UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 10 The Philosophy of Constitution

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 10 The Philosophy of Constitution (संविधान का राजनीतिक दर्शन)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
नीचे कुछ कानून दिए गए हैं। क्या इनका संबंध किसी मूल्य से है? यदि हाँ, तो वह अन्तर्निहित मूल्य क्या है? कारण बताएँ।
(क) पुत्र और पुत्री दोनों का परिवार की संपत्ति में हिस्सा होगा।
(ख) अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं के ब्रिकी-कर का सीमांकन अलग-अलग होगा।
(ग) किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।
(घ) ‘बेगार’ अथवा बँधुआ मजदूरी नहीं कराई जा सकती।
उत्तर-
(क) वाक्य में समानता का मूल्य छिपा है क्योंकि पारिवारिक सम्पत्ति में बेटा-बेटी को समानता के आधार पर समान समझा गया है।
(ख) गुण के अनुसार कीमत और उसके अनुरूप कर का ढाँचा समानता का दिग्दर्शक है।
(ग) इस वाक्य में धर्म-निरपेक्षता के मूल्य का बोध है क्योंकि इसमें राज्य व धर्म को अलग-अलग रखने की बात कही गई है।
(घ) मानवीय गरिमों व मानव-मानव में ऊँच-नीच की समानता का बोध है।

प्रश्न 2.
नीचे कुछ विकल्प दिए जा रहे हैं। बताएँ कि इसमें किसका इस्तेमाल निम्नलिखित कथन को पूरा करने में नहीं किया जा सकता?
लोकतांत्रिक देश को संविधान की जरूरत ……..।
(क) सरकार की शक्तियों पर अंकुश रखने के लिए होती है।
(ख) अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से सुरक्षा देने के लिए होती है।
(ग) औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।
(घ) यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि क्षणिक आवेग में दूरगामी लक्ष्यों में कहीं विचलित न हो जाएँ।
(ङ) शांतिपूर्ण ढंग से सामाजिक बदलाव लाने के लिए होती है।
उत्तर-
(ग) औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए लिए होती है।

प्रश्न 3.
संविधान सभा की बहसों को पढ़ने और समझने के बारे में नीचे कुछ कथन दिए गए हैं-
(अ) इनमें से कौन-सा कथन इस बात की दलील है कि संविधान सभा की बहसें आज भी प्रासंगिक हैं? कौन-सा कथन यह तर्क प्रस्तुत करता है कि ये बहसें प्रासंगिक नहीं है?
(ब) इनमें से किस पक्ष का आप समर्थन करेंगे और क्यों?
(क) आम जनता अपनी जीविका कमाने और जीवन की विभिन्न परेशानियों के निपटारे में व्यस्त होती है। आम जनता इन बहसों की कानूनी भाषा को नहीं समझ सकती।
(ख) आज की स्थितियाँ और चुनौतियाँ संविधान बनाने के वक्त की चुनौतियों और स्थितियों से अलग हैं। संविधान निर्माताओं के विचारों को पढ़ना और अपने नए जमाने में इस्तेमाल करना दरअसल अतीत को वर्तमान में खींच लाना है।
(ग) संसार और मौजूदा चुनौतियों को समझने की हमारी दृष्टि पूर्णतया नहीं बदली है।
संविधान सभा की बहसों से हमें यह समझने के तर्क मिल सकते हैं कि कुछ संवैधानिक व्यवहार क्यों महत्त्वपूर्ण हैं। एक ऐसे समय में जब संवैधानिक व्यवहारों को चुनौती दी जा रही है, इन तर्को को न जानना संवैधानिक-व्यवहारों में सभा में हुई। वार्ता की आज भी उपयोगिता है।
उत्तर-
1. (क) व (ख) वाक्यों में यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि संविधान सभा में हुई। वार्ता व बहस की आज की परिस्थितियों के आधार पर कोई उपयोगिता नहीं है जबकि (ग) वाक्य में संविधान सभा में हुई वार्ता की आज भी उपयोगिता है।
2. (क) वाक्य में यह कहा गया है कि साधारण व्यक्ति संविधान में हुई बहस की भाषा को समझने में असमर्थ है व आज किसी को भी उसमें रुचि नहीं है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी आजीविका कमाने में लगा है।
3. हम यह समझते हैं कि संविधान सभा में भारत की सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं पर चर्चा हुई जिनकी उपयोगिता आज की समस्याओं के सन्दर्भ में भी है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित प्रसंगों के आलोक में भारतीय संविधान और पश्चिमी अवधारणा में अन्तर स्पष्ट करें-
(क) धर्मनिरपेक्षता की समझ
(ख) अनुच्छेद 370 और 371
(ग) सकारात्मक कार्य-योजना या अफरमेटिव एक्शन
(घ) सार्वभौम वयस्क मताधिकार।
उत्तर-
(क) भारत की धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी अवधारणा से बिल्कुल भिन्न है। पश्चिमी दृष्टिकोण का मत है कि धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म व राज्य का पूर्णतया पृथक्करण होना चाहिए। धर्म लोगों का व्यक्तिगत मामला होना चाहिए परन्तु भारतीय दृष्टिकोण के अनुसा राज्य धर्म के मामले में हस्तक्षेप कर सकता है।

(ख) अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर को विशिष्ट दर्जा देता है। अनुच्छेद 371 पूर्वी राज्यों के विकास के बारे में है। ऐसी असमानता पश्चिमी देशों में नहीं है।

(ग) भारत में समाज के कमजोर व पिछड़े वर्ग के लोगों के विकास के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है जिसका उद्देश्य सकारात्मक कार्य से समानता स्थापित करना है ऐसी योजनाएँ पश्चिमी देशों में भी हैं।

(घ) भारत और अधिकांश पश्चिमी देशों ने वयस्क मताधिकार को स्वीकार किया है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में धर्मनिरपेक्षता का कौन-सा सिद्धान्त भारत के संविधान में अपनाया गया है।
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
(ख) राज्य का धर्म से नजदीकी रिश्ता है।
(ग) राज्य धर्मों के बीच भेदभाव कर सकता है।
(घ) राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा।
(ङ) राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होगी।
उत्तर-
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित कथनों को सुमेलित करें-
(क) विधवाओं के साथ किए जाने वाले बरताव की आलोचना की आजादी – (i) आधारभूत महत्त्व की उपलब्धि
(ख) संविधान-सभा में फैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना। – (ii) प्रक्रियागत उपलब्धि
(ग) व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना। – (iii) लैंगिक-न्याय की उपेक्षा
(घ) अनुच्छेद 370 और 371 – (iv) उदारवादी व्यक्तिवाद
(ङ) महिलाओं और बच्चों को परिवार की संपत्ति में असमान अधिकार। – (v) धर्म-विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना।
उत्तर-
(क) (i), (ख) (ii), (ग) (iv), (घ) (v), (ङ) (iii)

प्रश्न 7.
यह चर्चा एक कक्षा में चल रही थी। विभिन्न तर्को को पढे और बताएँ कि आप इनमें से किससे सहमत हैं और क्यों?
जएश – मैं अब भी मानता हूँ कि हमारा संविधान एक उधार का दस्तावेज है।
सबा – क्या तुम यह कहना चाहते हो कि इसमें भारतीय कहने जैसा कुछ है ही नहीं? कया
मूल्यों और विचारों पर हम ‘भारतीय’ अथवा ‘पश्चिमी’ जैसा लेबल चिपको सकते हैं? महिलाओं और पुरुषों की समानता का ही मामला लो। इसमें पश्चिमी’ कहने जैसी क्या है? और, अगर ऐसा है भी तो क्या हम इसे महज पश्चिमी होने के कारण खारिज कर
जएश – मेरे कहने का मतलब यह है कि अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई लड़ने के बाद क्या हमने उनकी संसदीय शासन की व्यवस्था नहीं अपनाई?
नेहा – तुम यह भूल जाते हो कि जब हम अंग्रेजों से लड़ रहे थे तो हम सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ थे। अब इस बात का, शासन की जो व्यवस्था हम चाहते हैं उसको अपनाने में कोई लेना-देना नहीं, चाहे यह जहाँ से भी आई हो।
उत्तर-
उपर्युक्त वाक्यों में प्रस्तुत जएश व नेह्य के मध्य के विचार-विमर्श का अध्ययन करने के उपरान्त यह कहा जा सकता है कि दोनों ही ठीक हैं। जएश का कथन यही है कि हमारा संविधान उधार का दस्तावेज है क्योंकि हमने अनेक बातें विदेशी संविधानों से ली थीं। सबा का कथन भी सही है कि भारतीय संविधान में सभी कुछ विदेशी नहीं है। इसमें हमारी प्रथाओं, परम्पराओं व इतिहास का प्रभाव है।

प्रश्न 8.
ऐसा क्यों कहा जाता है कि भारतीय संविधान को बनाने की प्रक्रिया प्रतिनिधिमूलक नहीं थी? क्या इस कारण हमारा संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं रह जाता? अपने उत्तर के कारण बताएँ।
उत्तर-
भारतीय संविधान सभा के विषय में कहा जाता है कि भारतीय संविधान सभा प्रतिनिधिमूलक नहीं थी। यह कथन कुछ सीमा तक उचित है क्योंकि इसका चुनाव प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया गया था। यह सन् 1946 के चुनाव पर गठित विधानसभाओं द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से गठित की गई थी। इस चुनाव में वयस्क मताधिकार भी नहीं दिया गया था। उस समय सीमित मताधिकार प्रचलित था। इसमें अनेक लोगों को मनोमीत किया गया था। इसलिए भारतीय संविधान बनाने की प्रक्रिया प्रतिनिधिमूलक नहीं थी।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान की एक सीमा यह है कि इसमें लैगिक-न्याय पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। आप इस आरोप की पुष्टि में कौन-से प्रमाण देंगे? यदि आज आप संविधान लिख रहे होते, तो इस कमी को दूर करने के लिए उपाय के रूप में किन प्रावधानों की सिफारिश करते?
उत्तर-
भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से लैंगिक-न्याय का कोई उल्लेख नहीं है, इसी कारण समाज में अनेक रूपों में लैंगिक-अन्याय दिखाई देता है। यद्यपि संविधान के मौलिक अधिकार के भाग में अनुच्छेद 14, 15 व 16 में उल्लेख है कि लिंग के आधार पर कानून के समक्ष, सार्वजनिक स्थान पर व रोजगार के क्षेत्र में भेदभाव नहीं किया जाएगा। राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों के अध्याय में महिलाओं के सामाजिक व आर्थिक न्यायोचित विकास की व्यवस्था की गई है। समान कार्य के लिए समान वेतन की भी व्यवस्था है।

प्रश्न 10.
क्या आप इस कथन से सहमत हैं कि-एक गरीब और विकासशील देश में कुछ एक बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकार मौलिक अधिकारों की केंद्रीय विशेषता के रूप में दर्ज करने के बजाय राज्य की नीति-निदेशक तत्त्वों वाले खण्ड में क्यों रख दिए गए- यह स्पष्ट नहीं है। आपके जानते सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति-निदेशक तत्त्व वाले खण्ड में रखने के क्या कारण रहे होंगे?
उत्तर-
आलोचकों का कथन है कि भारत एक गरीब देश है और यहाँ बेरोजगार, बेकार तथा निर्धन लोगों की संख्या अधिक है। इसके साथ ही संविधान बेरोजगारी को दूर करने, आर्थिक विषमता को कम करने, सामाजिक-आर्थिक न्याय को लागू करने के लिए वचनबद्ध है। फिर ऐसे क्या कारण थे कि देश के सामाजिक-आर्थिक विकास की प्राप्ति के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक अधिकारों; जैसे कार्य का अधिकार, शिक्षा का अधिकार आदि मौलिक अधिकारों की सूची में नहीं रखे गए, बल्कि उन्हें राज्य नीति के निदेशक सिद्धान्तों के अध्याय में रखा गया।

इसके कुछ कारण थे। संविधान निर्माताओं ने राजनीतिक प्रकृति के अधिकारों को मूल अधिकारों की सूची में रखा क्योंकि इससे राज्य पर वित्तीय भार पड़ने की सम्भावना नहीं थी। जब, देश स्वतन्त्र हुआ तो भारत एक गरीब देश था और अंग्रेजों ने इसे जब छोड़ा तो इसकी वित्तीय दशा अच्छी नहीं थी। यदि सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को मूल-अधिकारों की सूची में रखा जाता तो राज्य द्वारा उन्हें लागम करने में काफी धन व्यय करना पड़ती जो उसके लिए सम्भव और व्यावहारिक नहीं था। इन पर होने वाले व्यय से देश की आर्थिक दशा और अधिक खराब हो जाती।

सामाजिक- आर्थिक विकास की आवश्यकता भी तुरन्त थी। विकास कार्यों के लिए भी धन की आवश्यकता थी। यदि आर्थिक आधारों को मौलिक अधिकारों का रूप दिया जाता तो , सामाजिक-आर्थिक विकास योजनाओं को लागू करना सम्भव नहीं होता और इससे सामाजिक-आर्थिक विकास रुक जाता। इन बातों को देखते हुए महत्त्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को राज्य की नीति के निदेशक सिद्धान्तों के अध्याय में रखा गया और आशा की गई कि वित्तीय दशा में सुधार होने के साथ-साथ उन्हें भी लागू किया जाता रहेगा।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अनुच्छेद 370 किस राज्य को विशिष्ट दर्जा देता है?
(क) जम्मू-कश्मीर
(ख) पंजाब
(ग) मिजोरम
(घ) मेघालय
उत्तर :
(क) जम्मू-कश्मीर।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में कितने अनुच्छेद हैं।
(क) 395
(ख) 397
(ग) 387
(घ) 378
उत्तर :
(क) 395

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में कितनी अनुसूचियाँ हैं?
(क) 14
(ख) 16
(ग) 12
(घ) 20
उत्तर :
(ग) 12

प्रश्न 4.
भारत के संविधान द्वारा कितनी भाषाओं को मान्यता प्रदान की गई है।
(क) 24
(ख) 22
(ग) 23
(घ) 21
उत्तर :
(ख) 22

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान का वैचारिक व दार्शनिक आधार है –
(क) उदारवाद
(ख) साम्यवाद
(ग) राष्ट्रवाद
(घ) उपभोक्तावाद
उत्तर :
(क) उदारवाद

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान का आधार राजनीतिक दर्शन होता है। समझाइए।
उत्तर :
किसी देश का संविधान एक सजीव व संवेदनशील ग्रन्थ होता है। यह व्यक्तियों के लक्ष्यों, प्राथमिकता, मूल्यों को प्रकट करता है। अतः संविधान के लिए एक नैतिक आधार की आवश्यकता होती है जो एक निश्चित राजनीतिक दर्शन व सोच द्वारा प्रदान किया जाता है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान के दर्शन के मुख्य तत्त्व कौन-से हैं?
उत्तर :

  1. उदारवाद
  2. समानता पर आधारित समाज का निर्माण
  3. सामाजिक न्याय
  4. धर्मनिरपेक्षता
  5. संघात्मकता।

प्रश्न 3.
‘धर्मनिरपेक्ष का क्या अर्थ है?
उत्तर :
‘धर्मनिरपेक्ष’ का अर्थ है–भारत में सभी धर्म समान हैं, राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है और सभी नागरिकों को धर्म की स्वतन्त्रता है।

प्रश्न 4.
संविधान की प्रस्तावना के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर :
संविधान की प्रस्तावना संविधान का प्रारम्भिक भाग है, इसमें संविधान में दिए गए सरकार के स्वरूप, समाज के मूल्यों, दर्शन व लक्ष्यों को दर्शाया गया है।

प्रश्न 5.
व्यक्तिगत गरिमा का क्या अर्थ है?
उत्तर :
व्यक्तिगत गरिमा का अर्थ मानवीय क्षमताओं, मानवीय विवेक, मानवीय प्रवृत्ति और मानवीय भावनाओं वे इच्छाओं का सम्मान करना है।

प्रश्न 6.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भारत किस प्रकार का राज्य है?
उत्तर :
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य है।

प्रश्न 7.
भारतीय संविधान की दो प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर :
भारतीय संविधान की दो प्रमुख विशेषताएँ हैं –

  1. लिखित संविधान तथा
  2. विशाल संविधान।

प्रश्न 8.
भारत के संविधान का निर्माण किसके द्वारा किया गया?
उत्तर :
भारत के संविधान का निर्माण एक निर्वाचित संविधान सभा द्वारा किया गया।

प्रश्न 9.
उदारवाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर :
उदारवाद भारतीय संविधान का प्रमुख वैचारिक व दार्शनिक आधार है जिसका उद्देश्य भारतीय समाज को नकारात्मक रूढ़ियों व अन्धविश्वासों से मुक्त करना है।

प्रश्न 10.
संघीय समाज से आप क्या समझते हैं?
उत्तर :
संघीय समाज वह होता है जिसमें विभिन्न जाति, धर्म, भाषा, संस्कृति व भौगोलिकता के लोग रहते हैं।

लघु उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-समाजवादी पंथनिरपेक्ष राज्य।
उत्तर :
पंथनिरपेक्षता या धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है तथा राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी धर्म का पालन करने का अधिकार होगा। राज्य, धर्म के आधार पर नागरिकों के साथ कोई भेदभाव नहीं करेगा तथा धार्मिक मामलों में विवेकपूर्ण निर्णय लेगा। इसके अतिरिक्त, राजय द्वारा सभी व्यक्तियों के धार्मिक अधिकारों को सुनिश्चित एवं सुरक्षित करने का प्रयास किया जाएगा। राज्य धार्मिक मामलों में किसी प्रकार को हस्तक्षेप नहीं करेगा, वरन् धार्मिक सहिष्णुता एवं धार्मिक समभाव की नीति को प्रोत्साहित करने का प्रयास करेगा। धर्म के सम्बन्ध में राज्य सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार करेगा। इस प्रकार की पंथनिरपेक्षता या धर्मनिरपेक्षता का पालन करने वाले शासन को पंथनिरपेक्ष या धर्मनिरपेक्ष राज्य कहते हैं।

प्रश्न 2.
संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए–’प्रभुतासम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य।
उत्तर :
‘प्रभुत्तासम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य से आशय यह है कि देश का शासन जनता का, जनता के लिए तथा जनता द्वारा होगा। इस प्रकार शासन की सत्ता जनता में निहित होगी। निर्वाचन के आधार पर जनता अपने द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों को देश की सत्ता पाँच वर्षों के लिए सौंप देगी तथा जनप्रतिनिधि अपने समस्त कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी होंगे। गणराज्य से आशय यह है कि वंश-परम्परा के आधार पर कोई भी राज्याध्यक्ष राज्य या सम्राट नहीं होगा, वरन् वह जनता द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होगा। राष्ट्रपति का निर्वाचन जनता द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से अर्थात् जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों सांसदों व विधायकों द्वारा किया जाता है। इसी आधार पर हमने 26 जनवरी, 1950 को अपना संविधान लागू करके गणतन्त्र दिवस मनाना प्रारम्भ किया था।

प्रश्न 3.
भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राज्य क्यों कहा गया है?
उत्तर :
भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राज्य इसलिए कहा गया है क्योंकि भारत अब आन्तरिक एवं बाह्य क्षेत्र में सर्वोच्च सत्ताधारी है। आन्तरिक क्षेत्र में प्रभुत्वसम्पन्नता का आशय यह है कि भारत अब आन्तरिक क्षेत्र में सभी व्यक्तियों एवं समुदायों से उच्चतर है और संसद द्वारा निर्मित कानून भारत की सीमा में रहने वाले सभी व्यक्तियों पर अनिवार्य रूप से लागू किए जाते हैं तथा बाह्य क्षेत्र में सम्प्रभुता का तात्पर्य यह है कि भारत अब अपने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में पूर्ण स्वतन्त्र है, क्योंकि किसी बाह्य सत्ता का उस पर नियन्त्रण नहीं है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि वर्ष 1947 के पहले भारत सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न नहीं था क्योंकि उस पर ब्रिटिश सत्ता का नियन्त्रण था। वर्तमान में भारत की स्वतन्त्र विदेश नीति है।

प्रश्न 4.
भारतीय समाज द्वारा समाजवाद के आदर्श को प्राप्त करने के लिए किन्हीं तीन उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. सामाजिक विभेद को समाप्त किया जाए। समाज के उच्च जाति तथा निम्न जाति वर्ग अथवा अछूत आदि में कोई भेद-भाव नहीं होना चाहिए।
  2. पूँजीपतियों तथा श्रमिकों के बीच उत्पन्न अन्तर को समाप्त किया जाना चाहिए तथा श्रमिकों को मिलों अथवा कारखानों की प्रबन्ध-व्यवस्था में सहभागिता प्राप्त होनी चाहिए।
  3. ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि के वितरण को इस प्रकार से सुनिश्चित किया जाना चाहिए जिससे कि भूमिहीनों को भी कुछ भूमि प्राप्त हो सके। बेगार, बंधुआ मजदूरी तथा कृषकों के शोषण जैसी बुराइयों को समाप्त करना चाहिए।

प्रश्न 5.
संविधान द्वारा धर्मनिरपेक्षता (पंथनिरपेक्षता) पर अत्यधिक बल क्यों दिया गया है?
उत्तर :

  1. भारत में अनेक धर्मों को मानने वाले व्यक्ति निवास करते हैं। अत: यहाँ पंथनिरपेक्षता की नीति के आधार पर धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार को प्रदान किया जा सकता है।
  2. एक नागरिक तथा दूसरे नागरिक में धर्म के आधार पर विभेद करना न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता
  3. राष्ट्र की एकता, अखण्डता तथा सुदृढ़ता के लिए पंथनिरपेक्षता को अपनाना बहुत आवश्यक है।
  4. सभी नागरिकों से एक-जैसा न्याय करने के उद्देश्य से भी पंथनिरपेक्षता की नीति तर्कसंगत है।

प्रश्न 6.
संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-कल्याणकारी राज्य।
उत्तर :
लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ‘पुलिस राज्य के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न हुई। लोक-कल्याणकारी राज्य में राज्य का अधिकार-क्षेत्र बहुत व्यापक हो जाता है; क्योंकि राज्य द्वारा व्यक्ति के चहुंमुखी विकास के लिए जीवन के सभी क्षेत्रों में सुख तथा सुविधाएँ उत्पन्न करने का प्रयास किया जाता है। भारत के संविधान में नीति-निदेशक, सिद्धान्तों को अपनाकर लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना करने का प्रयास किया गया है। भारतीय संविधान में ऐसे अनेक अनुच्छेदों का प्रावधान किया गया है जो समाज के पिछड़े वर्गों, महिलाओं, अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों और आर्थिक रूप से गरीब वर्गों के कल्याण पर अधिक बल देते हैं।

दीर्घ लनु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
या
भारत में पंथनिरपेक्षता की नीति अपनाए जाने के दो कारण लिखिए।
उत्तर :
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत में विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों का जन्म तथा विकास हुआ। यहाँ विदेशी शासकों के राज्य भी स्थापित हुए और उनके विभिन्न धर्मों का आगमन भी हुआ। इन विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों की अन्त:क्रिया से विभिन्न धार्मिक समुदायों का अभ्युदय हुआ। इन धार्मिक समुदायों में परस्पर प्रतिस्पर्धा एवं वैमनस्यता को समाप्त करके सहिष्णुता एवं सामंजस्य स्थापित करने के लिए भारतीय संविधान में धार्मिक स्वतन्त्रता को स्थान दिया गया। बयालीसवें संविधान संशोधन द्वारा ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को संविधान की प्रस्तावना में स्थान दिया गया। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा इसका अभिप्राय यह है कि –

  1. भारत किसी भी धर्म को राष्ट्रीय धर्म घोषित नहीं करेगा।
  2. संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार सभी व्यक्ति कानून की दृष्टि में समान होंगे। भारत सरकार सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करेगी तथा उन्हें पल्लवित एवं विकसित होने में बाधा उत्पन्न नहीं करेगी।
  3. सरकार सभी व्यक्तियों के धार्मिक अधिकारों को सुनिश्चित एवं सुरक्षित करने का प्रयास करेगी।
  4. भारतीय सरकार धार्मिक विषयों के सम्बन्ध में विवेकपूर्ण निर्णय लेगी।

संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को भारत में अपने धर्म के सम्बन्ध में दो प्रकार की स्वतन्त्रताएँ प्राप्त हैं-अन्तःकरण की स्वतन्त्रता तथा अपने धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतन्त्रता।

अनुच्छेद 26 के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक कार्यों के प्रबन्ध की स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है जिसके अन्तर्गत उसे धार्मिक प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की घोषणाएँ, अपने धर्म सम्बन्धी कार्यों के प्रबन्ध, सम्पत्ति के अर्जन और स्वामित्व तथा सम्पत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन का अधिकार है।

अनुच्छेद 28 के अनुसार, राज्य पोषित शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या उपासना का प्रतिषेध किया गया है।

उपर्युक्त तथ्यों से सहज ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। वास्तविक स्थिति भी इस तथ्य की पुष्टि करती है। भारत में धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाता। देश के सर्वोच्च पद को डॉ० जाकिर हुसैन तथा श्री एपीजे अब्दुल कलाम सुशोभित कर चुके हैं। अखिल भारतीय सेवाएँ हों या अन्य सेवाएँ सभी धर्मावलम्बियों को इनमें भर्ती की समान सुविधाएँ प्राप्त हैं। सभी भारतीय विभिन्न धर्मानुयायी होते हुए भी अपने-अपने त्योहार निर्विघ्न रूप से मनाते हैं। भारत वास्तविक अर्थ में एक ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य है।

प्रश्न 2.
संविधान की प्रस्तावना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण क्यों है?
उत्तर :

संविधान की प्रस्तावना का महत्त्व

प्रत्येक राष्ट्र के संविधान में प्रस्तावना की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है यह संविधान का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। विद्वानों के विचार में इस बिन्दु पर मतभेद पाया जाता है कि प्रस्तावना संविधान का कानूनी भाग है अथवा नहीं। विद्वानों का यह मत है कि संसद संविधान की प्रस्तावना में भी संविधान के अन्य अनुच्छेदों के समान ही अनुच्छेद 356 द्वारा संशोधन कर सकती है, इस स्थिति में प्रस्तावना संविधान का एक कानूनी भाग है। भारत में संविधान की प्रस्तावना को बहुत सोच-विचार के उपरान्त ही बनाया गया था। भारत के संविधान की प्रस्तावना विश्व के अन्य सभी संविधानों की प्रस्तावना से श्रेष्ठ है। क्योंकि इसमें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक मूल्यों को प्राप्त करने का संकल्प व्यक्त किया गया है। संविधान की प्रस्तावना के महत्त्व को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है –

  1. यह राष्ट्र की सरकार को नीति-निर्माण हेतु मार्ग दिखाती है।
  2. प्रस्तावना भारत को सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने की घोषणा करती है।
  3. यह नागरिकों को प्रत्येक प्रकार की स्वतन्त्रता; जैसे-विचार-अभिव्यक्ति, विश्वास तथा धर्म एवं उपासना की स्वतन्त्रता प्रदान करने का लक्ष्य घोषित करती है।
  4. यह व्यक्ति की गरिमा तथा प्रतिष्ठा को बनाए रखने का आह्वान करती है।
  5. यह भारत के समस्त नागरिकों में पारस्परिक भाई-चारे एवं बन्धुत्व बढ़ाने का आदर्श उपस्थित करती है।
  6. यह राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता को बनाए रखने की आशा अभिव्यक्त करती है।
  7. यह प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने तथा सम्मान को बनाए रखने में विश्वास प्रकट करती है।
  8. प्रस्तावना लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था के आदर्शों को अपनाने पर बल देती है।
  9. प्रस्तावना में ‘पंथनिरपेक्ष तथा समाजवादी’ शब्दों को सम्मिलित करने पर इसका महत्त्व और भी बढ़ गया है।
  10. प्रस्तावना में इस तथ्य को पूर्णतया स्पष्ट किया गया है कि भारत का संविधान भारतीयों द्वारा निर्मित किया गया है तथा उसे पालन करने की वचनबद्धता संविधान निर्माताओं ने व्यक्त की है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
या
भारतीय संविधान की उन विशेषताओं का परीक्षण कीजिए जो संसदीय शासन प्रणाली का समर्थन करती हैं?
या
“भारत का वर्तमान संविधान 1935 के अधिनियम का वृहद् संस्करण नहीं है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर :
किसी भी देश की राजनीतिक गतिविधियों का परिचय उसके संविधान से ही मिलता है। उसका निर्माण उस देश की भौगोलिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किया जाता है। भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

(1) लिखित एवं विस्तृत संविधान – भारत का संविधान संसार का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। इस संविधान में 395 अनुच्छेद तथा 8 अनुसूचियाँ थीं और यह 22 भागों में विभक्त था। 1993 ई० के 73वें तथा 74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियमों के बाद अब इसमें 444 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ हैं। संविधान की विशालता का मूल कारण यह है कि संविधान निर्माताओं ने शासन के समस्त प्रमुख अंगों का वर्णन करने के बाद शासन की अनेक सूक्ष्मतम बातों का उल्लेख भी किया है।

(2) सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राज्य – संविधान का उद्देश्य समस्त भारत में प्रभुत्वसम्पन्न लोकतन्त्र की स्थापना करना है। प्रभुत्वसम्पन्न का अर्थ यह है कि भारत अपने आन्तरिक और विदेशी मामलों में पूर्ण स्वतन्त्र है।

(3) संघात्मक व एकात्मक व्यवस्था का मिश्रण – भारतीय संविधान द्वारा संघात्मक ढाँचे को स्वीकार किया गया है। अनेक संविधान संशोधनों के उपरान्त वर्तमान में भारतीय संविधान में 444 धाराएँ (अनुच्छेद) हैं। संविधान द्वारा राज्य व केन्द्र के मध्य शक्तियों का पृथक्करण किया गया है। संविधान द्वारा संघात्मक शासन की अन्य विशेषताओं को स्वीकार करते हुए संविधान की सर्वोच्चता व सर्वोच्च न्यायपालिका की व्यवस्था भी की गयी है। इसके अतिरिक्त इकहरी नागरिकता, सम्पूर्ण देश के लिए एक ही संविधान, अखिल भारतीय सेवाएँ व राष्ट्रपति के संकटकालीन अधिकार आदि व्यवस्थाएँ एकात्मक शासन का समर्थन करती हैं। इस प्रकार भारतीय संविधान में संघात्मक व एकात्मक दोनों शासन-व्यवस्थाओं के गुणों को समाविष्ट किया गया है।

(4) शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना – भारतीय संविधान की एक विशेषता यह है कि इसके द्वारा केन्द्र को राज्य की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बनाया गया है। केन्द्र को शक्तिशाली बनाने के लिए मुख्यत: तीन उपाय काम में लाये गये हैं। प्रथम, आपातकालीन स्थिति में संघ सरकार को राज्य के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का पूर्ण अधिकार प्रदान किया गया है। दूसरे, केन्द्र और राज्यों की शक्तियों का विभाजन होने पर भी विशेष परिस्थिति में केन्द्र को राज्य सूची के अन्तर्गत आने वाले विषयों पर भी कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया गया है। तीसरे, समवर्ती सूची के अन्तर्गत आने वाले विषयों पर संघ सरकार द्वारा बनाये गये नियमों को प्राथमिकता दी गयी है। इन तीनों उपायों के अतिरिक्त न्यायपालिका के संगठन, राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति और अखिल भारतीय सेवाओं के संगठन आदि के सम्बन्ध में भी केन्द्र को विस्तृत अधिकार प्रदान करके अत्यन्त शक्तिशाली बनाया गया है।

(5) संसदीय शासन पद्धति – भारतीय संविधान देश में संसदीय प्रणाली की स्थापना करता है। संसदीय प्रणाली में राज्य का प्रधान नाममात्र का होता है और वास्तविक कार्यपालिका की शक्ति मन्त्रिमण्डल में निहित होती है। मन्त्रिमण्डल सामूहिक रूप से व्यवस्थापिका के निम्न सदन (लोकसभा) के प्रति उत्तरदायी होता है। भारत का राष्ट्रपति नाममात्र का प्रधान है तथा शासन की वास्तविक शक्ति मन्त्रिमण्डल में है, जो प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में कार्य करता है।

(6) मौलिक अधिकारों की व्यवस्था – भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों की स्वतन्त्रता व अधिकारों की रक्षा के लिए छः मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गयी है, जिनका उपभोग कर भारत को प्रत्येक नागरिक अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सकता है।

(7) नीति-निदेशक तत्त्व – भारतीय संविधान के चतुर्थ अध्याय में शासन-संचालन हेतु सरकार के लिए जिन मूलभूत सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है उन्हीं सिद्धान्तों को नीति-निदेशक तत्त्व कहा जाता है। आयरलैण्ड के संविधान से प्रेरित होकर लिये गये इन सिद्धान्तों को उद्देश्य भारत को एक लोक कल्याणकारी स्वरूप प्रदान करना है।

(8) नागरिकों के मूल कर्त्तव्य – भारतीय संविधान में 42वें संवैधानिक संशोधन, 1976 ई० के द्वारा नागरिकों के लिए 11 मूल कर्तव्यों को सम्मिलित किया गया है।

(9) लोकतन्त्रात्मक गणराज्य – भारत एक लोकतन्त्रात्मक गणराज्य है, अर्थात् भारत में प्रभुसत्ता जनता में निहित है तथा जनता को अपने प्रतिनिधि चुनकर सरकार-निर्माण का अधिकार प्रदान किया गया है। गणराज्य से आशय यह है कि भारत का सर्वोच्च प्रधान वंशानुगत न होकर जनता द्वारा एक निश्चित अवधि के लिए चुना गया प्रधान होगा।

(10) कठोर व लचीला संविधान – भारतीय संविधान कठोर व लचीले दोनों प्रकार के संविधानों का मिश्रण है। संविधान में जहाँ कुछ विषयों में संशोधन साधारण प्रक्रिया द्वारा किये जाते हैं, वहीं कुछ विषयों में संशोधन की जटिल प्रक्रिया को स्वीकार किया गया है। उदाहरणार्थ–राष्ट्रपति के निर्वाचन की विधि, केन्द्र व राज्यों के मध्य शक्ति-विभाजन, राज्यों के संसद में प्रतिनिधि आदि विषयों पर संशोधन करने के लिए संसद के समस्त सदस्यों के बहुमत और उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत के अतिरिक्त कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों के अनुसमर्थन को अनिवार्य घोषित किया गया है।

(11) धर्मनिरपेक्ष राज्य – संविधान में 42वें संविधान संशोधन द्वारा भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है, अर्थात् भारत राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा, अपितु उसके द्वारा देश में निवास करने वाले सभी धर्मों व जाति के लोगों के साथ समानता का व्यवहार किया जाएगा।

(12) इकहरी नागरिकता – संविधान निर्माताओं द्वारा भारत की एकता व अखण्डता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए भारत के समस्त नागरिकों के लिए इकहरी नागरिकता का प्रावधान किया गया है।

(13) अस्पृश्यता का अन्त – भारतीय संविधान की एक अन्य विशेषता अस्पृश्यता का अन्त करना है। संविधान के भाग 3 तथा 17वें अनुच्छेद में कहा गया है कि अस्पृश्यता का अन्त किया जाता है और इसका किसी भी रूप में आचरण दण्डनीय अपराध माना जाएगा।

(14) वयस्क मताधिकार – भारतीय संविधान द्वारा प्रत्येक नागरिक को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, 18 वर्ष की अवस्था पूरी कर चुका हो, धर्म, लिंग अथवा जाति के भेदभाव के बिना मतदान का अधिकार प्रदान किया गया है।

(15) स्वतन्त्र और इकहरी न्यायपालिका की स्थापना – भारतीय संविधान ने देश के लिए स्वतन्त्र और इकहरी न्यायपालिका की व्यवस्था की है। संविधान में इस बात का पूरा-पूरा प्रबन्ध किया गया है कि न्यायपालिका निष्पक्ष रूप से बिना किसी हस्तक्षेप के अपने कर्तव्य का पालन कर सके।

(16) विश्व-शान्ति व मैत्री का पोषक – भारतीय संविधान ने सदैव विश्व-शान्ति एवं विश्व बन्धुत्व का समर्थन किया है। संविधान की 51वीं धारा में स्पष्ट रूप से कहा गया है भारत संसार के राष्ट्रों के साथ सह-अस्तित्व रखते हुए विश्व-शान्ति और सुरक्षा में अपना पूरा सहयोग देगा। साथ-ही-साथ वह सभी विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से निपटाने का प्रयास भी करेगा।”

(17) एक राष्ट्रभाषा की व्यवस्था – सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए भारतीय संविधान में एक ही राष्ट्रभाषा की ‘ व्यवस्था की गयी है और वह है हिन्दी भाषा। संविधान की धारा 343 में कहा गया है कि संघ की अधिकृत भाषा देवनागरी लिपि में लिखी हुई हिन्दी होगी।

(18) विधि का शासन – भारतीय संविधान में ब्रिटेन के संविधान की भाँति समस्त नागरिकों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार प्रदान किया गया है, अर्थात् कानून के द्वारा किसी भी नागरिक के साथ धर्म, जाति, लिंग व अन्य किसी कारण कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।

(19) द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका – भारतीय संविधान के अन्तर्गत द्वि–सदनात्मक व्यवस्थापिका की स्थापना की गयी है। इस व्यवस्था में संसद के दो सदन राज्यसभा व लोकसभा हैं, जिनमें राज्यसभा उच्च सदन व लोकसभा निम्न परन्तु लोकप्रिय सदन है।

निष्कर्ष – डॉ० अम्बेडकर के शब्दों में, “मैं महसूस करता हूँ कि भारतीय संविधान व्यावहारिक है। और इसमें शान्ति व युद्धकाल दोनों में देश को बनाये रखने की सामर्थ्य है। वास्तव में मैं यह कहना। चाहूँगा कि यदि नवीन संविधान के अन्तर्गत स्थिति खराब होती है तो इसका कारण यह नहीं होगा कि संविधान खराब है बल्कि हमें यह कहना होगा कि भारतीय ही खराब हैं।”

प्रश्न 2.
“भारत एक सम्प्रभुतासम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
या
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के मुख्य बिन्दुओं की प्रकृति की व्याख्या कीजिए।
उत्तर :
“भारत एक सम्प्रभुतासम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य है। इसे निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है –

(1) सम्प्रभुतासम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य – भारतीय संविधान का उद्देश्य समस्त भारत में सम्प्रभुतासम्पन्न लोकतन्त्र की स्थापना करना है। सम्प्रभुतासम्पन्न का अर्थ यह है कि भारत अपने आन्तरिक और विदेशी मामलों में पूर्ण स्वतन्त्र है। आन्तरिक क्षेत्र में राज्य सर्वोपरि है। उसकी आज्ञाओं का पालन देश के सभी व्यक्तियों एवं संस्थाओं को करना पड़ता है। विदेशी मामलों की स्वतन्त्रता का अर्थ है कि भारत पर किसी विदेशी शक्ति का नियन्त्रण नहीं है। वह अपनी इच्छा से दूसरे देशों के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है। भारत एक “सार्वभौम, लोकतान्त्रिक, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी गणराज्य है। यह बात संविधान की प्रस्तावना से भली-भाँति स्पष्ट है। सार्वभौमिकता का अर्थ है कि शासन-सत्ती का अन्तिम स्रोत भारतीय जनता है। संविधान की प्रस्तावना में लिखे शब्द “हम भारत के लोग भारतीय जनता की सार्वभौमिकता की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। लोकतन्त्र का अर्थ है कि शासन की अन्तिम सत्ता जनता के हाथ में है, परन्तु यह कार्य जनता प्रत्यक्ष रूप से न करके अपने प्रतिनिधियों के द्वारा ही कर पाती है। इसीलिए भारत में प्रत्यक्ष लोकतन्त्र की नहीं, बल्कि प्रतिनिध्यात्मक लोकतन्त्र (Representative Democracy) की स्थापना की गयी है, जिसके लिए सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार तथा निर्वाचन-प्रणाली को अपनाया गया है।

(2) समाजवादी राज्य – 42वें संविधान संशोधन द्वारा ‘समाजवादी’ शब्द संविधान की प्रस्तावना में जोड़कर समाजवाद को देश के सामान्य जीवन में स्वीकार किया गया है। इससे प्रस्तावना में दी गयी आर्थिक न्याय की भावना को भी बल मिला है। समाजवाद एक सार्वजनिक क्षेत्र की माँग करता है तथा लाभों को व्यापक रूप से समाज में वितरित करने की बात करता है। भारत एक गणराज्य है। इसका अभिप्राय यह है कि हमारे यहाँ राज्याध्यक्ष वंशानुगत राजा नहीं, बल्कि जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि सभी सार्वजनिक पद बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों के लिए खुले हैं तथा किसी भी वर्ग को कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है।

(3) धर्मनिरपेक्ष राज्य – संविधान द्वारा भारत में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य (Secular State) की स्थापना की गयी है। 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द को जोड़कर भारतीय संसद ने धर्मनिरपेक्षता पर मुहर लगा दी है। संविधान की प्रस्तावना में वर्णित ये घोषणाएँ कि संविधाने नागरिकों के लिए विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता” व “प्रतिष्ठा और अवसर की समानता’ की व्यवस्था करता है, भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाती हैं। धर्म के आधार पर राज्य नागरिकों में भेदभाव नहीं करता है, बल्कि वह सभी धर्मों को बराबर सम्मान देता है। धर्मनिरपेक्षता को और अधिक स्पष्ट करते हुए अनुच्छेद 25 सभी नागरिकों को धर्म के अनुकरण की स्वतन्त्रता तथा धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण तथा प्रचार करने का अधिकार देता है। इसी प्रकार अनुच्छेद 29 सभी नागरिकों को अपनी भाषा, लिपि तथा संस्कृति को सुरक्षित रखने का अधिकार देता है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि भारत एक सम्प्रभुतासम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य है।

प्रश्न 3.
राष्ट्रीय एकता में सहायक तत्त्वों की विवेचना कीजिए।
उत्तर :

राष्ट्रीय एकता में सहायक तत्त्व

देश की राजनीतिक स्थिरता, सामाजिक विकास व आर्थिक समृद्धि के लिए राष्ट्रीय एकता एक अनिवार्य तत्त्व है। अतः राष्ट्रीय एकता को प्रोत्साहन देने के लिए औपचारिक एवं अनौपचारिक रूप से निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक है –

1. इकहरी नागरिकता – भारतीय संविधान ने समस्त भारतवासियों को इकरही नागरिकता प्रदान करके क्षेत्रवाद जैसी संकीर्ण भावनाओं को दूर करने का प्रयास किया है।

2. संविधान द्वारा भाषाओं को मान्यता – भाषावाद की समस्या का समाधान करने के उद्देश्य से संविधान की आठवीं अनुसूची में विभिन्न भाषाओं को मान्यता प्रदान की गई है। आरम्भ में इस सूची में सम्मिलित भाषाओं की संख्या चौदह थी। संविधान संशोधन 21 व संविधान संशोधन 71 तथा संविधान संशोधन 92 के पश्चात् सिन्धी, नेपाली, कोंकणी, मणिपुरी, डोगरी, बोडो, मैथिली और संथाली भाषा के जुड़ जाने से अब इस सूची में सम्मिलित भाषाओं की संख्या 22 हो गई है। इस प्रकार अब आठवीं अनुसूची में कुल 22 भाषाएँ हो गई हैं।

3. राष्ट्रभाषा – संविधान ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा का गौरव प्रदान किया और संविधान में यह व्यवस्था की थी कि वर्ष 1965 ई० तक अंग्रेजी को सहभाषा की स्थिति प्राप्त रहेगी। परन्तु भाषा की राजनीति के कारण सरकार ने अनिश्चित काल तक अंग्रेजी को सहभाषा के रूप में बने रहने की स्थिति प्रदान कर दी। वस्तुतः एक राष्ट्रवाद से सम्पूर्ण राष्ट्र में एक मानसिकता विकसित होती है। भाषायी विवादों से बचने के लिए किसी भी राज्य के ऊपर हिन्दी को थोपा नहीं गया है।

4. राष्ट्रचिह्न – भारत का राष्ट्रचिह्न सारनाथ स्थित अशोक के सिंह स्तम्भ की अनुकृति है। यह भी राष्ट्रीय एकता को प्रकट करता है।

5. राष्ट्रीय त्योहार – 15 अगस्त, 26 जनवरी और 2 अक्टूबर (क्रमशः स्वतन्त्रता दिवस, गणतन्त्र दिवस और गांधी जयन्ती) को राष्ट्रीय त्योहार माना गया है और सम्पूर्ण देश में इन्हें बड़ी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है।

6. सामाजिक समानता – देश में सामाजिक समानता स्थापित करने के लिए अस्पृश्यता समाप्ति की दिशा में विशेष प्रयास किए गए हैं। इसके अतिरिक्त अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों को संविधान द्वारा विशेष सुविधाएँ भी प्रदान की गई हैं।

7. धर्मनिरपेक्ष स्वरूप – साम्प्रदायिक सद्भाव को बनाए रखने के लिए भारत गणराज्य का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप स्वीकार किया गया है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार प्रदान किया गया है। धर्मनिरपेक्ष शब्द को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया है।

8. समाजवाद की स्थापना – भारतीय संविधान ने समाजवाद की स्थापना पर बल दिया है जिससे समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता को समाप्त किया जा सके जोकि समाज में क्रान्ति तथा संघर्ष का कारण है।

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UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 9 Constitution as a Living Document

