UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 11 Tests in Psychology

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 11 Tests in Psychology (मनोविज्ञान में परीक्षण।)
are part of UP Board Solutions for Class 12 Psychology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12  Psychology Chapter 11 Tests in Psychology (मनोविज्ञान में परीक्षण।)

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Psychology
Chapter Chapter 11
Chapter Name Tests in Psychology
(मनोविज्ञान में परीक्षण।)
Number of Questions Solved 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 11 Tests in Psychology (मनोविज्ञान में परीक्षण।)

प्रश्न 1
बुद्धि-परीक्षण से सम्बन्धित प्रयोग का वर्णन कीजिए जो आपने किया हो। (2010, 11, 12, 17)
या
सामूहिक शाब्दिक बुद्धि-परीक्षण पर आपने जो प्रयोग किया हो, उसका वर्णन कीजिए। (2014)
या
स्वयं द्वारा किए गए किसी सामूहिक बुद्धि-परीक्षण का विस्तार से वर्णन कीजिए। (2008, 09, 11, 15)
नोट-बोर्ड परीक्षा में एक प्रश्न मनोवैज्ञानिक परीक्षण से सम्बन्धित होता है। नवीनतम पाठ्यक्रम के अनुसार केक्षा 12 के निर्धारित पाठ्यक्रम में तीन मनोवैज्ञानिक परीक्षणों को सम्मिलित किया गया है। ये परीक्षण हैं

  1. बुद्धि-परीक्षण-उपलब्धता के अनुसार,
  2. व्यक्तित्व का अन्तर्मुखी-बर्हिमुखी परीक्षण तथा
  3. रुचि-परीक्षण। 

उत्तर
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प्रयोग का उद्देश्य– सामूहिक शाब्दिक बुद्धि-परीक्षण द्वारा 13 वर्ष के विद्यार्थियों की बुद्धि-लब्धि ज्ञात करना तथा बुद्धि-स्तर के अनुसार उनका वर्गीकरण करना।।

प्रयोग सामग्री-
(1) मनोविज्ञानशाला उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद द्वारा निर्मित सामूहिक शाब्दिक बुद्धि-परीक्षण (संशोधित बी० पी० टी० 7) की प्रतियाँ,
(2) परीक्षण का मैनुअल तथा विराम घड़ी।

परीक्षण का परिचय– सामूहिक शाब्दिक बुद्धि-परीक्षण (संशोधित बी० पी० टी० 7) का निर्माण मनोविज्ञानशाला उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद द्वारा हुआ है। यह परीक्षण कक्षा 7 एवं इससे ऊँची कक्षाओं में पढ़ने वाले 13 वर्ष से 13 वर्ष 11 माह तक के विद्यार्थियों की बुद्धि मापने के लिए बनाया गया है।

सावधानियाँ-
(1) परीक्षा प्रारम्भ करने से पूर्व वातावरण को शान्त रखा गया।
(2) विद्यार्थियों के बैठने की उचित व्यवस्था की गयी।
(3) इस बात का भी ध्यान रखा गया कि विद्यार्थियों में कार्य के लिए रुचि एवं उत्साह भी है। अथवा नहीं।
(4) परीक्षार्थियों के पास पेन्सिल अथवा पेन के अतिरिक्त और कुछ नहीं था, इस बात का विशेष ध्यान रखा गया।

निर्देश एवं प्रयोग-विधि– उंसर्युक्त सावधानियाँ रखने के पश्चात् विद्यार्थियों को निम्नलिखित निर्देश दिये गये

“आज तुम्हें एक भिन्न प्रकार की परीक्षा देनी है, उसमें दिये गये प्रश्नों का सम्बन्ध तुम्हारी पढ़ी हुई पुस्तकों से नहीं है। इस परीक्षा का प्रश्न-पत्र एक कॉपी के रूप में होता है। उत्तर भी इस कॉपी में लिखने होते हैं। इस प्रश्न-पत्र को हल करने के लिए तुम्हें केवल 45 मिनट का समय दिया जाएगा, इसलिए तुम्हें प्रश्नों पर थोड़ा-सा ध्यान देकर उसका शीघ्र ही उत्तर देना है।’

“अब तुम्हें एक-एक प्रश्न-पुस्तिका मिल रही है। जब तक मैं तुमसे इसे खोलने के लिए न कहूँ तब तक इसे ने खोलना।’

उपर्युक्त निर्देश देने के पश्चात् प्रत्येक परीक्षार्थी को एक-एक प्रश्न-पुस्तिका दे दी जाती है। फिर प्रत्येक परीक्षार्थी से परीक्षा-पुस्तिका के ऊपर के पृष्ठ पर लिखी गयी सूचनाएँ; जैसे-परीक्षार्थी का नाम, पिता का नाम, पिता का व्यवसाय, आयु, तिथि आदि भरवा दी जाती है और पेन को रख देने का आदेश दिया जाता है। इसके बाद परीक्षा-पुस्तिका के प्रथम पृष्ठ पर छपे आदेशों को क्रमशः पढ़कर परीक्षार्थियों को सुनाया जाता है।

परीक्षा-पुस्तिका पर अंकित आदेश

(1) जब तुमसे परीक्षा आरम्भ करने को कहा जाए तो इससे प्रश्न जितनी शीघ्र और सावधानी से कर सकते हो, क्लरो।।
(2) प्रश्नों को हल करने के लिए जो आदेश और उदाहरण पहले दिये गये हैं, उन्हें ठीक से पढ़ो और समझो।
(3) यदि तुम्हें कोई प्रश्न न आता हो तो उस पर अपना समय नष्ट मत करो और उसे छोड़कर । अगला प्रश्न हल करो।
(4) यदि तुम्हें कुछ रफ काम करना हो तो बायीं ओर की खाली जगह पर कर सकते हो।
(5) यदि तुम्हें कोई उत्तर बदलना हो तो उसे काटकर साफ-साफ लिख दो। .

इसके बाद परीक्षार्थियों से यह कहा गया कि “परीक्षण प्रारम्भ होने जा रहा है। इसलिए तुममें से किसी को कुछ पूछना हो तो पूछ लो। परीक्षण प्रारम्भ होने के बाद किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जाएगा।’

अब प्रयोगकर्ता परीक्षण प्रारम्भ करता है। सर्वप्रथम उसने विद्यार्थियों को तैयार’ कहा, इससे विद्यार्थी कार्य करने के लिए तत्पर हो बैठ गये। इसके बाद प्रयोगकर्ता ने प्रारम्भ कहा तथा साथ ही विराम घड़ी भी चालू कर दी। सभी परीक्षार्थियों ने अपना काम प्रारम्भ कर दिया। आधा घण्टा बीत जाने पर प्रयोगकर्ता ने कहा कि, ‘अब पन्द्रह मिनट बाकी हैं और समय समाप्त हो जाने के पश्चात् कहा गया कि अब समय समाप्त हो गया है। अपना-अपना पैन नीचे रख दो और परीक्षण-पुस्तिकाएँ बन्द कर दो।’

उपर्युक्त कथन के पश्चात् सब परीक्षार्थियों की कॉपी एकत्रित करके गिन ली गयीं और पूरी होने पर परीक्षार्थियों को जाने के लिए कहा गया।

परीक्षा-पुस्तिकाओं का अंकन- परीक्षण की उत्तर-सूची की सहायता से सभी परीक्षा-पुस्तिकाओं की जाँच कर ली गयी और प्राप्त प्राप्तांकों को मुख्य पृष्ठ पर निश्चित स्थान पर लिख दिया गया। इसके पश्चात् इस बुद्धि-परीक्षण (संशोधित बी० पी०टी० 7) के मैनुअल में दिये गये सामान्य तालिका में देखकर बुद्धि-लब्धि ज्ञात कर ली गयी।
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 11 Tests in Psychology 2
निष्कर्ष– उपर्युक्त परिणाम-तालिका देखने से ज्ञात होता है कि इस कक्षा में एक विद्यार्थी अति श्रेष्ठ बुद्धि वाला है, 5 विद्यार्थी उत्तम बुद्धि वाले हैं, 16 विद्यार्थी सामान्य, 7 विद्यार्थी निम्न बुद्धि वाले एवं 1 विद्यार्थी मन्द बुद्धिवाला है।

मनोवैज्ञानिक परीक्षण-2

प्रश्न 2
व्यक्तित्व के अन्तर्मुखी-बहिर्मुखी परीक्षण की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन कीजिए। (2010, 12, 13, 14, 15, 17, 18)
या
बालक के अन्तर्मुखी-बहिर्मुखी व्यक्तित्व को जानने हेतु किसी एक व्यक्तित्व परीक्षण की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन कीजिए।(2016)
उत्तर

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(1) समस्या–प्रयोज्य की अन्तर्मुखी-बहिर्मुखी प्रवृत्ति का मापन करना।
(2) परिचय–

  1. परीक्षण का इतिहास।
  2. व्यक्तित्व की परिभाषाएँ।

गुथरी के अनुसार, “व्यक्तित्व की परिभाषा सामाजिक महत्त्व की उन आदतों तथा संस्थाओं के रूप में की जा सकती है जो स्थिर तथा परिवर्तन कै अवरोध वाली होती है।”

(3) सामग्री–

  1. अन्तर्मुखी-बहिर्मुखी प्रवृत्ति माषक प्रश्नावली-पत्र (M.P I)
  2. गणना कुंजी तथा मापदण्ड।
  3. पेन।

(4) सावधानियाँ–

  1. प्रत्येक वेक्य के सामने लिखे हुए, ‘हाँ’, ‘नहीं” तथा ‘मालूम नहीं में से किसी एक को ही अंकित करें। |
  2. सभी प्रश्नों के प्रति अपनी पसन्दगी-नापसन्दगी प्रकट करें।

(5) निर्देश- परीक्षण शुरू करने के पहले प्रयोज्य को निम्नलिखित निर्देश दिया-“आप आराम से कुर्सी पर बैठ जाइए। मैं आपके साथ एक परीक्षण करने जा रहा हूँ। परीक्षण की सफलता पूर्णतः आपके ऊपर निर्भर है; अतः परीक्षण सम्बन्धी आवश्यक निर्देशों को भली-भाँति सुन लीजिए और उनका सावधानीपूर्वक पालन कीजिए।” मैंने प्रयोज्य को व्यक्तित्व-सूची देने के पश्चात् यह निर्देश दिया–“इस व्यक्तित्व सूची में 56 कथन हैं। इन कथनों को पढ़कर कथनों के सामने दिये गये हाँ/नहीं में यदि आप किसी कथन से सहमत हैं तो उसके आगे ‘हाँ” के नीचे सही
(✓) का चिह्न लगा दें तथा जो कथन आपकी समझ में न आये वहाँ पर मालूम नहीं’ के नीचे सही ।
(✓) का चिह्न लगा दीजिए। इसी तरह से 56 कथनों अर्थात् सभी कथनों पर आपको अषनी सहमति तथा असहमति प्रकट करनी है।”

(6) प्रकाशन– उपर्युक्त निर्देश को भली-भाँति समझकर कार्य को प्रारम्भ करने का संकेत दिया। सम्पूर्ण कार्य समाप्त करने के पश्चात् प्रयोज्य से प्रश्नावली-पत्र लेकर उसे धन्यवाद दे विदा किया। इसके पश्चात् जिस प्रश्न पर स्टार बना हुआ है उस प्रश्न में ‘हाँ पर निशान (✓) लगे हुए को गिन लिया तथा सिना स्टार बने “नहीं” के निशान को गिनकर दोनों को जोड़ दिया। तत्पश्चात् बिना स्टार बना हुआ हूँ के निशान  (✓) को गिन लिया तथा स्टार बना हुआ “नहीं” को गिनकर एक में जोड़ लिया। फिर उत्तर-पुस्तिका में योग के आधार पर व्यक्ति के व्यक्तित्व में अन्तर्मुखी, बहिर्मुखी का स्तर ज्ञात कर लिया।

(7) प्राप्त प्रदत्त :

(i) बहिर्मुखी के प्राप्तांक- सर्वप्रथम यह ज्ञात करें कि गणना कुंजी के प्रथम भाग अर्थात् ‘हाँ’ के द्योतक शीर्षक के अन्तर्गत लिखे गये प्रश्नों में से कितने प्रश्नों का उत्तर प्रयोज्य ने ‘हाँ’ के रूप में दिया है। इनकी संख्या ज्ञात करें। इसी प्रकार नहीं के द्योतक शीर्षक के अन्तर्गत लिखे गये प्रश्न संख्या में कितने का उत्तर ‘हाँ के रूप में दिया है। इन दोनों का योग ही बहिर्मुखी को प्राप्तांक होगा।

(ii) अन्तर्मुखी के प्राप्तांक- सम्पूर्ण प्रश्नों के योग 56 में से बहिर्मुखी प्राप्तांक को घटा देने पर जो कुछ भी शेष बचे वही अन्तर्मुखी का प्राप्तांक होगा। उदाहरण के लिए-यदि बहिर्मुखी का प्राप्तांक 27 है और प्रश्नों का योग 56 है, तो अन्तर्मुखी प्रवृत्ति का प्राप्तांक 56 – 27 = 29 होगा। अन्तर्मुखी का प्राप्तांक ऋणात्मक (-) और बहिर्मुखी को प्राप्तांक धनात्मक (+) होता है।

(iii) अन्तर्मुखी-बहिर्मुखी के प्राप्तांक का अन्तर– बहिर्मुखी के प्राप्तांक में से अन्तर्मुखी के प्राप्तांक को घटा देते हैं। उत्तर धनात्मक होगा तो प्रयोज्य बहिर्मुखी और ऋणात्मक होने पर अन्तर्मुखी होगा।

(8) परिणाम।

(9) व्याख्या– व्यक्तित्व व्यक्ति के रूप, गुण-प्रवृत्तियों, सामथ्र्यों आदि का संगठन है। वह व्यक्ति और पर्यावरण की परस्पर अन्त:क्रिया का परिणाम है। व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले दो तत्त्व हैं
(1) जैविकीय (Biological) तथा
(2) सामाजिक (Social)

(10) निष्कर्ष– उपर्युक्त परीक्षण से यह निष्कर्ष निकला कि प्रयोज्य अन्तर्मुखी प्रवृत्ति का है, क्यांकि वह अधिकांश बातों को अपूर्ण रूप से बताता है। वह एकान्तप्रिय है, आदर्शवादी है तथा उसमें संवेगों की प्रधानता है अर्थात् जुग़ द्वारा बताये गये अन्तर्मुखी प्रकृति के अनेक लक्षण प्रयोज्य के व्यवहारों में वर्तमान हैं।

मनोवैज्ञानिक परीक्षण-3

प्रश्न 1
रुचि परीक्षण के क्रियान्वयन का विस्तार से वर्णन कीजिए। | (2009, 11, 14)
या 
बालक की रुचि मापन हेतु किसी एक रुचि परीक्षण की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन कीजिए। (2016, 18)
उत्तर
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(1) समस्या– रुचि-पत्र के माध्यम से प्रयोज्या के विभिन्न रुचि-क्षेत्रों का मापन करना।
(2) निर्देश- प्रस्तुत रुचि-पत्र मनोविज्ञानशाला उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद के द्वारा बनायी गयी है। इस रुचि-पत्री में 10 रुचि-क्षेत्र हैं-

  • बाह्य
  • यान्त्रिक
  • गणनात्मक
  • वैज्ञानिक
  • फ्रेवर्तकीय
  • कलात्मक
  • साहित्यिक
  • संगीतात्मक
  • समाजसेवा तथा
  • लिपिकीय

(3) प्रयोज्य विस्तार-
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(4) सामग्री एवं यन्त्र– रुचि-परीक्षण पुस्तिका, उत्तर-पुस्तिका, नियमावली, कागज, पेन्सिल, ग्राफ पेपर आदि।

(5) व्यवस्थापन– सर्वप्रथम परीक्षणकर्ता ने प्रयोज्या को बुलाकर शान्त कमरे में आराम से बैठाया, फिर Material को मेज पर व्यवस्थित किया। मेज पर सभी सामान रखने के बाद परीक्षणकर्ता ने विषयी को Test से सम्बन्धित कुछ निर्देश दिये।।

(6) निर्देशन- परीक्षणकर्ता ने प्रयोज्या को पुस्तिका पर लिखे सभी निर्देश पढ़कर सुनाए तथा निम्नलिखित निर्देश दिये
प्रस्तुत सूची तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए नहीं है। इसका उद्देश्य यह जानना है कि तुम्हें कौन-कौन-से कार्य पसन्द हैं; अत: निर्भयता एवं ईमानदारी से इस सूची को भरो। इस सूची में कुछ कार्य दिये गये हैं जो 5 भागों में बाँटे गये हैं। प्रत्येक भाग में 50 कार्य दिये हुए हैं। प्रथम पेज पर उन कार्यों पर सही (✓) का निशान लगाना है जो तुम्हें बहुत पसन्द हैं। दूसरे भाग पर उन कार्यों पर सही (✓) का निशान लगाना है जो तुम्हें कुछ पसन्द हैं। तीसरे भाग में ऐसे कार्यों पर सही (✓) का निशान लगाइए जो तुम्हें नापसन्द हैं लेकिन यदि उन्हें करना पड़े तो कर सकते हैं। चौथे भाग पर ऐसे कार्यों पर सही (✓) का निशान लगाइए जो कार्य तुम्हें बिल्कुल पसन्द नहीं हैं और साधारणतया उसको करना पसन्द नहीं करेंगे। पाँचवें भाग में आपको उन कार्यों पर सही (✓) का निशान लगाना है जिन्हें तुम बिल्कुल पसन्द नहीं करते से।

(7) सम्पादन- निर्देश देने के पश्चात् परीक्षणकर्ता ने विषयी को पुस्तिका दी। द्वितीय खण्ड अर्थात् भाग 1 पर प्रयोज्या ने उने संभी कार्यों पर निशान लगाये जो उसे बहुत पसन्द थे। भाग 2 पर प्रयोज्या ने उन कार्यों पर निशान सृगाये जो उसे कुछ पसन्द थे। भाग 3 पर उन कार्यों पर जो उसे नापसन्द थे, भाग 4 पर उन कार्यों परे जो उसे पसन्द न होते हुए भी अगर उसको करने को दिये जाएँ तो कर सकती थी तथा 5 में उन सभी कार्यों पर जो उसे बिल्कुल पसन्द नहीं थे। पूरी Booklet Solve करने के बाद प्रयोज्या ने पुस्तिका प्रयोगकर्ता को दे दी।

(8) सावधानियाँ- वातावरण शान्त रखा, परीक्षणकर्ता ने विषयी के साथ बातचीत करके सामंजस्य स्थापित किया। Raw Score ठीक से Count करने के लिए Manual से Percentile ठीक से नोट किया।
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 11 Tests in Psychology 6
(9) आकलन- परीक्षणकर्ता ने पुस्तिका लेने के बाद प्रत्येक का अलग-अलग क्षेत्र का Raw Score ज्ञात किया, फिर उसको निरीक्षण तालिका में लिखा। पुस्तिका में परीक्षणकर्ता ने सभी Part 1 से 5 तक बाह्य, 6 से 10 तक यान्त्रिक, 11 से 15 तक गणनात्मक, 16 से 20 तके वैज्ञानिक, 21 से 25 तक प्रवर्तकीय, 26 से 30 तक कलात्मक, 31 से 35 तक साहित्यिक, 36 से 40 तक संगीतात्मक, 41 से 45 तक समाजसेवा तथा 46 से 50 तकं लिपिकीय थे। इस तरह प्रत्येक Area में लगाये गये निशान को परीक्षणकर्ता ने गिन लिया। उसके बाद प्रथम भाग के Raw Score को 5 से, दूसरे भाग के Raw Score को 4 से, तीसरे भाग के Raw Scote को 3 से, चौथे भाग के Raw Score को 2 से और पाँचवें भाग के Raw Score को 1 से गुणा किया। गुणा करने से जो Score प्राप्त हुए उन्हें जोड़कर Total Score प्राप्त किये। प्रत्येक Area का इसके बाद परीक्षणकर्ता ने नियमावली से प्रत्येक Total Raw Score का प्रतिशत ज्ञात किया। प्रतिशतता की सहायता से ही नियमानुसार प्रत्येक की श्रेणी एवं क्षेत्र को ज्ञात किया।
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(10) मौखिक रिपोर्ट।

बोध-प्रश्न

प्रश्न 1
आपको यह प्रयोग कैसा लगा?
उत्तर
अच्छा लगा।

प्रश्न 2
आपको किन क्षेत्रों में अधिक रुचि है और किन क्षेत्रों में नहीं?
उत्तर
मुझे कलात्मक, साहित्यिक और समाजसेवा में बहुत रुचि है तथा गणनात्मक और वैज्ञानिक आदि कार्यों में रुचि नहीं है।

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 9 Crime

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 9 Crime (अपराध) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 9 Crime (अपराध).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 9
Chapter Name Crime (अपराध)
Number of Questions Solved 40
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 9 Crime (अपराध)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
अपराध की परिभाषा दीजिए। भारत में अपराध के कारणों की विवेचना कीजिए। [2010, 11, 15]
या
अपराध के मुख्य व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक कारणों को स्पष्ट कीजिए। [2015]
या
अपराध की परिभाषा दीजिए।
अपराध के आर्थिक और सामाजिक कारणों की व्याख्या कीजिए। अपराध के सामान्य कारणों की विवेचना कीजिए। [2007, 10, 11, 12]
या
अपराध के चार प्रमुख कारण लिखिए। [2007, 12]
या
क्या आपके विचार में अपराध का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कारण आर्थिक कारक है? [2007]
या
अपराध के विभिन्न कारकों का सविस्तार उल्लेख कीजिए। [2013]
उत्तर:

अपराध की परिभाषा

अपराध एक ऐसा कार्य है, जो लोक-कल्याण के लिए अहितकर समझा जाता है तथा जिसे राज्य के द्वारा पारित कानून द्वारा निषिद्ध कर दिया जाता है। इसके उल्लंघनकर्ता को दण्ड दिया जाता है। अपराध को विभिन्न समाजशास्त्रियों ने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है

इलियट तथा मैरिल के अनुसार, “अपराध को एक ऐसे समाज-विरोधी व्यवहार के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसे समाज ‘अमान्य करता है और इसके लिए दण्ड की व्यवस्था करता है।’

लैण्डिस और लैण्डिस के अनुसार, “अपराध वह कार्य है जिसे राज्य ने समूह-कल्याण के लिए हानिकारक घोषित किया है और जिसके लिए राज्य पर दण्ड देने की शक्ति है।”

थॉमस के अनुसार, “अपराध एक ऐसा कार्य है जो उस समूह के स्थायित्व का विरोधी है, जिसे व्यक्ति अपना समझता है।”

गिलिन तथा गिलिन के अनुसार, “कानूनी दृष्टिकोण से देश के कानूनों के विरुद्ध व्यवहारों को अपराध कहा जाता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपराध की परिभाषा दो प्रकार से दी गयी है। इसे समाजशास्त्री दृष्टि से, कानूनी दृष्टि से तथा सामाजिक-कानूनी दृष्टि से परिभाषित किया गया है। किसी भी अपराध के लिए दो बातें होनी आवश्यक हैं
(अ) वह कार्य समाज-विरोधी समझा जाता है तथा
(ब) उस कार्य को करने वाले को राज्य कानूनी दृष्टि से दण्ड देता है।

अपराध के कारण

अपराध के लिए निम्नलिखित कारण उत्तर:दायी होते हैं
(अ) अपराध के व्यक्तिगत जैविकीय कारण
व्यक्ति की आयु, लिंग, बौद्धिक स्तर, शैक्षणिक स्थिति तथा सामाजिक-आर्थिक स्थिति जैसे अनेक व्यक्तिगत व जैविकीय कारण अपराध के लिए उत्तर:दायी बताये गये हैं। इनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं

