UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi पद्य Chapter 10 मैंने आहुति बनकर देखा / हिरोशिमा

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Board UP Board
Textbook SCERT, UP
Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 10
Chapter Name मैंने आहुति बनकर देखा / हिरोशिमा
Number of Questions Solved 4
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi पद्य Chapter 10 मैंने आहुति बनकर देखा / हिरोशिमा

मैंने आहुति बनकर देखा / हिरोशिमा – जीवन/साहित्यिक परिचय

(2018, 17, 16, 15, 14, 13, 12, 11, 10)

प्रश्न-पत्र में संकलित पाठों में से चार कवियों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं।
जिनमें से एक का उत्तर देना होता हैं। इस प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ
सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का जन्म वर्ष 1911 में हुआ था। इनके पिता पण्डित हीरानन्द शास्त्री पंजाब के करतारपुर (तत्कालीन जालन्धर जिला) के निवासी और वत्स गोत्रीय सारस्वत ब्राह्मण थे। अज्ञेय का जीवन एवं व्यक्तित्व बचपन से ही अन्तर्मुखी एवं आत्मकेन्द्रित होने लगा था। भारत की स्वाधीनता की लड़ाई एवं क्रान्तिकारी आन्दोलन में भाग लेने के कारण इन्हें 4 वर्षों तक जेल में तथा 2 वर्षों तक घर में नजरबन्द रखा गया। इन्होंने बी.एस.सी. करने के बाद अंग्रेजी, हिन्दी एवं संस्कृत का गहन स्वाध्याय किया। सैनिक’, ‘विशाल भारत’, ‘प्रतीक’ और अंग्रेजी त्रैमासिक ‘वा’ का सम्पादन किया। इन्होंने समाचार साप्ताहिक ‘दिनमान’ और ‘नया भती’ पत्रों का भी सम्पादन किया। तकालीन प्रगतिवादी काव्य का ही एक रुप ‘प्रयोगवाद’ काव्यान्दोलन के रूप में प्रतिफलित हुआ।

इसका प्रवर्तन ‘तार सप्तक’ के माध्यम से ‘अज्ञेय’ ने किया। तार सप्तक की भूमिका इस नए आन्दोलन का घोषणा-पत्र सिद्ध हुई। हिन्दी के इस महान् विभूति का स्वर्गवास 4 अप्रैल, 1987 को हो गया।

साहित्यिक गतिविधियाँ
अग प्रयोगशील नूतन परम्परा के ध्वज वाहक होने के साथ साथ अपने पीछे अनेक कवियों को लेकर चलते हैं, जो उन्हीं के समान नवीन विषयों एवं नवीन शिष्य के समर्थक हैं।

अज्ञेय उन रचनाकारों में से हैं जिन्होंने आधुनिक हिन्दी साहित्य को एक नया आयाम, नया सम्मान एवं नया गौरव प्रदान किया। हिन्दी साहित्य को आधुनिक बनाने का श्रेय अज्ञेय को जाता है। अज्ञेय का कवि, साहित्यकार, गद्यकार, सम्पादक, पत्रकार सभी रूपों में महत्वपूर्ण स्थान है।

कृतियाँ
‘अज्ञेय’ ने साहित्य के गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं में लेखन कार्य किए।

  1. कविता संग्रह भग्नदूत, चिन्ता, इत्यलम्, हरी घास पर क्षणभर, बावरा अहेरी, इन्द्र धनुष रौंदे हुए थे, आँगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, अरी ओं करुणामय प्रभामय।
  2. अंग्रेजी काव्य-कृति ‘प्रिजन डेज एण्ड अदर पोयम्स’
  3. निबन्ध संग्रह सब रंग और कुछ राग, आत्मनेपद, लिखि कागद कोरे आदि।
  4. आलोचना हिन्दी साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य, त्रिशंकु आदि।
  5. उपन्यास शेखर : एक जीवनी (दो भाग), नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी आदि।
  6. कहानी संग्रह विपथगा, परम्परा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल, तेरे ये प्रतिरूप, अमर वल्लरी आदि।
  7. यात्रा साहित्य अरे यायावर! रहेगा याद, एक बूंद सहसा उछली।

काव्यगत विशेषताएँ
भाव पक्ष

  1. मानवतावादी दृष्टिकोण इनका दृष्टिकोण मानवतावादी था। इन्होंने अपने सूक्ष्म कलात्मक बोध, व्यापक जीवन अनुभूति, समृद्ध कल्पना-शक्ति तथा सहज लेकिन संवेतमयी अभिव्यंजना द्वारा भावनाओं के नूतन एवं अनछुए रूपों को प्रकट किया।
  2. व्यक्ति की निजता को महत्त्व अज्ञेय ने समष्टि को महत्वपूर्ण मानते हुए भी व्यक्ति की निजता या महत्ता को अखण्डित बनाए रखा। व्यक्ति के मन की गरिमा को इन्होंने फिर से स्थापित किया। ये निरन्तर व्यक्ति के मन के विकास की यात्रा को महत्त्वपूर्ण मानकर चलते रहे।
  3. रहस्यानुभूति अज्ञेय ने संसार की सभी वस्तुओं को ईश्वर की देन माना है तथा कवि ने प्रकृति की विराट सत्ता के प्रति अपना सर्वस्व अर्पित किया है। इस प्रकार अज्ञेय की रचनाओं में रहस्यवादी अनुभूति की प्रधानता दृष्टिगोचर होती है।
  4. प्रकृति चित्रण अज्ञेय की रचनाओं में प्रकृति के विविध चित्र मिलते हैं, उनके काव्य में प्रकृति कभी अलिम्बन बनकर चित्रित होती है, तो कभी उद्दीपन बनकर। अज्ञेय ने प्रकृति का मानवीकरण करके उसे प्राणी की भाँति अपने काव्य में प्रस्तुत किया है। प्रकृति मनुष्य की ही तरह व्यवहार करती दृष्टिगोचर होती है।

कला पक्ष

  1. नवीन काव्यधारा का प्रवर्तन इन्होंने मानवीय एवं प्राकृतिक जगत के स्पन्दनों को बोलचाल की भाषा में तथा वार्तालाप एवं स्वगत शैली में व्यक्त किया। इन्होंने परम्परागत आलंकारिकता एवं लाक्षणिकता के आतंक से काव्यशिल्प को मुक्त कर नवीन काव्यधारा का प्रवर्तन किया।
  2. भाषा इनके काव्य में भाषा के तीन स्तर मिलते हैं
    • संस्कृत की परिनिष्ठित शब्दावली
    • ग्राम्य एवं देशज शब्दों का प्रयोग
    • बोलचाल एवं व्यावहारिक भाषा
  3. शैली इनके काव्य में विविध काव्य शैलियाँ; जैसे—छायावादी लाक्षणिक शैली, भावात्मक शैली, प्रयोगवादी सपाट शैली, व्यंग्यात्मक शैली, प्रतीकात्मक शैली एवं बिम्बात्मक शैली विद्यमान हैं।
  4. प्रतीक एवं बिम्ब अज्ञेय जी के काव्य में प्रतीक एवं बिम्ब योजना दर्शनीय है। इन्होंने ब) राजीव एवं हृदयहारी बिम्ब प्रस्तुत किए तथा सार्थक प्रतीकों का प्रयोग किया।
  5. अलंकार एवं छन्द इनके काव्य में उपमा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंलकार है। इसके साथ-साथ रूपक, उल्लेख, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय अंलकार भी प्रयुक्त हुए हैं। इन्होंने मुक्त छन्दों का खुलकर प्रयोग किया है। इसके अलावा गीतिका, बरवै, हरिगीतिका, मालिनी, शिखरिणी आदि छन्दों का भी प्रयोग किया है।

हिन्दी साहित्य में स्थान
अज्ञेय जी नई कविता के कर्णधार माने जाते हैं। ये प्रत्यक्ष का यथावत् चित्रण करने वाले सर्वप्रथम साहित्यकार थे। देश और समाज के प्रति इनके मन में अपार वेदना थी। ‘नई कविता’ के जनक के रूप में इन्हें सदा याद किया जाता रहेगा।

पद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-पत्र में पद्य भाग से दो पद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर देने होंगे।

मैंने आहुति बनकर देखा

प्रश्न 1.
मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरु नन्दन-कानन का फूल बने?
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रान्तर का ओछा फूल बने?
मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूं तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले?
मैं कब कहता हूँ विजय करू-मेरा ऊँचा प्रासाद बर्ने?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने?
पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकले करे यह चाह मुझे?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे?

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) प्रस्तुत पद्यांश के रचनाकार और रचना का नाम बताइए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश के रचनाकार सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन” अज्ञेय’ जी हैं। और रचना ‘मैंने आहुति बनकर देखा’ है।

(ii) प्रस्तुत पद्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि कैसा व्यक्ति वास्तविक जीवन जीता है?
उत्तर:
कवि ने मानव जीवन की सार्थकता बताते हुए स्पष्ट किया है कि दुःख के बीच पीड़ा सहकर अपना मार्ग प्रशस्त करने वाला तथा दूसरों की पीड़ा हरकर उनमें प्रेम का बीज बोने वाली व्यक्ति ही वास्तविक जीवन जीता है।

(iii) “काँटा कठोर हैं, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा हैं।” पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पंक्ति का आशय यह है कि जिस प्रकार काँटे की श्रेष्ठता उपवन के तच फल में परिवर्तित हो जाने में नहीं, वरन अपने कठोरपन एवं नुकीलेपन में निहित है, उसी प्रकार जीवन की सार्थकता संघर्ष एवं दुःखों से लड़ने में है।

(iv) प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में दुःख को सुख की तरह, असफलता को सफलता की तरह और हार को जीत की तरह स्वीकार कर कार्य-पथ पर अडिग होकर चलने का भाव व्यक्त किया गया है।

(v) अनुकूल और नेतृत्व शब्दों में क्रमशः उपसर्ग एवं प्रत्यय बताइए।
उत्तर:
अनुकूल – अनु (उपसर्ग), नेतृत्व – त्व (प्रत्यय)।

प्रश्न 2.
मैं प्रस्तुत हुँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने—
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गतिरोधक शुल बने।
अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है—
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसु की माला हैं?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है—
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन-कारी हाला है।
मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया—
मैंने आहुति बनकर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है!
मैं कहता हूँ मैं बढ़ती हूँ मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ।
कुचला जाकर भी धूली-सा आँधी-सा और उमड़ता हूँ।
मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने!
भव सारा तुझको है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने—
तेरी पुकार-सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने!

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने अपनी कैसी चाह (इच्छा) को व्यक्त किया है?
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में कवि को अपने जनपद की धूल बन जाना स्वीकार है, भले ही उस धूल का प्रत्येक कण उसे जीवन में आगे बढ़ने से रोके और उसके लिए पीड़ादायक ही क्यों न बन जाए। इसके पश्चात् भी वह कष्ट सहकर मातृभूमि की सेवा करने या उसके काम आ जाने की चाह व्यक्त करता है।

(ii) प्रेम की वास्तविक अनुभूति से कैसे लोग अनभिज्ञ रह जाते हैं?
उत्तर:
प्रेम को जीवन के अनुभव का कड़वा प्याला मानने वाले लोग सकारात्मक दृष्टिकोण के नहीं होते, अपितु वे मानसिक रूप से विकृत होते हैं, किन्तु वे लोग भी चेतना विहीन निर्जीव की भाँति ही हैं। जिनके लिए प्रेम की चेतना लुप्त करने वाली मदिरा है, क्योंकि ऐसे लोग प्रेम की वास्तविक अनुभूति से अनभिज्ञ रह जाते हैं।

(iii) कवि ने धूल से क्या प्रेरणा ली है?
उत्तर:
कवि धूल से प्रेरणा लेते हुए कहता है कि जिस प्रकार धूल लोगों के पैरों तले रौदी जाती है, परन्तु वह हार न मानकर उल्टे औंधी के रूप में आकर रौंदने वाले को ही पीड़ा पाँचाने लगती है। उसी प्रकार मैं भी जीवन के संघर्षों से पछाड़ खाकर कभी हार नहीं मानता और आशान्वित व होकर आगे की और बढ़ता चला जाता हैं।

(iv) प्रस्तुत पद्यांश में निहित उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने जीवन में संघर्ष के महत्व पर बल दिया है। यदि हमारे समक्ष कोई जटिल समस्या आ जाए, तो हमें उसका सामना करते हुए उसका समाधान ढूँढना चाहिए। जो लोग इन समस्याओं का सामना करने से घबराते हैं, वास्तव में उनके जीवन को सार्थक नहीं कहा जा सकता।

(v) “इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने।” प्रस्तुत पंक्ति में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर:
प्रस्तुत पंक्ति में ‘पग’ शब्द की पुनरावृत्ति हुई है, अतः यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

हिरोशिमा

प्रश्न 3.
एक दिन सहसा सूरज निकला अरे क्षितिज पर नहीं, नगर के चौक;
धूप बरसी, पर अन्तरिक्ष से नहीं फटी मिट्टी से।
छायाएँ मानव-जन की दिशाहीन, सब ओर पड़ी-वह सूरज
नहीं उगा था पूरब में, वह बरसा सहसा
बीचो-बीच नगर के; काल-सूर्य के रर्थ के
पहियों के ज्यों अरे टूट कर, बिखर गए हों दसों दिशा में!
कुछ क्षण का वह उदय-अस्त!
केवल एक प्रज्वलित क्षण की
दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी फिर।।

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) प्रस्तुत पद्यांश के रचनाकार और रचना का नाम बताइए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश के रचनाकार सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ है तथा यद् पद्यांश ‘हिरोशिमा’ कविता से उद्घृत हैं।

(ii) प्रस्तुत पद्यांश में किस समय का वर्णन किया गया है?
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में द्वितीय विश्वयुद्ध की उस भीषण तबाही का उल्लेख किया गया है, जब अमेरिका द्वारा हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराया गया था।

(iii) हिरोशिमा नगर में परमाणु बम विस्फोट के परिणाम क्या हुए?
उत्तर:
हिरोशिमा नगर के जिस स्थान पर बम गिराया गया था, वहाँ की भूमि बड़े बड़े गड्ढों में परिवर्तित हो गई थी, जिसे फटी मिट्टी कहा गया है। वहाँ बहुत अधिक मात्रा में विषैली गैसें निकल रहीं थीं और उनसे निकलने वाले ताप से समस्त प्रकृति मुलस रही थी। विस्फोट के दौरान निकली विकिरणें मान्य के अस्तित्व को मिटा रही थीं।

(iv) “काल-सूर्य के रथ के पहियों के ज्यों अरे टूट कर, बिखर गए हों” पंक्ति से कवि का क्या आशय है?
उत्तर:
परमाणु विस्फोट के पश्चात् सूर्य का उदय प्रतिदिन की तरह पूर्व दिशा से नहीं हुआ था, वरन् उसका उदय अचानक ही हिरोशिमा के मध्य स्थित भूमि से हुआ था। उस सूर्य को देखकर ऐसा आभास हो रहा था जैसे काल अर्थात् मृत्युरूपी सूर्य रथ पर सवार होकर उदित हुआ हो और उसके पहियों के उड़े टूट-टूटकर इधर-उधर दसों दिशाओं में जा बिखरे हों।

(v) ‘काल’ शब्द के तीन पर्यायवाची शब्द बताइए।
उत्तर:

शब्द पर्यायवाची शब्द
काल समय
क्षण वक्त

प्रश्न 4.
छायाएँ मानव-जन की, नहीं मिटीं लम्बी हो-होकर;
मानव ही सब भाप हो गए। छायाएँ तो अभी लिखीं हैं,
झुलसे हुए पत्थरों पर उजड़ी सड़कों की गच पर।
मानव का रचा हुआ सूरज मानव को भाप बनाकर सोख गया।
पत्थर पर लिखी हुई यह जली हुई छाया मानव की साखी है।

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से मानव द्वारा विज्ञान का दुरुपयोग किए जाने पर दुःख जताया गया है, ताकि परमाणु बम गिराने जैसी मानव-विनाशी गलती की पुनरावृत्ति न हो पाए।

(ii) कवि ने आकाशीय सूर्य की तुलना मानव निर्मित सुर्य से किस प्रकार की है?
उत्तर:
कवि आकाशीय सूर्य से मानव निर्मित सूर्य की तुलना करते हुए कहता है। कि आकाश का सूर्य हमारे लिए वरदान स्वरूप है, उससे हमें जीवन मिलता है, परन्तु मानव निर्मित सूर्य परमाणु बम अति विध्वंसक है, क्योंकि इसने अपनी विकिरणों से मानव को वाष्प में परिणत कर उसकी जीवन लीला ही समाप्त कर दी।

(iii) “आयाएँ तो अभी लिखीं हैं झुलसे हुए पत्थरों पर” पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
परमाणु विस्फोट के दुष्परिणाम स्वरूप उत्सर्जित विकिरणों ने मानव को जलाकर वाष्य में बदल दिया, किन्तु उनकी छायाएँ लम्बी होकर भी समाप्त नहीं हुई हैं। विकिरणों से झुलसे पत्थरों तथा क्षतिग्रस्त हुई सड़कों की दरारों पर, वे मानवीय छायाएँ आज भी विद्यमान हैं और मौन होकर उस भीषण त्रासदी की कहानी कह रही हैं।

(iv) प्रस्तुत पद्यांश में कवि अत्यन्त मर्माहित क्यों हुआ है?
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में मानव जीवन की त्रासदी का वर्णन किया गया है। यहाँ मानव ही मानव के विध्वंस का कारण हैं। मानव के इस दानव रूप को देखकर कवि अत्यन्त मर्माहित हो उठा है।

(v) प्रस्तुत पद्यांश में कौन-सा रस है?
उत्तर:
मानव जाति के विध्वंस के कारण शोक की स्थिति उत्पन्न हुई है। अतः प्रस्तुत पद्यांश में करुण रस है।

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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi नाटक Chapter 2 आन का मान

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi नाटक Chapter 2 आन का मान part of UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi नाटक Chapter 2 आन का मान.

