है। यह लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण (Democratic Decentralisation) की प्रक्रिया पर आधारित है। यदि प्रशासन को जागरूक तथा अधिक कार्यकुशल बनाना है तो उसका प्रबन्ध एवं संचालन स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप स्थानीय संस्थाओं के द्वारा ही सम्पन्न किया जाना चाहिए।

प्रश्न 2.
ग्रामीण भारत के विकास में ग्राम पंचायतों की भूमिका बताइए। [2016]
या
ग्राम पंचायतों के गठन एवं कार्यों का वर्णन कीजिए। [2015]
या
पंचायती राज-व्यवस्था से आप क्या समझते हैं ? ग्राम पंचायत के कार्यों तथा शक्तियों का वर्णन कीजिए। [2016]
या
भारत में पंचायती राज-व्यवस्था की कार्यप्रणाली का परीक्षण कीजिए। [2010, 11]
उत्तर :
भारत गाँवों का देश है। ब्रिटिश राज में गाँवों की आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्था शोचनीय हो गयी थी; अत: स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद देश में पंचायती राज व्यवस्था द्वारा गाँवों में राजनीतिक तथा आर्थिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण का प्रयास किया गया। बलवन्त राय मेहता समिति ने पंचायती राज व्यवस्था के लिए त्रि-स्तरीय योजना का परामर्श दिया। इस योजना में सबसे निचले। स्तर पर ग्राम सभा और ग्राम पंचायतें हैं। स्तर पर क्षेत्र समितियाँ तथा उच्च स्तर पर जिला परिषदों की व्यवस्था की गयी थी।

भारतीय गाँवों में बहुत पहले से ही ग्राम पंचायतों की व्यवस्था रही है। उत्तर प्रदेश सरकार ने संयुक्त प्रान्तीय पंचायत राज कानून बनाकर पंचायतों के संगठन सम्बन्धी उल्लेखनीय कार्य को किया था। सन् 1947 ई० के इस कानून के अनुसार ग्राम पंचायत के स्थान पर ग्राम सभा, ग्राम पंचायत और न्याय पंचायत की व्यवस्था की गयी थी। अब उत्तर प्रदेश पंचायत विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 के अनुसार भी ग्राम सभा, ग्राम पंचायत तथा न्याय पंचायत की ही व्यवस्था को रखा गया है।

ग्राम पंचायत के कार्य तथा शक्तियाँ

प्रत्येक ग्राम में एक ग्राम सभा’ होती है। गाँव का प्रत्येक वयस्क व्यक्ति ग्राम सभा का सदस्य होता है। ग्राम पंचायत को चयन ग्राम सभा के द्वारा किया जाता है। ग्राम पंचायत के चुनाव गुप्त मतदान के द्वारा वयस्क मताधिकार के आधार पर किये जाते हैं। पंचायत के सरपंच का चुनाव पंचायत के सम्पूर्ण निर्वाचित मण्डल द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। ग्राम पंचायत, पंचायती राज-व्यवस्था की सबसे छोटी आधारभूत इकाई है। यह ग्राम सरकार की कार्यपालिका के रूप में कार्य करती है।

ग्राम पंचायत के कार्यों तथा शक्तियों की विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत की जा सकती है-

1. सार्वजनिक कार्य – सार्वजनिक कार्यों के अन्तर्गत

  1. गाँव की सफाई की व्यवस्था करना
  2. रोशनी का प्रबन्ध करना
  3. संक्रामक रोगों की रोकथाम करना
  4. गाँव एवं गाँव की इमारतों की रक्षा करना
  5. जन्म-मरण का लेखा-जोखा रखना
  6. बालक एवं बालिकाओं की शिक्षा की समुचित व्यवस्था करना
  7. खेलकूद की व्यवस्था करना
  8. कृषि की उन्नति का प्रयत्न करना
  9. श्मशान भूमि की व्यवस्था करना
  10. सार्वजनिक चरागाहों की व्यवस्था करना
  11. आग बुझाने का प्रबन्ध करना
  12. जनगणना और पशुगणना करना
  13. प्राथमिक चिकित्सा का प्रबन्ध करना
  14. खाद एकत्र करने के लिए स्थान निश्चित करना
  15. जल मार्गों की सुरक्षा का प्रबन्ध करना
  16. प्रसूति-गृह खोलना
  17. कानून द्वारा सौंपा गया कोई और कार्य करना
  18. आदर्श नागरिकता की भावना को प्रोत्साहन देना तथा
  19. ग्रामीण जनता को शासन व्यवस्था से परिचित कराना आदि कार्य आते हैं।

2. व्यवसाय – सम्बन्धी कार्य – इन कार्यों के अन्तर्गत

  1. अस्पताल खुलवाना
  2. पुस्तकालय एवं वाचनालयों की व्यवस्था करना
  3. पार्क बनवाना
  4. गृह-उद्योगों को उन्नत करने का प्रयत्न करना
  5. पशुओं की नस्ल सुधारना
  6. स्वयंसेवक दल का संगठन करना
  7. सहकारी समितियों का गठन करना
  8. सहकारी ऋण प्राप्त करने में किसानों की सहायता करना
  9. अकाल या अन्य विपत्ति के समय गाँव वालों की सहायता करना
  10. सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाना आदि कार्य सम्मिलित होते हैं।

3. न्याय-सम्बन्धी कार्य – इन कार्यों के अन्तर्गत, ग्राम पंचायत के कुछ सदस्य न्याय पंचायत के रूप में कार्य करते हुए अपने गाँव के छोटे-छोटे झगड़ों का निपटारा भी करते हैं। दीवानी के मामलों में ये हैं 500 के मूल्य तक की सम्पत्ति के मामलों की सुनवाई कर सकते हैं तथा फौजदारी के मुकदमों में इसे ₹ 250 तक का जुर्माना करने का अधिकार प्राप्त है।

भारतीय संविधान में किये गये 73वें संशोधन के द्वारा ग्राम पंचायत को व्यापक अधिकार एवं शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। साथ ही ग्राम पंचायत के कार्य-क्षेत्र को भी व्यापक बनाया गया है। जिसके अन्तर्गत 29 नियमों से युक्त एक विस्तृत सूची को रखा गया है।

आय के स्रोत – ग्राम पंचायतों की आय के मुख्य स्रोत हैं-सरकार से मिलने वाले अनुदान, भवनों व गाड़ियाँ आदि पर कर, पशुओं व वस्तुओं पर चुंगी, यात्री कर, वाणिज्यिक फसलों पर कर, सरकार द्वारा अनुमोदित कोई भी राज्य कर, कर्ज, उपहार आदि। पंचायतों को भूमि, तालाब और बाजार से भी कुछ आये हो जाती है। कुछ विशेष प्रकार के कर लगाने के लिए पंचायतों को राज्य सरकार की अनुमति लेनी पड़ती है। |

महत्त्व – आज के प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था के युग में ग्राम पंचायतों का बहुत महत्त्व है। ये संस्थाएँ जनता को जनतन्त्र की शिक्षा प्रदान करती हैं। नागरिक गुणों के विकास के लिए ग्राम पंचायतें प्रारम्भिक पाठशालाओं का काम करती हैं और जनता में अपने अधिकारों तथा स्वतन्त्रता की भावना को जाग्रत करने में सहायक होती हैं। ये जनता में सहज बुद्धि, न्यायशीलता, निर्णय-शक्ति और सामाजिकता का भी विकास करती हैं। ग्राम पंचायत स्थानीय स्तर की समस्याओं का समाधान समुचित रूप से कर लेती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई तथा मार्गों का निर्माण कराकर ये संस्थाएँ जनहित के कार्यों में संलग्न रहती हैं। गाँवों के आर्थिक विकास में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वस्तुतः ग्राम पंचायतें ग्राम सभाओं की कार्यकारिणी के रूप में कार्य करती हैं।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 19 Local Self Government

प्रश्न 3.
क्षेत्र पंचायत किस प्रकार गठित की जाती है? यह अपने क्षेत्र के विकास के लिए कौन-कौन से कार्य करती है?
या
क्षेत्र पंचायत (पंचायत समिति के संगठन, कार्यों तथा शक्तियों पर प्रकाश डालिए
उत्तर :
उत्तर प्रदेश पंचायत (संशोधन) अधिनियम, 1994′ के सेक्शन 7(1) के द्वारा क्षेत्र समिति का नाम बदलकर क्षेत्र पंचायत कर दिया गया है। यह ग्राम पंचायत के ऊपर के स्तर की इकाई होती है। राज्य सरकार गजट में अधिसूचना द्वारा प्रत्येक खण्ड के लिए एक क्षेत्र पंचायत स्थापित करेगी। पंचायत का नाम खण्ड के नाम पर होगा।

संगठन – क्षेत्र पंचायत एक प्रमुख और निम्नलिखित प्रकार के सदस्यों से मिलकर बनेगी

  1. खण्ड की सभी ग्राम पंचायतों के प्रधान।
  2. निर्वाचित सदस्य-ये पंचायती क्षेत्र के 2000 जनसंख्या वाले प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा निर्वाचित किये जाएँगे।
  3. लोकसभा और विधानसभा के ऐसे सदस्य, जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो पूर्णतः अथवा अंशत: उस खण्ड में सम्मिलित हैं।
  4. राज्यसभा तथा विधान परिषद् के ऐसे सदस्य, जो खण्ड के अन्तर्गत निर्वाचकों के रूप में पंजीकृत हैं।

