UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 11 केदारनाथ सिंह (काव्य-खण्ड)

UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 11 केदारनाथ सिंह (काव्य-खण्ड)

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कवि-परिचय

प्रश्न 1.
केदारनाथ सिंह के जीवन-परिचय और काव्य-कृतियों (रचनाओं) पर प्रकाश डालिए। या केदारनाथ सिंह का जीवन-परिचय दीजिए एवं उनकी एक रचना का नाम लिखिए। [2013, 14, 15]
उत्तर
कवि केदारनाथ सिंह ने अपने समकालीन कवियों की तुलना में बहुत कम कविताएँ लिखी हैं। परन्तु इनकी कविताएँ निजत्व की विशिष्टता से परिपूर्ण हैं। शहर में रहते हुए भी ये गंगा और घाघरा के मध्य की अपनी धरती को भूले नहीं थे। खुले कछार, हरियाली से लहलहाती फसलें और दूर-दूर तक जाने वाली पगडण्डियाँ इनके हृदय को भाव-विह्वल बनाती थीं।

जीवन-परिचय-केदारनाथ सिंह जी का जन्म 7 जुलाई, सन् 1934 (UPBoardSolutions.com) ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद के चकिया नामक गाँव में हुआ था। इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1956 ई० में एम० ए० और 1964 ई० में पीएच० डी० की। सन् 1978 ई० में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग में हिन्दी भाषा के प्रोफेसर (आचार्य) नियुक्त होने के पूर्व इन्होंने वाराणसी, गोरखपुर और पडरौना के कई स्नातक-स्नातकोत्तर विद्यालयों में अध्यापन कार्य किया। सन् 1999 में इन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रोफेसर पद से अवकाश-ग्रहण किया और इसके बाद ये यहीं से मानद प्रोफेसर के रूप में जुड़े हुए थे।

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केदारनाथ सिंह जी को अनेक सम्माननीय सम्मानों से सम्मानित किया गया है। सन् 1980 में इन्हें ‘कुमारन असन’ कविता-पुरस्कार तथा सन् 1989 में ‘अकाल में सारस’ रचना के लिए ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। कतिपय कारणों से इन्होंने हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा प्रदत्त सर्वोच्च शलाका सम्मान ठुकरा दिया।

लम्बी बीमारी के कारण 19 मार्च, 2018 को इनको निधन हो गया।

रचनाएँ–केदारनाथ सिंह द्वारा कविता व गद्य की अनेक पुस्तकों की रचना की गयी है, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं

(1) कविता-संग्रह-अभी बिलकुल अभी’, ‘जमीन पक रही है’, ‘यहाँ से देखो’, ‘अकाल में सारस’, ‘टॉल्सटॉय और साइकिल’ एवं ‘तीसरा सप्तक’ में संकलित प्रकाशित कविताएँ। ‘बाघ’ इनकी प्रमुख लम्बी कविता है, जो मील का पत्थर मानी जा सकती है। (UPBoardSolutions.com) ‘जीने के लिए कुछ शर्ते, ‘प्रक्रिया’, ‘सूर्य’, ‘एक प्रेम-कविता को पढ़कर’, ‘आधी रात’, ‘बादल ओ’, ‘रात’, ‘अनागत’, ‘माँझी का पुल’, ‘फर्क नहीं पड़ता’, आदि इनकी प्रमुख कविताएँ हैं।
(2) निबन्ध और कहानियाँ-‘मेरे समय के शब्द’, ‘कल्पना और छायावाद’, ‘हिन्दी कविता में बिम्ब-विधान्’, ‘कब्रिस्तान में पंचायत’ आदि।
(3) अन्य-‘ताना-बाना’।

साहित्य में स्थान–कवि केदारनाथ सिंह के मूल्यांकन के लिए आवश्यक है कि इनकी 1960 ई० और उसके बाद की कविताओं के बीच एक विभाजक रेखा खींच दी जाए। अपनी कविताओं के माध्यम से ये भ्रष्टाचार, विषमता और मूल्यहीनता पर सधा हुआ प्रहार करते थे। प्रगतिशील लेखक संघ से सम्बद्ध श्री केदारनाथ सिंह जी समकालीन हिन्दी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर और आधुनिक हिन्दी कवियों में उच्च स्थान के अधिकारी हैं।

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पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

नदी
प्रश्न 1.
अगर धीरे चलो
वह तुम्हें छू लेगी
दौड़ो तो छूट जायेगी नदी
अगर ले लो साथ
वह चलती चली जायेगी कहीं भी
यहाँ तक-कि कबाड़ी की दुकान तक भी।
उत्तर
सन्दर्भ-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड में संकलित ‘नदी’ शीर्षक कविता से उधृत हैं। इन पंक्तियों के रचयिता श्री केदारनाथ सिंह जी हैं।