Board UP Board
Textbook SCERT, UP
Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 2
Chapter Name आन का मान
Number of Questions Solved 17
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi नाटक Chapter 2 आन का मान

कथावस्तु पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 1.
‘आन का मान’ नाटक का कथासार लिखिए। (2018)
अथवा
‘आन का मान’ नाटक की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए। (2018)
अथवा
‘आन का मान’ नाटक की कथावस्तु संक्षेप में अपने शब्दों में लिखिए। (2016)
अथवा
‘आन का मान’ नाटक की कथावस्तु लिखिए। (2016)
अथवा
‘आन का मान’ नाटक की कथावस्तु पर प्रकाश डालिए। (2016)
अथवा
‘आन का मान’ नाटक का संक्षिप्त सारांश लिखिए। (2014)
उत्तर:
मुगलकालीन भारत के इतिहास पर आधारित एवं हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ द्वारा लिखित नाटक ‘आन का मान’ में राजपूत सरदार वीर दुर्गादास राठौर की स्वाभाविक वीरता, कर्तव्यपरायणता, राष्ट्रीयता, मानवता आदि गुणों को चित्रित कर उसके व्यक्तित्व की महानता दर्शायी गई है। यह नाटक तीन अंकों में विभाजित है। तीनों अंकों के अध्ययन के लिए उत्तर 2, 3 व 4 देखें।

प्रश्न 2.
‘आन का मान’ नाटक के प्रथम अंक का सारांश लिखिए। (2016)
अथवा
‘आन का मान’ नाटक के प्रथम अंक की कथा संक्षेप में लिखिए। (2015, 11, 10)
अथना
‘आन का मान’ नाटक के किसी एक अंक की कथावस्तु लिखिए।
उत्तर:
श्री हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ द्वारा रचित नाटक ‘आन का मान’ का आरम्भ रेगिस्तान के एक रेतीले मैदान से होती है। इस समय भारत की राजनैतिक सत्ता मुख्यतः मुगल शासक औरंगजेब के हाथों में थी और जोधपुर में महाराज जसवन्त सिंह का राज्य था। वीर दुर्गादास राठौर महाराज जसवन्त सिंह का ही कर्तव्यनिष्ठ सेवक है और महाराज की मृत्यु हो जाने के पश्चात् वह उनके अवयस्क पुत्र अजीत सिंह के संरक्षक की भूमिका निभाता है। अपने पिता औरंगजेब की अनेक नीतियों का विरोध करते हुए उसका पुत्र अकबर द्वितीय औरंगजेब से अलग हो जाता है और उसकी मित्रता दुर्गादास राठौर से हो जाती है। औरंगजेब की एक चाल से अकबर द्वितीय को ईरान जाना पड़ा।

अपनी मित्रता निभाते हुए अकबर द्वितीय की सन्तानों-सफीयत एवं बुलन्द अख्तर के पालन-पोषण का दायित्व दुर्गादास ने अपने ऊपर ले लिया। समय के साथ-साथ सभी युवा होते हैं और राजकुमार अजीत सिंह सफीयतुन्निसा पर आसक्त हो जाता है। सफीयत के टालने के पश्चात अजीत सिंह में उसके प्रति प्रेम की भावना अत्यधिक बढ़ जाती हैं, जिसके कारण दुर्गादास नाराज हो जाते हैं। दुर्गादास द्वारा राजपूती आन एवं मान का ध्यान दिलाने पर अजीत सिंह अपनी गलती मानकर क्षमा माँग लेता है। युद्ध की तैयारी प्रारम्भ होती है। औरंगजेब के सन्धि प्रस्ताव को लेकर ईश्वरदास आता है। मुगल सूबेदार शुजाअत खाँ द्वारा सादे वेश में प्रवेश करने के पश्चात् अजीत सिंह उस पर प्रहार करता है, परन्तु राजपूती परम्परा का निर्वाह करते हुए नि:शस्त्र व्यक्ति पर प्रहार होने से दुर्गादास बचा लेता है।

प्रश्न 3.
‘आन का मान’ नाटक के द्वितीय सर्ग की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए। (2016)
अथवा
‘आन का मान’ नाटक के द्वितीय अंक का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
‘आन का मान’ नाटक के मार्मिक स्थलों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
‘आन का मान’ नाटक के सर्वाधिक मार्मिक स्थलों से सम्बन्धित दूसरे अंक की कथा भीम नदी के तट पर स्थित ब्रह्मपुरी से प्रारम्भ होती है। ब्रह्मपुरी का नाम औरंगजेब ने इस्लामपुरी रख दिया है। औरंगजेब की दो पुत्रियों मेहरुन्निसा एवं जीनतुन्निसा में से मेहरुन्निसा हिन्दुओं पर औरंगजेय द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों का विरोध करती है, जबकि जौनतुन्निसा अपने पिता की नीतियों की समर्थक है। अपनी दोनों पुत्रियों की बात सुनने के पश्चात् औरंगजेब मेहरुन्निसा द्वारा रेखांकित किए गए अत्याचारों को अपनी भूल मानकर पश्चाताप करता है। वह अपने बेटों विशेषकर अकबर द्वितीय के प्रति की जाने वाली कठोरता के लिए भी दु:खी होता है। उसके अन्दर अकबर द्वितीय की सन्तानों अथति अपने पौत्र-पौत्री क्रमशः बुलन्द एवं सफीयत के प्रति स्नेह और बढ़ जाता है। औरंगजेब अपनी वसीयत में अपने पुत्रों को जनता से उदार व्यवहार के लिए परामर्श देता है। वह अपनी मृत्यु के बाद अन्तिम संस्कार को सादगी से करने के लिए कहता है। वसीयत लिखे जाने के समय ही ईश्वरदास वीर दुर्गादास राठौर को बन्दी बनाकर लाता है। औरंगजेब अपने पौत्र-पौत्री अर्थात् बुलन्द एवं सफीयत को पाने के लिए दुर्गादास से सौदेबाजी करना चाहता है, लेकिन दुर्गादास इसके लिए राजी नहीं होता।

प्रश्न 4.
‘आन का मान’ नाटक के तीसरे अंक की घटनाओं का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (2017, 10)
उत्तर:
‘आन का मान’ नाटक के तीसरे अंक की कथा सफीयत के गान के साथ प्रारम्भ होती है और उसी समय अजोत सिंह वहां पहुंच जाता है। वह सफौयत को अपना जीवन साथी बनाने का इच्छुक है, लेकिन सफीयत स्वयं को विधवा कहकर अजीत सिंह के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करती। अजीत सिंह द्वारा अनेक तर्क देने के पश्चात् सफीयत अजीत सिंह को लोकहित हेतु स्वहित को त्यागने का सुझाव देती है।

वह वहाँ से जाना चाहती है, लेकिन प्रेम के उद्वेग में बहता अजीत सिंह उसे अपने पास बैठा लेता है। बुलन्द अख्तर के आने से सफीयत सकचा जाती है तथा अपने भाई से अजीत सिंह के प्रेम एवं विवाह की इच्छा की बात बताती हैं। बुलन्द इसका विरोध करता है और फिर वहां से चला जाता हैं। इसी समय दुर्गादास का प्रवेश होता है और वह इन सब बातों को सुनकर औरंगजेब के सन्देह को उचित मानता है। दुर्गादास के विरोध की भी परवाह न करते हुए अजीत सिंह सफीयत को साथ चलने के लिए कहता है।

यह देखकर सफीयत के सम्मान की रक्षा हेतु दुर्गादास तैयार हो जाता है। तभी मेवाड़ से अजीत सिंह का टीका (विवाह का प्रस्ताव) आता है, जिसे वह दुर्गादास की चाल समझता है।

दुर्गादास पालकी मैंगवाकर सफीयत को बैठाकर चलने के लिए तैयार होता है, तो अजीत सिंह पालकी रोकने की कोशिश करते हुए दुर्गादास को चेतावनी देता है—

“दुर्गादास जी! मारवाड़ में आप रहेंगे या मैं रहूँगा।”

दुर्गादास सधे हुए शब्दों में कहता है कि “आप ही रहेंगे महाराज! दुर्गादास तो सेवक मात्र है-उसने चाकरी निभा दी।”
ऐसा कहकर दुर्गादास जन्मभूमि को अन्तिम बार प्रणाम करता है और यहीं पर नाटक की कथा समाप्त हो जाती है।

प्रश्न 5.
‘आन का मान’ नाटक की ऐतिहासिकता पर अपने विचार व्यक्त कीजिए। (2018, 12, 11, 10)
उत्तर;
श्री हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ द्वारा रचित नाटक ‘आन का मान’ वस्तुतः एक ऐतिहासिक नाटक है, जिसमें कल्पना का उचित समन्वय किया गया है। नाटक का समय, इसके पात्र एवं पटनाएँ आदि मध्यकालीन या मुगलकालीन भारत से सम्बद्ध हैं। औरंगजेब, अकबर द्वितीय, मेहरुन्निसा, जीनतुन्निसा, बुलन्द अख्तर, सफीयतुन्निसा, शुजाअत खाँ, दुर्गादास, अजीत सिंह, मुकुन्दीदास आदि प्रसिद्ध ऐतिहासिक पात्र हैं। जोधपुर के महाराज जसवन्त सिंह का अफगानिस्तान यात्रा से लौटते हुए कालगति को प्राप्त हो जाना, रास्ते में उनकी दोनों रानियों द्वारा दो पुत्रों को जन्म देना, औरंगजेब द्वारा महाराज के परिवार को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए दबाव डालना, दुर्गादास के नेतृत्व में अजीत सिंह का निकल भागमा, प्रतिशोध में औरंगजेब द्वारा जोधपुर पर आक्रमण करना, अकबर द्वितीय का ईरान भाग जाना, उसके पुत्र एवं पुत्री की देखभाल दुर्गादास द्वारा करना आदि महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाएँ हैं।

इसके अतिरिक्त, कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों; जैसे-औरंगजेब की धर्मान्धता, उसकी राज्य विस्तार नीति, साम्प्रदायिक वैमनस्य, व्यापार एवं कला का हास आदि को सफलतापूर्वक नाटक में दर्शाया गया है। नाटक में अनेक जगहों पर नाटककार ने कल्पना का समुचित समन्वय किया है, जिससे नाटक में रोचकता एवं प्रासंगिकता का उचित समावेश हो गया है। अन्ततः कहा जा सकता है कि यह नाटक ऐतिहासिक दृष्टिकोण से एक सफल एवं तत्कालीन परिस्थितियों को सार्थक ढंग से प्रस्तुत करने में समर्थ नाटक है।

प्रश्न 6.
‘आन का मान’ नाटक के शीर्षक की सार्थकता पर प्रकाश डालिए। (2011)
अथवा
‘आन का मान’ नाटक में मान, मर्यादा और देशभक्ति का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। सप्रमाण उत्तर दीजिए। (2010)
उत्तर:
श्री हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ द्वारा रचित नाटक ‘आन का मान’ में अनेक स्थलों पर राजपूतों द्वारा अपनी आन अर्थात् शपथ पर परम्परा का निर्वाह प्रदर्शित हुआ है। वीर दुर्गादास राठौर द्वारा राजपूतों को संगठित करके राजपूती आन एवं सम्मान की रक्षा हेतु प्रयासरत रहना, इसी का सूचक है। अपने स्वामी जसवन्त सिंह के पुत्र अजीत सिंह को राजपूती आन के रक्षार्थ दुर्गादास द्वारा तैयार करना, अजीत सिंह में राजपूताना परम्पराओं पर आधारित गुणों का विकास करना, अन्तिम समय तक औरंगजेब के पुत्र अकबर द्वितीय के साथ मित्रता का निर्वाह करना आदि शीर्षक की प्रासंगिकता एवं सार्थकता को सिद्ध करते हैं। अजीत सिंह का विरोध करके दुर्गादास सफीयतृन्निसा की इज्जत की रक्षा करना अपना राजपताना घर्म समझता है। अपनी आन को बनाए रखने के लिए वह अपने पुत्र समान अजीत सिंह के अपमान को सह लेता है। वह अजीत सिंह का दरबार छोड़ देता है. लेकिन अपने मित्र को दिए गए वचनों को नहीं। वह औरंगजेब के खिलाफ है, लेकिन औरंगजेब की पौत्री सफीयत के सम्मान की रक्षा के लिए वह अपनी जन्मभूमि का भी त्याग का देता है। इस तरह, कहा जा सकता है कि ‘आन का मान’ नाटक में राजपती आन के अनुरूप नारी-सम्मान की रक्षा, कर्तव्यपालन, मातृभूमि के प्रति गौरव का भाव, अपने मित्र के प्रति वचनबद्धता का निर्वाह आदि उदाहरण सिद्ध करते हैं कि नाटक का शीर्षक सर्वथा प्रासंगिक एवं सार्थक है।

प्रश्न 7.
“आन का मान” नाटक का मूल स्वर है विश्वबंधुत्व और मानवतावाद।” इस कथन के आधार पर नाटक की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2018)
अथवा
नाट्य तत्त्वों के आधार पर ‘आन का मान’ नाटक की समीक्षा कीजिए। (2014, 13, 11)
अथवा
‘आन का मान’ नाटक की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। (2018, 17, 14, 12)
उत्तर:
नाट्य तत्वों के आधार पर ‘आन का मान’ नाटक की समीक्षा निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत की जा सकती है-ऐतिहासिक कथानक वाले ‘आम का मान नाटक में यथार्थ एवं कल्पना का सुन्दर समन्वय किया गया है। कथा में एकसूत्रता, सजीवता, पटना-प्रवाह आदि का निर्वाह भली-भाँति हुआ है। इस कथानक में औरंगजेब के समय की राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों को दर्शाकर शाश्वत मानवीय मूल्यों को उकेरा गया है। औरंगजेय के अत्याचारों से त्रस्त होने के बाद भी हिन्दू समुदाय एवं राजपूताना समुदाय औरंगजेब के बेटे को संरक्षण देता है। इतना ही नहीं, दुर्गादास औरंगजेब के बेटे अकबर द्वितीय से एक बार की गई मित्रता को जीवन भर निभाता है, भले ही इसके लिए उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। अकबर द्वितीय की बेटी सफीयत के सम्मान को बचाने के लिए दुर्गादास पुत्र समान पाले-पोसे गए अजीत सिंह और माँ समान जन्मभूमि का भी त्याग करने से हिचकता नहीं है। कथानक का मुख्य स्वर राजपूती आन एवं दुर्गादास का शौर्य है।

प्रश्न 8.
‘आन का मान’ नाटक के देशकाल चित्रण की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
‘आन का मान’ नाटक के नाटककार श्री हरिकृष्ण प्रेमी’ ने इसमें देशकाल एवं वातावरण का पर्याप्त ध्यान रखा है। नाटक में मध्यकालीन मुस्लिम संस्कृति तथा हिन्दू संस्कृति का उचित समन्वय हुआ है। नाटक के पात्र ऐसे राजघरानों से सम्बन्धित हैं, जिनमें परस्पर संघर्ष चलता रहता था। युद्ध जैसे तत्कालीन वातावरण, राजनीतिक षड्यन्त्रों के बीच जीवन के उज्ज्वल पक्षों का रेखांकन, अपनी राष्ट्रीयता (जातीयता) की विशेषताओं को सुरक्षित एवं संरक्षित रखते हुए गैर-जातीय समुदाय की भावनाओं को भी आदर प्रदान करना, मानवीय मूल्यों को ठेस न पहुँचने देना, तत्कालीन समाज में चलने वाले निरन्तर दाँव-पेंच, प्रेम सम्बन्धों में भी औदात्य की रक्षा करना आदि ऐसे पक्ष हैं, जो तत्कालीन समाज में भी विद्यमान थे और प्रत्येक समाज में विद्यमान रहते हैं, कभी कम या कभी अधिक तीव्रता के साथ। नाटककार ने इन जीवन्त एवं सार्थक मानवीय भावनाओं को उचित महत्त्व प्रदान किया है, जिससे नाटक की प्रासंगिकता बढ़ गई है। राजपूती आन, बान एवं शान का प्रदर्शन करने के लिए देशकाल एवं वातावरण का चित्रण करने तथा ऐतिहासिकता की रक्षा करने में नाटककार पूरी तरह समर्थ साबित हुआ है।

