UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 2 Concept of Pollution Causes, Social Effects and Solution

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 2
Chapter Name Concept of Pollution Causes,
Social Effects and Solution
(प्रदूषण की अवधारण: कारण, सामाजिक
प्रभाव और निराकरण)
Number of Questions Solved 36
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 2 Concept of Pollution Causes, Social Effects and Solution (प्रदूषण की अवधारण: कारण, सामाजिक प्रभाव और निराकरण)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? प्रदूषण के समाज पर पड़ रहे दुष्प्रभावों की विवेचना कीजिए। [2007, 08, 10]
या
पर्यावरण प्रदूषण पर एक निबन्ध लिखिए। [2010]
या
प्रदूषण के उत्तर दायी कारकों की विवेचना कीजिए। पर्यावरण प्रदूषण क्या है? आधुनिक भारत में प्रदूषण की समस्या का कारण क्या है? [2016]
या
पर्यावरण प्रदूषण के कौन-कौन से प्रमुख कारण हैं? [2009, 10, 14, 16]
या
पर्यावरणीय प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? इसे समाप्त करने हेतु अपने सुझाव दीजिए। प्रदूषण के स्रोतों की विवेचना कीजिए। [2015]
या
प्रदूषण क्या है? प्रदूषण के कुप्रभावों का वर्णन कीजिए। [2010, 11]
या
पर्यावरण को जल-प्रदूषण से कैसे बचाया जा सकता है? [2017]
या
प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों को समझाते हुए इनके नियन्त्रण के उपायों को समझाइए। [2015]
या
मानव जीवन पर पर्यावरण प्रदूषण के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभावों का वर्णन कीजिए। [2016]
उत्तर :

पर्यावरण प्रदूषण का अर्थ एवं प्रकार

पर्यावरण प्रदषण का सामान्य अर्थ है – हमारे पर्यावरण का दूषित हो जाना। पर्यावरण का निर्माण प्रकृति ने किया है। प्रकृति-प्रदत्त पर्यावरण में जब किन्हीं तत्त्वों का अनुपात इस रूप में बदलने लगता है जिसको जीवन के किसी भी पक्ष पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका होती है, तब कहा जाता है कि पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। उदाहरण के लिए, यदि पर्यावरण के मुख्य भाग वायु में ऑक्सीजन के स्थान पर अन्य विषैली एवं अनुपयोगी गैसों का अनुपात बढ़ जाए तो कहा। जाएगा कि वायु प्रदूषण हो गया है। वायु के अतिरिक्त पर्यावरण के किसी भी भाग के दूषित हो जाने को पर्यावरण प्रदूषण ही कहा जाएगा।

पर्यावरण के मुख्य भागों या पक्षों को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण प्रदूषण के विभिन्न प्रकारों या स्वरूपों का निर्धारण किया गया है। पर्यावरण प्रदूषण के मुख्य प्रकार हैं-जल-प्रदूषण, वायुप्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण तथा मृदा-प्रदूषण।

1. जल-प्रदूषण

जल में जीव रासायनिक ऑक्सीजन तथा विषैले रसायन, खनिज, ताँबा, सीसा, अरगजी, बेरियम फॉस्फेट, सायनाइड आदि की मात्रा में वृद्धि होना ही जल-प्रदूषण है। जल-प्रदूषण दो प्रकार का होता है

  • दृश्य – प्रदूषण तथा
  • अदृश्य – प्रदूषण।

जल-प्रदूषण के कारण – जल-प्रदूषण निम्नलिखित कारणों से होता है–

  1. औद्योगीकरण जल-प्रदूषण के लिए सर्वाधिक उत्तर दायी है। चमड़े के कारखाने, चीनी एवं ऐल्कोहॉल के कारखाने, कागज की मिलें तथा अन्य अनेकानेक उद्योग नदियों के जल को प्रदूषित करते हैं।
  2. नगरीकरण भी जल-प्रदूषण के लिए उत्तर दायी है। नगरों की गन्दगी, मल व औद्योगिक अपशिष्टों के विषैले तत्त्व भी जल को प्रदूषित करते हैं।
  3. समुद्रों में जहाजरानी एवं परमाणु अस्त्रों के परीक्षण से भी जल प्रदूषित होता है।
  4. नदियों के प्रति भक्ति-भाव होते हुए भी तमाम गन्दगी; जैसे-अधजले शव, जानवरों की लाशें तथा अस्थि-विसर्जन आदि-भी नदियों में ही किया जाता है, जो नदियों के जल प्रदूषण का एक कारण है।
  5. जल में अनेक रोगों के हानिकारक कीटाणु मिल जाते हैं, जिससे प्रदूषण उत्पन्न हो जाता
  6. भूमिक्षरण के कारण मिट्टी के साथ रासायनिक उर्वरक तथा कीटनाशक पदार्थों के नदियों में पहुँच जाने से नदियों का जल प्रदूषित हो जाता है।
  7. घरों से बहकर निकलने वाला फिनायल, साबुन, सर्फ आदि से युक्त गन्दा पानी तथा शौचालय का दूषित मल नालियों में प्रवाहित होता हुआ नदियों और झील के जल में मिलकर उसे प्रदूषित कर देता है।
  8. नदियों और झीलों के जल में पशुओं को नहलाना, पुरुषों तथा स्त्रियों द्वारा स्नान करना वे साबुन आदि से गन्दे वस्त्र धोना भी जल-प्रदूषण का मुख्य कारण है।

जल-प्रदूषण रोकने के उपाय – जल की शुद्धता और उपयोगिता बनाये रखने के लिए प्रदूषण को रोकना आवश्यक है। जल-प्रदूषण को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय काम में लाये जा सकते हैं

  1. नगरों के दूषित जल और मल को नदियों और झीलों के स्वच्छ जल में मिलने से रोका जाए।
  2. कल-कारखानों के दूषित और विषैले जल को नदियों और झीलों के जल में न गिरने दिया जाए।
  3. मल-मूत्र एवं गन्दगीयुक्त जल का उपयोग बायोगैस बनाने या सिंचाई के लिए करके प्रदूषण को रोका जा सकता है।
  4. सागरों के जल में आणविक परीक्षण न कराए जाएँ।
  5. नदियों के तटों पर शव ठीक से जलाए जाएँ तथा उनकी राख भूमि में दबा दी जाए।
  6. पशुओं के मृतक शरीर तथा मानव शवों को स्वच्छ जल में प्रवाहित न करने दिया जाए।
  7. जल-प्रदूषण रोकने के लिए नियम बनाये जाएँ तथा उनका कठोरता से पालन किया जाए।
  8. नदियों, कुओं, तालाबों और झीलों के जल को शुद्ध बनाये रखने के लिए प्रभावी उपाय काम में लाये जाएँ।
  9. जल-प्रदूषण के कुप्रभाव तथा रोकने के उपायों का जनसामान्य में प्रचार-प्रसार कराया जाए।
  10. जल उपयोग तथा जल-संसाधन संरक्षण के लिए राष्ट्रीय नीति बनायी जाए।

जल-प्रदूषण का मानव-जीवन पर प्रभाव (हानियाँ) – जब से सृष्टि है-पानी है; यह सर्वाधिक बुनियादी और महत्त्वपूर्ण साधन है। ‘पानी नहीं तो जीवन नहीं।’ संसार का 4 प्रतिशत पानी पृथ्वी पर है, शेष पानी समुद्रों में है, जो खारा है। पृथ्वी पर जितना पानी है उसका केवल 0.3 प्रतिशत भाग ही साफ और शुद्ध है और इसी पर सारी दुनिया निर्भर है। आज शुद्ध पानी कम होता जा रहा है और प्रदूषित पानी दिन-प्रतिदिन अधिक। प्रदूषित जल मानव-जीवन को निम्नलिखित प्रकार से सर्वाधिक प्रभावित करता है

  1. जल, जो जीवन की रक्षा करता है, प्रदूषित हो जाने पर जीव की मृत्यु का सबसे बड़ा कारण बनता है और बनता जा रहा है।
  2. जल-प्रदूषण से अनेक बीमारियाँ; जैसे-हैजा, पीलिया, पेट में कीड़े, यहाँ तक कि टायफाइड भी प्रदूषित जल के कारण ही होता है, जिससे विकासशील देशों में पाँच में से चार बच्चे पानी की गन्दगी के कारण उत्पन्न रोगों से मरते हैं।
    राजस्थान के दक्षिणी भाग के आदिवासी गाँवों में गन्दे तालाबों का पानी पीने से “नारू’ नाम का भयंकर रोग होता है। इन गाँवों के 6 लाख 90 हजार लोगों में से 1 लाख 90 हजार लोगों को यह रोग है।
  3. प्रदूषित जल का प्रभाव जल में रहने वाले जन्तुओं और जलीय पौधों पर भी पड़ रहा है। जल-प्रदूषण के कारण मछली और जलीय पौधों में 30 से 50 प्रतिशत तक की कमी हो गयी है। जो व्यक्ति खाद्य-पदार्थ के रूप में मछली आदि का उपयोग करते हैं, उनके स्वास्थ्य को भी हानि पहुँचती है।।
  4. प्रदूषित जल का प्रभाव कृषि-उपजों पर भी पड़ता है। कृषि से उत्पन्न खाद्य-पदार्थों को मानव व पशुओं के उपयोग में लाते हैं, जिससे मानव व पशुओं के स्वास्थ्य को हानि होती
  5. जल-जन्तुओं के विनाश से पर्यावरण असन्तुलित होकर विभिन्न प्रकार के कुप्रभाव उत्पन्न करता है।

2. वायु-प्रदूषण

वायु में विजातीय तत्त्वों की उपस्थिति चाहे गैसीय हो या पार्थक्य या दोनों का मिश्रण, जो कि मानव के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए हानिकारक हो, वायु-प्रदूषण कहलाता है।
वायु-प्रदूषण मुख्य रूप से धूलकण, धुआँ, कार्बन-कण, सल्फर डाइऑक्साइड, सीसा, कैडमियम आदि घातक पदार्थों के वायु में मिलने से होता है। ये सब उद्योगों एवं परिवहन के साधनों के माध्यम से वायुमण्डल में मिलते हैं।

वायु-प्रदूषण के कारण – वायु-प्रदूषण निम्नलिखित कारणों से होता है

  1. नगरीकरण, औद्योगीकरण एवं अनियन्त्रित भवन-निर्माण से वायु प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो रही है।
  2. परिवहन के साधनों (ऑटोमोबाइलों) से निकलता धुआँ वायु-प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण
  3. नगरीकरण एवं नगरों की बढ़ती गन्दगी भी वायु को प्रदूषित कर रही है।
  4. वनों की अनियमित एवं अनियन्त्रित केटाई से भी वायु प्रदूषण बढ़ रहा है।
  5. रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशक औषधियों के कृषि में अधिकाधिक उपयोग से भी वायु-प्रदूषण बढ़ रहा है।
  6. रसोईघरों तथा कारखानों की चिमनियों से निकलते धुएँ के कारण वायु प्रदूषण बढ़ रहा है।
  7. विभिन्न प्रदूषकों के भूमि पर फेंकने से वायु-प्रदूषण उत्पन्न हो रहा है।
  8. दूषित जल-मल के एकत्र होकर दुर्गन्ध फैलाने से वायु प्रदूषित हो रही है।
  9. युद्ध, आणविक विस्फोट तथा दहन की क्रियाएँ वायु-प्रदूषण उत्पन्न करती हैं।
  10. कीटनाशक पदार्थों के छिड़काव के कारण वायुमण्डल प्रदूषित हो जाता है।

वायु-प्रदूषण रोकने के उपाय – वायु मानव-जीवन का मुख्य आधार है। वायु का प्रदूषण मानव-जीवन के अस्तित्व के लिए खतरा बनता जा रहा है। वायु प्रदूषण रोकने के लिए प्रभावी उपाय ढूंढ़ना आवश्यक है। वायु प्रदूषण रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय काम में लाये जा सकते

  1. कल-कारखानों को नगरों से दूर स्थापित करना तथा उनसे निकलने वाले धुएँ, गैस तथा राख पर नियन्त्रण करना।
  2. परिवहन के साधनों पर धुआं-रहित यन्त्र लगाना।
  3. नगरों में हरित पट्टी के रूप में युद्ध स्तर पर वृक्षारोपण कराना।
  4. नगरों में स्वच्छता, जल-मल निकास तथा अवशिष्ट पदार्थों के मार्जन की उचित व्यवस्था करना।
  5. वन लगाने तथा वृक्ष संरक्षण पर बल देना।
  6. रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के प्रयोग को नियन्त्रित करना।
  7. घरों में बायोगैस, पेट्रोलियम गैस या धुआँ-रहित चूल्हों का प्रयोग करना।
  8. खुले में मैला, कूड़ा-करकट तथा अवशिष्ट पदार्थ सड़ने के लिए न फेंकना।
  9. गन्दा जल एकत्र न होने देना।
  10. वायु-प्रदूषण रोकने के लिए कठोर नियम बनाना और दृढ़ता से उनका पालन कराना।

वायु-प्रदूषण का मानव-जीवन पर प्रभाव – वायु-प्रदूषण के मानव-जीवन पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं

  1. वायु-प्रदूषण से जानलेवा बीमारियाँ; जैसे-छाती और साँस की बीमारियाँ, ब्रांकाइटिस, फेफड़ों के कैंसर आदि बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं।
  2. वायु-प्रदूषण मानव-शरीर, मानव की खुशियों और मानव की सभ्यता के लिए खतरा बना हुआ है। नीला, भूरा, सफेद, तरह-तरह का परिवहन के साधनों का धुआँ पूँघता हुआ आदमी जब सड़कों पर चलता है तो वह नहीं जानता कि यह धुआँ उसकी आँखों में ही डंक नहीं मार रहा है, उसके गले को भी दबाता है और उसके फेफड़ों को भी जहरीले नाखूनों से नोच रहा है।
  3. वायु प्रदूषण न केवल चारों ओर फैले खेतों, हरे-भरे पेड़ों, रमणीक दृश्यों को भी धुंधला करता है व उन पर झीनी चादर डालता है, बल्कि खेतों, तालाबों व जलाशयों को अपने – कृमिकणों से विषाक्त करता रहता है, जिसका सीधा प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर पड़ता है।
  4. डॉक्टरों ने परीक्षण कर देखा है कि जहाँ वायु-प्रदूषण अधिक है वहाँ बच्चों की हड्डियों का विकास कम होता है, हड्डियों की उम्र घट जाती है तथा बच्चों में खाँसी और सॉस फूलना तो देखा ही जा सकता है।
  5. वायु-प्रदूषण का प्रभाव वृक्षों पर भी देखा जा सकता है। चण्डीगढ़ के पेड़ों और लखनऊ के दशहरी आमों पर वायु-प्रदूषण के बढ़ते हुए खतरे को देखा गया है, जिससे मानव को फल तो कम मात्रा में मिल ही रहे हैं, किन्तु जो मिल रहे हैं वे भी विषाक्त हैं, जिसको सीधा प्रभाव मानव पर पड़ रहा है।
  6. दिल्ली के वायुमण्डल में व्याप्त प्रदूषण का प्रभाव आम नागरिकों के स्वास्थ्य पर तो पड़ा ही, दिल्ली की परिवहन पुलिस पर भी पड़ा है और यही दशा कोलकाता और मुम्बई की | भी है, अर्थात् इससे मानव का जीवन (आयु) घट रहा है।
  7. वायु-प्रदूषण के कारण ही फेफड़ों का कैंसर, टी० बी० तथा अन्य घातक रोग फैल रहे हैं।
  8. वायु-प्रदूषण के कारण ओजोन की परत में छेद होने की सम्भावना व्यक्त होने से सम्पूर्ण विश्व भयाक्रान्त हो उठा है।
  9. शुद्ध वायु न मिलने से शारीरिक विकास रुक गया है तथा शारीरिक क्षमता घटती जा रही है।
  10. वायु-प्रदूषण मानव अस्तित्व के सम्मुख एक गम्भीर समस्या बन कर खड़ा हो गया है, जिसे रोकने में भारी व्यय करना पड़ रहा है।

3. ध्वनिप्रदूषण

पर्यावरण प्रदूषण का एक रूप ध्वनि-प्रदूषण भी है। ध्वनि-प्रदूषण की समस्या नगरों में अधिक है। ध्वनि-प्रदूषण को साधारण शब्दों में शोर बढ़ने के रूप में स्पष्ट किया जा सकता है। पर्यावरण में शोर अर्थात् ध्वनियों का बढ़ जाना ही ध्वनि-प्रदूषण है। अब प्रश्न उठता है कि शोर क्या है? वास्तव में, प्रत्येक अनचाही तथा तीव्र आवाज शोर है। शोर का बढ़ना ही ध्वनि-प्रदूषण का बढ़ना कहा जाता है।

ध्वनि-प्रदूषण के कारण – ध्वनि-प्रदूषण के लिए निम्नलिखित कारक उत्तर दायी हैं

  1. ध्वनि-प्रदूषण परिवहन के साधनों; जैसे—बसों, ट्रकों, रेलों, वायुयानों, स्कूटरों आदि के द्वारा होता है। धड़धड़ाते हुए वाहन कर्कश स्वर देकर शोर उत्पन्न करते हैं, जिससे ध्वनि प्रदूषण उत्पन्न होता है।
  2. कारखानों की विशालकाय मशीनें, कल-पुर्जे, इंजन आदि भयंकर शोर उत्पन्न करके ध्वनि प्रदूषण के स्रोत बने हुए हैं।
  3. मस्जिदों में ध्वनि-विस्तारक यन्त्रों से होने वाली अजान, मन्दिरों में भजन, कीर्तन तथा गुरुद्वारों में शबद कीर्तन भी प्रदूषण के कारण हैं।
  4. विभिन्न प्रकार के विस्फोटक भी ध्वनि-प्रदूषण के जन्मदाता हैं।
  5. घरों पर जोर से बजने वाले रेडियो, टेलीविजन, टेपरिकॉर्डर, कैसेट्स तथा बच्चों की चिल्ल-पौं की ध्वनि भी प्रदूषण उत्पन्न करने के मुख्य साधन हैं।
  6. वायुयान, सुपरसोनिक विमान व अन्तरिक्ष यान भी ध्वनि-प्रदूषण फैलाते हैं।
  7. मानव एवं पशु-पक्षियों द्वारा उत्पन्न शोर भी ध्वनि-प्रदूषण का मुख्य कारण है।
  8. आँधी, तूफान तथा ज्वालामुखी के उद्गार के फलस्वरूप भी ध्वनि-प्रदूषण उत्पन्न होता

ध्वनि-प्रदूषण रोकने के उपाय-डॉ० पी० सी० शर्मा ने ध्वनि प्रदूषण निवारण के लिए निम्नलिखित उपाय सुझाये हैं

  1. ध्वनि-प्रदूषण निरोधक कानूनों को बनाना तथा उन्हें अमल में लाना।।
  2. कम शोर करने वाली मशीनों को बनाना।
  3. इमारतों के बाहर पेड़-पौधों, घास-झाड़ियों तथा घरों के अन्दर ध्वनि-शोषक साज-सज्जा एवं भवन निर्माण सामग्री का उपयोग करके ध्वनि-प्रदूषण के प्रभाव को कम करना।
  4. सामाजिक दबाव बनाकर ध्वनि-प्रदूषण फैलाने वाले यन्त्रों को प्रयोग में लाने वाले व्यक्तियों को आवासीय बस्तियों तथा मनोरंजन के स्थानों से पृथक् करना।
  5. जिन उद्योगों में तीव्र ध्वनि को नियन्त्रित करना सम्भव नहीं है, वहाँ कामगारों को श्रवणेन्द्रियों की रक्षा हेतु कान में लगायी जाने वाली उपयुक्त रक्षा-डाटों को उपलब्ध कराना।
  6. जनसाधारण को ध्वनि-प्रदूषण के कुप्रभावों के प्रति जन-जागरण कार्यक्रमों के माध्यम से सचेत करना तथा संवेदनशील बनाना।।
  7. स्कूलों में ध्वनि-प्रदूषण के विषय में ज्ञान देना।

ध्वनि-प्रदूषण का मानव-जीवन पर प्रभाव – ध्वनि-प्रदूषण का मानव-जीवन पर निम्नलिखित कुप्रभाव पड़ता है–

  1. ध्वनि-प्रदूषण मानव के कानों के परदों पर, मस्तिष्क और शरीर पर इतना घातक आक्रमण करता है कि संसार के सारे वैज्ञानिक तथा डॉक्टर इससे चिन्तित हो रहे हैं।
  2. ध्वनि-प्रदूषण वायुमण्डल में अनेक समस्याएँ उत्पन्न करता है और मानव के लिए एक गम्भीर खतरा बन गया है। जर्मन नोबेल पुरस्कार विजेता रॉबर्ट कोक ने कहा है कि वह दिन दूर नहीं जब आदमी को अपने स्वास्थ्य के इस सबसे नृशंस शत्रु ‘शोर’ से पूरे जी-जान से लड़ना पड़ेगा।
  3. ध्वनि-प्रदूषण के कारण व्यक्ति की नींद में बाधा उत्पन्न होती है। इससे चिड़चिड़ापन बढ़ता है तथा स्वास्थ्य खराब होने लगता है।
  4. शोर के कारण सुनने की शक्ति कम होती है। बढ़ते हुए शोर के कारण मानव समुदाय बहरेपन की ओर बढ़ रहा है।
  5. ध्वनि-प्रदूषण के कारण मानसिक तनाव बढ़ने से स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता है।
  6. ध्वनि-प्रदूषण मनुष्य के आराम में बाधक बनता जा रहा है।

ध्वनि-प्रदूषण की समस्या दिन-प्रति – दिन बढ़ती जा रही है। इस अदृश्य समस्या का निश्चित समाधान खोजना नितान्त आवश्यक है। विक्टर गुएन ने ध्वनि प्रदूषण के दुष्प्रभावों को इन शब्दों में व्यक्त किया है, “शोर मृत्यु का मन्द गति अभिकर्ता है। यह मानव-मात्र का एक अदृश्य शत्रु है।”

वास्तव में, जल, वायु और ध्वनि-प्रदूषण आज के सामाजिक जीवन की एक गम्भीर चुनौती है। यह अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बनकर उभरा है। बढ़ते प्रदूषण ने मानव सभ्यता, संस्कृति तथा अस्तित्व पर प्रश्न-चिह्न लगा दिया है। भावी पीढ़ी को इस विष-वृक्ष से बचाये रखने के लिए प्रदूषण का निश्चित समाधान खोजना आवश्यक है।

4. मृदा-प्रदूषण

भूमि पेड़-पौधों की वृद्धि एवं विकास के लिए आवश्यक लवण, खनिज तत्त्व, जल, वायु तथा कार्बनिक पदार्थ संचित रखती है। भूमि में उपर्युक्त पदार्थ प्रायः निश्चित अनुपात में पाये जाते हैं। इन पदार्थों की मात्रा में किन्हीं प्राकृतिक अथवा अप्राकृतिक कारणों से उत्पन्न होने वाला अवांछनीय परिवर्तन मृदा-प्रदूषण कहलाता है। दूसरे शब्दों में, “भूमि के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में ऐसा कोई भी अवांछित परिवर्तन जिसका हानिकारक प्रभाव मनुष्य तथा अन्य जीवों पर पड़ता है। अथवा जिससे भूमि की प्राकृतिक गुणवत्ता तथा उपयोगिता नष्ट हो जाती है, मृदा-प्रदूषण कहलाता है।”

मृदा-प्रदूषण के कारण मृदा-प्रदूषण के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  1. नगरों द्वारा ठोस कूड़ा-करकट फेंकने से तथा खानों के पास बेकार पदार्थों के ढेर जमा होने से भूमि अन्य कार्यों के लिए उपयुक्त नहीं रहती।
  2. दूषित क्षेत्रों से बहकर आया जल नदियों को प्रदूषित करता है। इन्हीं क्षेत्रों से जल का रिसाव भूमिगत जल में प्रदूषण फैलाता है।
  3. सिंचाई से भी भूमि का प्रदूषण होने लगा है। सिंचित भूमि पर नमक या नमकीन परत जम जाती है, ऐसी भूमि खेती योग्य नहीं रहती।
  4. अर्द्धमरुस्थलीय प्रदेशों में पवनें भारी मात्रा में बालू उड़ाकर पास-पड़ोस के खेतों में जमा कर देती हैं और खेत कृषि के लिए बेकार हो जाते हैं।
  5. बाढ़ के दौरान कंकड़, पत्थर तथा रेत जमा हो जाने से खेत बर्बाद हो जाते हैं।
  6. प्रदूषित जल तथा वायु के कारण मृदा भी प्रदूषित हो जाती है। वर्षा इत्यादि के जल के साथ ये प्रदूषक पदार्थ मिट्टी में आ जाते हैं; जैसे-वायु में SO, वर्षा के जल के साथ मिलकर H,SO, अम्ल बना लेती है।
  7. इसी प्रकार जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ अधिक फसल पैदा करने के लिए भूमि की उर्वरता बढ़ाने या बनाये रखने के लिए उर्वरकों का उपयोग किया जाता है। विभिन्न प्रकार के कीटाणुनाशक पदार्थ (Pesticides), अपतृणनाशी पदार्थ (weedicides) आदि फसलों पर छिड़के जाते हैं। ये सभी पदार्थ मृदा के साथ मिलकर हानिकारक प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं।

मृदा-प्रदूषण रोकने के उपाय – जैव-पदार्थ पौधे तथा मृदा के लिए उपयोगी हैं। खेती करने, वर्षा, भूमि का कटाव तथा कुछ अन्य कारणों से भूमि में जैव-पदार्थों की कमी होने लगती है। मृदा-प्रदूषण रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय करने चाहिए

  1. मृदा में कार्बनिक खादों का प्रयोग करना चाहिए।
  2. खेत में सदैव कम सिंचाई करनी चाहिए।
  3. खेत में जल-निकास का उचित प्रबन्ध होना चाहिए।
  4. खेतों की मेड़बन्दी करनी चाहिए, जिससे वर्षा के पानी से या भूमि के कटाव से जीवांश पदार्थ बहकर न निकल जाएँ।
  5. विभिन्न प्रकार के कीटनाशक, साबुन व अपमार्जक, अपतृणनाशक व अन्य रासायनिक पदार्थ आदि सामान्य मृदा प्रदूषक होते हैं। अतः इन पदार्थों से भूमि को बचाना चाहिए।

मृदा-प्रदूषण का मानव-जीवन पर प्रभाव – मृदा-प्रदूषण से मानव-जीवन पर मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं

  1. दूषित-मृदा में रोगों के जीवाणु पनपते हैं, जिनसे मनुष्यों व अन्य जीवों में रोग फैलते हैं।
  2. मृदा-प्रदूषण से पौधों की वृद्धि रुक जाती है, जिससे पूरी फसल ही बर्बाद हो जाती है।
  3. फसल की बर्बादी से जीव-जन्तुओं तथा मनुष्यों को अनेक प्रकार की मुसीबतों का सामना करना पड़ता है।

यह स्पष्ट है कि अभी बताये गये उपायों को लागू करना केवल एक व्यक्ति के द्वारा सम्भव नहीं है। इस कार्य के लिए सरकार, विधिवेत्ताओं, वास्तुकारों, ध्वनि-अभियन्ता, नगर-परियोजना-अधिकारियों, पुलिस, मनोवैज्ञानिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा शिक्षकों सभी के सहयोग की आवश्यकता होगी।

प्रश्न 2
पर्यावरण प्रदूषण का सर्वप्रथम कारण मानव सभ्यता का विकास ही है।’ स्पष्ट कीजिए। [2007, 12]
या
‘पारिस्थितिक-तन्त्र का पतन एवं पर्यावरण प्रदूषण’ पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2011]
या
पर्यावरण प्रदूषण के कारणों को व्यक्त कीजिए। [2012, 14, 16]
या
वायु-प्रदूषण में मानव-जनित प्रदूषण की भूमिका पर प्रकाश डालिए। प्रदूषण के दो कारकों का उल्लेख कीजिए। [2017]
उत्तर :
जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास होता गया, वैसे-वैसे मानव की आवश्यकताएँ भी बढ़ती गयीं। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य ने जंगल काटकर खेती करना प्रारम्भ किया। जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के कारण अब इस खेती को नष्ट करके मनुष्य उस पर मकान बनाने लगा है और फैक्ट्रियों में कार्य करके आज अपनी आजीविका कमा रहा है। विकास की तेज गति से मनुष्य को जहाँ लाभ पहुंचे हैं, वहाँ दूसरी ओर कई नुकसान भी हुए हैं। प्रकृति का सन्तुलन डगमगाने लगा है, उसकी सादगी और पवित्रता नष्ट हो रही है। अपनी बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए मकान बनाने, खेती करने, ईंधन प्राप्त करने, पैसा बनाने तथा अन्य उपयोगों के लिए पेड़ों और जंगलों का सफाया आज भी लगातार हो रहा है। प्रतिदिन नयी-नयी सड़कें, गगनचुम्बी इमारते, मिल, कारखाने आदि बन रहे हैं और इस प्रक्रिया में प्राकृतिक साधनों का बहुत अधिक दोहन हो रहा है, हानिकारक रसायनों, गैसों व अन्य चीजों का बहुत इस्तेमाल हो रहा है। इससे पर्यावरण की प्राकृतिकता नष्ट हो रही है और प्रदूषण पनप रहा है। हजारों वर्षों से मानव-जीवन पर्यावरण के सन्तुलन के सहारे चलता रहा है। मानव ने अपनी सुख-सुविधाओं में वृद्धि हेतु पर्यावरण में इतना अधिक परिवर्तन कर दिया है कि इससे पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गयी है। निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि पर्यावरण प्रदूषण का सर्वप्रमुख कारण मानव सभ्यता का विकास ही है

1. दहन – लकड़ी व विभिन्न प्रकार के खनिज ईंधनों (पेट्रोल, कोयला, मिट्टी का तेल आदि) की भट्टियों, कारखानों, बिजलीघरों, मोटरगाड़ियों, रेलगाड़ियों आदि में जलाने से कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाई-ऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, धूल तथा अन्य यौगिकों के सूक्ष्म कण प्रदूषक के रूप में वायु में मिल जाते हैं। मोटरगाड़ियाँ या ऑटोमोबाइल एक्सहॉस्ट (Automobile Exhaust) को सबसे बड़ा प्रदूषणकारी माना गया है। इससे कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रिक ऑक्साइड तथा अन्य विषैली गैसें निकलती हैं। ये विषैली गैसें सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में परस्पर क्रिया करके अन्य पदार्थ बनाती हैं, जो अत्यन्त हानिकारक होते हैं।

2. औद्योगिक अवशिष्ट – बड़े नगरों में कल-कारखानों से निकलने वाली अनेक गैसें, धातु के कण, विभिन्न प्रकार के फ्लुओराइड, कभी-कभी रेडियोसक्रिय पदार्थों के कण, कोयले के अज्वलनशील खनिज आदि वहाँ की वायु को इतना प्रदूषित कर देते हैं कि लोगों का जीना मुश्किल हो जाता है। यह इसलिए होता है क्योंकि विभिन्न प्रकार के उद्योगों में अनेक प्रकार के रसायन प्रयोग में लाये जाते हैं।

3. धातुकर्मी प्रक्रम – खान से निकाले गये खनिजों (अयस्कों) से धातु प्राप्त करना धातु कर्म कहलाता है। इस प्रक्रम से जो धूल व धुआं निकलता है, उसमें क्रोमियम, बेरीलियम, आर्सेनिक, बैनेडियम, जस्ता, सीसा, ताँबा आदि के कण होते हैं, जो वायु को प्रदूषित करते हैं।

4. कृषि रसायन – कीटों व खरपतवारों को नष्ट करने के लिए फसलों पर जो रसायन (ऐल्ड्रीन, गैमेक्सीन आदि) छिड़के जाते हैं, उनमें से भी अनेक विषाक्त पदार्थ वायु में पहुँचते हैं, जो उसे विषाक्त कर देते हैं।

5. वृक्षों तथा वनों को काटा जाना – हरे पेड़-पौधे वायुमण्डल से कार्बन डाइऑक्साइड को लेकर उसके बदले ऑक्सीजन छोड़ते हैं जिससे वायुमण्डल में इन गैसों का सन्तुलन बना रहता है। अतः वनस्पतियों द्वारा पर्यावरण की शुद्धि होती है। आज हमने वनों तथा अन्य स्थानों के वृक्षों व झाड़ियों को अन्धाधुन्ध काटा है जिससे वायुमण्डल में उपस्थित गैसों का सन्तुलन बिगड़ गया है।

6. मृत पदार्थ – मरे हुए वनस्पति, जानवर या मनुष्य आदि वायुमण्डल में खुले छोड़ दिये जाएँ तो उन पर अनेक प्रकार के रोगों के कीटाणु, जीवाणु व विषाणु उगेंगे जो वायु-प्रदूषण उत्पन्न करेंगे।

7. जनसंख्या विस्फोट – पर्यावरण प्रदूषण का यदि एक सबसे प्रमुख कारण देना हो तो हम जनसंख्या विस्फोट कह सकते हैं। यदि संसार की जनसंख्या इतनी अधिक नहीं हुई होती तो आज प्रदूषण की बात भी नहीं उठती। यह अनुमान किया जाता है कि गत 100 वर्षों में केवल मनुष्य ने ही वायुमण्डल में 36 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ी है। यह मात्रा दिन-प्रति-दिन बढ़ती ही जा रही है।

8. परमाणु ऊर्जा – परमाणु ऊर्जा की प्राप्ति हेतु अनेक देश परमाणु विस्फोट कर रहे हैं और बहुत-से देश ऐसा करने के प्रयत्न में लगे हुए हैं। इस प्रयास के प्रक्रम में रेडियोसक्रिय पदार्थों को उठाने, चूरा करने, छानने, पीसने से कुछ वायु प्रदूषक (जैसे—यूरेनियम, बेरीलियम, क्लोराइड, आयोडीन, ऑर्गन, स्ट्रीशियम, सीजियम, कार्बन आदि) वायु में आ – मिलते हैं।

9. युद्ध – छोटे या बड़े देशों के मध्य जहाँ कहीं भी युद्ध होता है वहाँ का वातावरण गोलियाँ चलने, बम फटने एवं विषैले अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग से दूषित हो जाता हैं।

प्रश्न 3
पर्यावरण को शुद्ध रखने के सम्बन्ध में केन्द्र सरकार तथा उत्तर : प्रदेश सरकार ने कौन-कौन से उपाय किये हैं ? [2007]
या
पर्यावरण शुद्धि के लिए केन्द्र सरकार तथा उत्तर : प्रदेश सरकार ने कौन-से उपाय किए हैं? [2015]
उत्तर :

पर्यावरण को शुद्ध रखने के उपाय

पर्यावरण प्रदूषण की समस्या आज इतनी विस्फोटक हो चुकी है कि मानव अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो गया है। वर्तमान समय में हमें न तो शुद्ध वायु, जल तथा भोजन मिल रहा है और न शुद्ध पर्यावरण प्रदूषण की समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। वास्तव में, पर्यावरण के अशुद्ध होने से इस समस्या का जन्म हुआ है। अत: पर्यावरण को शुद्ध रखकर ही प्रदूषण की घातक समस्या का मुकाबला किया जा सकता है। पर्यावरण को निम्नलिखित उपायों द्वारा शुद्ध रखा जा सकता है

(क) वायु-प्रदूषण के उपाय – पर्यावरण प्रदूषण में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वायु-प्रदूषण है। वायु-प्रदूषण मनुष्य के जीवन और स्वास्थ्य के लिए सबसे अधिक हानिकारक है। वायु-प्रदूषण सबसे अधिक परिवहन के साधनों, उद्योगों व वनों की कटाई से होता है। अतः वायु-प्रदूषण को रोकने के लिए आवश्यक है कि
1. भारत जैसे विकासशील देश में, जहाँ नगरीकरण और औद्योगीकरण बढ़ रहा है, वायु प्रदूषण पर नियन्त्रण पाने के लिए वायुमण्डल की जाँच कराना प्रथम आवश्यक कार्य है, जिससे कि प्रदूषण के संकेन्द्रण को सीमा से अधिक बढ़ने से रोका जा सके।

2. धुआँ उगलने वाले परिवहन के साधनों की वृद्धि को रोका जाए तथा परिवहन के धुएँ की माप धुआँ मीटरों से की जाए। मोटर-परिवहन एक्ट को सख्ती से लागू किया जाए।

3. धुआँ उगलने वाली सरकारी व गैर-सरकारी गाड़ियों के लाइसेन्स तुरन्त जब्त कर लिये जाएँ और उन्हें शिकायत दूर करने और पूरी जाँच के बाद ही दोबारा प्रमाण-पत्र दिया जाए। रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशक दवाइयों का उपयोग आवश्यकतानुसार सीमित मात्रा में ही किया जाना चाहिए।

4. पर्यावरण में सन्तुलन बनाये रखने एवं वायु-प्रदूषण को दूर करने के लिए वन-क्षेत्र में वृद्धि की जाए तथा सामाजिक वानिकी को महत्त्व दिया जाए। इसके साथ-साथ वनों की अनियमित एवं अनियन्त्रित कटाई पर रोक लगायी जाए।

5. पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले उद्योगों को नगरों के मध्य स्थापित करने की अनुमति न दी जाए। बड़े कल-कारखाने नगरों से दूर स्थापित कराए जाएँ तथा उनसे प्रदूषण मुक्त सभी आवश्यक शर्तों का कठोरता से पालन कराया जाए। इसके साथ ही कल-कारखानों से धुआँ उगलने वाली चिमनियों पर प्रदूषण-रोधक यन्त्र (फिल्टर) लगाना अनिवार्य किया जाए।

6. नगरों के मध्य कूड़ा-करकट, मल, व्यर्थ पदार्थ, औद्योगिक अवशिष्ट व अपमार्जक आदि न डाले जाएँ। उनका उपयोग विद्युत बनाने में कराया जाए।
7. भारत सरकार का वायु प्रदूषण नियन्त्रण अधिनियम, 1981, जो उत्तर : प्रदेश में भी लागू है, का कड़ाई से पालन कराया जाए।

(ख) जल-प्रदूषण के उपाय – पर्यावरण को अशुद्ध करने में जल-प्रदूषण भी सबसे बड़ी समस्या है। जल को प्रदूषण से मुक्त करने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए –
ग्रामीण अंचल में –

  1. शौचालय तथा मल के गड्ढे खोदकर बनाये जाएँ।
  2. मल को नदियों व तालाबों में न बहाया जाए। इससे बेहतर खाद मिलेगा और जल-प्रदूषण की समस्या का स्वत: हल मिल जाएगा।
  3. कुओं पर जगत अवश्य बनायी जाए।
  4. जल को उबालकर तथा कुओं में दवाएँ डालकर शुद्ध किया जाए।

नगरीय क्षेत्रों में –

  1. जल संयन्त्रों से पानी साफ किया जाए और उनकी समुचित देखभाल की व्यवस्था की जाए।
  2. नदियों में कूड़ा-करकट, मल, व्यर्थ पदार्थ, औद्योगिक अवशिष्ट वे अपमार्जक न डाले जाएँ।
  3. नदियों में गिराये जाने वाले अवशिष्ट का उपचार किया जाए। प्रत्येक कारखाने पर औद्योगिक अवशिष्ट के लिए उपचार संयन्त्र लगाने की पाबन्दी लगायी जाए। इसके लिए कानून बनाये जाएँ और उनका कड़ाई से पालन कराया जाए।
  4. नदियों में अधजले शवों को बहाना रोका जाए और उनके लिए विद्युत शवदाह-गृहों का निर्माण किया जाए।
  5. देश में जल-प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम, 1974 बना हुआ है, जो उत्तर प्रदेश में भी लागू है। इसको प्रभावी ढंग से लागू करने की आवश्यकता है।
  6. जल-प्रदूषण रोकने के लिए उसकी चौकसी एवं निगरानी के लिए समितियाँ गठित हों, जिनमें सामाजिक कार्यकर्ता, सरकारी अधिकारी, प्रदूषण निरोधक समितियों के सदस्य तथा प्रदूषित क्षेत्रों के नागरिक होने चाहिए।
  7. जन-सामान्य को इस समस्या के प्रति जाग्रत किया जाए और उनकी सक्रिय साझेदारी प्राप्त की जाए।
  8. नदियों में पशुओं को ने नहलाया जाए तथा नदी इत्यादि में वस्त्रों की धुलाई पर रोक लगायी जाए।
  9. कुओं को ढककर रखा जाए तथा ढके हुए नल लगाकर पेयजल की व्यवस्था की जाए।
  10. नगरों में पेयजल का वितरण जल को शुद्ध करके किया जाए।

(ग) ध्वनि-प्रदूषण के उपाय – पर्यावरण को ध्वनि प्रदूषण भी प्रदूषित कर रहा है। ध्वनिप्रदूषण को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं

  1. वायुयानों, रेलों, बसों, कारों, स्कूटरों एवं मोटर साइकिलों आदि में शोर-शमन यन्त्र (साइलेंसर) ठीक काम करते हैं या नहीं इसकी पूरी देख-रेख की जाए। जहाँ ये ठीक काम न कर रहे हों वहाँ इनका सड़क पर चलना तुरन्त बन्द कराया जाए और इस व्यवस्था को न मानने वालों को दण्डित किया जाए।
  2. विदेशों की भाँति व्यर्थ एवं अनावश्यक रूप से हॉर्न बजाना रोका जाए। अनिवार्य स्थिति में ही हॉर्न बजाने की अनुमति हो। शहरों में ‘खामोश क्षेत्र घोषित किया जाए।
  3. कल-कारखाने व रेलवे स्टेशन आदि आवासीय क्षेत्रों से बाहर स्थापित कराए जाएँ तथा ध्वनि उत्पन्न करने वाली मशीनों के प्रयोग को सीमित किया जाए।
  4. वाद्य-यन्त्रों व लाउडस्पीकरों आदि के प्रयोग तथा उनकी तीव्र ध्वनि को नियन्त्रित एवं प्रतिबन्धित किया जाए।

(घ) अन्य उपाय-

  1. पर्यावरण को अशुद्ध करने में जनसंख्या में तीव्र वृद्धि भी मुख्य कारण है। अतः जनसंख्या-वृद्धि पर नियन्त्रण किया जाए।
  2. प्राकृतिक पर्यावरण के साथ अधिक छेड़छाड़ न की जाए, क्योंकि प्राकृतिक पर्यावरणीय कारकों के सन्तुलन को सीमा से अधिक बिगाड़ने पर भारी क्षति उठानी पड़ती है। वनों की अन्धाधुन्ध कटाई को रोका जाए।
  3. नगरीकरण के विस्तार को रोका जाए।
  4. पर्यावरणीय शिक्षा का प्रचार एवं जागृति जन-मानस में की जाए।
  5. उद्योग एवं नगर के विकास में पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी सम्बन्धी नीति का समावेश किया जाए।
  6. प्राकृतिक संसाधनों का शोषण योजनाबद्ध ढंग से किया जाए।
  7. पर्यावरण सन्तुलन को बिगड़ने से बचाया जाए।
  8. पर्यावरण सुरक्षा के नियम अधिक कठोर बनाये जाएँ।

