UP Board Class 12 Chemistry Model Papers Paper 2

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Textbook NCERT Based
Class Class 12
Subject Chemistry
Model Paper Paper 2
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 Chemistry Model Papers Paper 2

समय : 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक : 70

निर्देश प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
नोट

  • इस प्रश्न-पत्र में कुल सात प्रश्न हैं।
  • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
  • प्रत्येक प्रश्न के प्रारम्भ में स्पष्ट उल्लेख है, कि उसके कितने खण्ड करने हैं।
  • प्रत्येक प्रश्न के अंक उसके सम्मुख अंकित हैं।
  • प्रथम प्रश्न से प्रारम्भ कीजिए और अन्त तक करते जाइए। जो प्रश्न न आता हो, उस पर समय नष्ट न करें।
  • यदि रफ कार्य के लिए स्थान अपेक्षित है, तो उत्तर-पुस्तिका के बाएँ पृष्ठ पर कीजिए और फिर काट (x) दीजिए। उस पृष्ठ पर कोई हल न कीजिए।
  • रचना के प्रश्नों के हल में रचना रेखाएँ न मिटाइए। यदि पूछा गया हो तो रचना के पद अवश्य लिखिए।
  • प्रश्न संख्या 1 के अतिरिक्त सभी प्रश्नों के हल के क्रियापद स्पष्ट रूप से लिखिए। प्रश्नों के हल को उत्तर-पुस्तिका के दोनों ओर लिखिए।
  • जिन प्रश्नों के हल में चित्र खींचना आवश्यक है, उनमें स्वच्छ एवं स्पष्ट चित्र अवश्य खींचिए। चित्र के बिना हल अशुद्ध तथा अपूर्ण माना जाएगा।

इस प्रश्न के प्रत्येक खण्ड में चार विकल्प दिए गए हैं, सही विकल्प चुनकर उसे अपनी उत्तरपुस्तिका में लिखिए।

प्रश्न 1.
(क) 0.1 M HCl के 200 mL को 0.2 M के 300 mL HCl में मिलाने पर प्राप्त विलयन की सान्द्रता होगी [1]
(a) 1.6 M
(b) 0.16 M
(c) 0.08 M
(d) 1.08 M

(ख) 0.01 N विलयन की चालकता 0.005 ओम्-1 सेमी-1 पायी गयी। विलयन की तुल्यांकी चालकता होगी। [1]
(a) 5 × 10-2 ओम-1 सेमी-2 तुल्यांक-1
(b) 5 x 10-3 ओम-1 सेमी2
(c) 500 ओम-1 सेमी2 तुल्यांक-1
(d) 0.5 ओम-1 सेमी2 तुल्यांक-1

(ग) निम्न में से कौन-सा संघनन बहुलक नहीं है? [1]
(a) बैकलाइट
(b) नायलॉन-6,6
(c) डेक्रॉन
(d) निओप्रिन

(घ) शरीर में आरक्षित ग्लूकोस के रूप में कार्य करने वाला काबोहाइड्रेट है [1]
(a) सुक्रोस
(b) स्टार्च
(c) ग्लाइकोजन
(d) फ्रक्टोस

(ङ) निम्नलिखित में से कौन-सा प्रतिअम्ल है? [1]
(a) ग्रॉसीवॉल
(b) फीनॉल
(c) ओमिप्रेजोल
(d) डेटॉल

(च) काबिल ऐमीन अभिक्रिया कौन-से ऐमीन के द्वारा दी जाती है? [1]
(a) प्राथमिक ऐमीन
(b) द्वितीयक ऐमीन
(c) तृतीयक ऐमीन
(d) चतुर्थक ऐमीन

प्रश्न 2.
(क) ग्लूकोस के 18 ग्राम में जल के 178.2 ग्राम मिलाए गए। 100°C पर प्राप्त जलीय विलयन के लिए जल का वाष्प दाब क्या होगा? [2]
(ख) परासरण क्रिया में प्रयुक्त अर्द्ध-पारगम्य झिल्ली का क्या महत्त्व है? समझाइए। [2]
(ग) Cl आयन के परीक्षण के समीकरण लिखिए। [2]
(घ) चुम्बकीय गुण वाले अयस्कों को सान्द्रित करने की विधि का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। [2]

प्रश्न 3.
(क) प्रगलन क्या है? किसी एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट कीजिए। [2]
(ख) नायलॉन-6,6 क्या है? इसे किस प्रकार बनाते हैं? [2]
(ग) अन्तरालोजनों तथा X2 में कौन अधिक सक्रिय है तथा क्यों? [2]
(घ) सायनाइड प्रक्रम द्वारा चाँदी प्राप्त करने की विधि तथा आवश्यक रासायनिक समीकरण लिखिए।

प्रश्न 4.
(क) कोलरॉऊश नियम क्या है? इसके नियम का एक अनुप्रयोग उदाहरण सहित दीजिए।
(ख) (i) सक्रियण ऊर्जा किसे कहते हैं?
(ii) प्रेरित उत्प्रेरण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
(ग) निम्नलिखित ऐल्किल हैलाइडों के IUPAC नाम लिखिए। [3]
UP Board Class 12 Chemistry Model Papers Paper 2 image 1
(घ) निम्नलिखित अभिक्रिया में A, B तथा C यौगिकों को पहचानिए। [3]
UP Board Class 12 Chemistry Model Papers Paper 2 image 2

प्रश्न 5.
(क) किसी विद्युत अपघट्य के विलयन की चालकता एवं मोलर चालकता को परिभाषित कीजिए। सान्द्रता के साथ इनके परिपक्व की विवेचना कीजिए।
(ख) (i) समझाइए कि As2S3 के कोलॉइडी कण ऋणावेशित क्यों होते हैं? [4]
(ii) हाड़-शुल्जे नियम का उल्लेख कीजिए।
(ग) (i) Zn, Cd व Hg अधिक कोमल व कम गलनांक वाले क्यों होते हैं? [4]
(ii) निकेल (II) व प्लेटिनम (II) यौगिकों में कौन अधिक स्थायी होता है?
(घ) (i) क्लोरोफॉर्म की ऐसीटोन से क्रिया का समीकरण लिखिए।
(ii) क्लोरोफ्लुओरो कार्बन क्या है? इसका वातावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है? [4]

प्रश्न 6.
(क) प्रथम कोटि की अभिक्रिया के वेग स्थिरांक के लिए व्यंजक लिखिए तथा सन्निहित पदों को समझाइए। सिद्ध कीजिए कि प्रथम कोटि की अभिक्रिया का अर्द्ध-आयुकाल अभिकारकों के प्रारम्भिक सान्द्रण पर निर्भर नहीं करता है। [5]
अथवा
एक सामान्य अभिक्रिया A → B; के लिए A की सान्द्रता तथा समय के | मध्य आलेख चित्र में दिया गया है। इस ग्राफ के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
UP Board Class 12 Chemistry Model Papers Paper 2 image 3
(i) अभिक्रिया की कोटि क्या है?
(ii) वक्र को ढाल क्या है?
(iii) वेग स्थिरांक की इकाई क्या है? [5]

(ख)

  1. अन्तराहेलोजन यौगिकों का नामकरण किस प्रकार किया जाता है?
  2. पोटैशियम परमैंगनेट तथा सान्द्र HCl की अभिक्रिया द्वारा। किसका निर्माण होता है?
  3. रेडॉन की खोज किसने की? इसका उपयोग किस रोग के उपचार में किया जाता है?
  4. उन कुछ विषैली गैसों के नाम बताइए, जो क्लोरीन गैस से बनायी जाती हैं।
  5. वायुयान में कौन-सी अक्रिय गैस भरते हैं?

अथवा
सल्फर के किन्हीं पाँच ऑक्सी-अम्लों की ऑक्सीकरण संख्या, संकरण एवं संरचना बताइए। [5]

प्रश्न 7.
(क) (i) फीनॉल की अम्लीयता ऐल्कोहॉलों से अधिक क्यों है?
(ii) फीनॉल से पिक्रिक अम्ल किस प्रकार बनाते हैं?
(iii) फीनॉल का एक परीक्षण लिखिए।
अथवा
क्या होता है? जब
(i) फीनॉल ब्रोमीन-जल से क्रिया करता है।
(ii) फीनॉल की Zn से अभिक्रिया होती है।
(iii) बेन्जीन बेन्जोइक अम्ल से क्रिया करता है।

(ख) निम्न पर टिप्पणी लिखिए।
(i) राइमर-टीमान अभिक्रिया
(ii) कोल्बे-अभिक्रिया
(iii) विलियमसन संश्लेषण [5]
अथवा
कारण स्पष्ट कीजिए।
(i) ईथर को रंगीन बोतलों में क्यों रखा जाता है?
(ii) ईथर की वाष्पशीलता ऐल्कोहॉलों से अधिक क्यों होती है?
(iii) फीनॉल o तथा p-निर्देशी क्यों है? [5]

Solutions

उत्तर 1.
(क) (ii)
(ख) (iii)
(ग) (iv)
(घ) (iii)
(ङ) (iii)
(च) (i)

उत्तर 2.
(क) 752.4 mm Hg

उत्तर 3.
(ख) x < y < z

उत्तर 5.
(घ) 55.55 मोल किलो प्राम-1

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UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 2

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UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 2

समय 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक 70

प्रश्न 1. सभी खण्डों के उत्तर दीजिये।
प्रश्न 1(i)
एक समान आवेशित गोलीय कोशों के पृष्ठ पर वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता 
104 न्यूटन प्रति कूलॉम है। कोश के केन्द्र से उसके व्यास के बराबर दूरी पर वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता होगी
(a) 5 न्यूटन/कूलॉम
(b) 250 न्यूटन/कूलॉम
(c) 2500 न्यूटन/कूलॉम
(d) 300 न्यूटन/कूलॉम

प्रश्न 1(ii)
एक ताँबे के तार को खींचकर 1% लम्बाई में वृद्धि कर दी जाये, तो प्रतिरोध में परिवर्तन होगा।
(a) 4% की वृद्धि
(b) 2% की वृद्धि
(c) 1% की वृद्धि
(d) 3% की वृद्धि

प्रश्न 1(iii)
कोई एकसमान चुम्बकीय क्षेत्र, इलेक्ट्रॉनों की गति की दिशा के लम्बवत् है। इसके फलस्वरूप इलेक्ट्रॉन 2 सेमी त्रिज्या के वृत्ताकार पथ पर चलता है।
(a) 0.5 सेमी
(b) 1 सेमी
(c) 2 सेमी
(d) 4 सेमी

प्रश्न 1(iv)
सम्पर्क में रखे दो पतले लेन्सों की फोकस दूरियाँ क्रमशः 25 सेमी तथा 
-40 सेमी हैं। इसकी संयोजन क्षमता होगी।
(a) -6.67 D
(b) -2.5 D
(c) 1.5 D
(d) +4 D

प्रश्न 1(v)
समान गतिज ऊर्जा वाले विभिन्न कणों के दे-ब्रोग्ली तरंगदैर्घ्य (λ) कण के। द्रव्यमान (m) पर निर्भर करती है।
(a) λ α m
(b)  λ α m1/2
(c) λ α m-1
(d) λ α m-1/2

प्रश्न 1(vi)
Li11 में प्रथम बोहर कक्षा से तृतीय बोहर कक्षा में इलेक्ट्रॉन उत्तेजन के लिये ऊर्जा है।
(a) 11.1 eV
(b) 36.3 eV
(c) 108.8eV
(d) 122.4 ev

प्रश्न 2.
सभी खण्डों के उत्तर दीजिये।               (1 x 6=6)
(i) विशिष्ट प्रतिरोध किन-किन कारकों पर निर्भर करता है?
(ii) बायो-सावर्ट का नियम बताइये तथा इसके पद में प्रयुक्त भौतिक राशियों को 
स्पष्ट कीजिये।
(iii) रेडियो तरंगों के दो उपयोग बताइये।
(iv) किसी पतले प्रिज्म द्वारा उत्पन्न विचलन किन-किन बातों पर निर्भर करता है?
(v) द्रव्य तरंग से सम्बन्धित दे-ब्रोग्ली तरंगदैर्ध्य का सूत्र लिखिये एवं प्रयुक्त 
संकेतों का अर्थ स्पष्ट कीजिये।
(vi) सिग्नलों के मॉडुलन में अति उच्च आवृत्ति की वाहक तरंगों की 
आवश्यकता क्यों होती है?

