UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 16 Environmental Issues

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Chapter Chapter 16
Chapter Name Environmental Issues
Number of Questions Solved 41
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 16 Environmental Issues (पर्यावरण के मुद्दे)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
घरेलू वाहितमल के विभिन्न घटक क्या हैं? वाहितमल के नदी में विसर्जन से होने वाले प्रभावों की चर्चा करें।
उत्तर
घरेलू वाहितमल मुख्य रूप से जैव निम्नीकरणीय कार्बनिक पदार्थ होते हैं जिनका अपघटन आसानी से होता है। इसका परिणाम सुपोषण होता है। घरेलू वाहितमल के विभिन्न घटक निम्नलिखित हैं –

  1. निलंबित ठोस – जैसे- बालू, गाद और चिकनी मिट्टी।
  2. कोलॉइडी पदार्थ – जैसे- मल पदार्थ, जीवाणु, वस्त्र और कागज के रेशे।
  3. विलीन पदार्थ जैसे – पोषक पदार्थ, नाइट्रेट, अमोनिया, फॉस्फेट, सोडियम, कैल्शियम आदि।

वाहितमल के नदी में विसर्जन से होने वाले प्रभाव इस प्रकार हैं –

  1. अभिवाही जलाशय में जैव पदार्थों के जैव निम्नीकरण से जुड़े सूक्ष्मजीव ऑक्सीजन की काफी मात्रा का उपयोग करते हैं। वाहित मल विसर्जन स्थल पर भी अनुप्रवाह जल में घुली ऑक्सीजन की मात्रा में तेजी से गिरावट आती है और इसके कारण मछलियों तथा जलीय जीवों की मृत्युदर में वृद्धि हो जाती है।
  2. जलाशयों में काफी मात्रा में पोषकों की उपस्थिति के कारण प्लवकीय शैवाल की अतिशय वृद्धि होती है, इसे शैवाल प्रस्फुटन कहा जाता है। शैवाल प्रस्फुटन के कारण जल की गुणवत्ता घट जाती है और मछलियाँ मर जाती हैं। कुछ प्रस्फुटनकारी शैवाल मनुष्य और जानवरों के लिए अत्यधिक विषैले होते हैं।
  3. वाटर हायसिंथ पादप जो विश्व के सबसे अधिक समस्या उत्पन्न करने वाले जलीय खरपतवार हैं और जिन्हें बंगाल का आतंक भी कहा जाता है, पादप सुपोषी जलाशयों में काफी वृद्धि करते हैं और इसकी पारितंत्रीय गति को असन्तुलित कर देते हैं।
  4. हमारे घरों के साथ-साथ अस्पतालों के वाहितमल में बहुत से अवांछित रोगजनक सूक्ष्मजीव हो। सकते हैं और उचित उपचार के बिना इनको जल में विसर्जित करने से गम्भीर रोग, जैसे- पेचिश, टाइफाइड, पीलिया, हैजा आदि हो सकते हैं।

प्रश्न 2.
आप अपने घर, विद्यालय या अपने अन्य स्थानों के भ्रमण के दौरान जो अपशिष्ट उत्पन्न करते हैं, उनकी सूची बनाएँ। क्या आप उन्हें आसानी से कम कर सकते हैं? कौन से ऐसे अपशिष्ट हैं जिनको कम करना कठिन या असम्भव होगा?
उत्तर
अपशिष्टों की सूची इस प्रकार है –

  1. कागज, कपड़ा, पॉलीथिन बैग
  2. डिस्पोजेबल क्रॉकरी
  3. ऐलुमिनियम पन्नी, टिन का डिब्बा
  4. शीशा।

अपशिष्ट जिन्हें कम किया जा सकता है –

  1. कागज
  2. कपड़ा।

अपशिष्ट जिन्हें कम नहीं किया जा सकता है –

  1. ऐलुमिनियम पन्नी, टिन का डिब्बा
  2. डिस्पोजेबल क्रॉकरी
  3. पॉलीथिन बैग
  4. शीशा।

प्रश्न 3.
वैश्विक उष्णता में वृद्धि के कारणों और प्रभावों की चर्चा करें। वैश्विक उष्णता वृद्धि को नियन्त्रित करने वाले उपाय क्या हैं?
उत्तर
वैश्विक उष्णता में वृद्धि के कारण – ग्रीनहाउस गैसों के स्तर में वृद्धि के कारण पृथ्वी की। सतह का ताप काफी बढ़ जाता है जिसके कारण विश्वव्यापी उष्णता होती है। गत शताब्दी में पृथ्वी के तापमान में 0.6°C वृद्धि हुई है। इसमें से अधिकतर वृद्धि पिछले तीन दशकों में ही हुई है। एक सुझाव के अनुसार सन् 2100 तक विश्व का तापमान 1.40 – 5.8°C बढ़ सकता है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि तापमान में इस वृद्धि से पर्यावरण में हानिकारक परिवर्तन होते हैं जिसके परिणामस्वरूप विचित्र जलवायु-परिवर्तन होते हैं। इसके फलस्वरूप ध्रुवीय हिम टोपियों और अन्य जगहों, जैसे हिमालय की हिम चोटियों का पिघलना बढ़ जाता है। कई वर्षों बाद इससे समुद्र तल का स्तर बढ़ेगा जो कई समुद्र तटीय क्षेत्रों को जलमग्न कर देगा।
वैश्विक उष्णता के निम्नांकित प्रभाव हो सकते हैं

  1. अन्न उत्पादन कम होगा
  2. भारत में होने वाली मौसमी वर्षा पूर्ण रूप से बन्द हो सकती है
  3. मरुभूमि का क्षेत्र बढ़ सकता है
  4. एक-तिहाई वैश्विक वन समाप्त हो सकते हैं
  5. भीषण आँधी, चक्रवात तथा बाढ़ की संभावना बढ़ जाएगी
  6. 2050 ई० तक एक मिलियन से अधिक पादपों एवं जन्तुओं की जातियाँ समाप्त हो जाएँगी।

वैश्विक उष्णता को निम्नलिखित उपायों द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है –

  1. जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को कम करना
  2. ऊर्जा दक्षता में सुधार करना
  3. वनोन्मूलन को कम करना
  4. मनुष्य की बढ़ती हुई जनसंख्या को कम करना
  5. जानवरों की विलुप्त हो रही प्रजातियों को संरक्षित करना
  6. वनों का विस्तार करना
  7. वृक्षारोपण को बढ़ावा देना।

प्रश्न 4.
कॉलम अ और ब में दिए गए मदों का मिलान करें –
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 16 Environmental Issues img-1
उत्तर
(क) 2
(ख) 1
(ग) 3
(घ) 4.

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पर आलोचनात्मक टिप्पणी लिखें –

  1. सुपोषण (Utrofication)
  2. जैव आवर्धन (Biological Magnification)
  3. भौमजल (भूजल) का अवक्षय और इसकी पुनःपूर्ति के तरीके।

उत्तर
1. सुपोषण (Eutrophication) – अकार्बनिक फॉस्फेट एवं नाइट्रेट के जलाशयों में एकत्र होने की क्रिया को सुपोषण कहते हैं। सुपोषण झील का प्राकृतिक काल-प्रभावन दर्शाता है, यानि झील अधिक उम्र की हो जाती है। यह इसके जल की जैव समृद्धि के कारण होता है। तरुण झील का जल शीतल और स्वच्छ होता है। समय के साथ-साथ इसमें सरिता के जल के साथ पोषक तत्त्व, जैसे-नाइट्रोजन और फॉस्फोरस आते रहते हैं जिसके कारण जलीय जीवों में वृद्धि होती रहती है। जैसे-जैसे झील की उर्वरता बढ़ती है वैसे- वैसे पादप और प्राणी बढ़ने लगते हैं। जीवों की मृत्यु होने पर कार्बनिक अवशेष झील के तल में बैठने लगते हैं। सैकड़ों वर्षों में इसमें जैसे-जैसे सिल्ट एवं जैव मलबे का ढेर लगता है वैसे-वैसे झील उथली और गर्म होती जाती है। उथली झील में कच्छ (marsh) पादप उग आते हैं और मूल झील बेसिन उनसे भर जाता है।

मनुष्य के क्रियाकलापों के कारण सुपोषण की क्रिया में तेजी आती है। इस प्रक्रिया को त्वरित सुपोषण कहते हैं। इस प्रकार झील वास्तव में घुट कर मर जाती है और अन्त में यह भूमि में परिवर्तित हो जाती है।

2. जैव आवर्धन (Biological Magnification) – जैव आवर्धन का तात्पर्य है, क्रमिक पोषण स्तर पर आविषाक्त की सान्द्रता में वृद्धि का होना। इसका कारण है जीव द्वारा संगृहीत आविषालु पदार्थ उपापचयित या उत्सर्जित नहीं हो सकता और इस प्रकार यह अगले उच्चतर पोषण स्तर पर पहुँच जाता है। ये पदार्थ खाद्य श्रृंखला के विभिन्न पोषी स्तरों (trophic levels) के जीवों में धीरे-धीरे संचित होते रहते हैं। खाद्य श्रृंखला में इन्हें सबसे पहले पौधों द्वारा प्राप्त किया जाता है। पौधों से इन पदार्थों को उपभोक्ताओं द्वारा प्राप्त किया जाता है। उद्योगों के अपशिष्ट जल में प्रायः विद्यमान कुछ विषैले पदार्थों में जलीय खाद्य श्रृंखला जैव आवर्धन कर सकते हैं।

यह परिघटना पारा एवं D.D.T. के लिए सुविदित है। क्रमिक पोषण स्तरों पर D.D.T: की सान्द्रता बढ़ जाती है। यदि जल में यह सान्द्रता 0.003 ppb से आरम्भ होती है तो अन्त में जैव आवर्धन के द्वारा मत्स्यभक्षी पक्षियों में बढ़कर 25 ppm हो जाती है। पक्षियों में D.D.T. की उच्च सान्द्रता कैल्शियम उपापचय को नुकसान पहुँचाती है जिसके कारण अंडकवच पतला हो जाता है और यह समय से पहले फट जाता है जिसके कारण। पक्षी-समष्टि की संख्या में कमी हो जाती है।

3. भौमजल का अवक्षय और इसकी पुनः पूर्ति के तरीके (Ground- water Depletion and Ways for its Replenishment) – भूमिगत जल पीने के लिए अधिक शुद्ध एवं सुरक्षित है। औद्योगिक शहरों में भूमिगत जल प्रदूषित होता जा रहा है। अपशिष्ट तथा औद्योगिक अपशिष्ट बहाव जमीन पर बहता रहता है जोकि भूमिगत जल प्रदूषण के साधारण स्रोत हैं। उर्वरक तथा पीड़कनाशी, जिनका उपयोग खेतों में किया जाता है, भी प्रदूषक का कार्य करते हैं। ये वर्षा-जल के साथ निकट के जलाशयों में एवं अन्तत: भौमजल में मिल जाते हैं। अस्वीकृत कूड़े के ढेर, सेप्टिक टंकी एवं सीवेज गड्ढे से सीवेज के रिसने के कारण भी भूमिगत जल प्रदूषित होता है।

वाहितमल जले एवं औद्योगिक अपशिष्टों को जलाशयों में छोड़ने से पहले उपचारित करना चाहिए जिससे भूमिगत जल प्रदूषित होने से बच सकता है।

प्रश्न 6.
अण्टार्कटिका के ऊपर ओजोन छिद्र क्यों बनते हैं? पराबैंगनी विकिरण के बढ़ने से हमारे ऊपर किस प्रकार प्रभाव पड़ेंगे?
उत्तर
हालाँकि ओजोन अवक्षय व्यापक रूप से होता है, लेकिन इसका असर अण्टार्कटिक क्षेत्र में खासकर देखा गया है। यहाँ जगह-जगह पर ओजोन परत में इतनी कमी पड़ जाती है कि छिद्र को आभास होने लगता है और इसे ओजोन छिद्र (Ozone hole) की संज्ञा दी जाती है। कुछ सुगन्धियाँ, झागदार शेविंग क्रीम, कीटनाशी, गन्धहारक आदि डिब्बों में आते हैं और फुहारा या झाग के रूप में निकलते हैं। इन्हें ऐरोसोल कहते हैं। इनके उपयोग से वाष्पशील CFC वायुमण्डल में पहुँचकर ओजोन स्तर को नष्ट करते हैं। CFC का व्यापक उपयोग एयरकण्डीशनरों, रेफ्रिजरेटरों, शीतलकों, जेट इंजनों, अग्निशामक उपकरणों, गद्देदार फोम आदि में होता है। ज्वालामुखी, रासायनिक उर्वरक, नाइट्रोजन के ऑक्साइड, सवाना तथा अन्य वन-वृक्षों के जलने से ओजोन की परत को क्षति होती है। फ्रिऑन सबसे अधिक घातक क्लोरोफ्लोरोकार्बन है जो ओजोन से प्रतिक्रिया कर उसका अवक्षय करता है।

पराबैंगनी- बी की अपेक्षा छोटे तरंगदैर्ध्य युक्त पराबैंगनी विकिरण पृथ्वी के वायुमण्डल द्वारा लगभग पूरा का पूरा अवशोषित हो जाता है। बशर्ते कि ओजोन स्तर ज्यों-का-त्यों रहे लेकिन पराबैंगनी-बी DNA को क्षतिग्रस्त करता है और उत्परिवर्तन को बढ़ाता है। इसके कारण त्वचा में बुढ़ापे के लक्षण दिखते हैं। इससे विविध प्रकार के त्वचा कैंसर हो सकते हैं। इससे हमारी आँखों में कॉर्निया का शोथ हो । जाता है जिसे हिम अंधता, मोतियाबिंद आदि कहा जाता है।

प्रश्न 7.
वनों के संरक्षण और सुरक्षा में महिलाओं और समुदायों की भूमिका की चर्चा करें।
उत्तर
भारत में वन संरक्षण का एक लम्बा इतिहास है। जोधपुर (राजस्थान) के राजा ने 1731 ई० में अपने महल के निर्माण के लिए वृक्षों को काटने का आदेश दिया था। जिस वन क्षेत्र के वृक्षों को काटना था उसके आस-पास कुछ बिश्नोई परिवार रहते थे। इस परिवार की अमृता नामक महिला ने राजा के आदेश का विरोध किया एवं वृक्ष से चिपककर खड़ी हो गई। उसका कहना था कि वृक्ष हमारी जान है। उसके बिना हमारा जिंदा रहना असम्भव है। इसे काटने के लिए पहले आपको हमें काटना होगा। राजा के लोगों ने पेड़ के साथ-साथ महिला एवं उसके बाद उसकी तीन बेटियों तथा बिश्नोई परिवार के सैकड़ों लोगों को वृक्ष के साथ कटवा दिया। भारत सरकार ने इस साहसी महिला, जिसने पर्यावरण की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी, के सम्मान में अमृता देवी बिश्नोई वन्यजीव संरक्षण पुरस्कार देना हाल में शुरू किया है।

चिपको आन्दोलन के प्रवर्तक डॉ० सुन्दरलाल बहुगुणा के नाम से ही वन-संरक्षण की संवेदना होने लगती है। 1974 ई० में हिमालय के गढ़वाल में जब ठेकेदारों द्वारा वृक्षों को काटने की प्रक्रिया आरम्भ हुई तो इससे बचाने के लिए स्थानीय महिलाओं ने अदम्य साहस का परिचय दिया। वे वृक्षों से चिपकी रहीं एवं वृक्षों को काटे जाने से रोकने में सफल रहीं। इसी प्रयास ने आन्दोलन का रूप ले लिया एवं ‘चिपको आन्दोलन’ के रूप में विश्वविख्यात हुआ।

प्रश्न 8.
पर्यावरणीय प्रदूषण को रोकने के लिए एक व्यक्ति के रूप में आप क्या उपाय करेंगे?
उत्तर
पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के लिए हम एक व्यक्ति के रूप में निम्नलिखित उपाय करेंगे –

  1. सीसारहित एवं सल्फररहित पेट्रोल के उपयोग के साथ-साथ इंजन से कम-से-कम धुआँ उत्सर्जित हो, इस पर ध्यान रखेंगे।
  2. बिजली या बैटरी से चालित वाहनों के प्रयोग पर बल देंगे।
  3. उद्योगों की चिमनी हवा में काफी ऊपर हो एवं इसमें फिल्टर लगा होना चाहिए, इस सन्दर्भ में लोगों के माध्यम से प्रयास करेंगे।
  4. उद्योगों एवं परिष्करणशालाओं को आबादी से दूर स्थापित करवाने का प्रयास करेंगे।
  5. वनरोपण के प्रति लोगों को जागरूक एवं प्रोत्साहित करेंगे।
  6. प्रदूषण से होने वाली बीमारियों तथा हानिकारक प्रभावों के बारे में आम लोगों को जानकारी देंगे।
  7. जीवाश्म ईंधनों का प्रयोग कम-से-कम करेंगे।
  8. जनसंख्या वृद्धि से होने वाले दुष्प्रभावों के बारे में लोगों को बताएँगे।
  9. धूम्रपान से होने वाली हानियों के बारे में लोगों को सलाह देंगे।
  10. मोटर वाहन चलाते समय हॉर्न का प्रयोग कम-से-कम हो, इस बात का ध्यान रखेंगे।
  11. रेडियो, टी०वी०, म्यूजिक सिस्टम आदि का प्रयोग करते समय इस बात का ध्यान रखेंगे कि आवाज बहुत धीमी हो।

प्रश्न 9.
निम्नलिखित के बारे में संक्षेप में चर्चा करें –
(क) रेडियो सक्रिय अपशिष्ट
(ख) पुराने बेकार जहाज और ई- अपशिष्ट
(ग) नगरपालिका के ठोस अपशिष्ट
उत्तर
(क) रेडियो सक्रिय अपशिष्ट (Radioactive Wastes) – न्यूक्लियर रिएक्टर से निकलने वाला विकिरण जीवों के लिए बेहद नुकसानदेह होता है क्योंकि इसके कारण अति उच्च दर से विकिरण उत्परिवर्तन होते हैं। न्यूक्लियर अपशिष्ट विकिरण की ज्यादा मात्रा घातक यानि जानलेवा होती है लेकिन कम मात्रा कई विकार उत्पन्न करती है। इसका सबसे अधिक बार-बार होने वाला विकार कैंसर है। इसलिए न्यूक्लियर अपशिष्ट अत्यन्त प्रभावकारी प्रदूषक है।

रेडियो सक्रिय अपशिष्ट का भण्डारण कवचित पात्रों में चट्टानों के नीचे लगभग 500 मीटर की गहराई में पृथ्वी में गाड़कर करना चाहिए। नाभिकीय संयन्त्रों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों जिनमें विकिरण कम हो उसे सीवरेज में छोड़ा जा सकता है। अधिक विकिरण वाले अपशिष्टों का विशेष उपचार, संचय एवं निपटारा किया जाता है।

(ख) पुराने बेकार जहाज और ई-अपशिष्ट (Defunct Ships and E-Wastes) – पुराने बेकार जहाज एक प्रकार के ठोस अपशिष्ट हैं जिनका उचित निपटारा आवश्यक है। विकासशील देशों में इसे तोड़कर धातु को अलग किया जाता है। इसमें सीसा, मरकरी (पारा), ऐस्बेस्टस, टिन आदि पाए जाते हैं जो हानिकारक होते हैं।

ऐसे कम्प्यूटर और इलेक्ट्रॉनिक सामान जो मरम्मत के लायक नहीं रह जाते हैं इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट (E-wastes) कहलाते हैं। ई-अपशिष्ट को लैंडफिल्स में गाड़ दिया जाता है या जलाकर भस्म कर दिया जाता है। विकसित देशों में उत्पादित ई-अपशिष्ट का आधे से अधिक भाग विकासशील देशों, खासकर चीन, भारत तथा पाकिस्तान में निर्यात किया जाता है जिससे विकासशील देशों में इसकी समस्या बहुत बढ़ जाती है। इसमें मौजूद वैसे तत्त्व या धातु जिनका पुन:चक्रण किया जा सकता हो, जैसे-लोहा, निकेल, ताँबा आदि का पुन:चक्रण कर पुनः उपयोग किया जाना चाहिए। इस प्रक्रिया में विकसित देशों की तरह वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करना चाहिए ताकि, इससे जुड़े कर्मियों पर इनका हानिकारक प्रभाव कम-से-कम हो।

(ग) नगरपालिका के ठोस अपशिष्ट (Municipal Solid Wastes) – इसके अन्तर्गत घरों, कार्यालयों, भण्डारों, विद्यालयों आदि में रद्दी में फेंकी गई चीजें आती हैं जो नगरपालिका द्वारा इकट्ठी की जाती हैं और उनका निपटारा किया जाता है। इसमें आमतौर पर कागज, खाद्य अपशिष्ट, कॉच, धातु, रबर, चमड़ा, वस्त्र आदि होते हैं। इनको जलाने से अपशिष्ट के आयतन में कमी आती है। खुले में इसे फेंकने से यह चूहों और मक्खियों के लिए प्रजनन स्थल का कार्य करता है। इसका निपटारा सैनिटरी लैंडफिल्स के माध्यम से भी किया जाता है। इन लैंडफिल्स से रसायनों के रिसाव का खतरा है जिससे कि भौम जल संसाधन प्रदूषित हो जाते हैं। खासकर महानगरों में कचरा इतना अधिक होने लगता है कि ये स्थल भी भर जाते हैं। इन सब का मात्र एक हल है कि पर्यावरणीय मुद्दों के प्रति हम सभी को अधिक संवेदनशील होना चाहिए।

प्रश्न 10.
दिल्ली में वाहनों से होने वाले वायु प्रदूषण को कम करने के लिए क्या प्रयास किए गए? क्या दिल्ली में वायु की गुणवत्ता में सुधार हुआ?
उत्तर
वाहनों की संख्या काफी अधिक होने के कारण दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर देश में सबसे अधिक है। दिल्ली में वाहनों से होने वाले वायु प्रदूषण को कम करने के लिए निम्नलिखित प्रयास किए गए हैं –

  1. सभी सरकारी वाहनों यानि बसों में डीजल के स्थान पर सम्पीड़ित प्राकृतिक गैस (सी०एन०जी) का प्रयोग किया जाए।
  2. वर्ष 2002 के अन्त तक दिल्ली की सभी बसों को सी०एन०जी० में परिवर्तित कर दिया जाए।
  3. पुरानी गाड़ियों की धीरे-धीरे हटा लिया जाए।
  4. सीसा रहित पेट्रोल या डीजल का प्रयोग किया जाए।
  5. कम गंधक (सल्फर) युक्त पेट्रोल या डीजल का प्रयोग किया जाए।
  6. वाहनों में उत्प्रेरक परिवर्तकों का प्रयोग किया जाए।
  7. वाहनों के लिए यूरो- II मानक अनिवार्य कर दिया जाए।

दिल्ली में किए गए इन प्रयासों के कारण वायु की गुणवत्ता में काफी सुधार हुआ है। एक आकलन के अनुसार सन् 1997 – 2005 ई० तक दिल्ली में CO और SO2 के स्तर में काफी गिरावट आई है।

प्रश्न 11.
निम्नलिखित के बारे में संक्षेप में चर्चा करें –
(क) ग्रीनहाउस गैस
(ख) उत्प्रेरक परिवर्तक
(ग) पराबैंगनी-बी।
उत्तर
(क) ग्रीनहाउस गैसें (Green House Gases) – कार्बन-डाई-ऑक्साइड, मीथेन, जलवाष्प, नाइट्रसऑक्साइड तथा क्लोरोफ्लोरो कार्बन को ग्रीनहाउस गैस कहा जाता है।

ग्रीनहाउस गैसों के स्तर में वृद्धि के कारण पृथ्वी की सतह का ताप काफी बढ़ जाता है जिसके कारण विश्वव्यापी उष्णता होती है। इन गैसों के कारण ही ग्रीनहाउस प्रभाव पड़ते हैं। ग्रीनहाउस प्रभाव प्राकृतिक रूप से होने वाली परिघटना है जिसके कारण पृथ्वी की सतह और वायुमण्डल गर्म हो जाता है। पृथ्वी का तापमान सीमा से अधिक बढ़ने पर ध्रुवीय हिमटोप के पिघलने से समुद्र का स्तर बढ़ने तथा बाढ़ आने की सम्भावना बढ़ जाती है। आने वाली शताब्दी में पृथ्वी का तापमान 0.6°C तक बढ़ जाएगा। औद्योगिक विकास, जनसंख्या वृद्धि एवं वृक्षों की निरन्तर हो रही कमी से वायुमण्डल में CO2 की मात्रा 0.03% से बढ़कर 0.04% हो गई है। अगर यही क्रम जारी रहा तो बहुत सारे द्वीप एवं समुद्री तटों पर बसे शहर समुद्र में समा जाएँगे।

(ख) उत्प्रेरक परिवर्तक (Catalytic Converter) – इसमें कीमती धातु, प्लेटिनम-पैलेडियम और रोडियम लगे होते हैं जो उत्प्रेरक का कार्य करते हैं। ये परिवर्तक स्वचालित वाहनों में लगे होते हैं जो विषैली गैसों के उत्सर्जन को कम करते हैं। जैसे ही निर्वात उत्प्रेरक परिवर्तक से होकर गुजरता है अग्ध हाइड्रोकार्बन डाइऑक्साइड और जल में बदल जाता है तथा कार्बन मोनोऑक्साइड एवं नाइट्रिक ऑक्साइड क्रमशः कार्बन डाइऑक्साइड एवं नाइट्रोजन गैस में परिवर्तित हो जाता है। उत्प्रेरक परिवर्तक युक्त मोटर वाहनों में सीसा रहित पेट्रोल का उपयोग करना चाहिए क्योंकि सीसा युक्त पेट्रोल उत्प्रेरक को अक्रिय कर देता है।

(ग) पराबैंगनी-बी (Ultraviolet-B) – यह DNA को क्षतिग्रस्त करता और उत्परिवर्तन को बढ़ाता है। इससे कोशिकाएँ क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और विविध प्रकार के त्वचा कैंसर उत्पन्न होते हैं। हमारे आँख का स्वच्छमंडल (कॉर्निया) UV- बी विकिरण का अवशोषण करता है। इसकी उच्च मात्रा के कारण कॉर्निया का शोथ हो जाता है, जिसे हिम अंधता, मोतियाबिन्द आदि कहा जाता है। इस प्रकार पराबैंगनी किरणें सजीवों के लिए बेहद हानिकारक हैं।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन-सा प्राथमिक प्रदूषक है? (2015)
(क) SO2
(ख) CO
(ग) NO2
(घ) ये सभी
उत्तर
(घ) ये सभी

प्रश्न 2.
भोपाल गैस त्रासदी किस गैस से हुई थी? (2017)
(क) मेथिल आइसोसायनेट
(ख) एथिल आइसोसायनेट
(ग) मेथेन
(घ) SOx एवं NOx
उत्तर
(क) मेथिल आइसोसायनेट

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सी वायु प्रदूषक गैस है और अम्लीय वर्षा बनाती है? (2011, 12, 14)
(क) सल्फर डाइऑक्साइड
(ख) ऑक्सीजन
(ग) नाइट्रोजन
(घ) हाइड्रोजन
उत्तर
(क) सल्फर डाइऑक्साइड

प्रश्न 4.
ताजमहल को किसके प्रभाव से खतरा बना हुआ है? (2017)
(क) क्लोरीन
(ख) SO2
(ग) ऑक्सीजन
(घ) हाइड्रोजन
उत्तर
(ख) SO2

प्रश्न 5.
यदि किसी जलकाय में लगातार प्रदूषक पदार्थ गिरेंगे तो उसका – (2017)
(क) BOD बढ़ जायेगा
(ख) BOD घट जायेगा
(ग) सभी पौधे मृत हो जायेंगे।
(घ) जन्तु मर जायेंगे परन्तु पौधे जीवित रहेंगे
उत्तर
(क) BOD बढ़ जायेगा।

प्रश्न 6.
यदि वातावरण में CO2 की सान्द्रता लगातार बढ़ती है, तो इसका वातावरण में क्या प्रभाव होगा? (2017)
(क) ओजोन अपक्षरण
(ख) ग्रीनहाउस प्रभाव
(ग) प्रकाश श्वसन का बढ़ना
(घ) घुटन होना
उत्तर
(ख) ग्रीनहाउस प्रभाव

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रदूषण की परिभाषा लिखिए। (2015)
उत्तर
यह जल, वायु तथा थल में होने वाला वह भौतिक तथा रासायनिक परिवर्तन है जिसके कारण इन स्थानों पर उपस्थित जीवों के जीवन में हानिकारक परिवर्तन आने लगते हैं और इन जीवों का जीवन संकट में आ जाता है।

प्रश्न 2.
प्रदूषक से आप क्या समझते हैं। पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले मुख्य प्रदूषकों के नाम लिखिए। (2017)
उत्तर
प्रदूषक – पर्यावरण प्रदूषण उत्पन्न करने वाले पदार्थों को प्रदूषक कहते हैं। पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले मुख्य प्रदूषक ईंधन का जलना, यातायात, रासायनिक क्रियायें, धातु कर्म आदि हैं।

प्रश्न 3.
द्वितीयक वायु प्रदूषक किसे कहते हैं? (2017)
उत्तर
कुछ प्रदूषक वातावरण में आने पर अन्य पदार्थों से क्रिया करके द्वितीयक प्रदूषकों के रूप में अनेक प्रकार के विषैले पदार्थ बना लेते हैं जो स्वास्थ्य पर गम्भीर तथा हानिकारक प्रभाव डालते हैं। जैसे स्मॉग, PAN, ओजोन, ऐल्डिहाइड आदि।

प्रश्न 4.
प्रदूषण उत्पन्न करने में कीटाणुनाशक पदार्थों की भूमिका का वर्णन कीजिए। (2009)
उत्तर
विभिन्न प्रकार के कीटाणुनाशक तथा पीड़कनाशक रसायन मृदा के सूक्ष्मजीवों को नष्ट कर देते हैं। इससे विभिन्न पदार्थों का अपघटन रुक जाता है और मृदा की उर्वरता प्रभावित होती है। ये पदार्थ खाद्य श्रृंखला के माध्यम से मनुष्य में पहुँच कर उन्हें भी हानि पहुँचाते हैं।

प्रश्न 5.
जीवाश्म ईंधन के जलने से जो सामान्य वायु प्रदूषक गैसें उत्पादित होती हैं, उनके नाम बताइए। (2009, 10)
या
किन्हीं दो वायु प्रदूषक गैसों के नाम बताइए। (2010, 14, 16)
उत्तर
SO2, SO3, NO2, CO2 तथा अदग्ध हाइड्रोकार्बन्स।

प्रश्न 6.
स्वचालित वाहनों से शहरी वायुमण्डल क्यों प्रदूषित हो जाता है? (2013)
उत्तर
स्वचालित वाहनों में जीवाश्म ईंधन के दहन के फलस्वरूप हानिकारक गैसें; जैसे- CO2, CO, SO2, NO2, आदि उत्सर्जित होती हैं जिससे वायुमण्डल प्रदूषित हो जाता है।

प्रश्न 7.
स्वचालित वाहन निर्वातक के अतिविषालु धातु प्रदूषक का नाम बताइए। (2010)
उत्तर
स्वचालित वाहन निर्वातक में प्राय: सीसा (Pb = lead) धातु अतिविषालु प्रदूषक होता है।

प्रश्न 8.
अम्ल वर्षा के लिए उत्तरदायी दो मुख्य अम्लों के नाम लिखिए। (2015, 17)
उत्तर

  1. सल्फ्यूरिक अम्ल (H2SO4) तथा
  2. नाइट्रिक अम्ल (HNO3)।

प्रश्न 9.
ग्रीन हाउस गैसों के चार प्रमुख स्रोतों के नाम लिखिए। (2017)
उत्तर

  1. CO2 – औद्योगीकरण से
  2. मेथेन – खदानों, तेल शोधन कारखानों एवं धान के खेतों से।
  3. CFCs – रेफ्रिजरेटर एवं एयर-कण्डिशनर निर्माण में प्रयुक्त होने वाली गैस से।
  4. नाइट्रस ऑक्साइड – नाइट्रोजनी खादों के प्रयोग से।

प्रश्न 10.
वायुमण्डल के किस भाग में सामान्यतः ओजोन पाया जाता है? (2013)
उत्तर
ओजोन वायुमण्डल के समतापमण्डल भाग में पाया जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भोपाल गैस त्रासदी पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2016)
उत्तर
भोपाल गैस त्रासदी (Bhopal Gas Tragedy) – 3 दिसम्बर, 1984 की मध्यरात्रि में भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड कम्पनी के कारखाने के एक संयन्त्र से दुर्घटनावश निकली गैसों के कारण अनेक लोगों की सोते हुए अकारण ही मृत्यु हो गयी तथा बहुत से लोग कई अन्य असाध्य बीमारियों के शिकार हो गये। यह घटना ‘भोपाल गैस त्रासदी’ (Bhopal gas tragedy) के नाम से जानी जाती है। इस कारखाने में मिथाइल आइसो सायनेट (M.I.C.) जैसी विषैली गैस (जिसका उपयोग सीवान नामक कीटनाशक उत्पाद बनाने में किया जाता था) के रिसाव से लगभग 2 हजार व्यक्तियों की जाने गईं तथा हजारों लोग आँख और श्वास के गम्भीर रोगों के शिकार हुए। यह भी अनुमान है कि इस संयन्त्र से निकली गैसों में M.I.C. के साथ एक और बहुत ही विषैली गैस ‘फॉस्जीन’ (phosgene) भी थी।

प्रश्न 2.
अम्लीय वर्षा पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2012, 13, 14, 16, 17, 18)
उत्तर
अम्लीय वर्षा
प्राकृतिक ईंधनों के जलने से, अनेक पदार्थों के ऑक्साइड विशेषकर गन्धक, नाइट्रोजन आदि के जल वाष्प के साथ मिलकर अम्ल बना लेते हैं; जैसे

  1. SO2 से SO3 तथा H2SO4, इसी प्रकार
  2. नाइट्रोजन के ऑक्साइड (NO2) से HNO3 आदि बन जाते हैं।

जब ये अम्ल अधिक आर्द्रता में जल के साथ वर्षा के रूप में गिरते हैं, इसे अम्लीय वर्षा (acid rain) कहते हैं।

अम्लीय वर्षा से हानियाँ – अम्लीय वर्षा से जल तथा मृदा की अम्लीयता (acidity) बढ़ती है अतः मृदा की उर्वरता (fertility) कम हो जाती है। साथ ही पेड़-पौधों की पत्तियों को हानि पहुँचती है। जिससे प्रकाश संश्लेषण की गति मन्द पड़ जाती है। इस प्रकार अम्लीय वर्षा विभिन्न प्रकार से हमारी सम्पत्ति को नष्ट करती है। उदाहरण के लिए यह-इमारतों, रेल-पटरियों, स्मारकों, ऐतिहासिक इमारतों, विभिन्न पदार्थों से बनी मूर्तियों तथा अन्य सामान को नष्ट करने वाली होती है।

प्रश्न 3.
जैव रासायनिक ऑक्सीजन माँग पर टिप्पणी लिखिए। (2014, 15, 16, 17)
उत्तर
जैव- रासायनिक ऑक्सीजन माँग (Biochemical Oxygen Demand = BOD) जल में कार्बनिक अपशिष्ट पदार्थों की अधिकता से उनके विघटन की दर व ऑक्सीजन की खपत बढ़ जाती है, जिससे जल में घुलित ऑक्सीजन (dissolve Oxygen =DO) की मात्रा कम हो जाती है। ऑक्सीजन की आवश्यकता का सीधा सम्बन्ध जल में कार्बनिक पदार्थों की बढ़ती मात्रा से है। इसे जैव-रासायनिक ऑक्सीजन माँग (BiochemicalOxygen Demand =BOD) के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। BOD, ऑक्सीजन की उस मात्रा का मापन है जो जल के एक नमूने में वायवीय जैविक अपघटकों (aerobic decomposers) द्वारा जैव क्षयकारी (biodegradable) कार्बनिक पदार्थों के अपघटन के लिए आवश्यक है। घर की गन्दी नाली से निकले गन्दे जल की BOD value 200 – 400 ppm ऑक्सीजन (एक लीटर गन्दे जल के लिये) होती है। औद्योगिक संस्थानों से निकले कचरे के कारण BOD का मान 2500 ppm तक हो जाता है। पीने के स्वच्छ जल की BOD 1 ppm से कम होनी चाहिये।

प्रश्न 4.
रेडियोऐक्टिव अपशिष्ट प्रबन्धन पर टिप्पणी लिखिए। (2014)
उत्तर
रेडियोऐक्टिव अपशिष्टों को नष्ट करने के लिए सबसे सरल एवं उचित उपाय यह है कि इन अपशिष्टों को भूमि में लगभग 500 मीटर या और अधिक गहराई में गाड़ दिया जाये परन्तु यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वह स्थान जहाँ पर अपशिष्ट को गाड़ा जा रहा हो मानव आबादी से बहुत दूर हो।
परमाणु परीक्षण को तत्काल प्रभाव से रोका जाना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो ये परीक्षण भूमि के नीचे गहराई में किये जाने चाहिए।

प्रश्न 5.
ग्रीन हाउस प्रभाव पर टिप्पणी लिखिए। (2010, 11, 12, 13, 14, 16, 18)
उत्तर
वायु प्रदूषण का पृथ्वी के तापक्रम पर प्रभाव
ग्रीन हाउस प्रभाव वायुमण्डल के सामान्य संगठन तथा पर्यावरण के सामान्य अवस्था में होने पर सूर्य की किरणों से गर्म होने वाली पृथ्वी अधिकतर ऊष्मा को वापस लौटा देती है जो बाह्य वायुमण्डल (exosphere) व अन्तरिक्ष में वापस विसरित हो जाती है। इस प्रकार पृथ्वी का जीवमण्डल क्षेत्र ऊष्मा से बचा रहता है। किन्तु पिछले कुछ दशकों से पर्यावरण में कुछ गैसों; विशेषकर कार्बन डाइऑक्साइड आदि की मात्रा बढ़ने से पृथ्वी पर तापमान बढ़ने लगा है।

पृथ्वी पर कार्बन डाइऑक्साइड की अधिकता से बनी हुई परत ग्रीन हाउस के शीशे की परत के समान कार्य करती है अर्थात् यह सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी तक पहुँचने देने के लिए तो पारदर्शक (transparent) होती है परन्तु पृथ्वी से गर्म वायु जब ऊपर उठती है तो यह उसके लिए अपारदर्शक (opaque) दीवार का काम करती है, फलस्वरूप पृथ्वी का तापक्रम बढ़ जाता है। कार्बन डाइऑक्साइड का यही प्रभाव ग्रीन हाउस प्रभाव (green house effect) कहलाता है। अन्य गैसें; जैसे- क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स (CFCs), नाइट्रोजन के ऑक्साइड; जैसे- (NO2), सल्फर डाइऑक्साइड (SO2), अमोनिया (NH3), मेथेन (CH4) आदि भी इसी प्रकार का प्रभाव उत्पन्न करने में सहायक होती हैं।

ग्रीन हाउस प्रभाव के प्रभाव
ग्रीन हाउस प्रभाव त्वचा (skin) तथा फेफड़ों (lungs) के रोगों में वृद्धि करने में सहायक है। इसके अन्य भयंकर प्रभावों में ताप के कारण पर्वतीय चोटियों तथा धुवों (poles) पर बर्फ के पिघलने से समुद्र तल में वृद्धि, तटीय भूमि (coastal land) तथा नगरों आदि के पानी में डूबने की सम्भावना में अत्यधिक वृद्धि होती जाती है।

ग्रीन हाउस प्रभाव से पृथ्वी का ताप बढ़ने अर्थात् भूमण्डलीय ऊष्मायन (global warming) के अतिरिक्त पर्यावरण विभिन्न प्रकार से प्रभावित होता है। इससे पौधों में वाष्पोत्सर्जन में वृद्धि, वर्षा (rainfall) में वृद्धि, किन्तु मृदा नमी (soil moisture) का ह्रास होता है।

प्रश्न 6.
‘पृथ्वी ऊष्मायन पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए। (2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15)
या
वैश्विक तापन अथवा भूमण्डलीय ऊष्मायन के कारण और उसे कम करने के उपाय बताइए। (2015, 17)
उत्तर
पृथ्वी ऊष्मायन या भूमण्डलीय ऊष्मायन
ग्रीन हाउस गैसों (green house gases) के द्वारा उत्पन्न ग्रीन हाउस प्रभाव (green house effect) ही पृथ्वी ऊष्मायन (global warming) का कारण है। पृथ्वी पर पहुँचने वाली प्रकाशीय ऊर्जा को तो ये गैसें क्षोभमण्डल में आने में कोई बाधा नहीं डालतीं किन्तु ऊष्मा के रूप में जब यह ऊर्जा वापस विकरित होती है तो उसके कुछ भाग को वायुमण्डल में ही रोके रखती हैं अथवा ये ऊष्मारोधी गैसें पृथ्वी से विसरित होकर आयी ऊष्मा का कुछ भाग अवशोषित कर लेती हैं एवं पुनः धरातल को वापस कर देती हैं। इस प्रक्रिया में वायुमण्डल के निचले भाग में अतिरिक्त ऊष्मा एकत्रित हो जाती है। विगत कुछ वर्षों से मानवीय क्रिया-कलापों के कारण इन ऊष्मारोधी गैसों की मात्रा वायुमण्डल में बढ़ जाने के कारण वायुमण्डल के औसत ताप में वृद्धि हो गयी है। इस प्रकार पृथ्वी के औसत तापमान में बढ़ोतरी को पृथ्वी ऊष्मायन या भूमण्डलीय ऊष्मायन या विश्व तापन (global warming) कहते हैं।