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 9 Constitution as a Living Document (संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन-सा वाक्य सही है?
संविधान में समय-समय पर संशोधन करना आवश्यक होता है; क्योंकि
(क) परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।
(ख) किसी समय विशेष में लिखा गया दस्तावेज कुछ समय पश्चात् अप्रासंगिक हो जाता
(ग) हर पीढ़ी के पास अपनी पसन्द का संविधान चुनने का विकल्प होना चाहिए।
(घ) संविधान में मौजूदा सरकार का राजनीतिक दर्शन प्रतिबिम्बित होना चाहिए।
उत्तर-
(क) परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित वाक्यों के सामने सही/गलत का निशान लगाएँ-
(क) राष्ट्रपति किसी संशोधन विधेयक को संसद के पास पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता।
(ख) संविधान में संशोधन करने का अधिकार केवल जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के पास ही होता है।
(ग) न्यायपालिका संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव नहीं ला सकती परन्तु उसे संविधान की व्याख्या करने का अधिकार है। व्याख्या द्वारा वह संविधान को काफी हद तक बदल सकती है।
(घ) संसद संविधान के किसी भी खंड में संशोधन कर सकती है।
उत्तर-
(क) (✓) सही
(ख) (✗) गलत
(ग) (✓) सही
(घ) (✓) सही

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया में भूमिका निभाते हैं?
इस प्रक्रिया में ये कैसे शामिल होते हैं?
(क) मतदाता
(ख) भारत का राष्ट्रपति
(ग) राज्य की विधानसभाएँ
(घ) संसद
(ङ) राज्यपाल
(च) न्यायपालिका।
उत्तर-
(क) मतदाता लोकसभा व विधानसभाओं में अपने चुने हुए प्रतिनिधि भेजता है। ये चुने हुए प्रतिनिधि ही मतदाता की राय को संसद में या विधानसभा में व्यक्त करते हैं। इसलिए अप्रत्यक्ष रूप से मतदाता ही संविधान में भाग लेता है।
(ख) कोई भी संविधान संशोधन बिल राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद ही प्रभावी माना जाता है।
(ग) राज्य विधानमण्डलों को भी संविधान संशोधनों में भागीदारी दी गई है। बहुत-सी धाराओं में संशोधन का प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में 2/3 बहुमत से पास होकर राज्यों के पास जाना आवश्यक है और कम-से-कम आधे राज्यों में विधानमण्डल द्वारा साधारण बहुमत से सहमति मिलने पर ही वह प्रस्ताव संशोधन कानून का रूप ले लेता है।
(घ) संसद को ही संविधान में संशोधन प्रस्तावित कानूनी अधिकार है और कुछ धाराएँ तो संसद के दोनों सदनों द्वारा साधारण बहुमत से पारित प्रस्ताव में संशोधित हो सकती है।
(ङ) राज्यपाल की संविधान संशोधन प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं है।
(च) न्यायपालिका की संविधान संशोधन प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं है।

प्रश्न 4.
इस अध्याय में आपने पढ़ा कि संविधान का 42वाँ संशोधन अब तक का सबसे विवादास्पद संशोधन रहा है। इस विवाद के क्या कारण थे?
(क) यह संशोधन राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान किया गया था। आपातकाल की घोषणा अपने आप में ही एक विवाद का मुद्दा था।
(ख) यह संशोधन विशेष बहुमत पर आधारित नहीं था।
(ग) इसे राज्य विधानपालिकाओं का समर्थन प्राप्त नहीं था।
(घ) संशोध्न के कुछ उपबन्ध विवादास्पद थे।
उत्तर-
(क) यह संशोधन राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान किया गया था। आपातकाल की घोषणा अपने आप में ही एक विवाद का मुद्दा था।
(घ) संशोधन के कुछ उपबन्ध विवादास्पद थे।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित वाक्यों में कौन-सा वाक्य विभिन्न संशोधनों के सम्बन्ध में विधायिका और न्यायपालिका के टकराव की सही व्याख्या नहीं करता?
(क) संविधान की कई तरह से व्याख्या की जा सकती है।
(ख) खंडन-मंडन/बहस और मदभेद लोकतंत्र के अनिवार्य अंग होते हैं।
(ग) कुछ नियमों और सिद्धांतों को संविधान में अपेक्षाकृत ज्यादा महत्त्व दिया गया है। कतिपय संशोधनों के लिए संविधान में विशेष बहुमत की व्याख्या की गई है।
(घ) नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी विधायिका को नहीं सौंपी जा सकती।
(ङ) न्यायपालिका केवल किसी कानून की संवैधानिकता के बारे में फैसला दे सकती है। वह ऐसे कानूनों की वांछनीयता से जुड़ी राजनीतिक बहसों का निपटारा नहीं कर सकती।
उत्तर-
(घ) नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी विधायिका को नहीं सौंपी जा सकती।

प्रश्न 6.
बुनियादी ढाँचे के सिद्धांत के बारे में सही वाक्य को चिह्नित करें। गलत वाक्य को सही करें।
(क) संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा किया गया है।
(ख) बुनियादी ढाँचे को छोड़कर विधायिका संविधान के सभी हिस्सों में संशोधन कर, सकती है।
(ग) न्यायपालिका ने संविधान के उन पहलुओं को स्पष्ट कर दिया है जिन्हें बुनियादी ढाँचे के अन्तर्गत या उसके बाहर रखा जा सकता है।
(घ) यह सिद्धांत सबसे पहले केशवानंद भारती मामले में प्रतिपादित किया गया है।
(ङ) इस सिद्धांत से न्यापालिका की शक्तियाँ बढ़ी हैं। सरकार और विभिन्न राजनीतिक दलों ने भी बुनियादी ढाँचे के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया है।
उत्तर-
उपर्युक्त सभी कथन सही हैं।

प्रश्न 7.
सन् 2000-2003 के बीच संविधान में अनेक संशोधन किए गए। इस जानकारी के आधार पर आप निम्नलिखित में से कौन-सा निष्कर्ष निकालेंगे?
(क) इस काल के दौरान किए गए संशोधन में न्यायपालिका ने कोई ठोस हस्तक्षेप नहीं किया।
(ख) इस काल के दौरान एक राजनीतिक दल के पास विशेष बहुमत था।
(ग) कतिपय संशोधनों के पीछे जनता का दबाव काम कर रहा था।
(घ) इस काल में विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच कोई वास्तविक अन्तर नहीं रह गया था।
(ङ) ये संशोधन विवादास्पद नहीं थे तथा संशोधनों के विषय को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सहमति पैदा हो चुकी थी।
उत्तर-
(i) इस काल के दौरान किए गए संशोधन में न्यायपालिका ने कोई ठोस हस्तक्षेप नहीं किया।
(ii) इस काल में किए गए संविधान संशोधन विवादरहित थे, सभी राजनीतिक दल संशोधनों के विषयों पर सहमत थे।

प्रश्न 8.
संविधान में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता क्यों पड़ती है? व्याख्या करें।
उत्तर-
संविधान संशोधन प्रक्रिया को कठिन बनाने के लिए विशेष बहुमत का प्रावधान रखा गया है। जिससे संशोधन की सुविधा का दुरुपयोग न किया जा सके।
विशेष बहुमत में सर्वप्रथम संशोधन बिल के प्रवेश पर सदन की कुल संख्या के बहुमत के सदस्यों द्वारा वह बिल पारित होना चाहिए। इसके अलावा उपस्थित व वोट करने वाले सदन के सदस्यों के 2/3 बहुमत से बिल पास होना चाहिए। इस प्रकार से संविधान बिल दोनों सदनों में अलग-अलग पारित होना चाहिए। इस प्रावधान का यह लाभ है कि बिल को पारित करने के लिए आवश्यक बहुमत होता है।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में अनेक संशोधन न्यायपालिका और संसद की अलग-अलग व्याख्याओं का परिणाम रहे हैं। उदाहरण सहित व्याख्या करें।
उत्तर-
यह बिल्कुल सत्य है कि संविधान में अनेक संशोधन इस कारण से किए गए कि निश्चित विषय पर न्यायपालिका ने संविधान की व्याख्या करते हुए संसद से अलग दृष्टिकोण रखा। जब भी किसी विषय पर संसद को न्यायालय का कोई निर्णय राजनीतिक दृष्टि से अनुकूल नहीं लगा तो उसे निरस्त करने के लिए संविधान में संशोधन कर दिया।

गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार के मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि संसद को मूल अधिकारों में कटौती करने का अधिकार नहीं है और इस बात का निर्णय करने का अधिकार न्यायालय को है कि मूल अधिकारों में कटौती की है, अथवा नहीं। इसी न्यायालय ने शंकरप्रसाद बनाम भारत सरकार के मुकदमे में यह निर्णय दिया है कि संविधान में परिवर्तन एक विधायी प्रक्रिया है और संसद द्वारा साधारण विधायी प्रक्रिया के लिए अनुच्छेद 118 के अन्तर्गत बनाए गए नियम संविधान में संशोधन के विधेयकों के लिए भी लागू किए जाएँ। इन सबको संसद ने बाद में बदल दिया।

प्रश्न 10.
अगर संशोधन की शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती है तो न्यायपालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। क्या आप इस बात से सहमत हैं? 100 शब्दों में व्याख्या करें।
उत्तर-
नहीं, हम इस बात से सहमत नहीं हैं। न्यापालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए। हमारे यहाँ सर्वोच्च न्यायालय संविधान की सर्वोच्चता एवं पवित्रता की सुरक्षा करता है; अत: संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के संरक्षण का कार्य भी प्रदान किया गया है, जिसका अर्थ है कि सर्वोच्च न्यायालय को संसद अथवा राज्य विधानमण्डलों द्वारा निर्मित कानून की वैधानिकता की जाँच कराने का अधिकार प्राप्त है। अनुच्छेद 131 और 132 सर्वोच्च न्यायालय को संघीय तथा राज्य सरकारों द्वारा निर्मित विधियों के पुनरावलोकन का अधिकार प्रदान करते हैं; अतः यदि संसद अथवा राज्य विधानमण्डल, संविधान का अतिक्रमण करते हैं या संविधान के विरुद्ध विधि का निर्माण करते हैं, तो संसद या राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्मित ऐसी प्रत्येक विधि को सर्वोच्च न्यायालय अवैधानिक घोषित कर सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय की इस शक्ति को ‘न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति (Power of Judicial Review) कहा जाता है। इसी प्रकार, वह संघ सरकार अथवा राज्य सरकार के संविधान का अतिक्रमण करने वाले समस्त कार्यपालिका आदेशों को भी अवैध घोषित कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय संविधान की व्याख्या करने वाला (Interpreter) अन्तिम न्यायालय है। उसे यह घोषित करना पड़ता है कि किसी विशेष अनुच्छेद का क्या अर्थ है। भारत का सर्वोच्च न्यायालय अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय की भाँति कानून की उचित प्रक्रिया (Due Process of the Law) के आधार पर न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति का प्रयोग न कर कानून के द्वारा स्थापितं प्रक्रिया (Procedure Established by the Law) के आधार पर करता है। इस दृष्टि से भारत का सर्वोच्च न्यायालय केवल संवैधानिक आधारों पर ही संसद अथवा विधानमण्डल के द्वारा पारित कानूनों को अवैध घोषित कर सकता है। इस दृष्टिकोण से भारत के सर्वोच्च न्यायालय की स्थिति अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय से कमजोर है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति के आधार पर संसद का तीसरा सदन नहीं कहा जा सकता है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान की पवित्रता की सुरक्षा कौन करता है?
(क) उच्चतम न्यायालय
(ख) राष्ट्रपति
(ग) संसद
(घ) प्रधानमन्त्री
उत्तर :
(क) उच्चतम न्यायालय।

प्रश्न 2.
न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति निम्नलिखित में से किसके पास है?
(क) राष्ट्रपति
(ख) उच्चतम न्यायालय
(ग) संसद
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(ख) उच्चतम न्यायालय।

प्रश्न 3.
73वाँ तथा 74वाँ संविधान संशोधन किससे सम्बन्धित था?
(क) स्थानीय संस्थाएँ
(ख) राजनीतिक दल
(ग) दल-बदल
(घ) प्रत्याशी जमानत राशि
उत्तर :
(क) स्थानीय संस्थाएँ।

प्रश्न 4.
73वाँ तथा 74वाँ संविधान संशोधन किस वर्ष पारित हुआ?
(क) 1992
(ख) 1991
(ग) 1993
(घ) 1994
उत्तर :
(ख) 1991

प्रश्न 5.
केशवानन्द मामले में उच्चतम न्यायालय ने किस वर्ष निर्णय दिया?
(क) 1973
(ख) 1974
(ग) 1957
(घ) 1975
उत्तर :
(क) 1973

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान संशोधन से क्या आशय है?
उत्तर :
संविधान में परिस्थितियों व समय की आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तन कर नए प्रावधानों को शामिल करने व ढालने की प्रक्रिया को संविधान संशोधन कहते हैं।

प्रश्न 2.
लचीला संविधान क्या है?
उत्तर :
लचीला संविधान वह होता है जिसमें आसानी से संशोधन किया जा सके।

प्रश्न 3.
संविधान संशोधन प्रक्रिया में कौन-सी संस्थाएँ सम्मिलित होती हैं?
उत्तर :
संविधान संशोधन की प्रक्रिया एक लम्बी प्रक्रिया है जिसमें निम्नलिखित संस्थाएँ सम्मिलित होती हैं –

  1. संसद
  2. राज्यों के विधानमण्डल
  3. राष्ट्रपति।

प्रश्न 4.
अनुच्छेद 368 क्या है?
उत्तर :
अनुच्छेद 368 संविधान का वह प्रमुख अनुच्छेद है जिसमें संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया दी गई है, जिसका प्रयोग करके संसद साधारण बहुमत व विशेष बहुमत के आधार पर संविधान में संशोधन कर सकती है।

प्रश्न 5.
संविधान संशोधन में राष्ट्रपति की क्या भूमिका है?
उत्तर :
संविधान संशोधन बिल दोनों सदनों से अलग-अलग पास होने पर राष्ट्रपति के पास भेजा। जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर संशोधन प्रभावी हो जाता है।

प्रश्न 6.
52वाँ संविधान संशोधन किससे सम्बन्धित था?
उत्तर :
52वाँ संविधान संशोधन दल-बदल से सम्बन्धित था।

प्रश्न 7.
यदि किसी संशोधन प्रस्ताव को लोकसभा पास कर दे और राज्यसभा उससे सहमत न हो तो उसका समाधान कैसे होता है?
उत्तर :
संविधान संशोधन बिलों पर संसद के दोनों सदनों का समान अधिकार है। यदि संशोधन बिल एक सदन से पास होने के बाद दूसरे सदन की सहमति प्राप्त नहीं करता तो वह रद्द हो जाता है।

प्रश्न 8.
क्या राष्ट्रपति संशोधन बिल को पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकता है?
उत्तर :
संसद के दोनों सदनों से पास होने के बाद अथवा आधे राज्यों के अनुसमर्थन की प्राप्ति के बाद संशोधन बिल राष्ट्रपति के पास उसकी स्वीकृति हेतु भेजा जाता है। साधारण बिल को तो राष्ट्रपति एक बार पुनर्विचार हेतु वापस भेज सकता है, परन्तु संशोधन बिल पर वह ऐसा नहीं कर सकता और उसे स्वीकृति देनी ही पड़ती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
73वें व 74वें संविधान संशोधन का क्या उद्देश्य था?
उत्तर :
स्वतन्त्रता के पश्चात् बलवन्त मेहता समिति की सिफारिशों के आधार पर स्थानीय संस्थाओं का ग्रामीण क्षेत्र में गठन तो किया गया परन्तु अधिकांश समय तक ये संस्थाएँ अनेक कारणों से क्रियाहीन ही रहीं। इनके पास न पर्याप्त साधन थे न अधिकार। चुनाव प्रक्रिया नियमित न थी। कमजोर वर्गों को भी पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त न था। सन् 1991 में नरसिम्हाराव की सरकार ने इन संस्थाओं (ग्रामीण व शहरी स्तर पर) को संगठनात्मक रूप से सुदृढ़ करने व शक्तिशाली बनाने के उद्देश्यों से 73वाँ वे 74वाँ संविधान संशोधन पारित किया। 73वाँ संविधान संशोधन ग्रामीण क्षेत्र की स्थानीय संस्थाओं से सम्बन्धित है तथा 74वाँ संविधान संशोधन शहरी क्षेत्र की स्थानीय संस्थाओं से सम्बन्धित है। इन संशाधनों के माध्यम से स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं व अनुसूचित जाति के लोगों को अलग-अलग 33% आरक्षण दिया गया है।

प्रश्न 2.
विश्व के आधुनिकतम संविधानों में संशोधन की प्रक्रिया में कौन-से सिद्धान्त प्रयुक्त किए जाते हैं?
उत्तर :
विश्व के आधुनिकतम संविधानों में संशोधन की विभिन्न प्रक्रियाओं में दो सिद्धान्त अधिक अहम भूमिका का निर्वाह करते हैं –

(1) एक सिद्धान्त है विशेष बहुमत का। उदाहरण के लिए; अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, रूस आदि के संविधानों में इस सिद्धान्त का समावेश किया गया है। अमेरिका में दो-तिहाई बहुमत का सिद्धान्त लागू है, जबकि दक्षिण अफ्रीका और रूस जैसे देशों में तीन-चौथाई बहुमत की आवश्यकता होती है।

(2) दूसरा सिद्धान्त है संशोधन की प्रक्रिया में जनता की भागीदारी का। यह सिद्धान्त कई आधुनिक संविधानों में अपनाया गया है। स्विट्जरलैण्ड में तो जनता को संशोधन की प्रक्रिया शुरू करने तक का अधिकार है। रूस और इटली अन्य ऐसे देश हैं जहाँ जनता को संविधान में संशोधन करने या संशोधन के अनुमोदन का अधिकार दिया गया है।

प्रश्न 3.
संविधान की मूल संरचना का सिद्धान्त क्या है?
उत्तर :
भारतीय संविधान के विकास को जिस बात से बहुत दूर तक प्रभावित किया है वह है संविधान की मूल संरचना का सिद्धान्त। इस सिद्धान्त को न्यापालिका ने केशवानन्द भारती के प्रसिद्ध मामले में प्रतिपादित किया था। इस निर्णय ने संविधान के विकास में निम्नलिखित सहयोग दिया –

  1. इस निर्णय द्वारा संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्तियों की सीमाएँ निर्धारित की गईं।
  2. यह संविधान के किसी या सभी भागों के सम्पूर्ण संशोधन (निर्धारित सीमाओं के अन्दर) की अनुमति देता है।
  3. संविधान की मूल संरचना या उसके बुनियादी तत्त्व का उल्लंघन करने वाले किसी संशोधन के विषय में न्यायपालिका का निर्णय अन्तिम होगा-केशवानन्द भारती के मामले में यह बात स्पष्ट की गई थी।

उच्चतम न्यायालय ने केशवानन्द के मामले में 1973 में निर्णय दिया था। बाद के तीन दशकों में संविधान की सभा व्यवस्थाएँ इसे ध्यान में रखकर की गईं।

प्रश्न 4.
भारत की संविधान संशोधन प्रक्रिया में क्या कमियाँ हैं?
उत्तर :
भारत की संविधान संशोधन प्रक्रिया में निम्नलिखित दोष हैं –

  1. भारतीय संघ की इकाइयों अथवा राज्यों को संविधान में संशोधन प्रस्ताव पेश करने का अधिकार नहीं है और यह तथ्य उन्हें केन्द्रीय सरकार से निम्न स्तर की ओर ले जाता है। वे इस दृष्टि से समान भागीदारी नहीं हैं जो पूर्व संघीय व्यवस्था के सिद्धान्तों के विरुद्ध है।
  2. संविधान संशोधन बिल पर संसद तथा संसद व राज्यों से पारित होने के बाद जनमत संग्रह करवाए जाने की व्यवस्था नहीं है और यह तथ्य जन-प्रभुसत्ता के सिद्धान्त का विरोध करता है।
  3. संविधान संशोधन प्रस्ताव पर संसद के दोनों सदनों में यदि मतभेद उत्पन्न हो जाए तो उसके समाधान के लिए किसी प्रकार का तरीका निश्चित नहीं है, वह रद्द हो जाता है। संसद द्वारा पारित संविधान संशोधन प्रस्ताव पर राज्य विधानमण्डलों के अनुसमर्थन की समय-सीमा निश्चित नहीं है। इससे राज्य संविधान में अनावश्यक देरी कर सकते हैं।

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान संशोधन 52 के मुख्य प्रावधान क्या थे?
उत्तर :
52वाँ संविधान संशोधन एक महत्त्वपूर्ण व प्रभावकारी संविधान संशोधन था। इसे सभी राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त था। इसे सन् 1985 में पारित किया गया था। इसके निम्नलिखित प्रमुख प्रावधान थे –

  1. अगर कोई सदस्य किसी पार्टी के टिकट पर जीतने के बाद उस पार्टी को छोड़ता है तो उसकी सदन की सदस्यता समाप्त हो जाएगी।
  2. अगर कोई निर्दलीय सदस्य चुनाव जीतने के बाद किसी दल में सम्मिलित होता है तो उसकी सदस्यता समाप्त हो जाएगी।
  3. अगर कोई सनोनीत सदस्य किसी दल में शामिल हो जाता है तो उसकी सदस्यता समाप्त हो जाएगी।
  4. विघटन व विलय की स्थिति में यह कानून लागू नहीं होगा। (5) संशोधन के कानून के सम्बन्ध में अन्तिम निर्णय अध्यक्ष का होगा।

प्रश्न 2.
संविधान संशोधन प्रक्रिया की सामान्य विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान में दी गई संशोधन विधि की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. संविधान में संशोधन के कार्य के लिए किसी अलग संस्था की व्यवस्था नहीं की गई। यह शक्ति केन्द्रीय संसद को सौंप दी गई है।
  2. राज्यों के विधानमण्डलों को संशोधन बिल आरम्भ करने का अधिकार प्राप्त नहीं है।
  3. संविधान की धारा 368 में लिखे गए विशेष उपबन्धों के अतिरिक्त संशोधन बिल साधारण बिल की भाँति संसद द्वारा ही पास किए जाते हैं। इसके लिए दोनों सदनों का आवश्यक बहुमत प्राप्त हो जाने पर राष्ट्रपति की स्वीकृति ली जाती है। इसके लिए जनमत संग्रह की कोई व्यवस्था नहीं की गई, जबकि स्विट्जरलैण्ड, अमेरिका तथा ऑस्ट्रेलिया आदि देशों के कुछ विशेष राज्यों में इस प्रकार की व्यवस्था की गई है।
  4. संसद में संशोधन बिल पेश करने के लिए राष्ट्रपति की पूर्व-अनुमति अनिवार्य नहीं है।
  5. संविधान में कुछ विशेष संशोधनों के लिए कम-से-कम आधे राज्यों की स्वीकृति आवश्यक है, जबकि अमेरिकी संविधान में कम-से-कम तीन-चौथाई राज्यों की स्वीकृति आवश्यक है।
  6. संविधान की समस्त धाराओं को संशोधित किया जा सकता है, यहाँ तक कि संविधान का संशोधन करने की धारा 368 का भी संशोधन किया जा सकता है।

प्रश्न 3.
राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल तथा राज्यसभा द्वारा संविधान संशोधन किस प्रकार सम्भव
उतर :

1. राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल द्वारा संविधान संशोधन – राष्ट्रपति तथा राज्यपाल कुछ धाराओं का प्रयोग करके संविधान में आगामी परिवर्तन कर सकते हैं, उदाहरणतया राष्ट्रपति, धारा 331 के अन्तर्गत दो एंग्लो-इण्डियनों को लोकसभा में मनोनीत कर सकता है, यदि वह अनुभव करे। कि ऐंग्लो-इण्डियन समुदाय को लोकसभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हुआ है। राष्ट्रपति द्वारा इस शक्ति के प्रयोग को धारा 81 में निश्चित लोकसभा की संख्या पर प्रभाव पड़ सकता है। राज्यपाल को भी राष्ट्रपति को इस तरह इस शक्ति प्रयोग करके विधानसभा की सदस्य-संख्या में परिवर्तन करने का अधिकार प्राप्त है। राज्यपाल को एंग्लो-इण्डियन को नियुक्त करने का अधिकार संविधान की धारा 333 के अन्तर्गत प्राप्त है। असम का राज्यपाल छठी अनुसूची में दी गई कबाइली प्रदेशों की सूची में स्वयं परिवर्तन कर सकता है। राज्य की भाषा निश्चित करने का अधिकार विधानमण्डल को प्राप्त है। परन्तु यदि राष्ट्रपति को विश्वास हो जाए कि राज्य की जनसंक्ष्या का एक प्रमुख भाग निश्चित भाषा का । प्रयोग करता है तो वह उस भाषा को भी सरकारी रूप से प्रयोग किए जाने का आदेश जारी कर सकता है। राष्ट्रपति धारा 356 का प्रयोग करके राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर सकता है।

2. राज्यसभा द्वारा संशोधन – संविधान की धारा 249 के अन्तर्गत यदि राज्यसभा दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पास कर दे कि राज्य सूची के अमुक विषय पर संसद द्वारा कानून का बनाया जाना राष्ट्रीय हित के लिए आवश्यक अथवा लाभदायक है तो संसद को राज्य सूची के उस विषय पर समस्त भारत या उसके किसी भाग के लिए कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है, परन्तु संसद को यह अधिकार एक वर्ष के लिए ही प्राप्त होता है। संविधान के इस परिवर्तन को हम संशोधन नहीं कह सकते, क्योंकि यह परिवर्तन स्थायी न होकर अस्थायी होता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
संविधान में विभिन्न अनुच्छेदों का संशोधन करने के लिए निम्नलिखित तीन विधियाँ व्यवहार में लाई जाती हैं –

(1) अनुच्छेद 4 तथा 11 के अनुसार इस संविधान के कुछ भागों में संशोधन संसद के दोनों सदनों के साधारण बहुमत से किया जाता है, परन्तु इस प्रकार के अनुच्छेद बहुत थोड़े हैं। नए राज्यों को बनाने, पुराने राज्यों के पुनर्गठन, भारतीय नागरिकों की योग्यता परिवर्तन, राज्यों में द्वितीय सदन का बनाना अथवा उसे समाप्त करना, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित क्षेत्रों सम्बन्धी व्यवस्था में परिवर्तन के लिए इस विधि का प्रयोग किया जाता है। यह उल्लेखनीय है कि इन मामलों का सम्बन्ध यद्यपि संविधान की व्यवस्थाओं से है तथापि वास्तव में इन्हें संविधान के संशोधन नहीं माना जाता।

(2) संविधान के अनुच्छेद 368 के अधीन इसके कुछ भागों में परिवर्तन संसद के प्रत्येक सदन के कुल सदस्यों के साधारण बहुमत, परन्तु उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से किया जाता है परन्तु आधे राज्यों के विधानमण्डलों का समर्थन आवश्यक है। राष्ट्रपति के चुनाव की विधि, राज्यों तथा केन्द्र की शक्तियों, सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालयों सम्बन्धी व्यवस्था, संसद में राज्यों के प्रतिनिधित्व सम्बन्धी परिवर्तन के लिए इस प्रक्रिया को अपनाया गया है। उल्लेखनीय है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में इसके लिए कांग्रेस के उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत तथा तीन-चौथाई राज्यों के समर्थन की आवश्यकता है। परन्तु वह समर्थन राज्य सरकारों का है, विधानमण्डलों का नहीं।

(3) संविधान के अन्य अनुच्छेदों का परिवर्तन संसद प्रत्येक सदन के कुल सदस्यों के साधारण बहुमत परन्तु मतदान के समय उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से कर सकती है। उल्लेखनीय है कि मौलिक अधिकारों में परिवर्तन यद्यपि इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत है। गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार के मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि संसद को मूल अधिकारों में कटौती करने का अधिकार नहीं है और इस बात का निर्णय करने का अधिकार न्यायालय को है कि मूल अधिकारों में कटौती की है, अथवा नहीं। इसी न्यायालय ने शंकरप्रसाद बनाम भारत सरकार के मुकदमे में यह निर्णय दिया है कि संविधान में परिवर्तन एक विधायी प्रक्रिया है और संसद द्वारा साधारण विधायी प्रक्रिया के लिए अनुच्छेद 118 के अन्तर्गत बनाए गए नियम संविधान में संशोधन के विधेयकों के लिए भी लागू किए जाएँ। संविधान की धारा 368 में किए गए संशोधनों की विधि के अतिरिक्त कुछ अन्य धाराओं के अन्तर्गत भी परिवर्तन किया जा सकता है और शासन प्रणाली को प्रभावित किया जा सकता है। यह बात अलग है कि हम इन परिवर्तनों को संशोधन का नाम नहीं दे सकते, क्योंकि ये धारा 368 में नहीं आते हैं।

प्रश्न 2.
भारत की संविधान संशोधन प्रक्रिया के दोष लिखिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान में संशोधन की विधि में बहुत दोष हैं, क्योंकि संशोधन विधि में बहुत-सी बातें स्पष्ट नहीं हैं, जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं –

1. सभी धाराओं में संशोधन करने के लिए राज्यों की स्वीकृति नहीं ली जाती – संविधान की सभी धाराओं में संशोधन करने के लिए राज्यों की स्वीकृति नहीं ली जाती, बल्कि कुछ ही धाराओं पर राज्यों की स्वीकृति ली जाती है। संविधान का अधिकांश हिस्सा ऐसा है, जिसमें संसद स्वयं ही संशोधन कर सकती है।

2. राज्यों के अनुसमर्थन के लिए समय निश्चित नहीं – संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह संविधान में किए जाने वाले संशोधन को राज्यों द्वारा समर्थन अथवा अस्वीकृत के लिए भारतीय संविधान में कोई भी समय निश्चित नहीं किया गया है। भारत में अभी तक इस दोष को अनुभव नहीं किया गया, क्योंकि प्रायः एक ही दल का शासन केन्द्र तथा राज्यों में रहा है और आधे राज्यों का अनुसमर्थन आसानी से प्राप्त हो जाता है। परन्तु आज जिस प्रकार की स्थिति है, उससे यह दोष स्पष्ट हो जाता है।

3. संशोधन विधेयक को राज्यों के पास भेजने की भ्रमपूर्ण स्थिति – संविधान में यह भी स्पष्ट नहीं किया गया है कि क्या संविधान में संशोधनों के विधेयकों को सभी राज्यों को भेजा जाना आवश्यक है अथवा उसे उनमें से कुछ एक राज्यों को भेजा जाना पर्याप्त है। संविधान में संशोधन के तीसरे विधेयक को कुछ राज्यों की राय जानने से पूर्व ही पास कर दिया गया था। और मैसूर की विधानसभा ने इसके विरुद्ध आपत्ति की थी।

4. संशोधन प्रस्ताव पर राष्ट्रपति की स्वीकृति – संविधान के अनुच्छेद 368 के खण्ड 2 में कहा गया है कि जब किसी विधेयक को संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया जाए, तो उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाएगा उसके पश्चात् राष्ट्रपति विधेयक को अपनी सहमति प्रदान कर हस्ताक्षर कर देगा और तब संविधान संशोधन लागू माना जाएगा।

5. राज्यों को संशोधन प्रस्ताव प्रस्तुत करने का अधिकार नहीं – उल्लेखनीय है कि संविधान में संशोधन का प्रस्ताव केवल संघीय विधानमण्डलों अर्थात् संसद में ही प्रस्तुत किया जा सकता है। कोई भी राज्य विधानमण्डल ऐसा प्रस्ताव केवल उस अवस्था में कर सकता है, जब वह अनुच्छेद 169 के अन्तर्गत विधानपरिषद् को समाप्त करना अथवा उसकी स्थापना करना चाहता हो।

6. अनेक अनुच्छेदों का साधारण प्रक्रिया के द्वारा संशोधन सम्भव – संविधान की धाराएँ ऐसी हैं, जिनके लिए संवैधानिक सुरक्षा की आवश्यकता नहीं थी और संसद के साधारण बहुमत से संशोधन किए जाने से किसी प्रकार की हानि की सम्भावना नहीं थी। उदाहरण के लिए; धारा 224 द्वारा सेवानिवृत्त न्यायाधीश को न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर कार्य करने का अधिकार दिया गया है। इस धारा को बदलने के लिए किसी विशेष तरीके को अपनाने की कोई आवश्यकता नहीं थी।

7. जनमत संग्रह की व्यवस्था नहीं – भारत में संविधान संशोधन की विधि ऐसी है, जिसमें जनता की अवहेलना हो सकती है, क्योंकि इसमें जनता की राय जानने की कोई व्यवस्था नहीं है। 44वें संशोधन विधेयक के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि संविधान की मूल विशेषताओं को जनमत संग्रह द्वारा ही बदला जा सकता है। इस संशोधन को लोकसभा ने पारित कर दिया, परन्तु राज्यसभा ने इस संशोधन विधेयक की जनमत संग्रह की धारा को पास नहीं किया। राज्यसभा को यह विचार है कि भारत जैसे देश के लिए जनमत संग्रह करवाना बहुत कठिन है। और अव्यावहारिक भी है।

उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया इतनी जटिल नहीं है जितनी कि अमेरिका तथा स्विट्जरलैण्ड के संविधानों की है और न ही ब्रिटेन के संविधान के समान इतनी सरल है कि इसे साधारण प्रक्रिया से संशोधित किया जा सके। इस दृष्टिकोण से भारत के संविधान संशोधन की प्रक्रिया सरल तथा जटिल दोनों प्रकार की है। संशोधन की इस प्रक्रिया के कारण ही भारत का संविधान सामाजिक तथा आर्थिक विकास का सूत्रधार बना।

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UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 8 Local Governments

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 8 Local Governments (स्थानीय शासन)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Political Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 8 Local Governments (स्थानीय शासन).

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारत का संविधान ग्राम पंचायत को स्व-शासन की इकाई के रूप में देखता है। नीचे कुछ स्थितियों का वर्णन किया गया है। इन पर विचार कीजिए और बताइए कि स्व-शासन की इकाई बनने के क्रम में पंचायत के लिए ये स्थितियाँ सहायक हैं या बाधक?

(क) प्रदेश की सरकार ने एक बड़ी कम्पनी को विशाल इस्पात संयंत्र लगाने की अनुमति दी है। इस्पात संयंत्र लगाने से बहुत-से गाँवों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। दुष्प्रभाव की चपेट में आने वाले गाँवों में से एक की ग्राम सभा ने यह प्रस्ताव पारित किया कि क्षेत्र में कोई भी बड़ा उद्योग लगाने से पहले गाँववासियों की राय ली जानी चाहिए और उनकी शिकायतों की सुनवाई होनी चाहिए।

(ख) सरकार का फैसला है कि उसके कुल खर्चे का 20 प्रतिशत पंचायतों के माध्यम से व्यय होगा।

(ग) ग्राम पंचायत विद्यालय का भवन बनाने के लिए लगातार धन माँग रही है, लेकिन सरकारी अधिकारियों ने माँग को यह कहकर ठुकरा दिया है कि धन का आवंटन कुछ दूसरी योजनाओं के लिए हुआ है और धन को अलग मद में खर्च नहीं किया जा सकता।

(घ) सरकार ने डूंगरपुर नामक गाँव को दो हिस्सों में बाँट दिया है और गाँव के एक हिस्से को जमुना तथा दूसरे को सोहना नाम दिया है। अब डूंगरपुर गाँव सरकारी खाते में मौजूद नहीं है।

(ङ) एक ग्राम पंचायत ने पाया कि उसके इलाके में पानी के स्रोत तेजी से कम हो रहे हैं। ग्राम पंचायतों ने फैसला किया कि गाँव के नौजवान श्रमदान करें और गाँव के पुराने तालाब तथा कुएँ को फिर से काम में आने लायक बनाएँ।
उत्तर-
(क) यह स्थिति ग्राम पंचायत में बाधक है क्योंकि यहाँ पर सरकार ने ग्राम पंचायत से परामर्श किए बिना एक बड़ा इस्पात संयंत्र लगाने का फैसला किया जिससे ग्राम के गरीब लोगों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

(ख) यह स्थिति भी ग्राम पंचायत के लिए बाधक है क्योंकि इससे ग्राम पंचायत पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा।

(ग) तीसरी स्थिीत में भी ग्राम पंचातय की विद्यालय भवन-निर्माण के लिए की जा रही धन की माँग को ठुकरा दिया गया है जिससे ग्राम पंचायत की स्थिति कमजोर होती है।

(घ) यहाँ ग्राम के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया गया है; अतः ग्राम पंचायत होगी ही नहीं।

(ङ) ग्राम पंचायत के लिए यह स्थिति सहायक है। इसमें पानी की कमी को दूर करने के लिए ग्राम के नौजवानों का सहयोग लेकर पुराने कुओं और तालाबों को कामयाब बनाने का प्रयास किया गया है।

प्रश्न 2.
मान लीजिए कि आपको किसी प्रदेश की तरफ से स्थानीय शासन की कोई योजना बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। ग्राम पंचायत स्व-शासन की इकाई के रूप में काम करे, इसके लिए आप उसे कौन-सी शक्तियाँ देना चाहेंगे? ऐसी पाँच शक्तियों का उल्लेख करें और प्रत्येक शक्ति के बारे में दो-दो पंक्तियों में यह भी बताएँ कि ऐसा करना क्यों जरूरी है।
उत्तर-
ग्राम पंचायतों को योजना की सफलता के लिए निम्नलिखित शक्तियाँ प्रदान की जा सकती हैं-
1. शिक्षा के विकास के क्षेत्र में – शिक्षा का विकास ग्रामीण क्षेत्र के लिए अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षा-प्राप्ति के पश्चात् ही नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों को जान सकेंगे तथा अपनी भागीदारी को निश्चित करेंगे।
2. स्वास्थ्य के विकास के क्षेत्र में – ग्रामों में स्वास्थ्य शिक्षा का व स्वास्थ्य सुविधाओं का प्रायः अभाव रहता है; अत: इस क्षेत्र में ग्राम पंचायत की महत्त्वपूर्ण भूमिका अपेक्षित है।
3. कृषि के विकास के क्षेत्र में – कृषि का विकास ग्रामीण क्षेत्र की प्रमुख आवश्यकता है, क्योंकि ग्रामीण जीवन कृषि पर ही निर्भर करता है। ग्राम पंचायत, ग्राम व सरकार के बीच कड़ी है। अत: इस क्षेत्र में ग्राम पंचायत को विशेष कार्य करना चाहिए।
4. खेतों में उत्पन्न फसल को बाजार तक ले जाने के बारे में जानकारी देना – ग्रामीणों को खेतों में उपजे अन्न को ग्राम में ही बेचना पड़ता है, जिसके कारण उन्हें पैदावार का उचित लाभ नहीं मिल पाता। अतः यह आवश्यक है कि पैदावार सही समय पर बाजार में पहुंचाई जाए।
5. पंचायतों के वित्तीय स्रोतों को एकत्र करना – ग्राम की आर्थिक दशा हमेशा कमजोर रहती है; अत: ग्राम के सभी स्रोतों का समुचित उपयोग करना चाहिए और ग्राम पंचायत को सरकार से ग्रामीण विकास के लिए आवश्यक धन लेना चाहिए।

प्रश्न 3.
सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए संविधान के 73वें संशोधन में आरक्षण के क्या प्रावधान हैं? इन प्रावधानों से ग्रामीण स्तर के नेतृत्व का खाका किस तरह बदलता है?
उत्तर-
संविधान के 73 वें संशोधन से अनुसूचित जाति के लोगों के लिए व महिलाओं के लिए कुछ सीटों में से प्रत्येक वर्ग के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित की गई हैं। यह आरक्षण ग्राम पंचायतों, पंचायत समितियों व जिला परिषदों में सदस्यों व पदों में किया गया है। इस आरक्षण से महिलाओं की व अनुसूचित जाति के लोगों की स्थिति में सम्मानजनक परिवर्तन हुआ है। इससे पहले इन वर्गों की स्थानीय संस्थाओं में पर्याप्त भागीदारी नहीं हुआ करती थी। परन्तु अब यह भागीदारी निश्चित हो गई है। जिससे इनमें एक विश्वास उत्पन्न हुआ है।

प्रश्न 4.
संविधान के 73 वें संशोधन से पहले और संशोधन के बाद स्थानीय शासन के बीच मुख्य भेद बताएँ।
उत्तर-

  1. 73वें संविधान संशोधन से पूर्व ग्राम पंचायतें सरकारी आदेशों के अनुसार गठित की जाती थीं परन्तु 73वें संशोधन के पश्चात् से इनका संवैधानिक आधार हो गया है।
  2. 73वें संविधान संशोधन से पूर्व इन संस्थाओं के चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से हुआ करते थे परन्तु 73 वें संशोधन के बाद से चुनाव प्रत्यक्ष होते हैं।
  3. 73वें संविधान संशोधन से पहले अनुसूचित जाति व महिलाओं के लिए स्थानों में आरक्षण की व्यवस्था नहीं थी परन्तु 73वें संविधान संशोधन के पश्चात् महिलाओं व अनुसूचित जाति के लोगों को आरक्षण दिया गया है।
  4. पहले इन संस्थाओं के कार्यकाल अनिश्चित थे परन्तु अब निश्चित कर दिए गए हैं।
  5. 73वें संविधान संशोधन से पूर्व ये संस्थाएँ आर्थिक रूप से कमजोर थीं परन्तु अब आर्थिक रूप से सुदृढ़ हैं।

प्रश्न 5.
नीचे लिखी बातचीत पढे। इस बातचीत में जो मुद्दे उठाए गए हैं उसके बारे में अपना मत दो सौ शब्दों में लिखें।

आलोक – हमारे संविधान में स्त्री और पुरुष को बराबरी का दर्जा दिया गया है। स्थानीय निकायों से स्त्रियों को आरक्षण देने से सत्ता में उनकी बराबर की भागीदारी सुनिश्चित हुई है।

नेहा – लेकिन, महिलाओं को सिर्फ सत्ता के पद पर काबिज होना ही काफी नहीं है। यह भी जरूरी है कि स्थानीय निकायों के बजट में महिलाओं के लिए अलग से प्रावधान हो।

जएश – मुझे आरक्षण का यह गोरखधन्धा पसन्द नहीं। स्थानीय निकाय को चाहिए कि वह गाँव के सभी लोगों का खयाल रखे और ऐसा करने पर महिलाओं और उनके हितों की देखभाल अपने आप हो जाएगी।
उत्तर-
विगत 60 वर्षों की स्थानीय संस्थाओं की कार्यशैली व ग्रामीण वातावरण के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि इन स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं का व अनुसूचित जाति के लोगों का इनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं हुआ। जो प्रतिनिधित्व था वह बहुत कम था। 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन के आधार पर महिलाओं व अनुसूचित जाति के लोगों को ग्रामीण व नगरीय स्थानीय संस्थाओं में प्रत्येक को कुल स्थानों का एक-तिहाई आरक्षण दिया गया है जिससे महिलाओं की व अनुसूचित जाति के लोगों की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आया है वे इनमें एक विश्वास उत्पन्न हुआ है। इस आरक्षण से इन वर्गों की स्थानीय संस्थाओं में भागीदारी सुनिश्चित हुई है।

स्थानीय संस्थाएँ प्रशासन की इकाई हैं जिन्हें आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता है। इसके लिए स्थानीय स्रोतों का उपभोग करने के साथ-साथ प्रान्तीय सरकारों के केन्द्र सरकारों को भी इन स्थानीय संस्थाओं की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए।

साथ ही महिलाओं के लिए भी बजट में अलग प्रावधान होना चाहिए। साथ ही यह भी सत्य है कि केवल आरक्षण ही काफी नहीं है, स्थानीय निकाय को चाहिए कि वे गाँव के सभी लोगों के लिए विकास कार्यों का ध्यान रखें।

प्रश्न 6.
73 वें संशोधन के प्रावधानों को पढे। यह संशोधन निम्नलिखित सरोकारों में से किससे ताल्लुक रखता है?
(क) पद से हटा दिए जाने का भय जन-प्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है।
(ख) भूस्वामी सामन्त और ताकतवर जातियों का स्थानीय निकायों में दबदबा रहता है।
(ग) ग्रामीण क्षेत्रों में निरक्षरता बहुत ज्यादा है। निरक्षर लोगों गाँव के विकास के बारे में फैसला नहीं ले सकते हैं।
(घ) प्रभावकारी साबित होने के लिए ग्राम पंचायतों के पास गाँव की विकास योजना बनाने की शक्ति और संसाधन का होना जरूरी है।
उत्तर-
(घ) प्रभावकारी साबित होने के लिए ग्राम पंचायतों के पास गाँव की विकास योजना बनाने की शक्ति और संसाधन को होना जरूरी है।

प्रश्न 7.
नीचे स्थानीय शासन के पक्ष में कुछ तर्क दिए गए हैं। इन तर्को को आप अपनी पसंद से वरीयता क्रम में सजाएँ और बताएँ कि किसी एक तर्क की अपेक्षा दूसरे को आपने ज्यादा महत्त्वपूर्ण क्यों माना है? आपके जानते वेगवसल गाँव की ग्राम पंचायत का फैसला निम्नलिखित कारणों में से किस पर और कैसे आधारित था?
(क) सरकार स्थानीय समुदाय को शामिल कर अपनी परियोजना कम लागत में पूरी कर सकती है।
(ख) स्थानीय जनता द्वारा बनायी गई विकास योजना सरकारी अधिकारियों द्वारा बनायी गई विकास योजना से ज्यादा स्वीकृत होती है।
(ग) लोग अपने इलाके की जरूरत, समस्याओं और प्राथमिकताओं को जानते हैं। सामुदायिक भागीदारी द्वारा उन्हें विचार-विमर्श करके अपने जीवन के बारे में फैसला लेना चाहिए।
(घ) आम जनता के लिए अपने प्रदेश अथवा राष्ट्रीय विधायिका के जन-प्रतिनिधियों से संपर्क कर पाना मुश्किल होता है।
उत्तर-
उपर्युक्त को वरीयता क्रम निम्नवत् होगा-
(1) ग (2) क (3) खे (4) घ।
बैंगेवसल गाँव की पंचायत का फैसला ‘ग’ उदाहरण पर आधारित है जिसमें यह व्यक्त किया गया है। कि स्थानीय लोग अपनी समस्याओं, हितों व प्राथमिकताओं को बेहतर समझते हैं। अत: उन्हें अपने बारे में निर्णय लेने का स्वयं अधिकार प्रदान करना चाहिए।

