UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi राजनीति सम्बन्धी निबन्ध

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name राजनीति सम्बन्धी निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi राजनीति सम्बन्धी निबन्ध

राजनीति सम्बन्धी निबन्ध

भारत में लोकतन्त्र की सफलता

सम्बद्ध शीर्षक

  • भारतीय लोकतन्त्र और राजनीतिक दल
  • भारत में लोकतन्त्र : सफल अथवा असफल
  • भारत में प्रजातन्त्र का भविष्य [2011, 14, 15]
  • भारत में लोकतन्त्र

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना,
  2. दलों को संवैधानिक मान्यता,
  3. भारत में प्रतिनिधित्वपूर्ण प्रणाली,
  4. दलों की अनिवार्यता,
  5. दल द्वारा सरकार की रचना,
  6. विरोधी दल का महत्त्व,
  7. राजनीतिक दलों की उपयोगिता,
  8. भारत में लोकतन्त्र की सफलता,
  9. उपसंहारा

प्रस्तावना-भारतीय संविधान की प्रस्तावना ने भारत को लोकतन्त्रात्मक गणराज्य घोषित किया है। लोकतन्त्र और प्रजातन्त्र समान अर्थ वाले शब्द हैं। आधुनिक युग में लोकतन्त्र को शासन की सर्वोत्तम प्रणाली माना गया है। अनेक विद्वानों ने लोकतन्त्र की व्याख्या की है। यूनान के दार्शनिक क्लीयॉन (Cleon) ने प्रजातन्त्र को परिभाषित करते हुए कहा था कि “वह व्यवस्था प्रजातान्त्रिक होगी, जो जनता की होगी, जनता के द्वारा और जनता के लिए होगी।” बाद में यही परिभाषा अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन द्वारा भी दुहरायी गयी। भारत का एक सामान्य शिक्षित व्यक्ति प्रजातन्त्र का अर्थ एक ऐसी राजनीतिक प्रक्रिया से लगाता है जो वयस्क मताधिकार चुनाव, कम-से-कम दो राजनीतिक दल, स्वतन्त्र न्यायपालिका, प्रतिनिध्यात्मक एवं उत्तरदायी सरकार, स्वस्थ जनमत, स्वतन्त्र प्रेस तथा मौलिक अधिकारों की विशिष्टताओं से युक्त हो। विस्तृत अर्थों में प्रजातन्त्र एक आदर्श है, स्वयं में एक ध्येय है न कि साधन। एक प्रजातान्त्रिक देश में प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास का समुचित अवसर प्राप्त होता है, आर्थिक शोषण की अनुपस्थिति होती है, एकता तथा नैतिकता का वास होता है।

दलों को संवैधानिक मान्यता--भारत में प्राचीन काल से ही लोकतान्त्रिक शासन-पद्धति विद्यमान है तथा विश्व में सबसे बड़ा लोकतन्त्रात्मक राष्ट्र भारत है। यहाँ हर पाँच वर्ष के बाद चुनाव होते हैं। चुनाव में जो पार्टी विजयी होती है, वह सरकार बनाती है। भारत का संविधान हर नागरिक को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त संविधान प्रत्येक व्यक्ति को संस्था या संगठन बनाने का अधिकार भी देता है। इस कारण देश में कई दल या पार्टियाँ हैं, जो अपने सिद्धान्तों एवं आदर्शों को लेकर चुनाव के अखाड़े में उतरती हैं।

भारतीय लोकतन्त्र का आधार इंग्लैण्ड का लोकतान्त्रिक स्वरूप रहा है। इंग्लैण्ड में केवल दो ही दल हैं। भारत का यह दुर्भाग्य है कि यहाँ अनेकानेक दल हैं, लेकिन कोई भी सशक्त दल नहीं है। लगभग चालीस वर्षों तक कांग्रेस सशक्त दल के रूप में सत्ता में थी, लेकिन आपसी फूट के कारण अब उसका भी अपना प्रभाव समाप्त होता जा रहा है।

भारत में प्रतिनिधित्वपूर्ण प्रणाली-भारत में प्रतिनिध्यात्मक प्रजातन्त्र प्रचलन में है। इस पद्धति में जनता अपने प्रतिनिधि वोट द्वारा चुनती है। जे० एस० मिल के अनुसार, “प्रतिनिध्यात्मक प्रजातन्त्र वह है, जिसमें सम्पूर्ण जनता अथवा उसका बहुसंख्यक भाग शासन की शक्ति का प्रयोग उन प्रतिनिधियों द्वारा करते हैं, जिन्हें वह समय-समय पर चुनते हैं।”

प्रजातन्त्र में राजनीतिक दलों का होना आवश्यक है। ये दल संख्या में दो या दो से अधिक भी हो सकते हैं। निर्दलीय व्यवस्था के अन्तर्गत प्रजातन्त्र चले नहीं सकता। इसलिए प्रजातन्त्र में दलीय व्यवस्था अपरिहार्य है। राजनीतिक दल व्यक्तियों का एक संगठित समूह होता है जिसका राजनीतिक विषयों के सम्बन्ध में एक मत होना आवश्यक है। गिलक्रिस्ट के अनुसार, “राजनीतिक दल ऐसे नागरिकों का संगठित समूह है, जो एक-से राजनीतिक विचार रखता है और एक इकाई के रूप में कार्य करके सरकार पर नियन्त्रण रखता है।”

दलों की अनिवार्यता–राजनीतिक दलों के मुख्य कार्य राष्ट्र के सम्मुख उपस्थित राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, वैदेशिक समस्याओं के सम्बन्ध में अपने विचार निश्चित करके जनता के सामने रखना है। दल तद्नुसार विचार वे मान्यता रखने वाले प्रत्याशियों को चुनाव में खड़ा करते हैं। इस प्रकार विभिन्न राजनीतिक दल अपने आदर्श और उद्देश्यों के प्रति जनता को आकर्षित करने का प्रयत्न करते हैं।

इस प्रकार आधुनिक युग की प्रजातन्त्रीय पद्धति में राजनीतिक दलों का महत्त्व स्थापित हो जाता है। जो व्यक्ति चुनाव में चुन लिया जाता है, वह दल के नियन्त्रण में रहने के कारण मनमानी नहीं कर पाता। यदि दल का नेतृत्व योग्य और ईमानदार व्यक्ति के हाथों में होता है, तो वह इस बात का ध्यान रखता है कि दुराचरण के कारण उसकी प्रतिष्ठा और जनप्रियता कम न हो। यह सत्य है कि निष्पक्ष, नि:स्वार्थ व योग्य व्यक्ति आजकल चुनाव लड़ना पसन्द नहीं करते। यह हमारे प्रजातन्त्र की बहुत बड़ी कमजोरी है। फिर भी इस वास्तविकता से इंकार नहीं किया जा सकता है कि राजनीतिक दल प्रजातन्त्र के लिए अनिवार्य हैं।

दल द्वारा सरकार की रचना-चुनाव के बाद जिस दल के प्रत्याशी अधिक संख्या में निर्वाचित होकर संसद या विधानमण्डलों में पहुँचते हैं, वही दले मन्त्रिमण्डल बनाता है और शासन की बागडोर सँभालता है। यदि किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तो दो या अधिक दल स्वीकृत न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर मिलकर मन्त्रिमण्डल बनाते हैं। शेष विरोधी पक्ष में रहकर सरकार की नीति और कार्यक्रम की समीक्षा करते हैं। यदि मन्त्रिमण्डल के सभी मन्त्री एक राजनीतिक दल के नहीं हों तो सरकार के विभिन्न विभागों के बीच सामंजस्य स्थापित नहीं हो सकेगा और कोई दीर्घकालीन कार्यक्रम नहीं चल सकेगा। इसके विपरीत यदि किसी सुसंगठित दल के पास शासन-सत्ता हो तो वह आगामी चुनाव तक निश्चिन्त होकर शासन चला सकता है। शासक दल के सदस्य संसद के बाहर भी सरकार की नीतियों का स्पष्टीकरण करके निरन्तर जन-समर्थन प्राप्त करते रहते हैं।

विरोधी दल का महत्त्व-शासक दल के दूसरी ओर विरोधी पक्ष रहता है। जहाँ विरोधी पक्ष में एक से अधिक दल होते हैं, वहाँ अधिक सदस्यों वाले दल का नेता या अन्य कोई व्यक्ति जिसके विषय में सभी दलों की सहमति हो जाए विरोधी पक्ष का नेता चुन लिया जाता है। वास्तव में संसदीय प्रजातन्त्र में विरोधी पक्ष का बड़ा महत्त्व होता है। विरोधी पक्ष सरकार की गतिविधियों पर कड़ी नजर रखता है। कोई भी प्रस्ताव या विधेयक बिना वाद-विवाद के पारित नहीं हो सकता। स्थगन-प्रस्तावों, निन्दा-प्रस्तावों और अविश्वास-प्रस्तावों के भय से शासक दल मनमानी नहीं कर सकता और सदा सतर्क रहता है। यदि विरोधी पक्ष बिल्कुल ही न रहे या अति दुर्बल व अशक्त हो तो सरकार निरंकुश हो सकती है तथा सत्तारूढ़ दल जनमत की अवहेलना करे सकता है।

राजनीतिक दलों की उपयोगिता–राजनीतिक दल जनता को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करने का कार्य करते हैं। वे सरकार द्वारा किये गये कार्यों का औचित्य व त्रुटियाँ जनता को बतलाते हैं। जनता एक प्रकार से विरोधी दलों के लिए अदालत का कार्य करती है। उसके सामने शासक दल और विरोधी दल अपना-अपना पक्ष प्रस्तुत करते हैं और फिर उससे आगामी चुनाव में निर्णय माँगते हैं। विभिन्न दलों के तर्क-वितर्क सुनकर जनता भी राजनीतिक परिपक्वता प्राप्त करती है। इस प्रकार जन-शिक्षा और जन-जागृति के लिए राजनीतिक दलों का बड़ा महत्त्व है।

भारत में लोकतन्त्र की सफलता-अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन कैनेडी के अनुसार, “लोकतन्त्र में एक मतदाता का अज्ञान सबकी सुरक्षा को संकट में डाल देता है।” हम जानते हैं कि भारत के लगभग आधे मतदाता अशिक्षित हैं और वोट’ के महत्त्व से अपरिचित हैं। ऐसी स्थिति भारत की लोकतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली पर निश्चित रूप से प्रश्न-चिह्न लगाती है।

आज भारतीय लोकतन्त्र उठा-पटक की स्थिति से गुजर रहा है। वह देश जिसने लोकतन्त्र के चिराग को प्रज्वलित कर तृतीय विश्व के देशों को आलोकित करने की आशा का संचार किया था, आज उसके चिराग की रोशनी स्वयं मद्धिम होती जा रही है। राष्ट्र की छवि दिनानुदिन धूमिल पड़ती जा रही है तथा राजनीतिक मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है। कह सकते हैं कि भारतीय लोकतन्त्र संक्रमण की स्थिति से गुजर रहा है।

लोकतन्त्र के चार आधार-स्तम्भ होते हैं–विधायिकी, न्यायपालिका, कार्यपालिका और समाचारपत्र। वर्तमान में संसद और विधानसभाओं में हाथा-पायी, गाली-गलौज, एक-दूसरे पर अश्लील आरोप आदि होते हैं तथा जनता के प्रतिनिधि जनता का विश्वास खोते रहे हैं। सन् 1967 के चुनावों के बाद त्यागी, योग्य, ईमानदार एवं चरित्रवान् व्यक्तियों को कम ही चुना जा सका है। निर्वाचित सदस्य जन-कल्याण की भावना से दूर रहे हैं तथा भारतीय राजनीति का अपराधीकरण हुआ है। फलतः लोकतान्त्रिक मूल्यों को आघात पहुंचा है।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता लोकतन्त्र में अनिवार्य है। आज भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति, उनके स्थानान्तरण, पदोन्नति आदि में जिस प्रकार की नीति का परिचय दिया जाता है उससे न्यायपालिका के चरित्र को आघात पहुँचा है। दूसरी ओर लाखों मुकदमे न्यायालयों में न्याय की आशा में लम्बित पड़े हुए हैं। ग्लैडस्टन के मतानुसार, “Justice delayed is justice denied” अर्थात् विलम्बित न्याय न्याय से वंचित करना है। ऐसी स्थिति में भारत में लोकतन्त्र की सफलता कैसे मानी जा सकती है ?

भारत में लोकतन्त्र की जड़े खोदने का कार्य करती है-कार्यपालिका। प्रशासन की सुस्ती, लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, शीघ्र निर्णय न लेना, अधिकारियों का आमोद-प्रमोद में डूबे रहना, स्वच्छन्द प्रवृत्ति के लोगों का प्रशासन में घुस आना, देश में आतंकवाद और अराजकता को रोकने के लिए ठोस कदम ने उठाना, गरीबी और बेराजगारी पर नियन्त्रण न कर पाना प्रशासन की असफलता के द्योतक हैं। ऐसे प्रशासन से तो लोकतन्त्र की सफलता की क्या कल्पना की जा सकती है ?

लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ है–समाचार-पत्र; अर्थात् लोकतन्त्र की रीढ़ है–विचारों की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति। आज इस पर भी अनेक नाजायज विधानों द्वारा इनके मनोबल को तोड़ा जाता है। ऐसे में भारत में लोकतन्त्र की सफलता पर प्रश्न-चिह्न लगना स्वाभाविक है।

उपसंहार-आवश्यकता है कि भारत में सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन लाया जाए तथा दिनानुदिन गिरते हुए राष्ट्रीय चरित्र को बचाया जाए। राष्ट्रीय भावना का दिनोदिन ह्रास होता जा रहा है, इसे उन्नत किया जाना चाहिए। मन्त्रिमण्डलीय अधिनायक तन्त्र, दल-बदल की संक्रामकता, केन्द्र-राज्य में बिगड़ते सम्बन्ध, सांसदों का गिरता हुआ नैतिक स्तर तथा प्रान्तीय पृथकतावाद को समाप्त करना होगा। समस्त नागरिकों को आर्थिक व सामाजिक न्याय उपलब्ध कराना होगा। लोकतन्त्र में शासन-सत्ता वस्तुतः सेवा का साधन समझी जानी चाहिए। लोकतन्त्र की सफलता के लिए नेताओं एवं शासकों में लोक-कल्याण की भावना का होना आवश्यक है। यद्यपि लोकतन्त्र में पक्ष-विपक्ष की भावना मैं और मेरा, तू और तेरा’ की भाव-धारा को जन्म देती है तथापि पक्षों का होना भी एक अपरिहार्य आवश्यकता है। यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि मतभेद व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और वैमनस्य का रूप न ग्रहण कर लें।

यदि उपर्युक्त बातें पूरी होती रहें तो कोई भी झोंका भारतीय लोकतन्त्र को हिला नहीं सकता; क्योंकि कोई भी व्यवस्था यदि जन-आकांक्षाओं की पूर्ति करती है तो उस व्यवस्था के प्रति लोगों की आशाएँ खण्डित नहीं होतीं।।

प्रजातन्त्र में दलों का होना अति आवश्यक है। राजनीतिक दल चाहे शासक के रूप में हों या विरोधी पक्ष के रूप में, उनसे जनता का हित-साधन ही होता है, किन्तु बरसाती मेंढकों की तरह राजनीतिक दलों का बढ़ना देश के लिए अहितकर और विनाशकारी सिद्ध हो सकता है। इससे फूट, द्वेष, हिंसा, कलह आदि बढ़ते हैं और देश में कोई रचनात्मक व अभ्युदय कार्यक्रम नहीं हो पाते। अतः हमारे देश में भी इंग्लैण्ड की तरह द्विदल प्रणाली विकसित हो सके तो वह दिन सौभाग्य व खुशहाली का दिन होगा।

विद्यार्थी और राजनीति [2009, 11]

सम्बद्ध शीर्षक

  • वर्तमान राजनीति में विद्यार्थियों की सहभागिता
  • वर्तमान छात्रसंघ चुनाव : दशा एवं दिशा
  • वर्तमान राजनीति में युवकों की भूमिका [2016]

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. स्वतन्त्र भारत में विद्यार्थी का दायित्व,
  3. विद्यार्थी से अपेक्षाएँ,
  4. लोकतन्त्र में राजनीति का महत्त्व,
  5. सक्रिय राजनीति में भाग लेने से हानियाँ,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-‘विद्यार्थी का अर्थ है ‘विद्या का अर्थी’; अर्थात् विद्या की चाह रखने वाला। इस प्रकार विद्यार्जन को ही मुख्य लक्ष्य बनाकर चलने वाला अध्येता विद्यार्थी कहलाता है। जिस प्रकार चर्मचक्षुओं के बिना मनुष्य अपने चारों ओर के स्थूल जगत् को नहीं देख पाता, उसी प्रकार विद्यारूपी ज्ञानमय नेत्रों के बिना वह अपने वास्तविक स्वरूप को भी नहीं पहचान सकता और अपने जीवन को सफल नहीं बना सकता। इसी कारण विद्याध्ययन का समय अत्यधिक पवित्र समय माना गया है; क्योंकि मानव अपने शारीरिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक जीवन की आधारशिला इसी समय रखता है। विद्याध्ययन एक तपस्या है और तपस्या बिना समाधि के, बिना चित्त की एकाग्रता के सम्भव नहीं। इसलिए विद्यार्थी अन्तर्मुखी होकर ही विद्यार्जन कर सकता है। दूसरी ओर, राजनीति पूर्णत: बहिर्मुखी विषय है। तब विद्यार्थी और राजनीति का परस्पर क्या सम्बन्ध हो सकता है ? इस पर विचार अपेक्षित है। यह इसलिए भी आवश्यक है कि आज राजनीति का राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इतना बोलबाला है कि कोई समझदार व्यक्ति चाहकर भी उससे सर्वथा असम्पृक्त नहीं रह सकता।

स्वतन्त्र भारत में विद्यार्थी का दायित्व–स्वतन्त्रता से पहले प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक ही अभिलाषा थी कि किसी भी प्रकार देश को विदेशी शासन से मुक्त कराया जाए। इसके लिए प्रौढ़ नेताओं तक ने विद्यार्थियों से सहयोग की माँग की और सन् 1942 ई० के आन्दोलन में न जाने कितने होनहार युवक-युवतियों ने विद्यालयों का बहिष्कार कर और क्रान्तिकारी बनकर देश के लिए असह्य यातनाएँ झेली और हँसते-हँसते अपना जीवन भारतमाता की बलिवेदी पर अर्पण कर दिया। वह एक असामान्य समय था, आपातु काले था, जिसमें उचित-अनुचित, करणीय-अकरणीय का विचार नहीं था। पर देश के स्वतन्त्र होने के बाद विद्यार्थियों पर राष्ट्र-निर्माण का गुरुतर दायित्व आ पड़ा है; क्योंकि युवक ही किसी देश के भावी भाग्य-विधाता होते हैं। वृद्धजने तो केवल दिशा-निर्देश दे सकते हैं, किन्तु उन निर्देशों को क्रियान्वित करने की क्षमता पौरुषसम्पन्न युवाओं में ही निहित होती है।।

विद्यार्थी से अपेक्षाएँ-मनुष्य का प्रारम्भिक जीवन ज्ञानार्जन के लिए होता है, जब कि वह अपनी शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक शक्तियों को अधिक-से-अधिक विकसित और परिपुष्ट कर अपने परिवार और समाज की सेवा के लिए स्वयं को तैयार करता है। इस समय विद्यार्थी विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है। आज का विद्यार्थी निश्चित ही कल का नागरिक और नेता होगा, परन्तु ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह समय राजनीति तथा अन्य विषयों का ज्ञान प्राप्त करने का है, उन्हें प्रयोग में लाने का नहीं।

सुयोग्य विद्यार्थी का कर्तव्य है कि वह अपने देश की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उनकी पूर्ति के लिए स्वयं को ढाले। इसके लिए सबसे पहले उसे अपने देश के भूगोल, इतिहास और संस्कृति से भली-भाँति परिचित होना आवश्यक है; क्योंकि बिना अपने देश की मिट्टी से जुड़े, उसकी उपलब्धियों और अभावों, क्षमताओं और दुर्बलताओं को गहराई से समझे कोई व्यक्ति देश का सच्चा हित-साधन नहीं कर सकता। आज हमारा देश अनेक बातों में विदेशी तकनीक पर निर्भर है। किसी स्वतन्त्र देश के लिए यह स्थिति कदापि वांछनीय नहीं कही जा सकती। विद्यार्थी वैज्ञानिक, औद्योगिक एवं हस्तशिल्प आदि का उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त कर इस स्थिति को सुधार सकते हैं। इसी प्रकार समाज के सामने मुँह खोले खड़ी अनेक समस्याओं; जैसे—अन्धविश्वास, रूढ़िग्रस्तता, अशिक्षा, महँगाई, भ्रष्टाचार, दहेज-प्रथा आदि के उन्मूलन में भी वे अपना मूल्यवान योगदान कर सकते हैं।

लोकतन्त्र में राजनीति का महत्त्व-अन्यान्य विषयों के साथ विद्यार्थी को राजनीति का भी ज्ञान प्राप्त करना उचित है; क्योंकि वर्तमान युग में राजनीति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर छा गयी है। यद्यपि यह स्थिति सुखद नहीं कही जा सकती, परन्तु वास्तविकता से मुँह मोड़ना भी समझदारी नहीं है। सबसे पहले तो विद्यार्थी को अपने अधिकारों और कर्तव्यों का सम्यक् ज्ञान होना चाहिए। साथ ही उसे संसार में प्रचलित विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं का गम्भीर तुलनात्मक अध्ययन करके उनके अपेक्षित गुणावगुण की परीक्षा करना तथा अपने देश की दृष्टि में उनमें से कौन-से विचार कल्याणकारी सिद्ध हो सकते हैं। इस पर गम्भीर चिन्तन-मनन करना वांछनीय है।

लोकतन्त्र में निर्वाचन प्रणाली द्वारा शासन-तन्त्र का गठन होता है। लोकतन्त्र में शासक दल का चुनाव जनता करती है, इसलिए जनता का सुशिक्षित होना, अपने मत की शक्ति को पहचानना और देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए अपने व्यक्तिगत स्वार्थ, लोभ, भय आदि को मन में स्थान न दे देश के भावी कर्णधारों का चुनाव करना लोकतन्त्र की सफलता का बीजमन्त्र है। विद्यार्थियों को इस दिशा में शिक्षित करना चाहिए। आज कोई देश अपने में सिमटकर संसार से अलग-थलग होकर नहीं रह सकता। वर्तमान युग में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की लपेट में छोटे-बड़े सभी देश आते हैं, इसलिए विद्यार्थी को भी चाहिए कि वह विश्व में घटने वाली घटनाओं पर बारीकी से नजर रख अपने देश पर पड़ने वाले उसके सम्भावित प्रभावों का भी आकलन करे। ऐसा विद्यार्थी ही आगे चलकर अपने देश का सच्चा पथ-प्रदर्शक बन सकता है। इससे सिद्ध होता है कि विद्यार्जन का काल ज्ञान-संचय का काल है, अर्जित ज्ञान को क्रियात्मक रूप देने का नहीं।

सक्रिय राजनीति में भाग लेने से हानियाँ–सक्रिय राजनीति में भाग लेने से विद्यार्थी को सबसे पहली हानि तो यही होती है कि उसका शैक्षणिक ज्ञान अधूरा रह जाता है। अधकचरे ज्ञान को लेकर कोई व्यक्ति जनता को योग्य दिशा नहीं दे सकता। छात्रावस्था भोलेपन, आदर्शवाद और भावुकता की होती है। उस समय व्यक्ति में जोश तो होता है, पर होश नहीं होता। अनेक विद्यार्थी ऐसे हैं, जो कि राजनीतिक क्षेत्र में तो उतरे किन्तु राजनीति में न पड़कर अपराधी प्रवृत्ति में पड़ गये। राजनीति वस्तुत: अधिकार, पद एवं सत्ता की अन्धी दौड़ है। नि:सन्देह ये कलुषित प्रवृत्तियाँ हैं जिनका दुष्परिणाम कॉलेजों में होने वाली दादागिरी, हिंसा व अन्य छात्र-उत्पीड़न के रूप में कई बार हमारे सम्मुख आ चुका है।

दूसरों के नेतृत्व का गुण अत्यन्त विरल होता है, किन्तु आधुनिक राजनीति में बलपूर्वक दूसरों को अपना अनुगामी बनाया जाता है। यह अस्वस्थ दूषित मनोवृत्ति सम्पूर्ण परिवेश को विषाक्त कर देती है। विद्यालय व महाविद्यालय का पवित्र परिवेश राजनीति की पदचाप से मलिन हो उठता है। इस प्रकार न केवल विद्यार्थी का जीवन नष्ट हो जाता है, अपितु राष्ट्र को भी अपूरणीय क्षति पहुँचती है; क्योंकि वह अपने एक अत्यधिक उपयोगी घटक की क्षमताओं को अपने विकास के लिए उपयोग होने की बजाय, अपने हित के विरुद्ध प्रयोग होते देखता है। कश्मीर का ज्वलन्त उदाहरण हमारे सामने है, जहाँ युवक सक्रिय राजनीति की कुटिलता में फँसकर राष्ट्रहित के स्थान पर राष्ट्रध्वंस करने एवं राष्ट्र के घोर शत्रुओं का मनोरथ पूरा करने में लगे हैं।

अत: विद्यार्थी और राष्ट्र दोनों का हित इसी में है कि विद्यार्थी सच्चे अर्थों में विद्या का अर्थी ही बना रहकर अपने सर्वांगीण विकास द्वारा अपनी और राष्ट्र की सेवाओं के लिए स्वयं को तैयार करे।

उपसंहार-निष्कर्ष यह है कि विद्यार्थी का मुख्य कार्य विद्यार्जन द्वारा अपने भावी जीवनव्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय को सफल बनाने की तैयारी करना है। वर्तमान युग में राजनीति के व्यापक प्रभाव को देखते हुए विद्यार्थी को उसका भी विभिन्न कोणों से गहरा सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त करना उचित है, पर क्रियात्मक राजनीति से दूर रहने में ही उसका और राष्ट्र का कल्याण है। उसे अपने कर्तव्य को समझना चाहिए और लक्ष्य पर दृष्टि जमानी चाहिए। राजनीति के कण्टकाकीर्ण पथ पर पैर रखना अभी उसके लिए उचित नहीं है।

लोकतन्त्र और समाचार-पत्र

सम्बद्ध शीर्षक

  • आज के युग में समाचार-पत्रों का महत्त्व
  • समाचार-पत्र और वर्तमान जीवन
  • समाचार-पत्रों की उपयोगिता [2011]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. लोकतन्त्र में समाचार-पत्रों की भूमिका (क) राजनीतिक भूमिका; (ख) सामाजिक भूमिका; (ग) आर्थिक भूमिका,
  3. समाचार-पत्रों के लाभ (क) शिक्षा के प्रसार में सहायक; (ख) साहित्यिक उन्नति; (ग) व्यापार में सहायक; (घ) मनोरंजन के साधन,
  4. समाचार पत्रों से हानिया,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना-‘लोकतन्त्र’ का अर्थ है ‘लोक का तन्त्र’ अर्थात् ‘जनता द्वारा शासन’। भूतपूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के शब्दों में, “लोकतन्त्र जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन है” (Democracy is the government of the people, for the people, by the people)। इस प्रकार लोकतन्त्र में जनता ही सर्वेसर्वा होती है, अर्थात् अपनी भाग्यविधाता आप होती है। सारा जनसमुदाय प्रत्यक्ष रूप से शासन नहीं कर सकता, इसलिए वह एक निश्चित संख्या में अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजता है, जो पारस्परिक सहयोग से देश के लिए हितकारी कानून बनाते हैं। इस प्रकार किसी देश एवं उसमें रहने वाले जनसमुदाय की उन्नति या अवनति उसके द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों की योग्यता एवं प्रामाणिकता पर निर्भर करती है। अतः लोकतन्त्र में यह नितान्त वांछनीय है कि प्रतिनिधियों का चुनाव बहुत सोच-समझकर उनकी क्षमता के आधार पर किया जाए। इसके लिए जनता का शिक्षित और ज्वलन्त देशभक्ति से सम्पन्न होना नितान्त आवश्यक है।

दुर्भाग्यवश हमारे देश की अधिकांश जनता अशिक्षित या अर्द्ध-शिक्षित है, इसीलिए उसे लोकतन्त्र की आवश्यकताओं की दृष्टि से यथासम्भव शिक्षित करना प्राथमिक आवश्यकता है। इसकी पूर्ति के दायित्व के गुरुतर भार को सर्वाधिक कुशलता से उठाने की क्षमता एकमात्र समाचार-पत्रों में ही है, क्योंकि समाचारपत्र प्रतिदिन धनी-निर्धन सभी तक पहुँचते हैं।

लोकतन्त्र में समाचार-पत्रों की भूमिका–लोकतन्त्र में समाचार-पत्रों की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका जनता को शिक्षित करने में है। इस भूमिका पर निम्नलिखित तीन दृष्टियों से विचार किया जा सकता है|
(क) राजनीतिक भूमिका-लोकतन्त्र में निर्वाचन का सर्वाधिक महत्त्व है; क्योंकि उसी पर देश का भविष्य निर्भर करता है। समाचार-पत्र विभिन्न राजनीतिक दलों की घोषित नीतियों, उनके द्वारा चुनाव में पार्टी-टिकट पर खड़े किये गये प्रत्याशियों या निर्दलीय रूप में खड़े व्यक्तियों की योग्यता एवं पृष्ठभूमि का विस्तृत परिचय, चुनाव की प्रणाली एवं प्रक्रिया आदि का विवरण तथा विभिन्न नेताओं और प्रत्याशियों के भाषण आदि देकर जनता को शिक्षित करते हैं। इससे मतदाताओं को योग्य प्रत्याशी के चयन में सुविधा होती है।

सरकार बन जाने पर उसके कार्यकलाप एवं विरोधी दलों द्वारा उसकी समय-समय पर की जाने वाली आलोचनाओं, शासन की गतिविधियों एवं उसके द्वारा उठाये गये कदमों के औचित्य-अनौचित्य का पता समाचार-पत्रों के द्वारा चलता रहता है। साथ ही सम्पादक के नाम पत्रों, अग्रलेखों एवं देश के विभिन्न अंचलों में बसे प्रबुद्धजनों के मन्तव्यों से सरकारी गतिविधियों के विषय में जनता की प्रतिक्रिया का पता चलता है, जिससे स्वस्थ जनमत का विकास होता है और जनता सरकार पर दबाव डालकर उसे गलत कार्य करने से रोकती है। यदि सरकार लोक-विरोधी कार्य करती है तो मतदाता उसे अगले चुनाव में अपदस्थ करने का निर्णय ले सकते हैं। इससे शासक-वर्ग लोकमत की अवहेलना करने का साहस नहीं कर पाता।

जनता शान्तिपूर्ण प्रदर्शनों, आन्दोलनों एवं स्मरण-पत्रों द्वारा भी सरकार को अपने मत से अवगत कराकर उसकी देश या समाज-विरोधी गतिविधियों का विरोध करती है या अपनी उचित माँगें मनवाने के लिए दबाव डालती है। इस सबके समाचार भी समाचार-पत्रों में बराबर छपते रहते हैं, जिससे माँग के पक्ष या विपक्ष में जनमत के अधिक सुसंगठित होने में सुविधा होती है। | इसके अतिरिक्त समाचार-पत्रों में देश-विदेश की घटनाएँ एवं अपने देश पर पड़ने वाले उसके सम्भावित प्रभावों आदि का विवरण भी छपता रहता है, जिससे जनता को विश्व के विभिन्न देशों की आन्तरिक और बाह्य स्थिति तथा अपने देश के प्रति उनके मैत्री या शत्रुतापूर्ण रवैये की जानकारी भी मिलती रहती है। दैनन्दिन समाचारों के अतिरिक्त समाचार-पत्रों में राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के विषय में सुयोग्य विद्वानों के समीक्षात्मक लेख, परिचर्चा आदि भी छपते रहते हैं, जिससे जनता को विभिन्न घटनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की दिशा मिलती है।

