UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 6
Chapter Name Public Opinion (जनमत (लोकमत))
Number of Questions Solved 25
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion (जनमत (लोकमत))

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
लोकमत से आप क्या समझते हैं? लोकमत की अभिव्यक्ति के कौन-कौन से साधन हैं [2016]
या
जनमत-निर्माण के प्रमुख साधनों का वर्णन कीजिए। [2007, 14]
या
‘जनमत के निर्माण व प्रकट करने के साधन’ पर टिप्पणी लिखिए।
या
जनमत से आप क्या समझते हैं ? स्वस्थ जनमत-निर्माण के आवश्यक साधनों का वर्णन कीजिए। [2007, 09, 12, 13, 14]
या
जनमत के विभिन्न साधनों का उल्लेख कीजिए। [2011, 12, 13, 14]
उत्तर
जनमत (लोकमत) का अर्थ व परिभाषा
साधारण शब्दों में, लोकमत अथवा जनमत का अर्थ सार्वजनिक समस्याओं के सम्बन्ध में जनता के मत से है। आधुनिक प्रजातान्त्रिक युग में लोकमत का विशेष महत्त्व है। डॉ० आशीर्वादम् ने लोकमत के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “जागरूक व सचेत लोकमत स्वस्थ प्रजातन्त्र की प्रथम आवश्यकता है।”
विभिन्न विद्वानों ने जनमत की परिभाषाएँ निम्नवत् दी हैं-

  1. लॉर्ड ब्राइस का मत है कि “सार्वजनिक हित से सम्बद्ध किसी समस्या पर जनता के सामूहिक विचारों को जनमत कहा जा सकता है।”
  2. डॉ० बेनी प्रसाद के शब्दों में, “केवल उसी राय को वास्तविक जनमत कहा जा सकता है जिसका उद्देश्य जनता का कल्याण हो। हम कह सकते हैं कि सार्वजनिक मामलों पर बहुसंख्यक का वह मत जिसे अल्पसंख्यक भी अपने हितों के विरुद्ध नहीं मानते, जनमत कहलाता है।

उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी विषय पर अधिकांश जनता के उस मत को लोकमत अथवा जनमत कहा जाता है जिसमें लोक-कल्याण की भावना निहित हो।

जनमत के निर्माण के साधन
जनमत के निर्माण और उसकी अभिव्यक्ति में अनेक साधन सहायक होते हैं। कुछ मुख्य साधन निम्नलिखित हैं-

  1. समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएँ – जनमत के निर्माण में सबसे प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण अंग प्रेस है। प्रेस के अन्तर्गत समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ तथा अन्य प्रकार का साहित्य आ जाता है। एक विचारक ने इनको आधुनिक सभ्यता का प्रकाश स्तम्भ और प्रजातन्त्र के धर्म-ग्रन्थ कहकर पुकारा है।
  2. सार्वजनिक भाषण – जनमत के निर्माण में सार्वजनिक मंचों पर नेताओं या व्यक्ति-विशेष द्वारा दिये जाने वाले भाषणों का विशेष महत्त्व होता है। इन भाषणों के द्वारा जनता को राजनीतिक शिक्षा प्राप्त होती है और वह सार्वजनिक समस्याओं के प्रति जागरूक बनती है।
  3. शिक्षण संस्थाएँ – स्कूल, कॉलेज व विश्वविद्यालय जैसी शिक्षण संस्थाएँ भी प्रबुद्ध जनमत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। शिक्षण संस्थाएँ विद्यार्थियों में नागरिक चेतना जाग्रत करती हैं और उनके चरित्र-निर्माण में सहायक होती हैं।
  4. राजनीतिक दल – राजनीतिक दल जनमत-निर्माण के सशक्त साधन माने जाते हैं। विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने विचारों तथा कार्यक्रमों को जनता के सामने रखते हैं। इससे जनता को अपना मत बनाने में बड़ी सहायता प्राप्त होती है।
  5. रेडियो, सिनेमा व दूरदर्शन – प्रचार की दृष्टि से रेडियो तथा टेलीविजन प्रेस से भी सशक्त माध्यम हैं। किसी महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक घटना की जानकारी रेडियो तथा दूरदर्शन द्वारा करोड़ों लोगों तक पहुँच जाती है। इसके माध्यम से संसार के विभिन्न भागों के लोग एक ही समय में किसी लोकप्रिय नेता का भाषण अथवा किसी सार्वजनिक विषय पर वाद-विवाद सुन सकते हैं।
  6. निर्वाचन – जनमत के निर्माण में निर्वाचन का भी महत्त्व है। निर्वाचन के समय विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने कार्यक्रमों एवं नीतियों के सम्बन्ध में जनता को जानकारी देकर जनमत को अपने पक्ष में करने का प्रयास करते हैं, किन्तु जनता उसी दल के प्रत्याशी को अपना मत देती है जिसके कार्यक्रमों और नीतियों को वह देश-हित में अच्छा समझती है।
  7. व्यवस्थापिका सभाएँ – व्यवस्थापिका सभाएँ भी जनमत के निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं। व्यवस्थापिका सभाओं में विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि जाते हैं। व्यवस्थापिका सभाओं में होने वाले वाद-विवाद से सम्पूर्ण जनता को देश की महत्त्वपूर्ण समस्याओं के सभी पक्षों का समुचित ज्ञान प्राप्त होता है, जिसके आधार पर उन्हें अपना मत निर्धारित करने में सहायता मिलती है।
  8. धार्मिक संस्थाएँ – लोकमत के निर्माण में धार्मिक संस्थाएँ भी अपना योगदान देती हैं। इसका प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति के चरित्र, विचारों और उसके कार्यों पर पड़ता है। हमारे देश में आर्य समाज, कैथोलिक चर्च, अकाली दल आदि अनेक संस्थाओं ने भी अपने प्रचार द्वारा लोकमत को प्रभावित किया है।
  9. साहित्य – साहित्य भी जनमत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। साहित्य के अध्ययन से जनता के विचारों की संकीर्णता दूर होती है और स्वस्थ जनमत के निर्माण में सहायता मिलती है।
  10. अफवाहें – आधुनिक युग में अफवाहें भी जनमत–निर्माण में योगदान देती हैं। कभी-कभी सच्चाई का पता लगाने हेतु जान-बूझकर अफवाहें भी फैला दी जाती हैं। पत्रकार ऐसी अफवाहों को फीलर (Feeler) के नाम से पुकारते हैं। 1942 ई० में गाँधी जी को किसी अज्ञात स्थान पर नजरबन्द किया गया था। समाचार-पत्रों ने उनकी बीमारी, अनशन आदि अफवाहें छापना प्रारम्भ कर दिया, जिसका जनमत पर व्यापक प्रभाव पड़ा और बाद में सरकार को यह स्पष्ट करना पड़ा कि गाँधी जी कहाँ पर नजरबन्द हैं।

प्रश्न 2.
जनमत से आप क्या समझते हैं ? स्वस्थ जनमत के विकास के मार्ग की प्रमुख बाधाओं का वर्णन कीजिए। [2007, 09, 12]
या
जनमत से आप क्या समझते हैं ? स्वस्थ जनमत के निर्माण की आवश्यक दशाओं का वर्णन कीजिए। [2007, 09, 12]
या
लोकतन्त्र की सफलता की आवश्यक शर्ते क्या हैं? लोकतन्त्र के विरुद्ध बाधाओं को रेखांकित कीजिए। [2016]
या
स्वस्थ जनमत के निर्माण में कौन-सी बाधाएँ आती हैं ? लिखिए। [2012, 14]
उत्तर
(संकेत-जनमत से अभिप्राय के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का उत्तर देखें।)
स्वस्थ जनमत-निर्माण की प्रमुख बाधाएँ।
(लोकतन्त्र के विरूद्ध बाधाएँ)
स्वस्थ जनमत के निर्माण में अनेक बाधाएँ आती हैं, जिनमें प्रमुख बाधाएँ इस प्रकार हैं-

1. निर्धनता और भीषण आर्थिक असमानताएँ – जब समाज के कुछ व्यक्ति बहुत अधिक निर्धन होते हैं, तो इनका सारा समय और शक्ति दैनिक जीवन की आवश्यकताओं के साधन जुटाने में ही चली जाती है और ये सार्वजनिक हित की बातों के सम्बन्ध में विचार नहीं कर पाते। इसी प्रकार जब समाज के अन्तर्गत भीषण आर्थिक असमानताएँ विद्यमान होती हैं, तो इन असमानताओं के परिणामस्वरूप वर्ग-विद्वेष और वर्ग-संघर्ष की भावना उत्पन्न हो जाती है। जब धनी और निर्धन वर्ग एक-दूसरे को अपना निश्चित शत्रु मान लेते हैं तो वे प्रत्येक बात के सम्बन्ध में सार्वजनिक हित की दृष्टि से नहीं, वरन् वर्गीय हित की दृष्टि से विचार करते हैं।

2. निरक्षरता और दूषित शिक्षा-प्रणाली – स्वस्थ लोकमत के निर्माण के लिए यह जरूरी है कि व्यक्ति समाचार-पत्र पढ़े, विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करे और उनके द्वारा परस्पर विचारों का आदान-प्रदान किया जाए, लेकिन ये सभी कार्य पढ़े-लिखे व्यक्तियों द्वारा ही ठीक प्रकार से किये जा सकते हैं, इसलिए निरक्षरता लोकमत के निर्माण के मार्ग की एक बहुत बड़ी बाधा है। स्वस्थ लोकमत के निर्माण हेतु न केवल शिक्षित, वरन् ऐसे नागरिक होने चाहिए। जो स्वतन्त्र रूप से विचार कर सकें और जिनमें सामान्य सूझबूझ हो। इस दृष्टि से दूषित शिक्षा-प्रणाली भी लोकमत के मार्ग की उतनी ही बड़ी बाधा है जितनी कि निरक्षरता।

3. पक्षपातपूर्ण समाचार-पत्र – समाचार-पत्र स्वस्थ लोकमत के निर्माण का कार्य उसी समय कर सकते हैं, जब वे निष्पक्ष हों, लेकिन यदि समाचार-पत्रों पर सरकार को अधिकार हो अथवा वे किन्हीं धनी व्यक्तियों या राजनीतिक दलों के प्रभाव में हों, तो इन पक्षपातपूर्ण समाचार-पत्रों के द्वारा स्वस्थ लोकमत के निर्माण का कार्य ठीक प्रकार से नहीं किया जा सकता। पक्षपातपूर्ण समाचार-पत्र लोकमत को पूर्णतया विकृत कर देते हैं।

4. दोषपूर्ण राजनीतिक दल – यदि राजनीतिक दल आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रम पर आधारित हों, तो ये राजनीतिक दल लोकमत के निर्माण में बहुत अधिक सहायक सिद्ध होते हैं, लेकिन जब इन राजनीतिक दलों का निर्माण जाति और भाषा के प्रश्नों के आधार पर किया जाता है, तो इन दलों के द्वारा धर्म, जाति और भाषा पर आधारित विभिन्न वर्गों के बीच संघर्षों को जन्म देने का कार्य किया जाता है। ये दोषपूर्ण राजनीतिक दल लोकमत के मार्ग को पूर्णतया भ्रष्ट कर देते हैं।

5. सार्वजनिक जीवन के प्रति उदासीनता और राजनीतिक चेतना का अभाव – स्वस्थ लोकमत के निर्माण हेतु आवश्यक है कि जनता सार्वजनिक जीवन में रुचि ले और जनता द्वारा सार्वजनिक जीवन को अपने पारिवारिक जीवन के समान ही समझा जाए, लेकिन जब जनता सार्वजनिक जीवन में कोई रुचि नहीं लेती, कोऊ नृप होउ, हमें का हानि’ का दृष्टिकोण अपना लेती है और अपने अधिकार तथा कर्तव्यों को नहीं समझती, तो ऐसी स्थिति में स्वस्थ लोकमत के निर्माण की आशा नहीं की जा सकती है।

6. वर्गीयता तथा साम्प्रदायिकता – वर्गीयता, जातिवाद, साम्प्रदायिकता आदि भावनाएँ स्वार्थपरता, असहिष्णुता और संकुचित दृष्टिकोण को जन्म देती हैं, जिनसे स्वस्थ जनमत के निर्माण में बाधा पहुँचती है।

स्वस्थ जनमत के निर्माण की बाधाओं को दूर करने के उपाय
(लोकतन्त्र की सफलता की आवश्यक शर्ते)
स्वस्थ जनमत-निर्माण के लिए विशेष अवस्थाओं की आवश्यकता होती है। स्वस्थ जनमत के निर्माण में जो बाधाएँ आती हैं, उनको दूर करके सही अवस्थाओं को उत्पन्न किया जा सकता है। ऐसा करने के लिए निम्नलिखित अवस्थाएँ आवश्यक है-

  1. शिक्षित नागरिक – शुद्ध जनमत-निर्माण के लिए प्रत्येक नागरिक को शिक्षित होना आवश्यक है। शिक्षित नागरिक ही देश की समस्याओं को समझ सकता है। वह नेताओं के भड़कीले भाषणों को सुनकर अपने मत का निर्माण नहीं करता।
  2. निष्पक्ष प्रेस – शुद्ध जनमत-निर्माण के लिए निष्पक्ष प्रेस का होना भी आवश्यक है। प्रेस दलों और पूँजीपतियों से स्वतन्त्र होनी चाहिए, ताकि वह सच्चे समाचार दे सके। स्वस्थ जनमत-निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि प्रेस ईमानदार, निष्पक्ष और संकुचित साम्प्रदायिक भावनाओं से ऊपर हो।
  3. गरीबी का अन्त – स्वस्थ जनमत-निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि गरीबी का अन्त किया जाये, जनता को भरपेट भोजन मिले और मजदूरों का शोषण न हो तथा समाज में आर्थिक समानता हो।
  4. आदर्श शिक्षा-प्रणाली – देश की शिक्षा-प्रणाली आदर्श होनी चाहिए ताकि विद्यार्थियों को दृष्टिकोण व्यापक बन सके और वे धर्म, जाति और क्षेत्र से ऊपर उठकर देश के हित में सोच सकें तथा आदर्श नागरिक बन सके।
  5. राजनीतिक दल आर्थिक तथा राजनीतिक सिद्धान्तों पर आधारित – स्वस्थ जनमतनिर्माण में राजनीतिक दलों का विशेष हाथ होता है। राजनीतिक दल धर्म व जाति पर आधारित न होकर आर्थिक तथा राजनीतिक सिद्धान्तों पर आधारित होने चाहिए।
  6. भाषण तथा विचार व्यक्त करने की स्वतन्त्रता – शुद्ध जनमत-निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि नागरिकों को भाषण देने तथा अपने विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता हो। यदि भाषण देने की स्वतन्त्रता नहीं होगी तो साधारण नागरिक को विद्वानों और नेताओं के विचारों का ज्ञान न होगा, जिससे स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं हो सकेगा।
  7. नागरिकों का उच्च चरित्र – स्वस्थ जनमत-निर्माण के लिए नागरिकों का चरित्र ऊँचा होना चाहिए। नागरिकों में सामाजिक एकता की भावना होनी चाहिए और उन्हें प्रत्येक समस्या पर राष्ट्रीय हित से सोचना चाहिए। उच्च चरित्र का नागरिक अपना मत नहीं बेचता और न ही झूठी बातों का प्रचार करता है। वह उन्हीं बातों तथा सिद्धान्तों का साथ देता है, जिन्हें वह ठीक समझता है।
  8. अफवाह के लिए दण्ड की व्यवस्था – मिथ्या प्रचार और अफवाह फैलाने वाले तत्वों के लिए दण्ड की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। झूठी अफवाहों का तत्काल ही खण्डन किया जाना चाहिए।
  9. राष्ट्रीय आदर्शों की समरूपता – स्वस्थ जनमत के निर्माण के लिए एक अनिवार्य तत्त्व यह है कि राष्ट्र के राज्य सम्बन्धी आदर्शों में जनता के मध्य अत्यधिक मतभेद न हो। इसके साथ ही राष्ट्रीय तत्त्वों में विभिन्नता कम होनी चाहिए। जिस राष्ट्र में धर्म, भाषा, संस्कृति, प्राचीन इतिहास तथा राजनीतिक परम्पराओं के मध्य विभिन्नता होगी, वहाँ इन विषयों से सम्बद्ध सार्वजनिक नीतियों के सम्बन्ध में स्वस्थ जनमत के निर्माण में बाधा पहुँचती है।
  10. साम्प्रदायिकता और संकीर्णता का अभाव – जिस देश में लोग जात-पात, धर्म, नस्ल आदि संकीर्ण विचारों को महत्त्व देते हैं वहाँ स्वस्थ लोकमत का विकास नहीं हो सकता।
  11. न्यायप्रिय बहुमत व सहनशील अल्पमत – यदि बहुमत की प्रवृत्ति अपने आपको ध्यान में रखकर विचार करने की हो जाती है तो निश्चय ही अल्पमत उदासीन होकर असंवैधानिक मार्ग को अपना लेते हैं। स्वार्थी बहुमत व विद्रोही अल्पमत लोकमत के स्वरूप को भ्रष्ट कर देता है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion

प्रश्न 3.
जनतन्त्र (लोकतन्त्र) के प्रहरी के रूप में जनमत का महत्त्व समझाइए। [2010, 11, 12, 15]
या
जनमत क्या है? भारतीय राजनीति में इसकी भूमिका का विवेचन कीजिए।
या
प्रजातन्त्रीय शासन व्यवस्था में जनमत के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए। [2010, 11, 12, 15]
या
जनमत से आप क्या समझते हैं? आधुनिक लोकतन्त्र में जनमत की भूमिका की विवेचना कीजिए। [2016]
(संकेत-जनमत से अभिप्राय के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 का उत्तर देखें।)
उत्तर
लोकतन्त्र में राज्य-प्रबन्ध सदा लोगों की इच्छानुसार चलता है। अत: प्रत्येक राजनीतिक दल और सत्तारूढ़ दल लोकमत को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करता है। जैसा कि ह्यूम ने कहा है, “सभी सरकारें चाहे वे कितनी भी बुरी क्यों न हों, अपनी सत्ता के लिए लोकमत पर निर्भर होती हैं।” लोकमत के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु को शासन का आधार बनाकर कभी कोई शासन नहीं कर सकता। जिस राजनीतिक दल की विचारधारा लोगों को अच्छी लगती है, लोग उसे शक्ति देते हैं।”
लोकमत या जनमत का महत्त्व : जनतन्त्र के प्रहरी के रूप में

1. लोकतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली में सरकार का आधार जनमत होता है- सरकार जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा बनायी जाती है। कोई भी सरकार जनमत के विरुद्ध नहीं जा सकती। सरकार सदैव जनमत को अपने पक्ष में बनाये रखने के लिए जनता में अपनी नीतियों का प्रसार करती रहती है। विपक्षी दल जनमत को अपने पक्ष में मोड़ने का सदैव प्रयत्न करते रहते हैं ताकि सत्तारूढ़ दल को हटाकर अपनी सरकार बना सकें। जो सरकार जनमत के विरोध में काम करती है वह शीघ्र ही हटा दी जाती है। यदि लोकतन्त्रीय सरकार लोकमत के विरुद्ध कानून पारित कर देती है तो उस कानून को सफलता प्राप्त नहीं होती है। यदि हम लोकमत को लोकतन्त्रात्मक सरकार की आत्मा कहें तो गलत न होगा।

