UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 3 Disaster Management

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 3
Chapter Name Disaster Management
(आपदा प्रबन्धन)
Number of Questions Solved 24
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 3 Disaster Management (आपदा प्रबन्धन)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
आपदा को परिभाषित करते हुए आपदाओं के प्रकारों का वर्णन कीजिए। या भूकम्प एवं बाढ़ पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:

आपदा

ऐसी कोई भी प्रत्याशित घटना जो टूट-फूट या क्षति, पारिस्थितिक विघ्न, जन-जीवन का ह्रास या स्वास्थ्य बिगड़ने का बड़े पैमाने पर कारण बने, आपदा कहलाती है।

विश्व बैंक के अनुसार, आपदाएँ अल्पावधि की एक असाधारण घटना है जो देश की अर्थव्यवस्था को गम्भीर रूप से अस्त-व्यस्त ही नहीं करतीं बल्कि सामाजिक एवं जैविक विकास की दृष्टि से भी विनाशकारी होती हैं।

दूसरे शब्दों में, प्राकृतिक अथवा मानव-जनित उन चरम घटनाओं को आपदा (Disaster) की संज्ञा दी जाती है, जब प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र के अजैविक तथा जैविक संघटकों की सहन-शक्ति की पराकाष्ठा या चरमसीमा हो जाती है, उनके द्वारा उत्पन्न परिवर्तनों के साथ समायोजन करना दुष्कर हो जाता है, धन व जन की अपार क्षति होती है, प्रलयंकारी स्थिति पैदा हो जाती है तथा ये ही चरम घटनाएँ विश्व स्तर पर समाचार-पत्रों, रेडियो व दूरदर्शन इत्यादि विभिन्न समाचार माध्यमों की प्रमुख सुर्खियाँ बन जाती हैं। वास्तव में देखा जाए तो आपदाएँ (Disasters) उपलब्ध संसाधनों (Existing Infra structure) का भारी विनाश करती हैं तथा भविष्य में होने वाले विकास का मार्ग अवरुद्ध करती हैं।

आपदाओं के प्रमुख रूप निम्नांकित हैं|-

  1. भूकम्प,
  2. चक्रवात,
  3. बाढ़,
  4. सामुद्रिक तूफान या ज्वारभाटा तरंगें,
  5. भूस्खलन,
  6. ज्वालामुखीय विस्फोटन,
  7. प्रचण्ड आँधी या तूफान,
  8. अग्नि (ग्रामीण, नगरीय, वानस्पतिक, आयुध व बारूद भण्डारण कारखानों में लगी अग्नि),
  9. तुषार तूफान,
  10. सूखा या अकाल,
  11. महामारी,
  12. आणविक विस्फोट व संग्राम इत्यादि।।

आपदाओं के प्रकार

प्रकृति जीवन की आधारशिला है, प्रकृति के बिना पृथ्वी पर जीवन सम्भव नहीं। प्रकृति की उदारता मानव जाति के लिए एक अनमोल उपहार है। प्रकृति जीवित रहने के लिए परम आवश्यक शाश्वत स्रोत है। हर जीव को प्रकृति जल, वायु, भोजन तथा रहने के लिए आश्रय प्रदान करती है। प्रकृति के इन बहुमूल्य उपहारों के साथ-साथ हम युगों से प्रकृति की विनाशलीला एवं उसका प्रलयंकारी प्रकोप भी देखते आ रहे हैं। जल, थल और नभ में होने वाली आकस्मिक हलचल से उत्पन्न संकट प्रायः आपदा (Disaster) का विकराल रूप धारण कर लेते हैं जिनसे जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है, जान व माल की काफी क्षति होती है, साथ ही आजीविका भी बुर’ तरह से प्रभावित होती है। भारत में आपदाओं की उत्पत्ति के कारकों के आधार पर इनको सामा यत: निम्नांकित दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है

  1. प्राकृतिक आपदाएँ (Natural Disasters),
  2. मानव-जनित आपदाएँ (Man-finade Disasters)।

प्राकृतिक आपदाएँ

भारत की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति के कारण हमारे देश में प्राकृतिक आपदाओं के घटने की सम्भावना बनी रहती है। भारत में कुछ प्रमुख प्राकृतिक आपदाएँ अग्रांकित हैं

  1. बाढ़े–अतिवृष्टि/ओलावृष्टि,
  2. सूखा-अकाल,
  3. भूकम्प,
  4. चक्रवात, आँधी व तूफान,
  5. भूस्खलन,
  6. बादल विस्फोटन एवं तड़ित विस्फोटन,
  7. सामुद्रिक तूफान,
  8. वातावरणीय आपदाएँ इत्यादि।

इनमें से कुछ प्रमुख आपदाओं का वर्णन शीर्षकवार निम्नलिखित है
1. भूकम्प – भूकम्प (Earthquakes) को महाप्रलयंकारी प्राकृतिक आपदा माना जाता है, जो आकस्मिक रूप से बिना किसी पूर्वसूचना के तीव्र गति से घटित होती है। सामान्यत: भूकम्प का शाब्दिक आशय भू-पर्पटी नामक भूमि की सतह में यकायक कम्पन पैदा होने से है। साधारणतया अधिकांश भूकम्प पहले बहुत धीमे अथवा मामूली कम्पन के रूप में प्रारम्भ होते हैं तथा ये शीघ्र ही अत्यन्त तीव्र रूप धारण कर लेते हैं। फिर धीरे-धीरे इनकी तीव्रता कम होती जाती है और अन्ततः कम्पन बन्द हो जाता है। भूमि के भीतर भूकम्प का उद्गम स्थान केन्द्र-बिन्दु कहा जाता है। केन्द्रबिन्दु के ठीक एकदम ऊपर पृथ्वी के धरातल पर स्थित बिन्दु को अधिकेन्द्र के नाम से जाना जाता है। भारत का लगभग 65% क्षेत्रफल मध्यम से तीव्र भूकम्प सम्भावी क्षेत्र है। गत 50 वर्षों में प्रायः देश के समूचे क्षेत्र में भूकम्प दृष्टिगोचर हुए हैं।

2. बाढे – जल प्रकृति द्वारा प्रदत्त एक अनमोल उपहार है जो प्रत्येक जीव-जन्तु एवं प्राणि के जीवन का आधार है, अर्थात् कोई भी जीव-जन्तु एवं प्राणि बिना जल के जीवित नहीं रह सकता, यह बात निर्विवाद सत्य है; किन्तु दूसरी ओर यह भी आश्चर्यजनक सत्य है। कि जब यही जल बाढ़ के रूप में होता है तो हजारों जीव, जन्तुओं के प्राणों की बलि ले लेता है, अर्थात् बाढ़ का जल जान व माल दोनों का भक्षक हो जाता है। जब जल अपने नियमित स्तर से ऊपर उठकर या अपने नियमित मार्ग से विचलित होकर निर्द्वन्द्व स्थिति में अवांछित दिशाओं में बहता है तो ऐसी स्थिति बाढ़ की स्थिति हो जाती है जो कि जान व
माल दोनों के लिए काफी खतरनाक होती है।

सामान्यतः बाढ़े धीरे-धीरे आती हैं और इनके आने में कई घण्टों का समय लग जाता है, किन्तु भारी वर्षा, बाँधों के टूटने, चक्रवात (Cyclones) या समुद्री तूफान आने के कारण बाढ़े अचानक या अति शीघ्र भी आ जाती हैं। जब नदी का जल स्तर बढ़ने की वजह से आस-पास के किनारे के मैदानों में पानी फैलने लग जाए तो इसे नदी तटीय बाढ़ कहा जाता है। अत्यधिक वर्षा अथवा अत्यधिक बर्फ पिघलने के कारण नदी तटीय बाढ़ आने की सम्भावना प्रबल हो जाती है; क्योंकि अत्यधिक वर्षा तथा अत्यधिक बर्फ पिघलने से जल की मात्रा नदियों की धारण क्षमता से अधिक हो जाती है और यही अतिरिक्त अधिक जल बाढ़ का रूप धारण कर लेता है। ज्वार, समुद्री तूफान, चक्रवात एवं सुनामी लहरों के कारण समुद्रीय तटवर्तीय क्षेत्रों में बाढ़े आती हैं। नदी तल पर अवसाद (मृदा के ऐसे सूक्ष्म कण जो नदी के जल में बहकर नदी के तल या बाढ़ वाले मैदान में फैल जाते हैं, अवसाद कहलाते हैं) का जमाव होने से ज्वार की स्थिति के कारण तटवर्ती क्षेत्रों में बाढ़ का संकट और भी अधिक खतरनाक व घातक हो जाता है, जो जान व माल को काफी नुकसान तथा आजीविका को अत्यधिक खतरा पैदा कर देता है।

अन्त में निष्कर्षतः कहा जा सकता है, कि भारी वर्षा, अत्यधिक बर्फ पिघलने, चक्रवात, सुनामी, बाँध टूटने इत्यादि के कारण जलाशयों, झीलों तथा नदियों के जल स्तर में वृद्धि होने से आस-पास के विशाल क्षेत्र का अस्थायी तौर पर जलमग्न हो जाना ही बाढ़ कहा जाता है। यह एक प्राकृतिक आपदा है।

3. भूस्खलन – जमीन के खिसकने को भूस्खलन कहा जाता है। यह विश्व में घटने वाली विशाल प्राकृतिक आपदाओं (Major Natural Disasters) यो विपत्तियों (Calamities) में से एक है। भू-गतिशील क्षेत्रों की पट्टियों (Belts of Geodynamic Areas) में ही अधिकतर भूस्खलन दृष्टिगोचर होता है। इसके अलावा भारी वर्षा के प्रभाव से बाढ़ आ जाने से पहाड़ी क्षेत्रों में भी भूस्खलन (Landslides) हो जाता है। विशेष रूप से हिमालय पर्वतीय क्षेत्रों (Himalyan Mountains Areas) तथा उत्तर:-पूर्व के पहाड़ी क्षेत्रों में प्रायः सर्वाधिक भूस्खलन सतत् होते रहते हैं। इस आपदा से प्रभावित पूरे क्षेत्र में जान-माल की भारी मात्रा में क्षति होती है अर्थात् पूरा ही क्षेत्र बुरी तरह से तबाह हो सकता है, साथ ही पूरे पर्वतीय क्षेत्र में भूस्खलन के कारण यातायात एवं संचार-व्यवस्था एकदम ठप या अवरुद्ध हो जाती है। भूस्खलन (Landslides), मलबा गिरने (Debris Fall), मलबा खिसकने (Debris Slide), मलबा बहने (Debris Flow) तथा चट्टान लुढ़कने (Rock Toppling) इत्यादि से ढलान एवं जमीन की सतह (Slope and Ground Surface) काफी क्षतिग्रस्त हो जाती है जिसकी वजह से प्रभावित क्षेत्रों में अनियन्त्रित रूप से मृदा अपरदन (Soil Erosion) होता रहता है।

4. सूखा – सूखा भी एक प्राकृतिक आपदा है जिसका मुख्य कारण लम्बे समय तक अनावृष्टि (अर्थात् वर्षा का न होना) है। वर्षा का न होना अथवा अनिश्चित वर्षा का होना प्राकृतिक कारण है जिसे न तो मानव के किसी प्रयास द्वारा बदला जा सकता है और न उसे नियन्त्रित ही किया जा सकता है। संक्षेप में, किसी क्षेत्र में वर्षा न होने अथवा अति कम वर्षा होने के परिणामस्वरूप उत्पन्न भोजन, जल, पशु, चारे, वनस्पतियों एवं रोजगार में कमी वाली स्थिति या अभावग्रसित स्थिति को ही सूखा (Drought) कहा जाता है। प्रायः सूखा ही अकाल का कारण बनता है। आन्ध्र प्रदेश, ओडिशा, पश्चिमी उत्तर: प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान इत्यादि प्रान्तों में तो सूखे की समस्या का प्रायः प्रतिवर्ष ही सामना करना पड़ जाता है।

5. चक्रवात – उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में वायुमण्डल के अन्तर्गत कम दाब व अधिक दाब प्रवणता वाले क्षेत्र को चक्रवात की संज्ञा दी जाती है। चक्रवात एक प्रबल भंवर की भॉति होता है जिसके दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों की विपरीत दिशा (Anticlockwise Direction) में तथा उत्तर:ी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों की दिशा (Clockwise Direction) में तीव्र हवाओं (जो कि कभी-कभी लगभग 350 किमी/घण्टे की गति से अधिक) के साथ-साथ तीव्र मूसलाधार वर्षा होती है एवं विशाल महासागरीय लहरें उठती हैं। चक्रवात के एकदम मध्य केन्द्र में एक शान्त क्षेत्र होता है जिसे साधारणतया चक्रवात की आँख (Eye) कहा जाता है। चक्रवात की आँख वाले क्षेत्र में मेघ बिल्कुल नहीं होते तथा हवा भी काफी धीमे वेग से बहती है, किन्तु इसे शान्त ‘आँख’ के चारों तरफ 20-30 किमी तक विस्तृत मेघों की दीवार का क्षेत्र होता है, जहाँ झंझावातीय पवने (Gale) मूसलाधार बारिश वाले मेघों के साथ-साथ गर्जन व बिजली की चमक भी पायी जाती है। चक्रवात का व्यास कई सौ किमी के घेरे वाला होता है। चक्रवात के केन्द्र में स्थित आँख का व्यास भी लगभग 20-25 किमी का होता है। चक्रवात (Cyclones) में जान व माल दोनों को भारी क्षति होती है।

चक्रवात प्रायः भूमध्य रेखा के 5-20 डिग्री उत्तर:-दक्षिण अक्षांश (Latitude) के मध्य में ही आते हैं। बंगाल की खाड़ी में उत्पन्न होने वाले चक्रवातों का प्रकोप विशेष तौर पर भारत के पूर्वी तटीय भाग में दृष्टिगोचर होता है। पश्चिमी बंगाल, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के तटीय भाग चक्रवात के भीषण प्रकोप, तीव्र गति की पवनों, बाढ़ों तथा तूफानी लहरों का शिकार होते हैं। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि बंगाल की खाड़ी एवं अरब सागर में प्रलयंकारी भीषण चक्रवातों की संख्या विश्व के अन्य चक्रवात सम्भावित क्षेत्रों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक है। भारत के चक्रवात (Cyclones); जैसे—तूफान, प्रशान्त महासागर में टाइफून, अटलांटिक महासागर में हरीकेन तथा ऑस्ट्रेलिया में विलीविली नामों से उद्घोषित किए जाते हैं।

6. सुनामी – “सुनामी जापानी भाषा का शब्द है, जो दो शब्द “सू (Tsu)” अर्थात् समुद्री किनारा या बन्दरगाह (Harbour) तथा “नामी (Nami)” अर्थात् लहरों (Waves) से बना है। सुनामी लहरें ऐसी लहरें हैं जो भूकम्पों (Earthquakes), ज्वालामुखीय विस्फोटन (Volcanic Eruptions) अथवा जलगत भूस्खलनों (Underwater Landslides) के कारण उत्पन्न होती हैं। इन लहरों की ऊँचाई 15 मीटर या उससे अधिक होती है तथा ये समुद्रतट के आस-पास की बस्तियों (Coastal Communities) को एकदम तहस-नहस (तबाह) कर देती हैं। ये सुनामी लहरें 50 किमी प्रति घण्टे की गति से कई किमी के क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लेती हैं। सुनामी लहरें किसी भी दिन तथा किसी भी समय आ सकती हैं। सुनामी लहरों की ताकत को मापा जा सकना एक दुष्कर कार्य है। बहुत बड़ी-बड़ी एवं वजनदार चट्टानें भी इसके आवेग के सामने असहाय हो जाती हैं। जब ये लहरें उथले पानी (Shallow water) में प्रविष्ट होती हैं तो ये भयावह शक्ति (Devastating Force) के साथ तट से टकराकर काफी ऊँची उठ जाती हैं। किसी बड़े भूकम्प (Major Earthquake) के आने से कई घण्टों तक सुनामी (T-sunami) का खतरा बने रहने की आशंका रहती

प्रश्न 2
मानव-जनित आपदाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

मानव-जनित आपदाएँ

ये आपदाएँ मनुष्य की गलतियों या मूर्खता की वजह से उत्पन्न होती हैं। मानव-जनित आपदाओं का वर्णन निम्नलिखित है
1. रासायनिक एवं औद्योगिक आपदाएँ – जब खतरनाक रसायनों का प्रयोग उद्योगों में होता है अथवा जब इन रसायनों का असावधानीपूर्वक गैर-जिम्मेदारी के साथ प्रयोग किया जाता है, तभी रासायनिक आपदा उत्पन्न होती हैं। इसके अतिरिक्त औद्योगिक दुर्घटनाओं में भी ये ही रसायन रिसकर रासायनिक आपदा का कारण बन जाते हैं। रासायनिक हथियारों में आसानी से उपलब्ध होने वाले रसायनों का प्रयोग किया जाता है। इन रासायनिक हथियारों से भी रासायनिक आपदा उत्पन्न होने की सम्भावना बलवती हो जाती है।

2. जैविक आपदाएँ – जैविक आपदाओं के घटने का प्रमुख कारण जैविक हथियारों का प्रयोग है। खेतों में कीटाणुनाशक विषैले रसायनों का छिड़काव करने वाले विमानों से अथवा स्प्रे गन से ये विषैले कीटाणु सुगमता से फैलाये जा सकते हैं जिनके परिणामस्वरूप जैविक आपदाएँ उत्पन्न हो जाती हैं।

3. आग – जहाँ एक ओर आग (Fire) हमारे लिए जीवनदायिनी है, वहीं दूसरी ओर यह अनेक कारणों से हमारे लिए आपदा भी उत्पन्न करती है। ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रीष्मकाल (मार्च से जून तक) में जब भयंकर गर्मी पड़ रही होती है और उस दौरान मुख्य फसल (गेहूँ इत्यादि) खुले में शुष्क रूप में ऐसे ही पड़ी रहती है तथा उसी समय गर्म आँधी व तूफान भी प्रायः अपना प्रकोप दर्शाते हैं, तब लापरवाही से हमारे द्वारा फेंकी गई एक छोटी-सी चिंगारी आग का एक भीषण रूप धारण कर सकती है, जिससे खुले मैदान में पड़ा हुआ सारा अनाज भीषण आग की चपेट में आ जाता है तथा हमें भारी नुकसान सहना पड़ जाता है। प्रायः देखने में आता है कि आये दिन रसोई गैस सिलिण्डर फटने, मोटरगाड़ियों में गैर-कानूनी ढंग से एल०पी०जी० सिलिण्डर फटने इत्यादि की घटनाएँ अखबारों में पढ़ने को मिलती रहती हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में आग की चपेट में अनेक वृक्षों को जलकर राख बनते हुए देखा गया है, वहीं दूसरी ओर विभिन्न त्यौहारों; जैसेहोली, दीपावली, क्रिसमस-डे तथा बारा-वफात इत्यादि पर असुरक्षित ढंग से खुशी में पटाखों को चलाने में हमें असावधानी के कारण भारी क्षति का सामना करना पड़ जाता है। इसके अलावा विभिन्न आयुध कारखानों एवं बारूद भण्डारगृहों में आग लग जाने से हमें अनावश्यक हानि उठानी पड़ जाती है।

4. नाभिकीय आपदाएँ – रेडियोधर्मी अवपात (नाभिकीय बम विस्फोट, नाभिकीय परीक्षण), नाभिकीय रिएक्टरों के व्यर्थ पदार्थ, नाभिकीय रिएक्टरों में विस्फोट एवं एक्स-रे मशीनों इत्यादि के कारण ही नाभिकीय आपदाएँ घटती हैं। परमाणविक पदार्थों को चुराकर बनाए जाने वाले बम डर्टी बम (Dirty Bomb) कहे जाते हैं जिनका प्रयोग आतंकवादी प्रायः आतंक फैलाने में करते हैं।

5. दुर्घटनाएँ – प्रतिदिन अनेक लोग भारतवर्ष में किसी-न-किसी दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं। इन दुर्घटनाओं में मुख्यत: सड़क दुर्घटनाएँ, रेल दुर्घटनाएँ तथा हवाई दुर्घटनाएँ सम्मिलित हैं। प्राय: न्यूज चैनलों तथा समचार-पत्रों में भीषण रेल दुर्घटनाओं के बारे में सुनने को मिलता है कि आमने-सामने की भिड़न्त तथा रेलगाड़ियों का पटरी से उतर जाना भयंकर रेल दुर्घटनाओं का द्योतक है जिससे जान व माल का भारी नुकसान हो जाता है।

6. आतंकवादी हमले – निर्दोष व्यक्तियों को जान-बूझकर बम इत्यादि का विस्फोट करके मौत के घाट उतारना आतंकवादी हमला कहा जाता है। इसके अन्तर्गत विमानों का अपहरण करके उन्हें विस्फोट द्वारा उड़ाना, सार्वजनिक प्रमुख स्थलों पर हवाई हमले करना एवं आत्मघातियों के माध्यम से विस्फोट करवाना तथा टाइम बम व कार बम इत्यादि विस्फोटक अप्रत्याशित स्थलों पर छुपाकर रखना आदि शामिल हैं।

7. महामारी – महामारी को किसी भयंकर संक्रामक बीमारी के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, शीघ्र ही विस्तृत क्षेत्र में फैल जाने वाली अप्रत्याशित रूप से घटने वाली, स्वास्थ्य को कुप्रभावित करने वाली एवं असंख्य लोगों को मौत के घाट उतारने वाली संक्रामक भयंकर बीमारी को महामारी की संज्ञा दी जा सकती है। मरीजों की संख्या बढ़ने पर ही महामारी संज्ञान में आती है। कभी-कभी तो महामारी के बारे में बीमारी वाहकों (Disease Carriers) के मरने से पता चल जाता है; जैसे–प्लेग नामक महामारी का पता चूहों के भारी संख्या में मरने से लग जाता है।

प्रश्न 3
भू-स्खलन एवं सूखा प्राकृतिक आपदाएँ हैं। इनके कारण एवं प्रभावों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:

भू-स्खलन

पर्वतीय ढालों का कोई भाग जब जल-भार की अधिकता एवं आधार चट्टानों के कटाव के कारण अपनी गुरुत्वीय स्थिति से असन्तुलित होकर अचानक तीव्रता के साथ सम्पूर्ण अथवा विच्छेदित खण्डों के रूप में गिरने लगता है तो यह घटना भू-स्खलन कहलाती है। भू-स्खलन प्रायः तीव्र गति से आकस्मिक रूप से उत्पन्न होने वाली प्राकृतिक आपदा हैं। भौतिक क्षति और जन-हानि इसके दो प्रमुख दुष्प्रभाव हैं। भारत में इस आपदा का रौद्र रूप हिमालय पर्वतीय प्रदेश एवं पश्चिमी घाट में बरसात के दिनों में अधिक देखा जाता है। वस्तुतः हिमालय प्रदेश युवावलित पर्वतों से बना है, जो विवर्तनिक दृष्टि से अत्यन्त अस्थिर एवं संवेदनशील भू-भाग है। यहाँ की भूगर्भिक संरचना भूकम्पीय तरंगों से प्रभावित होती रहती है, इसलिए यहाँ भू-स्खलन की घटनाएँ अधिक होती रहती हैं।

भू-स्खलन के कारण  

सामान्यतः भू-स्खलन का मुख्य कारण पर्वतीय ढालों या चट्टानों का कमजोर होना है। चट्टानों के कमजोर होने पर उनमें घुसा पानी चट्टानों को बाँधकर रखने वाली मिट्टी को ढीला कर देता है। यही ढीली हुई मिट्टी ढाल की ओर भारी दबाव डालती है। इस मलबे के तल के नीचे सूखी चट्टानें ऊपर के भारी और गीले मलबे एवं चट्टानों का भार नहीं सँभाल पाती हैं, इसलिए वह नीचे की ओर खिसक आती हैं और भू-स्खलन हो जाता है। पहाड़ी ढालों और चट्टानों के कमजोर पड़ने के कई कारण हो सकते हैं; जैसे—

  1. पूर्व में आया भूकम्प,
  2. पृथ्वी की आन्तरिक हलचलों से चट्टानों में उत्पन्न भ्रंश,
  3. अत्यधिक वर्षा के कारण तीव्र भू-क्षरण,
  4. चट्टानों के भीतर रासायनिक क्रियाओं का होना,
  5. पहाड़ी ढालों पर वनस्पति का न होना या वन-विनाश,
  6. पहाड़ों पर बड़े बाँध और बड़ी इमारतें बनाने से पहाड़ों पर बढ़ता दबाव आदि।

अतः भू-स्खलन की उत्पत्ति या कारणों के सम्बन्ध में निम्नलिखित बिन्दुओं को निर्दिष्ट किया जा सकता है

  1. भू-स्खलन भूकम्पों या अचानक शैलों के खिसकने के कारण होते हैं।
  2. खुदाई या नदी-अपरदन के परिणामस्वरूप ढाल के आधार की ओर भी तेज भू-स्खलन हो जाते हैं।
  3. भारी वर्षा या हिमपात के दौरान तीव्र पर्वतीय ढालों पर चट्टानों पर बहुत बड़ा भाग जल तत्त्व की अधिकता एवं आधार के कटाव के कारण अपनी गुरुत्वीय स्थिति से असन्तुलित होकर अचानक तेजी के साथ विखण्डित होकर गिर जाते हैं। क्योंकि जल-भार के कारण चट्टानें स्थिर नहीं रह सकती हैं; अतः चट्टानों पर दबाव की वृद्धि भू-स्खलन का मुख्य कारण होती है।
  4. कभी-कभी भू-स्खलन का कारण त्वरित भूकम्प, बाढ़, ज्वालामुखी विस्फोट, अनियमित वन कटाई तथा सड़कों का अनियोजित ढंग से निर्माण भी होता है।
  5. सड़क एवं भवन बनाने के लिए लोग प्राकृतिक ढलानों को सपाट स्थिति में परिवर्तित कर देते हैं। इस प्रकार के परिवर्तनों के परिणामस्वरूप भी पहाड़ी ढालों पर भू-स्खलन होने लगते हैं।

वास्तव में, भू-स्खलन को प्रेरित करने में मुख्य भूमिका ढाल के ऊपर स्थित ‘बोझ’ तथा जल-दबाव की उपस्थिति है। पर्वतीय ढालों पर चट्टानों के बीच में भरे जल के कारण चट्टानों का आधार अस्थिर होता रहता है इसलिए चट्टानें टूटकर ढालों के सहारे नीचे खिसकती रहती हैं जो भू-स्खलन की आवृत्ति में वृद्धि करती रहती हैं; अत: मुलायम व कमजोर पारगम्य चट्टानों में रिसकर जमा हुए हिम या जल का बोझ ही पर्वतीय ढालों पर टूटने और खिसकने का प्रमुख कारण है।

सूखा

सूखा एक ऐसी आपदा है जो दुनिया के किसी-न-किसी भाग में लगभग नियमित रूप से अपना प्रभाव डालती है। यह ऐसी आपदा है जिसमें कृषि, पशुपालन तथा मनुष्य की सामान्य आवश्यकता से कम जल उपलब्ध होता है। शुष्क व अर्द्धशुष्क भागों में यह स्थिति सामान्य समझी जाती है क्योंकि जल का कम उपलब्ध होना उनकी नियति बन गया है, परन्तु पर्याप्त वर्षा या जल-क्षेत्रों में, जब वर्षा कम होती हैं या लम्बे समय तक वर्षा न हो और स्थायी जल-स्रोत भी सूखने लगे तो वहाँ सूखा एक एक भारी आपदा बन जाती है। अगर मौसम विज्ञान की सरल शब्दावली में कहें तो दीर्घकालीन औसत के आधार पर किसी स्थान पर 90 प्रतिशत से कम वर्षा होना सूखे की स्थिति मानी जाती है।

सूखा आपदा के कारण

वस्तुत: सूखा एक प्राकृतिक आपदा माना जाता है, परन्तु वर्तमान समय में मनुष्य के पर्यावरण के प्रति दोषपूर्ण व्यवहार, अनियोजित भूमि उपयोग, वन-विनाश, भूमिगत जल पर अत्यधिक दबाव एवं जलसंसाधन का कुप्रबन्ध भी सूखा आपदा के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। अतः प्राकृतिक एवं मानवकृत सूखा संकट के निम्नलिखित कारण अधिक महत्त्वपूर्ण हैं—

1. जलचक्र – वर्षा जलचक्र के नियमित संचरण, प्रवाह एवं प्रक्रिया का परिणाम है, किन्तु जब कभी जलचक्र में अवरोध उत्पन्न हो जाता है तो वर्षा के अभाव के कारण सूखा-संकट की स्थिति आ जाती है। आधुनिक विकास, जो कि जलचक्र की प्राकृतिक प्रक्रिया के विरुद्ध है, ने जलचक्र की कड़ियों को तोड़ दिया है जिसके परिणामस्वरूप अतिवृष्टि या अनावृष्टि की समस्या उत्पन्न होने लगी है।

2. वनविनाश – प्राकृतिक वनस्पति जल-संग्रहण व्यवस्था का अभिन्न अंग है। वनों एवं प्राकृतिक वनस्पति के विनाश से जलचक्र प्रक्रिया प्रभावित हुई है, क्योंकि वन एवं वनस्पति एक ओर तो वर्षा-जल के संचय में सहायक होते हैं, दूसरी ओर भूमि आर्द्रता को सुरक्षा प्रदान करती है, यही परिस्थितियाँ जलचक्र को भी नियमित रखने एवं जल-स्रोतों को सूखने से बचाती हैं। देश में हिमालय पर्वतीय क्षेत्र एवं ओडिशा का कालाहांडी क्षेत्र इसके प्रमुख उदाहरण हैं, जहाँ सघन वनों के कारण अब से 30 वर्ष पूर्व सूखा-संकट नहीं था, किन्तु अब इन क्षेत्रों को नियमित सूखा-संकट झेलना पड़ता है।

3. भूमिगत जल का अधिक दोहन – भूमिगत जल-स्रोतों के अत्यधिक दोहन के कारण भी देश के कई प्रदेशों में सूखा को सामना करना पड़ता है। पि जल की कमी और जलाभाव के लिए वर्षा की कमी को दोषी माना जाता है किन्तु मात्र वर्षा कम होने या न होने से ही भूजल समाप्त नहीं होता। भूजल लम्बी अवधि में रिसकर एकत्र होने वाली प्रक्रिया है। यदि किसी वर्ष वर्षा न हो तो भूमिगत जल समाप्त नहीं हो सकता है लेकिन जब भूमिगत जलनिकासी की दर रिचार्ज दर से अधिक हो जाती है तो भूमिगत जल-भण्डार कम हो जाते हैं या भूजल स्तर में अत्यधिक गिरावट आ जाती है। देश के पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर: प्रदेश में इसी कारण सूखे कुओं की संख्या में तेजी आई है तथा आए वर्ष सूखने की समस्या का सामना करना पड़ रहा है।

4. नदी मार्गों में परिवर्तन – सततवाहिनी नदियाँ केवल सतही पानी का प्रवाहमात्र नहीं होती अपितु यह नदियाँ भूमिगत जल-स्रोतों को भी जल प्रदान करती हैं। नदी का मार्ग बदल जाने पर निकटवर्ती भूमिगत जल-स्रोत सूखने लगते हैं। महाराष्ट्र में येरला नदी पर कृत्रिम बाँध बनाने के कारण मार्ग परिवर्तन करने से निचले क्षेत्रों के सभी कुएँ सूख गए हैं, क्योंकि इन कुओं को इसी नदी से भू-जल के माध्यम से पानी मिलता था।

5. खनन कार्य – देश के अनेक भागों में अवैज्ञानिक ढंग से किया गया खनन कार्य भी सूखा संकट का प्रभावी कारण होता है। हिमालय की तराई एवं दून घाटी क्षेत्रों में जहाँ वार्षिक वर्षा का औसत 250 सेमी से अधिक रहता है, अनियोजित खनन कार्यों के कारण जलस्रोत सूख गए हैं। दून एवं मसूरी की पहाड़ियों में चूना चट्टानें जो भूमिगत जल को एकत्र करने में सहायक होती हैं, का अत्यधिक खनन किया गया है इसलिए यहाँ चूना चट्टानें वनस्पतिविहीन हो गई हैं और अब वर्षा का जल तेजी से बह जाने के कारण भूमिगत जल रिचार्ज की दर न्यूनतम हो गई है; अतः इस क्षेत्र के अनेक प्राकृतिक जल-स्रोत सूख गए।

6. मिट्टी का संघटन – मिट्टी जैविक संघटन द्वारा बना प्रकृति का महत्त्वपूर्ण पदार्थ है जो स्वयं जल एवं नमी का भण्डार होता है। वर्तमान समय में मिट्टी का संघटन असन्तुलित हो गया है इसलिए मिट्टी की जलधारण क्षमता अत्यन्त कम हो गई है। जैविक पदार्थ (वनस्पति आदि) मिट्टी की जलधारण क्षमता में नाटकीय वृद्धि करते हैं। पानी और नमी सुरक्षा की यह विधि उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में विशेष महत्त्व रखती है। क्योंकि यहाँ मौसमी वर्षा होती है। यह मौसमी वर्षा ही सूखे मौसम में पौधों के लिए नमी प्रदान करती है। वर्तमान समय में भूमि-क्षरण के कारण मिट्टी का वनस्पति आवरण कम हो गया है, इसलिए मिट्टी में जलधारण क्षमता के अभाव के कारण सूखा-संकट का सामना अधिक करना पड़ता है।

प्रश्न 4
आपदा-प्रबन्धन के प्रकारों का उल्लेख करते हुए आपदा-प्रबन्धन के घटकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

आपदा-प्रबन्धन

आपदा के प्रभाव को कम करने अथवा इससे राहत पाने के क्रिया-कलाप प्रबन्धन कहलाते हैं। आपदा-प्रबन्धन के अन्तर्गत आकस्मिक परिस्थितियों तथा प्राकृतिक आपदाओं के हानिकारक प्रभावों को कम करने हेतु राहत कार्यों की व्यवस्था करना एवं आपदा से ग्रसित व्यक्तियों की सहायता करना एवं उन्हें आपदा के दुष्प्रभाव से बचाने के लिए एक रचनात्मक रूपरेखा तैयार करना शामिल है। इसके अतिरिक्त आपदा-प्रबन्धन में आपदा से बचाव हेतु आपदा से पूर्व की जाने वाली तैयारी, आपदा आने पर उसके दुष्प्रभाव को कम करने, उसका सामना करने के लिए सावधानी तौर पर किये जाने वाले उपाय तथा आपदा घटित होने के बाद किये जाने वाले राहत तथा पुनर्वास कार्य भी आपदा-प्रबन्धन में शामिल हैं
आपदा-प्रबन्धन के प्रकार आपदा प्रबन्धन की मुख्यत: निम्नांकित तीन अवस्थाएँ हैं

  1. आपदाओं से पहले प्रबन्धन-आपदाओं के घटने से पहले किये जाने वाले प्रबन्धन के अन्तर्गत मानव, भौतिक एवं पर्यावरण सम्भावित हानियों का यथासम्भव कम करना तथा सुनिश्चित करना कि ये हानियाँ आपदा के दौरान कम-से-कम दृष्टिगोचर हो
  2. आपदाओं के दौरान प्रबन्धन-आपदा से ग्रसित लोगों अथवा पीड़ितों के लिए फ्र्याप्त खाद्य सामग्री एवं उनकी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करना।
  3. आपदाओं के उपरान्त प्रबन्धन-इस प्रबन्धन के अन्तर्गत तेजी से पुनर्लाभ (Recovery) करना एवं सामान्यतः वापस लाना इत्यादि कार्य आते हैं।

आपदा-प्रबन्धन के घटक
राष्ट्र मण्डल सरकार ने आपदा प्रबन्धन के जिन घटकों की पहचान की है, वे घटक निम्नांकित हैं–

  1. तैयारी,
  2. प्रत्योत्तर एवं राहत,
  3. आपदा से उबरना तथा पुनर्वास,
  4. रोक/योजना/ आपदा कम करना।

पी०आर०आर०पी० द्वारा आपदा-प्रबन्धन का प्रतिनिधित्व दर्शाया जा सकता है जो कि निम्नवत् है

1. पी० (P) तैयारी Preparedness इसके अन्तर्गत इस बात को सुनिश्चित किया जाता है। कि समाज तथा समुदाय आपदा का सामना करने के लिए तैयार हैं। ये उपाय निम्नांकित ।

  • पूर्वाभ्यास, प्रशिक्षण तथा अभ्यास–आपदा का सामना करने के लिए तैयारी करने हेतु पूर्वाभ्यास, प्रशिक्षण तथा अभ्यास किये जाते हैं, ताकि आपदा के दौरान व्यक्तियों में प्रतिरोधक शक्ति का समुचित विकास हो सके।
  • समुदाय की जागरूकता तथा शिक्षा-आपदा के बारे में पहले से ही समुदाय को जागरूक किया जाता है, साथ ही विभिन्न समुदायों के व्यक्तियों को इसके बारे में शिक्षा प्रदान कर उन्हें शिक्षित भी किया जाता है।
  • आपदा-प्रबन्धन की योजना तैयार करना-देश के विभिन्न समुदायों, विद्यालयों, प्रशिक्षण संस्थानों तथा व्यक्तियों के लिए आपदा-प्रबन्धन की एक प्रभावी योजना तैयार की जाती है तथा उस योजना के क्रियान्वयन की समुचित व्यवस्था की जाती
  • पारस्परिक सहायता की व्यवस्था–आपस में एक-दूसरे की सहायता करने के लिए समुदाय को प्रेरित किया जाता है।
  • संसाधनों एवं मानवीय क्षमताओं की सूची तैयार करना–संसाधनों तथा मानवीय क्षमताओं की सूची तैयार की जाती है जिसकी सहायता से आपदा के दौरान इसके कुप्रभाव को यथासम्भव कम करने का रचनात्मक प्रयास किया जा सकता है।
  • समुचित चेतावनी प्रणाली की व्यवस्था करना-आपदा घटने से पूर्व समुचित चेतावनी प्रणाली की व्यवस्था की जाती है जिसका प्रयोग करके आपदा के दौरान व्यक्तियों को आपदा के खतरे का मुकाबला करने के लिए सचेत किया जाता है।
  • संवेदनशील समूहों की पहचान करना-संवेदनशील समूहों की पहचान की जाती है और इन्हीं को ध्यान में रखकर आपदा-प्रबन्धन के दौरान एक प्रभावी योजना तैयार की जाती है।

2. आर० (R) प्रत्योत्तर एवं राहत Response and Relief प्रत्योत्तर व राहत के अन्तर्गत ऐसे उपाय किये जाते हैं जिससे आपदा से पूर्व, आपदा के दौरान तथा आपदा के उपरान्त होने वाले सम्भावित नुकसान या हानि को यथासम्भव कम किया जा सके। कुछ प्रमुख उपाय निम्नांकित हैं–

  • आपदा-प्रबन्धन योजनाओं को साकार करने हेतु उन्हें क्रियान्वित किया जाता है।
  • आपातकालीन नियन्त्रण कक्ष की स्थापना की जाती है और उन्हें क्रियाशील बनाया जाता है।
  • लोगों को नवीनतम चेतावनी देकर आगाह किया जाता है। आपदा से ग्रसित व्यक्तियों की सहायतार्थ चिकित्सा शिविरों की स्थापना की जाती है। विभिन्न उपयोगी संसाधनों को एकत्र किया जाता है जिनका उपयोग व्यक्तियों के कष्टों को दूर करने में किया जाता है।
  • सामुदायिक रसोई की व्यवस्था की जाती है जिसमें स्थानीय व्यक्तियों को काम में लगाया जाता है।
  • खोज व बचाव दल गठित कर उन्हें अपने-अपने काम पर लगाया जाता है ताकि राहत कार्य सुचारु रूप से सम्पन्न हो सके।
  • आपदा से बचाव के लिए लोगों को उचित आश्रय दिया जाता है जिनमें मूत्रालय व शौचालय की भी सुव्यवस्था होती है।
  • तम्बू वे सचल घर इत्यादि की व्यवस्था भी की जाती है।
  • यातायात की समुचित व्यवस्था की जाती है।

3. आर० (R) आपदा से उबारना तथा पुनर्वास Recovery and Rehabilitation इसके
अन्तर्गत आपदा से पीड़ित व्यक्तियों को आपदा के कुप्रभाव से उबारने के यथासम्भव प्रयास, आर्थिक एवं भावनात्मक कल्याणकारी कार्य किये जाते हैं। कुछ प्रमुख उपाय निम्नांकित हैं|