विज्ञजनों के अनुसार लोकतन्त्र की सफलता जनता की सतत जागरूकता पर निर्भर रहती है। यदि जनता अपने चुने प्रतिनिधियों पर प्रत्येक समय कड़ी नजर नहीं रखती तो शासकों के स्वेच्छाचारी या निरंकुश हो जाने की आशंका उत्पन्न हो जाती है। अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन की वाटरगेट काण्ड में लिप्तता को उजागर करने का श्रेय यदि वहाँ के राष्ट्रनिष्ठ समाचार-पत्रों को है तो निक्सन को उसके पद से अविलम्ब हटवाने का श्रेय वहाँ की सतत जागरूक जनता को। ऐसे ही देश में लोकतन्त्र सफल होता है।

किन्तु भारत में लोकतन्त्र एक मजाक बनकर रह गया है। इसका एक कारण तो यह है कि यहाँ के समाचार-पत्र अपना दायित्व पूर्ण निष्ठा से नहीं निभा पाते। जो थोड़े-बहुत स्वलन्त्र विचारों के राष्ट्रनिष्ठ पत्र हैं। भी, वे सरकार द्वारा बुरी तरह नियन्त्रित और प्रताड़ित हैं। जब तक समाचार-पत्र निर्भीकतापूर्वक शासक-दल की राष्ट्रघातक नीतियों का भण्डाफोड़ नहीं करेंगे, जनता को यह नहीं सिखाएँगे कि लोकतन्त्र में राष्ट्र ही सर्वोपरि होता है, व्यक्ति नहीं; तब तक लोकतन्त्र सफल नहीं हो सकता और सत्ताधारी स्वेच्छाचारी बनते रहेंगे। समाचार-पत्रों के माध्यम से भारत की अधिकतर अशिक्षित जनता को इस सम्बन्ध में जागरूक बनाकर ही उसे लोकतन्त्र में सफल बनाया जा सकता है।

(ख) सामाजिक भूमिका–समाचार-पत्रों की सामाजिक भूमिका भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। समाज में व्याप्त कुरीतियों, कुप्रथाओं, अन्धविश्वासों एवं पाखण्डों का भण्डाफोड़ कर समाचार-पत्र इन बुराइयों को उखाड़ फेंकने की प्रेरणा देकर समाज-सुधार का पथ प्रशस्त करते हैं। इस प्रकार के विभिन्न प्रकार के अपराधों में संलग्न व्यक्तियों के कारनामे उजागर कर एक ओर जनता को सावधान करते हैं तो दूसरी ओर सरकार द्वारा उनकी रोकथाम में भी सहायक सिद्ध होते हैं। इसी प्रकार बाल-विवाह, दहेज-प्रथा, भ्रष्टाचार, शोषण, अनाचार, अत्याचार आदि के विरुद्ध प्रबल जनमत जगाने में भी समाचार-पत्रों की भूमिका उल्लेखनीय रही है।

(ग) आर्थिक भूमिका-समाचार-पत्र देश के अर्थतन्त्र को पुष्ट करने में पर्याप्त सहयोग देते हैं। इसके लिए दैनिक समाचार-पत्रों में एक पृष्ठ व्यापार से सम्बन्धित होता है। आयात-निर्यात के समाचार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की वृद्धि में सहायक होते हैं। अनेक जीवनोपयोगी वस्तुओं के विज्ञापन एवं पते भी समाचार-पत्रों में प्रकाशित होते हैं, जिनसे क्रेता-विक्रेता दोनों को लाभ प्राप्त होता है। सरकार की आर्थिक नीतियों या प्रस्तावित कानूनों आदि की पूर्वसूचना देकर समाचार-पत्र जनता को उनका समर्थन या विरोध करने या संशोधन कराने की प्रेरणा देते हैं। इस प्रकार समाचार-पत्र सरकार, व्यापारी वर्ग एवं जनता के मध्य आर्थिक समाचारों के वाहक एवं समीक्षक के रूप में देश के आर्थिक ढाँचे को सुदृढ़ बनाने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

समाचार-पत्रों के लाभ-समाचार-पत्रों से मुख्य रूप से निम्नलिखित लाभ होते हैं
(क) शिक्षा के प्रसार में सहायक-समाचार-पत्रों में समाचार के अतिरिक्त ऐसे गहन विषयों पर प्रकाश डाला जाता है, जिनके अध्ययन से हमें ज्ञान-विज्ञान से सम्बद्ध अनेक बातें मालूम होती रहती हैं। अल्प शिक्षित लोगों के ज्ञान को बढ़ाने में समाचार-पत्रों का विशेष योगदान होता है। समाचार-पत्रों द्वारा सर्वसाधारण के बीच भी शिक्षा के प्रसार में अधिक सहायता मिलती है। उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों को भी समाचार-पत्रों में नित्य नये-नये तत्त्वों, नये-नये विचारों और आविष्कारों की अनेक तथ्ययुक्त बातें पढ़ने को मिलती हैं, जिनसे उन्हें अपने ज्ञान-विस्तार का सुअवसर प्राप्त होता है।

(ख) साहित्यिक उन्नति-समाचार-पत्रों के प्रकाशन से साहित्यिक क्षेत्र में भी बहुत विकास हुआ है। आज समाचार-पत्रों में विशेष रूप से साप्ताहिक और मासिक पत्रिकाओं में अनेक कहानियाँ, निबन्ध, महापुरुषों की जीवनी, लेख, एकांकी व नाटक प्रकाशित होते हैं, जिनसे साहित्य की उन्नति में पर्याप्त सहायता मिलती है।

(ग) व्यापार में सहायक-व्यापारिक उन्नति में भी समाचार-पत्र बहुत सहायक होते हैं। समाचार-पत्रों में अनेक वस्तुओं के विज्ञापन छपते हैं, जिनसे उनका प्रचार होता है और बाजार में उनकी माँग बढ़ती है।

(घ) मनोरंजन के साधन–समाचार-पत्र मनोरंजन का भी अच्छा साधन हैं। समाचार-पत्रों से हम विश्राम के समय कविताएँ, निबन्ध और कहानियाँ पढ़कर अपना मनोरंजन करते हैं।

समाचार-पत्रों से हानियाँ–समाचार-पत्र जब व्यापक देशहित को भुलाकर किसी राजनीतिक दल, पूँजीपति, सम्प्रदाय विशेष या सरकार के हाथ का खिलौना बन जाते हैं तो उनसे भयंकर हानि होती है; क्योंकि प्रतिदिन लाखों लोगों तक पहुँचने के कारण ये प्रचार का सबसे प्रबल साधन हैं। ऐसे समाचार-पत्रों में जो समाचार या सूचनाएँ प्रकाशित होती हैं, वे मुख्यतः अपने स्वामी की स्वार्थ-सिद्धि को दृष्टि में रखने से पक्षपातपूर्ण और संकुचित होती हैं। बहुत-से समाचार-पत्र अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए झूठी अफवाहें, निराधार एवं सनसनीपूर्ण समाचार, अभिनेत्रियों और मॉडल गर्ल्स के अश्लील चित्र प्रकाशित कर अनैतिकता को प्रोत्साहित करते हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि देश में बहुत-से दंगे-झगड़े और साम्प्रदायिक उपद्रव समाचार-पत्रों द्वारा ही प्रोत्साहित किये गये। इस प्रकार के जातिगत, साम्प्रदायिक एवं प्रादेशिक विचार राष्ट्रीय एकता में बाधक सिद्ध होते हैं। कुछ समाचार-पत्र यदि सरकारी नीतियों का विवेचन कर जनता को वस्तुस्थिति से अनभिज्ञ रखकर देश का बड़ा अहित करते हैं तो कुछ सरकार की सही नीतियों की भी अन्यायपूर्ण आलोचना कर जनता को भ्रमित करते हैं।

उपसंहार–वर्तमान युग में समाचार-पत्रों का महत्त्व असन्दिग्ध है। वे यदि देशहित को सर्वोपरि मानकर निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकारिता का आदर्श अपनाएँ तो देश का महान् उपकार कर सकते हैं। समाचार-पत्रों को लोकतन्त्र के चार शक्ति-स्तम्भों में से एक माना गया है। समाचार-पत्र लोगों को कूप-मण्डूकता से उबारकर जागरूक बनाते हैं, जनमत का निर्माण करते हैं। निष्पक्ष समाचार-पत्र राष्ट्र के आर्थिक आधार को पुष्ट करने के साथ-साथ सामाजिक बुराइयों का उन्मूलन करते हैं। वे न केवल देश के जनमत, अपितु विश्व-जनमत तक को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। सच तो यह है कि समाचार-पत्र लोकतन्त्र के सतत सजग प्रहरी हैं। उनके बिना आज स्वस्थ लोकतन्त्र की कल्पना तक नहीं की जा सकती।

आरक्षण की नीति एवं राजनीति [2009]

सम्बद्ध शीर्षक

  • आरक्षण : वरदान या अभिशाप [2011, 16, 17]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. भूमिका,
  2. आरक्षण का इतिहास,
  3. आरक्षण के लिए संवैधानिक प्रावधान,
  4. आरक्षण के आधार,
  5. अखिल भारतीय स्तर पर आरक्षण,
  6. आरक्षण की नीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता,
  7. उपसंहार

भूमिका--किसी सामाजिक समस्या के समाधान को जब राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति का साधन बना लिया जाता है, तब क्या होता है, इसका उदाहरण आरक्षण के रूप में हमारे सामने है। लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व देश के तत्कालीन प्रधानमन्त्री ने देश के पिछड़े वर्गों के बारे में मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा की थी। तब राजनीति के मण्डलीकरण ने सारे भारतीय समाज में हलचल मचा दी थी और देश दो वर्गों-अगड़े और पिछड़े-में बँट गया था। यह खाई इतने वर्षों में कुछ पटी थी कि अब केन्द्रीय मानव संसाधन मन्त्रालय के मुखिया द्वारा पुनः आरक्षण लागू करने का संकेत देकर इस खाई को और चौड़ा कर दिया है। अब वैसा ही एक बँटवारा पुनः दस्तक दे रहा है।

आरक्षण का इतिहास-सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था स्वतन्त्र भारत में नहीं, अपितु स्वतन्त्रता से पूर्व भी लागू थी। सन् 1919 के भारत सरकार अधिनियम लागू होने के बाद भारत के मुसलमानों ने सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की माँग की। मॉग के इस दबाव के कारण ब्रिटिश सरकार ने सरकारी नौकरियों में 33.5 प्रतिशत स्थान अल्पसंख्यक समुदाय के लिए आरक्षित कर दिये तथा इस व्यवस्था को 4 जुलाई, 1934 ई० को एक प्रस्ताव द्वारा निश्चित आकार प्रदान किया। अल्पसंख्यकों के लिए इस कोटे में मुसलमानों के लिए 25 प्रतिशत और एंग्लो-इण्डियन समुदाय के लिए 8% प्रतिशत स्थान आरक्षित किये गये; इसके अतिरिक्त अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिए 6 प्रतिशत स्थानों को आरक्षित करने का प्रावधान था। स्वतन्त्रता प्राप्त करने के पश्चात् सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को दिया गया समस्त आरक्षण समाप्त कर दिया गया, लेकिन ऐंग्लो-इण्डियन समुदाय के लिए आरक्षण की व्यवस्था आगामी दस वर्ष के लिए जारी रखी गयी।

संविधान निर्माताओं ने सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था के लिए संस्तुति की। इस सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़े वर्गों में अनुसूचित जातियाँ, अनुसूचित जनजातियाँ और पिछड़ी जातियाँ सम्मिलित हैं। राष्ट्रपति ने सन् 1950 ई० में एक संवैधानिक आदेश जारी करके राज्यों एवं संघीय, क्षेत्रों में रहने वाली इस प्रकार की जातियों की एक अनुसूची जारी की। इन अनुसूचित जातियों और जनजातियों को प्रारम्भ में सरकारी नौकरियों में और लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं में (ऐंग्लो-इण्डियन के लिए भी) प्रारम्भिक रूप से दस वर्ष के लिए आरक्षण प्रदान किया गया जिसे समय-समय पर निरन्तर रूप से आठवें (1950), तेईसवें (1970), पैंतालीसवें (1980), बासठवें (1989) एवं उन्नासीवें (1999) संविधान संशोधनों द्वारा 10-10 वर्ष के लिए बढ़ाया जाता रहा, जो अब 2020.ई० तक के लिए कर दिया गया है। निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आरक्षण तत्कालीन भारतीय समाज की एक आवश्यकता था। सदियों से दबाये-कुचले गये दलित वर्ग को शेष समाज के समकक्ष लाने के लिए आरक्षण की बैसाखी आवश्यक थी। अब भी अन्य पिछड़े वर्गों को आगे लाने के लिए उन्हें कोई-न-कोई सहारा देना आवश्यक है।

आरक्षण के लिए संवैधानिक प्रावधान-भारत के संविधान में समानता के मौलिक अधिकार के अन्तर्गत लोक-नियोजन में व्यक्ति को अवसर की समानता प्रदान की गयी है। अनुच्छेद 16 के अनुसार राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से सम्बन्धित विषयों में सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के अवसर की समानता प्रदान की गयी है, लेकिन राज्य को यह अधिकार दिया गया है कि वह राज्य के पिछड़े हुए (पिछड़े वर्ग का तात्पर्य यहाँ सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए वर्ग से है) नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों में आरक्षण के लिए व्यवस्था कर सकता है। सतहत्तरवें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 16 में 4 (क) जोड़ा गया, जिसके द्वारा अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के पक्ष में राज्य के अधीन सेवाओं में प्रोन्नति के लिए प्रावधान करने का अधिकार राज्य को प्रदान किया गया है। अनुच्छेद 15 में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध किया गया है। अनुच्छेद 15 (4) राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष उपबन्ध करने का अधिकार प्रदान करता है।

अनुच्छेद 341 और 342 राष्ट्रपति को यह अधिकार देते हैं कि वह सम्बन्धित राज्य या संघ राज्य क्षेत्र में तत्सम्बन्धित राज्यपाल या उपराज्यपाल या प्रशासक से परामर्श करके लोक अधिसूचना द्वारा उन जातियों, मूलवंशों या जनजातियों अथवा जातियों, मूलवंशों या जनजातियों के भागों या उनके समूहों को अनुसूचित जाति के रूप में उस राज्य के लिए विनिर्दिष्ट कर सकेगा। इसी प्रकार राष्ट्रपति अनुसूचित जनजातियों या जनजातीय समुदायों या उनके कुछ भागों अथवा समूहों को तत्सम्बन्धित राज्य या संघ राज्य-क्षेत्र के लिए अनुसूचित जनजातियों के रूप में विनिर्दिष्ट कर सकता है। इस अनुसूची में संसद किसी को सम्मिलित या निष्कासित कर सकती है। अनुच्छेद 335 में संघ या राज्य की गतिविधियों से सम्बन्धित किसी पद या सेवा में नियुक्ति में प्रशासनिक कार्यकुशलता बनाये रखने के साथ-साथ अनुसूचित जातियों/जनजातियों के सदस्यों के दावों का लगातार ध्यान रखने की व्यवस्था है।

आरक्षण के लिए आधार–किसी वर्ग को आरक्षण प्रदान करने के लिए आवश्यक है कि-

  1. वह वर्ग सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ा हो,
  2. इस वर्ग को राज्याधीन पदों पर पर्याप्त प्रतिनिधित्व न मिल सका हो,
  3. कोई ‘जाति’ इस वर्ग में आ सकती है यदि उस जाति के 90% लोग सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हों।

विवाद का प्रमुख विषय यह रहा है कि कुल कितने प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया जा सकता है। संविधान में इस विषय पर कुछ नहीं लिखा गया है, लेकिन उच्चतम न्यायालय ने सन् 1963 में यह निर्णय दिया कि कुल आरक्षण कुल रिक्तियों के पचास प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। मण्डल आयोग की संस्तुतियों को सन् 1991 में लागू करने पर इसे उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी। उच्चतम न्यायालय की विशेष संविधान पीठ ने उस समय भी यह निर्णय दिया कि कुल आरक्षण कुल रिक्तियों के पचास प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता।

अखिल भारतीय स्तर पर आरक्षण-अखिल भारतीय स्तर पर खुली प्रतियोगिता परीक्षा के द्वारा सीधी भर्ती से भरे जाने वाले पदों में अनुसूचित जातियों के लिए 15% अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5% और पिछड़े वर्गों के लिए 27% आरक्षण की व्यवस्था है। खुली प्रतियोगिता को छोड़कर अन्य तरीके से अखिल भारतीय स्तर पर सीधी भर्ती से भरे जाने वाले पदों में अनुसूचित जातियों के लिए 16.67%, अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5% तथा पिछड़े वर्गों के लिए 27% आरक्षण का प्रावधान है।
आरक्षण की नीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता-आरक्षण देने के पीछे मूल भावना का दुरुपयोग यदि राजनीतिक दलों द्वारा राजनीतिक लाभ के लिए किया जा रहा है तब इस विषय पर गम्भीर चिन्तन-मनन की आवश्यकता है। सामाजिक न्याय करते-करते अन्य वर्गों के साथ अन्याय न होता चला जाए, इसका ध्यान रखना भी अनिवार्य है। केवल आरक्षण ही सामाजिक न्याय दिला सकता है, यह सोचना गलत है। अत: आरक्षण के अतिरिक्त और कोई अन्य विकल्प खोजा जाना चाहिए जो सभी वर्गों की उन्नति करे और उन्हें न्याय प्रदान करे।

आरक्षण की व्यवस्था हमारी सामाजिक आवश्यकता थी और एक सीमा तक अब भी है, लेकिन हमें यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि आरक्षण एक बैसाखी है, पाँव नहीं। यदि अपंगता स्थायी न हो तो डॉक्टर यथाशीघ्र बैसाखी का उपयोग बन्द करने की सलाह देते हैं और बैसाखी का उपयोग करने वाला भी यही चाहता है कि उसकी अपंगता का यह प्रतीक जल्दी-से-जल्दी छुटे। इस स्वाभाविक और नैसर्गिक सच्चाई को न मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू करने वालों ने समझना चाहा और न ही संविधान के 104वें संशोधन के अनुसार काम करने का दावा करने वाले वर्तमान में समझना चाह रहे हैं।

पिछड़ी जातियों का हमदर्द होना कतई गलत नहीं है, सामाजिक समरसता की एक बड़ी जरूरत है। यह। लेकिन हमदर्द होने और हमदर्द दिखाई देने में अन्तर होता है। इसी अन्तर के चलते न तो पन्द्रह साल पहले यह सोचा गया था और न ही आज यह सोचा जा रहा है कि ऐसा कोई भी कर्दम उठाते समय समाज के उन्नत समझे जाने वाले वर्गों की आशंकाओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। सभी राजनीतिक दल आज पिछड़ी जातियों को यह समझाने में लगे हुए हैं कि केवल उन्हें ही उनके विकास की चिन्ता है, जब कि वास्तविकता यह है कि उनकी (राजनीतिक दलों) चिन्ता उनका (पिछड़ी जातियों) समर्थन जुटाने की है न कि उनका विकास करने की या न उनका हमदर्द बनने की। वास्तविक विकास तो सदैव अपने पैरों पर खड़ा होने-चलने-दौड़ने से होता है, न कि बैसाखी के सहारे घिसटने से।

उपसंहार-यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही है कि जिनके हाथों में हमने देश की बागडोर सौंपी, उन्होंने पिछड़ी जातियों की शिक्षा और समाज को बेहतर बनाने की दिशा में कभी सोचा ही नहीं। उनसे पूछा जाना चाहिए कि पिछली आधी सदी में उन्होंने इस बारे में क्या कोशिश की ? ऐसी किसी कोशिश को न होना एक अपराध है, जो हमारे नेतृत्व ने आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी के प्रति किया है। इसमें सन्देह नहीं कि इस काम में आपराधिक देरी हुई है, पर यह काम आज भी शुरू हो सकता है। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि पिछली आधी सदी में समाज को जोड़ने की ईमानदार कोशिश नहीं हुई। सत्ता की राजनीति का खेल खेलने वालों के पास निर्माण की राजनीति के लिए कभी समय ही नहीं रहा। धर्म, जाति, वर्ग सब उनकी सत्ता की राजनीति का हथियार बन कर रह गये।

आज आरक्षण से समाज के बँटने के खतरे बताये जा रहे हैं। समाज को तो हमने जातियों, वर्गों में पहले ही बाँट रखा है। समाज को जोड़ने का एक ही तरीका है, विकास की राह पर सब कदम मिलाकर चलें। विकास में सबकी समान भागीदारी हो। आरक्षण की व्यवस्था का विवेकशील क्रियान्वयन इस समान भागीदारी का एक माध्यम बन सकता है। यही समान भागीदारी हमें जोड़ेगी, मजबूत बनाएगी। आवश्यकता आरक्षण को सम्पूर्णत: नकारने की नहीं, उसे विवेकपूर्ण बनाने और सभी पक्षों द्वारा सीमित अवधि के साधन के रूप में स्वीकारने की है। | निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आरक्षण निश्चित रूप से हमारी एक सामाजिक आवश्यकता है। कोई भी सभ्य समाज अपने पिछड़े साथियों को आगे लाने के लिए, विकास की दौड़ में सहभागी बनाने के लिए ऐसी व्यवस्था का समर्थन ही करेगा; क्योंकि यह पिछड़े लोगों का अधिकार है और उन्नत लोगों का दायित्व। हाँ, यह भी जरूरी है कि बैसाखी को यथासमय फेंक देने की बात भी सबके दिमाग में रहे।

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UP Board Class 10 Home Science Model Papers Paper 1

UP Board Class 10 Home Science Model Papers Paper 1 are part of UP Board Class 10 Home Science Model Papers. Here we have given UP Board Class 10 Home Science Model Papers Paper 1.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 10
Subject Home Science
Model Paper Paper 1
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 10 Home Science Model Papers Paper 1

समय : 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक : 70

निर्देश :
प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
सामान्य निर्देश :

  • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
  • प्रश्न-पत्र में बहुविकल्पीय, अतिलघु उत्तरीय, लघु उत्तरीय और दीर्घ उत्तरीय चार प्रकार के प्रश्न हैं। उनके उत्तर हेतु निर्देश प्रत्येक प्रकार के प्रश्न के पहले दिए गए हैं।

निर्देश :
प्रश्न संख्या 1 तथा 2 बहुविकल्पीय हैं। निम्नलिखित प्रश्नों में प्रत्येक के चार-चार वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। उनमें से सही विकल्प चुनकर उन्हें
क्रमवार अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए।

प्रश्न 1.
(क) बी सी जी का टीका किस रोग की रोकथाम के लिए लगाया जाता है?  [ 1 ]
1. कर्णफेर
2. तपेदिक
3. मलेरिया
4. पोलियो

(ख) गोंद के कलफ का प्रयोग किन कपड़ों पर किया जाता है? [ 1 ]
1. ऊनी वस्त्रों पर
2. रेशमी वस्त्रों पर
3. सूती वस्त्रों पर
4. रंगीन वस्त्रों पर

(ग) रिंग कुशन का प्रयोग कब किया जाता है?  [ 1 ]
1. सर्दी लगने पर
2. हैजा होने पर
3. मोच आने पर
4. शैय्या घाव होने पर

(घ) दूध मापने की इकाई क्या है?  [ 1 ]
1. मिलीलीटर, लीटर
2. किलोग्राम, ग्राम
3. सेण्टीमीटर, मीटर
4. इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 2.
(क) ‘वरिष्ठ नागरिक जमा योजना’ खाता खोला जाता है। [ 1 ]
1. 60 वर्ष के उपरान्त
2. 69 वर्ष के पूर्व
3. 50 वर्ष से पूर्व
4. 21 वर्ष के बाद

(ख) अचल जोड़ कहाँ पाया जाता है? [ 1 ]
1. कोहनी
2. खोपड़ी
3. घुटने
4. कलाई

(ग) गर्म पानी की बोतल का प्रयोग किया जाता है। [ 1 ]
1. पेट दर्द में
2. मोच आने पर
3. घाव में
4. इनमें से कोई नहीं

(घ) लौह-तत्त्व की कमी से कौन-सा रोग हो जाता है? [ 1 ]
1. बेरी-बेरी
2. मरास्मस
3. एनीमिया
4. तपेदिक

निर्देश :
प्रश्न संख्या 3 तथा 4 अतिलघु उत्तरीय हैं। प्रत्येक खण्ड का उत्तर अधिकतम 25 शब्दों में लिखिए।

प्रश्न 3.
(क) हैजा रोग किस जीवाणु से फैलता है। इसके बचाव के कोई दो उपाय लिखिए। [ 2 ]
(ख) राम ने एक दर्जन केला ₹ 10 में खरीदा तथा ₹ 12 में बेचा। बताइए। क उसे कितने प्रतिशत लाभ हुआ? [ 2 ]
(ग) बजट सम्बन्धी एंजिल का सिद्धान्त क्या है? [ 2 ]
(घ) शुद्ध जल का क्या आवश्यक गुण है? [ 2 ]
(ङ) कब्ज के रोगी के आहार में मुख्यतया किन भोज्य पदार्थों का समावेश होना चाहिए? [ 2 ]

प्रश्न 4.
(क) ओवन क्या है? इसकी देखभाल आप कैसे करेंगी। [ 2 ]
(ख) कपड़े पर निशान लगाने के लिए किस चॉक का प्रयोग करते हैं और क्यों? [ 2 ]
(ग) वस्त्र की ड्राफ्टिंग करने से क्या लाभ होता है? [ 2 ]
(घ) पाक क्रिया के मुख्य उद्देश्य क्या हैं? [ 2 ]
(ङ) कंकाल तन्त्र की क्या उपयोगिता है? [ 2 ]

निर्देश :
प्रश्न संख्या 5 से 7 तक लघु उत्तरीय हैं, इसके प्रत्येक खण्ड का उत्तर 50 शब्दों के अन्तर्गत लिखिए।

प्रश्न 5.
(क) बैंक के बचत खाते तथा चालू खाते में क्या अन्तर है? [ 2 + 2 ]
अथवा
पारिवारिक बजट बनाने के लाभों का उल्लेख कीजिए। [ 4 ]

(ख) अधिक धन के खर्च के बिना घर की सजावट कैसे कर सकते हैं? उल्लेख कीजिए। [ 2 + 2 ]
अथवा
गृह सज्जा में लकड़ी के फर्नीचर की देखभाल एवं सफाई के बारे में लिखिए। [ 4 ]

प्रश्न 6.
(क) गृह-गणित का ज्ञान होना गृहिणी के लिए क्यों आवश्यक है? [ 2 + 2 ]
अथवा
शुद्ध एवं अशुद्ध जल में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [ 2 + 2 ]

(ख) पेचिश तथा अतिसार में क्या अन्तर है? [ 2 + 2 ]
अथवा
पर्यावरण संरक्षण के लिए जनता को कैसे जागरूक किया जा सकता है? [ 2 + 2 ]

प्रश्न 7.
(क) पर्यावरण प्रदूषण जनजीवन को कैसे प्रभावित करता है? [ 2 + 2 ]
अथवा
रोग-प्रतिरोधक क्षमता से क्या तात्पर्य है? रोग-प्रतिरक्षा के प्रकारों का उल्लेख कीजिए। [ 2 + 2 ]

(ख) ऊनी एवं रेशमी वस्त्रों का रख-रखाव एवं सुरक्षा आप किस प्रकार करेगी। [ 2 + 2 ]
अथवा
“प्रत्येक गृहिणी के लिए सिलाई कला का ज्ञान आवश्यक है।” स्पष्ट कीजिए। [ 2 + 2 ]

निर्देश :
प्रश्न संख्या 8 से 10 दीर्घ उतरीय हैं। प्रश्न संख्या 8 एवं 9 में विकल्प दिए गए हैं। प्रत्येक प्रश्न के एक ही विकल्प का उत्तर लिखना है। प्रत्येक प्रश्न का उत्तर 100 शब्दों के अन्तर्गत लिखिए।

प्रश्न 8.
घर में रसोईघर का क्या महत्त्व है? रसोईघर की व्यवस्था का वर्णन कीजिए। [ 2 + 2 + 2 ]
अथवा
सेक से क्या तात्पर्य हैं? यह कितने प्रकार की होती है? किसी एक विधि का विवरण दीजिए। [ 2 + 2 + 2 ]

प्रश्न 9.
सामान्य स्वस्थ व्यक्ति और रोगी के भोजन में क्या अन्तर होते हैं? रोगी को भोजन देते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? [ 2 + 4 ]
अथवा
सन्धि किसे कहते है? सन्धि कितने प्रकार की होती है? चल सन्धि को उदाहरण द्वारा स्पष्ट कीजिए। [ 2 + 4 ]

प्रश्न 10.
कृत्रिम श्वसन से आप क्या समझती हैं? कृत्रिम श्वसन की किन्हीं दो विधियों का सामान्य परिचय दीजिए। (2 + 4)

उत्तरमाला

उत्तर 1 :
(क)  1. तपेदिक
(ख) : 2. रेशमी वस्त्रों पर
(ग) : 4. शैय्या घाव होने पर
(घ) : 1. मिलीलीटर, लीटर

उत्तर 2 :
(क) : 1. 60 वर्ष के उपरान्त
(ख) : 2. खोपड़ी
(ग)  : 1. पेट दर्द में
(घ) : 3. एनीमिया

उत्तर 3 :
(क) : हैजा रोग विब्रियो कॉलेरी नामक जीवाणु से फैलता है, इस रोग से बचा के दो प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं। [ 2 ]

  1. नियमित रूप से हैजा का टीका लगवाएँ।
  2. दूध एवं पानी को उबालकर पीना चाहिए।

(ख) : ₹ 10 में खरीदकर ₹ 12 में बेचा
अर्थात् लाभ = 12 -10 = ₹ 2
प्रतिशत लाभ = 2/10 x 100= 20%
20% लाभ हुआ।
(ग) : आय-व्यय से सम्बन्धित इस सिद्धान्त के अनुसार, “पारिवारिक आय बढ़ने के साथ-साथ किसी परिवार के भोजन एवं खाद्य सामग्री पर किए जाने वाले व्ययों में प्रतिशत कमी तथा विलासिता की मदों (शिक्षा, मनोरंजन, स्वास्थ्य) पर होने वाले व्ययों में प्रतिशत वृद्धि अंकित की जाती है।”
(घ) : शुद्ध जल रंगहीन, गन्धहीन, पारदर्शी तथा एक प्रकार की प्राकृतिक चमक से युक्त होता है। इस जल में रोगों के रोगाणुओं का नितान्त अभाव होता है।
(ङ) : कब्ज के रोगी को रेशेदार भोज्य पदार्थों की अधिकता वाले भोजन के साथ हरी सब्जियों, फल, सम्पूर्ण दालें तथा चोकरयुक्त आटे की रोटियाँ आदि पदार्थों का अपने भोजन में समावेश करना चाहिए।