उपर्युक्त सदस्यों में केवल निर्वाचित सदस्यों को ही प्रमुख अथवा उप-प्रमुख के निर्वाचन तथा उनके विरुद्ध अविश्वास के मामलों में मत देने का अधिकार होगा।

योग्यता – क्षेत्र पंचायत का सदस्य निर्वाचित होने के लिए व्यक्तियों में निम्नलिखित योग्यताएँ होनी आवश्यक हैं –

  1. उसका नाम क्षेत्र पंचायत की प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र की निर्वाचक नामावली में हो।
  2. वह विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने की योग्यता रखता हो।
  3. उसकी आयु 21 वर्ष हो।
  4. वह किसी लाभ के सरकारी पद पर न हो।

स्थानों का आरक्षण – प्रत्येक क्षेत्र पंचायत में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए स्थान आरक्षित रहेंगे। क्षेत्र पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या में आरक्षित स्थानों का अनुपात यथासम्भव वही होगा जो उस खण्ड में अनुसूचित जातियों अथवा जनजातियों की या पिछड़े वर्गों की जनसंख्या का अनुपात उस खण्ड की कुल जनसंख्या में है। पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण कुल निर्वाचित स्थानों की संख्या के 27% से अधिक नहीं होगा।

अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या के कम-से-कम एक-तिहाई स्थान इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे। क्षेत्र पंचायत में निर्वाचित स्थानों की कुल संख्या के कम-से-कम एक-तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।

पदाधिकारी – क्षेत्र पंचायत में निर्वाचित सदस्यों द्वारा अपने में से ही एक प्रमुख, एक ज्येष्ठ उप-प्रमुख तथा एक कनिष्ठ उप-प्रमुख चुने जाते हैं। राज्य में क्षेत्र पंचायतों के प्रमुखों के पद अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों तथा महिलाओं के लिए आरक्षित किये गये हैं।

कार्यकाल – क्षेत्र पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष है, परन्तु राज्य सरकार 5 वर्ष की अवधि से पहले भी क्षेत्र पंचायत को विघटित कर सकती है। प्रमुख, उपप्रमुख अथवा क्षेत्र पंचायत का कोई भी सदस्य 5 वर्ष की अवधि से पूर्व भी त्यागपत्र देकर अपना पद त्याग सकता है। प्रमुख तथा उप-प्रमुख के द्वारा अपने कर्तव्यों का पालन न करने की स्थिति में उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करके उन्हें पदच्युत किया जा सकता है। क्षेत्र पंचायत के विघटन के छ: माह की अवधि के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य है।

अधिकारी – क्षेत्र पंचायत का सबसे प्रमुख अधिकारी ‘खण्ड विकास अधिकारी’ (Block Development Officer) होता है। इस पर समस्त प्रशासन का उत्तरदायित्व होता है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अधिकारी भी होते हैं।

अधिकार और कार्य – क्षेत्र पंचायत के प्रमुख अधिकार और कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. कृषि, भूमि विकास, भूमि सुधार और लघु सिंचाई सम्बन्धी कार्यों को करना।
  2. सार्वजनिक निर्माण सम्बन्धी कार्य करना।
  3. कुटीर और ग्राम उद्योगों तथा लघु उद्योगों का विकास करना।
  4. पशुपालन तथा पशु सेवाओं में वृद्धि करना।
  5. स्वास्थ्य तथा सफाई सम्बन्धी कार्यों की देखभाल करना।
  6. शैक्षणिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास से सम्बद्ध कार्य कराना।
  7. पेयजल, ईंधन और चारे की व्यवस्था करना।
  8. ग्रामीण आवास की व्यवस्था करना।
  9. चिकित्सा तथा परिवार कल्याण सम्बन्धी कार्यों की देखभाल करना।
  10. बाजार तथा मेलों की व्यवस्था करना।
  11. प्राकृतिक आपदाओं में सहायता प्रदान करना।

क्षेत्र पंचायत जल-कर तथा विद्युत-कर लगाती है। इनके अतिरिक्त क्षेत्र पंचायत ऐसा भी कोई कर लगा सकती है, जिसके सम्बन्ध में राज्य सरकार ने क्षेत्र पंचायत को अधिकृत कर दिया है।

प्रश्न 4.
जिला पंचायत का गठन किस प्रकार होता है? इसके प्रमुख कार्य तथा आय के साधन लिखिए।
उत्तर :
त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की सर्वोच्च इकाई जिला पंचायत होती है। उत्तर प्रदेश सरकार ने पंचायत विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 पारित करके जिला परिषद् का नाम बदलकर जिला पंचायत कर दिया है। जिला पंचायत का नाम जिले के नाम पर होता है तथा प्रत्येक जिला पंचायत एक नियमित निकाय होती है। यह जिले के सम्पूर्ण ग्रामीण क्षेत्र का प्रबन्ध करती है।

गठन – जिला पंचायत के गठन में निम्नलिखित दो प्रकार के सदस्य होते हैं –

(क) निर्वाचित सदस्य निर्वाचित सदस्यों की सदस्य-संख्या राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाती है। साधारणतया 50,000 से अधिक की जनसंख्या पर एक सदस्य निर्वाचित किया जाता है। यह निर्वाचन वयस्क मतदान द्वारा होता है।

(ख) अन्य सदस्य – अन्य सदस्यों में कुछ पदेन सदस्य होते हैं, जो कि निम्नवत् हैं –

  1. जनपद की सभी क्षेत्र पंचायतों के प्रमुख।
  2. लोकसभा तथा विधानसभा के वे सदस्य जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें जिला पंचायत क्षेत्र का कोई भाग समाविष्ट है।
  3. राज्यसभा तथा विधान परिषद् के वे सदस्य जो उस जिला पंचायत क्षेत्र में मतदाताओं के रूप में पंजीकृत हैं।

आरक्षण – प्रत्येक जिला पंचायत में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए नियमानुसार स्थान आरक्षित रहेंगे। आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात, जिला अनुपात में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या में यथासम्भव वही होगा, जो अनुपात इन जातियों, वर्गों की जनसंख्या का जिला पंचायत क्षेत्र की समस्त जनसंख्या में है। संशोधित प्रावधानों के अन्तर्गत पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण कुल निर्वाचित स्थानों की संख्या के 27% से अधिक नहीं होगा।

अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या के कम से कम एक-तिहाई स्थान; इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे। प्रत्येक जिला पंचायत में निर्वाचित स्थानों की कुल संख्या के कम-से-कम एक-तिहाई स्थान; महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे।

योग्यता – जिला पंचायत का सदस्य निर्वाचित होने के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ अपेक्षित हैं –

  1. ऐसे सभी व्यक्ति, जिनका नाम उस जिला पंचायत के किसी प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र के लिए निर्वाचक नामावली में सम्मिलित है।
  2. जो राज्य विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने की आयु सीमा के अतिरिक्त अन्य सभी योग्यताएँ रखता है।
  3. जिसने 21 वर्ष की आयु पूरी कर ली हो।

अधिकारी – प्रत्येक जिला पंचायत में दो अधिकारी होते हैं – अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष, जिनका चुनाव निर्वाचित सदस्यों द्वारा गुप्त मतदान प्रणाली के आधार पर होता है। अध्यक्ष बनने के लिए यह आवश्यक है कि वह जिले में रहता हो, उसकी आयु 21 वर्ष से कम न हो तथा उसका नाम मतदाता सूची में हो। इन दोनों का निर्वाचन पाँच वर्ष के लिए किया जाता है। राज्य सरकार पाँच वर्ष की अवधि से पूर्व भी इन्हें पदच्युत कर सकती है। ये पद भी अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित होते हैं। अध्यक्ष पंचायतों की बैठकों का सभापतित्व करता है, पंचायत के कार्यों का निरीक्षण करता है एवं कर्मचारियों पर नियन्त्रण रखता है। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उसका पद- भार उपाध्यक्ष सँभालता है।

इन अधिकारियों के अतिरिक्त छोटे-बड़े, स्थायी-अस्थायी अनेक वैतनिक कर्मचारी भी होते हैं, जो इन अधिकारियों के प्रति जिम्मेदार होते हैं तथा जिला पंचायत का कार्य निष्पादित करते हैं।

कार्य – जिले के समस्त ग्रामीण क्षेत्र की व्यवस्था तथा विकास का उत्तरदायित्व जिला पंचायत पर है। इस दायित्व को पूरा करने के लिए जिला परिषद् निम्नलिखित कार्य करती है –

  1. सार्वजनिक सड़कों, पुलों तथा निरीक्षण-गृहों का निर्माण एवं मरम्मत करवाना।
  2. प्रबन्ध हेतु सड़कों का ग्राम सड़कों, अन्तर्याम सड़कों तथा जिला सड़कों में वर्गीकरण करना।
  3. तालाब, नाले आदि बनवाना।
  4. पीने के पानी की व्यवस्था करना।
  5. रोशनी का प्रबन्ध करना।
  6. जनस्वास्थ्य के लिए महामारियों और संक्रामक रोगों की रोकथाम की व्यवस्था करना।
  7. अकाल के दौरान सहायता हेतु राहत कार्य चलाना।
  8. क्षेत्र समिति एवं ग्राम पंचायत के कार्यों में तालमेल स्थापित करना।
  9. ग्राम पंचायतों तथा क्षेत्र समितियों के कार्यों का निरीक्षण करना।
  10. प्राइमरी स्तर से ऊपर की शिक्षा का प्रबन्ध करना।
  11. सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाना।
  12. कांजी हाउस तथा पशु चिकित्सालय की व्यवस्था करना।
  13. जन्म-मृत्यु का हिसाब रखना।
  14. परिवार नियोजन कार्यक्रम लागू करना।
  15. अस्पताल खोलना तथा मनोरंजन के साधनों की व्यवस्था करना।
  16. पुस्तकालय-वाचनालय का निर्माण एवं उनका अनुरक्षण करना।
  17. कृषि की उन्नति के लिए उचित प्रबन्ध करना।
  18. खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकना आदि।