विश्व मौसम संगठन के अनुसार भूतल का औसत तापमान पिछली शताब्दी के पूरा होते-होते लगभग 0.60° सेल्सियस तक बढ़ा है। तापमान में यह वृद्धि मुख्य रूप से 1910 से 1945 ई० और 1976 से 2000 ई० के मध्य हुई है।

इस प्रकार लगभग सम्पूर्ण विश्व में 90 का दशक सबसे गर्म दशक और 1961 ई० के बाद क्रमशः 1980,81, 83, 86 एवं 1988 ई० का वर्ष सबसे गर्म वर्ष रहा है। इस दशक तक तुलनात्मक रूप में समुद्री जल का ताप भी बढ़ा है।

ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभाव
ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव से उत्पन्न संकट सम्पूर्ण विश्व के लिए भयंकरतम समस्या है। इसके दुष्प्रभाव तथा दुष्परिणाम पृथ्वी पर उपस्थित जीवन के लिए ही खतरा सिद्ध हो सकते हैं। इस सबका परिणाम है। कि ऊँचे स्थानों पर अधिक वर्षा होने लगी है और उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में वर्षा में कमी आयी है।

पिछली शताब्दी में समुद्री जल स्तर में 15 से 20 सेमी तक बढ़ोतरी हुई है। विश्व के कुछ स्थानों में ग्लेशियर (glaciers) का कुछ नीचे हो जाना भी वायुमण्डल के तापमान में वृद्धि का संकेत है। ग्लोबल वार्मिंग का सबसे भयंकर दुष्परिणाम पर्यावरण में जलवायु तथा मौसम परिवर्तन के रूप में। प्रकट होता है। जैसे-जैसे पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है इस प्रकार के परिवर्तन के परिणाम सामने आ भी रहे हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में, लगभग 20 वर्ष पूर्व जहाँ हिमपात होता था, उन स्थानों पर हिमपात होना बन्द हो गया है अथवा इतनी कम मात्रा में होने लगा है कि उसका कोई लाभ नहीं रह गया है।

इस प्रकार के परिवर्तनों के कारण प्रतिवर्ष विभिन्न मौसमों में आकस्मिक तापमान की वृद्धि या कमी विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं; जैसे-तूफान, चक्रवात, अतिवृष्टि, सूखा आदि के रूप में सामने आ रही है। 1990 से 2100 ई० तक पृथ्वी के तापमान में वर्तमान गति से 5° सेल्सियस तक बढ़ जाने की आशंका व्यक्त की जा रही है। इस प्रकार की तापमान में वृद्धि से वर्षा के प्रारूप में अत्यधिक परिवर्तन आएँगे विशेषकर निचले अक्षांशों (latitudes) पर वर्षा में अधिक कमी हो सकती है। फलस्वरूप सूखा, बाढ़ जैसी आपदाओं में वृद्धि हो सकती है। बढ़ती गर्मी और मानसून की अनिश्चितता से कटिबन्धीय क्षेत्रों में पैदावार में कमी आ सकती है।

संयुक्त राष्ट्र ने अपने पर्यावरण कार्यक्रम में उल्लेख कियां है; आज मानवता के समक्ष भूमण्डलीय ऊष्मायन (ग्लोबल वार्मिंग) सबसे भयावह खतरा है। इसके लिए मनुष्य की आर्थिक विकास की गतिविधियाँ उत्तरदायी हैं। ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव सम्पूर्ण पारिस्थितिक तन्त्र (ecological setup) पर पड़ता है। इससे जीवमण्डल का कोई भी अंश प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है; परिणामस्वरूप पर्वतों से बर्फ पिघलेगी, बाढ़े आयेंगी, समुद्री जल स्तर बढ़ेगा, स्वास्थ्य सम्बन्धी विपदाएँ बढ़ेगी, असमय मौसमी बदलाव होंगे तथा जलवायु में भयंकर परिवर्तनों को बढ़ावा मिलेगा।

एक अध्ययन के अनुसार प्रति 1° सेल्सियस तापमान की वृद्धि से दक्षिण-पूर्वी एशिया में चावल का उत्पादन 5 प्रतिशत कम हो जाएगा।
उपर्युक्त के अतिरिक्त अन्य अनेक दुष्परिणाम; जैसे- अनावृष्टि, अतिवृष्टि आदि की सम्भावनाओं का बढ़ना, विभिन्न प्रकार के रोगों में वृद्धि, क्षोभमण्डल (troposphere) के बाहरी भाग में उपस्थित पृथ्वी के रक्षा कवच अर्थात् ओजोनमण्डल (ozonosphere) अथवा ओजोन परत (ozone layer) की मोटाई में कमी होने की सम्भावना आदि है।

ओजोन परत के क्षीण होने से पृथ्वी पर पराबैंगनी किरणों के प्रभाव में वृद्धि हो जाएगी जिससे त्वचा कैन्सर, मोतियाबिन्द आदि रोगों में वृद्धि होती है, शरीर का प्रतिरोधी तन्त्र हासित होता है, सूक्ष्म जीव; विशेषकर पादपप्लवकों (phytoplanktons) के नष्ट होने से जलीय पारिस्थितिक तन्त्र पूर्णत: नष्ट हो जायेंगे।

भूमण्डलीय ऊष्मायन को कम करने के उपाय पृथ्वी ऊष्मायन (ग्लोबल वार्मिंग) को रोकने के लिए मानवीय क्रिया-कलापों पर प्रतिबन्ध लगाना आवश्यक है जिनसे ग्रीन हाउस गैसों; जैसे- कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), नाइट्रस ऑक्साइड (N2O), मेथेन (CH4), क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स (CFCs), हैलोजन्स (हैलोकार्बन्स Clx, Fx, Brx) आदि की वृद्धि को रोकने में सहायता मिल सकती है।

प्रश्न 7.
ओजोन परत को हानि पहुँचाने वाले प्रदूषकों का विवरण दीजिए। पृथ्वी पर जीवन के लिए ओजोन परत का क्या महत्त्व है? (2011, 12)
या
ओजोन क्षरण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2012, 14)
या
ओजोन परत पर एक विवरण लिखिए। (2015, 16)
उत्तर
ओजोन परत
ओजोन परत (ozone layer) जिसे ओजोन मण्डल (ozonosphere) भी कहते हैं, समतापमण्डल के निचले तथा क्षोभमण्डल के ऊपरी (बाहरी) भाग में स्थित है। यह भाग 15 से 30 किमी ओजोन गैस (O3) की एक मोटी परत होती है। यह गैस ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं से बनी हुई होती है। इसमें एक विशेष प्रकार की तीखी गंध होती है तथा इसका रंग नीला होता है। ओजोन सूर्य से आने वाली हानिकारक किरणों प्रमुखतः पराबैंगनी किरणों (ultraviolet rays) को पृथ्वी पर आने से रोककर पृथ्वी और उसके जीवधारियों के सुरक्षा कवच (protection shield) के रूप में कार्य करती है।

ओजोन परत को हानि
वायु प्रदूषण के कारण विभिन्न प्रकार के प्रदूषक ओजोन परत या ओजोनमण्डल (ozonosphere) को हानि पहुँचा सकते हैं। उदाहरण के लिए समतापमण्डल में क्लोरीन गैस के पहुंचने से ओजोन की मात्रा में कमी आ जाती है।
क्लोरीन का एक परमाणु 1,00,000 ओजोन अणुओं को नष्ट कर देता है। ये क्लोरीन परमाणु क्लोरोफ्लोरोकार्बन (chloroflorocarbon = CFCs) के विघटन से बनते हैं। इनकी रासायनिक क्रिया इस प्रकार है –
Cl + O3 → ClO + O2
ClO + O – Cl + O2

फ्रेऑन (freon) सबसे अधिक घातक क्लोरोफ्लोरोकार्बन है, इसका प्रयोग प्रशीतन (रेफ्रिजरेशन) वातानुकूलन, गद्देदार सीट या सोफों में प्रयुक्त फोम, अग्निशामक प्लास्टिक, ऐरोसॉल स्प्रे आदि में होता है। उद्योगों में CFCs का उत्पादन लगातार होता है। इस प्रकार अत्यधिक औद्योगीकरण, 15 किमी से अधिक ऊँचाई पर उड़ने वाले जेट विमान, परमाणु बमों के विस्फोट आदि से निकली विषैली गैसे जिसमें क्लोरीन यौगिक तथा नाइट्रोजन ऑक्साइड्स होते हैं, ज्वालामुखी विस्फोट से निकली हाइड्रोजन क्लोराइड तथा फ्लोराइड आदि गैसें ओजोन परत के अवक्षय के लिए जिम्मेदार हैं। इन सभी विषैली गैसों के कारण ओजोन परत की मोटाई लगातार घटती जा रही है और उसमें जगह-जगह पर छिद्र हो रहे हैं।

ओजोन परत का महत्त्व
सूर्य से प्राप्त पराबैंगनी किरणों, जिन्हें ओजोन परत रोकती है, से सीधा सम्पर्क मनुष्य, अन्य जीव- जन्तु, वनस्पति आदि में रोग प्रतिरोधक क्षमता का अवक्षय करता है। मनुष्य में त्वचा का कैन्सर, आँखों में मोतियाबिन्द, अन्धापन आदि रोगों की वृद्धि होती है। समुद्री तथा स्थलीय जीव-जन्तु, कृषि, उपज, वनस्पति एवं खाद्य पदार्थों पर भी इन पराबैंगनी किरणों का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इनसे भूपृष्ठीय तापमान बढ़ने से विश्वतापन या पृथ्वी ऊष्मायन (global warming) का खतरा है। इससे जलवायु परिवर्तित हो जायेगी अर्थात् ओजोन परत पृथ्वी एवं उसके समस्त जीवधारियों की जीवन सुरक्षा में प्रकृति का अनुपम उपहार है और इसमें कमी (या ओजोन छिद्र) पृथ्वी के पर्यावरण के लिए भयंकर तबाही ला सकता है।

प्रश्न 8.
वनोन्मूलन के कारण क्या हैं और इसे कैसे नियंत्रित किया जा सकता है? (2015)
या
वनोन्मूलन क्या है? इसके मुख्य कारण लिखिए। (2015)
उत्तर
वनोन्मूलन – वन क्षेत्र को वन रहित क्षेत्र में परिवर्तित करने की प्रक्रिया वनोन्मूलन कहलाती है।
वनोन्मूलन के कारण
वनोन्मूलन के प्रमुख कारण निम्नवत् हैं –

  1. मानव जनसंख्या का बढ़ना जिससे भवन निर्माण, रेलवे लाइन, सड़कों, इमारतों, शैक्षिक संस्थाओं, उद्योगों आदि को स्थापित करने के लिए भूमि की माँग बढ़ी है।
  2. दावानल (forest fire) के अवसर बढ़ना। दावानल बड़े वृक्षों के साथ-साथ छोटे पौधों और यहाँ तक कि बीजों और अनेक जन्तुओं को भी भस्म कर देती है।
  3. मानव क्रियाओं के कारण जलवायु में परिवर्तन के फलस्वरूप सूखा, तूफान, वर्षा आने के कारण वनों का विनाश हुआ है।
  4. पशुओं के अत्यधिक चारण से, जिससे बड़े पौधों के साथ-साथ छोटे पौधे भी नष्ट हो जाते हैं। तथा मृदा अपरदन भी होता है।

वनोन्मूलन का नियंत्रण
वनोन्मूलन के नियंत्रण के कुछ उपाय निम्नवत् हैं –

  1. चारण समस्या को नियन्त्रित करना।
  2. वन रहित भूमि पर वनारोपण करना।
  3. संरक्षित वन, आरक्षित वन या अन्य वन्य भूमि सहित सभी प्रकार के वनों का संरक्षण करना।
  4. कृषि एवं आधिपत्य के स्थानान्तरण को नियन्त्रित करना।
  5. वनों में केन्द्रीय सरकार की पूर्वानुमति से अवन्य क्रियाओं की अनुमति मिलना।
  6. ऐसे स्थानों पर जहाँ मृदा अपरदन की अधिक सम्भावना है वनोन्मूलन को रोकना।
  7. वनवासियों के पास ईंधन, चारा, वास्तु सामग्री आदि गौण स्रोतों की पहुँच होनी चाहिए जिससे कि वे पेड़ न काटें।
  8. कार्यकारी योजनाओं का वैज्ञानिक अनुसन्धान पर आधारित पर्यावरणीय सार्थक कार्य योजनाओं में रूपान्तरण।
  9. मानवों की सहकारी समिति द्वारा प्रबन्धित गाँव के चारों ओर समुदाय वन लगाना।
  10. खड़े वनों की सुरक्षा करमा।
  11. वृक्षारोपण के कार्य में आम जनता और ऐच्छिक एजेन्सियों को सम्बद्ध करना।

प्रश्न 9.
वन संरक्षण तथा चिपको आंदोलन से आप क्या समझते हैं? संक्षेप में वर्णन कीजिए। (2016)
उत्तर
मानव एवं अन्य जीवों के समुचित विकास एवं वृद्धि के लिए वन संरक्षण आवश्यक है। इसके लिए सभी लोगों की भागीदारी होनी चाहिए। अगर वन-क्षेत्र के आस-पास के लोग इसे बचाने के लिए सजग रहेंगे तो वर्तमान पीढ़ी की जरूरत पूरी होगी एवं भविष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति की क्षमता भी बनी रहेगी। भारत में वन संरक्षण में लोगों की भागीदारी सदियों से रही है।

चिपको आन्दोलन (Chipko Movement) – चिपको आन्दोलन डॉ० सुन्दरलाल बहुगुणा की अगुवाई में शुरु हुआ। सन् 1974 में हिमालय के गढ़वाल में जय ठेकेदारों द्वारा वृक्षों को काटने की प्रक्रिया आरम्भ हुई तो इन्हें बचाने के लिए स्थानीय महिलाओं ने अदम्य साहस का परिचय दिया। वे वृक्षों से चिपकी रहीं एवं वृक्षों को काटे जाने से रोकने में सफल रहीं। इसी प्रयास ने आन्दोलन का रूप लिया एवं चिपको आन्दोलन के रूप में विश्वविख्यात हुआ।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? इसके कारणों तथा इसका नियन्त्रण करने के उपयुक्त उपायों का वर्णन कीजिए। (2015)
उत्तर
प्रदूषण
[संकेत-अतिलघु उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 के उत्तर का अध्ययन करें]

प्रदूषण के कारण
प्रदूषण के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –
1. वाहितमल (Sewage) – नगरपालिकाओं में भूमिगत नालियों के द्वारा बस्तियों से निकला। मल-मूत्र प्रायः नदी, बड़े तालाबों अथवा झीलों में डाल दिया जाता है। मूत्र में यूरिया होता है। जिसके जलीय-अपघटन द्वारा अमोनिया उत्पन्न होती है। गन्दी नालियों में उपस्थित अन्य नाइट्रोजन यौगिकों के अपघटन से भी अमोनिया उत्पन्न होती रहती है। इस प्रकार जल प्रदूषित हो जाता है और इससे दुर्गन्ध फैलती है। इस प्रकार का जल पीने योग्य नहीं रहता और न ही ऐसे जल का प्रयोग नहाने-धोने के लिए किया जा सकता है, क्योंकि ऐसे जल में नहाने से बहुत से चर्मरोग हो जाते हैं।

2. घरेलू अपमार्जक (Household Detergents) – घरेलू अपमार्जक ऐसे रासायनिक पदार्थ हैं। जो दुग्धशाला व भोज्य सामग्री में उपयोगी दूसरे सामान, मकानों, अस्पतालों की सफाई तथा नहाने-धोने के काम आते हैं। इनमें बहुत से विभिन्न प्रकार के साबुन, सर्फ, टाइड (tide), फैब (fab) इत्यादि हैं। ये पदार्थ नालियों इत्यादि के द्वारा नदियों, तालाबों, झीलों, इत्यादि में चले। जाते हैं। अपमार्जकों के कार्बनिक पदार्थों का पूर्णरूप से ऑक्सीकरण न हो पाने के कारण कार्बन डाइऑक्साइड, ऐल्कोहॉल, कार्बनिक अम्ल उत्पन्न हो जाते हैं जो जल का प्रदूषण करते हैं और जलीय प्राणियों को हानि पहुँचाते हैं।

3. कीटाणुनाशक पदार्थ (Pesticides) – ये पदार्थ चूहे, कीड़े-मकोड़े, जीवाणुओं, कवकों आदि को मारने के लिए खेतों, उद्यानों, गन्दी नालियों और पौधों पर छिड़के जाते हैं। ये पदार्थ ठोस, द्रव तथा गैस के रूप में होते हैं। डी०डी०टी० (DDT) सफेद रंग का पदार्थ है जो चीटियों, मक्खियों, कीड़े-मकोड़ों तथा मच्छरों को मारने के काम आता है। सल्फर डाइऑक्साइड (SO2) एक रंगहीन गैस के रूप में मकानों को कीटाणुविहीन करने के लिए प्रयोग में आती है। इसी प्रकार फॉर्मेल्डिहाइड, क्लोरीन, क्रियोसोल, कार्बोलिक अम्ल, फिनाइल, पोटेशियम परमैंगनेट इत्यादि बहुत से कीटाणुओं को मारने के लिए प्रयोग किए जाते हैं। चूने को, मकानों में, सफेदी के रूप में तथा गन्दी नालियों में पाए जाने वाले कीड़े-मकोड़ों को मारने के लिए प्रयोग किया जाता है। चूने में क्लोरीन गैस को मिलाकर ब्लीचिंग पाउडर बनाया जाता है। यह कुओं तथा जल संग्रहालयों का जल शुद्ध करने के काम आता है।

इन रासायनिक पदार्थों से हमें जितना लाभ होता है उससे कहीं अधिक हानि होती है, जैसे- अनेक जन्तुओं की मृत्यु उन पौधों तथा छोटे कीड़ों के खाने से हो जाती है, जिन पर ये दवाइयाँ छिड़की गई हों। मच्छर इत्यादि मारने के लिए ये पदार्थ हवाई जहाज द्वारा छिड़के जाते हैं जिससे अनेक पौधे व मछलियाँ इत्यादि मर जाती हैं। कीटनाशी दवाइयों के छिड़कने से भूमि में रहने वाले कीड़े, केंचुए तथा कवक, इत्यादि भी मर जाते हैं जिससे मृदा की उर्वरता नष्ट हो जाती है। कीटनाशी रासायनिक पदार्थ के प्रयोग से कभी-कभी सन्तान पर भी बुरा प्रभाव पड़ सकता है।

4. खरपतवारनाशी पदार्थ (Weedicides) – 2,4-D एवं 2,4,5-T तथा दूसरे पदार्थ जिनका प्रयोग खेतों में उत्पन्न खरपतवार (weeds) को नष्ट करने के लिए किया जाता है, मिट्टी में मिलकर भूमि प्रदूषण करते हैं।

5. धुआँ (Smoke) – औद्योगिक चिमनियों, घरों में ईंधन के जलाने तथा स्वचालित वाहनों, जैसे- मोटरकार तथा रेल के इंजन, इत्यादि से धुआँ निकलकर वायु प्रदूषण करता है। धुएँ में कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल की वाष्प मुख्य रूप से होती है। इसके साथ ही कार्बन मोनॉक्साइड, अन्य कार्बनिक यौगिक तथा नाइट्रोजन के यौगिक भी होते हैं। वातावरण में इनकी मात्रा बढ़ जाने पर वायु प्रदूषित हो जाती है, श्वसन में कठिनाई होती है तथा आँखों पर बुरा प्रभाव

6. स्वतः चल-निर्वातक (Automobile Exhaust) – जेट विमान, ट्रैक्टर, मोटरकार, स्कूटर इत्यादि में पेट्रोल, डीजल, मिट्टी का तेल, इत्यादि के जलने से हानिकारक गैसें उत्पन्न होती हैं। जो वायु प्रदूषण करती हैं। वायुमण्डल में आने वाली कार्बन डाइऑक्साइड की लगभग 20 प्रतिशत मात्रा मोटर वाहन इंजनों में गैसोलिन के जलने से आती है।

7. औद्योगिक उच्छिष्ट (Chemical Discharge from Industries) – औद्योगिक उच्छिष्टों के जल में मिलने से उसमें ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है और उसमें क्लोराइड, नाइट्रेट तथा
सल्फेट आदि की मात्रा अत्यधिक बढ़ जाती है। कारखानों से निकले अपशिष्ट पदार्थ नदियों में डाले जाने के कारण हमारे देश की अधिकांश नदियों का जल प्रदूषित होता जा रहा है। इन पदार्थों का विषैला प्रभाव मछलियों आदि जलीय जन्तुओं तथा जलीय पौधों के लिए हानिकारक होता है। सीसे (lead), जस्ते (zinc), ताँबे (copper) तथा लौह (iron) के यौगिक जल में मिलकर विशेष रूप से उसका प्रदूषण करते हैं।

विद्युत् उत्पादन के लिए ऊष्मीय शक्ति संयन्त्र (thermal power plant) में कोयले का अधिक मात्रा में दहन होता है। प्रति तीन टन कोयले का दहन करने के लिए आठ टन ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है जिसके कारण वायुमण्डल की ऑक्सीजन धीरे-धीरे कम हो रही है। एक सुपर ऊष्मीय संयन्त्र (thermal plant) 100 टन सल्फर डाइऑक्साइड (SO2) प्रतिदिन उत्पन्न कर रहा है जो कि प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है।

8. कूड़े-करकट तथा लाशों का सड़ना (Decay and Putrefaction of Household Waste and Dead Bodies) – विभिन्न जन्तुओं की मृत्यु के बाद बहुत से जीवाणुओं द्वारा उनकी लाशों का अपघटन किया जाता है, इस प्रक्रिया में सड़न उत्पन्न होती है। मृत जन्तुओं की प्रोटीन के अपघटन से उत्पन्न अमोनिया इत्यादि दुर्गन्धमय पदार्थों से वायु प्रदूषित होती है। इसी प्रकार विभिन्न जीवाणुओं द्वारा कूड़े के ढेर का अपघटन करने पर उत्पन्न अनेक दुर्गन्धमय पदार्थ एवं । दूषित गैसें भी वायु को प्रदूषित करती हैं।

9. रेडियोधर्मी प्रबन्धन (Radioactive Management) – अणु परीक्षणों पर प्रतिबन्ध होना चाहिए, इनका प्रयोग केवल मानव कल्याण हेतु होना चाहिए। विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों, चिकित्सीय उपकरणों (रेडियोधर्मी) तथा अन्य सभी अपशिष्ट पदार्थों जिनमें कुछ भी रेडियोधर्मिता है को बस्ती से दूर भूमि में गहराई में दबा देना चाहिए।

10.जैविक प्रदूषक (Bio-Pollutants) – कुछ रोग; जैसे-दमा, जुकाम, एक्जीमा तथा त्वचा सम्बन्धी अन्य दूसरे रोग कुछ जैविकों के कारण होते हैं, जैसेकि कुछ कवकों के बीजाणु (fungal spores), जीवाणु (bacteria) तथा कुछ उच्च वर्ग के पौधों के परागकण (pollen grains), जैसे-कीकर (Acacid), शहतूत (Mulberry), अरण्डी (Ricinus), पार्थेनियम (carrot grass) एवं चिलबिल (Holopteleg)।

प्रदूषण का नियन्त्रण
नगरपालिका वाहितमल (sewage) के जल में शहरों एवं कस्बों से निकली गन्दगी, कार्बनिक और अकार्बनिक पदार्थ तथा मानव-मल में उपस्थित बहुत से जीवाणु होते हैं जो रोग फैला सकते हैं। बस्ती के समस्त वाहितमल का एक ही निष्कासन स्थान होना उचित है जो नदी के उस भाग में खुलता हो जो शहर की आबादी के बाहर आता है, यदि बस्ती के पास नदी नहीं हो तब निष्कासन बस्ती से दूर किसी ऐसी झील, तालाब, इत्यादि में किया जा सकता है जिसका जल मनुष्य व उसके पशुओं के काम न आता हो, यदि बस्ती के बाहर काफी मात्रा में खाली भूमि हो तो वहाँ भी गन्दा जल निकाला जा सकता है जिससे कुछ जल जलवाष्प के रूप में उड़ जाता है तथा कुछ भूमिगत हो जाता है।

नदी, तालाब, झीलों में डाले जाने वाले मल-मूत्र से उनके जल में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है जिससे वहाँ रहने वाली मछलियों के मरने की सम्भावना रहती है, जिस कारण यह आवश्यक हो जाता है कि वाहितमल (sewage) को जल में डालने से पूर्व उसे शुद्ध किया जाए। प्रदूषण नियन्त्रण के कुछ प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं –

1. वाहितमल शुद्धिकरण (Sewage Treatment) – वाहितमल के शुद्धिकरण में पहले गन्दगी को विशेष छन्नों द्वारा छानकर अलग किया जाता है फिर गन्दगी को नीचे बैठने दिया जाता है। (settling)। इस क्रिया से अकार्बनिक पदार्थ एवं कुछ कार्बनिक पदार्थ पृथक् हो जाते हैं तथा शेष कार्बनिक पदार्थ निलम्बित (suspended) और घुली अवस्था में रह जाते हैं। इन पदार्थों का खनिजीकरण (mineralization) किया जाता है जिससे यह पदार्थ अकार्बनिक पदार्थों में परिवर्तित हो जाते हैं। इसमें ऑक्सीजन कृत्रिम विधियों द्वारा जल में प्रविष्ट की जाती है या इसे ऑक्सीजन की अधिकता वाले टैंक में पहुँचाया जाता है जिसमें ऑक्सीय जीवाणु होते हैं। यहाँ से कुछ घण्टे बाद स्लज अन्तिम टैंक में जाता है, जहाँ पर अनॉक्सीय दशाओं में स्लज का विघटन होता है। इस क्रिया में मेथेन गैस मुक्त होती है। यह गैस, पूरा उपकरण चलाने में ईंधन के रूप में प्रयुक्त होती है।

कभी-कभी इस प्रक्रिया में बहुत से हरे शैवालों में उत्पन्न ऑक्सीजन का प्रयोग किया जाता है। यह ऑक्सीजन हरे शैवालों द्वारा प्रकाश-संश्लेषण क्रिया में उत्पन्न होती है। गन्दे जल में प्रायः वे सभी तत्व उपस्थित होते हैं जिनकी शैवालों को अपनी वृद्धि के लिए आवश्यकता होती है, जैसे-कार्बन, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, सल्फर, पोटैशियम, इत्यादि, परन्तु ये पदार्थ गन्दे जल में जटिल कार्बनिक पदार्थों के यौगिकों के रूप में उपस्थित रहते हैं। शैवालों द्वारा प्रयोग में लाए जाने के लिए इन पदार्थों में CO2, NH3, SO4, NO3, PO3 के अतिरिक्त ऑक्सीजन का होना आवश्यक है। यह कार्य शैवालों तथा जीवाणुओं की सहजीविता द्वारा किया जाता है। शैवाल जीवाणुओं के लिए ऑक्सीजन उत्पन्न करते हैं तथा जीवाणु इस ऑक्सीजन का प्रयोग करके जटिल पदार्थों से अकार्बनिक पदार्थ बनाते हैं जो शैवालों द्वारा प्रयोग किए जाते हैं।

वाहितमल की गन्दगी का शैवालों द्वारा शुद्धिकरण एक विशेष प्रकार के खुले तालाबों में किया जाता है। ऐसे तालाबों को ऑक्सीकरण ताल (Oxidation ponds) अथवा निरीक्षण ताल (stabilization ponds) कहते हैं। वाहितमल के गन्दे जल को तालाब में एक स्थान पर प्रविष्ट और दूसरी ओर से निष्कासित किया जाता है।

2. घरेलू अपमार्जकों (household detergents) को भी वाहितमल की तरह नदियों, झीलों तथा तालाबों में डाला जाना चाहिए। यह कार्य शहर की आबादी वाले क्षेत्र से आगे की ओर के भागों में किया जाना चाहिए। जिस तालाब अथवा झील का जल पशुओं आदि के पीने के काम आता है उसमें कपड़े व गन्दी वस्तुएँ नहीं धोनी चाहिए। इसी प्रकार जिन खेतों में कीटनाशक पदार्थ और खरपतवारनाशक छिड़के गए हों, उनमें से बहने वाले जल को पीने के जलाशयों में नहीं जाने देना चाहिए। उद्योग-धन्धों से निष्कासित बहुत से रासायनिक पदार्थों को भी पीने के जलाशयों तथा खेतों में न डालकर ऐसे तालाबों व झीलों में डाला जाना चाहिए जिनमें मछलियाँ इत्यादि न हों।

3. रेडियोधर्मी विकिरण के प्रभाव से बचने के लिए परमाणु विस्फोट को कम अथवा पूर्णरूप से रोका जाना चाहिए। रेडियोधर्मी व्यर्थ पदार्थों का निपटान एक गम्भीर समस्या है और अब तक समुद्र ही इसके लिए उपयुक्त स्थान समझा जाता है। विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, चिकित्सीय उपकरणों (रेडियोधर्मी) तथा अन्य सभी ऐसे अपशिष्ट पदार्थों जिनमें कुछ भी रेडियोधर्मिता है, को कंकरीट टैंकों में बन्द करके बस्ती से दूर भूमि में गहराई में दबा देना चाहिए।

4. रहने के लिए मकान सड़कों से कुछ दूरी पर बनाए जाने चाहिए जिससे स्वत: चल-निर्वातकों से निकले धुएँ और धूल का मानव जीवन पर दुष्प्रभाव न पड़े।

5. घरों से निकले गोबर को बस्ती से बाहर कम्पोस्ट गड्ढों (compost pits) में डाला जाना चाहिए जिससे उसके ढेर पर मक्खी इत्यादि को प्रजनन के लिए उपयुक्त स्थान न मिल पाए और इससे बदबू भी उत्पन्न न हो। इस प्रकार से गोबर से अच्छी खाद बन सकती है। गोबर से गोबर गैस संयन्त्र (gobar gas plant) द्वारा गोबर गैस उत्पन्न की जानी चाहिए, जो घरों में ईंधन के रूप में प्रयोग की जा सके। इस विधि में एक बड़े सिलेण्डर (cylinder) में एक ओर 30 सेमी का एक छिद्र होता है जो एक ढक्कन से बन्द रहता है। सिलेण्डर का 3/4 भाग भूमिगत रखा जाता है। छिद्र के द्वारा गोबर और कुछ जल समय-समय पर सिलेण्डर में डाला जाता है। एक-दूसरे छिद्र के द्वारा 2 – 5 सेमी की एक नली सिलेण्डर से रसोई के चूल्हे तक ले जाई जाती है। गोबर में किण्वन (fermentation) से उत्पन्न गैस ईंधन का कार्य करती है।

6. मृत जन्तुओं तथा मकानों के कूड़े-करकट को बस्ती से दूर गड्ढ़ों में रखकर मिट्टी से ढक देना चाहिए।

7. स्वचालित वाहनों (automobiles) में उत्प्रेरक संपरिवर्तक (catalytic converter) का प्रयोग वायुमण्डलीय प्रदूषण (atmospheric pollution) को कम करने के लिए किया जाता है। इस विधि में स्वचालित वाहनों (automobiles) के इंजन से निकलने वाली गैसों को उत्प्रेरक संपरिवर्तक (catalytic converter) में रखे विषमांगी उत्प्रेरक (heterogenous catalyst) के ऊपर से प्रवाहित किया जाता है।

उत्प्रेरक संपरिवर्तक (catalytic converter) में विषमांगी उत्प्रेरक (heterogenous catalyst) के रूप में प्लैटिनम (platinum), पैलेडियम (palladium) एवं होडियम (rhodium) धातुओं के साथ-साथ कॉपर ऑक्साइड (CuO) एवं क्रोमियम ऑक्साइड (Cr2O3) का भी प्रयोग करते हैं।

स्वचालित वाहनों (automobiles) में उत्प्रेरक संपरिवर्तक (catalytic converter) का प्रयोग करते समय सीसा रहित पेट्रोल (unleaded petrol) का प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि सीसायुक्त पेट्रोल (leaded petrol) उत्प्रेरक संपरिवर्तक में रखे विषमांगी उत्प्रेरकों (heterogenous catalyst) के लिए विष (poison) का कार्य करता है और उत्प्रेरक संपरिवर्तक की कार्य क्षमता को समाप्त कर देता है।

प्रश्न 2.
वायु प्रदूषण क्या होता है? वायु प्रदूषण के कारणों एवं मानव स्वास्थ्य पर इसके प्रभावों की विवेचना कीजिए। वायु प्रदूषण के नियन्त्रण के उपायों का उल्लेख कीजिए। (2010,11,14,16)
या
वायु प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? विभिन्न प्रकार के वायु प्रदूषकों का वर्तमान परिप्रेक्ष्य में वातावरण पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों की विवेचना कीजिए। (2010)
या
‘वायु प्रदूषक’ पर टिप्पणी लिखिए। (2015, 17)
उत्तर
वायु प्रदूषण
वायु में विभिन्न प्रकार की गैसें पाई जाती हैं; जैसे- O2 (21%), N2 (78%), आर्गन (1% से कम), CO2 (0.03%) आदि। वायु में किसी भी गैस की मात्रा सन्तुलित अनुपात से अधिक होना अथवा कम होना अथवा अन्य किसी पदार्थ का समावेश वायु प्रदूषण (air pollution) कहलाता है और इस प्रकार की वायु श्वसन के योग्य नहीं रहती। सभी जीव श्वसन में कार्बन डाइऑक्साइड निकालते तथा ऑक्सीजन लेते हैं, किन्तु हरे पौधे सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में कार्बन डाइऑक्साइड का उपयोग कर ऑक्सीजन वायु में छोड़ते हैं। इस प्रकार इन दोनों गैसों का अनुपात सन्तुलित रहता है। मनुष्य अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ करके इस सन्तुलन को बिगाड़ता है। एक ओर वह वनों इत्यादि को अनियोजित प्रकार से काट डालता है तो दूसरी ओर कल-कारखाने, औद्योगिक संस्थान आदि चलाकर वायु में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को बढ़ाता है, साथ ही नाइट्रोजन, सल्फर आदि अनेक तत्त्वों के ऑक्साइड्स इत्यादि वायुमण्डल में डाल देता है।

वायु प्रदूषक
सामान्यत: दो प्रकार के कारक वायु में प्रदूषक (pollutants) उत्पन्न करने में सहायक हैं। ये हैं, मनुष्य की बढ़ती जनसंख्या (population) तथा बढ़ती हुई उत्पादकता (productivity) जिसमें कृषि प्रक्रियाएँ, ऊर्जा उत्पादन प्रमुखत: परमाणु ऊर्जा तथा अन्य वैज्ञानिक क्रियाएँ सम्मिलित हैं। वायुमण्डल को प्रदूषित करने वाले अनेक स्रोत (sources) इन प्रदूषकों (pollutants) को इन्हीं दो कारकों के आधार पर उत्पन्न करते हैं। सारणी देखिए।

वायु प्रदूषण के स्रोत तथा उनसे उत्पन्न होने वाले प्रदूषक
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वायु प्रदूषण के परिणाम या जन-जीवन पर प्रभाव
वायु प्रदूषण से निम्नलिखित हानियाँ होती हैं। कुछ भयंकर रोग भी वायु प्रदूषण के द्वारा ही होते हैं –
1. वायु में उपस्थित मिट्टी, धूल के कण, परागकण, बीजाणु आदि श्वास के रोग, जैसे- दमा (asthma), फेफड़ों का कैन्सर, एलर्जी आदि उत्पन्न करते हैं तथा वायुमण्डल को भी दूषित करते हैं।

2. कोयला तथा पेट्रोलियम पदार्थों के जलने से निकली गैसें मुख्यतः कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड आदि फेफड़ों में पहुँचकर नमी से अभिक्रिया कर अम्ल बनाती हैं, जो श्वसन तन्त्र में घाव कर देते हैं। नाइट्रोजन के ऑक्साइड फेफड़ों, हृदय तथा आँखों के रोग पैदा करते हैं। कार्बन मोनोऑक्साइड रुधिर में मिलकर ऑक्सीजन के वाहक हीमोग्लोबिन से अभिक्रिया करके ऑक्सीजन संवहन के कार्य को प्रभावित करती है तथा थकावट व मानसिक विकार पैदा करती है।

3. वातावरण में फ्लुओराइड (fluoride) की मात्रा बढ़ने से पत्तियों के सिरों व किनारों के ऊतक नष्ट होने लगते हैं इस स्थिति को हरिमहीनता (chlorosis) या ऊतक क्षय (necrosis) कहते हैं। फलस्वरूप पत्तियाँ नष्ट होने लगती हैं, प्रकाश संश्लेषण रुक जाता है और ऑक्सीजन की उत्पत्ति पर प्रभाव पड़ता है।

4. कुछ प्रदूषक वातावरण में आने पर अन्य पदार्थों से क्रिया करके द्वितीयक प्रदूषकों (secondary pollutants) के रूप में अनेक प्रकार के विषैले पदार्थ बना लेते हैं जो स्वास्थ्य पर गम्भीर तथा हानिकारक प्रभाव डालते हैं; जैसे- स्वचालित निर्वातक में निकलने वाले अदग्ध हाइड्रोकार्बन तथा नाइट्रोजन ऑक्साइड सूर्य के प्रकाश में प्रतिक्रिया करके प्रकाश संश्लेषी स्मॉग (photosynthetic smog) का निर्माण करते हैं। इनमें पैरॉक्सी ऐसीटिल नाइट्रेट (PAN) तथा ओजोन होते हैं। इस प्रकार बनने वाले पदार्थ विषैले होते हैं। इनका प्रभाव विशेषकर आँखों तथा श्वसन पथ पर होता है तथा साँस लेने में कठिनाई हो जाती है। पौधों के लिए PAN अत्यधिक हानिकारक है तथा इसके प्रभाव से प्रकाश संश्लेषण की क्रिया अवरुद्ध हो जाती है। दूसरी ओर ओजोन पत्तियों में श्वसन तेज कर देती है। इस प्रकार, भोजन की कमी से पौधे नष्ट हो जाते हैं।

5. विभिन्न प्रकार की धातुओं के कण घातक रोगों को जन्म देते हैं। ये सब विषैले होते हैं। सीसा (lead) तन्त्रिका तन्त्र तथा वृक्कों के रोगों को उत्पन्न करता है। कैडमियम रुधिर चाप बढ़ाता है। और हृदय तथा श्वसन सम्बन्धी रोगों का कारण है। लोहे तथा सिलिका के कण भी फेफड़ों की बीमारियाँ पैदा करते हैं।

6. फ्लुओराइड हड्डियों तथा दाँतों पर प्रभाव डालते हैं। इनसे पत्तियों पर धब्बे पड़ जाते हैं और पौधों की वृद्धि ठीक नहीं होती है।

पूर्ण या अपूर्ण दहन से उत्पन्न प्रदूषक तथा उनका स्वास्थ्य पर प्रभाव प्रदूषक
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जन्तुओं पर प्रभाव
उपर्युक्त के अनुसार, वायु प्रदूषक अन्य जन्तुओं पर भी अहितकर प्रभाव उत्पन्न करते हैं। पशुओं में फेफड़ों की अनेक बीमारियाँ, धूलकणों, सल्फर डाइऑक्साइड आदि से पैदा होती हैं। इसी प्रकार कार्बन मोनोऑक्साइड से पशुओं की मृत्यु तक हो जाती है। गाय, बैल तथा भेड़े, फ्लुओरीन के प्रति अत्यधिक संवेदी हैं। फ्लुओरीन घास तथा अन्य चारों में एकत्रित हो जाती है। पशु जब इसको खाते हैं। तो ये पदार्थ उनके शरीर में पहुँचकर अस्थियों तथा दाँतों पर प्रभाव डालते हैं। कैडमियम श्वसन विष है, यह हृदय को हानि पहुँचाता है। सुअर वायु प्रदूषण से कम प्रभावित होता है।

पौधों पर प्रभाव
वायु प्रदूषण का पौधों पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ता है। सामान्यत: वायुमण्डल में विभिन्न प्रकार के प्रदूषकों की परतें होने के कारण सूर्य के प्रकाश की पौधों तक पहुँच कम हो जाने से प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में कमी आती है। धूल तथा अन्य कण पत्तियों पर जमकर उनकी कार्यिकी पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। उनमें श्वसन, प्रकाश संश्लेषण तथा वाष्पोत्सर्जन क्रिया की दर घट जाती है। सल्फर डाइऑक्साइड पत्तियों में क्लोरोफिल (chlorophyll) को नष्ट कर देती है। ओजोन की उपस्थिति से श्वसन तेज हो जाता है, भोजन की आपूर्ति नहीं हो पाती अतः पौधे की मृत्यु हो सकती है। इसी प्रकार, विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म कण; जैसे- सीसा, कैडमियम, फ्लुओराइड, ऐस्बेस्टस आदि वृद्धि रोकने वाले, ऊतकों को नष्ट करने वाले आदि प्रभाव उत्पन्न करते हैं। इनके प्रभाव से पत्तियाँ आंशिक रूप से अथवा पूर्ण रूप से झुलस (जलना) जाती हैं।