प्रश्न 3.
सभी खण्डों के उत्तर दीजिये।                  
(2 x4 = 8) 
(i) विभव प्रवणता तथा वैद्युत क्षेत्र में सम्बन्ध स्थापित कीजिये।
(ii) प्रत्यावर्ती धारा परिपथ की प्रतिबाधा से आप क्या समझते हैं? समझाइये।
(iii) ध्रुवण के गुण से प्रकाश तरंगों की अनुप्रस्थ प्रकृति कैसे प्रमाणित होती है?
(iv) p-n सन्धि डायोड के लिये अग्रदिशिक तथा पश्चदिशिक अवस्था में 
परिपथ चित्र खींचिये।
UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 2 image 1

प्रश्न 4.
सभी खण्डों के उत्तर दीजिये। (3 x 10 = 30)
(i) धातु के एक तार में धारा प्रवाहित करने पर प्रारम्भ में धारा का मान अधिक 
रहता है। फिर धीरे-धीरे घटकर पहले से कम मान पर स्थिर हो जाता है, जबकि बैटरी का वैद्युत वाहक बल वही रहता है, कारण बताइये।
(ii) एक बैटरी जिसका वैद्युत वाहक बल E है तथा आन्तरिक प्रतिरोध है, 
एक बाह्य प्रतिरोध R में धारा जा रही है। सिद्ध कीजिये कि बैटरी द्वारा प्रतिरोध R को अधिकतम शक्ति तब दी जायेगी जब R = P। यह अधिकतम शक्ति कितनी होगी?
(iii) दो बहुत बड़े और सीधे तारों के बीच की दूरी 10 सेमी है। इनमें से एक 
तार में 5 ऐम्पियर तथा दूसरे तार में 15 ऐम्पियर की धारा है। चित्रानुसार बिन्दु P पर चुम्बकीय क्षेत्र का परिमाण तथा दिशा ज्ञात कीजिये और बताइये यह एक-दूसरे को प्रतिकर्षित करेंगे या आकर्षित।
(iv) पृथ्वी के चुम्बकत्व से आप क्या समझते हैं? किसी स्थान पर पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र के क्षैतिज घटक का मान 0.40 गॉस है एवं नमन कोण 30° है। पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र के ऊर्ध्व घटक का मान तथा क्षेत्र की सम्पूर्ण तीव्रता का मान ज्ञात कीजिये।
(v)
(a) वैद्युत चुम्बकीय तरंगें क्या हैं? इसमें विस्थापन धारा से आपका क्या अभिप्राय है?
(b) वैद्युत चुम्बकीय तरंगों के विशेष चार गुण लिखिये।
(vi)
(a) लेन्स की क्षमता से क्या अभिप्राय है? डायोप्टर की परिभाषा दीजिये।
(b) एक पोलेरॉएड पर समतल ध्रुवित प्रकाश पोलेरॉएड की ध्रुवण दिशा से 45° के कोण पर गिरता है। पोलेरॉएड से निर्गत् प्रकाश की तीव्रता,आपतित प्रकाश की तीव्रता के कितने प्रतिशत होगी?
(vii) वायु में 300 K ताप पर एक नाइट्रोजन अणु की दे-ब्रोग्ली तरंगदैर्ध्य कितनी होगी? यह मानें कि अणु इस ताप पर अणुओं की चाल वर्ग माध्य से गतिमान है। (नाइट्रोजन का परमाणु द्रव्यमान = 14.0076 u)
(viii) हाइड्रोजन परमाणु की nवीं कक्षा में इलेक्ट्रॉन की ऊर्जा का सूत्र लिखिये। इसमें हाइड्रोजन परमाणु के प्रथम उत्तेजन विभव तथा आयनन विभव का मान ज्ञात कीजिये।
(ix) रेडियोऐक्टिवता से आप क्या समझते हैं? रेडियोऐक्टिवता में एल्फा तथा बीटा क्षय 
की व्याख्या कीजिये। |
(x) मॉडुलन तथा विमॉडुलन से क्या अभिप्राय है? आयाम मॉडुलन का अर्थ समझाइये।

प्रश्न 5.
सभी खण्डों के उत्तर दीजिये। (5 x 4 = 20)
(i) वैद्युत द्विध्रुव आघूर्ण से आप क्या समझते हैं? सिद्ध कीजिये कि निरक्षीय स्थिति में किसी बिन्दु पर वैद्युत द्विध्रुव द्वारा वैद्युत विभव शून्य होता है।
(ii) वैद्युत चुम्बकीय प्रेरण से आप क्या समझते हैं? एक कुण्डली काक्षेत्रफल 0.5 मी तथा उसमें 50 फेरे हैं। कुण्डली के तल के लम्बवत् 0.04 टेस्ला का चुम्बकीय क्षेत्र लगा है। यदि 0.1 सेकण्ड में चुम्बकीय क्षेत्र घटकर शून्य हो जाये, तब कुण्डली में कितना प्रेरित वैद्युत वाहक बल तथा प्रेरित धारा होगी? यदि कुण्डली का प्रतिरोध 10Ω हो।
(iii) यंग के द्विक-स्लिट प्रयोग में रेखाछिद्रों के बीच की दूरी 0.6 मिमी है तथा रेखाछिद्रों से 1.5 मी की दूरी पर रखे हुये पर्दे पर व्यतिकरण देखा जाता है। यदि व्यतिकरण प्रतिरूप के केन्द्रीय फ्रिन्ज से किसी ओर सातवीं दीप्त फ्रिज और तीसरी अदीप्त फ्रिन्ज के बीच दूरी 4.5 मिमी हो, तो प्रयोग में प्रयुक्त प्रकाश की तरंगदैर्ध्य की गणना कीजिये।
(iv)
(a) p-n सन्धि डायोड के लिये अग्रदिशिक तथा पश्चदिशिक अवस्था में परिपथ चित्र खींचिये।
(b) NOT और NOR गेट का लॉजिक चिन्ह, बूलियन व्यंजक एवं सत्यता सारणी दीजिये।

Answers

(1)
उत्तर 1(i).
(c)
2500 न्यूटन/कूलॉम

उत्तर 1(ii).
(b)
2% की वृद्धि

उत्तर 1(iii).
(b) 1 सेमी

उत्तर 1(iv).
(a) -6.67 D

उत्तर 1(v).
(d) λ α m-1/2

उत्तर 1(vi).
(c) 108.8eV

उत्तर 4.
2.5 x 10-5न्यूटन/ऐम्पियर-मीटर

उत्तर 5(ii).
10 वोल्ट, 1 ऐम्पियर

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 16 Partition of India: Result of British Policy

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 16 Partition of India: Result of British Policy (भारत विभाजन- अंग्रेजी नीति का परिणाम) are the part of UP Board Solutions for Class 12 History. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 16 Partition of India: Result of British Policy (भारत विभाजन- अंग्रेजी नीति का परिणाम).

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Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 16
Chapter Name Partition of India:
Result of British Policy
(भारत विभाजन-
अंग्रेजी नीति का परिणाम)
Number of Questions Solved 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 16 Partition of India: Result of British Policy (भारत विभाजन- अंग्रेजी नीति का परिणाम)

अभ्यास

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
क्या भारत विभाजन अनिवार्य था? अपने उत्तर के पक्ष में दो तर्क दीजिए।
उतर:
भारत विभाजन की अनिवार्यता के पक्ष में दो तर्क निम्नवत हैं

  1. अंग्रेजों ने सदैव उपनिवेशवादी नीति के क्रियान्वयन के लिए विभाजन करो एवं शासन करो’ का मार्ग अपनाया। इस नीति के तहत सरकार ने मुस्लिम लीग को कांग्रेस के विरुद्ध खड़ा रखा। जिन्ना की विभाजन सम्बन्धी हठधर्मिता में सरकार की नीतियों ने आग में घी का काम किया।
  2. कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग दोनों को सत्ता का लालच होने लगा। यद्यपि गाँधी जी जैसे नेता विभाजन को टालने हेतु जिन्ना को अखण्ड भारत का प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव रखा ताकि दंगे रुकने के साथ ही जिन्ना की महत्वाकांक्षा पूर्ण हो जाए। लेकिन नेहरू व पटेल को यह अस्वीकार्य था, जिसका परिणाम भारत विभाजन था।

प्रश्न 2.
भारत विभाजन के लिए उत्तरदायी दो कारण लिखिए।
उतर:
भारत विभाजन के लिए उत्तरदायी दो कारण निम्नलिखित हैं

  • ब्रिटिश शासन की ‘फूट डालो और राजा करो नीति’
  • जिन्ना की हठधर्मिता।

प्रश्न 3.
मुस्लिम लीग ने भारत विभाजन में क्या भूमिका निभाई?
उतर:
मुस्लिम लीग ने अपने जन्म से ही पृथकतावादी नीति को अपनाया तथा भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं का विरोध किया। लीग की सीधी कार्यवाही में योजना के अन्तर्गत मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं के विरुद्ध अनेक दंगे किये गये। लीग के नेताओं ने हिन्दुओं के विरुद्ध जहर उगलना शुरू कर दिया। ऐसी भयावह परिस्थिति के समाधान के लिए भारत विभाजन का जन्म हुआ।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत विभाजन के क्या कारण थे?
उतर:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता भारत की एकता तथा अखण्डता के लिए प्रयास कर रहे थे तथा भारत के विभाजन का विरोध कर रहे थे। गाँधी जी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि पाकिस्तान का निर्माण उनकी लाश पर होगा। गाँधी जी ने पाकिस्तान के निर्माण अथवा भारत के विभाजन का सदैव विरोध किया था, परन्तु कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण भारत का विभाजन उनको भी स्वीकार करना पड़ा। भारत विभाजन के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे
(i) ब्रिटिश शासन की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति- ब्रिटिश शासन ने अपनी सुरक्षा के लिए ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई तथा इसका व्यापक प्रसार किया। ब्रिटिश शासकों ने हिन्दू और मुसलमानों के पारस्परिक सम्बन्धों को बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वस्तुत: देश का विभाजन ब्रिटिश सरकार की मुस्लिम लीग को प्रोत्साहन प्रदान करने की नीति के कारण हुआ। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के शब्दों में- “पाकिस्तान के निर्माता कवि इकबाल तथा मि० जिन्ना नहीं, वरन् लॉर्ड माउण्टबेटन थे।” इसके अतिरिक्त ब्रिटिश भारत की नौकरशाही, मुसलमानों की पक्षधर थी।

(ii) पारस्परिक अविश्वास तथा अपमानजनक रवैया- हिन्दू और मुसलमान दोनों ही धर्मों के लोग एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते थे। सल्तनतकाल तथा मुगलकाल में मुस्लिम शासकों ने हिन्दुओं पर घोर अत्याचार एवं अनाचार किया, अतः इन दोनों धर्मों में विद्वेष की भावना उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था। इसका यह परिणाम हुआ कि मुसलमानों को अपने प्रति ईसाइयों का व्यवहार हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक अच्छा प्रतीत हुआ और इस प्रकार से दोनों समुदायों (हिन्दू एवं मुस्लिम) के बीच घृणा निरन्तर बढ़ती रही।

(iii) हिन्दुत्व को साम्प्रदायिकता के रूप में प्रस्तुत करना- हिन्दुओं की भावनाओं को शासक वर्ग तथा जनता के प्रतिनिधियों ने सदैव साम्प्रदायिकता के रूप में देखा। वीर सावरकर जैसे राष्ट्रवादी महापुरुषों को हिन्दू साम्प्रदायिकता से ओत-प्रोत बताया गया तथा मुस्लिम तुष्टीकरण को सदैव बढ़ावा दिया गया। इसी तुष्टीकरण की नीति की परिणति भारत विभाजन के रूप में हमारे सामने आई।

(iv) लीग के प्रति कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीति- कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के प्रति तुष्टीकरण की नीति अपनाई तथा व्यवहार में अनेक भूलें कीं, उदाहरणार्थ-
(क) 1916 ई० में लखनऊ पैक्ट में साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को स्वीकार कर लेना,
(ख) सिन्ध को बम्बई से पृथक् करना,
(ग) सी०आर० फार्मूले में पाकिस्तान की माँग को कुछ सीमा तक स्वीकार कर लेना,
(घ) 1919 ई० के खिलाफत आन्दोलन को असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित करना तथा
(ङ) 1937 ई० में कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल में मुस्लिम लीग को सम्मिलित करने के प्रश्न पर कठोर रवैया अपनाना, इसी प्रकार की भूलें थीं। स्वयं गाँधी जी ने मि० जिन्ना को कायदेआजम’ की उपाधि से विभूषित कर भयंकर भूल की।

(v) जिन्ना की हठधर्मिता- जिन्ना अपने द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त के प्रति दृढ़ रहे और पाकिस्तान की माँग के प्रति भी उनकी हठधर्मिता बढ़ती चली गई। 1940 ई० के पश्चात् संवैधानिक गतिरोध को दूर करने के लिए अनेक योजनाएँ प्रस्तुत की गईं, परन्तु जिन्ना की हठधर्मी के कारण कोई भी योजना स्वीकार न की जा सकी। यहाँ तक कि गाँधी जी ने जिन्ना के लिए अखण्ड भारत के प्रधानमन्त्री के पद का अवसर भी प्रदान किया, परन्तु जिन्ना ने इसे भी अस्वीकार कर दिया। अन्तरिम सरकार की असफलता- 2 सितम्बर, 1946 ई० को अन्तरिम सरकार’ का गठन हुआ। इस सरकार में भाग लेने वाले मुस्लिम लीग के मन्त्रियों ने कांग्रेस के मन्त्रियों से शासन-कार्य में सहयोग नहीं किया और इस प्रकार यह सरकार पूरी तरह असफल हो गई। लियाकत अली खाँ के पास वित्त विभाग था। उसने कांग्रेसी सरकार की प्रत्येक योजना में बाधाएँ उत्पन्न करके सरकार का कार्य करना असम्भव कर दिया। सरदार पटेल के अनुसार, “ एक वर्ष के मेरे प्रशासनिक अनुभव ने मुझे यह विश्वास दिला दिया कि हम विनाश की ओर बढ़ रहे हैं।”

(vii) कांग्रेस की भारत को शक्तिशाली बनाने की इच्छा- मुस्लिम लीग की गतिविधियों से यह पूर्ण रूप से स्पष्ट हो गया था कि मुस्लिम लीग कांग्रेस से किसी भी प्रकार से सहयोग नहीं करेगी तथा प्रत्येक कार्य में व्यवधान उपस्थित करेगी। ऐसी स्थिति में विभाजन न होने पर भारत सदैव एक कमजोर राष्ट्र रहता। मुस्लिम लीग केन्द्र को कभी-भी शक्तिशाली नहीं बनने देती। इसीलिए सरदार पटेल ने कहा था, “बंटवारे के बाद हम कम-से-कम 75 या 80 प्रतिशत भाग को शक्तिशाली बना सकते हैं, शेष को मुस्लिम लीग बना सकती है। इन परिस्थितियों में कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार कर लिया।

(viii) मुस्लिम लीग की सीधी कार्यवाही तथा साम्प्रदायिक दंगे- जब मुस्लिम लीग को संवैधानिक साधनों से सफलता प्राप्त नहीं हुई तो उसने मुसलमानों को साम्प्रदायिक उपद्रव करने के लिए प्रेरित किया तथा लीग की सीधी कार्यवाही की योजना के अन्तर्गत नोआखाली और त्रिपुरा में मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं के विरुद्ध अनेक दंगे किए गए। अकेले नोआखाली में ही लगभग सात हजार व्यक्ति मारे गए थे। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं के विवरण के अनुसार पहली बार इस प्रकार सुनियोजित ढंग से मुस्लिमों ने हिन्दुओं के विरुद्ध सीधी कार्यवाही की थी। मौलाना आजाद के अनुसार, “16 अगस्त भारत में काला दिन है, क्योंकि इस दिन सामूहिक हिंसा ने कलकत्ता जैसी महानगरी को हत्या, रक्तपात और बलात्कारों की बाढ़ में डुबो दिया था।’