प्रश्न 9.
‘आन का मान’ नाटक के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए। (2016)
अथवा
‘आन का मान’ नाटक के उद्देश्य बताइए। (2016)
अथवा
‘आन का मान’ नाटक के उद्देश्य को स्पष्ट कीजिए। (2013, 12, 11, 10)
उत्तर:
श्री हरिकृष्ण ‘प्रेमी जी ने प्रस्तुत ऐतिहासिक नाटक के माध्यम से मानवीय गुणों को रेखांकित किया है तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता अर्थात् साम्प्रदायिक सौहार्द के सन्देश को प्रसारित करने का सफल प्रयास किया है। चीर दुर्गादास जहाँ भारतीय हिन्दू संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहीं इनके समानान्तर मुगल सत्ता को रखा गया है। सदाचार, सद्भाव, स्वाभिमान, शौर्य, राष्ट्रीयता की भावना, साम्प्रदायिक एकता, जनतन्त्र का समर्थन, अत्याचार का विरोध आदि गुणों से युक्त दुर्गादास का चरित्रांकन किया गया है। वास्तव में, नाटककार का उद्देश्य है-आधुनिक भारत के युवकों को आदर्श स्थिति से अवगत कराना तथा उनमें उच्च मानवीय भावनाओं को सम्प्रेषित करना।

साम्प्रदायिक एकता सम्बन्धी उद्देश्य भी नाटक के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल है। राष्ट्र का उद्बोधन एवं लोगों में जागरण की चेतना का प्रसार इस नाटक का मूल सन्देश हैं। इस नाटक के द्वारा राष्ट्रीय निर्माण एवं राष्ट्रीय एकता के लक्ष्यों को प्राप्त करने की सार्थक कोशिश की गई हैं। नाटककार ने सफीयत नामक पात्र के माध्यम से प्रेम के उदात्त लक्षणों से लोगों को परिचित कराया है। जब वह कहती है “प्रेम केवल भोग को ही माँग नहीं करता, वह त्याग और बलिदान भी चाहता है”-तो यह आज के नवयुवकों को दिया जाने वाला वह सन्देश है, जो भौतिकता या बाह्य स्वरूप से अधिक आन्तरिक भावनाओं को महत्त्व देता है। भारतीय युवकों एवं नागरिकों में स्वदेश के प्रति गहन अपनत्व की भावना का प्रसार करना नाटककार का एक प्रमुख उद्देश्य हैं। इसके साथ ही, नाटक के द्वारा मानवतावाद एवं विश्वबन्धुत्व का भी सन्देश दिया गया है।

इस प्रकार, पुरानी मध्ययुगीन या मुगलकालीन कहानी या कथानक को माध्यम बनाकर नाटककार ने आधुनिक मानवीय सन्देशों को सहजता के साथ सम्प्रेषित
करने में सफलता प्राप्त की है।

प्रश्न 10.
‘आन का मान’ नाटक की संवाद-योजना पर प्रकाश डालिए। (2011)
उत्तर:
किसी भी नाटक का कथानक संवादों के आधार पर ही अग्रसर होता है। प्रस्तुत नाटक के संवाद छोटे-छोटे, तीखे, गतिमय एवं प्रभावशाली हैं, परन्तु कहीं-कहीं संवाद लम्बे भी हो गए हैं। नाटककार ने संवाद-योजना में विदग्धता एवं मार्मिक स्थलों की जानकारी का भली-भाँति परिचय दिया है। संवाद-योजना ने नाटक की कथा को एक गति प्रदान की है—

अजीत–“दुर्गादास जी! मारवाड़ में आप रहेंगे या मैं रहूँगा।”
दुर्गादास–“आप ही रहेंगे महाराज! दुर्गादास तो सेवक मात्र है–उसने चाकरी निभा दी।”
या जीनतुन्निसा-“तू चौकी क्यों?”
मेहरुन्निसा-“मैं समझी जिन्दा पीर आ गए।”

नाटक में औरंगजेब जैसे कट्टर मुस्लिम शासक के संवाद को भी परिमार्जित हिन्दी में प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया गया है। अधिकांश संवाद मर्मस्पर्शी एवं चेतनशील हैं। संवादों के द्वारा वातावरण एवं परिस्थितियों को जीवन्त करने का प्रयास किया गया है।

प्रश्न 11,
‘आन का मान’ नाटक की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए। (2013)
उत्तर:
श्री हरिकृष्ण प्रेमी’ द्वारा रचित नाटक ‘आन का मान’ की भाषा सरल, सुबोध, सहज, प्रवाहपूर्ण एवं प्रांजल हैं। परिस्थितियों एवं आवश्यकता के अनुसार, वाक्य कहीं छोटे, तो कहीं बड़े बन पड़े हैं। सम्पूर्ण नाटक में परिमार्जित हिन्दी शब्दों का ही प्रयोग किया गया है। मुस्लिम पात्र विशेषकर औरंगजेब जैसा कट्टर मुस्लिम शासक भी परिमार्जित हिन्दी का ही प्रयोग करता है। इससे नाटककार की क्षमता का भी प्रदर्शन होता है, हालाँकि कहीं-कहीं इससे स्वाभाविकता में बाधा पहुँचती है। ऐसा लगता है जैसे मुस्लिम पात्र को बलपूर्वक भाषा ओढ़ाई गई हो। नाटक में नाटककार ने खुलकर सहज ढंग से बोलचाल के उर्दू शब्दों का प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त, नाटक की भाषा की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता सतियों एवं महावरों का यथास्थान उचित प्रयोग है। भाषा प्रसाद गुणयुक्त है, लेकिन ओज एवं माधुर्य गुणों से युक्त भाषा का भी उचित स्थान पर प्रयोग किया गया है। मुहावरों एवं लोकोक्तियों के प्रयोग सम्बन्धी कुछ उदाहरणों में विपत्तियों मनुष्य को बलवान बना देती हैं, दूध का जला छाछ भी फेंक फूककर पीता है, सिर पर कफन बाँधे फिरना; बद अच्छा, बदनाम बुरा आदि द्रष्टव्य हैं। प्रस्तुत नाटक में तीन गीतों की भी योजना है, जो प्रसंग के अनुसार अत्यन्त सार्थक एवं प्रभावी बन पड़े हैं।

प्रश्न 12.
‘आन का मान’ नाटक की अभिनेयता (रंगमंचीयता) पर प्रकाश डालिए। (2013, 11, 10)
उत्तर:
अभिनेयता या रंगमंचीयता की दृष्टि से प्रस्तुत नाटक ‘आन का मान’ पूर्णतः सफल रचना है। इस नाटक में तीन अंक हैं। प्रथम अंक में मरुभूमि के रेतीले मैदान का दृश्य है। रात के प्रथम पहर का समय है तथा मंच पर चांदनी बिखरी हुई है। दूसरे अंक में दक्षिण में भीम नदी के तट पर ब्रह्मपुरी नामक कस्बे में औरंगजेब के राजमहल का एक कक्ष दर्शाया गया है। कुशल रंगकर्मी रेतीले मैदान, फैली हुई चाँदनी, बहती हुई नदी आदि का प्रवाह चित्रों, प्रकाश एवं ध्वनि के माध्यम से प्रस्तुत कर सकते हैं। औरंगजेब के कक्ष की साधारण सजावट ऐतिहासिक तथ्यों के अनुरूप है। तीसरे अंक में प्रथम अंक का ही सेट है अर्थात् प्रथम अंक एवं तृतीय अंक का सेट एक ही है। नाटक के प्रस्तुतिकरण में केवल दो ही से तैयार करने पड़ते हैं।

इसी तरह, नाटक के प्रस्तुतिकरण में केवल तीन बार पद् गिराने की आवश्यकता है। नाटक में नाटककार ने वेशभूषा की दृष्टि से समुचित रूप से निर्देशन दिया है। अभिनय को अधिक प्रभावी बनाने के लिए कुछ नाटकीय संकेत भी दिए गए हैं। इस प्रकार, कहा जा सकता है कि गतिशील कथानक, कम पात्र, सरल भाषा, कम अंक एवं सेट तथा मंच-विधान की दृष्टि से ‘आन का मान’ एक उत्कृष्ट एवं सफल नाटक है। श्री हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ द्वारा रचित ‘आन का मान’ नाटक में पात्रों की कुल संख्या 11 है, जिसमें 3 स्त्री पत्र। हैं। नाटक का प्रमुख पात्र वीर दुर्गादास राठौर है। नाटक का सारा घटनाक्रम के इर्द-गिर्द घूमता है। दुर्गादास के अतिरिक्त औरंगजेब का चरित्र भी महत्त्वपू चरित्रों में शामिल हैं।

पात्र एवं चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 13.
‘आन का मान’ नाटक के कथानक के आधार पर दुर्गादास का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2018, 16)
अथवा
‘आन का मान’ नाटक के उस पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए जिसने आपको प्रभावित किया हो। (2018, 16)
अथवा
‘आन का मान’ नाटक के प्रमुख पात्र/नायक की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। (2018, 16)
अथना
‘आन का मान के आधार पर वीर दुर्गादास की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2016)
अथवा
‘आन का मान’ नाटक के आधार पर वीर दुर्गादास का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2014, 13, 12, 11, 10)
अथवा
‘आन का मान’ नाटक के प्रमुख पात्र (नायक) का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2018, 17, 16, 15, 14, 13, 12, 11, 10)
अथवा
‘आन का मान’ नाटक के आधार पर वीर दुर्गादास के चरित्र की विशेषताएँ लिखिए। (2018, 17, 14, 13, 12)
उत्तर:
‘आन को मान’, नाटक का नायक वीर दुर्गादास राठौर है। वह मानवीय गुणों से युक्त वीर पुरुष है। उसके चरित्र ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया, उसकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्न हैं।

  1. राजपूती शान दुर्गादास पूरे नाटक में राजपूती शान के साथ उपस्थित है। वह न तो किसी से डरता है और न ही किसी के सामने झुकता है। वह निर्भीक होकर अपनी परम्परा के अनुरूप राजपूती शान के साथ लोगों से अन्त:क्रिया करता है, चाहे वह कोई सम्राट हो या कोई अत्यन्त सामान्य व्यक्ति।
  2. स्वामिभक्त राजपूती शान के अनुरूप वह अत्यन्त निर्भीक है, लेकिन इस निर्भीकता के साथ-साथ वह अपने स्वामी के प्रति अत्यन्त उत्तरदायी है। वह अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह निभाता है और अपने स्वामी के प्रति एकनिष्ठ समर्पित भाव रखता है।
  3. निर्भीकता स्वामी के प्रति अपनी एकनिष्ठा रखते हुए भी वह स्वामी से भयभीत नहीं रहता। वह उचित को उचित एवं अनुचित को अनुचित ही बताता है। वह भारत के तत्कालीन सम्राट औरंगजेब की बातों को भी नहीं मानता, क्योंकि वे उसे उचित प्रतीत नहीं होती हैं।
  4. मानवतावादी दृष्टिकोण दुर्गादास का चरित्र मानवीय गुणों से परिपूर्ण है। वह मानवता के विरुद्ध किसी भी सिद्धान्त को आदर्श नहीं मानता। अकबर द्वितीय के मुसलमान होने के पश्चात् भी उसे न केवल वह अपना मित्र बनाता है, अपितु उसकी बेटी सफीयत के सम्मान की रक्षा के लिए वह अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करता। उसके मानवतावादी दृष्टिकोण में ही हिन्दू-मुस्लिम समन्वय की भावना भी निहित है।
  5. राष्ट्रीयता की भावना दुर्गादास में राष्ट्रीयता की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। वह एक आदर्श भारतीय समाज का निर्माण करना चाहता है, जिसमें भाईचारा एवं प्रेम का अत्यधिक महत्त्व हो। वह कहता है- “आज का सबसे बड़ा पाप है। आपस की फूट, क्योंकि हमारे जीवन में नैतिकता नहीं है, ईमानदारी नहीं है, सच्ची वीरता नहीं हैं, मानवता नहीं है।”
  6. कर्त्तव्यपरायणता अपने कर्तव्य के प्रति अत्यधिक संवेदनशील रहने वाला दुर्गादास अपने कर्तव्यों का पालन अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी करता है।
  7. सच्ची मित्रता दुर्गादास में सच्ची मित्रता को निभाने तथा ईमानदारी एवं सच्चाई के साथ मित्रता की रक्षा हेतु अपने दायित्व को पूरा करने की भावना भरी हुई है। दुर्गादास का अपने मित्र अकबर द्वितीय के प्रति किया जाने वाला व्यवहार इसका प्रमाण है। वह सफीयत एवं बुलन्द अख्तर को अपने मित्र की पवित्र धरोहर
    मानता है।

इस तरह, दुर्गादास की चारित्रिक विशेषताओं के आधार पर कहा जा सकता है कि वह एक ओर तलवार का धनी था, तो दूसरी ओर उच्च स्तर का मनुष्य भी।।

प्रश्न 14.
‘आन का मान’ नाटक के आधार पर मेहरुन्निसा का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2016)
उत्तर:
श्री हरिकृष्ण ‘प्रेम’ द्वारा रचित नाटक ‘आन का मान’ में ‘मेहरुन्निसा’ औरंगजेब की दूसरी पुत्री है। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित है।

  1. गम्भीर व्यक्तित्व मेहरुन्निसा की आयु चौंतीस-पैंतीस वर्ष है। वह अत्यन्त गम्भीर व्यक्तित्व वाली स्त्री पात्र है, जो अपने पिता औरंगजेब की क्रूर राजनीति के प्रति विचार-विमर्श करती रहती है।
  2. अत्याचार व हिंसा की विरोधी मेहरुन्निसा औरंगजेब द्वारा की गई अपने सगे सम्बन्धियों व अन्य लोगों की हत्या व अत्याचार की विरोधी है।
  3. व्यावहारिक बुद्धि मेहरुन्निसा कहती है कि “स्त्री होने का अर्थ अन्धी होना नहीं है। वह जीनत को बताती है कि सम्राट को अपने एक पुत्र और एक पुत्री के अतिरिक्त शेष सारी सन्तानों का गला घोट देना चाहिए।”
  4. तर्किक व विवेकी मेहरुन्निसा तर्कशील व विवेकी हैं। साम्राज्य के प्रति उसकी मानसिकता भिन्न हैं, जो औरंगजेब की शासन-प्रणाली से उत्पन्न हुई है। उसका मानना है कि “सम्राट यह न करे कि मस्जिदें बनवाए और मन्दिरों को तुड़वाए या मन्दिरों को बनवाए और मस्जिदों को तुड़वाए। उच्च पदों पर धर्म के आधार पर नहीं, योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ करें। सभी धर्मों के अनुयायियों पर समान कर लगाए जाएँ और समान सुविधाएँ उन्हें दी जाएँ।”
  5. ममत्व तथा स्त्रीत्व भाव से ओत-प्रोत मेहरुन्निसा स्त्री होने के साथ-साथ माँ भी है वह कहती हैं “पुत्रियों भले ही जी लें, लेकिन पुत्रों को मरना ही पड़ता है। उनके बड़े होकर मरने से उनकी पत्नियाँ बे-सहारा हो जाती हैं, अपमान सहती हैं, उनके बच्चे अनाथ हो जाते हैं। उन्हें क्यों दण्ड दिया जाए?”