आय के साधन – जिला पंचायत अपने कार्यों को पूर्ण करने के लिए इन साधनों से आय प्राप्त करती है –

  1. हैसियत एवं सम्पत्ति कर
  2. स्कूलों से प्राप्त फीस
  3. अचल सम्पत्ति से कर
  4. लाइसेन्स कर
  5. नदियों के पुलों तथा घाटों से प्राप्त उतराई कर
  6. कांजी हाउसों से प्राप्त आय
  7. मेलों, हाटों एवं प्रदर्शनियों से प्राप्त आय तथा
  8. राज्य सरकार से प्राप्त अनुदान।

प्रश्न 5.
नगर पंचायत के संगठन और उसके कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन विधि (संशोधन), 1994 के अनुसार 30 हजार से 1 लाख की जनसंख्या वाले क्षेत्र को ‘संक्रमणशील क्षेत्र घोषित किया गया है, अर्थात् जिन स्थानों पर टाउन एरिया कमेटी’ थी, उन स्थानों को अब ‘टाउन एरिया’ नाम के स्थान पर नगर पंचायत नाम दिया गया है। ये स्थान ऐसे हैं जो ग्राम के स्थान पर नगर बनने की ओर अग्रसर हैं।

संरचना – प्रत्येक नगर पंचायत में एक अध्यक्ष व तीन प्रकार के सदस्य होंगे। सदस्य क्रमशः इस प्रकार होंगे

1. निर्वाचित सदस्य, 2. पदेन सदस्य तथा 3. मनोनीत सदस्य।

1. निर्वाचित सदस्य – नगर पंचायतों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या कम-से-कम 10 और अधिक-से-अधिक 24 होगी। नगर पंचायत के सदस्यों की संख्या राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाएगी तथा यह संख्या सरकारी गजट में अधिसूचना द्वारा प्रकाशित की जाएगी। निर्वाचित सदस्यों को सभासद कहा जाएगा। सभासद के निर्वाचन के लिए नगर को लगभग समान जनसंख्या वाले क्षेत्रों (वार्ड) में विभक्त किया जाएगा। वार्ड एक सदस्यीय होगा। प्रत्येक सभासद का निर्वाचन वार्ड के वयस्क मताधिकार प्राप्त नागरिकों के द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति के आधार पर किया जाएगा।

सभासद की योग्यता –

  1. सभासद का नाम नगर की मतदाता सूची में पंजीकृत होना चाहिए।
  2. उसकी आयु कम-से-कम 21 वर्ष होनी चाहिए।
  3. वह राज्य विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने के सभी उपबन्ध पूरे करता हो (केवल आयु के अतिरिक्त)।
  4. जो स्थान आरक्षित हैं, उन स्थानों से आरक्षित वर्ग का स्त्री/पुरुष ही चुनाव लड़ सकता है।

आरक्षण – जनसंख्या के अनुपात में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के लिए वार्ड का आरक्षण होगा। पिछड़े वर्ग के लिए 27 प्रतिशत वार्ड आरक्षित होंगे, जिनमें अनुसूचित जाति/जनजाति तथा पिछड़े वर्ग के आरक्षण की एक-तिहाई महिलाएँ सम्मिलित होंगी।

2. पदेन सदस्य – लोकसभा व विधानसभा के वे सभी सदस्य पदेन सदस्य होंगे, जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनमें पूर्णतया या अंशतया वह नगर पंचायत क्षेत्र सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त राज्यसभा व विधान परिषद् के ऐसे सभी सदस्य, जो उस नगर पंचायत क्षेत्र की निर्वाचक नामावली में पंजीकृत हैं, पदेन सदस्य होंगे।

3. मनोनीत सदस्य – प्रत्येक नगर पंचायत में राज्य सरकार द्वारा ऐसे 2 या 3 सदस्यों को मनोनीत किया जाएगा, जिन्हें नगरपालिका प्रशासन का विशेष ज्ञान व अनुभव होगा। ये मनोनीत सदस्य नगर पंचायत की बैठकों में मत नहीं दे सकेंगे।

कार्यकाल – नगर पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष का होगा। राज्य सरकार नगर पंचायत का विघटन भी कर सकती है, परन्तु नगर पंचायत के विघटन के दिनांक से 6 माह की अवधि के अन्दर पुनः चुनाव कराना अनिवार्य होगा।

कार्य – नगर पंचायत मुख्य रूप से निम्नलिखित कार्य करेगी –

  1. सर्वसाधारण की सुविधा से सम्बन्धित कार्य करना – इनमें सड़कें बनवाना, वृक्ष लगवाना, सार्वजनिक स्थानों का निर्माण कराना, अकाल, बाढ़ या अन्य विपत्ति के समय जनता की सहायता करना आदि प्रमुख हैं।
  2. स्वास्थ्य-रक्षा सम्बन्धी कार्य करना – इनमें संक्रामक रोगों से बचाव के लिए टीके लगवाना, खाद्य-पदार्थों का निरीक्षण करना, अस्पताल, औषधियों तथा स्वच्छ जल की व्यवस्था करना आदि प्रमुख हैं।
  3. शिक्षा-सम्बन्धी कार्य करना – इनमें प्रारम्भिक शिक्षा के लिए पाठशालाओं की व्यवस्था करना, वाचनालय और पुस्तकालय बनवाना तथा ज्ञानवर्द्धन के लिए प्रदर्शनी लगाना आदि प्रमुख हैं।
  4. आर्थिक कार्य करना – इनमें जल और विद्युत की पूर्ति करना, यातायात के लिए बसों की तथा मनोरंजन के लिए सिनेमा-गृहों (छवि-गृहों) या मेलों की व्यवस्था करना आदि प्रमुख हैं।
  5. सफाई-सम्बन्धी कार्य करना – इनमें सड़कों, गलियों तथा नालियों की सफाई कराना, सड़कों पर पानी का छिड़काव कराना आदि प्रमुख हैं।

प्रश्न 6.
नगरपालिका (परिषद्) की रचना तथा उसके कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
अपने प्रदेश में (क्षेत्र) नगरपालिका परिषद का गठन किस प्रकार होता है ? नगर के विकास के लिए वे कौन-कौन-से कार्य करती हैं?
उत्तर :
उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 ई०’ के अनुसार 1 लाख से 5 लाख तक की जनसंख्या वाले नगर को ‘लघुत्तर नगरीय क्षेत्र का नाम दिया गया है। तथा इनके प्रबन्ध के लिए नगरपालिका परिषद् की व्यवस्था का निर्णय लिया गया है।

गठन – नगरपालिका परिषद् में एक अध्यक्ष और तीन प्रकार के सदस्य होंगे। ये तीन प्रकार के सदस्य निम्नलिखित हैं –

1. निर्वाचित सदस्य – नगरपालिका परिषद् में जनसंख्या के आधार पर निर्वाचित सदस्यों की संख्या 25 से कम और 55 से अधिक नहीं होगी। राज्य सरकार सदस्यों की यह संख्या निश्चित करके सरकारी गजट में अधिसूचना द्वारा प्रकाशित करेगी।

2. पदेन सदस्य – (i) इसमें लोकसभा और राज्य विधानसभा के ऐसे समस्त सदस्य सम्मिलित होते हैं, जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें पूर्णतया अथवा अंशतः वे नगरपालिका क्षेत्र सम्मिलित होते हैं।
(ii) इसमें राज्यसभा और विधान परिषद् के ऐसे समस्त सदस्य सम्मिलित होते हैं, जो उस नगरपालिका क्षेत्र के अन्तर्गत निर्वाचक के रूप में पंजीकृत हैं।

3. मनोनीत सदस्य – प्रत्येक नगरपालिका परिषद् में राज्य सरकार द्वारा ऐसे सदस्यों को मनोनीत किया जाएगा, जिन्हें नगरपालिका प्रशासन का विशेष ज्ञान अथवा अनुभव हो। ऐसे सदस्यों की संख्या 3 से कम और 5 से अधिक नहीं होगी। इन मनोनीत सदस्यों को नगरपालिका परिषद् की बैठकों में मत देने का अधिकार नहीं होगा। नगर निगम के निर्वाचित सदस्यों के समान (सभासद) नगरपालिका परिषद् के सदस्यों को भी सभासद’ ही कहा जाएगा।

सभासदों का निर्वाचन व निर्वाचन हेतु अर्हताएँ – प्रत्येक ‘लघुत्तर नगरीय क्षेत्र को लगभग समान जनसंख्या वाले ‘प्रादेशिक क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है तथा ऐसे प्रत्येक प्रादेशिक क्षेत्र को ‘कक्ष’ कहा जाता है। प्रत्येक कक्ष ‘एक सदस्य निर्वाचन क्षेत्र’ होता तथा ऐसे प्रत्येक कक्ष के वयस्क मताधिकार और प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर एक सभासद निर्वाचित होता है।