  1. आयु-आयु की दृष्टि से 17 वर्ष से 24 वर्ष के बीच की आयु में अपराध तीव्र गति से किये जाते हैं। गम्भीर अपराध 20 से 26 वर्ष की आयु में तथा यौन सम्बन्धी अपराध प्रौढ़ावस्था में अधिक होते हैं। अमेरिकी समाज में हुए अध्ययनों से हमें अपराध की प्रकृति और आयु में सम्बन्ध देखने को मिलता है।
  2. लिंग-अपराध की दर महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में अधिक होती हैं। पुरुष का स्वभाव अधिक आक्रामक होता है, घर से बाहर रहने के कारण उन्हें उच्छृखलता का अवसर अधिक मिलता है तथा उन पर कार्यभार होने के कारण मानसिक तनाव अधिक पाया जाता है।
  3. शारीरिक दोष-व्यक्ति का कोई शारीरिक दोष भी कई बार अपराध का एक कारण बने
    जाता है। गोरिंग ने अपने अध्ययनों द्वारा यह बताया है कि अंग्रेज अपराधी कद में छोटे व वजन में कम होते हैं। यदि शारीरिक विकास आयु के अनुसार अत्यधिक है अथवा अत्यधिक अल्पविकसित है तो भी अपराध की प्रवृत्ति अधिक देखने को मिलती है।
  4. वंशानुक्रमण-वंशानुक्रमण भी अपराध का कारण है। बच्चा जन्म से ही अपराधी प्रवृत्तियाँ लेकर आता है। लॉम्बोसो, गैरोफेलो, फैरी इत्यादि विद्वानों ने अपने अध्ययनों द्वारा अपराध में वंशानुक्रमण का महत्त्व स्पष्ट किया है।

(ब) अपराध के मनोवैज्ञानिक कारण
अपराध को प्रोत्साहित करने वाली मानसिक दशाएँ निम्नलिखित हैं—

  1. मानसिक दुर्बलता मानसिक दुर्बलता या बुद्धिहीनता भी अपराध का कारण हो सकता है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति अच्छे और बुरे कार्यों में अन्तर नहीं कर सकते। गोडार्ड ने मानसिक दुर्बलता को अपराध का प्रमुख कारण बताया है, जब कि एडलर ने इसका विरोध करते हुए इस बात पर बल दिया है कि अधिकांश अपराधी अपने बौद्धिक स्तर में सामान्य व्यक्ति के समान होते हैं।
  2. संवेगात्मक अस्थिरता व संघर्ष-व्यक्ति संवेगात्मक तनाव को दूर करने के लिए भी अपराध करते हैं। हीले तथा ब्रोनर ने अपने अध्ययन द्वारा यह बताया है कि 91 प्रतिशत अपराधी अपनी हीनता की भावना को दूर करने के लिए अपराध करते हैं। अपराध भी एक संवेग है। बर्ट ने भी असन्तुलन तथा अस्थिरता पर बल दिया है।
  3. मानसिक बीमारियाँ-अनेक मानसिक बीमारियाँ भी अपराधी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देती हैं। हीन मनोवृत्तियाँ, हिस्टीरिया, मेनिया इत्यादि मानसिक बीमारियाँ भी अपराध के लिए उत्तर दायी मानी गयी हैं। अमेरिका की राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य समिति के अनुसार 77 प्रतिशत कैदी किसी-न-किसी रूप में मानसिक रोग से पीड़ित थे। यह अध्ययन 34 जेलों के अपराधियों के मानसिक विश्लेषण पर आधारित था।

(स) अपराध के सामाजिक कारण
सामाजिक कारणों में हम निम्नलिखित दशाएँ सम्मिलित करते हैं–

1. परिवार-बच्चे के समाजीकरण तथा व्यक्तित्व के निर्माण में परिवार का महत्त्वपूर्ण योगदान होती है। यदि परिवार का वातावरण ही अच्छा नहीं है तो बच्चों का व्यक्तित्व भी ठीक प्रकारे से विकसित नहीं होता है। सामान्यत: निम्नलिखित गारिवारिक दशाएँ अपराध में सहायक मानी जाती हैं

  • विघटित परिवार-यदि परिवार विघटित है तथा सदस्यों में मतैक्य का अभाव है। तथा परिस्थितियों और भूमिकाओं में असन्तुलन आ गया है तो इसको सदस्यों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और अपराधी प्रवृत्तियाँ अधिक पनपने लगती हैं।
  • नष्ट घर–जब पारिवारिक विघटन अधिक हो जाता है तो उसे नष्ट घर कहते हैं। तलाक, परित्याग, माता या पिता दोनों में से एक या दोनों की मृत्यु से घर नष्ट हो जाता है और बच्चों का विकास ठीक प्रकार से नहीं हो पाता। अधिकांश बालअपराधी नष्ट घरों के ही होते हैं।
  • तिरस्कृत बालक-यदि बच्चों को परिवार में संरक्षण तथा प्यार नहीं मिलती तथा अनचाहा बालक समझकर उसका तिरस्कार किया जाता है, तो वह अपराध की ओर अग्रसर हो जाता है। टैफ्ट के अनुसार, “निश्चित रूप से अनचाहा बालक बालअपराधी बन सकता है।”
  • अनैतिक परिवार यदि परिवार के सदस्य अनैतिक कार्यों में लगे हुए हैं तो भी इसका बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और वे अपराध की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं। इलियट के अनुसार, 67 प्रतिशत अपराधी लड़कियाँ अनैतिक परिवारों से आती हैं।
  • अनुचित पारिवारिक नियन्त्रण–यदि सदस्यों पर परिवार का नियन्त्रण ठीक नहीं है और माता-पिता की व्यस्तता के कारण वे बच्चों को ठीक प्रकार से नहीं देख पा
    रहे हैं, तो बालक बुरी संगति में पड़कर आसानी से अपराधी बन जाते हैं।

2. शिक्षा- शिक्षा का भी अपराध से सम्बन्ध स्थापित किया गया है। शिक्षित व्यक्ति अधिकतर नियोजित अपराध करते हैं, जब कि अशिक्षित क्रूर अपराध अधिक करते हैं और सरलता से पकड़े जाते हैं।
3. धर्म-धर्म का नियन्त्रण आज प्रायः समाप्त होता जा रहा है तथा आज धर्म के नाम पर साम्प्रदायिकता का जहर पिलाकर अपराधों एवं गैर-कानूनी कार्यों को प्रोत्साहन मिल रहा है।
4. बुरी संगति-बुरा पड़ोस, अपराधी समूह आदि भी अपराध को प्रोत्साहन देते हैं। यदि व्यक्ति की संगति ठीक नहीं है और वह असामाजिक तत्वों के साथ रह रहा है, तो उसमें भी अपराध-वृत्ति पनपने लगती है। अपराध को जन्म देने में संगति का सबसे अधिक सहयोग रहता है।
5. सांस्कृतिक संघर्ष-सांस्कृतिक संघर्ष, सांस्कृतिक मूल्यों में परस्पर विरोध तथा सांस्कृतिक विलम्बन भी समाज में अव्यवस्था लाता है और अपराध-प्रवृत्तियों को विकसित होने में सहायता प्रदान करता है।
6. चलचित्र-चलचित्र को आज के युग में मनोरंजन की दृष्टि से प्रमुख स्थान प्राप्त है तथा इनका व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार पर गहन प्रभाव पड़ता है। काम-वासना के उत्तेजक दृश्यों, मार-धाड़ वाले दृश्यों, बलात्कार जैसे दृश्यों, अश्लील दृश्यों व गानों को युवा पीढ़ी पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। चलचित्रों में अपराध के जो दृश्य दिखाए जाते हैं, अनेक अपराधी उनका अनुसरण करके वैसे ही अपराध करना सीख जाते हैं तथा व्यवहार में करते भी हैं। चलचित्र मानसिक संघर्ष की स्थिति भी पैदा कर देते हैं, जो कि अपराध-वृत्ति के विकास में सहायक
7. समाचार-पत्र-समाचार-पत्र व पत्रिकाएँ भी अपराध को प्रोत्साहन देते हैं। प्रायः समाचार पत्रों में अपराध सम्बन्धी घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है तथा उन्हें रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है, जिसका युवा पीढ़ी पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
8. मद्यपाने मद्यपान तथा मादक द्रव्य-व्यसन अपराध का वैयक्तिक तथा सामाजिक कारण दोनों ही हैं। अधिकतर मद्यपान की आदत बुरी संगति, अनैतिक व विघटित परिवार होने के कारण तथा मानसिक तनाव के कारण पड़ती है। मद्यपान व्यक्ति, परिवार, समुदाय तथा समाज को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। इससे शारीरिक बीमारियों में वृद्धि होती है, शारीरिक पतन हो जाता है, व्यक्ति अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठता है और कई बार हत्या, आत्महत्या या बलात्कार जैसे अपराध भी कर बैठता है।

(द) अपराध के आर्थिक कारण
निम्नलिखित आर्थिक दशाएँ अपराध के लिए उत्तर:दायी बतायी जाती हैं
1. निर्धनता-निर्धनता अपराध का एक कारण हो सकता है। निर्धनता व्यक्ति को गन्दी बस्तियों में रहने के लिए विवश करती है, जिनका वातावरण अपराधी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देने वाला होता है।

2. व्यापारिक स्थिति-अपराध की दर तथा व्यापार-चक्र में घनिष्ठ सम्बन्ध है। व्यापार की गिरावट के कारण रोजगार की कमी हो जाती है, माल का निकास रुक जाता है, पैसे की कमी | पड़ जाती है, भ्रष्टाचार बढ़ जाता है तथा इन सबसे अपराध की सामान्य दर प्रभावित होती है।

3. बेरोजगारी-बेरोजगारी भी अपराध का कारण है। अध्ययनों से पता चलता है कि बेकारी, आवारागर्दी और सम्पत्ति के विरुद्ध अपराधों को बढ़ावा देती है। वेश्यावृत्ति तथा महिलाओं में अनैतिकता को कई विद्वानों ने उनकी आर्थिक स्थिति से जोड़ा है। बेरोजगारी मानसिक तनाव की स्थिति पैदा कर देती है, जिससे व्यक्ति आपराधिक कार्यों की ओर अधिक आकर्षित हो जाता है।

4. आर्थिक असन्तोष व अत्यधिक असमानता-
आर्थिक असन्तोष भी अपराध को प्रोत्साहन देता है। व्यक्ति अपनी अपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी कई बार अपराध की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं। अत्यधिक आर्थिक असमानता भी आर्थिक असन्तोष को जन्म देती है। आर्थिक असमानताओं से व्यक्ति में मानसिक तनाव पैदा हो जाता है, जो कि अपराध को बढ़ाता है।

5. औद्योगीकरण-
औद्योगीकरण के फलस्वरूप जो समस्याएँ पैदा हो रही हैं, उनसे भी अपराध को प्रोत्साहन मिलता है।

(य) अपराध के भौगोलिक कारण
भौगोलिक कारणों का भी अपराध को प्रोत्साहन देने में महत्त्वपूर्ण स्थान है। जलवायु, धरातल, ऋतु तथा मौसम के अनुसार अपराध की दरें घटने या बढ़ने सम्बन्धी अध्ययन हमारे सामने आये हैं। समतल क्षेत्र वाले भागों में बलात्कार की संख्या अधिक होती है, परन्तु संम्पत्ति के विरुद्ध अपराध कम होते हैं। अनेक गर्म जलवायु वाले क्षेत्रों में व्यक्ति के विरुद्ध अपराध तथा ठण्डे देशों में सम्पत्ति के विरुद्ध अपराध अधिक होने के निष्कर्ष निकाले गये हैं। अपराधशास्त्रियों ने अपराधी कैलेण्डर तक बनाकर यह बताने का प्रयास किया है कि किस प्रकार विशिष्ट प्रकार के अपराध विशिष्ट महीनों से सम्बन्धित हैं।

क्वेटलेट का कथन है कि “अपराध का प्रमुख सम्बन्ध जलवायु से है। जलवायु तथा मौसम में परिवर्तन होने के साथ ही अपराध में भी परिवर्तन देखने को मिलता है।”
लैकेसन ने इस सन्दर्भ में निम्नलिखित विचार व्यक्त किये हैं|
अपराध                                                                             महीना।
1. शिशु-हत्या                                               : जनवरी, फरवरी, मार्च तथा अप्रैल में अधिक
2. मानव-हत्या व अन्य गम्भीर अपराध          : जुलाई में सबसे अधिक
3. पितृ-हत्या                                                : जनवरी व अक्टूबर में सबसे अधिक
4. बच्चों पर बलात्कार                                  : जुलाई, अगस्त तथा सबसे कम दिसम्बर में
5. युवाओं से बलात्कार                                 : सबसे अधिक दिसम्बर और जनवरी में

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपराध का कोई एक कारण नहीं है, अपितु हो सकता है कि एक ही अपराध के पीछे एक से अधिक कारण हों। आपराधिक कारणों में व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक कारणों का भरपूर सहयोग रहता है।

प्रश्न 2
अपराध को नियन्त्रित करने हेतु सुझाव दीजिए।
या
अपराध की परिभाषा दीजिए तथा अपराध नियन्त्रण के दो उपाय बताइए।
या
अपराध क्या है? अपराध को नियन्त्रित करने के सुझाव दीजिए। [2015, 16]
उत्तर:

अपराध की परिभाषा

अपराध एक ऐसा कार्य है, जो लोक-कल्याण के लिए अहितकर समझा जाता है तथा जिसे राज्य के द्वारा पारित कानून द्वारा निषिद्ध कर दिया जाता है। इसके उल्लंघनकर्ता को दण्ड दिया जाता है। अपराध को विभिन्न समाजशास्त्रियों ने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है

इलियट तथा मैरिल के अनुसार, “अपराध को एक ऐसे समाज-विरोधी व्यवहार के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसे समाज ‘अमान्य करता है और इसके लिए दण्ड की व्यवस्था करता है।’

लैण्डिस और लैण्डिस के अनुसार, “अपराध वह कार्य है जिसे राज्य ने समूह-कल्याण के लिए हानिकारक घोषित किया है और जिसके लिए राज्य पर दण्ड देने की शक्ति है।”

थॉमस के अनुसार, “अपराध एक ऐसा कार्य है जो उस समूह के स्थायित्व का विरोधी है, जिसे व्यक्ति अपना समझता है।”

गिलिन तथा गिलिन के अनुसार, “कानूनी दृष्टिकोण से देश के कानूनों के विरुद्ध व्यवहारों को अपराध कहा जाता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपराध की परिभाषा दो प्रकार से दी गयी है। इसे समाजशास्त्री दृष्टि से, कानूनी दृष्टि से तथा सामाजिक-कानूनी दृष्टि से परिभाषित किया गया है। किसी भी अपराध के लिए दो बातें होनी आवश्यक हैं
(अ) वह कार्य समाज-विरोधी समझा जाता है तथा
(ब) उस कार्य को करने वाले को राज्य कानूनी दृष्टि से दण्ड देता है।
अपराध निरोध के लिए, दण्ड, जेल, परिवीक्षा एवं पैरोल तथा उत्तम-संरक्षण सेवाओं के अतिरिक्त कुछ अन्य सुझाव निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं

  1. पूर्व बाल-अपराधियों की खोज-हमें ऐसे बच्चों को खोजना होगा जिनके आगे चलकर अपराधी बनने की सम्भावना हो। उनको पहले ही ऐसी परिस्थितियाँ प्रदान की जाएँ कि वे आगे चलकर अपराधी नहीं बनें।
  2. मार्ग-दर्शन-अपराधियों को जेल में इस प्रकार का मार्गदर्शन प्रदान किया जाए, कि वे जेल से छूटने के बाद अपराधी नहीं बनें।
  3. समितियों का निर्माण-ऐसी सामुदायिक एवं पड़ोस समितियों का निर्माण किया जाए जो समुदाय की उन परिस्थितियों का पता लगाएँ जो अपराध के लिए उत्तर दायी हैं।
  4. परिवार का पुनर्गठन–कई अपराधी विघटित एवं टूटे परिवारों से आते हैं। अत: ऐसे उपाय अपनाये जाएँ जिससे परिवार के सदस्यों में प्रेम व सहयोग पनपे तथा मनमुटाव और तनाव समाप्त हो।
  5. स्वस्थ मनोरंजन–वर्तमान युग का अस्वस्थ एवं व्यापारिक मनोरंजन भी अपराध को जन्म देता है। भद्दे, भौंडे तथा नग्न व अर्द्ध-नग्न चित्र, अपराध से परिपूर्ण फिल्में, जासूसी उपन्यास एवं सस्ता साहित्य, नाचघर, नाइट क्लब, कैबरे आदि सभी व्यक्ति के पतन के लिए उत्तर:दायी हैं। इन सभी पर कठोर कानूनी पाबन्दी लगायी जानी चाहिए।
  6. स्वस्थ निवास–गन्दी बस्तियाँ एवं भीड़भाड़युक्त मकान भी अपराध के लिए उत्तर:दायी हैं। अतः सरकार को अधिकाधिक नियोजित बस्तियों का निर्माण करना चाहिए तथा मकान बनाने के लिए ऋण की सुविधाएँ उपलब्ध करायी जानी चाहिए।
  7. स्कूलों के वातावरण में सुधार किया जाना चाहिए, क्योंकि शिक्षण संस्थाओं में ही मानवता ढलती है एवं व्यक्ति में नैतिकता की भावनाएँ पनपती हैं। वहीं व्यक्ति के चरित्र का गठन भी होता है।
  8. जेलों की दशाएँ सुधारी जाएँ, उनमें चिकित्सा सेवा, स्वस्थ वातावरण एवं निवास की उचित व्यवस्था की जाए तथा अपराधियों के साथ सहानुभूतिपूर्ण एवं प्रेमपूर्ण व्यवहार किया जाए।
  9. अपराधियों को सुधारने के लिए मन:चिकित्सकों एवं समाजशास्त्रियों की सहायता ली जाए, जिससे वे भविष्य में अपराध न करें।
  10. दण्ड का निर्धारण अपराधी की परिस्थितियों को देखकर किया जाए।
  11. अलग-अलग प्रकार के अपराधियों के लिए अलग-अलग प्रकार के बन्दीगृह हों, क्योंकि प्रथम अपराधी को आदतन अपराधी के साथ रखने से उसके सुधरने के बजाय बिगड़ने के अधिक अवसर रहते हैं।
  12. जनमत में परिवर्तन कर ऐसी प्रवृत्तियों का बहिष्कार किया जाए जो समाज-विरोधी कार्यों को जन्म देती हैं।
  13. अपराधियों को ऋण व प्रशिक्षण की सुविधाएँ दी जाएँ, जिससे वे अपना कोई व्यवसाय चला सकें और अपराधी कार्यों से मुक्ति पा सकें।
  14. जेल में अपराधियों को काम दिया जाए एवं उससे प्राप्त धन में से आधा भाग उनके परिवार वालों को दिया जाए जिससे उनका भरण-पोषण होता रहे।
  15. न्याय सस्ता हो एवं साथ ही उसे शीघ्र उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  16. अपराधी जनजातियों के सुधार के लिए योजनाबद्ध कार्य किये जाएँ।
  17. समाज में व्याप्त बेकारी एवं ग़रीबी की समस्या को शीघ्र उन्मूलन किया जाए, क्योंकि निर्धनता ही प्रमुखतः सभी अपराधों की जड़ है।

प्रश्न 3
भारत में भ्रष्टाचार निवारण हेतु सुझाव दीजिए। [2007, 08, 09, 15, 16]
या
भ्रष्टाचार एक सार्वभौमिक बुराई है। भारत में भ्रष्टाचार निवारण के उपायों का सुझाव दीजिए। [2008]
उत्तर:
भारत में स्वतन्त्रता-प्राप्ति के तुरन्त पश्चात् भ्रष्टाचार की समस्या के समाधान के लिए ‘भ्रष्टाचार निरोधक कानून’ (Prevention of Corruption Act) पास किया गया। यह कानून केवल सरकारी कर्मचारियों तक ही सीमित होने के कारण अधिक प्रभावपूर्ण नहीं हो सका। इसके पश्चात् सरकार ने भ्रष्टाचार निवारण हेतु सुझाव देने के लिए सन् 1962 में सन्तानम कमेटी की नियुक्ति की। इस समिति ने भ्रष्टाचार के सभी क्षेत्रों तथा तरीकों पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए अपनी महत्त्वपूर्ण सिफारिशें प्रस्तुत कीं, लेकिन ये सिफारिशें इतनी आदर्शवादी तथा महत्त्वाकांक्षी थीं कि इन्हें लागू नहीं किया जा सका। सन् 1960 तथा 1970 के बीच हमारे समाज में भ्रष्टाचार इतना बढ़ गया कि भ्रष्टाचार उन्मूलन की बात करने वाले मन्त्रियों और अधिकारियों के विरुद्ध भी नियोजित षड्यन्त्र चलाये जाने लगे।

सन् 1975 के पश्चात् यह माँग जोर पकड़ने लगी कि मन्त्रियों और बड़े-बड़े अधिकारियों के विरुद्ध जाँच करने वाले आयुक्तों की भी नियुक्ति की जानी चाहिए। इसके फलस्वरूप आज अनेक राज्यों में लोकपाल की नियुक्तियाँ की गयी हैं, जिन्हें बड़े-बड़े अधिकारियों तथा मन्त्रियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच करने के अधिकार दिये गये हैं। अनेक राज्यों में भ्रष्ट अधिकारियों को 50 वर्ष की आयु में अनिवार्य रूप से सेवा-मुक्त कर देने का प्रावधान रखा गया है। इसका उद्देश्य भ्रष्टाचार के मामलों में कानूनी जटिलताओं से बचना तथा प्रभावी कार्यवाही करना है।

उपर्युक्त प्रयासों के पश्चात् भी भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं हो सकी। इसका कारण एक ओर, भ्रष्टाचार की जड़ों का बहुत गहराई तक फैला होना है और दूसरी ओर, सरकार तथा प्रशासन की अक्षमता इसके लिए उत्तर:दायी है। केवल यह कहना कि राजनीतिज्ञों, अधिकारियों और जनसाधारण को ईमानदार बनाकर, नैतिक मूल्यों का प्रचार करके तथा राष्ट्रीयता की भावना को प्रोत्साहन देकर भ्रष्टाचार को समाप्त करना चाहिए, एक ख्याली पुलावे पकाना है। भ्रष्टाचार निवारण केवल तभी सम्भव है जब भ्रष्टाचार के मूल कारणों को देखते हुए एक व्यावहारिक योजना के द्वारा इस बुराई को दूर करने के प्रयत्न किये जाएँ। इस योजना के विभिन्न अंगों के रूप में निम्नलिखित सुझाव अधिक उपयोगी हो सकते हैं|

1. व्यापारिक वर्ग में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कर-संरचना में परिवर्तन करना आवश्यक है। व्यापारियों द्वारा सर्वाधिक भ्रष्टाचार करों की चोरी तथा नकली हिसाब-किताब के रूप में मिलता है। यदि प्रत्येक वस्तु के उत्पादन स्थान पर ही पूर्ण सतर्कता के साथ सम्पूर्ण कर (Taxes) ले लिये जाएँ तो सरकार को प्रशासनिक व्यय भी कम करना पड़ेगा और करों की चोरी की सम्भावना भी कम हो जायेगी।

2. छोटे कर्मचारियों में भ्रष्टाचार निवारण के लिए उनके वेतन-स्तर में सुधार आवश्यक है। प्रत्येक स्तर के कर्मचारी को इतना वेतन अवश्य मिलना चाहिए जिससे वह अपने परिवार की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा कर सके।

3. उच्च प्रशासनिक पदों, टेक्निकल कुशलता वाली सेवाओं तथा व्यवसायियों के लिए सेवा के स्थायीकरण (Confirmation of service) की परम्परा प्रजातान्त्रिक समाजों के लिए पूर्णतया गलत है। इन पदों पर एक विशेष अवधि के लिए नियुक्तियाँ की जानी चाहिए। ऐसा करने से प्रत्येक व्यक्ति अपनी कुशलता को बढ़ाने का प्रयत्न करेगा तथा अधिक-से-अधिक ईमानदारी से कार्य करके अपने जीवन को निष्कलंक बनाने के लिए प्रयत्नशील रहेगा।