पर्यावरण को शुद्ध बनाये रखने के सम्बन्ध में केन्द्र
सरकार द्वारा किये गये प्रयास

पर्यावरण को शुद्ध रखने के सम्बन्ध में केन्द्र सरकार ने निम्नलिखित उपाय किये हैं

  1. जल-प्रदूषण निवारण के लिए केन्द्र सरकार ने जल-प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम, 1974 बनाया है।
  2. केन्द्र सरकार ने गंगा को प्रदूषण से बचाने के लिए सन् 1986 में एक महत्त्वाकांक्षी योजना प्रारम्भ की, जिसके अन्तर्गत ‘गंगा प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड का गठन किया गया लगभग डेढ़ करोड़ रुपये की योजना बनायी जिससे नयीं सीवर लाइन, सीवेज पम्पिंग स्टेशन आदि का निर्माण कराया गया। कारखानों के मालिकों को औद्योगिक अवशिष्ट उपचार के यन्त्र लगाने को कहा गया।
  3. भारत की अन्य नदियों; जैसे यमुना, गोमती तथा अन्य प्रदेशों; जैसे केरल, ओडिशा, महाराष्ट्र और राजस्थान की कुछ नदियाँ, जो प्रदूषित हो गयी हैं; को प्रदूषण मुक्त करने के लिए भी योजना बनायी गयी, जिसके अन्तर्गत विद्युत शवदाह-गृहों का निर्माण, कारखानों के अवशिष्ट पदार्थों को नदियों में न गिराना आदि कार्यों पर बल दिया गया।
  4. परमाणु अस्त्रों को परीक्षण जो समुद्र में किया जाता है, उसको सीमित एवं नियन्त्रित करना।
  5. वायु-प्रदूषण हेतु वायु-प्रदूषण नियन्त्रण अधिनियम, 1981 बनाया हुआ है। वायु-प्रदूषण पर नियन्त्रण करने के लिए मोटर परिवहन ऐक्ट, नूयी औद्योगिक नीति एवं 1978 ई० में घोषित देश की नवीन वन नीति में पर्यावरण संरक्षण, वन क्षेत्रफल में वृद्धि एवं वनों की अनियमित एवं अनियन्त्रित कटाई को रोकना आदि पर विशेष बल दिया गया है।
  6. शुद्ध पर्यावरण बनाये रखने के लिए केन्द्र सरकार ने पर्यावरण मन्त्रालय की स्थापना की हुई है, जो पर्यावरण को संरक्षण प्रदान करने का कार्य करता है।
  7. केन्द्र सरकार को परिवार कल्याण मन्त्रालय’ जनसंख्या शिक्षा पर विशेष बल दे रहा
    है, जिससे प्रदूषण की समस्या हल हो सके, क्योंकि पर्यावरण प्रदूषण की समस्या का महत्त्वपूर्ण कारण तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या ही है।
  8. सन् 1985 में बहुप्रतिष्ठित कार्य योजना ‘गंगा एक्शन प्लान’ प्रारम्भ की गयी, जिसमें है 261 करोड़ व्यय करने का प्रावधान किया गया था। गंगा की योजना के दूसरे चरण हेतु केन्द्र सरकार ने 421 करोड़ स्वीकृत किये थे। इस योजना के अन्तर्गत यमुना, गोमती तथा दामोदर नदियों को प्रदूषण से मुक्त करना है। उक्त योजना जून, 1993 से प्रारम्भ की गयी
    थी, साथ ही राज्य सरकारों से योजना को कार्यरूप प्रदान करने हेतु कहा गया था।

इस योजना के अन्तर्गत हरियाणा के यमुना नगर, जगाधरी, करनाल, पानीपत, सोनीपत, गुड़गाँव, फरीदाबाद; उत्तर : प्रदेश के सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, गाजियाबाद, नोएडा, मथुरा, वृन्दावन, आगरा, इटावा, लखनऊ, सुल्तानपुर तथा जौनपुर और दिल्ली में यमुना नदी, हिंडन तथा गोमती नदियों की सफाई के लिए योजनाएँ चलाई जाती हैं।

9. वायु-प्रदूषण नियन्त्रण हेतु केन्द्रीय नियन्त्रण बोर्ड ने 1993 ई० तक देश के 92 प्रमुख नगरों में वायु गुणवत्ता की नियमित चेकिंग के लिए 290 स्टेशन      स्थापित किये हैं।

नयी रणनीति – पहली बार सरकार ने बढ़ते वाहन-प्रदूषण को रोकने के लिए नयी रणनीति बनायी है, जिसके अन्तर्गत निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं|

  1. वाहन उत्सर्जन मानक कड़े बनाये गये थे जिन्हें दो चरणों में सन् 1996 व 2000 ई० से लागू करने का प्रस्ताव था।
  2. वाहन-प्रदूषण को कम करने के लिए लेड मुक्त पेट्रोल, कैटालिटिक कन्वर्टर व कम्प्रेस्ड नेचुरल गैस (सी० एन० जी०) के पहलुओं पर तेजी से विचार किया गया है।

पर्यावरण को शुद्ध बनाये रखने के लिए उत्तर : प्रदेश सरकार
द्वारा किये गये प्रयास

पर्यावरण को शुद्ध बनाये रखने के लिए उत्तर : प्रदेश सरकार ने निम्नलिखित प्रयास किये हैं
1. उत्तर प्रदेश शासन ने पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने तथा उसके निदान के लिए पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी निदेशालय की स्थापना की।

2. शासन को पर्यावरण एवं प्रदूषण सम्बन्धी परामर्श देने के लिए मुख्यमन्त्री जी की अध्यक्षता में एक बोर्ड का गठन किया गया है। इसके सदस्य विभिन्न विभागों से सम्बन्धित विशेषज्ञ तथा मन्त्रिगण हैं। इस बोर्ड को जलवायु एवं मिट्टी के प्रदूषण, खनन, वातावरण की गन्दगी, नये उद्योगों की स्थापना, शहरों का विकास, ऐतिहासिक इमारतों की प्रदूषण से सुरक्षा इत्यादि कार्य निर्दिष्ट किये गये हैं। यह बोर्ड पर्यावरण सम्बन्धी ऐसे नीति-निर्धारण में शासन को आवश्यक परामर्श भी देता है जो विकास कार्यों के तालमेल में हो। इस बोर्ड तथा इसकी कार्यकारिणी समिति ने शासन को कई परामर्श दिये हैं, जिन पर सरकार कार्य कर रही है, जिनमें से निम्नलिखित कार्य उल्लेखनीय हैं

  1. विकास विभागों की वृहत् योजनाओं का पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी सन्तुलन की दृष्टि से पर्यवेक्षण किया जाए।
  2. पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के सन्तुलन हेतु वर्तमान अधिनियमों एवं नियमों में संशोधन किया जाए।
  3. उद्योग एवं नगर विकास में पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी सम्बन्धी नीति का समावेश किया जाए।
  4. पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी निदेशालय द्वारा प्रदेश के पर्यावरण संरक्षण के लिए एक वृहत् कार्यक्रम तैयार किया गया है। इस कार्यक्रम के मुख्य अंग निम्नवत् हैं

(क) भूमि एवं जल प्रबन्ध।
(ख) प्राकृतिक संसाधन, ऐतिहासिक इमारतों, सांस्कृतिक एवं पर्यटन स्थलों का संरक्षण।
(ग) पर्यावरण सम्बन्धी प्रदूषण।
(घ) मानव बस्ती।
(ङ) पर्यावरणीय शिक्षा एवं तत्सम्बन्धी ज्ञान की जन-मानस में जागृति।
(च) पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के दृष्टिकोण से नियमों एवं अधिनियमों में संशोधन।

संक्षेप में, प्रदेश सरकार पर्यावरण को संरक्षण प्रदान करने के लिए उपर्युक्त सभी कार्य कर रही है। भारत सरकार का वायु प्रदूषण अधिनियम, 1981 जो अपने प्रदेश में भी लागू है, वायु-प्रदूषण पर नियन्त्रण कर रहा है। इसी प्रकार जल-प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम, 1974 बना हुआ है, जो जल-प्रदूषण पर नियन्त्रण कर रहा है। प्रदेश में मोटर परिवहन ऐक्ट भी लागू है, जो धुआँ उगलने वाले एवं शोर करने वाले परिवहनों पर नियन्त्रण करके पर्यावरण को शुद्ध करने में सहायक है। पर्यावरण को शुद्ध रखने एवं पर्यावरण को संरक्षण प्रदान करने के लिए पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी विभाग, उत्तर : प्रदेश कार्यरत है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
प्रदूषण के चार प्रकार बताइए। [2007, 11, 13]
उत्तर :
वैज्ञानिकों ने प्रदूषण के पाँच प्रकार बताये हैं, जिनमें से चार निम्नलिखित हैं
1. वायु-प्रदूषण – वायु जीवन का एक प्रमुख तत्त्व है, जो सभी प्राणियों और वनस्पतियों के जीवन के लिए परम आवश्यक है। वायुमण्डल में हाइड्रो-कार्बनिक गैसों, विषैले धूलकणों तथा कल-कारखानों से निकलने वाले धुएँ के कारण जब वायु में हानिकारक तत्त्व बढ़ जाते हैं तो वायु का प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। इसे वायु-प्रदूषण कहते हैं।

2. जल-प्रदूषण – अनेक भौतिक, प्रौद्योगिक तथा मानवीय कारणों से जब जल का रूप प्राकृतिक नहीं रह जाता तथा उसमें गन्दे पदार्थों तथा विषाणुओं का समावेश हो जाता है, उसे जल-प्रदूषण कहते हैं।

3. ध्वनि-प्रदूषण – वातावरण में बहुत तेज और असहनीय आवाज से जो शोर उत्पन्न होता है, वही ध्वनि-प्रदूषण कहलाता है। शोर से उत्पन्न होने वाले इस प्रदूषण ने बड़े शहरों में। विकराल रूप धारण कर लिया है। मृदा-प्रदूषण-मृदा की रचना विभिन्न तरीके के लवण, गैस, खनिज पदार्थ, जल, चट्टानों एवं जीवाश्म आदि के मिश्रण से होती है। इन पदार्थों के अनुपात में जब हानिकारक परिवर्तन होने लगता है, तो उसी दशा को मृदा-प्रदूषण कहा जाता है। इसका मुख्य कारण। कीटनाशक दवाइयों और रासायनिक उर्वरकों का बढ़ता हुआ प्रयोग है।

प्रश्न 2
जल-प्रदूषण की रोकथाम के सन्दर्भ में ‘अवशिष्ट जल के उपचार’ एवं ‘पुनः चक्रण का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
अवशिष्ट जल का उपचार – कल-कारखानों के अवशिष्ट जल को नदी में भेजने से पहले उसका उपयुक्त उपचार करना आवश्यक होता है जिससे प्रदूषक नदी, झील या तालाब के जल को प्रदूषित न कर सकें, क्योंकि हमारे वाटर वर्ल्स इन्हीं से जल लेकर हमें पीने को देते हैं। सीवर के जल को भी शहर के बाहर दोषरहित बनाकर ही नदियों में छोड़ना चाहिए। कारखानों के जल से विषैले पदार्थ को ही नहीं बल्कि ऊष्मा को निकालकर ही उसे नदी में डालना चाहिए।

पुनः चक्रण – शहरी और औद्योगिक गन्दे जल को नदियों में मिलाने से पहले साफ करना और निथारना एक बड़ा खर्चीला काम है। अत: ठोस अवशिष्ट पदार्थों; जैसे-कूड़ा-करकट, सीवेज (मल-मूत्र) और अवशिष्ट जल से रासायनिक विधियों द्वारा अन्य उपयोगी पदार्थ बनाये जा सकते हैं। इस प्रकार हानि को लाभ में बदला जा सकता है। उदाहरणार्थ-पटना में मल-मूत्र व गन्दे जल से बायोगैस बन रही है जिससे पूरा मुहल्ला प्रभावित हो रहा है। बंगलुरू शहर में भी प्रदूषित जल से बायोगैस बनायी जा रही है।

प्रश्न 3
कार्बन मोनोऑक्साइड का वायुमण्डल में बढ़ता प्रवाह किस प्रकार की सामाजिक समस्याओं को जन्म दे रहा है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
वायुमण्डल को प्रदूषित करने में वाहनों से छोड़े जाने वाली कार्बन मोनोऑक्साइड गैस का प्रमुख हाथ है। नगरों में बसों, मोटरों, ट्रकों, टैम्पों तथा स्कूटर-मोटर साइकिलों से इतना अधिक कार्बन मोनोऑक्साइड धुआँ निकलता है कि सड़क पर चलने वाले लोगों का दम घुटने लगता है। यही कारण है कि बड़े नगरों में लोग विशेषकर बच्चे, श्वास रोगों से पीड़ित पाये जाने लगे हैं। इस प्रकार कार्बन मोनोऑक्साइड गैस स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न करती है।

स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के अतिरिक्त, कार्बन मोनोऑक्साइड निम्नलिखित सामाजिक समस्याओं को जन्म दे रहा है
1. पारिवारिक विघटन कार्बन मोनोऑक्साइड के कारण पर्यावरण प्रदूषण अप्रत्यक्ष रूप से हमारे जीवन को विघटित करने वाला एक प्रमुख स्रोत है। जैसे-जैसे पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि होती है, व्यक्ति की कार्यक्षमता तथा उसके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगता है। इससे परिवार में आर्थिक समस्याएँ पैदा हो जाती हैं तथा आजीविका अर्जित करने वाले व्यक्तियों में मानसिक तनाव बढ़ने लगता है। परिवार के सदस्यों में सम्बन्ध मधुर नहीं रहते, बल्कि वे तनावग्रस्त हो जाते हैं। धीरे-धीरे परिवार में बढ़ते हुए तनाव पारिवारिक विघटन का कारण बन जाते हैं।

2. अपराधों में वृद्धि-मनोवैज्ञानिकों तथा समाजशास्त्रियों के सर्वेक्षण से यह भी स्पष्ट हुआ है कि जो व्यक्ति अधिक मानसिक तनाव में रहते हैं, वे सरलता से अपराधों की ओर बढ़ जाते हैं। यही कारण है कि गाँव की अपेक्षा बड़े नगरों में अपराध की दर अधिक होती है।

प्रश्न 4
प्रदूषण नियन्त्रण हेतु चार प्रमुख उपायों की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
प्रदूषण नियन्त्रण हेतु चार प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं

  1. पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम, 1986 के द्वारा केन्द्र और राज्य बोर्डो को पर्यावरण के अतिरिक्त उत्तर :दायित्व सौंपे गये हैं।
  2. जल (प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण) उपकर अधिनियम, 1977 के तहत जल का उपभोग करने वाले उद्योगों से उपकर वसूल किया जाता है। यह उपकर राज्यों को बाँटा जाता है।
  3. जल गुणवत्ता का मूल्यांकन-नदियों की जल गुणवत्ता की निगरानी हेतु 170 निगरानी केन्द्र स्थापित किये गये हैं।
  4. राष्ट्रीय परिवेश वायु-गुणवत्ता निगरानी नेटवर्क-ये केन्द्र वायु में व्याप्त धूल-कणों, सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन के ऑक्साइडों के सम्बन्ध में वायु-गुणवत्ता की निगरानी करते हैं।

प्रश्न 5
ध्वनि-प्रदूषण क्या है ? इसके प्रकार बताइए। या शोर (ध्वनि) प्रदूषण के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर :
कम्पन्न करने वाली प्रत्येक वस्तु ध्वनि उत्पन्न करती है और जब ध्वनि की तीव्रता अधिक हो जाती है तो वह कानों को अप्रिय लगने लगती है। इस अप्रिय अथवा उच्च तीव्रता वाली ध्वनि को शोर कहा जाता है। तीखी ध्वनि या आवाज को शोर कहते हैं। ध्वनि की तीव्रता नापने की इकाई डेसीबेल (decibel or dB) है जिसका मान 0 से लेकर 120 तक होता है। डेसीबेल पैमाने पर ‘शून्य’ ध्वनि की तीव्रता का वह स्तर है जहाँ से ध्वनि सुनाई देनी आरम्भ होती है। 85 से 95 डेसीबेल शोर सहने लायक और 120 डेसीबेल या उससे अधिक का शोर असह्य होता है।

ध्वनि-प्रदूषण के स्रोत – ध्वनि-प्रदूषण मुख्यत: दो प्रकार के स्रोतों से होता है-
1. प्राकृतिक स्रोत – बिजली की कड़क, बादलों की गड़गड़ाहट, तेज हवाएँ, ऊँचे स्थान से गिरता जल, आँधी, तूफान, ज्वालामुखी का फटना एवं उच्च तीव्रता वाली जल-वर्षा।
2. कृत्रिम स्रोत – ये स्रोत मानवजनित हैं; उदाहरणार्थ-मोटर वाहनों से उत्पन्न होने वाला शोर, वायुयान, रेलगाड़ी तथा उसकी सीटी से होने वाला शोर, लाउडस्पीकर एवं म्यूजिक सिस्टम से होने वाला शोर, टाइपराइटर की खड़खड़ाहट, टेलीफोन की घण्टी आदि से होने वाला शोर।।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
संक्षेप में बताइए कौन-सी वस्तुएँ हमारे लिए पर्यावरण का निर्माण करती हैं ?
उत्तर :
संक्षेप में, जिस मिट्टी में पेड़-पौधे उगते और बढ़ते हैं, हम जिस धरती पर रहते हैं, जो पानी हम सब पीते हैं, जिस हवा में साँस लेकर सारे जीवधारी जीवित रहते हैं और जिन वस्तुओं को खाकर हम अपनी भूख मिटाते हैं, वे सब वस्तुएँ हमारे लिये पर्यावरण का निर्माण करती हैं।

प्रश्न 2
पर्यावरण प्रदूषण से आप क्या समझते हैं ? [2010]
उत्तर :
पर्यावरण के घटकों; जैसे-वायु, जल, भूमि, ऊर्जा के विभिन्न रूप के भौतिक, रासायनिक या जैविक लक्षणों का वह अवांछनीय परिवर्तन जो मानव और उसके लिए लाभदायक है, दूसरे जीवों, औद्योगिक प्रक्रमों, जैविक दशाओं, सांस्कृतिक विरासतों एवं कच्चे माल के साधनों को हानि पहुँचाता है, पर्यावरण प्रदूषण कहलाता है।

प्रश्न 3
प्रदूषण के चार कुप्रभाव बताइए। [2015, 16, 17]
उत्तर :

  1. वायु-प्रदूषण का कुप्रभाव-ओजोन-परत में छेद होने की सम्भावना से सारा विश्व भयाक्रांत हो उठा है।
  2. जल-प्रदूषण के कुप्रभाव-जल-प्रदूषण से अनेक बीमारियाँ; जैसे-हैजा, पीलिया, पेट में कीड़े, टायफाइड फैलती हैं।
  3. ध्वनि-प्रदूषण का कुप्रभाव-यह प्रदूषण मानव के कानों के परदों पर, मस्तिष्क और शरीर पर इतना घातक आक्रमण करता है कि विश्व के सारे डॉक्टर और वैज्ञानिक इससे चिन्तित हैं।
  4. मृदा-प्रदूषण का कुप्रभाव–दूषित मृदा में रोगों के जीवाणु पनपते हैं जिनसे मनुष्यों और अन्य जीवों में रोग फैलते हैं।

प्रश्न 4
प्रदूषण रोकने में वृक्षारोपण की भूमिका बताइए।
उत्तर :
वृक्षारोपण और वनों को लगाने से वायुमण्डल में ऑक्सीजन व कार्बन डाइऑक्साइड का सन्तुलन नहीं बिगड़ता। आधुनिक वैज्ञानिकों का मत है कि यदि आबादी का 23% वन हों तो वायु-प्रदूषण से हानि नहीं पहुँचती है। वनों का काटा जाना तत्परता से रोका जाना चाहिए। ऐसे कानून बनाये जाने चाहिए जिनसे वनोन्मूलन को दण्डनीय अपराध करार दिया जा सके।

प्रश्न 5
जल-प्रदूषण के क्या कारण हैं?
उत्तर :
औद्योगीकरण, नगरीकरण, समुद्रों में अस्त्रों का परीक्षण, नदियों में अधजले शवों, जानवरों की लाश व अस्थि-विसर्जन करना, रासायनिक उर्वरक व कीटनाशकों का जल में मिलना, घरों से निकलने वाले विभिन्न प्रकार से दूषित जल का जलाशयों व नदियों आदि में मिलना जलप्रदूषण के प्रमुख कारण हैं।

प्रश्न 6
जल-प्रदूषण से किन-किन रोगों के होने की सम्भावना रहती है ?
उत्तर :
प्रदूषित जल के उपयोग से अनेक रोगों के होने की सम्भावना रहती है; जैसे-पक्षाघात, पोलियो, पीलिया (Jaundice), मियादी बुखार (Typhoid), हैजा, डायरिया, क्षय रोग, पेचिश, इन्सेफेलाइटिस, कन्जंक्टीवाइटिस आदि। यदि जल में रेडियोसक्रिय पदार्थ और लेड, क्रोमियम, आर्सेनिक जैसी विषाक्त धातु हों तो कैंसर तथा कुष्ठ जैसे भयंकर रोग हो सकते हैं। वर्ष 1988 में केवल दिल्ली में प्रदूषित जल सेवन से एक हजार से अधिक लोगों की मृत्यु हुई।

प्रश्न 7
वायु-प्रदूषण के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
नगरीकरण, औद्योगीकरण एवं अनियन्त्रित भवन-निर्माण, परिवहन के साधन (ऑटोमोबाइल), वनों का बड़ी मात्रा में कटान, रसोईघरों व कारखानों की चिमनियों से निकलने वाला धुआँ तथा युद्ध, आणविक विस्फोट एवं दहन की क्रियाएँ आदि वायु प्रदूषण के कारण हैं।

प्रश्न 8
वायु-प्रदूषण निराकरण के कोई चार उपाय बताइए।
उत्तर :
वायु प्रदूषण निराकरण के चार उपाय निम्नलिखित हैं|

  1. परिवहन के साधनों पर धुआँ रहित यनत्र लगाना।
  2. बड़ी मात्रा में वृक्षारोपण करना।।
  3. रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के प्रयोग को नियन्त्रित करना।
  4. घरों में बायोगैस, पेट्रोलियम गैस या धुआँ रहित चूल्हों का प्रयोग करना।

प्रश्न 9
प्राकृतिक प्रदूषक से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर :
कुछ प्रदूषक; जैसे-परागकण, कवक, निम्नतर पौधों के बीजाणु, ज्वालामुखी पर्वतों से निकलने वाली गैसें, मार्श गैस, तटीय प्रदेश में नमक के अत्यन्त सूक्ष्म कण आदि प्राकृतिक रूप में वायु में आ मिलते हैं और उसे प्रदूषित कर देते हैं। इन्हें प्राकृतिक प्रदूषक कहते हैं।

प्रश्न 10
प्रदूषक के रूप में कार्बन मोनोक्साइड का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
मोटरगाड़ियों, औद्योगिक संयन्त्रों, घर के चूल्हों तथा सिगरेट के धुएँ से कार्बन मोनोक्साइड व कार्बन डाइऑक्साइड वायु में मिलती हैं, जो श्वसन की क्रिया में रक्त के हीमोग्लोबिन के साथ मिलकर ऑक्सीजन के उचित संचरण के कार्य को रोक देती हैं। शरीर की सभी कोशिकाओं को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन नहीं मिलने के कारण, थकान, सिरदर्द, काम करने की अनिच्छा, दृष्टि-संवेदनशीलता में कमी तथा हृदय व रक्त-संचार में शिथिलता आदि विकार उत्पन्न होते हैं। इन गैसों (विशेषकर CO) की अधिकता से मनुष्य की मृत्यु तक हो सकती है।

प्रश्न 11
‘जनसंख्या विस्फोट कैसे प्रदूषक है ?
उत्तर :
पर्यावरण प्रदूषण का यदि एक सबसे प्रमुख कारण बताना हो तो नि:सन्देह जनसंख्या विस्फोट को माना जा सकता है। यदि संसार की जनसंख्या इतनी अधिक नहीं हुई होती तो आज प्रदूषण की बात भी नहीं उठती। यह अनुमान किया जाता है कि गत 100 वर्षों में केवल मनुष्य ने ही वायुमण्डल में 36 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ी है। यह मात्रा दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
प्रदूषण से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
जब पर्यावरण में असन्तुलन पैदा हो जाता है और निर्भरता नष्ट हो जाती है, तो उसे प्रदूषण कहते हैं।

प्रश्न 2
प्रदूषक किसे कहते हैं ?
उत्तर :
जिन पदार्थों की कमी या अधिकता के कारण प्रदूषण उत्पन्न होता है, उन्हें प्रदूषक कहते हैं; जैसे-धूल, धुआँ।

प्रश्न 3
पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम कब बना था ?
उत्तर :
पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम 1986 ई० में बना था।

प्रश्न 4
भारत में पानी के मुख्य स्रोत क्या हैं ?
उत्तर :
भारत में पानी के मुख्य स्रोत कुएँ, तालाब, झरने और नदियाँ हैं।

प्रश्न 5
समुद्रों में प्रदूषण कैसे होता है ?
उत्तर :
समुद्रों में जहाजरानी, परमाणु अस्त्रों के परीक्षण, समुद्र में फेंकी गयी गन्दगी, मल-विसर्जन एवं औद्योगिक अवशिष्टों के विषैले तत्त्वों के कारण समुद्री जल निरन्तर प्रदूषित होता रहता है।

प्रश्न 6
जल-प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम कब बना था ?
उत्तर :
जल-प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम 1974 ई० में बना था।

प्रश्न 7
वायु-प्रदूषण क्या है ?
उत्तर :
वायु के भौतिक, रासायनिक या जैविक घटकों का वह परिवर्तन जो मानव व उसके लाभदायक जीवों व वस्तुओं पर प्रतिकूल प्रभाव डाले, वायु-प्रदूषण कहलाता है।

प्रश्न 8
ओजोन परत क्या है और इसकी क्या महत्ता है ?
उत्तर :
ओजोन परत पृथ्वी का ऐसा रक्षा-कवच है जो सूर्य तथा अन्य आकाशीय पिण्डों से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी विकिरणों से हमारी रक्षा करती है।

प्रश्न 9
स्वचालित वाहनों से कौन-सी गैस निकलती है ?
उत्तर :
स्वचालित वाहनों से कार्बन मोनोऑक्साइड गैस निकलती है।

प्रश्न 10
भारत में सर्वाधिक ध्वनि-प्रदूषण वाला नगर कौन-सा है ?
उत्तर :
मुम्बई भारत का सर्वाधिक ध्वनि-प्रदूषण वाला नगर है।

प्रश्न 11
ध्वनि की तीव्रता मापने की इकाई क्या है ?
उत्तर :
ध्वनि की तीव्रता मापने की इकाई डेसीबेल है।

प्रश्न 12
‘मानव परमाणु शक्ति के योग्य नहीं है।’ यह कथन किसका है ?
उत्तर :
यह कथन अलबर्ट आइन्सटाइन का है।

प्रश्न 13
प्रदूषण की श्रृंखला में सबसे बड़ा अभिशाप क्या और क्यों है ?
उत्तर :
परमाणु की श्रृंखला में रेडियोधर्मी-प्रदूषण सबसे बड़ा अभिशाप है, क्योंकि परमाणु रिऐक्टरों में आणविक प्रक्रमों से बचे कचरे को नष्ट करना एक समस्या है।

प्रश्न 14
रेडियोधर्मी-प्रदूषण को कम करने का क्या तरीका है ?
उत्तर :
रेडियोधर्मी-प्रदूषण को कम करने तरीका है कि परमाणु ऊर्जा की होड़ विश्व में समाप्त कर दी जाए।

प्रश्न 15
चिपको आन्दोलन का प्रणेता कौन है ? [2013, 15]
उत्तर :
सुन्दरलाल बहुगुणा चिपको आन्दोलन के प्रणेता हैं।

प्रश्न 16
चिपको आन्दोलन किससे सम्बन्धित है ? [2014]
उत्तर :
चिपको आन्दोलन वन-संरक्षण से सम्बन्धित है।

प्रश्न 17
प्रदूषण के चार प्रमुख प्रकार बताइए। [2015, 16, 17]
उत्तर :

  1. जल-प्रदूषण,
  2. वायु-प्रदूषण,
  3. ध्वनि-प्रदूषण तथा
  4. मृदा-प्रदूषण।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अक)

1. विश्व पर्यावरण दिवस कब मनाया जाता है ?
(क) 5 जून को
(ख) 24 अक्टूबर को
(ग) 24 जनवरी को
(घ) 15 अगस्त को

2. सूर्य की पराबैंगनी किरणों से पृथ्वी की रक्षा करती है|
(क) ऑक्सीजन परत
(ख) वायु में उपस्थित जल-कण
(ग) वायु में उपस्थित धूल-कण
(घ) ओजोन परत

3. प्रदूषण की श्रृंखला में सबसे बड़ा अभिशाप है [2013]
(क) मृदा प्रदूषण
(ख) ध्वनि प्रदूषण
(ग) रेडियोधर्मी प्रदूषण
(घ) जल प्रदूषण

4. मानव समाज में रोगों का कारण है [2013]
(क) प्रदूषित भोजन
(ख) प्रदूषित वायु
(ग) प्रदूषित जल
(घ) ये सभी

उत्तर:

  1. (क) 5 जून को,
  2. (घ) ओजोन परत,
  3. (ग) रेडियोधर्मी प्रदूषण,
  4. (घ) ये सभी

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 26 Problems of Scheduled Castes and Tribes

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 26 Problems of Scheduled Castes and Tribes (अनुसूचित जातियों और जनजातियों की समस्याएँ) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 26 Problems of Scheduled Castes and Tribes (अनुसूचित जातियों और जनजातियों की समस्याएँ).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 26
Chapter Name Problems of Scheduled Castes and Tribes (अनुसूचित जातियों और जनजातियों की समस्याएँ)
Number of Questions Solved 54
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 26 Problems of Scheduled Castes and Tribes (अनुसूचित जातियों और जनजातियों की समस्याएँ)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
अनुसूचित जाति से क्या आशय है ? इनकी समस्याओं का उल्लेख करते हुए भारत सरकार द्वारा किये गये निराकरण के प्रयास बताइए। [2010, 15]
या
भारत में अनुसूचित जातियों की दशाओं का वर्णन कीजिए। [2016]
या
अनुसूचित जातियों की प्रमुख समस्याओं को स्पष्ट कीजिए। [2007, 08, 09, 10, 11, 12, 13]
या
अनुसूचित जातियों की प्रगति के लिए चार सुझाव दीजिए। [2011]
या
भारत में अनुसूचित जनजातियों को समस्याओं की व्याख्या कीजिए। [2015]
या
भारत में अनुसूचित जातियों की स्थिति सुधारने के प्रमुख उपायों को लिखिए। [2010, 11]
या
अनुसूचित जातियों की प्रमुख समस्याओं के उन्मूलन के लिए किए गये प्रयासों को बताइए। [2011, 12]
या
अनुसूचित जनजातियों के विकास सम्बन्धी कार्यक्रमों का मूल्यांकन कीजिए। भारत में अनुसूचित जातियों की मुख्य समस्याएँ बताइए। [2014]
या
भारत में अनुसूचित जातियों की प्रमुख समस्याएँ क्या हैं? स्पष्ट कीजिए। [2015, 16]
या
अनुसूचित जातियों की प्रगति के लिए प्रमुख उपायों का सुझाव दें। [2015, 16]
या
जनजातियों की समस्याओं को दूर करने के महत्त्वपूर्ण उपायों का वर्णन कीजिए। [2016]
या
भारत में अनुसूचित जनजातियों की प्रमुख समस्याओं का विवेचन कीजिए। [2016]
उत्तर:
अनुसूचित जाति का अर्थ एवं परिभाषाएँ
भारत अनेक धर्मों और जातियों का देश है। समाज में व्याप्त विसंगतियों के कारण यहाँ की कुछ जातियाँ आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में पिछड़ गयीं। इन जातियों की नियोग्यताओं के कारण इन्हें अछूत या अस्पृश्य कहा गया। 2011 ई० की जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जातियाँ और अनुसूचित जनजातियाँ राष्ट्र की कुल जनसंख्या का लगभग एक-चौथाई भाग थीं। आर्थिक-धार्मिक नियोग्यताएँ लाद देने के कारण अनुसूचित जातियाँ राष्ट्र की मुख्य धारा से कट गयीं। सुख-सुविधाओं से वंचित रह जाने के कारण ये जातियाँ आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में पिछड़ गयीं। इन्हें समाज से बहिष्कृत कर दूर एक कोने में रहने के लिए बाध्य कर दिया गया। भारतीय संविधान में इन पिछड़ी और दुर्बल जातियों को सूचीबद्ध किया गया तथा इन्हें अनुसूचित जाति कहकर सम्बोधित किया गया। अनुसूचित जाति को विभिन्न विद्वानों ने निम्नवत् परिभाषित किया है|

डॉ० जी० एस० घुरिये के अनुसार, “मैं अनुसूचित जातियों को उस समूह के रूप में परिभाषित कर सकता हूँ जिनका नाम इस समय अनुसूचित जातियों के अन्तर्गत आदेशित है।”

डॉ० डी० एन० मजूमदार के अनुसार, “वे सभी समूह जो अनेक सामाजिक एवं राजनीतिक निर्योग्यताओं से पीड़ित हैं तथा जिनके प्रति इन निर्योग्यताओं को समाज की उच्च जातियों ने परम्परागत तौर पर लागू किया था, अस्पृश्य जातियाँ कही जा सकती हैं।”
“संविधान की धारा 341 और 342 में सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से जिन जातियों को सूचीबद्ध करके राष्ट्रपति द्वारा विज्ञप्ति जारी करके अनुसूचित घोषित किया है, अनुसूचित जातियाँ कहलाती हैं।”

संविधान की पाँचवीं अनुसूची में विशेष कार्यक्रम के लिए जिन जातियों का चुनाव किया गया है, उन्हें अनुसूचित जाति कहा जाता है। भारतीय संविधान में उत्तर प्रदेश की 66 जातियों को सूचीबद्ध करके अनुसूचित जाति घोषित किया गया है। इनमें घुसिया, जाटव, वाल्मीकि, धोबी, पासी और खटीक मुख्य हैं।

अनुसूचित जातियों की समस्याएँ
भारत की अनुसूचित जातियाँ अनेक समस्याओं और कठिनाइयों से ग्रसित हैं। ये समस्याएँ इनके विकास-मार्ग की प्रमुख बाधाएँ हैं। अनुसूचित जातियों की मुख्य समस्याएँ निम्नलिखित हैं

1. अस्पृश्यता की समस्या – भारत में अनुसूचित जातियों के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या अस्पृश्यता की रही है। उच्च जाति के व्यक्ति कुछ व्यवसायों; जैसे-चमड़े का काम, सफाई का काम, कपड़े धोने का काम आदि करने वाले व्यक्तियों को अपवित्र मानते थे। उनके साथ भोजन-पानी का सम्बन्ध नहीं रखते थे। इन्हें लोग अछूत कहते थे। अनुसूचित जाति अर्थात् नीची जाति की छाया पड़ना तक बुरा माना जाता था। पूजा-पाठ के स्थानों पर इनके जाने पर प्रतिबन्ध था, कहीं-कहीं पर तो अन्तिम-संस्कार के लिए भी इनका स्थान अलग निर्धारित किया जाता था। अत: अनुसूचित जातियों को अस्पृश्यता की समस्या का सामना करना पड़ता था।

2. निर्धनता की समस्या – अनुसूचित जाति के लोग आर्थिक दृष्टि से बहुत अधिक पिछड़ी स्थिति में रहे हैं। इनके पास स्वयं के साधन (खेती, व्यापार आदि) नहीं थे। अत: अधिकांशतः। इन्हें किसानों के यहाँ अथवा अन्य स्थानों पर मजदूरी करनी पड़ती थी। कृषि-क्षेत्र में इन्हें फसल का बहुत ही कम भाग मिल पाता था तथा मजदूरी भी नाम-मात्र की मिल पाती थी। आज भी अनुसूचित जाति के लोग निर्धनता की रेखा के नीचे अपना जीवन-यापन कर रहे हैं। निर्धनता के कारण अनुसूचित जाति के सदस्य ऋणों के भार से दब गये हैं। निर्धनता इनके लिए एक अभिशाप बनी हुई है।

3. अशिक्षा की समस्या – अनुसूचित जाति के लोग अज्ञानी व अशिक्षित हैं। सामान्य जनसंख्या के अनुपात में इनमें साक्षरता भी आधी है। परिवार के छोटे-छोटे बच्चों को ही काम पर लगा दिया जाता है, वे स्कूल से दूर रहते हैं और यदि स्कूल जाते भी हैं तो उनमें से आधे प्राथमिक स्तर पर ही रुक जाते हैं। अशिक्षा और अज्ञानता सभी बुराइयों का आधार होती है। इस कारण अनुसूचित जाति के लोगों में अनेक प्रकार की बुराइयों ने घर बना लिया है। अशिक्षा इनके विकास के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है।।

4. ऋणग्रस्तता की समस्या – अनुसूचित जाति के लोग निर्धन हैं, इसलिए ऋणग्रस्तता से पीड़ित हैं। ऋणग्रस्तता के कारण ये जिस किसान के यहाँ एक बार काम पर लग जाते हैं, पूरे जीवन वहीं पर बन्धक बने रहते हैं तथा जीवन भर ऋण-मुक्त नहीं हो पाते हैं। ऋण चुकाने का काम पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है, परन्तु उन्हें ऋण से मुक्ति ही नहीं मिल पाती। ऋणों से छुटकारा न मिल पाना इनकी नियति बन जाती है।

5. रहन-सहन का स्तर नीचा – अनुसूचित जाति के लोगों का जीवन-स्तर निम्न है। वे आधा पेट खाकर व अर्द्ध-नग्न रहकर जीवन व्यतीत करते हैं। निर्धनता और बेरोजगारी इनके रहनसहन के नीचे स्तर के लिए उत्तरदायी हैं।

6. आवास की समस्या – अनुसूचित जाति के निवास स्थान भी बहुत ही शोचनीय दशा में हैं। ये लोग गाँव के सबसे गन्दे और खराब भागों में ऐसी झोंपड़ियों में रहते हैं जहाँ सफाई का नामोनिशान नहीं होता। बरसात में ये झोंपड़े चूने लगते हैं। कच्चा फर्श और वर्षा का जल मिलकर इनके जीवन को नारकीय बना देता है। धन के अभाव में ये लोग कच्ची मिट्टी के घास-फूस के ढके आवास ही बना पाते हैं।

7. शोषण की समस्या – अनुसूचित जाति के लोगों को बेगार करनी पड़ती है। उच्च जाति के लोग उन्हें बिना मजदूरी दिये अनेक प्रकार के कार्य कराते हैं, इन लोगों के पास ऋण लेते समय गिरवी रखने के लिए भी कुछ नहीं होता। इसलिए वे ऋण के बदले में अपने परिवार के स्त्री तथा बच्चों की स्वतन्त्रता को गिरवी रख देते हैं। यह दोसती पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। शोषण इनके जीवन को अभावमय और खोखला बना देता है। शोषण की समस्या के कारण इनका जीवन दुःखपूर्ण हो जाता है।

8. बेरोजगारी की समस्या – अनुसूचित जाति के सामने बेकारी और अर्द्ध-बेकारी की समस्या भी गम्भीर है। रोजगार के अभाव में अनुसूचित जाति के लोग अपना गाँव छोड़कर अपने परिवार के सदस्यों के साथ नगरीय क्षेत्रों की ओर पलायन कर जाते हैं, जिसके कारण उनके बच्चों की शिक्षा नहीं हो पाती तथा उनका चारित्रिक व नैतिक पतन भी होता है। बेरोजगारी के कारण निर्धनता का जन्म होता है, जो उनके जीवन में विष घोल देती है।

भारत सरकार द्वारा निराकरण (विकास) के लिए किये गये प्रयत्न (सुविधाएँ)

सरकार द्वारा अनुसूचित जाति व जनजाति की समस्याओं का निराकरण कर उन्हें सामान्य सामाजिक स्तर तक लाने के लिए अनेक प्रयत्न किये जा रहे हैं, जो निम्नवत् हैं

1. लोकसभा व विधानमण्डलों में स्थान आरक्षित – अनुसूचित जातियों के लिए लोकसभा में 545 सीटों में से 79 सीटें और 41 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। विधानसभाओं में भी अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित हैं।

2. सरकारी सेवाओं में स्थान सुरक्षित –
सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जातियों के लिए 15 प्रतिशत स्थान सुरक्षित रखे गये हैं।

3. पंचायतों में आरक्षण की व्यवस्था –
अनुसूचित जाति/जनजाति के सदस्यों के लिए जनसंख्या के अनुपात में तीनों स्तरों की पंचायतों (अर्थात् ग्राम-पंचायतों, क्षेत्र-समितियों तथा जिला परिषदों) में आरक्षण की व्यवस्था की गयी है, जिससे सामाजिक न्याय का मार्ग प्रशस्त हुआ है।

4. अनुसूचित जातियों के लिए अस्पृश्यता निवारण सम्बन्धी कानून –
संविधान में भी अस्पृश्यता को अपराध घोषित किया गया है। अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955 को और अधिक प्रभावशाली बनाने एवं दण्ड-व्यवस्था कठोर करने के लिए इसमें संशोधन कर 19 नवम्बर, 1976 से इसका नाम नागरिक अधिकार सुरक्षा अधिनियम, 1955 कर दिया गया है। इस अधिनियम के अनुसार किसी भी प्रकार से अस्पृश्यता के बारे में प्रचार करना या ऐतिहासिक व धार्मिक आधार पर अस्पृश्यता को व्यवहार में लाना अपराध माना जाएगा। इस अधिनियम का उल्लंघन करने पर जेल और दण्ड दोनों का प्रावधान है।

5. शैक्षिक कार्यक्रम –
अनुसूचित जाति/जनजातियों के छात्रों को नि:शुल्क शिक्षा, छात्रवृत्ति तथा पुस्तकीय सहायता दी जाती है। इन जातियों के छात्र-छात्राओं के लिए छात्रावासों की व्यवस्था के अतिरिक्त इनके लिए नि:शुल्क प्रशिक्षण की भी व्यवस्था है। मेडिकल कॉलेजों, इन्जीनियरिंग कॉलेजों व अन्य प्राविधिक शिक्षण-संस्थानों में अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के छात्रों के लिए स्थान सुरक्षित हैं।

6. आर्थिक उत्थान योजना –
अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के आर्थिक उत्थान और कुटीर उद्योगों व कृषि आदि के लिए सरकार द्वारा सहायता प्रदान की जाती है। अनुसूचित जनजाति के बहुलता वाले क्षेत्रों में विशेष विकास खण्ड खोले जा रहे हैं, जहाँ सामान्य से दोगुनी धनराशि विकास कार्यों के लिए व्यय की जाती है। मेडिकल, इन्जीनियरिंग तथा कानून के स्नातकों को आत्मनिर्भर बनाने हेतु निजी व्यवसाय करने के लिए राज्य द्वारा आर्थिक अनुदान प्रदान किया जाता है। भारत सरकार ने कुछ ऐसे आर्थिक कार्यक्रम प्रारम्भ भी किये हैं जिनका उद्देश्य अनुसूचित जातियों के लिए विशेष ऋण की सुविधा उपलब्ध कराना है।