(ix) बाह्य एकता का निष्फल प्रयास- मुस्लिम लीग की सीधी कार्यवाही के आधार पर जो जन-धन की हानि हुई, उससे कांग्रेसी नेताओं को यह एहसास हो गया कि मुसलमानों को हिन्दुओं के साथ बाह्य एकता में बाँधने का अब कोई औचित्य नहीं रह गया है। नेहरू जी के शब्दों में- “यदि उन्हें भारत में रहने के लिए बाध्य किया गया तो प्रगति व नियोजन पूरी तरह से असफल हो जाएगा।” अंग्रेजों ने 30 जून, 1948 ई० तक भारत छोड़ने का निर्णय किया था। ऐसी स्थिति में दो विकल्प थे- भारत का विभाजन या गृह-युद्ध। गृह-युद्ध के स्थान पर भारत विभाजन को स्वीकार करने में कांग्रेसी नेताओं ने बुद्धिमत्ता समझी।

(x) पाकिस्तान के गठन में सन्देह- अनेक कांग्रेसी नेताओं को पाकिस्तान के गठन में सन्देह था और उनका विचार था कि भारत का विभाजन अस्थायी होगा। उनका यह भी विचार था कि पाकिस्तान राजनीतिक, भौगोलिक, आर्थिक तथा सैनिक दृष्टि से स्थायी राज्य नहीं हो सकता और यह कभी-न-कभी भारत संघ में अवश्य ही सम्मिलित हो जाएगा। अत: विभाजन को स्वीकार करने पर भी भविष्य में पाकिस्तान के भारत में विलय की आशा कांग्रेसियों में व्याप्त थी। सत्ता-हस्तान्तरण के सम्बन्ध में ब्रिटिश दृष्टिकोण- भारत विभाजन के सम्बन्ध में ब्रिटिश शासन का दृष्टिकोण यह था कि इससे भारत एक निर्बल देश हो जाएगा तथा भारत और पाकिस्तान सदैव ही एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ते रहेंगे। वस्तुतः ब्रिटेन की यह इच्छा विभाजन के पश्चात् पूरी हो गई, जो आज भी हमें दोनों राष्ट्रों के मध्य शत्रुतापूर्ण आचरण में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

(xii) लॉर्ड माउण्टबेटन का प्रभाव- भारत विभाजन में लॉर्ड माउण्टबेटन का प्रभावशाली व्यक्तित्व भी काफी सीमा तक उत्तरदायी था। उन्होंने अपने शिष्ट व्यवहार, राजनीतिक चातुर्य तथा व्यक्तित्व के प्रभाव से कांग्रेसी नेताओं को भारत विभाजन के लिए सहमत कर लिया था।

प्रश्न 2.
भारत विभाजन कितना अनिवार्य था? समझाइए।
उतर:
भारत का विभाजन आधुनिक भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना है। अब प्रश्न है कि क्या भारत विभाजन अपरिहार्य था? ऐसी कौन-सी परिस्थितियाँ थीं, जिनके कारण यह अपरिहार्य था? आधुनिक इतिहासकारों के लिए यह वाद-विवाद का विषय है। किन्तु यह सत्य है कि भारत-विभाजन किसी आकस्मिक घटना का परिणाम नहीं था अपितु कई परिस्थितियाँ किसी-न-किसी रूप में दीर्घकाल से इसके लिए उत्तरदायी थी। इन परिस्थितियों में ब्रिटिश सरकार, मुस्लिम लीग, कांग्रेस, हिन्दू महासभा तथा कम्युनिस्ट दल की स्वार्थपरक नीतियाँ सम्भवतः इस योजना में सम्मिलित थीं।।

अंग्रेजों ने सदैव उपनिवेशवादी नीति के क्रियान्वयन के लिए विभाजन करो एवं शासन करो’ का मार्ग अपनाया। अंग्रेज इस विचार का पोषण करते रहे कि भारत एक राष्ट नहीं है, यह विविध धर्मों एवं सम्प्रदायों का देश है। इस नीति के अन्तर्गत ब्रिटिश सरकार ने लीग को बढ़ावा दिया, जिसकी परिणति 1919 ई० के ऐक्ट के अन्तर्गत साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली के अन्तर्गत देखी गई। मार्ले ने कहा था, “हम नाग के दाँत के बीज बो रहे हैं, जिसकी फसल कड़वी होगी।” सरकार ने लीग को सहारा देकर कांग्रेस के विरोध में खड़े रखा।

जिन्ना यद्यपि एक सुसंस्कृत व्यक्ति थे किन्तु व्यक्तित्व के संकट के कारण इन्होंने विभाजन सम्बन्धी हठधर्मिता को अपना लिया। ब्रिटिश सरकार की नीतियों ने आग में घी का काम किया। 1940 ई० में पाकिस्तान प्रस्ताव पारित होने के उपरान्त लीग को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रोत्साहन दिया गया। भारत सचिव एमरी सहित कई ऐसे उच्च अधिकारी थे जो पाकिस्तान की माँग से गहरी सहानुभूति रखते थे। पं० नेहरू व मौलाना आजाद जैसे राष्ट्रवादी नेताओं का तो ख्याल था कि ब्रिटिश शासन ने कभी भी साम्प्रदायिक उपद्रवों को दबाने में तत्परता नहीं दिखाई।।

दूसरी तरफ मुस्लिम लीग ने अपने जन्म से ही पृथकतावादी नीति अपनाई तथा भारत में लोकतान्त्रिक संस्थाओं के विकास का विरोध किया। साम्प्रदायिकता अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दी गई। इतना ही नहीं, लीग के फिरोज खाँ जैसे नेताओं ने हिन्दुओं के विरुद्ध जहर उगलना शुरू कर दिया। ऐसी भयावह परिस्थिति का समाधान जितनी जल्दी हो सके, होना आवश्यक था।

यद्यपि कांग्रेस का स्वरूप प्रारम्भ से ही धर्मनिरपेक्ष रहा। लेकिन न चाहते हुए भी लखनऊ समझौता (1916 ई०) से शुरू हुई कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति ने आगे चलकर लीग के भारत-विभाजन के बढ़ते दावे को अधिक प्रोत्साहित किया। जैसे ही कांग्रेस ने 1937 ई० के चुनाव परिणाम के उपरान्त कठोर तथा वैधानिक दृष्टिकोण अपनाया, कांग्रेस एवं लीग के बीच कट्टर दुश्मनी प्रारम्भ हो गई। कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं की ऐसी भ्रामक धारणा थी कि पाकिस्तान कभी-भी पृथक् रूप से स्थायी देश नहीं बन सकता, अन्तत: वह भारत में सम्मिलित ही होगा। सम्भवत: इसी सन्देह के कारण उन्होंने भारतीय समस्या के अस्थायी समाधान के लिए पाकिस्तान की माँग को स्वीकार कर लिया।

लेकिन इस स्वीकारोक्ति के पीछे एक ठोस तर्क यह भी दिया जाता है कि मुहम्मद अली जिन्ना की भाँति ही कांग्रेस के नेताओं में भी सत्ता के प्रति आकर्षण होने लगा था। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने 1959 ई० में प्रकाशित अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘इण्डिया विन्स फ्रीडम’ में भारत-विभाजन के लिए नेहरू तथा पटेल को अधिक उत्तरदायी ठहराया है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार दोनों को सत्ता का लालच होने लगा था। यद्यपि कांग्रेस के गाँधी जी जैसे नेताओं ने विभाजन को टालने हेतु जिन्ना को अखण्ड भारत का प्रधानमन्त्री बनाने का प्रस्ताव रखा ताकि दंगे रुकने के साथ ही जिन्ना की महत्वाकाँक्षा भी पूर्ण हो जाती। लेकिन नेहरू तथा पटेल को यह अस्वीकार्य था। इसके विपरीत गाँधी जी पर यह आरोप लगा कि ‘मुसलमानों का अधिक पक्ष ले रहे हैं। इस प्रकार वरिष्ठ नेताओं के आपसी मतभेदों ने भी विभाजन को अपरिहार्य बना दिया।

20 वीं शताब्दी में मुस्लिम साम्प्रदायिकता के साथ-साथ हिन्दू साम्प्रदायिकता का भी प्रादुर्भाव होने लगा। मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपतराय आदि नेताओं द्वारा हिन्दू महासभा को एक सशक्त दल के रूप में तैयार किया गया। उल्लेखनीय है कि हिन्दुओं का दृष्टिकोण भी मुसलमानों के प्रति अनेक बार प्रतिक्रियावादी होता था। 1937 ई० के हिन्दू महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन में वीर सावरकर द्वारा कहा गया था, “भारत एक सूत्र में बँधा राष्ट्र नहीं माना जा सकता अपितु यहाँ मुख्यतः हिन्दू तथा मुसलमान दो राष्ट्र हैं।

” दंगों को भड़काने में हिन्दू महासभा तथा अन्य कट्टरपंथी हिन्दू नेताओं की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण न रही। इसी प्रकार अकालियों ने भी पृथक् “खालिस्तान की माँग प्रारम्भ कर दी। कम्युनिस्ट भी पीछे नहीं थे। वे भारत को 11 से अधिक भागों में बाँटना चाहते थे। इस प्रकार समूचे भारत की राजनीतिक तथा अन्य परिस्थितियाँ विकास के समय जटिल व भयावह बन चुकी थीं। यद्यपि कुछ इतिहासकारों का कहना है कि विभाजन टाला जा सकता था यदि ……… किन्तु इतिहास में, यदि के लिए स्थान नहीं होता। परिस्थितियाँ इतनी भयावह थीं कि यदि, यदि’ से सम्बन्धित परिस्थितियों को आदर्श रूप में स्वीकार भी कर लिया जाता तब भी विभाजन को कुछ समय के लिए तो टाला जा सकता था, किन्तु स्थायी रूप से समाधान तो भारत-विभाजन ही था, क्योंकि जिन्ना व लीग की राजनीतिक आकांक्षाएँ अखण्ड स्वतन्त्र भारत में फलीभूत नहीं हो सकती थीं।”

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi परिचयात्मक निबन्ध

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name परिचयात्मक निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi परिचयात्मक निबन्ध

परिचयात्मक निबन्ध

एक महापुरुष की जीवनी (राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी)

सम्बद्ध शीर्षक

  • मेरा प्रिय राजनेता
  • मेरा आदर्श पुरुष
  • वर्तमान युग में गाँधीवाद की प्रासंगिकता
  • हमारे आदर्श महापुरुष

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. जीवनवृत्त,
  3. गाँधी जी के सिद्धान्त-(अ) अहिंसा (व्यक्तिगत एवं सामाजिक अहिंसा, राजनीति में अहिंसा); (ब) शिक्षा-सम्बन्धी सिद्धान्त,
  4. राष्ट्रभाषा के प्रबल पोषक,
  5. कुटीर उद्योग पर बल,
  6. प्रेरणादायक गुण,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना-मानव-जीवन एक रहस्य है। इसके रहस्य अनेक बार मनुष्य को उस मोड़ पर ला खड़ा करते हैं, जहाँ वह किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में होता है। उसे कुछ सूझता ही नहीं। ऐसी स्थिति में ‘महाजनो येन गताः स पन्था’ के अनुरूप व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। जीवन की ऐसी उलझनों से सुलझने के लिए जिस महापुरुष ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया; उसका नाम है—मोहनदास करमचन्द गाँधी। यही मेरे आदर्श पुरुष हैं। इनके बाह्य व आन्तरिक व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त जी लिखते हैं

तुम मांसहीन, तुम रक्तहीन,
हे अस्थिशेष ! तुम अस्थिहीन,
तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवले,
हे चिर पुराण ! हे चिर नवीन !

यद्यपि बाह्य रूप से देखने में गाँधी जी अस्थियों का ढाँचामात्र ही लगते थे, किन्तु उनमें आत्मिक बल अमित था। वस्तुत: राजनीति जैसे स्थूल और भौतिकवादी क्षेत्र में उन्होंने आत्मा की आवाज पर बल दिया, नैतिकता का प्रतिपादन किया तथा साध्य के साथ साधन की शुद्धता को भी आवश्यक ठहराया। विश्व-राजनीति को यह उनका विशिष्ट योगदान था, जिससे प्रेरणा लेकर कई पराधीन देशों में स्वातन्त्र्य-आन्दोलन चलाये गये और स्वतन्त्रता प्राप्त की गयी।

जीवनवृत्त-मोहनदास करमचन्द गाँधी को जन्म 2 अक्टूबर, सन् 1869 ई० को पोरबन्दर (गुजरात) में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री करमचन्द गाँधी तथा माँ का नाम श्रीमती पुतलीबाई था। करमचन्द गाँधी पोरबन्दर रियासत के दीवान थे। सात वर्ष की अवस्था में मोहनदास करमचन्द गाँधी एक गुजराती पाठशाला में पढ़ने गये। बाद में अंग्रेजी स्कूल में भर्ती हुए, जहाँ से उन्होंने अंग्रेजी के साथ-साथ संस्कृत तथा धार्मिक ग्रन्थों का भी अध्ययन किया। इण्ट्रेन्स की परीक्षा पास करने के उपरान्त ये विलायत चले गये।।

भारत लौटने पर गाँधी जी ने पहले राजकोट और फिर बम्बई में वकालत शुरू की। उन्हें सेठ अब्दुल्ला फर्म के एक हिस्सेदार के मुकदमे को लेकर दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। वहाँ पग-पग पर रंगभेद-नीति के फलस्वरूप भारतीयों का अपमान देखकर तथा स्वयं आप बीते कठोर अनुभवों के आधार पर उन्होंने रंगभेद-नीति को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया। प्रिटोरिया में भारतीयों की पहली सभा में गाँधी जी ने भाषण दिया और यहीं से इनके सार्वजनिक जीवन का आरम्भ हुआ। सन् 1896 ई० में गाँधी जी भारत आये और सपरिवार पुन: अफ्रीका लौट गये। लौटने पर उन्हें गोरों का विशेष विरोध सहना पड़ा, परन्तु गाँधी जी ने साहस न छोड़ा और कई आन्दोलनों का संचालन करते रहे। सेवा में उनका अडिग विश्वास था। बोअर-युद्ध (सन् 1899 ई०) तथा जूलू-विद्रोह (सन् 1906 ई०) में स्वयंसेना स्थापित करके उन्होंने पीड़ितों की पर्याप्त सेवा की।