प्रश्न 8.
आपके अनुसार निम्नलिखित में कौन-सा विकेंद्रीकरण का साधन है? शेष को विकेंद्रीकरण के साधन के रूप में आप पर्याप्त विकल्प क्यों नहीं मानते?
(क) ग्राम पंचायत का चुनाव होगा।
(ख) गाँव के निवासी खुद तय करें कि कौन-सी नीति और योजना गाँव के लिए उपयोगी है।
(ग) ग्राम सभा की बैठक बुलाने की ताकत।
(घ) प्रदेश सरकार ने ग्रामीण विकास की एक योजना चला रखी है। प्रखंड विकास अधिकारी (बीडीओ) ग्राम पंचायत के सामने एक रिपोर्ट पेश करता है कि इस योजना में कहाँ तक प्रगति हुई है।
उत्तर-
(ख) उदाहरण में शक्तियों के विकेन्द्रीकरण की स्थिति है जिसमें ग्राम के लोग स्वयं यह निश्चित करते हैं कि कौन-सी परियोजना उनके लिए उपयोगी है। अन्य उदाहरणों में विकेन्द्रीकरण की स्थितिं निम्नलिखित कारणों से प्रतीत नहीं होती-
(क) ग्राम पंचायतों के चुनाव से सम्बद्ध है।
(ग) ग्राम सभा की बैठक बुलाने की बात कही गई है।
(घ) बीडीओ ग्राम पंचायत के समक्ष रिपोर्ट पेश करता है।

प्रश्न 9.
दिल्ली विश्वविद्यालय का एक छात्र प्राथमिक शिक्षा के निर्णय लेने में विकेन्द्रीकरण की भूमिका का अध्ययन करना चाहता था। उसने गाँववासियों से कुछ सवाल पूछे। ये सवाल नीचे लिखे हैं। यदि गाँववासियों में आप शामिल होते तो निम्नलिखित प्रश्नों के क्या उत्तर देते?
गाँव का हर बालक/बालिका विद्यालय जाए, इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कौन-से कदम उठाए जाने चाहिए-इस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए ग्राम सभा की बैठक बुलाई जानी है।

(क) बैठक के लिए उचित दिन कौन-सा होगा, इसका फैसला आप कैसे करेंगे? सोचिए कि आपके चुने हुए दिन में कौन बैठक में आ सकता है और कौन नहीं?
(अ) प्रखण्ड विकास अधिकारी अथवा कलेक्टर द्वारा तय किया हुआ कोई दिन।
(ब) गाँव का बाजार जिस दिन लगता है।
(स) रविवार।
(द) नाग पंचमी/संक्रांति

(ख) बैठक के लिए उचित स्थान क्या होगा? कारण भी बताएँ।
(अ) जिला-कलेक्टर के परिपत्र में बताई गई जगह।
(ब) गाँव का कोई धार्मिक स्थान।
(स) दलित मोहल्ला।
(द) ऊँची जाति के लोगों का टोला।
(ध) गाँव का स्कूल।

(ग) ग्राम सभा की बैठक में पहले जिला-समाहर्ता (कलेक्टर) द्वारा भेजा गया परिपत्र पढ़ा गया। परिपत्र में बताया गया था कि शैक्षिक रैली को आयोजित करने के लिए क्या कदम उठाए जाएँ और रैली किस रास्ते होकर गुजरे। बैठक में उन बच्चों के बारे में चर्चा नहीं हुई जो कभी स्कूल नहीं आते। बैठक में बालिकाओं की शिक्षा के बारे में, विद्यालय भवन की दशा के बारे में और विद्यालय के खुलने-बंद होने के समय के बारे में भी चर्चा नहीं हुई। बैठक रविवार के दिन हुई इसलिए कोई महिला शिक्षक इस बैठक में नहीं आ सकी। लोगों की भागीदारी के लिहाज से इसको आप अच्छा कहेंगे या बुरा? कारण भी बताएँ।।

(घ) अपनी कक्षा की कल्पना ग्राम सभा के रूप में करें। जिस मुद्दे पर बैठक में चर्चा होनी थी उस पर कक्षा में बातचीत करें और लक्ष्य को पूरा करने के लिए कुछ उपाय सुझाएँ।
उत्तर-
(क) प्रखण्ड विकास अधिकारी अथवा कलेक्टर द्वारा निश्चित किया हुआ कोई दिन।
(ख) गाँव का स्कूल बैठक के लिए उचित स्थान रहेगा क्योकि यहाँ पर गाँव के सभी लोग आते हैं। वे इस स्थान से भली-भाँति परिचित हैं।
(ग) उपर्युक्त स्थिति में स्पष्ट किया गया है कि स्थानीय सरकारों की वास्तविक स्थिति क्या है तथा स्थानीय संस्थाओं की बैठकों में स्थानीय लोगों की भागीदारी कितनी कम होती है। इन संस्थाओं की बैठकें केवल औपचारिकताएँ होती हैं तथा स्थानीय लोगों को निर्णयों की सूचना दे दी जाती है। महिलाओं की अनुपस्थिति इन बैठकों में लगभग ने
के बराबर ही होती है तथा उनके विचारों पर कोई ध्यान नहीं देती।
(घ) अगर हमारी कक्षा एक ग्राम सभा में परिवर्तित हो जाए और उसमें चर्चा का विषय, स्थानीय लोगों का कल्याण व भागीदारी हो तो इस बात का सर्वसम्मति से निर्णय करने का प्रयाय किया जाएगा कि शक्तियों के विकेन्द्रीकरण के उद्देश्य को प्राप्त किया जाए। इसके लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं-

  • ग्राम विकास में स्थानीय लोगों की भागीदारी होनी चहिए।
  • शक्तियों का अधिक-से-अधिक विकेन्द्रीकरण हो।
  • महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हो।
  • कमजोर वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त हो।
  • सरकार की ग्रामों तक सीधी पहुँच हो।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पंचायत समिति का क्षेत्र है –
(क) ग्राम
(ख) जिला
(ग) विकास खण्ड
(घ) नगर
उत्तर :
(क) ग्राम

प्रश्न 2.
पंचायती राज-व्यवस्था में एकरूपता संविधान के किस संशोधन द्वारा लाई गई?
(क) 42वें संशोधन द्वारा
(ख) 73वें संशोधन द्वारा
(ग) 46वें संशोधन द्वारा
(घ) 44वें संशोधन द्वारा
उत्तर :
(ख) 73वें संशोधन द्वारा

प्रश्न 3.
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई है –
(क) ग्राम
(ख) जिला
(ग) प्रदेश
(घ) नगर
उत्तर :
(ख) जिला

प्रश्न 4.
पंचायती राज का सबसे निचला स्तर है –
(क) ग्राम पंचायत
(ख) ग्राम सभा
(ग) पंचायत समिति
(घ) न्याय पंचायत
उत्तर :
(क) ग्राम पंचायत।

प्रश्न 5.
न्याय पंचायत के कार्य-क्षेत्र में सम्मिलित नहीं है
(क) छोटे दीवानी मामलों का निपटारा
(ख) मुजरिमों पर जुर्माना
(ग) मुजरिमों को जेल भेजना
(घ) छोटे फौजदारी मामलों का निपटारा
उत्तर : 
(ग) मुजरिमों को जेल भेजना।

प्रश्न 6.
जिला परिषद् के सदस्यों में सम्मिलित नहीं है –
(क) जिलाधिकारी
(ख) पंचायत समितियों के प्रधान
(ग) कुछ विशेषज्ञ
(घ) न्यायाधीश
उत्तर :
(घ) न्यायाधीश।

प्रश्न 7.
ग्राम पंचायत की बैठक होनी आवश्यक है –
(क) एक सप्ताह में एक
(ख) एक माह में एक
(ग) एक वर्ष में दो
(घ) एक वर्ष में चार
उत्तर :
(ख) एक माह में एक।

प्रश्न 8.
नगरपालिका के अध्यक्ष का चुनाव होता है –
(क) एक वर्ष के लिए
(ख) पाँच वर्ष के लिए
(ग) चार वर्ष के लिए
(घ) तीन वर्ष के लिए
उत्तर :
(ख) पाँच वर्ष के लिए।

प्रश्न 9.
नगरपालिका परिषद् का ऐच्छिक कार्य है
(क) नगरों में रोशनी का प्रबन्ध करना
(ख) नगरों में पेयजल की व्यवस्था करना
(ग) नगरों की स्वच्छता का प्रबन्ध करना
(घ) प्रारम्भिक शिक्षा से ऊपर शिक्षा की व्यवस्था करना
उत्तर :
(घ) प्रारम्भिक शिक्षा से ऊपर शिक्षा की व्यवस्था करना।

प्रश्न 10.
जिला परिषद की आय का साधन है –
(क) भूमि पर लगान
(ख) चुंगी कर
(ग) हैसियत एवं सम्पत्ति कर
(घ) आयकर
उत्तर :
(ग) हैसियत एवं सम्पत्ति कर।

प्रश्न 11.
जिला पंचायत कार्य नहीं करती
(क) जन-स्वास्थ्य के लिए रोगों की रोकथाम करना
(ख) सार्वजनिक पुलों तथा सड़कों का निर्माण करना
(ग) प्रारम्भिक स्तर से ऊपर की शिक्षा का प्रबन्ध करना
(घ) यातायात का प्रबन्ध करना
उत्तर :
(घ) यातायात का प्रबन्ध करना

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से कौन-सा कार्य नगरपालिका परिषद् नहीं करती ?
(क) पीने के पानी की आपूर्ति
(ख) रोशनी की व्यवस्था
(ग) उच्च शिक्षा का संगठन
(घ) जन्म-मृत्यु का लेखा
उत्तर :
(ग) उच्च शिक्षा का संगठन।

प्रश्न 13.
जनपद का सर्वोच्च अधिकारी है –
(क) मुख्यमन्त्री
(ख) जिलाधिकारी
(ग) पुलिस अधीक्षक
(घ) जिला प्रमुख
उत्तर :
(ख) जिलाधिकारी।

प्रश्न 14.
जिले के शिक्षा विभाग का प्रमुख अधिकारी है –
(क) जिला विद्यालय निरीक्षक
(ख) बेसिक शिक्षा अधिकारी
(ग) राजकीय विद्यालय क़ा प्रधानाचार्य
(घ) माध्यमिक शिक्षा परिषद् का क्षेत्रीय अध्यक्ष
उत्तर :
(क) जिला विद्यालय निरीक्षक।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्थानीय स्वशासन से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
स्थानीय स्वशासन से आशय है-किसी स्थान विशेष के शासन का प्रबन्ध उसी स्थान के लोगों द्वारा किया जाना तथा अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं खोजना।।

प्रश्न 2.
स्थानीय शासन तथा स्थानीय स्वशासन में दो भेद बताइए।
उत्तर :

  1. स्थानीय शासन उतना लोकतान्त्रिक नहीं होता जितना स्थानीय स्वशासन होता है।
  2. स्थानीय शासन स्थानीय स्वशासन की अपेक्षा कम कुशल होता है।

प्रश्न 3.
क्या पंचायती राज-व्यवस्था अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल हो सकी है ?
उत्तर :
यद्यपि कहीं-कहीं पर पंचायती राज व्यवस्था ने कुछ अच्छे कार्य किये हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि पंचायती राज व्यवस्था अपने उद्देश्यों की पूर्ति में सफल कम ही हुई है।

प्रश्न 4.
पंचायती राज की तीन स्तरीय व्यवस्था क्या है ?
उत्तर :
पंचायती राज की तीन स्तरीय व्यवस्था के अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों के लिए तीन इकाइयों का प्रावधान किया गया है –

  1. ग्राम पंचायत
  2. पंचायत समिति तथा
  3. जिला परिषद्।

प्रश्न 5.
पंचायती राज को सफल बनाने के लिए किन शर्तों का होना आवश्यक है ?
उत्तर :
पंचायती राज को सफल बनाने के लिए इन शर्तों का होना आवश्यक है –

  1. लोगों का शिक्षित होना
  2. स्थानीय मामलों में लोगों की रुचि
  3. कम-से-कम सरकारी हस्तक्षेप तथा
  4. पर्याप्त आर्थिक संसाधन।

प्रश्न 6.
जिला प्रशासन के दो मुख्य अधिकारियों के नाम लिखिए।
उत्तर :
जिला प्रशासन के दो मुख्य अधिकारी हैं –

  1. जिलाधीश तथा
  2. वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एस०एस०पी०)।

प्रश्न 7.
जिला पंचायत के चार अनिवार्य कार्य बताइए।
उत्तर :
जिला पंचायत के चार अनिवार्य कार्य हैं :

  1. पीने के पानी की व्यवस्था करना
  2. प्राथमिक स्तर से ऊपर की शिक्षा का प्रबन्ध करना
  3. जन-स्वास्थ्य के लिए महामारियों की रोकथाम तथा
  4. जन्म-मृत्यु का हिसाब रखना।

प्रश्न 8.
जिला पंचायत की दो प्रमुख समितियों के नाम लिखिए।
उत्तर :
जिला पंचायत की दो प्रमुख समितियाँ हैं :

  1. वित्त समिति तथा
  2. शिक्षा एवं जनस्वास्थ्य समिति।

प्रश्न 9.
क्षेत्र पंचायत का सबसे बड़ा वैतनिक अधिकारी कौन होता है ?
उत्तर :
क्षेत्र पंचायत का सर्वोच्च वैतनिक अधिकारी क्षेत्र विकास अधिकारी होता है।

प्रश्न 10.
ग्राम सभा के सदस्य कौन होते हैं ?
उत्तर :
ग्राम की निर्वाचक सूची में सम्मिलित प्रत्येक ग्रामवासी ग्राम सभा का सदस्य होता है।

प्रश्न 11.
अपने राज्य के ग्रामीण स्थानीय स्वायत्त शासन की दो संस्थाओं के नाम लिखिए।
उत्तर :
ग्रामीण स्वायत्त शासन की दो संस्थाओं के नाम हैं –

  1. ग्राम सभा तथा
  2. ग्राम पंचायत।

प्रश्न 12.
ग्राम पंचायत के अधिकारियों के नाम लिखिए।
उत्तर :
ग्राम पंचायत के अधिकारी हैं –

  1. प्रधान तथा
  2. उप-प्रधान।

प्रश्न 13.
ग्राम पंचायत के चार कार्य बताइए।
उत्तर :
ग्राम पंचायत के चार कार्य हैं –

  1. ग्राम की सम्पत्ति तथा इमारतों की रक्षा करना
  2. संक्रामक रोगों की रोकथाम करना
  3. कृषि और बागवानी का विकास करना तथा
  4. लघु सिंचाई परियोजनाओं से जल-वितरण का प्रबन्ध करना।

प्रश्न 14.
ग्राम पंचायतों का कार्यकाल क्या है ?
उत्तर :
ग्राम पंचायतों का कार्यकाल 5 वर्ष होता है। विशेष परिस्थितियों में सरकार इसे कम भी कर सकती है।

प्रश्न 15.
न्याय पंचायत के पंचों की नियुक्ति किस प्रकार होती है ?
उत्तर :
ग्राम पंचायत के सदस्यों में से विहित प्राधिकारी न्याय पंचायत के उतने ही पंच नियुक्त करता है जितने कि नियत किये जाएँ। ऐसे नियुक्त किये गये व्यक्ति ग्राम पंचायत के सदस्य नहीं रहेंगे।

प्रश्न 16.
पंचायती राज की तीन स्तर वाली व्यवस्था की संस्तुति करने वाली समिति का नाम लिखिए।
उत्तर :
बलवन्त राय मेहता समिति।

प्रश्न 17.
किन संविधान संशोधनों द्वारा पंचायतों और नगरपालिकाओं से सम्बन्धित उपबन्धों का संविधान में उल्लेख किया गया ?
उत्तर :

  1. उत्तर प्रदेश पंचायत विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 द्वारा जिला पंचायत की व्यवस्था।
  2. उत्तर प्रदेश नगर स्वायत्त शासन विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 द्वारा नगरीय क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासने की व्यवस्था।

प्रश्न 18.
नगर स्वायत्त संस्थाओं के नाम बताइए।
उत्तर :

  1. नगर-निगम तथा महानगर निगम
  2. नगरपालिका परिषद् तथा
  3. नगर पंचायत।

प्रश्न 19.
नगर-निगम किन नगरों में स्थापित की जाती है ? उत्तर प्रदेश में नगर-निगम का गंठन किन-किन स्थानों पर किया गया है ?
उत्तर :
पाँच लाख से दस लाख तक जनसंख्या वाले नगरों में नगर-निगम स्थापित की जाती है। उत्तर प्रदेश के आगरा, वाराणसी, इलाहाबाद, बरेली, मेरठ, अलीगढ़, मुरादाबाद, गाजियाबाद, गोरखपुर आदि में नगर-निगम कार्यरत हैं। कानपुर तथा लखनऊ में महानगर निगम स्थापित हैं।

प्रश्न 20.
नगर-निगम के दो कार्य बताइए।
उत्तर :
नगर निगम के दो कार्य हैं –

  1. नगर में सफाई व्यवस्था करना तथा
  2. सड़कों व गलियों में प्रकाश की व्यवस्था करना।

प्रश्न 21.
नगर-निगम की दो प्रमुख समितियों के नाम लिखिए।
उत्तर :
नगर-निगम की दो प्रमुख समितियाँ हैं –

  1. कार्यकारिणी समिति तथा
  2. विकास समिति।

प्रश्न 22.
नगर-निगम का अध्यक्ष कौन होता है ?
उत्तर :
नगर-निगम का अध्यक्ष नगर प्रमुख (मेयर) होता है।

प्रश्न 23.
नगर-निगम में निर्वाचित सदस्यों की संख्या कितनी होती है ?
उत्तर :
नगर-निगम के निर्वाचित सदस्यों (सभासदों) की संख्या सरकारी गजट में दी गयी विज्ञप्ति के आधार पर निश्चित की जाती है। यह संख्या कम-से-कम 60 और अधिक-से-अधिक 110 होती है।

प्रश्न 24.
उत्तर प्रदेश में नगरपालिका परिषद का गठन किन स्थानों के लिए किया जाएगा ?
उत्तर :
नगरपालिका परिषद् का गठन 1 लाख से 5 लाख तक की जनसंख्या वाले ‘लघुतर नगरीय क्षेत्रों में किया जाता है।

प्रश्न 25.
जिले (जनपद) का सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी कौन है ?
उत्तर :
जिले का सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी जिलाधिकारी (उपायुक्त) होता है।

प्रश्न 26.
जिलाधिकारी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य कौन-सा है ?
उत्तर :
जिले में शान्ति-व्यवस्था की स्थापना करना जिलाधिकारी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है।

प्रश्न 27.
जिलाधिकारी की नियुक्ति कौन करता है ?
उत्तर :
जिलाधिकारी की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है।

प्रश्न 28.
जिले में शिक्षा विभाग का सर्वोच्च अधिकारी कौन होता है ?
उत्तर :
जिले में शिक्षा विभाग का सर्वोच्च अधिकारी जिला विद्यालय निरीक्षक होता है।

प्रश्न 29.
जिले के विकास-कार्यों से सम्बन्धित जिला स्तरीय अधिकारी का पद नाम लिखिए।
उत्तर :
मुख्य विकास अधिकारी।

प्रश्न 30.
जिले में पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी कौन होता है ?
उत्तर :
जिले में पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (S.S.P) होता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्थानीय स्वशासन से आप क्या समझते हैं ? इस प्रदेश में कौन-कौन-सी स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ कार्य कर रही हैं ?
उत्तर :
केन्द्र व राज्य सरकारों के अतिरिक्त, तीसरे स्तर पर एक ऐसी सरकार है, जिसके सम्पर्क में नगरों और ग्रामों के निवासी आते हैं। इस स्तर की सरकार को स्थानीय स्वशासन कहा जाता है, क्योंकि यह व्यवस्था स्थानीय निवासियों को अपना शासन-प्रबन्ध करने का अवसर प्रदान करती है। इसके अन्तर्गत मुख्यतया ग्रामवासियों के लिए पंचायत और नगरवासियों के लिए नगरपालिका उल्लेखनीय हैं। इन संस्थाओं द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति तथा स्थानीय समस्याओं के समाधान के प्रयास किये जाते हैं।

  • नगरीय क्षेत्र – नगर-निगम या नगर महापालिका, नगरपालिका परिषद् और नगर पंचायत।
  • ग्रामीण क्षेत्र – ग्राम पंचायत, न्याय पंचायत, क्षेत्र पंचायत तथा जिला पंचायत।।

प्रश्न 2.
भारत में स्थानीय संस्थाओं का क्या महत्त्व है ?
उत्तर :
भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में स्थानीय स्वशासी संस्थाओं का देश की राजनीति और प्रशासन में विशेष महत्त्व है। किसी भी गाँव या कस्बे की समस्याओं का सबसे अच्छा ज्ञान उस गाँव या कस्बे के निवासियों को ही होता है। इसलिए वे अपनी छोटी सरकार का संचालन करने में समर्थ तथा सर्वोच्च होते हैं। इन संस्थाओं का महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट होता है –

  1. इनके द्वारा गाँव तथा नगर के निवासियों की प्रशासन में भागीदारी सम्भव होती है।
  2. ये संस्थाएँ प्रशासन तथा जनता के मध्य अधिकाधिक सम्पर्क बनाये रखने में सहायक होती हैं। इसके फलस्वरूप जिला प्रशासन को अपना कार्य करने में आसानी होती है।
  3. स्थानीय विकास तथा नियोजन की प्रक्रियाओं में भी ये संस्थाएँ सहायक सिद्ध होती हैं।

प्रश्न 3.
ग्राम सभा तथा ग्राम पंचायत में क्या अन्तर है ?
उत्तर :
ग्राम सभा तथा ग्राम पंचायत में निम्नलिखित अन्तर हैं –

  1. ग्राम पंचायत, ग्राम सभा से सम्बन्धित होती है तथा ग्राम सभा के कार्यों का सम्पादन ग्राम पंचायत के द्वारा किया जाता है। इस प्रकार ग्राम पंचायत, ग्राम सभा की कार्यकारिणी होती है। ग्राम पंचायत के सदस्यों का निर्वाचन ग्राम सभा के सदस्य ही करते हैं।
  2. ग्राम सभा का प्रमुख कार्य क्षेत्रीय विकास के लिए योजनाएँ बनाना और ग्राम पंचायत का कार्य उन योजनाओं को व्यावहारिक रूप प्रदान करना है।
  3. ग्राम सभा की वर्ष में दो बार तथा ग्राम पंचायत की माह में एक बार बैठक होना आवश्यक है।
  4. कर लगाने का अधिकार ग्राम सभा को दिया गया है न कि ग्राम पंचायत को।
  5. ग्राम सभा एक बड़ा निकाय है, जबकि ग्राम पंचायत उसकी एक छोटी संस्था है।
  6. ग्राम सभा का निर्वाचन नहीं होता है, जबकि ग्राम पंचायत, ग्राम सभा द्वारा निर्वाचित संस्था होती है।

दीर्घ लघु उरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पंचायती राज के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
या
भारत में पंचायती राज-व्यवस्था का प्रादुर्भाव किस प्रकार हुआ ?
उत्तर :
पंचायती राज’ का अर्थ है-ऐसा राज्य जो पंचायत के माध्यम से कार्य करता है। ऐसे शासन के अन्तर्गत ग्रामवासी अपने में से वयोवृद्ध व्यक्तियों को चुनते हैं, जो उनके विभिन्न झगड़ों का निपटारा करते हैं। इस प्रकार के शासन में ग्रामवासियों को अपनी व्यवस्था के प्रबन्ध में प्रायः पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। इस प्रकार पंचायती राज स्वशासन का ही एक रूप है।

यद्यपि भारत के ग्रामों में पंचायतें बहुत पुराने समय में भी विद्यमान थीं, परन्तु वर्तमान समय में पंचायती राज-व्यवस्था का जन्म स्वतन्त्रता के पश्चात् ही हुआ। पंचायती राज की वर्तमान व्यवस्था का सुझाव बलवन्त राय मेहता समिति ने दिया था। देश में पंचायती राज-व्यवस्था सर्वप्रथम राजस्थान में लागू की गयी, बाद में मैसूर (वर्तमान कर्नाटक), तमिलनाडु, उड़ीसा, असम, पंजाब, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में भी यह व्यवस्था लागू की गयी। बलवन्त राय मेहता की मूल योजना के अनुसार पंचायतों का गठन तीन स्तरों पर किया गया –

  1. ग्राम स्तर पर पंचायतें
  2. विकास खण्ड स्तर पर पंचायत समितियाँ तथा
  3. जिला स्तर पर जिला परिषद्।

संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम, 1993 द्वारा पूरे प्रदेश में इस व्यवस्था के स्वरूप में एकरूपता लायी गयी है।

प्रश्न 2.
पंचायती राज के गुण-दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

पंचायती राज की उपलब्धियाँ (गुण) –

  1. पंचायती राज पद्धति के फलस्वरूप ग्रामीण भारत में जागृति आयी है।
  2. पंचायतों द्वारा गाँवों में कल्याणकारी कार्यों के कारण गाँवों की हालत सुधरी है।
  3. पंचायतों द्वारा संचालित प्राथमिक और वयस्क विद्यालयों के फलस्वरूप गाँवों में साक्षरता और शिक्षा का प्रसार हुआ है।
  4. पंचायतों ने सफलतापूर्वक अपने-अपने क्षेत्र की समस्याओं की ओर अधिकारियों का ध्यान खींचा है।

पंचायती राज के दोष – पंचायती राज पद्धति के कारण गाँवों के जीवन में कई बुराइयाँ भी आयी हैं, जो निम्नलिखित हैं –

  1. पंचायतों के लिए होने वाले चुनावों में हिंसा, भ्रष्टाचार और जातिवाद का बोलबाला रहता है। यहाँ तक कि निर्वाचित प्रतिनिधि भी इससे परे नहीं होते।
  2. यह भी कहा जाता है कि पंचायती राज के सदस्य चुने जाने के पश्चात् लोग अपने कर्तव्यों को ठीक प्रकार से नहीं करते।
  3. यहाँ रिश्वतखोरी चलती है और धन का बोलबाला रहता है। धनी आदमी पंचों को खरीद लेते
  4. स्वयं पंच लोग अनपढ़ होते हैं, इसलिए वे विभिन्न समस्याओं को सुलझाने की योग्यता ही नहीं रखते।
  5. पंच लोग पार्टी-लाइनों पर चुने जाते हैं, इसलिए वे सभी लोगों को निष्पक्ष होकर न्याय नहीं दे सकते। संक्षेप में, भारत में पंचायती राज एक मिश्रित वरदान है।

प्रश्न 3.
ग्राम पंचायत के संगठन, पदाधिकारी, कार्यकाल एवं इसके पाँच कार्यों का विवरण दीजिए।
उत्तर :

संगठन – ग्राम पंचायत में ग्राम प्रधान के अतिरिक्त 9 से 15 तक सदस्य होते हैं। इसमें 1,000 की जनसंख्या पर 9 सदस्य; 1,000-2,000 की जनसंख्या तक 11 सदस्य; 2,000 3,000 की। जनसंख्या तक 13 सदस्य तथा 3,000 से ऊपर की जनसंख्या पर सदस्यों की संख्या 15 होती है। ग्राम पंचायत के सदस्य के रूप में निर्वाचित होने की न्यूनतम आयु 21 वर्ष है। ग्राम पंचायत में नियमानुसार सभी वर्गों तथा महिलाओं को आरक्षण प्रदान किया गया है।

कार्यकाल – ग्राम पंचायत का निर्वाचन 5 वर्ष के लिए होता है, किन्तु विशेष परिस्थितियों में सरकार इसे समय से पूर्व भी विघटित कर सकती है।

पदाधिकारी – ग्राम पंचायत का प्रमुख अधिकारी ग्राम प्रधान’ कहलाता है। प्रधान की सहायता के लिए उप-प्रधान’ की व्यवस्था होती है। प्रधान का निर्वाचन ग्राम सभा के सदस्य पाँच वर्ष की अवधि के लिए करते हैं। उप-प्रधान का निर्वाचन पंचायत के सदस्य पाँच वर्ष के लिए करते हैं।

ग्राम पंचायत

पाँच कार्य – ग्राम पंचायत के कार्य इस प्रकार हैं –

  1. कृषि और बागवानी का विकास तथा उन्नति, बंजर भूमि और चरागाह भूमि का विकास तथा उनके अनधिकृत अधिग्रहण एवं प्रयोग की रोकथाम करना।
  2. भूमि विकास, भूमि सुधार और भूमि संरक्षण में सरकार तथा अन्य एजेन्सियों की सहायता करना, भूमि चकबन्दी में सहायता करना।
  3. लघु सिंचाई परियोजनाओं से जल वितरण में प्रबन्ध और सहायता करना; लघु सिंचाई परियोजनाओं के निर्माण, मरम्मत और रक्षा तथा सिंचाई के उद्देश्य से जलापूर्ति का विनियमन।
  4. पशुपालन, दुग्ध उद्योग, मुर्गी-पालन की उन्नति तथा अन्य पशुओं की नस्लों का सुधार करना।
  5. गाँव में मत्स्य पालन का विकास।

प्रश्न 4.
नगरपालिका परिषद् के पाँच प्रमुख कार्य बताइए।
उत्तर :
नगरपालिका परिषद् के पाँच प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

(1) सफाई की व्यवस्था – सम्पूर्ण नगर को स्वच्छ एवं सुन्दर रखने का दायित्व नगरपालिका का ही होता है। यह सड़कों, नालियों और अन्य सार्वजनिक स्थानों की सफाई कराती है तथा नगर को स्वच्छ रखने के लिए सार्वजनिक स्थानों पर शौचालय एवं मूत्रालयों का निर्माण कराती है।

(2) पानी की व्यवस्था – नगरवासियों के लिए पीने योग्य स्वच्छ जल का प्रबन्ध नगरपालिका परिषद् ही करती है।

(3) शिक्षा का प्रबन्ध – अपने नगरवासियों की शैक्षिक स्थिति को सुधारने के लिए नगरपालिका परिषदें प्राइमरी स्कूल खोलती हैं। ये लड़कियों एवं अशिक्षित लोगों की शिक्षा का विशेष रूप से प्रबन्ध करती हैं।

(4) निर्माण सम्बन्धी कार्य – नगरपालिका परिषदें नगर में नालियाँ, सड़कें, पुल आदि बनवाने की व्यवस्था करती हैं। सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष एवं पार्क बनवाना भी इनके प्रमुख कार्य हैं। कुछ समृद्ध नगरपालिका परिषदें यात्रियों के लिए होटल, सरायों एवं धर्मशालाओं की भी व्यवस्था करती हैं। निर्माण सम्बन्धी ये कार्य नगरपालिका की ‘निर्माण समिति’ करती है।

(5) रोशनी की व्यवस्था – सड़कों, गलियों एवं सभी सार्वजनिक स्थानों पर प्रकाश का समुचित प्रबन्ध भी नगरपालिका परिषद् ही करती है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्नं 1.
स्थानीय स्वशासन का क्या अर्थ है ? स्थानीय स्वशासन की आवश्यकता तथा महत्त्व बताइए।
या
भारत में स्थानीय स्वशासन के अर्थ, आवश्यकता और उसके महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
भारत में केन्द्र व राज्य सरकारों के अतिरिक्त, तीसरे स्तर पर एक ऐसी सरकार है जिसके सम्पर्क में नगरों और ग्रामों के निवासी आते हैं। इस स्तर की सरकार को स्थानीय स्वशासन कहा जाता है, क्योंकि यह व्यवस्था स्थानीय निवासियों को अपना शासन-प्रबन्ध करने का अवसर प्रदान करती है। इसके अन्तर्गत मुख्यतया ग्रामवासियों के लिए ग्राम पंचायत और नगरवासियों के लिए नगरपालिका उल्लेखनीय हैं। इन संस्थाओं द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति तथा स्थानीय समस्याओं के समाधान के प्रयास किये जाते हैं। व्यावहारिक रूप में वे सभी कार्य जिनका सम्पादन वर्तमान समय में ग्राम पंचायतों, जिला पंचायतों, नगरपालिकाओं, नगर निगम आदि के द्वारा किया जाता है, वे स्थानीय स्वशासन के अन्तर्गत आते हैं।

स्थानीय स्वशासन की आवश्यकता एवं महत्त्व

स्थानीय स्वशासन की आवश्यकता एवं महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है –

(1) लोकतान्त्रिक परम्पराओं को स्थापित करने में सहायक – भारत में स्वस्थ लोकतान्त्रिक परम्पराओं को स्थापित करने के लिए स्थानीय स्वशासन व्यवस्था ठोस आधार प्रदान करती है। उसके माध्यम से शासन-सत्ता वास्तविक रूप से जनता के हाथ में चली जाती है। इसके अतिरिक्त स्थानीय स्वशासन-व्यवस्था, स्थानीय निवासियों में लोकतान्त्रिक संगठनों के प्रति रुचि उत्पन्न करती है।

(2) भावी नेतृत्व का निर्माण – स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ भारत के भावी नेतृत्व को तैयार करती हैं। ये विधायकों और मन्त्रियों को प्राथमिक अनुभव एवं प्रशिक्षण प्रदान करती हैं, जिससे वे भारत की ग्रामीण समस्याओं से अवगत होते हैं। इस प्रकार ग्रामों में उचित नेतृत्व का निर्माण करने एवं विकास कार्यों में जनता की रुचि बढ़ाने में स्थानीय स्वशासन की महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है।

(3) जनता और सरकार के पारस्परिक सम्बन्ध – भारत की जनता स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के माध्यम से शासन के बहुत निकट पहुँच जाती है। इससे जनता और सरकार में एक-दूसरे की कठिनाइयों को समझने की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। इसके अतिरिक्त दोनों में सहयोग भी बढ़ता है, जो ग्रामीण उत्थान एवं विकास के लिए आवश्यक है।

(4) स्थानीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था के बीच की कड़ी – ग्राम पंचायतों के कार्यकर्ता और पदाधिकारी स्थानीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था के बीच की कड़ी के रूप में कार्य करते हैं। इन स्थानीय पदाधिकारियों के सहयोग के अभाव में न तो राष्ट्र के निर्माण का कार्य सम्भव हो पाता है और न ही सरकारी कर्मचारी अपने दायित्व का समुचित रूप से पालन कर पाते हैं।

(5) प्रशासकीय शक्तियों का विकेन्द्रीकरण – स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ केन्द्रीय व राज्य सरकारों को स्थानीय समस्याओं के भार से मुक्त करती हैं। स्थानीय स्वशासन की इकाइयों के माध्यम से ही शासकीय शक्सियों एवं कार्यों का विकेन्द्रीकरण किया जा सकता है। लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण की इस प्रक्रिया में शासन-सत्ता कुछ निर्धारित संस्थाओं में निहित होने के स्थान पर, गाँव की पंचायत के कार्यकर्ताओं के हाथों में पहुँच जाती है। भारत में इस व्यवस्था से प्रशासन की कार्यकुशलता में पर्याप्त वृद्धि हुई है।

(6) नागरिकों को निरन्तर जागरूक बनाये रखने में सहायक – स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ लोकतन्त्र की प्रयोगशालाएँ हैं। ये भारतीय नागरिकों को अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रयोग की शिक्षा तो देती ही हैं, साथ ही उनमें नागरिकता के गुणों का विकास करने में भी सहायक होती हैं।

(7) लोकतान्त्रिक परम्पराओं के अनुरूप – लोकतन्त्र का आधारभूत तथा मौलिक सिद्धान्त यह है। कि सत्ता का अधिक-से-अधिक विकेन्द्रीकरण होना चाहिए। स्थानीय स्वशासन की इकाइयाँ इस सिद्धान्त के अनुरूप हैं।

(8) नौकरशाही की बुराइयों की समाप्ति – स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में नागरिकों की प्रत्यक्ष भागीदारी से प्रशासन में नौकरशाही, लालफीताशाही तथा भ्रष्टाचार जैसी बुराइयाँ उत्पन्न नहीं होती हैं।

(9) प्रशासनिक अधिकारियों की जागरूकता – स्थानीय लोगों की शासन में भागीदारी के कारण प्रशासन उस क्षेत्र की आवश्यकताओं के प्रति अधिक सजग तथा संवेदनशील हो जाता है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि स्थानीय स्वशासन लोकतन्त्र का आधार है। यह लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण (Democratic Decentralisation) की प्रक्रिया पर आधारित है। यदि प्रशासन को जागरूक तथा अधिक कार्यकुशल बनाना है तो उसका प्रबन्ध एवं संचालन स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप स्थानीय संस्थाओं के द्वारा ही सम्पन्न किया जाना चाहिए।

प्रश्न 2.
पंचायती राज-व्यवस्था से आप क्या समझते हैं ? ग्राम पंचायत के कार्यों तथा शक्तियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
भारत गाँवों का देश है। ब्रिटिश राज में गाँवों की आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्था शोचनीय हो गयी थी; अतः स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद देश में पंचायती राज-व्यवस्था द्वारा गाँवों में राजनीतिक तथा आर्थिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण का प्रयास किया गया। बलवन्त राय मेहता -मिति ने पंचायती राज-व्यवस्था के लिए त्रि-स्तरीय योजना का परामर्श दिया। इस योजना में स. निचले स्तर पर ग्राम सभा और ग्राम पंचायतें हैं। मध्य स्तर पर क्षेत्र समितियाँ तथा उच्च स्तर पर जिला परिषदों की व्यवस्था की गयी थी।

भारतीय गाँवों में बहुत पहले से ही ग्राम पंचायतों की व्यवस्था रही है। उत्तर प्रदेश सरकार ने संयुक्त प्रान्तीय पंचायत राज कानून बनाकर पंचायतों के संगठन सम्बन्धी उल्लेखनीय कार्य को किया था। सन् 1947 ई० के इस कानून के अनुसार ग्राम पंचायत के स्थान पर ग्राम सभा, ग्राम पंचायत और न्याय पंचायत की व्यवस्था की गयी थी। अब उत्तर प्रदेश पंचायत विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 के अनुसार भी ग्राम सभा, ग्राम पंचायत तथा न्याय पंचायत की ही व्यवस्था को रखा गया है।

ग्राम पंचायत के कार्य तथा शक्तियाँ

ग्राम सभा के निर्देशन तथा मार्गदर्शन में कार्य करती हुई ग्राम पंचायत, पंचायती राज व्यवस्था की सबसे छोटी आधारभूत इकाई है। यह ग्राम पंचायत सरकार की कार्यपालिका के रूप में कार्य करती है। ग्राम पंचायत के कार्यों तथा शक्तियों की विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत की जा सकती है –

ग्राम पंचायत के कार्य

ग्राम पंचायत के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं –

  1. गाँव की सफाई-व्यवस्था करना
  2. रोशनी का प्रबन्ध करना
  3. संक्रामक रोगों की रोकथाम करना
  4. गाँव एवं गाँव की इमारतों की रक्षा करना
  5. जन्म-मरण का लेखा-जोखा रखना
  6. बालक एवं बालिकाओं की शिक्षा की समुचित व्यवस्था करना
  7. खेलकूद की व्यवस्था करना
  8. कृषि की उन्नति का प्रयत्न करना
  9. श्मशान भूमि की व्यवस्था करना
  10. सार्वजनिक चरागाहों की व्यवस्था करना
  11. आग बुझाने का प्रबन्ध करना
  12. जनगणना और पशुगणना करना
  13. प्राथमिक चिकित्सा का प्रबन्ध करना
  14. खाद एकत्र करने के लिए स्थान निश्चित करना
  15. जल-मार्गों की सुरक्षा का प्रबन्ध करना
  16. प्रसूति-गृह खोलना
  17. सरकार द्वारा सौंपे गये अन्य कार्य करना
  18. आदर्श नागरिकता की भावना को प्रोत्साहन देना
  19. ग्रामीण जनता को शासन-व्यवस्था से परिचित कराना
  20. अस्पताल खुलवाना
  21. पुस्तकालय एवं वाचनालयों की व्यवस्था करना
  22. पार्क बनवाना
  23. गृहउद्योगों को उन्नत करने का प्रयत्न करना
  24. पशुओं की नस्ल सुधारना
  25. स्वयंसेवक दल का संगठन करना
  26. सहकारी समितियों का गठन करना
  27. सहकारी ऋण प्राप्त करने में किसानों की सहायता करना
  28. अकाल या अन्य विपत्ति के समय गाँव वालों की सहायता करना तथा
  29. सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाना आदि कार्य सम्मिलित होते हैं।

ग्राम पंचायत की शक्तियाँ

ग्राम पंचायत के कुछ सदस्य न्याय पंचायत के रूप में कार्य करते हुए अपने गाँव के छोटे-छोटे झगड़ों का निपटारा भी करते हैं। दीवानी के मामलों में ये ₹ 500 के मूल्य तक की सम्पत्ति के मामलों की सुनवाई कर सकते हैं तथा फौजदारी के मुकदमों में इसे ₹ 250 तक का जुर्माना करने का अधिकार प्राप्त है।

भारतीय संविधान में किये गये 73वें संशोधन के द्वारा ग्राम पंचायत को व्यापक अधिकार एवं शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। साथ ही ग्राम पंचायत के कार्य-क्षेत्र को भी व्यापक बनाया गया है जिसके अन्तर्गत 29 नियमों से युक्त एक विस्तृत सूची को रखा गया है।

प्रश्न 3.
क्षेत्र पंचायत किस प्रकार संगठित की जाती है ? यह अपने क्षेत्र के विकास के लिए कौन-कौन-से कार्य करती है ?
या
क्षेत्र पंचायत (पंचायत समिति) के संगठन, कार्यों तथा शक्तियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
उत्तर प्रदेश रायत (संशोधन) अधिनियम, 1994′ के सेक्शन 7 (1) के द्वारा क्षेत्र समिति का नाम बदलकर क्षेत्र पंचायत कर दिया गया है। यह ग्राम पंचायत के ऊपर के स्तर की इकाई होती है। राज्य सरकार गजट में अधिसूचना द्वारा प्रत्येक खण्ड के लिए एक क्षेत्र पंचायत स्थापित करेगी। पंचायत का नाम खण्ड के नाम पर होगा।

संगठन – क्षेत्र पंचायत एक प्रमुख और निम्नलिखित प्रकार के सदस्यों से मिलकर बनती है –

  1. खण्ड की सभी ग्राम पंचायतों के प्रधान।
  2. निर्वाचित सदस्य – ये पंचायती क्षेत्र के 2000 जनसंख्या वाले प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा निर्वाचित किये जाते हैं।
  3. लोकसभा और विधानसभा के ऐसे सदस्य, जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो पूर्णत: अथवा अंशत: उस खण्ड में सम्मिलित हैं।
  4. राज्यसभा तथा विधान परिषद् के ऐसे सदस्य, जो खण्ड के अन्तर्गत निर्वाचको के रूप में पंजीकृत हैं।

उपर्युक्त सदस्यों में केवल निर्वाचित सदस्यों को ही प्रमुख अथवा उप-प्रमुख के निर्वाचन तथा उनके विरुद्ध अविश्वास के मामलों में मत देने का अधिकार होता है।

योग्यता – क्षेत्र पंचायत का सदस्य निर्वाचित होने के लिए प्रत्याशी में निम्नलिखित योग्यताएँ होनी आवश्यक हैं –

  1. उसका नाम क्षेत्र पंचायत की प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र की निर्वाचक नामावली में हो।
  2. वह विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने की योग्यता रखता हो।
  3. उसकी आयु 21 वर्ष हो।
  4. वह किसी लाभ के सरकारी पद पर न हो।

स्थानों को आरक्षण – प्रत्येक क्षेत्र पंचायत में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए स्थान आरक्षित रहेंगे। क्षेत्र पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या में आरक्षित स्थानों का अनुपात यथासम्भव वही होगा जो उस खण्ड में अनुसूचित जातियों अथवा जनजातियों की या पिछड़े वर्गों की जनसंख्या का अनुपात उस खण्ड की कुल जनसंख्या में है। पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण कुल निर्वाचित स्थानों की संख्या के 27% से अधिक नहीं होगा।

अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या के कम-से-कम एक-तिहाई स्थान इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे। क्षेत्र पंचायत में निर्वाचित स्थानों की कुल संख्या के कम-से-कम एक-तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।

पदाधिकारी – क्षेत्र पंचायत में निर्वाचित सदस्यों द्वारा अपने में से ही एक प्रमुख, एक ज्येष्ठ उप-प्रमुख तथा एक कनिष्ठ उप-प्रमुख चुने जाते हैं। राज्य में क्षेत्र पंचायतों के प्रमुखों के पद अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों तथा महिलाओं के लिए आरक्षित किये गये हैं।

कार्यकाल – क्षेत्र पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष है, परन्तु राज्य सरकार 5 वर्ष की अवधि से पहले भी क्षेत्र पंचायत को विघटित कर सकती है। प्रमुख, उप-प्रमुख अथवा क्षेत्र पंचायत का कोई भी सदस्य 5 वर्ष की अवधि से पूर्व भी त्यागपत्र देकर अपना पद त्याग सकता है। प्रमुख तथा उप-प्रमुख के द्वारा अपने कर्तव्यों का पालन न करने की स्थिति में उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करके उन्हें पदच्युत किया जा सकता है। क्षेत्र पंचायत के विघटन के छ: माह की अवधि के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य है।

अधिकारी – क्षेत्र पंचायत का सबसे प्रमुख अधिकारी ‘खण्ड विकास अधिकारी (Block Development Officer) होता है। इस पर समस्त प्रशासन का उत्तरदायित्व होता है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अधिकारी भी होते हैं।

