UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 1 Meaning, Definition, Importance, Need and Utility of Education

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 1
Chapter Name Meaning, Definition, Importance,
Need and Utility of Education
(शिक्षा का अर्थ, परिभाषा, महत्त्व,
आवश्यकता एवं उपयोगिता)
Number of Questions Solved 58
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 1 Meaning, Definition, Importance, Need and Utility of Education (शिक्षा का अर्थ, परिभाषा, महत्त्व, आवश्यकता एवं उपयोगिता)

विरत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
शिक्षा की परिभाषा निर्धारित कीजिए तथा शिक्षा की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उतर:
शिक्षा एक व्यापक प्रक्रिया है, जिसका घनिष्ठ सम्बन्ध सम्पूर्ण मानव-जीवन से है। शिक्षा के वास्तविक अर्थ को स्पष्ट करने के लिए अनेक विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से शिक्षा की परिभाषाएँ प्रतिपादित की हैं।

शिक्षा की परिभाषाएँ
(Definitions of Education)

पाश्चात्य एवं भारतीय शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा को भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया है, जिनमें कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाओं का विवेचन निम्नलिखित हैसुकरात के अनुसार, “शिक्षा का अर्थ संसार के उन सर्वमान्य विचारों को प्रकाश में लाना है जो व्यक्तियों के मस्तिष्क में स्वभावतः निहित होते हैं।”

  • प्लेटो के अनुसार, “शिक्षा एक शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास की प्रक्रिया है।”
  • अरस्तू के अनुसार, “स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का विकास ही शिक्षा है।”
  • फ्रॉबेल के अनुसार, “शिक्षा छह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बालक की जन्मजात शक्तियाँ बाहर प्रकट होती हैं।”
  • काण्ट के अनुसार, “शिक्षा व्यक्ति की उस सब पूर्णता का विकास है, जिसकी उसमें क्षमता है।”
  • पेस्टालॉजी के अनुसार, “शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक, सामंजस्यपूर्ण तथा प्रगतिशील विकास है।”
  • टी० पी० नन के अनुसार, “शिक्षा बालक के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास है, जिसके द्वारा यह यथाशक्ति मानव-जीवन को मौलिक योगदान कर सके।”
  • जेम्स के अनुसार, “शिक्षा कार्य-सम्बन्धी अर्जित आदतों का संगठन है, जो व्यक्ति को उसके भौतिक और सामाजिक वातावरण में उचित स्थान देती है।”
  • टी० रेमण्ट के अनुसार, “शिक्षा विकास का वह क्रम है, जिसके द्वारा मनुष्य स्वयं को शैशवावस्था से परिपक्वावस्था तक आवश्यकतानुसार भौतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के अनुकूल बना लेता है।”

बटलर के अनुसार, “शिक्षा प्रजाति की आध्यात्मिक निष्पत्ति के साथ व्यक्ति का क्रमिक अनुकूलन है।”
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, “शिक्षा मानव के अन्तर में निहित दैवीय भाव की अभिव्यक्ति है।”
रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार, “उच्चतम शिक्षा वह है जो हमें केवल सूचना ही नहीं देती, वरन् हमारे जीवन को प्रत्येक अस्तित्व के अनुकूल बनाती है।”
महात्मा गांधी के अनुसार, “शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक एवं मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क एवं आत्मा के सर्वोत्तम अंश का प्रकटीकरण है।”
एस० राधाकृष्णन के अनुसार, “शिक्षा को मनुष्य और समाज का निर्माण करना चाहिए।”

परिभाषाओं की समीक्षा उपर्युक्त परिभाषाओं में विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा को अपने-अपने दृष्टिकोण से परिभाषित करने का प्रयास किया है। कुछ परिभाषाएँ शिक्षा को जन्मजात शक्तियों को व्यक्त करने की प्रक्रिया बताती हैं, कुछ के अनुसार यह बालक के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करती है। कुछ विचारकों ने शिक्षा को समूह में परिवर्तन उत्पन्न करने के अर्थ में, तो कुछ ने वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने की दृष्टि से परिभाषित किया है। प्रत्येक परिभाषा शिक्षा के एक विशेष पक्ष पर बल देती है, जिसके फलस्वरूप इन परिभाषाओं में अत्यधिक विविधता दृष्टिगोचर होती है। वस्तुतः शिक्षा के विस्तृत अर्थ, दृष्टिकोण एवं कार्यों की तुलना में ये सभी परिभाषाएँ अधूरी दिखलायी पड़ती हैं। शिक्षा की सर्वमान्य परिभाषा मानव-जीवन के समस्त पक्षों को समाहित करती है। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री डॉ० अदावल ने शिक्षा की एक आदर्श परिभाषा इस प्रकार दी है, “शिक्षा वह सविचार प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति के विचार तथा व्यवहार में परिवर्तन होता है उसके अपने तथा समाज के कल्याण के लिए। इसमें व्यक्ति, समाज तथा वातावरण सभी के आदर्श सम्मिलित हैं।”

शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ
(Main Features of Education)

आधुनिक विद्वानों ने शिक्षा की प्रक्रिया का विश्लेषण करके शिक्षा के वैज्ञानिक अर्थ को स्पष्ट किया है। इस अर्थ के अनुसार शिक्षा, वैज्ञानिक पद्धति का अंनुसरण करके व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में सहायक होती है। वैज्ञानिक अर्थ की स्पष्टता शिक्षा-प्रक्रिया की निम्नलिखित विशेषताओं से होती है

  1. आजीवन चलने वाली प्रक्रिया-शिक्षा जीवन-पर्यन्त चलने। शिक्षा की प्रमुख विशेषता प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत व्यक्ति नये अनुभवी आजीवन चलने वाली प्रक्रिया से अपने ज्ञान में अभिवृद्धि करता है।
  2. अन्तर्निहित शक्तियों का विकास-शिक्षा के माध्यम से दिमखी प्रक्रिया बालक की अन्तर्निहित शक्तियों का विकास होता है।
  3. द्विमुखी प्रक्रिया-कुछ विद्वानों के अनुसार शिक्षा एक सामाजिक विकास द्विमुखी प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत दो महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व शिक्षा परिवर्तनशीलता प्रदान करने वाला (शिक्षक) और शिक्षा प्राप्त करने वाली (विद्यार्थी), त्रिपक्षीय प्रक्रिया सम्मिलित हैं। ये दोनों व्यक्तित्व एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं।
  4. गतिशीलता- शिक्षा कोई जड़ वस्तु नहीं, अपितु जीवन की गतिशील प्रक्रिया है। इसके द्वारा शिक्षार्थी प्रतिक्षण प्रगति करता हुआ अपने व्यक्तित्व का विकास करता है।
  5. सामाजिक विकास- शिक्षा द्वारा मनुष्य का सामाजिक विकास होता है। वह समाज के प्राणियों के बीच रहकर नये अनुभवों द्वारा सीखता है। वस्तुतः सामाजिक प्रगति उचित शिक्षा पर ही निर्भर है।
  6. परिवर्तनशीलता-व्यक्ति के व्यवहार में वांछित परिवर्तन शिक्षा के माध्यम से ही लाये जा सकते हैं। अतः शिक्षा में परिवर्तनशीलता का गुण निहित है।
  7. त्रि-पक्षीय प्रक्रिया-जॉन डीवी (John Dewy) ने शिक्षा को त्रि-पक्षीय प्रक्रिया माना है। शिक्षा में शिक्षक और विद्यार्थी के अलावा एक तीसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष भी है और वह है ‘पाठ्यक्रम।

प्रश्न 2.
मानव-जीवन में शिक्षा की आवश्यकता को विस्तारपूर्वक स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा की आवश्यकता
(Need of Education)

मानव-जीवन में शिक्षा की आवश्यकता का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है।

1. अधिगम या सीखने के लिए प्रकृति ने पशु- पक्षियों के बच्चों को ऐसी शक्ति प्रदान की है कि वे बिना सिखाये अपनी-अपनी क्रियाएँ कर सकते हैं, किन्तु इसके शिक्षा की आवश्यकता। विपरीत मानव-शिशु जन्म से ही असहाय होता है और बिना सिखाये , अधिगम या सीखने के लिए कोई भी कार्य नहीं कर पाता। शिक्षा की प्रक्रिया के अन्तर्गत वह सामंजस्य के लिए अधिगम (सीखना) करता है तथा चलने-फिरने, बोलने और ज्ञानवर्धन के लिए। लिखने-पढ़ने जैसी क्रियाएँ करने लगता है। अतः अधिगम के लिए। शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है।

2. सामंजस्य के लिए- सभी जीवधारी अपने वातावरण के ॐ श्रेष्ठ नागरिकता के विकास के साथ सामंजस्य स्थापित करते हैं। मनुष्य भी जन्म से लगातार लिए। वातावरण के साथ सामंजस्य बनाने की चेष्टा करता है। वस्तुतः सामंजस्य तथा अनुकूलन में ही उसके जीवन का अस्तित्व निहित है। लिए जो मनुष्य जितना अधिक अपने वातावरण के साथ सामंजस्य बना नै सन्तुलित एवं सर्वांगीण विकास लेता है, वह जीवन में उतना ही अधिक सफल होता है। वातावरण के के लिए साथ सामंजस्य स्थापित करने के इस कार्य में शिक्षा अत्यधिक जीवन की प्रगति के लिए। सहायक है। अत: हम कह सकते हैं कि सामंजस्य स्थापित करने के लिए शिक्षा आवश्यक है।

3. ज्ञानवर्धन के लिए- ज्ञानविहीन मनुष्य का जीवन पशु के समान है। ज्ञान पाकर वह पशुता से ऊपर उठकर मनुष्यत्व और फिर देवत्व की ओर बढ़ता है। शिक्षा की उचित पद्धति के माध्यम से मनुष्य को वांछित ज्ञान प्राप्त होता है, जिसके प्रभाव से उसे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में व्यावहारिक कार्यों के लिए दिशा मिलती है। उपयोगी एवं सुन्दर जीवन के लिए ज्ञान चाहिए और ज्ञान के लिए शिक्षा आवश्यक है।

4. कार्यक्षमता के विकास के लिए- मनुष्य को अपने जीवन काल में अनेक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, जिसके लिए समुचित कार्यक्षमता की आवश्यकता होती है। शिक्षा के माध्यम से मनुष्य में अपनी आवश्यकता तथा परिस्थितियों के अनुकूल कार्य करने की क्षमता उत्पन्न होती है। प्रतिकूल दशाओं के विरुद्ध सुनियोजित संघर्ष करने तथा उन पर विजय प्राप्त करने हेतु पर्याप्त कार्यक्षमता अर्जित करने की दृष्टि से उचित शिक्षा आवश्यक है।

5. जीविकोपार्जन के लिए- अपने व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में विभिन्न आवश्यकताओं की । पूर्ति के लिए मनुष्यों को धन की जरूरत पड़ती है, जिसके लिए वे उपयुक्त आजीविका की तलाश करते हैं। शिक्षा मनुष्य को किसी निश्चित क्षेत्र में सेवा, व्यवसाय, उद्यम अथवा कारोबार के लिए तैयार करती है तथा उसकी रुचि के अनुसार उपयुक्त आजीविका खोजने हेतु निर्देशन प्रदान करती है। प्रतिस्पर्धा तथा प्रतियोगिता के इस युग में शिक्षा ही आजीविका तथा धनोपार्जन का सर्वोत्तम माध्यम है। अतः स्पष्ट है कि जीविकोपार्जन के लिए भी शिक्षा आवश्यक है।

6. श्रेष्ठ नागरिकता के विकास के लिए- भारत एक प्रजातान्त्रिक देश है और प्रजातन्त्र की सफलता के लिए देशवासियों में श्रेष्ठ नागरिकता के गुण विद्यमान होने चाहिए। श्रेष्ठ नागरिक में राष्ट्र की सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं के निरपेक्ष तथा न्यायपूर्ण समाधान की क्षमता होती है, जिसके लिए स्पष्ट विचार, अनुशासन, सहयोग, भ्रातृत्व-भाव, देश-प्रेम, सामाजिक चेतना तथा नैतिक शुद्धता जैसे गुणों की आवश्यकता … होती है। बालकों में श्रेष्ठ नागरिकता के विभिन्न गुणों का विकास केवल शिक्षा द्वारा ही हो सकता है।

7. व्यक्तिगत तथा सामाजिक हित के लिए- मनुष्य जिन मूल-प्रवृत्तियों के साथ जन्म लेता है, वे उसके व्यवहार को प्रेरित तो करती हैं, किन्तु उन्हें सभ्यता तथा व्यक्तिगत व सामाजिक हित की दृष्टि से उत्तम नहीं कहा जा सकता। शिक्षा इन मूल-प्रवृत्तियों को सुन्दर व स्थायी भावों में बदलकर उन्हें व्यक्ति तथा समाज के लिए उपयोगी बनाती है, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य सुखी, सभ्य, कल्याणकारी एवं सामाजिक जीवन व्यतीत कर पाता है। इस प्रकार मनुष्य का व्यक्तिगत तथा सामाजिक हित शिक्षा में ही निहित है।

8. सन्तुलित एवं सर्वांगीण विकास के लिए- मानव-जीवन के तीन प्रमुख पक्ष हैं—शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक। मनुष्य के व्यक्तित्व को सन्तुलित रूप से विकसित करने के लिए इन तीनों ही पक्षों पर समान रूप में ध्यान देने की जरूरत होती है। शिक्षा ही एक ऐसी सविचार, गतिशील तथा जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से मानव व्यक्तित्व का स्वाभाविक, सन्तुलित तथा सर्वांगीण विकास हो सकता है।

9. जीवन की प्रगति के लिए- वर्तमान जीवन अत्यन्त जटिल एवं गतिशील है। आधुनिक विश्व के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रगतिशील जीवन एक अनिवार्य शर्त है और ऐसे जीवन के लिए समाज की संरचना, कार्य-पद्धति तथा समूचे वातावरण का ज्ञान आवश्यक है। शिक्षा के अभाव में हम यह ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। इसी कारणवश जॉन डीवी ने कहा है, “शिक्षा जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि बिना शिक्षा के जीवन की प्रगति नहीं हो सकती।

10. शिक्षा ही जीवन है- शिक्षा का क्षेत्र कुछ ही लोगों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य को शिक्षा की आवश्यकता होती है अतः शिक्षा सर्वसाधारण के लिए आवश्यक है। जीवन की प्रत्येक अवस्था में शिक्षा को आवश्यक कहा गया है। यही कारण है कि कुछ विचारकों ने जीवन और शिक्षा में कोई भेद नहीं माना है। उनका कहना है, “शिक्षा जीवन है और जीवन शिक्षा है।” वास्तव में शिक्षा, जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

प्रश्न 3.
मानव-जीवन में शिक्षा की उपयोगिता का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा की उपयोगिता
(Utility of Education)

आधुनिक मानव के सभ्य तथा सुसंस्कृत जीवन का रहस्य शिक्षा में निहित है। शिक्षा के माध्यम से आदिमानव के आचार-विचार, रहन-सहन तथा दृष्टिकोण में उत्तरोत्तर परिवर्तन आया और उसे पृथ्वी का श्रेष्ठ एवं विवेकशील प्राणी समझा गया। जहाँ एक ओर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मानव की उपलब्धियाँ शिक्षा की उपयोगिता को सिद्ध करती हैं, वहीं दूसरी और शिक्षा की उपयोगिता के विषय में सभी विद्वान् एकमत हैं। संक्षेप में, शिक्षा की निम्नलिखित उपयोगिताएँ हैं।

1. अन्तःशक्तियों का विकास- शिक्षा बालक की अन्त:शक्तियों को विकसित करने की उत्तम प्रक्रिया है। शिक्षा के अभाव में उसकी ये शक्तियाँ अविकसित रह जाती हैं। शिक्षा बालक के व्यवहार का परिमार्जन की जन्मजात व स्वाभाविक क्षमताओं एवं योग्यताओं का सम्यक् तथा ) मानवीय गुणों का अभिप्रकाशन समान रूप से इस भाँति विकास करती है कि वह उनका अपने परिवार, जाति, समाज और राष्ट्र के हित में ठीक प्रकार से उपयोग कर सके।

2. व्यवहार का परिमार्जन- शिक्षा बालक के व्यवहार को समाज की परिस्थितियों के अनुकूल बनाती है। इसके लिए बालक के व्यवहार में परिवर्तन तथा परिमार्जन की आवश्यकता महसूस की जाती है। बालक को सामाजिक व्यवहार के सभी अंगों का ज्ञान भी होना चाहिए। सामाजिक व्यवहार के योग्य बनाने की दृष्टि से उसकी रुचियों, आदतों व आदर्शों आदि में वांछित संशोधन का कार्य भी शिक्षा ही करती है। स्पष्टतः व्यवहार-परिमार्जन हेतु शिक्षा अत्यन्त उपयोगी है।

3. मानवीय गुणों का अभिप्रकाशन-मानवीय गुणों से युक्त व्यक्ति ही सही अर्थों में मानव कहलाने का अधिकारी है। शिक्षा के माध्यम से मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा तथा स्वार्थपरता जैसी समाज विरोधी भावनाओं को नियन्त्रित करता है और प्रेम, धैर्य, उदारता, भ्रातृत्व-भाव, सेवा, आत्मविश्वास तथा सामाजिक कल्याण जैसे सद्गुणों का विकास करता है। शिक्षा मानवीय गुणों के अभिप्रकाशन का सर्वोत्तम साधन है।।

4. नैतिक चरित्र का निर्माण-आज समूची दुनिया में नैतिक मूल्यों का ह्रास दिखाई पड़ता है और नैतिकता का प्रायः अभाव हो गया है। चारों तरफ छल-छद्म, फरेब, धोखा, हिंसा, उत्पीड़न तथा शोषण का बोलबाला है। मनुष्य के नैतिक पतन में मानव जाति का कल्याण नहीं हो सकता। शिक्षा, मनुष्य और समाज की समस्त बुराइयों को दूर कर उनमें नैतिकता का समावेश करती है। स्पष्टतः नैतिक चरित्र के निर्माण की दृष्टि से शिक्षा अत्यधिक उपयोगी है।

5. बालक का समाजीकरण-बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। सर्वप्रथम बालक माता-पिता के संरक्षण में, बाद में संगी-साथियों तथा शिक्षालयों के सम्पर्क में आकर अपने व्यक्तित्व का विकास करता है। शिक्षक समाज अपने विश्वास, दृष्टिकोण, मान्यताएँ, कुशलता तथा रीति-रिवाजों को बालक को प्रदान करता है। शिक्षालय तथा अनेक शिक्षा संस्थाएँ बालक को सामाजिक नियन्त्रण को स्वीकार करने में सहयोग देती हैं, जिससे बालक के समाजीकरण में सहायता मिलती है।

6. अधिकार तथा कर्तव्य का ज्ञान शिक्षा बालक को श्रेष्ठ नागरिक का जीवन जीने के लिए तैयार करती है। शिक्षित व्यक्ति अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों से परिचित होता है और उनके उचित पालन द्वारा योग्य नागरिक बनता है। शिक्षा किसी समाज या राष्ट्र के निवासियों में नागरिक व सामाजिक कर्तव्यों की भावना का समावेश कर उसकी प्रगति में सहायक सिद्ध होती है।

7. भावी जीवन की तैयारी शिक्षा बालक को भावी जीवन के लिए तैयार करती है। मनुष्य का जीवन संघर्षपूर्ण है। माँ के आँचल से धरा की गोद तक मनुष्य को जीवन में अनेक कठिनाइयों तथा विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। शिक्षा बालक को नियोजित एवं व्यवस्थित तरीके से धैर्य तथा साहस के साथ जीवन-संग्राम के लिए प्रेरित करती है।

8. संस्कृति का हस्तान्तरण—शिक्षालय समाज में सांस्कृतिक केन्द्र’ कहे जाते हैं। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित एवं संचित सांस्कृतिक विरासत को अपनी भावी सन्तति को हस्तान्तरित करता है। संस्कृति के हस्तान्तरण से समाज के लोगों का आचरण प्रभावित होता है और जनजीवन सुखी, प्रगतिशील और सुसंस्कृत बनता है।

प्रश्न 4.
व्यक्तिगत जीवन में शिक्षा के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
या
विद्यार्थी के लिए शिक्षा क्यों अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है?
या
शिक्षा के कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
शिक्षा के दो कार्यों के बारे में लिखिए।
उत्तर:

व्यक्तिगत जीवन में शिक्षा के कार्य
(Functions of Education in Personal Life)

व्यक्तिगत जीवन में शिक्षा के कार्य देश-काल एवं समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप निर्धारित और परिवर्तित होते रहे हैं। हमारे समाज की वर्तमान आवश्यकताओं, मूल्यों, उद्देश्यों तथा संरचना को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत जीवन में शिक्षा के निम्नलिखित कार्यों का उल्लेख किया जा सकता है|

1. जन्मजात शक्तियों एवं गुणों का विकास- शिक्षा का मुख्य कार्य मनुष्य की जन्मजात शक्तियों तथा गुणों का सम्यक् विकास करके उसके जीवन को सफल बनाना है। बालक प्रेम, दया, करुणा, सहानुभूति, कल्पना, जिज्ञासा, आत्म-गौरव तथा आत्म-समर्पण जैसी अनेक विशिष्ट शक्तियों व गुणों के साथ जन्म लेता है, जिनके अभिप्रकाशन में शिक्षा की प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है।

2. सन्तुलित व्यक्तित्व का विकास- शिक्षा बालक के व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास करती है। शिक्षा के माध्यम से बालक के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों-शारीरिक, मानसिक, नैतिक, सांवेगिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक का सर्वांगीण विकास होना चाहिए। शिक्षा के इस कार्य को सभी शिक्षाविदों ने महत्त्वपूर्ण माना है। …। फ्रेडरिक ट्रेसी का कथन है, “समस्त शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य व्यक्तित्व के आदर्श की पूर्ण प्राप्ति है। यह आदर्श सन्तुलित व्यक्तित्व है।”

3. चरित्र-निर्माण तथा नैतिकता का विकास-शिक्षा व्यक्ति को चरित्रवान् तथा नैतिक बनाती है। उत्तम चरित्र एवं नैतिकता के अभाव में कोई भी व्यक्ति प्रेम, त्याग, सेवा और बन्धुत्व सदृश मानवीय गुणों से युक्त नहीं हो सकता। अतः आवश्यक है कि शिक्षा बालक में उत्तम नैतिक-चरित्र का निर्माण करे। नैतिक और चारित्रिक गुणों के विकास से ही उसका सर्वांगीण विकास सम्भव है। हरबर्ट (Herbart) ने ठीक ही लिखा है, “शिक्षा का कार्य उत्तम नैतिक चरित्र का विकास करना है।”

4. वयस्क जीवन की तैयारी-प्रसिद्ध विद्वान विलमॉट ने कहा है, “शिक्षा जीवन की तैयारी है।” इसका अभिप्राय यह है कि शिक्षा का कार्य बालक को वयस्क जीवन के लिए भली प्रकार तैयार करना है। वास्तव में शिक्षित व्यक्ति ही विषम परिस्थितियों तथा कठिनाइयों का धैर्यपूर्वक सामना करते हुए जीवन में आगे बढ़ सकता है। बालक वयस्क होकर एक समाज का जिम्मेदार नागरिक बनता है, तब उसके कुछ अधिकार और कर्तव्य होते हैं। शिक्षा की प्रक्रिया बालक को इन अधिकारों, कर्तव्यों तथा दायित्वों से परिचित कराती हुई भावी जीवन के लिए तैयार करती है।

5. आवश्यकताओं की पूर्ति-हमारे समाज में शिक्षा का प्रमुख कार्य व्यक्ति की आवश्यकताओं को पूरा करना है। व्यक्ति की अनेक आवश्यकताएँ हैं; जैसे-जैविक, सामाजिक, नैतिक, धार्मिक तथा मनोवैज्ञानिक।, जीवधारी होने के कारण रोटी, कपड़ा और मकान उसकी जैविक आवश्यकताएँ हैं। सामाजिक प्राणी के रूप में वह समाज के दूसरे व्यक्तियों से सामाजिक सम्बन्ध बनाने की आवश्यकता महसूस करता है। व्यक्ति जीवन के पथ-प्रदर्शन हेतु धर्म एवं जीवन-दर्शन की, विशिष्ट योग्यताओं के विकास हेतु उचित अवसर की, मनोरंजन के लिए अवकाश की तथा उन्नति के लिए संघर्ष की आवश्यकता अनुभव करता है। शिक्षा इन सभी आवश्यकताओं के अनुभवों का पुनसँगठन एवं पुनर्रचना को पूर्ण करने का कार्य करती है। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों के भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति में, “शिक्षा का कार्य यह पता लगाना है कि जीवन की समस्याओं को किस प्रकार हल किया जाए और आधुनिक सभ्य के मार्गदर्शन समाज का गम्भीर ध्यान इसी बात में लगा हुआ है।”

6. व्यावसायिक कुशलता की प्राप्ति- शिक्षा व्यक्ति को विभिन्न व्यवसायों का ज्ञान देती है और उसे अपने व्यवसाय को सुन्दर व व्यवस्थित ढंग से करने की प्रेरणा देती है। शिक्षित व्यक्ति अपनी योग्यता व पसन्द के अनुसार व्यवसाय चुनकर उसमें कुशलता प्राप्त करता है और इस प्रकार भौतिक सम्पन्नता अर्जित करता है। देश में औद्योगिकीकरण की तेज गति ने बड़ी संख्या में इंजीनियरों, वैज्ञानिकों तथा शिल्पियों की माँग उत्पन्न कर दी है। छात्रों को श्रेष्ठ व्यावसायिक प्रशिक्षण उपलब्ध कराने का काम शिक्षा ही कर सकती है। यही कारण है कि शिक्षा का मुख्य कार्य छात्रों में व्यावसायिक कुशलता का विकास करना होना चाहिए।

7. मूल-प्रवृत्तियों का नियन्त्रण-मूल-प्रवृत्तियाँ मानव के व्यवहार का संचालन करती हैं। जिज्ञासा, काम, पलायन, ह्रास आदि मूल-प्रवृत्तियाँ बालक में जन्म से ही पायी जाती हैं, जबकि आत्म-गौरव, आत्महीनता तथा सामुदायिकता की मूल-प्रवृत्तियाँ अर्जित हैं। शिक्षा इन मूल-प्रवृत्तियों के नियन्त्रण तथा शोधन का कार्य करती है ताकि वे अच्छे उद्देश्य वाली बनकर समाज का अधिकाधिक हित कर सकें।

8. आत्मनिर्भर बनाना-आत्मनिर्भर व्यक्ति का जीवन सुखमय होता है। वह स्वयं अपने कार्यों को सफलतापूर्वक सम्पन्न करते हुए समाज की उन्नति में भी योगदान देता है। वस्तुत: वर्तमान परिस्थितियों में समाज को आत्मनिर्भर लोगों की ही आवश्यकता है। शिक्षा का यह प्रमुख कार्य है कि वह व्यक्ति को अपना भार स्वयं अपने ऊपर लेना सिखाये तथा उसे इस योग्य बनाये कि वह समाज के अन्य लोगों को भी सहारादे सके।

9. अनुभवों का पुनसँगठन एवं पुनर्रचना-जीवन के अनेक कार्य अनुभवों से ही होते हैं। शिक्षा व्यक्ति को सभी आवश्यक अनुभव प्राप्त करने में उसकी सहायता करती है। अतीत के अनुभव मनुष्य के वर्तमान जीवन को सफल बनाने में योगदान तो करते हैं, किन्तु उन्हें किसी विशेष परिस्थिति में मूल्य तथा उपयोगिता की दृष्टि से ही प्रयोग किया जा सकता है। मानव-जीवन की भावी प्रगति के लिए आवश्यक है कि अतीत के अनुभवों का पुनसँगठन और उनकी पुनर्रचना भली प्रकार हो। यह महत्त्वपूर्ण कार्य शिक्षा ही करती है।

10. भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति-आज के आर्थिक युग में धन के विशेष महत्त्व ने व्यक्ति को अधिक-से-अधिक धनोपार्जन की ओर लगा दिया है। सभी अभिभावक चाहते हैं कि उनके बच्चे शिक्षित होकर उच्च-स्तर का व्यवसाय या नौकरी पा जाएँ तथा खूब धन कमाएँ। अत: आज के भौतिकवादी युग में शिक्षा का कार्य भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति में सहायता प्रदान करना है। जॉन रस्किन (John Ruskin) के अनुसार, “माता-पिता कहते हैं कि शिक्षा का मुख्य कार्य उनके बच्चों को जीवन में अच्छे स्थान प्राप्त करने, बड़े और धनी व्यक्तियों के समाज में महत्त्वपूर्ण बनने और आराम तथा ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करने के लिए तैयार करना है।”

11. वातावरण से अनुकूलन- वातावरण से अनुकूलन अनिवार्य है। जो प्राणी स्वयं को वातावरण के अनुकूल नहीं बना पाते, वे प्रायः नष्ट हो जाते हैं। वातावरण व्यक्ति के सिर्फ उन्हीं कार्यों को प्रोत्साहित करता है जो उसके अनुकूल होते हैं। अतएव शिक्षा का प्रधान कार्य है कि वह व्यक्ति को वातावरण के अनुकूल बनाये। टॉमसन (Tomson) का कथन है, “वातावरण शिक्षक है और शिक्षा का कार्य है छात्र को उस वातावरण के अनुकूल बनाना, जिससे कि वह जीवित रह पके और अपनी मूल-प्रवृत्तियों को सन्तुष्ट करने के लिए अधिक-से-अधिक सम्भव अवसर प्राप्त कर सके।”

12. मार्गदर्शन-मानव-जीवन की वास्तविक प्रगति उचित मार्गदर्शन पर आधारित है। ‘प्रयास एवं भूल’ के सिद्धान्त पर प्रगति का मार्ग खोजने के प्रयास में मनुष्य अपने जीवन का बहुमूल्य समय गवाँ देता है। उचित मार्गदर्शन पाकर व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति से सामंजस्य बनाने में सक्षम होता है तथा प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त करता है। इसी कारण से मार्गदर्शन अति आवश्यक है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में व्यक्ति को अभीष्ट मार्गदर्शन करने का कार्य शिक्षा ही करती है।

प्रश्न 5.
सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा के कार्य
(Functions of Education in Social and National Life)

व्यक्ति, समाज और राष्ट्र आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं। व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र बनता है। मैकाइवर (Maclver) ने सत्य ही लिखा है, “राष्ट्र का गुण, उसकी सामाजिक इकाइयों का गुण है अर्थात् सामाजिक इकाइयों का सामूहिक जीवन ही राष्ट्रीय जीवन है।” राष्ट्र की उन्नति तभी हो सकती है जब कि उसके नागरिक श्रेष्ठ हों। अत: शिक्षा का यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है कि वह व्यक्ति को राष्ट्रीय जीवन के लिए भी तैयार करे। भारतीय समाज के प्रजातान्त्रिक एवं समाजवादी आदर्श को ध्यान में रखते हुए शिक्षा के सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन से सम्बन्धित कार्य निम्नलिखित हैं

1. व्यक्तिगत हितों के साथ सामूहिक हित की भावना-आधुनिक समाज में तेजी से बढ़ रही । भौतिकवादी प्रवृत्तियाँ, व्यक्तिवाद को अधिकाधिक महत्त्व प्रदान कर, सार्वजनिक हित की उपेक्षा कर रही हैं। प्रत्येक मनुष्य अपने हित के सामने जनहित की अनदेखी कर रहा है। इसके परिणामत: भारत का समाज जाति, वर्ग, धर्म, भाषा और राजनीति के नाम पर विखण्डित हो रहा है तथा लोगों में पारस्परिक द्वेष, कटुता तथा शत्रुता जैसी दूषित भावनाओं का विस्तार होने लगा है। राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का यह महत्त्वपूर्ण कार्य है कि वह लोगों को इस भाँति प्रशिक्षित करे कि वे व्यक्तिगत हितों से अपने समूह, समाज तथा राष्ट्र के हितों को अधिक महत्त्व दें। सामूहिक हित में ही राष्ट्रीय हित निहित है।

2. राष्ट्रीय एकता-शिक्षा को राष्ट्रीय एकता का आधार माना जाता है। हमारे देश में प्रान्तवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, आतंकवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद आदि विभाजनकारी प्रवृत्तियों के बढ़ते प्रभाव ने लोगों के दृष्टिकोण को अत्यन्त संकीर्ण बना दिया है। इन विघटनकारी शक्तियों से लड़ने तथा राष्ट्रीय एकता को विकसित करने के लिए हमें शिक्षा का सहारा लेना होगा। शिक्षा ही हमें इन बाधक तत्त्वों से मुक्ति दिलाकर , राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बाँध सकती है। राष्ट्रीय एकता के महत्त्वपूर्ण कार्य की ओर संकेत करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “एक दृष्टि में राष्ट्रीय एकता के प्रश्नों में जीवन की हर एक वस्तु आ जाती है। शिक्षा का कार्य सर्वोपरि है और यही आधारशिला है।”

3. राष्ट्रीय विकास- शिक्षा के अभाव में कोई भी राष्ट्र उन्नति | सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में। नहीं कर सकता। किसी राष्ट्र का विकास उसके नागरिकों की शिक्षा| शिक्षा के कार्य पर निर्भर करता है। अत: राष्ट्रीय विकास के लिए शिक्षा की योजनाओं व्यक्तिगत हितों के साथ को प्राथमिकता देनी होगी तथा एक निश्चित स्तर तक सभी नागरिकों सामूहिक हित की भावना को शिक्षित बनाना होगा। वास्तव में, शिक्षा के माध्यम से ही लोग जानने से ही लोग जान सकते हैं कि व्यक्तिगत उन्नति की अपेक्षा राष्ट्रीय उन्नति एवं विकास अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसके साथ ही, प्रजातन्त्र की सफलता भी शिक्षा पर ही निर्भर है। एक प्रजातान्त्रिक प्रणाली में मतदान हेतु अच्छे-बुरे का निर्णय करने के लिए आवश्यक विवेक-शक्ति शिक्षा द्वारा ही जाग्रत एवं विकसित होती है। राष्ट्रीय विकास में शिक्षा की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कोठारी आयोग (1964-66) ने इस प्रकार लिखा है, “भारत के भाग्य का निर्माण इस समय उसकी कक्षाओं में हो रहा है। हमारे विद्यालयों तथा कॉलेजों से निकलने वाले छात्रों की योग्यता तथा संख्या पर ही राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के उस महत्त्वपूर्ण कार्य की सफलता निर्भर करेगी, जिसका प्रमुख लक्ष्य हमारे रहन-सहन का स्तर ऊँचा उठाना है।”

4. श्रेष्ठ नागरिकता का निर्माण- राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का पहला कर्त्तव्य श्रेष्ठ नागरिकता का निर्माण करना है। प्रत्येक राज्य को योग्य, सच्चरित्र एवं गुणवान् नागरिकों की आवश्यकता होती है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह अभीष्ट शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था करता है। राष्ट्र के शिक्षित नागरिकों में ही अपने अधिकार तथा कर्तव्यों के बोध एवं विकास की क्षमता होती है। न्यूयॉर्क समिति की दृष्टि में, “सार्वजनिक शैक्षणिक व्यवस्था का यह प्रधान कार्य है कि वह शिक्षार्थियों को राज्य में नागरिकता के अधिकार व कर्तव्यों का बोध कराये।”

5. नैतिकता का प्रशिक्षण- नैतिकता किसी भी राष्ट्र का प्राणधर्म होती है, क्योंकि नैतिकता में वे सभी गुण विद्यमान होते हैं जो उस राष्ट्र के नागरिकों के आचरण को नियमित करते हैं। अतः शिक्षा का प्रधान कार्य लोगों को नैतिकता में प्रशिक्षित करना होना चाहिए। ब्रेचर (Brecher) ने उचित ही कहा है, “प्रत्येक युवक को स्मरण रखना चाहिए कि सभी सफल कार्यों का आधार नैतिकता है।”

6. सामाजिकता की भावना का विकास- व्यक्ति और समाज में घनिष्ठ सम्बन्ध है। व्यक्तियों से समाज बनता है और समाज में रहकर ही व्यक्ति की सुरक्षा एवं उन्नति सम्भव है। इस प्रकार दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। व्यक्ति को समाज में रहने के लिए सामाजिक भावना से ओत-प्रोत विभिन्न गुण विकसित करने चाहिए; जैसे—प्रेम, दया, सेवा, परोपकार आदि। शिक्षा ही व्यक्ति में इस प्रकार के गुण उत्पन्न करते हुए। सामाजिकता का भाव विकसित कर सकती है।

7. सामाजिक कुशलता का विकास- प्रत्येक सामाजिक प्राणी में सामाजिक कुशलता का होना नितान्त आवश्यक है। सामाजिक कुशलता से अभिप्राय यह है कि व्यक्ति राष्ट्र के लिए भार न हो, दूसरों के कार्यों में बाधा न पहुँचाये तथा समाज की उन्नति में सहायक हो। आधुनिक भारत में शिक्षा का यह महत्त्वपूर्ण कार्य है। कि वह बालकों को उन व्यवसायों तथा उद्योगों में कुशल बनाये जो न केवल उनके लिए, बल्कि समूचे समाज व राष्ट्र के लिए हितकारी हों। एलफ्रेड एडलर ने कहा है, “मनुष्य के उचित कार्य केवल वही हैं, जो समाज के लिए उपयोगी हैं।”

8. सामाजिक सुधार एवं उन्नति- समाज की प्रकृति गतिशील होने के कारण विश्व के सभी समाज, समय के परिवर्तन के साथ, निरन्तर परिवर्तित होते रहते हैं। शिक्षा सामाजिक परिवर्तन को अभीष्ट दिशा देते हुए समाज को उन्नति के पथ पर ले जाती है। यह प्रत्येक नागरिक को अपने समाज के विषय में अधिकाधिक ज्ञान सुलभ कराती है और इस भाँति प्रशिक्षित करती है ताकि वह समाज में वांछित सुधार लाने में सक्षम हो सके। जॉन डीवी के अनुसार, “शिक्षा में ही सामाजिक एवं अल्पतम साधनों के माध्यम से समाज में कल्याण, सुधार तथा उन्नति की रुचि को पुष्पित होना पाया जाता है।”

9. कुशल श्रमिकों की पूर्ति- कुशल श्रमिक व्यापार तथा उद्योग के उत्पादन को बढ़ाकर राष्ट्रीय सम्पत्ति में वृद्धि लाते हैं। अत: राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का कार्य कुशल श्रमिकों की पूर्ति करना है। शिक्षा का कार्य है। कि वह देश में ऐसे निपुण कार्यकर्ताओं को तैयार करे जो अपने कार्य का सम्पादन अत्यन्त कुशलतापूर्वक कर सकें। हुमायूँ कबीर ने उचित ही लिखा है, “शिक्षित श्रमिक अधिक उत्पादन में योग देंगे और इस प्रकार उद्योग तथा व्यवसाय दोनों की अधिक उन्नति होगी।’

10. उत्तम नेतृत्व हेतु प्रशिक्षण- लोकतन्त्र की सफलता के लिए नागरिकों को श्रेष्ठ अनुशासन तथा नेतृत्व हेतु प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण कार्य लोगों को इस प्रकार प्रशिक्षित करना है कि वे सामाजिक, राजनीतिक, औद्योगिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में नेतृत्व का कार्य कर सकें। आर० एस० मणि के अनुसार, “सच्चे नेतृत्व के लिए सेवा की भावना के साथ-साथ अच्छे प्रशिक्षण की आवश्यकता है।” ;

11. भावात्मक एकता- धर्म, परम्परा, भाषा, रीति-रिवाज तथा रहन-सहन के ढंग की दृष्टि से भारत। विभिन्नताओं का देश है। देश के सभी नागरिक अपने-अपने धर्म, भाषा तथा रीति-रिवाजों को दूसरे से अच्छा मानकर उन पर गर्व करते हैं। प्रायः संकीर्ण दृष्टिकोण के कारण परस्पर मनमुटाव व संघर्ष हो जाते हैं। ऐसी दशा में शिक्षा राष्ट्र को भावात्मक एकता के सूत्र में बाँधती है। शिक्षा द्वारा ही भावात्मक वातावरण निर्मित किया जा सकता है। शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत छात्रों के लिए ऐसे पाठ्यक्रमों का निर्माण किया जाना चाहिए जिनसे उनमें संवेदनाओं तथा दृष्टिकोणों का उचित दिशा में विकास हो और उनमें राष्ट्रीय व भावात्मक एकता स्थापित हो सके।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
शिक्षा के संकुचित अर्थ को स्पष्ट कीजिए। या शिक्षा के प्रचलित अर्थ को सोदाहरण समझाइए।
उत्तर:

शिक्षा का संकुचित अथवा प्रचलित अर्थ
(Narrow Meaning of Education)

शिक्षा के संकुचित अथवा प्रचलित अर्थ से अभिप्राय बालक को विद्यालय में प्रदान की जाने वाली शिक्षा से है। इस प्रकार की शिक्षा एक निश्चित पाठ्यक्रम, निश्चित समय एवं स्थान, निश्चित शिक्षण-विधि तथा शिक्षक के माध्यम से प्रदान की जाती है। वर्तमान शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत हम शिक्षा शब्द का प्रयोग एक विशेष अर्थ में करते हैं। इस अर्थ के अनुसार शिक्षा को कुछ विशेष प्रभावों तथा विषयों के अध्ययन तक ही सीमित मान लिया जाता है। इस प्रकार बालक को एक पूर्व निश्चित योजना के अनुसार वह ज्ञान दिया जाता। है जो उसके जीवन तथा समाज के लिए उपयोगी हो। इससे शिक्षा का एक सीमित अथवा संकुचित अर्थ ही स्पष्ट होता है और इसे औपचारिक शिक्षा (Formal Education) का नाम दिया जाता है। जे० एस० मैकेंजी का कहना है, “संकुचित अर्थ में शिक्षा से अभिप्राय हमारी शक्तियों के विकास और सुधार के लिए चेतनापूर्वक किये गये प्रयासों से लिया जाता है।”

संकुचित शिक्षा के साधन मुख्यत: रटने की क्रिया पर बल देते हैं। अत: ज्ञान से वंचित रहने के कारण बालकों को सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता। इसी कारण से यहाँ शिक्षा के लिए अध्यापन या निर्देशन (Instruction) शंब्द का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 2.
शिक्षा के व्यापक अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
या
शिक्षा जन्म से लेकर मृत्यु तक चलने वाली प्रक्रिया है। विश्लेषण कीजिए।
या
“शिक्षा अनुभवों के पुनर्गठन एवं पुनर्रचना की सतत् प्रक्रिया है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा का व्यापक अर्थ
(Definition of Complete Education)

अपने व्यापक अर्थ में शिक्षा जीवन- पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। मनुष्य का समूचा जीवन ही शिक्षा का काल है और व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक कुछ-न-कुछ सीखता रहता है। एडलर (Adler) के अनुसार, शिक्षा मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन से सम्बन्धित क्रिया है। यह छोटे बच्चों से ही सम्बन्धित नहीं होती, अपितु जन्म से आरम्भ होती है और मृत्यु तक चलती रहती है। इसी प्रकार टी० रेमण्ट ने लिखा है, “शिक्षा विकास की प्रक्रिया है, जिसमें वह शनैः-शनैः विविध प्रकार से स्वयं को भौतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक वातावरण के अनुकूल बनाता है।”

मनुष्य अपने जीवन काल में जिस वातावरण, परिस्थितियों तथा व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है, उनसे प्राप्त अनुभव उसकी शिक्षा में निरन्तर वृद्धि करते हैं। भूमण्डल की सभी चेतन और अचेतन सत्ताओं के माध्यम से मनुष्य कुछ-न-कुछ शिक्षा अवश्य ग्रहण करता है। सूरज, चाँद, तारे, नदियाँ, पहाड़, पुष्प, वृक्ष, चींटियाँ

और मधुमक्खियाँ आदि से मानव बहुत कुछ सीखता है। इनसे प्राप्त ज्ञान द्वारा वह न केवल स्वयं लाभान्वित होता है, बल्कि इनके आधार पर वह समाज को भी लाभ पहुँचाता है। इमवाइल (Dumville) ने उचित ही कहा है, “शिक्षा के व्यापक अर्थ में वे समस्त कारक सम्मिलित होते हैं, जो व्यक्ति पर उसकी उत्पत्ति होने से मृत्यु तक की यात्रा के मध्य प्रभाव डालते हैं।’

इस भाँति, व्यापक अर्थ के अन्तर्गत शिक्षा को घर, परिवार या शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थाओं तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता है। शिक्षा पाने के लिए न तो कोई स्थान सुनिश्चित है और न कोई विशिष्ट क्षेत्र ही निर्धारित है। इस प्रकार यह सम्पूर्ण विश्व शिक्षाका महाप्रांगण, केन्द्र-स्थल और क्षेत्र है। इसी कारण मानव की अन्तर्निहित शक्तियों को जीवनभर विकसित करने की अविराम प्रक्रिया को ही व्यापक दृष्टिकोण से शिक्षा कहा गया है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है, “शिक्षा अनुभवों के पुनर्गठन एवं पुनर्रचना की सतत प्रक्रिया है।”

प्रश्न 3.
शिक्षा के वैज्ञानिक अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा का वैज्ञानिक अर्थ
(Scientific Definition of Education)

आधुनिक विद्वानों ने शिक्षा की प्रक्रिया का विश्लेषण करके शिक्षा के वैज्ञानिक अर्थ को स्पष्ट किया है। इस अर्थ के अनुसार शिक्षा, वैज्ञानिक पद्धति का अनुसरण करके व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में सहायक होती है। वैज्ञानिक अर्थ की स्पष्टता शिक्षा-प्रक्रिया की निम्नलिखित विशेषताओं से होती है।

1. आजीवन चलने वाली प्रक्रिया-शिक्षा जीवन-पर्यन्त चलने वाली एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत व्यक्ति नये अनुभवों से अपने ज्ञान में अभिवृद्धि करता है।
2. 
अन्तर्निहित शक्तियों का विकास-शिक्षा के माध्यम से। शिक्षा का वैज्ञानिक अथे। बालक की अन्तर्निहित प्रक्रिया का विकास होता है।
3. द्विमुखी प्रक्रिया- शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्निहित शक्तियों का विकास अन्तर्गत दो महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व शिक्षा प्रदान करने वाला (शिक्षक) और शिक्षा प्राप्त करने वाला (विद्यार्थी) सम्मिलित हैं। ये दोनों गतिशीलता व्यक्तित्व एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं।
4. गतिशीलता- शिक्षा कोई जड़ वस्तु नहीं, अपितु जीवन की परिवर्तनशीलता गतिशील प्रक्रिया है। इसके द्वारा शिक्षार्थी प्रतिक्षण प्रगति करता हुआ अपने व्यक्तित्व का विकास करता है।
5. सामाजिक विकास-शिक्षा द्वारा मनुष्य का सामाजिक विकास होता है। वह समाज के प्राणियों के ‘. बीच रहकर नये अनुभवों द्वारा सीखता है। वस्तुतः सामाजिक प्रगति उचित शिक्षा पर ही निर्भर है।।
6. परिवर्तनशीलता- व्यक्ति के व्यवहार में वांछित परिवर्तन शिक्षा के माध्यम से ही लाये जा सकते हैं। अतः शिक्षा में परिवर्तनशीलता का गुण निहित है।
7. त्रि-पक्षीय प्रक्रिया जॉन डीवी (John Dewy) ने शिक्षा को त्रि-पक्षीय प्रक्रिया माना है। शिक्षा में शिक्षक और विद्यार्थी के अतिरिक्त एक तीसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष भी है और वह है ‘पाठ्यक्रम ।

प्रश्न 4.
शिक्षा तथा निर्देशन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा तथा निर्देशन में अन्तर
(Difference between Education and Guidance)

विभिन्न पक्षों को आधार मानते हुए शिक्षा एवं निर्देशन के अन्तर का विवरण निम्नलिखित तालिका में वर्णित है।
UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 1 Meaning, Definition, Importance, Need and Utility of Education 1

प्रश्न 5.
शिक्षा तथा साक्षरता के अन्तर को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा एवं साक्षरता में अन्तर
(Difference between Education and Literacy)
UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 1 Meaning, Definition, Importance, Need and Utility of Education 2

प्रश्न 6.
शिक्षा के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा का महत्त्व
(Importance of Education)

शिक्षा के महत्त्व का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है।

1. जन्मजात शक्तियों का विकास- प्रत्येक मनुष्य कुछ ऐसी जन्मजात शक्तियों तथा गुणों के साथ पैदा होता है जो उसके शारीरिक, मानसिक, आत्मिक तथा सामाजिक पक्षों से सीधा सम्बन्ध रखते हैं। इन शक्तियों तथा गुणों का प्रकटीकरण और विकास अनिवार्य रूप से होना चाहिए। यह कार्य मात्र शिक्षा द्वारा ही सम्भव है। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री पेस्टालॉजी ने भी शिक्षा को जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक, प्रगतिशील तथा विरोधहीन विकास’ कहा है।

2. परिस्थितियों के साथ अनुकूलन- व्यक्ति को अपने जन्म के बाद अनेकानेक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। परिस्थितियों के साथ संघर्ष में जो मनुष्य स्वयं को परिस्थितियों के जितना अधिक अनुकूल बना लेता है, जीवन में उसे उतनी ही अधिक सफलता प्राप्त प्रतिभा का अभिप्रकाशन होती है। अनुकुलन के इस कार्य में मनुष्य को शिक्षा से सर्वाधिक आचरण एवं व्यवहार में सहायता मिलती है।

3. प्रतिभा का अभिप्रकाशन- शिक्षा द्वारा बालक की प्रतिभा का व्यक्तित्व का समुचित विकास अभिप्रकाशन होता है। हम अशिक्षित मनुष्य की तुलना पत्थर के टुकड़े से कर सकते हैं। जिस प्रकार एक पत्थर का टुकड़ा चतुर शिल्पी के सम्पर्क में आकर सुन्दर और सजीव मूर्ति का रूप धारण कर लेता है, उसी प्रकार शिक्षा के माध्यम से किसी बालक की प्रतिभा में निखार आता है। ये निखरी हुई प्रतिभाएँ ही सफल वैज्ञानिक, तकनीशियन, चित्रकार, शिल्पी, वक्ता, साहित्यकार तथा कलाकार के रूप में राष्ट्र की सेवा करती हैं।

4. आचरण एवं व्यवहार में परिवर्तन- सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य से आशा की जाती है कि वह अपने समाज की मर्यादाओं के अनुकूल ही आचरण एवं व्यवहार प्रदर्शित करे। अशिक्षित मनुष्य की दशा जंगली पेड़-पौधों जैसी होती है। उसके आचार-विचार एवं व्यवहार के तरीकों में वांछित परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव की जाती है। शिक्षा के अन्तर्गत ज्ञान और अनुभवों के माध्यम से व्यक्ति के आचरण एवं व्यवहार में परिवर्तन तथा परिमार्जन करके उसे सभ्य व सुसंस्कृत बनाया जाता है।

5. व्यक्तित्व का समुचित विकास- शिक्षा व्यक्तित्व के आदर्श की प्राप्ति में सहायक है और यह आदर्श है मनुष्य का ‘सन्तुलित व्यक्तित्व’। व्यक्तित्व मानव-जीवन के विभिन्न पक्षों; जैसे-शारीरिक, बौद्धिक, नैतिक, सांवेगिक तथा आध्यात्मिक आदि; का सुन्दर सम्मिश्रण है। शिक्षा इन सभी पक्षों को इस भाँति विकसित करती है ताकि वे सर्वांगीण और सन्तुलित रूप से मुखरित होकर शिक्षार्थी को एक सम्पूर्ण मानव के रूप में प्रस्तुत कर सकें।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्राचीन भारतीय मान्यताओं के अनुसार शिक्षा का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्राचीन भारत के धर्मग्रन्थों में कहा गया है कि ‘सा विद्या या विमुक्तये’ अर्थात् विद्या वह है जो मानव को शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक बन्धनों से मुक्ति प्रदान करती है। यहाँ ‘शिक्षा’ को ‘विद्या’ का समानार्थी समझो गया है। विद्या शब्द संस्कृत की ‘विद्’ धातु से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है ‘जानना या ज्ञान प्राप्त करना।

प्रश्न 2.
शिक्षा (Education) का शाब्दिक या व्युत्पत्ति मूलक अर्थ स्पष्ट कीजिए।
या
एजूकेशन शब्द का शाब्दिक या व्युत्पत्तिमूलक अर्थ क्या है?
या
शिक्षा का शाब्दिक अर्थ क्या है?
उत्तर:
शिक्षा अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘एजूकेशन’ (Education) का हिन्दी रूपान्तर है। ‘एजूकेशन’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन के ‘एजूकेटम (Educatum) शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है ‘शिक्षित करना (Act of Training)। इस प्रकार एजूकेटम शब्द दो शब्दों का योग है—‘ए’ (E) और ‘डूको’ (Duco)। ‘ए’ का अर्थ है अन्दर से (Out of) और डूको’ का अर्थ है ‘आगे बढ़ाना’ (To lead)। लैटिन भाषा के अन्य दो शब्द ‘एजूकेयर’ (Educare) तथा ‘एजूसीयर’ (Educere) भी शिक्षा के इसी अर्थ की ओर संकेत करते हैं। इस भाँति, शिक्षा का शाब्दिक अर्थ है “बालक की अन्तर्निहित शक्तियों अथवा गुणों का सर्वतोन्मुखी विकास करना।”

प्रश्न 3.
शिक्षा को गतिशील प्रक्रिया क्यों कहा जाता है ?
उत्तर:
शिक्षा की प्रक्रिया का समुचित विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया (Dynamic Process) है। शिक्षा के गत्यात्मक पक्ष को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि यह न तो जड़ और न ही स्थिर प्रक्रिया है। शिक्षा की प्रक्रिया का मुख्यतम उद्देश्य व्यक्ति का सतत विकास करना है। व्यक्ति का शिक्षा के माध्यम से होने वाला विकास सदैव उन्नयनकारी ही होता है। इन समस्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ही हम शिक्षा को गतिशील प्रक्रिया कहते हैं।

प्रश्न 4.
साक्षरता का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
साक्षरता का सामान्य अर्थ ‘अक्षर-ज्ञान’ या ‘लिपि-ज्ञान’ है। यह भाषा के लिखित पक्ष से सम्बन्धित है, जिसके अन्तर्गत लिखना और पढ़ना दोनों शामिल हैं। अंग्रेजी भाषा में इसे लिट्रेसी (Literacy) कहते हैं, जिसका सम्बन्ध, लेखन-पाठन और गणित’ (Writing-Reading and Arithmatic) से है। इन्हें संक्षेप में श्री-आर्स (3-R’s) कहा जाता है। आधुनिक समय में इन श्री-आर्स अर्थात् लिखना-पढ़ना और गणित का ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति के लिए महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य है। इनको समुचित अध्ययन किये बिना दैनिक जीवन के क्रिया-कलापों को सुचारु और व्यवस्थित रूप से चलाना दूभर है। यूनेस्को के अनुसार, 
साक्षरता द्वारा व्यक्ति अपनी सामाजिक तथा आर्थिक प्रगति को प्राप्त कर सकता है, जो उसे आधुनिक संसार में अपना स्थान ग्रहण करने योग्य बनाती है और शान्तिपूर्वक मिल-जुलकर रहने की प्रेरणा देती है।”

प्रश्न 5.
साक्षरता तथा शिक्षा का सम्बन्ध स्पष्ट कीजिए।
उक्षर:
यह सत्य है कि साक्षरता तथा शिक्षा में स्पष्ट अन्तर है, परन्तु इस अन्तर के होते हुए भी साक्षरता तथा शिक्षा के बीच अटूट सम्बन्ध है। वास्तव में दोनों का एक ही लक्ष्य है और वह है मानव-जीवन को अधिक-से-अधिक सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाना। इस लक्ष्य तक पहुँचने की सीढ़ी का पहला सोपान ‘साक्षरता है और दूसरा सोपान ‘शिक्षा’। ये दोनों सोपान एक-दूसरे के सहायक एवं परिपूरक हैं तथा मानव-जीवन की पूर्णता के क्रमिक व अनिवार्य साधन हैं। साक्षरता के माध्यम से व्यक्ति दैनिक जीवन को सुचारु एवं सुव्यवस्थित बनाता है और शिक्षा उसके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करती है।