सन् 1914 ई० में वे भारत लौट आये। यहाँ आकर उन्होंने चम्पारन में किसानों पर किये जाने वाले अत्याचारों तथा कारखानों के कर्मचारियों पर मालिकों द्वारा की गयी ज्यादतियों का खुलकर विरोध किया और भारत के सार्वजनिक जीवन में पदार्पण किया। सन् 1924 ई० में वे बेलगाँव में कांग्रेस-अध्यक्ष चुने गये। सन् 1930 ई० में कांग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव रखा और इस आन्दोलन के समस्त अधिकार गाँधी जी को सौंप दिये। 4 मार्च, सन् 1931 ई० को गाँधी-इरविन समझौता हुआ। दूसरी गोलमेज कॉन्फ्रेन्स में कांग्रेस-प्रतिनिधि के रूप में गाँधी जी इंग्लैण्ड गये और अंग्रेज सरकार से स्पष्ट शब्दों में कहा कि यदि भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता न मिली तो कांग्रेस का आन्दोलन भी जारी रहेगा।

अगस्त, सन् 1942 ई० में गाँधी जी ने भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव पारित किया; जिससे देश में एक महान् आन्दोलन छिड़ा। गाँधी जी तथा अन्य नेता जेल में बन्द कर दिये गये। 1946 ई० के हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष में गाँधी जी ने नोआखाली की पैदल यात्रा की और वहाँ शान्ति स्थापित करने में सफल हुए। 15 अगस्त, सन् 1947 ई० को भारत को स्वतन्त्रता मिली। देश में उत्पन्न अन्य समस्याओं को सुलझाने में गाँधी जी लगे ही थे कि सहसा 30 जनवरी, सन् 1948 ई० को वे शहीदों की परम्परा में चले गये।

गाँधी जी के सिद्धान्त-(अ) अहिंसा-गाँधी जी का सबसे प्रमुख सिद्धान्त था व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में अहिंसा का प्रयोग। अहिंसा आत्मा का बल है। वे अहिंसा का मूल प्रेम में मानते थे। वे लिखते हैं, “पूर्ण अहिंसा समस्त जीवधारियों के प्रति दुर्भावना का पूर्ण अभाव है, इसलिए वह मनुष्य के अलावा दूसरे प्राणियों-यहाँ तक कि विषैले कीड़ों और हिंसक जानवरों का भी आलिंगन करती है।’ उन्होंने बार-बार कहा है कि अहिंसा वीर का धर्म है, कायर का नहीं; क्योंकि हिंसा करने की पूरी सामर्थ्य रखते हुए भी जो हिंसा नहीं करता, वही अहिंसा-धर्म का पालन करने में समर्थ होता है।

(i) व्यक्तिगत एवं सामाजिक अहिंसा-अहिंसा का अर्थ है-प्रेम, दया और क्षमा। अपने व्यक्तिगत जीवन में भी गाँधी जी ने इस सिद्धान्त को चरितार्थ करके दिखाया। वे जीव मात्र से प्रेम करते थे। दीनों और दलितों के लिए तो उनके प्रेम और करुणा की कोई सीमा ही न थी। वे इसे मानवता के प्रति घोर अपराध मानते थे कि किसी को नीचा या अस्पृश्य समझा जाए; क्योंकि भगवान् की दृष्टि में सारे प्राणी समान हैं। इसीलिए उन्होंने अछूतोद्धार का आन्दोलन चलाया, जिसे उन्होंने हरिजनोद्धार कहा। हिन्दू-समाज के प्रति यह उनकी बहुत बड़ी सेवा थी। उनके आन्दोलन के फलस्वरूप हरिजनों को मन्दिर में प्रवेश का अधिकार मिला।

उनकी दया-भावना ने उन्हें प्राणिमात्र की सेवा के लिए प्रेरित किया। परचुरे शास्त्री भयंकर कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। गाँधी जी ने उन्हें अपने साथ रखा। इतना ही नहीं, उनके घावों को भी वे स्वयं अपने हाथ से साफ करते थे। इससे उनकी परदुःख-कातरता एवं सेवा-भावना का पता चलता है। अपने साथियों का भी गाँधी जी बहुत ध्यान रखते थे। एक अवसर पर एक सज्जन आकर गाँधी जी को कुछ फल दे गये, जिनमें चीकू भी थे। गाँधी जी ने कुछ चीकू अपने एक साथी को देते हुए कहा, “इन्हें महादेव को दे आओ, उसे चीकू बहुत पसन्द हैं।’

अपने शत्रु को क्षमा करने की घटनाएँ तो उनके जीवन में भरी पड़ी हैं। उन्होने अपने आश्रम में साँप, बिच्छू आदि को भी मारना वर्जित कर दिया था। उन्हें पकड़कर दूर छोड़ दिया जाता था। एक बार एक साँप गाँधी जी के कन्धे पर चढ़ गया। उनके साथियों ने उनकी ओढ़ी हुई चादर समेत उसे खींचकर दूर ले जाकर छोड़ दिया। इस प्रकार गाँधी जी ने अपने जीवन में भी अहिंसा को चरितार्थ करके दिखाया।

(ii) राजनीति में अहिंसा-राजनीति के क्षेत्र में अहिंसा के सिद्धान्त का व्यवहार उन्होंने तीन शस्त्रों के रूप में किया–सत्याग्रह, असहयोग और बलिदान। सत्याग्रह का अर्थ है–सत्य के प्रति आग्रह अर्थात् जो आदमी को ठीक लगे, उस पर पूरी शक्ति और निष्ठा से चलना, किसी के दबाव के आगे झुकना नहीं। असहयोग का अर्थ है-बुराई से, अन्याय से, अत्याचार से सहयोग न करना। यदि कोई सताये, अन्याय करे तो किसी भी काम में उसका साथ न देना। बलिदान का आशय है–सच्चाई के लिए, न्याय के लिए, अपने प्राण तक न्योछावर कर देना। इन तीनों हथियारों का प्रयोग गाँधी जी ने पहले दक्षिण अफ्रीका में किया, फिर भारत में।

(ब) शिक्षा-सम्बन्धी सिद्धान्त–शिक्षा से गाँधी जी का तात्पर्य बालक के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास से था। इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं, “शिक्षा से तात्पर्य उन समस्त शक्तियों के दोहन से है, जो शिशु एवं मानव के शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा में निहित हैं। साथ ही उनके अनुसार, “कोई भी वह शिक्षा पूर्ण नहीं है, जो लड़के-लड़कियों को आदर्श नागरिक नहीं बनाती।’

गाँधी जी के शिक्षा-सम्बन्धी विचारों का केन्द्रबिन्दु है-व्यवसाय और व्यवसाय से उनका आशय हस्तकला से है। वे लिखते हैं-मैं बालक की शिक्षा का आरम्भ किसी उपयोगी हस्तकला के शिक्षण से करूंगा, जिससे वह आरम्भ से ही अर्जन करने में समर्थ हो सके। इससे एक तो वह शिक्षा का व्यय वहन कर सकेगा और फिर वह अपने भावी जीवन में पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर भी हो सकेगा। इस प्रकार शिक्षा बेकारी दूर करने का एक प्रकार से बीमा है। वे विद्यालयों को आत्मनिर्भर देखना चाहते थे, अर्थात् शिक्षकों की व्यवस्था विद्यालय के उत्पादन से ही हो सके और राज्य सरकार छात्रों द्वारा उत्पादित वस्तुओं के खरीदने की व्यवस्था करे।।

राष्ट्रभाषा के प्रबल पोषक-गाँधी जी राष्ट्रभाषा के बिना किसी स्वतन्त्र राष्ट्र की कल्पना ही नहीं करते थे। उनका स्पष्ट मत था कि किसी विदेशी भाषा के माध्यम से बालक की क्षमताओं का पूर्ण विकास सम्भव नहीं। इसी कारण राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया।

कुटीर उद्योगों पर बल–गाँधी जी भारत जैसे विशाल देश की समस्याओं और आवश्यकताओं को बहुत गहराई तक समझते थे। वे जानते थे कि ऐसे देश में जहाँ विशाल जनसंख्या के कारण जनशक्ति की कमी नहीं, आर्थिक आत्मनिर्भरता एवं सम्पन्नता के लिए कुटीर उद्योग ही सर्वाधिक उपयुक्त साधन हैं। गाँधी जी ने ग्रामों को आर्थिक स्वावलम्बन प्रदान करने के लिए खादी उद्योग को बढ़ावा दिया, चरखे को अपने आर्थिक सिद्धान्तों का केन्द्रबिन्दु बना लिया तथा प्रत्येक गाँधीवादी के लिए प्रतिदिन चरखा चलाना और खादी पहनना अनिवार्य कर दिया।

प्रेरणादायक गुण-गाँधी जी में ऐसे अनेक महान् गुण विद्यमान थे, जिनसे प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा लेनी चाहिए। उनका पहला गुण था—समय का सदुपयोग। वे अपना एक क्षण भी व्यर्थ न गंवाते थे, यहाँ तक कि दूसरों से बात करते समय भी वे कुछ-न-कुछ काम अवश्य करते रहते थे, चाहे वह आश्रम की सफाई का काम हो या चरखा चलाने का या रोगियों की सेवा-शुश्रूषा का। यही कारण है कि इतनी अधिक व्यस्तता के बावजूद वे अनेक ग्रन्थ और लेखादि लिख सके।

दूसरा महत्त्वपूर्ण गुण था—दूसरों को उपदेश देने से पहले किसी आदर्श को स्वयं अपने जीवन में क्रियान्वित करना। उदाहरणार्थ-वे अपना सारा काम स्वयं अपने ही हाथों करते थे, यहाँ तक कि अपना मल-मूत्र भी स्वयं साफ करते थे। इसके बाद ही वे आश्रमवासियों को भी ऐसा करने की प्रेरणा देते थे।

मितव्ययिता उनका एक अन्य प्रेरक गुण था। वे तुच्छ-से-तुच्छ वस्तु को भी व्यर्थ नहीं समझते थे, अपितु उसका अधिकतम सदुपयोग करने का प्रयास करते थे। इस सम्बन्ध में आश्रमवासियों को भी उनका कठोर आदेश था।

गाँधी जी की सारग्रहिणी प्रवृत्ति भी बड़ी प्रेरणाप्रद थी। वे अपने कटुतम आलोचक और विरोधी की बात भी बड़ी शान्ति से सुनते और अपने कटु विरोधी व्यक्ति की उचित बात को साररूप में ग्रहण कर लेते थे। एक बार कोई अंग्रेज युवक एक लम्बे पत्र में गाँधी जी को सैकड़ों भद्दी-भद्दी गालियाँ लिखकर स्वयं उनके पास पहुँचा और पत्र उन्हें दिया। पत्र पर दृष्टि डालते ही उन्होंने उसका आशय समझ लिया और उसमें लगी आलपिन को अपने पास रखकर पृष्ठों को रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया। युवक ने उनसे इसका कारण पूछा। गाँधी जी ने कहा कि इसमें सार वस्तु केवल इतनी ही थी, जो मैंने ले ली।

उपसंहार–सारांश यह है कि गाँधी जी ने अपने नेतृत्व के गुणों से जनता की असीम श्रद्धा अर्जित की। उन्होंने भारत की जनता में स्वाभिमान और आत्मविश्वास जगाया, उसे अपने अधिकार के लिए लड़ने का मनोबल दिया, देश को स्वतन्त्र कराने की प्रेरणा दी तथा स्वदेशी आन्दोलन द्वारा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के स्वीकरण का मन्त्र दिया। उनके खादी आन्दोलन ने ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा दिया, राष्ट्रभाषा के महत्त्व एवं गौरव के प्रबल समर्थन द्वारा उन्होंने कितने ही हिन्दीतर-भाषियों को हिन्दी सीखने की प्रेरणा दी तथा राष्ट्रभाषा आन्दोलन को देश के कोने-कोने तक पहुँचा दिया। अपने अनेकानेक व्यक्तिगत गुणों के कारण अपने सम्पर्क में आने वालों को उन्होंने अन्दर तक प्रभावित किया और दीन-दु:खियों के सदृश स्वयं भी अधनंगे रहकर तथा निर्धनता और सादगी का जीवन अपनाकर लोगों से ‘महात्मा’ और ‘बापू’ का प्रेममय सम्बोधन पाया। सचमुच वे वर्तमान भारत की एक महान् विभूति थे।

मेरे प्रिय कवि : तुलसीदास [2012, 13, 14, 16, 18]

सम्बद्ध शीर्षक

  • तुलसी का समन्वयवाद
  • हमारे आदर्श कति : तुलसीदास [2012]
  • रामकाव्यधारा के प्रमुख कवि : तुलसीदास
  • लोकनायक तुलसीदास [2011]
  • कविता लसी पा तुलसी की कला [2009]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. तत्कालीन परिस्थितियाँ,
  3. तुलसीकृत रचनाएँ,
  4. ढुलसीदास : एक लोकनायक के रूप में,
  5. तुलसी के रमि,
  6. तुलसी की निष्काम भक्ति-भावना,
  7. तुलसी की समन्वय-साधना–(क) सगुण-निर्गुण का समन्वय, (ख) कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय, (ग) युगधर्म-समन्वय, (घ) साहित्यिक समन्वय,
  8. तुलसी के दार्शनिक विचार,
  9. उपसंहार।