अधिकार और कार्य – क्षेत्र पंचायत के प्रमुख अधिकार और कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. कृषि, भूमि विकास, भूमि सुधार और लघु सिंचाई सम्बन्धी कार्यों को करना।
  2. सार्वजनिक निर्माण सम्बन्धी कार्य करना।
  3. कुटीर और ग्राम उद्योगों तथा लघु उद्योगों का विकास करना।
  4. पशुपालन तथा पशु सेवाओं में वृद्धि करना।
  5. स्वास्थ्य तथा सफाई सम्बन्धी कार्यों की देखभाल करना।
  6. शैक्षणिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास से सम्बद्ध कार्य कराना।
  7. पेयजल, ईंधन और चारे की व्यवस्था करना।
  8. ग्रामीण आवास की व्यवस्था करना।
  9. चिकित्सा तथा परिवार कल्याण सम्बन्धी कार्यों की देखभाल करना।
  10. बाजार तथा मेलों की व्यवस्था करना।
  11. प्राकृतिक आपदाओं में सहायता प्रदान करना।
  12. ग्राम सभाओं का निरीक्षण करना तथा खण्ड विकास योजनाएँ लागू करना।

प्रश्न 4.
न्याय पंचायत का संगठन किस प्रकार होता है ? इसके प्रमुख अधिकार क्या हैं ?
उत्तर :
प्रत्येक ग्राम सभा न्याय पंचायत के लिए पंचों का निर्वाचन करती है। इन निर्वाचित सदस्यों में से सरकारी अधिकारी शिक्षा, प्रतिष्ठा, अनुभव एवं योग्यता के आधार पर पंच मनोनीत करता है। प्रत्येक न्याय पंचायत में सदस्यों की संख्या इस प्रकार होती है कि वह पाँच से पूरी-पूरी विभक्त हो जाए। 1 से 6 गाँव सभाओं वाली न्याय पंचायत के पंचों की संख्या 15, 7 से 9 तक 20 तथा 9 से अधिक होने पर 25 होगी।

न्याय पंचायत के सदस्य अपने मध्य से एक सरपंच तथा एक सहायक सरपंच चुनते हैं। इस पद पर उन्हीं पढ़े-लिखे व्यक्तियों को निर्वाचित किया जाता है जो कार्यवाही लिख सकें।

प्रमुख अधिकार

न्याय पंचायत को दीवानी, फौजदारी तथा माल के मुकदमे देखने का अधिकार प्राप्त है। न्याय पंचायतों को ₹ 500 की मालियत के मुकदमे सुनने का अधिकार दिया गया है। फौजदारी के मुकदमों में वह ₹ 250 तक जुर्माना कर सकती है। यह किसी को कारावास या शारीरिक दण्ड नहीं दे सकती। यदि कोई गवाह उपस्थित नहीं होता है तो यह है 25 का जमानती वारण्ट जारी कर सकती है। यदि न्याय पंचायत यह समझ ले कि किसी व्यक्ति से शान्ति भंग होने की आशंका है तो वह उससे 15 दिन तक के लिए ₹ 100 का मुचलका ले सकती है।

न्याय पंचायत को न्यायिक अधिकार प्राप्त हैं। न्याय पंचायत का अनादर करने वाले व्यक्ति को न्याय ५ पंचायत मानहानि का अपराधी बनाकर उस पर ₹ 5 जुर्माना कर सकती है। न्याय पंचायत के निर्णय के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती। चोरी, अश्लीलता, गाली-गलौज, स्त्री की लज्जा, अपहरण आदि के मुकदमो की सुनवाई न्याय पंचायत करती है। इन मुकदमों में वकीलों को पेश होने का प्रावधान नहीं रखा गया है। किसी मुकदमे में अन्याय होने पर न्याय पंचायत के दीवानी के मुकदमे की निगरानी मुंसिफ के यहाँ तथा माल के मुकदमे की निगरानी हाकिम परगना के यहाँ हो सकती है। राज्य सरकार न्याय पंचायतों के कार्यों पर नियन्त्रण रखती है, जिससे निर्णयों में कोई पक्षपात न हो सके तथा न्याय पंचायतें सही रूप से अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें।

प्रश्न 5.
जिला पंचायत का गठन किस प्रकार होता है ? इसके प्रमुख कार्य तथा आय के साधन लिखिए।
उत्तर :
त्रि-स्तरीय पंचायती राज-व्यवस्था की सर्वोच्च इकाई जिला पंचायत होती है। उत्तर प्रदेश सरकार ने पंचायत विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 पारित करके जिला परिषद् का नाम बदलकर जिला पंचायत कर दिया है।

गठन – जिला पंचायत के गठन में निम्नलिखित दो प्रकार के सदस्य होते हैं –

(क) निर्वाचित सदस्य – निर्वाचित सदस्यों की सदस्य-संख्या राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाती है। साधारणतया 50,000 से अधिक की जनसंख्या पर एक सदस्य निर्वाचित किया जाता है। यह निर्वाचन वयस्क मतदान द्वारा होता है।

(ख) अन्य सदस्य – अन्य सदस्यों में कुछ पदेन सदस्य होते हैं, जो कि निम्नवत् हैं –

  1. जनपद की सभी क्षेत्र पंचायतों के प्रमुख।
  2. लोकसभा तथा विधानसभा के वे सदस्य जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें जिला पंचायत क्षेत्र का कोई भाग समाविष्ट है।
  3. राज्यसभा तथा विधान परिषद् के वे सदस्य जो उस जिला पंचायत क्षेत्र में मतदाताओं के रूप में पंजीकृत हैं।

आरक्षण – प्रत्येक जिला पंचायत में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए नियमानुसार स्थान आरक्षित रहेंगे। आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात, जिला अनुपात में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या में यथासम्भव वही होगा, जो अनुपात इन जातियों एवं वर्गों की जनसंख्या का जिला पंचायत क्षेत्र की समस्त जनसंख्या में है। संशोधित प्रावधानों के अन्तर्गत पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण कुल निर्वाचित स्थानों की संख्या के 27% से अधिक नहीं होगा। अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या के कम-से-कम एक-तिहाई स्थान; इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे। प्रत्येक जिला पंचायत में निर्वाचित स्थानों की कुल संख्या के कम-से-कम एक-तिहाई स्थान; महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे।

योग्यता – जिला पंचायत का सदस्य निर्वाचित होने के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ अपेक्षित हैं –

  1. ऐसे सभी व्यक्ति, जिनका नाम उस जिला पंचायत के किसी प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र के लिए निर्वाचक नामावली में सम्मिलित है।
  2. जो राज्य विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने की आयु-सीमा के अतिरिक्त अन्य सभी योग्यताएँ रखता है।
  3. जिसने 21 वर्ष की आयु पूरी कर ली है।

अधिकारी – प्रत्येक जिला पंचायत में दो अधिकारी होते हैं-अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष, जिनका चुनाव निर्वाचित सदस्यों द्वारा गुप्त मतदान प्रणाली के आधार पर होता है। अध्यक्ष बनने के लिए यह आवश्यक है कि वह जिले में रहता हो, उसकी आयु 21 वर्ष से कम न हो तथा उसका नाम मतदाता सूची में हो। इन दोनों का निर्वाचन पाँच वर्ष के लिए किया जाता है। राज्य सरकार पाँच वर्ष की अवधि, से पूर्व भी इन्हें पदच्युत कर सकती है। ये पद भी अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित होते हैं। अध्यक्ष पंचायतों की बैठकों का सभापतित्व करता है, पंचायत के कार्यों का निरीक्षण करता है एवं कर्मचारियों पर नियन्त्रण रखता है। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उसका पदभार उपाध्यक्ष सँभालता है।

इन अधिकारियों के अतिरिक्त छोटे-बड़े, स्थायी-अस्थायी अनेक वैतनिक कर्मचारी भी होते हैं, जो इन अधिकारियों के प्रति जिम्मेदार होते हैं तथा जिला पंचायत का कार्य निष्पादित करते हैं।

कार्य – जिले के समस्त ग्रामीण क्षेत्र की व्यवस्था तथा विकास का उत्तरदायित्व जिला पंचायत पर है। इस दायित्व को पूरा करने के लिए जिला परिषद् निम्नलिखित कार्य करती है

  1. सार्वजनिक सङ्कों, पुलों तथा निरीक्षण-गृहों का निर्माण एवं मरम्मत करवाना।
  2. प्रबन्ध हेतु सड़कों का ग्राम सड़कों, अन्तग्रम ग्राम सड़कों तथा जिला सड़कों में वर्गीकरण करना।
  3. तालाब, नाले आदि बनवाना।
  4. पीने के पानी की व्यवस्था करना।
  5. रोशनी का प्रबन्ध करना।
  6. जनस्वास्थ्य के लिए महामारियों और संक्रामक रोगों की रोकथाम की व्यवस्था करना।
  7. अकाल के दौरान सहायता हेतु राहत कार्य चलाना।
  8. क्षेत्र समिति एवं ग्राम पंचायत के कार्यों में तालमेल स्थापित करना।
  9. ग्राम पंचायतों तथा क्षेत्र समितियों के कार्यों का निरीक्षण करना।
  10. प्राइमरी स्तर से ऊपर की शिक्षा का प्रबन्ध करना।
  11. सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाना।
  12. कांजी हाउस तथा पशु चिकित्सालय की व्यवस्था करना।
  13. जन्म-मृत्यु का हिसाब रखना।
  14. परिवार नियोजन कार्यक्रम लागू करना।
  15. अस्पताल खोलना तथा मनोरंजन के साधनों की व्यवस्था करना।
  16. पुस्तकालय-वाचनालय का निर्माण एवं उनका अनुरक्षण करना।
  17. कृषि की उन्नति के लिए उचित प्रबन्ध करना।
  18. खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकना आदि।

आय के साधन – जिला पंचायत अपने कार्यों को पूर्ण करने के लिए निम्नलिखित साधनों से आय प्राप्त करती है –

  1. हैसियत एवं सम्पत्ति कर
  2. स्कूलों से प्राप्त फीस
  3. अचल सम्पत्ति से कर
  4. लाइसेन्स कर
  5. नदियों के पुलों तथा घाटों से प्राप्त उतराई कर
  6. कांजी हाउसों से प्राप्त आय
  7. मेलों, हाटों एवं प्रदर्शनियों से प्राप्त आय तथा
  8. राज्य सरकार से प्राप्त अनुदान।

प्रश्न 6.
अपने प्रदेश में नगरपालिका परिषद का गठन किस प्रकार होता है ? नगर के विकास के लिए वे कौन-कौन-से कार्य करती हैं ?
उत्तर :
उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 ई०’ के अनुसार 1 लाख से 5 लाख तक की जनसंख्या वाले नगर को ‘लघुतर नगरीय क्षेत्र का नाम दिया गया है तथा इनके प्रबन्ध के लिए नगरपालिका परिषद् की व्यवस्था का निर्णय लिया गया है।

गठन – नगरपालिका परिषद् में एक अध्यक्ष और तीन प्रकार के सदस्य होंगे। ये तीन प्रकार के सदस्य निम्नलिखित हैं –

(1) निर्वाचित सदस्य – नगरपालिका परिषद् में जनसंख्या के आधार पर निर्वाचित सदस्यों की संख्या 25 से कम और 55 से अधिक नहीं होगी। राज्य सरकार सदस्यों की यह संख्या निश्चित करके सरकारी गजट में अधिसूचना द्वारा प्रकाशित करेगी।

(2) पदेन सदस्य – (i) इसमें लोकसभा और राज्य विधानसभा के ऐसे समस्त सदस्य सम्मिलित होते हैं, जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें पूर्णतया अथवा अंशतः वे नगरपालिका क्षेत्र सम्मिलित होते हैं।
(ii) इसमें राज्यसभा और विधान परिषद् के ऐसे समस्त सदस्य सम्मिलित होते हैं, जो उस नगरपालिका क्षेत्र के अन्तर्गत निर्वाचक के रूप में पंजीकृत हैं।

(3) मनोनीत सदस्य – प्रत्येक नगरपालिका परिषद् में राज्य सरकार द्वारा ऐसे सदस्यों को मनोनीत किया जाएगा, जिन्हें नगरपालिका प्रशासन का विशेष ज्ञान अथवा अनुभव हो। ऐसे सदस्यों की संख्या 3 से कम और 5 से अधिक नहीं होगी। इन मनोनीत सदस्यों को नगरपालिका परिषद् की बैठकों में मत देने का अधिकार नहीं होगा। नगर निगम के निर्वाचित सदस्यों के समान (सभासद) नगरपालिका परिषद् के सदस्यों को भी सभासद’ ही कहा जाएगा।

पदाधिकारी – प्रत्येक नगरपालिका परिषद् में एक ‘अध्यक्ष और एक ‘उपाध्यक्ष होगा। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में या पद रिक्त होने पर उपाध्यक्ष के द्वारा अध्यक्ष के रूप में कार्य किया जाता है। अध्यक्ष का निर्वाचन 5 वर्ष के लिए समस्त मतदाताओं द्वारा वयस्क मताधिकार तथा प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होता है। उपाध्यक्ष का निर्वाचन नगरपालिका परिषद् के सभासदों द्वारा एक वर्ष की अवधि के लिए किया जाता है।

अधिकारी और कर्मचारी – उपर्युक्त के अतिरिक्त परिषद् के कुछ वैतनिक अधिकारी व कर्मचारी भी होते हैं, जिनमें सबसे प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी’ (Executive Officer) होता है। जिन परिषदों में ‘प्रशासनिक अधिकारी न हों, वहाँ परिषद् विशेष प्रस्ताव द्वारा एक या एक से अधिक सचिव नियुक्त करती है।

कार्य – नगरपालिका अपनी समितियों के माध्यम से नगरों के विकास के लिए निम्नलिखित कार्य करती है –

(I) अनिवार्य कार्य – नगरपालिका परिषद् को निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं –

  1. सड़कों का निर्माण तथा उनकी मरम्मत व सफाई करवाना।
  2. नगरों में जल की व्यवस्था करना।
  3. नगरों में प्रकाश की व्यवस्था करना।
  4. सड़कों के किनारों पर छायादार वृक्ष लगवाना।
  5. नगर की सफाई का प्रबन्ध करना।
  6. औषधालयों का प्रबन्ध करना तथा संक्रामक रोगों से बचने के लिए टीके लगवाना।
  7. शवों को जलाने एवं दफनाने की उचित व्यवस्था करना।
  8. जन्म एवं मृत्यु का विवरण रखना।
  9. नगरों में शिक्षा की व्यवस्था करना।
  10. आग बुझाने के लिए फायर ब्रिगेड की व्यवस्था करना।
  11. सड़कों तथा मोहल्लों का नाम रखना व मकानों पर नम्बर डलवाना।
  12. बूचड़खाने बनवाना तथा उनकी व्यवस्था करना।
  13. अकाल के समय लोगों की सहायता करना।

(II) ऐच्छिक कार्य – नगरपालिका परिषद् निम्नलिखित कार्यों को भी पूरा करती है –

  1. नगर को सुन्दर तथा स्वच्छ बनाये रखना।
  2. पुस्तकालय, वाचनालय, अजायबघर व विश्राम-गृहों की स्थापना करना।
  3. प्रारम्भिक शिक्षा से ऊपर की शिक्षा की व्यवस्था करना।
  4. पागलखाना और कोढ़ियों के रखने के स्थानों आदि की व्यवस्था करना।
  5. बाजार तथा पैंठ की व्यवस्था करना।
  6. पागल तथा आवारा कुत्तों को पकड़वाना।
  7. अनाथों के रहने तथा बेकारों के लिए रोजी का प्रबन्ध करना।
  8. नगर में नगर-बस सेवा चलवाना।
  9. नगर में नये-नये उद्योग-धन्धे विकसित करने के लिए सुविधाएँ प्रदान करना।

प्रश्न 7.
नगर-निगम की रचना और उसके कार्यों पर प्रकाश डालिए।
या
उच्चर प्रद्वेश के नगर-निगम के संगठन व कार्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन-विधि (संशोधन), 1994 के अन्तर्गत 5 लाख से अधिक जनसंख्या वाले प्रत्येक नगर को ‘वृहत्तर नगरीय क्षेत्र घोषित कर दिया गया है तथा ऐसे प्रत्येक नगर में स्वायत्त शासन के अन्तर्गत नगर-निगम की स्थापना का प्रावधान किया गया है। उत्तर प्रदेश में लखनऊ, कानपुर, आगरा, वाराणसी, मेरठ, इलाहाबाद, गोरखपुर, मुरादाबाद, अलीगढ़, गाजियाबाद, बरेली तथा सहारनपुर नगरों में नगर-निगम स्थापित कर दिये गये हैं। उत्तर प्रदेश के दो नगरों-कानपुर और लखनऊ-की जनसंख्या 10 लाख से अधिक है, अत: इन्हें महानगर तथा इनका प्रबन्ध करने वाली संस्था को ‘महानगर निगम की संज्ञा दी गयी है। वर्तमान में कुछ और नगर-आगरा, वाराणसी, मेरठे—भी ‘महानगर निगम’ बनाये जाने के लिए प्रस्तावित हैं।

गठन – नगर-निगम के गठन हेतु नगर प्रमुख, उपनगर प्रमुख व तीन प्रकार के सदस्य क्रमशः निर्वाचित सदस्य, मनोनीत सदस्य व पदेन सदस्यों का प्रावधान किया गया है। ये तीन प्रकार के सदस्य इस प्रकार हैं –

(1) निर्वाचित सदस्य – नगर-निगम के निर्वाचित सदस्यों को सभासद कहा जाता है। सभासदों की संख्या कम-से-कम 60 व अधिक-से-अधिक 110 निर्धारित की गयी है। यह संख्या राज्य सरकार द्वारा सरकारी गजट में दी गयी विज्ञप्ति के आधार पर निश्चित की जाती है।

योग्यता – नगर-निगम के सभासद के निर्वाचन में भाग लेने हेतु निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिए –

  1. सभासद के निर्वाचन में भाग लेने के लिए नगर-निगम क्षेत्र की मतदाता सूची (निर्वाचन सूची) में उसका नाम अंकित होना चाहिए।
  2. आयु 21 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए।
  3. वह व्यक्ति राज्य विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने की सभी योग्यताएँ व उपबन्ध पूर्ण करता हो।

विशेष – जो स्थान आरक्षित श्रेणियों के लिए आरक्षित किये गये हैं, उन पर आरक्षित वर्ग का व्यक्ति ही निर्वाचन में भाग ले सकेगा।

सभासदों का निर्वाचन – नगर-निगम के सभासदों का चुनाव नगर के वयस्क नागरिकों द्वारा होता है। चुनाव के लिए नगर को अनेक निर्वाचन-क्षेत्रों में विभाजित कर दिया जाता है, जिन्हें कक्ष’ (Ward) कहा जाता है। प्रत्येक कक्ष से संयुक्त निर्वाचन पद्धति के आधार पर एक सभासद का चुनाव होता है। इस पद हेतु नगर का कोई भी ऐसा नागरिक प्रत्याशी हो सकता है, जिसकी आयु 21 वर्ष हो और जो निवास सम्बन्धी समस्त शर्ते पूरी करता हो।

स्थानों का आरक्षण – प्रत्येक निगम में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित किये जाएँगे। इस प्रकार से आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात; निगम में प्रत्यक्ष चुनाव से भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या में यथासम्भव वही होगा, जो अनुपात नगर-निगम क्षेत्र की कुल जनसंख्या में इन जातियों का है। प्रत्येक नगर-निगम में प्रत्यक्ष चुनाव से भरे जाने वाले स्थानों का 27 प्रतिशत स्थान पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित किया जाएगा। इन आरक्षित स्थानों में कम-से-कम एक-तिहाई स्थान इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे। इन महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों को सम्मिलित करते हुए, प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या के कम-से-कम एक तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे।

(2) मनोनीत सदस्य – नगर-निगम में राज्य सरकार द्वारा ऐसे सदस्यों को मनोनीत किया जाएगा जिन्हें नगर-निगम प्रशासन का विशेष ज्ञान व अनुभव हो। इन सदस्यों की संख्या राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाएगी। मनोनीत सदस्यों को नगर निगम की बैठकों में मत देने का अधिकार नहीं होगा। इनकी संख्या 5 व 10 के मध्य होगी।

(3) पदेन सदस्य –

  1. लोकसभा और राज्य विधानसभा के वे सदस्य जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें नगर पूर्णतः अथवा अंशत: समाविष्ट हैं।
  2. राज्यसभा और विधान परिषद् के वे सदस्य, जो उस नगर में निर्वाचक के रूप में पंजीकृत हैं।
  3. उत्तर प्रदेश सहकारी समिति अधिनियम, 1965 ई० के अधीन स्थापित समितियों के वे अध्यक्ष जो नगर-निगम के सदस्य नहीं हैं।

कार्यकाल – नगर-निगम का कार्यकाल 5 वर्ष है, परन्तु राज्य सरकार धारा 538 के अन्तर्गत निगम को इसके पूर्व भी विघटित कर सकती है।

समितियाँ – नगर-निगम की दो प्रमुख समितियाँ होंगी – (1) कार्यकारिणी समिति तथा (2) विकास समिति। इसके अतिरिक्त नगर-निगम में निगम विद्युत समिति, नगर परिवहन समिति और इसी प्रकार की अन्य समितियाँ भी गठित की जा सकती हैं; परन्तु इन समितियों की संख्या 12 से अधिक नहीं होनी चाहिए। अधिनियम, 1994 के अन्तर्गत नगर-निगम को नगर-निगम क्षेत्र में वे ही कार्य करने का निर्देश दिया गया है जो कार्य नगरपालिका परिषद् को नगरपालिका क्षेत्र में करने का निर्देश है।

कार्य

नगर – निगम का कार्य-क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है। उत्तर प्रदेश के निगमों को 41 अनिवार्य और 43 ऐच्छिक कार्य करने होते हैं; यथा –

अनिवार्य कार्य – इन कार्यों के अन्तर्गत नगर में सफाई की व्यवस्था करना, सड़कों एवं गलियों में प्रकाश की व्यवस्था करना, अस्पतालों एवं औषधालयों का प्रबन्ध करना, इमारतों की देखभाल करना, पेयजल का प्रबन्ध करना, संक्रामक रोगों की रोकथाम की व्यवस्था करना, जन्म-मृत्यु का लेखा रखना, प्राथमिक एवं नर्सरी शिक्षा का प्रबन्ध करना, नगर नियोजन एवं नगर सुधार कार्यों की व्यवस्था करना आदि विभिन्न कार्य सम्मिलित किये गये हैं।

ऐच्छिक कार्य – इन कार्यों के अन्तर्गत निगम को पुस्तकालय, वाचनालय, अजायबघर आदि की व्यवस्था के साथ-साथ समय-समय पर लगने वाले मेलों और प्रदर्शनियों की व्यवस्था भी करनी होती है। इन ऐच्छिक कार्यों में ट्रक, बस आदि चलाना एवं कुटीर उद्योगों का विकास करना आदि भी सम्मिलित हैं। इस प्रकार नगर-निगम लगभग उन्हीं समस्त कार्यों को बड़े पैमाने पर सम्पादित करता है, जो छोटे नगरों में नगरपालिका करती है।

पदाधिकारी – प्रत्येक नगर-निगम में एक नगर प्रमुख तथा एक उप-नगर प्रमुख होगा। नगर प्रमुख का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है। इस अवधि से पहले अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा नगर प्रमुख को पद से हटाया जा सकता है।

नगर-निगम में दो प्रकार के अधिकारी होते हैं – निर्वाचित एवं स्थायी। निर्वाचित अधिकारी अवैतनिक तथा स्थायी अधिकारी वैतनिक होते हैं।

(I) निर्वाचित अधिकारी – निर्वाचित अधिकारी मुख्य रूप से इस प्रकार होते हैं –

नगर प्रमुख – प्रत्येक नगर-निगम में एक नगर प्रमुख होता है। नगर प्रमुख के पद के लिए वही व्यक्ति प्रत्याशी हो सकता है, जो नगर का निवासी हो और उसकी आयु कम-से-कम 30 वर्ष हो। नगर प्रमुख का पद अवैतनिक होता है; उसका निर्वाचन नगर के समस्त मतदाताओं द्वारा वयस्क मताधिकार तथा प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होता है।

उप-नगर प्रमुख – प्रत्येक नगर-निगम में एक ‘उप-नगर प्रमुख भी होता है। नगर प्रमुख की अनुपस्थिति अथवा पद रिक्त होने पर उप-नगर प्रमुख ही नगर प्रमुख के कार्यों का सम्पादन करता है। इसका चुनाव एक वर्ष के लिए सभासद करते हैं।

(II) स्थायी अधिकारी – ये अधिकारी इस प्रकार हैं –

मुख्य नगर अधिकारी – प्रत्येक नगर-निगम का एक मुख्य नगर अधिकारी होता है। यह अखिल भारतीय शासकीय सेवा (I.A.S.) का उच्च अधिकारी होता है। राज्य सरकार इसी अधिकारी के माध्यम से नगर-निगम पर नियन्त्रण रखती है।

अन्य अधिकारी – मुख्य नगर अधिकारी के अतिरिक्त एक या अधिक ‘अपर मुख्य नगर अधिकारी भी राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ प्रमुख अधिकारी भी होते हैं; जैसे—मुख्य अभियन्ता, नगर स्वास्थ्य अधिकारी, मुख्य नगर लेखा-परीक्षक आदि।

प्रश्न 8.
नगर पंचायत के संगठन और उसके कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
नगर पंचायत की रचना तथा कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन विधि (संशोधन),1994 के अनुसार 30 हजार से 1 लाख की जनसंख्या वाले क्षेत्र को ‘संक्रमणशील क्षेत्र घोषित किया गया है, अर्थात् जिन स्थानों पर ‘टाउन एरिया कमेटी’ थी, उन स्थानों को अब ‘टाउन एरिया’ नाम के स्थान पर नगर पंचायत’ नाम दिया गया है। ये स्थान ऐसे हैं जो ग्राम के स्थान पर नगर बनने की ओर अग्रसर हैं।

संरचना – प्रत्येक नगर पंचायत में एक अध्यक्ष व तीन प्रकार के सदस्य होंगे। सदस्य क्रमश: इस प्रकार होंगे –

  1. निर्वाचित सदस्य
  2. पदेन सदस्य तथा
  3. मनोनीत सदस्य।

(1) निर्वाचित सदस्य – नगर पंचायतों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या कम-से-कम 10 और अधिक-से-अधिक 24 होगी। नगर पंचायत के सदस्यों की संख्या राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाएगी तथा यह संख्या सरकारी गजट में अधिसूचना द्वारा प्रकाशित की जाएगी। निर्वाचित सदस्यों को सभासद कहा जाएगा। सभासद के निर्वाचन के लिए नगर को लगभग समान जनसंख्या वाले क्षेत्रों (वार्ड) में विभक्त किया जाएगा। वार्ड एक सदस्यीय होगा। प्रत्येक सभासद को निर्वाचन वार्ड के वयस्क मताधिकार प्राप्त नागरिकों के द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति के आधार पर किया जाएगा।

सभासद की योग्यता –

  1. सभासद का नाम नगर की मतदाता सूची में पंजीकृत होना चाहिए।
  2. उसकी आयु कम-से-कम 21 वर्ष होनी चाहिए।
  3. वह राज्य विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने के सभी उपबन्ध पूरे करता हो।
  4. जो स्थान आरक्षित हैं, उन स्थानों से आरक्षित वर्ग का स्त्री/पुरुष ही चुनाव लड़ सकता है।

आरक्षण – जनसंख्या के अनुपात में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के लिए वार्ड का आरक्षण होगा। पिछड़े वर्ग के लिए 27 प्रतिशत वार्ड आरक्षित होंगे, जिनमें अनुसूचित जाति जनजाति तथा पिछड़े वर्ग के आरक्षण की एक-तिहाई महिलाएँ सम्मिलित होंगी।

(2) पदेन सदस्य – लोकसभा व विधानसभा के वे सभी सदस्य पदेन सदस्य होंगे, जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनमें पूर्णतया या अंशतया वह नगर पंचायत क्षेत्र सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त राज्यसभा व विधान-परिषद् के ऐसे सभी सदस्य, जो उस नगर पंचायत क्षेत्र की निर्वाचक नामावली में पंजीकृत हैं, पदेन सदस्य होंगे।

(3) मनोनीत सदस्य – प्रत्येक नगर पंचायत में राज्य सरकार द्वारा ऐसे 2 या 3 सदस्यों को मनोनीत किया जाएगा, जिन्हें नगरपालिका प्रशासन का विशेष ज्ञान व अनुभव होगा। ये मनोनीत सदस्य नगर पंचायत की बैठकों में मत नहीं दे सकेंगे।

कार्यकाल – नगर पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष का होगा। राज्य सरकार नगर पंचायत का विघटन भी कर सकती है, परन्तु नगर पंचायत के विघटन के दिनांक से 6 माह की अवधि के अन्दर पुनः चुनाव कराना अनिवार्य होगा।

कार्य – नगर पंचायत मुख्य रूप से निम्नलिखित कार्य करेगी –

(1) सर्वसाधारण की सुविधा से सम्बन्धित कार्य करना – इनमें सड़कें बनवाना, वृक्ष लगवाना, सार्वजनिक स्थानों का निर्माण कराना, अकाल, बाढ़ या अन्य विपत्ति के समय जनता की सहायता करना आदि प्रमुख हैं।

(2) स्वास्थ्य-रक्षा सम्बन्धी कार्य करना – इनमें संक्रामक रोगों से बचाव के लिए टीके लगवाना, खाद्य-पदार्थों का निरीक्षण करना, अस्पताल, ओषधियों तथा स्वच्छ जल की व्यवस्था करना आदि प्रमुख हैं।

(3) शिक्षा सम्बन्धी कार्य करना – इनमें प्रारम्भिक-शिक्षा के लिए पाठशालाओं की व्यवस्था करना, वाचनालय और पुस्तकालय बनवाना तथा ज्ञानक्र्द्धन के लिए प्रदर्शनी लगाना आदि प्रमुख हैं।

(4) आर्थिक कार्य करना – इनमें जल और विद्युत की पूर्ति करना, यातायात के लिए बसों की तथा मनोरंजन के लिए सिनेमा-गृहों (छवि-गृहों) या मेलों आदि की व्यवस्था करना प्रमुख हैं।

(5) सफाई सम्बन्धी कार्य करना – इनमें सड़कों, गलियों तथा नालियों की सफाई कराना, सड़कों पर पानी का छिड़काव कराना आदि प्रमुख हैं।

प्रश्न 9.
जिला प्रशासन में जिलाधिकारी का क्या महत्त्व है ? जिलाधिकारी के कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
जिले के शासन में जिलाधिकारी का क्या स्थान है ? उसके अधिकार एवं कर्तव्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :

जिलाधिकारी का महत्त्व

प्रो० प्लाण्डे का यह कथन कि “जिलाधीश राज्य सरकार की आँख, कान, मुँह और भुजाओं के समान है”, जिलाधिकारी के महत्त्व को भली-भाँति बताता है। इस पद पर अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए चयनित अनुभवी अधिकारी की ही नियुक्ति की जाती है। जिले में शान्ति-व्यवस्था बनाकर उसका समुचित विकास करना जिलाधिकारी का मुख्य कार्य होता है राज्य सरकार की आय के साधन तो पूरे राज्य में बिखरे पड़े होते हैं। जिलाधिकारी का एक मुख्य कार्य यह भी है कि राज्य-कोष में उसके जिले का अधिकतम योगदान हो। इसके अतिरिक्त यह राज्य सरकार एवं जिले की जनता के बीच एक सेतु का कार्य भी करता है। वह जन-भावनाओं और राज्य सरकार की अपेक्षाओं को इधर से उधर पहुँचाता है जिलाधिकारी के पास अनेक शक्तियाँ होती हैं। वह शान्ति-व्यवस्था बनाये रखने के लिए सेना की सहायता तक ले सकता है। अतः कहा जा सकता है कि जिलाधिकारी का पद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

जिलाधिकारी के अधिकार एवं कार्य (कर्तव्य)

(1) प्रशासन सम्बन्धी अधिकार – जिले में शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखने का पूर्ण उत्तरदायित्व जिलाधिकारी पर होता है। इसका यह कार्य सबसे महत्त्वपूर्ण होता है, इसलिए पुलिस विभाग उसके नियन्त्रण में रहकर ही कार्य करता है। जिले की सम्पूर्ण सूचना जिलाधिकारी ही राज्य सरकार के पास भेजता है। जिले में किसी भी प्रकार का झगड़ा होने या शान्ति भंग होने की आशंका होने पर वह सभाओं व जुलूसों पर प्रतिबन्ध लगा सकता है, सेना की सहायता भी ले सकता है तथा गोली चलाने की आज्ञा भी दे सकता है। इसके अतिरिक्त वह प्राकृतिक प्रकोपों के आने पर या महामारियाँ फैलने पर राज्य सरकार से सहायता प्राप्त करके जनता की सहायता भी करता है।

(2) न्याय सम्बन्धी अधिकार – जिलाधिकारी को राजस्व सम्बन्धी तथा किराया नियन्त्रण कानून के अन्तर्गत शहरी सम्पत्ति के विवादों के निपटारे से सम्बद्ध न्यायिक कार्य भी करना होता है। इसी कारण उसे जिलाधीश भी कहा जाता है। अपने अधीनस्थ अधिकारियों के निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनने का अधिकारी भी जिलाधीश को प्राप्त है।

(3) मालगुजारी (राजस्व) सम्बन्धी अधिकार – जिलाधिकारी सम्पूर्ण जिले की मालगुजारी वसूल करता है तथा इससे सम्बन्धित बड़े-बड़े झगड़ों का समाधान भी करता है। इस कार्य में इसकी सहायता के लिए इसके अधीन डिप्टी कलेक्टर, तहसीलदार, नायब तहसीलदार, कानूनगो, लेखपाल आदि होते हैं। जिले का सरकारी कोष इसी के अधिकार में रहता है।

(4) निरीक्षण सम्बन्धी अधिकार – सम्पूर्ण जिले की शान्ति एवं व्यवस्था का भार जिलाधिकारी पर होता है। इसलिए इसे प्रत्येक विभाग के निरीक्षण करने का अधिकार दिया गया है। जिलाधिकारी जिले के लगभग सभी विभागों का समय-समय पर निरीक्षण करता है और उन पर अपना नियन्त्रण भी रखता है।

(5) विकास सम्बन्धी अधिकार – यद्यपि जिले में विकास सम्बन्धी कार्यों की देख-रेख के लिए एक मुख्य विकास अधिकारी की नियुक्ति की जाती है, तथापि जिले के विकास का उत्तरदायित्व जिलाधिकारी पर ही होता है। जिले के विकास के लिए विभिन्न विकास योजनाएँ बनाना, उनका क्रियान्वयन कराना तथा उन पर नियन्त्रण रखना भी जिलाधिकारी का ही कार्य है।

(6) जनता व सरकार के मध्य सम्बन्ध – जिलाधिकारी ही जनता और सरकार के मध्य एक कड़ी, के रूप में काम करता है तथा तहसील दिवस आदि के सदृश आयोजनों में वह जनता की समस्याओं को सुनकर उनका समाधान भी करता है।

(7) अन्य कार्य – जिले की समस्त स्थानीय संस्थाओं पर पूर्ण नियन्त्रण रखने के साथ-साथ विभिन्न आग्नेयास्त्रों (राइफल, बन्दूक, पिस्तौल आदि) के लाइसेन्स देने का अधिकार भी जिलाधिकारी को ही होता है। वह जिले में अनेक छोटे-छोटे कर्मचारियों की नियुक्ति का कार्य भी करता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जिले का सर्वोच्च पदाधिकारी होने के कारण जिलाधिकारी को प्रशासन एवं विकास-सम्बन्धी अनेक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना पड़ता है। वस्तुत: जिलाधिकारी के अधिकार तथा शक्तियाँ व्यापक हैं।

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UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 7 Federalism

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 7 Federalism (संघवाद)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Political Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 7 Federalism (संघवाद).

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
नीचे कुछ घटनाओं की सूची दी गई है। इनमें से किसको आप संघवाद की कार्य-प्रणाली के रूप में चिह्नित करेंगे और क्यों?

(क) केन्द्र सरकार ने मंगलवार को जीएनएलएफ के नेतृत्त्व वाले दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल को छठी अनुसूची में वर्णित दर्जा देने की घोषणा की। इससे पश्चिम बंगाल के इस पर्वतीय जिले के शासकीय निकाय को ज्यादा स्वायत्तता प्राप्त होगी। दो दिन के गहन विचार-विमर्श के बाद नई दिल्ली में केन्द्र सरकार, पश्चिम बंगाल सरकार और सुभाष घीसिंग के नेतृत्व वाले गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के बीच त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर हुए।

(ख) वर्षा प्रभावित प्रदेशों के लिए सरकार कार्य-योजना लाएगी। केन्द्र सरकार ने वर्षा प्रभावित प्रदेशों से पुनर्निर्माण की विस्तृत योजना भेजने को कहा है ताकि वह अतिरिक्त राहत प्रदान करने की उनकी माँग पर फौरन कार्रवाई कर सके।

(ग) दिल्ली के लिए नए आयुक्त। देश की राजधानी दिल्ली में नए नगरपालिका आयुक्त को बहाल किया जाएगा। इस बात की पुष्टि करते हुए एमसीडी के वर्तमान आयुक्त राकेश मेहता ने कहा कि उन्हें अपने तबादले के आदेश मिल गए हैं और संभावना है। कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अशोक कुमार उनकी जगह सँभालेंगे। अशोक कुमार अरुणाचल प्रदेश के मुख्य सचिव की हैसियत से काम कर रहे हैं। 1975 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी श्री मेहता पिछले साढ़े तीन साल से आयुक्त की हैसियत से काम कर रहे हैं।

(घ) मणिपुर विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा। राज्यसभा ने बुधवार को मणिपुर विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान करने वाला विधेयक पारित किया। मानव संसाधन विकास मन्त्री ने वायदा किया है कि अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और सिक्किम जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों में भी ऐसी संस्थाओं का निर्माण होगा।

(ड) केन्द्र ने धन दिया। केन्द्र सरकार ने अपनी ग्रामीण जलापूर्ति योजना के तहत अरुणाचल प्रदेश को 533 लाख रुपये दिए हैं। इस धन की पहली.किस्त के रूप में अरुणाचल प्रदेश को 466 लाख रुपये दिए गए हैं।

(च) हम बिहारियों को बताएँगे कि मुंबई में कैसे रहना है। करीब 100 शिव सैनिकों ने मुंबई के जे०जे०, अस्पताल में उठा-पटक करके रोजमर्रा के कामधंधे में बाधा पहुँचाई, नारे लगाए और धमकी दी कि गैर-मराठियों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं की गई तो इस मामले को वे स्वयं ही निपटाएँगे।

(छ) सरकार को भंग करने की माँग कांग्रेस विधायक दल ने प्रदेश के राज्यपाल को हाल में सौंपे एक ज्ञापन में सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक एलायंस ऑफ नागालैंड (डीएएन) की सरकार को तथाकथित वित्तीय अनियमितता और सार्वजनिक धन के गबन के आरोप में भंग करने की माँग की है।

(ज) एनडीए सरकार ने नक्सलियों से हथियार रखने को कहा। विपक्षी दल राजद और उसके सहयोगी कांग्रेस और सीपीआई (एम) के वॉक आउट के बीच बिहार सरकार ने आज नक्सलियों से अपील की कि वे हिंसा का रास्ता छोड़ दें। बिहार को विकास के नए युग में ले जाने के लिए बेरोजगारी को जड़ से खत्म करने के अपने वादे को भी सरकार ने दोहराया।
उत्तर-
उपर्युक्त उदाहरणों में ‘क’ में वास्तविक संघीय प्रणाली की स्थिति दिखाई देती है क्योंकि इसमें सांस्कृतिक व भौगोलिक समीपता के आधार पर स्वायत्त परिषद् का निर्माण कर शक्तियों का बँटवारा किया जाता है जिससे निश्चित क्षेत्र का वहाँ के स्थानीय लोगों की इच्छा व अपेक्षाओं के अनुसार विकास हो सके। दूसरा उदाहरण (ख) भी वास्तविक संघीय प्रणाली की स्थिति को प्रकट करता है जिसमें केन्द्र उन राज्यों से व्यय का विवरण माँगता है जो वर्षा से अधिक प्रभावित हुए हैं ताकि उन्हें आवश्यक सहायता दी जा सके। उदाहरण (ङ) में भी वास्तविक संघीय प्रणाली की स्थिति है क्योंकि इसमें भी अरुणाचल प्रदेश की पानी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए आवश्यक धन की व्यवस्था की गई है।

प्रश्न 2.
बताएँ कि निम्नलिखित में कौन-सा कथन सही होगा और क्यों?
(क) संघवाद से इस बात की सम्भावना बढ़ जाती है कि विभिन्न क्षेत्रों के लोग मेल-जोल से रहेंगे और उन्हें इस बात का भय नहीं रहेगा कि एक की संस्कृति दूसरे पर लाद दी जाएगी।
(ख) अलग-अलग किस्म के संसाधनों वाले दो क्षेत्रों के बीच आर्थिक लेन-देन को संघीय प्रणाली से बाधा पहुँचेगी।
(ग) संघीय प्रणाली इस बात को सुनिश्चित करती है जो केन्द्र में सत्तासीन हैं उनकी शक्तियाँ सीमित रहें।
उत्तर-
उपर्युक्त में प्रथम कथन (क) सही है क्योंकि संघीय प्रणाली में सभी को अपनी-अपनी संस्कृति के विकास का पूरा अवसर प्राप्त होता है जिसमें यह भी भय नहीं रहता है कि किसी पर दूसरे की संस्कृति लाद दी जाएगी। तीसरा कथन (ग) भी सही है क्योंकि संघीय प्रणाली में शक्तियों का केन्द्र व राज्यों में बँटवारा करके केन्द्र की शक्तियों को सीमित किया जाता है।

प्रश्न 3.
बेल्जियम के संविधान के कुछ प्रारंभिक अनुच्छेद नीचे लिखे गए हैं। इसके आधार पर बताएँ कि बेल्जियम में संघवाद को किस रूप में साकार किया गया है। भारत के संविधान के लिए ऐसा ही अनुच्छेद लिखने का प्रयास करके देखें।
शीर्षक-1 : संघीय बेल्जियम, इसके घटक और इसका क्षेत्र
अनुच्छेद-1 – बेल्जियम एक संघीय राज्य है—जो समुदायों और क्षेत्रों से बना है।
अनुच्छेद-2 – बेल्जियम तीन समुदायों से बना है—फ्रेंच समुदाय, फ्लेमिश समुदाय और जर्मन समुदाय।
अनुच्छेद-3 – बेल्जियम तीन क्षेत्रों को मिलाकर बना है-वैलून क्षेत्र, फ्लेमिश क्षेत्र और ब्रूसेल्स क्षेत्र।
अनुच्छेद-4 – बेल्जियम में 4 भाषाई क्षेत्र हैं- फ्रेंच-भाषी क्षेत्र, डच-भाषी क्षेत्र, ब्रसेल्स की राजधानी का द्विभाषी क्षेत्र तथा जर्मन भाषी क्षेत्र। राज्य का प्रत्येक ‘कम्यून’ इन भाषाई क्षेत्रों में से किसी एक का हिस्सा है।
अनुच्छेद-5 – वैलून क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले प्रान्त हैं-वैलून ब्राबैंट, हेनॉल्ट, लेग, लक्जमबर्ग और नामूर। फ्लेमिश क्षेत्र के अन्तर्गत शामिल प्रांत हैं- एंटीवर्प, फ्लेमिश ब्राबैंट, वेस्ट फ्लैंडर्स, ईस्ट फ्लैंडर्स और लिंबर्ग।
उत्तर-
बेल्जियम के उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि बेल्जियम समाज एक बहुसंख्यक (संघीय) समाज है जिसमें विभिन्न जाति, भाषा, बोली के लोग रहते हैं। ये अलग-अलग क्षेत्रों व प्रान्तों में रहते हैं; अतः बेल्जियम में संघीय समाज के कारण संघीय शासन-प्रणाली की भी आवश्यकता है यह एक ऐसा संघ होगा जिसमें विभिन्न क्षेत्र व प्रान्त सम्मिलित होंगे।

भारतीय समाज भी एक संघीय समाज है जिसमें विभिन्न जाति, धर्म, संस्कृति, बोली व भाषा के लोग रहते हैं। भारत 29 राज्यों का संघ है। भारत में संघीय शासन-प्रणाली है परन्तु इसमें अनेक एकात्मक तत्त्व हैं जिन्हें भारतीय एकता, अखण्डता की सुरक्षा के लिए सम्मिलित किया गया है। संविधान की योजना के आधार पर केन्द्र व राज्यों में शक्तियों का विभाजन किया गया है। राज्य अपने क्षेत्र में प्रभावकारी है परन्तु मुख्य विषयों पर केन्द्र को शक्तिशाली बनाया गया है। शक्तियों का विभाजन भी केन्द्र के पक्ष में अधिक है यद्यपि प्रशासन के क्षेत्र में व विकास के क्षेत्र में केन्द्र व राज्य आपसी सहयोग के आधार पर काम करते हैं।

प्रश्न 4.
कल्पना करें कि आपको संघवाद के संबंध में प्रावधान लिखने हैं। लगभग 300 शब्दों का एक लेख लिखें जिसमें निम्नलिखित बिन्दुओं पर आपके सुझाव हों-
(क) केन्द्र और प्रदेशों के बीच शक्तियों का बँटवारा
(ख) वित्त-संसाधनों का वितरण
(ग) राज्यपालों की नियुक्ति
उत्तर-
बहुल समाज में सभी वर्गों के विकास के लिए वे उनके हितों की रक्षा के लिए प्रजातन्त्रीय संघीय शासन-प्रणाली आवश्यकता है। संघीय ढाँचे का निर्माण संविधान की योजना के आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिए।