4. सरकारी कार्यालयों में कामकाजी प्रक्रिया में सरलता लाने से भी रिश्वत और दूसरे प्रकार के भ्रष्टाचारों को दूर किया जा सकता है। प्रत्येक विभाग में कार्य की प्रक्रिया को सरल बनाने तथा प्रत्येक निर्णय के लिए अधिकतम समय सीमा का निर्धारण होना चाहिए।

5. जनसाधारण में प्रत्येक कार्यालय के नियमों तथा कार्यविधि का प्रचार करने से भी रिश्वतों को कम किया जा सकता है। ऐसे प्रचार से सरकारी दफ्तरों में आने वाले लोग वहाँ के बाबुओं पर निर्भर नहीं रहेंगे और न ही उन्हें बाबुओं द्वारा गुमराह किया जा सकेगा।

6. वर्तमान परिस्थितियों में यह आवश्यक है कि महत्त्वपूर्ण निर्णयों का जनसाधारण में प्रकाशन किया जाये। देश को आज सबसे अधिक हानि ऐसे भ्रष्टाचार से होती है जिसमें मन्त्रियों अथवा अधिकारियों द्वारा लाखों और करोड़ों रुपयों की राशि का उपयोग गुप-चुप ढंग से कर लिया जाता है। लोक सम्पत्ति के उपयोग की पूरी जानकारी जनसाधारण को मिलने से भ्रष्टाचार में कमी हो सकती है।

7. राजनीतिक दलों के भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण लगाने के लिए यह आवश्यक है कि सभी राजनीतिक दलों की वार्षिक आय और व्यय का हिसाब जनसाधारण के लिए प्रकाशित किया जाए। ऐसी सूची प्रकाशित होने से राजनीतिक दलों को चुनाव के समय तरह-तरह के भ्रष्ट व्यवहार करने से रोका जा सकेगा।

8. इन प्रयत्नों के साथ ही देश में एक भ्रष्टाचार विरोधी गुप्त सरकारी संगठन’ का होना आवश्यक है। इस संगठन में प्रशासनिक, तकनीकी तथा व्यावसायिक कुशलता से सम्पन्न अधिकारियों की नियुक्ति होनी चाहिए। यह आरोप लगाया जा सकता है कि कालान्तर में ऐसे गुप्त संगठनों के अधिकारी भी भ्रष्ट बन सकते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि दिल्ली में नियुक्त अधिकारियों का दस्ता यदि चेन्नई के किसी गाँव में जाकर निर्माणाधीन सरकारी इमारत में लगने वाली वस्तुओं की किस्म का निरीक्षण करे तो इससे भ्रष्टाचार उन्मूलन में सहायता ही मिलेगी।

9. अन्त में भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए दण्ड की प्रक्रिया को कठोर बनाना आवश्यक है। भ्रष्टाचार के अभियोग में पकड़े गये व्यक्तियों को जमानत की सुविधा नहीं मिलनी चाहिए। भ्रष्टाचार को कानून के द्वारा एक जघन्य अपराध घोषित किये बिना स्थिति में सुधार नहीं किया जा सकता।

गुन्नार मिर्डल ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘एशियन ड्रामा’ (Asian Drama) में एशिया और मुख्य रूप से भारत के लोक जीवन में बढ़ते हुए भ्रष्टाचार को रोकने के लिए अनेक सुझाव दिये हैं-

  1. भ्रष्टाचार के अपराधी लोगों को दण्ड देने के लिए सरल कानून बनाये जाएँ;
  2. रिश्वत देने वाले लोगों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जाए;
  3. आयकर देने वाले लोगों के विवरण को सार्वजनिक रूप से प्रकाशित किया जाए;
  4. व्यापारियों द्वारा राजनीतिक दलों को दिये जाने वाले चन्दों पर रोक लगायी जाएँ;
  5. वेतनभोगी कर्मचारियों को इतना वेतन अवश्य दिया जाए जिससे उनकी सामान्य आवश्यकताएँ पूरी हो सकें;
  6. लाइसेन्स और परमिट देने वाले अधिकारियों की गतिविधियों पर नियन्त्रण रखा जाए;
  7. जो लोग भ्रष्टाचार के विरुद्ध शिकायत करते हैं, उन्हें सुरक्षा दी जाए;
  8. भ्रष्टाचार सम्बन्धी झूठे समाचार छापने वाले समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं के विरुद्ध कार्यवाही की जाए;
  9. मन्त्रियों तथा उच्च अधिकारियों की आय-व्यय का नियमित निरीक्षण किया जाए तथा
  10. भ्रष्टाचार को रोकने के लिए सतर्कता अभियान को तेज किया जाए।

उपर्युक्त सभी सुझाव इस मान्यता पर आधारित हैं कि एक प्रजातान्त्रिक समाज में भ्रष्टाचार की समस्या जब सभी वर्गों और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त हो जाती है, तो केवल अनुनय, विनम्रता, प्रचार और पुराने कानूनों के द्वारा ही इसका समाधान नहीं किया जा सकता। इस दशा में भ्रष्टाचार का उन्मूलन केवल कठोर अनुशासन और समय के अनुरूप कानूनों के द्वारा ही सम्भव है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन देशों को उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का चस्का लग चुका है वे पूँजीवादी स्वार्थों को लेकर अब उन प्रजातान्त्रिक देशों को भ्रष्ट बनाने का षड्यन्त्र कर रहे हैं, जो अपनी प्रगति स्वयं ही करना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में हमारी जनतान्त्रिक स्वतन्त्रता पर भले ही अंकुश लग जाए, लेकिन सम्पूर्ण राष्ट्र की प्रगति और समृद्धि के लिए भ्रष्टाचार पर कठोरता से नियन्त्रण लगाना आज अंत्यधिक आवश्यक है।

प्रश्न 4
‘अपराध राज्य के नियमों का उल्लंघन है।’ स्पष्ट करते हुए अपराध के मुख्य प्रकार बताइए।
उत्तर:

अपराध राज्य के नियमों का उल्लंघन

राज्य में व्यवस्था कायम रखने के लिए और उसका भली-भाँति संचालन करने के लिए कुछ कानून और नियम बनाये जाते हैं। राज्य के हर व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह कानूनों को माने। किन्तु कुछ ऐसे भी लोग होते हैं, जो कानूनों का पालन नहीं करते हैं। वे कानून को भंग करते हैं। भंग करने वालों में दो तरह के लोग होते हैं-एक तो वे लोग, जो अनजाने में कानून-विरोधी कार्य कर डालते हैं और दूसरे वे, जो जान-बूझकर कानून को तोड़ते हैं। कानून को भंग करने का कार्य जब जान-बूझकर किया जाता है, तो ऐसा कार्य कानूनी दृष्टि से ‘अपराध’ कहलाता है।

इसलिए इस दृष्टि से उन बच्चों के गलत कार्यों को अपराध नहीं माना जाता, जो छः वर्ष से कम आयु के होते हैं। यदि कोई छोटा बच्चा कोई गलती करता है, तो उसकी अज्ञानता के कारण हम प्रारम्भ में उसे क्षमा कर देते हैं। नशे में चूर और पागल व्यक्ति यदि कोई गलत कार्य कर बैठता है, तो उसे भी ‘अपराध’ के अन्तर्गत नहीं रखा जाता। प्रत्येक राज्य में समुदाय की आवश्यकता के अनुसार सार्वजनिक कल्याण के आधार पर राज्य के नियम व कानून भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, इसलिए अपराध के अन्तर्गत आने वाले व्यवहारों की कोई ऐसी सूची नहीं बनायी जा सकती जो समाजों तथा समुदायों के लिए सार्वभौमिक हो। इसके उपरान्त भी कानूनी दृष्टिकोण से अपराध की धारणा चार विशेषताओं से सम्बन्धित है

  1. अपराध कोई भी वह व्यवहार है जो एक समुदाय में प्रचलित कानूनों के उल्लंघन से सम्बद्ध हो।
  2. ऐसे व्यवहार में अपराधी इरादे (criminal intentions) की समावेश हो। वास्तव में, व्यक्ति की नीयत’ में जब दोष आ जाता है तथा वह जान-बूझकर किसी निषिद्ध अपराध को करता है, तभी इसे अपराध कहा जाता है।
  3. अपराध का सम्बन्ध एक बाह्य क्रिया (over act) से है। व्यक्ति की नीयत में दोष आने पर भी यदि वह किसी बाह्य क्रिया द्वारा कानून का उल्लंघन नहीं करता तो इसे अपराध नहीं माना जा सकता।
  4. राज्य की ओर से दण्ड की व्यवस्था अपराध का अन्तिम तत्त्व है। व्यक्ति यदि कोई ऐसा व्यवहार करे जिससे सार्वजनिक जीवन को हानि होती हो, लेकिन राज्य की ओर से ऐसे व्यवहार के लिए कोई दण्ड निर्धारित न हो तो ऐसे व्यवहार को अपराध नहीं कहा जा सकता। उपर्युक्त विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए अनेक विद्वानों ने कानूनी दृष्टिकोण से अपराध को

परिभाषित किया है। डॉ० सेथना के अनुसार, “अपराध कोई भी वह कार्य अथवी त्रुटि है जो किसी विशेष समय पर राज्य द्वारा निर्धारित कानून के अनुसार दण्डनीय है, इसका सम्बन्ध चाहे ‘पाप’ से हो अथवा नहीं।” लगभग इसी प्रकार हाल्सबरी का कथन है कि, “अपराध एक अवैधानिक त्रुटि है जो जनता के विरुद्ध है और जिसके लिए अभियुक्त को कानूनी दण्ड दिया जाता है। विलियम ब्लेकस्टोन के अनुसार, “किसी भी सार्वजनिक कानून की अवज्ञा अथवा उल्लंघन से सम्बन्धित व्यवह्मर ही अपराध है।’ टैफ्ट ने अपराध की संक्षिप्त परिभाषा देते हुए लिखा है, “वैधानिक रूप से अपराध एक ऐसा कार्य है जो कानून के अनुसार दण्डनीय होता है।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि कानून का एक बुरे इरादे से जान-बूझकर उल्लंघन करना तथा इस प्रकार सार्वजनिक हित को हानि पहुँचाना ही अपराध है। कानूनी दृष्टि से अपराधी व्यक्ति को राज्य द्वारा दण्ड मिलता है और असामाजिक कार्य करने पर स्वयं समाज व्यक्ति को बहिष्कृत करके, अपमानित करके या हुक्का-पानी बन्द करके दण्डित करता है।

अपराध के प्रकार

विभिन्न समाजशास्त्रियों ने अपराध को अपने-अपने ढंग से वर्गीकृत किया है। सामान्य रूप से अपराध निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-
(क) गम्भीरता के आधार पर वर्गीकरण-गम्भीरता के आधार पर अपराध को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है–

  1. कम गम्भीर अपराध या कदाचार-इसमें उन अपराधों को सम्मिलित किया जाता है, जो कानून की दृष्टि से अधिक गम्भीर नहीं होते। जुआ, मद्यपान, बिना टिकट के यात्रा करना। इत्यादि लघु या कम गम्भीर अपराध के उदाहरण हैं।
  2. गम्भीर अपराध या महापराध-इसमें गम्भीर प्रकृति के अपराध सम्मिलित किये जाते हैं। हत्या, बलात्कार, देशद्रोह इत्यादि अपराध इसके प्रमुख उदाहरण हैं। ऐसे अपराधों के लिए दण्ड भी गम्भीर होता है; जैसे-सम्पत्ति जब्त कर लेना, आजीवन कारावास अथवा मृत्युदण्ड आदि।।

(ख) अपराध के प्रयोजन के आधार पर वर्गीकरण-बोन्जर (Bonger) ने अपराधियों के प्रयोजन के आधार पर अपराध को अग्रलिखित चार श्रेणियों में विभाजित किया है

  1. आर्थिक अपराध;
  2. लिंग सम्बन्धी अपराध;
  3. राजनीतिक अपराध तथा
  4. विविध (Miscellaneous) अपराध।

(ग) उद्देश्यों के आधार पर वर्गीकरण-हेज (Hayes) ने अपराधियों के उद्देश्यों तथा प्रेरणाओं को सामने रखकर अपराध को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया है।

  1. व्यवस्था के विरुद्ध अपराध,
  2. सम्पत्ति के विरुद्ध अपराध तथा
  3. व्यक्ति के विरुद्ध अपराध।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4अंक)

प्रश्न 1
अपराध के लक्षणों का विवरण दीजिए।
उत्तर:
जिरोम हाल ने उन विशेषताओं का उल्लेख किया है जिनके आधार पर किसी मानवीय व्यवहार को अपराध घोषित किया जाता है। वे इस प्रकार हैं

  1. हानि-अपराधी क्रिया का बाह्य परिणाम ऐसा होना चाहिए जिससे अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों को शारीरिक, मानसिक या आर्थिक हानि हो। इस प्रकार के अपराध से समाज को नुकसान होता हो।
  2. क्रिया-जब तक कोई व्यक्ति अपराधी क्रिया न करे और अपराध करने का केवल मन में . विचार ही रखे, तब तक वह विचार अपराध नहीं माना जाएगा।
  3. कानून के द्वारा निषेध-कोई भी कार्य तब तक अपराध नहीं माना जाएगा जब तक कि उस देश का कानून उसे अवैधानिक घोषित न करे।
  4. अपराधी उद्देश्य-अपराध निर्धारण में अपराधी उद्देश्य एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। जान बूझकर इरादतन किया हुआ कानून-विरोधी कार्य अपराध है। अनजाने में बिना इरादे के या भूल से किये हुए कार्य को हम अपराध तो मानते हैं, किन्तु उतना गम्भीर नहीं जितना कि पूर्व इरादे से किये कार्य को।
  5. उद्देश्य और व्यवहार में सह-सम्बन्ध-अपराध के लिए अपराधी उद्देश्य के साथ ही क्रिया का होना भी आवश्यक है। उद्देश्यहीन क्रिया या क्रियाहीन उद्देश्य अपराध नहीं होगा। दोनों का प्रकाशन साथ-साथ होनी चाहिए।
  6. दण्ड-अपराध करने पर राज्य और समाज अपराधी को दण्ड देता है। यह दण्ड शारीरिक .. दण्ड या जुर्माना आदि के रूप में हो सकता है।
  7. समय व स्थान सापेक्ष-अपराधी क्रियाओं का सम्बन्ध समय व स्थान से भी है। एक समय में एक क्रिया अपराध मानी जाती है, वही दूसरे समय में नहीं। सती–प्रथा, दहेज-प्रथा । और बाल-विवाह कभी अपराध नहीं माने जाते थे, किन्तु आज ये अपराधी क्रियाएँ हैं। इसी प्रकार से जो कार्य भारत में अपराध माने जाते हैं, वे अफ्रीका में भी अपराध माने जाते हों, यह आवश्यक नहीं है, क्योंकि सभी देशों के अपने-अपने कानून हैं।

प्रश्न 2
अपराधों के कारण सम्बन्धी ‘शास्त्रीय सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
शास्त्रीय सिद्धान्त का विकास 18वीं सदी के अन्त में हुआ। इसके प्रमुख समर्थकों में बैकरिया, बेन्थम और फ्यूअरबेक थे। इस सिद्धान्त में विश्वास रखने वाले सुखदायी दर्शन (Hedonistic Philosophy) से प्रभावित थे। इस दर्शन की यह मान्यता है कि प्रत्येक व्यक्ति किसी भी कार्य को करने से पूर्व उससे मिलने वाले सुख व दुःख का हिसाब लगाता है और वही कार्य करता है जिससे उसको सुख मिलता है। एक अपराधी भी अपराध इसलिए करता है कि उसे अपराध करने पर दु:ख की तुलना में सुख अधिक मिलता है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति चोरी करने से पूर्व यह सोचेगा कि चोरी करने पर उसे जो दण्ड मिलेगी, वह चोरी करने पर मिलने वाले सुख की तुलना में निश्चित ही कम होगा, तभी वह चोरी करेगा अन्यथा नहीं। इन विद्वानों का मत है कि अपराध को रोकने के लिए दण्ड इतना दिया जाए कि अपराध से मिलने वाले सुख की तुलना में वह अधिक हो। उनका मत है कि पागल, मूर्ख, बालक एवं वृद्धों को दण्ड नहीं दिया जाना चाहिए।

इस सिद्धान्त को एकांगी होने के कारण स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह सही नहीं है कि हर समय व्यक्ति सुख-दु:ख से प्रेरित होकर ही कोई कार्य करता है। कई बार वह मजबूरी एवं दुःखों से मुक्ति के लिए भी अपराध करता है। अपराध के सामाजिक कारणों की भी इस सिद्धान्त में अवहेलना की गयी है।

प्रश्न 3
अपराधों के कारण सम्बन्धी इटैलियन सम्प्रदाय अथवा प्रारूपवादी सम्प्रदाय सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
या
‘अपराधी जन्मजात होते हैं।’ इस कथन की व्याख्या कीजिए। [2007, 09]
उत्तर:
इस सम्प्रदाय के जन्मदाता इटली के लॉम्ब्रोसो, उनके समर्थक गैरोफैलों और एनरिकोफेरी थे। इटली के निवासी होने के कारण इस सम्प्रदाय का यह नामकरण किया गया। इस सम्प्रदाय के लोगों ने अपराध के कारणों की व्याख्या अपराधी की शरीर-रचना के आधार पर की है।

लॉम्ब्रोसो इटली की सेना में डॉक्टर थे। अपने सेवाकाल के दौरान उन्होंने देखा कि कुछ सैनिक अनुशासन-प्रिय हैं, तो कुछ उद्दण्ड। अपराधी सैनिकों की शरीर-रचना और सामान्य सैनिकों की शरीर-रचना में उल्लेखनीय अन्तर था। उन्होंने इटली की जेलों का भी अध्ययन किया और पाया कि शरीर-रचना और मानसिक विशेषताओं में घनिष्ठ सम्बन्ध है। उन्होंने उस समय के एक प्रसिद्ध डाकू की खोपड़ी (Skull) और मस्तिष्क (Brain) का अध्ययन किया तो पाया कि उसमें अनेक विचित्रताएँ हैं, जो साधारण मनुष्यों में नहीं होतीं। इसके अतिरिक्त उन्होंने 383 मृत अपराधियों की खोपड़ियों का भी अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अपराधियों की शारीरिक रचना आदिमानव और पशुओं से बहुत-कुछ मिलती-जुलती है। इसलिए ही उनमें जंगलीपन और पशुता के गुण हैं जो उन्हें अपराध के लिए प्रेरित करते हैं। ये शारीरिक विशेषताएँ वंशानुक्रमण में मिलती। हैं और अपराधियों को विशेष प्रारूप प्रदान करती हैं। इसलिए इस मत को प्रारूपवादी सम्प्रदाय भी कहते हैं। यही कारण है कि अपराधी जन्मजात होते हैं। उन्होंने लगभग 15 शारीरिक अनियमितताओं का उल्लेख किया और बतलाया कि जिसमें भी इनमें से 4 अनियमितताएँ होंगी, वह निश्चित रूप से अपराधी होगा। वे अपराधियों को दण्ड देने के साथ-साथ बाल-अपराधियों के सुधार के पक्ष में भी थे।

इटैलियन सम्प्रदाय की अनेक विद्वानों ने आलोचना की है। उनमें डॉ० गोरिंग और थान सेलिन प्रमुख हैं। गोरिंग ने 12 वर्ष तक तीन हजार अपराधियों का अध्ययन करके बताया कि अपराधी और गैर-अपराधी की शरीर-रचना में कोई अन्तर नहीं होता। यदि अपराधी आदिमानव का प्रारूप है तो क्या सभी आदिमानव अपराधी थे? आज यह भी कोई नहीं मानता कि अपराधी जन्मजात होते हैं और शारीरिक एवं मानसिक लक्षण वंशानुक्रमण में मिलते हैं।

प्रश्न 4
प्राचीर-विहीन जेल पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
डॉ० सम्पूर्णानन्द के प्रयासों के परिणामस्वरूप वर्ष 1952-53 में चन्द्रप्रभा नदी पर अपराधियों को एक शिविर लगाया गया, जिसमें उनके भोजन, वस्त्र, शिक्षा और मनोरंजन की व्यवस्था की गयी। ऐसे शिविरों में अपराधियों को बन्दी बनाकर नहीं रखा जाता है और न ही उनके लिए चौकीदारी की व्यवस्था की जाती है। केरल, राजस्थान, उत्तर: प्रदेश, तमिलनाडु तथा गुजरात में इस प्रकार की जेलों की व्यवस्था की गयी है।

यहाँ जेलों की ऊँची-ऊंची दीवारों के स्थान पर काँटेदार तार लगाये गये। वह भी इसलिए कि अपराधी उस सीमारेखा का अतिक्रमण न करें। अपराधियों के लिए बने ये शिविर दीवारों से रहित थे। अतः इन्हें प्राचीर-विहीन बन्दीगृह कहा गया। बन्दीगृहों में रहने वाले अपराधियों से कार्य कराया जाता था। उसके बदले उन्हें पारिश्रमिक दिया जाता था। बन्दी अपनी आधी आमदनी अपने घर भेज सकते थे और उसका चौथाई अंश अपने पर व्यय कर सकते थे, जब कि चौथाई अंश कोष में जमा कराया जाता था। उनकी सजा की अवधि समाप्त होने पर उनकी बचत उन्हें सौंप दी जाती थी। सम्पूर्णानन्द शिविर बन्दियों में आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान जगाने के माध्यम थे। अपराधी स्वयं सुधरकर, आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होकर समाज में पहुँचता था। छूटने पर उसे व्यवसाय करने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती थी। सरकार भी कैदियों की सुरक्षा, रखवाली तथा भारी रख-रखाव के व्यय से बच जाती थी।

प्रश्न 5
परिवीक्षा (Probation) पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
परिवीक्षा में अपराधी को सजा के बदले सशर्त मुक्त कर दिया जाता है और उससे अपेक्षा की जाती है कि वह परिवीक्षा की अवधि में अपना आचरण उत्तम रखेगा। इस प्रकार अपराधी को दण्ड के बजाय, दण्ड सुनाने के बाद ही, उसे परिवीक्षा पर छोड़ा जाता है। छूटने से पूर्व परिवीक्षा काल में उत्तम आचरण रखने का प्रमाण-पत्र देना होता है। अपराधी को सरकार की ओर से निर्देशन एवं सहायता प्रदान की जाती है, जिससे वह समाज के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके। परिवीक्षा अधिकारी सरकार की ओर से परिवीक्षा पर छोड़े गये अपराधियों की देख-रेख करता है। वही अपराधी की छानबीन कर प्रतिवेदन प्रस्तुत करता है। उत्तर: प्रदेश में प्रत्येक ऐसे अपराधी को प्रोबेशन पर छोड़ने का प्रावधान है जिसकी आयु 21 वर्ष से कम हो तथा जिसे न्यायालय ने 6 माह की सजा सुनाई हो। परिवीक्षा पर छोड़ने से अनेक लाभ होते हैं; जैसे-

  1. अपराधी की मनोवृत्ति में परिवर्तन होता है और उसे भविष्य में समाज-विरोधी कार्य न करने का प्रोत्साहन मिलता है।
  2. वह जेल के दूषित वातावरण से बच जाता है।
  3. उसमें अनुशासन की भावना उत्पन्न होती है।
  4. जेल में रहने पर उस पर जो खर्च होता है वह परिवीक्षा पर छोड़ने से बच जाता है।