अन्य आर्थिक प्रभाव
सल्फर डाइऑक्साइड व कार्बन डाइऑक्साइड आदि से बने अम्ल; जैसे-सल्फ्यूरिक अम्ल, कार्बनिक अम्ल हमारी इमारतों, वस्त्रों आदि पर अत्यन्त हानिकारक प्रभाव डालते हैं। भवनों पर सीसे (lead) का रोगन हाइड्रोजन सल्फाइड के प्रभाव से काला पड़ जाता है। सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स आदि भवनों का संक्षारण भी करते हैं। मथुरा के तेल शोधक कारखाने से निकली हुई गैसें, कहते हैं कि विश्व प्रसिद्ध आगरा के ताजमहल के संगमरमर को काफी हानि पहुँचा रही हैं। इसी प्रकार, दिल्ली के लाल किले के पत्थरों को थर्मल विद्युत गृह से निकली गैसों ने काफी हानि पहुँचायी है।

ओजोन कवच पर प्रभाव
ओजोन कवच जो पृथ्वी के वायुमण्डल के बाहरी भाग में, क्षोभ मण्डल (troposphere) जिसमें हम रहते हैं, के बाहर व समताप मण्डल (stratosphere) के भीतरी परत के रूप में है तथा समताप मण्डल का ही भाग मानी जाता है, 15 से 30 किमी ओजोन गैस (O3) की मोटी परत के रूप में स्थित है, पृथ्वी की सुरक्षा विशेषकर सूर्य से आने वाली पराबैंगनी (ultraviolet) किरणों आदि से करता है। वायु प्रदूषण के कारण विभिन्न प्रकार के प्रदूषक इस परत को हानि पहुँचा सकते हैं। उदाहरण के लिए समताप मण्डल में क्लोरीन गैस के पहुंचने से ओजोन की मात्रा में कमी आ जाती है। क्लोरीन का एक परमाणु, 1,00,000 ओजोन अणुओं को नष्ट कर देता है।

सूर्य से प्राप्त पराबैंगनी किरणों, जिन्हें ओजोन परत रोकती है, से सीधा सम्पर्क मनुष्य, अन्य जीव-जन्तु, वनस्पति आदि में रोग प्रतिरोधक क्षमता का अवक्षय करता है। मनुष्य में त्वचा का कैन्सर, आँखों में मोतियाबिन्द, अन्धापन आदि रोगों की वृद्धि होती है। समुद्री तथा स्थलीय जीव-जन्तु, कृषि उपज, वनस्पति एवं खाद्य पदार्थों पर भी इन पराबैंगनी किरणों का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इनसे भूपृष्ठीय तापमान बढ़ने से विश्वतापन (global warming) का खतरा है जिससे जलवायु परिवर्तित हो जायेगी।

वायु प्रदूषण की रोकथाम (नियन्त्रण)
मनुष्य ने विभिन्न प्रकार से वायु को सामान्य से अधिक दूषित करना प्रारम्भ कर दिया है। उद्योगों एवं अन्य कारणों से हमारा वायुमण्डल बहुत अधिक दूषित हो रहा है। इस स्थिति में वायुमण्डल को कृत्रिम रूप से प्रदूषण-रहित करने की भी आवश्यकता को अनुभव किया जाने लगा है। वायु को शुद्ध रखने के लिए निम्नलिखित कृत्रिम साधनों को मुख्य रूप से अपनाया जाता है –

  1. आवासों को बनाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि उनमें हवा एवं सूर्य के प्रकाश के आने-जाने की व्यवस्था ठीक रहे तथा उन्हें सड़कों इत्यादि से दूर बनाना चाहिए।
  2. जहाँ कोयला, लकड़ी आदि जलायी जाती है वहाँ से धुआँ निकलने के लिए ऊँची चिमनी आदि की व्यवस्था होनी चाहिये, ताकि धुआँ एवं दूषित गैसें घर के अन्दर एकत्रित न हो पायें।
  3. यदि पशु पालने हों तो उन्हें आवास से दूर ही रखना चाहिये। इनके गोबर इत्यादि को गोबर गैस आदि बनाने में उपयोग में लाना चाहिये।
  4. आबादी क्षेत्रों में काफी संख्या में पेड़-पौधे लगाने चाहिये ये वायु में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को कम करते हैं तथा ऑक्सीजन को बढ़ाते हैं जिससे वायुमण्डल स्वच्छ होता है।
  5. भूमि खाली नहीं छोड़नी चाहिये, धूल उड़कर वायु को दूषित करती है।
  6. औद्योगिक संस्थानों तथा फैक्ट्रियों को आबादी से दूर बनाना चाहिये। इनमें छन्ने लगाये जाने चाहिए तथा धुआँ निकालने वाली चिमनियाँ काफी ऊँची होनी चाहिये जिससे दूषित गैसें काफी दूर ऊँचाई पर वायुमण्डल में चली जाये।
  7. जहाँ अधिक वाहन चलते हैं वहाँ की सड़कें पक्की होनी चाहिये। चूँकि कच्ची सड़कों से धूल उड़ती है।
  8. वनों आदि को सुरक्षित तथा संवर्धित करना आवश्यक है। इन्हें नष्ट होने से बचाना तथा नये वन लगाने चाहिए। यदि वृक्षों को काटना ही आवश्यक हो तो वांछित संख्या में नये पेड़ लगाकर क्षतिपूर्ति पहले ही कर लेनी आवश्यक है।

प्रश्न 3.
जल-प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है? जल-प्रदूषण के कारणों तथा मानव-स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव की विवेचना कीजिए। जल-प्रदूषण के नियन्त्रण के उपायों का उल्लेख कीजिए। (2011, 14, 17)
या
नदियों को प्रदूषण मुक्त रखने के समुचित उपाय लिखिए। (2014)
या
क्या कारण है कि औद्योगिक इकाइयों के पास बहने वाली नदियों का जल पीने योग्य नहीं होता है? (2014)
या
गंगा जल प्रदूषण के प्रमुख कारणों का उल्लेख कीजिए और इसके नियन्त्रण के उचित उपाय भी लिखिए। (2015, 18)
या
घरेलू अपमार्जक पर टिप्पणी लिखिए। (2017)
उत्तर
जल प्रदूषण
जल पौधों एवं जन्तुओं दोनों के लिए ही अति आवश्यक है। पेड़-पौधे भूमि से जड़ों की सहायता से जल प्राप्त करते हैं, जबकि जन्तु इसे विभिन्न जल स्रोतों से पीते हैं।

जल में होने वाला ऐसा भौतिक तथा रासायनिक या तापीय परिवर्तन जिसके कारण जल जहरीला (poisonous) हो जाता है तथा यह फिर पौधों तथा जन्तुओं के लिए उपयोगी नहीं रहता है, जल प्रदूषण (water pollution) कहलाता है।

जल प्रदूषण के विभिन्न स्रोत या प्रकार

  1. वाहित मल
  2. घरेलू अपमार्जक
  3. कृषि उद्योग के प्रदूषक
  4. औद्योगिक रसायन
  5. रेडियोधर्मी पदार्थ
  6. तापीय प्रदूषण।

1. वाहित मल (Sewage) – नगरों से निकले विभिन्न अपशिष्ट पदार्थ; जैसे- मल-मूत्र, कूड़ा-करकटे आदि नालियों-नालों द्वारा बड़े तालाबों, झीलों तथा नदियों में डाल दिया जाता है जिससे इन जल स्रोतों में अपघटन की क्रिया आदि सामान्य रूप से बढ़ जाती है, इससे जले स्रोतों में दुर्गन्ध फैलने लगती है। अब ऐसा जल पीने योग्य नहीं रह जाता क्योंकि इसमें विभिन्न हानिकारक प्रदूषक मिले हुए होते हैं जो जीव-जन्तुओं के स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाते हैं। ऐसा जल नहाने योग्य भी नहीं रहता है क्योंकि ऐसे प्रदूषित जल में नहाने पर विभिन्न प्रकार के चर्म रोगों के होने का खतरा रहता है। डॉॉफ्नया (Dophnia) तथा ट्राउट (Trout) आदि मछलियाँ जल प्रदूषण के प्रति संवेदनशील होती हैं।

2. घरेलू अपमार्जक (Household Detergents) – घरों में साफ-सफाई के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले रासायनिक पदार्थ; जैसे- विभिन्न प्रकार के सर्फ एवं साबुन आदि आते हैं, घरेलू अपमार्जक (household detergents) कहलाते हैं। इन सभी पदार्थों को घरों से नालियों में बहा दिया जाता है जिससे शैवालों की संख्या में तीव्र वृद्धि होने लगती है। जब इन शैवालों की मृत्यु होती है तो इनके अपघटन के लिए इन्हें फिर तालाबों, झीलों आदि में पहुँचाया जाता है। अपमार्जकों के जल में जमा हो जाने के कारण अधिक O2 की आवश्यकता पड़ती है, जिसके कारण अन्य जलीय जीवों के लिए O2 की मात्रा कम पड़ने लगती है जिससे जलीय जीवों की मृत्यु होने लगती है।

3. कृषि उद्योग के प्रदूषक (Agricultural Pollutants) – विभिन्न प्रकार के रासायनिक पदार्थों; जैसे- 2-4D, 2-4-5 T, DDT, SOआर्गेनोक्लोरीन, आर्गेनोफास्फेट आदि का प्रयोग कृषि उद्योग में खरपतवारनाशी (weedicides), शाकनाशी (herbicides), कीटनाशी (insecticides), पेस्टीसाइड्स (pesticides), आदि के रूप में किया जाता है। ये पदार्थ खाद्य श्रृंखला (food chain) से होते हुए मनुष्य (सर्वाहारी) में संचित होते रहते हैं, जिससे मनुष्य में तरह-तरह की बीमारियाँ उत्पन्न होने लगती हैं। मनुष्य में इस प्रकार के संचय को बायोमैग्नीफिकेशन (biomagnification) कहते हैं। यही रासायनिक पदार्थ जब नालियों तथा नालों द्वारा तालाबों या झीलों में पहुँचते हैं तो तालाब में उपस्थित जन्तुओं एवं पौधों दोनों को हानि पहुँचाते हैं और जल प्रदूषण (water pollution) करते हैं।

4. औद्योगिक रसायन (Industrial Chemicals) – विभिन्न उद्योगों द्वारा विभिन्न प्रकार के कार्बनिक (organic) तथा अकार्बनिक (inorganic) प्रदूषकों (pollutants) को जल में मुक्त किया जाता है।

पारा, साइनाइड, रबर, रेशे, तेल, धूल, कोयला, अम्ल, क्षार, गर्म जल, कॉपर, जिंक, फिनोल, फेरस लवण (सल्फाइड तथा सल्फाइट), जस्ता, क्लोराइड आदि प्रमुख औद्योगिक प्रदूषक (industrial pollutants) हैं जो जल में मुक्त किये जाते हैं। जल में पहुँचकर ये जलीय वनस्पतियों तथा जन्तुओं को तरह-तरह से हानि पहुँचाते हैं।

सन् 1952 में जापान के मिनामाटा खाड़ी (Minamata bay) में पारे (30 -100 ppm तक) से प्रदूषित (infected) मछलियों को खाने से अनेक लोगों की मृत्यु हो गई थी। यही कारण है कि औद्योगिक इकाइयों के पास बहने वाली नदियों का जल पीने योग्य नहीं होता है।

5. रेडियोधर्मी पदार्थ (Radioactive Substances) – परमाणु केन्द्रों में होने वाले विभिन्न प्रयोगों के फलस्वरूप उत्पन्न विकिरण (radiation) जल में पहुँचकर जलीय जीवों में प्रतिकूल आनुवंशिक प्रभाव (hereditary effect) डालती हैं।

6. तापीय प्रदूषण (Thermal Pollution) – ऊष्मीय शक्ति संयन्त्रों (thermal power plants) में कोयले की ऊष्मा का उपयोग करके विद्युत उत्पन्न की जाती है। यहाँ अपशिष्ट पदार्थ के रूप में गर्म जल (hot water) को नदी-नालों में बहा दिया जाता है, जहाँ पर पहुँचकर यह जलीय जन्तुओं एवं पौधों को हानि पहुँचाता है।

जल प्रदूषण की रोकथाम के उपाय
जल प्रदूषण की रोकथाम के लिए निम्नलिखित प्रयास किये जाने चाहिए –

  1. मानव आबादियों से उत्पन्न विभिन्न अपशिष्ट पदार्थों; जैसे- मल-मूत्र, कूड़ा-करकट आदि को जल में नहीं डालना चाहिए। इन्हें मानव बस्तियों से बाहर गड्ढों में दबा देना चाहिए।
  2. घरों से निकलने वाले गन्दे जल को एकत्रित कर संशोधन संयन्त्रों के पूर्ण उपचार के उपरान्त ही नदी या तालाबों में विसर्जित किया जाना चाहिए।
  3. पेट्रोलियम अवशिष्टों को नदी, नालों आदि में नहीं बहाना चाहिए।
  4. कृषि के लिए न्यूनतम मात्रा में रसायनों तथा जैविक खाद का उपयोग किया जाना चाहिए।
  5. जल के दुरुपयोग को रोकना चाहिए। इसके लिये समाज में जाग्रति पैदा करनी चाहिए।
  6. मृत जीवों को जल में नहीं बहाना चाहिए।
  7. फॉस्फोरस का अवक्षेपण कर उसे जलाशयों से हटा देना चाहिए।
  8. सेफ्टिक टैंक, ऑक्सीकरण तालाब तथा फिल्टर स्तर का प्रयोग कर कार्बनिक पदार्थों की मात्रा को कम किया जा सकता है।
  9. कारखानों द्वारा उत्पन्न गर्म जल को नदियों आदि में नही छोड़ना चाहिए, इससे जलीय जन्तु एवं वनस्पति नष्ट हो जाती है।

प्रश्न 4.
रेडियोधर्मी प्रदूषण क्या है? रेडियोधर्मी प्रदूषण फैलाने वाले किन्हीं दो रेडियोधर्मी पदार्थों के नाम लिखिए। (2015)
या
रेडियोधर्मी प्रदूषण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2016)
उत्तर
रेडियोधर्मी प्रदूषण
परमाणु शक्ति उत्पादन केन्द्रों और परमाणवीय परीक्षणों से जल, वायु तथा भूमि का प्रदूषण होता है जो आज की पीढ़ी के लिए ही नहीं वरन् आने वाली पीढ़ियों के लिए भी हानिकारक सिद्ध होता है। एक नाभिकीय विस्फोट (nuclear explosion) के द्वारा इलेक्ट्रॉन (electrons), प्रोटॉन (protons) के साथ-ही-साथ न्यूट्रॉन (neutrons) तथा α (ऐल्फा) एवं β (बीटा) कण प्रवाहित होते हैं जिनके कारण गुणसूत्रों (chromosomes) पर उपस्थित जीन्स (genes) में उत्परिवर्तन (mutations) उत्पन्न होते हैं जो आनुवंशिक होते हैं। नाभिकीय विस्फोट से विस्फोटन के स्थान पर तथा उसके आस-पास बहुत अधिक जीव हानि होती है और लम्बी अवधि में यह समस्त संसार के लिए भी हानिकारक होता है। इस प्रकार के विस्फोट से लन्दन, न्यूयॉर्क तथा दिल्ली जैसे बड़े शहर भी शीघ्र ही नष्ट किए जा सकते हैं तथा वैज्ञानिकों के पास अभी तक इससे बचाव के कोई साधन नहीं हैं।

प्रायः 16 किमी तक चारों ओर के स्थान में इससे सारी लकड़ी जल जाती है। विस्फोट के स्थान पर तापक्रम इतना अधिक हो जाता है कि धातु तक पिघल जाती हैं। एक विस्फोट के समय उत्पन्न रेडियोधर्मी पदार्थ वायुमण्डल की बाह्य परतों में प्रवेश कर जाते हैं, जहाँ पर वे ठण्डे होकर संघनित अवस्था में बूंदों का रूप ले लेते हैं और बाद में ठोस अवस्था में बहुत छोटे धूल के कणों के रूप में वायु में विसरित हो जाते हैं और वायु के झोंकों के साथ समस्त संसार में फैल जाते हैं। कुछ वर्षों के पश्चात् ये रेडियोधर्मी बादल धीरे-धीरे पृथ्वी पर बैठने लगते हैं। सभी नाभिकीय विस्फोटों के द्वारा प्राय: 5% रेडियोधर्मी स्ट्रॉन्शियम-90 (strontium-90) मुक्त होता है जिससे जल, वायु तथा भूमि का प्रदूषण होता है।

यह घास तथा शाकों में प्रवेश पा जाता है और इस प्रकार से यह गाय व दूसरे दूध देने वाले पशुओं के द्वारा तथा मांस के द्वारा मनुष्य के शरीर में प्रवेश पा जाता है, जहाँ पर यह हड्डियों में प्रवेश कर, कैन्सर तथा अन्य आनुवंशिक रोग उत्पन्न करता है। बच्चों को यह अधिक हानि पहुँचाता है। आयोडीन131 (Iodine131) थाइरॉइड को उत्तेजित करता है तथा लसिका गाँठों, रुधिर कणिकाओं व अस्थि मज्जा को नष्ट करके ट्यूमर (tumour) उत्पन्न करती है। द्वितीय महायुद्ध में 6 अगस्त सन् 1945 व 9 अगस्त सन् 1945 को क्रमशः नागासाकी तथा हिरोशिमा में हुए परमाणु बम के विस्फोट से लाखों मनुष्यों की मृत्यु के अतिरिक्त बहुत से लोग अपंग हो गए थे और बहुत से रोग उनकी सन्तति में भी उत्पन्न हुए।

पराबैंगनी (UV) किरणें DNA, RNA व प्रोटीनों को प्रभावित करती हैं। पराबैंगनी विकिरणों (UV radiations) के कारण जिरोडर्मा पिगमेण्टोसम (xeroderma pigmentosum) नामक त्वचा का रोग हो जाता है। सीजियम137 (Cs137) उपापचयिक क्रियाओं में बाधा उत्पन्न करता है।

26 अप्रैल सन् 1986 में रूस में चिरनोबिल (Chernobyl) स्थित परमाणु शक्ति केन्द्र से लगभग 1,35,000 व्यक्तियों को वहाँ से तुरन्त हटाया गया और 1.5 लाख को सन् 1991 तक हटाया गया। लगभग 6.5 लाख व्यक्ति इससे प्रभावित हुए हैं जिनमें कैन्सर, थाइरॉइड, मोतियाबिन्द तथा प्रतिरक्षा तन्त्र के क्षीण होने की सम्भावना है। मानवीय भूल के कारण घातक रेडियोधर्मी कण कई किलोमीटर वातावरण में प्रविष्ट हो गए थे जिसके कारण अनेक व्यक्ति हताहत हुए थे।

प्रश्न 5.
प्रदूषण क्या है? ध्वनि प्रदूषण का विस्तार से वर्णन कीजिए। (2015)
उत्तर
प्रदूषण
[संकेत–अतिलघु उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 के उत्तर का अध्ययन करें]

ध्वनि प्रदूषण
नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक रॉबर्ट कोच (Robert Koch) ने शोर (noise) के सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि “एक दिन ऐसा आएगा जब मनुष्य को स्वास्थ्य के सबसे बड़े शत्रु के रूप में निर्दयी शोर (noise) से संघर्ष करना पड़ेगा।” लगता है वह दुखद दिन अब निकट आ गया है। शोर (noise) की गिनती भी अब प्रदूषकों में होने लगी है।

अन्य प्रदूषकों (pollutants) के समाने शोर भी हमारी औद्योगिक प्रगति एवं आधुनिक सभ्यता का प्रतिफल (byproduct) है। अनेक प्रकार के वाहन, जैसे- मोटरकार, बस, जेट विमान, ट्रैक्टर, रेलवे इंजन, जेनरेटर, लाउडस्पीकर, टेलीविजन, रेडियो, बाजे एवं कारखानों के साइरन तथा मशीनों, आदि से ध्वनि प्रदूषण होता है। ध्वनि की लहरें जीवधारियों की उपापचय क्रियाओं को प्रभावित करती हैं। अधिक तेज ध्वनि से मनुष्य की सुनने की शक्ति का ह्रास होता है और अधिक समय तक शोर में रहने से बहरापन (prebycusis) हो जाता है। शोर के कारण नींद ठीक प्रकार से नहीं आती जिससे नाड़ी-संस्थान सम्बन्धी एवं नींद न आने के रोग उत्पन्न हो जाते हैं, कभी-कभी तो पागलपन का रोग भी हो जाता है। कुछ ध्वनि छोटे-छोटे कीटाणुओं को नष्ट कर देती हैं जिस कारण बहुत से पदार्थों का प्राकृतिक रूप से अपघटन नहीं होता।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के चांसलर डॉ० वर्न नुडसन (Verm Knudson) मानते हैं कि धुएँ के समान ही शोर भी एक धीमी गति वाला मृत्यु दूत है।

ध्वनि की प्रबलता (intensity of noise), शोर की इकाई, डेसीबल (decibel dB) में मापी जाती है। 50 से 60 dB नींद में व्यवधान उत्पन्न करने के लिए काफी है। 80 डेसीबल (dB) या इससे अधिक का शोर श्रवण-शक्ति को स्थायी हानि पहुँचाने में सक्षम होता है। सामान्य श्रवण-शक्ति वालों के लिए 25 – 30 डेसीबल की ध्वनि पर्याप्त होती है। 5 डेसीबल की ध्वनि अत्यन्त मन्द, 75 dB साधारण तेज, 95 dB अत्यन्त तेज और 120 dB से अधिक की ध्वनि तीव्र कष्टकारक होती है। ध्वनि प्रदूषण को कम करने का उपाय यही है कि हम अपने दैनिक जीवन में धीमी ध्वनि का प्रयोग करें अर्थात् त्योहारों, उत्सवों आदि पर लाउडस्पीकर, म्यूजिक सिस्टम इत्यादि का प्रयोग कम आवाज के साथ करें। वाहनों के हॉर्न अनावश्यक न बजायें। प्रेशर हॉर्न का प्रयोग न करें इत्यादि।

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UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves

UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves (वैद्युत चुम्बकीय तरंगें) are part of UP Board Solutions for Class 12 Physics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves (वैद्युत चुम्बकीय तरंगें).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Physics
Chapter Chapter 8
Chapter Name Electromagnetic Waves (वैद्युत चुम्बकीय तरंगें)
Number of Questions Solved 42
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves (वैद्युत चुम्बकीय तरंगें)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
चित्र 8.1 में एक संधारित्र दर्शाया गया है जो 12 cm त्रिज्या की दो वृत्ताकार प्लेटों को 5.0 cm की दूरी पर रखकर बनाया गया है। संधारित्र को एक बाह्य स्रोत (जो चित्र में नहीं दर्शाया गया है) द्वारा आवेशित किया जा रहा है। आवेशकारी धारा नियत है और इसका मान 0.15 A है।
(a) धारिता एवं प्लेटों के बीच विभवान्तर परिवर्तन की दर का परिकलन कीजिए।
(b) प्लेटों के बीच विस्थापन धारा ज्ञात कीजिए।
(c) क्या किरचॉफ का प्रथम नियम संधारित्र की प्रत्येक प्लेट पर लागू होता है? स्पष्ट कीजिए।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves
हल-
दिया है, प्लेट की त्रिज्या r = 0.12 m, बीच की दूरी d = 0.05 m
आवेशन धारा i = 0.15 A
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves Q15
(c) हाँ, किरचॉफ का प्रथम नियम संधारित्र की प्रत्येक प्लेट पर भी लागू होता है, क्योंकि
प्लेट तक आने वाली चालन धारा = प्लेट से आगे जाने वाली विस्थापन धारा

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प्रश्न 2.
एक समान्तर प्लेट संधारित्र (चित्र 8.2), R = 6.0 cm त्रिज्या की दो वृत्ताकार प्लेटों से बना है। और इसकी धारिता C = 100 pF है। संधारित्र को 230V, 300 rad s-1 की (कोणीय) आवृत्ति के किसी स्रोत से जोड़ा गया है।
(a) चालन धारा का r.m.s. मान क्या है?
(b) क्या चालन धारा विस्थापन धारा के बराबर है?
(c) प्लेटों के बीच, अक्ष से 3.0 cm की दूरी पर स्थित बिन्दु पर B का आयाम ज्ञात कीजिए।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves
हल-
यहाँ R = 6.0 x 10-2 मी, C = 100 x 10-12 F = 10-10 F,
Vrms = 230 वोल्ट, w = 300 रे-से-1
(a) संधारित्र का धारितीय प्रतिघात
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves Q2.2
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves

प्रश्न 3.
10-10 m तरंगदैर्घ्य की X-किरणों, 6800 Å तरंगदैर्घ्य के प्रकाश तथा 500 m की रेडियो तरंगों के लिए किस भौतिक राशि का मान समान है?
हल-
X-किरणें, लाल प्रकाश तथा रेडियो तरंगें सभी वैद्युत-चुम्बकीय तरंगें हैं। अत: इन सभी की निर्वात् में चाल समान होगी जिसका मान c = 3.0 x 108 मी/से होता है।

प्रश्न 4.
एक समतल विद्युतचुम्बकीय तरंग निर्वात में z-अक्ष के अनुदिश चल रही है। इसके विद्युत तथा चुम्बकीय-क्षेत्रों के सदिश की दिशा के बारे में आप क्या कहेंगे? यदि तरंग की आवृत्ति 30 MHz हो तो उसकी तरंगदैर्घ्य कितनी होगी?
हल-
वैद्युत-चुम्बकीय तरंगों में संचरण नियतांक (UPBoardSolutions.com) सदिश [latex s=2]\vec { K }[/latex], वैद्युत क्षेत्र सदिश [latex s=2]\vec { E }[/latex] तथा चुम्बकीय क्षेत्र सदिश [latex s=2]\vec { E }[/latex] दायें हाथ की निकाय बनाते हैं।

चूँकि संचरण सदिश [latex s=2]\vec { K }[/latex], Z- दिशा में हैं, वैद्युत क्षेत्र सदिश [latex s=2]\vec { E }[/latex], X-दिशा में तथा चुम्बकीय क्षेत्र सदिश [latex s=2]\vec { B }[/latex], Y- दिशा में होगा।
दिया है आवृत्ति, v = 30 MHz = 30 x 106 Hz
प्रकाश की चाल c = 3 x 108 ms-1
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q4

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प्रश्न 5.
एक रेडियो 7.5 MHz से 12 MHz बैंड के किसी स्टेशन से समस्वरित हो सकता है। संगत तरंगदैर्घ्य बैंड क्या होगा?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves

प्रश्न 6.
एक आवेशित कण अपनी माध्य साम्यावस्था के दोनों ओर 10 Hz आवृत्ति से दोलन करता है। दोलक द्वारा जनित विद्युतचुम्बकीय तरंगों की आवृत्ति कितनी है?
हल-
हम जानते हैं कि त्वरित अथवा कम्पित आवेशित कण कम्पित विद्युत क्षेत्र उत्पन्न करता है। यह विद्युत क्षेत्र, कम्पित चुम्बकीय-क्षेत्र उत्पन्न करता है। ये दोनों (UPBoardSolutions.com) क्षेत्र मिलकर वैद्युतचुम्बकीय तरंग उत्पन्न करते हैं; जिसकी आवृत्ति, कम्पित कण के दोलनों की आवृत्ति के बराबर होती है।
तरंगों की आवृत्ति v = 109 Hz

प्रश्न 7.
निर्वात में एक आवर्त विद्युतचुम्बकीय तरंग के चुम्बकीय-क्षेत्र वाले भाग का आयाम B0 = 510 nT है। तरंग के विद्युत क्षेत्र वाले भाग का आयाम क्या है?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves

प्रश्न 8.
कल्पना कीजिए कि एक विद्युतचुम्बकीय तरंग के विद्युत क्षेत्र का आयाम E0 = 120 N/C है तथा इसकी आवृत्ति v = 50.0 MHz है।
(a) B0, ω, k तथा λ ज्ञात कीजिए,
(b) E तथा B के लिए व्यंजक प्राप्त कीजिए।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q8
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves

प्रश्न 9.
विद्युतचुम्बकीय स्पेक्ट्रम के विभिन्न भागों की पारिभाषिकी पाठ्यपुस्तक में दी गई है। सूत्र E = hν (विकिरण के एक क्वांटम की ऊर्जा के लिए : फोटॉन) का उपयोग कीजिए तथा em वर्णक्रम (विद्युतचुम्बकीय स्पेक्ट्रम) के विभिन्न भागों के लिए ev के मात्रक में फोटॉन की ऊर्जा निकालिए। फोटॉन ऊर्जा के जो विभिन्न परिमाण आप पाते हैं वे विद्युतचुम्बकीय विकिरण के स्रोतों से किस प्रकार सम्बन्धित हैं?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves Q9.1
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves Q9.3
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves

प्रश्न 10.
एक समतल em (विद्युतचुम्बकीय) तरंग में विद्युत क्षेत्र, 2.0 x 1010 Hz आवृत्ति तथा 48 Vm-1 आयाम से ज्यावक्रीय रूप से दोलन करता है।
(a) तरंग की तरंगदैर्घ्य कितनी है?
(b) दोलनशील चुम्बकीय-क्षेत्र का आयाम क्या है?
(c) यह दर्शाइए [latex s=2]\vec { E }[/latex] क्षेत्र का औसत ऊर्जा घनत्व, [latex s=2]\vec { B }[/latex] क्षेत्र के औसत ऊर्जा घनत्व के बराबर है।
(c = 3 x 108 ms-1)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves Q10.1

अतिरिक्त अभ्यास

प्रश्न 11.
कल्पना कीजिए कि निर्वात में एक विद्युतचुम्बकीय तरंग का विद्युत क्षेत्र
E = {(3.1 N/C) cos [(1.8 rad/m) y + (5.4 x 106 rad/s) t]} [latex s=2]\hat { i }[/latex] है।
(a) तरंग संचरण की दिशा क्या है?
(b) तरंगदैर्घ्य λ कितनी है?
(c) आवृत्ति v कितनी है?
(d) तरंग के चुम्बकीय-क्षेत्र सदिश का आयाम कितना है?
(e) तरंग के चुम्बकीय-क्षेत्र के लिए व्यंजक लिखिए।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves

प्रश्न 12.
100 W विद्युत बल्ब की शक्ति का लगभग 5% दृश्य विकिरण में बदल जाता है।
(a) बल्ब से 1 m की दूरी पर,
(b) 10 m की दूरी पर दृश्य विकिरण की औसत तीव्रता कितनी है? यह मानिए कि विकिरण समदैशिकतः उत्सर्जित होता है और परावर्तन की उपेक्षा कीजिए।
हल-
यहाँ दृश्य विकिरण की शक्ति P = 100 वाट का 5% = 100 x ([latex]\frac { 5 }{ 100 }[/latex]) वाट = 5 वाट
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q12

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प्रश्न 13.
em वर्णक्रम (विद्युतचुम्बकीय स्पेक्ट्रम) के विभिन्न भागों के लिए लाक्षणिक ताप परिसरों को ज्ञात करने के लिए λmT = 0.29 cm K सूत्र का उपयोग कीजिए। जो संख्याएँ आपको मिलती हैं वे क्या बतलाती हैं?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves

प्रश्न 14.
विद्युतचुम्बकीय विकिरण से सम्बन्धित नीचे कुछ प्रसिद्ध अंक, भौतिकी में किसी अन्य प्रसंग में विद्युतचुम्बकीय दिए गए हैं। स्पेक्ट्रम के उस भाग का उल्लेख कीजिए जिससे इनमें से प्रत्येक सम्बन्धित है।
(a) 21 cm (अन्तरातारकीय आकाश में परमाण्वीय हाइड्रोजन द्वारा उत्सर्जित तरंगदैर्घ्य)
(b) 1057 MHz (लैंब-विचलन नाम से प्रसिद्ध, हाइड्रोजन में, पास जाने वाले दो समीपस्थ ऊर्जा स्तरों से उत्पन्न विकिरण की आवृत्ति)
(c) 2.7 K (सम्पूर्ण अन्तरिक्ष को भरने वाले समदैशिक विकिरण से सम्बन्धित ताप-ऐसा विचार जो विश्व में बड़े धमाके ‘बिग बैंग के उद्भव का अवशेष माना जाता है।)
(d) 5890 Å – 5896 Å (सोडियम की द्विक रेखाएँ)
(e) 14.4 keV [57Fe नाभिक के एक विशिष्ट संक्रमण की ऊर्जा जो प्रसिद्ध उच्च विभेदन की स्पेक्ट्रमी विधि से सम्बन्धित है (मॉसबौर स्पेक्ट्रोस्कॉपी)]
हल-
(a) दी गई तरंगदैर्घ्य 10-2 m क्रम की है, जो लघु रेडियो तरंग क्षेत्र में पड़ती है।
(b) यह आवृत्ति 109 Hz की कोटि की है, जो लघु रेडियो तरंग क्षेत्र में पड़ती है।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves Q14
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves

प्रश्न 15.
निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दीजिए

  1. लम्बी दूरी के रेडियो प्रेषित्र लघु-तरंग बैंड का उपयोग करते हैं। क्यों?
  2. लम्बी दूरी के TV प्रेषण के लिए उपग्रहों का उपयोग आवश्यक है। क्यों?
  3. प्रकाशीय तथा रेडियो दूरदर्शी पृथ्वी पर निर्मित किए जाते हैं किन्तु X-किरण खगोल विज्ञान का अध्ययन पृथ्वी का परिभ्रमण कर रहे उपग्रहों द्वारा ही सम्भव है। क्यों?
  4. समतापमण्डल के ऊपरी छोर पर छोटी-सी ओजोन की परत मानव जीवन के लिए निर्णायक है। क्यों?
  5. यदि पृथ्वी पर वायुमण्डल नहीं होता तो उसके धरातल का औसत ताप वर्तमान ताप से अधिक होता या कम?
  6. कुछ वैज्ञानिकों ने भविष्यवाणी की है कि पृथ्वी पर नाभिकीय विश्व युद्ध के बाद ‘प्रचण्ड नाभिकीय शीतकाल होगा जिसका पृथ्वी के जीवों पर विध्वंसकारी प्रभाव पड़ेगा। इस भविष्यवाणी का क्या आधार है?

उत्तर-

  1. ये तरंगें पृथ्वी के आयनमण्डल से परावर्तित होकर वापस पृथ्वी तल की ओर लौट आती हैं। और इसी कारण बिना ऊर्जा खोए पृथ्वी पर लम्बी दूरियाँ तय कर पाती हैं।
  2. बहुत लम्बी दूरी के सम्प्रेषण के लिए अति उच्च आवृत्ति की तरंगों की आवश्यकता होती है। आयनमण्डल इन तरंगों को पृथ्वी की ओर परावर्तित नहीं कर पाता। अत: ये तरंगें आयनमण्डल से पार निकल जाती हैं। इन्हें वापस पृथ्वी पर भेजने के लिए उपग्रह की आवश्यकता होती है।
  3. चूँकि पृथ्वी का वायुमण्डल X-किरणों को अवशोषित कर लेता है। अत: X-किरण खगोलविज्ञान का अध्ययन वायुमण्डल से ऊपर उपग्रहों द्वारा ही सम्भव है।
  4. यह ओजोन परत सूर्य से (UPBoardSolutions.com) पृथ्वी पर आने वाली मानव जीवन के लिए हानिकारक पराबैंगनी तरंगों को अवशोषित कर लेती है। अतः ओजोन परत, पृथ्वी पर मानव जीवन की सुरक्षा के लिए अति महत्त्वपूर्ण है।
  5. यदि पृथ्वी पर वायुमण्डल नहीं होता तो हरित गृह प्रभाव नहीं होता। इससे पृथ्वी का ताप वर्तमान ताप की तुलना में कम होता।
  6. प्रचण्ड नाभिकीय युद्ध के बाद पृथ्वी धूल तथा गैसों के विशाल बादल से घिर जाएगी जिसके कारण सूर्य की रोशनी पृथ्वी तक नहीं पहुंच पाएगी ओर पृथ्वी बहुत अधिक ठण्डी हो जाएगी।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
[latex s=2]\frac { 1 }{ \sqrt { { \mu }_{ 0 }{ \varepsilon }_{ 0 } } }[/latex] का मात्रक है- (2016)
(i) न्यूटन/कूलॉम
(ii) वेबर/मी2
(iii) फैरड
(iv) मीटर/सेकण्ड
उत्तर-
(iv) मीटर/सेकण्ड

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प्रश्न 2.
यदि [latex s=2]\vec { E }[/latex] तथा [latex s=2]\vec { B }[/latex] वैद्युत-चुम्बकीय तरंग के क्रमशः वैद्युत वेक्टर तथा चुम्बकीय वेक्टर हों तब वैद्युत-चुम्बकीय तरंग के संचरण की दिशा अनुदिश होती है- (2015, 18)
(i) [latex s=2]\vec { E }[/latex]
(ii) [latex s=2]\vec { B }[/latex]
(iii) [latex s=2]\vec { E }[/latex] . [latex s=2]\vec { B }[/latex]
(iv) [latex s=2]\vec { E }[/latex] x [latex s=2]\vec { B }[/latex]
उत्तर-
(iv) [latex s=2]\vec { E }[/latex] x [latex s=2]\vec { B }[/latex]

प्रश्न 3.
किसी वैद्युत चुम्बकीय तरंग के वैद्युत तथा चुम्बकीय क्षेत्र होते हैं- (2016)
(i) परस्पर लम्बवत् तथा समान कला में
(ii) परस्पर समान्तर तथा समान कला में
(iii) परस्पर लम्बवत् तथा विपरीत कला में
(iv) परस्पर समान्तर तथा विपरीत कला में
उत्तर-
(i) परस्पर लम्बवत् तथा समान कला में

प्रश्न 4.
किसी विद्युत चुम्बकीय तरंग में वैद्युत क्षेत्र का आयाम 5 वोल्ट/मीटर है। चुम्बकीय क्षेत्र का आयाम है- (2017, 18)
(i) 5 टेस्ला
(ii) 1.67 x 10-8 टेस्ला
(iii) 1.5 x 10-8 टेस्ला
(iv) 1.67 x 10-10 टेस्ला
उत्तर-
(ii) 1.67 x 10-8 टेस्ला

प्रश्न 5.
वैद्युतशीलता ([latex s=2]{ \varepsilon }_{ 0 }[/latex]) तथा चुम्बकशीलता ([latex s=2]{ \mu }_{ 0 }[/latex]) के माध्यम में विद्युत चुम्बकीय तरंग का वेग होगा (2017)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से कौन विद्युत चुम्बकीय तरंगें नहीं हैं?
(i) गामा किरणे
(ii) एक्स किरणें
(iii) अवरक्त किरणे
(iv) बीटा किरणे
उत्तर-
(iv) बीटा किरणे

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में कौन-सा विद्युत-चुम्बकीय विकिरण है?
(i) α – किरणें
(ii) β – किरणे
(iii) X – किरणे
(iv) धनात्मक किरणे
उत्तर-
(iii) X – किरणे

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प्रश्न 8.
सबसे अधिक आवृत्ति की तरंग है-
(i) पराबैंगनी तरंगें।
(ii) गामा तरंगें
(iii) दृश्य प्रकाश तरंगें
(iv) रेडियो तरंगें
उत्तर-
(ii) गामा तरंगें

प्रश्न 9.
X-किरणें, γ – किरणें तथा सूक्ष्म-तरंगों के निर्वात में चलने पर, उनकी- (2013)
(i) तरंगदैर्घ्य समान परन्तु चाल असमान होती है।
(ii) आवृत्ति समान परन्तु चाल असमान होती है।
(iii) चाल समान परन्तु तरंगदैर्ध्य असमान होती हैं।
(iv) चाल समान तथा आवृत्ति भी समान होती है।
उत्तर-
(iii) चाल समान परन्तु तरंगदैर्घ्य असमान होती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विस्थापन धारा का सूत्र लिखिए।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves VSAQ 1

प्रश्न 2.
निर्वात में वैद्युत-चुम्बकीय तरंगों के वेग का व्यंजक लिखिए।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves VSAQ 2

प्रश्न 3.
30, 000 Å तरंगदैर्घ्य की वैद्युत चुम्बकीय तरंग की आवृत्ति ज्ञात कीजिए। यह स्पेक्ट्रम के किस भाग को प्रदर्शित करती है? (2014)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves

प्रश्न 4.
एक समतल वैद्युत चुम्बकीय तरंग में वैद्युत क्षेत्र के दोलनों की आवृत्ति 2 x 1010 Hz तथा आयाम 30 वोल्ट-मीटर-1 है। तरंग में चुम्बकीय क्षेत्र का आयाम ज्ञात कीजिए। (2014)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 8 Electromagnetic Waves

प्रश्न 5.
वैद्युत-चुम्बकीय तरंगों के संचरण की तीन विधाएँ लिखिए। (2015)
उत्तर-

  • भू-तरंगों द्वारा संचरण
  • आकाश तरंगों द्वारा संचरण
  • अन्तरिक्ष तरंगों द्वारा संचरण।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से कौन-सी वैद्युत-चुम्बकीय तरंगें नहीं हैं? कारण बताइए।
गामा किरणें, X-किरणें, रेडियो तरंगें, ध्वनि तरंगें, अवरक्त, पराबैंगनी।
उत्तर-
ध्वनि तरंगें, क्योंकि इनके संचरण के लिए माध्यम आवश्यक है।

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प्रश्न 7.
दृश्य स्पेक्ट्रम की तरंगदैर्घ्य का परास लगभग कितना होता है?
उत्तर-
3900 Å से 7800 Å.