प्रस्तावना-यद्यपि मैंने बहुत अधिक अध्ययन नहीं किया है, तथापि भक्तिकालीन कवियों में कबीर, सूर, तुलसी और मीरा तथा आधुनिक कवियों में प्रसाद, पन्त और महादेवी के काव्य का रसास्वादन अवश्य किया है। इन सभी कवियों के काव्य का अध्ययन करते समय तुलसी के काव्य की अलौकिकता के समक्ष मैं सदैव नतमस्तक होता रहा हूँ। उनकी भक्ति-भावना, समन्वयात्मक दृष्टिकोण तथा काव्य-सौष्ठव ने मुझे स्वाभाविक रूप से आकृष्ट किया है।

तत्कालीन परिस्थितियाँ-तुलसीदास को जन्म ऐसी विषम परिस्थितियों में हुआ था, जब हिन्दू समाज अशक्त होकर विदेशी चंगुल में फंस चुका था। हिन्दू समाज की संस्कृति और सभ्यता प्राय: विनष्ट हो चुकी थी और कहीं कोई पथ-प्रदर्शक नहीं था। इस युग में जहाँ एक ओर मन्दिरों का विध्वंस किया गया, ग्रामों व नगरों का विनाश हुआ, वहीं संस्कारों की भ्रष्टता भी चरम सीमा पर पहुँच गयी। इसके अतिरिक्त तलवार के बल पर हिन्दुओं को मुसलमान बनाया जा रहा था। सर्वत्र धार्मिक विषमताओं का ताण्डव हो रहा था और विभिन्न सम्प्रदायों ने अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग अलापना आरम्भ कर दिया था। ऐसी परिस्थिति में भोली-भाली जनता यह समझने में असमर्थ थी कि वह किस सम्प्रदाय का आश्रय ले। उस समय दिग्भ्रमित जनता को ऐसे नाविक की आवश्यकता थी, जो उसके नैतिक जीवन की नौका की पतवार सँभाल ले।

गोस्वामी तुलसीदास ने अन्धकार के गर्त में डूबी हुई जनता के समक्ष भगवान् राम का लोकमंगलकारी रूप प्रस्तुत किया और उसमें अपूर्व आशा एवं शक्ति का संचार किया। युगद्रष्टा तुलसी ने अपनी अमर कृति ‘श्रीरामचरितमानस’ द्वारा भारतीय समाज में व्याप्त विभिन्न मतों, सम्प्रदायों एवं धाराओं में समन्वय स्थापित किया। उन्होंने अपने युग को नवीन दिशा, नयी गति एवं नवीन प्रेरणा दी। उन्होंने सच्चे लोकनायक के समान समाज में व्याप्त वैमनस्य की चौड़ी खाई को पाटने का सफल प्रयत्न किया।

तुलसीकृत रचनाएँ-तुलसीदास जी द्वारा लिखित 12 ग्रन्थ प्रामाणिक माने जाते हैं। ये ग्रन्थ हैं‘श्रीरामचरितमानस’, ‘विनयपत्रिका’, ‘गीतावली’, ‘कवितावली’, ‘दोहावली’, ‘रामलला नहछु’, ‘पार्वती-मंगल’, ‘जानकी-मंगल’, ‘बरवै रामायण’, ‘वैराग्य संदीपनी’, ‘श्रीकृष्णगीतावली’ तथा ‘रामाज्ञा प्रश्नावली’। तुलसी की ये रचनाएँ विश्व-साहित्य की अनुपम निधि हैं।

तुलसीदास : एक लोकनायक के रूप में-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन हैलोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके; क्योंकि भारतीय समाज में नाना प्रकार की परस्पर विरोधी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ आचारनिष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे, ‘गीता’ ने समन्वय की चेष्टा की और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे।’

तुलसी के राम—तुलसी उन राम के उपासक थे, जो सच्चिदानन्द परब्रह्म हैं, जिन्होंने भूमि का भार हरण करने के लिए पृथ्वी पर अवतार लिया था

जब-जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी ॥
तब-तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जने पीरा ॥

तुलसी ने अपने काव्य में सभी देवी-देवताओं की स्तुति की है, लेकिन अन्त में वे यही कहते हैं-

माँगत तुलसीदास कर जोरे। बसहिं रामसिय मानस मोरे ॥

राम के प्रति उनकी अनन्य भक्ति अपनी चरम-सीमा छूती है और वे कह उठते हैं कि-

करू कहाँ तक राम बड़ाई। राम न सकहिं, राम गुन गाही ।।

तुलसी के समक्ष ऐसे राम का जीवन था, जो मर्यादाशील थे और शक्ति एवं सौन्दर्य के अवतार थे।
तुलसीदास की निष्काम भक्ति-भावना-सच्ची भक्ति वही है, जिसमें लेन-देन का भाव नहीं होता। भक्त के लिए भक्ति का आनन्द ही उसका फल है। तुलसी के अनुसार-

मो सम दीन न दीन हित, तुम समान रघुबीर।।
अस बिचारि रघुबंसमनि, हरहु विषम भव भीर ॥

तुलसी की समन्वय-साधना-तुलसी के काव्य की सर्वप्रमुख विशेषता उसमें निहित समन्वय की प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति के कारण ही वे वास्तविक अर्थों में लोकनायक कहलाये। उनके काव्य में समन्वय के निम्नलिखित रूप दृष्टिगत होते हैं

(क) सगुण-निर्गुण का समन्वय-जब ईश्वर के सगुण एवं निर्गुण दोनों रूपों से सम्बन्धित विवाद, दर्शन एवं भक्ति दोनों ही क्षेत्रों में प्रचलित था तो तुलसीदास ने कहा
सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ।
(ख) कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय—तुलसी की भक्ति मनुष्य को संसार से विमुख करने अकर्मण्य बनाने वाली नहीं है, उनकी भक्ति तो सत्कर्म की प्रबल प्रेरणा देने वाली है। उन रिद्धान्त है कि राम के समान आचरण करो, रावण के सदृश दुष्कर्म नहीं–

भगतिहिं ग्यानहिं नहिं कछु भेदी। उभय हरहिं भव-संभव खेदा ।।

तुलसी ने ज्ञान और भक्ति के धागे में राम-नाम का मोती पिर दिशा —

हिय निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम ।
मनहुँ पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।

(ग) युगधर्म-समन्वय-भक्ति की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के बाह्य तथा आन्तरिक साधनों की आवश्यकता होती है। ये साधन प्रत्येक युग के अनुसार बदलते रहते हैं और उन्हीं को युगधर्म की संज्ञा दी जाती है। तुलसी ने इनका भी विलक्षण समन्वय प्रस्तुत किया है-

कृतजुग त्रेता द्वापर, पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि, नाम ते पावहिं लोग ॥

(घ) साहित्यिक समन्वय साहित्यिक क्षेत्र में भाषा, छन्द, रस एवं अलंकार आदि की दृष्टि से भी तुलसी ने अनुपम समन्वय स्थापित किया। उस समय साहित्यिक क्षेत्र में विभिन्न भाषाएँ विद्यमान थीं, विभिन्न छन्दों में रचनाएँ की जाती थीं। तुलसी ने अपने काव्य में भी संस्कृत, अवधी तथा ब्रजभाषा का अद्भुत समन्वय किया।

तुलसी के दार्शनिक विचार-तुलसी ने किसी विशेष वाद को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने वैष्णव धर्म को इतना व्यापक रूप प्रदान किया कि उसके अन्तर्गत शैव, शाक्त और पुष्टिमार्गी भी सरलता से समाविष्ट हो गये। वस्तुत: तुलसी भक्त हैं और इसी आधार पर वह अपना व्यवहार निश्चित करते हैं। उनकी भक्ति सेवक-सेव्य भाव की है। वे स्वयं को राम का सेवक मानते हैं और राम को अपना स्वामी।

उपसंहार—तुलसी ने अपने युग और भविष्य, स्वदेश और विश्व तथा व्यक्ति और समाज आदि सभी के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री दी है। तुलसी को आधुनिक दृष्टि ही नहीं, प्रत्येक युग की दृष्टि मूल्यवान् मानेगी; क्योंकि मणि की चमक अन्दर से आती है, बाहर से नहीं। तुलसी के सम्बन्ध में हरिऔध जी के हृदय से स्वत: फूट पड़ी प्रशस्ति अपनी समीचीनता में बेजोड़ है-

बन रामरसायन की रसिका, रसना रसिकों की हुई सुफला।
अवगाहन मानस में करके, मन-मानस का मल सारा टला ॥
बनी पावन भावे की भूमि भली, हुआ भावुक भावुकता का भला ।
कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला ॥

सचमुच कविता से तुलसी नहीं, तुलसी से कविता गौरवान्वित हुई। उनकी समर्थ लेखनी का सम्बल पी वाणी धन्य हो उठी।
तुलसीदास जी के इन्हीं सब गुणों का ध्यान आते ही मन श्रद्धा से परिपूरित हो उन्हें अपना प्रिय कवि मानने को विवश हो जाता है।

मेरे प्रिय साहित्यकार: जयशंकर प्रसाद [2013, 14, 15, 16, 17]

सम्बद्ध शीर्षक

  • अपना (मेरा) प्रिय कवि [2012, 13, 14, 17]
  • मेरा प्रिय लेखक [2009, 15]
  • मेरे प्रिय कहानीकार [2013]

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना,
  2. साहित्यकार का परिचय,
  3. साहित्यकार की साहित्यसम्पदा-(क) काव्य; (ख) नाटक; (ग) उपन्यास; (घ) कहानी; (ङ) निबन्ध,
  4. छायावाद के श्रेष्ठ कवि,
  5. श्रेष्ठ गद्यकार,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-संसार में सबकी अपनी-अपनी रुचि होती है। किसी व्यक्ति की रुचि चित्रकारी में है तो किसी की संगीत में। किसी की रुचि खेलकूद में है तो किसी की साहित्य में। मेरी अपनी रुचि भी साहित्य में रही है। साहित्य प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में इतना अधिक रचा गया है कि उन सबका पारायण तो एक जन्म में सम्भव ही नहीं है। फिर साहित्य में भी अनेक विधाएँ हैं–कविता, उपन्यास, नाटक, कहानी, निबन्ध आदि। अतः मैंने सर्वप्रथम हिन्दी-साहित्य का यथाशक्ति अधिकाधिक अध्ययन करने का निश्चय किया और अब तक जितना अध्ययन हो पाया है, उसके आधार पर मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकार हैं-जयशंकर प्रसाद प्रसाद जी केवल कवि ही नहीं, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार और निबन्धकार भी हैं। प्रसाद जी ने हिन्दी-साहित्य में भाव और कला, अनुभूति और अभिव्यक्ति, वस्तु और शिल्प सभी क्षेत्रों में युगान्तरकारी परिवर्तन किये हैं। उन्होंने हिन्दी भाषा को एक नवीन अभिव्यंजना-शक्ति प्रदान की है। इन सबने मुझे उनका प्रशंसक बना दिया है और वे मेरे प्रिय साहित्यकार बन गये हैं।

साहित्यकार का परिचय-श्री जयशंकर प्रसाद जी का जन्म सन् 1889 ई० में काशी के प्रसिद्ध हुँघनी-साहु परिवार में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री बाबू देवी प्रसाद था। लगभग 11 वर्ष की अवस्था में ही जयशंकर प्रसाद ने काव्य-रचना आरम्भ कर दी थी। सत्रह वर्ष की अवस्था तक इनके ऊपर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। इनके पिता, माता व बड़े भाई का देहान्त हो गया और परिवार का समस्त उत्तरदायित्व इनके सुकुमार कन्धों पर आ गया। गुरुतर उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए एवं अनेकानेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना करने के उपरान्त 15 नवम्बर, 1937 ई० को आपका देहावसान हुआ। 48 वर्ष के छोटे-से जीवन में इन्होंने जो बड़े-बड़े काम किये, उनकी कथा सचमुच अकथनीय है।

साहित्यकार की साहित्य-सम्पदा–प्रसाद जी की रचनाएँ सन् 1907-08 ई० में सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। ये रचनाएँ ब्रजभाषा की पुरानी शैली में थीं, जिनका संग्रह ‘चित्राधार’ में हुआ। सन् 1913 ई० में ये खड़ी बोली में लिखने लगे। प्रसाद जी ने पद्य और गद्य दोनों में साधिकार रचनाएँ कीं। इनका वर्गीकरण इस प्रकार है-

(क) काव्य-कानन-कुसुम, प्रेम पथिक, महाराणा का महत्त्व, झरना, आँसू, लहर और कामायनी (महाकाव्य)।
(ख) नाटक-इन्होंने कुल मिलाकरे 13 नाटक लिखे। इनके प्रसिद्ध नाटक हैं-चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ, कामना और ध्रुवस्वामिनी।
(ग) उपन्यास-कंकाल, तितली और इरावती।
(घ) कहानी–प्रसाद की विविध कहानियों के पाँच संग्रह हैं-छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी और इन्द्रजाल।
(ङ) निबन्ध–प्रसाद जी ने साहित्य के विविध विषयों से सम्बन्धित निबन्ध लिखे, जिनका संग्रह है-काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध।

छायावाद के श्रेष्ठ कवि–छायावाद हिन्दी कविता के क्षेत्र का एक आन्दोलन है जिसकी अवधि सन् 1920-1936 ई० तक मानी जाती है। ‘प्रसाद’ जी छायावाद के जन्मदाता माने जाते हैं। छायावाद एक आदर्शवादी काव्यधारा है, जिसमें वैयक्तिकता, रहस्यात्मकता, प्रेम, सौन्दर्य तथा स्वच्छन्दतावाद की सबल अभिव्यक्ति हुई है। प्रसाद की ‘आँसू’ नाम की कृति के साथ हिन्दी में छायावाद का जन्म हुआ। आँसू का प्रतिपाद्य है–विप्रलम्भ श्रृंगार। प्रियतम के वियोग की पीड़ा वियोग के समय आँसू बनकर वर्षा की भाँति उमड़ पड़ती है

जो घनीभूत पीड़ा थी, स्मृति सी नभ में छायी।
दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आयी ॥