प्रश्न 6
“प्रत्येक मानव व्यवहार सीखा हुआ व्यवहार है-अपराधी व्यवहार भी मानव व्यवहार है, अतः सीखा हुआ व्यवहार है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सदरलैण्ड (Sutherland) का विचार है कि अपराध एक सीखा हुआ व्यवहार है, जो अन्तक्रिया तथा सम्पर्क के द्वारा एक से दूसरे व्यक्ति द्वारा ग्रहण किया जाता है, इसे कभी भी वंशानुक्रम के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। यद्यपि इस व्यवहार को किसी भी समूह में रहकर सीखा जा सकती है, लेकिन मुख्यतः यदि व्यक्ति के प्राथमिक समूहों का वातावरण अपराधी हो तो व्यक्ति जल्दी ही अपराधी व्यवहार को ग्रहण कर लेता है। कोई व्यक्ति कितनी परिस्थिति से तथा किस सीमा तक अपराधी व्यवहार को सीखेगा यह प्राथमिक समूहों की चार परिस्थितियों पर निर्भर करता है, अर्थात्

  1. प्राथमिकता,
  2. पुनरावृत्ति,
  3. अवधि तथा
  4. तीव्रता।

इसका तात्पर्य है कि एक व्यक्ति कितनी कम आयु में अपराधी समूहों के सम्पर्क में आया (प्राथमिक), कितनी बार उसे ऐसे सम्पर्क का अवसर मिला (पुनरावृत्ति), कितने अधिक समय तक यह अपराधियों के सम्पर्क में रहा (अवधि) तथा यह सम्पर्क कितनी घनिष्ठता का रहा (तीव्रता) आदि कारक ही इस बात का निर्धारण करते हैं कि अपराधी व्यवहारों की सीख कितनी प्रभावपूर्ण होगी। सदरलैण्ड का कथन है कि अपराधी व्यवहारों की सीख एक व्यक्ति को केवल अपराध के तरीकों का ही प्रशिक्षण नहीं देती बल्कि उसकी मनोवृत्तियों तथा प्रेरणाओं को भी बदल देती है। व्यक्ति की मनोवृत्तियाँ जब इस तरह बदल जाती हैं कि वह नियमों के पालन की अपेक्षा नियमों के उल्लंघन को अपने व्यक्तित्व को अंग बना लेता है तो स्वाभाविक रूप में वह अपराध की ओर बढ़ने लगता है। सीख की यह मात्रा सभी अपराधियों में भिन्न-भिन्न होती है। यही कारण है कि सभी अपराधियों की विशेषताएँ भी एक-दूसरे से कुछ भिन्न होती हैं। इसी आधार पर सदरलैण्ड ने अपने सिद्धान्त को विभिन्नतायुक्त संगति सिद्धान्त’ (Theory of Differential Association) का नाम दिया है। इस सिद्धान्त द्वारा प्रस्तुत मुख्य निष्कर्ष इस प्रकार हैं-

  1. अपराधी व्यवहार एक सीखा हुआ व्यवहार है;
  2. अपराधी व्यवहार की सीख अन्तक्रिया और संचार के माध्यम से प्रभावपूर्ण बनती है;
  3. अपराधी व्यवहार का एक बड़ा भाग प्राथमिक समूहों में सीखा जाता है;
  4. अपराधी व्यवहार की सीमा अथवा दर सीखने की प्रक्रिया की प्राथमिकता, पुनरावृत्ति, अवधि तथा तीव्रता के अनुसार घटती-बढ़ती है तथा
  5. अपराधी व्यवहार भी अन्य प्रक्रियाओं के समान एक सामाजिक प्रक्रिया है।

प्रश्न 7
“हमें अपराधी से नहीं अपराध से घृणा करनी चाहिए। इस परिप्रेक्ष्य में मृत्युदण्ड अपराध निरोध का निकृष्टतम साधन है।” स्पष्ट कीजिए।
या
‘अपराधी जन्मजात नहीं होते वरन बनाये जाते हैं। व्याख्या कीजिए [2007, 11]
या
यह कथन किसका है कि अपराधी बनाये जाते हैं? [2009, 10, 12, 15]
उत्तर:
समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार अपराधी जन्मजात नहीं होते, बल्कि समाज द्वारा बनाये जाते हैं। सदरलैण्ड के अनुसार, दूसरे व्यवहारों के समान अपराध भी एक सीखा हुआ व्यवहार है, जो पारस्परिक सम्पर्क तथा अन्तक्रिया के द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। कोई व्यक्ति कितनी शीघ्रता से तथा किस मात्रा में अपराध सीखेगा, यह उसकी आयु, पुनरावृत्ति, अवधि तथा तीव्रता पर निर्भर करता है। यही कारण है कि कुछ अपराधी सामान्य श्रेणी के होते हैं, जब कि कुछ बहुत गम्भीर प्रकार के अपराधी बन जाते हैं।

कुछ समाजशास्त्रियों का मत है कि अपराध को सम्बन्ध बुरी संगति अथवा दोषपूर्ण सामाजिक पर्यावरण से है। इस दृष्टिकोण से अपराध के लिए व्यक्ति की अपेक्षा समाज अधिक उत्तर:दायी है। वास्तव में अनेक सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, मानसिक और शैक्षणिक दशाएँ संयुक्त रूप से अपराधी व्यवहार को प्रोत्साहन देती हैं। अत: यह कहा जा सकता है कि अपराधी जन्मजात नहीं होते हैं, बल्कि व्यक्ति जब एक से अधिक कारकों द्वारा प्रभावित होता है, केवल उसी समय उसमें अपराधी प्रवृत्ति जाग्रत होती है।

अपराध के लिए दण्ड-विधान का औचित्य समझने के लिए अपराध के कारणों को समझने की आवश्यकता है। अपराध के लिए अपराधी की जगह व्यक्ति के दोषपूर्ण वंशानुक्रम, मानसिक अस्वस्थता एवं बीमारी, मानसिक अस्थिरता और संघर्ष, औद्योगीकरण और नगरीकरण, व्यापारिक उतार-चढ़ाव, निर्धनता तथा बेरोजगारी, सामाजिक कुरीतियाँ, टूटे परिवार, अशिक्षा आदि को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में किसी भी अपराधी को दण्ड देने की बजाय, सामाजिक दशाओं को बदलने के लिए गम्भीर प्रयास किये जाने चाहिए। हमें अपराधी से नहीं बल्कि उन सामाजिक परिस्थितियों से घृणा करनी चाहिए जो अपराधी को जन्म देती हैं।

अतः मृत्युदण्ड को अपराध रोकने का निकृष्टतम साधन कहना सर्वथा उचित ही है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
अपराधी कितने प्रकार के होते हैं ? [2007]
उत्तर:
विभिन्न विद्वानों ने अपराध तथा अपराधियों का वर्गीकरण विभिन्न प्रकार से किया है। सामान्यतया अपराधी निम्न प्रकार के होते हैं|

  1. जन्मजात अपराधी
  2. अपस्मारी अपराधी-ये अपराधी मानसिक विकारों के कारण उचित और अनुचित में भेद नहीं कर पाते।
  3. आकस्मिक अपराधी-ये अपराधी विशेष परिस्थितियों में ही अपराध करते हैं।
  4. आवेगयुक्त अपराधी-वे अपराधी, जो बहुत शीघ्र आवेग-पूर्ण स्थिति में आकर अपराध करते हैं।
  5. व्यावसायिक अपराधी-ये अपराधी अपराध को अपनी आजीविका का साध्य मानते हैं।
  6. श्वेतवसन अपराधी–ये अपराधी समाज में उच्च वर्ग के सदस्य होते हैं तथा महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक पदों अथवा व्यापार में लगे होते हैं।

प्रश्न 2
अपराध के चार प्रमुख कारण लिखिए।
उत्तर:
अपराध के चार प्रमुख कारण लिखिए।

  1. तलाक, मृत्यु, कलह आदि पारिवारिक दशाएँ।
  2. निर्धनता, बेरोजगारी एवं अशिक्षा जैसे आर्थिक कारक।
  3. औद्योगीकरण एवं नगरीकरण की प्रक्रियाएँ।
  4. विधवा पुनर्विवाह निषेध, वेश्यावृत्ति, देवदासी प्रथा आदि सामाजिक कुरीतियाँ।

प्रश्न 3
क्या मद्यपान भी अपराधों का कारण है ?
उत्तर:
मद्यपान (शराबखोरी) ने भी अपराधों को बढ़ावा दिया है। कई लोग सामान्य स्थिति में अपराध नहीं कर पाते, वे शराब पीकर अपराध करते हैं। यौन अपराध, लड़ाई-झगड़े, हत्या, घातक आक्रमण, जुआ, भ्रष्टाचार एवं वाहन द्वारा दुर्घटना आदि अपराध कई बार शराब पीकर ही

किये जाते हैं। शराब पीने पर व्यक्ति का मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है और उसमें उत्तेजना पैदा हो जाती है। परिणामस्वरूप वह अपराध कर बैठता है। शराबी व्यक्ति का अक्सर नैतिक पतन हो जाता है, वह उचित-अनुचित में भेद नहीं कर पाता और अपराध करने लगता है। ब्रुसेल्स ने अपने अध्ययन में यह पाया कि 70 प्रतिशत अपराधी शराब पीते थे। स्पष्ट है कि मद्यपान भी अपराध का एक प्रमुख कारण है।

प्रश्न 4
नगरीकरण कैसे अपराधों का एक कारक है ?
उत्तर:
औद्योगीकरण एवं नगरीकरण परस्पर सम्बन्धित प्रक्रियाएँ हैं। इसलिए जो परिस्थितियाँ औद्योगीकरण के कारण अपराध के लिए उत्तर:दायी हैं, लगभग वे ही परिस्थितियाँ नगरों में मौजूद हैं। नगरों में संयुक्त परिवारों का विघटन हो रहा है, वहाँ पर आवास-सुविधाओं का अभाव है, नवीनता का आकर्षण एवं फैशन नगरीय जीवन की विशेषताएँ हैं। व्यापारिक मनोरंजन, स्त्री-पुरुषों के अनुपात में अन्तर, स्त्रियों को मिलने वाली स्वतन्त्रता, नैतिकता के बदलते प्रतिमान, जाति एवं संयुक्त परिवार के नियन्त्रण का अभाव आदि कारक नगरीय जीवन में अपराध को जन्म देने में सहायक हो रहे हैं।

प्रश्न 5
औद्योगीकरण कैसे अपराधों का एक कारक है ?
उत्तर:
औद्योगीकरण ने हमारे सामाजिक जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन किये हैं। इसके कारण बड़े-बड़े नगरों का जन्म हुआ, लोगों में गतिशीलता बढ़ी, जाति का नियन्त्रण शिथिल हुआ, संयुक्त परिवार टूटे तथा सामुदायिक जीवन का ह्रास हुआ। मिल-मालिकों एवं मजदूरों के बीच संघर्ष बढ़ा, आए दिन हड़ताल, तोड़-फोड़, घेराव, तालाबन्दी और आगजनी जैसे सामूहिक अपराध होने लगे। औद्योगिक केन्द्रों में वेश्यावृत्ति, जुआखोरी एवं शराबी-वृत्ति में भी वृद्धि हुई।

प्रश्न 6
‘आयु भी अपराधों का एक प्रभावी कारक है, व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
अपराध एवं आयु में भी सह-सम्बन्ध पाया जाता है। सामान्यतः 20 से 24 वर्ष की आयु में ही अपराध अधिक किये जाते हैं, बचपन एवं वृद्धावस्था में कम। इंग्लैण्ड में पुरुषों द्वारा सर्वाधिक अपराध 12 से 15 वर्ष की आयु में तथा स्त्रियों द्वारा 15 से 17 वर्ष की आयु में किये गये। इसकी तुलना में अमेरिका में 18 से 44 वर्ष की आयु में अपराध अधिक हुए हैं। अपराध की प्रकृति के साथ-साथ अपराधियों की आयु में भी अन्तर पाया जाता है। हत्या एवं डकैती युवा लोगों द्वारा अधिक की जाती है, बच्चों द्वारा छोटे-छोटे झगड़े एवं चोरियाँ तथा वृद्धों द्वारा यौनसम्बन्धी अपराध अधिक किये जाते हैं। आयु का सम्बन्ध शारीरिक विकास से है। पूर्ण विकसित व्यक्ति ऐसे अपराध अधिक करता है जिनमें शारीरिक शक्ति की अधिक आवश्यकता होती है।

प्रश्न 7
अपराध के कारणों से सम्बन्धित आर्थिक सिद्धान्त के बारे में बताइए।
उत्तर:
कार्ल मार्क्स, एंजिल्स, विलियम बोंजर आदि का मत है कि अपराध आर्थिक कारणों से ही होते हैं। जब समाज में आर्थिक विषमता बढ़ती है, लोगों की भोजन, वस्त्र और निवास सम्बन्धी आवश्यक आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं होतीं, तो मजबूरन उन्हें अपराध का सहारा लेना पड़ता है। किन्तु यह मत एकपक्षीय है, क्योंकि आर्थिक कारणों के अलावा कई अन्य कारण भी अपराध के लिए उत्तर:दायी होते हैं।

प्रश्न 8
पैरोल (Parole) पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
पैरोल पर उन अपराधियों को छोड़ा जाता है जिन्हें लम्बी अवधि की सजा मिली हो और उसका कुछ भाग वे काट चुके हों। सजा काटने के दौरान यदि अपराधी का आचरण अच्छा रहता है तो जेल अधिकारी की सिफारिश पर उसे शेष सजा से मुक्ति मिल जाती है। पैरोल का उद्देश्य भी अपराधी का सुधार करना है। पैरोल पर छूटने वाले से अपेक्षा की जाती है कि वह कुछ शर्तों का पालन करेगा। ऐसा न करने पर उसे पुनः दण्ड भुगतने को कहा जाता है। पैरोल पर छूटे अपराधी की देखभाल के लिए पैरोल अधिकारी होता है। पैरोल से भी कई लाभ हैं; जैसे–

  1. राज्य के खर्चे में कमी आती है। तथा अच्छे आचरण को बढ़ावा मिलता है,
  2. जेल के दूषित वातावरण से अपराधी को शीघ्र मुक्ति मिल जाती है और
  3. उसे समाज से अनुकूलन करने का एक अवसर मिल जाता है।

प्रश्न 9
अपराध किसे कहते हैं? [2014]
उत्तर:

अपराध का अर्थ एवं परिभाषा

समाज की व्यवस्था बनाये रखने के लिए नियमों, कानूनों, प्रथाओं और परम्पराओं के अनुपालन पर बल दिया गया है। कुछ समाज-विरोधी ऐसे भी व्यक्ति होते हैं, जो नियमों और कानूनों का उल्लंघन करते हैं। उनके द्वारा किए गये राज्य–विरोधी या कानून-विरोधी कार्य ही अपराध कहलाते हैं।

अपराध एक ऐसा कार्य है, जो लोक-कल्याण के लिए अहितकर समझा जाता है तथा जिसे राज्य के द्वारा पारित कानून द्वारा निषिद्ध कर दिया जाता है। इसके उल्लंघनकर्ता को दण्ड दिया जाता है। अपराध को लैण्डिस तथा लैण्डिस ने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है
लैण्डिस तथा लैण्डिस के अनुसार, “अपराध वह कार्य है जिसे राज्य ने समूह-कल्याण के लिए हानिकारक घोषित किया है और जिसके लिए राज्य पर दण्ड देने की शक्ति है।”

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
इलियट और मैरिल के अनुसार अपराध की क्या परिभाषा है?
उत्तर:
इलियट और मैरिल के अनुसार, “समाज-विरोधी व्यवहार जो कि समूह द्वारा अस्वीकार किया जाता है, जिसके लिए समूह दण्ड निर्धारित करता है, अपराध के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।”

प्रश्न 2
डॉ० हैकरवाल ने अपराध की क्या परिभाषा दी है ?
उत्तर:
डॉ० हैकरवाल ने अपराध के सामाजिक पक्ष को प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि, सामाजिक दृष्टिकोण से अपराध व्यक्ति का एक ऐसा व्यवहार है जो कि उन मानव सम्बन्धों की व्यवस्था में बाधा डालता है, जिन्हें समाज अपने अस्तित्व के लिए प्राथमिक दशा के रूप में स्वीकार करता है।”

प्रश्न 3
‘अपराधी जन्मजात होते हैं। यह कथन किसका है ? [2007, 08, 09, 11, 12, 13, 14, 15]
उत्तर:
यह कथन लॉम्ब्रोसो का है।

प्रश्न 4
“समाज की असन्तुलित आर्थिक व्यवस्था ही अपराध का प्रमुख कारण है।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
यह कथन प्रसिद्ध विद्वान् लॉम्ब्रोसो का है।

प्रश्न 5
“अपराध का प्रमुख सम्बन्ध जलवायु से है। जलवायु तथा मौसम में परिवर्तन होने के साथ ही अपराधी में भी परिवर्तन देखने को मिलता है।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
यह कथन प्रसिद्ध विद्वान् क्वेटलेट का है।

प्रश्न 6
यह कथन किसका है-‘अपराधी बनाये जाते हैं ? [2009, 10, 15, 16]
या
“अपराधी समाज द्वारा बनाए जाते हैं?” किसका कथन है? [2016, 17]
उत्तर:
सदरलैण्ड का।

प्रश्न 7
“करुणा और ईमानदारी की प्रचलित भावनाओं का उल्लंघन ही अपराध है।” यह किसका कथन है ?
उत्तर:
यह कथन गैरोफैलो का है।

प्रश्न 8
‘अपराध सीखा हुआ व्यवहार है।’ यह कथन किसका है ?
उत्तर:
यह कथन ‘सदरलैण्ड’ का है।

प्रश्न 9
अपराध सम्बन्धी कैलेण्डर किसने बनाया ?
उत्तर:
अपराध सम्बन्धी कैलेण्डर लैकेसन ने बनाया।

प्रश्न 10
अपराधों के कारणों से सम्बन्धित समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक कौन हैं?
उत्तर:
अपराधों के कारणों से सम्बन्धित समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक सदरलैण्ड

प्रश्न 11
अपराध के लिए जैविकीय कारकों को उत्तर:दायी ठहराने वाले समाजशास्त्री कौन हैं?
उत्तर:
अपराध के लिए जैविकीय कारकों को उत्तर:दायी ठहराने वाले समाजशास्त्री लॉम्ब्रोसो

प्रश्न 12
‘आर्थिक निर्धारणवाद’ अवधारणा से कौन समाजशास्त्री सम्बन्धित है ?
उत्तर:
आर्थिक निर्धारणवाद’ अवधारणा से सदरलैण्ड सम्बन्धित हैं।

प्रश्न 13
‘प्रिन्सिपल्स ऑफ क्रिमिनोलॉजी’ नामक पुस्तक के लेखक कौन हैं ?
उत्तर: ‘
प्रिन्सिपल्स ऑफ क्रिमिनोलॉजी’ नामक पुस्तक के लेखक सदरलैण्ड हैं।

प्रश्न 14
लॉम्ब्रोसो ने अपराधियों को कितने भागों में बाँटा ?
उत्तर:
लॉम्ब्रोसो ने अपराधियों को निम्नलिखित चार भागों में बाँटा है-

  1. जन्मजाते,
  2. अपस्मारी,
  3. आकस्मिक तथा
  4. आवेगयुक्त अपराधी।

प्रश्न 15
किसी भी समाज का अपराध से पूर्णतया रहित हो पाना सम्भव है। (सत्य/असत्य) [2017]
उत्तर:
असत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
‘अपराधिक कैलेण्डर’ के प्रतिपादक कौन थे ?
(क) समनर
(ख) जिंन्सबर्ग।
(ग) कार्ल मार्क्स
(घ) हंटिंग्टन और क्वेटलेट
उत्तर:
(घ) हंटिंग्टन और क्वेटलेट

प्रश्न 2.
कौन-सा सिद्धान्त अपराध की व्याख्या सुख-दुःख की धारणा के आधार पर करता है ?
(क) बहुकारकीय
(ख) जैविकीय
(ग) शास्त्रीय
(घ) आर्थिक
उत्तर:
(ग) शास्त्रीय

प्रश्न 3.
श्वेतवसन अपराध अवधारणा से कौन समाजशास्त्री जुड़ा है ? [2008, 10]
(क) सदरलैण्ड
(ख) लॉम्ब्रोसो
(ग) कार्ल मार्क्स
(घ) एंजिल्स
उत्तर:
(क) सदरलैण्ड

प्रश्न 4.
अपराध के शास्त्रीय सिद्धान्त से सम्बन्धित हैं [2011, 17]
या
अपराध के शास्त्रीय सिद्धान्त के प्रवर्तक कौन हैं? [2015, 16]
(क) बेन्थम
(ख) मॉण्टेस्क्यू
(ग) बकल
(घ) कार्ल मार्क्स
उत्तर:
(क) बेन्थम

प्रश्न 5.
अच्छे आचरण के कारण बन्दीगृह से अस्थायी मुक्ति को कहते हैं
(क) प्रोबेशन
(ख) पैरोल
(ग) मुक्ति सहायता
(घ) आचरण मुक्ति
उत्तर:
(ख) पैरोल

प्रश्न 6.
सदरलैण्ड किस पुस्तक के लेखक थे ?
(क) सोशल डिसऑर्गेनाइजेशन
(ख) सोशल चेंज
(ग) प्रिन्सिपल्स ऑफ क्रिमिनोलॉजी
(घ) सोसायटी
उत्तर:
(ग) प्रिन्सिपल्स ऑफ क्रिमिनोलॉजी।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi पत्रों के प्रकार या भेद

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Subject Samanya Hindi
Chapter Name पत्रों के प्रकार या भेद
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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi पत्रों के प्रकार या भेद

कौन, किसको, किस विषय पर, किन परिस्थितियों में पत्र लिख रहा है, इस आधार पर पत्रों के अनेक भेद होते हैं, जिनमें से मुख्य इस प्रकार हैं-

(1) निजी/व्यक्तिगत/घरेलू या पारिवारिक पत्र–परिवार के विभिन्न सदस्यों, निकट सम्बन्धियों या घनिष्ठ मित्रों को भिन्न-भिन्न उद्देश्यों से विभिन्न अवसरों पर लिखे जाने वाले पत्र इस वर्ग में आते हैं।

(2) सामाजिक पत्र-निमन्त्रण-पत्र, बधाई-पत्र, शोक-पत्र, सान्त्वना-पत्र, परिचय-पत्र, संस्तुति-पत्र, आभार या धन्यवाद-पत्र आदि प्रायः सामाजिक सम्बन्धों के कारण लिखे जाते हैं। अत: ये सामाजिक पत्रों की श्रेणी में आते हैं।

(3) व्यापारिक या व्यावसायिक पत्र-विभिन्न व्यापारिक या औद्योगिक संस्थानों के पारस्परिक पत्र, व्यापारिक संस्थाओं की ओर से समाज के किसी व्यक्ति को और समाज के किसी व्यक्ति की ओर से व्यावसायिक संस्थाओं को लिखे गये उद्योग-व्यापार सम्बन्धी पत्र इसी श्रेणी में आते हैं।

(4) सरकारी/शासकीय/प्रशासकीय या आधिकारिक पत्र–इस वर्ग में विभिन्न सरकारी कार्यालयों के पत्र आते हैं, जिनके दशाधिक उपभेद हैं।

(5) आवेदन-पत्र-किसी विशेष उद्देश्य से लिखे गये प्रार्थना-
पत्र आवेदन-पत्र (Application) कहलाते हैं। प्रवेश लेने, शुल्क मुक्ति कराने, विद्यालय छोड़ने के कारण अपनी धरोहर-राशि वापस माँगने, चरित्र प्रमाणपत्र आदि लेने के लिए विद्यार्थियों द्वारा प्राचार्य को आवेदन-पत्र लिखे जाते हैं। कहीं भी नौकरी/पदोन्नति पाने, अवकाश माँगने या बैंक/बीमा निगम आदि से ऋण लेने के लिए भी आवेदन करना पड़ता है। इस प्रकार आवेदन की आवश्यकता के अनुसार इसके अनेक उपभेद भी होते हैं।

(6) शिकायती-पत्र-किसी व्यक्तिगत या सामाजिक समस्या के लिए हमें अनेक बार सम्बन्धित अधिकारियों को शिकायती पत्र लिखने पड़ते हैं।

(7) सम्पादक के नाम पत्र-वर्तमान युग में समाचार-पत्रों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। समस्याओं के उचित समाधान के लिए समाचार-पत्र के माध्यम से आवाज उठाना विशेष प्रभावकारी होता है; अतः समाज की विभिन्न समस्याओं के लिए सम्पादक के नाम पत्र लिखना एक विशेष कला है। सभी दैनिक समाचार-पत्रों में विभिन्न शीर्षकों से सम्पादक के नाम पत्र छपते हैं, जिससे उच्चाधिकारियों तक बात पहुँचती है और समाधान शीघ्र हो जाता है।

(8) विविध पत्र–उपर्युक्त श्रेणियों के अतिरिक्त जो पत्र बचते हैं, उन्हें इसी वर्ग में रखा जाता है।

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 15 Problems of Women Education

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 15 Problems of Women Education (स्त्री-शिक्षा की समस्याएँ) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 15 Problems of Women Education (स्त्री-शिक्षा की समस्याएँ).