प्रश्न 8.
विद्युत-चुम्बकीय स्पेक्ट्रम का कौन-सा भाग रडार संचालन में प्रयोग होता है? उनके तरंगदैर्ध्य की कोटि बताइए। (2015)
उत्तर-
सूक्ष्म तरंगें या लघु रेडियो तरंगें। तरंगदैर्घ्य परिसर 10-3 मीटर से 3 x 10-1 मीटर होता है।

प्रश्न 9.
निम्न में से किसकी तरंगदैर्घ्य सबसे कम और किसकी सबसे अधिक हैं?
या
वैद्युत चुम्बकीय स्पेक्ट्रम में सबसे छोटी तरंगदैर्घ्य और सबसे बड़ी तरंगदैर्घ्य की तरंगों के नाम लिखिए। (2014)
(i) नीला प्रकाश
(ii) अवरक्त किरणें
(iii) गामा-किरणें
(iv) हरा प्रकाश
उत्तर-
सबसे कम तरंगदैर्घ्य गामा-किरणों की तथा सबसे अधिक अवरक्त किरणों की।

प्रश्न 10.
वैद्युत-चुम्बकीय स्पेक्ट्रम में सबसे बड़ी तथा सबसे छोटी तरंगदैर्घ्य की तरंगों के नाम बताइए। (2013, 16)
उत्तर-
रेडियो तरंगें, गामा किरणें।

प्रश्न 11.
प्रकाश स्पेक्ट्रम के हरे, बैंगनी, लाल, पीले रंगों को आवृत्ति के बढ़ते क्रम में लिखिए।
उत्तर-
लाल → पीला → हरा → बैंगनी।

प्रश्न 12.
वैद्युत चुम्बकीय स्पेक्ट्रम के विभिन्न भागों को उनके तरंगदैर्घ्य के बढ़ते क्रम में लिखिए। (2014)
उत्तर-
तरंगदैर्ध्य का बढ़ता क्रम इस प्रकार है- गामा किरणें, एक्स किरणें, पराबैंगनी किरणें, दृश्य विकिरण, अवरक्त किरणें, माइक्रो तरंगें, रेडियो तरंगें, दीर्घ तरंगें।

प्रश्न 13.
10-2 मीटर तरंगदैर्घ्य वाली विद्युत चुम्बकीय तरंग का नाम लिखिए। (2017)
उत्तर-
सूक्ष्म या माइक्रो तरंगें।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विस्थापन धारा क्या है? इसका सूत्र लिखिए। ऐम्पियर-मैक्सवेल परिपथीय नियम का सूत्र लिखिए। (2016, 18)
उत्तर-
विस्थापन धारा- किसी परिपथ में समय के साथ परिवर्ती वैद्युत क्षेत्र (अर्थात् वैद्युतीय विस्थापन) के कारण उत्पन्न धारा को विस्थापन धारा (displacement current) कहते हैं। इसे id से प्रदर्शित करते हैं।
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प्रश्न 2.
एक समतल विद्युत-चुम्बकीय तरंग के विद्युत-क्षेत्र का आयाम E0 = 150 न्यूटन प्रति कूलॉम है तथा आवृत्ति v = 50 मेगा हर्ट्ज है। तरंग के दोलनी चुम्बकीय क्षेत्र का आयाम B0 तथा कोणीय आवृत्ति w का मान ज्ञात कीजिए। (2014)
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प्रश्न 3.
विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के स्पेक्ट्रम को आवृत्ति के बढ़ते हुए क्रम में लिखिए। इस स्पेक्ट्रम के विभिन्न क्षेत्रों की उपयोगिता की अत्यन्त संक्षेप में विवेचना कीजिए। (2017)
या
गामा किरणों से रेडियो तरंगों तक सभी विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के नाम तरंगदैर्घ्य के बढ़ते क्रम में लिखिए। (2015, 18)
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प्रश्न 4.
विद्युत-चुम्बकीय स्पेक्ट्रम के अलग-अलग क्षेत्रों की किन्हीं चार प्रकार की तरंगों के नाम लिखिए। उनकी तरंगदैर्घ्य के औसत मान तथा कोई एक उपयोग लिखिए। (2010)
या
अवरक्त विकिरण तथा गामा किरणों के एक-एक उपयोग लिखिए। (2014)
या
विद्युत-चुम्बकीय स्पेक्ट्रम के मुख्य भागों को उनकी तरंगदैर्ध्य परास के साथ लिखिए। (2015, 17)
या
निम्न वैद्युत-चुम्बकीय तरंगों का एक-एक उपयोग लिखिए- (2015)

  1. सूक्ष्म तरंगें,
  2. अवरक्त तरंगें,
  3. पराबैंगनी तरंगें,
  4. X-किरणें

उत्तर-

  1. गामा किरणें- (10-14 मीटर से 10-10 मीटर तक)
    नाभिक की संरचना के सम्बन्ध में सूचना देने में उपयोगी।
  2. एक्स किरणें- (10-11 मीटर से 3 x 10-8 मीटर तक)
    चिकित्सा विभाग में सर्जरी में उपयोगी।
  3. पराबैंगनी किरणें- (10-8 मीटर से 4 x 10-7 मीटर तक)
    खाने की वस्तुओं के संरक्षण में उपयोगी।
  4. अवरक्त किरणें- (8 x 10-7 मीटर से 5 x 10-3 मीटर तक)
    कोहरे व धुन्ध के पार देखने में उपयोगी।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

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प्रश्न 1.
मैक्सवेल के विद्युत चुम्बकीय तरंग सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। (2017)
या
विद्युत-चुम्बकीय तरंगें क्या हैं? (2010, 15, 17, 18)
या
एक वैद्युत-चुम्बकीय तरंग किसी माध्यम में वेग [latex s=2]\vec { \nu } =\vec { \nu } \hat { i }[/latex] से चल रही है। एक चित्र द्वारा वैद्युत चुम्बकीय तरंग का संचरण वैद्युत व चुम्बकीय क्षेत्रों के कम्पनों की दिशाओं के साथ प्रदर्शित कीजिए। वैद्युत व चुम्बकीय क्षेत्रों के परिमाण, वैद्युत-चुम्बकीय तरंग के वेग से किस प्रकार सम्बन्धित हैं? (2014)
या
विद्युत-चुम्बकीय तरंगों की चार विशेषताओं (अभिलक्षण) का उल्लेख कीजिए। (2014, 15, 17, 18)
या
विद्युत चुम्बकीय तरंगों के किन्हीं दो विशिष्ट गुणों को लिखिए। (2015, 16)
या
मैक्सवेल का प्रकाश के सम्बन्ध में वैद्युत चुम्बकीय तरंग सिद्धान्त लिखिए। (2017, 18)
या
पराबैंगनी तथा अवरक्त किरणों का क्या अर्थ है?
उत्तर-
मैक्सवेल का प्रकाश का विद्युत-चुम्बकीय तरंग सिद्धान्त (Maxwell’s electromagnetic wave theory of light)– ब्रिटिश वैज्ञानिक मैक्सवेल ने सन् 1865 में केवल गणितीय सूत्रों के आधार पर यह प्रमाणित किया कि जब कभी किसी वैद्युत परिपथ में वैद्युत धारा बहुत उच्च आवृत्ति से बदलती है (अर्थात् परिपथ में उच्च आवृत्ति के वैद्युत दोलन होते हैं) तो उस परिपथ से ऊर्जा, तरंगों के रूप में चारों ओर को प्रसारित होने लगती है। इन तरंगों को विद्युत-चुम्बकीय तरंगें’ कहते हैं। इन तरंगों में वैद्युत क्षेत्र E तथा चुम्बकीय (UPBoardSolutions.com) क्षेत्र B परस्पर लम्बवत् तथा तरंग के संचरण की दिशा के भी लम्बवत् होते हैं (चित्र 8.4)। इन तरंगों के संचरण के लिए माध्यम का होना आवश्यक नहीं है; अर्थात् विद्युत-चुम्बकीय तरंगें निर्वात् में होकर चल सकती हैं। मैक्सवेल ने गणनाओं द्वारा यह स्थापित किया कि विद्युत चुम्बकीय तरंगों की चाल 3.0 x 108 मीटर/सेकण्ड है जो कि निर्वात् में प्रकाश की चाल है। इस आधार पर मैक्सवेल ने अपना यह मत दिया कि प्रकाश विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के रूप में संचरित होता है।
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विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के अभिलक्षण- विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के अभिलक्षण निम्नलिखित हैं-

  1. विद्युत-चुम्बकीय तरंगें त्वरित आवेश द्वारा उत्पन्न की जाती हैं।
  2. इन तरंगों के संचरण के लिए किसी पदार्थक माध्यम की आवश्यकता नहीं होती।
  3. ये तरंगें निर्वात् अथवा मुक्त स्थान में [latex s=2]\nu =\frac { 1 }{ \sqrt { { \mu }_{ 0 }{ \epsilon }_{ 0 } } }[/latex] वेग से चलती हैं जिसका मान प्रकाश की चाल के बराबर होता है।
  4. वैद्युत तथा चुम्बकीय क्षेत्रों के परिवर्तनों की दिशाएँ परस्पर लम्बवत् होती हैं तथा संचरण की दिशा के भी लम्बवत् होती हैं। इस प्रकार, विद्युत-चुम्बकीय तरंगों की प्रकृति अनुप्रस्थ होती है।
  5. वैद्युत तथा चुम्बकीय क्षेत्रों में परिवर्तन साथ-साथ होते हैं तथा क्षेत्रों के महत्तम मान E0 व B0 एक ही स्थान पर तथा एक ही समय होते हैं।
  6. निर्वात् में विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के वैद्युत तथा चुम्बकीय क्षेत्रों के परिमाणों का सम्बन्ध
    E/B = v = c होता है।
  7. वैद्युत-चुम्बकीय तरंगों में ऊर्जा, औसतन वैद्युत तथा चुम्बकीय क्षेत्रों में बराबर-बराबर बँटी होती है।
  8. निर्वात् में, औसत वैद्युत ऊर्जा घनर [latex s=2]\frac { 1 }{ 2 } { \varepsilon }_{ 0 }{ E }^{ 2 }[/latex] तथा औसत चुम्बकीय ऊर्जा (UPBoardSolutions.com) घनत्व [latex s=2]\frac { { B }^{ 2 } }{ 2{ \mu }_{ 0 } }[/latex] होता है।
  9. विद्युत-चुम्बकीय तरंग में प्रकाशिक प्रभाव वैद्युत क्षेत्र वेक्टर के कारण होता है।
    पराबैंगनी किरणें- दृश्य विकिरण के बैंगनी रंग से कम तरंगदैर्घ्य की (10-8 मी से 4 x 10-7 मी तक) किरणें पराबैंगनी किरणें कहलाती हैं।
    अवरक्त किरणें- दृश्य विकिरण के लाल रंग से अधिक तरंगदैर्घ्य (7.8 x 10-7 मी से 15 x 10-3 मी तक) की किरणें अवरक्त किरणें कहलाती हैं।

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UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 15 Biodiversity and Conservation

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 15 Biodiversity and Conservation (जैव विविधता एवं संरक्षण) are part of UP Board Solutions for Class 12 Biology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 15 Biodiversity and Conservation (जैव विविधता एवं संरक्षण).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Chapter Chapter 15
Chapter Name Biodiversity and Conservation
Number of Questions Solved 41
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 15 Biodiversity and Conservation (जैव विविधता एवं संरक्षण)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जैव विविधता के तीन आवश्यक घटकों (कंपोनेंट) के नाम लिखिए।
उत्तर
जैव विविधता के तीन आवश्यक घटक निम्नवत् हैं –

  1. आनुवंशिक विविधता
  2. जातीय विविधता
  3. पारिस्थितिकिय विविधता प्रश्न

प्रश्न 2.
पारिस्थितिकीविद् किस प्रकार विश्व की कुल जातियों का आकलन करते हैं?
उत्तर
पृथ्वी पर जातीय विविधता समान रूप से वितरित नहीं है, बल्कि एक रोचक प्रतिरूप दर्शाती है। पारिस्थितिकीविद् विश्व की कुल जातियों का आकलन अक्षांशों पर तापमान के आधार पर करते हैं। जैव विविधता साधारणतया, उष्ण कटिबन्ध क्षेत्र में सबसे अधिक तथा ध्रुवों की तरफ घटती जाती है। उष्ण कटिबन्ध क्षेत्र में जातीय समृद्धि के महत्त्वपूर्ण कारण इस प्रकार हैं- उष्ण कटिबन्ध क्षेत्रों (Tropical regions) में जैव जातियों को विकास के लिए अधिक समय मिला तथा इस क्षेत्र को अधिक सौर ऊर्जा प्राप्त हुई जिससे उत्पादकता अधिक होती है। जातीय समृद्धि किसी प्रदेश के क्षेत्र पर आधारित होती है। पारिस्थितिकीविद् प्रजाति की उष्ण एवं शीतोष्ण प्रदेशों (Temperate regions) में मिलने की प्रवृत्ति, अधिकता आदि की अन्य प्राणियों एवं पौधों से तुलना कर उसके अनुपात की गणना और आकलन करते हैं।

प्रश्न 3.
उष्ण कटिबन्ध क्षेत्रों में सबसे अधिक स्तर की जाति- समृद्धि क्यों मिलती है? इसकी तीन परिकल्पनाएँ दीजिए।
उत्तर
इस प्रकार की परिकल्पनायें निम्नवत् हैं –

  1. जाति उद्भवन (speciation) आमतौर पर समय का कार्य है। शीतोष्ण क्षेत्र में प्राचीन काल से ही बार-बार हिमनद (glaciation) होता रहा है जबकि उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र लाखों वर्षों से
    अबाधित रहा है। इसी कारण जाति विकास तथा विविधता के लिए लम्बा समय मिला है।
  2. उष्ण कटिबन्धीय पर्यावरण शीतोष्ण पर्यावरण (temperate environment) से भिन्न तथा कम मौसमीय परिवर्तन दर्शाता है। यह स्थिर पर्यावरण निकेत (niches) विशिष्टीकरण को।
    प्रोत्साहित करता रहा है जिसकी वजह से अधिकाधिक जाति विविधता उत्पन्न हुई है।
  3. उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में अधिक सौर ऊर्जा उपलब्ध है जिससे उत्पादन अधिक होता है जिससे परोक्ष रूप से अधिक जैव विविधता उत्पन्न हुई है।

प्रश्न 4.
जातीय-क्षेत्र सम्बन्ध में समाश्रयण (रिग्रेशन) की ढलान का क्या महत्त्व है?
उत्तर
जातीय- क्षेत्र सम्बन्ध (Species- area relationship) – जर्मनी के महान् प्रकृतिविद् व भूगोलशास्त्री एलेक्जेंडर वॉन हम्बोल्ट (Alexander Von Humboldt) ने दक्षिणी अमेरिका के जंगलों में गहन खोज के बाद जाति समृद्धि तथा क्षेत्र के मध्य सम्बन्ध स्थापित किया। उनके अनुसार कुछ सीमा तक किसी क्षेत्र की जातीय समृद्धि अन्वेषण क्षेत्र की सीमा बढ़ाने के साथ बढ़ती है। जाति समृद्धि और वर्गकों की व्यापक किस्मों के क्षेत्र के बीच सम्बन्ध आयताकार अतिपरवलय (rectangular hyperbola) होता है। यह लघुगणक पैमाने पर एक सीधी रेखा दर्शाता है। इस सम्बन्ध को निम्नांकित समीकरण द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है –
log S = log C + Z log A
जहाँ; S = जाति समृद्धि, A = क्षेत्र, Z = रेखीय ढाल (समाश्रयण गुणांक रिग्रेशन कोएफिशिएंट)
C = Y – अन्त:खण्ड (इंटरसेप्ट)
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 15 Biodiversity and Conservation img-1

पारिस्थितिकी वैज्ञानिकों के अनुसार z का मान 0.1 से 0.2 परास में होता है। यह वर्गिकी समूह अथवा क्षेत्र पर निर्भर नहीं करता है। आश्चर्यजनक रूप से समाश्रयण रेखा (regression line) की ढलान एक जैसी होती है। यदि हम किसी बड़े समूह के जातीय क्षेत्र सम्बन्ध जैसे- सम्पूर्ण महाद्वीप का विश्लेषण करते हैं, तब ज्ञात होता है कि समाश्रयण रेखा की ढलान तीव्र रूप से तिरछी खड़ी होती। है। Z के माने की परास (range) 0.6 से 1.2 होती है।

प्रश्न 5.
किसी भौगोलिक क्षेत्र में जाति क्षति के मुख्य कारण क्या हैं?
उत्तर
जाति क्षति के कारण (Causes of Species Loss) – विभिन्न समुदायों में जीवों की संख्या घटती-बढ़ती रहती है। जब तक किसी पारितन्त्र में मौलिक जाति उपस्थित रहती है तब तक प्रजाति के सदस्यों की संख्या में वृद्धि होती रहती है। मौलिक जाति के विलुप्त होने पर इसके जीनपूल में उपस्थित महत्त्वपूर्ण लक्षण विलुप्त हो जाते हैं। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, लेकिन मानव हस्तक्षेप के कारण सम्पूर्ण विश्व जाति क्षति की बढ़ती हुई दर का सामना कर रहा है। जाति क्षति के मुख्य कारण निम्नवत् हैं –

(i) आवासीय क्षति तथा विखण्डन (Habitat Loss and Fragmentation) – मानवीय हस्तक्षेप के कारण जीवों के प्राकृतिक आवासों का नाश हुआ है। जिसके कारण जातियों का विनाश गत 150 वर्षों में अत्यन्त तीव्र गति से हुआ है। मानव हितों के कारण औद्योगिक क्षेत्रों, कृषि क्षेत्रों, आवासीय क्षेत्रों में निरन्तर वृद्धि हो रही है जिससे वनों का क्षेत्रफल 18% से घटकर लगभग 9% रह गया है। आवासीय क्षति जन्तु व पौधे के विलुप्तीकरण का मुख्य कारण है।

विशाल अमेजन वर्षा वन को सोयाबीन की खेती तथा जानवरों के चरागाहों के लिए काट कर साफ कर दिया गया है। इसमें निवास करने वाली करोड़ों जातियाँ प्रभावित हुई हैं और उनके जीवन को खतरा उत्पन्न हो गया है। आवासीय क्षति के अतिरिक्त प्रदूषण भी जातियों के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है। मानव क्रियाकलाप भी जातीय आवासों को प्रभावित करते हैं। जब मानव क्रियाकलापों द्वारा बड़े आवासों को छोटे-छोटे खण्डों में विभक्त कर दिया जाता है, तब जिन स्तनधारियों और पक्षियों को अधिक आवास चाहिए वह बुरी तरह प्रभावित होते हैं जिससे समष्टि में कमी होती है।

(ii) अतिदोहन (Over Exploitation) – मानव हमेशा से भोजन तथा आवास के लिए प्रकृति पर निर्भर रहा है, परन्तु लालच के वशीभूत होकर मानव प्राकृतिक सम्पदा का अत्यधिक दोहन कर रहा है जिसके कारण बहुत-सी जातियाँ विलुप्त हो रही हैं। अतिदोहन के कारण गत 500 वर्षों में अनेक प्रजातियाँ विलुप्त हो गई हैं। अनेक समुद्री मछलियों की प्रजातियाँ शिकार के कारण कम होती जा रही हैं जिसके कारण व्यावसायिक महत्त्व की अनेक जातियाँ खतरे में हैं।

(iii) विदेशी जातियों का आक्रमण (Alien Species Invasions) – जब बाहरी जातियाँ अनजाने में या जान बूझकर किसी भी उद्देश्य से एक क्षेत्र में लाई जाती हैं, तब उनमें से कुछ आक्रामक होकर स्थानीय जातियों में कमी या उनकी विलुप्ति का कारण बन जाती हैं। गाजर घास (पार्थेनियम) लैंटाना और हायसिंथ ( आइकॉर्निया) जैसी आक्रामक खरपतवार जातियाँ पर्यावरण तथा अन्य देशज जातियों के लिए खतरा बन गई हैं। इसी प्रकार मत्स्य पालन के उद्देश्य से अफ्रीकन कैटफिश क्लेरियस गैरीपाइनस मछली को हमारी नदियों में लाया गया, लेकिन अब ये मछली हमारी नदियों की मूल अशल्कमीन (कैटफिश) जातियों के लिए खतरा पैदा कर रही हैं।

(iv) सहविलुप्तता (Co-extinctions) – एक जाति के विलुप्त होने से उस पर आधारित दूसरी जन्तु व पादप जातियाँ भी विलुप्त होने लगती हैं। उदाहरण के लिए– एक परपोषी मत्स्य जाति विलुप्त होती है, तब उसके विशिष्ट परजीवी भी विलुप्त होने लगते हैं।

(v) स्थानान्तरी अथवा झूम कृषि (Shifting or Jhum Cultivation) – जंगलों में रहने वाली जन जातियाँ विभिन्न जन्तुओं का शिकार करके भोजन प्राप्त करती हैं। इनका कोई निश्चित
आवास नहीं होता। ये जीवनयापन के लिए एक स्थान से दूसरे स्थानों पर स्थानान्तरित होती रहती हैं। ये जंगल की भूमि पर खेती करते हैं, इसके लिए ये जनजातियाँ प्राय: जंगल के पेड़-पौधों, घास फूस को जलाकर नष्ट कर देते हैं। इस प्रकार की कृषि को झूम कृषि कहते हैं। इसके कारण वन्य प्रजातियाँ स्थानाभाव के कारण प्रभावित होती हैं।

प्रश्न 6.
पारितन्त्र के कार्यों के लिए जैवविविधता कैसे उपयोगी है?
उत्तर
जैव विविधता की पारितन्त्र के कार्यों के लिए उपयोगिता (Utility of Biodiveristy for Ecosystem Functioning) – अनेक दशकों तक पारिस्थितिकविदों का विश्वास था कि जिस समुदाय में अधिक जातियाँ होती हैं वह पारितन्त्र कम जाति वाले समुदाय से अधिक स्थिर रहता है। डेविड टिलमैन (David Tilman) ने प्रयोगशाला के बाहर के भूखण्डों पर लम्बे समय तक पारितन्त्र के प्रयोग के बाद पाया कि उन भूखण्डों में जिन पर अधिक जातियाँ थीं, साल दर साल कुल जैवभार में कम विभिन्नता दर्शाई। उन्होंने अपने प्रयोगों में यह भी दर्शाया कि विविधता में वृद्धि से उत्पादकता बढ़ती है।

हम यह महसूस करते हैं कि समृद्ध जैव विविधता अच्छे पारितन्त्र के लिए जितनी आवश्यक है, उतनी ही मानव को जीवित रखने के लिए भी आवश्यक है। प्रकृति द्वारा प्रदान की गई जैव विविधता की अनेक पारितन्त्र सेवाओं में मुख्य भूमिका है। तीव्र गति से नष्ट हो रही अमेजन वन पृथ्वी के वायुमण्डल को लगभग 20 प्रतिशत ऑक्सीजन, प्रकाश संश्लेषण द्वारा प्रदान करता है। पारितन्त्र की दूसरी सेवा परागणकारियों; जैसे- मधुमक्खी, गुंजन मक्षिका पक्षी तथा चमगादड़ द्वारा की जाने वाली परागण क्रिया है जिसके बिना पौधों पर फल तथा बीज नहीं बन सकते। हम प्रकृति से अन्ये अप्रत्यक्ष सौन्दर्यात्मक लाभ उठाते हैं। पारितन्त्र पर्यावरण को शुद्ध बनाता है। सूखा तथा बाढ़ आदि को नियन्त्रित करने में हमारी मदद करता है।

प्रश्न 7.
पवित्र उपवन क्या हैं ? उनकी संरक्षण में क्या भूमिका है?
उत्तर
अलौकिक ग्रूव्स या पवित्र उपवन पूजा स्थलों के चारों ओर पाये जाने वाले वनखण्ड हैं। ये जातीय समुदायों/राज्य या केन्द्र सरकार द्वारा स्थापित किये जाते हैं। पवित्र उपवनों से विभिन्न प्रकार के वन्य जन्तुओं और वनस्पतियों को संरक्षण प्राप्त होता है क्योंकि इनके आस-पास हानिकारक मानव गतिविधियाँ बहुत कम होती हैं। इस प्रकार ये वन्य जीव संरक्षण में धनात्मक योगदान प्रदान करते हैं।

प्रश्न 8.
पारितन्त्र सेवा के अन्तर्गत बाढ़ व भू- अपरदन (सॉयल इरोजन) नियन्त्रण आते हैं। यह किस प्रकार पारितन्त्र के जीवीय घटकों (बायोटिक कम्पोनेंट) द्वारा पूर्ण होते हैं?
उत्तर
पारितन्त्र को संरक्षित कर बाढ़, सूखा व भू-अपरदन (soil erosion) जैसी समस्याओं पर नियन्त्रण पाया जा सकता है। वृक्षों की जड़ें मृदा कणों को जकड़े रहती हैं, जिससे जल तथा वायु प्रवाह में अवरोध उत्पन्न होते हैं। वृक्षों के कटान से यह अवरोध समाप्त हो जाता है। मृदा की ऊपरी उपजाऊ परत तीव्र वायु या वर्षा के जल के साथ बहकर नष्ट हो जाती है। इसे मृदा अपरदन कहते हैं। पहाड़ों में जल ग्रहण क्षेत्रों के वृक्षों को काटने से मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ आ जाती है और यह अधिक गम्भीर रूप धारण कर लेती है। बाढ़ के समय नदियों का पानी किनारों से तेज गति से टकराता है और इन्हें काटता रहता है। इसके फलस्वरूप नदी का प्रवाह सामान्य दिशा के अतिरिक्त अन्य दिशाओं में भी होने लगता है। वृक्षारोपण, बाढ़ नियन्त्रण तथा मृदा अपरदन को रोकने का प्रमुख उपाय है। वृक्ष मरुस्थलों में वातीय अपरदन (wind erosion) को रोकने में उपयोगी होते हैं। वृक्ष वायु गति की तीव्रता को कम करने में सहायक होते हैं जिससे अपरदन की दर कम हो जाती है।

प्रश्न 9.
पादपों की जाति विविधता (22 प्रतिशत), जन्तुओं (72 प्रतिशत) की अपेक्षा बहुत कम है। क्या कारण है कि जन्तुओं में अधिक विविधता मिलती है?
उत्तर
प्राणियों में अनुकूलन की क्षमता पौधों की अपेक्षा बहुत अधिक होती है। प्राणियों में प्रचलन का गुण पाया जाता है, इसके फलस्वरूप विपरीत परिस्थितियाँ होने पर ये स्थान परिवर्तन करके स्वयं को बचाए रखते हैं। इसके विपरीत पौधे स्थिर होते हैं, उन्हें विपरीत स्थितियों का अधिक सामना करना ही पड़ता है। प्राणियों में तन्त्रिका तन्त्र तथा अन्त:स्रावी तन्त्र पाया जाता है। इसके फलस्वरूप प्राणी वातावरण से संवेदनाओं को ग्रहण करके उसके प्रति अनुक्रिया करते हैं। प्राणी तन्त्रिका तन्त्र एवं अन्त:स्रावी तन्त्र के फलस्वरूप स्वयं को वातावरण के प्रति अनुकूलित कर लेते हैं। इन कारणों के फलस्वरूप किसी भी पारितन्त्र में प्राणियों में पौधों की तुलना में अधिक जैव विविधता पाई जाती है।

प्रश्न 10.
क्या आप ऐसी स्थिति के बारे में सोच सकते हैं, जहाँ पर हम जान-बूझकर किसी जाति को विलुप्त करना चाहते हैं? क्या आप इसे उचित समझते हैं?
उत्तर
जब बाहरी जातियाँ अनजाने में या जान-बूझकर किसी भी उद्देश्य से एक क्षेत्र में लाई जाती हैं, तब उनमें से कुछ आक्रामक होकर स्थानीय जातियों में कमी या उनकी विलुप्ति का कारण बन जाती हैं। गाजर घास लैंटाना और हायसिंथ (आइकॉर्निया) जैसी आक्रामक खरपतवार जातियाँ पर्यावरण तथा अन्य देशज जातियों के लिए खतरा बन गई हैं। इसी प्रकार मत्स्य पालन के उद्देश्य से अफ्रीकन कैटफिश क्लेरियस गैरीपाइनस मछली को हमारी नदियों में लाया गया, लेकिन अब ये मछली हमारी नदियों की मूल अशल्कमीन (कैटफिश जातियों) के लिए खतरा पैदा कर रही हैं। इन हानिकारक प्रजातियों को हमें जान-बूझकर विलुप्त करना होगा। इसी प्रकार अनेक विषाणु जैसे-पोलियो विषाणु को विलुप्त करके दुनिया को पोलियो मुक्त करना चाहते हैं।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न 
प्रश्न 1.
उत्तर प्रदेश का राज्य पक्षी है – (2015)
(क) मोर
(ख) सारस
(ग) कबूतर
(घ) गौरैया
उत्तर
(ख) सारस

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कौन-सा स्तनिन संकटग्रस्त नहीं है? (2016)
(क) लाल पाण्डा
(ख) कस्तूरी मृग
(ग) नील गाय
(घ) भारतीय बबर शेर
उत्तर
(ग) नील गाय

प्रश्न 3.
वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम किस सन में पारित किया गया था? (2014)
(क) 1942
(ख) 1972
(ग) 1912
(घ) 1991
उत्तर
(ख) 1972

प्रश्न 4.
प्राकृतिक वासस्थान में जीवों का संरक्षण कहलाता है (2017)
(क) उत्थाने संरक्षण
(ख) स्वस्थाने संरक्षण
(ग) (क) व (ख) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ख) स्वस्थाने संरक्षण

प्रश्न 5.
भारत में अभयारण्यों की कुल संख्या है – (2017)
(क) 515
(ख) 480
(ग) 520
(घ) 490
उत्तर
(ग) 520

प्रश्न 6.
भारत का प्रथम राष्ट्रीय उद्यान है – (2014)
(क) दुधवा राष्ट्रीय उद्यान
(ख) काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान
(ग) कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान
(घ) कान्हा राष्ट्रीय उद्यान
उत्तर
(ग) कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान

प्रश्न 7.
घाना राष्ट्रीय उद्यान किस प्रदेश में स्थित है? (2016)
(क) सिक्किम
(ख) असम
(ग) राजस्थान
(घ) उत्तराखण्ड
उत्तर
(ग) राजस्थान

प्रश्न 8.
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान भारत के किस राज्य में स्थित है? (2016)
(क) असम
(ख) गुजरात
(ग) महाराष्ट्र
(घ) पंजाब
उत्तर
(क) असम

प्रश्न 9.
एशियाई शेरों के लिए एकमात्र प्राकृतिक वास गिर राष्ट्रीय उद्यान कहाँ पर स्थित है। (2018)
(क) उत्तराखण्ड
(ख) राजस्थान
(ग) गुजरात
(घ) मध्य प्रदेश
उत्तर
(ग) गुजरात

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वन्य जीवन और जैव विविधता में अन्तर बताइए। (2015)
उत्तर
वन्य जीवन में वे सभी प्राणी तथा पादप आते हैं जो मनुष्य के नियन्त्रण और प्रभुत्व से दूर अपने प्राकृतिक वासस्थानों में रहते हैं जबकि जैव विविधता में सभी जीव, जातियाँ, समष्टियाँ, उनके बीच आनुवंशिक विभिन्नताएँ तथा सभी समुदायों के एकत्रित सम्मिश्र व पारिस्थितिक तन्त्र आते हैं।

प्रश्न 2.
वन्य जीवन क्या है? इसके विनाश के दो मुख्य कारण बताइए।
उत्तर
वन्य जीवन– (उपर्युक्त प्रश्न संख्या 1 का उत्तर देखें।)
विनाश के कारण– 1. वनोन्मूलन 2. वनों में लगने वाली आग

प्रश्न 3.
जैव विविधता की परिभाषा लिखिए। इसके संरक्षण की दो विधियों का उल्लेख कीजिए। (2015, 16, 17)
उत्तर
जैव विविधता (उपर्युक्त प्रश्न संख्या 1 का उत्तर देखें।)
जैव संरक्षण की विधियाँ- 1. स्वस्थाने संरक्षण 2. बहिस्थाने संरक्षण

प्रश्न 4.
विश्व पर्यावरण दिवस प्रतिवर्ष किस दिनांक को मनाया जाता है? इसका उद्देश्य क्या है? (2014)
उत्तर
जैव विविधता एवं पर्यावरण के संरक्षण के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है।

प्रश्न 5.
आइ०यू०सी०एन० (IUCN) तथा डब्लूडब्लू०एफ० (WWF) का पूरा नाम लिखिए।
उत्तर
IUCN – अन्तर्राष्ट्रीय प्राकृतिक संरक्षण संघ (International Union of Conservation of Nature and Natural Resources)
WWF – World Wide Fund.

प्रश्न 6.
निम्नलिखित प्राणी कहाँ पाये जाते हैं? (2014)

  1. बबर शेर
  2. बाघ

उत्तर

  1. बबर शेर – गुजरात के काठियावाड में स्थित गिर जंगल में।
  2. बाघ – पश्चिम बंगाल में स्थित सुन्दरवन में।

प्रश्न 7.
कौन-सा जन्तु अत्यधिक शिकार के कारण भारत में विलुप्त हो रहा है? (2017)
उत्तर
कस्तूरी मृग।

प्रश्न 8.
भारत के राष्ट्रीय जन्तु का नाम लिखिए। इसके संरक्षण के लिए कौन-सी परियोजना प्रारम्भ की गई है? (2014)
उत्तर
भारत के राष्ट्रीय जन्तु का नाम ‘बाघ’ है। इसके संरक्षण के लिए प्रोजेक्ट टाइगर’ परियोजना प्रारम्भ की गई है।

प्रश्न 9.
राष्ट्रीय पार्क एवं वन्य-जीव सैन्क्चुअरी में अन्तर बताइए। (2015)
या
उस प्रदेश तथा राष्ट्रीय उद्यान का नाम लिखिए जहाँ भारतीय गैंडे संरक्षित हैं। राष्ट्रीय उद्यान और प्राणि विहार में अन्तर बताइए। (2017)
उत्तर
राष्ट्रीय पार्क वन्य जीव एवं पारिस्थितिक तन्त्र दोनों के संरक्षण के लिए सुनिश्चित होते हैं। जबकि वन्य- जीव सैन्क्चुअरी केवल वन्य-जीव का संरक्षण करने के लिए सुनिश्चित होते हैं। काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान, सिबसागर, जोरहट (असम) एवं मानस प्राणिविहार बारपोटा (असम) में भारतीय गैंडों को संरक्षित किया गया है।

प्रश्न 10.
उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी स्थित राष्ट्रीय उद्यान का नाम लिखिए। (2014, 17)
उत्तर
दुधवा राष्ट्रीय उद्यान।

प्रश्न 11.
वन्य जीव क्या है? कॉर्बेट नेशनल पार्क किस राज्य में स्थित है? (2017)
उत्तर
वन्य जीव (प्रश्न संख्या 1 का उत्तर देखें)
कॉर्बेट नेशनल पार्क, नैनीताल, उत्तराखण्ड में स्थित है।

प्रश्न 12.
‘तप्त स्थल (हॉट स्पॉट) क्या हैं? भारत में स्थित दो तप्त स्थलों के नाम लिखिए। (2014, 17)
उत्तर
वह भौगोलिक क्षेत्र जहाँ की जैव विविधता संकट में होती है, तप्त स्थल कहलाता है। हिमालय (पूर्वी हिमालय) तथा पश्चिमी घाट भारत में स्थित प्रमुख तप्त स्थल हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वन्य प्राणियों के विनाश के चार प्रमुख कारण लिखिए। (2014)
या
प्राणियों के विलुप्तीकरण के कारण लिखिए। (2016)
उत्तर
वन्य प्राणियों के विनाश के चार प्रमुख कारण निम्नवत् हैं –

  1. तीव्र वनोन्मूलन जिसके कारण वन्य प्राणियों के प्राकृतिक आवास समाप्त होते जा रहे हैं।
  2. गैर-कानूनी रूप से वन्य प्राणियों का शिकार।
  3. मानव की क्रियाओं या भूलवश या प्राकृतिक कारणों से वनों में लगने वाली आग।
  4. प्रदूषण ने विभिन्न प्राणियों के आवासों को विभिन्न प्रकार से दूषित कर दिया है जिससे इनमें रहने वाले जीवों का जीवनकाल कम हो गया है।

प्रश्न 2.
वन्य प्राणी उत्पादों के लिए मनुष्य का लोभ’ शीर्षक पर टिप्पणी लिखिए। (2014)
उत्तर
स्वतन्त्रता के बाद, क्रीड़ा आखेट (game hunting) का स्थान फर, चमड़े, मांस, हाथीदाँत, औषधियों, प्रसाधनों, सुगन्ध-द्रव्यों, साज-सज्जा, स्मृति चिन्हों, संग्रहालयी निदर्शो (museum specimens) आदि के लिए, वन्य प्राणियों के चोरी और सीनाजोरी से शिकार ने ले लिया। इस प्रकार, वन्य प्राणियों का विनाश व्यापक और तीव्र गति से होने लगा। उदाहरणार्थ, एक कामोत्तेजक औषधि (aphrodisiac) के संश्लेषण में प्रयुक्त सींग के लिए गैंडे (rhinoceros) का विगत 40-50 वर्षों में व्यापक वध हुआ है। इसी प्रकार, हाथीदाँत (ivory) के लिए हाथियों का, कस्तूरी (musk-एक अत्यधिक सुगन्धित द्रव्य जो नर की नाभि के निकट स्थित एक पुटी में भरा होता है) के लिए कस्तूरी मृग (musk deer) का, चर्बी, मांस, खाल, आदि के लिए ह्वेल का, फर के लिए हिमालयी हिमचीते (Himalayan snow-leopard) का, चमड़े के लिये बाघों, लोमड़ियों, घड़ियालों, साँभर, साँपों आदि का व्यापक वध हुआ है और अब भी हो रहा है।

प्रश्न 3.
रेड डाटा बुक से आप क्या समझते हैं? इसकी उपयोगिता बताइए। (2014, 15)
या
रेड डाटा बुक किसे कहते हैं। इसमें उल्लिखित किन्हीं चार स्तनियों के नाम लिखिए। (2015)
उत्तर
विश्व संरक्षण संघ (World Conservation Union- WCU) – जिसे अन्तर्राष्ट्रीय प्राकृतिक संरक्षण संघ (International Union of Conservation of Nature and Natural Resources- IUCN या IUCNNR) भी कहा जाता है, के अध्ययन से ज्ञात हुआ कि जैव विविधता को विश्व के सभी भागों में अति संकट से गुजरना पड़ रहा है। इस सम्बन्ध में wCU ने अध्ययन द्वारा संकटग्रस्त जीवों की सूची लिपिबद्ध की जिसे रेड डाटा बुक कहा जाता है। इस सूची में उन जातियों एवं उपजातियों को सम्मिलित किया गया जो विलोपन के खतरे से गुजर रही हैं। इसका प्रकाशन पहली बार सन् 1963 में स्विट्जरलैण्ड में किया गया जहाँ WCU का मुख्यालय है। WCU ने रेड डाटा बुक में संकटग्रस्त जातियों को विभिन्न श्रेणियों में बाँटकर विभाजित किया और उन्हें सूचीबद्ध किया। रेड डाटा बुक की सहायता से हमें संकटग्रस्त जीवों की जानकारी आसानी से उपलब्ध हो जाती है। इस जानकारी की सहायता से हम उन संकटग्रस्त जीवों के संरक्षण के लिए प्रयास कर सकते हैं और उन्हें विलुप्त होने से बचा सकते हैं।
इसमें उल्लिखित चार स्तनी इस प्रकार हैं-

  1. काला हिरण
  2. चीतल
  3. चिंकारा तथा
  4. तेन्दुआ।

प्रश्न 4.
“भारत में वन्य प्राणियों की संकटग्रस्त जातियाँ” शीर्षक पर टिप्पणी लिखिए। (2014)
या
संकटग्रस्त जातियाँ किन्हें कहते हैं? कोई दो संकटग्रस्त जातियों के उदाहरण दीजिए। (2015)
या
संकटाग्रस्त जातियों से आप क्या समझते हैं? किन्हीं दो संकटाग्रस्त भारतीय स्तनधारी प्राणियों के नाम लिखिए। (2017)
उत्तर
हमारे देश में, इस समय, वन्य स्तनियों की लगभग 81, वन्य पक्षियों की लगभग 30, सरीसृपों और उभयचरों की लगभग 15 तथा अकशेरुकियों की बहुत-सी जातियाँ संकटग्रस्त हैं अर्थात् विलुप्त होने की कगार पर हैं, इन्हें संकटग्रस्त जातियाँ कहा जाता है। इनकी पूर्ण सूची, भारतीय शासन द्वारा प्रसारित “लाल आँकड़े’ (Red Data Book) नामक पुस्तक में दी गई हैं। हमारे संकटग्रस्त स्तनी मुख्यत: हैं—बबर शेर, बाघ, भेड़िये, सियार, लोमड़ियाँ, भालू, गन्ध बिलाव, लोरिस, अधिकांश जातियों के बन्दर, शल्की चींटीखोर, हिमचीता, गैंडा, जंगली गधा, जंगली सुअर, कस्तूरी मृग, कश्मीरी मृग, विविध जातियों के कुरंग, उड़न गिलहरियाँ, गंगों का सँस, सेही, गवले या गौर, जंगली भेड़े और बकरियाँ, गिब्बन, हाथी, जंगली भैंसे आदि।

हमारे संकटग्रस्त पक्षी मुख्यतः हैं- कुछ जातियों की बत्तखें, बाज, समुद्री गरुड़, बाँस तीतर, पहाड़ी बटेर, भारतीय पनचिरा, स्कन्ध मुर्गाबी (spur fowl), धनेश, हुकना, चेड़ (pheasant), सारस आदि।
संकटग्रस्त सरीसृप हैं- कई जातियों के कछुवे, मगरमच्छ, गोह, विषैले सर्प, अजगर इत्यादि।
संकटग्रस्त उभयचर मुख्यत: हैं- जरायुजी (viviparous) टोड तथा हिमालयी सरटिका (newt)।