प्रश्न 6.
शिक्षा के कार्यों का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर:
शिक्षा का प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण कार्य मानव-जीवन को इस तरह से सुधारना तथा सँवारना है। ताकि वह समाज के लिए मूल्यवान् एवं उपयोगी सिद्ध हो सके। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के सम्बन्ध में वांछित ज्ञान प्राप्त करता है और उस ज्ञान को सामाजिक हित के कार्यों में प्रयोग करता है। जैक्स के अनुसार, “शिक्षा को बहुत-से कार्य करने हैं। शिक्षा के माध्यम से बालकों को इस योग्य बनाना चाहिए ताकि वे स्वयं विचार कर सकें, श्रम का सम्मान कर सकें।” शिक्षा का कार्य व्यक्तिगत जीवन को उन्नत बनाने के साथ-ही-साथ सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन को भी उन्नत बनाना है।

प्रश्न 7.
स्पष्ट कीजिए कि शिक्षा सभ्यता एवं संस्कृति की सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करती है।
उत्तर:
कोई भी समाज अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के माध्यम से पहचाना जाता है। अपनी सभ्यता एवं संस्कृति पर गर्व करने वाला प्रत्येक समाज देश की पुरानी मान्यताओं, कलाओं, परम्पराओं, आस्था तथा धर्म का ज्ञान सभी नागरिकों को प्रदान कराने की व्यवस्था करता है और प्रयास करता है कि उसकी सांस्कृतिक विरासत सुरक्षित रहे। यह शिक्षा का प्रमुख कार्य है कि वह बालकों को देश की सभ्यता एवं संस्कृति से परिचित कराने के साथ उसकी प्रगति व सुरक्षा में योगदान देना सिखाये। इस सन्दर्भ में ओटावे ने कहा है, शिक्षा का एक कार्य समाज के सांस्कृतिक मूल्यों एवं व्यवहार प्रतिमानों को अपने तरुणों तथा कार्यशील सदस्यों को प्रदान करना है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सभ्यता एवं संस्कृति की सुरक्षा में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

प्रश्न 8.
“शिक्षा एक त्रिधुवी (त्रिमुखी) प्रक्रिया है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कुछ विद्वानों ने शिक्षा को त्रिभुवी या त्रिमुखी प्रक्रिया माना है। इस वर्ग के मुख्य शिक्षाशास्त्री जॉन डीवी हैं। इस मान्यता के अनुसार शिक्षा के तीन प्रमुख अंग हैं। ये अंग हैं क्रमश: शिक्षार्थी या बालक, शिक्षा के लिए निर्धारित पाठ्यक्रम तथा शिक्षक। वास्तव में बालक तथा शिक्षक निर्धारित पाठ्यक्रम के आधार पर ही शिक्षा की प्रक्रिया को सुचारु रूप से अग्रसर करते हैं। पाठ्यक्रम के अभाव में शिक्षा की प्रक्रिया सम्पन्न नहीं हो सकती। इस तथ्य को ही ध्यान में रखते हुए शिक्षा की एक त्रिमुखी प्रक्रिया माना गया है।

प्रश्न 9.
शिक्षा का व्यापक एवं संकुचित अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
विभिन्न विषयों से सम्बन्धित कुछ तथ्यों एवं सूचनाओं को प्राप्त कर लेना शिक्षा कहलाता है। यह शिक्षा का प्रचलित अर्थ है। अन्य अर्थ हैं। शिक्षा का संकुचित अर्थ-शिक्षा का आशय उस व्यवस्थित प्रक्रिया से है जिसके अन्तर्गत बालकों को विद्यालय या अन्य किसी शिक्षण संस्था की सीमाओं में रखकर व्यावहारिक तथा उपयोगी ज्ञान प्रदान किया 
जाता है। शिक्षा का व्यापक अर्थ–इस अर्थ के अनुसार शिक्षा जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। इसके अनुसार सम्पूर्ण जगत् ही शिक्षा प्रदान करने वाला अभिकरण है तथा व्यक्ति हर पल कुछ-न-कुछ शिक्षा प्राप्त करता रहता है।

प्रश्न 10.
शिक्षा और सूचना में क्या अन्तर है?
उत्तर:
शिक्षा की प्रक्रिया के सन्दर्भ में अनेक बार ‘सूचना’ का भी उल्लेख किया जाता है, परन्तु ‘सूचना एवं शिक्षा में कुछ स्पष्ट अन्तर है। जहाँ तक शिक्षा की प्रक्रिया का प्रश्न है, इसके माध्यम से बालक में पूर्व-निहित शक्तियों एवं क्षमताओं का अधिकतम विकास किया जाता है। इससे भिन्न ‘सूचना का अर्थ है किन्हीं तथ्यों की जानकारी मात्रा शिक्षा के माध्यम से शिक्षार्थियों का सर्वांगीण विकास होता है। इससे भिन्न-भिन्न सूचनाओं को अर्जित करके सम्बन्धित बालक या व्यक्ति अपने ज्ञान या जानकारी के भण्डार में 
आवश्यक वृद्धि कर सकता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं—सूचनाएँ सीमित होती हैं, जब कि शिक्षा विस्तृत एवं सर्वांगीण होती है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्राचीन भारतीय धर्मग्रन्थों में शिक्षा (विद्या) से क्या आशय है ?
उत्तर:
प्राचीन भारतीय धर्मग्रन्थों में कहा गया है कि ‘सा विद्या या विमुक्तये’ अर्थात् विद्या या शिक्षा वह है जो व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक बन्धनो से मुक्त कराती है।

प्रश्न 2.
शिक्षा के अंग्रेजी पर्यायवाची (Education) शब्द की उत्पत्ति किस भाषा से हुई है ?
उत्तर:
‘Education’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘Educatum शब्द से हुई है।

प्रश्न 3.
विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा को क्या कहा जाता है ?
उत्तर:
विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा को संकुचित शिक्षा अथवा औपचारिक शिक्षा कहा जाता है।

प्रश्न 4.
कोई ऐसा कथन लिखिए जो शिक्षा के व्यापक अर्थ को स्पष्ट करता है।
उत्तर:
“शिक्षा के व्यापक अर्थ में वे समस्त प्रभाव सम्मिलित होते हैं, जो व्यक्ति पर उसके पालने से मृत्यु तक की यात्रा के मध्य पड़ते हैं।” 
-डूमवाइल

प्रश्न 5.
शिक्षा की फ्रॉबेल द्वारा प्रतिपादित परिभाषा लिखिए।
या
शिक्षा की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
“शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक की जन्मजात शक्तियाँ बाहर प्रकट होती हैं।” 
-फ्रॉबेल

प्रश्न 6.
शिक्षा की महात्मा गांधी द्वारा प्रतिपादित परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
“शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक एवं मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क एवं आत्मा के सर्वोत्तम अंश का प्रकटीकरण है।” 
–महात्मा गांधी

प्रश्न 7.
‘शिक्षा द्विमुखी प्रक्रिया है। ऐसा किसने कहा है?
उत्तर:
जॉन एडम्स ने शिक्षा को द्विमुखी प्रक्रिया कहा है।

प्रश्न 8.
शिक्षा को त्रिमुखी प्रक्रिया किसने माना है?
उत्तर:
जॉन डीवी ने शिक्षा को त्रिमुखी प्रक्रिया माना है।

प्रश्न 9.
शिक्षा के तीन प्रमुख अंग क्या हैं?
या
डीवी के अनुसार शिक्षा के प्रमुख पक्ष क्या हैं?
उत्तर:
शिक्षा के तीन प्रमुख अंग हैं-शिक्षार्थी, पाठ्यक्रम तथा शिक्षक।

प्रश्न 10.
साक्षरता से क्या आशय है?
उत्तर:
साक्षरता का सामान्य अर्थ ‘अक्षर-ज्ञान’ या ‘लिपि ज्ञान’ है। यह भाषा के लिखित पक्ष से सम्बन्धित है, जिसके अन्तर्गत लिखना तथा पढ़ना सम्मिलित है।

प्रश्न 11.
‘शिक्षा’ एवं ‘साक्षरता’ का सम्बन्ध एक वाक्य में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शिक्षा एवं साक्षरता दोनों एक-दूसरे के सहायक एवं पूरक हैं।

प्रश्न 12.
क्या शिक्षा प्राप्त करने के लिए साक्षरता एक अनिवार्य शर्त है?
उत्तर:
नहीं, शिक्षा प्राप्त करने के लिए साक्षरता अनिवार्य शर्त नहीं है।

प्रश्न 13.
शिक्षा के चार मुख्य महत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
शिक्षा के चार मुख्य महत्त्व हैं-

  • जन्मजात शक्तियों का विकास करती है,
  • परिस्थितियों के साथ अनुकूलन में सहायक होती है,
  • प्रतिभा के अभिप्रकाशन में सहायक होती है तथा
  • व्यक्तित्व के समुचित विकास में सहायक होती है।

प्रश्न 14.
शिक्षा की महत्ता को स्पष्ट करने वाला जॉन लॉक का एक कथन लिखिए।
उत्तर:
“पौधों का विकास कृषि द्वारा होता है और मनुष्यों का शिक्षा के द्वारा।”

प्रश्न 15.
व्यक्तिगत जीवन में शिक्षा के एक महत्त्वपूर्ण कार्य का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
शिक्षा व्यक्ति की जन्मजात शक्तियों एवं गुणों के विकास में सहायक होती है।

प्रश्न 16.
सामाजिक दृष्टिकोण से शिक्षा के एक महत्त्वपूर्ण कार्य का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक दृष्टिकोण से शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है-सभ्यता एवं संस्कृति को सुरक्षा प्रदान करना।

प्रश्न 17.
“शिक्षा से मेरा अभिप्राय उन सर्वश्रेष्ठ गुणों का प्रदर्शन है जो बालक और मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा में विद्यमान है।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
यह कथन गांधी जी का है।

प्रश्न 18.
वर्तमान समय में शिक्षा शिक्षक/बालक केन्द्रित है।
उत्तर:
वर्तमान समय में शिक्षा बालक केन्द्रित है।

प्रश्न 19.
अनुदेश या निर्देश शिक्षा का संकुचित/व्यापक रूप है।
उत्तर:
संकुचित रूप है।

प्रश्न 20.
निम्न में से कौन-सा शब्द एजूकेशन से सम्बन्धित नहीं है।
(i) एजूकोरस,
(ii) एजेकेयर।
उत्तर:
(i) एजूकोरस।

प्रश्न 21.
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. शिक्षा एक जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है।
  2. जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा एक त्रि-पक्षीय प्रक्रिया है। ये पक्ष हैं-शिक्षक, शिक्षार्थी तथा शिक्षा का पाठ्यक्रम
  3. शिक्षा के द्वारा व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का पथ प्रशस्त होता है।
  4. शिक्षा तथा निर्देशन में कोई अन्तर नहीं है।
  5. शिक्षा के लिए साक्षरता एक अनिवार्य शर्त है।
  6. व्यक्ति की जन्मजात शक्तियों के विकास में शिक्षा का कोई योगदान नहीं होता।
  7. सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन के दृष्टिकोण से शिक्षा का कोई महत्त्व नहीं है।

उत्तर:

  1. सत्य,
  2. सत्य,
  3. सत्य,
  4. असत्य,
  5. असत्य,
  6. असत्य.
  7. असत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1.
शिक्षा क्या है?
(क) शिक्षा का अर्थ परीक्षा पास करना है।
(ख) शिक्षा एक विषय है।
(ग) शिक्षा विकासोन्मुखी परिवर्तन है
(घ) शिक्षा एक आदर्श है।

प्रश्न 2.
शिक्षा शब्द का अर्थ है–
(क) ज्ञान को प्रकाश में लाना।
(ख) ज्ञान को बाहर से भीतर को ले आना
(ग) ज्ञान की वृद्धि करना।
(घ) अन्तर्निहित शक्तियों का सर्वांगीण विकास करना

प्रश्न 3.
“संकुचित अर्थ में शिक्षा का अर्थ-हमारी शक्तियों के विकास और सुधार के लिए चेतनापूर्वक किये गये प्रयासों से किया जाता है।” यह परिभाषा है
(क) मैकेंजी की
(ख) पेस्टालॉजी की
(ग) फ्रॉबेल व
(घ) टी०पी० नन की

प्रश्न 4.
“शिक्षा मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों का स्वाभाविक, सर्वांगपूर्ण तथा प्रगतिशील विकास है।” यह परिभाषा किसने दी है?
(क) ब्राउन ने
(ख) एडीसन ने
(ग) हार्नी ने
(घ) पेस्टालॉजी ने

प्रश्न 5.
“शिक्षा एक द्विध्रुवीय प्रक्रिया है, जिसमें एक व्यक्ति का व्यक्तित्व दूसरे को प्रभावित करता है।” यह कथन किसका है?
(क) एडम्स का
(ख) एडीसन का
(ग) मॉण्टेसरी का
(घ) प्लेटो का

प्रश्न 6.
“शिक्षा से मेरा तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जो बालक और मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा के तत्त्वों का उत्कृष्ट और सर्वांगीण विकास करे।” यह कथन किसका है?
(क) विवेकानन्द का।
(ख) एनी बेसेण्ट का
(ग) सुकरात को।
(घ) महात्मा गांधी का

प्रश्न 7.
“शिक्षा एक त्रिमुखी प्रक्रिया है।” यह कथन किसका है?
(क) जॉन डीवी का
(ख) एडम्स का
(ग) कमेनियस को
(घ) ओटावे का

प्रश्न 8.
शिक्षा की द्विमुखी प्रक्रिया के कौन-से दो मुख्य भाग हैं?
(क) विद्यालय और शिक्षक
(ख) शिक्षक और बालक
(ग) बालक और माता।
(घ) समाज और पुस्तक

प्रश्न 9.
शिक्षा को ‘द्विमुखी प्रक्रिया’ कहा है
(क) जॉन एडम्स ने
(ख) जॉन लॉक ने
(ग) जॉन डीवी ने
(घ) जेम्स रॉस ने

प्रश्न 10.
शिक्षा की आवश्यकता का मुख्य कारण है
(क) जीवन की प्रगति
(ख) सन्तुलित एवं सर्वांगीण विकास
(ग) जीविकोपार्जन
(घ) सुखी जीवन

प्रश्न 11.
सच्ची शिक्षा का कार्य है.
(क) सूचनाएँ एकत्र करना।
(ख) कक्षा में अनुदेश देना
(ग) उपाधि प्रदान करना ।
(घ) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना

प्रश्न 12.
“शिक्षा जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि बिना शिक्षा के जीवन में प्रगति नहीं हो सकती।” यह कथन किसका है?
(क) जॉन डीवी का
(ख) रेमण्ट का
(ग) पेस्टोलॉजी का
(घ) हरबर्ट का

प्रश्न 13.
शिक्षा का प्रमुख कार्य कौन-सा है?
(क) बालक को ज्ञान देना।
(ख) बालक की मूल-प्रवृत्तियों का शोधन करना
(ग) बालक को संसार से लिप्त करना ।
(घ) बालक़ के सर्वांगीण विकास में उसकी सहायता करना

प्रश्न 14.
“स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का विकास ही शिक्षा है।” यह कथन है
(क) प्लेटो का
(ख) अरस्तू का
(ग) गांधी जी का
(घ) अरविन्द का

प्रश्न 15.
राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का प्रमुख कार्य है
(क) राष्ट्रीय विकास।
(ख) राष्ट्रीय एकता
(ग) योग्य नागरिकों का निर्माण
(घ) इनमें से सभी

प्रश्न 16.
एडम्स के अनुसार शिक्षा की द्विमुखी प्रक्रिया में दो तत्त्व होते हैं
(क) शिक्षक, शिष्य
(ख) शिक्षक, अभिभावक
(ग) शिष्य, पाठ्यक्रम।
(घ) शिक्षक, पाठ्यक्रम

प्रश्न 17.
शिक्षा के संकुचित अर्थ को सम्बन्ध है–
(क) घर से
(ख) विद्यालय से
(ग) समाज से
(घ) से सभी

उत्तर:

  1. (ग) शिक्षा विकासोन्मुखी परिवर्तन है,
  2. (घ) अन्तर्निहित शक्तियों का सर्वांगीण विकास करना,
  3. (क) मैकेंजी की,
  4. (क) ब्राउन ने,
  5. (क) एडम्स का,
  6. (घ) महात्मा गांधी का,
  7. (क) जॉन डीवी का,
  8. (ख) शिक्षक और बालक,
  9. (के) जॉन एडम्स ने,
  10. (ख) सन्तुलित एवं सर्वांगीण विकास,
  11. (घ) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना,
  12. (ख) रेमण्ट का,
  13. (घ) बालक के सर्वांगीण विकास में उसकी सहायता करना,
  14. (ख) अरस्तू का,
  15. (घ) इनमें से सभी,
  16. (क) शिक्षक, शिष्य,
  17. (ख) विद्यालय से।

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UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 2 Forms and Nature of Education

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 2
Chapter Name Forms and Nature of Education
(शिक्षा के स्वरूप एवं प्रकृति)
Number of Questions Solved 31
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 2 Forms and Nature of Education (शिक्षा के स्वरूप एवं प्रकृति)

वस्तुत उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
औपचारिक शिक्षा तथा अनौपचारिक शिक्षा का अर्थ स्पष्ट करते हुए इन दोनों का अन्तर : स्पष्ट कीजिए।
या
शिक्षा के औपचारिक स्वरूप का वर्णन कीजिए।
या
औपचारिक शिक्षा से क्या आशय है?
या
शिक्षा के औपचारिक एवं अनौपचारिक स्वरूपों का वर्णन कीजिए।
या
निरौपचारिक (अनौपचारिक) शिक्षा क्या है? उदाहरण दीजिए।
उतर:
व्यक्ति एवं समाज दोनों ही के लिए शिक्षा का विशेष महत्त्व है। शिक्षा एक व्यापक प्रक्रिया है। शिक्षा के अनेक प्रकार अथवा स्वरूप देखे जा सकते हैं। शिक्षा के प्रकारों का निर्धारण भिन्न-भिन्न आधारों पर किया जा सकता है। जब हम शिक्षा के नियमों एवं उसकी व्यवस्था को आधार मानकर शिक्षा के प्रकारों का निर्धारण करते हैं, तब हमारे सम्मुख शिक्षा के मुख्य रूप से दो स्वरूप या प्रकार प्रस्तुत होते हैं, जिन्हें क्रमश: औपचारिक शिक्षा (Formal Education) तथा अनौपचारिक शिक्षा (Informal Education) कहा जाता है। शिक्षा के इन दोनों प्रकारों के अर्थ, साधनों एवं अन्तर आदि का विवरण निम्नवत् है

औपचारिक शिक्षा
(Formal Education)

औपचारिक शिक्षा, जिसे नियमित या सांविधिक शिक्षा भी कहते हैं, बालकों को विचारपूर्ण तथा सुव्यवस्थित ढग से दी जाने वाली शिक्षा है। औपचारिक शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए जे० मोहन्नी ने लिखा है, “इस प्रकार की शिक्षा की योजना सोच-विचारकर और जान-बूझकर बनाई जाती है। इसके पाठ्यक्रम की रूपरेखा पहले से ही तैयार कर ली जाती है और इसके उद्देश्य भी पहले से ही निश्चित कर लिए जाते हैं।” स्पष्ट है इस शिक्षा की योजना पहले ही तैयार कर ली जाती है और इसका ध्येय भी निश्चित कर लिया जाता है। औपचारिक शिक्षा में पूर्व-निर्धारित रूपरेखा के अन्तर्गत बालकों को निश्चित समय पर निश्चित ज्ञान प्रदान किया जाता है। विशेष प्रकार की संस्थाओं में निश्चित व्यक्ति (शिक्षक) निश्चित विधियों के माध्यम से औपचारिक शिक्षा देते हैं। शिक्षा के इस स्वरूप में पाठ्यक्रम, समय-सारणी तथा पुस्तकें अत्यन्त आवश्यक समझी जाती हैं। शिक्षा के इस प्रकार के अन्तर्गत नियमित परीक्षाओं की व्यवस्था होती है तथा परीक्षाओं के आधार पर योग्यता का प्रमाण-पत्र भी प्रदान किया जाता है। वर्तमान समाज में औपचारिक शिक्षा के मुख्यतम अभिकरण विद्यालय या स्कूल-कॉलेज हैं। इनके अतिरिक्त पुस्तकालय, वाचनालय तथा संग्रहालय एवं कलावीथियाँ आदि भी औपचारिक शिक्षा के अभिकरण हैं। औपचारिक शिक्षा केवल एक निश्चित अवधि तक ही चलती है।

अनौपचारिक शिक्षा
(Informal Education)

अनौपचारिक शिक्षा को अनियमित या अविधिक या निरौपचारिक शिक्षा भी कहा जाता है। यह शिक्षा बालक को अनायास तथा आकस्मिक रूप से प्राप्त होती है और व्यक्ति के जीवन में जन्म से अन्त तक चलती रहती है। अनौपचारिक शिक्षा का कोई विचार, पूर्व-योजना, सुव्यवस्थित ढंग, सुनिश्चित स्थान, निश्चित समय और कोई निश्चित नियम नहीं होता। यह तो हर समय और हर स्थान पर किसी-न-किसी रूप में चलती रहती है। मुख्य रूप से अनौपचारिक शिक्षा अनुभवों पर आधारित शिक्षा है; अत: इसे अनुभव द्वारा प्राप्त की गई शिक्षा भी कहते हैं। यह शिक्षा किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी भी व्यक्ति को प्रदान की जा सकती है। परिवार, धर्म, राज्य, समाज, युवकों का समूह, खेल का मैदान, रेडियो, टेलीविजन, समाचार-पत्र तथा पत्रिकाएँ–अनौपचारिक शिक्षा के मुख्य साधन या अभिकरण हैं।

प्रश्न 2.
शिक्षाशास्त्र एक विज्ञान है या कला अथवा दोनों ही? अपने मत के समर्थन में तर्क प्रस्तुत कीजिए।
या
शिक्षाशास्त्र की प्रकृति पर प्रकाश डालते हुए बताइए कि यह एक विज्ञान है या कला।
या
“शिक्षाशास्त्र न तो शुद्ध विज्ञनि है और न ही शुद्ध कला।” आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं?
या
“शिक्षा कलाा है।” स्पष्टतया समझाइए।
उतर:

शिक्षाशास्त्र की प्रकृति : विज्ञान अथवा कला
(Nature of Education : Science or Art)

शिक्षाशास्त्र की प्रकृति के सम्बन्ध में वैचारिक मतभेद दृष्टिगोचर होते हैं। शिक्षाशास्त्र एक विज्ञान है या कला?-आज यह एक विवादास्पद प्रश्न है, जिसके सम्बन्ध में शिक्षाविदों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वानों के अनुसार शिक्षाशास्त्र एक विज्ञान है तो दूसरे विद्वानों के अनुसार यह एक कला है। अधिकांश विद्वानों की दृष्टि में शिक्षाशास्त्र न तो विशुद्ध विज्ञान है और न ही विशुद्ध कला, बल्कि शिक्षाशास्त्र अपने वैज्ञानिक और कलात्मक या व्यावहारिक पक्षों के कारण विज्ञान तथा कला दोनों है। शिक्षाशास्त्र की प्रकृति के विषय में सही निर्णय लेने से पहले आवश्यक है कि विज्ञान एवं कला की विशेषताओं से परिचय प्राप्त किया जाए। इसके साथ ही उन मौलिक सिद्धान्तों तथा मानदण्डों से परिचित भी होना चाहिए जिनके आधार पर ज्ञान की किसी शाखा को विज्ञान या कला की श्रेणी में रखा जाता है।

शिक्षाशास्त्र का वैज्ञानिक पक्ष
(Scientific Aspect of Education)

विज्ञान क्या है?- प्रसिद्ध विचारक ग्रीन के अनुसार, “विज्ञान अन्वेषण का तरीका है।” विज्ञान सत्य या सच्चे ज्ञान का अन्वेषण (खोज) करता है, फिर उस ज्ञान को व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध करके कुछ नियम या सिद्धान्त बनाता है, जो निश्चित एवं सर्वमान्य होते हैं और समान परिस्थितियों में समान रूप से लागू होते हैं। बर्नेट का कथन है, “विज्ञान सामान्यतः जाँचा गया अनुभव है, प्रदत्तों-निष्कर्षों तथा सामान्य नियमों का एक संगठन है, जो अनुभवों से प्राप्त होता है, जिसके आधार पर घटनाओं तथा परिस्थितियों की सर्वोत्तम ढंग से व्याख्या या आलोचना की जाती है। वस्तुत: विज्ञान स्वयं में कोई विषय-सामग्री नहीं, अपितु वैज्ञानिक पद्धति से प्राप्त किया गया व्यवस्थित ज्ञान है।

क्या शिक्षाशास्त्र विज्ञान है?- विज्ञान की भाँति शिक्षा के कुछ निश्चित नियम, सिद्धान्त एवं कार्य होते हैं। इन सभी को विज्ञान की तरह से निर्धारित किया जाता है, इनके परिणाम निकाले जाते हैं तथा मूल्यांकन किया जाता है। आजकल शिक्षा से सम्बन्धित प्रत्येक क्षेत्र में वैज्ञानिक पद्धति को ही अपनाया जा रहा है। शैक्षिक अध्ययनों में भी वैज्ञानिक अध्ययनों की तरह से प्रदत्तों का संग्रह, विश्लेषण, वर्गीकरण, प्रायोगीकरण, सत्य का निर्धारण तथा नियमीकरण किया जाता है। सैद्धान्तिक स्तर पर शिक्षा-शिक्षण के लक्ष्यों, उद्देश्यों, . विधियों तथा नियमों का निर्धारण करती है, जिसमें वैज्ञानिक विधियों का आश्रय लिया जाता है। शिक्षा के पाठ्यक्रम से जुड़े अनेक अध्ययनों; जैसे-शैक्षिक मूल्यांकन, पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त, कक्षा-शिक्षण, सीखने के नियम, स्मरण की विधियों, अवधान तथा थकान आदि के अन्तर्गत भी वैज्ञानिक सिद्धान्तों तथा नियमों का ही प्रयोग होता है।

क्या शिक्षाशास्त्र विशुद्ध विज्ञान है?- यद्यपि शिक्षाशास्त्र एक विज्ञान है तथापि भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान और गणित की भाँति इसे विशुद्ध विज्ञान नहीं कहा जा सकता। वस्तुत: विशुद्ध विज्ञानों का सम्बन्ध पदार्थों (Matter) से है, जब कि शिक्षाशास्त्र एक मानवीय विषय (Human Subject) है जिसका सम्बन्ध मनुष्य मात्र से होता है। इस प्रकार इसे सामाजिक विज्ञानों की श्रेणी में रखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त, विशुद्ध विज्ञान की तरह से शिक्षा के नियम तथा सिद्धान्त अपरिवर्तनशील, निश्चित एवं सार्वभौमिक नहीं होते। इनमें देश-काल, पात्र तथा व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। सत्य तो यह है कि शिक्षा का मानव के मन और आचरण से सीधा सम्बन्ध है जिसके विषय में निश्चित नियमों का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। शिक्षा से सम्बन्धित नियमों एवं सिद्धान्तों को सामान्य परिस्थितियों में ही लागू किया जा सकता है। यही कारण है कि शिक्षा को ‘विशुद्ध विज्ञान के स्थान पर ‘व्यावहारिक विज्ञान’ कहना अधिक उचित होगा।

शिक्षाशास्त्र कला के रूप में
(Education as an Art)

कला क्या है?- कला ‘निर्माण’ या ‘उत्पादन’ की एक प्रक्रिया है जिसमें मनुष्य का कौशल निहित है। कला का उद्देश्य कुछ जानना (अर्थात् ज्ञान) न होकर कुछ ‘सृजन करना है। इस प्रकार विज्ञान एवं कला में उपयोगिता की दृष्टि से मौलिक भेद है। नृत्य, संगीत, मूर्तिकला, चित्रकारी तथा काष्ठकला आदि में निर्माण या सृजन का ही दृष्टिकोण प्रमुख होता है।