संघीय शासन-प्रणाली की प्रमुख विशेषता केन्द्र व राज्यों के बीच शक्तियों के विभाजन से है। संघ का निर्माण संघीय सिद्धान्तों के आधार पर होना चाहिए जिसमें संघ राज्यों की मर्जी पर आधारित होना चाहिए।, प्रान्तीय व क्षेत्रीय विषयों पर राज्यों का ही नियन्त्रण रहना चाहिए। संघ के पास केवल राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व के विषय होने चाहिए। रक्षित शक्तियाँ राज्यों के पास होनी चाहिए। राज्यों की केन्द्र पर निर्भरता कम-से-कम होनी चाहिए। राज्यों के स्रोतों को राज्यों के विकास के लिए अधिक-से-अधिक उपयोग होना चाहिए। केन्द्र व राज्यों में आर्थिक स्रोतों का विभाजन विवेकपूर्ण आधार पर होना चाहिए।

राज्यपाल राज्यों का संवैधानिक मुखिया कहलाता है जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति राज्यपालों की नियुक्ति केन्द्र सरकार की सलाह पर करता है। राज्यपाल का पद राज्यों में महत्त्वपूर्ण पद है जो संवैधानिक मुखिया के साथ-साथ केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है। राज्यपाल के पद की इस स्थिति के कारण इसका राजनीतिकरण हो गया है। अतः संघीय व्यवस्था की सफलता के लिए आवश्यक है कि इस पद का दुरुपयोग न हो व राज्यपाल की नियुक्ति में राज्यों के मुख्यमन्त्रियों का परामर्श लिया जाना चाहिए व इस पद पर योग्य व निष्पक्ष व्यक्ति की नियुक्ति की जानी चाहिए।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में कौन-सा प्रांत के गठन का आधार होना चाहिए और क्यों?
(क) सामान्य भाषा
(ख) सामान्य आर्थिक हित
(ग) सामान्य क्षेत्र
(घ) प्रशासनिक सुविधा
उत्तर-
यद्यपि अभी तक भारत में राज्यों का गठन 1956 के कानून के आधार पर भाषा आधारित होता रहा है परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में प्रशासनिक सुविधा को राज्यों के पुनर्गठन का प्रमुख आधार माना जा रहा है जिससे लोगों को कुशल प्रशासन प्रदान किया जा सके जिसमें स्थानीय लोगों का विकास भी सम्भव हो सके।

प्रश्न 6.
उत्तर भारत के प्रदेशों-राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा बिहार के अधिकांश लोग हिंदी बोलते हैं। यदि इन सभी प्रांतों को मिलाकर एक प्रदेश बना दिया जाए तो क्या ऐसा करना संघवाद के विचार से संगत होगा? तर्क दीजिए।
उत्तर-
यदि उत्तर भारत के प्रदेशों-राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा बिहार जो कि सभी हिन्दी भाषी हैं, सभी को मिला दिया जाए तो भाषाई व सांस्कृतिक दृष्टि से तो वे सभी एक-इकाई के रूप में इकट्ठे हो सकते हैं परन्तु प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से यह उचित नहीं होगा। संघीय प्रशासन का प्रमुख आधार प्रशासनिक सुविधा है। देश में छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड व झारखण्ड का निर्माण प्रशासनिक आधार पर किया गया है।

प्रश्न 7.
भारतीय संविधान की ऐसी चार विशेषताओं का उल्लेख करें जिनमें प्रादेशिक सरकार की अपेक्षा केन्द्रीय सरकार को ज्यादा शक्ति प्रदान की गई।
उत्तर-
निम्नलिखित चार विशेषताएँ ऐसी हैं जिनके आधार पर केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है-

  1. केन्द्र के पक्ष में शक्तियों का विभाजन,
  2. राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियाँ,
  3. राज्यों में राष्ट्रपति शासन की व्यवस्था,
  4. अखिल भारतीय सेवाओं की भूमिका।

प्रश्न 8.
बहुत-से प्रदेश राज्यपाल की भूमिका को लेकर नाखुश क्यों हैं?
उत्तर-
भारतीय राजनीति में वर्तमान में सर्वाधिक चर्चित पद राज्यपाल का है। देश के अधिकांश राज्यों को अपने यहाँ के राज्यपालों से किसी-न-किसी रूप में शिकायत रहती है। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि अधिकांश राज्यपालों की राजनीतिक पृष्ठभूमि होती है जिसके आधार पर केन्द्र के शासक दल द्वारा उनकी नियुक्ति की जाती है। इस कारण राज्यपाल निरपेक्ष रूप से अपने कर्तव्यों को पूरा नहीं करते। इनकी भूमिका केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में होती है जिसके आधार पर इनकी जिम्मेदारी केन्द्र के हितों की रक्षा करना होता है परन्तु ये केन्द्र में जिस दल की सरकार होती है उसके रक्षक बन जाते हैं जिससे राज्यों की सरकारों और राज्यपालों में टकराव उत्पन्न हो जाता है।

प्रश्न 9.
यदि शासन संविधान के प्रावधानों के अनुकूल नहीं चल रहा, तो ऐसे प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। बताएँ कि निम्नलिखित में कौन-सी स्थिति किसी देश में राष्ट्रपति शासन लगाने के लिहाज से संगत है और कौन-सी नहीं? संक्षेप में कारण भी दें।
(क) राज्य की विधानसभा के मुख्य विपक्षी दल के दो सदस्यों को अपराधियों ने मार दिया है और विपक्षी दल प्रदेश की सरकार को भंग करने की माँग कर रहा है।
(ख) फिरौती वसूलने के लिए छोटे बच्चों के अपहरण की घटनाएँ बढ़ रही हैं। महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में इजाफा हो रहा है।
(ग) प्रदेश में हुए हाल के विधानसभा चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिला है। भय है कि एक दल दूसरे दल के कुछ विधायकों से धन देकर अपने पक्ष में उनका समर्थन हासिल कर लेगा।
(घ) केन्द्र और प्रदेशों में अलग-अलग दलों का शासन है और दोनों एक-दूसरे के कट्टर शत्रु हैं।
(ङ) सांप्रदायिक दंगे में 200 से ज्यादा लोग मारे गए हैं।
(च) दो प्रदेशों के बीच चल रहे जल-विवाद में एक प्रदेश ने सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मानने से इनकार कर दिया है।
उत्तर-
उपर्युक्त परिस्थितियों में (ग) में दिया गया उदाहरण राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए सबसे उपयुक्त है। ऐसी स्थिति में जब चुनाव के बाद किसी भी दल को आवश्यक बहुमत प्राप्त न हो तो इस बात की सम्भावना बढ़ जाती है कि राजनीतिक दलों द्वारा सरकार बनाने के प्रयास में जोड़-तोड़ की राजनीति व विधायकों की खरीद-फरोख्त प्रारम्भ हो जाती है।

प्रश्न 10.
ज्यादा,स्वायत्तता की चाह में प्रदेशों ने क्या माँगें उठाई हैं?
उत्तर-
1960 से निरन्तर विभिन्न राज्यों से प्रान्तीय स्वतन्त्रता की माँग निरन्तर उठाई जाती रही है। पश्चिम बंगाल, पंजाब, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर व कुछ उत्तर पूर्वी राज्यों से विशेष रूप से यह माँग आती रही है-

  1. केन्द्र व राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन राज्यों के पक्ष में होना चाहिए।
  2. राज्यों की केन्द्र पर आर्थिक निर्भरता नहीं होनी चाहिए।
  3. राज्यों के मामलों में केन्द्र का कम-से-कम हस्तक्षेप होना चाहिए।
  4. राज्यपाल के पद का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए व राज्यपाल की नियुक्ति में राज्यों में मुख्यमन्त्रियों का परामर्श लिया जाना चाहिए।
  5. सांस्कृतिक स्वायत्तता होनी चाहिए।
  6. सभी राज्यों का समान विकास होना चाहिए।
  7. संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 11.
क्या कुछ प्रदेशों में शासन के लिए विशेष प्रावधान होने चाहिए? क्या इससे दूसरे प्रदेशों में नाराजगी पैदा होती है? क्या इन विशेष प्रावधानों के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों के बीच एकता मजबूत करने में मदद मिलती है?
उत्तर-
संघीय प्रशासन के सिद्धान्तों के अनुसार सभी राज्यों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। सभी राज्यों में विकास कार्य समान होने चाहिए। भारत में ऐसा नहीं है। भारत में कुछ छोटे राज्य हैं, कुछ बड़े। राज्यसभा में राज्यों का असमान प्रतिनिधित्व है। जम्मू-कश्मीर को संविधान के अनुच्छेद 370 के अन्तर्गत विशेष दर्जा दिया गया है जिसके आधार पर जम्मू-कश्मीर की राज्य के रूप में अपनी प्रभुसत्ता है। इसी प्रकार से उत्तर-पूर्वी राज्यों (असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश व त्रिपुरा) के विकास के लिए विशेष प्रावधान हैं। इन राज्यों के राज्यपाल को विशेष शक्तियाँ प्राप्त हैं। कमजोर और पिछड़े राज्यों के विकास के लिए विशेष सुविधाएँ देना अनुचित नहीं है और न ही अन्य प्रदेशों को इससे असहमत होना चाहिए। सभी राज्यों की आवश्यकताओं को पूरा किया जाना चाहिए जिससे राष्ट्रीय एकता, अखण्डता को कोई खतरा उत्पन्न न हो।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘फेडरेशन ऑफ वेस्टइंडीज का जन्म किस वर्ष हुआ था?
(क) सन् 1958 में
(ख) सन् 1962 में
(ग) सन् 1963 में
(घ) सन् 1964 में
उत्तर :
(क) सन् 1958 में

प्रश्न 2.
‘यूनियन’ शब्द किस देश के संविधान से लिया गया है?
(क) ऑस्ट्रेलिया
(ख) कनाडा
(ग) ब्रिटेन
(घ) संयुक्त राज्य अमेरिका
उत्तर :
(ख) कनाडा

प्रश्न 3.
“भारत वस्तुतः एक संघात्मक राज्य नहीं है, वरन् अर्द्ध संघात्मक राज्य है।” यह किसका। कथन है?
(क) के० सी० ह्वीयर
(ख) जी० एन० जोशी
(ग) के० सन्थानम,
(घ) डॉ० बी०आर० अम्बेडकर
उत्तर :
(ख) जी० एन० जोशी।

प्रश्न 4.
“भारत का ढाँचा संघात्मक है, किन्तु उसकी आत्मा एकात्मक है।” यह किसका कथन है?
(क) दुर्गादास बसु
(ख) जस्टिस सप्रू
(ग) एम०वी० पायली
(घ) रणजीत सिंह सरकारिया
उत्तर :
(ग) एम०वी० पायली।

प्रश्न 5.
राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन कब हुआ था?
(क) 1950 ई० में
(ख) 1952 ई० में
(ग) 1954 ई० में
(घ) 1956 ई० में
उत्तर :
(ग) 1954 ई० में

प्रश्न 6.
संघ सूची में कुल कितने विषय है?
(क) 66
(ख) 97
(ग) 47
(घ) 100
उत्तर :
(ख) 97

प्रश्न 7.
राज्य सूची में कितने विषय हैं?
(क) 62
(ख) 64
(ग) 60
(घ) 72
उत्तर :
(क) 62

प्रश्न 8.
समवर्ती सूची पर कानून निर्मित करने का अधिकार किसको प्राप्त है?
(क) केन्द्र को
(ख) राज्य को
(ग) केन्द्र तथा राज्य दोनों को
(घ) केन्द्र-शासित प्रदेश को
उत्तर :
(ग) केन्द्र तथा राज्य दोनों को

प्रश्न 9.
निम्नलिखित में से कौन-सा विषय संघ सूची में सम्मिलित नहीं है?
(क) रक्षा
(ख) विदेश
(ग) वाणिज्य
(घ) शिक्षा
उत्तर :
(घ) शिक्षा

प्रश्न 10.
42वें संविधान संशोधन द्वारा निम्नलिखित में से कौन-सा विषय समवर्ती सूची में सम्मिलित किया गया है?
(क) कृषि
(ख) जेल
(ग) पुलिस
(घ) वन
उत्तर :
(घ) वन

प्रश्न 11.
आपातकालीन स्थिति में भारतीय संघ का ढाँचा हो जाता है –
(क) पूर्ण संघात्मक
(ख) अर्द्ध-संघात्मक
(ग) एकात्मक
(घ) कोई प्रभाव नहीं
उत्तर :
(ग) एकात्मक।

प्रश्न 12.
केन्द्र-राज्य संबंधों से जुड़े मसलों की जाँच के लिए सरकारिया आयोग कब गठित किया गया था?
(क) सन् 1947 में
(ख) सन् 1983 में
(ग) सन् 1984 में
(घ) सन् 1985 में
उत्तर :
(ख) सन् 1983 में

प्रश्न 13.
प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से उत्तर प्रदेश को विभाजित कर कौन-सा राज्य गठित किया गया?
(क) उत्तराखण्ड
(ख) छत्तीसगढ़
(ग) झारखण्ड
(घ) हरियाणा
उत्तर :
(क) उत्तराखण्ड।

प्रश्न 14.
कावेरीजल प्रवाह किन दो राज्यों के मध्य है?
(क) गुजरात-महाराष्ट्र
(ख) उत्तराखण्ड-हिमाचल प्रदेश
(ग) तमिलनाडु-कर्नाटक
(घ) मध्य प्रदेश-महाराष्ट्र
उत्तर :
(ग) तमिलनाडु-कर्नाटक

प्रश्न 15.
संविधान के अनुच्छेद 370 के अन्तर्गत किस राज्य को विशिष्ट स्थिति प्रदान की गई
(क) पंजाब
(ख) मिजोरम
(ग) सिक्किम
(घ) जम्मू-कश्मीर
उत्तर :
(घ) जम्मू-कश्मीर

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान संघात्मक है या एकात्मक?
उत्तर :
भारतीय संविधान संघात्मक भी है और एकात्मक भी।

प्रश्न 2.
संविधान के दो संघात्मक तत्त्व बताइए।
उत्तर :

  1. लिखित संविधान तथा
  2. स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान के दो एकात्मक लक्षण बताइए।
उत्तर :

  1. शक्तिशाली केन्द्र तथा
  2. इकहरी नागरिकता।

प्रश्न 4.
भारतीय संघ में कितने राज्य हैं?
उत्तर :
भारत में राज्यों की कुल संख्या 29 है।

प्रश्न 5.
संघ सूची में कितने विषय है?
उत्तर :
संघ सूची में 97 विषय हैं।

प्रश्न 6.
संघ सूची में सम्मिलित किन्हीं दो विषयों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. रक्षा तथा
  2. वैदेशिक मामले।

प्रश्न 7.
समवर्ती सूची के दो विषयों का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. फौजदारी विधि एवं प्रक्रिया और
  2. शिक्षा

प्रश्न 8.
समवर्ती सूची के विषयों पर किसे कानून बनाने का अधिकार है?
उत्तर :
समवर्ती सूची के विषयों पर केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकार दोनों को ही कानून बनाने का अधिकार है।

प्रश्न 9.
उस परिस्थिति का उल्लेख कीजिए, जब संसद राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बना सकती है।
उत्तर :
यदि राज्यसभा अपने 2/3 बहुमत से राज्य सूची में निहित किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर दे।

प्रश्न 10.
संघ सरकार की आय के ऐसे दो साधन बताइए, जो राज्य सरकार की आय के साधन नहीं हैं।
उत्तर :

  1. केन्द्रीय उत्पाद शुल्क तथा
  2. आयकर।

प्रश्न 11.
संघ सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार किसको है?
उत्तर :
संघ सूची के विषयों पर कानून बनाने का एकमात्र अधिकार भारतीय संसद को है।

प्रश्न 12.
केन्द्र तथा राज्यों में शक्तियों का विभाजन की तीन सूचियों में से शिक्षा किस सूची में
उत्तर :
शिखा को समवर्ती सूची में सम्मिलित किया गया है।

प्रश्न 13.
भारतीय संविधान में विधायी शक्तियों का विभाजन जिन सूचियों में किया गया है, उनके नाम बताइए।
उत्तर :
भारतीय संविधान में विधायी शक्तियों का विभाजन निम्नलिखित तीन सूचियों में किया गया

  1. संघ सूची
  2. समवर्ती सूची तथा
  3. राज्य सूची।

प्रश्न 14.
राज्य सूची में कितने विषय हैं?
उत्तर :
राज्य सूची में 62 विषय हैं।

प्रश्न 15.
समवर्ती सूची में कितने विषय हैं?
उत्तर :
समवर्ती सूची में विषयों की संख्या 52 है।

प्रश्न 16.
वित्त आयोग की नियुक्ति कौन करता है?
उत्तर :
वित्त आयोग की नियुक्ति राष्ट्रपति करती है।

प्रश्न 17.
राज्य पुनर्गठन आयोग (1956) के अध्यक्ष कौन थे?
उत्तर :
राज्य पुनर्गठन आयोग के अध्यक्ष फजल अली थे।

प्रश्न 18.
एक संघात्मक राज्य में उच्चतम (सर्वोच्च न्यायालय क्यों आवश्यक है?
उत्तर :
संघ और इकाइयों के बीच विवादों को हल करने के लिए संघात्मक राज्य में एक उच्चतम (सर्वोच्च) न्यायालय का होना आवश्यक है।

प्रश्न 19.
भारत को एक संघात्मक राज्य क्यों कहा जाता है?
उत्तर :
भारत 29 राज्यों तथा 7 संघशासित प्रदेश से बना हुआ एक संघ है और इसमें संघात्मक राज्य की सभी विशेषताएँ हैं, इसलिए इसे संघात्मक राज्य कहा जा सकता है।

प्रश्न 20.
भारतीय संविधान की संघात्मकता की किन्हीं दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. संविधान की सर्वोच्चता तथा
  2. केन्द्र व राज्यों में शक्तियों का विभाजन।

प्रश्न 21.
राज्य सूची पर कौन कानून बनाता है?
उत्तर :
राज्य सूची पर राज्य सरकार कानून बनाती है, परन्तु यदि कोई विषय राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित किए जाने पर, उस पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र सरकार को प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न 22.
संविधान का अनुच्छेद 370 किस राज्य से संबंधित है?
उत्तर :
संविधान का अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर राज्य से संबंधित है।

लघु उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संघात्मक शासन के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
संघात्मक शासन व्यवस्था वह शासन व्यवस्था होती है जिसमें दो प्रकार की सरकारें होती हैं। वह सरकार, जो समस्त देश का प्रशासन करती है, ‘संघीय सरकार’ कहलाती है तथा दूसरी वह सरकार, जो राज्य का प्रशासन करती है, ‘राज्य-सरकार’ कहलाती है। फ्रीमैन के शब्दों में, “संघात्मक शासन वह है जो दूसरे राष्ट्रों के साथ संबंध में एक राज्य के समान हो, परन्तु आन्तरिक दृष्टि से यह अनेक राज्यों का योग हो।’ डायसी के शब्दों में, “संघात्मक राज्य एक ऐसे राजनीतिक उपाय के अतिरिक्त कुछ नहीं है जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय एकता तथा राज्यों के अधिकारों में मेल स्थापित करना है।”

प्रश्न 2.
भारत में केन्द्र तथा राज्यों के संबंधों पर केन्द्र की स्थिति किस प्रकार की प्रतीत होती है?
उत्तर :
केन्द्र तथा राज्यों के मध्य संबंधों के विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में केन्द्रीय सरकार को अधिक शक्तिशाली बनाने का प्रयास किया गया है। राज्यों की स्वायत्तता की अपेक्षा केन्द्र को शक्तिशाली बनाने पर अत्यधिक बल दिया गया है। वास्तव में, बजाय इसके कि केन्द्र के हस्तक्षेप पर प्रतिबन्ध लगाए जाते, संविधान ने राज्यों की शक्तियों पर प्रतिबंध लगाए हैं। भारतीय संविधान में अनेक ऐसे प्रावधानों की व्याख्या की गई है, जिन्होंने राज्यों की स्थिति पर विपरीत प्रभाव डाला है तथा राज्यों को संघ सरकार के अधीन कर दिया है। इस स्थिति को देखते हुए आलोचकों को यह कहने का अवसर प्राप्त हुआ है कि भारतीय संघ पूर्ण रूप से एक संघीय राज्य नहीं है।

प्रश्न 3.
संघ (केन्द्र) सूची का संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
संघ (केन्द्र) सूची के अन्तर्गत उन विषयों को रखा गया है, जिन पर केवल केन्द्र सरकार ही कानूनों का निर्माण कर सकती है। ये विषय बहुत महत्त्वपूर्ण एवं राष्ट्रीय स्तर के हैं। संघ सूची में 97 विषय हैं। इस सूची में प्रमुख विषय–रक्षा, वैदेशिक मामले, युद्ध व सन्धि तथा बैंकिंग हैं।

प्रश्न 4.
समवर्ती सूची पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
औपचारिक रूप में और कानूनी दृष्टि से इन तीनों सूचियों के विषयों की संख्या वही बनी हुई है। जो मूल संविधान में है। लेकिन 42वें संविधान संशोधन द्वारा राज्य-सूची के चार विषय (शिक्षा, वन, जंगली पशु तथा पक्षियों की रक्षा एवं नाप-तौल) समवर्ती सूची में सम्मिलित कर दिये गये हैं और समवर्ती सूची में इन चार के अतिरिक्त एक नवीन विषय ‘जनसंख्या नियन्त्रण और परिवार नियोजन’ भी सम्मिलित किया गया है। इस सूची में साधारणतया वे विषय रखे गये हैं जिनका महत्त्व क्षेत्रीय एवं संघीय दोनों ही दृष्टियों से है। इस सूची के विषय पर संघ तथा राज्य दोनों को ही कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। यदि इस सूची के किसी विषय पर संघीय तथा राज्य सरकार द्वारा बनाये गये कानुन परस्पर विरोधी हों तो सामान्यतया संघ का कानुन मान्य होगा। इस सूची में कुल 52 विषय हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं-फौजदारी विधि तथा प्रक्रिया, निवारक निरोध, विवाह एवं विवाह-विच्छेद, दत्तक एवं उत्तराधिकार, कारखाने, श्रमिक संघ, औद्योगिक विवाद, आर्थिक और सामाजिक योजना, सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक बीमा, पुनर्वास और पुरातत्त्व, शिक्षा, जनसंख्या नियन्त्रण और परिवार नियोजन, वन इत्यादि।

प्रश्न 5.
भारत के संविधान में शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना क्यों की गई है?
उत्तर :
भारत के संविधान में शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना इसलिए की गई है, क्योकि –

  1. यह भारत की एकता तथा अखण्डता की परिचायक है।
  2. यह भारत में एकता बनाए रखने का महत्त्वपूर्ण एवं शक्तिशाली साधन है।
  3. समस्त भारत की प्रगति और उन्नति के लिए शक्तिशाली केन्द्र आवश्यक है।
  4. भारत का इतिहास इस बात को सिद्ध करता है कि जब-जब भारत में केन्द्रीय सत्ता कमजोर हुई है,

भारत पर विदेशी राज्यों का आक्रमण हुआ तथा भारत छोटे-छोटे राज्यों की आन्तरिक फूट के कारण अनेक वर्षों तक दासता की जंजीरों में जकड़ा रहा। इसीलिए भारत के संविधान-निर्माताओं ने सोच-विचार कर शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना की।

प्रश्न 6.
भारत में संघीय व्यवस्था का भविष्य किस बात पर निर्भर करता है? संक्षेप में विवेचना कीजिए।
उत्तर :
भारत में संघीय व्यवस्था का भविष्य केन्द्र-राज्य संबंधों के सफल संचालन पर निर्भर करता है। केन्द्र तथा राज्यों का संबंध कतिपय तात्कालिक समस्याओं के समाधान पर निर्भर करेगा। ये समस्याएँ हैं-केन्द्र द्वारा राज्यों को अपने क्षेत्र में अधिक-से-अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करना, केन्द्रीय वित्तीय संसाधनों का राज्यों के मध्य न्यायपूर्ण विभाजन, खाद्य समस्या तथा रिजर्व बैंक में राज्यों द्वारा ओवर ड्राफ्ट लेना। इन समस्याओं में दोनों सरकारों के बीच सहयोग होना चाहिए न कि प्रतिस्पर्धा तथा विरोध।

प्रश्न 7.
भारतीय संघवाद के विशिष्ट लक्षणों की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
उत्तर :
भारतीय संघवाद के विशिष्ट लक्षण निम्नलिखित हैं –

  1. संविधान के उपबन्धों द्वारा औपचारिक रूप में स्थापित, भारतीय संघीय व्यवस्था का स्वरूप प्रादेशिक है।
  2. भारतीय संघवाद क्षैतिज है जिसका एक सशक्त केन्द्र के प्रति झुकाव है।
  3. भारतीय संघ इस रूप में लचीला है कि वह विशेषतया संकटकाल में एकात्मकस्वरूप में सहजता से बदला जा सकता है।
  4. भारतीय संघ व्यवस्था इस रूप में सहकारी है कि वह सामान्य हितों के मामले में केन्द्र तथा राज्यों से सहयोग की अपेक्षा करती है।
  5. केन्द्र पर एक दल के आधिपत्य के कारण संघ का स्वरूप एकात्मक हो गया है।

प्रश्न 8.
राष्ट्रपति शासन से क्या आशय है?
उत्तर :
भारतीय संविधान में राज्यों में राष्ट्रपति शासन की व्यवस्था अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत की गई है। यह निम्नलिखित परिस्थितियों में लागू किया जा सकता है –

  1. किसी राज्य में कानून व्यवस्था भंग हो जाने की स्थिति में।
  2. राज्य में राजनैतिक अस्थिरता की स्थिति में।
  3. किसी भी दल को चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए आवश्यक बहुमत प्राप्त न हुआ हो। और सरकार का गठन सम्भव न होने की स्थिति में।
  4. सरकार संविधान के अनुसार न चलाई जा रही हो अर्थात् राज्य में केन्द्र सरकार के कानूनों व आदेशों की अवहेलना हो रही हो।

उपर्युक्त स्थितियों में से एक स्थिति में भी राज्यपाल अपने विवेक के आधार पर निर्णय लेकर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर सकता है।

प्रश्न 9.
राज्यपाल की विवेकीय शक्तियाँ समझाइए।
उत्तर :
जिन शक्तियों को राज्यपाल स्वयं मुख्यमंत्री व मन्त्रिमण्डल के परामर्श के बिना प्रयोग करता है, उन्हें उसकी विवेकीय शक्तियाँ कहते हैं। राज्यपाल के पास अनेक विवेकीय शक्तियाँ हैं जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं –

  1. राज्यपाल किसी ऐसे बिल को, जिसे विधानसभा ने पास कर दिया हो, राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज सकता है।
  2. जब चुनाव के बाद, राज्य में किसी भी दल को सरकार बनाने के लिए आवश्यक बहुमत प्राप्त न हो तो राज्यपाल अपने विवेक के आधार पर किसी दल के नेता को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित करता है।
  3. कानून व्यवस्था का मूल्यांकन व राजनीतिक अस्थिरता का मूल्यांकन करना।
  4. राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना।

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान में निहित एकात्मक तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान यद्यपि संघात्मक है परन्तु उसमें अनेक एकात्मक तत्त्वों का भी समावेश किया गया है। इसी कारण के० सी० क्लीयर ने इसे ‘अर्द्ध-संघात्मक राज्य की संज्ञा प्रदान की है। भारत की संघात्मक व्यवस्था में निम्नलिखित एकात्मक तत्त्व पाए जाते हैं –

  1. भारत में इकहरी नागरिकता है।
  2. भारत का इकहरा संविधान है।
  3. न्यायपालिका का स्वरूप एकीकृत है।
  4. आपातकालीन स्थिति में राज्य का संघात्मक रूप एकात्मक में परिणत हो जाता है।
  5. राज्य में राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है।
  6. राज्य को केन्द्र से पृथक् होने का अधिकार नहीं है।
  7. संसद के उच्च सदन में राज्यों को समान प्रतिनिधित्व प्रदान नहीं किया गया है।
  8. केन्द्र; राज्यों की सीमाओं, नामों में परिवर्तन करके नए राज्य का निर्माण कर सकता है।
  9. केन्द्र द्वारा अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है।

प्रश्न 11.
भारतीय राजनीति पर अनुच्छेद 370 के प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
वर्तमान में अनुच्छेद 370 विवादास्पद बना हुआ है क्योंकि इसके कारण कश्मीर को विशेष स्थिति प्राप्त है जो उसको शेष भारत से मनोवैज्ञानिक ढंग से पृथक् करती है। कश्मीर को यह विशेष स्थिति तत्कालीन अंतर्राष्ट्रीय स्थिति को देखते हुए अस्थायी रूप से प्रदान की गई थी परन्तु राजनीतिज्ञों न इसे राजनीतिक लाभ के लिए स्थायी बना दिया। अनुच्छेद 370 के कारण ही कश्मीर को अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार प्राप्त हुआ है। भारतीय संघ में केवल जम्मू-कश्मीर ही ऐसा राज्य है जिसका पृथक् संविधान है। वहाँ पर कोई भी गैर कश्मीरी भारतीय, भूमि नहीं खरीद सकता है तथा स्थायी रूप से निवास नहीं बना सकता है जबकि 1947 ई० में कश्मीर से पाकिस्तान गए लोगों को पुनः कश्मीर वापस लौटने तथा वहाँ बसने का अधिकार है।

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत का संघात्मक स्वरूप अन्य संघों से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर :
विश्व के अनेक राज्यों में संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया गया है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के उपरान्त भारत में भी संघात्मक शासन व्यवस्था की नींव डाली गई। हमने अपनी संघात्मक व्यवस्था को अमेरिका से न लेकर कनाडा से ग्रहण किया है। हमने संघ के लिए यूनियन शब्द का प्रयोग किया है। भारत के संघ को विद्वानों ने कमजोर संघ अथवा अर्द्ध-संघ के नाम से सम्बोधित किया है। भारत के संघ में संघात्मक सरकार के सभी लक्षणों का समावेश किया गया है परन्तु फिर भी भारत का संघात्मक स्वरूप अन्य संघों से अनेक प्रकार से भिन्न है। जैसे

(1) भारतीय संविधान में कहीं पर भी संघात्मक शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है, इसमें केवल यह कहा गया है कि भारत राज्यों का संघ है।

(2) दूसरे संघों में केन्द्र की तुलना में राज्यों को अधिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं परन्तु भारत में राज्यों की तुलना में केन्द्र को अधिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। संघ की सूची में वर्णित विषयों की संख्या 97 है जबकि राज्यों को मात्र 62 विषय प्रदान किए गए हैं। समवर्ती सूची में 52 विषयों को सम्मिलित किया गया है। समवर्ती सूची पर केन्द्र तथा राज्यों (दोनों) को कानून-निर्माण करने की शक्ति प्रदान की गई है परन्तु यदि इन दोनों के निर्मित कानूनों में। टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो केन्द्र के कानून को मान्यता प्राप्त होती है।

(3) आपातकालीन स्थिति में भारतीय संघीय व्यवस्था एकात्मक में परिवर्तित हो जाती है।

(4) हमारे संघ का निर्माण इस प्रकार से नहीं हुआ है, जैसे अमेरिका के संघ का निर्माण हुआ था। हमने भारत के विभिन्न राज्यों का समय-समय पर विभाजन करके नए-नए राज्यों का निर्माण किया है जबकि अन्य संघात्मक राज्यों में स्वतन्त्र तथा सम्प्रभु राज्य सम्मिलित हुए थे।

(5) केन्द्रीय विधायिका (संसद) किसी भी राज्य की सीमा में परिवर्तन कर सकती है, यहाँ तक कि वह किसी भी राज्य को समाप्त करके नए राज्य का निर्माण कर सकती है जबकि अन्य संघात्मक राज्यों में इस स्थिति को नहीं अपनाया गया है।

प्रश्न 2.
भारत में संघीय व्यवस्था को क्यों अपनाया गया है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान ने संघात्मक शासन-प्रणाली की व्यवस्था की है। भारत में वर्षों तक अंग्रेजों का शासन रहा। भारत की अपनी परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि अंग्रेजों ने भी 1935 के अधिनियम द्वारा भारत में संघीय प्रणाली की व्यवस्था की थी। स्वतन्त्रता के पश्चात् संविधान निर्माताओं ने इसी व्यवस्था को अपनाया। भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा निम्नलिखित कारणों से संघात्मक व्यवस्था को अपनाया गया –

  1. भारत भौगोलिक क्षेत्रफल की दृष्टि से एक उप-महाद्वीप के समान है जिसमें प्रशासनिक दृष्टिकोण से संघात्मक व्यवस्था ही उपयुक्त हो सकती थी।
  2. भारतीय समाज में विभिन्न धर्म, भाषा, जाति, संस्कृति आदि पाए जाते हैं जिनमें सामंजस्य स्थापित करने के लिए संघात्मक व्यवस्था ही उचित समझी गई।
  3. अंग्रेजों ने भारत को स्वतन्त्र करने के साथ-साथ देशी रियासतों को भी स्वतन्त्र कर दिया था। इन देशी रियासतों को भारत में मिलाने के लिए संघात्मक व्यवस्था ही उपयुक्त थी। इसके द्वारा । स्थानीय स्वायत्तता तथा राष्ट्रीय एकता दोनों लक्ष्यों की प्राप्ति हो जाती है।
  4. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान सदैव संघात्मक व्यवस्था की माँग की थी।
  5. भारतीयों को संघात्मक व्यवस्था का अनुभव भी था क्योंकि 1935 में भारत सरकार अधिनियम के अन्तर्गत संघात्मक व्यवस्था ही अपनाई गई थी।

संविधान सभा में डॉ० बी०आर० अम्बेडकर ने स्पष्ट रूप से कहा था कि यह एक संघीय संविधान है क्योंकि यह दोहरे शासन तन्त्र की व्यवस्था करता है जिसमें केंद्र में सघीय सरकार तथा उसके चारों ओर परिधि में राज्य सरकारें हैं जो संविधान द्वारा निर्धारित क्षेत्रों में सर्वोच्च सत्ता का प्रयोग करती हैं।

प्रश्न 3.
केंद्र तथा राज्य संबंधों में राज्यपाल की भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
राज्य का अध्यक्ष राज्यपाल होता है। उसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त अपने पद पर रहता है। राज्यपाल की नियुक्ति पाँच वर्ष के लिए की जाती है; परन्तु वास्तविकता यह है कि वह अपनी नियुक्ति तथा पदच्युति के लिए केंद्रीय सरकार पर आश्रित रहता है। उसकी यही आश्रियता केंद्र तथा राज्य संबंधों में तनाव का कारण बन जाती है।

जब केंद्र तथा राज्य में विभिन्न दलों की सरकार हो तो राज्य सरकार यह दावा करती है कि राज्यपाल की नियुक्ति उसके परामर्श से की जाए। परन्तु केंद्रीय सरकार अपनी पसंद के व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त करके राज्य सरकार पर नियन्त्रण रखने का प्रयत्न करती है।

राज्यपाल को कुछ ऐसे अधिकार भी प्राप्त हैं जिनका प्रयोग वह अपनी इच्छा से करता है, मंत्रिमण्डल की सलाह पर नहीं। ये अधिकार महत्त्वपूर्ण भी हैं। राज्य में संवैधानिक मशीनरी के असफल होने की रिपोर्ट वह अपने विवेक से करता है जिसके आधार पर केंद्र राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करता है। केंद्र ने अनेक बार उन राज्यों से जहाँ अन्य दल की सरकार थी, राज्यपाल से मनमाने ढंग से ऐसी रिपोर्ट ली और राष्ट्रपति शासन लागू कराया। राज्यपाल के ऐसे कार्यों ने केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव को बढ़ाया है। दिसम्बर 1992 की अयोध्या घटना के पश्चात् केंद्र ने भाजपा द्वारा शासित चारों राज्योंउत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश तथा राजस्थान में राज्यपाल की रिपोर्टों के आधार पर राष्ट्रपति , शासन लागू कर दिया था।

राज्यपाल का एक अधिकार जिसका प्रयोग वह अपने विवेक से करता है और राज्यपालों ने केंद्रीय सरकार के हित में इसका अत्यधिक प्रयोग किया है, वह है राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए गए। किसी बिल को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजना। इससे राज्य की विधायिका शक्ति प्रभावित होती है और बिल राष्ट्रपति के पास बहुत दिनों तक उसकी स्वीकृति के लिए पड़े रहते हैं। इस प्रकार केंद्र-राज्य संबंधों की दृष्टि से राज्यपाल की भूमिका अत्यन्त विवादास्पद रही है और इसने केंद्र और राज्यों के बीच कटुता और तनाव की स्थिति को बढ़ाया है।

प्रश्न 4.
केन्द्र तथा राज्य के मध्य तनाव के राजनीतिक एवं व्यावहारिक कारण लिखिए।
उत्तर :
केन्द्र तथा राज्यों के मध्य तनाव के राजनीतिक कारण केन्द्र तथा राज्य सम्बन्धों का राजनीतिक पक्ष बहुत मुखरित रहा है। केन्द्र तथा राज्य सरकारें एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लागती हैं, जिन्हें अग्रनुसार रखा जा सकता है –

(1) केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा एक – दूसरे पर संकीर्ण दलबन्दी की भावना के अनेक आरोप लगाए जाते रहे हैं। केन्द्र में कांग्रेसी शासन के साथ जब कभी किसी राज्य में गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो उसका यही आरोप रहा कि केन्द्र राज्य सरकार को गिराने अथवा नीचा दिखाने को प्रयत्नशील है। दूसरी ओर केन्द्र का यह आरोप रहा है कि राज्य सरकार केन्द्र के साथ असहयोग की राजनीति कर रही है। इस तरह के आरोपों-प्रत्यारोपों से पारस्परिक संबंधों में तनाव पैदा होता है।

(2) डॉ० मिश्र ने लिखा है, “कुछ विपक्षी दल क्षेत्रीय साम्प्रदायिक भावनाओं की मदद से जनता में लोकप्रिय होना चाहते हैं तथा क्षेत्रीय स्तर पर निर्वाचन में सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से केन्द्र तथा राज्य के मध्य तनाव पैदा करते हैं। कुछ वामपन्थी दल, जिनकी लोकप्रियता कुछ क्षेत्रों तक सीमित है निर्वाचन नीति के रूप में केन्द्र के विरुद्ध राजनीतिक प्रचार करते हैं।”

केन्द्र तथा राज्यों के मध्य तनाव के व्यावहारिक कारण

केन्द्र तथा राज्य संबंधों में तनाव के लिए कतिपय व्यावहारिक कारण भी उत्तरदायी रहे हैं, जिनका उल्लेख निम्नानुसार किया जा सकता है –

  1. केन्द्र तथा राज्यों में ये तनाव पैदा हो जाता है कि राज्य द्वारा आर्थिक अनुदान अथवा आर्थिक सहायता माँगने पर केन्द्रीय सरकार एक ओर तो उदार रवैया न अपनाकर यह आरोप लगाती है। कि राज्य सरकारें अपने स्वयं के राजस्व स्रोतों का समुचित विदोहन नहीं करतीं। केन्द्र का यह भी आरोप रहा है कि कुछ राज्य सरकारें उपलब्ध राशि को विकास योजनाओं पर उचित समय पर व्यय नहीं करतीं।
  2. ओवर-ड्राफ्ट को लेकर केन्द्र एवं राज्यों के मध्य संघर्ष तथा तनाव की स्थिति बनी रहती है।
  3. अंतर्राज्यीय विवादों को हल करने के संबंध में केन्द्र सरकार की निष्पक्षता को लेकर भी आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाते रहे हैं।

प्रश्न 5.
नए राज्यों की माँग केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में तनाव का कारण किस प्रकार है?
उत्तर :
भारत की संघीय व्यवस्था में नए राज्यों के गठन की माँग को लेकर भी तनाव रहा है। राष्ट्रीय आन्दोलन ने अखिल भारतीय राष्ट्रीय एकता को नहीं बल्कि समान भाषा, क्षेत्र और संस्कृति के आधार पर एकता को भी जन्म दिया। हमारा राष्ट्रीय आन्दोलन लोकतन्त्र के लिए भी एक आन्दोलन था। अतः राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान यह भी तय किया गया कि यथासम्भव समान संस्कृति और भाषा के आधार पर राज्यों का गठन होगा।

इससे स्वतन्त्रता के बाद भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की माँग उठी। सन् 1954 में राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की गई जिसने प्रमुख भाषाई समुदायों के लिए भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की सिफारिश की सन् 1956 में कुछ राज्यों का पुनर्गठन हुआ। इससे भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की शुरुआत हुई और यह प्रक्रिया आज भी जारी है। सन् 1960 में गुजरात और महाराष्ट्र का गठन हुआ; सन् 1966 में पंजाब और हरियाणा को अलग-अलग किया गया। बाद में पूर्वोत्तर के राज्यों का पुनर्गठन किया गया और अनेक नए राज्यों; जैसे—मेघालय, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश अस्तित्व में आए।

1990 के दशक में नए राज्य बनाने की माँग को पूरा करने तथा अधिक प्रशासकीय सुविधा के लिए कुछ बड़े राज्यों का विभाजन किया गया। बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश को विभाजित कर तीन नए राज्य क्रमश: झारखण्ड, उत्तराखण्ड और छतीसगढ़ बनाए गए। कुछ क्षेत्र और भाषाई समूह अब भी अलग राज्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं जिनमें आन्ध्र प्रदेश में तेलंगाना, उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश और महाराष्ट्र में विदर्भ प्रमुख हैं। सन् 2014 में आन्ध्र प्रदेश को विभाजित कर ‘तेलंगाना राज्य का गठन कर दिया गया।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“भारत का संविधान अर्द्ध-संघीय शासन-व्यवस्था की स्थापना करता है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
या
“भारत का संविधान संघात्मक भी है और एकात्मक भी।” व्याख्या कीजिए।
या
“भारतीय संविधान का रूप संघात्मक है, लेकिन उसकी आत्मा एकात्मक।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
या
भारत के संघवाद के पक्ष में चार तर्क दीजिए।
या
“भारत एक संघात्मक राज्य है।” इस कथन का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
या
भारतीय संघात्मक व्यवस्था के एकात्मक लक्षणों का वर्णन कीजिए।
या
भारतीय संविधान में संघ और राज्यों के बीच शक्तियों में बँटवारे का आधार और महत्त्व बताइए।
उत्तर :
भारत एक विशाल तथा विभिन्नताओं वाला राज्य है। इस प्रकार के राज्य का प्रबन्ध एक केन्द्रीय सरकार द्वारा सफलतापूर्वक चलाया जाना कठिन ही नहीं अपितु असम्भव भी है। इसी कारण भारत में संघीय शासन-व्यवस्था को अपनाया गया है। लेकिन इसके बावजूद भारत में संघात्मक स्वरूप सम्बन्धी विवाद पाया जाता है, क्योंकि भारतीय संविधान में न तो कहीं ‘संघात्मक और न ही कहीं ‘एकात्मक’ शब्द का प्रयोग किया गया है।

भारतीय संविधान के संघीय स्वरूप सम्बन्धी अपने विचारों को व्यक्त करते हुए प्रो० डी० एन० बनर्जी ने उचित ही कहा है कि “भारतीय संविधान स्वरूप में संघात्मक तथा भावना में एकात्मक है।” भारतीय संविधान के संघीय स्वरूप को भली प्रकार से समझने के लिए हमें इसके दोनों पक्षों (संघात्मक तथा एकात्मक) का अध्ययन करना पड़ेगा जो कि निम्नलिखित हैं

भारतीय संविधान की संघीय विशेषताएँ (लक्षण)

हालांकि भारतीय संविधान में ‘संघ’ शब्द का उपयोग नहीं किया गया है, लेकिन फिर भी व्यवहार में संघात्मक शासन-प्रणाली को ही स्वीकार किया गया है। भारतीय संविधान में कहा गया है कि भारत राज्यों का एक ‘संघ’ होगा। इस तथ्य की अवहेलना नहीं की जा सकती कि भारतीय संविधान में एकात्मक तत्त्व विद्यमान हैं, लेकिन यह भी अटल सत्य है कि भारतीय संविधान में संघात्मक प्रणाली के भी समस्त लक्षण विद्यमान हैं, जिन्हें निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जा सकता है –

(1) संविधान की सर्वोच्चता – संघात्मक शासन में संविधान को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। संविधान और संविधान द्वारा बनाये गये कानून देश के सर्वोच्च कानून होते हैं। भारतीय संविधान में संवैधानिक सर्वोच्चता का उल्लेख नहीं है, लेकिन फिर भी संविधान की सर्वोच्चता को इस रूप में स्वीकार किया गया है कि भारतीय राष्ट्रपति, संसद इत्यादि सभी संविधान से शक्तियाँ ग्रहण करते हैं और वे संविधान से ऊपर नहीं हैं। इसके अतिरिक्त, भारतीय राष्ट्रपति द्वारा शपथ ग्रहण करते समय यह स्पष्ट किया जाता है कि वह संविधान की रक्षा करेंगे इसके साथ ही भारत की संसद अथवा विधानसभा द्वारा ऐसा कोई कानून पारित नहीं किया जा सकता जो संविधान के विपरीत हो। अतः कहा जा सकता है कि भारत में संविधान की सर्वोच्चता को स्वीकार किया गया है।

(2) लिखित संविधान – संघात्मक शासन का एक लक्षण संविधान का लिखित होना भी है। यहाँ पर यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है कि संघात्मक राज्य का संविधान लिखित होना क्यों आवश्यक है? लिखित संविधान स्थायी होता है और इसके सम्बन्ध में बाद में मतभेद उत्पन्न होने की सम्भावना बहुत ही कम होती है। चूंकि संघात्मक शासन में दोहरा शासन अर्थात्के न्द्रीय शासन तथा प्रान्तों का शासन होता है, इसलिए इसमें विवादों की सम्भावना बनी रहती है। लेकिन यदि लिखित संविधान के अनुसार प्रत्येक बात को लिखित रूप में दिया गया हो तो फिर परस्पर मतभेद उत्पन्न होने की सम्भावना कम-से-कम हो जाती है।