सभासद निर्वाचित होने के लिए निम्नलिखित अर्हताएँ होनी चाहिए –

  1. उसका नाम नगर की मतदाता सूची में हो।
  2. वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह राज्य सरकार, संघ सरकार तथा नगरपालिका परिषद् के अधीन किसी लाभ के पद पर न हो।

आरक्षण हेतु प्रावधान – अनुसूचित जातियों तथा जनजातियो के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात नगरपालिका परिषद् में प्रत्यक्ष चुनाव से भरे जाने वाले कुल स्थानो की संख्या में यथासम्भव वही होता है, जो अनुपात नगरपालिका परिषद् क्षेत्र की कुल जनसंख्या में इन जातियों का है। पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत स्थान आरक्षित किये गये हैं। इन आरक्षित स्थानों से कम-से-कम एक-तिहाई स्थान इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित किये गये हैं। इसमें आरक्षण की चक्रानुक्रम व्यवस्था का प्रावधान है। इन महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों को सम्मिलित करते हुए प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या के कम से कम एक-तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे।

पदाधिकारी – प्रत्येक नगरपालिका परिषद् में एक अध्यक्ष और एक ‘उपाध्यक्ष’ होगा। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में या पद रिक्त होने पर उपाध्यक्ष के द्वारा अध्यक्ष के रूप में कार्य किया जाता है। अध्यक्ष का निर्वाचन 5 वर्ष के लिए समस्त मतदाताओं द्वारा वयस्क मताधिकार तथा प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होता है। उपाध्यक्ष का निर्वाचन नगरपालिका परिषद् के सभासदों द्वारा एक वर्ष की अवधि के लिए किया जाता है।

अधिकारी और कर्मचारी – उपर्युक्त के अतिरिक्त परिषद् के कुछ वैतनिक अधिकारी व कर्मचारी भी होते हैं, जिनमें सबसे प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी’ (Executive Officer) होता है। जिन परिषदों में प्रशासनिक अधिकारी न हों, वहाँ परिषद् विशेष प्रस्ताव द्वारा एक या एक से अधिक ‘सचिव नियुक्त करती है।

परिषद की समितियाँ – नगरपालिका परिषद अपने कार्यों के सम्पादन के लिए विभिन्न समितियाँ बना लेती है और प्रत्येक समिति को एक विशिष्ट विभाग का कार्य सौंप दिया जाता है। इसकी प्रमुख समितियाँ हैं –

  1. स्थायी समिति
  2. जल समिति
  3. अर्थ अथवा वित्त समिति
  4. शिक्षा समिति आदि। इन समितियों में स्थायी समिति सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होती है।

कार्य – नगरपालिका अपनी समितियों के माध्यम से नगरों के विकास के लिए निम्नलिखित कार्य करती है –

(I) अनिवार्य कार्य – नगरपालिका परिषद् को निम्नलिखित कार्य अनिवार्य रूप से करने पड़ते हैं।

  1. सड़कों का निर्माण करना तथा उनकी मरम्मत व सफाई करवाना।
  2. नगरों में जल की व्यवस्था करना।
  3. नगरों में प्रकाश की व्यवस्था करना।
  4. सड़कों के किनारों पर छायादार वृक्ष लगवाना।
  5. नगर की सफाई का प्रबन्ध करना।
  6. औषधालयों का प्रबन्ध करना तथा संक्रामक रोगों से बचने के लिए टीके लगवाना।
  7. शवों को जलाने एवं दफनाने की उचित व्यवस्था करना।
  8. जन्म एवं मृत्यु का विवरण रखना।
  9. नगरों में शिक्षा की व्यवस्था करना।
  10. आग बुझाने के लिए फायर ब्रिगेड की व्यवस्था करना।
  11. सड़कों तथा मोहल्लों का नाम रखनी व मकानों पर नम्बर डलवाना।
  12. बूचड़खाने बनवाना तथा उनकी व्यवस्था करना।
  13. अकाल के समय लोगों की सहायता करना।

(II) ऐच्छिक कार्य – नगरपालिका परिषद् निम्नलिखित ऐच्छिक कार्यों को भी स्वेच्छा से पूरा करती है –

  1. नगर को सुन्दर तथा स्वच्छ बनाये रखना।
  2. पुस्तकालय, वाचनालय, अजायबघर व विश्रामगृहों की स्थापना करना।
  3. प्रारम्भिक शिक्षा से ऊपर की शिक्षा की व्यवस्था करना।
  4. पागलखाना और कोढ़ियों के रखने के स्थानों आदि की व्यवस्था करना।
  5. बाजार तथा पैंठ की व्यवस्था करना।
  6. पागल तथा आवारा कुत्तों को पकड़वाना।
  7. अनाथों के रहने तथा बेकारों के लिए रोजी का प्रबन्ध करना।
  8. नगर में नगर-बस सेवा चलवाना।
  9. नगर में नये-नये उद्योगधन्धे विकसित करने के लिए सुविधाएँ प्रदान करना।

प्रश्न 7.
नगर-निगम की रचना और उसके कार्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन-विधि (संशोधन), 1994 के अन्तर्गत 5 लाख से अधिक जनसंख्या वाले प्रत्येक नगर को वृहत्तर नगरीय क्षेत्र घोषित कर दिया गया है तथा ऐसे प्रत्येक नगर में स्वायत्त शासन के अन्तर्गत नगर निगम की स्थापना का प्रावधान किया गया है। उत्तर प्रदेश में लखनऊ, कानपुर, आगरा, वाराणसी, मेरठ, इलाहाबाद, गोरखपुर, मुरादाबाद, अलीगढ़, गाजियाबाद, सहारनपुर, मथुरा, झाँसी व बरेली नगरों में नगर-निगम स्थापित कर दिये गये हैं। उत्तर प्रदेश के दो नगरों-कानपुर और लखनऊ-की जनसंख्या 10 लाख से अधिक है, अत: इन्हें महानगर तथा इनका प्रबन्ध करने वाली संस्था को ‘महानगर निगम’ की संज्ञा दी गयी है। वर्तमान में कुछ और नगर–आगरा, वाराणसी, मेरठ-भी ‘महानगर निगम’ बनाये जाने के लिए प्रस्तावित हैं।

गठन – नगर-निगम के गठन हेतु नगर प्रमुख, उप-नगर प्रमुख व तीन प्रकार के सदस्य क्रमश: निर्वाचित सदस्य, मनोनीत सदस्य व पदेन सदस्यों को प्रावधान किया गया है। ये तीन प्रकार के सदस्य इस प्रकार हैं –

1. निर्वाचित सदस्य – नगर निगम के निर्वाचित सदस्यों को सभासद कहा जाता है। सभासदों की संख्या कम-से-कम 60 व अधिक-से-अधिक 110 निर्धारित की गयी है। यह संख्या राज्य सरकार द्वारा सरकारी गजट में दी गयी विज्ञप्ति के आधार पर निश्चित की जाती है।

निर्वाचन – नगर निगम के सभासदों का चुनाव नगर के वयस्क नागरिकों द्वारा होता है। चुनाव के लिए नगर को अनेक निर्वाचन-क्षेत्रों में विभाजित कर दिया जाता है, जिन्हें ‘कक्ष’ (ward) कहा जाता है। प्रत्येक कक्ष से संयुक्त निर्वाचन पद्धति के आधार पर एक सभासद का चुनाव होता है।

योग्यता – नगर-निगम के सभासद के निर्वाचन में भाग लेने हेतु निम्नलिखित योग्यताएँ अथवा अर्हताएँ होनी चाहिए –

  1. सभासद के निर्वाचन में भाग लेने के लिए नगर-निगम क्षेत्र की मतदाता सूची (निर्वाचन सूची) में उसका नाम अंकित होना चाहिए।
  2. आयु 21 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए।
  3. वह व्यक्ति राज्य विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने की सभी योग्यताएँ व उपबन्ध पूर्ण करता हो।

विशेष – जो स्थान आरक्षित श्रेणियों के लिए आरक्षित किये गये हैं, उन पर आरक्षित वर्ग का व्यक्ति ही निर्वाचन में भाग ले सकेगा।

स्थानों का आरक्षण – प्रत्येक निगम में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित किये जाएँगे। इस प्रकार से आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात; निगम में प्रत्यक्ष चुनाव से भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या में यथासम्भव वही होगा, जो अनुपात नगर-निगम क्षेत्र की कुल जनसंख्या में इन जातियों का है। प्रत्येक नगर-निगम में प्रत्यक्ष चुनाव से भरे जाने वाले स्थानों का 27 प्रतिशत स्थान पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित किया जाएगा। इन आरक्षित स्थानों में कम-सेकम एक तिहाई स्थान इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे। इन महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों को सम्मिलित करते हुए, प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या के कम-से-कम एक तिहाई स्थान, महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे। इन आरक्षित स्थानों में मनोनीत सदस्यों के स्थान भी सम्मिलित हैं। उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकाय चुनावों में आरक्षण की चक्रानुक्रम व्यवस्था का प्रावधान है।