क्या शिक्षाशास्त्र कला है?- कला को एक ऐसी व्यावहारिक कुशलता कहा गया है जिसका प्रधान उद्देश्य रचना, निर्माण तथा सृजन है। शिक्षक एक कुशल कलाकार है और उसका शिक्षण-कार्य एक कला है। दूसरे शब्दों में, शिक्षक एक दक्ष कलाकार की तरह कक्षा में शिक्षण-कार्य करता है और बालकों के व्यक्तित्व का निर्माण करता है। उसके लिए विद्यालय एक कला-मन्दिर है, जिसमें अपने आदर्शों के अनुसार वह बालकों के मानस-पटल पर सुन्दर चित्र बनाता है। बालक के व्यवहार में वांछित परिवर्तन शिक्षक की शिक्षण-कला, पर निर्भर करता है। जो शिक्षक अपनी शिक्षण-कला में जितना अधिक पारंगत होता है, वह उतना ही अपने छात्रों का हित कर सकता है। इस दृष्टि से विचार करने पर शिक्षा को कला की संज्ञा दी जा सकती है।

क्या शिक्षाशास्त्र विशुद्ध कला है?- शिक्षा एक ‘कला और शिक्षक ‘कलाकार’ अवश्य है, किन्तु शिक्षक-चित्रकार, शिल्पी या संगीतज्ञ की तरह अपनी शिक्षण-कला को विशुद्ध एवं स्वतन्त्र प्रदर्शन नहीं कर सकता। वह किन्हीं सीमाओं के भीतर रहकर ही शिक्षण कार्य करता है। उसके शिक्षण की पद्धति बालकों की व्यक्तिगत भिन्नताओं; जैसे-शारीरिक-मानसिक-बौद्धिक शक्तियों, रुचियों, अभिरुचियों तथा क्षमताओं आदि; पर आधारित होती है और तदनुसार परिवर्तित भी होती रहती है। हाँ, यदि शिक्षक एक स्वतन्त्र कलाकार की भाँति स्वेच्छा से शिक्षण-कार्य कर पाता तो शिक्षा को विशुद्ध कला कहा जा सकता था, किन्तु उपर्युक्त तर्कों के अन्तर्गत उसे विशुद्ध कला’ क़ा नाम नहीं दिया जा सकता।

शिक्षाशास्त्र विज्ञान और कला दोनों ही है।
(Education is both a Science and an Art)

शिक्षा के वैज्ञानिक तथा कलात्मकं पक्षों की समीक्षा के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शिक्षाशास्त्र को न तो विशुद्ध विज्ञान की श्रेणी में रखा जा सकता है और न ही विशुद्ध कला की श्रेणी में। जहाँ तक शिक्षा की पद्धति, विधि, पाठ्यक्रम, समय-चक्र तथा कार्य-प्रणाली का प्रश्न है-इन्हें निर्मित करते समय शिक्षा की वैज्ञानिक प्रकृति लाभकारी सिद्ध होती है, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से शिक्षण-कार्य के सन्दर्भ में शिक्षा की कलात्मक प्रकृति का ही महत्त्व है। नि:सन्देह और सर्वमान्य रूप से, ‘शिक्षाशास्त्र, विज्ञान और कला दोनों ही हैं।

लघु उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सामान्य शिक्षा तथा विशिष्ट शिक्षा से क्या आशय है? या विशिष्ट शिक्षा क्या है।
उतर:

समान्य तथा विशिष्ट शिक्षा
(General and Specific Education)

शिक्षा के उद्देश्य के आधार पर शिक्षा के दो प्रकारों का निर्धारण किया गया है, जिन्हें क्रमश: सामान्य शिक्षा तथा विशिष्ट शिक्षा के रूप में जाना जाता है। शिक्षा के इन दोनों प्रकारों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित
1. सामान्य शिक्षा- यह शिक्षा बालकों को सामान्य जीवन के लिए तैयार करती है। इस शिक्षा का कोई विशेष उद्देश्य नहीं होता। इसके अन्तर्गत बालक को किसी व्यवसाय के लिए तैयार नहीं किया जाता, अपितु उसमें तत्परता लाने की दृष्टि से उसकी सामान्य बुद्धि को तीव्र करने का प्रयास किया जाता है। सामान्य शिक्षा को उदार शिक्षा भी कहा जाता है। भारत के माध्यमिक स्कूलों में इसी प्रकार की शिक्षा प्रदान की जाती है।

2. विशिष्ट शिक्षा- 
यह शिक्षा किसी विशेष उद्देश्य को ध्यान में रखकर प्रदान की जाती है। यह विशेष उद्देश्य बालक को किसी विशेष दिशा में अपरिहार्य गुणों, कार्य-कुशलताओं तथा क्षमताओं से परिपूर्ण कर देता है। इस शिक्षा को प्राप्त करने के उपरान्त बालक जीवन के एक विशेष या निश्चित क्षेत्र; जैसे-डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, चित्रकार या एकाउण्टेण्ट आदि; में कार्य करने के लिए कुशलता एवं योग्यता प्राप्त कर लेता है। वर्तमान युग में जीविका उपार्जन के लिए तथा किसी भी क्षेत्र में विशेषज्ञ का स्थान अर्जित करने के लिए विशिष्ट शिक्षा को ही आवश्यक माना जाता है।

प्रश्न 2.
वैयक्तिक शिक्षा तथा सामूहिक शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट कीजिट।
उतर:

वैयक्तिक तथा सामूहिक शिक्षा
(Individual and Collective Education)

शिक्षक तथा विद्यार्थी या छात्र के आपसी सम्बन्धों के आधार पर शिक्षा के दो प्रकारों का निर्धारण किया गया है, जिन्हें क्रमश: वैयक्तिक शिक्षा तथा सामूहिक शिक्षा के रूप में जाना जाता है। शिक्षा के इन दोनों प्रकारों का संक्षिप्त विवरण अग्रलिखित है–
1. वैयक्तिक शिक्षा- यह शिक्षा सिर्फ एक बालक से सम्बन्धित शिक्षा है, जिसके अन्तर्गत बालक को व्यक्तिगत रूप से तथा अकेले सिखाया जाता है। शिक्षा देते समय बालक की प्रकृति, योग्यता, रुचि, अभिरुचि तथा व्यक्तिगत विभिन्नता को ध्यान में रखा जाता है और शिक्षण की समस्त क्रियाओं का प्रभाव भी उसी बालक पर केन्द्रित किया जाता है। इस शिक्षा में शिक्षक प्रचलित नवीन शिक्षण-विधियों का प्रयोग करता है। आधुनिक समय में वैयक्तिक शिक्षा पर काफी जोर दिया जा रहा है, परन्तु गरीब देशों में इस प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था कर पाना बहुत कठिन है।

2. सामूहिक शिक्षा- सामूहिक शिक्षा बालकों के समूह से सम्बन्धित है, जिसके अन्तर्गत बहुत-से बालक कक्षा में एक साथ बैठकर एक ही प्रकार की शिक्षा प्राप्त करते हैं। सामूहिक शिक्षा में सभी बालकों को समान स्तर पर समान शिक्षण-विधियों द्वारा शिक्षा दी जाती है और उनकी व्यक्तिगत योग्यताओं, प्रवृत्तियों, रुचियों, अभिरुचियों तथा विभिन्नताओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। वर्तमान में विश्वभर के सभी स्कूलों में सामूहिक शिक्षा का ही प्रचलन है। सामूहिक शिक्षा से केवल औसत क्षमताओं वाले छात्र ही लाभान्वित होते हैं। इस प्रकार की शिक्षा औसत से निम्न तथा औसत से उच्च-स्तर के छात्रों के लिए अधिक लाभकारी सिद्ध नहीं होती है।

प्रश्न 3.
प्रत्यक्ष शिक्षा तथा परोक्ष शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
उतर:

प्रत्यक्ष शिक्षा तथा परोक्ष (अप्रत्यक्ष) शिक्षा
(Direct and Indirect Education)

शिष्य या विद्यार्थी पर शिक्षक के पड़ने वाले प्रभाव के आधार पर भी शिक्षा के प्रकारों का निर्धारण किया गया हैं, जिन्हें क्रमश: प्रत्यक्ष शिक्षा तथा परोक्ष शिक्षा के रूप में जाना जाता है। शिक्षा के इन दोनों प्रकारों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है–
1. प्रत्यक्ष शिक्षा- अनेक शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा को अध्यापक तथा शिक्षार्थी के बीच एक द्विमुखी प्रक्रिया माना है। अध्यापक एक परिपक्व व्यक्तित्व होने के नाते अपने ज्ञान, आदर्श एवं चरित्र से बालक को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है, जिसके परिणामस्वरूप बालक अध्यापक का अनुसरण करता है। जब अध्यापक और बालक पूर्व निश्चित उद्देश्य के अनुसार सुनियोजित रूप से एक-दूसरे के सम्मुख बैठकर ज्ञान का आदान-प्रदान करते हैं, तो उसे प्रत्यक्ष शिक्षा कहा जाता है।

2. परोक्ष शिक्षा- 
परोक्ष शिक्षा में अध्यापक के व्यक्तित्व का प्रत्यक्ष (सीधा) प्रभाव बालक पर नहीं पड़ता। वह परोक्ष साधनों द्वारा प्रभावित होता है। इस शिक्षा का कोई उद्देश्य या योजना पहले से तय नहीं होती। इसके अन्तर्गत शिक्षा कार्यक्रमों के विषय में अधिकांश निर्देश परोक्ष रूप में दिए जाते हैं तथा बालक स्वतन्त्र वातावरण में परोक्ष साधनों द्वारा इच्छानुसार शिक्षा ग्रहण करता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से परोक्ष शिक्षा को उत्तम माना जाता है।

अतिलघु उतरीय प्रण

प्रश्न 1.
औपचारिक शिक्षा के महत्व का उल्लेख कीजिए।
उतर:
विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में व्यवस्थित रूप से प्रदान की जाने वाली शिक्षा को औपचारिक शिक्षा कहा जाता है। औपचारिक शिक्षा के महत्त्व का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

  1. किसी विशेष क्षेत्र में व्यवस्थित ज्ञान अर्जित करने के लिए औपचारिक शिक्षा ही आवश्यक होती है। औपचारिक शिक्षा के अभाव में विशेष ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता।
  2. भले ही औपचारिक शिक्षा का क्षेत्र संकुचित है, किन्तु आज का समाज उसी व्यक्ति को सुशिक्षित मानता है जिसने औपचारिक ढंग से किसी मान्यता प्राप्त शिक्षा-संस्थान या विश्वविद्यालय से प्रमाण-पत्र अर्जित किया है।
  3. वर्तमान परिस्थितियों में जीविका उपार्जन के दृष्टिकोण से भी औपचारिक शिक्षा को ही अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। किसी सरकारी अथवा गैर-सरकारी प्रतिष्ठान में नौकरी पाने के लिए औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के प्रमाण-पत्र के आधार पर ही अनिवार्य योग्यता निर्धारित की जाती है।

प्रश्न 2.
अनौपचारिक शिक्षा के महत्त्व का उल्लेख कीजिए।
उतर:
किसी भी स्रोत से ज्ञान प्राप्त करना ही अनौपचारिक शिक्षा है। अनौपचारिक शिक्षा का व्यक्ति के जीवन में विशेष महत्त्व है। अनौपचारिक शिक्षा के महत्त्व का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

  1. अनौपचारिक शिक्षा बालक के भावी जीवन की आधारशिला है। बालक अपने प्रारम्भिक जीवन में अनौपचारिक ढंग से ही शिक्षा प्राप्त करता है। शिक्षा मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में प्रारम्भ के पाँच वर्षों में बालक का व्यक्तित्व अनौपचारिक शिक्षा द्वारा ही निर्मित होता है।
  2. अनौपचारिक शिक्षा व्यापक है। यह मानव-जीवन के सभी पक्षों से सम्बन्ध रखती है और व्यक्ति को जीवन की यथार्थ परिस्थितियों के साथ सामंजस्य सिखाती है।
  3. अनौपचारिक शिक्षा द्वारा बालक का सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकसित होता है। बालक सद्-आचरण, व्यवहार, नैतिक-शिक्षा, सभ्यता एवं संस्कृति का अधिकाधिक ज्ञान इसी शिक्षा द्वारा प्राप्त करता है।

प्रश्न 3.
लोकतन्त्रात्मक राज्य में समाचार-पत्र और पत्रिकाओं की शैक्षिक भूमिका पर टिप्पणी कीजिए।
उतर:
वर्तमान लोकतन्त्रात्मक राज्य एवं समाज में शिक्षा की अवधारणा अत्यधिक विस्तृत हो गयी है। तथा इस प्रक्रिया के लिए विभिन्न प्रकार के अभिकरण उपलब्ध हैं। समाचार-पत्र तथा पत्रिकाएँ शिक्षा के निरौपचारिक अभिकरण हैं। समाचार-पत्र तथा पत्रिकाएँ अनेक प्रकार की सूचनाएँ, जानकारी तथा ज्ञान प्रदान करने वाले स्रोत हैं। अत: इनका विशेष शैक्षिक महत्त्व एवं भूमिका है। शिक्षा के ये अभिकरण प्रत्येक व्यक्ति के लिए उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण हैं। सामान्य शिक्षा, दूरस्थ शिक्षा तथा प्रौढ़ या सामाजिक-शिक्षा के दृष्टिकोण से पत्र-पत्रिकाओं का विशेष महत्त्व है।

प्रश्न 4.
सकारात्मक शिक्षा (Positive Education) से क्या आशय है?
उतर:
सकारात्मक या निश्चयात्मक शिक्षा को उद्देश्य बालक को कुछ निश्चित तथ्यों, आदर्शों तथा मूल्यों (जैसे—सूर्य पूरब दिशा से निकलता है, पत्तियों का रंग हरा होता है, सदा सत्य बोलना चाहिए, निर्धनों की सहायता करनी चाहिए आदि) का ज्ञानं प्रदान करना है। यहाँ ज्ञान के हस्तान्तरण में शिक्षक की भूमिका प्रधान है। शिक्षा के इस स्वरूप के अन्तर्गत बालक बिना किसी तर्क-वितर्क के ही ज्ञान को स्वीकार कर लेता है। सकारात्मक शिक्षा को आदर्शवादी विचारधारा को समर्थन प्राप्त है।

प्रश्न 5.
नकारात्मक शिक्षा (Negative Education) के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
या
निषेधात्मक शिक्षा से आप क्या समझते हैं?
उतर:
नकारात्मक या निषेधात्मक या अनिश्चयात्मक शिक्षा में बालक स्वयं अपने अनुभव तथा क्रियाओं द्वारा ज्ञान अर्जित करता है। अपने आदर्शों का निर्माता भी वह स्वयं है। अध्यापक की भूमिका एक मार्गदर्शक से अधिक नहीं होती जो उचित वातावरण तैयार करने में सहायता करता है। इस शिक्षा के अन्तर्गत बालक अपनी रुचियों, इच्छाओं तथा स्वाभाविक प्रवृत्तियों के अनुसार अपना शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास करता है। नकारात्मक शिक्षा का समर्थन प्रयोगवादी तथा प्रकृतिवादी विचारधारा के पक्षधर करते हैं।

निश्चित उतरीय प्रश्न,

प्रश्न 1.
शिक्षा के नियमों एवं व्यवस्था के आधार पर शिक्षा के कौन-कौन-से प्रकार या स्वरूप
निर्धारित किए गए हैं?
उतर:
शिक्षा के नियमों एवं व्यवस्था के आधार पर शिक्षा के दो प्रकार या स्वरूप निर्धारित किए गए। हैं–

  • औपचारिक शिक्षा तथा
  • अनौपचारिक शिक्षा।

प्रश्न 2.
प्रवेश और प्रस्थान के निश्चित बिन्दु किस प्रकार की शिक्षा के लक्षण हैं?
उतर:
प्रवेश और प्रस्थान के निश्चित बिन्दु औपचारिक शिक्षा के लक्षण हैं।

प्रश्न 3.
औपचारिक शिक्षा प्रदान करने वाले मुख्य अभिकरणों को क्या कहते हैं?
उतर:
औपचारिक शिक्षा प्रदान करने वाले मुख्य अभिकरणों को विद्यालय अथवा स्कूल कहते हैं।

प्रश्न 4.
शिक्षा के उस स्वरूप को क्या कहते हैं, जो बिना निर्धारित पाठ्यक्रम, पुस्तकों एवं नियमों के …। ही आजीवन चलती रहती है?
उतर:
अनौपचारिक शिक्षा।।

प्रश्न 5.
किसी व्यवस्थित संस्थान में कार्यरत होने के लिए किस प्रकार की शिक्षा को अनिवार्य योग्यता के रूप में स्वीकार किया जाता है?
उतर:
औपचारिक शिक्षा को।।

प्रश्न 6.
जीवन में व्यावहारिक कुशलता अर्जित करने के लिए शिक्षा के किस स्वरूप को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है?
उतर:
जीवन में व्यावहारिक कुशलता अर्जित करने के लिए अनौपचारिक शिक्षा को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

प्रश्न 7.
कुशल व्यवसायी अर्थात् डॉक्टर, इन्जीनियर तथा वकील आदि बनने के लिए दी जाने वाली शिक्षा को क्या कहते हैं?
उतर:
कुशल व्यवसायी बनने के लिए दी जाने वाली शिक्षा को विशिष्ट शिक्षा कहते हैं।

प्रश्न 8.
व्यक्ति की व्यक्तिगत योग्यताओं, रुचियों, अभिरुचियों एवं क्षमताओं आदि को ध्यान में रखकर दी जाने वाली शिक्षा को क्या कहते हैं?
उतर:
इस प्रकार की शिक्षा को वैयक्तिक शिक्षा कहते हैं।

प्रश्न 9.
भिन्न-भिन्न योग्यताओं एवं अंमताओं वाले अनेक बालकों को एक ही प्रकार की एक साथ दी जाने वाली शिक्षा को क्या कहते हैं?
उतर:
सामूहिक शिक्षा।

प्रश्न 10.
जब शिक्षक अपने विचारों, आदर्शों एवं मूल्यों आदि को शिक्षा के रूप में छात्रों पर थोपने का प्रयास करता है तब उस शिक्षा को क्या कहते हैं?
उतर:
इस प्रकार की शिक्षा कों, प्रत्यक्ष शिक्षा कहते हैं।

प्रश्न 11.
आप शिक्षा को किस प्रकार के विज्ञानों की श्रेणी में रखते हैं।
उतर:
हम शिक्षा को व्यावहारिक विज्ञानों की श्रेणी में रखते हैं।

प्रश्न 12.
शिक्षा की मूल प्रकृति को स्पष्ट कीजिए।
या
शिक्षा विज्ञान है अथवा कला या दोनों?
उतर:
शिक्षा को हम न तो शुद्ध विज्ञान मान सकते हैं और न ही शुद्ध कला। यह विज्ञान तथा कला दोनों ही है।

प्रश्न 13.
किस शिक्षा-व्यवस्था में ‘निषेधात्मक शिक्षा को विशेष महत्त्व दिया गया है।
उतर:
प्रकृतिवादी शिक्षा-व्यवस्था में ‘निषेधात्मक शिक्षा’ को विशेष महत्त्व दिया गया है।

प्रश्न 14.
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. औपचारिक शिक्षा का मुख्य अभिकरण परिवार है।
  2. अनौपचारिक शिक्षा की उत्तम व्यवस्था विद्यालय द्वारा की जाती है।
  3. परिवार, समाज, खेल का मैदान, समाचार-पत्र आदि अनौपचारिक शिक्षा के मुख्य अभिकरण हैं।
  4. बालक के व्यक्तित्व के सुचारु विकास के लिए वैयक्तिक शिक्षा की व्यवस्था ही लाभदायक होती है।
  5. सकारात्मक शिक्षा को आदर्शवादी विचारधारा का समर्थन प्राप्त है।
  6. शिक्षा मूल रूप से एक विशुद्ध विज्ञान है।
  7. शिक्षा विज्ञान एवं कला दोनों ही है।

उतर:

  1. असत्य,
  2. असत्य,
  3. सत्य,
  4. सत्य,
  5. सत्य,
  6. असत्य,
  7. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न 1.
औपचारिक शिक्षा की प्रमुख विशेषता है
(क) नियमितता
(ख) व्यापकता
(ग) संकीर्णता
(घ) वैज्ञानिकता

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कौन-सी विशेषता औपचारिक शिक्षा पर लागू नहीं होती?
(क) पूर्व निर्धारित नियमों पर आधारित
(ख) योग्यता का प्रमाण-पत्र देने की व्यवस्था
(ग) सीमित अवधि तक चलती है।
(घ) जीवन-पर्यन्त चलती है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सी विशेषता अनौपचारिक शिक्षा पर लागू नहीं होती?
(क) स्पष्ट रूप से निर्धारित पाठ्यक्रम का अभाव
(ख) नियमित रूप से परीक्षाओं का आयोजन
(ग) क्षेत्र की व्यापकता
(घ) आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है

प्रश्न 4.
अनौपचारिक शिक्षा का अभिकरण नहीं है|
(क) परिवार
(ख) खेल समूह
(ग) तकनीकी शिक्षा प्रशिक्षण संस्थान
(घ) आर्य समाज मन्दिर

प्रश्न 5.
औपचारिक शिक्षा का अभिकरण है
(क) गृह
(ख) विद्यालय
(ग) राज्य
(घ) समाज

प्रश्न 6.
हमारे देश की अधिकांश शिक्षण-संस्थाओं द्वारा दी जाने वाली शिक्षा का स्वरूप है|
(क) वैयक्तिक शिक्षा
(ख) सामूहिक शिक्षा
(ग) अति आवश्यक शिक्षा
(घ) अनावश्यक शिक्षा

प्रश्न 7.
शिक्षा किस प्रकार का विज्ञान है?
(क) यथार्थ विज्ञान
(ख) आदर्शात्मक विज्ञान
(ग) व्यावहारिक विज्ञान
(घ) विज्ञान है ही नहीं

प्रश्न 8.
शिक्षा की प्रकृति को स्पष्ट करने वाला कथन है–
(क) शिक्षा मूल रूप से एक शुद्ध कला है
(ख) शिक्षा मूल रूप से एक शुद्ध विज्ञान है।
(ग) शिक्षा न तो शुद्ध विज्ञान है और न ही शुद्ध कला
(घ) शिक्षा की प्रकृति अस्पष्ट है।
उतर:

1. (क) नियमितता,
2. (घ) जीवन-पर्यन्त चलती है,
3. (ख) नियमित रूप से परीक्षाओं का आयोजन,
4. (ग) तकनीकी शिक्षा प्रशिक्षण संस्थान,
5. (ख) विद्यालय,
6. (ख) सामूहिक शिक्षा,
7. (ग) व्यावहारिक विज्ञान,
8. (ग) शिक्षा न तो शुद्ध विज्ञान है और न ही शुद्ध कला।।

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UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 23 Social Development

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 23
Chapter Name Social Development (सामाजिक विकास)
Number of Questions Solved 15
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 23 Social Development (सामाजिक विकास)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
सामाजिक विकास से आप क्या समझते हैं ? सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले मुख्य कारकों का भी उल्लेख कीजिए।
या
सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों का उल्लेख कीजिए। बालक के सामाजिक विकास में पारिवारिक कारक और विद्यालयी कारक की भूमिका का वर्णन कीजिए।
या
सामाजिक विकास क्या है?

सामाजिक विकास का अर्थ
(Meaning of Social Development)

बालक जन्म से सामाजिक नहीं होता। समाज में रहकर ही उसके अन्दर सामाजिकता का विकास होता है। शारीरिक विकास और सामाजिक विकास साथ-साथ चलते हैं। विभिन्न सामाजिक संस्थाएँ उसके समाजीकरण में योग प्रदान करती हैं। सामाजिक विकास की प्रक्रिया जन्म से लेकर मृत्यु तक चलती रहती है। सामाजिक विकास के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए हम यहाँ विभिन्न विद्वानों की परिभाषाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं।

1. सोरेन्सन (Sorenson) के अनुसार, “सामाजिक विकास का तात्पर्य है अपने तथा दूसरे व्यक्तियों के साथ समायोजन की शक्ति में वृद्धि।”

2. ऑगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार, “समाजीकरण एक प्रक्रिया है जिसमें एक व्यक्ति एक सामाजिक मनुष्य में परिवर्तित हो जाता है।” उपर्युक्त विवरण द्वारा सामाजिक विकास का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि व्यक्ति के द्वारा सामाजिक मान्यताओं के अनुसार अपने व्यवहार को निर्धारित करने की प्रक्रिया को सामाजिक विकास कहते हैं।

सामाजिक विकास की क्रमिक प्रक्रिया से बालक में समाज के अन्य मनुष्यों से सम्पर्क स्थापित करने की योग्यता में वृद्धि होती है। सामाजिक विकास के साथ-साथ व्यक्ति की रुचियों, मनोवृत्तियों तथा आदतों में प्रौढ़ता आती है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बालक का पारिवारिक एवं सामाजिक पर्यावरण ही उसके सामाजिक विकास को परिचालित एवं नियन्त्रित करता है। सामाजिक विकास की प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्ति का व्यवहार एवं दृष्टिकोण समाज-सम्मत बनता है।

सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक
(Factors Influencing Social Development)

बालक के सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं

1. शारीरिक कारक- जिन बालकों का स्वास्थ्य ठीक नहीं होता, उनका सामाजिक विकास भी सामान्य गति से नहीं होता। शारीरिक दुर्बलता बालक में हीनता लाती है और वह अपने साथियों से अलग रहना पसन्द करता है। हीनता की यह भावना बालक के सामाजिक विकास में बाधा उत्पन्न करती है। बीमार और कमजोर बालक प्रायः जिद्दी और उद्दण्ड बन जाते हैं। इसके विपरीत स्वस्थ बालकों का सामाजिक विकास सामान्य ढंग से होता है। वे अपने साथियों के सम्पर्क में आकर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।

2. परिवार का वातावरण- परिवार वह स्थान है, जहाँ बालक का सर्वप्रथम समाजीकरण होता है। बालक परिवार के विभिन्न सदस्यों के सम्पर्क में आता है और उनके सम्पर्क में आकर अनेक बातें सीखता है। यह सीखना ही एक प्रकार का समाजीकरण एवं सामाजिक विकास है। परिवार का जैसा वातावरण होता है, वैसा ही बालक सामाजिक आचरण सीखता है। परिचितों को देखकर अभिवादन करना, बड़ों को देखकर खड़े हो जाना तथा शिष्ट एवं संयत स्वर में बोलना, परस्पर सहयोग के लिए तैयार रहना आदि सामाजिक आचरण का शिक्षण-स्थल परिवार है। बालक के सामाजिक विकास में परिवार की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, परिवार में ही रहकर बालक विभिन्न सामाजिक सद्गुणों को सीखता एवं आत्मसात् करता है। परिवार के बड़े सदस्य ही बालक की व्यक्तिगत एवं स्वार्थ सम्बन्धी मनोवृत्तियों को दूर करते हैं तथा सामाजिकता की प्रवृत्ति को पुष्ट करते हैं।

3. पालन- पोषण का स्वरूप-जिस परिवार में समस्त बालकों के साथ सामान्य व्यवहार नहीं होता और पक्षपात का बोलबाला रहता है, उस परिवार के बालकों का सामाजिक विकास ठीक प्रकार से नहीं होता। एक उपेक्षित बालक अपने अन्दर हीनता की भावना अनुभव करता है। इसके विपरीत अधिक लाड़-प्यार में पला बालक अहम् की भावना से ग्रसित हो जाता है और वह अपने को ऊँचा समझने के कारण साथियों से अलग रहने का प्रयास करता है, परन्तु जिन बालकों के साथ समानता का व्यवहार किया जाता है, उनका सामाजिक विकास स्वाभाविक रूप से होता है।

4. पास-पड़ोस- बालक जब बड़ा होता है तो वह अपने पास-पड़ोस के सम्पर्क में आता है। इस प्रकार सामाजिक क्षेत्र बढ़ जाता है। वह पड़ोसियों से मिल-जुलकर अनेक बातें सीखता है। इस प्रकार पास-पड़ोस भी उसके सामाजिक विकास में अपना योगदान प्रदान करता है।