[विशेष—इस शीर्षक के अन्तर्गत आने वाले सभी पद्यांशों के लिए (UPBoardSolutions.com) यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।] |

प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में कवि कहता है कि नदी का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। यह जीवन में प्रत्येक क्षण हमारा साथ देती है।

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व्याख्या-कवि कहता है कि यदि हम नदी के बारे में, उसके गुणों के बारे में, उसके महत्त्व के बारे में सोचते हैं तो वह हमारे अन्तस्तल को स्पर्श करती प्रतीत होती है। नदी हमारा पालन-पोषण उसी प्रकार करती है, जिस प्रकार हमारी माँ। जिस प्रकार अपनी माँ से हम अपने-आपको अलग नहीं कर सकते, उसी प्रकार हम नदी से भी अपने को अलग नहीं कर सकते। यदि हम सामान्य गति से चलते रहते हैं तो यह हमें स्पर्श करती प्रतीत होती है लेकिन जब हम सांसारिकता में पड़कर भाग-दौड़ में पड़ जाते हैं तो यह हमारा साथ छोड़ देती है। यदि हम इसे साथ लेकर चलें तो यह प्रत्येक परिस्थिति में किसी-न-किसी रूप में हमारे साथ रहती है; (UPBoardSolutions.com) क्योंकि यह हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। न तो वह हमसे अलग हो सकती है और न हम उससे।

काव्यगत-सौन्दर्य-

  1. कवि ने नदी के महत्त्व का वर्णन किया है कि यह हमारे जीवन के प्रत्येक क्षण में किसी-न-किसी रूप में हमारे साथ रहती है।
  2. भाषा-सहज और सरल खड़ी बोली।
  3. शैली-वर्णनात्मक व प्रतीकात्मक।
  4. छन्द-अतुकान्त और मुक्त।
  5. अलंकार-अनुप्रास का सामान्य प्रयोग।

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प्रश्न 2.
छोड़ दो
तो वहीं अँधेरे में
करोड़ों तारों की आँख बचाकर
वह चुपके से रच लेगी
एक समूची दुनिया
एक छोटे-से घोंघे में
संचाई यह है
कि तुम कहीं भी रहो।
तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी
प्यार करती है एक नदी
उत्तर
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में कवि कहता है कि नदी पृथ्वी पर ही नहीं आकाश में भी विचरण करती है. अर्थात् सभी स्थानों पर हमारे साथ रहती है।

व्याख्या-कवि कहता है कि यदि हम सदा साथ रहने वाली नदी को किसी अनुचित स्थान पर छोड़ दें तो वह वहाँ रुकी नहीं रहेगी वरन् अनगिनत लोगों की आँखों से बचकर वह वहाँ भी अपनी एक नवीन दुनिया उसी प्रकार बसा लेगी जिस प्रकार एक (UPBoardSolutions.com) छोटा-सा घोंघा अपने आस-पास सीप की रचना कर लेता है। आशय यह है कि नदी की यह दुनिया अत्यधिक लघु रूप में भी सीमित हो सकती है। कवि का कहना है कि हम कहीं पर भी रहें, वर्ष के सबसे कठिन माने जाने वाले ग्रीष्म के दिनों में भी यह हमें अपने स्नेहरूपी जल से सिक्त करती है और अतिशय प्रेम प्रदान करती है।

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काव्यगत सौन्दर्य-

  1. नदी सर्वत्र विद्यमान है, वह दुर्गम परिस्थितियों में भी अपनी दुनिया बसा लेती है।
  2. भाषा-सहज और सरल खड़ी बोली।
  3. शैली-वर्णनात्मक व प्रतीकात्मक।
  4. छन्द-अतुकान्त और मुक्त।।

प्रश्न 3.
नदी जो इस समय नहीं है इस घर में
पर होगी जरूर कहीं न कहीं
किसी चटाई या फूलदान के नीचे
चुपचाप बहती हुई
उत्तर
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में कवि नदी की सर्वव्यापकता की ओर संकेत कर रहा है।

व्याख्या-नदी की सर्वव्यापकता की ओर संकेत करता हुआ कवि कहता है कि जो नदी विभिन्न स्थलों के मध्य से अनवरत प्रवाहित होती रहती है वह किसी-न-किसी रूप में हमारे घरों में भी प्रवाहित होती हुई हमें सुख और आनन्द की अनुभूति देती है। इसके (UPBoardSolutions.com) बहने की ध्वनि हमें किसी चटाई या फूलदान से भी सुनाई पड़ सकती है और इसको हम मन-ही-मन अनुभव भी कर लेते हैं। आशय यह है कि नदी और व्यक्ति का गहरा और अटूट सम्बन्ध पहले से ही रहा है और आगे भी रहेगा।