2. जनमत सरकार का मार्गदर्शन करता है- जनमत लोकतन्त्रात्मक सरकार का आधार ही नहीं, बल्कि लोकतन्त्र सरकार का मार्गदर्शक भी है। डॉ० आशीर्वादम् के अनुसार, “जागरूक और सचेत जनमत स्वस्थ प्रजातन्त्र की प्रथम आवश्यकता है।” जनमत सरकार को रास्ता भी दिखाता है कि उसे क्या करना है और किस तरह करना है। सरकार कानूनों का निर्माण करते समय जनमत का ध्यान अवश्य रखती है। यदि सरकार को पता हो कि किसी कानून का जनमत विरोध करेगा तो सरकार कानून को वापस ले लेती है।

3. जनमत प्रतिनिधियों की निरंकुशता को नियन्त्रित करता है- लोकतन्त्र में जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनकर भेजती है और जनमत जिस दल के पक्ष में होगा उसी दल की सरकार बनती है। कोई भी प्रतिनिधि अथवा मन्त्री अपनी मनमानी नहीं कर सकता। उन्हें सदैव जनमत का डर रहता है। प्रतिनिधि को पता रहता है कि यदि जनमत उसके विरुद्ध हो गया तो वह चुनाव नहीं जीत सकेगा। इसीलिए प्रतिनिधि सदा जनमत के अनुसार कार्य करता है। इस प्रकार जनमत प्रतिनिधियों को तथा सरकार को मनमानी करने से रोकता है।

4. जनमत नागरिक अधिकारों की रक्षा करता है- लोकतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली में नागरिकों को राजनीतिक एवं सामाजिक अधिकार प्राप्त होते हैं। इन अधिकारों की रक्षा जनमत के द्वारा की जाती है। जनमत सरकार को ऐसा कानून नहीं बनाने देता जिससे जनता के अधिकारों में हस्तक्षेप हो। जब सरकार कोई ऐसा कार्य करती है जिससे जनता की स्वतन्त्रता समाप्त हो तो लोकमत उस सरकार की कड़ी आलोचना करता है।

5. जनमत सरकार को शक्तिशाली एवं दृढ़ बनाता है- जनमत से सरकार को बल मिलता है और वह दृढ़ बन जाती है। जब सरकार को यह विश्वास हो कि जनमत उसके साथ है। तो वह दृढ़तापूर्वक कदम उठा सकती है और प्रगतिशीलता की ओर काम भी कर सकती है। जनमत तो सरकार का आधार होता है और वह शासक को शक्तिशाली बना देता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि लोकतन्त्र शासन-प्रणाली में जनमत का विशेष महत्त्व है। सरकार का आधार जनमत ही होता है और जनमते ही सरकार को रास्ता दिखाता है। सरकार जनमत की अवहेलना नहीं कर सकती और यदि करती है तो उसे आने वाले चुनावों से हटा दिया जाता है। इसीलिए सभी विचारकों का लगभग यही मत है कि लोकतन्त्र के लिए एक सचेत जनमत पहली आवश्यकता है। गैटिल के शब्दों में, “लोकतन्त्रात्मक शासन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि लोकमत कितना सबल है तथा सरकार के कार्यों और नीतियों को किस सीमा तक नियन्त्रित कर सकता है।”

लोकमत के निर्माण में राजनीतिक दलों का योगदान
जनमत के निर्माण में राजनीतिक दल बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रखते हैं। फाइनर के अनुसार, दलों के अभाव में मतदाता या तो नपुंसक हो जायेंगे या विनाशकारी, जो ऐसी असम्भव नीतियों का पालन करेंगे जिससे राजनीतिज्ञ ध्वस्त हो जायेंगे।” जिस राजनीतिक दल के पक्ष में जनमत होता है वही दल शासन पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लेता है। इसीलिए प्रत्येक दल जनमत को अपने पक्ष में रखने का प्रयत्न करता है। जनमतं के निर्माण में राजनीतिक दल निम्नलिखित विधियों से अपना योगदान देते हैं-

1. देश की विभिन्न समस्याओं पर अपने विचार और कार्यक्रमों का प्रस्तुतीकरण – राजनीतिक दल लोगों के सामने देश की विभिन्न समस्याओं पर अपने विचार रखते हैं। और उन समस्याओं को हल करने के लिए अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार राजनीतिक दल जनता का ध्यान देश की महत्त्वपूर्ण समस्याओं की ओर आकर्षित करते हैं। राजनीतिक दल आकर्षक और रचनात्मक कार्यक्रम बनाकर जनमत को अपनी ओर करने का प्रयत्न करते हैं। राजनीतिक दल जनमत को एक विशेष ढाँचे में ढालने का प्रयास करते

2. सार्वजनिक सभाएँ – राजनीतिक दल जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए सार्वजनिक सभाएँ करते हैं। सत्तारूढ़ दल अपनी नीतियों और किये गये कार्यों की प्रशंसा करता है। और विरोधी दल सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों की आलोचना करते हैं। राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा सार्वजनिक सभाओं में दिये गये भाषण समाचार-पत्रों में छपते हैं। इससे जनता को विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं के विचारों को पढ़ने-सुनने का अवसर मिलता है। चुनाव के दिनों में विशेषकर राजनीतिक दल विशाल और छोटी-छोटी सार्वजनिक सभाएँ करते हैं, जिससे लोकमत प्रभावित होता है।

3. दल का साहित्य – राजनीतिक दल जनमत का निर्माण करने में केवल भाषणों तक ही सीमित नहीं रहते, बल्कि वे दल का साहित्य भी जनता में बाँटते हैं। इस साहित्य के द्वारा राजनीतिक दल अपने उद्देश्य, अपनी नीतियों और सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं। बहुत-से राजनीतिक दल अपने समाचार-पत्र भी निकालते हैं। इन सभी साधनों द्वारा राजनीतिक दल अपने विचार जनता और सरकार तक पहुँचाते हैं और जनमत के निर्माण में सहायता करते

4. जनता को राजनीतिक शिक्षा – राजनीतिक दल जनता में राजनीतिक जागृति उत्पन्न करते हैं तथा जनता को राजनीतिक शिक्षा देते हैं। ये सरकार और जनमत के बीच की कड़ी का काम तथा जनता को राजनीतिक गतिविधियों से भी परिचित कराते हैं।

5. विधानमण्डल में बाद-विवाद – राजनीतिक दल व्यवस्थापिका में वाद-विवाद करते हुए अपने विचार प्रकट करते हैं। यही विचार रेडियो और समाचार-पत्रों द्वारा जनता तक पहुँचते हैं। इन विचारों का भी जनमत के निर्माण में काफी प्रभाव पड़ता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
जनमत-निर्माण में सहायक चार साधनों का उल्लेख कीजिए। [2011, 12, 14]
या
स्वस्थ लोकमत के निर्माण में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (टी०वी० चैनल्स आदि) की भूमिका का परीक्षण कीजिए। [2010, 11, 12, 14]
उत्तर
जनमत-निर्माण में सहायक चार साधन निम्नवत् हैं-

1. शिक्षण संस्थाएँ – जनमत के निर्माण में शिक्षण संस्थाएँ महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती हैं। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति लोकहित का महत्त्व समझ चुका होता है तथा स्वस्थ एवं प्रबुद्ध जनमत का निर्माण करने योग्य हो जाता है। शिक्षण संस्थाओं में अनेक प्रकार के समाचार-पत्र व पत्रिकाएँ आती हैं जिनको विद्यार्थी पढ़ते हैं तथा विभिन्न घटनाओं के सम्बन्ध में विचार विमर्श करते हैं एवं अनेक प्रकार की नवीन जानकारी प्राप्त करते हैं। शिक्षण संस्थाओं में प्रमुख राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं पर सेमिनार, सिम्पोजियम तथा वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का आयोजन भी किया जाता है।

2. जनसंचार के साधन – रेडियो, सिनेमा और टी०वी० भी जनमत के निर्माण में पर्याप्त सहयोग देते हैं। रेडियो एवं टी०वी० पर समाचारों के प्रसारण के साथ-साथ देश के प्रमुख नेताओं के मत एवं भाषण प्रसारित किये जाते हैं। महत्त्वपूर्ण विषयों पर संगोष्ठियों, परिचर्चाओं आदि का प्रसारण भी प्रबुद्ध जनमत का निर्माण करता है। इस प्रकार साधारण जनता बड़ी सरलता से देश के बड़े नेताओं और विद्वानों के विचारों से अवगत करता है। इस प्रकार साधारण जनता बड़ी सरलता से देश के बड़े नेताओं और विद्वानों के विचारों से अवगत हो जाती है और अपना मत (जनमत) निर्धारित करने का प्रयास करती है।

3. समाचार-पत्र एवं पत्र-पत्रिकाएँ – समाचार-पत्र एवं पत्र-पत्रिकाएँ जनमत को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण सहयोग देते हैं। इनमें देश-विदेश की नीतियों, घटनाओं, शासन व्यवस्थाओं का वर्णन होता है, जिन्हें पढ़कर जनता अपना मत निर्धारित करती है। इस प्रकार समाचारपत्र साधारण जनता के लिए प्रकाश-स्तम्भ का कार्य करते हैं। जैसा कि गैटिल ने लिखा है-“समाचार-पत्र अपने समाचारों और सम्पादकीय शीर्षकों के माध्यम से तथ्यों का उल्लेख करते हैं।” नेपोलियन ने भी कहा था-“एक लाख तलवारों की अपेक्षा मुझे तीन समाचार पत्रों से अधिक भय है।”

4. राजनीतिक साहित्य – जनमत निर्माण एवं उसको अभिव्यक्त करने की दृष्टि से राजनीतिक साहित्य भी एक अच्छा साधन है। अनेक राजनीतिक दल अपने मत, नीतियों तथा देश की. सामाजिक समस्याओं को व्यक्त करने हेतु राजनीतिक साहित्य का प्रकाशन करते हैं। ऐसे साहित्य में निर्वाचन से पहले प्रकाशित होने वाले घोषणा-पत्रों का विशेष महत्त्व होता है क्योंकि जनता उनके माध्यम से दलों की नीतियों एवं योजनाओं से परिचित होकर अपना मत तय करने में सफल होती है। यह मत अन्ततोगत्वा जनादेश या जनमत का निर्माण करता है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion

प्रश्न 2.
जनमत के महत्त्व को लिखिए। [2010, 11, 12, 14]
या
आधुनिक जनतन्त्र में जनमत की भूमिका को संक्षेप में समझाइए।
उत्तर
आधुनिक जनतन्त्र में जनमत की भूमिका
सामान्य रूप से सभी शासन व्यवस्थाओं में जनमत अथवा लोकमत की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, परन्तु प्रजातन्त्र अथवा जनतन्त्र में इसका विशेष महत्त्व होता है। प्रजातान्त्रिक शासन जनमत से ही अपनी शक्ति प्राप्त करता है तथा उसी पर आधारित होता है। इसीलिए जनमत को जनतन्त्र का आधार कहा जाता है। संगठित जनमत ही जनतन्त्र की सफलता तथा सार्थकता की आधारशिला हैं। जनतन्त्र में जनमत की भूमिका को निम्नलिखित आधारों पर स्पष्ट किया जा सकता है।

  1. शासन की निरंकुशता पर नियन्त्रण – जनतन्त्र में शासन की निरंकुशता पर जनमत के द्वारा नियन्त्रण रखने का कार्य किया जाता है। जनतन्त्र में सरकार को स्थायी बनाने के लिए जनमत के समर्थन तथा सहमति की आवश्यकता होती है। जनमत के बल पर ही सरकारें बनती तथा बिगड़ती हैं।
  2. सरकारी अधिकारियों पर नियन्त्रण – जनमत द्वारा सरकारी अधिकारियों की आलोचना से उन पर नियन्त्रण रखा जाता है।
  3. सरकार का पथ-प्रदर्शन – जनतन्त्र में जनमत सरकार का पथ-प्रदर्शन करता है। जनमत से सरकार को इस बात की जानकारी होती है कि जनता किस प्रकार की व्यवस्था चाहती है। तथा उसके हित में किस प्रकार के कानूनों का निर्माण किया जाए।
  4. सरकार का निर्माण और पतन – जनमत जनतन्त्र का आधार है। जनतन्त्र में सरकार को निर्माण और पतन जनमत पर ही निर्भर करता है। जनमत का सम्मान करने वाला दल सत्ता प्राप्त करता है तथा पुनः सत्ता प्राप्त करने का अवसर बनाए रखता है। जनमत की अवहेलना करने पर शासक दल का स्थान विरोधी दल ले लेता है। ई०बी० शुल्ज के शब्दों में, “जनमत एक प्रबल सामाजिक शक्ति है, जिसकी अवहेलना करने वाला राजनीतिक दल स्वयं अपने लिए संकट आमन्त्रित करता है।”
  5. जनता और सरकार में समन्वय – जनमत जनता और सरकार के विचारों में समन्वय स्थापित करने की एक कड़ी है।
  6. नागरिक अधिकारों का रक्षक – जनमत नागरिकों के अधिकारों और स्वतन्त्रता का भी रक्षक होता है। जागरूक और सचेत जनमत शासक वर्ग को जनता के विचारों से परिचित रखता है। इस प्रकार जनमत नागरिकों के अधिकारों और स्वतन्त्रता की रक्षा करता है। स्वतन्त्रता तथा अधिकारों की रक्षा के लिए जागरूक जनमत की आवश्यकता होती है।
  7. राजनीतिक जागरूकता उत्पन्न करना – जनमत नागरिकों में राजनीतिक जागरूकता उत्पन्न करता है। जनमत से प्रेरित राजनीतिक जागरूकता ही जनतन्त्र का वास्तविक आधार होती है। जनमत द्वारा ही जन-सहयोग प्राप्त किया जाता है।
  8. नैतिक तथा सामाजिक व्यवस्था की रक्षा – जनमत का सामाजिक क्षेत्र में भी अत्यधिक महत्त्व है। जनमत नैतिक तथा सामाजिक व्यवस्था की रक्षा करता है और नागरिकों का ध्यान महत्त्वपूर्ण सामाजिक प्रश्नों तथा समस्याओं की ओर आकृष्ट करता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जनतन्त्र में जनमत का बहुत अधिक महत्त्व है। गैटिल के अनुसार-“जनतान्त्रिक शासन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि जनमत कितना सबल है। तथा सरकार के कार्यों तथा नीतियों को किस सीमा तक नियन्त्रित कर सकता है।” डॉ० आशीर्वादम् के अनुसार, “जागरूक और सचेत जनमत स्वस्थ जनतन्त्र की प्रथम आवश्यकता है। वास्तव में प्रबुद्ध जनमत लोकतन्त्र का पहरेदार है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
लोकमत की कोई दो विशेषताएँ लिखिए। [2012]
या
जनमत अथवा लोकमत की विशेषताएँ (लक्षण) बताइए।
उत्तर
जनमत अथवा लोकमत की परिभाषाएँ यद्यपि एक-दूसरे से भिन्न हैं फिर भी वे उसकी प्रमुख तीन विशेषताओं को स्पष्ट रूप से प्रकट करती हैं-

1. जनसाधारण का मत – जनमत के लिए यह आवश्यक है कि वह जनसाधारण का मत हो। किसी विशेष वर्ग अथवा व्यक्तियों का मत जनमत नहीं हो सकता। विलहेम बोयर ने ठीक ही कहा है कि, “जनमत किसी गुट विशेष का विचार एवं सिद्धान्त मात्र न होकर जनसाधारण की सामूहिक आस्था और विश्वास होता है।”

2. लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित – जनमत की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक विशेषता लोक-कल्याण की भावना होती है। डॉ० बेनी प्रसाद ने कहा है कि “वही मत वास्तविक जनमत होता है जो जन-कल्याण की भावना से प्रेरित हो।” इसी बात को लॉवेल ने इन शब्दों में कहा है कि “जनमत के लिए केवल बहुमत ही पर्याप्त नहीं होता और न ही एक मत की आवश्यकता होती है। किसी भी मत को जनमत का रूप धारण करने के लिए ऐसा होना चाहिए जिसमें चाहे अल्पमत भागीदार न हो, परन्तु भय के कारण नहीं, वरन् दृढ़ विश्वास के कारण स्वीकार करता हो।’

3. विवेक पर आधारित स्थायी विचार – जनमत भावनाओं के अस्थिर आवेग या एक समयविशेष में प्रचलित विचार पर आधारित नहीं होता, अपितु उसका आधार जनता के विवेकपूर्ण और स्थायी विचार होते हैं। स्थायित्व जनमत को अनिवार्य लक्षण है।

प्रश्न 2.
लोकमत की विशेषताओं पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर
लोकमत अथवा जनमत की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं-

  1. यह जनसाधारण के बहुसंख्यक भाग का मत होता है।
  2. यह विवेक पर आधारित मत होता है।
  3. यह लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित होता है।
  4. यह सर्वथा निष्पक्ष होता है।
  5. यह नैतिकता और न्याय की भावना पर आधारित होता है।
  6. जनता की संगठित शक्ति का प्रतीक है।

प्रश्न 3.
समाचार-पत्रों को लोकतन्त्र का चतुर्थ स्तम्भ क्यों कहा गया है ?
उत्तर
समाचार-पत्र एवं प्रेस जनमत के निर्माण के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। समाचार-पत्र देशविदेश की विविध घटनाओं, समस्याओं और विचारों को जन-साधारण तक पहुँचाने का कार्य करते हैं। समाचार-पत्र केवल सामयिक घटनाओं का विवरण ही नहीं देते, वरन् निकट भविष्य में होने वाले परिवर्तनों का आभास देकर जनता के विचारों को प्रभावित करते हैं। समाचार-पत्र जनता की भावनाओं को सरकार तक और सरकार के निर्णयों को जनता तक पहुँचाते हैं। इसी कारण समाचारपत्रों को ‘लोकतन्त्र का चतुर्थ स्तम्भ’ कहा गया है।

प्रश्न 4.
जनमत की अभिव्यक्ति के दो साधन बताइए। [2013]
उत्तर
जनमत की अभिव्यक्ति के दो साधनों का विवरण निम्नवत् है-

  1. निर्वाचन – निर्वाचन व्यक्तियों को जनमत अभिव्यक्त करने का सर्वोत्तम साधन उपलब्ध कराते हैं। निर्वाचन में मतदान के द्वारा अपने मत के माफिक उम्मीदवार को विजयी बनाकर, लोग अपने जनमत की अभिव्यक्ति करते हैं।
  2. समाचार-पत्र और पत्रिकाओं – में अपने विचारों की अभिव्यक्ति के द्वारा भी लोग अपना जनमत अभिव्यक्त करते हैं। देश के समक्ष उपस्थित समस्याओं और उनके समाधान के प्रति जनता अपना मत समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं के माध्यम से प्रभावी ढंग से व्यक्त करती है।

प्रश्न 5.
सोशल मीडिया का जनमत निर्माण में क्या योगदान है? [2016]
उत्तर
स्पेशल मीडिया यानि इण्टरनेट, टेलीविजन, दूरसंचार की आधुनिक प्रणालियाँ और कम्प्यूटर-प्रणाली में जो विचार-विमर्श होता है, उससे भी जनमत के रुझान का पता लगाने में सहयोग मिलता है। रेडियो एवं टेलीविजन पर समाचारों के प्रसारण के साथ-साथ देश के प्रमुख नेताओं के मत एवं भाषण प्रसारित किए जाते हैं। महत्त्वपूर्ण विषयों पर संगोष्ठियों, परिचर्चाओं आदि का प्रसारण भी प्रबुद्ध जनमत का निर्माण करता है। इस प्रकार साधारण जनता बहुत सरलता से देश के बड़े नेताओं और विद्वानों के विचारों से अवगत हो जाती है और अपना मत (जनमत) निर्धारित करने का प्रयास करती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
लोकमत की एक परिभाषा लिखिए। उक्ट लॉर्ड ब्राइस के अनुसार, “सार्वजनिक हित से सम्बद्ध किसी समस्या पर जनता के सामूहिक विचारों को जनमत कहा जा सकता है।”