7. स्वास्थ्य, आवास एवं रहन –
सहन के उत्थान की योजनाएँ – अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों की दीन दशा के कारण सरकार द्वारा इन्हें भूमि और अंनुदान प्रदान किया जाता है। भूमिहीन श्रमिकों को नि:शुल्क कानूनी सहायता भी दी जाती है। उत्तर प्रदेश सरकार ने वर्ष 1993 में निर्णय लिया था कि अनुसूचित जाति बाहुल्य क्षेत्रों में 47 और अनुसूचित जनजाति बाहुल्य क्षेत्रों में 5 राजकीय होम्योपैथिक चिकित्सालय स्थापित किये जाएँगे। अनुसूचित जाति/जनजाति के सदस्यों की जमीन जिलाधिकारी के पूर्वानुमोदन के बिना गैरअनुसूचित जाति/जनजाति के सदस्य को हस्तान्तरित करने सम्बन्धी नियम का कड़ाई के साथ पालन कराया जाएगा।
ग्रामीण क्षेत्रों में निर्बल वर्ग आवास-निर्माण तथा इन्दिरा आवास निर्माण और मलिन बस्ती सुधार कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। यही नहीं, भूमिहीनों को सीलिंग भूमि का आवंटन किया जा रहा है। एकीकृत ग्राम्य विकास कार्यक्रम, जवाहर रोजगार योजना, लघु औद्योगिक इकाइयों की स्थापना, समस्याग्रस्त ग्रामों में पेयजल व्यवस्था, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना के माध्यम से अनुसूचित जाति-जनजाति के स्वास्थ्य, रहन-सहन एवं आवास आदि के उत्थान के लिए सरकार द्वारा प्रयास किये जा रहे हैं।

8. अन्य उपाय – अनुसूचित जाति में सामाजिक चेतना जाग्रत करने के भी प्रयास किये जा रहे हैं। विभिन्न उत्सवों पर सामूहिक भोज, सांस्कृतिक कार्यक्रमों व प्रचार के अन्य माध्यमों द्वारा समानता का सन्देश पहुँचाया जा रहा है। राष्ट्रीय पर्वो को सामूहिक रूप से मनाने, सार्वजनिक खान-पान तथा अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन देकर अनुसूचित जातियों की समस्याओं का निराकरण किया जा रहा है।

प्रश्न 2
भारत में जनजातियों की समस्याओं का वर्णन कीजिए। [2016]
या
भारतीय जनजातियों की मुख्य समस्याएँ क्या हैं? उनके निवारण के सुझाव दीजिए। [2014]
या
अनुसूचित जनजातियों की मुख्य आर्थिक समस्याएँ बताइए। [2007]
या
जनजातियों की प्रमुख समस्याओं पर प्रकाश डालिए। [2013, 15]
या
अनुसूचित जनजातियों की चार मुख्य समस्याएँ लिखिए। [2015]
उत्तर:
जनजातीय नर – नारी भारतीय समाज के अभिन्न अंग हैं। भारत की जनजातियों की समस्याएँ बहुत ही जटिल और विस्तृत हैं, क्योंकि आधुनिक विज्ञान और प्रगति से दूर रहने के कारण ये भारतीय समाज के पिछड़े हुए वर्ग हैं। भारतीय संविधान की छठी अनुसूची में जनजातियों को उल्लेख है। उन्हें अनुसूचित जनजातियाँ कहा गया है। भारतीय जनजातियों की समस्याएँ निम्नवत् हैं

(अ) सांस्कृतिक समस्याएँ – भारतीय जनजातियाँ बाहरी संस्कृतियों के सम्पर्क में आती जा रही हैं, जिसके कारण जनजातियों के जीवन में अनेक गम्भीर सांस्कृतिक समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं और उनकी सभ्यता के सामने एक गम्भीर स्थिति उत्पन्न हो गयी है। मुख्य सांस्कृतिक समस्याएँ निम्नलिखित हैं

1. भाषा सम्बन्धी समस्या – भारतीय जनजातियाँ बाहरी संस्कृतियों के सम्पर्क में आ रही हैं, जिसके कारण दो भाषावाद’ की समस्या उत्पन्न हो गयी है। अब जनजाति के लोग अपनी भाषा बोलने के साथ-साथ सम्पर्क भाषा भी बोलने लगे हैं। कुछ लोग तो अपनी भाषा के प्रति इतने उदासीन हो गये हैं कि वे अपनी भाषा को भूलते जा रहे हैं। इससे विभिन्न जनजातियों के लोगों में सांस्कृतिक आदान-प्रदान में बाधा उपस्थित हो रही है। इस बाधा के उत्पन्न होने से जनजातियों में सामुदायिक भावना में कमी आती जा रही है तथा सांस्कृतिक मूल्यों और आदतों का पतन होता जा रहा है।

2. जनजाति के लोगों में सांस्कृतिक विभेद, तनाव और दूरी की समस्या – जनजाति के कुछ लोग ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में आकर ईसाई बन गये हैं तथा कुछ लोगों ने हिन्दुओं की जाति-प्रथा को अपना लिया है, परन्तु ऐसा सभी लोगों ने नहीं किया है, जिसके कारण जनजाति के लोगों में आपसी सांस्कृतिक विभेद, तनाव और सामाजिक दूरी या विरोध उत्पन्न हुआ है। अन्य संस्कृति को अपनाने वाले व्यक्ति अपने जातीय समूह और संस्कृति से दूर होते गये, साथ-ही-साथ वे उस संस्कृति को भी पूरी तरह नहीं अपना पाये जिस संस्कृति को उन्होंने ग्रहण किया था।

3. युवा-गृहों का नष्ट होना-जनजातियों की अपनी संस्थाएँ व युवा – गृह, जो कि जनजातीय सामाजिक जीवन के प्राण थे, धीरे-धीरे नष्ट होते जा रहे हैं; क्योंकि जनजातीय लोग ईसाई तथा हिन्दू लोगों के सम्पर्क में आते जा रहे हैं, जिससे युवा-गृह’ नष्ट होते जा रहे हैं।

4. जनजातीय ललित कलाओं का ह्रास – ओज जैसे-जैसे जनजातियों के लोग बाहरी संस्कृतियों के प्रभाव में आते जा रहे हैं, उससे जनजातीय ललित कलाओं का ह्रास होता जा रहा है। नृत्य, संगीत, ललित कलाएँ, कलाएँ. वे लकड़ी पर नक्काशी आदि का काम दिन प्रतिदिन कम होता जा रहा है। जनजातियों के लोग अब इन ललित कलाओं के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं।

(ब) धार्मिक समस्याएँ – जनजातियों के लोगों पर ईसाई धर्म व हिन्दू धर्म का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। राजस्थान के भील लोगों ने हिन्दू धर्म के प्रभाव के कारण एक आन्दोलन चलायो, जिसका नाम था ‘भगत आन्दोलन’ और इस आन्दोलन ने भीलों को भगृत तथा अभगत दो वर्गों में विभाजित कर दिया। इसी प्रकार बिहार और असम की जनजातियाँ ईसाई धर्म से प्रभावित हुईं, जिसके परिणामस्वरूप एक ही समूह में नहीं, वरन् एक ही परिवार में धार्मिक भेद-भाव दिखाई पड़ने लगा। आज जनजातीय लोगों में धार्मिक समस्या ने विकट रूप धारण कर लिया है, क्योंकि नये धार्मिक दृष्टिकोण के कारण सामुदायिक एकता और संगठन टूटने लगे हैं और परिवारिक तनाव, भेद-भाव व लड़ाई-झगड़े बढ़ते जा रहे हैं। इसी के साथ-साथ जनजाति के लोग अपनी अनेक आर्थिक व सामाजिक समस्याओं का समाधान अपने धर्म के द्वारा कर लेते थे, परन्तु नये धर्मों के नये विश्वास और नये संस्कारों ने उन पुरानी मान्यताओं को भी समाप्त कर दिया है, जिसके कारण जनजातियों में असन्तोष की भावना व्याप्त होती जा रही है।

(स) सामाजिक समस्याएँ – जनजातियाँ सभ्य समाज के सम्पर्क में आती जा रही हैं, जिनके कारण उनके सम्मुख अनेक सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं, जो निम्नलिखिते हैं

1. कन्या-मूल्य – हिन्दुओं के प्रभाव में आने के कारण जनजातियों में कन्या-मूल्य रुपये के रूप में माँगा जाने लगा है। दिन-प्रतिदिन यह मूल्य अधिक तीव्रता के साथ बढ़ता जा रहा है, जिसका परिणाम यह हो रहा है कि सामान्य स्थिति के पुरुषों के लिए विवाह करना कठिन हो गया है। इस कारण जनजातीय समाज में ‘कन्या-हरण’ की समस्या बढ़ती जा रही है।

2. बाल-विवाह – जनजातीय समाज में बाल-विवाह की समस्या भी उग्र रूप धारण करती जा रही है। जिस समय से जनजाति के लोग हिन्दुओं के सम्पर्क में आये हैं, तभी से बाल-विवाह की प्रथा भी बढ़ी है।

3. वैवाहिक नैतिकता का पतन –
जैसे- जैसे जनजातियों के लोग सभ्य समाज के सम्पर्क में
आते जा रहे हैं, वैसे-वैसे विवाह-पूर्व और विवाह के पश्चात् बाहर यौन सम्बन्ध बढ़ते जा रहे हैं, जिससे विवाह-विच्छेद की संख्या भी बढ़ रही है।

4. वेश्यावृत्ति, गुप्त रोग आदि –
जनजातीय समाज में वेश्यावृत्ति, गुप्त रोग आदि से सम्बन्धित सामाजिक समस्याएँ बढ़ती जा रही हैं। जनजातीय लोगों की निर्धनता से लाभ उठाकर विदेशी व्यापारी, ठेकेदार, एजेण्ट आदि रुपयों का लोभ दिखाकर उनकी स्त्रियों के साथ अनुचित यौन-सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं। इन्हीं औद्योगिक केन्द्रों में काम करने वाले जनजातीय श्रमिक वेश्यागमन आदि में फंस जाते हैं और गुप्त रोगों के शिकार हो जाते हैं।

(द) आर्थिक समस्याएँ – आज भारत की जनजातियों में सबसे गम्भीर आर्थिक समस्या है, क्योंकि उनके पास पेटभर भोजन, तन ढकने के लिए वस्त्र और रहने के लिए अपना मकान नहीं है। कुछ प्रमुख आर्थिक समस्याएँ निम्नलिखित हैं

1. स्थानान्तरित खेती सम्बन्धी समस्या – जनजातीय व्यक्ति प्राचीन ढंग की खेती करते हैं, ‘ जिसे स्थानान्तरित खेती कहते हैं। इस प्रकार की खेती से किसी प्रकार की लाभप्रद आय उन्हें प्राप्त नहीं होती है। इस प्रकार की खेती से केवल भूमि का दुरुपयोग ही होता है। अत: खेती में अच्छी पैदावार नहीं होती है, जिससे वे खेती करना छोड़ देते हैं और भूखे मरने की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
2. भूमि-व्यवस्था सम्बन्धी समस्या – पहले जनजातियों का भूमि पर एकाधिकार था, वे मनमाने ढंग से उसका उपयोग करते थे। अब भूमि सम्बन्धी नये कानून आ गये हैं, अब वे मनमाने ढंग से जंगल काटकर स्थानान्तरित खेती नहीं कर सकते।

3. वनों से सम्बन्धित समस्याएँ – पहले जनजातियों को वनों से पूर्ण एकाधिकार प्राप्त था। वे जंगल की वस्तुओं, पशु, वृक्ष आदि का उपयोग स्वेच्छापूर्वक करते थे, परन्तु अब ये सब वस्तुएँ सरकारी नियन्त्रण में हैं।
4. अर्थव्यवस्था सम्बन्धी समस्याएँ – जनजाति के लोग अब मुद्रा-रहित अर्थव्यवस्था से मुद्रा-युक्त अर्थव्यवस्था में आ रहे हैं; अत: उनके सम्मुख नयी-नयी समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं।
5. ऋणग्रस्तता की समस्या – सेठ, साहूकार, महाजन उनकी अशिक्षा, अज्ञानता तथा निर्धनता का लाभ उठाकर उन्हें ऊँची ब्याज दर पर ऋण देते हैं, जिससे वे सदैव ऋणी ही बने रहते हैं।
6. औद्योगिक श्रमिक समस्याएँ – चाय बागानों, खानों और कारखानों में काम करने वाले जनजातीय श्रमिकों की दशा अत्यन्त दयनीय है। उन्हें उनके कार्य के बदले में उचित मजदूरी नहीं मिलती है, उनके पास रहने के लिए मकान नहीं हैं, काम करने की स्थिति एवं वातावरण भी ठीक नहीं है। जनजाति के श्रमिकों को अपने अधिकारों के विषय में भी ज्ञान नहीं है, वे पशुओं की भाँति कार्य करते हैं और उनके साथ पशुओं जैसा ही व्यवहार होता है।

(य) स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ – जनजाति के लोगों के सम्मुख स्वास्थ्य सम्बन्धी अनेक. समस्याएँ हैं, जो निम्नवत् हैं

1. खान-पान – निर्धनता के कारण जनजाति के लोगों को सन्तुलित व पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता है। वे शराब आदि मादक पदार्थों का सेवन करते हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ता है।

2. वस्त्र – जनजाति के लोग अब नंगे (वस्त्रहीन) न रहकर वस्त्र धारण करने लगे हैं, परन्तु निर्धनता के कारण उनके पास पर्याप्त वस्त्र उपलब्ध नहीं होते हैं। वस्त्रों के अभाव में वे लगातार एक ही वस्त्र को धारण किये रहते हैं, जिससे अनेक प्रकार के चर्म रोग आदि हो जाते हैं तथा वे बीमार भी हो जाते हैं।

3. रोग व चिकित्सा का अभाव – अनुसूचित जनजाति के लोग हैजा, चेचक, तपेदिक आदि अनेक प्रकार के भयंकर रोगों से ग्रस्त रहते हैं। इसके अतिरिक्त चाय बागानों व खानों में काम करने वाले स्त्री-पुरुष श्रमिकों में व्यभिचार बढ़ता जा रहा है। वे अनेक प्रकार के गुप्त रोगों से ग्रस्त होते जा रहे हैं। निर्धनता व चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में जनजाति के लोगों के सम्मुख स्वास्थ्य सम्बन्धी गम्भीर समस्याएँ हैं।

4. शिक्षा सम्बन्धी समस्याएँ – जनजातियाँ आज भी अशिक्षा तथा अज्ञानता के वातावरण में रह रही हैं। कुछ लोग ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में आकर अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं। अशिक्षा समस्त समस्याओं का आधार है। अशिक्षा के कारण ही जनजातीय समाज में आज भी अनेक प्रकार के अन्धविश्वास पनप रहे हैं। (निवारण के सुझाव-इसके लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या 4 का उत्तर देखें।

प्रश्न 3
भारत में अल्पसंख्यकों अर्थात् अल्पसंख्यक वर्गों की कुछ समस्याओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
भारत एक विभिन्नताओं वाला देश है। इस देश में विभिन्न प्रकार की भूमि, विभिन्न प्रकार की जलवायु, विभिन्न धर्म, विभिन्न जातियाँ, विभिन्न भाषाएँ एवं विभिन्न प्रकार के रीतिरिवाज पाये जाते हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि यहाँ के लोग विभिन्न आधारों पर अनेक समूहों में विभाजित रहते हैं। यह विभाजन धर्म, सम्प्रदाय, जाति, व्यवसाय, आयु, लिंग, शिक्षा आदि किसी भी आधार पर हो सकता है। इन सभी समूहों की सदस्य संख्या समान नहीं है। किसी समूह में अधिक लोग रहते हैं और किसी में सदस्यों की संख्या बहुत कम होती है।

इस प्रकार किसी विशेष आधार पर बने सामाजिक समूहों में, जिनकी संख्या अपेक्षाकृत कम होती है, उन्हें हम अल्पसंख्यक समूह अथवा अल्पसंख्यक (Minorities) कहते हैं। भारत में मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध, जैन, पारसी आदि धर्मावलम्बियों तथा जनजातियों को अल्पसंख्यकों की श्रेणी में रखा जाता है। भारतीय समाज में पाया जाने वाला सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समूह मुस्लिम है। दूसरा प्रमुख अल्पसंख्यक सम्प्रदाय ईसाइयों का है। सिक्खों का भी अल्पसंख्यक वर्गों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके अतिरिक्त बौद्ध, जैन, पारसी एवं जनजातियाँ अन्य अल्पसंख्यक समूह हैं।

अल्पसंख्यकों की समस्या

भारत में रहने वाले अल्पसंख्यक समूहों की अनेक समस्याएँ हैं। यद्यपि संविधान द्वारा अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को सुरक्षित रखने का पूर्ण अधिकार दिया गया है, किन्तु संविधान में तथा प्रचलित कानूनों में उपलब्ध संरक्षणों के बावजूद भी अल्पसंख्यकों में यह भावना बनी हुई है कि उनके साथ समानता का व्यवहार नहीं किया जाता। यहाँ हम भारत के प्रमुख अल्पसंख्यकों की कुछ प्रमुख समस्याओं पर प्रकाश डालेंगे

1. मुसलमानों की समस्याएँ – समकालीन भारत में मुसलमानों की कुछ प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं

  1.  यद्यपि संविधान में कहा गया है कि धार्मिक आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता, किन्तु सामान्य मुसलमान स्वयं को मानसिक दृष्टि से असुरक्षित समझता है।
  2. मुस्लिम समुदाय का अधिकांश भाग अपने रूढ़िवादी विचारों के कारण अशिक्षित रह गया है जिसके कारण उन्हें विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ता है। अशिक्षी एवं रूढ़िवादिता के कारण उन्हें आर्थिक विकास के पूर्ण अवसर उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। आमतौर पर वे परम्परागत व्यवसायों को ही अपनाते हैं तथा सरकारी नौकरियों व श्वेतवसन व्यवसायों में नहीं जा पाते।।
  3.  मुस्लिम समाज सांस्कृतिक दृष्टि से भी स्वयं को बहुसंख्यक वर्गों से भिन्न समझता है। उनकी यह भावना पृथकता के भाव को प्रोत्साहित करती है।
  4. स्वाधीन भारत का मुस्लिम सम्प्रदाय राजनीतिक दृष्टि से दिशाहीन प्रतीत होता है। योग्य मुस्लिम नेतृत्व का अभाव दिखायी देता है। जिन नेताओं ने स्वयं को राजनीतिक मंच पर प्रतिष्ठित किया है, वे कठिनता से ही मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं।

2. ईसाइयों की समस्याएँ – ईसाइयों की कुछ प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं

  1.  ईसाइयों का रहन-सहन, मौज-मस्ती को होता है। यह प्रवृत्ति उनमें ऋणग्रस्तता को जन्म देती है।
  2.  यद्यपि ईसाई लोग स्वयं को अंग्रेजों से सम्बन्धित मानते हैं, किन्तु वे किसी निश्चित जीवन शैली (अंग्रेजी अथवा भारतीय) को नहीं अपना पाते। एक से उनका लगाव नहीं है, तो दूसरा उनके लिए सम्भव नहीं है।
  3.  चूंकि ईसाइयों में विवाह-विच्छेद (Divorce) एक आम-बात है, इसलिए इसका बुरा प्रभाव स्त्रियों की स्थिति और आश्रितों पर पड़ता है।

3. सिक्खों की समस्याएँ – सिक्खों की प्रमुख समस्याएँ निम्न प्रकार हैं

  1. सिक्खों का एक वर्ग अधिक सम्पन्न है, तो दूसरा वर्ग दरिद्र भी है।
  2.  सिक्खों के साथ भारत के अन्य भागों के लोग अन्त:क्रिया के पक्ष में नहीं हैं।
  3.  सिक्खों के एक वर्ग द्वारा धर्म को राजनीति से जोड़ने का प्रयत्न किया गया है। अतः
    उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती धर्म को राजनीति से पृथक् करने की है।

प्रश्न 4
भारत में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के विकास के लिए सामाजिक चेतना संवैधानिक आरक्षण से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। सविस्तार वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अनुसूचित जातियाँ तथा जनजातियाँ भारत के एक विशाल वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं। समाज के इतने बड़े वर्ग की उपेक्षा करके उन्हें मानवोचित अधिकारों से वंचित रखकर, दीन-हीन और दासों के समान जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य करके सामाजिक प्रगति और राष्ट्र को समृद्ध एवं वैभवशाली बनाने की कल्पना नहीं की जा सकती।
यद्यपि शासकीय स्तर पर इन जातियों व जनजातियों के उत्थान के लिए आरक्षण जैसे कदम उठाये जा रहे हैं, तथापि आवश्यकता इस बात की है कि इनकी समस्याओं के प्रति जनसाधारण को जाग्रत किया जाए।

अनुसूचित जातियों व जनजातियों के विकास हेतु यह आवश्यक है कि अधिकांश हिन्दुओं के हृदय परिवर्तित हों। हमें सही रूप से इनकी वर्तमान स्थिति का विश्लेषण करना चाहिए तथा निष्कर्ष निकालना चाहिए कि हमने तथा हमारे पूर्वजों ने क्यों इनके प्रति अन्यायपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया? हमें इनके प्रति पाली गयी सभी भ्रान्तियों से अपने-आप को मुक्त करना चाहिए। यह एक वास्तविकता है कि इनके प्रति अस्पृश्यता का भाव रखने का सम्बन्ध हिन्दू धर्म के मौलिक ग्रन्थों से नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे भी हमारी तरह इन्सान हैं तथा केवल शोर मचाने, नारे लगाने, हरिजन दिवस मनाने तथा आरक्षण से इनका विकास नहीं हो सकता। इनके विकास के लिए जनसाधारण में इनके प्रति न्यायपूर्ण एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार होना अति आवश्यक है।

विश्लेषकों का कहना है कि अनुसूचित जाति व जनजातियों की समस्याएँ प्रमुखतः आर्थिक व सामाजिक हैं। यदि इन्हें गन्दे पेशों से मुक्त होने का अवसर दिया जाए, इनके लिए विभिन्न क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ाए जाएँ, सवर्णो की बस्तियों में मकान बनाने और रहने की सुविधा दी जाए तो सवर्णो तथा इन जातियों के बीच भेदभाव को कम किया जा सकता है। यह दृष्टिकोण भी इनके विकास में सहायक सिद्ध होगा। जनसाधारण का इनके प्रति समझदारी तथा प्रेम से भरा व्यवहार इन लोगों में सामाजिक सुरक्षा की भावना का विकास करेगा जिससे इनमें आत्मविश्वास बढ़ेगा तथा जागृति आएगी।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1:
राष्ट्रीय जीवन में अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के योगदान का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
या
‘भारतीय जनजातीय जीवन का बदलता दृश्य पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए।[2010]
या
राष्ट्रीय जीवन में जनजातियों के योगदान का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों का राष्ट्रीय जीवन में योगदान निम्नलिखित रूपों में दर्शाया जा सकता है
1. भारतीय राजनीति में प्रभावक भूमिका – संसद और राज्य विधानमण्डलों में अनुसूचित जनजातियों की सदस्य संख्या, विभिन्न चुनावों में उनकी सक्रिय भागीदारी तथा उच्च राजनीतिक पदों पर उनकी नियुक्ति से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि देश के राष्ट्रीय जीवन में इनका सक्रिय सहभाग अर्थात् योगदान बढ़ रहा है और इनमें राजनीतिक चेतना तेजी से बढ़ रही है। वर्तमान में लोकसभा में अनुसूचित जातियों के 79 एवं जनजातियों के 41 स्थान तथा राज्यों की विधानसभाओं में क्रमशः 557 तथा 527 सीटें आरक्षित की गयी हैं। पंचायतों एवं स्थानीय निकायों में जनसंख्या के अनुपात में इनकी सीटें आरक्षित की गयी हैं।

2. राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं में वृद्धि – अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को आरक्षण एवं संवैधानिक रियायतें प्राप्त हैं जिनका एक परिणाम यह सामने आया है कि इनके नेताओं की महत्त्वाकांक्षाओं में वृद्धि हुई है। अब वे राजनीतिक और प्रशासन के प्रत्येक स्तर पर ऊँची जातियों के लोगों से प्रतिस्पर्धा करने एवं आगे बढ़ने की आकांक्षा रखते हैं।

3. दबाव समूहों के रूप में संगठित होने की प्रवृत्ति – आरक्षण के परिणामस्वरूप जाति का राजनीति में प्रभाव बढ़ा है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद बनने वाले जातीय समुदायों में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों द्वारा निर्मित दबाव गुटों का विशेष महत्त्व है। जिला स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक इन जातियों एवं जनजातियों के संगठन पाये जाते हैं। इन्हीं संगठनों की माँग एवं संगठित प्रयासों के फलस्वरूप आरक्षण की अवधि सन् 2020 तक के लिए बढ़ा दी गयी थी।

4. निर्वाचनों में संगठित भूमिका – यह माना जाता है कि विभिन्न आम चुनावों में कांग्रेस दल के विजयी होने और सत्ता में आने का मुख्य कारण इन्हें हरिजनों, अन्य अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को मिलने वाला समर्थन है। इन जातियों ने अपनी संख्या की शक्ति को पहचाना है और राजनीति में संगठित रूप में भूमिका निभाते हैं। इससे राष्ट्रीय जीवन में इनकी भूमिका बढ़ी है। आज तो सभी राजनीतिक दल यह महसूस करने लगे हैं कि सत्ता में आने के लिए इन जातियों का समर्थन प्राप्त करना आवश्यक है।

5. भारतीय राजनीति में सन्तुलनकर्ता की भूमिका – अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की देश में कुल जनसंख्या 25 करोड़ है, जो देश की कुल जनसंख्या का 24.35 प्रतिशत है। इस संख्या के बल पर ही ये जातियाँ भारतीय राजनीति में शक्ति-सन्तुलन की स्थिति में हैं। जिस राजनीतिक दल को इनका समर्थन प्राप्त हो जाता है, उसकी राजनीतिक स्थिति काफी मजबूत हो जाती है।

6. अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के कई लोगों ने स्वतन्त्रता – आन्दोलन में भाग लिया। उन्होंने महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन में योग दिया। इससे उनमें राजनीतिक चेतना बढ़ी है। अनेक नेताओं ने अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की स्थिति को उन्नत करने और उन्हें राष्ट्रीय जीवन-धारा में सम्मिलित करने हेतु प्रयास किये हैं।

7. देश के आर्थिक विकास में भी अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों का काफी योगदान रहा है। खेतों, कारखानों, चाय-बागानों एवं खानों में इन जातियों के लोग ही उत्पादन के कार्य में प्रमुख भूमिका निभाते रहे हैं। हाथ से काम करने वाले या मेहनतकश लोगों में अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गों का योगदान ही सर्वाधिक रहा है। वर्तमान में अनेक अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लोग व्यापारी एवं उद्यमी के रूप में आगे बढ़ने लगे हैं।

प्रश्न 2:
अनुसूचित जाति व जनजाति की भारतीय राजनीति में सन्तुलनकर्ता के नाते क्या भूमिका है ?
उत्तर:
अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की देश में कुल जनसंख्या वर्तमान में 25 करोड़ है, जो देश की कुल जनसंख्या का 24.35 प्रतिशत है। इस संख्या के बल पर ही ये जातियाँ भारतीय राजनीति में शक्ति-सन्तुलन की स्थिति में हैं। जिस राजनीतिक दल को इनका समर्थन प्राप्त हो जाता है, उसकी राजनीतिक स्थिति पर्याप्त मजबूत हो जाती है। इन जातियों ने अपने हितों को ध्यान में रखकर पहले कांग्रेस दल को समर्थन दिया था। वर्तमान में कांग्रेस के अलावा अन्य राजनीतिक दलों ने भी अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों में अपना नाम बढ़ाया है और अपने जनाधार को मजबूत किया है। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है वर्तमान समय में भारतीय राजनीति में अनुसूचित जाति और जनजाति की सन्तुलनकर्ता के रूप में एक प्रभावशाली भूमिका है, जिसके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता।

प्रश्न 3:
सीमाप्रान्त जनजातियों की समस्याएँ बताइए।
उत्तर:
उत्तर-पूर्वी सीमाप्रान्तों में निवास करने वाली जनजातियों की समस्याएँ देश के विभिन्न भागों की समस्याओं से कुछ भिन्न हैं। देश के उत्तर-पूर्वी प्रान्तों के नजदीक चीन, म्याँमार एवं बाँग्लादेश हैं। चीन से हमारे सम्बन्ध पिछले कुछ वर्षों से मधुर नहीं रहे हैं। बाँग्लादेश, जो पहले पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था, भारत का कट्टर शत्रु रहा है। चीन एवं पाकिस्तान ने सीमाप्रान्तों की जनजातियों में विद्रोह की भावना को भड़काया है, उन्हें अस्त्र-शस्त्रों से सहायता दी है एवं विद्रोही नागा और अन्य जनजातियों के नेताओं को भूमिगत होने के लिए अपने यहाँ शरण दी है। शिक्षा एवं राजनीतिक जागृति के कारण इस क्षेत्र की जनजातियों ने स्वायत्त राज्य की माँग की है। इसके लिए उन्होंने आन्दोलन एवं संघर्ष किये हैं। आज सबसे बड़ी समस्या सीमावर्ती क्षेत्रों में निवास करने वाली जनजातियों की स्वायत्तता की माँग से निपटना है। ।

प्रश्न 4
जनज़ातियों की प्रगति के लिए प्रमुख उपायों का सुझाव दीजिए। [2009, 13]
उत्तर:
जनजातियों की प्रगति के लिए निम्नलिखित प्रमुख उपाय किये जा सकते हैं
1. जनजातियों के पेशे गन्दे होते हैं। इनको पेशों से मुक्त होने का अवसर दिया जाए।
2. विभिन्न क्षेत्रों में काम करने के लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध कराए जाएँ।
3. कुटीर उद्योग लगाने के लिए ब्याज मुक्त ऋण उपलब्ध कराया जाए।
4. भूमिहीन किसानों को भूमि उपलब्ध करायी जाए तथा फसल को बोने के लिए उत्तम बीज व खाद उपलब्ध करायी जाए।
5. इन्हें सवर्णो के साथ बस्तियों में मकान बनाने की सुविधा उपलब्ध करायी जाए।
6. अन्य जातियों के साथ उत्पन्न होने वाले मतभेदों को दूर किया जाए।
7. जनजातियों की स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाया जाए।
8. इन्हें शिक्षित बनाने के लिए मुफ्त शिक्षा और प्रौढ़ शिक्षा व्यवस्था को कारगर बनाया जाए।
9. सरकारी सेवाओं में इनके लिए कुछ स्थान सुरक्षित किये जाएँ।
10. जनजातियों की प्रगति के लिए सामाजिक सुरक्षा योजना चलाने की भी आवश्यकता है।

प्रश्न 5
अनुसूचित जनजातियों पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए किये गये उपायों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों पर अत्याचार रोकने के प्रभावी उपाय के लिए, भारत सरकार ने अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989′ 30 जनवरी, 1990 से लागू किया। इसमें अत्याचार की श्रेणी में आने वाले अपराधों के उल्लेख के साथ-साथ उनके लिए कड़े दण्ड की भी व्यवस्था की गयी। वर्ष 1995 में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अन्तर्गत व्यापक नियम भी बनाये गये, जिनमें अन्य बातों के अतिरिक्त प्रभावित लोगों के लिए राहत और पुनर्वास की भी व्यवस्था है।

राज्यों से कहा गया कि वे इस तरह के अत्याचारों की रोकथाम के उपाय करें और पीड़ितों के आर्थिक तथा सामाजिक पुनर्वास की व्यवस्था करें। अरुणाचल प्रदेश और नागालैण्ड को छोड़कर अन्य सभी राज्यों तथा केन्द्रशासित प्रदेशों में इस तरह के मामलों में इस कानून के तहत मुकदमा चलाने के लिए विशेष अदालतें बनायी गयी हैं। अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लोगों पर अत्याचारों की रोकथाम के कानून के तहत आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में विशेष अदालतें गठित की जा चुकी हैं।
केन्द्र द्वारा प्रायोजित योजना के अन्तर्गत इस कानून को लागू करने पर आने वाले खर्च का आधा राज्य सरकारें और आधा केन्द्र सरकार वहन करेंगी। केन्द्रशासित प्रदेशों को इसके लिए शत-प्रतिशत केन्द्रीय सहायता दी जाती है।

प्रश्न 6
अनुसूचित जातियों की प्रगति हेतु अपने सुझाव लिखिए। [2016]
उत्तर:
अनुसूचित जातियों की प्रगति हेतु निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं ।
अनुसूचित जातियों की प्रगति हेतु सुझाव
अनुसूचित जातियों की प्रगति हेतु निम्न कदम उठाए जा सकते हैं।

  1. अनुसूचित जातियों में शिक्षा के स्तर में सुधार करके उनके दृष्टिकोण व आर्थिक स्थिति को सुधारा जाना चाहिए।
  2. इनके जीवन स्तर को उठाना चाहिए जिससे इन्हें बेहतर अवसरों की प्राप्ति हो सके।
  3. अस्पृश्यता निवारण के लिए विभिन्न माध्यमों का प्रयोग कर जनमत का निर्माण किया जाना चाहिए।
  4. समाज में इनके विरुद्ध असमान नीति अपनाने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जानी चाहिए।
  5. सरकार द्वारा विभिन्न नीतियों के माध्यम से अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
  6. इन्हें अन्य जातियों के समान धार्मिक व सामाजिक स्वतन्त्रता और समानता व्यावहारिक रूप में प्रदान करनी चाहिए।
  7. सभी जाति के बच्चों को एक समान व्यवहार व शिक्षा प्रदान कर उनमें आपसी सद्भाव की भावना का विकास किया जाना चाहिए।
  8. राजनीतिक स्तर पर सरकार द्वारा इनको प्रोत्साहन प्रदान करना इनकी राजनीतिक निम्न स्थिति में सुधार के लिए आवश्यक है।

प्रश्न 7
अनुसूचित जातियों की चार समस्याएँ बताइए। [2007, 09, 11]
या
अनुसूचित जातियों की दो समस्याएँ बताइए। [2009, 16]
उत्तर:
अनुसूचित जातियों की चार समस्याएँ निम्नवत् हैं

  1. अस्पृश्यता की समस्या – अनुसूचित जातियों के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या अस्पृश्यता कीरही है। उच्च जाति के कुछ व्यक्ति कुछ व्यवसायों; जैसे-चमड़े का काम, सफाई का काम, कपड़े धोने का काम आदि करने वालों को आज भी अपवित्र मानते हैं।
  2. अशिक्षा की समस्या – अनुसूचित जाति के अधिकांश लोग अशिक्षित तथा अज्ञानी हैं। इस कारणे अनेक बुराइयों ने इन लोगों में घर कर लिया है। निर्धनता के कारण इनके बालक भी शिक्षा शुरू कर पाने में असमर्थ होते हैं।
  3. रहन-सहन का नीचा स्तर – इनका जीवन स्तर निम्न होता है तथा वे आधा पेट खाकर तथा अर्द्धनग्न रहकर जीवन व्यतीत करते हैं। निर्धनता तथा बेरोजगारी इनके रहन-सहन के निम्न स्तर के लिए उत्तरदायी हैं।
  4. आवास की समस्या – इनके आवास की दशा भी शोचनीय होती है। ये ऐसे स्थानों में रहते हैं जहाँ सफाई का नामोनिशान भी नहीं होता। बरसात में इनकी दशा दयनीय हो जाती है। ये लोग बहुधा झोंपड़ी या कच्चे मकानों में रहते हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
संविधान के अनुच्छेद 46 में समाज के दलित, दुर्बल और कमजोर वर्गों के लोगों के सम्बन्ध में क्या कहा गया है ?
उत्तर:
संवैधानिक दृष्टि से कमजोर, दुर्बल या दलित वर्ग के अन्तर्गत अनुसूचित जातियाँ, अनुसूचित जनजातियाँ तथा कुछ अन्य पिछड़े हुए समूह आते हैं। इसमें समाज के साधन-हीन वर्ग को सम्मिलित किया गया है। भारतीय संविधान भ्रातृत्व एवं समानता पर जोर देता है। अतः संविधाननिर्माताओं ने सोचा कि यदि समानता को एक वास्तविक रूप प्रदान करना है, तो समाज के इन दलित, दुर्बल और कमजोर वर्गों को ऊँचा उठाना होगा और उन्हें विकास की सुविधाएँ प्रदान करनी होंगी। संविधान के अनुच्छेद 46 में इस सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि राज्य जनता के दुर्बलतर अंगों के, विशेषतः अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के, शिक्षा तथा अर्थ सम्बन्धी (आर्थिक) हितों की विशेष सावधानी से रक्षा करेगा और सामाजिक अन्याय तथा सभी प्रकार के शोषण से उनकी रक्षा करेगा।

प्रश्न 2
अनुसूचित जाति से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
भारतीय संविधान में अछूत, दलित, बाहरी जातियों, हरिजन आदि लोगों को कुछ विशेष सुविधाएँ प्रदान करने की दृष्टि से एक अनुसूची तैयार की गयी जिसमें विभिन्न अस्पृश्य जातियों को सम्मिलित किया गया। इस अनुसूची के आधार पर वैधानिक दृष्टिकोण से इन जातियों के लिए अनुसूचित जाति (Schedule Caste) शब्द को काम में लिया गया। वर्तमान में सरकारी प्रयोग में इनके लिए ‘अनुसूचित जाति’ शब्द को ही काम में लिया जाता है। इनके लिए तैयार की गयी सूची में जिन अस्पृश्य जातियों को रखा गया उन्हें अनुसूचित जातियाँ कहा गया।

प्रश्न 3
अस्पृश्यता को दूर करने एवं अनुसूचित जातियों के कल्याण की दृष्टि से कार्य कर रहे चार ऐच्छिक संगठनों के नाम लिखिए।
उत्तर:
अस्पृश्यता को दूर करने एवं अनुसूचित जातियों के कल्याण की दृष्टि से अनेक ऐच्छिक संगठन कार्य कर रहे हैं, जिनमें प्रमुख हैं

  1. अखिल भारतीय हरिजन सेवक संघ, दिल्ली;
  2. भारतीय दलित वर्ग लीग, दिल्ली;
  3. ईश्वर सरन आश्रम, इलाहाबाद तथा
  4. भारतीय रेडक्रॉस सोसाइटी, दिल्ली।।

प्रश्न 4
अनुसूचित जातियों के लोगों को कौन-सी शिक्षा सम्बन्धी सुविधाएँ दी गयी हैं ?
उत्तर:
अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लोगों को अन्य लोगों के समान स्तर पर लाने और प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने में सहायता करने के उद्देश्य से शिक्षा का विशेष प्रबन्ध किया गया। देश की सभी सरकारी शिक्षण संस्थाओं में इन जातियों के विद्यार्थियों के लिए नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था की गयी है। वर्ष 1944-45 से अस्पृश्य जातियों के छात्रों को छात्रवृत्तियाँ देने की योजना प्रारम्भ की गयी तथा इनके लिए पृथक् छात्रावासों की व्यवस्था भी की गयी है। बुक बैंक के माध्यम से इनके छात्रों के लिए पाठ्य-पुस्तकें भी उपलब्ध करायी जाती हैं।

प्रश्न 5
अनुसूचित जातियों की मुख्य आर्थिक समस्याएँ बताइए।
उत्तर:
गरीबी, बेरोजगारी, स्थानान्तरित खेती, ऋणग्रस्तता तथा आधारभूत संरचना का अभाव आदि अनुसूचित जातियों की मुख्य आर्थिक समस्याएँ हैं।।

प्रश्न 6
अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लोगों को सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व कैसे दिया गया है ?
उत्तर:
अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लोगों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने, अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार करने तथा उच्च जाति के लोगों के सम्पर्क में आने को प्रोत्साहित करने के लिए सरकारी नौकरियों में स्थान सुरक्षित रखे गये हैं। खुली प्रतियोगिता द्वारा अखिल भारतीय आधार पर की जाने वाली नियुक्तियों में इनके लिए क्रमश: 15 एवं 7.5 प्रतिशत स्थान सुरक्षित रखे गये हैं।

प्रश्न 7
डॉ० अम्बेडकर ने अनुसूचित जाति परिसंघ की स्थापना क्यों की तथा इसका क्या लक्ष्य था ?
उत्तर:
राजनीति में अनुसूचित जातियों के हितों की रक्षा के लिए डॉ० अम्बेडकर ने अनुसूचित जाति परिसंघ’ की स्थापना की थी। इसका लक्ष्य अनुसूचित जातियों के राजनीतिक आन्दोलन को आगे बढ़ाना था। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद अम्बेडकर के नेतृत्व में इस दल का उद्देश्य यह देखना रह गया था कि संविधान में वर्णित आरक्षण के प्रावधानों का समुचित रूप से क्रियान्वयन किया जा रहा है या नहीं।

प्रश्न 8
जनजाति क्या है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जनजाति एक ऐसा क्षेत्रीय मानव समूह है जिसकी एक सामान्य संस्कृति, भाषा, राजनीतिक संगठन एवं व्यवसाय होता है तथा जो सामान्यतः अन्तर्विवाह विवाह के नियमों का पालन करता है। गिलिन और गिलिन के अनुसार, “स्थानीय आदिम समूहों के किसी भी संग्रह को जोकि एक सामान्य क्षेत्र में रहता हो, एक सामान्य भाषा बोलता हो और एक सामान्य संस्कृति का अनुसारण करता हो, एक जनजाति कहते हैं।”

प्रश्न 9
जनजातियों की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
जनजातियों की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. अन्तर्विवाही – एक जनजाति के सदस्य केवल अपनी ही जनजाति में विवाह करते हैं, जनजाति के बाहर नहीं।
  2. सामान्य संस्कृति – एक जनजाति में सभी सदस्यों की सामान्य संस्कृति होती है, जिससे उनके रीति-रिवाजों, खान-पान, प्रथाओं, नियमों, लोकाचारों, धर्म, कला, नृत्य, जादू, संगीत, भाषा, रहन-सहन, विश्वासों, विचारों, मूल्यों आदि में समानता पायी जाती है।

प्रश्न 10
जनजातीय परिवार की दो मुख्य विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
जनजातीय परिवार की दो मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. जनजातीय परिवार में बाल-विवाह का प्रचलन होता है तथा कन्या-मूल्य की प्रथा भी है। विवाह के समय वर-पक्ष कन्या-पक्ष को कन्या-मूल्य देता है।
  2. जनजातीय परिवारों में वेश्यावृत्ति आम बात है। जनजातीय परिवार निर्धन होने के कारण अपनी स्त्रियों को अनुचित यौनसम्बन्ध स्थापित करने की प्रेरणा देते हैं।