इस प्रकार कहा जा सकता है कि मेहरुन्निसा बुद्धिजीवी, तार्किक व विवेकशील है। उसके हृदय में अपने पिता के प्रति क्रोध और घृणा है, जिस कारण वह अन्त तक औरंगजेब को क्षमा नहीं कर पाती।

प्रश्न 15.
‘आन का मान’ नाटक के आधार पर ‘अजीत सिंह का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2016)
उत्तर:
‘आन का मान’ नाटक में अजीत सिंह स्वर्गीय जसवन्त सिंह का पुत्र है, जिसका पालन-पोषण दुर्गादास ने किया था। अजीत सिंह बीस-वर्षीय नवयुवक है तथा सफीयतुन्निसा के प्रति प्रेम भाव रखता है। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. उत्तेजित स्वभाव अजीत सिंह बीस वर्ष का नवयुवक है, जो सफीयतुन्निसा के प्रति आकर्षित हैं। सफीयत के उपहास करने पर शीघ्र ही अजीत सिंह उत्तेजित होकर कहता है, “राठौर का मस्तक शक्ति के आगे नहीं झुकता।”
  2. सफीयतुन्निसा के प्रति आसक्त अजीत सिंह सफीयत के गीत को सुनकर अत्यन्त भाव-विभोर हो जाता है, क्योंकि वह सफीयतुन्निसा के प्रति आसक्त हैं। वह कहता है, “घबराओं नहीं शहजादी, राजपूत अतिथि का मान-सम्मान करना जानता है। मारवाड़ का बच्चा-बच्चा आपके सम्मान के लिए अपने प्राण न्योछावर करने को प्रस्तुत है।”
  3. संगीत प्रेमी अजीत सिंह संगीत प्रेमी है। वह कहता है कि ‘संगीत में बहुत आकर्षण होता है, विषधर काले नाग को नचाता है भोला-भाला हिरन उस पर मोहित हो अपने प्राण तक गंवा देता है।”
  4. भावुक व्यक्तित्व अजीत सिंह बाल्यावस्था में ही अनाथ हो जाता है, जिस कारण वह स्वयं को अभागा समझता है। “घोड़ों की पीठ ही उसके लिए माँ की गोद रही है, तलवार की झनकार ही उसके माँ की गायी हुई लोरी बनी है। इस स्वभाव से उसकी भावुक प्रवृत्ति का प्रतिपादन हुआ है।
  5. प्रेम के प्रति पूर्णतः समर्पित अजीत सिंह मारवाड़ का राजा बनने वाला है, परन्तु एक मुगल कन्या (सफीयतुन्निसा) से प्रेम करने का साहस कर बैठता है। वह अपने प्रेम के लिए मारवाड़ की राज गद्दी तक को छोड़ने के लिए तैयार हो जाता है।
  6. कृतहन एवं स्वकेन्द्रित अजीत सिंह सफीयत से विवाह करना चाहता था, परन्तु दुर्गादास इसका विरोध करता है। प्रेम के वशीभूत अजीत सिंह अपने पालनहार दुर्गादास का भी अपमान करता है। वह अपने देश, प्रजा व मान की चिन्ता न करके केवल स्वयं के बारे में ही सोचता है। वह दुर्गादास से कहता है कि “मारवाड़ में आप रहेंगे या मैं रहूँगा।”

अन्ततः कहा जा सकता है कि अजीत सिंह शीघ्र उत्तेजित हो उठने वाला अस्थिर चित्त का हठी व्यक्ति है। वह सफीयतुन्निसा से अपनी सम्पूर्ण भावनाओं के साथ स्नेह करता है। इसी स्नेह के उन्माद में वह अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन दिखाई पड़ता है।

प्रश्न 16.
‘आन का मान’ नाटक के किसी प्रमुख नारी पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2017, 16)
उत्तर:
श्री हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ द्वारा रचित ‘आने का मान’ नाटक की प्रमुख नारी पात्र हैं ‘सफीयतुन्निसा’। वह औरंगजेब के पुत्र अकबर (द्वितीय) की पुत्री हैं। सफीयतुन्निसा की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. अत्यन्त रूपवती सफीयतुन्निसा की आयु 17 वर्ष है। वह अत्यन्त रूपवती हैं। वह इतनी सुन्दर है कि नाटक के सभी पात्र उसकी सुन्दरता पर मुग्ध हैं।
  2. संगीत में रुचि वह एक उच्च कोटि की संगीत साधिका है। उसे संगीत में अत्यधिक रुचि है। उसका मधुर स्वर लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता हैं।
  3. वाक्पटु वह अत्यन्त वाक्पटु है। वह विभिन्न परिस्थितियों में अपनी वाक्पटुता का प्रदर्शन करती हैं। उसके व्यंग्यपूर्ण कथने तर्क को कसौटी पर खरे उतरते हैं। उसके कथन मर्मभेदी भी हैं।
  4. शान्तिप्रिय एवं हिंसा विरोधी सफीयतुन्निसा शान्तिप्रिय है। वह चाहती है कि देश में सर्वत्र शान्तिपूर्ण वातावरण हो, सभी देशवासी सुखी और समृद्ध हों। देश में हिंसापूर्ण कार्यों का वह प्रबल विरोध करती है।
  5. देशप्रेमी वह अपने देश से अत्यन्त प्रेम करती है। वह त्याग और बलिदान की भावना से ओत-प्रोत है। देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए वह उद्यत नजर आती है।
  6. आदर्श प्रेमिका सफीयतुन्निसा जोधपुर के युवा शासक अजीत सिंह से प्रेम करती हैं। वह प्रत्येक परिस्थिति में अपना सन्तुलन बनाए रखती हैं। अजीत सिंह के बार-बार प्रेम निवेदन करने पर भी वह विवाह प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है। वह अजीत सिंह को भी धीरज बँधाती है और उसे लोकहित के लिए आत्महित का त्याग करने का परामर्श देती है। वह कहती हैं “महाराज! प्रेम केवल भोग की ही माँग नहीं करता, वह त्याग और बलिदान भी चाहता है।”

इस प्रकार सफीयतृन्निसा एक आदर्श नारी-पात्र है। वह अजीत सिंह से प्रेम करती है, परन्तु राज्य व अजीत सिंह के कल्याण के लिए विवाह के लिए तत्पर दिखाई नहीं देती।

प्रश्न 17.
‘आन का मान’ नाटक के आधार पर औरंगजेब का चरित्र-चित्रण संक्षेप में कीजिए। (2017, 14, 13, 12, 11, 10)
अथवा
‘आन का मान के आधार पर औरंगजेब की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2014, 11)
उत्तर:
‘आन का मान’ नाटक में औरंगजेब के चरित्र को एक खलनायक के रूप में चित्रित किया गया है। धार्मिक दृष्टि से कट्टर मुस्लिम मुगल शासक औरंगजेब इस्लाम के अतिरिक्त अन्य धर्मों के प्रति अत्यन्त संकीर्ण दृष्टिकोण रखता है। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. कट्टरता एवं संकीर्णता औरंगजेब धर्मान्धता के वशीभूत होकर मात्र इस्लाम धर्म को ही मानव के लिए श्रेयस्कर समझता है। अन्य सभी धर्म उसकी दृष्टि में हेय हैं। वह अपनी संकीर्ण धार्मिक विचारधारा से कभी मुक्त नहीं हो पाता है।
  2. निर्दयी एवं नृशंस सत्ता के लोभ में अन्धा औरंगजेब सत्ता प्राप्ति के लिए अपने बड़े भाइयों की हत्या तक कर देता है तथा अपने पिता, पुत्र एवं पुत्री को कैद में डाल देता है।
  3. सादा जीवन यह औरंगजेब के चरित्र का एक उज्ज्वल पक्ष है। सत्ता में रहने के पश्चात् भी वह सुरासुन्दरी से दूर रहता है तथा अपने व्यक्तिगत खर्च के लिए भी वह अपनी मेहनत से कमाई करता है। विलासितापूर्ण जीवन से वह कोसों दूर है तथा सरकारी खजाने पर व्यक्तिगत अधिकार नहीं समझता।
  4. आत्मग्लानि से पीड़ित समय बीतने पर वृद्धावस्था में वह अपने नृशंस कृत्यों एवं अत्याचारों के प्रति ग्लानि महसूस करता है। अपने द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों से वह स्वयं ही दु:खी होता है। वह स्वयं कहता है कि हाथ थक गए हैं बेटी! सिर काटते-काटते।”
  5. सन्तान के प्रति असीम स्नेह वृद्धावस्था में वह भावनात्मक रूप से अत्यन्त कमजोर हो जाता है। अपने जीवन में तलवार के बल पर सभी जगह शासन एवं अत्याचार करने वाला औरंगजेब वृद्धावस्था में अपनी सन्तानों के प्रति स्नेह से विह्वल हो जाता है। वह अपने पुत्र अकबर द्वितीय को गले लगाना चाहता है। अपनी वसीयत में वह अपने पुत्रों से क्षमा करने के लिए लिखता है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि एक कठोर, अन्यायी, क्रूर, नृशंस, कट्टर-धार्मिक एवं हिन्दू धर्म विरोधी शासक औरंगजेब के चरित्र में वृद्धावस्था में परिवर्तन आता है। वह अब एक दयालु एवं स्नेही व्यक्ति के रूप में सामने आता है। नाटककार ने उसके क्रूर स्वभाव के साथ-साथ वृद्धावस्था में परिवर्तित उसके दयालु एवं स्नेही व्यक्तित्व को भी सफलतापूर्वक ‘चित्रित किया है।

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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi नाटक Chapter 1 कुहासा और किरण

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Board UP Board
Textbook SCERT, UP
Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 1
Chapter Name कुहासा और किरण
Number of Questions Solved 15
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi नाटक Chapter 1 कुहासा और किरण

कथावस्तु पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 1.
‘कुहासा और किरण’ नाटक की कथावस्तु अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
‘कुहासा और किरण’ नाटक की प्रमुख घटना का संक्षेप में उल्लेख कीजिए। (2016)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ नाटक में वर्णित सामाजिक समस्याओं का संक्षिप्त परिचय दीजिए। (2016)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ नाटक का सारांश प्रस्तुत कीजिए। (2016)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ नाटक की कथा/कथावस्तुकथानक संक्षेप में लिखिए। (2018, 16, 14, 11)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ का कथासार अपने शब्दों में लिखिए। (2012, 11)
उत्तर:
प्रसिद्ध साहित्यकार विष्णु प्रभाकर द्वारा लिखित ‘कुहासा और किरण नाटक आधुनिक भारतीय समाज की सामाजिक एवं राजनीतिक समस्या को राष्ट्रीय परिवेश में व्यंजित करता हुआ समाज में फैले भ्रष्टाचारियों एवं मुखौटाधारियों पर सीधा कुठाराघात करता है। मुल्तान में हुए वर्ष 1942 के राष्ट्रीय आन्दोलन में स्वतन्त्रता सेनानियों के विरुद्ध मुखबिरी करने वाला कृष्णदेव अपने पाखण्ड़ से स्वयं को कृष्ण चैतन्य नाम से स्वतन्त्रता सेनानी एवं राष्ट्रप्रेमी के रूप में प्रतिष्ठित कर लेता है। सम्पूर्ण नाटक तीन अंकों में विभाजित है। तीन अंकों के अध्ययन के लिए उत्तर 2, 3 व 4 देखें।

प्रश्न 2.
‘कुहासा और किरण’ नाटक के प्रथम अंक की कथा का सार लिखिए। (2017)
उत्तर:
नाटक का आरम्भ कृष्ण चैतन्य के निवास पर अमूल्य और कृष्ण चैतन्य की सचिव (सेक्रेटरी) सुनन्दा के वार्तालाप से होता है। कृष्ण चैतन्य की पष्टिपूर्ति (60वें जन्मदिवस के अवसर पर अमूल्य एवं चैतन्य के अतिरिक्त उमेशचन्द्र, विपिन बिहारी, प्रभा आदि उन्हें बधाई देते हैं। पाखण्डी कृष्ण चैतन्य को राष्ट्र के प्रति सेवाओं के बदले १ 250 मासिक पेंशन मिलती है। वह अनेक प्रकार के गैर-कानूनी कार्य करता है। उसके घृणित कार्यों से तंग आकर ही उसकी पत्नी गायत्री भी उसे छोड़कर अपने भाई के पास चली जाती है। देशभक्त राजेन्द्र के पुत्र अमूल्य से कृष्ण चैतन्य हमेशा सशंकित रहता है। अतः उसे अपने यहाँ से हटाकर विपिन बिहारी के यहाँ हिन्दी साप्ताहिक का सम्पादन करने के लिए नियुक्त कर देने की सूचना देता है।

अमूल्य के रिश्ते की एक बहन प्रभा नारी अधिकार को लेकर लिखे गए अपने उपन्यास को १ चैतन्य के माध्यम से छपवाना चाहती है। मुल्तान षड्यन्त्र केस, जिसमें कृष्ण चैतन्य ने मुखबरी की थी, के दल के नेता डॉ. चन्द्रशेखर की पत्तमालती राजनीतिक पेशन दिलाने का आग्रह करने हेतू कृष्ण चैतन्थ के पास आती है और उसे पहचान लेती हैं। प्रभा एवं मालती के बीच बहस होती है। पुरानी स्मृतियां एवं कलई खुलने के भय से कृष्ण चैतन्य मानसिक रूप से व्याकुल हो जाता है। वहाँ उपस्थित अमूल्य को भी उसकी वास्तविकता का आभास हो जाता है।

प्रश्न 3.
‘कुहासा और किरण’ नाटक के सर्वाधिक आकर्षक स्थल का वर्णन कीजिए। (2016)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ नाटक के द्वितीय अंक की कथा का सारांश (2013, 12, 11)
उत्तर:
‘कुहासा और किरण’ नाटक का सर्वाधिक आकर्षक स्थल द्वितीय अंक में ही समाहित हैं। इस अंक का प्रारम्भ विपिन बिहारी के निजी कक्ष से होता है। विपिन बिहारी पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादक है, जो पत्रिका छापने के लिए मिलने वाले सरकारी कोटे के कागज को ब्लैक करता है। यह ब्लैक मार्केटिंग उमेशचन्द्र अग्रवाल की दुकान से होती है। ये दोनों देश के भ्रष्ट सम्पादकों एवं व्यापारियों के प्रतिनिधि हैं। दोनों का चरित्र आडम्बरपूर्ण एवं कृत्रिम है, जिन्हें एक अन्य भ्रष्टाचारी कृष्ण चैतन्य का संरक्षण प्राप्त है।

अमूल्य द्वारा मुल्तान षड्यन्त्र केस के बारे में जानकारी दिए जाने तथा उसमें कृष्ण चैतन्य की देशद्रोही की भूमिका को पत्रिका के माध्यम से प्रकट करने सम्बन्धी दिए गए सुझाव को विपिन बिहारी अम्वीकार कर देता है। वह कृष्ण चैतन्य के विरुद्ध कुछ भी छापने से मना कर देता है। वह कृष्ण चैतन्य के खिलाफ कुछ भी लिखने में असमर्थता व्यक्त करता है। वह सुनन्दा, प्रभा व अमूल्य को कृष्ण चैतन्य के विरुद्ध कोई भी कार्य न करने के लिए कहता है। इसी बीच वहाँ पुलिस इंस्पेक्टर आकर अमूल्य को पचास रिम कागज ब्लैक में बेचने के अपराध में गिरफ्तार कर लेता है। सुनन्दा और प्रभा कृष्णचैतन्य के इस कुकृत्य पर क्रोधित होती हैं। तभी उमेशचन्द्र आकर उन्हें अमूल्य द्वारा आत्महत्या करने के असफल प्रयास की सूचना देता है। सुनन्दा इस सम्पूर्ण घटना के विषय में गायत्री को सूचित करती है। इस घटना के पश्चात् विपिन बिहारी आत्मग्लानि का अनुभव कर कृष्ण चैतन्य के सम्मुख अपराध के इस मार्ग को छोड़ने की अपनी इच्छा प्रकट करता है, लेकिन वह तैरेंगे हम तीनों, डूबेंगे हम तीनों, कहकर उसका विरोध करता है। इसी बीच गायत्री की कार दुर्घटना में मृत्यु हो जाती हैं। पत्नी की मृत्यु के पश्चात् चैतन्य को आत्मग्लानि होती है। यहीं पर दूसरा अंक समाप्त हो जाता है।

प्रश्न 4.
‘कुहासा और किरण’ नाटक के तृतीय एवं अन्तिम अंक की कथा पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए। (2008, 06)
उत्तर:
कृष्ण चैतन्य अपने निवास पर गायत्री देवी के चित्र के सम्मुख स्तब्ध भाव से बैठे अपनी पत्नी के बलिदान की महानता का अनुभव करता है। सुनन्दा मृत्यु से पूर्व गायत्री देवी द्वारा लिखे गए पत्र की सूचना पुलिस को देकर जीवित व्यक्तियों के मुखौटों को उतारना चाहती है। इसी समय सी. आई.डी. के अधिकारी आते हैं। विपिन बिहारी उन्हें अपने पत्रों के स्वामित्व परिवर्तन की सूचना देता है। प्रभा उन्हें बताती है कि अमूल्य निर्दोष है। कृष्ण चैतन्य कागज की चोरी का रहस्य स्पष्ट करते हुए कहता है कि वास्तव में चोरी की यह कहानी एक जालसाजी थी, क्योंकि अमूल्य उसका राज जान गया था कि वह कृष्ण चैतन्य नहीं, अपितु कृष्णदेव हैं-मुल्तान षड्यन्त्र को मुखबिर। इसके पश्चात् यह विपिन एवं उमेश के भ्रष्टाचार एवं चोरबाजारी का रहस्य भी खोल देता है। सी. आई. डी. के अधिकारी टमटा साहब सभी को अपने साथ ले जाने लगते हैं, तभी पेंशन न मिलने से विक्षिप्त-सी हो गई मालती आकर अपनी पेंशन की बात कहती हैं। कृष्ण चैतन्य अपना सब कुछ मालती को सौंप देता है। कृष्ण चैतन्य के साथ-साथ विपिन बिहारी एवं उमेश अग्रवाल भी गिरफ्तार कर लिए आते हैं तथा निर्दोष होने के कारण अमूल्य को छोड़ दिया जाता है। अमूल्य, प्रभा आदि सभी को अपने अन्तर अर्थात् हृदय के चोर दरवाजों को तोड़ने तथा मुखौटा लगाकर घूम रहे मगरमच्छों को पहचानने का सन्देश देता है। ‘बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाता’ इस कथन के साथ नाटक समाप्त हो जाता है।