उत्तर 4 :
(क) : ओवन रसोईघर में प्रयुक्त होने वाला विद्युत चालित उपकरण है। इसमें भोजन सेंकने की विधि से पकाया जाता है। ओवन की सुरक्षा हेतु निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए।

  1. ओवन को सावधानीपूर्वक इस्तेमाल करना चाहिए तथा इसके स्विच, सकिट तथा तार की समय-समय पर जांच करते रहना चाहिए।
  2. इसकी आन्तरिक सफाई करते रहना चाहिए।
  3. इसकी आन्तरिक सतह को कभी खुरचकर साफ नहीं करना चाहिए।

(ख) : मिल्टन चॉक टिकियों के रूप में विभिन्न रंगों व आकारों में बाजार में मिलते हैं। इससे कपड़ों को काटने के लिए चिह्न लगाते हैं, क्योंकि यह धोने पर सरलता से छूट जाता है। गहरे रंग पर भी इसके चिह्न अच्छी तरह चमकते हैं, जिससे वस्त्र को सरलता से काटा जा सकता है।
(ग) : ड्राफ्टिग कर लेने से वस्त्र सही नाप के अनुसार बनता है तथा पहनने वाले के शरीर पर अच्छा लगता है, क्योंकि इससे वस्त्र का खाका तैयार हो जाता है।
(घ) : पाक क्रिया का मुख्य उद्देश्य भोजन को स्वादिष्ट, सुपाच्य एवं रोगाणुमुक्त बनाना है।
(ङ) : कंकाल तन्त्र की उपयोगिता निम्नलिखित है।

  1. शरीर को आकृति प्रदान करता है।
  2. शरीर के कोमल अंगों को सुरक्षा प्रदान करता है।
  3. शरीर को गति प्रदान करता है।
  4. शरीर को दृढता प्रदान करता है।
  5. रक्तकणों के निर्माण में सहायता प्रदान करता है।
  6. कैल्सियम को संचित करने में सहायता प्रदान करता है।

उत्तर 5 :
(क) : उत्तर बचत खाते एवं चालू खाते में अन्तर बचत खाता

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बचत व चालू खाते की उपयोगिता

1. बचत खाता :
व्यक्तिगत एवं पारिवारिक बचतों के लाभकारी विनियोग की सुविधा प्रदान करता है। इस खाते में जमा धनराशि पर निपरित दर से ब्याज प्राप्त होता है। अतः अतिरिक्त आय की प्राप्ति होती है। इसके अतिरिक्त इस खाते में जमा धनराशि का अन्यत्र महत्त्वपूर्ण योजनाओं में भी विनियोग किया जाता है।

2. चालू खाता :
व्यापारिक लेन-देन की सुविधा उपलब्य कराता है। उल्लेखनीय है कि बैंक इस खाते में जमा धन का कहीं अन्यत्र विनियोग नहीं कर सकता। अतः खाताधारी आवश्यकता पड़ने पर, चाहे जितनी बार खाते में जमा घन निकाल सकता है।
अथवा
उत्तर :
पारिवारिक बजट एक प्रकार का व्यवस्थित प्रलेख अथवा प्रपत्र होता है, जिसमें सम्बन्धित परिवार के निश्चित अवधि में होने वाले आय-व्यय का विवरण प्रस्तुत किया जाता है। क्रेग एवं रश के अनुसार, “पारिवारिक बजट भूतकाल के व्यय, भविष्य के अनुमानित व्यय तथा वर्तमान समय की मदों पर निश्चित व्यय का लेखा-जोखा है।” बजट के अर्थ एवं उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए वेबर ने भी इसे अपने शब्दों में परिभाषित किया है।

वेबर के अनुसार, “पारिवारिक बजट पारिवारिक आय को व्यवस्थित रूप से इस प्रकार व्यय करने का तरीका है, जिससे कि अधिकतम सदस्यों के सुख व कल्याण में वृद्धि हो सके। पारिवारिक बजट असावधानीपूर्वक तथा अव्यवस्थित रूप से व्यय करने के स्थान पर योजनाबद्ध एवं विवेकपूर्ण व्यय को प्रतिस्थापित करने का ढंग या उपाय है।”

पारिवारिक बजट या बजट बनाने से गृहिणियों तथा परिवार को निम्न लाभ होते हैं।

  1. आय का उचित उपयोग बजट के माध्यम से गृहिणी परिवार की आय का सदुपयोग करती है।
  2. अनावश्यक पारिवारिक व्यय पर नियन्त्रण पारिवारिक बजट में सभी आवश्यकताओं एवं व्यय की मदों को चिह्नित किया जाता है, इससे अनावश्यक व्यय को ज्ञात करना सरल होता हैं

(ख) : बहुत  :
से लोगों का मानना है कि गृह-सज्जा में बहुत अधिक धन की आवश्यकता होती है और धन के अभाव में गृह-सज्जा सम्भव नहीं है। उनकी यह धारणा भ्रामक है। वास्तव में, गृह-सज्जा के लिए कीमती तथा अधिक संख्या में वस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि उपलब्ध वस्तुओं की उत्तम व्यवस्था एवं कलात्मकता की आवश्यकता होती है।

यदि किसी घर में बहुत-सी बहुमूल्य वस्तुएँ एवं साधन उपलब्ध हों, परन्तु वे सब व्यवस्थित न हों तथा उनमें कलात्मकता का नितान्त अभाव हो, तो उसे घर को सुसज्जित नहीं कहा जा सकता। आय कम होने की स्थिति में बहुमूल्य वस्तुएँ में उपलब्ध होने पर हस्तनिर्मित वस्तुओं से भी गृह-सज्जा की जा सकती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि गृह सज्जा के लिए अधिक घन की आवश्यकता अनिवार्य शर्त नहीं हैं।
अथवा
उत्तर :
फर्नीचर की वस्तुएँ सामान्यतः लकड़ी, लोहे तथा प्लास्टिक की बनी होती हैं। इनकी सफाई और देखभाल निम्नलिखित प्रकार से की जाती है। लकड़ी के फर्नीचर की सफाई की विधियाँ अलग-अलग होती है।

1. सफेद लकड़ी :
गर्म पानी में सर्फ घोलें तथा मुलायम सूती कपड़े को घोल में भिगोकर वस्तुओं को धीरे-धीरे रगड़कर साफ करना चाहिए।

2. पेण्ट की हुई लकड़ी :
ऐसी वस्तुओं को नींबू द्वारा साफ किया जा सकता है।

3. पॉलिश की हुई लकड़ी :
आधा लीटर पानी में सिरको ड़ालकर कपड़ा भिगोकर रगड़े, फिर सूखे कपड़े से पोंछकर सरसों या मिट्टी के तेल से चमकाये।

4. लोहे का फर्नीचर :
लोहे के फर्नीचर को हल्के नर्म कपड़े से झाड़ा जाता है और साथ ही गीले कपड़े व साबुन से साफ किया जाता है। वर्ष में एक बार इस पर पेण्ट अवश्य किया जाना चाहिए।

5. प्लास्टिक की वस्तुओं एवं फर्नीचर की सफाई :
घर में प्लास्टिक की अनेक वस्तुओं; जैसे-कुर्सी, मेज, बाल्टी, मग इत्यादि को साफ करने के लिए गीले कपड़े में साबुन लगाकर पोंछना चाहिए। गुनगुने पानी का प्रयोग भी करना चाहिए। उसके पश्चात् सूखे कपड़े से पोंछना चाहिए। प्लास्टिक की वस्तुओं को तेज धूप में नहीं रखना चाहिए।

उत्तर 6 :
(क) :
गृह गणित का गृहिणियों के लिए महत्त्व गृह अर्थव्यवस्था के संचालन का कार्य मुख्यतः गृहिणियों पर ही होता है। घरेलू कार्यों में बजट बनाना, आय व्यय का हिसाब रखना, दूध, सब्जी, राशन आदि का हिसाब रखना तथा उनकी कीमत अथवा मूल्य के अनुसार भुगतान करना आदि कार्य आते हैं। इन सभी कार्यों हेतु गणितीय गणनाओं की आवश्यकता होती है। इन सभी कार्यों को सुचारु रूप से करने हेतु गृह गणित का ज्ञान होना प्रत्येक गृहिणी के लिए आवश्यक है।अथवा
उत्तर : शुद्ध एवं अशुद्ध जल में अन्तर
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(ख) : पेचिश तथा अतिसार में अन्तर
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अथवा
उत्तर :
पर्यावरण का मानव जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है, पर्यावरण संरक्षण के लिए। जनचेतना का होना बहुत आवश्यक है। पर्यावरण संरक्षण का लक्ष्य निम्नलिखित उपायों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

  1. पर्यावरण शिक्षा द्वारा जनता में पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाई जा सकती है। सामान्य जनता को पर्यावरण के महत्त्व, भूमिका तथा प्रभाव आदि से अवगत कराना आवश्यक है।
  2. वैश्विक स्तर पर पर्यावरण सरक्षण पर विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन कराना चाहिए; जैसे-स्टॉकहोम सम्मेलन (1972), रियो डि जेनेरियो सम्मेलन (1992)
  3. गाँव, शहर, जिला, प्रदेश, राष्ट्र आदि सभी स्तरों पर पर्यावरण संरक्षण में लोगों को शामिल करना चाहिए।
  4. पर्यावरण अध्ययन से सम्बन्धित विभिन्न सेमिनार पुनश्चर्या, कार्य-गोष्ठियाँ, दृश्य-श्रव्य प्रदर्शनी आदि का आयोजन कराया जा सकता है।
  5. विद्यालय, विश्वविद्यालय स्तर पर पर्यावरण अध्ययन विषय को लागू करना एवं प्रौढ़ शिक्षा में भी पर्यावरण-शिक्षा को स्थान देना महत्त्वपूर्ण उपाय है।

उत्तर 7 :
(क) : प्रदूषण का अर्थ प्राकृतिक पर्यावरण में उपस्थित विभिन्न घटकों अथवा तत्त्वों के सन्तुलन में वह बदलाव, जिसका मानव जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, प्रदूषण कहलाता है। पर्यावरण प्रदूषण वर्तमान समय में मानव के समक्ष उत्पन्न एक गम्भीर समस्या है। पर्यावरण प्रदूषण का प्रतिकूल प्रभाव हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर पड़ता है। पर्यावरण प्रदूषण के प्रभाव को हम निम्नलिखित रूपों में स्पष्ट कर सकते हैं।

जन स्वास्थ्य पर प्रभाव
जन स्वास्थ्य पर प्रभाव निम्नलिखित हैं

  1. प्रदूषण से विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य सम्बन्धी बीमारियाँ; जैसे-हैजा, कॉलरा, टायफाइड आदि होती हैं।
  2. ध्वनि प्रदूषण से सर दर्द, चिड़चिड़ापन, रक्तचाप बढ़ना, उत्तेजना, हृदय की घड़कने बढ़ना आदि समस्याएँ होती हैं।
  3. जल प्रदूषण से टायफाइड, पेचिश, ब्लू बेबी सिण्ड्रोम, पाचन सम्बन्धी विकार (कब्ज) आदि समस्याएँ होती हैं।
  4. वायु प्रदूषण से फेफड़े एवं श्वास सम्बन्धी, श्वसन-तन्त्र की बीमारियाँ होती हैं।

व्यक्तिगत कार्यक्षमता पर प्रभाव
व्यक्तिगत कार्यक्षमता पर प्रभाव निम्नलिखित है।

  1. पर्यावरण प्रदूषण व्यक्ति की कार्यक्षमता को प्रभावित करता है।
  2. इससे व्यक्ति की कार्यक्षमता अनिवार्य रूप से घटती है।
  3. प्रदूषित वातावरण में व्यक्ति पूर्ण रूप से स्वस्थ नहीं रह पाता।
  4. प्रदूषित वातावरण में व्यक्ति की चुस्ती, स्फूर्ति, चेतना आदि भी घट जाती

आर्थिक जीवन पर प्रभाव
आर्थिक जीवन पर प्रभाव निम्नलिखित हैं।

  1. पर्यावरण-प्रदूषण का गम्भीर प्रभाव जन सामान्य की आर्थिक गतिविधियों एवं आर्थिक जीवन पर पड़ता है।
  2. कार्यक्षमता घटने से उत्पादन दर घटती है।
  3. साधारण एवं गम्भीर रोगों के उपचार में अधिक व्यय करना पड़ता है।
  4. आय दर घटने तथा व्यय बढ़ने पर आर्थिक संकट उत्पन्न होता है।

इस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण मानव जीवन पर बहुपक्षीय, गम्भीर तथा प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न करता है। अतः इसके समाधान हेतु व्यक्ति एवं राष्ट्र दोनों को मिलकर कार्य करना चाहिए।
अथवा
उत्तर :
विभिन्न रोगाणुओं से संघर्ष करने वाली शरीर की इस क्षमता को ही रोग प्रतिरक्षा’ या रोग-प्रतिरोधक क्षमता अथवा रोग-प्रतिबन्धक शक्ति (Immunity Power) कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में यह क्षमता या शक्ति भिन्नभिन्न स्तरों में पाई जाती है। यही नहीं एक ही व्यक्ति में भी यह क्षमता भिन्न-भिन्न समय में कम या अधिक हो सकती है। रोग प्रतिरक्षा दो प्रकार की होती हैं।

1. प्राकृतिक रोग-प्रतिरोधक क्षमता :
प्राकृतिक रूप से ही प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में विभिन्न रोगों का मुकाबला करने की क्षमता होती है, जो जन्मजात होती है। मनुष्य की इस क्षमता को ही प्राकृतिक रोग-प्रतिरोधक क्षमता कहते हैं।

2. कृत्रिम अथवा अर्जित रोग-प्रतिरोधक क्षमता :
रोगग्रस्त होने से बचने एवं स्वस्थ बने रहने के लिए प्राकृतिक रोग प्रतिरोधक क्षमता के साथ अतिरिक्त रोग-प्रतिरोधक क्षमता की आवश्यकता होती है। यह अतिरिक्त क्षमता विभिन्न उपायों द्वारा प्राप्त की जा सकती है। इस अतिरिक्त रोग प्रतिरोधक क्षमता को ही स्वास्थ्य विज्ञान की भाषा में कृत्रिम अथवा अर्जित रोग प्रतिरोधक क्षमता कहते हैं।

रोग प्रतिरक्षा की प्राप्ति के स्रोत नियमित और सन्तुलित जीवनशैली तथा स्वच्छ खानपान के अतिरिक्त टीके या इंजेक्शन पद्धति द्वारा भी अतिरिक्त रोग-प्रतिरोधक क्षमता का विकास किया जाता है।

(ख) : ऊनी एवं रेशमी वस्त्रों का रख-रखाव
ऊनी एवं रेशमी वस्त्रों के रख-रखाव हेतु अतिरिक्त सावधानी की आवश्यकता होती है, जिसे निम्नलिखित बिन्दुओं से समझा जा सकता है।

  1. ऊनी वस्त्रों को सुरक्षित रखने के लिए सम्बन्धित बॉक्स में फिनाइल अथवा नेफ्थेलीन की गोलियाँ अवश्य ही रखी जानी चाहिए।
  2. जरी एवं तिल्ले-गोटे वाले वस्त्रों को अन्य वस्त्रों से अलग स्थानों पर मलमल या अन्य किसी महीन सूती वस्त्र से लपेटकर ही रखना चाहिए।
  3. यदि वस्त्रों को अधिक समय तक बन्द रखना हो, तो समय-समय पर धूप एवं हवा लगा देनी चाहिए।
  4. यदि फिनाइल की गोलियाँ समाप्त हो गई हों, तो अतिरिक्त गोलियाँ रख देनी चाहिए।

अथवा
उत्तर :
गृहिणियों द्वारा घर पर ही अपनी आवश्यकता एवं सुविधा के अनुसार वस्त्रों की सिलाई व मरम्मत की जा सकती है। यह कार्य पर्याप्त सुविधाजनक तथा लाभदायक भी होता है। अतः प्रत्येक गृहिणी को सिलाई कला का ज्ञान होना आवश्यक है। घर पर वस्त्रों की सिलाई के निम्नलिखित लाभ होते हैं।

  1. घर पर स्वयं वस्त्रों की सिलाई करने से धन की पर्याप्त बचत होती है।
  2. घर पर स्वयं सिलाई करने से वस्त्र शीघ्र ही सिलकर तैयार हो जाते हैं। अतः समय की भी बचत होती है।
  3. कपड़े की बचत होती है और साथ ही कपड़े का सदुपयोग किया जा सकता है। सिलाई कार्य में बचे हुए कपड़े को अनेक प्रकार से उपयोग में लाया जा सकता है; जैसे-हमाल, थैले-थैलियाँ बनाना आदि।
  4. अपनी रुचि एवं पसन्द का डिजाइन बनाया जा सकता है।
  5. घर पर वस्त्रों की सिलाई से विशेष प्रकार के सन्तोष एवं आनन्द की प्राप्ति होती है।

उत्तर 8 :
घर में रसोईघर का महत्व
प्रत्येक घर में अनिवार्य रूप से भोजन पकाने हेतु एक रसोईघर होता है। रसोईघर में ही विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्री, भोजन पकाने के साधन एवं उपकरण तथा तैयार यो पकाया हुआ भोजन रखा जाता है। अतः घर में रसोईघर का बहुत अधिक महत्त्व है। रसोईघर का महत्त्व इससे भी स्पष्ट होता है कि रसोईघर में गृहिणी प्रतिदिन अपना पर्याप्त समय व्यतीत करती है तथा यहाँ पाक क्रिया जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य होता है। इस दृष्टिकोण से रसोईघर गृणी की सुविधाओं के अनुकूल होनी चाहिए। रसोईघर की उत्तम व्यवस्था का गृहिणी एवं परिवार के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत अव्यवस्थित रसोईघर होने पर गृहिणी तथा परिवार के सदस्यों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

रसोईघर की व्यवस्था
रसोईघर की सुव्यवस्था अतिआवश्यक तत्त्व है। मुख्यवस्थित रसोईघर जहाँ एक ओर गृहिणी की कुशलता, इक्षता तथा सुरुचिपूर्णता का प्रमाण है, वहीं दूसरी ओर सुव्यवस्थित रसोईघर में कार्य करना अधिक सरल एवं सुविधाजनक होता है। रसोईघर की सुव्यवस्था हेतु निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए

1. रसोईघर की समस्त वस्तुएँ यथास्थान ही रखी जाएँ :
प्रत्येक वस्तु का स्थान निर्धारित करके उसे अपने यथास्थान पर रखना चाहिए। स्थान चयन करते समय कार्यों की सुविधा एवं सरलता को भी ध्यान में रखना चाहिए। किसी वस्तु या उपकरण का प्रयोग करने के उपरान्त उसे पुनः निर्धारित स्थान पर रख देना चाहिए। नित्य प्रयोग के सभी बर्तनों को आगे तथा कभी-कभी प्रयोग में आने वाले बर्तनों को पीछे रखा जा सकता है। रसोईघर के कूड़े को भी टोकरी अथवा ढक्कन युक्त हिने में ही डालना चाहिए, इससे रसोईघर में सफाई अनी रहती है तथा कार्य सरलता से पूर्ण होता जाता है।

2. खाद्य सामग्री का उचित संग्रह :
रसोईघर में विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्रियों; जैसे-आटा, दाल, चावल, चीनी आदि को भिन्न-भिन्न ढंग से संभालकर रखना आवश्यक होता है। आटा, दाल, चीनी तथा चावल आदि को बन्द डिब्बों अथवा कनस्तर आदि में रखना चाहिए, जिससे चीटी, कॉकरोच आदि कीट इन्हें दूषित न कर सकें। ताजा तैयार की गई खाद्य सामग्री आदि को भी ढककर रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त ताजे फलों तथा सब्जियों को फ्रिज में ही रखना चाहिए। सूखी खाद्य सामग्रियों के सभी डिब्बों पर समुचित लेबल लगाए जाने चाहिए। इस प्रकार की व्यवस्था होने पर, आवश्यकता पड़ने पर परिवार का कोई भी सदस्य किसी भी वस्तु को ढूँढ सकता है।

3. रसोईघर के बर्तनों की सफाई :
रसोईघर की व्यवस्था के अन्तर्गत यह आवश्यक है। कि रसोईघर के बर्तनों की नियमित सफाई होनी चाहिए। रसोईघर में प्रयुक्त भिन्न-भिन्न प्रकार के बर्तनों की सफाई उपयुक्त विधि द्वारा ही की जानी चाहिए, अन्यथा या तो बर्तनों की समुचित सफाई नहीं हो पाएगी अयया बना में कुछ दाय आ जाने की आशंका रहेगी। उदाहरण के लिए, स्टील के बर्तनों को याद राख या बालू से साफ किया जाए, तो उनकी चमक घट जाती है तथा खरोंच पड़ने की भी आशंका बनी रहती है। बर्तनों को भली-भाँति साफ करके तया सुखाकर यथास्थान रखा जाना चाहिए। बर्तनों की सफाई के साथ साथ रसोईघर को नियमित सफाई भी आवश्यक है। पूरी तरह से साफ सुथरे रसोईघर को ही सुव्यवस्थित रसोईघर कहा जा सकता है।
अथवा
शरीर के किसी अंग में दर्द होने अथवा सूजन आने पर प्रभावित व्यक्ति को सैंक पहुँचाई जाती है।
सैंक दो प्रकार की होती हैं

  1. गर्म सैंक
  2. ठण्ड़ी सेंक

गर्म सेक
शरीर के किसी रोगग्रस्त भाग या अंग को अतिरिक्त ताप या ऊष्मा पहुंचाने की क्रिया को गर्म सेक कहते हैं। श्वसन तन्त्र से बलगम को निकालने, दर्द कम करने, फोड़े-फुसी को पकाने तथा उनसे मवाद निकालने के लिए गर्म सेक की आवश्यकता पड़ती है। गर्म सेंक प्रदान करने के प्रयोजन भिन्न-भिन्न होते हैं। इस भिन्नता के अनुरूप गर्म सेक प्रदान करने के साधन एवं विधियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। गर्म सेंक देने के तीन मुख्य साधन निम्नलिखित हैं

1. गर्म-शुष्क सेंक :
इसके लिए कपड़ा रूई आदि को किसी तवे इत्यादि पर सीधे गर्म करते हैं और बाद में सीधे उस अंग पर रखते हैं, जिसकी सिकाई करनी हो। यह सेंक गर्म-शुष्क कहलाती हैं। कभी-कभी कुछ विशेष अंगों को इस प्रकार सिकाई की जाती है। जैसे- गर्म पानी की बोतल द्वारा सेंक, गर्म सेक प्रदान करने की एक विधि हैं। इस प्रकार की सेंक देने के लिए एक रबड़ की बनी हुई बोतल इस्तेमाल की जाती है। इस बोतल में गर्म पानी को डालकर यथास्थान गर्म सेक दी जाती है। इस प्रकार की सेक को दर्द कम करने के लिए प्रयोग किया जाता है।
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विधि इसके प्रयोग की विधि निम्नलिखित है

  1. सर्वप्रथम अनुमान से पानी की कुछ मात्रा को गर्म कर दिया जाता हैं।
  2. इसके उपरान्त बोतल के खाली भाग को हाथ से दबाकर अन्दर की वायु को बाहर निकाल देना चाहिए।
  3. इसके बाद बोतल का 2/3 भाग पानी से भरकर, बोतल के हुक्कन को कसकर बन्द कर देना चाहिए।
  4. इसके उपरान्त बोतल को किस तौलिए अथवा मोटे सूती कपड़े में लपेटकर सेक प्रदान करने के लिए शरीर के सम्बन्धित अंग पर रखना चाहिए।
  5. कुछ-कुछ समय उपरान्त बोतल को उस अंग से हटाते रहना चाहिए।
  6. कभी भी बोतल को बिना कपड़े में लपेटे शरीर के सम्पर्क में नहीं लाना चाहिए। बोतल का शरीर से सीधा सम्पर्क कराने से शरीर की त्वचा के झुलस जाने का भय रहता है।

2. गर्म-तर सेंक
गर्म पानी में कपड़ा भिगोकर की जाने वाली सेक गर्म-तर सेक कहलाती हैं। यह कुछ विशेष अंगा पर की जाती है। जैसे-आँख व किसी पात्र इत्यादि पर। विधि गर्म-तर सेंक के प्रयोग की विधि निम्न प्रकार है।

  1. इसके लिए एक मलमल के कपड़े का टुकड़ा लिया जाता है, जिसे तौलिए में लपेट दिया जाता है।
  2. अब इस तौनिए को चिलमची या गर्म पानी की केतली आदि में भिगोते हैं।
  3. अब कपड़े को निकाल लेना चाहिए तथा ध्यान रहे कपड़ा बहुत अधिक गर्म न हो।
  4. तत्पश्चात् तौलिए को दोनों सिरों से पकड़कर निचोड़ दिया जाता हैं।

3. गर्म-गीली सेंक
पैरों में दर्द इत्यादि की स्थिति में इस विधि से पैरों की सिकाई की जाती है। इस विधि में गर्म पानी की बाल्टी या टब में पैर डालकर सिकाई की जाती है। इस विधि मेपैरों को सिकाई हेतु नमक व वोरिङ पाउडर डाला जा सकता है।

ठण्डी सेंक के लिए बर्फ की टोपी का प्रयोग

  1. बर्फ की टोपी या थैली का प्रयोग हुण्डी सेक पहुँचाने के उद्देश्य से किया जाता है। कभी-कभी ज्वर की दशा में रोगी के शरीर का तापमान अत्यन्त ऊँचा हो जाता है, उस समय तापमान को सामान्य स्तर तक लाने के लिए उण्डी पट्ट्टी या बर्फ की टोपी का प्रयोग किया जाता है। बर्फ की टोपी का प्रयोग शरीर के किसी विशेष स्थान पर हुण्डी सैक पहुँचाने के लिए भी किया जाता हैं।
  2. तेज ज्वर को कम करने के लिए, शरीर से होने वाले रक्तस्राव को रोकने के लिए तथा सूजन एवं दर्द को कम करने के लिए उड़ी सेक की आवश्यकता पड़ती है।

उत्तर 9 :
स्वस्थ व्यक्ति एवं रोगी के भोजन में अन्तर
स्वस्थ व्यक्ति को सामान्य, पौष्टिक तथा सन्तुलित आहार प्रण करना चाहिए, परन्तु यदि व्यक्ति किसी साधारण अथवा गम्भीर रोग से पीड़ित है, तो रोग की प्रकृति के अनुसार रोगी के आहार में आवश्यक परिवर्तन करने चाहिए। इस प्रकार के आहार को आहार एवं पोषण विज्ञान की भाषा में उपचारार्थ आहार’ कहते हैं। कुछ रोग ऐसे होते हैं, जो किसी पोषक तत्व की कमी के कारण उत्पन्न होते हैं, जबकि कुछ रोग पाचन तन्त्र अथवा उत्सर्जन तन्त्र की अव्यवस्था के कारण उत्पन्न होते हैं। अतः रोग की प्रकृति को दृष्टिगत रखते हुए उपचारार्थ आहार के तत्वों के अनुपात एवं मात्रा आदि का निर्धारण किया जाता है।आहार के निर्धारण में यह ध्यान रखा जाता है कि रोगी को जिन पोषक तत्वों की आवश्यकता हो, उन सभी तत्वों का आहार में समुचित मात्रा में समावेश होना चाहिए। रोग की अवस्था में रोगी को दो प्रकार का आहार देना चाहिए–तरल आहार एवं अर्द्ध तरल आहार।

रोगी को भोजन कराना
रोग की अवस्था में व्यक्ति का स्वभाव परिवर्तित हो जाता है। व्यक्ति चिड़चिड़ा हो जाता है तथा उसकी शारीरिक गतिविधियां कम हो जाती हैं। इससे व्यक्ति की भूख व पाचन क्रिया भी प्रभावित होती है। इससे कुछ रोगी अत्यधिक कमजोर हो जाते हैं। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए रोगी को भोजन कराते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है।

  1. रोग की अवस्था में रोगी के भोजन का विशेष ध्यान रखना चाहिए। रोगी को नियमित भोजन देना चाहिए, जिससे उसकी भूख नष्ट न हो।
  2. रोगी को भोजन डॉक्टर की सलाह से उचित रूप में तथा समयानुसार देना चाहिए।
  3. रात्रि की अपेक्षा दिन में भोजन देना अधिक उचित है।
  4. सोते हुए रोगी को जगाकर भोजन नहीं देना चाहिए।
  5. रोगी के पास न लाने से पूर्व उसे और उसके आस पास के स्थानको भोजन हेतु पूरी तरह तैयार कर लेना चाहिए; जैसे
    •  रोगी के मुँह-हाथ को स्पंज कर देना चाहिए।
    •  रोगी के आस-पास का स्थान पूर्णतः स्वछ कर लेना चाहिए।
    •  बिस्तर तथा वस्त्रों की रक्षा के लिए तौलिए का प्रयोग करना
    • यदि डॉक्टर ने उठने से मना किया है, तो तकिए के सहारे उसे पलंग पर ही बैठा देना चाहिए।
  6. भोजन अपेक्षित ठण्डा या गर्म होना चाहिए।
  7. भोजन लाने में स्वच्छता एवं आकर्षण हो, जिससे भोजन के प्रति रोगी की रुचि बढ़े। भोजन कराने में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए।
  8. रोगी के भोजन करने के पश्चात् जूठे बर्तन तुरन्त हटा देने चाहिए। |
  9. उठने में असमर्थ रोगी को केवल तरल पदार्थ ही भोजन के रूप में दिए जाने चाहिए। रोगी को भोजन कराते समय प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। भोजन की प्यालियाँ, कटोरियाँ तथा लहें अधिक भरी नहीं होनी चाहिए।

अथवा
सन्धि का अर्थ
सन्धि (जोड़) शरीर के उन स्थानों को कहते हैं, जहाँ दो अस्थियाँ एक-दूसरे से मिलती हैं; जैसे–कन्ये, कुहनी या कुल्हे की सन्धि।

अस्थि सन्धि
कंकाल तन्त्र में दो या दो से अधिक अस्थियों के परस्पर सम्बद्ध होने के स्थल को अस्थि सन्धि कहा जाता है। सन्धियां शरीर को गति प्रदान करने में सहायक होती हैं। अस्थि सन्धियाँ दो प्रकार की होती हैं

  1. अचल सन्धि
  2. चल सन्धि

अचल सन्धि
इस प्रकार की सन्धियों में दो या दो से अधिक हड्डियाँ आपस में इस प्रकार जुड़ी होती है कि वे बिल्कुल हिल न सकें अर्थात् लगभग स्थिर स्थिति में हों। इस प्रकार की अस्थियों की बनावट कंटीली अथवा आरी के समान नुकीली होती हैं। ये नुहोलापन एक अस्थि को दूसरी अस्थि से फंसाए रखने में मजबूती प्रदान करता है। इस प्रकार के जोड़ खोपड़ी में पाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रकार की अचल सन्धि भी होती है, जिसमें एक हड्डी का सिरा दूसरी हड्डी पर बने एक उपयुक्त स्थान में स्थित हो जाता है तथा इन हड्डियों के सिरे संयोजी ऊतकों द्वारा जकड़कर इस तरह बंध जाते हैं कि सन्धि अचल हो जाती हैं। पसलियों एवं रीढ़ की हड्डी तथा पसलियों एवं छाती की हड्डी के बीच इसी प्रकार के जोड़ पाए जाते हैं।

चल सन्धि
चल सन्धियों की बनावट इस प्रकार होती है। कि इसे अपनी इच्छानुसार किसी निश्चित दिशा अथवा अन्य दिशाओं में हिलाया तथा की सहायता से शरीर के विभिन्न अंगों को मोड़ा, घुमाया या चलाया जा सकता है। शरीर में बनावट के आधार पर चल सन्धियां प्रमुखतः अपूर्ण तथा पुर्ण दो प्रकार की होती है।