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Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 15
Chapter Name Problems of Women Education
(स्त्री-शिक्षा की समस्याएँ)
Number of Questions Solved 39
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 15 Problems of Women Education (स्त्री-शिक्षा की समस्याएँ)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारत में स्त्री-शिक्षा की मुख्य समस्याओं का उल्लेख कीजिए।
या
भारत में बालिकाओं की शिक्षा की मुख्य समस्याएँ क्या हैं? इन्हें कैसे दूर किया जा सकता है? [2007]
या
बालिकाओं की शिक्षा के प्रसार में आने वाली कठिनाइयाँ बताइए। इनके समाधान हेतु सुझाव दीजिए। [2008, 13]
या
स्त्री शिक्षा का क्या महत्त्व है? स्त्री-शिक्षा के विकास में क्या-क्या समस्याएँ हैं? [2016]
या
भारत में स्त्री-शिक्षा प्रसार में आने वाली बाधाओं का उल्लेख कीजिए। [2015]
उत्तर :
स्त्री-शिक्षा का महत्त्व
समाज तथा घर में स्त्री का स्थान महत्त्वपूर्ण होता है। अतः स्त्रियों का शिक्षित होना जरूरी है। आज की बालिका कल की स्त्री है, जिस पर पूरे परिवार का दायित्व होता है। अत: बालिका शिक्षा (स्त्री) भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितनी बालक की शिक्षा। स्त्री-शिक्षा के महत्त्व का विवरण निम्नलिखित है।

1. पारिवारिक उन्नति :
शिक्षित स्त्री अपने परिवार में विभिन्न मूल्यों का विकास तथा बच्चों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दे सकती है।

2. सामाजिक उत्थान :
समाज के सतत् उत्थान के लिए भी शिक्षित नारियों का सहयोग आवश्यक है।

3. सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करना :
सती प्रथा, पर्दा प्रथा, छुआछूत, अन्धविश्वास, दहेज प्रथा आदि को समाप्त करने के लिए स्त्री-शिक्षा आवश्यक है।

4. प्रजातन्त्र को सफल बनाना :
पुरुषों के समान अधिकार एवं कर्तव्य प्राप्त कराने तथा उनके प्रति चेतना जाग्रत कर प्रजातन्त्र को सफल बनाने की दृष्टि से स्त्री-शिक्षा का प्रसार आवश्यक है।

स्त्री-शिक्षा की समस्याएँ
इसमें सन्देह नहीं कि स्वाधीन भारत में स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति हुई है, लेकिन कुछ समस्याएँ तथा कठिनाइयाँ स्त्री-शिक्षा के मार्ग में बाधक बनी हुई हैं। इन समस्याओं/कठिनाइयों/बाधाओं का विवरण निम्नलिखित है।

1. सामाजिक कुप्रथाएँ एवं अन्धविश्वास :
भारतीय समाज अनेक सामाजिक रूढ़ियों एवं अन्धविश्वासों से ग्रस्त है। शिक्षा के अभाव में आज भी अधिकांश लोग प्राचीन परम्पराओं एवं विचारों के कट्टर समर्थक हैं। उनका विचार है कि बालिकाओं को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उन्हें विवाह करके पति के घर ही जाना है। वह शिक्षित और स्वच्छन्द बालिकाओं को चरित्रहीन भी समझते हैं। कुछ परिवारों में आज भी बाल-विवाह और परदा-प्रथा विद्यमान है, जिनके कारण स्त्री-शिक्षा के प्रसार में बाधा उत्पन्न हो रही है।

2. जनसाधारण में शिक्षा का कम प्रसार :
आज भी देश की अधिकांश जनता अशिक्षित है और शिक्षा के सामाजिक तथा सांस्कृतिक महत्त्व से अनभिज्ञ है। अधिकांश लोग शिक्षा को निरर्थक और समय का अपव्यय समझते हैं। उनका विचार है कि शिक्षा केवल व्यावसायिक या राजनीतिक लाभ के लिए ही ग्रहण की जाती है। इस दृष्टि से केवल लड़कों को ही शिक्षित करना उचित है।

3. निर्धनता तथा पिछडापन :
वर्तमान समय में भारत की अधिकांश जनता निर्धन है और उसका जीवन-स्तर काफी पिछड़ा हुआ है। हमारे ग्रामीण क्षेत्र आज भी अविकसित दशा में हैं और वहाँ जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएँ भी सुलभ नहीं हो पाती हैं। धन के अभाव के कारण वे अपने बालकों को ही शिक्षा नहीं दिला पाते हैं, फिर बालिकाओं को विद्यालय भेजना तो एक असम्भव बात है।

4. संकीर्ण दृष्टिकोण :
भारत में लोगों का स्त्रियों के प्रति बहुत संकीर्ण दृष्टिकोण पाया जाता है। अशिक्षा के कारण अधिकांश व्यक्ति यह कहते हैं कि स्त्रियों को केवल घर-गृहस्थी का कार्य भार सँभालना है, इसलिए अधिक पढ़ाने-लिखाने की आवश्यकता नहीं है। शिक्षा प्राप्त करने पर स्त्रियाँ घर के काम नहीं कर सकेंगी। इस प्रकार के संकीर्ण दृष्टिकोण स्त्री-शिक्षा के प्रसार में बाधक सिद्ध हो रहे हैं।

5. बालिका-शिक्षा के प्रति अनुचित दृष्टिकोण :
भारत में अधिकांश लोग अपने बालकों को शिक्षा नौकरी प्राप्त करने के सामाजिक कुप्रथाएँ एवं उद्देश्य से दिलाते हैं और लड़कियों को शिक्षा इसलिए देते हैं, अन्धविश्वास जिससे उनका विवाह अच्छे परिवार में हो जाए। इस अनुचित दृष्टिकोण के कारण विवाह होते ही लड़कियों की पढ़ाई बन्द करा दी जाती है।

6. शिक्षा में अपव्यय :
शिक्षा सम्बन्धी आँकड़ों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि बालकों की अपेक्षा बालिकाओं की शिक्षा पर अधिक अपव्यय होता है। वस्तुत: अधिकांश अभिभावक, के पास धनाभाव और पूर्ण सुविधाओं के उपलब्ध न होने के कारण अधिकांश छात्राएँ निर्धारित अवधि से पूर्व ही पढ़ना छोड़ देती हैं। इस कारण अनेक बालिकाएँ समुचित शिक्षा प्राप्त करने से वंचित तथा रह जाती हैं।

7. पाठ्यक्रम का उपयुक्त न होना :
हमारे देश में शिक्षा के सभी स्तरों पर बालक-बालिकाओं के लिए समान पाठ्यक्रम, पुस्तकें और परीक्षाएँ हैं। अत: अधिकांश लोग इस प्रकार की शिक्षा के विरोधी हैं, क्योंकि उनका विचार है कि बालिकाओं की शारीरिक, मानसिक और सामाजिक आवश्यकताएँ बालकों से भिन्न होती हैं। अतः एक-समान पाठ्यक्रम बालिकाओं के लिए उपयुक्त नहीं होता। इस ज्ञान-प्रधान और पुस्तक-प्रधान पाठ्यक्रम का बालिकाओं के वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता।

8. बालिका विद्यालयों तथा अध्यापिकाओं की कमी :
शिक्षा के सभी स्तरों पर हमारे देश में बालिका विद्यालयों की कमी है। देश में लगभग दो-तिहाई ग्राम ऐसे हैं, जहाँ प्राथमिक शिक्षा के लिए ही कोई व्यवस्था नहीं है। शेष एक-तिहाई ग्रामों में से अधिकांश में बालिकाओं को बालकों के साथ ही प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती है। यही स्थिति माध्यमिक और उच्च शिक्षा के स्तरों पर भी है। अतः सहशिक्षा के कारण भी स्त्री-शिक्षा के प्रसार में बाधा पहुँच रही है। इसी प्रकार प्रशिक्षित अध्यापिकाओं की भी कमी है। अनेक शिक्षित स्त्रियाँ अपने अभिभावकों और पति की अनिच्छा के कारण चाहते हुए भी नौकरी नहीं कर पातीं।

9. दोषपूर्ण शैक्षिक प्रशासन :
भारत में लगभग सभी राज्यों में स्त्री-शिक्षा का प्रशासन पुरुष अधिकारियों के हाथ में है, परन्तु स्त्री-शिक्षा की समस्याओं से पूर्णतया अवगत न होने के कारण और अरुचि के कारण स्त्री-शिक्षा का समुचित विकास नहीं हो पा रहा है।

10. सरकार की उदासीनता :
सरकार स्त्री-शिक्षा के प्रति उतनी जागरूक नहीं है, जितनी कि बालकों की शिक्षा के प्रति है। इस कारण ही स्त्री-शिक्षा के विकास पर बहुत कम धन व्यय किया जा रहा है। सरकार की इस उपेक्षापूर्ण नीति के कारण स्त्री-शिक्षा का वांछित विकास नहीं हो पा रहा है।

(संकेत : समाधान हेतु सुझावों के लिए निम्नलिखित प्रश्न 2 का उत्तर देखें।)

प्रश्न 2
स्त्री-शिक्षा से सम्बन्धित समृस्याओं के समाधान के उपायों का उल्लेख कीजिए। [2007, 08]
या
बालिकाओं की शिक्षा में बाधक तत्त्वों का निराकरण किस प्रकार किया जा सकता है? [2013]
या
महिला शिक्षा की प्रगति हेतु किये गये प्रयासों का वर्णन कीजिए। [2015]
उत्तर :
स्त्री-शिक्षा की समस्याओं का समाधान
स्त्री-शिक्षा के विकास में यद्यपि अनेक बाधाएँ हैं, परन्तु यदि धैर्यपूर्वक इन बाधाओं का सामना किया जाए तो इन पर विजय प्राप्त की जा सकती है। यहाँ हम स्त्री-शिक्षा की समस्याओं को हल करने के लिए निम्नांकित सुझाव प्रस्तुत कर रहे हैं।

1. रूढ़िवादिता का उन्मूलन :
जब तक समाज में रूढ़िवादिता का उन्मूलने नहीं किया जाएगा, तब तक स्त्री-शिक्षा का विकास सम्भव नहीं है। इसलिए निम्नलिखित कदम उठाये जाने चाहिए।

  • बाल-विवाह के विरुद्ध व्यापक अभियान चलाया जाए तथा इसकी हानियों से जनसाधारण को अवगत कराया जाए।
  • सामाजिक रूढ़ियों को समाप्त करने के लिए समाज शिक्षा का प्रसार प्रभावशाली ढंग से किया जाए।
  • स्त्रियों के प्रति आदर की भावना उत्पन्न करने तथा परदा-प्रथा की निरर्थकता सिद्ध करने के प्रयास किये जाएँ।
  • ऐसा सचित्र साहित्य प्रचारित किया जाए, जिसमें देश-विदेश की महिलाओं की सामाजिक गतिविधियों का उल्लेख हो।
  • ऐसी फिल्मों का प्रदर्शन किया जाए, जिनमें सामाजिक रूढ़ियों का विरोध किया गया हो।

2. अपव्यय और अवरोधन का उपचार :
स्त्री-शिक्षा में अपव्यय और अवरोधन को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाएँ

  • विद्यालय के वातावरण को आकर्षक बनाया जाए।
  • पाठ्यक्रम को यथासम्भव रोचक तथा उपयोगी बनाया जाए।
  • रोचक और मनोवैज्ञानिक शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाए।
  • परीक्षा प्रणाली में सुधार किया जाए।
  • अंशकालीन शिक्षा का प्रबन्ध किया जाए।
  • शिक्षण में खेल विधियों का उपयोग किया जाए।
  • स्त्री-शिक्षा के प्रति अभिभावकों के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाया जाए।

3. भिन्न पाठ्यक्रम की व्यवस्था :
बालिकाओं के पाठ्यक्रम में भी पर्याप्त परिवर्तन की आवश्यकता है। यह बात ध्यान में रखने की है कि बालक और बालिकाओं की व्यक्तिगत क्षमताओं, अभिवृत्तियों और रुचियों में भिन्नता होती है। अतः पाठ्यक्रम के निर्धारण में इस तथ्य की उपेक्षा न की जाए। बालिकाओं के पाठ्यक्रम सम्बन्धी प्रमुख सुझाव निम्नलिखित हैं

  • प्राथमिक स्तर पर बालक-बालिकाओं के पाठ्यक्रम में समानता रखी जा सकती है।
  • माध्यमिक स्तर पर पाकशास्त्र, गृहविज्ञान, सिलाई, कताई, बुनाई आदि की शिक्षा प्रदान की जाए।
  • उच्च स्तर पर गृह अर्थशास्त्र, गृह प्रबन्ध, गृह शिल्प आदि की शिक्षा का प्रबन्ध किया जाए। उन्हें संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा विशेष रूप से दी जाए।
  • प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर बालिकाओं के लिए।

4. ग्रामीण दृष्टिकोण में परिवर्तन :
ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक पैमाने पर समाज शिक्षा का प्रसार किया जाए तथा विभिन्न गोष्ठियों और आन्र्दोलनों के द्वारा ग्रामीण दृष्टिकोण में परिवर्तन करने का प्रयास किया जाए। ग्रामवासियों को शिक्षा का महत्त्व समझाया जाए तथा स्त्री-शिक्षा के प्रति जो उनकी परम्परागत विचारधाराएँ हैं, उनका उन्मूलन किया जाए।

5. आर्थिक समस्या का समाधान :
आर्थिक समस्या को हल करने के लिए केन्द्र सरकार का कर्तव्य है कि वह राज्य सरकारों को पर्याप्त अनुदान दे। राज्य सरकारों का कर्तव्य है कि वे अनुदान उचित मात्रा में उचित स्त्री-शिक्षा के लिए करें तथा बालिका विद्यालयों को इतनी आर्थिक सहायता दें कि वे अपने यहाँ अधिक-से-अधिक बालिकाओं को प्रवेश दे सकें।

6. जनसाधारण के दृष्टिकोण में परिवर्तन :
स्त्री-शिक्षा के विकास के लिए जनसाधारण को शिक्षा के वास्तविक अर्थ बताये जाएँ तथा उनके उद्देश्यों पर व्यापक दृष्टि से प्रकाश डाला जाए। शिक्षा को केवल नौकरी प्राप्त करने का साधन न माना जाए। शिक्षा के महत्त्व और लाभों का ज्ञान कराने के लिए फिल्मों, प्रदर्शनियों तथा व्याख्यानों आदि का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया जाए। जब हमारे देश के पुरुष वर्ग का शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण बदल जाएगा और वह यह समझने लगेगा कि सुयोग्य नागरिकों का निर्माण सुयोग्य व शिक्षित माताओं द्वारा ही सम्भव है, तो स्त्री-शिक्षा के मार्ग में आने वाली समस्याओं का समाधान स्वतः ही हो जाएगा।

7. बालिका विद्यालयों की स्थापना :
सरकार का कर्तव्य है कि यथासम्भव अधिक-से-अधिक बालिका-विद्यालयों की स्थापना करे। माध्यमिक स्तर पर अधिक-से-अधिक विद्यालय खोलने की आवश्यकता है। जो बालिका विद्यालय अमान्य हैं, उन्हें सरकार द्वारा शीघ्र ही मान्यता दी जाए। धनी और सम्पन्न व्यक्तियों को बालिका विद्यालयों की स्थापना हेतु अधिक-से-अधिक आर्थिक सहायता के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

8. अध्यापिकाओं की पूर्ति :
बालिका विद्यालयों में अध्यापिकाओं की पूर्ति के लिए निम्नलिखित बातों पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है

  • अध्यापन कार्य के प्रति अधिक-से-अधिक महिलाएँ आकर्षित हों, इसके लिए अध्यापिकाओं के वेतन में वृद्धि की जाए।
  • जिन अध्यापिकाओं के पति भी अध्यापक हैं, उन्हें एक-साथ रहने की सुविधाएँ प्रदान करना तथा उनका स्थानान्तरण भी एक स्थान पर ही करना।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में अध्यापिकाओं को भी आवश्यकता पड़ने पर नियुक्त करना।
  • अप्रशिक्षित अध्यापिकाओं को भी आवश्यकता पड़ने पर नियुक्त करना।
  • महिलाओं को आयु सम्बन्धी छूट प्रदान करना।
  • शिक्षण कार्य में रुचि रखने वाली बालिकाओं को पर्याप्त आर्थिक सहायता प्रदान करना।
  • वर्तमान प्रशिक्षण संस्थाओं का विस्तार करना तथा नवीन महिला प्रशिक्षण संस्थाओं की स्थापना करना।

9. शिक्षा प्रशासन में सुधार :
स्त्री-शिक्षा का सम्पूर्ण प्रशासन पुरुष वर्ग के हाथ में न होकर स्त्री वर्ग के हाथ में होना चाहिए। सरकार का कर्तव्य है कि वह प्रत्येक राज्य में एक उपशिक्षा संचालिका तथा उसकी अधीनता में विद्यालय निरीक्षिकाओं की नियुक्ति करे। स्त्री निरीक्षिकाओं द्वारा ही बालिका विद्यालयों का निरीक्षण किया जाए। बालिकाओं के लिए पाठ्यक्रम तथा शिक्षा नीति का निर्धारण भी महिला शिक्षार्थियों द्वारा किया जाए।

10. शिक्षा की उदार नीति :
सरकार का कर्तव्य है कि वह स्त्री-शिक्षा के प्रति उदार नीति अपनाये। स्त्री-शिक्षा की उपेक्षा न करके उसे राष्ट्रीय हित की योजना माना जाए तथा विभिन्न साधनों द्वारा स्त्री-शिक्षा के प्रसार में योगदान प्रदान किया जाए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
“नारी सशक्तिकरण के लिए शिक्षा आवश्यक है।” इस कथन के सन्दर्भ में अपने विचार व्यक्त कीजिए। [2010]
या
भारत में नारी शिक्षा के विकास पर टिप्पणी कीजिए। [2012]
उत्तर :
पारस्परिक रूप से हमारा समाज पुरुष-प्रधान रहा है तथा समाज में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को कम अधिकार प्राप्त रहे। महिलाओं को कम स्वतन्त्रता प्राप्त थी तथा उन्हें समाज़ में अबला ही माना जाता था। परन्तु अब स्थिति एवं सोच परिवर्तित हो चुकी है। अब यह माना जाने लगा है कि समाज एवं देश की प्रगति के लिए समाज में महिलाओं को भी समान अधिकार, अवसर एवं सत्ता प्राप्त होनी चाहिए। इसीलिए हर ओर नारी सशक्तिकरण की बात कही जा रही है। नारी सशक्तिकरण की अवधारणा को स्वीकार कर लेने पर यह भी अनुभव किया गया कि “नारी सशक्तिकरण के लिए शिक्षा आवश्यक है।

वास्तव में जब समाज में स्त्रियाँ शिक्षित होंगी तो उनमें जागरूकता आएगी तथा वे अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों को भी समझ सकेंगी। इसके अतिरिक्त शिक्षित नारी पारम्परिक रूढ़ियों एवं अन्धविश्वासों से भी मुक्त हो पाएँगी। शिक्षा प्राप्त नारियाँ विभिन्न व्यवसायों एवं नौकरियों में पदार्पण करके आर्थिक रूप से भी स्वतन्त्र होंगी। इससे जहाँ एक ओर वे पुरुषों की आर्थिक निर्भरता से मुक्त होंगी वहीं उनमें एक विशेष प्रकार का आत्म-विश्वास जाग्रत होगा। इस स्थिति में न तो उन्हें अबला माना जाएगा और न ही उनका शोषण ही हो पाएगा। इन समस्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है। कि नारी सशक्तिकरण के लिए शिक्षा आवश्यक है।

प्रश्न 2
प्राचीन काल में भारतीय समाज में स्त्री-शिक्षा की क्या स्थिति थी?
उत्तर :
प्राचीन काल में स्त्री-शिक्षा काफी उन्नति पर थी। उस समय स्त्रियाँ वैदिक साहित्य का अध्ययन और अनुशीलन करती थीं। मैत्रेयी, गार्गी, अपाला, घोषा, लोपामुद्रा आदि महिलाओं ने तो वैदिक संहिताओं की भी रचना की है। स्त्रियाँ विविध शास्त्रों की पण्डित होती थीं और कभी-कभी तो वे न केवल शास्त्रार्थ में भाग लेकर पुरुषों की बराबरी करती थीं, अपितु उन्हें शास्त्रार्थों में मध्यस्थ भी बनाया जाता था। इस बात के भी अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं कि सभी धार्मिक कार्यों में पति के साथ पत्नी को भाग लेना अनिवार्य था और यह तभी सम्भव था जब वे शिक्षित हों।

वैदिककाल के बाद बौद्ध काल में भी स्त्री-शिक्षा को कुछ प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। बौद्ध शिक्षकों ने मठों में रहने वाली बौद्ध भिक्षुणियों के लिए समुचित शिक्षा-व्यवस्था की थी, लेकिन स्त्री-शिक्षा की यह दशा अधिक दिनों तक न रह सकी। बौद्ध धर्म के पतन के बाद जब हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान हुआ तबे स्त्री-शिक्षा प्रसार के सभी प्रयासों को निरुत्साहित किया गया, क्योंकि पुनरुत्थान आन्दोलन के नेता शंकराचार्य स्त्री-शिक्षा के विरोधी थे।

प्रश्न 3
मध्यकाल में भारतीय समाज में स्त्री-शिक्षा की क्या स्थिति थी?
उत्तर :
भारत में मुस्लिम सत्ता की स्थापना हो जाने से देशभर में हिन्दू और मुस्लिम दोनों समाजों में परदा-प्रथा का बहुत अधिक प्रचलन हो गया तथा हिन्दुओं में बाल-विवाह की प्रथा भी आरम्भ हो गयी। अतः अल्प आयु की कुछ बालिकाएँ भले ही थोड़ा-बहुत ज्ञान प्राप्त कर लेती हों, लेकिन उच्च शिक्षा से वे वंचित ही रहती थीं।

केवल धनी परिवारों की स्त्रियाँ ही घर पर शिक्षा प्राप्त करती थीं, लेकिन जनसाधारण वर्ग की स्त्रियों के लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। इसीलिए रजिया बेगम, नूरजहाँ, जहाँआरा, जेबुन्निसा, मुक्ताबाई आदि बहुत थोड़ी विदुषी महिलाएँ ही इस युग में हुईं। 18वीं शताब्दी में स्त्री-शिक्षा का इतना ह्रास हो गया कि 19वीं शताब्दी के आरम्भ में केवल एक प्रतिशत बालिकाएँ ही पढ़-लिख सकती थीं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
स्त्री-शिक्षा अथवा बालिका शिक्षा को आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण क्यों माना जाता है? [2007]
या
टिप्पणी लिखिए-नारी शिक्षा का महत्त्व। [2007]
उत्तर :
एक विद्वान का कथन है, एक लड़के की शिक्षा एक व्यक्ति की शिक्षा है, परन्तु एक लड़की की शिक्षा पूरे परिवार की शिक्षा है। प्रस्तुत कथन द्वारा स्पष्ट होता है कि बालिका-शिक्षा अधिक आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में आज की बालिका सुशिक्षित है तो एक भावी परिवार उससे लाभान्वित होगा। सुशिक्षित गृहिणी अपने घर-परिवार की सुव्यवस्था बनाये रखती है तथा बच्चों को शिक्षित बनाने में भरपूर योगदान प्रदान कर सकती है। बालिकाओं की शिक्षा से समाज की कुरीतियों को समाप्त करने में योगदान प्राप्त होता है तथा सामाजिक उत्थान में सहायता प्राप्त होती है।