  • आपदा से पीड़ित व्यक्तियों को राहत सामग्री उपलब्ध करायी जाती है और उन्हें आश्रय दिये जाते हैं।
  • आपदाग्रसित मकानों के मलबे में से आवश्यक निर्माण सामग्री (Building Materials) एकत्र करके उससे पीड़ितों के मकानों के पुनःनिर्माण का कार्य प्रारम्भ किया जाता है।
  • पीड़ितों को यथासम्भव आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है।
  • पीड़ित व्यक्तियों के लिए रोजगार के अवसर तलाश किये जाते हैं और उन्हें उचित रोजगार प्रदान किया जाता है।
  • पीड़ितों के लिए नये घरों के निर्माण की योजना का क्रियान्वयन किया जाता है।
  • लोगों को स्वास्थ्य एवं सुरक्षा उपायों का बोध कराया जाता है तथा लोगों में स्वास्थ्य एवं सुरक्षा सम्बन्धी जागरूकता लाने के प्रयास किये जाते हैं।
  • जिन लोगों के नजदीकी रिश्तेदार आपदा में गुम हो गये हैं या जान गंवा चुके हैं. उन लोगों के लिए परामर्श कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं और उन्हें सान्त्वना प्रदान की जाती है।
  • आपदा से ध्वस्त संचार व यातायात के साधनों को पुनः क्रियाशील कराकर आवश्यक सेवाओं को दोबारा चालू कराया जाता है।
  • जल आपूर्ति की व्यवस्था को चालू कराया जाता है एवं पीने के लिए शुद्ध पानी उपलब्ध कराया जाता है।
  • जल निस्तारण (Water Disposal) की उचित व्यवस्था की जाती है।

4. पी० (P) आपदा के खतरे को रोकना, आपदा – प्रबन्धन की योजना तैयार करना
तथा आपदा के प्रभाव को कम करना Prevention of Hazard due to Disaster, Planning of Disaster Management and Mitigation इसके अन्तर्गत आपदा के कुप्रभाव को कम करना, उसकी योजना तैयार करना तथा आपदा को समाप्त करने या रोकने के पर्याप्त उपाय किये जाते हैं। कुछ प्रमुख उपाय निम्नांकित हैं–

  • आपदा घटित होने से पहले सम्भावित खतरों को कम करने के यथासम्भव उपाय किये जाते हैं।
  • समुदाय को जागरूक किया जाता है, साथ ही उन्हें शिक्षित भी किया जाता है।
  • आपदा अवरोधक मकान/भवन बनाये जाते हैं।
  • भूमि उपयोग की योजना तैयार की जाती है।
  • संवेदनशील एवं खतरे से ग्रस्त क्षेत्रों में मकान बनाये जाने पर प्रतिबन्ध लगाया जाता
  • घरों, स्कूलों, निजी तथा सार्वजनिक भवनों के ढाँचों की गुणवत्ता (Quality of Structure) को सुधारा जाता है।
  • जल आपूर्ति वे जल निस्तारण की व्यवस्था को सुधारा जाता है।

प्रश्न 5
राज्य आपदा अधिकारी के कर्तव्य एवं अधिकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

राज्य आपदा अधिकारी-कर्त्तव्य एवं अधिकार

राज्य आपदा अधिकारी के कर्त्तव्य एवं अधिकार निम्नलिखित प्रकार हैं।
1. राज्य स्तर – राज्य स्तर पर प्राकृतिक आपदाओं का मुकाबला करने की व्यवस्था को उत्तर:दायित्व मुख्यतः राज्य सरकारों का होता है। केन्द्रीय सरकार का कार्य राज्य सरकारों को अपेक्षित मानवीय तथा आर्थिक सहायता प्रदान करना होता है। राज्य सरकार स्तर पर राज्य का तत्कालीन मुख्यमन्त्री अथवा मुख्य सचिव मुख्य आपदा प्राधिकारी होता है, जो राज्य स्तर की आपदा प्रबन्धन कमेटी का अध्यक्ष होता है। यह अध्यक्ष ही राज्य के अन्तर्गत होने वाले समस्त राहत कार्यों का संचालन तथा प्रबन्धन का सारा उत्तर:दायित्व सँभालता है। राज्य में राहत कमिश्नर (Relief Commissioner) समस्त बचाव, राहत तथा पुनर्वास सम्बन्धी कार्यों का प्रभारी (Incharge) होता है, जो आपदाओं के दौरान राज्य स्तर की आपदा-प्रबन्धन कमेटी के आदेशों व निर्देशों के अधीन ही समस्त कार्य करता है। कुछ राज्यों में राजस्व विभाग (Revenue Department) का राजस्व सचिव (Revenue Secretary) बचाव, राहत तथा पुनर्वास सम्बन्धी कार्यों की देख-रेख करता है। प्रत्येक राज्य की अपनी निजी राहत पुस्तिका (Revenue Manual) होती है जिसे राज्य राहत कोड (State Relief Code) के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त राज्य पृथक् रूप से अपनी राज्य आपातकालीन योजना (State Contingency Plan) को तैयार करता है तथा इस योजना के अन्तर्गत ही आपदाओं का प्रबन्धन किया जाता है।

2. जिला स्तर – जिला स्तर पर समस्त सरकारी आदेशों व निर्देशों का अक्षरशः अनुपालन करने को उत्तर:दायित्व जिला प्रशासन का होता है। जिला स्तर पर प्रतिदिन के बचाव, राहत तथा पुनर्वास कार्यों के क्रियान्वयन का पूर्ण उत्तर:दायित्व जिला मजिस्ट्रेट, डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर या डिप्टी कमिश्नर पर होता है। यह अधिकारी अन्य विभागों के क्रिया-कलापों पर निगरानी रखता है और यही व्यक्ति राहत कार्यों को समन्वयन करता है। 73वें और 74वें संविधान संशोधन विधेयक में पंचायतों को स्वशासी संस्थाओं का दर्जा प्रदान किया गया है जिसके आधार पर ये संस्थाएँ आपदाओं के दौरान द्रुत चेतावनी पद्धतियों, राहत सामग्री के आवंटन, आपदाग्रसित व्यक्तियों को आश्रय तथा उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। जिला स्तर पर जिला आपदा-प्रबन्धन समिति का गठन किया जाता है। यह समिति जिला मजिस्ट्रेट की अध्यक्षता में बनाई जाती है। इस समिति में सदस्य के रूप में स्वास्थ्य विभाग, पशु चिकित्सा विभाग, सिंचाई विभाग, जल तथा सफाई विभाग, पुलिस, अग्निशमन विभाग, राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की गैर-सरकारी संस्थाओं के अधिकारी होते हैं। उपर्युक्त जिला आपदा-प्रबन्धन समिति आपदा प्रबन्धन टीमों की आवश्यकतानुसार सहायता लेती है; क्योंकि ये टीमें राहत के विभिन्न कार्यों में प्रशिक्षण प्राप्त किये होती हैं; जैसे—अग्निशमन, पुलिस तथा स्वास्थ्य सेवी संस्थाएँ इत्यादि। जिला स्तर पर आपदा-प्रबन्धन समिति के कार्य मुख्यत: जिला स्तर पर आपदा-प्रबन्धन योजना तैयार करना, आपदा-प्रबन्धन टीमों के प्रशिक्षण का आयोजन करना तथा मॉक ड्रिल कराना इत्यादि हैं।

3. ब्लॉक स्तर – ब्लॉक स्तर पर आपदा-प्रबन्धन समिति का नोडल ऑफिसर (Nodal Officer), ब्लॉक विकास अधिकारी (Block Development Officer) या तालुका विकास अधिकारी (Taluka Development Officer) होता है। ब्लॉक स्तर पर गठित की गई आपदा-प्रबन्धन समिति का अध्यक्ष नोडल अधिकारी होता है। इस कमेटी के अन्य सदस्य समाज कल्याण विभाग, स्वास्थ्य विभाग, ग्रामीण जल योजना एवं सफाई विभाग, पुलिस, अग्निशमन तथा अन्य युवा संगठनों के अधिकारीगणों के प्रतिनिधि होते हैं तथा इसके अतिरिक्त समुदाय आधारित संगठन गैर-सरकारी संस्थाओं के प्रतिनिधि प्रमुख वरिष्ठ नागरिक एवं चुने गए प्रतिनिधि भी इस कमेटी के सदस्य चुने जा सकते हैं। ब्लॉक स्तर पर गठित आपदा प्रबन्धन समिति के कार्य मुख्यत: ब्लॉक स्तर की आपातकालीन योजनाओं का निर्माण करना, ब्लॉक प्रशासन की आपदा-प्रबन्धन में आवश्यक सहायता करना, आपदा-प्रबन्धन दलों (Teams) के प्रशिक्षण की व्यवस्था करना व उनकी क्रियाओं के बीच उचित समन्वय करना तथा मॉक ड्रिल कराना इत्यादि हैं।

(iv) ग्राम स्तर – ग्राम स्तर पर आपदा-प्रबन्धन समिति का अध्यक्ष गाँव-प्रधान अथवा सरपंच
होता है। ग्राम आपदा-प्रबन्धन समिति के कार्य मुख्यत: ग्राम आपदा-प्रबन्धन योजना को तैयार करना, विभिन्न समाज-सेवी संस्थाओं के साथ उचित समन्वय स्थापित करना, आपद-प्रबन्धन टीम का निर्माण करना तथा उस टीम के प्रशिक्षण की व्यवस्था करना तथा विभिन्न आपदाओं/
खतरों के विषय में समय-समय पर या अनवरत रूप में मॉक ड्रिल कराना है।

प्रश्न 6
आपदा-प्रबन्धन से आप क्या समझते हैं ? कौन-कौन सी संस्थाएँ इस कार्य में संलग्न हैं?
या
भारत में आपदा-प्रबन्धन की विवेचना कीजिए। [2015]
उत्तर:
आपदा-प्रबन्धन प्राकृतिक आपदाओं के जोखिम को कम करने अर्थात् उनके प्रबन्धन के तीन पक्ष हैं

  • आपदाग्रस्त लोगों को तत्काल राहत पहुँचाना,
  • प्रकोपों तथा आपदाओं की भविष्यवाणी करना तथा
  • प्राकृतिक प्रकोपों से सामंजस्य स्थापित करना।।

आपदाग्रस्त लोगों को राहत पहुँचाने के लिए निम्नलिखित उपाय आवश्यक हैं।
1. आपदा की प्रकृति तथा परिमाण को वास्तविक चित्र उपलब्ध होना चाहिए। प्रायः मीडिया की रिपोर्ट घटनाओं का वास्तविक चित्र प्रस्तुत करने की अपेक्षा भ्रमपूर्ण तथ्य प्रस्तुत करती है। (यद्यपि ऐसा जान-बूझकर नहीं किया जाता है, पर्यवेक्षक या विश्लेषणकर्ता के व्यक्तिगत मत के कारण ऐसा होता है)। अतएव, अन्तर्राष्ट्रीय समुदायों को सम्बन्धित सरकार से जानकारी हासिल करनी चाहिए।

2. निवारक तथा राहत कार्यों को अपनाने से पहले प्राथमिकताएँ निश्चित कर लेनी चाहिए। उदाहरणार्थ-राहत कार्य घने आबाद क्षेत्रों में सर्वप्रथम करने चाहिए। बचाव के विशिष्ट उपकरण, मशीनें, पम्प, तकनीशियन आदि तुरन्त आपदाग्रस्त क्षेत्रों में भेजने चाहिए। दवाएँ या औषधियाँ भी उपलब्ध करानी चाहिए।

3. विदेशी सहायता सरकार के निवेदन पर ही आवश्यकतानुसार भेजनी चाहिए अन्यथा आपदाग्रस्त क्षेत्र में अनावश्यक सामग्री सम्बन्धी भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तथा समस्याएँ अधिक जटिल हो जाती हैं।

4. प्राकृतिक आपदाओं के प्रबन्धन में शोध तथा भविष्यवाणी का बहुत महत्त्व है। प्राकृतिक आपदाओं की पूर्वसूचना (भविष्यवाणी) किसी प्राकृतिक आपदा से ग्रस्त क्षेत्र में आपदा की आवृत्ति, पुनरावृत्ति के अन्तराल, परिमाण, घटनाओं के विस्तार आदि के इतिहास के अध्ययन के आधार पर की जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, बड़े भूस्खलन के पूर्व किसी क्षेत्र में पदार्थ का मन्द सर्पण लम्बे समय तक होता रहता है; किसी विस्फोटक ज्वालामुखी उद्गार के पूर्व धरातल में साधारण उभार पैदा होता है तथा स्थानीय रूप से भूकम्पन होने लगता है। नदी बेसिन के संग्राहक क्षेत्र में वर्षा की मात्रा तथा तीव्रता के आधार पर सम्भावित. बाढ़ की स्थिति की भविष्यवाणी सम्भव है। स्रोतों के निकट उष्णकटिबन्धीय चक्रवातों तथा स्थानीय तूफानों एवं उनके गमन मार्गों का अध्ययन आवश्यक है।

5. प्राकृतिक प्रकोपों एवं आपदाओं का मानचित्रण करना, मॉनीटर करना तथा पर्यावरणीय दशाओं में वैश्विक परिवर्तनों का अध्ययन करना बहुत आवश्यक है। इसके लिए वैश्विक, प्रादेशिक एवं स्थानीय स्तरों पर आपदा-प्रवण क्षेत्रों का गहरा अध्ययन आवश्यक होता है। इण्टरनेशनल काउन्सिल ऑफ साइण्टिफिक यूनियन (ICSU) तथा अन्य संगठनों ने मानवीय क्रियाओं तथा प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले पर्यावरणीय परिवर्तनों की क्रियाविधि, मॉनीटरिंग तथा उन्हें कम करने सम्बन्धी अनेक शोधकार्य प्रारम्भ किये हैं। आपदा-शोध तथा आपदा कम करने सम्बन्धी कुछ महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम निम्नलिखित हैं—

(i) SCOPE-ICSU ने साइण्टिफिक कमेटी ऑन प्रॉब्लम्स ऑफ एनवायरन्मेण्ट नामक समिति की स्थापना 1969 में की, जिसका उद्देश्य सरकारी तथा गैर-सरकारी संगठनों के लिए पर्यावरण पर मानवीय प्रभावों तथा पर्यावरणीय समस्याओं सम्बन्धी घटनाओं की समझ में वृद्धि करना है। SCOPE यूनाइटेड नेशन्स के एनवायरन्मेण्ट कार्यक्रम (UNEP), यूनेस्को के मानव एवं बायोस्फियर कार्यक्रम (MAB) तथा wMO के वर्ल्ड क्लाइमेट प्रोग्राम (wCP) की भी सहायता करता है।

(ii) IGBP-ICSU ने अक्टूबर, 1988 में स्टॉकहोम (स्वीडन) में इण्टरनेशनलजिओस्फियर- बायोस्फियर कार्यक्रम (IGBP) या ग्लोबल चेंज कार्यक्रम (GCP) भूमण्डलीय पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दों का अध्ययन करने के लिए प्रारम्भ किया। यह कार्यक्रम भौतिक पर्यावरण के अन्तक्रियात्मक प्रक्रमों के अध्ययन पर बल देता है। ये अध्ययन उपग्रह दूर संवेदी तकनीकों, पर्यावरणीय मॉनीटरिंग तथा भौगोलिक सूचना तन्त्रों (GIS) पर आधारित हैं।

(iii) HDGC–सामाजिक वैज्ञानिकों ने ‘ह्यूमन डाइमेन्शन ऑफ ग्लोबल चेंज’ (HDGC) नामक एक समानान्तर शोध कार्य चालू किया है। यह कार्यक्रम GNU, ISSC तथा IFIAS जैसे संगठनों से सहायता तथा वित्त प्राप्त करता है।

(iv) IDNDR-UNO ने 1990-2000 के लिए IDNDR (International Decade for Natural Disaster Reduction) कार्यक्रम प्रारम्भ किया जिसका उद्देश्य विश्व की प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं का अध्ययन करना तथा मानव समाज पर उसके घातक प्रभावों को कम करना था। इसके अन्तर्गत भूकम्प, ज्वालामुखी उद्गार, भू-स्खलन, सुनामी, बाढ़, तूफान, वनाग्नि, टिड्डी-प्रकोप तथा सूखा जैसे प्रक्रम सम्मिलित हैं। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत निम्नलिखित सम्मिलित हैं

  • प्रत्येक देश में प्राकृतिक आपदाओं की पूर्व चेतावनी प्रणाली स्थापित करने की क्षमता में सुधार करना।
  • प्राकृतिक आपदाओं को कम करने सम्बन्धी जानकारी बढ़ाने के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विकसित करना।
  • प्राकृतिक आपदाओं के आकलन, भविष्यवाणी, रोकने तथा कम करने की दिशा में वर्तमान तथा नयी सूचनाओं का संग्रह करना।
  • अनेक विधियों तथा प्रदर्शन परियोजनाओं के माध्यम से प्राकृतिक आपदाओं के आकलन, भविष्यवाणी, रोकने तथा कम करने के उपाय करना।

6. प्राकृतिक प्रकोपों को कम करने हेतु आपदा शोध में निम्नलिखित सम्मिलित हैं

  • प्राकृतिक प्रकोप एवं आपदा के कारकों तथा क्रियाविधि का अध्ययन।
  • प्राकृतिक प्रकोपों तथा आपदा के विभाव (सम्भावना) का वर्गीकरण एवं पहचान करना तथा आँकड़ा-आधार तैयार करना जिसमें पारितन्त्र के भौतिक तथा सांस्कृतिक घटकों, परिवहन एवं संचार साधनों, भोजन, जल एवं स्वास्थ्य सुविधाओं, प्रशासनिक सुविधाओं आदि का मानचित्रण करना सम्मिलित हैं। प्राकृतिक आपदा शोध का महत्त्वपूर्ण पक्ष दूर संवेदन, इंजीनियरिंग, इलेक्ट्रॉनिक तकनीकों से धरातलीय जोखिम के क्षेत्रों की पहचान करना है।

7. आपदा कम करने के कार्यक्रम में आपदा सम्बन्धी शिक्षा की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस शिक्षा का आधार व्यापक होना चाहिए तथा यह वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, नीति एवं निश्चयकर्ताओं तथा जनसाधारण तक जनसंचार के माध्यमों (समाचार-पत्र, रेडियो, टेलीविजन, पोस्टरों, डॉक्यूमेण्ट्री फिल्मों आदि) द्वारा पहुँचनी चाहिए। अधिकांश देशों में जनता को आने वाली आपदा की सूचना देने का उत्तर:दायित्व सरकार का होता है। अतएव शोधकर्ताओं एवं वैज्ञानिकों को निश्चयकर्ताओं (प्रशासकों एवं राजनीतिज्ञों) को निम्नलिखित उपायों द्वारा शिक्षित करने की आवश्यकता है

  • निश्चयकर्ताओं तथा सामान्य जनता को प्राकृतिक प्रकोपों एवं आपदाओं के प्रति सचेत करना तथा उन्हें स्थिति का सामना करने के लिए प्रशिक्षित करना।
  • समय से पहले ही सम्भावित आपदा की सूचना देना।
  • जोखिम तथा संवेदनशीलता के मानचित्र उपलब्ध कराना।
  • लोगों को आपदाओं से बचने के लिए निर्माण कार्य में सुधार करने के लिए प्रेरित करना।
  • आपदा कम करने की तकनीकों की व्याख्या करना।

8. भौगोलिक सूचना तन्त्र (GIS) तथा हवाई सर्वेक्षणों द्वारा प्राकृतिक आपदा में कमी तथा प्रबन्धन कार्यक्रमों में सहायता मिल सकती है।
9. जनता को प्राकृतिक आपदाओं के साथ सामंजस्य करने की आवश्यकता है, जिसमें निम्नलिखित सम्मिलित हैं|

  • प्राकृतिक संकटों एवं आपदाओं के प्रति व्यक्तियों, समाज एवं संस्थाओं के बोध (Perception) एवं दृष्टिकोण में परिवर्तन।
  • प्राकृतिक संकटों एवं आपदाओं के प्रति चेतना में वृद्धि।
  • प्राकृतिक संकटों एवं आपदाओं की समय से पूर्व चेतावनी का प्रावधान
  • भूमि उपयोग नियोजन (उदाहरणार्थ–आपदा प्रवण क्षेत्रों की पहचान तथा सीमांकन एवं लोगों को ऐसे क्षेत्रों में बसने के लिए हतोत्साहित करना)।
  • सुरक्षा बीमा योजनाओं द्वारा जीवन एवं सम्पत्ति की हानि के मुआवजे का प्रावधान करना, जिससे समय रहते लोग अपने घर, गाँव, नगर आदि छोड़ने के लिए तैयार रहें।
  • आपदा से निपटने की तैयारी को प्रावधान।

प्रश्न 7 सुनामी क्या है? इसकी उत्पत्ति के कारण तथा बचाव के उपाय बताइए।
उत्तर:

सुनामी

प्राकृतिक आपदाओं में समुद्री लहरें अर्थात् सुनामी सबसे विनाशकारी आपदा है। सुनामी जापानी मूल का शब्द है जो दो शब्दों ‘सू’ (बन्दरगाह) और ‘नामी’ (लहर) से बना है, अर्थात् सुनामी बन्दरगाह की ओर आने वाली समुद्री लहरें हैं। इन लहरों की ऊँचाई 15 मीटर या उससे अधिक होती है और ये तट के आस-पास की बस्तियों को तबाह कर देती हैं। सुनामी लहरों के कहर से पूरे विश्व में हजारों लोगों के काल-कवलित होने की घटनाएँ इतिहास में दर्ज हैं। भारत तथा उसके निकट समुद्री द्वीपीय देश श्रीलंका, थाईलैण्ड, मलेशिया, बांग्लादेश, मालदीव और म्यांमार आदि में 26 दिसम्बर, 2004 को इसी प्रलयकारी सुनामी ने करोड़ों की सम्पत्ति का विनाश कर लाखों लोगों को काल का ग्रास बनाया था। इस विनाशकारी समुद्री लहर की उत्पत्ति सुमात्रा के पास सागर में आए भूकम्प से हुई थी। रिक्टर पैमाने पर 9.0 तीव्रता के इस भूकम्प से पृथ्वी थर्रा गई, उसकी गति में सूक्ष्म बदलाव आया और आस-पास के भूगोल में भी परिवर्तन अंकित किया गया था।

सुनामी की उत्पत्ति के कारण

विनाशकारी समुद्री लहरों की उत्पत्ति भूकम्प, भू-स्खलन तथा ज्वालामुखी विस्फोटों का परिणाम है। हाल के वर्षों में किसी बड़े क्षुद्रग्रह (उल्कापात) के समुद्र में गिरने को भी समुद्री लहरों का कारण माना जाता है। वास्तव में, समुद्री लहरें उसी तरह उत्पन्न होती हैं जैसे तालाब में कंकड़ फेंकने से गोलाकार लहरें किनारों की ओर बढ़ती हैं। मूल रूप से इन लहरों की उत्पत्ति में सागरीय जल का बड़े पैमाने पर विस्थापन ही प्रमुख कारण है। भूकम्प या भू-स्खलन के कारण जब कभी भी सागर की तलहटी में कोई बड़ा परिवर्तन आता है या हलचल होती है तो उसे स्थान देने के लिए उतना ही ज्यादा समुद्री जल अपने स्थान से हट जाता है (विस्थापित हो जाता है) और लहरों के रूप में किनारों की ओर चला जाता है। यही जल ऊर्जा के कारण लहरों में परिवर्तित होकर ‘सुनामी लहरें” कहलाता है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि समुद्री लहरें सागर में आए बदलाव को सन्तुलित करने का प्रयास मात्र हैं।

समुद्री लहरों के द्वारा सर्वाधिक तबाही तभी होती है जब समुद्र में बड़े पैमाने का भूकम्प आता है या बहुत बड़ा भू-स्खलन होता है। 26 सितम्बर, 2004 में इन समुद्री लहरों द्वारा भी भारी विनाश का कारण सुमात्रा में आया भूकम्प ही था। भूकम्प जब सागर के अन्दर या तटीय क्षेत्रों पर उत्पन्न होता है तो भूकम्पी तरंगों के कारण भूकम्प के केन्द्र पर समुद्र की आन्तरिक सतह तीव्रता से ऊपर उठती है और भीतर जाती है। इस प्रक्रिया से समुद्री जल भी दबाव पाकर ऊपर उठता है और फिर नीचे गिरता है। भूकम्प से मुक्त हुई ऊर्जा समुद्र के पानी को ऊपर उठाकर स्थितिज ऊर्जा के रूप में पानी में ही समाहित हो जाती है। समुद्री लहरों के उत्पन्न होते ही यह स्थिति ऊर्जा गतिज ऊर्जा में बदल जाती है और लहरों को धक्का देकर तट की ओर प्रसारित करती है। कुछ ही समय बाद गतिज ऊर्जा से सराबोर ये लहरें शक्तिशाली सुनामी लहरें बनकर अपने मार्ग में आने वाले प्रत्येक अवरोध को तोड़कर समुद्री तट की ओर पहुँचकर भारी विनाश कर देती हैं।

सुनामी से सुरक्षा के उपाय

  1. भारत और विकासशील देशों में अभी तक समुद्री लहरों या सुनामी की पूर्व सूचना प्रणाली पूर्णतः विकसित स्थिति में नहीं है; अतः समुद्र तटवर्ती भागों में पूर्व सूचना केन्द्रों का विवरण एवं विस्तार किया जाना चाहिए।
  2. सुनामी की चेतावनी दिए जाने के बाद क्षेत्र को खाली कर देना चाहिए तथा जोखिम और खतरे से बचने के लिए विशेषज्ञों की सलाह लेना उपयुक्त रहता है।
  3. कमजोर एवं क्षतिग्रस्त मकानों पर विशेष निगाह रखनी चाहिए तथा दीवारों और छतों को अवलम्ब देना चाहिए।
  4. वास्तव में भूकम्प एवं समुद्री लहरों जैसी प्राकृतिक आपदा का कोई विकल्प नहीं है। सावधानी, जागरूकता और समय-समय पर दी गई चेतावनी ही इसके बचाव का सबसे उपयुक्त उपाय है।
  5. समुद्री तटवर्ती क्षेत्रों में मकान तटों से अधिक दूर और ऊँचे स्थानों पर बनाने चाहिए। मकान बनाने से पूर्व विशेषज्ञों की राय अवश्य लेनी चाहिए।
  6. समुद्री लहरों से प्रभावित क्षेत्रों के निवासियों को सुनामी लहरों की चेतावनी सुनने पर मकान खाली करके समुद्रतट से दूर किसी सुरक्षित ऊँचे स्थान पर चले जाना चाहिए तथा अपने पालतू पशुओं को भी साथ ले जाना चाहिए।
  7. बहुत-सी ऊँची इमारतें यदि मजबूत कंक्रीट से बनी हैं तो खतरे के समय इन इमारतों की
    ऊपरी मंजिलों का सुरक्षित स्थान के रूप में प्रयोग करना चाहिए।
  8. खुले समुद्र में सुनामी लहरों की हलचल का पता नहीं चलता है, अत: यदि आप समुद्र में किसी नौका या जलयान पर हों और आपने चेतावनी सुनी हो, तब आप बन्दरगाह पर न लौटें क्योंकि इन समुद्री लहरों का सर्वाधिक कहर बन्दरगाहों पर ही होता है। अच्छा रहेगा कि आप समय रहते जलयान को गहरे समुद्र की ओर ले जाएँ।
  9. सुनामी आने के बाद घायल अथवा फँसे हुए लोगों की सहायता से पहले स्वयं को सुरक्षित करते हुए पेशेवर लोगों की सहायता लें और उन्हें आवश्यक सामग्री लाने के लिए कहें।
  10. विशेष सहायता की अपेक्षा रखने वाले लोगों; जैसे—बच्चे, वृद्ध, अपंग आदि की संकट के समय सहायता करें।
  11. चारों ओर पानी से घिरी इमारत में न रहें। बाढ़ के पानी के समान ही सुनामी का पानी भी इमारत की नींव को कमजोर बना सकता है और इमारत ध्वस्त हो सकती है।
  12. वन्य जीवों और विशेष रूप से विषैले सर्प आदि से सतर्क रहें। ये पानी के साथ इमारतों में आ सकते हैं। मलबा हटाने के लिए भी उपयुक्त उपकरण का उपयोग करें। मलबे में कोई विषैला जीव हो सकता है।
  13. सुनामी के बाद इमारत की भली प्रकार जाँच करवा लें, खिड़कियों और दरवाजों को खोल दें, ताकि इमारत सूख सके।

उपर्युक्त बचाव उपायों के द्वारा सुनामी से आई आपदा के बाद शेष बची सम्पत्ति और मानव संसाधन को सुरक्षित किया जा सकता है। फिर भी यह याद रखना चाहिए कि मनुष्य के पास बहुत कुछ जानकारी होते हुए भी वह प्रकृति के बारे में नहीं जानता इसलिए उसे प्रकृति-विरुद्ध पर्यावरणविनाश सम्बन्धी कार्यों से बचना चाहिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
प्राकृतिक आपदाओं से क्या आशय है? प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

प्राकृतिक आपदाएँ।

प्राकृतिक रूप से घटित वे सभी आकस्मिक घटनाएँ जो प्रलयकारी रूप धारण कर मानवसहित सम्पूर्ण जैव-जगत् के लिए विनाशकारी स्थिति उत्पन्न कर देती हैं, प्राकृतिक आपदाएँ कहलाती हैं। प्राकृतिक आपदाओं का सीधा सम्बन्ध पर्यावरण से है। पर्यावरण की समस्त प्रक्रिया पृथ्वी की अन्तर्जात एवं बहिर्जात शक्तियों द्वारा संचालित होती है।

अतः प्रकृति की ये सभी घटनाएँ एक सामान्य प्रक्रिया के रूप में चलती रहती हैं, परन्तु मानव समाज के लिए यही घटनाएँ आपदाओं के रूप में अभिशाप बन जाती हैं। प्राकृतिक आपदाओं के लिए उत्तर:दायी अन्तर्जात एवं बहिर्जात शक्तियों की कार्य-शैली एवं इनसे उत्पन्न विभिन्न प्राकृतिक आपदाएँ निम्नलिखित हैं—

अन्तर्जात आपदाएँ – भू-पटल से सम्बन्धित आपदाएँ; जैसे–भूकम्प, ज्वालामुखी विस्फोट भू-स्खलन तथा हिम-स्खलन आदि की उत्पत्ति पृथ्वी के अन्तर्जात प्रक्रम या शक्तियों के कारण होती है। इसीलिए इनको ‘अन्तर्जात आपदाएँ’ कहा जाता है। अन्तर्जात प्रक्रमों को प्रत्यक्ष रूप से देखना सम्भव नहीं क्योंकि यह पृथ्वी के आभ्यंतर में सम्पन्न होती हैं। आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार अन्तर्जात प्रक्रमों या शक्तियों का आविर्भाव महाद्वीपीय एवं महासागरीय प्लेटों के संचलन के कारण होता है।

बहिर्जात आपदाएँ – बहिर्जात आपदाओं का सम्बन्ध वायुमण्डल से होता है इसलिए इनको ‘वायुमण्डलीय आपदाएँ’ भी कहते हैं। ये आपदाएँ असामान्य एवं आकस्मिक तथा दीर्घकालिक दोनों प्रकार की होती हैं। असामान्य एवं आकस्मिक आपदाओं में चक्रवाती तूफान (टारनेडो, टाइफून, हरीकेन आदि), प्रचण्ड तूफान, बादल फटना तथा आकाशीय विद्युत का गिरना आदि प्रमुख हैं। दीर्घकालिक आपदाओं में सूखा, बाढ़, ताप एवं शीतलहरी आदि मुख्य हैं। ये आपदाएँ संचयी प्रभावों का परिणाम अधिक होती हैं; जैसे–दीर्घकाल तक वनों के विनाश से बाढ़ एवं सूखा प्रकोप का उत्पन्न होना, जलवायु में असन्तुलन अनुभव करना या भू-ताप में वृद्धि का होना आदि ऐसी ही आपदाएँ हैं।

प्रश्न 2
चक्रवात से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:

चक्रवात का अर्थ

उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में वायुमण्डल के अन्तर्गत कम दाब वे अधिक दाबे प्रवणता वाले क्षेत्र को चक्रवात की संज्ञा दी जाती है। चक्रवात एक प्रबल भंवर की भाँति होता है जिसके दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों की विपरीत दिशा (Anticlockwise Direction) में तथा उत्तर:ी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों की दिशा (Clockwise Direction) में तीव्र हवाओं (जो कि कभी-कभी लगभग 350 किमी/घण्टे की गति से अधिक) के साथ-साथ तीव्र मूसलाधार वर्षा होती है एवं विशाल महासागरीय लहरें उठती हैं। चक्रवात के एकदम मध्य केन्द्र में एक शान्त क्षेत्र होता है जिसे साधारणतया चक्रवात की आँख (Eye) कहा जाता है। चक्रवात की आँख वाले क्षेत्र में मेघ बिल्कुल नहीं होते तथा हवा भी काफी धीमे वेग से बहती है, किन्तु इस शान्त ‘आँख’ के चारों तरफ 20-30 किमी तक विस्तृत मेघों की दीवार का क्षेत्र होता है, जहाँ झंझावातीय पवने (Gale) मूसलाधार बारिश वाले मेघों के साथ-साथ गर्जन व बिजली की चमक भी पायी जाती है। चक्रवात का व्यास कई सौ किमी के घेरे वाला होता है। चक्रवात के केन्द्र में स्थित आँख का व्यास भी लगभग 20-25 किमी का होता है। चक्रवात (Cyclones) में जान व माल दोनों को भारी क्षति होती है।

प्रश्न 3
सुनामी से क्या आशय है? वर्ष 2004 में घटित सुनामी के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
“सुनामी जापानी भाषा का शब्द है, जो दो शब्द “सू (Tsu)’ अर्थात् समुद्री किनारा या बन्दरगाह (Harbour) तथा “नामी (Nami)” अर्थात् लहरों (Waves) से बना है। सुनामी लहरें ऐसी लहरें हैं जो भूकम्पों (Earthquakes), ज्वालामुखीय विस्फोटन (Volcanic Eruptions) अथवा जलगत भूस्खलनों (Underwater Landslides) के कारण उत्पन्न होती हैं। इन लहरों की ऊँचाई 15 मीटर या उससे अधिक होती है तथा ये समुद्रतट के आस-पास की बस्तियों (Coastal Communities) को एकदम तहस-नहस (तबाह) कर देती हैं। ये सुनामी लहरें 50 किमी प्रति घण्टे की गति से कई किमी के क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लेती हैं। सुनामी लहरें किसी भी दिन तथा किसी भी समय आ सकती हैं। सुनामी लहरों की ताकत को मापा जा सकना एक दुष्कर कार्य है। बहुत बड़ी-बड़ी एवं वजनदार चट्टानें भी इसके आवेग के सामने असहाय हो जाती हैं। जब ये लहरें उथले पानी (Shallow water) में प्रविष्ट होती हैं। तो ये भयावह शक्ति (Devastating Force) के साथ तट से टकराकर काफी ऊँची उठ जाती हैं। किसी बड़े भूकम्प (Major Earthquake) के आने से कई घण्टों तक सुनामी (T-sunami) का खतरा बने रहने की आशंका रहती है।

दिसम्बर 26, 2004 को घटित सुनामी के कारण – पृथ्वी की सम्पूर्ण सतह नौ बड़ी तथा कई गतिशील प्लेटों में खण्डित अवस्था में होती हैं। ये प्लेटें ट्रैक्टोनिक प्लेटों (Tectonic Plates) के नाम से जानी जाती हैं। प्रत्येक टैक्टोनिक प्लेट लगभग 50 मील मोटाई वाली होती है। ये प्लेट हर वर्ष एक-दूसरे की ओर औसतन कुछ इंच सापेक्ष गति करती हैं। दिसम्बर 26, 2004 (रविवार) को बर्मा प्लेट के नीचे भारतीय प्लेट फिसल गई और इससे दबाव उत्पन्न हो गया। प्लेटों के अचानक खिसक जाने से भूकम्प आया। टैक्टोनिक हलचल (Tectonic Movement) के कारण महासागर का एक भाग विस्थापित हो गया। तथा इसके दबाव से पानी ऊपर आ गया जिसके फलस्वरूप ये लहरें भयंकर गति से समुद्रतट की ओर दौड़ने लगीं।

इन भयंकर सुनामी लहरों ने मुख्यत: इंडोनेशिया, श्रीलंका, भारत, थाईलैण्ड, मालदीव, मलेशिया तथा पूर्वी अफ्रीकी राष्ट्रों (सोमालिया, कीनिया, इथोपिया व जंजीबार इत्यादि) के समुद्रतटीय क्षेत्रों को बिल्कुल तहस-नहस कर अपना भयावह रूप दिखाते हुए 1,50,000 अमूल्य जीवन लीलाओं (Precious Lives) को निगल लिया।

प्रश्न 4
प्राकृतिक और मानव-जनित आपदाओं का वर्गीकरण चार्ट के माध्यम से कीजिए।
उत्तर:
प्राकृतिक और मानव-जनित आपदाओं का वर्गीकरण
UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 3 Disaster Management 1
प्रश्न 5
टिप्पणी लिखिए-रासायनिक दुर्घटनाएँ।
उत्तर:
रासायनिक दुर्घटनाएँ-विषैली गैसों के रिसाव से पर्यावरण दूषित हो जाता है तथा उस क्षेत्र के निवासियों के स्वास्थ्य एवं जीवन के लिए गम्भीर संकट पैदा हो जाता है। दिसम्बर, 1984 में भोपाल (मध्य प्रदेश) में यूनियन कार्बाइड के कारखाने से विषैली मिथाइल आइसोसायनाइड के स्टोरेज टैंक से रिसाव की घटना भारतीय इतिहास की बड़ी मानवीय दुर्घटनाओं में से है। इस गैस के तेजी से रिसाव से 3,598 लोगों की जाने चली गयीं तथा हजारों पशु तथा असंख्य सूक्ष्म जीव मारे गये। गैर-राजनीतिक स्रोतों के अनुसार, मृतकों की संख्या 5,000 से अधिक थी। इस गैस के रिसाव से आसपास का वायुमण्डल तथा जलराशियाँ भी प्रदूषित हो गयीं। गैस-रिसाव के प्रभाव से लगभग 50% गर्भवती स्त्रियों का गर्भपात हो गया। दस हजार लोग हमेशा के लिए पंगु हो गए तथा 30,000 लोग आंशिक रूप से पंगु हो गए। डेढ़ लाख लोगों को हल्की-फुल्की | असमर्थता पैदा हो गयी। इसी प्रकार, 1986 में पूर्ववर्ती सोवियत संघ के चनबिल परमाणु संयन्त्र में से रिसाव की दुर्घटना से सैकड़ों लोग मृत्यु का ग्रास बने।

सन् 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति पर संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा जापान के हिरोशिमा तथा नागासाकी नगरों पर परमाणु बमों के प्रहार से मानवता की जो अपूरणीय क्षति हुई, उसकी विभीषिका आज भी याद है, मानवकृत आपदाओं में सबसे भयंकर घटना है। यही नहीं, आज भी अनेक देश जैव-रासायनिक शस्त्रों का निर्माण कर रहे हैं, जो मानवता के लिए घातक सिद्ध होंगे।

प्रश्न 6
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए
1. भूस्खलन एवं एवलां। [2011]
2. अग्निकाण्ड।
या
भू-स्खलन क्या है? [2013, 14]
उत्तर:
1. भूस्खलन एवं एवलांश – लोगों का ऐसा मानना है कि धरातल जिस पर हम रहते हैं, ठोस आधारशिला है, किन्तु इस मान्यता के विपरीत, पृथ्वी का धरातल अस्थिर है, अर्थात् यह ढाल से नीचे की ओर सरक सकता है।

भूस्खलन एक प्राकृतिक परिघटना है जो भूगर्भिक कारणों से होती है, जिसमें मिट्टी तथा अपक्षयित शैल पत्थरों की, गुरुत्व की शक्ति से, ढाल से नीचे की ओर आकस्मिक गति होती है। अपक्षयित पदार्थ मुख्य धरातल से पृथक् होकर तेजी से ढाल पर लुढ़कने लगता है। यह 300 किमी प्रति घण्टा की गति से गिर सकता है। जब भूस्खलन विशाल शैलपिण्डों के रूप में होता है तो इसे शैल एवलांश कहा जाता है। स्विट्जरलैण्ड, नॉर्वे, कनाडा आदि देशों में तीव्र ढालों वाली घाटियों की तली में बसे गाँव प्रायः शिला-पिण्डों के सरकने से नष्ट हो जाते हैं। भारत में भी जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर:ाखण्ड एवं उत्तर:-पूर्वी राज्यों में प्रायः भूस्खलनों के समाचार मिलते रहते हैं। भूस्खलनों से सड़क परिवहन का बाधित होना सामान्य परिघटना है। कभी-कभी छोटी नदियाँ भी भूस्खलनों से अवरुद्ध हो जाती हैं।

शिलाचूर्ण से मिश्रित हिम की विशाल राशि, जो भयंकर शोर के साथ पर्वतीय ढालों से नीचे की ओर गिरती है, एवलांश कहलाती है। एवलांश भी मानवीय बस्तियों को ध्वस्त कर देते हैं।