प्रश्न 11
अनुसूचित जनजातियों की शिक्षा सम्बन्धी क्या समस्याएँ हैं ?
उत्तर:
जनजातियों में शिक्षा का अभाव है और वे अज्ञानता के अन्धकार में पल रही हैं। अशिक्षा के कारण वे अनेक अन्धविश्वासों, कुरीतियों एवं कुसंस्कारों से घिरी हुई हैं। आदिवासी लोग वर्तमान शिक्षा के प्रति उदासीन हैं, क्योंकि यह शिक्षा उनके लिए अनुत्पादक है। जो लोग आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर लेते हैं, वे अपनी जनजातीय संस्कृति से दूर हो जाते हैं और अपनी मूल संस्कृति को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। आज की शिक्षा जीवन-निर्वाह का निश्चित साधन प्रदान नहीं करती; अतः शिक्षित व्यक्तियों को बेकारी को सामना करना पड़ता है।

प्रश्न 12
दुर्गम निवासस्थान में रहने के कारण अनुसूचित जनजातियों को क्या हानि है ?
या
जनजातियों में ‘दुर्गम निवास स्थल : एक समस्या विषय पर प्रकाश डालिए।[2007]
उत्तर:
लगभग सभी जनजातियाँ पहाड़ी भागों, जंगलों, दलदल-भूमि और ऐसे स्थानों में निवास करती हैं, जहाँ सड़कों का अभाव है और वर्तमान यातायात एवं संचार के साधन अभी वहाँ उपलब्ध नहीं हो पाये हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि उनसे सम्पर्क करना एक कठिन कार्य हो गया है। यही कारण है कि वैज्ञानिक आविष्कारों के मधुर फल से वे अभी अपरिचित ही हैं और उनकी आर्थिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य सम्बन्धी एवं राजनीतिक समस्याओं का निवारण नहीं हो पाया है।

प्रश्न 13
पर-संस्कृतिग्रहण के परिणामस्वरूप जनजातियों के सामने कौन-सी समस्या उत्पन्न हुई है ?
उत्तर:
पर-संस्कृतिग्रहण के परिणामस्वरूप जनजातियों के सामने निम्नलिखित समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं
भाषा की समस्या, सांस्कृतिक विभेद, तनाव और दूरी की समस्या, जनजातीय ललित कलाओं का ह्रास, बाल-विवाह, वेश्यावृत्ति एवं गुप्त रोग की समस्या, स्थानान्तरित खेती सम्बन्धी समस्या, खान-पान व वस्त्रों की समस्या, धार्मिक समस्याएँ आदि।

प्रश्न 14
अनुसूचित जाति विकास निगम क्यों बनाये गये ?
उत्तर:
वर्तमान में अनुसूचित जातियों के विकास एवं कल्याण हेतु विभिन्न राज्यों में अनुसूचित जाति विकास निगम’ बनाये गये हैं, जो अनुसूचित जातियों के परिवारों तथा वित्तीय संस्थाओं के बीच सम्बन्ध स्थापित कराने तथा उन्हें आर्थिक साधन उपलब्ध कराने में सहयोग देते हैं।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
भारत में अनुसूचित जातियों के लोगों की वर्तमान में कितनी संख्या है ?
उत्तर:
भारत में अनुसूचित जातियों के लोगों की वर्तमान में संख्या अनुमानतः 17 करोड़ हो गयी है।

प्रश्न 2
डॉ० भीमराव अम्बेडकर की जन्मतिथि क्या है ?
उत्तर:
डॉ० भीमराव अम्बेडकर की जन्मतिथि है-14 अप्रैल, 1891।

प्रश्न 3
अनुसूचित जातियों के लोगों के लिए कितने प्रतिशत स्थान नौकरियों में आरक्षित है?
उत्तर:
अनुसूचित जातियों के लोगों के लिए नौकरियों में 22.5 प्रतिशत स्थान आरक्षित है।

प्रश्न 4
‘हरिजन सेवक संघ कहाँ स्थित है ?
उत्तर:
‘हरिजन सेवक संघ दिल्ली में स्थित है।

प्रश्न 5
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम किस वर्ष पारित किया गया था? [2011]
उत्तर:
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम 1955 ई० में पारित किया गया था।

प्रश्न 6
जनजाति को परिभाषित कीजिए। [2007, 08, 11, 13, 14]
उत्तर:
जनजाति एक ऐसा क्षेत्रीय मानव-समूह है, जिसकी एक सामान्य संस्कृति, भाषा, राजनीतिक संगठन एवं व्यवसाय होता है तथा जो सामान्यत: अन्तर्विवाह के नियमों का पालन करता है।

प्रश्न 7
किन्हीं दो जनजातियों के नाम लिखिए। [2013]
उत्तर:
दो जनजातियों के नाम हैं
(1) मुण्डा (बिहार) तथा
(2) नागा (नागालैण्ड)।

प्रश्न 8
अनुसूचित जनजातियों के लिए नौकरियों में कितने प्रतिशत स्थान सुरक्षित है?
उत्तर:
अनुसूचित जनजातियों के लिए नौकरियों में 7.5 प्रतिशत स्थान सुरक्षित है।

प्रश्न 9
राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए कब तक स्थान सुरक्षित रखे गये हैं ?
उत्तर:
राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए सन् 2020 तक स्थान सुरक्षित रखे गये हैं।

प्रश्न 10
1951 ई० की जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या कितनी थी ? [2011]
उत्तर:
लगभग 1 करोड़ 91 लाख।

प्रश्न 11
संविधान के कौन-से अनुच्छेद अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए लोकसभा, विधानसभाओं तथा स्थानीय निकायों में स्थान सुरक्षित करने पर जोर देते हैं ? [2007]
उत्तर:
अनुच्छेद 243, 330 एवं 332 अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए लोकसभा विधानसभाओं तथा स्थानीय निकायों में स्थान सुरक्षित करने पर जोर देते हैं।

प्रश्न 12
जनजातियों की समस्याओं के समाधान हेतु ‘राष्ट्रीय उपवन की अवधारणा किसने दी ? [2007]
उत्तर:
यह अवधारणा रॉय तथा एल्विन ने दी।

प्रश्न 13
जनजातियों में जीवन-साथी चुनने के तरीके का उल्लेख कीजिए। [2007, 13]
उत्तर:
जनजातियों में ‘टोटम बहिर्विवाह’ का प्रचलन है जो कि बहिर्विवाह का ही एक रूप

प्रश्न14
सन 1980 में मण्डल कमीशन की रिपोर्ट पर आधारित अन्य पिछड़े वर्ग को कितने प्रतिशत आरक्षण दिया गया है ? [2007]
उत्तर:
27 प्रतिशत।

प्रश्न 15
क्या केरल के नायर एक जनजाति हैं ? [2007]
उत्तर:
हाँ।

प्रश्न16
निम्नलिखित पुस्तकों से सम्बन्धित लेखकों/विचारकों के नाम लिखिए
(क) सामाजिक मानवशास्त्र,
(ख) एन इण्ट्रोडक्शन टू सोशल ऐन्थ्रोपोलॉजी,
(ग) मैन इन प्रिमिटिव वर्ल्ड।
उत्तर:
इन पुस्तकों के लेखक के नाम हैं
(क) मजूमदार एवं मदान,
(ख) मजूमदार एवं मदान,
(ग) हॉबेल।

प्रश्न 17
अनुसूचित नामक शब्द किसके द्वारा बनाया गया था ?
उत्तर:
अनुसूचित नामक शब्द साइमन कमीशन द्वारा 1927 ई० में बनाया गया था।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
‘ओरिजिन ऑफ स्पीसीज’ (Origin of Species) किसके द्वारा लिखी गयी ?
(क) चार्ल्स डार्विन के
(ख) हरबर्ट स्पेन्सर के
(ग) कार्ल मॉनहीन के
(घ) जॉर्ज सिमैल के।

प्रश्न 2
खासी जनजातीय समाज किस प्रकार का कार्य करता है ?
(क) पौध-उत्पादक का
(ख) खेती का
(ग) पशुपालन का
(घ) कुटीर उद्योग का

प्रश्न 3
हिमाचल प्रदेश की किस जनजाति के पुरुष अपनी पत्नियों के वेश में रहते हैं ?
(क) संथाल के
(ख) थारू के
(ग) नागी के
(घ) कोटा के

प्रश्न 4
निम्नलिखित में कौन-सी जनजाति उत्तराखण्ड के गढ़वाल एवं कुमाऊँ क्षेत्र की है ?
(क) लुसाई
(ख) बिरहोर
(ग) भोटिया
(घ) गारो

प्रश्न 5
निम्नलिखित में कौन-सी जनजातीय समाज की एक विशेषता है ?
(क) जटिल सामाजिक सम्बन्ध
(ख) क्षेत्रीय समूह
(ग) औपचारिकता
(घ) व्यक्तिवादिता

प्रश्न 6
निम्नलिखित में से किसको भारतीय संविधान द्वारा एक जनजाति को अनुसूचित जनजाति के रूप में निर्दिष्ट करने का अधिकार है ?
(क) उस राज्य का राज्यपाल जहाँ जनजाति निवास करती है।
(ख) भारत का राष्ट्रपति
(ग) आयुक्त अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति
(घ) समाज कल्याण मन्त्रालय

प्रश्न 7
भारतीय संविधान की कौन-सी धारा किसी भी प्रकार की अस्पृश्यता पर रोक लगाती है ?
(क) धारा 17
(ख) धारा 22
(ग) धारा 45
(घ) धारा 216

प्रश्न 8
‘नागरिक अधिकार संरक्षण कानून’ किस वर्ष में लागू किया गया ?
(क) 1950 ई० में
(ख) 1956 ई० में
(ग) 1970 ई० में
(घ) 1986 ई० में

प्रश्न 9
लोकसभा के कुल 542 स्थानों में से कितने स्थान अनुसूचित जनजातियों के लिए सुरक्षित हैं ?
(क) 30 स्थान
(ग) 50 स्थान
(ख) 40 स्थान
(घ) 60 स्थान

प्रश्न 10
जनजातियों को ‘पिछड़े हिन्दू किसने कहा है ?
(क) जी० एस० घुरिए
(ख) एस० सी० दुबे
(ग) एस० सी० राय
(घ) जे० एच० हट्टन

प्रश्न 11
‘अस्पृश्य वे जातियाँ हैं जो अनेक सामाजिक और राजनीतिक निर्योग्यताओं की शिकार हैं। इसमें से अनेक निर्योग्यताएँ उच्च जातियों द्वारा परम्परात्मक तौर पर निर्धारित और सामाजिक तौर पर लागू की गई हैं।” यह परिभाषा किसने दी है ? [2011]
(क) जी० एस० घुरिये
(ख) डी० एन० मजूमदार
(ग) जे० एन० हट्टन
(घ) एम० एन० श्रीनिवासन

प्रश्न 12
ओ० बी० सी० का अर्थ है [2015]
(क) अन्य पिछड़ा वर्ग
(ख) अन्य पिछड़ी जातियाँ
(ग) सभी पिछड़ी जातियाँ
(घ) इनमें से कोई नहीं

उत्तर:
1. (क) चार्ल्स डार्विन के, 2. (क) पौध-उत्पादक का, 3. (ख) थारू के, 4. (ग) भोटिया, 5, (ख) क्षेत्रीय समूह, 6. (ख) भारत का राष्ट्रपति, 7. (क) धारा 178. (ख) 1956 ई० में, 9. (ख) 40 स्थान, 10. (क) जी० एस० घुरिये, 11. (ख) डी० एन० मजूमदार, 12. (क) अन्य पिछड़ा वर्ग। .

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UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 2 Nervous System

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 2 Nervous System (तन्त्रिका-तन्त्र या स्नायु-संस्थान) are part of UP Board Solutions for Class 12 Psychology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12  Psychology Chapter 2 Nervous System (तन्त्रिका-तन्त्र या स्नायु-संस्थान).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Psychology
Chapter Chapter 2
Chapter Name Nervous System
(तन्त्रिका-तन्त्र या स्नायु-संस्थान)
Number of Questions Solved 38
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 2 Nervous System (तन्त्रिका-तन्त्र या स्नायु-संस्थान)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
तन्त्रिका-तन्त्र अथवा स्नायु-संस्थान से आप क्या समझते हैं? केन्द्रीय स्नायु-संस्थान का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
केन्द्रीय स्नायु-संस्थान के भागों का उल्लेख कीजिए तथा मस्तिष्क की रचना एवं कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
मस्तिष्क की रचना व कार्य बताइए। (2012, 14, 17)
या
केन्द्रीय स्नायु-संस्थान की संरचना व कार्य बताइए। (2011, 13,15)
उत्तर

तन्त्रिका-तन्त्र अथवा स्नायु-संस्थान

प्राणियों के शरीर की रचना एवं कार्य-पद्धति अत्यधिक जटिल एवं बहुपक्षीय है। शरीर के विभिन्न कार्यों के सम्पादन के लिए भिन्न-भिन्न संस्थान हैं। शरीर के एक अति महत्त्वपूर्ण एवं जटिल संस्थान को स्नायु-संस्थान अथवा तन्त्रिका-तन्त्र (Nervous System) कहते हैं। शरीर के इस संस्थान का एक मुख्य कार्य है-व्यवहार का संचालन एवं परिचालन। शरीर का यही संस्थान वातावरण से मिलने वाली समस्त उत्तेजनाओं के प्रति समुचित प्रतिक्रियाएँ प्रकट करता है। स्नायु-संस्थान की रचना अत्यधिक जटिल है। इसका आकार एक व्यवस्थित जाल के समान होता है।

तथा इसकी इकाई को स्नायु या न्यूरॉन कहते हैं। स्नायु-संस्थान का मुख्य केन्द्र मस्तिष्क होता है। सम्पूर्ण स्नायु-संस्थान को तीन भागों में बाँटा जाता है

  1. केन्द्रीय स्नायु-संस्थान (Central Nervous System)
  2. स्वत:चालित स्नायु-संस्थान (Automatic Nervous System) तथा
  3. संयोजक स्नायु-संस्थान (Peripheral Nervous System)।
    केन्द्रीय स्नायु-संस्थान की रचना एवं कार्यों का विस्तृत विवरण निम्नलिखित है

केन्द्रीय स्नायु-संस्थान

केन्द्रीय स्नायु-संस्थान उच्च मानसिक क्रियाओं का केन्द्र है। यह मनुष्य की ऐच्छिक क्रियाओं का केन्द्र समझा जाता है तथा मनुष्य में पशुओं की अपेक्षा अधिक विकसित और जटिल पाया जाता है। इसी कारण से पशुओं से मनुष्यों की मानसिक क्रियाएँ उच्चस्तर की होती हैं। केन्द्रीय स्नायु-संस्थान को दो प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है—
(1) मस्तिष्क तथा
(2) सुषुम्ना नाड़ी।

(I) मस्तिष्क की संरचना एवं कार्य (Structure and work of Brain)

मनुष्य का मस्तिष्क; खोपड़ी के नीचे तथा सुषुम्ना के ऊपर अवस्थित एक कोमल और अखरोट की मेंगी से मिलती-जुलती रचना है। विकसित मानव का मस्तिष्क 3 पाउण्ड (लगभग 1.4 किलोग्राम) भार वाला दस खरब स्नायुकोशों से बना होता है। इसमें 50% भूरा पदार्थ (Grey Matter) तथा 50% सफेद पदार्थ (White Matter) मिलता है।

मस्तिष्क के भाग- मानव मस्तिष्क के चार भाग होते हैं—

  1. वृहद् मस्तिष्क
  2. लघु मस्तिष्क
  3. मध्य मस्तिष्क या मस्तिष्क शीर्ष एवं
  4. सेतु। इनका वर्णन निम्नवत् है

(1) वृहद् मस्तिष्क (Cerebrum)- यह मस्तिष्क का सबसे ऊँचा व सबसे बड़ा भाग होने के कारण ‘वृहद् मस्तिष्क’ कहलाता है। इस भाग पर सम्पूर्ण क्रियाओं के केन्द्र स्थित होते हैं। वृहद् मस्तिष्क का बाह्य भग भूरे रंग तथा आन्तरिक भाग श्वेत रंग के पदार्थ से निर्मित है। बाह्य भूरे रंग के पदार्थ ‘प्रान्तस्था (Cortex) में भूरे रंग के स्नायुकोशों के समूह उपस्थित हैं जो मस्तिष्क के बोध एवं कर्मक्षेत्र बनाते हैं। आन्तरिक श्वेत पदार्थ आन्तरिक भाग में स्थित श्वेत रंग के स्नायु-तन्तुओं के कारण श्वेत दिखाई पड़ता है। वृहद् मस्तिष्क एक दरार से दो गोलाद्ध (Hemispheres) में विभाजित होता है–दायाँ तथा बायाँ गोलार्द्ध। दोनों गोलाद्ध का परस्पर गहरा सम्बन्ध है।
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 2 Nervous System 1
दायाँ गोलार्द्ध शरीर के बाएँ भाग तथा बायाँ गोलार्द्ध शरीर के दाएँ भाग से सम्बन्धित होता है। वृहद् मस्तिष्क : खण्डे, दरारें एवं अधिष्ठान वृहद् मस्तिष्क के बाह्य भाग में सतह पर विद्यमान छोटी-छोटी सिकुड़नें दरारों के माध्यम से अलग की जाती हैं। यद्यपि ये दरारें आन्तरिक द्रव तक पहुँचती हैं तथापि इनसे मस्तिष्क विभक्त नहीं होता। वस्तुतः सतह के नीचे मस्तिष्क के विभिन्न भाग आपस में जुड़े रहते हैं। वृहद् मस्तिष्क में दो

बड़ी दरारें हैं। मध्य में स्थित केन्द्रीय दरार (Central Sulcus) या फिशर ऑफ रोलेण्डो (Fissure of Rolando) कहलाती है। लम्बाई में स्थित एक अन्य दरार लेटरल सलेकंस (Lateral Sulcus) या फिशर ऑफ सिल्वियस (Fissure of Silvious) कहलाती है। मस्तिष्क का यह भाग चार खण्डों में

बँटा होता है, जो निम्न प्रकार वर्णित है-

(1) अग्र खण्ड (Frontal lobe)- वृहद् मस्तिष्क के अग्र भाग में स्थित इस खण्ड में क्रियात्मक अधिष्ठान या क्षेत्र (Motor Areas) पाये जाते हैं। अग्र खण्ड चेष्टात्मक क्रियाओं को पूरा करने में सहायता करता है।

(2) मध्य खण्ड (Pariental lobe)- अग्र खण्ड के नीचे स्थित इस खण्ड में त्वचा तथा मांसपेशियों के अधिष्ठान या क्षेत्र (Somaesthetic Areas) मिलते हैं। यह खण्ड त्वचा एवं मांसपेशियों की संवेदनाओं के लिए उत्तरदायी है।

(3) पृष्ठ खण्ड (Occipital lobe)- मस्तिष्क के पिछले भाग में विद्यमान इस खण्ड में दृष्टि अधिष्ठान या क्षेत्र (Visual Areas) पाया जाता है, देखने की सम्पूर्ण क्रियाएँ इसी खण्ड के सहयोग से होती हैं।

(4) शंख खण्ड (Temporal lobe)- यह खण्ड मस्तिष्क के निचले भाग में है जिसके ऊपरी भाग में श्रवण अधिष्ठान या क्षेत्र (Auditory Areas) पाये जाते हैं। यहाँ से हमारी सुनने

की सभी क्रियाओं का संचालन होता है। उपर्युक्त अधिष्ठानों या कार्यात्मक क्षेत्रों के अतिरिक्त वृहद् मस्तिष्क में कुछ ऐसे भी क्षेत्र हैं। जिन पर आघात या चोट लगने से मस्तिष्क की क्रिया प्रभावित होती है। ये ‘साहचर्य क्षेत्र (Association Areas) हैं जो दो बड़े-बड़े भागों में बँटे हैं। ये क्षेत्र अगणित साहचर्य-सूत्रों से बने होते हैं। इन सूत्रों पर चोट लगने से मस्तिष्क में किसी-न-किसी संवेदना के क्षेत्र पर बुरा असर पड़ता है। उदाहरण के लिए-दृष्टि अधिष्ठान या क्षेत्र के नष्ट होने पर लिखी हुई भाषा को समझना सम्भव नहीं होता एवं कार्यकारी प्रान्तस्था के निकटस्थ क्षेत्र के नष्ट होने से व्यक्ति को सीखा हुआ ज्ञान विस्मृत हो जाता है।
इसी प्रकार मस्तिष्क के अग्र भागों पर अधिक आघात पहुँचने के परिणामस्वरूप बाल्यावस्था की घटनाएँ तो याद रह जाती हैं, जबकि हाल की घटनाएँ विस्मृत हो जाती हैं। |

(2) लघु मस्तिष्क (Cerebellum)- लघु मस्तिष्क; वृहद् मस्तिष्क के पिछले भाग के नीचे स्थित तथा दो भागों में विभाजित एक छोटे बल्ब या अण्डे जैसी संरचना है। अनेक स्नायु तन्तुओं द्वारा यह एक ओर तो सुषुम्ना शीर्ष से सम्बन्ध रखता है तथा दूसरी ओर सेतु के माध्यम से वृहद् मस्तिष्क से सम्बन्धित होता है। इसका मुख्य कार्य शारीरिक सन्तुलन में सहायता पहुँचाना तथा शारीरिक क्रियाओं के मध्य समन्वय स्थापित रखना है। यह शरीर की मांसपेशियों की क्रियाओं के मध्य सहयोग भी बनाये रखता है।

(3) मध्य मस्तिष्क या मस्तिष्क शीर्ष (Mid Brain or Medulla Oblongata)- सुषुम्ना के ऊपर स्थित तन्तुओं के इस पुंज को मस्तिष्क पुच्छ भी कहते हैं। यह कॉरपस कॉलोसम (Corpus Collosum) से शुरू होकर सुषुम्ना तक पहुँचता है तथा मस्तिष्क एवं सुषुम्ना में सम्बन्ध स्थापित करता है। सुषुम्ना से मस्तिष्क की ओर जाने वाली नाड़ियाँ इसी भाग से होकर गुजरती हैं। इसमें भूरा पदार्थ श्वेत पदार्थ के अन्दर स्थित होता है तथा स्नायु-तन्तु श्वेत पदार्थ से निकलकर भूरे पदार्थ में जाते हैं। यह भाग सुषुम्ना के साथ मिलकर स्नायु-संस्थान की धुरी (Axis of Nervous System) कहलाता है। इसका कार्य शरीर की प्राण-रक्षा सम्बन्धी समस्त क्रियाओं का संचालन तथा नियन्त्रण करना है; यथा—साँस लेना, रक्त-संचार, श्वसन, निगलना तथा पाचन आदि। शरीर सन्तुलन में सहायता देने के अतिरिक्त यह अपने क्षेत्र की सहज क्रियाओं पर भी नियन्त्रण रखता है। इसके समस्त कार्य अचेतन रूप से होते हैं।

(4) सेतु (Pons Varoli)– सुषुम्ना शीर्ष के ऊपर स्थित यह स्नायु सूत्रों का सेतु (पुल) है जो लघु मस्तिष्क के दोनों गोलार्द्धा को जोड़ता है। वृहद् मस्तिष्क से निकलने वाले स्नायु इसमें से होकर

गुजरते हैं। बाएँ तथा दाएँ गोलार्द्धा से जो स्नायु आते हैं, वे सेतु पर ही एक-दूसरे को पार करते हैं। बाएँ गोलार्द्ध से आने वाले स्नायु इस स्थान पर मार्ग बदलकर शरीर के दाएँ भाग में जाते हैं तथा दाएँ गोलार्द्ध के स्नायु मार्ग बदलकर यहीं से शरीर के बाएँ भाग की पेशियों में जाते हैं। इसी कारण से, शरीर के दाएँ या बाएँ भाग में जब भी कोई अव्यवस्था होती है तो इसका प्रभाव तत्काल ही विपरीत भाग पर पड़ता है। सेतु शरीर तथा वातावरण के बीच उचित सामंजस्य बनाने में भी सहायक सिद्ध होता है।

(II) सुषुम्ना नाड़ी (Spinal Cord)
सुषुम्ना नाड़ी मेरुदण्ड के मध्य में स्थित केन्द्रीय स्नायु-संस्थान का प्रमुख भाग है। यह मस्तिष्क से नीचे की तरफ कूल्हों तक फैली रहती है। विभिन्न नाड़ी तन्तुओं से बनी यह मुलायम मोटी रस्सी की। तरह गोल तथा लम्बी होती है। यही कारण है कि इसका एक नाम ‘मेरुरज्जु’ भी है। इसमें स्नायु तन्तुओं के लगभग 31 जोड़े सुषुम्ना के दोनों तरफ जुड़े रहते हैं तथा वहीं से निकलकर सारे शरीर में फैल जाते। हैं। सुषुम्ना में दो प्रकार की नाड़ियाँ हैं– प्रथम, संवेदना स्नायु जो संवेदना को संग्राहक से स्नायुकेन्द्र तक ले जाती है तथा द्वितीय, क्रियावाहक स्नायु जो स्नायुकेन्द्र से मांसपेशियों तक समाचार ले जाती है।

प्रश्न 2
स्वतःचालित स्नायुमण्डल क्या है? इसके मुख्य अंगों और उनके कार्यों का उदाहरण|सहित वर्णन कीजिए।
उत्तर

स्वतःचालित स्नायुमण्डल या स्वतन्त्र स्नायु-संस्थान

स्वत:चालित स्नायुमण्डल (संस्थान), जिसे स्वतन्त्र स्नायु-संस्थान भी कहते हैं, स्नायु-संस्थान । का द्वितीय महत्त्वपूर्ण भाग है। इसकी क्रियाओं पर केन्द्रीय स्नायु-संस्थान का नियन्त्रण नहीं होता। यह स्वतन्त्र रूप से कार्य करता है तथा इसके आंगिक भाग आत्म-नियन्त्रित होते हैं। वातावरण की ऐसी अनेक उत्तेजनाएँ होती हैं जिन पर तत्काल प्रतिक्रिया की आवश्यकता होती है। ऐसी उत्तेजनाओं के प्रति अनुक्रिया करने का आदेश यह स्नायुमण्डल स्वतः ही प्रदान कर देता है। दूसरे शब्दों में, स्वत:चालित स्नायुमण्डल के अन्तर्गत किये जाने वाले कार्य सुषुम्ना नाड़ी से संचालित होते हैं तथा उनमें वृहद् मस्तिष्क को कोई कार्य नहीं करना पड़ता है। इस मण्डल या संस्थान की क्रियाओं में पाचन-क्रिया, श्वसन-क्रिया, फेफड़ों का कार्य, हृदय का धड़कना तथा रक्त-संचार जैसी अनैच्छिक क्रियाएँ सम्मिलित हैं।

स्वतःचालित स्नायुमण्डल के भाग तथा कार्य 

स्वत:चालित स्नायुमण्डल को दो भागों में बाँटा गया है-
(1) अनुकम्पित स्नायुमण्डल तथा
(2) परा-अनुकम्पित स्नायुमण्डल।

(1) अनुकम्पित स्नायुमण्डल (Sympathetic Nervous System)- अनुकम्पित स्नायु-मण्डल का प्रमुख कार्य, सामान्य या शान्त अवस्था में, शरीर को खतरों से बचाने के लिए तैयार करना है। इसमें स्नायुकोश समूह या तो सुषुम्ना के अन्दर होता है या उन आन्तरिक अंगों के समीप होता है जिन्हें वे उत्तेजित करते हैं। यह स्नायुमण्डल शरीर को क्रियाशील बनाता है तथा संवेग की। अवस्था में अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। शरीर को खतरे का आभास होते ही यह सक्रिय होकर कुछ शारीरिक एवं आन्तरिक परिवर्तनों को जन्म देता है। खतरे की दशा में नेत्रों की पुतलियाँ फैल जाती हैं, मस्तिष्क तथा मांसपेशियों में रक्त-संचार तेज हो जाता है, रक्तचाप बढ़ जाता है, आमाशय में रक्त का संचार कम होने से पाचन-शक्ति कमजोर पड़ जाती है और भूख लगनी बन्द हो जाती है।

इसके अतिरिक्त कुछ संवेगों की अवस्था में हृदय की गति तेज हो जाती है, लार-ग्रन्थियों से लार का स्राव नहीं होता जिससे मुंह और गला सूख जाता है, साँस लेने की गति बढ़ जाती है तथा व्यक्ति हाँफने । लगता है। भय एवं क्रोध की संवेगावस्था में ये परिवर्तन देखने को मिलते हैं। निष्कर्षतः संवेगावस्था में अनुकम्पित स्नायुमण्डल की सक्रियता के कारण व्यक्ति अपने शरीर में अधिक बल एवं स्फूर्ति का अनुभव करता है और उसका शरीर भावी खतरे के लिए अपनी रक्षा हेतु तत्पर हो जाता है।
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(2) परा-अनुकम्पित स्नायुमण्डल (Para-Sympathetic Nervous System)- परा-अनुकम्पित स्नायुमण्ड़ल का मुख्य कार्य शारीरिक शक्ति को संचित रखना तथा शरीर को पुष्ट बनाना है। इसमें स्नायुकोश समूह सुषुम्ना के अन्दर न होकर बाहरी अंगों के पास स्थित होता है। इस मण्डल की सक्रियता के कारण हृदय की धड़कन कम हो जाती है, रक्तचाप घट जाता है, लार-ग्रन्थियों से अधिक लार निकलती है जिससे भोजन का पाचन शीघ्रता से होता है तथा नेत्रों की पुतलियाँ कम फैलती हैं या सिकुड़ जाती हैं। इसके अतिरिक्त शरीर से मल-मूत्र तथा अन्य उत्सर्जी पदार्थ बाहर निकलते रहते हैं और गुर्दे, आँतें एवं आमाशय स्वस्थ रहते हैं।

विद्वानों का मत है कि अनुकम्पित और परा-अनुकम्पित स्नायुमण्डल एक-दूसरे के परस्पर विरोधी कार्य करते हैं, किन्तु खोजों से पता चला है कि ये दोनों मण्डल एक-दूसरे के कार्य को प्रभावित करते हैं तथा परस्पर समन्वय और सहयोग के साथ काम करते हैं। इसका उदाहरण यह है। कि अनुकम्पित भाग की क्रियाशीलता के कारण हृदय की गति बढ़ जाने की अवस्था में परा-अनुकम्पित भाग ही हृदय की गति को सामान्य करता है। जैसा कि मॉर्गन नामक मनोवैज्ञानिक का कथन है, “ये दोनों संस्थान कभी एक-दूसरे से स्वतन्त्र होकर कार्य नहीं करते, बल्कि परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न मात्राओं में सहयोग से काम करते हैं।” यह दोनों संस्थानों का सहयोग ही है कि मानव-शरीर काम और आराम की दो विपरीत परिस्थितियों में भी सन्तुलन बना लेता है। इस तरह के सन्तुलन को स्वायत्त सन्तुलन (Automatic Balance) कहा जाता है।

प्रश्न 3
संयोजक स्नायुमण्डल का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए। संयोजक स्नायुमण्डल की नाड़ियों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर

संयोजक स्नायुमण्डल

संयोजक स्नायुमण्डल; स्नायु संस्थान का तीसरा भाग है और संयोजन का कार्य करता है। संयोजक के रूप में यह मानव मस्तिष्क से शरीर के बाह्य तथा आन्तरिक भागों का सम्पर्क स्थापित करता है। वस्तुतः संयोजक स्नायुमण्डल दो प्रकार से सम्बन्ध स्थापित करता है—
(1) यह मस्तिष्क को ज्ञानेन्द्रियों से सम्बद्ध करता है तथा
(2) ग्रन्थियों को मांसपेशियों से सम्बद्ध करता है। इसके साथ ही इसकी भूमिका सन्देशवाहक के समान भी समझी जाती है; क्योंकि यह संग्राहकों से प्राप्त सन्देशों को केन्द्रीय स्नायुमण्डल तक पहुँचाता है और यहाँ से प्राप्त आदेशों को प्रभावकों तक पहुँचाता है। इस भूमिका के कारण ही इसे संयोजक स्नायुमण्डल (Peripheral Nervous System) कहा जाता है।

संयोजक स्नायुमण्डल के बिना केन्द्रीय स्नायुमण्डल कोई कार्य नहीं कर सकता। कार्य-संचालन के लिए यह शरीर के बाह्य त्वचीय भाग एवं शरीर के आन्तरिक भाग वे मस्तिष्क केन्द्रों के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है।

संयोजक स्नायुमण्डल की नाड़ियाँ

संयोजक स्नायुमण्डल की नाड़ियाँ मस्तिष्क एवं सुषुम्ना से चलकर शरीर के बाहरी भाग पर आकर रुक जाती हैं। इन नाड़ियों के कुल 43 जोड़े होते हैं जो कपाल तथा सुषुम्ना से सम्बन्ध रखते हैं। इस भाँति ये दो प्रकार की नाड़ियाँ निम्नलिखित हैं

(1) कापालिक नाड़ियाँ (Cranial Nerves)– कापालिक नाड़ियों के 12 जोड़े होते हैं जो मस्तिष्क से प्रारम्भ होते हैं। कापालिक नाड़ियाँ सिर व गर्दन के अधिकांश भाग में फैली रहती हैं या तो ये कार्यवाही होती हैं या ज्ञानवाही या कुछ मिश्रित होती हैं। इनमें दृष्टि, श्रवण, स्वाद व सुगन्ध की नाड़ियाँ शामिल रहती हैं।

(2) सुषुम्ना नाड़ियाँ (Spinal Nerves)- 31 जोड़े सुषुम्ना नाड़ियों के सुषुम्ना से प्रारम्भ होते हैं, जो रीढ़ की पेशियों तथा शरीर के विभिन्न अंगों में फैल जाते हैं। ये नाड़ियाँ त्वचा व कर्मवर्ती मांसपेशियों, अस्थियों तथा जोड़ों को उत्तेजित करती हैं।

संयोजक स्नायु-संस्थान में संचालक तथा सांवेदनिक नाड़ियाँ भी पायी जाती हैं। ये निम्न प्रकार हैं

  • संचालक नाड़ियाँ (Motor Nerves)—ये नाड़ियाँ मस्तिष्क से बाहर की ओर लौटती हैं। और इसी कारण ये बहिर्गामी नाड़ियाँ (Outgoing Nerves) कहलाती हैं। इनके स्नायु तन्तुओं की लम्बाई सांवेदनिक नाड़ियों के तन्तुओं से काफी कम होती है। ये संख्या में भी कम होते हैं। ये नाड़ियाँ मस्तिष्क तथा सुषुम्ना से आदेश प्राप्त करती हैं।
  • सांवेदनिक नाड़ियाँ (Sensory Nerves)-सांवेदनिक नाड़ियों को अन्तर्गामी नाड़ियाँ भी कहा जाता है। ये नाड़ियाँ वातावरण से ज्ञानात्मक उत्तेजनाओं को लेकर मस्तिष्क की ओर जाती हैं। इन नाड़ियों के तन्तु प्रत्येक संग्राहक में पाये जाते हैं जो प्रत्येक केन्द्र तक जाते हैं। इन स्नायु तन्तुओं की लम्बाई काफी होती है और ये बारीक भी होते हैं। कुछ तन्तु इतने बारीक और कई फीट लम्बे होते हैं। कि इन्हें नंगी आँखों से देखा ही नहीं जा सकता।

उपर्युक्त संरचनाओं की मदद से संयोजक स्नायुमण्डल एक ओर तो शरीर की ज्ञानेन्द्रियों से सन्देश ग्रहण कर उसे केन्द्रीय स्नायु-संस्थान तक पहुँचाता है तथा दूसरी ओर केन्द्रीय स्नायु-संस्थान से प्राप्त आदेशों को प्रभावकों तक प्रेषित करता है।

प्रश्न 4
नलिकाविहीन अथवा अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के नाम और कार्यों का वर्णन कीजिए। या नलिकाविहीन ग्रन्थियों की रचना एवं कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
मनुष्य के पूरे शरीर में भिन्न-भिन्न स्थानों पर कोशाओं की विशिष्ट संरचनाएँ पायी जाती हैं। जिनका प्रमुख कार्य अनेक प्रकार के रासायनिक रसों का स्राव करना है। ग्रन्थियों की क्रिया के कारण उत्पन्न रस-स्राव हमारे व्यवहार में अनेकानेक परिवर्तनों को जन्म देता है। यही कारण है कि ग्रन्थियों को प्रभावक अंग (Effectors) के अन्तर्गत अध्ययन किया जाता है। ग्रन्थियाँ दो प्रकार की होती हैं

  1. प्रणालीयुक्त या बहिःस्रावी ग्रन्थियाँ (Extero or Duct Glands) तथा ।
  2. नलिकाविहीन या अन्त:स्रावी ग्रन्थियाँ (Ductless or Endocrine Glands)।

नलिकाविहीन या अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ अन्त:स्रावी ग्रन्थियाँ अनेक ऐसी ग्रन्थियों का समूह है जिनके द्वारा न केवल हमारे शरीर की बहुत-सी आवश्यकताएँ पूरी होती हैं, अपितु ये हमारे व्यवहारों पर भी गहरा प्रभाव डालती हैं। इनमें किसी प्रकार की नलिका नहीं पायी जाती, इसलिए ये नलिकाविहीन कहलाती हैं। इन ग्रन्थियों द्वारा उत्पन्न रासायनिक रस-स्राव सीधे रक्त की धारा में मिश्रित हो जाता है। यह मिश्रण एक निश्चित आनुपातिक ढंग से होता है। रासायनिक रस-स्राव को हॉर्मोन्स (Hormones) कहते हैं, क्योंकि नलिकाविहीन ग्रन्थियाँ संवेगों के अभिप्रकाशन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं; अत: इन्हें ‘संवेगात्मक या व्यक्तित्व ग्रन्थियों के नाम से भी जाना जाता है।

नलिकाविहीन ग्रन्थियों के प्रकार- मनुष्य के शरीर में कई प्रकार की नलिकाविहीन ग्रन्थियाँ भिन्न-भिन्न स्थानों पर अवस्थित हैं। नाम तथा स्थान आदि के साथ उनका संक्षिप्त परिचय । निम्नलिखित है

(1) शीर्ष ग्रन्थि (Pineal Gland)- शीर्ष या पाइनियल ग्रन्थि मस्तिष्क के मध्य भाग में स्थित लाल-भूरे रंग की एक छोटी-सी ग्रन्थि है। यद्यपि शरीर-शास्त्रियों तथा मनोवैज्ञानिकों को अभी तक यह ज्ञात नहीं है कि शरीर को संचालित करने तथा आन्तरिक क्रियाओं को नियन्त्रित करने के लिए यह ग्रन्थि किस भाँति कार्य करती है तथापि अनुमान है कि यह शारीरिक तथा लैंगिक विकास में अपने स्राव द्वारा योग प्रदान करती है। नारी की पतली-मधुर आवाज तथा पुरुष की आवाज का भारीपन, नारी के अंगों की सुडौलता तथा पुरुष के शरीर पर बालों का आधिक्य शीर्ष ग्रन्थि के रासायनिक स्राव का परिणाम है। |

(2) पीयूष ग्रन्थि (Pituitary Gland)- खोपड़ी के आधार पर स्थित छोटे आकार वाली अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पीयूष ग्रन्थि को ‘मास्टर ग्रन्थि (Master Gland) कहा जाता है। इसके दो भाग हैं-

  • अग्र खण्ड तथा
  • पश्च खण्ड। अग्र खण्ड अपेक्षाकृत बड़ा होता है तथा शरीर की वृद्धि को प्रभावित करता है। इस भाग के रस-प्रवाह की अधिकता से व्यक्ति की लम्बाई बढ़ जाती है तथा कमी से व्यक्ति बौना रह जाता है। पश्च खण्ड का सम्बन्ध रासायनिक क्रियाओं से होता है। यह भाग रक्तचाप एवं भूख के बढ़ने-घटने से सम्बन्धित है और गर्भाशय-मूत्राशय तथा पित्ताशय की मांसपेशियों को प्रभावित करता है। इस ग्रन्थि का रस-स्राव अन्य ग्रन्थियों के रसों में उचित अनुपात पैदा करता है। जिससे शरीर में एक रासायनिक आनुपातिक योग्यता’ का निर्माण होता है।

(3) गल ग्रन्थि (Thyroid Gland)– गल (थायरॉइड) ग्रन्थि गले के अग्र भाग में दोनों ओर स्थित होती है। यह थाइरॉक्सिन नामक महत्त्वपूर्ण रस उत्पन्न करती है जो मानव के व्यवहार को एक बड़ी सीमा तक प्रभावित करता है। इस ग्रन्थि का बुद्धि और व्यक्तित्व से गहरा सम्बन्ध है। बाल्यावस्था में यह ग्रन्थि यदि उचित रूप से क्रियाशील न हो पाये और शरीर का उचित विकास भी न हो सके तो बालक का शरीर दुर्बल तथा बुद्धि मन्द हो जाती है। थायरॉइड ग्रन्थि के स्राव की मात्रा अधिक हो जाने पर व्यक्ति का स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है, उसे गर्मी अधिक लगती है तथा वह बेचैनी का अनुभव करता है। ऐसी व्यक्ति पर्याप्त भोजन करके भी कमजोर बना रहता है। शरीर की आन्तरिक क्रियाओं में तेजी आने पर भी भार में कमी आ जाती है।

इसके विपरीत इस ग्रन्थि के स्राव के अभाव में व्यक्ति सुस्ती व आलस्य का । अनुभव करता है तथा उसके शरीर का तापमान गिर जाता है। वह हर समय ऊँघता रहता है। ग्रन्थि रस के कम होने पर बालक को चलना-फिरना, बोलना तथा अन्य अच्छी बातें सिखाना कठिन होता है। एक ओर जहाँ क्रोध या भय की अवस्था में यह ग्रन्थि ठीक प्रकार से कार्य नहीं करती तथा स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है, वहीं दूसरी ओर प्रेम तथा उत्साह की अवस्था में शरीर में इस रस की अभिवृद्धि होती है, रोगों का विनाश होता है और शरीर को शीघ्रता से विकास होता है।
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(4) उपगल ग्रन्थि (Para Thyroid Gland)- गल (थायरॉइड) ग्रन्थि के समीप ही उसके पृष्ठ भाग के दोनों तरफ चार उपगल (पैरा-थायरॉइड) ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं। संरचना तथा कार्य की दृष्टि से ये ग्रन्थियाँ गल ग्रन्थि से सर्वथा भिन्न हैं। इन ग्रन्थियों से होने वाले रासायनिक स्राव से शरीर शक्तिशाली बनता है, किन्तु स्राव का अभाव मांसपेशियों में ऐंठन तथा मरोड़ पैदा करता है। इसके अतिरिक्त ये ग्रन्थियाँ रक्त में चूने (कैल्सियम) की मात्रा को भी नियन्त्रित करती हैं जिससे हड्डियाँ सबल तथा पुष्ट बनती हैं। स्राव का आधिक्य रक्त में चूने की मात्रा को कम करता है जिससे हड्डियाँ क्षीण होने लगती हैं और स्नायु-संस्थान पर बुरा असर पड़ता है। |