5. आर्थिक स्थिति- परिवार की आर्थिक स्थिति का भी प्रभाव बालक के सामाजिक विकास पर पड़ता है। जिन परिवारों में बालकों को पढ़ने-लिखने व खेलने-कूदने की अनेक सुविधाएँ होती हैं, उन परिवारों में बालक का सामाजिक विकास स्वाभाविक रूप में होता है। दूसरे, सम्पन्न परिवारों के निवास की दशा तथा पड़ोस उत्तम होते हैं। परिवार के सदस्यों का सम्पर्क भी अच्छे व सुसंस्कृत व्यक्तियों से होता है। निर्धन परिवार इन सुविधाओं से वंचित रहते हैं। आर्थिक संकट परिवार में कलह और तनाव का कारण होता है। इस प्रकार के तनाव का बालक के सामाजिक विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

6. क्लब और दल- जो बालक किसी क्लब या दल के सदस्य होते हैं, उनमें अन्य बालकों की अपेक्षा सामाजिकता की भावना अधिक पायी जाती है। क्लब और दल के सदस्यों में परस्पर सहयोग की भावना होती है। बालक क्लब या दल के सदस्य के रूप में शिष्टाचार और सद्व्यवहार आदान-प्रदान करते हैं तथा विभिन्न समारोहों का आयोजन करते हैं। ये समस्त क्रियाएँ बालक के सामाजिक विकास में परम सहायक होती हैं।

7. संवेगात्मक विकास- क्रो व क्रो के अनुसार, “संवेगात्मक और सामाजिक विकास साथ-साथ चलते हैं।” जो बालक क्रोधी तथा ईष्र्यालु स्वभाव के होते हैं, उन्हें समाज में आदर नहीं मिलता और न ही वे अन्य व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हो पाते हैं। इसके विपरीत एक हँसमुख और उत्साही स्वभाव का बालक शीघ्र ही लोकप्रिय हो जाता है और उसके सम्पर्क में प्रत्येक व्यक्ति आना चाहता है।

8. बालक-बालिका का सम्बन्ध- बालक-बालिकाओं के पारस्परिक सम्बन्ध भी सामाजिक विकास पर प्रभाव डालते हैं। किशोरावस्था में बालक-बालिकाएँ परस्पर मिलने-जुलने में विशेष आनन्द का अनुभव करते हैं। यदि उन्हें मिलने-जुलने की स्वतन्त्रता रहती है, तो उनका सामाजिक विकास स्वाभाविक गति से होता रहता है, अन्यथा अवरोध उत्पन्न हो जाता है। हमारे देश में किशोर-किशोरियों को परस्पर मिलने-जुलने की स्वतन्त्रता नहीं है। इस कारण बालकों का सामाजिक विकास स्वाभाविक रूप से नहीं हो पाता और उनमें अनुशासनहीनता की भावना पायी जाती है।

9. सामाजिक व्यवस्था- समाज का स्वरूप या व्यवस्था का प्रभाव बालक के सामाजिक विकास पर पड़ता है। प्रत्येक बालक अपने समाज के स्वरूप, आदर्श और प्रतिमानों से प्रभावित होता है और उसी के अनुसार उसके जीवन के दृष्टिकोण का निर्धारण होता है। इस कारण ही लोकतन्त्रात्मक व्यवस्था तथा अधिनायकतन्त्रात्मक व्यवस्था में पलने वाले बालकों के आचरण में पर्याप्त अन्तर होता है।

10. विद्यालय का योगदान- परिवार के बाद बालक के सामाजिक विकास में योगदान देने वाला दूसरा … तत्त्व विद्यालय है।-घर के पश्चात् बालक का अधिकांश समय विद्यालय में ही व्यतीत होता है। जिन विद्यालयों में अध्यापकों का व्यवहार लोकतांत्रिक होता है तथा बालकों को पर्याप्त स्वतन्त्रता मिलती है और खेलकूद तथा समारोहों में भाग लेने के अवसर मिलते हैं, वहाँ बालकों का समाजीकरण स्वाभाविक ढंग से चलता रहता है। यदि विद्यालय में दमन और कठोर अनुशासन को ही महत्त्व दिया जाता है तथा विभिन्न सामूहिक खेलकूद और अन्य क्रियाओं को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है तो वहाँ बालकों का सामाजिक विकास समुचित ढंग से नहीं हो पाता।

विद्यालय में शिक्षक द्वारा किया गया दैनिक व्यवहार बालक के सामाजिक विकास को विशेष रूप से प्रभावित करता है। यदि शिक्षक बालकों की भावनाओं का आदर करता है तथा समय-समय पर उनका सहयोग लेता है। और कक्षा में उन्हें वाद-विवाद के अवसर प्रदान करता है, तो छात्रों में समाजीकरण की प्रक्रिया तीव्रता से होगी। इसके विपरीत यदि शिक्षक शुष्क और निरंकुश प्रवृत्ति का है और बालकों के साथ उसका व्यवहार ताड़नायुक्त तथा उपेक्षा का है तो ऐसे वातावरण में बालकों का सामाजिक विकास अवरुद्ध हो जाएगा।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
शैशवावस्था में होने वाले सामाजिक विकास का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

शैशवावस्था में सामाजिक विकास
(Social Development in Infancy)

नवजात शिशु में किसी प्रकार का सामाजिक विकास देखने को नहीं मिलता। क्रो एवं क्रो के अनुसार, “जन्म के समय शिशु न तो सामाजिक प्राणी होता है और न असामाजिक, परन्तु यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं बनी रहती। धीरे-धीरे शिशु अपनी माता या परिचारिका के सम्पर्क में आकर अनेक प्रतिक्रियाएँ प्रकट करता है। उसकी यह प्रतिक्रिया विभिन्न रूपों में प्रकट होती है। उसका हर्ष एवं रुदन इसी के अनेक रूपों में से एक है। प्रथम मास तक शिशु साधारण आवाजें तथा मनुष्य की आवाज में कोई अन्तर नहीं कर पाता। परन्तु दूसरे मास में वह यह अन्तर जान जाता है। माता जब बच्चे को पुचकारती है तो वह मुस्कराने लगता है।

म्यूलर के अनुसार, दो मास के पश्चात् ही शिशु सामाजिक प्रतिक्रियाओं को प्रारम्भ करता है। उसके अनुसार दो मास के 60 प्रतिशत बालक माँ या परिचारिका के हट जाने पर रोने लगते हैं तथा माँ या पिता को देखकर मुस्कराने लगते हैं। चौथे मास तक शिशु उन बालकों तथा व्यक्तियों में रुचि दिखाने लगता है, जो उसके प्रति विशेष प्रेम प्रकट करते हैं। पाँचवें तथा छठे मास तक वह स्नेहपूर्ण व्यवहार तथा ताड़ना में अन्तर करने लगता है। जब उसे देखकर कोई मुस्कराता है तो वह मुस्कराने लग जाता है और यदि कोई डाँटता है तो वह रोने लग जाता है। सात या आठ मास का शिशु परिचित तथा अपरिचित में कुछ-कुछ भेद करने लग जाता है। नौ मास का शिशु प्रौढ़ों की विभिन्न क्रियाओं और शब्दों का अनुकरण करने का प्रयास करता है।

एक वर्ष का शिशु उन कार्यों को नहीं करता, जिनके लिए उसे मना किया जाता है। दो वर्ष की आयु के बालक अन्य व्यक्तियों के साथ किसी कार्य में सहयोग देने में विशेष आनन्द का अनुभव करते हैं। तीसरे वर्ष में बालक अपने साथियों के साथ खेलने में विशेष आनन्द लेता है। चार से छ: वर्ष का बालक अभिभावक के संरक्षण में रहकर कार्य करना चाहता है। अब वह नवीन मित्रों की तलाश में रहता है तथा सामूहिक खेल-कूद में उसे विशेष आनन्द आता है। इस अवस्था के शिशु में सामाजिकता का पर्याप्त विकास हो जाता है।

प्रश्न 2
बाल्यावस्था में होने वाले सामाजिक विकास का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

बाल्यावस्था में सामाजिक विकास
(Social Development in Childhood)

बाल्यावस्था में सामाजिक विकास तीव्रता से होता है। प्राय: इस अवस्था के बालक ही विद्यालय में प्रवेश लेते हैं। विद्यालय में बालक अपने जैसे अनेक बालकों के सम्पर्क में आता है। यह सम्पर्क ही उसे सामाजिक प्राणी बनाता है। वह शीघ्रता से नवीन वातावरण के अनुकूल अपने को ढालने का प्रयास करता है। अनुकूलन के पश्चात् ही उसके व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है तथा उसमें उत्तरदायित्व और स्वतन्त्रता की भावना का विकास होता है। इस अवस्था के बालकों का किसी-न-किसी टोली या समूह से सम्बन्ध होता है।

अपनी टोली के प्रति प्रत्येक बालक की अटूट श्रद्धा होती है। टोली की सदस्यता से ही बालक का सामाजिक विकास होता है। इस अवस्था में बालक के सामाजिक विकास पर सहपाठियों एवं मित्रों के अतिरिक्त कक्षा के अध्यापकों का भी गम्भीर प्रभाव पड़ता है। अध्यापकों द्वारा बालकों को अनेक सामाजिक सद्गुणों की जानकारी प्रदान की जाती है। विद्यालय आने-जाने के समय भी बालकों का सम्पर्क रिक्शा अथवा बस के साथियों आदि से होता है। इस सम्पर्क से भी उनके सामाजिक विकास में उल्लेखनीय योगदान प्राप्त होता है।

प्रश्न 3
किशोरावस्था में होने वाले सामाजिक विकास का उल्लेख कीजिए।
या
बालकों अथवा बालिकाओं में किशोरावस्था में होने वाले सामाजिक विकास का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

किशोरावस्था में सामाजिक विकास
(Social Development in Adolescence)

किशोरावस्था में बालक अपने वातावरण के प्रति जागरूक हो जाता है और उसके सामाजिक विकास पर परिवार, साथियों तथा विद्यालय के वातावरण का विशेष प्रभाव पड़ता है। इस अवस्था में किशोर अपने को सम्मानित देखना चाहता है। वह चाहता है कि घर के अन्दर और घर के बाहर सब स्थानों पर उसे सम्मान मिले और इस सम्मान की प्राप्ति में वह प्रौढ़ों के समान व्यवहार करने लग जाता है। इस अवस्था में किशोर के सामाजिक व्यवहार में क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं। अब बाल्यकाल की चंचलता गम्भीरता में परिवर्तित हो जाती है। वह अपने आचरणों में दिखावट का प्रदर्शन करने लगता है। प्रत्येक किशोर अपनी आर्थिक स्थिति को अपने अन्य मित्रों से बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने का प्रयास करता है।

वह मित्रता के महत्त्व को भी समझने लगता है और अपनी रुचि के अनुकूल ही किसी किशोर को ही अपना घनिष्ठ मित्र बनाता है। किशोरावस्था में बालक बालिकाओं के प्रति तथा बालिकाएँ बालकों के प्रति आकर्षित होती हैं। इस आकर्षण के लिए वे अपने वस्त्र, वेशभूषा तथा प्रसाधनों के प्रति विशेष जागरूक रहते हैं। किशोर तथा किशोरियाँ किसी-न-किसी समुदाय के सदस्य बन जाते हैं। इन समुदायों का मूल उद्देश्य पिकनिक, भ्रमण, नाटक खेलना, नृत्य व संगीत द्वारा मनोरंजन करना होता है।

प्रत्येक किशोर अपने समूह या समुदाय के प्रति अटूट श्रद्धा रखता है तथा उसे परिवार और विद्यालय से भी अधिक महत्त्व देता है। इसके साथ-ही-साथ किशोर समुदाय का सदस्य बनकर उसके द्वारा स्वीकृत वेशभूषा, आचरण आदि को भी व्यवहार में लाता है। डॉ० सीताराम जायसवाल के अनुसार, “किशोर में अपने समुदाय की वेशभूषा, व्यवहार शैली और अनुकरण की प्रबल प्रवृत्ति होती है। समुदाय के प्रति सदस्यों की निष्ठा इतनी पक्की होती है कि वे पढ़ाई और परिवार के आवश्यक कार्य भी छोड़कर समुदाय के कार्यक्रमों में भाग लेते हैं। सदस्यों के व्यक्तित्व, व्यवहार और जीवन के मूल्यों पर समुदायों की गहरी छाप । रहती है।’ समुदाय का सदस्य बनकर ही किशोर नेतृत्व की शिक्षा प्राप्त करता है तथा उसमें उत्साह, सहयोग, सहानुभूति आदि सामाजिक गुणों का विकास होता है।

प्रश्न 4
बालक के उचित सामाजिक विकास के लिए शिक्षक द्वारा क्या भूमिका निभायी जा सकती है ?
या
बच्चों में सामाजिक विकास करने के लिए स्कूल को क्या करना चाहिए?
या
बच्चों में सामाजिक विकास को उन्नत करने के लिए स्कूल में क्या करना चाहिए?
उत्तर:

सामाजिक विकास के लिए शिक्षक की भूमिका
(Role of Teacher for Social Development)

बालक के सामाजिक विकास में शिक्षा किस प्रकार सहायक हो सकती है, इसके लिए शिक्षक को निम्नांकित बातों पर ध्यान देना चाहिए-

  1. शिक्षक को स्वयं सामाजिक व्यवहार में प्रवीण होना चाहिए। उसे छात्रों के साथ सदा विनम्रता और शिष्टता का व्यवहार करना चाहिए।
  2. विद्यालय में अनुशासन की स्थापना में छात्रों से सहयोग लेना चाहिए तथा उन्हें अनुशासन की स्थापना का उत्तरदायित्व सौंपना चाहिए।
  3. विद्यालय में समय-समय पर विभिन्न प्रकार के उत्सवों, समारोहों तथा संगीत सम्मेलनों का आयोजन किया जाना चाहिए तथा उनकी व्यवस्था में छात्रों का सहयोग लेना चाहिए। आमन्त्रित अतिथियों का स्वागत भी छात्रों द्वारा ही करवाया जाना चाहिए।
  4. छात्रों को श्रमदान द्वारा समाज-सेवा करने को प्रोत्साहित किया जाए तथा साक्षरता प्रसार में भी उनका सहयोग प्राप्त किया जाए।
  5. विद्यालय को समाज का लघु रूप बनाया जाए तथा समाज के सदस्यों को विद्यालय के कार्यक्रमों में आमन्त्रित किया जाए।
  6. बालकों में सामाजिक गुणों का विकास करने के लिए पाठ्यक्रम में सामाजिक शिक्षा को भी स्थान दिया जाए।
  7. स्काउटिंग सामाजिक विकास में विशेष सहायक होती है। अत: विद्यालय में इसका आयोजन प्रभावशाली ढंग से किया जाए।
  8. विद्यालय में विभिन्न सामूहिक़ खेलकूदों का आयोजन हो तथा छात्रों को उसमें भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाए।
  9. बालकों में सामूहिक प्रवृत्ति होती है। वे इस प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करना चाहते हैं। शिक्षक का कर्तव्य है। कि वे इस प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने के लिए विद्यालय में उन कार्यक्रमों का आयोजन करें, जिनसे बालकों की सामूहिक प्रवृत्ति सन्तुष्ट हो सके।
  10. बालकों में समुचित सामाजिक विकास के लिए शिक्षक को उनकी अनुकरण, संकेत और सहानुभूति की प्रवृत्ति का उचित ढंग से प्रयोग करना चाहिए।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
बालक के सामाजिक विकास में मित्रों एवं खेल-समूह की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
बालक के सामाजिक विकास में उसके मित्रों एवं खेल-समूह द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है। सभी बालक अपने मित्रों से अनेक सामाजिक गुणों को सीखते हैं। खेल के दौरान बच्चों में सहयोग, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा तथा एक-दूसरे की सहायता करने के गुणों का विकास होता है। इन सामाजिक गुणों का बालक के सामाजिक विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बालक के मित्र एवं खेल-समूह सदैव अच्छा होना चाहिए। किसी विकृत बालक की मित्रता प्रायः हानिकारक होती

प्रश्न 2
सामाजिक विकास के मुख्य स्तरों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
व्यक्ति अथवा बालक का सामाजिक विकास क्रमिक रूप में होता है। इसके मुख्य रूप से तीन स्तर माने गये हैं। प्रथम स्तर है-दूसरों के प्रति चेतना का स्तर। इस स्तर पर बालक अन्य व्यक्तियों के प्रति सचेत हो जाता है। वह अन्य व्यक्तियों को पहचानने लगता है। द्वितीय स्तर है-मेल-जोल का स्तर। इस स्तर पर बालक में सामूहिकता के गुण का विकास होता है। वह अन्य व्यक्तियों के साथ अन्त:क्रिया करना प्रारम्भ कर देता है। यह बाल्यावस्था का स्तर है। इस स्तर पर खेल-समूह का विशेष महत्त्व होता है। सामाजिक-विकास का तीसरा स्तर है–सम्बन्धों में परिवर्तन का स्तर। इस स्तर पर बालक में लिंग-भेद की जागरूकता आ जाती है तथा उसका प्रभाव उसके व्यवहार पर भी पड़ने लगता है।

प्रश्न 3
सामाजिक विकास का शैक्षिक महत्त्व क्या हो सकता है?
उत्तर:
सामाजिक विकास का समुचित शैक्षिक महत्त्व है। सामाजिक विकास के लिए व्यापक सामाजिक सम्पर्क आवश्यक होता है। इस प्रकार से सामाजिक सम्पर्क की स्थापना से व्यक्ति अनेक प्रकार की जानकारी एवं ज्ञान भी अर्जित करता है अर्थात् उसका शैक्षिक विकास भी होता है। सामाजिक विकास के माध्यम से व्यक्ति विभिन्न सामाजिक सद्गुणों, मान्यताओं, नियमों आदि को आत्मसात् करता है। इस प्रक्रिया का पर्याप्त शैक्षिक महत्त्व है। सामाजिक विकास के परिणामस्वरूप बालक अनुशासन सीखता है। अनुशासन का शिक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक महत्त्व है। इस दृष्टिकोण से भी सामाजिक विकास का उल्लेखनीय शैक्षिक महत्त्व है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मानव-शिशु का एक सामाजिक प्राणी के रूप में विकसित होना किस प्रकार का विकास कहलाता है ?
उत्तर:
मानव-शिशु का एक सामाजिक प्राणी के रूप में विकसित होना बालक का सामाजिक विकास कहलाता है।

प्रश्न 2
मानव-शिशु के सामाजिक विकास के लिए सर्वाधिक अनिवार्य कारक क्या है?
उत्तर:
मानव-शिशु के सामाजिक विकास के लिए सर्वाधिक अनिवार्य कारक है–सामाजिक सम्पर्क।

प्रश्न 3
“समाजीकरण की प्रक्रिया अन्य व्यक्तियों के साथ शिशु के सम्पर्क से प्रारम्भ होती है और जीवन-पर्यन्त चलती रहती हैं।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
प्रस्तुत कथन गिलफोर्ड का है

प्रश्न 4
शिशु के सामाजिक विकास की प्रक्रिया में प्रमुख भूमिका किस सामाजिक संस्था की होती
उत्तर:
शिशु के सामाजिक विकास की प्रक्रिया में प्रमुख भूमिका ‘परिवार’ नामक सामाजिक संस्था की होती है।

प्रश्न 5
बालक के सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले चार मुख्य कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. शारीरिक कारक
  2. परिवार का वातावरण
  3. पास-पड़ोस तथा
  4. परिवार की आर्थिक स्थिति

प्रश्न 6
कोई ऐसा उदाहरण दीजिए, जिससे स्पष्ट हो जाए कि सामाजिक सम्पर्क के अभाव में मानव-शिशु का सामाजिक विकास सम्भव नहीं है ?
उत्तर:
एक उदाहरण है-भेड़ियों द्वारा मानव-शिशु के पालन-पोषण करने का। यह मानव-शिशु सामाजिक सम्पर्क के अभाव में रहा तथा उसका सामाजिक विकास बिल्कुल नहीं हो पाया।

प्रश्न 7
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. सामाजिक विकास के परिणामस्वरूप ही मानव-शिशु सामाजिक प्राणी बनती है
  2. सामाजिक विकास के लिए सामाजिक सम्पर्क कोई अनिवार्य शर्त नहीं है
  3. बालक के सामाजिक विकास में उसके मित्रों एवं खेल-समूह का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है
  4. बालक के सामाजिक विकास में शिक्षा का कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं होता
  5. बालक की विकलांगता उसके सामाजिक विकास में बाधक होती है
  6. संवेगात्मक रूप से विकृत बालक का सामाजिक विकासे भी सुचारु नहीं हो पाता

उत्तर:

  1. सत्य
  2. असत्य
  3. सत्य
  4. असत्य
  5. सत्य
  6. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न  1.
सामाजिक विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति का व्यवहार बनता है
(क) उदार एवं परोपकारी
(ख) सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप
(ग) समाज विरोधी
(घ) स्वच्छन्द एवं मुक्त

प्रश्न  2.
सामाजिक विकास की प्रक्रिया चलती है
(क) शैशवावस्था में
(ख) विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने तक
(ग) जीवन-पर्यन्त
(घ) युवावस्था तक

प्रश्न  3.
बालक के सामाजिक विकास में बाधक कारक है
(क) बुरा स्वास्थ्य
(ख) विकलांगता
(ग) निम्न आर्थिक स्थिति
(घ) ये सभी

प्रश्न  4.
व्यक्ति के सामाजिक विकास में सर्वाधिक योगदान होता है
(क) परिवार का
(ख) व्यवसाय का
(ग) क्लब एवं मनोरंजन संस्थानों का
(घ) कार्यालय का

प्रश्न  5.
बालक का समाजीकरण किस अवस्था में सबसे अधिक होता है ?
(क) शैशवावस्था
(ख) बाल्यावस्था
(ग) किशोरावस्था
(घ) युवावस्था

उत्तर:

  1. (ख) सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप
  2. (ग) जीवन-पर्यन्त
  3. (घ) ये सभी
  4. (क) परिवार का
  5. (ग) किशोरावस्था

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UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 12 Montessori Method

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 12 Montessori Method (मॉण्टेसरी पद्धति) are the part of UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 12 Montessori Method (मॉण्टेसरी पद्धति).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 12
Chapter Name Montessori Method (मॉण्टेसरी पद्धति)
Number of Questions Solved 29
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 12 Montessori Method (मॉण्टेसरी पद्धति)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मॉण्टेसरी पद्धति के मूल सिद्धान्त क्या हैं? सविस्तार समझाइए।
या
मारिया मॉण्टेसरी के अनुसार शिक्षा के सिद्धान्त क्या हैं?
उत्तर:
मॉण्टेसरी शिक्षा प्रणाली छोटे बच्चों की एक लोकप्रिय शिक्षा-प्रणाली है। इस प्रणाली का प्रारम्भ मैडम मारिया मॉण्टेसरी ने किया था। यह प्रणाली बाल-मनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर आधारित है।

मॉण्टेसरी पद्धति के सिद्धान्त
(Principles of Montessori Method)

मॉण्टेसरी ने अपनी किसी पुस्तक में अपने शिक्षण सिद्धान्तों की व्याख्या नहीं की है, लेकिन उनकी पद्धति का गहन अध्ययन करके सहज ही हम उनके शिक्षण सिद्धान्तों के विषय में अनुमान लगा सकते हैं। वास्तव में मॉण्टेसरी पद्धति के मुख्य शिक्षण सिद्धान्त वही हैं, जो किण्डरगार्टन पद्धति के हैं। मॉण्टेसरी ने केवल उनमें आंशिक संशोधन करके उनको नया रूप प्रदान किया है। संक्षेप में मॉण्टेसरी पद्धति के सिद्धान्तों को निम्नवत् समझा जा सकता है|

1. विकास हेतु शिक्षा का सिद्धान्त- मॉण्टेसरी ने शिक्षा को आन्तरिक विकास की प्रक्रिया माना है। उनका मत है कि शिशु एक अविकसित बीज के समान है, जिसमें उनके भावी विकास की समस्त शक्तियाँ निहित होती हैं। शिशुओं के सम्बन्ध में उनका कथन है, “बालक एक मॉण्टेसरी पद्दति के सिद्धान्त ऐसा शरीर है जो बढ़ता है तथा आत्मा है जो विकास प्राप्त करती है। विकास के इन रूपों को हमें न तो कुरूप बनाना चाहिए और न दबाना, विकास हेतु शिक्षा का सिद्धान्त बल्कि उस काल के लिए प्रतीक्षा करनी चाहिए जब किसी शक्ति का । क्रम के अनुसार प्रादुर्भाव हो। उन्होंने आगे कहा है, “यदि शिक्षण की किसी प्रणाली को प्रभावशाली बनाना है तो वह बालक के सम्पूर्ण विकास के लिए। प्रभावशाली होनी चाहिए।’

2. पूर्ण स्वतन्त्रता का सिद्धान्त- फ्रॉबेल के समान मॉण्टेसरी मांसपेशियों की शिक्षा का का भी यह मत था कि बालक को अपनी शिक्षा ग्रहण करने में पूर्ण स्वतन्त्र होना चाहिए। मॉण्टेसरी का कथन है, “स्वतन्त्रता का अर्थ , आयनिता न इसमें निहित नहीं है कि बालकों से साधारण सेवाएँ कराने के लिए व्यावहारिक शिक्षा का सिद्धान्त दूसरों द्वारा दी गई आज्ञाओं का पालन करवाया जाए, वरन् उन्हें इस व्यक्तित्व के विकास का सिद्धान्त योग्य बनाना है कि वह स्वयं अपने आदेशों का पालन करें। आत्मनिर्भर होना ही स्वतन्त्रता है। 

मॉण्टेसरी के अनुसार, बालकों को इस प्रकार का वातावरण देना चाहिए जिसमें कि वह अपनी रुचि के। अनुसार कार्य कर सके। इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में भी बालक को स्वतन्त्रता देना आवश्यक है। शिक्षा में स्वतन्त्रता का अर्थ है कि बालक की मूल तथा सामान्य प्रवृत्तियों को शिक्षा का माध्यम बना दिया जाए। इस सिद्धान्त में बालक को अपनी रुचि के अनुसार खेलने, कूदने, पढ़ने, खाने और पाठ्य-विषयों को चुनने की पूर्ण स्वतन्त्रता रहती है।

3. आत्मशिक्षण का सिद्धान्त- प्रत्येक बालक में अपने आप कार्य करने की कुछ क्षमता होती है। किलपैट्रिक के अनुसार, “बालक जितना अधिक अपने अनुभव से बिना किसी शिक्षक की सहायता से सीखता है, उतना ही अधिक ज्ञान उसको होता है।” इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर मॉण्टेसरी ने भी अपनी शिक्षा-पद्धति में बालकों को स्वयं अपने प्रयत्नों द्वारा शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया है। इस सम्बन्ध में प्रोफेसर भाटिया ने लिखा है, स्वशिक्षा ही सच्ची शिक्षा है, क्योंकि यहाँ बच्चे को किसी बड़े के हस्तक्षेप से दुःखित नहीं किया जाता, वरन्। वह स्वतः शिक्षा प्राप्त करना सीखता है।”

मॉण्टेसरी ने कुछ शिक्षा उपकरणों का निर्माण किया है, जिनकी सहायता से बालक आत्म-शिक्षण कर सकता है। उन्होंने इस तथ्य पर भी बल दिया है कि बालक अपनी गलती को समझकर स्वयं उसे सुधारे। इससे बालक में आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास, सहनशीलता, धैर्य आदि गुणों का विकास हो सकता है। इस प्रकार मॉण्टेसरी पद्धति में शिक्षक का कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं है। शिक्षक का कार्य केवल बालक का पथ-प्रदर्शन एवं निरीक्षण करना है।

4. ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा का सिद्धान्त- मॉण्टेसरी ने अपनी शिक्षा-पद्धति में ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण पर विशेष बल दिया है। उन्होंने ज्ञानेन्द्रियों को द्वार’ अर्थात् ज्ञान का द्वार’ कहा है, क्योंकि विश्व का अधिकांश ज्ञान मनुष्य को ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ही प्राप्त होता है। अत: बालक की ज्ञानेन्द्रियाँ जितनी अधिक प्रशिक्षित होंगी, उतनी ही सरलता से वह ज्ञान प्राप्त कर सकेगा। यदि ज्ञानेन्द्रियाँ निर्बल रहती हैं तो उसका ज्ञान अस्पष्ट और अपूर्ण रहता है। इसलिए मॉण्टेसरी ने विभिन्न शैक्षिक उपकरण बनाए हैं, जिनके प्रयोग से बालक की ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित किया जाता है।