2. मनोनीत सदस्य – नगर-निगम में राज्य सरकार द्वारा ऐसे सदस्यों को मनोनीत किया जाएगा जिन्हें नगर निगम प्रशासन का विशेष ज्ञान व अनुभव हो। इन सदस्यों की संख्या राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाएगी। मनोनीत सदस्यों को नगर-निगम की बैठकों में मत देने का अधिकार नहीं होगा। इनकी संख्या 5 व 10 के मध्य होगी।

3. पदेन सदस्य –

  1. लोकसभा और राज्य विधानसभा के वे सदस्य जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें नगर पूर्णतः अथवा अंशतः समाविष्ट है।
  2. राज्यसभा और विधान परिषद् के वे सदस्य, जो उस नगर में निर्वाचक के रूप में पंजीकृत
  3. उत्तर प्रदेश सहकारी समिति अधिनियम, 1965 ई० के अधीन स्थापित समितियों के वे अध्यक्ष जो नगर निगम के सदस्य नहीं हैं।

कार्यकाल – नगर-निगम का कार्यकाल 5 वर्ष है, परन्तु राज्य सरकार धारा 538 के अन्तर्गत निगम को इसके पूर्व भी विघटित कर सकती है।

समितियाँ – नगर-निगम की दो प्रमुख समितियाँ होंगी – (1) कार्यकारिणी समिति तथा (2) विकास समिति। इसके अतिरिक्त नगर-निगम में निगम विद्युत समिति, नगर परिवहन समिति और इसी प्रकार की अन्य समितियाँ भी गठित की जा सकती हैं; परन्तु इन समितियों की संख्या 12 से अधिक नहीं होनी चाहिए। अधिनियम, 1994 के अन्तर्गत नगर-निगम को नगर निगम क्षेत्र में वे ही कार्य करने का निर्देश दिया गया है जो कार्य नगरपालिका परिषद् को नगरपालिका क्षेत्र में करने का निर्देश है।

पदाधिकारी – नगर-निगम में दो प्रकार के अधिकारी होते हैं – निर्वाचित एवं स्थायी। निर्वाचित अधिकारी अवैतनिक तथा स्थायी अधिकारी वैतनिक होते हैं।

(I) निर्वाचित अधिकारी निर्वाचित अधिकारी मुख्य रूप से निम्नवत् होते हैं –

नगर प्रमुख – प्रत्येक नगर-निगम में एक नगर प्रमुख होता है। नगर प्रमुख का कार्यकाल पाँच वर्ष का होता है। इस अवधि से पहले अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा ही नगर प्रमुख को पद से हटाया जा सकता है। इस पद के लिए वही व्यक्ति प्रत्याशी हो सकता है, जो नगर का निवासी हो और जिसकी आयु कम-से-कम 30 वर्ष हो। नगर प्रमुख का पद अवैतनिक होता है; उसका निर्वाचन नगर के समस्त मतदाताओं द्वारा वयस्क मताधिकार तथा प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होता है।

उप-नगर प्रमुख – प्रत्येक नगर-निगम में एक ‘उप-नगर प्रमुख भी होता है। नगर प्रमुख की अनुपस्थिति अथवा पद रिक्त होने पर उप-नगर प्रमुख ही नगर प्रमुख के कार्यों का सम्पादन करता है। इसका चुनाव एक वर्ष के लिए सभासद करते हैं।

(II) स्थायी अधिकारी – ये अधिकारी निम्नवत् हैं –

मुख्य नगर अधिकारी – प्रत्येक नगर-निगम का एक मुख्य नगर अधिकारी होता है। यह अखिल भारतीय शासकीय सेवा (I.A.S.) का उच्च अधिकारी होता है। राज्य सरकार इसी अधिकारी के माध्यम से नगर-निगम पर नियन्त्रण रखती है।

अन्य अधिकारी – मुख्य नगर अधिकारी के अतिरिक्त एक या अधिक ‘अपर मुख्य नगर अधिकारी भी राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ प्रमुख अधिकारी भी होते हैं; जैसे—मुख्य अभियन्ता, नगर स्वास्थ्य अधिकारी, मुख्य नगर लेखा परीक्षक, सहायक नगर अधिकारी आदि अनेक वैतनिक अधिकारी भी होते हैं।

नगर निगम का कार्य-क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है। उत्तर प्रदेश के निगमों को 41 अनिवार्य और 43 ऐच्छिक कार्य करने होते हैं; यथा –

अनिवार्य कार्य – इन कार्यों के अन्तर्गत नगर में सफाई की व्यवस्था करना, सड़कों एवं गलियों में प्रकाश की व्यवस्था करना, अस्पतालों एवं औषधालयों का प्रबन्ध करना, इमारतों की देखभाल करना, पेयजल का प्रबन्ध करना, संक्रामक रोगों की रोकथाम की व्यवस्था करना, जन्ममृत्यु का लेखा रखना, प्राथमिक एवं नर्सरी शिक्षा का प्रबन्ध करना, नगर नियोजन एवं नगर सुधार कार्यों की व्यवस्था करना आदि विभिन्न कार्य सम्मिलित किये गये हैं।

ऐच्छिक कार्य – इन कार्यों के अन्तर्गत निगम को पुस्तकालय, वाचनालय, अजायबघर आदि की व्यवस्था के साथ-साथ समय-समय पर लगने वाले मेलों और नुमाइशों की व्यवस्था भी करनी होती है। इन ऐच्छिक कार्यों में ट्रक, बस आदि चलाना एवं कुटीर उद्योगों का विकास करना आदि भी सम्मिलित हैं। इस प्रकार नगर-निगम लगभग उन्हीं समस्त कार्यों को बड़े पैमाने पर सम्पादित करता है, जो छोटे नगरों में नगरपालिका करती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
पंचायती राज के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
या
भारत में पंचायती राज-व्यवस्था का प्रादुर्भाव किस प्रकार हुआ ?
उत्तर :
‘पंचायती राज’ का अर्थ है-ऐसा राज्य जो पंचायत के माध्यम से कार्य करता है। ऐसे शासन के अन्तर्गत ग्रामवासी अपने में से वयोवृद्ध व्यक्तियों को चुनते हैं, जो उनके विभिन्न झगड़ों का निपटारा करते हैं। इस प्रकार के शासन में ग्रामवासियों को अपनी व्यवस्था के प्रबन्ध में प्रायः पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। इस प्रकार पंचायती राज स्वशासन का ही एक रूप है।

यद्यपि भारत के ग्रामों में पंचायतें बहुत पुराने समय में भी विद्यमान थीं, परन्तु वर्तमान समय में पंचायती राज-व्यवस्था का जन्म स्वतन्त्रता के पश्चात् ही हुआ। पंचायती राज की वर्तमान व्यवस्था का सुझाव बलवन्त राय मेहता समिति ने दिया था। देश में पंचायती राज-व्यवस्था सर्वप्रथम राजस्थान में लागू की गयी, बाद में मैसूर (वर्तमान कर्नाटक), तमिलनाडु, ओडिशा, असम, पंजाब, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में भी यह व्यवस्था लागू की गयी। बलवन्त राय मेहता की मूल योजना के अनुसार पंचायतों का गठन तीन स्तरों पर किया गया-

  1. ग्राम स्तर पर पंचायतें
  2. विकास खण्ड स्तर पर पंचायत समितियाँ तथा
  3. जिला स्तर पर जिला परिषद्।

संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम, 1993 द्वारा पूरे प्रदेश में इस व्यवस्था के स्वरूप में एकरूपता लायी गयी है।

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प्रश्न 2.
पंचायती राज के गुण-दोषों का उल्लेख कीजिए।
या
पंचायती राज की उपलब्धियों तथा दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
पंचायती राज की उपलब्धियाँ (गुण) –

  1. पंचायती राज पद्धति के फलस्वरूप ग्रामीण भारत में जागृति आयी है।
  2. पंचायतों द्वारा गाँवों में कल्याणकारी कार्यों के कारण गाँव की हालत सुधरी है।
  3. पंचायतों द्वारा संचालित प्राथमिक और वयस्क विद्यालयों के फलस्वरूप गाँवों में साक्षरता और शिक्षा का प्रसार हुआ है।
  4. पंचायतों ने सफलतापूर्वक अपने-अपने क्षेत्र की समस्याओं की ओर अधिकारियों का ध्यान खींचा है।

पंचायती राज के दोष – पंचायती राज पद्धति के कारण गाँवों के जीवन में निम्नलिखित बुराइयाँ भी आयी हैं –

  1. पंचायतों के लिए होने वाले चुनावों में हिंसा, भ्रष्टाचार और जातिवाद का बोलबाला रहता है। यहाँ तक कि निर्वाचित प्रतिनिधि भी इससे परे नहीं होते।
  2. यह भी कहा जाता है कि पंचायती राज के सदस्य चुने जाने के पश्चात् लोग अपने कर्तव्यों को ठीक प्रकार से नहीं करते।
  3. यहाँ रिश्वतखोरी चलती है और धन का बोलबाला रहता है। धनी आदमी पंचों को खरीद लेते हैं।
  4. स्वयं पंच लोग अनपढ़ होते हैं, इसलिए वे विभिन्न समस्याओं को सुलझाने की योग्यता ही नहीं रखते।
  5. पंच लोग पार्टी-लाइनों पर चुने जाते हैं, इसलिए वे सभी लोगों को निष्पक्ष होकर न्याय नहीं दे सकते।