प्रश्न 2
टिप्पणी लिखिए-स्त्री-शिक्षा तथा सहशिक्षा। [2007]
उत्तर :
स्त्री-शिक्षा तथा सहशिक्षा सहशिक्षा वह शिक्षा-व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत लड़के तथा लड़कियाँ एक स्थान पर एक समय, एक पाठ्यक्रम, एक विधि तथा एक प्रशासन के अन्तर्गत अध्ययन करते हैं।

सहशिक्षा की आवश्यकता तथा महत्त्व

  1. सहशिक्षा के आधार पर शिक्षा के समान अवसर, सुविधाएँ तथा अधिकार मिलते हैं।
  2. लड़के और लड़कियों में परस्पर सहयोग तथा विश्वास विकसित होता है।
  3. एक-दूसरे के प्रति जिज्ञासाएँ सन्तुष्ट होती हैं।
  4. स्त्री को स्वतन्त्र सामाजिक वातावरण, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा नागरिक अधिकार मिलते हैं, जो सहशिक्षा में ही सम्भव हैं।
  5. स्त्री-शिक्षा का ‘अलग प्रबन्ध खर्चीला होता है। सहशिक्षा में बचत होती है।

सहशिक्षा का प्रसार
सहशिक्षा के प्रसार के लिए स्त्री-शिक्षा समिति ने निम्नलिखित सुझाव दिए हैं

  1. सहशिक्षा पर आधारित विद्यालय सुसंगठित हो।
  2. सहशिक्षा के विद्यालयों की संख्या बढ़ाई जाए।
  3. इस प्रणाली को प्राथमिक स्तर पर ही लागू किया जाए।
  4. सहशिक्षा से सम्बन्धित विद्यालयों में संगीत, गृह विज्ञान, नृत्य, चित्रकला आदि विषयों की पूर्ण व्यवस्था हो।
  5. इस प्रणाली की जानकारी अभिभावकों को दी जाए जिससे यह विकसित हो सके।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
परिवार में माता का योग्य एवं सुशिक्षित होना क्यों आवश्यक है?
उत्तर :
माता योग्य एवं सुशिक्षित है तो वह अपने बच्चों को भी योग्य एवं सुशिक्षित बना सकती है।

प्रश्न 2
नारी-शिक्षा का परिवार की आर्थिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
नारी-शिक्षा का परिवार की आर्थिक स्थिति पर अच्छा प्रभाव पड़ता है क्योंकि शिक्षित गृहस्वामिनी परिवार की आय-वृद्धि में समुचित योगदान दे सकती है।

प्रश्न 3
स्त्री-शिक्षा प्रसार का समाज में स्त्रियों की स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
स्त्री-शिक्षा प्रसार से समाज में नारी-सशक्तिकरण को बल मिलता है।

प्रश्न 4
किस काल में हमारे देश में स्त्री-शिक्षा की दुर्दशा थी?
उत्तर :
मध्यकाल में हमारे देश में स्त्री-शिक्षा की दुर्दशा थी।

प्रश्न 5
ब्रिटिश काल में सर्वप्रथम बालिका विद्यालय किनके द्वारा स्थापित किये गये थे?
उत्तर :
ब्रिटिश काल में सर्वप्रथम ईसाई मिशनरियों द्वारा बालिका विद्यालय स्थापित किये गये थे।

प्रश्न 6
हमारे देश में किन क्षेत्रों में स्त्री-शिक्षा का कम प्रसार हुआ है?
उत्तर :
हमारे देश में ग्रामीण तथा पिछड़े क्षेत्रों में स्त्री-शिक्षा का कम प्रसार हुआ है।

प्रश्न 7
प्राचीनकालीन कुछ सुशिक्षित महिलाओं के नामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
प्राचीनकाल की कुछ सुशिक्षित महिलाएँ थीं-मैत्रेयी, गार्गी, अपाला, घोषा तथा लोपामुद्रा आदि।

प्रश्न 8
मध्यकाल में भारत में स्त्री-शिक्षा की कैसी व्यवस्था थी?
उत्तर :
मध्यकाल में भारत में स्त्री-शिक्षा की व्यवस्था सन्तोषजनक नहीं थी।

प्रश्न 9
मध्यकाल की कुछ सुशिक्षित महिलाओं के नाम लिखिए।
उत्तर :
मध्यकाल की कुछ सुशिक्षित महिलाएँ थीं-रजिया बेगम, गुलबदन बेगम, नूरजहाँ, जहाँआरा, जेबुन्निसा तथा मुक्ताबाई।

प्रश्न 10
बालिकाओं की शिक्षा को क्यों आवश्यक माना जाता है?
उत्तर :
देश एवं समाज की प्रगति तथा पारिवारिक सुव्यवस्था के लिए बालिकाओं की शिक्षा को आवश्यक माना जाता है।

प्रश्न 11
स्त्री-शिक्षा का प्रबल समर्थन करने वाले किन्हीं दो समाज-सुधारकों के नाम लिखिए।
उत्तर :
स्त्री-शिक्षा के प्रबल समर्थक थे राजा राममोहन राय तथा स्वामी दयानन्द।

प्रश्न 12
राष्ट्रीय महिला-शिक्षा परिषद् (N.C.W.E) का गठन कब हुआ? [2008]
उत्तर :
राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद् का गठन सन् 1959 ई० में हुआ था।

प्रश्न 13
राष्ट्रीय महिला-शिक्षा समिति का गठन कब हुआ तथा इसे अन्य किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर :
राष्ट्रीय महिला शिक्षा समिति का गठन सन् 1958 ई० में हुआ तथा इसे ‘देशमुख समिति के नाम से भी जाना जाता है।

प्रश्न 14
महिला समाख्या कार्यक्रम कब प्रारम्भ हुआ और क्यों? [2012]
उत्तर :
महिला समाख्या कार्यक्रम ‘हंसा मेहता समिति 1962’ की सिफारिशों से प्रारम्भ हुआ। इस योजना को लागू करने का प्रमुख उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से महिला सशक्तिकरण के लक्ष्य को प्राप्त करना है।

प्रश्न 15
वर्तमान परिस्थितियों में सहशिक्षा के प्रति क्या विचार हैं?
उत्तर :
वर्तमान परिस्थितियों में सहशिक्षा को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।

प्रश्न 16
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. सामाजिक कुरीतियों एवं बुराइयों को समाप्त करने के लिए स्त्री-शिक्षा अति आवश्यक है।
  2. कुछ अन्धविश्वास तथा सामाजिक रूढ़ियाँ स्त्री-शिक्षा के मार्ग में बाधक हैं।
  3. मध्यकाल में स्त्री-शिक्षा की सुव्यवस्था थी।
  4. ईसाई मिशनरियों ने स्त्री-शिक्षा के प्रसार में उल्लेखनीय योगदान दिया है।
  5. वर्तमान समय में सहशिक्षा को प्रोत्साहन देकर स्त्री-शिक्षा का अधिक प्रसार किया जा सकता है।

उत्तर :

  1. सत्य
  2. सत्य
  3. असत्य
  4. सत्य
  5. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
वर्तमान परिस्थितियों में स्त्री-शिक्षा का प्रसार
(क) अधिक-से-अधिक होना चाहिए।
(ख) सीमित होना चाहिए।
(ग) नियन्त्रित होना चाहिए
(घ) अनावश्यक है।
उत्तर :
(क) अधिक-से-अधिक होना चाहिए।

प्रश्न 2
किस काल में महिलाएँ समान मंच पर पुरुषों से शास्त्रार्थ करती थीं?
(क) वैदिक काल में
(ख) पौराणिक काल में
(ग) मध्य काल में
(घ) किसी भी काल में नहीं
उत्तर :
(क) वैदिक काल में

प्रश्न 3
स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व किस काल में स्त्री-शिक्षा के प्रसार के लिए सराहनीय प्रयास किये गये थे?
(क) मुस्लिम शासन काल में
(ख) बौद्धकाल में
(ग) ब्रिटिश शासनकाल में
(घ) किसी भी काल में नहीं
उत्तर :
(ग) ब्रिटिश शासनकाल में

प्रश्न 4
“बालक का भविष्य सदैव उसकी माता द्वारा निर्मित किया जाता है।” यह कथन है
(क) अरस्तू का
(ख) नेपोलियन को
(ग) नेहरू का।
(घ) दयानन्द का
उत्तर :
(ख) नेपोलियन को

प्रश्न 5
स्त्री-शिक्षा के प्रसार में बाधक कारक हैं
(क) निर्धनता एवं पिछड़ापन
(ख) संकीर्ण दृष्टिकोण
(ग) बालिका शिक्षा के प्रति अनुचित दृष्टिकोण
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर :
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 6
तुम मुझे 100 सुशिक्षित माताएँ दो, मैं एक महान राष्ट्र का निर्माण कर दूंगा यह कथन किसका है?
(क) मैजिनी
(ख) नेपोलियन बोनापार्ट
(ग) जॉन डीवी
(घ) बिस्मार्क
उत्तर :
(ख) नेपोलियन बोनापार्ट

प्रश्न 7
वैदिककाल की प्रमुख विदुषी महिला थीं
(क) चिदम्बरा
(ख) हंसा बेन
(ग) गार्गी
(घ) पार्वती
उत्तर :
(ग) गार्गी

प्रश्न 8
मध्यकालीन महिला इतिहासकार थीं
(क) गुलबदन बेगम
(ख) नूरजहाँ
(ग) रजिया बेगम
(घ) जहाँआरा
उत्तर :
(क) गुलबदन बेगम

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 10 Juvenile Delinquency

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 10 Juvenile Delinquency (बाल-अपराध) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 10 Juvenile Delinquency (बाल-अपराध).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 10
Chapter Name Juvenile Delinquency (बाल-अपराध)
Number of Questions Solved 46
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 10 Juvenile Delinquency (बाल-अपराध)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
बाल-अपराध से आप क्या समझते हैं ? बाल-अपराध के कारकों को समझाइए। [2009, 10, 11, 13, 16]
या
बाल-अपराध क्या है? इसके प्रमुख कारणों की व्याख्या कीजिए। [2015, 16]
या
बाल-अपराध के कारणों की विवेचना कीजिए। [2009, 11, 12, 15, 17]
या
बाल-अपराध के व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक कारणों को स्पष्ट कीजिए। [2015]
या
बाल-अपराध विखण्डित परिवार की देन है।” भारत के सन्दर्भ में इस कथन का विश्लेषण कीजिए। [2012, 13]
या
भारत में बाल-अपराध में वृद्धि के कारणों को स्पष्ट कीजिए। [2015]
या
बाल-अपराध के सामाजिक कारण बताइए। [2015, 16]
या
बाल अपराध की समस्या को दूर करने का उपाय बताइए। [2017]
उत्तर:
बाल-अपराध का अर्थ
एक निश्चित आयु के बालक द्वारा समाज में निषिद्ध अथवा कानून विरोधी कार्य करना बालअपराध कहलाता है। बाल-अपराध दो शब्दों का संयोग है–‘बाल + अपराध’। ‘बाल’ का अर्थ है – बालक या किशोर, ‘अपराध’ का अर्थ है-कानून का उल्लंघन। इस प्रकार बाल-अपराध को शाब्दिक अर्थ हुआ किशोर द्वारा किया गया अपराध। भारत में 1960 व 1986 ई० में बाल अधिनियम पारित किये गये। इनके अनुसार 16 वर्ष की आयु के लड़के तथा 18 वर्ष की आयु की लड़की को बालक माना गया।

इस प्रकार भारत में 7 वर्ष से 16 वर्ष की आयु तक के लड़के तथा 7 वर्ष से 18 वर्ष तक की लड़की द्वारा किया गया कानून-विरोधी कार्य बाल-अपराध माना जाता है। इसके पश्चात् 21 वर्ष की आयु तक के अपराधी को किशोर अपराधी कहा जाता है। सदरलैण्ड ने 16 वर्ष से कम आयु के सभी अपराधियों को बाल-अपराधी कहा है। बाल-अपराध के लिए आयु मिस्र, इराक, लेबनान, सीरिया तथा ब्रिटेन में 16 वर्ष है, जब कि ईरान, जॉर्डन, सऊदी अरब, यमन, तुर्किस्तान तथा थाइलैण्ड में यह 18 वर्ष है। जापान में बाल-अपराधी 20 वर्ष से कम आयु का ही माना जाता है। बालक द्वारा की जाने वाली ऐसी उद्दण्डता को, जो समाज-विरोधी या कानून-विरोधी है, बाल-अपराध कहते हैं। बाल-अपराध वर्तमान समय की एक महत्त्वपूर्ण एवं गम्भीर समस्या है। तथा इसकी दर में वृद्धि सामाजिक व पारिवारिक विघटन की सूचक मानी जाती है।

बाल-अपराध की परिभाषा
बाल-अपराध का अर्थ निश्चित आयु से कम आयु के व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला अपराध है। जब निश्चित आयु से कर्म के बच्चों या युवकों द्वारा कोई अनुचित व समाज-विरोधी कार्य किया जाता है तो उसे बाल-अपराध कहते हैं। बाल-अपराध को ठीक-ठीक अर्थ समझने के लिए हमें इसकी परिभाषाओं का अध्ययन करना होगा। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने बाल-अपराध को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है

माउरर के अनुसार, “बाल-अपराधी वह व्यक्ति है, जो जान-बूझकर इरादे के साथ तथा समझते हुए उसे समाज की रूढ़ियों की उपेक्षा करता है जिससे उसका सम्बन्ध है। ऐसे व्यक्ति द्वारा किये गये अपराध को बाल-अपराध कहा जाएगा।”

सेथना
के अनुसार, “बाल-अपराध के अन्तर्गत उस तरुण व्यक्ति के गलत कार्य आते हैं जो कि सम्बन्धित स्थान के कानून (जो उस समये लागू हों) के द्वारा निर्दिष्ट आयु-सीमा के अन्दर आता है।”

रॉबिन्सन के अनुसार, “बाल-अपराध के अन्तर्गत आवारागर्दी और भीख माँगना, दुर्व्यवहार, बुरे इरादे से शैतानी करना और उद्दण्डता सम्मिलित किये जाते हैं।”
न्यूमेयर के अनुसार, “बाल-अपराधी एक निश्चित आयु से कम का वह व्यक्ति है जिसने समाज-विरोधी कार्य किया है और जिसका दुर्व्यवहार कानून को तोड़ने वाला है।”

सिरिल बर्ट के अनुसार, “किसी बालक को बाल-अपराधी वास्तव में तभी मानना चाहिए जब उसकी समाज-विरोधी प्रवृत्तियाँ इतना गम्भीर रूप धारण कर लें कि उसके विरुद्ध आवश्यक कार्यवाही की जाए या वह उस कार्यवाही के योग्य हो जाए।”

हेली
के अनुसार, “एक बालक जो सामाजिक व्यवहार के मान से विचलित हो रहा हो, बालअपराधी कहलाता है।

मेनगोल्ड के अनुसार, “बाल-अपराधी वह अपराधी व्यक्ति है जो आवश्यक रूप से किसी विशेष अपराध करने से अभियुक्त नहीं होता, अपितु उसमें समाज-विरोधी दृष्टिकोण तथा व्यवहार के लक्षणों का विकास हो जाता है, जो यदि नहीं रोके गये तो वे नि:सन्देह ऐसे कार्यों की ओर अग्रसर होंगे जिन्हें लोग सहन नहीं कर सकेंगे।”

वास्तव में, बाल-अपराधी होने का आधार आयु है। बाल-अपराध एक निश्चित आयु के बालक द्वारा किया गया कानून-विरोधी कार्य है। बाल-अपराध में समाज-विरोधी कार्यों को भी सम्मिलित किया जाता है।

अमेरिका की राष्ट्रीय परिवीक्षा समिति (National Probation Association of United States of America) ने बाल-अपराध को निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया है – बाल-अपराधी वह है जिसने

  1. किसी प्रान्त अथवा इसके किसी क्षेत्र के कानून अथवा मान्यता का उल्लंघन किया हो।
  2. जो सुधार से परे, उद्दण्ड हो और अपने माता-पिता, संरक्षक अथवा कानून अधिकारियों के नियन्त्रण से परे हो।
  3. जिसे स्कूल से अनुपस्थित रहने की आदत पड़ गयी हो।
  4. जो इस प्रकार व्यवहार करता हो जिससे वह जानबूझकर अपनी या अन्य व्यक्तियों की नैतिकता अथवा स्वास्थ्य को हानि पहुँचाए।

बाल-अपराध के लक्षण
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि बाल-अपराध में निम्नलिखित लक्षण पाये जाते हैं|

  1. राज्य द्वारा निश्चित आयु से कम आयु का व्यक्ति;
  2. व्यवहार की गम्भीरता;
  3. कानून का उल्लंघन;
  4. अनैतिक एवं अशोभनीय व्यवहार;
  5.  जान-बूझकर अनैतिक एवं बुरे व्यक्तियों से सम्पर्क;
  6.  रात्रि को बिना उद्देश्य घूमना;
  7. स्कूल से भागने की आदत;
  8. सार्वजनिक स्थान पर गन्दी, असभ्य व निम्न स्तर की भाषा का आदतन प्रयोग;
  9.  सार्वजनिक स्थानों पर बीड़ी-सिगरेट इत्यादि पीना तथा
  10. विकास का अनुकूल स्तर न होना।

बाल-अपराध के कारण
बाल-अपराध एक गम्भीर सामाजिक समस्या है। प्रत्येक समाज में इसके कारण हूँढ़ने का प्रयास किया जाता है। बाल-अपराधी किसी एक विशिष्ट कारण की देन नहीं है, इसके लिए अनेक कारण उत्तरदायी हैं। सामान्य रूप से बाल-अपराध के निम्नलिखित कारण हैं

(अ) बाल-अपराध के पारिवारिक कारण
बाल-अपराध के लिए परिवार सम्बन्धी कारणों को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। परिवार को बच्चे की प्रथम पाठशाला कहा जाता है, क्योंकि बच्चे को एक अच्छा नागरिक बनाने अथवा उसे बिगाड़ने में पारिवारिक परिस्थितियाँ महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। जब परिवार बच्चे को सामाजिकमानसिक सुरक्षा प्रदान करने में असफल हो जाता है और बच्चा स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगता है, तो वह बाल-अपराधी बन जाता है। सामान्यत: निम्नलिखित पारिवारिक परिस्थितियाँ बाल-अपराध के लिए उत्तरदायी हैं1. भग्न परिवार तथा नष्ट परिवार-भग्न परिवार से अर्थ ऐसे परिवारों से है, जो शारीरिक , अथवा मानसिक अथवा दोनों दृष्टियों से टूटे हुए होते हैं। शारीरिक अथवा भौतिक दृष्टि से भग्न परिवारों में माता-पिता में से किसी एक या दोनों के न होने या सौतेली माता के होने से बच्चे उपेक्षित होकर अपराधी बन बैठते हैं। मानसिक दृष्टि से भग्न परिवारों में माता-पिता तथा बच्चे अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते, एक-दूसरे का सम्मान नहीं करते तथा बच्चे। स्वयं को उपेक्षित महसूस करते हैं और बाल-अपराध की ओर सरलता से आकृष्ट हो जाते हैं। सुधार-गृहों और बाल-न्यायालयों में आने वाले अधिकांश बालक भग्न परिवारों से ही होते है।

2. परिवार का आर्थिक स्तर – परिवार की आर्थिक स्तर नीचा होने तथा अत्यधिक निर्धनता के फलस्वरूप बालक अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए गैर-सामाजिक या गैर-कानूनी कार्यों की ओर आकर्षित हो जाते हैं। यद्यपि परिवार की निर्धनता बाल-अपराध का अनिवार्य कारण नहीं है तथापि इसकी बाल-अपराधों को प्रोत्साहन देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

3. दोषपूर्ण अनुशासन – यदि परिवार का बच्चे पर नियन्त्रण ठीक नहीं है तो भी वह अपराधी प्रवृत्तियों की ओर आकर्षित हो जाता है। बच्चे पर सन्तुलित वे अनवरत अनुशासन उसे अच्छा नागरिक बनाता है, जब कि दोषपूर्ण अनुशासन उसे बिगाड़ देता है। परिवार में बच्चे के साथ अत्यधिक स्नेह, अत्यधिक तिरस्कार या पक्षपातपूर्ण व्यवहार उन्हें बाल-अपराधी बनाता है।

4. घर का दुषित वातावरण – घर का दूषित वातावरण बच्चे को अपराध की दुनिया में धकेलने में सर्वाधिक उत्तरदायी है। अपराध प्रवृत्ति का पिता, व्यभिचारिणी माँ तथा अनैतिक कार्यों में संलग्न भाई-बहन बच्चे को बाल-अपराधी बना देते हैं।

5. सौतेले माता – पिता का व्यवहार-सौतेले माता-पिता द्वारा यदि बच्चों की उपेक्षा की जाती है, अथवा उनके प्रति गलत व्यवहार किया जाता है तो भी बच्चे अपराधी प्रवृत्तियों की ओर आकर्षित हो जाते हैं तथा उनका व्यवहार अपराधी बन जाता है।

6. परिवार का वृहत आकार – यदि परिवार का आकार वृहत् है, परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और रहने के लिए पर्याप्त कमरे नहीं हैं तो बच्चों के बाल-अपराधी बनने की सम्भावना अधिक होती है।

7. अशान्त परिवार – यदि परिवार में एकता का अभाव है और लड़ाई-झगड़ों से मानसिक तनाव रहता है, तो वह असुरक्षा व अस्थायित्व की स्थिति बच्चों पर बुरा प्रभाव डालती है और उन्हें बाल-अपराधी बनने में सहायता देती है।

(ब) बाल-अपराध के व्यक्तिगत कारण
पारिवारिक कारणों के साथ-साथ बाल-अपराध के लिए कुछ व्यक्तिगत या शारीस्कि कारण भी उत्तरदायी हैं। इनका सम्बन्ध व्यक्ति के व्यक्तित्व से है। लॉम्बोसो, बर्ट, दुहन आदि विद्वानों ने बाल-अपराध में व्यक्तिगत व शारीरिक कारणों को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना है। कुछ प्रमुख व्यक्तिगत व शारीरिक कारण निम्नलिखित हैं

1. शारीरिक असामान्यता – यदि बच्चों का शरीर अस्वस्थ है अथवा इसमें शारीरिक असमानताएँ पायी जाती हैं तो ऐसे बच्चे शारीरिक दृष्टि से स्वयं को दुर्बल अनुभव करते हैं, स्कूल को कार्य ठीक नहीं कर पाते और हीनता की भावना का शिकार होकर बाल-अपराधी बन जाते हैं।

2. शारीरिक दोष – शारीरिक दोष एवं विकृति बच्चों में हीनता की भावना भर देती है और वे अपनी असफलताओं की पूर्ति के लिए अपराध की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं। लँगड़े, लूले, हकलाने वाले तथा ऐसे ही अन्य शारीरिक दोषों वाले बच्चों में हीनता की भावना ऐसी प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न कर सकती हैं, जो बाल-अपराध के लिए उत्तरदायी हैं।

3. लम्बी बीमारी – अध्ययनों से पता चला है कि लम्बी बीमारी भी बाल-अपराध का एक कारण है। लम्बी बीमारी के कारण बच्चों का स्वास्थ्य सामान्य नहीं रहता, वे अधिक चिड़चिड़े हो जाते हैं और कई बार बाल-अपराधी बन जाते हैं।

4. अपूर्ण इच्छाएँ – जब बच्चों की मौलिक आवश्यकताएँ पूरी नहीं होतीं तो उनमें असन्तुलने , की स्थिति आ जाती है और वे भावात्मक अस्थिरता की स्थिति में अनैतिक कार्यों की ओर अग्रसर हो जाते हैं। जब वे अनैतिक व गैर-सामाजिक ढंग से अपनी इच्छाएँ पूरी करते हैं तो बाल-अपराधी बन जाते हैं।