प्रश्न 2.
जनमत के कोई दो तत्त्व लिखिए।
उत्तर

  1. सार्वजनिक हित पर आधारित तथा
  2. व्यापक सहमति।

प्रश्न 3.
लोकतन्त्र में जनमत के कोई दो महत्त्व बताइए।
उत्तर

  1. जनमत शासन-प्रणाली का आधार होता है तथा
  2. जनमत सरकार की निरंकुशता को नियन्त्रित करता है।

प्रश्न 4.
जनमत-निर्माण के किन्हीं दो साधनों के नाम लिखिए। [2007, 10, 11, 13, 14, 16]
उत्तर

  1. राजनीतिक दल तथा
  2. समाचार-पत्र तथा पत्रिकाएँ।

प्रश्न 5.
स्वस्थ जनमत-निर्माण में किन्हीं दो बाधाओं का वर्णन कीजिए। [2011, 14, 15]
उत्तर

  1. निरक्षरता एवं अज्ञानता तथा
  2. निर्धनता।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion

प्रश्न 6.
स्वस्थ जनमत के निर्माण में निर्धनता किस प्रकार बाधक है?
उत्तर
निर्धन व्यक्ति अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति में ही लगा रहता है और उससे सार्वजनिक समस्याओं पर चिन्तन की आशा नहीं की जा सकती जिसके बिना जनमत का निर्माण नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 7.
स्वस्थ जनमत (लोकमत) निर्माण की दो आवश्यक शर्ते बताइए। या स्वस्थ जनमत के विकास की कोई एक शर्त बताइए।
उत्तर

  1. जनमत का शिक्षित होना तथा
  2. प्रेस का निष्पक्ष होना।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1. लोकतन्त्र का चतुर्थ स्तम्भ है- [2015, 16]
(क) समाचार-पत्र
(ख) निष्पक्ष मतदान
(ग) शिक्षा
(घ) सुशिक्षित नागरिक

2. कौन-सा लोकमत का लक्षण नहीं है ?
(क) सार्वजनिक कल्याण की भावना
(ख) विवेक
(ग) अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा
(घ) जन-इच्छा

3. लोकमत का पर्याय क्या है?
(क) सामान्य चेतना
(ख) सामान्य इच्छा
(ग) सामान्य जागरूकता
(घ) सामान्य ज्ञान

4. लोकमत की अभिव्यक्ति केवल सम्भव है-
(क) लोकतन्त्र में
(ख) निरंकुशतन्त्र में
(ग) सर्वाधिकारवाद तन्त्र में
(घ) कुलीनतन्त्र में

5. निम्नलिखित में से स्वस्थ जनमत के निर्माण में कौन-सी बाधा नहीं है?
(क) भाषावाद
(ख) क्षेत्रवाद
(ग) सम्प्रदायवाद
(घ) राजनीतिक जागृति

6. किसके अनुसार ‘सतर्क एवं सुविज्ञ जनमत’ जनतन्त्र की प्रथम आवश्यकता है? [2007]
(क) ब्राइस
(ख) लॉवेल
(ग) डॉ० आशीर्वादम्।
(घ) विल्की

7. भारत में जनमत निर्माण के लिए निम्न में से कौन-सा कारक सूचना प्रदान करता है? [2013]
(क) छोटे समूहों में वार्तालाप
(ख) टी०वी०पर राष्ट्रव्यापी शैक्षिक कार्यक्रमों को देखना
(ग) विशेषज्ञों के भाषण
(घ) उपर्युक्त सभी

8. स्वस्थ जनमत के निर्माण की सबसे बड़ी बाधा है। [2016]
(क) राजनीतिक दल
(ख) पत्र-पत्रिकाएँ
(ग) निरक्षरता
(घ) राजनीतिक चेतना

उत्तर

  1. (क) समाचार-पत्र,
  2. (घ) जन-इच्छा,
  3. (ख) सामान्य इच्छा,
  4. (क) लोकतन्त्र में,
  5. (घ) राजनीतिक जागृति,
  6. (ग) डॉ० आशीर्वादम्,
  7. (घ) उपर्युक्त सभी,
  8. (ग) निरक्षरता

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition (पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition (पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 6
Chapter Name Determination of Price Under Perfect Competition (पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण)
Number of Questions Solved 47
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition (पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
पूर्ण प्रतियोगिता की मुख्य विशेषताएँ (लक्षण) बताइए। [2006, 08, 12, 14, 15]
या
पूर्ण प्रतियोगिता का क्या अर्थ है ? पूर्ण प्रतियोगी बाजार की विशेषताएँ बताइए। [2011, 12, 15, 16]
या
पूर्ण प्रतियोगिता की विशेषताओं को समझाइए। [2013]
या
पूर्ण प्रतियोगिता को परिभाषित कीजिए। इसकी किन्हीं चार विशेषताओं की विवेचना कीजिए। [2013]
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता का अर्थ तथा परिभाषाएँ
पूर्ण प्रतियोगिता, बाजार की वह दशा होती है जिसमें क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या अधिक होती है। इसमें कोई भी एक क्रेता अथवा विक्रेता व्यक्तिगत रूप से वस्तु की कीमत को प्रभावित नहीं कर सकता। समस्त बाजार में वस्तु का एक ही मूल्य होता है। पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में फर्म ‘कीमत ग्रहण करने वाली’ (Price taker) होती है, कीमत-निर्धारण करने वाली’ (Price maker) नहीं।

बोल्डिंग के अनुसार, “पूर्ण प्रतियोगिता व्यापार की वह स्थिति है जिसमें प्रचुर संख्या में क्रेता और विक्रेता बिल्कुल एक ही प्रकार की वस्तु के क्रय-विक्रय में लगे होते हैं तथा जो एक-दूसरे के अत्यधिक निकट सम्पर्क में आकर आपस में स्वतन्त्रतापूर्वक वस्तु का क्रय करते हैं।

श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के शब्दों में, “जब प्रत्येक विक्रेता द्वारा उत्पादित वस्तु की माँग पूर्ण रूप से लोचदार होती है तो विक्रेता की दृष्टि से प्रतियोगिता पूर्ण होती है। इसके लिए दो अवस्थाओं का होना अनिवार्य है। पहली-विक्रेताओं की संख्या अधिक होनी चाहिए, किसी एक विक्रेता का उत्पादन वस्तु के कुल उत्पादन का एक बहुत ही थोड़ा भाग होता है। दूसरी – सभी ग्राहक प्रतियोगी विक्रेताओं के बीच चयन करने की दृष्टि से समान होते हैं, जिससे बाजार पूर्ण हो जाता है।

पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की आवश्यक विशेषताएँ या लक्षण
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1.  पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में क्रेताओं तथा विक्रेताओं की संख्या अधिक होनी चाहिए, ताकि कोई एक क्रेता या विक्रेता वस्तु के मूल्य को प्रभावित न कर सके।
  2.  क्रेताओं तथा विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए, अर्थात् उनको बाजार में उस वस्तु के मूल्य तथा एक-दूसरे के विषय में पूर्ण जानकारी होनी चाहिए ताकि कोई विक्रेता बाजार मूल्य से अधिक मूल्य न ले सके और न ही कोई क्रेता अधिक मूल्य दे।
  3.  फर्मों द्वारा उत्पादित तथा बेची जाने वाली वस्तुएँ एकसमान गुण वाली होने के साथ ही अभिन्न भी होनी चाहिए, ताकि क्रेता बिना किसी प्रकार की शंका के उन्हें खरीद सके। साथ ही जब वस्तुएँ अभिन्न होंगी तब समस्त बाजार में उनकी कीमत भी एक रहेगी।
  4. पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में किसी समय-विशेष पर वस्तु की समस्त इकाइयों का मूल्य एक-समान होना चाहिए।
  5. पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में फर्मों का भाग लेना अथवा न लेना सरल व स्वतन्त्र होना चाहिए। उन पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए ताकि अधिक लाभ कमाने की इच्छा से ये एक व्यवसाय से दूसरे व्यवसाय में अथवा एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से भाग ले सकें।
  6. पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में क्रय-विक्रय की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए ताकि कोई भी क्रेता किसी भी स्थान से वस्तु खरीद सके तथा कोई भी विक्रेता किसी भी स्थान पर अपनी वस्तु बेच सके।
  7.  पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में वस्तुओं के मूल्य पर किसी भी प्रकार का नियन्त्रण नहीं होना चाहिए, क्योंकि मूल्य-नियन्त्रण के अभाव में ही माँग एवं सम्भरण (पूर्ति) शक्तियाँ प्रभावपूर्ण ढंग से । अपना कार्य करती हैं।

वास्तविक जीवन में पूर्ण प्रतियोगिता की दशाएँ नहीं पायी जाती हैं और यह विचार बिल्कुल काल्पनिक है। वास्तविक जीवन में पूर्ण प्रतियोगिता के न पाये जाने के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं

  • सभी वस्तुओं की बिक्री में क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या अधिक नहीं होती है। कुछ वस्तुएँ ऐसी भी हो सकती हैं जिनके उत्पादक थोड़ी संख्या में हों, और इसलिए, वे वस्तु की कीमत को प्रभावित कर सकते हैं। इसी प्रकार कुछ क्रेता भी बाजार में अत्यधिक प्रभावशाली हो सकते हैं।
  • अधिकतर बाजार में वस्तुओं में एकरूपता नहीं पायी जाती तथा वे एक जैसी नहीं होती हैं। इसके अतिरिक्त आज बाजारों में विज्ञापन, प्रचार, पैकिंग की भिन्नता आदि के द्वारा उपभोक्ताओं के मस्तिष्क में वस्तु-विभेद उत्पन्न कर दिया जाता है और वे एक वस्तु को दूसरी की अपेक्षा प्राथमिकता देने लगते हैं।
  • क्रेताओं और विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है। प्रायः उन्हें यह मालूम नहीं होता है कि अन्य क्रेताओं और विक्रेताओं के द्वारा किस कीमत पर सौदे किये जा रहे हैं।
  • उत्पत्ति के साधनों में पूर्ण गतिशीलता नहीं पायी जाती है। श्रम, पूँजी तथा अन्य साधनों के आने-जाने में अनेक बाधाएँ आ सकती हैं, जिसके कारण उत्पत्ति के साधनों की गतिशीलता कम हो जाती है।
  • उद्योगों में फर्मों का प्रवेश स्वतन्त्र नहीं होता है और इस सम्बन्ध में बहुत-सी बाधाएँ उत्पन्न की जा सकती हैं।

प्रश्न 2
पूर्ण प्रतिस्पर्धा में मूल्य-निर्धारण कैसे होता है ? स्पष्ट कीजिए। [2009, 10, 16]
या
पूर्ण प्रतियोगिता से आप क्या समझते हैं? इसके अन्तर्गत किसी वस्तु की कीमत का निर्धारण किस प्रकार होता है, समझाइए। [2013, 16]
उत्तर:
(संकेत – पूर्ण प्रतियोगिता के अर्थ के अध्ययन हेतु उपर्युक्त विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का अध्ययन करें]

पूर्ण/प्रतियोगिता प्रतिस्पर्धा में मूल्य-निर्धारण
प्रो० मार्शल प्रथम अर्थशास्त्री थे जिन्होंने पूर्ण प्रतिस्पर्धा में मूल्य-निर्धारण के सम्बन्ध में माँग तथा पूर्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया, जिसे मूल्य का आधुनिक सिद्धान्त भी कहते हैं। प्रो० मार्शल के अनुसार, यह वाद-विवाद व्यर्थ हैं कि मूल्य वस्तु की मॉग से निर्धारित होता है अथवा उसकी पूर्ति से। वास्तव में वह दोनों से निर्धारित होता है।

प्रो० मार्शल के अनुसार, माँग और पूर्ति की दोनों शक्तियाँ मूल्य को निर्धारित करती हैं। किसी वस्तु की सन्तुलन कीमत उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर माँग और पूर्ति की शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ सन्तुलित हो जाती हैं अर्थात् जहाँ पर वस्तु की माँग ठीक उसकी पूर्ति के बराबर होती है। उपयोगिता माँग की शक्तियों के पीछे कार्य करती है और उत्पादन लागत पूर्ति की शक्तियों के पीछे। माँग और पूर्ति में से कौन-सी शक्ति अधिक सक्रिय होती है, यह इस बात पर निर्भर होगा कि बाजार में माँग और पूर्ति को समायोजन के लिए कितना समय मिलता है। समयावधि जितनी अधिक लम्बी होती है उतना ही पूर्ति का प्रभाव अधिक होता है और समयावधि जितनी कम होती है उतना ही माँग का प्रभाव अधिक होता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि किसी वस्तु की कीमत सब उपभोक्ताओं के द्वारा की जाने वाली माँग तभी सब फर्मों की पूर्ति से निर्धारित होती है।

वस्तु की मॉग – वस्तु की माँग उपभोक्ताओं के द्वारा की जाती है। उपभोक्ता किसी वस्तु का मूल्य देने के लिए इसलिए तैयार रहते हैं क्योंकि वस्तुओं में तुष्टिगुण होता है तथा साथ-ही-साथ वे दुर्लभ भी होती हैं। उपभोक्ता किसी वस्तु का अधिक-से-अधिक मूल्य उस वस्तु के सीमान्त तुष्टिगुण के बराबर देने को तैयार होगा।

वस्तु की पूर्ति – वस्तु की पूर्ति उत्पादक (फर्मों) के द्वारा की जाती है। कोई भी विक्रेता या उत्पादक, वस्तु की दुर्लभता एवं उसकी उत्पादन लागत के कारण वस्तु का मूल्य माँगते हैं। कोई भी उत्पादक किसी वस्तु का मूल्य कम-से-कम उसकी सीमान्त उत्पादन लागत से कम लेने के लिए तैयार नहीं होगा। उत्पादक अपनी वस्तु को उस पर आयी सीमान्त उत्पादन लागत से कुछ अधिक मूल्य पर ही बेचना चाहेगा।

सन्तुलन कीमत – किसी वस्तु की कीमत का निर्धारण माँग और पूर्ति की शक्तियों के द्वारा होता है। माँग की जाने वाली वस्तु की मात्रा तथा पूर्ति की मात्रा कीमत के साथ बदलती है। वह कीमत जो बाजार में रहने की प्रवृत्ति रखेगी, ऐसी कीमत होगी जिस पर वस्तु की माँग की मात्रा उसकी पूर्ति की मात्रा के बराबर होगी।

जिस कीमत पर माँग और पूर्ति की शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ सन्तुलित होती हैं, सन्तुलन कीमत कहलाती है। इस कीमत पर माँग और पूर्ति की शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ सन्तुलित होती हैं। इसलिए इसे सन्तुलन की स्थिति कहते हैं। यदि कीमत सन्तुलन कीमत से अधिक होती है तो वस्तु की पूर्ति उसकी माँग से अधिक होगी और विक्रेता अपने स्टॉक को बेचने के लिए कीमत को कम करना चाहेंगे, यदि कीमत सन्तुलन कीमत से कम होती है और वस्तु की माँग उसकी पूर्ति से अधिक होगी तो क्रेता उसकी अधिक कीमत देने को तैयार होंगे। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सन्तुलन कीमत ही निर्धारित होने की प्रवृत्ति रखती है।

पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में किसी वस्तु का मूल्य उसके सीमान्त तुष्टिगुण और सीमान्त उत्पादन लागत के मध्य माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा उस बिन्दु पर निर्धारित होता है। जहाँ वस्तु की माँग और पूर्ति बराबर होती हैं। अत: वस्तु के मूल्य-निर्धारण में माँग और पूर्ति पक्ष दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं।

जिस प्रकार से कागज को काटने के लिए कैंची के दोनों ही फलों की आवश्यकता पड़ती है, ठीक उसी प्रकार किसी वस्तु का मूल्य निर्धारित करने के लिए माँग और पूर्ति दोनों ही आवश्यक हैं, जो एक सन्तुलन बिन्दु से आपस में जुड़ी रहते हैं। यह सन्तुलन बिन्दु ही वस्तु का मूल्य होता है। इस कथन को हम निम्नांकित सारणी तथा रेखाचित्र की सहायता से और अच्छी तरह से स्पष्ट कर सकते हैं

गेहूँ की पूर्ति (किंवटल में) कीमत (प्रति क्विटल ₹में) गेहूँ की माँग (किंवटल में)
100 1500 20
80 1350 40
50 1200 50
40 1000 80
20 850 1300

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि बाजार में केवल ₹1200 प्रति क्विटल का मूल्य ऐसा है जहाँ माँगी जाने वाली मात्रा (माँग) विक्रय हेतु प्रस्तुत मात्रा (पूर्ति) के बराबर है। दूसरे शब्दों में 50 क्विटल गेहूँ की माँग व पूर्ति की सन्तुलन मात्राएँ हैं और ₹1200 प्रति क्विटल का भाव ‘सन्तुलन मूल्य’ है।

रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण
उपर्युक्त तालिका के आधार पर मूल्य-निर्धारण संलग्न रेखाचित्र द्वारा दर्शाया गया है
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 1
रेखाचित्र में Ox-अक्ष पर वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर वस्तु की कीमत दर्शायी गयी है। चित्र में Ss’ पूर्ति वक्र तथा DD’ माँग वक्र है जो विभिन्न मूल्य पर माँग व पूर्ति की विभिन्न मात्राओं को प्रदर्शित करते हैं। माँग व पूर्ति वक्र परस्पर E बिन्दु पर एक-दूसरे को काटते हैं; अतः बिन्दु E सन्तुलन बिन्दु है तथा ₹ 1,200 सन्तुलन कीमत है। अत: गेहूं को बाजार में हैं ₹1,200 पर बेचा जाएगा, क्योंकि इस कीमत पर 50 क्विटल गेहूँ की माँग की जा रही है और 50 क्विटल गेहूं की ही पूर्ति की जाती है। इससे ऊँची या नीची कीमत बाजार में नहीं रह सकती। अतः ₹1,200 गेहूं की सन्तुलन कीमत है।

प्रश्न 3
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत उद्योग द्वारा माँग तथा पूर्ति की मात्रा दीर्घकाल में मूल्य का निर्धारण किस प्रकार किया जाता है ? चित्रों की सहायता से समझाइए।
उत्तर:
दीर्घकाल में मूल्य का निर्धारण
दीर्घकाल में इतना पर्याप्त समय होता है कि वस्तु की पूर्ति को घटा-बढ़ाकर माँग के अनुसार किया जा सकता है। इसमें पूर्ति परिवर्तनशील होती है, इसलिए कीमत-निर्धारण में पूर्ति का प्रभाव माँग की अपेक्षा अधिक होता है। वस्तु की पूर्ति उत्पादन लागत से प्रभावित होती है। दीर्घकाल में किसी वस्तु की कीमत उसकी उत्पादन लागत से ऊपर अथवा बहुत नीचे नहीं रह सकती। यह कीमत माँग और पूर्ति के बीच स्थायी और स्थिर सन्तुलन (Permanent and Stable Equilibrium) का परिणाम होती है। दीर्घकाल में मूल्य की प्रवृत्ति सीमान्त उत्पादन लागत के बराबर होने की होती है।