1. अपूर्ण सन्धि :
ये केवल उपास्थियों द्वारा बनी हुई सन्धियाँ हैं तथा इनकी गति अत्यधिक सीमित होती है। कूल्हे की दोनों प्यूविस अस्थियों के मध्य अपूर्ण सन्धि होती है।

2. पूर्ण सन्धि :
इसमें जुड़ने वाली अस्थियों के मध्य स्थित रिक्त स्थान में एक द्रव भरा रहता है,जिससे इनमें पर्याप्त गति होती है। पूर्ण सन्धि के प्रमुख उपप्रकार निम्न हैं।

(i) कब्जेदार सन्धि :
इस प्रकार की सन्धि में शरीर के अंगों को एक दिशा में घुमाया जा सकता है। इस प्रकार की सन्धि में कोई एक हड्डी या उसका कोई प्रवर्ष इस प्रकार बढ़ा रहता है कि वह एक निश्चित दिशा के अतिरिक्त किसी अन्य दिशा में गति को पूर्णतः रोकता हैं। कोहनी, घुटना तथा अंगुलियों में इस प्रकार का जोड़ पाया जाता हैं।
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(ii) कन्दुक-खल्लिका या गेंद और प्यालेदार सन्धियाँ :
इस सन्धि में एक हड्डी का सिरा गेंद के समान गोल होता है और दूसरी हड्डी का सिरा प्याले की तरह होता है। प्यालेनुमा आकार वाले सिरे में गेद याला सिरा स्थित रहता है, जिसे चारों ओर घुमाया जा सकता है। कुल्हें तथा जाँघ में इस प्रकार के जोड़ पाए जाते हैं। घूमते । समय अस्थियों को रगड़ से बचाने के लिए गाढा तरल पदार्थ प्यालेनुमा एवं गेंद वाले सिरे के मध्य भरा रहता है। यह तरल पदार्थ अत्यन्त लचीली झिल्ली के अन्दर बन्द रहता है। जोड़ पर रज्जु भी संलग्न होती हैं, जिससे अस्थियाँ एक-दूसरे से दूर न हों। इन दोनों सिरों पर उपास्थियों का आवरण भी चढ़ा रहता हैं.
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(iii) खुटीदार सन्धि :
इसे कीलदार या धुराग्र सन्धि भी कहा जाता है, इसमें एक अस्थि प्रवर्ध धुरी की। तरह या बँटे की तरह सीधी होती है। इस धुरी पर दूसरी अस्थि इस प्रकार टिकी रहती है कि इनको इधर-उधर भी घुमाया जाए, इसमें घंटे वाली। हड्डी गति नहीं करती है, बल्कि उस पर टिकी हुई हड्डी ही गतिमान होती है। रीढ़ की हड्डी की पहली दूसरी कशेरुक, खोपड़ी के साथ इसी प्रकार का जोड़ बनाती हैं। रीढ़ की हड्डी के कशेरुक का एक प्रवर्घ निकला रहता है, जिस पर खोपड़ी रखी रहती है। इसी सन्धि की सहायता से हम खोपड़ी को इधर-उधर तथा ऊपर-नीचे हिला सकते हैं।
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(iv) प्रसार अथवा फिसलनदार सन्धि :
इसे ‘विसपी सन्धि’ रेडियस अल्ना भी कहा जाता है। ये सन्धियाँ वास्तविक रूप में किसी जोड़ का निर्माण नहीं करतीं, बल्कि इनकी हड्डियाँ होती हैं, जो इन हड्डियों को गति करने के लिए। फिसलने में मदद करती हैं। इस प्रकार की सुधि में दोनों हड्डियों के बीच कार्टिलेज की गद्दी पाई जाती है। कशेरुकों के योजी प्रवर्षों के मध्य तथा प्रबाहु के रेडियस-अल्ना एवं कलाई के बीच इस प्रकार की सन्धि पाई जाती है।
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(v) पर्याण सन्धि :
यह सन्धि कन्दुक-खल्लिका सन्धि के समान होती है, परन्तु इसमें कन्दुक-खल्लिका का विकास न्यून होता है।
उदाहरण :
अंगूठे के जोड़, जिन्हें अंगुलियों की अपेक्षा इधर-उधर अधिक घुमाया जा सकता है।
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अस्थि-सन्धियों की उपयोगिता
अस्थि सन्धियों का मानव शरीर में निम्नलिखित महत्त्व हैं।

  1. मानव शरीर अस्थि-सन्धियों पर ही गतिमान रहता है। जैसे-मुड़ना, दौड़ना, वस्तु पकड़ना आदि। अतः सन्धियाँ शारीर को गति प्रदान करने में सहायक हैं।
  2. शरीर की विभिन्न क्रियाएँ; जैसे – शरीर में झुकाव, श्वास लेना आदि शरीर की हड्डियों के मध्य पाई जाने वाली सन्धियों पर निर्भर होती हैं। विभिन्न प्रकार की शारीरिक गतिविधियाँ सन्धियों के प्रकार पर निर्भर करती हैं। उदाहरण कोहनी का जोड़ (सन्धि) एक कब्जेदार सन्धि हैं, जो हाथों को पीछे मुड़ने से रोकती हैं, इसी प्रकार कन्दुक-खल्लिका ऐसी सन्धि है, जो सम्पूर्ण बाँह को किसी भी दिशा में आसानी से घूमने देती हैं।
  3. खोपड़ी के बीच में उपस्थित सन्धियाँ विशेष कार्य करती हैं। इन्हीं सन्धियों के कारण बाल्यावस्था में मस्तिष्क के विकसित होने में किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न नहीं होता। यहीं सन्धियाँ आगे चलकर अचल हो जाती हैं, जिससे मजबूत कपाल का निर्माण होता है।

उत्तर 10 :
प्राकृतिक श्वसन
वायुमण्डल से प्राप्त आवश्यक ऑक्सीजन को फेफड़ों से कोशिकाओं तक पहुंचाने तथा अशुद्ध वायु या कार्बन डाइऑक्साइड को फेफड़ों से वायुमण्डल में लाने की क्रिया प्राकृतिक श्वसन कहलाती हैं।

कृत्रिम श्वसन का अर्थ एवं आवश्यकता
जब किसी कारणवश फेफड़ों में स्वाभाविक तौर से स्वच्छ वायु का आना-जाना बाधित हो जाए, जिसके फलस्वरूप प्राणी की दम घुटने की स्थिति आ जाती है, तो इस स्थिति में प्राणी को मरने से बचाने के लिए कृत्रिम श्वसन की आवश्यकता पड़ती है। यह भी कहा जा सकता हैं कि कृत्रिम श्वसन का उद्देश्य व्यक्ति के जीवन को बचाना है, जोकि किसी अन्य व्यक्ति के प्रयास द्वारा सम्भव हैं। फेफड़ों में वायु का आना-जाना बाधित होने के कारण कोशिकाओं को ऑक्सीजन की आवश्यक पूर्ति नहीं हो पाती हैं।

इस ऑक्सीजन पूर्ति के अभाव में व्यक्ति की मृत्यु तक हो सकती है। इस स्थिति में कोशिकाओं में ऑक्सीजन की पूर्ति के लिए व्यक्ति वे फेफड़ों में किसी कृत्रिम-विधि द्वारा स्वच्छ तथा ताजी ऑक्सीजन युक्त वायु को भरा जाना ही कृत्रिम श्वसन कहलाता हैं।दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि किसी अन्य व्यक्ति के प्रयासों द्वारा दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की श्वसन क्रिया को चलाना ही कृत्रिम श्वसन क्रिया है। कृत्रिम श्वसन क्रिया का मुख्य उद्देश्य सम्बन्धित व्यक्ति के जीवन को बचाना होता है।

कृत्रिम श्वसन की विधियाँ
कृत्रिम श्वसन की तीन प्रमुख विधियाँ हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित हैं।

1. शेफर विधि
पानी में दुबे व्यक्ति को इस विधि द्वारा कृत्रिम श्वसन दिया जाता है,  इस विधि में जिस व्यक्ति को कृत्रिम श्वसन देना होता है, सर्वप्रथम उसके वस्त्र उतार दिए जाते हैं। यदि यह सम्भव न हो, तो कम-से-कम उसके वक्षस्थल के वस्त्र उतार देने चाहिए। यदि किसी कारणवश यह भी सम्भव न हो तो उन्हें इतना ढीला कर देना चाहिए कि वक्षीय कटहरे पर किसी प्रकार का दबाव न रहे।
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तत्पश्चात् निम्नलिखित प्रक्रिया अपनानी चाहिए

  1. दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को पेट की ओर से लिटाकर मुँह को एक ओर कर देना चाहिए। टांगों को फैला देना चाहिए।
  2. नाक, मुंह इत्यादि को अच्छी तरह साफ कर दें, ताकि श्वास भली-भाँति आ-जा सके। प्राथमिक उपचार करने वाले व्यक्ति को रोगी के एक ओर उसके पाश्र्व में, कमर के पास अपने घुटने भूमि पर टिकाकर, पैरों को थोड़ा-सा रोगी की टाँगों के साथ कोण बनाते हुए बैठ जाना चाहिए। इसके बाद रोग की पीठ पर अपने दोनों हाथों को फैलाकर इस प्रकार रखना चाहिए कि दोनों हाथों के अंगूठे रीढ़ की हड्डी के ऊपर समानान्तर रूप में सिर की ओर मिलाकर रखें। ध्यान रखना चाहिए कि इस समय अंगुलियाँ फैली हुई अर्थात् अंगूठे लगभग 90° के कोण पर रोगी की कमर पर रहे। चिकित्सक को अपने हाथ रोगी की पसलियों के पीछे रखने चाहिए।
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  3. अब दोनों हाथों को पूरी तरह जमाते हुए तथा बिना कोहनी को मोड़े चिकित्सक को आगे की ओर झुकना चाहिए। इस समय चिकित्सक का वजन घुटने तथा हाथ पर रहेगा। इससे रोगी के पेट पर दबाव पड़ेगा तथा इस क्रिया से बक्षीय गुहा फैल जाएगी और फेफड़ों में उपस्थित वायु दबाव के कारण बाहर निकल जाएगी। यदि रोगी के फेफड़ों में पानी भर गया है तो वह भी इस क्रिया से बाहर निकल जाएगा।
  4. चिकित्सक को अपना हाथ यथास्थान रखकर ही धीरे-धीरे झुकाव कम करनाचाहिए, यहाँ तक कि बिल्कुल दबाव न रहे। इस क्रिया से बक्षीय गुहा पूर्व स्थिति में आ जाएगी एवं फेफड़ों में वायु का दबाव कम होने से वायुमण्डल की वायु स्वतः ही अन्दर आ जाएगी।
  5. इस प्रकार दबाव डालने एवं हटाने की प्रक्रिया को एक मिनट में 12-13 बार शनैः-शनैः क्रमिक रूप से दोहराते रहना चाहिए।

शेफर विधि की सावधानियाँ

  1. वक्ष पर किसी प्रकार का दबाव नहीं होना चाहिए; जैसे—कपड़ा, इत्यादि का कसाव।
  2. गर्दन पर किसी प्रकार का दबाव नहीं होना चाहिए।
  3. नाक, मुँह आदि भली-भाँति साफ कर लेने चाहिए। दबाव डालने एवं कम करने की क्रिया लगातार एवं एक बराबर क़म से होनी चाहिए।
  4. प्राकृतिक श्वसन प्रारम्भ हो जाने पर भी कुछ समय तक रोगी को देखते रहना चाहिए।

2. सिल्वेस्टर विधि
इस विधि में रोगी को किसी समतल स्थान पर लिटाया जाता है, उसके वस्त्रों को ढीला करके गर्दन के पीछे कन्धों के बीच में कोई तकिया इत्यादि लगाया जाता है, जिससे सिर पीछे को नीचा हो जाए। इस विधि से रोगी को श्वसन कराने के लिए दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है। एक व्यक्ति सिर की और घुटने के सहारे बैठकर रोगी के दोनों हाथों को अपने दोनों हाथों के द्वारा अलग-अलग पकड़ लेता है

इस समय दूसरा व्यक्ति रूमाल या किसी अन्य साफ कपड़े से रोगी की जीभ को पकड़कर बाहर की तरफ खीचे रहता है। पहला व्यक्ति रोगी के दोनों हाथों को उसके वक्ष की ओर ले जाते हुए अपने घुटने पर सीधा होकर आगे की ओर झुकता हुआ रोगी को छाती पर दबाव डालता है। इस प्रकार उस रोगी की भुजाओं को उसके वक्ष की ओर ले जाया जाता हैं।और फिर पुर्व स्थिति में सिर की और खींच लेता है। क्रमिक रूप से 1 मिनट में लगभग 12 बार इस क्रिया को दुहराने से  प्रारम्भ हो जाती है।
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सिल्वेस्टर विधि की सावधानियाँ

  1. रोगी की जीभ को कसकर पकड़ना चाहिए।
  2. रोगी को किसी समतल स्थान पर लिटाना चाहिए तथा उसके वस्त्र इत्यादि ढीले कर देने चाहिए, जिससे वक्ष पर किसी प्रकार का भाव न रहे।
  3. जिस क्रम से चिकित्सक ऊपर उठे, उसी क्रम से नीचे बैठे अर्थात् दबाव डालने और दबाव कम करने की प्रक्रिया एक जैसी होनी

3. लाबाई विधि :
यदि शेफर्स और सिल्वैस्टर विधियों द्वारा श्वास देना सम्भव न हो तो इस विधि का प्रयोग किया जाता है, जैसे वक्ष स्थल की कोई हड्डी इत्यादि। टूटने पर डॉक्टर के आने तक इस विधि द्वारा रोगी को ऑक्सीजन उपलब्ध कराकर जीवित रखा जा सकता है। दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को एक करवट से लिटाकर उसके समीप एक ओर चिकित्सक को अपने घुटने के आधार पर बैठकर रोगी की नाक, मुंह इत्यादि को भलीभाँति साफ र लेना चाहिए।

किसी स्वच्छ रुमाल या कपड़े से रोगी की शुभ पकड़कर बाहर खींचनी चाहिए और 2 सेकण्ड के लिए छोड़ देनी चाहिए। इस समय रोगी का मुंह खुला रहना चाहिए तथा इसके लिए रोगी के मुँह में कोई चम्मच इत्यादि डाली जा सकती है। इस क्रिया को तब तक दोहराते । रहना चाहिए जब तक कि रोगी को प्राकृतिक श्वसन प्रारम्भ न हो जाए।

लाबार्ड विधि की सावधानियाँ
जीभ दांतों के बीच नहीं दबनी चाहिए, इसके लिए चम्मच अथवा लकड़ी इत्यादि कोई कड़ी यस्तु रोगी के मुंह में रखनी चाहिए।
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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest (ब्याज) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest (ब्याज).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 11
Chapter Name Interest
Number of Questions Solved 43
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest (ब्याज)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
ब्याज की परिभाषा दीजिए। ब्याज कितने प्रकार का होता है ? कुल ब्याज के कौन-कौन से अंग हैं ? समझाइए। [2010]
उत्तर:
ब्याज का अर्थ एवं परिभाषाएँ
ब्याज वह भुगतान है जो पूँजी के प्रयोग के बदले में दिया जाता है। वह एक प्रकार से ऋण कोषों के प्रयोग के लिए दी जाने वाली कीमत है।

विभिन्न अर्थशास्त्रियों द्वारा दी गयी ब्याज की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

प्रो० मार्शल के अनुसार, “ब्याज किसी बाजार में पूँजी के प्रयोग की कीमत है।” कार्वर के अनुसार, “ब्याज वह आय है जो पूँजी के स्वामी को दी जाती है।”
प्रो० विक्सेल के अनुसार, “ब्याज एक भुगतान है जो पूँजी को उधार लेने वाला, उसकी उत्पादकता के कारण त्याग के प्रतिफल के रूप में देता है।”
मेयर्स के अनुसार, “ब्याज ऋण-योग्य कोषों के प्रयोग के लिए दी जाने वाली कीमत है।”
प्रो० कीन्स के अनुसार, “ब्याज एक पुरस्कार है जो लोगों को अपने धन को संगृहीत मुद्रा के अतिरिक्त और किसी रूप में रखने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु दिया जाता है।’
जे० एस० मिल के अनुसार, “ब्याज केवल आत्म-त्याग का पुरस्कार है।” उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है किब्याज पूँजी अथवा ऋण-योग्य कोषों के प्रयोग के लिए दिया जाने वाला भुगतान है। या ब्याज तरलता का परित्याग करने का भुगतान है। या बचत करने में किये जाने वाले त्याग का पुरस्कार है।

ब्याज के भेद या प्रकार
प्रो० मार्शल ने ब्याज दो प्रकार का बताया है
(1) विशुद्ध ब्याज तथा
(2) कुल ब्याज

1. विशुद्ध ब्याज – विशुद्ध ब्याज पूँजी के प्रयोग के बदले में दिये जाने वाले भुगतान को कहते हैं, जबकि ऋण देने के सम्बन्ध में किसी प्रकार की जोखिम, असुविधा तथा अतिरिक्त कार्य नहीं होता। विशुद्ध ब्याज के अन्तर्गत केवल पूँजी का पारितोषिक ही सम्मिलित होता है, जिसे प्रतीक्षा का प्रतिफल भी कहा जा सकता है। इसमें किसी अन्य प्रकार का भुगतान सम्मिलित नहीं होता।
प्रो० मार्शल ने लिखा है – “अर्थशास्त्र में जब हम ब्याज शब्द का प्रयोग करते हैं तो उसका अभिप्राय केवल पूँजी के पारितोषण या प्रतीक्षा से होता है।” संक्षेप में, पूँजी के प्रयोग के बदले में दिये जाने वाले भुगतान को विशुद्ध ब्याज कहते हैं।

2. कुल ब्याज – कुल ब्याज से अभिप्राय उस रकम या भुगतान से होता है जो एक ऋणी ऋणदाता को देता है। इसके अन्तर्गत विशुद्ध ब्याज के अतिरिक्त जोखिम को प्रतिफल, असुविधा व कष्ट के लिए भुगतान तथा ऋणदाता के द्वारा किये जाने वाले अतिरिक्त काम का भुगतान आदि भी सम्मिलित होता है।
प्रो० चैपमैन के अनुसार, “कुल ब्याज में पूँजी के ऋण के लिए भुगतान तथा व्यक्तिगत व व्यावसायिक जोखिम के लिए भुगतान, विनियोग की असुविधाओं के लिए भुगतान तथा विनियोग की व्यवस्था तथा उसमें निहित चिन्ताओं के लिए भुगतान सम्मिलित होता है।”

कुल ब्याज के अंग
कुल ब्याज में निवल ब्याज के अतिरिक्त अन्य तत्त्व भी सम्मिलित रहते हैं। ये निम्नलिखित हैं

1. निवल ब्याज या आर्थिक ब्याज – निवल ब्याज या शुद्ध ब्याज कुल ब्याज का एक प्रमुख अंग होता है। पूँजी उत्पत्ति का साधन है; अत: राष्ट्रीय आय में से कुछ भाग पूँजी के प्रयोग के प्रतिफल के रूप में लिया जाता है। पूँजी के प्रयोग के बदले में किया जाने वाला यह भुगतान, जिसे शुद्ध ब्याज कहते हैं, कुल ब्याज का ही एक भाग होता है।

2. जोखिम का पुरस्कार – रुपया उधार देना जोखिमपूर्ण व्यवसाय है। ऋणदाता को अपनी रकम डूब जाने का भय रहता है। इस कारण वह विशुद्ध ब्याज से अधिक ब्याज लेता है। जोखिम का यह पुरस्कार कुल ब्याज का ही एक भाग होता है। प्रो० मार्शल के अनुसार जोखिम दो प्रकार की होती है|

(अ) व्यावसायिक जोखिम – जोखिमपूर्ण व्यवसायों में रकम डूबने का अधिक भय रहता है। तथा कुछ व्यापारिक जोखिम बाजार में होने वाले परिवर्तनों; जैसे – फैशन में परिवर्तन, नये-नये आविष्कारों आदि के कारण वस्तु के उत्पादन से पूर्व ही माँग का गिरना, वस्तु का मूल्य कम होना आदि के कारण उत्पन्न होती है। इस जोखिम के लिए ऋणदाता अतिरिक्त भुगतान प्राप्त करता है।

(ब) व्यक्तिगत जोखिम – व्यक्तिगत जोखिम व्यक्ति-विशेष के स्वभाव के कारण उत्पन्न होती है। ऋणी व्यक्ति बेईमान हो सकता है, जिसके कारण रकम डूब सकती है। इस प्रकार की जोखिम के लिए ऋणदाता कुछ अतिरिक्त भुगतान ब्याज के रूप में लेता है।

3. असुविधा तथा कष्ट के लिए पुरस्कार – कभी-कभी ऋणदाता को ऋण की वापसी में पर्याप्त कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ऋणी प्राय: समय पर रुपया वापस नहीं लौटाते हैं या ऋण वापस ही नहीं करते हैं। वह ब्याज के साथ ही अपनी असुविधा के लिए कुछ अतिरिक्त धनराशि उसमें और जोड़ देता है।

4. व्यवस्था तथा प्रबन्ध का प्रतिफल – ऋणदाता को व्यवसाय संचालन के लिए कुछ कर्मचारी रखने पड़ते हैं। कभी-कभी मुकदमेबाजी भी करनी होती है जिसमें वकीलों का व्यय, कोर्ट फीस तथा अन्य खर्च करने होते हैं। ऋणदाता को स्वयं भी कुछ अतिरिक्त कार्य करना पड़ता है। इस व्यवस्था तथा प्रबन्ध को प्रतिफल भी कुल ब्याज में सम्मिलित होता है।

प्रश्न 2
ब्याज-निर्धारण के आधुनिक सिद्धान्त को समझाइए। [2010]
या
क्लासिकल अर्थशास्त्रियों के द्वारा प्रतिपादित ब्याज दर के निर्धारण सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
या
ब्याज-निर्धारण के माँग और पूर्ति सिद्धान्त पर प्रकाश डालिए।
या
ब्याज की दर मुद्रा की माँग व पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है। व्याख्या कीजिए। [2011]
उत्तर:
ब्याज-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त
ब्याज के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन संस्थापित अर्थशास्त्रियों ने किया तथा बाद में इसका विकास मार्शल, पीगु, कैसेल्स, वालरा, टॉजिग तथा नाईट के द्वारा किया गया। ब्याज-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त माँग और पूर्ति का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज की दर पूँजी की माँग और पूर्ति से निर्धारित होती है। पूँजी की माँग विनियोग से तथा उसकी पूर्ति बचत से उत्पन्न होती है, इसलिए ब्याज की दर बचत और विनियोग से निर्धारित होती है। ब्याज की दर एक सन्तुलन स्थापित करने वाला तत्त्व है जो बचत और विनियोग को बराबर करता है।

पूँजी की मॉग – पूँजी की माँग विशेष रूप से उत्पादकों द्वारा उत्पादन कार्यों में विनियोग करने के लिए की जाती है। यद्यपि उपभोग के लिए भी लोग रुपया उधार लेते हैं तथा इस पर ब्याज भी देते हैं। व्यक्तियों और संस्थाओं के अतिरिक्त सरकारें भी निर्माण कार्यों व युद्ध आदि के लिए पूँजी उधार लेती हैं।

उत्पादन कार्यों के लिए जो ऋण लिये जाते हैं, उनके सम्बन्ध में ब्याज की अधिकतम दर पूँजी की उत्पादिता के आधार पर निश्चित होती है। पूँजी की माँग उसकी उत्पादिता के कारण ही की जाती है। अत: पूँजी की सहायता से अधिक उत्पादन किया जा सकता है। उत्पादन में उत्पत्ति ह्रास नियम लागू होने के कारण अधिकाधिक मात्रा में पूँजी का प्रयोग किये जाने पर उसकी सीमान्त उत्पादकता घटती जाती है। अन्त में एक ऐसी स्थिति आ जाती है कि पूँजी की सीमान्त उत्पादकता प्रचलित ब्याज की दर के बराबर हो जाती है। पूँजी की यह इकाई सीमान्त इकाई (Marginal Unit) होती है। पूँजी की इस अन्तिम इकाई के बाद कोई भी उत्पादक पूँजी का विनियोग नहीं करता, क्योंकि इसके बाद में प्रयोग की जाने वाली पूँजी पर मिलने वाली उत्पादन वृद्धि से अधिक ब्याज देना पड़ता है और उसे हानि होती है। पूँजी पर दिया जाने वाला ब्याज उसकी सीमान्त उत्पादिता के बराबर होता है। अतः ब्याज की अधिकतम सीमा पूँजी की सीमान्त उत्पादकता है। कोई भी उत्पादक इस सीमा से अधिक ब्याज देने को तैयार नहीं होगा।

इस प्रकार ब्याज की दरे जितनी नीची होगी, पूँजी की माँग उतनी ही अधिक होगी तथा ब्याज की दर जितनी ऊँची होगी, पूँजी की माँग उतनी ही कम होगी।

पूँजी की पूर्ति – पूँजी की पूर्ति बचत की मात्रा पर निर्भर करती है। जितनी अधिक बचत की जाएगी, पूँजी की पूर्ति उतनी ही अधिक होगी। ब्याज की प्राप्ति के उद्देश्य से ही बचत की जाती है। बचत करने में व्यक्ति को अपनी वर्तमान आवश्यकता को स्थगित करना पड़ता है। व्यक्ति उसी समय पूँजी उधार देता है जब उसे त्याग का प्रतिफल प्राप्त हो। इस प्रकार पूँजी की पूर्ति ब्याज की दर का परिणाम होती है। ऊँची ब्याज दर पर अधिक मात्रा में बचत की जाएगी, इसलिए पूँजी की पूर्ति अधिक होगी। इसके विपरीत नीची ब्याज दर पर कम बचत की जाएगी; अतः पूँजी की पूर्ति कम होगी। इस प्रकार ब्याज की दर और पूँजी की पूर्ति में सीधा सम्बन्ध होता है। ब्याज की निम्नतम दर वह होती है। जिस पर सीमान्त बचत करने वाले को बचत करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। दूसरे शब्दों में, पूँजी बाजार में जो अन्तिम पूँजी पूर्तिकर्ता है उसके कष्ट एवं त्याग के लिए जो रकम ब्याज के रूप में दी जाएगी, वही पूँजी की सीमान्त ब्याज दर होगी या सीमान्त उधार देने वाले के त्याग की क्षतिपूर्ति की मात्रा ब्याज की निम्नतम सीमा निर्धारित करेगी।

ब्याज-दर का निर्धारण – पूँजी बाजार में ब्याज की दर पूँजी की मॉग और पूर्ति के सन्तुलन बिन्दु पर निर्धारित होगी। अन्य शब्दों में, जहाँ बचतों का पूर्ति वक्र उसके माँग वक्र को काटता है उसे ब्याज की सन्तुलन दर कहा जाता है। यदि माँग पक्ष में मोलभाव करने की शक्ति अधिक होगी तो ब्याज की दर पूँजी की सीमान्त उत्पादिता के निकट होगी। इसके विपरीत पूर्ति पक्ष के प्रबल होने पर ब्याज-दर पूँजी की सीमान्त लागत के आस-पास होगी। इस प्रकार ब्याज दर उधार देने वालों की न्यूनतम तथा उधार लेने वालों की अधिकतम सीमा के बीच उस स्थान पर निश्चित होती है, जहाँ पूँजी की माँग और पूर्ति बराबर होती हैं।

उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण – मान लीजिए किसी नगर में ब्याज की विभिन्न दरों पर पूँजी की माँग और पूर्ति निम्न तालिका के अनुसार हैं
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उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि ब्याज दर बढ़ने से पूँजी की पूर्ति बढ़ती है तथा माँग कम हो जाती है। जब ब्याज दर 3 प्रतिशत है तब पूँजी की माँग तथा पूर्ति बराबर है। अत: ब्याज दर 3 प्रतिशत निर्धारित होगी।

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निम्नांकित चित्र में Ox-अक्ष पर पूँजी की माँग एवं पूर्ति (करोड़ रु में) तथा OY-अक्ष पर ब्याज की दर (प्रतिशत ₹ में)। दिखायी गयी है। चित्र में DD माँग वक्र तथा SS पूर्ति वक्र हैं, जो आपस में एक-दूसरे को E बिन्दु पर काटते हैं। E बिन्दु जिस पर पूँजी की माँग एवं पूर्ति बराबर हैं। चित्र में EQ ब्याज की , सन्तुलन दर है। OQ पूँजी की माँग की जाने वाली मात्रा तथा उसकी पूर्ति की मात्रा है। ब्याज की दर इसे सन्तुलन दर से कम या अधिक नहीं हो सकती; अत: बाजार में OR ब्याज की दर ही रहने की प्रवृत्ति रखेगी।

प्रश्न 3
ब्याज-दर निर्धारण के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त की सचित्र व्याख्या करें। [2010]
या
तरलता-पसन्दगी (अधिमान) क्या है? इसके द्वारा ब्याज की दर का निर्धारण कैसे होता है?
या
कीन्स द्वारा प्रतिपादित ब्याज के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2010, 12]
या
कीन्स के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त की व्याख्या चित्र सहित कीजिए। [2013]
या
कीन्स द्वारा दिए गए ब्याज दर के सिद्धान्त का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। [2015]
उत्तर:
प्रो० कीन्स द्वारा प्रतिपादित ब्याज का सिद्धान्त ‘तरलता-पसन्दगी’ सिद्धान्त के नाम से प्रसिद्ध है। प्रो० कीन्स के अनुसार, ब्याज शुद्ध रूप से मौद्रिक तत्त्व है और वह मुद्रा की माँग व पूर्ति के द्वारा निर्धारित होता है। वे ब्याज को नकदी की कीमत’ (Price of Cash) अथवा किसी निश्चित समय के लिए तरलता का त्याग करने का पुरस्कार मानते हैं।

ब्याज तरलता का परित्याग करने की कीमत है। मुद्रा धन का सबसे तरल रूप है और इसीलिए लोग अपने धन को तरल नकदी के रूप में रखना पसन्द करते हैं। वे अपनी तरलता-पसन्दगी का परित्याग तभी करेंगे जब उन्हें उसके लिए पर्याप्त पुरस्कार दिया जाए। यह पुरस्कार ब्याज के रूप में दिया जाता है। इस प्रकार ब्याज तरलता का परित्याग करने के लिए दी जाने वाली कीमत है। लोगों की तरलता-पसन्दगी जितनी अधिक होगी, उन्हें तरलता का परित्याग करने को प्रोत्साहित करने के लिए उतनी ही ऊँची ब्याज की दर देनी होगी।

ब्याज की दर भी अन्य वस्तुओं की कीमत की भाँति नकदी की माँग और पूर्ति से निर्धारित होतो है। नकदी की माँग लोगों की तरलता-पसन्दगी के द्वारा निर्धारित होती है। लोगों की तरलता-पसन्दगी निम्नलिखित बातों पर निर्भर है

1. सौदा उद्देश्य – व्यक्तियों तथा व्यावसायिक फर्मों के द्वारा अपने दैनिक भुगतानों को निपटाने के लिए नकदी की माँग की जाती है। लोगों की आय कुछ समयावधि के पश्चात् होती है, जबकि उन्हें व्यय निरन्तर करना पड़ता है; इसलिए लोग अपने व्यापारिक सौदों को निपटाने के लिए अपनी आय का कुछ भाग नकदी के रूप में रखते हैं। प्रो० कीन्स के अनुसार, सौदा उद्देश्य के लिए नकदी की माँग लोगों की आय तथा निपटाये जाने वाले सौदों की मात्रा पर निर्भर होती है।