(3) कठोर संविधान – जब संवैधानिक कानून को साधारण कानून से ऊँचा दर्जा दिया जाता है और संवैधानिक कानून को परिवर्तित करने हेतु साधारण कानून के निर्माण की प्रक्रिया से पृथक् तरीका अपनाया जाता है तो संविधान कठोर होता है। इस दृष्टि से भारतीय संविधान भी कठोर संविधान की श्रेणी में आता है। इसमें साधारण विषयों को छोड़कर महत्त्वपूर्ण संशोधन करने के लिए संघ राज्य के साथ-साथ इकाई राज्यों के सहयोग की भी आवश्यकता होती है। कठोर संविधान होने के कारण ही उसमें संशोधन प्रक्रिया जटिल है।

(4) विषयों का विभाजन – शासन के संघात्मक स्वरूप का एक लक्षण यह भी है कि इसमें विषयों का विभाजन किया जाता है। भारतीय संविधान में भी विषयों का विभाजन किया गया है। इस दृष्टि से भारतीय संविधान में तीन सूचियाँ हैं—संघीय सूची जिसमें 98 विषय हैं और जिन पर संसद ही कानून बना सकती है। राज्य सूची जिसमें 62 विषय हैं और जिन पर सामान्यतया राज्यों की विधानसभाएँ ही कानून बनाती हैं। समवर्ती सूची जिसके अन्तर्गत 52 विषय हैं और जिन पर संसद एवं विधानसभा दोनों ही कानून बना सकती हैं। अवशिष्ट विषय संघीय सरकार को सौंपे गये हैं।

(5) दोहरी शासन-व्यवस्था – संघात्मक शासन-प्रणाली में दोहरी शासन-व्यवस्था – (i) केन्द्र सरकार तथा (ii) प्रान्तों की सरकार होती है। भारत में केन्द्र सरकार नयी दिल्ली में है जो कि सम्पूर्ण देश को शासन-प्रबन्ध करती है और दूसरी सरकार प्रत्येक प्रान्त की राजधानी में है जो प्रान्त के हितों को ध्यान में रखती है।

(6) द्विसदनात्मक विधानमण्डल – संघीय सरकार में द्विसदनीय विधानमण्डल की व्यवस्था की जाती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार भारत में भी द्विसदनीय विधानमण्डल का प्रबन्ध है, जिसे संघीय संसद कहा जाता है। भारतीय संघीय संसद के उच्च सदन का नाम राज्यसभा है। संघीय संसद के निम्न (निचले) सदन का नाम लोकसभा है इसके सदस्य एक-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों में जनसाधारण द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं।

(7) न्यायपालिका की सर्वोच्चता – संघात्मक शासन में अन्य अंगों से न्यायपालिका को सर्वोच्च स्तर दिया जाता है; क्योंकि

  1. संविधान की रक्षा हेतु
  2. संविधान की व्याख्या करने हेतु तथा
  3. केन्द्र एवं राज्यों के विवादों का निपटारा करने के लिए ऐसा करना आवश्यक है।

भारतीय संविधान में भी केन्द्र में सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्यों में उच्च न्यायालय का प्रबन्ध करके इन्हें स्वतन्त्र बनाये रखने हेतु सभी व्यवस्थाएँ की गयी हैं। ये न्यायपालिकाएँ भारतीय संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करती हैं।

भारतीय संविधान की एकात्मक विशेषताएँ (लक्षण)

(1) इकहरी (एकल) नागरिकता – एकात्मक सरकार में इकहरी नागरिकता के सिद्धान्त को अपनाया जाता है, व्यक्ति प्रान्तों के नागरिक न होकर सम्पूर्ण देश के नागरिक होते हैं भारतीय संविधान के अन्तर्गत इसी सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है अर्थात् सभी भारतीयों को चाहे वे किसी भी प्रान्त के निवासी क्यों न हों, उन्हें भारतीय नागरिक के रूप में स्वीकार किया गया है। यह एकात्मक तत्त्व का महत्त्वपूर्ण प्रतीक है।

(2) विषयों के विभाजन का अभाव – सामान्यतः संघात्मक शासन-व्यवस्था में केन्द्र अथवा संघ को कुछ सीमित शक्तियाँ प्रदान की जाती हैं तथा शेष शक्तियाँ राज्यों को प्राप्त होती हैं। लेकिन भारत में इसके विपरीत शक्तियों का बँटवारा किया गया है जो शक्तिशाली केन्द्र का निर्माण करते हैं तथा राज्य अधिक स्वायत्तता का उपभोग नहीं कर सकते।

(3) भारत में समूचे राष्ट्र के लिए एक ही संविधान रखा गया है, जो पुनः एकात्मक तत्त्व है।

(4) एकल न्याय-व्यवस्था – भारत में एकीकृत न्याय-व्यवस्था लागू की गयी है। संयुक्त राज्य अमेरिका की भाँति भारत में दोहरी न्यायिक व्यवस्था नहीं है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय समूचे देश का एकमात्र सर्वोच्च न्यायालय है जिसके आदेशों के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती।

(5) आपातकालीन स्थिति – भारतीय संविधान द्वारा अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 में राष्ट्रपति को आपातकालीनं घोषणा करने की शक्ति प्रदान की गयी है। आपातकालीन स्थिति में राज्यों की स्वायत्तता समाप्त हो सकती है। पायली के मतानुसार, आपातकालीन स्थिति की घोषणा भारत में संघात्मक शासन के स्वरूप को समाप्त कर देती है। अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि आपातकाल की घोषणा होते ही बिना किसी औपचारिक संशोधन के भारतीय संविधान एकात्मक हो जाता है।

(6) राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति – भारतीय संघ में इकाई राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति केन्द्रीय शासन के अंग राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा इन्हें उनके पद से हटाने का अधिकार भी राष्ट्रपति के ही पास है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राज्यों के राज्यपाल केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं।

(7) संविधान संशोधन के सम्बन्ध में केन्द्र की सशक्त स्थिति – संविधान के कुछ उपबन्धों का संशोधन तो केन्द्रीय संसद साधारण कानून पारित करके, कुछ उपबन्धों का संशोधने सदन के दोनों सदन अपने-अपने दो-तिहाई बहुमत से तथा कुछ उपबन्धों का संशोधन संसद आधे से अधिक राज्यों की विधान-सभाओं की स्वीकृति से कर सकती है। राज्यों की विधानसभाएँ अपनी ओर से कोई संशोधन प्रस्तावित नहीं कर सकतीं। इस प्रकार संविधान के संशोधन की व्यवस्था में राज्यों की तुलना में केन्द्र की स्थिति सबल है।

(8) राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन करने का संसद का अधिकार – भारतीय संविधान के अनुसार संसद कानून द्वारा वर्तमान राज्यों के क्षेत्र को कम अथवा अधिक कर सकती है, उनके नाम बदल सकती है और दो अथवा उससे अधिक राज्यों को मिलाकर एक नवीन राज्य का गठन कर सकती है।

समीक्षा – भारतीय संविधान के उपर्युक्त एकात्मक लक्षणों को देखते हुए प्रो० के० सी० ह्वीयर का कथन है कि “भारतीय संविधान एक ऐसी शासन-प्रणाली की स्थापना करता है, जो अधिक-से-अधिक अर्द्धसंघीय (Quasi-federal) है। यह एक ऐसे एकात्मक राज्य की स्थापना करता है, जिसमें गौण रूप से कुछ संघात्मक तत्त्व हों।” इसी प्रकार जी० एन० जोशी का विचार है कि भारतीय संघ एक संघ नहीं, वरन् अर्द्धसंघ है, जिसमें एकात्मक राज्य की कतिपय महत्त्वपूर्ण विशेषताओं का समावेश है।” डॉ० डी० डी० बसु के अनुसार, “भारतीय संविधान न तो नितान्त संघात्मक है और न ही एकात्मक, वरन् यह दोनों का मिश्रण है। इसी प्रकार पायली का मत है कि “भारत के संविधान का ढाँचा (रूप) संघात्मक व आत्मा एकात्मक है। कभी-कभी इन एकात्मक लक्षणों को संघात्मक व्यवस्था के उल्लंघनकारी तत्त्व की संज्ञा दे दी जाती है।

प्रश्न 2.
संघात्मक शासन-प्रणाली के गुण लिखिए।
उत्तर :

संघात्मक शासन-प्रणाली के गुण

संघात्मक शासन-प्रणाली के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं –

1. संघीय सरकार निरंकुश नहीं हो पाती – केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के कार्य एवं अधिकार-क्षेत्र संविधान द्वारा निश्चित होते हैं, इसलिए केन्द्र तथा राज्यों में से कोई भी किसी अन्य की सीमा में हस्तक्षेप करके निरंकुश नहीं हो पाता है।

2. प्रशासन में कुशलता – इस व्यवस्था में केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के बीच कार्य एवं शक्तियाँ विभाजित होती हैं। इसीलिए केन्द्रीय सरकार अपनी शक्तियों का समुचित प्रयोग करते हुए देश के महत्त्वपूर्ण कार्यों को सम्पादित करती है और स्थानीय अथवा इकाई सरकारें अपनी शक्तियों का स्वतन्त्रापूर्वक उपयोग करते हुए स्थानीय समस्याओं का समाधान करती हैं इस प्रकार देश का प्रशासन सुचारु रूप से संचालित होता है।

3. विविधता में एकता – प्रत्येक संघ सरकार में अनेक राज्य सम्मिलित होते हैं, जो विभिन्न अर्थों (जाति, धर्म, भाषा, रीति-रिवाज इत्यादि) में एक-दूसरे से भिन्न होते हैं, किन्तु वे अपनी सामान्य समस्याओं को सुलझाने के लिए एक सूत्र में बँधकर रहते हैं। इस प्रकार संघीय शासन के अन्तर्गत विविधता में एकता होती है।

4. बड़े देशों के लिए उपयोगी – विस्तृत क्षेत्र वाले देशों के लिए यह शासन व्यवस्था उत्तम है, क्योंकि एक ही स्थान (केन्द्र) से दूर के स्थानों का शासन ठीक प्रकार से संचालित करना कठिन होता है।

5. नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा – संघात्मक संविधानों में नागरिकों के मूल अधिकारों में सरलता से संशोधन नहीं हो सकता, क्योंकि संविधान कठोर होता है। इसके संशोधन के लिए केन्द्र तथा राज्य दोनों ही की आवश्यकता होती है।

6. स्थानीय स्वशासन में कुशलता-लॉर्ड ब्राइस के अनुसार, “संघवाद स्थानी विधानमण्डलों को काफी शक्तियाँ प्रदान करके राष्ट्रीय विधानमण्डलों को उन बहुत-से कार्यों से मुक्ति दिलाता है, जो उसके लिए अन्यथा बोझ बन जाते हैं। अत: संघीय सरकार को भी राष्ट्रीय हित के विषयों पर पूरा-पूरा ध्यान देने का अवसर मिल जाता है, जिससे प्रशासन में दृढ़ता आ जाती

7. स्थानीय स्वशासन का लाभ – संघात्मक शासन में इकाइयों को स्वशासन का पूर्ण अधिकार प्राप्त होता है, इसलिए ये अपनी जनता की आवश्यकतानुसार आचरण करके नागरिकों के हितों में वृद्धि करती हैं। विगत कुछ वर्षों से, भारत के परिप्रेक्ष्य में पंचायती राज्यों के अधिकारों में वृद्धि इसका ज्वलन्त उदाहरण है।

8. राजनीतिक चेतना एवं विश्व-संघ की ओर कदम – संघीय शासन अपने नागरिकों को श्रेष्ठ राजनीतिक प्रशिक्षण प्रदान करके उनमें राजनीतिक चेतना उत्पन्न करता है। संघ राज्य विश्व-संघ के निर्माण की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण प्रयास है।

प्रश्न 3.
केन्द्र व राज्यों के मध्य विधायी सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
संघात्मक शासन व्यवस्था की यह विशेषता होती है कि इसमें केन्द्र और इकाई राज्य सरकारों के मध्य शक्तियों, अधिकारों एवं कार्यों का संविधान द्वारा स्पष्ट विभाजन कर दिया जाता है, जिससे केंद्र एवं राज्य-सरकारों के मध्य किसी भी प्रकार का विवाद उत्पन्न न हो, दोनों सरकारें अपने-अपने कार्यों एवं उत्तरदायित्वों का समुचित रूप से पालन कर सकें और सम्पूर्ण देश में शान्ति एवं सुरक्षा का वातावरण बना रहे।

केंद्र व राज्य के मध्य विधायी संबंध

संविधान ने विधि या कानून का निर्माण करने से संबंधित विषयों की तीन सूचियाँ बनाई हैं। इन सूचियों को बनाने का उद्देश्य केंद्र और राज्यों की सरकारों के मध्य विधि-निर्माण संबंधी क्षेत्रों को विभक्त करनी है। ये सूचियाँ निम्नलिखित हैं –

1. संघ सूची (Union List) – इस सूची के अंतर्गत उन विषयों को रखा गया है, जिन पर केवल केंद्र सरकार की कानूनों का निर्माण कर सकती है। ये विषय बहुत महत्त्वपूर्ण एवं राष्ट्रीय स्तर के हैं। इस संघ सूची में 97 विषय हैं। इस सूची के प्रमुख विषय–रक्षा, वैदेशिक मामले, युद्ध व संधि तथा बैंकिंग आदि हैं।

2. राज्य सूची (State List) – मूल संविधान में इस सूची में 66 विषय थे। परन्तु 42वें संवैधानिक संशोधन के उपरान्त अब इस सूची में 62 विषय रह गए हैं। इन सब विषयों से संबंधित कानूनों का निर्माण करने का अधिकार राज्य सरकारों को होता है। वैसे तो इन विषयों पर केवल राज्य सरकारें ही कानून बना सकती हैं; किंतु कुछ विशेष स्थितियों में केंद्र सरकार भी इन विषयों पर कानून बना सकती है। इस सूची के प्रमुख विषय-पुलिस, न्याय, कृषि, स्थानीय स्वशासन आदि हैं।

3. समवर्ती सूची (Concurrent List) – मूल संविधान में इस सूची में 47 विषय थे, परन्तु अब इस सूची में 52 विषय हो गए हैं। इन विषयों पर राज्य एवं केंद्र-दोनों सरकारों को कानून बनाने का समान अधिकार है, परन्तु मतभेद की स्थिति में संघ सरकार के कानून को प्राथमिकता दी जाती है। इस सूची के प्रमुख विषय फौजदारी विधि-प्रक्रिया, शिक्षा, विवाह, न्यास (ट्रस्ट), वन आदि हैं।

4. अवशिष्ट शक्तियाँ (Residuary Powers) – यदि कोई विषय उपर्युक्त तीनों सूचियों में सम्मिलित न हो तो वह अवशिष्ट विषय कहा जाता है और उस पर कानून बनाने का अधिकार केवल संघ सरकार को ही है।

अतः इन सूचियों के विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों के विधि-निर्माण से संबंधित अधिकार-क्षेत्र पृथक्-पृथक् हैं। इस विभाजन के आधार पर यह भी स्पष्ट होता है कि केन्द्र सरकार राज्य सरकार की तुलना में अधिक शक्तिसम्पन्न है। यद्यपि समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दोनों सरकारों को प्राप्त होता है; किन्तु सामान्यतया इन विषयों पर संसद ही कानूनों का निर्माण करती है तथा मतभेद होने की स्थिति में संघ सरकार का कानूनी मान्य होता है।

[नोट – 42वें संवैधानिक संशोधन 1976 के द्वारा राज्य सूची के चार विषय (शिक्षा, वन, वन्य जीव-जन्तुओं और पक्षियों का रक्षण तथा नाप-तौल (समवर्ती सूची में सम्मिलित कर दिए गए तथा समवर्ती सूची में एक नया विषय जनसंख्या नियन्त्रण और परिवार नियोजन’ जोड़ा गया। अब समवर्ती सूची में 52 विषय और राज्य सूची में 62 विषय रह गए हैं।]

राज्य सूची के विषयों पर कानून-निर्माण की संसद की शक्ति – संविधान ने संसद को विशेष परिस्थितियों में राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बनाने का अधिकार दिया है। ये परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं –

1. संकटकाल की घोषणा के समय – आपातकाल में राज्य सूची के अंतर्गत आने वाले विषयों पर संसद को विधि-निर्माण का पूर्ण अधिकार प्राप्त है।

2. राज्य सूची का कोई विषय राष्टीय महत्त्व का होने पर – यदि राज्यसभा अपने दो-तिहाई बहुमत से अपने एक प्रस्ताव के माध्यम से राज्य सूची के किसी विषय के संबंध में यह घोषणा कर दे कि राष्ट्रीय हित में उस विषय पर केंद्रीय सरकार को कानून-निर्माण करना चाहिए तो केंद्रीय सरकार (संसद) उस विषय पर कानून बना सकती है। यह कानून एक वर्ष तक लागू रह सकता है। राज्यसभा इसी आशय का दोबारा प्रस्ताव पारित करके इसकी अंवधि में वृद्धि कर सकती है।

3. राज्यों के विधानमण्डलों की प्रार्थना पर – यदि दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमण्डल यह प्रस्ताव पारित करें या याना करें कि राज्य सूची के अधीन किसी विषय पर संसद कानून बनाए तो संसद उस विषय पर भी कानून बनाती है।

4. विदेशी राज्यों से संधि के पालन करने के लिए – संविधान के अनुसार संसद को ही किसी संधि, समझौते या अन्य देशों के साथ होने वाले सभी प्रकार के समझौतों का पालन करवाने हेतु कानून बनाने का अधिकार है, भले ही वे विषय राज्य सूची के अंतर्गत आते हों।

5. राज्य में संवैधानिक व्यवस्था भंग होने पर – यदि किसी राज्य में संवैधानिक संकट उत्पन्न हो जाए या इस राज्य का संवैधानिक तन्त्र विफल हो जाए तो अनुच्छेद 356 के अंतर्गत लगाए गए राष्ट्रपति शासन के अंतर्गत राष्ट्रपति राज्य विधानमण्डल के समस्त अधिकार संसद को प्रदान कर सकता है।

6. राज्यपाल द्वारा विधेयक को राष्ट्रपति के लिए आरक्षित करना – राज्य के राज्यपाल को यह शक्ति प्राप्त है कि वह राज्य व्यवस्थापिका द्वारा पारित किसी भी विधेयक को राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए आरक्षित कर सकता है। राष्ट्रपति को अधिकार है कि वह उस विधेयक को स्वीकार करे अथवा अस्वीकार करे। केंद्र तथा राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन होने पर भी विशेष स्थितियों में केंद्र को राज्यों के विषयों पर कानून-निर्माण के व्यापक अधिकार प्राप्त हैं।

प्रश्न 4.
केन्द्र और राज्यों के प्रशासनिक सम्बन्धों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :

केन्द्र और राज्यों के प्रशासनिक सम्बन्ध

श्री दुर्गादास बसु के शब्दों में, “संघीय व्यवस्था की सफलता और दृढ़ता संघ की विविध सरकारों के बीच अधिकाधिक सहयोग तथा समन्वय पर निर्भर करती है। इसी कारण प्रशासनिक सम्बन्धों की व्यवस्था करते हुए जहाँ राज्यों को अपने-अपने क्षेत्रों में सामान्यतः स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है वहाँ इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि राज्यों के प्रशासनिक तन्त्र पर संघ का नियन्त्रण बना रहे और संघ तथा राज्यों के बीच संघर्ष की सम्भावना कम-से-कम हो जाए। राज्य सरकारों पर संघीय शासन के नियन्त्रण की व्यवस्था निम्नलिखित उपायों के आधार पर की गयी है –

(1) राज्य सरकारों को निर्देश – केन्द्र द्वारा राज्यों को निर्देश सामान्यतया संघीय व्यवस्था के अनुकूल नहीं समझे जाते हैं, लेकिन भारतीय संघ में केन्द्र द्वारा राज्य सरकारों को निर्देश देने की व्यवस्था की गयी है। संविधान के अनुच्छेद 256 में स्पष्ट कहा गया है कि “प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग इस प्रकार होगा कि संसद द्वारा निर्मित कानूनों का पालन सुनिश्चित रहे।

(2) राज्य सरकारों को संघीय कार्य सौंपना – संघीय सरकार राज्य सरकारों को कोई भी कार्य सौंप सकती है। यदि राज्यों की सरकार या उसके अधिकारी उसे पूरा न करें, तो राष्ट्रपति को अधिकार है कि वह संकटकालीन स्थिति की घोषणा कर राज्य शासन अपने हाथ में ले ले।

(3) अखिल भारतीय सेवाएँ – संविधान संघ तथा राज्य सरकारों के लिए अलग-अलग सेवाओं की व्यवस्था करता है, लेकिन कुछ ऐसी सेवाओं की भी व्यवस्था करता है जो संघ तथा राज्य सरकारें दोनों के लिए सामान्य हैं। इन्हें अखिल भारतीय सेवाएँ कहते हैं और इन सेवाओं के अधिकारियों पर संघीय सरकार का विशेष नियन्त्रण रहता है।

(4) सहायता अनुदान – संघीय शासन द्वारा राज्यों को आवश्यकतानुसार सहायता अनुदान भी दिया जा सकता है। अनुदान देते समय संघ राज्यों पर कुछ शर्ते लगाकर उनके व्यय को भी नियन्त्रित कर सकता है।

(5) अन्तर्राज्यीय नदियों पर नियन्त्रण – संसद को अधिकार है कि वह विधि द्वारा किसी अन्तर्राज्यीय नदी अथवा इसके जल के प्रयोग, वितरण या नियन्त्रण के सम्बन्ध में व्यवस्था करे।

(6) अन्तर-राज्य परिषद् (Inter-State Council) की स्थापना (जून 1990 ई०) – भारतीय संविधान के अनुच्छेद 263 में एक ‘अन्तर-राज्य परिषद् की स्थापना का प्रावधान किया गया है और राजमन्नार आयोग, प्रशासनिक सुधार आयोग तथा सबसे अन्त में सरकारिया आयोग, जिसने नवम्बर, 1987 ई० में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की; इन सभी ने अपनी सिफारिशों में इस बात पर बल दिया कि अन्तर- राज्य परिषद् की स्थापना की जानी चाहिए, लेकिन व्यवहार में मई 1990 ई० तक अन्तर-राज्य परिषद् की स्थापना नहीं की गयी थी  इस परिषद् की स्थापना जून 1990 ई० में की गयी है। यह परिषद् संघीय व्यवस्था और केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के सुचारु संचालन हेतु एक विचार-मंच का कार्य करेगी। परिषद् के दिन प्रतिदिन के कार्य हेतु एक स्थायी सचिवालय की स्थापना की गयी है।

(7) संचार साधनों की रक्षा – समस्त भारतीय संघ के संचार साधनों की रक्षा का भार भी संघीय सरकार पर ही है। संघ सरकार राज्यों के अन्तर्गत हवाई अड्डों, रेलों तथा अन्य राष्ट्रीय महत्त्व के आवागमन और संचार साधनों की रक्षा के लिए राज्य सरकारों को आवश्यक आदेश दे सकती है जिनका पालन राज्य सरकारों के लिए आवश्यक है। इन आदेशों के पालन में राज्य सरकारों को जो अतिरिक्त खर्च उठाना पड़ेगा, वह संघ सरकार राज्य सरकार को देगी।

(8) राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति – इस सबके अतिरिक्त राज्य सरकारों पर संघीय शासन के नियन्त्रण का एक प्रमुख उपाय यह है कि प्रधानमन्त्री के परामर्श से राष्ट्रपति राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति करता है जो वहाँ राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं।

(9) मुख्यमन्त्री तथा अन्य मन्त्रियों के विरुद्ध आरोपों की जाँच – यदि किसी राज्य में मुख्यमन्त्री या मन्त्रियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार या अन्य किसी प्रकार के आरोप लगाये जाते हैं तो इस प्रकार का आरोप-पत्र कार्यवाही के लिए राष्ट्रपति को भेज दिया जाता है और केन्द्रीय सरकार को ही इस बात के सम्बन्ध में निर्णय लेने का अधिकार है कि इन आरोपों की न्यायिक जाँच करवानी चाहिए अथवा नहीं। आरोप सिद्ध हो जाने पर केन्द्रीय सरकार सम्बन्धित मन्त्रियों को पद छोड़ने के लिए कह सकती है। पंजाब के मुख्यमन्त्री कैरो और ओडिशा के मुख्यमन्त्री वीरेन मित्रा को न्यायिक जाँच में दोषी पाये जाने पर ही त्याग-पत्र देना पड़ा था।

(10) राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करना – इन सबके अलावा संविधान के अनुच्छेद 356 में कहा गया है कि यदि किसी राज्य में संवैधानिक तन्त्र भंग हो जाता है तो राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर या अपने विवेक से राष्ट्रपति द्वारा उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है। राज्य में संवैधानिक तन्त्र भंग हुआ है अथवा नहीं; इस सम्बन्ध में निर्णय लेने की शक्ति राष्ट्रपति अर्थात् केन्द्रीय शासन को ही प्राप्त है और राष्ट्रपति शासन की यह बड़ी छड़ी राज्यों को केन्द्र के सभी निर्देश मानने के लिए बाध्य करती है। इस प्रकार प्रशासनिक क्षेत्र में राज्यों पर भारत सरकार को प्रभावदायक नियन्त्रण है, लेकिन इनके साथ यह नहीं भुला देना चाहिए कि ये प्रावधान बहुत अधिक सावधानीपूर्वक और संकटकाल में ही उपयोग के लिए हैं। सामान्यतया राज्य को कानून निर्माण और प्रशासन के सम्बन्ध में अपने निश्चित क्षेत्र में पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त होगी।

प्रश्न 5.
केन्द्र और राज्यों के मध्य वित्तीय सम्बन्धों की परीक्षण कीजिए।
उत्तर :
वित्तीय क्षेत्र में संविधान के द्वारा संघ व राज्य सरकारों के क्षेत्र अलग-अलग कर दिये गये हैं। तथा दोनों ही सरकारें सामान्यतया अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करती हैं। इस सम्बन्ध में संविधान द्वारा की गयी व्यवस्था निम्न प्रकार है –

संघीय आय के साधन – संघीय सरकार को आय के अलग साधन प्राप्त हैं। इन साधनों में कृषि आय को छोड़कर अन्य आय पर कर, सीमा-शुल्क, निर्यात-शुल्क, उत्पादन-शुल्क, निगम कर, कम्पनियों के मूल धन पर कर, कृषि भूमि को छोड़कर अन्य सम्पत्ति शुल्क आदि प्रमुख हैं।

राज्यों की आय के साधन – वित्त के क्षेत्र में राज्य सरकार के आय के साधन भी अलग कर दिये गये हैं। उनमें भू-राजस्व, कृषि आयकर, कृषि भूमि का उत्तराधिकार शुल्क व सम्पत्ति शुल्क, मादक वस्तुओं पर उत्पादन कर, बिक्री कर, यात्री कर, मनोरंजन कर, दस्तावेज कर आदि प्रमुख हैं। (42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा रेडियो और टेलीविजन से प्रसारित विज्ञापनों पर कर राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में रख दिया गया है।)

व्यय की प्रमुख मदें – संघीय शासन की व्यय की मदें सेना, परराष्ट्र सम्बन्ध आदि हैं, जब कि राज्य शासन के व्यय की मुख्य मदें पुलिस, कारावास, शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य आदि हैं।

राज्यों की वित्तीय सहायता – क्योंकि राज्यों की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपर्युक्त साधन पर्याप्त नहीं समझे गये, इसलिए संघीय शासन द्वारा राज्यों को वित्तीय सहायता की व्यवस्था की गयी है, जो इस प्रकार है।

पहले प्रकार के कर ऐसे हैं जो केन्द्र द्वारा लगाये और वसूल किये जाते हैं, पर जिनकी सम्पूर्ण आय राज्यों में बाँट दी जाती है। इस प्रकार के करों में प्रमुख रूप से उत्तराधिकार कर, सम्पत्ति कर, समाचार-पत्र कर आदि आते हैं।

दूसरे प्रकार के वे कर हैं, जो केन्द्र निर्धारित करता, किन्तु राज्य एकत्रित करते और अपने उपयोग में लाते हैं। स्टाम्प शुल्क करं एक ऐसा ही कर है। केन्द्र शासित क्षेत्रों में इन करों की वसूली केन्द्रीय सरकार करती है।

तीसरे प्रकार के कर वे हैं जो केन्द्र द्वारा लगाये व वसूल किये जाते हैं, पर जिनकी शुद्ध आय संघ व राज्यों के बीच बाँट दी जाती है। कृषि आय के अतिरिक्त अन्य आय पर कर प्रमुख रूप से इसी प्रकार का कर है।

राज्यों को अनुदान – संविधान के अनुच्छेद 275 के अनुसार जिन राज्यों को संसद विधि द्वारा अनुदान देना निश्चित करे उन राज्यों को अनुदान दिया जाएगा। ये अनुदान पिछड़े हुए वर्गों को ऊँचा उठाने और अन्य विकास योजनाओं को पूरा करने के लिए दिये जाएँगे।

सार्वजनिक ऋण प्राप्ति की व्यवस्था – संघीय सरकार अपनी संचित निधि की जमानत पर संसद की आज्ञानुसार ऋण ले सकती है। राज्यों की सरकारें भी विधानमण्डल द्वारा निर्धारित सीमा तक ऋण ले सकती हैं। संघीय सरकार विदेशों से भी ऋण ले सकती है, किन्तु राज्य सरकारें ऐसा नहीं कर सकतीं।

वित्त आयोग – संविधान के अनुच्छेद 280 में व्यवस्था में की गयी है कि प्रति 5 वर्ष बाद राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की स्थापना करेगा। इस आयोग के द्वारा संघ और राज्य सरकारों के बीच करों के वितरण, भारत की संचित निधि में से धन के व्यय तथा वित्तीय व्यवस्था से सम्बन्धित अन्य विषयों पर सिफारिश करने का कार्य किया जाएगा।

प्रश्न 6.
केंद्र तथा राज्य के मध्य तनाव के सांविधानिक कारण लिखिए।
उत्तर :

केन्द्र तथा राज्यों के मध्य तनाव के सांविधानिक कारण

समय-समय पर केन्द्र तथा राज्य सरकारों के मध्य उपस्थित होने वाले संघर्ष एवं तनावों के कारणों को निम्नलिखित वर्गों में रखा गया है –

(1) भारतीय संविधान में शक्तियों का वितरण केन्द्र के पक्ष में अधिक है। संघ सूची तथा समवर्ती सूची में केन्द्रीय कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका को इतने अधिकार प्रदान किए गए हैं कि राज्यों की स्वायत्तता पर आँच आ सकती है। 1970 में तमिलनाडु सरकार द्वारा नियुक्त राजमन्नार समिति ने सिफारिश की थी कि –

  1. संघ सूची तथा समवर्ती सूची में से कुछ शक्तियाँ निकालकर राज्य सूची में डाल देनी चाहिए।
  2. वित्त आयोग को एक अस्थायी अधिकरण बना देना चाहिए, एवं
  3. केन्द्रीय राजस्व स्रोतों को हटाकर राज्यों को हस्तान्तरित कर देना चाहिए जिससे केन्द्र पर राज्यों की वित्तीय निर्भरता कम हो।

(2) राज्य सदैव यह अनुभव करते हैं कि उनकी विधायी तथा प्रशासनिक शक्तियाँ सीमित हैं तथा उन्हें अपने निर्णयों के कार्यान्वयन में केन्द्र के निर्णय का इन्तजार करना पड़ता है। जब केन्द्र तथा राज्य में एक ही दल की सरकार रहती है तब तो समस्या प्रबल नहीं हो पाती है, किन्तु विपरीत स्थिति में तनाव प्रायः बढ़ जाता है। उदाहरणार्थ-1967 के पश्चात् राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं तो शक्तियों के पुनः वितरण की आवाज विशेष रूप से उठाई गई।

(3) राज्यपाल केन्द्र द्वारा नियुक्त ऐसे शक्तिशाली अभिकरण हैं जो राज्यों में केन्द्र का वर्चस्व रखने में सहयोग देते हैं। संविधान उन्हें अधिकार देता है कि समवर्ती सूची में संबंधित विधेयकों को वे राष्ट्रपति की अनुमति के लिए सुरक्षित रखें तथा केन्द्रीय सरकार को यह अवसर प्रदान करें कि वह राष्ट्रपति द्वारा राज्यों द्वारा पारित विधेयक अथवा विधेयकों को अस्वीकृत करा दे। केरल के राज्यपाल ने ई०एम०एस० नम्बूदरीपाद के नेतृत्व वाली साम्यवादी सरकार का प्रगतिशील भूमि सुधार विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिए सुरक्षित रख लिया था। इसके पश्चात् केन्द्रीय सरकार ने इस विधेयक को राष्ट्रपति द्वारा अस्वीकृत करा दिया। गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारें राज्यपालों की भूमिका से सशंकित रहती हैं। आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री एन०टी० रामाराव ने तो उन्हें केन्द्रीय जासूस’ तक की संज्ञा दे दी थी। अनेक अवसरों पर गैर-कांग्रेसी सरकारों द्वारा राज्यपाल पद को ही समाप्त करने की माँग की गई है। राज्यपाल पद ने केन्द्र-राज्य संबंधों में तनाव तथा संघर्ष की स्थिति उत्पन्न की है।

(4) आपातकालीन उपबन्धों ने संविधान को एकात्मक स्वरूप प्रदान कर दिया है तथा आपातकाल के समय राज्य सम्पूर्णत: केन्द्र निर्देशित इकाइयाँ बन जाते हैं। यह स्थिति कुछ राज्य सरकारों हेतु बहुत अप्रिय रही है। तनाव के सांविधानिक कारणों का अध्ययन करने पर यह लक्ष्य सामने आती है। राज्य चाहते हैं कि उन्हें अधिक स्वायत्तता प्रदान की जाए तथा उन पर केन्द्र का अंकुश न रहे।

प्रश्न 7.
अनुच्छेद 370 के सन्दर्भ में बताइए कि जम्मू-कश्मीर राज्य की स्थिति भारतीय संघ के अन्य राज्यों से किस प्रकार भिन्न है?
या
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 पर अपने विचार लिखिए।
या
भारतीय संविधान की धारा 370 के अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य को दी गयी किन्हीं दो सुविधाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर राज्य की स्थिति भारतीय संघ के अन्य राज्यों से भिन्न है –

(1) भारतीय संघ के अन्य किसी भी राज्य का अपना संविधान नहीं है, लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य का अपना संविधान है जो 26 नवम्बर, 1957 ई० में लागू हुआ था तथा जम्मू-कश्मीर राज्य का प्रशासन इस संविधान के उपबन्धों के अनुसार चलता है।

(2) भारतीय संविधान द्वारा संघ और राज्यों के बीच जो शक्ति-विभाजन किया गया है, उसके अन्तर्गत अवशेष शक्तियाँ संघीय सरकार को सौंपी गयी हैं और अवशेष विषयों के सम्बन्ध में कानून- निर्माण का अधिकार संघीय संसद को प्राप्त है, लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य इस सम्बन्ध में अपवाद है। अनुच्छेद 370 में व्यवस्था की गयी है कि जम्मू-कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में अवशेष शक्तियाँ जम्मू-कश्मीर राज्य के पास ही रहेंगी।

(3) इस राज्य के लिए विधि बनाने की संघीय संसद की शक्ति संघ सूची और समवर्ती सूची के उन विषयों तक सीमित होगी, जिनको जम्मू-कश्मीर राज्य की सरकार के साथ परामर्श करके उन विषयों के ‘तत्स्थानी विषय’ (Correspond to matters) घोषित कर दें, जिनके सम्बन्ध में ‘अधिमिलन-पत्र’ में भारतीय संसद को अधिकार दिया गया है।

(4) संसद संघ सूची और समवर्ती सूची के अन्य विषयों पर विधि राज्य सरकार की सहमति से ही बना सकेगी।

(5) संविधान के आपातकालीन प्रावधानों के सम्बन्ध में भी जम्मू-कश्मीर राज्य के प्रसंग में विशेष व्यवस्था है। अनुच्छेद 352, जिसके अन्तर्गत राष्ट्रपति को राष्ट्रीय संकट की घोषणा करने का अधिकार प्राप्त है, जम्मू-कश्मीर राज्य में एक सीमा तक ही और जम्मू-कश्मीर राज्य की सहमति से ही लागू हो सकता है। अनुच्छेद 360, जो राष्ट्रपति को वित्तीय संकट घोषित करने का अधिकार देता है, जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू नहीं होता। अनुच्छेद 356 के उपबन्ध अर्थात् राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की व्यवस्था जम्मू-कश्मीर राज्य पर भी लागू होगी।

(6) भारत के नागरिक स्वत: ही जम्मू-कश्मीर के नागरिक नहीं बन जाते, उन्हें जम्मू-कश्मीर राज्य में बसने का भी कोई संवैधानिक अधिकार प्राप्त नहीं है। भारत संघ के अन्य राज्यों के निवासियों को जम्मू-कश्मीर राज्य में भूमि अथवा अन्य कोई चल सम्पत्ति प्राप्त करने का अधिकार भी नहीं है। अनुच्छेद 370 के कारण ही केन्द्र के अनेक लाभकारी और प्रगतिशील कानून; जैसे-सम्पत्ति कर, शहरी भूमि सीमा कानून और उपहार कर, इत्यादि यहाँ लागू नहीं हो सकते।

(7) राज्य की नीति के निदेशक तत्त्वों से सम्बन्धित संविधान के भाग 4 के उपबन्ध जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू नहीं होते हैं।

(8) संसद जम्मू-कश्मीर राज्य के विधानमण्डल की सहमति के बिना उस राज्य के नाम, क्षेत्र या सीमाओं में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती।

(9) अनुच्छेद 368 के अधीन संविधान में किये गये संशोधन जम्मू-कश्मीर राज्य में तब तक लागू नहीं होंगे, जब तक कि राष्ट्रपति आदेश द्वारा उसे जम्मू-कश्मीर राज्य में लागू नहीं कर दें।

जम्मू – कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में धारा 370 की आलोचना अथवा विवाद

जम्मू – कश्मीर राज्य को भारतीय संघ में यह विशेष स्थिति तत्कालीन विशेष परिस्थितियों के कारण प्रदान की गयी थी। जम्मू-कश्मीर राज्य को प्राप्त यह विशेष स्थिति संविधान का अस्थायी या संक्रमणकालीन प्रावधान ही है और इस कारण यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर राज्य को सदैव ही यह विशेष स्थिति प्राप्त रहेगी। वर्तमान समय में भारत की एकता और अखण्डता के प्रबल समर्थकों और भारतीय राजनीति के एक प्रमुख दल भाजपा द्वारा यह कहा जाता है कि जम्मू-कश्मीर में आज आतंकवाद और अलगाववाद की जो स्थिति समय-समय पर खड़ी हो जाती है उसका मूल कारण अनुच्छेद 370 या भारतीय संघ के अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य को प्राप्त विशेष स्थिति है तथा अलगाववाद की इस स्थिति को समाप्त करने हेतु अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। जम्मू-कश्मीर राज्य के भूतपूर्व राज्यपाल जगमोहन ने अपनी पुस्तक ‘कश्मीर : समस्या और विश्लेषण’ में पूरे विस्तार के साथ विचार व्यक्त किया है कि “अनुच्छेद 370 विविध निहित स्वार्थों के हाथों शोषण का साधन बन गया है। इस अनुच्छेद के कारण एक दुष्चक्र स्थापित हो गया है जो अलगाववादी शक्तियों को जन्म देता है और ये शक्तियाँ बदले में अनुच्छेद 370 को मजबूत बनाती हैं।” जगमोहन के इस विश्लेषण में तार्किकता और सत्य का अंश है। यह तथ्य है कि अनुच्छेद 370 के कारण अलगाववादी तत्त्वों ने अपनी शक्ति में वृद्धि की है तथा यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर राज्य के आर्थिक विकास में भी एक प्रमुख बाधक तत्त्व रहा है। लेकिन इसके साथ ही यह भी तथ्य है कि जम्मू-कश्मीर राज्य में आज आतंकवाद और अलगाववाद की जो स्थिति है, अनुच्छेद 370 उसका मूल कारण नहीं है। आज की परिस्थितियों में अटल बिहारी वाजपेयी का यह कथन अधिक सत्य है। कि “मेरा मानना यह है कि केवल धारा 370 हटाने से ही कश्मीर-समस्या हल नहीं हो सकती।” राजनीतिक दलों के आपसी मतभेदों के कारण ही सरकार ने अनुच्छेद 370 को अब स्थायी कर दिया है। 27 जून, 2000 ई० को जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने तीन-चौथाई बहुमत से स्वायत्तता प्रस्ताव पारित किया जिसे स्वीकार करना सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 370 को समाप्त करने का यह निश्चित रूप से उपयुक्त समय नहीं है। यदि आज अनुच्छेद 370 को समाप्त करने का प्रयत्न किया जाए, तो वह जम्मू-कश्मीर राज्य की स्थिति को अधिक चुनौतीपूर्ण बना सकता है। निष्कर्षतः । भविष्य में अनुच्छेद 370 को समाप्त किया जा सकता है और किया जाना चाहिए, लेकिन आज इस कार्य के लिए उपयुक्त समय नहीं है।

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UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 6 Judiciary

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 6 Judiciary (न्यायपालिका)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के विभिन्न तरीके कौन-कौन से हैं? निम्नलिखित में जो बेमेल हो उसे छाँटें-
(क) सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सलाह ली जाती है।
(ख) न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश-प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता।
(ग) उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।
(घ) न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद की दखल नहीं है।
उत्तर-
उपर्युक्त कथनों में (ग) बेमेल कथन है जिसमें यह कहा गया है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 2.
क्या न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ यह है कि न्यायपालिका किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।
उत्तर-
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से आशय यह बिल्कुल नहीं है कि न्यायपालिका किसी के प्रति जवाबदेह न हो, न्यायपालिका भी संविधान को ही भाग है, वह संविधान के ऊपर नहीं है। न्यायपालिका भी संविधान के अनुसार ही कार्य करेगी। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ यह है कि न्यायपालिका बिना किसी अनावश्यक हस्तक्षेप के अपना कार्य करे व इसके निर्णयों को सम्मानपूर्वक स्वीकार किया जाए। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ यह भी है कि न्यायाधीश अपनी नियुक्ति के लिए, सेवाकाल के लिए, सेवाशर्ती व सेवा सुविधाओं के लिए कार्यपालिका व विधायिका पर निर्भर न हो। न्यायाधीश को हटाने का तरीका भी पक्षपातरहित हो। भारत में न्यायपालिका स्वतन्त्र है तथा उसे सम्मानजनक स्थान प्राप्त है।

प्रश्न 3.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए संविधान के विभिन्न प्रावधान कौन-कौन से हैं?
उत्तर-
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए भारतीय संविधान में निम्नलिखित प्रावधान हैं-

  1. न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद व विधानसभाओं की कोई भूमिका नहीं है।
  2. न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए निश्चित योग्यताएँ व अनुभव दिए गए हैं।
  3. न्यायपालिका अपने वेतन, भत्तों व अन्य आर्थिक सुविधाओं के लिए कार्यपालिका अथवा संसद पर निर्भर नहीं है। उनके खर्चे से सम्बन्धित बिल पर बहस व मतदान नहीं होता।
  4. न्यायाधीशों का सेवाकाल लम्बा व सुनिश्चित होता है यद्यपि कुछ परिस्थितियों में इनको हटाया भी जा सकती है परन्तु महाभियोग की प्रक्रिया काफी लम्बी व मुश्किल होती है।
  5. न्यायाधीशों के कार्यों व निर्णयों के आधार पर उनकी व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती।
  6. जो न्यायालय की व इसके निर्णयों की अवमानना करते हैं, न्यायालय उन्हें दण्डित कर सकता है।
  7. न्यायालय के निर्णय बाध्यकारी होते हैं।

प्रश्न 4.
नीचे दी गई समाचार-रिपोर्ट पढे और उनमें निम्नलिखित पहलुओं की पहचान करें
(क) मामला किसे बारे में है?
(ख) इस मामले में लाभार्थी कौन है?
(ग) इस मामले में फरियादी कौन है?
(घ) सोचकर बताएँ कि कम्पनी की तरफ से कौन-कौन से तर्क दिए जाएँगे?
(ङ) किसानों की तरफ से कौन-से तर्क दिए जाएँगे?
सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस से दहानु के किसानों को 300 करोड़ रुपये देने को कहा – निजी कारपोरेट ब्यूरो, 24 मार्च 2005
मुंबई – सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस एनर्जी से मुंबई के बाहरी इलाके दहानु में चीकू फल उगाने वाले किसानों को 300 करोड़ रुपये देने के लिए कहा है। चीकू उत्पादक किसानों ने अदालत में रिलायंस के ताप-ऊर्जा संयंत्र से होने वाले प्रदूषण के विरुद्ध अर्जी दी थी। अदालत ने इसी मामले में अपना फैसला सुनाया है।
दहानु मुंबई से 150 किमी दूर है। एक दशक पहले तक इस इलाके की अर्थव्यवस्था खेती और बागवानी के बूते आत्मनिर्भर थी और दहानु की प्रसिद्धि यहाँ के मछली-पालन तथा जंगलों के कारण थी। सन् 1989 में इस इलाके में ताप-ऊर्जा संयंत्र चालू हुआ और इसी के साथ शुरू हुई इस इलाके की बर्बादी। अगले साल इस उपजाऊ क्षेत्र की फसल पहली दफा मारी गई। कभी महाराष्ट्र के लिए फलों का टोकरा रहे दहानु की अब 70 प्रतिशत फसल समाप्त हो चुकी है। मछली पालन बंद हो गया है और जंगल विरल होने लगे हैं। किसानों और पर्यावरणविदों का कहना है कि ऊर्जा संयंत्र से निकलने वाली राख भूमिगत जल में प्रवेश कर जाती है और पूरा पारिस्थितिकी-तंत्र प्रदूषित हो जाता है। दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने ताप-ऊर्जा संयंत्र को प्रदूषण नियंत्रण की इकाई स्थापित करने का आदेश दिया था ताकि सल्फर का उत्सर्जन कम हो सके। सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्राधिकरण के आदेश के पक्ष में अपना फैसला सुनाया था। इसके बावजूद सन् 2002 तक प्रदूषण नियंत्रण का संयंत्र स्थापित नहीं हुआ। सन् 2003 में रिलायंस ने ताप-ऊर्जा संयंत्र को हासिल किया और सन् 2004 में उसने प्रदूषण-नियंत्रण संयंत्र लगाने की योजना के बारे में एक खाका प्रस्तुत किया। प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र चूँकि अब भी स्थापित नहीं हुआ था, इसलिए दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने रिलायंस से 300 करोड़ रुपये की बैंक-गारंटी देने को कहा।
उत्तर-
(क) मामला दहानु मुंबई क्षेत्र के चीकू पैदा करने वाले उन किसानों को मुआवजा देने के बारे में है जिनका थर्मल पावर प्लांट के नुकसानदायक रिसाव के कारण भारी नुकसान हुआ है।
(ख) इस मामले में दहानु क्षेत्र के चीकू उत्पादन करने वाले किसान लाभान्वित हुए हैं।
(ग) इस मामले में दहानु क्षेत्र के चीकू उत्पादन करने वाले किसान फरियादी हैं।
(घ) रिलायंस कम्पनी ने न्यायालय में तर्क दिया कि थर्मल पावर प्लांट के नुकसानदायक रिसाव को नियन्त्रित करने के लिए एक प्रदूषण नियन्त्रक बोर्ड का गठन किया जाना चाहिए।
(ङ) किसानों ने पर्यावरणविदों के सहयोग से कहा था कि ऊर्जा संयंत्र से निकलने वाली राख से भूमिगत जल प्रभावित हुआ है।