संक्षेप में, भारत में पंचायती राज एक मिश्रित वरदान है।

प्रश्न 3.
ग्राम पंचायत के संगठन, पदाधिकारी, कार्यकाल एवं इसके पाँच कार्यों का विवरण दीजिए। [2011, 12]
उत्तर :
संगठन – ग्राम पंचायत में ग्राम प्रधान के अतिरिक्त 9 से 15 तक सदस्य होते हैं। इसमें 1,000 की जनसंख्या पर 9 सदस्य; 1,000-2,000 की जनसंख्या तक 11 सदस्य; 2,000 3,000 की जनसंख्या तक 13 सदस्य तथा 3,000 से ऊपर की जनसंख्या पर सदस्यों की संख्या 15 होती है। ग्राम पंचायत के सदस्य के रूप में निर्वाचित होने की न्यूनतम आयु 21 वर्ष है। ग्राम पंचायत में नियमानुसार सभी वर्गों तथा महिलाओं को आरक्षण प्रदान किया गया है।

कार्यकाल – ग्राम पंचायत का निर्वाचन 5 वर्ष के लिए होता है, किन्तु विशेष परिस्थितियों में सरकार इसे समय से पूर्व भी विघटित कर सकती है।

पदाधिकारी – ग्राम पंचायत का प्रमुख अधिकारी ग्राम प्रधान’ कहलाता है। प्रधान की सहायता के लिए ‘उप-प्रधान’ की व्यवस्था होती है। प्रधान का निर्वाचन ग्राम सभा के सदस्य पाँच वर्ष की. अवधि के लिए करते हैं। उप-प्रधान का निर्वाचन पंचायत के सदस्य पाँच वर्ष के लिए करते हैं।

पाँच कार्य – ग्राम पंचायत के कार्य निम्नवत् हैं –

  1. कृषि और बागवानी का विकास तथा उन्नति, बंजर भूमि और चरागाह भूमि का विकास तथा उनके अनाधिकृत अधिग्रहण एवं प्रयोग की रोकथाम करना।
  2. भूमि विकास, भूमि सुधार और भूमि संरक्षण में सरकार तथा अन्य एजेन्सियों की सहायता करना, भूमि चकबन्दी में सहायता करना।
  3. लघु सिंचाई परियोजनाओं से जल वितरण में प्रबन्ध और सहायता करना; लघु सिंचाई परियोजनाओं के निर्माण, मरम्मत और रक्षा तथा सिंचाई के उद्देश्य से जलापूर्ति का विनियमन।
  4. पशुपालन, दुग्ध उद्योग, मुर्गी-पालन की उन्नति तथा अन्य पशुओं की नस्लों का सुधार करना।
  5. गाँव में मत्स्य पालन का विकास।

प्रश्न 4.
भारत में स्थानीय स्व-शासन की प्रकृति की व्याख्या कीजिए। [2007]
या
पंचायती राज व्यवस्था के महत्त्व का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए। [2007]
उत्तर :
स्व-शासन की माँग की. तो ब्रिटिश सरकार ने ग्रामीण क्षेत्र में पंचायत और नगर क्षेत्र में नगरपालिका स्तर पर स्व-शासन की शक्तियाँ देना प्रारम्भ किया। कालान्तर में भारत शासन अधिनियम में प्रान्तीय विधानमण्डलों को स्थानीय स्व-शासन’ की बाबत विधान अधिनियमित करने की शक्ति प्रदान की गयी। परन्तु स्वतन्त्र भारत के संविधान-निर्माता इन विद्यमान अधिनियमों से सन्तुष्ट न थे। इसलिए 1949 के संविधान में अनुच्छेद 40 के रूप में एक निर्देश समाविष्ट किया गया। इसके अनुसार, “राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठायेगा और उनको ऐसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो।’

किन्तु अनुच्छेद 40 में इस निर्देश के होते हुए भी पूरे देश में ही इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि प्रतिनिधिक लोकतन्त्र की इकाई के रूप में इन स्थानीय इकाइयों के लिए निर्वाचन कराए जाएँ।

संविधान 73वाँ संशोधन और. 74वाँ संशोधन अधिनियम, 1992 ने इस दिशा में एक गति प्रदान की। अब नयी प्रणाली के अन्तर्गत कुछ नयी बातों का समावेश किया गया; जैसे – जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन, महिलाओं के लिए आरक्षण, निर्वाचनों के संचालन के लिए निर्वाचन आयोग तथा वित्त आयोग जिससे ये संस्थाएँ वित्त की दृष्टि से आत्म निर्भर रह सकें।

वर्तमान स्थानीय स्व-शासन के ढाँचे के स्वरूप एवं प्रवृत्ति को निम्नलिखित रूप में लिपिबद्ध किया जा सकता है –

  1. ग्राम स्तर, ग्राम पंचायत, जिला स्तर पर जिला पंचायत। अन्तर्वर्ती पंचायत जो ग्राम और जिला पंचायतों के बीच होगी।
  2. पंचायत के सभी स्थान पंचायत क्षेत्र के निर्वाचन क्षेत्र में प्रत्यक्ष निर्वाचन से चुने गये व्यक्तियों द्वारा भरे जाएँ।
  3. अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण सुविधा के उनकी जनसंख्या के अनुपात में होगा।
  4. प्रत्येक पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे जाने वाले कुल स्थानों में से स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।

प्रश्न 5.
नगरपालिका परिषद्/नगर निगम के पाँच प्रमुख कार्य बताइए।
या
इसे प्रदेश की नगरपालिकाओं के कोई दो प्रमुख कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2015]
उत्तर
नगरपालिका परिषद्/नगर निगम के पाँच प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. सफाई की व्यवस्था – सम्पूर्ण नगर को स्वच्छ एवं सुन्दर रखने का दायित्व नगरपालिका का ही होता है। यह सड़कों, नालियों और अन्य सार्वजनिक स्थानों की सफाई कराती है। तथा नगर को स्वच्छ रखने के लिए सार्वजनिक स्थानों पर शौचालय एवं मूत्रालयों का निर्माण कराती है।
  2. पानी की व्यवस्था  नगरवासियों के लिए पीने योग्य स्वच्छ जल का प्रबन्ध नगरपालिका परिषद्/नगर निगम ही करती है।
  3. शिक्षा का प्रबन्ध – अपने नगरवासियों की शैक्षिक स्थिति को सुधारने के लिए नगरपालिका परिषदे/नगर निगम, प्राइमरी स्कूल खोलती हैं। ये लड़कियों एवं अशिक्षित लोगों की शिक्षा का विशेष रूप से प्रबन्ध करती हैं।
  4. निर्माण सम्बन्धी कार्य – नगरपालिका परिषदे/नगर निगम नगर में नालियाँ, सड़कें, पुल आदि बनवाने की व्यवस्था करती हैं। सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष एवं पार्क बनवाना भी इनके प्रमुख कार्य हैं। कुछ नगरपालिका परिषदे/नगर निगम यात्रियों के लिए होटल, सरायों एवं धर्मशालाओं की भी व्यवस्था करती हैं। निर्माण सम्बन्धी ये कार्य इनकी ‘निर्माण समिति करती है।
  5. रोशनी की व्यवस्था – सड़कों, गलियों एवं सभी सार्वजनिक स्थानों पर प्रकाश का समुचित प्रबन्ध भी नगरपालिका परिषद्/नगर निगम ही करती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
स्थानीय स्वशासन से आप क्या समझते हैं ? इस प्रदेश में कौन-कौन-सी स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ कार्य कर रही हैं ?
उत्तर :
केन्द्र व राज्य सरकारों के अतिरिक्त, तीसरे स्तर पर एक ऐसी सरकार है, जिसके सम्पर्क में नगरों और ग्रामों के निवासी आते हैं। इस स्तर की सरकार को स्थानीय स्वशासन कहा जाता है, क्योंकि यह व्यवस्था स्थानीय निवासियों को अपना शासन-प्रबन्ध करने का अवसर प्रदान करती है। इसके अन्तर्गत मुख्यतया ग्रामवासियों के लिए पंचायत और नगरवासियों के लिए नगरपालिका उल्लेखनीय हैं। इन संस्थाओं द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति तथा स्थानीय समस्याओं के समाधान के प्रयास किये जाते हैं।

  • नगरीय क्षेत्र – नगर-निगम या नगर महापालिका, नगरपालिका परिषद् और नगर पंचायत।
  • ग्रामीण क्षेत्र – ग्राम पंचायत, न्याय पंचायत, क्षेत्र पंचायत तथा जिला पंचायत।

प्रश्न 2.
उत्तर प्रदेश में स्थानीय स्वशासन के लिए क्या व्यवस्था की गयी है? संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान के 74वें संवैधानिक संशोधन के आधार पर उत्तर प्रदेश के राज्य विधानमण्डल ने उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन अधिनियम, 1994′ पारित किया था तथा इसी के आधार पर प्रदेश में नगरीय स्वायत्त शासन की व्यवस्था की गयी। 1994 ई० के इस अधिनियम से पूर्व उत्तर प्रदेश राज्य के नगरीय क्षेत्रों हेतु स्थानीय स्वायत्त शासन की पाँच संस्थाएँ थीं, परन्तु इस अधिनियम द्वारा अब केवल निम्नलिखित तीन संस्थाएँ ही शेष रह गयी हैं –

  1. वृहत्तर नगरीय क्षेत्र के लिए नगर निगम’।
  2. लघुत्तर क्षेत्र के लिए नगरपालिका परिषद्
  3. संक्रमणशील क्षेत्र के लिए नगर पंचायत’।