सीमान्त लागत स्वयं इस बात पर निर्भर रहती है कि उद्योग में उत्पत्ति का कौन-सा नियम कार्यशील है। अतः कीमत-निर्धारण में उत्पत्ति के नियम भी सम्मिलित रहते हैं। उत्पादन के बढ़ने के साथ सामान्य मूल्य की प्रवृत्ति बढ़ने की, घटने की अथवा स्थिर रहने की होगी। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वस्तु का उत्पादन उत्पत्ति ह्रास नियम, उत्पत्ति वृद्धि नियम अथवा उत्पत्ति समता नियम के अनुसार हो रहा है। पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत मूल्य-निर्धारण की प्रक्रिया को उत्पत्ति के नियमों के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं

1. उत्पत्ति वृद्धि नियम या उद्योग द्वारा घटती हुई लागतों में कीमत निर्धारण – यदि कोई उद्योग उत्पत्ति वृद्धि नियम (लागत ह्रास नियम) के अन्तर्गत कार्य करता है तो उत्पादन में वृद्धि के साथ सीमान्त लागत क्रमशः घटती जाती है तथा उत्पादन में कमी होने पर वह क्रमशः बढ़ती जाती है। ऐसी स्थिति में वस्तु की माँग और पूर्ति के बढ़ने पर सामान्य कीमत घट जाएगी और घटने पर बढ़ जाएगी।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 2
संलग्न चित्र में, Ox-अक्ष पर वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर कीमत और लागत दर्शायी गयी हैं। चित्र में SS पूर्ति की वक्र रेखा है। जो उत्पत्ति वृद्धि नियम के अन्तर्गत कार्य कर रही है। यह ऊपर से नीचे गिरती हुई इस बात को प्रकट करती है कि जैसे-जैसे उत्पादन की मात्रा बढ़ती जाती है, प्रति इकाई उत्पादन लागत घटती जाती है । तथा घटने के साथ बढ़ती है। DD वस्तु का माँग वक्र है जो पूर्ति वक्र SS को E बिन्दु पर काटता है और इसलिए सामान्य कीमत OP है। यदि वस्तु की

माँग बढ़कर D1D1 हो जाती है तो सामान्य कीमत घटकर OP1 हो जाएगी और यदि माँग घटकर D2D2 रह जाती है तो सामान्य कीमत बढ़कर OP2 हो जाएगी। इस प्रकार उत्पादन के बढ़ने पर सामान्य कीमत घटती है तथा घटने पर बढ़ती है।

2. उत्पत्ति ह्रास नियम या उद्योग द्वारा बढ़ती हुई लागतों में मूल्य-निर्धारण – किसी उद्योग में उत्पत्ति ह्रास नियम क्रियाशील होने पर उत्पादन वृद्धि के साथ-साथ सीमान्त उत्पादन लागत बढ़ती जाती है, तब वस्तु की सामान्य कीमत माँग और पूर्ति के बढ़ने पर बढ़ती है तथा घटने पर घटती है।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 3
चित्र में, Ox-अक्ष पर वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर कीमत और लागत दर्शायी गयी है। चित्र में ss रेखा उत्पत्ति ह्रास नियम के अन्तर्गत कार्य करने वाले उद्योग की पूर्ति रेखा है। जो इस बात को दिखाती है कि उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ सीमान्त उत्पादन व्यय बढ़ता जाता है। DD वस्तु की माँग रेखा है जो Ss पूर्ति रेखा को E बिन्दु पर काटती है; अत: OP सामान्य कीमत है। यदि वस्तु की माँग बढ़कर D1D1 हो जाती है तो वस्तु का उत्पादन OM से बढ़कर OM1 हो जाता है तथा उसकी सीमान्त उत्पादन लागत बढ़ जाती है। सामान्य कीमत OP से बढ़कर OP1 हो जाती वस्तु की माँग एवं पूर्ति है। इसके विपरीत, यदि माँग घटकर D2D2 हो। उत्पत्ति समता नियम के अन्तर्गत मूल्य-निर्धारण जाती है तो उत्पादन लागत पहले की अपेक्षा कम हो जाती है और सामान्य कीमत घटकर OP2 रह जाएगी। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि उत्पत्ति ह्रास नियम लागू होने की दशा में उत्पादन के बढ़ने पर सामान्य कीमत बढ़ जाती है और घटने पर घट जाती है।

3. उत्पत्ति समता नियम या उद्योग द्वारा स्थिर लागतों के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण – यदि उद्योग में स्थिर लागत का नियम क्रियाशील है तब उत्पादन के घटने या बढ़ने पर सीमान्त उत्पादन । लागत अपरिवर्तित रहती है। ऐसी स्थिति में वस्तु की माँग और पूर्ति के घटने-बढ़ने का सामान्य कीमत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 4
संलग्न चित्र में, OX-अक्ष पर वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर कीमत दर्शायी गयी है। चित्र में DD माँग वक्र तथा SS पूर्ति वक्र है, जो उत्पत्ति समता नियम के अन्तर्गत काम कर रहा है। इस वक्र की प्रवृत्ति इस बात की ओर संकेत करती है कि उत्पादन स्तर कुछ भी हो, सीमान्त उत्पादन लागत वही रहती है। उद्योग का माँग वक्र DD है जो पूर्ति वक्र ss को E बिन्दु पर काटता है, इसलिए सामान्य कीमत OP है। यदि माँग बढ़कर D1D1 हो जाती है तो सामान्य कीमत OP1 है जो OP के बराबर है। इस प्रकार माँग एवं पूर्ति माँग और पूर्ति के बढ़ने अथवा घटने पर सामान्य कीमत में कोई परिवर्तन नहीं होता।

प्रश्न 4
पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में कार्य करती हुई कोई फर्म अल्पकाल तथा दीर्घकाल में अपना उत्पादन तथा कीमत किस प्रकार निर्धारित करती है? चित्रों की सहायता से स्पष्ट कीजिए। [2013, 15]
या
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत फर्म का अल्पकालीन सन्तुलन आरेख सहित समझाइए। [2009]
या
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में फर्म के अल्पकाल में सन्तुलनों की व्याख्या कीजिए। [2007, 08, 15, 16]
या
पूर्ण प्रतियोगी बाजार में एक फर्म का दीर्घकालीन सन्तुलन चित्र द्वारा प्रदर्शित कीजिए। [2012]
या
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत फर्म की दीर्घकालीन स्थिति (सन्तुलन) का वर्णन कीजिए। [2014]
या
दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत एक फर्म की संस्थिति को समझाइए।[2015]
या
दीर्घकालिक पूर्ण प्रतियोगी बाजार में किसी फर्म के सन्तुलन को दर्शाइए। [2015]
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत किसी फर्म का अल्पकाल में कीमत व उत्पादन का निर्धारण
पूर्ण प्रतियोगिता में किसी फर्म के पास अल्पकाल में इतना पर्याप्त समय नहीं होता है कि वह माँग में वृद्धि होने पर माँग के अनुरूप पूर्ति को बढ़ा सके। इस कारण अल्पकाल में मूल्य-निर्धारण में माँग का प्रभाव पूर्ति की अपेक्षा अधिक होता है। अल्पकाल में फर्म के पास केवल इतना समय होता है कि उत्पत्ति के परिवर्तनशील साधनों को विभिन्न मात्राओं में प्रयोग किया जा सके जिससे कि अधिकतम लाभ हो, किन्तु स्थिर साधनों की मात्रा को नहीं बदला जा सकता। अल्पकालीन बाजार में पूर्ति को पर्याप्त मात्रा में बदलना सम्भव नहीं होता, इसलिए उसे माँग के
साथ पूर्ण रूप में समायोजित नहीं किया जा सकता। अल्पकाल में फर्म को लाभ, शून्य लाभ या हानि भी हो सकती है। इन तीनों स्थितियों की भिन्न-भिन्न व्याख्या निम्नवत् है
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1. अल्पकाल में सामान्य लाभ से अधिक की स्थिति – लाभ कुल आय और कुल लागत के बीच का अन्तर होता है। इसलिए फमैं उतनी ही मात्रा में उत्पादन करती हैं जो इस अन्तर को अधिकतम करने वाली हो। उत्पत्ति नियमों की क्रियाशीलता के कारण प्रारम्भ में उत्पादन बढ़ता है तथा लागतें कम होती हैं। धीरे-धीरे उत्पादन स्थिर रहकर घटना प्रारम्भ होता है और लागतें बढ़ने लगती हैं। अतः फर्म अधिकतम लाभ ऐसे बिन्दु पर प्राप्त करेगी जहाँ उसकी सीमान्त आय, सीमान्त लागत के बराबर हो।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 6
फर्म का अधिकतम लाभ = (सीमान्त आय – औसत आय = सीमान्त लागंत)
सीमान्त आय संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर उत्पादन/बिक्री की मात्रा तथा OY-अक्ष पर कीमत दर्शायी गयी है।
चित्र में E सन्तुलन बिन्दु है, क्योंकि यहाँ पर सीमान्त फर्म की हानि की स्थिति लागत व सीमान्त आय बराबर हैं। ES = बिक्री की मात्रा है। अतः फर्म अधिकतम लाभ अर्जित कर रही है।

2. अल्पकाल में हानि की स्थिति – पूर्ण प्रतियोगिता में यह भी सम्भव है कि फर्म लाभ अर्जित न कर, हानि की स्थिति में आ जाए। ऐसी स्थिति में फर्म अपनी हानि को न्यूनतम करने का प्रयास करेगी। पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म को हानि तब होती है जब फर्म की औसत लागत, औसत आय से अधिक नै हो।
संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर उत्पादन। बिक्री की मात्रा । तथा OY-अक्ष पर कीमत दर्शायी गयी है। चित्र में E सन्तुलन बिन्दु है (क्योंकि यहाँ पर सीमान्त आय व सीमान्त लागत बराबर हैं)। चित्र में औसत लागत वक्र औसत आय AR से अधिक है, क्योंकि वह किसी भी स्थान पर औसत आय वक्र को स्पर्श नहीं कर रहा है; इसलिए फर्म हानि की स्थिति में है।

3. अल्पकाल में सामान्य या शून्य लाभ की स्थिति – अल्पकाल में पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत जब फर्म की औसत आय, औसत लागत के बराबर होती है, तो इस स्थिति में फर्म शून्य या सामान्य लाभ प्राप्त करती है।

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संलग्न चित्र में, Ox-अक्ष पर उत्पादन बिक्री की मात्रा तथा OY-अक्ष पर कीमत दर्शायी गयी है। चित्र में E सन्तुलन बिन्दु है क्योंकि यहाँ पर सीमान्त आय और सीमान्त लागत बराबर हैं। OS उत्पादन/बिक्री की मात्रा, OP उद्योग द्वारा निर्धारित कीमत, SEE औसत लागत तथा औसत आय है। यह स्थिति सामान्य लाभ या शून्य लाभ को प्रदर्शित करती है। इस स्थिति में फर्म को साम्य उस बिन्दु पर होता है जहाँ सीमान्त लागत, औसत लागत, सीमान्त आय और औसत आय चारों बराबर होते हैं।

पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत दीर्घकाल में कीमत व उत्पादन का निर्धारण
दीर्घकाल में फर्म के पास इतना समय होता है कि वे अपने उत्पादन को पूर्णतया माँग में होने वाले परिवर्तनों के साथ समायोजित कर सकती है। दीर्घकाल में फर्म अपने सभी उत्पत्ति के साधनों में परिवर्तन कर उत्पादन को माँग में होने वाले परिवर्तन के अनुसार परिवर्तित करती है। दीर्घकाल में फर्मे न तो लाभ अर्जित करती हैं और न हानि उठाती हैं, केवल सामान्य लाभ प्राप्त करती है। लाभ की स्थिति में अन्य फर्म उद्योग में प्रवेश कर जाएगी, उत्पादन बढ़ेगा तथा कीमत कम हो जाएगी। हानि की स्थिति में फर्म उद्योग छोड़ जाएगी, उत्पादन कम होगा तथा कीमत बढ़ जाएगी। दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में फर्म केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त कर सकती है।

इस प्रकार दीर्घकाल में फर्म सन्तुलन के लिए दो दशाएँ पूरी होनी चाहिए

  1.  सीमान्त आय (MR) = सीमान्त लागत (MC)
  2.  औसत आय (AR) = औसत लागत (AC)

रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शन
संलग्न चित्र में, OX-अक्ष पर उत्पादन/बिक्री तथा OY-अक्ष पर कीमत दिखायी गयी है। चित्र में, AC फर्म का दीर्घकालीन औसत वक्र है तथा MC दीर्घकालीन सीमान्त लागत वक्र है। PAM फर्म की AR = MR रेखा है, e सन्तुलन बिन्दु है, क्योंकि इस बिन्दु पर MC वक्र, MR वक्र को नीचे से काटता है। इस बिन्दु पर MC = MR है, क्योंकि AR = MR रेखा AC वक्र पर उसके सबसे नीचे बिन्दु पर स्पर्श रेखा (Tangent) है; इसलिए कीमत दीर्घकालीन औसत लागत के बराबर है और फर्म केवल सामान्य लाभ प्राप्त कर रही है।
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लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
एक चित्र की सहायता से पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत अल्पकाल में कीमत-निर्धारण को समझाइए।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में उद्योग द्वारा कीमत-निर्धारण
पूर्ण प्रतियोगिता में उद्योग व फर्म दो अलग-अलग इकाइयाँ होती हैं। उद्योग वृहत् इकाई होती है। तथा फर्म छोटी इकाई। कीमत-निर्धारण की उद्योग तथा फर्मों में भिन्न प्रक्रियाएँ हैं।
प्रो० मार्शल के अनुसार, “पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत या पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में उद्योगों में कीमत का निर्धारण माँग और पूर्ति की शक्तियाँ मिलकर करती हैं। किसी वस्तु की सन्तुलन कीमत उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर माँग और पूर्ति की शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ सन्तुलित हो जाती हैं अर्थात् जहाँ पर वस्तु की माँग उसकी पूर्ति के बराबर होती है। माँग और पूर्ति में से कौन-सी शक्ति अधिक सक्रिय होती है, यह इस बात पर निर्भर होगा कि बाजार में माँग और पूर्ति को समायोजन के लिए कितना समय दिया जाता है।

अल्पकाल में मूल्य का निर्धारण
अल्पकाले उस स्थिति को बताता है जिसमें वस्तुएँ पहले से ही उत्पन्न कर ली गयी होती हैं और समय इतना कम होता है कि उन्हें और अधिक उत्पन्न नहीं किया जा सकता। अल्पकाल में पूर्ति लगभग स्थिर होती है। उसे माँग के अनुसार नहीं बढ़ाया जा सकता। केवल अल्पकाल में परिवर्तनशील साधन; जैसे – कच्चा माल, शक्ति के साधनों आदि की मात्रा में वृद्धि करके कुछ वृद्धि की जा सकती है; परन्तु उसे माँग के बराबर नहीं बढ़ाया जा सकता, क्योंकि मशीनों की उत्पादन क्षमता निश्चित होती है।

और इतने कम समय में नई ‘फर्मे भी उद्योगों में प्रवेश नहीं कर सकतीं। अत: अल्पकाल में कीमत के निर्धारण में मुख्य प्रभाव माँग का रहता है। माँग में वृद्धि होने पर कीमत बढ़ जाती है तथा माँग कम होने पर कीमत कम हो जाती है। अल्पकाल में कीमत माँग और पूर्ति के अस्थायी और अस्थिर सन्तुलन का परिणाम होती है। वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं – (1) शीघ्र नष्ट होने वाली तथा (2) टिकाऊ। शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं की कीमत के निर्धारण में माँग का महत्त्व टिकाऊ वस्तुओं की अपेक्षा अधिक होता है। दोनों ही दशाओं में माँग का महत्त्व पूर्ति की अपेक्षा अधिक होता है।
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संलग्न चित्र में Ox-अक्ष पर वस्तु की मात्रा, पूर्ति एवं माँग तथा OY-अक्ष पर वस्तु की कीमत दर्शायी गयी है। अल्पकाल में पूर्ति निश्चित रहती है, इसलिए पूर्ति वक्र एक सीधी खड़ी रेखा (Vertical Straight Line) होगी। माँग वक्र DD पूर्ति वक्र ss’ को बिन्दु पर काटता है। यह सन्तुलन बिन्दु है। इस स्थिति में सन्तुलन कीमत OP होगी। यदि माँग बढ़कर D1D1 हो जाती है, तो सन्तुलन कीमत OP बढ़कर OP1 हो जाएगी, यदि माँग घटकर D2D2 जाती है तो सन्तुलन कीमत गिरकर OP2 रह जाएगी।

प्रश्न 2
पूर्ण प्रतियोगिता की दशाओं के अन्तर्गत किसी फर्म की कीमत एवं उत्पादन का निर्धारण किस प्रकार होता है ? उपयुक्त रेखाचित्रों की सहायता से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत व उत्पादन का निर्धारण
पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में फर्म की अपनी कोई कीमत-नीति नहीं होती। वह केवल उत्पादन का समायोजन करने वाली होती है। अतः पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में फर्म ‘कीमत ग्रहण करने वाली’ (Price taker) होती है, कीमत-निर्धारण करने वाली’ (Price maker) नहीं। उद्योग द्वारा माँग व पूर्ति के आधार पर कीमत निर्धारित होती है और उस कीमत को उद्योग के अन्तर्गत कार्य करने वाली सभी फर्मे दिया हुआ मान लेती हैं। बाजार में असंख्य फर्म होने के कारण कोई भी व्यक्तिगत फर्म अपनी क्रियाओं द्वारा निर्धारित कीमत को प्रभावित नहीं कर सकती। बाजार में वस्तु की माँग और पूर्ति द्वारा निर्धारित कीमत को फर्म द्वारा स्वीकार किया जाता है और फर्म उस कीमत के आधार पर अपने उत्पादन का समायोजन करती है। पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में फर्म का माँग वक्र एक समानान्तर सीधी रेखा (Horizontal straight line) होती है। यह निर्धारित मूल्य फर्म की औसत आय व सीमान्त आय होती है तथा एक ही रेखा द्वारा प्रदर्शित की जाती है।
निम्नांकित चित्र में उद्योगों द्वारा कीमत का निर्धारण दिखाया गया है तथा फर्म उस कीमत को ग्रहण कर रही है। उद्योग को माँग और पूर्ति का साम्य बिन्दु E तथा कीमत OP है। इसी OP कीमत को फर्म ग्रहण कर लेती है। उद्योग की माँग में वृद्धि हो जाने पर साम्य बिन्दु E1 तथा कीमत बढ़कर OP1 हो
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जाती है, जिसे फर्म को स्वीकार करना पड़ता है तथा फर्म भी OP1 कीमत ग्रहण कर लेती है। अब फर्म की औसत आय तथा सीमान्त आय रेखा P1AM1 हो जाती है। इसी प्रकार माँग में कमी होने पर नया मॉग वक्र D2D2 और कीमत घटकर OP2 हो जाती है। यही कीमत फर्म भी ग्रहण कर लेती है तथा फर्म की औसत व सीमान्त आय रेखा P2AM2 हो जाती है।

स्पष्ट है कि पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में कोई फर्म उद्योग द्वारा निर्धारित कीमत के आधार पर अपनी उत्पादन व बिक्री का कार्य करती है। फर्म अधिकतम लाभ अर्जित करने का प्रयत्न करती है। कोई फर्म केवल सन्तुलन की स्थिति में अधिकतम लाभ प्राप्त करती है। किसी फर्म को सन्तुलन की स्थिति में तब ही कहा जाता है जब उसमें विस्तार अथवा संकुचन करने की कोई प्रवृत्ति न हो। इस स्थिति में ही फर्म अधिकतम लाभ प्राप्त करती है। यदि औसत लागत में सामान्य लाभ सम्मिलित हो तो कीमत के औसत लागत के बराबर होने की दशा में फर्म सामान्य लाभ प्राप्त करेगी।
पूर्ण प्रतियोगिता में एकमात्र स्थिति, जिसमें फर्म सन्तुलन में हो और सामान्य लाभ प्राप्त कर रही हो, वह है जब औसत लागत वक्र, सीमान्त आगम वक़ पर स्पर्श रेखा हो। इस स्थिति में ही औसत आय कीमत के बराबर होती है और फर्म अपनी सब लागतों को पूरा कर लेती है तथा केवल सामान्य लाभ प्राप्त करती है।