प्रश्न 5.
नीचे की समाचार-रिपोर्ट पढे और चिह्नित करें कि रिपोर्ट में किस-किस स्तर की सरकार सक्रिय दिखाई देती है?
(क) सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका की निशानदेही करें।
(ख) कार्यपालिका और न्यायपालिका के कामकाज की कौन-सी बातें आप इसमें पहचान सकते हैं?
(ग) इस प्रकरण से सम्बद्ध नीतिगत मुद्दे, कानून बनाने से सम्बन्धित बातें, क्रियान्वयन तथा कानून की व्याख्या से जुड़ी बातों की पहचान करें।

सीएनजी – मुद्दे पर केन्द्र और दिल्ली सरकार एक साथ
स्टाफ रिपोर्टर, द हिंदू, सितंबर 23, 2001 राजधानी के सभी गैर-सीएनजी व्यावसायिक वाहनों को यातायात से बाहर करने के लिए केन्द्र और दिल्ली सरकार संयुक्त रूप से सर्वोच्च न्यायालय का सहारा लेंगे। दोनों सरकारों में इस बात की सहमति हुई है। दिल्ली और केन्द्र की सरकार ने पूरी परिवहन व्यवस्था को एकल ईंधन-प्रणाली से चलाने के बजाय दोहरे ईंधन-प्रणाली से चलाने के बारे में नीति बनाने का फैसला किया है क्योंकि ईंधन-प्रणाली खतरों से भरी है और इसके परिणामस्वरूप विनाश हो सकता है।

राजधानी के निजी वाहन धारकों द्वारा सीएनजी के इस्तेमाल को हतोत्साहित करने का भी फैसला किया गया है। दोनों सरकारें राजधानी में 0.05 प्रतिशत निम्न सल्फर डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में दबाव डालेंगी। इसके अतिरिक्त अदालत से कहा जाएगा कि जो व्यावसायिक वाहन यूरो-दो मानक को पूरा करते हैं उन्हें महानगर में चलने की अनुमति दी जाए। हालाँकि केन्द्र और दिल्ली अलग-अलग हलफनामा दायर करेंगे लेकिन इनमें समान बिन्दुओं को उठाया जाएगा। केन्द्र सरकार सीएनजी के मसले पर दिल्ली सरकार के पक्ष को अपना समर्थन देगी। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और केन्द्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री श्रीराम नाइक के बीच हुई बैठक में ये फैसले लिए गए। श्रीमती शीला दीक्षित ने कहा कि केन्द्र सरकार अदालत से विनती करेगी कि डॉ० आर०ए० मशेलकर की अगुवाई में गठित उच्चस्तरीय समिति को ध्यान में रखते हुए अदालत बसों को सीएनजी में बदलने की आखिरी तारीख आगे बढ़ा दे क्योकि 10,000 बसों को निर्धारित समय में सीएनजी में बदल पाना असंभव है। डॉ० मशेलकर की अध्यक्षता में गठित समिति पूरे देश के लिए ऑटो ईंधन नीति का सुझाव देगी। उम्मीद है कि यह समिति छ: माह में अपनी रिपोर्ट पेश करेगी।
मुख्यमंत्री ने कहा कि अदालत के निर्देशों पर अमल करने के लिए समय की जरूरत है। इस मसले पर समग्र दृष्टि अपनाने की बात कहते हुए श्रीमती दीक्षित ने बताया-सीएनजी से चलने वाले वाहनों की संख्या, सीएनजी की आपूर्ति करने वाले स्टेशनों पर लगी लंबी कतार की समाप्ति, दिल्ली के लिए पर्याप्त मात्रा में सीएनजी ईंधन जुटाने तथा अदलात के निर्देशों को अमल में लाने के तरीके और साधनों पर एक साथ ध्यान दिया जाएगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने ……….. सीएनजी के अतिरिक्त किसी अन्य ईंधन से महानगर में बसों को चलाने की अपनी मनाही में छूट देने से इनकार कर दिया था लेकिन अदालत का कहना था कि टैक्सी और ऑटो-रिक्शा के लिए भी सिर्फ सीएनजी इस्तेमाल किया जाए, इस बात पर उसने कभी जोर नहीं डोला। श्रीराम नाइक का कहना था कि केन्द्र सरकार सल्फर की कम मात्रा वाले डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में अदालत से कहेगी, क्योंकि पूरी यातायात व्यवस्था को सीएनजी पर निर्भर करना खतरनाक हो सकता है। राजधानी में सीएनजी की आपूर्ति पाइपलाइन के जरिए होती है। और इसमें किसी किस्म की बाधा आने पर पूरी सार्वजनिक यातायात प्रणाली अस्त-व्यस्त हो जाएगी।
उत्तर-
इस केस में केन्द्रीय सरकार और दिल्ली की राज्य सरकार सक्रिय दिखाई देती हैं।
(क) यातायात के लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा निश्चित मापदण्डों के आधार पर केस को तय करने में सर्वोच्च न्यायालय की महत्त्वपूर्ण भूमिका होगी।
(ख) कार्यपालिका प्रदूषण नियंत्रण की नीति तय करेगी तथा न्यायपालिका यह तय करेगी कि कार्यपालिका की नीति (प्रदूषण नियंत्रण) का कितनी उल्लंघन हुआ है।
(ग) इस प्रकरण में राज्य सरकार का नीतिगत निर्णय यह है कि दिल्ली में CNG के प्रयोग की बसें चलेंगी। इस पर दिल्ली सरकार कानून बनाएगी। नीति वे कानून के निर्माण के सम्बन्ध में यह निर्णय लिया गया कि ऐसा करते समय पर्यावरण प्रदूषण से सुरक्षा को मुख्य रूप से ध्यान में रखा जाए।

प्रश्न 6.
देश के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में राष्ट्रपति की भूमिको को आप किस रूप में देखते हैं? (एक काल्पनिक स्थिति का ब्योरा दें और छात्रों से उसे उदाहरण के रूप में लागू करने को कहें)।
उत्तर-
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति यह नियुक्ति प्रधानमन्त्री की सलाह पर करता है। साधारणतया सर्वोच्च न्यायालय में सर्वाधिक वरिष्ठ न्यायाधीश को ही मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जाता है, परन्तु अनेक अवसर ऐसे आए हैं जब मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में वरिष्ठता के सिद्धान्त का उल्लंघन हुआ है। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में राष्ट्रपति की अपनी कोई विशेष भूमिका नहीं है।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित कथन इक्वाडोर के बारे में है। इस उदाहरण और भारत की न्यायपालिका के बीच आप क्या समानता अथवा असमानता पाते हैं। सामान्य कानूनों की कोई संहिता अथवा पहले सुनाया गया कोई न्यायिक फैसला मौजूद होता तो पत्रकार के अधिकारों को स्पष्ट करने में मदद मिलती। दुर्भाग्य से इक्वाडोर की अदालत इस रीति से काम नहीं करती। पिछले मामलों में उच्चतर अदालत के न्यायाधीशों ने जो फैसले दिए हैं उन्हें कोई न्यायाधीश उदाहरण के रूप में मानने के लिए बाध्य नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत इक्वाडोर (अथवा दक्षिण अमेरिका में किसी और देश में जिस न्यायाधीश के सामने अपील की गई है उसे । अपना फैसला और उसको कानूनी आधार लिखित रूप में नहीं देना होता। कोई न्यायाधीश आज एक मामले में कोई फैसला सुनाकर कल उसी मामले में दूसरा | फैसला दे सकता है और इसमें उसे यह बताने की जरूरत नहीं कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।
उत्तर-
भारतीय न्याय-प्रणाली में किसी विषय पर उच्च न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय आगे आने वाले निर्णयों के लिए मार्गदर्शक होते हैं जो बाध्यकारी भी होते हैं यह स्थिति इक्वाडोर के उदाहरण से भिन्न है क्योंकि वहाँ न्यायाधीश उसी विषय पर दिए गए निर्णय को मानने के लिए बाध्य नहीं होता। भारतीय न्याय व्यवस्था व इक्वाडोर की न्याय व्यवस्था में एक समानता यह है कि भारत व इक्वाडोर में न्यायाधीश नवीन परिस्थिति में अपना प्रथम निर्णय किसी विषय पर बदल सकते हैं।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित कथनों को पढ़िए और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अमल में लाए जाने वाले विभिन्न क्षेत्राधिकार; मसलन-मूल, अपील और परामर्शकारी-से इनका मिलान कीजिए-
(क) सरकार जानना चाहती थी कि क्या यह पाकिस्तान-अधिगृहीत जम्मू-कश्मीर के निवासियों की नागरिकता के सम्बन्ध में कानून पारित कर सकती है।
(ख) कावेरी नदी के जल विवाद के समाधान के लिए तमिलनाडु सरकार अदालत की शरण लेना चाहती है।
(ग) बाँध-स्थल से हटाए जाने के विरुद्ध लोगों द्वारा की गई अपील को अदालत ने ठुकरा दिया।
उत्तर-
(क) परामर्श सम्बन्धी अधिकार।
(ख) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार।
(ग) अपीलीय क्षेत्राधिकार।

प्रश्न 9.
जनहित याचिका किस तरह गरीबों की मदद कर सकती है?
उत्तर-
संविधान द्वारा भारत के नामरिकों को यह अधिकार दिया गया है कि यदि नागरिकों को राज्य के कानूनों द्वारा कोई हानि पहुँचती है तो वे उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय में विभिन्न प्रकार की याचिकाएँ प्रस्तुत कर सकते हैं। जनहित याचिका का तात्पर्य यह है कि लोकहित के किसी भी मामले में कोई भी व्यक्ति या समूह जिसने व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से सरकार के हाथों किसी भी प्रकार से हानि उठाई हो, अनुच्छेद 21 तथा 32 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय तथा अनुच्छेद 226 के अनुसार उच्च न्यायालय की शरण ले सकता है।

उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि गरीब, अपंग अथवा सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से पिछड़े लोगों के मामले में आम जनता का कोई आदमी न्यायालय के समक्ष ‘वाद’ ला सकता है। न्यायाधीश कृष्णा अय्यर के अनुसार ‘वाद कारण तथा पीड़ित व्यक्ति की संकुचित धारणा का स्थान अब ‘वर्ग कार्यवाही तथा लोकहित में कार्यवाही ने ले लिया है। जनहित याचिका की विशेष बात यह है कि न्यायालय अपने समस्त तकनीकी तथा कार्यवाही सम्बन्धी नियमों की परवाह किए बिना एक सामान्य पत्र के आधार पर भी कार्यवाही कर सकेगा। जनहित याचिकाओं का महत्त्व-जनहित याचिकाओं के महत्त्व को देखते हुए जनता में इसके प्रति काफी रुचि बढ़ी है।

जनहित याचिकाओं का महत्त्व निम्नवत् है-
1. सामान्य जनता की आसान पहुँच – जनहित याचिकाओं द्वारा आम नागरिक भी व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से न्याय के लिए न्यायालय के दरवाजे खटखटा सकता है। जनहित याचिकाओं के लिए किन्हीं विशेष कानूनी प्रावधानों के चक्कर में उलझना नहीं पड़ता है। व्यक्ति सीधे उच्च न्यायालय अथवा उच्चतम न्यायालय में अपना वाद प्रस्तुत कर सकता है।
2. शीर्घ निर्णय – जनहित याचिकाओं पर न्यायालय तुरन्त न्यायिक प्रक्रिया को प्रारम्भ कर देता है। तथा उन पर जल्दी ही सुनवाई होता है। उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 तथा 32 की राज्य द्वारा अवज्ञा के मामलों को बहुत ही गम्भीरता से लिया है। जनहित याचिकाओं पर तुरन्त सुनवाई के कारण बहुत जल्दी निर्णय लिया जाता है।
3. प्रभावी राहत – अधिकांश जनहित याचिकाओं में यह देखने को मिलती है कि इसमें पीड़ित पक्ष को बहुत अधिक राहत हो जाती है तथा प्रतिवादी को सजा देने का भी प्रावधान है।
4. कम व्यय – जनहित याचिकाओं में याचिका प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति का खर्चा बहुत कम होता है क्योंकि इसमें सामान्य न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना नहीं पड़ता है। यदि न्यायालय याचिका को निर्णय के लिए स्वीकार कर लेता है तो उस पर तुरन्त कार्यवाही के कारण निर्णय हो जाता है। इससे पीड़ित पक्ष को कम खर्च में शीघ्र न्याय प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न 10.
क्या आप मानते हैं कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिका में विरोध पनप सकता है? क्यों?
उत्तर-
भारतीय न्यायपालिका को न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति प्राप्त है जिसके आधार पर न्यायपालिका विधायिका द्वारा पारित कानूनों तथा कार्यपालिका द्वारा जारी आदेशों की संवैधानिक वैधता की जाँच कर सकती है, अगर ये संविधान के विपरीत पाए जाते हैं तो न्यायपालिका उन्हें अवैध घोषित कर सकती है। परन्तु न्यायपालिका नीतिगत विषय पर टिप्पणी नहीं कर सकती। विगत कुछ वर्षों में न्यायपालिका ने अपनी इस सीमा को तोड़ा है व कार्यपालिका के कार्यों में निरन्तर हस्तक्षेप व बाधा कर रही है जिसे राजनीतिक क्षेत्रों में न्यायिक सक्रियता कहा जाता है जिसके परिणामस्वरूप कार्यपालिका व न्यायपालिका में टकराव उत्पन्न हो गया है।

प्रश्न 11.
न्यायिक सक्रियता मौलिक अधिकारों की सुरक्षा में किस रूप में जुड़ी है? क्या इससे मौलिक अधिकारों के विषय-क्षेत्र को बढ़ाने में मदद मिली है?
उत्तर-
न्यायिक सक्रियता मौलिक अधिकारों की सुरक्षा से पूर्ण रूप से जुड़ी है। इसने मौलिक अधिकारों के विषय-क्षेत्र को भी काफी विस्तृत कर दिया है। न्यायपालिका ने जीने के अधिकार का अर्थ यह लिया है–सम्मानपूर्ण जीवन, शुद्ध वायु, शुद्ध पानी तथा शुद्ध वातावरण में जीने का अधिकार। इसीलिए न्यायपालिका में पर्यावरण को साफ-सुथरा रखने, प्रदूषण को रोकने, नदियों को साफ-सुथरा रखे जाने, उद्योगों को आवासीय क्षेत्र से बाहर निकाले जाने, आवासीय क्षेत्रों से दुकानों को हटाए जाने आदि के कितने ही आदेश दिए हैं। इस प्रकार न्यायपालिका ने न्यायिक सक्रियता द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों के क्षेत्र को काफी व्यापक बनाया है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कौन करता है?
(क) संसद
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) राष्ट्रपति
(घ) मन्त्रिपरिषद्
उत्तर :
(ग) राष्ट्रपति।

प्रश्न 2.
भारत का सर्वोच्च न्यायालय कहाँ स्थित है?
(क) इलाहाबाद में
(ख) नयी दिल्ली में
(ग) मुम्बई में
(घ) चेन्नई में
उत्तर :
(ख) नयी दिल्ली में।

प्रश्न 3.
सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश अपने पद पर कार्यरत रहता है –
या
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की अवकाश प्राप्त करने की आयु है –
(क) 58 वर्ष की आयु तक
(ख) 60 वर्ष की आयु तक
(ग) 65 वर्ष की आयु तक
(घ) 62 वर्ष की आयु तक
उत्तर :
(ग) 65 वर्ष की आयु तक

प्रश्न 4.
भारत में संविधान का संरक्षक कौन है?
(क) राष्ट्रपति
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) सर्वोच्च न्यायालय
(घ) संसद
उत्तर :
(ग) सर्वोच्च न्यायालय

प्रश्न 5.
उच्चतम न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त कुल कितने न्यायाधीश होते हैं?
(क) 23
(ख) 24
(ग) 30
(घ) 26
उत्तर :
(ग) 30.

प्रश्न 6.
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति किसकी सलाह पर की जाती है?
(क) केन्द्रीय विधि मन्त्री
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) महान्यायवादी
(घ) भारत के मुख्य न्यायाधीश
उत्तर :
(घ) भारत के मुख्य न्यायाधीश

प्रश्न 7.
संविधान के अनुसार उच्चतम न्यायालय की कार्यवाहियों की अधिकृत भाषा है
(क) केवल अंग्रेजी
(ख) अंग्रेजी तथा हिन्दी
(ग) अंग्रेजी तथा कोई भी क्षेत्रीय भाषा
(घ) अंग्रेजी तथा आठवीं सूची में निर्दिष्ट भाषा
उत्तर :
(क) केवल अंग्रेजी।

प्रश्न 8.
भारत में न्यायिक पुनरवलोकन का सिद्धान्त लिया गया है
(क) फ्रांस के संविधान से
(ख) जर्मनी के संविधान से
(ग) संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से
(घ) कनाडा के संविधान से
उत्तर :
(ग) संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से

प्रश्न 9.
संविधान के किस अनुच्छेद के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है?
(क) अनुच्छेद 29
(ख) अनुच्छेद 31
(ग) अनुच्छेद 33
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 10.
उच्च न्यायालय से परामर्श माँगने का अधिकार किसको है?
(क) प्रधानमन्त्री को
(ख) लोकसभा अध्यक्ष को
(ग) राष्ट्रपति को
(घ) विधिमन्त्री को
उत्तर :
(ग) राष्ट्रपति को

प्रश्न 11.
उच्च न्यायालय के वह कौन-से मुख्य न्यायाधीश थे, जिन्हें कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ?
(क) गजेन्द्र गडकर
(ख) एम० हिदायतुल्लाह
(ग) के० सुब्बाराव
(घ) पी० एन० भगवती
उत्तर :
(ख) एम० हिदायतुल्लाह

प्रश्न 12.
उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति किसकी सलाह पर की जाती है?
(क) केन्द्रीय विधि मन्त्री
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) महान्यायवादी
(घ) भारत के मुख्य न्यायाधीश
उत्तर :
(घ) भारत के मुख्यं न्यायाधीश

प्रश्न 13.
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति आयु क्या है?
(क) 65 वर्ष
(ख) 60 वर्ष
(ग) 58 वर्ष
(घ) 62 वर्ष
उत्तर :
(घ) 62 वर्ष

प्रश्न 14.
सर्वोच्च न्यायालय के कार्य-क्षेत्र को बढ़ाया जा सकता है?
(क) संसद द्वारा
(ख) राष्ट्रपति द्वारा।
(ग) मंत्रिमंडल द्वारा
(घ) प्रधानमंत्री द्वारा
उत्तर :
(क) संसद द्वारा।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
न्यायपालिका किसके प्रति जवाबदेह है?
उत्तर :
न्यायपालिका देश के संविधान, लोकतान्त्रिक परम्परा और जनता के प्रति जवाबदेह है।

प्रश्न 2.
मुख्य न्यायाधीश सहित उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या कितनी है?
उत्तर :
भारत के उच्चतम न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 30 अन्य न्यायाधीश हैं। इस प्रकार : मुख्य न्यायाधीश सहित उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की कुल संख्या 31 है।

प्रश्न 3.
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कौन करता है?
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।

प्रश्न 4.
उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे की जाती है?
उत्तर :
भारत के राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के परामर्श पर अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती है।

प्रश्न 5.
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश का कार्यकाल कितना होता है?
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष की आयु तक कार्यरत रह सकते हैं।

प्रश्न 6.
उच्चतस न्यायालय से परामर्श माँगने का अधिकार किसको है?
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय से परामर्श माँगने का अधिकार राष्ट्रपति को है।

प्रश्न 7.
उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश के पदच्युति का प्रस्ताव करने के लिए संविधान में क्या आधार बताए गए हैं?
उत्तर :
केवल ‘प्रमाणित कदाचार तथा ‘असमर्थता की स्थिति में ही उसके विरुद्ध पदच्युति का प्रस्ताव प्रस्तुत किया जा सकता है।

प्रश्न 8.
भारत का उच्चतम न्यायालय कहाँ पर स्थित है?
उत्तर :
भारत का उच्चतम न्यायालय नई दिल्ली में स्थित है।

प्रश्न 9.
भारत का उच्चतम न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन के अधिकार का प्रयोग किस आधार पर करता है?
उत्तर :
न्यायालय इस अधिकार का प्रयोग ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया द्वारा करता है।

प्रश्न 10.
उच्चतम न्यायालय के दो अधिकार बताइए।
उत्तर :

  1. मूल अधिकारों की रक्षा
  2. संविधान का संरक्षण

प्रश्न 11.
देश में न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन क्या है?
उत्तर :
भारत में न्यायिक सक्रियता को मुख्य साधन जनहित याचिका या सामाजिक व्यवहार याचिका (Social Action Litigation) है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य कार्य क्या हैं?
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों के मध्य होने वाले विवादों की सुनवाई करना।
  2. उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपीलों की सुनवाई करना।
  3. राष्ट्रपति को न्यायिक प्रश्नों पर परामर्श देना।
  4. नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा करना।
  5. संविधान की व्याख्या तथा सुरक्षा करना।
  6. अभिलेख न्यायालय के रूप में कार्य करना।
  7. संघात्मक व्यवस्था को बनाए रखना।
  8. परिवर्तित सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियों में संविधान की न्यायसंगत तथा तर्कसंगत व्याख्या प्रस्तुत करना। प्रश्न

प्रश्न 2.
न्यायिक सक्रियता का मानव के सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है? संक्षेप में विवेचना कीजिए।
उत्तर :
न्यायिक सक्रियता का मानव-जीवन पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ा है –

  1. उच्चतम न्यायालय ने जनहितकारी विवादों को मान्यता प्रदान की है। इसके अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे समूह अथवा वर्ग की ओर से मुकदमा लड़ सकता है जिसको उसके कानूनों अथवा संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया है।
  2. उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 की नवीन व्याख्या की है तथा आम आदमी के जीवन व सुरक्षा को वास्तविक बनाने का प्रयास किया गया है।
  3. उच्चतम न्यायालय ने नागरिकों की गरिमा तथा प्रतिष्ठा की सुरक्षा की ओर अधिक ध्यान केन्द्रित किया है।
  4. उच्चतम न्यायालय ने पूर्णतः स्पष्ट कर दिया है कि कार्यपालिको के ‘स्वविवेक’ पर नियंत्रण किया जाना चाहिए।
  5. वर्तमान में उच्चतम न्यायालय की यह मान्यता बन गई है कि यद्यपि न्यायाधीश का कार्य कानून का निर्माण करना नहीं है, परन्तु वह कानून की रूपरेखा में रंग अवश्य भरता है।

प्रश्न 3.
भारतीय न्यायपालिका एकीकृत न्यायपालिका किस प्रकार है?
उत्तर :
भारतीय न्यायपालिका एकीकृत न्यायपालिका है। इसके शिखर पर उच्चतम न्यायालय है, मध्य में उच्च न्यायालय है व जिला स्तर पर अधीनस्थ न्यायालय है। ये न्यायालय एकीकृत इस अर्थ में हैं कि उच्चतम न्यायालय का नीचे वाले न्यायालय पर प्रशासनिक व न्यायिक नियंत्रण है। निचली अदालतों के निर्णयों के विरुद्ध उच्च न्यायालय में लाया जा सकता है, उच्च न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में लाया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय अधीनस्थ न्यायालयों पर बाध्यकारी होते हैं। उच्चतम न्यायालय न्यायाधीशों के स्थानान्तरण करने के लिए भी स्वतन्त्र है। उच्चतम न्यायालय नीचे वाले न्यायालय से किसी भी मुकदमे को अपने पास ले सकता है, अगर उच्चतम न्यायालय यह समझता है कि किसी प्रकरण में कानून का कोई गम्भीर विषय शामिल है। उच्चतम न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों को कोई भी आवश्यक निर्देश दे सकता है।

प्रश्न 4.
सर्वोच्च न्यायालय के परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार को समझाइए।
उत्तर :
संविधान के अनुच्छेद 143 के अनुसार, राष्ट्रपति किसी कानूनी या तथ्य के प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय से परामर्श मॉग सकता है। उच्चतम न्यायालय, राष्ट्रपति को परामर्श देने के लिए खुली सुनवाई (Open Hearings) का भी प्रबन्ध करता है। अमेरिका के संविधान में उच्चतम न्यायालय द्वारा राष्ट्रपति को परामर्श दिए जाने की व्यवस्था नहीं है। इस न्यायालय पर संवैधानिक दृष्टि से ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि उसे परामर्श देना ही पड़े। राष्ट्रपति के लिए भी यह आवश्यक नहीं है। कि वह उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए परामर्श के अनुसार ही कार्य करे।

प्रश्न 5.
जनहित याचिकाओं का भारतीय व्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
जनहित याचिकाओं का भारतीय व्यवस्था पर निम्नलिखित प्रभाव दृष्टिगत होता है –

  1. ऐसे लोगों की स्वतन्त्रता व हितों की रक्षा करने में सहायता मिलती है जो स्वयं अपने हितों की रक्षा करने में समर्थ नहीं थे।
  2. इससे सामाजिक एकता का विकास होता है।
  3. इससे राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ हुई है।
  4. न्यायिक सक्रियता का विकास हुआ है।
  5. कार्यपालिका पर भी कुछ नियंत्रण स्थापित हुआ है।
  6. गलत कानून-निर्माण पर रोक लगी है।
  7. नौकरशाही पर नियंत्रण स्थापित हुआ है।
  8. गरीब जनता में विश्वास उत्पन्न हुआ है।

प्रश्न 6.
संसद व न्यायपालिका का मौलिक अधिकारों के संशोधन को लेकर टकराव, संक्षेप में। समझाइए।
उत्तर :
संविधान में संशोधन विशेषकर मौलिक अधिकारों में संशोधन को लेकर न्यायपालिका का संसद से निरन्तर टकराव बना रहा है। प्रारम्भ में शंकरी प्रसाद प्रकरण में न्यायालय ने निर्णय दिया था कि संसद संविधान के किसी भी भाग में, यहाँ तक कि मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है। सन् 1967 में गोलकनाथ केस में न्यायालय ने अपने इस निर्णय को बदलते हुए नया निर्णय दिया कि संसद मौलिक अधिकार में संशोधन नहीं कर सकती। इससे न्यायपालिका व संसद में टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई। संसद में गोलकनाथ केस के निर्णय को समाप्त करने के उद्देश्य से 38 व 39वाँ संविधान संशोधन किया जिन्हें 1973 में केशवानन्द भारती केस में चुनौती दी गई जिसमें यह निर्णय हुआ कि संसद, संविधान के किसी भी भाग में यहाँ तक कि मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है परन्तु संविधान की मौलिक रचना में संशोधन नहीं कर सकती। इस प्रकार न्यायपालिका व संसद में टकराव होता रहा है।

प्रश्न 7.
उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए व्यक्ति में किन अर्हताओं का होना आवश्यक है?
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए व्यक्ति में निम्नलिखित अर्हताओं का होना आवश्यक है –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह किसी उच्च न्यायालय अथवा दो या दो से अधिक न्यायालयों में लगातार कम-से-कम 5 वर्ष तक न्यायाधीश के रूप में कार्य कर चुका हो।

या वह किसी उच्च न्यायालय या न्यायालयों में लगातार 10 वर्ष तक अधिवक्ता रह चुका हो। या राष्ट्रपति की दृष्टि में कानून का उच्चकोटि का ज्ञाता हो।

प्रश्न 8.
अभिलेख न्यायालय पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
भारत का उच्चतम न्यायालय अभिलेख (रिकॉर्ड) न्यायालय के रूप में भी कार्य करता है। अभिलेख न्यायालय का यह तात्पर्य है कि न्यायालय के समस्त निर्णयों को अभिलेख के रूप में सुरक्षित रखा जाता है। इन निर्णयों को भविष्य में देश के किसी भी न्यायालय में पूर्व उदाहरणों के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय को यह भी अधिकार प्राप्त होता है कि वह अपनी मानहानि के लिए किसी भी व्यक्ति को जुर्माना अथवा कारावास का दण्ड दे सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय, अन्य अधीनस्थ न्यायालयों में आवश्यकता पड़ने पर नजीर (केस लॉ) के रूप में प्रयुक्त किए जाते हैं।

प्रश्न 9.
भारत में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा न्यायपालिका किस प्रकार करती है?
उत्तर :
भारतीय संविधान द्वारा भारत के नागरिकों को प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों की सुरक्षा का उत्तरदायित्व भारत के सर्वोच्च न्यायालय को प्रदान किया गया है। यदि सरकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करती है या कोई नागरिक किसी दूसरे नागरिक को उसके मौलिक अधिकारों का प्रयोग स्वतन्त्रतापूर्वक नहीं करने देता, तो प्रभावित व्यक्ति अपने मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय की शरण ले सकता है। उच्चतम न्यायालय के संविधान में अनुच्छेद 32 में वर्णित ‘संवैधानिक उपचारों के अधिकारों के अन्तर्गत मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करता है। इने संवैधानिक उपचारों में बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), प्रतिषेध (Prohibition), अधिकार पृच्छा (Quo Warranto) तथा उत्प्रेषण (Certiorari) नामक पाँच लेखों का प्रयोग नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए किया जाता है।

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत की संघात्मक व्यवस्था में न्यायपालिका की भूमिका पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
समस्त प्रकार की शासन-प्रणालियों में न्यायपालिका की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, परन्तु । संघात्मक व्यवस्था में न्यायपालिका के दायित्व और भी बढ़ जाते हैं। संघात्मक व्यवस्था में शासन की सत्ता एक लिखित एवं कठोर संविधान द्वारा केन्द्र तथा राज्यों के मध्य विभाजित होती है। केन्द्र की सरकार केवल उन विषयों पर ही कानून का निर्माण कर सकती है, जो संघ-सूची में वर्णित होते हैं तथा राज्य सरकारें राज्य-सूची के विषयों पर ही कानून का निर्माण कर सकती हैं। किसी भी सरकार को दूसरी सरकार के क्षेत्र का अतिक्रमण करने का अधिकार प्राप्त नहीं होता है। यदि ऐसा होता है तो संघात्मक व्यवस्था ही समाप्त हो जाएगी। न्यायपालिका को यह अधिकार प्राप्त है कि वह शासन के कार्यक्षेत्र एवं शक्तियों पर अपना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अंकुश रखे जिससे इन शक्तियों का दुरुपयोग या अतिक्रमण न होने पाए। इसीलिए न्यायपालिका को यह शक्ति प्राप्त होती है कि वह ऐसे किसी भी कानून अथवा आदेश को अवैध घोषित कर दे जो संविधान की धाराओं का उल्लंघन करता हो। एक स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिको ही अपने दायित्वों का समुचित रूप से पालन कर सकती है। यदि न्यायपालिका अपने इस अधिकार का प्रयोग न करे तो संघात्मक व्यवस्था एकात्मक शासन व्यवस्था में परिवर्तित हो जाएगी तथा संविधान का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।

प्रश्न 2.
लोकतन्त्र में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के दो उपायों का उल्लेख कीजिए।
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के दो उपाय लिखिए।
उत्तर :

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता

न्यायपालिका का कार्यक्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है और उसके द्वारा विविध प्रकार के कार्य किये जाते हैं, लेकिन न्यायपालिका इस प्रकार के कार्यों को उसी समय कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सकती है जबकि न्यायपालिका स्वतन्त्र हो। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से हमारा आशय यह है कि न्यायपालिका को कानूनों की व्याख्या करने और न्याय प्रदान करने के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रूप से अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए और उन्हें कर्तव्यपालन में किसी से अनुचित तौर पर प्रभावित नहीं होना चाहिए। सीधे-सादे शब्दों में इसका आशय यह है कि न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका किसी राजनीतिक दल, किसी वर्ग विशेष और अन्य सभी दबावों से मुक्त रहते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करे।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित करने के दो उपाय निम्नलिखित हैं –

1. न्यायाधीश की योग्यता – न्यायाधीशों का पद केवल ऐसे ही व्यक्तियों को दिया जाए जिनकी व्यावसायिक कुशलता और निष्पक्षता सर्वमान्य हो। राज्य व्यवस्था के संचालन में न्यायाधिकारी वर्ग का बहुत अधिक महत्त्व होता है और अयोग्य न्यायाधीश इस महत्त्व को नष्ट कर देंगे।

2. कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से पृथक् रखा जाना चाहिए। एक ही व्यक्ति के सत्ता अभियोक्ता और साथ-ही-साथ न्यायाधीश होने पर स्वतन्त्र न्याय की आशा नहीं की जा सकती है।

प्रश्न 3.
न्यायपालिका के दो कार्यों का उल्लेख कीजिए तथा स्वतन्त्र न्यायपालिका के पक्ष में दो तर्क प्रस्तुत कीजिए।
या
लोकतन्त्रात्मक शासन में स्वतन्त्र न्यायपालिका की आवश्यकता एवं महत्ता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
किसी लोकतन्त्रात्मक शासन में एक स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका सर्वथा अनिवार्य है। इसे आधुनिक और प्रगतिशील संविधानों एवं शासन-व्यवस्था का प्रमुख लक्षण माना जाता है न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के महत्त्व को निम्नलिखित रूपों में प्रकट किया जा सकता है –

1. लोकतन्त्र की रक्षा हेतु – लोकतन्त्र के अनिवार्य तत्त्व स्वतन्त्रता और समानता हैं। नागरिकों की स्वतन्त्रता और कानून की दृष्टि से व्यक्तियों की समानता-इन दो उद्देश्यों की प्राप्ति स्वतन्त्र न्यायपालिका द्वारा ही सम्भव है। इस दृष्टि से स्वतन्त्र न्यायपालिका को ‘लोकतन्त्र का प्राण’ कहा जाता है।

2. संविधान की रक्षा हेतु – आधुनिक युग के राज्यों में संविधान की सर्वोच्चता का विचार प्रचलित है। संविधान की रक्षा का दायित्व न्यायपालिका का होता है। न्यायपालिका द्वारा इस दायित्व का भली-भाँति निर्वाह उस समय ही सम्भव है, जब न्यायपालिका स्वतन्त्र और निष्पक्ष हो। स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की धाराओं की स्पष्ट व्याख्या करती है तथा व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका के उन कार्यों को जो संविधान के विरुद्ध होते हैं, अवैध घोषित कर देती है। इस प्रकार स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की रक्षा करती है।

3. न्याय की रक्षा हेतु – न्यायपालिका का प्रथम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य न्याय करना है। न्यायपालिका यह कार्य तभी ठीक प्रकार से कर सकती है, जबकि वह निष्पक्ष और स्वतन्त्र हो तथा व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के प्रभाव से पूर्ण रूप से मुक्त हो।

4. नागरिक अधिकारों की रक्षा हेतु – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व अन्य कारणों की अपेक्षा नागरिक अधिकारों की रक्षा की दृष्टि से अधिक है। इसके लिए न्यायपालिका को स्वतन्त्र और निष्पक्ष होना अत्यन्त आवश्यक है।

न्यायपालिका के दो कार्य – न्यायपालिका के दो कार्य निम्नलिखित हैं –

1. कानूनों की व्याख्या करना – कानूनों की भाषा सदैव स्पष्ट नहीं होती है और अनेक बार कानूनों की भाषा के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार की प्रत्येक परिस्थिति में कानूनों की अधिकारपूर्ण व्याख्या करने का कार्य न्यायपालिका ही करती है। न्यायालयों द्वारा की गयी इस प्रकार की व्याख्याओं की स्थिति कानून के समान ही होती है।

2. लेख जारी करना – सामान्य नागरिकों या सरकारी अधिकारियों के द्वारा जब अनुचित या अपने अधिकार-क्षेत्र के बाहर कोई कार्य किया जाता है तो न्यायालये उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए विविध प्रकार के लेख जारी करता है। इस प्रकार के लेखों में बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश और प्रतिषेध आदि लेख प्रमुख हैं।

प्रश्न 4.
“सर्वोच्च न्यायालय संविधान का रक्षक ही नहीं बल्कि उसे न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति भी प्राप्त है।” इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय संविधान की पवित्रता की रक्षा भी करता है। यदि संसद संविधान का अतिक्रमण करके कोई कानून बनाती है तो उच्चतम न्यायालय उस कानून को अवैध घोषित कर सकता है। संक्षेप में, सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार है कि वह संघ सरकार अथवा राज्य सरकार के उन कानूनों को अवैध घोषित कर सकता है, जो संविधान के विपरीत हों। इसी प्रकार वह संघ सरकार अथवा राज्य सरकार के संविधान का अतिक्रमण करने वाले आदेशों को भी अवैध घोषित कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय संविधान की व्याख्या करने वाला (Interpreter) अन्तिम न्यायालय है। संक्षेप में, कहा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक पुनरवलोकन (Judicial Review) का अधिकार है, क्योंकि इसे कानूनों की वैधानिकता के परीक्षण की शक्ति प्राप्त है। इस शक्ति के आधार पर न्यायपालिका ने सम्पत्ति के अधिकार का अतिक्रमण करने वाले अनेक कानूनों को गोलकनाथ केस, सज्जनसिंह केस तथा केशवानन्द भारती केस में अवैध घोषित किया है।

प्रश्न 5.
स्वतन्त्र न्यायपालिका के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।

लोकतन्त्र में न्यायपालिका को महत्त्व इंगित कीजिए।
उत्तर :

स्वतन्त्र न्यायपालिका का महत्त्व अथवा लाभ

न्यायपालिका अपने विविध कार्यों को उसी समय कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सकती है, जब वह स्वतन्त्र रूप से कार्य करे। स्वतन्त्र न्यायपालिका का महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर स्पष्ट होता है –

1. नागरिकों की स्वतन्त्रता एवं अधिकारों की रक्षा – स्वतन्त्र न्यायपालिका ही ागरिकों की स्वतन्त्रता और मौलिक अधिकारों की रक्षा कर सकती है। चान्सलर कैण्ट के अनुसार, “जहाँ कानूनों की व्याख्या करने, उन्हें लागू करने तथा अधिकारों को अमल में लाने के लिए कोई न्याय विभाग न हो, वहाँ स्वयं अपनी शक्तिहीनता के कारण शासन का विनाश हो जाएगा अथवा शासन के दूसरे विभाग के आदेशों का पालन करने के लिए उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर नागरिक स्वतन्त्रता का सर्वनाश कर देंगे।”

2. निष्पक्ष न्याय की प्राप्ति – निष्पक्ष न्याय की प्राप्ति कराना न्यायपालिका का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है। न्यायपालिका को अपने इस महत्त्वपूर्ण कार्य के सम्पादन के लिए स्वतन्त्र होना आवश्यक है। उसके कार्यों में व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका को कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।

3. लोकतंत्र की सुरक्षा – लोकतन्त्र की सफलता के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना अनिवार्य है। लोकतन्त्र के अनिवार्य तत्त्व स्वतन्त्रता और समानती हैं। अतः नागरिकों को स्वतन्त्रता और समानता के अवसर उसी समय प्राप्त हो सकेंगे, जब न्यायपालिका निष्पक्षता के साथ अपने कार्य का सम्पादन करेगी।

4. संविधान की सुरक्षा – स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की रक्षक होती है। न्यायपालिका संविधान-विरोधी कानूनों को अवैध घोषित करके रद्द कर देती है। अतः संविधान के स्थायित्व एवं सुरक्षा के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है।

5. व्यवस्थापिका और कार्यपालिका पर नियंत्रण – स्वतन्त्र न्यायपालिको व्यवस्थापिका और कार्यपालिका पर नियंत्रण रखकर शासन की कार्यकुशलता में वृद्धि करती है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि स्वतन्त्र न्यायपालिका का प्रत्येक देश की शासन-प्रणाली में बहुत अधिक महत्त्व है। लोकतन्त्रात्मक शासन के लिए तो स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना अति आवश्यक है। वस्तुत: स्वतन्त्र न्यायपालिका के बिना एक सभ्य राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती है।

प्रश्न 6.
उच्चतम न्यायालय की कार्यविधि के सम्बन्ध में संविधान में क्या व्यवस्था की गई है?
उत्तर :

उच्चतम न्यायालय की कार्यविधि

उच्चतम न्यायालय की कार्यविधि के सम्बन्ध में संविधान में कुछ व्यवस्थाएँ की गई हैं। इस सम्बन्ध में नियम बनाने का अधिकार संविधान द्वारा संसद को दिया गया है और जिन बातों पर संविधान और संसद ने कोई व्यवस्था न की हो, ऐसी बातों पर स्वयं न्यायालय की अनुमति से कानून बन सकता है। उच्चतम न्यायालय की कार्यविधि के सम्बन्ध में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गई हैं –

(1) जिन विषयों का सम्बन्ध संविधान की व्याख्या के साथ हो या जिनमें कोई संवैधानिक प्रश्न उपस्थित होता हो यो कानून के अर्थ को समझाने की आवश्यकता हो या जिन विषयों पर विचार करने का कार्य राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय को सौंपा गया हो उनकी सुनवाई उच्चतम न्यायालय के कम-से-कम 5 न्यायाधीशों द्वारा की जाएगी।

(2) उच्चतम न्यायालय के सम्मुख किसी ऐसे मुकदमे की अपील भी पेश की जा सकती है जिसकी सुनवाई के पश्चात् यह अनुभव किया जाए कि उसमें संविधान की व्याख्या करना अनिवार्य है। या कानून के अभिप्राय को तात्त्विक रूप से प्रकट करना होगा। इसी प्रकार के मुकदमे आरम्भ में 5 से कम न्यायाधीशों के सम्मुख प्रस्तुत किए जा सकते हैं। परन्तु यदि यह स्पष्ट हो जाए कि उसमें संविधान की व्याख्या का स्पष्टीकरण होना आवश्यक है तो उसको भी कम-से-कम 5 न्यायाधीशों के सम्मुख उपस्थित किया जाएगा और उसकी व्याख्या के अनुसार उसका निर्णय किया जाएगा।

(3) उच्चतम न्यायालय के सभी निर्णय खुले तौर पर सम्पन्न होते हैं।

(4) उच्चतम न्यायालय के निर्णय बहुमत के आधार पर होंगे। परन्तु यदि निर्णय से कोई न्यायाधीश सहमत नहीं है तो वह अपना पृथक् निर्णय दे सकती है परन्तु बहुमत से हुआ निर्णय ही मान्य समझा जाएगा।

प्रश्न 7.
सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा न्यायिक पुनरवलोकन का संचालन किस प्रकार किया जाता है?
उत्तर :

न्यायिक पुनरवलोकन का संचालन

न्यायिक पुनरवलोकन का तात्पर्य न्यायालय द्वारा कानूनों तथा प्रशासकीय नीतियों की संवैधानिकता की जाँच तथा ऐसे कानूनों एवं नीतियों को असंवैधानिक घोषित करना है जो संविधान के किसी अनुच्छेद पर अतिक्रमण करती है।

भारत में भी सर्वोच्च न्यायालय को अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के समान ही न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति प्रदान की गई है। भारत में भी संविधान को सर्वोच्च कानून घोषित किया गया है। अतः न्यायपालिका का यह अधिकार है कि वह संसद अथवा विधानमण्डलों द्वारा निर्मित ऐसे कानूनों को अवैध घोषित कर दे जो संविधान की धाराओं का अतिक्रमण करते हों। भारत का सर्वोच्च न्यायालय इस शक्ति का प्रयोग ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ (Procedure established by law) के आधार पर करता है जबकि अमेरिका का सर्वोच्च न्यायालय ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ (Due process of the law) के आधार पर न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति का प्रयोग करता है। भारत का सर्वोच्च न्यायालय यह निश्चित करने में भी कोई कानून संवैधानिक शक्ति है अथवा नहीं, प्राकृतिक न्यायालय के सिद्धान्तों को या उचित-अनुचित की अपनी धारणाओं को लागू नहीं कर सकता है।