2. अग्निकाण्ड – अग्निकाण्ड प्राकृतिक एवं मानवीय दोनों कारणों से होते हैं। प्राकृतिक कारणों में तड़ित (Lightening) या बिजली गिरना, वनाग्नि (Forest-fire) तथा ज्वालामुखी उद्गार सम्मिलित हैं। मानवीय कारणों में असावधानी, बिजली का शॉर्ट सर्किट, गैस सिलिण्डर का फटना आदि सम्मिलित हैं। इन सभी कारणों से उत्पन्न अग्निकाण्डों में वनाग्नि तथा बिजली के शॉर्ट सर्किट द्वारा उत्पन्न अग्निकाण्ड सबसे महत्त्वपूर्ण हैं।

वनों में आग लगना एक सामान्य घटना है। जंगल या वन में लगी आग को वनाग्नि या दावाग्नि कहते हैं। यह वृक्षों की परस्पर रगड़ (जैसे-बॉस के वृक्ष), असावधानीवश भूमि पर जलती सिगरेट आदि फेंक देने अथवा कैम्प-फायर के दौरान होती है। इस प्रकार की आग से ऊँची लपटें तो नहीं निकलती हैं किन्तु धरातल पर पड़े हुए समस्त पदार्थ जलकर खाक हो जाते हैं। छोटी-मोटी झाड़ियाँ भी जल जाती हैं। सबसे विनाशकारी वितान-अग्नि (Crown-fire) होती है जिससे बड़े पैमाने पर विनाश होता है। ऐसे अग्निकाण्ड घने वनों में होते हैं। वनाग्नि के परिणाम दूरगामी होते हैं। इससे वन्य जीव-जन्तु व वनस्पतियाँ ही नहीं, समस्त पारिस्थितिकी प्रभावित होती है।

नगरों तथा बस्तियों में अग्निकाण्ड से जनजीवन तथा सम्पत्ति की बहुत हानि होती है। निर्धन लोगों की झुग्गी-झोंपड़ियों में आग लगना सहज बात होती है। नगरीय इमारतों में बिजली के शॉर्ट सर्किट से आग लगने की घटनाएँ होती हैं। मेलों तथा जलसों में भी शॉर्ट सर्किट से प्राय: आग लग जाती है। इस सन्दर्भ में सन् 1995 में डबबाली (जिला सिरसा, हरियाणा) में एक विद्यालय के वार्षिक जलसे में शॉर्ट सर्किट से उत्पन्न अग्निकाण्ड में 468 लोगों की जानें चली गयीं। 10 अप्रैल, 2006 को उत्तर: प्रदेश के मेरठ नगर के विक्टोरिया पार्क में आयोजित एक उपभोक्ता मेले में 50 से अधिक लोग अग्निकाण्ड में मृत हुए तथा 100 से अधिक गम्भीर रूप से घायल हो गये।

प्रश्न 7
आपदाओं के प्रबन्धन के उत्तर:दायित्वों की तालिका बनाइए।
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 3 Disaster Management 2
UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 3 Disaster Management 3

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
आपदाएँ कितने प्रकार की होती हैं?
उत्तर:
आपदाएँ निम्न दो प्रकार की होती हैं
1. प्राकृतिक आपदाएँ (Natural Disasters)-इसके अन्तर्गत निम्न आपदाएँ आती

  • बाढ़ें-अतिवृष्टि,
  • सूखा-अकाल,
  • भूकम्प,
  • चक्रवात, आँधी व तूफान,
  • भूस्खलन,
  • बादल विस्फोटन व तड़ित,
  • सामुद्रिक तूफान,
  • वातावरणीय आपदाएँ इत्यादि।

2. मानव-जनित आपदाएँ (Man Made Disasters)-इसके अन्तर्गत निम्न आपदाएँ | आती हैं

  • रासायनिक एवं औद्योगिक आपदाएँ,
  • जैविक आपदाएँ,
  • नाभिकीय आपदाएँ,
  • आग,
  • दुर्घटनाएँ,
  • आतंकवादी हमले,
  • महामारी इत्यादि।

प्रश्न 2
बाढ़ आने के मुख्य कारण कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
बाढ़ आने के मुख्य कारण निम्न हैं

  • अत्यधिक वर्षा अथवा अत्यधिक बर्फ पिघलने के कारण।
  • ज्वार, समुद्री तूफान, चक्रवात एवं सुनामी लहरों के कारण।
  • नदी तल पर अवसाद का जमाव होने से ज्वार की स्थिति के कारण।
  • अधिक वर्षा से बाँधों के टूटने के कारण।

प्रश्न 3
पी० आर० आर०पी० के पूर्ण शब्दों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
पी०आर०आर०पी० के पूर्ण शब्दों का उल्लेख इस प्रकार है-पी० = तैयारी (Preparedness), आर० = प्रत्योत्तर एवं राहत (Response and Relief), आर० = आपदा से उबारना तथा पुनर्वास (Recovery and Rehabilitation) तथा पी० = आपदा के खतरे को रोकना, आपदा-प्रबन्धन की योजना तैयार करना तथा आपदा के प्रभाव को कम करना (Prevention of Hazard due to Disaster, Planning of Disaster Management and Mitigation)

प्रश्न 4
पर्यावरण संकट एवं आपदा क्या है ? आपदा का वर्गीकरण कीजिए। या प्राकृतिक आपदाएँ किसे कहते हैं ? [2009, 11]
उत्तर:
वे घटनाएँ अथवा दुर्घटनाएँ जो प्राकृतिक प्रक्रमों या मानवीय कारणों से उत्पन्न होती हैं, चरम घटनाएँ (Extreme events) कहलाती हैं। ऐसी घटनाएँ अपवाद-रूप में उत्पन्न होती हैं। तथा प्राकृतिक पर्यावरण के प्रक्रमों को उग्र कर देती हैं जो मानव-समाज के लिए आपदा बन जाते हैं; उदाहरणार्थ—-पृथ्वी की विवर्तनिक संचलनों के कारण भूकम्प या ज्वालामुखी विस्फोट होना, निरन्तर सूखा पड़ना या आकस्मिक रूप से बाढ़ आना, ऐसी ही प्राकृतिक आपदाएँ हैं।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
जमीन खिसकने को क्या कहा जाता है?
उत्तर:
जमीन खिसकने को भूस्खलन कहा जाता है।

प्रश्न 2
भारत में लगभग कितने प्रतिशत क्षेत्रफल मध्यम से तीव्र भूकम्प सम्भावी क्षेत्र हैं?
उत्तर:
भारत का लगभग क्षेत्रफल मध्यम से तीव्र भूकम्प सम्भावी क्षेत्र है।

प्रश्न 3
बंगाल की खाड़ी में उत्पन्न होने वाले चक्रवातों का प्रकोप विशेष तौर पर भारत के किस हिस्से में दृष्टिगोचर होता है?
उत्तर:
बंगाल की खाड़ी में उत्पन्न होने वाले चक्रवातों का प्रकोप विशेष तौर पर भारत के पूर्वी तटीय भाग में दृष्टिगोचर होता है।

प्रश्न 4
सुनामी की विनाशकारी लहरों की उत्पत्ति के कारण बताइए।
उत्तर:
सुनामी की विनाशकारी लहरें भूकम्पों, ज्वालामुखी विस्फोट तथा जलगत भूस्खलनों के कारण उत्पन्न होती हैं।

प्रश्न 5
महामारी को किस रूप में परिभाषित किया जा सकता है?
उत्तर:
महामारी को किसी भयंकर संक्रामक बीमारी के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।

प्रश्न 6
सूखे की स्थिति संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
किसी विशेष समय में औसत वर्षा न होने की स्थिति को सूखा कहा जाता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1. निम्नलिखित में से कौन-सी आपदा प्राकृतिक आपदा की श्रेणी में नहीं आती ? ”
(क) भूकम्प
(ख) चक्रवात
(ग) सूखा
(घ) आतंकवादी हमले

2. निम्नलिखित में से कौन-सी आपदा मानव-जनित आपदा है?
(क) बाढ़
(ख) भूस्खलन
(ग) आग
(घ) सुनामी

3. भारत में विनाशकारी सुनामी की घटना कब घटित हुई थी?
(क) 26 दिसम्बर, 2002
(ख) 26 दिसम्बर, 2003
(ग) 26 दिसम्बर, 2004
(घ) 26 दिसम्बर, 2005

4. इनमें से कौन-सी अवस्था आपदा-प्रबन्धन से सम्बन्धित है
(क) आपदा से पहले प्रबन्धन
(ख) आपदाओं के दौरान प्रबन्धन
(ग) आपदाओं के उपरान्त प्रबन्धन
(घ) ये सभी

5. प्राकृतिक आपदा ‘सूखा पड़ने की दशा में उसके प्रबन्धन का उत्तर:दायित्व निम्न में से किस मंत्रालय पर होता है?
(क) कृषि मंत्रालय
(ख) गृह मंत्रालय
(ग) रक्षा मंत्रालय
(घ) रेल मंत्रालय

उत्तर:

1. (घ) आतंकवादी हमले,
2. (ग) आग,
3. (ग) 26 दिसम्बर, 2004,
4. (घ) ये सभी,
5. (क) कृषि मंत्रालय

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UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 21 Agriculture

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography
Chapter Chapter 21
Chapter Name Agriculture (कृषि)
Number of Questions Solved 62
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 21 Agriculture (कृषि)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारतीय कृषि की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए। [2014]
या

भारतीय कृषि की चार विशेषताएँ बताइए। [2014]
उत्तर

भारतीय कृषि की विशेषताएँ।
Characteristics of Indian Agriculture

भारत गाँवों का देश है। यहाँ हजारों वर्षों से लोग गाँवों में रहकर निरन्तर कृषि-कार्यों में संलग्न हैं। फलतः कृषि भारतीयों के जीवन का एक मुख्य अंग बन गयी है। आज भी देश की लगभग 74% जनता कृषि पर ही प्रत्यक्ष रूप से निर्भर करती है। राष्ट्रीय उत्पाद का लगभग 35% कृषि से ही प्राप्त होता है। यही नहीं, अनेक उद्योगों को कच्चा माल कृषि से ही प्राप्त होता है। वस्तुत: भारतीय संस्कृति की जड़े कृषि में निहित हैं। भारतीय कृषि की अपनी कुछ मौलिक विशेषताएँ हैं, जिनका संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है –

(1) प्रकृति पर निर्भरता – भारतीय कृषि को प्राय: भाग्य का खेल कहा जाता है, क्योंकि यहाँ की कृषि मुख्यत: वर्षा की स्थिति पर निर्भर रहती है। यही कारण है कि वर्षा की अनियमितता एवं अनिश्चितता भारतीय अर्थव्यवस्था को सर्वाधिक प्रभावित करती है। अर्थव्यवस्था का प्रत्येक क्षेत्र, चाहे वह उद्योग हो अथवा व्यापार, प्राकृतिक प्रभावों से कभी अछूता नहीं बचता।।

(2) कृषि की निम्न उत्पादकता – भारत में कृषि पदार्थों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है। यहाँ एक हेक्टेयर भूमि में केवल 1,995 किग्रा गेहूँ, 2,470 किग्रा चावल, 120 किग्रा कुपास तथा 973 किग्रा मूंगफली पैदा होती है जो कि अन्य राष्ट्रों की अपेक्षा बहुत कम है। प्रति श्रमिक की दृष्टि से भारत में कृषि श्रमिक की औसत वार्षिक उत्पादकता केवल 105 डॉलर है।

(3) जीविका का प्रमुख साधन – सन् 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की कार्यशील जनसंख्या की 60% भाग कृर्षि में संलग्न है।
(4) भूमि का विषम वितरण – भारत में केवल 14% जोतों के अधीन 50% कृषि भूमि और 60% जोतों के अधीन केवल 20% कृषि भूमि है। इतना ही नहीं, ग्रामीण क्षेत्र के लगभग 14% लोग भूमिहीन हैं। इस प्रकार यहाँ भूमि का वितरण अत्यन्त ही विषम पाया जाता है।

(5) जोत की अनार्थिक इकाइयाँ – भारतीय कृषि की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि यहाँ कृषि बहुत छोटे-छोटे कृषि क्षेत्रों (खेतों) पर की जाती है। सरैया सहकारी समिति के मतानुसार, “भारतीय कृषि के उत्पादन में सबसे बड़ी बाधा अनुत्पादक व अलाभकारी जोते हैं।’ राष्ट्रीय सर्वेक्षण के मतानुसार सम्पूर्ण भारत में कृषि जोतों का औसत आकार 1.68 हेक्टेयर है। भारत में कृषि जोतों को आकार केवल छोटा,ही नहीं है, अपितु व्यक्तिगत जोतें बहुत बिखरी हुई भी हैं।

(6) जीवन-निर्वाह के लिए कृषि – हमारे सामाजिक जीवन में कृषि जीवन की एक पद्धति है। व्यक्ति इसलिए खेती नहीं करता कि उसे कृषि से विशेष अनुराग है, वरन् वह खेती इसलिए करता है। कि उसके पास जीवन-यापन का कोई अन्य साधन उपलब्ध नहीं है। कृषि उपज का अधिकांश भाग वह स्वयं प्रयोग में लाता है। वस्तुतः यह कृषि इसी अभिप्राय से करता है कि उसके परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाये। वाणिज्यीकरण की ओर वह विशेष ध्यान नहीं देता। यही कारण है कि यहाँ अभी तक केवल कुछ ही व्यापारिक फसलों का वाणिज्यीकरण (Commercialization) सम्भव हो सका है।

(7) कृषि की अल्पविकसित अवस्था – निरन्तर प्रयासों के बावजूद भारतीय कृषि आज भी पिछड़ी हुई अवस्था में है। अनेक स्थानों पर आज भी झूमिंग कृषि की जाती है। मोटे अनाज उगाये जाते हैं। सिंचाई का उचित प्रबन्ध नहीं है।

(8) उत्पादन की परम्परागत तकनीक – भारत में आज भी कृषि में उत्पादन के लिए पुरातन तकनीकों का ही प्रयोग किया जाता है। यद्यपि आज के युग में आधुनिक एवं नवीन तकनीकों का काफी विकास हुआ है, फिर भी भारतीय कृषक आज भी देश के अनेक भागों में हल और खुरपी का ही प्रयोग करता है।

(9) वर्ष भर रोजगार का अभाव – भारतीय कृषि, कृषकों को वर्ष भर रोजगार प्रदान नहीं करती। वस्तुतः भारतीय कृषक वर्ष में 140 से लेकर 270 दिन तक बेकार रहते हैं। इसी कारण कृषि में अर्द्धबेरोजगारी तथा अदृश्य बेरोजगारी की समस्या पायी जाती है।
(10) श्रम-प्रधान – भारतीय कृषि श्रम-प्रधान है, अर्थात् भारत में पूँजी के अनुपात में श्रम की प्रधानता है।
(11) खाद्यान्न फसलों की प्रमुखता – भारतीय कृषि में खाद्यान्न फसलों की प्रमुखता रहती है। देश की कुल कृषि भूमि के लगभग 72% भाग पर खाद्यान्न तथा शेष भाग में व्यापारिक व अन्य फसलों का उत्पादन होता है।
(12) अन्य विशेषताएँ

  • प्रमुख उद्योगों का कच्चे माल का स्रोत,
  • भारतीय कृषि में फलों, सब्जियों तथा चारे की फसलों को महत्त्व प्राप्त नहीं है,
  • सिंचित भूमि की कमी,
  • राष्ट्रीय आय का प्रमुख स्रोत,
  • परिवहन व्यवस्था का मुख्य आधार।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय कृषि की अपनी कुछ निजी विशेषताएँ हैं, जिनके कारण वह विश्व के अन्य राष्ट्रों से मौलिक विशिष्टता रखती है।

प्रश्न 2
भारतीय कृषि की प्रमुख समस्याएँ क्या हैं? उन्हें कम करने में हरित एवं श्वेत क्रान्तियों के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
या
भारतीय कृषि की चार प्रमुख समस्याएँ लिखिए। [2016]
उत्तर

भारतीय कृषि की प्रमुख समस्याएँ
Major Problems of Indian Agriculture

भारत के 70% लोगों का प्रधान व्यवसाय कृषि है; परन्तु दुर्भाग्यवश यह उद्योग पिछड़ा हुआ है। भारत में कृषि के पिछड़ेपन की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं –

  1. खेतों का छोटा और छिटका होना।
  2. कृषि का मानसूनी वर्षा पर निर्भर होना।
  3. उर्वरकों एवं खादों का प्रयोग बहुत कम होना।
  4. उत्तम तथा उन्नत बीजों का अभाव।
  5. कृषि की परम्परागत दोषपूर्ण विधियाँ।
  6. कृषि-भूमि पर जनसंख्या का अधिक भार होना।
  7. किसानों की अज्ञानता, निर्धनता एवं ऋणग्रस्तता।
  8. कृषि उपजों के विपणन की अनुचित व्यवस्था।
  9. सिंचाई के साधनों का अभाव।
  10. कृषि सम्बन्धित उद्योगों का अल्प विकास।

कृषि समस्या को दूर करने में हरित क्रान्ति का योगदान
Contribution of Green Revolution in Solving the Agricultural Problems

हरित क्रान्ति से देश के कृषि-क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है। खाद्यान्नों के मामले में देश आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हुआ है। देश के कृषकों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है तथा कृषि बचतों में वृद्धि हुई है। हरित क्रान्ति के अन्य लाभ या आर्थिक परिणाम निम्नलिखित हैं –

  1. अधिक उत्पादन – हरित क्रान्ति या नवीन कृषि-नीति से सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि कृषि उत्पादन बढ़ा है। गेहूँ, बाजरा, चावल, मक्का व ज्वार की उपज में आशातीत वृद्धि हुई है, जिसके परिणामस्वरूप खाद्यान्नों के मामले में भारत आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हो गया है।
  2. परम्परामत स्वरूप में परिवर्तन – नवीन कृषि-नीति से खेती के परम्परागत स्वरूप में परिवर्तन हुआ है और खेती व्यावसायिक दृष्टि से की जाने लगी है।
  3. कृषि बचतों में वृद्धि – उन्नत बीज, रासायनिक खादें, उत्तम सिंचाई के साधन व मशीनों के प्रयोग से उत्पादन बढ़ा है जिससे कृषक की बचतों की मात्रा में उल्लेखनीय प्रगति हुई है, जिसको देश के विकास के काम में लाया जा सका है। इससे औद्योगिक क्षेत्र में भी प्रगति हुई है और राष्ट्रीय उत्पादन भी बढ़ा है।
  4. कृषि निर्यात – भारतीय कृषि की अभिनव प्रवृत्ति यह दर्शाती है कि आज भारत खाद्यान्न एवं अन्य कृषिगत वस्तुओं के निर्यात की क्षमता भी प्राप्त कर चुका है। वर्ष 2011-12 के दौरान देश से 93.9 मिलियन टन का गेहूँ एवं चावल निर्यात किया गया, जिसका मूल्य लगभग ३ 6,000 करोड़ है।
  5. खाद्यान्न आयात नगण्य – हरित क्रान्ति से देश खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर हुआ है। खाद्यान्नों के आयात नगण्य रह गये हैं, जिससे विदेशी मुद्रा की बचत हुई है।
  6. रोजगार के अवसरों में वृद्धि – हरित क्रान्ति से देश में रोजगार के अवसरों में वृद्धि हुई है। खाद, पानी, यन्त्रों आदि के सम्बन्ध में लोगों को रोजगार मिले हैं।

कृषि समस्या को दूर करने में श्वेत क्रान्ति का योगदान
Contribution of White Revolution in Solving the Agricultural Problems

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत में ग्रामीण विकास की समस्याओं को दूर करने के अनेक प्रयास किये गये हैं। श्वेत क्रान्ति (ऑपरेशन फ्लड) भी इन्हीं प्रयासों में एक है। इसके अन्तर्गत भारत के पशुधन का उचित नियोजन करके दुग्ध उत्पादन में वृद्धि का प्रयास किया जाता है।
कृषि के साथ-साथ पशुपालन भारतीय कृषकों को अतिरिक्त आय सुलभ कराता है। ये पशु विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इससे न केवल कृषि अपितु सीमान्त एवं लघु कृषकों तथा भूमिहीन श्रमिकों को आजीविका के साधन उपलब्ध हुए हैं। इस प्रकार श्वेत क्रान्ति का भारत के समन्वित ग्रामीण विकास में प्रमुख योगदान निम्नलिखित है –

  1. ऑपरेशन फ्लड’ द्वारा लघु एवं सीमान्त कृषकों तथा भूमिहीन श्रमिकों को अतिरिक्त आय प्राप्त हुई है।
  2. इस व्यवसाय द्वारा खेतों के लिए जैविक खाद एवं बायो गैस उपलब्ध हुई है।
  3. इस व्यवसाय के विकास से बहुत-से परिवार निर्धनता की रेखा से ऊपर उठ गये हैं।
  4. सहकारी समितियाँ दुग्ध का संग्रहण तथा विपणन करती हैं, जिससे लोगों में सहकारिता की भावना बलवती हुई है।
  5. दुग्ध व्यवसाय के विकास से ग्राम-नगर सम्बन्ध प्रगाढ़ हुए हैं तथा एक-दूसरे को समझने में पर्याप्त सहायता मिली है।

प्रश्न 3
भारत में चावल की खेती का भौगोलिक वर्णन कीजिए। [2013, 15]
या
टिप्पणी लिखिए-पंजाब में चावल की खेती।
या
भारत में चावल की खेती के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाओं का वर्णन कीजिए तथा इसके वितरण एवं उत्पादन का उल्लेख कीजिए। (2007)
या
भारत में चावल की खेती का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए
(क) उपयुक्त भौगोलिक देशाएँ,
(ख) प्रमुख उत्पादक क्षेत्र,
(ग) व्यापार। [2014, 16]
उत्तर
भारत में चावल की खेती ईसा से 3,000 वर्ष पूर्व से की जा रही है। यहीं से इसका प्रचार विश्व के अन्य देशों में हुआ। यह भारत में लगभग तीन-चौथाई जनसंख्या का खाद्यान्न है। चीन के बाद भारत का चावल के उत्पादन में प्रथम स्थान है जहाँ विश्व उत्पादन का 21% चावल उत्पन्न किया जाता है। देश में वर्ष 2012 में 42.1 हेक्टेयर भूमि पर 104.3 मिलियन टन चावल का उत्पादन हुआ। भारत में चावल का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 2,372 किग्रा था। जापान में चावल को प्रति हेक्टेयर उत्पादन 4,990 किग्रा है। हमारे यहाँ खाद्यान्नों के उत्पादन में लगी हुई भूमि के 35% भाग तथा कुल कृषि-योग्य भूमि के 25% भाग पर इसका उत्पादन किया जाता है।

आवश्यक भौगोलिक दशाएँ
Necessary Geographical Conditions

चावल के उत्पादन के लिए निम्नलिखित भौगोलिक परिस्थितियाँ आवश्यक होती हैं –

  1. तापमान – चावल उष्ण कटिबन्धीय मानसूनी जलवायु का पौधा है; अत: इसे ऊँचे तापमान की आवश्यकता होती है। बोते समय 20°सेग्रे तथा पकते समय 27°सेग्रे तापमान उपयुक्त रहता है। इसकी कृषि के लिए पर्याप्त प्रकाश आवश्यक होता है, परन्तु अधिक मेघाच्छादित मौसम एवं तेज वायु हानिकारक होती है।
  2. वर्षा – चावल की कृषि के लिए 150 सेमी वर्षा आवश्यक होती है, परन्तु 60 से 75 सेमी वर्षा वाले भागों में सिंचाई के सहारे चावल का उत्पादन किया जाता है; जैसे–पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं पंजाब राज्यों में। चावल की खेती के लिए आवश्यक है कि खेतों में 75 दिनों तक जल भरा रहना चाहिए। भारत के चावल उत्पादन का 39.5% भाग सिंचाई के सहारे पैदा किया जाता है।
  3. मिट्टी – चावल उपजाऊ चिकनी, कछारी अथवा दोमट मिट्टियों में उगाया जाता है। चावल का पौधा मिट्टी के पोषक तत्त्वों का अधिक शोषण करता है; अत: इसमें रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करते रहना चाहिए। हरी खाद, हड्डियों की खाद, अमोनियम सल्फेट, सुपर फॉस्फेट आदि उर्वरक लाभकारी होते हैं।
  4. मानवीय श्रम – चावल के खेतों की जुताई से लेकर कटाई तक अधिक संख्या में सस्ते श्रमिकों की आवश्यकता होती है। इसी कारण विश्व में चावल उत्पादक क्षेत्र सघन बसे क्षेत्रों में पाये जाते हैं, क्योंकि यहाँ श्रमिक सस्ते एवं सरलता से पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हो जाते हैं।

भारत में चावल उत्पादक क्षेत्र
Rice Producing Areas in India

भारत में चावल का उत्पादन दक्षिणी एवं पूर्वी राज्यों में अधिक पाया जाता है। आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, असम, कर्नाटक
आदि राज्य प्रमुख चावल उत्पादक हैं जो मिलकर देश का 97% चावल उत्पन्न करते हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है –
(1) पश्चिम बंगाल – पश्चिम बंगाल चावल उत्पन्न करने वाला भारत का प्रथम राज्य है, जहाँ देश का 17.5% चावल उत्पन्न किया जाता है। प्रतिवर्ष बाढ़ों द्वारा उपजाऊ नवीन काँप मिट्टी प्राप्त हो जाने के कारण खाद देने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है, परन्तु कभी-कभी बाढ़ से इसकी फसल को हानि भी उठानी पड़ती है। कृषि-योग्य भूमि के 77% से भी अधिक भाग पर चावल की फसल उत्पन्न की जाती है। इस राज्य में चावल की तीन फसलें उत्पन्न की जाती हैं-

  • अमन–78%,
  • ओस-20% एवं
  • बोरो-2%। यहाँ चावल उत्पादन की सभी अनुकूल भौगोलिक परिस्थितियां पायी जाती हैं। कूचबिहार, जलपाईगुड़ी, बांकुडा, मिदनापुर, वीरभूमि, दिनाजपुर, बर्दमान एवं दार्जिलिंग प्रमुख चावल उत्पादक जिले हैं।

(2) उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखण्ड – इन राज्यों को देश के चावल उत्पादन में दूसरा स्थान है जहाँ देश का 12.2% चावल उत्पन्न किया जाता है। कृषि योग्य भूमि के 21% भाग पर इसकी खेती की जाती है, परन्तु इस राज्य की प्रति हेक्टेयर उपज कम है। देहरादून, पीलीभीत, सहारनपुर, देवरिया, गोण्डा, बहराइच, बस्ती, रायबरेली, बलिया, लखनऊ एवं गोरखपुर प्रमुख चावल उत्पादक जिले हैं। देहरादून का बासमती चावल अपने स्वाद एवं सुगन्ध के लिए देश-विदेश में प्रसिद्ध है।

(3) आन्ध्र प्रदेश – आन्ध्र प्रदेश राज्य का चावल के उत्पादन में तीसरा स्थान है, जहाँ देश का 11.8% चावल उत्पन्न किया जाता है। इस राज्य की कृषि-योग्य भूमि के 24% भाग पर चावल की वर्ष में दो फसलें उत्पन्न की जाती हैं। यहाँ गोदावरी, कृष्णा, गण्टूर, विशाखापट्टनम्, श्रीकाकुलम, नेल्लोर, चित्तूर, कुडप्पा, कर्नूल, अनन्तपुर, पूर्वी एवं पश्चिमी गोदावरी चावल के प्रमुख उत्पादक जिले हैं।

(4) तमिलनाडु – इस राज्य का भारत के चावल उत्पादन में चौथा स्थान तथा प्रति हेक्टेयर उत्पादन के दृष्टिकोण से प्रथम स्थान है। कृषि योग्य भूमि के 38% भाग पर वर्ष में चावल की दो फसलें उत्पन्न कर देश के चावल उत्पादन का 9.1% भाग पूरा करता है। कोयम्बटूर, अर्कोट, तंजौर, नीलगिरि, थंजावूर चावल उत्पादन के प्रमुख जिले हैं।

(5) पंजाब – पंजाब भारत का पाँचवाँ बड़ा (8.6%) चावल उत्पादक राज्य है। यहाँ चावल के उत्पादन में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही है। यद्यपि पंजाब राज्य की भौगोलिक दशाएँ चावल के उत्पादन के अधिक अनुकूल नहीं हैं, परन्तु कृत्रिम साधनों द्वारा पर्याप्त सिंचाई की सुविधाएँ, रासायनिक उर्वरकों का अधिकाधिक प्रयोग, कृषि में नवीन यन्त्रों का प्रयोग, उत्पादन की उच्च तकनीकी सुविधाओं के कारण यहाँ प्रति हेक्टेयर चावल उत्पादन में वृद्धि हुई है। इसे राज्य में गेहूं उत्पादक भूमि चावल उत्पादक भूमि में परिवर्तित होती जा रही है जिसका प्रमुख कारण गेहूं की अपेक्षा चावल से अधिक आर्थिक लाभ की प्राप्ति है। भटिंडा, लुधियाना, होशियारपुर, पटियाला, गुरदासपुर, संगरूर, अमृतसर, फिरोजपुर आदि जिले चावल के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं।

(6) ओडिशा – ओडिशा भारत का 7.7% चावल का उत्पादन करता है जहाँ कृषि योग्य भूमि के 67% भाग पर चावल की दो फसलें तक उत्पन्न की जाती हैं। यहाँ चावल का प्रति हेक्टेयर उत्पादन कम (केवल 960 किग्रा) है। प्रमुख उत्पादक जिले कटक, पुरी, सम्बलपुर, मयूरभंज, गंजाम, कोरापुट, कालाहांडी, बोलंगिरि, धेन्कानाल आदि हैं।

(7) बिहार – यह राज्य भी प्रमुख चावल उत्पादक है जहाँ देश के 6% चावल का उत्पादन किया जाता है। इस राज्य की कृषि-योग्य भूमि के 63% भाग पर चावल की वर्ष में तीन फसलें उत्पन्न की जाती हैं, परन्तु मानसूनी वर्षा की अनिश्चितता के कारण सिंचाई का सहारा लेना पड़ता है। गया, मुंगेर, मुजफ्फरपुर, भागलपुर एवं पूर्णिया प्रमुख चावल उत्पादक जिले हैं।

(8) अन्य राज्य – चावल के अन्य प्रमुख उत्पादक राज्यों में छत्तीसगढ़, असम, महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा, केरल आदि हैं। इन राज्यों में सिंचाई के सहारे चावल का उत्पादन किया जाता है। छत्तीसगढ़ राज्य को चावल का कटोरा’ कहा जाता है।
व्यापार – चावल उत्पादक राज्यों में सघन जनसंख्या के कारण चावल का निर्यात नहीं किया जाता, परन्तु इसका व्यापार अन्तर्राज्यीय होता है। चावल के उत्पादन में वृद्धि होने पर सन् 1978 में 52,000 टन चावल इण्डोनेशिया को भेजा गया। विश्व के चावल निर्यात में भारत का भाग 2.58% है। सन् 1970-71 से भारत से चावल का निर्यात होता है। वर्तमान समय में उच्च-कोटि का चावल खाड़ी देशों एवं रूस को निर्यात किया जाता है।

प्रश्न 4
गेहूँ उत्पादन के लिए कौन-सी भौगोलिक परिस्थितियाँ अनुकूल होती हैं? भारत के गेहूँ। उत्पादक क्षेत्रों को बताते हुए इसके व्यापार को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए। [2011]
या
भारत में गेहूं की खेती का भौगोलिक विवरण दीजिए।
या
भारत में गेहूं की खेती का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए –
(क) उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ,
(ख) उत्पादन के क्षेत्र। [2010,14,15]
या
भारत में गेहूं की खेती के लिए अनुकूल भौगोलिक दशाओं का उल्लेख कीजिए तथा उसकी खेती के प्रमुख क्षेत्रों का वर्णन कीजिए। [2014]
या
भारत में गेहूँ उत्पादक दो प्रमुख राज्यों का वर्णन कीजिए। [2015]
उत्तर
ऐसा अनुमान किया जाता है कि भारत ही गेहूँ का जन्म-स्थान रहा है। चावल के बाद यह भारत का दूसरा महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न है। यह सबसे पौष्टिक आहार माना जाता है। विश्व के गेहूँ उत्पादन का 9.9% भाग ही भारत से प्राप्त होता है। वर्ष 2011-2012 में गेहूं का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 3,140 किग्री था तथा गेहूं की कृषि 25.9 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर की गयी थी जिस पर 93.9 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन हुआ। खाद्यान्नों के उत्पादन में लगी कुल भूमि के 18.7% भाग पर गेहूँ उगाया जाता है, जबकि यह देश की कृषि भूमि का 10% भाग घेरे हुए है। कुल खाद्यान्नों में गेहूं का भोग लगभग 29.9% है। भारत में गेहूं उत्पादन में वृद्धि एक सफले क्रान्ति है। वास्तव में हरित-क्रान्ति गेहूँ-क्रान्ति ही है। गेहूँ की कृषि में उन्नत एवं नवीन बीजों तथा रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से उत्पादन में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं, जिससे देश आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हुआ है तथा वर्तमान में निर्यात करने की स्थिति में आ गया है।

आवश्यक भौगोलिक दशाएँ
Necessary Geographical Conditions

गेहूँ उत्पादन के लिए निम्नलिखित भौगोलिक परिस्थितियाँ आवश्यक होती हैं –
(1) तापमान – गेहूँ सम-शीतोष्ण जलवायु की प्रमुख उपज है। बोते समय 10° से 15° सेग्रे तथा पकते समय 20° से 28° सेग्रे तापमान की आवश्यकता पड़ती है। वास्तव में गेहूं के पकते समय अधिक गर्मी की आवश्यकता होती है। ओला, पाला, कोहरा, मेघपूर्ण वातावरण इसकी फसल के लिए हानिकारक होते हैं।

(2) वर्षा – गेहूँ की कृषि के लिए 50 से 75 सेमी वर्षा आदर्श मानी जाती है। इससे कम वर्षा वाले भागों में सिंचाई के सहारे गेहूं का उत्पादन किया जाता है। गेहूँ के बोते समय जल की अधिक आवश्यकता होती है, परन्तु अधिक वर्षा वाले भागों में गेहूं की फसल नहीं बोयी जाती, जबकि पंजाब, हरियाणा, उत्तरी राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश के शुष्क भागों में सिंचाई की सहायता से इसकी खेती की जाती है। उत्तर प्रदेश में 42%, पंजाब एवं हरियाणा में 45% तथा राजस्थान में 45% गेहूं की फसल सिंचाई साधनों पर ही आधारित है। शीतकालीन चक्रवातीय वर्षा इसके लिए बहुत ही लाभदायक रहती है।

(3) मिट्टी – गेहूं की खेती के लिए हल्की दोमट यो गाढ़े रंग की मटियार मिट्टी उपयुक्त रहती है। यदि धरातल समतल मैदानी हो तो उसमें आधुनिक वैज्ञानिक कृषि-उपकरणों का प्रयोग कर अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। यूरिया, अंमोनियम सल्फेट, कम्पोस्ट आदि रासायनिक उर्वरक अधिक उपयोगी रहते हैं।

(4) मानवीय श्रम – गेहूं के खेतों को जोतने, बोने, निराई-गुड़ाई, काटने तथा दानों को भूसे से अलग करने की प्रक्रिया तक पर्याप्त मानवीय श्रम की आवश्यकता पड़ती है। जनाधिक्य के कारण यहाँ श्रमिक सस्ते और पर्याप्त संख्या में सुगमता से उपलब्ध हो जाते हैं। इसीलिए भारतवर्ष के सघन जनसंख्या वाले क्षेत्रों में गेहूं की कृषि की जाती है।

भारत में गेहूं उत्पादक राज्य
Wheat Producing States in India

गेहूँ अधिकांशत: उत्तरी एवं मध्य भारत की प्रमुख फसल है। उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान एवं बिहार राज्य मिलकर देश का 90% गेहूँ उत्पन्न करते हैं। भारत में गेहूँ उत्पादक राज्य निम्नलिखित हैं –
(1) उत्तर प्रदेश – इस राज्य में कृषि-योग्य भूमि के 32% भाग पर देश का 40% गेहूं उत्पन्न किया जाता है। गंगा-जमुना दोआब तथा गंगा-घाघरा क्षेत्र गेहूं-उत्पादन में प्रमुख स्थान रखते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सिंचाई की सुविधाओं के कारण गेहूं का अच्छा उत्पादन होता है। मेरठ, बुलन्दशहर, गाजियाबाद, सहारनपुर, आगरा, अलीगढ़, मुजफ्फरनगर, मुरादाबाद, इटावा, फर्रुखाबाद, बदायूँ, कानपुर देहात, फतेहपुर आदि जिले गेहूं के प्रमुख उत्पादक हैं।

(2) पंजाब – पंजाब राज्य 21% गेहूं का उत्पादन कर देश में दूसरा स्थान रखता है। यहाँ कृषि-योग्य भूमि के 12.5% भाग पर गेहूँ की कृषि की जाती है। इस राज्य में गेहूं की प्रति हेक्टेयर उपज सर्वाधिक (3,690 किग्रा) है। मिट्टी की उर्वरता, सिंचाई की सुविधा, आधुनिक एवं वैज्ञानिक कृषि-यन्त्रों का प्रयोग तथा शीतकालीन वर्षा के कारण गेहूं का प्रति हेक्टेयर उत्पादन भारत में सबसे अधिक है। अमृतसर, लुधियाना, गुरदासपुर, पटियाला, जालन्धर, भटिण्डा, संगरूर एवं फिरोजपुर प्रमुख गेहूँ उत्पादक जिले हैं।

(3) हरियाणा – इस राज्य में कुल कृषि-योग्य भूमि के लगभग 6% भाग पर गेहूँ की कृषि की जाती है। यहाँ भारत का 11.5% गेहूं उत्पन्न किया जाता है। गेहूं उत्पादन में इस राज्य का भारत में तीसरा स्थान है। रोहतक, अम्बाला, करनाल, जींद, हिसार तथा गुड़गाँव जिलों में सिंचाई के सहारे गेहूँ का उत्पादन किया जाता है। भाखड़ा-नाँगल योजना की सहायता से गेहूं के उत्पादक क्षेत्र को दक्षिण-पूर्व की ओर बढ़ाया जा रहा है।

(4) मध्य प्रदेश – गेहूँ के उत्पादन में मध्य प्रदेश राज्य का चौथा स्थान है तथा यहाँ देश का 8.6% गेहूँ उगाया जाता है। इस राज्य में कृषि-योग्य भूमि के 16% भाग पर गेहूं की खेती की जाती है। यहाँ मैदानी क्षेत्रों में ताप्ती, नर्मदा, तवा, गंजल, हिरन आदि नदियों की घाटियों तथा मालवा के पठार पर काली मिट्टी के क्षेत्रों में गेहूं का उत्पादन किया जाता है।

(5) अन्य राज्य – अन्य गेहूँ उत्पादक राज्यों में राजस्थान महत्त्वपूर्ण है, जहाँ प्रति वर्ष लगभग 37 लाख मीटरी टन गेहूं का उत्पादन किया जाता है। श्रीगंगानगर, भरतपुर, भीलवाड़ा, अलवर, टोंक, चित्तौड़गढ़, उदयपुर एवं सवाईमाधोपुर जिले प्रमुख गेहूँ उत्पादक हैं। गुजरात में माही एवं साबरमती नदियों की घाटियों में; महाराष्ट्र में खानदेश एवं नासिक जिले; कर्नाटक में बेलगाम, धारवाड़, रायचूर एवं बीजापुर जिलों में गेहूं का उत्पादन किया जाता है। पश्चिम बंगाल एवं बिहार राज्यों की जलवायु गेहूँ। उत्पादन के अधिक अनुकूल नहीं है; अत: बहुत कम क्षेत्र में ही गेहूं का उत्पादन किया जाता है।

व्यापार – विभाजन से पहले भारत भारी मात्रा में गेहूं का निर्यात करता था, परन्तु 1947 ई० में पश्चिमी पंजाब का गेहूँ उत्पादक क्षेत्र पाकिस्तान में चले जाने के कारण निर्यात बन्द कर दिया गया। इसके साथ ही देश में जनसंख्या की उत्तरोत्तर वृद्धि के कारण भी गेहूं का निर्यात बन्द करना पड़ा। वर्ष 1971-72 से प्रारम्भ हरित-क्रान्ति ने धीरे-धीरे देश को गेहूँ उत्पादन में आत्मनिर्भर बना दिया है। छठी योजना में देश में गेहूं का निर्यात नहीं किया गया वर्ष 1984-85 में फसल अच्छी होने के कारण रूस को 10 लाख टन गेहूं का निर्यात किया गया था। वर्ष 1988-89 में गेहूं के उत्पादन में कमी के कारण देश ने 30 लाख टन गेहूं का विदेशों से आयात किया था, परन्तु वर्तमान समय में देश गेहूं उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया है।

यदि देश के गेहूँ उत्पादन में इसी गति से वृद्धि होती रही तो शीघ्र ही भारत की गणना विश्व के प्रमुख गेहूँ निर्यातक देशों में की जाने लगेगी।