फर्म का सन्तुलन या अधिकतम लाभ – संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर उत्पादन तथा OY-अक्ष पर सीमान्त आय वे सीमान्त लागत दर्शायी गयी है। चित्र में E1 बिन्दु सन्तुलन बिन्दु हैं। इस बिन्दु पर सीमान्त आय सीमान्त लागत के बराबर है तथा फर्म अधिकतम उत्पादन कर रही हैं।
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सीमान्त आय रेखा RR के नीचे का क्षेत्र फर्म के लाभ को प्रदर्शित करता है, क्योंकि इस क्षेत्र में सीमान्त आय सीमान्त लागत से अधिक है। इसके विपरीत सीमान्त आय रेखा RR से ऊपर का क्षेत्र जहाँ सीमान्त लागत सीमान्त आय से अधिक है, में फर्म को हानि उठानी पड़ेगी।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
‘पूर्ण प्रतियोगिता एक कल्पनामात्र है, व्यावहारिक नहीं।’ विवेचना कीजिए।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता के लिए जिन आवश्यक तत्त्वों या दशाओं का वर्णन किया गया है वे किसी भी दशा में व्यावहारिक नहीं हैं। यह आवश्यक नहीं है कि एक ही प्रकार की वस्तुओं में समानता हो अर्थात् वस्तुएँ एकसमान नहीं होती हैं। वस्तुओं का क्रय-विक्रय सामान्यत: प्रतिबन्धित होता है। उत्पत्ति के साधन पूर्ण गतिशील नहीं होते। क्रेता-विक्रेता को बाजार की दशाओं का पूर्ण ज्ञान नहीं होने के कारण बाजार में प्रचलित वस्तु के मूल्य में भिन्नता होती है। विज्ञापन, माल की पैकिंग, उधार बिक्री, घर तक माल पहुँचाने की सुविधा तथा छूट आदि सुविधाओं के कारण वस्तु-विभेद एवं मूल्य-विभेद की स्थिति सदा बनी रहती है। उपर्युक्त अनेक कारणों से हम देखते हैं कि पूर्ण प्रतियोगिता वाला बाजार अपूर्ण प्रतियोगिता का बाजार बनकर रह गया है, पूर्ण प्रतियोगिता तो मात्र एक कल्पना बनकर रह गयी है।
पूर्ण प्रतियोगिता की आवश्यक दशाओं में अनेक कमियाँ होने के बावजूद भी अर्थशास्त्र में पूर्ण प्रतियोगिता के अध्ययन का महत्त्व है, क्योंकि पूर्ण प्रतियोगिता द्वारा ही आर्थिक समस्याओं का अध्ययन सुविधापूर्वक सम्पन्न हो सकता है।

प्रश्न 2
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में औसत आय और सीमान्त आय का चित्र बनाइए। [2010]
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 12

प्रश्न 3
नीचे दिये गये रेखाचित्र में दी गयी वक्र रेखाओं के नाम लिखिए।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 13
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 14

प्रश्न 4
संक्षिप्त व्याख्या करें-पूर्ण प्रतिस्पर्धा में लाभ तथा हानि की स्थितियाँ।
उत्तर:
पूर्ण प्रतिस्पर्धा में लाभ तथा हानि की स्थितियाँ–पूर्ण प्रतिस्पर्धा के अन्तर्गत अल्पकाल या दीर्घकाल में कोई भी फर्म मात्र सामान्य लाभ या शून्य लाभ ही प्राप्त करती है।
जब फर्म की औसत आय सीमान्त लागत के बराबर होती है, तो इस स्थिति में फर्म शून्य लाभ या सामान्य लाभ प्राप्त करती है। पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म की हानि की स्थिति तब होगी जब कि फर्म की औसत लागत औसत आय से अधिक हो; परन्तु हानि की स्थिति में फर्म उद्योग छोड़कर चली जाती है, परिणामस्वरूप पूर्ति कम हो जाएगी और कीमत (औसत आय) बढ़कर औसत लागत के बराबर हो जाएगी और फर्म पुनः सामान्य लाभ प्राप्त करेगा।

प्रश्न 5
पूर्ण प्रतियोगिता की कोई चार विशेषताएँ लिखिए। [2014, 15, 16]
उत्तर:
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 के अन्तर्गत देखें।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
“वस्तु की कीमत उसकी उत्पादन लागत से निर्धारित होती है। यह मत किन अर्थशासियों का है ?
उत्तर:
एडम स्मिथ और रिका।

प्रश्न 2
“वस्तु की कीमत उसकी उपयोगिता से निर्धारित होती है। यह मत किन अर्थशास्त्रियों का है?
उत्तर:
वालरा और जेवेन्स का।

प्रश्न 3
माँग तथा पूर्ति का मूल्य सिद्धान्त का प्रतिपादन किस अर्थशास्त्री ने किया ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल ने।

प्रश्न 4
मूल्य-निर्धारण में माँग कब निष्क्रिय रहती है ?
उत्तर:
यदि माँग निश्चित रहती है, किन्तु पूर्ति की दशाएँ बदलती रहती हैं, तो माँग निष्क्रिय रहती है।

प्रश्न 5
पूर्ति कब सक्रिय रहती है ?
उत्तर:
यदि माँग निश्चित रहती है किन्तु पूर्ति की दशाएँ बदलती रहती हैं, तब पूर्ति सक्रिय होती है।

प्रश्न 6
सन्तुलन कीमत किसे कहते हैं ?
उत्तर:
वह कीमत जिस पर माँग और पूर्ति बराबर होती हैं, सन्तुलन कीमत कहलाती है।

प्रश्न 7
मूल्य सिद्धान्त में सर्वप्रथम समय के महत्त्व पर किसे अर्थशास्त्री ने बल दिया ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल ने।

प्रश्न 8
सुरक्षित कीमत किसे कहते हैं ?
उत्तर:
सुरक्षित कीमत वह न्यूनतम कीमत होती है, जिस पर कोई उत्पादक अपनी वस्तु की माँग स्वयं करने लगते हैं और उसे बेचने से मना करते हैं।

प्रश्न 9
सुरक्षित कीमत किस प्रकार के बाजार में पायी जाती है ?
उत्तर:
सुरक्षित कीमत अल्पकालीन बाजार में होती है।

प्रश्न 10
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार के दो लक्षण (विशेषताएँ) लिखिए। [2009, 10, 11, 12, 14, 16]
उत्तर:
(1) क्रेताओं और विक्रेताओं की अधिक संख्या तथा
(2) बाजार को पूर्ण ज्ञान होना।

प्रश्न 11
अर्थशास्त्र में वस्तुएँ कितने प्रकार की मानी गयी हैं ?
उत्तर:
अर्थशास्त्र में वस्तुएँ दो प्रकार की मानी गयी हैं

  1. शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुएँ तथा
  2.  टिकाऊ या दीर्घकाल तक बनी रहने वाली वस्तुएँ।

प्रश्न 12
क्रेता या उपभोक्ता वस्तु-विशेष की माँग क्यों करते हैं ?
उत्तर:
विभिन्न वस्तुओं में पृथक्-पृथक् आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने का गुण या क्षमता होती है। इस कारण किसी वस्तु-विशेष की माँग उसमें निहित तुष्टिगुण के कारण होती है।

प्रश्न 13
कोई फर्म सन्तुलन की स्थिति में कब होती है ?
उत्तर:
कोई फर्म केवल सन्तुलन की स्थिति में ही अधिकतम लाभ प्राप्त करती है। अत: किसी फर्म को सन्तुलन की स्थिति में तब ही कहा जाता है जब उसमें विस्तार अथवा संकुचन करने की कोई प्रवृत्ति न हो।

प्रश्न 14
पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु के मूल्य का निर्धारण किसके द्वारा होता है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु का मूल्य माँग और पूर्ति के द्वारा निर्धारित होता है।

प्रश्न 15
क्या पूर्ण प्रतियोगिता वास्तविक जगत् में सम्भव है ?
उत्तर:
नहीं, पूर्ण प्रतियोगिता वास्तविक जगत् में सम्भव नहीं है।

प्रश्न 16
बाजार की किस दशा में वस्तु की कीमत उत्पादन लागत के बराबर होती है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में दीर्घकाल में वस्तु की कीमत उत्पादन लागत के बराबर होती है।

प्रश्न 17
अर्थशास्त्र में ‘अल्पकाल’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
अल्पकाल से हमारा अभिप्राय उस समयावधि से है, जिसमें केवल विद्यमान साधनों का अधिक अथवा कम प्रयोग करके पूर्ति को घटाया या बढ़ाया तो जा सकता हो, परन्तु साधनों की उत्पादन क्षमता में कोई परिवर्तन न किया जा सकता हो।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में उत्पादकों को प्राप्त होता है केवल
(क) सामान्य लाभ
(ख) असामान्य लाभ
(ग) अतिरिक्त लाभ
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) सामान्य लाभ।

प्रश्न 2
दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में उत्पादकों को होता है [2011]
(क) असामान्य लाभ
(ख) सामान्य लाभ या शून्य लाभ
(ग) अतिरिक्त लाभ
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) सामान्य लाभ या शून्य लाभ।।

प्रश्न 3
पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादन होता है
(क) विषम रूप वस्तुओं का
(ख) एक रूप वस्तुओं को
(ग) (क) व (ख)
(घ) किसी का भी नहीं
उत्तर:
(ख) एक रूप वस्तुओं का।

प्रश्न 4
पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में एक वस्तु का सम्पूर्ण बाजार मूल्य होता है
(क) एक ही
(ख) अलग-अलग
(ग) सामान्य
(घ) ये सभी
उत्तर:
(क) एक ही।

प्रश्न 5
पूर्ण प्रतियोगिता में क्रेता पाये जाते हैं
(क) कम संख्या में
(ख) बराबर
(ग) अधिक संख्या में
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) अधिक संख्या में।

प्रश्न 6
दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म [2011, 12]
(क) हानि वहन करती है।
(ख) असामान्य लाभ प्राप्त करती है।
(ग) सामान्य लाभ प्राप्त करती है।
(घ) कीमत् परिवर्तित कर देती है।
उत्तर:
(ग) सामान्य लाभ प्राप्त करती है।

प्रश्न 7
पूर्ण प्रतियोगिता में सीमान्त आय रेखा और औसत आय रेखा का स्वरूप होता है
(क) नीचे गिरती हुई।
(ख) ऊपर उठती हुई।
(ग) बराबर व क्षैतिज
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) बराबर व क्षैतिज।

प्रश्न 8
पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म असामान्य लाभ प्राप्त करती है, जब [2012]
(क) औसत आय > औसत लागत
(ख) सीमान्त आय < सीमान्त लागत
(ग) औसतं आय > सीमान्त आय ।
(घ) सीमान्त आय > औसत आय
उत्तर:
(क) औसत आय > औसत लागत।

प्रश्न 9
यदि पूर्ति वक्र ऊर्ध्व रेखा के रूप में हो, तो वह किस बाजार का पूर्ति वक्र है?
(क) अल्पकाल का
(ख) अति-अल्पकाल का
(ग) दीर्घकाल का।
(घ) इनमें से किसी का नहीं
उत्तर:
(ख) अति अल्पकाल का।

प्रश्न 10
दीर्घकाल में सामान्य लाभ बाजार की किस दशा में प्राप्त होता है?  [2006]
(क) अपूर्ण प्रतियोगिता
(ख) पूर्ण प्रतियोगिता
(ग) एकाधिकार
(घ) अल्पाधिकार
उत्तर:
(ख) पूर्ण प्रतियोगिता।

प्रश्न 11
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत किस फर्म की माँग रेखा होती है? [2006]
(क) कम लोचदार
(ख) अधिक लोचदार
(ग) पूर्णत: लोचदार
(घ) पूर्णतः बेलोचदार
उत्तर:
(ग) पूर्णत: लोचदार।

प्रश्न 12
निम्नलिखित में से कौन-सी पूर्ण प्रतियोगिता की विशेषता नहीं है? [2006, 14]
(क) क्रेताओं की अधिक संख्या
(ख) विक्रेताओं की अधिक संख्या
(ग) बाजार का पूर्ण ज्ञान
(घ) वस्तु-विभेद
उत्तर:
(घ) वस्तु-विभेद।

प्रश्न 13
पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तुएँ होती हैं [2012]
(क) समरूप
(ख) विभेदित
(ग) निकृष्ट
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) समरूप।

प्रश्न 14
पूर्ण प्रतियोगिता में [2014]
(क) केवल एक फर्म होती है।
(ख) कीमत विभेद होता है।
(ग) वस्तु विभेद होता है।
(घ) समरूप वस्तुएँ होती हैं।
उत्तर:
(घ) समरूप वस्तुएँ होती हैं।

प्रश्न 15
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत सभी फर्मों द्वारा उत्पादित वस्तुएँ [2014]
(क) समरूप होती हैं
(ख) विभेदित होती हैं
(ग) पूरक होती हैं
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) समरूप होती हैं।

प्रश्न 16
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत किसी वस्तु की कीमत का निर्धारण होता है [2014, 16]
(क) क्रेताओं की माँग के द्वारा
(ख) विक्रेताओं की पूर्ति के द्वारा
(ग) उद्योग की माँग-पूर्ति की शक्तियों के द्वारा
(घ) फर्मों की लागतों के द्वारा
उत्तर:
(ग) उद्योग की माँग-पूर्ति की शक्तियों के द्वारा।

प्रश्न 17
पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म का माँग वक्र होता है [2014, 16]
(क) क्षैतिज
(ख) लम्बवत्
(ग) ऋणात्मक ढाल
(घ) धनात्मक ढाल
उत्तर:
(क) क्षैतिज।

प्रश्न 18
दीर्घकाल में एक एकाधिकारी फर्म अर्जित करती है केवल [2016]
(क) असामान्य लाभ
(ख) सामान्य लाभ
(ग) हानि
(घ) न्यूनतम लाभ
उत्तर:
(ख) सामान्य लाभ।

19. पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म सामान्य लाभ प्राप्त करती है [2016]
(क) सीमान्त आय = सीमान्त लागत = औसत आय = औसत लागत
(ख) औसत आय = औसत लागत
(ग) औसत आय = सीमान्त लागत
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(ख) औसत आय = औसत लागत

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 18 Public Services in India: Public Service Commission

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 18 Public Services in India: Public Service Commission (भारत में सार्वजनिक सेवाएँ-लोक सेवा आयोग) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 18 Public Services in India: Public Service Commission (भारत में सार्वजनिक सेवाएँ-लोक सेवा आयोग).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 18
Chapter Name Public Services in India: Public Service Commission
(भारत में सार्वजनिक सेवाएँ-लोक सेवा आयोग)
Number of Questions Solved 31
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 18 Public Services in India: Public Service Commission (भारत में सार्वजनिक सेवाएँ-लोक सेवा आयोग)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
संघीय लोक सेवा आयोग के गठन और कार्यों पर प्रकाश डालिए। [2008, 09, 10, 11, 12, 14, 15]
या
संघ लोक सेवा आयोग के कार्यों पर प्रकाश डालिए। [2009]
या
भारत में सार्वजनिक सेवाओं की कार्यप्रणाली का उल्लेख कीजिए। [2013]
या
संघ लोक सेवा आयोग के गठन और कार्यों को स्पष्ट कीजिए। [2016]
उत्तर :
संविधान के अनुच्छेद 315 (1) के अनुसार, भारत में अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के पदाधिकारियों की नियुक्ति को व्यवस्थित करने तथा तविषयक नियुक्तियों के निमित्त प्रतियोगितात्मक परीक्षाओं को संचालित करने हेतु संघ लोक सेवा आयोग की व्यवस्था की गयी है।

सदस्यों की संख्या एवं नियुक्ति – संघ लोक सेवा आयोग, अखिल भारतीय सेवाओं तथा संघ लोक सेवाओं के सदस्यों की भर्ती, पदोन्नति एवं अनुशासन की कार्यवाही इत्यादि के सम्बन्ध में सरकार को परामर्श देता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 315 (1) से धारा 323 तक, संघ लोक सेवा आयोग के संगठन तथा कार्यों इत्यादि का विस्तृत वर्णन किया गया है। वर्तमान में संघीय लोक सेवा आयोग में 1 अध्यक्ष तथा 10 सदस्यों की व्यवस्था की गयी है। सदस्यों की संख्या राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करती है तथा अध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति ही करता है।

योग्यताएँ – किसी भी योग्य नागरिक को संघ लोक सेवा आयोग का सदस्य नियुक्त किया जा सकता है। आयोग का सदस्य नियुक्त होने के लिए सामान्य योग्यताओं के अतिरिक्त निम्नलिखित योग्यताएं होनी आवश्यक हैं –

  1. वह 65 वर्ष से कम आयु का हो।
  2. दिवालिया, पागल अथवा विवेकहीन न हो।
  3. संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों में से कम-से-कम आधे सदस्य ऐसे व्यक्ति होने चाहिए जो कम-से-कम दस वर्ष तक भारत सरकार अथवा राज्य सरकार के अधीन किसी पद पर कार्य कर चुके हों।

सदस्यों की कार्यावधि – संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति 6 वर्ष के लिए होती है। लेकिन यदि कोई सदस्य इससे पूर्व ही 65 वर्ष का हो जाता है तो उसे अपना पद त्यागना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, उच्चतम न्यायालय के परामर्श पर राष्ट्रपति इन्हें पदच्युत भी कर सकता

पद-मुक्ति – संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यगण अपनी इच्छानुसार राष्ट्रपति को त्याग-पत्र देकर अपने पद से मुक्त भी हो सकते हैं। इसके साथ ही भारत का राष्ट्रपति निम्नलिखित परिस्थितियों में उन्हें अपदस्थ भी कर सकता है –

  1. उन पर दुर्व्यवहार का आरोप लगाया जाए और वह उच्चतम न्यायालय में सत्य सिद्ध हो जाए।
  2. यदि वे वेतन प्राप्त करने वाली अन्य कोई सेवा करने लगे।
  3. यदि वे न्यायालय द्वारा दिवालिया घोषित कर दिये जाएँ।।
  4. यदि वे शारीरिक अथवा मानसिक रूप से कः पालन के अयोग्य सिद्ध हो जाएँ।

वेतन, भत्ते एवं सेवा-शर्ते – आयोग के सदस्यों के वेतन, भत्ते एवं सेवा-शर्तों को निर्धारित करने का अधिकार राष्ट्रपति को प्रदान किया गया है। किसी सदस्य के वेतन, भत्ते एवं सेवा-शर्ते को उसकी पदावधि में परिवर्तित नहीं किया जा सकता।

संघ लोक सेवा आयोग के कार्य

डॉ० मुतालिब ने आयोग के कार्यों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया है – (1) कार्यकारी, (2) नियामक तथा (3) अर्धन्यायिक। परीक्षाओं के माध्यम से लोक महत्त्व के पदों पर प्रत्याशियों का चयन करना आयोग का कार्यकारी कर्तव्य है। भर्ती की पद्धतियों तथा नियुक्ति, पदोन्नति एवं विभिन्न सेवाओं में स्थानान्तरण आदि आयोग के नियामक प्रकृति के कार्य हैं। लोक सेवाओं से सम्बन्धित अनुशासन के मामलों पर सलाह देना आयोग को न्यायिक कार्य है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 320 के अनुसार लोक सेवा आयोग को निम्नांकित कार्य सौंपे गये हैं –

