UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 11 (Section 1)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 11 प्रथम स्वतन्त्रता-संग्राम–कारण तथा परिणाम (अनुभाग – एक)

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
1857 ई० के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के कारणों पर प्रकाश डालिए। [2012]
          या
1857 ई० की क्रान्ति के सामाजिक, धार्मिक तथा सैनिक कारणों की विवेचना कीजिए।
          या
1857 ई० के स्वतन्त्रता संघर्ष के किन्हीं तीन कारणों का वर्णन करें और इसकी असफलता के कोई दो कारण भी लिखिए। [2012]
          या
1857 ई० की क्रान्ति के कारणों एवं परिणामों की व्याख्या कीजिए। [2013]
          या
अंग्रेजों की आर्थिक शोषण की नीति 1857 ई० के विद्रोह का एक प्रमुख कारण थी। स्पष्ट कीजिए।
          या
भारत के लोग ब्रिटिश शासन से क्यों असन्तुष्ट थे ? उनके असन्तोष के किन्हीं चार कारणों पर प्रकाश डालिए। [2015]
          या
1857 ई० के भारत में क्रान्ति का स्वरूप क्या था? उसके प्रमुख कारणों की विवेचना कीजिए। [2016]
उत्तर :

1857 ई० की क्रान्ति (स्वाधीनता संग्राम) का स्वरूप

निःसन्देह 1857 ई० का संघर्ष भारतीय इतिहास की एक अभूतपूर्व युगान्तकारी घटना है। इस क्रान्ति के स्वरूप के विषय में मुख्य रूप से दो भिन्न मत हैं। अंग्रेजों ने, जो साम्राज्यवाद के स्वाभाविक पक्षपाती थे, इसे केवल सैनिकों के (UPBoardSolutions.com) संघर्ष की संज्ञा दी है, जबकि भारतीयों ने इसे निर्विवाद रूप से प्रथम स्वाधीनता संग्राम और प्रथम राष्ट्रीय आन्दोलन बताया है।

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1857 ई० की क्रान्ति के विषय में कतिपय इतिहासकारों एवं विद्वानों के मत इस प्रकार हैं
सर जॉन लारेन्स के अनुसार-“यह एक सैनिक क्रान्ति थी।”
सर जेम्स आउटरम के अनुसार-“यह एक मुस्लिम षड्यन्त्र था, क्योंकि भारतीय मुसलमानों ने दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह के नेतृत्व में अंग्रेजों को भारत से निकालकर पुन: देश पर अपनी सत्ता स्थापित करने का सशस्त्र प्रयत्न किया था।”
वीर सावरकर के अनुसार-“यह भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम था।”
अशोक मेहता के अनुसार-“यह भारत का प्रथम राष्ट्रीय आन्दोलन था।”
पी०ई० राबर्ट्स के अनुसार-“यह केवल एक सैनिक संघर्ष था, जिसका तत्कालीन कारण कारतूस वाली घटना थी। इसका किसी पूर्वगामी षड्यन्त्र से कोई सम्बन्ध नहीं था।”
एल०ई०आर० रीज के अनुसार-“यह धर्मान्धों का ईसाइयों के विरुद्ध युद्ध था।”
निष्कर्षत: अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 ई० का स्वतन्त्रता संग्राम भारतीयों का प्रथम राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम ही था जो सैनिक क्रान्ति के माध्यम से प्रारम्भ हुआ था। इसका वास्तविक स्वरूप कुछ भी क्यों न हो, शीघ्र ही यह भारत में अंग्रेजी सत्ता के लिए एक चुनौती का प्रतीक बन गया।
1857 ई० की क्रान्ति को भारतीय इतिहास (UPBoardSolutions.com) में प्रमुख स्थान प्राप्त है। इसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा जाता है। 1857 ई० की क्रान्ति कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। जब से अंग्रेजों ने भारत पर अपना प्रभुत्व जमाया, भारतीय जनता में तभी से असन्तोष की लहर दौड़ रही थी। अनेक राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा सैनिक कारणों ने भारतीयों में अत्यधिक असन्तोष भर दिया था और 1857 ई० की क्रान्ति उसी का परिणाम थी। 1857 ई० की क्रान्ति के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे

(क) राजनीतिक कारण
1857 ई० की क्रान्ति के प्रमुख राजनीतिक कारण निम्नलिखित थे –

1. ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्वार्थपूर्ण नीति – भारत पर अपने शासन का प्रभुत्व जमाने वाली कम्पनी स्वार्थ पर आधारित थी। यह किसी भी रूप में भारतीयों के हितों का ध्यान नहीं करती थी। अधिकांश अंग्रेज गवर्नर जनरलों ने कम्पनी की स्वार्थ-लिप्सा को ही पूरा करने का प्रयत्न किया। कम्पनी का दोषपूर्ण शासन और अमानवीय व्यवहार इस क्रान्ति की नींव बना।

2. मुगल सम्राटों की दयनीय स्थिति – मुगल सम्राटों की स्थिति निरन्तर खराब होती जा रही थी। पहले | सिक्कों पर मुगल शासकों के नाम मुद्रित किये जाते थे और कम्पनी के उच्च पदाधिकारी तक उनको झुककर सलाम करते थे, किन्तु 1835 ई० के बाद से कम्पनी ने मुगलों को बहुत ही पंगु बना दिया। सिक्कों से उनका नाम हटा दिया गया और अंग्रेज पदाधिकारियों ने उनका सम्मान करना भी छोड़ दिया।

3. उच्च नौकरियों में भारतीयों की उपेक्षा – उच्च नौकरियों में भारतीयों को नियुक्त नहीं किया जाता था। लॉर्ड विलियम बैंटिंक के 1835 ई० में वापस जाने के बाद भारतीयों की पुन: उपेक्षा शुरू हो गयी थी। इस स्थिति में, भारतीयों में स्वाभाविक रूप से असन्तोष उत्पन्न हो गया।

4. दोषपूर्ण न्याय-प्रणाली – कम्पनी ने जो न्याय-प्रणाली स्थापित कर रखी थी, उससे भारतीयों को पूर्ण न्याय प्राप्त नहीं होता था। यह न्याय-प्रणाली बहुत जटिल थी। इस दूषित न्याय-प्रणाली ने भारतीयों के असन्तोष में और अधिक (UPBoardSolutions.com) वृद्धि कर दी।

5. प्रशासनिक अधिकारियों का दुर्व्यवहार – ब्रिटिश प्रशासनिक व राजस्व अधिकारी जनता पर मनमाने व अमानवीय अत्याचार किया करते थे। यह दुर्व्यवहार भी क्रान्ति का एक कारण बना था।

6. लॉर्ड डलहौजी की राज्य-अपहरण की नीति – लॉर्ड डलहौजी ने साम्राज्यवादी नीति का पालन करते हुए सभी प्रकार की नैतिकताओं और आदर्शों को त्यागकर, उचित-अनुचित का विवेक किये बिना साम्राज्य–विस्तार की नीति को ही सर्वोपरि महत्त्व दिया। मुगल बादशाह, अवध के नवाब ‘ (वाजिद अली शाह) और मराठों को उसने अत्यधिक क्षति पहुँचायी। राज्य-अपहरण की नीति में ‘गोद निषेध नियम’ बनाकर उसने अनेक राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया। यह राज्य-अपहरण की नीति प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम का मुख्य कारण थी।

7. पेंशन तथा उपाधियों की समाप्ति – लॉर्ड डलहौजी ने पेंशन तथा उपाधियों को भी बन्द करवा दिया। नाना साहब की पेंशन के साथ-साथ जो सम्मानसूचक उपाधि क्रमागत रूप से चली आ रही थी, समाप्त कर दी गयी। इस कारण नाना साहब स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रगण्य नेता बन गये।

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(ख) आर्थिक कारण
1857 ई० की क्रान्ति के लिए निम्नलिखित आर्थिक कारण भी उत्तरदायी थे –

1. भारतीय व्यापार को क्षति – ब्रिटिश शासन के फलस्वरूप भारतीय व्यापार नष्ट हो गया। यहाँ के कच्चे माल को अंग्रेज सस्ते मूल्य पर खरीदकर इंग्लैण्ड ले जाते और उससे तैयार माल बनाकर बेचते थे। इस व्यापारिक क्षति ने भारतीय व्यापारियों और बेरोजगार हुए कारीगरों में विद्रोह की भावना जगा दी।

2. हस्तशिल्पियों की दुर्दशा – भारत का आर्थिक जनजीवन हस्तशिल्पियों पर निर्भर था। कम्पनी के व्यापार के बाद से इन हस्तशिल्पियों के दुर्दिन आ गये। इन हस्तशिल्पियों की दुर्दशा ने क्रान्ति की स्थिति में वृद्धि कर दी।

3. किसानों की दयनीय स्थिति – कम्पनी के राज्य में कृषकों की दशा दयनीय थी। भारतीय पदाधिकारी, जमींदार के ठेकेदार, कम्पनी के छोटे कर्मचारी, सभी ने कृषकों का शोषण किया। किसानों की यह विवशता एक दिन उग्र क्रान्ति का रूप बनकर ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए तैयार हो गयी।

4. भारतीय धन का ब्रिटेन चले जाना – कम्पनी के अधिकारी और कर्मचारी कुछ थोड़े समय के लिए भारत आया करते थे। अतः वे अपनी जेबें भरने के लिए लालायित रहते थे। कम्पनी भी अपनी कोष बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील रहती थी। इस दोहरी मार ने साधारण भारतीयों को अपार क्षति पहुँचाई। इसीलिए भारतीय, ब्रिटिश शासन से मुक्त होने के लिए लालायित हो गये।

5. जमींदारी प्रथा के दोष – अंग्रेजों ने जमींदारों को भूमि का स्थायी स्वामी बना दिया था, इससे जमींदारी प्रथा के अनेक दोष प्रकट हुए। चूँकि जमींदार किसानों से मनमाना लगान वसूल किया करते थे, इससे किसानों को अपार कष्ट (UPBoardSolutions.com) मिलता था। जब स्वयं कुछ जमींदार लगान न देने के कारण जमींदारी से हटा दिये गये, तो वे अंग्रेजों के शत्रु बन गये। इस तरह जमींदारी से हटाये गये जमींदार एवं शोषित कृषक संयुक्त होकर अंग्रेजों के विरुद्ध एक हो गये।

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(ग) सामाजिक कारण
1857 ई० की क्रान्ति के प्रमुख सामाजिक कारण निम्नलिखित थे –

1. सामाजिक प्रथाओं पर प्रतिबन्ध – सुधारों के नाम पर जिन गवर्नरों ने सामाजिक प्रथाओं (विधवा-विवाह, सती–प्रथा, बाल-विवाह) पर रोक लगायी वे यथार्थ में तो उपयोगी थे, परन्तु इससे तात्कालिक रूप से सरकार के विरुद्ध असन्तोष पैदा हुआ था।

2. पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का प्रचलन – अंग्रेजों ने भारत में पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का भी प्रचार किया। उन्होंने भारतीय साहित्य और प्रान्तीय भाषाओं की उपेक्षा की। लॉर्ड मैकाले ने अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाया। भारतीय जनता ने इस भाषा का विरोध किया।

3. अंग्रेजी शिक्षा का विरोध – गवर्नर जनरल विलियम बैंटिंक और उसके कानूनी सदस्य लॉर्ड मैकाले के सहयोग से अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्रदान की जाने लगी। यह शिक्षा कालान्तर में राष्ट्रीय उत्थान में सहायक सिद्ध हुई, परन्तु शुरू में इसके विरुद्ध असन्तोष पनपा

4. श्रेष्ठता की भावना – भारत में उच्च प्रशासनिक (UPBoardSolutions.com) पदों पर अंग्रेज ही आसीन थे और उनके अधीन अंग्रेजी शिक्षित भारतीय कार्य करते थे। अंग्रेज अधिकारी तो भारतीयों को निम्न श्रेणी का समझते ही थे, अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीय भी उनका पक्ष लेते हुए भारतीयों को हेय दृष्टि से देखते थे। अत: लोगों में अंग्रेज अधिकारियों के दुर्व्यवहार के प्रति तीव्र रोष उत्पन्न होने लगा था।

(घ) धार्मिक कारण
1857 ई० की क्रान्ति के प्रमुख धार्मिक कारण निम्नलिखित थे –

1. ईसाई धर्म का प्रचार – भारत में ईसाई पादरियों ने मिशनरियों के माध्यम से भारतीयों को तरह-तरह के प्रलोभन देकर ईसाई बनाया था। इससे भारतीय जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध रोष उत्पन्न हुआ और क्रान्ति के बीज अंकुरित हुए।

2. हिन्दू और इस्लाम धर्म की अवहेलना – अंग्रेजों ने भारत के दोनों मुख्य धर्मो-हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म की अवहेलना की। वे इन धर्मों का तनिक भी आदर नहीं करते थे। यह स्थिति जनता के प्रबल असन्तोष का कारण बनी थी।

3. गोद निषेध नियम – भारतीय परम्परानुसार जो दम्पति नि:सन्तान होते थे, वे किसी दूसरे बालक को गोद ले लेते थे। लॉर्ड डलहौजी ने गोद निषेध नियम बनाकर इस परम्परा पर कुठाराघात किया तथा अनेक राज्यों का अपहरण कर लिया।

4. ईसाइयों को विशेष सुविधाएँ – ईसाई धर्म ग्रहण करने वालों को सामाजिक और धार्मिक स्तर पर अनेक सुविधाएँ प्रदान की गयी थीं। नये बने ईसाई भी अनेक प्रकार की सुविधाओं का उपभोग कर रहे थे। सरकार की इस पक्षपातपूर्ण नीति ने भारतीयों में असन्तोष की वृद्धि कर दी।

5. चर्बी लगे कारतूसों का प्रयोग – भारतीय सैनिकों को दिये गये नये कारतूसों को राइफलों में भरने के लिए मुँह से छीलना पड़ता था। सैनिकों में यह अफवाह फैल गयी कि इन कारतूसों में गाय तथा सूअर की चर्बी मिली होती है। गाय हिन्दुओं (UPBoardSolutions.com) के लिए पवित्र थी, जबकि सूअर मुसलमानों के लिए अपवित्र। परिणामत: हिन्दू और मुसलमान सैनिक भड़क उठे और उन्होंने इन कारतूसों का प्रयोग करने से इनकार कर दिया। इस क्रान्ति को ही 1857 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम का तात्कालिक कारण माना जाता है।

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(ङ) सैनिक कारण
1857 ई० की क्रान्ति के प्रमुख सैनिक कारण अग्रलिखित थे –

1. सैनिकों में भेदभाव – अंग्रेजी सेना में सेवारत भारतीय सैनिकों और अंग्रेज सैनिकों के बीच भेदभाव रखा गया था। भारतीयों को वेतन, भत्ते, पदोन्नति भी कम दी जाती थी तथा इन्हें उच्च पदों पर भी नियुक्त नहीं किया जाता था।

2. ब्राह्मण एवं क्षत्रिय सैनिकों की समस्या – अंग्रेजी सेना में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय सैनिकों की संख्या बहुत अधिक थी। इन वर्गों के लोगों का समाज में बहुत सम्मानित स्थान था, परन्तु ब्रिटिश सेना में इनके साथ बहुत ही निम्न स्तर का व्यवहार किया जाता था। इस कारण भी सैनिकों के मन में असन्तोष की भावना व्याप्त थी।

3. अफगान युद्ध का प्रभाव – ब्रिटिश सैनिक 1838-42 ई० के प्रथम अफगान युद्ध में बुरी तरह से पराजित हो गये थे। इससे भारतीय सैनिकों में यह धारणा व्याप्त हुई कि यदि अफगानी सैनिक ब्रिटिश सैनिकों को हरा सकते हैं, तो हम भी अपने देश को इनसे मुक्त करा सकते हैं।

4. क्रीमिया का युद्ध – यूरोप में 1854-56 ई० में हुए क्रीमिया के युद्ध में अंग्रेजों की पर्याप्त सेना समाप्त हो गयी थी। अत: भारतीयों ने उचित अवसर पाकर क्रान्ति करने का निश्चय कर लिया था।

5. विदेश जाने की समस्या – सन् 1856 ई० में एक कानून यह बनाया गया कि आवश्यकता पड़ने पर भारतीय सैनिकों को अंग्रेजों की ओर से युद्ध लड़ने के लिए विदेश में भी भेजा जा सकता है तथा भारतीय सैनिक वहाँ जाने से मना नहीं कर सकते।

6. रियासती सेना की समाप्ति – सन् 1856 ई० में अवध को अंग्रेजी राज्य में मिला दिया गया और वहाँ की रियासती सेना को भंग कर दिया गया। इससे साठ हजार सैनिक बेकार हो गये। इसी प्रकार ग्वालियर, मालवा आदि राज्यों की सेनाएँ भी समाप्त कर दी गयीं। (UPBoardSolutions.com) बेकार भारतीय सैनिक भड़क उठे। तथा क्रान्ति की योजनाएँ बनाने लगे।
[असफलता के कारण – इसके लिए निम्नलिखित प्रश्न संख्या 2 को उत्तर देखें।]
[परिणाम – इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 4 का उत्तर देखें।

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प्रश्न 2.
1857 ई० की क्रान्ति की असफलता के कारणों का वर्णन कीजिए। [2009, 10, 12]
           या
1857 की क्रान्ति की असफलता के प्रमुख दो कारण लिखिए। (2013)
           या
1857 के स्वतन्त्रता संघर्ष की असफलता के क्या कारण थे ? किन्हीं तीन का उल्लेख कीजिए। [2013, 17]
उत्तर :

1857 ई० की क्रान्ति की असफलता के कारण

सन् 1857 ई० की क्रान्ति या संग्राम की असफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे –

1. समय से पूर्व क्रान्ति का प्रारम्भ – क्रान्ति के प्रारम्भ करने की तिथि 31 मई निश्चित की गयी थी, परन्तु कुछ भारतीय सैनिकों ने आवेश में आकर 10 मई को ही क्रान्ति का बिगुल बजा दिया। इस प्रकार निर्धारित समय से पूर्व क्रान्ति प्रारम्भ हो जाने के कारण संगठित क्रान्ति का प्रयास असफल हो गया और क्रान्तिकारियों को बहुत हानि उठानी पड़ी।

2. क्रान्ति का सीमित क्षेत्र – इस क्रान्ति का क्षेत्र देशव्यापी न होकर सीमित था। यह क्रान्ति दिल्ली से लेकर कलकत्ता तक ही सीमित रही। पंजाब, राजस्थान, सिन्ध तथा पूर्वी बंगाल में अंग्रेजी सत्ता का अन्त करने के लिए तनिक भी प्रयत्न नहीं किया (UPBoardSolutions.com) गया, वरन् पंजाब, राजपूताना, ग्वालियर, इन्दौर आदि, के नरेशों ने अंग्रेजों की सहायता की। सर डब्ल्यू० रसल ने लिखा है, “यदि सारे देशवासी, सर्वतोभाव से अंग्रेजों के विरुद्ध हो गये होते, तो अपने साहस के रहते भी अंग्रेज पूर्णतया नष्ट कर दिये गये होते।”

3. संगठन का अभाव – क्रान्तिकारी नेताओं में संगठन का सर्वथा अभाव था। प्रत्येक की नीति अलग-अलग थी और प्रत्येक के समर्थक अपने ही नेता के नेतृत्व में काम करना चाहते थे। डॉ० ईश्वरी प्रसाद ने ठीक ही लिखा है, “यदि शिवाजी या बांबर जैसा नेता होता तो वह अपने चुम्बकीय व्यक्तित्व से क्रान्ति के विभिन्न वर्गों को एक कर लेता, परन्तु ऐसे नेता के अभाव में विभिन्न लोगों के व्यक्तिगत ईष्र्या-द्वेष सामूहिक कार्य के बीच आते रहे।

4. एक लक्ष्य का अभाव – क्रान्तिकारियों का कोई एक लक्ष्य न था। वे भिन्न-भिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लड़ रहे थे। नाना साहब पेंशन चाहते थे, लक्ष्मीबाई गोद लेने का अधिकार और बहादुरशाह जफर बादशाहत चाहते थे।

5. कुछ भारतीयों की अंग्रेजों के प्रति स्वामिभक्ति – क्रान्ति की विफलता का एक प्रमुख कारण यह था कि कुछ भारतीय नरेशों ने अंग्रेजों के प्रति स्वामिभक्ति प्रदर्शित की। उन्होंने क्रान्तिकारियों का साथ नहीं दिया और क्रान्ति का दमन करने में अंग्रेजी सेना की सहायता की।

6. सफल नेतृत्व का अभाव – क्रान्ति के नेताओं में कोई कुशल तथा अनुभवी नेता नहीं था। बहादुरशाह तथा कुँवरसिंह वृद्ध थे। सूबेदार बख्त खाँ तथा तांत्या टोपे वीर होते हुए भी साधारण कोटि के व्यक्ति थे। रानी लक्ष्मीबाई वीरांगना होते हुए भी स्त्री थीं। नाना साहब में रणनीतिज्ञता का अभाव था। इसका परिणाम यह हुआ कि इस क्रान्ति की विभिन्न शक्तियों का यथेष्ट समीकरण न हो सका। इसके विपरीत अंग्रेजों की ओर नील, हैवलॉक, आउटरम तथा यूरोज जैसे योग्य सेनापति एवं कुशल राजनीतिज्ञ थे।

7. साधनों व अनुशासन का अभाव – क्रान्तिकारियों के पास साधनों का अभाव था। उनके पास धन तथा आधुनिक ढंग के अस्त्र-शस्त्रों की कमी थी। इसके अतिरिक्त क्रान्तिकारियों में अनुशासन का अभाव था। वे एक (UPBoardSolutions.com) अनुशासनहीन-अनियन्त्रित क्रान्तिकारियों की भीड़ के समान थे। अनुशासन तथा सामग्री का अभाव भी इस क्रान्ति की असफलता का एक मुख्य कारण बना।

8. अंग्रेजों के पास पर्याप्त साधन – अंग्रेजों को इंग्लैण्ड से सैनिक और युद्ध-सामग्री की आपूर्ति बराबर मिलती रहती थी तथा यातायात के साधनों, रेल, तार आदि पर भी उनका अधिकार था। अतः वे सरलतापूर्वक एक स्थान से दूसरे स्थान पर शीघ्रता से आ-जा सकते थे तथा सन्देश भेज सकते थे। परन्तु क्रान्तिकारियों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने में तथा सन्देश भेजने में पर्याप्त समय लगता था।

9. रचनात्मक कार्यक्रमों का अभाव – क्रान्तिकारियों ने सामान्य जनता के समक्ष भविष्य का कोई रचनात्मक कार्य नहीं रखा। इस कारण सामान्य जनता का भी इन्हें भरपूर समर्थन प्राप्त न हो सका।

10. वीभत्स और क्रूर अत्याचार – अंग्रेजों के वीभत्स और क्रूर अत्याचार भी क्रान्ति की असफलता के कारण बने। उनके अत्याचारों से भारतीय जनता इतनी अधिक भयभीत हो गयी कि उसका मनोबल गिर गया और वह क्रान्तिकारियों को समुचित सहयोग नहीं दे सकी।

11. नौसैनिक शक्ति का अभाव – 1857 ई० के विद्रोह को दबाने के लिए विश्व में फैले ब्रिटिश साम्राज्य के भिन्न-भिन्न भागों से एक लाख से भी अधिक सैनिक भारत भेजे गये थे। क्रान्तिकारियों के पास कोई नौसैनिक शक्ति नहीं थी, फलत: (UPBoardSolutions.com) ये इंग्लैण्ड से आ रही युद्ध-सामग्री और सेना को रोक न सके।

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प्रश्न 3.
1857 ई० के भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दो प्रमुख नेताओं के जीवन एवं कार्यों का वर्णन कीजिए। [2014]
           या
महारानी लक्ष्मीबाई कौन थीं ? संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2010]
           या
सन् 1857 ई० के स्वतन्त्रता संघर्ष के चार क्रान्तिकारियों का उल्लेख कीजिए। उनमें से किन्हीं दो का अंग्रेजों के प्रति असन्तोष और उनके द्वारा किये गये संघर्ष का विवरण दीजिए।
           या
रानी लक्ष्मीबाई कौन थी ? उसने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष क्यों किया ?
           या
सन् 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के किन्हीं दो क्रान्तिकारियों के अंग्रेजों के प्रति असन्तोष और उनके संघर्ष पर प्रकाश डालिए। [2012]
           या
देश के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में रानी लक्ष्मीबाई की क्या भूमिका थी? संक्षेप में लिखिए। [2016]
उत्तर :
सन् 1857 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम में अनेक क्रान्तिकारियों (नेताओं) ने उल्लेखनीय योगदान दिया, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं

1. नाना साहब – नाना साहब, पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे। इनका वास्तविक नाम धुन्धुपन्त था। अंग्रेजों ने इन्हें पेशवा का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया तथा इनकी 80 हजार पौण्ड की पेंशन बन्द कर दी। इससे नाना साहब के मन में अंग्रेजों के प्रति असन्तोष फैल गया तथा वे उनके सबसे बड़े शत्रु बन गये। हिन्दू उन्हें बाजीराव का कानूनी उत्तराधिकारी समझते थे तथा उनके प्रति अंग्रेजों का यह व्यवहार अन्यायपूर्ण समझा गया। नाना साहब ने विद्रोहियों में स्वयं को एक नायक प्रमाणित किया। अजीमुल्ला खान ने उनकी सहायता की। अंग्रेजों से संघर्ष करने के लिए नाना साहब ने (UPBoardSolutions.com) मुगल सम्राट के प्रति निष्ठा की घोषणा कर दी और स्वतन्त्रता के संघर्ष को राष्ट्रीय जागृति के रूप में प्रस्तुत करने का कार्य किया। फलत: नाना साहब अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्तिकारियों का नेतृत्व करने वालों में आगे आ गये। संघर्ष का परिणाम यह हुआ कि उन्होंने कानपुर पर अधिकार कर लिया तथा वहाँ अनेक अंग्रेज मौत के घाट उतार दिये। कुछ समय पश्चात् ही कानपुर के निकट बिठूर नामक स्थान पर वे अंग्रेजों से पराजित हो गये। क्रान्ति समाप्त होने
के बाद 1859 ई० में वे नेपाल चले गये।

2. महारानी लक्ष्मीबाई – महारानी लक्ष्मीबाई झाँसी के राजा गंगाधर राव की महारानी थीं। राजा गंगाधर राव की सन् 1853 ई० में मृत्यु हो गयी। अपने पति की मृत्यु के बाद, उन्होंने दामोदर राव नामक एक अल्पवयस्क बालक को गोद ले लिया और पुत्र की संरक्षिका बनकर शासन-कार्य प्रारम्भ कर दिया। लॉर्ड डलहौजी ने गोद-निषेध नियम का लाभ उठाकर झाँसी के राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। इससे महारानी असन्तुष्ट हो गयीं तथा अंग्रेजों के प्रति उनके मन में असन्तोष व्याप्त हो गया। उन्होंने अंग्रेजों से बड़ी वीरता के साथ लोहा लिया तथा 1858 ई० में कालपी के निकट हुए संग्राम में वीरगति प्राप्त की।

3. मंगल पाण्डे – मंगल पाण्डे बैरकपुर की छावनी में कार्यरत एक वीर सैनिक था। इसने सबसे पहले 6 अप्रैल, 1857 ई० को चर्बीयुक्त कारतूसों का प्रयोग करने से स्पष्ट इनकार कर दिया था। जब कारतूसों के प्रयोग के लिए उससे जबरदस्ती की गयी तो वह भड़क उठा और उसने शीघ्र ही दो अंग्रेज अधिकारियों को मार डाला। उस पर हत्या का आरोप लगा, परिणामस्वरूप उसे मृत्युदण्ड दिया गया। 8 अप्रैल, 1857 ई० को मंगल पाण्डे को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। मंगल पाण्डे का बलिदान 1857 ई० की महाक्रान्ति का तात्कालिक कारण बना।

4. कुँवर सिंह – कुंवर सिंह बिहार प्रान्त में आन्दोलन की रणभेरी बजाने वाले महान् स्वतन्त्रता सेनानी थे। कुंवर सिंह जगदीशपुर के जमींदार थे। राजा के नाम से विख्यात 80 वर्षीय कुंवर सिंह ने अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया। इन्होंने आजमगढ़ और बनारस में सफलताएँ प्राप्त की। अपने युद्ध-कौशल और छापामार युद्ध-नीति द्वारा इन्होंने अनेक स्थानों पर अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिये। ब्रिटिश सेनानायक मारकर ने इन्हें पराजित करने का भरसक प्रयास किया, परन्तु कुंवर सिंह गंगा पार कर अपने प्रमुख गढ़ जगदीशपुर पहुँच गये और वहाँ अप्रैल, 1858 ई० में अपने को स्वतन्त्र राजा घोषित कर दिया। दुर्भाग्यवश कुछ ही दिनों बाद इनकी मृत्यु हो गयी।

5. तात्या टोपे – तात्या टोपे स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर चढ़ जाने वाले महान् सेनानी थे। ये नाना साहब के सेनापति थे। इन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 ई० के स्वतन्त्रता आन्दोलन को दीर्घकाल तक जारी रखा। अपनी सेना को लेकर इन्हें संकटकाल (UPBoardSolutions.com) में जंगलों में छिपे रहना पड़ता था। तात्या टोपे रानी लक्ष्मीबाई के साथ भी रहे। रानी द्वारा ग्वालियर के किले पर अधिकार करने में इनकी उल्लेखनीय भूमिका रही। रानी के वीरगति प्राप्त करने पर ये क्रान्ति की मशाल लेकर दक्षिण में पहुँचे। ये अन्तिम समय तक अंग्रेजों से लड़ते रहे। एक विश्वासघाती ने इन्हें सोते समय गिरफ्तार करवा दिया। अंग्रेजों ने 15 अप्रैल, 1859 ई० को इस महान् देशभक्त को तोप से उड़वा दिया।

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प्रश्न 4.
सन् 1857 ई० की क्रान्ति के क्या परिणाम हुए ? [2012]
उत्तर :

प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम (सन् 1857 ई०) के परिणाम

सन् 1857 ई० का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम यद्यपि असफल रहा, तथापि इसके निम्नलिखित व्यापक प्रभाव पड़े –

  1. इस संग्राम ने इंग्लैण्ड की सरकार का ध्यान भारत में प्रशासन की ओर दिलाया, जिससे भारत को कम्पनी के शासन के स्थान पर सीधे ताज के अधीन कर दिया गया।
  2. महारानी विक्टोरिया ने देशी रियासतों का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय न करने की घोषणा की तथा गोद-निषेध प्रथा को समाप्त कर दिया गया।
  3. अंग्रेजी शिक्षा के और अधिक प्रचार और प्रसार का निर्णय लिया गया।
  4. अंग्रेजों ने भारत में साम्राज्यवादी प्रादेशिक विस्तार के स्थान पर आर्थिक शोषण की नीति के युग का आविर्भाव किया।
  5. अंग्रेजों के अत्याचारों से भारतीयों के मन में उनके प्रति द्वेष और बढ़ा जिससे राष्ट्रीयता की भावनाएँ प्रबल हुईं, जिसके फलस्वरूप भारतीय नेता देश को उनके चंगुल से छुड़ाकर ही चैन से बैठे।
  6. इस क्रान्ति ने अंग्रेजों को हिन्दू-मुस्लिम एकता की शक्ति का अनुभव करा दिया; अतः अब ब्रिटिश शासकों ने ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति अपनायी। इस नीति के कारण ही भारत के विभाजन का मार्ग प्रशस्त हुआ।
  7. प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने भारत के राष्ट्रीय जागरण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। राष्ट्रीय जागरण के फलस्वरूप भारतवासी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध अपना स्वाधीनता संघर्ष चलाने के लिए कटिबद्ध हो गये।
  8. इस क्रान्ति के फलस्वरूप भारत में ब्रिटिश संसद ने लोकतान्त्रिक (UPBoardSolutions.com) संस्थाओं के विकास को प्रोत्साहन दिया। कालान्तर में भारत एक सम्प्रभुतासम्पन्न लोकतान्त्रिक देश बन गया।
  9. इस क्रान्ति के परिणामस्वरूप जनता के प्रति अंग्रेजों की सहानुभूति कम हो गयी। उन्होंने जनता से अलग रहने की नीति अपना ली तथा प्रशासन में भी जातीय भेदभाव बढ़ गया।
  10. आर० सी० मजूमदार का कथन है कि “सन् 1857 ई० की क्रान्ति से भड़की आग ने भारत में ब्रिटिश शासन को उससे अधिक क्षति पहुँचायी, जितनी कि स्वयं क्रान्ति ने पहुँचायी थी।”
  11. अंग्रेजी सेना का पुनर्गठन किया गया और सेना में भारतीयों की संख्या को कम किया गया। तोपखाने में केवल यूरोपीय सैनिकों को तैनात किया जाने लगा। इसके अतिरिक्त भारतीय सैनिकों की जाति, धर्म व प्रान्त के आधार पर अलग-अलग टुकड़ियाँ बनायी गयीं, जिससे वे एक न हो सकें।

इस प्रकार प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के परिणाम बड़े व्यापक तथा दूरगामी सिद्ध हुए। इसके प्रभाव को स्पष्ट करते हुए ग्रिफिन ने कहा है कि “प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम भारतीय इतिहास की एक सौभाग्यशाली घटना थी, जिसने भारतीय गगनमण्डल को अनेक मेघों से मुक्त कर दिया था।”

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
1857 ई० के संग्राम में महिला क्रान्तिकारियों के योगदानों की चर्चा संक्षेप में कीजिए।
           या
भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम (सन् 1857) में निम्नलिखित में से किन्हीं दो का परिचयदेते हुए उनके योगदान का वर्णन कीजिए
(क) रानी लक्ष्मीबाई, (ख) बेगम हजरत महल तथा, (ग) रानी अवन्ती बाई। (2010)
उत्तर :
1857 ई० की क्रान्ति में महिला क्रान्तिकारियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं –

1. महारानी लक्ष्मीबाई – [संकेत–विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 3 के उत्तर को द्वितीय शीर्षक देखें।

2. बेगम हजरत महल – अवध में बेगम हजरत महल ने क्रान्तिकारियों का नेतृत्व किया। ये साहसी, धैर्यवान और प्रबुद्ध महिला थीं। इन्होंने अपने राज्य के सम्मान को बचाने के लिए अंग्रेजों से टक्कर ली। कुछ समय के लिए ये लखनऊ क्षेत्र को स्वतन्त्र कराने में भी सफल हुईं। बाद में जनरल कैम्पबेल की सेनाओं ने 31 मार्च, 1858 ई० को लखनऊ पर अधिकार कर लिया था। बेगम हजरत महल अंग्रेजों के हाथ नहीं पड़ीं और वहाँ से बचकर निकल गयीं।

3. बेगम जीनत महल – सन् 1857 ई० की क्रान्ति राष्ट्रीयता की लड़ाई थी, इस तथ्य को बेगम जीनत महल जैसी साहसी महिला ने आन्दालेन में सक्रिय भाग लेकर सिद्ध कर दिया। बेगम जीनत महल प्रतिभाशाली और आकर्षक व्यक्तित्व वाली महिला थीं। इन्होंने भी सम्राट के (UPBoardSolutions.com) साथ आन्दोलन की लड़ाई को बड़े धैर्य और साहस के साथ लड़ा। राष्ट्र की स्वतन्त्रता से बेगम जीनत को विशेष स्नेह था, तभी अपनी सुख-सुविधा को छोड़कर इन्होंने स्वयं को राष्ट्र-सेवा में समर्पित कर दिया।

4. रानी अवन्ती बाई – मध्य प्रदेश की रियासत रामगढ़ की रानी अवन्ती बाई ने अंग्रेजी सेना से संघर्ष करने के लिए एक सशस्त्र सेना का निर्माण किया और क्रान्ति के दौरान युद्ध में अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये। बाद में अंग्रेजों की संगठित सेना के विरुद्ध लड़ते हुए रानी ने वीरतापूर्वक वीरगति प्राप्त की।

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प्रश्न 2.
महारानी के घोषणा-पत्र से ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर :
महारानी के घोषणा-पत्र से ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर निम्नलिखित प्रभाव पड़े –

  1. सन् 1857 ई० की क्रान्ति के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन कम्पनी के स्थान पर ब्रिटिश की महारानी के हाथों में चला गया, जिससे कम्पनी अब भारत में अपनी मनमानी नहीं कर सकती थी।
  2. भारत की शासन-व्यवस्था अब ब्रिटिश ‘क्राउन’ द्वारा मनोनीत वायसराय को सौंप दी गयी। गवर्नर जनरल का पद समाप्त कर दिया गया।
  3. बोर्ड ऑफ डायरेक्टर एवं बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के समस्त अधिकार ‘भारत सचिव’ (Secretary of State for India) को सौंप दिये गये।
  4. इस अधिनियम के लागू होने के बाद 1784 ई० के (UPBoardSolutions.com) पिट्स इण्डिया ऐक्ट द्वारा स्थापित द्वैध शासन व्यवस्था पूरी तरह समाप्त कर दी गयी। देशी राजाओं का क्राउन से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित हो गया और डलहौजी की राज्य हड़प नीति निष्प्रभावी हो गयी।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कब लड़ा गया ?
उत्तर :
भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम 1857 ई० में लड़ा गया।

प्रश्न 2.
अपहरण की नीति किसने लागू की? इसकी मुख्य विशेषता क्या थी? [2011]
उत्तर :
अपहरण की नीति लॉर्ड डलहौजी ने लागू की। इसकी मुख्य विशेषता देशी राज्यों पर बलपूर्वक अधिकार प्राप्त करना था।

प्रश्न 3.
1857 ई० की क्रान्ति कब और कहाँ से प्रारम्भ हुई ? [2011]
उत्तर :
1857 ई० की क्रान्ति का प्रारम्भ मेरठ से 10 मई, 1857 ई० को हुआ।

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प्रश्न 4.
1857 ई० के स्वाधीनता-संग्राम के चार प्रमुख नेताओं के नाम लिखिए। [2011, 14]
उत्तर :
1857 ई० स्वाधीनता संग्राम के चार प्रमुख नेताओं के नाम निम्नलिखित हैं –

  1. रानी लक्ष्मीबाई
  2. कुंवर सिंह
  3. मंगल पाण्डे तथा
  4. नाना साहब।

प्रश्न 5.
प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की दो वीरांगनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर :

  1. रानी लक्ष्मीबाई तथा
  2. बेगम हजरत महल; प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की दो वीरांगनाएँ हैं।

प्रश्न 6.
10 मई, 1857 ई० का स्वाधीनता संग्राम किस नगर से प्रारम्भ हुआ ?
उत्तर :
10 मई, 1857 ई० का स्वाधीनता संग्राम मेरठ से प्रारम्भ हुआ।

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प्रश्न 7.
रानी लक्ष्मीबाई किस राज्य की शासिका थीं ?
उतर :
रानी लक्ष्मीबाई झाँसी राज्य की शासिका थीं।

प्रश्न 8.
1857 ई० में नाना साहब ने विद्रोह का नेतृत्व कहाँ से किया था ?
उत्तर :
सन् 1857 ई० में नाना साहब (UPBoardSolutions.com) ने क्रान्ति का नेतृत्व कानपुर से किया था।

प्रश्न 9.
मंगल पाण्डे कौन थे ? उन्हें फाँसी की सजा कब दी गयी ?
उत्तर :
मंगल पाण्डे भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानी थे, जिन्हें ब्रिटिश सेना के द्वारा क्रान्ति के लिए बैरकपुर में 8 अप्रैल, 1857 ई० को फाँसी दी गयी।

प्रश्न 10.
1857 ई० की क्रान्ति के किन्हीं दो प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
1857 ई० की क्रान्ति के दो प्रभाव निम्नलिखित हैं

  1. देशी राज्यों को हड़पने की नीति का अन्त हो गया।
  2. भारतीय राजाओं को गोद लेने का अधिकार प्रदान किया गया।

प्रश्न 11.
सन् 1857 ई० में बैरकपुर छावनी में दो ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या करने वाले सैनिक का नाम लिखिए।
उत्तर :
बैरकपुर छावनी में दो ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या करने वाले सैनिक का नाम मंगल पाण्डे था।

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प्रश्न 12.
बेगम हजरत महल कौन थीं ?
उत्तर :
बेगम हजरत महल अवध के अपदस्थ नवाब वाजिद अली शाह की बेगम तथा नवाब के अवयस्क बच्चे की संरक्षिका थीं। वे बड़ी वीर और साहसी महिला थीं। इन्होंने लखनऊ में क्रान्तिकारियों का नेतृत्व किया और 1857 ई० के (UPBoardSolutions.com) स्वतन्त्रता संग्राम में वीरता से भाग लिया।

प्रश्न 13.
बरेली में 1857 ई० के विद्रोह का नेतृत्व किसने किया ?
उत्तर :
बरेली में 1857 ई० के विद्रोह का नेतृत्व खान बहादुर खान ने किया।

प्रश्न 14.
कुशासन के आधार पर सर्वप्रथम किसे गद्दी से हटाया गया ?
उत्तर :
कुशासन के आधार पर सर्वप्रथम हैदराबाद के निजाम को गद्दी से हटाया गया।

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. प्रथम स्वाधीनता संग्राम का आरम्भ कहाँ से हुआ ? [2009]

(क) कानपुर से
(ख) मेरठ से
(ग) दिल्ली से
(घ) लखनऊ से

2. मंगल पाण्डे किस ब्रिटिश छावनी में सैनिक थे?

(क) झाँसी
(ख) बैरकपुर
(ग) जगदीशपुर
(घ) रामपुर

3. मंगल पाण्डे को फाँसी कब दी गई ?

(क) 6 मई, 1859 ई० को
(ख) 8 अप्रैल, 1857 ई० को
(ग) 13 मई, 1859 ई० को
(घ) 17 जून, 1858 ई० को

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4. 1857 ई० के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के प्रमुख बलिदानी कुंवर सिंह किससे सम्बन्धित थे ?

(क) जगदीशपुर से
(ख) बैरकपुर से
(ग) अवध से
(घ) बिठूर से

5. बेगम हजरत महल सम्बन्धित थींया
          या
बेगम हजरत महल का सम्बन्ध किस स्थान से था ? [2013, 16, 17]
          या
बेगम हजरत महल ने स्वतन्त्रता संग्राम में कहाँ का नेतृत्व किया था ? (2015)

(क) अलीगढ़ से
(ख) कानपुर से
(ग) दिल्ली से
(घ) लखनऊ से

6. रानी अवन्ती बाई किस राज्य की रानी थी? [2011, 14, 17]
          या
रानी अवन्ती बाई, जिसने 1857 ई० में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया था, शासक थी [2013]

(क) झाँसी की
(ख) रामगढ़ की
(ग) अवध की
(घ) जगदीशपुर की

7. भारत में अन्तिम मुगल सम्राट कौन था ? [2011, 15]

(क) बहादुरशाह
(ख) औरंगजेब
(ग) शाहआलम
(घ) सिराजुद्दौला

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8. प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम (1857) के दौरान भारत का गवर्नर जनरल कौन था? [2015]

(क) लॉर्ड कैनिंग
(ख) लॉर्ड डलहौजी
(ग) लॉर्ड नार्थब्रुक
(घ) लॉर्ड मेयो

9. भारत में गोद निषेध का सिद्धान्त किसने लागू किया था?

(क) लॉर्ड डलहौजी
(ख) लॉर्ड बैंटिंक
(ग) लॉर्ड कैनिंग
(घ) लॉर्ड मिन्टो

उत्तरमाला

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 11 प्रथम स्वतन्त्रता-संग्राम–कारण तथा परिणाम 1

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UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 8 (Section 2)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 8 भारत के पड़ोसी देशों से सम्बन्ध तथा दक्षेस (अनुभाग – दो)

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत के पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्धों का वर्णन कीजिए। [2012, 17]
या

भारत के निम्नलिखित पड़ोसी देशों के सम्बन्धों पर टिप्पणी लिखिए
1. अफगानिस्तान, 2. म्यांमार, 3. भूटान।
या
भारत के उत्तरी तथा उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर कौन-कौन से देश हैं? भारत से उनके सम्बन्धों का वर्णन कीजिए। [2015]
 या
भारत-पाकिस्तान के मध्य विवाद का मुख्य कारण क्या है? संक्षेप में लिखिए। [2018]
उत्तर :
भारत तथा पड़ोसी देश भारत की उत्तरी सीमा पर चीन, नेपाल और भूटान राष्ट्र स्थित हैं। पश्चिमोत्तर सीमा पर अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान स्थित हैं। उत्तर-पूर्वी सीमा पर म्यांमार और बांग्लादेश स्थित हैं। भारत के विशाल क्षेत्रफल के कारण इसकी सीमाएँ बहुत विस्तृत हैं तथा अनेक पड़ोसी सम्प्रभु राष्ट्रों से मिलती हैं। पंचशील के सिद्धान्तों में अटूट विश्वास होने के कारण भारत ने सदैव यही प्रयास किया है कि पड़ोसी (UPBoardSolutions.com) राज्यों के साथ उसके सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण बने रहें। भारत ने उनके साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का संचालन किया है तथा समय-समय पर उनके आर्थिक, वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास में भी सहयोग दिया है। दक्षेस (SAARC) इन तथ्यों का जीता-जागता उदाहरण है।

भारत के उसके पड़ोसी देशों से सम्बन्धों को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है–

1. नेपाल– नेपाल के साथ भारत के बहुत प्राचीन सम्बन्ध हैं। नेपाल के नागरिकों को भारत में अनेक सुविधाएँ प्राप्त हैं। भारत ने नेपाल की अनेक परियोजनाओं को पूर्ण करने के लिए पर्याप्त आर्थिक सहायता दी है। 13 अगस्त, 1971 ई० को भारत व नेपाल के बीच एक व्यापारिक सन्धि हुई। नेपाल अपने आन्तरिक संकट से जूझ रहा है, वहाँ राजनीतिक अस्थिरता बनी हुई है। 27 नवम्बर, 2011 को तत्कालीन वित्तमंत्री श्री प्रणब मुखर्जी ने नेपाल की यात्रा की। यात्रा के दौरान उन्होंने डॉ० रामबरन यादव, राष्ट्रपति तथा बाबूराम भट्टराई, प्रधानमंत्री से मुलाकात की। अपने नेपाली प्रतिरूप श्री बरसामन पुन से उन्होंने द्विपक्षीय सलाह की जहाँ उन्होंने द्विपक्षीय आर्थिक सहयोग की समीक्षा की तथा दोनों देशों के बीच आर्थिक संबंधों का विस्तार करने के उपायों पर चर्चा की। नेपाल के प्रधानमंत्री की उपस्थिति में वित्तमंत्री ने संशोधित डबल टैक्सेशन एवायडेंस एग्रीमेंट (डीटीएए) पर हस्ताक्षर किए। भारत एवं नेपाल के सांसदों के मध्य परस्पर संपर्क बढ़ाने तथा बेहतर समझ एवं मित्रता का विकास करने के लिए 26-29 मार्च, 2011 को 6 युवा भारतीय सांसदों के दल ने नेपाल की यात्रा की। 7-13 अगस्त, 2011 के दौरान नेपाल के 15 महिला संविधान सभा सदस्यों/सांसदों ने भारत की यात्रा की। भारत नेपाल का सबसे बड़ा व्यापार भागीदार तथा विदेशी निवेश का सबसे बड़ा स्रोत एवं पर्यटकों का हब रहा है। वर्तमान में भारत-नेपाल आर्थिक सहयोग कार्यक्रम (UPBoardSolutions.com) के तहत छोटे तथा बड़े लगभग 400 प्रोजेक्ट चल रहे हैं। नेपाल के आर्थिक विकास में सहयोग करने तथा नेपाल के तराई क्षेत्र में विकास की सुविधा प्रदान करने की दृष्टि से, भारत नेपाल को भारत से जुड़े उसके सीमावर्ती क्षेत्रों में समेकित चेक पोस्टों का विकास, क्रास बार्डर रेल लिंक तथा तराई क्षेत्र में फीडर रोड तथा पाश्विक सड़कों के विकास के जरिए आधारभूत संरचना का विकास करने में सहायता प्रदान कर रहा है।

2. श्रीलंका-
श्रीलंका एवं भारत के सम्बन्ध प्राचीनकाल से ही मैत्रीपूर्ण एवं घनिष्ठ रहे हैं। सन् 1984 ई० में तमिल लोगों की समस्या को लेकर श्रीलंका सरकार का दृष्टिकोण भारत-श्रीलंका सम्बन्धों पर विपरीत प्रभाव डाल रहा था, परन्तु सन् 1988 ई० में कोलम्बो समझौते के बाद दोनों देशों के बीच सम्बन्ध अब सौहार्दपूर्ण हो गए हैं।

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3. म्यांमार (बर्मा)- म्यांमार एवं भारत के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण हैं। दोनों देशों में स्थल-सीमा के निर्धारण हेतु एक समझौता हो चुका है और दोनों देश गुट-निरपेक्ष नीति के समर्थक हैं। सभ्यतापरक जुड़ावों, भौगोलिक सामीप्य, संस्कृति, इतिहास तथा धर्म के सम्बन्धों से जुड़े भारत तथा म्यांमार के बीच काफी निकट सम्बन्ध रहे हैं। भारत तथा म्यांमार परस्पर 1600 किमी से अधिक की थल सीमा एवं बंगाल की खाड़ी की समुद्री सीमा साझा करते हैं। भारतीय मूल की एक बड़ी जनसंख्या (अनुमानतः 2.5 मिलियन) म्यांमार में निवास करती है। भारत तथा म्यांमार के सम्बन्धों में संतोषजनक वृद्धि एवं विविधता आई है तथा पिछले वर्ष इसमें बढ़ी हुई गति देखी गई। इस दौरान अक्टूबर, 2011 में म्यांमार के राष्ट्रपति की भारत यात्रा, विदेश मंत्री की जून, 2011 में म्यांमार यात्रा तथा म्यांमार के विदेश मंत्री की जनवरी, 2012 में यात्रा (UPBoardSolutions.com) शामिल है। वर्ष 2011-12 को म्यांमार के राजनीतिक ढाँचे के बदलाव के रूप में चिह्नित किया गया, क्योंकि इस दौरान संसदीय प्रजातन्त्र ढाँचे को ग्रहण किया गया। एक विस्तृत तथा व्यापक आधारित तरीके से प्रजातन्त्र में परिवर्तित होने के म्यांमार के प्रयासों को भारत ने निरन्तर सहयोग दिया है।