प्रश्न 5
भारत में गन्ने की खेती का विवरण लिखिए।
या
भारत में गन्ने की खेती के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाओं का वर्णन कीजिए एवं इसके उत्पादन के प्रमुख क्षेत्रों का उल्लेख कीजिए। [2011]
या
भारत में गन्ने की खेती की विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों में कीजिए –
(क) उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ,
(ख) उत्पादक क्षेत्र। [2007]
उत्तर
गन्ना भारत की प्रमुख मुद्रादायिनी फसल है। भारत को ही गन्ने का जन्म-स्थान होने का गौरव प्राप्त है। गन्ना उत्पादक क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का विश्व में प्रथम स्थान है, जबकि गन्ना उत्पादन में ब्राजील के बाद भारत का प्रथम स्थान है। विश्व गन्ना उत्पादन का 35% क्षेत्रफल भारत में पाया जाता है। भारत में गन्ने का प्रति हेक्टेयर उत्पादन अन्य गन्ना उत्पादक देशों की अपेक्षा कम है तथा रंस की मात्रा भी कम होती है। देश में प्रति हेक्टेयर गन्ने का उत्पादन 67 टन है, जबकि चीन में 70 टन है। वर्ष 2011-12 में
357.7 मिलियन टन गन्ने का उत्पादन हुआ। गन्ने की मिलों से प्राप्त शीरे से शराब, ऐल्कोहल तथा रबड़ बनाई जाती है। इससे प्राप्त खोई को गत्ता बनाने में प्रयुक्त किया जाता है।

अनुकूल भौगोलिक दशाएँ
Favourable Geographical Conditions

गन्ने की कृषि के लिए निम्नलिखित भौगोलिक दशाएँ प्रमुख स्थान रखती हैं –
(1) जलवायु – गन्ना उष्णार्द्र जलवायु का पौधा है, परन्तु अर्द्ध-उष्ण कटिबन्धीय भागों में भी इसकी खेती की जाती है। भारत में इसकी खेती 8° उत्तरी अक्षांश से 37°उत्तरी अक्षांशों के मध्य की जाती है। इसके लिए निम्नलिखित जलवायुविक दशाएँ उपयुक्त रहती हैं –
(i) तापमान – गन्ने की फसल को तैयार होने में लगभग एक वर्ष का समय लग जाता है। अंकुर निकलते समय 20°सेग्रे तापमाने की आवश्यकता होती है। इसकी खेती 40 सेग्रे से अधिक एवं 8°सेग्रे से कम तापमान में नहीं हो पाती। अत्यधिक शीत एवं पाला इसकी फसल के लिए हानिकारक होता है।
(ii) वर्षा – गन्ना 150 से 200 सेमी वर्षा वाले भागों में भली-भाँति पैदा किया जा सकता है। यदि वर्षा की मात्रा इससे कम होती है तो सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। यही कारण है कि नहरों एवं नलकूपों से सिंचित क्षेत्र गन्ने के महत्त्वपूर्ण उत्पादक क्षेत्र बन गये हैं। ग्रीष्म ऋतु में कम-से-कम चार बार सिंचाई और गुड़ाई करने से एक पौधे में कई अंकुर निकल आते हैं और वह भूमि में भली प्रकार जम जाता है।

(2) मिट्टी – गन्ने की कृषि के लिए उपजाऊ दोमट तथा नमीयुक्त मिट्टी उपयुक्त होती है। दक्षिण की लावायुक्त काली मिट्टी में भी गन्ना पैदा किया जाता है। गन्ने को पर्याप्त खाद की आवश्यकता पड़ती है। इसी कारण चूने एवं फॉस्फोरस वाली मिट्टी अधिक उपयुक्त रहती है।

(3) मानवीय श्रम – गन्ने को रोपने, निराई-गुड़ाई काटकर बण्डल बनाने तथा समय-समय पर सिंचाई करने के लिए पर्याप्त संख्या में सस्ते श्रमिकों की आवश्यकता होती है। इसी कारण गन्ने का उत्पादन सघन जनसंख्या वाले प्रदेशों में अधिक किया जाता है।
समुद्री पवनों के प्रभाव से गन्ना अधिक रसीला तथा मिठासयुक्त हो जाता है। इस प्रकार अनुकूल भौगोलिक दशाएँ भारत के तटीय क्षेत्रों में अधिक मिलती हैं। इसी कारण उत्तरी भारत की अपेक्षा यहाँ गन्ने का प्रति हेक्टेयर उत्पादन भी अधिक होता है तथा गन्ना अधिक रसीला एवं मीठा होता है।

भारत में गन्ने के उत्पादक क्षेत्र
Sugarcane Producing Areas in India

यद्यपि उत्तरी भारत की अपेक्षा दक्षिणी भारत में गन्ना उत्पादन के लिए भौगोलिक सुविधाएँ अधिक अनुकूल हैं तथापि गन्ना उत्तरी भारत में ही अधिक पैदा किया जाता है। उत्तर प्रदेश राज्य देश का 54%, पंजाब तथा हरियाणा 15% तथा बिहार 12% गन्ने का उत्पादन करते हैं। पिछले दो दशकों से दक्षिणी राज्यों के गन्ना उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई है। देश के दक्षिणी राज्यों में आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र एवं तमिलनाडु प्रमुख गन्ना उत्पादक राज्य हैं। इन राज्यों में गन्ने की प्रति हेक्टेयर उपज उत्तरी राज्यों की अपेक्षा अधिक है। इसी कारण नवीन चीनी मिलों की स्थापना इन्हीं राज्यों में अधिक की गयी है। भारत में गन्ना उत्पादन के प्रमुख प्रदेश निम्नलिखित हैं –

(1) उत्तर प्रदेश – भारत के गन्ना उत्पादन में इस राज्य का प्रथम स्थान है, जो देश का 45 से 55% तक गन्ना उत्पन्न करता है। देश के गन्ना उत्पादक क्षेत्रफल का 54% भाग भी इसी राज्य में केन्द्रित है। यहाँ गन्ना उत्पादन की सभी भौगोलिक सुविधाएँ प्राप्त हैं। उत्तर प्रदेश में गन्ना उत्पादन के दो महत्त्वपूर्ण क्षेत्र हैं। पहला क्षेत्र तराई प्रदेश में है जो रामपुर से प्रारम्भ होकर बरेली, पीलीभीत, सीतापुर, खीरी, लखीमपुर, मुरादाबाद, गोण्डा, फैजाबाद, आजमगढ़, जौनपुर, बस्ती, बलिया, गोरखपुर तक फैला : है। दूसरा प्रमुख क्षेत्र गंगा-यमुना नदियों के दोआब में विस्तृत है। यह क्षेत्र मेरठ से वाराणसी होता हुआ इलाहाबाद तक फैला है। यहाँ का गन्ना मोटा, रसदार तथा प्रति हेक्टेयर उत्पादन में भी अधिक होता है। सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बिजनौर, देवरिया, शाहजहाँपुर, हरदोई आदि प्रमुख गन्ना उत्पादक जिले हैं।

(2) महाराष्ट्र – देश में इस राज्य का गन्ना उत्पादन में दूसरा स्थान है। यहाँ देश का 13% गन्ना उगाया जाता है। यहाँ गन्ने का क्षेत्र नासिक के दक्षिण में गोदावरी नदी की ऊपरी घाटी में स्थित है। साँगली, सतारा, नासिक, पुणे, अहमदनगर एवं शोलापुर प्रमुख गन्ना उत्पादक जिले हैं। यहाँ वर्षभर तापमान सम रहने के कारण गन्ने से अधिक रस की प्राप्ति होती है।

(3) तमिलनाडु – इस राज्य का गन्ने के क्षेत्रफल एवं प्रति हेक्टेयर उत्पादन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। कोयम्बटूर में गन्ने की एक अनुसन्धानशाला स्थापित की गयी है। देश का लगभग 11% गन्ना इसी राज्य में उत्पन्न किया जाता है। यहाँ कोयम्बटूर, रामनाथपुरम्, तिरुचिरापल्ली, उत्तरी एवं दक्षिणी अर्कोट तथा मदुराई जिलों में गन्ने की खेती विशेष रूप से की जाती है।

(4) आन्ध्र प्रदेश – यह राज्य गन्ने का प्रमुख उत्पादक है, जहाँ देश का लगभग 5% गन्ना उत्पन्न किया जाता है। यहाँ मन्ने की खेती गोदावरी एवं कृष्णा नदियों के डेल्टा में की जाती है, क्योंकि इस क्षेत्र में नहरों द्वारा सिंचाई की पर्याप्त सुविधाएँ प्राप्त हैं।

(5) पंजाब एवं हरियाणा – भारत में ये दोनों प्रमुख गन्ना उत्पादक राज्य हैं जहाँ सिंचाई की सहायता से गन्ना उगाया जाता है। हरियाणा में गुड़गाँव, हिसारं, करनाल, अम्बाला, रोहतक प्रमुख गन्ना उत्पादक जिले हैं। पंजाब राज्य में पटियाला, संगरूर, फिरोजपुर, जालन्धर, अमृतसर एवं गुरदासपुर प्रमुख गन्ना उत्पादक जिले हैं। दोनों राज्य सम्मिलित रूप से देश का 15% गन्ना उगाते हैं।

(6) अन्य राज्य – कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, बिहार, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा ओडिशा में भी गन्ने का उत्पादन किया जाता है।

भारत में जितना भी गन्ना उत्पन्न होता है उसका 45% खाण्डसारी एवं गुड़ बनाने में, 35% सफ़ेद चीनी बनाने में तथा शेष चूसने, रस निकालने एवं बीज के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।

प्रश्न 6
भारत में कपास की खेती में सहायक भौगोलिक कारकों की विवेचना कीजिए तथा उसकी खेती के प्रमुख क्षेत्रों का वर्णन कीजिए। [2008]
या
भारत में कपास की खेती का भौगोलिक विवरण लिखिए।
या
भारत की किसी एक रेशेदार (Fibre) फसल का भौगोलिक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
भारत में कपास की कृषि का निम्नांकित शीर्षकों में वर्णन कीजिए –
(अ) भौगोलिक दशाएँ, (ब) उत्पादक क्षेत्र, (स) व्यापार। [2009, 12, 13]
उत्तर
रेशेदार फसलों में कपास, जूट, रेशम व फ्लेक्स आती हैं, परन्तु इनमें कपास सबसे महत्त्वपूर्ण है। कपास का जन्म-स्थान भारत को ही माना जाता है। यहीं से इसका पौधा चीन तथा विश्व के अन्य देशों में पहुँचा। आज भी कपास भारत की प्रमुख व्यापारिक फसल है। भारत का कपास के क्षेत्रफल की दृष्टि से संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद दूसरा तथा उत्पादन की दृष्टि से संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन, रूस एवं ब्राजील के बाद पाँचवाँ स्थान है। कपास सूती वस्त्र उद्योग एवं वनस्पति घी उद्योग के लिए कच्चे माल का प्रमुख स्रोत है। भारत विश्व की 8.2% कपास का उत्पादन करता है, जबकि यहाँ विश्व की कपास उत्पादक भूमि का 22% क्षेत्रफल विद्यमान है। देश में 91 लाख हेक्टेयर भूमि पर कपास का उत्पादन किया जाता है। वर्ष वर्ष 2011-2012 में यहाँ कपास का वार्षिक उत्पादन 35.2 मिलियन गाँठ (एक गाँठ = 170 किग्रा) हुआ था। कपास का औसत उत्पादन 189 किग्रा प्रति हेक्टेयर है।

आवश्यक भौगोलिक दशाएँ
Necessary Geographical Conditions

कपास उगाने के लिए निम्नलिखित भौगोलिक दशाओं की आवश्यकता होती है –
(1) तापमान – कपास के पौधे के लिए 20° से 30° सेग्रे तापमान की साधारणतः आवश्यकता होती है। पाला एवं ओला इसके लिए हानिकारक होते हैं। अतः इसकी खेती के लिए 200 दिन पालारहित मौसम होना आवश्यक होता है। कपास की बौंडियाँ खिलने के समय स्वच्छ आकाश तथा तेज एवं चमकदार धूप होनी आवश्यक है जिससे रेशे में पूर्ण चमक आ सके।

(2) वर्षा – कपास की खेती के लिए साधारणतया 50 से 100 सेमी वर्षा पर्याप्त होती है, परन्तु यह वर्षा कुछ अन्तर से होनी चाहिए। अधिक वर्षा हानिकारक होती है, जबकि 50 सेमी से कम वर्षा वाले भागों में सिंचाई के सहारे कपास का उत्पादन किया जाता है।
(3) मिट्टी – कपास के उत्पादन के लिए आर्द्रतायुक्त चिकनी एवं गहरी काली मिट्टी अधिक लाभप्रद रहती है, क्योंकि पौधों की जड़ों में पानी भी न रहे और उन्हें पर्याप्त नमी भी प्राप्त होती रहे; इस दृष्टिकोण से दक्षिणी भारत की काली मिट्टी कपास के लिए बहुत ही उपयोगी है। भारी काली, दोमट, लाल एवं काली चट्टानी मिट्टी तथा सतलुज-गंगा मैदान की कछारी मिट्टी भी इसके लिए उपयुक्त रहती है।

(4) मानवीय श्रम – कपास की खेती को बोने, निराई-गुड़ाई करने और बौंडियाँ चुनने के लिए सस्ते एवं पर्याप्त संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता होती है। कपास चुनने के लिए अधिकतर स्त्रियाँ-श्रमिक उपयुक्त रहती हैं।
भारत में कपास का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 375 किग्रा है। कपास के उत्पादन के लिए दक्षिणी भारत की जलवायु उत्तरी भारत की अपेक्षा अधिक अनुकूल है, क्योंकि शीतकाल में उत्तरी भारत का तापमान तेजी से कम हो जाता है और भूमध्यसागरीय चक्रवातों के आ जाने से बादल छा जाते हैं तथा बौंडियों को खिलने के लिए पर्याप्त धूप नहीं मिल पाती।

भारत में कपास उत्पादक क्षेत्र
Cotton Producing Areas in India

भारत में विभिन्न प्रकार की जलवायु, मिट्टी एवं उत्पादन की भौगोलिक दशाएँ पायी जाती हैं तथा कृषित भूमि के 5% भाग पर ही कपास का उत्पादन किया जाता है, परन्तु देश में कपास उत्पादक क्षेत्रफल में वृद्धि होती जा रही है। वर्ष 2011-12 में 9.1 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर 35.2 मिलियन गाँठ कपास का उत्पादन किया गया। गुजरात, महाराष्ट्र एवं मध्य प्रदेश राज्य मिलकर देश की 65% कपास का उत्पादन करते हैं। तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, पंजाब व राजस्थान अन्य प्रमुख कपास उत्पादक राज्य हैं। कपास के उत्पादन में लगी कुल भूमि का 28% क्षेत्र सिंचित है। प्रमुख कपास उत्पादक राज्यों का विवरण निम्नवत् है –

(1) पंजाब एवं हरियाणा – कपास के उत्पादन में पंजाब राज्य का प्रथम तथा हरियाणा का छठा स्थान है। पंजाब में कपास का प्रति हेक्टेयर उत्पादन देश में सर्वाधिक (386 किग्रा) है। यहाँ कपास में 6% कृषित भूमि लगी है तथा देश की 20.4% कपास उगायी जाती है। इन दोनों राज्यों में कपास का उत्पादन सिंचाई के सहारे किया जाता है। पंजाब में अमृतसर, जालन्धर, लुधियाना, पटियाला, नाभा, संगरूर एवं भटिण्डा तथा हरियाणा में गुड़गाँव, करनाल, रोहतक एवं जींद आदि जिले प्रमुख कपास उत्पादक हैं।

(2) महाराष्ट्र – कपास के उत्पादन में महाराष्ट्र राज्य का देश में दूसरा स्थान है जहाँ लगभग 16.3% कपास का उत्पादन किया जाता है। इस प्रदेश की काली मिट्टी एवं सागरीय नम जलवायु का प्रभाव कपास के उत्पादन में बड़ा ही सहायक है। अकोला, अमरावती, बुलडाना, नागपुर, वर्धा, चन्द्रपुर, छिन्दवाड़ा, साँगली, बीजापुर, नासिक, शोलापुर, यवतमाल, जलगाँव, पुणे तथा परेभनी प्रमुख उत्पादक जिले हैं।

(3) गुजरात – गुजरात की उत्तम काली मिट्टी में देश का 28% कपास उत्पादक क्षेत्र फैला है तथा यह तीसरा स्थान प्राप्त किये हुए है। यहाँ देश का 13% कपास उत्पादित होता है। अहमदाबाद, मेहसाना, बनासकांठा, भड़ौंच, वड़ोदरा, खेड़ा, पंचमहल, साबरकाँठा, सूरत एवं पश्चिमी खानदेश जिले कपास के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं।

(4) आन्ध्र प्रदेश – इस राज्य का भारत के कपास उत्पादन में चौथा स्थान है। यहाँ देश की लगभग 12% कपास पैदा की जाती है। गुण्टूर, कुडप्पा, कर्नूल, पश्चिमी गोदावरी, कृष्णा, महबूबनगर, अदिलाबाद एवं अनन्तपुर जिले कपास के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं।
(5) अन्य राज्य – भारत में कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु एवं उत्तर प्रदेश कपास के अन्य प्रमुख उत्पादक राज्य हैं। उत्तर प्रदेश देश की लगभग 1% कपास का उत्पादन करता है जहाँ गंगा-यमुना, दोआब में कपास का उत्पादन किया जाता है। रुहेलखण्ड एवं बुन्देलखण्ड सम्भागों में सिंचाई द्वारा छोटे रेशे वाली कपास का उत्पादन किया जाता है।

व्यापार
देश में कपास के उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ यह कपास का निर्यात भी करने लगा है। छोटे रेशे वाली घटिया कपास का निर्यात जापान, ब्रिटेन एवं संयुक्त राज्य अमेरिका को किया जाता है। थोड़ी मात्रा में कपास का निर्यात जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैण्ड्स, न्यूजीलैण्ड, इंग्लैण्ड, जापान एवं ऑस्ट्रेलिया को किया जाता है।

प्रश्न 7
भारत में जूट उत्पादन के लिए अनुकूल भौगोलिक परिस्थितियों का वर्णन कीजिए तथा उसके उत्पादक क्षेत्रों पर प्रकाश डालिए।
या
भारत की किसी एक रेशेदार (Fibre) फसल का भौगोलिक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
भारत में जूट उद्योग के प्रमुख केन्द्रों का वर्णन कीजिए एवं उनमें स्थानीकरण के कारकों का विश्लेषण कीजिए।
या
भारत में जूट की खेती की समीक्षा निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए –
(अ) उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ,
(ब) उत्पादक क्षेत्र,
(स) व्यापार
उत्तर
जूट भारत की एक प्राचीन उपज है। यह उत्तरी-पूर्वी भारत की एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक एवं मुद्रादायिनी फसल है। वर्तमान समय में भारत विश्व के 40% जूट का उत्पादन कर विश्व में प्रथम स्थान बनाये हुए है। जूट के पौधे से सस्ता एवं मजबूत रेशा प्राप्त होता है। यह जूट उद्योग का प्रमुख कच्चा माल है जिससे टाट, बोरियाँ, रस्सियाँ, सुतली, गलीचे, मोमजामा, पर्दे आदि बनाये जाते हैं। भारत में जूट का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 1,907 किग्रा है। वर्ष 2011-12 में 10.9 मिलियन गाँठ (1 गाँठ =180 कि०) जूट का उत्पादन किया गया था। भारत में जूट उत्पादन में 0.9 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल लगा हुआ है।

अनुकूल भौगोलिक दशाएँ
Favourable Geographic Conditions

जूट उष्ण कटिबन्धीय उष्णार्द्र जलवायु का पौधा है। पश्चिम बंगाल में इसकी 66% से अधिक होती है। इसकी खेती के लिए निम्नलिखित भौगोलिक परिस्थितियाँ अनुकूल रहती हैं –

  1. तापमान – जूट के उत्पादन के लिए उच्च एवं नम जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। साधारणतया 25° से 35° सेग्रे तापमान आवश्यक होता है।
  2. वर्षा – जूट के पौधे के अंकुर निकलने के बाद अधिक जल की आवश्यकता पड़ती है। अतः इसकी खेती के लिए 100 से 200 सेमी या उससे भी अधिक वर्षा आवश्यक होती है। प्रति सप्ताह 2 से 3 सेमी वर्षा उपयुक्त रहती है।
  3. मिट्टी – जूट की कृषि, भूमि के उत्पादक तत्त्वों को नष्ट कर देती है। अत: इसकी खेती उन्हीं भागों में की जाती है, जहाँ प्रतिवर्ष नदियाँ अपनी बाढ़ द्वारा उपजाऊ मिट्टियों का निक्षेप करती रहती हैं। इसी कारण जूट की खेती डेल्टाई भागों में की जाती है। दोमट, काँप एवं बलुई मिट्टियाँ भी इसके लिए उपयुक्त रहती हैं।
  4. मानवीय श्रम – जूट की कृषि के लिए सस्ते एवं पर्याप्त संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि तैयार पौधों को काटने तथा तैयार करने में अधिक श्रम की आवश्यकता होती है।

जूट के पौधों से रेशा प्राप्त करने के लिए उसे 20-25 दिनों तक जल में डुबोकर रखना पड़ता है। अत: जूट के पौधों को खेत में काटकर तालाब, तलैया और झील के जल में डुबोकर रख दिया जाता है। जब पौधा सड़ जाता है तो उसे पीटकर साफ किया जाता है तथा सुखाकर रेशे अलग कर लिये जाते हैं।

भारत में जूट उत्पादक क्षेत्र
Jute Producing Areas in India

वर्ष 1985-86 से जूट के उत्पादन एवं उत्पादक-क्षेत्र दोनों में ही कमी हुई है, यद्यपि दक्षिणी-पूर्वी . भारत में जूट के प्रधान उत्पादक क्षेत्र विकसित हुए हैं। देश में प्रमुख जूट उत्पादक राज्यों का विवरण निम्नलिखित है –
(1) पश्चिम बंगाल – यह राज्य भारत का 75% जूट का उत्पादन कर प्रथम स्थान रखता है। इस राज्य में जूट की कृषि के लिए अनुकूल जलवायु, उपजाऊ भूमि, पर्याप्त श्रम, कच्चा माल आयात करने की सुविधा, परिवहन सुविधा और सस्ता मानवीय श्रम आदि सभी आदर्श भौगोलिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं। दार्जिलिंग, हावड़ा, हुगली, माल्दा, जलपाईगुड़ी, बांकुड़ा, बर्दमान, मिदनापुर, मुर्शिदाबाद, चौबीस-परगना तथा कूच बिहार प्रमुख जूट उत्पादक जिले हैं।

(2) बिहार एवं झारखण्ड – इन राज्यों का देश के जूट उत्पादन में दूसरा स्थान है जहाँ देश की 15% जूट का उत्पादन किया जाता है। बिहार को तराई क्षेत्र जूट का प्रमुख उत्पादक प्रदेश है। सस्ते श्रमिक, परिवहन, जूट की कृषि के लिए अनुकूल जलवायु आदि सभी आदर्श भौगोलिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं। सारन, चम्पारन, दरभंगा, पूर्णिया, मुजफ्फरपुर, सहरसा, मोतीपुर, मुंगेर, मोतिहारी एवं संथाल-परगना जिलों में जूट का उत्पादन प्रमुख रूप से किया जाता है।

(3) असम – असम राज्य का देश के जूट उत्पादन में तीसरा स्थान है। इस राज्य की जलवायु दशाएँ एवं मृदा जूट के उत्पादन के अधिक अनुकूल पायी जाती हैं। साथ ही जूट की कृषि के लिए कच्चे माल के आयात की सुविधा, सस्ता श्रम, परिवहन की सुविधा, पर्याप्त माँग आदि की आदर्श भौगोलिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं। कृषि-योग्य भूमि के अधिकांश भाग (95%) पर जूट का उत्पादन किया जाता है। ब्रह्मपुत्र एवं इसकी सहायक नदियों की घाटियाँ जूट के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं। यहाँ कछार, धरांग, गोलपाड़ा, कामरूप, लखीमपुर, नवगाँव आदि जूट के प्रमुख उत्पादक जिले हैं।

(4) अन्य राज्य – आन्ध्र प्रदेश; ओडिशा, मेघालय में गारो, खासी और जयन्तिया की पहाड़ियाँ, मिकिर तथा उत्तरी कछार जिले; उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में देवरिया, बहराइच, गोंडा, सीतापुर एवं खीरी जिलों में जूट की खेती की जा रही है। केरल (मालाबार तट), त्रिपुरा तथा मणिपुर राज्यों में भी जूट का उत्पादंने अल्प मात्रा में किया जाता है।

व्यापार – भारत जूट के उत्पादन में अभी तक आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है। अत: यहाँ कच्चा जूट बांग्लादेश से मॅगाया जाता है, परन्तु जूट-निर्मित सामान का निर्यात ब्रिटेन, मिस्र, ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी तथा फ्रांस आदि देशों को किया जाता है। भारत में जूट के उत्पादन में वृद्धि के प्रयास किये जा रहे हैं। पश्चिमी बंगाल राज्य के हुगली नगर में जूट अनुसन्धानशाला स्थापित की गयी है। जो जूट की नयी किस्मों पर शोध का कार्य कर रही है तथा जूट के उत्पादन में वृद्धि के नवीन प्रयास कर रही है। जूट की कमी को पूरा करने के लिए घाघरा, सरयू, ताप्ती, महानदी आदि घाटियों, समुद्रतटीय क्षेत्रों तथा तराई प्रदेश में जूट के उत्पादन में वृद्धि के प्रयासों में सफलता मिली है।

प्रश्न 8
भारत में चाय की खेती एवं उसके अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का वर्णन कीजिए।
या
भारत में चाय की खेती के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाओं का वर्णन कीजिए और इसका वितरण एवं उत्पादन बताइए। [2011]
या
भारत में चाय की खेती का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए –
(अ) उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ, (ब) उत्पादक क्षेत्र, (स) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार। [2009, 13, 16]
या
भारत का एक रेखा-मानचित्र बनाइए तथा उस पर चाय की खेती के क्षेत्रों को दर्शाइए। [2013]
या
भारत का एक रेखा-मानचित्र बनाइए तथा उस पर चाय की खेती का एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र (नाम सहित) दिखाइए।
या
भारत में चाय की खेती के क्षेत्रों को वर्णन कीजिए तथा इसका व्यापारिक महत्त्व बताइए। [2007]
उत्तर
चाय भारत का एक प्रमुख पेय पदार्थ है। भारत में चाय की कृषि एक महत्त्वपूर्ण बागानी फसल है। वर्तमान समय में चाय देश की प्रमुख मुद्रादायिनी फसल है। 2001-2002 ई० में भारत ने 176.3 हजार टन चाय का निर्यात किया तथा 1,719 करोड़ की विदेशी मुद्रा अर्जित की। भारत विश्व की 28.3% चाय का उत्पादन कर विश्व में प्रथम स्थान प्राप्त किये हुए है तथा देश के निर्यात व्यापार में चाय का भाग 4% है। देश में चाय के 13,256 बागाने हैं जिनमें 10 लाख श्रमिकों को रोजगार प्राप्त है। वर्ष 2011-12 में 1 मिलियन टन यहाँ चाय का उत्पादन किया गया तथा प्रति हेक्टेयर उत्पादन 1,663 किग्रा था।

अनुकूल भौगोलिक दशाएँ
Favourable Geographical Conditions

चाय के लिए निम्नलिखित भौगोलिक परिस्थितियों की आवश्यकता होती है –
(1) तापमान – चाय का पौधा छायाप्रिय होता है जो हल्की छाया में बड़ी तीव्र गति से बढ़ता है। इसके लिए 20 से 30° सेग्रे तापमान उपयुक्त रहता है। न्यूनतम तापमान 18° सेग्रे हो जाने पर इसकी वृद्धि रुक जाती है, परन्तु असम में 37° सेग्रे तापमान वाले भागों में भी इसका उत्पादन किया जाता है। ठण्डी पवने, पाला एवं ओले इसकी खेती के लिए हानिकारक होते हैं।

(2) वर्षा – चाय के लिए आर्द्र जलवायु आवश्यक होती है। यदि वसन्त एवं शीत ऋतु में अच्छी वर्षा हो जाये तो चाय की पत्तियों को वर्ष में 4-5 बार चुना जा सकता है। इसके लिए 150 से 250 सेमी वर्षा उपयुक्त रहती है। द्वार एवं दार्जिलिंग की ढालू भूमि में 250 से 500 सेमी वर्षा वाले भागों में चाय का उत्पादन किया जाता है। जल पौधों की जड़ों में न रुक सके, इसलिए चाय के बागान ढालू भूमि पर 610 से 1,830 मीटर की ऊँचाई वाले भागों पर ही लगाये जाते हैं।

(3) मिट्टी – चाय का उत्पादन पहाड़ी ढालों वाली भूमि पर अधिक किया जाता है। इसके लिए गहरी, गन्धक, पोटाश, लोहांश तथा जीवांशों से युक्त मिट्टी उपयुक्त रहती है। वनों से साफ की गयी भूमि पर चाय सर्वाधिक उगायी जाती है। बलुई मिट्टी, जिसमें जीवांशों की मात्रा अधिक होती है, चाय के लिए सर्वोत्तम रहती है। चाय की झाड़ी की जड़ों में पानी नहीं रुकना चाहिए।

(4) मानवीय श्रम – चाय की पत्तियों के लिए सस्ते एवं अधिक संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता होती है, क्योंकि चाय की पत्तियाँ एक-एक कर चुनी जाती हैं जिससे कोमल पत्तियाँ नष्ट न हों। इस कार्य के लिए बच्चे एवं स्त्रियाँ श्रमिक अधिक उपयुक्त रहती हैं।

भारत में चाय का उत्पादन एवं वितरण
Production and Distribution of Tea in India

भारत में लगभग 5 लाख हेक्टेयर भूमि पर चाय का उत्पादन होता है। देश में 13,256 चाय के उद्यान हैं। देश में चाय के उत्पादन का 75% भाग पश्चिम बंगाल एवं असम राज्यों से; 5% उत्तर प्रदेश, बिहार एवं हिमाचल प्रदेश से प्राप्त होता है। शेष 20% चाय दक्षिणी राज्यों-तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक एवं महाराष्ट्र में उगाई जाती है। भारत में प्रमुख चाय उत्पादक राज्य निम्नलिखित हैं –
(1) असम – चाय के उत्पादन में इस राज्य का भारत में प्रथम स्थान है। यहाँ देश की 50% चाय का उत्पादन किया जाता है। यहाँ चाय के प्रमुख क्षेत्र ब्रह्मपुत्र एवं सुरमा नदियों की घाटियों में हैं। यह क्षेत्र ब्रह्मपुत्र नदी की घाटी में धरांग, कामरूप, गोलपाड़ा, नवगाँव, शिवसागर तथा लखीमपुर जिलों में विस्तृत है। असम में दूसरा चाय उत्पादक क्षेत्र सुरमा नदी की घाटी के कछार जिले में है। यहाँ चाय के उत्पादन के लिए सभी अनुकूल भौगोलिक दशाएँ पायी जाती हैं तथा राज्य की अर्थव्यवस्था में चाय का योगदान प्रमुख है।

(2) पश्चिम बंगाल – चाय के उत्पादन में इस राज्य का भारत में दूसरा स्थान है जहाँ देश की 20 से 25% तक चाय का उत्पादन किया जाता है। यहाँ चाय के उद्यान दार्जिलिंग, कूच बिहार, पुरुलिया तथा
जलपाईगुड़ी जिलों में हैं। द्वार पहाड़ी क्षेत्रों के ढलानों पर भी चाय का उत्पादन किया जाता है। यहाँ सुगन्धित एवं स्वादिष्ट चाय पैदा की जाती है। दार्जिलिंग में 1,800 मीटर की ऊँचाई तक चाय का उत्पादन किया जाता है। यहाँ उत्पादित अधिकांश चाय का निर्यात कर दिया जाता है।

(3) तमिलनाडु – तमिलनाडु दक्षिणी भारत का सर्वप्रमुख चाय उत्पादक राज्य है तथा देश के चाय उत्पादन में तीसरा स्थान प्राप्त किये हुए है। यहाँ देश की 12% चाय उत्पन्न की जाती है। अन्नामलाई, कन्याकुमारी, नीलगिरि, तिरुनलवेली एवं कोयम्बटूर जिले प्रमुख चाय उत्पादक हैं। अधिकांश चाय का उत्पादन अन्नामलाई एवं नीलगिरि के पर्वतीय ढालों पर किया जाता है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 21 Agriculture a
(4) केरल – भारत में चाय के उत्पादन में कर्नाटक केरल चौथा प्रमुख राज्य है। यहाँ देश की 7% चाय उत्पन्न की जाती है। मालनद, मध्य ट्रावणकोर, कोनन-देवास एवं मालाबार तट चाय के प्रमुख
उत्पादक क्षेत्र हैं।

(5) महाराष्ट्र – महाराष्ट्र राज्य में देश की चित्र 3.1–भारत : चाय उत्पादक क्षेत्र। 2% चाय का उत्पादन किया जाता है। रत्नागिरि, कनारा एवं सतारा जिले प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं।

(6) अन्य राज्य – देश में चाय के अन्य उत्पादक राज्य कर्नाटक, बिहार, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा एवं अरुणाचल प्रदेश हैं। उत्तराखण्ड राज्य में देहरादून, गढ़वाल एवं अल्मोड़ा जिलों में चाय उगायी जाती है।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार – भारत विश्व में चाय का सबसे बड़ा निर्यातक देश है। भारत में चाय की खपत उत्पादन का केवल दो-तिहाई भाग है, शेष एक-तिहाई चाय विदेशों को निर्यात कर दी जाती है। देश के निर्यात व्यापार की 60% चाय ब्रिटेन मॅगाता है। रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, अफगानिस्तान, सूडान, इराक, ईरान, मिस्र आदि 80 देश भारतीय चाय के प्रमुख ग्राहक हैं।

प्रश्न 9
भारत में कहवा की कृषि का भौगोलिक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
भारत में कहवा उत्पादक क्षेत्रों का वर्णन कीजिए तथा इसके उत्पादन के लिए अनुकूल भौगोलिक परिस्थितियों को बताइए।
या
भारत में कहवा की खेती का विवरण निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए –
(अ) उत्पादक क्षेत्र, (ब) उत्पादन, (स) निर्यात।
उत्तर
भारत में सन् 1830 से कहवा की कृषि व्यवस्थित रूप से की जाती है तथा इसका विस्तार कर्नाटक के अन्य जिलों, केरल एवं तमिलनाडु में हो गया था। विश्व उत्पादन का 2.8% कहवा ही भारत से प्राप्त हो पाता है, परन्तु स्वाद में उत्तम होने के कारण इसका अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में ऊँचा मूल्य मिलता है। इसी कारण देश के उत्पादन का लगभग 70% भाग विदेशों को निर्यात कर दिया जाता है। देश में इस समय लगभग कहवा के 52,000 बागान हैं जिनमें 2.5 लाख लोग लगे हैं। वर्ष 2011-2012 में 3 लाख टन कहवे का उत्पादन हुआ था।

अनुकूल भौगोलिक दशाएँ
Favourable Geographical Conditions

कहवा के उत्पादन के लिए अग्रलिखित भौगोलिक परिस्थितियाँ अनुकूल रहती हैं –

  1. तापमान – कहवा के उत्पादन के लिए औसत वार्षिक तापमान 20° से 30° सेग्रे आवश्यक होता है। कहवे का पौधा अधिक धूप को सहन नहीं कर पाता। इसी कारण इसे छायादार वृक्षों के साथ उगाया जाता है।
  2. वर्षा – कहवे के लिए 150 से 250 सेमी वर्षा पर्याप्त रहती है। जिन क्षेत्रों में वर्षा का वितरण समान होता है, वहाँ 300 सेमी वर्षा पर्याप्त रहती है। सामान्यतया इसकी खेती 900 से 1,800 मीटर ऊँचाई वाले भागों में छायादार वृक्षों के साथ की जाती है।
  3. मिट्टी – इसके लिए वनों से साफ की गयी भूमि उपयुक्त रहती है, क्योंकि इसमें उपजाऊ तत्त्व अधिक मिलें रहते हैं। कहवे के लिए दोमट एवं ज्वालामुखी उद्गार से निकली लावा मिट्टी अधिक उपयुक्त रहती है जिनमें क्रमश: जीवांश एवं लोहांश मिले होते हैं।
  4. मानवीय श्रम – कहवे के पौधों को लगाने, निराई-गुड़ाई करने, बीज तोड़ने, सुखाने, पीसने आदि कार्यों के लिए पर्याप्त संख्या में सस्ते एवं कुशल श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है। इन कार्यों के लिए बच्चे एवं स्त्रियाँ श्रमिक अधिक उपयुक्त रहते हैं।

भारत में कहवा उत्पादक क्षेत्र
Coffee Producing Areas in India

भारत में कहवे का उत्पादन करने वाले राज्य निम्नलिखित हैं –

  1. कर्नाटक – कर्नाटक राज्य का कहवा के उत्पादन में प्रथम स्थान है (देश के उत्पादन का 70%)। यहाँ कहवे के 4,600 बाग हैं। इस राज्य के दक्षिणी एवं दक्षिणी-पश्चिमी भागों में कादूर, शिमोगा, हासन, चिकमंगलूर एवं मैसूर जिलों के पहाड़ी क्षेत्रों में 1,200 मीटर की ऊँचाई वाले भागों में कहवे का उत्पादन किया जाता है।
  2. केरल – कहवा के उत्पादन में केरल राज्य का दूसरा स्थान है जहाँ देश का 20% कहवा उत्पन्न किया जाता है। यहाँ 58,000 हेक्टेयर भूमि कहवा के उत्पादन में लगी हुई है जिस पर 33,600 टन कहवे का वार्षिक उत्पादन होता है। केरल के प्रमुख उत्पादक जिले–कोजीकोड़, कन्नानोर, बयनाड़ तथा पालघाट प्रमुख हैं।
  3. तमिलनाडु – कहवा के उत्पादन में इस राज्य का देश में तीसरा स्थान है। यहाँ 21,700 हेक्टेयर भूमि पर 15,200 टन कहवा उगाया जाता है। तमिलनाडु के उत्तर में अर्कोट जिले से लेकर दक्षिण-पश्चिम में तिरुनलवेली तक इसका विस्तार है। नीलगिरि प्रमुख कहवा उत्पादक जिला है। कोयम्बटूर, मदुराई, पेरियार, सलेम, रामनाथपुरम् अन्य प्रमुख केहवा उत्पादक जिले हैं।
  4. अन्य राज्य – महाराष्ट्र में रत्नागिरि, सतारा एवं कनारा जिलों तथा आन्ध्र प्रदेश में विशाखापट्टनम जिले में भी कहवे का उत्पादन किया जाता है।

निर्यात – देश में कहवा उत्पादन का 30% उपभोग घरेलू रूप में किया जाता है तथा शेष 70% ब्रिटेन, रूस, कनाडा, स्वीडन, नार्वे, यूगोस्लाविया, ऑस्ट्रेलिया, पोलैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैण्ड्स, बेल्जियम एवं इराक को निर्यात कर दिया जाता है। वर्ष 2010-11 में 203.8 लाख टन कहवे का निर्यात किया गया। भारत विश्व व्यापार का 1.41% कहवा निर्यात करता है।

प्रश्न 10
भारत में तिलहनों की खेती का भौगोलिक विवरण दीजिए तथा उनकी वर्तमान कमी के कारण बताइए।
उत्तर
भारत का विश्व में तिलहन उत्पादन में प्रमुख स्थान है। यहाँ विश्व की प्रमुख तिलहन (Oil seeds) फसलें; जैसे- मूंगफली (3/4), तिल (1/4) वे सरसों (176) उत्पन्न की जाती हैं। तिलहन फसलें भारत में दो प्रकार की हैं—एक छोटे दाने वाली एवं दूसरी बड़े दाने वाली। उत्तरी भारत में छोटे दाने वाली सरसों प्रमुख फसल है, जबकि दक्षिण भारत में नारियल प्रमुख फसल है। भारत में सभी राज्यों में कोई-न-कोई तिलहन फसल न्यूनाधिक मात्रा में पैदा की जाती है।

विभिन्न तिलहनों के लिए भौगोलिक दशाएँ एवं उत्पादक क्षेत्र
Geographical Conditions and Producing Areas of Various Oil Seeds

(1) सरसों (Mustard); (2) मूंगफली (Peanut); (3) तिल (Sesamum) तथा (4) नारियल (Coconut)।
(1) सरसों – भारत में सरसों की फसल रबी के मौसम में गेहूँ एवं जौ के साथ उगायी जाती है। सरसों की खेती के लिए यहाँ उपयुक्त तापमान 20°C से 25°C एवं वर्षा 75 सेमी से 150 सेमी पायी जाती है। उत्तरी भारत में जहाँ वर्षा की कमी होती है वह सिंचाई के साधनों द्वारा पूरी कर ली जाती है। सरसों की खेती के लिए उपजाऊ दोमट मिट्टी एवं सस्ते श्रम की आवश्यकता पड़ती है। भारत में सरसों की खेती प्राय: गेहूँ, जौ, चना एवं मटर के साथ मिलाकर की जाती है। जहाँ पानी की कमी है वहाँ अलग खेत में भी सरसों की फसल पैदा की जाती है।