(स) बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारण
मनोवैज्ञानिक कारण व्यक्तिगत कारणों से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। यदि बच्चे का विकास मानसिक रूप से दोषपूर्ण हुआ है तो वह असुरक्षित महसूस करता है और हीन भावना से ग्रसित होकर बाल-अपराधी बन जाता है। बाल-अपराध के प्रमुख मनोवैज्ञानिक कारण निम्नलिखित हैं

1. मानसिक दुर्बलता – गोडार्ड ने मानसिक दुर्बलता को बाल-अपराध का कारण माना है। यह मानसिक दुर्बलता जन्मजात भी हो सकती है अथवा किसी मानसिक आघात का परिणाम भी हो सकती है। मानसिक रूप से दुर्बल बच्चे ठीक प्रकार से सोच-विचार नहीं कर सकते, शिक्षा को ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं और सरलता से बाल-अपराधी बन जाते हैं।

2. संवेगात्मक अस्थिरता – संवेगात्मक अस्थिरता मानसिक संघर्ष का परिणाम है तथा इसे भी – बाल-अपराध का एक मुख्य कारण माना गया है। हीले तथा बूनर ने 105 बाल-अपराधियों में से 15 बाल-अपराधियों में मानसिक अस्थिरता को अपने अध्ययन में प्रमुख रूप से उत्तरदायी बताया है।

3. मन्द बुद्धि वाले बच्चे – यदि बच्चा अपनी आयु के अन्य बच्चों की तुलना में मन्द बुद्धि वाला है तो उसमें हीनता की भावना पैदा हो जाती है। इस हीन भावना के कारण जीवन से निराश होकर वह बाल-अपराधी बन जाता है।

4. अतिवृद्ध बालक – अनेक बच्चे अपनी आयु के सामान्य बच्चों की तुलना में अतिवृद्ध (Over-grown) होते हैं तथा अपनी आयु से बड़े लोगों की संगति में रहते हैं। कई बार बुरी सँगति से वे बाल-अपराधी बन जाते हैं।

(द) बाल-अपराध के सामुदायिक (सामाज़िक) कारण’
सामुदायिक परिस्थितियाँ भी बच्चों के दोषपूर्ण व्यवहार के लिए उत्तरदायी हैं। कुछ प्रमुख सामुदायिक कारण निम्नलिखित हैं

1. बुरा पड़ोस – परिवार के साथ-साथ बच्चे के समाजीकरण पर पड़ोस का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। यदि पझेस अच्छा नहीं है अर्थात् भीड़ वाला या गन्दी बस्तियों का वातावरण है तो इसका प्रभाव बच्चों पर बुरा पड़ता है और ये भी असामाजिक कार्य करने लगते हैं। पड़ोस बालक को अपराध के लिए प्रेरणा देने में प्रमुख भूमिका निभाता है।

2. स्वस्थ मनोरंजन की कॅमी –  बच्चों के लिए खेल मनोरंजन का महत्त्वपूर्ण साधन है। यदि मनोरंजन के साधनं बच्चों को उपलब्ध नहीं हैं तो वह इस समय का दुरुपयोग करके कुसंगति में पड़ सकता है। गन्दी बस्तियों में खेल-कूद तथा स्वस्थ मनोरंजन के साधनों के अभाव के | कारण ही उनमें बाल-अपराध अधिक पनपते हैं।

3. स्कूल का दूषित वातावरण – यदि स्कूल का वातावरण दूषित है तो बच्चे कक्षाओं में अधिक देर तक नहीं रुक पाते, पढ़ने में उनकी रुचि कम हो जाती है और वे स्कूल से बाहर इधर-उधर बैठकर आवारागर्दी करते रहते हैं। पढ़ाई से पिछड़ जाने के कारण भी बच्चे बाल अपराधी बन जाते हैं।

4. गन्दा व आपत्तिजनक साहित्य – गन्दा व आपत्तिजनक साहित्य भी बच्चों को बिगाड़ने में सहायक होता है। अश्लील व यौन-इच्छा भड़काने वाला साहित्य अथवा अपराध की कथाओं वाले साहित्य का बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और वे बाल-अपराधी बन जाते हैं।

5. युद्ध – युद्ध के समय सामाजिक विघटन की परिस्थिति पैदा हो जाती है, जिसके कारण बाल-अपराधों की संख्या भी बढ़ जाती है। युद्धकाल में परिवर्तित परिस्थितियों व कठोर नियन्त्रण से अनेक बच्चे अपनी रुचियों व आदतों का समायोजन नहीं कर पाते जिसके कारण वे बाल-अपराधी बन जाते हैं।

6. नगरीकरण एवं औद्योगीकरण – नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण भी समाज में अनेक समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। दोनों प्रक्रियाएँ अपराध और बाल-अपराध को प्रोत्साहन देती हैं। नगरों और औद्योगिक केन्द्रों में इसलिए बाल-अपराधियों की संख्या अधिक पायी जाती है।
बाल-अपराध के उपर्युक्त कारण अधिकतर नगरों में पाये जाते हैं। ग्रामीण वातावरण में ये कारण अधिक क्रियाशील नहीं होते हैं। इसलिए बाल-अपराधों की मात्रा ग्रामों की अपेक्षा नगरों में अधिक होती है। यह कथन भारत के लिए ही नहीं, अपितु अनेक अन्य देशों के लिए भी सही है।

प्रश्न 2
बाल-अपराध रोकने के आवश्यक उपाय बताइए। [2009]
या
अपराध व बाल-अपराध में अन्तर बताइए। [2007, 08, 09, 10, 12, 13, 14, 15, 16]
या
बाल-अपराधियों को सुधारने के लिए किये गये उपायों को आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। [2011]
या
भारत में बाल-अपराध निरोध के सन्दर्भ में बने सामाजिक विधानों का उल्लेख कीजिए।
या
भारत में बाल-अपराध के उपचार में हो रहे गैर-सरकारी प्रयत्नों पर प्रकाश डालिए।
या
भारत में बाल-अपराध को रोकने हेतु किये गये उपायों को स्पष्ट करें। [2011, 12]
उत्तर:
बालक राष्ट्र का भविष्य होते हैं। राष्ट्र की प्रगति और विकास की दिशा बच्चों पर ही निर्भर करती है। बच्चों को अपराध करने से रोककर राष्ट्र का भविष्य सुधारा जा सकता है। बालअपराध रूपी विषवृक्ष को तभी समूल नष्ट कर देना चाहिए जब यह अंकुरित हो। बाल-अपराध हमारी गम्भीर सामाजिक समस्या है, जिसका निश्चित समाधान खोजना नितान्त आवश्यक है। बालअपराध का उपचार करने के लिए ऐसे उपाये काम में लाने चाहिए जिससे बाल-अपराध पर प्रभावी रोक लग सके तथा बाल-अपराधी भविष्य में समाज की मुख्य धारा से जुड़कर उसके उपयोगी अंग बन सकें। बाल-अपराध का उपचार निम्नलिखित रूप में किया जाना चाहिए

(क) बाल-अपराध उपचार के सरकारी प्रयास
सरकार ने बाल-अपराध की रोकथाम के लिए अनेक पग उठाये हैं। इनमें से कुछ प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं

1. बाल अधिनियम, 1960 – भारतीय संसद द्वारा पारित इस अधिनियम में उपेक्षित बालकों व बाल-अपराधियों की सुरक्षा, कल्याण, प्रशिक्षण, शिक्षा के पुनर्वास इत्यादि उपलब्ध कराने की सुविधाओं पर बल दिया गया है। इसमें बालकों की आयु लड़के के लिए 16 वर्ष तथा लड़की के लिए 18 वर्ष निर्धारित की गयी है। बाल-न्यायालयों की स्थापना इसी अधिनियम के अन्तर्गत की गयी है। इस अधिनियम के अन्तर्गत निम्नलिखित सुधार संस्थाओं की स्थापना की गयी है

  1. आवास अवलोकन गृह – पूछताछ के दौरान बच्चों को इन केन्द्रों में रखा जाता है और इनमें शिक्षा इत्यादि की प्रमुख सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं।
  2. बालगृह – बालगृहों में उपेक्षित बच्चों को आवास, शिक्षा, चरित्र-निर्माण एवं नैतिक खतरे से सुरक्षा इत्यादि की प्रमुख सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं।
  3. विशिष्ट स्कूल – इनमें उद्दण्ड बालकों को सुधारने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण दिया जाता है।
  4.  उत्तम-देखभाल संगठन – इन संगठनों का उद्देश्य बालगृहों या विशिष्ट स्कूलों से बाहर आने वाले बच्चों को सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने में सहायता प्रदान करना है।

2. किशोर न्यायालय – ये न्यायालय साधारण अदालतों से अलग हैं तथा इनकी स्थापना भी बाल अधिनियम, 1960 के अन्तर्गत ही की गयी है। इनमें न्यायाधीश प्रायः महिला होती हैं, जो बाल मनोविज्ञान एवं अन्य सामाजिक विज्ञानों के ज्ञान से परिचित होती हैं। पुलिस सादे कपड़ों में आती है। इन न्यायालयों का उद्देश्य अपराध के कारणों का पता लगाना तथा बालअपराधियों का सुधार करना है। अपराधी पाये जाने पर बच्चों को सुधारगृहों में भेज दिया जाता है।

3. प्रोबेशन – यह किशोर न्यायालय का ही महत्त्वपूर्ण अंग है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत अपराधी बालक को प्रोबेशन अधिकारी के संरक्षण में रखा जाता है। प्रोबेशन के समय तक प्रोबेशन अधिकारी उसकी देख-रेख करता है तथा उसके बारे में आवश्यक जानकारी प्राप्त करता है। यदि प्रोबेशन काल के मध्य उसका ठीक आचरण रहता है, तो न्यायालय की सलाह पर बच्चे को छोड़ दिया जाता है।

4. बोस्टेल स्कूल – यह बाल-अपराधियों के सुधार से सम्बन्धित प्रमुख संस्था है। इंग्लैण्ड में बोर्टल नामक स्थान पर ब्राइस नामक विद्वान् ने 1902 ई० में एक गैर-सरकारी जेलखाना खोला। भारत में सर्वप्रथम तमिलनाडु में 1962 ई० में बोर्टल स्कूल की स्थापना की गयी और बाद में बंगाल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश व कर्नाटक में भी एक-एक बोटंल स्कूल खोला गया। उत्तर प्रदेश में बरेली में बाल-बन्दीगृह की स्थापना की गयी। 15 से 21 वर्ष के किशोर अपराधियों को इसमें व्यावसायिक व औद्योगिक प्रशिक्षण दिया जाता है तथा बाल-अपराधियों को सुधारने का प्रयास किया जाता है।

5. रिफॉर्मेट्री स्कूल – सन् 1987 में बड़े-बड़े राज्यों तथा केन्द्र-शासित प्रदेशों में इन सुधार स्कूलों की स्थापना की गयी, जिनमें बाल-अपराधियों की उचित देख-रेख की जाती है तथा औद्योगिक प्रशिक्षण देकर उन्हें सुधारने का प्रयास किया जाता है।

6. बाल-बन्दीगृह – इनकी स्थापना सुधारगृहों के सिद्धान्तों के अनुरूप की गयी है। इन्हें किशोर सदन भी कहा जाता है। सर्वप्रथम बाल-बन्दीगृहों की स्थापना बिहार, ओडिशा और उत्तर प्रदेश में की गयी। उत्तर प्रदेश में 19 वर्ष से कम आयु के बाल-अपराधियों को इन बन्दीगृहों में रखा जाता है। सन्तोषजनक व्यवहार न करने पर उन्हें केन्द्रीय कारागार में भी भेजा जा सकता है।

7. बाल सलाह केन्द्र तथा बाल-क्लब – बाल सलाह केन्द्रों में मनोवैज्ञानिक रूप से बाल अपराध के कारण जानने का प्रयास किया जाता है। अनेक राज्यों में बाल-क्लबों की भी स्थापना की गयी है।

8. भारतीय किशोर न्याय अधिनियम, 1986 – सन् 1986 में पारित इस अधिनियम में बाल-न्यायालयों तथा किशोर कल्याण बोर्ड की स्थापना पर बल दिया गया है। 2 अक्टूबर, 1987 से यह अधिनियम पूरे देश में लागू है। उत्तर प्रदेश में इस अधिनियम के अन्तर्गत प्रदेश सरकार ने 27 विशेष बाल-न्यायालयों को तोड़कर सभी मण्डल मुख्यालयों पर बालन्यायालयों का गठन किया है। साथ ही 52 जिलों में किशोर कल्याण बोर्डों की स्थापना की | गयी है।

(ख) बाल-अपराध उपचार के गैर-सरकारी सुझाव
गैर-सरकारी क्षेत्र में बाल-अपराध उपचार के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं

1. उचित पारिवारिक वातावरण – परिवार को टूटने से बचाने के लिए उपाय किये जाने चाहिए, जिससे बच्चों को परिवार में सही अनुशासन, स्नेह व सुरक्षा मिल सके। इसके लिए परिवार कल्याण केन्द्रों की स्थापना की जानी चाहिए। माता-पिता को बच्चों की इच्छाओं को ध्यान रखना चाहिए और उनकी रुचि सत्संग की ओर लगानी चाहिए।

2. स्कूल – परिवार के बाद बच्चों के आचरण पर स्कूल का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। बच्चों को इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए कि उनमें अनुशासन तथा नैतिक विकास की वृद्धि हो। उनके चतुर्मुखी विकास को सामने रखकर पाठ्यक्रमों में सुधार किया जाना चाहिए। विद्यालय का वातावरण ठीक होना चाहिए और शिक्षकों का शिष्यों के प्रति सन्तुलित व अच्छा व्यवहार होना चाहिए।

3. स्वस्थ मनोरंजन – बाल-अपराध को रोकने के लिए मनोरंजन के साधन बच्चों के लिए उपलब्ध करना आवश्यक है। गन्दी बस्तियों में इनका विशेष अभाव होता है; अतः इनमें सुधार करके सामुदायिक केन्द्र स्थापित किये जाने चाहिए। यदि खाली समय का सदुपयोग किया जाए तो बाल-अपराध की रोकथाम सम्भव है।

4. बाल पुलिस विभाग – सामान्य पुलिस विभाग बाल-अपराध में सहायक नहीं है। अत: किशोर न्यायालयों की सहायता के लिए बाल पुलिस विभाग का गठन किया जाना चाहिए, जो कि उन्हें सुधारने में सहायता दे सके।

5. अश्लील साहित्य पर रोक – अश्लील साहित्य पर कठोरता से प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए, जिससे इसका प्रकाशन व वितरण न हो सके। अपराधी घटनाओं का विवरण देने में भी सतर्कता रखी जानी चाहिए। अपराधियों व डाकुओं इत्यादि को हीरो के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए। उनके कारनामे पढ़कर छात्र एवं बालक अपराध में लिप्त हो जाते हैं।

बाल-अपराध तथा अपराध में अन्तर
बाल-अपराध और अपराध के अन्तरों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

क्र०सं० बाल-अपराध अपराध
1. बाल-अपराधं कानून द्वारा निर्धारित 18 वर्ष से कम आयु में किया जाने वाला अपराध हैं। अपराध वयस्क व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला अपराध है। बाल-अपराधी की अपराध है। निर्धारित आयु से अधिक आयु वाले व्यक्ति द्वारा किया गया कानून का उल्लंघन अपराध कहा जाता है।
2. बाल-अपराध में कुछ ऐसे व्यवहार भी सम्मिलित हैं जो वास्तव में अपराध की श्रेणी में नहीं आते; जैसे-स्कूल से भागना, घर से बिना बताये गायब हो जाना, निरुद्देश्य रात्रि को घूमते रहना इत्यादि। अपराध में केवल उन्हीं कार्यों को सम्मिलित किया जाता है, जो कि निश्चित रूप से गैर-कानूनी माने जाते हैं।
3. बाल-अपराध सामान्यतः कम गम्भीर होते है। अपराध कम गम्भीर से लेकर अत्यधिक गम्भीर हो सकते हैं।
4. बाल-अपराधी अधिकांशतः संवेगता के कारण अपराध करते हैं। अधिकतर अपराधी जान-बूझकर अपराध कारण अपराध करते हैं।
 5. बाल-अपराधी का अपराध करते समय अनिवार्य रूप से आर्थिक लक्ष्य नहीं होता है। अपराधी मुख्यत: आर्थिक लाभ के लिए या अन्य किसी लाभ के लिए अपराध करता है।
6. बाल-अपराधी बनने में मनोवैज्ञानिक व पारिवारिक कारणों को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अपराधी अधिकतर अपनी इच्छा से अपराधी बनते हैं।
7. बाल-अपराध के लिए विशिष्ट न्यायालयों की स्थापना होती है। न्यायालयों अपराधी के मामले सामान्य न्यायालय ही सुनते हैं।
8. बाल-अपराधी को कठोर दण्ड से बचाने का प्रयास किया जाता है। अपराधी को दण्ड दिलवाने में किसी प्रकार की ढिलाई नहीं बरती जाती है।
9. बाल-अपराधी संस्कृति का महत्त्वपूर्ण तत्त्व बाल-अपराध का अनुपयोगी होना है, क्योंकि बाल-अपराधी किसी आवश्यकता के लिए अपराध नहीं करता, वरन् अधिकांशतः बिना किसी उपयोगी दृष्टिकोण के ही अपराध करता है। अपराधी संस्कृति में इस प्रकार के तत्त्वों का अभाव होता है।
10. बाल-अपराध में सामान्यतः योजना व संगठित संगठन का अभाव पाया जाता है। अधिकतर अपराध योजनाबद्ध व होते हैं। अपराध गिरोह बनाकर किये जाते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
“बाल-अपराध मुख्य रूप से एक नगरीय समस्या है। इसकी विवेचना कीजिए।
उत्तर:
बाल-अपराध : एक नगरीय समस्या–बाल-अपराध सम्बन्धी उपलब्ध आँकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि गाँवों की तुलना में बाल-अपराध नगरों में अधिक होते हैं। नगरीय क्षेत्रों में भी बड़े-बड़े शहरों; जैसे-दिल्ली, चेन्नई, मुम्बई, कोलकाता, चण्डीगढ़, कानपुर आदि; में बाल-अपराध अधिक होते हैं।

नगरों में बाल-अपराध होने के अनेक कारण हैं; जैसे-वहाँ जब माता-पिता दोनों ही काम पर चले जाते हैं तो घर में बच्चों पर नियन्त्रण रखने वाला कोई नहीं होता, अतः वे आवारागर्दी करने लगते हैं। नगरों में वेश्यावृत्ति में सहायता पहुँचाने, भीख माँगने आदि का कार्य भी बच्चों से कराया जाता है। यह कार्य संगठित लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर कराया जाता है, जो नगरीय क्षेत्रों में ही केन्द्रित है। नगरों की भीड़-भाड़युक्त वातावरण, गन्दी बस्तियाँ, अश्लील एवं अपराधी चलचित्र, अति सम्पन्नता के प्रति आक्रोश, बेकारी, नितान्त गरीबी आदि बाल-अपराध को प्रोत्साहित करते हैं।

बाल-अपराधी स्वयं भी यौन सम्बन्धी अपराधों में लिप्त पाये गये हैं, जिनमें लड़कियों की संख्या अधिक है। 86.2 प्रतिशत लड़कियों ने यौन-अपराध किये हैं। यौन-अपराध के लिए नगर ही सुगम तथा सुलभ अवसर प्रदान करते हैं, जहाँ जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है तथा सम्पन्नता भी अधिक होती है।

बाल-अपराधों में धार्मिक प्रकृति के अपराध; जैसे-चोरी, सेंधमारी, जेब कतरना आदि होते हैं। इन अपराधों के लिए ग्रामीण इलाकों में अवसर प्राप्त नहीं होते हैं जब कि नगरों की भीड़-भाड़, व्यस्त जीवन तथा पड़ोसियों की एक-दूसरे के प्रति उदासीनता आदि इन अपराधों के लिए खुले अवसर प्रदान करते हैं।

बाल-अपराधी स्वयं अपराध कम करते हैं। वे किसी संगठित अपराधी गिरोह के साथ मिलकर ही अपराध करते हैं। ये गिरोह उन्हें प्रशिक्षण देते हैं एवं संरक्षण प्रदान करते हैं। नगरीय क्षेत्र इन गतिविधियों के लिए उपयुक्त स्थान है।
निष्कर्षतया कहा जा सकता है कि बाल-अपराध मुख्य रूप से एक नगरीय समस्या है।

प्रश्न 2
भारत में किशोर अपराध की समस्या पर एक लेख लिखिए। [2009, 12]
उत्तर:
भारत में किशोर अपराध (Juvenile Delinquency in India) – भारत में बालअपराध की समस्या गम्भीर है। बढ़ती हुई जनसंख्या, नगरीकरण तथा औद्योगीकरण के कारण बाल-अपराध निरन्तर बढ़ रहे हैं। वर्ष 1988 के सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 24,827 स्थानीय व 25,468 विशेष नियमों के उल्लंघन के दोषी बाल-अपराधी थे। भारत में बाल-अपराध कुल अपराधों को 2% है। भारत में बाल-अपराध की समस्या गाँवों की अपेक्षा नगरों में अधिक है। युवतियों की अपेक्षा युवक बाल-अपराधी अधिक हैं। निम्न जातियों के बच्चों में बाल-अपराध की दर अधिक पायी जाती है।

भारत के महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, आन्ध्र प्रदेश आदि राज्यों में बाल-अपराध की समस्या विकट बनी हुई है। इन राज्यों में भारत के कुल 68% बाल-अपराधी पाये जाते हैं। भारत में बाल-अपराधी व्यक्तिगत स्तर पर कानूनों का उल्लंघन कम करते हैं, इस कार्य में उन्हें पूरे समूह अथवा परिवार का सहयोग मिलता है। भारत में बाल-अपराधी सम्पत्ति के विरुद्ध अपराधों में संलिप्त पाये गये हैं। भारत में 50% बाल-अपराधी अनुसूचित जातियों या जनजातियों के होते हैं, क्योंकि इन जातियों में 1951 ई० में बाल अधिनियम पारित किया गया, जिसे 1956 ई० में लागू किया गया। बाद में देश के अन्य राज्यों में भी इसे लागू किया गया। भारत में बाल-अपराध की रोकथाम के लिए किशोर जेल, सुधारवादी सेवाएँ, अवलोकन-गृह, परिवीक्षा-गृह तथा एप्रूव्ड स्कूल आदि व्यवस्थाएँ लागू की गयी हैं।।

प्रश्न 3
‘पक्षपात’ और ‘दोषपूर्ण अनुशासन बाल-अपराध के दो मुख्य पारिवारिक कारण हैं। समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
पक्षपात-परिवार में पक्षपातपूर्ण व्यवहार होने पर भी बच्चों में निराशा और घृणा की भावना जन्म लेती है। यदि परिवार में किसी बच्चे को विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं और अन्य बच्चों के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है तो ईर्ष्या एवं द्वेष का वातावरण बनता है। अधिक मार और डॉट खाने वाला बच्चा परिवार के वयोवृद्ध लोगों का सम्मान करना बन्द कर देता है और उन लोगों की इच्छा के विपरीत कार्य करने लगता है। इस प्रकार भेदभावपूर्ण व्यवहार बच्चे में अपराधी मनोवृत्ति को जन्म देता है।

दोषपूर्ण अनुशासन-परिवार में बच्चों पर अधिक नियन्त्रण होने पर वे कठोरता से बचने के लिए भागना चाहते हैं और ज्यों ही उन्हें अवसर मिलता है वे उन कार्यों को करने लगते हैं, जिनके लिए उन्हें मना किया जाता है। कठोर नियन्त्रण से व्यक्तित्व का स्वाभाविक विकास भी रुक जाता है। वह अपनी दबी इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी अपराध करता है। इसके विपरीत, बच्चों को अत्यधिक ढील देने एवं अंकुश न रखने पर भी उनमें स्वच्छन्दता की प्रवृत्ति पैदा होती है।