4. भूटान- 
भारत-भूटान सम्बन्ध प्रारम्भ से ही मैत्रीपूर्ण रहे हैं। भारत प्रतिवर्ष भूटान को आर्थिक सहायता प्रदान करता है। अगस्त, 2011 में नई दिल्ली में आयोजित भारत-भूटान द्विपक्षीय व्यापार वार्ता में भारत ने भूटान के निवेदन पर सहमति जताते हुए डालू एवं घासूपारा लैन्ड कस्टम स्टेशनों का उपयोग भूटानी कार्यों के लिए तथा चार अतिरिक्त प्रवेश/निकास बिन्दु के नोटिफिकेशन पर सहमति । दी। 68 प्रमुख सामाजिक आर्थिक सेक्टर प्रोजेक्ट; यथा–कृषि, सूचना एवं संचार तकनीक (आईसीटी), मीडिया, स्वास्थ्य, शिक्षा, ऊर्जा, संस्कृति तथा आधारभूत संरचना में भारत द्वारा सहायता प्रदान की जा रही है। लघु विकास प्रोजेक्ट (एसडीपी) के अंतर्गत देश के 20 जिलों एवं 205 ब्लाकों में 1900 प्रोजेक्टों के लिए भारत द्वारा भूटान को अनुदान दिया जा रहा है। पुनतसांगचू-1 हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट (एचईपी) पूर्ण गति पर है तथा पुनतसांगचू-2 तथा मांगदेचू हाइड्रो इलेक्टूिड प्रोजेक्ट भी बेहतर तरीके से प्रगति पर है। इस प्रकार दोनों देश भूटान में वर्ष 2020 तक लगभग 10,000 मेगावाट बिजली के संयुक्त उत्पादन के लक्ष्य के करीब हैं, जिसका निर्यात भारत को किया जा सकेगा।

5, पाकिस्तान– पिछली शताब्दी में भारत तथा पाकिस्तान के बीच सम्बन्धों में काफी कटुता रही है, कई मुद्दों की गम्भीरता भी दोनों देशों को आपसी टकराव के कारण झेलनी पड़ी। लेकिन इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ होने पर इन देशों के नेताओं तथा सामान्य जनता ने भी सुधार लाने का प्रयत्न किया। प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में वाजपेयी व मुशर्रफ के बीच अनेक वार्ताएँ सौहार्दपूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुईं। श्री मनमोहन सिंह की सरकार में पर-राष्ट्र मन्त्रालय के स्तर पर भी विदेश सेवा के उच्च अधिकारियों ने दोनों देशों के बीच सम्बन्धों को सामान्य बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। वीजा’ की शर्तों को अब कुछ आसान कर दिया गया है। दोनों देशों को उच्चायोगों के कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि करने की भी छूट दी गई है। पाकिस्तान की जेलों में कैद अनेक भारतीय मछुआरों को उच्च (UPBoardSolutions.com) हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप रिहा कर दिया गया है। भूटान के नगर थिम्पू में हुए सार्क सम्मेलन में भारत-पाकिस्तान के प्रधानमन्त्रियों के बीच अनेक मुद्दों पर वार्ता हुई। इन सब बिन्दुओं को देखते हुए कहा जा सकता है कि भविष्य में दोनों देशों के मध्य विवादित पहलू समाप्त हो जाएँगे तथा सहयोग और मैत्री का नया आयाम विकसित होगा।

6. बांग्लादेश- 
बांग्लादेश के गठन में भारत की पूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। सन् 1972 ई० में ‘शान्ति व मैत्री सन्धि’ होने से दोनों देशों के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को प्रदान किए गए बांग्लादेश फ्रीडम एवार्ड को स्वीकार करने यूपीए अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी ने 24-25 जुलाई, 2011 को ढाका की यात्रा की। सेंट्रल त्रिपुरा विश्वविद्यालय द्वारा प्रदत्त मानद डी० लिट् पुरस्कार को प्राप्त करने के लिए बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने 11-12 जनवरी, 2012 को त्रिपुरा की यात्रा की। दोनों देशों के बीच मित्रतापूर्ण एवं गतिपूर्ण द्विपक्षीय सहयोग के निष्कर्ष के रूप में दो ऐतिहासिक समझौते एवं आठ अन्य द्विपक्षीय दस्तावेजों पर भारतीय प्रधानमंत्री की बांग्लादेश यात्रा के दौरान हस्ताक्षर किए गए। इसमें शामिल है सहयोग एवं विकास पर एक लैंडमार्क तथ अग्रदर्शी समझौता जो परस्पर शान्ति, समृद्धि तथा स्थायित्व हासिल करने के लिए एक टिकाऊ तथा दीर्घकालीन सहयोग के साझा विजन को रेखांकित करता है तथा 1974 समझौते के प्रोटोकॉल को भी रेखांकित करता है जो भारत-बांग्लादेश की थल सीमा के निर्धारण से सम्बन्धित है। प्रोटोकॉल 1974 के बल सीमा समझौते के तीन लंबित मुद्दों के हल होने को राह दिखलाता है, जो हैं- (i) अनिर्धारित थल सीमा सेगमेन्ट, (ii) एनक्लेव का आदान-प्रदान तथा (iii) प्रतिकूल कब्जे का निपटारा। भारत तथा बांग्लादेश में संयुक्त रूप में रवीन्द्रनाथ टैगोर की 150वीं जन्म वर्षगाँठ मनाया जाना दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान को प्रदर्शित करता है। संयुक्त समारोह के उद्घाटन समारोह के लिए भारत के उपराष्ट्रपति श्री एम० हामिद अंसारी ने 5-6 मई, 2011 को ढाका की यात्रा की। पूरे वर्ष के दौरान कलाकारों एवं सांस्कृतिक दलों का आदान-प्रदान जारी रहा।

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7. अफगानिस्तान- 
अफगानिस्तान एवं भारत के बीच व्यापारिक, सांस्कृतिक व तकनीकी सम्बन्ध स्थापित हुए हैं। हामिद करजाई अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हैं। वे उच्च अध्ययन के लिए भारत में कुछ वर्ष व्यतीत कर चुके हैं। भारत के अफगानिस्तान से काफी मधुर सम्बन्ध हैं। भारत नवनिर्माण के लिए अफगानिस्तान को प्राथमिकता के आधार पर आर्थिक सहायता उपलब्ध करा रहा है। पुलों आदि के निर्माण में भी भारत ने अफगानिस्तान को तकनीकी विशेषज्ञ तथा इंजीनियरों का दल उपलब्ध कराया है। अक्टूबर, 2011 में राष्ट्रपति करजई की यात्रा के दौरान भारत तथा अफगानिस्तान ने सामरिक भागीदारी पर एक (UPBoardSolutions.com) ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किये। समझौते में दोनों देशों के बीच एक मजबूत, जोशपूर्ण तथा बहुमुखी सम्बन्धों पर जोर दिया गया है।

8. चीन- 
भारत-चीन सम्बन्ध वर्तमान में सामान्य और मधुर हैं, किन्तु इन सम्बन्धों को बहुत अधिक मधुर और मित्रतापूर्ण इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि भारत-चीन सीमा विवाद बहुत पुराना है। और उसे सुलझाने की दिशा में चीन की ओर से कभी गम्भीर प्रयास नहीं किए गए। भारत के सीमावर्ती राज्य अरुणाचल प्रदेश में भी चीन ने कुछ क्षेत्र अपना बताकर उस पर कब्जा कर लिया है। भारत द्वारा बार-बार विरोध व्यक्त किए जाने के बाद भी चीन की ओर से कोई निर्णयात्मक सहयोग नहीं मिल पा रहा है। वर्ष 2010 में भारत गणराज्य तथा चीन के बीच कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना के 60 वर्ष पूरे हुए। वर्ष 2011 को भारत-चीन आदान-प्रदान वर्ष के रूप में मनाया गया तथा इस दौरान विशेषकर राज्य/प्रांत स्तर पर दोनों राष्ट्रों के बीच बढ़े हुए आदान-प्रदान देखे गये। दोनों देशों के मध्य नियमित उच्च स्तरीय राजनीतिक संपर्क की गति देखी गयी।

बीआरआईसीएस सम्मेलन के दौरान अप्रैल 2011 में सान्या, चीन में भारतीय प्रधानमंत्री डॉ० मनमोहन सिंह ने चीन के राष्ट्रपति श्री हू जिन्ताओ से मुलाकात की। पूर्वी एशिया सम्मेलन के दौरान बाली, इंडोनेशिया में नवंबर, 2011 में उन्होंने चीनी प्रमुख श्री वेन जिआबाओ से मुलाकात की। सघन वार्ता ढाँचे के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण द्विपक्षीय, क्षेत्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर दोनों पक्षों ने परस्पर आदान-प्रदान किया। दोनों देशों के मध्य व्यापार तथा आर्थिक संबंध में व्यापार विस्तार हुआ तथा एक सामरिक आर्थिक संवाद (एसईडी) का प्रारम्भ कर इस सम्बन्ध को और गहरा किया गया। एसईडी की पहली बैठक चीन में सितम्बर, 2011 में हुई। दोनों पक्ष सभी लंबित मुद्दों जिसमें भारत-चीन सीमा प्रश्न भी शामिल है, को एक शान्तिपूर्ण बातचीत से हल करने की प्रतिबद्धता जताई। नई दिल्ली में जनवरी, 2012 में भारत-चीन सीमा (UPBoardSolutions.com) प्रश्न पर विशेष प्रतिनिधियों की वार्ता का 15वाँ चक्र सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर भारत-चीन सीमा मामले पर सलाह एवं समन्वय हेतु एक कार्यकारी तन्त्र की स्थापना परे समझौता हुआ।

उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत ने सदैव अपने पड़ेसी देशों की सम्प्रभुता तथा अखण्डता का सम्मान किया है तथा किसी भी राज्य के आन्तरिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया है। अपनी सुदृढ़ तथा शक्तिशाली सैन्य शक्ति होने पर भी भारत ने कभी भी अपने पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण नहीं किया है, वरन् उनके साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना का प्रयास किया है। भारत ने अपने पड़ोसी राज्यों की विकास योजनाओं में आर्थिक सहयोग भी प्रदान किया है।

प्रश्न 2.
सार्क क्या है ? इसके कितने सदस्य देश हैं ? इसका सचिवालय कहाँ है ? [2012]
या
दक्षेस के सदस्य देशों के नाम बताइए। इसके गठन के उद्देश्यों पर प्रकाश डालिए। [2013]
या

दक्षेस (सार्क) की स्थापना कब और कहाँ हुई ? इसके किन्हीं दो उद्देश्यों को लिखिए। [2013, 18]
या

सार्क से आप क्या समझते हैं ? इसके प्रमुख उद्देश्यों का वर्णन कीजिए। [2015, 16]
या

सार्क के चार्टर में उल्लिखित किन्हीं तीन सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए। [2016]
या

दक्षेस का मुख्य न्यायालय कहाँ है? इसके सदस्य देशों के नाम लिखिए। इसके मुख्य उददेश्य क्या हैं? [2017]
या

दक्षेस की स्थापना व उद्देश्यों का वर्णन कीजिए। [2017]
उत्तर :
सार्क (SAARC: South Asian Association for Regional Co-operation) विश्व का नवीनतम अन्तर्राष्ट्रीय संगठन है। हिन्दी में यह ‘दक्षेस’ (दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन) कहलाता है। इस संगठन की स्थापना 8 दिसम्बर, 1985 ई० को बांग्लादेश की राजधानी ढाका में दो-दिवसीय अधिवेशन में हुई। यह दक्षिण एशिया के आठ देशों को एक क्षेत्रीय संगठन है। इस संगठन के देश-भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, (UPBoardSolutions.com) नेपाल, भूटान, मालदीव और अफगानिस्तान हैं। सार्क ने इस क्षेत्र में आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विकास में तेजी लाने और अखण्डता का सम्मान करते हुए परस्पर सहयोग से सामूहिक आत्मनिर्भरता में वृद्धि करने का लक्ष्य निर्धारित किया।

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सार्क के सभी सदस्य देशों की भू अथवा समुद्री सीमाएँ भारत से मिलती हैं। वैसे तो राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व में देशों के अनेक संगठन हैं; किन्तु दक्षिण एशिया के इन आठ देशों के क्षेत्रीय सहयोग पर आधारित इस संगठन का अपना ही महत्त्व है। पिछले कुछ वर्षों में इन देशों में परस्पर अविश्वास का जो माहौल बन गया है, . इस संगठन द्वारा उसे दूर करने में मदद मिलेगी। सार्क संगठन आठ देशों का एक परिवार है।
सार्क संगठन का मुख्य सचिवालय (प्रधान कार्यालय) नेपाल की राजधानी काठमाण्डू में है।
सार्क के चार्टर के अनुच्छेद 2 में इसके निम्नलिखित सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया है

  • सदस्य राष्ट्र एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।
  • संगठम के ढाँचे के अन्तर्गत सहयोग, प्रभुसत्तासम्पन्न, क्षेत्रीय अखण्डता, राजनीतिक स्वतन्त्रता, दूसरे देशों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना तथा आपसी हित के सिद्धान्तों का आदर करना।
  • यह सहयोग द्विपक्षीय या बहुपक्षीय सहयोग की अन्य किसी स्थिति का स्थान नहीं लेगा, वरन् परस्पर पूरक होगा।

सार्क के चार्टर में 10 अनुच्छेद हैं, जिनमें सार्क के उद्देश्यों, सिद्धान्तों तथा वित्तीय व्यवस्थाओं का उल्लेख किया गया है। चार्टर के अनुच्छेद 1 में सार्क के निम्नलिखित उद्देश्य बताये गये हैं

  • दक्षिण एशियाई क्षेत्र में निवास करने वाली जनता के कल्याण तथा उनके जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयत्न करना।
  • दक्षिण एशियाई राष्ट्रों की सामूहिक आत्मनिर्भरता में वृद्धि करना।
  • दक्षिण एशियाई क्षेत्र के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास को प्रोत्साहित करना।
  • दक्षिण एशियाई राष्ट्रों में आपसी विश्वास, दूरदर्शिता तथा (UPBoardSolutions.com) एक-दूसरे की समस्याओं के प्रति सहानुभूति की भावना उत्पन्न करना।
  • सदस्य राष्ट्रों में आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, तकनीकी और वैज्ञानिक क्षेत्र में सक्रिय सहयोग और पारस्परिक सहायता में अभिवृद्धि करना।
  • अन्य विकासशील देशों के साथ सहयोग में वृद्धि करना।
  • सामान्य हित के मामलों पर अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर आपसी सहयोग को अभिव्यक्त करना।

प्रश्न 3.
दक्षेस की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
दक्षिण एशियाई क्षेत्र में इस संगठन का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा। इसे इस क्षेत्र के इतिहास में ‘नयी सुबह की शुरुआत कहा जा सकता है। भूटान नरेश ने तो इसे सामूहिक बुद्धिमत्ता और राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिणाम बताया है, किन्तु व्यवहार में इस संगठन की सार्थकता कम होती जा रही है। सार्क ने पिछले दस वर्षों में एक ही ठोस काम किया है और वह है-खाद्य कोष बनाना। कृषि, शिक्षा, संस्कृति, पर्यावरण आदि 12 क्षेत्रों में सहयोग के लिए सार्क के देश सिद्धान्ततः सहमत हैं।

सार्क, सदस्य राष्ट्रों के आपसी सहयोग में वृद्धि करने की दिशा में पहला सशक्त प्रयास है। अत: सार्क की स्थापना का मूल उद्देश्य इन राष्ट्रों के पारस्परिक सम्बन्धों को सामान्य बनाना है, जिसके लिए आर्थिक और सांस्कृतिक सहयोग अति आवश्यक है। सार्क ने नशीले पदार्थों की तस्करी पर रोक, आतंकवाद का विरोध, जनसंख्या पर नियन्त्रण, निरशस्त्रीकरण आदि विषयों पर प्रभावकारी कार्य सम्पादित किया है और सदस्य राष्ट्रों के बीच आर्थिक और सांस्कृतिक वृद्धि में भी सहायता दी है। गरीबी उन्मूलन, पर्यावरण, गुट-निरपेक्षता आदि प्रश्नों पर भी सार्क के सदस्य राष्ट्रों ने गम्भीरतापूर्वक विचार-विमर्श किया है। सार्क देशों में भारत प्रमुख और सर्वाधिक शक्तिशाली देश है। इसलिए कुछ सार्क देश यह समझने लगे कि भारत इस क्षेत्र में अपनी चौधराहट स्थापित करना चाहता है, जब कि भारत का (UPBoardSolutions.com) उद्देश्य तो मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना है। इसके बावजूद भारत के बांग्लादेश, नेपाल व श्रीलंका के साथ सम्बन्धों में दरार आ गयी। पाकिस्तान तो भारत के विरुद्ध विष उगलने लगा है। इसके अतिरिक्त सदस्य देशों की शासन-प्रणालियों और नीतियों में भिन्नता तथा द्विपक्षीय व विवादास्पद मामलों की छाया ने भी इस संगठन को निर्बल बनाये रखा है। इन कारणों और परस्पर अविश्वास के आधार पर यह संगठन केवल सैद्धान्तिक ढाँचा मात्र रह गया है, इसका कोई व्यावहारिक महत्त्व बने रहना सम्भव नहीं।

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लघ उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत-मालदीव के पारस्परिक सम्बन्धों पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
भारत और मालदीव ने आधिकारिक तौर पर और सौहार्दपूर्ण ढंग से 1976 में अपनी समुद्री सीमा का फैसला किया है। हालाँकि एक मामूली राजनयिक घटना 1982 में हुई जब मालदीव के राष्ट्रपति मॉमून अब्दुल गयूम के भाई ने यह घोषणा की कि पड़ोसी मिनीकॉय द्वीप जो भारत के अधिकार क्षेत्र में था, मालदीव का एक हिस्सा है। मालदीव ने जल्दी और आधिकारिक तौर पर इस द्वीप पर अपने दावे से इन्कार किया। भारत और मालदीव ने 1981 में एक व्यापक व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए। दोनों ही देश क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के लिए दक्षिण एशियाई एसोसिएशन के संस्थापक हैं। इन दोनों (UPBoardSolutions.com) देशों ने दक्षिण एशियाई आर्थिक संघ और दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर भी किए हैं। भारत और | मालदीव के नेताओं ने क्षेत्रीय मुद्दों पर उच्चस्तरीय संपर्क और विचार-विमर्श को बनाए रखा है।

प्रश्न 2.
अब तक आयोजित दक्षेस शिखर सम्मेलनों की सूची प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 8 भारत के पड़ोसी देशों से सम्बन्ध तथा दक्षेस 1

प्रश्न 3.
भारत की पूर्वी सीमा पर स्थित दो पड़ोसी देशों के नाम लिखिए। भारत का उनसे सम्बन्ध समझाकर लिखिए। [2014]
             या
भारत की पूर्वी सीमा के निकट चार पड़ोसी देशों के नाम लिखिए। [2016]
उत्तर :
भारत की पूर्वी सीमा पर चीन, म्यांमार, भूटान तथा बांग्लादेश (UPBoardSolutions.com) स्थित हैं। [संकेत-भारत के इन देशों से सम्बन्ध के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का उत्तर देखें।

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प्रश्न 4.
सार्क के सदस्य देश कितने हैं? उसका मुख्यालय कहाँ पर है? [2014]
उत्तर :
सार्क के सदस्य देश आठ हैं–भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, भूटान, मालदीव और अफगानिस्तान। इसका मुख्यालय काठमाण्डू (नेपाल) में है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत और पाकिस्तान के मध्य तनाव का मुख्य कारण क्या है ?
उत्तर :
भारत और पाकिस्तान के मध्य ‘कश्मीर-समस्या’ तनाव का प्रमुख कारण है।

प्रश्न 2.
बांग्लादेश की स्थापना में किस देश का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा ?
उत्तर :
बांग्लादेश की स्थापना में भारत (UPBoardSolutions.com) का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

प्रश्न 3.
भारत-पाकिस्तान के बीच ताशकन्द समझौता कब हुआ ?
उत्तर :
भारत-पाकिस्तान के बीच ताशकन्द समझौता सन् 1966 ई० में हुआ।

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प्रश्न 4.
भारत-पाकिस्तान के बीच शिमला समझौता कब हुआ ?
उत्तर :
भारत-पाकिस्तान के बीच शिमला समझौता सन् 1971 ई० में हुआ।

प्रश्न 5.
दक्षेस का पूरा नाम लिखिए।
उत्तर :
दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (SAARC : South Asian Association for Regional Co-operation)।

प्रश्न 6.
दक्षेस का पन्द्रहवाँ शिखर सम्मेलन कहाँ हुआ ?
उत्तर :
दक्षेस का पन्द्रहवाँ शिखर सम्मेलन अप्रैल, 2008 ई० में कोलम्बो (श्रीलंका) में हुआ था।

प्रश्न 7.
दक्षेस (सार्क) संगठन के सदस्य देश कौन-कौन से हैं ?
उत्तर :
दक्षेस (सार्क) संगठन के सदस्य देश भारत, (UPBoardSolutions.com) पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका और मालदीव हैं। (वर्तमान में अफगानिस्तान भी इसका सदस्य है। इस प्रकार, इसके सदस्य देशों की संख्या आठ है।)

प्रश्न 8.
उन दो देशों के नाम लिखिए जिनकी सीमाएँ भारत की उत्तरी सीमा को स्पर्श करती हैं। [2012]
             या
भारत के किन्हीं दो पड़ोसी देशों के नाम लिखिए। [2015, 16]
उत्तर :

  • नेपाल तथा
  • चीन।

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प्रश्न 9.
सार्क का सचिवालय कहाँ और किस देश में स्थित है ? [2013]
उत्तर :
सार्क का सचिवालय काठमाण्डू (नेपाल) में स्थित है।

प्रश्न 10.
भारत और श्रीलंका के मध्य मुख्य विवाद किस बिन्दु पर है? [2014]
उत्तर :
भारत और श्रीलंका के मध्य मुख्य विवाद का कारण (UPBoardSolutions.com) मछुआरों द्वारा समुद्री सीमा का उल्लंघन करना है जिस पर दोनों ही देश आए दिन कार्यवाही करते हैं और मछुआरों को गिरफ्तार कर लेते हैं।

बहुविकल्पीय

प्रश्न 1. कश्मीर समस्या किन दो देशों के बीच में है?

(क) भारत-चीन में :
(ख) चीन-नेपाल में
(ग) भारत-पाकिस्तान में
(घ) भारत-मालदीव में

2. भारत और बांग्लादेश के बीच शान्ति और मैत्री सन्धि पर हस्ताक्षर हुए|

(क) 1972 ई० में
(ख) 1971 ई० में
(ग) 1950 ई० में
(घ) 1973 ई० में

3. भारत-भूटान मैत्री सन्धि कब हुई?

(क) 1977 ई० में
(ख) 1949 ई० में
(ग) 1950 ई० में
(घ) 1955 ई० में

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4. भारत-पाक के बीच शिमला समझौता हुआ

(क) 1972 ई० में
(ख) 1971 ई० में
(ग) 1973 ई० में
(घ) 1970 ई० में

5. ‘सार्क’ का प्रथम शिखर सम्मेलन सम्पन्न हुआ था [2011, 12, 18]

(क) बंगलुरु में
(ख) काठमाण्डू में
(ग) इस्लामाबाद में
(घ) ढाका में

6. बांग्लादेश का जन्म हुआ

(क) 1971 ई० में।
(ख) 1972 ई० में
(ग) 1973 ई० में
(घ) 1970 ई० में

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7. दक्षेस की स्थापना हुई

(क) 1985 ई० में।
(ख) 1987 ई० में
(ग) 1988 ई० में।
(घ) 1986 ई० में

8. दक्षेस का 17वाँ शिखर सम्मेलन सम्पन्न हुआ।[2012]

(क) भारत में
(ख) अर्दू में
(ग) नेपाल में
(घ) बांग्लादेश में

9. दक्षेस का 15वाँ शिखर सम्मेलन सम्पन्न हुआ [2013]
              या
दक्षेस ( दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन, सार्क) का पन्द्रहवाँ शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया। [2013]

(क) कोलम्बो में
(ख) माले में
(ग) दिल्ली में
(घ) ढाका में

10. दक्षेस का मुख्यालय स्थित है [2012]

(क) काठमाण्डू में
(ख) ढाका में
(ग) नई दिल्ली में
(घ) कोलम्बो में

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11. भारत-पाकिस्तान के बीच दूसरा युद्ध हुआ था [2013]

(क) 1965 ई० में
(ख) 1970 ई० में
(ग) 1971 ई० में
(घ) 1972 ई० में

12. दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (दक्षेस) की स्थापना किस वर्ष हुई थी ? [2015, 16]

(क) 1984
(ख) 1985
(ग) 1986
(घ) 1987

13. भारत-पाकिस्तान के बीच शिमला समझौता पर हस्ताक्षर हुए थे [2016]

(क) 1962 ई० में
(ख) 1965 ई० में
(ग) 1972 ई० में
(घ) 1999 ई० में

14. दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (दक्षेस) की स्थापन करने में निम्नलिखित में से .. किसने पहल की थी? [2017]

(क) जिया-उर-रहमान (बांग्लादेश),
(ख) मोहम्मद नशीद (मालद्वीप)
(ग) राजीव गाँधी (भारत)
(घ) महिन्द्रा राजपक्षे (श्रीलंका)

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15. निम्नलिखित में से कौन राज्य म्यांमार की सीमा रेखा पर स्थित नहीं है? [2018]

(क) नागालैण्ड
(ख) मिजोरम
(ग) मेघालय
(द) अरुणाचल प्रदेश

उत्तरमाला

1. (ग), 2. (क), 3. (ख), 4. (ख), 5. (घ), 6. (क), 7. (क), 8. (ख), 9. (क), 10. (क), 11. (ग), 12. (ख) 13. (ग), 14. (क), 15. (क)

Hope given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 8 are helpful to complete your homework.