प्रश्न 3.
भारत में सनीय संस्थाओं का क्या महत्त्व है ?
उत्तर :
भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में स्थानीय स्वशासी संस्थाओं का देश की राजनीति और प्रशासन में विशेष महत्व है। किसी भी गाँव या कस्बे की समस्याओं का सबसे अच्छा ज्ञान उस गाँव या कस्बे के निवासियों को ही होता है। इसलिए वे अपनी छोटी सरकार का संचालन करने में समर्थ तथा सर्वोच्च होते हैं। इन संस्थाओं का महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट होता है –

  1. इनके द्वारा गाँव तथा नगर के निवासियों की प्रशासन में भागीदारी सम्भव होती है।
  2. ये संस्थाएँ प्रशासन तथा जनता के मध्य अधिकाधिक सम्पर्क बनाये रखने में सहायक होती हैं। इसके फलस्वरूप जिला प्रशासन को अपना कार्य करने में आसानी होती है।
  3. स्थानीय विकास तथा नियोजन की प्रक्रियाओं में भी ये संस्थाएँ सहायक सिद्ध होती हैं।

प्रश्न 4
इस राज्य की आय के चार साधनों का उल्लेख कीजिए। [2009]
उत्तर :
उत्तर प्रदेश की आय के चार साधन निम्नलिखित हैं –

  1. स्थानीय स्वशासन संस्थाओं द्वारा लगाई गई विभिन्न चुंगी व कर।
  2. केन्द्र द्वारा दी गई अनुदान राशि तथा अनुग्रह।
  3. प्रान्त के भीतर विक्रय किए जाने वाले पदार्थों व वस्तुओं पर लगाया गया वाणिज्य-कर।
  4. आबकारी (मादक द्रव्यों) पर लगाया गया शुल्क व नीलामी से प्राप्त राजस्व।

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प्रश्न 5.
ग्राम सभा तथा ग्राम पंचायत में क्या अन्तर है ?
उत्तर :
ग्राम सभा तथा ग्राम पंचायत में निम्नलिखित अन्तर हैं –

  1. ग्राम पंचायत, ग्राम सभा से सम्बन्धित होती है तथा ग्राम सभा के कार्यों का सम्पादन ग्राम पंचायत के द्वारा किया जाता है। इस प्रकार ग्राम पंचायत, ग्राम सभा की कार्यकारिणी होती है। ग्राम पंचायत के सदस्यों का निर्वाचन ग्राम सभा के सदस्य ही करते हैं।
  2. ग्राम सभा का प्रमुख कार्य क्षेत्रीय विकास के लिए योजनाएँ बनाना और ग्राम पंचायत का कार्य उन योजनाओं को व्यावहारिक रूप प्रदान करना है।
  3. ग्राम सभा की वर्ष में दो बार तथा ग्राम पंचायत की माह में एक बार बैठक होना आवश्यक है।
  4. कर लगाने का अधिकार ग्राम सभा को दिया गया है न कि ग्राम पंचायत को।
  5. ग्राम सभा एक बड़ा निकाय है, जब कि ग्राम पंचायत उसकी एक छोटी संस्था है।
  6. ग्राम सभा का निर्वाचन नहीं होता है, जब कि ग्राम पंचायत, ग्राम सभा द्वारा निर्वाचित संस्था होती है।

प्रश्न 6.
नगर पंचायत के प्रमुख कार्य बताइए।
उत्तर :
नगर पंचायत अपने क्षेत्र में वे सभी कार्य करती है जो कार्य नगरपालिका परिषद् द्वारा अपने क्षेत्र में किए जाते हैं। नगर पंचायत के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं –

  1. सार्वजनिक सड़कों, स्थानों व नालियों की सफाई तथा रोशनी का प्रबन्ध।
  2. पर्यावरण की रक्षा।
  3. श्मशान-स्थलों की व्यवस्था।
  4. शुद्ध तथा स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति।
  5. जन्म तथा मृत्यु का पंजीयन।
  6. प्रसूति केन्द्रों तथा शिशु-गृहों की व्यवस्था
  7. पशु चिकित्सालयों तथा प्राथमिक स्कूलों की व्यवस्था।
  8. अग्नि-शमन की व्यवस्था तथा समय-समय पर कानून द्वारा सौंपे गए अन्य समस्त दायित्वों की पूर्ति

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
स्थानीय स्वशासन से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
स्थानीय स्वशासन से आशय है–किसी स्थान-विशेष के शासन का प्रबन्ध उसी स्थान के लोगों द्वारा किया जाना तथा अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं खोजना।

प्रश्न 2.
स्थानीय शासन तथा स्थानीय स्वशासन में दो भेद बताइए।
उत्तर :

  1. स्थानीय शासन उतना लोकतान्त्रिक नहीं होता जितना स्थानीय स्वशासन होता है।
  2. स्थानीय शासन स्थानीय स्वशासन की अपेक्षा कम कुशल होता है।

प्रश्न 3.
क्या पंचायती राज-व्यवस्था अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल हो सकी है ?
उत्तर :
यद्यपि कहीं-कहीं पर पंचायती राज व्यवस्था ने कुछ अच्छे कार्य किये हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि पंचायती राज-व्यवस्था अपने उद्देश्यों की पूर्ति में सफल कम ही हुई है।

प्रश्न 4.
पंचायती राज की तीन स्तरीय व्यवस्था क्या है ?
उत्तर :
पंचायती राज की तीन स्तरीय व्यवस्था के अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों के लिए तीन इकाइयों का प्रावधान किया गया है –

  1. ग्राम पंचायत
  2. पंचायत समिति तथा
  3. जिला परिषद्।

प्रश्न 5.
पंचायती राज को सफल बनाने के लिए किन शर्तों का होना आवश्यक है ?
उत्तर :
पंचायती राज को सफल बनाने के लिए इन शर्तों का होना आवश्यक है –

  1. लोगों का शिक्षित होना
  2. स्थानीय मामलों में लोगों की रुचि
  3. कम-से-कम सरकारी हस्तक्षेप तथा
  4. पर्याप्त आर्थिक संसाधन।

प्रश्न 6.
जिला प्रशासन के दो मुख्य अधिकारियों के नाम लिखिए।
उत्तर :
जिला प्रशासन के दो मुख्य अधिकारी हैं –

  1. जिलाधीश तथा
  2. वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एस०एस०पी०)।

प्रश्न 7.
जिला पंचायत के चार अनिवार्य कार्य बताइए।
उत्तर :
जिला पंचायत के चार अनिवार्य कार्य हैं –

  1. पीने के पानी की व्यवस्था करना
  2. प्राथमिक स्तर से ऊपर की शिक्षा का प्रबन्ध करना
  3. जन-स्वास्थ्य के लिए महामारियों की रोकथाम तथा
  4. जन्म-मृत्यु का हिसाब रखना।

प्रश्न 8.
जिला पंचायत की दो प्रमुख समितियों के नाम लिखिए।
उत्तर :
जिला पंचायत की दो प्रमुख समितियाँ हैं –

  1. वित्त समिति तथा
  2. शिक्षा एवं जनस्वास्थ्य समिति।

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प्रश्न 9.
क्षेत्र पंचायत का सबसे बड़ा वैतनिक अधिकारी कौन होता है ?
उत्तर :
क्षेत्र पंचायत का सर्वोच्च वैतनिक अधिकारी क्षेत्र विकास अधिकारी होता है।

प्रश्न 10.
ग्राम सभा के सदस्य कौन होते हैं ?
उत्तर :
ग्राम की निर्वाचक सूची में सम्मिलित प्रत्येक ग्रामवासी ग्राम सभा का सदस्य होता है।

प्रश्न 11.
अपने राज्य के ग्रामीण स्थानीय स्वायत्त शासन की दो संस्थाओं के नाम लिखिए।
उत्तर :
ग्रामीण स्वायत्त शासन की दो संस्थाओं के नाम हैं –

  1. ग्राम सभा तथा
  2. ग्राम पंचायत।

प्रश्न 12.
ग्राम पंचायत के अधिकारियों के नाम लिखिए।
उत्तर :
ग्राम पंचायत के अधिकारी हैं –

  1. प्रधान तथा
  2. उप-प्रधान।

प्रश्न 13.
ग्राम पंचायत के चार कार्य बताइए। [2010, 11, 16]
उत्तर :
ग्राम पंचायत के चार कार्य हैं –

  1. ग्राम की सम्पत्ति तथा इमारतों की रक्षा करना
  2. संक्रामक रोगों की रोकथाम करना
  3. कृषि और बागवानी का विकास करना तथा
  4. लघु सिंचाई परियोजनाओं से जल वितरण का प्रबन्ध करना।

प्रश्न 14.
ग्राम पंचायतों का कार्यकाल क्या है ?
उत्तर :
ग्राम पंचायतों का कार्यकाल 5 वर्ष होता है। विशेष परिस्थितियों में सरकार इसे कम भी कर सकती है।

प्रश्न 15.
न्याय पंचायत के पंचों की नियुक्ति किस प्रकार होती है ?
उत्तर :
ग्राम पंचायत के सदस्यों में से विहित प्राधिकारी न्याय पंचायत के उतने ही पंच नियुक्त करता है जितने कि नियत किये जाएँ। ऐसे नियुक्त किये गये व्यक्ति ग्राम पंचायत के सदस्य नहीं रहेंगे।