5. खेल द्वारा शिक्षा का सिद्धान्त- खेल बालक की जन्मजात प्रवृत्ति है। इसलिए अन्य शिक्षाशास्त्रियों की भाँति मॉण्टेसरी ने भी अपनी शिक्षण-पद्धति में खेल द्वारा शिक्षा के सिद्धान्त को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। इस पद्धति में विभिन्न उपकरणों की सहायता से खेलते-खेलते ही बालक को वर्णमाला, भाषा तथा गणित का ज्ञान कराया जाता है। खेलों में बालक को पूर्ण स्वतन्त्रता रहती है और उनके माध्यम से वह तरह-तरह का ज्ञान प्राप्त करते हैं। किलपैट्रिक ने लिखा है, “उसके खेल, खेल न होकर नाममात्र के खेल हैं, जिनसे शिशु खेल तथा ज्ञानार्जन दोनों उद्देश्यों की पूर्ति करता है।”

6. विवेकपूर्ण अनुशासन का सिद्धान्त- मॉण्टेसरी का विचार था कि जब बालक के सम्मुख शिक्षा सम्बन्धी वातावरण उपस्थित किया जाएगा, तब उसमें स्वत: ही उत्तरदायित्व की भावना जाग उठेगी और इसके परिणामस्वरूप उसके अन्दर एक प्रकार के अनुशासन की भावना उत्पन्न होगी जो कि सच्चा अनुशासन होगा।

7.मांसपेशियों की शिक्षा का सिद्धान्त- मॉण्टेसरी का विचार था कि जब तक बालक की मांसपेशियों को सुदृढ़ नहीं किया जाएगा तब तक उसे काम करने में कठिनाई होगी और वह अपने अंगों का समुचित प्रयोग नहीं कर सकेगा। अत: बालक की प्रारम्भिक शिक्षा में मांसपेशियों को साधने की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए, जिससे कि बालक भली-भाँति चलना, फिरना, दौड़ना आदि सीख जाए। इससे बालक में आत्मनिर्भरता के गुण का भी विकास होता है।

8. आत्मनिर्भरता का सिद्धान्त- मॉण्टेसरी ने अपनी शिक्षा-पद्धति में इस बात पर विशेष बल दिया है। कि बालक किसी दूसरे पर निर्भर न रहकर अपना काम स्वयं करे। बालकों में प्रारम्भ से ही यह आदत डाल देनी चाहिए कि वे स्वयं अपना मुँह धोना, कपड़े पहनना, सफाई करना तथा अपना सामान ठीक तरह से रखना सीख लें।।

9. व्यावहारिक शिक्षा का सिद्धान्त- मॉण्टेसरी ने अपनी शिक्षा-पद्धति में व्यावहारिक शिक्षा पर । विशेष बल दिया है। मॉण्टेसरी विद्यालयों में बालकों को ऐसा ज्ञान दिया जाता है, जिनका जीवन में उपयोग होता है। बालक भोजन करना, बातचीत करना, सोना, हँसना, भोजन परोसना, सफाई करना आदि सभी बातें मनोवैज्ञानिक ढंग से सीख जाते हैं। शिक्षा देते समय बालकों की अवस्था का भी ध्यान रखा जाता है और जो बालक जिस योग्य होता है, उसे उसी प्रकार की शिक्षा दी जाती है।

10. व्यक्तित्व के विकास का सिद्धान्त- मॉण्टेसरी पद्धति में बालक के व्यक्तित्व के विकास पर विशेष बल दिया जाता है और उसके व्यक्तित्व का समुचित आदर किया जाता है। मॉण्टेसरी का विचार था कि प्रत्येक बालक की अपनी व्यक्तिगत विशेषता होती है, क्योंकि सभी बालक एक समान नहीं होते, उनमें कुछ-न-कुछ वैयक्तिक भिन्नता होती है। प्रत्येक बालक अपनी व्यक्तिगत योग्यता, क्षमता, सामर्थ्य, शक्ति

और रुचि के अनुसार विकास करता है। अत: शिक्षक को प्रत्येक बालक का ध्यान रखना चाहिए और उसकी आवश्यकता पूर्ति में उसे सहायता देनी चाहिए। मॉण्टेसरी का मत है कि समूह में रहते हुए बालक को व्यक्तिगत शिक्षा दी जा सकती है।

प्रश्न 2.
मॉण्टेसरी शिक्षा-पद्धति के मुख्य गुणों का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

मॉण्टेसरी पद्धति के गुण
(Merits of Montessori Method)

मॉण्टेसरी पद्धति की सफलता उसके अनेक गुणों पर आधारित है। इन गुणों का संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित

1. शिशु-शिक्षा के लिए उपयुक्त- मॉण्टेसरी पद्धति का पहला प्रमुख गुण यह है कि यह पद्धति अल्प आयु के शिशुओं के लिए अत्यन्त उपयोगी और उपयुक्त है। शिशुओं को छोटे-छोटे विभिन्न शिक्षा उपकरणों के साथ खेलने में बहुत आनन्द मिलता है और वस्तुओं के प्रयोग से | मॉण्टेसरी पद्धति के गुण उनकी ज्ञानेन्द्रियाँ भी प्रशिक्षित हो जाती हैं। वे इनसे थोड़ी देर के लिए भी अलग नहीं होना चाहते। इस आयु के बालकों को क्रिया एवं खेल। के द्वारा ज्ञान देना उपयुक्त भी है।

2. स्वशिक्षा का महत्त्व- इस पद्धति में स्वयं शिक्षा के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। इसमें बालक अपना सब काम स्वयं करते हैं और काम करने में रुचि भी लेते हैं। बालक वातावरण का उचित लाभ उठाकर अपने स्वयं के अनुभवों एवं निरीक्षणों के द्वारा सीखते हैं। इस प्रकार स्वशिक्षा आत्मनिर्भरता तथा आत्मविश्वास के स्वाभाविक विकास में सहायक होती है।

3. वैज्ञानिक पद्धति- यह शिक्षण-पद्धति वैज्ञानिक है, क्योंकि बालक की वैयक्तिकता को यह अनुभव और परीक्षण पर बल देती है। इसमें बालक पूर्णरूप से महत्त्व क्रियाशील रहता है। अपने अनुभवों के आधार पर वह प्रयत्न और भूल – वैयक्तिक विभिन्नता का महत्त्व के सिद्धान्त पर मूल ज्ञान प्राप्त करता है। एडम्स (Adams) के शब्दों में, “मॉण्टेसरी ने अपनी पद्धति में दूसरे विद्यालयों की विधियों से मित्र के रूप में भिन्न एक नई वैज्ञानिक विधि प्रदान की है। उनकी पद्धति का आधार के अनुशासन की समस्या का बालक द्वारा स्वतन्त्रतापूर्वक निरीक्षण एवं परीक्षण है।’

4. प्रयोगात्मक मनोविज्ञान पर आधारित- यह पद्धति मनोवैज्ञानिक है, क्योंकि इसमें मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों, बालकों की योग्यता, अनुभव, शक्ति आदि के आधार पर व्यावहारिक ढंग से शिक्षा दी जाती है। इसमें प्रयोगात्मक मनोविज्ञान के स्वरूपों, निष्कर्षों और सिद्धान्तों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। प्रयोगात्मक मनोविज्ञान की तरह इसमें भी बालक को विभिन्न यन्त्र और उपकरण प्रदान किए गए हैं। इन उपकरणों से खेलते हुए ही बालक अपने व्यक्तित्व के विकास का अवसर प्राप्त करते हैं।

5. ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण- मॉण्टेसरी ने बालकों की शिक्षा में ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण पर बल देकर शिक्षा जगत् में एक नई चेतना प्रस्तुत की है। इससे पूर्व की शिक्षा-प्रणालियों में ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा का पूर्णतया अभाव था। इस कमी को पूरा करने का श्रेय मॉण्टेसरी को ही है। मॉण्टेसरी ने ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण द्वारा मन्द तथा हीनबुद्धि बालकों को भी साधारण स्तर पर ला दिया है। लगभग सभी शिक्षाशास्त्री ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा से सहमत हैं। उनका कहना है कि जब तक ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा उचित रूप से न होगी, बालक ज्ञान ग्रहण करने में असमर्थ होंगे।

6. व्यावहारिकता तथा सामाजिकता के गुणों का विकास- मॉण्टेसरी पद्धति में प्रायोगिक कार्यों का सामाजिक महत्त्व है। व्यावहारिक क्रियाओं द्वारा बालकों में व्यावहारिकता तथा सामाजिकता के गुणों का विकास किया जाता है। इस पद्धति वाले विद्यालयों में बालक को सामाजिक जीवन व्यतीत करने के अवसर मिलते हैं, इसलिए इनमें बालक को ऐसा वातावरण मिलता है कि उसके अन्दर सामाजिकता तथा व्यावहारिकता के गुणों का विकास किया जा सके।

7. भाषा-शिक्षण की उत्तम विधिं- मॉण्टेसरी पद्धति में भाषा-शिक्षण की बड़ी उत्तम विधि को अपनाया गया है। लिखना, पढ़ना तथा अंकगणित बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से सिखाया जाता है। लिखने व पढ़ने के लिए जो अभ्यास मॉण्टेसरी ने बताए हैं, वे क्रमानुसार एवं एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। इस पद्धति में लेखन क्रिया के द्वारा बालक की मांसपेशियों पर उचित ध्यान दिया जाता है। लिखने और पढ़ने का अभ्यास साथ-साथ किया जाता है, इसलिए बालके बिना सिखाए पढ़ना सीख जाते हैं।

8. बालक की वैयक्तिकता का महत्त्व- मॉण्टेसरी पद्धति में बालक की रुचियों, प्रवृत्तियों, इच्छाओं व स्वभाव का सदैव ध्यान रखा जाता है। इससे बालक के व्यक्तित्व का स्वाभाविक विकास होता है। बालक विभिन्न शिक्षा उपकरणों से काम करते हुए अपने आपको स्वतन्त्र अनुभव करता है और अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति का विकास करता है। मॉण्टेसरी पद्धति के इस गुण की प्रशंसा करते हुए रस्क (Rusk) ने लिखा है, इस पद्धति की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता निर्देशन में वैयक्तिकता का स्थान है।”

9. वैयक्तिक विभिन्नता का महत्त्व- इस पद्धति में बालक के व्यक्तित्व को स्वतन्त्र एवं पूर्ण विकास होता है, क्योंकि इसमें व्यक्तिगत विभिन्नता का विशेष ध्यान रखा जाता है और हस्तक्षेप के बिना स्वतन्त्र एवं आदर्श वातावरण में बालकों को रखा जाता है। इस पद्धति में बालकों को उनकी बुद्धिलब्धि, रुचियों, इच्छाओं एवं प्रवृत्तियों के अनुसार प्रशिक्षित किया जाता है। इसमें प्रत्येक बालक अपनी क्षमता के अनुसार ज्ञान प्राप्त करता है, जोकि सामूहिक शिक्षा में सम्भव नहीं है।

10. शिक्षक का स्थान पथ- प्रदर्शक व मित्र के रूप में इस पद्धति में शिक्षक बालक का सच्चा निर्देशक, मित्र, निरीक्षक, सहायक और पथ-प्रदर्शक होता है न कि आदेशक या अधिकारी। वह बालकों को कार्य करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करता है तथा कठिनाई आने पर उनकी सहायता भी करता है। मॉण्टेसरी शिक्षक बाल-मनोविज्ञान, प्रयोगात्मक मनोविज्ञान तथा मानवीय गुणों से युक्त होता है।

11. अनुशासन की समस्या का निराकरण- मॉण्टेसरी ने बाह्य अनुशासन का विरोध किया है और वास्तविक आन्तरिक अनुशासन स्थापित करने के नियमों को बताया है। इस पद्धति में कार्य में व्यस्त रहने के कारण बालकों को अनुशासन भंग करने का अवसर नहीं मिलता, जिसके फलस्वरूप उन्हें आत्म-अनुशासन की प्रेरणा मिलती है।

प्रश्न 3.
मॉण्टेसरी शिक्षा-पद्धति के मुख्य दोषों का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

मॉण्टेसरी पद्धति के दोष
(Defects of Montessori Method)

यद्यपि मॉण्टेसरी शिक्षा-पद्धति बालकों की शिक्षा के लिए बड़ी उपयोगी है, तथापि इसमें कुछ दोष और कमियाँ भी हैं, जिनका विवेचन निम्नवत् किया जा सकता है|

1. अमनोवैज्ञानिक- किलपैट्रिक तथा स्टर्न ने मॉण्टेसरी पद्धति को अमनोवैज्ञानिक बताया है, क्योंकि इसमें बालकों से कुछ ऐसे कार्य कराए जाते हैं, जो उनके स्तर से ऊँचे हैं। कुछ शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि चार वर्षीय बालक को अधिक लिखना-पढ़ना सिखाना लाभदायक नहीं है।

2. शक्ति मनोविज्ञान का अनुचित आधार- मॉण्टेसरी पद्धति में एक समय में केवल एक ही ज्ञानेन्द्रिय को शिक्षित करने की व्यवस्था की गई है। यह सिद्धान्त शक्ति मनोविज्ञान पर आधारित है और वर्तमान युग में शक्ति मनोविज्ञान को कोई मान्यता नहीं दी जाती है। वास्तव में सभी ज्ञानेन्द्रियाँ एक साथ कार्य करती हैं, इसलिए उनकी शिक्षा भी एक साथ होनी चाहिए।

3. ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा अपर्याप्त- मॉण्टेसरी की यह व्याख्या सही नहीं है कि सात वर्ष के बालकों में। उच्चकोटि की मानसिक क्रियाओं-स्मृति, विचार, कल्पना, तर्क-का अभाव रहता है और उसे केवल इन्द्रिय अनुभव प्राप्त होते हैं। मनोवैज्ञानिक परीक्षण से यह सिद्ध हो चुका है कि तीन वर्ष के बालक में भी मानसिक क्रियाएँ होती हैं। उसमें स्मृति, कल्पना, जिज्ञासा आदि होती हैं। वह प्रत्येक वस्तु के बारे में जानना चाहता है और साथ-साथ अपनी कल्पनाशक्ति का प्रयोग भी करता है।

4. गेस्टाल्ट.मनोविज्ञान के विरुद्ध- भाषा की शिक्षा के सम्बन्ध में आधुनिक विचारधारा यह है कि बालकों को पहले वाक्ये, फिर शब्द और बाद में अक्षर ज्ञान कराना चाहिए, लेकिन मॉण्टेसरी ने इसके विपरीत विचारधारा का प्रयोग किया है। उनका कहना है कि बालक को पहले अक्षर और तत्पश्चात् वाक्य का ज्ञान कराना चाहिए, इसलिए इस पद्धति को गेस्टाल्ट मनोविज्ञान के विरुद्ध माना जाता है।

5. कल्पनात्मक एवं क्रियात्मक खेलों का अभाव- इस पद्धति का सबसे मुख्य दोष है कि यह बालक की कल्पनाशक्ति को अविकसित रखती है। इस पद्धति में कल्पनात्मक तथा क्रियात्मक खेलों का सर्वथा अभाव है। मॉण्टेसरी का विचार है कि बालक स्वयं कल्पनाओं से पूर्ण है, इसलिए उसे और काल्पनिक बनाना वास्तविक जीवन से दूर ले जाना है। इसलिए वे बालक को कला, कहानी, नाटक तथा कलात्मक भावनाओं से दूर रखना चाहती हैं, क्योंकि उनके विचार से व्यावहारिक जीवन की शिक्षा के लिए इनका कोई महत्त्व नहीं है। परन्तु मॉण्टेसरी यह भूल गई हैं कि कल्पना के सहारे । | मॉण्टेसरी पद्धति के दोष ही बालक अपनी मूल-प्रवृत्तियों को सन्तुष्ट करता है तथा अपने मानसिक तनाव को दूर करता है। इसके अभाव में विभिन्न प्रकार की भावना ग्रन्थियाँ बन जाती हैं और बालक का सम्पूर्ण व्यक्तित्व कुण्ठित हो जाता है। इसलिए कल्पना को स्थान न मिलने के कारण मॉण्टेसरी पद्धति दोषपूर्ण प्रतीत होती है।

6. समय और धन की अधिक आवश्यकता- इस पद्धति में। बालकों का बहुत-सा समय व्यर्थ नष्ट हो जाता है। सामान्य रूप से जो ज्ञान बालक एक महीने में ग्रहण कर सकता है, इस पद्धति द्वारा उसे। वह ज्ञान एक वर्ष में प्राप्त होता है। ज्ञानेन्द्रियों का अभ्यास मन्दबुद्धि के बालकों के लिए तो ठीक है, किन्तु वह साधारण बालक के लिए प्रशिक्षित अध्यापकों का अभाव निरर्थक है। साधारण बालक से इस प्रकार के अभ्यास कराना समय , शिक्षा उपकरणों पर अधिक बल की बरबादी करना है, क्योंकि घर और बाहर की अनेक वस्तुओं को । चाकचर आर बाहर का अनक वस्तुआ का प्रचार का अभाव देखकर और उनका प्रयोग करके उसकी इन्द्रियों पहले ही शिक्षित हो । प्रतिभाशाली बालकों के लिए जाती हैं।

7. प्रशिक्षित अध्यापकों का अभाव- जनता के अज्ञान के , सीमित स्वतन्त्रता कारण इस पद्धति के लिए प्रशिक्षित अध्यापक नहीं मिल पाते हैं। वातावरण के प्रभाव की उपेक्षा मॉण्टेसरी शिक्षा देने के लिए एक विशेष प्रकार का प्रशिक्षण लेना व्यक्तिवाद को प्रोत्साहन होता है। हमारे देश में इस प्रकार का कोई प्रशिक्षण विद्यालय नहीं है।

8. शिक्षा उपकरणों पर अधिक बल- इस पद्धति में शिक्षा के उपकरणों को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दिया जाता है। अमेरिकन शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा उपकरणों की कटु आलोचना की है। उनका कहना है कि अधिक शिक्षा उपकरणों से बालक का बौद्धिक विकास एकांगी रह जाता है। इससे बालक की आत्माभिव्यक्ति का क्षेत्र सीमित रह जाता है। इसके साथ-ही-साथ बालकों को उन क्रियाओं को करने के लिए बाध्य किया जाता है, जिनका वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता।

9. प्रचार का अभाव हमारे देश में इस पद्धति के समुचित प्रचार का अभाव है। सामान्य जनता मॉण्टेसरी विद्यालयों के विषय में कुछ नहीं जानती है। प्रचार और प्रोत्साहन के अभाव में मॉण्टेसरी शिक्षा पद्धति हमारे देश में अधिक प्रचलित नहीं हो पाई है।

10. प्रतिभाशाली बालकों के लिए अनुपयुक्त- वास्तव में मॉण्टेसरी पद्धति का आविष्कार मन्दबुद्धि और अपाहिज बालकों के लिए किया गया था। इसके शिक्षण उपकरण भी उन्हीं के लिए उपयुक्त हैं, इसलिए इस पद्धति से मन्दबुद्धि वाले बालक तो लाभ उठा सकते हैं, लेकिन प्रतिभाशाली बालकों को इससे कोई विशेष लाभ नहीं होता।

11. सीमित स्वतन्त्रता- इस पद्धति में बालक की स्वतन्त्रता सीमित होती है, क्योंकि उसे कुछ शिक्षा उपकरण देकर उनसे खेलने के लिए बाध्य किया जाता है। उसे किसी अन्य बालक से बातचीत करने का अधिकार भी नहीं होता।

12. वातावरण के प्रभाव की उपेक्षा- वातावरण के प्रभाव को जितना महत्त्व मिलना चाहिए, उतना महत्त्व इस पद्धति में नहीं मिला है। मॉण्टेसरी का यह मत नितान्त अवैज्ञानिक है कि सब कुछ बालक के ही अन्त:करण में विद्यमान है और उन आन्तरिक शक्तियों को ही विकसित करने का प्रयत्न करना चाहिए। वातावरण के प्रभाव से बालकों में बहुत-सी बुरी आदतें भी फ्ड़ जाती हैं। इसलिए मॉण्टेसरी स्कूलों में अध्यापिका हस्तक्षेप नहीं करेगी तो बालक का चरित्र कैसे बनेगा?

13. व्यक्तिवाद को प्रोत्साहन- मॉण्टेसरी पद्धति पूर्ण रूप से व्यक्तिवादी है और इसमें बालकों को सामूहिक तथा सामाजिक कार्य करने के लिए कोई अवसर नहीं दिया गया है। इससे बालकों में अभिमान और स्वार्थ की भावना आ जाती हैं, क्योंकि बालक अलग-अलग रहकर शिक्षा उपकरणों से खेलते रहते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनमें सामाजिकता तथा सहकारिता की भावना का विकास नहीं हो पाता है।

14. राष्ट्रीयता की भावना का अभाव- हमारे देश में राष्ट्रीयता की भावना की कमी के कारण भी मॉण्टेसरी पद्धति को अधिक प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा है। जिन पर शासन का उत्तरदायित्व है वे अपने स्वार्थ के कारण यह चाहते हैं कि गरीबी-अमीरी का भेदभाव बना रहे। उन्हीं के बच्चे शासक बने, इसलिए वे ही लोग जनता की शिक्षा के प्रति उदार नहीं हैं। | 15. अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का अभाव–अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का अभाव भी मॉण्टेसरी पद्धति के मार्ग में बाधक है। कुछ लोगों का कहना है कि यह एक विदेशी शिक्षा-प्रणाली है और इसकी जड़े हमारे देश की मिट्टी में न होकर अन्यत्र हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मैडम मारिया मॉण्टेसरी का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर:

मैडम मारिया मॉण्टेसरी का सामान्य परिचय
(General Introduction of Madam Maria Montessori)

डॉ० मॉण्टेसरी की गणना विश्व के महाम् शिक्षाशास्त्रियों में की जाती है। उन्होंने अपना जीवन एक डॉक्टर के रूप में आरम्भ किया और बाल शिक्षा के क्षेत्र में अपनी मौलिक देन देकर अपना नाम अमर कर लिया। डॉ० मॉण्टेसरी इटली की मूल निवासी थीं। 24 वर्ष की आयु में उन्होंने रोम विश्वविद्यालय से डॉक्टरी पास करके अपाहिज और मन्दबुद्धि के बालकों की चिकित्सा करनी आरम्भ की। उन्होंने अपाहिज और मन्दबुद्धि के बालकों की दयनीय दशा देखकर निर्णय किया कि ऐसे बालकों की शिक्षा की कोई नई व्यवस्था होनी चाहिए। उन्होंने अपने अनुभवों से यह निष्कर्ष निकाला कि मन्दबुद्धि वाला बालक भी बुद्धिमान बन सकता है, यदि उसकी शिक्षा-पद्धति पूर्ण मनोवैज्ञानिक हो। इसीलिए उन्होंने प्रयोगात्मक मनोविज्ञान तथा सामाजिक मानवशास्त्र का गहन अध्ययन करके बालकों के लिए एक नवीन शिक्षा-पद्धति को जन्म दिया, जिसे ‘मॉण्टेसरी पद्धति’ के रूप में विश्वभर में ख्याति प्राप्त हुई।

सन् 1907 में मॉण्टेसरी ने अपना स्कूल ‘Children Home’ स्थापित किया। सन् 1939 में वे ‘इण्डियन ट्रेनिंग इन्स्टीट्यूट’ (Indian Training Institute) की डायरेक्टर बनकर भारत आयीं। उन्होंने भारत में अनेक स्थानों पर अपनी पद्धति के सम्बन्ध में भाषण दिए। थियोसोफिकल सोसायटी के माध्यम से उनकी पद्धति के सम्बन्ध में अनेक लेख, व्याख्यान आदि प्रकाशित हुए। इसके परिणामस्वरूप भारत में मॉण्टेसरी पद्धति का व्यापक प्रचार और प्रसार हुआ। भारत में असंख्य मॉण्टेसरी स्कूलों की स्थापना हो गई और ये स्कूल आज भी पूरी सफलता के साथ कार्यरत हैं।

प्रश्न 2.
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली के विद्यालयों का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

मॉण्टेसरी विद्यालय
(Montessori Schools)

मॉण्टेसरी पद्धति में बच्चों को विद्यालय में घर के समान ही वातावरण मिलता है, इसीलिए मॉण्टेसरी ने विद्यालय को ‘बच्चों का घर’ (Children’s Home) कहा है। मॉण्टेसरी स्कूलों का वातावरण बालकों के अनुकूल तथा स्वतन्त्र होता है और उसमें उन्हें खेलने-कूदने तथा अपने व्यक्तित्व को विकसित करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है।

बालघर में एक बड़ा कमरा तथा कई छोटे-छोटे कमरे होते हैं। बड़े कमरे में बालक उपकरणों की सहायता से सीखता है तथा छोटे-छोटे कमरे भोजन, व्यायाम, विश्राम, गोष्ठी आदि कार्यो के लिए प्रयोग में लाए जाते हैं। बालकों को घूमने तथा खेलने के लिए छोटे-छोटे पार्क तथा उद्यान होते हैं, जिनमें बालक स्वच्छन्दतापूर्वक खेलता है तथा उसके भूलने-भटकने का भी डर नहीं रहता है। बालक पूर्ण स्वतन्त्र होता है। कि वह चाहे बाग में जाकर सीखे या कमरे में बैठकर सीखें। विद्यालय में नीचे कमरे, नीची खिड़कियाँ, नीची अलमारियाँ एवं छोटी-छोटी मेज-कुर्सियों का प्रबन्ध होता है। खिड़कियों के खोलने, बन्द करने एवं अलमारियों के उपयोग में बालक स्वतन्त्र होता है। आवश्यकतानुसार बालक स्वयं ही अपनी कुर्सी को यत्र-तत्र ले जाता है। छोटे-छोटे प्याले, चम्मच एवं अन्य बर्तन होते हैं, जिन्हें वह अपना समझता है और वास्तविक आनन्द एवं तृप्ति पाता है।

प्रश्न 3.
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत कर्मेन्द्रियों की शिक्षा-व्यवस्था का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

कर्मेन्द्रियों की शिक्षा
(Education of Action-Sense)

मॉण्टेसरी ने अपनी शिक्षण-पद्धति में बालक की कर्मेन्द्रियों की शिक्षा पर विशेष बल दिया है। मॉण्टेसरी स्कूलों का वातावरण ऐसा होता है और बालकों के सम्मुख ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी जाती हैं कि बालक चलने-फिरने के साधारण कार्य से लेकर अपने से सम्बन्धित सभी कार्यों को स्वयं कर लेता है। हाथ-मुँह धोना, कपड़े पहनना और उतारना, मेज तथा कुर्सी को ठीक स्थान पर रखना, कमरा सजाना, चीजों को सँभालकर रखना, भोजन बनाना और परोसना, बर्तन धोना आदि काम बालक स्वयं कर लेते हैं। ऐसे कार्यों को अपने आप करने से बालक प्रसन्नता का अनुभव प्राप्त करता है तथा अन्य कार्यों के लिए उत्साहित होता है। इस प्रकार के शिक्षण का उद्देश्य बालकों में अच्छी आदतों का निर्माण करना एवं उनका जीवन सफल बनाना है। इसके द्वारा बालक दैनिक जीवन के सभी आवश्यक कार्यों की शिक्षा प्राप्त कर लेता है। वह शिष्ट तथा सभ्य हो जाता है।

प्रश्न 4.
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा-व्यवस्था का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा
(Education of Senses)