If you have any doubts, please comment below. UP Board Solutions try to provide online tutoring for you.

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 5 (Section 1)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 5 फ्रांसीसी क्रान्ति–कारण तथा परिणाम (अनुभाग – एक)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Social Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 5 फ्रांसीसी क्रान्ति–कारण तथा परिणाम (अनुभाग – एक).

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
फ्रांस की क्रान्ति के कारण लिखिए। किन प्रमुख दार्शनिकों ने इसे प्रभावित किया ?
        या
फ्रांस की क्रान्ति के समय फ्रांस की राजनीतिक तथा सामाजिक दशाओं का वर्णन कीजिए।
        या
फ्रांसीसी क्रान्ति (1789) के कारणों और परिणामों की विवेचना कीजिए। (2013)
        या
1789 के फ्रांस की क्रान्ति के एक सामाजिक तथा एक आर्थिक कारण का उल्लेख कीजिए। [2013]
        या
फ्रांसीसी क्रान्ति के किन्हीं तीन कारणों को स्पष्ट कीजिए। उनका क्या प्रभाव पड़ा ? [2013]
        या
फ्रांस की क्रान्ति के दो आर्थिक कारणों का उल्लेख कीजिए। [2016]
        या
फ्रांसीसी क्रान्ति के कारणों का विस्तार से वर्णन कीजिए। (2017, 18)
उत्तर
अठारहवीं सदी में फ्रांस में स्वेच्छाचारी और निरंकुश शासकों की सड़ी-गली पुरातन व्यवस्था चल रही थी। इस व्यवस्था को पुरातन व्यवस्था का नाम इसलिए दिया गया था क्योंकि यह प्राचीन तानाशाही साम्राज्यवादी व्यवस्था का ही एक अंग (UPBoardSolutions.com) थी। फ्रांस का तत्कालीन तानाशाह शासक लुई सोलहवाँ एवं उसकी विवेकहीन रानी इस व्यवस्था के पक्षधर थे। इसी पुरातन व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से फ्रांस में सन् 1789 ई० में क्रान्ति का उदय हुआ। यह क्रान्ति एक ऐसी बाढ़ थी, जो अपने साथ अधिकांश बुराइयों को बहाकर ले गयी।

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फ्रांस की क्रान्ति के कारण

फ्रांस की क्रान्ति के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –
(1) राजनीतिक कारण

  1. राजाओं की मनमानी – फ्रांस के राजा स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश थे। वे राजा के ‘दैवी अधिकारों में विश्वास करते थे और स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि मानते थे। इसलिए वे जनता के प्रति अपना कोई कर्तव्ये नहीं समझते थे।
  2. राजाओं द्वारा अपव्यय – राजा जनता पर नये-नये कर लगाते रहते थे तथा करों के रूप में वसूली हुई धनराशि को मनमाने ढंग से विलासिता के कार्यों पर व्यय करते थे। राजा जनता की खून-पसीने की कमाई का अपव्यय कर रहे थे। जनता यह बात सहन न कर सकी।
  3. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अभाव – राजा के दरबारियों के पास अधिकार-पत्र’ होते थे जिन पर राजा की मोहर लगी होती थी। दरबारी जिसे कैद करना चाहते, उसका नाम अधिकार-पत्र पर लिख देते थे। इस प्रकार न जाने कितने लोगों को फ्रांस की जेलों में रहना पड़ा।
  4. प्रान्तों में असमानता – फ्रांस के भिन्न-भिन्न प्रान्तों में भिन्न-भिन्न प्रकार के कानून प्रचलित थे। फिर धनी-निर्धन वर्ग के लिए अलग-अलग कानून थे। इससे जनता को बहुत अधिक परेशानियाँ उठानी पड़ रही थीं तथा उनमें असन्तोष भी पनप रहा (UPBoardSolutions.com) था।
  5. उच्च वर्ग के विशेष अधिकार – फ्रांस में कुलीन वर्ग तथा कैथोलिक चर्च के पादरियों को विशेष अधिकार मिले हुए थे, जिनके द्वारा वे आम जनता पर अनेक अत्याचार करते थे।
  6. सेना में असन्तोष – साधारण सैनिकों के लिए उन्नति के द्वार बन्द थे, जिस कारण सेना में असन्तोष भी फ्रांस की राज्य-क्रान्ति का एक कारण बना।
  7. अमेरिका का स्वाधीनता संग्राम – अमेरिका के स्वाधीनता संग्राम का फ्रांस की जनता पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उस संग्राम में लफायते के नेतृत्व में फ्रांसीसी सेना ने भी भाग लिया था। इससे फ्रांस के क्रान्तिकारियों ने सशक्त प्रेरणा प्राप्त की।

(2) सामाजिक कारण
फ्रांस की सामाजिक दशा बड़ी खराब थी। वहाँ का समाज निम्नलिखित तीन वर्गों में बँटा हुआ था

  1. पादरी वर्ग – इस वर्ग में कैथोलिक चर्च के उच्च पादरी आते थे। उन दिनों चर्च फ्रांस में एक अलग राज्य के समान था। चर्च की अपनी सरकार तथा कर्मचारी थे। चर्च को लोगों पर कर लगाने के साथ और भी अधिकार प्राप्त थे। उच्च पादरियों का जीवन भोग-विलास से परिपूर्ण था।
  2. कुलीन वर्ग – इस वर्ग में बड़े-बड़े सामन्त, उच्च सरकारी अधिकारी तथा राजपरिवार के सदस्य सम्मिलित थे। उन्हें अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे, जिनके द्वारा वे जनता का शोषण करते थे। इसे जनता से बेगार व भेंट लेने का अधिकार था। जनसाधारण का इस वर्ग के प्रति भारी आक्रोश ही क्रान्ति का प्रमुख कारण बना।
  3. जनसाधारण वर्ग – इस वर्ग में मजदूर, कृषक, सामान्य शिक्षित वर्ग तथा सामान्य जनता आती थी। इसे वर्ग के शिक्षित लोगों को भी शासन में भाग लेने का अधिकार नहीं था, जबकि धनी वर्ग के कम शिक्षित व्यक्तियों को यह अधिकार प्राप्त था। इसी कारण क्रान्ति प्रारम्भ होते ही जनसाधारण ने क्रान्ति का जोरदार समर्थन किया।

(3) आर्थिक कारण

  1. जनता का आर्थिक शोषण – लम्बे तथा खर्चीले युद्धों, राजदरबार की शान-शौकत तथा उच्च वर्ग के विलासप्रिय जीवन हेतु धन प्राप्त करने के लिए आम जनता तथा कृषकों की आय का 80 से 92 प्रतिशत तक करों के रूप में ले लिया जाता था। करों के ऐसे भारी बोझ से जनता कराह उठी।
  2. उच्च वर्ग करों से मुक्त – फ्रांस में उच्च वर्ग तथा पादरियों पर कोई कर नहीं लगाया जाता था, जबकि आम जनता करों के भारी बोझ से दबी जा रही थी।
  3. विलासी और अपव्ययी राजदरबार – फ्रांस के राजा बड़े (UPBoardSolutions.com) ही विलासी और अपव्ययी थे। वे सरकारी धन को पानी की तरह बहाते थे। फलस्वरूप राजकोष खाली हो गया था और फ्रांस पर ऋण का बोझ दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था।
  4. अमेरिका को वित्तीय सहायता – फ्रांस ने इंग्लैण्ड से बदला लेने के लिए अमेरिका को सैनिक तथा वित्तीय सहायता दी। इससे फ्रांस की आर्थिक दशा और खराब हो गयी।

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(4) दार्शनिकों का प्रभाव
रूसो, मॉण्टेस्क्यू तथा वॉल्टेयर जैसे महान् दार्शनिकों-विचारकों ने फ्रांस के निवासियों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक बुराइयों का ज्ञान कराया। इन दार्शनिकों के क्रान्तिकारी विचारों से प्रभावित होकर फ्रांस की जनता में एक बौद्धिक जागृति फैल गयी और यहाँ के निवासी न्याय, स्वतन्त्रता और समानता की स्थापना के लिए प्रयत्नशील हो गये।

(5) तात्कालिक कारण
सन् 1788 ई० में फ्रांस के अनेक भागों में भीषण अकाल पड़ा। लोग भूख से तड़प-तड़प कर मरने लगे। राजकोष की बिगड़ी हुई दशा सुधारने के लिए लुई 16वें ने नये करों का प्रावधान किया। इन करों को ‘पार्लेमां’ (पार्लमेण्ट) ने मंजूरी नहीं दी। उसने सुझाव दिया कि उन्हें एताजेनेरो’ (स्टेट्स जनरल) की सहमति से लागू किया जाए। ‘एताजेनेरो’ के अधिवेशन के दौरान मतदान से सम्बन्धित बात पर विवाद पैदा हो गया। गतिरोध जारी ही था कि लुई 16वें ने भावी तनाव को नियन्त्रित करने के उद्देश्य से सेना एकत्र करने के आदेश दे दिये। इससे पेरिस की जनता भड़क उठी। उसने युद्ध सामग्री एकत्रित की और बास्तोल के किले पर आक्रमण कर दिया।
[संकेत – परिणाम के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 3 का उत्तर देखें।

प्रश्न 2.
फ्रांस की राष्ट्रीय सभा के कार्यों एवं उसके प्रभावों पर प्रकाश डालिए।
        या
नेशनल असेम्बली या राष्ट्रीय सभा की उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
फ्रांस में पहले सामन्ती सभा स्टेट्स जनरल थी। इसमें तीन वर्गों का प्रतिनिधित्व था, जिनके पृथक्-पृथक् अधिवेशन होते थे। सन् 1789 ई० में नये कर लगाने की अनुमति लेने की दृष्टि से इसका अधिवेशन किया गया। तीनों वर्गों का पृथक्-पृथक् अधिवेशन हुआ। मजदूर बहुसंख्यक वर्ग ने नये कर लगाने का विरोध किया। इस पर राजा तथा विशेष वर्ग ने सभा भंग करनी चाही। जनता वर्ग ने टेनिस कोर्ट के निकट एक सभा की तथा उसे (UPBoardSolutions.com) राष्ट्रीय सभा घोषित किया। राजा ने सेना बुलाकर राष्ट्रीय महासभा को भंग करने का पुन: प्रयास किया, परन्तु वह सफल न हो सका। राजा को राष्ट्रीय महासभा को मान्यता देनी पड़ी। राष्ट्रीय महासभा ने अपने लगभग दो वर्षों (1789-91) के कार्यकाल में बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य किये और फ्रांस में सदियों से चली आ रही दूषित संस्थाओं का नामोनिशान मिटा दिया।

राष्ट्रीय महासभा के कार्य

राष्ट्रीय महासभा के निम्नलिखित प्रमुख कार्य थे –

  1. राष्ट्रीय महासभा ने 4 अगस्त, 1789 ई० को सामन्तों तथा पादरियों के विशेषाधिकारों को समाप्त करने के लिए कई प्रस्ताव पास किये।
  2. राष्ट्रीय महासभा ने 27 अगस्त, 1789 ई० को मानव तथा नागरिकों के अधिकारों की घोषणा की, जिसके अनुसार कानून की दृष्टि में सभी व्यक्ति समान थे।
  3. राष्ट्रीय महासभा ने उन सभी लोगों की सम्पत्ति जब्त कर ली, जो फ्रांस छोड़कर विदेश चले गये थे।
  4. राष्ट्रीय महासभा ने यह कानून बनाया कि किसी भी व्यक्ति को बिना कानूनी सहायता के दण्डित नहीं किया जा सकता अथवा कैदी नहीं बनाया जा सकता।
  5. यदि राजा किसी प्रस्ताव पर हस्ताक्षर नहीं करेगा तो भी तीन बार विधानसभा में पारित होने पर वह कानून का रूप ले लेगा।
  6. राष्ट्रीय महासभा ने चर्च द्वारा कर लेने पर रोक लगा दी तथा चर्च की सम्पत्ति भी जब्त कर ली।
  7. राष्ट्रीय महासभा ने 6 फरवरी, 1790 ई० में धार्मिक मठों को बन्द करवा दिया।
  8. राष्ट्रीय महासभा ने जुलाई, 1790 ई० में पादरियों पर अंकुश लगाने के लिए एक पादरी विधान बनाया। इसके अनुसार फ्रांस के पादरियों को रोम के पोप की अधीनता से मुक्त कर दिया गया। उनकी नियुक्ति तथा वेतन की व्यवस्था कर दी गयी।
  9. राष्ट्रीय महासभा ने देश को 83 प्रान्तों, प्रान्त को कैण्टनों और कैण्टनों को कम्यूनों में बाँटकर एकसमान शासन-व्यवस्था लागू की।
  10. राष्ट्रीय महासभा ने देश में स्थापित प्राचीन न्यायालयों को भंग करके फौजदारी और दीवानी के न्यायालय स्थापित किये। उसने न्यायाधीशों की नियुक्ति और कार्यावधि निश्चित कर दी।
  11. राष्ट्रीय महासभा ने 30 सितम्बर, 1791 ई० को देश के लिए एक संविधान बनाकर स्वयं को भंग कर दिया।

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राष्ट्रीय महासभा का प्रभाव

राष्ट्रीय महासभा के महत्त्वपूर्ण कार्यों के निम्नलिखित प्रभाव पड़े –

  1. शासन की निरंकुशता का अन्त हो गया, जिससे वहाँ गणतन्त्र की स्थापना हो गयी।
  2. कुलीन वंश के विशेषाधिकारों का अन्त हो गया।
  3. राजा-रानी की स्वेच्छाचारिता पर रोक लग गयी।
  4. चर्च के विशेषाधिकार समाप्त होने से जनता का शोषण रुक गया।
  5. क्रान्ति-विरोधियों को गुलोटीन नामक मशीन से फाँसी दे दी गयी।
  6. दास-प्रथा समाप्त हो गयी।
  7. सामन्तवाद का अन्त करके साम्यवाद की स्थापना की गयी।
  8. प्रजातन्त्र का मार्ग प्रशस्त हो गया।

इस प्रकार फ्रांस की महासभा ने दो वर्ष के समय में ही फ्रांस के तूफानी वातावरण के मध्य इतने महत्त्वपूर्ण कार्य कर डाले, जो विश्व में अनेक व्यवस्थापिकाएँ अनेक वर्षों में भी करने में सफल न हो सकीं। राष्ट्रीय महासभा का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य फ्रांस में प्राचीन दूषित शासन-व्यवस्था का अन्त करना था।

प्रश्न 3.
फ्रांस की क्रान्ति का फ्रांस तथा विश्व पर क्या प्रभाव पड़ा ? उदाहरण सहित प्रस्तुत कीजिए।
        या
फ्रांस की क्रान्ति का प्रभाव यूरोप के अन्य देशों पर किस प्रकार पड़ा ? [2009]
        या
विश्व को फ्रांस की राज्य क्रान्ति की क्या देन है ? किन्हीं दो की चर्चा कीजिए। [2009]
        या
फ्रांस की क्रान्ति के महत्व पर प्रकाश डालिए। [2014]
उत्तर
फ्रांस की क्रान्ति (1789 ई०) विश्व इतिहास की युगान्तकारी (महत्त्वपूर्ण) घटना थी। इस क्रान्ति के फ्रांस तथा विश्व पर बड़े दूरगामी प्रभाव पड़े, जो निम्नलिखित हैं –

  1. फ्रांस की क्रान्ति के फलस्वरूप यूरोप में (UPBoardSolutions.com) निरंकुश शासन का लगभग अन्त हो गया।
  2. फ्रांस की क्रान्ति की देखा-देखी यूरोप के अन्य देशों में भी क्रान्तियाँ हुईं।
  3. फ्रांस की क्रान्ति से प्रेरित होकर अन्य राज्यों के शासकों ने शासन-व्यवस्था में अनेक सुधार किये तथा । जन-कल्याण के कार्य प्रारम्भ किये।
  4. यूरोपीय देशों में लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों का प्रसार हुआ।
  5. समानता, स्वतन्त्रता तथा बन्धुत्व के सिद्धान्तों ने विश्व की राजनीति में हलचल मचा दी।
  6. इंग्लैण्ड में लोकतन्त्रीय आन्दोलन को बल मिला, जिससे वहाँ संसदीय सुधारों का ताँता लग गया।
  7. अमेरिका महाद्वीप के अनेक देशों ने पुर्तगाल तथा स्पेन के उपनिवेशों को समाप्त करके गणतन्त्र स्थापित कर लिये।
  8. संसार के अनेक राष्ट्रों में वयस्क मताधिकार का प्रचलन प्रारम्भ हुआ।
  9. फ्रांस की क्रान्ति ने धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा को जन्म दिया और लोकप्रिय सम्प्रभुता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
  10. इस क्रान्ति ने सदियों से चली आ रही यूरोप की पुरातन सामन्ती व्यवस्था का अन्त कर दिया।
  11. फ्रांस के क्रान्तिकारियों द्वारा की गयी ‘मानव और नागरिकों के जन्मजात अधिकारों की घोषणा (27 अगस्त, 1789 ई०) मानव-जाति की स्वाधीनता के लिए बड़ी महत्त्वपूर्ण है।
  12. इस क्रान्ति ने इंग्लैण्ड, आयरलैण्ड तथा अन्य यूरोपीय देशों की विदेश-नीति को प्रभावित किया।
  13. कुछ विद्वानों के अनुसार फ्रांस की क्रान्ति समाजवादी विचारधारा का स्रोत थी, क्योंकि इसने समानता का सिद्धान्त प्रतिपादित कर समाजवादी व्यवस्था का मार्ग भी खोल दिया था।
  14. इस क्रान्ति के फलस्वरूप फ्रांस ने कृषि, उद्योग, कला, साहित्य, राष्ट्रीय शिक्षा तथा सैनिक गौरव के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व प्रगति की।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
फ्रांस के राजकोष के रिक्त होने के कोई दो कारण लिखिए।
उत्तर
फ्रांस के राजकोष के रिक्त होने के दो कारण निम्नलिखित हैं

  1. राजाओं द्वारा अपव्यय – राजा जनता पर नये-नये कर लगाते रहते थे तथा करों के रूप में वसूली गयी धनराशि को मनमाने ढंग से विलासिता के कार्यों पर खर्च करते थे। लुई चौदहवें ने 10 करोड़ की लागत से अपना शानदार महल बनवाया था। जिसमें 18 हजार व्यक्ति रहते थे। राजाओं ने जनता की खून- पसीने की कमाई को भोग-विलास में खर्च करके राजकोष को खाली कर दिया था।
  2. उच्च वर्गों की करों से मुक्ति – तत्कालीन राज्य में जो वर्ग कर चुकाने की स्थिति में थे, उन पर क़र नहीं लगाये जाते थे। उच्च वर्ग के लोग; जैसे-पादरी वर्ग, कुलीन वर्ग। ये लोग शासन को किसी प्रकार का कोई कर नहीं देते थे। उसके स्थान पर जनता का शोषण करते तथा उनसे वसूली गयी रकम से ऐश करते थे। गरीब जनता, जिसे खाने के लिए दो वक्त की रोटी नहीं थी वो कर कहाँ से देती। इस प्रकार कर-वसूली कम होना, खर्च अधिक होना ही राजकोष के खाली होने का प्रमुख कारण था।

प्रश्न 2.
जनसाधारण वर्ग की स्थिति कैसी थी ?
उत्तर
जनसाधारण वर्ग में मजदूर, कृषक, सामान्य शिक्षित तथा सामान्य जनता आती थी। इन लोगों की स्थिति बहुत ही दयनीय थी क्योंकि इनसे भरपूर काम तो लिया जाता था लेकिन मजदूरी नहीं दी जाती थी। अगर कोई श्रमिक या मजदूर अस्वस्थ हो जाता था तो भी से अपने निश्चित घण्टों तक कार्य करना पड़ता था। अगर वह काम करने की स्थिति में नहीं होता था तो उसके साथ बेरहमी का व्यवहार किया जाता था।

जनसाधारण वर्ग के लोगों को शिक्षित होने पर भी शासन कार्य में भाग लेने का अधिकार नहीं दिया गया था। इस प्रकार न जाने कितनी प्रतिभाएँ अपने अस्तित्व को अँधरे में ही विलीन कर देती थीं, जबकि कुलीन वर्ग या पादरी वर्ग के लोग कम शिक्षित होने पर (UPBoardSolutions.com) भी शासन-कार्य में भाग लेने के लिए अधिकृत होते थे। इस वर्ग की जनसंख्या 95 प्रतिशत थी।

राजाओं, राजदरबारियों, सामन्तों आदि के भोग-विलासपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए जनता पर तरह-तरह के कर लगाये जाते थे तथा करों की वसूली बड़ी निर्दयता से की जाती थी। कृषकों की आय का 80 से 92 प्रतिशत तक भाग करों के रूप में लिया जाता था। इस प्रकार करों के बोझ से आम जनता कराह रही थी।

उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि फ्रांस के जनसाधारण वर्ग की स्थिति बहुत ही दयनीय थी।

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प्रश्न 3.
फ्रांस की क्रान्ति को प्रेरणा देने वाले तत्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
फ्रांस की जनता में रोष और असन्तोष तो पहले से ही विद्यमान था। वह जल्दी-से-जल्दी महँगाई, बेरोजगारी और करों के बोझ से मुक्ति चाहती थी। अब क्रान्ति के लिए मात्र प्रेरणा की आवश्यकता थी; अत: वहाँ की क्रान्ति को निम्नलिखित तत्त्वों ने प्रेरणा दो –

  1. अमेरिका की सफल क्रान्ति के पश्चात् लोकतन्त्र की स्थापना।
  2. बुद्धिजीवियों एवं तर्कशास्त्रियों द्वारा विचारों में परिवर्तन होना।
  3. नवीन विचारधाराओं का प्रचलन एवं पुरानी प्रथाओं पर प्रहार।
  4. रूसो द्वारा राजा के विशेषाधिकारों का विरोध और लोकमत को सर्वोच्चता देना।
  5. मॉण्टेस्क्यू द्वारा कुलीनों तथा दैवी अधिकारों से मुक्त जनता के सहयोग पर आधारित लोकतन्त्र की रूपरेखा प्रस्तुत करना।

प्रश्न 4.
फ्रांस में 14 जुलाई को राष्ट्रीय दिवस क्यों मनाया जाता है ?
उत्तर
पेरिस के निकट बास्तोल नामक स्थान पर फ्रांस के प्राचीन राजाओं द्वारा बनाया गया एक दुर्ग स्थित था। 14 जुलाई, 1789 ई० को बास्तोल के दुर्ग के फाटक को तोड़कर क्रान्तिकारियों की एक भीड़ ने सभी कैदियों को मुक्त कर दिया, जिससे फ्रांस की क्रान्ति तेजी से शहरों, कस्बों और गाँवों में फैल गयी। यह घटना फ्रांस में निरंकुश शासन के पतन की श्रृंखला की पहली कड़ी थी, क्योंकि उस समय बास्तोल का दुर्ग राजाओं की (UPBoardSolutions.com) निरंकुशता और स्वेच्छाचारिता के प्रतीक रूप में माना जाता था। इसीलिए 14 जुलाई; जिस दिन बास्तोल के दुर्ग का पतन हुआ था; फ्रांस में प्रतिवर्ष राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाता है।

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प्रश्न 5.
नेपोलियन बोनापार्ट ने फ्रांस के पुनर्निर्माण के लिए क्या प्रयास किया था ? या नेपोलियन कौन था ? वह क्यों प्रसिद्ध है ? (2011)
उत्तर
नेपोलियन फ्रांस में डाइरेक्टरी का प्रधान था। बाद में वह अपनी वीरता तथा योग्यता के बल पर फ्रांस का तानाशाह बन बैठा। उसने ऑस्ट्रिया, प्रशा तथा रूस को पराजित किया था। वह इंग्लैण्ड को भी हराना चाहता था, किन्तु इंग्लैण्ड की शक्तिशाली नौसेना के कारण वह ऐसा नहीं कर सका। नेपोलियन ने अपनी शक्ति को बढ़ाकर फ्रांस के यश को चारों ओर फैलाया था। अपने शासनकाल में उसने अभूतपूर्व विजय-श्रृंखलाओं का निर्माण किया था, जिसे देखकर सम्पूर्ण यूरोप आतंकित हो उठा था। अपनी आश्चर्यजनक विजयों से उसने फ्रांस की जनता का हृदय जीत लिया था। उसने 10 नवम्बर, 1799 ई० को डाइरेक्टरी को भंग कर स्वयं को फ्रांस का प्रथम कांसल निर्वाचित करवा लिया। सन् 1799 ई० से 1804 ई० तक उसने फ्रांस में अनेक महत्त्वपूर्ण सुधार किये। उसने कानूनों का संहिताकरण किया जो (UPBoardSolutions.com) नेपोलियन कोड के नाम से जाना जाता है। उसके शासनकाल में फ्रांस यूरोप का सबसे समृद्ध और शक्तिशाली देश बन गया था। यूरोप के मित्र-राष्ट्रों ने 18 जून, 1815 ई० में नेपोलियन को वाटरलू नामक स्थान पर परास्त कर सेण्ट हेलेना द्वीप पर जीवन के अन्त तक कैद रखा।