2. दूरदर्शिता उद्देश्य – प्रत्येक व्यक्ति अथवा फर्म अपने पास कुछ नकद मुद्रा इसलिये रखना चाहती है कि आवश्यकता पड़ने पर आकस्मिक खर्चा को निपटाया जा सके। बीमारी, मुकदमा, दुर्घटना, बेरोजगारी तथा अन्य किसी आकस्मिक घटना के हो जाने पर नकदी की कमी बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न कर सकती है। इसलिए दूरदर्शिता के कारण व्यक्ति अतिरिक्त नकदी अपने पास रखना चाहता है।

3. सट्टा उद्देश्य – लोगों के द्वारा नकदी की माँग इसलिए भी की जाती है जिससे कि वे सट्टे के कारण उत्पन्न लाभों को प्राप्त कर सकें। सट्टे से अभिप्राय ब्याज की दर की अनिश्चितता से लाभ प्राप्त करना है।

नकदी की कुल माँग इन तीनों उद्देश्यों के लिए की जाने वाली माँग का योग होती है। प्रो० कीन्स ने सौदा उद्देश्य के लिए नकदी की माँग को दूरदर्शिता उद्देश्य की माँग से एक साथ मिलाया है तथा इसे L1 के द्वारा तथा सट्टा उद्देश्य को L2 के द्वारा व्यक्त किया है। इस प्रकार नकदी की कुल माँग L = L1 + L2

मुद्रा की पूर्ति – मुद्रा की पूर्ति सरकार तथा केन्द्रीय बैंक की मुद्रा-सम्बन्धी नीति पर निर्भर होती है, इसलिए मुद्रा की पूर्ति प्रायः निश्चित रहती है और उसमें बहुत कम परिवर्तन होते हैं; अत: उसे एक समानान्तर खड़ी रेखा के द्वारा दिखाया जा सकता है।

ब्याज का निर्धारण – इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज की दर उस बिन्दु पर निर्धारित होती है। जहाँ पर नकदी के लिए माँग और नकदी की पूर्ति ठीक एक-दूसरे के बराबर होती है अर्थात् जहाँ पर तरलता-पसन्दगी वक्र नकद मुद्रा के पूर्ति वक्र को काटता है।

रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण
संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर नकदी की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर ब्याज की दर दिखायी गयी है। चित्र में MM नकद मुद्रा की पूर्ति रेखा हैं तथा LP तरलता-पसन्दगी वक्र अथवा नकद मुद्रा का माँग वक्र है। C बिन्दु पर LP वक्र MM वक्र को काटता है, इसीलिए इसे सन्तुलन-बिन्दु कहा जा सकता है। इस बिन्दु पर नकद मुद्रा की माँग और पूर्ति बराबर हैं; अत: ब्याज की दरे CM या OI’ होगी। यदि नकद मुद्रा की माँग बढ़ जाती है और LP वक्र L1 वक्र का स्थान ले लेता है तो ब्याज की दर CM से बढ़कर नकद मुद्रा की पूर्ति रेखा DM या OI’ हो जाएगी।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest 3
आलोचनाएँ –

  1.  यह सिद्धान्त पूँजी की उत्पादकता को, मुद्रा की माँग को प्रभावित करने वाला तत्त्व नहीं मानता और इसीलिए इस सिद्धान्त के द्वारा किया गया मुद्रा की माँग का विश्लेषण अपूर्ण है।
  2. इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज तरलता का परित्याग करने का पुरस्कार है, किन्तु आलोचकों के अनुसार, ब्याज तरलता का परित्याग करने के लिए नहीं दिया जाता, बल्कि वह इसलिये दिया जाता है क्योंकि पूँजी उत्पादक होती है।
  3.  ब्याज का तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त एकपक्षीय है, क्योंकि वह केवल मुद्रा की माँग अथवा तरलता-पसन्दगी पर जोर देता है।
  4. यह सिद्धान्त मौद्रिक तत्त्वों पर आवश्यकता से अधिक जोर देता है और ब्याज-निर्धारण को प्रभावित करने वाले वास्तविक तत्त्वों की ओर कोई ध्यान नहीं देता।

इन आलोचनाओं के होते हुए भी कीन्स के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त को सबसे अधिक मान्यता मिली है और उसे ब्याज-निर्धारण का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त समझा जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
ब्याज की परिभाषा दीजिए। ब्याज लेने और देने का आधार क्या है?
या
ब्याज को परिभाषित कीजिए। [2011, 14, 15]
उत्तर:
ब्याज की परिभाषा – ब्याज वह भुगतान है जो पूँजी के प्रयोग के बदले में दिया जाता है। वह एक प्रकार के ऋण-योग्य कोषों के प्रयोग के लिए दी जाने वाली कीमत है। प्रो० मार्शल के अनुसार, “ब्याज किसी बाजार में पूंजी के प्रयोग के बदले में दी जाने वाली कीमत है।”

पूँजी पर ब्याज देने का आधार – पूँजी की माँग उसकी उत्पादकता के कारण उत्पन्न होती है। पूँजी की माँग इसलिए की जाती है क्योंकि वह उपभोग की वस्तुएँ उत्पन्न कर सकती है जो हमारे लिए
ब्याज की दर उपयोगी होती हैं; अत: पूँजी पर ब्याज दिया जाता है। पूँजी की माँग विनियोग से उत्पन्न होती है; अतः ब्याज की दर विनिमय से निर्धारित होती है। पूँजी पर ब्याज लेने का आधार-समाज में पूँजी की पूर्ति बचत की मात्रा पर निर्भर होती है। बचत प्रतीक्षा और त्याग का परिणाम होती है।

पूँजी को उधार देने में ऋणदाता को पूँजी का त्याग करना पड़ता है तथा पूँजी के वापस आने तक संयम और प्रतीक्षा करनी पड़ती है। अतः वह पूंजी के बदले पारिश्रमिक के रूप में ब्याज प्राप्त करना चाहता है जिससे लोगों को बचत करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। अतः कोई भी ऋणदाता अपनी पूँजी पर त्याग किये जाने वाले सीमान्त त्याग के आधार पर ब्याज लेना चाहता है।

प्रश्न 2
कुल (सकल) ब्याज और शुद्ध ब्याज के अन्तर को बताइए। [2007, 11, 12, 14]
उत्तर:
कुल ब्याज एवं शुद्ध ब्याज में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest 4

प्रश्न 3
ब्याज क्यों दिया जाता है ? कारण बताइए। [2010,2016]
उत्तर:
ब्याज निम्नलिखित कारणों से दिया जाता है

1. पूँजी की उत्पादकता के कारण – ऋणी ब्याज इसलिए देता है कि पूँजी में उत्पादकता का गुण विद्यमान है। पूँजी की उत्पादकता के कारण ही पूँजी की माँग होती है। ब्याज पूँजी की उत्पादकता के कारण पैदा होता है। श्रम पूँजी की सहायता से अधिक धन उत्पन्न करता है, बिना पूँजीगत वस्तुओं की अपेक्षा के अर्थात् श्रम पूँजीगत वस्तुओं (मशीनें, औजार एवं अन्य पूँजीगत वस्तुओं) को प्रयोग करके उत्पादन में अधिक वृद्धि करता है। जो लोग पूँजी का उपयोग करते हैं उनकी आय बढ़ जाती है। पूँजी का उपयोग उत्पादक है, इसलिए उधार लेने वाले पूँजीपति को ब्याज देने के लिए तैयार रहते हैं।

2. पूंजी के त्याग एवं प्रतीक्षा के कारण – ऋणी ब्याज इसलिए भी देता है, क्योंकि वह जानता है कि जब कोई व्यक्ति अपनी आय का कुछ भाग बचाता है तो वह अपने उपभोग को कुछ समय के लिए स्थगित करता है। बचत करने में उसे प्रतीक्षा एवं त्याग करना पड़ता है। कोई भी व्यक्ति अपनी पूँजी का त्याग एवं प्रतीक्षा तब तक नहीं करेगा जब तक उसे किसी प्रकार का लालच न दिया जाए। लालच के रूप में ऋणी उसे ब्याज देता है। इस प्रकार ब्याज प्रतीक्षा के लिए दिया जाने वाला मूल्य है।

3. बचत को प्रोत्साहित करने के लिए – कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो तभी बचत करते हैं जब उन्हें उसके लिए यथेष्ट पुरस्कार मिलता है। ऐसे लोगों को बचत करने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु भी ब्याज दिया जाता है।

4. वर्तमान सुख की क्षतिपूर्ति के कारण – पूँजीपति को वर्तमान वस्तुओं के उपभोग को छोड़ना पड़ता है और ये वर्तमान वस्तुएँ भविष्य की वस्तुओं पर एक प्रकार का परितोषण रखती हैं। इस परितोषण की हानि की क्षतिपूर्ति के लिए ही ब्याज दिया जाता है।

प्रश्न 4
क्या ब्याज दर शून्य हो सकती है? [2006, 08, 15]
या
ब्याज दर के शून्य न होने के प्रमुख कारणों का उल्लेख कीजिए। [2006, 10]
उत्तर:
ब्याज दर की शून्यता
इस विषय में कुछ अर्थशास्त्रियों का मत है कि जैसे-जैसे देश को आर्थिक एवं सामाजिक विकास होता जाएगा, ब्याज की दर घटती जाएगी और एक ऐसी स्थिति आ जाएगी कि ब्याज दर शून्य हो जाएगी। विकसित देशों में ब्याज की दरें विकासशील देशों की अपेक्षा कम हैं और प्रायः कम होती जा रही हैं। ब्याज दर कम होते जाने से ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ समय पश्चात् ब्याज की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। यह केवल कल्पना है। शुम्पीटर का कहना है कि “ब्याज दर शून्य हो सकती है, परन्तु उस समय जबकि उत्पादन क्रिया रुक जाए और समाज गतिहीन अवस्था में पहुँच जाए।” अत: ब्याज दर का शून्य होना मात्र भ्रामक एवं सैद्धान्तिक है। व्यावहारिक जीवन में यह स्थिति देखने को नहीं मिलती और न भविष्य में ही ऐसी सम्भावना है।

ब्याज-दर शून्य न होने के कारण

  1.  पूँजी की माँग का निरन्तर बने रहना – ज्ञान एवं सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानवीय आवश्यकताओं में निरन्तर वृद्धि होती रहती है। इसलिए पूँजी की माँग सदैव बनी रहेगी और ब्याज-दर शून्य नहीं हो सकती।
  2.  बचत के लिए प्रलोभन आवश्यक है – उधार देने वालों को यदि संयम और प्रतीक्षा के लिए कुछ भी प्रतिफल न मिले तो वे बचत नहीं करेंगे; अतः उन्हें ब्याज मिलना आवश्यक है। इस कारण ब्याज – दर कभी भी शून्य नहीं हो सकती।।
  3.  ऋण देने की असुविधाओं एवं व्यय के कारण – ऋणदाता को पूँजी उधार देने में जो जोखिम, असुविधाएँ तथा प्रबन्ध व्यय करना पड़ता है, यदि इसके लिए उसे कुछ प्रतिफल नहीं मिलेगी तो कोई भी व्यक्ति पूँजी उधार देने के लिए तैयार नहीं होगा। इस कारण भी ब्याजदर शून्य नहीं हो सकती।
  4.  देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए – आर्थिक विकास एक सतत प्रक्रिया है। यह लगातार चलती रहती है। अतः पूँजी की माँग सर्वदा बनी रहेगी, क्योंकि पूँजी के अभाव में देश की प्रगति नहीं हो सकती। इस कारण भी ब्याज-दर शून्य नहीं हो सकती।।
  5.  पूँजी में उत्पादकता का गुण होना – पूँजी में उत्पादकता का गुण होता है। पूँजी की सीमान्त उत्पादकता कभी भी शून्य नहीं हो सकती। इसलिए ब्याज दर कभी भी शून्य नहीं हो सकती।
    स्पष्ट है कि भविष्य में ब्याज-दर शून्य या शून्य से कम हो सकती है, केवल भ्रामक, त्रुटिपूर्ण एवं आधारहीन विचार है।

प्रश्न 5
देश के विभिन्न भागों में ब्याज की दर में भिन्नता के क्या कारण हैं ? समझाइए।
उत्तर:
ब्याज की दरों में भिन्नता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं|

1. ऋण का प्रयोजन – ऋणदाता ऋण देते समय यह ध्यान रखता है कि ऋण उत्पादक कार्यों के लिए लिया जा रहा है अथवा अनुत्पादक कार्यों के लिए। उत्पादक कार्यों के लिए ऋण कम ब्याज की दर पर मिल जाता है, क्योंकि ऐसे ऋणों की वापसी की अधिक सम्भावना रहती है। इसके विपरीत अनुत्पादक कार्यों के लिए दिये जाने वाले ऋणों पर ब्याज की दर अधिक होती है, क्योंकि ऐसे ऋणों में जोखिम अधिक होती है। इस प्रकार ब्याज की दर में भिन्नता पायी जाती है।

2. ऋण की अवधि – ऋण की अवधि के अनुसार भी ब्याज की दरों में भिन्नता होती है। यह अवधि जितनी अधिक लम्बी होती है, ब्याज की दर उतनी ही ऊँची होती है। अल्पकालीन ऋणों की अपेक्षा दीर्घकालीन ऋणों पर ब्याज की दर ऊँची होती है। दीर्घकालीन ऋणों पर ब्याज की दर अधिक इसलिए होती है, क्योंकि इन ऋणों के सम्बन्ध में ऋणदाता को अधिक समय के लिए तरलता-पसन्दगी को त्याग करना पड़ता है। भविष्य में अनिश्चितता के कारण इस प्रकार के ऋणों में जोखिम भी अधिक होती है।

3. ऋणी की साख – यदि ऋणी व्यक्ति की साख उत्तम है तो उसे कम ब्याज पर ऋण प्राप्त हो जाता है। इसके विपरीत, यदि ऋणी की साख एवं आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है तो उसे ऋण ऊँची ब्याज दर पर प्राप्त होता है।

4. व्यवसाय की प्रकृति – जोखिमपूर्ण व्यवसायों में ऋण ऊँची ब्याज दर पर ही प्राप्त हो सकता है, क्योंकि ऐसे व्यवसायों में पूँजी डूब जाने का भय बना रहता है। इसके विपरीत कम जोखिम वाले व्यवसायों के लिए ऋण कम ब्याज दर पर प्राप्त हो जाते हैं।

5. ऋण की जमानत – ऋण के रूप में दी जाने वाली धनराशि की सुरक्षा के लिए जमानत ली जाती है। जमानत पर ऋण देने में जोखिम कम होती है। अतः जमानत पर ऋण कम ब्याज दर पर दिये जाते हैं और बिना जमानत पर दिये जाने वाले ऋणों की ब्याज दर ऊँची होती है।

6. बैंकिंग सुविधा में भिन्नता – जिन स्थानों पर बैंकिंग व्यवस्था और सहकारी साख सुविधाओं का विकास अधिक होता है वहाँ पर ब्याज की दर कम होती है तथा जिन स्थानों पर बैंकिंग व्यवस्था व सहकारी साख संस्थाओं का विकास कम होता है वहाँ पर ब्याज दर अधिक होती है। यही कारण है कि भारत में नगरों की अपेक्षा ग्रामों में ब्याज दर ऊँची है।

7. सुविधाओं में अन्तर – जिन व्यक्तियों से ऋण की वापसी सुविधापूर्वक हो जाती है, उन्हें कम ब्याज दर पर ऋण दिया जा सकता है। इसके विपरीत जिन व्यक्तियों से ऋण की वापसी कठिनाई से होती है, उन्हें अपेक्षाकृत अधिक ब्याज दर पर ऋण दिया जाता है।

8. पूँजी बाजार में प्रतियोगिता – यदि ऋणदाता और ऋण में पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है। तब ब्याज की देर समान रहेगी, किन्तु भारत में प्राय: प्रतियोगिता का अभाव है, इसी कारण ब्याज की दरों में भिन्नता पायी जाती है। गाँवों में रहने वाले व्यक्तियों को मुद्रा बाजार का ज्ञान नहीं होता; अतः ऋणदाता इनसे अधिक ब्याज की दर वसूल करने में सफल हो जाते हैं। इसके विपरीत शहरों में बैंकों व साहूकारों में समुचित जमानत पर ऋण देने की प्रतियोगिता होती है; इसीलिए वहाँ ब्याज की दर नीची होती है। अतः पूँजी बाजार में प्रतियोगिता भी ब्याज की दर को प्रभावित करती है।

प्रश्न 6
भारत में ब्याज-दर की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं ?
उत्तर:
भारत में ब्याज-दर की निम्नलिखित तीन विशेषताएँ पायी जाती हैं

(अ) ऊँची ब्याज-दर
भारत में ब्याज की दरें विकसित देशों की अपेक्षा बहुत ऊँची हैं। ब्याज की ऊँची दरें होने के निम्नलिखित कारण हैं

1. पूँजी की अधिक माँग – भारत एक विकासशील देश है। नियोजन के माध्यम से अपने आर्थिक विकास में प्रयत्नशील है। इस हेतु पूँजी की अधिक आवश्यकता होती है। प्रत्येक क्षेत्र चाहे वह कृषि है या उद्योग-धन्धे या देश में सड़कों, नहरों व बाँधों का निर्माण, सभी में पूँजी की आवश्यकता होती है। इस कारण पूँजी की माँग अधिक और ब्याज-दरें ऊँची हैं।

2. पूँजी की पूर्ति कम –
हमारे देश में पूँजी की पूर्ति की कमी है, क्योंकि यहाँ के निवासी निर्धन । एवं अशिक्षित हैं। उनके पास संचय शक्ति का अभाव है। इस कारण भी ब्याज-दर ऊँची है।

3. उन्नत बैकिंग व्यवस्था की कमी – भारत में अब तक भी बैंकिंग व्यवस्था का पूर्ण विकास नहीं हो पाया है। ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी साख संस्थाओं एवं बैंकों का अभाव है। इस कारण ब्याज-दरें ऊँची हैं।

4. निर्धनता एवं अज्ञानता – हमारे देश के अधिकांश निवासी निर्धन एवं अशिक्षित हैं। निर्धनता के कारण वे ऋण प्राप्त करने के लिए अच्छी जमानत नहीं दे पाते। अज्ञानता के कारण वे अनुत्पादक कार्यों; जैसे-विवाह, मृत्यु-भोज, मुकदमेबाजी आदि के लिए भी ऋण लेते हैं, जिससे ब्याज-दरें ऊँची रहती हैं।

5. अत्यधिक ब्याज लेने की प्रवृत्ति – हमारे देश के महाजनों एवं साहकारों की मनोवृत्ति अधिक ब्याज प्राप्त करने की होती है। वे किसानों एवं मजदूरों की विवशता का लाभ उठाकर अधिक-से-अधिक ब्याजदर प्राप्त करना चाहते हैं। इस कारण भी भारत में ब्याज दरें ऊँची हैं।

(ब) ब्याज-दर में स्थानीय भिन्नता

भारत में ब्याज दरों की दूसरी महत्त्वपूर्ण विशेषता ब्याज दरों में स्थानीय भिन्नता का पाया जाना है। भारत में नगरों की अपेक्षा गाँवों में ब्याज-दरें ऊँची होती हैं। इसके निम्नलिखित कारण हैं

  1.  बैंकिंग एवं संगठित साख बाजार का अभाव।
  2. अनुत्पादक कार्यों के लिए ऋण लेना।
  3.  निर्धनता के कारण उचित जमानत का न होना।
  4.  ग्रामीण जनता का अशिक्षित होना।
  5.  संगठित बाजार के अभाव के कारण महाजनों का मनमाने ढंग से ऋण देना तथा ऊँची ब्याज-दर वसूल करना।

इसके विपरीत शहरों में ब्याज-दरें नीची होती हैं, क्योंकि

  1.  शहरों में बैंकिंग व्यवस्था सुदृढ़ होती है।
  2. पूँजी बाजार अधिक संगठित होता है।
  3. नगरों के लोग अधिकतर उत्पादक कार्यों के लिए ऋण लेते हैं।
  4. उधार लेने वाले अच्छी जमानत देते हैं।
  5. साख संस्थाओं में प्रतियोगिता पायी जाती है।
  6. नगरों के लोग अपेक्षाकृत शिक्षित होते हैं। इस कारण वे साख बाजार से परिचित होते हैं।

(स) ब्याज-दर में मौसमी भिन्नता।
हमारे देश में ब्याज की दर पर मौसम का प्रभाव भी पड़ता है। किसानों को फसल की बुआई के समय एवं कटाई के समय अधिक ऋण की आवश्यकता होती है। फसल की बुआई के समय खाद, पानी, बीज एवं मजदूरी के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है तथा फसल कटने के समय मण्डी तक पहुँचाने में धन की आवश्यकता होती है। इस प्रकार फसल बुआई एवं कटाई के समय पर ब्याज-दर ऊँची होती है, शेष समय में ब्याज-दर अपेक्षाकृत नीची रहती है। इसी प्रकार शादी-विवाह भी भारत में एक समय-विशेष पर होते हैं। उस समय ब्याज-दरें ऊँची हो जाती हैं। इस कारण भारत में ब्याज-दरों में मौसमी विभिन्नता पायी जाती है।

प्रश्न 7
भारत में कृषकों द्वारा दी जाने वाली ब्याज-दरें ऊँची होती हैं। क्यों ? कारण दीजिए।
उत्तर:
भारतीय कृषक द्वारा दी जाने वाली ब्याज-दर ऊँची होने के कारण

  1. कृषक को उपभोग कार्यों के लिए ऋण लेना पड़ता है, क्योकि फसल नष्ट होने पर या विवाह-शादी, जन्म-मरण, मुकदमेबाजी के लिए कृषकों को ऋण की आवश्यकता होती है। अनुत्पादक कार्यों के लिए ऋणों पर जोखिम अधिक होती है; अत: अधिक ब्याज लिया जाता है।
  2. कृषकों के पास ऋण लेने के लिए भूमि के अतिरिक्त कोई जमानत नहीं होती। वह भूमि को भय के कारण जमानत के रूप में नहीं रखता है; अत: जमानत के अभाव में ब्याज अधिक देना पड़ता है।
  3. उन्नत बैंकिंग व्यवस्था की अपर्याप्तता के कारण भी किसानों को ऊँची ब्याज दर पर ही ऋण प्राप्त होता है, क्योंकि भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी बैंकिंग व्यवस्था का विकास नहीं हो पाया है।
  4. देश में कृषकों को साख प्रदान करने वाली संस्थाएँ; जैसे – सहकारी साख समितियाँ, व्यापारिक बैंक एवं भूमि विकास बैंक, केवल उत्पादन कार्यों के लिए ही ऋण देते हैं। फसल नष्ट होने पर कृषकों को उपभोग हेतु भी ऋण की आवश्यकता होती है जिसके लिए उसे महाजन आदि का सहारा लेना पड़ता है। महाजनों की ब्याज दरें ऊँची होती हैं।
  5. बैंक या साख संस्थाओं से ऋण मिलने में किसान को अधिक समय लगता है। इस देरी से बचने के लिए भी किसान महाजनों के पास ही जाते हैं जहाँ उनका पूर्ण शोषण होता है। महाजन ऊँची ब्याज दर पर ऋण प्रदान करता है।
  6.  अशिक्षा और अज्ञानता के कारण भी भारतीय कृषक ऊँची ब्याज-दर पर ऋण लेते हैं। उन्हें मुद्रा बाजार का ज्ञान नहीं होता है।
  7.  गाँवों के किसान थोड़ी मात्रा में प्रायः छोटी आवश्यकताओं हेतु ऋण लेते हैं। ऐसे ऋण देने व वसूल करने में प्रबन्ध व्यय अधिक होता है; अत: ब्याज-दर ऊँची होती है।
  8.  फसलों की बुआई के समय किसानों की ऋण सम्बन्धी आवश्यकताएँ बढ़ जाती हैं, क्योंकि इस समय उन्हें उत्पादक और उपभोग सम्बन्धी दोनों प्रकार के कार्यों के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है; अतः पूँजी की माँग बढ़ने से ब्याज-दर ऊँची हो जाती है।
  9. ग्रामीण क्षेत्रों में पूँजी की माँग अधिक होने पर भी पूँजी बहुत कम है। इस कारण किसानों को ऊँची ब्याज दर पर ऋण लेने के लिए विवश होना पड़ता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
निम्नलिखित तालिका के अनुसार ब्याज की दर क्या होगी ? चित्र बनाइए।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest 5
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest 6
उपर्युक्त तालिका के अनुसार ब्याज की दर 3 प्रतिशत होगी (देखें संलग्न रेखाचित्र)।

प्रश्न 2
ब्याज का त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
ब्याज का त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त – यह सिद्धान्त ब्याज-निर्धारण के पूर्ति पक्ष का विश्लेषण करता है और यह बताता है कि ब्याज की दर किस प्रकार ‘बचत करने की लागत के द्वारा निश्चित होती है। सीनियर के अनुसार, समस्त पूँजी त्याग का परिणाम है। पूँजी बचत से उत्पन्न होती है, बचत करने के लिए त्याग करना पड़ता है। बचत करने के लिए वर्तमान उपभोग का त्याग करना पड़ता है। ब्याज इसलिए दिया जाता है क्योंकि ऋणदाता बचत करने के लिए अपने वर्तमान उपभोग का त्याग करता है। उपयोग का त्याग करना कष्टपूर्ण होता है जिसके लिए बचत करने वाले को प्रतिफल मिलना चाहिए। अत: ब्याज वह पारितोषण है जो बचत करने वाले को उस संयम या त्याग की क्षतिपूर्ति के लिए दिया जाता है जो उसे बचते करने में करना पड़ता है। ब्याज बचत करने वालों को उनके त्याग अथवी संयम के लिए मिलने वाला पुरस्कार है। बचत करने में जो त्याग करना पड़ता है। उसका द्रव्य मूल्य ‘बचत करने की लागत है’ और ब्याज इस लागत के बराबर होता है। बचत करने में जितना अधिक त्याग करना पड़ता है ब्याज की दर उतनी ही ऊँची होती है।

प्रश्न 3
फिशर का समय पसन्दगी सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
फिशर ने अपने सिद्धान्त में समय के महत्त्व को माना है और कहा है कि मनुष्य वस्तुओं के वर्तमान उपभोग को भविष्य की अपेक्षा अधिक पसन्द किये जाने का कारण भविष्य का अनिश्चित होना नहीं है, बल्कि मनुष्य में पायी जाने वाली एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। मनुष्य की यह समय पसन्दगी ही ब्याज का कारण है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि लोगों की एक समय पसन्दगी होती है। और जब वे बचत करते हैं तो उन्हें इस समय पसन्दगी का त्याग करना होता है। ब्याज समय पसन्दगी के त्याग के लिए पुरस्कार है।

प्रश्न 4
ब्याज का पारितोषिक सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
ब्याज के पारितोषिक सिद्धान्त का पूर्ण विकास बॉम बावर्क ने किया। उनके अनुसार, पारितोषिक सिद्धान्त मनोविज्ञान की इस धारणा पर आधारित है कि मनुष्य वर्तमान को भविष्य की अपेक्षा अधिक महत्त्व देता है। बॉम बावर्क के अनुसार, ब्याज को मुख्य कारण वर्तमान वस्तुओं का भविष्य की वस्तुओं की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण होना है। इस कारण वर्तमान वस्तुओं को भविष्य की वस्तुओं की तुलना में एक प्रकार का परितोषण मिलता है।

प्रश्न 5
कीन्स द्वारा बताये गये तरलता-पसन्दगी के तीन उद्देश्यों के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) सौदा उद्देश्य – लोग अपने व्यापारिक सौदों को निपटाने के लिए अपनी आय का कुछ भाग नकदी के रूप में रखते हैं।
(2) दूरदर्शिता उद्देश्य – लोग दूरदर्शी होते हैं। भविष्य की आकस्मिकता को ध्यान में रखकर अपनी आय का कुछ भाग नकदी के रूप में रखते हैं।
(3) सट्टा उद्देश्य – लोग सट्टे के कारण उत्पन्न लाभों को प्राप्त करने के लिए भी अपनी आय को तरल रूप में रखते हैं।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
विशुद्ध ब्याज किसे कहते हैं? [2007, 08, 10]
उत्तर:
विशुद्ध ब्याज पूँजी के प्रयोग के बदले में दिये जाने वाले भुगतान को कहते हैं, जबकि ऋण देने के सम्बन्ध में किसी प्रकार की जोखिम, असुविधा तथा अतिरिक्त कार्य नहीं होता।

प्रश्न 2
कुल ब्याज के आवश्यक तत्त्व बताइए।
उत्तर:
कुल ब्याज के आवश्यक तत्त्व हैं

  1. विशुद्ध ब्याज,
  2. जोखिम का प्रतिफल,
  3. असुविधा व कष्ट के लिए भुगतान तथा
  4. ऋणदाता के द्वारा किये जाने वाले अतिरिक्त काम का भुगतान।

प्रश्न 3
ब्याज के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के द्वारा ब्याज कैसे निर्धारित होता है ?
उत्तर:
ब्याज के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के अनुसार पूँजी की उत्पादकता उसके ब्याज को निश्चित करती है और ब्याज की दर पूँजी की उत्पादकता दर के समानुपाती होती है।

प्रश्न 4
ब्याज के त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त में प्रो० मार्शल ने क्या सुधार किया ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल ने ब्याज के त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त के दोषों को दूर करने के लिए त्याग के स्थान पर प्रतीक्षा शब्द का प्रयोग किया, इसलिए इस सिद्धान्त का वर्तमान रूप ‘प्रतीक्षा सिद्धान्त’ है।

प्रश्न 5
ब्याज का ऋण-योग्य कोष सिद्धान्त किस अर्थशास्त्री का है ?
उत्तर:
ब्याज का ऋण-योग्य कोष का सिद्धान्त सर्वप्रथम प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ‘नट विकसेल’ के द्वारा प्रतिपादित किया गया।

प्रश्न 6
ब्याज का माँग और पूर्ति सिद्धान्त क्या है?
या
ब्याज का क्लासिकल सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
ब्याज का माँग और पूर्ति सिद्धान्त के अनुसार ब्याज की दर पूँजी की माँग और पूर्ति से निर्धारित होती है। पूँजी की माँग विनियोग से तथा उसकी पूर्ति बचत से उत्पन्न होती है, इसलिए ब्याज की दर बचत और विनियोग से निर्धारित होती है।

प्रश्न 7
सकल एवं शुद्ध ब्याज में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2006, 07, 08, 09, 10, 11]
उत्तर:
पूँजी के प्रयोग के बदले में दिये जाने वाले भुगतान को विशुद्ध ब्याज कहते हैं। कुल ब्याज में शुद्ध ब्याज के अतिरिक्त जोखिम का प्रतिफल असुविधा व कष्ट के लिए भुगतान तथा ऋणदाता के द्वारा किये जाने वाले अतिरिक्त कार्य का भुगतान भी सम्मिलित होता है।

प्रश्न 8
ब्याज के तरलता अधिमान (पसन्दगी) सिद्धान्त का प्रतिपादन किसने किया ? [2008, 10, 11, 12, 15, 16]
उत्तर:
जे० एम० कीन्स ने।

प्रश्न 9
जे० एम० कीन्स के अनुसार ब्याज क्या है ? [2009, 15]
उत्तर:
“ब्याज तरलता का परित्याग करने की कीमत है।” मुद्रा धन का सबसे तरल रूप है।