(5) थाइमस ग्रन्थि (Thymus Gland)– मानव-शरीर में थाइमस ग्रन्थि की स्थिति हृदय के ऊपर तथा सीने व फेफड़ों के मध्य होती है। इसके कार्य तथा प्रयोजन के विषय में विद्वान् अभी तक एकमत नहीं हो पाये हैं, तथापि समझा जाता है कि इस ग्रन्थि की लैंगिक विकास एवं उत्पत्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यह काम-इच्छा को भी प्रभावित करती है। इसका विकास बालक की दो वर्ष की आयु तक हो जाता है। जब तक बालक युवावस्था को प्राप्त नहीं होता है तब तक यह ग्रन्थि अपना कार्य सुचारु रूप से करती है। किन्तु युवावस्था आते ही यह अपना कार्य बन्द कर देती है और लुप्त हो जाती है। |

(6) अधिवृक्क ग्रन्थियाँ (Adrenal Glands)- अधिवृक्क (एड्रीनल) ग्रन्थियाँ छोटी और पीलापन लिये हुए दो छोटे त्रिकोण में प्रत्येक वृक्क के समीप अवस्थित हैं। इनसे प्रवाहित स्राव का शरीर और उसके व्यवहारों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इस ग्रन्थि के दो भाग हैं–

  • कॉर्टेक्स (Cortex) तथा
  • मेड्यूला (Medulla) जो संरचना एवं कार्य की दृष्टि से भिन्न होते हैं। कॉर्टेक्स बाहरी भाग है। यह यौन-क्रियाओं से विशिष्ट रूप में सम्बन्धित है। इसकी आवश्यकता से अधिक वृद्धि बालक को अवस्था से पूर्व ही असाधारण रूप से शक्तिशाली तथा यौन व्यवहारों में परिपक्व बना देती है। महिलाओं में इसका आधिक्य पुरुषोचित लक्षणों को जन्म देता है। ऐसी महिलाओं में असामान्य लक्षण; जैसे-अल्पायु में यौन व्यवहारों के लिए परिपक्वता आ जाना, चेहरे परे बाल उगना तथा

पुरुषों के समान भारी आवाज, अंगों की गोलाई का समाप्त होना आदि प्रकट होते हैं। मेड्यूला आन्तरिक भाग है जिससे एड्रीनेलिन (Adrenaline) नामक महत्त्वपूर्ण स्राव की उत्पत्ति होती है। यह वह शक्तिशाली रासायनिक स्राव है जो संवेगों की अवस्था में हमारे रक्त में मिश्रित होकर, हमें शक्ति प्रदान करता है। हृदय को उत्तेजित करने के अतिरिक्त अधिक पसीना आना, नेत्रों की पुतली का फैलना, उच्च रक्तचाप, पेशियों में देर तक थकान न होना आदि संकेत भी अधिवृक्क ग्रन्थि के इसी भाग के परिणाम हैं।

(7) जनन ग्रन्थियाँ (Gonads)- जनन ग्रन्थियाँ आंशिक रूप से नलिकासहित तथा नलिकाविहीन ग्रन्थियाँ हैं। इन ग्रन्थियों की सहायता से पुरुष व स्त्री का भेद स्पष्ट होता है। अतः इन्हें लैगिक ग्रन्थियाँ प्रजनन ग्रन्थियाँ भी कहते हैं। पुरुष की प्रजनन ग्रन्थियाँ ‘अण्डकोश (Male Testes) हैं जिनमें शुक्रकीट (Spermatozoa) उत्पन्न होते हैं तथा स्त्रियों की प्रजनन ग्रन्थियाँ ‘डिम्ब ग्रन्थि’ (Female Ovary) हैं जिनमें रज-कीट (Ovum) उत्पन्न होते हैं। शारीरिक उत्पत्ति एवं व्यक्तित्व-विकास की दृष्टि से ये ग्रन्थियाँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। जनन ग्रन्थियों द्वारा आन्तरिक हॉर्मोन्स का स्राव भी होता है जिनके प्रभाव से पुरुष व स्त्री में यौन प्रौढ़ता की अवधि में सम्बन्धित जननेन्द्रियों का विकास होता है।

यद्यपि ये हॉर्मोन्स शरीर में बालपन से ही मौजूद होते हैं तथापि किशोर अवस्था में विशेष रूप से वृद्धि करते हैं। पुरुषों का भारी स्वर तथा दाढ़ी-मूंछ के बाल और स्त्रियों में मासिक धर्म, स्तनों का विकास तथा गर्भाधान आदि जनन ग्रन्थियों की क्रियाशीलता के कारण होते हैं। इन ग्रन्थियों का अभावं मनुष्य में यौन-चिह्नों को विकसित नहीं होने देता जिसके परिणामस्वरूप नपुंसकता के लक्षण प्रकट होने लगते हैं।

प्रमुख तलिकाविहीन या अन्त:स्रावी ग्रन्थियों के विषय में जानकारी प्राप्त करने के उपरान्त यह निष्कर्ष निकलता है कि अनुक्रिया प्रक्रम में इन ग्रन्थियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ये ग्रन्थियाँ व्यक्तित्व तथा मानव-व्यबहार पर प्रभाव को स्पष्ट करती हैं। यदि एक ओर पीयूष ग्रन्थि, गल ग्रन्थि, पाइनियल ग्रन्थि तथा जननं ग्रन्थियों का स्राव शारीरिक वृद्धि के विकास पर प्रभाव रखता है तो दूसरी ओर, इन्सुलिन की उत्पत्ति करने वाले कोश ‘लैंगरहेन्स के आइलेट्स (Islets of Langerhans) तथा एड्रीनल आदि ग्रन्थियाँ शरीर की बनावट तथा भोजन के प्रयोग पर पर्याप्त प्रभाव डालती हैं।

प्रश्न 5
सहज या प्रतिक्षेप क्रियाओं से आप क्या समझते हैं? सहज क्रियाओं की विशेषताओं तथा महत्त्व या उपयोगिता का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर
सहज या प्रतिक्षेप क्रियाओं का अर्थ एवं परिभाषा अर्थ–सहज यो प्रतिक्षेप क्रियाएँ (Reflex Actions) अनर्जित तथा अनसीखी क्रियाएँ हैं। जो स्वत: एवं शीघ्रतापूर्वक घटित होती हैं। ये ऐसी जन्मजात क्रियाएँ हैं जिनमें व्यक्ति की इच्छा के लिए कोई स्थान नहीं होता और न ही उनके घटित होने की अधिक चेतना ही होती है। किसी उद्दीपक से उत्तेजना मिलते ही उसके परिणामस्वरूप तत्काल प्रतिक्रिया हो जाती है; जैसे—आँखों की पलकों का झपकना, प्रकाश पड़ते ही आँख की पुतली का सिकुड़ना, छींक आना, लार बहना, खाँसना तथा अश्रुपात आदि। इस प्रतिक्रिया में मस्तिष्क की कोई भूमिका नहीं होती।

सहज या प्रतिक्षेप क्रियाएँ बाह्य एवं आन्तरिक दोनों प्रकार की उत्तेजनाओं से होती हैं। यहाँ उद्दीपक अनजाने में मिलता है तथा उद्दीपक मिलते ही अविलम्ब प्रतिक्रिया सम्पन्न हो जाती है। पैर में काँटा चुभते ही तुरन्त पैर खिंच जाता है. और आँख के पास कोई वस्तु आने पर आँख झपक जाती है। इस प्रकार की अनुक्रियाओं की गति इतनी तेज होती है कि इनमें न के बराबर समय लगता है। यदि लटकी हुई टॉग पर घुटने के नीचे काँटा चुभा दिया जाए तो टाँग खिंचने में केवल 0.3 सेकण्ड को समय काफी है। किन्तु कुछ अनुक्रियाओं में अपेक्षाकृत अधिक समय भी लगता है; जैसे—प्रकाश पड़ने पर आँख की पुतली का सिकुड़ना, स्वादिष्ट व्यंजन देखकर मुँह में लार आना तथा गर्म वस्तु छूने पर हाथ खींच लेना आदि। सहज या प्रतिक्षेप क्रियाएँ बालक के जन्म से पूर्व गर्भावस्था के पाँचवे-छठे मास में ही प्रारम्भ हो जाती हैं।

परिभाषा- सहज अथवा प्रतिक्षेप क्रियाओं को निम्न प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है

वुडवर्थ के अनुसार, “सहज (प्रतिक्षेप) क्रिया एक अनैच्छिक और बिना सीखी हुई क्रिया है जो किसी ज्ञानवाही उद्दीपक की मांसपेशीय अथवा ग्रन्थीय प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न होती है।”

आइजैक के अनुसार, “प्रतिवर्ती क्रिया से अभिप्राय प्राणी की अनैच्छिक एवं स्वचालित अनुक्रियाओं से है जो वह वातावरण के परिवर्तनों के फलस्वरूप उत्पन्न हुए उद्दीपकों के प्रति करता है। ये अनुक्रियाएँ प्राय: गत्यात्मक अंगों से सम्बंधित होती हैं तथा इनके फलस्वरूप मांसपेशी, पैर एवं हाथों में सहज गति का आभास होता है।”
आर्मस्ट्रांग एवं जैक्सन के अनुसार, “प्रतिवर्ती क्रियाएँ हमारी चेतनात्मक इच्छाओं के द्वारा उत्पन्न नहीं होतीं, परन्तु वातावरण में उत्पन्न हुई उत्तेजनाओं का परिणाम होती हैं।”

सहज (प्रतिक्षेप) क्रियाओं की विशेषताएँ

सहज (प्रतिक्षेप) क्रियाओं की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. सहज क्रियाएँ जन्मजात हैं तथा गर्भावस्था से ही इनकी शुरुआत मानी जाती है। जन्म के तुरन्त बाद से ही बालक इन्हें प्रकट करना शुरू कर देता है।
  2. ये क्रियाएँ स्नायु रचना पर आधारित तथा अनसीखी क्रियाएँ हैं। |
  3. इन्हें अचेतन मन से तुरन्त सम्पन्न होने वाली क्रियाएँ कहा जाता है जिनमें चेतन मानसिक क्रियाओं को सम्मिलित नहीं किया जाता।
  4. सहज क्रियाएँ केन्द्रीय स्नायुमण्डल के नियन्त्रण से मुक्त होती हैं; जैसे छींक आने पर उसे नियन्त्रित नहीं किया जा सकता।
  5. ये अनैच्छिक तथा अचानक उत्पन्न होने वाली क्रियाएँ हैं।।
  6. इनमें अधिक समय नहीं लगता और अल्पकाल में ही पूर्ण होकर ये समाप्त भी हो जाती हैं।
  7. ये स्थानीय हैं जिन्हें करने में शरीर का एक भाग ही क्रियाशील रहता है।
  8. इन क्रियाओं की प्रबलता उद्दीपक की प्रबलता पर निर्भर होती है।
  9. इनसे शरीर को कोई क्षति नहीं होती, क्योंकि इनके करने या मानने का उद्देश्य व्यक्ति की रक्षा है।
  10. बार-बार दोहराने पर भी व्यक्ति सहज क्रियाओं में कोई सुधार नहीं ला पाता। पलक झपकने या छींकने की क्रिया बार-बार दोहराई जाती है, तथापि उसमें कोई सुधार या परिवर्तन सम्भव नहीं होता।

जीवन में सहज (प्रतिक्षेप) क्रियाओं की उपयोगिता या महत्त्व

सहज (प्रतिक्षेप) क्रियाएँ न केवल अनियन्त्रित, अनैच्छिक, अनर्जित तथा प्रकृतिजन्य हैं; अपितु जैविक दृष्टि से भी उपयोगी हैं। इन्हें सीखना नहीं पड़ता; इनकी क्षमता तो मनुष्य में जन्म से ही होती है। मानव-जीवन में इनका उपयोग निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत व्यक्त किया जा सकता है।

(1) आकस्मिक घटनाओं से रक्षा- सहज (प्रतिक्षेपी) क्रियाएँ अकस्मात् घटने वाली घटनाओं से मनुष्य की रक्षा करती हैं। ये शरीर को बाह्य खतरों तथा आक्रमणों के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करती हैं। आँख के निकट जब कोई वस्तु आती है, पलकें तत्काल ही झपक जाती हैं।

(2) स्वेच्छा से कार्य सम्पन्न– सहज (प्रतिक्षेप) क्रियाएँ अनैच्छिक होती हैं। इनके माध्यम से बहुत-से कार्य स्वतः ही सम्पन्न हो जाते हैं जिससे आवश्यकतानुसार शरीर को सहायता प्राप्त होती है। उदाहरण के लिए भोजन जब आमाशय में पहुँचता है, स्वत: ही स्राव निकलते हैं जो भोजन के पाचन में सहायता देते हैं।

(3) गतिशीलता- ये क्रियाएँ अचानक ही प्रकट होती हैं तथा कार्य की पूर्णता के साथ ही समाप्त भी हो जाती हैं। ऐच्छिक क्रियाओं की अपेक्षा इनमें गतिशीलता बहुत अधिक पाई जाती है।

(4) वातावरण से अनुकूलन- सहज (प्रतिक्षेप) क्रियाएँ मनुष्य का उसके वातावरण से अनुकूलन करने में सहायक सिद्ध होती हैं। प्रायः देखा जाता है कि वातावरण में ताप वृद्धि से पसीने की ग्रन्थियाँ पसीना निकालकर शरीर को शीतलता प्रदान करती हैं। परिणामस्वरूप शरीर का तापक्रम कम हो जाता है।

(5) समय एवं आवश्यकतानुसार सहायक- ये क्रियाएँ मनुष्य की उसके जीवनकाल में उचित समय पर तथा आवश्यकतानुसार सहायता करती हैं। मानव-जीवन के विलास-क्रम में विभिन्न सोपानों पर इन क्रियाओं की परिपक्वता स्वाभाविक दृष्टि से सहायता देती है। खाँसने की सहज क्रिया जन्म के कुछ समय उपरान्त लेकिन काम सम्बन्धी सहज क्रिया किशोरावस्था में प्रकट होती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1
टिप्पणी लिखिए-स्नायु-संस्थान या तन्त्रिका-तन्त्र।
उत्तर
स्नायु संस्थान (तन्त्रिका तन्त्र) स्नायुओं का एक समूह है। यह एक ऐसी नियन्त्रण पद्धति है। जिसका शरीर के विभिन्न अंगों के व्यवहारों तथा क्रियाओं पर नियन्त्रण होता है। स्नायु-संस्थान वातावरण से मिलने वाली उत्तेजनाओं के प्रति समुचित प्रतिक्रियाएँ करने का कार्य करता है। वस्तुतः इसकी जटिल संरचना एवं कार्यविधि आधुनिक एवं स्वचालित दूरभाष केन्द्र (Telephone Exchange) से मिलती-जुलती है। जिस प्रकार सन्देश लाने-ले जाने का काम ‘टेलीफोन के तार करते हैं, उसी प्रकार का काम नाड़ी फाइबर करते हैं। मस्तिष्क एवं सुषुम्ना नाड़ी केन्द्रीय एक्सचेंज’ तथा तन्तुओं तक पहुंचने वाले स्नायुओं के किनारे रिसीवर’ हैं। स्नायु संस्थान को निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है-

व्यवहारों के शारीरिक आधार (अर्थात् अनुक्रिया प्रक्रम) की व्याख्या प्रस्तुत करने के लिए स्नायु-संस्थान के निम्नलिखित भागों का अध्ययन आवश्यक है-

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    1. केंद्रीय स्नायु-संस्थान (Central Nervous System)
    2. स्वत:चालित स्नायु-संस्थान (Automatic Nervous System) तथा

प्रश्न 2
सुषुम्ना के कार्य बताइए। (2009, 14, 18)
उत्तर
केन्द्रीय स्नायु-संस्थान के एक भाग के रूप में सुषुम्ना (Spinal Cord) के मुख्य कार्यों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है
1. प्रतिक्षेप क्रियाओं का संचालन– सुषुम्ना का एक मुख्य कार्य प्रतिक्षेप अथवा सहज क्रियाओं को संचालन करना है। प्रतिक्षेप क्रियाओं से आशय उन क्रियाओं से है जो मस्तिष्क एवं विचार शक्ति से परिचालित नहीं होतीं तथा इन्हें सीखने की भी आवश्यकता नहीं होती है; जैसे-पलकों का झपकना, काँटा चुभते ही हाथ को खींच लेना, प्रकाश पड़ते ही आँख की पुतली का सिकुड़ना आदि। ये सभी क्रियाएँ जीवन के लिए विशेष उपयोगी होती हैं तथा इनका संचालन सुषुम्ना द्वारा ही किया जाता है।

2. बाहरी उत्तेजनाओं की जानकारी मस्तिष्क को देना– सुषुम्ना नाड़ी का एक उल्लेखनीय कार्य पर्यावरण से प्राप्त होने वाली उत्तेजनाओं की जानकारी मस्तिष्क को प्रदान करना है।

(3) मस्तिष्क द्वारा दिये गये निर्देशों का पालन- सुषुम्ना द्वारा जहाँ एक ओर बाहरी उत्तेजनाओं की सूचना मस्तिष्क को दी जाती है, वहीं दूसरी ओर सुषुम्ना ही मस्तिष्क द्वारा ग्रहण की गयी उत्तेजनाओं को कार्य रूप में परिणत करने का कार्य भी करती है।

(4) सुषुम्ना के नियन्त्रक कार्य- सुषुम्ना एक नियन्त्रक के रूप में भी कुछ कार्य करती है। पर्यावरण से प्राप्त होने वाली कुछ उत्तेजनाओं को सुषुम्ना मस्तिष्क तक पहुँचने ही नहीं देती तथा स्वयं ही उन उत्तेजनाओं के प्रति तुरन्त आवश्यक प्रतिक्रिया कर देती है।

प्रश्न 3
स्वतःचालित स्नायुमण्डल की रचना स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
स्नायु तन्त्र के एक महत्त्वपूर्ण भाग को स्वतःचालित स्नायुमण्डल या स्वतन्त्र स्नायु-संस्थान (Automatic Nervous System) कहते हैं। इसकी रचना को दो भागों में बाँटकर स्पष्ट किया जा सकता है। प्रथम भाग को बायाँ पक्ष कहते हैं। स्वत:चालित स्नायुमण्डल की रचना के बाएँ पक्ष के तीन भाग हैं–
(1) कापालिक
(2) माध्यमिक स्नायु तन्त्र तथा
(3) अनुतन्त्रिका। सबसे ऊपर के सिरे पर कापालिक है जिससे सम्बन्धित स्नायुओं को कापालिक स्नायु कहते हैं। इसके नीचे सुषुम्ना है और उससे सम्बन्धित स्नायुओं को सुषुम्ना स्नायु कहते हैं। सुषुम्ना वाला भाग माध्यमिक स्नायु तन्त्र (Thoraco Lumber) कहलाता है, क्योंकि इस भाग के स्नायु सुषुम्ना से चलकर थोरेक्स तक पहुँचते हैं। तीसरा भाग अनुतन्त्रिका कहलाता है। यह सुषुम्ना को अन्तिम भाग है। स्वत:चालित स्नायुमण्डल के दाएँ पक्ष से निकलने वाले स्नायु तथा स्नायुकोश-समूह शरीर के विभिन्न भागों से सम्बन्ध रखते हैं। ये स्नायु नेत्र, हृदय, फेफड़े, यकृत, आमाशय, क्लोम, आँत, वृक्के, पसीने की ग्रन्थियों तथा जननेन्द्रियों तक फैले होते हैं।

प्रश्न 4
प्रतिक्षेप चाप के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर
प्रतिक्षेप चाप का सम्बन्ध प्रतिक्षेप अथवा सहज क्रियाओं से है। प्रतिक्षेप चाप (Reflex Arc) एंक़ मार्ग है जिसका उन ज्ञानवाही तथा कर्मवाही स्नायुओं द्वारा अनुसरण किया जाता है। जो सहज (प्रतिक्षेप) क्रियाओं के सम्पन्न होने में भाग लेते हैं।

वुडवर्थ ने उचित ही कहा है- “वह मार्ग जो एक ज्ञानेन्द्रिय से प्रारम्भ होकर स्नायु केन्द्र से होते हुए एक मांसपेशी तक पहुँचता है, प्रतिक्षेप चाप कहलाता है।”

वस्तुतः सहज (प्रतिक्षेप) क्रिया के होने से मस्तिष्क के उच्च केन्द्रों तक ज्ञानवाही स्नायुओं को सूचना ले जाने की आवश्यकता नहीं होती और सुषुम्ना या मस्तिष्क के निम्न केन्द्रों से ही कार्यवाही स्नायुओं को आदेश मिल जाता है। वह प्रभावक अंग तक इसे प्रेषित करती है जो प्रतिक्रिया करता है। सहज क्रिया का मार्ग एक चाप के रूप में होता है जिसे प्रतिक्षेप चाप कहते हैं। उदाहरण के लिए, यदि पैर में कॉटी चुभ जाए तो पैर की त्वचा से संवेदना स्पर्शेन्द्रिये से शुरू होकर सांवेदनिक स्नायुओं के मार्ग द्वारा स्नायु केन्द्र तक जाती है। कार्यवाही स्नायुओं द्वारा पैर की मांसपेशियों को पैर हटा लेने का आदेश मिलता है जिससे पैर हटा लिया जाता है। प्रतिक्षेप क्रिया का यह मार्ग ही प्रतिक्षेप चाप है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1
मानवीय क्रियाओं से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
व्यक्ति द्वारा किसी उद्दीपन के प्रति की जाने वाली प्रतिक्रिया को मानवीय क्रिया कहते हैं। मानवीय – संवेदी तंत्रिका क्रियाएँ मुख्य रूप से दो प्रकार की होती सुषुम्ना का एक अंश हैं-
1. ऐच्छिक क्रियाएँ तथा
2. या ज्ञानेन्द्रिय अनैच्छिक क्रियाएँ । ऐच्छिक क्रियाएँ साहचर्य व्यक्ति की इच्छा-शक्ति पर निर्भर एवं गति तंत्रिका जान-बूझकर की गयी क्रियाएँ हैं। इन मांसपेशियाँ पर केन्द्रीय स्नायु-संस्थान का नियन्त्रण होता है। इस प्रकार की क्रियाओं के उदाहरण हैं—किसी भयानक वस्तु को देखकर भाग जाना, संकट से बचने के उपाय खोजना, किसी के वियोग में रो पड़ना आदि। इनसे भिन्न अनैच्छिक क्रियाएँ उन क्रियाओं को कहते हैं जो व्यक्ति की इच्छा शक्ति से मुक्त होती हैं तथा उन पर केन्द्रीय स्नायु-संस्थान का कोई नियन्त्रण नहीं होता।
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 2 Nervous System 5
इस वर्ग की क्रियाएँ तीन प्रकार की होती हैं-

  • स्वतःसंचालित क्रियाएँ,
  • आकस्मिक क्रियाएँ तथा 
  • सहज या प्रतिक्षेप क्रियाएँ।

प्रश्न 2
सहज अथवा प्रतिक्षेप क्रियाओं के प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
सहज अथवा प्रतिक्षेप क्रियाएँ मुख्य रूप से दो प्रकार की होती हैं, जिनका संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है

(1) शारीरिक प्रतिक्षेप (Physiological Reflexes)- ये वे सहज क्रियाएँ हैं जो स्वयं घटित होती हैं। इनके सम्पन्न होने में व्यक्ति को किसी प्रकार का प्रयास नहीं करना पड़ता और न ही इनके होने का ज्ञान ही होता है; जैसे—आँख पर चौंध पड़ते ही बिना किसी चेतना या ज्ञान के हमारी आँख की पुतली स्वत: सिकुड़ जाती है और आमाशय में भोजन पहुँचने के साथ-ही वहाँ ग्रन्थियों से स्राव होने लगता है।

(2) सांवेदनिक प्रतिक्षेप (Sensation Reflexes)- इन सहज क्रियाओं का ज्ञान व्यक्ति को हो जाता है; उदाहरणार्थ-आँख में धूल पड़ने पर पलक का चेतन होकर झपकना, नाक में तिनका आदि छूने से छींक आना तथा गले में खराश होने पर खाँसी उठना। सांवेदनिक प्रतिक्षेप को चेष्टा या इच्छा-शक्ति द्वारा कुछ क्षणों के लिए रोक पाना सम्भव है, किन्तु नियन्त्रण हटते ही सहज क्रिया अधिक आवेग से होने लगती है। आवश्यकता पड़ने पर खाँसी को कुछ समय के लिए इच्छा शक्ति से रोका जा सकता है, किन्तु नियन्त्रण हटते ही अधिक बल से खाँसी आती है।

प्रश्न 3
संयोजक़ स्नायुमण्डल से क्या आशय है?
उत्तर
हमारे स्नायु-संस्थान के एक भाग को संयोजक स्नायु-संस्थान (Peripheral Nervous System) कहते हैं। स्नायुमण्डल के इस भाग का मुख्य कार्य मस्तिष्क का शरीर के बाहरी तथा 
आन्तरिक भागों से सम्पर्क स्थापित करना होता है। संयोजक के रूप में इसके दो मुख्य कार्य हैं—प्रथम; यह मस्तिष्क तथा शरीर की ज्ञानेन्द्रियों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करता है तथा द्वितीय; शरीर की ग्रन्थियों का मांसपेशियों से सम्बन्ध स्थापित करता है। संयोजक स्नायुमण्डल एक प्रकार से सन्देशवाहक की भूमिका भी निभाता है। यह संग्राहकों से प्राप्त सन्देशों को केन्द्रीय स्नायुमण्डल तक पहुँचाता है तथा केन्द्रीय स्नायुमण्डल से प्राप्त आदेशों को प्रभावकों तक पहुँचाता है। 

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न :I निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए

  1. व्यक्ति के व्यवहार के संचालन एवं नियन्त्रण का कार्य करने वाला संस्थान …………….  कहलाता है।
  2. स्नायु-संस्थान की रचना……………..
  3.  ………………. और …………… दोनों केन्द्रीय स्नायु तन्त्र के भाग हैं। (2018)
  4. स्नायु संस्थान का मुख्य केन्द्र …………….होता है।
  5. विभिन्न इन्द्रियाँ ही हमारे ……………….. हैं।
  6. संग्राहकों का कार्य बाह्य वातावरण से ……………… ग्रहण करना होता है। (2008)
  7. रासायनिक ग्राहकों द्वारा हमें …………..एवं …………. की संवेदना प्राप्त होती है।
  8. वृहद् मस्तिष्क के अग्र खण्ड में ……………क्षेत्र पाये जाते हैं।
  9. वृहद् मस्तिष्क के मध्य खण्ड में ………….. के अधिष्ठान या केन्द्र पाये जाते हैं।
  10. वृहद् मस्तिष्क के पृष्ठ खण्ड में ………….. अधिष्ठान या क्षेत्र पाया जाता है।
  11. वृहद् मस्तिष्क के शंख खण्ड में …………….. अधिष्ठान या क्षेत्रं पाया जाता है।
  12. शारीरिक सन्तुलन को बनाये रखने में ………… द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है।
  13. साँस लेना, रक्त-संचार, श्वसन, निगलना तथा पाचन आदि क्रियाओं का संचालन ….. द्वारा किया जाता है।
  14. शरीर तथा वातावरण के बीच उचित सामंजस्य बनाये रखने का कार्य मस्तिष्क के …….. नामक भाग द्वारा किया जाता है।
  15. सुषुम्ना…………. का एक भाग है।
  16. सुषुम्ना शरीर के बाह्य अंगों को …………….से जोड़ती है।
  17. अनुकम्पित तथा परा-अनुकम्पित स्नायुमण्डल …………..कार्य करते हैं।
  18. मानव मस्तिष्क तथा शरीर के बाहरी एवं आन्तरिक भागों में सम्पर्क की स्थापना……….. द्वारा होती है।
  19. प्रतिक्षेप या सहज क्रियाओं का केन्द्र ……………. है।
  20. अन्त:स्रावी ग्रन्थियों से निकलने वाले स्राव को ……….कहते हैं। (2010)

उत्तर
1. स्नायु संस्थान, 2. अत्यधिक जटिल, 3. मस्तिष्क, सुषुम्ना नाड़ी, 4. मस्तिष्क, 5. संग्राहक अंग, 6. उत्तेजनाएँ, 7. स्वाद, गन्ध, 8. क्रियात्मक अधिष्ठान या क्षेत्र, 9. त्वचा तथा मांसपेशियों, 10. दृष्टि, 11. श्रवण, 12. लघु मस्तिष्क, 13. मध्य मस्तिष्क, 14. सेतु, 15. केन्द्रीय स्नायु-संस्थान, 16. मस्तिष्क, 17. परस्पर सहयोग से, 18. संयोजक स्नायु मण्डल, 19. सुषुम्ना नाड़ी, 20. हॉर्मोन्स।

प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए-

प्रश्न 1.
सम्पूर्ण स्नायु-संस्थान को किन-किन भागों में बाँटा जाता है?
उत्तर
सम्पूर्ण स्नायु-संस्थान को तीन भागों में बाँटा जाता है—

  1. केन्द्रीय स्नायु संस्थान
  2. स्वत:चालित स्नायु-संस्थान तथा
  3. संयोजक स्नायु-संस्थान।

प्रश्न 2.
केन्द्रीय स्नायु संस्थान को किन-किन भागों में बाँटा जाता है?
उत्तर
केन्द्रीय स्नायु-संस्थान को दो भागों में बाँटा जाता है—

  1. मस्तिष्क तथा
  2. सुषुम्ना नाड़ी।

प्रश्न 3.
मानव मस्तिष्क को कुल कितने भागों में बाँटा जाता है?
उत्तर
मानव-मस्तिष्क को चार भागों में बाँटा जाता है-

  1. वृहद् मस्तिष्क
  2. लघु मस्तिष्क
  3. मध्य मस्तिष्क या मस्तिष्क शीर्ष तथा
  4. सेतु।

प्रश्न 4.
वृहद मस्तिष्क किन-किन खण्डों में बँटा होता है?
उत्तर
वृहद् मस्तिष्क चार खण्डों में बँटा होता है-

  1. अग्र खण्ड,
  2. मध्य खण्ड,
  3. पृष्ठ खण्ड तथा
  4. शंख खण्ड।

प्रश्न 5.
लघु मस्तिष्क का मुख्य कार्य क्या है?
उत्तर
लघु मस्तिष्क का मुख्य कार्य शारीरिक सन्तुलन में सहायता पहुँचाना तथा शारीरिक क्रियाओं के मध्य समन्वय स्थापित रखना है।

प्रश्न 6.
मध्य मस्तिष्क का मुख्य कार्य क्या है?
उत्तर
मध्य मस्तिष्क का मुख्य कार्य शरीर की प्राण-रक्षा सम्बन्धी समस्त क्रियाओं का संचालन तथा नियन्त्रण करना है; जैसे कि साँस लेना, रक्त-संचार, निगलना तथा पाचन आदि।

प्रश्न 7.
स्वतःचालित स्नायुमण्डल द्वारा संचालित मुख्य क्रियाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
स्वत:चालित स्नायुमण्डल द्वारा संचालित होने वाली मुख्य क्रियाएँ हैं–पाचन क्रिया, श्वसन क्रिया, फेफड़ों का कार्य, हृदय का धड़कना तथा रक्त-संचार जैसी अनैच्छिक क्रियाएँ।

प्रश्न 8.
संयोजक स्नायुमण्डल के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
संयोजक स्नायुमण्डल एक ओर तो शरीर की ज्ञानेन्द्रियों से सन्देश ग्रहण कर उसे केन्द्रीय स्नायु-संस्थान तक पहुँचाता है तथा दूसरी ओर केन्द्रीय स्नायु-संस्थान से प्राप्त आदेशों को प्रभावकों तक प्रेषित करता है।

प्रश्न 9.
मानवीय क्रियाएँ मुख्य रूप से कितने प्रकार की होती हैं?
उत्तर
मानवीय क्रियाएँ मुख्य रूप से दो प्रकार की होती हैं-ऐच्छिक क्रियाएँ तथा अनैच्छिक क्रियाएँ।

प्रश्न 10.
प्रतिक्षेप चाप से क्या आशय है?
उत्तर
वह मार्ग जो ज्ञानेन्द्रिय से प्रारम्भ होकर स्नायु-केन्द्र से होते हुए एक मांसपेशी तक पहुँचता है, प्रतिक्षेप चाप कहलाता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1.
शरीर के व्यवहार के संचालन एवं नियन्त्रण के कार्य को सम्पन्न करने वाले संस्थान को कहते हैं
(क) अस्थि-संस्थान
(ख) स्नायु-संस्थान
(ग) पेशी-संस्थान
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ख) स्नायु-संस्थान

प्रश्न 2.
स्नायु-संस्थान को भाग है
(क) केन्द्रीय स्नायु-संस्थान ।
(ख) संयोजक स्नायु-संस्थान
(ग) स्वत:चालित स्नायु-संस्थान
(घ) ये सभी
उत्तर
(घ) ये सभी

प्रश्न 3.
मस्तिष्क तथा सुषुम्ना, स्नायु संस्थान के किस भाग से सम्बन्धित है?
(क) केन्द्रीय स्नायु-संस्थान
(ख) स्वत:चालित स्नायु-संस्थान
(ग) संयोजक स्नायु-संस्थान
(घ) ये सभी
उत्तर
(क) केन्द्रीय स्नायु-संस्थान

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन मस्तिष्क का भाग है? (2014)
(क) सुषुम्ना।
(ख) सेतु ।
(ग) थायरॉइड
(घ) स्वत:संचालित स्नायु-संस्थान
उत्तर
(ख) सेतु ।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन मस्तिष्क का भाग नहीं है? (2010)
(क) सेतु
(ख) सुषुम्ना
(ग) थैलेमस
(घ) हाइपोथैलेमस
उत्तर
(ख) सुषुम्ना

प्रश्न 6.
दौड़ते समय शारीरिक सन्तुलन बनाये रखने के लिए मुख्य रूप से मस्तिष्क का कौन-सा भाग जिम्मेदार होता है?
(क) वृहद् मस्तिष्क
(ख) लघु मस्तिष्क
(ग) थैलेमस
(घ) सुषुम्ना शीर्ष
उत्तर
(घ) सुषुम्ना शीर्ष

प्रश्न 7.
स्मृति, कल्पना, चिन्तन आदि उच्च मानसिक क्रियाओं का नियन्त्रण करता है- (2018)
(क) सुषुम्ना शीर्ष
(ख) लघु मस्तिष्क
(ग) सेतु
(घ) वृहद् मस्तिष्क
उत्तर
(घ) वृहद् मस्तिष्क

प्रश्न 8.
थैलेमस
(क) सुषुम्ना का एक भाग है।
(ख) मस्तिष्क का एक भाग है।
(ग) नलिकाविहीन ग्रन्थियों का एक भाग है
(घ) आमाशय को एक भाग है।
उत्तर
(ख) मस्तिष्क का एक भाग है।

प्रश्न 9.
सुषुम्ना भाग है (2016)
(क) मस्तिष्क का
(ख) स्नायुकोश का ।
(ग) केन्द्रीय स्नायु-संस्थान का
(घ) नलिकाविहीन ग्रन्थियों का
उत्तर
(ग) केन्द्रीय स्नायु-संस्थान का

प्रश्न 10.
ज्ञानवाही व क्रियावाही स्नायुओं के कितने जोड़े सुषुम्ना से होकर शरीर के विभिन्न भागों में जाते हैं?
(क) 10
(ख) 16
(ग) 24
(घ) 31
उत्तर
(घ) 31

प्रश्न 11.
प्रतिवर्त क्रियाओं का संचालन करता है (2010, 12)
(क) थैलेमस
(ख) सुषुम्ना
(ग) मस्तिष्क
(घ) सेतु ।
उत्तर
(ख) सुषुम्ना

प्रश्न 12.
सहज अथवा प्रतिक्षेप क्रियाओं की विशेषता है
(क) जन्मजात होती है तथा गर्भावस्था से ही प्रारम्भ हो जाती है।
(ख) सीखने की आवश्यकता नहीं होती।
(ग) इनका उद्देश्य व्यक्ति की रक्षा होता है।
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 13.
निम्नलिखित में से कौन नलिकाविहीन ग्रन्थि नहीं है।
(क) गल ग्रन्थि
(ख) पीयूष ग्रन्थि
(ग) लार ग्रन्थि
|
(घ) शीर्ष ग्रन्थि
उत्तर
(ग) लार ग्रन्थि|

प्रश्न 14.
निम्नलिखित में से कौन मास्टर ग्रन्थि कहलाती है? (2010)
(क) एड्रीनल
(ख) पीनियल
(ग) थायरॉइड
(घ) पीयूष
उत्तर
(घ) पीयूष

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UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 20 Population Structure and Urbanization

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography
Chapter Chapter 20
Chapter Name Population Structure and Urbanization (जनसंख्या की संरचना तथा नगरीकरण)
Number of Questions Solved 16
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 20 Population Structure and Urbanization (जनसंख्या की संरचना तथा नगरीकरण)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए –
(अ) पुरुष-महिला अनुपात अथवा लिंगानुपात, (ब) जनसंख्या की आयु-संरचना, (स) भारत में साक्षरता, (द) जनसंख्या की व्यावसायिक संरचना, (य) ग्रामीण एवं नगरीय जनसंख्या।
या
भारत की जनगणना 2011 के अनुसार भारत का लिंगानुपात या लिंगानुपात से आप क्या समझते हैं? बताइए। [2016]
या
भारत में लिंगानुपात की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
या
लिंगानुपात से आप क्या समझते हैं? [2011, 12]
या
भारत में लिंगानुपात की विशेषताओं का वर्णन कीजिए। [2009]
या
भारत की जनगणना, 2011 के अनुसार भारत का लिंगानुपात बताइए। [2016]
उत्तर

(अ) पुरुष-महिला अनुपात अथवा लिंगानुपात
Sex-Ratio

भारत में सन् 2011 ई० की जनगणना के अनुसार 62.37 करोड़ पुरुष (51.53%) तथा 58.65 करोड़ महिलाएँ (48.46%) हैं। इस प्रकार प्रति 1,000 पुरुषों के पीछे 940 महिलाएँ हैं। इस अनुपात के सम्बन्ध में एक विशेष बात यह है कि पिछले 100 वर्षों में स्त्रियों की संख्या पुरुषों की तुलना में निरन्तर कम होती गयी है। सन् 2001 में प्रति 1,000 पुरुषों के पीछे 933 महिलाएँ थीं।
भारत में लिंगानुपात Sex Ratio in India
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 20 Population Structure and Urbanization 1
पुरुषों के अनुपात में महिलाओं की संख्या में कमी के निम्नलिखित तीन कारण हो सकते हैं –

  1. भारत में महिलाओं की अपेक्षा पुरुष-शिशुओं का जन्म अधिक होता है।
  2. भारत के अनेक प्रदेशों में महिला-शिशुओं की देखभाल कम होने अथवा प्रसूति अवस्था में मृत्यु-दर का अधिक होना है।
  3. भारत में बाल-विवाह प्रथा प्रचलित है और कम आयु में लड़कियों को सातृत्व का भार वहन न कर पाने के कारण बहुत-सी लड़कियों की प्रसूति काल में अकाल मृत्यु हो जाती है।

भारतीय ग्रामीण समाज में प्रसूतावस्था में महिलाओं की उचित देखभाल न हो पाने के कारण वे रोगग्रस्त हो जाती हैं जिससे महिलाओं की संख्या में कमी की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। देश के उत्तरी क्षेत्रों में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की संख्या कम है, परन्तु ज्यों-ज्यों दक्षिण की ओर बढ़ते जाते हैं, महिलाओं की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती जाती है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार केरल राज्य में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की संख्या सबसे अधिक (1,084) है।

(ब) जनसंख्या की आयु-संरचना
Age Structure of Population

भारत में उच्च जन्म-दर ने आयु-संरचना को एक वृहत् आधार प्रदान किया है जो ऊपर की ओर छोटा होता जाता है। इसे जनांकिकी में युवा जनसंख्या कहा जाता है। प्रायः4 वर्ष की आयु तक शिशु,5 से 14 वर्ष तक की आयु वालों को किशोर-किशोरियाँ, 15 से 29 वर्ष की आयु वालों को नवयुवक-नवयुवतियाँ, 30 से 50 वर्ष तक की आयु वालों को अधेड़ तथा इससे अधिक आयु वालों को वयोवृद्ध माना जाता है। इस आधार पर देश की 44% जनसंख्या 56% जनसंख्या पर आश्रित है, जो अधिकांशत: 15 से 60 वर्ष की आयु-वर्ग के मध्य है। वास्तव में यही जनसंख्या कार्यशील कहलाती है।
आयु-संरचना Age Structure
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आयु – संरचना के सम्बन्ध में एक प्रमुख तथ्य यह है कि पिछले 40 वर्षों में जनसंख्या की प्रत्याशित आयु में निरन्तर वृद्धि हुई है। इसका मुख्य कारण असाध्य रोगों पर नियन्त्रण किया जाना है, जिससे बाल मृत्यु-दर एवं सामान्य मृत्यु-दर में कमी आयी है।

(स) भारत में साक्षरता
Literacy in India

साक्षर से तात्पर्य उस व्यक्ति से होता है जो किसी भाषा को सामान्य रूप से लिख-पढ़ सकता है। सन् 1901 की जनगणना के अनुसार भारत में केवल 5.35% व्यक्ति साक्षर थे। सन् 1951 तक यह प्रतिशत मन्द गति से बढ़ा। इस वर्ष यह प्रतिशत 18.33 हो गया था, जबकि इसके बाद इस प्रतिशत में तीव्र गति से वृद्धि हुई है। सन् 1981 में यह प्रतिशत 43.57 हो गया जो सन् 1991 में बढ़कर 52.21% हो गया। सन् 2001 में साक्षरता 64.8% हो गयी। यद्यपि पिछले 80 वर्षों में महिला साक्षरता में पुरुष साक्षरता की अपेक्षा अधिक वृद्धि हुई है तो भी साक्षरता में पुरुषों की ही संख्या अधिक रही है। सन् 1901 में पुरुषों की साक्षरता 9.8% थी सन् 1991 में यह बढ़कर 64.13% हो गयी है। सन् 1901 में महिला साक्षरता 0.6% थी जो सन् 2001 में बढ़कर 54.16% हो गयी है। सन् 2011 में यह 74.04% हो गयी। यह प्रतिशत नगरों की अपेक्षा ग्रामों में काफी कम है। ग्रामीण जनसंख्या का 40% भाग तथा नगरीय जनसंख्या का 20% भाग आज भी अशिक्षित है।

राज्यों के अनुसार साक्षरता की दर सबसे अधिक केरल राज्य में है, जो सन् 2011 की जनगणना के अनुसार 93.91% थी, जबकि सबसे कम बिहार में 63.82% है। केरल राज्य ने पूर्ण साक्षरता का लक्ष्य प्राप्त कर लिया है। देश में साक्षरता के स्तर में वृद्धि करना अति आवश्यक है जिससे देशवासी विकास–योजनाओं को समझ सकें तथा देश के आर्थिक विकास में वृद्धि की जा सके।