प्रश्न 6.
फ्रांसीसी राज्य-क्रान्ति पर किन दार्शनिकों के विचारों का प्रभाव पड़ा है।
        या
फ्रांस की क्रान्ति के दो दार्शनिकों का परिचय दीजिए। [2010]
        या
उन दार्शनिकों व विचारकों के नाम लिखिए जिनके विचारों से प्रभावित होकर जनता ने फ्रांस में क्रान्ति की। (2009)
        या
रूसो कौन था ? उसके महत्व पर प्रकाश डालिए)
        या
फ्रांस की क्रान्ति में खसो का क्या महत्त्व (योगदान) है ?
उत्तर
फ्रांस की राज्य-क्रान्ति पर उसके जिन दार्शनिकों के विचारों का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा था, उनका संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है –

1. मॉण्टेस्क्यू – मॉण्टेस्क्यू एक महान् विचारक तथा लेखक था। वह गणतन्त्रीय लोकतन्त्र का समर्थक था। राजा के दैवी अधिकार के सिद्धान्त की उसने कटु शब्दों में आलोचना की। इंग्लैण्ड की शासनपद्धति का उस पर गहरा प्रभाव पड़ा और वैसी ही शासन-पद्धति वह फ्रांस में भी स्थापित करना चाहता था। उसके विचारों से फ्रांस की क्रान्ति को अत्यन्त प्रेरणा मिली। ‘दस्पिरिट ऑफ लॉज’ नामक अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ में उसने अपने सिद्धान्तों की विस्तृत व्याख्या की है।

2. वॉल्टेयर – वॉल्टेयर एक प्रसिद्ध विचारक तथा लेखक था। इसके विचारों से फ्रांस की क्रान्ति को बड़ा प्रोत्साहन मिला। वह जनकल्याणकारी निरंकुश शासन की स्थापना करना चाहता था। उसने चर्च की बुराइयों की कटु शब्दों में निन्दा करते हुए (UPBoardSolutions.com) उसे ‘बदनाम वस्तु’ घोषित किया। फ्रांस के सुधारवादी आन्दोलन में उसने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

3. रूसो – रूसो अठारहवीं शताब्दी का एक उच्चकोटि का दार्शनिक था। ‘सोशल कॉण्ट्रैक्ट’ नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ उसी की देन है। उसका विचार था कि राजा को जनभावनाओं के अनुकूल कार्य करने चाहिए। फ्रांस की क्रान्ति को प्रोत्साहित करने में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।

फ्रांस के लोग रूसो, मॉण्टेस्क्यू तथा वॉल्टेयर जैसे महान् दार्शनिकों और लेखकों दिदरो, क्वेसेन के विचारों से प्रभावित होकर स्वतन्त्रता की माँग करने लगे थे। इन विचारकों ने फ्रांस के निवासियों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बुराइयों का ज्ञान कराया। इन दार्शनिकों के क्रान्तिकारी विचारों से प्रभावित होकर फ्रांस की जनता हृदय से इन बुराइयों को उखाड़ फेंकने के लिए उद्यत हो उठी। इस प्रकार फ्रांस में बौद्धिक जागृति फैल गयी और यहाँ के निवासी न्याय, स्वतन्त्रता और समानता की स्थापना के लिए प्रयत्नशील हो गये।

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प्रश्न 7.
फ्रांस की राज्य-क्रान्ति से सम्बन्धित टेनिस कोर्ट की सभा तथा बास्तोल जेल को तोड़ने की घटनाओं का वर्णन कीजिए। इनका क्या प्रभाव पड़ा ?
        या
बास्तील के पतन के क्या कारण थे ? इसका क्या परिणाम हुआ ? (2012)
उत्तर
फ्रांस की राज्य-क्रान्ति में टेनिस कोर्ट की सभा तथा बास्तोल जेल के पतन का विशेष महत्त्व है। इन दोनों घटनाओं का वर्णन निम्नवत् है –

1. टेनिस कोर्ट की सभा – फ्रांस को अपने चिर प्रतिद्वन्द्वी इंग्लैण्ड़ से लगातार युद्ध करने पड़ रहे थे, जिससे राजकोष खाली होता जा रहा था। फ्रांस के राजा लुई सोलहवें ने 1789 ई० में पुरानी सामन्ती सभा ‘स्टेट्स जनरल’ का अधिवेशन इस आशय से बुलाया कि वह नये कर लगाने की अनुमति दे देगी। इस सभा का पिछले 175 वर्षों से कोई अधिवेशन नहीं हुआ था। ‘स्टेट्स जनरल’ में तीनों वर्गों का प्रतिनिधित्व था, जिसमें तीसरा वर्ग बहुसंख्यक था। तीनों वर्गों का पृथक्-पृथक् अधिवेशन होता था। जनता ने करों का कड़ा विरोध करते हुए सभी वर्गों के सम्मिलित अधिवेशन की माँग की। राजा तथा कुलीन वर्ग ने इसका विरोध किया। (UPBoardSolutions.com) तीसरा वर्ग, जनता वर्ग ने तब पास के टेनिस कोर्ट में एक सभा आयोजित की तथा इसे राष्ट्रीय सभा घोषित किया और संविधान बनाने की तैयारी प्रारम्भ कर दी। इसी घटना को इतिहास में टेनिस कोर्ट की सभा के नाम से जाना जाता है। यह प्रत्यक्ष विद्रोह की पहली चिंगारी थी, जिसमें राजा को जनता के समक्ष झुकना पड़ा। यह जनवर्ग की भारी विजय थी। राजा को एक सप्ताह बाद ही नेशनल असेम्बली (राष्ट्रीय महासभा) को मान्यता देनी पड़ी।

2. बास्तील का पतन – जून, 1789 ई० में राष्ट्रीय महासभा को मान्यता मिलने के बाद इसके होने वाले अधिवेशन की गतिविधियों पर पूरे फ्रांस की नजरें टिकी हुई थीं। इसी बीच जुलाई में पेरिस में यह अफवाह फैल गयी कि राजा विदेशी सेना की सहायता से देशभक्तों और क्रान्तिकारियों को कत्ल करने की योजना बना चुका है। 11 जुलाई को सम्राट ने वित्त मन्त्री नेकर को पदच्युत कर दिया। इस घटना ने जनता में पनप रही आशंका को दृढ़ कर दिया। इस पर पेरिस की जनता उत्तेजित हो उठी और तोड़-फोड़ करने लगी। 12 जुलाई, 1789 ई० को पेरिस में हो रहे उपद्रवों की सूचना पाकर बहुत-से सशस्त्र लुटेरे भी नगर में आ गये और उन्होंने सवंत्र लूट-मार, तोड़-फोड़ तथा आतंक फैलाना प्रारम्भ कर दिया। 14 जुलाई को क्रान्तिकारियों की एक भीड़ ने बास्तोल के दुर्ग पर हमला बोल दिया और दुर्ग-रक्षक देलोने की हत्या करके वहाँ पर वन्द कैदियों को रिहा कर दिया तथा वहाँ पर रग्वे हथियार लूटकर दुर्ग को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। यह घटना फ्रांस में निरंकुश शासन के पतन की पहली घटना थी, क्योंकि उस समय बास्तोल का दुर्ग राजाओं की निरंकुशता और स्वेच्छाचारिता का प्रतीक माना जाता था। इस घटना का बहुत बड़ा ऐतिहासिक महत्त्व है। इसीलिए 14 जुलाई को दिन फ्रांस में प्रतिवर्ष राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाता है। इन दोनों घटनाओं ने फ्रांस में क्रान्ति का स्वरूप बदल दिया। प्रतिक्रियावादी सामन्त (UPBoardSolutions.com) तथा पादरी फ्रांस छोड़ने की तैयारी करने लगे, किसानों ने सामन्तों को लूटना आरम्भ कर दिया और प्रशासनिक अधिकारियों के आदेश का उल्लंघन क्रान्ति का पर्याय बन गया।

प्रश्न 8.
1789 में फ्रांस की राष्ट्रीय सभा द्वारा की गई तीन प्रमुख घोषणाओं का वर्णन कीजिए। [2015]
उत्तर
फ्रांस की राष्ट्रीय सभा द्वारा की गई तीन प्रमुख घोषणाएँ निम्नलिखित हैं –

  1. मानव और नागरिक अधिकारों की घोषणा – राष्ट्रीय सभा ने 27 अगस्त, 1789 ई० को मानव और नागरिकों के अधिकारों की घोषणा की जिसके अनुसार कानून की दृष्टि में सभी व्यक्ति समान थे।
  2. विशेषाधिकारों की समाप्ति – 4 अगस्त, 1789 ई० को राष्ट्रीय सभा ने सामन्तीय विशेषाधिकारों की समाप्ति के लिए प्रस्ताव पारित किये।
  3. चर्च द्वारा सम्पत्ति संग्रह पर रोक – 10 अक्टूबर, 1789 ई० को राष्ट्रीय सभा ने कानून बनाकर चर्च द्वारा सम्पत्ति संग्रह पर रोक लगा दी और चर्च की सम्पूर्ण जायदाद को छीनकर नीलाम कर दिया गया तथा इस आय को राष्ट्रीय आय में (UPBoardSolutions.com) सम्मिलित कर लिया गया। अब चर्च किसी व्यक्ति पर किसी प्रकार का कर नहीं लगायेगी।

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प्रश्न 9.
फ्रांस की क्रान्ति में ‘टेनिस कोर्ट की शपथ’ का क्या महत्त्व है? इसके कारण और परिणाम पर प्रकाश डालिए। [2016]
उत्तर
स्टेट्स जनरल फ्रांस की प्राचीन संसद थी जिसमें तीन सदन थे अर्थात् तीन वर्गों का प्रतिनिधित्व था। प्रत्येक वर्ग का अलग-अलग अधिवेशन होता था। 1614 ई० के बाद अब तक इसका कोई अधिवेशन नहीं हुआ था। स्टेट्स जनरल के सदस्यों की कुल संख्या 1214 थी जिसमें 308 पादरी वर्ग के, 285 कुलीन वर्ग के और 621 जनसाधारण वर्ग के सदस्य थे। राजा ने धन की कमी को पूरा करने के लिए इस आशा से 1789 ई० में इसका अधिवेशन बुलाया कि वह नया कर लगाने की अनुमति दे देगी। जनता वर्ग ने करों का विरोध किया और संयुक्त अधिवेशन की माँग की। राजा तथा दरबारी वर्ग ने इसका विरोध किया तथा सभा को भंग करना चाहा। जनता वर्ग ने सभी से हटने से इंकार कर दिया। इसी बीच बैठक में तृतीय सदन क्या है?’ के प्रश्न पर हंगामा होने लगा। फ्रांस के प्रसिद्ध विधिवेत्त ‘एबीसीएज’ ने एक (UPBoardSolutions.com) पुस्तिका वितरित की जिसमें लिखा था-”तृतीय सदन ही राष्ट्र का पर्याय है किन्तु देश की सरकार ने उसकी पूर्णतया उपेक्षा कर रखी है।” 6 मई, 1789 ई० को तीनों वर्गों के सदस्यों ने अलग-अलग भवनों में बैठक की। जनसाधारण वर्ग का नेतृत्व ‘मिराबो’ ने ग्रहण किया।

टेनिस कोर्ट की शपथ – फ्रांस के तत्कालीन राजा लुई सोलहवाँ ने सामन्तों, कुलीनों व. पादरियों के दबाव में आकर साधारण वर्ग के सभा भवन को बन्द करा दिया तथा इस वर्ग को सभा स्थगित रखने का आदेश दिया। राजा ने इस आदेश के विरोध में तृतीय सदन (वर्ग) के सभी सदस्य भवन के निकट स्थित टेनिस कोर्ट के मैदान में एकत्रित हो गये तथा तृतीय वर्ग के नेता मिराबो’ की अध्यक्षता में शपथ ग्रहण की जिसमें संकल्प लिया गया कि “हम यहाँ से उस समय तक नहीं हटेंगे, जब तक हम देश के लिए संविधान का निर्माण नहीं कर लेंगे, भले ही हमारे विरुद्ध संगीनों से ही क्यों न काम लिया जाए।” फ्रांस के इतिहास में (UPBoardSolutions.com) यह संकल्प ‘टेनिस कोर्ट की शपथ के नाम से विख्यात है। तृतीय सदन के सदस्यों की इस घोषणा से लुई सोलहवाँ भयभीत हो गया और उसने 27 जून, 1789 ई० को तीनों सदनों की संयुक्त बैठक (अधिवेशन) की अनुमति दे दी तथा स्टेट्स जनरल को राष्ट्रीय सभा की मान्यता प्रदान की। इस सभा ने 9 जुलाई, 1789 ई०को संविधान सभा का कार्यभार ग्रहण कर लिया।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
फ्रांसीसी क्रान्ति कब प्रारम्भ हुई ?
उत्तर
पहली फ्रांसीसी क्रान्ति जून, 1789 ई० में आरम्भ हुई। जुलाई, 1830 ई० में फ्रांस में पुन: क्रान्ति का विस्फोट हुआ तथा फरवरी, 1848 ई० में फ्रांस में अन्तिम क्रान्ति हुई।

प्रश्न 2.
फ्रांस की क्रान्ति के दो कारण लिखिए।
उत्तर
फ्रांस की क्रान्ति के दो कारण निम्नलिखित हैं

  1. राजाओं की मनमानी तथा
  2. उच्च वर्ग के विशेष अधिकार।

प्रश्न 3.
फ्रांस की प्राचीन संसद का क्या नाम था ? [2017]
उत्तर
फ्रांस की प्राचीन संसद का नाम ‘स्टेट्स जनरल’ था।

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प्रश्न 4.
क्रान्ति प्रारम्भ होने के समय फ्रांस का राजा कौन था ?
उत्तर
क्रान्ति प्रारम्भ होने के समय फ्रांस का राजा लुई सोलहवाँ था।

प्रश्न 5.
उस सभा का नाम लिखिए जिसके बुलाने से फ्रांस में क्रान्ति का विस्फोट हुआ।
उत्तर
सामन्ती सभा ‘स्टेट्स जनरल के अधिवेशन बुलाने के (UPBoardSolutions.com) साथ ही फ्रांस में क्रान्ति का विस्फोट हो गया।

प्रश्न 6.
रूसो कौन था ? उसने कौन-सी पुस्तक लिखी ? [2011,12]
उत्तर
रूसो फ्रांस का एक महान् दार्शनिक, लेखक और शिक्षाशास्त्री था। उसने ‘सोशल कॉण्ट्रेक्ट’ नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की।

प्रश्न 7.
नेपोलियन का पतन कब और कहाँ हुआ ?
        या
नेपोलियन बोनापार्ट की पराजय कहाँ हुई थी ?
उत्तर
नेपोलियन बोनापार्ट का पतन सन् 1815 ई० में ‘वाटर लू’ के युद्ध में हुआ।

प्रश्न 8.
फ्रांस की क्रान्ति के दो दार्शनिकों के नाम लिखिए। [2010]
        या
फ्रांस की क्रान्ति में भूमिका निभाने वाले दो दार्शनिकों के नाम लिखिए। (2015)
उत्तर

  1. रूसो तथा
  2. वॉल्टेयर, फ्रांस की क्रान्ति के दो दार्शनिक थे।

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प्रश्न 9.
फ्रांस का राष्ट्रीय पर्व कब मनाया जाता है ?
उत्तर
फ्रांस का राष्ट्रीय पर्व 14 जुलाई (UPBoardSolutions.com) को मनाया जाता है।

प्रश्न 10.
स्टेट्स जनरल की राष्ट्रीय महासभा को मान्यता कब दी गयी ?
उत्तर
स्टेट्स जनरल की राष्ट्रीय महासभा को सन् 1789 ई० में मान्यता दी गयी।

प्रश्न 11.
फ्रांस की क्रान्ति के दो आर्थिक कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
फ्रांस की क्रान्ति के दो आर्थिक कारण निम्नलिखित हैं –

  1. उच्च वर्ग की कर” से मुक्ति तथा
  2. विलासी एवं अपव्ययी राजदरबार।

प्रश्न 12.
फ्रांस की क्रान्ति के दो परिणाम लिखिए। [2017, 18]
उत्तर
फ्रांस की क्रान्ति के दो परिणाम निम्नलिखित हैं

  1. इस क्रान्ति ने धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा और लोकप्रिय सम्प्रभुता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
  2. फ्रांसीसी क्रान्ति ने मानव-जाति को (UPBoardSolutions.com) स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व का नारा प्रदान किया।

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प्रश्न 13.
फ्रांस की राज्य क्रान्ति से पहले होने वाली दो राज्य क्रान्तियों के नाम लिखिए। [2014]
उत्तर

  1. इंग्लैण्ड की क्रान्ति।
  2. अमेरिका की क्रान्ति।

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. फ्रांस की प्राचीन संसद का नाम था

(क) डायट
(ख) स्टेट्स जनरल
(ग) राष्ट्रीय सभा सभा
(घ) डाइरेक्टरी

2. फ्रांस की क्रान्ति कब प्रारम्भ हुई? [2014, 18]

(क) 1889 ई० में
(ख) 1689 ई० में
(ग) 1789 ई० में
(घ) 1779 ई० में

3. फ्रांस की क्रान्ति का तात्कालिक कारण था (2015, 18)

(क) स्टेट्स जनरल का अधिवेशन
(ख) दार्शनिकों की भूमिका
(ग) आर्थिक तंगी
(घ) सम्राट् की निरंकुशता

4. फ्रांस में समाज के तीसरे वर्ग (जनसामान्य) का प्रतिशत था

(क) 5
(ख) 25
(ग) 75
(घ) 95

5. 1789 ई० की राज्य-क्रान्ति के समय फ्रांस का शासक था

(क) चार्ल्स प्रथम
(ख) लुई सोलहवाँ
(ग) लुई फिलिप
(घ) लुई अठारहवाँ

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6. रूसो कौन था?

(क) राजा
(ख) जनरल
(ग) दार्शनिक
(घ) सैनिक

7. फ्रांस के क्रान्तिकारियों ने मानव के मौलिक अधिकारों के घोषणा-पत्र को कब जारी किया?

(क) 15 अगस्त, 1789 ई० में
(ख) 27 अगस्त, 1789 ई० में
(ग) 30 अगस्त, 1789 ई० में
(घ) 24 अक्टूबर, 1789 ई० में

8. फ्रांस में आतंक के शासन का संस्थापक कौन नहीं था?

(क) दान्ते
(ख) डॉ० मारा
(ग) रॉब्सपियरे
(घ) मीराबो

9. मित्र राष्ट्रों ने नेपोलियन को ‘वाटर लू’ नामक स्थान पर किस वर्ष परास्त किया? [2012]

(क) 1789 ई० में
(ख) 1792 ई० में
(ग) 1815 ई० में
(घ) 1830 ई० में

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10. रूसो की पुस्तक का नाम है|

(क) दे स्प्रिट ऑफ ब्याज
(ख) सोशल कॉन्ट्रेक्ट
(ग) दास कैपिटल
(घ) द प्रिन्स

11. किस तिथि को बस्तील का पतन हुआ था? [2011, 14]

(क) 4 जुलाई, 1789 ई०
(ख) 14 जुलाई, 1789 ई०
(ग) 14 सितम्बर, 1789 ई०
(घ) 24 अगस्त, 1789 ई०

12. निम्न में से कौन-सी क्रान्ति ‘टेनिस कोर्ट की सभा’ से सम्बन्धित थी? (2010)

(क) रूस की क्रान्ति
(ख) इंग्लैण्ड की क्रान्ति
(ग) फ्रांस की क्रान्ति
(घ) अमेरिका की क्रान्ति

13. ‘स्पिरिट ऑफ लॉज’ नामक पुस्तक का लेखक कौन था? (2015, 18)

(क) रूसो
(ख) लॉक
(ग) मॉण्टेस्क्यू
(घ) मैकियावली

14. नेपोलियन बोनापार्ट की अन्तिम पराजय कहाँ हुई? [2016]

(क) वाटर लू में
(ख) रूस में
(ग) ऑग्ट्रिया में
(घ) प्रशा में

15. महान दार्शनिक वाल्टेयर ने किस देश की क्रान्ति को प्रभावित किया था? [2016]

(क) अमेरिका
(ख) इंग्लैण्ड
(ग) रूस
(घ) फ्रांस

उत्तरमाला

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 5 फ्रांसीसी क्रान्ति–कारण तथा परिणाम 1

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UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 10 (Section 1)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 10 भारत में यूरोपीय शक्तियों का आगमन एवं प्रसार (अनुभाग – एक)

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में आने वाली यूरोपीय शक्तियों की व्यापारिक तथा राजनीतिक गतिविधियों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
          या
भारत में किन यूरोपीय देशों ने प्रभुत्व स्थापित किया ?
          या
भारत में पुर्तगाली शक्ति के उत्थान और पतन का विवरण दीजिए।
उत्तर :
भारत में यूरोपीय शक्तियों का आगमन व्यापार के लिए हुआ था, किन्तु बाद में उन्होंने भारत में केन्द्रीय शक्ति के अभाव तथा इससे उपजी राजनीतिक अस्थिरता तथा दुर्बलता का लाभ उठाकर अपने उपनिवेश स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। इन देशों में पुर्तगाल, हॉलैण्ड, इंग्लैण्ड तथा फ्रांस सम्मिलित थे।

1. पुर्तगाल – सर्वप्रथम भारत में पुर्तगाली आये और उन्होंने गोआ, दमन व दीव, सूरत बेसिन, सालसेट बम्बई (मुम्बई) आदि स्थानों पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया। उन्होंने स्थानीय भारतीयों को ईसाई बनाने का बहुत (UPBoardSolutions.com) प्रयत्न किया। वे भारतीयों के साथ व्यापारिक समझौतों का भी पालन नहीं करते थे। इसलिए उनकी सफलता अधिक समय तक टिकी नहीं रह सकी। पुर्तगाल के 1580 ई० में स्पेन के साथ विलय से उसका पृथक् अस्तित्व समाप्त हो गया। सन् 1588 ई० में स्पेन के जहाजी बेड़े आरमेडा को इंग्लैण्ड द्वारा पराजित कर दिये जाने के पश्चात् एशिया के व्यापार पर पुर्तगाल का अधिकार समाप्त हो गया और इंग्लैण्ड तथा हॉलैण्ड इस व्यापार पर अपना प्रभाव स्थापित कर सके। पुर्तगालियों का प्रभाव केवल पश्चिमी समुद्र तट तक ही सीमित रह गया।

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2. हॉलैण्ड – सन् 1595 ई० में कार्नीलियस हाउटमैन नामक डच व्यापारी भारत पहुँचा तथा 1597 ई० में बहुत-सा माल लेकर ऐम्स्टर्डम (हॉलैण्ड) वापस लौटा। उसकी यात्री ने डचों के लिए भारत से व्यापार करने का मार्ग खोल दिया। सन् 1602 ई० में डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना हुई। डच कम्पनी का मुख्य उद्देश्य व्यापार करना था। इसलिए उन्होंने सबसे पहले मसालों के द्वीपों (जावा, सुमात्रा, बोर्नियो आदि) पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। फिर डचों ने भारत में अनेक स्थानों पर पुर्तगालियों को हराकर सूरत, चिनसुरा, कासिम बाजार, नेगापट्टम, कालीकट आदि स्थानों पर अपनी बस्तियाँ स्थापित कीं। अन्त में 1759 ई० में अंग्रेजों ने डचों को पराजित कर भारत में डच कम्पनी के प्रभाव का अन्त कर दिया।

3. इंग्लैण्ड – लन्दन के कुछ व्यापारियों की एक कम्पनी को 31 दिसम्बर, 1600 ई० को पूर्वी देशों से व्यापार करने का एकाधिकार (चार्टर) प्रदान किया गया। यही कम्पनी आगे चलकर ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नाम से प्रसिद्ध हुई। सन् 1690 ई० में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने तीन हजार रुपये वार्षिक कर देकर बंगाल में व्यापार करना स्वीकार किया। सन् 1715 ई० में कम्पनी के एक शिष्टमण्डल ने जॉन सरमन की (UPBoardSolutions.com) अध्यक्षता में मुगल सम्राट से भेंट की और उससे व्यापारिक सुविधाओं के लिए एक शाही फरमान (आदेश) प्राप्त किया। इस फरमान के फलस्वरूप अंग्रेजों को बंगाल में व्यापारिक करों तथा चुंगी की छूट मिल गयी। सन् 1717 ई० में अंग्रेजों ने इस छूट का लाभ निजी व्यापार के लिए उठाना शुरू कर दिया। यही 1757 ई० में अंग्रेजों तथा बंगाल के नवाब के झगड़े का भी प्रमुख कारण बना।