प्रश्न 4
बाल-अपराध निर्धारण करने में आयु की महत्ता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
बाल-अपराध का निर्धारण करने में आयु भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। भिन्न-भिन्न देशों में बाल-अपराधियों के लिए अलग-अलग आयु निर्धारित की गयी है। अधिकांश देशों में तथा भारत में भी भारतीय दण्ड संहिता’ (Indian Penal Code) के अनुसार 7 वर्ष से कम की आयु के बालक द्वारा किया गया कानून व समाज-विरोधी कार्य अपराध नहीं माना जाता है, क्योंकि इस समय तक बालक में अच्छे-बुरे के भेद की समझ नहीं होती है। भारत में 1960 व 1986 ई० में बाल-अधिनियम बने। इन अधिनियमों में 16 वर्ष से कम की आयु के लड़के एवं 18 वर्ष से कम की आयु की लड़की को बालक माना गया है। इस आधार पर भारत में 7 वर्ष से अधिक एवं 16 वर्ष से कम उम्र के लड़के एवं 7 वर्ष से अधिक एवं 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की द्वारा किये गये कानून-विरोधी कार्य बाल-अपराध की श्रेणी में आते हैं। इसके बाद 21 वर्ष की आयु तक के अपराधियों को ‘किशोर अपराधी’ एवं इससे अधिक आयु के अपराधियों को अपराधी’ कहा जाता है।

प्रश्न 5
बाल-न्यायालय पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
बाल-न्यायालयों में बाल-अपराधियों की सुनवाई अनौपचारिक विधि से की जाती है। इनमें उनके प्रति बदले की भावना नहीं पायी जाती है। इनके द्वारा बच्चे को संरक्षण एवं पुनर्वास की सुविधा प्रदान की जाती है। बाल-न्यायालय में प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट, एक या दो ऑनरेरी लेडी मजिस्ट्रेट, अपराधी बालक, उसके माता-पिता एवं संरक्षक, प्रोबेशन अधिकारी, साधारण पोशाक में पुलिस, कोर्ट का क्लर्क और कभी-कभी वकील उपस्थित रहते हैं। इनकी बैठक रिमाण्ड होम में साधारण तरीके से टेबल-कुर्सी लगाकर की जाती है, जिससे बच्चे को यह महसूस न हो कि वह अपराधी है।

सुनवाई करने वालों और बच्चों के बीच अनौपचारिक बातचीत होती है। बाल-न्यायालय का सारा वातावरण इस प्रकार का होता है कि बच्चे के मस्तिष्क से कोर्ट का आतंक और भय दूर हो जाए। इनन्यायालयों की कार्यवाही को अखबार में नहीं छापा जा सकता तथा साथ ही गोपनीयता भी बरती जाती है। सुनवाई के बाद अपराधी बालकों को चेतावनी देकर, जुर्माना करके या मातापिता से बॉण्ड भरवाकर उन्हें सौंप दिया जाता है, अथवा उन्हें परिवीक्षा पर छोड़ दिया जाता है या किसी सुधार संस्था, मान्यताप्राप्त विद्यालय, परिवीक्षा हॉस्टल आदि में रख दिया जाता है। भारत में महाराष्ट्र, गुजरात, पश्चिमी बंगाल, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान तथा दिल्ली :आदि राज्यों में बाल-न्यायालय हैं।

प्रश्न 6
बोस्टेल स्कूल पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
बोर्टल स्कूल एक ऐसी संस्था है जहाँ किशोर अपराधी को, जिसकी आयु 16 से 21 वर्ष हो, रखा जाता है। उन्हें यहाँ प्रशिक्षण एवं निर्देशन दिये जाते हैं तथा अनुशासन में रखकर उनका सुधार किया जाता है। इस संस्था में उन्हीं अपराधियों को प्रवेश दिया जाता है जिनकी सिफारिश अदालत यो जेल महानिरीक्षक करता है। यहाँ अपराधी को मुक्त वातावरण में रखा जाता है। उसमें शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं चारित्रिक क्षमताओं के साथ-साथ उत्तरदायित्व एवं आत्म-नियन्त्रण की भावना का विकास किया जाता है। उसके लिए जिमनास्टिक, उद्योग-धन्धों के प्रशिक्षण एवं शिक्षा का प्रबन्ध किया जाता है। उसे पत्र लिखने, रिश्तेदारों से मिलने, मनपसन्द प्रशिक्षण पाने, बिना निगरानी के बाहर घूमने, वर्कशॉप व मनोरंजन कक्ष तथा भोजनशाला में काम करने, खेल-कूद प्रतियोगिता में भाग लेने आदि की भी छूट होती है।

प्रश्न 7
‘रिफॉर्मेट्री स्कूल पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
रिफॉर्मेट्री स्कूलों में 16 वर्ष से कम आयु के ऐसे बच्चों को रखा जाता है, जो पहले सजा काट चुके हैं या जिन्होंने गम्भीर अपराध नहीं किये हैं। इस प्रकार के विद्यालयों का उद्देश्य अपराधी बालक का सुधार और पुनर्वास करना है। इन स्कूलों में अपराधियों को शिक्षा एवं साथ ही विभिन्न व्यवसायों का प्रशिक्षण दिया जाता है। उनके द्वारा निर्मित वस्तुओं को बाजार में बेचकर लाभ को उनके कोष में जमा किया जाता है। इन विद्यालयों में रेडक्रॉस, स्काउटिंग, कृषि, चमड़े का काम, खिलौना, दरी, निवाड़, रस्सी बनाने, बढ़ईगीरी, सिलाई आदि का काम सिखाया जाता है। जिनका काम अच्छा होता है उन्हें वर्ष में 15 दिन तक घर जाने की छुट्टी भी दी जाती है। जबलपुर, हजारीबाग, लखनऊ, बरेली आदि में इस प्रकार के विद्यालय हैं। उत्तर प्रदेश बाल-अधिनियम, 1951 ई० के अधीन उत्तर प्रदेश में कुछ जिलों में एक-एक सुधार अधिकारी को नियुक्त किया गया है, जो बाल-अपराधियों की गोपनीय रिपोर्ट तैयार कर उन्हें सुधारने का प्रयत्न करते हैं।

प्रश्न 8
बाल-अपराध के चार कारण लिखिए। [2010, 13, 15, 16]
या
बाल-अपराध के दो कारण लिखिए। [2007, 17]
उत्तर:
बाल-अपराध के चार कारण निम्नलिखित हैं

1. पारिवारिक कारण – जब परिवार बच्चे को सामाजिक व मानसिक सुरक्षा प्रदान करने में असफल हो जाता है और बच्चा स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगता है, तो वह बाल अपराधी बन जाता है।

2. मनोवैज्ञानिक कारण – यदि बच्चे का विकास मानसिक रूप से दोषपूर्ण हुआ है तो वह स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है और हीन भावना से ग्रसित होकर बाल-अपराधी बन जाता है।

3. अत्यधिक निर्धनता – अत्यधिक निर्धनता के कारण बच्चे को समुचित शिक्षा और मनोरंजन की सुविधाएँ प्राप्त नहीं हो पातीं। सम्पन्न परिवार के बच्चों को देखकर उसमें हीनता; ग्लानि, ईर्ष्या और उद्दण्डता की भावनाएँ साथ-साथ विकसित होने लगती हैं और जब ये भावनाएँ अत्यधिक बलवती हो जाती हैं, तो वह बाल-अपराधी बन जाता है।

4. उद्देश्यहीन शिक्षा व दोषपूर्ण सीख – उद्देश्यहीन शिक्षा के कारण बच्चे अपने आरम्भिक जीवन से ही सुस्त, अनुशासनहीन और उद्दण्ड बनने लगते हैं। शिक्षकों का दुर्व्यवहार उनमें अपराधी मनोवृत्तियाँ उत्पन्न करने लगता है। बच्चे को परिवार या स्कूल में मिलने वाली : दोषपूर्ण सीख के कारण भी उसमें छोटी-छोटी चोरी करने, साथियों को धोखा देने और अकारण मार-पीट करने की आदत पड़ने लगती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
टूटे परिवार बाल-अपराध के लिए कैसे उत्तरदायी होते हैं ?
उत्तर:
परिवार दो प्रकार से टूट सकते हैं
(1) भौतिक रूप से तथा (2) मानसिक रूप से। भौतिक रूप से परिवार के टूटने का अर्थ है – परिवार के सदस्य की मृत्यु हो जाना, लम्बे समय तक अस्पताल, जेल, सेना आदि में रहने अथवा तलाक और पृथक्करण के कारण सदस्यों का परिवार के साथ न रहना। मानसिक रूप से परिवार के टूटने का अर्थ है – सदस्य एक साथ तो रहते हैं, किन्तु उनमें मनमुटाव, मानसिक संघर्ष एवं तनाव पाया जाता है। इन दोनों ही स्थितियों में बच्चों पर परिवार का नियन्त्रण शिथिल हो जाने एवं बच्चों को माता-पिता का प्यार व स्नेह न मिलने के कारण वे अपराध करने लगते हैं।

प्रश्न 2
बाल-अपराधी की ‘मानसिक अयोग्यता उसके अपराधीकरण के लिए कैसे उत्तरदायी
उत्तर:
ऐसा माना जाता है कि बाल-अपराधी मानसिक रूप से पिछड़े होते हैं। डॉ० गोडार्ड ने बताया है कि कमजोर मस्तिष्क अपराध के लिए उत्तरदायी है। हीली और बूनर ने शिकागो के अध्ययन में 63% बाल-अपराधियों को ही स्वस्थ मस्तिष्क का पाया, शेष 37% मानसिक कमजोरी एवं बीमारी आदि से ग्रसित थे। कुमारी इलियट के अध्ययन में 41.5% लड़कियाँ मानसिक रूप से पिछड़ी हुई थीं। कमजोर बुद्धि के बालक अच्छे-बुरे में भेद नहीं कर पाते और वे कुसंगति के कारण अपराध कर बैठते हैं।

प्रश्न 3
क्या ‘बुरे संगी-साथी बाल-अपराध का एक कारण हैं ?
उत्तर:
एक बच्चे को अपराधी बनाने में उसके साथियों का भी पर्याप्त हाथ होता है। एक बच्चा अपराध करने के बाद अपनी साहस भरी कहानी दूसरे बच्चों को सुनाता है तो उनके लिए भी यह प्रेरणा एवं उत्तेजना की बात होती है। अपराधी साथियों के सम्पर्क से ही एक बच्चा धूम्रपान, शराबवृत्ति, चोरी, जुआ आदि सीखता है।

प्रश्न 4
बाल-अपराध को बढ़ाने में गरीबी की क्या भूमिका है ?
उत्तर:
कई अध्ययन इस बात को प्रकट करते हैं कि गरीबी ने बच्चों को अपराधी बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। जोन्स के शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि ज्यों-ज्यों आर्थिक स्तर निम्न होगा, त्यों-त्यों बाल-अपराध की दर ऊँची होगी।” गरीबी में परिवार अपनी मूलभूत आवश्यकताएँ, चिकित्सा एवं मनोरंजन की सुविधाएँ नहीं जुटा पाता। ऐसी स्थिति में माता एवं पिता दोनों ही नौकरी करने लगते हैं। माता-पिता के घर से बाहर रहने की अवधि में बच्चे आवारागर्दी करते हैं। न्यूमेयर लिखते हैं, “जब पिता रात में काम करता है और माता दिन में अथवा दोनों रात या दिन में काम करते हैं तो बच्चे प्रायः गलियों में ही आवारागर्दी करते हुए मिलते हैं। बच्चों की आवश्यकताएँ जब परिवार में पूरी नहीं होती हैं तो वे बाहर चोरी करते हैं।

प्रश्न 5
बाल-अपराध के चार उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
एक निश्चित आयु से कम के बच्चों द्वारा किये जाने वाले कोई भी वे कार्य बालअपराध के अन्तर्गत आते हैं, जो समाज विरोधी होते हैं अथवा जिनसे समूह-कल्याण को हानि पहुँचती है। बाल-अपराध के चार उदाहरण हैं

  1. जेब काटना
  2.  किसी पर साधारण आघात करना,
  3. जुआ खेलना तथा
  4.  चोरी करना।।

प्रश्न 6
भारत में बाल-अपराध के निर्धारण से सम्बन्धित कोई दो मौलिक आधार बताइए।
उत्तर:
भारत में बाल-अपराध के निर्धारण से सम्बन्धित दो मौलिक आधार निम्नवत् हैं

  1. भारत में 7 से 16 वर्ष की आयु तक के अपराधियों को बाल-अपराधी कहा जाता है। इन अपराधियों के लिए एक पृथक् न्याय प्रक्रिया अपनायी जाती है।
  2. बाल-अपराध का तात्पर्य केवल साधारण अपराधी से होता है। यदि 7 वर्ष से 16 वर्ष की आयु तक का कोई बच्चा हत्या, राजद्रोह अथवा अत्यधिक जघन्य अपराध का दोषी हो, तो इस अपराध को बाल-अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाता।

प्रश्न 7
रिमाण्ड होम पर लघु टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अपराध करने के पश्चात् जब पुलिस बच्चे को पकड़ लेती है, तो सर्वप्रथम उसे रिमाण्ड होम में रखा जाता है। जेल में रखने से उसका सम्पर्क युवा-अपराधियों से होने पर उसके गम्भीर अपराधी बन जाने की सम्भावना रहती है। जब तक बच्चे की अदालती कार्यवाही चलती है, उसे रिमाण्ड होम में ही रखा जाता है। अनाथ और निराश्रित बच्चे एवं बन्दीगृहों से पृथक् किये गये। अपराधियों को भी ऐसे गृहों में रखा जाता है। यहाँ बच्चों को मनोरंजन, शिक्षा एवं प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। इस समय देश में 160 रिमाण्ड होम कार्य कर रहे हैं।

प्रश्न 8
परिवीक्षा हॉस्टल पर लघु टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
न्यायालय जब किसी बाल-अपराधी को परिवीक्षा पर छोड़ता है और यदि उस बालअपराधी के माता-पिता या संरक्षक नहीं होते हैं तो उसे परिवीक्षा हॉस्टल में रखा जाता है। ऐसे हॉस्टल में रहने वाले व्यक्ति को दिन में नौकरी करने एवं घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता होती है, किन्तु रात्रि को ठीक समय पर वहाँ वापस पहुँचना अनिवार्य होता है। हॉस्टल वार्डन इन लोगों की गतिविधियों की देख-रेख करता है।

प्रश्न 9
बाल-अपराध रोकने के लिए उचित व स्वस्थ पारिवारिक वातावरण की भूमिका बताइए।
उत्तर:
परिवार ही शिशु की प्रथम पाठशाला और लालन-पालन करने वाली नर्सरी होता है और वही उसके समाजीकरण का केन्द्र भी; अत: यह आवश्यक है कि परिवार व्यवस्थित एवं संगठित हो, उनका वातावरण स्वस्थ हो, माता-पिता एवं परिवारजनों को बच्चे के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार हो, ये बच्चे पर उचित नियन्त्रण रखें और उनका समुचित निर्देशन करें। ऐसी स्थिति में ही बच्चे का चरित्र-निर्माण होगा और वह अपराधी कार्यों से दूर रहेगा।

जिवित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
बाल-अपराध के दो प्रमुख कारक कौन-कौन से हैं ? [2011, 17]
उत्तर:
बाल अपराध के दो प्रमुख कारक परिवार एवं समुदाय हैं।

प्रश्न 2
बाल-अपराध की दो विशेषताएँ लिखिए। [2013]
उत्तर:
बाल अपराध दो विशेषताएँ निम्न हैं|

  1. राज्य द्वारा निश्चित आयु से कम आयु का व्यक्ति।
  2.  अनैतिक एवं अशोभनीय व्यवहार।

प्रश्न 3
भारत में किस आयु-सीमा में बालकों को बाल-अपराधियों की श्रेणी में रखा जाता है?
उत्तर:
भारत में 7 से अधिक एवं 16 वर्ष से कम आयु के लड़कों तथा 7 से अधिक एवं 18 वर्ष से कम आयु की लड़कियों को बाल-अपराधियों की श्रेणी में रखा जाता है।

प्रश्न 4
बाल-न्यायालयों की कार्यवाही कैसे गोपनीय रखी जाती है ?
उत्तर:
बाल-न्यायालयों की कार्यवाही को अखबार में नहीं छापा जा सकता तथा साथ ही गोपनीयता बरती जाती है।

प्रश्न 5
16 वर्ष से अधिक, परन्तु 21 वर्ष से कम आयु के अपराधी को क्या कहते हैं ?
या
किशोर अपराधी की अधिकतम आयु क्या है ?
उत्तर:
16 वर्ष से अधिक, परन्तु 21 वर्ष से कम आयु के अपराधी को किशोर अपराधी कहते है।

प्रश्न 6
अपराध करने के पश्चात् पुलिस बच्चे को पकड़कर सर्वप्रथम कहाँ रखती है ?
उत्तर:
अपराध करने के पश्चात् पुलिस बच्चे को पकड़कर सर्वप्रथम रिमाण्ड होम में रखती है।

प्रश्न 7
बोस्टेल स्कूल में किस आयु-सीमा के किशोर अपराधी को रखा जाता है ?
उत्तर:
बोल स्कूल में 16 से 21 वर्ष की आयु सीमा के किशोर अपराधियों को रखा जाता है।

प्रश्न 8
रिफॉर्मेट्री स्कूल में किन बच्चों को रखा जाता है ?
उत्तर:
इन स्कूलों में 16 वर्ष से कम आयु के ऐसे बच्चों को रखा जाता है, जो पहले सजा काट चुके हैं या जिन्होंने गम्भीर अपराध नहीं किये हैं।

प्रश्न 9
पोषण-गृह तथा सहायक-गृह में किन बच्चों को रखा जाता है ?
उत्तर:
पोषण-गृह तथा सहायक-गृह में 10 वर्ष से कम आयु के बच्चों को रखा जाता है, जिनके माता-पिता में विवाह-विच्छेद हो गया हो या जिनकी मृत्यु हो गयी हो।

प्रश्न 10
नगरों की अपेक्षा बाल-अपराध की भीषण समस्या ग्रामीण क्षेत्रों में क्यों कम है ?
उत्तर:
भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को अपनी परम्पराओं से घनिष्ठ लगाव है। इसी कारण वहाँ बाल-अपराध की समस्या भीषण नहीं है, किन्तु नगरों में संयुक्त परिवार में विघटन तथा औद्योगीकरण के कारण बाल-अपराध ने भीषण रूप धारण कर लिया है।

प्रश्न 11
बाल-अपराध रोकने के लिए मनोवैज्ञानिक क्लीनिक खोलने का सुझाव किसने दिया?
उत्तर:
बाल-अपराध रोकने के लिए मनोवैज्ञानिक क्लीनिक खोलने का सुझाव सिरिल बर्ट ने दिया।

प्रश्न 12
उत्तम-संरक्षण संस्था में किन बच्चों को रखा जाता है ?
उत्तर:
जब बच्चा किसी सुधार संस्था में छः मास तक रहता है और उस अवधि में उसका व्यवहार अच्छा होता है तो ऐसे बच्चों को जेल निरीक्षक उत्तम-संरक्षण संस्था में भेज सकता है।

प्रश्न 13
बाल-अपराधी को दण्ड देने की बजाय सुधारालय क्यों भेजा जाता है ?
उत्तर:
बाल-अपराधी का सुधार सरल एवं सम्भव है, क्योंकि बच्चे के अपरिपक्व मस्तिष्क को किसी भी दिशा में मोड़ना आसान है, जब कि अपराधी में सुधार की सम्भावना कम होती है।

प्रश्न 14
रिफॉर्मेट्री स्कूल अधिनियम कब पारित किया गया ? [2007]
उत्तर:
रिफॉर्मेट्री स्कूल अधिनियम 1897 ई० में पारित किया गया।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
निम्नलिखित में से आप किसे बाल-अपराध कहेंगे ?
(क) घर में भाई-बहन को मारना
(ख) माता-पिता की आज्ञा न मानना
(ग) हॉस्टल में साथियों का सामान चुराना
(घ) अपराधियों की संगत में न रहना

प्रश्न 2
बाल-अपराध के लिए कौन-सी परिस्थिति मुख्य रूप से उत्तरदायी है ?
(क) पारिवारिक
(ख) राजनीतिक
(ग) आर्थिक
(घ) व्यक्तिगत

प्रश्न 3
एक पाँच वर्षीय बालक ने अपने चचेरे भाई के पेट में चाकू घोंप दिया है। बालक की यह क्रिया कहलाएगी।
(क) अपराध
(ख) बाल-अपराध
(ग) श्वेतवसन अपराध
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 4
किसी बालक के विद्यालय से भागने की क्रिया को कहा जाता है [2011]
(क) बाल-अपराध
(ख) अनुपस्थिति
(ग) भगेड़पन
(घ) आवारागर्दी

प्रश्न 5
इस (अपने) राज्य में पुरुष बाल-अपराधी की अधिकतम मानक आयु है।
(क) 11 वर्ष
(ख) 16 वर्ष
(ग) 18 वर्ष
(घ) 21 वर्ष

प्रश्न 6
बाल-अपराध से सम्बन्धित नहीं है। [2007, 08, 09]
(क) बोर्टल स्कूल
(ख) सुधार-गृह
(ग) कारागार
(घ) प्रमाणित स्कूल

प्रश्न 7
बाल-अपराधियों के लिए कौन-सा उपयुक्त है ?
(क) किशोर न्यायालय
(ख) प्राणदण्ड
(ग) प्रोबेशन व्यवस्था
(घ) प्राचीरविहीन कारागार

प्रश्न 8
निम्नलिखित में से कौन-सा उपचार बाल-अपराधियों के लिए है ?
(क) तरुण शक्ति सेना
(ख) सुधार विद्यालय
(ग) हरिजन सेवा संघ
(घ) प्राचीरविहीन जेल

प्रश्न 9
निम्नलिखित में से कौन-सा बाल-अपराधियों के लिए नहीं है ?
(क) किशोर सदन, बरेली
(ख) सेवासदन, नासिक
(ग) प्राचीरविहीन जेल
(घ) सुधार विद्यालय

प्रश्न 10
बच्चे अथवा किशोरों के द्वारा किये अपराध के लिए न्यायिक कार्यवाही किस न्यायालय द्वारा की जाती है ?
(क) जिला न्यायालय द्वारा
(ख) किशोर सदन द्वारा
(ग) सुधार-गृह द्वारा
(घ) किशोर न्यायालय द्वारा

प्रश्न 11
बाल-अपराधियों को प्रशिक्षित करके सुधारने का कार्य कहाँ होता है ?
(क) पोषण-गृह में
(ख) सुधार-गृह में
(ग) किशोर सदन में
(घ) रिमाण्ड होम में

प्रश्न 12
भारत में प्रथम बाल न्यायालय की स्थापना हुई [2016]
(क) 1952 में
(ख) 1922 में
(ग) 1953 में
(घ) 1931 में

प्रश्न 13
बाल-अपराध सुधार हेतु कौन-सी संस्था उपयुक्त है? [2016]
(क) आदर्श बन्दी गृह
(ख) प्रतिप्रेषण गृह
(ग) प्राचीन विहीन कारागार
(घ) उद्धार गृह

उत्तर:
1. (ग) हॉस्टल में साथियों का सामान चुराना, 2. (क) पारिवारिक, 3. (घ) इनमें से कोई नहीं, 4. (क) बाल-अपराध, 5. (ख) 16 वर्ष, 6. (ग) कारागार, 7. (क) किशोर न्यायालय, 8. (ख) सुधार विद्यालय, 9. (ग) प्राचीरविहीन जेल, 10. (घ) किशोर न्यायालय द्वारा, 11. (ग) किशोर सदन में, 12. (ख) 1922 में, 13. (घ) उद्धार गृह

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