भारत के उच्चतम न्यायालय ने पिछले अनेक वर्षों में ऐसे महत्त्वपूर्ण निर्णय दिए हैं जिनमें न्यायिक पुनरवलोकन के अधिकार का प्रयोग किया गया है। जैसे—गोलकनाथ बनाम मद्रास राज्य के मुकदमे में निवारक निरोध अधिनियम के 14वें खण्ड को असंवैधानिक घोषित किया गया है। स्वर्ण नियंत्रण अधिनियम, पाकिस्तानी शरणार्थियों के भारत आगमन पर रोक लगाने सम्बन्धी अधिनियम, बैंक राष्ट्रीयकरण अधिनियम तथा अखबारी कागज सम्बन्धी नीति आदि।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
न्यायपालिका के कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
“आधुनिक काल में न्यायपालिका के कार्यों में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि हो गई है। इस कथन के आलोक में न्यायपालिका के कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था में न्यायपालिका के कार्यों की समीक्षा कीजिए।
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता क्यों आवश्यक है? इसकी स्वतन्त्रता बनाए रखने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए?
या
आधुनिक राज्य में न्यायपालिका के कार्यों एवं उसकी बढ़ती हुई महत्ता की व्याख्या कीजिए। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने हेतु क्या व्यवस्था की जानी चाहिए?
या
आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्यों में न्यायपालिका के कार्यों तथा स्वतन्त्र न्यायपालिका के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर :

न्यायपालिका के कार्य

आधुनिक लोकतन्त्रात्मक प्रणाली में न्यायपालिका को मुख्यत: निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं –

1. न्याय करना – न्यायपालिका का मुख्य कार्य न्याय करना है। कार्यपालिका कानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को पकड़कर न्यायपालिका के समक्ष प्रस्तुत करती है। न्यायपालिका उन समस्त मुकदमों को सुनती है जो उसके सामने आते हैं तथा उन पर अपना न्यायपूर्ण निर्णय देती

2. कानूनों की व्याख्या करना – न्यायपालिका विधानमण्डल में बनाये हुए कानूनों की व्याख्या के साथ-साथ उन कानूनों की व्याख्या भी करती है जो स्पष्ट नहीं होते। न्यायपालिका के द्वारा की गयी कानून की व्याख्या अन्तिम होती है और कोई भी व्यक्ति उस व्याख्या को मानने से इंकार नहीं कर सकता।

3. कानूनों का निर्माण – साधारणतया कानून-निर्माण का कार्य विधानमण्डल करता है, परन्तु कई दशाओं में न्यायपालिका भी कानूनों का निर्माण करती है। कानून की व्याख्या करते समय न्यायाधीश कानून के कई नये अर्थों को जन्म देते हैं, जिससे कानूनों का स्वरूप ही बदल जाता है और एक नये कानून का निर्माण हो जाता है। कई बार न्यायपालिका के सामने ऐसे मुकदमे भी आते हैं, जहाँ उपलब्ध कानूनों के आधार पर निर्णय नहीं किया जा सकता। ऐसे समय पर न्यायाधीश न्याय के नियमों, निष्पक्षता तथा ईमानदारी के आधार पर निर्णय करते हैं। यही निर्णय भविष्य में कानून बन जाते हैं।

4. संविधान का संरक्षण – संविधान की सर्वोच्चता को बनाये रखने का उत्तरदायित्व न्यायपालिका पर होता है। यदि व्यवस्थापिका कोई ऐसा कानून बनाये, जो संविधान की धाराओं के विरुद्ध हो तो न्यायपालिका उस कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है। न्यायपालिका की इसे शक्ति को न्यायिक पुनरवलोकन (Judicial Review) का नाम दिया गया है संविधान की व्याख्या करने का अधिकार भी न्यायपालिका को प्राप्त होता है। इसी प्रकार न्यायपालिका संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करती है।

5. संघ का संरक्षण – जिन देशों ने संघात्मक शासन-प्रणाली को अपनाया है, वहाँ न्यायपालिका संघ के संरक्षक के रूप में भी कार्य करती है। संघात्मक शासन-प्रणाली में कई बार केन्द्र तथा राज्यों के मध्य विभिन्न प्रकार के मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं, इनका निर्णय न्यायपालिका द्वारा ही किया जाता है। न्यायपालिका का यह कार्य है कि वह इस बात का ध्यान रखे कि केन्द्र राज्यों के कार्य में हस्तक्षेप न करे और न ही राज्य केन्द्र के कार्यों में।

6. नागरिक अधिकारों का संरक्षण – लोकतन्त्र को जीवित रखने के लिए नागरिकों की स्वतन्त्रता और अधिकारों की सुरक्षा अत्यन्त आवश्यक है। यदि इनकी सुरक्षा नहीं की जाती तो कार्यपालिका निरंकुश और तानाशाह बन सकती है। नागरिकों की स्वतन्त्रता तथा अधिकारों की सुरक्षा न्यायपालिका द्वारा की जाती है। अनेक राज्यों में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की व्यवस्था का संविधान में उल्लेख कर दिया गया है जिससे उन्हें संविधान और न्यायपालिका का संरक्षण प्राप्त हो सके। इस प्रकार न्यायपालिका का विशेष उत्तरदायित्व होता है कि वह सदैव यह दृष्टि में रखे कि सरकार का कोई अंग इन अधिकारों का अतिक्रमण न कर सके।

7. परामर्श देना – कई देशों में न्यायपालिका कानून सम्बन्धी परामर्श भी देती है। भारत में राष्ट्रपति किसी भी विषय पर उच्चतम न्यायालय से परामर्श ले सकता है, परन्तु इस सलाह को मानना या न मानना राष्ट्रपति पर निर्भर है।

8. प्रशासनिक कार्य – कई देशों में न्यायालयों को प्रशासनिक कार्य भी करने पड़ते हैं। भारत में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय तथा अधीनस्थ न्यायालयों पर प्रशासकीय नियंत्रण रहता है।

9. आज्ञा-पत्र जारी करना – न्यायपालिका जनता को आदेश दे सकती है कि वे अमुक कार्य नहीं कर सकते और यह किसी कार्य को करवा भी सकती है। यदि वे कार्य न किये जाएँ तो न्यायालय बिना अभियोग चलाये दण्ड दे सकता है अथवा मानहानि का अभियोग लगाकर जुर्माना आदि भी कर सकता है।

10. कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड के कार्य – न्यायपालिका कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड को भी कार्य करती है, जिसका अर्थ है कि न्यायपालिका को भी सभी मुकदमों के निर्णयों तथा सरकार को दिये गये परामर्शो का रिकॉर्ड भी रखना पड़ता है। इन निर्णयों तथा परामर्शो की प्रतियाँ किसी भी समय, प्राप्त की जा सकती हैं।

न्यायपालिका का महत्त्व

व्यक्ति एक विचारशील प्राणी है और इसके साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति के अपने कुछ विशेष स्वार्थ भी होते हैं। व्यक्ति के विचारों और उसके स्वार्थों में इस प्रकार के भेद होने के कारण उनमें परस्पर संघर्ष नितान्त स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त शासन-कार्य करते हुए शासक वर्ग अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर सकता है। ऐसी स्थिति में सदैव ही एक ऐसी सत्ता की आवश्यकता रहती है जो व्यक्तियों के पारस्परिक विवादों को हल कर सके और शासक वर्ग को अपनी सीमाओं में रहने के लिए बाध्य कर सके। इन कार्यों को करने वाली सत्ता का नाम ही न्यायपालिका है।

राज्य के आदिकाल से लेकर आज तक किसी-न-किसी रूप में न्याय विभाग का अस्तित्व सदैव ही रहा है और सामान्य जनता के दृष्टिकोण से न्यायिक कार्य का सम्पादन सर्वाधिक महत्त्व रखता है। राज्य में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की व्यवस्था चाहे कितनी ही पूर्ण और श्रेष्ठ क्यों न हो, परन्तु यदि न्याय करने में पक्षपात किया जाता है, अनावश्यक व्यय और विलम्ब होता है या न्याय विभाग में अन्य किसी प्रकार का दोष है तो जनजीवन नितान्त दु:खपूर्ण हो जाएगा। न्याय विभाग के सम्बन्ध में बाइस ने अपनी श्रेष्ठ शब्दावली में कहा है, “न्याय विभाग की कुशलता से बढ़कर सरकार की उत्तमता की दूसरी कोई भी कसौटी नहीं है, क्योंकि किसी और चीज से नागरिक की सुरक्षा और हितों पर इतना प्रभाव नहीं पड़ता है, जितना कि उसके इस ज्ञान से कि वह एक निश्चित, शीघ्र व अपक्षपाती न्याय शासन पर निर्भर रह सकता है। वर्तमान समय में तो न्यायपालिका का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है, क्योंकि अभियोगों के निर्णय के साथ-साथ न्यायपालिका संविधान की व्याख्या और रक्षा का कार्य भी करती है।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता बनाये रखने हेतु उपाय

स्वतन्त्र न्यायपालिका उत्तम शासन की कसौटी है। इसलिए यह आवश्यक है कि न्यायपालिका का संगठन और कार्यविधि ऐसी हो जिससे वह बिना किसी भय और दबाव के स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य कर सके। स्वतन्त्र न्यायपालिका बनाये रखने के लिए निम्नलिखित व्यवस्था होनी चाहिए –

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति और कार्यकाल – अधिकांश देशों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनके कार्यकाल का निर्धारण कार्यपालिका के द्वारा किया जाता है। नियुक्ति का आधार योग्यता और प्रतिभा को बनाया जाता है।

2. न्यायाधीशों का वेतन – न्यायाधीशों को वेतन के रूप में अच्छी धनराशि मिलनी चाहिए। उचित वेतन होने पर ही वे निष्पक्षता और ईमानदारी से काम कर पाएँगे।

3. न्यायाधीशों की पदोन्नति – न्यायाधीशों की पदोन्नति के भी निश्चित नियम होने चाहिए। योग्यता और वरिष्ठता के आधार पर ही न्यायाधीशों की पदोन्नति होनी चाहिए। पदोन्नति का अधिकार नियुक्त करने वाली संस्था या कार्यपालिका को न होकर उच्चतम न्यायालय को होना चाहिए।

4. न्यायाधीशों को हटाना – न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने के लिए भी एक निश्चित प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिए। न्यायाधीशों को भ्रष्ट या अयोग्य होने पर ही उनके पद से हटाया जाना। चाहिए।

5. न्याय तथा शासन सम्बन्धी कार्यों का विभाजन – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी अनिवार्य है कि शासन तथा न्याय विभाग दोनों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग हों। यदि कार्यपालिका और न्यायपालिका पृथक् नहीं हैं तो न्यायाधीश अपने प्रशासनिक उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए अपनी न्यायिक शक्तियों का दुरुपयोग कर सकते हैं।

6. न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पद देने से अलग रखा जाना – सेवानिवृत्त होने के बाद किसी भी न्यायाधीश को अन्य किसी सरकारी पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए।

7. न्यायाधीशों के निर्णयों, कार्यों और चरित्र की अनुचित आलोचना पर प्रतिबन्ध –  न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों के कार्यकाल में कोई भी उनके वैयक्तिक चरित्र अथवा कार्यों पर टिप्पणी न करे और उनके निर्णयों की आलोचना न करे।

प्रश्न 2.
न्यायाधीशों की नियुक्ति के विषय में आप क्या जानते हैं?
या
उच्चतम न्यायालय के गठन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
भारत का उच्चतम न्यायालय राजधानी दिल्ली में स्थित है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या, उच्चतम न्यायालय का क्षेत्राधिकार, न्यायाधीशों के वेतन तथा सेवा-शर्तों को निश्चित करने का अधिकार संसद को प्रदान किया गया है। अब उच्चतम न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 30 अन्य न्यायाधीश हैं। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत का राष्ट्रपति करता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के सम्बन्ध में राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालयों के ऐसे अन्य न्यायाधीशों से परामर्श लेता है, जिनसे वह इस सम्बन्ध में परामर्श लेना आवश्यक समझता है। अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में जुलाई 1998 ई० को राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय में भेजे गए स्पष्टीकरण प्रस्ताव पर विचार करते हुए नौ-सदस्यीय खण्डपीठ ने सर्वसम्मति से निर्णय देते हुए स्पष्ट किया है कि उच्चतम न्यायालय में किसी न्यायाधीश की नियुक्ति तथा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अथवा किसी न्यायाधीश के स्थानान्तरण के विषय में अपनी संस्तुतियाँ प्रेषित करने से पूर्व उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायालय में नियुक्ति करने से पूर्व दो, वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श किया जाना आवश्यक है। यदि दो न्यायाधीश भी विपरीत राय देते हैं। तो मुख्य न्यायाधीश द्वारा सरकार को अपनी सिफारिश नहीं भेजनी चाहिए।

तदर्थ नियुक्तियाँ (ad hoc Appointments) – संविधान के अनुच्छेद 127 के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति से तदर्थ नियुक्तियाँ भी कर सकता है। ऐसे न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति हेतु की जाती हैं।

1. न्यायाधीशों की योग्यताएँ – उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ होनी आवश्यक हैं –
(क) वह भारतीय नागरिक हो।
(ख) वह किसी उच्च न्यायालय में कम-से-कम पाँच वर्ष तक न्यायाधीश रह चुका हो,
अथवा 10 वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो,
अथवा राष्ट्रपति की दृष्टि में लब्धप्रतिष्ठ विधिवेत्ता हो।

2. न्यायाधीशों का कार्यकाल तथा पदच्युति – उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर कार्यरत रह सकते हैं। 65 वर्ष की आयु समाप्ति पर उन्हें सेवानिवृत्त कर दिया जाता है। यदि कोई न्यायाधीश चाहे तो इससे पूर्व भी राष्ट्रपति को त्यागपत्र देकर अपने पदभार से मुक्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को सिद्ध कदाचार या असमर्थता के आधार पर राष्ट्रपति के आदेश द्वारा उसके पद से हटाया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटाने के लिए समावेदन प्रत्येक सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा समर्थित होना चाहिए। इसके बाद वह समावेदन राष्ट्रपति के समक्ष रखा जाएगा और उसके आदेश देने पर अमुक न्यायाधीश को उसके पद से हटा दिया जाएगा। लेकिन ऐसा समावेदन संसद के एक ही सत्र में प्रस्तावित और स्वीकृत होना चाहिए। इसी प्रक्रिया के आधार पर उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति रामास्वामी को हटाने का प्रयास संसद द्वारा किया गया था, परन्तु न्यायमूर्ति रामास्वामी ने आरोप सिद्ध होने से पूर्व ही अपना पद-त्याग कर दिया।

3. न्यायाधीशों के वेतन – 1998 ई० के एक अधिनियम द्वारा उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को ₹ 1 लाख प्रतिमाह और अन्य न्यायाधीशों को ₹ 90,000 प्रतिमाह वेतन निर्धारित किया गया है तथा इसके साथ-साथ उन्हें नि:शुल्क आवास, सवेतन छुट्टियाँ तथा सेवानिवृत्ति प्राप्त करने पर पेंशन आदि की व्यवस्था की गई है।

प्रश्न 3.
भारत के उच्चतम न्यायालय की संरचना का उल्लेख कीजिए। उसे संविधान का संरक्षक क्यों कहा जाता है?
या
“भारत के सर्वोच्च न्यायालय को संविधान का संरक्षक व नागरिकों के मूलाधिकारों का रक्षक कहा जाता है।” व्याख्या कीजिए।
या
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे होती है?
या
सर्वोच्च न्यायालय के संगठन का वर्णन कीजिए। उसको ‘संविधान का रक्षक’ एवं ‘नागरिकों के मूल अधिकारों का रक्षक’ क्यों कहा जाता है ?
या
उच्चतम न्यायालय का संगठन समझाइए। उसके महत्त्व को भी समझाइए।
या
भारत के उच्चतम न्यायालय के गठन व उसके कार्यों को संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
भारत के उच्चतम न्यायालय के संगठन तथा क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए।
या
न्यायालय की स्वतन्त्रता का संरक्षण किस प्रकार किया जाता है?
उत्तर :

सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता (महत्त्व)

भारतीय संविधान-निर्माताओं के समक्ष यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न था कि भारत में संविधान व लोकतन्त्र की रक्षा का दायित्व किसे सौंपा जाए? गम्भीर विचार-विमर्श के पश्चात् संविधान निर्माताओं ने भारत । संघ में लोकतन्त्र, नागरिकों के अधिकार व संविधान की रक्षा का दायित्व एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका को सौंपा। भारत में न्याय-व्यवस्था के शिखर पर सर्वोच्च न्यायालय का गठन किया गया है। श्री वी० एस० देशपाण्डे के शब्दों में, “भारत में संविधान व लोकतन्त्र की रक्षा का दायित्व सर्वोच्च न्यायालय को ही है। स्वतन्त्र भारत में सर्वोच्च न्यायालय का कार्यकरण बहुत गौरवमय रहा है। तथा आम जनता में व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों तथा स्वाधीनता के प्रहरी के रूप में उसके प्रति अटूट श्रद्धा-विश्वास है।”

भारत की संघीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत न्यायालय की आवश्यकता अथवा महत्त्व को निम्नलिखित तर्को द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है –

1. संघात्मक शासन के लिए अनिवार्य – संघीय शासन-व्यवस्था के अन्तर्गत केन्द्र व राज्यों के मध्य शक्तियों का पृथक्करण पाया जाता है। ऐसी स्थिति में अपने-अपने अधिकार-क्षेत्र को लेकर केन्द्र व राज्यों में विवाद की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। अत: केन्द्र व राज्यों के मध्य उत्पन्न किसी भी विवाद के निराकरण हेतु एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष शक्ति का होना अनिवार्य होता है। भारत में इसी उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गयी है। जी० एन० जोशी ने संघीय व्यवस्था में निष्पक्ष व स्वतन्त्र न्यायपालिका की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा है, “संघात्मक शासन में कई सरकारों का समन्वय होने के कारण संघर्ष अवश्यम्भावी है। अतः संघीय नीति का यह आवश्यक गुण है कि देश में एक ऐसी न्यायिक व्यवस्था हो, जो संघीय कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका तथा इकाइयों की सरकारों से स्वतन्त्र हो।”

2. संविधान का रक्षक – भारत में एक लिखित और कठोर संविधान को अपनाया गया है और इसके साथ ही संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान की गयी है। संविधान की सर्वोच्चता को बनाये रखने का कार्य सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा ही किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा संविधान के रक्षक और संविधान के आधिकारिक व्याख्याता के रूप में कार्य किया जाता है। वह संसद द्वारा निर्मित ऐसी प्रत्येक विधि को अवैध घोषित कर सकता है जो संविधान के विरुद्ध हो। अपनी इस शक्ति के आधार पर वह संविधान की प्रभुता और सर्वोच्चता की रक्षा करता है। संविधान के सम्बन्ध में किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न होने पर संविधान की अधिकारपूर्ण व्याख्या उसी के द्वारा की जाती है। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय संविधान की रक्षा करता है।

3. परामर्शदात्री संस्था के रूप में – भारत को सर्वोच्च न्यायालय एक परामर्शदात्री संस्था के रूप में भी विशिष्ट दायित्वों का निर्वहन करता है। राष्ट्रपति किसी भी महत्त्वपूर्ण विषय के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श माँग सकता है। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि न्यायालय के परामर्श को स्वीकार करने या न करने के लिए राष्ट्रपति पूर्ण स्वतन्त्र होता है।

4. मौलिक अधिकारों का रक्षक – संविधान के अनुच्छेद 32 में वर्णित है कि न्यायालय संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अभिरक्षक है। भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का किसी भी रूप में हनन होने पर व्यक्ति न्यायालय की शरण ले सकता है। इस सम्बन्ध में पायली ने कहा है, “मौलिक अधिकारों का महत्त्व एवं सत्ता समय-समय पर न्यायालयों द्वारा दिये गये निर्णयों से सिद्ध होती है, जिससे कार्यपालिका की निरंकुशता तथा विधानमण्डलों की स्वेच्छाचारिता से नागरिकों की रक्षा होती है।

5. भारत का अन्तिम न्यायालय – भारत की न्यायिक व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय अन्तिम न्यायालय है। परिणामस्वरूप इसके निर्णय अन्तिम व सर्वमान्य होते हैं। इन निर्णयों में परिवर्तन केवल वह ही कर सकता है।

अन्तत: सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता व महत्त्व को डॉ० एम० वी० पायली के इस कथन से प्रमाणित किया जा सकता है, “सर्वोच्च न्यायालय संघीय व्यवस्था का एक आवश्यक अंग है। यह संविधान की व्याख्या करने वाला, केन्द्र व राज्यों के मध्य उत्पन्न विवादों का निराकरण करने वाला तथा नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने वाला अन्तिम अभिकरण है।”

सर्वोच्च न्यायालय का गठन

संविधान के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या, सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार, न्यायाधीशों के वेतन या सेवा-शर्ते निश्चित करने का अधिकार संसद को दिया गया था। अनुच्छेद 124 के अनुसार, “भारत का एक उच्चतम न्यायालय होगा, जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा सात अन्य न्यायाधीश होंगे।” परन्तु इस सम्बन्ध में संविधान में यह व्यवस्था की गयी है कि संसद विधि के द्वारा न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि कर सकती है। वर्तमान समय में 1985 ई० में पारित विधि के अन्तर्गत संसद द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 31 कर दी गयी है। वर्तमान समय में सर्वोच्च न्यायालय में 1 मुख्य न्यायाधीश व 30 अन्य न्यायाधीश होते हैं। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के परामर्श से की जाती है तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से की जाती है।

न्यायाधीशों की योग्यताएँ (मुख्य न्यायाधीश) – संविधान द्वारा उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ निर्धारित की गयी हैं –

  1. वह भारत को नागरिक हो।
  2. वह कम-से-कम पाँच वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद पर कार्य कर चुका हो अथवा वह दस वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहा हो।
  3. राष्ट्रपति की दृष्टि में विख्यात विधिवेत्ती हो।
  4. उसकी आयु 65 वर्ष से कम हो।

कार्यकाल – उच्चतम न्यायालय का प्रत्येक न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर बना रह सकता है। 65 वर्ष की आयु पूर्ण करने के पश्चात् उसे पदमुक्त कर दिया जाता है, परन्तु यदि न्यायाधीश समय से पूर्व पदत्याग करना चाहता है, तो वह राष्ट्रपति को अपना.त्याग-पत्र देकर मुक्त,हो सकता है।

महाभियोग – संवैधानिक प्रावधान के अनुसार दुर्व्यवहार व भ्रष्टाचार के आरोप में लिप्त पाये जाने पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को संसद द्वारा 2/3 बहुमत से महाभियोग लगाकर, राष्ट्रपति के माध्यम से पदच्युत किया जा सकता है।

शपथ – उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश पद को ग्रहण करने से पूर्व प्रत्येक न्यायाधीश राष्ट्रपति के समक्ष शपथ लेता है।

वेतन व भत्ते – नवीन वेतनमानों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को र 2,80,000 मासिक वेतन व अन्य न्यायाधीशों को 2,50,000 मासिक वेतन की धनराशि देना निश्चित किया गया है। इसके अतिरिक्त न्यायाधीशों के लिए नि:शुल्क आवास व सेवा-निवृत्ति के पश्चात् पेंशन देने की व्यवस्था भी की गयी है। इस सम्बन्ध में यह स्मरणीय है कि न्यायाधीशों को वेतन व भत्ते भारत की संचित निधि में से दिये जाते हैं, जो संसद के अधिकारक्षेत्र से मुक्त होता है। इसके साथ ही न्यायाधीशों के वेतन में उनके कार्यकाल के समय में कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता। केवल वित्तीय आपात के समय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन-भत्ते कम किये जा सकते हैं।

उन्मुक्तियाँ – संविधान द्वारा न्यायाधीशों को प्राप्त उन्मुक्तियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. न्यायाधीशों के कार्यों व निर्णयों को आलोचना से मुक्त रखा गया है।
  2. किसी भी निर्णय के सम्बन्ध में न्यायाधीश पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उसने वह निर्णय स्वार्थवश तथा किसी के हित विशेष को ध्यान में रखकर लिया है।
  3. महाभियोग के अतिरिक्त किसी अन्य प्रक्रिया के द्वारा न्यायाधीश के आचरण के विषय में कोई चर्चा नहीं की जा सकती।

वकालत पर रोक – जो व्यक्ति भारत के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर आसीन हो जाती है, वह अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् भारत के किसी भी न्यायालय में या किसी अन्य अधिकारी के समक्ष वकालत नहीं कर सकता। संविधान द्वारा यह व्यवस्था न्यायाधीशों को अपने कार्यकाल में निष्पक्ष व स्वतन्त्र होकर अपने दायित्वों का निर्वहन करने के उद्देश्य को दृष्टि में रखकर की गयी है।

[संकेत – उच्चतम न्यायालय के कार्य व क्षेत्राधिकार तथा न्यायालय की स्वतन्त्रता का संरक्षण हेतु दीर्घ प्रश्न 4 का अध्ययन करें।]

प्रश्न 4.
उच्चतम न्यायालय को अभिलेख न्यायालय क्यों कहते हैं? उसके क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए।
या
नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय किस प्रकार के लेख (रिट) जारी कर सकते हैं? किन्हीं दो का उदाहरण देते हुए समझाइए।
या
सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए और यह भी बताइए कि न्यायपालिका की स्वतन्त्रता हेतु संविधान में क्या प्रावधान किए गए हैं?
या
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों और अधिकारों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
या
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए।
या
भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के कार्य एवं शक्तियों का उल्लेख कीजिए।
या
न्यायपालिका को स्वतन्त्र रखने के लिए संविधान में क्या व्यवस्थाएँ की गयी हैं? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
सर्वोच्च न्यायालय के प्रारम्भिक तथा अपीलीय क्षेत्राधिकार का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता का संरक्षण किस प्रकार किया गया है?
उत्तर :

सर्वोच्च न्यायालय के कार्य और अधिकार

सर्वोच्च न्यायालय भारत का सर्वोपरि न्यायालय है। अतएव उसे अत्यधिक विस्तृत अधिकार प्रदान किये गये हैं। इन अधिकारों को निम्नलिखित सन्दर्भो में समझा जा सकता है –

(1) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार

श्री दुर्गादास बसु ने कहा कि “यद्यपि हमारा संविधान एक सन्धि या समझौते के रूप में नहीं है, फिर भी संघ तथा राज्यों के बीच व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका सम्बन्धी अधिकारों का विभाजन किया गया है। अतः अनुच्छेद 131 संघ तथा राज्य या राज्यों के बीच न्याय-योग्य विवादों के निर्णय का प्रारम्भिक तथा एकमेव क्षेत्राधिकार सर्वोच्च न्यायालय को सौंपता है।”

इस क्षेत्राधिकार को पुनः दो वर्गों में रखा जा सकता है –

(क) प्रारम्भिक एकमेव क्षेत्राधिकार – प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत वे अधिकार आते हैं जो उच्चतम न्यायालय के अतिरिक्त किसी अन्य न्यायालय को प्राप्त नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय कुछ उन विवादों पर विचार करता है जिन पर अन्य न्यायालय विचार नहीं कर सकते हैं। ये विवाद निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

  1. भारत सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्यों के बीच विवाद।
  2. वे विवाद जिनमें भारत सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्य एक ओर हों और एक या एक से अधिक राज्य दूसरी ओर हों।
  3. दो या दो से अधिक राज्यों के बीच विवाद।

इस सम्बन्ध में यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि 26 जनवरी, 1950 के पूर्व जो सन्धियाँ अथवा संविदाएँ भारत संघ और देशी राज्यों के बीच की गयी थीं और यदि वे इस समय भी लागू हों तो उन पर उत्पन्न विवाद सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाहर है।

(ख) प्रारम्भिक समवर्ती क्षेत्राधिकार – भारतीय संविधान में लिखित मूल अधिकारों को लागू करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के साथ ही उच्च न्यायालयों को भी प्रदान कर दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद 32 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को यह जिम्मेदारी दी गयी है कि वह मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए उचित कार्यवाही करे।

(2) अपीलीय क्षेत्राधिकार

भारत में एकीकृत न्यायिक-प्रणाली अपनाने के कारण राज्यों के उच्च न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के अधीन हैं और इस रूप में उसका इन उच्च न्यायालयों पर अधीक्षण और नियंत्रण स्थापित किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय में सभी उच्च न्यायालयों और न्यायाधिकरणों द्वारा, केवल सैनिक न्यायालय को छोड़कर, संवैधानिक, दीवानी और फौजदारी मामलों में दिये गये निर्णयों के विरुद्ध अपील की जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार को निम्नलिखित वर्गों में रखा जा सकता है –

(क) संवैधानिक अपीलें – संवैधानिक मामलों से सम्बन्धित उच्च न्यायालय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील तब की जा सकती है जब कि उच्च न्यायालये यह प्रमाणित कर दे कि इस विवाद में “संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित विधि का कोई सारवान प्रश्न सन्निहित है। लेकिन यदि उच्च न्यायालय ऐसा प्रमाण-पत्र देने से इंकार कर देता है तो स्वयं सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 136 के अन्तर्गत अपील की विशेष आज्ञा दे सकती है, यदि उसे यह विश्वास हो जाए कि उसमें कानून का कोई सारवान प्रश्न सन्निहित है। निर्वाचन आयोग बनाम श्री वेंकटरावे (1953) के मुकदमे में यह प्रश्न उठाया गया था कि क्या किसी संवैधानिक विषय में अनुच्छेद 132 के अधीन किसी अकेले न्यायाधीश के निर्णय की अपील भी सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है अथवा नहीं। सर्वोच्च न्यायालय ने इसका उत्तर ‘हाँ’ में दिया है।

(ख) दीवानी की अपीलें – संविधान द्वारा दीवानी मामलों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपील सुने जाने की व्यवस्था की गयी है। किसी भी राशि का मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय के पास आ सकता है, जब उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय के सुनने योग्य है या उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि मुकदमे में कोई कानूनी प्रश्न विवादग्रस्त है। यदि उच्च न्यायालय किसी दीवानी मामले में इस प्रकार का प्रमाण-पत्र न दे तो सर्वोच्च न्यायालय स्वयं भी किसी व्यक्ति को अपील करने की विशेष आज्ञा दे सकता है।

(ग) फौजदारी की अपीलें – फौजदारी के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील सुन सकता है। ये अपीलें इन दशाओं में की जा सकती हैं –

  1. जब किसी उच्च न्यायालय ने अधीन न्यायालय के दण्ड-मुक्ति के निर्णय को रद्द करके अभियुक्त को मृत्यु-दण्ड दे दिया हो।
  2. जब कोई उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि विवाद उच्चतम न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत किये जाने योग्य है।
  3. जब किसी उच्च न्यायालय के किसी मामले को अधीनस्थ न्यायालय से मँगाकर अभियुक्त को मृत्यु-दण्ड दिया हो।
  4. यदि सर्वोच्च न्यायालय किसी मुकदमे में यह अनुभव करता है कि किसी व्यक्ति के साथ वास्तव में अन्याय हुआ है, तो वह सैनिक न्यायालयों के अतिरिक्त किसी भी न्यायाधिकरण के विरुद्ध अपील करने की विशेष आज्ञा प्रदान कर सकता है।

(घ) विशिष्ट अपील – अनुच्छेद 136 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को यह भी अधिकार प्रदान किया गया है कि वह अपने विवेक से प्रभावित पक्ष को अपील का अधिकार प्रदान करे। किसी सैनिक न्यायाधिकरण के निर्णय को छोड़कर सर्वोच्च न्यायालय भारत के किसी भी उच्च न्यायालये या न्यायाधिकरण के निर्णय दण्ड या आदेश के विरुद्ध अपील की विशेष आज्ञा प्रदान कर सकता है, चाहे भले ही उच्च न्यायालय ने अपील की आज्ञा से इंकार ही क्यों न किया हो।

अपीलीय क्षेत्राधिकार के दृष्टिकोण से भारत का सर्वोच्च न्यायालय विश्व में सबसे अधिक शक्तिशाली है। सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार को लक्ष्य करते हुए ही 1950 ई० को सर्वोच्च न्यायालय के उद्घाटन के अवसर पर भाषण देते हुए श्री एम० सी० सीतलवाड़ ने कहा था कि “यह कहना सत्य होगा कि स्वरूप व विस्तार की दृष्टि से इस न्यायालय का क्षेत्राधिकार और शक्तियाँ राष्ट्रमण्डल के किसी भी देश के सर्वोच्च न्यायालय तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के कार्यक्षेत्र तथा शक्तियों से व्यापक हैं।”

(3) संविधान का रक्षक व मूल अधिकारों का प्रहरी

संविथान की व्याख्या तथा रक्षा करना भी सर्वोच्च न्यायालय का एक मुख्य कार्य है। जब कभी संविधान की व्याख्या के बारे में कोई मतभेद उत्पन्न हो जाए तो सर्वोच्च न्यायालय इस विषय में स्पष्टीकरण देकर उचित व्याख्या करता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गयी व्याख्या को अन्तिम तथा सर्वोच्च माना जाता है। केवल संविधान की व्याख्या करना ही नहीं, बल्कि इसकी रक्षा करना भी सर्वोच्च न्यायालय का कार्य है। सर्वोच्च न्यायालय को व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के कार्यों का पुनरवलोकन करने का भी अधिकार है। यदि सर्वोच्च न्यायालय को यह विश्वास हो जाए कि संसद द्वारा बनाया गया कोई कानून या कार्यपालिका का कोई आदेश संविधान का उल्लंघन करता है तो वह उस कानून व आदेश को असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकता है। इस प्रकार न्यायालय संविधान की सर्वोच्चता कायम रखता है।

संविधान की धारा 32 के अनुसार न्यायालय का यह भी उत्तरदायित्व है कि वह मूल अधिकारों की रक्षा करे। इन अधिकारों की रक्षा के लिए यह न्यायालय बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण लेख जारी करता है।

(4) परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार

सर्वोच्च न्यायालय के पास परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार भी है। अनुच्छेद 143 के अनुसार, यदि कभी राष्ट्रपति को यह प्रतीत हो कि विधि या तथ्यों के बारे में कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया गया है या उठने वाला है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय की राय लेना जरूरी है तो वह उस प्रश्न को परामर्श के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पास भेज सकता है, किन्तु अनुच्छेद 143 ‘बाध्यकारी प्रकृति का नहीं है। यह न तो राष्ट्रपति को बाध्य करता है कि वह सार्वजनिक महत्त्व के विषय पर न्यायालय की राय माँगे और न ही सर्वोच्च न्यायालय को बाध्य करता है कि वह भेजे गये प्रश्न पर अपनी राय दे। वैसे भी यह राय न्यायिक उद्घोषणा’ या ‘न्यायिक निर्णय नहीं है। इसीलिए इसे मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य नहीं है।

अब तक राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से अनेक बार परामर्श माँगा है। केरल शिक्षा विधेयक, 1947 में, ‘राष्ट्रपति के चुनाव पर एवं 1978 ई० में ‘विशेष अदालत विधेयक पर माँगी गयी सम्पतियाँ अधिक महत्त्वपूर्ण रही हैं।

सर्वोच्च न्यायालय का परामर्श सम्बन्धी क्षेत्राधिकार मुकदमेबाजी को रोकने या उसे कम करने में सहायक होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के सर्वोच्च न्यायालयों द्वारा सलाहकार की भूमिका अदा करना पसन्द नहीं किया गया है। इस सम्बन्ध में भारत की व्यवस्था कनाडा और बर्मा के अनुरूप है।

(5) अन्य क्षेत्राधिकार

(क) अधीनस्थ न्यायालयों की जाँच – सर्वोच्च न्यायालय को अपने अधीनस्थ न्यायालयों के कार्यों की जाँच करने का अधिकार प्राप्त है।

(ख) न्यायालयों की कार्यवाही संचालन हेतु नियम बनाना – सर्वोच्च न्यायालय को अपने अधीनस्थ न्यायालयों की कार्यवाही सुचारु रूप से चलाने हेतु नियम बनाने का अधिकार है, परन्तु उन नियमों पर राष्ट्रपति की स्वीकृति अनिवार्य होती है।

(ग) पुनर्विचार का अधिकार – सर्वोच्च न्यायालय यदि ऐसा अनुभव करे कि वह अपने निर्णय में कोई भूल कर बैठा है या उसके निर्णय में कोई कमी रह गयी है, तो उस विवाद पर पुनर्विचार करने की प्रार्थना की जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पहले निर्णय को बदलकर अनेक बार नये निर्णय दिये हैं।

(6) अभिलेख न्यायालय

अनुच्छेद 129 सर्वोच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्थान प्रदान करता है। इसके दो अर्थ हैं –

  1. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय और अदालती कार्यवाही को अभिलेख के रूप में रखा जाएगा जो अधीनस्थ न्यायालयों में दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत किये जाएँगे और उनकी प्रामाणिकता के बारे में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जाएगा।
  2. इस न्यायालय द्वारा न्यायालय की अवमानना’ के लिए दण्ड दिया जा सकता है। वैसे तो यह बात प्रथम स्थिति में स्वतः ही मान्य हो जाती है, लेकिन संविधान में इस न्यायालय की अवमानना करने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था विशिष्ट रूप से की गयी है।

सर्वोच्च न्यायालय के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि सर्वोच्च न्यायालय का सर्वप्रमुख कार्य संविधान की रक्षा करना ही है। इस सम्बन्ध में श्री डी० के० सेन ने लिखा है, “न्यायालय भारत के सभी न्यायालयों के न्यायिक निरीक्षण की शक्तियाँ रखता है और वही संविधान का वास्तविक व्याख्याता और संरक्षक है। उसका यह कर्तव्य होता है कि वह यह देखे कि उसके प्रावधानों को उचित रूप में माना जा रहा है और जहाँ कहीं आवश्यक होता है वहाँ वह उसके प्रावधानों को स्पष्ट करता है।”

संक्षेप में, मौलिक अधिकारों को छोड़कर भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ ‘विश्व के किसी भी सर्वोच्च न्यायालय से अधिक हैं। इस पर भी भारत का सर्वोच्च न्यायालय अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय से अधिक शक्तिशाली नहीं है, क्योंकि इसकी शक्तियाँ ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के कारण मर्यादित हैं, इसीलिए यह संसद के तीसरे सदन की भूमिका नहीं अपना सकता है।।

सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता

भारतीय संविधान में सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए अनेक प्रावधान किये गये हैं, जो निम्नवत् हैं –

  1. न्यायपालिका को कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका से पृथक् कर दिया गया है।
  2. न्यायाधीशों के वेतन तथा भत्ते भारत सरकार की संचित निधि से दिये जाते हैं। न्यायाधीशों के लिए पर्याप्त वेतन की व्यवस्था की गयी है। न्यायाधीशों के वेतन व भत्तों में किसी भी प्रकार की कटौती नहीं की जा सकती है।
  3. न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष की आयु तक कार्य कर सकते हैं। यद्यपि महाभियोग लगाकर न्यायाधीशों को अपने पद से हटाने का प्रावधान भारतीय संविधान में किया गया है, परन्तु वह बहुत जटिल है; इसलिए न्यायाधीशों को उनके पद से हटाना भी सरल नहीं है।
  4. न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। संसद का इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं है। इस कारण न्यायाधीश पूर्ण स्वतन्त्र रहते हैं।
  5. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के निर्णयों व कार्यों की आलोचना नहीं की जा सकती है। इस कारण भी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करते हैं।
  6. सर्वोच्च न्यायालय को अपने कर्मचारी वर्ग पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त है।
  7. सर्वोच्च न्यायालय को अपनी कार्यप्रणाली के संचालन हेतु नियम बनाने का अधिकार है।

प्रश्न 5.
जनहित याचिकाएँ (जनहित अभियोग) के अर्थ एवं महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
या
जनहित याचिका से आप क्या समझते हैं? भारतीय न्याय-व्यवस्था में इनकी भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर :

जनहित याचिकाएँ (जनहित अभियोग) का अर्थ

न्याय के प्रसंग में परम्परागत धारणा यह रही है कि न्यायालय से न्याय पाने को हक उसी व्यक्ति को है जिसके मूल अधिकारों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, जिसे स्वयं या जिसके पारिवारिक जन को कोई पीड़ा पहुँची है, किन्तु आज की परिस्थितियों में न्यायिक सक्रियतावाद के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय ने आंग्ल विधि के उपर्युक्त नियम को परिवर्तित करते हुए यह व्यवस्था की है कि कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे समूह या वर्ग की ओर से मुकदमा लड़ सकता है, जिसको उसके कानून या संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया हो। सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि गरीब, अपंग अथवा सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से दलित लोगों के मामले में आम जनता का कोई आदमी न्यायालय के समक्ष ‘वाद’ (मुकदमा) ला सकता है। न्यायालय अपने सारे तकनीकी और कार्यविधि सम्बन्धी नियमों की परवाह किये बिना ‘वाद’ लिखित रूप में देने मात्र से ही कार्यवाही करेगा। न्यायाधीश कृष्णा अय्यर के अनुसार, ‘वाद कारण’ और ‘पीड़ित व्यक्ति की संकुचित धारणा का स्थान अब ‘वर्ग कार्यवाही और लोकहित में कार्यवाही की व्यापक धारणा ने ले लिया है। ऐसे मामले व्यक्तिगत मामलों से भिन्न होते हैं। वैयक्तिक मामलों में ‘वादी’ और ‘प्रतिवादी होते हैं, जब कि जनहित संरक्षण से सम्बन्धित मामले किसी एक व्यक्ति के बजाय ऐसे समूह के हितों की रक्षा पर बल देते हैं जो कि शोषण और अत्याचार का शिकार होता है और जिसे संवैधानिक और मानवीय अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है।

इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने गरीब और असहाय लोगों की ओर से जनहित में कार्य करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को मुकदमा लड़ने का अधिकार दे दिया है। इस प्रकार के मुकदमे के लिए जो . प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया जाता है, वह जनहित याचिका’ है तथा इस प्रकार का मुकदमा जनहित अभियोग है।

जनहित याचिकाओं का महत्त्व

जनहित याचिकाओं का महत्त्व निम्नलिखित रूप में बताया जा सकता है –

1. समाज के निर्धन व्यक्तियों और कमजोर वर्गों को न्याय प्राप्त होना – भारत में करोड़ों ऐसे व्यक्ति हैं जो राजव्यवस्था और समाज के धनी-मानी व्यक्तियों के अत्याचार भुगत रहे हैं, जिनका शोषण हो रहा है, लेकिन उनके पास न्यायालय में जाने के लिए आवश्यक जानकारी, समझ और साधन नहीं हैं। जनहित याचिकाओं के माध्यम से अब समाज के शिक्षित और साधन सम्पन्न व्यक्ति इन कमजोर वर्गों की ओर से न्यायालय में जाकर इनके लिए न्याय प्राप्त कर सकते हैं। जनहित याचिकाओं की विशेष बात यह है कि ‘वाद’ प्रस्तुत करने के लिए कानूनी औपचारिकताओं को पूरा करना आवश्यक नहीं होता और इन मुकदमों में न्यायालय पीड़ित पक्ष के लिए आवश्यकतानुसार नि:शुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था भी करता है।

2. कानूनी न्याय के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक न्याय पर बल – जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के अन्तर्गत संविधान की भावना को दृष्टि में रखते हुए इस विचार को अपनाया गया कि देश के दीन और दलित जनों के प्रति न्यायालयों का विशेष दायित्व है। अतः इन न्यायालयों को कानूनी न्याय से आगे बढ़कर आर्थिक-सामाजिक न्याय प्रदान करने का प्रयत्न करना चाहिए। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश के हरिजनों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं उनकी आर्थिक-सामाजिक दशाओं को जाँचने के लिए एक आयोग गठित किया आयोग की जाँच रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हरिजनों का धन्धा ठेके पर दिये जाने से उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में इस बात का प्रतिपादन किया कि यदि निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी दी जाती है तो इसे संविधान के अनुच्छेद 23 का उल्लंघन और बेगार मानेंगे। इस प्रकार बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत सरकार’ विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘बँधुआ मुक्ति मोर्चा संस्था के पत्र को रिट मानकर आयोग नियुक् कर जाँच करवाई और जाँच में जब पाया कि ‘मजदूर अमानवीय दशा में कार्यरत हैं तब न्यायालय ने इन मजदूरों की मुक्ति के आदेश दिये।

3. शासन की स्वेच्छाचारिता पर नियंत्रण – जनहित याचिकाओं का एक रूप और प्रयोजन शासन की स्वेच्छाचारिता पर नियंत्रण है। संविधान और कानून के अन्तर्गत उच्च कार्यपालिका अधिकारियों को कुछ ‘स्वविवेकीय शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। इस पृष्ठभूमि में जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात का प्रतिपादन किया कि विवेकात्मक शक्तियों के अन्तर्गत सरकार की कार्यवाही विवेक सम्मत होनी चाहिए तथा इस कार्यवाही को सम्पन्न करने के लिए जो कार्यविधि अपनायी जाए, वह कार्यविधि भी विवेक सम्मत, उत्तम और न्यायपूर्ण होनी चाहिए।

4. शासन को आवश्यक निर्देश देना – 1993-2003 के वर्षों में तो सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के आधार पर समस्त राजनीतिक व्यवस्था में पहले से बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका प्राप्त कर ली। इन न्यायालयों ने जब यह देखा कि जाँच एजेन्सियाँ उच्च पदस्थ अधिकारियों के विरुद्ध जाँच कार्य में ढिलाई बरत रही हैं तब न्यायालयों ने विभिन्न जाँच एजेन्सियों को अपना कार्य ठीक ढंग से करने के लिए निर्देश दिये और इस बात का प्रतिपादन किया कि व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा हो, कानून उससे ऊपर है’ तथा सरकारी एजेन्सी को अपना कार्य निष्पक्षता के साथ करना चाहिए। पिछले 20 वर्षों में जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के आधार पर न्यायालयों ने बन्धुआ मजदूरी और बाल श्रम की स्थितियाँ समाप्त करने, कानून और व्यवस्था बनाये रखते हुए निर्दोष नागरिकों के जीवन की रक्षा करने, प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी संविधान के प्रावधान को अनिवार्य रूप से लागू करने, बस दुर्घटनाओं को रोकने की दृष्टि से व्यवस्था करने, सफाई की व्यवस्था कर महामारियों की रोकथाम करने, सरसों के तेल और अन्य खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकने के लिए आवश्यक व्यवस्था करने और पर्यावरण की रक्षा आदि के प्रसंग में समय-समय पर अनेक आदेश-निर्देश जारी किये हैं।

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