4. फ्रांस – फ्रांसीसी ईस्ट इण्डिया कम्पनी 1664 ई० में स्थापित हुई। इस कम्पनी ने भारत में सूरत (1668 ई०) और पॉण्डिचेरी (पुदुचेरी) में 1669 ई० में अपनी बस्तियाँ स्थापित कीं। बंगाल में चन्द्रनगर (1690-92 ई०) नामक स्थान पर फ्रांसीसियों ने अपना व्यापारिक केन्द्र स्थापित किया। बाद में माही (1725 ई०) तथा कराईकल पर फ्रांसीसियों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। भारत में राजनीतिक सत्ता की स्थापना में मुख्य संघर्ष अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच हुआ। इस संघर्ष की मुख्य कड़ी कर्नाटक के युद्ध थे। इन युद्धों में अन्तिम विजय अंग्रेजों को मिली और भारत में फ्रांसीसी शक्ति का सूर्यास्त हो गया।

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प्रश्न 2.
भारत में राजनीतिक सत्ता की स्थापना हेतु अंग्रेज और फ्रांसीसियों के बीच संघर्ष का वर्णन कीजिए तथा इसके परिणाम लिखिए।
          या
कर्नाटक युद्धों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। इनके क्या परिणाम हुए ?
उत्तर :
अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के मध्य भारत में राजनीतिक सत्ता की स्थापना के लिए मुख्यतः कर्नाटक में युद्ध हुए। इन युद्धों को ‘कर्नाटक युद्धों के नाम से जाना जाता है। सन् 1742 ई० में कर्नाटक के नवाब सफदर अली के चचेरे भाई मुर्तजा अली ने उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रचकर उसकी हत्या कर दी और गद्दी पर कब्जा कर लिया। लेकिन अर्कोट की जनता ने मुर्तजा अली का स्वागत नहीं किया और विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया (UPBoardSolutions.com) तथा सफदर अली के एक नाबालिग पुत्र सैयद मुहम्मद को कर्नाटक की गद्दी पर बैठा : दिया। जब किसी ने उस नाबालिग की भी हत्या कर दी तो निजाम ने अनवरुद्दीन को कर्नाटक का नवाब घोषित कर दिया। इसी भूमिका में अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के मध्य संघर्ष आरम्भ हो गया। इन दोनों में तीन युद्ध हुए।

कर्नाटक का प्रथम युद्ध (सन् 1744-48 ई०)

कर्नाटक के प्रथम युद्ध में अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के बीच व्यापारिक प्रतिस्पर्धा की प्रमुख भूमिका थी। इस युद्ध का दूसरा मुख्य कारण 1740 ई० में ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार के प्रश्न पर इंग्लैण्ड तथा फ्रांस का परस्पर संघर्षरत होना था। यूरोप में ऑस्ट्रिया के युद्ध के साथ-साथ भारत में भी इन दोनों शक्तियों के मध्य युद्ध आरम्भ हो गया। युद्ध के प्रारम्भ में फ्रांसीसियों ने अंग्रेजी बेड़े को पराजित किया, फिर मद्रास (चेन्नई) पर घेरा डाल दिया तथा कर्नाटक के नवाब को मद्रास देने का वादा करके अपनी ओर मिला लिया। सन् 1746 ई० में फ्रांस ने मद्रास पर अधिकार कर लिया, किन्तु सन्धि के अनुसार नवाब को मद्रास देने से इन्कार कर दिया। इस पर नवाब और डूप्ले (फ्रांसीसियों) में संघर्ष छिड़ गया। सेण्ट थॉमस (अड्यार) नामक स्थान पर भारतीय सेना पराजित हो गयी। इसके बाद डूप्ले ने फोर्ट सेण्ट डेविड किले पर आक्रमण किया, किन्तु अंग्रेज अफसर लॉरेन्स की रणकुशलता के कारण वह सफल न हो सका। इसके प्रत्युत्तर में अंग्रेजों ने पॉण्डिचेरी (पुदुचेरी) (UPBoardSolutions.com) जीतने का असफल प्रयास किया। सन् 1748 ई० में यूरोप में फ्रांस और इंग्लैण्ड में सन्धि होने के साथ भारत में भी दोनों के मध्य युद्ध बन्द हो गया। फ्रांस ने मद्रास (चेन्नई) अंग्रेजों को वापस लौटा दिया। प्रथम कर्नाटक युद्ध से भारत में फ्रांसीसियों की धाक जम गयी। डूप्ले अब खुलकर भारत की राजनीति में हस्तक्षेप करने लगा।

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कर्नाटक का द्वितीय युद्ध (सन् 1749-54 ई०)

अंग्रेज और फ्रांसीसी एक-दूसरे की शक्ति को नष्ट करना चाहते थे। सन् 1748 ई० में हैदराबाद के निजाम आसफशाह की मृत्यु होने पर उसके पुत्र मुजफ्फरजंग और दूसरे पुत्र नासिरजंग के मध्य उत्तराधिकार का युद्ध आरम्भ हो गया। इसी समय कर्नाटक में भी नवाब अनवरुद्दीन तथा भूतपूर्व नवाब दोस्त अली के दामाद चाँदा साहब के मध्य संघर्ष आरम्भ हो गया। तंजौर में राजा प्रतापसिंह से फ्रांसीसी गवर्नर ड्यूमा ने कराईकल की बस्ती प्राप्त की थी, जिससे अंग्रेज बहुत रुष्ट थे। अत: उन्होंने प्रतापसिंह के स्थान पर शाहजी को सहायता देकर उसे तंजौर की गद्दी पर बिठा दिया। बाद में धन के लालच में दूसरे पक्ष का समर्थन भी किया। डूप्ले, मुजफ्फरजंग और चाँदा साहब तीनों ने मिलकर कर्नाटक पर आक्रमण किया, जिसमें नवाब मारा गया। चाँदा साहब को कर्नाटक का नवाब बनाया गया। चाँदा साहब ने डूप्ले को पॉण्डिचेरी (पुदुचेरी) के निकट 80 गाँव जागीर में दिये।

हैदराबाद पर आक्रमण करके डूप्ले ने नासिरजंग को परास्त किया और उसके प्रथम पुत्र मुजफ्फरजंग को नवाब बनाया। मुजफ्फरजंग ने भी डूप्ले को एक जागीर प्रदान की। सन् 1751 ई० में अंग्रेजों ने मृतक निजाम असफशाह के तृतीय पुत्र सलावतजंग को गद्दी पर बैठा दिया।

चाँदा साहब ने फ्रांसीसी सेनाओं की सहायता से त्रिचनापल्ली पर घेरा डाल दिया, जहाँ कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन का पौत्र मुहम्मद अली छिपा था। इस पर अंग्रेज सेनापति क्लाइव ने चाँदा साहब की राजधानी अर्काट पर अधिकार कर लिया और उसके बाद क्लाइव ने त्रिचनापल्ली पर आक्रमण कर दिया। इस भीषण युद्ध में चाँदा साहब की मृत्यु हो गयी। क्लाइव ने मुहम्मद अली को कर्नाटक का नवाब बना दिया। जनवरी, (UPBoardSolutions.com) 1755 ई० में दोनों पक्षों में युद्ध विराम हो गया। पॉण्डिचेरी (पुदुचेरी) की सन्धि के अनुसार दोनों पक्षों (फ्रांस तथा इंग्लैण्ड) ने देशी राजाओं के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का निर्णय लिया और मुगल सम्राट द्वारा प्रदत्त अधिकारों को त्याग दिया। मद्रास (चेन्नई), फोर्ट सेण्ट डेविड तथा देवी कोटा पर अंग्रेजों का अधिकार मान लिया गया।

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कर्नाटक का तृतीय युद्ध (सन् 1756-63 ई०)

सन् 1754 ई० में डूप्ले के वापस लौटने के बाद फ्रांसीसी कम्पनी की आर्थिक दशा शोचनीय होती चली गयी। सन् 1756 ई० में यूरोप में फ्रांस तथा इंग्लैण्ड के बीच सप्तवर्षीय युद्ध आरम्भ हो गया। अत: भारत में भी दोनों पक्ष युद्ध की तैयारियों में लग गये।

अप्रैल, 1758 ई० में फ्रांसीसी सरकार ने काउण्ट डी-लैली को गवर्नर तथा प्रधान सेनापति बनाकर भारत भेजा। उसने मद्रास (चेन्नई) पर घेरा डाल दिया। सन् 1760 ई० में लैली ने अंग्रेजों के सेण्ट डेविड फोर्ट पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में ले लिया। किन्तु 1760 ई० में वाण्डेवाश के युद्ध में अंग्रेज सेनापति आयरकूट ने फ्रांसीसी सेना को परास्त कर दिया। इसके बाद अंग्रेजों ने कराईकल पर अधिकार कर लिया और 1761 ई० में पॉण्डिचेरी (पुदुचेरी) पर घेरा डाल दिया। आंशिक युद्ध के बाद लैली ने आत्मसमर्पण कर दिया और पॉण्डिचेरी (पुदुचेरी) पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। (UPBoardSolutions.com) सन् 1763 ई० की पेरिस सन्धि के साथ ही कर्नाटक के तीसरे युद्ध का अन्त हो गया। पॉण्डिचेरी (पुदुचेरी), माही तथा चन्द्रनगर के बन्दरगाह फ्रांस को लौटा दिये गये। हैदराबाद का निजाम और कर्नाटक का नवाब अंग्रेजों के प्रभाव में आ गये तथा सम्पूर्ण दक्षिण भारत पर अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया।

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प्रश्न 3
भारत में अंग्रेजों की सफलता और फ्रांसीसियों की असफलताओं के कारणों का वर्णन कीजिए। [2011]
उत्तर :
अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसियों की पराजय के निम्नलिखित कारण थे

1. व्यापार की शोचनीय दशा – फ्रांसीसी व्यापार की थति अंग्रेजी व्यापार की तुलना में बहुत शोचनीय थी। अंग्रेजों का अकेले बम्बई (मुम्बई) में ही इतना विस्तृत व्यापार था कि कई फ्रांसीसी बस्तियों का व्यापार मिलकर भी उसकी बराबरी नहीं कर सकता था। अंग्रेज व्यापारियों ने कभी भी व्यापार की उपेक्षा नहीं की, क्योंकि वे सोचते थे कि इसी के माध्यम से भारत में धीरे-धीरे पैर जमाना सम्भव है। इसलिए अंग्रेजों की आर्थिक स्थिति बहुत सुदृढ़ थी।

2. दुर्बल सामुद्रिक शक्ति – इंग्लैण्ड विश्व में सामुद्रिक शक्ति के मामले में अजेय था, जबकि फ्रांसीसियों ने सामुद्रिक शक्ति को विशेष महत्त्व नहीं दिया। इस कारण भी फ्रांसीसियों की पराजय हुई। फ्रांसीसी इतिहासकार मार्टिन ने लिखा है, “नौशक्ति की दुर्बलता ही वह प्रधान कारण थी, जिसने डूप्ले की सफलता का विरोध किया।” इसके विपरीत, अंग्रेजों की सामुद्रिक स्थिति इतनी सुदृढ़ थी कि वे आवश्यकतानुसार कर्नाटक में यूरोप से अंग्रेजी सेनाएँ तथा बंगाल से रसद आदि भेज सकते थे। लेकिन फ्रांसीसियों को ऐसी सुविधा प्राप्त न थी।

3. फ्रांसीसी कम्पनी पर सरकारी नियन्त्रण – अंग्रेजी कम्पनी एक व्यक्तिगत कम्पनी थी और उसकी आर्थिक स्थिति बहुत सुदृढ़ थी, जबकि फ्रांसीसी कम्पनी एक सरकारी कम्पनी थी। इस कारण अपनी सहायता के लिए फ्रांसीसी सरकार पर (UPBoardSolutions.com) आश्रित रहना पड़ता था और फ्रांसीसी सरकार समय पर आर्थिक सहायता नहीं दे पाती थी।

4. फ्रांसीसियों में एकता का अभाव – ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भारतीय उच्चाधिकारी उच्चकोटि के राजनीतिज्ञ और कुशल प्रशासक थे। फ्रांसीसी कम्पनी के डूप्ले, बुसी, लैली आदि में यद्यपि अनेक गुण थे फिर भी वे अंग्रेजों के समकक्ष कुशल राजनीतिज्ञ न थे। उनमें अंग्रेज राजनीतिज्ञों क्लाइव और लॉरेंस जैसे कुशल संगठनकर्ताओं के समान कार्यक्षमता न थी। इन अधिकारियों में आपस में एकता की भावना भी नहीं थी। इस प्रकार, एकता और संगठन के अभाव के कारण फ्रांसीसियों को असफलता ही प्राप्त हुई।

5. योग्य सेनापतियों का अभाव – फ्रांसीसी सेना में योग्य सेनापतियों का अभाव था। फ्रांसीसी सेनापति अयोग्य और रण-विद्या में अकुशल थे। इन्हें फ्रांस के मान-सम्मान की कोई चिन्ता नहीं रहती थी। इसके अतिरिक्त, अस्त्र-शस्त्रों का भी फ्रांसीसियों के पास सदैव अभाव बना रहता था।

6. डूप्ले द्वारा अपनी असफलताओं को छिपाना – डूप्ले भारत में व्यापार की उन्नति का उद्देश्य लेकर आया था। यहाँ आकर उसने फ्रांसीसी साम्राज्य की स्थापना का विचार बना लिया, लेकिन इसे विचार से उसने फ्रांसीसी सरकार और उच्च अधिकारियों को अवगत नहीं कराया। यहाँ तक कि जब उसे अपने सीमित साधनों के कारण सफलता प्राप्त नहीं हुई तब उसने सरकार को सूचना नहीं दी। वास्तव में, यह डूप्ले की भयंकर भूल थी जिसके कारण फ्रांसीसियों की असफलता निश्चित हो गई।

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7. डूप्ले की फ्रांस वापसी – यह फ्रांसीसी सरकार का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि उसने डूप्ले के विचारों को जानने या सम्मान देने की आवश्यकता अनुभव नहीं की और उसे ऐसे समय में फ्रांस बुला लिया, जबकि भारत में उसकी अत्यन्त आवश्यकता थी। यदि वह कुछ समय तक रहता और फ्रांसीसी : सरकार से उसे पर्याप्त सहायता मिलती तो वह भारत में फ्रांसीसी साम्राज्य की सत्ता स्थापित करने में सफल हो सकता था।

8. भारतीय नरेशों की मित्रता से हानि – डुप्ले को चाँदा साहब की मित्रता से कोई लाभ प्राप्त नहीं हुआ। चाँदा साहब ने उसकी इच्छा के अनुसार समयानुकूल त्रिचनापल्ली पर चढ़ाई नहीं की और तंजौर की धनराशि प्राप्त करने के लिए ही संघर्ष करता रहा। परिणामस्वरूप त्रिचनापल्ली पर शीघ्र विजय प्राप्त नहीं की जा सकी। इसके पश्चात् जब चाँदा साहब ने त्रिचनापल्ली पर घेरा डाला, तो भी उसने डूप्ले की इच्छा के विरुद्ध (UPBoardSolutions.com) आधी सेना अर्काट भेज दी और अन्ततः उसका कोई भी सन्तोषजनक फल नहीं मिला। इसके अतिरिक्त, उसका मित्र हैदराबाद का वीर सूबेदार मुजफ्फरजंग भी संघर्ष में मारा गया।

9. अंग्रेजों द्वारा बंगाल की विजय – कर्नाटक के तृतीय युद्ध तक अंग्रेज बंगाल पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर चुके थे और बंगाल का धन, सम्पत्ति आदि सब उनके अधिकार में आ गए थे। बंगाल से प्राप्त सुविधाओं से ही मद्रास (चेन्नई) का अंग्रेज गवर्नर तीन वर्षों तक फ्रांसीसियों से सफलतापूर्वक युद्ध करता रहा था। अन्तत: फ्रांसीसियों के साधन समाप्त हो गए और पॉण्डिचेरी (पुदुचेरी) का पतन हो गया, जिसमें फ्रांसीसियों को अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता मिलनी बन्द हो गई। 1757 ई० में प्लासी के निर्णायक युद्ध में विजय प्राप्त हो जाने के बाद अंग्रेजों की स्थिति अत्यधिक सुदृढ़ हो गई थी।

10. फ्रांसीसियों की अपेक्षा अंग्रेजों को अधिक समृद्ध क्षेत्रों की प्राप्ति – डूप्ले को अपनी सफलताओं के फलस्वरूप कर्नाटक और पॉण्डिचेरी (पुदुचेरी) जैसे निर्धन प्रान्त मिले थे। इसके विपरीत, अंग्रेजों को बंगाल जैसा समृद्धशाली प्रदेश मिला, जिससे अंग्रेजों की स्थिति दिन दूनी-रात चौगुनी गति से सुदृढ़ होती चली गई।

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11. लैली का असहयोगात्मक एवं घमंडी स्वभाव – फ्रांसीसियों की पराजय के लिए फ्रांसीसी सेनापति लैली भी कम उत्तरदायी नहीं था। वह घमण्डी, जल्दबाज तथा क्रोधी स्वभाव का था। फलस्वरूप उसे अन्य कर्मचारियों का सहयोग प्राप्त न हो सका और भारत में फ्रांसीसी सत्ता की सम्भावना समाप्त हो गई।

इन्हीं कारणों से अंग्रेजों के समक्ष फ्रांसीसियों की पराजय हुई। भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने के अभियान में फ्रांसीसी पराजित हो गए और अंग्रेज विजयी हुए। इस प्रकार, डूप्ले की सम्पूर्ण योजनाओं पर पानी फिर गया, तथापि अनेक कारणों (UPBoardSolutions.com) से उसका नाम इतिहास में अमर रहेगा।

अल्फ्रेड लॉयल के शब्दों में, “अठारहवीं शताब्दी में अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के बीच समुद्र पार के साम्राज्य के लिए किए गए लम्बे तथा कठिन संघर्ष के संक्षिप्त घटना-चक्र में सबसे अधिक चमत्कारी
व्यक्ति डूप्ले ही था।”

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प्रश्न 4.
प्लासी तथा बक्सर के युद्धों ने किस प्रकार भारत में ब्रिटिश शासन की नींव डाली ? [2013]
          या
“बक्सर के युद्ध ने ब्रिटिश कम्पनी को प्रभुतासम्पन्न बना दिया।” संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
अठारहवीं सदी के आते-आते कम्पनी और बंगाल के नवाबों के बीच टकराव बढ़ने लगे। औरंगजेब की मृत्यु के बाद तत्कालीन क्षेत्रीय रियासतें शक्तिशाली होने लगीं। मुर्शीद कुली खाँ, अलीवर्दी खाँ तथा सिराजुद्दौला जैसे बंगाल के नवाबों ने कम्पनी को (UPBoardSolutions.com) रियायतें देने से साफ मना कर दिया। साथ ही अंग्रेजों को किलेबन्दी बढ़ाने से रोक दिया। धीरे-धीरे ये टकराव गम्भीर होते गये और इनकी परिणति प्लासी के युद्ध के रूप में हुई।

प्लासी को युद्ध–सन् 1756 ई० में सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना। परन्तु कम्पनी उसकी शक्ति को देखते हुए किसी अन्य को नवाब बनाना चाहती थी जो उन्हें व्यापारिक सुविधाएँ तथा अन्य रियायतें आसानी से दे सके। परन्तु वे कामयाब न हो सके। सिराजुद्दौला ने कम्पनी को किलेबन्दी रोकने तथा बकाया राजस्व चुकाने का आदेश दिया। कम्पनी के ऐसा न करने पर नवाब ने कलकत्ता (कोलकाता) स्थित कम्पनी के किले पर कब्जा कर लिया।

कलकत्ता (कोलकाता) की खबर सुनकर कम्पनी के अफसरों ने (UPBoardSolutions.com) रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में सेनाओं को रवाना कर दिया। आखिरकार सन् 1757 ई० में प्लासी के मैदान में रॉबर्ट क्लाइव तथा सिराजुद्दौला अपनी-अपनी सेनाओं के साथ आमने-सामने थे।

सिराजुद्दौला को हार का सामना करना पड़ा, जिसका एक बड़ा कारण उसके सेनापति मीरजाफर का षड्यन्त्र था।।

प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों की जीत अत्यन्त महत्त्वपूर्ण थी। क्योंकि भारत में यह कम्पनी की पहली बड़ी जीत थी। इस युद्ध के बाद मीरजाफर को बंगाल की कठपुतली नवाब बनाया गया। इस युद्ध ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन को भारत में स्थिरता प्रदान करते हुए ब्रिटिश उपनिवेशवाद का बीजारोपण किया।

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बक्सर का युद्ध – ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी को यह एहसास हो गया कि कठपुतली नवाब हमेशा उनका साथ देने वाला नहीं है। अत: जब मीरजाफर कम्पनी का विरोध करने लगा तो उसे हटाकर मीरकासिम को नवाब बना दिया गया। परन्तु जब मीरकासिम भी देशहित में स्वतन्त्र निर्णय लेने लगा और अंग्रेजों के हित प्रभावित होने लगे तो अंग्रेजों को 1764 ई० में एक दूसरा युद्ध करना पड़ा जिसे ‘बक्सर का युद्ध’ कहा जाता है। इस युद्ध में एक ओर अंग्रेजों की सेना तथा दूसरी ओर बंगाल के पूर्व नवाब मीरकासिम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा मुगल सम्राट शाहआलम की संयुक्त सेनाएँ थी। इस युद्ध में भी अन्तत: ‘हेक्टर मुनरो’ के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना विजयी हुई। इस युद्ध ने न केवल प्लास के अपूर्ण कार्य को पूरा किया बल्कि उसने ब्रिटिश कम्पनी को एक पूर्ण प्रभुतासम्पन्न बना दिया।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में डच व्यापारी एकाधिकार स्थापित करने में क्यों असफल रहे ?
उत्तर :
सन् 1595 ई० में डच व्यापारी हाउटमैन ने भारत में प्रवेश किया और दो वर्षों बाद वह बहुत-सा माल लेकर हॉलैण्ड वापस पहुँचा। उसकी यात्रा ने डचों के लिए भारत से व्यापार करने का मार्ग खोल दिया। सन् 1602 ई० में डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना हुई, जिसका मुख्य उद्देश्य व्यापार करना था। इस कम्पनी ने पहले मसाले के द्वीपों पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया, फिर भारत में पुर्तगालियों को हराकर सूरत, चिनसुरा, (UPBoardSolutions.com) कासिम बाजार, नेगापट्टम, कालीकट आदि स्थानों पर अपनी बस्तियाँ स्थापित कीं। अन्त में 1759 ई० में अंग्रेजों ने डचों को पराजित कर भारत में डच शासन का अन्त कर दिया। डच लोग भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित न कर सके, क्योंकि अंग्रेज या फ्रेंच कम्पनी की भाँति उनके पास कोई सेना या यूरोप की डचे सरकार का समर्थन न था।

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प्रश्न 2.
डूप्ले की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
डूप्ले एक महत्त्वाकांक्षी, योग्य तथा कूटनीतिक व्यक्ति था, जिसे फ्रांसीसी सरकार ने भारत में पॉण्डिचेरी (पुदुचेरी) का गवर्नर नियुक्त किया था। उसने स्थानीय भारतीय सैनिकों को अपनी सेना में नियुक्त करके उन्हें आधुनिक युद्ध रणनीति एवं प्रणाली में प्रशिक्षण देना आरम्भ कर दिया। इस सेना की सहायता से डूप्ले ने अपने चिर प्रतिद्वन्द्वी इंग्लैण्ड तथा स्थानीय शासकों के विरुद्ध संघर्ष किये। किन्तु फ्रांसीसी कम्पनी की आर्थिक दशा अच्छी न होने के कारण डुप्ले ने मॉरीशस के फ्रेंच गवर्नर से सहायता प्राप्त करके मद्रास (चेन्नई) पर घेरा डाल दिया तथा प्रथम कर्नाटक युद्ध के दौरान 1746 ई० में मद्रास पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने जब पॉण्डिचेरी (पुदुचेरी) पर कब्जा करने का प्रयत्न किया तो डूप्ले ने सफलतापूर्वक इसकी रक्षा की।

द्वितीय कर्नाटक युद्ध के दौरान डूप्ले ने हैदराबाद के निजाम की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के युद्ध में मुजफ्फरजंग का साथ दिया, फिर चॉदा साहब से मिलकर 1749 ई० में अनवरुद्दीन को हराकर चाँदा साहब को कर्नाटक का नवाब बनाया, (UPBoardSolutions.com) जिसने फ्रांसीसियों को पॉण्डिचेरी (पुदुचेरी) के निकट 80 गाँव जागीर के रूप में उपहारस्वरूप प्रदान किये। उधर, मुजफ्फरजंग (हैदराबाद के निजाम) ने भी फ्रांसीसियों को पर्याप्त उपहार दिये। डूप्ले की सफल कूटनीति के कारण ही दक्षिण भारत में फ्रांसीसियों के पैर जम सके, किन्तु जब फ्रांसीसी शक्ति भारत में अपने शिखर पर थी, तभी डूप्ले को यूरोप वापस बुला लिया गया।

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प्रश्न 3.
क्लाइवे पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
रॉबर्ट क्लाइव अंग्रेजी सेना में एक मामूली सैनिक था। अपनी योग्यता के बल पर वह अंग्रेजी सेना का सेनापति बन गया। वह एक सफल कूटनीतिज्ञ भी था। कर्नाटक के तीनों युद्धों में उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी तथा अंग्रेजों को विजय दिलाकर फ्रांसीसियों के प्रभाव को क्षीण कर दिया। इससे समस्त दक्षिण भारत पर अंग्रेजों का प्रभुत्व कायम हो गया। सन् 1757 ई० में प्लासी के युद्ध में विजय प्राप्त करके बंगाल में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव डाली। बक्सर के युद्ध (1764 ई०) के बाद बंगाल में अंग्रेजों की राजनीतिक सत्ता स्थापित करने में भी क्लाइव का ही हाथ था।