1. परीक्षाओं का आयोजन – संघ लोक सेवा आयोग का प्रमुख कार्य अखिल भारतीय लोक सेवाओं के लिए योग्यतम व्यक्तियों का चयन करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु यह अनेक प्रतियोगी परीक्षाएँ आयोजित करता है। इन परीक्षाओं में जो अभ्यर्थी अपनी योग्यता से पर्याप्त अंक पाता है, उसका चयन कर लिया जाता है। इसके बाद इन व्यक्तियों को सरकारी पदों पर नियुक्ति करने के लिए यह आयोग सरकार से सिफारिश करता है। कुछ पदों के लिए आयोग द्वारा मौखिक परीक्षाओं की व्यवस्था भी की गयी है। मौखिक परीक्षाओं में सफल होने पर सफल अभ्यर्थियों को निर्धारित पदों पर नियुक्त कर दिया जाता है।

2. राष्ट्रपति को प्रतिवेदन – संघीय लोक सेवा आयोग को अपने कार्यों से सम्बन्धित एक वार्षिक रिपोर्ट (प्रतिवेदन) राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करनी पड़ती है। यदि सरकार इस आयोग द्वारा प्रस्तुत की गयी रिपोर्ट की कोई सिफारिश नहीं मानती है तो राष्ट्रपति इसका कारण रिपोर्ट में लिख देता है और इसके उपरान्त संसद इस पर विचार करती है। इस रिपोर्ट का लाभ यह है। कि इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि किन विभागों में इस आयोग ने स्वेच्छा से कितनी नियुक्तियाँ की हैं और सरकार ने कहाँ तक आयोग के कार्यों में हस्तक्षेप किया है।

3. संघ सरकार को परामर्श – संघ लोक सेवा आयोग अखिल भारतीय लोक सेवाओं के कर्मचारियों की नियुक्ति की विधि, पदोन्नति, स्थानान्तरण आदि के विषय में संघ सरकार को परामर्श देता है। यह सरकारी कर्मचारियों की किसी प्रकार की शारीरिक या मानसिक क्षति हो जाने पर संघ सरकार को उनकी क्षतिपूर्ति का परामर्श भी देता है और उससे सिफारिश भी करता है। यद्यपि सरकार आयोग के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है, किन्तु सामान्यतः आयोग की सिफारिशों तथा उसके परामर्श को स्वीकार कर ही लिया जाता है, क्योकि आयोग के सदस्य बहुत कुशल और अनुभवी होते हैं।

4. विशेष सेवाओं की योजना सम्बन्धी सहायता – उस दशा में जब दो या दो से अधिक राज्य किन्हीं विशेष योग्यता वाली सेवाओं के लिए भर्ती की योजना बनाने या चलाने की प्रार्थना करें तो संघ लोक सेवा आयोग उन्हें ऐसा करने में सहायता करता है।

प्रश्न 2
राज्य लोक सेवा आयोग के गठन एवं कार्यों का वर्णन कीजिए। [2007]
या
राज्य के लोक सेवा आयोग के गठन की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
राज्य लोक सेवा आयोग या उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग

प्रत्येक राज्य का एक लोक सेवा आयोग होता है। अतः उत्तर प्रदेश राज्य का अपना एक लोक सेवा आयोग है।

रचना या संगठन (सदस्यों की नियुक्ति) – उत्तर प्रदेश अथवा अन्य किसी राज्य के लोक सेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति, सदस्यों की संख्या तथा उनकी सेवा-शर्तों का निर्धारण राज्यपाल करता है। उत्तर प्रदेश राज्य के लोक सेवा आयोग के सदस्यों की संख्या वर्तमान समय में 9 है। इनमें से एक सदस्य अध्यक्ष का कार्य करता है।

योग्यताएँ व कार्यकाल – राज्य लोक सेवा आयोग में भी कम-से-कम आधे सदस्य ऐसे होने आवश्यक हैं जो कम-से-कम 10 वर्ष तक केन्द्र अथवा किसी राज्य सरकार के अधीन किसी पद पर कार्य कर चुके हों। आयोग के सदस्यों की नियुक्ति 6 वर्ष के लिए होती है, परन्तु यदि कोई सदस्य 6 वर्ष पूर्व ही 62 वर्ष का हो जाता है तो उसे अपने पद से सेवानिवृत्त होना होता है। कोई भी सदस्य 6 वर्ष के कार्यकाल अथवा 62 वर्ष की आयु के पूर्व स्वयं भी राज्यपाल को अपना त्याग-पत्र दे सकता है।

पद से हटाना – राज्यपाल आयोग के अध्यक्ष अथवा किसी सदस्य को दुराचार या दुर्व्यवहार के आरोप के आधार पर पदच्युत कर सकता है, परन्तु इसके पूर्व उच्चतम न्यायालय से इन आरोपों की जाँच और पुष्टि आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय से जाँच की अवधि में राज्यपाल सम्बन्धित सदस्य को निलम्बित कर सकता है।

इसके अतिरिक्त, निम्नलिखित परिस्थितियों में भी राज्यपाल को अधिकार होता है कि वह राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष या सदस्य को पदच्युत कर सके

  1. यदि न्यायालय ने उसे दिवालिया घोषित कर दिया हो।
  2. यदि वह अपने पद के अलावा अन्य कोई नौकरी या वेतनभोगी कार्य करने लगा हो।
  3. यदि वह किसी शारीरिक या मानसिक असाध्य रोग से पीड़ित हो गया हो।

सदस्यता पर प्रतिबन्ध व छूटें – संविधान द्वारा राज्य लोक सेवा आयोग के सभापति एवं सदस्य बनने के सम्बन्ध में कुछ प्रतिबन्ध भी लगाये गये हैं, जो निम्नलिखित हैं –

  1. कोई भी व्यक्ति एक बार सदस्यता की अवधि समाप्त हो जाने पर दुबारा उसी राज्य के लोक सेवा आयोग का सदस्य नहीं बन सकता।
  2. राज्य लोक सेवा आयोग का कोई सदस्य अवधि समाप्त होने पर उसी आयोग का सभापति तथा अन्य किसी राज्य के आयोग का सदस्य या सभापति बन सकता है।
  3. किसी राज्य लोक सेवा आयोग का सभापति (चेयरमैन) अवधि की समाप्ति पर संघीय लोक सेवा आयोग का सदस्य या सभापति अथवा किसी दूसरे राज्य के लोक सेवा आयोग का सभापति बन सकता है।
  4. राज्य लोक सेवा आयोग की सदस्य या सभापति संघ अथवा किसी राज्य सरकार के अधीन अथवा उससे बाहर कोई भी नौकरी नहीं कर सकता।

ये प्रतिबन्ध आयोग के सदस्यों की निष्पक्षता को बनाये रखने के लिए लगाये गये हैं।

वेतन, भत्ते व सेवा-शर्ते – राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों को राज्यपाल द्वारा निर्धारित वेतन व भत्ते मिलते हैं। आयोग के सदस्यों व अन्य कर्मचारियों के वेतन और भत्ते आदि राज्य की संचित निधि से दिये जाते हैं और उनके लिए विधानमण्डल की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती। राज्य आयोग के सदस्यों के वेतन, भत्तों, छुट्टी, पेन्शन तथा सेवा की शर्तों में उनके कार्यकाल में कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।

राज्य लोक सेवा आयोग के कार्य

उत्तर प्रदेश या अन्य किसी राज्य के लोक सेवा आयोग के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं

1. प्रतियोगी परीक्षाओं की व्यवस्था – राज्य लोक सेवा आयोगका प्रमुख कार्य राज्य की सरकारी सेवाओं के पदों पर नियुक्ति के लिए मौखिक या लिखित, अथवा दोनों ही प्रकार की प्रतियोगिता परीक्षाओं की व्यवस्था करना और उनके परिणामों के आधार पर उम्मीदवारों का चयन करके उनकी नियुक्ति के लिए राज्यपाल से सिफारिश करना है।

2. परामर्श देना – संविधान में की गयी व्यवस्था के अनुसार राज्य लोक सेवा आयोग का कार्य निम्नलिखित विषयों में राज्यपाल को परामर्श देना है –

  1. असैनिक सेवाओं तथा असैनिक पदों पर भर्ती की प्रणाली के सम्बन्ध में परामर्श।
  2. असैनिक सेवाओं और पदों पर नियुक्ति, पदोन्नति, पदावनति तथा स्थानान्तरण के सम्बन्ध में अपनाये जाने वाले नियमों के सम्बन्ध में परामर्श।
  3. असैनिक सेवाओं में राज्य सरकार के अधीन काम करने वाले कर्मचारियों के अनुशासन के सम्बन्ध में परामर्श।
  4. राज्य सरकार के किसी कर्मचारी द्वारा सरकारी कार्य को पूरा करते हुए शारीरिक चोट या धन की क्षतिपूर्ति के लिए किये गये दावे के सम्बन्ध में परामर्श।
  5. राज्य सरकार के किसी कर्मचारी द्वारा पेन्शन या सरकारी मुकदमे में अपनी रक्षा में व्यय किये गये धन की क्षतिपूर्ति के दावे के सम्बन्ध में परामर्श।
  6. राज्यपाल द्वारा भेजे गये अन्य किसी भी मामले के सम्बन्ध में परामर्श

3. वार्षिक रिपोर्ट देना – राज्य लोक सेवा आयोग को अपने कार्यों की वार्षिक रिपोर्ट राज्यपाल के पास भेजनी होती है। राज्यपाल द्वारा यह रिपोर्ट विधानमण्डल के दोनों सदनों के समक्ष रखी जाती है। रिपोर्ट में आयोग द्वारा अपनी उन सिफारिशों का भी उल्लेख किया जाता है। जो राज्य सरकार द्वारा न मानी गयी हों। सरकार को इस सम्बन्ध में विधानमण्डल के समक्ष अपना स्पष्टीकरण देना होता है।

प्रश्न 3.
भारतीय सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार पर एक निबन्ध लिखिए। [2016]
उत्तर :
भारतीय सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार

शाब्दिक अर्थों में भ्रष्टाचार का आशय भ्रष्ट अथवा बिगड़े हुए आचरण से है। सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार का अभिप्राय ऐसे आचरण से है, जिसकी आशा लोक सेवकों से नहीं की जाती। लोक सेवकों द्वारा प्राप्त शक्ति, सत्ता एवं स्थिति का उपयोग जन-कल्याण की अपेक्षा अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु किया जाना ही ‘भ्रष्ट आचरण’ माना जाता है। किसी व्यक्ति के किसी कार्य को करने के बदले रिश्वत लेना, भेंट स्वीकार करना, बेईमानी, गबन, अपने पुत्र-पुत्रियों एवं सगे-संबंधियों को नौकरी दिलाना, अवैध एवं अनुचित तरीकों से धन प्राप्त करना, अपनी सरकारी स्थिति एवं प्रभाव का दुरुपयोग अपनी स्वार्थ सिद्धि हेतु करना आदि लोक सेवकों के भ्रष्ट आचरण के प्रकार हैं।

सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार के कारण।

भारतीय सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार के प्रमुख रूप से निम्नलिखित कारण हैं।

1. अंग्रेजों की धरोहर – स्वाधीनता पूर्व ब्रिटिश भारत में उच्चाधिकारियों में भ्रष्टाचार कितना अधिक व्याप्त था इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि तत्कालीन समय में वायसराय अथवा गवर्नर अपने पद से अवकाश ग्रहण करने से पूर्व राजाओं से विदाई लेने के नाम पर देशी रियासतों का दौरा किया करते थे, यद्यपि इनका वास्तविक प्रयोजन उनसे उपहार एवं भेटें प्राप्त करना होता था।

2. युद्धकालीन परिस्थितियाँ – द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप उत्पन्न परिस्थितियों के कारण देश में खाद्यान्नों सहित अन्य वस्तुओं का इतना अधिक अभाव हो गया कि सरकार ने बाध्य होकर व्यापार करने हेतु लाइसेंस एवं परमिट देना आरम्भ कर दिया। इससे भी भ्रष्टाचार को काफी प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। आजादी के पश्चात् देश के त्वरित आर्थिक विकास हेतु उपयुक्त योजनाओं का निर्माण करने तथा उपलब्ध समस्त संसाधनों पर प्रभावी नियन्त्रण स्थापित करने और उपभोक्ताओं को समस्त वस्तुओं एवं सामग्री का वितरण राशन प्रणाली के आधार पर सीमित मात्रा में करने के उद्देश्य की पूर्ति हेतु लाइसेंस, परमिट और कोटा की व्यवस्था प्रारम्भ की गई। इस व्यवस्था के अंतर्गत कारखानों से निश्चित मात्रा में वस्तुएँ प्राप्त करने के परमिट एवं अधिकार-पत्र कुछ विशेष व्यक्तियों को ही दिए जाने लगे। इस व्यवस्था का कु-परिणाम देश में व्यापक रूप से कालाबाजारी शुरू होने के रूप में सामने आया।

3. नैतिक मूल्यों में गिरावट – किसी भी विकसित समाज में शहरीकरण और औद्योगीकरण पर निरन्तर बल प्रदान किया जाता है, जिससे सामाजिक एवं वैयक्तिक मूल्यों में तथा आगे भौतिक मूल्यों में गिरावट आती है। विकास एवं समृद्धि बढ़ने के साथ-साथ मनुष्य की भौतिक आवश्यकताएँ बढ़ती जाती हैं और जो वस्तुएँ पूर्ण विलास की वस्तुएँ मानी जाती थीं, वे अब जीवन की आवश्यकताएँ बनती चली जाती हैं। इन समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धन अनिवार्य रूप से अपेक्षित है। ऐसा माना जाता है कि ईमानदारीपूर्वक धन कमाना काफी दुष्कर हैं अत: इस हेतु अनैतिक उपायों का सहारा लिया जाता है।

4. लालफीताशाही – सरकारी फाइलों को लाल फीते से बाँधे जाने को ही प्रशासनिक शब्दावली में ‘लालफीताशाही’ कहा जाता हैं। भारत में सरकारी कार्यालयों में कार्य सम्पन्न करने की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल एवं विलम्बकारी है। इनमें इतने अधिक नियमों एवं उपनियमों का संजाल विस्तृत है कि कोई भी कार्य चाहकर भी शीघ्रतापूर्वक सम्पन्न नहीं किया जा सकता फिर वह चाहे कितना ही महत्त्वपूर्ण जन-कल्याण सम्बन्ध विषय ही क्यों न हो? लाल फीते से बंधी फाइलों को एक अधिकारी की मेज से दूसरे अधिकारी की मेज तक पहुँचाने में काफी अधिक समय लग जाता है। फाइलों की यह स्थिति अधिकारियों के लिए रिश्वत हेतु आधार का सृजन करती है। अपना कार्य यथाशीघ्र कराने हेतु लोग सरकारी अधिकारियों को विभिन्न प्रकार से रिश्वत देने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करते। इस प्रकार की रिश्वतखोरी ऐसे विभागों में अधिक पाई जाती है जहाँ नागरिकों का सरकार के साथ सम्पर्क अधिक रहता है। इस प्रमुख विभाग के विभागों में प्रमुख हैं—व्यापार, उद्योग, सार्वजनिक निर्माण, कर, संचार एवं यातायात।

5. व्यापारी एवं औद्योगिक वर्ग – वर्तमान व्यापारी एवं औद्योगिक वर्ग में भ्रष्ट करने की आकांक्षा और योग्यता दोनों ही पर्याप्त मात्रा में पाई जाती हैं। आज अपना काम निकलवाने हेतु सुरा एवं सुन्दरियाँ भ्रष्टाचार के नए स्वरूप हो गए हैं। व्यावसायिक घरानों द्वारा ‘जन-सम्पर्क अधिकारियों एवं सम्बन्ध कायम रखने वाले व्यक्तियों को बड़ी संख्या में नियुक्त किया जाता है। ये व्यक्ति शासकीय अधिकारियों को अपने निकृष्ट उद्देश्यों की पूर्ति में सहायता प्रदान करने हेतु धन अथवा अन्य लाभ प्रदान करते हैं।

6. वेतन में असमानता – भारत में कर्मचारियों के वेतन में काफी अधिक असमानता पाई जाती है। अधिक वेतन के कारण जहाँ उच्चाधिकारी आरामदायक जीवन का यापन करते हैं, वहीं निचले स्तरों पर कार्यरत कर्मचारी कम वेतन के कारण ऐसा जीवन यापन नहीं कर पाते। आरामदायक और विलासितापूर्ण जीवन जीने की आकांक्षा उन्हें अनुचित साधनों से धन कमाने के लिए प्रेरित करती है। इस प्रकार वेतन में असमानता का प्रशासन पर व्यापक रूप से अनैतिक एवं विनाशकारी प्रभाव पड़ता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
सार्वजनिक सेवाओं का महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
सार्वजनिक सेवाओं का महत्त्व

किसी भी देश की शासन-व्यवस्था को सही रूप देने के लिए लोक सेवाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। ये आयोग लोक सेवाओं में योग्यता को एकमात्र मापदण्ड स्वीकार कर लोकतन्त्र के अर्थ व उसके व्यवहार को अभिव्यक्त करते हैं। ये प्रशासन को निष्पक्ष उपकरण प्रदान कर उसे राजनीतिक संस्थाओं के सम्भावित दबावों से बचाते हैं। संघ लोक सेवा आयोग के भूतपूर्व अध्यक्ष ए० आर० किदवई के शब्दों में, “संसदीय लोकतन्त्र में लोक सेवाओं में गुण-दोषों के आधार पर भर्ती की व्यवस्था होना आवश्यक होता है और यह काम लोक सेवा आयोग के माध्यम से ही होता है।” एम० वी० पायली के अनुसार, “किसी भी देश के प्रशासन का स्तर एवं कार्यक्षमता का आधार वहाँ की लोक सेवा के सदस्यों की मानसिक शक्ति प्रशिक्षण एवं सत्यनिष्ठा है।”

संविधान और उसके द्वारा आयोजित सरकार, शरीर एवं मस्तिष्क हैं तथा लोक सेवा आयोग हाथ के समान है। शासन को ही सही ढंग से चलाने के लिए कुशल, सुयोग्य, दक्ष, विद्वान् तथा ईमानदार पदाधिकारियों की उतनी ही आवश्यकता है जितनी मनुष्य को वायु की तथा मछली को पानी की। राज्य के द्वारा मनुष्य अपनी सारी इच्छाएँ पूरी करना चाहता है। यह तभी सम्भव है जब राज्य की शासन नीति को कार्यान्वित करने वाले केवल योग्य ही नहीं, अपितु पूर्ण रूप से सचेत एवं अनुभवशील व्यक्ति हों। लोक सेवा आयोग इसी कार्य को सम्पन्न करता है। ये स्थायी होते हैं। और इनके फलस्वरूप इनमें कार्य करने वाले व्यक्ति राज्य कार्य-प्रणाली के विषय में जन-निर्वाचित प्रतिनिधियों अथवा मन्त्रियों से अधिक व्यावहारिक ज्ञान रखते हैं। किसी भी सरकारी नीति का कुशल संचालन लोक सेवा के अन्तर्गत कार्य करने वाले मनुष्यों की दक्षता एवं कार्यकुशलता पर निर्भर रहता है। विलोबी का मत है कि “सार्वजनिक सेवाओं के प्रशासन के सम्बन्ध में कोई केन्द्रीय व्यवस्था करना बहुत आवश्यक है। सेवकों की नियुक्ति और उनके सामान्य प्रशासन के लिए एक केन्द्रीय निकाय होना चाहिए, जो निरन्तर इस बात को देखे कि जिन सिद्धान्तों पर सेवाओं की नियुक्ति होती है, उन सिद्धान्तों का पालन होता है अथवा नहीं।” इसी उद्देश्य से भारतीय संविधान में अखिल भारतीय सार्वजनिक सेवाओं के लिए एक ‘संघीय लोक सेवा आयोग की व्यवस्था की गयी है। साथ ही प्रत्येक राज्य में भी ‘राज्य लोक सेवा आयोग’ की स्थापना की गयी है। लोक सेवा आयोग का कार्य सरकारी अधिकारियों की नौकरी की दशाएँ, नियुक्ति, पदोन्नति आदि के सन्दर्भ में सरकार को परामर्श देना होता है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 18 Public Services in India: Public Service Commission