प्रश्न 5.
‘कुहासा और किरण’ नाटक के शीर्षक की सार्थकता पर प्रकाश डालिए। (2013, 12, 11, 10)
उत्तर:
प्रस्तुत नाटक के नाटककार का उद्देश्य देश में व्याप्त भ्रष्टाचार की ओर दृष्टिपात करके, उससे देश को बचाकर आदर्श स्थिति की ओर ले जाना तथा देशप्रेम एवं राष्ट्रीय चेतना की रक्षा करने का सन्देश देना है। इसी उद्देश्य के निराशा, भ्रष्टाचार, छद्म के धुन्धले कुहासापूर्ण वातावरण को देशप्रेम, अनुसार कर्तव्यनिष्ठा, आस्था, नवचेतना एवं आचरण की उज्ज्वलता की किरण के प्रकाश से स्वच्छ बना देने में लेखक की आशा एवं आकांक्षा का संकेत मिलता है।

कुहासे के रूप में कृष्ण चैतन्य, विपिन बिहारी, उमेशचन्द्र जैसे पात्र हैं, तो किरण के रूप में अमूल्य, सुनन्दा, प्रभा, गायत्री आदि पात्र हैं। ये भ्रष्टाचार और पाखण्ड के कुहासे को अपने आचरण की किरण से दूर करने के लिए प्रयत्नरत हैं। आज सम्पूर्ण समाज एवं देश को प्रष्टाचार, बेईमानी, पूर्तता आदि के कुहासे ने बुरी तरह आच्छादित कर रखा है, ऐसे में समाज एवं देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने वाले सीमित लोग ही आशा की किरण के रूप में समग्र समाज को एक उचित मार्ग की ओर अग्रसर करते हैं। इस तरह स्पष्ट होता है कि प्रस्तुत नाटक का नाम ‘कुहासा और किरण’ सर्वथा सार्थक है।

प्रश्न 6.
नाट्यकला की दृष्टि से कुहासा और किरण नाटक की समीक्षा कीजिए। (2016)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ नाटक की विशेषताएँ लिखिए। (2018, 17, 16)
अथवा
नाटक के तत्वों की दृष्टि से ‘कुहासा और किरण’ नाटक की समीक्षा कीजिए। (2014, 13, 11, 10)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ नाटक की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। (2014, 12)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ नाटक की कथावस्तु (कथानक) की समीक्षा कीजिए। (2011)
अथना
‘कुहासा और किरण’ नाटक की कथावस्तु की विशेषता बताइए। (2012)
उत्तर:
प्रस्तुत नाटक ‘कुहासा और किरण राष्ट्रीय स्तर पर व्याप्त आधुनिक भारत की सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं को उठाते हुए छद्म व्यक्तित्व, भ्रष्ट आचरण एवं मुखौटा लगाने वाले पाखण्डी लोगों पर सीधा प्रहार करता है। इसमें नाटकीय तत्त्वों के निर्वाह का समुचित ध्यान रखा गया है। प्रस्तुत नाटक का कथानक भारत की सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं से सम्बन्धित है। नाटककार ने वर्ष 1975 के वर्तमान भारत की अनुभूतिपरक प्रत्यक्ष जीवन-घटनाओं से कथानक का चयन किया है।

नाटक का कथानक तीन अंकों एवं छः दृश्यों में अत्यन्त कलात्मक ढंग से विकसित हुआ है। नाटक की कथावस्तु का आधार एक सत्य घटना है, जिसे यथार्थ एवं कल्पना के सरल सामंजस्य से नाटककार ने कृष्ण चैतन्य की कहानी का रूप देकर संजोया है। प्रधान कथावस्तु के रूप में अमूल्य की जीवन कहानी है, जो कण चैतन्य की कहानी के माध्यम से अन्य कशास्त्रों को साथ लेकर चलती है। कृष्ण चैतन्य का कृत्रिम एवं आडम्बरपूर्ण जीवन अस्तुतः निष्ठावान अमूल्य एवं स्वतन्त्रता सेनानियों के सम्मुख तुच्छ एवं तिरस्कारणीय है। मुख्य विषय-वस्तु के साथ अनेक प्रासंगिक कथाओं को बड़े सुचारु एवं संगठित रूप से जोड़ा गया है।

लेखक ने घातै प्रतिघात, उतार-चढ़ाव के आधार पर कथावस्तु का प्रारम्भ, विकास एवं अन्त अत्यन्त कौशल से संयोजित किया है। सामाजिक जीवन की समस्याओं के साथ ऐतिहासिक घटनाओं का सामंजस्य कथानक की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। स्वाभाविकता, रोचकता, यथार्थता, सुसम्बद्धता आदि सभी गुणों की दृष्टि से नाटक का कथानक परिपूर्ण है और उसमें आज के जीवन की प्रत्यक्ष झाँकी हैं। कथानक की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता उसकी प्रतीकात्मकता है। एक ओर देश एवं समाज के लिए सर्वस्व न्योछावर कर देने वालों की करुण कहानी है, तो दूसरी ओर समाज के पाखण्डी नेताओं, होगी सम्पादकों तथा पूँजीपतियों एवं व्यापारियों की कुत्सित योजनाएँ।

प्रश्न 7. :देशकाल और वातावरण की दृष्टि से ‘कुहासा और किरण’ नाटक की समीक्षा कीजिए। (2011)
उत्तर:
परिस्थितियों, प्रवृत्तियों, समस्याओं एवं विविध प्रश्नों का अंकन देशकाल तथा वातावरण के अन्तर्गत ही यथार्थ रूप से सम्भव हो सकता है। यह नाटक के आधार-तत्त्वों में प्रमुख घटक है। प्रस्तुत नाटक में देशकाल का अत्यन्त सुन्दर एवं पूर्णरूप से निर्वाह किया गया है। नाटक का सम्पूर्ण कथानक, घटनाएँ एवं पात्र वर्तमान युग की प्रवृत्तियों, परम्पराओं, दुर्बलताओं, विशिष्टताओं एवं यथातथ्य वातावरण से पूर्णतया अनुप्राणित हैं। प्रस्तुत नाटक में वर्तमान काल की सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करते हुए देश में व्याप्त भ्रष्टाचारियों, मुखबिरों, चोरबाजारियों आदि का वास्तविक निरूपण किया गया है। तथा स्वतन्त्रता सेनानियों के परिवार, पुत्र, पत्नी आदि की दीन-हीन दशा का वर्णन किया गया है।

नाटक में घटित होने वाली अधिकांश घटनाएं आज भी हमारे दैनिक जीवन में सामान्य रूप से घटित होती है। नाटक में सामाजिक व्यंग्य का पुट सर्वत्र विद्यमान है, जो भ्रष्टाचारियों एवं मखौटाधारियों पर सीधा प्रहार करता है। पूजा-पाठ में संलग्न रहने वाले, समाज एवं देश-सेवा का तथाकथित व्रत लेने वाले पाखण्डी नेता, पाँच-पाँच पत्र निकालने की खानापूर्ति कर सरकारी कोटे में मिले कागज को ब्लैक करने वाले सम्पादक-प्रकाशक, 11-11 छद्म संस्थाओं के संचालक, भ्रष्टाचारी व्यापारियों आदि का अत्यन्त सजीव चित्रण इस नाटक को प्रामाणिक बनाता है। कुल मिलाकर नाटक में युग के वातावरण, समाज एवं देश की शोचनीय एवं दयनीय दशा की स्पष्ट झलक मिलती है।

प्रश्न 8.
‘कुहासा और किरण’ का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए। (2014, 13, 12, 10)
अथवा
नाटक ‘कुहासा और किरण’ का प्रतिपाद्य क्या है? नाटक के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
‘कुहासा और किरण’ नाटक में नाटककार का एक प्रत्यक्ष उद्देश्य है-आधुनिक भारत की सामाजिक एवं राजनीतिक समस्या को राष्ट्रीय परिवेश में स्पष्ट करके भ्रष्ट आचरण और मुखौटाधारियों पर सीधा कुठाराघात करना। वह कृष्ण चैतन्य, उमेशचन्द्र, विपिन बिहारी, सुनन्दा, प्रभा और मालती की जीवन-घटनाओं को आधार बनाकर अमूल्य की करुण कहानी के माध्यम से समाज के तथाकथित नेताओं, सम्पादकों तथा व्यापारियों के पाखण्ड एवं छद्मवेश का भण्डाफोड़ करता है। इसी कारण नाटक में सामाजिक व्यंग्य का पुट सर्वत्र विद्यमान है। भ्रष्टाचारियों के मुखौटे को बेनकाब करना, मुखबिरों के रहस्य को खोलना, व्यक्ति के हृदय में व्याप्त चोर-दरवाजों को तोड़ना ही नाटक का उद्देश्य है, जिसे लेखक विभिन्न पात्रों के कथन में स्थान-स्थान पर स्पष्ट रूप से व्यक्त करता है। इस प्रकार, नाटककार का उद्देश्य देश में व्याप्त भ्रष्टाचार की ओर ध्यान आकृष्ट करके उससे देश को बचाकर आदर्श स्थिति की ओर ले जाना तथा देशप्रेम एवं राष्ट्रीय चेतना की रक्षा करने का सन्देश देना है।

प्रश्न 9.
‘कुहासा और किरण’ नाटक के कथोपकथन (संवाद योजना) को संक्षेप में लिखिए। (2013, 12, 11, 10)
उत्तर:
नाटक का मूल विधायक तत्त्व माने जाने वाले संवाद के अभाव में नाटक का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। विषय-वस्तु के विकास के साथ पात्रों के चरित्र चित्रण में संवाद ही सहायक होते हैं। कथोपकथन को चारुता तथा कलात्मकता से नाटक के रचना विधान एवं कार्यक्षमता में एक प्रबल शक्ति आती है। प्रस्तुत नाटक ‘कुहासा और किरण’ में संवाद अत्यन्त स्वाभाविक, पात्रानुकूल एवं गतिशील हैं। छोटे एवं संक्षिप्त संवादों में पात्रों की मानसिक स्थिति, चरित्र और भावों के उतार-चढ़ाव का बोध होता है। कृष्ण चैतन्य, उमेशचन्द्र तथा विपिन बिहारी के संवाद उनके दोहरे व्यक्तित्व की स्पष्ट व्यंजना करते हैं। पात्रों के वार्तालाप से राजनीतिक तथ्य, सामाजिक भ्रष्टाचार एवं छद्मवेशी व्यक्तियों का चरित्र प्रकट होता है। कृष्ण चैतन्य तथा विपिन बिहारी के स्वगत कथन भी अत्यन्त मार्मिक है, जिनसे उनके हृदय का अन्तर्द्वन्द्व व्यक्त होता है। इस नाटक के संवादों में सामाजिक व्यंग्य एवं कटूक्तियाँ भी प्रचुर हैं।
जैसे—
टमटा: मेरा काम तो सत्य की खोज हैं।
प्रभा: सत्य को खोज लेते हैं आप?
टमटा: यथाशक्ति।
प्रभा: ईमानदारी से?
इस प्रकार, संवादों में सर्वत्र सजीवता, मनोवैज्ञानिकता, पात्रानुकूलता एवं गतिशीलता विद्यमान है। लेखक की वाक्पटुता, गहन अनुभूति, युगबोध, भाषा पर अधिकार, विचारों की स्पष्टता एवं कलात्मक अभिरुचि इस नाटक के संवाद-कौशल में स्पष्ट रूप से परिलक्षित हैं।

प्रश्न 10.
‘कुहासा और किरण’ नाटक की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए। (2013, 11, 10)
उत्तर:
किसी नाटक का वस्तु-संगठन, उसके पात्रों की सजीवता, वातावरण की वास्तविकता एवं उद्देश्य की स्पष्टता नाटक की भाषा-शैली से ही अभिव्यंजित होती है। प्रस्तुत नाटक ‘कुहासा और किरण की भाषा अत्यन्त स्वाभाविक, पात्रानुकूल एवं विषय के अनुरूप है। सहज, सरल, बोल-चाल की भाषा नाटक में प्रभावोत्पादकता उत्पन्न करती है। इस नाटक में लेखक ने सरल भाषा को प्रधानता दी हैं। भाषा को सक्षमता एवं भावानुरूपता सर्वत्र प्रशंसनीय है। आत्मचिन्तन के क्षणों में कृष्ण चैतन्य की दार्शनिक भाषा तथा आम आदमी की जनभाषा में अन्तर पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है। नाटक में प्रतीकात्मक शैली और सुन्दर उक्तियों का भी प्रयोग हुआ है, जिससे नाटकीय सौन्दर्य में अभिवृद्धि हुई हैं। व्यंग्यात्मकता एवं मुहावरों के प्रयोग से भी भाषा में वक्रता, चुटीलापन एवं तीव्रता आ गई हैं।

भावावेश के समय बोलचाल की भाषा में अंग्रेजी के वाक्य एवं शब्दों का व्यवहार भी किया गया है। इससे नाटक में यथार्थता आ गई है। नाटक की रचना-शैली भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्य कला को सम्मिश्रण है। नाटककार रंग-संकेतों एवं निर्देशों का विधान करने में अत्यन्त पटु हैं। कथावस्तु के विकास में प्रारम्भ, विकास, चरम सीमा आदि को यथास्थल प्रवेश मिलता है। एक-दो स्थानों पर गति-योजना भी की गई है। इस प्रकार, नाटक की भाषा शैली, नाटक की। कथा, विषय, पात्र, उद्देश्य आदि के अनुकूल, सार्थक एवं प्रभावोत्पादक कही जा सकती है।

प्रश्न 11.
अभिनेयता (रंगमंचीयता) की दृष्टि से ‘कुहासा और किरण” नाटक की समीक्षा कीजिए। (2018, 11, 10)
उत्तर:
किसी भी नाटक की पूर्ण सफलता उसके सरलतापूर्वक अभिनीत होने में ही विद्यमान है। इस नाटक की रचना रंगमंच एवं अभिनय के समस्त आधुनिक तत्त्वों एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही की गई है। दृश्य योजना, रंग सज्जा, प्रकाश आदि का मुचारु रुप से प्रयोग किया गया हैं। रंगमंच की अनुकूलता के लिए संक्षिप्त एवं रोचक कथावस्तु, घटनाओं का उचित सगुंफन, पात्रों की सीमित संख्या, चरित्र का स्वाभाविक विकास, यथार्थता एवं सजीवता, संवाद की पिता, पात्रानुकुलता, गतिशीलता, स्वाभाविक भाषा शैली, देशकाल, वातावरण का पास्तविक प्रतिबिम्ब, उद्देश्य की स्पष्ट व्यंजना आदि गुण अपेक्षित हैं। प्रस्तुत नाटक ‘कुहासा और किरण’ में वे सभी गुण समाविष्ट हैं, जो उसे रंगमंचीय पूर्णता प्रदान करते हैं। सम्पूर्ण नाटक तीन अंकों में विभक्त है, जो आकार में उत्तरोत्तर छोटे होते गए हैं। रंग-संकेत. मंच-सज्जा, वातावरण का स्पष्टीकरण, पात्रों के व्यक्तित्व आदि को लेखक आवश्यकतानुसार स्पष्ट करता चलता है। लेखक ने संकलन अय, (विषय-वस्तु, स्थल एवं काल) का समुचित निर्वाह किया है। संकलन-त्रय के कारण नाटक की अभिनेयता में गतिशीलता आ जाती हैं। इस प्रकार, प्रस्तुत नाटक केवल नाटकीय तत्त्वों की दृष्टि से ही उत्तम नाटक नहीं हैं, अपितु अभिनेयता की दृष्टि से भी पूर्ण सफल नाटक हैं।

‘कुहासा और किरण’ नाटक में दोनों प्रकार के पात्रों का संघटन किया गया है। प्रत्यक्ष रूप से नाटक में 11 पात्र हैं, जो प्रायः समाज के सभी प्रमुख वर्गों के प्रतिनिधि कहे जा सकते हैं। प्रधान पात्रों में अमूल्य, कृष्ण चैतन्य, गायत्री, उमेशचन्द्र अग्रवाल, विपिन बिहारी एवं सुनन्दा हैं, जबकि गौण पात्रों में प्रभा, मालती, पुलिस इंस्पेक्टर, टमटा, आम आदमी उल्लेखनीय हैं। सिपाही एवं दर्शक अप्रत्यक्ष पात्रों की श्रेणी में आते हैं। सभी पात्रों में अपने घर्ग विशेष की मूल विशेषताएँ होते हुए भी अपना निजी व्यक्तित्व एवं वैशिष्ट्य भी निहित है। उनमें संस्कार एवं परिस्थितियों से संघर्ष करने की प्रवृत्ति निहित हैं। वे गतिशील एवं जीवन्त पात्र हैं। आम आदमी, पुलिस इंस्पेक्टर, टमटा आदि स्थिर पात्र हैं, जिनके चरित्र का सीमित रूप ही लक्षित होता है। अन्य सभी पात्रों में गतिशीलता दिखती हैं।