प्रश्न 4.
यूरोपीय कम्पनियों के भारत आने के क्या कारण थे ?
उत्तर :
भारत की समृद्धि की चर्चाओं से प्रेरित होकर व्यापार के उद्देश्य से अनेक यूरोपीय व्यापारी पन्द्रहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी के मध्य भारत आये। उनके भारत आगमन का देश के भावी इतिहास पर गहरा प्रभाव पड़ा। इनमें पुर्तगाली, अंग्रेज, डच, डेनिश एवं फ्रांसीसी जातियाँ मुख्य थीं। इनके भारत-आगमन के मुख्य कारण निम्नवत् थे –

  1. भारत आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न देश था। यहाँ की आर्थिक सम्पन्नता ने यूरोपीय व्यापारियों को आकर्षित किया।
  2. यूरोपीय बाजार में भारतीय मसालों की प्रचुर मात्रा में माँग थी। यहाँ के मसाले यूरोप में अधिकाधिक मात्रा में बिकते थे।
  3. वेनिस और जेनेवा के व्यापारियों ने यूरोप व एशिया के व्यापार (UPBoardSolutions.com) पर अपना अधिकार कर लिया था। वे स्पेन व पुर्तगाली व्यापारियों को हिस्सा देने के लिए तैयार न थे।
  4. वास्कोडिगामा द्वारा भारत आने का सुगम जलमार्ग खोज लेना यूरोपीय व्यापारियों के लिए लाभकर रहा।
  5. भारत में निर्मित मिट्टी के बर्तनों की यूरोपीय देशों में व्यापक माँग थी। 6. भारत में कुटीर उद्योग एवं कच्चे माल की अत्यधिक सम्भावना व्याप्त थी।

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प्रश्न 5.
अंग्रेजों एवं बंगाल के नवाब के बीच टकराव के क्या कारण थे ? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर :
ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के बीच टकराव के निम्नलिखित कारण थे –

  1. बंगाल का नवाब सिराजुद्दौला एक शक्तिशाली शासक था। उसकी शक्ति से अंग्रेज घबरा रहे थे और वह सिराजुद्दौला के स्थान पर किसी अन्य व्यक्ति को बंगाल का नवाब बनाना चाहते थे।
  2. अंग्रेजों को नवाब सिराजुद्दौला से भरपूर व्यापारिक सुविधाएँ नहीं मिल पा रही थीं, क्योंकि नवाब अंग्रेजों को किसी प्रकार की रियायत देने के पक्ष में नहीं था। इसलिए अंग्रेज एक ऐसे व्यक्ति को बंगाल का नवाब बनाना चाहते थे जो उन्हें अधिक-से-अधिक व्यापारिक सुविधाएँ एवं रियायतें दे सके।
  3. सिराजुद्दौला ने कम्पनी को किलेबन्दी रोकने तथा बकाया राजस्व (UPBoardSolutions.com) चुकाने का आदेश दिया। कम्पनी के ऐसा न करने पर नवाब ने कलकत्ता (कोलकाता) स्थित कम्पनी के किले पर कब्जा कर लिया।

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प्रश्न 6. 
प्लासी के युद्ध के क्या कारण थे?
उत्तर :

प्लासी के युद्ध के कारण

अलीवर्दी खाँ द्वारा मृत्यु शय्या पर दी गई चेतावनी को सिराजुद्दौला भूला नहीं था। यद्यपि इस समय बंगाल में व्यापार करने वाली यूरोपियन शक्तियों-फ्रांसीसी, डच तथा अंग्रेज-में सिराजुद्दौला के सबसे अधिक अच्छे सम्बन्ध अंग्रेजों के साथ ही थे।

1. अंग्रेजों का षड्यन्त्र – बंगाल में अंग्रेजों की बढ़ती हुई शक्ति से नवाब सशंकित हो उठा था। उसके राज्याभिषेक के समय अंग्रेजी कम्पनी की उदासीनता से नवाब अत्यन्त क्रुद्ध था। नवाब की प्रजा होने के नाते ब्रिटिश कम्पनी को नवाब के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना आवश्यक था किन्तु अंग्रेजों ने उसके राज्याभिषेक के समय कोई भेट आदि नहीं भेजी थी। यही नहीं, अंग्रेजों से सिराजुद्दौला से व्यक्तिगत ईष्र्या रखने वाले सम्बन्धियों (UPBoardSolutions.com) और अधिकारियों का साथ देना प्रारम्भ कर दिया था। उन्होंने हिन्दुओं के साथ मिलकर मुस्लिम शासन के विरुद्ध षड्यन्त्र रचना आरम्भ कर दिया था तथा कलकत्ता (कोलकाता) नवाब के शत्रुओं का शरण-स्थल बन गया था।

2. व्यापारिक सुविधाओं का दुरुपयोग – नवाब द्वारा दी गई व्यापारिक सुविधाओं का दुरुपयोग करना अंग्रेजों ने आरम्भ कर दिया था। फर्रुखसियर ने कम्पनी को बिना चुंगी के व्यापार करने की सुविधा दी थी परन्तु कम्पनी के कर्मचारी इसका अपने व्यक्तिगत व्यापार के लिए भी लाभ उठाने लगे। दस्तक-प्रथा के दुरुपयोग के कारण बंगाल के नवाब को आर्थिक क्षति पहुँची।

3. किलेबन्दी का प्रश्न – नवाब और अंग्रेजों के मध्य वैमनस्य का सबसे प्रमुख कारण अंग्रेजों द्वारा अपनी बस्तियों की किलेबन्दी करना था। नवाब ने अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों को उनके द्वारा की जा रही किलेबन्दी को रोकने की आज्ञा दी, परन्तु अंग्रेजों ने आज्ञा का पालन नहीं किया।

सारांश यह है कि अंग्रेज केवल दस्तकों के सम्बन्ध में अपने अधिकारों का ही दुरुपयोग नहीं कर रहे थे अपितु अनधिकार वे अपने यूरोपियन प्रतिद्वन्द्वियों से भय के बहाने अपनी बस्तियों की किलेबन्दी भी कर रहे थे। इसके परिणामस्वरूप नवाब को अंग्रेजों को दंड देने के लिए बाध्य होना पड़ा। वास्तव में यदि देखा जाए तो अंग्रेज अपराधी थे तथा उन्होंने नवाब की आज्ञा का उल्लंघन किया था। बंगाल में भी अंग्रेज दक्षिण भारत (कर्नाटक) के समान ही कुचक्र रच रहे थे। अलीवर्दी खाँ का संशय ठीक था। यही संशय सिराजुद्दौला के काल में प्लासी के युद्ध के रूप में प्रकट हुआ।

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प्रश्न 7.
इलाहाबाद की सन्धि का भारतीय इतिहास में क्या महत्त्व है ?
उत्तर :
अंग्रेजों ने बक्सर के युद्ध में विजय के बाद नाममात्र के मुगल सम्राट शाहआलम के साथ 1765 ई० में सन्धि कर ली, जो इलाहाबाद की सन्धि के नाम से प्रसिद्ध है। इस सन्धि के अनुसार मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय ने शाही फरमान द्वारा अंग्रेज कम्पनीको बंगाल, बिहार और उड़ीसा (ओडिशा) की दीवानी प्रदान कर दी। साथ-साथ अंग्रेजों ने सम्राट को र 26 लाख की वार्षिक पेंशन बाँध दी। दीवानी के अधिकार के बदले कम्पनी (UPBoardSolutions.com) ने कड़ा और इलाहाबाद के किले अवध के नवाब से लेकर शाहआलम को दे दिये। नवाब ने कम्पनी को १ 50 लाख युद्ध का हर्जाना दिया। क्लाइव और अवध के नवाब के बीच यह भी समझौता हुआ कि दोनों भविष्य में आवश्यकता पड़ने पर मराठों के आक्रमणों के समय एक-दूसरे की सहायता करेंगे।

अतः स्पष्ट है कि दोनों युद्धों के पश्चात् जो लाभ अंग्रेजों को हुआ उसकी पुष्टि इलाहाबाद की सन्धि (1765) के द्वारा हो गयी। .

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. 
भारत में सर्वप्रथम किस यूरोपियन जाति ने प्रवेश किया ?
उत्तर :
भारत में सर्वप्रथम पुर्तगालियों ने प्रवेश किया।

प्रश्न 2. 
भारत के दो पुर्तगाली गवर्नरों के नाम लिखिए।
उत्तर :
भारत के दो पुर्तगाली गवर्नर थे –

  1. डी-अल्मोडा तथा
  2. अल्बुकर्क।

प्रश्न 3. 
डूप्ले कौन था ?
उत्तर :
डूप्ले पॉण्डिचेरी (पुदुचेरी) का गवर्नर था, जिसने कर्नाटक के प्रथम तथा द्वितीय युद्ध में फ्रांसीसी सेनाओं का नेतृत्व किया था।

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प्रश्न 4. 
लाइव की दो उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
क्लाइव की दो उपलब्धियाँ थीं

  1. तृतीय कर्नाटक युद्ध में फ्रांसीसियों के विरुद्ध विजय।
  2. प्लासी-युद्ध में विजय के साथ. बंगाल में अंग्रेजों की सत्ता की नींव डालना।

प्रश्न 5. 
कर्नाटक में कितने युद्ध हुए ?
उत्तर :
कर्नाटक में तीन युद्ध हुए।

प्रश्न 6. 
कर्नाटक का दूसरा युद्ध किनके बीच हुआ था ? [2011]
उत्तर :
कर्नाटक का दूसरा युद्ध मुजफ्फरजंग तथा नासिरजंग के बीच हुआ था।

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प्रश्न 7. 
कर्नाटक युद्धों में अंग्रेजों की विजय के दो कारण लिखिए।
उत्तर :
कर्नाटक युद्धों में अंग्रेजों की विजय के दो कारण निम्नवत् थे –

  1. अंग्रेजों को अपनी सरकार को पूर्ण सहयोग तथा समर्थन प्राप्त था।
  2. अंग्रेजों के पास लॉरेन्स, क्लाइव, आयरकूट आदि योग्य तथा कूटनीतिज्ञ सेनापति थे।

प्रश्न 8. 
भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना कब हुई ? [2010]
उत्तर :
भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना सन् 1600 ई० में हुई।

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प्रश्न 9. 
ईस्ट इण्डिया कम्पनी को पूरब के देशों में व्यापार करने के लिए आदेश कब मिला ?
उत्तर :
ईस्ट इण्डिया कम्पनी को पूरब के देशों में (UPBoardSolutions.com) व्यापार करने का आदेश 31 दिसम्बर, 1600 ई० को मिला।

प्रश्न 10. 
अंग्रेजों एवं फ्रांसीसियों के बीच लड़े गये युद्धों को किस नाम से जाना जाता है ?
उत्तर :
अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के मध्य लड़े गये युद्धों को ‘कर्नाटक युद्ध’ के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 11. 
प्लासी का युद्ध कब और किस-किस के बीच हुआ ? (2018)
उत्तर :
प्लासी का युद्ध अंग्रेजों तथा बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के बीच सन् 1757 ई० में लड़ा गया।

प्रश्न 12. 
बक्सर का युद्ध कब और किस-किस के बीच हुआ ?
उत्तर :
बक्सर का युद्ध अंग्रेजों तथा बंगाल के पूर्व नवाब मीरकासिम, (UPBoardSolutions.com) अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा मुगल सम्राट शाहआलम की संयुक्त सेनाओं के मध्य हुआ था।

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बहुविकल्पीय प्रशन

1. डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना कब हुई थी?

(क) 1595 ई० में
(ख) 1597 ई० में
(ग) 1602 ई० में
(घ) 1615 ई० में

2. भारत में पुर्तगाली साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक कौन था ? [2012]

(क) अल्बुकर्क
(ख) अल्मोडा
(ग) कोलम्बस
(घ) वास्कोडिगामा

3. बंगाल में फ्रांसीसियों ने सर्वप्रथम किस स्थान पर व्यापारिक बस्ती स्थापित की?

(क) कासिम बाजार
(ख) चन्द्रनगर
(ग) हुगली
(घ) चिनसुरा

4. भारत में फ्रांसीसी कम्पनी का गवर्नर था

(क) हॉकिन्स
(ख) वास्कोडिगामा
(ग) क्लाइव
(घ) डूप्ले

5. भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक किसे माना जाता है?

(क) क्लाइव को
(ख) वारेन हेस्टिग्स को
(ग) आयरकूट को
(घ) लॉर्ड वेलेजली को।

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6. यूरोप के किस देश ने सर्वप्रथम भारत में अपना उपनिवेश स्थापित किया? [2013, 14, 16]
          या
भारत के पश्चिमी तट पर किस यूरोपीय देश ने सबसे पहले अपना उपनिवेश स्थापित किया था ? [2013]

(क) फ्रांस
(ख) इंग्लैण्ड
(ग) पुर्तगाल
(घ) हॉलैण्ड

7. कर्नाटक का युद्ध किस-किस के बीच हुआ ?

(क) फ्रांसीसी-पुर्तगाली
(ख) पुर्तगाली-डच
(ग) अंग्रेज-फ्रांसीसी
(घ) अंग्रेज-पुर्तगाली

8. प्लासी का युद्ध हुआ था (2012)

(क) 1754 ई० में
(ख) 1757 ई० में
(ग) 1864 ई० में
(घ) 1857 ई० में

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9. इलाहाबाद की सन्धि हुई थी

(क) 1757 ई० में
(ख) 1765 ई० में
(ग) 1857 ई० में
(घ) 1865 ई० में

10. निम्न में कौन भारत में फ्रांसीसी उपनिवेश था? [2014]

(क) फोर्ट विलियम
(ख) मद्रास
(ग) पॉण्डिचेरी।
(घ) सूरत

11. फ्रेंच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की गई थी [2014]

(क) 1600 ई० में
(ख) 1611 ई० में
(ग) 1615 ई० में
(घ) 1664 ई० में

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12. प्लासी के युद्ध के समय बंगाल का नवाब कौन था? (2014)

(क) सिराजुद्दौला
(ख) अलीवर्दी खाँ
(ग) मुर्शीद कुली खां
(घ) मीर कासिम

13. किस यूरोपीय शक्ति ने भारत में सबसे अन्त में प्रवेश किया? [2015, 17]

(क) हॉलैण्ड
(ख) इंग्लैण्ड
(ग) फ्रांस
(घ) पुर्तगाल

14. प्लासी के युद्ध में निम्नलिखित में से किसकी पराजय हुई थी? [2015, 17]

(क) लॉर्ड क्लाइव
(ख) सिराजुद्दौला
(ग) मीरजाफर
(घ) मीरकासिम

उत्तरमाला

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 10 भारत में यूरोपीय शक्तियों का आगमन एवं प्रसार 1

Hope given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 10 are helpful to complete your homework.

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UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 7 (Section 2)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 7 भारतीय विदेश नीति (अनुभाग – दो)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Social Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 7 भारतीय विदेश नीति (अनुभाग – दो).

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विदेश-नीति का क्या अर्थ है ? भास्तीय विदेश-नीति के निर्धारक तत्त्वों का वर्णन कीजिए।
या
भारत की विदेश नीति की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं? पंचशील के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। [2014]
या

भारत की विदेश नीति की कोई दो विशेषताएँ लिखिए। [2014, 16, 18]
या

भारत की विदेश-नीति की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2011, 12, 17]
या

किसी विदेशी पत्रिका में भारत को एक साम्राज्यवादी देश बताया गया है। इसका खण्डन करने के लिए उस पत्रिका के सम्पादक को क्या लिखेंगे ?
या
भारतीय विदेश नीति के विशिष्ट लक्षणों की व्याख्या कीजिए। [2013]
या

भारतीय विदेश नीति के किन्हीं तीन सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। [2013, 15]
या

पंचशील तथा भारत की विदेश नीति पर एक लेख लिखिए। [2013]
या

भारतीय विदेश नीति के आधारभूत सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए। [2015, 17]
या

भारत की विदेश नीति के मुख्य सिद्धान्त क्या हैं? उनमें से किन्हीं तीन का उल्लेख कीजिए। [2016]
या

भारत की विदेश नीति की किन्हीं चार विशेषताओं की विवेचना कीजिए। [2016]
उत्तर :
विदेश-नीति से तात्पर्य उस नीति से है जो कोई देश अन्य देशों के प्रति अपनाता है।

भारत की विदेश-नीति की विशेषताएँ/लक्षण/व/सिद्धान्त

भारत की विदेश नीति की प्रमुख विशेषताएँ/लक्षण/तत्त्व/सिद्धान्त निम्नलिखित हैं–

1. गुट-निरपेक्षता– 
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सम्पूर्ण विश्व दो सैन्य मुटों में बँट गया था। प्रथम गुट
संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में तथा (UPBoardSolutions.com) दूसरा गुट पूर्ववर्ती सोवियत संघ के नेतृत्व में था। ऐसी स्थिति में भारत ने स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद गुट-निरपेक्ष रहने का निर्णय लिया। गुट-निरपेक्षता भारत की । विदेश-नीति में सर्वोपरि है। गुट-निरपेक्षता की नीति साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद की घोर विरोधी है। देश के विकास के लिए किसी विशेष गुट में सम्मिलित होने की अपेक्षा गुट-निरपेक्ष रहकर सभी देशों को सहयोग करना इस नीति का मूल आधार है।

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2. पंचशील के सिद्धान्त में आस्था- 
भारत बौद्ध धर्म के पाँच व्रतों पर आधारित ‘पंचशील’ के सिद्धान्त
में गहन आस्था रखता है। सन् 1954 ई० में भारत तथा चीन ने एक मैत्री सन्धि के अन्तर्गत इस सिद्धान्त की घोषणा की थी। सन् 1955 ई० में बाण्डंग सम्मेलन में तृतीय विश्व के 29 देशों तथा बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इस सिद्धान्त को स्वीकार किया। इस सिद्धान्त के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं

  • सभी देशों की परस्पर प्रादेशिक अखण्डता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना,
  • दूसरे देशों पर आक्रमण न करना,
  • दूसरे देशों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना,
  • सभी देशों को बराबर समझना तथा
  • शान्ति और सौहार्दपूर्वक सह-अस्तित्व की नीति का पालन करना।

3. समस्त राष्ट्रों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध– भारत की विदेश नीति के निर्धारणकर्ता पं० जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि “भारत की विदेश नीति का मूल उद्देश्य विश्व के समस्त राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना है। भारत इस नीति का (UPBoardSolutions.com) निरन्तर पालन करता रहा है। वह अपने पड़ोसी देशों से ही नहीं, अपितु सभी राष्ट्रों से राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा व्यापारिक मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखना चाहता है।

4. शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व- 
शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व भारत की विदेश नीति का प्रमुख अंग है। यह भी पंचशील के सिद्धान्तों पर आधारित है। इसकी तीन प्रमुख शर्ते हैं-

  • प्रत्येक राष्ट्र के स्वतन्त्र अस्तित्व को पूर्ण मान्यता,
  • प्रत्येक राष्ट्र को अपने भाग्य का निर्माण करने के अधिकार की मान्यता तथा
  • पिछड़े हुए राष्ट्रों का विकास एक निष्पक्ष अन्तर्राष्ट्रीय अभिकरण द्वारा किया जाना। इस सिद्धान्त के पीछे यह चिन्तन है कि यदि महाशक्तियाँ कमजोर देशों के भाग्य का निर्धारण करेंगी तो कोई भी देश आर्थिक विकास नहीं कर सकेगा। इसलिए सभी राष्ट्रों को अपने ढंग से आर्थिक विकास
    करने का अवसर मिलना चाहिए। इस सिद्धान्त का अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर अच्छा प्रभाव पड़ा है।

5. रंग-भेद नीति का विरोध- भारत रंग-भेद नीति अथवा नस्लवाद का कट्टर विरोधी है। इसलिए | उसने दक्षिण अफ्रीका में 1994 ई० तक स्थापित अल्प मत वाली गोरी सरकार द्वारा अपनायी गयी रंग-भेद’ की नीति का सदैव विरोध किया। वास्तव में रंग-भेद नीति मानवता का घोर अपमान है।

6. विश्व-शान्ति तथा संयुक्त राष्ट्र संघ में सहयोग– 
भारत अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का शान्तिपूर्ण ढंग से निपटारा करने का समर्थक है। इसलिए वह संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्य अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ। सहयोग का पक्षधर है। विश्व शान्ति कायम करने के लिए भारत निरस्त्रीकरण पर भी बल देता है।

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7. साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का विरोध- 
साम्राज्यवादी शोषण से त्रस्त भारत ने अपनी विदेश-नीति में साम्राज्यवाद के प्रत्येक रूप का कटु विरोध किया है। भारत इस प्रकार की प्रवृत्तियों को विश्व-शान्ति एवं विश्व-व्यवस्था के लिए घातक एवं कलंकमय मानता है। के० एम० पणिक्कर के अनुसार, “भारत की नीति हमेशा से यही रही है कि यह पराधीन लोगों की स्वतन्त्रता के प्रति आवाज उठाता रहा है; क्योंकि भारत का दृढ़ (UPBoardSolutions.com) विश्वास है कि साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद हमेशा से आधुनिक युद्धों का कारण रहा है।

भारत की विदेश नीति के ऊपर उल्लिखित बिन्दुओं के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि भारत एक साम्राज्यवादी देश नहीं है। यदि किसी विदेशी पत्रिका में ऐसा लिखा गया है कि भारत एक साम्राज्यवादी देश है तो यह पूर्णतया असत्य एवं भ्रामक है। इसके लिए सम्बन्धित पत्रिका के सम्पादक
के प्रति भारत को कड़ा विरोध जताना चाहिए।

प्रश्न 2.
गुट-निरपेक्षता से आप क्या समझते हैं ? इसके बदलते स्वरूप का वर्णन कीजिए।
या
भारत की गुट-निरपेक्ष नीति को स्पष्ट कीजिए। गुट-निरपेक्षता से आप क्या समझते हैं ?
या
गुट-निरपेक्षता में भारत के योगदान का वर्णन कीजिए। “भारतीय विदेश नीति का आधार गुटनिरपेक्षता है।” स्पष्ट कीजिए। [2013]
या

विश्व-शान्ति के लिए गुट-निरपेक्षता क्यों आवश्यक है ? इसके महत्व का वर्णन उचित उदाहरणों सहित कीजिए। [2015, 17]
या

गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का प्रारम्भ क्यों हुआ ? प्रारम्भ में इसमें भाग लेने वाले दो प्रमुख देशों के नाम लिखिए। [2015]
या

गृट-निरपेक्षता से आप क्या समझते हैं? क्या वर्तमान समय में भी भारत को इसका पालन करना चाहिए? [2016]
उत्तर :
गुट-निरपेक्षता.का अर्थ-शक्ति के किसी भी गुट में सम्मिलित न होना तथा अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में बिना किसी बाह्य दबाव के अच्छाई व बुराई को ध्यान में रखकर स्वतन्त्र निर्णय लेना गुटनिरपेक्षता है।

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द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् सम्पूर्ण विश्व दो गुटों में बँट गया। एक गुट का नेतृत्व अमेरिका ने किया और दूसरे गुट का सोवियत संघ (रूस) ने। दोनों गुटों में अनेक कारणों को लेकर भीषण शीतयुद्ध प्रारम्भ हो गया। यूरोप और एशिया के अधिकांश देश इस गुटबन्दी में फँस गये और वे किसी-न-किसी गुट में
सम्मिलित हो गये। स्वतन्त्र भारत की विदेश (UPBoardSolutions.com) नीति के निर्माता पं० जवाहरलाल नेहरू ने विदेश नीति का आधार गुट-निरपेक्षता (Non-Alignment) को बनाया। उन्होंने स्पष्ट किया, “हम किसी गुट में सम्मिलित नहीं हो सकते, क्योंकि हमारे देश में आन्तरिक समस्याएँ इतनी अधिक हैं कि हम दोनों गुटों से सम्बन्ध बनाये बिना उन्हें सुलझा नहीं सकते।’ सन् 1961 ई० में बेलग्रेड में हुए गुट-निरपेक्ष देशों के प्रथम शिखर सम्मेलन में केवल 25 देशों ने भाग लिया था, किन्तु धीरे-धीरे गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाने वाले देशों की संख्या में वृद्धि होती गयी। अब इनकी संख्या 120 हो गयी है। इसमें भाग लेने वाले दो प्रमुख देश इण्डोनेशिया व मिस्र थे।