प्रश्न 2.
सरकारी महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति के लिए लोक सेवा आयोग अभ्यर्थियों का चयन करता है। यदि यह कार्य कैबिनेट मन्त्रियों को सौंप दिया जाए तो लोकतान्त्रिक सरकार की कार्यप्रणाली पर सम्भवतः क्या प्रभाव पड़ेगा? दो तर्क दीजिए। (2010)
उत्तर :
लोक सेवा आयोग संवैधानिक संस्था है जिसको संविधान से शक्ति व अधिकारों की प्राप्ति होती है। अत: उसके क्रियाकलाप निष्पक्ष होते हैं और समसामयिक आवश्यकताओं के अनुकूल रहते हैं। भारत में लोकतन्त्र अर्थात् भीड़तन्त्र का शासन है जिसमें किसी की जवाबदेही नहीं बनती है। मन्त्री भी विधायिका के हिस्से होते हैं जहाँ वोटों की दूषित राजनीति हावी रहती है। भारतीय प्रजातन्त्र शैशवावस्था में ही रेंग रहा है अतः लोक सेवकों की नियुक्ति के कार्य को लोक सेवा आयोग से लेकर मंत्रियों को आवंटित करने पर बड़े विपरीत परिणाम आएँगे जो देश को नैराश्य के गर्त में आकर डुबो देंगे। मूल रूप से लोकतान्त्रिक सरकार की कार्यप्रणाली पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ सकता है –

1. भर्ती किए गए कर्मचारी संविधान के प्रति निष्ठा न रखकर मन्त्रियों के प्रति भक्ति जाग्रत करने लगेंगे।
2. आज राजनीति में घनघोर भ्रष्टाचार व्याप्त है, ऐसे कुप्रबन्धन के दौर में अभ्यर्थियों के चयन में भी भ्रष्टाचार का बोलबाला बड़े पैमाने पर होने लगेगा,और भाई-भतीजावाद भी पनपेगा, इसकी आशंका निर्मूल नहीं है।

प्रश्न 3
लोकसेवाओं का महत्त्व बताइए। [2015]
उत्तर :
लोकसेवाओं का महत्त्व

लोकसेवाओं के सदस्य अनुभव एवं ज्ञान की निधि होते हैं। यद्यपि सैद्धान्तिक रूप में कानूननिर्माण का कार्य व्यवस्थापिका द्वारा और इन कानून को कार्य रूप में परिणत करने तथा प्रशासनिक नीति निर्धारित करने का कार्य कार्यपालिका द्वारा किया जाता है, किन्तु वास्तव में कानून-निर्माण तथा प्रशासन का संचालन इन दोनों ही क्षेत्रों में लोक सेवाओं द्वारा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया जाता है। वर्तमान समय के जटिल कानूनों के प्रारूपों का निर्माण सम्बन्धित नीति-निर्धारण और उसका लागू करने का कार्य भी लोक सेवाओं के सदस्य ही करते हैं। वस्तुतः एक राज्य का प्रशासन लोक सेवाओं की कार्यक्षमता पर ही निर्भर करता है। प्रो० लॉस्की ने लिखा, “प्रत्येक राज्य अपने सार्वजनिक अधिकारियों के गुणों पर बहुत अधिक सीमा तक निर्भर करता है।”

यद्यपि व्यवस्थापिका और न्यायपालिका भी सरकार के महत्त्वपूर्ण अंग हैं, किन्तु व्यवहार में सरकार का तात्पर्य कार्यपालिका से ही होता है और कार्यपालिका के भी जो दो अंग होते हैंराजनीतिक कार्यपालिका और स्थायी कार्यपालिका अर्थात् लोक सेवाएँ–उनमें व्यवहार की दृष्टि से राजनीतिक कार्यपालिका की अपेक्षा लोक सेवाएँ अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।

चाहे संसदीय शासन हो या अध्यक्षात्मक शासन, शासन कार्य मन्त्रियों और लोक सेवा पदाधिकारियों के पारस्परिक सहयोग से चलता है और इस पारस्परिक सम्बन्ध की विशेषता यह है कि मन्त्रिगण नौसिखिये (amature) होते हैं, लेकिन स्थायी पदाधिकारी अपने कार्य के विशेषज्ञ होते हैं। ऐसी स्थिति में सामान्यतया सभी बातों के सम्बन्ध में मन्त्रिगण लोक सेवा पदाधिकारियों के परामर्श के अनुसार ही कार्य करते हैं।

प्रश्न 4.
संघीय लोक सेवा आयोग के दो कार्य बताइए। [2008, 10, 11, 13, 15,16]
उत्तर :
संविधान के अनुच्छेद 220 के अनुसार संघीय लोक सेवा आयोग के दो कार्य निम्नवत् हैं।

1. नियुक्ति सम्बन्धी कार्य (प्रतियोगिता परीक्षाओं की व्यवस्था) लोक सेवा आयोग का एक प्रमुख कार्य शासन के प्रमुख पदों हेतु चयन कर नियुक्ति की व्यवस्था करना है। विभिन्न विभागों में रिक्त हुए स्थानों की सूचना शासन द्वारा लोक सेवा आयोग को दी जाती है। आयोग इन स्थानों की पूर्ति के लिए लिखित या मौखिक अथवा दोनों प्रकार की परीक्षाएँ आयोजित करता है। आयोग परीक्षा के नियम तथा कार्यक्रम व प्रार्थी की योग्यता के विषय में कुछ बातें निर्धारित करके उनका प्रकाशन समाचार-पत्रों में करता है। वह परीक्षाओं में भाग लेने के लिए सम्पूर्ण भारत या कुछ परिस्थितियों में किन्हीं विशेष क्षेत्रों के निवासियों से प्रार्थना-पत्र आमन्त्रित करता है। इन परीक्षाओं के आधार पर उनके द्वारा रिक्त स्थानों की पूर्ति हेतु सुयोग्य व्यक्तियों का चयन किया जाता है। 2011 की परीक्षाओं से आयोग ने परीक्षा प्रणाली में व्यापक फेर बदल किया है। अब प्रारम्भिक परीक्षा में अलग-अलग वैकल्पिक विषयों की व्यवस्था समाप्त कर दी गयी है तथा सभी अभ्यर्थियों को एक ही सामान्य रुझाने परीक्षा (Common Aptitude Test-CAT) में भाग लेना होगा। भविष्य में मुख्य परीक्षा में भी वैकल्पिक विषयों को समाप्त किये जाने की योजना है।

2. राज्य सरकारों की सहायता करना यदि दो या दो से अधिक संघीय लोक सेवा आयोग से किसी ऐसी नौकरी पर नियुक्ति की योजना बनाने में सहायता की प्रार्थना करें, जिसमें विशेष योग्यता सम्पन्न व्यक्तियों की आवश्यकता हों, तो संघीय आयोग इस कार्य में राज्यों की सहायता करेगा।

प्रश्न 5.
राज्य लोक सेवा आयोग के दो प्रमुख कार्य बताइए। [2015, 16]
उत्तर :
उत्तर प्रदेश या अन्य किसी राज्य के लोक सेवा आयोग के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं।

1. प्रतियोगी परीक्षाओं की व्यवस्था –  राज्य लोक सेवा आयोग का प्रमुख कार्य राज्य की सरकारी सेवाओं के पदों पर नियुक्ति के लिए मौखिक या लिखित, अथवा दोनों ही प्रकार की प्रतियोगिता परीक्षाओं की व्यवस्था करना और उनके परिणामों के आधार पर उम्मीदवारों का चयन करके उनकी नियुक्ति के लिए राज्यपाल से सिफारिश करना है।

2. परामर्श देना – संविधान में की गयी व्यवस्था के अनुसार राज्य लोक सेवा आयोग का कार्य निम्नलिखित विषयों में राज्यपाल को परामर्श देना है।

  1. असैनिक सेवाओं तथा असैनिक पदों पर भर्ती की प्रणाली के सम्बन्ध में परामर्श।
  2. असैनिक सेवाओं और पदों पर नियुक्ति, पदोन्नति, पदावनति तथा स्थानान्तरण के सम्बन्ध में अपनाये जाने वाले नियमों के सम्बन्ध में परामर्श।
  3. असैनिक सेवाओं में राज्य सरकार के अधीन काम करने वाले कर्मचारियों के अनुशासन के सम्बन्ध में परामर्श।
  4. राज्य सरकार के किसी कर्मचारी द्वारा सरकारी कार्य को पूरा करते हुए शारीरिक चोट या धन की क्षतिपूर्ति के लिए किये गये दावे के सम्बन्ध में परामर्श।
  5. राज्य सरकार के किसी कर्मचारी द्वारा पेन्शन या सरकारी मुकदमे में अपनी रक्षा में व्यय किये गये धन की क्षतिपूर्ति के दावे के सम्बन्ध में परामर्श
  6. राज्यपाल द्वारा भेजे गये अन्य किसी भी मामले के सम्बन्ध में परामर्श।

प्रश्न 6
राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों की स्वतन्त्रता पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
आयोग के सदस्यों की स्वतन्त्रता। भारत में लोक सेवा आयोगों को संवैधानिक स्थिति एवं संरक्षण प्रदान किया गया है, जबकि ब्रिटेन, अमेरिका और अन्य अनेक देशों में ऐसा नहीं है। वहाँ इनका गठन और संचालन व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों के आधार पर होती है। इस प्रकार, भारत में लोक सेवा आयोगों की स्थिति अधिक सुदृढ़ तथा स्वतन्त्र है। लोक सेवा आयोग के सदस्यों की स्वतन्त्रता के लिए संविधान में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गयी हैं –

  1. सुरक्षित कार्यकाल – आयोग के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष या 62 वर्ष की आयु तक निर्धारित कर दिया गया है जिससे कि वे निष्पक्षता और स्वतन्त्रता के साथ कार्य कर सकें। यह भी व्यवस्था कर दी गयी है कि कोई सदस्य दुबारा अपने पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता है।
  2. पदच्युति कठिन – आयोग के किसी सदस्य को संविधान द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही हटाया या निलम्बित किया जा सकता है।
  3. पर्याप्त और सुरक्षित वेतन – भत्ते-आयोग के सदस्यों के लिए पर्याप्त वेतन और भत्तों की व्यवस्था की गयी है और नियुक्ति के बाद इनकी सेवा शर्तों में कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।
  4. व्यय संचित निधि पर भारित – आयोग पर हुआ व्यय संघ अथवा राज्य की संचित निधि पर भारित है। अत: इस व्यय पर संसद या राज्य विधानमण्डल को मतदान करने का अधिकार नहीं है।
  5. अवकाश प्राप्ति के बाद आवश्यक प्रतिबन्ध – आयोग के अध्यक्ष या सदस्य कार्यकाल की समाप्ति के बाद किसी सरकारी पद पर नियुक्त नहीं किये जा सकते, केवल आयोगों में ही पदोन्नति के रूप में उनकी पुनः नियुक्ति हो सकती है।

संविधान की उपर्युक्त व्यवस्थाओं से स्पष्ट है कि आयोग के सदस्यों को निष्पक्षता से अपना कार्य करने के लिए यथेष्ट स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है। इन व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में संघीय लोक सेवा आयोग के एक भूतपूर्व सदस्य वी० सिंह ने कहा था, “संविधान द्वारा की गयी ये व्यापक व्यवस्थाएँ लोक सेवा आयोग की स्वतन्त्रता की गारण्टी देती हैं और कार्यपालिका के हस्तक्षेप से उन्हें पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करती हैं।”

प्रश्न 7.
भारत में सार्वजनिक सेवाओं के इतिहास पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
भारत में सार्वजनिक सेवाओं का इतिहास

आधुनिक सार्वजनिक सेवाओं का विकास भारत में ब्रिटिश काल से आरम्भ हुआ। वारेन हेस्टिग्स तथा लॉर्ड कार्नवालिस ने भारत में भू-राजस्व की वसूली के लिए सरकारी कर्मचारियों की नियुक्ति का आरम्भ किया। 1781 ई० में सर्वप्रथम ‘राजस्व मण्डल’ का गठन किया गया, जिसका कार्य राजस्व अधिकारियों की नियुक्ति करना था। 1787 ई० में जिला कलक्टर, मजिस्ट्रेट तथा जजों के पदों को एकीकृत किया गया और इन्हें प्रतिज्ञाबद्ध’ सिविल सर्विस का नाम दिया गया। लॉर्ड वेलेजली ने सर्वप्रथम सरकारी अधिकारियों को प्रशिक्षण हेतु फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता भेजा। 1813 ई० में इंग्लैण्ड के हेलिबरी नामक स्थान पर सिविल सर्विस के अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिए एक कॉलेज स्थापित किया गया। यह कॉलेज 1858 ई० तक चलता रहा।

स्वतन्त्र भारत में भारतीय सिविल सेवा (आई०सी०एस०) का स्थान भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई०ए०एस०) ने ले लिया। इसके साथ ही एक नई सेवा भारतीय विदेश सेवा (आई०एफ०एस०) का गठन किया गया। पूर्ववर्ती लोक सेवा आयोग का स्थान संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) ने ले लिया तथा परीक्षा में सफल उम्मीदवारों के लिए प्रशासनिक प्रशिक्षण की राष्ट्रीय अकादमी’, मसूरी तथा विशेषीकृत प्रशिक्षण अभिकरणों की स्थापना की गई। 27 जून, 1970 को केन्द्रीय सचिवालय में सेवा संवर्ग विभाग भी खोल दिया गया। वर्तमान समय में भारत में तीन अखिल भारतीय सेवाएँ, 59 केन्द्रीय सेवा ग्रुप ‘ए’ तथा अनेक राज्य स्तरीय लोक सेवाएँ हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
किन्हीं दो अखिल भारतीय सेवाओं के नाम बताइए। इसकी नियुक्ति में संघ लोक सेवा आयोग की क्या भूमिका है? [2008, 10, 11, 13, 15]
उत्तर :
दो अखिल भारतीय सेवाओं के नाम हैं –

  1. भारतीय प्रशासनिक सेवा तथा
  2. भारतीय पुलिस सेवा।।

संघ लोक सेवा आयोग अखिल भारतीय सेवाओं के लिए योग्यतम व्यक्तियों का चुनाव करता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए, आयोग में जो वांछित अंक प्राप्त कर लेते हैं, उसकी मौखिक परीक्षा ली जाती है। मौखिक परीक्षा में सफल होने पर अभ्यर्थी को निर्धारित पदों पर नियुक्त कर दिया जाता है।

प्रश्न 2.
संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की पद-मुक्ति कैसे होती है? [2008, 10, 16]
उत्तर :
संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यगण अपनी इच्छानुसार राष्ट्रपति को त्याग-पत्र देकर अपने पद से मुक्त हो सकते हैं। इसके साथ ही भारत का राष्ट्रपति निम्नलिखित परिस्थितियों में उन्हें अपदस्थ भी कर सकता है –

  1. उन पर दुर्व्यवहार का आरोप लगाया जाए और वह उच्चतम न्यायालय में सत्य सिद्ध हो जाए।
  2. यदि वे वेतन प्राप्त करने वाली अन्य कोई सेवा करने लगे।
  3. यदि वे न्यायालय द्वारा दिवालिया घोषित कर दिये जाएँ।
  4. यदि वे शारीरिक अथवा मानसिक रूप से कर्तव्यपालन के अयोग्य सिद्ध हो जाएँ।

प्रश्न 3.
सार्वजनिक या लोक सेवा का अर्थ बताइए।
उत्तर :
सार्वजनिक या लोक सेवा का अर्थ

सामान्य अर्थ में सरकारी सेवा को सार्वजनिक या लोक सेवा कहा जाता है। कुछ विद्वानों ने लोक सेवाओं को नौकरशाही’ का नाम दिया है। फाइनर ने इसे ‘मेज का शासन’ कहा है। वास्तव में लोक सेवा का आशय उस संगठन से है जिसमें कार्यकुशल, प्रशिक्षित तथा कर्तव्यपरायण कर्मचारी होते हैं तथा जिसमें आदेश की एकता’ तथा ‘पद सोपान’ के सिद्धान्त का पालन किया जाता है।

स्थायित्व, राजनीतिक रूप से तटस्थता, उच्च अधिकारियों का निचले स्तर के अधिकारियों पर शासन, आदेश की एकता (उच्च अधिकारी के आदेश का पालन सभी कर्मचारियों द्वारा किया जाना) लोक सेवा की प्रमुख विशेषताएँ मानी जाती हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
संविधान के किस अनुच्छेद के अन्तर्गत संघ के लिए एक लोक सेवा आयोग व प्रत्येक राज्य के लिए एक लोक सेवा आयोग की व्यवस्था की गयी है?
उत्तर :
संविधान के अनुच्छेद 315 के अन्तर्गत।

प्रश्न 2
संघ लोक सेवा आयोग का व्यय किस पर भारित होता है?
उत्तर :
संघ लोक सेवा आयोग का व्यय भारत सरकार की संचित निधि पर भारित होता है।

प्रश्न 3.
संघ लोक सेवा आयोग का गठन कब किया गया?
उत्तर :
1926 ई० में ली आयोग के द्वारा संघ लोक सेवा आयोग का गठन किया गया।

प्रश्न 4.
भारतीय लोक सेवाओं का जनक किसे कहा जाता है?
उत्तर :
लॉर्ड मैकाले को भारतीय लोक सेवाओं का जनक कहा जाता है।

प्रश्न 5.
संघ लोक सेवा आयोग की प्रथम महिला अध्यक्ष होने का गौरव किसको प्राप्त है?
उत्तर :
संघ लोक सेवा आयोग की प्रथम महिला अध्यक्ष होने का गौरव श्रीमती रोज मिलन मैथ्यू को प्राप्त है।

प्रश्न 6
अखिल भारतीय सेवाओं के नाम लिखिए। या दो अखिल भारतीय सेवाओं के नाम बताइए। [2008, 10, 11, 13]
उत्तर :
अखिल भारतीय सेवाओं के नाम हैं –

  1. I.A.S. भारतीय प्रशासनिक सेवा
  2. I.P S. भारतीय पुलिस सेवा तथा
  3. I.Es. भारतीय विदेश सेवा।

प्रश्न 7.
राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों का कार्यकाल बताइए।
उत्तर :
राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष है, परन्तु वे 62 वर्ष की आयु तक ही अपने पद पर रह सकते हैं।

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प्रश्न 8.
संघ लोक सेवा आयोग तथा राज्य लोक सेवा आयोग का मुख्य कार्य क्या है?
उत्तर :
दोनों का मुख्य कार्य प्रतियोगी परीक्षाओं का आयोजन कर कर्मचारियों का चयन करना है। प्रश्न 9 राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति कौन करता है? उत्तर राज्यपाल।

प्रश्न 10.
संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति कौन करता है? [2016]
उत्तर :
संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री के परामर्श से करता है।