पात्र एवं चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 12.
‘कुहासा और किरण’ नाटक के आधार पर नायक का चरित्रांकन कीजिए। (2018)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ के प्रमुख पात्रों का उल्लेख करते हुए किसी एक पात्र के चरित्र की विशेषताएँ बताइए। (2018)
अथवा
कुहासा और किरण के आधार पर किसी ऐसे पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए, जिसने आप को सबसे अधिक प्रभावित किया हो। (2017)
अथवा
नाटक के नायक की विशेषताओं के आधार पर ‘कुहासा और किरण’ के नायक का मूल्यांकन कीजिए। (2016)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ नाटक के नायक का चरित्रांकन कीजिए। (2017, 16)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ नाटक में अमूल्य के चारित्रिक-वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए। (2014, 13, 12, 11, 10)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ नाटक के प्रमुख पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2018, 17, 16, 15, 14)
उत्तर:
कथा संगठन, पात्र-विशिष्टता, उद्देश्य और सन्देश की दृष्टि से प्रधान पात्र अमूल्य है, जो उस पीढ़ी का प्रतिनिधि है, जिसका जन्म भारत की स्वतन्त्रता के साथ या बाद में हुआ तथा जिसके पिता राजेन्द्र ने मुल्तान षड्यन्त्र केस में 15 वर्ष की कठोर जेल यातना सहकर अपने जीवन को देश के लिए बलिदान कर दिया। नाटक के केन्द्रीय पात्र अमूल्य के चरित्र की निम्न विशेषताएँ हैं।

  1. देशभक्ति अमूल्य के व्यक्तित्व में अपने पिता से विरासत में मिली देशभक्ति का गुण कूट कूटकर भरा है। उसका मानना है कि देश का स्थान सबसे ऊपर है, जिसे किसी भी स्थिति में कलंकित नहीं होने देना चाहिए।
  2. कर्तव्यपरायणता अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक अमूल्य किसी भी काम को पूरी निष्ठा एवं परिश्रम के साथ सम्पन्न करता है।
  3. सत्यवादिता कृष्ण चैतन्य जैसे व्यक्ति के संसर्ग में आने के पश्चात् भी वह अपनी ईमानदारी एवं सच्चाई पर कोई आंच नहीं आने देता।।
  4. निर्भकता एवं साहसीपन अपनी निर्भीकता का परिचय देते हुए वह सबके सामने विपिन बिहारी को बेईमान कहता है।
  5. आदर्श मार्गदर्शक अमूल्य का व्यक्तित्व आधुनिक युवावर्ग के लिए एक आदर्श मार्गदर्शक का है। वह भ्रष्ट आचरण करने वालों तथा मुखौटों को ओढ़कर अपनी नीचता को छिपाने वाले लोगों को बेनकाब करता है।

इस प्रकार कहा जा सकता हैं कि नाटक का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं जीवन्त पात्र अमूल्य अष्टाचार एवं निराशापूर्ण कुहासे को भेदकर कर्तव्यनिष्ठा, दृढ़ता, सत्यवादिता, देशभक्ति, निर्भीकता आदि जैसी किरणों से समाज को आलोकित करना चाहता है।

प्रश्न 13.
‘कुहासा और किरण’ के आधार पर सुनन्दा के चरित्र का मूल्यांकन कीजिए। (2018)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ की नायिका सुनन्दा का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2016)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ नाटक के प्रमुख नारी पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2018, 13, 11, 10)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ नाटक के आधार पर सुनन्दा की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। (2018, 16, 13, 11, 10)
उत्तर:
विष्णु प्रभाकर द्वारा रचित ‘कुहासा और किरण’ नाटक की सर्वाधिक प्रमुख नारी पात्र सुनन्दा दुरदर्शी, साहसी, चतुर (चालाक), विनोदी, कर्तव्यपरायण, दृढ़संकल्पित एवं कर्मशील युवती है।। सुनन्दा की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं–

  1. भ्रष्टाचारियों एवं मुखौटाधारियों की विरोधी सुनन्दा का व्यक्तित्व ईमानदारी एवं कर्तव्यनिष्ठा से भरपूर है। वह भ्रष्टाचार को समाप्त करने तथा पाखण्डियों का रहस्य खोलने में अन्त तक अमूल्य का साथ देती हैं।
  2. जागरूकता को महत्त्व जागरूकता को महत्त्वपूर्ण मानने वाली सुनन्दा समाचार पत्रों के महत्त्व एवं उनमें निहित शक्ति को समझती है।
  3. वाकपटुता सुनन्दा के व्यक्तित्व का अत्यन्त विशिष्ट पक्ष उसकी बापटुता है। उसकी व्यंग्यों से भरी वाक्पटुता गलत मार्ग पर जा रहे लोगों को सही मार्ग पर लाने तथा उनकी आत्मा को झकझोरने में काफी हद तक सफल रहती है।
  4. सहदयता सुनन्दा अमूल्य की विवशता को समझती है। वह अमूल्य को फंसाए जाने का विरोध करते हुए अन्याय से जूझने के लिए तत्पर है। नारी सुलभ गुणों के साथ-साथ उसमें युगानुरूप चेतना एवं जागृति का भाव भी। लक्षित है।

इस तरह, कहा जा सकता है कि सुनन्दा एक प्रगतिशील, व्यवहार कुशल, दृढ़ इच्छाशक्ति, देशप्रेमी एवं तार्किक-बौद्धिक क्षमतावाली नवयुवती है, जो समाज को बेहतर बनाने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करती है।

प्रश्न 14.
‘कुहासा और किरण’ के आधार पर गायत्री देवी का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2010)
उत्तर:
विष्णु प्रभाकर द्वारा रचित नाटक ‘कुहासा और किरण’ में गायत्री देवी पाखण्ट्री कृष्ण चैतन्य की पत्नी है, जिसमें सामान्य नारी सुलभ गुण-दोष विद्यमान हैं। वह अपने पति कृष्ण चैतन्य के कपटपूर्ण व्यवहार का विरोध करती हैं। गायत्री देवी की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. अन्तरात्मा को महत्त्व गायत्री अपने पति कृष्ण चैतन्य के पाखण्डी व्यक्तित्व का समर्थन नहीं करने के पश्चात् भी प्राप्त होने वाले यश, प्रतिष्ठा एवं समृद्धि का लोभ त्याग नहीं पाती, लेकिन मुल्तान षड्यन्त्र केस के देशभक्तों के दल के नेता डॉ. चन्द्रशेखर की पत्नी मालती को देखने के पश्चात् वह अन्तरात्मा की आवाज पर अपने पति का घर छोड़ देती है। अन्तरात्मा की आवाज सुनकर ही वह अमूल्य पर किए जाने वाले अत्याचार या उसे फंसाने के लिए बुने गए जालके विरुद्ध स्वयं का उत्सर्ग कर देती है और अपने पति को एक तरह से दण्डित करती है।
  2. साहित्य-प्रेमी गायत्री को साहित्य एवं समाज के परस्पर सम्बन्ध का पर्याप्त ज्ञान है। वह एक विदुषी हैं। वह प्रभा के उपन्यास की सूक्ष्म आलोचना करती है तथा उसमें भ्रष्टाचारियों एवं मुखबिरों की कलई खोलने के लिए सुझाव देती है।
  3. भावुक हदय भावुक हदय की स्वामिनी गायत्री अमूल्य को झूठे मामले में फँसाने के अपने पति के कृत्य को सह नहीं पाती और व्याकुल होकर आत्महत्या के मार्ग को चुन लेती है।
  4. पति के हदय परिवर्तन में सहायक वह अपने पति को उचित मार्ग पर लाने हेतु स्वयं का बलिदान कर देती है। गायत्री की मृत्यु के बाद कृष्ण चैतन्य को यथार्थ में हृदय परिवर्तन हो जाता है और वह अपने अपराध को स्वीकार कर लेता है।

इस तरह, गायत्री एक सच्ची भारतीय नारी को प्रतिबिम्बित करती है, जो आत्म-बलिदान करके अपने पति को सही मार्ग पर लाने में सफल होती है। अपनी कमियों के बावजूद वह सम्मान एवं श्रद्धा की अधिकारिणी बन जाती है।

प्रश्न 15.
‘कुहासा और किरण’ के आधार पर कृष्ण चैतन्य का चरित्र-चित्रण कीजिए। (2011, 10)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ नाटक का खलनायक कौन है? उसकी , चरित्रगत विशेषताएँ बताइए। (2010)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ नाटक के आधार पर कृष्ण चैतन्य के चरित्र का मूल्यांकन कीजिए। (2014, 11)
अथवा
‘कुहासा और किरण’ के आधार पर चैतन्य की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2014)
उत्तर:
‘कुहासा और किरण’ नाटक में कृष्ण चैतन्य एक खलनायक के रूप में उभरकर सामने आता है। नाटककार ने कृष्ण चैतन्य के माध्यम से आज के पाखण्डी एवं आडम्बरपूर्ण जीवन जीने वाले भ्रष्ट नेताओं की कलई खोली है। चैतन्य की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. देशद्रोही एवं कपटी कृष्ण चैतन्य मुल्तान षड्यन्त्र केस में मुखबिर बनकर अपनी जान की रक्षा करता है तथा अपने साथियों की मृत्यु का कारण बनता है। वह अपनी जान बचाने के लिए अपने साथियों को फंसा देता है, जिससे उन सभी की असामयिक मृत्यु हो जाती है। उसका चरित्र कृत्रिम एवं आडम्बरपूर्ण है। देशभक्ति का चोला पहनकर वह सरकार एवं जनता को धोखा देता है।
  2. भ्रष्टाचारी वह भ्रष्ट नेता है, जो लोगों को ब्लैकमेल करता है। यह विपिन बिहारी एवं उमेशचन्द्र के साथ मिलकर भ्रष्टाचार में लिप्त रहता है।
  3. दूरदर्शिता अपनी दूरदर्शिता के कारण ही वह अपना नाम परिवर्तित करके कृष्णदेव रखता है। विपिन बिहारी के यहां अमूल्य को नियुक्त करवाकर उसे फँसाना, उसकी दूरदर्शिता का ही परिणाम था।
  4. आत्मपरिष्कार की भावना पत्नी गायत्री देवी का बलिदान उसमें प्रायश्चित का भाव उत्पन्न कर देता है। वह अपने अपराधों को स्वीकार करके अपने दुष्कृत्यों से सभी को परिचित कराता है। इस प्रकार, कृष्ण चैतन्य का व्यक्तित्व कुछ विरोधाभासी गुणों से युक्त है और मूलतः उसमें धूर्तता छिपी है।।

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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi पद्य Chapter 9 पुरूरवा / उर्वशी / अभिनव-मनुष्य

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Board UP Board
Textbook SCERT, UP
Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 9
Chapter Name पुरूरवा / उर्वशी / अभिनव-मनुष्य
Number of Questions Solved 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi पद्य Chapter 9 पुरूरवा / उर्वशी / अभिनव-मनुष्य

पुरूरवा / उर्वशी / अभिनव-मनुष्य – जीवन/साहित्यिक परिचय

(2018, 17, 16, 15, 14, 13, 12, 11, 10)

प्रश्न-पत्र में संकलित पाठों में से चार कवियों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं।
जिनमें से एक का उत्तर देना होता है। इस प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ
राष्ट्रीय भावनाओं के ओजस्वी कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया गाँव में 30 सितम्बर, वर्ष 1908 को हुआ था। वर्ष 1932 में पटना कॉलेज से बी.ए. किया और फिर एक स्कूल में अध्यापक हो गए। वर्ष 1950 में इन्हें मुजफ्फरपुर के स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिन्दी विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। वर्ष 1952 में इन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया।

वर्ष 1972 में इन्हें ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। 24 अप्रैल, 1974 को हिन्दी काव्य गगन का यह दिनकर हमेशा के लिए अस्त हो गया।

साहित्यिक गतिविधियाँ
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ छायावादोत्तर काल एवं प्रगतिवादी कवियों में सर्वश्रेष्ठ कवि थे। दिनकर जी ने राष्ट्रप्रेम, लोकप्रेम आदि विभिन्न विषयों पर काव्य रचना की। उन्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की।

एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को औजस्वी और प्रखर शब्दों का तानाबाना दिया। ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी रचना उर्वशी की कहानी मानवीय प्रेम, वासना और सम्बन्धों के इर्द-गिर्द घूमती हैं।

कृतियाँ
दिनकर जी ने काव्य एवं गद्य दोनों क्षेत्रों में सशक्त साहित्य का सृजन किया। इनकी प्रमुख काव्य रचनाओं में रेणुका, रसवन्ती, हुँकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, नील कुसुम, चक्रवाल, सामधेनी, सीपी और शंख, हारे को हरिनाम आदि शामिल हैं। संस्कृति के चार अध्याय’ आलोचनात्मक गद्य रचना है।

काव्यगत विशेषताएँ
भाव पक्ष

  1. राष्ट्रीयता का स्वर राष्ट्रीय चेतना के कवि दिनकर जी राष्ट्रीयता को सबसे बड़ा धर्म समझते हैं। इनकी कृतियाँ त्याग, बलिदान एवं राष्ट्रप्रेम की भावना से परिपूर्ण हैं। दिनकर जी ने भारत के कण-कण को जगाने का प्रयास किया। इनमें दय एवं बुद्धि का अद्भुत समन्वय था। इसी कारण इनका कवि रूप जितना सजग है, विचारक रूप उतना ही प्रखर है।
  2. प्रगतिशीलता दिनकर जी ने अपने समय के प्रगतिशील दृष्टिकोण को अपनाया। इन्होंने उजड़ते खलिहानों, जर्जरकाय कृषकों और शोषित मजदूरों के कार्मिक चित्र अंकित किए हैं। दिनकर जी की ‘हिमालय’, ‘ताण्डव’, ‘बोधिसत्व’, ‘कस्मै दैवाय’, ‘पाटलिपुत्र की गंगा’ आदि रचनाएँ प्रगतिवादी विचारधारा पर आधारित
  3. प्रेम एवं सौन्दर्य ओज एवं क्रान्तिकारिता के कवि होते हुए भी दिनकर जी के अन्दर एक सुकुमार कल्पनाओं का कवि भी विद्यमान है। इनके द्वारा रचित काव्य ग्रन्थ ‘रसंवन्ती’ तो प्रेम एवं श्रृंगार की खान है।
  4. रस-निरूपण दिनकर जी के काव्य का मूल स्वर ओज हैं। अतः ये मुख्यतः वीर रस के कवि हैं। श्रृंगार रस का भी इनके काव्यों में सुन्दर परिपाक हुआ है। वीर रस के सहायक के रूप में रीढ़ रस, जन सामान्य की व्यथा के चित्रण में करुण ररा और वैराग्य प्रधान स्थलों पर शान्त रस का भी प्रयोग मिलता है।

कला पक्ष

  1. भाषा दिनकर जी भाषा के मर्मज्ञ हैं। इनकी भाषा सरल, सुबोध एवं व्यावहारिक है, जिसमें सर्वत्र भावानुकूलता का गुण पाया जाता है। इनकी भाषा प्रायः संस्कृत की तत्सम शब्दावली से युक्त है, परन्तु विषय के अनुरूप इन्होंने न केवल तद्भव अपितु उर्दू, बांग्ला और अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों का भी प्रयोग किया है।
  2. शैली ओज एवं प्रसाद इनकी शैली के प्रधान गुण हैं। प्रबन्ध और मुक्तक दोनों ही काव्य शैलियों में इन्होंने अपनी रचनाएँ सफलतापूर्वक प्रस्तुत की हैं। मुक्तक में गीत मुक्तक एवं पात्य मुक्तक दोनों का ही समन्वय हैं।
  3. छन्द परम्परागत छन्दों में दिनकर जी के प्रिय छन्द हैं गीतिका, सार, सरसी, हरिगीतिका, रोला, रूपमाला आदि। नए छन्दों में अतुकान्त मुक्तक, चतुष्पदी आदि का प्रयोग दिखाई पड़ता है।। प्रीति इनका स्वनिर्मित छन्द है, जिसको प्रयोग ‘रसवन्ती’ में किया गया है। कहीं-कहीं लावनी, बहर, गजलं जैसे लोक प्रचलित छन्दै भौं प्रयुक्त हुए हैं।
  4. अलंकार अलंकारों का प्रयोग इनके काव्य में चमत्कार-प्रदर्शन के लिए नहीं, बल्कि कविता की व्यंजन शक्ति बढ़ाने के लिए या काव्य की शोभा बढ़ाने के लिए किया गया है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, व्यतिरेक, उल्लेख, मानवीकरण आदि अलंकारों का प्रयोग इनके काव्य में स्वाभाविक रूप में हुआ है।

हिन्दी साहित्य में स्थान
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की गणना आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ कवियों में की जाती है। विशेष रूप से राष्ट्रीय चेतना एवं जागृति उत्पन्न करने वाले कवियों में इनका विशिष्ट स्थान है। ये भारतीय संस्कृति के रक्षक, क्रान्तिकारी चिन्तक, अपने युग का प्रतिनिधित्व करने वाले हिन्दी के गौरव हैं, जिन्हें पाकर हिन्दी साहित्य वास्तव में धन्य हो गया।

पद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-पत्र में पद्य भाग से दो पद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर देने होंगे।

पुरूरवा

प्रश्न 1.
सामने टिकते नहीं वनराज, पर्वत डोलते हैं,
काँपता है कुण्डली मारे समय का व्याल,
मेरी बाँह में मारुत, गरुड़ गजराज का बल है।
मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,
उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं ।
अन्ध तम के भाल पर पावक जलाता हूँ,
बादलों के सीस पर स्यन्दन चलाता हूँ।