ज्ञानेन्द्रियाँ ही हमारे बाह्य संसार के ज्ञान के द्वार हैं तथा ये ही आन्तरिक एवं बाह्य संसार से सम्बन्ध स्थापित करती हैं। इसलिए मॉण्टेसरी ने ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा पर विशेष बल दिया है। उनके अनुसार बालकों को सूक्ष्म विचारों का ज्ञान देना व्यर्थ है, क्योंकि बालकों में इतनी क्षमता नहीं होती कि वे सूक्ष्म विचारों को समझ सकें। उनका कहना है कि जितने अधिक ज्ञानेन्द्रिय अनुभव बालकों को कराए जाएँ, उतनी ही बालक अधिक शिक्षा ग्रहण कर सकेगा। विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित करने के लिए मॉण्टेसरी ने विभिन्न शिक्षा उपकरणों का निर्माण किया है। इनकी विशेषता यह है कि एक उपकरण से केवल एक ही काम हो सकता है। इन उपकरणों से खेलते-खेलते बिना शिक्षक की सहायता के बालक स्वयं समझ जाते हैं कि उन्हें क्या करना है। ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा पर बल देते हुए मॉण्टेसरी ने लिखा है, “ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा सम्बन्धी क्रियाओं का यह ध्येय नहीं है कि बालकों को विभिन्न वस्तुओं के रूप, वर्ण और गुण का ज्ञान हो जाए, वरन् उनसे हम उनकी ज्ञानेन्द्रियों को परिष्कृत करना चाहते हैं। इससे उनकी बुद्धि का विकास होता है। उनसे बुद्धि के विकास में वैसी ही सहायता मिलती है, जैसी व्यायाम से शारीरिक विकास में। अतएव ज्ञानेन्द्रियों की साधना एक प्रकार । का बौद्धिक व्यायाम है।”

प्रश्न 5.
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत भाषा की शिक्षा-व्यवस्था का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

भाषा की शिक्षा-व्यवस्था
(Education Systems of Language)

बालक की ज्ञानेन्द्रियों को विकसित और प्रशिक्षित करने के बाद उन्हें लिखने, पढ़ने तथा अंकगणित की शिक्षा दी जाती है। भाषा, जीवन के लिए आवश्यक और उपयोगी है। भाषा को वातावरण के माध्यम से अधिक जल्दी सिखाया जा सकता है। मॉण्टेसरी का कथन है कि बालक को पहले लिखना सिखाना चाहिए।

और लिखना सीखते-सीखते वे स्वयं पढ़ना सीख जाएँगे। मॉण्टेसरी का सिद्धान्त है कि पढ़ने से लिखना . सरल है, इसलिए बालक की भाषा की शिक्षा लिखने से प्रारम्भ होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त उच्चारण में लय तथा गति पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए। लिखना सिखाने के लिए उँगली फेरते-फेरते बालक की उँगलियाँ सध जाती हैं। वह अक्षर के स्वरूप का ज्ञान सरलता से कर लेता है। इससे बालक में सफलता की भावना बड़ी जल्दी आती है और वह उत्साहित होकर अधिक सीखने का प्रयत्न करता है। इससे उसमें आत्म-गौरव की भावना आती है।

प्रश्न 6.
मॉण्टेसरी प्रणाली और किण्डरगार्टन प्रणाली के संस्थापक कौन थे तथा इन दोनों में क्या अन्तर है?
उत्तर:
मॉण्टेसरी प्रणाली की संस्थापिका मैडम मारिया मॉण्टेसरी थी तथा किण्डरगार्टन प्रणाली के संस्थापक फ्रॉबेल थे। इन दोनों शिक्षा-प्रणालियों में पर्याप्त समानता होते हुए भी निम्नलिखित अन्तर हैं

  1. मॉण्टेसरी प्रणाली का आधार वैज्ञानिक है, जब कि किण्डरगार्टन प्रणाली का आधार मनोवैज्ञानिक तथा दार्शनिक है।
  2. मॉण्टेसरी प्रणाली में व्यक्तिगत शिक्षा पर बल दिया गया है, जब कि किण्डरगार्टन प्रणाली में सामाजिक शिक्षा पर बल दिया गया है।
  3. मॉण्टेसरी प्रणाली में कक्षा-अध्यापन नहीं होता, जब कि किण्डरगार्टन प्रणाली में कक्षा-अध्यापन होता है।
  4. मॉण्टेसरी प्रणाली में शिक्षा की प्रक्रिया बालक की इच्छानुसार संचालित होती है, जब कि किण्डरगार्टन प्रणाली में शिक्षा की प्रक्रिया कार्यक्रमानुसार संचालित होती है।
  5. मॉण्टेसरी प्रणाली में स्वत: अनुशासन एवं आत्म-निर्भरता के गुणों का विकास होता है, जब कि किण्डरगार्टन प्रणाली में नेतृत्व एवं सामाजिक गुणों का विकास होता है।
  6. मॉण्टेसरी प्रणाली में व्यावहारिक क्रियाओं पर बल दिया जाता है, जब कि किण्डरगार्टन प्रणाली में शारीरिक क्रियाओं पर बल दिया जाता है।
  7. मॉण्टेसरी प्रणाली में शिक्षण का कार्य शिक्षा-उपकरणों के माध्यम से किया जाता है, जब कि किण्डरगार्टन प्रणाली में शिक्षण कार्य खेल के माध्यम से दिया जाता है।
  8. मॉण्टेसरी प्रणाली में कृत्रिम साधनों तथा शैक्षिक उपकरणों के प्रयोग पर बल दिया जाता है, जब कि किण्डरगार्टन प्रणाली में प्राकृतिक शिक्षा, संगीत, गीत एवं भावे पर बल दिया जाता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली में शिक्षक की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मॉण्टेसरी पद्धति की सफलता शिक्षक की योग्यता पर निर्भर करती है। अत: मॉण्टेसरी स्कूलों में प्रशिक्षित शिक्षक का होना अनिवार्य है। शिक्षक को बालकों के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और उनकी आवश्यकतानुसार उनकी यथोचित सहायता करनी चाहिए। शिक्षक को तानाशाह न होकर एक योग्य निर्देशक एवं पथ-प्रदर्शक होना चाहिए। बालकों की आवश्यकताओं को समझकर उन्हें स्वतन्त्र वातावरण देना चाहिए, जिससे वह अपनी इच्छानुसार प्राकृतिक शक्तियों का विकास कर सके। शिक्षक को बाल-मनोविज्ञान का ज्ञान होना आवश्यक है। रॉबर्ट रस्क (Robert Rusk) के अनुसार, “मॉण्टेसरी पद्धति के शिक्षक के लिए उन शिक्षकों की ही नियुक्ति करनी चाहिए जिन्होंने बाल-मनोविज्ञान तथा उनके प्रयोग का प्रशिक्षण लिया हो।’

प्रश्न 2.
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली का तटस्थ मूल्यांकन प्रस्तुत कीजिए।
या
मॉण्टेसरी प्रणाली की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
यह सत्य है कि अन्य विभिन्न शिक्षा- प्रणालियों के ही समान मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली के भी अपने गुण-दोष हैं, परन्तु इस शिक्षा प्रणाली की अपनी कुछ मौलिक विशेषताएँ हैं जिनके कारण इस शिक्षा-प्रणाली को सारे विश्व में पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त हुई है। मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली को शिक्षा-जगत की एक महत्त्वपूर्ण शिक्षा-प्रणाली माना जाता है। इस शिक्षा-प्रणाली का तटस्थ मूल्यांकन मेयर्स ने इन शब्दों में प्रस्तुत किया है, “मॉण्टेसरी की सफलता ने इस धारणा को नवजीवन प्रदान किया है कि परम्परागत 
सामूहिक रटाई पद्धति केवल बालकों को कूपमण्डूक ही नहीं बनाती थी, बल्कि एक वर्ग के सदस्यों के विकास को बाधा पहुँचाती थी। मॉण्टेसरी के वैयक्तिक शिक्षा पर जोर देने के कारण शिक्षाशास्त्री फिर से । अधिक उत्तम पद्धति की खोज में लग गए, जिसमें वे छात्रों की वैयक्तिक आवश्यकताओं एवं योग्यताओं पर ध्यान दे सकें।’

प्रश्न 3.
मॉण्टेसरी प्रणाली की सीमाएँ क्या हैं ?
उत्तर:
मॉण्टेसरी प्रणाली की मुख्य सीमाएँ या दोष इस प्रकार हैं।

  1. मॉण्टेसरी प्रणाली बाल-मनोविज्ञान के अनुकूल नहीं है।
  2. यह शिक्षा प्रणाली अधिक समय तथा व्यय साध्य है।
  3. यह प्रणाली प्रतिभाशाली बालकों के लिए अनुपयुक्त है।
  4. इस प्रणाली में सामूहिक भावना का समुचित विकास नहीं हो पाता।
  5. मॉण्टेसरी प्रणाली में बोल उपयोगी कल्पनात्मक खेलों का प्रायः अभाव ही है।
  6. इस प्रणाली के लिए प्रशिक्षित अध्यापकों की कमी है।

प्रश्न 4.
मॉण्टेसरी प्रणाली की शिक्षण पद्धति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मॉण्टेसरी प्रणाली में शिक्षण पद्धति तीन भागों में विभक्त है। ये भाग हैं क्रमशः कर्मेन्द्रियों की शिक्षा, ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा तथा भाषा एवं गणित की शिक्षा। कर्मेन्द्रियों की शिक्षा का उद्देश्य बालकों में अच्छी आदतों का निर्माण करना एवं उनका जीवन सफल बनाना है। ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित करने के लिए मॉण्टेसरी प्रणाली में विभिन्न शिक्षा उपकरणों का निर्माण किया गया है। इनकी विशेषता यह है कि एक उपकरण से केवल एक ही काम हो सकता है। इन उपकरणों से खेलते-खेलते बिना शिक्षक की सहायता के बालक स्वयं समझ जाते हैं कि उन्हें क्या करना है। मॉण्टेसरी प्रणाली में बालक की ज्ञानेन्द्रियों को विकसित और प्रशिक्षित करने के बाद उन्हें लिखने, पढ़ने तथा अंकगणित की शिक्षा दी जाती है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
छोटे बच्चों को शिक्षा प्रदात करने वाली मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली को किसने लागू किया था?
उत्तर:
छोटे बच्चों को शिक्षा प्रदान करने वाली मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली को लागू करने का श्रेय मैडम मारिया मॉण्टेसरी को था।

प्रश्न 2.
मॉण्टेसरी का जन्म किस देश में हुआ था?
उत्तर:
मैडम मारिया मॉण्टेसरी का जन्म इटली में हुआ था।

प्रश्न 3.
मैडम मॉण्टेसरी ने अपना प्रथम विद्यालय कब तथा किस नाम से स्थापित किया था?
उत्तर:
मैडम मॉण्टेसरी ने अपना प्रथम विद्यालय सन् 1907 ई० में Children Home के नाम से स्थापित किया था।

प्रश्न 4.
मैडम मॉण्टेसरी भारत कब आई थीं तथा वह किस संस्था की डायरेक्टर थीं?
उत्तर:
डम मॉण्टेसरी सन् 1939 में ‘इण्डियन ट्रेनिंग इन्स्टीट्यूट’ की डायरेक्टर बनकर भारत आई थीं।

प्रश्न 5.
मैडम मॉण्टेसरी द्वारा लिखित मुख्य पुस्तकों के शीर्षक क्या हैं?
उत्तर:

  • द मॉण्टेसरी मैथड,
  • रीकन्सट्रक्शन इन एजूकेशन,
  • डिस्कवरी ऑफ दि चाइल्ड,
  • चाइल्ड ट्रेनिंग तथा
  • सीक्रेट ऑफ दि चाइल्डहुड।

प्रश्न 6.
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली के अनुसार शिक्षा का मुख्यतम उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
मॉण्टेसरी शिक्षा प्रणाली के अनुसार शिक्षा का मुख्यतम उद्देश्य बालक के सुचारु विकास में योगदान प्रदान करना है।

प्रश्न 7.
माण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली में शिक्षक का क्या स्थान है?
उत्तर:
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली में शिक्षक को निर्देशक, मित्र तथा निरीक्षक का स्थान दिया गया है।

प्रश्न 8 मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली में बच्चों को किस प्रकार के खेल खिलाए जाते हैं?
उत्तर:
मॉण्टेसरी शिक्षा प्रणाली में बच्चों को मुख्य रूप से कल्पनात्मक खेल खिलाए जाते हैं।

प्रश्न 9.
मॉण्टेसरी शिक्षा में ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण क्या है?
उत्तर:
मॉण्टेसरी शिक्षा प्रणाली में ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञान का द्वार माना गया है। इस प्रणाली का मानना है। कि यदि ज्ञानेन्द्रियाँ निर्बल रहती हैं तो व्यक्ति का ज्ञान अस्पष्ट तथा अपूर्ण रहता है। अत: इस प्रणाली में विभिन्न शैक्षिक उपकरणों द्वारा बालक की ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित किया जाता है।

प्रश्न 10.
शिक्षा की कौन-सी विधि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से शिक्षा पर बल देती है?
उत्तर:
मॉण्टेसरी प्रणाली।

प्रश्न 11.
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. मॉण्टेसरी शिक्षा प्रणाली को मिस हेलेन पार्कहर्ट ने प्रारम्भ किया था।
  2. मैडम मॉण्टेसरी जर्मनी की मूल निवासी थीं।
  3. मॉण्टेसरी शिक्षा प्रणाली में सैद्धान्तिक एवं पुस्तकीय शिक्षा को प्राथमिकता प्रदान की जाती
  4. मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली में शिक्षिका की भूमिका कठोर नियन्त्रक की है।
  5. मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली में विभिन्न शिक्षण उपकरणों को अपनाया जाता है।

उत्तर:

  1. असत्य,
  2. असत्य,
  3. असत्य,
  4. असत्य,
  5. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न  1.
मॉण्टेसरी प्रणाली की प्रणेता हैं
(क) एनी बेसेण्टं
(ख) मारिया मॉण्टेसरी
(ग) हरबर्ट
(घ) पेस्टालॉजी

प्रश्न  2.
मारिया मॉण्टेसरी किस देश की निवासी थीं?
(क) इटली
(ख) फ्रांस
(ग) जर्मनी
(घ) स्वीडन

प्रश्न  3.
मॉण्टेसरी की शिक्षा सम्बन्धी प्रसिद्ध पुस्तक है
(क) एजूकेशन ऑफ चाइल्ड
(ख) एजूकेशन ऑफ मैन
(ग) एजूकेशन ऑफ वर्ल्ड
(घ) दि मॉण्टेसरी मैथड

प्रश्न  4.
मॉण्टेसरी में किसको विशेष महत्त्व दिया जाता है?
(क) बालक को
(ख) शिक्षक को
(ग) परिवार को
(घ) विद्यालय को

प्रश्न  5.
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली का सिद्धान्त है
(क) आत्माभिव्यक्ति का सिद्धान्त
(ख) पूर्ण स्वतन्त्रता का सिद्धान्त
(ग) विकास के लिए शिक्षा का सिद्धान्त
(घ) उपर्युक्त सभी सिद्धान्त
उत्तर:

1. (ख) मारिया मॉण्टेसरी,
2. (क) इटली,
3. (घ) दि मॉण्टेसरी मैथड,
4. (घ) विद्यालय को,
5. (घ) उपर्युक्त सभी सिद्धान्त।

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UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 11 Educational Systems: Kindergarten Method

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 11
Chapter Name Educational Systems:
Kindergarten Method
(शिक्षा प्रणालियाँ: किण्डरगार्टन पद्धति)
Number of Questions Solved 28
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 11 Educational Systems: Kindergarten Method (शिक्षा प्रणालियाँ: किण्डरगार्टन पद्धति)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
किण्डरगार्टन प्रणाली (पद्धति) का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा इस प्रणाली के आधारभूत सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
या
किण्डरगार्टन प्रणाली के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

किण्डरगार्टन पद्धति का अर्थ
(Meaning of Kindergarten Method)

किण्डरगार्टन प्रणाली के जन्मदाता प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री फ्रॉबेल थे। उन्होंने छोटे बच्चों को सही ढंग से शिक्षित करने के लिए एक शिक्षण-पद्धति का निर्माण किया, जो किण्डरगार्टन पद्धति के नाम से विख्यात है। किण्डरगार्टन का अर्थ है, ‘बच्चों का बगीचा’। किण्डरगार्टन नामक विद्यालय की स्थापना सन् 1940 में फ्रॉबेल ने की थी। फ्रॉबेल का कहना था, “बालक एक अविकसित पौधा है, जो शिक्षकरूपी माली की देखरेख में अपने आन्तरिक नियमों के अनुसार विकसित होता है।” फ्रॉबेल ने शिक्षक को अधिनायक न मानकर केवल पथप्रदर्शक के रूप में स्वीकार किया है। इस प्रकार के विद्यालयों में समय-सारणी और पाठ्य-पुस्तकों का कोई बन्धन नहीं होता है। बालकों से प्रेम तथा सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार किया जाता है। रस्क (Rusk) ने लिखा है, “किण्डरगार्टन छोटे बच्चों के लिए एक स्कूल है, जिसमें कपड़ों को उचित प्रकार से तह करने, चटाई बुनने, मिट्टी की मूर्तियाँ बनाने, सांकेतिक खेल तथा क्रियात्मक गाने उचित ढंग तथा क्रम से सिखाए जाते हैं।”

किण्डरगार्टन पद्धति के आधारभूत सिद्धान्त
(Fundamental Principles of Kindergarten Method)

किण्डरगार्टन प्रणाली का क्रियात्मक रूप प्रमुख रूप से फ्रॉबेल की दार्शनिक विचारधारा पर आधारित है। उसकी शिक्षा-पद्धति के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं|

1. एकता का सिद्धान्त- फ्रॉबेल ईश्वरवादी था और दैवी एकता के सिद्धान्त में विश्वास रखता था। फ्रॉबेल का विश्वास था कि सभी वस्तुएँ ईश्वर द्वारा निर्मित हैं और सभी में ईश्वर व्याप्त है। वह बालक को शिक्षा के माध्यम से ईश्वर आधारभूत सिद्धान्त द्वारा स्थापित एकता का अनुभव कराना चाहता था। उसका विचार था कि ईश्वर बीज रूप में है और सम्पूर्ण सृष्टि उस बीज के बढ़े हुए वृक्ष के रूप में है। ऊपर से देखने में संसार में विभिन्नताएँ हैं, किन्तु हर जीव में एक आत्मा है। वह आत्मा ईश्वर का अंश है और इस प्रकार संसार की सभी वस्तुओं में एकता है। दूसरे शब्दों में, ईश्वर का साक्षात्कार कराना तथा ईश्वर में स्थित विभिन्न वस्तुओं की एकता को पहचान लेना ही शिक्षा का उद्देश्य है। इसी सिद्धान्त के आधार पर उन्होंने पढ़ाए जाने वाले सभी विषयों में समन्वय स्थापित करने का सुझाव रखा। इस समन्वय के द्वारा ही बालक सरलतापूर्वक एकता के नियम का अनुभव कर सकते हैं।

2. स्वतः विकास का सिद्धान्त- फ्रॉबेल का कथन था कि इस संसार का प्रत्येक प्राणी विकास की ओर उन्मुख होता है। प्रत्येक वस्तु का विकास उसके आन्तरिक नियमों के अनुसार स्वत: होता है, बाहर से थोपा नहीं जाता। किसी भी प्रकार के बाह्य हस्तक्षेप से बालक का विकास कुण्ठित हो जाता है। उसका विश्वास था कि जिस प्रकार बीज के अन्दर विकास शक्ति निहित होती है और उसे प्रयोग में लाने पर वह अन्दर से बाहर की ओर विकसित होती है, उसी प्रकार से बालक का भी विकास अन्दर से बाहर की ओर होता है। उसके अनुसार, “बालक.ज़ो कुछ भी होगा, वह उसके भीतर है, चाहे उसका कितना ही कम संकेत हमें क्यों न मिले।’

इसी सिद्धान्त के आधार पर फ्रॉबेल ने बालक की उपमा पौधे से, पाठशाला की बगीचे से और शिक्षक की माली से देते हुए कहा है, “पाठशाला एक बाग है, जिसमें बालकरूपी पौधा शिक्षकरूपी माली की देखरेख में बढ़ता है।” फ्रॉबेल का कहना है कि शिक्षक को बालक के आन्तरिक विकास में कम-से-कम हस्तक्षेप करना चाहिए और उसे केवल पथ-प्रदर्शक के रूप में कार्य करना चाहिए।

3. स्वक्रिया का सिद्धान्त- फ्रॉबेल की मान्यता थी कि बालकों की आन्तरिक शक्तियों के विकास के लिए क्रियाशीलता अत्यन्त आवश्यक है। इस सिद्धान्त का अर्थ स्वयं सक्रिय होकर कार्य करने से है। फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-पद्धति में इस सिद्धान्त को अत्यधिक महत्त्व दिया है और कहा है कि वास्तविक विकास स्वक्रिया द्वारा ही सम्भव है। क्रियाशील रहने से बालक की मानसिक तथा शारीरिक शक्तियाँ दोनों ही विकसित रहती हैं। स्वयं कार्य करने से बालक परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करता है और स्वयं को वातावरण के अनुकूल बना लेता है, इसलिए बालक की शिक्षा का प्रारम्भ वहीं से होना चाहिए अर्थात् बालक को करके सीखना चाहिए। फ्रॉबेल ने स्वयं लिखा है, “अपनी प्रेरणाओं एवं भावनाओं को पूरा करने के लिए बालक स्वयं अपने मन से सक्रिय होकर काम करे।”

4. खेल का सिद्धान्त- फ्रॉबेल ने सर्वप्रथम खेल के माध्यम से बालकों को शिक्षा देने का प्रयत्न किया। उसने खेल को बालक की शिक्षा का प्रमुख साधन माना। उनका मत था कि खेल बालक की स्वाभाविक प्रकृति होती है, इसलिए बालकों को खेलों के माध्यम से शिक्षा दी जानी चाहिए। फ्रॉबेल के शब्दों में, “बचपन के खेल मनुष्य के शुद्ध आध्यात्मिक कार्य हैं और साथ-ही-साथ खेल में मनुष्य का आन्तरिक जीवन प्रकट होता है। इसलिए वह आनन्द, स्वतन्त्रता, सन्तोष, आन्तरिक एवं बाह्य आराम तथा संसार के साथ शान्ति प्रदान करता है। खेल समस्त अच्छाइयों का उद्गम है।”

5. स्वतन्त्रता का सिद्धान्त- फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-पद्धति में स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को बहुत अधिक महत्त्व दिया है। जब बालक को पूर्ण स्वतंन्त्रता दी जाएगी तभी बालक स्वक्रिया द्वारा ज्ञान प्राप्त कर सकता है। इसीलिए फ्रॉबेल का कहना है कि शिक्षक को बालकों के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, बल्कि उनका निरीक्षण करना चाहिए। इस सिद्धान्त के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए दुग्गन (Duggan) ने लिखा है, शिक्षक को प्रत्येक बालक के स्वतन्त्र व्यक्तित्व के विकास के लिए अवसर प्रदान करना चाहिए। उसे मार्ग निर्देशन करना चाहिए, अवरोध नहीं उपस्थित करना चाहिए। उसे प्रत्येक बालक के देवत्व के विकास के साथ हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।’

6. सामाजिकता तथा सामूहिकता का सिद्धान्त- फ्रॉबेल ने मनुष्य को सामाजिक प्राणी माना है। उसका विचार था कि बालक मानवीय गुणों को समाज में रहकर ही प्राप्त कर सकता है। इसके लिए फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-पद्धति में सामूहिक खेल, सामूहिक गान और अन्य सामूहिक कार्यों पर बल दिया है। इन सभी कार्यों द्वारा बालकों में सहयोग, सहानुभूति और एकता की भावना का विकास होता है।

प्रश्न 2.
किण्डरगार्टन शिक्षा-पद्धति की शिक्षण-सामग्री का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर:

किण्डरगार्टन पद्धति की शिक्षण-सामग्री।
(Device of Teaching in Kindergarten Method)

फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-पद्धति में निम्नलिखित शिक्षण-सामग्री को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है

1. खेल- फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-पद्धति में खेल को विशेष महत्त्व दिया है। इस पद्धति में खेल को शिक्षा का माध्यम स्वीकार किया गया है। विभिन्न प्रकार के खेलों के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था की जाती है। सामान्य रूप से चार प्रकार के खेल अपनाए जाते हैं। ये खेल हैं क्रमश: मनोरंजक तथा रचनात्मक खेल सामूहिक भावना की वृद्धि करने वाले खेल, कल्पना-शक्ति का विकास करने वाले खेल तथा चरित्र का विकास करने वाले खेल।।

2. मातृ और शिशु गीत-यह एक लघु पुस्तिका होती है, जिसमें 50 गीतों का संग्रह होता है। इसमें प्रत्येक गीत की अलग-अलग व्याख्यात्मक टिप्पणी होती है। ये गीत बच्चों के खेल, व्यवसाय तथा कार्यों पर आधारित होते हैं। इन खेलों और गीतों का क्रम बालक की आयु और योग्यता के अनुसार रखा गया है। इन खेलों एवं गीतों द्वारा बालक और उसकी माता में एकता स्थापित होती है। इनके द्वारा बालक का शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास किया जाता है। इनके द्वारा बालक की विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों व विभिन्न अंगों का विकास किया जाता है।

3. उपहार- फ्रॉबेल ने बालकों के खेलने के लिए उनकी | किण्डरगार्टन पद्धति की। अभिक्रिया को उत्तेजित करने के लिए उनकी ज्ञानेन्द्रियों को शिक्षा के शिक्षण-सामग्री लिए कुछ वस्तुओं की व्यवस्था की, जिन्हें उसने उपहार नाम दिया है। खेल इन उपहारों की संख्या 20 है। इसमें 7 उपहार प्रमुख हैं, जो बेलन, मातृ और शिशु गीत गोला और घन से बने होते हैं। इनका वर्गीकरण और क्रम बालकों की आयु तथा विकास के क्रमानुसार रखा जाता है। इनमें से प्रमुख उपहार व्यापार या कार्य । निम्नलिखित हैं–

  • ऊन की छह गेंदें- ये गेंदें लाल, पीले, हरे, नीले आदि भिन्न-भिन्न रंगों से रंगी होती हैं। इनके प्रयोग द्वारा बालकों को रूप, रंग, स्पर्श, गति, कठोरता, कोमलता एवं दिशा का ज्ञान कराया जाता है। इनसे खेलने में बालक अपनी मांसपेशियों का उपयोग करता है।
  • बेलन, गोले तथा घन- लकड़ी तथा अन्य किसी ठोस वस्तु से बने बेलन, गोले व घन की सहायता से बालक किसी वस्तु की स्थिरता, गतिशीलता, समानता व भिन्नता का ज्ञान प्राप्त करते हैं।
  • आठ छोटे घनों का एक बड़ा घन- यह उपहार एक ऐसे बड़े घन का होता है, जो छोटे-छोटे आठ घनों से मिलकर बनता है। इन छोटे-छोटे टुकड़ों से बालक अपनी रचनात्मक शक्ति का विकास करते हैं और छोटी-छोटी वस्तुएँ बनाते हैं; जैसे–मेज, कुर्सी आदि। इनकी सहायता से बालक को प्रारम्भिक गणित का भी ज्ञान कराया जाता है।
  • आठ आयताकार घनों का ऐक बड़ा घन- इसमें आठ आयताकार घनों का बना हुआ एक बड़ा घन होता है, जिनकी सहायता से बालक विभिन्न प्रकार की आकृतियों का निर्माण करते हैं और उन्हें संख्याओं का भी ज्ञान हो जाता है।
  • सत्ताइस घनों का एक बड़ा घन- यह एक इतना बड़ा घन होता है, जो छोटे-छोटे 27 घनों से मिलकर बनता है। इनकी सहायता से भी बालकं विभिन्न प्रकार की आकृतियों का निर्माण करते हैं और उन्हें संख्याओं का भी ज्ञान हो जाता है।
  • अठारह बड़े और नौ छोटे विषम चतुर्भुजों का एक बड़ा घन- इनकी सहायता से बालक ज्यामिति की भिन्न-भिन्न आकृतियाँ बनाकर ज्यामिति का ज्ञान प्राप्त करते हैं।
  • वर्ग तथा त्रिभुज- इनका प्रयोग भी रेखागणित के विभिन्न चित्रों को बनाने में किया जाता है।