प्रश्न 10
ब्याज का पारितोषिक सिद्धान्त
या
एजियो सिद्धान्त के प्रतिपादक कौन थे ?
उत्तर:
ब्याज का पारितोषिक सिद्धान्त सर्वप्रथम जॉन रे के द्वारा प्रतिपादित किया गया।

प्रश्न 11
“ब्याज किसी बाजार में पूँजी के प्रयोग के बदले में दी जाने वाली कीमत है।” यह परिभाष किस अर्थशास्त्री की है ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल की।

प्रश्न 12
ब्याज ऋण-योग्य कोषों के प्रयोग के लिए दी जाने वाली कीमत है।” यह परिभाषा किस अर्थशास्त्री की है ?
उत्तर:
मेयर्स की।

प्रश्न 13
ब्याज के त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त का प्रतिपादन किस अर्थशास्त्री ने किया था ?
उत्तर:
ब्याज के त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त का प्रतिपादन अर्थशास्त्री सीनियर ने किया था।

प्रश्न 14
ब्याज की दर में भिन्नता के कोई दो कारण लिखिए।
उत्तर:
ब्याज की दर में भिन्नता के दो कारण हैं

  1. व्यवसाय की प्रकृति तथा
  2. ऋण की प्रकृति।

प्रश्न 15
ब्याज निर्धारण के केसीय सिद्धान्त का नाम लिखिए। [2013]
या
जॉन मेनार्ड कीन्स द्वारा प्रतिपादित ब्याज के सिद्धान्त का नाम लिखिए। [2015]
उत्तर:
ब्याज निर्धारण के केन्सीय सिद्धान्त का नाम तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त है।

प्रश्न 16
ब्याज उत्पत्ति के किस साधन का पुरस्कार है?
उत्तर:
ब्याज पूँजी के प्रयोग के बदले में प्राप्त होने वाला पुरस्कार है।

प्रश्न 17
ब्याज-दर निर्धारण के किन्हीं दो सिद्धान्तों के नाम लिखिए। [2015]
उत्तर:
(1) ब्याज का त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त तथा
(2) ब्याज का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त।

प्रश्न 18
जोखिम उठाने का पुरस्कार क्या होता है? [2015, 16]
उत्तर:
ब्याज।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
उधार देने योग्य कोषों के प्रयोग के बदले में दी गयी राशि को कहते हैं
(क) लगान
(ख) ब्याज
(ग) मजदूरी
(घ) लाभ
उत्तर:
(ख) ब्याज।

प्रश्न 2
“ब्याज वह कीमत है, जो उधार देने योग्य कोषों के प्रयोग के बदले में दी जाती है। यह परिभाषा है
(क) जे० एम० कीन्स की
(ख) मेयर्स की
(ग) प्रो० मार्शल की
(घ) पीगू की।
उत्तर:
(ख) मेयर्स की।

प्रश्न 3
ब्याज वह पुरस्कार है जो प्राप्त होता है
(क) पूँजीपति को
(ख) भूस्वामी को
(ग) प्रबन्धक को
(घ) उद्यमी को
उत्तर:
(क) पूँजीपति को।

प्रश्न 4
ब्याज की दर के सम्बन्ध में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही है?
(क) ब्याज की दर शून्य हो सकती है।
(ख) ब्याज की दर शून्य नहीं हो सकती
(ग) आर्थिक विकास के साथ-साथ ब्याज की दर में वृद्धि होती रहती है।
(घ) ब्याज की दर ज्ञात नहीं की जा सकती
उत्तर:
(ख) ब्याज की दर शून्य नहीं हो सकती।

प्रश्न 5
पूँजी के प्रयोग के बदले में दिया जाने वाला पुरस्कार हैया पूँजी पर पुरस्कार को कहते हैं [2015]
(क) लाभ
(ख) लगान
(ग) ब्याज
(घ) मजदूरी
उत्तर:
(ग) ब्याज।

प्रश्न 6
“ब्याज निश्चित अवधि के लिए तरलता के परित्याग का पुरस्कार है।” यह कथन किसका है? [2006, 07, 10, 13, 14, 15, 16]
(क) मार्शल
(ख) पीगू
(ग) रॉबर्टसन
(घ) कीन्स
उत्तर:
(घ) कीन्स।

प्रश्न 7
ब्याज के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त में सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग निर्भर है
(क) जनसंख्या के आकार पर
(ख) आय-स्तर पर
(ग) रहन-सहन के स्तर पर
(घ) ब्याज की दर पर
उत्तर:
(घ) ब्याज की दर पर।

प्रश्न 8
ब्याज का तात्पर्य है
(क) पूँजी से प्राप्त होने वाला प्रतिफल
(ख) पूँजी से प्राप्त होने वाली अतिरिक्त आय
(ग) पूँजीगत लाभ
(घ) पूँजी से प्राप्त होने वाला कमीशन
उत्तर:
(क) पूँजी से प्राप्त होने वाला प्रतिफल।

प्रश्न 9
ब्याज के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त में मुद्रा का पूर्ति वक्र किस रूप में होता है? [2006]
(क) बाएँ से दाएँ ऊपर की ओर उठता हुआ
(ख) बाएँ से दाएँ नीचे की ओर गिरता हुआ
(ग) क्षैतिज रेखा के रूप में
(घ) ऊर्ध्वाधर रेखा के रूप में।
उत्तर:
(घ) ऊर्ध्वाधर रेखा के रूप में।

प्रश्न 10
निम्नलिखित में से कौन ब्याज के तरलता अधिमान (पसन्दगी) सिद्धान्त के प्रतिपादक थे? [2014, 15]
(क) रिकाडों
(ख) एडम स्मिथ
(ग) मार्शल
(घ) कीन्स
उत्तर:
(घ) कीन्स।

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 7 Advent of European Powers in India

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 7
Chapter Name Advent of European Powers in India
(यूरोपीय शक्तियों का भारत में प्रवेश)
Number of Questions Solved 19
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 7 Advent of European Powers in India (यूरोपीय शक्तियों का भारत में प्रवेश)

अभ्यास

प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए
1. 1498 ई०
2. 1600 ई०
3. 1664 ई०
4. 1758 ई०
5. 23 जून, 1757 ई०
6. 1765 ई०
7. 1772 ई०
उतर:
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ-संख्या- 134 पर तिथि सार का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 2.
सत्यया असत्य बताइए
उतर:
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 135 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय प्रश्न
उतर:
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 135 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
उतर:
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 135 व 136 का अवलोकन कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में पुर्तगाली सत्ता की स्थापना पर प्रकाश डालिए।
उतर:
सन् 1498 में पुर्तगाली नाविक वास्को-डि-गामा अपने जाहजी बेड़ों के साथ कालीकट पहुँचा। कालीकट के राजा जमोरिन ने उनका आतिथ्य सत्कार किया। पुर्तगालियों ने इस स्वागत और सम्मान का अनुचित लाभ उठाया। 1500 ई० में पड़ो अल्बरेज काबराल ने 13 जहाजों को एक बेड़ा और सेना लेकर जमोरिन को नष्ट करने की कोशिश की। 1502 ई० में वास्को-डि-गामा पुन: भारत आया और मालाबार तटों पर क्षेत्रीय अधिकार कर भारत में पुर्तगाली सत्ता की स्थापना का प्रयास किया।

प्रश्न 2.
भारत में पुर्तगाली शक्ति के उत्थान और पतन पर संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उतर:
पुर्तगाली गर्वनर अल्मोड़ा और अल्बुकर्क के प्रयासों से भारत में पुर्तगाली शक्ति का उत्थान हुआ। पुर्तगालियों ने भारत के पश्चिमी तटों पर गोवा के अतिरिक्त दमन, दीव, सालीसट, बेसीन, चोल, बम्बई तथा बंगाल में हुगली आदि पर अधिकार कर 150 वर्षों तक सत्ता का उपभोग किया। भारत में पुर्तगालियों की शक्ति के पतन के विभिन्न कारण रहे हैं। 1580 ई० में पुर्तगाल स्पेन के साथ सम्मिलित होने से अपनी स्वतंत्रता खो बैठा। मुगलों और मराठों ने भी पुर्तगालियों का विरोध किया। बाद में पुर्तगाली व्यापार के प्रति उदासीन हो गए और राजनीति में अधिक हस्तक्षेप करने लगे, जिससे स्थानीय विरोधों के कारण उनकी आर्थिक शक्ति समाप्त होने लगी, जो उनके पतन का मख्य कारण बनी।

प्रश्न 3.
भारत में डचों की प्रगति के इतिहास पर प्रकाश डालिए।
उतर:
भारत में पुर्तगालियों के व्यापारिक लाभ से प्रोत्साहित होकर हॉलैण्ड निवासी, जिन्हें डच कहा जाता है, ने अपना ध्यान भारत की ओर केन्द्रित किया। सन् 1602 ई० में भारत में डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की गई, जिसका उद्देश्य भारत व अन्य पूर्वी देशों में व्यापार करना था। शीघ्र ही डचों ने मसालों के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित कर धीरे-धीरे पुर्तगाली शक्ति को समाप्त कर अपने प्रभाव में वृद्धि की।

प्रश्न 4.
कर्नाटक के प्रथम युद्ध का क्या परिणाम हुआ?
उतर:
अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के मध्य कर्नाटक का प्रथम युद्ध हुआ। इस युद्ध के कारण फ्रांसीसियों के भारत में साम्राज्य स्थापना के सपने को गहरा आघात पहुँचा परन्तु फिर भी भारत में फांसीसियों की धाक जम गई तथा फ्रांसीसी गर्वनर डुप्ले ने और अधिक उत्साह से देश की आन्तरिक समस्याओं में हस्तक्षेप करना आरम्भ कर दिया। इस युद्ध ने विदेशियों पर भारत की दुर्बलता को पुर्णत: प्रकट कर दिया और दोनों शक्तियाँ कर्नाटक के आन्तरिक संघर्षों में हस्तक्षेप करने लगीं।

प्रश्न 5.
भारत में पुर्तगालियों की असफलता के दो कारण लिखिए।
उतर:
भारत में पुर्तगालियों की असफलता के दो कारण निम्नलिखित हैं

  • मुगलों एवं मराठों द्वारा पुर्तगालियों का विरोध करना।
  • पुर्तगालियों की धार्मिक कट्टरता, धर्म-प्रचार एवं स्थानीय स्त्रियों से विवाह करने की नीति।

प्रश्न 6.
अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसियों की पराजय के किन्हीं पाँच कारणों का वर्णन कीजिए।
उतर:
अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसियों की पराजय के पाँच कारण निम्नलिखित हैं

  • अंग्रेजी कंपनी का व्यापारिक तथा आर्थिक दृष्टि से श्रेष्ठ होना।
  • अंग्रेजों की शक्तिशाली नौसेना
  • मुम्बई पत्तन की सुविधा
  • ब्रिटिश अधिकारियों की योग्यता
  • फ्रांसीसियों द्वारा व्यापार की अपेक्षा राज्य विस्तार पर बल देना।

प्रश्न 7.
अंग्रेजों ने सूरत पर किस प्रकार अधिकार किया?
उतर:
अंग्रेजों ने सूरत में व्यापारिक कोठी की स्थापना करके धीरे-धीरे सूरत पर अधिकार किया।

प्रश्न 8.
इलाहाबाद की संधि क्या थी? उसकी शर्ते का वर्णन कीजिए।
उतर:
इलाहाबाद की संधि( 1765 ई० )- क्लाइव 1765 ई० में कलकत्ता (कोलकाता) का गर्वनर बनकर पुनः भारत आया। उसने इलाहाबाद जाकर मुगल सम्राट शाहआलम और अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ अलग-अलग संधि की जो इलाहाबाद की संधि के नाम से प्रसिद्ध है। इस संधि की शर्ते इस प्रकार थीं

  • मुगल सम्राट शाहआलम ने बंगाल, बिहार व उड़ीसा (ओडिशा) की दीवानी अंग्रेजों को प्रदान कर दी।
  • मुगल सम्राट शाहआलम को कड़ा और इलाहाबाद के जिले प्रदान किये गये।
  • अंग्रेजों ने मुगल सम्राट शाहआलम को 26 लाख रुपया वार्षिक पेंशन देना स्वीकार किया।
  • नवाब शुजाउद्दौला ने अंग्रेजों को युद्ध के हर्जाने के रूप में 50 लाख रुपया देना स्वीकार किया।
  • शुजाउदौला ने बाह्य आक्रमणों के दौरान भेजी जाने वाली अंग्रेजी सेना का खर्चा वहन करना स्वीकार किया।
  • चुनार का दुर्ग अंग्रेजों के पास यथावत रहने दिया।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में यूरोपीय शक्तियों के आगमन की विवेचना कीजिए।
या
सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय कम्पनियों की गतिविधियों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उतर:
पुर्तगालियों का भारत आगमन- 20 मई, 1498 ई० का दिन भारत और यूरोप के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन कहा जा सकता है क्योंकि इस दिन भारत की धरती पर एक पुर्तगाली वास्को-डि-गामा अपने चार जहाजों और एक सौ अठारह नाविकों के साथ उतरा। एडम स्मिथ ने अमेरिका की खोज और आशा अन्तरीप की ओर से भारत के मार्ग की खोज को “मानवीय इतिहास की दो महानतम् और अत्यन्त महत्वपूर्ण घटनाएँ बताया है।”

आधुनिक अन्वेषणों से पता चलता है कि वास्को-डि-गामा स्वयं भारत नहीं पहुंचा था, बल्कि वह मोजांबिक पहुँचने पर एक भारतीय व्यापारी के जहाज के पीछे-पीछे चलकर कालीकट तक पहुँच पाया। अत: भारत तक उसकी यात्रा ‘वास्को-डि-गामा की नवीन खोज’ न थी। एक प्रकार से उसने इस मार्ग का अनुसरण किया था। कुछ भी हो, कालीकट पहुँचने पर वहाँ के हिन्दू राजा जमोरिन ने उसका स्वागत और आतिथ्य-सत्कार किया। लेकिन पुर्तगालियों ने इस स्वागत और सम्मान का अनुचित लाभ उठाया। 1500 ई० में पेड्रो अल्वरेज काबराल ने 13 जहाजों का एक बेड़ा और सेना लेकर जमोरिन को नष्ट करने की कोशिश की। 1502 ई० में पुन: वास्को-डि-गामा भारत आया और मालाबार तटों पर क्षेत्रीय अधिकार के कुछ प्रयास किए।

आल्मीड़ा या अल्मोडा भारत में पहला पुर्तगाली गवर्नर था। 1509 ई० में अल्बुकर्क नामक पुर्तगाली गवर्नर बनकर भारत आया। विश्वासघात और पारस्परिक फूट का लाभ उठाकर नवम्बर, 1510 में पुर्तगालियों ने गोवा पर अपना अधिकार कर लिया। इन्होंने ईसाईयत का मनमाने ढंग से प्रचार किया और व्यापार को बढ़ाया। गोवा के अतिरिक्त दमन, दीव, सालीसट, बेसीन, चोल और बम्बई (मुम्बई), बंगाल में हुगली तथा मद्रास (चेन्नई) तट पर स्थित सान-थोम पुर्तगालियों के अधिकार में चले गए। 150 वर्षों तक सत्ता का उपभोग करने के उपरान्त भारत में उनकी सत्ता का पतन होने लगा और उनके अधिकार में केवल गोवा, दमन और दीव रह गए थे।

भारत में डचों का आगमन- भारत में पुर्तगालियों को व्यापारिक लाभ से प्रोत्साहित होकर हॉलैण्ड निवासी, जिन्हें डच कहा जाता है, ने अपना ध्यान भारत की ओर केन्द्रित किया। उनका पहला व्यापारिक बेड़ा मलाया द्वीप-समूह में आया। केप ऑफ गुड होप होते हुए भारत में 1596 ई० में आने वाला कार्निलियस छूटमैन प्रथम डच नागरिक था। उनके द्वारा भी अन्य यूरोपीय देशों की भाँति भारत में व्यापार हेतु 1602 ई० में डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की गई, जिसका उद्देश्य भारत व अन्य पूर्वी देशों से व्यापार करना था।

शीघ्र ही डचों ने मसालों के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया और धीरे-धीरे उन्होंने पुर्तगाली शक्ति को समाप्त कर दिया। डचों ने पुर्तगालियों को मलक्का (1641 ई०) और श्रीलंका (1658 ई०) के तटीय भागों से भगा दिया और दक्षिण भारत में अपने प्रभाव में वृद्धि की। डचों ने भारत में सूरत, भड़ौच, कैम्बे, अहमदाबाद, कोचीन, मसूलीपट्टम, चिन्सुरा और पटना में अनेक व्यापारिक केन्द्र बनाए। वे भारत में सूती वस्त्र और कच्चा रेशम, शोरा, अफीम और नील निर्यात करते थे, परन्तु शीघ्र ही वे भी अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच की स्पर्धा का शिकार हुए। डचों की कम्पनियाँ शीघ्र ही प्रभावहीन हो गई, जिसका प्रमुख कारण डच सरकार का कम्पनी के कार्यों में अत्यधिक हस्तक्षेप था। सरकारी प्रभुत्व को ज्यादा महत्व दिया गया, व्यापार को कम। यह माना जाता है कि डचों की हार का प्रमुख कारण कम्पनी का सरकारी संस्था होना था।

सर्वप्रथम डच और अंग्रेज लोग मित्रों की भाँति पूर्व में आए ताकि कैथोलिक धर्मानुयायी देश पुर्तगाल तथा स्पेन का सामना कर सकें। परन्तु शीघ्र ही यह मित्रता की भावना लुप्त हो गई तथा आपसी विरोध आरम्भ हो गया। अंग्रेजों की स्पेन समर्थक नीति ने आंग्ल-डच मित्रता पर आघात किया तथा दोनों में एक गम्भीर संघर्ष आरम्भ हो गया। अम्बोयना में हुए अंग्रेजों के हत्याकाण्ड (1623 ई०) के कारण समझौते की सब आशाओं पर पानी फिर गया। गर्म मसाले के द्वीपों में अपनी श्रेष्ठता कायम करने के लिए यह संघर्ष लम्बे समय तक चलता रहा तथा डचों ने अपनी स्थिति को वहाँ सुदृढ़ बनाए रखा।

अंग्रेजों का भारत आगमन- महारानी एलिजाबेथ प्रथम के शासनकाल में 1599 ई० में लन्दन में लॉर्ड मेयर की अध्यक्षता में भारत के साथ सीधा व्यापार करने के लिए एक संस्था बनाने पर विचार हुआ, जो ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ नाम से शुरू की गई। 31 दिसम्बर, 1600 ई० को महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने इस कम्पनी को एक अधिकार-पत्र प्रदान किया। प्रारम्भ में कम्पनी को साहसी लोगों की मण्डली कहा गया क्योंकि इसके सदस्य लूटने में दक्ष थे।

1608 ई० में अंग्रेजों का पहला जहाजी बेड़ा हॉकिन्स के नेतृत्व में भारत आया था। 1613 ई० में सूरत में अंग्रेजों की व्यापारिक कोठी की स्थापना की। 1615 ई० में सर टामस रो व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करने के उद्देश्य से मुगल सम्राट जहाँगीर के दरबार में आगरा आया और यहाँ तीन वर्ष तक रहा। प्रारम्भ में मुगल दरबारों में पुर्तगालियों का अधिक प्रभाव होने के कारण उसे अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त नहीं हुई, किन्तु अन्ततः वह शहजादा खुर्रम से व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करने में सफल हुआ।

इसके बाद अंग्रेजों ने सूरत, आगरा, अहमदाबाद तथा भड़ौच में व्यापारिक कोठियाँ स्थापित करने की अनुमति प्राप्त की। 1640 ई० में अंग्रेज कम्पनी ने मद्रास (चेन्नई) में एक सुदृढ़ फोर्ट (सेंट जॉर्ज) की स्थापना की। 1642 ई० में बालासोर में भी अंग्रेजों ने एक व्यापारिक कोठी बनाई। 1668 ई० में कम्पनी को बम्बई (मुम्बई) प्राप्त हुआ जो ब्रिटिश सम्राट चार्ल्स द्वितीय को 1661 ई० में पुर्तगाली राजकुमारी ब्रेगाजा की केथरीन से विवाह करने पर दहेज के रूप में मिला था। इसी प्रकार 1651 ई० में अंग्रेजों ने एक फैक्ट्री हुगली में और इसके बाद बंगाल में, कलकत्ता (कोलकाता) और कासिम बाजार में कई कोठियाँ स्थापित कीं।

ईस्ट इण्डिया के विरोधी सौदागरों ने 17 वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में एक नई कम्पनी स्थापित की, जिसका नाम ‘न्यू कम्पनी रखा गया। इस नई कम्पनी ने भी घूस व रिश्वत की नीति अपनाई। शीघ्र ही दोनों कम्पनियों में परस्पर स्वार्थवश टकराव हो गया। अन्त में 1702 ई० में दोनों कम्पनियों ने एक संयुक्त कम्पनी बनाकर अपना व्यापार तेजी से बढ़ाया और स्थानीय राजाओं व नवाबों से भी सम्बन्ध स्थापित किए। 1707 ई० में इस कम्पनी ने मुगल बादशाह फर्रुखसियार से व्यापारिक अधिकारों का एक फरमान (अधिकार-पत्र) प्राप्त किया। अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों शक्तियों ने भारत के देशी राजाओं के पारस्परिक झगड़ों तथा उत्तराधिकार के मामले में हस्तक्षेप कर भूमि, धन व अन्य व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त कर ली।

अंग्रेजों का डचों तथा फ्रांसीसियों से व्यापारिक संघर्ष हुआ, जिसमें अंग्रेजों को सफलता प्राप्त हुई। मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात् तो अंग्रेजों का भारत के राजनीतिक क्षेत्र में भी प्रभाव बढ़ा। हॉलैण्ड तथा पुर्तगाल यूरोप के दुर्बल राष्ट्रों में थे। अतः वे अंग्रेजों के आगे न टिक सके और व्यापारिक प्रतिद्वन्द्विता से बाहर हो गए। अब अंग्रेजों की केवल फ्रांसीसीयों से व्यापारिक प्रतिस्पर्धा थी। दक्षिण भारत में फैली राजनीतिक अव्यवस्था के कारण दोनों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ जाग्रत हो उठीं और राजनीतिक प्रभुत्व के लिए दोनों के बीच तीन युद्ध (1746-1763 ई०) हुए। यूरोप में भी 1756-63 ई० तक दोनों में सप्तवर्षीय संघर्ष चला, जिसमें फ्रांस का पराभव हुआ। अन्त में भारत में अंग्रेजों को निर्णायक सफलता मिली। धीरे-धीरे अंग्रेजों का भारतीय व्यापार पर ही नहीं सम्पूर्ण भारत पर पूर्णरूपेण अधिकार हो गया।

प्रश्न 2.
भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने में फ्रांसीसियों की अपेक्षा अंग्रेज क्यों सफल हुए? विस्तारपूर्वक विवेचना कीजिए।
उतर:
भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने में फ्रांसीसियों की अपेक्षा अंग्रेज निम्नलिखित कारणों से सफल रहे
(i) अंग्रेजी कम्पनी का स्वरूप- ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक प्राइवेट कम्पनी थी, जिसमें ब्रिटिश सरकार किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करती थी। प्राइवेट होने के कारण इस कम्पनी के सदस्य अत्यधिक परिश्रमी थे, जबकि फ्रांसीसी कम्पनी एक सरकारी कम्पनी थी। अत: प्रत्येक निर्णय के लिए फ्रांसीसी कम्पनी फ्रांसीसी सरकार पर निर्भर रहती थी।

(ii) अंग्रेजी कम्पनी का व्यापारिक तथा आर्थिक दृष्टि से श्रेष्ठ होना- अंग्रेजी कम्पनी व्यापारिक एवं आर्थिक दोनों ही दृष्टि से श्रेष्ठ थी। अंग्रेजों के पास व्यापार हेतु पूर्वी समुद्र-तट और बंगाल का समुद्र प्रान्त था, जहाँ से उन्हें अत्यधिक व्यापारिक लाभ होता था, जिससे उन्हें आर्थिक संकट का बिलकुल भी भय नहीं रहता था। जबकि फ्रांसीसियों के पास ऐसा कोई व्यापारिक स्थान न था, जहाँ से समुचित मात्रा में व्यापारिक लाभ की प्राप्ति होती हो।

(iii) अंग्रेजों की शक्तिशाली नौसेना-
अंग्रेजों की नौसेना फ्रांसीसी नौसेना की तुलना में अधिक शक्तिशाली थी। परिणामस्वरूप वे सदैव अपने व्यापारिक मार्गों को सुरक्षित रखने में सफल रहे, जबकि फ्रांसीसी नौसेना कमजोर होने के कारण सैनिक और व्यापारियों को किसी प्रकार की सहायता प्रदान न कर सकी।

(iv) मुम्बई पत्तन की सुविधा-
अंग्रेजों की समुद्री-शक्ति का स्थान मुम्बई था, जिसके कारण वे अपने जहाज मुम्बई में सुरक्षित
रख सकते थे। इसके विपरीत फ्रांसीसियों की समुद्री-शक्ति का अड्डा फ्रांस के द्वीप में था, जो बहुत दूर स्थित था। अत: वे | शीघ्र कोई कार्यवाही नहीं कर सकते थे।

(v) डूप्ले की वापसी-
डूप्ले फ्रांस का एक योग्यतम गवर्नर था। उसने भारत में फ्रांसीसी प्रभाव में वृद्धि की थी, किन्तु उसे फ्रांसीसी सरकार ने थोड़ी-सी असफलता प्राप्त होने पर ही वापस बुला लिया, जिससे अंग्रेजों के उत्साह में और अधिक वृद्धि हो गई।

(vi) ब्रिटिश अधिकारियों की योग्यता-
ब्रिटिश कम्पनी को योग्य अधिकारियों की सेवाएँ प्राप्त हुई। क्लाइव, लारेंस, आयरकूट आदि योग्य ब्रिटिश अधिकारी थे। उन्होंने अपनी योग्यता के बल पर ब्रिटिश कम्पनी को उन्नत बनाया, जबकि फ्रांसीसी अधिकारी इतने योग्य नहीं थे। वे आपस में लड़ते-झगड़ते थे। अत: वे फ्रांसीसी कम्पनी की उन्नति में अपना योगदान न दे सके।

(vii) फ्रांसीसियों द्वारा व्यापार की अपेक्षा राज्य–
विस्तार पर बल देना- फ्रांसीसियों की एक बड़ी भूल यह थी कि उन्होंने व्यापार की अपेक्षा राज्य–विस्तार की महत्वाकांक्षा पर अधिक बल दिया। उनका सारा धन युद्धों में व्यर्थ चला गया। फ्रांसीसी सरकार यूरोप तथा अमेरिका में व्यस्त रहने के कारण डूप्ले की महत्वाकांक्षी योजनाओं का पूर्ण समर्थन करने की स्थिति में नहीं थी। दूसरी ओर अंग्रेज अपने व्यापार की कभी उपेक्षा नहीं करते थे।

(viii) यूरोप में अंग्रेजों की विजय-
भारत में फ्रांसीसियों और अंग्रेजों के बीच होने वाला संघर्ष यूरोप में होने वाला फ्रांस और इंग्लैण्ड के बीच संघर्ष का एक भाग था। यूरोप में अंग्रेजों की विजय हुई और फ्रांसीसी पराजित हुए। इसका प्रभाव भारत में भी पड़ा। भारत में अंग्रेज जीतते गए और फ्रांसीसी पराजित होते गए।

(ix) विलियम पिट की नीति-
1758 ई० में इंग्लैण्ड में विलियम पिट ने युद्धमन्त्री का कार्यभार सम्भालते ही क्रान्तिकारी परिर्वतन कर कुछ इस प्रकार की नीति अपनाई कि फ्रांस यूरोपीय मामलों में बुरी तरह फँस गया और हार गया।

(x) लैली का उत्तरदायित्व-
लैली अत्यन्त ही कटुभाषी व क्रोधी व्यक्ति था। अत: कोई भी फ्रांसीसी अधिकारी उसके साथ काम करने से हिचकिचाता था। वास्तव में वह भारत में फ्रांसीसियों के पतन के लिए अधिक उत्तरदायी था।

प्रश्न 3.
डूप्ले की नीति की समीक्षा कीजिए तथा फ्रांसीसियों की असफलता के कारणों का वर्णन कीजिए।
उतर:
डूप्ले की नीति- डूप्ले की नीति को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है
(i) भारतीय शासकों के मामलों में हस्तक्षेप- डूप्ले ने भारत की राजनीतिक स्थिति के अनुसार अनुमान लगा लिया कि सफलता प्राप्त करने के लिए राजाओं के आपसी झगड़ों में हस्तक्षेप करना, व्यापार व राजनीतिक अधिकारों के लिए लाभकारी है, अतः उसने इस नीति का अनुसरण किया। हैदराबाद और कर्नाटक के झगड़ों में उसे सफलता प्राप्त भी हुई।

(ii) फ्रांसीसी साम्राज्य की स्थापना-
डूप्ले फ्रांसीसी सरकार तथा फ्रांसीसी व्यापारियों के लाभ हेतु यहाँ पर भारत के अन्य क्षेत्रों में भी साम्राज्य स्थापित करने की नीति में विश्वास करता था और साम्राज्य स्थापना के लिए वह अत्यधिक सक्रिय हो गया था।

(iii) व्यापारिक नीति में परिवर्तन-
डूप्ले प्रारम्भ में अपने देश की समृद्धि के लिए भारत में व्यापार की वृद्धि करने आया। उसने फ्रांसीसी कम्पनी को भारत में सुदृढ़ नींव पर खड़ा करने का प्रयास किया, परन्तु बाद में वह समझ गया था कि अंग्रेजों के विरुद्ध सफल होने के लिए राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करना भी अनिवार्य है। अतः व्यापार की वृद्धि के लिए वह राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में जुट गया। इस प्रकार डूप्ले ने फ्रांसीसी कम्पनी की व्यापारिक नीति में परिवर्तन किया तथा दक्षिणी भारत में फ्रांस के राजनीतिक प्रभुत्व की स्थापना की ओर ध्यान दिया।

(iv) भारतीय सैन्य-बल पर प्रयोग-
डूप्ले फ्रांसीसी सेनाओं की दुर्बलताओं से भली-भाँति परिचित था। अत: उसने सैन्य बल का लाभ उठाने की नीति अपनाई थी। उसने भारतीय राजाओं की सेनाओं को पाश्चात्य ढंग से प्रशिक्षण देना शुरू किया।

(v) उपहार ग्रहण करना-
धन की अभिवृद्धि के लिए डूप्ले ने भारतीय राजाओं से उपहार ग्रहण करने की नीति अपनाई। यह नीति राजनीतिक दृष्टिकोण से डूप्ले द्वारा लिया गया अविवेकपूर्ण निर्णय था।

फ्रांसीसियों की असफलता के कारण- फ्रांसीसियों की असफलता के निम्नलिखित कारण हैं
(i) गोपनीयता- डूप्ले अपनी भावी योजना को अन्य समकक्ष अधिकारियों से छिपाकर रखता था। इसका परिणाम यह हुआ कि कम्पनी और फ्रांसीसी सरकार उसकी समय पर सहायता न कर सकी और इस तरह डूप्ले की गोपनीय योजना की यह नीति फ्रांसीसियों के पतन का प्रमुख कारण बन गई।