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) नायक अपना परिचय देते हुए क्या कहता है?
उत्तर:
नायक अपने बल, शक्ति और सामर्थ्य का उल्लेख करते हुए उर्वशी से कहता है कि उसके बल के समक्ष सिंह भी नहीं टिकते, पर्वत व समय रूपी सर्प भी भयभीत हो उठते हैं। उसकी बाहों में पवन, गरुड़ व हाथी जितना बल है। वह सूर्य के समान प्रकाशवान हैं, जो अन्धकार को मिटाता है। वह निर्बाध गति से कहीं भी आ-जा सकता है।

(ii) “म मानव की विजय का तुर्य हूँ मैं” पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पुरूरवा अपनी सामर्थ्य का प्रदर्शन करते हुए उर्वशी से कहता है कि वह मरणशील व्यक्ति में भी विजय का शंखनाद कर सकता है अर्थात् वह मरणशील व्यक्तियों में भी उत्साह, जोश एवं उमंग का संचार कर सकता है।

(iii) पुरुरवा स्वयं की तुलना किससे करता है?
उत्तर:
पुरूरवा स्वयं की तुलना विश्व को प्रकाशित करने वाले सूर्य से करते हुए कहता है कि वह मानव जीवन में छाए घोर अन्धकार को दूर करने वाली प्रचण्ड अग्नि के समान है।

(iv) पद्यांश के शिल्प-सौन्दर्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
काव्यांश में कवि ने तत्सम शब्दावली युक्त खड़ी बोली का प्रयोग किया है। प्रबन्धात्मक शैली का प्रयोग करते हुए कवि ने लक्षणा शब्द-शक्ति में कय को प्रस्तुत किया है। पुरुरवा की शक्ति का वर्णन करने के लिए वीर रस का प्रयोग किया गया है। अनुप्रास, उपमा, रूपक व अतिशयोक्ति अलंकारों का प्रयोग करके काव्य में सौन्दर्य बढ़ गया है।

(v) प्रस्तुत पद्यांश के कवि व कविता का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश राष्ट्रवादी कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित कविता ‘पुरूरवा’ से उद्धृत किया गया है।

प्रश्न 2.
पर, न जानें बात क्या है!
इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है,
सिंह से बाँहें मिला कर खेल सकता है,
फूल के आगे वही असहाय हो जाता,
शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता।
विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से,
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से।

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) प्रस्तुत पद्यांश में नायक आश्चर्यचकित क्यों है?
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में नायक इस तथ्य के विषय में सोचकर आश्चर्यचकित है कि जो पुरुष रणभूमि में इन्द्र के वज्र का सामना कर सकता है, जो शेर से युद्ध करने से भी नहीं घबराता, वह आखिरकार क्यों कोमल, सरल व मृदुल नारी के समक्ष नतमस्तक हो जाता है।

(ii) पद्यांश में नारी के किस गुण को उद्घाटित किया गया है?
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने नारी के कोमल होने के उपरान्त भी कठोर, बलशाली व शक्ति सम्पन्न पुरुष को स्वयं के आगे नतमस्तक कर देने के गुण को उद्घाटित किया है। कवि कहता है कि जो पुरुष अपने बल एवं सामर्थ्य से सम्पूर्ण जगत पर शासन करता है, उसी पुरुष पर नारी अपने सौंदर्य से शासन करती हैं।

(iii) प्रस्तुत पद्यांश का केन्द्रीय भाव लिखिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश के द्वारा कवि यह स्पष्ट करना चाहता है कि कोमलता व रूप सौन्दर्य का आकर्षण कठोर-से-कठोर हृदय के व्यक्ति को भी अपने मोहपाश में बाँध लेता है और उसके समक्ष व्यक्ति विवश होकर कुछ नहीं कर पाता।

(iv) प्रस्तुत पद्यांश की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने तत्सम शब्दावली युक्त खड़ी बोली का प्रयोग किया है। भाषा सहज, प्रवाहमयी व प्रभावोत्पादक है। पद्यांश की शैली प्रबन्धात्मक है। अर्थात् प्रत्येक पद कथ्य को आगे बढ़ाने में सहायक है।

(v) इन्द्र’ व ‘सिंह’ शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखिए।
उत्तर:

शब्द पर्यायवाची शब्द
इन्द्र सुरपति, देवराज
सिंह शार्दुल, मृगराज

उर्वशी

प्रश्न 3.
कामना-वह्नि की शिखा मुक्त मैं अनवरुद्ध
मैं अप्रतिहत, मैं दुर्निवार;
मैं सदा घूमती फिरती हूँ
पवनान्दोलित वारिद-तरंग पर समासीन
नीहार-आवरण में अम्बर के आर-पार,
उड़ते मेघों को दौड़ बाहुओं में भरती,
स्वप्नों की प्रतिमाओं का आलिंगन करती।
विस्तीर्ण सिन्धु के बीच शून्य, एकान्त द्वीप, यह मेरा उर।
देवालय में देवता नहीं, केवल मैं हूँ।
मेरी प्रतिमा को घेर उठ रही अगुरु-गन्ध,
बज रहा अर्चना में मेरी मेरा नूपुर।
भू-नभ का सब संगीत नाद मेरे निस्सीम प्रणय का है,
सारी कविता जयगान एक मेरी त्रयलोक-विजय का है।

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) उर्वशी स्वयं को कहाँ-कहाँ विद्यमान बताती हैं?
उत्तर:
उर्वशी स्वयं के विषय में बताती है कि वह सदैव इधर-उधर विचरती रहती है। वह देवताओं के रूप में मन्दिरों में विद्यमान है, वह मन्दिरों में बजने वाले मुँघरूओं में विद्यमान है, वह धरती और आकाश में चारों ओर उठने वाले संगीत के स्वरों में विद्यमान है अर्थात् वह पृथ्वी के कण-कण में विद्यमान है।

(ii) “विस्तीर्ण सिन्धु के बीच शुन्य, एकान्त द्वीप, यह मेरा उर” पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कवि प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से उर्वशी के मनोभावों को प्रकट करते हुए कहता है कि इस संसार रूपीं विशाल सागर में वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमती रहती है, किन्तु उसके हृदय में शून्यता है, अकेलापन है। वह सबके बीच होकर भी सबसे अकेली हैं।

(iii) पद्यांश का केन्द्रीय भाव लिखिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से उर्वशी ने पुरूरवा को अपने गुणों अर्थात् सम्पूर्ण जगत में नारी की व्यापकता व प्रत्येक वस्तु में उसकी विद्यमानता के गुणों से अवगत कराते हुए नारी की व्यापकती एवं शक्ति सम्पन्नता का वर्णन किया है।

(iv) पद्यांश की अलंकार-योजना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
अलंकार किसी पद्यांश के शिल्प एवं भाव पक्ष में चमत्कार उत्पन्न कर देते हैं। प्रस्तुत पद्यशि में कवि ने ‘कामना-वहनि की शिखा’ में रूपक अलंकार, ‘स्वपनों की प्रतिमाओं का आलिंगन’ में मानवीकरण अलंकार, ‘देवालय में देवता नहीं’ में ‘द’ वर्ण आवृति के कारण अनुप्रास अलंकार आदि का प्रयोग किया है।

(v) प्रस्तुत पद्यांश के कवि वे शीर्षक का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश राष्ट्रवादी कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित कविता ‘उर्वशी’ से उद्धृत किया गया है।

अभिनव मनुष्य

प्रश्न 4.
शीश पर आदेश कर अवधार्य,
प्रकृति के बस तत्त्व करते हैं मनुज के कार्य।
मानते हैं हुक्म मानव का महा वरुणेश,
और करता शब्दगुण अम्बर वहन सन्देश।
नव्य नर की मुष्टि में विकराल,
हैं सिमटते जा रहे प्रत्येक क्षण दिक्काल
यह मनुज, जिसका गगन में जा रहा है यान,
काँपते जिसके करों को देखकर परमाणु।
खोलकर अपना हृदयगिरि, सिन्धु, भू, आकाश,
हैं सुना जिसको चुके निज गुह्यतम इतिहास।
खुल गए परदे, रहा अब क्या यहाँ अज्ञेय?
किन्तु नर को चाहिए नित विघ्न कुछ दुर्जेय;
सोचने को और करने को नया संघर्ष;
नव्य जय का क्षेत्र, पाने को नया उत्कर्ष।

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) कवि को मनुष्य के कार्य कैसे प्रतीत होते हैं?
उत्तर:
कवि को मनुष्य के कार्यों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे उसने प्रकृति के सभी उपादानों को अपने वश में कर लिया है और सभी उसकी इच्छानुसार कार्य कर रहे हों।

(ii) कवि मनुष्य की असीम शक्तियों का वर्णन करने के लिए किन-किन उदाहरणों का उल्लेख करता है?
उत्तर:
कवि मनुष्य की असीम शक्तियों का उदाहरण देने के लिए जलदेवता का उदाहरण देते हुए कहता है कि जलदेवता मनुष्य की माँगों का पालन करते हुए जहाँ जल की आवश्यकता है वहाँ जल की उपस्थिति करा देते हैं, जहाँ जल का अथाह भण्डार हैं वहाँ नदियों पर बाँध बनाकर सूखे मैदान बनाने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त रेडियो यन्त्रों व परमाणु शक्तियों का उपयोग भी उसकी असीम शक्तियों का द्योतक है।

(iii) प्रस्तुत पद्यांश में मनुष्य की किस प्रवृत्ति को प्रकट किया गया है?
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में मनुष्य की निरन्तर कुछ नया प्राप्त करने की इच्छा की प्रवृत्ति को प्रकट किया गया है। कवि कहता है कि आधुनिक मनुष्य अपने लिए ऐसे दुर्गम और कठिन मार्ग तथा बाधाओं को आमन्त्रित करता रहता हैं, जिन पर कठिनाई से ही सही, किन्तु सफलता अवश्य प्राप्त की जा

(iv) प्रस्तुत पद्यांश का केन्द्रीय भाव लिखिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने मनुष्य की असीम शक्तियों व निरन्तर संघर्ष करते हुए मानव जीवन को सरल एवं सुगम बनाने की इचछाओं व मानसिकता को उद्घाटित किया है। अपनी इसी इच्छाशक्ति के बल पर उसने विभिन्न प्राकृतिक उपादनों पर नियन्त्रण प्राप्त कर लिया है।

(v) ‘भू’ व ‘सिन्धु’ शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखिए।
उत्तर:

शब्द पर्यायवाची शब्द
भू भूमि, पृथ्वी
सिन्धु समुद्र, जलधि

प्रश्न 5.
यह मनुज, ब्रह्माण्ड का सबसे सुरम्य प्रकाश,
कुछ छिपा सकते न जिससे भूमि या आकाश।
यह मनुज, जिसकी शिखा उद्दाम,
कर रहे जिसको चराचर भक्तियुक्त प्रणाम।
यह मनुज, जो सृष्टि का श्रृंगार,
ज्ञान का, विज्ञान का, आलोक का आगार।
‘व्योम से पाताल तक सब कुछ इसे है ज्ञेय’,
पर न यह परिचय मनुज का, यह न उसका श्रेय।
श्रेय उसका बुद्धि पर चैतन्य उर की जीत;
श्रेय मानव की असीमित मानवों से प्रीत।
एक नर से दूसरे के बीच का व्यवधान
तोड़ दे जो, बस, वही ज्ञानी, वही विद्वान्,
और मानव भी वही।।
सावधान, मनुष्य! यदि विज्ञान है तलवार,
तो इसे दे फेंक, तजकर मोह, स्मृति के पार।
हो चुका है सिद्ध, है तू शिशु अभी अज्ञान;
फूल काँटों की तुझे कुछ भी नहीं पहचान।
खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार,
काट लेगा अंग, तीखी हैं बड़ी यह धार।

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) प्रस्तुत पद्यांश का केन्द्रीय भाव लिखिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में कवि मनुष्य को सृष्टि का सर्वाधिक ज्ञानवान प्राणी स्वीकारते हुए कहता है कि उसने अपनी सामर्थ्य से सृष्टि से सम्बन्धित ज्ञान को प्राप्त किया है, लेकिन मनुष्य को उसके नकारात्मक व विनाशकारी परिमाणों के प्रति सचेत रहने के लिए भी कहता है।

(ii) कवि के अनुसार कौन-सा मनुष्य ज्ञानी है?
उत्तर:
कवि के अनुसार वहीं मनुष्य ज्ञानी एवं विद्वान् है, जो मनुष्यों के बीच में बढ़ती हुई दूरी को मिटा दे। वास्तव में वहीं मनुष्य श्रेष्ठ है, जो स्वयं को एकाकी न समझे, अपितु सम्पूर्ण पृथ्वी को अपना परिवार समझे।

(iii) मनुष्य को आविष्कारों के प्रति क्यों सचेत रहना आवश्यक है?
उत्तर:
कवि के अनुसार मनुष्य द्वारा किए गए आविष्कार तलवार से खेलने के समान हैं, जो मानव समुदाय के हित में नहीं है। मनुष्य द्वारा किए गए आविष्कारों के कारण वातावरण में विनाश की परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई हैं। अतः उसे अपने आविष्कारों के प्रति सचेत रहना चाहिए।

(iv) कवि मनुष्य की तुलना अज्ञानी शिशु से क्यों करता है?
उत्तर:
कवि मनुष्य के वैज्ञानिक आविष्कारों के प्रति अत्यधिक मोह व उसके परिणामों के प्रति सचेत न होने के कारण उसे अज्ञानी शिशु कहता है। उसका मानना है कि विज्ञान के आविष्कार फूलों के संग लगे हुए काँटों के समान हैं। अतः मनुष्य को इनका अनावश्यक उपयोग नहीं करना चाहिए।

(v) ‘व्योम’ व ‘ज्ञेय’ शब्दों के विलोमार्थक शब्द लिखिए।
उत्तर:

शब्द विलोमार्थक शब्द
व्योम पाताल
ज्ञेय अज्ञेय

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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi पद्य Chapter 8 गीत

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Chapter Chapter 8
Chapter Name गीत
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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi पद्य Chapter 8 गीत

गीत – जीवन/साहित्यिक परिचय

(2018, 17, 16, 14, 13, 11)

प्रश्न-पत्र में संकलित पाठों में से चार कवियों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं। जिनमें से एक का उत्तर देना होता है। इस प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ
महादेवी वर्मा का जन्म फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश) के एक प्रतिष्ठित शिक्षित कायस्थ परिवार में वर्ष 1907 में हुआ था। इनकी माता हेमरानी हिन्दी व संस्कृत की ज्ञाता तथा साधारण कवयित्री थीं। नाना व माता के गुणों का प्रभाव ही महादेवी जी पर पड़ा। नौ वर्ष की छोटी आयु में ही विवाह हो जाने के बावजूद इन्होंने अपना अध्ययन जारी रखा। महादेवी वर्मा का दाम्पत्य जीवन सफल नहीं रहा। विवाह के बाद उन्होंने अपनी परीक्षाएँ सफलतापूर्वक उत्तीर्ण की। उन्होंने घर पर ही चित्रकला एवं संगीत की शिक्षा अर्जित की। इनकी उच्च शिक्षा प्रयाग में हुई। कुछ समय तक इन्होंने ‘चाँद” पत्रिका का सम्पादन भी किया।

इन्होंने शिक्षा समाप्ति के बाद वर्ष 1933 से प्रयाग महिला विद्यापीठ के प्रधानाचार्या पद को सुशोभित किया। इनकी काव्यात्मक प्रतिभा के लिए इन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा ‘सैकसरिया’ एवं ‘मंगला प्रसाद’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वर्ष 1983 में ‘भारत-भारती’ तथा ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ (‘यामा’ नामक कृति पर) द्वारा सम्मानित किया गया।

भारत सरकार द्वारा ‘पद्मभूषण’ सम्मान से सम्मानित इस महान् लेखिका का स्वर्गवास 11 सितम्बर, 1987 को हो गया।

साहित्यिक गतिविधियाँ
छायावाद की प्रमुख प्रतिनिधि महादेवी वर्मा का नारी के प्रति विशेष दृष्टिकोण एवं भावुकता होने के कारण उनके काव्य में रहस्यवाद, वेदना भाव, आलौकिक प्रेम आदि की अभिव्यक्ति हुई है। महादेवी वर्मा की ‘चाँद’ पत्रिका में रचनाओं के प्रकाशन के पश्चात् उन्हें विशेष प्रसिद्धि प्राप्त हुई।।

कृतियाँ
इनका प्रथम प्रकाशित काव्य संग्रह ‘नीहार’ है। ‘रश्मि’ संग्रह में आत्मा-परमात्मा के मधुर सम्बन्धों पर आधारित गीत संकलित हैं। ‘नीरजा’ में प्रकृति प्रधान गीत संकलित हैं। ‘सान्ध्यगीत’ के गीतों में परमात्मा से मिलन का आनन्दमय चित्रण हैं। ‘दीपशिखा’ में रहस्यभावना प्रधान गीतों को संकलित किया गया है। इसके अतिरिक्त ‘अतीत के चलचित्र’, ‘स्मृति की रेखाएँ, ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ आदि इनकी गद्य रचनाएँ हैं। ‘यामा’ में इनके विशिष्ट गीतों का संग्रह प्रकाशित हुआ है।