उत्पादक क्षेत्र – सरसों की फसल मुख्यत: उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, हरियाणा, पंजाब, ओडिशा, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में उगायी जाती है। भारत की अधिकांश उपज का स्थानीय उपयोग हो जाता है, फिर भी कुछ सरसों यूरोपीय देशों को निर्यात की जाती है।

(2) मूंगफली – यह एक उष्ण कटिबन्धीय जलवायु की फसल है। भारत में इसकी फसल के लिए उपयुक्त तापमान बोते समय 15°C एवं पकते समय 25°C सेग्रे तक तथा वर्षा 75 से 150 सेमी के मध्य पायी जाती है। शीतल जलवायु वाले भागों में मूंगफली की खेती करना सम्भव नहीं है। उपजाऊ एवं जीवाश्म युक्त मिट्टी मूंगफली की फसल के लिए आवश्यक है। साथ ही सस्ता श्रम भी मूंगफली की खेती में आवश्यक भौगोलिक कारक है और उपर्युक्त सभी भौगोलिक दशाएँ भारत में पायी जाती हैं।

उत्पादक क्षेत्र – भारत में मूंगफली की खेती गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु तथा उत्तर प्रदेश में की जाती है। कुल उत्पादन का 90% दक्षिण भारत में उत्पन्न किया जाता है। भारत मूंगफली के उत्पादन में विश्व में प्रथम स्थान रखता है। कुल मूंगफली उत्पादन का 15% भूनकर खाने के काम में, 50% तेल बनाने एवं शेष का निर्यात यूरोपीय देशों एवं कनाडा को किया जाता है।

(3) तिल – तिल की फसल अर्द्ध-उष्ण भागों में पैदा की जाती है। तिल की खेती के लिए तापमान 20°C से 25°C एवं वर्षा 50-100 सेमी होनी चाहिए। तिल की फसल के लिए अधिक उपजाऊ मिट्टी की आवश्यकता नहीं होती। तिल की खेती भारत में ठण्डे भागों में खरीफ के मौसम में एवं गर्म भागों में रबी के मौसम में की जाती है। तिल के पौधे की जड़ों में पानी नहीं भरना चाहिए। अत: बलुई मिट्टी उपयुक्त होती है।

उत्पादक क्षेत्र – भारत के कुल तिल उत्पादन का लगभग 90% उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र एवं आन्ध्र प्रदेश में उत्पन्न किया जाता है। तिल के उत्पादन में उत्तर भारत की ही प्रधानता है। तिल का व्यापार कच्चे माल के रूप में न होकर तेल के रूप में किया जाता है।

(4) नारियल – नारियल का पौधा उष्णार्द्र जलवायु का पौधा है। इसकी उपज के लिए 20°C से 30°C तक तापमान एवं 150 सेमी से अधिक वर्षा होनी चाहिए। सामान्यतः नारियल की फसल समुद्रतटीय भागों, डेल्टाओं एवं टापुओं में पैदा की जाती है।

उत्पादक क्षेत्र – भारत में नारियल की फसल मुख्यतः केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गोआ, आन्ध्र प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल आदि में पैदा की जाती है। पूर्वी गोदावरी एवं कावेरी डेल्टा में बहुतायत में नारियल उगाया जाता है। भारत में नारियल का क्षेत्र एवं उत्पादन निरन्तर बढ़ रहा है। भारत से नारियल एवं नारियल का तेल यूरोप वे संयुक्त राज्य अमेरिका को निर्यात किया जाता है। उपर्युक्त तिलहनों के अलावा अरण्डी, राई, अलसी, तिल्ली आदि भी उगाये जाते हैं। इनका उत्पादन मुख्यत: उत्तरी भारत में रबी के मौसम में किया जाता है।

तिलहनों के उत्पादन में कमी के कारण
Causes of Decreasing Production of Oil Seeds

भारत में जनसंख्या का दबाव निरन्तर बढ़ रहा है और तिलहनों की खपत बढ़ रही है। माँग के अनुपात में तिलहनों का उत्पादन नहीं बढ़ा है, क्योंकि तिलहनों की भारत में प्रति हेक्टेयर उपज कम है तथा उन्नत बीज एवं वैज्ञानिक तरीकों से तिलहनों को नहीं उगाया जाता है। भारत में तिलहन मुख्य फसल के रूप में बहुत कम क्षेत्रों में पैदा किये जाते हैं जिस कारण से वर्तमान में तिलहनों की उपज में निरन्तर गिरावट आ रही है। तिलहनों के बजाय कृषकों का ध्यान खाद्यान्नों एवं औद्योगिक फसलों की तरफ अधिक है। भारत सरकार ने भी तिलहनों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए कोई नियोजित योजना लागू नहीं की है। यही कारण है कि भारत में वर्तमान में तिलहन उत्पादन में कमी आयी है।

प्रश्न 11
भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि के योगदान की विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों में कीजिए –
(क) योजनाकाल में कृषि का विकास,
(ख) हरित क्रान्ति।
उत्तर

(क) योजनाकाल में कृषि का विकास
Development of Agriculture During Planning

भारत में नियोजन 1 अप्रैल, 1950 से आरम्भ हुआ है। अब तक 65 वर्ष पूरे हो चुके हैं और 66वाँ वर्ष चल रहा है। इस काल में कृषि का अत्यधिक विकास हुआ है, जिसका विवरण निम्नवत् है –
(1) कृषि उत्पादन में वृद्धि – इने योजनाकालों में कृषि उत्पादन बढ़ा है, जैसे-वर्ष 1950-51 में खाद्यान्नों का उत्पादन 551 लाख टन था, वह सन् 1983-84 में 1,524 लाख टन हो गया था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में सूखे में कारण यह उत्पादन सन् 1986-87 में 1,440 लाख टन हुआ जो कि सन् 1988-89 में बढ़कर 1,702 लाख टन हो गया। इसी प्रकार की वृद्धि लगभग सभी कृषि उत्पादों में हुई। वर्ष 2006-07 में 2,120 लाख टन खाद्यान्नों का उत्पादन हुआ।

(2) सिंचाई की सुविधा में वृद्धि – सन् 1950-51 में कुल 226 लाख हेक्टेयर भूमि को ही सिंचाई सुविधाएँ प्राप्त थीं, लेकिन सन् 1992-93 में 883 लाख हेक्टेयर भूमि को सिंचाई सुविधाएँ प्राप्त थीं। वर्ष 1994-95 में 78.6 लाख हेक्टेयर में सिंचाई की गयी। वर्ष 2000-01 में बड़ी योजना द्वारा 947 लाख हेक्टेयर की सिंचाई हुई।

(3) रासायनिक उर्वरक का उपयोग – वर्ष 1950-51 में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग न के बराबर अर्थात् 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से भी कम था, लेकिन आज यह 90 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से अधिक है। वर्ष 1989-90 में सभी प्रकार के खाद की खपत 120 लाख टन एवं 1992-93 ई० में 127 लाख तथा वर्ष 1994-95 में 130 लाख टन हो गयी। वर्ष 2005-06 में 203 लाख टन रासायनिक उत्पादों का प्रयोग किया गया था।

(4) हरित क्रान्ति एवं उच्च तकनीक – इसके प्रयोग से उत्पादन के नये कीर्तिमान स्थापित किये जा सकते हैं। अब कीटनाशक एवं रासायनिक उर्वरकों की बढ़ती हानियों एवं प्रदूषण के खतरों को देखते हुए इनका उपयोग सीमित रखकर इनके स्थान पर अधिक क्षमता के उपचारित बीज एवं जैव तकनीक व्यवस्था का बड़े पैमाने पर उपयोग 1990-91 ई० से ही प्रारम्भ किया गया है।

(5) बहु-फसली कृषि – कृषि पहले सामान्यतया एक ही फसल की होती थी लेकिन आज एक से अधिक कृषि फसलें होती हैं। बागानी कृषि का भी तेजी से विकास हो रहा है। अब कुल सिंचित क्षेत्र के 20% भाग पर बहुफसलें बोयी गयीं।

(6) उन्नत बीज – नियोजन प्रारम्भ होने पर अनेक प्रकार के उन्नत बीजों की खोज हुई है, जिसके परिणामस्वरूप सन् 1992 में 706 लाख हेक्टेयर भूमि पर और सन् 1994-95 में 800 लाख हेक्टेयर भूमि पर उन्नत बीजों को बोया गया, जबकि नियोजन से पूर्व ऐसा नहीं होता था। राष्ट्रीय निगम द्वारा वर्ष 2001-02 में 91 लाख क्विटल उन्नतशील बीजों का उत्पादन किया गया।

(ख) हरित क्रान्ति
Green Revolution

जब तीसरी पंचवर्षीय योजना सफल हो गयी तो सरकार ने कृषि विकास के लिए नये कार्यक्रम तैयार किये। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य अच्छे बीज, खाद, सिंचाई आदि के प्रयोग द्वारा कृषि उत्पादन में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना था। इस योजना को नयी कृषि नीति (New Agricultural Strategy) कहते हैं। इसके फलस्वरूप गेहूँ की उपज में तीव्र गति से वृद्धि हुई और अन्य वस्तुओं की उपज का वातावरण तैयार हो गया। इसी को हरित क्रान्ति (Green Revolution) कहते हैं। हरित क्रान्ति का आशय यह नहीं कि खेती की मेड़बन्दी करवाकर फावड़े, तगारी, गेंती, हल इत्यादि अन्य उपयोगी कृषि के साधन प्राप्त करके कृषि की जाए वरन् इन साधनों का विकास तकनीक के साथ प्रयोग करके कृषि उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि की जा सके। हरित क्रान्ति अथवा नयी कृषि नीति के मुख्य तत्त्व निम्नलिखित हैं –

(1) अधिक उपज देने वाली किस्में – जिन क्षेत्रों में सिंचाई की विश्वसनीय सुविधाएँ उपलब्ध हैं। अथवा जिनमें वर्षा का पर्याप्त जल मिल जाता है, उनमें सन् 1966 की खरीफ की फसल से अधिक उपज देने वाली फसलों में बीजों का प्रयोग प्रारम्भ किया गया। यह प्रयोग अभी केवल पाँच खाद्यान्नों-गेहूँ, धान, बाजरी, मक्का तथा ज्वार–के उत्पादन में ही किया गया। इनमें गेहूं की अधिक उपज देने वाली किस्में, जैसे-शरबती, सोनारा, कल्याण सोना, छोटी लरमा तथा हीरा किस्में प्रसिद्ध हैं। चावल की भी आई० आर० 8, ताइचुंग 65, जय, पद्मा, पंकज, जगन्नाथ, जमुना, सावरमती आदि किस्मों का विकास हो गया है।

(2) सुधरे हुए बीज – हरित क्रान्ति की सफलता अधिक उपज देने वाली किस्म तथा बढ़िया बीजों पर निर्भर करती है। इस दृष्टि से न केवल बढ़िया किस्मों का प्रयोग करना आवश्यक है, बल्कि उनके बढ़िया बीजों की व्यवस्था करना भी जरूरी है। इस दृष्टि से ही देश भर में लगभग 4,000 कृषि फार्म स्थापित किये गये हैं, जहाँ बढ़िया किस्म के बीजों की उत्पत्ति होती है।

(3) रासायनिक खाद – पाश्चात्य कृषिशास्त्रियों के अनुसार खेतों को अधिकाधिक रासायनिक खाद देकरं उत्पादन में आशातीत वृद्धि की जा सकती है। भारत के सामने वर्तमान समस्या उत्पादन की मात्रा में वृद्धि करने की है। अतः रासायनिक खाद का प्रयोग बढ़ाने का प्रयत्न किया जा रहा है।

(4) गहन कृषि (जिलावार) कार्यक्रम – गहन कृषि जिला कार्यक्रम से तात्पर्य यह है कि जिन क्षेत्रों में भूमि अच्छी है तथा सिंचाई की सुविधाएँ पर्याप्त हैं, वहाँ अधिक शक्ति और श्रम की सहायता से कृषि का विकास किया जाना चाहिए।

(5) लघु सिंचाई – हरित क्रान्ति की हरियाली केवल बीज अथवा खाद से ही बनाये रखना कठिन होता है। इसके लिए सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था बहुत आवश्यक है। यह व्यवस्था बड़े बाँधों के अतिरिक्त छोटी नहरों, कुओं तथा तालाबों से भी करनी पड़ती है, ताकि प्रत्येक वर्ग के किसान को इन सुविधाओं का लाभ प्राप्त हो सके। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत नलकूप, छोटी नहरों तथा तालाब आदि बनाने का कार्य किया जाता है और इसमें सहायता दी जाती है।

(6) कृषि शिक्षा तथा शोध – देश में कृषि विकास की उन्नति करने के लिए कृषि कार्य में शोध करना बहुत आवश्यक हैं जिससे उत्पादन तथा विकास की नवीनतम पद्धति का प्रयोग किया जा सके। 1 अक्टूबर, 1975 से एक कृषि अनुसन्धान सेवा का गठन किया गया है। कृषि विज्ञान केन्द्र खोले गये हैं। जिससे स्व-नियोजित किसानों और विस्तार कर्मचारियों को नवीनतम कृषि विधियों की जानकारी दी जा सके। देश में 29 कृषि विश्वविद्यालय स्थापित किये जा चुके हैं जिनमें जबलपुर (मध्य प्रदेश), अकोला (महाराष्ट्र), पन्तनगर (उत्तराखण्ड), हिसार (हरियाणा), लुधियाना (पंजाब), बीकानेर (राजस्थान) तथा भुवनेश्वर (ओडिशा) मुख्य हैं। देश के विशिष्ट चुने हुए जिलों में कृषि प्रशिक्षण और शिक्षा कार्यक्रम चल रहे हैं।

(7) पौध संरक्षण – हरित क्रान्ति में पौध संरक्षण कार्यक्रमों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इसके अन्तर्गत भूमि तथा फसलों पर दवा छिड़कने व बीज उपचारित करने का कार्य किया जाता है। जिन वर्षों में टिड्डी दल आते हैं, उन वर्षों में टिड्डियों को नष्ट करने के अभियान चलाकर उन्हें भूमि पर अथवा आकाश में नष्ट कर दिया जाता है। वर्तमान में पर्यावरण प्रिय ‘नीम’ पर आधारित कीटनाशकों तथा जैव कीटनाशकों को एकीकृत कीट प्रबन्धक की व्यापक परिधि के अन्तर्गत प्रोत्साहित किया जा रहा है। हैदराबाद में एक पौध संरक्षण संस्थान है जहाँ अधिकारियों को पौध संरक्षण सम्बन्धी प्रशिक्षण दिया जाता है।

(8) बहफसली एवं मिश्रित फसल प्रणाली – सन् 1967-68 में सिंचित क्षेत्र में खाद तथा नयी किस्म के बीजों से एक ही भूखण्ड में जल्दी पकने वाली कई फसलें उत्पन्न करने का प्रयोग 36.4 लाख हेक्टेयर भूमि पर आरम्भ किया गया था। वर्तमान में कुल सिंचित क्षेत्र के लगभग 35 प्रतिशत भाग में दो या अधिक फसलें बोयी जा रही हैं। वर्ष 1995-96 में लगभग 500 लाख हेक्टेयर भूमि पर दो या अधिक फसलें उत्पन्न की गयीं। वर्तमान समय में कुल सिंचित क्षेत्र के लगभग 20% भाग में दो या दो से अधिक फसलें बोयी जा रही हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
अर्थव्यवस्था की संरचना से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
अर्थव्यवस्था एक ऐसा तन्त्र है, जिसके माध्यम से लोगों का जीवन निर्वाह होता है। यह संस्थाओं का एक ढाँचा है, जिसके द्वारा समाज की सम्पूर्ण आर्थिक क्रियाओं का संचालन किया जाता है। आर्थिक क्रियाएँ वे मानवीय क्रियाएँ हैं, जिनके द्वारा मनुष्य धन अर्जित करने के उद्देश्य से उत्पादन क्रिया करता है अथवा स्वयं की सेवाएँ प्रदान करता है। अर्थव्यवस्था की संरचना आर्थिक क्रियाओं को सम्पन्न करने का मार्ग निर्धारित करती है। दूसरे शब्दों में, अर्थव्यवस्था की संरचना यह निर्धारित करती है कि देश में किन वस्तुओं का उत्पादन किया जाएगा और विभिन्न साधनों के मध्य इनका वितरण किस प्रकार किया जाएगा। परिवहन, वितरण, बैंकिंग एवं बीमा जैसी सेवाएँ कैसे प्रदान की जाएँगी; उत्पादित वस्तुओं का कितना भाग वर्तमान में उपयोग किया जाएगा और कितना भाग भविष्य के उपयोग के लिए संचित करके रखा जाएगा आदि। एक अर्थव्यवस्था की संरचना इन विभिन्न प्रकार की आर्थिक क्रियाओं का योग ही है।

अर्थव्यवस्था की मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं –
(1) “अर्थव्यवस्था की संरचना एक ऐसा संगठन है, जिसके द्वारा सुलभ उत्पादने साधनों का प्रयोग करके मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है।”
(2) “एक अर्थव्यवस्था की संरचना जटिल मानव सम्बन्धों, जो वस्तुओं तथा सेवाओं की विभिन्न निजी तथा सार्वजनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से सीमित साधनों के प्रयोग से सम्बन्धित है, को प्रकट करने वाला एक मॉडल है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था की संरचना एक ओर आर्थिक क्रियाओं को योग है तो दूसरी ओर उत्पादकों के परस्पर सहयोग की प्रणाली भी है। वास्तव में विभिन्न उत्पादन क्रियाएँ परस्पर सम्बद्ध होती हैं और एक साधन की क्रिया दूसरे साधन की क्रिया पर निर्भर करती है। अत: इनमें परस्पर समन्वय एवं सहयोग होना आवश्यक है। उत्पादकों के परस्पर सहयोग की इस प्रणाली को ही अर्थव्यवस्था की संरचना कहते हैं; उदाहरण के लिए–एक वस्त्र-निर्माता को वस्त्र निर्मित करने के लिए अनेक वस्तुओं की आवश्यकता पड़ेगी। उसे सर्वप्रथम किसान से कपास प्राप्त करनी होगी तथा कपास की धुनाई, कताई व बुनाई के लिए मशीनों की व्यवस्था करनी होगी। मशीन निर्माता को लोहा व कोयला चाहिए, जो सम्बन्धित खानों से प्राप्त होगा।

इन साधनों को कारखाने तक लाने व ले जाने के लिए परिवहन के साधनों; यथा–रेल, मोटर, ट्रक, बैलगाड़ी आदि; की आवश्यकता होगी और इन सभी क्रियाओं के संचालन के लिए श्रमिकों की सेवाएँ चाहिए। इनमें से किसी भी साधन के अभाव में कपड़े का उत्पादन सम्भव नहीं है। इसे इस प्रकार भी समझाया जा सकता है यदि किसान कपास का उत्पादन बन्द कर दे अथवा मशीन निर्माता मशीन बनाना बन्द कर दे अथवा श्रमिक काम करना बन्द कर दे; तो कपड़े का उत्पादन नहीं होगा। इस प्रकार उत्पादन में उत्पादकों एवं उत्पत्ति के साधनों के बीच सहयोग एवं समन्वय होना आवश्यक है।

प्रश्न 2
भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना में कृषि के महत्त्व का परीक्षण कीजिए।
या
भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि के योगदान की विवेचना कीजिए। [2008, 12]
उत्तर
भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना में कृषि का अत्यधिक महत्त्व है। इसके महत्त्व का मूल्यांकन अग्रलिखित आधारों पर किया जा सकता है –

  1. राष्ट्रीय आय में योगदान – भारत की राष्ट्रीय आय में कृषि का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद (G.D.P) में कृषि का योगदान वर्ष 1960-61 में 62% थी, जो वर्ष 2001-02 में घटकर 26.5 प्रतिशत रह गया है। यद्यपि राष्ट्रीय आय में कृषि-क्षेत्र का प्रतिशत अंश घटता जा रहा है, परन्तु कृषि उत्पादन की दृष्टि से कृषि का योगदान बढ़ता जा रहा है।
  2. रोजगार की दृष्टि से – भारत की लगभग 64 प्रतिशत जनसंख्या कृषि-कार्य में लगी हुई है, जिन्हें कृषि से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिलता है। लगभग 20 करोड़ भारतीय कृषक और कृषि मजदूर भारतीय कृषि की रीढ़ हैं, जो कृषि-कार्य करते हैं तथा कृषि द्वारा ही अपनी आजीविका चलाते हैं।
  3. खाद्य – पदार्थों की प्राप्ति में योगदान – कृषि ने हमारे देश में खाद्यान्न की कमी को दूर करने में, अर्थात् आत्मनिर्भर बनाने में, महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। स्वतन्त्रता के पश्चात् से कृषि में आशातीत प्रगति हुई है। वार्षिक खाद्यान्न उत्पादन जो 50 वर्ष पहले मात्र 5 करोड़ 10 लाख टन था, बढ़कर अब 20 करोड़ 6 लाख मिलियन टन तक हो जाने का अनुमान है।
  4. औद्योगिक विकास में योगदान – भारतीय उद्योगों का आधार कृषि ही है। भारत के उद्योगों को कच्चा माल कृषि से ही प्राप्त होता है। सूती वस्त्र उद्योग, चीनी उद्योग, जूट उद्योग, चाय व कॉफी उद्योग आदि प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर ही निर्भर हैं। इस प्रकार देश के औद्योगिक विकास में भी कृषि का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

उपर्युक्त आधारों से स्पष्ट होता है कि कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। कृषि भारत के लिए ऐसी जीवन-पद्धति और परम्परा है जिसने भारत के लोगों के विचार, दृष्टिकोण, संस्कृति और आर्थिक जीवन को सदियों से सँवारा है; अतः कृषि देश के नियोजित सामाजिक-आर्थिक विकास की सभी कार्यनीतियों का मूल है। न केवल राष्ट्रीय स्तर पर अपितु घरेलू खाद्य-सुरक्षा के लिए, आत्मनिर्भरता प्राप्त करने तथा निर्धनता के स्तर में तेजी से कमी करने के लिए, आय और धन-सम्पदा के वितरण में साम्यं लाने के लिए भारतीय कृषि का अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान है।

प्रश्न 3
भारत में चाय की खेती के लिए उत्तरदायी किन्हीं चार भौगोलिक कारकों का उल्लेख कीजिए।
या
असम में चाय की खेती अधिक क्यों होती है? इसके चार भौगोलिक कारण बताइए।
उत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 8 के अन्तर्गत अनुकूल भौगोलिक दशाएँ शीर्षक देखें।

प्रश्न 4
जूट की खेती पश्चिम बंगाल में अधिक होने के चार कारणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 7 के अन्तर्गत अनुकूल भौगोलिक दशाएँ शीर्षक देखें।

प्रश्न 5
हरित क्रान्ति क्या है? इसकी दो उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए। [2013]
उत्तर
हरित क्रान्ति (Green Revolution) से अभिप्राय देश के सिंचित एवं असिंचित कृषि-क्षेत्रों में अधिक उपज देने वाली किस्मों को आधुनिक कृषि पद्धति से उगाकर तेजी से कृषि-उत्पादन में वृद्धि करना है। दूसरे शब्दों में, कृषि के क्षेत्रों में अपनाये जा रहे तकनीकी ज्ञान को ही ‘हरित क्रान्ति’ का नाम दिया गया है। देश में हरित क्रान्ति की शुरुआत सन् 1966-67 से हुई। हरित क्रान्ति शुरू करने का श्रेय नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो० नॉरमन बोरलॉग को है। नयी कृषि तकनीक नवीनतम संसाधनों अर्थात् उर्वरकों, कीटनाशकों, कृषि-मशीनरी आदि पर आधारित है।
हरित क्रान्ति की दो उपलब्धियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. हरित क्रान्ति के फलस्वरूप विगत तीन दशकों में खाद्यान्न उत्पादन में भारी वृद्धि हुई है जिससे देश खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर हो सका है।
  2. हरित क्रान्ति के फलस्वरूप वाणिज्यिक फसलों में गन्ना, चाय, जूट तथा तिलहनों के उत्पादन में पर्याप्त सफलता मिली है।

प्रश्न 6
भारतीय कृषि की चार विशेषताएँ बताइए। (2014)
उत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 में देखें।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारतीयों के जीवन-निर्वाह का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन क्या है?
उत्तर
भारतीय कृषि देश के निवासियों के जीवन-निर्वाह का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है।

प्रश्न 2
नयी कृषि नीति से क्या आशय है?
उत्तर
नयी कृषि नीति से आशय है-“उत्तम बीज, सिंचाई एवं कृषि-यन्त्रों आदि के प्रयोग से कृषि उत्पादन में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना’-इसे हरित क्रान्ति भी कहते हैं।

प्रश्न 3
भारत में कुल कितनी फसलें होती हैं? नाम लिखिए।
उत्तर
भारत में तीन फसलें होती हैं-

  1. रबी,
  2. खरीफ तथा
  3. जायद।

प्रश्न 4
रबी की फसल में कौन-कौन से अनाज पैदा किये जाते हैं?
उत्तर
रबी की फसल में गेहूँ, चना, जौ, मटर, सरसों, अलसी, राई आदि अनाज पैदा किये जाते हैं।

प्रश्न 5
भारत की व्यापारिक एवं मुद्रादायिनी फसलें लिखिए।
या
भारत की किन्हीं दो व्यापारिक फसलों का उल्लेख कीजिए। [2016]
उत्तर
गन्ना, कपास, जूट, नारियल, तिलहन, रबड़, गरम मसाले, काजू, चाय, कहवा आदि भारत की व्यापारिक एवं मुद्रादायिनी फसलें हैं।

प्रश्न 6.
रेशे वाली फसलों से क्या आशय है?
उत्तर
रेशे वाली फसलों के अन्तर्गत वे उपजें आती हैं जिनसे तन्तु या रेशा प्राप्त होता है। ये फसलें हैं-जूट, कपास, पटसन, मेस्टा और पटुआ आदि।

प्रश्न 7
तिलहन-फसलों के नाम लिखिए।
उत्तर
मूंगफली, तिल, सरसों, राई, अलसी, सोयाबीन आदि तिलहन-फसलें हैं।

प्रश्न 8
स्वर्णिम रेशा किसे कहते हैं?
उत्तर
व्यापारिक महत्त्व अधिक होने के कारण जूट को स्वर्णिम रेशा भी कहते हैं।

प्रश्न 9
कहवा कैसे प्राप्त किया जाता है?
उत्तर
कहवा एक वृक्ष के फलों को भूनकर तथा पीसकर तैयार किया जाता है।

प्रश्न 10
हरित क्रान्ति से क्या आशय है?
उत्तर
कृषि की नयी रणनीति (जिसमें उत्तम बीज, सिंचाई, कृषि-यन्त्रों, उर्वरकों, रोगनाशकों, कीटनाशकों आदि का वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग किया जाता है) जिससे खाद्यान्नों तथा अन्य फसलों के उत्पादन में भारी वृद्धि हुई है, ‘हरित क्रान्ति’ कहते हैं।

प्रश्न 11
भारत में सर्वाधिक गेहूँ और चावल उत्पादक राज्यों के नाम लिखिए।
उत्तर
गेहूँ उत्पादक राज्य – उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा।
चावल उत्पादक राज्य – बंगाल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़।

प्रश्न 12
चाय की कृषि के लिए किन्हीं दो उपयुक्त भौगोलिक दशाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. पहाड़ी ढालों वाली मिट्टी तथा
  2. सस्ता मानवीय श्रम।

प्रश्न 13
भारत में चाय उत्पादक दो प्रमुख राज्यों के नाम लिखिए। [2014]
उत्तर

  1. असम तथा
  2. पश्चिम बंगाल चाय उत्पादक दो प्रमुख राज्य हैं।

प्रश्न 14
भारत के दो मुख्य कृषि-आधारित उद्योगों का उल्लेख कीजिए। [2014]
उत्तर

  1. कपास उद्योग तथा
  2. जूट उद्योग।

प्रश्न 15
भारतीय कृषि की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. देश की लगभग 64% जनसंख्या प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर आश्रित है।
  2. कृषि राष्ट्रीय आय का सबसे बड़ा स्रोत है।

प्रश्न 16
अन्नों का राजा किस फसल को कहा जाता है?
उत्तर
गेहूं को ‘अन्नराज’ कहा जाता है, क्योंकि यह अति पौष्टिक होता है।

प्रश्न 17
भारतीय व्यापारिक फसलों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
भारतीय व्यापारिक फसलों में गन्ना, कपास व जूट प्रमुख हैं।

प्रश्न 18
“भारत की अधिकांश जनसंख्या का व्यवसाय कृषि है।” कारण बताइए।
उत्तर
भारत गाँवों का देश है, जहाँ कृषि ही भरण-पोषण का मुख्य आधार है। अतः अधिकांश जनसंख्या का व्यवसाय कृषि है।

प्रश्न 19
भारत में कहवा किस क्षेत्र में पैदा किया जाता है ?
उत्तर
कहवा के मुख्य उत्पादक क्षेत्र हैं – कुर्ग, चिकमगलूर, कादूर, शिमोगा, हासन और मैसूर (कर्नाटक), नीलगिरि पहाड़ियाँ (तमिलनाडु), मालाबार और कोच्चि (केरल)।

प्रश्न 20
पश्चिम बंगाल की दो व्यापारिक फसलों का उल्लेख कीजिए। [2016]
उत्तर
पश्चिम बंगाल की दो व्यापारिक फसलें हैं – चाय व जूट।

प्रश्न 21
भारत के दो प्रमुख जूट उत्पादक राज्यों के नाम लिखिए। (2007)
उत्तर

  1. पश्चिम बंगाल तथा
  2. झारखण्ड।

प्रश्न 22
केरल की दो व्यापारिक फसलों का उल्लेख कीजिए। (2007)
उत्तर

  1. चाय तथा
  2. कहवा।

प्रश्न 23
भारत के दो प्रमुख गन्ना उत्पादक राज्यों के नाम लिखिए। [2009, 14]
उत्तर

  1. उत्तर प्रदेश तथा
  2. महाराष्ट्र।

प्रश्न 24
रबी, खरीफ तथा जायद की चार-चार फसलों का उल्लेख कीजिए। [2009]
या
कृषि के प्रकारों का उल्लेख कीजिए। [2012]
उत्तर
रबी – गेहूँ, जौ, चना तथा सरसों।
खरीफ – चावल, ज्वार, बाजरा तथा मक्का। जायद-सब्जियाँ, तरबूज, ककड़ी तथा खरबूजा।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1
बागानी खेती के रूप में की जाती है –
(क) कपास की पैदावार
(ख) गन्ने की पैदावार
(ग) चावल की पैदावार
(घ) चाय की पैदावार
उत्तर
(घ) चाय की पैदावार।

प्रश्न 2
कपास की खेती की जाती है –
(क) काली मिट्टी में
(ख) लैटेराइट मिट्टी में
(ग) बलुई मिट्टी में
(घ) दोमट मिट्टी में
उत्तर
(क) काली मिट्टी में

प्रश्न 3
गन्ना उत्पादक क्षेत्र निम्नलिखित में से किस राज्य में सर्वाधिक है? (2015)
(क) महाराष्ट्र
(ख) उत्तर प्रदेश
(ग) बिहार
(घ) पंजाब
उत्तर
(ख) उत्तर प्रदेश।

प्रश्न 4
निम्नलिखित में से सबसे अधिक रबड़-उत्पादक देश कौन-सा है?
(क) मलेशिया
(ख) भारत
(ग) ब्राजील
(घ) कनाडा
उत्तर
(क) मलेशिया।

प्रश्न 5
झूमिंग कृषि किस राज्य में की जाती है?
(क) मध्य प्रदेश
(ख) हरियाणा
(ग) असम (असम)
(घ) उत्तर प्रदेश
उत्तर
(ग) असम (असम)।

प्रश्न 6
भारत में सर्वाधिक चाय का उत्पादन किस राज्य में होता है? [2012, 13]
(क) असम (असम)
(ख) तमिलनाडु
(ग) पश्चिम बंगाल
(घ) उत्तराखण्ड
उत्तर
(क) असम (असम)।

प्रश्न 7
‘धान का कटोरा’ किसे कहते हैं? [2012]
(क) गंगा-सिन्धु मैदानी क्षेत्र
(ख) कृष्णा-गोदावरी डेल्टा
(ग) जम्मू-कश्मीर राज्य ।
(घ) केरल
उत्तर
(ख) कृष्णा-गोदावरी डेल्टा।

प्रश्न 8
सर्वाधिक तम्बाकू किस राज्य में पैदा होता है?
(क) ओडिशा
(ख) मध्य प्रदेश
(ग) अरुणाचल प्रदेश
(घ) आन्ध्र प्रदेश
उत्तर
(घ) आन्ध्र प्रदेश।

प्रश्न 9
निम्नलिखित कृषि फसलों में सर्वाधिक विदेशी मुद्रा किसके द्वारा अर्जित की जाती है?
(क) कहवा
(ख) चाय
(ग) जूट
(घ) कपास
उत्तर
(ख) चाय।

प्रश्न 10
निम्नलिखित में से कौन-सी पश्चिम बंगाल की प्रमुख फसल है? [2008, 10, 14, 16]
(क) गेहूँ
(ख) कपास
(ग) कहवा
(घ) जूट
उत्तर
(घ) जूट।

प्रश्न 11
निम्नलिखित में से गन्ने का सर्वाधिक उत्पादक देश कौन-सा है?
(क) क्यूबा
(ख) भारत
(ग) ब्राजील
(घ) चीन
उत्तर
(ग) ब्राजील।

प्रश्न 12
निम्नलिखित में से कौन-सी फसल उन क्षेत्रों में होती है, जहाँ 200 दिन पालारहित होते [2007]
(क) जूट
(ख) गेहूँ
(ग) कपास
(घ) धान
उत्तर
(ग) कपास।

प्रश्न 13
निम्नलिखित में से भारत का कौन-सा राज्य प्राकृतिक रबड़ का अधिकतम उत्पादक [2008]
(क) पुदुचेरी
(ख) कर्नाटक
(ग) केरल
(घ) तमिलनाडु
उत्तर
(ग) केरल।

प्रश्न 14
जूट मुख्यतः उगाया जाता है – [2010]
(क) पश्चिम बंगाल में
(ख) मध्य प्रदेश में
(ग) उत्तर प्रदेश में
(घ) उत्तराखण्ड में
उत्तर
(क) पश्चिम बंगाल में।

प्रश्न 15
निम्नलिखित में से कौन-सी रबी की फसल नहीं है? [2009]
(क) चावल
(ख) चना
(ग) गेहूँ।
(घ) जौ
उत्तर
(क) चावल।

प्रश्न 16
निम्नलिखित में से कौन-सा कहवा का प्रमुख उत्पादक राज्य है? [2011, 16]
(क) कर्नाटक
(ख) असम
(ग) ओडिशा
(घ) उत्तर प्रदेश
उत्तर
(क) कर्नाटक।

प्रधुन 17
निम्नलिखित में से कौन-सी फसल बागाती कृषि का उत्पाद नहीं है? [2011, 12]
(क) रबड़
(ख) गेहूँ
(ग) कहवा
(घ) नारियल
उत्तर
(ख) गेहूँ।

प्रश्न 18
निम्नलिखित में से कौन-सी असम की मुख्य फसल है? [2014]
(क) मक्का
(ख) कपास
(ग) गन्ना
(घ) चाय
उत्तर
(घ) चाय।

प्रश्न 19
निम्नलिखित में से कौन-सी पश्चिम बंगाल की प्रमुख फसल है? [2014, 16]
(क) गेहूँ
(ख) कपास
(ग) चावल
(घ) मक्का
उत्तरी
(ग) चावल।

प्रश्न 20
निम्नलिखित में से तम्बाकू का सबसे बड़ा उत्पादक कौन है? [2014, 16]
(क) ब्राजील
(ख) भारत
(ग) चीन
(घ) थाइलैण्ड
उत्तर
(ख) भारत।

प्रश्न 21
निम्नलिखित में से कौन-सी बागाती फसल है? [2016]
(क) गेहूँ
(ख) धान
(ग) मक्का
(घ) रबड़
उत्तर
(घ) रबड़।

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 23 Unemployment: Causes and Remedies

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 23 Unemployment: Causes and Remedies (बेकारी : कारण तथा उपचार) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 23 Unemployment: Causes and Remedies (बेकारी : कारण तथा उपचार).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 23
Chapter Name Unemployment: Causes and Remedies (बेकारी : कारण तथा उपचार)
Number of Questions Solved 25
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 23 Unemployment: Causes and Remedies (बेकारी : कारण तथा उपचार)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
“बेरोजगारी एक समस्या है।” विवेचना कीजिए। [2014]
या
भारत के विशेष सन्दर्भ में ‘बेकारी के प्रकारों की विवेचना कीजिए। [2007]
या
बेरोजगारी किसे कहते हैं ? भारत में बेरोजगारी के कारण एवं निवारण के उपाय बताइए। [2009, 10, 11, 13]
या
बेरोजगारी से आप क्या समझते हैं? बेरोजगारी समाप्त करने के सुझाव दीजिए। [2013, 15]
या
भारत में बेरोजगारी दूर करने के उपाय बताइए। [2009, 10, 16]
या
भारत में बेकारी के कारणों का विश्लेषण कीजिए और इसके उन्मूलन के सुझाव दीजिए। [2013]
या
बेरोजगारी भारतीय निर्धनता को आधारभूत कारण है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए। [2007, 10]
उत्तर:
बेरोजगारी का अर्थ तथा परिभाषाएँ
प्रायः जब किसी व्यक्ति को अपने जीवन-निर्वाह के लिए कोई कार्य नहीं मिलता तो उस व्यक्ति को बेरोजगार और इस समस्या को बेरोजगारी की समस्या कहते हैं। अन्य शब्दों में, जब कोई व्यक्ति कार्य करने का इच्छुक हो और वह शारीरिक व मानसिक रूप से कार्य करने में समर्थ भी हो, लेकिन उसको कोई कार्य नहीं मिलता जिससे कि वह अपनी जीविका कमा सके, तो इस प्रकार के व्यक्ति को बेरोजगार कहा जाता है। जब समाज में इस प्रकार के बेरोजगार व्यक्तियों की पर्याप्त संख्या हो जाती है, तब उत्पन्न होने वाली आर्थिक स्थिति को बेरोजगारी की समस्या कहा जाता है।

प्रो० पीगू के अनुसार, “एक व्यक्ति को तभी बेरोजगार कहा जाता है जब एक तो उसके पास कोई कार्य नहीं होता और दूसरे वह कार्य करना चाहता है। किन्तु व्यक्ति में कार्य पाने की इच्छा के साथ-साथ कार्य करने की योग्यता भी होनी चाहिए; अत: एक व्यक्ति जो काम करने के योग्य है तथा काम करना चाहता है, किन्तु उसे उसकी योग्यतानुसार कार्य नहीं मिल पाता, वह बेरोजगार कहलाएगा और उसकी समस्या बेरोजगारी कहलाएगी। कार्ल प्रिव्राम के अनुसार, “बेकारी श्रम बाजार की वह दशा है जिसमें श्रम-शक्ति की पूर्ति काम करने के स्थानों की संख्या से अधिक होती है।”

गिलिन तथा गिलिन के अनुसार, “बेकारी वह दशा है जिसमें एक समर्थ एवं कार्य की इच्छा रखने वाला व्यक्ति, जो साधारणतया स्वयं के लिए एवं अपने परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनी कमाई पर आश्रित रहता है, लाभप्रद रोजगार पाने में असमर्थ रहता है।”
संक्षेप में, मजदूरी की प्रचलित दरों पर स्वेच्छा से काम चाहने वाले उपयुक्त व्यक्ति को उसकी योग्यतानुसार काम न मिल सके, इस स्थिति को बेरोजगारी कहते हैं।