प्रश्न 16.
किन संविधान संशोधनों द्वारा पंचायतों और नगरपालिकाओं से सम्बन्धित उपबन्धों का संविधान में उल्लेख किया गया ?
उत्तर

  1. उत्तर प्रदेश पंचायत विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 द्वारा जिला पंचायत की व्यवस्था।
  2. उत्तर प्रदेश नगर स्वायत्त शासन विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 द्वारा नगरीय क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था।

प्रश्न 17.
नगर स्वायत्त संस्थाओं के नाम बताइए।
उत्तर :

  1. नगर निगम तथा महानगर निगम
  2. नगरपालिका परिषद् तथा
  3. नगर पंचायत।

प्रश्न 18.
नगर-निगम किन नगरों में स्थापित की जाती है ? उत्तर प्रदेश में नगर-निगम का गठन किन-किन स्थानों पर किया गया है ?
उत्तर :
पाँच लाख से दस लाख तक की जनसंख्या वाले नगरों में नगर-निगम स्थापित की जाती हैं। उत्तर प्रदेश के आगरा, वाराणसी, इलाहाबाद, बरेली, मेरठ, अलीगढ़, मुरादाबाद, गाजियाबाद, सहारनपुर, झाँसी, मथुरा, लखनऊ, कानपुर तथा गोरखपुर में नगर-निगम कार्यरत हैं। कानपुर तथा लखनऊ में महानगर निगम स्थापित हैं।

प्रश्न 19.
नगर-निगम के दो कार्य बताइए।
उत्तर :
नगर निगम के दो कार्य हैं –

  1. नगर में सफाई व्यवस्था करना तथा
  2. सड़कों व गलियों में प्रकाश की व्यवस्था करना।

प्रश्न 20.
नगर-निगम की दो प्रमुख समितियों के नाम लिखिए।
उत्तर :
नगर-निगम की दो प्रमुख समितियाँ हैं –

  1. कार्यकारिणी समिति तथा
  2. विकास समिति।

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प्रश्न 21.
नगर-निगम की अध्यक्ष कौन होता है ?
उत्तर :
नगर-निगम का अध्यक्ष नगर प्रमुख होता है।

प्रश्न 22.
नगर-निगम में निर्वाचित सदस्यों की संख्या कितनी होती है ?
उत्तर :
नगर निगम में निर्वाचित सदस्यों (सभासदों) की संख्या सरकारी गजट में दी गयी विज्ञप्ति के आधार पर निश्चित की जाती है। यह संख्या कम-से-कम 60 और अधिक-से-अधिक 110 होती है।

प्रश्न 23.
उत्तर प्रदेश में नगरपालिका परिषद का गठन किन स्थानों के लिए किया जाता है ?
उत्तर :
नगरपालिका परिषद् का गठन 1 लाख से 5 लाख तक की जनसंख्या वाले ‘लघुतर नगरीय क्षेत्रों में किया जाता है।

प्रश्न 24.
जिले में शिक्षा विभाग का सर्वोच्च अधिकारी कौन होता है ?
उत्तर :
जिले में शिक्षा विभाग का सर्वोच्च अधिकारी जिला विद्यालय निरीक्षक होता है।

प्रश्न 25.
जिले के विकास-कार्यों से सम्बन्धित जिला स्तरीय अधिकारी का पद नाम लिखिए।
उत्तर :
मुख्य विकास अधिकारी।

प्रश्न 26.
ग्राम सभा के प्रधान का निर्वाचन कितने वर्ष के लिए होता है? [2011, 15]
उतर :
ग्राम सभा के प्रधान का निर्वाचन 5 वर्ष के लिए होता है।

प्रश्न 27.
स्थानीय स्वशासन के दो मुख्य लाभ लिखिए।
उत्तर :

  1. स्थानीय स्वशासन द्वारा जनता की शासन में सीधी भागीदारी सुनिश्चित हो जाती है।
  2. स्थानीय लोगों के बीच सामंजस्य का विकास होता है और सांस्कृतिक जीवन बहुआयामी रूप से उन्नत बनता है।

प्रश्न 28.
पंचायत के अधिकारों का उल्लेख संविधान की किस अनुसूची में किया गया है? [2010]
उत्तर :
पंचायत के अधिकारों का उल्लेख संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची में किया गया है।

प्रश्न 29.
पंचायती राज-व्यवस्था में कितने स्तर होते हैं? [2013, 16]
उत्तर :
पंचायती राज व्यवस्था में तीन स्तर होते हैं।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
पंचायत समिति का क्षेत्र है
(क) ग्राम
(ख) जिला
(ग) विकास खण्ड
(घ) नगर

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान के किस संशोधन ने पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया [2011, 14]
(क) 71वें संशोधन द्वारा
(ख) 72वें संशोधन द्वारा
(ग) 73वें संशोधन द्वारा
(घ) 74वें संशोधन द्वारा

प्रश्न 3.
संविधान की ग्यारहवीं सूची के अनुसार पंचायतों के क्षेत्राधिकार में कुछ कितने विषयों को रखा गया है
(क) 27
(ख) 28
(ग) 29
(घ) 30

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से किस विषय से 73वें संविधान संशोधन का सम्बन्ध था – [2011, 14, 15]
(क) नगरीय विकास
(ख) पंचायती राज
(ग) आदिवासी क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन
(घ) आरक्षण

प्रश्न 5.
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई है –
(क) ग्राम
(ख) जिला
(ग) प्रदेश
(घ) नगर

प्रश्न 6.
पंचायती राज का सबसे निचला स्तर है –
(क) ग्राम पंचायत
(ख) ग्राम सभा
(ग) पंचायत समिति
(घ) न्याय पंचायत

प्रश्न 7.
न्याय पंचायत के कार्य-क्षेत्र में सम्मिलित नहीं है –
(क) छोटे दीवानी मामलों का निपटारा
(ख) मुजरिमों पर जुर्माना
(ग) मुजरिमों को जेल भेजना
(घ) छोटे फौजदारी मामलों का निपटारा

प्रश्न 8.
जिला परिषद् के सदस्यों में सम्मिलित नहीं है –
(क) जिलाधिकारी
(ख) पंचायत समितियों के प्रधान
(ग) कुछ विशेषज्ञ
(घ) न्यायाधीश

प्रश्न 9.
ग्राम पंचायत की बैठक होनी आवश्यक है –
(क) एक सप्ताह में एक
(ख) एक माह में एक
(ग) एक वर्ष में दो
(घ) एक वर्ष में चार

प्रश्न 10.
नगरपालिका के अध्यक्ष का चुनाव होता है –
(क) एक वर्ष के लिए
(ख) पाँच वर्ष के लिए
(ग) चार वर्ष के लिए।
(घ) तीन वर्ष के लिए

प्रश्न 11.
नगरपालिका परिषद् का ऐच्छिक कार्य है –
(क) नगरों में रोशनी का प्रबन्ध करना
(ख) नगरों में पेयजल की व्यवस्था करना कर
(ग) नगरों में स्वच्छता का प्रबन्ध करना
(घ) प्रारम्भिक शिक्षा से ऊपर शिक्षा की व्यवस्था करना

प्रश्न 12.
जिला परिषद् की आय का साधन है –
(क) भूमि पर लगान
(ख) चुंगी कर
(ग) हैसियत एवं सम्पत्ति कर
(घ) आयकर

प्रश्न 13.
जिला पंचायत कार्य नहीं करती –
(क) जन-स्वास्थ्य के लिए रोगों की रोकथाम करना
(ख) सार्वजनिक पुलों तथा सड़कों का निर्माण करना
(ग) प्रारम्भिक स्तर से ऊपर की शिक्षा का प्रबन्ध करना
(घ) यातायात का प्रबन्ध करना

प्रश्न 14.
निम्नलिखित में से कौन-सा कार्य नगरपालिका परिषद् नहीं करती ?
(क) पीने के पानी की आपूर्ति
(ख) रोशनी की व्यवस्था
(ग) उच्च शिक्षा का संगठन
(घ) जन्म-मृत्यु का लेखा

प्रश्न 15.
जनपद का सर्वोच्च अधिकारी है –
(क) मुख्यमन्त्री
(ख) जिलाधिकारी
(ग) पुलिस अधीक्षक
(घ) जिला प्रमुख

प्रश्न 16.
जिले के शिक्षा विभाग का प्रमुख अधिकारी है –
(क) जिला विद्यालय निरीक्षक
(ख) बेसिक शिक्षा अधिकारी
(ग) राजकीय विद्यालय का प्रधानाचार्य
(घ) माध्यमिक शिक्षा परिषद् का क्षेत्रीय अध्यक्ष

उत्तर :

  1. (क) ग्राम,
  2. (ग) 73वें संशोधन द्वारा
  3. (ग) 29
  4. (ख) पंचायती राज
  5. (ख) जिला
  6. (क) ग्राम पंचायत
  7. (ग) मुजरिमों को जेल भेजना
  8. (घ) न्यायाधीश
  9. (ख) एक माह में एक
  10. (ख) पाँच वर्ष के लिए
  11. (घ) प्रारम्भिक शिक्षा से ऊपर शिक्षा की व्यवस्था करना
  12. (ग) हैसियत एवं सम्पत्ति कर
  13. (घ) यातायात का प्रबन्ध करना
  14. (ग) उच्च शिक्षा का संगठन
  15. (ख) जिलाधिकारी
  16. (क) जिला विद्यालय निरीक्षक।

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