प्रश्न 5.
जंगली जानवरों को सुरक्षित रखना क्यों आवश्यक है? इसके लिए सरकार द्वारा क्या कदम उठाया गया है? (2013)
या
वन्य जीव संरक्षण क्यों आवश्यक है? इस विषय में सरकार क्या कदम उठा रही है? (2015)
उत्तर
जंगल में जंगली जानवर पारिस्थितिक तन्त्र के जैविक घटक (biotic factors) होते हैं। ये जंगल में विभिन्न जीवों की संख्या को सीमित रखने में सहायक होते हैं। यदि इन्हें नष्ट कर दिया जायेगा तो जंगल में अन्य जीवों की संख्या में अचानक परिवर्तन आ जायेगा, जिससे वहाँ पारिस्थितिक तन्त्र में असन्तुलन की स्थिति आ जायेगी।
जंगली जानवरों की सुरक्षा के लिए सरकार द्वारा उठाये गये कदम निम्नवत् हैं –

  1. ZSI (Zoological Survey of India) – जुलोजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया का प्रमुख उद्देश्य जन्तुओं का सर्वेक्षण, अनुसंधान तथा पर्यवेक्षण है।
  2. IBWL (Indian Board for Wildlife) – वन्य जीवन भारतीय परिषद् का गठन भी वन्य जीवों के संरक्षण के लिये ही किया गया। इसका प्रमुख कार्य राष्ट्रीय उद्यानों, जन्तु विहारों तथा चिड़ियाघरों द्वारा जन्तुओं का संरक्षण करना है।
  3. भारतीय संविधान में जंगली जीवों के शिकार पर प्रतिबन्ध लगाया गया है।
  4. अनाधिकृत रूप से जंगलों को काटने पर रोक लगायी गयी है।
  5. वृक्षारोपण का कार्यक्रम राष्ट्रीय स्तर पर चलाया जा रहा है।
  6. भारतीय जन्तु सर्वेक्षण विभाग द्वारा संकटग्रस्त जातियों का अध्ययन किया जा रहा है जिसे लाल आँकड़े की किताब (Red Data Book) में सूचीबद्ध किया जा रहा है।

प्रश्न 6.
“बाघ परियोजना का वर्णन कीजिए। (2017)
उत्तर
बाघ परियोजना (Project Tiger) – इस परियोजना का आरम्भ सन् 1973 में किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य विभिन्न राष्ट्रीय उद्यानों में बाघों का संरक्षण करना है। इससे सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय उद्यान, कॉर्बेट नेशनल पार्क, नैनीताल (उत्तराखण्ड), रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान, सवाई माधोपुर (राजस्थान) एवं सुन्दरवन चीता अभयारण्य (पं बंगाल) हैं।

प्रश्न 7.
वन्यजीव की परिभाषा लिखिए। इसके संरक्षण की दो प्रमुख विधियों का वर्णन कीजिए। (2017)
उत्तर
वन्यजीव में वे सभी प्राणी तथा पादप आते हैं जो मनुष्य के नियन्त्रण और प्रभुत्व से दूर अपने प्राकृतिक वास स्थानों में रहते हैं। वन्य जीव संरक्षण विस्तृत रूप से दो प्रमुख विधियों द्वारा किया जाता है –
1. स्वस्थाने संरक्षण (In- situ Conservation) – स्वस्थाने संरक्षण वन्य जन्तुओं के प्राकृतिक आवास में किया जाता है। इसके लिए इन प्राकृतिक आवास स्थानों को निषिद्ध क्षेत्र घोषित कर दिया जाता है। निषेध की सीमा के अनुसार इन क्षेत्रों को निम्न प्रकारों में बाँटा गया है –

  1. राष्ट्रीय उद्यान (National Park)
  2. अभयारण (Sanctuaries)
  3. जीवमण्डल आरक्षित क्षेत्र (Biosphere reserve)
  4. अलौकिक ग्रूव्स तथा झीलें (Sacred grooves and lakes)

2. बहिस्थाने संरक्षण (Ex- situ Conservation) – इस संरक्षण में संकटोत्पन्न पादपों तथा जन्तुओं का उनके प्राकृतिक आवास से अलग एक विशेष स्थान पर अच्छी देखभाल की जाती है और सावधानीपूर्वक संरक्षित किया जाता है। इसके अन्तर्गत जन्तु उद्यान, वानस्पतिक उद्यान, वन्य जीव सफारी पार्क, बीज बैंक एवं जीन बैंक आदि आते हैं।

प्रश्न 8.
प्राणि विहार क्या है? भारत के दो प्राणि विहारों के नाम लिखिए। (2017)
उत्तर
अभयारण (प्राणि विहार, Sanctuaries) – अभयारण्यों का उद्देश्य केवल वन्य जीवन का संरक्षण करना होता है। अतः इसमें व्यक्तिगत स्वामित्व, लकड़ी काटने, पशुओं को चराने आदि की अनुमति इस प्रतिबन्ध के साथ दी जाती है कि इन क्रिया-कलापों से वन्य प्राणी प्रभावित न हों। इनकी स्थापना एवं नियन्त्रण सम्बन्धित राज्य सरकार के अधीन होती है। भारत में लगभग 520 अभयारण हैं। भारत के दो प्राणि विहार-

  1. जलदापारा जन्तु विहार, मदारीहाट-पश्चिमी बंगाल
  2. घाना पक्षी विहार, भरतपुर-राजस्थान।

प्रश्न 9.
जीवमण्डल आरक्षित क्षेत्र से आप क्या समझते हैं? भारत में कितने जीव-मण्डल आरक्षित क्षेत्र हैं? (2017)
या
संरक्षित जैवमण्डल क्या है? किन्हीं दो भारतीय संरक्षित जैवमण्डल के नाम लिखिए। (2018)
उत्तर
जीवमण्डल आरक्षित क्षेत्र (Biosphere Reserve) – सन् 1971 में यूनेस्को की मनुष्य एवं जीव-मण्डल परियोजना के अन्तर्गत मानव कल्याण हेतु जीवमण्डल के संरक्षण की दृष्टि से जीवमण्डल आरक्षित क्षेत्रों की स्थापना का शुभारम्भ किया गया। भारत में कुल 18 जीवमण्डल आरक्षित क्षेत्र हैं जिनमें से हिमालय प्रदेश का शीत मरुस्थल क्षेत्र तथा शेशाचालम प्रमुख हैं।

प्रश्न 10.
सिद्ध कीजिए कि “मानव-कल्याण, वन्य प्राणियों के साथ सहअस्तित्व में छिपा हुआ है।” (2014)
उत्तर
हजारों-लाखों वर्ष पूर्व का आदिमानव (primitive man) स्वयं एक वन्य प्राणि था जो भोजन के लिए अन्य वन्य प्राणियों का शिकार करता था। सभ्यता (civilization) और संस्कृति (culture) के उदय के साथ-साथ, प्रागैतिहासिक (prehistoric) मानव में वन्य प्राणियों के प्रति प्रेम और इनके साथ सहअस्तित्व की भावना का भी उदय हुआ। प्रारम्भ में प्रागैतिहासिक मानव ने, शिकार में सहायता हेतु, कुत्तों को पाला। भूवैज्ञानिक (geological) प्रमाणों से पता चलता है कि बाद में, लगभग 5000 वर्ष पूर्व की सिन्धु घाटी सभ्यता (Indus valley civilization) तक, गाय एवं बैल, भैंस, हाथी, बकरी, मछलियाँ, मगरमच्छ आदि कई प्रकार के वन्य प्राणी मानव-जीवन से सम्बद्ध हो गये।

इनके अतिरिक्त भी, भित्ति-चित्रणों में और सिक्कों, बर्तनों आदि पर खुदाई में शेर, बाघ, गैंडे, सर्प, बन्दर आदि कुछ ऐसे वन्य प्राणियों का समावेश हो गया जिनसे कि मानव घबराता या डरता था। इसके बाद, ईसापूर्व के धार्मिक दर्शनों (religious philosophies), जैसे कि हिन्दू धर्म (Hinduism), बौद्ध-धर्म (Budhhism), जैन- धर्म (Jainism) आदि में, वन्य प्राणियों के वध को रोकने हेतु, ‘अहिंसा (Ahimsa or non-violence) धार्मिक सिद्धान्त (sacred tenet) के रूप में अपनाया गया। आर्यों (Aryans) ने शेर, मृग, सारस, मोर, हाथी, बकरी, घड़ियाल, बैल, गरुड़ (eagle), बत्तख आदि को देवी-देवताओं की सवारियाँ (mounts) मानकर इनका सम्मान किया।

इस प्रकार उपर्युक्त वर्णन से सिद्ध होता है कि मानव-कल्याण वन्य प्राणियों के साथ सहअस्तित्व में छिपा हुआ है अर्थात् यदि मानव वन्य प्राणियों के साथ प्रेमभाव से रहेगा तो उनका कल्याण निश्चित है। परन्तु यदि वह उनका विनाश करता है तो कुछ समय पश्चात्, उनकी हानि परिलक्षित होने लगेगी।

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UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem (पारितन्त्र) are part of UP Board Solutions for Class 12 Biology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem (पारितन्त्र).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Chapter Chapter 14
Chapter Name Ecosystem
Number of Questions Solved 31
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem (पारितन्त्र)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
रिक्त स्थानों को भरो –

  1. पादपों को ……. कहते हैं; क्योंकि ये कार्बन डाइऑक्साइड का स्थिरीकरण करते हैं।
  2. पादप (वृक्ष) द्वारा प्रमुख पारितंत्र का पिरामिड (संख्या का) …… प्रकार का है।
  3. एकजलीय पारितन्त्र में उत्पादकता का सीमा कारक ……. है।
  4. हमारे पारितन्त्र में सामान्य अपरदाहारी …….. हैं।
  5. पृथ्वी पर कार्बन का प्रमुख भण्डार ……. है।

उत्तर

  1. स्वपोषी
  2. उल्टा
  3. प्रकाश
  4. केंचुए तथा सूक्ष्मजीवी,
  5. समुद्र।

प्रश्न 2.
एक खाद्य श्रृंखला में निम्नलिखित में सर्वाधिक संख्या किसकी होती है?
(क) उत्पादक
(ख) प्राथमिक उपभोक्ता
(ग) द्वितीयक उपभोक्ता
(घ) अपघटक
उत्तर
(घ) अपघटक।

प्रश्न 3.
एक झील में द्वितीय (दूसरा) पोषण स्तर होता है –
(क) पादपप्लवक
(ख) प्राणिप्लवक
(ग) नितलक (बैनथॉस)
(घ) मछलियाँ
उत्तर
(ख) प्राणिप्लवक।

प्रश्न 4.
द्वितीयक उत्पादक हैं –
(क) शाकाहारी (शाकभक्षी)
(ख) उत्पादक
(ग) मांसाहारी (मांसभक्षी)
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(क) शाकाहारी (शाकभक्षी)।

प्रश्न 5.
प्रासंगिक सौर विकिरण में प्रकाश संश्लेषणात्मक सक्रिय विकिरण का क्या प्रतिशत होता है?
(क) 100%
(ख) 50%
(ग) 1 – 5%
(घ) 2 – 10%
उत्तर
(घ) 2 – 10%.

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में अन्तर स्पष्ट करें –
(क) चारण खाद्य श्रृंखला एवं अपरद खाद्य श्रृंखला
(ख) उत्पादन एवं अपघटन
(ग) ऊर्ध्ववर्ती (शिखरांश) एवं अधोवर्ती पिरामिड
उत्तर
(क) चारण खाद्य श्रृंखला एवं अपरद खाद्य श्रृंखला में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem img-1
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem img-2

(ख) उत्पादन एवं अपघटन में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem img-3

(ग) ऊर्ध्ववर्ती एवं अधोवर्ती पिरामिड में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem img-4

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में अन्तर स्पष्ट करें –
(क) खाद्य श्रृंखला तथा खाद्य जाल (वेब) (2009, 10, 11, 14, 16, 17)
(ख) लिटर (कर्कट) एवं अपरद
(ग) प्राथमिक एवं द्वितीयक उत्पादकता
उत्तर
(क) खाद्य श्रृंखला तथा खाद्य जाल में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem img-5

(ख) लिटर (कर्कट) एवं अपरद में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem img-6

(ग) प्राथमिक एवं द्वितीयक उत्पादकता में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem img-7

प्रश्न 8.
पारिस्थितिक तन्त्र के घटकों की व्याख्या कीजिए। (2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18)
या
परिस्थितिक तन्त्र की परिभाषा लिखिए। (2018)
उत्तर
स्थलमण्डल, जलमण्डल तथा वायुमण्डल का वह क्षेत्र जिसमें जीवधारी रहते हैं जैवमण्डल (biosphere) कहलाता है। जैवमण्डल में पाए जाने वाले जैवीय (biotic) तथा अजैवीय (abiotic) घटकों के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन पारितन्त्र (ecosystem) कहलाता है। पारितन्त्र या पारिस्थितिक तन्त्र (ecosystem) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम टैन्सले (Tansley, 1935) ने किया था। यदि जीवमण्डल में जैविक, अजैविक अंश तथा भूगर्भीय, रासायनिक व भौतिक लक्षणों को शामिल करें तो यह पारिस्थितिक तन्त्र बनता है।

पारिस्थितिक तन्त्र सीमित व निश्चित भौतिक वातावरण का प्राकृतिक तन्त्र है जिसमें जीवीय (biotic) तथा अजीवीय (abiotic) अंशों की संरचना और कार्यों का पारस्परिक आर्थिक सम्बन्ध सन्तुलन में रहता है। इसमें पदार्थ तथा ऊर्जा का प्रवाह सुनियोजित मार्गों से होता है।

पारिस्थितिक तन्त्र के घटक
पारिस्थितिक तन्त्र के मुख्यतया दो घटक होते हैं- जैविक तथा अजैविक घटक।
1. जैविक घटक (Biotic components) – पारिस्थितिक तन्त्र में तीन प्रकार के जैविक घटक होते हैं- स्वपोषी (autotrophic), परपोषी (heterotrophic) तथा अपघटक (decomposers)।
(अ) स्वपोषी घटक (Autotrophic component) – हरे पादप पारितन्त्र के स्वपोषी घटक होते हैं। ये सौर ऊर्जा तथा क्लोरोफिल की उपस्थिति में CO2 तथा जल से प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा कार्बनिक भोज्य पदार्थों का संश्लेषण करते हैं। हरे पादप उत्पादक (producer) भी कहलाते हैं। हरे पौधों में संचित खाद्य पदार्थ दूसरे जीवों का भोजन है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem img-8

(ब) परपोषी घटक (Heterotrophic components) – ये अपना भोजन स्वयं नहीं बना सकते, ये भोजन के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पौधों पर निर्भर रहते हैं। इन्हें उपभोक्ता (consumer) कहते हैं। उपभोक्ता तीन प्रकार के होते हैं –

  1. प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता अथवा शाकाहारी (Herbivores) – ये उपभोक्ता अपना भोजन सीधे उत्पादकों (हरे पौधों) से प्राप्त करते हैं। इन्हें शाकाहारी कहते हैं। जैसे-गाय, बकरी, भैंस, चूहा, हिरन, खरगोश आदि।
  2. द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता अथवा मांसाहारी (Carnivores) – द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता भोजन के लिए शाकाहारी जन्तुओं का भक्षण करते हैं, इन्हें मांसाहारी कहते हैं जैसे- मेढक, साँप आदि।
  3. तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता – तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता से भोजन प्राप्त करते हैं जैसे- शेर, चीता, बाज आदि।
    कुछ जन्तु सर्वाहारी (omnivores) होते हैं, ये पौधों अथवा जन्तुओं से भोजन प्राप्त कर सकते हैं जैसे- कुत्ता, बिल्ली, मनुष्य आदि।

(स) अपघटक (Decomposers) – ये जीव कार्बनिक पदार्थों को उनके अवयवों में तोड़ देते हैं। ये मुख्यत: उत्पादक व उपभोक्ता के मृत शरीर का अपघटन करते हैं। इन्हें मृतजीवी भी कहते हैं। सामान्यतः ये जीवाणुकवक होते हैं। इसके फलस्वरूप प्रकृति में खनिज पदार्थों का चक्रण होता रहता है। उत्पादक, उपभोक्ता व अपघटक सभी मिलकर बायोमास (biomass) बनाते हैं।

2. अजैविक घटक (Abiotic components) – किसी भी पारितन्त्र के अजैविक घटक तीन भागों में विभाजित किए जा सकते हैं –

  1. जलवायवीय घटक (Climatic components) – जल, ताप, प्रकाश आदि।
  2. अकार्बनिक पदार्थ (Inorganic substances) – C, O, N, CO2 आदि। ये विभिन्न चक्रों के माध्यम से जैव-जगत् में प्रवेश करते हैं।
  3. कार्बनिक पदार्थ (Organic substances) – प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा आदि। ये अपघटित होकर पुनः सरल अवयवों में बदल जाते हैं।
    कार्यात्मक दृष्टि से अजैविक घटक दो भागों में विभाजित किए जाते हैं –

    1. पदार्थ (Materials) – मृदा, वायुमण्डल के पदार्थ जैसे- वायु, गैस, जल, CO2, O2, N2, लवण जैसे- Ca, S, P कार्बनिक अम्ल आदि।
    2. ऊर्जा (Energy) – विभिन्न प्रकार की ऊर्जा जैसे- सौर ऊर्जा, तापीय ऊर्जा, गतिज ऊर्जा, रासायनिक ऊर्जा आदि।

प्रश्न 9.
पारिस्थितिकी पिरैमिड को परिभाषित कीजिए तथा जैवमात्रा या जैवभार तथा संख्या के पिरैमिडों की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए। (2014, 15, 16, 17)
उत्तर
पारिस्थितिक पिरैमिड
पारितन्त्र में खाद्य श्रृंखला के विभिन्न पोषक स्तरों में जीवधारियों के सम्बन्धों का रेखीय चित्रण पारिस्थितिक पिरैमिड (pyramid) कहलाता है। पिरैमिड पारितन्त्र में जीव की संख्या, जीवभार तथा जैव ऊर्जा को प्रदर्शित करते हैं। इनका सर्वप्रथम प्रदर्शन एल्टन (Elton, 1927) ने किया था। इनमें सबसे नीचे का पोषी स्तर उत्पादक का होता है तथा सबसे ऊपर का पोषी स्तर सर्वोच्च उपभोक्ता का होता है।

(i) जीवभार का पिरैमिड (Pyramid of biomass) – जीव के ताजे (fresh) अथवा शुष्क (dry) भार के रूप में प्रत्येक पोषी स्तर को मापा जाता है। स्थलीय पारितन्त्र में उत्पादक का जीवभार सर्वाधिक होता है। अतः पिरैमिड सीधा रहता है। तालाबीय पारितन्त्र में उत्पादक का भार सबसे कम होता है। अतः पिरैमिड उल्टा बनता है। जीवभार को g/m2 में मापा जाता है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem img-9
(ii) संख्या का पिरैमिड (Pyramid of numbers) – इस पिरैमिड में विभिन्न पोषी स्तर के जीवों की संख्या को प्रदर्शित करते हैं। घास तथा तालाब पारितन्त्र में संख्या का पिरैमिड सीधा (upright) होता है। वृक्ष पारितन्त्र में उत्पादकों की संख्या सबसे कम (एक वृक्ष) तथा अन्तिम उपभोक्ता की संख्या सर्वाधिक होती है अतः यह पिरैमिड उल्टा होता है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem img-10

प्रश्न 10.
प्राथमिक उत्पादकता क्या है? उन कारकों की संक्षेप में चर्चा कीजिए जो प्राथमिक उत्पादकता को प्रभावित करते हैं।
उत्तर
प्राथमिक उत्पादकता (Primary Productivity) – हरे पौधे प्रकाश संश्लेषण द्वारा सौर ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में रूपान्तरित करके कार्बनिक पदार्थों में संचित कर देते हैं। यह क्रिया पर्णहरित तथा सौर प्रकाश की उपस्थिति में CO2 तथा जल के उपयोग द्वारा होती है। इस क्रिया के फलस्वरूप जैव जगत में सौर ऊर्जा का निरन्तर निवेश होता रहता है।

प्रकाश संश्लेषण द्वारा संचित ऊर्जा को प्राथमिक उत्पादन (primary production) कहते हैं। एक निश्चित अवधि में प्रति इकाई क्षेत्र में उत्पादित जीवभार (biomass) या कार्बनिक पदार्थ की मात्रा को भार (g/m2) या ऊर्जा (kcal/m2) के रूप में अभिव्यक्त करते हैं। ऊर्जा की संचय दर को प्राथमिक उत्पादकता (primary productivity) कहते हैं। इसे kcal/m2/yr  या  g/m2/r में अभिव्यक्त करते हैं।

प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में हरे पौधों द्वारा कार्बनिक पदार्थों में स्थिर (fixed) सौर ऊर्जा की कुल मात्रा को सकल प्राथमिक उत्पादन (Gross Primary Production : G.PP) कहते हैं।

प्राथमिक उत्पादकता को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Primary Production)-प्राथमिक उत्पादकता एक सुनिश्चित क्षेत्र में पादप प्रजातियों की प्रकृति पर निर्भर करती है। यह विभिन्न प्रकार के पर्यावरणीय कारकों (प्रकाश, ताप, वर्षा, आर्द्रता, वायु, वायुगति, मृदा का संघटन, स्थलाकृतिक कारक तथा सूक्ष्मजैवीय कारक आदि), पोषकों की उपलब्धता (मृदा कारक) तथा पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्षमता पर निर्भर करती है। इस कारण विभिन्न पारितन्त्रों की प्राथमिक उत्पादकता भिन्न-भिन्न होती है। मरुस्थल में प्रकाश तीव्र होता है, ताप की अधिकता और जल की कमी होती है। अत: इन क्षेत्रों में जल की कमी के कारण पोषकों की उपलब्धता कम रहती है। इस प्रकार प्राथमिक उत्पादकता प्रभावित होती है। इसके विपरीत उपयुक्त प्रकाश एवं ताप की उपलब्धता के कारण शीतोष्ण प्रदेशों में उत्पादन अधिक होता है।

प्रश्न 11.
अपघटन की परिभाषा दीजिए तथा अपघटन की प्रक्रिया एवं उसके उत्पादों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर
अपघटन (Decomposition) – अपघटकों (decomposers) जैसे- जीवाणु, कवक आदि द्वारा जटिल कार्बनिक पदार्थों को सरल अकार्बनिक पदार्थों जैसे-कार्बन डाइऑक्साइड, जल एवं पोषक तत्त्वों में विघटित करने की प्रक्रिया को अपघटन (decomposition) कहते हैं।

पादपों के मृत अवशेष जैसे- पत्तियाँ, छाल, फूल आदि तथा जन्तुओं के मृत अवशेष, मलमूत्र आदि को अपरद (डेट्राइटस-detritus) कहते हैं। अपघंटन की प्रक्रिया के महत्त्वपूर्ण चरण खण्डन, निक्षालन, अपचयन, ह्यूमस निर्माण तथा पोषक तत्त्वों का मुक्त होना है। केंचुए आदि को अपरदाहारी (detritivores) कहते हैं। ये अपरदे को छोटे-छोटे कणों में खण्डित करते हैं। इस प्रक्रिया को खण्डन (fragmentation) कहते हैं।

निक्षालन (leaching) प्रक्रिया में जल में घुलनशील अकार्बनिक पोषक मृदा में प्रवेश कर जाते हैं। शेष पदार्थ का अपचय जीवाणु तथा कवक द्वारा होता है। ह्यूमस निर्माण (humification) के फलस्वरूप गहरे भूरे-काले रंग का भुरभुरा पदार्थ ह्युमस (humus) बनता है। खनिजीकरण (mineralization) के फलस्वरूप ह्युमस (humus) से पोषक तत्त्व मुक्त हो जाते हैं। गर्म तथा आर्द्र वातावरण में अपघटन प्रक्रिया तीव्र होती है।

प्रश्न 12.
एक पारिस्थितिक तन्त्र में ऊर्जा प्रवाह का वर्णन कीजिए। (2015)
उत्तर
पारितन्त्र में ऊर्जा प्रवाह
पारितन्त्र को ऊर्जा मुख्य रूप से सौर ऊर्जा के रूप में प्राप्त होती है। सौर ऊर्जा का उपयोग हरे पादप (उत्पादक) ही कर सकते हैं। उत्पादक (हरे पौधे) प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा सौर ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में बदलकर कार्बनिक पदार्थों के रूप में संचित करते हैं। खाद्य पदार्थ के रूप में ऊर्जा उत्पादक (producers) से विभिन्न स्तर के उपभोक्ताओं (consumers) को प्राप्त होती है। ऊर्जा को प्रवाह एकदिशीय (unidirectional) होता है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem img-11

प्रत्येक खाद्य स्तर पर उपलब्ध ऊर्जा का 90% जीवधारी की जैविक क्रियाओं में खर्च हो जाता है, केवल 10% संचित ऊर्जा ही अगले खाद्य स्तर को हस्तान्तरित होती है। हस्तान्तरण के समय भी कुछ ऊर्जा का ह्रास होता है। इस प्रकार एक खाद्य स्तर से दूसरे खाद्य स्तर में केवल 10% ऊर्जा हस्तान्तरित होती है।

उदाहरणार्थ – एक खाद्य श्रृंखला में यदि उत्पादक के पास 100% ऊर्जा है तो प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता (शाकाहारी) को केवल 10% ऊर्जा मिलेगी। उससे दूसरी श्रेणी के उपभोक्ता (मांसाहारी) को केवल 1% ऊर्जा मिलेगी। इसी प्रकार अगली श्रेणी के उपभोक्ता को 0.1% ऊर्जा मिलती है। इस प्रकार एक से दूसरी श्रेणी के जीव को केवल 10% ऊर्जा पिछली श्रेणी से प्राप्त हो सकती है। उपभोक्ता में सर्वाधिक ऊर्जा केवल शाकाहारियों को प्राप्य है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem img-12
पारितन्त्र में ऊर्जा को एकपक्षीय प्रवाह तथा अकार्बनिक पदार्थों के परिसंचरण का पारिस्थितिकी सिद्धान्त सभी जीवों एवं पर्यावरण पर लागू होता है।

प्रश्न 13.
एक पारिस्थितिक तन्त्र में एक अवसादीय चक्र की महत्त्वपूर्ण विशिष्टताओं का वर्णन करें।
उत्तर
एक पारिस्थितिक तन्त्र में एक अवसादीय चक्र की महत्त्वपूर्ण विशिष्टताएँ इस प्रकार हैं –

  1. अवसादी चक्र (जैसे- सल्फर एवं फॉस्फोरस चक्र) के भण्डार धरती के पटल में स्थित होते हैं।
  2. पर्यावरणीय घटक (जैसे- मिट्टी, आर्द्रता, pH, ताप आदि) वायुमण्डल में पोषकों के मुक्त होने की दर तय करते हैं।
  3. एक भण्डार की क्रियाशीलता, कमी को पूरा करने के लिए होती है जोकि अन्तर्वाह एवं बहिर्वाह की दर के असंतुलन के कारण संपन्न होती है।
  4. अवसादी चक्र की गति गैसीय चक्र की अपेक्षा बहुत धीमी होती है।
  5. वायुमण्डल में अवसादी चक्र का निवेश कार्बन निवेश की अपेक्षा बहुत कम होता है।
  6. अवसादी पोषक तत्त्वों की एक बहुत घनी मात्रा पृथ्वी के अन्दर अचलायमान स्थिति में संचित रहती है।

प्रश्न 14.
एक पारिस्थितिक तंत्र में कार्बन चक्रण की महत्त्वपूर्ण विशिष्टताओं की रूपरेखा प्रस्तुत करें।
उत्तर
एक पारितन्त्र में कार्बन चक्रण की महत्त्वपूर्ण विशिष्टताएँ इस प्रकार हैं –

  1. जीवों के शुष्क भार का 49% भाग कार्बन से बना होता है।
  2. समुद्र में 71% कार्बन विलेय के रूप में विद्यमान है। यह सागरीय कार्बन भण्डार वायुमण्डल में CO2 की मात्रा को नियमित करता है।
  3. जीवाश्मी ईंधन भी कार्बन के एक भण्डार का प्रतिनिधित्व करता है।
  4. कार्बन चक्र वायुमण्डल, सागर तथा जीवित एवं मृतजीवों द्वारा संपन्न होता है।
  5. अनुमानतः जैव मण्डल में प्रकाश संश्लेषण के द्वारा प्रतिवर्ष 4 x 1013 किग्रा कार्बन का स्थिरीकरण होता है।
  6. एक महत्त्वपूर्ण कार्बन की मात्रा CO2 के रूप में उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं की श्वसन क्रिया के माध्यम से वायुमण्डल में वापस आती है। भूमि एवं सागरों में कचरा सामग्री एवं मृत कार्बनिक सामग्री के अपघटन की प्रक्रियाओं द्वारा भी CO2 की काफी मात्रा अपघटकों द्वारा छोड़ी जाती है।
  7. यौगिकीकृत कार्बन की कुछ मात्रा अवसादों में नष्ट होती है और संचरण द्वारा निकाली जाती है।
  8. लकड़ी के जलाने, जंगली आग एवं जीवाश्मी ईंधन के जलने के कारण, कार्बनिक सामग्री, ज्वालामुखीय क्रियाओं आदि अतिरिक्त स्रोतों द्वारा वायुमण्डल में CO2 को मुक्त किया जाता है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
पारिस्थितिकी सिद्धान्त को प्रतिपादित करने वाले वैज्ञानिक का नाम बताइए (2016)
(क) ए०जी० टैन्सले
(ख) के०आर० स्पोनें
(ग) जे०डी० वाटसन
(घ) एफ०एच०सी० क्रिक
उत्तर
(क) ए०जी० टैन्सले

प्रश्न 2.
पारिस्थितिक तन्त्र से सम्बन्धित वैज्ञानिक हैं। (2016)
(क) बीरबल साहनी
(ख) आर० मिश्रा
(ग) राम उदार
(घ) के०सी० मेहता
उत्तर
(ख) आर० मिश्रा

प्रश्न 3.
पोखर पारिस्थितिक तन्त्र में निम्नलिखित में से कौन प्राथमिक उत्पादक है? (2012, 15)
(क) शैवाल
(ख) कवक
(ग) विषाणु
(घ) जीवाणु
उत्तर
(क) शैवाल

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ऊर्जा के पिरैमिड की मुख्य विशेषता क्या है? (2016)
उत्तर
पारितंत्र में ऊर्जा का प्रवाह एकदिशीय होता है तथा ऊर्जा का पिरैमिड सदैव सीधा होता है।

प्रश्न 2.
उस जीवाणु का नाम लिखिए जो दलहनी पौधों की जड़ों की ग्रन्थियों में पाया जाता है। (2017, 18)
उत्तर
राइजोबियम लेग्यूमिनोसेरमा

प्रश्न 3.
लेगहीमोग्लोबिन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2017)
उत्तर
सहजीवी जीवाणु राइजोबियम दाल वाले पौधों की जड़ों के कॉर्टेक्स में लेग-हीमोग्लोबिन वर्णक एवं नाइट्रोजनेज एन्जाइम का संश्लेषण करता है। लेग-हीमोग्लोबिन कॉर्टेक्स कोशिकाओं में अवायवीय अवस्था को बनाये रखने में सहायक होता है।

प्रश्न 4.
कौन-सा शैवाल नाइट्रोजन स्थिरीकरण में भाग लेता है? (2012)
उत्तर
नाइट्रोसोमोनास (Nitrosomonas)।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
उत्पादक तथा उपभोक्ता में अन्तर बताइए। (2013, 14, 17)
उत्तर
उत्पादक तथा उपभोक्ता में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem img-13

प्रश्न 2.
घास स्थल पारिस्थितिक तन्त्र की एक प्रारूपिक खाद्य श्रृंखला का वर्णन कीजिए। (2009)
या
खाद्य श्रृंखला पर टिप्पणी लिखिए। (2009, 10, 15)
उत्तर
खाद्य श्रृंखला
सभी जीवों को अपना जीवन तथा जैव क्रियाएँ चलाने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। पृथ्वी पर ऊर्जा का प्राथमिक तथा एकमात्र स्रोत सूर्य है। इस ऊर्जा को केवल हरे पौधे पर्णहरित द्वारा ग्रहण कर पाते हैं और इसी ऊर्जा का स्थानान्तरण विभिन्न श्रेणी के जन्तुओं में खाद्य स्तरों (trophic levels) द्वारा होता है। प्रत्येक स्तर पर विभिन्न रूपों में 90% ऊर्जा का अपव्यय होता है, जिसमें कुछ ऊर्जा का इस्तेमाल धारक जीव स्वयं करता है। एक खाद्य श्रृंखला में खाद्य स्तरों की संख्या 4 से 5 तक हो सकती है।

इस प्रकार ऊर्जा इन खाद्य स्तरों के सभी जीवों में होकर एक सीधी रेखा में प्रवाहित होती है। और इस प्रकार के जीवों को एक श्रृंखला के रूप में पहचाना जा सकता है। यही श्रृंखला खाद्य श्रृंखला या आहार श्रृंखला (food chain) है, अर्थात् खाद्य श्रृंखला, विभिन्न प्रकार के जीवधारियों का वह क्रम है, जिसके द्वारा एक पारिस्थितिक तन्त्र में खाद्य पदार्थों के रूप में ऊर्जा का प्रवाह एक ही सीधी दिशा में होता है।

किसी भी खाद्य श्रृंखला के लिए हरे पौधे सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में बदलकर खाद्य पदार्थों का निर्माण करते हैं तथा उसे संचित करते हैं। अतः ये उत्पादक (producers) कहलाते हैं। शाकाहारी जन्तु (herbivorous animals) इन उत्पादकों से अपना भोजन प्राप्त करते हैं। अतः ये प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता (consumers) हैं। मांसाहारी जीव (carnivorous animals) अपने भोजन के लिए इन शाकाहारी अथवा अन्य मांसाहारियों पर निर्भर करते हैं।

ये द्वितीय अथवा तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता हैं। इसी प्रकार की खाद्य श्रृंखलाओं, जो एक-दूसरे जीव के भक्षण के लिए एक घास के मैदान में होती हैं, में से एक वह है, जिसमें टिड्डे (grasshopper) अर्थात् प्रथम उपभोक्ता पौधों (उत्पादकों) से अपना भोजन प्राप्त करते हैं, टिड्डों को मेढ़क (frog) खा जाते हैं। मेढ़कों को सर्प (snake) अपना भोजन बना लेते हैं; अन्त में सर्यों को बाज (hawk) अपना भोजन बनाता है।

यहाँ मेढ़क एक कीटाहारी तथा द्वितीय श्रेणी का उपभोक्ता है जबकि मेढ़क को अपना भोजन बनाने वाला सर्प मांसाहारी तथा तृतीय श्रेणी का उपभोक्ता है। सर्प को बाज खा जाता है, जिसको कोई नहीं खाता है अर्थात् बाज उच्चतम मांसाहारी (top carnivore) अथवा सर्वोच्च उपभोक्ता (top consumer) हुआ (चित्र देखिए)। किसी भी खाद्य श्रृंखला में वैकल्पिक रास्ते बनने से वह खाद्य जाल (food web) में बदल जाती है; जैसे-हरे पौधों को खाने वाले चूहे भी हो सकते हैं तथा चूहों को सर्प खा जाते हैं अर्थात् सर्प के लिए मेढ़क के साथ चूहा भी वैकल्पिक भोजन हुआ। इसी प्रकार, बाज के लिए चूहा, सर्प तथा मेढ़क तीनों वैकल्पिक भोजन हुए।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem img-14

किसी भी खाद्य श्रृंखला अथवा इनसे बने खाद्य जाल में मृत जीवों तथा इनके मृत अंगों अथवा इनके द्वारा त्यागे गये कार्बनिक पदार्थों को विभिन्न चक्रों के लिए कच्चे पदार्थों में बदलने वाले अपघटक (decomposers) भी होते हैं।
खाद्य श्रृंखलाएँ प्रमुखत: निम्नलिखित तीन प्रकार की होती हैं –

  1. परभक्षी श्रृंखला (Predator Chain) – यह श्रृंखला उत्पादकों अर्थात् हरे पौधों से आरम्भ होती है तथा छोटे जन्तुओं से क्रमशः बड़े जन्तुओं में जाती है।
  2. परजीवी श्रृंखला (Parasitic Chain) – यह श्रृंखला भी हरे पौधों से ही आरम्भ होती है, किन्तु बड़े जीवों से छोटे जीवों की ओर चलती है।
  3. मृतोपजीवी श्रृंखला (Saprophytic Chain) – यह श्रृंखला मृत जीवों या मृत कार्बनिक पदार्थ (dead organic matter) से सूक्ष्म-जीवों (micro-organisms) की ओर चलती है।

प्रश्न 3.
खाद्य जाल पर टिप्पणी लिखिए। (2015)
उत्तर
खाद्य जाल
विभिन्न खाद्य श्रृंखलाएँ मिलकर खाद्य जाल बनाती हैं। किसी एक ही पारितन्त्र में एक से अधिक खाद्य श्रृंखलाएँ पायी जाती हैं। ये पारितन्त्र में भोजन-प्राप्ति के वैकल्पिक पक्ष हैं। जिस पारितन्त्र में जितनी अधिक खाद्य श्रृंखलाएँ होती हैं वह उतना ही स्थिर होती है।

एक घास पारितन्त्र का खाद्य जाल निम्नवत् प्रदर्शित है –
आहारपूर्ति सम्बन्धों के अनुसार सभी जीवों का प्राकृतिक वातावरण या एक समुदाय में अन्य जीवों के साथ एक स्थान होता है। सभी जीव अपने पोषण या आहार के स्रोत के आधार पर आहार श्रृंखला में एक विशेष स्थान ग्रहण करते हैं, जिसे पोषण स्तर के नाम से जाना जाता है। उत्पादक प्रथम पोषण स्तर में आते हैं, शाकाहारी (प्राथमिक उपभोक्ता) दूसरे एवं मांसाहारी (द्वितीयक उपभोक्ता) तीसरे पोषण स्तर से सम्बद्ध होते हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem img-15

उत्तरोत्तर पोषण स्तरों पर ऊर्जा की मात्रा घटती जाती है। जब कोई जीव मरता है तो वह अपरद या मृत जैवमात्रा में बदल जाता है जो अपघटकों के लिए एक ऊर्जा स्रोत के रूप में काम करता है। प्रत्येक पोषण स्तर पर जीव अपनी ऊर्जा की आवश्यकता के लिए निम्न पोषण स्तर पर निर्भर रहता है।

प्रश्न 4.
मरुक्रमक पर टिप्पणी लिखिए। (2013)
उत्तर
यह चट्टानों पर प्रारम्भ होने वाला अनुक्रमण है। चट्टानों पर जल तथा कार्बनिक पदार्थों की अत्यधिक कमी होती है। चट्टानों पर सर्वप्रथम स्थापित होने वाला प्राथमिक समुदाय क्रस्टोज लाइकेन का होता है। मरुक्रमक में एक समुदाय निश्चित अवधि के पश्चात् दूसरे समुदाय से विस्थापित हो जाता है। इस क्रम में निम्न अवस्थाएँ पायी जाती हैं –

  1. क्रस्टोज लाइकेन अवस्था – अनावृत चट्टानों पर सर्वप्रथम क्रस्टोज लाइकेन, जैसे राइजोकापन, लिकोनोरा, गैफिस आदि उगते हैं। लाइकेन से स्रावित अम्ल चट्टानों का अपक्षय करते हैं। लाइकेन की मृत्यु से कार्बनिक पदार्थ एकत्र होने लगते हैं।
  2. फोलियोज लाइकेन अवस्था – मृदा की पतली पर्त पर फोलियोज लाइकेन, जैसे- पामलिया, डर्मेटोकापन, फाइसिया, जैन्थोरिया आदि उगते हैं। इनकी मृत्यु होने से मृदा तथा कार्बनिक पदार्थों की मोटी पर्त बन जाती है। इनके फलस्वरूप आवास फोलियोज लाइकेन के लिए अनुपयुक्त हो जाता है।
  3. मॉस अवस्था – चट्टानों पर मृदा तथा ह्युमस की मोटी पर्त आवास को मॉस के लिए उपयुक्त बना देती है। इस आवास में पॉलीट्राइकम, टॉटुला, फ्यूनेरिया, पोगोनेटम आदि सफलतापूर्वक उगते हैं। ब्रायोफाइट्स के निरन्तर अपघटन से चट्टानों पर कार्बनिक पदार्थों से युक्त मोटा स्तर बन जाता है। अब आवास शाकीय पौधों के लिए उपयुक्त बनने लगता है।
  4. शाक अवस्था – शाकीय पौधों के लिए आवास के उपयुक्त हो जाने से पोआ, फेस्टुका, एरिस्टिडा, ट्राइडेक्स, ऐजिरेटम आदि शाकीय पौधे उग आते हैं। चट्टानों का निरन्तर अपक्षय होता रहता है, ह्युमस की मात्रा बढ़ती रहती है। इसके फलस्वरूप झाड़ीदार पौधों का आक्रमण प्रारम्भ हो जाता है।
  5. झाड़ीय अवस्था – चट्टानों पर ह्यूमस युक्त मृदा की मोटी पर्त बन जाने से शाकीय पौधों के मध्य झाड़ीदार पौधे उगने लगते हैं, जैसे-कैपेरिस, कैसिया, यूरेना, क्रोटालेरिया आदि। झाड़ियों के उगने के कारण चट्टान अपक्षय के कारण मृदा में बदलने लगती है। वृक्षों का अतिक्रमण प्रारम्भ हो जाता है।
  6. चरम अवस्था – मरुस्थलीय वृक्ष आवास में वृद्धि करने लगते हैं। ये वृक्ष अपने आवास के साथ सन्तुलन बनाये रखते हैं। इसके फलस्वरूप वन क्षेत्रों का विकास हो जाता है। वृक्षों का समुदाय लगभग स्थायी समुदाय होता है।