(ii) व्यापार की दयनीय दशा-
फ्रांसीसियों का व्यापार भी पतनोन्मुख था। ब्रिटिश व्यापारी बहुत चतुर व दक्ष थे। इनका एकमात्र मुम्बई का व्यापार ही सारे फ्रांसीसी व्यापार की तुलना में पर्याप्त था। व्यापारिक अवनति ने भी फ्रांसीसियों का मनोबल कम कर दिया। यह स्थिति फ्रांसीसियों के लिए अंग्रेजों से बराबरी करने में प्रतिकूल सिद्ध हुई। चारित्रिक दुर्बलता- डूप्ले अहंकारी व्यक्ति था। वह अति महत्वाकांक्षी था तथा उसका स्वभाव षड्यन्त्रप्रिय था। वह एक कुशल राजनीतिज्ञ तथा प्रबन्धक था परन्तु योग्य सेनानायक न था। इसके विपरीत उसका प्रतिद्वन्द्वी क्लाइव योग्य राजनीतिज्ञ तथा प्रबन्धक तो था ही साथ ही कुशल सेनानायक भी था।

(iv) फ्रांसीसी सरकार का असहयोग-
डूप्ले ने भारतीय राज्यों में अपने हस्तक्षेप की बात कम्पनी के डायेक्टरों से छिपाकर अपनी योजना उनके सामने स्पष्ट नहीं की। इस कारण उसको फ्रांसीसी सरकार से कोई सहायता नहीं मिल सकी बल्कि डायरेक्टर उसकी नीति को शंका की दृष्टि से देखने लगे। मजबूरन डूप्ले को अपनी ही अपर्याप्त शक्ति पर निर्भर रहना पड़ा। फ्रांस की तत्कालीन सरकार ने इन परिस्थितियों में अमेरिका में ही अपने उपनिवेश स्थापित करने की ओर ध्यान दिया भारत की ओर नहीं, क्योंकि भारत की स्थिति को डूप्ले ने छिपाए रखा।

(v) फ्रांसीसी सरकार का अपने प्रतिनिधियों से दुर्व्यवहार-
फ्रांसीसी सरकार अपने प्रतिनिधियों के प्रति समुचित स्नेह और आदर का व्यवहार नहीं करती थी। इससे उनका मनोबल टूट जाता था, जिससे वे कार्यों को आत्मिक भाव से न करके उसे सरकारी समझकर असावधानी बरतते थे। डूप्ले तथा लैली के प्रति दुर्व्यवहार किया गया था। डूप्ले को वापस बुला लिया गया तथा लैली को बाद में मृत्युदण्ड दिया गया।

(vi) चाँदा साहब का पक्ष लेना-
डूप्ले को एक भागे हुए तथा मराठों की कैद में वर्षों रहने वाले चाँदा साहब का पक्ष लेना उसकी अदूरदर्शिता थी। चाँदा साहब का कर्नाटक की राजनीति से सम्बन्ध विच्छेद हो चुका था और वहाँ उसका कोई प्रभाव नहीं था। डूप्ले को मुहम्मद अली का पक्ष लेना चाहिए था, जिसका कर्नाटक की जनता पर प्रभाव था और जिसे जनता द्वारा वास्तव में गद्दी का अधिकारी समझा जाता था।

(vii) अति महत्वाकांक्षी होना-
डूप्ले एक ही समय में हैदराबाद और कर्नाटक दोनों स्थानों पर हस्तक्षेप कर सफलता पाना चाहता था, जबकि फ्रांसीसी साधन दोनों स्थानों पर एक साथ सफलता प्राप्त करने के लिए अपर्याप्त थे। उसने अत्यधिक महत्वाकांक्षी होने के कारण दोनों स्थानों पर एक साथ हस्तक्षेप किया और दोनों ही स्थानों पर वह असफल रहा।

प्रश्न 4.
अंग्रेज तथा फ्रांसीसियों के मध्य हुए संघर्ष का वर्णन कीजिए।
उतर:
भारतीय व्यापार की प्रतिद्वन्द्विता एवं उपनिवेश स्थापना का प्रयास तथा भारत में राजनीतिक प्रभुत्व स्थापना के प्रश्न पर अंग्रेजों और फ्रांसीसियों में संघर्ष हो गया। 16वीं तथा 17वीं शताब्दियों में जब मुगलों का चरम उत्कर्ष का काल था तथा केन्द्रीय शक्ति सुदृढ़ थी, यूरोप के व्यापारी विभिन्न छोटे तथा बड़े भारतीय शासकों के दरबारों में प्रार्थी के रूप में आते थे परन्तु अनुकूल परिस्थितियों में उनकी व्यावसायिक प्रवृत्ति धीरे-धीरे साम्राज्यवादी मनोवृत्ति में बदल गई। औरंगजेब की मृत्यु के कुछ समय उपरान्त ही मुगल साम्राज्य, केन्द्र में होने वाले राजमहलों के षड्यन्त्रों तथा अपने सूबेदारों की स्वार्थपूर्ण देशद्रोहिता के कारण पतनोत्मुख हो चला था। इसके अतिरिक्त 1739 ई० में नादिरशाह तथा 1761 ई० में अहमदशाह अब्दाली के भयंकर आक्रमणों ने दिल्ली के शाही दरबार की दुर्बलता सबके सामने स्पष्ट कर दी। पेशवाओं के नेतृत्व में मराठे अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे जिससे देश की शिथिल केन्द्रीय व्यवस्था नष्ट होने के निकट पहुँच गई थी।

(i) व्यापारिक एकाधिकार की स्थापना का प्रयास- फ्रांसीसी तथा अंग्रेज दोनों ही प्रारम्भ में व्यापारिक एकाधिकार स्थापित करने में संलग्न थे। दक्षिण भारत में दोनों विदेशी जातियों ने अपनी-अपनी बस्तियाँ स्थापित कर ली थीं। अत: अंग्रेज तथा फ्रांसीसी संघर्ष अनिवार्य हो गया। दोनों ही राष्ट्रों ने पूर्व में आक्रामक नीति का अनुसरण किया। प्रारम्भ में इन्होंने आत्मरक्षा की भावना से प्रेरित होकर सेना का निर्माण किया और किलेबन्दी भी की। फिर भारतीय राजाओं और नबाबों के पारस्परिक झगड़ों में हस्तक्षेप किया तथा अपने हित की पूर्ति के लिए अपनी सेना से उनकी सहायता करने लगे। इन संघर्षों में फ्रांसीसी यदि एक ओर होते थे तो अंग्रेज ठीक उसके विपक्षी की ओर। इस प्रकार वे दोनों आपस में लड़ने लगते थे और अपनी-अपनी शक्ति एवं क्षमता का प्रदर्शन करते थे।

(ii) डूप्ले की महत्वाकांक्षा- भारतीय राजनीति में प्रथम राजनीतिक हस्तक्षेप का श्रीगणेश फ्रांसीसियों के गवर्नर डूप्ले ने किया। डूप्ले फ्रांसीसी गवर्नरों में सर्वाधिक साम्राज्यवादी एवं महत्वाकांक्षी था। उसने भारत में फ्रांसीसी व्यापार को उन्नत करने के लिए देशी राजाओं की राजनीति में हस्तक्षेप करना और उन्हें अपने प्रभाव में लाना आवश्यक समझा। अंग्रेज डूप्ले की इस नीति को सहन न कर सके और वे भी भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करने लगे। परिणामस्वरूप दोनों शक्तियों के बीच संघर्ष हुआ।

(iii) यूरोप में ऑस्ट्रिया का उत्तराधिकार युद्ध-1742 ई० में यूरोप में अंग्रेज और फ्रांसीसी परस्पर संघर्षरत थे। दोनों के बीच संघर्ष का मुख्य कारण 1740 ई० में ऑस्ट्रिया और प्रशा के मध्य युद्ध का होना था। इस युद्ध में अंग्रेज ऑस्ट्रिया की ओर तथा फ्रांसीसी प्रशा की ओर थे। यूरोप में हुए दोनों के बीच संघर्ष का प्रभाव भारत में भी पड़ा, जिससे भारत में दोनों के बीच संघर्ष हुआ।।

(iv) भारत की राजनीतिक दशा-
औरंगजेब के पतन के पश्चात् भारत में अनेक नवीन राज्य एवं शक्तियों का उदय हुआ। इनमें से कोई भी राज्य अथवा शक्ति ऐसी न थी, जो सम्पूर्ण भारत पर अपना नियन्त्रण कायम रखने में सक्षम हो। अत: ऐसी स्थिति में अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों को ही व्यापार के साथ-साथ भारत में अपनी राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ करने का अवसर प्राप्त हुआ।

(v) उत्तराधिकार के संघर्ष में कम्पनी की भागीदारी-
हैदराबाद के निजाम-उल-हक की मृत्यु के पश्चात् उत्तराधिकार हेतु नासिरजंग और मुजफ्फरजंग के मध्य संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में व्यापारिक लाभ की कामना से अंग्रेजों ने नासिरजंग और फ्रांसीसियों ने मुजफ्फरजंग का साथ दिया। अत: कहा जा सकता है कि उत्तराधिकार के संघर्ष में दोनों कम्पनियों का भाग लेना दोनों के बीच संघर्ष का मुख्य कारण था।

प्रश्न 5.
बंगाल में ब्रिटिश शासन की शुरुआत पर एक टिप्पणी कीजिए।
उतर:
बंगाल में ब्रिटिश शासन की शुरुआत- प्लासी और बक्सर के युद्ध भारतीय इतिहास के निर्णायक युद्ध थे, जिसके परिणामस्वरूप बंगाल में ब्रिटिश राज्य की नींव पड़ी और भारतीय इतिहास में एक नए अध्याय का आरम्भ हुआ।

बंगाल एक समृद्धिशाली प्रान्त था। उस समय यह मुगलों के अधीन था। व्यापारिक दृष्टिकोण से बंगाल काफी अग्रसर था। अंग्रेजों ने सन् 1651 ई० में अपनी प्रथम व्यापारिक कोठी हुगली में स्थापित की। उस समय वहाँ का सूबेदार शाहजहाँ का पुत्र शाहशुजा था। उसकी स्वीकृति के बाद उन्होंने अपनी कोठियों का विस्तार कासिम बाजार व पटना तक कर लिया। मुगल सम्राट फर्रुखसियार ने 1717 ई० में अंग्रेजों को अत्यधिक सुविधाएँ दीं। उसने उन पर लगे सभी व्यापारिक कर हटा दिए, जिसका अंग्रेजों ने पूर्णरूप से दुरुपयोग किया। उन्होंने कम्पनी के साथ स्वयं का व्यापार भी बिना कर दिए करना शुरू कर दिया।

वस्तुत: भारत में अंग्रेजी राज का प्रभुत्व सर्वप्रथम बंगाल से ही शुरू हुआ। मुगलों द्वारा अंग्रेजों को दी गई छूट अन्ततः उन्हीं के साम्राज्य के पतन का कारण बन गई। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुर्शिदकुली खाँ को बंगाल का सूबेदार बनाया गया। वह एक ईमानदार व योग्य व्यक्ति था। उसके काल के दौरान बंगाल उन्नति की ओर अग्रसर हुआ। उस समय बंगाल मुगल काल का सबसे समृद्धिशाली प्रान्त था। 1727 ई० में मुर्शिदकुली खाँ की मृत्यु हो गई और उसके दामाद शुजाउद्दीन मोहम्मद खान शुजाउद्दौला असदजंग को बंगाल व उड़ीसा का कार्यभार सौंप दिया गया। उसके काल में भी बंगाल ने काफी उन्नति की। शुजाउद्दौला की मृत्यु के उपरान्त 1739 ई० में उसके पुत्र सरफराज ने बंगाल, बिहार व उड़ीसा का राज्य सँभाला। उसने अलाउद्दौला हैदरजंग की उपाधि प्राप्त की।

1739 ई० में बिहार के नाजिम अलीवर्दी खाँ ने अलाउद्दौला की हत्या कर दी और बंगाल का सूबेदार बन बैठा। वह भी योग्य शासक था। उसके काल में मराठों ने बंगाल में छापे मारने शुरू कर दिए, जिससे मुक्ति पाने के लिए उसने मराठों से सन्धि कर ली। मराठों को उड़ीसा व 12 लाख रुपए उसने चौथ के रूप में दे दिए। तदुपरान्त बंगाल की आंतरिक स्थिति को सुधारकर वहाँ पर शान्ति स्थापित कर दी।

अलीवर्दी खाँ के कोई पुत्र न था। अत: उसने अपनी सबसे छोटी पुत्री के पुत्र सिराजुद्दौला को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। राज्यारोहण के समय वह 25 वर्ष का अनुभवशून्य युवक था तथा हठी एवं आलसी होने के कारण उसकी कठिनाइयाँ और भी अधिक बढ़ गई थीं। सर शफात अहमद खाँ के अनुसार- ‘‘सिराजुद्दौला अदूरदर्शी, हठी और दृढ़ था। उसको वृद्ध अलीवर्दी खाँ के लाड़-प्यार ने बिलकुल बिगाड़ दिया था। गद्दी पर बैठने पर भी उसमें कोई सुधार न हुआ। वह झूठा था, कायर था, नीच और कृतघ्न था। उसमें अपने पूर्वजों के कोई गुण न थे और अपने जो गुण थे उनको प्रयोग में लाने की शक्ति उसमें नहीं थी। वह भी अंग्रेजों की कुटिल नीति का उसी तरह शिकार बना जिस तरह दक्षिण के नवाब तथा कुछ अन्य राजा बने थे।

प्रश्न 6.
बक्सर के युद्ध का वर्णन कीजिए तथा उसके परिणामों की विवेचना कीजिए।
उतर:
बक्सर का युद्ध ( 22 अक्टूबर, 1764 ई० )- अंग्रेजों ने अपदस्थ मीरकासिम के स्थान पर मीरजाफर को पुनः बंगाल का नवाब बना दिया। अंग्रेजों के इस रवैये से असन्तुष्ट होकर मीरकासिम ने मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय एवं नवाब शुजाउद्दौला से मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध एक शक्तिशाली संघ का निर्माण किया। इनकी संयुक्त सेना में 40-50 हजार सैनिक थे। कम्पनी की सेना में 7027 सैनिक थे और उसका नेतृत्व मेजर मुनरो कर रहा था। इतिहास प्रसिद्ध यह लड़ाई बक्सर नामक स्थान पर 22 अक्टूबर, 1764 को हुई। इस युद्ध में अंग्रेज विजयी हुए। पराजित मीरकासिम भाग गया। शाहआलम ने अंग्रेजों की शरण ली। इस युद्ध में अंग्रेजों के 847 सैनिक मरे या हताहत हुए, जबकि तीनों की संयुक्त सेना के लगभग 2000 सैनिक मरे या हताहत हुए। परिणामस्वरूप पराजित मीरकासिम इलाहाबाद पहुँचा। वह 12 वर्षों तक भटकता रहा, अन्ततः 1777 ई० में दिल्ली के निकट उसकी मृत्यु हो गई।

बक्सर के युद्ध के कारण- मीरकासिम और अंग्रेजों के मध्य बक्सर युद्ध के निम्नलिखित कारण थे
(i) अंग्रेजों की बेईमानी- यद्यपि मीरकासिम ने कम्पनी को यह आज्ञा दी थी कि कलकत्ता (कोलकाता) में ढाली गई मुद्राएँ तौल और धातु में नवाब की मुद्राओं के समान हों परन्तु कम्पनी घटिया मुद्राएँ ढालती रही तथा जब व्यापारियों ने उन मुद्राओं को लेने से इनकार किया तो कम्पनी की प्रार्थना पर नवाब ने व्यापारियों को दण्ड दिया। फलस्वरूप व्यापारी वर्ग भी कासिम से असन्तुष्ट हो गया।

(ii) कम्पनी का असंयत व्यवहार- मीरकासिम की इतनी ईमानदारी के व्यवहार से भी कम्पनी सन्तुष्ट नहीं थी क्योंकि वह तो नवाब को कठपुतली के समान नचाना चाहती थी। परन्तु मीरजाफर के विपरीत मीरकासिम स्वतन्त्र प्रकृति का व्यक्ति था, वह अंग्रेजों के प्रभाव से मुक्त होना चाहता था।

(iii) राजधानी परिवर्तन- जब मीरकासिम ने देखा कि मुर्शिदाबाद में अंग्रेजों का प्रभाव इतना बढ़ गया है कि वह उनके चंगुल से मुक्त नहीं हो सकता तो उसने अपनी राजधानी मुंगेर बदल ली, यद्यपि इस राजधानी परिवर्तन से अनेक अंग्रेज मीरकासिम से असन्तुष्ट हो गए तथा उसे पदच्युत करने का षड्यन्त्र रचने लगे।

(iv) मीरजाफर से अंग्रेजों का समझौता- अंग्रेजों ने पुन: मीरजाफर को गद्दी पर बैठाने का निश्चय किया। मीरजाफर से गुप्त सन्धि की गई जिसके द्वारा मीरकासिम द्वारा दी गई सभी सुविधाएँ कायम रखी गईं परन्तु नवाब की सैनिक संख्या कम कर दी गई। कम्पनी की नमक के अतिरिक्त सभी वस्तुओं पर चुंगी माफ कर दी गई तथा भारतीयों के लिए 25 प्रतिशत चुंगी लगाने का निश्चय किया गया। इसके अतिरिक्त क्षति पूर्ति के लिए भी मीरजाफर ने वचन दिया।

(v) दस्तक प्रथा का दुरुपयोग- इस समय तक मीरकासिम तथा अंग्रेजों के सम्बन्ध बिलकुल बिगड़ चुके थे। इसका कारण व्यापार से सम्बन्धित था। मुगल सम्राट द्वारा दी गई व्यापारिक सुविधाओं का अंग्रेज दुरुपयोग कर रहे थे। दस्तक लेकर सम्पूर्ण देश में अंग्रेज व्यापारी बिना चुंगी दिए व्यापार कर रहे थे तथा अनेक ऐसी वस्तुओं का व्यापार उन्होंने आरम्भ कर दिया था, जिसके लिए उन्हें आज्ञा प्राप्त नहीं थी।

(vi) भारतीयों के साथ अंग्रेजों का व्यवहार- भारतीय व्यापारियों के प्रति उनका व्यवहार अभद्रतापूर्ण था। उनसे बलपूर्वक माल खरीद लिया जाता था तथा उनसे माल पर चुंगी वसूल की जाती थी। कम्पनी मनमाने मूल्य पर कृषकों की खड़ी फसल तथा व्यापारियों का माल खरीद लेती थी, जिसके कारण भारतीय जनता बहुत दु:खी थी। मीरकासिम ने इस विषय पर कम्पनी को अनेक पत्र लिखे परन्तु उसे कोई उत्तर नहीं मिला।

बक्सर के युद्ध के परिणाम- राजनीतिक दृष्टि से बक्सर का युद्ध प्लासी से अधिक महत्वपूर्ण और निर्णायक था और इसके दूरगामी परिणाम हुए
(i) सैनिक महत्व- बक्सर के युद्ध ने प्लासी के युद्ध के द्वारा आरम्भ किए गए कार्य को पूर्ण किया। प्लासी के युद्ध में तो युद्ध का अभिनय-मात्र हुआ था तथा अंग्रेजों को विजय सैनिक योग्यता के कारण नहीं बल्कि कूटनीति के कारण मिली थी, परन्तु बक्सर युद्ध ने यह निश्चित कर दिया कि अंग्रेज युद्ध में भी सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

(ii) अंग्रेजों को दीवानी अधिकार-
इस युद्ध के द्वारा बंगाल तथा बिहार अंग्रेजों के पूर्ण नियन्त्रण में आ गए तथा सम्राट शाहआलम द्वितीय ने बंगाल व
बिहार की दीवानी उन्हें सौंप दी।

(iii) कम्पनी की राजनीतिक प्रतिष्ठा-
अवध भी कम्पनी के प्रभाव में आ गया। इस विजय से कम्पनी का राजनीतिक महत्व स्थापित हो गया। अब वह मात्र व्यापारिक संस्था ही नहीं थी अपितु शासनकर्ता के रूप में उभरी।

(iv) मीरजाफर का पुनः नवाब बनना-
बक्सर के युद्ध में विजय प्राप्त करके अंग्रेजों ने पुन: वृद्ध मीरजाफर को बंगाल का नवाब बना दिया। मीरजाफर ने अंग्रेजों को बिना चुंगी दिए तथा भारतीयों को 25 प्रतिशत चुंगी पर व्यापार की पुन: व्यवस्था कर दी। उसकी सेना 6 हजार सवार और 12 हजार पैदल निश्चित कर दी गई। युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में नवाब ने काफी धन कम्पनी को दिया तथा एक ब्रिटिश रेजीडेण्ट भी अपने दरबार में रखना स्वीकार कर लिया। नवाब को कठपुतली बनाकर अंग्रेजों ने बंगाल की धन-सम्पदा को लूटना जारी रखा। मीरजाफर का कोष रिक्त था तथा वह असहाय नवाब अंग्रेजों के चंगुल में पूर्णतया फँसा हुआ था। उसका अन्तिम समय अत्यन्त दु:खपूर्ण था। अन्त में 5 जनवरी, 1765 ई० को मृत्यु ने ही उसे इन संकटों से मुक्त किया।

प्रश्न 7.
बंगाल दोहरा-शासन( द्वैध-शासन ) कब लागू हुआ? उसके लाभ व हानियों पर प्रकाश डालिए।
उतर:
बंगाल में दोहरा-शासन( द्वैध-शासन)-1765 ई० में लॉर्ड क्लाइव जब दूसरी बार बंगाल का गवर्नर बनकर आया तो उसने बंगाल में ‘दोहरे अथवा द्वैध शासन’ की स्थापना की। इस प्रकार की व्यवस्था के अन्तर्गत कम्पनी ने राजस्व सम्बन्धी सभी कार्य अपने हाथ में ले लिए और प्रशासनिक कार्य नवाब के हाथों में रहने दिए। क्लाइव द्वारा बंगाल में प्रशासनिक कार्यों के इस तरह विभाजित करने की प्रणाली को इतिहास में दोहरे अथवा द्वैध शासन प्रणाली के नाम से जाना जाता है। बंगाल में यह प्रणाली 1765 से 1772 ई० तक लागू रही। इस प्रणाली से आरम्भ में अनेक लाभ हुए किन्तु इस प्रणाली में अनेक दोष विद्यमान थे। अतः 1772 ई० में वारेन हेस्टिग्स ने इसे समाप्त कर दिया। दोहरे-शासन से लाभ

  • कम्पनी ने बिना उत्तरदायित्व लिए बंगाल पर अंग्रेजी शिकंजा कस दिया, किन्तु प्रशासन का दायित्व नवाब पर डाल दिया। उपनायबों के माध्यम से राजस्व कम्पनी के कोष में जमा होता रहा।
  • कम्पनी की आर्थिक व सैनिक स्थिति सुदृढ़ हो गई।
  • फ्रांसीसियों व डचों की ईर्ष्या से कम्पनी बच गई व ब्रिटिश संसद का हस्तक्षेप भी नहीं बढ़ सका।
  • क्लाइव ने बंगाल का प्रशासन अपने हाथों में न लेकर कम्पनी को संभावित खतरे से बचा लिया।
  • कम्पनी को लाभ की स्थिति में रखने हेतु उसे केवल व्यापारिक कम्पनी बनाए रखा।
  • दोहरी-शासन प्रणाली से भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की नींव और अधिक मजबूत हो गई। शासन सत्ता की वास्तविक

बागडोर अब अंग्रेजों के हाथ में आ गई और नवाब अब नाममात्र का शासक रह गया। दोहरे-शासन से हानियाँ

  1. दोहरे शासन से न्याय व्यवस्था खोखली हो गई, नवाब तो न्यायाधीशों को समय पर वेतन भी न दे सका। अत: गुलाम हुसैन के अनुसार दोहरे शासन में न्यायाधीशों व राजकर्मचारियों ने न्याय के बहाने अपार धन कमाया।
  2. भू-राजस्व में वृद्धि के साथ-साथ भूमि एक वर्ष के ठेके पर दी जाने लगी। भूमि की उर्वरता की उपेक्षा से भूमि अनुपजाऊ हो गई और किसान भूखों मरने लगे।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi शैक्षिक निबन्य

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name शैक्षिक निबन्य
Category UP Board Solutions

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शैक्षिक निबन्ध

नयी शिक्षा-नीति

सम्बद्ध शीर्षक

  • आधुनिक शिक्षा प्रणाली : एक मूल्यांकन
  • वर्तमान शिक्षा प्रणाली के गुण और दोष
  • बदलती शिक्षा नीति का छात्रों पर प्रभाव (2013)
  • शिक्षा का गिरता मूल्यगत स्तर [2015]
  • वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में सुधार [2015]
  • आधुनिक शिक्षा-प्रणाली : गुण-दोष [2016]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना
  2. अंग्रेजी शासन में शिक्षा की स्थिति,
  3. स्वतन्त्रता के पश्चात् की स्थिति,
  4. शिक्षा-नीति का उद्देश्य,
  5. नयी शिक्षा नीति की विशेषताएँ,
  6. नयी शिक्षा नीति की समीक्षा,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना-शिक्षा मानव जीवन के सर्वांगीण विकास का सवोत्तम साधन है। प्राचीन शिक्षा-व्यवस्था मानव को उच्च-आदर्शों की उपलब्धि के लिए अग्रसर करती थी और उसके वैयक्तिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन के सम्यक् विकास में सहायता करती थी। शिक्षा को यह व्यवस्था हर देश और काल में तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन-सन्दर्भो के अनुरूप बदलती रहनी चाहिए। भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली ब्रिटिश प्रतिरूप पर आधारित है, जिसे सन 1835 ई० में लागू किया गया था। अंग्रेजी शासन की गलत शिक्षा-नीति के कारण ही हमारा देश स्वतन्त्रता के इतने वर्षों बाद भी पर्याप्त विकास नहीं कर सका।

अंग्रेजी शासन में शिक्षा की स्थिति–सन् 1835 ईस्वी में जब वर्तमान शिक्षा प्रणाली की नींव रखी गयी थी तब लॉर्ड मैकाले ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि, “अंग्रेजी शिक्षा का उद्देश्य भारत में प्रशासन को बिचौलियों की भूमिका निभाने तथा सरकारी कार्य के लिए भारत के लोगों को तैयार करना है। इसके फलस्वरूप एक सदी तक अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के प्रयोग में लाने के बाद भी सन् 1935 ई० में भारत साक्षरता के 10% के आँकड़े को भी पार नहीं कर सका। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भी भारत की साक्षरता मात्र 13% ही थी। इस शिक्षा प्रणाली ने उच्च वर्गों को भारत के शेए समाज से पृथक् रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। इसकी बुराइयों को सर्वप्रथम गाँधी जी ने सन् 1917 ई० में ‘गुजरात एजुकेशन सोसाइटी’ के सम्मेलन में उजागर किया तथा शिक्षा में मातृभाषा के स्थान और हिन्दी के पक्ष को राष्ट्रीय स्तर पर तार्किक ढंग से रखा।

स्वतन्त्रता के पश्चात् की स्थिति-स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में ब्रिटिशकालीन शिक्षा-पद्धति में परिवर्तन के कुछ प्रयास किये गये। इनमें सन् 1968 ई० की राष्ट्रीय शिक्षा नीति उल्लेखनीय है। सन् 1976 ई० में भारतीय संविधान में संशोधन के द्वारा शिक्षा को समवर्ती-सूची में सम्मिलित किया गया, जिससे शिक्षा का एक राष्ट्रीय और एकात्मक स्वरूप विकसित किया जा सके। भारत सरकार ने विद्यमान शैक्षिक व्यवस्था का पुनरावलोकन किया और राष्ट्रव्यापी विचार-विमर्श के बाद 26 जून, सन् 1986 ई० को नयी शिक्षा नीति की घोषणा की।

शिक्षा-नीति का उद्देश्य-इस शिक्षा नीति का गठन देश को इक्कीसवीं सदी की ओर ले जाने के नारे के अंगरूप में ही किया गया है। नये वातावरण में मानव संसाधन के विकास के लिए नये प्रतिमानों तथा नये मानकों की आवश्यकता होगी। नये विचारों को रचनात्मक रूप में आत्मसात् करने में नयी पीढ़ी को सक्षम होना चाहिए। इसके लिए बेहतर शिक्षा की आवश्यकता है। साथ ही नयी शिक्षा नीति का उद्देश्य आधुनिक तकनीक की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए उच्चस्तरीय प्रशिक्षण प्राप्त श्रम-शक्ति को जुटाना है; क्योंकि इस शिक्षा-नीति के आयोजकों के विचार से इस समय देश में विद्यमान श्रम-शक्ति यह आवश्यकता पूरी नहीं कर सकती।

नयी शिक्षा-नीति की विशेषताएँ–
(i) नवोदय विद्यालय-नयी शिक्षा-नीति के अन्तर्गत देश के विभिन्न भागों में विशेषकर ग्रामीण अंचलों में नवोदय विद्यालय खोले जाएँगे, जिनका उद्देश्य प्रतिभाशाली छात्रों को बिना किसी भेदभाव के आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करना होगा। इन विद्यालयों में राष्ट्रीय पाठ्यक्रम लागू होगा।

(ii) रोजगारपरक शिक्षा-नवोदय विद्यालयों में शिक्षा रोजगारपरक होगी तथा विज्ञान और तकनीक उसके आधार होंगे। इससे विद्यार्थियों को बेरोजगारी का सामना नहीं करना पड़ेगा।

(iii) 10 +2 +3 को पुनर्विभाजन-इन विद्यालयों में शिक्षा 10 + 2 + 3 पद्धति पर आधारित होगी। ‘त्रिभाषा फार्मूला’ चलेगा, जिसमें अंग्रेजी, हिन्दी एवं मातृभाषा या एक अन्य प्रादेशिक भाषा रहेगी। सत्रार्द्ध प्रणाली (सेमेस्टर सिस्टम) माध्यमिक विद्यालयों में लागू की जाएगी और अंकों के स्थान पर विद्यार्थियों को ग्रेड दिये जाएँगे।

(iv) समानान्तर प्रणाली
-नवोदय विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक की एक समानान्तर शिक्षा-प्रणाली शुरू की जाएगी।

(v) अवलोकन-व्यवस्था–
केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद् शिक्षा-संस्थानों पर दृष्टि रखेगी। एक अखिल भारतीय शिक्षा सेवा संस्था का गठन
होगा। माध्यमिक शिक्षा के लिए एक अलग संस्था गठित होगी।

(vi) उच्च शिक्षा में सुधार-
अगले दशक में महाविद्यालयों से सम्बद्धता समाप्त करके उन्हें स्वायत्तशासी बनाया जाएगा। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में शिक्षा का स्तर सुधारा जाएगा तथा शोध के उच्च स्तर पर बल दिया जाएगा।

(vii) आवश्यक सामग्री की व्यवस्था-
प्राथमिक विद्यालयों में ‘ऑपरेशन ब्लैक-बोर्ड (Operation Blackboard) लागू होगा। इसके अन्तर्गत प्रत्येक विद्यालय के लिए दो बड़े कमरों का भवन, एक छोटा-सा पुस्तकालय, खेल का सामान तथा शिक्षा से सम्बन्धित अन्य साज-सज्जा उपलब्ध रहेगी। शिक्षा-मन्त्रालय ने प्रत्येक विद्यालय के लिए आवश्यक सामग्री की एक आकर्षक और प्रभावशाली सूची भी बनायी है। प्रत्येक कक्षा के लिए एक अध्यापक की व्यवस्था की गयी है।

(viii) मूल्यांकन और परीक्षा सुधार–
हाईस्कूल स्तर तक किसी को भी अनुत्तीर्ण नहीं किया जाएगा। परीक्षा में अंकों के स्थान पर ‘ग्रेड प्रणाली’ प्रारम्भ की जाएगी। छात्रों की प्रगति का आकलन क्रमिक मूल्यांकन द्वारा होगा।