बेकारी के प्रकार

बेकारी अनेक प्रकार की है। इसके कुछ प्रकार निम्नलिखित हैं

  1. छिपी बेकारी – जो बेकारी प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देती उसे छिपी बेकारी कहते हैं। इसका कारण किसी कार्य में आवश्यकता से अधिक लोगों का लगे होना है। यदि उनमें से कुछ व्यक्तियों को हटा लिया जाए, तो भी उस कार्य या उत्पादन में कोई अन्तर नहीं आएगा। ऐसी बेकारी छिपी बेकारी कहलाती है।
  2. मौसमी बेकारी – यह बेकारी मौसमों एवं ऋतुओं के हेर-फेर से चलती रहती है। कुछ मौसमी उद्योग होते हैं; जैसे-बर्फ का कारखाना। गर्मी में तो इसमें लोगों को रोजगार मिल जाता है, परन्तु सर्दी में कारखाना बन्द होने से इसमें लगे लोग बेकार हो जाते हैं।
  3. चक्रीय बेकारी – यह बेकारी वाणिज्य या क्रय-विक्रय में आने वाली मन्दी या तेजी अर्थात् उतार-चढ़ाव के कारण पैदा होती है। मन्दी के समय बेकारी बढ़ जाती है, जब कि तेजी के समय घट जाती है।
  4.  संरचनात्मक बेकारी – आर्थिक ढाँचे में परिवर्तन, दोष या अन्य किसी कारण से यह बेरोजगारी विकसित होती है। जब स्वचालित मशीनें लगने लगती हैं तो उद्योगों में लगे अनेक व्यक्ति बेकार हो जाते हैं।
  5. खुली बेकारी – काम करने की शक्ति तथा इच्छा होते हुए भी नागरिकों को काम न मिलना खुली बेकारी कहलाती है। राष्ट्र में कार्य करने वालों की अपेक्षा रोजगार के अवसर कम होने पर खुली बेकारी पायी जाती है।।
  6. तकनीकी बेकारी – तकनीकी या प्रौद्योगिकीय बेकारी यन्त्रों या मशीनों की प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों से पैदा होती है। बड़े-बड़े उद्योगों के विकास तथा नवीन मशीन तकनीक के कारण यह बेकारी पैदा होती है।
  7.  सामान्य बेकारी – यह बेकारी प्राय: सभी समाजों में कुछ-न-कुछ अंश तक पायी जाती है, जो कभी समाप्त नहीं होती। इसका कारण कुछ लोगों का स्वभावतः एवं प्रकृति से ही अथवा आलस्य या क्षमताहीन होने के कारण रोजगार के योग्य न होना है।
  8.  शिक्षित बेकारी – इसका कारण उच्च शिक्षा व प्रशिक्षण प्राप्त लोगों में अत्यधिक वृद्धि है। उन्हें अपनी क्षमता एवं योग्यता के अनुसार रोजगार नहीं मिलता। यह बेकारी भारत तथा अन्य देशों में चिन्ता का विषय बनी हुई है।

भारत में बेरोजगारी के कारण
भारत में बेरोजगारी के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

1. तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या – भारत में जनसंख्या 25 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है, जब कि रोजगार के अवसरों में इस दर से वृद्धि नहीं हो रही है। जनसंख्यावृद्धि दर के अनुसार भारत में प्रति वर्ष लगभग 50 लाख व्यक्तियों को रोजगार के अवसर सुलभ होने चाहिए। जनसंख्या की स्थिति विस्फोटक होने के कारण हमारे देश में बेरोजगारी विद्यमान है।

2. दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली – हमारे देश की शिक्षा-पद्धति दोषपूर्ण है। यह शिक्षा रोजगारमूलक नहीं है, जिससे शिक्षित बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। प्रतिवर्ष लगभग 10 लाख शिक्षित व्यक्ति बेरोजगारों की पंक्ति में सम्मिलित हो जाते हैं।

3. लघु एवं कुटीर उद्योगों का पतन – मशीनों का प्रयोग बढ़ने तथा देश में औद्योगीकरण के कारण हस्तकला तथा लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास मन्द हो गया है या प्रायः पतन हो गया है, जिससे बेरोजगारी में वृद्धि होती जा रही है।

4. त्रुटिपूर्ण नियोजन – यद्यपि भारत में सन् 1951 से आर्थिक नियोजन के द्वारा देश का आर्थिक विकास किया जा रहा है, परन्तु पाँचवीं पंचवर्षीय योजना तक नियोजन में रोजगारमूलक नीति नहीं अपनायी गयी, जिसके कारण बेरोजगारों की संख्या बढ़ती गयी। आठवीं पंचवर्षीय योजना में सरकार का ध्यान इस समस्या की ओर गया। अतः त्रुटिपूर्ण नियोजन भी बेरोजगारी के लिए उत्तरदायी है।।

5. पूँजी-निर्माण एवं निवेश की धीमी गति – हमारे देश में पूँजी-निर्माण की गति धीमी है। पूँजी निर्माण की धीमी गति के कारण पूँजी-निवेश भी कम ही हो पाया है, जिसके कारण उद्योग-धन्धों का विस्तार वांछित गति से नहीं हो पा रहा है। भारत में बचत एवं पूँजी निवेश में कमी के कारण बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न हुई है।

6. आधुनिक यन्त्रों एवं मशीनों का प्रयोग – स्वचालित मशीनों एवं कम्प्यूटरों के प्रयोग से श्रमिकों की माँग कम होती जा रही है। उद्योग व कृषि के क्षेत्र में भी यन्त्रीकरण बढ़ रहा है। औद्योगीकरण के साथ-साथ यन्त्रीकरण एवं अभिनवीकरण में भी वृद्धि हो रही है, जिसके कारण बेरोजगारी में वृद्धि हो रही है।

7. व्यक्तियों में उचित दृष्टिकोण का अभाव – हमारे देश में शिक्षित एवं अशिक्षित सभी नवयुवकों का उद्देश्य नौकरी प्राप्त करना है। श्रम के प्रति निष्ठावान न होने के कारण वे स्वतः उत्पादन प्रक्रिया में भागीदार नहीं होना चाहते हैं। वे कोई व्यवसाय नहीं करना चाहते हैं। इस कारण भी बेरोजगारी बढ़ती जा रही है।

8. शरणार्थियों का आगमन – भारत में बेरोजगारी में वृद्धि का एक कारण शरणार्थियों का आगमन भी है। देश-विभाजन के समय, बाँग्लादेश युद्ध के समय तथा श्रीलंका समस्या उत्पन्न होने से भारी संख्या में शरणार्थी भारत में आये हैं, साथ ही गत वर्षों में भारत के मूल निवासियों को कुछ देशों द्वारा निकाला जा रहा है। इन देशों में ब्रिटेन, युगाण्डा, कीनिया आदि प्रमुख हैं। वहाँ से भारतीय मूल के निवासी भारत आ रहे हैं, जिसके कारण बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है।

9. कृषि की अनिश्चितता – भारत एक कृषि-प्रधान देश है। अधिकांश व्यक्ति कृषि पर ही निर्भर हैं। भारतीय कृषि प्रकृति पर निर्भर है। प्रतिवर्ष कभी सूखा और कभी बाढ़, कभी अतिवृष्टि और कभी अनावृष्टि व अन्य प्राकृतिक प्रकोप आते रहते हैं, जिसके कारण लाखों श्रमिक बेरोजगार हो जाते हैं। कृषि की अनिश्चितता के कारण रोजगार में भी अनिश्चितता बनी रहती है। इस कारण बेरोजगारी बढ़ जाती है।

10. एक व्यक्ति द्वारा अनेक व्यवसाय – भारतीय श्रमिक कृषि-कार्य के साथ-साथ अन्य व्यवसाय भी करते हैं। इस कारण भी बेरोजगारी में वृद्धि होती है।

11. आर्थिक विकास की धीमी गति – भारत में बेरोजगारी में वृद्धि का एक कारण आर्थिक विकास की धीमी गति रही है। अभी भी देश के प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण दोहन नहीं हो पाया है। इस कारण रोजगार के साधनों का वांछित विकास नहीं हो पाया है।

बेरोजगारी निवारण के उपाय

यद्यपि बेरोजगारी को पूर्ण रूप से समाप्त नहीं किया जा सकता, परन्तु कम अवश्य किया जा सकता है। बेरोजगारी की समस्या के समाधान हेतु निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं

1. जनसंख्या-वृद्धि पर नियन्त्रण – भारत में बेरोजगारी को कम करने के लिए सबसे पहले देश की जनसंख्या को नियन्त्रित करना होगा। परिवार नियोजन का राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार, सन्तति निरोध की सरल, सुरक्षित तथा व्यावहारिक विधियाँ इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम सिद्ध होंगी।

2. आर्थिक विकास को तीव्र गति प्रदान करना – देश का आर्थिक विकास तीव्र गति से करना चाहिए। प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण दोहन करके रोजगार के अवसरों में वृद्धि की जा सकती है।

3. शिक्षा – प्रणाली में परिवर्तन – शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। आज की शिक्षा व्यवसाय मूलक होनी चाहिए। शिक्षा को रोजगार से सम्बद्ध कर देने से बेरोजगारी की समस्या कुछ सीमा तक स्वतः ही हल हो जाएगी। देश की नयी शिक्षा-नीति में इस ओर विशेष ध्यान दिया गया है।

4. लघु एवं कुटीर उद्योग-धन्धों का विकास – आज की परिस्थितियों में यह आवश्यक हो गया है कि देश में योजनाबद्ध आधार पर लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास किया जाए, क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है। अत: कृषि से सम्बन्धित उद्योगों के विकास की अधिक आवश्यकता है। इसके द्वारा प्रच्छन्न बेरोजगारी तथा मौसमी बेरोजगारी दूर करने में सहायता मिलेगी।

5. बचतों में वृद्धि की जाए – देश के आर्थिक विकास के लिए पूँजी की आवश्यकता होती है। पूँजी-निर्माण बचतों पर निर्भर रहता है। अत: बचतों में वृद्धि करने के लिए हर सम्भव प्रयत्न किये जाने चाहिए।

6. उद्योग-धन्धों का विकास- भारत में पूँजीगत, आधारभूत एवं उपभोग सम्बन्धी उद्योगों का विस्तार एवं विकास किया जाना चाहिए। भारत में श्रमप्रधान उद्योगों का अभाव है, कार्यरत उद्योगों की स्थिति भी अच्छी नहीं है। अत: रोगग्रस्त उद्योगों का उपचार आवश्यक है। मध्यम व छोटे पैमाने के उद्योगों की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि अधिक बड़े उद्योगों की अपेक्षा मध्यम श्रेणी के उद्योगों में रोजगार के अवसर अधिक सुलभ हो सकते हैं।

7. विदेशी व्यापार में वृद्धि – भारत के निर्यात में वृद्धि करने की आवश्यकता है, क्योंकि वस्तुओं के अधिक निर्यात के द्वारा उत्पादन वृद्धि को प्रोत्साहन मिलेगी, जिससे बेरोजगारी की समस्या हल होगी।

8. मानव-शक्ति का नियोजन – हमारे देश में मानव-शक्ति का नियोजन अत्यन्त दोषपूर्ण है। अत: यह आवश्यक है कि वैज्ञानिक ढंग से मानव-शक्ति का नियोजन किया जाए, जिससे मॉग एवं पूर्ति के बीच समन्वय स्थापित किया जा सके।

9. प्रभावपूर्ण रोजगार – नीति – देश में बेरोजगारी की समस्या को हल करने के लिए प्रभावपूर्ण रोजगार-नीति अपनायी जानी चाहिए। स्वरोजगार कार्यक्रम का विकास एवं विस्तार किया जाना चाहिए। रोजगार कार्यालयों की कार्य-प्रणाली को प्रभावशाली बनाने की अधिक आवश्यकता है। भारत में आज भी बेरोजगारी से सम्बन्धित ठीक आँकड़े उपलब्ध नहीं हो पाते हैं, जिससे एक सबल और संगठित बेरोजगारी निवारण-नीति नहीं बन पाती है। अत: आवश्यकता यह है कि बेरोजगारी से सम्बन्धित सही आँकड़े एकत्रित किये जाएँ और उनके समाधान हेतु एक दीर्घकालीन योजना क्रियान्वित की जाए।

10. निर्माण-कार्यों का विस्तार – देश में निर्माण-कार्यो; जैसे – सड़कों, बाँधों, पुलों व भवन निर्माण आदि को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए, जिससे बेरोजगारों को रोजगार देकर बेरोजगारी को कम किया जा सके। निर्माण कार्यों के क्रियान्वयन से रोजगार के नये अवसर बढ़ेंगे तथा रोजगार के बढ़े हुए अवसर बेकारी उन्मूलन के कारगर उपाय सिद्ध होंगे।

प्रश्न 2:
निर्धनता और बेकारी दूर करने के शिक्षा के योगदान पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
निर्धनता वह दशा है जिसमें व्यक्ति अपर्याप्त आय या अविवेकपूर्ण व्यय के कारण अपने जीवन-स्तर को इतना ऊँचा रखने में असमर्थ होता है कि उसकी शारीरिक व मानसिक कुशलता बनी रह सके और न ही वह व्यक्ति तथा उस पर आश्रित वह समाज जिसका वह सदस्य है, निश्चित स्तर के अनुसार उपयोगी ढंग से कार्य कर पाते हैं। बेकारी या बेरोजगारी व्यक्ति की उस अवस्था का नाम है, जब कि वह काम तो करना चाहता है तथा काम करने के योग्य भी है, परन्तु उसे काम नहीं मिलता।
निर्धनता तथा बेरोजगारी को दूर करने के लिए अथक प्रयास किये जा रहे हैं, परन्तु आशातीत सफलता प्राप्त नहीं हो रही है। इन दोनों दोषों को दूर करने के प्रयासों में शिक्षा का योगदान सराहनीय है, जिसका विवरण निम्नवत् है

 1. शिक्षा एवं सीमित परिवार की अवधारणा – भारत जैसे देश के सम्मुख प्रमुख रूप से तीन समस्याएँ हैं – निधर्नता, जनसंख्या और बेरोजगारी। जनसंख्या विस्फोट का कारण अधिकांश भारतीयों को अशिक्षित तथा रूढ़िवादी होना है। शिक्षा हमें विवेकी बनाती है तथा सीमित परिवार की आवश्यकता, महत्त्व तथा लाभ को ज्ञान कराती है। आँकड़े बताते हैं कि शिक्षित दम्पति के परिवार छोटे आकार के हैं तथा वे निर्धनता तले दबे हुए नहीं हैं। वे पुत्र-पुत्री दोनों को समान रूप से महत्त्व देते हैं।

2.  शिक्षा एवं कर्मण्यता – अशिक्षित व्यक्ति अकर्मण्य होते हैं। अकर्मण्य व्यक्ति किसी प्रकार का कार्य करना पसन्द नहीं करते और ईश्वर भरोसे जीवन व्यतीत करते हैं। परिणाम होता है। निर्धनता तथा बेरोजगारी। शिक्षा मनुष्य को कर्मण्य बनाती है। कर्मण्य व्यक्ति कर्म में विश्वास करता है जो जीविकोपार्जन के लिए प्रयत्नशील रहता है। वह हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठता और निर्धनता व बेरोजगारी उसके पास नहीं फटकती।

3. शिक्षा एवं ज्ञान – अज्ञानी और अशिक्षित व्यक्ति उचित व अनुचित में अन्तर नहीं कर पाता और अपने उत्तरदायित्व को पहचानने में असमर्थ होता है। ऐसा व्यक्ति अपने पारिवारिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का सम्पादन अपने विवेक के आधार पर नहीं बल्कि दूसरे व्यक्तियों के फुसलाने में आकर कर बैठता है। अज्ञानी व्यक्ति भेड़ के समान होता है जिसे कोई भी हाँककर ले जाता है। शिक्षा व्यक्ति को विवेकी और ज्ञानी बनाती है तथा उसे अपने परिवार के पालन-पोषण करने की राह पर ढकेलती है। वह अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए प्रयत्नशील रहता है।

4. शिक्षा एवं मितव्ययिता – शिक्षित व्यक्ति जितनी चादर उतने पैर पसारने में विश्वास करते हैं। अशिक्षित व रूढ़िवादी व्यक्ति की तरह वे कर्ज लेकर परिवार में जन्म-मरण या विवाह पर अनाप-शनाप खर्च नहीं करते जो निर्धनता का मुंह देखना पड़े। शिक्षित व्यक्ति सदैव प्राथमिकताएँ निश्चित करने के उपरान्त उपलब्ध धन का सदुपयोग करते हैं। बहुधा निर्धनता
उनसे कोसों दूर रहती है।

प्रश्न 3
भारत में शिक्षित बेकारी के कारणों की व्याख्या कीजिए। या। भारत में शिक्षित बेकारी के कारण तथा शिक्षित बेकारी को दूर करने के उपाय बताइए।
या
शिक्षित बेरोजगारी दूर करने के विभिन्न उपायों का विवेचन कीजिए। [2007, 09, 10, 11, 12]
उत्तर:
भारत में शिक्षित बेकारी के कारण
भारत में शिक्षित बेकारी के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

1. शिक्षा-प्रणाली का दोषपूर्ण होना – विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि हमारी वर्तमान शिक्षा-प्रणाली अपने आपमें दोषपूर्ण है। हमारी शिक्षा प्रणाली के प्रारम्भ करने वाले अंग्रेज थे। उस काल में लॉर्ड मैकाले ने भारतीय शिक्षा को इस रूप में गठित किया था कि शिक्षा प्राप्त युवक अंग्रेजी शासन में क्लर्क या बाबू बन सकें। वही शिक्षा आज भी प्रचलित है। शिक्षित युवक कार्यालयों में बाबू बनने के अतिरिक्त और कुछ बन ही नहीं पाते। कार्यालयों में सीमित संख्या में ही भर्ती हो सकती है। इस स्थिति में अनेक शिक्षित नवयुवकों को बेरोजगार रह जाना अनिवार्य ही है।

2. विश्वविद्यालयों में छात्रों की अधिक संख्या – एक सर्वेक्षण के अनुसार, हमारे देश में विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों की संख्या बहुत अधिक है। ये छात्र प्रतिवर्ष डिग्रियाँ प्राप्त करके शिक्षित व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि करते हैं। इन सबके लिए रोजगार के समुचित अवसर उपलब्ध नहीं होते; अतः शिक्षित बेरोजगारी की समस्या बढ़ती ही जाती है।

3. व्यावसायिक शिक्षा की कमी – भारत में व्यावसायिक शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था एवं | सुविधा उपलब्ध नहीं है। यदि व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा की समुचित व्यवस्था हो तो शिक्षित बेरोजगारी की दर को नियन्त्रित किया जा सकता है।

4. शारीरिक श्रम के प्रति उपेक्षा का दृष्टिकोण – हमारे देश में शिक्षित बेरोजगारी की समस्या के दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाने का एक कारण यह है कि हमारे अधिकांश शिक्षित नवयुवक, शारीरिक श्रम के प्रति उपेक्षा की दृष्टिकोण रखते हैं। ये नवयुवक इसलिए शारीरिक श्रम करना नहीं चाहते क्योंकि वे उसके प्रति हीनता का भाव रखते हैं। इस दृष्टिकोण के कारण वे उन सभी कार्यों को प्रायः अस्वीकार कर देते हैं, जो शारीरिक श्रम से जुड़े हुए होते हैं इससे बेरोजगारी की दर में वृद्धि होती जाती है।

5. सामान्य निर्धनता – शिक्षित नवयुवकों के बेरोजगार रह जाने का एक कारण हमारे देश में व्याप्त सामान्य निर्धनता भी है। अनेक नवयुवक धन के अभाव के कारण व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त भी अपना व्यवसाय प्रारम्भ नहीं कर पाते। इस बाध्यता के कारण वे निरन्तर नौकरी की ही खोज में रहते हैं व बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि करते हैं।

6. देश में माँग तथा पूर्ति में असन्तुलन – हमारे देश में अनेक कारणों से कुछ इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न हो गई है कि जिन क्षेत्रों में शिक्षित एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता है, वहाँ इस प्रकार के नवयुवक उपलब्ध नहीं है। इसके विपरीत, कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जहाँ पर्याप्त संख्या में शिक्षित एवं प्रशिक्षित नवयुवक तो हैं परन्तु उनके लिए नौकरियाँ उपलब्ध नहीं है; अर्थात् उनकी आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार माँग एवं पूर्ति में असन्तुलन के कारण बेरोजगारी की स्थिति बनी रहती है।

भारत में शिक्षित बेकारी दूर करने के उपाय

भारत में शिक्षित बेकारी को दूर करने के प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं

1. शिक्षा प्रणाली में आवश्यक सुधार – अंग्रेजों द्वारा भारत में प्रारम्भ की गयी शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है। इस शिक्षा प्रणाली का पूर्णतया पुनर्गठन करना चाहिए तथा वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए इसे अधिक-से-अधिक व्यवसायोन्मुख बनाया जाना चाहिए। इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् नवयुवक अपने स्वयं के व्यवसाय प्रारम्भ कर पाएँगे तथा
उन्हें नौकरी के लिए विभिन्न कार्यालयों के चक्कर नहीं लगाने पड़ेंगे।

2. लघु उद्योगों को प्रोत्साहन – शिक्षित बेरोजगारी को नियन्त्रित करने के लिए सरकार को चाहिए कि लघु उद्योगों को प्रोत्साहन दे। इन लघु उद्योगों को स्थापित करने के लिए शिक्षितयुवकों को प्रोत्साहित करना चाहिए तथा उन्हें आवश्यक सुविधाएँ भी उपलब्ध कराई जानी चाहिए।

3. सरल ऋण व्यवस्था – शिक्षित नवयुवकों को अपना व्यवसाय स्थापित करने के लिए। सरकार द्वारा आसान शर्तों पर ऋण प्रदान करने की सुविधा प्रदान की जानी चाहिए। इससे धनाभाव के कारण शिक्षित नवयुवक व्यवसाय स्थापित करने से वंचित नहीं रह पाएँगे।

4. शारीरिक श्रम के प्रति अनुकूल दृष्टिकोण का विकास – हमारी शिक्षा-प्रणाली एवं पारिवारिक संस्कार इस प्रकार के होने चाहिए कि नवयुवकों में शारीरिक श्रम के प्रति किसी प्रकार की घृणा या उपेक्षा की भावना न हो। शारीरिक श्रम के प्रति अनुकूल दृष्टिकोण का विकास हो जाने पर शिक्षित युवक शारीरिक कार्यों के करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करेंगे; अतः उनका रोजगार-प्राप्ति का दायरा विस्तृत हो जाएगा तथा परिणामस्वरूप बेरोजगारी की दर घटेगी।

5. रोजगार सम्बन्धी विस्तृत जानकारी – शिक्षित नवयुवकों को रोजगारों से सम्बन्धित विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराई जानी चाहिए। युवकों को समस्त सम्भावित रोजगारों की जानकारी होनी चाहिए ताकि वे अपनी योग्यता, रुचि आदि के अनुकूल व्यवसाय को प्राप्त करने के लिए सही दिशा में प्रयास करें।

6. अन्य उपाय – उपर्युक्त उपायों के अतिरिक्त वे समस्त उपाय भी शिक्षित बेरोजगारी के उन्मूलन के लिए किए जाने चाहिए, जो देश में सामान्य बेरोजगारी को नियन्त्रित करने के लिए आवश्यक समझे जाते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
ग्रामीण क्षेत्रों में बेकारी पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
ग्रामीण क्षेत्र में हमें कृषि में मौसमी एवं छिपी प्रकृति की बेकारी मिलती है। भारत की 72.22 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में रहती है और 64 प्रतिशत लोग किसी-न-किसी प्रकार से कृषि पर निर्भर हैं। कृषि में फसल बोने एवं काटने के समय कार्य की अधिकता रहती है और शेष समय में किसानों को बेकार बैठे रहना पड़ता है। रायल कमीशन का मत है कि “भारतीय कृषक 4 – 5 महीने ही कार्य करता है।” राधाकमल मुखर्जी के अनुसार, “उत्तर प्रदेश में किसान वर्ष में 200 दिन एवं जैक के अनुसार, बंगाल में पटसन की खेती करने वाले वर्ष में 4-5 माह ही कार्यरत रहते हैं।” डॉ० स्लेटर के अनुसार, “दक्षिण भारत के किसान वर्ष में 200 दिन ही कार्यरत रहते हैं।”

कुटीर व्यवसायों का अभाव, कृषि की मौसमी प्रकृति आदि के कारण ग्रामीणों को वर्ष-भर कार्य नहीं मिल पाता। हमारे यहाँ कृषि मजदूरों की संख्या करीब 475 लाख है, जो वर्ष में 200 दिन से भी कम समय तक कार्य करते हैं। यहाँ कृषि-योग्य भूमि के 15 से 20 प्रतिशत भाग पर ही एक से अधिक बार फसल उगायी जाती है। इसका अर्थ यह है कि यहाँ ऐसे व्यक्ति अधिक हैं जो वर्ष में 165 दिन बेकार रहते हैं। इसके अतिरिक्त भारतीय ग्रामों में अदृश्य बेकारी भी व्याप्त है। संयुक्त परिवार प्रणाली के कारण एक परिवार के सभी सदस्य भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों पर कृषि-कार्य करते हैं, जिनकी सीमान्त उत्पादकता शून्य होती है। यदि इनको कृषि से हटाकर अन्य व्यवसायों में लगा दिया जाए तो भी कृषि उत्पादन पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा। इन्हें हम अतिरिक्त श्रम की श्रेणी में रख सकते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में बेकारी का प्रतिशत 40 आँका गया है।

प्रश्न 2
शिक्षित वर्ग में बेकारी पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
बेकारी केवल निरक्षरों एवं कम पढ़े-लिखे लोगों में ही नहीं, वरन् शिक्षित, बुद्धिमान एवं प्रबुद्ध लोगों में भी व्याप्त है। डॉक्टर, इन्जीनियर, तकनीकी विशेषज्ञ आदि जिन्हें भारत में काम नहीं मिलता, विदेशों में चले जाते हैं और जो विदेशों में शिक्षा ग्रहण कर यहाँ आते हैं, उन्हें यहाँ उपयुक्त कार्य नहीं मिल पाता। लाल फीताशाही एवं आन्तरिक राजनीति से पीड़ित होकर वे पुनः विदेश चले जाते हैं। शिक्षित बेकारों में उन्हीं लोगों को सम्मिलित किया जाता है जो मैट्रिक या उससे अधिक शिक्षा ग्रहण किये हुए हैं। शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ शिक्षित बेकारी में भी वृद्धि होती गयी, क्योंकि आधुनिक शिक्षा छात्रों को रोजी-रोटी के लिए तैयार नहीं करती। शिक्षित व्यक्ति केवल वेतनभोगी सेवाएँ ही पसन्द करते हैं। उच्च शिक्षा सस्ती होने के कारण जब तक नौकरी नहीं मिलती विद्यार्थी पढ़ते रहते हैं। भारत में अधिकांश शिक्षित बेरोजगार पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र में केन्द्रित हैं।

प्रश्न 3
बेकारी को दूर करने में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम की क्या भूमिका रही है ?
उत्तर
ग्रामीण गरीबी, बेकारी एवं अर्द्ध-बेकारी को समाप्त करने के लिए यह योजना प्रारम्भ की गयी है। इसका उद्देश्य ग्रामीण लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान कर गरीब वर्ग में आय एवं उपभोग का पुनर्वितरण करना है। यह योजना अक्टूबर, 1980 ई० से प्रारम्भ की गयी है। इसमें केन्द्र और राज्य सरकारें आधा-आधा खर्च उठाती हैं। इसके अन्तर्गत नये रोजगार के अवसर पैदा करना, समुदाय में स्थायी सम्पत्ति का निर्माण करना तथा ग्रामीण गरीबों के पोषाहार के स्तर को ऊँचा उठाना तथा प्रत्येक ग्रामीण भूमिहीन श्रमिक परिवार के कम-से-कम एक सदस्य को वर्ष में 100 दिन का रोजगार देने की गारण्टी देना आदि लक्ष्य रखे गये हैं। इसमें 50 प्रतिशत धन कृषि मजदूरों एवं सीमान्त कृषकों के लिए एवं 50 प्रतिशत ग्रामीण गरीबों पर खर्च किया जाता है।

इस योजना के अन्तर्गत काम करने वाले मजदूरों को न्यूनतम वेतन अधिनियम के आधार पर भुगतान किया जाता है तथा कुछ भुगतान नकद वे कुछ अनाज के रूप में किया जाता है। इससे ग्रामों में रोजगार के अवसर बढ़े, लोगों के पोपहार स्तर में सुधार हुआ तथा गाँवों में सड़कों, स्कूल एवं पंचायत के भवनों आदि का निर्माण हुआ। बाद में, इस कार्यक्रम को जवाहर रोजगार योजना में मिला दिया गया। वर्तमान में इस योजना को जवाहर ग्राम समृद्धि योजना के रूप में संचालित किया जा रहा है।

प्रश्न 4
निर्धनता और बेकारी दूर करने में आरक्षण नीति कहाँ तक सफल रही है? [2007, 13]
उत्तर
निर्धनता और बेकारी दूर करने में आरक्षण नीति आंशिक रूप से ही सफल हो पाई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि सरकार द्वारा निर्धनता और बेकारी दूर करने हेतु जो आरक्षण नीति बनाई गई है उसका लाभ वांछित लोगों तक नहीं पहुँच पाता है। अनेक अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि सभी अनुसूचित जातियाँ इन नीतियों का लाभ नहीं उठा पाई हैं। कुछ जातियों को इसका लाभ अधिक हुआ है तथा. इसी के परिणामस्वरूप आज निर्धनता एवं बेकारी की स्थिति से निकल कर अपनी सामाजिक-आर्थिक एवं शैक्षिक स्थिति में उल्लेखनीय सुधार कर पाए हैं। आरक्षण नीति की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि इसका लाभ उन लोगों तक पहुँचाने का प्रयास किया जाए जिन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है।

प्रश्न 5
बेकारी के चार प्रमुख लक्षण क्या हैं ? [2015]
उत्तर:
बेकारी के चार प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं।

  1.  इच्छा – किसी भी व्यक्ति को बेकार उस समय कहेंगे जब वह काम करने की इच्छा रखता हो और उसे काम न मिले। साधु, संन्यासी और भिखारी को हम बेकार नहीं कहेंगे, क्योंकि वे शारीरिक दृष्टि से योग्य होते हुए भी काम करना नहीं चाहते।।
  2. योग्यता – काम करने की इच्छा ही पर्याप्त नहीं है, वरन् व्यक्ति में काम करने की शारीरिक एवं मानसिक योग्यता भी होनी चाहिए। यदि कोई व्यक्ति बीमार, वृद्ध या पागल होने के कारण कार्य करने योग्य नहीं है तो उसे काम करने की इच्छा होते हुए भी बेकार नहीं कहेंगे।
  3. प्रयत्न – व्यक्ति को कार्य पाने के लिए प्रयत्न करना भी आवश्यक है। प्रयत्न के अभाव में योग्य एवं इच्छा रखने वाले व्यक्तियों को भी बेकार नहीं कह सकते।
  4.  योग्यता के अनुसार पूर्ण कार्य – व्यक्ति जिस पद एवं कार्य के योग्य है वह उसे मिलना चाहिए। उससे कम मिलने पर उसे हम आंशिक रोजगार प्राप्त व्यक्ति कहेंगे। जैसे-डॉक्टर को कम्पाउण्डर का या इन्जीनियर को ओवरसीयर का काम मिलता है तो यह आंशिक बेकारी की स्थिति है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
भारत में बेरोजगारी के दो कारणों का विश्लेषण कीजिए। [2015]
उत्तर:
भारत में बेरोजगारी के दो कारण निम्नलिखित हैं

  1. तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या – भारत में जनसंख्या 2.5% प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है, जब कि रोजगार के अवसरों में इस दर से वृद्धि नहीं हो रही है। जनसंख्या वृद्धि-दर के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष लगभग 50 लाख व्यक्तियों को रोजगार के अवसर सुलभ ” होने चाहिए। जनसंख्या की स्थिति विस्फोटक होने के कारण हमारे देश में बेरोजगारी विद्यमान है।
  2. दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली – हमारे देश की शिक्षा-पद्धति दोषपूर्ण है। यह शिक्षा रोजगारमूलक नहीं है, जिससे शिक्षित बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। प्रतिवर्ष लगभग 10 लाख शिक्षित व्यक्ति
    बेरोजगारी की पंक्ति में सम्मिलित हो जाते हैं।

प्रश्न 2:
स्वरोजगार योजना के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
यह योजना 15 अगस्त, 1983 को घोषित दूसरी योजना है, जो शहरी पढ़े-लिखे उन बेरोजगारों के लिए है जिनकी उम्र 18 से 35 के मध्य है तथा जो हाईस्कूल या इससे अधिक शिक्षित हैं। इस योजना के अन्तर्गत या शिक्षित बेरोजगारी दूर करने के ₹ 35 हजार तक किसी भी बेरोजगार शहरी पढ़े-लिखे व्यक्ति को बैंकों के माध्यम से दिये जा सकते हैं जो स्वयं कोई काम करना चाहते हैं। इसके लिए चुनाव जिला उद्योग कार्यालयों द्वारा किया जाता है। इस योजना का उद्देश्य 2 से 2.5 लाख बेरोजगार पढ़े-लिखे युवकों को प्रतिवर्ष रोजगार देना है।

प्रश्न 3
बेकारी दूर करने के चार उपाय लिखिए।
या
शिक्षित बेरोजगारी दूर करने के कोई दो उपाय बताइए। [2016]
उत्तर:
बेकारी दूर करने के चार उपाय निम्नलिखित हैं

  1.  सरकार द्वारा उचित योजनाएँ बनाकर बेकारी की समस्या का समाधान किया जा सकता है।
  2.  कुटीर एवं लघु उद्योगों का विकास किया जाए।
  3. जहाँ पर श्रम-शक्ति अधिक है, वहाँ पर मशीनों के प्रयोग को प्रमुखता न दी जाए।
  4. शिक्षा-प्रणाली में सुधार करके उसे व्यवसायोन्मुख बनाया जाए।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
बेकारी के तीन स्वरूपों के नाम बताइए।
उत्तर:
बेकारी के तीन स्वरूपों के नाम हैं-मौसमी, चक्रीय तथा आकस्मिक बेकारी।

प्रश्न 2
सर्दियों में बर्फ के कारखाने बन्द हो जाने के परिणामस्वरूप बेकार हुए मजदूर किस प्रकार की बेकारी का उदाहरण हैं ?
उत्तर:
मौसमी बेकारी।

प्रश्न 3
जवाहर ग्राम समृद्धि योजना का मुख्य लक्ष्य क्या है ?
उत्तर:
जवाहर ग्राम समृद्धि योजना का मुख्य लक्ष्य ग्रामीण क्षेत्रों में बेकार और अर्द्ध-बेकार लोगों को रोजगार उपलब्ध कराना है।

प्रश्न 4
किन दो कार्यक्रमों को मिलाकर जवाहर रोजगार योजना प्रारम्भ की गयी थी ?
उत्तर:
1 अप्रैल, 1989 से, ‘राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम तथा ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारण्टी कार्यक्रम’ को मिलाकर ‘जवाहर रोजगार योजना प्रारम्भ की गयी।

प्रश्न 5
‘भूमि सेना से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
उत्तर प्रदेश सरकार ने बेरोजगारी समाप्त करने के लिए भूमि सेना’ योजना प्रारम्भ की है। ‘भूमि सैनिक’ को जमीन पर वृक्ष लगाने के लिए सरकार द्वारा बैंक से ऋण दिया जाता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न ( 1 अंक)

प्रश्न 1
निम्नलिखित में से किस व्यक्ति को आप बेकार कहेंगे ?
(क) एक पागल व्यक्ति जो कहीं भी नौकरी नहीं करता
(ख) गाँव का एक अशिक्षित किसान जिसे प्रयत्न करने पर भी काम नहीं मिल रहा है।
(ग) धनी परिवार का एम० ए० पास पुत्र जिसकी किसी भी काम में कोई रुचि नहीं है।
(घ) एक संन्यासी।

प्रश्न 2
यदि कारखाने के दोषपूर्ण प्रबन्ध के कारण कारखाना बन्द हो जाने से हजारों श्रमिक बेरोजगार हो जाते हैं, तो ऐसी बेरोजगारी को कहा जाएगा
(क) आकस्मिक बेरोजगारी
(ख) प्रबन्धकीय बेरोजगारी
(ग) नगरीय बेरोजगारी
(घ) औद्योगिक बेरोजगारी

प्रश्न 3
जब कार्यालयों व कारखानों में आवश्यकता से अधिक व्यक्तियों द्वारा काम करने के कारण
उन्हें अपनी योग्यता से कम पारिश्रमिक मिलता है, तब इसे कहा जाता है
(क) औद्योगिक बेरोजगारी
(ख) अर्द्ध-बेरोजगारी
(ग) नगरीय बेरोजगारी
(घ) अनियोजित बेरोजगारी

प्रश्न 4
निम्नलिखित में से किस एक दशा को बेरोजगारी का सामाजिक परिणाम नहीं कहा जाएगा?
(क) परिवार में तनाव
(ख) राजनीतिक भ्रष्टाचार
(ग) मानसिक तनाव
(घ) नैतिक पतन की सम्भावना

प्रश्न 5
बेकारी का प्रत्यक्ष परिणाम क्या है ? [2013, 14]
(क) एक विवाह
(ख) नगरीकरण
(ग) संयुक्त परिवार
(घ) निर्धनता

प्रश्न 6
निम्नांकित में से कौन भारत में गरीबी का कारण नहीं है? [2011, 12]
(क) अशिक्षा
(ख) भाषाई संघर्ष
(ग) बेरोजगारी
(घ) प्राकृतिक विपत्तियाँ

प्रश्न 7
निम्नलिखित में से कौन-सी दशा भारत में शैक्षिक बेरोजगारी का कारण है ?
(क) दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली
(ख) तकनीकी शिक्षा-सुविधाओं की कमी
(ग) माँग और पूर्ति का असन्तुलन
(घ) शिक्षित युवकों में नौकरी के प्रति अधिक आकर्षण

प्रश्न 8
अत्यधिक निर्धन परिवार के बेरोजगार ग्रामीण युवकों को विभिन्न व्यवसायों का प्रशिक्षण देने तथा इसके लिए आर्थिक सहायता देने वाला सरकार का विशेष कार्यक्रम है
(क) सीमान्त कृषक रोजगार कार्यक्रम
(ख) रोजगार गारण्टी कार्यक्रम
(ग) भूमिहीन श्रमिक रोजगार कार्यक्रम
(घ) स्वरोजगार कार्यक्रम

प्रश्न 9
बँधुआ मजदूर प्रथा’ का कानून द्वारा उन्मूलन करने का प्रयास कब किया गया ?
(क) सन् 1976 में
(ख) सन् 1978 में
(ग) सन् 1986 में
(घ) सन् 1991 में

उत्तर:
1. (ख) गाँव का एक अशिक्षित किसान जिसे प्रयत्न करने पर भी काम नहीं मिल रहा है,
2. (घ) औद्योगिक बेरोजगारी,
3. (ख) अर्द्ध-बेरोजगारी,
4. (ख) राजनीतिक भ्रष्टाचार,
5. (घ) निर्धनता,
6. (ख) भाषाई संघर्ष,
7. (ख), तकनीकी शिक्षा-सुविधाओं की कमी,
8. (घ) स्वरोजगार कार्यक्रम,
9. (क) सन् 1976 में।

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 24 Social Welfare in India

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 24
Chapter Name Social Welfare in India (समाज में समाज-कल्याण)
Number of Questions Solved 37
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 24 Social Welfare in India (समाज में समाज-कल्याण)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
समाज-कल्याण से आप क्या समझते हैं? सिद्ध कीजिए कि समाज-कल्याण हेतु भारत में नियोजन आवश्यक है।
या
भारत में समाज-कल्याण कार्यक्रम पर एक लेख लिखिए। [2011, 13]
या
समाज कल्याण की कोई दो परिभाषाएँ लिखिए। [2010]
समाज कल्याण को परिभाषित कीजिए और भारत में श्रम कल्याण कार्यक्रम की विवेचना कीजिए। [2013]
उत्तर:
समाज-कल्याण का अर्थ एवं परिभाषाएँ
भारत में समाज-कल्याण की अवधारणा का विकास द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से हुआ है। समाज-कल्याण; समाज सेवा, सामाजिक न्याय और सामाजिक सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। इस प्रकार वे कार्य जो पिछड़े तथा निम्नतम वर्ग के लोगों को सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त करते हैं, समाज-कल्याण के रूप में जाने जाते हैं। विभिन्न विद्वानों ने समाज-कल्याण को निम्नवत् परिभाषित किया है

  • योजना आयोग के अनुसार, “समाज-कल्याण कार्यक्रम का तात्पर्य समाज के अनेक पीड़ित वर्गों के कल्याण और राष्ट्रीय विकास के आधारभूत पक्षों पर बल देने से है।”
  • फ्राइडलैण्डर के अनुसार, “समाज-कल्याण सामाजिक सेवाओं की वह संगठित व्यवस्था है, जिसका उद्देश्य व्यक्तियों और समूहों को जीवन व स्वास्थ्य का सन्तोषजनक स्तर प्रदान करना होता है।”
  • कैसिडी के अनुसार, “वे सभी संगठित कार्य एवं शक्ति जो मानव के उद्धार के लिए किये जाते हैं, समाज-कल्याण की श्रेणी में आते हैं।’
    वास्तव में, राज्य द्वारा निम्न वर्गों तथा असहाय व्यक्तियों के लिए सम्पन्न की गयी समस्त सेवाएँ ही समाज-कल्याण हैं।

क्या समाज-कल्याण के लिए नियोजन आवश्यक है?