(द) जनसंख्या की व्यावसायिक संरचना
Occupational Structure of Population

व्यावसायिक संरचना के अनुसार भारत की लगभग 65% जनसंख्या कृषि कार्यों में लगी हुई है, जबकि उद्योग-धन्धों में केवल 12% जनसंख्या ही लगी है। देश में विभिन्न जनगणना वर्षों में कार्यशील जनसंख्या का प्रतिशत इस प्रकार रहा है-1911 में 48.2%, 1921 में 47.1%, 1931 में 46.6%, 1951 में 46%, 1961 में 45%, 1981 में 42% तथा 1991 में 37.3% तथा 2011 में 21.3%। इन आँकड़ों से ज्ञात होता है कि भारत की कुल जनसंख्या में कार्यशील जनसंख्या पर आश्रित जनसंख्या का भार बढ़ता जा रहा है। कार्यशील जनसंख्या का लमभग 65% भाग कृषि-कार्यों पर निर्भर करता है।

भारत में कृषि पर निर्भर रहने वाली जनसंख्या की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही है। सन् 2011 में कुल जनसंख्या का 65% भाग कृषि-कार्य पर निर्भर था। राष्ट्रीय आय में वृद्धि के लिए यह आवश्यक है कि कृषि पर जनसंख्या की निर्भरता कम की जाये तथा उसे अन्य कार्यों; जैसे-उद्योग-धन्धों, व्यापार, परिवहन, निर्माण आदि कार्यों की ओर उन्मुख किया जाये।

(य) ग्रामीण एवं नगरीय जनसंख्या
Rural and Urban Population

भारत वास्तविक रूप से ग्रामों का देश है। आज भी देश की जनसंख्या का एक बड़ा भाग ग्रामों में निवास करता है। सन् 1891 की जनगणना के अनुसार देश की जनसंख्या का केवल 9.5% भाग नगरों में निवास करता था तथा 90.5% जनसंख्या ग्रामों में निवास करती थी। सन् 1891 से लेकर सन् 1941 तक नगरीय जनसंख्या के अनुपात में बहुत ही मन्द गति से वृद्धि हुई तथा यह प्रतिशत 10 से 14 के मध्य ही रहा। सन् 1951 में नगरीय जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि हुई तथा देश की 17.34% जनसंख्या नगरों में निवास करने लगी थी। इस वृद्धि का प्रमुख कारण देश के विभाजन के फलस्वरूप पाकिस्तान से आने वाले विस्थापितों एवं शरणार्थियों को नगरों में बस जाना था। सन् 1961 की जनगणना के अनुसार 82.1% जनसंख्या ग्रामों में रह रही थी। इस वर्ष 17.9% जनसंख्या नगरों में रहती थी।

सन् 1981 की जनगणना के अनुसार देश में लगभग 5.5 लाख ग्राम और 3,245 नगर थे। इस प्रकार इन ग्रामों में 76.27% तथा नगरों में 23.73% जनसंख्या निवास कर रही थी, जबकि सन् 1991 की जनगणना के अनुसार 74.28% जनसंख्या ग्रामों में तथा 25.72% जनसंख्या नगरों में निवास कर रही थी। सन् 2011 की जनगणना में देश में लगभग 6.41 लाख ग्राम व 7,936 नगर थे। सन् 2011 में नगरीय जनसंख्या का प्रतिशत बढ़कर 31.16 तथा ग्रामीण जनसंख्या का प्रतिशत घनत्व घटकर 68.84 रह गया है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि भारत में कुल जनसंख्या में ग्रामीण जनसंख्या का प्रतिशत धीरे-धीरे घटता जा रहा है तथा नगरों की संख्या तथा उनकी जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है।
प्रो० ब्लॉश के अनुसार, “भारत ग्रामीण अधिवास का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करता है। भारत में ग्रामीण जीवन बड़ी विकसित अवस्था में है। ये ग्राम भारतीय संस्कृति का आधार-स्तम्भ रहे हैं। ग्रामीण जीवन संगठन पर आधारित होता है। प्राचीन काल में गाँव तो स्वावलम्बी ही होते थे जिनमें पारस्परिक सहयोग की भावना होती थी।

भारतीय ग्रामों का जन्म सहकारिता के आधार पर माना जाता है, परन्तु पिछले कुछ वर्षों से व्यक्तिवाद की भावना में वृद्धि, संयुक्त परिवार प्रथा का विघटन, आधुनिक एवं पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव, परिवहन साधनों का विकास, नगरों में उद्योग-धन्धों के विकसित हो जाने के कारण ग्रामीण जनसंख्या का नगरों की ओर प्रवास एवं ग्रामीण लघु-कुटीर उद्योग-धन्धों का विनाश आदि ऐसे आर्थिक एवं सामाजिक कारण रहे हैं जिनसे ग्रामों का प्राचीन वैभव नष्ट होता जा रहा है, जबकि आज भी देश की लगभग तीन-चौथाई जनसंख्या ग्रामों में ही निवास कर रही है। भारत धीरे-धीरे नगरीकरण की ओर अग्रसर होता जा रहा है।

प्रश्न 2
नगरीकरण क्या है? भारत से उदाहरण लेते हुए नगरीकरण और औद्योगीकरण के अन्तःसम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
या
नगरीकरण से क्या तात्पर्य है? [2006]
या
भारत में नगरीकरण की प्रवृत्ति एवं अर्थव्यवस्था पर उसके प्रभाव की विवेचना कीजिए। [2007]
या
भारत में नगरीकरण की विवेचना कीजिए। [2010]
या
नगरीकरण की परिभाषा दीजिए। [2012, 15]
उत्तर
नगरीकरण से आशय व्यक्तियों द्वारा नगरीय संस्कृति को स्वीकारना है। प्रत्येक देश में गाँवों से नगरों की ओर निरन्तर जनसंख्या का प्रवास होता रहता है। यह प्रवास सामान्यत: गाँवों से कस्बों, कस्बों से नगरों तथा नगरों से महानगरों की ओर होता रहता है। यह प्रक्रिया सतत् रूप से जारी है।

नगरीकरण की प्रक्रिया नगर से सम्बन्धित है। नगर सामाजिक विभिन्नताओं का वह समुदाय है। जहाँ द्वितीयक एवं तृतीयक समूहों और नियन्त्रणों, उद्योग और व्यापार, सघन जनसंख्या और वैयक्तिक सम्बन्धों की प्रधानता हो। नगरीकरण की प्रक्रिया द्वारा गाँव धीरे-धीरे नगर में परिवर्तित हो जाते हैं। इस प्रकार कृषि (प्राथमिक व्यवसाय) का उद्योग एवं व्यापार आदि में परिवर्तन नगरीकरण कहलाता है। श्री बर्गेल ग्रामों के नगरीय क्षेत्र में रूपान्तरित होने की प्रक्रिया को ही नगरीकरण कहते हैं।

इसी प्रकार किसी प्रदेश में उद्योग-धन्धों का विकास हो जाने के कारण जब ग्रामीण जनसंख्या रोजगार की खोज में ग्रामीण बस्तियों को छोड़कर नगरों की ओर प्रस्थान करने लगती है, तो नगरीय जनसंख्या में वृद्धि हो जाती है। इस रूप में, नगरीकरण का अर्थ ‘नगरों के विकास’ से लिया जाता है। यह एक ऐसी शाश्वत प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति गाँवों से नगरों में प्रस्थान कर निवास करने लगते हैं।

भारत की जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि होने के साथ-साथ नगरीकरण में भी भारी वृद्धि हुई है। सन् 1901 में कुल नगरीय जनसंख्या 2.57 करोड़ थी, जो सन् 2001 में बढ़ते-बढ़ते 28.53 करोड़ हो गयी है। इस प्रकार इन 100 वर्षों के दौरान नगरीय जनसंख्या दस गुनी से भी अधिक हो गयी है, परन्तु फिर भी नगरीय जनसंख्या का कुल जनसंख्या में अनुपात उतनी वृद्धि नहीं कर पाया है जितनी कि कुल जनसंख्या में वृद्धि हुई है। भारत में सन् 1901 में नगरों व कस्बों की संख्या 1,916 थी जो सन् 1991 में बढ़कर 3,768 हो गयी। इस अवधि में देश में 2.57 करोड़ नगरीय जनसंख्या बढ़कर 21.76 करोड़ पहुँच गयी। अतः स्पष्ट है कि जहाँ एक ओर नगरीय जनसंख्या में भारी वृद्धि हुई है, वहीं ग्रामीण जनसंख्या में भी भारी वृद्धि अंकित की गयी है। निम्नांकित तालिका भारत में नगरीकरण की दर को प्रकट करती है –

भारत में नगरीकरण
Urbanization in India
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 20 Population Structure and Urbanization 3
उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट होता है कि सन् 1901 से लेकर सन् 1941 तक नगरीय जनसंख्या में वृद्धि की दर बहुत ही धीमी गति से हुई है, परन्तु सन् 1951 के जनगणना वर्ष में नगरीय जनसंख्या में तीव्र वृद्धि अंकित की गयी। कुल जनसंख्या में पिछले 40 वर्षों के दौरान भी इतनी नगरीय जनसंख्या में वृद्धि नहीं हो पायी थी जितनी कि सन् 1941 से 1951 के दशक में। इसका प्रमुख कारण यह था कि देश विभाजन के फलस्वरूप बहुत-सी विस्थापित एवं शरणार्थी जनसंख्या पाकिस्तान से आकर नगरों में बस गयी थी। इसके साथ ही 1921 के बाद से देश प्राकृतिक विपदाओं से सुरक्षित रहा, परन्तु फिर भी अन्य पश्चिमी देशों की अपेक्षा भारत में नगरीय जनसंख्या में कोई विशेष वृद्धि नहीं हो पायी।

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय भारत में आर्थिक विकास, राजनीतिक अस्थिरता के कारण काफी मन्द रहा, जिस कारण नगरीय जनसंख्या वृद्धि पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। सन् 1961 के बाद से जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि अंकित की गयी है। सन् 1961 से 1981 के बीस वर्षों में नगरीय जनसंख्या वृद्धि पिछले साठ वर्षों से भी काफी अधिक रही है। वर्तमान समय में कुल जनसंख्या में नगरीय जनसंख्या का प्रतिशत 25.75 हो गया है। नगरीय जनसंख्या में इस भारी वृद्धि से नगरों की संख्या एवं उनकी जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि अंकित की गयी है। सन् 2011 में देश में 7,936 नगर व 6.41 लाख गाँव थे।

नगरों की जनसंख्या में अतिशय वृद्धि के कारण
Causes of Excess Growth of Population in Cities

  1. देश में उद्योग-धन्धों एवं व्यापारिक कार्यों में वृद्धि,
  2. ग्रामीण जनसंख्या को भारी संख्या में नगरों की ओर स्थानान्तरण,
  3. अनेक ग्रामीण बस्तियों का नगरीय बस्तियों में परिवर्तित हो जाना,
  4. नवीन नगरों का विकसित होना तथा (5) वर्तमान नगरों को अपने क्षेत्रफल एवं जनसंख्या आकार में भारी वृद्धि करना।

भारत में नगरीकरण की विशेषताएँ
Characteristics of Urbanization in India

भारत में सन् 1941 से 1961 तक के 20 वर्षों में नगरीय जनसंख्या में सबसे अधिक वृद्धि हुई है। जो 49% अंकित की गयी है। यह वृद्धि-दर विश्व के अन्य विकसित देशों; जैसे जापान एवं संयुक्त राज्य अमेरिका से भी कहीं अधिक है। वास्तव में इस अतिशय वृद्धि का कारण देश का विभाजन था, जिस कारण लाखों विस्थापित परिवार पाकिस्तान से आकर देश के नगरों में बस गये थे। सन् 1951 से 1961 के दशक में देश में पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से औद्योगीकरण की आधारशिला रखी गयी, परन्तु नगरीय जनसंख्या की प्रतिशत वृद्धि बढ़ने के स्थान पर और भी घट गयी। नगरों में जन्म एवं मृत्यु-दर तथा ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय क्षेत्रों की ओर होने वाले स्थानान्तरण के सही आँकड़े उपलब्ध न होने से नगरीय जनसंख्या में वृद्धि के कारणों के विषय में निश्चित रूप से नहीं बताया जा सकता है, परन्तु फिर भी अनुमान लगाया गया है कि नगरीय जनसंख्या में वृद्धि की दर उतनी ही है जितनी सम्पूर्ण देश में जनसंख्या-वृद्धि की दर हैं। वर्तमान में जनसंख्या वृद्धि की दर 17.64% वार्षिक है।

ग्रामीण क्षेत्रों से जनसंख्या नगरों की ओर प्रवास करती रहती है, परन्तु यह जनसंख्या कितनी है, इस विषय में विद्वानों के विचार अलग-अलग हैं। ग्रामों से नगरों में आकर बसने वाली जनसंख्या 82 लाख से 1 करोड़ 2 लाख तक अनुमानित की गयी है। इस जनसंख्या में वे 20 लाख व्यक्ति सम्मिलित नहीं हैं जो सन् 1941-51 के दशक में देश-विभाजन के समय पाकिस्तान से आकर नगरों में बस गये थे।

नगरीकरण (Urbanization) – वर्तमान समय में विश्व में नगरीकरण एक महत्त्वपूर्ण घटना है। नगरों की संख्या तथा उनकी जनसंख्या में अपार वृद्धि वर्तमान युग का महत्त्वपूर्ण तथ्य है। ऐसा माना जाता है कि पृथ्वीतल पर नगरों का उद्भव सबसे पहले 5,000 से 6,000 वर्ष पूर्व हुआ था। अतः इन्हें नवीन घटना के रूप में नहीं लिया जा सकता है, परन्तु मानवीय इतिहास में नगरीकरण की प्रक्रिया बहुत ही मन्द रही हैं, परन्तु यहाँ पर प्रश्न उठता है कि यह नगरीकरण क्या है?

ट्विार्था ने बताया है कि, “कुल जनसंख्या में नगरीय स्थानों में रहने वाली जनसंख्या का अनुपात ही नगरीकरण का स्तर बताता है।”
प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता ग्रिफिथ टेलर का कहना है, “गाँवों से नगरों की जनसंख्या का स्थानान्तरण ही नगरीकरण कहलाता है।
यदि नगरों की जनसंख्या में वृद्धि ग्रामीण जनसंख्या में वृद्धि की ही भाँति होती है, तो ऐसी दशा में यह नहीं कहा जा सकता कि नगरीकरण में कोई वृद्धि हुई है। नगरीकरण का भौगोलिक उद्देश्य उस सामाजिक वर्ग से है जो प्रायः अकृषि कार्यों (उद्योग, व्यापार, परिवहन, संचार, निर्माण, सेवा आदि) में लगा होता है। नगरीकरण एवं औद्योगीकरण में गहन सम्बन्ध होता है।

नगरीकरण को अर्थव्यवस्था से सम्बन्ध
Relation of Urbanization with Economy

नगरीकरण का अर्थव्यवस्था से गहरा सम्बन्ध है, क्योंकि नगरीकरण द्वारा देश की अर्थव्यवस्था कृषि (प्राथमिक कार्यों) से उद्योगों, व्यापार, संचार आदि कार्यों (गौण या अप्राथमिक कार्य) की ओर प्रवृत्त होती है। इससे प्रति व्यक्ति आय एवं राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है। वास्तव में नगरीकरण में वृद्धि ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय केन्द्रों की ओर लोगों के पलायन के कारण हुई है। नगरीकरण का अर्थव्यवस्था पर निम्नलिखित रूपों में प्रभाव पड़ता है –

  1. भारत में औद्योगिक क्रान्ति का प्रभाव तीव्र गति से पड़ा है। इसके कारण भूमि की उत्पादकता में भारी वृद्धि हुई है, क्योंकि कृषि-कार्यों में नवीन वैज्ञानिक तकनीकों का प्रयोग किया जाने लगा है। इससे खाद्यान्नों का उत्पादन अतिरिक्त मात्रा में होने लगी तथा देश की खाद्य समस्या के हल होने में काफी सहायता मिली है।
  2. कृषि-कार्यों के लिए अधिक भूमि की आवश्यकता होती है तथा बहुत अधिक क्षेत्र कम लोगों को रहने के लिए प्रोत्साहित करता है। इसके विपरीत नगरीय कार्यों; जैसे-उद्योग-धन्धे, निर्माण कार्य, व्यापार, सेवा आदि के लिए कम स्थान की आवश्यकता होती है, अर्थात् ये कार्य एक ही स्थान पर एकत्रित होकर अधिक लोगों को आर्थिक आधार प्रदान करते हैं।
  3. उद्योग-धन्धों एवं सेवा कार्यों की अपेक्षा कृषि-उत्पादों को बाजार कम विस्तृत है जिससे इन नगरीय कार्यों ने बड़े क्षेत्रों तक अपना प्रभाव जमा लिया है जिससे अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ आधार मिला है।
  4. भूमि की उत्पादकता में जैसे-जैसे वृद्धि होती गयी, प्राथमिक वस्तुओं के उत्पादन के लिए मानव शक्ति की आवश्यकता भी कम होने लगी। इस अतिरिक्त मानवीय श्रम की खपत उद्योगों, व्यापार, परिवहन एवं संचार तथा सेवाओं आदि कार्यों में बढ़ गयी। इन कार्यों से मानव अधिक आर्थिक लाभ अर्जित करने लगा।

उपर्युक्त सभी तथ्यों ने मिलकर ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने वाली जनसंख्या को नगरों की ओर आकर्षित करने में सहायता की है। इस अतिरिक्त जनसंख्या को नगरों में आकर्षण मिलने के कारण उन्हें आर्थिक अवसर भी अच्छे मिलने लगे। इस प्रकार, भारत में नगरीकरण ऐसी प्रक्रिया है जिससे समाज की आय एवं राष्ट्रीय आय में वृद्धि हुई है तथा उनका जीवन-स्तर पहले की अपेक्षा उच्च हुआ है। अतः नगरीकरण देश के आर्थिक एवं सामाजिक कल्याण के लिए सार्थक सिद्ध हुआ है।

प्रश्न 3
भारत में नगरीकरण के कारणों एवं समस्याओं की विवेचना कीजिए।
या
भारत में नगरीकरण से उत्पन्न समस्याओं के समाधान हेतु कोई पाँच सुझाव दीजिए। [2016]
या
भारत में नगरीकरण के कारणों की विवेचना कीजिए। [2014]
उत्तर

भारत में नगरीकरण के कारण
Causes of Urbanization in India

भारत के नगरों के विकास के मुख्यतः अग्रलिखित कारण रहे हैं –

  1. रेलों के विकास के कारण व्यापार महत्त्वपूर्ण स्टेशनों के मार्गों द्वारा होने लगा।
  2. भयानक दुर्भिक्षों के कारण बड़े पैमाने पर किसान बेरोजगार हो गये। ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार न मिल सकने के कारण जनसंख्या का रोजगार की तलाश में नगरों की ओर प्रवास होने लगा।
  3. भूमिहीन श्रम वर्ग के विकास के कारण ही नगरीकरण प्रोत्साहित हुआ। इस वर्ग के जिन लोगों को नगर क्षेत्रों में स्थायी रोजगार अथवा अपेक्षाकृत ऊँची मजदूरी मिल गयी, वे वहीं बस गये।
  4. नगरों के आकर्षण के कारण धनी जमींदारों के नगरों में बसने की प्रवृत्ति भी बढ़ी। नगरों में । कुछ ऐसे आकर्षण थे, जिनका गाँवों में अभाव था।
  5. नये उद्योगों की स्थापना अथवा पुराने उद्योगों के विस्तार के कारण श्रम-शक्ति नगरों में खपने लगी।

उपर्युक्त कारणों के विश्लेषण के पश्चात् प्रो० डी० आर० गाडगिल इस निष्कर्ष पर पहुँचे, ‘‘इने सब कारणों में उद्योगों का विकास अन्य सभी देशों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण रहा है, किन्तु भारत में इसका प्रभाव निश्चय ही इतना सशक्त नहीं रहा। सच तो यह है कि भारत में बहुत कम ऐसे नगर हैं। जिनका उद्भव नये उद्योगों के कारण हुआ है।

भारत में औद्योगीकरण का निश्चित प्रभाव जनसंख्या को ग्रामीण क्षेत्रों से स्थानान्तरित करने की दृष्टि से प्रबल रूप से व्यक्त नहीं हुआ। इसका प्रमाण यह है कि भारत में कुल श्रमिकों की सामान्य वृद्धि के साथ कृषि और गैर-कृषि श्रमिकों दोनों की संख्या में एक साथ वृद्धि हुई है। औद्योगीकरण के प्रबल प्रभाव के फलस्वरूप कृषि-श्रमिकों का अनुपात गैर कृषि-श्रमिकों के अनुपात की तुलना में काफी कम हो जाना चाहिए था।

नगरीकरण से उत्पन्न समस्याएँ या प्रभाव या परिणाम
Problems or Effects or Results Produced by Urbanization

भारत में तेजी से बढ़ते हुए नगरीकरण से निम्नलिखित समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं –
(1) अपर्याप्त आधारभूत ढाँचा और सेवाएँ – यद्यपि नगरीकरण की तीव्रता से विकास प्रकट होता है, परन्तु अति तीव्र नगरीकरण से नगरों में नगरीय सेवाओं और सुविधाओं की कमी हो जाती है। यह सर्वविदित तथ्य है कि मैट्रोपोलिटन नगरों की 30% से 40% तक जनसंख्या गन्दी बस्तियों में रहती है। ऐसी आवास-विहीन जनसंख्या भी बहुत अधिक है जिसका जीवन-स्तर बहुत निम्न होता है।

(2) परिवहन की असुविधा – नगरों में भीड़ बढ़ने से परिवहन की समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं।

(3) अपराध बढ़ जाते हैं – आज नगरों में अपराधों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है, जो तेजी से बढ़ती हुई नगरीय जनसंख्या का परिणाम है।

(4) आवास की कमी – जितनी तेजी से नगरों की जनसंख्या बढ़ रही है उतनी तेजी से आवासों का निर्माण नहीं हो पाता; अत: आवासों की भारी कमी चल रही है।
(5) औद्योगीकरण – नगरों का विकास हो जाने के कारण औद्योगीकरण की प्रक्रिया बढ़ गयी है। प्राचीन युग के उद्योग-धन्धे समाप्त हो गये हैं। इन उद्योग-धन्धों के विकास के कारण भारत में सामाजिक संगठन में परिवर्तन हुए हैं। पूँजीपति एवं श्रमिक वर्ग के बीच संघर्ष बढ़ गये हैं। स्त्रियों में आत्मनिर्भरता बढ़ गयी है। व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने लगे हैं। कारखानों की स्थापना, गन्दी बस्तियों की समस्याओं व हड़तालों आदि के कारण जीवन में अनिश्चितता आ गयी है।

(6) द्वितीयक समूहों की प्रधानता – नगरीकरण के कारण भारत में परिवार, पड़ोस आदि जैसे प्राथमिक समूह प्रभावहीन होते जा रहे हैं। वहाँ पर समितियों, संस्थाओं एवं विभिन्न सामाजिक संगठनों के द्वारा ही सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना होती है। इस प्रकार के सम्बन्धों में अवैयक्तिकता पायी जाती है।

(7) अवैयक्तिक सम्बन्धों की अधिकता – नगरीकरण के कारण नगरों में जनसंख्या में वृद्धि हो गयी है। जनसंख्या की इस वृद्धि के कारण लोगों में व्यक्तिगत सम्बन्धों की सम्भावना कम हो गयी,है। इसी आधार पर आर० एन० मोरिस ने लिखा है कि जैसे-जैसे नगर विस्तृत हो जाते हैं वैसे-वैसे इस बात की सम्भावना भी कम हो जाती है कि दो व्यक्ति एक-दूसरे को जानेंगे। नगरों में सामाजिक सम्पर्क अवैयक्तिक, क्षणिक, अनावश्यक तथा खण्डात्मक होता है।

(8) पारम्परिक सामाजिक मूल्यों की प्रभावहीनता – नगरीकरण के कारण व्यक्तिवादी विचारधारा का विकास हुआ है। इस विचारधारा के कारण प्राचीन सामाजिक मूल्यों का प्रभाव कम हो गया है। प्राचीन समय में बड़ों का आदर, तीर्थ स्थानों की पवित्रता, ब्राह्मण, गाय तथा गंगा के प्रति श्रद्धा और धार्मिक संस्थानों की मान्यता थी, परिवार की सामाजिक स्थिति का ध्यान रखा जाता था, किन्तु आज नगरों का विकास हो जाने से प्राचीन सामाजिक मूल्य प्रभावहीन हो गये हैं। उनका स्थान भौतिकवाद तथा व्यक्तिवाद ने ले लिया है।

(9) श्रम-विभाजन और विशेषीकरण – नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के विकास के कारण आज विभिन्न देशों में कुशल कारीगरों का महत्त्व बढ़ गया है। कोई डॉक्टर है, कोई वकील है और कोई इन्जीनियर। डॉक्टरों, वकीलों तथा इन्जीनियरों के भी अपने विशिष्ट क्षेत्र हो गये हैं।

(10) अन्धविश्वासों की समाप्ति – अभी तक भारत में धार्मिक विश्वासों पर आँख मींचकर चलने की प्रथा थी, किन्तु आज विज्ञान ने दृष्टिकोण की संकीर्णता को व्यापक बना दिया है। अनेक आविष्कारों के कारण व्यक्ति को दृष्टिकोण तार्किक हो गया है।

(11) जातीय नियन्त्रण का अभाव – अभी तक भारतीय समाज में जाति-प्रथा के कारण बाल-विवाह, विधवा-विवाह निषेध, पर्दा-प्रथा, विवाह-संस्कार व स्त्रियों की निम्न दशा का प्रचलन था, किन्तु आज नगरीकरण के कारण शिक्षा का प्रसार हुआ है और भारत में विवाह सम्बन्धी अधिनियम को पारित करके विवाह सम्बन्धी मान्यता को बदल दिया गया है। आज विवाह की आयु निर्धारित कर दी गयी है, बाल-विवाह समाप्त हुए हैं, अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन मिला है, विधवा पुनर्विवाह आरम्भ हो गया है। जाति के सभी प्रतिमान बदल गये हैं, यातायात के साधनों का विकास हो जाने से जाति-पाँति के बन्धन टूट गये हैं।

नगरीकरण से उत्पन्न समस्याओं का समाधान
Solution of the Problems Produced by Urbanization

  1. आवासीय भूमि का विकास – नगरीकरण से जनसंख्या की वृद्धि होने से आवासीय भवनों की कमी हो जाती है। इसलिए नये आवासीय क्षेत्रों को विकसित करना चाहिए जिससे नगर के केन्द्रीय भाग में आवासों (मकानों) का जमघट न बढ़े। नयी आवासीय बस्तियों के विकास से नगर केन्द्रों पर जनसंख्या का भार घटता है। निवासियों को नियमित आवास भी प्राप्त होते हैं।
  2. सड़क परिवहन व्यवस्था में सुधार – नगरों की एक बड़ी समस्या सड़कों पर अतिक्रमण है। गैर-आवासीय या बाजार क्षेत्रों में यह समस्या विकट परिस्थितियाँ पैदा करती है। सड़कों पर चलती-फिरती दुकानों, ठेलों, वाहनों आदि का जमघट सड़कों को तंग बना देता है। इस समस्या के निवारण के लिए उपयुक्त उपाय अपनाने चाहिए। पार्किंग आदि की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए।
  3. पेयजल, जल-मल निकास-सफाई आदि की व्यवस्था – नगरों में पेयजल, बिजली, जल-मल निकास आदि की भारी समस्याएँ रहती हैं। इनके लिए उपयुक्त कदम उठाने चाहिए। नाली-नालों की सफाई, कूड़ा-करकट तथा मल निकास की उपयुक्त व्यवस्था आवश्यक है।
  4. मलिन बस्तियों की उचित व्यवस्था – निर्धन मजदूर, बेरोजगार, गाँवों से पलायन करने वाले लोग शहरों के महँगे मकान खरीदने या किराये पर लेने में असमर्थ होते हैं; अतः वे नगर के बाहर या सड़कों के किनारे झुग्गी-झोंपड़ी डालकर रहते हैं। ऐसी मलिन बस्तियों में बिजली, पानी, सड़कों, नालियों की कोई व्यवस्था नहीं होती। प्रायः यहाँ सामाजिक अपराध पनपते हैं। अत: इनका सुधार करना। आवश्यक है।
  5. आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई – नगरों में जनसंख्या बढ़ने पर दैनिक उपभोग की वस्तुओं; जैसे—दूध, अण्डे, सब्जी, फल आदि की कमी हो जाती है। अतः इनकी पर्याप्त उपलब्धता की व्यवस्था होनी चाहिए।
  6. प्रदूषण पर नियन्त्रण – नगरों में छोटे-बड़े अनेक उद्योग स्थापित हो जाते हैं जो पर्यावरण को दूषित करते हैं। अत: उद्योगों को नगर के बाहर विशिष्ट क्षेत्र में स्थानान्तरित करना चाहिए तथा कारखानों से होने वाले प्रदूषण पर भी नियन्त्रण करना चाहिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारत में कम साक्षरता के दो कारणों की विवेचना कीजिए। उत्तर भारत में कम साक्षरता के दो कारण निम्नलिखित हैं –
(1) जनसंख्या का निर्धन होना – देश की अधिकांश जनसंख्या निर्धनता और अभावों में जीवन बिताती रही है; फलतः उसके लिए अपने बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था करना एक कठिन कार्य रहा है। वहीं दूसरी ओर बच्चे के विद्यालय चले जाने से खेती या अन्य कार्य करने वाले एक श्रमिक की भी कमी हो जाती है। इसी कारण शिक्षा पर लोगों का ध्यान कम है।

(2) शिक्षा योजनाओं का असफल होना – भारत की अनेक शिक्षा योजनाएँ केवल इसलिए असफल हो जाती हैं कि जिनके लाभार्थ वे बनायी जाती हैं वे उनको समझ सकने की स्थिति में नहीं हैं। अथवा उन्हें इस बारे में कुछ भी नहीं समझाया जा सकता है।

प्रश्न 2
भारत में नगरीकरण से उत्पन्न किन्हीं चार समस्याओं की विवेचना कीजिए। [2007, 09, 14]
उत्तर
भारत में नगरीकरण से उत्पन्न चार समस्याएँ निम्नलिखित हैं –

  1. अवसंरचनात्मक सुविधाओं की कमी – बढ़ते हुए नगरीकरण से नगरों में मकानों तथा नगरीय सुविधाओं (परिवहन, जलापूर्ति, गन्दे जल, शौच, कूड़ा-करकट आदि का निस्तारण, विद्युत आपूर्ति आदि) की कमी हो जाती है। बड़े नगरों में मलिन बस्तियों की संख्या बहुत बढ़ जाती है।
  2. पर्यावरण प्रदूषण – नगरों में परिवहन के साधनों, उद्योगों आदि से पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है।
  3. पारम्परिक सामाजिक मूल्यों का हास – नगरीकरण के कारण व्यक्तिवादी दृष्टिकोण में वृद्धि होती है। इससे प्राचीन परम्परागत सामाजिक मूल्यों का ह्रास होता है। बड़ों के प्रति आदर, धर्म के प्रति श्रद्धा, तीर्थों की पवित्रता आदि मूल्य प्रभावहीन हो गये हैं। इनका स्थान भौतिकवाद तथा व्यक्तिवाद ने ले लिया है।
  4. सामाजिक अपराधों में वृद्धि – नगरों में आर्थिक विषमताएँ अधिक पायी जाती हैं। बेरोजगारी की भी भारी समस्या है। इस कारण लोगों में चोरी, डकैती, लूट-पाट आदि की प्रवृत्ति बढ़ी है। मलिन बस्तियाँ प्रायः ऐसे असामाजिक तत्वों के गढ़ होते हैं। ये सभी सामाजिक प्रदूषण के लिए उत्तरदायी हैं।

प्रश्न 3
भारत की भाषाई जनसंख्या पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
भारत में 845 भाषाएँ बोली जाती हैं। इनमें 720 भाषाएँ ऐसी हैं जो (प्रत्येक) एक लाख से भी कम व्यक्तियों द्वारा प्रयोग में लायी जाती हैं। देश में 63 अभारतीय भाषाओं का प्रयोग होता है। सामान्यत: भारत में 91% जनता संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त 22 भाषाओं का प्रयोग करती है। 4% व्यक्ति आदिवासी भाषाओं तथा 5% व्यक्तियों द्वारा अन्य भाषाएँ प्रयोग की जाती हैं।

प्रश्न 4
भारत के प्रमुख भाषाई संगठनों के नाम बताइए।
उत्तर
भारत में भाषाओं के भौगोलिक वितरण के दृष्टिकोण से देश में 12 भाषाई संघटन या प्रदेश मुख्य है-
(1) कश्मीरी, (2) पंजाबी, (3) हिन्दी, (4) बंगला, (5) असमिया, (6) उड़िया, (7) गुजराती, (8) मराठी, (9) कन्नड़, (10) तेलुगू, (11) तमिल तथा (12) मलयालम।
इन सभी संगठनों में हिन्दी भाषाई प्रदेश सबसे अधिक विस्तृत हैं जिसमें हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, मध्य प्रदेश, बिहार, झारखण्ड तथा छत्तीसगढ़ सम्मिलित हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारत में सन 2011 की जनगणना के अनुसार साक्षरता दर कितनी है? [2011]
उत्तर
74.04%.

प्रश्न 2
भारत में लिंगानुपात के घटने के कोई दो कारण बताइए। [2011]
उत्तर

  1. भारत के अनेक प्रदेशों में महिला-शिशुओं की देखभाल कम होने अथवा प्रसूति अवस्था में मृत्यु-दर का अधिक होना है।
  2. पुत्र-प्राप्ति की चाहत में भ्रूणहत्या।

प्रश्न 3
भारत में नगरीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति के दो प्रमुख कारणों को बताइए। [2008, 09, 11, 12]
या
भारत में ग्रामीण जनसंख्या के नगरों की ओर बढ़ते उत्प्रवास के किन्हीं दो कारणों का वर्णन कीजिए। [2011]
उत्तर

  1. गाँवों में कृषि से पर्याप्त रोजगार प्राप्त न होना।
  2. औद्योगीकरण के कारण नगरों में रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त होना।

प्रश्न 4
भारत में नगरीय जनसंख्या की वृद्धि के दो कारण बताइए। [2008, 09, 11, 13, 16]
उत्तर
भारत में नगरीय जनसंख्या की वृद्धि के दो प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –

  1. ग्रामीण क्षेत्रों, रोजगार, सेवाओं एवं सुरक्षा आदि के कारण नगरीय क्षेत्रों में जनसंख्या का पलायन।
  2. नगरीय क्षेत्रों में रोजगार के कारण उत्पन्न श्रमिक जनसंख्या की माँग अधिक होने के कारण नगरों की ओर ग्रामीण क्षेत्रों की जनसंख्या के पलायन से नगरीय जनसंख्या में वृद्धि।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1
2011 की जनणना के अनुसार भारत में साक्षरता दर है –
(क) 74.04%
(ख) 70.85%
(ग) 75.85%
(घ) 80.0%
उत्तर
(क) 74.04%

प्रश्न 2
2011 की जनगणना के अनुसार महिला साक्षरता प्रतिशत है –
(क) 53.57
(ख) 41.82
(ग) 65.46
(घ) 59.70
उत्तर
(ग) 65.46

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 20 Population Structure and Urbanization

प्रश्न 3
2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कितना लिंगानुपात है?
(क) 927
(ख) 931
(ग) 940
(घ) 935
उत्तर
(ग) 940

प्रश्न 4
भारत का न्यूनतम साक्षरता वाला राज्य है –
(क) झारखण्ड
(ख) छत्तीसगढ़
(ग) बिहार,
(घ) राजस्थान वर
उत्तर
(ग) बिहार

प्रश्न 5
भारत का सर्वाधिक घनत्व वाला राज्य है – [2007]
या
निम्नलिखित में से किस राज्य में 2011 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या का घनत्व सर्वाधिक है? [2014]
(क) तमिलनाडु
(ख) बिहार
(ग) उत्तर प्रदेश
(घ) महाराष्ट्र
उत्तर
(ख) बिहार

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 1 Geographical and Cultural Environment and Their Effect on Social Life

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 1 Geographical and Cultural Environment and Their Effect on Social Life (भौगोलिक और सांस्कृतिक पर्यावरण का सामाजिक जीवन पर प्रभाव) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 1 Geographical and Cultural Environment and Their Effect on Social Life (भौगोलिक और सांस्कृतिक पर्यावरण का सामाजिक जीवन पर प्रभाव).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 1
Chapter Name Sociology and Cultural Environment
and Their Effect on Social Life
(भौगोलिक और सांस्कृतिक पर्यावरण का
सामाजिक जीवन पर प्रभाव)
Number of Questions Solved 46
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 1 Geographical and Cultural Environment and Their Effect on Social Life (भौगोलिक और सांस्कृतिक पर्यावरण का सामाजिक जीवन पर प्रभाव)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
पर्यावरण की परिभाषा दीजिए भौगोलिक पर्यावरण से मानव-जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का मूल्यांकन कीजिए [2009, 10, 12, 16]
या
पर्यावरण क्या है? इसके दो प्रकार भी बताइए मानव-व्यवहारों पर प्राकृतिक पर्यावरण के प्रभावों का मूल्यांकन कीजिए [2010, 13]
या
भौगोलिक पर्यावरण क्या है तथा इसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है ? विवेचना कीजिए [2007, 08, 12]
या
भौगोलिक पर्यावरण क्या है ? यह सामाजिक जीवन को किस प्रकार से प्रभावित करता है ? [2007, 10]
या
सामाजिक जीवन पर भौगोलिक पर्यावरण के प्रभावों को व्यक्त कीजिए [2012, 14, 15, 16]
या
मनुष्य के जीवन में पर्यावरणीय प्रदूषण के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभावों का वर्णन कीजिए [2013, 15]
या
सम्पूर्ण पर्यावरण की अवधारणा स्पष्ट कीजिए [2011]
या
पर्यावरण को परिभाषित कीजिए [2017] 
या
प्राकृतिक पर्यावरण एवं मानव समाज में सम्बन्ध बताइए [2017]
या
पर्यावरण से आप क्या अर्थ लगाते हैं ? भौगोलिक पर्यावरण के अप्रत्यक्ष प्रभावों का उल्लेख कीजिए [2009]
या
पर्यावरण क्या है? भौगोलिक पर्यावरण का मनुष्य के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? [2016]
या
भौगोलिक पर्यावरण के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभावों का उल्लेख कीजिए [2016, 17]
उत्तर :

पर्यावरण का अर्थ

पर्यावरण ‘परि + आवरण’ दो शब्दों के मेल से बना है ‘परि’ का अर्थ है ‘चारों ओर’ तथा ‘आवरण’ का अर्थ है ‘घेरा इस प्रकार पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ हुआ चारों ओर का घेरा जीव के चारों ओर जो प्राकृतिक और सांस्कृतिक शक्तियाँ और परिस्थितियाँ विद्यमान हैं उनके प्रभावी रूप को ही पर्यावरण कहा जाता है पर्यावरण का क्षेत्र अत्यन्त विशद् है पर्यावरण उन समस्त शक्तियों, वस्तुओं और दशाओं का योग है जो मानव को चारों ओर से आवृत्त किये हुए हैं मानव से लेकर वनस्पति तथा सूक्ष्म जीव तक सभी पर्यावरण के अभिन्न अंग हैं पर्यावरण उन सभी बाह्य दशाओं एवं प्रभावों का योग है जो जीव के कार्यों एवं प्रगति पर अपना गहरा प्रभाव डालता है पर्यावरण को मानव-जीवन से पृथक् करना उतना ही असम्भव है जैसे शरीर से आत्मा को मैकाइवर एवं पेज ने तो कहा भी है कि “जीवन और परिस्थिति आपस में सम्बन्ध रखती हैं वास्तव में, जल, वायु, आकाश, पृथ्वी, परम्पराओं, धर्म और संस्कृति को समग्र रूप में पर्यावरण ही कहा जा सकता है

पर्यावरण की परिभाषा

पर्यावरण का ठीक-ठीक अर्थ समझने के लिए हमें इसकी परिभाषाओं को अनुशीलन करना होगा विभिन्न विद्वानों ने पर्यावरण को निम्नवत् परिभाषित किया है
ई० ए० रॉस के अनुसार, “पर्यावरण हमें प्रभावित करने वाली कोई भी बाहरी शक्ति है’
जिसबर्ट के अनुसार, “पर्यावरण वह सब कुछ है जो किसी वस्तु को चारों ओर से घेरे हुए है तथा उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है”
टी० डी० इलियट के अनुसार, चेतन पदार्थ की इकाई के प्रभावकारी उद्दीपन और अन्त:क्रिया के क्षेत्र को पर्यावरण कहते हैं”
हर्सकोविट्स ने पर्यावरण को इस प्रकार परिभाषित किया है, “यह सभी बाह्य दशाओं और प्रभावों का योग है जो जीवों के कार्यों एवं विकास को प्रभावित करता है”

पर्यावरण का वर्गीकरण
अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से स्थूल रूप में पर्यावरण को निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है
1. प्राकृतिक पर्यावरण – इस पर्यावरण के अन्तर्गत सभी प्राकृतिक और भौगोलिक शक्तियों का समावेश होता है पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, वनस्पति और जीव-जन्तु प्राकृतिक पर्यावरण के अंग हैं प्राकृतिक पर्यावरण का प्रभाव मानव-जीवन पर सर्वाधिक पड़ता है

2. सामाजिक पर्यावरण – 
सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचा सामाजिक पर्यावरण कहलाता है इसे सामाजिक सम्बन्धों को पर्यावरण भी कहा जा सकता है परिवार, पड़ोस, सम्बन्धी, खेल के साथी और विद्यालय सामाजिक पर्यावरण के अंग हैं

3. सांस्कृतिक पर्यावरण – 
मनुष्य द्वारा निर्मित वस्तुओं का समग्र रूप का परिवेश सांस्कृतिक पर्यावरण कहलाता है सांस्कृतिक पर्यावरण भौतिक और अभौतिक दो प्रकार का होता – है—आवास, विद्यालय, टेलीविजन, कुर्सी, मशीनें, भौतिक पर्यावरण तथा धर्म, संस्कृति, भाषा, लिपि, रूढ़ियाँ, कानून और प्रथा अभौतिक पर्यावरण हैं

उपर्युक्त तीनों पर्यावरणों को समग्र रूप में सम्पूर्ण पर्यावरण (Total Environment) कहा जाता है मनुष्य पर सम्पूर्ण पर्यावरण का प्रभाव पड़ता है

भौगोलिक (प्राकृतिक) पर्यावरण का अर्थ एवं परिभाषा

भौगोलिक पर्यावरण या प्राकृतिक पर्यावरण प्रकृति द्वारा निर्मित पर्यावरण है मनुष्य पर जिन प्राकृतिक शक्तियों को चारों ओर से प्रभाव पड़ता है, उसे भौगोलिक पर्यावरण कहा जाता है ये सभी शक्तियाँ स्वतन्त्र रहकर मानव को प्रभावित करती हैं पर्वत, सरिता, वन, पवन, आकाश, पृथ्वी तथा जीव-जगत् सभी भौगोलिक पर्यावरण के अंग हैं प्रमुख विद्वानों ने इसे निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है

मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, “भौगोलिक पर्यावरण उन दशाओं से मिलकर बनता है जो प्रकृति मनुष्य को प्रदान करती है इसे पर्यावरण में इन्होंने पृथ्वी का धरातल एवं उसकी सभी प्राकृतिक दशाओं, प्राकृतिक साधनों, भूमि और पानी, पर्वतों व मैदानों, खनिज पदार्थों, पौधों, पशुओं, जलवायु की शक्ति, गुरुत्वाकर्षण, विद्युत एवं विकिरण शक्तियाँ, जो पृथ्वी पर क्रियाशील हैं, को सम्मिलित किया है इन सबका मानव-जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है

सोरोकिन के अनुसार, “भौगोलिक पर्यावरण को सम्बन्ध ऐसी भौगोलिक दशाओं से है जिनका अस्तित्व मानवीय क्रियाओं से स्वतन्त्र है और जो मानव के अस्तित्व तथा कार्यों की छाप पड़े बगैर अपनी प्रकृति के अनुसार बदलती हैं इस परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य द्वारा सभी अनियन्त्रित शक्तियों को भौगोलिक पर्यावरण के अन्तर्गत रखा जा सकता है

डॉ० डेविस के अनुसार, “मनुष्य के सम्बन्ध में भौगोलिक पर्यावरण से अभिप्राय भूमि या मानव के चारों ओर फैले उन सभी भौतिक स्वरूपों से है जिनमें वह रहता है, जिनका उसकी आदतों और क्रियाओं पर प्रभाव पड़ता है”

भौगोलिक पर्यावरण का मानव-जीवन पर प्रभाव

भौगोलिक पर्यावरण बहुत अधिक प्रभावी और शक्तिमान होता है जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य इसके प्रभाव में रहता है मनुष्य का रंग, रूप, आकार, स्वभाव से लेकर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिवेश सब कुछ भौगोलिक पर्यावरण की ही देन हैं भौगोलिक पर्यावरण के मानव-जीवन पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं

भौगोलिक पर्यावरण के प्रत्यक्ष प्रभाव
भौगोलिक पर्यावरण से मानव के जीवन पर निम्नलिखित प्रत्यक्ष प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं

1. जनसंख्या पर प्रभाव – किसी देश की जनसंख्या कितनी होगी, यह वहाँ की अनुकूल या भौगोलिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है यदि भौगोलिक परिस्थितियाँ प्रतिकूल होंगी, अर्थात् भूमि कम उपजाऊ है, रेगिस्तान, बंजर, पर्वत इत्यादि अधिक हैं तो वहाँ जनसंख्या कम होगी इसके विपरीत, यदि भूमि समतल है, उपजाऊ है और सिंचाई के अच्छे साधन हैं तो जनसंख्या अधिक होगी इस प्रकार भौगोलिक परिस्थितियाँ जनसंख्या के घनत्व को प्रभावित करती हैं गंगा, सतलुज और ब्रह्मपुत्र के मैदान में अनुकूल पर्यावरण होने के कारण ही जनसंख्या सघन है, जब कि थार का मरुस्थल कठोर पर्यावरणीय दशाओं के कारण विरल जनसंख्या वाला क्षेत्र है

आलोचनात्मक मूल्यांकन – यह सत्य है कि भौगोलिक पर्यावरण का ‘मानव जनसंख्या पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है, किन्तु अन्य कारकों को भी जनसंख्या एवं जनसंख्या के घनत्व पर प्रभाव पड़ता है उदाहरणार्थ-अनेक स्थान ऐसे हैं जहाँ भौगोलिक पर्यावरण में कोई अन्तर न होने पर भी वहाँ की जनसंख्या में निरन्तर अत्यधिक वृद्धि हो रही है; जैसे–1901ई० से लेकर अब तक दिल्ली, कोलकाता आदि की जनसंख्या में कई गुना वृद्धि हो गयी है, जब कि वहाँ की भौगोलिक दशाओं में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ

2. आवास पर प्रभाव – भौगोलिक पर्यावरण मनुष्य के निवास हेतु प्रयुक्त मकानों तथा इनकी सामग्री को भी प्रभावित करता है उदाहरणार्थ-पर्वतीय क्षेत्रों में पत्थरों और लकड़ियों का प्रयोग मकानों में अधिक होता है इनकी छतें ढलावदार होती हैं, जिससे वर्षा का पानी न रुके इसके विपरीत, मैदानी इलाकों में ईंटों या मिट्टी इत्यादि का अधिक प्रयोग होता है जापान में भूचाल से बचने के लिए लकड़ी के मकान बनाये जाते हैं न्यूयॉर्क में कठोर धरातल होने के कारण गगनचुम्बी भवन बनाये जाते हैं इस प्रकार मकानों की बनावट तथा इसमें प्रयुक्त सामग्री भौगोलिक पर्यावरण द्वारा प्रभावित होती है

आलोचनात्मक मूल्यांकन – इसमें सन्देह नहीं कि भौगोलिक पर्यावरण ‘मानव निवास’ की सम्पूर्ण व्यवस्था में सहायता करता है, परन्तु उस पर अन्य कारकों का भी प्रभाव रहता है उदाहरणार्थ-महल और झोंपड़ी एक ही भौगोलिक पर्यावरण में सामाजिक पर्यावरण की दुहाई देते रहते हैं

3. वेश-भूषा पर प्रभाव – भौगोलिक पर्यावरण का लोगों की वेश-भूषा पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है गर्म जलवायु वाले देशों में लोग बारीक व ढीले वस्त्र पहनते हैं, जब कि ठण्डे देशों में गर्म व चुस्त कपड़ों का अधिक इस्तेमाल होता है अनेक ठण्डे प्रदेशों में जानवरों की खाल से भी कोट इत्यादि बनाकर पहने जाते हैं टुण्ड्रा प्रदेश में लोग समूरधारी पशुओं की खाल के वस्त्र पहनते हैं

आलोचनात्मक मूल्यांकन – यह सत्य है कि ‘वस्त्रों’ पर भौगोलिक पर्यावरण का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है, तथापि मानव वस्त्र केवल भौगोलिक पर्यावरण पर ही आधारित नहीं होते, इस पर संस्कृति (Culture) का भी विशेष प्रभाव पड़ता है उदाहरणार्थ-गरीबों और अमीरों की वेश-भूषा भी अलग-अलग होती है, जब कि वे एक ही भौगोलिक पर्यावरण में निवास करते हैं

4. खान-पान पर प्रभाव – भोजन की सामग्री भी भौगोलिक पर्यावरण से प्रभावित होती है जिस क्षेत्र में जो खाद्य पदार्थ अधिक होते हैं उनको प्रचलने वहीं पर अधिक होता है बंगाल व चेन्नई में चावल अधिक खाये जाते हैं, जब कि उत्तर भारत में गेहूं का अधिक प्रयोग होता है ठण्डे क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्ति मांसाहारी अधिक होते हैं, जब कि गर्म क्षेत्रों में रहने वाले शाकाहारी अधिक होते हैं यदि आसपास कोई नदी आदि है तो मछली इत्यादि का प्रयोग अधिक होता है पंजाब के निवासी दाल-रोटी खाते हैं, जब कि बंगाली चावल और मछली का भोजन करते हैं

आलोचनात्मक मूल्यांकन – भौगोलिक पर्यावरण तथा खान-पान में इतना सम्बन्ध होते हुए भी भौगोलिक निर्धारणवाद का सिद्धान्त ठीक नहीं उतरता वास्तव में, मानव-जीवन का सम्बन्ध संस्कृति और आर्थिक स्थिति से अधिक होता है, पर्यावरण से कम एक ही स्थान पर रहने वाले कुछ व्यक्ति शाकाहारी भी होते हैं और मांसाहारी भी इस प्रकार एक ही क्षेत्र में रहने वाले निर्धन और धनवान का भोजन भी एक-दूसरे से अलग होता है

5. पशु-जीवन पर प्रभाव – पशुओं को भी एक विशेष पर्यावरण की आवश्यकता होती है, क्योंकि इनमें मनुष्य की तरह अनुकूलन की शक्ति नहीं होती; जैसे–शेर के लिए जंगल में तथा ऊँट के लिए रेगिस्तान में भौगोलिक परिस्थितियाँ उपलब्ध हैं और ये यहीं अधिक प्रसन्न रहते हैं इसी प्रकार मछली भी समुद्र में ही प्रसन्न रहती है

आलोचनात्मक मूल्यांकन – यह सत्य है कि पशुओं को प्राकृतिक पर्यावरण की ही आवश्यकता होती है और वे इसमें ही प्रसन्न रहते हैं, परन्तु आजकल बड़े-बड़े चिड़ियाघरों में कृत्रिम पर्यावरण उत्पन्न करके देश-विदेश के विभिन्न पशु-पक्षियों को रखा जाता है

भौगोलिक पर्यावरण के अप्रत्यक्ष प्रभाव
भौगोलिक पर्यावरण अप्रत्यक्ष रूप से भी मानव की सामाजिक दशाओं को निम्नलिखित प्रकार से प्रभावित करता है

1. सामाजिक संगठन पर प्रभाव-भौगोलिक पर्यावरण अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक संगठन को प्रभावित करता है लीप्ले का कथन है कि “ऐसे पहाड़ी व पठारी देशों में जहाँ खाद्यान्न की कमी होती है, वहाँ जनसंख्या की वृद्धि अभिशाप मानी जाती है और ऐसी विवाह संस्थाएँ स्थापित की जाती हैं जिनसे जनसंख्या में वृद्धि न हो जौनसार बाबर में खस जनजाति में सभी भाइयों की एक ही पत्नी होती है इससे जनसंख्या-वृद्धि रुक जाती है विवाह की आयु, परिवार का आकार तथा प्रकार भी अप्रत्यक्ष रूप से भौगोलिक परिस्थितियों से प्रभावित होते हैं मानसूनी प्रदेश घनी जनसंख्या के अभिशाप से ग्रसित हैं

आलोचना – परन्तु यह सदैव ठीक नहीं है और अनेक एकसमान क्षेत्रों में परिवार व विवाह की भिन्न-भिन्न प्रथाएँ देखी गयी हैं

2. आर्थिक संरचना पर प्रभाव – भौगोलिक पर्यावरण उद्योगों के विकास की गति निर्धारित करता है यदि खनिज पदार्थों की प्रचुरता है तो आर्थिक विकास अधिक होगा और लोगों का जीवन-स्तर उच्च होगा यदि प्राकृतिक साधनों की कमी है तो आर्थिक विकास प्रभावित होगा और लोगों का रहन-सहन व जीवन-स्तर अपेक्षाकृत निम्न कोटि का होगा व्यावसायिक संरचना भी इससे प्रभावित होती है इस प्रकार भौगोलिक पर्यावरण आर्थिक संरचना को प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है भूमध्यरेखीय प्रदेश में कच्चे मालों की प्रचुरता होते हुए भी तकनीक एवं विज्ञान का विकास न हो पाने के कारण उद्योग-धन्धों की स्थापना नहीं हो पायी है

आलोचना – आर्थिक संरचना पर भौगोलिक पर्यावरण के प्रभाव के विपक्ष में समीक्षकों द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि एकसमान जलवायु में समान उद्योग-धन्धों का विकास नहीं हो पाता है

3. राजनीतिक संगठन पर प्रभाव – राज्य तथा राजनीतिक संस्थाएँ भी भौगोलिक परिस्थितियों द्वारा प्रभावित होती हैं प्रतिकूल पर्यावरण में लोगों का जीवन घुमन्तू होता है और स्थायी संगठनों का विकास नहीं हो पाता अनुकूल पर्यावरण आर्थिक विकास में सहायता प्रदान करता है, राजनीति को स्थायी रूप प्रदान करता है और समानता पर आधारित प्रजातन्त्र या साम्यवाद जैसी राजनीतिक व्यवस्थाएँ विकसित होती हैं अत्यधिक आर्थिक समानता कुलीनतन्त्र का विकास करती है इस प्रकार सरकार के स्वरूप तथा राज्य के संगठन पर भी भौगोलिक पर्यावरण का प्रभाव देखा गया है

आलोचना – इस प्रभाव की भी आलोचना इस आधार पर की गयी है कि एकसमान भौगोलिक परिस्थितियों वाले देशों में एकसमान राजनीतिक संगठन व सरकारें नहीं हैं एक ही देश में समयसमय पर होने वाली राजनीतिक उथल-पुथल और सरकारों के स्वरूप में होने वाले हेर-फेर भी इसके प्रतीक हैं कि राजनीतिक संस्थाएँ भौगोलिक पर्यावरण द्वारा प्रभावित नहीं होतीं

4. धार्मिक जीवन पर प्रभाव – धर्म प्रत्येक समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग है भौगोलिक निश्चयवादी इस बात पर बल देते हैं कि भौगोलिक पर्यावरण अथवा प्राकृतिक शक्तियाँ धर्म के विकास को प्रभावित करती हैं मैक्समूलर ने धर्म की उत्पत्ति का सिद्धान्त ही प्राकृतिक शक्तियों के भय से उनकी पूजा करने के रूप में प्रतिपादित किया है जिन देशों में प्राकृतिक प्रकोप अधिक हैं, वहाँ पर धर्म का विकास तथा धर्म पर आस्था रखने वाले लोगों की संख्या अधिक होती है एशिया की मानसूनी जलवायु के कारण ही यहाँ के लोग भाग्यवादी बने हैं कृषिप्रधान देशों में इन्द्र की पूजा होना सामान्य बात है वृक्ष, गंगा और गाय भारतीयों के लिए उपयोगी हैं अतः ये सब पूजनीय हैं

आलोचना – भौगोलिकवादियों के इस तर्क को कि “प्राकृतिक शक्तियाँ ही धर्म के विकास को निर्धारित करती हैं स्वीकार नहीं किया जा सकता एकसमान भौगोलिक परिस्थितियों अथवा प्राकृतिक शक्तियों वाले देशों में धर्म का विकास एकसमान रूप से नहीं हुआ है समाज-विशेष की सामाजिक आवश्यकताओं तथा सामाजिक मूल्यों से धर्म अधिक प्रभावित होता है

5. साहित्य पर प्रभाव – साहित्य पर भी भौगोलिक पर्यावरण का प्रभाव पड़ता है भौगोलिक पर्यावरण जितना सुन्दर व अनुकूल होता है उतनी ही सृजनता अधिक होती है और साहित्य भी उतना ही सजीव और सुन्दर बन जाता है भारत में साहित्य के विकास को भौगोलिक व प्राकृतिक शक्तियों से पृथक् करके नहीं समझा जा सकता है यूनान ने सुकरात जैसे दार्शनिक और साहित्यकार दिये, यह सब वहाँ के भौगोलिक पर्यावरण की ही देन थी

आलोचना – यद्यपि साहित्य कुछ सीमा तक अप्रत्यक्ष रूप से भौगोलिक पर्यावरण से प्रभावित होता है, तथापि समान परिस्थितियों वाले समाजों में साहित्य का विकास समान नहीं हुआ है साहित्य के विकास में समाज की सामाजिक-आर्थिक दशाओं का गहरा प्रभाव पड़ता है

6. कला पर प्रभाव – साहित्य के साथ वास्तुकला, चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, नृत्य तथा नाटकों पर भी भौगोलिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है सुन्दर प्राकृतिक पर्यावरण में चित्रकारी और कृत्रिम पर्यावरण में होने वाली चित्रकारी का केन्द्रबिन्दु अलग-अलग होता है चित्रकार, संगीतकार, नर्तक इत्यादि प्राकृतिक पर्यावरण से अलग होकर अपनी कलाओं का विकास नहीं कर सकते हैं यूनान और रोम में ललित कलाओं का विकास वहाँ की भौगोलिक परिस्थितियों के कारण ही हुआ था

आलोचना – आज कला का विकास भौगोलिक परिस्थितियों से प्रभावित नहीं है, क्योंकि यातायात व संचार साधनों के विकास से इसमें अन्तर्राष्ट्रीय आयाम जुड़ गया है तथा यह किसी एक देश की सम्पत्ति नहीं रहा है साथ ही इसके विकास में समाज की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि मानव का सामाजिक जीवन पूरी तरह भौगोलिक पर्यावरण पर टिका है भौगोलिक पर्यावरण उसके सामाजिक जीवन को पग-पग पर दिग्दर्शन करता है

प्रश्न 2
सांस्कृतिक पर्यावरण से क्या तात्पर्य है ? सांस्कृतिक पर्यावरण के समाज पर प्रभावों को बताइए [2013, 15]
या
सांस्कृतिक पर्यावरण क्या है? इसके भिन्न-भिन्न प्रभावों का उल्लेख कीजिए [2013]
या
सांस्कृतिक पर्यावरण की परिभाषा दीजिए यह सामाजिक जीवन को किस प्रकार से प्रभावित करता है? [2015]
उत्तर :

सांस्कृतिक पर्यावरण का अर्थ और परिभाषा

पर्यावरण के निर्माण में प्रकृति के साथ-साथ मनुष्य का भी हाथ रहता है मनुष्य द्वारा निर्मित पर्यावरण सांस्कृतिक पर्यावरण कहलाता है सांस्कृतिक पर्यावरण के स्वरूप को सँभालने में प्रत्येक आगामी पीढ़ी का योगदान रहता है इस प्रकार भौतिक और अभौतिक रूप में पीढ़ी को अपने पूर्वजों से जो प्राप्त होता है उसे ही सांस्कृतिक पर्यावरण कहा जाता है भवन, विद्यालय, बाँध, शक्तिगृह, जलयान, रेलगाड़ी, मेज, पेन व चश्मा सभी सांस्कृतिक पर्यावरण के अंग हैं इन्हें भौतिक संस्कृति के अन्तर्गत रखा जाता है रीति-रिवाज, धर्म, आचरण, भाषा, लिपि व साहित्य भी सांस्कृतिक पर्यावरण के अंग हैं इन्हें अभौतिक संस्कृति कहा जाता है विभिन्न विद्वानों ने सांस्कृतिक पर्यावरण को निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया है

हर्सकोविट्स के अनुसार, “सांस्कृतिक पर्यावरण के अन्तर्गत वे सभी भौतिक और अभौतिक वस्तुएँ सम्मिलित हैं जिनका निर्माण मानव ने किया है”

मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, “सम्पूर्ण सामाजिक विरासत सांस्कृतिक पर्यावरण है’ उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि भूमण्डल की समस्त भौतिक और अभौतिक सांस्कृतिक धरोहर सांस्कृतिक पर्यावरण है हर्सकोविट्स का मानना है कि सांस्कृतिक पर्यावरण का निर्माण मानव द्वारा होता है प्राकृतिक पर्यावरण से मानव जिस कृति को निर्माण करती है, इन्हीं कृतियों के सम्पूर्ण योग को सांस्कृतिक पर्यावरण कही जाता है सम्पूर्ण भौतिक, अभौतिक सांस्कृतिक विरासत को सांस्कृतिक पर्यावरण कहा जाता है सांस्कृतिक पर्यावरण पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होता है प्रत्येक काल में इसमें सुधार होता है और इसकी अभिवृद्धि होती है सांस्कृतिक पर्यावरण को इस प्रकार भी समझा जा सकता है यदि सम्पूर्ण पर्यावरण में से भौगोलिक पर्यावरण को घटा दें तो जो कुछ बचता है उसे सांस्कृतिक पर्यावरण कहा जाता है प्राकृतिक पर्यावरण की तरह सांस्कृतिक पर्यावरण भी मानव के सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग होता है

सांस्कृतिक पर्यावरण का सामाजिक जीवन पर प्रभाव

संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है यह मानव के सामाजिक जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है संस्कृति से सांस्कृतिक पर्यावरण जन्म लेता है सम्पूर्ण सांस्कृतिक विरासत सांस्कृतिक पर्यावरण के रूप में सामाजिक मानव का प्रत्येक क्षेत्र में मार्गदर्शन करती है यह पग-पग पर मानव-व्यवहार को नियन्त्रित कर उसे सुखी और सम्पन्न जीवनयापन का मार्ग दिखाती है सम्पूर्ण सांस्कृतिक विरासत मनुष्य को पशुवत् व्यवहार करने से रोककर समाज में सद्गुणों का समावेश करती है सांस्कृतिक पर्यावरण के समाज पर पड़ने वाले प्रभावों को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है–

1. सामाजिक संगठन पर प्रभाव – सांस्कृतिक पर्यावरण सामाजिक संगठन को प्रभावित करता है, क्योंकि संस्कृति के अनुरूप ही सामाजिक संगठन, सामाजिक संरचना तथा सामाजिक संस्थाओं का विकास होता है उदाहरण के लिए, किसी समाज में परिवार तथा विवाह का क्या रूप होगा, यह वहाँ के सांस्कृतिक मूल्यों और आदर्शों पर निर्भर करता है व्यक्ति की सामाजिक स्थिति, महिलाओं की सामाजिक स्थिति, उत्तर :ाधिकार के नियम, विवाह-विच्छेद के नियम इत्यादि सांस्कृतिक मान्यताओं से प्रभावित होते हैं इसीलिए विभिन्न संस्कृतियों में पनपने वाले सामाजिक संगठन भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं सांस्कृतिक पर्यावरण की परिवर्तनशील प्रकृति होने पर सामाजिक संगठन में भी तेजी से परिवर्तन आता है

2. आर्थिक जीवन पर प्रभाव – सांस्कृतिक पर्यावरण व्यक्तियों के आर्थिक जीवन को भी प्रभावित करता है। यदि सांस्कृतिक मूल्य आर्थिक विकास में सहायता देने वाले हैं तो वहाँ व्यक्तियों का आर्थिक जीवन अधिक उन्नत होगा। मैक्स वेबर (Max Weber) ने हमें बताया है कि प्रोटेस्टेण्ट ईसाइयों की धार्मिक मान्यताएँ पूँजीवादी प्रवृत्ति के विकास में सहायक हुई हैं। इसीलिए प्रोटेस्टेण्ट ईसाइयों के बहुमत वाले देशों में पूँजीवाद अधिक है। यदि सांस्कृतिक मूल्ये आर्थिक विकास में बाधक हैं तो व्यक्तियों के आर्थिक जीवन पर इनका कुप्रभाव पड़ता है तथा वे आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए रहते हैं।

3. प्रौद्योगिकीय विकास पर प्रभाव – सांस्कृतिक पर्यावरण आर्थिक जीवन को प्रभावित करने के साथ-साथ प्रौद्योगिकीय विकास की गति को भी निर्धारित करता है। भौतिकवादी संस्कृति भौतिक उपलब्धियों तथा भोग-विलास पर अधिक बल देती है तथा वैज्ञानिक आविष्कारों को तीव्र गति प्रदान करती है। आध्यात्मिकता पर बल देने वाली संस्कृति में रचनात्मक व आध्यात्मिक सुख के साधनों के विकास पर अधिक बल दिया जाता है। इस प्रकार प्रौद्योगिकीय विकास व आविष्कार भी सांस्कृतिक पर्यावरण द्वारा प्रभावित होते हैं।

4. राजनीतिक संगठन पर प्रभाव – सांस्कृतिक पर्यावरण का राजनीतिक संगठन तथा राजनीतिक संस्थाओं पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। किसी देश में सरकार का स्वरूप क्या होगा, सभी व्यक्तियों को समान रूप से वयस्क मताधिकार मिलेगा या नहीं, सभी को राजनीतिक क्रियाओं में भाग लेने की स्वतन्त्रता होगी या नहीं इत्यादि सभी बातों पर सांस्कृतिक मूल्यों का गहरा प्रभाव पड़ता है। राज्य द्वारा सभी नागरिकों की रक्षा या विशेष वर्ग की रक्षा करना अथवा राज्य द्वारा बनाये जाने वाले कानूनों व अधिनियमों पर भी सांस्कृतिक पर्यावरण का प्रभाव पड़ता है। इसी कारण विभिन्न संस्कृतियों वाले समाजों में राजनीतिक संगठन की दृष्टि से अन्तर पाये जाते हैं।

5. धार्मिक व्यवस्था पर प्रभाव – व्यक्तियों का धार्मिक जीवन भी सांस्कृतिक पर्यावरण द्वारा प्रभावित होता है। धार्मिक संस्थाओं व संगठनों का रूप संस्कृति द्वारा निर्धारित होता है; उदाहरणार्थ-भारतीय संस्कृति ने धर्म के विकास में सहायता दी है और इसी कारण आज सभी प्रमुख धर्मों के लोग भारत में विद्यमान हैं। आज भी भारतीय अलौकिक शक्तियों में विश्वास करते हैं, जब कि पश्चिमी देशों में लौकिकीकरण तेजी से हुआ है और धर्म का प्रभाव भौतिकवादी संस्कृति के कारण दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा है। सांस्कृतिक पर्यावरण में परिवर्तन आने पर ही धर्म का स्वरूप भी बदल जाता है। भारतीय संस्कृति के कारण ही धर्म जीवन पद्धति का अंग बना हुआ है। यहाँ सामाजिक जीवन में अध्यात्मवाद विशेष स्थान प्राप्त कर चुका है।

6. समाजीकरण की प्रक्रिया पर प्रभाव – सांस्कृतिक पर्यावरण समाजीकरण की प्रक्रिया को भी प्रभावित करता है। बच्चा जन्म के समय तो केवल एक जीवित पुतला होता है जिसे सामाजिक गुण वहाँ की संस्कृति के अनुरूप प्राप्त होते हैं। सांस्कृतिक आदर्शों के अनुरूप वह बोलना, खाना-पीना, वस्त्र पहनना तथा प्रथाओं व रीति-रिवाजों को सीखता है। भारतीय समाज में समाजीकरण की प्रक्रिया भारतीय संस्कृति से प्रभावित है, जब कि पश्चिमी देशों में समाजीकरण की प्रक्रिया वहाँ की संस्कृति के अनुरूप है। अतः व्यक्ति में विकसित होने वाले सामाजिक गुण उसके सांस्कृतिक पर्यावरण की उपज होते हैं।

7. व्यक्तित्व के निर्माण पर प्रभाव – संस्कृति का व्यक्तित्व से गहरा सम्बन्ध है। व्यक्ति को व्यक्तित्व किस प्रकार से निर्मित होगा, यह वहाँ की संस्कृति पर निर्भर करता है। समाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से ही व्यक्ति उन बातों को ग्रहण करता है जो वहाँ की संस्कृति के अनुरूप होती हैं। अहिंसा, त्याग, सम्मान, नैतिकता, स्वतन्त्रता आदि मूल्यों का अधिग्रहण व्यक्ति संस्कृति द्वारा ही करता है। अनेक अध्ययनों से हमें पता चला है कि संस्कृति के अनुरूप ही व्यक्तित्व का विकास होता है। उपर्युक्त विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि सांस्कृतिक पर्यावरण का व्यक्ति के सामाजिक जीवन तथा अन्य सभी पक्षों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। समाज का सम्पूर्ण ढाँचा सांस्कृतिक पर्यावरण के अनुरूप ही बनता है। सांस्कृतिक पर्यावरण वह महत्त्वपूर्ण शक्ति है जो मानव-जीवन को समग्र रूप से प्रभावित और परिवर्तित करती है। यद्यपि सांस्कृतिक पर्यावरण का निर्माण मनुष्य द्वारा ही होता है फिर भी वह उससे पूरी तरह प्रभावित होता है। एक व्यक्ति जिस सांस्कृतिक पर्यावरण में रहता है उसमें वैसी ही संस्कृति का उविकास होता है। वहाँ के सांस्कृतिक मूल्य उसके व्यवहार में पूरी तरह रच-बस जाते हैं। मानवीय जीवन की दशाएँ और सामाजिक जीवन के प्रतिमान सांस्कृतिक पर्यावरण द्वारा ही निर्धारित होते हैं

प्रश्न 3
आधुनिकीकरण के भारतीय समाज एवं संस्कृति पर पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना कीजिए। [2007, 09, 13]
उत्तर :
भारतीय समाज आज आधुनिकीकरण की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है। भारतीय समाज एवं संस्कृति पर आधुनिकीकरण के प्रभाव से उत्पन्न होने वाले प्रमुख परिवर्तनों को निम्नलिखित क्षेत्रों में देखा जा सकता है|

1. प्रौद्योगिक विकास – भारत में आधुनिकीकरण का सर्वप्रमुख परिणाम प्रौद्योगिक विकास के रूप में देखने को मिलता है। आज भारत में सूती कपड़ों, रासायनिक खादों, सीमेण्ट, जूट, भारी मशीनों, दवाइयों, कारों आदि के उत्पादन के बड़े-बड़े कारखाने स्थापित हो चुके हैं। प्रौद्योगिक विकास के साथ विभिन्न प्रकार के व्यवसायों में इतनी वृद्धि हुई कि हमारे समाज में अनेक संरचनात्मक परिवर्तन होने लगे।

2. जीवन-स्तर में सुधार – भारत में भूमि-सुधारों तथा विभिन्न विकास कार्यक्रमों के फलस्वरूप जीवन के सभी पक्षों में आधुनिकीकरण को प्रोत्साहन मिला। कुछ समय पहले तक समाज के जो दुर्बल वर्ग जीवन की अनिवार्य सुविधाएँ पाने से भी वंचित थे, उनमें भी चीनी और स्टील के बर्तनों का उपयोग देखने को मिलता है। जीवन-स्तर में होने वाला यह सुधार उन मनोवृत्तियों का परिणाम है, जो आधुनिकता की उपज हैं।

3; कृषि का आधुनिकीकरण – आधुनिकता का स्पष्ट प्रभाव ग्रामीण समाज पर देखने को मिलता है, जहाँ कृषि की नयी प्रविधियों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। अब अधिकांश ग्रामीण ट्रैक्टर, कल्टीवेटर, पम्पिंग सैटों, श्रेसर तथा स्प्रेयर आदि का प्रयोग करके कृषि उत्पादन को बढ़ाने में लगे हैं। कृषि के आधुनिकीकरण से गाँव और नगर के लोगों की दूरी कम हुई तथा ग्रामीणों का विस्तृत जगत से सम्पर्क बढ़ने लगा।

4. समाज-सुधार को प्रोत्साहन – आधुनिकीकरण का सामाजिक संरचना पर सबसे स्पष्ट प्रभाव समाज-सुधार की प्रक्रिया के रूप में देखने को मिलता है। आधुनिकीकरण से उत्पन्न होने वाली मनोवृत्तियों के परिणामस्वरूप उन अन्धविश्वासों और कुरीतियों का प्रभाव तेजी से कम होने लगा जो सैकड़ों वर्षों से भारतीय सामाजिक जीवन को विघटित कर रही थीं। अस्पृश्यता, पर्दा प्रथा, बहुपत्नी विवाह तथा दहेज-प्रथा जैसी सामाजिक कमजोरियाँ क्षीण होती जा रही हैं।

5. शिक्षा का प्रसार – आधुनिकीकरण का एक अन्य प्रभाव शिक्षा के प्रति लोगों की मनोवृत्तियों में व्यापक परिवर्तन होना है। आज अधिकांश माता-पिता आर्थिक तंगी के बाद भी अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के पक्षधर हैं। इसी के फलस्वरूप शिक्षित लोगों के प्रतिशत तथा शिक्षा के स्तर में व्यापक सुधार हो सका।

6. सामाजिक मूल्यों एवं मनोवृत्तियों में परिवर्तन – आधुनिकीकरण के प्रभाव से भारत के परम्परागत मूल्यों में परिवर्तन होने के साथ ही विभिन्न वर्गों की मनोवृत्तियों में भी व्यापक परिवर्तन हुए। अब अधिकांश लोग भाग्य की अपेक्षा व्यक्तिगत योग्यता और परिश्रम को अधिक महत्त्व देने लगे हैं। जातिगत विभेदों की जगह समानता और सामाजिक न्याय के मूल्यों के प्रभाव में वृद्धि हुई है।

प्रश्न 4
संस्कृति की परिभाषा दीजिए। भौतिक तथा अभौतिक संस्कृति में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2016]
या
भौतिक तथा अभौतिक संस्कृति में अन्तर बताइए। [2014]
या
भौतिक तथा अभौतिक संस्कृति में चार अन्तर लिखिए। [2013]
उत्तर :
संस्कृति का अर्थ मनुष्य ने आदिकाल से प्राकृतिक बाधाओं को दूर करने के लिए व अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक समाधानों की खोज की है। इन खोजे गए उपायों को मनुष्य ने आगे आने वाली पीढ़ी को ही हस्तान्तरित किया। प्रत्येक पीढ़ी ने अपने पूर्वजों से प्राप्त ज्ञान और कला का और अधिक विकास किया है। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक पीढ़ी ने अपने पूर्वजों के ज्ञान को संचित किया है। और इसे ज्ञान के आधार पर नवीन ज्ञान और अनुभव का भी अर्जन किया है। इस प्रकार के ज्ञान व अनुभव के अन्तर्गत यन्त्र, प्रविधियाँ, प्रथाएँ, विचार और मूल्य आदि आते हैं। ये मूर्त और अमूर्त वस्तुएँ संयुक्त रूप से संस्कृति’ कहलाती है। इस प्रकार, वर्तमान पीढ़ी ने अपने पूर्वजों तथा स्वयं के प्रयासों से जो अनुभव व व्यवहार सीखी है, वही संस्कृति है।

संस्कृति की परिभाषा

प्रमुख विद्वानों ने संस्कृति को निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया है।
1. हॉबल के अनुसार “संस्कृति सम्बन्धित सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों का सम्पूर्ण योग है जो कि एक समाज के सदस्यों की विशेषताओं को बतलाता है और जो इसलिए प्राणिशास्त्रीय विरासत का परिणाम नहीं होता।”
2. ई०एस० बोगार्डस के अनुसार “संस्कृति किसी समूह के कार्य करने में सोचने की समस्त विधियाँ हैं।”
3. मैकाइवर तथा पेज के अनुसार “संस्कृति हमारे दैनिक व्यवहार में कला, साहित्य, धर्म, मनोरंजन और आनन्द में पाए जाने वाले रहन-सहन और विचार के ढंगों में हमारी प्रकृति . की अभिव्यक्ति है।”
4. हर्सकोविट्स के अनुसार ‘‘संस्कृति पर्यावरण का मानव निर्मित भाग है।”
5. मैलिनोव्स्की के अनुसार ‘संस्कृति प्राप्त आवश्यकताओं की एक व्यवस्था और उद्देश्यात्मक क्रियाओं को संगठित व्यवस्था है।”
6. बीरस्टीड के अनुसार “संस्कृति वह सम्पूर्ण जटिलता है, जिसमें वे सभी वस्तुएँ सम्मिलित हैं जिन पर हम विचार करते हैं, कार्य करते हैं और समाज का सदस्य होने के नाते अपने पास रखते हैं।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि संस्कृति में दैनिक जीवन में पायी जाने वाली समस्त वस्तुएँ आती हैं। मनुष्य भौतिक, मानसिक तथा प्राणिशास्त्रीय रूप में जो कुछ पर्यावरण से सीखता है, उसी को संस्कृति कहा जाता है।

संस्कृति के प्रकार

टायलर के अनुसार संस्कृति एक जटिल समग्रता है, जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, कानून, प्रथा तथा ऐसी ही अन्य किसी भी योग्यता और आदत का समावेश रहता है, जिन्हें मनुष्य समाज का सदस्य होने के नाते अर्जित करता है। ऑगबर्न ने संस्कृति को दो भागों में विभाजित किया है।

(क) भौतिक संस्कृति मनुष्यों ने अपनी आवश्यकताओं के कारण अनेक आविष्कारों को जन्म दिया है। ये आविष्कार हमारी संस्कृति के भौतिक तत्त्व माने जाते हैं। इस प्रकार भौतिक संस्कृति उन आविष्कारों का नाम है जिनको मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं के कारण जन्म दिया है। यह भौतिक संस्कृति मानव जीवन है। बाह्य रूप से सम्बन्धित है भौतिक संस्कृति को ही सभ्यता कहा जाता है। मोटर, रेलगाड़ी, हवाईजहाज, मेज-कुर्सी, बिजली का पंखा आदि सभी भतिक तत्त्व; भौतिक संस्कृति अथवा सभ्यता के ही प्रतीक हैं। संस्कृति के भौतिक पक्ष को मैथ्यू आरनोल्ड, अल्फ्रेड वेबर तथा मैकाइवर और पेज ने सभ्यता कहा है। भौतिक संस्कृति अथवा सभ्यता को परिभाषित करते हुए मैकाइवर तथा पेज ने लिखा है कि “मनुष्य ने अपने जीवन की दशाओं पर नियन्त्रण करने के प्रयत्न में जिस सम्पूर्ण कला विन्यास की रचना की है, उसे सभ्यता कहते हैं।” क्लाइव बेल के अनुसार-“सभ्यता मूल्यों के ज्ञान के आधार पर स्वीकृत किया गया तर्क और तर्क के आधार पर कठोर एवं भेदनशील बनाया गया मूल्यों का ज्ञान है।”

(ख) अभौतिक संस्कृति मानव जीवन को संगठित करने के लिए मनुष्य ने अनेक रीतिरिवाजों, प्रथाओं, रूढ़ियों आदि को जन्म दिया है। ये सभी तत्त्व मनुष्य की अभौतिक संस्कृति के रूप हैं। ये तत्त्व अमूर्त तत्त्वों का योग है, जो नियमों, उपनियमों, रूढ़ियों, रीति-रिवाजों आदि के रूप में मानव व्यवहार को नियन्त्रित करते हैं। इस प्रकार संस्कृति के अन्तर्गत वे सभी चीजें सम्मिलित की जा सकती हैं, जो व्यक्ति की आन्तरिक व्यवस्था को प्रभावित करती हैं। दूसरे शब्दों में, संस्कृति में वे भी पदार्थ सम्मिलित किए जा सकते हैं, जो मनुष्य के व्यवहारों को प्रभावित करते हैं। टायलर ने लिखा है कि “संस्कृति मिश्रित-पूर्ण व्यवस्था है, जिसमें समस्त ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता के सिद्धान्त, विधि-विधान, प्रथाएँ एवं अन्य समस्त योग्यताएँ सम्मिलित हैं तथा जिन्हें व्यक्ति समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है।”

भौतिक तथा अभौतिक संस्कृति में अन्तर

भौतिक तथा अभौतिक संस्कृति में निम्नलिखित प्रमुख भेद या अन्तर पाए जाते हैं

  1. भौतिक संस्कृति के अन्तर्गत मनुष्य द्वारा निर्मित वे सभी वस्तुएँ आ जाती हैं, जिनका उनकी उपयोगिता द्वारा मूल्यांकन किया जाता है, जबकि अभौतिक संस्कृति का सम्बन्ध मूल्यों, विचारों व ज्ञान से है।
  2. भौतिक संस्कृति का सम्बन्ध व्यक्ति की बाहरी दशा से होता है, जबकि अभौतिक संस्कृति का सम्बन्ध व्यक्ति की आन्तरिक अवस्था से होता है।
  3. भौतिक संस्कृति में तीव्रता से परिवर्तन होता रहता है, जबकि अभौतिक संस्कृति धीरे-धीरे परिवर्तित होती है।
  4. भौतिक संस्कृति का प्रसार तीव्रता से होता है तथा इसे ग्रहण करने हेतु बुद्धि की आवश्यकता नहीं होती, जबकि अभौतिक संस्कृति का प्रसार बहुत धीमी गति से होता है।
  5. भौतिक संस्कृति आविष्कारों से सम्बन्धित है, जबकि अभौतिक संस्कृति आध्यात्मिकता से सम्बन्धित है।
  6. भौतिक संस्कृति का कितना विकास होगा, यह निश्चय अभौतिक संस्कृति ही करती है।
  7. भौतिक संस्कृति मानव द्वारा निर्मित वस्तुओं का योग है, जबकि अभौतिक संस्कृति रीति रिवाजों, रूढ़ियों, प्रथाओं, मूल्यों, नियमों, व उपनियमों का योग है।
  8. भौतिक संस्कृति मूर्त होती है, जबकि अभौतिक संस्कृति अमूर्त होती है।
  9. भौतिक संस्कृति मानव आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित होने के कारण एक साधन है, जबकि अभौतिक संस्कृति व्यक्ति को जीवन-यापन का तरीका बतलाती है।
  10. भौतिक संस्कृति का मापदण्ड उपयोगिता पर आधारित है, जबकि अभौतिक संस्कृति हमारी आन्तरिक भावनाओं से सम्बन्धित है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
लैण्डिस द्वारा प्रस्तुत पर्यावरण के वर्गीकरण को लिखिए। [2011]
उत्तर :
लैण्डिस ने सम्पूर्ण पर्यावरण को निम्नलिखित तीन भागों में बाँटा है
1. प्राकृतिक पर्यावरण – इसके अन्तर्गत वे सभी प्राकृतिक शक्तियाँ एवं वस्तुएँ आती हैं, जिनका निर्माण प्रकृति ने किया है; जैसे-भूमि, तारे, सूर्य, चन्द्र, नदी, पहाड़, समुद्र, जलवायु, पेड़-पौधे, पशु-जगत्, भूकम्प, बाढ़ आदि। ये सभी मानव एवं समाज को प्रभावित करते हैं।

2, सामाजिक पर्यावरण – 
इसके अन्तर्गत मानवीय सम्बन्धों से निर्मित सामाजिक समूह, संगठन, समाज, समुदाय, समिति, संस्था आदि आते हैं, जो व्यक्ति को जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रभावित करते हैं, उसका समाजीकरण करते हैं और उसे मानव की संज्ञा प्रदान करने में सहायक होते हैं।

3. सांस्कृतिक पर्यावरण – 
इसके अन्तर्गत धर्म, नैतिकता, प्रथाएँ, लोकाचार, कानून, प्रौद्योगिकी, व्यवहार-प्रतिमान आदि आते हैं, जिन्हें मनुष्य अपने अनुभवों एवं सामाजिक सम्पर्क के कारण सीखता है और उनके अनुरूप अपने को ढालने का प्रयास करता है।

प्रश्न 2
भौगोलिक निश्चयवादी (निर्धारणवादी) विचारधारा की समालोचना कीजिए।
उत्तर :
भौगोलिक निश्चयवादी विचारधारा की आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं
1. भौगोलिक निश्चयवादियों ने मनुष्य को कीड़े-मकोड़े एवं पशु-पक्षियों की भाँति असहाय एवं निरुपाय मान लिया है। वे यह भूल जाते हैं कि मानव बुद्धिमान एवं चिन्तनशील प्राणी है जिसने आविष्कारों के बल पर भाग्य और जीवन की दीन दशी को ही बदल दिया है।
2. यदि भौगोलिक पर्यावरण ही मानव की सभ्यता, संस्कृति एवं व्यवहार को तय करता है तो फिर एक ही पर्यावरण में रहने वाले लोगों के भोजन, वस्त्र, मकान, प्रथाओं एवं परम्पराओं में अन्तर क्यों होता है, इसका उत्तर : भौगोलिक निश्चयवाद के आधार पर नहीं दिया जा सकता।।
3. मानव के प्रत्येक कार्य को केवल भौगोलिक पर्यावरण की ही उपजे मानकर भूगोलविदों ने अतिवाद का परिचय दिया, जब कि मानव-कार्य एवं व्यवहार को प्रभावित करने में, भौगोलिक कारक कई कारकों में से एक है, न कि सब कुछ।