प्रसाद के काव्य में छायावाद अपने पूर्ण उत्कर्ष पर दिखाई देता है; यथा–सौन्दर्य-निरूपण एवं श्रृंगार भावना, प्रकृति-प्रेम, मानवतावाद, प्रेम भावना, आत्माभिव्यक्ति, प्रकृति पर चेतना का आरोप, वेदना और निराशा का स्वर, देश-प्रेम की अभिव्यक्ति, नारी के सौन्दर्य का वर्णन, तत्त्व-चिन्तन, आधुनिक बौद्धिकता, कल्पना का प्राचुर्य तथा रहस्यवाद की मार्मिक अभिव्यक्ति। अन्यत्र इंगित छायावाद की कलागत विशेषताएँ अपने उत्कृष्ट रूप में इनके काव्य में उभरी हुई दिखाई देती हैं।

‘आँसू मानवीय विरह का एक प्रबन्ध काव्य है। इसमें स्मृतिजन्य मनोदशा एवं प्रियतम के अलौकिक रूप-सौन्दर्य का मार्मिक वर्णन किया गया है। ‘लहर’ आत्मपरक प्रगीत मुक्तक है, जिसमें कई प्रकार की कविताओं का संग्रह है। प्रकृति के रमणीय पक्ष को लेकर सुन्दर और मधुर रूपकमय यह गीत ‘सहर’ से संगृहीत है।

बीती विभावरी जाग री ।।
अम्बर-पनघट में डुबो रही ;
तारा-घट ऊषा नागरी ।

‘प्रसाद’ की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचना है-कामायनी महाकाव्य, जिसमें प्रतीकात्मक शैली पर मानव- चेतना के विकास का काव्यमय निरूपण किया गया है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में, “यह काव्य बड़ी विशद कल्पनाओं और मार्मिक उक्तियों से पूर्ण है। इसके विचारात्मक आधार के अनुसार श्रद्धा या रागात्मिका वृत्ति ही मनुष्य को इस जीवन में शान्तिमय आनन्द का अनुभव कराती हैं। वही उसे आनन्द-धाम तक पहुँचाती है, जब कि इड़ा या बुद्धि आनन्द से दूर भगाती है।” अन्त में कवि ने इच्छा, कर्म और ज्ञान तीनों के सामंजस्य पर बल दिया है; यथा-

ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा पूरी क्यों हो मन की ?
एक दूसरे से मिल न सके, यह विडम्बना जीवन की ।

श्रेष्ठ गद्यकार-गद्यकार प्रसाद की सर्वाधिक ख्याति नाटककार के रूप में है। उन्होंने गुप्तकालीन भारत को आधुनिक परिवेश में प्रस्तुत करके गाँधीवादी अहिंसामूलक देशभक्ति का सन्देश दिया है। साथ ही अपने समय के सामाजिक आन्दोलनों का सफल चित्रण किया है। नारी की स्वतन्त्रता एवं महिमा पर उन्होंने सर्वाधिक बल दिया है। उनके प्रत्येक नाटक का संचालन सूत्र किसी नारी पात्र के ही हाथ में रहता है। उपन्यास और कहानियों में भी सामाजिक भावना का प्राधान्य है। उनमें दाम्पत्य-प्रेम के आदर्श रूप का चित्रण किया गया है। उनके निबन्ध विचारात्मक एवं चिन्तनप्रधान हैं, जिनके माध्यम से प्रसाद ने काव्य और काव्य-रूपों के विषय में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं।

उपसंहार-–पद्य और गद्य की सभी रचनाओं में इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ एवं परिमार्जित हिन्दी है। इनकी शैली आलंकारिक एवं साहित्यिक है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इनकी गद्य-रचनाओं में भी इनका छायावादी कवि हृदय झाँकता हुआ दिखाई देता है। मानवीय भावों और आदर्शों में उदारवृत्ति का सृजन विश्व-कल्याण के प्रति इनकी विशाल-हृदयता का सूचक है। हिन्दी-साहित्य के लिए प्रसाद जी की यह बहुत बड़ी देन है। ‘प्रसाद’ की रचनाओं में छायावाद पूर्ण प्रौढ़ता, शालीनता, गुरुता और गम्भीरता को प्राप्त दिखाई देता है। अपनी विशिष्ट कल्पना शक्ति, मौलिक अनुभूति एवं नूतन अभिव्यक्ति पद्धति के फलस्वरूप प्रसाद हिन्दी-साहित्य में मूर्धन्य स्थान पर प्रतिष्ठित हैं। समग्रतः यह कहा जा सकता है कि प्रसाद जी का साहित्यिक व्यक्तित्व बहुत महान् है जिस कारण वे मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकार रहे हैं।

मेरा प्रिय वैज्ञानिक : चन्द्रशेखर वेंकटरमन [2016]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. प्रारम्भिक परिचय,
  3. शिक्षा एवं कार्यक्षेत्र,
  4. वैज्ञानिक उपलब्धियाँ व नोबेल पुरस्कार,
  5. अन्य पुरस्कार व सम्मान,
  6. निधन एवं उपसंहार।

प्रस्तावना–भारत सदियों से ऐसे मेहपुरुषों की भूमि रही है, जिनके कार्यों से पूरी मानवता का कल्याण हुआ है। ऐसे महापुरुषों की सूची में केवल समाज-सुधारकों, साहित्यकारों एवं आध्यात्मिक गुरुओं के ही नहीं, बल्कि कई वैज्ञानिकों के भी नाम आते हैं। चन्द्रशेखर वेंकटरमन ऐसे ही एक महान् भारतीय वैज्ञानिक थे, जिनकी खोजों के फलस्वरूप विश्व को कई प्राकृतिक रहस्यों का पता लगा। ये ही मेरे आदर्श वैज्ञानिक हैं।।

प्रारम्भिक परिचय-चन्द्रशेखर वेंकटरमन का जन्म 7 नवम्बर, 1888 को तमिलनाडु राज्य में तिरुचिरापल्ली नगर के निकट तिरुवनईकवल नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम चन्द्रशेखर अय्यर एवं माता का नाम पार्वती अम्माल था। चूंकि वेंकटरमन के पिता भौतिक विज्ञान एवं गणित के विद्वान् थे तथा विशाखापत्तनम में प्राध्यापक के पद पर नियुक्त थे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि रमन को विज्ञान के प्रति गहरी रुचि एवं अध्ययनशीलता विरासत में मिली। एक वैज्ञानिक होने के बावजूद धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्तित्व उन पर अपनी माँ के स्पष्ट प्रभाव को दर्शाता है, जो संस्कृत की अच्छी जानकार एवं धार्मिक प्रवृत्ति की थीं।

शिक्षा एवं कार्यक्षेत्र–रमन की प्रारम्भिक शिक्षा विशाखापत्तनम में हुई। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए ये चेन्नई चले गए। वहीं उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज से 1994 ई० में बी०ए० एवं 1907 ई० में एम०ए० की डिग्रियाँ प्राप्त की। बी०ए० में उन्होंने कॉलेज में प्रथम स्थान प्राप्त करते हुए गोल्ड मेडल प्राप्त किया था तथा एम०ए० प्रथम श्रेणी में अत्युच्च अंकों के साथ उत्तीर्ण हुए थे। 1907 ई० में ही ये भारतीय वित्त विभाग द्वारा आयोजित परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त कर कलकत्ता (कोलकाता) में सहायक महालेखपाल के पद पर नियुक्त हुए। उस समय उनकी आयु मात्र 19वर्ष थी। इतनी कम आयु में इतने उच्च पद पर नियुक्त होने वाले वे पहले भारतीय थे। सरकारी नौकरी के दौरान भी उन्होंने विज्ञान का दामन नहीं छोड़ा और कलकत्ता की भारतीय विज्ञान प्रचारिणी संस्था के संस्थापक डॉ० महेन्द्रलाल सरकार के सुपुत्र वैज्ञानिक डॉ० अमृतलाल सरकार के साथ अपना वैज्ञानिक शोधकार्य करते रहे। 1911 ई० में वे डाक-तार विभाग के अकाउण्टेन्ट जनरल बने। इसी बीच उन्हें भारतीय विज्ञान परिषद् का सदस्य भी बनाया गया। 1917 ई० में विज्ञान को अपना सम्पूर्ण समय देने के लिए उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान के प्राचार्य पद पर नियुक्त हुए। उस समय प्राचार्य का वह पद पालित पद में रूप में था।

वैज्ञानिक उपलब्धियाँ व नोबेल पुरस्कार-सरकारी नौकरी को छोड़कर भौतिक विज्ञान के प्राचार्य पद पर नियुक्त होने के पीछे उनका उद्देश्य अपने वैज्ञानिक अनुसन्धानों को अधिक समय देना था। इस दौरान उनके शोध-पत्र देश-विदेश की कई वैज्ञानिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। अपने शोध और अनुसन्धान को गति प्रदान करने के उद्देश्य से उन्होंने कई विदेश यात्राएँ भी की। 1921 ई० में ऐसी ही एक समुद्र यात्रा के दौरान समुद्र के गहरे नीले पानी ने उनका ध्यान बरबस ही अपनी ओर खींचा। फलस्वरूप उन्होंने पानी, हवा, बर्फ आदि पारदर्शक माध्यमों के अणुओं द्वारा परिक्षिप्त होने वाले प्रकाश का अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने अपने अनुसन्धानों से यह सिद्ध कर दिया कि पदार्थ के भीतर एक विद्युत तरल पदार्थ होता है, जो सदैव गतिमान रहता है। इसी तरल पदार्थ के कारण केवल पारदर्शक द्रवों में ही नहीं, बल्कि बर्फ तथा स्फटिक जैसे पारदर्शक पदार्थों और अपारदर्शी वस्तुओं में भी अणुओं की गति के कारण प्रकाश किरणों का परिक्षेपण हुआ करता है। किरणों के इसी प्रभाव को ‘रमन प्रभाव’ के नाम से जाना जाता है।

इस खोज के फलस्वरूप यह रहस्य खुला कि आकाश नीला क्यों दिखाई पड़ता है, वस्तुएँ विभिन्न रंगों की क्यों दिखती हैं और पानी पर हिमशैल हरे-नीले क्यों दिखते हैं। इसके अतिरिक्त इस खोज के फलस्वरूप विज्ञान जगत् को असंख्य जटिल यौगिकों के अणु विन्यास को सुलझाने से सम्बन्धित अनेक लाभ हुए। इस खोज के महत्त्व को देखते हुए 1930 ई० में रमन को भौतिक विज्ञान का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। रमन की रुचि संगीत में थी इसलिए कलकत्ता विश्वविद्यालय की नौकरी के दौरान उन्होंने ध्वनि कम्पन एवं शब्द-विज्ञान के क्षेत्र में भी रोचक बातों का पता लगाया था। 1934 ई० में उन्होंने बंगलौर (बंगलुरु) में भारतीय विज्ञान अकादमी की स्थापना की तथा 1948 से नवस्थापित रमन अनुसन्धान संस्थान, बंगलौर (बंगलुरु) में निदेशक पद पर आजीवन कार्य करते रहे। इस संस्थान में वे अपने जीवन के अन्तिम दिनों तक हीरों तथा अन्य रनों की बनावट के बारे में अनुसन्धान करते रहे।

अन्य पुरस्कार व सम्मान–1930 ई० में भौतिकी के नोबेल पुरस्कार के अतिरिक्त, चन्द्रशेखर वेंकटरमन की उपलब्धियों के लिए देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों एवं सरकारों ने उन्हें कई उपाधियाँ एवं पुरस्कार देकर सम्मनित किया। 1924 ई० में उन्हें रॉयल सोसाइटी का ‘फैलो’ चुना गया, तो 1929 ई० में ‘नाइट’ की पदवी से विभूषित किया गया। सोवियत रूस का श्रेष्ठतम ‘लेनिन शान्ति पुरस्कार’ उन्हें प्रदान किया गया। अंग्रेज सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि प्रदान की। इसके अतिरिक्त इटली की विज्ञान परिषद् ने ‘मेटयूसी पदक’, अमेरिका ने ‘फ्रेंकलिन पदक’ तथा इंग्लैण्ड ने ‘ह्यूजेज पदक’ प्रदान कर रमन को सम्मानित किया। 1954 ई० में उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किया गया। यह सम्मान कला, साहित्य और विज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए की गई विशिष्ट सेवा और जन-सेवा में उत्कृष्ट योगदान को सम्मानित करने के लिए प्रदान किया जाता है। विज्ञान के क्षेत्र में उन्होंने जो महान् अनुसन्धान किए थे, उनके लिए वे इसे सम्मान के वास्तविक हकदार थे। उन्होंने ‘रमन प्रभाव’ की खोज 28 फरवरी, 1928 को की थी, इसलिए 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारतीय डाक-तार विभाग ने उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियों के महत्त्व को देखते हुए एक डाकटिकट जारी करके श्री रमन को सम्मानित किया।

निधन एवं उपसंहार-चन्द्रशेखर वेंकटरमन वैज्ञानिक एवं शिक्षक ही नहीं, बल्कि एक कुशल वक्ता तथा संगीतप्रेमी भी थे। उन्होंने जीवन भर विज्ञान की सेवा की और रमन अनुसन्धान संस्थान के निदेशक पद पर रहते हुए उनकी मृत्यु 21 नवम्बर, 1970 को 81 वर्ष की अवस्था में हो गई। अपने संस्थान के प्रति उनके अनुराग को देखते हुए उनका दाह-संस्कार संस्थान के प्रांगण में ही किया गया। भारत को वैज्ञनिक अनुसन्धान के क्षेत्र में अग्रसर करने में रमन के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता। उन्होंने जो खोजें की थीं, आज उनका विस्तार विज्ञान की अनेक शाखाओं तक हो चुका है। उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व भारतीय युवा वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणा का बहुमूल्य स्रोत है।

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name साहित्यिक निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi साहित्यिक निबन्ध

साहित्यिक निबन्ध

साहित्य समाज का दर्पण है [2011, 14, 16, 17]

सम्बद्ध शीर्षक

  • साहित्य और मानव-जीवन 1. साहित्य और समाज
  • साहित्य समाज की अभिव्यक्ति है। [2010, 11, 12, 15, 17]
  • साहित्य और जीवन
  • सामाजिक विकास में साहित्य की उपयोगिता [2017]
  • साहित्य और समाज का घनिष्ठ सम्बन्ध [2017]