भारत एक विशाल देश है, जिसकी आर्थिक एवं सामाजिक समस्याएँ भी विशाल हैं। यहाँ की लगभग 35.97 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यतीत करती है। यहाँ गरीबी, बेकारी, भिक्षावृत्ति, अस्पृश्यता, राष्ट्रीय एकीकरण का अभाव, भाषावाद, साम्प्रदायिकता, औद्योगिक तनाव, अस्वास्थ्य, अशिक्षा, अपराध, बाल-अपराध एवं आर्थिक पिछड़ेपन आदि समस्याएँ व्याप्त हैं। इन समस्याओं से मुक्ति पाने, आर्थिक विषमता को दूर करने, सामाजिक तनावों से छुटकारा पाने एवं सांस्कृतिक पिछड़ेपन पर काबू पाने, गाँवों का पुनर्निर्माण करने एवं समाज-कल्याण हेतु भारत में नियोजन आवश्यक है।

भारत में विभिन्न क्षेत्रों में नियोजन की आवश्यकता एवं महत्त्व को हम इस प्रकार प्रकट कर सकते हैं

1. कृषि क्षेत्र में भारत एक कृषि – प्रधान देश है, परन्तु फिर भी यह कृषि के क्षेत्र में बहुत पिछड़ा हुआ है, क्योंकि यहाँ का कृषक कृषि के लिए उन्नत औजारों, बीजों, खादों एवं वैज्ञानिक साधनों से परिचित नहीं है। कृषि के विकास एवं उपज बढ़ाने के लिए आवश्यक है। कि नियोजन का सहारा लिया जाए।

2. औद्योगिक क्षेत्र में – औद्योगिक क्षेत्र में भी भारत अन्य देशों की तुलना में पर्याप्त पिछड़ा हुआ है। पूँजी, साहस और वैज्ञानिक ज्ञान के अभाव के कारण भारत में पर्याप्त औद्योगिक विकास नहीं हो पाया है। दूसरी ओर औद्योगीकरण ने भारत में अनेक समस्याओं; जैसे औद्योगिक तनाव, वर्ग-संघर्ष, आर्थिक विषमता, गन्दी बस्तियाँ, बेकारी, निर्धनता, पर्यावरणप्रदूषण, औद्योगिक असुरक्षा, श्रमिकों, स्त्रियों व बच्चों का शोषण आदि को जन्म दिया है। इन समस्याओं का निवारण सामाजिक-आर्थिक नियोजन द्वारा ही सम्भव है।

3. स्वार्थ-समूहों पर नियन्त्रण – आधुनिक भारत में अनेक शक्तिशाली स्वार्थ-समूह विकसित हो गये हैं, जो केवल अपने ही हितों की पूर्ति में लगे हुए हैं। इन साधनसम्पन्न समूहों के साथ पिछड़े हुए वर्ग के लोग प्रतिस्पर्धा करने की स्थिति में नहीं हैं। इससे सामान्यजन एवं पिछड़े वर्गों का शोषण होता है। राज्य द्वारा संचालित नियोजन में शोषण की सम्भावना समाप्त हो जाती है और स्वार्थ-समूहों पर नियन्त्रण स्थापित हो जाता है।

4. ग्रामीण पुनर्निर्माण में उपयोगी – नियोजन द्वारा ग्रामों का विकास, उत्थान और पुनर्निर्माण कर ग्रामीणों के जीवन को समृद्ध और सुखी बनाया जा सकता है।

5. समाज-कल्याण में सहायक – नियोजन के द्वारा ही समाज कल्याण सम्भव है। यहाँ अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों से सम्बन्धित अनेक सामाजिक और आर्थिक समस्याएँ पायी जाती हैं। इनकी प्रगति और अभावों से मुक्ति नियोजन द्वारा ही सम्भव है। इनके अलावा यहाँ मातृत्व एवं शिशु-कल्याण, श्रम-कल्याण, शारीरिक और मानसिक दृष्टि से असमर्थ लोगों के कल्याण, परिवार नियोजन तथा शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने की नितान्त आवश्यकता है। इन सबके लिए सामाजिक नियोजन अत्यन्त आवश्यक है।

6. सामाजिक क्षेत्र में – भारत में जातिवाद और अस्पृश्यता से सम्बन्धित अनेक समस्याएँ पायी जाती हैं। यहाँ अपराध, बाल-अपराध, श्वेतवसन अपराध, आत्महत्या, वेश्यावृत्ति, भिक्षावृत्ति, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भाषावाद, जनसंख्या वृद्धि, बेकारी, निर्धनता, युवा असन्तोष, मद्यपान एवं भ्रष्टाचार की समस्या व्याप्त है। यहाँ वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विघटन की दर बढ़ती जा रही है। इन सभी समस्याओं को सुलझाने और समाज का पुनर्गठन करने के लिए सामाजिक नियोजन आवश्यक है।

7. राष्ट्रीय एकीकरण के लिए – भारत एक विभिन्नता युक्त समाज है। इसमें विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, प्रजातियों, जातियों एवं संस्कृतियों के लोग निवास करते हैं। उन्हें एकता के सूत्र में बाँधने और राष्ट्रीय एकीकरण के लिए सामाजिक नियोजन आवश्यक है।

8. श्रम कल्याण – हमारे देश में श्रमिकों की दशा अत्यन्त शोचनीय रही है। पूँजीपतियों ने अपने लाभ के लिए उनका अत्यधिक शोषण क्या है। उनसे काम अधिक लिया जाता था और वेतन कम दिया जाता था। भारत सरकार ने श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए निम्नलिखित अधिनियम पारित किए

  •  फैक्ट्री अधिनियम, 1948 (संशोधित 1987),
  • न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948,
  •  खाना अधिनियम, 1952,
  • चाय बागान श्रमिक अधिनियम, 1961,
  •  मोटर यातायात कर्मचारी अधिनियम, 1961,
  • बोनस भुगतान अधिनियम, 1965 तथा
  • वेतन भुगतान (संशोधन) अधिनियम, 2000

भारत में बाल श्रमिकों की समस्या सुलझाने हेतु प्रभावशाली नीति अपनाई गई है। बाल श्रम (निषेध और नियमन) अधिनियम, 1986′ में जोखिम भरे व्यवसायों में बच्चों के काम करने की मनाही के अलावा, कुछ अन्य क्षेत्रों में उनको काम देने से सम्बन्धित नियम बनाए गए हैं। 1987 ई० में बाल श्रमिकों के बारे में एक राष्ट्रीय नीति बनाई गई है जिसमें देश के आर्थिक विकास, सामाजिक एकजुटता तथा राजनीतिक स्थिरता के लिए बच्चों का शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक विकास सुनिश्चित करने हेतु अनेक कदम उठाए गए हैं।

महिला श्रमिकों के हितों की रक्षा हेतु भी अनेक उपाय अपनाए गए हैं। श्रम मन्त्रालय में महिला श्रम प्रकोष्ठ’ नाम का एक अलग सेल बनाया गया है। प्रसूति लाभ अधिनियम, 1961′ तथा ‘समान मजदूरी अधिनियम, 1976′ पारित किए गए हैं। बंधुआ मजदूरी प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 द्वारा बंधुआ मजदूरों के ऋणों को समाप्त कर दिया गया है तथा उनके पुनर्वास हेतु केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा आर्थिक सहायता दी जा रही है। असंगठित क्षेत्र में मजदूरों के हितों की रक्षा हेतु भी अनेक उपाय किए गए हैं। खानों में सुरक्षा हेतु ‘खान अधिनियम, 1952′ पारित किया गया है। औद्योगिक झगड़ों के निवारण हेतु औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947’ पारित किया गया है। 24 दिसम्बर, 1966 को ‘राष्ट्रीय श्रम आयोग गठित किया गया था जिसने संगठित एवं असंगठित क्षेत्रों में श्रम समस्याओं के समाधान हेतु जो महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए थे उन्हें लागू किया गया है।

उपर्युक्त क्षेत्रों के अतिरिक्त धार्मिक क्षेत्र में व्याप्त रूढ़िवादिता और अन्धविश्वासों को समाप्त करने, अपाहिजों व विकलांगों की रक्षा करने एवं अनाथों व भिखारियों को संरक्षण देने के लिए भी सामाजिक नियोजन आवश्यक है। इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने नियोजन का महत्त्व स्वीकार किया और 1951 ई० से देश में पंचवर्षीय योजनाएँ प्रारम्भ कीं। अब तक दस पंचवर्षीय योजनाएँ पूरी हो चुकी हैं तथा ग्यारहवीं योजना, 2007 ई० से प्रारम्भ हो चुकी है।

प्रश्न 2
भारत में विभिन्न समाज-कल्याण कार्यक्रमों का वर्णन कीजिए। [2007, 09, 11]
या
‘बाल-कल्याण के लिए भारत सरकार द्वारा किये गये कार्यों पर एक लघु निबन्ध लिखिए। भारत में महिला-कल्याण पर एक निबन्ध लिखिए। [2016]
या
स्वतन्त्र भारत में समाज-कल्याण के लिए किये गये विभिन्न उपायों की समीक्षा कीजिए। [2008]
उत्तर:
समाज-कल्याण जनसंख्या के दुर्बल एवं पीड़ित वर्ग के लाभ के लिए किया जाने वाला कार्य है। इसके अन्तर्गत स्त्रियों, बच्चों, अपंगों, मानसिक रूप से विकारयुक्त एवं सामाजिक रूप से पीड़ित व्यक्तियों के कल्याण के लिए की जाने वाली सेवाओं का विशेष रूप से समावेश होता है। भारत में विभिन्न समाज-कल्याण कार्यक्रमों का विवरण नीचे प्रस्तुत है

1. अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के कल्याण के कार्यक्रम – सरकार द्वारा राष्ट्रीय अनुसूचित जाति तथा जनजाति आयोग का गठन करके इन वर्गों को संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया है। सफाई कर्मचारियों के हितों और अधिकारों के संरक्षण तथा प्रोत्साहन के लिए राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग अधिनियम, 1993 के अन्तर्गत एक आयोग का गठन किया गया। छुआछूत की कुप्रथा को रोकने के लिए 1955 ई० में बने कानून के दायरे को बढ़ाया गया है। कानून में संशोधन करके इसे नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 का नाम दिया गया। इसी प्रकार अनुसूचित जाति तथा जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989, 30 जनवरी, 1990 से लागू किया गया है। इन वर्गों के परिवारों के बच्चों को पढ़ाई के लिए आर्थिक सहायता दी जाती है। मेडिकल और इन्जीनियरी डिग्री पाठ्यक्रमों के लिए अनुसूचित जाति/जनजाति के छात्रों को पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध कराने के लिए ‘बुक बैंक’ कार्यक्रम शुरू किया गया है।

इन वर्गों के छात्रों को परीक्षा-पूर्व प्रशिक्षण देने के कार्यक्रम पर छठी योजना से ही अमल शुरू हो गया है जिससे छात्र विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की प्रतिस्पर्धाओं; जैसे – सिविल सेवा, बैंकिंग भर्ती परीक्षाओं और रेलवे बोर्ड आदि की परीक्षाओं में सफलता प्राप्त कर सकें। इन बालकों के लिए छात्रावासों की योजना का मुख्य उद्देश्य मिडिल, हाईस्कूल और सेकण्ड्री स्कूलों, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों को होस्टल की सुविधा प्रदान कराना है।

2. विकलांगों के कल्याणार्थ कार्यक्रम – एक अनुमान के अनुसार भारतीय जनसंख्या का 4 से 5 प्रतिशत भाग किसी-न-किसी प्रकार की विकलांगता से ग्रस्त है। विकलांग व्यक्ति को समान अवसर, अधिकारों की रक्षा और पूर्ण सहभागिता अधिनियम, 1995 नामक व्यापक कानून को फरवरी, 1996 ई० में लागू किया गया। इस कानून के तहत केन्द्र और राज्य-स्तर पर विकलांगों के पुनर्वास को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रम; जैसे – शिक्षा, रोजगार और व्यावसायिक प्रशिक्षण, बाधारहित परिवेश का निर्माण, विकलांगों के लिए पुनर्वास सेवाओं का प्रावधान, संस्थागत सेवाएँ और बेरोजगार भत्ता तथा शिकायतों का निदान जैसे सहायक सामाजिक सुरक्षा के उपाय करना आदि बातों पर ध्यान दिया गया है। विकलांगों के लिए स्वैच्छिक कार्य योजना पर भी अमल किया जा रहा है। इस योजना के अन्तर्गत गैर-सरकारी संगठनों को विकलांग लोगों के कल्याण; जैसे – विशेष स्कूल खोलने व व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्र चलाने के लिए सहायता दी जाती है।

3. बाल-कल्याण कार्यक्रम – बालकों के कल्याण के लिए एवं बाल-श्रमिकों के शोषण को रोकने के लिए कानूनी एवं अन्य कल्याणकारी कार्य किये गये हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में दिसम्बर, 2000 ई० में 10 करोड़ बाल-श्रमिक थे। कारखाना अधिनियम, 1948 में यह प्रावधान है कि 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी भी कारखाने में ऐसे कार्य पर नहीं लगाया जा सकता, जिससे उनका स्वास्थ्य खराब हो सकता हो। भारतीय खान अधिनियम, 1952 के अनुसार 15 वर्ष से कम आयु के बच्चों को खानों में काम पर नहीं लगाया जा सकता। वर्ष 1975-76 में समन्वित बाल-विकास सेवाएँ (I.C.D.S.) प्रारम्भ की गयीं। इनके उद्देश्य हैं

  1. पूरक पोषाहार,
  2. टीके लगाना,
  3. स्वास्थ्य की जाँच,
  4. रोगी बच्चों को अस्पताल भेजना,
  5.  स्कूल पूर्व अनौपचारिक शिक्षा तथा
  6. माताओं को पोषाहार एवं स्वास्थ्य की समुचित शिक्षा देना।

इस योजना का लाभ 31 मार्च, 2001 तक लगभग 2.5 करोड़ बच्चों एवं 50 लाख माताओं ने उठाया है। सन् 1979 में भारत में ‘राष्ट्रीय बाल-कोष’ की स्थापना की गयी, जिसका उद्देश्य बाल-कल्याण सम्बन्धी साधनों में वृद्धि करना था। सन् 1979 से ही बाल-कल्याण के क्षेत्र में श्रेष्ठ कार्य करने वाले व्यक्ति को प्रशंसा – पत्र एवं 50,000 तथा संस्था को प्रशंसा – पत्र एवं ₹ 2 लाख के राष्ट्रीय पुरस्कार देने की व्यवस्था की गयी है।

सन् 1970-71 से 3 से 6 वर्ष की आयु के बालकों को पौष्टिक आहार देने के लिए पोषण कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। जनवरी, 1986 में स्कूल जाने योग्य से पूर्व के बच्चों एवं भावी माताओं के लिए गेहूँ पर आधारित सहायक पोषण कार्यक्रम प्रारम्भ किया। छोड़े हुए, उपेक्षित, अवांछित और अनाथ बच्चों को संरक्षण प्रदान करने के लिए संरक्षण एवं पोषण गृह स्थापित किये गये। गन्दी बस्तियों में रहने वाले श्रमिकों एवं पिछड़े वर्ग के बच्चों को आर्थिक सहायता देने के लिए अवकाश शिविर लगाये गये। बाल-कल्याण के क्षेत्र में लगे कार्यकर्ताओं के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की गयी। बाल-कल्याण के महत्त्व को ध्यान में रखकर बालकों के लिए राष्ट्रीय नीति तय की गयी। 1974 ई० में ‘राष्ट्रीय बाल बोर्ड’ को गठन किया गया। बालकों के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए ही सारे विश्व में 1979 का वर्ष ‘बाल-वर्ष’ के रूप में मनाया गया, जिसमें असहाय, श्रमिक और कमजोर वर्गों के बालकों के कल्याण के लिए अनेक कार्य किये गये।

4. महिला कल्याणार्थ कार्यक्रम – सन् 2011 की जनगणना के अनुसार देश की कुल जनसंख्या 121.02 करोड़ है, जिसमें से 58.65 करोड़ महिलाएँ हैं। समाज के इतने बड़े भाग की उपेक्षा कर भारत प्रगति नहीं कर सकता। महिलाओं के कल्याण हेतु देश में कई कार्य किये गये हैं। स्त्रियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार करने की दृष्टि से 1979 ई० में समान वेतन अधिनियम पारित किया गया। इसके द्वारा पुरुषों और महिलाओं के लिए समान वेतन की व्यवस्था की गयी। 1961 ई० में दहेज निरोधक अधिनियम पारित किया गया, जिसमें 1986 ई० में संशोधन कर उसे और अधिक कठोर बना दिया गया। 1955 ई० में हिन्दू विवाह अधिनियम पारित कर स्त्रियों को भी विवाह-विच्छेद सम्बन्धी सुविधा प्रदान की गयी। 1961 एवं 1976 ई० में मातृत्व हित लाभ अधिनियम बनाये गये। 15 से 45 वर्ष की आयु समूह की महिलाओं के लिए वर्ष 1975-76 से ही प्रकार्यात्मक साक्षरता का कार्यक्रम चल रहा है, जिसमें महिलाओं को स्वच्छता एवं स्वास्थ्य, भोजन तथा पोषक तत्त्वों, गृह-प्रबन्ध तथा शिशु देख-रेख, शिक्षा तथा व्यवसाय के सन्दर्भ में अनौपचारिक शिक्षा प्रदान की जाती है।

ग्रामीण महिलाओं के कल्याण के लिए गाँवों में महिला मण्डल बनाये गये हैं। नगरों में कार्यशील महिलाओं को आवास सुविधा देने के लिए हॉस्टल खोले गये हैं। वर्तमान में देश में 841 हॉस्टल हैं जिससे 59,500 कार्यशील महिलाएँ लाभान्वित हुई हैं। 1975 ई० में सारे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष मनाया गया। भारत में भी इस वर्ष महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक कल्याण हेतु अनेक कदम उठाये गये। 8 मार्च, 1992 को अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। महिलाओं को उत्तम रोजगार सेवाएँ उपलब्ध कराने की दृष्टि से वर्ष 1986-87 में महिला विकास निगम’ (WDC) स्थापित किये गये। जनवरी, 1992 ई० में एक राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन किया गया जिससे महिलाओं पर सामाजिक-आर्थिक रूप से हो रहे अन्याय एवं अत्याचारों से लड़ा जा सके। 2 अक्टूबर, 1993 से महिला समृद्धि योजना प्रारम्भ की गयी है। इसके अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएँ डाकघर में ₹300 जमा करा सकती हैं। एक वर्ष तक ये रुपये जमा रहने पर सरकार उन्हें ₹75 अपनी ओर से अंशदान देगी।

5. वृद्धावस्था कल्याणार्थ कार्यक्रम – 1981 ई० में 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की संख्या 4 करोड़ 45 लाख (6.2%) थी, जो 1991 ई० में 5 करोड़ 42 लाख (6.5%) तथा 2001 ई० में बढ़कर 7.6% हो गयी है। कल्याण मन्त्रालय ने वृद्धों की देखभाल, आवास, चिकित्सा आदि के लिए एक नयी योजना आरम्भ की है। संशोधित योजना को ‘वृद्ध व्यक्तियों के लिए समन्वित कार्यक्रम’ नाम दिया गया है। इस संशोधित योजना के अन्तर्गत परियोजना पर आने वाले खर्च का 90 प्रतिशत हिस्सा भारत सरकार वहन करेगी और शेष खर्च सम्बन्धित संगठन/संस्थान वहन करेगा। इस योजना के अन्तर्गत 331 वृद्धाश्रमों, 436 देखभाल के केन्द्रों
और 74 चल मेडिकेयर इकाइयों की स्थापना हेतु सहायता प्रदान की गयी है।

प्रश्न 3
नीति आयोग की संरचना का विवरण देते हुए इसके उद्देश्य एवं कार्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
नीति आयोग
योजना आयोग के स्थान पर बनाए गए नए संस्थान नीति आयोग के गठन की घोषणा केन्द्र सरकार ने 1 जनवरी, 2015 को की थी। प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता वाला यह आयोग केन्द्र के साथ-साथ राज्य सरकारों के लिए भी नीति निर्माण करने वाले संस्थान की भूमिका निभाएगा। यह थिंक टैंक की तर्ज पर काम करेगा। यह आयोग की एक संचालन परिषद् होगी। इसमें सभी राज्यों के मुख्यमन्त्री और संघ-शासित प्रदेशों के उपराज्यपाल सदस्य होंगे। परिषद् केन्द्र व राज्यों के साथ मिलकर सहकारी संघवाद का एक राष्ट्रीय एजेंडा तैयार करेगी।

  • संरचना इसकी संरचना निम्न प्रकार है
  • अध्यक्ष  – भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी
  • गवर्निंग काउन्सिल – राज्यों के मुख्यमन्त्री एवं केन्द्र-शासित प्रदेशों के उपराज्यपाल
  • उपाध्यक्ष – अरविन्द वनगढ़िया
  • पदेन सदस्य – राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, सुरेश प्रभु
  • विशेष आमन्त्रित – नितिन गडकरी, थावरचन्द गहलोत, स्मृति ईरानी
  • पूर्णकालिक सदस्य – विवेक देवराय, डॉ० वी०के० सारस्वत
  • मुख्य कार्यकारी अधिकारी – अमिताभ कान्त

नीति आयोग के उद्देश्य एवं कार्यनीति

आयोग के उद्देश्य एवं कार्य निम्नलिखित हैं

  1. सरकारी नीति निर्माण के लिए थिंक टैंक।
  2.  दूसरे देशों से अच्छी पद्धतियों का पता लगाना, देशी-विदेशी निकायों से उनके तरीकों का – उपयोग भारत में करने के लिए साझेदारी करना।
  3.  सहकारी संघवाद : राज्य सरकारों यहाँ तक कि गाँवों को भी योजना बनाने में शामिल करना।
  4.  सतत विकास : पर्यावरण की दृष्टि से जीरो डिफेक्ट-जीरो इफेक्ट उत्पादन मंत्र।
  5. शहरी विकास : शहर निवास योग्य रहें और सभी को आर्थिक अवसर मिल सकें, यह सुनिश्चित करना।
  6. सहयोगात्मक विकास : निजी क्षेत्र और नागरिकों की सहायता से।
  7.  समावेशी विकास या अंत्योदय। विकास का लाभ एससी, एसटी और महिलाएँ भी ले सकें,यह सुनिश्चित करना।
  8. गरिमा और आत्मसम्मान सुनिश्चित करने के लिए गरीबी उन्मूलन।
  9. कमजोर वर्ग के लिए और अधिक रोजगार पैदा करने के लिए 5 करोड़ लघु उद्यमों पर फोकस करना।
  10.  निगरानी और प्रतिपुष्टि। यदि आवश्यक हो तो बीच का रास्ता निकालना।
  11. जनसांख्यिकीय भिन्नता और सामाजिक पूँजी का लाभ लेने के लिए नीति बनाना।
  12.  क्षेत्रीय परिषदें राज्यों के एक समूह के लिए विशिष्ट मुद्दों को उठाएँगी। उदाहरण के लिए सूखा, वामपंथी अतिवाद, जनजाति कल्याण इत्यादि।
  13. भारत के विकास के लिए, एनआरआई की भू-आर्थिक और भू-राजनीतिक सुदृढ़ता से अधिकतम लाभ प्राप्त करना।
  14. सोशल मीडिया और सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी माध्यमों का प्रयोग कर पारदर्शिता, जवाबदेही और सुशासन सुनिश्चित करना।
  15. अन्तर विभागीय विवादों को हल करने में सहायक।।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
नियोजन कितने प्रकार का होता है ? आर्थिक नियोजन व सामाजिक नियोजन में अन्तर बताइए।
उत्तर:
नियोजन सामान्यत: दो प्रकार का होता है – प्रथम, आर्थिक नियोजन तथा द्वितीय, सामाजिक नियोजन। आर्थिक नियोजन के अन्तर्गत आर्थिक उद्देश्यों; जैसे – कृषि, उद्योग-धन्धे, खनिज-पदार्थ, व्यापार, यातायात, संचार, रोजगार तथा प्रति व्यक्ति अधिकतम आय आदि लक्ष्यों की पूर्ति पर ध्यान दिया जाता है। सामाजिक नियोजन के अन्तर्गत आने वाले उद्देश्यों में शराबबन्दी, मातृत्व एवं शिशुकल्याण, श्रम-कल्याण, अपाहिजों एवं विकलांगों का कल्याण, स्वास्थ्य एवं शिक्षा में सुधार, पिछड़ी जातियों एवं जनजातियों को कल्याण, सामाजिक कुरीतियों एवं समस्याओं का निवारण आदि प्रमुख हैं। सामाजिक नियोजन एक ऐसी व्यापक अवधारणा है, जिसमें आर्थिक नियोजन भी सम्मिलित है। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि सामाजिक नियोजन एक ऐसा प्रयत्न या पद्धति है जिसके द्वारा समाज को इस प्रकार संगठित किया जाता है कि सामाजिक न्याय, समानता, स्वतन्त्रता एवं बन्धुत्व में वृद्धि हो सके और साथ ही सामाजिक स्वास्थ्य को एक स्वचालित गति मिल सके।

प्रश्न 2
सरकारी नौकरियों, विधानमण्डलों एवं पंचायतों में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के प्रतिनिधित्व के विषय में चर्चा कीजिए।
उत्तर:
अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए लोकसभा, राज्यों की विधानसभाओं, पंचायतों एवं स्थानीय निकायों में स्थान सुरक्षित किये गये हैं। पहले यह व्यवस्था 20 वर्ष के लिए थी, जिसे 10-10 वर्षों के लिए चार बार बढ़ाकर जनवरी, 2010 ई० तक कर दिया गया है। इस समय लोकसभा के 543 स्थानों में 79 अनुसूचित जातियों के लिए तथा 42 अनुसूचित जनजातियों के लिए और राज्यों की विधानसभाओं के 4,041 स्थानों में से 547 स्थान अनुसूचित जातियों के लिए तथा 315 अनुसूचित जनजातियों के लिए सुरक्षित रखे गये हैं।

सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व – खुली प्रतियोगिता द्वारा अखिल भारतीय आधार पर की जाने वाली नियुक्तियों में 15 प्रतिशत तथा अन्य नियुक्तियों में 16.66 प्रतिशत स्थान. अनुसूचित जातियों, 7.5 प्रतिशत स्थान अनुसूचित जनजातियों तथा 27 प्रतिशत स्थान पिछड़े वर्गों के लिए सुरक्षित किये गये हैं एवं नौकरी के लिए योग्यता एवं आयु-सीमा में भी छूट दी गयी है।

प्रश्न 3
प्रौढ शिक्षा कार्यक्रम के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पहले तक देश में साक्षरता का प्रतिशत केवल 7 था। स्वतन्त्रता प्राप्त करने के पश्चात् प्रौढ़ लोगों को साक्षर बनाने की ओर विशेष ध्यान दिया गया। सबसे पहले सन् 1951 में दिल्ली के निकट 60 गाँवों में समाज-शिक्षा केन्द्र प्रारम्भ किये गये। इनमें रात्रि-कक्षाएँ चालु की गयीं। पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के पहले तक प्रौढ़ शिक्षा की सामाजिक चेतना की दृष्टि से विशेष महत्त्व होते हुए भी इसे ग्रामीणों तक नहीं पहुँचाया जा सका। छठी पंचवर्षीय योजना में सामाजिक नियोजन के एक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम के रूप में प्रौढ़ शिक्षा के महत्त्व को स्वीकार किया गया। सातवीं योजना में 15 से 35 वर्ष आयु समूह के 9 करोड़ और आठवीं योजना में 10.6 करोड़ लोगों को साक्षर बनाने का लक्ष्य रखा गया। जनवरी, 1991 ई० में शीघ्र और मूल्यांकन अध्ययनों में तकनीकी और शैक्षिक सहायता में वृद्धि करने के लिए राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा संस्थान की स्थापना की गयी।

प्रश्न 4
बारहवीं पंचवर्षीय योजना पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) – भारत की 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के निर्माण की दिशा का मार्ग अक्टूबर 2011 में उस समय प्रशस्त हो गया जब इस योजना के दृष्टि पत्र (दृष्टिकोण पत्र/दिशा पत्र/Approach Paper) को राष्ट्रीय विकास परिषद् (NDC) ने स्वीकृति प्रदान कर दी। 1 अप्रैल, 2012 से प्रारम्भ हो चुकी इस पंचवर्षीय योजना के दृष्टि पत्र को योजना आयोग की 20 अगस्त, 2011 की बैठक में स्वीकार कर लिया था तथा केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् ने इसका अनुमोदन 15 सितम्बर, 2011 की अपनी बैठक में किया था। प्रधानमन्त्री डॉ० मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में राष्ट्रीय विकास परिषद् की नई दिल्ली में 22 अक्टूबर, 2011 को सम्पन्न हुई इस 56वीं बैठक में दिशा पत्र को कुछेक शर्तों के साथ स्वीकार किया गया। राज्यों द्वारा सुझाए गए कुछ संशोधनों का समायोजन योजना दस्तावेज तैयार करते समय योजना आयोग द्वारा किया जायेगा।

12वीं पंचवर्षीय योजना में वार्षिक विकास दर का लक्ष्य 9 प्रतिशत है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने में राज्यों के सहयोग की अपेक्षा प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने की है। इसे लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कृषि, उद्योग व सेवाओं के क्षेत्र में क्रमशः 4.0 प्रतिशत, 9.6 प्रतिशत व 10.0 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि प्राप्त करने के लक्ष्य तय किये गये हैं। इनके लिए निवेश देर सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की 38.7 प्रतिशत प्राप्त करनी होगी। बचत की दर जीडीपी के 36.2 प्रतिशत प्राप्त करने का लक्ष्य दृष्टि पत्र में निर्धारित किया गया है। समाप्त हुई 11वीं पंचवर्षीय योजना में निवेश की दर 36.4 प्रतिशत तथा बचत की दर 34.0 प्रतिशत रहने का अनुमान था। 11वीं पंचवर्षीय योजना में वार्षिक विकास दर 8.2 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया था। 11वीं पंचवर्षीय योजना में थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index) में औसत वार्षिक वृद्धि लगभग 6.0 प्रतिशत अनुमानित था, जो 12वीं पंचवर्षीय योजना में 4.5 – 5.0 प्रतिशत तक सीमित रखने का लक्ष्य है। योजनावधि में केन्द्र सरकार का औसत वार्षिक राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.25 प्रतिशत तक सीमित रखने का लक्ष्य इस योजना के दृष्टि पत्र में निर्धारित किया गया है।

प्रश्न 5
नियोजन को परिभाषित कीजिए और संक्षिप्त रूप में अपना निष्कर्ष दीजिए।
उत्तर:
नियोजन की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
प्रो० हैरिस के अनुसार, “नियोजन मुख्य रूप से उपलब्ध साधनों के संगठन और उपयोग की ऐसी पद्धति है, जिसके द्वारा पूर्व निर्धारित उद्देश्यों के आधार पर अधिकतम लाभ प्राप्त किया जा सके।”
भारत सरकार के योजना आयोग के अनुसार, “नियोजन वास्तव में सुनिश्चित सामाजिक लक्ष्यों की दृष्टि से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए साधनों को संगठित करने एवं उपयोग में लाने की पद्धति है।”
इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि नियोजन में सर्वप्रथम हम अपने उद्देश्य या लक्ष्य तय करते हैं। और उन्हें प्राप्त करने के लिए उपलब्ध साधनों का अधिकाधिक उपयोग करते हैं। नियोजन एक ऐसा प्रयास है जिसमें सीमित साधनों का इस प्रकार विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग किया जाता है कि अधिकतम लाभ की प्राप्ति और इच्छित लक्ष्यों की पूर्ति हो सके।

प्रश्न 6:
भारत में समाज-कल्याण सम्बन्धी प्रमुख कार्यक्रमों को इंगित कीजिए।
या
भारत सरकार द्वारा किए गए दो समाज कल्याण कार्य लिखिए। [2011, 14, 16]
उत्तर:
भारत में समाज कल्याण सम्बन्धी प्रमुख कार्यक्रम निम्नलिखित हैं।

  1. बाल कल्याण और मातृत्व संरक्षण सम्बन्धी कार्यक्रम।
  2. ग्रामीण विकास सम्बन्धी कार्यक्रम।
  3.  समाज शिक्षा या प्रौढ़ शिक्षा का प्रसार।
  4. समाज कल्याण संस्थाओं की स्थापना।
  5. मद्य-निषेध।
  6. स्त्रियों के अनैतिक व्यापार पर रोक।
  7.  किशोर अपराधियों का सुधार।
  8. भिक्षावृत्ति का उन्तमूलन।
  9.  श्रम कल्याण।

प्रश्न 7
कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 के प्रावधानों के बारे में बताइए।
उत्तर:
कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 के अन्तर्गत उन कारखानों, होटलों, रेस्टोरेण्टों, दुकानों, सिनेमाघरों आदि में जहाँ 20 या इससे अधिक काम करने वाले श्रमिक हों, के बीमार पड़ने, प्रसूति, चोट लग जाने आदि की अवस्था में इलाज का प्रबन्ध करने, नकद भत्ता देने अथवा चोट से मृत्यु हो जाने पर आश्रितों को पेंशन देने आदि की व्यवस्था की गयी है। पूरे देश में स्त्री और पुरुष कर्मचारियों को समान वेतन देने के लिए फरवरी 1979 ई० में “समान पारिश्रमिक अधिनियम’ भी बनाया गया। बोनस अधिनियम के अनुसार बैंक, रेल एवं कारखाना श्रमिकों को 8.33 प्रतिशत बोनस देने का प्रावधान किया गया है। ठेका मजदूरी अधिनियम, 1970 कुछ संस्थाओं में ठेकी मजदूरी व्यवस्था का नियमन करता है। मजदूरी की अदायगी न होने पर मालिक को जिम्मेदार माना जाता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
समाज-कल्याण की कोई दो विशेषताएँ लिखिए। [2011, 15]
उत्तर:
समाज-कल्याण की दो विशेषताएँ निम्नवत् हैं

  1.  यह पिछड़े हुए वर्गों को अधिक-से-अधिक सुविधाएँ प्रदान करने में सहायता देती है।
  2.  यह वृद्ध लोगों के सहायतार्थ अनेक कार्यक्रम चलाता है।

प्रश्न 2
समाज-कल्याण की अवधारणा स्पष्ट कीजिए। [2009, 10, 11]
उत्तर:
आमतौर पर हम ‘सामाजिक कल्याण’ को ‘सामाजिक सुरक्षा’, ‘समाज सेवा’ आदि के नाम से भी सम्बोधित करते हैं। वास्तव में समाज-कल्याण के अन्तर्गत वे सभी प्रयत्न शमिल हैं। जिनका उद्देश्य सम्पूर्ण सामाजिक संरचना का कल्याण करना है तथा पिछड़े हुए वर्गों को अधिकसे-अधिक सुविधाएँ प्रदान करना है।

प्रश्न 3:
वृद्धावस्था कल्याण कार्यक्रम के बारे में बताइए।
उत्तर:
वृद्धावस्था कल्याणार्थ कार्यक्रम 1981 ई० में 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की संख्या 4 करोड़ 45 लाख (6.2%) थी जो 1991 ई० में 5 करोड़ 42 लाख (6.5%) तथा 2001 ई० में बढ़कर 7.6% हो गयी। कल्याण मन्त्रालय ने वृद्धों की देखभाल, आवास, चिकित्सा आदि के लिए एक नयी योजना आरम्भ की है। संशोधित योजना को ‘वृद्ध व्यक्तियों के लिए समन्वित कार्यक्रम नाम दिया गया है। इस संशोधित योजना के अन्तर्गत परियोजना पर आने वाले खर्च का 90 प्रतिशत हिस्सा भारत सरकार वहन करेगी और शेष खर्च सम्बन्धित संगठन/संस्थान वहन करेगा। इस योजना के अन्तर्गत 331 वृद्धाश्रमों, 436 दिन में देखभाल के केन्द्रों और 74 चल मेडिकेयर इकाइयों की स्थापना हेतु सहायता प्रदान की गयी है।

प्रश्न 4
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के चार उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के चार प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं

  1.  विकास दर का लक्ष्य 9 प्रतिशत प्रतिवर्ष प्राप्त करना।
  2. 5.8 करोड़ नये रोजगार के अवसर पैदा करना।
  3. गरीबों की संख्या में 10 प्रतिशत की कमी लाना।।
  4.  वर्ष 2010 तक प्रारम्भिक शिक्षा का शत-प्रतिशत विस्तार करना।

प्रश्न 5
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भारत में समाज-कल्याण एवं सामाजिक पुनर्निर्माण के लिए पंचवर्षीय योजनाएँ क्यों बनायी गयीं?
उत्तर:
पंचवर्षीय योजनाएँ – प्रत्येक राष्ट्र योजनाबद्ध प्रयत्नों के द्वारा एक निश्चित अवधि में कुछ सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करना, अपनी समस्याओं एवं अभावों से मुक्ति पाना चाहता है। ऐसा करने के लिए वह नियोजन या आयोजन का सहारा लेता है। जार शासन से मुक्त होने के बाद रूस ने अपने देश में सन् 1928 से पंचवर्षीय योजनाएँ आरम्भ कीं और उसे देश के सर्वांगीण विकास में आशातीत सफलता प्राप्त हुई। रूस से प्रेरित होकर भारत में भी पंचवर्षीय योजनाएँ बनायी गयीं।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
नियोजन से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
नियोजन वास्तव में सुनिश्चित सामाजिक लक्ष्यों की दृष्टि से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए साधनों को संगठित करने एवं उपयोग में लाने की पद्धति है।

प्रश्न 2
भारत में सामाजिक नियोजन का मुख्य उद्देश्य क्या है? [2013]
उत्तर:
भारत में सामाजिक नियोजन का मुख्य उद्देश्य देश का सर्वांगीण विकास करना है।

प्रश्न 3
केन्द्रीय समाज-कल्याण बोर्ड की स्थापना कब और किसकी अध्यक्षता में हुई थी ?
उत्तर:
केन्द्रीय समाज-कल्याण बोर्ड की स्थापना 1953 ई० में दुर्गाबाई देशमुख की अध्यक्षता में हुई थी।

प्रश्न 4
महिला विकास निगम की स्थापना कब और किस उद्देश्य से की गयी थी ?
उत्तर:
महिलाओं को उत्तम रोजगार सेवाएँ उपलब्ध कराने की दृष्टि से वर्ष 1986-87 में महिला विकास निगम की स्थापना की गयी थी।

प्रश्न 5
राष्ट्रीय विकलांग कोष की स्थापना किस उद्देश्य से और कब की गयी थी ?
उत्तर:
राष्ट्रीय विकलांग कोष की स्थापना विकलांगों के कल्याण के लिए वर्ष 1983-84 में की गयी थी।

प्रश्न 6
स्वतन्त्र भारत में कारखाना अधिनियम कब बना ?
उत्तर:
स्वतन्त्र भारत में कारखाना अधिनियम 1948 ई० में बना।

प्रश्न 7
राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन कब किया गया ?
उत्तर:
राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन जनवरी, 1992 ई० में किया गया।

प्रश्न 8
‘गरीबी हटाओ’ नारा कौन-सी पंचवर्षीय योजना में दिया गया था ? [2015]
उत्तर:
गरीबी हटाओ’ नारा पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में दिया गया था।

प्रश्न 9
बारहवीं पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल बताइए।
उत्तर:
2012 – 2017

प्रश्न 10
दसवीं पंचवर्षीय योजना कब प्रारम्भ हुई ?
उत्तर:
दसवीं पंचवर्षीय योजना सन् 2002 में प्रारम्भ हुई।

प्रश्न 11
योजना आयोग का नया नाम क्या है? [2016]
उत्तर:
नीति आयोग।

प्रश्न 12
नीति आयोग का अध्यक्ष कौन होता है ?
उत्तर:
नीति आयोग का अध्यक्ष भारत का प्रधानमन्त्री होता है।

प्रश्न 13
नीति आयोग का पूरा नाम क्या है?
उत्तर:
राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान।।

प्रश्न 14
नीति आयोग की स्थापना कब हुई?
उत्तर:
1 जनवरी, 2015 को नीति आयोग की स्थापना हुई।

प्रश्न 15
नीति आयोग की गवर्निग काउन्सिल के सदस्य कौन होते हैं?
उत्तर:
नीति आयोग की गवर्निग काउन्सिल के सदस्यों में राज्यों के मुख्यमन्त्री एवं केन्द्र-शासित प्रदेशों के राज्यपाल शामिल होते हैं।

प्रश्न 16
भारत सरकार द्वारा किए गए दो समाज कल्याण कार्यों को लिखिए। [2016]
उत्तर:
(1) समाज कल्याण संस्थाओं की स्थापना तथा
(2) प्रौढ़ शिक्षा का प्रसार।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
भारत में योजना आयोग की स्थापना किस वर्ष हुई थी? [2009, 13, 14, 15]
या
योजना आयोग की स्थापना कब हुई ?
(क) 1987 ई० में
(ख) 1989 ई० में
(ग) 1995 ई० में
(घ) 1950 ई० में