प्रश्न 5.
जलक्रमक अनुक्रमण एवं मरुक्रमक अनुक्रमण में अन्तर बताइए। (2014)
उत्तर
वह अनुक्रमण जो जलीय आवास में प्रारम्भ होता है, जलक्रमक अनुक्रमण कहलाता है; जैसे-तालाब या झील का अनुक्रमण। इस अनुक्रमण के अन्तिम चरण में आने से पहले ही जलाशय लुप्त हो जाता है और वहाँ चरम समुदाय के रूप में वृक्षों का बाहुल्य स्थापित हो जाता है। इसके विपरीत वह अनुक्रमण जो अत्यन्त शुष्क वातावरण अर्थात् जहाँ जल की अत्यधिक कमी बनी रहती है, में प्रारम्भ होता है, मरुक्रमक अनुक्रमण कहलाता है; जैसे-नग्न चट्टानों एवं बालू के टीलों पर, मरुस्थल आदि का अनुक्रमण। नग्न चट्टानों के अनुक्रमण को शैलक्रमक तथा बालू के टीलों पर अनुक्रमण को बलुकियक्रमक अनुक्रमण भी कहा जाता है।

प्रश्न 6.
प्रकृति में कार्बन चक्र का एक रेखीय चित्र सहित वर्णन कीजिए। (2016)
उत्तर
कार्बन को जीवों का आधार माना जाता है। सजीव शरीर के शुष्क भार का 49 प्रतिशत भाग कार्बन से बना होता है और जल के पश्चात् यही आता है। यदि हम भूमण्डलीय कार्बन की पूर्ण मात्रा की ओर ध्यान दें तो हम देखेंगे कि समुद्र में 71 प्रतिशत कार्बन विलेय के रूप में विद्यमान है। यह सागरीय कार्बन भण्डार वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को नियमित करता है। वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड सम्पूर्ण आयतन का लगभग 0.03% होता है।

जीवाश्मी ईंधन भी कार्बन के एक भण्डार का प्रतिनिधित्व करता है। कार्बन चक्र वायुमण्डल, सागर तथा जीवित एवं मृत जीवों द्वारा सम्पन्न होता है। एक अनुमान के अनुसार जैवमण्डल में प्रकाश-संश्लेषण के द्वारा प्रतिवर्ष 4 x 1013 किग्रा कार्बन का स्थिरीकरण होता है। कार्बन की कुछ मात्रा CO2 (कार्बन डाइऑक्साइड) के रूप में उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं की श्वसन क्रिया के माध्यम से वायुमण्डल में वापस आती है।

इसके साथ ही भूमि एवं सागरों की कचरा सामग्री एवं मृत जीवों के कार्बनिक पदार्थों के अपघटन प्रक्रियाओं के द्वारा भी कार्बन डाइऑक्साइड की काफी मात्रा अपघटकों (decomposers) द्वारा छोड़ी जाती है। यौगिकीकृत कार्बन की कुछ मात्रा अवसादों में नष्ट होती है और संचरण द्वारा निकाली जाती है। लकड़ी के जलाने, जंगली आग एवं जीवाश्मी ईंधन के जलने के कारण, कार्बोनेटी चट्टानों तथा ज्वालामुखीय क्रियाओं आदि अतिरिक्त स्रोतों द्वारा वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड को मुक्त किया जाता है।

यदि सड़ने- गलने की प्रक्रिया धीमी हो जाये तो कार्बन यौगिक की बहुत अधिक मात्रा का भण्डारण हो जाता है। जब ये पृथ्वी में दब जाते हैं तो इनका अपघटन नहीं हो पाता। धीरे-धीरे ये तेल एवं कोयला में परिवर्तित हो जाते हैं। तेल और कोयले को जब जलाया जाता है तो कार्बन पुनः वायुमण्डल में आ जाता है। कार्बनिक कार्बन (organic carbon) के पृथ्वी में दब जाने से लाइमस्टोन चट्टान (limestone rock) बनती है। इस चट्टान के क्षरण (weathering) से कार्बन डाइऑक्साइड वायुमण्डल में पुनः वापस आ जाती है।

वायुमण्डल में कार्बनडाइऑक्साइड की मात्रा संतुलित होती है, किन्तु मानवीय क्रियाकलापों के कारण इसका संतुलन बिगड़ रहा है। तेजी से जंगलों का विनाश तथा परिवहन एवं ऊर्जा के लिए जीवाश्मी ईंधनों को जलाने आदि से महत्त्वपूर्ण रूप से वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड को मुक्त करने की दर बढ़ी है।
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प्रश्न 7.
‘पारिस्थितिक तन्त्र में मानव की भूमिका’ शीर्षक पर टिप्पणी लिखिए। (2015)
उत्तर
बहुत पुराने समय से मनुष्य प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र (natural ecosystem) को नष्ट करके अपनी इच्छानुसार बदलता रहा है। उसे मकान बनाने के लिए और ईंधन के लिए लकड़ी की आवश्यकता होती है। साथ ही वह अपनी इच्छानुसार विभिन्न फसलें उगाने व फलों के उद्यान लगाने के लिए भी प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र को नष्ट करता रहा है।

जिस समय संसार में कम मानव थे, प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र कम ही नष्ट होता था और मामूली रूप में बदल पाता था, परन्तु जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ रहने के लिए वे सड़क, आदि बनाने के लिए स्थान की आवश्यकता, मकान बनाने की सामग्री व ईंधन की आवश्यकता और खेती के लिए भूमि की आवश्यकता बढ़ती गई, जिस कारण प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र को उत्पादन, इत्यादि के विचार के बिना ही नष्ट कर दिया गया या उसका स्वरूप बहुत बदल दिया गया। इस प्रकार धीरे-धीरे सन्तुलित पारिस्थितिक तन्त्र (balanced ecosystem) समाप्त होने लगे, क्योंकि ऊर्जा और दूसरे पदार्थों का सन्तुलन मनुष्यों व जन्तुओं द्वारा नष्ट कर दिया गया।

मिट्टी की ऊपर की उपजाऊ सतह अथवा परत वायु व वर्षा के जल द्वारा अपरदन (erosion) से नष्ट होकर वनस्पतिविहीन हो गई। इस प्रकार मनुष्य द्वारा कृत्रिम पारिस्थितिक तन्त्र (artificial ecosystem) का विकास हुआ। बहुत से खरपतवार (weed) व जीवनाशी (pests) मनुष्य द्वारा भूमण्डल पर फैलकर प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र को बहुत हानि पहुँचाते हैं। प्राकृतिक वनस्पति के विनाश के कारण अपरदन (erosion), बाढ़ (flooding), रेत का एकत्रित होना (silting) अधिक तेजी से होता है। स्वच्छ जल के तालाबों का पारिस्थितिक तन्त्र बाढ़ से नष्ट हो जाता है। जलीय पारिस्थितिक तन्त्र (aquatic ecosystem ), गन्दे जल और कारखानों के बेकार बचे हुए पदार्थ से दूषित होकर बदल जाता है।

इसी प्रकार कोयला, गैस व तेल के अधिक मात्रा में जलने से वायु दूषित हो जाती है, क्योंकि इनके जलने से कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड व धुएँ के छोटे-छोटे कण पौधे की वृद्धि पर प्रभाव डालते हैं। मनुष्य विघ्न डालने वाले कार्यों द्वारा स्थिर पारिस्थितिक तन्त्रों को कम स्थिर पारिस्थितिक तन्त्रों में बदलता रहता है जिससे प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्रों की स्थिरता नष्ट हो जाती है। जिस समय शहर बनते हैं, पारिस्थितिक तन्त्र का और अधिक विनाश हो जाता है। खाद्य आपूर्ति में आने वाली फसलों के कारण पारिस्थितिक तन्त्रों को बदलना अधिक आवश्यक होता जा रहा है।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पारिस्थितिक तन्त्र कितने प्रकार के होते हैं? एक तालाब के पारिस्थितिक तन्त्र के विभिन्न घटकों का वर्णन कीजिए। (2010, 12, 13, 14, 17)
या
भारतीय पर्यावरण के एक पारिस्थितिक समूह का उदाहरण दीजिए तथा इसकी विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए। यह किस प्रकार असन्तुलित हो सकता है? (2014)
या
सन्तुलित पारिस्थितिक तन्त्र से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए। (2015)
उत्तर
पारिस्थितिक तन्त्र के प्रकार
पारिस्थितिक तन्त्र प्रमुखत: दो प्रकार के हो सकते हैं –

  1. जलीय (aquatic),
  2. स्थलीय (terrestrial)।

जलीय पारिस्थितिक समूह, भारतीय पर्यावरण में अलवणीय जल (fresh water), जैसे- तालाबीय पारितन्त्र (pond ecosystem) अथवा लवणीय जल (marine water); जैसे- कुछ झील, समुद्र आदि के पारितन्त्र हो सकते हैं।

तालाबीय पारितन्त्र के विभिन्न घटक
कोई जैव समुदाय तथा उसका पर्यावरण मिलकर एक जैविक इकाई (biological unit) बनाते हैं। तालाब में मिलने वाली जैव जातियाँ तथा अजैवीय वस्तुएँ परस्पर अन्तक्रियाएँ करके एक आत्मनिर्भर इकाई बनाते हैं। इसे तालाब का पारितत्र (pond ecosystem) कहते हैं। तालाब के पारितन्त्र के दो प्रमुख प्रकार के घटक इस प्रकार हैं –

1. अजैवीय घटक
जल, ताप, प्रकाश, अकार्बनिक पदार्थ, खनिज लवण, विभिन्न गैसें (CO2 एवं O2), कार्बनिक अवशेष, ह्युमस आदि अजैवीय घटक हैं।

2. जैवीय घटक
इन्हें निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित करते हैं –
(i) उत्पादक (Producers) – जलीय तथा उभयचारी (amphibious) हरे पौधे होते हैं. ये स्वपोषी (autotrophs) हैं। इनके जलाशय के तट से धरातल तक अनेक उदाहरण हो सकते हैं; जैसे-तट की दलदली मृदा से टाइफा (Typha), रेननकुलस (Ranunculus) आदि एवं जल में अनेक शैवाल, हाइड्रिला, वैलिसनेरिया आदि तथा पादप प्लवक (phytoplanktons) आदि। ये पौधे प्रकाश संश्लेषण द्वारा भोजन का निर्माण करते हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem img-17

(ii) उपभोक्ता (Consumers) – ये कई श्रेणियों में बँटे होते हैं; जैसे –

  1. प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता – जल में पाये जाने वाले छोटे-छोटे कीट- जन्तु प्लवक (zooplanktons), कोपीपोड (copepods), कीटों के लार्वी, कुछ ऐनीलिड्स (annelids) तथा मॉलस्क्स (molluscs) आदि। ये शाकाहारी (herbivores) हैं। और शैवालों, पत्तियों इत्यादि को भोजन के रूप में लेते हैं।
  2.  द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता – ये प्रमुखतः शिकारी कीट छोटी मछलियाँ आदि होती हैं, जो शाकाहारी उपभोक्ताओं का शिकार करते हैं; जैसे- मूंग (beetles) आदि। मेढ़क (frogs) भी प्रायः इसी श्रेणी के जन्तु होते हैं।
  3. तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता – विभिन्न प्रकार की मांसाहारी मछलियाँ (carnivorous fish) जो सभी श्रेणी के अन्य उपभोक्ताओं को अपना भोजन बनाती हैं। यहाँ उच्चतम उपभोक्ता (top consumers) ये ही हैं।

(iii) अपघटक (Decomposers) – मृत जीवों पर आश्रित रहने वाले जीव अर्थात् मृतोपजीवी जैसे- जीवाणु, कवक आदि। ये जीव तालाब में मृत जीवों का अपघटन कर उनके अवयवों को पर्यावरण में मुक्त करते हैं ताकि उत्पादक अर्थात् हरे पौधे इनको उपभोग कर सकें। इस प्रकार हरे पौधे जिन पदार्थों का उपयोग करके भोजन बनाते हैं अन्त में ये पदार्थ चक्रीकरण द्वारा विभिन्न जीवों से होते हुए अन्त में वापस जलीय भूमि में आ जाते हैं।

पारिस्थितिक तन्त्र का सन्तुलन
पारिस्थितिक तन्त्र का सन्तुलन उसमें उपस्थित खाद्य जाल (food web) की जटिलता और विशालता पर निर्भर करता है। खाद्य जाल जितना जटिल होता है उतना ही पारितन्त्र अधिक स्थायी होता है। जटिल खाद्य जाल में किसी भी उपभोक्ता के लिए अधिक प्रकार के जीव (खाद्य ऊर्जा) उपभोग के लिए उपलब्ध होंगे। अत: एक जीव के किसी कारण से कम हो जाने या नष्ट हो जाने से भी खाद्य जाल की स्थिरता पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि उस स्थान की पूर्ति उसी स्तर का कोई दूसरा जीव कर देगा अर्थात् अधिक संख्या में वैकल्पिक पथ होने पर पारिस्थितिक तन्त्र अधिक स्थिर तथा सन्तुलित रहता है।

असन्तुलन की दशा किसी भी पोषण स्तर (trophic level) में विनष्टीकरण की क्रिया से होती है। यह असन्तुलन चाहे तो उस स्तर के जीवों की स्वयं कमी के कारण, कम वैकल्पिक पथ होने पर अथवा प्रदूषण (pollution) के कारण हो सकता है। तालाबीय पारितन्त्र में जल प्रदूषण अनेक प्रकार के कीटनाशक, अपतृणनाशक आदि के कारण हो सकता है अथवा औद्योगिक संस्थानों से निकले अनावश्यक पदार्थों से भी हो सकता है, इनमें तापीय प्रदूषण भी सम्मिलित है। इनसे जलीय जीव-जन्तु मरने लगते हैं। सबसे अधिक प्रभाव छोटे जीवों पर होता है इससे प्रारम्भिक पोषक स्तरों के नष्ट होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

प्रश्न 2.
अनुक्रमण (यथाक्रम) से आप क्या समझते हैं ? तालाब में अनुक्रमण की क्रिया का वर्णन कीजिए। (2009, 11)
या
तालाब में होने वाले अनुक्रमण का संक्षिप्त में वर्णन कीजिए। (2015)
उत्तर
अनुक्रम या अनुक्रमण
जिस प्रकार किसी पारितन्त्र के घटकों (components) में जैवीय घटेकों (biotic components) का अत्यधिक महत्त्व है, उसी प्रकार किसी पारितन्त्र के निर्माण के समय उसके जैव समुदायों में पादप समुदाय का विशेष महत्त्व है। पादप समुदाय की उत्पत्ति तथा उसका परिवर्द्धन ही अन्य जैव समुदायों की दिशा भी निर्धारित करता है।

किसी स्थान को यदि वनस्पति विहीन कर दिया जाए तथा उसे मानव व मानव द्वारा पाले जाने वाले पशुओं की क्रियाओं से भी विलग कर दिया जाए तो धीरे-धीरे लेकिन एक निश्चित क्रम में उस स्थान पर वनस्पति उगनी प्रारम्भ होगी। कालान्तर में, एक स्थिति ऐसी आएगी जब वहाँ पर अपेक्षाकृत अधिक स्थायी समुदाय (stable community) निर्मित हो जाएगा।

इस प्रकार किसी नग्न स्थान पर शनैः-शनैः पादप समुदाय के जमाव को पादप अनुक्रम या अनुक्रमण (plant succession) कहते हैं। अनुक्रमण की विचारधारा को सर्वप्रथम वार्मिंग (Warming 1899) ने प्रस्तुत किया तथा क्लीमेण्ट्स (Clements, 1907 – 1916) ने इसे पोषित किया। क्लीमेण्ट्स ने इसे प्राकृतिक प्रक्रम कहा जिसमें पादप समुदायों के विभिन्न समूहों द्वारा क्रमिक रूप से एक ही क्षेत्र का उपनिवेशन (colonization) सम्मिलित है।

सामान्यतः समुदाय स्थायी इकाई नहीं है, बल्कि यह एक गतिक (dynamic) इकाई है जिसमें सन्तुलन के कारण आत्मनिर्भरता बनी रहती है। पर्यावरण में परिवर्तन होने से समुदाय की पादप जातियों में भी परिवर्तन आते हैं। परिवर्तन के प्रमुख कारणों में जलवायवीय, भू-आकृतिक अथवा जैविक परिवर्तन हो सकते हैं। जैव समुदाय की विभिन्न जातियों की क्रिया-प्रतिक्रियाएँ इन जैविक परिवर्तनों का आधार होती हैं। कालान्तर में उपर्युक्त प्रकार के परिवर्तनों के कारण समुदाय की संरचना में शनैः-शनैः परिवर्तन होते जाते हैं। इस प्रकार प्रमुख जातियाँ अन्य जातियों द्वारा प्रतिस्थापित होती जाती हैं। प्रतिस्थापन की ये प्रक्रियाएँ तब तक होती रहती हैं जब तक कि समुदाय की जातियों तथा पर्यावरण में परस्पर अपेक्षाकृत अधिक स्थायी सन्तुलन स्थापित नहीं हो जाता। इस प्रकार की समय के साथ समुदाय में परिवर्तन की प्रक्रिया को पारिस्थितिक अनुक्रमण (ecological succession) कहा गया है। ओडम ने इस प्रक्रिया को पारितन्त्र का परिवर्द्धन माना है।

स्पष्ट है, अनुक्रमण या परिवर्द्धन एक निर्धारित दिशा में बढ़ने वाली व्यवस्थित प्रक्रिया है। जिसमें समयान्तर के बाद जाति संरचना में परिवर्तन होता जाता है। इस प्रकार के परिवर्तन में ऊसर क्षेत्र (barren area) में, प्रारम्भिक रूप में, स्थापित समुदाय पुरोगामी समुदाय (pioneer community) तथा अन्तिम समुदाय को चरम समुदाय (climax community) कहा जाता है। अनुक्रम की इस प्रक्रिया के मध्य में चूंकि क्रमकी समुदायों (seral communities) का प्रतिस्थापन होता है अतः सम्पूर्ण प्रक्रिया या अनुक्रम क्रमक (sere) कहलाता है।

इस परिवर्तन का मूल कारण समुदाय के सदस्यों द्वारा पर्यावरण में परिवर्तन उत्पन्न करना है। इससे यह भी स्पष्ट है कि अनुक्रमण समुदाय द्वारा ही नियन्त्रित होता है और भौतिक वातावरण इसमें परिवर्तन की दर, इसके प्रतिरूप तथा परिवर्द्धन की सीमा को निर्धारित करता है। उपर्युक्त के परिणाम में समुदाय एक स्थायी पारितन्त्र (ecosystem) बन जाता है।
अनुक्रम निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं –

  1. प्राथमिक अनुक्रम (Primary Succession) – यह अनुक्रम उन नग्न स्थानों पर आरम्भ होता है जहाँ पर पहले किसी भी प्रकार की वनस्पति नहीं पाई जाती है।
  2. द्वितीयक अनुक्रम (Secondary Succession) – यह अनुक्रम उन स्थानों पर पाया जाता है। जहाँ पर पहले पूर्ण विकसित वनस्पति थी किन्तु बाद में किसी कारण से वह नष्ट हो गई।

अनुक्रमण की प्रक्रिया
क्लीमेण्ट्स ने सन् 1916 में अनुक्रमण की निम्नलिखित अवस्थाओं का उल्लेख किया-

  1. न्यूडेशन
  2. आक्रमण
  3. स्पर्धा
  4. प्रतिक्रिया
  5. चरम अवस्था।

जलक्रमक : खाली तालाब की अनुक्रम
जलक्रमक की विभिन्न अवस्थाओं को समझने के लिए कोई झील या सरोवर एक आदर्श स्थान हो सकता है जहाँ जल मध्य में तो गहरा होता है तथा किनारों की ओर क्रमशः छिछला (कम गहरा) होता चला जाता है। ऐसी परिस्थिति में जिन विभिन्न अवस्थाओं से चरम पादप समुदाय का विकास होता है, वे इस प्रकार हैं –
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1. प्लवक अवस्था (Plankton Stage) – जल की गहराई में पुरोगामी के रूप में पादप प्लवक (phytoplankton) तथा जन्तु प्लवक (zooplanktons) उत्पन्न होते हैं। ये मुख्यत: एककोशिकीय अथवा निवही (colonial) और समूह में रहने वाले हरे शैवाल, जीवाणु तथा अन्य सूक्ष्म जीव हैं जो जल की ऊपरी सतह पर तैरते रहते हैं। जल की गहराई में पादप जीवन
अनुपस्थित होता है।

2. निमग्न अवस्था (Submerged Stage) – 10 फीट या इससे कम गहरे पानी वाले झील क्षेत्र में पूर्णत: निमग्न पौधे तथा मुक्त प्लावी पौधे पाये जाते हैं। इनकी जड़े प्रायः नीचे कीचड़ में जमी रहती हैं। उदाहरण के लिए- मिरियोफिलम (Myriophyllum), इलोडीया (Elodea), पोटेमोजेटॉन (Potamogeton), हाइड्रिला (Hydrilla), वैलिसनेरिया (Vallisneria), यूट्रीक्युलरिया (Utricularia) आदि। इन पौधों के साथ शैवाल गुच्छ चिपके रहते हैं। किनारों से अपरदित मिट्टी के कण, जो गॅदले पानी में तैरते रहते हैं, इन पौधों द्वारा रोक लिये जाते हैं। इन पौधों की मृत्यु पर इनके अवशेष ह्युमस में परिवर्तित होकर तल में बैठ जाते हैं। इस प्रकार झीलों के तल में लगातार मिट्टी, कीचड़ ह्यूमस के जमा होते रहने से प्रतिवर्ष झील उत्तरोत्तर कम गहरी होती चली जाती है। गहराई कम होने के कारण अब यह स्थान निमग्न पादपों के लिए कम अनुकूल तथा नये पादपों के लिए अधिक अनुकूल हो जाता है।
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3. जड़ित प्लावी अवस्था (Rooted Floating Stage) – उपर्युक्त वर्णित अनेक कारणों से जल कम गहरा हो जाता है तथा 5 से 10 फीट गहरे पानी में प्लावी जातियाँ उगने लगती हैं। इन पौधों की जड़े तल में जमी रहती हैं परन्तु स्तम्भ अथवा पर्णवृन्त लगभग पानी के ऊपर पहुँच जाते हैं। तथा इनकी पत्तियाँ जल सतह पर तैरती रहती हैं। इनमें निम्फिया (Nymphaea), नीलम्बियम (Nelumbium), रैननकुलस (Ranunculus sp.), मोनोकोरिया (Monochoria), एपोनोजीटॉन (Aponogeton), ट्रापा (Trupa) प्रमुख हैं। इनके साथ ही कुछ मुक्त प्लावी जातियाँ; जैसे- लेम्ना (Lemng), वॉल्फिया (Wolfia), एजोली (Azolla), पिस्टिया (Pistiq), सालविनिया (Salvinia) इत्यादि निमग्न जातियों तक प्रकाश को नहीं पहुँचने देतीं जिसके फलस्वरूप निमग्न जातियाँ समाप्त हो जाती हैं। अपघटित कार्बनिक पदार्थ इत्यादि जमा होने से जल की गहराई कम होती जाती है। धीरे-धीरे प्लावी अवस्था भी समाप्त हो जाती है।

4. नइ अनूप अवस्था (Reed Swamp Stage) – जब जल की गहराई 2 से 3 फुट रह जाती है। तो नड़ अनूप या नरकुल अनूप जैसे पादप उगने लगते हैं। यहाँ पर टाइफा (Typha), सेजिटेरिया (Sagittaria), सिरपस (Scirpus), फ़ैगमाइट्स (Phragmites), रैननकुलस (Ranunculus) जैसे पादपों के साथ ही अत्यन्त कम जल में रूमेक्स (Rumex), एक्लिप्टा (Eclipta), इत्यादि पादप उगने लगते हैं। ये पौधे तल में जड़ों द्वारा जमे रहते हैं। इनके कुछ भाग पानी में डूबे रहते हैं। यहाँ पर दलदल बनने लगता है तथा धीरे-धीरे मिट्टी के जमाव के कारण यह स्थान कच्छ (marshy) भूमि में परिवर्तित होने लगती है।

5. कच्छ शादुल अवस्था (Marsh Meadow Stage) – मिट्टी के जमाव के कारण यह क्षेत्र कच्छ भूमि (जहाँ केवल कुछ इंच पानी ही हो) में परिवर्तित हो चुका होता है। इस भूमि पर पॉलीगोनम (Polygonum), पोदीना कुल के पौधे, ऊँची घास की जातियाँ- साइप्रस (Cyperus), जंकस (Juncus), कैरेक्स (Carex), इलीयोकैरिस (Eleocharis) आदि आकर जमने लगती हैं। यह एक शाद्वल (meadow) बन जाता है। ये पौधे भूमि जल का अत्यधिक अवशोषण करते हैं और इसे वाष्पोत्सर्जन द्वारा उड़ा देते हैं। इनके मृत अवशेषों के संचयन से, जल वाहित मृदा तथा वातोढ़ मृदा को रोककर भूमि का निर्माण करते हैं। ऐसी भूमि जलीय पौधों के पनपने के लिए अनुकूल नहीं होती; अतः अब यहाँ पर क्षुप तथा वृक्षों के पनपने की परिस्थिति बनने लगती है।

6. काष्ठीय वनस्पति अवस्था (Woodland Stage) – आर्द्र जलवायु में इस अनुक्रमण का अगला चरण क्षुपों; जैसे- सैलिक्स (Salix), कॉर्नस (Cormus) आदि तथा वृक्षों; जैसे- एल्मस (Almus), पॉपुलस (Populus) आदि की जातियों का पनपेना है। इस अवस्था में ऐसे पौधे पुरोगामी होते हैं जो अपनी जड़ों के आस-पास आंशिक जलाक्रान्त परिस्थितियों को सहन कर सकें। ये काष्ठीय पौधे आवास को अपने पूर्ववर्ती पौधों के समान ही छाया डालकर तथा तीव्र वाष्पोत्सर्जन द्वारा प्रभावित करते हैं। ये काष्ठीय पादप वातोढ़ मिट्टी को रोककर तथा पादप अवशेषों के संचयन द्वारा मिट्टी को शुष्क बनाते हैं।
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7. चरम वन (Climax Forest) – जैसे- जैसे ह्यूमस का संचयन होता है जीवाणु तथा अन्य सूक्ष्म जीव भूमि में बढ़ने लगते हैं और भूमि अधिक उर्वर होती चली जाती है। इस भूमि पर नये समोभिद वृक्ष प्रकट होने लगते हैं। ये वृक्ष भूमि को अपनी तरह से प्रभावित करते हैं। इनकी छाया (tree canopy) के नीचे वायु आई रहती है और इनकी छाया के नीचे छायासह (shade tolerant) क्षुप व शाक पनपने लगते हैं।

इस प्रकार एक क्षेत्र, जो जलमग्न था, अन्त में वन में परिवर्तित हो जाता है। यहाँ पर यह याद रखना आवश्यक है कि चरम समुदाय की प्रकृति वहाँ उपस्थित जलवायु पर निर्भर करती है; जैसे- शीतोष्ण (temperate) जलवायु में मिश्रित वन बनते हैं जिसमें एल्मस (Almus), एसर (Acer), क्वेरकस (Quercus) की जातियाँ होती हैं। उष्ण कटिबन्धीय या उपउष्ण कटिबन्धीय (subtropical) जलवायु में वर्षा की कमी या अधिकता के अनुसार वनों का विकास होता है; जैसे–कम वर्षा में पर्णपाती वन या मानसूनी वन, अधिक वर्षा में उष्ण कटिबन्धीय वर्षा वन आदि। वन समुदाय का विकास तभी होगा जब जलवायु आर्द्र होगी। शुष्क जलवायु में चरम समुदाय (climax community) घास स्थल (grass land) अथवा कोई अन्य शुष्कस्थली समुदाय हो सकता है।

प्रश्न 3.
नाइट्रोजन चक्र का वर्णन कीजिए और नाइट्रोजन स्थिरीकरण के महत्त्व को समझाइए। (2010, 11)
या
प्रकृति में नाइट्रोजन चक्र का वर्णन कीजिए। पौधों में इसके महत्त्व की व्याख्या कीजिए। (2009, 12)
या
केवल रेखीय चित्र की सहायता से नाइट्रोजन चक्र का प्रदर्शन कीजिए। (2015, 18)
या
नाइट्रीकरण का वर्णन कीजिए। (2015)
या
जीवाणु तथा नील-हरित शैवाल द्वारा नाइट्रोजन स्थिरीकरण पर टिप्पणी लिखिए। (2017)
या
दलहनी पौधों की जड़ में पाये जाने वाले जीवाणु का नाम लिखिए। ये पौधे जमीन की उर्वरा शक्ति को कैसे बढ़ाते हैं? (2018)
उत्तर
नाइट्रोजन तथा वायुमण्डल में इसका भौतिक चक्र
वायुमण्डल की गैसों में सबसे अधिक, लगभग 78 प्रतिशत मुक्त नाइट्रोजन होती है, किन्तु कुछ जीवाणु तथा नीली-हरी शैवालों को छोड़कर अन्य जीव इसका सीधे उपयोग करने में अक्षम हैं। इस मुक्त नाइट्रोजन का केवल कुछ प्रतिशत भौतिक व प्राकृतिक कारणों से ऑक्सीजन के साथ संयोग करके ऑक्साइड्स (NO2, NO आदि) बना लेता है। इस क्रिया में तड़ित क्रिया सम्मिलित है। ये ऑक्साइड्स वर्षा के जल के साथ भूमि पर गिरकर खनिजों के साथ क्रिया करते हैं और उनके नाइट्रेट्स आदि बना लेते हैं।
N2 + O2 → 2NO (nitric oxide)
2NO + O2 → 2NO2 (nitrogen peroxide)
2NO2 + H20 → HNO2 + HNO3 (nitrous acid + nitric acid)
यह क्रिया बहुत ही कम मात्रा में नाइट्रोजन को स्थिर कर पाती है।

नाइट्रोजन चक्र में हरे पौधों का महत्त्व
हरे पौधे भूमि से जड़ों द्वारा नाइट्रेट्स (nitrates =NO3) आदि खनिज लवणों को लेकर कार्बोहाइड्रेट के साथ मिलाते हैं तथा अपनी कोशिकाओं में प्रोटीन जैसे पदार्थों का निर्माण करते हैं। जन्तु किसी-न-किसी रूप में इसी प्रोटीन को भोजन के रूप में पौधों से प्राप्त करते हैं। जन्तुओं का जीवद्रव्य इन प्रोटीन्स को अमीनो अम्लों के रूप में ग्रहण कर, जन्तु प्रोटीन्स के रूप में आत्मसात कर लेता है। जन्तुओं के शरीर में अधिक मात्रा में बने अमीनो अम्लों को वे अमोनिया, यूरिया, यूरिक अम्ल आदि के रूप में बदलकर, उत्सर्जी पदार्थों के रूप में शरीर से बाहर निकाल देते हैं। पौधों तथा जन्तुओं के मृत होने पर भी ये नाइट्रोजन गुक्त यौगिक भूमि में आ जाते हैं।

सूक्ष्म जीवों का नाइट्रोजन स्थिरीकरण में महत्त्व
जीवाणुओं का नाइट्रोजन चक्र में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण योगदान है। मिट्टी में स्वतन्त्र रूप से रहने वाले कुछ जीवाणु वायुमण्डल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन स्थिर करके यौगिकों में बदल देते हैं: जैसे- एजोटोबैक्टर (Azotobacter), क्लॉस्ट्रीडियम (Clostridium) आदि। इसके अतिरिक्त लेग्यूमिनोसी (दलहनी) कुल के पौधों की जड़ों पर छोटी-छोटी गुलिकाओं में रहने वाले जीवाणु राइजोबियम लेग्यूमिनोसैरम (Rhizobium leguminosdrum) वायुमण्डल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन को नाइट्रेट में बदल देते हैं। जीवाणुओं द्वारा छोड़े गये नाइट्रोजन के ऐसे घुलनशील यौगिक पौधों द्वारा ग्रहण किये जाते हैं।

नील- हरित शैवाल जैसे नोस्टॉक, ऐनाबीना, रिबुलेरिया, ग्लीयोट्राइकिया, ऑलोसिरा आदि भी वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं।
अमोनीकरण एवं नाइट्रीकरण (Ammonification and Nitrification) – कुछ जीवाणु नाइट्रोजनी कार्बनिक पदार्थों को तोड़कर उपस्थित नाइट्रोजन को अमोनिया में बदल देते हैं। ऐसे जीवाणु अपघटक कहलाते हैं। अमोनिया जैसे पदार्थ हानिकारक हैं। कुछ जीवाणु, जैसे-नाइट्रोसोमोनासे (Nitrosomonas) अमोनिया को नाइट्राइट में और नाइट्रोबैक्टर (Nitrobacter) नाइट्राइट को नाइट्रेट में बदल देते हैं। इन जीवाणुओं को नाइट्रीकारक जीवाणु (nitrifying bacteria) कहते हैं।
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वायुमण्डल में नाइट्रोजन का कुछ अंश तड़ित विद्युत द्वारा ऑक्साइड्स में बदल जाता है जो बाद में जल के साथ मिलकर नाइट्रस नाइट्रिक अम्ल (nitrous and nitric acid) बना लेता है। ये अम्ल भूमि में खनिजों के साथ मिलकर नाइट्रेट बनाते हैं, जिन्हें पौधे अवशोषित करते हैं।
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विनाइट्रीकरण (Denitrification) – कुछ अन्य प्रकार के जीवाणु मिट्टी में मिलने वाले नाइट्रेट्स (nitrates) को तोड़कर नाइट्रोजन को वायु में मुक्त कर देते हैं। ऐसे जीवाणु विनाइट्रीकारी जीवाणु (denitrifying bacteria) कहलाते हैं तथा ये प्राय: अनॉक्सी अवस्थाओं में पाये जाते हैं; जैसे- थायोबैसिलस (Thiobacillus) व माइक्रोकॉकस (Micrococcus) की जातियाँ।
नाइट्रोजन का यह चक्र पर्यावरण में निरन्तर चलता रहता है और मृदा की उर्वरा शक्ति क्षीण नहीं होने पाती है।

नाइट्रोजन चक्र का महत्त्व
पृथ्वी पर प्रोटीन के बिना जीवों का अस्तित्व नहीं समझा जा सकता। ये जीवद्रव्य के अभिन्न अंग हैं। पौधे जड़ों से नाइट्रेट्स जैसे खनिज लवण अवशोषित कर अपनी कोशिकाओं में प्रोटीन का निर्माण करते हैं। जीव-जन्तु पौधों को खाते हैं। इस प्रकार जीवन को बनाये रखने तथा जीवद्रव्य की वृद्धि करने के लिए नाइट्रोजन चक्र का होना नितान्त आवश्यक है।
नाइट्रोजन चक्र के अन्य प्रमुख महत्त्व इस प्रकार हैं –

  1. नाइट्रोजन चक्र से ही वायु में नाइट्रोजन का सन्तुलन बना रहता है, जो ऑक्सीजन की सक्रियता को कम करने के लिए आवश्यक है।
  2. पौधों की वृद्धि तथा प्रकृति में भोजन प्राप्त कराने के लिए नाइट्रोजन चक्र अत्यन्त आवश्यक चक्र है।
  3. जीव-जन्तुओं की उचित वृद्धि खाद्य पदार्थों के बिना असम्भव है, जो नाइट्रोजन चक्र से आवश्यकतानुसार सम्भव है।
  4. वायुमण्डल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन का उपयोग करके, नाइट्रोजन के अनेक यौगिक विभिन्न उपयोगों के लिए प्राप्त किये जाते हैं।
  5. विभिन्न अपद्रव्यों का अपघटन होता रहता है।

अत: नाइट्रोजन चक्र प्रकृति का अत्यन्त आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण चक्र है।

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UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 13 Organisms and Populations

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Chapter Chapter 13
Chapter Name Organisms and Populations
Number of Questions Solved 35
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 13 Organisms and Populations (जीव और समष्टियाँ)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
शीत निष्क्रियता (हाइबर्नेशन) से उपरति (डायपाज) किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर
शीत निष्क्रियता (Hibernation) – यह इक्टोथर्मल या शीत निष्क्रिय जन्तुओं (cold-blooded animals), जैसे-एम्फिबियन्स तथा रेप्टाइल्स की शरद नींद (winter sleep) है। जिससे वे अपने आपको ठंड से बचाते हैं। इसके लिए वे निवास स्थान, जैसे-खोह, बिल, गहरी मिट्टी आदि में रहने के लिए चले जाते हैं। यहाँ शारीरिक क्रियाएँ अत्यधिक मन्द हो जाती हैं। कुछ चिड़ियाँ एवं भालू के द्वारा भी शीत निष्क्रियता सम्पन्न की जाती है।

उपरति (Diapause) – यह निलंबित वृद्धि या विकास का समय है। प्रतिकूल परिस्थितियों में झीलों और तालाबों में प्राणिप्लवक की अनेक जातियाँ उपरति में आ जाती हैं जो निलंबित परिवर्धन की एक अवस्था है।

प्रश्न 2.
अगर समुद्री मछली को अलवणजल (फ्रेशवाटर) की जलजीवशाला (एक्वेरियम) में रखा जाता है तो क्या वह मछली जीवित रह पाएगी? क्यों और क्यों नहीं?
उत्तर
अगर समुद्री मछली को अलवणजल (freshwater) की जल-जीवशाला में रखा जाए तो वह परासरणीय समस्याओं के कारण जीवित नहीं रह पाएगी तथा मर जाएगी। तेज परासरण होने के कारण रक्त दाब तथा रक्त आयतन बढ़ जाता है जिससे मछली की मृत्यु हो जाती है।

प्रश्न 3.
लक्षण प्ररूपी (फीनोटाइपिक) अनुकूलन की परिभाषा दीजिए। एक उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर
लक्षण प्ररूपी अनुकूलन जीवों का ऐसा विशेष गुण है जो संरचना और कार्यिकी की विशेषताओं के द्वारा उन्हें वातावरण विशेष में रहने की क्षमता प्रदान करता है। मरुस्थल के छोटे जीव, जैसे-चूहा, सॉप, केकड़ा दिन के समय बालू में बनाई गई सुरंग में रहते हैं तथा रात को जब तापक्रम कम हो जाता है तब ये भोजन की खोज में बिल से बाहर निकलते हैं। मरुस्थलीय अनुकूलन का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ऊँट है। इसके खुर की निचली सतह,चौड़ी और गद्देदार होती है। इसके पीठ पर संचित भोजन के रूप में वसा एकत्रित रहती है जिसे हंप कहते हैं। भोजन नहीं मिलने पर इस वसा का उपयोग ऊँट ऊर्जा के लिए करता है। जल उपलब्ध होने पर यह एक बार में लगभग 50 लीटर जल पी लेता है जो शरीर के विभिन्न भागों में शीघ्र वितरित हो जाता है। उत्सर्जन द्वारा इसके शरीर से बहुत कम मात्रा में जल बाहर निकलता है। यह प्रायः सूखे मल का त्याग करता है।

प्रश्न 4.
अधिकतर जीवधारी 45° सेंटीग्रेड से अधिक तापमान पर जीवित नहीं रह सकते। कुछ सूक्ष्मजीव (माइक्रोब) ऐसे आवास में जहाँ तापमान 100° सेंटीग्रेड से भी अधिक है, कैसे जीवित रहते हैं?
उत्तर
सूक्ष्मजीवों में बहुत कम मात्रा में स्वतन्त्र जल रहता है। शरीर से जल निकलने से उच्च तापक्रम के विरुद्ध प्रतिरोध उत्पन्न होता है। सूक्ष्मजीवों की कोशाभित्ति में ताप सहन अणु तथा तापक्रम प्रतिरोधक एंजाइम्स भी पाए जाते हैं।

प्रश्न 5.
उन गुणों को बताइए जो व्यष्टियों में तो नहीं पर समष्टियों में होते हैं।
उत्तर
समष्टि (population) में कुछ ऐसे गुण होते हैं जो व्यष्टि (individual) में नहीं पाए जाते। जैसे व्यष्टि जन्म लेता है, इसकी मृत्यु होती है, लेकिन समष्टि की जन्मदर (natality) और मृत्युदर (mortality) होती है। समष्टि में इन दरों को क्रमशः प्रति व्यष्टि जन्मदर और मृत्युदर कहते हैं। जन्म और मृत्युदर को समष्टि के सदस्यों के सम्बन्धों में संख्या में वृद्धि का ह्रास (increase or decrease) के रूप में प्रकट किया जाता है। जैसे- किसी तालाब में गत वर्ष जल लिली के 20 पौधे थे और इस वर्ष जनन द्वारा 8 नए पौधे और बन जाते हैं तो वर्तमान में समष्टि 28 हो जाती है तो हम जनन दर की गणना 8/20 = 0.4 संतति प्रति जल लिली की दर से करते हैं। अगर प्रयोगशाला समष्टि में 50 फल मक्खियों में से 5 व्यष्टि किसी विशेष अन्तराल (जैसे- एक सप्ताह) में नष्ट हो जाती हैं तो इस अन्तराल में समष्टि में मृत्युदर 5/50 = 0.1 व्यष्टि प्रति फलमक्खी प्रति सप्ताह कहलाएगी।