प्रश्न 11
संघ लोक सेवा आयोग के किन्हीं दो कार्यों का उल्लेख कीजिए। (2008)
उत्तर :

  1. संघ की सरकार में नियुक्ति के लिए परीक्षा का संचालन करना।
  2. आयोग को निर्देशित किये गये किसी विषय पर तथा किसी अन्य विषय पर जिसे यथास्थिति राष्ट्रपति समुचित आयोग को निर्देशित करें, परामर्श देना।

प्रश्न 12.
संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की सेवानिवृत्ति आयु क्या है? [2013]
उत्तर :
संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की सेवानिवृत्ति आयु 65 वर्ष है।

प्रश्न 13.
राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति कौन करता है? [2016]
उत्तर
राज्यपाल।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों की नियुक्ति किसके द्वारा की जाती है ?
(क) संसद
(ख) राष्ट्रपति
(ग) मन्त्रिपरिषद्
(घ) प्रधानमन्त्री

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में कौन-सी अखिल भारतीय सेवा नहीं है?
(क) आई० ए० एस०
(ख) आई० पी० एस०
(ग) आई० सी० एस०
(घ) आई० एफ० एस०

प्रश्न 3.
नयी अखिल भारतीय सेवाएँ स्थापित करने का अधिकार किसको है? [2013]
(क) राष्ट्रपति
(ख) लोकसभा
(ग) संघीय लोक सेवा आयोग
(घ) राज्यसभा

प्रश्न 4.
ब्रिटिश भारत के लोक सेवा आयोग के प्रथम सदस्य कौन थे? [2014]
(क) सर रोज बार्कर
(ख) लॉर्ड मैकाले
(ग) लॉर्ड ली।
(घ) वारेन हेस्टिंग्स

प्रश्न 5.
निम्न में से केन्द्रीय लोक सेवा आयोग का कौन-सा कार्य है? [2014]
(क) खाली पदों का विज्ञापन करना।
(ख) परीक्षाओं का प्रबन्ध करना
(ग) (क) और (ख) दोनों
(घ) (क) और (ख) दोनों नहीं

प्रश्न 6.
सर्वप्रथम ‘राजस्व मण्डल’ को गठन कब किया? [2014]
(क) 1750 ई०
(ख) 1781 ई०
(ग) 1805 ई०
(घ) 1820 ई०

उत्तर :

  1. (ख) राष्ट्रपति
  2. (ग) आई० सी० एस०
  3. (ग) संघीय लोक सेवा आयोग
  4. (क) सर रोज बार्कर
  5. (ख) परीक्षाओं का प्रबन्ध करना
  6. (ख) 1781 ई०।

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UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 4

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Model Paper Paper 4
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 4

पूर्णाक : 70
समय : 3 घण्टे 15 मिनट

निर्देश: प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
नोट:

    • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
    • आवश्यकतानुसार अपने उत्तरों की पुष्टि नामांकित रेखाचित्रों द्वारा कीजिए।
    • सभी प्रश्नों के निर्धारित अंक उनके सम्मुख

प्रश्न 1.
सही विकल्प चुनकर अपनी उत्तर पुस्तिका में लिखिए।
(क) हर्षे तथा चेज ने प्रयोग द्वारा सिद्ध किया कि [1]
(A) प्रोटीन का निर्माण RNA द्वारा होता है।
(B) DNA आनुवंशिक पदार्थ है।
(C) DNA द्विकुण्डलित होता है।
(D) DNA के द्वारा ही RNA का निर्माण होता है।

(ख) प्राथमिक उपभोक्ता है। [1]
(A) बाज
(B) शेर
(C) मृग
(D) भेड़िया

(ग) PCR की खोज किसने की? [1]
(A) जेम्स ग्रिफिथ
(B) जेम्स एलरिक ने
(C) कैरी मुलिस ने
(D) नैथन तथा स्मिथ ने

(घ) स्पाइरुलिना प्रसिद्ध है। [1]
(A) एगारोज निर्माण के लिए
(B) SCP निर्माण के लिए
(C) क्राईजीन के उत्पादन के लिए
(D) प्रतिजैविक निर्माण के लिए

प्रश्न 2.
(क) शुक्राणु में एक्रोसोम का क्या महत्त्व है? [1]
(ख) विश्व की सबसे समृद्ध जैव-विविधता कहाँ पाई जाती है? [1]
(ग) DNA अणु को वाँछित खण्डों में पृथकू करने के लिए किस एन्जाइम का उपयोग किया जाता है? [1]
(घ) पादपों में बहुगुणिता उत्पन्न कराने के लिए कौन-सा रसायन प्रयुक्त करते हैं? [1]
(ङ) ऐसे पादपों को क्या कहते हैं जो जल से संतृप्त स्थानों पर पाए जाते हैं। तथा पूर्णरूप या आंशिक रूप से जल में डूबे रहते हैं? [1]

प्रश्न 3.
(क) मेण्डल के युग्मकों की शुद्धता तथा स्वतन्त्र अपव्यूहन नियम पर प्रकाश डालिए [1+1]
(ख) पराग कण का स्वच्छ नामांकित चित्र बनाते हुए इसकी एक विशेषता बताइए। [1+1]
(ग) नवडार्विनवाद पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए। [1+1]
(घ) विश्व वन्य जीव कोष (WWF) क्या है? इसके उद्देश्य लिखिए। [2]
(ड़) ट्रान्सजेनिक किस विधि द्वारा प्राप्त होते हैं? इसके निर्माण के उद्देश्यों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [1+1]

प्रश्न 4.
(क) निएण्डरथल मानव के जीवाश्म कहाँ और किस युग की चट्टानों से प्राप्त हुए? इनकी कपाल गुहा का ‘आयतन कितना था? इनके कोई दो प्रमुख लक्षण बताइए। [1+1]
(ख) निम्न में अन्तर कीजिए [1 1/2+1 1/2]

  1. प्रतिजीविता एवं सहोपकारिता
  2. उत्पादक एवं उपभोक्ता

(ग) प्रतिजैविक औषधियाँ क्या हैं? ये किन पादपों से प्राप्त होती हैं? उदाहरण सहित बताइए। [1+2]
(घ) यदि आपको अपने घर से अपनी जीव विज्ञान प्रयोगशाला में एक जीवाणु का नमूना ले जाना हो, तो आप किस प्रकार का नमूना अपने साथ ले जाएँगें और क्यों? [3]

प्रश्न 5.
(क) मानव नर जननांगों से सम्बन्धित सहायक ग्रन्थियाँ कौन-सी हैं? संक्षेप में लिखिए। [3]
(ग) पारितन्त्र विविधता क्या है? इसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन ” कीजिए। [1 1/2+1 1/2]
(ख) एड्स क्या है? इसका विषाणु शरीर के किस भाग को प्रभावित करता है? इसका संचरण किस प्रकार होता है? [1+1+1]
(ग) पारितन्त्र विविधता क्या है? इसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन ” कीजिए। [1/2+14]
(घ) प्रत्यूर्जता क्या है? इसकी अनुक्रिया से किस इम्यूनोग्लोब्यूलिन का निर्माण होता है? [1+2]

प्रश्न 6.
(क) निम्न पर टिप्पणी लिखिए। [1 1/2+1 1/2]

  1. टर्नर सिण्ड्रोम
  2. क्राई-डू-चैट सिण्ड्रोम

(ख) निम्न पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए। [1+1+1]

  • अण्डोत्सर्ग
  • शुक्रकायान्तरण
  •  रजोनिवृत्ति

(ग) जैव-पेटेन्ट क्या है? इसका प्रमुख उद्देश्य क्या है? [1+2]
(घ) योग्यतम् की उत्तरजीविता का सिद्धान्त’ क्या है? इसे किसने प्रतिपादित किया? [2 +1]

प्रश्न 7.
जैव-विविधता से संरक्षण की आवश्यकता का वर्णन करते हुए इनकी प्रमुख संरक्षण विधियाँ बताइए। [5]
अथवा
मधुमक्खी पालन पर विस्तृत टिप्पणी कीजिए। [5]

प्रश्न 8.
ठोस अपशिष्ट क्या होता है? ठोस अपशिष्ट को वर्गीकृत करते हुए इनके निस्तारण की प्रमुख विधियाँ बताइए। [1+2+2]
अथवा
मानव में प्रोटीन-संश्लेषण की प्रक्रिया का सचित्र वर्णन कीजिए। [1+1+1+2]

प्रश्न 9.
आनुवंशिकीय रूपान्तरित फसलों की उपयोगिता तथा सम्भावित हानियों का वर्णन करें। [1+4]
अथवा
RCH कार्यक्रम क्या है? इसके प्रमुख उद्देश्य को विस्तारपूर्वक समझाइए। [1+4]

Answers

उत्तर 1.
(क) (B)
(ख) (C)
(ग) (C)
(घ) (B)

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UP Board Class 12 Chemistry Model Papers Paper 3

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Subject Chemistry
Model Paper Paper 3
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UP Board Class 12 Chemistry Model Papers Paper 3

समय : 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक : 70

निर्देश प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
नोट

  • इस प्रश्न-पत्र में कुल सात प्रश्न हैं।
  • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
  • प्रत्येक प्रश्न के प्रारम्भ में स्पष्ट उल्लेख है, कि उसके कितने खण्ड करने हैं।
  • प्रत्येक प्रश्न के अंक उसके सम्मुख अंकित हैं।
  • प्रथम प्रश्न से प्रारम्भ कीजिए और अन्त तक करते जाइए। जो प्रश्न न आता हो, उस पर समय नष्ट न करें।
  • यदि रफ कार्य के लिए स्थान अपेक्षित है, तो उत्तर-पुस्तिका के बाएँ पृष्ठ पर कीजिए और फिर काट (x) दीजिए। उस पृष्ठ पर कोई हल न कीजिए।
  • रचना के प्रश्नों के हल में रचना रेखाएँ न मिटाइए। यदि पूछा गया हो तो रचना के पद अवश्य लिखिए।
  • प्रश्न संख्या 1 के अतिरिक्त सभी प्रश्नों के हल के क्रियापद स्पष्ट रूप से लिखिए। प्रश्नों के हल को उत्तर-पुस्तिका के दोनों ओर लिखिए।
  • जिन प्रश्नों के हल में चित्र खींचना आवश्यक है, उनमें स्वच्छ एवं स्पष्ट चित्र अवश्य खींचिए। चित्र के बिना हल अशुद्ध तथा अपूर्ण माना जाएगा।

इस प्रश्न के प्रत्येक खण्ड में चार विकल्प दिए गए हैं, सही विकल्प चुनकर उसे अपनी उत्तरपुस्तिका में लिखिए।

प्रश्न 1.
(क) नायलॉन-6 बहुलक का निर्माण किस एकलक अणु के बहुलकन से होता है? [1]
(a) कैप्रोलेक्टम
(b) ऐडिपिक अम्ल
(c) एथिलीन ग्लाइकॉल
(d) टेरफ्थैलिक अम्ल

(ख) दिए गए सूत्र [latex]\frac { { p }^{ 0 }-p }{ { p }^{ 0 } } [/latex] = xA में p° सम्बन्धित है [1]
(a) विलायक का वाष्प दाब
(b) विलयन का वाष्प दाब
(c) विलेय का वाष्प दाब।

(ग) एक पदार्थ, जो पूतिरोधी तथा विसंक्रामी दोनों प्रकार से प्रयोग हो सकता है। [1]
(a) ऐस्प्रिन
(b) क्लोरोजाइलिनॉल
(c) बाइथायोनल
(d) फीनॉल

(घ) ऐस्कॉर्बिक अम्ल कौन-से विटामिन की कमी से होता है? [1]
(a) विटामिन A
(b) विटामिन B
(c) विटामिन C
(d) विटामिन D

(ङ) शर्करा के ताजे बने विलयन का प्रकाशीय घूर्णन कुछ समय उपरान्त परिवर्तित होना कहलाता है। [1]
(a) घूर्णन गति
(b) इन्वर्सन
(c) विशिष्ट घूर्णन
(d) म्यूटारोटेशन

(च) हाइड्रोजन द्वारा अपचयित होने वाला ऑक्साइड है। [1]
(a) CaO
(b) MnO2
(c) CuO
(d) Na2O

प्रश्न 2.
(क) पूतिरोधी तथा विसंक्रामी औषधियाँ क्या हैं? प्रत्येक का एक-एक उदाहरण दीजिए। [2]
(ख) अनुचुम्बकीय तथा लौह-चुम्बकीय पदार्थों में क्या अन्तर है? [2]
(ग) अपचायक प्रवृत्ति के आधार पर शर्कराओं को किस प्रकार वर्गीकृत किया गया है? प्रत्येक का एक-एक उदाहरण दीजिए। [2]
(घ) फॉस्फोरस प्राप्त करने की किन्हीं दो विधियों के रासायनिक समीकरण लिखिए। [2]

प्रश्न 3.
(क) नाइट्रोजन के विभिन्न ऑक्साइडों का संक्षिप्त परिचय दीजिए। [2]
(ख) 3.0 ग्राम यूरिया को 100 ग्राम जल में घोलने पर जल के क्वथनांक में उन्नयन की गणना कीजिए। जल के लिए मोलल उन्नयन स्थिरांक की मान 0.52 केल्विन किग्रा मोल-1 है।
(ग) आदर्श तथा अनादर्श विलयन क्या होते हैं? ऋणात्मक तथा धनात्मक विचलन प्रदर्शित करने वाले विलयनों में अन्तर बताइए। [2]
(घ) ऐलुमिनियम के विद्युतीय शोधन में क्रायोलाइट का क्या उपयोग है [2]

प्रश्न 4.
(क) निम्न पर टिप्पणी लिखिए।
(i) मॉण्ड-प्रक्रम
(ii) वॉन-आर्केल प्रक्रम

(ख) क्या होता है? जब (केवल समीकरण दीजिए) [3]
(i) ऐल्किल सायनाइड का LiAlH4 द्वारा अपचयन करते हैं।
(ii) नाइट्रोऐल्केन C2H5OH की उपस्थिति में Sn/HCl से अभिक्रिया करता है।
(iii) C2H5CONH2 की Br2 तथा KOH (गर्म) के साथ अभिक्रिया होती है।
(iv) C2H5NH2 की CHCl3 तथा KOH (ऐल्को.) के साथ अभिक्रिया होती है।

(ग) (i) ज्विटर आयन क्या है? [3]
(ii) ऐमीनो अम्लों के विलयन में सम-विभव बिन्दु क्या होता है?
(iii) ऐमीनो अम्लों के लिए D तथा L- विन्यास क्या हैं?

(घ) (i) यदि एक ऑक्साइड में चतुष्फलकीय रिक्तिका में तत्व A तथा अष्टफलकीय रिक्तिका में तत्व B स्थित है, तो ऑक्साइड का सूत्र क्या होगा? [3]
(ii) एक ठोस AB की संरचना CSCl के प्रकार की है। मात्रक कोष्ठिका के किनारों की लम्बाई 4.04 Å है। A+ एवं B के मध्य की दूरी ज्ञात कीजिए।

प्रश्न 5.
(क) निम्न पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
(i) पेप्टीकरण
(ii) अपोहन
(iii) टिण्डल प्रभाव
(iv) पायसीकारक

(ख) निम्न के IUPAC नाम लिखिए।
(i) K3[Fe(CN)6]
(ii) [NiCl4]2-
(iii) K3[Cr(C2O4)3]
(iv) [CoBr2(en)2]+

(ग) (i) हैलोऐरीनों में नाभिकस्नेही अभिक्रिया हैलोऐल्केनों की तुलना में कठिनता से होती है, क्यों?
(ii) हैलोऐल्केनों की विलोपन तथा नाभिक स्नेही अभिक्रियाओं के एक-एक उदाहरण दीजिए।

(घ) (i) प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक ऐमीनी में विभेद करने से सम्बन्धित एक अभिक्रिया का वर्णन कीजिए।
(ii) ल्यूकास परीक्षण क्या है? परीक्षण से प्राप्त परिणाम बताइए।

प्रश्न 6.
(क) निम्न अभिक्रियाओं का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(i) रोजेनमुण्ड अभिक्रिया
(ii) हुन्सडीकर अभिक्रिया
(iii) सेण्डमेयर अभिक्रिया
(iv) गाटरमान-कोच अभिक्रिया
(v) वुज-फिटिग अभिक्रिया [5]
अथवा
बेन्जीन डाइऐजोनियम लवण बनाने की विधि एवं रासायनिक समीकरण देते हुए बेन्जीन डाइऐजोनियम लवण से निम्न को बनाने के लिए रासायनिक समीकरण दीजिए।
(i) फीनॉल
(ii) ऐनिलीन
(iii) p-हाइड्रॉक्सी ऐजो बेन्जीन

(ख) (i) कार्बोक्सिलिक अम्लों की अनुनाद संरचना का वर्णन कीजिए।
(ii) विशिष्ट गन्ध वाला कार्बनिक यौगिक A, सोडियम हाइड्रॉक्साइड के साथ क्रिया करके दो यौगिक B तथा C बनाती है। यौगिक B का अणुसूत्र C7H8O है। इसका ऑक्सीकरण करने पर पुनः यौगिक A बनता हैं। यौगिक C को सोड़ा लाइम के साथ गर्म करने पर बेन्जीन प्राप्त होती है। A, B तथा C कार्बनिक यौगिकों की संरचनाएँ लिखिए। सम्बन्धित अभिक्रियाओं के समीकरण भी लिखिए। [5]
अथवा
(i) निम्न में विभेद कीजिए।

  1. मेथिल तथा एथिल ऐल्कोहॉल में
  2. ऐसीटोन तथा ऐसीटैल्डिहाइड में
  3. फीनॉल तथा बेन्जोइक अम्ल में

(ii) लीबरमान नाइट्रोसो परीक्षण क्या है? सम्बन्धित रासायनिक अभिक्रिया दीजिए। [5]

प्रश्न 7.
(क) (i) डाऊ प्रक्रम क्या है? सम्बन्धित रासायनिक समीकरण लिखिए।
(ii) फीनॉल द्वारा फीनॉल्फथैलीन निर्माण से सम्बन्धित रासायनिक अभिक्रिया लिखिए।
(iii) ऐस्प्रिन क्या है? इसे निर्माण से सम्बन्धित एक रासायनिक विधि का समीकरण दीजिए।
(iv) फीनॉक्साइड आयन को स्थायित्व फीनॉल से अधिक क्यों है? [5]
अथवा
निम्न पर टिप्पणी कीजिए।
(i) बेन्जोइलीकरण
(ii) हैलोजनीकरण
(iii) ऐल्डोल संघनन
(iv) कैनिजारो अभिक्रिया
(v) शिफ अभिकर्मक [5]

(ख) (i) XeF2, XeF4 तथा XeF6 के निर्माण की विधियाँ लिखिए।
(ii) XeF4 तथा XeF2 के जल-अपघटन से सम्बन्धित रासायनिक अभिक्रियाएँ लिखिए। [5]
अथवा
(i) क्लोरीन के निर्माण की प्रयोगशाला विधि का वर्णन कीजिए। सम्बन्धित रासायनिक समीकरण भी दीजिए।
(ii) क्लोरीन के विरंजक गुण का वर्णन कीजिए। [5]

Solutions

उत्तर 1.
(क) (i)
(ख) (i)
(ग) (iv)
(घ) (iii)
(ङ) (iv)
(च) (i)

उत्तर 3.
(ख) 0.26°C

उत्तर 4.
(घ) (ii) 3.49Å

उत्तर 5.
(ख) बेजीन का द्रव्यमान प्रतिशत = 15.27%
कार्बन टेटोक्लोराइ का द्रव्यमान प्रतिशत = 84.73%

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