प्रश्न 2
पहली पंचवर्षीय योजना कब आरम्भ हुई थी?
(क) 1951 ई० में
(ख) 1952 ई० में
(ग) 1953 ई० में
(घ) 1954 ई० में

प्रश्न 3
योजना आयोग के प्रथम अध्यक्ष थे [2011, 14]
(क) इन्दिरा गांधी
(ख) मोतीलाल नेहरू
(ग) राजीव गांधी
(घ) जवाहरलाल नेहरू

प्रश्न 4
12वीं पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल है
(क) 2007-12,
(ख) 2009-14
(ग) 2012-17
(घ) 2017-2022

प्रश्न 5
योजना आयोग को बन्द करने की घोषणा कब की गई?
(क) 15 जुलाई, 2013 को
(ख) 15 अगस्त, 2014 को
(ग) 5 सितम्बर, 2015 को
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 6
योजना आयोग का नया नाम क्या है? [2016]
(क) भारतीय योजना आयोग
(ख) योजना आयोग
(ग) नीति आयोग
(घ) इनमें से कोई नहीं

उत्तर
1. (घ) 1950 ई० में,
2. (क) 1951 ई० में,
3. (घ) जवाहरलाल नेहरू,
4. (ग) 2012-17,
5. (ख) 15 अगस्त, 2014 को,
6. (ग) नीति आयोग।

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 25 Social Forestry

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 25
Chapter Name Social Forestry (सामाजिक वानिकी)
Number of Questions Solved 31
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 25 Social Forestry (सामाजिक वानिकी)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक वानिकी को स्पष्ट कीजिए। [2008, 10, 15]
या
सामाजिक वानिकी का अर्थ बताइए। सामाजिक वानिकी के उद्देश्य और सामाजिक महत्त्व की चर्चा कीजिए। सामाजिक वानिकी क्या है? सामाजिक वानिकी के उद्देश्य बताइए। [2015]
या
सामाजिक वानिकी के महत्त्व पर एक निबन्ध लिखिए। [2008, 09, 11, 13, 15, 16]
या
सामाजिक वानिकी के उद्देश्यों एवं महत्त्व (उपयोगिता) की विवेचना कीजिए। [2007, 09, 13, 16]
या
सामाजिक वानिकी से आप क्या समझते हैं ? वर्तमान समय में इसकी उपयोगिता का वर्णन कीजिए। [2013]
या
सामाजिक वानिकी के उद्देश्य एवं क्षेत्र पर प्रकाश डालिए। [2016]
या
सामाजिक वानिकी क्या है और इससे क्या लाभ हैं? [2016]
या
सामाजिक वानिकी के कार्यक्षेत्र की विवेचना कीजिए। [2007, 10, 13]
या
सामाजिक वानिकी से आप क्या समझते हैं? इसके क्षेत्र की विवेचना कीजिए। [2014]
या
सामाजिक वानिकी से आप क्या समझते हैं? [2015]
सामाजिक वानिकी की परिभाषा दीजिए। सामाजिक वानिकी के रूप एवं विशेषताओं का वर्णन कीजिए। सामाजिक वानिकी कार्यक्रम को सफल बनाने हेतु सुझाव दीजिए।
उत्तर:
सामाजिक वानिकी का अर्थ एवं परिभाषाएँ
सामाजिक वानिकी एक नवीन अवधारणा है, जो सामुदायिक आवश्यकताओं की पूर्ति और लाभ के लिए पेड़ लगाने, उनका विकास करने तथा वनों के संरक्षण पर बल देती है। यह वनों के विकास के लिए जनता के सहयोग पर बल देती है। भारत में 747.2 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को वन-क्षेत्र घोषित किया गया। इसमें से 397.8 लाख हेक्टेयर को आरक्षित और 216.5 लाख हेक्टेयर को सुरक्षित के रूप में वर्गीकृत किया गया है। पहाड़ों में अधिकतम वन-क्षेत्र 60% और मैदानों में 20% हैं। पिछले कुछ वर्षों में वनों के क्षेत्र में होने वाली कमी को देखते हुए सामाजिक वानिकी की अवधारणा को विकसित किया गया है।
विभिन्न विद्वानों ने सामाजिक वानिकी को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है

डॉ० राणा के अनुसार, “समाज के द्वारा, समाज के लिए, समाज की ही भूमि पर, समाज के जीवन-स्तर को सुधारने के सामाजिक उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किये जाने वाले वृक्षारोपण को सामाजिक वानिकी कहते हैं।’
“वनों को लगाने, संरक्षण करने तथा उत्पादन में समाज की भागीदारी सुनिश्चित करने का कार्यक्रम सामाजिक वानिकी है।”
सामाजिक वानिकी समाज की भागीदारी का एक सुनिश्चित कार्यक्रम है। इसके माध्यम से राष्ट्र में वन-क्षेत्रों का विकास कर उन्हें समाज के लिए उपयोगी बनाना है। स्वार्थी मानव ने अपने हित के लिए वृक्षों को अन्धाधुन्ध काटकर भावी पीढ़ी के लिए अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर दीं। देश में वर्तमान आवश्यकताओं को देखते हुए वन-क्षेत्र अत्यन्त कम हैं। सरकार राष्ट्र में वन-क्षेत्रों का विस्तार करने के लिए जिन कार्यक्रमों को संचालित कर रही है उनमें से सामाजिक वानिकी महत्त्वपूर्ण है।

सामाजिक वानिकी के रूप (कार्यक्षेत्र)

सामाजिक वानिकी के निम्नलिखित रूप पाये जाते हैं

1. कृषि वानिकी – कृषि वानिकी के अन्तर्गत ग्रामीण आवासों के भीतर अहातों में वृक्ष लगाना है। ग्रामों में खाली पड़ी सार्वजनिक भूमि पर वृक्षारोपण करना, पवन के वेग पर नियन्त्रण करने के लिए हरित पट्टी तैयार करना तथा पेड़ों की रक्षा-पंक्तियाँ बनाना इस वानिकी के मुख्य लक्ष्य हैं। कृषि वानिकी के माध्यम से कृषकों को ईंधन और सामान्य उपयोग की लकड़ियाँ उपलब्ध होती हैं। कृषि वानिकी कृषि के सहायक के रूप में विकसित की जाती है।

2. प्रसार वानिकी – प्रसार वानिकी के अन्तर्गत नहरों के किनारे, रेलवे-लाइनों के किनारे तथा सड़कों के दोनों छोरों पर स्थित वृक्ष आते हैं। इन क्षेत्रों में वृक्षारोपण करके उनका संरक्षण करना प्रसार वानिकी का लक्ष्य है। प्रसार वानिकी झीलों तथा खेतों की मेड़ों पर वृक्ष लगाने के कार्यक्रम प्रसारित करती है। इसका लक्ष्य ग्रामीण क्षेत्रों में वन-क्षेत्रों का विस्तार करना है।

3. नगर वानिकी – नगरीय वानिकी नगर क्षेत्र में, निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों में वृक्षारोपण से जुड़ी है। इसके अन्तर्गत नगरों में हरित पट्टी व सुरक्षा पट्टी विकसित करके नगरों में होने वाले प्रदूषण पर नियन्त्रण लगा है।

सामाजिक वानिकी की विशेषताएँ
सामाजिक वानिकी की परिभाषा एवं रूपों के विवेचन के आधार पर सामाजिक वानिकी में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं

  1. सामाजिक वानिकी में लाभार्थियों को कार्यक्रम के प्रारम्भिक स्तर पर ही भागीदार बनाया जाती
  2. इस कार्यक्रम के द्वारा भागीदारों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है।
  3. सामाजिक वानिकी में सामुदायिक एवं सार्वजनिक भूमि का उपयोग वृक्षारोपण के लिए कियो जाता है।
  4. सामाजिक वानिकी के अन्तर्गत लकड़ी, चारा, फल, रेशा, ईंधन तथा फर्नीचर की लकड़ी प्राप्त की जाती है।
  5. सामाजिक वानिकी के अन्तर्गत विकसित किये गये वन-क्षेत्रों पर सरकार का नियन्त्रण रहता है।
  6. सामाजिक वानिकी के पोषण हेतु व्यय करने के लिए वित्तीय सहायता पंचायत, सरकारी अंशदान अथवी स्वेच्छा से किये गये योगदान द्वारा उपलब्ध होती है।
  7. रेलवे-लाइनों, सड़कों और नहरों के किनारों पर वृक्ष लगाना इस कार्यक्रम का प्रमुख अंग है।
  8. तालाबों तथा जलाशयों के चारों ओर लताएँ और झुण्डों के रूप में वृक्ष लगाये जाते हैं।
  9. सामुदायिक क्षेत्रों तथा सार्वजनिक भूमि पर वन लगाकर वन-क्षेत्र विकसित किये जाते हैं।
  10. नष्ट हो चुके वनों के स्थान पर नये वृक्ष लगाकर वन-क्षेत्र विकसित किये जाते हैं।
  11. खेतों की मेड़ों पर फसलें उगाने के साथ-साथ वृक्ष भी लगाये जाते हैं।
  12. सामाजिक वानिकी ग्रामीण लोगों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति का माध्यम है।
  13. सामाजिक वानिकी ग्रामीणों की वनों पर निर्भरता में वृद्धि करती है।

सामाजिक वानिकी के उद्देश्य
ग्रामीण क्षेत्रों में वनों का विस्तार करने के लिए सामाजिक वानिकी को क्रियान्वित किया गया। सामाजिक वानिकी के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित रखे गये

  1. ग्रामवासियों में वृक्षों के प्रति लगाव उत्पन्न करना तथा वृक्षारोपण में उनकी सहभागिता सुनिश्चित करना।
  2.  गाँव के लोगों में एक व्यक्ति एक वृक्ष’ का लक्ष्य बनाने पर बल देना।
  3.  ग्रामवासियों तथा जनजातियों को वृक्षों की उपयोगिता से परिचित कराना।
  4.  वनों के विकास के माध्यम से ग्रामीण व्यक्ति की आर्थिक स्थिति में सुधार लाना।
  5.  वनों का वर्गीकरण उनकी उपयोगिता के आधार पर करना।
  6.  वन संरक्षण पर अधिक बल देना।
  7.  ग्रामीण क्षेत्रों में नये वन-क्षेत्रों के विकास पर बल देना।
  8.  सार्वजनिक हित और पर्यावरण संरक्षण के लिए सहयोग जुटाना।
  9.  ग्रामीण क्षेत्रों में लकड़ी की उपलब्धता बढ़ाना।।
  10.  वनों की अन्धाधुन्ध कटाई पर प्रभावी रोक लगाना।
  11. देश के 33% क्षेत्र पर वनों का विस्तार कराना।
  12.  पवन के झकोरों, वर्षा तथा बाढ़ से भू-क्षरण को रोकना।
  13.  ग्रामीण क्षेत्रों में ईंधन की उपलब्धता बढ़ाकर गोबर को खाद के रूप में प्रयुक्त कराना।
  14. स्थानीय जनसंख्या को आँधी, तूफान तथा वर्षा की तीव्रता से सुरक्षित रखना।
  15.  ग्रामीण क्षेत्रों में वनों पर आधारित उद्योग लगाकर रोजगार के अवसर बढ़ाना।
  16. ग्रामीण जनता के वृक्षारोपण कौशल का अधिकतम उपयोग करना।
  17. लाभार्जन के लिए उपयोगी वृक्षों के लगाने पर बल देना।।
  18.  समुदाय के लिए वृक्षारोपण करके वन लगाने के लिए व्यर्थ पड़ी भूमि का सदुपयोग करना।
  19. वन-क्षेत्रों में ग्रामीण जनता की भागीदारी सुनिश्चित करना।
  20.  रेलवे-लाइनों, सड़कों, नहर की पटरियों, नदियों के तटों तथा जलाशयों के चारों ओर वन क्षेत्रों का विकास करना।।
  21.  ग्रामीणों को लकड़ी के साथ-साथ पशुओं के लिए चारा भी उपलब्ध कराना।
  22.  बहु-उद्देशीय नदी-घाटी परियोजनाओं के क्षेत्रों में मिट्टी एवं जल-संरक्षण के प्रभावी उपाय करना।।

सामाजिक वानिकी का महत्त्व

वन राष्ट्र की अमूल्य निधि हैं। सामाजिक वानिकी का उद्देश्य वनों का संरक्षण करके इनमें वृद्धि करना तथा इन्हें समुदाय की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिक उपयोगी बनाना है। सामाजिक वानिकी के महत्त्व को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है

(अ) प्रत्यक्ष लाभ

  1. उपयोगी लकड़ी की प्राप्ति – वनों से फर्नीचर, रेल के डिब्बे, जहाज, माचिस आदि बनाने के लिए उपयोगी लकड़ी प्राप्त होती है।
  2. उद्योगों के लिए कच्चे माल – वनों से कागज, दियासलाई, रेशम, चमड़ा, तेल तथा फर्नीचर आदि उद्योगों के लिए कच्चे माल उपलब्ध होते हैं।
  3. रोजगार – वनों से लाखों लोगों को रोजगार मिलता है तथा ये 7.8 करोड़ लोगों को आजीविका प्रदान करते हैं।
  4.  सरकार को आय – सरकार को वनों से 400 करोड़ का राजस्व प्राप्त होता है।
  5.  पशुओं को चारा – वन चारा देकर पशुओं का पालन-पोषण करते हैं।
  6. विदेशी मुद्रा की प्राप्ति – वनों से प्राप्त उपजों का निर्यात करने से भारत को ₹ 50 करोड़ की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है।
  7. औषधियाँ – वनों से उपयोगी जड़ी-बूटियाँ व औषधियाँ प्राप्त होती हैं।

(ब) अप्रत्यक्ष लाभ।

  1. जलवायु पर नियन्त्रण – वन देश की जलवायु को समशीतोष्ण बनाये रखते हैं तथा भाप भरी हवाओं को आकर्षित कर वर्षा कराने में सहायक होते हैं।
  2. भूमि के कटाव पर रोक – वन वर्षा की गति को मन्द करके भूमि के कटाव को रोकते हैं।
  3. बाढों पर नियन्त्रण – वन वर्षा के जल-प्रवाह की गति को मन्द करते हैं तथा जल को स्पंज की तरह सोखकर बाढ़ों पर नियन्त्रण करते हैं।
  4. मरुस्थल-प्रसार पर रोक – वन मिट्टी के कणों को अपनी जड़ों से बाँधे रहते हैं तथा मरुस्थल के प्रसार को रोकते हैं।
  5. पर्यावरण सन्तुलन – वन कार्बन डाई-ऑक्साइड को ऑक्सीजन में बदलकर वायु-प्रदूषण रोकते हैं तथा पर्यावरण सन्तुलन बनाये रखते हैं।
  6. भूमिगत जल के स्तर में वृद्धि – वन अपनी जड़ों से जल सोखकर भूमिगत जल के स्तर को ऊँचा कर देते हैं।
  7. अन्य लाभ – फल-फूलों की प्राप्ति, आखेट, सौन्दर्य में वृद्धि और भूमि को उर्वरता प्रदान करके वन अन्य लाभ भी प्रदान करते हैं।

(स) आर्थिक लाभ
सामाजिक वानिकी से निम्नलिखित आर्थिक लाभ प्राप्त होते हैं

  1. ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार – सामाजिक वानिकी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार लाने को सर्वोत्तम माध्यम है। यह ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर उत्पन्न करके, ईंधन और चारे की आपूर्ति करके ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धनता की रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले लोगों की दशा सुधारने में महत्त्वपूर्ण योग देती है।
  2. ग्रामीण क्षेत्रों के औद्योगिक विकास में सहायक – सामाजिक वानिकी से प्राप्त लकड़ी, फल तथा अन्य उत्पादों पर अनेक उद्योग-धन्धे विकसित कर ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगिक विकास किया जा रहा है। इनसे कागज, परती लकड़ी, दियासलाई तथा फर्नीचर बनाने के उद्योग संचालित किये जा सकते हैं। औद्योगिक विकास के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में समृद्धि और विकास की लहर दौड़ जाएगी।
  3. प्रदूषण की समस्या का निराकरण – वर्तमान में प्रदूषण एक गम्भीर संकट बनकर उभर रहा है। इसके कारण बीमारियाँ, पर्यावरण की उपयोगिता का ह्रास तथा मानसिक तनावे जैसी समस्याएँ जन्म ले रही हैं। वृक्ष प्रदूषण की समस्या को हल करके प्रदूषण पर नियन्त्रण पाने में सक्षम हैं।
  4. वन-संरक्षण पर बल – सामाजिक वानिकी का लक्ष्य वन-संरक्षण है। यह कार्यक्रम राष्ट्रीय निधि को संरक्षित कर मानव-मात्र की महती सेवा करता है। वनों का संरक्षण करके भावी पीढ़ी को अनेक प्राकृतिक आपदाओं से बचाया जा सकता है। मानवता के संरक्षण के लिए वनों का संरक्षण नितान्त आवश्यक है।

सामाजिक वानिकी को सफल बनाने के लिए सुझाव
सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों को सफल बनाने की नितान्त आवश्यकता है। इनकी सफलता पर ग्रामों का सर्वांगीण विकास तथा राष्ट्र की आर्थिक प्रगति निर्भर है। सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों की सफलता के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं

  1.  सामाजिक वानिकी के लक्ष्य भली प्रकार सोच-समझ कर तय किये जाएँ।
  2. वृक्षारोपण के लक्ष्य निर्धारित करके उनके क्रियान्वयन के उपाय किये जाएँ।
  3.  वन-महोत्सव के लक्ष्य तथा उपयोगिता से जनसामान्य को परिचित कराया जाए, जिससे लोग सामाजिक वानिकी में सक्रिय भाग ले सकें।
  4. इस कार्यक्रम को लागू करने के लिए परिश्रमी, योग्य और निष्ठावान कर्मचारी भेजे जाएँ।
  5.  उत्तम कार्यों के लिए कर्मचारियों को पुरस्कृत किया जाए।
  6. ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि वानिकी के विस्तार पर अधिक ध्यान दिया जाए।
  7. ग्रामीण क्षेत्रों में जल्दी विकसित होने वाले वृक्ष लगाये जाएँ।
  8. सामाजिक वानिकी के अन्तर्गत ऐसे वृक्ष लगाने पर बल दिया जाए, जिनसे ईंधन के साथ फल, फूल तथा चारा भी प्राप्त होता रहे।
  9. वृक्ष काटने के स्थान पर लगाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जाए।
  10.  सड़कों, नहरों तथा रेलवे लाइनों के दोनों ओर वृक्षारोपण किया जाए।
  11. “एक व्यक्ति एक पेड़ के आदर्श को क्रियान्वित कराया जाए।
  12. वृक्षों के संरक्षण पर ध्यान दिया जाए। हरे वृक्षों के कटान को रोकने के लिए कड़े कानून बनाये जाएँ।।
  13. वृक्षों के विनाश को रोकने के लिए कानूनों का दृढ़ता से पालन कराया जाए।
  14. पर्वतीय क्षेत्रों में वृक्ष काटने पर कठोर प्रतिबन्ध लगाये जाएँ।
  15. पशुओं को वनों में चराने पर रोक लगा दी जाए।
  16. सामाजिक वानिकी के कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए कुशल और अनुभवी कार्यकर्ता तैयार किये जाएँ।
  17.  वृक्षों के प्रति जनसामान्य का लगाव पैदा किया जाए।
  18. सरकार द्वारा वृक्षों की पौध का मुफ्त वितरण किया जाए।
  19. ग्रामीण क्षेत्रों में पौधघर विकसित किये जाएँ।
  20. सामाजिक वानिकी कार्यक्रम को युद्ध स्तर पर लागू कराने के लिए इसे राष्ट्रीय कार्यक्रम का रूप दिया जाए।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक वानिकी का महत्त्व बताइए। [2016]
उत्तर:
सामाजिक वानिकी का महत्त्व
सामाजिक वानिकी का महत्त्व निम्नलिखित है

  1. सामाजिक वानिकी द्वारा वनों का विकास एवं संरक्षण किया जाता है, जिससे सरकारी आय में वृद्धि होती है।
  2. वन सम्पदा से कई वस्तुएँ; जैसे – बाँस, कागज, लुग्दी, गत्ता, लकड़ी, तारपीन, वार्निश व रंग, रबड़ के लिए गाढ़ा तरल पदार्थ, कत्था, चन्दन, केवड़ा आदि प्राप्त होती हैं।
  3. सामाजिक वानिकी द्वारा वनों का विकास किया जाता है। इसे ‘पुनर्वनीकरण’ कहा जाता है।वनों से मूल्यवान लकड़ी प्राप्त होती है।
  4.  सामाजिक वानिकी प्रदूषण नियन्त्रण में सहायक है। इससे जलवायु सन्तुलन बना रहता है। वनों का विकास जलवायु पर अनुकूल प्रभाव डालता है।
  5. वनों पर अनेक लघु उद्योग आधारित होते हैं; जैसे-शहद, रेशम, मोम, कत्था, बेंत इत्यादि इस तरह से सामाजिक वानिकी व्यावसायिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है।
  6. वनों में बहने वाले पानी को नियन्त्रित करने की अद्भुत क्षमता होती है।
  7. सीमाओं पर वनों का विकास राष्ट्रीय सुरक्षा में सहायक होता है।
  8. सामाजिक वानिकी का एक अन्य लाभ कृषि उत्पादन में वृद्धि करना है। वृक्षों के वाष्पोत्सर्जन की क्रिया, बादल निर्माण एवं वर्षा कराने में सहायक है।
  9. सामाजिक वानिकी वनों के विकास पर बल देती है, जिससे भूमि कटाव तथा भूस्खलनों पर नियन्त्रण होता है।
  10.  सामाजिक वानिकी मनोरंजन का भी प्रमुख साधन है। नगरीय क्षेत्रों में सामाजिक वानिकी के अन्तर्गत ऐसे मनोहारी पर्यटन स्थलों का विकास किया जाता है, जो अवकाश के समय नगरवासियों को तनाव मुक्त वातावरण प्रदान करते हैं।
  11. सामाजिक वानिकी औद्योगिक विकास में भी सहायक है, क्योंकि अनेक उद्योगों के लिए कच्चा माल वनों से ही उपलब्ध होता है।
  12. वनों पर आधारित उद्योग-धन्धों द्वारा ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार होता है।
  13. सामाजिक वानिकी द्वारा वन उत्पादों एवं कार्यों में रोजगार उत्पन्न होता है।

प्रश्न 2
सामाजिक वानिकी की वनों के रक्षण में क्या भूमिका है ?
उत्तर:
सामाजिक वानिकी के द्वारा वनों का रक्षण किया जाता है। वर्तमान में वन काफी उजाड़े गये हैं और वृक्षों की अत्यधिक कटाई ने वनों से प्राप्त होने वाले लाभों को कम कर दिया है। वर्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, बंजर भूमि एवं रेगिस्तान का विस्तार हुआ है। अत: वनों के संरक्षण की दृष्टि से भी सामाजिक वानिकी महत्त्वपूर्ण है।

सामाजिक वानिकी के कुछ अन्य लाभ इस प्रकार हैं

  1. वनों से ईंधन प्राप्त होता है।
  2. पशुओं के लिए चारा प्राप्त होता है।
  3. वन जलवायु में सन्तुलन बनाये रखते हैं तथा जलवृष्टि में सहायक होते हैं।
  4. पेड़ों की पत्तियाँ सड़कर मिट्टी को छूमस प्रदान करती हैं जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाती है और उपज में वृद्धि करती है।
  5. वन प्राकृतिक छटा में वृद्धि करते हैं।
  6.  वनों से भूमि का जल-स्तर ऊँचा उठ जाता है जिससे कुएँ खोदकर पानी निकालने में सुविधा रहती है तथा सिंचाई की सुविधाओं में वृद्धि होती है।
  7. वनों में कृषि की पूरक वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं।

प्रश्न 3
सामाजिक वानिकी भू-क्षरण एवं बाढ़ नियन्त्रण में कैसे सहायक है ?
उत्तर:
वर्तमान समय में देश के वनों का क्षेत्र कम होता जा रहा है व पेड़ों को निर्दयता से काटा जा रहा है। इसका प्रभाव यह पड़ा है कि मिट्टी का कटाव बढ़ा है और बाढ़ों की संख्या एवं मात्रा में वृद्धि हुई है। सामाजिक वानिकी के अन्तर्गत हवा के बहाव को रोकने के लिए पेड़ों की कतारों का विकास किया जाएगा, नदियों के दोनों ओर पेड़ों के झुण्डों का विकास किया जाएगा और उन क्षेत्रों में पेड़ उगाये जाएँगे जहाँ मिट्टी का कटाव अधिक होता है। इसके परिणामस्वरूप भूमि का कटाव भी रुकेगा और बाढ़ पर नियन्त्रण भी हो सकेगा। वृक्ष आँधी तथा मरुस्थल के विस्तार को भी रोकने में सहायक होंगे। चूंकि वन वायु की गति को रोकते हैं। अत: भयानक आँधी से होने वाली क्षति को भी कम किया जा सकेगा।

प्रश्न 4
सामाजिक वानिकी प्रदूषण पर नियन्त्रण में कैसे प्रभावकारी है ?
उत्तर:
सामाजिक वानिकी प्रदूषण को रोकने की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। पेड़ ऑक्सीजन प्रदान करते हैं, जो जीवों के लिए प्राण वायु है तथा बदले में पर्यावरण की कार्बन डाइऑक्साइड गैस ग्रहण करते हैं। इस प्रकार से पर्यावरण में दोनों प्रकार की गैसों का सन्तुलन बनाये रखते हैं। वे मिलों, फैक्ट्रियों, भट्टियों एवं चूल्हों से निकलने वाले धुएँ तथा मिट्टी के कणों को भी फैलने से रोकते हैं। वृक्ष घनी छाया देते हैं तथा वातावरण की अधिक गर्मी और ठण्ड को भी स्वयं आत्मसात कर तापक्रम में सन्तुलन बनाये रखते हैं। पेड़-पौधे ध्वनि-प्रदूषण को भी रोकने का कार्य करते हैं। पेड़ों पर आश्रय लेने वाले पक्षी कई हानिप्रद कीड़े-मकोड़ों को भी खा जाते हैं जो मानव के लिए। हानिकारक होते हैं। पेड़-पौधे तालाबों, नदियों एवं जलाशयों में उत्पन्न जल-प्रदूषण को भी रोकते हैं तथा जल की स्वच्छता बनाये रखने में सहायक होते हैं। इस प्रकार सामाजिक वानिकी ध्वनि, जल, वायु और जीवों से उत्पन्न प्रदूषण को रोकने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।

प्रश्न 5
सामाजिक वानिकी के आर्थिक लाभ बताइए।
उत्तर:
सामाजिक वानिकी का प्रमुख उद्देश्य ग्रामीण गरीबों की आर्थिक स्थिति को उन्नत करना है। वर्तमान में करीब 26.10 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इन्हें रोजगार के साधन उपलब्ध कराने में सामाजिक वानिकी सहायक सिद्ध होगी। वे पेड़ के पत्तों से बीड़ी एवं पत्तले बनाने, बीजों से तेल निकालने, लकड़ी से फर्नीचर व खिलौने बनाने तथा बाँस से रस्सी, चटाई व टोकरी बनाने का कार्य कर सकते हैं। वनों में ग्रामीणों को ओषधियाँ व फल-फूल प्राप्त होंगे जिन्हें बेचकर वे अपना जीवन-यापन कर सकेंगे। वनों से उन्हें जलाने के लिए ईंधन प्राप्त होगा। यदि ग्रामीण लोग अपने घर के अहाते, खेत एवं गाँव के पास पेड़ लगाएँ और गाँव की परती एवं बंजर भूमि पर पेड़ों के झुरमुट विकसित करें तो बेकार भूमि का तो उपयोग होगा ही, साथ ही उन्हें इससे आर्थिक लाभ भी प्राप्त होंगे। कई ऐसे वृक्ष हैं जो 7 वर्ष की अवधि के बीच तैयार हो जाते हैं और जो प्रतिवर्ष ₹ 200 से 500 तक की आमदनी दे सकते हैं। इस प्रकार वन ग्रामीणों को रोजगार प्रदान करने में सहायक होंगे।

प्रश्न 6
सामाजिक वानिकी के मार्ग में आने वाली बाधाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
यह एक तथ्य है कि सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर किये गये वन-संरक्षण और सामाजिक वानिकी के लिए किये गये विभिन्न प्रयत्नों के बाद भी हमें वांछित सफलता नहीं मिल सकी है। इसके लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं

  1.  भूमि का नितान्त अभाव है। गाँव की बंजर भूमि पर पेड़ लगाना कठिन है, फिर इन पेड़ों को सार्वजनिक होने के कारण या तो पशुओं द्वारा नष्ट कर दिया जाता है या ग्रामीण ही उन्हें काट डालते हैं।
  2. अधिकांश ग्रामीण लोग अपनी भूमि वृक्ष लगाने हेतु सरकार को देने के लिए राजी नहीं होते, वे कोई संकट मोल लेना नहीं चाहते।।
  3.  योजना के संचालन का कार्य अनुभवी और कुशल कर्मचारियों द्वारा नहीं किया जाता और वे भी योजना के प्रति उदासीन होते हैं।
  4. वन एवं वृक्ष लगाने के लिए सरकार द्वारा दिया जाने वाला अनुदान एवं धनराशि भी पर्याप्त नहीं है। इन बाधाओं के बावजूद भी सामाजिक वानिकी के क्षेत्र में प्रगति के प्रयास जारी हैं।
  5. वृक्षारोपण कार्यक्रम का लाभ अधिकतर गाँव के धनी लोगों को ही मिलता है, जिससे कार्यक्रम के प्रति सामान्य लोगों की रुचि समाप्त हो जाती है।

प्रश्न 7
सामाजिक वानिकी का औद्योगिक महत्त्व बताइए।
उत्तर:
वन हमारी औद्योगिक जरूरतों को भी पूरा करते हैं। रेल उद्योग, जहाज-निर्माण उद्योग, कागज, दियासलाई, लकड़ी पर की जाने वाली कारीगरी एवं हस्त शिल्प उद्योग, फर्नीचर उद्योग, गृह-निर्माण, खिलौना उद्योग आदि सभी के लिए लकड़ी और कच्चा माल वनों से ही प्राप्त होता है। रबर, लाख, गोंद, कत्था, बिरोजा एवं तारपीन का तेल भी हमें वनों से ही प्राप्त होते हैं। वनों से प्राप्त होने वाली लुग्दी, घास, छालें, पत्ते, जड़े, तने और मुलायम लकड़ी पर ही देश के कई उद्योग निर्भर हैं। सेल्यूलोज, रेयॉन एवं नायलॉन से बनने वाले कृत्रिम धागे और वस्त्रों के लिए भी कच्चा माल वनों से ही प्राप्त होता है। इस प्रकार वन हमारे औद्योगिक विकास के मार्ग को प्रशस्त कर सकेंगे।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
कृषि वानिकी के अन्तर्गत कौन-से कार्यक्रम आते हैं ?
उत्तर:
कृषि वानिकी (Farm Forestry) के अन्तर्गत निम्नलिखित कार्यक्रम आते हैं

  1.  खेतों की मेंड़ एवं सीमाओं तथा व्यक्तिगत कृषि-भूमि पर पेड़ लगाना।
  2. हवा के तेज बहाव को रोकने के लिए पेड़ों की रक्षा कतारें विकसित करना।
  3. गाँव की खाली पड़ी भूमि पर पेड़ लगाना। कृषि वानिकी के द्वारा ग्रामवासियों को ईंधन और सामान्य उपयोग से सम्बन्धित लकड़ी उपलब्ध करायी जाती है।

प्रश्न 2
प्रसार वानिकी के अन्तर्गत कौन-से कार्यक्रम आते हैं ?
उत्तर:
प्रसार वानिकी (Extension Forestry) के अन्तर्गत निम्नलिखित कार्यक्रम सम्मिलित किये जाते हैं

  1. मिश्रित वानिकी अर्थात् अनुपयोगी भूमि, पंचायत की भूमि एवं गाँव की सामूहिक भूमि पर फलों, चारे, ईंधन आदि के पेड़-पौधे उगाना।
  2. सड़कों, रेलवे लाइनों एवं नहरों के किनारे दोनों ओर शीघ्र उगने वाले पेड़-पौधे लगाना।
  3.  विनष्ट वनों पर पुनः वन लगाना।।

प्रश्न 3
‘सामाजिक वानिकी के कार्य-क्षेत्र की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक वानिकी के कार्य-क्षेत्र में निम्नलिखित प्रयासों को सम्मिलित किया जाता है

  1.  खाली पड़ी भूमि पर समुदाय की दृष्टि से वृक्षारोपण करना।
  2. हवा को रोकने के लिए पेड़ लगाना।
  3. खेतों की सीमाओं तथा मेड़ों पर वृक्षारोपण करना।।
  4. फलों, चारे तथा ईंधन की आपूर्ति के लिए पेड़ लगाना।
  5. मनोरंजन हेतु वनों का विकास करना।
  6. पर्यावरण वानिकी दृष्टि से जल संग्रहण क्षेत्रों में पेड़ लगाना।
  7.  पेड़ों की कतारें लगाना।।

प्रश्न 4
सामाजिक वानिकी के उद्देश्य बताइए। [2009]
उत्तर:
सन् 1973 में राष्ट्रीय आयोग द्वारा सामाजिक वानिकी पर दी गयी अन्तरिम रिपोर्ट में सामाजिक वानिकी के निम्नलिखित उद्देश्य बताये गये हैं

  1. ग्रामीण क्षेत्रों में गोबर के स्थान पर ईंधन हेतु लकड़ी उपलब्ध कराना,
  2. इमारती लकड़ी उपलब्ध कराना,
  3.  पशुओं के लिए चारा उपलब्ध कराना,
  4.  हवा से कृषि-भूमि की रक्षा करना तथा
  5. मनोरंजनात्मक आवश्यकताओं को जुटाना।

प्रश्न 5
सामाजिक वानिकी की चार विशेषताएँ बताइए। [2012, 14]
उत्तर:
सामाजिक वानिकी की चार विशेषताएँ इस प्रकार हैं

  1.  सामुदायिक एवं सार्वजनिक भूमि का उपयोग वृक्षारोपण के लिए करना,
  2. रेलवे-लाइनों, सड़कों और नहरों के किनारों पर वृक्ष लगाना,
  3. तालाबों तथा जलाशयों के चारों ओर लताएँ और झुण्डों के रूप में वृक्ष लगाना तथा
  4. नष्ट हो चुके वनों के स्थान पर नये वृक्ष लगाकर वन-क्षेत्र विकसित करना।

प्रश्न 6
सामाजिक वानिकी के दो प्रमुख लाभों को लिखिए। [2012, 14]
उत्तर:
सामाजिक वानिकी के दो महत्त्वपूर्ण लाभ निम्नलिखित हैं

  1.  आर्थिक लाभ – सामाजिक वानिकी ग्रामीण क्षेत्रों के निर्धन व्यक्तियों को रोजगार के साधन उपलब्ध कराती है। वे पेड़ के पत्तों से बीड़ी एवं पत्तले बनाने, बीजों से तेल निकालने, लकड़ी से फर्नीचर व खिलौने बनाने, बॉस से चटाई व टोकरी बनाने का कार्य कर सकते हैं।
  2. प्रदूषण पर नियन्त्रण – सामाजिक वानिकी प्रदूषण को रोकने की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। पेड़ ऑक्सीजन प्रदान करते हैं जो जीवों के लिए प्राण वायु है तथा बदले में पर्यावरण की कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहण करते हैं। इस प्रकार वे पर्यावरण में दोनों प्रकार की गैसों का सन्तुलन बनाये रखते हैं। वृक्ष मिलों, फैक्ट्रियों, भट्टियों एवं चूल्हों से निकलने वाले धुएँ तथा धूल के कणों को भी फैलने से रोकते हैं।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
भारत में वनों का विस्तार बताइए।
उत्तर:
भारत में वनों का विस्तार 6.37 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर है, जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 19.39 प्रतिशत है।

प्रश्न 2
ब्रिटिश राज्यकाल में वनों को किन-किन भागों में बाँटा गया था ?
उत्तर:
ब्रिटिश राज्यकाल में वनों को तीन भागों में बाँटा गया था। ये तीन भाग हैं-आरक्षित वन, रक्षित वन तथा अवर्गीकृत वन।।

प्रश्न 3
वानिकी का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
वानिकी का अर्थ वनों और उनसे उपलब्ध होने वाली वस्तुओं के वैज्ञानिक प्रबन्ध से है।

प्रश्न 4
सामाजिक वानिकी की अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम कब हुआ? [2011]
या
सामाजिक वानिकी की अवधारणा कब आयी? [2016]
उत्तर:
सामाजिक वानिकी की अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम 1976 ई० में हुआ।

प्रश्न 5
सामाजिक वानिकी से क्या अभिप्राय है ? [2011, 15]
उत्तर:
समाज के द्वारा, समाज के लिए, समाज की ही भूमि पर समाज के स्तर को सुधारने के सामाजिक उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किये जाने वाले वृक्षारोपण को सामाजिक वानिकी कहते हैं।

प्रश्न 6
सामाजिक वानिकी के दो उद्देश्य बताइए। [2013]
उत्तर:
सामाजिक वानिकी के दो उद्देश्य हैं

  1. सामाजिक वानिकी का उद्देश्य ग्रामीण लोगों की गरीबी दूर करना तथा
  2. लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनकी शक्ति एवं प्रयत्नों को गति प्रदान करना है।

प्रश्न 7
सामाजिक वानिकी के अन्तर्गत किन तीन प्रकार के कार्यक्रमों को समन्वित रूप से क्रियान्वित किया जाता है ?
उत्तर:
ये तीन प्रकार के कार्यक्रम हैं – संरक्षण, उत्पादन तथा पर्यावरण।

प्रश्न 8
पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम कब बनाया गया ?
उत्तर:
पर्यावरण अधिनियम 1986 ई० में बनाया गया।

प्रश्न 9
‘प्रियदर्शनी वृक्षमित्र पुरस्कार’ किसको दिया जाता है ?
उत्तर:
1986 ई० से ‘प्रियदर्शनी वृक्षमित्र पुरस्कार’ वन लगाने व परती भूमि के विकास करने वाले व्यक्तियों एवं संगठनों को दिया जाता है।

प्रश्न 10
‘कजरी’ नामक वृक्षारोपण अनुसन्धानशाला कहाँ और क्यों स्थापित की गयी ?
उत्तर:
‘कजरी’ नामक वृक्षारोपण अनुसन्धानशाला जोधपुर (राजस्थान) में मरुभूमि में वृक्षारोपण की समस्याओं एवं उनके निदान हेतु स्थापित की गयी।

प्रश्न 11
चिपको आन्दोलन का नेतृत्व किसने किया था ? [2009]
या
सुन्दरलाल बहुगुणा ने वन संरक्षण हेतु ‘चिपको आन्दोलन चलाया। (सत्य/ असत्य) । [2007]
या
चिपको आन्दोलन किसने शुरु किया था? [2013, 14]
या
‘चिपको आन्दोलन से कौन सम्बन्धित है? [2015]
उत्तर:
‘चिपको आन्दोलन का नेतृत्व टिहरी-गढ़वाल के निवासी सुन्दरलाल बहुगुणा ने किया था।

प्रश्न 12
भारत में सर्वाधिक वन कौन-से प्रदेश में हैं ?
उत्तर:
भारत में सर्वाधिक वन मध्य प्रदेश में हैं।

प्रश्न 13
भारत में राष्ट्रीय वन-नीति कब घोषित की गयी ? [2012]
उत्तर:
भारत में वन-नीति 1952 ई० में घोषित की गयी।

प्रश्न 14
भारत में सामाजिक वानिकी कार्यक्रम का प्रारम्भ किस वर्ष में हुआ ? [2010]
उत्तर:
भारत में सामाजिक वानिकी’ कार्यक्रम का प्रारम्भ सन् 1976 में हुआ।

बहुविकल्पीय प्रज ( 1 अंक)

प्रश्न 1
सन् 1914 में वन अनुसन्धानशाला की स्थापना की गयी थी
(क) देहरादून में
(ख) नैनीताल में
(ग) लखनऊ में
(घ) कानपुर में

प्रश्न 2
सामाजिक वानिकी की अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम किया गया।
(क) सन् 1970 में
(ख) सन 1972 में
(ग) सन् 1974 में
(घ) सन 1976 में

प्रश्न 3
किस वानिकी के अन्तर्गत नहरों के किनारे, रेलवे लाइनों के किनारे तथा सड़कों के दोनों छोरों पर स्थित वृक्ष आते हैं ?
(क) कृषि वानिकी
(ख) प्रसार वानिकी
(ग) नगर वानिकी
(घ) इनमें से कोई नहीं

उत्तर
1. (क) देहरादून में, 2. (घ) सन् 1976 में, 3. (ख) प्रसार वानिकी।

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