समष्टि की दूसरी विशेषता लिंग अनुपात अर्थात् नर एवं मादा का अनुपात है। सामान्यतया समष्टि में यह अनुपात 50 : 50 होता है, लेकिन इसमें भिन्नता भी हो सकती है जैसे- समष्टि में 60 प्रतिशत मादा और 40 प्रतिशत नर हैं।

निर्धारित समय में समष्टि भिन्न आयु वाले व्यष्टियों से मिलकर बनती है। यदि समष्टि के सदस्यों की आयु वितरण को आलेखित (plotted) किया जाए तो इससे बनने वाली संरचना आयु पिरैमिड (age pyramid) कहलाती है। पिरेमिड का आकार समष्टि की स्थिति को प्रतिबिम्बित करता है

  • क्या यह बढ़ रहा है,
  • स्थिर है या
  • घट रहा है।

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 13 Organisms and Populations img-1

समष्टि का आकार आवास में उसकी स्थिति को स्पष्ट करता है। यह सजातीय, अन्तर्जातीय प्रतिस्पर्धा, पीड़कनाशी, वातावरणीय कारकों आदि से प्रभावित होता है। इसे तकनीकी भाषा में समष्टि घनत्व से स्पष्ट करते हैं। समष्टि घनत्व का आकलन विभिन्न प्रकार से किया जाता है।
किसी जाति के लिए समष्टि घनत्व (आकार) निश्चित नहीं होता। यह समय-समय पर बदलता रहता है। इसका कारण भोजन की मात्रा, परिस्थितियों में अन्तर, परभक्षण आदि होते हैं। समष्टि की वृद्धि चार कारकों पर निर्भर करती है जिनमें जन्मदर (natality) और आप्रवासन (immigration) समष्टि में वृद्धि करते हैं, जबकि मृत्युदर (death rate-mortality) तथा उत्प्रावसन (emigration) इसे घटाते हैं। यदि आरम्भिक समष्टि No है, Nt एक समय अन्तराल है तथा । बाद की समष्टि है तो
Nt = No + (B + I) – (D + E)
= No + B + 1 – D – E

समीकरण से स्पष्ट है कि यदि जन्म लेने वाले ‘B’ संख्या + अप्रवासी ‘1’ की संख्या (B + I) मरने वालों की संख्या ‘D’ + उत्प्रवासी ‘E’ की संख्या से अधिक है तो समष्टि घनत्व बढ़ जाएगा अन्यथा घट जाएगा।
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प्रश्न 6.
अगर चरघातांकी रूप से (एक्स्पोनेन्शियली) बढ़ रही समष्टि 3 वर्ष में दोगुने साइज की हो जाती है तो समष्टि की वृद्धि की इन्ट्रिन्जिक दर (r) क्या है?
उत्तर
चरघातांकी वृद्धि (Exponential growth) – किसी समष्टि की अबाधित वृद्धि उपलब्ध संसाधनों (आहार, स्थान आदि) पर निर्भर करती है। असीमित संसाधनों की उपलब्धता होने पर समष्टि में संख्या वृद्धि पूर्ण क्षमता से होती है। जैसा कि डार्विन ने प्राकृतिक वरण सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हुए प्रेक्षित किया था, इसे चरघातांकी अथवा ज्यामितीय (exponential or geometric) वृद्धि कहते हैं। अगर N साइज की समष्टि में जन्मदर ‘b’ और मृत्युदर ‘d’ के रूप में निरूपित की जाए, तब इकाई समय अवधि ‘t’ में समष्टि की वृद्धि या कमी होगी –
[latex s=2]\frac { dN }{ dt } =(b\quad -\quad d)\quad \times \quad N[/latex]
मान लीजिए (b – a) =r है, तब
[latex s=2]\frac { dN }{ dt } =rN[/latex]

‘r’ प्राकृतिक वृद्धि की इन्ट्रिन्जिक दर (intrinsicrate) कहलाती है। यह समष्टि वृद्धि पर जैविक या अजैविक कारकों के प्रभाव को निर्धारित करने के लिए महत्त्वपूर्ण प्राचल (parameter) है। यदि समष्टि 3 वर्ष में दोगुने साइज की हो जाती है तो समष्टि की वृद्धि की इन्टिन्जिक दर 3r’ होगी।

प्रश्न 7.
पादपों में शाकाहारिता (हार्बिवोरी) के विरुद्ध रक्षा करने की महत्त्वपूर्ण विधियाँ बताइए।
उत्तर

  1. पत्ती की सतह पर मोटी क्यूटिकल का निर्माण।
  2. पत्ती पर काँटों का निर्माण, जैसे- नागफनी।
  3. काँटों के रूप में पत्तियों का रूपान्तरण, जैसे-डुरेन्टा।
  4. पत्तियों पर कॅटीले किनारों का निर्माण।
  5. पत्तियों में तेज सिलिकेटेड किनारों का विकास।
  6. बहुत से पादप ऐसे रसायन उत्पन्न और भण्डारित करते हैं जो खाए जाने पर शाकाहारियों को बीमार कर देते हैं। उनकी पाचन का संदमन करते हैं। उनके जनन को भंग कर देते हैं। यहाँ तक कि मार देते हैं, जैसे- कैलोट्रोपिस अत्यधिक विषैला पदार्थ ग्लाइकोसाइड उत्पन्न करता है।

प्रश्न 8.
ऑर्किड पौधा, आम के पेड़ की शाखा पर उग रहा है। ऑर्किड और आम के पेड़ के बीच पारस्परिक क्रिया का वर्णन आप कैसे करेंगे?
उत्तर
ऑर्किड पौधा तथा आम के पेड़ की शाखा सहभोजिता प्रदर्शित करता है। यह ऐसी पारस्परिक क्रिया है जिसमें एक जाति को लाभ होता है और दूसरी जाति को न लाभ और न हानि होती है। आम की शाखा पर अधिपादप के रूप में उगने वाले ऑर्किड को लाभ होता है जबकि आम के पेड़ को उससे कोई लाभ नहीं होता।

प्रश्न 9.
कीट पीड़कों (पेस्ट/इंसेक्ट) के प्रबन्ध के लिए जैव-नियन्त्रण विधि के पीछे क्या पारिस्थितिक सिद्धान्त है?
उत्तर
कृषि पीड़कनाशी के नियन्त्रण में अपनाई गई जैव नियन्त्रण विधियाँ परभक्षी की समष्टि नियमन की योग्यता पर आधारित हैं। परभक्षी, स्पर्धा शिकार जातियों के बीच स्पर्धा की तीव्रता कम करके किसी समुदाय में जातियों की विविधता बनाए रखने में भी सहायता करता है। परभक्षी पीड़कों का शिकार करके उनकी संख्या को उनके वास स्थान में नियन्त्रित रखते हैं। गेम्बूसिया मछली मच्छरों के लार्वा को खाती है और इस प्रकार कीटों की संख्या को नियन्त्रित रखती है।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित के बीच अन्तर कीजिए
(क) शीत निष्क्रियता और ग्रीष्म निष्क्रियता (हाइबर्नेशन एवं एस्टीवेशन)
(ख) बाह्योष्मी और आन्तरोष्मी (एक्टोथर्मिक एवं एंडोथर्मिक)
उत्तर
(क) शीत निष्क्रियता और ग्रीष्म निष्क्रियता के बीच अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 13 Organisms and Populations img-3

(ख) बाह्योष्मी और आन्तरोष्मी के बीच अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 13 Organisms and Populations img-4

प्रश्न 11.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए –
(क) मरुस्थलीय पादपों और प्राणियों का अनुकूलन, (2018)
(ख) जल की कमी के प्रति पादपों का अनुकूलन,
(ग) प्राणियों में व्यावहारिक (बिहेवियोरल) अनुकूलन,
(घ) पादपों के लिए प्रकाश का महत्त्व,
(ङ) तापमान और जल की कमी का प्रभाव तथा प्राणियों का अनुकूलन।
उत्तर
(क) 1. मरुस्थलीय पादपों के अनुकूलन इस प्रकार हैं –

  1. इनकी जड़ें बहुत लम्बी, शाखित, मोटी एवं मिट्टी के नीचे अधिक गहराई तक जाती हैं।
  2. इनके तने जल-संचय करने के लिए मांसल और मोटे होते हैं।
  3. रन्ध्र स्टोमैटल गुहा में धंसे रहते हैं।
  4. पत्तियाँ छोटी, शल्कपत्र या काँटों के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं।
  5. तना क्यूटिकिल युक्त तथा घने रोम से भरा होता है।

2. मरुस्थलीय प्राणियों के अनुकूलन इस प्रकार हैं –

  1. मरुस्थल के छोटे जीव, जैसे- चूहा, साँप, केकड़ा दिन के समय बालू में बनाई गई सुरंग में रहते हैं तथा रात को बिल से बाहर निकलते हैं।
  2. कुछ मरुस्थलीय जन्तु अपने शरीर के मेटाबोलिज्म से उत्पन्न जल का उपयोग करते हैं। उत्तरी अमेरिका के मरुस्थल में पाया जाने वाला कंगारू चूहा जल की आवश्यकता की पूर्ति अपनी आन्तरिक वसा के ऑक्सीकरण से करता है।
  3. जन्तु प्रायः सूखे मल का त्याग करता है।
  4. फ्रीनोसोमा तथा मेलोच होरिडस में काँटेदार त्वचा पाई जाती है।

(ख) जल की कमी के प्रति पादपों में अनुकूलन- ये मरुस्थलीय पादप कहलाते हैं। अत: इनका अनुकूलन मरुस्थलीय पादपों के समान होगा।

(ग) प्राणियों में व्यावहारिक अनुकूलन इस प्रकार हैं –

  1. शीत निष्क्रियता,
  2. ग्रीष्म निष्क्रियता,
  3. सामयिक सक्रियता,
  4. प्रवास आदि।

(घ) पादपों के लिए प्रकाश का महत्त्व इस प्रकार है –

  1. ऊर्जा का स्रोत,
  2. दीप्तिकालिक आवश्यकता,
  3. वाष्पोत्सर्जन,
  4. पुष्पन,
  5. पादप गति,
  6. पिग्मेंटेशन,
  7. वृद्धि
  8. कंद निर्माण आदि।

(ङ) 1. तापमान में कमी का प्रभाव तथा प्राणियों का अनुकूलन इस प्रकार है –

  1. शीत निष्क्रियता,
  2. सामयिक सक्रियता,
  3. प्रवास आदि।

2. जल की कमी का प्रभाव तथा प्राणियों का अनुकूलन इस प्रकार है –

  1. सूखे मल का त्याग करना।
  2. अपने शरीर के मेटाबोलिज्म से उत्पन्न जल का उपयोग करना।
  3. सूखे वातावरण को सहने की क्षमता।
  4. उत्तरी अमेरिका के मरुस्थल में पाया जाने वाला कंगारू चूहा जल की आवश्यकता की पूर्ति अपने आन्तरिक वसा के ऑक्सीकरण से करता है।

प्रश्न 12.
अजैवीय (abiotic) पर्यावरणीय कारकों की सूची बनाइए।
उत्तर
अजैवीय पर्यावरणीय कारक (Abiotic Environmental Factors) – विभिन्न अजैवीय कारकों को निम्नलिखित तीन समूहों में बाँट सकते हैं –

  1. जलवायवीय कारक (Climatic factors) – प्रकाश, ताप, वायुगति, वर्षा, वायुमण्डलीय नमी तथा वायुमण्डलीय गैसें।
  2. मृदीय कारक (Edaphic factors) – खनिज पदार्थ, कार्बनिक पदार्थ, मृदा जल तथा मृदा वायु।
  3. स्थलाकृतिक कारक (Topographic factors) – स्थान की ऊँचाई, भूमि का ढाल, पर्वत की दिशा आदि।

प्रश्न 13.
निम्नलिखित का उदाहरण दीजिए –

  1. आतपोभिद् (हेलियोफाइट)
  2. छायोदभिद (स्कियोफाइट)
  3. सजीवप्रजक (विविपेरस) अंकुरण वाले पादप
  4. आन्तरोष्मी (एंडोथर्मिक) प्राणी
  5. बाह्योष्मी (एक्टोथर्मिक) प्राणी
  6. नितलस्थ (बैन्थिक) जोन का जीव।

उत्तर

  1. सूर्यमुखी
  2. फ्यूनेरिया
  3. राइजोफोरा
  4. पक्षी तथा स्तनधारी
  5. ऐम्फीबियन्स तथा रेप्टाइल्स
  6. जीवाणु, स्पंज, तारा मछली आदि।

प्रश्न 14.
समष्टि (पॉपुलेशन) और समुदाय (कम्युनिटी) की परिभाषा दीजिए।
उत्तर

  1. समष्टि (Population) – किसी खास समय और क्षेत्र में एक ही प्रकार की स्पीशीज के व्यष्टियों या जीवों की कुल संख्या को समष्टि कहते हैं।
  2. समुदाय (Community) – किसी विशिष्ट आवास-स्थान की जीव-समष्टियों का स्थानीय संघ समुदाय कहलाता है।

प्रश्न 15.
निम्नलिखित की परिभाषा दीजिए और प्रत्येक का एक-एक उदाहरण भी दीजिए –

  1. सहभोजिता,
  2. परजीविता,
  3. छद्मावरण,
  4. सहोपकारिता, (2018)
  5. अन्तरजातीय स्पर्धा।

उत्तर

  1. सहभोजिता (Commensalism) – यह ऐसी पारस्परिक क्रिया है जिसमें एक जाति को लाभ होता है और दूसरी जाति को न लाभ और न हानि होती है। उदाहरण-आम की शाखा पर उगने वाला ऑर्किड तथा ह्वेल की पीठ पर रहने वाला बार्नेकल।
  2. परजीविता (Parasitism) – दो जातियों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध जिसमें एक जाति को लाभ होता है जबकि दूसरी जाति को हानि, परजीविता कहलाती है। उदाहरण-मानव यकृत पर्णाभ (लिवर फ्लूक)।
  3. छद्मावरण (Camouflage) – जीवों के द्वारा अपने आपको परभक्षी द्वारा आसानी से पहचान लिए जाने से बचने के लिए गुप्त रूप से रंगा होना, छद्मावरण कहलाता है। उदाहरण- कीट एवं मेंढक की कुछ जातियाँ।
  4. सहोपकारिता (Mutualism) – दो जातियों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध जिसमें दोनों जातियों को लाभ होता है, सहोपकारिता कहलाती है। उदाहरण- शैवाल एवं कवक से मिलकर बना | हुआ लाइकेन।
  5. अन्तरजातीय स्पर्धा (Interspecies Competition) – जब निकट रूप से सम्बन्धित जातियाँ उपलब्ध संसाधनों (भोजन, आवास) के लिए स्पर्धा करती हैं जो सीमित हैं, अन्तरजातीय स्पर्धा कहलाती है। उदाहरण-गैलापैगोस द्वीप में बकरियों के आगमन से एबिंग्डन का विलुप्त होना। बार्नेकल बेलनेस के द्वारा बार्नेकल चैथेमैलस को भगाना।

प्रश्न 16.
उपयुक्त आरेख की सहायता से लॉजिस्टिक (सम्भार तन्त्र) समष्टि वृद्धि का वर्णन कीजिए।
उत्तर
प्रकृति में किसी भी समष्टि के पास इतने असीमित साधन नहीं होते कि चरघातांकी वृद्धि होती रहे। इसी कारण सीमित संसाधनों के लिए व्यष्टियों में प्रतिस्पर्धा होती है। आखिर में योग्यतम् व्यष्टि जीवित बना रहेगा और जनन करेगा। प्रकृति में दिए गए आवास के पास अधिकतम सम्भव संख्या के पालन-पोषण के लिए पर्याप्त संसाधन होते हैं, इससे आगे और वृद्धि सम्भव नहीं है। उस आवास में उस जाति के लिए इस सीमा को प्रकृति की पोषण क्षमता (K) मान लेते हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 13 Organisms and Populations img-5

किसी आवास में सीमित संसाधनों के साथ वृद्धि कर रही समष्टि आरम्भ में पश्चता प्रावस्था (लैग फेस) दर्शाती है। उसके बाद त्वरण और मंदन और अन्ततः अनन्तस्पर्शी प्रावस्थाएँ आती हैं। समष्टि घनत्व पोषण क्षमता प्रकार की समष्टि वृद्धि विर्हस्ट-पर्ल लॉजिस्टिक वृद्धि कहलाता है। इसे निम्न समीकरण के द्वारा निरूपित किया जाता है –
[latex s=2]\frac { dN }{ dt } [/latex] = rN = [latex s=2]\frac { K-N }{ K } [/latex] जहाँ, N = समय t में समष्टि घनत्व,
r = प्राकृतिक वृद्धि की दर,
K = पोषण क्षमता।

प्रश्न 17.
निम्नलिखित कथनों में परजीविता को कौन-सा कथन सबसे अच्छी तरह स्पष्ट करता है?
(क) एक जीव को लाभ होता है।
(ख) दोनों जीवों को लाभ होता है।
(ग) एक जीव को लाभ होता है, दूसरा प्रभावित नहीं होता है।
(घ) एक जीव को लाभ होता है, दूसरा प्रभावित होता है।
उत्तर
(घ) एक जीव को लाभ होता है, दूसरा प्रभावित होता है।

प्रश्न 18.
समष्टि की कोई तीन महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ बताइए और व्याख्या कीजिए।
उत्तर
समष्टि की तीन महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ इस प्रकार हैं –

  1. समष्टि आकार और समष्टि घनत्व (population size and population density)
  2. जन्मदर (birth rate),
  3. मृत्युदर (mortality rate)।

व्याख्या (i) समष्टि आकार और समष्टि घनत्व – किसी जाति के लिए समष्टि का आकार स्थैतिक प्रायता नहीं है। यह समय-समय पर बदलता रहता है जो विभिन्न कारकों, जैसे- आहार उपलब्धती, परभक्षण दाब और मौसमी परिस्थितियों पर निर्भर करता है। समष्टि घनत्व बढ़ रहा है। अथवा घट रहा है कारण कुछ भी हो, परन्तु दी गई अवधि के दौरान दिए गए आवास में समष्टि का घनत्व चार मूलभूत प्रक्रमों में घटता-बढ़ता है। इन चारों में से दो (जन्मदर और आप्रवासन) समष्टि घनत्व को बढ़ाते हैं और दो (मृत्युदर और उत्प्रवासन) इसे घटाते हैं।
अगर समय t में समष्टि घनत्व N है तो समय t + 1 में इसका घनत्व Nt + 1 = Nt + (B + I) – (D + E) होगा।

उपरोक्त समीकरण में आप देख सकते हैं कि यदि जन्म लेने वालों की संख्या + आप्रवासियों की संख्या (B + I) मरने वालों की संख्या + उत्प्रवासियों की संख्या (D + E) से अधिक है तो समष्टि घनत्व बढ़ जाएगा, अन्यथा यह घट जाएगा।

(ii) जन्मदर – यह साधारणत: प्रतिवर्ष प्रति समष्टि के 1000 व्यक्ति प्रति जन्म की संख्या द्वारा व्यक्त की जाती है। जन्मदर समष्टि आकार तथा समष्टि घनत्व को बढ़ाता है।
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(iii) मृत्युदर – यह जन्मदर के विपरीत है। यह साधारणतः प्रतिवर्ष प्रति समष्टि के 1000 व्यक्ति प्रति मृत्यु की संख्या द्वारा व्यक्त की जाती है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 13 Organisms and Populations img-7

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
स्पर्धा (competition) प्रभाव डालती है
(क) आबादी घनत्व पर
(ख) उत्पादन क्षमता पर
(ग) समुदाय विकास पर
(घ) इन सभी पर
उत्तर
(घ) इन सभी पर

प्रश्न 2.
खरपतवार वाले पौधे फसल वाले पौधों से स्पर्धा करते हैं –
(क) केवल स्थान के लिए।
(ख) स्थान और पोषण के लिये
(ग) स्थान, पोषण और प्रकाश के लिये
(घ) केवल प्रकाश के लिये
उत्तर
(ग) स्थान, पोषण और प्रकाश के लिये

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्न का कारण स्पष्ट कीजिए (2015)

  1. जलोभिदों में वायु अवकाश अत्यधिक विकसित होते हैं।
  2. मध्योभिद् पौधा नमक के जल में रखने पर मर जाता है।

उत्तर

  1. जलोभिदों में उपस्थित वायु अवकाशों में वायु भरी होने के कारण, गैसीय विनिमय सुलभ हो जाता है, पौधे हल्के हो जाते हैं, ताकि पानी में ठहर सकें। इसके अतिरिक्त यह अंगों के मुड़ने के तनाव का प्रतिरोध भी करता है।
  2. यदि मध्योभिद् पौधे को नमक के घोल में रखा जाता है तो वह इस घोल का अवशोषण करने लगता है जिसके फलस्वरूप उसके अन्दर लवण की मात्रा बढ़ जाती है जिसके कारण वह मुरझा जाता है तथा अन्ततः मर जाता है।

प्रश्न 2.
लवणमृदोभिद कहाँ पाये जाते हैं? इनके केवल दो मुख्य लक्षण लिखिए। (2016)
उत्तर
लवणमृदोभिद पौधे दलदली तटों पर पाये जाते हैं जहाँ के भूमि में लवणों की मात्रा अधिक होती है।

  1. इन पौधों में श्वसन जड़ें पायी जाती हैं।
  2. इनमें पितृस्थ अंकुरण या जरायुजता पायी जाती है।

प्रश्न 3.
मरुदभिद पौधों में कांटे किसका रूपान्तरण हैं? (2016)
उत्तर
मरुभिद् पौधों (जैसे- नागफनी) में कांटे पत्तियों के रूपान्तर हैं।

प्रश्न 4.
जरायुजता (vivipary) क्या है ? (2009, 16, 17)
उत्तर
यह घटना राइजोफोरा (Rhizophora) पौधे में देखी जा सकती है। इस पौधे में बीज जब फल में ही होते हैं तथा पौधे पर लगे होते हैं तभी अंकुरण आरम्भ हो जाता है। जरायुजता मैंग्रोव (mangrove) वनस्पति की विशेषता होती है।

प्रश्न 5.
एक अलेग्यूमीनोसीय पौधे का नाम बताइए जिसमें मूल ग्रन्थियाँ होती हैं। (2011)
उत्तर
कैजुराइना (Casudrina), रूबस (Rubas) की जड़ ग्रन्थियों में माइकोबैक्टीरियम जीवाणु पाया जाता है।

प्रश्न 6.
उत्पादक तथा अपघटक में अन्तर कीजिए। (2017)
उत्तर
उत्पादक हरे पौधे होते हैं, जो प्रकाश-संश्लेषण द्वारा भोजन निर्माण करते हैं। अपघटक के अन्तर्गत सूक्ष्म जीव जैसे जीवाणु एवं कवक आते हैं जो मृत पौधों एवं जन्तुओं का अपघटन करते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वनस्पति समूह को प्रभावित करने वाले किन्हीं दो पारिस्थितिक कारकों का उल्लेख कीजिए। (2017)
उत्तर
वनस्पति समूह को प्रभावित करने वाले दो पारिस्थितिक कारक निम्न हैं –

  1. जलवायु सम्बन्धी कारक – इसके अन्तर्गत प्रकाश, तापमान, जल, वर्षा जल, वायमुण्डलीय गैसें, वायुमण्डलीय आर्द्रता आदि का वनस्पति समूहों पर प्रभाव के बारे में अध्ययन किया जाता है।
  2. स्थलाकृतिक कारक – इसके अन्तर्गत समुद्र की सतह से ऊँचाई, पर्वतों तथा घाटियों की दिशा, ढलान की प्रवणता, आदि कारक आते हैं जो जल-वायवीय कारकों के साथ कार्य करते हैं।

प्रश्न 2.
मृदा परिच्छेदिका पर टिप्पणी लिखिए। (2017)
उत्तर
मृदा परिच्छेदिका (Soil Profile) – मृदा के बनने व विकसित होने में अनेक क्रियाओं के फलस्वरूप मृदा स्तरीय बन जाती है। मृदा के इन स्तरों के अनुक्रम (sequence), रचनात्मक व स्थानीय लक्षणों तथा स्वभाव को मृदा परिच्छेदिका कहते हैं। मृदा परिच्छेदिका की प्रकृति जलवायु एवं क्षेत्र की वनस्पति पर निर्भर करती है। अधिकतर मृदा की खड़ी काट (vertical section) का अध्ययन करने पर इसमें 3 – 4 स्तर एवं अनेक उपस्तर पाये जाते हैं। सामान्य रूप से इसमें निम्नलिखित स्तर पाये जाते हैं –

1. संस्तर ओ (Horizon O) – यह सबसे ऊपरी स्तर है जो कार्बनिक पदार्थों का बना होता है। इसमें पूर्ण अपघटिते (completely decomposed), अनअपघटित (undecomposed), अर्धअपघटित (partially decomposed) तथा नये कार्बनिक पदार्थ मिलते हैं।
यह निम्न दो उपस्तरों का बना हो सकता है –

  1. O1 या A00 उपस्तर – यह सबसे ऊपरी उपस्तर है जो हाल ही में गिरी पत्तियों, पुष्पों, फलों, शाखाओं तथा मृत जीवों एवं जीवों के उत्सर्जी पदार्थों युक्त होता है और मुख्यतः अनअपघटित होता है।
  2. O2 या A0 उपस्तर – इस उपस्तर में कार्बनिक पदार्थ अपघटन की विभिन्न अवस्थाओं में रहता है।

2. संस्तर ए (Horizon A) – ऊपरी सतह से मिला यह स्तर खनिज पदार्थों से भरपूर होता है। इसमें ह्यूमस भी प्रचुर मात्रा में मिलता है। यह मुख्य रूप से बलूई मृदा (sandy soil) का बना होता है। इसमें उपस्थित घुलनशील लवण (soluble salts), लोहा (iron) आदि घुलकर नीचे की तरफ जाते रहते हैं। इसी कारण इस स्तर को अवक्षालन क्षेत्र (zone of eluviation) कहते हैं। अधिकांशतः पौधों की जड़े इसी स्तर में होती हैं।

3. संस्तर बी (Horizon B) – इसमें निक्षालन (leaching) के कारण चिकनी मिट्टी (clay soil), लोहा, ऐलुमिनियम आदि के ऑक्साइड एकत्रित होते हैं। इसको समपोट (illuviation) क्षेत्र कहते हैं। यह क्षेत्र गहरे रंग का होता है। संस्तर ओ, ए तथा बी को मिलाकर उपरिमृदी (top soil) कहते हैं। संस्तर ए तथा बी खनिज मृदा (mineral soil) अथवा सोलम (solum) बनाते हैं।

4. संस्तर सी (Horizon C) – यह भी खनिज पदार्थों का स्तर है। इसमें चट्टानें तथा अपूर्ण रूप से अपक्षीय चट्टानें मिलती हैं। इस स्तर को अवमृदा (sub soil) भी कहते हैं।

5. संस्तर आर (Horizon R) – यह परिच्छेदिका का सबसे निचला स्तर होता है। इसमें अनपक्षीण (unweathered) जनक चट्टानें (parent bed rocks) होती हैं।

प्रश्न 3.
कीस्टोन जातियों से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित समझाइए। (2010, 11, 12)
या
‘कीस्टोन प्रजातियाँ पर टिप्पणी लिखिए। (2009, 10, 15, 16)
उत्तर
कीस्टोन जातियाँ
प्रत्येक समुदाय में यद्यपि विभिन्न जातियाँ पायी जाती हैं, परन्तु समुदाय की सभी जातियाँ समान रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं होतीं। एक या अधिक जातियाँ अन्य जातियों की तुलना में अधिक संख्या में, अधिक सुस्पष्टतया तथा अधिक क्षेत्र में फैली होती हैं। ये जातियाँ तेजी से वृद्धि करती हैं तथा समुदाय की अन्य जातियों की वृद्धि व संख्या का नियन्त्रण भी करती हैं।

इस प्रकार ये समुदाय की प्रमुख जाति या जातियाँ (dominant species) कहलाती हैं। अनेक बार यही जातियाँ, कीस्टोन जातियाँ (keystone species) कहलाती हैं, क्योंकि ये संख्या में अधिक होने के अतिरिक्त पर्यावरण को प्रमुखता से बदलने में सक्षम होती हैं। इस कारण से समुदाय का नाम भी इसी प्रमुख जाति या जातियों के नाम पर पड़ जाता है; जैसे–चीड़ वन, देवदार वन, चीड़-देवदार वन आदि।

उपर्युक्त से स्पष्ट है कि कीस्टोन जातियाँ (keystone species) या जातियों का पादप समुदाय की रचना में ही महत्त्वपूर्ण भाग नहीं होता वरन् यह उसके पर्यावरण को भी पूर्णतः प्रभावित करके रखती हैं। ये वहाँ की जलवायु को भी प्रभावित करती हैं। यहाँ तक कि ये अपने आस-पास के भौतिक पर्यावरण को परिवर्तित करके अपना एक सूक्ष्म जलवायु क्षेत्र (microclimatic region) ही बना लेती हैं जो उस वृहत् जलवायु क्षेत्र (macroclimatic zone) से अत्यधिक भिन्न भी हो सकता है। एक स्वच्छ धूप वाले दिन किसी घने वृक्ष के नीचे तथा खुले क्षेत्र की जलवायु अर्थात् तापमान, आपेक्षिक आर्द्रता, प्रकाश तीव्रता (temperature, relative humidity, light intensity) आदि में तुलना की जा सकती है।

कीस्टोन जातियाँ मृदा की रचना, मृदा रसायन एवं खनिजों के स्तर, ह्युमस आदि को भी परिवर्तित तथा प्रभावित करने में सक्षम होती हैं। अनेक बार मृदा में उपस्थित सूक्ष्मजीव भी कीस्टोन जातियों के उदाहरण होते हैं, ऐसे में वे मृदा के पर्यावरण के साथ-साथ मृदा के बाहर के पर्यावरण को बदलने में भी पूर्ण प्रभाव रखती हैं।

ये जातियाँ भू-जैवीय-रासायनिक चक्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाकर, कार्बनिक पदार्थों को अपघटित करके, ह्यूमस बढ़ाना, मृदा की उपजाऊ शक्ति बढ़ाना, जल को उपयोगी व प्राप्य जल के रूप में मृदा में स्थित रखना आदि अनेकानेक प्रभाव दिखाती हैं तथा ये प्रभाव मृदा पर जातियों को बसने, उन्हें भली-भाँति वृद्धि करने आदि के लिए प्रोत्साहित ही नहीं करते, बल्कि इन प्रक्रियाओं में उनका पूर्ण सहयोग भी करते हैं।

कीस्टोन प्रजातियाँ सूक्ष्म जलवायु, मृदा की बनावट तथा मृदा रसायन एवं खनिजों के स्तर को भी प्रभावित और परिवर्तित करने में सक्षम होती हैं। इनके प्रतिकूल प्रभाव वहाँ के भौतिक पर्यावरण में शीघ्र ही दिखाई देने लगते हैं, जो वहाँ के समुदायों पर बाहरी समुदायों के आक्रमण के रूप में परिलक्षित होते हैं। ऐसे ही परिवर्तनों से किसी स्थान विशेष पर अनुक्रमण (succession) सम्पन्न होते हैं।

प्रश्न 4.
परभक्षी की परिभाषा लिखिए। परभक्षी तथा शिकार के बीच अन्तःक्रिया का वर्णन कीजिए। (2010)
या
परभक्षी पर टिप्पणी लिखिए। (2014)
उत्तर
परभक्षी (शिकारी) तथा भक्ष्य (शिकार)
किसी पारिस्थितिक तन्त्र (ecosystem) के जैवीय तथा अजैवीय घटकों (biotic and abiotic components) के आपसी सम्बन्ध, चक्रण आदि पर ही उस पारितन्त्र के सन्तुलन का अस्तित्व है। जैवीय घटकों के आपसी सम्बन्ध, ऊर्जा तथा पोषक पदार्थों के प्रवाह को सुनिश्चित करते हैं। जैवीय घटकों में तीन प्रकार के जीव प्रमुख हैं- उत्पादक (producers), उपभोक्ता (consumers) तथा अपघटक (decomposers)।

उपभोक्ता विभिन्न श्रेणियों (orders) के यथा शाकाहारी (herbivores), मांसाहारी (carnivores) या सर्वाहारी (Omnivores) होते हैं। इनमें भी प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता सदैव शाकाहारी होते हैं और अपने पोषण के लिए उत्पादकों (producers) पर निर्भर करते हैं। . शाकाहारी जन्तु अगली श्रेणी के उपभोक्ताओं के लिए खाद्य पदार्थों को अपने अन्दर संचित करते हैं।
चूंकि ये जीव प्राय: जन्तु (animals) ही होते हैं अतः द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताओं (consumers of second order) को तो इनको किसी न किसी प्रकार पकड़कर अथवा शिकार करके ही अपना खाद्य बनाना होगा। स्पष्ट है यह मांसाहारी (carnivore) जो अपने शिकार या भक्ष्य (prey) को मार कर अपना भोजन बनाता है शिकारी या परभक्षी (predator) कहलाता है।

परभक्षी तथा भक्ष्य के मध्य अन्तर्सम्बन्ध
पारितन्त्र में परभक्षी तथा भक्ष्य के सम्बन्ध निश्चित होते हैं तथा यह परस्पर दोनों की जनन शक्ति, भक्षण बारम्बारता, दोनों के आकार-परिमाप तथा रुचियों पर निर्भर करते हैं। परभक्षी एकाहारी (monophagous), अल्पभक्षी (oligophagous) अथवा विविध भक्षी (polyphagous) हो सकते हैं। कुछ भी हो परभक्षी भक्ष्य की जनसंख्या को क्रम से खाकर कम करने का अनायास प्रयास करता रहता है; उदाहरण के लिए सर्यों की उपस्थिति में चूहों की संख्या बहुत कम हो जाती है।

इसी प्रकार, एक घास के मैदान के पारितन्त्र में मेढकों की संख्या सर्यों द्वारा नियन्त्रित रहती है। यहाँ यह भी विशिष्ट है कि एक पारितन्त्र में भक्ष्य तथा परभक्षी की संख्या सन्तुलित रहती है। यह सन्तुलन, भक्ष्य को कितने प्रकार के परभक्षी अपना शिकार बनाते हैं तथा कितने अन्तराल के बाद कोई परभक्षी भक्ष्य का शिकार करता है, इन दोनों बातों के अतिरिक्त सामान्य परिस्थितियों में भक्ष्य उस पारितन्त्र में अपनी जनसंख्या को कितनी शीघ्रता से बढ़ा सकते हैं, पर निर्भर करता है।

एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो सकती है-किसी जैव समुदाय में एक एकाहारी (monophagous) परभक्षी अर्थात् एक ही भक्ष्य पर निर्भर परभक्षी के लिए भक्ष्य काफी संख्या में उपलब्ध हैं। परभक्षी एक के बाद एक अपने भक्ष्यों का भक्षण करता जाता है; भक्ष्यों की संख्या स्पष्टतः कम होती जाती है, अब परभक्षी भूखे मरेंगे क्योंकि और तो कुछ वे खायेंगे ही नहीं, कुछ अपने भक्ष्य की खोज में अपने जैव समुदाय को ही छोड़ जायेंगे। इधर परभक्षियों की संख्या कम हुई तो भक्ष्यों की संख्या वृद्धि प्रोत्साहित होगी।

इनकी संख्या बढ़ने से परभक्षियों की संख्या वृद्धि का वातावरण तैयार करेगा। इस प्रकार भक्ष्य व परभक्षियों का संख्या घनत्व निश्चित रह सकता है। यहाँ यह आवश्यक रूप से निहित है कि प्रायः परभक्षी उच्चतम परभक्षी को छोड़कर भी तो किसी अन्य का भक्ष्य है।

प्रश्न 5.
संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए – स्पर्धा (प्रतिस्पर्धा) (2014,15)
उत्तर
स्पर्धा (प्रतिस्पर्धा)
जब डार्विन ने प्रकृति में जीवन-संघर्ष और योग्यतम की उत्तरजीविता के बारे में कहा तो वह निश्चयी था कि जैव विकास में अंतरजातीय स्पर्धा एक शक्तिशाली बल है। जीवों के बीच स्थान, भोजन, जल, खनिज लवण, सम्भोग साथी तथा अन्य संसाधनों के लिए स्पर्धा होती है। जब यह स्पर्धा एक ही जाति के सदस्यों के बीच होती है तब इसे अन्तरजातीय स्पर्धा (interspecific competition) कहते हैं तथा जब स्पर्धा विभिन्न प्रजाति के जीवों के बीच होती है। तब इसे अन्तराजातीय स्पर्धा (intraspecific competition) कहते हैं। इस प्रकार स्पर्धाएँ निम्नलिखित दो प्रकार की होती हैं –

(i) अन्तराजातीय स्पर्धा (Intraspecific Competition) – इस प्रकार की स्पर्धा भिन्न-भिन्न जातियों (species) के सदस्यों के बीच एक ही प्रकार के संसाधनों (resources) का उपयोग करने के कारण उत्पन्न होती है।
उदाहरण – जन्तुओं में परभक्षी-भक्ष्य (predator-prey) के सम्बन्ध में विभिन्न परभक्षी (predators) जन्तु अपने भक्ष्य (prey) को पाने के लिए स्पर्धा करते हैं। पौधों में विभिन्न प्रजातियाँ प्रकाश (light), पोषक पदार्थों (nutrients), वास स्थलों (habitats) के लिए आपस में स्पर्धा करती रहती हैं।

(ii) अन्तरजातीय स्पर्धा (Interspecific Competition) – इस प्रकार की स्पर्धा एक ही जाति (species) के सदस्यों के बीच पाई जाती है जिसमें एक ही जाति के विभिन्न सदस्य, आवास, भोजन, सहवास सदस्य आदि के लिए आपस में स्पर्धा करते हैं।
उदाहरण – फसल का मैदान जहाँ एक ही जाति के पौधों के बीच सीमित संसाधनों के कारण इस प्रकार की स्पर्धा पाई जाती है।

प्रश्न 6.
सहोपकारिता (परस्परता) किसे कहते हैं? उदाहरण देकर इसको स्पष्ट कीजिए। (2017, 18)
उत्तर
सहोपकारिता (Mutualism) – यह दो भिन्न प्रजाति के जीवों के बीच पाया जाने वाला सहजीवी (symbiotic) सम्बन्ध होता है जिसमें दोनों जीवों को परस्पर लाभ (benefit) होता है। कवक और प्रकाश-संश्लेषी शैवाल या सायनोबैक्टीरिया के बीच घनिष्ठ सहोपकारी सम्बन्ध का उदाहरण लाइकेन में देखा जा सकता है। इसी प्रकार कवकों और उच्चकोटि पादपों की जड़ों के बीच कवकमूल (माइकोराइजी) साहचर्य है। कवक मृदा से अत्यावश्यक पोषक तत्वों के अवशोषण में पादपों की सहायता करते हैं, जबकि बदले में पादप कवकों को ऊर्जा-उत्पादी कार्बोहाइड्रेट देते हैं। इसी प्रकार लेग्यूम-राइजोबियम सह-सम्बन्ध है।

सहोपकारिता के सबसे शानदार और विकास की दृष्टि से लुभावने उदाहरण पादप-प्राणी सम्बन्ध में पाए जाते हैं। पादपों को अपने पुष्प परागित करने और बीजों के प्रकीर्णन के लिए प्राणियों की सहायता चाहिए। स्पष्ट है कि पादप को जिन सेवाओं की अपेक्षा प्राणियों से है उसके लिए शुल्क तो देना होगा। पुरस्कार अथवा शुल्क के रूप में ये परागणकारियों को पराग और मकरंद तथा प्रकीर्णकों को रसीले और पोषक फल देते हैं।

लेकिन परस्पर लाभकारी तंत्र की ‘धोखेबाजी’ से रक्षा होनी चाहिए, उदाहरण के लिए, ऐसे प्राणी जो परागण में सहायता किए बिना ही मकरंद चुराते हैं। अब आप देख सकते हैं कि पादप-प्राणी पारस्परिक क्रिया में सहोपकारियों के लिए प्राय: सह-विकास’ क्यों शामिल है, अर्थात् पुष्प और इसके परागणकारी जातियों के विकास एक-दूसरे से मजबूती से जुड़े हुए हैं।

अंजीर के पेड़ों के अनेक जातियों में बर्र की परागणकारी जातियों के बीच मजबूत सम्बन्ध है। इसका अर्थ यह है कि कोई दी गई अंजीर जाति केवल इसके साथी’ बर्र की जाति से ही परागित हो सकती है, बर्र की दूसरी जाति से नहीं। मादा बर्र फल को न केवल अंडनिक्षेपण के लिए काम में लेती है; बल्कि फल के भीतर ही वृद्धि कर रहे बीजों को डिंबकों के पोषण के लिए प्रयोग करती है।

अंडे देने के लिए उपयुक्त स्थल की तलाश करते हुए बर्र अंजीर पुष्पक्रम को परागित करती है। इसके बदले में अंजीर अपने कुछ परिवर्धनशील बीज, परिवर्धनशील बर्र के डिंबंकों को, आहार के रूप में देता है।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए

  1. परजीविता (2015, 17)
  2. सहभोजिता (2013, 15)
  3. सहजीवन। (2009, 10, 11, 13, 15, 17)

उत्तर
1. परजीविता
ये विषमपोषी (heterotrophic) जीव हैं जो अपने परपोषी (host) के शरीर से आहार प्राप्त करते हैं। परजीवी विकल्पी (facultative) तथा अविकल्पी (obligate) दो प्रकार के हो सकते हैं। विकल्पी परजीवी मुख्यत: मृतोपजीवी (saprophytic) होते हैं, जो विशेष परिस्थितियों में ही परजीवी बनते हैं; जैसे-अधिकांश कवक या जीवाणु। अविकल्पी परजीवी, परपोषी (host) के परभक्षी (predator) होते हैं। कुछ आवृतबीजी (angiosperms) भी परजीवी स्वभाव को व्यक्त करते हैं, जैसे- कुस्कुटा (Cuscuta) – पूर्ण तना परजीवी; विस्कम (Viscum) तथा लोरेन्थस (Loranthus) – आंशिक तना परजीवी, रेफ्लेसिया (Rufflesia) और औरोबैकी (Orobanchae) – पूर्ण जड़ परजीवी; सैन्टेलम एलबम (Suntalum album) – आंशिक जड़ परजीवी है।

2. सहभोजिता
यह दो जीवों के बीच परस्पर सम्बन्ध है जिसमें एक जीव को लाभ होता है और दूसरे जीव को न हानि न लाभ होता है। आम की शाखा पर अधिपादप के रूप में उगने वाला ऑर्किड और हेल की पीठ को आवास बनाने वाले बार्नेकल को लाभ होता है जबकि आम के पेड़ और ह्वेल को उनसे कोई लाभ नहीं होता। पक्षी बगुला और चारण पशु निकट साहचर्य में रहते हैं। सहभोजिता का यह उत्कृष्ट उदाहरण है। जहाँ पशु चरते हैं उसके पास ही बगुले भोजन प्राप्ति के लिए रहते हैं क्योंकि जब पशु चलते हैं तो वनस्पति को हिलाते हैं और उसमें से कीट बाहर निकलते हैं। बगुले उन कीटों को खाते हैं अन्यथा वानस्पतिक कीटों को ढूंढ़ना और पकड़ना बगुले के लिए कठिन होता। सहभोजिता का दूसरा उदाहरण समुद्री ऐनिमोन दंशन स्पर्शक हैं, जिसमें उनके बीच क्लाउन मछली रहती है। मछलियों को परभक्षियों से सुरक्षा मिलती है जो दंशन स्पर्शकों से दूर रहते हैं। क्लाउन मछली से ऐनिमोन को कोई लाभ मिलता हो ऐसा नहीं लगती।

3. सहजीवन
यह दो भिन्न प्रजाति के जीवों के बीच पाया जाने वाला सहजीवी (Symbiotic) सम्बन्ध होता है। जिसमें दोनों जीवों को परस्पर लाभ (benefit) होता है। कवक और प्रकाश संश्लेषी शैवाल या सायनोबैक्टीरिया के बीच घनिष्ठ सहोपकारी सम्बन्ध का उदाहरण लाइकेन में देखा जा सकता है। इसी प्रकार कवकों और उच्चकोटि पादपों की जड़ों के बीच कवकमूल (माइकोराइजी) साहचर्य है। कवक, मृदा से अत्यावश्यक पोषक तत्त्वों के अवशोषण में पादपों की सहायता करते हैं जबकि बदले में पादप, कवकों को ऊर्जा-उत्पादी काबोहाइड्रेट देते हैं।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अनुकूलन को परिभाषित कीजिए। अनुकूलन में होने वाले परिवर्तन का विस्तार से वर्णन कीजिए। उदाहरण सहित विभिन्न प्रकार के अनुकूलन का वर्णन कीजिए। (2015)
या
मैन्ग्रोव वनस्पतियाँ कहाँ पायी जाती हैं? इनकी विशेषताओं का वर्णन कीजिए। (2014)
या
मैन्ग्रोव पौधों में पितृस्थ अंकुरण (जरायुजता) एक विशिष्ट अनुकूलन है। स्पष्ट कीजिए। (2017)
या
टिप्पणी लिखिए-मैन्ग्रोव वनस्पति। (2014, 15)
उत्तर
अनुकूलन
पौधों की बाह्य आकारिकी तथा आन्तरिक संरचना (external morphology and internal structure) पर उनके वातावरण का प्रभाव पड़ता है। पौधों में अपने आपको वातावरण में समायोजित करने की सामर्थ्य होती है जिसे अनुकूलन (adaptation) कहते हैं। दूसरे शब्दों में पौधों में अनुकूलन से तात्पर्य उन विशेष बाह्य अथवा आन्तरिक लक्षणों से है जिनके कारण पौधे किसी विशेष वातावरण में रहने, वृद्धि करने, फलने-फूलने तथा प्रजनन के लिए पूर्णतया सक्षम होते हैं और अपना जीवन-चक्र पूरा करते हैं। इन विशेष पारिस्थितिकीय अनुकूलनों तथा आवास के आधार पर पौधों को भिन्न पारिस्थितिक समूहों में रखा गया है जो निम्नलिखित चार हैं –

  1. जलोद्भिद् (Hydrophytes)
  2. शुष्कोभिद् = मरुद्भिद् (Xerophytes)
  3. मध्योद्भिद् = समोद्भिद् (Mesophytes)
  4. लवणोद्भिद् (Halophytes)

I. जलोभिद पौधों में अनुकूलन
(A) जलोभिद् पौधों में आकारिकीय अनुकूलन
1. जड़ों में अनुकूलन

  1. जलीय पौधों का शरीर जल के सम्पर्क में रहता है जिससे जल-अवशोषण के लिए जड़ों की आवश्यकता नहीं रह जाती। अतः जड़े बहुत कम विकसित अथवा अनुपस्थित होती हैं, उदाहरण- वॉल्फिया (Wolffa), सिरेटोफिल्लम (Ceratophyllum) आदि।
  2. जड़ें यदि उपस्थित हैं तो वे प्रायः रेशेदार (fibrous), अपस्थानिक (adventitious), छोटी तथा शाखाविहीन (unbranched) अथवा बहुत कम शाखीय होती हैं। लेम्ना (Lemna) में इनका कार्य केवल सन्तुलन (balancing) तथा तैरने में सहायता करना है।
  3. मूलरोम (root hairs) अनुपस्थित अथवा कम विकसित होते हैं।
  4. मूलगोप (root caps) प्रायः अनुपस्थित होती हैं। कुछ पौधों, उदाहरण- समुद्रसोख (Eichhornia) तथा पिस्टिया (Pistia) में मूलगोप के स्थान पर एक अन्य रचना मूल-पॉकेट (root-pocket) होती है।
  5. सिंघाड़े (Trapa) की जड़े स्वांगीकारक (assimilatory) होती हैं, अर्थात् हरी होने के कारण प्रकाश-संश्लेषण करती हैं।

2. तनों में अनुकूलन

  1. जलनिमग्न पौधों में तने प्रायः लम्बे, पतले, मुलायम तथा स्पंजी होते हैं जिससे पानी के बहाव के कारण इन्हें हानि नहीं होती।
  2. स्वतन्त्र तैरक (free floating) पौधों में तना पतला होता है तथा जल की सतह पर क्षैतिज दिशा में तैरता है, उदाहरण-एजोला (Azolla) समुद्रसोख (Eichhormia) तथा पिस्टिया (Pistia) में तना छोटा, मोटा तथा स्टोलन के रूप में (stoloniferous) होता है।
  3. स्थिर तैरक (fixed floating) पौधों में तना, धरातल पर फैला रहता है, इसे प्रकन्द (rhizome) कहते हैं। यह जड़ों द्वारा कीचड़ में स्थिर रहता है, उदाहरण- जलकुम्भी (Nymphaed) तथा निलम्बियम (Nelumbium)।

3. पत्तियों में अनुकूलन

  1. जलनिमग्न पौधों में पत्तियाँ पतली होती हैं, वेलिसनेरिया (Valisneria) में ये लम्बी तथा फीतेनुमा (ribbon-shaped), पोटामोजेटोन (Potamogeton) में लम्बी, रेखाकार (linear) तथा सिरेटोफिल्लम (Ceratophyllum) में ये महीन तथा कटी-फटी होती हैं। तैरक पौधों की पत्तियाँ बड़ी, चपटी व पूर्ण होती हैं। जलकुम्भी (Nymphaed) की पत्ती की ऊपरी सतह पर मोमीय पदार्थ की परत (waxy coating) होती है तथा पर्णवृन्त लम्बे होते हैं व श्लेष्म से ढके रहते हैं।
  2. सिंघाड़े (Trupa) तथा समुद्रसोख (Eichhormia) में पर्णवृन्त फूला होता है तथा स्पंजी होता हैं।
  3. कुछ जलस्थली (amphibious) पौधों, जैसे-सेजिटेरिया (Sagittaria), जलधनिया (Ranunculus), आदि में विषमपर्णी (heterophylly) दशा होती है। इसमें जलनिमग्न पत्तियाँ अधिक लम्बी तथा कटी-फटी होती हैं, जल की सतह पर तैरने वाली पत्तियाँ अथवा वायवीय पत्तियाँ चौड़ी व पूर्ण होती हैं। यह अनुकूलन प्रकाश प्राप्ति के लिए होता है। जलनिमग्न पौधों की कटी-फटी पत्तियाँ अधिकतम प्रकाश ग्रहण करने का प्रयास करती हैं।

4.पुष्प व बीज में अनुकूलन
जलनिमग्न पौधों में प्राय: पुष्प उत्पन्न नहीं होते, जहाँ पर पुष्प उत्पन्न होते हैं, उनमें बीज नहीं बनते।

(B) जलोभिद् पौधों में शारीरिकीय अनुकूलन
जलीय पौधों के विभिन्न भागों की आन्तरिक रचना (शारीरिकी) में निम्न विशेषताएँ या अनुकूलन पाए जाते हैं –

1. बाह्यत्वचा (Epidermis) – बाह्यत्वचा प्रायः मृदूतक कोशिकाओं की बनी इकहरी परत के रूप में होती है। इस पर उपत्वचा (cuticle) नहीं होती, परन्तु तैरने वाली पत्तियों की ऊपरी बाह्यत्वचा पर मोमीय परत (उदाहरण- जलकुम्भी, Nymphaea) अथवा रोमिल परत (उदाहरण- साल्विनिया- Salvyinic) होती है। बाह्यत्वचा की कोशिकाओं में प्रायः पर्णहरिम (chlorophyll) पाया जाता है। टाइफा (Typha) में बाह्यत्वचा पर उपचर्म (cuticle) की परत होती है।

2. रन्ध्र (Stomata) – जलनिमग्न (submerged) पौधों में रन्ध्र प्रायः अनुपस्थित होते हैं। तैरक (floating) पौधों में रन्ध्र प्रायः पत्ती की ऊपरी सतह तक ही सीमित रहते हैं; जबकि
जलस्थलीय (amphibious) पौधों की जल से बाहर निकली पत्तियों में रन्ध्र दोनों सतहों पर होते हैं।

3. अधस्त्वचा (Hypodermis) – जलनिमग्न पौधों, उदाहरण-हाइड्रिलो (Hydrilla) तथा पोटामोजेटोन (Potamogeton) के तनों में अधस्त्वचा अनुपस्थित होती है, यद्यपि कुछ तैरक (floating) पौधों व जलस्थलीय (amphibious) पौधों में यह मोटी भित्ति वाली मृदूतकीय कोशिकाओं के रूप में अथवा स्थूलकोण ऊतक के रूप में होती है।

4. यान्त्रिक ऊतक (Mechanical Tissue) – जलोभिदों में यान्त्रिक ऊतक प्राय: अनुपस्थित अथवा बहुत कम विकसित होता है।

5. वल्कुट (Cortex) – जड़ व तनों में वल्कुट (cortex) सुविकसित होता है तथा पतली भित्ति की मृदूतक कोशिकाओं का बना होता है। वल्कुट (cortex) के अधिकांश भाग में बड़ी-बड़ी वायु-गुहिकाएँ (air cavities) उत्पन्न हो जाती हैं। इस ऊतक को वायूतंक (aerenchyma) कहते हैं। वायु-गुहिकाओं में भरी वायु के कारण, गैसीय विनिमय सुलभ हो जाता है, पौधे हल्के हो जाते हैं, ताकि पानी में ठहर सकें। इसके अतिरिक्त यह अंगों के मुड़ने के तनाव का प्रतिरोध (resistance to bending stress) भी करता है।

6. पत्तियों में पर्णमध्योतक (Mesophyll Tissue in Leaves) – जलनिमग्न पत्तियों में पर्णमध्योतक अभिन्नित (undifferentiated) होता है। तैरक पत्तियों, जैसे-जलकुम्भी (Nymphaea) में यह खम्भ ऊतक (palisade tissue) व स्पंजी मृदूतक (spongy parenchyma) में भिन्नत होता है, इसमें बड़ी वायु-गुहिकाएँ (air cavities) भी पाई जाती हैं।

7. संवहन बण्डल (Vascular Bundle) – संवहन ऊतक कम विकसित होता है। जलनिमग्ने पौधों में यह कम भिन्नित होता है। जाइलम में प्रायः वाहिकाएँ (tracheids) ही उपस्थित होती हैं, वाहिनिकाएँ (vessels) कम होती हैं, यद्यपि जलस्थलीय (amphibious) पौधों में संवहन बण्डल अपेक्षाकृत अधिक विकसित तथा जाइलम व फ्लोएम में भिन्नत होते हैं।

(C) कुछ अन्य अनुकूलन

  1. जलीय पौधे प्रायः बहुवर्षीय (perennials) होते हैं।
  2. अधिकतर जलीय पौधों में भोजन प्रायः प्रकन्दों (rhizomes) में संचित रहता है।
  3. अधिकांश जलीय पौधों में वर्षी या कायिक प्रजनन (vegetative reproduction) तीव्रता से होता है।
  4. जलीय पौधों में द्वितीयक वृद्धि (secondary growth) नहीं होती।
  5. जलीय पौधों में पूर्ण शरीर पर श्लेष्मिक आवरण होता है जिससे पौधे पानी में गल नहीं पाते।

II. शुष्कोभिद् = मरुभिद् पौधों में अनुकूलन
इसका अध्ययन विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 2 के उत्तर में करें।

III. मध्योदभिद् = समोदभिद् पौधों में अनुकूलन
मध्योभिद पौधे उन स्थानों पर उगते हैं, जहाँ की जलवायु न तो बहुत शुष्क है और न ही बहुत नम है। तथा ताप व वायुमण्डल की आपेक्षिक आर्द्रता (relative humidity) भी साधारण होती है। ये पौधे शाक, झाड़ी तथा वृक्ष सभी रूपों में होते हैं, उदाहरण-गेहूँ, चना, मक्का, गुड़हल, आम, शीशम, जामुन आदि, यद्यपि इन पौधों में जलोभिद् तथा मरुभिद् पौधों की भाँति विशिष्ट रचनात्मक या क्रियात्मक अनुकूलन तो नहीं होते, परन्तु कुछ अर्थों में ये जलोभि व मरुभिद् पौधों के बीच की स्थिति रखते हैं। इनके प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं –

  1. जड़ तन्त्र सुविकसित होता है। जड़े सामान्यतः शाखित होती हैं, इनमें मूलरोम (root hairs) व मूलगोप (root caps) पाए जाते हैं।
  2. तना वायवीय, ठोस तथा जाति के अनुसार, स्वतन्त्र रूप से शाखित होता है।
  3. पत्तियाँ प्रायः बड़ी, चौड़ी तथा विभिन्न आकृतियों की होती हैं, प्रायः क्षैतिज दिशा में रहती हैं। तथा इन पर रोम व मोमीय परत आदि नहीं होती।
  4. बाह्यत्वचा (epidermis) सुविकसित होती है। सभी वायवीय भागों की बाह्यत्वचा पर उपत्वचा | (cuticle) का पतला स्तर होता है।
  5. रन्ध्र (stomata) प्रायः पत्तियों की दोनों सतहों पर होते हैं, यद्यपि इनकी संख्या निचली सतह पर अधिक होती है।
  6. पर्णमध्योतक ऊतक (mesophyll tissue), खम्भ ऊतक (palisade tissue) व स्पंजी मृदूतक (spongy parenchyma) में विभेदित होता है।
  7. संवहन ऊतक (vascular tissue) तथा यान्त्रिक ऊतक (mechanical tissue) विकसित होते हैं तथा भली प्रकार विभेदित होते हैं।
  8. इन पौधों में प्रायः दोपहर के समय अस्थाई म्लानता (temporary wilting) देखी जा सकती है।

IV. लवणोदभिद् पौधों में अनुकूलन
(A) लवणोभिद् पौधों में आकारिकीय अनुकूलन
लवणोभिद् पौधों को मैन्ग्रोव वनस्पतियाँ भी कहते हैं। इनके विभिन्न भागों की बाह्य रचना में निम्नलिखित विशेषताएँ अथवा अनुकूलन प्रमुख हैं –

1. जड़ (Root) – जड़े दो प्रकार की होती हैं- वायवीय (aerial) तथा भूमिगत (subterranean)। वायवीय जड़े दलदल से बाहर सीधी निकल जाती हैं और ख़ुटी जैसी रचनाओं के रूप में दिखाई देती हैं। ये जड़े ऋणात्मक गुरुत्वाकर्षी (negatively geotropic) होती हैं तथा इन पर अनेक छिद्र होते हैं। ये जड़े श्वसन का कार्य करती हैं, इन्हें श्वसन मूल (pneumatophores) कहते हैं, उदाहरण-सोनेरेशिया (Sonnerutia) तथा एवीसीर्निया (Avicennia), आदि। श्वसन मूलों द्वारा ग्रहण की गई ऑक्सीजन न केवल जलनिमग्न जड़ों के काम आती है, बल्कि इसे उस रुके लवणीय जल में रहने वाले जन्तु भी प्रयुक्त करते हैं। राइजोफोरा में प्रॉप मूल (prop roots) भी होती है जो पौधे को दलदल वाली भूमि में स्थिर रखती है।

2. तना (Stem) – तने प्रायः मोटे, मांसलसरसे होते हैं।
3. पत्तियाँ (Leaves) – पत्तियाँ प्रायः मोटीसरस होती हैं। ये सदाहरित (evergreen) होती हैं। कुछ पौधों में ये पतली तथा छोटी होती हैं।
4. पितृस्थ अंकुरण (Vivipary) – मैन्ग्रोव पौधों में पितृस्थ अंकुरण एक विशिष्ट अनुकूलन है। प्रायः बीजों को अंकुरित होने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। लवणीय दलदल में ऑक्सीजन की कमी होती है। अत: बीज, मातृ पौधे पर फल के अन्दर रहते हुए ही अंकुरित हो जाते हैं। इस गुण को पितृस्थ अंकुरण (vivipary) कहते हैं।

(B) लवणोभिद् पौधों में शारीरिकीय अनुकूलन
1. जड़ों में अनुकूलन
जड़ की आन्तरिक रचना में निम्न अनुकूलन या विशेषताएँ पाई जाती हैं –

  1. भूमिगत जड़ों में चारों ओर बहुस्तरीय कॉर्क पाई जाती हैं।
  2. जड़ की वल्कुट (cortex) की कोशिकाएँ ताराकृति (star-shaped) की होती हैं और परस्पर पार्श्व भुजाओं (lateral arms) द्वारा सम्बन्धित रहती हैं। कुछ कोशिकाएँ तेलटैनिनयुक्त होती हैं।
  3. पिथ कोशिकाएँ मोटी भित्ति की होती हैं और इनमें भी तेल व टैनिन संचित रहता है।

2. तनों में अनुकूलन
तने की आन्तरिक रचना में निम्नलिखित अनुकूलन या विशेषताएँ होती हैं –

  1. बाह्यत्वचा की कोशिकाएँ मोटी भित्ति वाली होती हैं। तरुण तने में भी बाह्यत्वचा के चारों ओर उपत्वचा (cuticle) का मोटा स्तर होता है। बाह्यत्वचा की कोशिकाएँ तेल व टैनिनयुक्त होती हैं।
  2. बाह्यत्वचा के नीचे बहुस्तरीय, मोटी भित्ति वाली कोशिकाओं की बनी अधस्त्वचा होती है।
  3. प्राथमिक वल्कुट (cortex) में अनेक बड़े स्थान (lacunae) होते हैं, इनकी कोशिकाओं में टैनिन वे तेल होता है। कुछ कोशिकाओं में कैल्सियम ऑक्सेलेट (calcium oxalate) के रवे होते हैं। H- की आकृति की कण्टिकाएँ (spicules) भी होती हैं जो वल्कुट को यान्त्रिक शक्ति (mechanical strength) प्रदान करती हैं।
  4. परिरम्भ (pericycle) बहुस्तरीय तथा दृढ़ोतकीय (sclerenchymatous) होता है।
  5. पिथ में भी ‘H’ की आकृति की कण्टिकाएँ होती हैं।
  6. संवहन बण्डल सुविकसित होते हैं।

3. पत्तियों में अनुकूलन
पत्ती की आन्तरिक रचना में निम्नलिखित अनुकूलन या विशेषताएँ होती हैं।

  1. ऊपरी तथा निचली बाह्यत्वचा पर उपत्वचा की मोटी परत होती है।
  2. बाह्यत्वचा की कोशिकाएँ अधिक मोटी होती हैं और उनमें कैल्सियम ऑक्सेलेट (calcium oxalate) के रवे होते हैं।
  3. रन्ध्र (stomata) प्रायः पत्ती की निचली सतह पर होते हैं तथा गड्ढों में स्थित होते हैं। (sunken stomata)।
  4. ऊपरी बाह्यत्वचा के नीचे पतली भित्ति वाली कोशिकाओं के अनेक स्तर होते हैं जिनमें पानी भरा होता है, बाहरी स्तरों की कोशिकाओं में तेलटैनिन भी होता है।
  5. पर्णमध्योतक, भली प्रकार भिन्नित होता है।
  6. पत्ती की निचली सतह पर कॉर्क क्षेत्र (cork areas) पाए जाते हैं।

प्रश्न 2.
मरुदभि क्या हैं? इनके आकारिकीय एवं आन्तरिक लक्षणों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए। (2013)
या
मरुदभिद् पौधों के लक्षण लिखिए। (2011, 14)
या
मरुभिद् पौधों के विभिन्न आकारीय अनुकूलनों का वर्णन कीजिए।(2009, 10, 11, 18)
या
नागफनी एक मरुदभि है। कारण सहित व्याख्या कीजिए। (2015)
उत्तर
मरुभिद्
शुष्क आवास स्थल पर पाई जाने वाली वनस्पति को शुष्कोभिद् या मरुद्भिद् (xerophytes) कहते हैं। ऐसे वासस्थलों में जल की अत्यधिक कमी पायी जाती है। इस प्रकार के पादप लम्बी अवधि के शुष्क अनावृष्टि काल में भी जीवित रह सकते हैं। अतः इनमें जलाभाव की अत्यधिक सहिष्णुता होती है। अत्यधिक मात्रा में जल उपलब्ध होने के पश्चात् भी जल पौधों को उपलब्ध नहीं हो पाता। इस प्रकार के आवास कार्यिकी दृष्टि से शुष्क (physiologically dry) होते हैं। शुष्क आवास स्थल भी निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

1. भौतिक दृष्टि से शुष्क आवास स्थल (Physically Dry Habitat) – ऐसे स्थलों की मृदा में जल को धारण करने व इसे रोके रखने की क्षमता बहुत ही कम होती है तथा वहाँ की जलवायु भी शुष्क पाई जाती है; जैसे- मरुस्थल व व्यर्थ भूमि, चट्टानी सतह इत्यादि।

2. कार्यिकी दृष्टि से शुष्क आवास स्थल (Physiologically Dry Habitat) – ऐसे आवास स्थलों पर जल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहता है परन्तु पौधे सुगमता से इसका अवशोषण या उपयोग नहीं कर पाते हैं; जैसे–अत्यधिक लवणीय या अम्लीय या ठण्डे स्थान। अत्यधिक लवणीय या अम्लीय अवस्था तथा जल के बर्फ रूप में रहने के कारण पौधे जल का अवशोषण नहीं कर पाते।

3. भौतिक व कार्यिकी दृष्टि से शुष्क आवास स्थल (Physically and Physiologically Dry Habitat) – कुछ स्थल ऐसे होते हैं जहाँ न तो जल धारण की क्षमता उपलब्ध होती है और न ही पौधे उसका उपयोग करने में सक्षम होते हैं अतः ऐसे आवास स्थल कार्यिकी व भौतिक दृष्टि से शुष्क आवास स्थल होते हैं। जैसे–पर्वतों की ढलानें। नागफनी के पौधे में निम्नलिखित लक्षण पाये जाते हैं जिसके आधार पर यह सिद्ध होता है कि यह एक मरुद्भिद् है।

आकारिकीय लक्षण
1. मूल (Root) – मरुभिद् पादप जलाभाव वाले स्थानों पर पाये जाते हैं अतः जल प्राप्त करने के लिए इनका मूल तन्त्र अत्यधिक विकसित होता है। इनमें पाये जाने वाले लक्षण निम्न प्रकार हैं –

(i) जड़े सुविकसित तथा भूमि में चारों तरफ फैली हुई रहती हैं। जड़े प्राय: मूसला (tap root) होती हैं तथा भूमि में गहराई तक जाती हैं और इनकी शाखाओं का मृदा में एक विस्तृत जाल फैला रहता है। अनेक मरुस्थलीय पौधों में मूल केवल भूमि की ऊपरी सतहों में ही रहती हैं परन्तु ऐसा एकवर्षीय या छोटे शाकीय पौधों या मांसल पादपों में ही होता है।
ओपेनहाइमर (Oppenheimer, 1960) के अनुसार प्रोसोपिस अल्हेगी (Prosophis athagi) की जड़े 20 मीटर तथा अकेशिया (Acacid) और टेमेरिक्स (Tamarix) के वृक्षों की जड़े भूमि में 30 मीटर की गहराई तक पहुँच जाती हैं।

(ii) जड़ों की वृद्धि दर अधिक होती है। यह 10 से 50 सेमी प्रति दिन तक की होती है। शैलोभिद् पादपों की जड़े चट्टानों के ऊपर और अन्दर भी वृद्धि करने में सक्षम होती हैं।

(iii) जड़ों में मूल रोम (root hairs) और मूल गोप (root cap) सुविकसित होते हैं जिससे ये पौधे भूमि से अधिक से अधिक जल का अवशोषण करने में सक्षम होते हैं।

(iv) इन पादपों में जड़ों की अत्यधिक वृद्धि होने के फलस्वरूप जड़ एवं प्ररोह की लम्बाई का अनुपात root and shoot ratio) 3 से 10 तक का पाया जाता है।

2. स्तम्भ (Shoot) – मरुद्भिद् पौधों के स्तम्भ में अनेक प्रकार के लक्षण पाये जाते हैं क्योंकि इसे वहाँ के वायव पर्यावरण को भी सहन करना पड़ता है। इनमें पाये जाने वाले लक्षण निम्न प्रकार हैं –

  1. अधिकांश पौधों में तना छोटा, शुष्क व काष्ठीय होता है। तने के ऊपर मोटी छाल (bark) पायी जाती है।
  2. पौधों में स्तम्भ वायव (aerial) या भूमिगत (underground) होता है। कुछ पौधों में शाखाएँ अधिक संख्या में होती हैं। किन्तु ये आपस में सटी हुई होती हैं, जैसे-सिट्रलस कोलोसिन्थिस (Citrullus colocynthis)
  3. तने पर अत्यधिक मात्रा में बहुकोशिकीय रोम (multicellular hairs) पाये जाते हैं; जैसे- आरनिबिया (Arnebia) तथा कुछ में तने की सतह पर मोम और सिलिका का आवरण पाया जाता है, जैसे-मदार (Calotropis), इक्वीसीटम (Equesetum) आदि।
  4. कुछ मरुद्भिद् के तने कंटकों में परिवर्तित हो जाते हैं; जैसे-यूफोबिया स्पलेनडेन्स (Euphorbid splendens), डूरन्टा (Duranta), सोलेनम जेन्थोकार्पम (Solanum xanthocarpum = नीली कटेली), यूलक्स (Ulex) आदि।
  5. प्रायः मरुभिद् पादपों में पर्ण के छोटे हो जाने से प्रकाश संश्लेषण में कमी आ जाती है। अत: इसकी पूर्ति हेतु तना चपटा व हरे पर्ण की जैसी गूदेदार रचना में परिवर्तित हो जाता है; जैसे–नागफनी (Opurntia), रसकस (Ruscus), कोकोलोबा (Cocoloba) इत्यादि। इस रूपान्तरण को पर्णाभ स्तम्भ (phylloclade) भी कहते हैं। यूफोर्बिया स्पलेनडेन्स (Euphorbia splendens) में भी स्तम्भ मांसल तथा हरा हो जाता है। ऐसपेरेगस (Asparagus) पौधों की कक्षस्थ शाखाएँ भी हरे रंग की सूजाकार (needle like) रचनाओं में परिवर्तित हो जाती हैं। इन्हें पर्णाभ पर्व (cladode) कहते हैं। इनके पर्णाभ स्तम्भ व पर्णाभ पर्व जैसी रचनाएँ पत्तियों के अभाव में प्रकाश संश्लेषण का कार्य करती हैं।

3. पत्तियाँ (Leaves) – इन पौधों की पत्तियों में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं –

(i) अनेक मरुभिद् पादपों की पत्तियाँ प्रारम्भ में ही लुप्त हो जाती हैं और इस प्रकार से इनमें पत्तियाँ पर्णपाती तथा आशुपाती (caducous) लक्षणों वाली होती हैं, जैसे-लेप्टेडीनिया (Laptadenia), केर (Capparis)। किन्तु कुछ में पत्तियों रूपान्तरित होकर कॅटीले रूप भी धारण कर लेती हैं, जैसे- नागफनी (Opuntia) या शल्क पर्ण में परिवर्तित हो जाती हैं, जैसे-रसकस (Ruscus), ऐसपेरेगस (Asparagus), केज्यूराइना (Casudrina), मूहलनबेकिया (Muehelenbeckia) इत्यादि। ये समस्त रूपान्तरण कुल मिलाकर पौधे की वाष्पोत्सर्जन दर को कम करते हैं।

(ii) प्रायः पत्तियों का आकार छोटा होता है तथा जिन पौधों की पत्तियों का आकार बड़ा होता है उनकी सतह चिकनी व चमकदार होती है, जिससे प्रकाश परिवर्तित हो जाता है। फलस्वरूप पत्ती का तापक्रम कम हो जाने से वाष्पोत्सर्जन की क्रिया भी मंद होती है। चीड़ (Pinus) की पत्तियों का आकार तो सूजाकार (needle like) होता है।
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(iii) पत्तियों की सतह पर मोम (wax), सिलिका की परतें आवरित रहती हैं और कभी – कभी उपत्वचा कोशिकाओं में टेनिन और गोंद पाये जाते हैं।

(iv) मरुस्थलीय क्षेत्रों में तेज गति वाली हवाएँ बहती रहती हैं, ऐसे स्थानों पर पाये जाने वाले मरुभिद् पादपों की पत्तियों की सतह बहुकोशीय रोमों (hairs) से ढकी रहती है, जैसे- कनेर (Nerium), आरनिबिया (Armebid), मदार (Calotropis) इत्यादि। ये रन्ध्र वाष्पोत्सर्जन की दर को न्यून करते हैं। ऐसे मरुभिद् जिनकी पत्तियों पर अधिक संख्या में रोम पाये जाते हैं उन्हें रोमपर्णी पादप (trichophyllous plants) कहते हैं।

(v) मरुद्भिद् पादपों की पत्तियों का आकार अर्थात् पर्ण फलक (leaf blade) छोटा हो जाता है; जैसे- बबूल (Acacid), खेजड़ा (Prosopis) तथा पर्ण शिराओं को एक गहरा जाल बिछा रहता है। विलायती कीकर (Parkinsonia aculeata) के पर्णक (leaflate) अधिक छोटे होते हैं किन्तु इसका रेकिस (rachis) मोटा और चपटा होता है। तेज धूप के समय यह किस पर्णकों को ताप से बचाता है।

(vi) ऑस्ट्रेलियन बबूल (Acacid melanoxylon) में जल की हानि को रोकने के लिए द्विपिच्छकी संयुक्त पर्ण (bipinnate compound leaf) सूखकर गिर जाती है परन्तु इसका पर्णवृन्त चपटा और पत्ती के समान हरा हो जाता है। पत्ती के इस चपटे और हरे वृन्त को पर्णाभ वृन्त (phyllode) कहते हैं। ये पर्णाभ वृन्त जल का संग्रह और प्रकाश संश्लेषण का कार्य करते हैं तथा वाष्पोत्सर्जन की दर को अत्यधिक कम कर देते हैं।

(vii) मरुभिद् पादपों में पाई जाने वाली चौड़ी पत्तियाँ मोटी, गूदेदार या मांसल व चर्मल (leathery) होती हैं; जैसे-साइकस (Cycas)

(viii) कुछ पादपों में पत्तियों के अनुपर्ण काँटों में रूपान्तरित हो जाते हैं; जैसे- बेर (Ziyphus jujuba), बबूल (Acacia nilotica), केर (Capparis decidua), खेजड़ा (Prosopis)
आदि।

(ix) कुछ एकबीजपत्री मरुभिद् पौधे; जैसे-पोआ (Pou) और सामा (Psamma) घास और एमोफिला (Ammophilla) व एगरोपाइरोन (Agropyron) की पत्तियाँ जलाभाव के समय गोलाई में लिपट जाती हैं। एक्टिनोप्टेरिस (Actinopteris), एसप्लियम (Asepteum) में भी जलाभाव के समय पत्तियाँ नलिकाकार होकर पर्णवृन्त पर लिपट जाती हैं। इन पौधों की पत्तियों की ऊपरी अधिचर्म में बड़ी आकृति की मृदूतक कोशिकाएँ होती हैं जिन्हें हिंज या मोटर या बुलीफार्म या आवर्धक कोशिकाएँ (hing or motor or bulliform cells) कहते हैं। इन्हीं कोशिकाओं के कारण पत्तियाँ गोलाई में लिपट
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जाती हैं, इस प्रकार शुष्कता से रक्षा करती हैं। इसी प्रकार शुष्कता के समय कुछ पौधों से शाखाएँ कुण्डली मारकर गेंद की जैसे सिमट जाती हैं (जैसे- सिलेजिनेला में), किन्तु जल उपलब्ध होते ही पुन: फैलकर वृद्धि करने लगती हैं। इस प्रकार के पौधों को पुनर्जीवनक्षम पादप (resurrection plants) या प्रोपोफाइट कहते हैं।

4. पुष्प, फल और बीज (Flower, Fruit and Seed) – मरुभिद् पौधों में पुष्प व फल का निर्माण अनुकूल समय में ही होता है। फल व बीज कठोर, मोटे आवरण से ढके होते हैं।
आन्तरिक लक्षण
मरुद्भिद् पादपों का मुख्य उद्देश्य जलव्यय को कम करने का होता है। इसी आधार पर आन्तरिक लक्षणों में परिवर्तन आता है जो निम्न प्रकार से हैं –

1. मूल पूर्ण विकसित, संवहन ऊतक अधिक मात्रा में होता है।
2. अधिचर्म पर लिग्निन व क्यूटिन की मोटी परत, कुछ में मोम व सिलिका का जमाव भी होता है। कनेर (Nerium) में बाह्यत्वचा बहुपर्तीय (multilayered epidermis) होती है।
3. अधिचर्म की कोशिकाएँ छोटी, सटी हुई जमी होती हैं। पत्तियों की बाहरी सतह चमकीली होने से सूर्य प्रकाश को परावर्तित कर रक्षा करती है।

4. कुछ पौधों में तने की रूपरेखा उभार (ridge) व खांचों में विभेदित होती है; जैसे-केज्यूराइना (Casurina) व इनमें रन्ध्र गहरे गर्तों में खांचों के तल अथवा किनारों पर स्थित होते हैं, इन्हें गर्तीय रन्ध्र (sunken stomata) कहते हैं। इसी प्रकार कनेर की पत्ती की निचली अधिचर्म गर्ते में व्यवस्थित रहती है। इन गर्तो को रन्ध्रीय गुहिका (stomatal cavity) कहते हैं। इन गुहिकाओं के अधिचर्म में रोम व अधिचर्मीय रोम पाये जाते हैं जिससे ये सीधे शुष्क हवा के सम्पर्क में न रहकर वाष्पोत्सर्जन को कम करते हैं। पौधों के अधिचर्म में गर्तीय रन्ध्र (sunken stomata) पाये जाते हैं।
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5. विशेष प्रकार की घास; जैसे-सामा (Psamma), पौआ (Poa) में जलाभाव के समय पत्तियाँ गोलाई में लिपट कर अपनी सुरक्षा करती हैं ये प्रवृत्ति बुलीफॉर्म कोशिकाओं (Bulliform cells) के द्वारा होती है जो कि पत्तियों की ऊपरी बाह्यत्वचा में पाई जाती हैं। इस प्रकार की कोशिकाएँ एग्रोपाइरोन (Agropyron), बांस, गन्ने की पत्ती, टाइफा (Typha), एमोफिला (Ammophilla) में भी पाई जाती हैं।

6. उपत्वचा (Hypodermis) – यह पूर्ण विकसित होती है तथा प्राय: दृढ़ोतकीय ऊतकों की बनी होती है जो यांत्रिक सामर्थ्य (mechanical support) प्रदान करती है।

7. वल्कुट (Cortex) – यह मृदूतक कोशिकाओं (parenchymatous cells) का बना होता है। कोशिकाओं के मध्य अन्तराकोशिकीय स्थान (intercellular spaces) नहीं पाये जाते हैं। इसमें रेजिने तथा लेटेक्स वाहिकाओं की उपस्थिति होती है, जैसे-पाइनस (Pinus) और कैलोट्रोपिस (Calotropis)। जिन पादपों में पर्ण सुविकसित या बहुत छोटी आकृति की या शल्की पर्ण होती है उनमें आशुपाती (caducous) प्रवृत्ति होने के कारण झड़ जाती है। इन पौधों के स्तम्भ वल्कुट में प्रायः खम्भाकार ऊतक (patlisade tissue) पाया जाता है जो पर्ण के अभाव की पूर्ति कर प्रकाश संश्लेषण की क्रिया सम्पन्न करवाता है; जैसे-केज्यूराइना, केलोट्रोपिस, केपेरिस, एक्वीजिटम इत्यादि। जिन पौधों की पत्तियों का सूक्ष्म आकार होता है, उन्हें माइक्रोफिलस पादप (microphyllous plants) भी कहते हैं।

8. इन पादपों में प्रायः कोशिकाओं का आकार अपेक्षाकृत छोटा तथा अन्तरकोशिकीय स्थानों का कुल आयतन अत्यधिक कम होता है। इनकी आन्तरिक शारीरिक रचना में दृढ़ोतकीय ऊतकों की बहुलता होती है। इनकी उपस्थिति शुष्कानुकुलित गुणों में एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है। दृढ़ोतक कोशिकाओं के अतिरिक्त दृढ़ोतक या दृढ़क कोशिकाओं (sclereids or sclerotic cells) की अनेक प्रकार की कोशिकाओं; जैसे- समव्यासी दृढ़ कोशिकाएँ (brachysclereids), वृहत् कोशिकाएँ (macrosclereids), अस्थिदृढक (osteosclereids) भी पाई जाती हैं।

9. पत्तियों में पर्ण मध्योतक पूर्ण रूप से खम्भाकार और स्पंजी मृदूतक (palisade and spongy parenchyma) में विभेदित होता है। इन दोनों प्रकार के ऊतकों में से खम्भ ऊतक, स्पंजी ऊतक की तुलना में अधिक मात्रा में परिवर्धित होता है; जैसे- कनेर में खम्भ ऊपर और निचली अधिचर्मों के निकट होता है तथा स्पंजी मृदूतक इन दोनों खम्भ ऊतकों के बीच व्यवस्थित रहता है। पाइनस (Pinus) की सूजाकार पत्तियों की पर्ण मध्योतक की कोशिकाओं की भीतरी सतह पर वलन (folds) होते हैं तथा अनुप्रस्थ काट में खूटी के समान, कोशिका गुहा (cell cavity) में निकले हुए प्रतीत होते हैं। ये वलन पर्ण मध्योतक की क्रियात्मक सतह बढ़ा देते हैं।

10. अन्तःत्वचा (Endodermis) – अन्त:त्वचा की कोशिकाओं में स्टार्च कण विद्यमान होते हैं। इसलिए इसे स्टार्च आच्छद (starch sheath) भी कहते हैं। कभी कभी इन कोशिकाओं में केस्पेरीयन पट्टियाँ (casparian strips) भी पाई जाती हैं।

11. संवहन ऊतक सुविकसित होता है। प्रायः दारू (xylem) की मात्रा फ्लोएम (phloem) की तुलना में अधिक होती है। संवहन पूलों (vascular bundles) की संख्या बढ़कर एक जाल सा बन जाता है। जाइलम में कोशिकाओं का आकार छोटा होता है किन्तु वाहिकाएँ (vessels) बड़ी और लम्बी होती हैं तथा भित्तियों पर लिग्निन की अधिक मात्रा पाई जाती है। फ्लोएम में बास्ट तन्तु (bast fibres) अधिक मात्रा में पाये जाते हैं।

12. पादपों में द्वितीयक वृद्धि के कारण कॉर्क, छाल व वार्षिक वलय पाई जाती हैं।

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