प्रश्न 3
भौगोलिक पर्यावरण सामाजिक संस्थाओं को कैसे प्रभावित करता है ?
उत्तर :
कई भूगोलविदों ने भौगोलिक कारकों एवं सामाजिक संस्थाओं का सम्बन्ध प्रकट किया है। उदाहरण के लिए, जिन स्थानों पर खाने-पीने एवं रहने की सुविधाएँ होती हैं, वहाँ संयुक्त परिवार पाये जाते हैं और जहाँ इनका अभाव होता है वहाँ एकाकी परिवार। जहाँ प्रकृति से संघर्ष करना होता है, वहाँ पुरुष-प्रधान समाज होते हैं। इसी प्रकार से जहाँ जीविकोपार्जन की सुविधाएँ सरलता से मिल जाती हैं और कृषि की प्रधानता होती है, वहाँ बहुपत्नी-प्रथा तथा जहाँ जीवनयापन कठिन होता है, वहाँ बहुपति-प्रथा अथवा एक-विवाह की प्रथा पायी जाती है। इसका कारण यह है कि संघर्षपूर्ण पर्यावरण में स्त्रियों का भरण-पोषण सम्भव न होने से कन्या-वध आदि की प्रथा पायी जाती है जिससे उनकी संख्या घट जाती है। जिन स्थानों पर जीवन-यापन के लिए कठोर श्रम एवं सामूहिक प्रयास करना होता है, वहाँ सामाजिक संगठन सुदृढ़ होता है।

प्रश्न 4
“मानव पहले प्रकृति का दास था, परन्तु अब स्वामी बनता जा रहा है।” इस कथन पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
भौगोलिक निश्चयवादी मानव के खान-पान, वेश-भूषा, मकान, व्यवहार, धर्म, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं आदि पर भौगोलिक प्रभाव को प्रमुख मानते हैं। वे मानव को प्रकृति के हाथों में खिलौना मात्र ही समझते हैं। भौगोलिक निश्चयवादियों की बात कुछ समय पहले तक उचित मानी जा सकती थी, जब मानव ने आज जितनी प्रगति, विकास और आविष्कार नहीं किये थे और उसका सम्पूर्ण जीवन प्रकृति पर निर्भर था, उससे ही नियन्त्रित व निर्देशित होता था। शिकारी अवस्था से कृषि अवस्था तक मानव की प्रकृति की दासता अधिक थी, किन्तु आज के वैज्ञानिक युग में मानव ने प्रकृति पर विजय पायी है। विज्ञान के सहारे ही मानव ने चन्द्रमा पर विजय की है, समुद्रों का मंथन किया है, आकाश में उड़ा है। अब दलदल, पहाड़ और रेगिस्तान उसके मार्ग में बाधा नहीं रहे। मानव ने अपने प्रयत्नों से रेगिस्तानों व टुण्ड्रा प्रदेशों को रहने योग्य एवं हरे-भरे खेतों में बदल दिया है। कृत्रिम वर्षा की जाने लगी है। मौसम के प्रभाव से बचने के लिए वातानुकूलित कमरे बनने लगे हैं। प्रत्येक क्षेत्र में आज मानव प्रकृति की दासता से मुक्त होता जा रहा है और नवीन आविष्कारों, प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान के सहारे प्रकृति के रहस्यों को ज्ञात कर उन्हें अपनी इच्छानुसार प्रयोग में ला रहा है।

प्रश्न 5
भौतिक संस्कृति की विशेषताओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर :
भौतिक संस्कृति की विशेषताओं को हम संक्षेप में इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं

  1. भौतिक संस्कृति मूर्त होती है।
  2. भौतिक संस्कृति संचयी होती है; अत: इसके अंगों एवं मात्रा में निरन्तर वृद्धि होती जाती
  3. चूंकि भौतिक संस्कृति मूर्त है, अत: उसे मापा जा सकता है।
  4. भौतिक संस्कृति की उपयोगिता एवं लाभ का मूल्यांकन सरल है।
  5. भौतिक संस्कृति में परिवर्तन शीघ्र होते हैं।
  6. एक स्थान से दूसरे स्थान पर संस्कृति का प्रसार होने पर भौतिक संस्कृति में बिना परिवर्तन हुए ही उसे ग्रहण किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, अमेरिकन फर्नीचर की डिजाइन, पेन, वेश-भूषा एवं मशीनों को हम बिना परिवर्तन के ग्रहण कर सकते हैं।
  7. भौतिक संस्कृति में कई विकल्प पाये जाते हैं। अत: व्यक्ति अपनी रुचि एवं आवश्यकता के अनुसार उनमें से चुनाव कर सकता है।

प्रश्न 6
सांस्कृतिक पर्यावरण व्यक्तित्व-निर्माण को कैसे प्रभावित करता है ?
उत्तर :
मानव जन्म से कुछ शारीरिक गुण एवं क्षमताएँ लेकर पैदा होता है, किन्तु संस्कृति लेकर नहीं। सांस्कृतिक पर्यावरण में ही मानव के गुणों व क्षमता का विकास होता है। समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति को समाज व संस्कृति की अनेक बातें सिखायी जाती हैं। व्यक्तित्व संस्कृति की ही देन है, संस्कृति के अभाव में व्यक्तित्व का समुचित विकास नहीं हो सकता। सांस्कृतिक पर्यावरण में रहकर ही व्यक्ति परम्पराओं, विश्वासों, नैतिकता, आदर्श आदि को ग्रहण करता है, जो उसके व्यक्तित्व का अंग बन जाते हैं। सांस्कृतिक पर्यावरण में भिन्नता के कारण ही हमें विभिन्न प्रकार के व्यक्तित्व देखने को मिलते हैं और व्यक्ति की मनोवृत्तियों, विचारों, विश्वासों एवं व्यवहारों में भिन्नता पायी जाती है। उदाहरणार्थ-भारत में किसी व्यक्ति का सम्मान करने के लिए लोग खड़े हो जाते हैं और हाथ जोड़ते हैं, जब कि अंग्रेज लोग सम्मान प्रकट करने के लिए सिर से अपना टोप उतार देते हैं। मुस्लिम स्त्रियाँ बुर्का पहनती हैं, किन्तु अमेरिकन स्त्रियाँ नहीं। स्पष्ट है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण में सांस्कृतिक पर्यावरण महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

प्रश्न 7
भौगोलिक तथा सांस्कृतिक पर्यावरण में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2009, 11, 13, 15]
उत्तर :
भौगोलिक़ पर्यावरणा से अभिप्राय प्राकृतिक पर्यावरण से है, जब कि सांस्कृतिक पर्यावरण मानव या समाज द्वारा निर्मित पर्यावरण है। दोनों में पर्याप्त अन्तर हैं, जो इस प्रकार हैं

  1. भौगोलिक पर्यावरण का सम्बन्ध प्रकृति से है; अत: यह मानव से स्वतन्त्र है, जब कि सांस्कृतिक पर्यावरण, मानव द्वारा निर्मित पर्यावरण है।
  2. भौगोलिक पर्यावरण में भौतिक वस्तुएँ, जल, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा आदि आते हैं, जब कि सांस्कृतिक पर्यावरण में भौतिक और अभौतिक दोनों प्रकार की वस्तुएँ आती हैं।
  3. भौगोलिक पर्यावरण मूर्त होता है, जब कि सांस्कृतिक पर्यावरण अमूर्त होती है।
  4. भौगोलिक पर्यावरण की अपेक्षा सांस्कृतिक पर्यावरण व्यक्तियों के जीवन को अधिक प्रभावित करता है।

प्रश्न 8
भौगोलिक पर्यावरण का धर्म तथा मानव-व्यवहार पर प्रभाव स्पष्ट कीजिए।
या
भौगोलिक पर्यावरण के चार प्रभावों का उल्लेख कीजिए। भौगोलिक पर्यावरण के दो अप्रत्यक्ष प्रभाव लिखिए। [2008]
या
भौगोलिक पर्यावरण के अप्रत्यक्ष प्रभावों का वर्णन कीजिए। [2011, 12]
या
भौगोलिक पर्यावरण के मानव व्यवहार पर दो प्रभाव बताइए। [2012, 15, 16]
उत्तर :
भौगोलिक पर्यावरण के चार प्रभाव निम्नलिखित हैं

1. धर्म पर प्रभाव – धर्म प्रत्येक समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। भौगोलिक निश्चयवादी इस बात पर बल देते हैं कि भौगोलिक पर्यावरण अथवा प्राकृतिक शक्तियाँ धर्म के विकास को प्रभावित करती हैं। मैक्स मूलर ने धर्म की उत्पत्ति का सिद्धान्त ही प्राकृतिक शक्तियों के भय से उनकी पूजा करने के रूप में प्रतिपादित किया है। जिन देशों में प्राकृतिक प्रकोप अधिक हैं, वहाँ पर धर्म का विकास तथा धर्म पर आस्था रखने वाले लोगों की संख्या अधिक होती है। एशिया की मानसूनी जलवायु के कारण ही यहाँ के लोग भाग्यवादी बने हैं। कृषिप्रधान देशों में इन्द्र की पूजा होना सामान्य बात है। वृक्ष, गंगा और गाय भारतीयों के लिए उपयोगी हैं; अतः ये सब पूजनीय हैं।

2. मानव-व्यवहार पर प्रभाव – भूगोलविदों का मत है कि मानवीय व्यवहारों, कार्यक्षमता, मानसिक योग्यता, आत्महत्या, अपराध एवं जन्म-दर और मृत्यु-दर पर जलवायु, तापक्रम एवं आर्द्रता आदि भौगोलिक कारकों का प्रभाव पड़ता है। लकेसन के अनुसार, “अपराध ऋतुओं के हिसाब में परिवर्तित होते हैं। सर्दियों में सम्पत्ति सम्बन्धी अपराध अधिक होते हैं और गर्मियों में व्यक्ति सम्बन्धी’’; उदाहरणार्थ-उपजाऊ भूमि, अनुकूल वर्षा तथा ठण्डे मौसम वाले क्षेत्रों में अपराध कम होते हैं। उनकी कार्यक्षमता भी अपेक्षाकृत अधिक होती है।

3. आर्थिक जीवन पर प्रभाव – किसी देश या समाज के आर्थिक क्षेत्र का निर्धारण वहाँ की भौगोलिक दशाओं से होता है। यदि किसी देश में उपजाऊ मैदान अधिक हैं, तो वहाँ का आर्थिक ढाँचा कृषि पर निर्भर होगा। यदि किसी देश में खनिज पदार्थों की अधिकता है, तो उस देश की आर्थिक उन्नति करने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। इसी प्रकार यदि भौगोलिक पर्यावरण ने उस देश को कच्चा माल और शक्ति के साधन प्रदान किये हैं, तो उस देश का आर्थिक संगठन उद्योगों पर आधारित होता है।

4. सामाजिक संगठन पर प्रभाव – कुछ लोगों का कहना है कि सामाजिक संगठनों का स्वरूप भौगोलिक दशाओं से निर्धारित होता है। जंगली प्रदेशों में कुटुम्ब बड़े होते हैं, क्योंकि लोगों को जंगली जानवरों से अपनी रक्षा सामूहिक रूप से करनी पड़ती है और उदर-पूर्ति के लिए भी मिलकर कार्य करना पड़ता है। नगरों में परिवार छोटे होते हैं, क्योंकि स्त्री-पुरुष अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति परिवार के बिना भी कर लेते हैं और इसलिए तलाकों की संख्या भी वहाँ अधिक होती है। रेगिस्तानों और घास के मैदानों में लोगों को अपने जानवरों को लेकर घूमना-फिरना पड़ता है, इसलिए उनके जीवन में स्थायित्व नहीं आ पाता। इसके विपरीत, खेती और उद्योग-धन्धे वाले क्षेत्रों के परिवारों में अधिक स्थायित्व होता है और उनके सामाजिक संगठनों में स्थिरता होती है।

प्रश्न 9
संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए। [2016]
उत्तर :
संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ संस्कृति की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं
1. सीखा हुआ व्यवहार – व्यक्ति समाज की प्रक्रिया में कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है। ये सीखे हुए अनुभव, विचार-प्रतिमान आदि की संस्कृति के तत्त्व होते हैं। इसलिए संस्कृति को सीखा हुआ व्यवहार कहा जाता है।

2. संगठित प्रतिमा – 
संस्कृति में सीखे हुए आचरण संगठित प्रतिमानों के रूप में होते हैं। संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति के आचरणों या इकाइयों में एक व्यवस्था और सम्बन्ध होता है। किसी भी मनुष्य का आचरण उसके पृथक्-पृथक् आचरणों की सूची नहीं होती।

3. हस्तान्तरण की विशेषता – 
संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित हो जाती है। संस्कृति का अस्तित्व हस्तान्तरण के कारण ही स्थायी बना रहता है। हस्तान्तरण की यह प्रक्रिया निरन्तर होती रहती है। समाजीकरण की प्रक्रिया संस्कृति के हस्तान्तरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

4. पार्थिव तथा अपार्थिव दोनों तत्त्वों का विद्यमान रहना – 
संस्कृति के अंतर्गत दो प्रकार के तत्त्व आते हैं—एक पार्थिव व दूसरा अपार्थिव। ये दोनों ही तत्त्व संस्कृति का निर्माण करते हैं। अपार्थिव स्वरूप को हम आचरण या क्रिया कह सकते हैं; अर्थात् जिन्हें छुआ या देखा न जा सके या जिनका कोई स्वरूप ही नहीं है; जैसे–बोलना, गाना, अभिवादन करना आदि। जिन पार्थिव या साकार वस्तुओं का मनुष्य सृजन करता है वे पार्थिव तत्त्वों के अन्तर्गत आती हैं; जैसे-रेडियो, मोटर साइकिल, टेलीविजन, सिनेमा आदि।

5. परिवर्तनशीलता – 
संस्कृति सदा परिवर्तनशील है। इसमें परिवर्तन होते रहते हैं, चाहे वे परिवर्तन धीरे-धीरे हों या आकस्मिक रूप में। वास्तव में संस्कृति मनुष्य की विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति की विधियों का नाम है। चूंकि समाज में परिस्थितियाँ सदा एक-सी नहीं रहती हैं, इसलिए आवश्यकताओं की पूर्ति की विधियों में भी परिवर्तन करना पड़ता है।

6. आदर्शात्मक – संस्कृति में सामाजिक विचार, व्यवहार प्रतिमान आदर्श रूप में होते हैं। इनके अनुसार कार्य करना सुसंस्कृत होने का प्रतीक माना जाता है। सभी मनुष्य संस्कृति के आदर्श प्रतिमानों के अनुसार अपने जीवन को बनाने का प्रयास करते हैं।

7. सामाजिकता का गुण – संस्कृति का जन्म समाज में तथा समाज के सदस्यों द्वारा होता है। मानव समाज के बाहर संस्कृति की रक्षा नहीं की जा सकती है। दूसरी ओर पशु-समाज में किसी प्रकार की संस्कृति नहीं पाई जाती है।

8. भिन्नता – प्रत्येक समाज की संस्कृति भिन्न होती है; अर्थात् प्रत्येक समाज की अपनी पृथक् प्रथाएँ, परम्पराएँ, धर्म, विश्वास, कला का ज्ञान आदि होते हैं। संस्कृति में भिन्नता के कारण ही विभिन्न समाजों में रहने वाले लोगों का रहन-सहन भिन्न होता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
‘भौगोलिक पर्यावरण क्या है? यह किस प्रकार मानव-समाज को प्रभावित करता है?
उत्तर :
भौगोलिक पर्यावरण प्रकृति द्वारा निर्मित पर्यावरण है। मनुष्य पर जिन प्राकृतिक शक्तियों का चारों ओर से प्रभाव पड़ता है, उसे ‘भौगोलिक पर्यावरण’ कहा जाता है। ये सभी शक्तियाँ स्वतन्त्र रहकर मानव को प्रभावित करती हैं। पर्वत, सरिता, वन, पवन, आकाश, पृथ्वी तथा जीव जगत् सभी भौगोलिक पर्यावरण के अंग हैं।

भौगोलिक पर्यावरण प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मानव-समाज को प्रभावित करता है। प्रत्यक्ष रूप में यह मानव-समाज को जनसंख्या, आवास, वेश-भूषा, खान-पान, पशु-जीवन आदि पर प्रभाव डालकर उसको प्रभावित करता है। अप्रत्यक्ष रूप में यह मानव-समाज को सामाजिक संगठन, आर्थिक संरचना, राजनीतिक संगठन, धार्मिक जीवन, साहित्य, कला आदि पर प्रभाव डालकर उनको प्रभावित करता है।

प्रश्न 2
मैकाइवर एवं पेज ने सम्पूर्ण पर्यावरण को क्या वर्गीकरण किया है ?
उत्तर :
मैकाइवर एवं पेज ने सम्पूर्ण पर्यावरण को दो प्रमुख भागों में विभाजित किया हैसामाजिक पहलू एवं भौतिक पहलू। सामाजिक पहलू के अन्तर्गत लोकरीतियों, प्रथाओं, कानूनों, संस्थाओं, सामाजिक सम्बन्धों, जातीय समूहों, वंशानुगत प्रथाओं, सामाजिक विरासत आदि को सम्मिलित किया गया है। भौतिक या प्राकृतिक पहलू बहुत विस्तृत है, इसे दो भागों में बाँटा गया है–

  • मानव द्वारा असंशोधित एवं
  • मानव द्वारा संशोधित।

प्रश्न 3
भौगोलिक पर्यावरण का जन्म-दर व मृत्यु-दर पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर :
भौगोलिक पर्यावरण एवं जन्म व मृत्यु-दर के बीच सह-सम्बन्ध बताते हुए जेनकिन (Jenkin) कहते हैं कि भूमध्य रेखा की ओर मृत्यु-दर अधिक व ध्रुवीय प्रदेशों की ओर कम होती जाती है। उष्ण प्रदेशों में शीत प्रदेशों की तुलना में जीवन-अवधि कम होती है। इसी प्रकार से जुलाई, अगस्त, सितम्बर व अक्टूबर में जन्म-दर अन्य महीनों की अपेक्षा अधिक एवं जनवरी, फरवरी व मार्च में बहुत कम होती है। मौसम का परिवर्तन यौन-व्यवहारों को प्रभावित करता है, जिससे जन्म-दर पर भी असर पड़ता है। प्राकृतिक विपदाएँ, रोग एवं महामारियाँ मृत्यु-दर को प्रभावित करती हैं। इस तरह प्राकृतिक कारक एवं जन्म तथा मृत्यु-दर परस्पर सम्बन्धित हैं।

प्रश्न 4
भौगोलिक पर्यावरण के चार प्रत्यक्ष प्रभाव बताइए।
उत्तर :
भौगोलिक पर्यावरण के चार प्रत्यक्ष प्रभाव निम्नवत् हैं
1. जनसंख्या पर प्रभाव – किसी देश की जनसंख्या कितनी होगी यह वहाँ की अनुकूल या भौगोलिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
2. आवास पर प्रभाव – भौगोलिक पर्यावरण का मनुष्य के आवास पर पर सीधा प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ-पर्वतीय क्षेत्रों में मकानों को बनाने में पत्थरों और लकड़ियों का अधिक प्रयोग होता है। वहीं, मैदानी इलाकों में ईंटों या मिट्टी आदि का।
3. वेशभूषा पर प्रभाव – भौगोलिक पर्यावरण का मनुष्य की वेशभूषा पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। गर्म जलवायु वाले देशों में लोग बारीक व ढीले वस्त्र पहनते हैं, वहीं ठण्डे क्षेत्रों में गर्म व चुस्त कपड़ों का अधिक उपयोग होता है। खान-पान पर प्रभाव-भोजन की सामग्री भी भौगोलिक पर्यावरण से प्रभावित होती है। जिस क्षेत्र में जो खाद्य पदार्थ अधिक होते हैं। उनका प्रचलन वहीं पर अधिक होता है।

प्रश्न 5
भौतिक तथा अभौतिक संस्कृति के दो-दो उदाहरण दीजिए। [2011, 12, 16]
या
संस्कृति के दो प्रकार कौन-कौन से हैं? [2011, 12]
या
संस्कृति के प्रकार लिखिए। [2015]
उत्तर :
अमेरिकन समाजशास्त्री ऑगबर्न ने संस्कृति को भौतिक और अभौतिक दो भागों में बाँटा है। उनके इस वर्गीकरण को अन्य वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है।

भौतिक संस्कृति के दो उदाहरण – भौतिक संस्कृति के अन्तर्गत मानव द्वारा निर्मित सभी भौतिक एवं मूर्त वस्तुओं को सम्मिलित किया जाता है जिन्हें हम देख सकते हैं, छू सकते हैं और इन्द्रियों द्वारा महसूस कर सकते हैं। भौतिक संस्कृति के दो उदाहरण हैं-मशीनें तथा परिवहन के साधन।

अभौतिक संस्कृति के दो उदाहरण – अभौतिक संस्कृति के अन्तर्गत उन सभी सामाजिक तथ्यों को सम्मिलित किया जाता है जो अमूर्त हैं; जिनकी कोई माप-तोल, आकार व रंग-रूप नहीं होता, वरन् जिन्हें हम महसूस कर सकते हैं। अभौतिक संस्कृति के दो उदाहरण हैं-आदर्श नियम तथा विचार।

प्रश्न 6
सभ्यता सदैव आगे बढ़ती है, किन्तु संस्कृति नहीं। कैसे ?
उत्तर :
सभ्यता सदैव आगे बढ़ती है, किन्तु संस्कृति नहीं; इसका प्रमुख कारण यह है कि सभ्यता उन्नतिशील है, वह निरन्तर प्रगति करती रहती है। आविष्कारों एवं खोजों के कारण उसमें समय-समय पर नवीन तत्त्व जुड़ते जाते हैं, किन्तु संस्कृति के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती। वैदिककालीन साहित्य, मनोरंजन, नैतिक आदर्श, प्रथाएँ, धर्म, कला, चित्रकारी आदि को आज के युग से कम या अधिक श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि संस्कृति की प्रगति की कोई दिशा निर्धारित नहीं होती है।

प्रश्न 7
सभ्यता साधन है, जब कि संस्कृति साध्य। कैसे ?
उत्तर :
सभ्यता साधन है, जब कि संस्कृति साध्य; इसका कारण यह है कि संस्कृति से मानव को सन्तुष्टि एवं आनन्द का अनुभव होता है। संस्कृति को प्राप्त करना स्वयं में एक उद्देश्य या साध्य है। इस संस्कृति (साध्य) को अपनाने के लिए सभ्यता का साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ-धर्म, कला एवं संगीत आदि हमें मानसिक शान्ति एवं आनन्द प्रदान करते हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए हम कई पवित्र भौतिक वस्तुओं, कलाकारी के उपकरणों एवं वाद्य-यन्त्रों का प्रयोग करते हैं, जो कि सभ्यता के अंग हैं।

प्रश्न 8
संस्कृति एवं सभ्यता के चार अन्तर बताइए। [2007, 14]
उत्तर :
संस्कृति एवं सभ्यता के चार अन्तर निम्नलिखित हैं
1. सभ्यता की माप सरल है, पर संस्कृति की नहीं – क्योंकि सभ्यता का सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं की उपयोगिता से है। संस्कृति की माप सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रत्येक समाज में अपनी मूल्य-व्यवस्था होती है तथा मूल्यों में भिन्नता का कोई सर्वमान्य पैमाना नहीं जिसके आधार पर संस्कृति को मापा जा सके।

2. सभ्यता सदैव आगे बढ़ती है, किन्तु संस्कृति नहीं – सभ्यता उन्नतिशील होती हैं और वह एक दिशा में निरन्तर प्रगति करती है, जब तक उसके मार्ग में बाधा न आये। संस्कृति के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती। उदाहरणार्थ-हम यह नहीं कह सकते कि कालिदास के नाटक आज के नाटकों से अच्छे हैं या बुरे।

3. सभ्यता साधन है, जब कि संस्कृति साध्य – संस्कृति से मानव को सन्तुष्टि प्राप्त होती है। संस्कृति को प्राप्त करना अपने आप में एक उद्देश्य, एक साध्य है। इस संस्कृति और साध्य को अपनाने के लिए, सभ्यता का साधने के रूप में प्रयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ-संगीत का आनन्द प्राप्त करने के लिए विभिन्न उपकरणों का प्रयोग किया जाता है।

4. सभ्यता बाह्य है, जब कि संस्कृति आन्तरिक – सभ्यता का सम्बन्ध जीवन की भौतिक वस्तुओं से है, जिनका अस्तित्व मूर्त रूप में मानव अस्तित्व के बाहर है। संस्कृति का सम्बन्ध मानव के आन्तरिक गुणों से है, उसके विचारों, विश्वासों, मूल्यों, भावनाओं एवं आदर्शो से है।

प्रश्न 9
सांस्कृतिक पर्यावरण का समाजीकरण की प्रक्रिया पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा एक व्यक्ति सामाजिक प्राणी बनता है, वह अपने समाज की संस्कृति को आत्मसात् करता है और अपने व्यक्तित्व का विकास करता है। परिवार, क्रीड़ासमूह, पड़ोस, नातेदारी-समूह, जाति एवं द्वितीयक समूहों के सम्पर्क से व्यक्ति का समाजीकरण होता है। वह अपने समाज के धर्म, रीति-रिवाजों, प्रथाओं, परम्पराओं आदि को ग्रहण करता है, जो कि सांस्कृतिक पर्यावरण के ही अंग हैं। हम समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा ही भाषा का प्रयोग करना सीखते हैं, किस शब्द का क्या अर्थ होगा, यह संस्कृति ही तय करती है। व्यक्ति में मानवीय गुणों का विकास भी समाजीकरण के द्वारा ही होता है। समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा हम किन बातों को सीखेंगे, यह हमारे सांस्कृतिक पर्यावरण पर ही निर्भर है।।

प्रश्न 10
चेतनात्मक (भौतिक) संस्कृति की चार विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
चेतनात्मक (भौतिक) संस्कृति की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. भौतिक संस्कृति मूर्त होती है।
  2. चूँकि भौतिक संस्कृति मूर्त है; अतः उसे मापा जा सकता है।
  3. भौतिक संस्कृति संचयी है; अत: इसके अंगों एवं मात्रा में निरन्तर वृद्धि होती जाती है।
  4. भौतिक संस्कृति की उपयोगिता एवं लाभ का मूल्यांकन सरल है।

प्रश्न 11
“हम जो भी सोचते हैं, करते हैं और रखते हैं वही हमारी संस्कृति है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
संस्कृति की सर्वोत्तम परिभाषा रॉबर्ट बीरस्टीड द्वारा दी गयी है। इनके अनुसार, संस्कृति एक जटिल सम्पूर्णता है जिसमें वे सभी विशेषताएँ सम्मिलित हैं जिन पर हम विचार करते हैं (we think), कार्य करते हैं (we do) और समाज के सदस्य होने के नाते उन्हें अपने पास रखते हैं (we have)।’ इस परिभाषा में संस्कृति के भौतिक और अभौतिक दोनों पक्षों को सम्मिलित किया गया है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि संस्कृति जैविकीय विरासत से सम्बन्धित न होकर सामाजिक विरासत का परिणाम है।

प्रश्न 12
प्राकृतिक पर्यावरण तथा सांस्कृतिक पर्यावरण का सम्बन्ध स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्राकृतिक पर्यावरण के अन्तर्गत सभी प्राकृतिक और भौगोलिक शक्तियों का समावेश होता है। पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, वनस्पति और जीव-जन्तु पर्यावरण के अंग हैं। प्राकृतिक पर्यावरण का मानव-जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। मनुष्य द्वारा निर्मित वस्तुओं का समग्र रूप का परिवेश सांस्कृतिक पर्यावरण कहलाता है। आवास, विद्यालय, टेलीविजन, मशीनें, धर्म, संस्कृति, भाषा, रूढ़ियाँ, सभी सांस्कृतिक पर्यावरण के अंग हैं। इन सभी का निर्धारण प्राकृतिक पर्यावरण द्वारा किया जाता है। इस प्रकार प्राकृतिक पर्यावरण हमारे रहनसहन, भोज्य पदार्थ, वस्त्र-चयन आदि सभी को प्रभावित करता है। इन दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध है।

प्रश्न 13
प्राकृतिक पर्यावरण और सांस्कृतिक पर्यावरण की किन्हीं दो विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
प्राकृतिक पर्यावरण की दो विशेषताएँ—

  1. प्राकृतिक पर्यावरण प्रकृति-प्रदत्त है तथा इसमें भौतिक वस्तुएँ; जैसे-नदी, पहाड़, नक्षत्र, पृथ्वी, समुद्र आदि आते हैं तथा
  2. प्राकृतिक पर्यावरण मानव, पशु और वनस्पति सभी को प्रभावित करता है।

सांस्कृतिक पर्यावरण की दो विशेषताएँ–

  1. सांस्कृतिक पर्यावरण केवल मानव को प्रभावित करता है तथा
  2. सांस्कृतिक पर्यावरण परिवर्तनशील है, मानव अपनी आवश्यकताओं के अनुसार इसमें संशोधन एवं परिवर्तन करता रहता है।

प्रश्न 14
प्राकृतिक पर्यावरण को उपयुक्त उदाहरणों सहित स्पष्ट कीजिए। [2013]
उत्तर :
प्राकृतिक पर्यावरण-जो भी वस्तुएँ प्रकृति ने मानव को प्रदान की हैं; जैसे–पानी, मिट्टी, जलवायु, भूमि, वनस्पति, नदियाँ आदि, वे सभी इसके अन्तर्गत आती हैं। प्राकृतिक पर्यावरण के दो भाग किये जा सकते हैं

  1. अनियन्त्रित पर्यावरण – इसके अन्तर्गत उन भौतिक तत्त्वों का समावेश होता है जिन पर मानव का कोई नियन्त्रण नहीं होता है।
  2. नियन्त्रित पर्यावरण – इसमें मानव द्वारा नियन्त्रण होता है; जैसे—मकान आदि। इसे औद्योगिक पर्यावरण भी कहा जाता है।

प्रश्न 15
‘भौगोलिक निश्चयवादी’ तथा ‘भौगोलिक निश्चयवाद’ से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
जो विद्वान् यह मानते हैं कि मानव के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक एवं शारीरिक सभी पक्ष भौगोलिक पर्यावरण से प्रभावित होते हैं, उन्हें भौगोलिक निश्चयवादी (निर्धारणवादी) एवं उनकी विचारधारा को भौगोलिक निश्चयवाद कहते हैं।

प्रश्न 16
सांस्कृतिक पर्यावरण किसे कहते हैं ?
उत्तर :
सांस्कृतिक पर्यावरण के अन्तर्गत धर्म, नैतिकता, प्रथाएँ, लोकाचार, कानून, व्यवहारप्रतिमान, समस्त भौतिक और अभौतिक वस्तुएँ; जैसे—रेल, मकान, सड़क आदि आते हैं, जिन्हें मनुष्य अपने अनुभवों एवं सामाजिक सम्पर्क के कारण सीखता है और उनके अनुरूप अपने को ढालने का प्रयास करता है।

प्रश्न 17
संस्कृति केवल मानव-समाज में ही क्यों पायी जाती है ?
उत्तर :
मनुष्य में कुछ ऐसी मानसिक एवं शारीरिक विशेषताएँ हैं जिनके कारण वह संस्कृति को निर्मित एवं विकसित कर सका है। अन्य प्राणियों में, मानवे के समान शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं के अभाव के कारण संस्कृति का निर्माण नहीं हो सका।

प्रश्न 18
भौतिक संस्कृति के अन्तर्गत किन वस्तुओं को सम्मिलित किया जाता है ?
उत्तर :
भौतिक संस्कृति के अन्तर्गत मानव द्वारा निर्मित सभी भौतिक एवं मूर्त वस्तुओं को सम्मिलित किया जाता है, जिन्हें हम देख सकते हैं, छू सकते हैं और इन्द्रियों द्वारा महसूस कर सकते हैं।

निश्चित उत्तररीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक पर्यावरण से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
सामाजिक पर्यावरण के अन्तर्गत मानवीय सम्बन्धों से निर्मित सामाजिक समूह, संगठन, समुदाय, समिति आदि आते हैं, जो व्यक्ति को जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रभावित करते हैं और उसका समाजीकरण करते हैं।

प्रश्न 2
भौगोलिक सम्प्रदाय से सम्बन्धित विचारकों के नाम लिखिए।
या
प्रमुख भौगोलिकविदों के नाम लिखिए।
या
भौगोलिक सम्प्रदाय के दो विचारकों के नाम लिखिए।
या
भौगोलिक सम्प्रदाय से सम्बन्धित दो समाजशास्त्रियों का नाम लिखिए। [2015]
उत्तर :
भौगोलिक सम्प्रदाय के प्रमुख विचारक मॉण्टेस्क्यू, लीप्ले, बकल, हंटिंग्टन आदि हैं।।

प्रश्न 3
भौगोलिक निश्चयवादी (निर्धारणवाद) विचारधारा को मानने वाले चार विद्वानों के नाम बताइए। [2012]
उत्तर :
भौगोलिक निश्चयवादी विचारधारा को मानने वाले चार विद्वान् हैं—अरस्तू, हिप्पोक्रेटिज, मॉण्टेस्क्यू और बकल।

प्रश्न 4
हंटिंग्टन ने प्रतिभा व सभ्यताओं के विकास के लिए क्या आवश्यक माना है ?
उत्तर :
हंटिंग्टन ने प्रतिभा व सभ्यताओं के विकास के लिए अनुकूल जलवायु का होना आवश्यक माना है।

प्रश्न 5
भौगोलिक निर्णयवाद की अवधारणा के जनक कौन हैं ?
उत्तर :
भौगोलिक निर्णयवाद की अवधारणा के जनक हंटिंग्टन हैं।

प्रश्न 6
“पर्यावरण वह सब कुछ है, जो किसी वस्तु को चारों ओर से घेरे हुए है और उसे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहा है।” यह कथन किसका है ?
उत्तर :
यह कथन जिसबर्ट का है।

प्रश्न 7
‘संस्कृति पर्यावरण का मानव-निर्मित भाग है।’ यह कथन किसका है ? [2007, 11, 12]
उत्तर :
यह कथन प्रमुख समाजशास्त्री हर्सकोविट्स का है।

प्रश्न 8
समाजशास्त्र में संस्कृति का क्या अर्थ है ?
उत्तर :
समाजशास्त्र में संस्कृति का अर्थ मानव-जाति के रहन-सहन, आचार-विचार, भावनाएँ, विश्वास और विचारों के समग्र रूप से है।

प्रश्न 9
ऑगबर्न द्वारा दिए गए संस्कृति के दो प्रकारों को लिखिए। [2013]
उतर :

  • प्रौद्योगिकीय विलम्बना,
  • सांस्कृतिक विलम्बना।

प्रश्न10
किस विद्वान ने प्राकृतिक परिस्थितियों को धार्मिक व्यवहार के साथ जोड़ने का प्रयास किया है ? [2007]
उतर :
मैक्स मूलर।

प्रश्न 11
संस्कृति के भौतिक पक्ष को क्या कहा गया है ? [2007, 10]
उत्तर :
संस्कृति के भौतिक पक्ष को सांस्कृतिक पर्यावरण कहा गया है।

प्रश्न 12
आदर्शात्मक संस्कृति की अवधारणा किसने दी ? [2011, 12]
उत्तर :
आदर्शात्मक संस्कृति की अवधारणा पिटरिम ए० सोरोकिन ने दी।

प्रश्न 13
संस्कृति को चेतनात्मक, विचारात्मक एवं आदर्शात्मक–तीनों प्रकारों में प्रस्तुत करने वाले समाजविज्ञानी कौन हैं?
उत्तर :
संस्कृति को तीनों प्रकारों में प्रस्तुत करने वाले समाजविज्ञानी चार्ल्स कूले हैं।

प्रश्न 14
चेतनात्मक संस्कृति किस समाजशास्त्री की अवधारणा है ? [2007, 11, 12]
उत्तर :
चेतनात्मक संस्कृति सोरोकिन की अवधारणा है।

प्रश्न 15
भौतिक एवं अभौतिक संस्कृति की अवधारणा किस समाजशास्त्री की है ? [2011, 16]
उत्तर :
भौतिक एवं अभौतिक संस्कृति की अवधारणा अमेरिकन समाजशास्त्री ऑगबर्न की है।

प्रश्न 16
‘सांस्कृतिक विलम्बना या पिछड़न किसकी अवधारणा है ?
या
सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त किसने प्रस्तुत किया ?
उत्तर :
‘सांस्कृतिक विलम्बना या पिछड़न’ ऑगबर्न की अवधारणा है।

प्रश्न 17
विचारात्मक (संवेदनात्मक) संस्कृति की अवधारणा किस समाजशास्त्री से . सम्बन्धित है ? [2012]
उत्तर :
विचारात्मक संस्कृति की अवधारणा मैकाइवर एवं पेज से सम्बन्धित है।

प्रश्न 18
मैकाइवर और पेज ने मानव द्वारा निर्मित पर्यावरण को क्या संज्ञा दी है ?
उत्तर :
मैकाइवर और पेज ने मानव द्वारा निर्मित पर्यावरण को सम्पूर्ण सामाजिक विरासत’ की संज्ञा दी है।

प्रश्न 19
सोरोकिन द्वारा वर्णित दो संस्कृतियों के नाम लिखिए। [2013]
उत्तर :
(i) भावात्मक संस्कृति,
(ii) संवेदनात्मक संस्कृति।

प्रश्न 20
समाजशास्त्र में प्रत्यक्षवाद के प्रणेता कौन हैं? [2015]
उत्तर :
आगस्त कॉम्टे।

प्रश्न 21
सभ्यता के विकास के लिए आदर्श जलवायु’ की कल्पना किसने की है?
उत्तर :
सभ्यता के विकास के लिए आदर्श जलवायु की कल्पना टॉयनबी ने की है।

प्रश्न 22
संस्कृति के दो प्रकार लिखिए।
उत्तर :
संस्कृति के दो प्रकार हैं-

  • भौतिक संस्कृति तथा
  • अभौतिक संस्कृति।

प्रश्न 23
सभ्यता की दो विशेषताएँ लिखिए। [2014, 15]
उत्तर :

  • सभ्यता संस्कृति के विकास का उच्च व जटिल स्तर है।
  • सभ्यता में परिवर्तनशीलता का गुण पाया जाता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न ( 1 अंक)

1. “पर्यावरण एक बाहरी शक्ति है, जो हमें प्रभावित करती है।” यह कथन किसका है ? [2015, 16, 17]
(क) जिसबर्ट
(ख) लैण्डिस
(ग) मोटवानी
(घ) रॉस

2. “भौगोलिक पर्यावरण में वे समस्त दशाएँ सम्मिलित हैं जो प्रकृति मनुष्य को प्रदान करती है।” यह कथन किसका है? [2013]
(क) सोरोकिन
(ख) पी० जिसबर्ट
(ग) मैकाइवर एवं पेज
(घ) एफ०एच० गिडिंग्स।

3. भौतिक संस्कृति का गुण होता है।
(क) स्थिरता
(ख) अमूर्तता
(ग) परिवर्तनशीलता
(घ) जटिलता

4. निम्नलिखित नामों में कौन भौगोलिकविद् नहीं है ?
(क) मॉण्टेस्क्यू
(ख) मैकाइवर
(ग) हंटिंग्टन
(घ) एच०टी० बकल

5. निम्नलिखित में कौन भौगोलिक (प्राकृतिक) पर्यावरण का तत्त्व है ?
(क) कृत्रिम वर्षा
(ख) पत्थर का मकान
(ग) मिट्टी के बर्तन
(घ) पेड़-पौधे

6. निम्नलिखित में से कौन-सा प्राकृतिक पर्यावरण से सम्बन्धित है ?
(क) सड़क के किनारे के पेड़
(ख) मकान
(ग) खनिज पदार्थ
(घ) पुराने मन्दिर

7. भौगोलिक पर्यावरण किन तत्त्वों से बनता है ?
(क) मनुष्य
(ख) प्राकृतिक दशाएँ
(ग) धार्मिक विश्वास
(घ) प्रथाएँ।

8. निम्नलिखित में से कौन भौगोलिक तत्त्व नहीं है ?
(क) नदी
(ख) आकाश
(ग) सूर्य
(घ) लकड़ी का फर्नीचर

9. निम्नलिखित में भौतिक संस्कृति का गुण है।
(क) बाध्यता का गुण
(ख) क्रमिक विकास का गुण
(ग) माप का गुण।
(घ) स्थिरता का गुण

10. सांस्कृतिक पर्यावरण का निर्माण होता है।
(क) धार्मिक विश्वासों द्वारा
(ख) प्राकृतिक दशाओं द्वारा
(ग) मनुष्य द्वारा
(घ) अलौकिक शक्तियों द्वारा

11. निम्नलिखित में आप किसे अभौतिक संस्कृति के अन्तर्गत नहीं रखेंगे ?
(क) उपन्यास को
(ख) भवन को
(ग) अन्धविश्वास को
(घ) संस्कार को

12. निम्नलिखित में से आप किसे सांस्कृतिक पर्यावरण में सम्मिलित करेंगे ?
(क) मौसम को
(ख) मन्दिर को
(ग) भाषा को
(घ) नदी को

13. निम्नलिखित में से किसे आप सांस्कृतिक पर्यावरण में सम्मिलित नहीं करेंगे ?
(क) भाषा को
(ख) रीति-रिवाज को
(ग) मार्गों की बनावट को
(घ) धार्मिक विश्वास को

14. निम्नलिखित में से कौन-सा अभौतिक संस्कृति का गुण है ?
(क) परिवर्तनशीलता का गुण
(ख) स्थिरता का गुण
(ग) माप का गुण
(घ) वैकल्पिकता का गुण

15. निम्नांकित में किसने ‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ की अवधारणा प्रस्तुत की हैं? [2015]
(क) आगस्त कॉम्टे
(ख) कार्ल मार्क्स
(ग) हरबर्ट स्पेन्सर
(घ) जॉर्ज सिपेल

16. संस्कृति की विशेषता है? [2016 ]
(क) संस्कृति मनुष्य द्वारा निर्मित होती है।
(ख) संस्कृति एक लिखित व्यवहार है।
(ग) संस्कृति अनुसूचित नहीं होती है।
(घ) इनमें से कोई नहीं

17. संस्कृतिकरण की अवधारणा किसने विकसित की? [2017]
(क) एम० एन० श्रीनिवास
(ख) ए० आर० देसाई
(ग) एस० सी० दूबे
(घ) राधाकमल मुखर्जी

उत्तर :

1. (घ) रॉस, 2. (ग) मैकाइवर एवं पेज, 3. (ग) परिवर्तनशीलता, 4. (ख) मैकाइवर, 5. (घ)पेड़-पौधे, 6. (ग) खनिज पदार्थ,
7. (ख) प्राकृतिक दशाएँ, 8. (घ) लकड़ी का फर्नीचर, 9. (ग) माप का गुण, 10. (ग) मनुष्य द्वारा, 11. (ख) भवन को,
12. (ग) भाषा को, 13. (ग) मार्गों की बनावट को, 14. (ख) स्थिरता का गुण, 15. (ख) कार्ल मार्क्स,
16.
(क) संस्कृति मनुष्य द्वारा निर्मित होती है, 17. (क) एम० एन० श्रीनिवास।

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