4. व्यापार या कार्य- फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-पद्धति में व्यापार या कार्य को विशेष महत्त्व दिया है। ये कार्य बालक को तब दिए जाते हैं जब उपहारों के प्रयोग द्वारा उनमें विचार-शक्ति विकसित हो जाती है। फ्रॉबेल ने उपहारों तथा कार्यों में बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध बताया है। उपहारों के द्वारा बालक में विचार उत्पन्न होते हैं और विचारों के आधार पर बालक कार्य करते हैं। बालक को उपहारों द्वारा बिना वस्तुओं का आकार बदले उन्हें मिलाने तथा क्रमबद्ध करने का अभ्यास कराया जाता है और इससे बालक वस्तुओं के आकार, रूप, रंग इत्यादि का ज्ञान प्राप्त करते हैं।

5. पाठ्यक्रम- फ्रॉबेल की शिक्षा-पद्धति में बालकों को खेलों तथा कार्यों के अतिरिक्त कुछ विषयों का ज्ञान भी कराया जाता है; जैसे—भाषा, गणित, विज्ञान, कला, धार्मिक निर्देश, बागवानी, इतिहास, भूगोल, संगीत आदि।

प्रश्न 3.
किण्डरगार्टन शिक्षा-पद्धति के मुख्य गुणों का उल्लेख कीजिए।
या
किण्डरगार्टन शिक्षा-विधि के गुण-दोषों की विवेचना कीजिए।
या
खेल प्रणाली के गुण-दोषों का वर्णन कीजिए।
उतर:

किण्डरगार्टन पद्धति के गुण
(Merits of Kindergarten Method)

1. शिशु की शिक्षा हेतु उपयोगी- यह पद्धति छोटे बच्चों की शिक्षा के लिए बड़ी उपयोगी और उपयुक्त है। फ्रॉबेल के अनुसार, “स्कूल की शिक्षा में तभी सफलता प्राप्त हो सकती है, जब शिक्षा में सुधार कर उसकी नींव मजबूत कर दी जाए।”

2. सरल, रुचिपूर्ण और आकर्षक पद्धति- शिक्षा देते समय बालक की आयु, रुचियों, क्षमताओं और योग्यताओं का ध्यान रखा जाता है। वह खेल, गीत, अभिनय, रचना इत्यादि के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करता है। इस प्रकार यह पद्धति सरल है। इसके अन्तर्गत बालक रुचिपूर्ण ढंग से शिक्षा प्राप्त करता है, इस कारण यह पद्धति आकर्षक कही जाती है।

3. इन्द्रियों का प्रशिक्षण- इस पद्धति में बालकों की ज्ञानेन्द्रियों किण्डरगार्टन पद्धति के गुण को प्रशिक्षित होने का अवसर मिलता है, क्योंकि इसके खेल और शिशु की शिक्षा हेतु उपयोगी उपहार इस प्रकार के बने हैं कि बालक की इन्द्रियाँ प्रशिक्षित हो जाती , सरल, रुचिपूर्ण और आकर्षक हैं। इसके साथ-ही-साथ उनकी मानसिक क्रियाओं में तत्परता और पद्धति स्पष्टता आ जाती है। इन्द्रियों का प्रशिक्षण

4. आत्मक्रिया पर बल- इस पद्धति में बालकों को आत्मक्रिया में आत्मक्रिया पर बल के सजीव तथा स्वाभाविक माध्यम से शिक्षा दी जाती है। क्रियाशीलता शिक्षक मित्र व पथप्रदर्शक की प्रधानता के कारण बालक स्वयं कार्य करके सीखते हैं। विभिन्न व्यावसायिक क्रिया को महत्त्व वस्तुओं तथा उपकरणों द्वारा खेलने से बालकों की स्वक्रिया को शारीरिक श्रम पर बल उत्तेजना मिलती है, जिससे उनमें आत्मशक्ति, क्रियाशीलता और » नैतिक तथा सामाजिक गुणों का आत्मविश्वास आदि का विकास होता है। विकास

5. शिक्षक मित्र वे पथप्रदर्शक- यह शिक्षा-पद्धति के आधुनिक शिक्षा का आधार बालकप्रधान है और इसमें शिक्षक का स्थान गौण होता है। इस पद्धति के सौन्दर्यात्मक विकास में शिक्षक का स्थान केवल मित्र, सहायक तथा पथप्रदर्शक के रूप में होता है। शिक्षक केवल बालकों के कार्य-कलापों का निरीक्षण हैं और उन पर दबाव नहीं डालते हैं।

6. व्यावसायिक क्रिया को महत्त्व- फ्रॉबेल ने अपनी मनोवैज्ञानिक पद्धति शिक्षा-पद्धति में कार्य और व्यापारों को अत्यधिक महत्त्व दिया है। ये कार्य बालकों को भावी जीवन के लिए तैयार करते हैं। इससे उनकी कल्पना तथा रचनात्मक शक्ति का विकास होता है।

7. शारीरिक श्रम पर बल- इस पद्धति में शारीरिक श्रम पर विशेष बल दिया गया है। बालक अनेक शारीरिक कार्यों; जैसे–चटाई बुनना, बागवानी, लकड़ी का काम, सीना-पिरोना आदि को सीखता है। ऐसे कार्य करने से बालकों के मन में शारीरिक श्रम करने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है और वे किसी कार्य को निम्न स्तर का नहीं समझते हैं।

8. नैतिक तथा सामाजिक गुणों का विकास- यह पद्धति बालकों के वैयक्तिक विकास के साथ-ही-साथ उनके नैतिक और सामाजिक विकास पर भी बल देती है। फ्रॉबेल ने अपनी पद्धति में सामूहिक क्रियाओं तथा सामूहिक खेलों पर बल दिया है, जिससे बालकों में सामाजिक तथा नैतिक गुणों का विकास होता है।

9. आधुनिक शिक्षा का आधार- किण्डरगार्टन पद्धति ने आधुनिक शिक्षा को कुछ महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी सिद्धान्त प्रदान किए हैं, जिन पर आधुनिक शिक्षा आधारित है; जैसे–स्वतन्त्र अनुशासन का महत्त्व, क्रिया द्वारा शिक्षा आदि। आधुनिक शिक्षा को मनोवैज्ञानिक आधार भी किण्डरगार्टन पद्धति की ही देन है।

10. सौन्दर्यात्मक विकास- इस पद्धति द्वारा संचालित विद्यालयों में बालकों को इस प्रकार के अवसर प्रदान किए जाते हैं, जिससे वह सुन्दर-सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों का निरीक्षण कर सके। इस प्रकार बालकों के अन्दर सौन्दर्यात्मक अनुभूति का विकास होता है। |

11. विद्यालय का आकर्षक वातावरण- किण्डरगार्टन पद्धति ने विद्यालय के नीरस वातावरण का अन्त करके वहाँ पर सरसता और उल्लास का वातावरण उत्पन्न कर दिया है। किण्डरगार्टन स्कूलों में शिक्षण कार्य प्रशिक्षित महिलाओं द्वारा किया जाता है। वे अपने मृदु व्यवहार और कुशल कार्यों से विद्यालय में भी घर के समान वातावरण उत्पन्न कर देती हैं, जिससे छोटे-छोटे बच्चों को घर जैसा वातावरण मिलने से किसी प्रकार की घबराहट नहीं होती है।

12. आध्यात्मिकता का विकास- इस पद्धति के द्वारा बालकों को विश्व की अनेकता में एकता का अनुभव होता है। इसकी अनुभूति कराने के लिए गीत, खेल व उपहारों का प्रयोग विशिष्ट प्रकार से किया जाता है। विश्व की एकता का ज्ञान होने से बालकों को ईश्वर के अस्तित्व के बारे में जानकारी प्राप्त होती है और उनका आध्यात्मिक विकास भी होता है।

13. खेल द्वारा शिक्षा- यह पद्धति खेल द्वारा शिक्षा पर विशेष बल देती है। बालक खेल-खेल में लिखना, पढ़ना, गणित आदि विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है। रस्क ने लिखा है, ‘फ्रॉबेल ने किण्डरगार्टन में खेल तथा व्यापार की ऐसी विधिवत् व्याख्या की है, जिससे उसको सामान्य रूपों से अपनाया गया। जिस प्रकार जेसुइटो तथा कमेनियस को शिक्षा को एक व्यवस्थित विधिशास्त्र देने का श्रेय है, उसी प्रकार फ्रॉबेलको खेल की विधि प्रदान करने का श्रेय है।”

14. मनोवैज्ञानिक पद्धति- किण्डरगार्टन पद्धति बाल मनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर आधारित है। यह बाल-केन्द्रित है। यह पद्धति बालकों के व्यक्तित्व के विकास पर पूरा ध्यान देती है।

किण्डरगार्टन पद्धति के दोष
(Defects of Kindergarten Method)

इस पद्धति के मुख्य दोषों का विवरण निम्नलिखित है

1. अस्पष्ट रहस्यवादी सिद्धान्त- कुछ शिक्षाशास्त्रियों का किण्डरगार्टन पद्धति के दोष विचार है कि फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा प्रणाली में जिन रहस्यवादी सिद्धान्तों को आधार बनाया है, वे अमनोवैज्ञानिक, भ्रामक तथा अस्पष्ट रहस्यवादी सिद्धान्त अस्पष्ट हैं। फ्रॉबेल के रहस्यवाद में कल्पना का बाहुल्य है और उसके 4 सीमित स्वतन्त्रता द्वारा बालक वास्तविक जीवन से बहुत दूर पहुँच जाते हैं। 9 वैयक्तिकता के विकास पर कम

2. सीमित स्वतन्त्रता- यद्यपि इस पद्धति में बालक की ध्यान । स्वतन्त्रता पर बहुत अधिक बल दिया गया है, लेकिन वास्तव में यह विषयों की अन्योन्याश्रितता को स्वतन्त्रता सीमित है। इस पद्धति के द्वारा बालक को निश्चित उपहारों, अभाव कार्यो, गीतों तथा खेलों में बँधना पड़ता है, जिस कारण बालक अपने ५ उपहार बनावटी तथा मनमाने आपको पूर्ण स्वतन्त्र अनुभव नहीं कर पाते हैं। वे उस वातावरण में कुछ गीत और चित्र पुराने कुछ बन्धनों का अनुभव करते हैं। प्रशिक्षित शिक्षकों को अभाव

3. वैयक्तिकता के विकास पर कम ध्यान- इस पद्धति में ज्ञान की प्रक्रिया का गलत अर्थ सामूहिक एकता और सामूहिक जीवन पर इतना अधिक बल दिया उत्तरदायित्व की शिक्षा का अभाव गया है कि बालक की वैयक्तिकता की उपेक्षा की जाती है। अमनोवैज्ञानिक पद्धति मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह उचित नहीं है।

4. विषयों की अन्योन्याश्रितता का अभाव-इस पद्धति में विषय अलग-अलग करके पढ़ाए जाते हैं, इसलिए विभिन्न विषयों में समन्वय स्थापित नहीं किया जा सकता। उत्तम शिक्षण-प्रणाली वही हो सकती है, जिसमें सभी विषय परस्पर अन्योन्याश्रित हों।

5. उपहार बनावटी तथा मनमाने- अधिकांश शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि फ्रॉबेले के उपहार स्वरूप में बनावटी और प्रस्तुत करने के क्रम में मनमाने हैं। इनका प्रयोग स्वेच्छापूर्वक किया गया है। फ्रॉबेल ने इस तथ्य की उपेक्षा कर दी है कि बालक विद्यालय में जाने से पहले ही भिन्न-भिन्न आकृतियों, रूपों और रंगों से परिचित हो जाता है और उसे उपहारों की कोई आवश्यकता नहीं रहती। इसीलिए आजकल बहुत-सेविद्यालयों ने इन उपहारों को अनावश्यक समझकर पाठ्यक्रम से निकाल दिया है।

6. कुछ गीत और चित्र पुराने- इस पद्धति में जिन गीतों और चित्रों का समावेश किया गया है, उनमें बहुत-से काफी पुराने हैं। आज जब कि विश्व में बहुत अधिक परिवर्तन हो गया है, लेकिन इस पद्धति के गीतों और चित्रों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। ये सब आज की शैक्षिक परिस्थितियों के अनुकूल नहीं हैं और इनका प्रयोग प्रत्येक देश के प्रत्येक विद्यालय में नहीं किया जा सकता।

7. प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव- इस पद्धति में प्रयुक्त उपहार, व्यापार आदि प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी के कारण समस्या उत्पन्न करते हैं और धन की कमी के कारण प्रत्येक विद्यालय में इनकी व्यवस्था नहीं की जा सकती।।

8. ज्ञान की प्रक्रिया का गलत अर्थ- फ्रॉबेल ने ज्ञान की प्रक्रिया के सम्बन्ध में गलत अर्थ निकाला था। फ्रॉबेल का मत था कि विकास एक आन्तरिक क्रिया है। शिक्षा द्वारा जो कुछ बालक के भीतर होता है, वही बाहर निकालता है। परन्तु यह विचार पूर्णतया सत्य प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि विकास तभी होता है, जब बालक वातावरण को समझ लेता है और उसे अपने अनुकूल बनाता है। बहुत-सा ज्ञान और अनुभव बालक में बाहर से अन्दर प्रवेश करता है।

9. उत्तरदायित्व की शिक्षा का अभाव- किण्डरगार्टन पद्धति में पूर्व निश्चित योजना के अनुसार कार्य करना पड़ता है और बालकों को ऐसे अवसर नहीं दिए जाते हैं कि वह स्वयं विचार कर उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से कार्य कर सकें। इस कारण बालकों में उत्तरदायित्व की भावना का विकास नहीं हो पाता।

10. अमनोवैज्ञानिक पद्धति- कुछ शिक्षाशास्त्री किण्डरगार्टन पद्धति को बाल मनोविज्ञान के विपरीत बताकर उसकी आलोचना करते हैं। इनका मत है कि फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-पद्धति में जिन गोल, बेलन एवं घन आदि आकारों की वस्तुओं का प्रयोग करके अपने दार्शनिक विचारों के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया है, उनको समझना और प्रयोग करना बालक के लिए असम्भव है। बालकों में उन वस्तुओं का प्रयोग करते समय प्रतीकवाद से सम्बन्धित उन सूक्ष्म भावों का विकास नहीं हो सकता, जिनकी फ्रॉबेल ने कल्पना की है। इसलिए फ्रॉबेल का प्रतीकवाद अमनोवैज्ञानिक है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
फ्रॉबेल द्वारा प्रतिपादित शिक्षा-प्रणाली किण्डरगार्टन की मुख्य विशेषताओं का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर:

किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ ।
(Main Characteristics of Kindergarten Education Method)

फ्रॉबेल ने रूसो तथा पेस्टालॉजी द्वारा प्रतिपादित मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर एक नवीन शिक्षा-प्रणाली का प्रतिपादन किया, जिसे किण्डरगार्टन शिक्षा प्रणाली कहा जाता है। इस शिक्षा-प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. स्वाभाविक बाल-विकास को महत्त्व- किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में स्वाभाविक बाल विकास को ध्यान में रखते हुए बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था की जाती है।
  2. बाल-रुचियों के अनुसार उनकी क्रियाओं का विकास- किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में बच्चों को विभिन्न क्रियाओं के माध्यम से शिक्षा प्रदान की जाती है तथा इन क्रियाओं के चुनाव एवं निर्धारण के लिए। बालक की रुचियों एवं स्वभाव को ध्यान में रखा जाता है। रुचियों से सम्बद्ध होने के कारण शिक्षा प्रदान करना सरल हो जाता है तथा अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं।
  3. विद्यालय का वातावरण पूर्णरूप से भयमुक्त-इस शिक्षा प्रणाली की एक मुख्य विशेषता यह है कि इस प्रणाली के अन्तर्गत विद्यालय का वातावरण पूर्णरूप से भयमुक्त होता है। भयमुक्त वातावरण में बच्चों का विकास स्वाभाविक रूप में होता है।
  4. खेल के माध्यम से शिक्षा- खेल बच्चों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में खेल को ही शिक्षा का माध्यम बनाया जाता है। खेल के माध्यम से शिक्षा की प्रक्रिया सरल एवं उत्तम बने जाती है। 
  5. शिक्षक: एक पथप्रदर्शक-किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में शिक्षक द्वारा बच्चों पर किसी कार्य या विचार को थोपा नहीं जाता। वह बच्चों का केवल पथ-प्रदर्शन मात्र ही करता है।
  6. नैतिक तथा सामाजिक शिक्षा को प्राथमिकता किण्डरगार्टन शिक्षा प्रणाली में बच्चों के नैतिक विकास पर बल दिया जाता है तथा उन्हें सामाजिक सद्गुणों की भी समुचित शिक्षा दी जाती है।

प्रश्न 2.
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली की शिक्षण-विधि का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

किण्डरगार्टन प्रणाली की शिक्षण-विधि
(Educational Methods of Kindergarten Method)

फ्रॉबेल ने क्रिया द्वारा बालकों को शिक्षा देने पर विशेष बल दिया। उनका मत था कि क्रिया के द्वारा या खेल के द्वारा बालकों को आत्मविश्वास के अवसर प्राप्त होते हैं, जिससे उनका विकास होता है। इस प्रकार फ्रॉबेल की शिक्षा-पद्धति का उद्देश्य बालकों को कोरा ज्ञान देना नहीं, बल्कि उन्हें आत्माभिव्यक्ति के अवसर प्रदान करना है। उसने आत्माभिव्यक्ति के साधन माने हैं—(1) गीत, (2) गति और (3) रचना।

यद्यपि देखने पर आत्माभिव्यक्ति के ये तीनों रूप पृथक्-पृथक् प्रतीत होते हैं, लेकिन वास्तव में ये तीनों क्रियाएँ सह-सम्बन्धित हैं और व्यापारिक रूप से एक हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, जब बालक को कहानी सुनाई जाती है तो सुनने के बाद वह उसका गीत गा सकता है। गीत गाते समय भावों को व्यक्त करने के लिए वह अपने अंगों का संचालन करता है तथा नाट्य द्वारा उसे प्रकट करता है। फिर वह उसे रचनात्मक क्रिया द्वारा अथवा लकड़ी की वस्तु, कागज, मिट्टी तथा अन्य किसी पदार्थ से रचना करके प्रकट कर सकता है। इस प्रकार संगीत, गति तथा रचना में एकता स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षक बालक से काम कराए, कामे से सम्बन्धित गाना गवाए, गाने के साथ-साथ भाव-भंगिमा का प्रदर्शन कराए और गति में वर्णित वस्तुओं का निर्माण कराए।

प्रश्न 3.
भारत में किण्डरगार्टन शिक्षा-पद्धति के प्रयोग के विषय में अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

भारत में किण्डरगार्टन पद्धति का प्रयोग
(Experiments of Kindergarten Method in India)

किण्डरगार्टन पद्धति के गुण एवं दोषों को ध्यान में रखते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यदि हम देश, काल तथा व्यक्ति की आवश्यकताओं के अनुसार इसमें परिवर्तन एवं सुधार करके इसका प्रयोग करें। न केवल भारत में, वरन् विश्व के लगभग सभी देशों में किण्डरगार्टन पद्धति कुछ परिवर्तनों के साथ प्रचलित है। भारत में किण्डरगार्टन पद्धति के प्रयोग में कुछ कठिनाइयाँ अवश्य हैं, तथापि इस पद्धति को निम्नांकित संशोधनों के साथ सफलतापूर्वक अपनाया जा सकता है

  1. भारत में शिशु-शिक्षा के विकास के लिए इस पद्धति का प्रयोग बड़ा उपयोगी है, क्योंकि स्कूल की शिक्षा में तभी सफलता प्राप्त हो सकती है जब शिक्षा में सुधार कर उसकी नींव मजबूत कर दी जाए।
  2. इस पद्धति को कम खर्चीली बनाया जाए, ताकि भारत जैसे निर्धन देश के सामान्य बच्चे इस पद्धति का लाभ उठा सकें।
  3. इस पद्धति की शिक्षण-सामग्री में कुछ कमी की जानी चाहिए और उसमें नवीनतम सामग्री का समावेश करना चाहिए।
  4. इस पद्धति के प्रयोग में प्रशिक्षित-प्रशिक्षिकाओं की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण है। इनकी पूर्ति के लिए प्रशिक्षण विद्यालयों की स्थापना भी आवश्यक है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में अपनाए जाने वाले मुख्य खेलों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
किण्डरगार्टन शिक्षा प्रणाली में मुख्य रूप से अग्रलिखित प्रकार के खेलों को अपनाया जाता है

  1. मनोरंजक तथा रचनात्मक खेल-इस प्रकार के खेलों में उन खेलों को सम्मिलित किया जाता है। जो बालकों का मनोरंजन करते हैं और उनमें रचनात्मक प्रतिभा का विकास करते हैं; जैसे-दौड़ना, झूला । झूलना, विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनाना।
  2. कल्पना-शक्ति का विकास करने वाले खेल-इस प्रकार के खेलों में वे खेल आते हैं, जिनमें बालक की कल्पना-शक्ति का विकास होता है और उन्हें आत्माभिव्यक्ति के अवसर मिलते हैं। उनसे अवसरों के द्वारा विभिन्न प्रकार की आकृतियों का निर्माण करने को कहा जाता है। वह अपनी कल्पना शक्ति के सहारे नई-नई आकृतियों का प्रयोग करते हैं।
  3. सामूहिक भावना की वृद्धि करने वाले खेल-इनमें उन खेलों का समावेश होता है, जो बालकों में सामाजिकता तथा सामूहिक भावना को विकास करते हैं। उन्हें एक साथ रहकर सामूहिक रूप से काम करने और जीवन-निर्वाह करने के लिए प्रेरित करते हैं। इस दृष्टि से सामूहिक नृत्य, सामूहिक संगीत, नाटक आदि को महत्त्व दिया जाता है, क्योंकि उनके द्वारा बालकों को सामूहिक रूप से काम करने के अवसर प्राप्त होते हैं।
  4. चरित्र का विकास करने वाले खेल-विभिन्न प्रकार से शिक्षाप्रद खेलों द्वारा बालक के चरित्र का विकास किया जाता है और उनमें अच्छी-अच्छी आदतें डाली जाती हैं; जैसे-भाषा की शिक्षा के लिए बालू के अक्षरों का बनाना।

प्रश्न 2.
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली के आधारभूत सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
किण्डरगार्टन शिक्षा प्रणाली के मुख्य आधारभूत सिद्धान्त हैं—

  • एकता का सिद्धान्त,
  • स्वत: विकास का सिद्धान्त,
  • स्वक्रिया का सिद्धान्त,
  • खेल का सिद्धान्त,
  • स्वतन्त्रता का सिद्धान्त तथा
  • सामाजिकता तथा सामूहिकता का सिद्धान्त।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
खेल के माध्यम से बच्चों को शिक्षा प्रदान करने वाली प्रथम शिक्षा-प्रणाली कौन-सी है?
उत्तर:
खेल के माध्यम से बच्चों को शिक्षा प्रदान करने वाली प्रथम शिक्षा प्रणाली किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली है।

प्रश्न 2.
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली के प्रवर्तक कौन थे?
या
खेल शिक्षा-प्रणाली के प्रवर्तक कौन थे?
उत्तर:
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली के प्रवर्तक फ्रॉबेल थे।

प्रश्न 3.
किस शिक्षा-पद्धति से फ्रॉबेल का नाम जुड़ा हुआ है?
उत्तर:
किण्डरगार्टन शिक्षा-पद्धति से फ्रॉबेल का नाम जुड़ा हुआ है।

प्रश्न 4.
फ्रॉबेल ने किस विद्वान् के विचारों से प्रेरित होकर किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली का प्रतिपादन किया था?
उत्तर:
फ्रॉबेल ने रूसो के विचारों से प्रेरित होकर किण्डरगार्टन शिक्षा प्रणाली का प्रतिपादन किया 
था।

प्रश्न 5.
फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-प्रणाली में शिक्षा का माध्यम किसे बनाया?
उत्तर:
फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-प्रणाली में खेल को शिक्षा का माध्यम बनाया है।

प्रश्न 6.
फ्रॉबेल द्वारा अपनाए गए शब्द ‘किण्डरगार्टन’ का क्या अर्थ है?
उत्तर:
फ्रॉबेल द्वारा अपनाए गए शब्द ‘किण्डरगार्टन’ का अर्थ है-‘बच्चों का बगीचा’ या ‘बच्चों का उद्यान’।

प्रश्न 7.
“बालक एक अविकसित पौधा है, जो शिक्षकरूपी माली की देखरेख में अपने आन्तरिक नियमों के अनुसार विकसित होता है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
प्रस्तुत कथन फ्रॉबेल का है।

प्रश्न 8.
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली की सैद्धान्तिक मान्यता के अनुसार विद्यालय का शैक्षिक वातावरण किस प्रकार का होना चाहिए?
उत्तर:
किण्डरगार्टन शिक्षा प्रणाली की सैद्धान्तिक मान्यता के अनुसार विद्यालय का शैक्षिक वातावरण पूर्ण रूप से भयमुक्त होना चाहिए।

प्रश्न 9.
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में किस प्रकार के अनुशासन को सर्वोत्तम माना गया है?
उत्तर:
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में स्वतः अनुशासन को सर्वोत्तम माना गया है।

प्रश्न 10.
फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-प्रणाली में शिक्षक को क्या स्थान प्रदान किया है?
उत्तर:
फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-प्रणाली में शिक्षक को पथप्रदर्शक का स्थान प्रदान किया है।

प्रश्न 11.
किण्डरगार्टन क्या है?
उत्तर:
किण्डरगार्टन छोटे बच्चों को शिक्षित करने की एक शिक्षा पद्धति है।

प्रश्न 12.
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य–

  1. किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली के जन्मदाता किलपैट्रिक थे।
  2. किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में शिक्षण-सामग्री को उपहार कहा जाता है।
  3. किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली अपने आप में एक अध्यापिका-केन्द्रित शिक्षा प्रणाली है।
  4. किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में बाहरी कठोर अनुशासन को अपनाया जाता है।
  5. किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में स्वत: विकास के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है।

उत्तर:

  1. असत्य,
  2. सत्य,
  3. असत्य,
  4. असत्य,
  5. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रण

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1.
फ्रॉबेल किस शिक्षण-पद्धति का प्रवर्तक था?
(क) मॉण्टेसरी
(ख) डाल्टन
(ग) बुनियादी शिक्षा
(घ) किण्डरगार्टन

प्रश्न 2.
किण्डरगार्टन प्रणाली के जनक हैं
(क) मॉण्टेसरी
(ख) एनीबेसेण्ट
(ग) डीवी
(घ) फ्रॉबेल

प्रश्न 3.
किण्डरगार्टन का क्या अर्थ है?
(क) बच्चों का घर
(ख) बच्चों का बागीचा
(ग) बच्चों की नर्सरी ।
(घ) बच्चों की पाठशाला

प्रश्न 4.
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में किसे प्रमुख स्थान दिया गया है?
(क) बालक को
(ख) शिक्षक को
(ग) विद्यालय को
(घ) समाज को

प्रश्न 5.
फ्रॉबेल ने शिक्षक को क्या संज्ञा दी है?
(क) माली
(ख) मास्टर
(ग) रखवाला
(घ) निर्देशक

प्रश्न 6.
किण्डरगार्टन प्रणाली का प्रमुख गुण है
(क) सस्ती प्रणाली
(ख) बाल-केन्द्रित प्रणाली
(ग) उपहारयुक्त प्रणाली
(घ) व्यक्तिवादी प्रणाली

प्रश्न 7.
किण्डरगार्टन प्रणाली का प्रमुख दोष है
(क) रचनात्मक कार्यों की प्रधानता
(ख) नैतिक व सामाजिक गुणों का विकास
(ग) कृत्रिम वातावरण
(घ) संवेदी अंगों का प्रशिक्षण

प्रश्न 8.
फ्रॉबेल का जन्म हुआ था–
(क) इटली में
(ख) अमेरिका में
(ग) जर्मनी में
(घ) इंग्लैण्ड में

उत्तर:

1. (घ) किण्डरगार्टन,
2. (घ) फ्रॉबेल,
3. (ख) बच्चों का बगीचा,
4. (क) बालक को,
5. (क) माली,
6. (ख) बाल-केन्द्रित प्रणाली,
7. (ग) कृत्रिम वातावरण,
8. (ग) जर्मनी में।

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