गृट-निरपेक्षता में भारत का योगदान

गुट-निरपेक्षता के विकास में भारत का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत की विदेश नीति का प्रमुख सिद्धान्त ही गुट-निरपेक्षता है। सर्वप्रथम, भारत ने ही एशिया तथा अफ्रीका के नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्रों को परस्पर एकता और सहयोग के सूत्र में बाँधने का प्रयास किया था। ‘बाण्डंग सम्मेलन में भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। इस प्रकार भारत गुट-निरपेक्षता का अग्रणी रहा है। पं० जवाहरलाल नेहरू का कथन था, “चाहे कुछ भी हो जाए, हम किसी भी देश के साथ सैनिक सन्धि नहीं करेंगे। जब हम गुट-निरपेक्षता का विचार छोड़ते हैं तो हम अपना संसार छोड़कर हटने लगते हैं। किसी देश से बँधना अपने आत्म-सम्मान को खोना तथा अपनी बहुमूल्य नीति का अनादर करना है।” पं० नेहरू के बाद श्रीमती इन्दिरा गांधी ने गुट-निरपेक्षता के विकास को अग्रसरित (UPBoardSolutions.com) किया। प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने सातवें सम्मेलन (1983 ई०) में नयी दिल्ली में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की अध्यक्षता ग्रहण की थी। श्रीमती इन्दिरा गांधी ने अपने एक भाषण में कहा था कि “गुट-निरपेक्षता स्वयं में एक नीति है। यह केवल एक लक्ष्य ही नहीं, इसके पीछे उद्देश्य यह है कि निर्णयकारी स्वतन्त्रता और राष्ट्र की सच्ची भक्ति तथा बुनियादी हितों की रक्षा की जाए।

प्रधानमन्त्री श्री राजीव गांधी भी गुट-निरपेक्ष आन्दोलन को प्रभावशाली बनाने के लिए कृत-संकल्प थे। 15 अगस्त, 1986 ई० को श्री राजीव गांधी ने कहा था, “भारत की गुट-निरपेक्षता की नीति के कारण ही भारत का विश्व में आदर है। उसके साथ संसार के दो-तिहाई गुट-निरपेक्ष देशों की आवाज होती है।” नवे शिखर सम्मेलन (सितम्बर, 1989 ई०) में प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने कहा था कि “गुट-निरपेक्ष आन्दोलन तभी गतिशील रह सकता है, जब यह उन्हीं सिद्धान्तों पर चले, जिन पर चलने का वायदा यहाँ 1961 ई० में प्रथम सम्मेलन में सदस्यों ने किया था।” ग्यारहवें शिखर सम्मेलन में भारत ने दो बातों के प्रसंग में महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त की। भारत ने आणविक शस्त्रों पर आणविक शक्तियों के एकाधिकार का विरोध किया। बारहवें सम्मेलन में भारत और पाकिस्तान (UPBoardSolutions.com) की आणविक विस्फोट के लिए आलोचना की गयी। सम्मेलन के अध्यक्ष नेल्सन मण्डेला द्वारा कश्मीर समस्या का उल्लेख किये जाने पर भारत द्वारा कड़ी आपत्ति की गयी। भारत की आपत्ति को दृष्टि में रखते हुए नेल्सन मण्डेला ने अपना वक्तव्य वापस ले लिया।

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तेरहवें शिखर सम्मेलन में प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता हेतु भी पहल की। प्रधानमन्त्री श्री वी० पी० सिंह भी गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के प्रबल समर्थक रहे हैं और तत्पश्चात् प्रधानमन्त्री श्री चन्द्रशेखर भी इस आन्दोलन को सफल बनाने के लिए प्रयत्नशील थे। प्रधानमन्त्री नरसिम्हा राव ने भी इसी नीति को जारी रखा। इसके बाद प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार देश की सुरक्षा और अखण्डता के मुद्दे पर समयानुसार विदेश नीति निर्धारित करने के लिए दृढ़ संकल्प थी।

सोवियत रूस के विघटन के बाद गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का राजनीतिक महत्त्व अवश्य कुछ कम हो गया है, परन्तु इसकी आर्थिक भूमिका पहले से भी ज्यादा बढ़ गयी है। औद्योगिक राष्ट्रों द्वारा उदार अर्थव्यवस्था को विश्वस्तरीय आकार देने के कारण बहुसंख्यक गरीब एवं विकासशील देश आज न चाहते हुए भी आर्थिक एवं व्यापारिक क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धी की भूमिका में खड़े हो गये हैं। धनी एवं सम्पन्न राष्ट्रों में संरक्षणवादी प्रवृत्तियाँ बढ़ी हैं और साम्राज्यवाद का एक नया आर्थिक रूप सामने आ रहा है। मुक्त व्यापार के नाम पर अमीर देश विकासशील देशों पर हर प्रकार के प्रतिबन्ध चाहते हैं। अत: विकासशील राष्ट्रों के लिए सामूहिक रूप से अपने आर्थिक एवं व्यापारिक हितों की सुरक्षा करने की आवश्यकता बढ़ गयी है। इस प्रकार गुट-निरपेक्ष आन्दोलन को अपना स्वरूप बदलकर; अर्थात् स्वयं को राजनीतिक मोर्चे से आर्थिक मोर्चे की (UPBoardSolutions.com) ओर मोड़कर; अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था में आमूल परिवर्तन लाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। निश्चित ही यह गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की नयी भूमिका की शुरुआत होगी।

प्रश्न 3.
पंचशील से आप क्या समझते हैं ? इसके प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। [2012]
या

पंचशील से आपका क्या अभिप्राय है ? इसके किन्हीं दो सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए। पंचशील के तीन सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए। [2012, 14, 17, 18]
या
वर्तमान राजनीतिक स्थिति में पंचशील के कौन-से दो सिद्धान्त अधिक उपयोगी हैं?
या
पंचशील’ के प्रस्ताव पर सर्वप्रथम किन दो देशों में सहमति बनी थी?
या
पंचशील के किन्हीं दो बिन्दुओं का उल्लेख कीजिए। [2016]
उत्तर:
भारत की विदेश नीति का प्रमुख आदर्श पंचशील रहा है। जून, 1954 ई० में पं० जवाहरलाल नेहरू के द्वारा इस सिद्धान्त की सर्वप्रथम घोषणा तथा प्रतिपादन भारत और चीन के मध्य हुए एक समझौते में की गयी थी। पंचशील का सिद्धान्त महात्मा बुद्ध के उन पाँच सिद्धान्तों पर आधारित है, जो उन्होंने व्यक्तिगत आचरण के लिए निर्धारित किये थे। पंचशील के सिद्धान्तों का सूत्रपात पं० जवाहरलाल नेहरू व चीन के तत्कालीन (UPBoardSolutions.com) प्रधानमन्त्री चाऊ-एन-लाई के मध्य तिब्बत सम्बन्धी समझौते के समय में हुआ था। भारत व चीन तथा अनेक एशियाई व अफ्रीकी देशों ने अप्रैल, 1995 ई० में बाण्डंग सम्मेलन में इन्हें स्वीकार किया था, जिससे अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग और सद्भाव में वृद्धि हो। पंचशील के पाँच सिद्धान्त निम्नलिखित हैं|

  • सभी राष्ट्र एक-दूसरे की सम्प्रभुता तथा अखण्डता का सम्मान करें।
  • कोई भी राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण न करे तथा शान्तिपूर्ण तरीकों से पारस्परिक विवादों का समाधान करें।
  • कोई भी राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करे।
  • सभी राष्ट्र पारस्परिक समानता तथा पारस्परिक हितों में अभिवृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहें।
  • सभी राष्ट्र शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना के साथ अर्थात् मिल-जुलकर शान्तिपूर्वक रहें और | परस्पर मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कायम रखें।

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भारत और चीन के साथ अन्य राष्ट्रों ने भी इसका समर्थन किया था तथा संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया। यद्यपि पंचशील के सिद्धान्त की घोषणा सर्वप्रथम भारत और चीन के बीच हुई थी; किन्तु फिर भी, चीन ने पंचशील के समझौते और सिद्धान्त का पालन नहीं किया तथा 1962 ई० में भारत पर आक्रमण कर दिया।

भले ही, उस समय चीन ने इस सिद्धान्त के महत्त्व को नहीं समझा; किन्तु आज जब विश्व पर परमाणु युद्ध के बादल मँडरा रहे हैं, यह सिद्धान्त बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है। आज इस बात की आवश्यकता है कि सम्पूर्ण विश्व में शान्ति कायम रहे, जिससे विश्व को तीसरे महायुद्ध की विभीषिका का सामना न करना पड़े। इसके लिए प्रत्येक राष्ट्र को पंचशील के मर्म अर्थात् ‘शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व’ का पालन करना चाहिए। सभी देशों को अपनी स्वतन्त्रता और अखण्डता के साथ पड़ोसी या अन्य देशों की अखण्डता का भी आदर करना चाहिए। वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में पंचशील ही विश्व-शान्ति का एकमात्र मार्ग है।

प्रश्न 4.
निःशस्त्रीकरण से आप क्या समझते हैं ? इसके सम्बन्ध में भारत का दृष्टिकोण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :

निःशस्त्रीकरण

भारत की विदेश नीति शान्ति और अहिंसा की विदेश नीति रही है। फलत: भारत नि:शस्त्रीकरण का प्रबल समर्थक रहा है। नि:शस्त्रीकरण के सम्बन्ध में यह मान्यता रही है कि युद्धों का एक प्रमुख कारण शस्त्रों का अस्तित्व है। अत: नि:शस्त्रीकरण ही अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति को सुदृढ़ बना सकता है। यह शस्त्रों के उत्पादन पर होने वाले बेहिसाब खर्च से छुटकारा दिला सकता है। इसके द्वारा बचाये गये साधनों तथा धन का प्रयोग सभी राष्ट्रों के विकास के लिए किया जा सकता है। इसीलिए भारत की विदेश नीति हथियारों विशेषकर परमाणु हथियारों के नि:शस्त्रीकरण की प्रबल समर्थक रही है। अपनी इस मान्यता के (UPBoardSolutions.com) कारण भारत और उसके अन्य सहयोगी देशों ने सन् 1961 ई० में आणविक परीक्षणों को बन्द करने का प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र महासभा में रखा। सन् 1962 ई० में जेनेवा के नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन में भारत ने अपने सात अन्य सहयोगी देशों के सहयोग से सम्मेलन में एक स्मरण-पत्र प्रस्तुत किया। सन् 1988 ई० में नि:शस्त्रीकरण के लिए आयोजित संयुक्त राष्ट्र महासभा के तीसरे सत्र में भारत ने एक कार्ययोजना ‘परमाणु शस्त्रमुक्त और अहिंसक विश्व-व्यवस्था प्रस्तुत की थी।

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भारत परमाणु अप्रसार सन्धि (NPT) और व्यापक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (CTBT) का, उसकी भेदभावपूर्ण नीति के कारण दृढ़ता से विरोध करता रहा है। भारत ने अपने परमाणु कार्यक्रम को शान्तिपूर्ण उद्देश्यों और न्यूनतम प्रतिरोधक क्षमता बनाये रखने तक सीमित रखा है। भारत के इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए अमेरिका ने भारत के साथ सन् 2008 ई० में परमाणु ऊर्जा से सम्बन्धित एक समझौता किया, जिसका समर्थन परमाणु आपूर्ति कर्ता समूह (NSG) के 45 देशों ने भी किया। भारत अपने परमाणु विकल्प को तब तक छोड़ने पर सहमत नहीं है, जब तक कि अन्य परमाणु शस्त्र सम्पन्न राष्ट्र इसके लिए तैयार नहीं हो जाते।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गुट-निरपेक्षता से आप क्या समझते हैं? क्या यह वर्तमान परिस्थितियों में प्रासंगिक है? उदाहरण दीजिए। [2012, 14, 18]
उत्तर :
गुट-निरपेक्षता की नीति का उद्भव सन् 1961 ई० के बेलग्रेड सम्मेलन में हुआ था। इस सम्मेलन में भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू, इण्डोनेशिया के पूर्व राष्ट्रपति सुकर्णो, मिस्र के राष्ट्रपति गामेल अब्दुल नासिर तथा यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटो ने सम्मिलित रूप से गुट-निरपेक्षता की नीति की घोषणा की थी और इस नीति में अपना पूर्ण विश्वास प्रकट किया था। यही इसके प्रवर्तक थे। इस नीति से आशय; विभिन्न देशों के गुटों से तटस्थ रहते (UPBoardSolutions.com) हुए अपनी स्वतन्त्र नीति को अपनाना तथा समस्त देशों की अखण्डता में विश्वास प्रकट करना है। इस नीति के अन्तर्गत किसी भी प्रकार के शोषण, साम्राज्यवाद, रंग-भेद, युद्ध अथवा सैनिक गुटबन्दी का कोई स्थान नहीं है।

वर्तमान में गुट-निरपेक्षता की नीति की प्रासंगिकता

वर्तमान में शीत युद्ध की स्थिति नहीं है। इस समय विश्व में एक ही महाशक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका है। इस बदली हुई स्थिति में कुछ लोग इस नीति की प्रासंगिकता पर सन्देह करते हैं, किन्तु ऐसी बात है नहीं। गुट-निरपेक्ष देशों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। यह इसके बढ़ते हुए महत्त्व का प्रतीक है। जर्मनी तथा नीदरलैण्ड तो इसके शिखर सम्मेलन में अतिथि देश के रूप में तथा चीन ने पर्यवेक्षक देश के रूप में भाग लिया। इन देशों का प्रयास है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण रहे। इस प्रकार गुट-निरपेक्षता की नीति वर्तमान में भी प्रासंगिक है।

प्रश्न 2.
रंगभेद से आप क्या समझते हैं?
या
रंग-भेद की नीति से कौन देश सबसे अधिक प्रभावित हुआ ? इसका तीव्र विरोध क्यों किया गया है? संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसके विरुद्ध जनपद निर्माण करने के लिए क्या कदम उठाये हैं ? [2013]
या
मानवाधिकार प्रत्येक मानव के लिए इतने अधिक महत्त्वपूर्ण क्यों हैं ? संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकार का सार्वभौम घोषणा-पत्र कब निर्गत किया था ? [2013]
उत्तर :
रंगभेद-नीति एक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या है। अंग्रेज लोग अश्वेत लोगों के साथ अमानवीय एवं बर्बर व्यवहार करते थे। यह मानवता के विरुद्ध था। अफ्रीकी देशों में इस समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया था। अफ्रीका महाद्वीप की यह प्रमुख समस्या है-जातिवाद अथवा गोरे-काले की। इस समस्या का उदय यूरोपीय शक्तियों द्वारा किया गया। उनके शासनकाल में यहाँ श्वेत लोग आकर बसे तथा प्रशासन एवं उच्चस्तरीय कार्य इन्हीं के हाथों में था। ये शासक थे, अत: स्थानीय निवासियों पर मनमाना अत्याचार करते तथा उनको दास समझते थे। यह क्रम उस समय तक चलता रहा जब तक उनका शासन था यद्यपि अनेक बार इसका विरोध किया गया। किन्तु यूरोपीय अपनी जातीय उच्चता की भावना के कारण स्थानीय जनता का शोषण करते रहे। आज जबकि यहाँ के देश स्वतन्त्र हैं फिर भी (UPBoardSolutions.com) जहाँ विदेशी हैं वहाँ यह समस्या वर्तमान है। इसके अतिरिक्त, यहाँ अनेक आदिवासी जातियाँ निवास करती हैं। उनका तथा शेष अफ्रीकियों में सामंजस्य करना इनके विकास के लिए अति आवश्यक है। यह समस्या द० रोडेशिया तथा द० अफ्रीका में उग्र रूप धारण कर चुकी है तथा वहाँ संघर्ष होता रहता है। अफ्रीकी राष्ट्रों ने एकजुट होकर संयुक्त राष्ट्रसंघ के मंच पर बार-बार यह मुद्दा उठाया और इनके साथ ‘मानव अधिकार’ का संदर्भ देकर इसे अन्तर्राष्ट्रीय अभिरुचि का विषय बना दिया। यही कारण था कि संयुक्त महासभा ने रंगभेद की नीति को 1973 में मानवता के प्रति अपराध’ घोषित किया तथा 1978 वर्ष को ‘रंगभेद विरोध वर्ष के रूप में मनाया गया।

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प्रश्न 3.
विश्व-शान्ति के लिए निःशस्त्रीकरण क्यों आवश्यक है ? किन्हीं दो कारणों का उल्लेख कीजिए। [2013]
उत्तर :
आधुनिक युग में निःशस्त्रीकरण की आवश्यकता आधुनिक आणविक युग में विश्व के राष्ट्रों के लिए नि:शस्त्रीकरण का मार्ग अपनाना श्रेयस्कर है, क्योंकि इसी रास्ते पर चलकर मानव की उपलब्धियों की रक्षा की जा सकती है। इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं

1. विश्व-शान्ति की स्थापना के लिए- 
शस्त्रास्त्र नियन्त्रण में ही विश्व शान्ति निहित है। कोहन के
अनुसार, “नि:शस्त्रीकरण द्वारा राष्ट्रों के भय और मतभेद को कम करके शान्तिपूर्ण समझौतों की प्रक्रिया को सुविधापूर्ण तथा शक्तिशाली बनाया जा सकता है।” प्रो० शूमेन के अनुसार, “संघर्ष की आशंका ही शस्त्रीकरण की होड़ को जन्म देती है और युद्ध की सम्भावना से शस्त्रों में वृद्धि होती है। शस्त्रीकरण युद्ध मनोविज्ञान को जन्म देता है और उससे अविश्वास और भय की अभिव्यक्ति होती है। उससे समाज में एक ऐसे वर्ग का जन्म होता है जिसका युद्ध में निहित स्वार्थ होता है। (UPBoardSolutions.com) शस्त्रास्त्र आरम्भ में व्यापक भुखमरी पैदा करते हैं और अन्त में उसकी परिणति व्यापक हत्याओं में होती है।
2. आर्थिक हानि से बचने के लिए- जिस धन का प्रयोग गन्दी बस्तियों को खत्म करने तथा सभी निर्धनों के लिए आवासगृहों को बनाने में व्यय किया जा सकता था उसको उस युद्ध के लिए हथियार बनाने में खर्च किया जाता है, जिसे न लड़ने की कसम अनेक बार खायी जा चुकी है। इससे विश्व में भुखमरी तथा गरीबी बढ़ती है, जो अन्ततोगत्वा विश्व-शान्ति के लिए खतरा पैदा करते हैं। जब तक विश्व में भुखमरी तथा गरीबी है तब तक विश्व शान्ति की स्थापना करना कठिन है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गुट-निरपेक्षता के तीन सिद्धान्तों को लिखिए। [2014]
उत्तर :
गुट-निरपेक्षता के तीन सिद्धान्त निम्नलिखित हैं—

  • सैनिक गुटों से अलग रहना तथा महाशक्तियों के साथ समझौता न करना।
  • स्वतन्त्र विदेश नीति का निर्धारण करना।
  • साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का विरोध करना।

प्रश्न 2.
पंचशील सिद्धान्त के प्रवर्तक कौन थे ?
उत्तर :
पंचशील सिद्धान्त के प्रवर्तक पं० जवारूलाल नेहरू थे।

प्रश्न 3.
पंचशील समझौता किस-किसके बीच हुआ ?
उत्तर :
पंचशील समझौता भारत तथा चीन के बीच हुआ था।

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प्रश्न 4.
भारत द्वारा गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाने के दो कारण लिखिए।
उत्तर :

  • भारत किसी भी शक्ति-शिविर में सम्मिलित नहीं होना चाहता था।
  • भारत का पंचशील के सिद्धान्तों में पूरा विश्वास था।

प्रश्न 5.
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का प्रथम सम्मेलन कब और कहाँ आयोजित हुआ ?
उत्तर:
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का प्रथम सम्मेलन बेलग्रेड (यूगोस्लाविया) में सितम्बर, 1961 ई० में आयोजित हुआ था।

प्रश्न 6.
गुट-निरपेक्षता की त्रिमूर्ति से क्या आशय है ?
या
गुट-निरपेक्षता की चौकड़ी से क्या आशय है ? [2017]
या

गुट-निरपेक्षता की नीति का सूत्रपात करने वाले किन्हीं दो गैर-भारतीयों के नाम और उनके देशों का उल्लेख कीजिए। [2009]
या
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के जन्मदाताओं में से किन्हीं दो का नाम लिखिए। [2013]
उत्तर :
भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तावित गुट-निरपेक्षता की नीति का इण्डोनेशिया के पूर्व राष्ट्रपति सुकर्णो, मिस्र के राष्ट्रपति नासिर तथा यूगोस्लाविया के पूर्व राष्ट्रपति मार्शल टीटो ने समर्थन किया था। इन्होंने ही निर्गुट (UPBoardSolutions.com) आन्दोलन की नींव रखी थी। इन्हें ही गुट-निरपेक्षता की चौकड़ी समझना चाहिए। गुट-निरपेक्षता की त्रिमूर्ति से आशय जवाहरलाल नेहरू, मार्शल टीटो तथा अब्दुल नासिर से है।

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प्रश्न 7.
भारत की विदेश-नीति के उद्देश्य बताइट। [2015]
उत्तर :
भारतीय विदेश नीति के निम्न उद्देश्य हैं

  • अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की व्यवस्था में सकारात्मक सहयोग प्रदान करना।
  • साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का वैधानिक विरोध करना।
  • सैनिक गुटबन्दियों से अपने आपको अलग रखना।
  • सभी राष्ट्रों के साथ शान्तिपूर्ण व सम्मानपूर्वक सम्बन्ध स्थापित करना।
  • सैनिक गुटबन्दियों व समझौतों से अपने आपको सर्वथा (UPBoardSolutions.com) अलग रखना चाहिए।

बहुविकल्पीय

प्रश्न1. गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के अब तक आयोजित शिखर सम्मेलनों की संख्या है

(क) 17
(ख) 16
(ग) 14
(घ) 13

2. 1961 ई० में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का प्रथम शिखर सम्मेलन कहाँ हुआ? [2014, 16]
या
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का सर्वप्रथम शिखर सम्मेलन किस नगर में हुआ था? (2015, 16, 18]

(क) बेलग्रेड (यूगोस्लाविया) में
(ख) दिल्ली (भारत) में
(ग) काहिरा (मिस्र) में
(घ) हवाना (क्यूबा) में

3. गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का सातवाँ शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया था- [2011]

(क) हरारे में
(ख) जकार्ता में
(ग) नयी दिल्ली में
(घ) बेलग्रेड में

4. गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का 14वाँ शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया था- [2012]

(क) जकार्ता में
(ख) हरारे में
(ग) बेलग्रेड में
(घ) नयी दिल्ली में

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5, पंचशील समझौता कब हुआ?

(क) 1950 ई० में
(ख) 1960 ई० में
(ग) 1945 ई० में
(घ) 1954 ई० में

6. पंचशील के सिद्धान्त में निम्नलिखित में से कौन-सा सिद्धान्त शामिल है?

(क) अनाक्रमण
(ख) समानता एवं पारस्परिक लाभ
(ग) शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व
(घ) ये सभी

7. भारत की विदेश-नीति निम्नलिखित में से किसका समर्थन नहीं करती है? [2012]

(क) नि:शस्त्रीकरण ।
(ख) उपनिवेशवाद
(ग) गुट-निरपेक्षता
(घ) पंचशील

8. निम्नलिखित में से कौन गुट-निरपेक्ष आन्दोलन से सम्बन्धित नहीं है? [2013]

(क) मिस्र के नासिर
(ख) इण्डोनेशिया के सुकणों
(ग) भारत के जवाहरलाल नेहरू
(घ) चीन के चाऊ-एन-लाई

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9. वर्ष 2012 में गुट-निरपेक्ष शिखर सम्मेलन किस देश में आयोजित हुआ था ? [2013]

(क) भारत
(ख) पाकिस्तान
(ग) ईरान
(घ) बांग्लादेश

10. निम्नलिखित में से कौन-सा एक तत्त्व भारतीय विदेश-नीति का आधार नहीं है ? [2013]

(क) विश्व शान्ति की स्थापना में सहयोग
(ख) अन्तर्राष्ट्रीय कानून का पालन
(ग) उपनिवेशवाद का समर्थन
(घ) सैनिक गुटबन्दियों से पृथकता

11. निःशस्त्रीकरण आवश्यक है [2014]

(क) विश्व शान्ति के लिए
(ख) युद्ध रोकने के लिए
(ग) मानव संहार रोकने के लिए।
(घ) ये सभी

12. निम्नलिखित में से गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का अग्रदूत कौन था ? [2015, 17]

(क) मार्शल टीटो
(ख) जोसेफ स्टालिन
(ग) विंस्टन चर्चिल
(घ) फ्रेंकलिन रुजवेल्ट

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13. निम्नलिखित में से पंचशील सिद्धान्त के प्रतिपादक कौन थे ? [2015]

(क) जवाहरलाल नेहरू
(ख) महात्मा गाँधी
(ग) सुभाषचन्द्र बोस
(घ) बी०आर० अम्बेडकर

14. ‘सह-अस्तित्व’ का सिद्धान्त निरूपित किया गया था (2017)

(क) संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में
(ख) पंचशील की घोषणा में
(ग) मानवाधिकारों की घोषणा में
(घ) भारतीय संविधान की उद्देशिका में

15. ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’ पुस्तक का लेखक कौन है? (2017)

(क) जवाहरलाल नेहरू
(ख) मौलाना अब्दुल कलाम आजाद
(ग) सुभाष चन्द्र बोस
(घ) महात्मा गाँधी

उत्तरमाला

1. (क), 2. (क), 3. (ग), 4. (ख), 5. (घ), 6. (घ), 7. (ख), 8. (घ), 9. (ग), 10. (ग), 11. (घ), 12. (क), 13. (क), 14. (ख), 15. (क)

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