(ix) शिक्षकों को समान वेतनमान–देश भर में अध्यापकों को समान कार्य के लिए समान वेतन के आधार पर समान वेतन मिलेगा। प्रत्येक जिले में शिक्षकों के प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किये जाएँगे।

(x) मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना-नयी शिक्षा-नीति के अन्तर्गत सम्पूर्ण देश के पैमाने पर एक मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया है। इस मुक्त विश्वविद्यालय का दरवाजा सबके लिए खुला रहेगा; न तो उम्र का कोई प्रतिबन्ध होगा और न ही समय का कोई बन्धन।।

(xi) नयी शिक्षा नीति के अन्तर्गत निजी क्षेत्र के व्यवसायी यदि चाहें तो आवश्यकता के अनुरूप शिक्षण-संस्थान खोल सकेंगे।

नयी शिक्षा-नीति की समीक्षा-वर्तमान शिक्षा प्रणाली में जो अनेकशः दोष हैं उनकी अच्छी -खासी चर्चा सरकारी परिपत्र ‘Challenges of Education : A Policy Perspective’ में की गयी है। इस शिक्षा प्रणाली से संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं का भविष्य अन्धकारमय होकर रह गया है। इसके अन्तर्गत केवल अंग्रेजी का ही बोलबाला होगा; क्योंकि इसके लागू होने के साथ-साथ पब्लिक स्कूलों को समाप्त नहीं किया गया है। फलतः इस नीति की घोषणा के बाद देश में अंग्रेजी माध्यम वाले मॉण्टेसरी स्कूलों की गली-कूचों में बाढ़-सी आ गयी है। शिक्षा पर अयोग्य राजनेता दिनोंदिन नवीन प्रयोग कर रहे हैं, जिससे लाभ के स्थान पर हानि हो रही है। शिक्षा के प्रश्न को लेकर बहुधा अनेकों गोष्ठियाँ, सेमिनार आदि आयोजित किये जाते हैं किन्तु परिणाम देखकर आश्चर्य होता है कि शिक्षा प्रणाली सुधरने के बजाय और अधिक निम्नकोटि की होती जा रही है। वस्तुत: भ्रष्टाचार के चलते अच्छे व समर्पित शिक्षा अधिकारी जो संख्या में इक्का-दुक्का ही हैं; उनके सुझावों का प्राय: स्वागत नहीं किया जाता। शिक्षा नीति के अन्तर्गत पाठ्यक्रम भी कुछ इस प्रकार का निर्धारित किया गया है कि एक के बाद दूसरी पीढ़ी के आ जाने तक भी न उसमें कुछ संशोधन होता है, न ही परिवर्तन। पिष्टपेषण की यह प्रवृत्ति विद्यार्थियों में शिक्षा के प्रति अश्रद्धा जगाती है।

निश्चित ही हमारी अधुनातन शिक्षा-नीति, पद्धति, व्यवस्था एवं ढाँचा अत्यन्त दोषपूर्ण सिद्ध हो चुका है। यदि इसे शीघ्र ही न बदला गया तो हमारा राष्ट्र हमारे मनीषियों के आदर्शों की परिकल्पना तक नहीं पहुँच सकेगा।

उपसंहार-नयी शिक्षा नीति के परिपत्र में प्रत्येक पाँच वर्ष के अन्तराल पर शिक्षा नीति के कार्यान्वयन और मानदण्डों की समीक्षा की व्यवस्था की गयी है; किन्तु सरकारों में जल्दी-जल्दी हो रहे परिवर्तनों से इस नयी शिक्षा नीति से नवीन अपेक्षाओं और सुधारों की सम्भावनाओं में विशेष प्रगति नहीं हो पायी है। साथ ही यह शिक्षा नीति एक सुनियोजित व्यवस्था, साधन सम्पन्नता और लगन की माँग करती है। यदि नयी शिक्षा-नीति को ईमानदारी और तत्परता से कार्यान्वित किया जाए तो निश्चय ही हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति की ओर बढ़ सकेंगे।

छात्र और अनुशासन

सम्बद्ध शीर्षक

  • छात्रों में अनुशासनहीनता : कारण और निदान
  • जीवन में अनुशासन का महत्त्व
  • विद्यार्थी-जीवन में अनुशासन का महत्व (2016)
  • अनुशासन और हम
  • विद्यार्थी जीवन के सुख-दुःख
  • छात्र जीवन में अनुशासन का महत्त्व [2015]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2.  विद्यार्थी और विद्या,
  3. अनुशासन का स्वरूप और महत्त्व,
  4. अनुशासनहीनता के कारण—(क) पारिवारिक कारण; (ख) सामाजिक कारण; (ग) राजनीतिक कारण; (घ) शैक्षिक कारण,
  5. निवारण के उपाय,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना–विद्यार्थी देश का भविष्य हैं। देश के प्रत्येक प्रकार का विकास विद्यार्थियों पर ही निर्भर है। विद्यार्थी जाति, समाज और देश का निर्माता होता है, अत: विद्यार्थी का चरित्र उत्तम होना बहुत आवश्यक है। उत्तम चरित्र अनुशासन से ही बनता है। अनुशासन जीवन का प्रमुख अंग और विद्यार्थी-जीवन की आधारशिला है। व्यवस्थित जीवन व्यतीत करने के लिए मात्र विद्यार्थी ही नहीं प्रत्येक मनुष्य के लिए अनुशासित होना अति आवश्यक है। अनुशासनहीन विद्यार्थी व्यवस्थित नहीं रह सकता और न ही उत्तम शिक्षा ग्रहण कर सकता है। आज विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता की शिकायत सामान्य-सी बात हो गयी है। इससे शिक्षा-जगत् ही नहीं, अपितु सारा समाज प्रभावित हुआ है और निरन्तर होता ही जा रहा है। अत: इस समस्या के सभी पक्षों पर विचार करना उचित होगा।

विद्यार्थी और विद्या–-‘विद्यार्थी’ का अर्थ है–‘विद्या का अर्थी’ अर्थात् विद्या प्राप्त करने की कामना करने वाला। विद्या लौकिक या सांसारिक जीवन की सफलता का मूल आधार है, जो गुरुकृपा से प्राप्त होती है। इससे विद्यार्थी-जीवन के महत्त्व का भी पता चलता है, क्योंकि यही वह समय है, जब मनुष्य अपने समस्त भावी जीवन की सफलता की आधारशिला रखता है। यदि यह काल व्यर्थ चला जाये तो सारा जीवन नष्ट हो जाता है।

संसार में विद्या सर्वाधिक मूल्यवान् वस्तु है, जिस पर मनुष्य के भावी जीवन का सम्पूर्ण विकास तथा सम्पूर्ण उन्नति निर्भर करती है। इसी कारण महाकवि भर्तृहरि विद्या की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि “विद्या ही मनुष्य का श्रेष्ठ स्वरूप है, विद्या भली-भाँति छिपाया हुआ धन है (जिसे दूसरा चुरा नहीं सकता)। विद्या ही सांसारिक भोगों को, यश और सुख को देने वाली है, विद्या गुरुओं की भी गुरु है। विदेश जाने पर विद्या ही बन्धु के सदृश सहायता करती है। विद्या ही श्रेष्ठ देवता है। राजदरबार में विद्या ही आदर दिलाती है, धन नहीं; अत: जिसमें विद्या नहीं, वह निरा पशु है।’

फलतः इस अमूल्य विद्यारूपी रत्न को पाने के लिए इसका मूल्य भी उतना ही चुकाना पड़ता है और वह है तपस्या। इस तपस्या का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कवि कहता है-

सुखार्थिनः कुतो विद्या, कुतो विद्यार्थिनः सुखम् ।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्या, विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥

तात्पर्य यह है कि सुख की इच्छा वाले को विद्या कहाँ और विद्या की इच्छा वाले को सुख कहाँ ? सुख की इच्छा वाले को विद्या की कामना छोड़ देनी चाहिए या फिर विद्या की इच्छा वाले को सुख की कामना छोड़ देनी चाहिए।

अनुशासन का स्वरूप और महत्त्व-‘अनुशासन’ का अर्थ है बड़ों की आज्ञा (शासन) के पीछे (अनु) चलना। जिन गुरुओं की कृपा से विद्यारूपी रत्न प्राप्त होता है, उनके आदेशानुसार कार्य किये बिना विद्यार्थी की उद्देश्य-सिद्धि भला कैसे हो सकती है ? ‘अनुशासन’ का अर्थ वह मर्यादा है जिसका पालन ही विद्या प्राप्त करने और उसका उपयोग करने के लिए अनिवार्य होता है। अनुशासन का भाव सहज रूप से विकसित किया जाना चाहिए। थोपा हुआ अथवा बलपूर्वक पालन कराये जाने पर यह लगभग अपना उद्देश्य खो देता है। विद्यार्थियों के प्रति प्रायः सभी को यह शिकायत रहती है कि वे अनुशासनहीन होते जा रहे हैं, किन्तु शिक्षक वर्ग को भी इसका कारण ढूंढ़ना चाहिए कि क्यों विद्यार्थियों की उनमें श्रद्धा विलुप्त होती जा रही है।

अनुशासन का विद्याध्ययन से अनिवार्य सम्बन्ध है। वस्तुत: जो महत्त्व शरीर में व्यवस्थित रुधिर-संचार का है, वही विद्यार्थी के जीवन में अनुशासन का है। अनुशासनहीन विद्यार्थियों को पग-पग पर ठोकर और फटकार सहनी पड़ती है।

अनुशासनहीनता के कारण-वस्तुतः विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता एक दिन में पैदा नहीं हुई है। इसके अनेक कारण हैं, जिन्हें मुख्यत: निम्नलिखित चार वर्गों में बाँटा जा सकता है
(क) पारिवारिक कारण-बालक की पहली पाठशाला उसका परिवार है। माता-पिता के आचरण का बालक पर गहरा प्रभाव पड़ता है। आज बहुत-से ऐसे परिवार हैं, जिनमें माता-पिता दोनों नौकरी करते हैं या अलग-अलग व्यस्त रहते हैं और अपने बच्चों की ओर ध्यान देने हेतु उन्हें अवकाश नहीं मिलता। इससे बालक उपेक्षित होकर विद्रोही बन जाता है। दूसरी ओर अधिक लाड़-प्यार से भी बच्चा बिगड़कर निरंकुश या स्वेच्छाचारी हो जाता है। कई बार पति-पत्नी के बीच कलह या पारिवारिक अशान्ति भी बच्चे के मन पर बहुत बुरा प्रभाव डालती है और उसका मन अध्ययन-मनन से विरक्त हो जाता है। इसी प्रकार बालक को विद्यालय में प्रविष्ट कराकर अभिभावकों का निश्चिन्त हो जाना, उसकी प्रगति या विद्यालय में उसके आचरण की खोज-खबर न लेना भी बहुत घातक सिद्ध होता है।

(ख) सामाजिक कारण–विद्यार्थी जब समाज में चतुर्दिक् व्याप्त भ्रष्टाचार, घूसखोरी, सिफारिशबाजी, भाई-भतीजावाद, चीजों में मिलावट, फैशनपरस्ती, विलासिता और भोगवाद, अर्थात् प्रत्येक स्तर पर व्याप्त अनैतिकता को देखता है तो उसका भावुक मन क्षुब्ध हो उठता है, वह विद्रोह कर उठता है। और अध्ययन की उपेक्षा करने लगता है।

(ग) राजनीतिक कारण-छात्र-अनुशासनहीनता का एक बहुत बड़ा कारण राजनीति है। आज राजनीति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर छा गयी है। सम्पूर्ण वातावरण को उसने इतना विषाक्त कर दिया है कि स्वस्थ वातावरण में साँस लेना कठिन हो गया है। नेता लोग अपने दलीय स्वार्थों की पूर्ति के लिए विद्यार्थियों को नौकरी आदि के प्रलोभन देकर पथभ्रष्ट करते हैं, छात्र-यूनियनों के चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दल पैसा खर्च करते हैं तथा विद्यार्थियों को प्रदर्शन और तोड़-फोड़ के लिए उकसाते हैं। विद्यालयों में हो रहे इस राजनीतिक हस्तक्षेप ने अनुशासनहीनता की समस्या को और भी बढ़ा दिया है।

(घ) शैक्षिक कारण-छात्र-अनुशासनहीनता का कदाचित् सबसे बड़ा कारण यही है। अध्ययन के लिए आवश्यक अध्ययन-सामग्री, भवन, सुविधाजनक छात्रावास एवं अन्यान्य सुविधाओं का अभाव, सिफारिश, भाई-भतीजावाद या घूसखोरी आदि कारणों से योग्य, कर्तव्य-परायण एवं चरित्रवान् शिक्षकों के स्थान पर अयोग्य, अनैतिक और भ्रष्ट अध्यापकों की नियुक्ति, अध्यापकों द्वारा छात्रों की कठिनाइयों की उपेक्षा करके ट्यूशन आदि के चक्कर में लगे रहना या आरामतलबी के कारण मनमाने ढंग से कक्षाएँ लेना या न लेना, छात्र और अध्यापकों की संख्या में बहुत बड़ा अन्तर होना, जिससे दोनों में आत्मीयता को सम्बन्ध स्थापित न हो पाना; परीक्षा-प्रणाली का दूषित होना, जिससे विद्यार्थी की योग्यता का सही मूल्यांकन नहीं हो पाना आदि छात्र-अनुशासनहीनता के प्रमुख कारण हैं। परिणामस्वरूप अयोग्य विद्यार्थी योग्य विद्यार्थी पर वरीयता प्राप्त कर लेते हैं। फलतः योग्य विद्यार्थी आक्रोशवश अनुशासनहीनता में लिप्त हो जाते हैं।

निवारण के उपाय-यदि शिक्षकों को नियुक्त करते समय सत्यता, योग्यता और ईमानदारी का आकलन अच्छी प्रकार कर लिया जाये तो प्रायः यह समस्या उत्पन्न ही न हो। प्रभावशाली, गरिमामण्डित, विद्वान् और प्रसन्नचित्त शिक्षक के सम्मुख विद्यार्थी सदैव अनुशासनबद्ध रहते हैं, क्योंकि वह उस शिक्षक के हृदय में अपना स्थान एक अच्छे विद्यार्थी के रूप में बनाना चाहते हैं।

पाठ्यक्रम को अत्यन्त सुव्यवस्थित व सुनियोजित, रोचक, ज्ञानवर्धक एवं विद्यार्थियों के मानसिक स्तर के अनुरूप होना चाहिए। पाठ्यक्रम में आज भी पर्याप्त असंगतियाँ विद्यमान हैं, जिनका संशोधन अनिवार्य है; उदाहरणार्थ-इण्टरमीडिएट हिन्दी काव्यांजलि की कविताएँ ही बी० ए० द्वितीय वर्ष के हिन्दी पाठ्यक्रम में भी हैं। क्या कवियों का इतना अभाव है कि एक ही रचना वर्षों तक पढ़ने को विवश किया जाये।

छात्र-अनुशासनहीनता के उपर्युक्त कारणों को दूर करके ही हम इस समस्या का समाधान कर सकते हैं। सबसे पहले वर्तमान पुस्तकीय शिक्षा को हटाकर प्रत्येक स्तर पर उसे इतना व्यावहारिक बनाया जाना चाहिए कि शिक्षा पूरी करके विद्यार्थी अपनी आजीविका के विषय में पूर्णतः निश्चिन्त हो सके। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी के स्थान पर मातृभाषा हो। ऐसे योग्य, चरित्रवान् और कर्तव्यनिष्ठ अध्यापकों की नियुक्ति हो, जो विद्यार्थी की शिक्षा पर समुचित ध्यान दें। विद्यालय या विश्वविद्यालय प्रशासन विद्यार्थियों की समस्याओं पर पूरा ध्यान दें तथा विद्यालयों में अध्ययन के लिए आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध करायी जाये। विद्यालयों में प्रवेश देते समय गलत तत्त्वों को कदापि प्रवेश न दिया जाये। किसी कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या लगभग 50-55 से अधिक न हो। शिक्षा सस्ती की जाये और निर्धन, किन्तु योग्य छात्रों को नि:शुल्क उपलब्ध करायी जाये। परीक्षा-प्रणाली स्वच्छ हो, जिससे योग्यता का सही और निष्पक्ष मूल्यांकन हो सके। इसके साथ ही राजनीतिक हस्तक्षेप बन्द हो, सामाजिक भ्रष्टाचार मिटाया जाये, सिनेमा और दूरदर्शन पर देशभक्ति की भावना जगाने वाले चित्र प्रदर्शित किये जाएँ तथा माता-पिता बालकों पर समुचित ध्यान दें और उनका आचरण ठीक रखने के लिए अपने आचरण पर भी दृष्टि रखें।

उपसंहार—छात्रों के समस्त असन्तोषों का जनक अन्याय है, इसलिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से अन्याय को मिटाकर ही देश में सच्ची सुख-शान्ति लायी जा सकती है। छात्र-अनुशासनहीनता का मूल भ्रष्ट राजनीति, समाज, परिवार और दूषित शिक्षा-प्रणाली में निहित है। इनमें सुधार लाकर ही हम विद्यार्थियों में व्याप्त अनुशासनहीनता की समस्या का स्थायी समाधान ढूँढ़ सकते हैं; क्योंकि विद्यार्थी विद्यालय में पूर्णत: विद्यार्जन के लिए ही आते हैं, मात्र हुल्लड़बाजी के लिए नहीं।

व्यावसायिक शिक्षा के विविध आयाम

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. व्यावसायिक शिक्षा की आवश्यकता,
  3. व्यावसायिक शिक्षा के उद्देश्य-(अ) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास; (ब) जीवन की तैयारी; (स) ज्ञान का जीवन से सहसम्बन्ध; (द) व्यावसायिक एवं आर्थिक विकास; (च) राष्ट्रीय विकास और व्यावसायिक शिक्षा; (छ) शिक्षा का व्यवसायीकरण; (ज) व्यावसायिक शिक्षा का आयोजन–(i) पूर्णकालिक नियमित व्यावसायिक शिक्षा, (ii) अंशकालिक व्यावसायिक शिक्षा, (iii) अभिनव पाठ्यक्रम द्वारा व्यावसायिक शिक्षा, (iv) पत्राचार द्वारा व्यावसायिक शिक्षा,
  4. उपसंहार

प्रस्तावना-अर्थव्यवस्था किसी भी समाज के विकास की संरचना में महत्त्वपूर्ण होती है। समाजरूपी शरीर का मेरुदण्ड उसकी अर्थव्यवस्था को ही समझा जाता है। समाज की अर्थव्यवस्था उसके व्यावसायिक विकास पर निर्भर करती है। जिस समाज में व्यवसाय का विकास नहीं होता, वह सदैव आर्थिक परेशानियों में घिरा रहता है। व्यावसायिक शिक्षा इसी व्यवसाय सम्बन्धी तकनीकी, वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक पक्षों के क्रमबद्ध अध्ययन को कहा जाता है। इसके अन्तर्गत किसी व्यवसाय के लिए अनिवार्य तकनीकियों एवं विभिन्न पक्षों के सम्बन्ध में वैज्ञानिक ढंग से व्यवस्थित ज्ञान प्रदान किया जाता है।

व्यावसायिक शिक्षा की आवश्यकता-वैदिक काल से लेकर ब्राह्मण और बौद्ध काल तक धर्म, काम और मोक्ष को ही शिक्षा के प्रमुख अंगों के रूप में मान्यता प्रदान की गयी थी। अंग्रेजों के शासन काल में भी व्यावसायिक शिक्षा पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया। अंग्रेजी सरकार भारत का औद्योगिक विकास न करके इंग्लैण्ड में स्थापित उद्योगों को प्रोत्साहित करना चाहती थी, जिससे वह भारत से कच्चा माल ले जाकर वहाँ से उत्पादित माल ला सके और यहाँ के बाजारों में उसे ऊँचे मूल्य पर बेच सके। इससे भारत का दोहरा शोषण हो रहा था। ब्रिटिश सरकार भारत को स्वावलम्बी बनाना भी नहीं चाहती थी। उसे भय था कि यदि भारत तकनीकी दृष्टि से सशक्त हो गया तो ब्रिटेन में उत्पादित माल भारत में नहीं बिकेगा और उसे यहाँ से कच्चा माल भी नहीं मिल पाएगा।

व्यावसायिक शिक्षा के अभाव को पर्याप्त समय तक अन्य देशों के प्राविधिक सहयोग पर ही निर्भर रहना पड़ा। उन्नते देशों से ऋण लेकर भी तकनीकी क्षेत्र में स्वावलम्बी होने का सौभाग्य प्राप्त नहीं किया जा सका है। दूसरों पर अत्यधिक निर्भरता के कारण राष्ट्र की मुद्रा का पर्याप्त ह्रास होता है। इसीलिए व्यावसायिक शिक्षा का विकास राष्ट्र की उन्नति की प्राथमिक आवश्यकता है।

व्यक्ति का सर्वांगीण विकास भी तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा के विकास द्वारा ही सम्भव हो सकता है। उसका शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक विकास पर्याप्त सीमा तक तकनीकी शिक्षा पर ही आश्रित है।

व्यावसायिक शिक्षा के उद्देश्य-व्यावसायिक शिक्षा, शिक्षा की उपयोगिता और उसके उद्देश्यों को पूरी तरह से स्पष्ट करने में सक्षम है। वास्तव में व्यावसायिक शिक्षा का विकास मानवीय पूर्णता के लिए हुआ है। व्यावसायिक शिक्षा के उद्देश्यों को हम निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं–

(अ) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास–व्यक्ति के व्यक्तित्व को तभी पूर्ण माना जाता है जब उसमें जीवन के सभी क्षेत्रों में विकास करने की क्षमता उत्पन्न हो जाए। यदि व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में पिछड़ जाता है तो उसका व्यक्तित्व पूर्ण नहीं माना जा सकता। व्यावसायिक शिक्षा व्यक्ति को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकसित होने का अवसर प्रदान करती है। व्यावसायिक शिक्षा शारीरिक श्रम के माध्यम से निरीक्षण, कल्पना, तथ्य-संकलन, नियमन, स्मरण एवं संश्लेषण-विश्लेषण आदि सभी मानसिक शक्तियों का विकास करते हुए शिक्षार्थी को चिन्तन, मनन, तर्क एवं सत्यापन आदि के अवसर प्रदान करती है, जिससे उसका बौद्धिक विकास होता है। विद्यार्थी में किसी व्यवसाय से सम्बन्धित योग्यता एवं कौशल का विकास होने पर आत्मविश्वास उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त उसमें आत्मनिर्भरता की शक्ति भी पैदा होती है।

(ब) जीवन की तैयारी-व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम से युवक भावी जीवन के लिए तैयार होता है। वह अपने तथा अपने परिवार के जीवन-यापन के लिए आवश्यक व्यावसायिक योग्यताओं एवं कौशलों को विकसित करने तथा उन्हें प्रयुक्त करने की दृष्टि से सक्षम हो पाता है। आने वाले जीवन में वह संघर्षों के मध्य पिस न जाए इसके लिए भी वह व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम से ही शक्ति अर्जित करता है।

(स) ज्ञान का जीवन से सहसम्बन्ध-जो ज्ञान जीवन का अंग नहीं बनता वह निरर्थक और त्याज्य है। जब ज्ञान जीवन का अंग बन जाता है तब वह व्यावहारिक रूप धारण कर लेता है। यदि हमने अपने अर्जित ज्ञान को अपने दैनिक जीवन में प्रयुक्त नहीं किया तथा उससे लाभ नहीं उठाया तो हम साक्षर तो कहला सकते हैं, लेकिन शिक्षित नहीं कहे जा सकते। व्यावसायिक शिक्षा द्वारा अर्जित ज्ञान जीवन का अंग बन जाता है। वास्तव में वही ज्ञान जीवन का अंग बनता है, जो स्वानुभवों पर आधारित होता है। व्यावसायिक शिक्षा से प्राप्त ज्ञान स्वानुभवों पर टिका होने के कारण जीवन का अंग बन जाता है।

(द) व्यावसायिक एवं आर्थिक विकास–शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त कोई व्यक्ति किसी व्यवसाय को अपना सके तथा उत्तम जीवन व्यतीत करने के लिए सुख-सुविधाओं का संचय कर सके, यह सामर्थ्य शिक्षा द्वारा उत्पन्न की जानी चाहिए। स्वावलम्बी बनना और अपने स्तर को उन्नत बनाना प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति का कर्तव्य है।

(च) राष्ट्रीय विकास और व्यावसायिक शिक्षा-व्यावसायिक शिक्षा राष्ट्र के उपलब्ध साधनों को विवेकपूर्ण विधि से उपयोग में लाने का दृष्टिकोण भी उत्पन्न करती है। भारत अभी भी खाद्य-पदार्थों, उपभोग की वस्तुओं, उद्योग तथा व्यवसाय को उन्नत करने से सम्बन्धित सुविधाओं एवं बेरोजगारी की समस्या का समाधान निकालने की दृष्टि से आत्मनिर्भर नहीं बन सका है। यदि हमारा देश दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुओं को स्वयं तैयार कर लेता है तो इससे राष्ट्रीय मुद्रा की बचत होती है तथा देश की आर्थिक समृद्धि भी बढ़ती है। व्यावसायिक शिक्षा इस दृष्टि से हमें सशक्त बनाती है।

(छ) शिक्षा का व्यवसायीकरण-देश की स्वतन्त्रता के 63 वर्षों के बाद भी हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था उसी प्रकार बनी हुई है, जैसी वह अंग्रेजी शासनकाल में थी। आज का शिक्षित युवक बेरोजगारी की समस्या से ग्रस्त है। उसकी शिक्षा न तो उसे और न ही समाज को कोई लाभ पहुँचा रही है। इसका कारण यह है कि अभी तक हमारी शिक्षा का व्यवसायीकरण नहीं किया जा सका है। यदि माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था कर दी जाए तो निश्चित ही बेरोजगारी की समस्या को हल किया जा सकता है।

(ज) व्यावसायिक शिक्षा का आयोजन-व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था करने के लिए हम निम्नलिखित उपाय अपना सकते है–
(i) पूर्णकालिक नियमित व्यावसायिक शिक्षा पूर्णकालिक नियमित व्यावसयिक शिक्षा का आयोजन निम्नलिखित स्तरों पर किया जा सकता है
(अ) निम्न माध्यमिक स्तर पर-कक्षा 7 तथा कक्षा 8 के पश्चात् स्कूल छोड़ने वाले बालकों के लिए निम्नलिखित पाठ्यक्रम को आधार बनाया जा सकता है

  • औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों में ऐसे पाठ्यक्रम चलाना, जिनमें प्राथमिक शिक्षा प्राप्त छात्र प्रवेश ले सके।
  • औद्योगिक सेवाओं के लिए प्राथमिक शिक्षा प्राप्त छात्रों को प्रशिक्षण देना। इससे उनकी श्रम सम्बन्धी कुशलता बढ़ेगी और वे निरक्षर श्रमिकों की अपेक्षा अच्छा कार्य कर सकेंगे।
  • ऐसा प्रशिक्षण देना कि छात्र कक्षा 8 उत्तीर्ण करने के बाद घर पर ही कोई उद्योग या व्यवसाय चला सके। गाँवों के कृषि सम्बन्धी व्यवसाय इसके अच्छे उदाहरण हैं।
  • लड़कियों को गृहविज्ञान के माध्यम से कुछ व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए; जैसेसिलाई, कढ़ाई आदि का प्रशिक्षण। इनका प्रशिक्षण प्राप्त करके लड़कियाँ विवाह के बाद भी इन्हें व्यवसाय के रूप में अपना सकती हैं।
  • स्कूलों में बेसिक शिक्षा के पाठ्यक्रम चलाये जाएँ। उन्हें आठवीं कक्षा तक इस प्रकार चलाया जाए कि छात्र/छात्राएँ किसी बेसिक शिल्प में कुशलता प्राप्त कर लें।

(ब) उच्च माध्यमिक स्तर पर-इस स्तर पर कक्षा 8 और हाईस्कूल उत्तीर्ण छात्र व्यावसायिक प्रशिक्षण ले सकते हैं। व्यावसायिक शिक्षा निम्नलिखित दो प्रकार से व्यवस्थित की जा सकती है
(1) पृथक् व्यावसायिक स्कूलों में प्रशिक्षण देकर।
(2) सामान्य शिक्षा के साथ-साथ कोई व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं

  • पॉलिटेक्निक स्कूलों में व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था करके।
  • औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों के प्रचलित पाठ्यक्रमों में प्रशिक्षण देकर।
  • बहु-उद्देशीय पाठ्यक्रम के शिल्प या व्यावसायिक पाठ्यक्रम चलाकर।
  • जूनियर टेक्निकल हाईस्कूलों में प्रवेश देकर।।
  • बहु-उद्देशीय पाठ्यक्रम और जूनियर टेक्निकल स्कूलों के पाठ्यक्रम में समन्वय स्थापित करके।
  • सामान्य शिक्षा के साथ किसी शिल्प का प्रशिक्षण देकर।
  • स्वास्थ्य, वाणिज्य और प्रशासन के उपयुक्त पाठ्यक्रम चलाकर।।

(ii) अंशकालिक व्यावसायिक शिक्षा-कुछ छात्र किन्हीं कारणों से प्राथमिक शिक्षा, कक्षा 8 या हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद पढ़ना छोड़ देते हैं और घरेलू व्यवसायों में लग जाते हैं। अपनी जीविका की व्यवस्था में लगे होने के कारण वे नियमित शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते। ऐसे व्यक्तियों के लिए स्थानीय व्यावसायिक विद्यालयों में अंशकालिक व्यावसायिक शिक्षा दी जा सकती है। इस शिक्षा की मान्यता नियमित शिक्षा के समान होनी चाहिए।
अंशकालिक व्यावसायिक शिक्षा प्राथमिक, माध्यमिक स्तर पर समान रूप से प्रदान की जा सकती है। इन प्रशिक्षणार्थियों को नियमित प्रशिक्षणार्थियों के समान मान्य परीक्षा में बैठाया जा सकता है।

(iii) अभिनव पाठ्यक्रम द्वारा व्यावसायिक शिक्षा-किसी स्थान विशेष अथवा देश की आवश्यकताओं के अनुरूप विभिन्न संस्थानों द्वारा नवीनतम व्यावसायिक पाठ्यक्रमों पर आधारित प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए।

(iv) पत्राचार द्वारा व्यावसायिक शिक्षा अधिकाधिक लोगों को व्यावसायिक शिक्षा सुलभ कराने की दृष्टि से पत्राचार शिक्षा का विशेष महत्त्व है। वर्तमान समय में देश के अनेक विश्वविद्यालय एवं संस्थान विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्रों में पत्राचार शिक्षा की सुविधा प्रदान कर रहे हैं।

उपसंहार-इस प्रकार हम देखते हैं कि औद्योगिक विकास के इस युग में किसी राष्ट्र या उसके नागरिक के विकास के लिए व्यावसायिक शिक्षा की महत्त्वपूर्ण उपयोगिता है। यद्यपि भारत में व्यावसायिक शिक्षा के इस महत्त्व को समझकर इसके विकास हेतु विगत दो दशक से अधिक ध्यान दिया जा रहा है तथापि इसका जितना विकास यहाँ होना चाहिए, वह अभी तक नहीं हो सका है। आवश्यकता इस बात की है कि इस सम्बन्ध में जागरूकता उत्पन्न की जाए।

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