काव्यगत विशेषताएँ
भाव पक्ष

  1. अलौकिक प्रेम का चित्रण महादेवी वर्मा के सम्पूर्ण काव्य में अलौकिक ब्रह्म के प्रति प्रेम का चित्रण हुआ है। वहीं प्रेम आगे चलकर इनकी साधना बन गया। इस अलौकिक ब्रह्म के विषय में कभी इनके मन में मिलने की प्रबल भावना जाग्रत हुई है, तो कभी रहस्यमयी प्रबल जिज्ञासा प्रकट हुई है।
  2. रहस्यात्मकता आत्मा के परमात्मा से मिलन के लिए बेचैनी इनके काव्य में प्रकट हुई है। आत्मा से परमात्मा के मिलन के सभी सोपानों का वर्णन , महादेवी वर्मा के काव्य में मिलता है। मनुष्य का प्रकृति से तादात्म्य, प्रकृति पर चेतनता का आरोप, प्रकृति में रहस्यों की अनुभूति, असीम सत्ता और उसके प्रति समर्पण तथा सार्वभौमिक करुणा आदि विशेषताएँ इनके रहस्यवाद से जुड़ी हैं। इन्होंने प्रकृति पर मानवीय भावनाओं का आरोपण करके उससे आत्मीयता स्थापित की।
  3. वेदना भाव महादेवी वर्मा के काव्य में मौजूद वेदना में साधना, संकल्प एवं लोक कल्याण की भावना निहित है। वेदना इन्हें अत्यन्त प्रिय है। इनकी इच्छा है कि इनके जीवन में सदैव अतृप्ति बनी रहे। इन्होंने कहा भी है-“मैं नीर भरी दुःख की बदली।” इन्हें ‘आधुनिक मीरा’ की संज्ञा भी दी गई है।
  4. प्रकृति का मानवीकरण महादेवीं के काव्य में प्रकृति आलम्बन, उद्दीपन, उपदेशक, पूर्वपीठिका आदि रूपों में प्रस्तुत हुई है। इन्होंने प्रकृति में विराट की छाया देखी है। छायावादी कवियों के समान ही इन्होंने प्रकृति का मानवीकरण किया है। सुन्दर रूपकों द्वारा प्रकृति के सुन्दर चित्र खींचने में महादेवी जी की समानता कोई नहीं कर सकता। 5. रस महादेवी जी के काव्यों में श्रृंगार के दोनों पक्षों वियोग और संयोग के साथ करुण एवं शान्त रसों का सुन्दर परिपाक हुआ है।

कला पक्ष

  1. भाषा महादेवी जी की भाषा संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली हैं। इनकी भाषा का स्निग्ध एवं प्रांजल प्रवाह अन्यत्र देखने को नहीं मिलते हैं। कोमलकान्त पदावली ने भाषा को अपूर्व सरसता प्रदान की है।
  2. शैली इनकी शैली मुक्तक गीतिकाव्य की प्रवाहमयी सुव्यवस्थित शैली है। ये शब्दों को पंक्तियों में पिरोकर कुछ ऐसे ढंग से प्रस्तुत करती हैं कि उनकी मौक्तिक आभा एवं संगीतात्मक पूँज सहज ही पाठकों को आकर्षित कर लेती है।
  3. सूक्ष्म प्रतीक एवं उपमान महादेव जी के काव्य में मौजूद प्रतीकों, रूपकों एवं उपमानों की गहराई तक पहुँचने के लिए आस्तिकता, आध्यात्मिकता एवं अद्वैत दर्शन की एक डुबकी अपेक्षित होगी, अन्यथा हमें इनकी अभिव्यंजना के बाह्य रूप को तो देख पाएँगे, किन्तु इनकी सूक्ष्म आकर्षण शक्ति तक पहुँच पाना कठिन होगा।
  4. लाक्षणिकता लााणिकता की दृष्टि से महादेवी जी का काव्य बहुत प्रभावशाली हैं। इन्होंने अपने गीतों के सुन्दर चित्र अंकित किए हैं। कुशल चित्रकार की भाँति इन्होंने थोड़े शब्दों से ही सुन्दर चित्र प्रस्तुत किए हैं।
  5. छन्द एवं अलंकार महादेवी जी ने मात्रिक छन्दों में अपनी कुछ कविताएँ लिखी हैं, परन्तु सामान्यतया विविध गीत-छन्दों का प्रयोग किया है, जो इनकी मौलिक देन है। इन्होंने अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग किया है। इनके यहाँ उपमा, रूपक, श्लेष, मानवीकरण, सांगरूपक, रूपकातिशयोक्ति, ध्वन्यर्थ-व्यंजना, विरोधाभास, विशेषण विपर्यय आदि अलंकारों का सहज रूप में प्रयोग हुआ है।

हिन्दी साहित्य में स्थान
महादेवी वर्मा छायावादी युग की एक महान् कवयित्री समझी जाती हैं। इनके भावपक्ष और कलापक्ष दोनों ही अद्वितीय हैं। सरस कल्पना, भावुकता एवं वेदनापूर्ण भावों को अभिव्यक्त करने की दृष्टि से इन्हें अपूर्व सफलता प्राप्त हुई है। कल्पना के अलौकिक हिण्डोले पर बैठकर इन्होंने जिस काव्य का सृजन किया, वह हिन्दी साहित्याकाशं में ध्रुवतारे की भाँति चमकता रहेगा।

पद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-पत्र में पद्य भाग से दो पद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर देने होंगे।

गीत-1

प्रश्न 1.
चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना!
अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले,
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले;
आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया,
जाग या विद्युत-शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
पर तुझे है नाश-पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना!
जाग तुझको दूर जाना!
बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बन्धन सजीले?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रँगीले?
विश्व का क्रन्दन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस-गीले?
तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना
जाग तुझको दूर जाना!

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) पद्यांश की कवयित्री व शीर्षक का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर:
पद्यांश की कवयित्री छायावादी रचनाकार महादेवी वर्मा हैं तथा काव्यांश का शीर्षक ‘गीत’ हैं।

(ii) कवयित्री आँखों से क्या प्रश्न करती हैं?
उत्तर:
कवयित्री आँखों से प्रश्न करती हैं कि है! निरन्तर जागरूक रहने वाली आँखें आज नींद से भरी अर्थात् आलस्ययुक्त क्यों हों? तुम्हारा वैश आज इतना अव्यवस्थित क्यों है? आज अलसार्ने का समय नहीं है, इसलिए आलस्य एवं प्रमाद को छोड़कर अब तुम जाग जाओ, क्योंकि तुम्हें बहुत दूर जाना है।

(iii) कवयित्री साधना पथ पर चलते हुए कौन-कौन सी कठिनाइयों के आने की बात कहती हैं?
उत्तर:
कवयित्री कहती है कि साधना-पथ पर चलते हुए दृढ़ हिमालय कम्पित हो जाए, आकाश से प्रलयकारी वर्षा होने लगे, घोर अन्धकार प्रकाश को निगल जाए या चाहे चमकती और कड़कती हुई बिजली से तूफार आने लगे, लेकिन तुम अपने पथ से विचलित मत होना और आगे बढ़ते रहना।

(iv) “बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बन्धन सजीले” पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से कवयित्री अपने प्रिय से प्रश्न करती है कि क्या मोम के समान शीघ्र नष्ट हो जाने वाले अरिथर, अस्थायी, परन्तु सुन्दर एवं अपनी ओर आकर्षित करने वाले ये सांसारिक बन्धन तुम्हें तुम्हारे पथ से विश्वलित कर देंगे?

(v) कवयित्री अपने प्रिय को प्रेरित करते हुए क्या कहती है?
उत्तर:
कयित्री अपने प्रिय को साधन-पथ पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करने के लिए कहती है कि तुम्हारे मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ आएँगी, विभिन्न सांसारिक आकर्षण तुम्हें अपनी ओर आकर्षित करेंगे, तुम्हें भावनात्मक रूप से कमजोर करेंगे, लेकिन इनसे विचलित न होना और आगे बढ़ते रहना।

प्रश्न 2.
कह न ठण्डी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी;
हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!
है तुझे अंगार-शय्या पर मृदुल कलियाँ बिछाना!
जाग तुझको दूर जाना!

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) मनुष्य को अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर:
कवयित्री कहती है कि मनुष्य के समक्ष अकर्मण्यता एवं आलस्य जैसे अवगुण शत्रु बनकर खड़े हो जाते हैं। वस्तुतः मनुष्य को जीवन में आने वाले दुखों एवं कठिन परिस्थितियों आदि को भूलकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में निरन्तर आगे बढ़ते रहना चाहिए।

(ii) लक्ष्य या परमात्मा को प्राप्त करने का साधन क्या बनता है?
उत्तर:
कवयित्री का मानना है कि जब तक हृदय में किसी लक्ष्य को पाने की इच्छा नहीं होती, तब तक मनुष्य की आँखों से टपकतै आँसुओं का कोई मूल्य नहीं होता। लक्ष्य को प्राप्त करने की तड़प ही मनुष्य को प्रेरित करती हैं और परमात्मा को पाने का साधन या माध्यम बनती हैं।

(iii) कवयित्री ने पतंगे का उदाहरण क्यों दिया है?
उत्तर:
पतंगा अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अथक प्रयास करता है और उसे प्राप्त करने के क्रम में समाप्त हो जाता है। कवयित्री पतंगे के इसी गुण से मनुष्य को अवगत कराने के लिए उसका उदाहरण देती हैं, ताकि मनुष्य भी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अथक प्रयास करें।

(iv) कवयित्री “अंगार-शय्या पर मृदुल कलियाँ बिछाने के माध्यम से क्या कहना चाहती हैं?
उत्तर:
“अंगार-शय्या पर मृदुल कलियाँ बिछाने” के माध्यम से कवयित्री यह कहना चाहती हैं कि साधक तुझे अपनी तपस्या से संसार रूपी इस अंगार-शय्या अर्थात् कष्टों से भरे इस संसार में फूलों की कोमल कलियों जैसी आनन्दमय परिस्थितियों का निर्माण करना है।

(v) प्रस्तुत पद्यांश की भाषा-शैली पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत काव्यांश की भाषा तत्सम शब्दावली युक्त खड़ी बोली है, जो भावों को अभिव्यक्त करने में पूर्णतः सक्षम है। भाषा सहज, सरल, प्रवाहमयी एवं प्रभावमयी है। इस पद्यांश में लयात्मकता एवं तुकान्तता का गुण विद्यमान है, जिसके कारण इसकी शैली गेयात्मक हो गई है।

गीत-2

प्रश्न 3.
पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला!
घेर ले छाया अमा बन, आज कज्जल-अश्रुओं में
रिमझिमा ले वह घिरा घन; और होंगे नयन सूखे,
तिल बुझे औ पलक रूखे, आर्दै चितवन में यहाँ शत
विद्युतों में दीप खेला! अन्य होंगे चरण हारे,
और हैं जो लौटते, दे शूल की संकल्प सारे;
दु:खव्रती निर्माण उन्मद यह अमरता नापते पद,
बाँध देंगे अंक-संसृति से तिमिर में स्वर्ण बेला!

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) प्रस्तुत पद्यांश के शीर्षक एवं उसके रचनाकार का नाम लिखिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश गीत-2 कविता से लिया गया है, जो दीपशिखा काव्य संग्रह में संकलित है। इसकी रचनाकार ‘महादेवी वर्मा हैं।

(ii) प्रस्तुत पद्यांश में लेखिका किस पथ पर आगे बढ़ने का आह्वान करती
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में लेखिका साधना के अपरिचित पथ पर बिना घबराहट एवं डगमगाहट के आगे बढ़ने का आह्वान करती है।

(iii) महादेवी के जीवन रूपी दीप का स्वभाव कैंसी नहीं है?
उत्तर:
महादेवी वर्मा के जीवन रूपी दीप का स्वभाव कष्टों एवं कठिनाइयों से घबराकर साधनों पथ से पीछे हट जाना नहीं है, क्योंकि उनके जीवन रूपी दीप ने सैकड़ों विद्युत रूपी कठिनाइयों को झेलते हुए आगे बढ़ना सीखा है।

(iv) प्रस्तुत पद्यांश में लेखिका का क्या उद्देश्य है?
उत्तर:
निराश व हताश न होने का संकल्प करके आत्मा परमात्मा के मिलन के पथ पर निरन्तर आगे बढ़ना ही लेखिका का उद्देश्य है।

(v) अंक संसृति’ एवं ‘तिमिर’ शब्दों का अर्थ लिखिए।
उत्तर:
अंक संसृति = संसार की गोद
तिमिर = अन्धकार

प्रश्न 4.
दूसरी होगी कहानी, शून्य में जिसके मिटे स्वर,
धूलि में खोई निशानी, आज जिस पर प्रलय विस्मित,
मैं लगाती चल रही नित,
मोतियों की हाट औ चिनगारियों का एक मेला!

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) लेखिका के अनुसार दुसरी कहानी क्या हैं?
उत्तर:
लेखिका के अनुसार जिसमें अपने लक्ष्य को प्राप्त किए बिना ही जिस साधक के स्वर क्षीण हो जाते हैं तथा जिनके पद-चिह्नों को समय मिटा देता है, वह कोई दूसरी कहानी होगी।

(ii) प्रस्तुत पद्यांश में किस भाव की अभिव्यक्ति हुई है?
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में साधक द्वारा अपना सर्वस्व न्यौछावर करके ईश्वर को प्राप्त करने के भाव की अभिव्यक्ति हुई है।

(iii) प्रस्तुत पद्यांश में लेखिका ने क्या दृढ़ संकल्प लिया है?
उत्तर:
प्रस्तुत पद्यांश में लेखिका ने आध्यात्मिक शक्ति द्वारा मार्ग की विभिन्न बाधाओं को पार करके ईश्वर रूपी प्रिय को प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प लिया है।

(iv) लेखिका परमात्मा रूपी प्रियतम की प्राप्ति के लिए किसका बाजार लगा रही है ?
उत्तर:
लेखिका परमात्मा रूपी प्रियतम की प्राप्ति के लिए मोतियों रूपी आंसुओं का बाजार लगा रही है, जिसमें वह इन आँसुओं की चमक से अन्य साधकों में भी ईश्वर प्राप्ति की चिंगारियाँ जगाने में सफल रही है।

(v) ‘शून्य एवं आज’ शब्दों के विलोम शब्द लिखिए।
उत्तर:
विस्मित = स्मृति
आज = कला

गीत-3

प्रश्न 5.
पथ को न मलिन करता आना
पद-चिह्न न दे जाता जाना,
मेरे आगम की जग में
सुख की सिरहन हो अन्त खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली!
मैं नीर भरी दुःख की बदली!

उपरोक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) कवयित्री अपने जीवन की तुलना किससे व क्यों करती हैं?
उत्तर:
कवयित्री आकाश में छाए बादलों से तुलना करते हुए कहती हैं कि जिस प्रकार आकाश में बादलों के छाने से वह मलिन नहीं होता और न ही बरसने के पश्चात् उसका कोई पद चिह्न शेष रहता है, उसी प्रकार कवयित्री का जीवन भी निष्कलंक हैं। वह जैसे आई थी वैसे ही लौट रही

(ii) कवयित्री का स्मरण लोगों में खुशियाँ क्यों बिखेर देता है?
उत्तर:
कवयित्री अपने व्यक्तित्व की तुलना आकाश में छाने वाले बादलों से करते हुए स्वयं को निष्कलंक मानती हैं। अपने इसी गुण के कारण जब भी उसका स्मरण लोगों के मस्तिष्क में होता है, तो वह उसमें खुशी की सिहरन पैदा कर देता है।

(iii) विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरी न कभी अपना होना” पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्रस्तुत पंक्ति से कवयित्री का आशय यह है कि जिस प्रकार इस विशाल आकाश में बादल घूमता रहता है, वहाँ पर उसे कोई स्थायित्व प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार स्वयं कवयित्री का जीवन भी है, जिसे इस विशाल जगत् में स्थायित्व प्राप्त नहीं हुआ।

(iv) प्रस्तुत पद्यांश का केन्द्रीय भाव लिखिए।
उत्तर:
प्रस्तुत काव्यांश में कवयित्री ने बादल से ही जीवन की साम्यता प्रस्तुत करके उसी क्षण भंगुरता को प्रकट करने का प्रयास किया है, साथ ही वह यह सन्देश देना चाहती हैं कि मनुष्य जीवन निष्कलंक होना चाहिए, ताकि उसका स्मरण होने पर लोगों के चेहरे पर मुस्कान आ जाए।

(v) प्रस्तुत पद्यांश में अलंकार योजना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
कवयित्री ने सम्पूर्ण पद्यांश में बादल को मनुष्य के रूप में प्रकट करके उसका मानवीकरण कर दिया है, जिस कारण सम्पूर्ण पद्यांश में मानवीकरण अलंकार है। इसके अतिरिक्त पद-चिह्न न दे जाता जाना, में ‘ज’ वर्ण की आवृत्ति, ‘सुख की सिहरन हो’ में ‘स’ वर्ण की आवृत्ति, व ‘परिचय इतना इतिहास यही’ में ‘इ’ वर्ण की आवृत्ति के कारण पद्यांश में अनुप्रास अलंकार भी विद्यमान है।

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