प्रमुख विचार-विन्द–

  1. साहित्य क्या है ?
  2. साहित्य की कतिपय परिभाषाएँ,
  3. समाज क्या है ?
  4. साहित्य और समाज का पारस्परिक सम्बन्ध : साहित्य समाज को दर्पण,
  5. साहित्य की रचनाप्रक्रिया,
  6. साहित्य का समाज पर प्रभाव,
  7. उपसंहार

साहित्य क्या है?-‘साहित्य’ शब्द ‘सहित’ से बना है। ‘सहित’ का भाव ही साहित्य कहलाता है। (सहितस्य भावः साहित्यः)। ‘सहित’ के दो अर्थ हैं-साथ एवं हितकारी (स + हित = हितसहित) या कल्याणकारी। यहाँ ‘साथ’ से आशय है-शब्द और अर्थ का साथ अर्थात् सार्थक शब्दों का प्रयोग। सार्थक शब्दों का प्रयोग तो ज्ञान-विज्ञान की सभी शाखाएँ करती हैं। तब फिर साहित्य की अपनी क्या विशेषता है ? वस्तुत: साहित्य का ज्ञान-विज्ञान की समस्त शाखाओं से स्पष्ट अन्तर है–(1) ज्ञान-विज्ञान की शाखाएँ बुद्धिप्रधान या तर्कप्रधान होती हैं जबकि साहित्य हृदयप्रधान। (2) ये शाखाएँ तथ्यात्मक हैं जबकि साहित्य कल्पनात्मक। (3) ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं का मुख्य लक्ष्य मानव की भौतिक सुख-समृद्धि एवं सुविधाओं का विधान करना है, पर साहित्य का लक्ष्य तो मानव के अन्त:करण को परिष्कार करते हुए, उसमें सदवृत्तियों का संचार करना है। आनन्द प्रदान कराना यदि साहित्य की सफलता है, तो मानव-मन को उन्नयन उसकी सार्थकता। (4) ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं में कथ्य (विचार-तत्त्व) ही प्रधान होता है, कथन-शैली गौण। वस्तुत: भाषा-शैली कहाँ विचाराभिव्यक्ति की साधनमात्र है। दूसरी ओर साहित्य में कथ्य से अधिक शैली का महत्व है। उदाहरणार्थ-

जल उठा स्नेह दीपक-सा
नवनीत हृदय था मेरा,
अब शेष घूमरेखा से
चित्रित कर रहा अंधेरा

कवि का कहना केवल यह है कि प्रिय के संयोगकाल में जो हृदये हर्षोल्लास से भरा रहता था, वही अब उसके वियोग में गुहरे विषाद में डूब गया है। यह एक साधारण व्यापार है, जिसका अनुभव प्रत्येक प्रेमी-हृदय करता है, किन्तु कवि ने दीपक के रूपक द्वारा इसी साधारण-सी बात को अत्यधिक चमत्कारपूर्ण ढंग से कहा है, जो पाठक के हृदय को कहीं गहरा छू लेता है।

स्पष्ट है कि साहित्य में भाव और भाषा, कथ्य और कथन-शैली (अभिव्यक्ति)-दोनों का समान महत्त्व है। यह अकेली विशेषता ही साहित्य को ज्ञान-विज्ञान की शेष शाखाओं से अलग करने के लिए पर्याप्त है।

साहित्य की कतिपय परिभाषाएँ–प्रेमचन्द जी साहित्य की परिभाषा इन शब्दों में देते हैं, “सत्य से आत्मा का सम्बन्ध तीन प्रकार का है-एक जिज्ञासा का, दूसरा प्रयोजन का और तीसरा आनन्द का। जिज्ञासा का सम्बन्ध दर्शन का विषय है, प्रयोजन का सम्बन्ध विज्ञान का विषय है और आनन्द को सम्बन्ध केवल साहित्य का विषय है। सत्य जहाँ आनन्द का स्रोत बन जाता है, वहीं वह साहित्य हो जाता है। इस बात को विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर इन शब्दों में कहते हैं, “जिस अभिव्यक्ति का मुख्य लक्ष्य प्रयोजन के रूप को व्यक्त करना नहीं, अपितु विशुद्ध आनन्द रूप को व्यक्त करना है, उसी को मैं साहित्य कहता हूँ।” प्रसिद्ध अंग्रेज समालोचक दक्विन्सी (De Quincey) के अनुसार साहित्य का दृष्टिकोण उपयोगितावादी न होकर मानवतावादी है। “ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं का लक्ष्य मानव को ज्ञानवर्द्धन करना है, उसे शिक्षा देना है। इसके विपरीत साहित्य मानव का अन्त:विकास करता है, उसे जीवन जीने की कला सिखाता है, चित्तप्रसादन द्वारा उसमें नूतन प्रेरणा एवं स्फूर्ति का संचार करता है।”

समाज क्या है ?--एक ऐसा मानव-समुदाय, जो किसी निश्चित भू-भाग पर रहता हो, समान परम्पराओं, इतिहास, धर्म एवं संस्कृति से आपस में जुड़ा हो तथा एक भाषा बोलता हो, समाज कहलाता है।

साहित्य और समाज का पारस्परिक सम्बन्ध: साहित्य समाज का दर्पण–समाज और साहित्य परस्पर घनिष्ठ रूप से आबद्ध हैं। साहित्य का जन्म वस्तुत: समाज से ही होता है। साहित्यकार किसी समाज विशेष का ही घटक होता है। वह अपने समाज की परम्पराओं, इतिहास, धर्म, संस्कृति आदि से ही अनुप्राणित होकर साहित्य-रचना करता है और अपनी कृति में इनका चित्रण करता है। इस प्रकार साहित्यकारे अपनी रचना की सामग्री किसी समाज विशेष से ही चुनता है तथा अपने समाज की शाओं-आकांक्षाओं, सुख-दु:खों, संघर्षों, अभावों और उपलब्धियों को वाणी देता है तथा उसका प्रामाणिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है। उसकी समर्थ वाणी का सहारा पाकर समाज अपने स्वरूप को पहचानता है और अपने रोग का सही निदान पाकर उसके उपचार को तत्पर होता है। इसी कारण किसी साहित्य विशेष को पढ़कर उस काल के समाज का एक समग्र-चित्र मानसपटल पर अंकित हो सकता है। इसी अर्थ में साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है।

साहित्य की रचना-प्रक्रिया-समर्थ साहित्यकार अपनी अतलस्पर्शिनी प्रतिभा द्वारा सबसे पहले अपने समकालीन सामाजिक जीवन का बारीकी से पर्यवेक्षण करता है, उसकी सफलताओं-असफलताओं, उपलब्धियों-अभावों, क्षमताओं-दुर्बलताओं तथा संगतियों-विसंगतियों की गहराई तक थाह लेता है। इसके पश्चात् विकृतियों और समस्याओं के मूल कारणों का निदान कर अपनी रचना के लिए उपयुक्त सामग्री का चयन करता है और फिर इस समस्त बिखरी हुई, परस्पर असम्बद्ध एवं अति साधारण-सी दीख पड़ने वाली सामग्री को सुसंयोजित कर उसे अपनी ‘नवनवोन्मेषशालिनी कल्पना के साँचे में ढालकर ऐसा कलात्मक रूप एवं सौष्ठव प्रदान करता है कि सहदय अध्येता रस-विभोर हो नूतन प्रेरणा से अनुप्राणित हो उठता है। कलाकार का वैशिष्ट्य इसी में है कि उसकी रचना की अनुभूति एकाकी होते हुए भी सार्वदेशिक-सार्वकालिक बन जाए तथा अपने युग की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हुए चिरन्तन मानव-मूल्यों से मण्डित भी हो। उसकी रचना न केवल अपने युग, अपितु आने वाले युगों के लिए भी नवस्फूर्ति का अजस्र स्रोत बन जाए और अपने देश-काल की उपेक्षा न करते हुए देश-कालातीत होकर मानवमात्र की अक्षय निधि बन जाए। यही कारण है कि महान् साहित्यकार किसी विशेष देश, जाति, धर्म एवं भाषा-शैली के समुदाय में जन्म लेकर भी सारे विश्व का अपना बन जाता है; उदाहरणार्थ-वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, तुलसीदास, होमर, शेक्सपियर आदि किसी देश विशेष के नहीं मानवमात्र के अपने हैं, जो युगों से मानव को नवचेतना प्रदान करते आ रहे हैं और करते रहेंगे।

साहित्य का समाज पर प्रभाव-साहित्यकार अपने समकालीन समाज से ही अपनी रचना के लिए आवश्यक सामग्री का चयन करता है; अत: समाज पर साहित्य का प्रभाव भी स्वाभाविक है।

जैसा कि ऊपर संकेतित किया गया है कि महान् साहित्यकार में एक ऐसी नैसर्गिक या ईश्वरदत्त प्रतिभा होती है, एक ऐसी अतलस्पर्शिनी अन्तर्दृष्टि होती है कि वह विभिन्न दृश्यों, घटनाओं, व्यापारों या समस्याओं के मूल तक तत्क्षण पहुँच जाता है, जब कि राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री या अर्थशास्त्री उसका कारण बाहर टटोलते रह जाते हैं। इतना ही नहीं, साहित्यकार रोग का जो निदान करता और उपचार सुझाता है, वही वास्तविक समाधान होता है। इसी कारण प्रेमचन्द जी ने कहा है कि “साहित्य राजनीति के आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है, राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं।’ अंग्रेज कवि शेली ने कवियों को ‘विश्व के अघोषित विधायक’ (un-acknowledgedlegislators of the world) कहा है।

प्राचीन ऋषियों ने कवि को विधाता और द्रष्टा कहा है-‘कविर्मनीषी धाता स्वयम्भूः।’ साहित्यकार कितना बड़ा द्रष्टा होता है, इसका एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। आज से लगभग 70-75 वर्ष पूर्व श्री देवकीनन्दन खत्री ने अपने तिलिस्मी उपन्यास ‘रोहतासमठ’ में यन्त्रमानव (robot) के कार्यों को विस्मयकारी चित्रण किया था। उस समय यह सर्वथा कपोल-कल्पित लगा; क्योंकि उस काल में यन्त्रमानव की बात किसी ने सोची तक न थी, किन्तु आज विज्ञान ने उस दिशा में बहुत प्रगति कर ली है, यह देख श्री खत्री की नवनवोन्मेष-शालिनी प्रतिभा के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ता है। इसी प्रकार आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व पुष्पक विमान के विषय में पढ़ना कल्पनामात्र लगता होगा, परन्तु आज उससे कहीं अधिक प्रगति वैमानिकी ने की है।

साहित्य द्वारा सामाजिक और राजनीतिक क्रान्तियों के उल्लेखों से तो विश्व का इतिहास भरा पड़ा है। सम्पूर्ण यूरोप को गम्भीर रूप से आलोड़ित कर डालने वाली फ्रांस की राज्य क्रान्ति (1789 ई०), रूसो की ‘सोसियल कॉन्ट्रेक्ट’ (The Social Contract–सामाजिक-अनुबन्ध) नामक पुस्तक के प्रकाशन का ही परिणाम थी। आधुनिक काल में चार्ल्स डिकेन्स के उपन्यासों ने इंग्लैण्ड से कितनी ही घातक सामाजिक एवं शैक्षिक रूढ़ियों का उन्मूलन कराकर नूतन स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था का सूत्रपात कराया।

आधुनिक युग में प्रेमचन्द के उपन्यासों में कृषकों पर जमींदारों के बर्बर अत्याचारों एवं महाजनों द्वारा उनके क्रूर शोषण के चित्रों ने समाज को जमींदारी-उन्मूलन एवं ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों की स्थापना को प्रेरित किया। उधर बंगाल में शरत् चन्द्र ने अपने उपन्यासों में कन्याओं के बाल-विवाह की अमानवीयता एवं विधवा-विवाह-निषेध की नृशंसता को ऐसी सशक्तता से उजागर किया कि अन्तत: बाल-विवाह को कानून द्वारा निषिद्ध घोषित किया गया एवं विधवा-विवाह का प्रचलन हुआ।

उपसंहार-निष्कर्ष यह है कि समाज और साहित्य का परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। साहित्य समाज से ही उद्भूत होता है; क्योंकि साहित्यकार किसी समाज विशेष का ही अंग होता है। वह इसी से प्रेरणा ग्रहणकर साहित्य-रचना करता है एवं अपने युग की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता हुआ समकालीन समाज का मार्गदर्शन करता है, किन्तु साहित्यकार की महत्ता इसमें है कि वह अपने युग की उपज होने पर भी उसी से बँधकर नहीं रह जाये, अपितु अपनी रचनाओं से चिरन्तन मानवीय आदर्शों एवं मूल्यों की स्थापना द्वारा देशकालातीत बनकर सम्पूर्ण मानवता को नयी ऊर्जा एवं प्रेरणा से स्पन्दित करे।

इसी कारण साहित्य को विश्व-मानव की सर्वोत्तम उपलब्धि माना गया है, जिसकी समकक्षता संसार की मूल्यवान्-से-मूल्यवान् वस्तु भी नहीं कर सकती; क्योंकि संसार का सारा ज्ञान-विज्ञान मानवता के शरीर का ही पोषण करता है, जब कि एकमात्र साहित्य ही उसकी आत्मा को पोषक है। एक अंग्रेज विद्वान् ने कहा है कि “यदि कभी सम्पूर्ण अंग्रेज जाति नष्ट भी हो जाए, किन्तु केवल शेक्सपियर बचा रहे तो अंग्रेज जाति नष्ट नहीं हुई मानी जाएगी।” ऐसे युगस्रष्टा और युगद्रष्टा कलाकारों के सम्मुख सम्पूर्ण मानवता कृतज्ञतापूर्वक नतमस्तक होकर उन्हें अपने हृदय-सिंहासन पर प्रतिष्ठित करती है एवं उनके यश को दिग्दिगन्तव्यापी बना देती है। अपने पार्थिव शरीर से तिरोहित हो जाने पर भी वे अपने यशरूपी शरीर से इस धराधाम पर सदा अजर-अमर बने रहते हैं|

जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः ।
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम् ॥

मेरा प्रिय ग्रन्थ: श्रीरामचरितमानस [2015]

सम्बद्ध शीर्षक

  • मेरी प्रिय पुस्तक
  • हिन्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय, अमर साहित्यिक कृति

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना : पुस्तकों का महत्त्व,
  2. श्रीरामचरितमानस की महत्ता,
  3. कथा-संगठन,
  4. चरित्र-चित्रण,
  5. भक्ति-भावना,
  6. भाव-व्यंजना,
  7. भाषा-शैली,
  8. आदर्श की स्थापना,
  9. भारत पर तुलसी का ऋण,
  10. उपसंहार

प्रस्तावना : पुस्तकों का महत्त्व-किसी विद्वान् ने लिखा है कि व्यक्ति को अपने यौवन में ही किसी लेखक या पुस्तक को अपना प्रिय अवश्य बना लेना चाहिए, जिससे वह उससे आजीवन सोत्साह जीने का सम्बल प्राप्त कर सके। पुस्तकों से अच्छा साथी दूसरा नहीं। वे व्यक्ति को सहारा देती हैं, उससे सहारा नहीं माँगतीं। हर समय व्यक्ति के पास उपस्थित रहती हैं, किन्तु अपनी उपस्थिति से उसका ध्यान नहीं बँटातीं। एक सन्मित्र की भाँति सदा परामर्श को तत्पर रहती हैं, फिर भी अपनी राय उस पर नहीं थोपतीं।

पुस्तक की इन्हीं विशेषताओं से प्रभावित होकर मैंने उनमें विशेष रुचि ली और ग्रन्थों का अध्ययन किया, जिसके स्वरूप मैंने अनुभव किया कि गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘श्रीरामचरितमानस’ एक सर्वांगपूर्ण रन हैं, जो हर दृष्टि से असाधारण है एवं महत्तम मानवीय मूल्यों तथा आदर्शों से स्पन्दित है।।

श्रीरामचरितमानस की महत्ता-वाल्मीकि रामायण के काल से लेकर आज तक समस्त रामकाव्यों की यदि तुलसीकृत ‘श्रीरामचरितमानस’ से तुलना की जाए, तो यह स्पष्टत: दीख पड़ेगा कि आदिकाव्य से उद्भूत रामकाव्य-परम्परा ‘मानस’ में आकर पूर्ण परिणति को प्राप्त हुई है। चाहे वस्तु संघटन कौशल की दृष्टि से देखें, चाहे पात्रों के चरित्र-चित्रण के चरमोत्कर्ष की दृष्टि से और चाहे महाकाव्य एवं नाटकीयता के अद्भुत सामंजस्य द्वारा प्राप्त शैली की विमुग्धकारिणी प्रौढ़ता की दृष्टि से; यह निष्कर्ष तर्कसंगत और साधार प्रतीत होगा, न कि मात्र भावुकताप्रेरित। फलत: क्या आश्चर्य, यदि ‘मानस’ संसार के कला-पारखियों का हृदयहार रहा है, जिसका ज्वलन्त प्रमाण यह है कि किसी भी रामचरित-विषयक काव्य के विश्व की विभिन्न भाषाओं में इतने अनुवाद उपलब्ध नहीं होते, जितने ‘श्रीरामचरितमानस’ के। एक ओर यदि अमेरिकी पादरी ऐटकिन्स ने अपनी आयु के श्रेष्ठ आठ वर्ष लगाकरे मानस का अंग्रेजी में पद्यानुवाद किया (जबकि इससे पूर्व उस भाषा में इसके कई अनुवाद विद्यमान थे), तो दूसरी ओर अनीश्वरवादी रूस के मूर्धन्य विद्वान् प्रोफेसर वरान्नीकोव ने अपने अमूल्य जीवन का एक बड़ा भाग लगाकर तथा द्वितीय विश्वयुद्ध की भीषण परिस्थिति में कजाकिस्तान में शरणार्थी के रूप में रहकर भी रूसी भाषा में इसका पद्यानुवाद किया। उपर्युक्त मनीषियों के अतिरिक्त गार्सा दे तासी (फ्रेंच); ग्राउज़, ग्रियर्सन, ग्रीव्ज, कारपेण्टर, हिल (आंग्लभाषी विद्वान्) आदि न जाने कितने काव्यमर्मज्ञ तुलसी की प्रतिभा पर मुग्ध हैं।

कथा-संगठन--यदि मानस पर कथावस्तु की दृष्टि से विचार करें तो हम पाएँगे कि इसमें गोस्वामी जी ने पुराने प्रसंगों को नया रूप देकर, कई को अधिक उपयुक्त स्थल पर रखकर, कुछ को संक्षिप्त और कुछ को विस्तृत कर तथा कुछ नये प्रसंगों की उद्भावना कर कथावस्तु को सर्वथा मौलिक बना दिया है। उनके बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड का अधिकांश तो मौलिक है ही, पर अयोध्याकाण्ड में तो उनकी कुशलता देखते ही बनती है। इसके पूर्वार्द्ध के संघर्षमय वातावरण की उन्होंने जिस कलानिपुणता से सृष्टि की है, उस पर उनकी मौलिकता की छाप है और उत्तरार्द्ध का भरत-चरित्र तो उनकी सर्वथा अनूठी रचना है। भरत के माध्यम से उन्होने अपनी भक्ति-भावना को साकार रूप प्रदान किया है। आरम्भ से अन्त तक ‘मानस’ की कथावस्तु में असाधारण प्रवाह है।

चरित्र-चित्रण-श्रीरामचरितमानस में प्रस्तुत चरित्र-चित्रण अपनी मौलिकता में वाल्मीकीय ‘रामायण’ और ‘अध्यात्म’ को बहुत पीछे छोड़ जाता है। सामान्यत: इसके सभी चरित्र नये साँचे में ढलकर नयी गरिमा से मण्डित हुए हैं, पर राम के चरित्र को इस ग्रन्थ में जिन मौलिक उपादानों से गढ़ा गया है, वे सर्वथा अभूतपूर्व हैं। इस ग्रन्थ में पहली बार राम में नरत्व के साथ परब्रह्म का सामंजस्य स्थापित किया गया है। राम में शक्ति, शील तथा सौन्दर्य की पराकाष्ठा दिखाकर राम के शील का जैसा दिव्य-चित्रण किया गया है, वह सर्वथा अभूतपूर्व और अतुलनीय है।

भक्ति-भावना–‘श्रीरामचरितमानस’ में तुलसी की भक्ति सेवक-सेव्य भाव की होते हुए भी परम्परागत भक्ति से भिन्न है। गोस्वामी जी की भक्ति साधन नहीं, स्वयं साध्य है और ज्ञानादि उसके चाकरमात्र हैं। इस ग्रन्थ में गोस्वामी जी ने भरत के रूप में अपनी भक्ति का आदर्श खड़ा किया है और भरत अपनी तन्मयता में राधाभाव के समीप पहुँच जाते हैं; अतः उनके विषय में यह नि:संकोच कहा जा सकता है। कि “माधुर्य भाव की उपासना में जो स्थान राधा का है, दास्य भाव की उपासना में वही स्थान भरत का है।” इस प्रकार तुलसी की भक्ति का स्वरूप सर्वथा मौलिक बन पड़ा है जिसमें छुटपन-बड़प्पन या ऊँच-नीच जैसा कोई भेदभाव नहीं। इस भक्तिरूपी रसायन द्वारा श्रीरामचरितमानस के माध्यम से गोस्वामी जी ने मृतप्रायः हिन्दू जाति को नवजीवन प्रदान किया।

भाव-व्यंजना-गोस्वामी जी रससिद्ध कवीश्वर थे, भाव और भाषा के अप्रतिम सम्राट् थे। उन्होंने ‘मानस’ में शास्त्रोक्त नवं रसों को तो साकार किया ही, अपनी अलौकिक प्रतिभा से भक्ति-रस नामक एक नूतन रस की भी सृष्टि कर डाली। गोस्वामी जी ने रस-परिपाक के अतिरिक्त संचारी भावों एवं अनुभावों की अलग से भी ऐसी कुशल योजना की है कि उनकी काव्य-प्रतिभा पर दंग रह जाना पड़ता है। ‘श्रीरामचरितमानस’ से संचारियों एवं अनुभावों का लिग्वित, योजनाबद्ध समग्र चित्र खड़ा करने का कौशल द्रष्टव्य है-

उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहँ पट कहँ निषंग धनु तीरा।।

भरत के आगमन पर प्रेमजन्य अधीरता एवं हर्षजन्य आवेग के कारण राम जो अति वेगपूर्वक उठते हैं, उससे जहाँ एक ओर उनका भरत के प्रति अनुराग साकार हो उठा है, वहीं उनकी मानव सुलभ अधीरता भी चित्रित हो जाती है।

‘श्रीरामचरितमानस में उपमाओं की सादगी एवं मार्मिकता पर सारा सहदय समाज मुग्ध है। एक उदाहरण पर्याप्त होगा–सम्पूर्ण लंका में एकमात्र विभीषण ही सन्त स्वभाव के थे। शेष सारा समाज दुर्जन और परपीड़क था। ऐसों के बीच में रहकर जीने के लिए विवश विभीषण अपनी दशा का वर्णन करते हुए हनुमान जी से कहते हैं—

सुनह पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्ह महँ जीभ बिचारी॥

अर्थात् हे पवनपुत्र! लंका में मैं वैसा ही विवश जीवन जी रहा हूँ, जैसा बत्तीस दाँतों के बीच में रहकर जीने को विवश बेचारी जीभ न दाँतों का संग छोड़ सकती है, न उनसे निश्चिन्त हो सकती है।
इसी प्रकार काव्य के समस्त अंगों-उपांगों कर ‘श्रीरामचरितमानस’ में चित्रण इसे एक नयी अर्थवत्ता प्रदान करता है।

भाषा-शैली—मानस में महाकवि तुलसी ने संस्कृत की महत्ता एवं एकछत्र साम्राज्य के उस युग में अनगढ़ लोकभाषा को अपनाकर उसे बड़े मनोयोग से सजाया-सँवारा। इस ग्रन्थ में इन्होंने अपनी असामान्य प्रतिभा के बल पर रस को रसात्मकता, अलंकार को अलंकरण तथा छन्द को नयी गति-भंगिमा और संगीतात्मकता प्रदान की तथा हमारे आस-पास के सुपरिचित जीवन से उपमानों का चयनकर उनमें नयी अर्थवत्ता ओर व्यंजकता भर दी। काव्य में नाटकीयता के मणिकांचन योग द्वारा नयी शैली को जन्म दिया, जिसने एक ही ग्रन्थ को श्रव्य-काव्य और दृश्य-काव्य दोनों बना दिया।

आदर्श की स्थापना-मानस की रामकथा—एक आदर्श मानव की, एक आदर्श परिवार की, एक आदर्श एवं पूर्ण जीवन की कथा है। तुलसी ने वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक–प्रत्येक क्षेत्र में जिन आदर्शों की स्थापना की, वे व्यक्ति के इहलौकिक और पारलौकिक-दोनों ही जीवनों को सँवारने वाले हैं। इसी कारण ‘मानस’ पारिवारिक जीवन का महाकाव्य कहलाता है; क्योंकि परिवार ही व्यक्ति की प्रथम पाठशाला है और पारिवारिक जीवन की सुदृढ़ता शेष समस्त क्षेत्रों को भी सुदृढ़ बनाती है। आदर्श राज्य के रूप में तुलसी के रामराज्य की कल्पना आरम्भ से ही भारतीय जन-मानस को प्रेरणा देती रही है और देती रहेगी।

भारत पर तुलसी का ऋण—इस सम्बन्ध में डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी लिखते हैं कि “अपनी भक्ति के साथ-साथ समाज की रक्षा के लिए उनका अपरिसीम आग्रह था और इसी भक्ति और समाज-रक्षा की चेष्टा के फलस्वरूप ‘श्रीरामचरितमानस’ नामक महाग्रन्थ रचित हुआ, जिसकी पूतधारा ने आज तक उत्तर भारत की हिन्दू जनता के चित्त को सरस और शक्तिमान बनाये रखा है और उसके चरित्र को सामाजिक सद्गुणों के आदर्श की ज्योति से सदा आलोकित कर रखा है।”

उपसंहार-अस्तु, मौलिकता का श्रेष्ठतम सम्बल पाकर ही तुलसी का ‘श्रीरामचरितमानस लोक-मानस बन सका है, यह तुलसी की कवि-प्रतिभा और उनकी जागरूक कलाकारिता का प्रमाण है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में-“तुलसीदास कवि थे, भक्त थे, समाज-सुधारक थे, लोकनायक थे और भविष्य के स्रष्टा थे। इन रूपों में उनका कोई भी रूप किसी से घटकर नहीं था। यही कारण था कि उन्होंने सब ओर से समता (balance) की रक्षा करते हुए एक अद्वितीय काव्य की सृष्टि की, जो अब तक उत्तर भारत का मार्गदर्शक रहा है और उस दिन भी रहेगा, जिस दिन नवीन भारत का जन्म हो गया होगा।”

तुलसी कृत ‘श्रीरामचरितमानस’ का मूल्यांकन करते हुए डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल लिखते हैं। कि, “श्रीरामचरितमानस विक्रम की दूसरी सहस्राब्दी का सबसे अधिक प्रभावशाली ग्रन्थ है।” भारतीय वाङमय के समुद्र से अनेक विचार-मेघ उठे और बरसे। उनके अमृत-तुल्य जल की जिस मात्रा में जनता को आवश्यकता थी, उसे समेटकर मानो गोसाईं जी ने ‘श्रीरामचरितमानस’ में भर दिया है। जो अन्यत्र था, वह साररूप से यहाँ आ गया है। तुलसी का ‘श्रीरामचरितमानस’ विक्रम की दूसरी सहस्राब्दी के साहित्याकाश का खुला नेत्र है, उसे ही तत्कालीन लोक की दर्शनक्षमता या आँख कह सकते हैं।

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