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काव्यगत सौन्दर्य-

  1. नदी से अटूट सम्बन्ध का वर्णन करते हुए कहा गया है कि नदी घरों में भी चुपचाप बहती रहती है।
  2. भाषा-सहज और सरल खड़ी बोली।
  3. शैली–प्रतीकात्मक।
  4. छन्द ……. अतुकान्त और मुक्त।

प्रश्न 4.
कभी सुनना
जब सारा शहर सो जाय
तो किवाड़ों पर कान लगा
धीरे-धीरे सुनना
कहीं आसपास
एक मादा घड़ियाल की कराह की तरह
सुनाई देगी नदी।
उत्तर
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में कवि कहता है कि नदी प्रत्येक समय हमारे बीच उपस्थित रहती है।

व्याख्या-कवि कहता है कि यदि आप इस बात से सन्तुष्ट नहीं है कि नदी हमारे-आपके बीच हमेशा विद्यमान रहती है तो अपनी सन्तुष्टि के लिए; जब मनुष्यों के सभी क्रिया-कलाप बन्द हो जाएँ और समस्त चराचर प्रकृति शान्त रूप में हो; अर्थात् सारा शहर गहरी निद्रा में सो रहा हो; उस समय आप घरों के दरवाजों से कान लगाकर, एकाग्रचित्त होकर नदी की आवाज को सुनने का प्रयास कीजिए। आपको अनुभव होगा कि नदी की (UPBoardSolutions.com) प्रवाहित होने वाली मधुर ध्वनि एक मादा मगरमच्छ की दर्दयुक्त कराह जैसी आती प्रतीत होगी। स्पष्ट है कि नदी किसी-न-किसी रूप में सदैव हमारे साथ रहती है।

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काव्यगत सौन्दर्य–

  1. नदी की निरन्तरता का जीवन्त रूप में वर्णन किया गया है।
  2. भाषा-सहज और सरल खड़ी बोली।
  3. शैली–प्रतीकात्मक।
  4.  छन्द–अतुकान्त और मुक्त।
  5.  अलंकार-पुनरुक्तिप्रकाश और अनुप्रास।

काव्य-सौदर्य एवं व्याकरण-बोध

प्रश्न 1.
निम्नलिखित पंक्तियों में कौन-सा अलंकार है?
(क) अगर ले लो साथ वह चलती चली जाएगी कहीं भी,
यहाँ तक कि कबाड़ी की दुकान तक भी।
(ख) वह चुपके से रच लेगी।
एक समूची दुनिया
एक छोटे से घोंघे में
उत्तर
(क) ल, च, क की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार।
(ख) ‘ए, क, च’ की आवृत्ति के कारण (UPBoardSolutions.com) अनुप्रास अलंकार। . 2

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 10 मैथिलीशरण गुप्त (काव्य-खण्ड)

UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 10 मैथिलीशरण गुप्त (काव्य-खण्ड)

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कवि-परिचय

प्रश्न 1.
कवि मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय दीजिए एवं उनकी काव्य-कृतियों (रचनाओं) के नाम लिखिए।
उत्तर
जीवन-परिचय-राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी काव्य-जगत् के अनुपम रत्न हैं। इनका जन्म सन् 1886 ई० में चिरगाँव (झाँसी) में हुआ था। इनके पिता सेठ रामचरण गुप्त बड़े ही धार्मिक, काव्यप्रेमी और निष्ठावान् व्यक्ति थे। पिता के संस्कार पुत्र को पूरी तरह प्राप्त थे। बाल्यावस्था में ही एक छप्पय की रचना कर इन्होंने अपने पिता से सुकवि होने का आशीर्वाद प्राप्त किया था। इनकी शिक्षा का विधिवत् प्रबन्ध घर पर ही किया गया, जहाँ इन्होंने अंग्रेजी, संस्कृत और हिन्दी का अध्ययन किया। इनकी आरम्भिक रचनाएँ कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) से प्रकाशित होने वाले ‘वैश्योपकारक’ पत्र में छपती थीं। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आने के बाद इनकी प्रतिभा प्रस्फुटित हुई और इनकी रचनाएँ। ‘सरस्वती’ में छपने लगीं। ‘साकेत’ महाकाव्य के सृजन पर इनको (UPBoardSolutions.com) ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ द्वारा ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ से सम्मानित किया गया। इनकी साहित्यिक उपलब्धियों के कारण ही आगरा तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा इनको डी० लिट्० की मानद उपाधि से विभूषित किया गया था। इनकी साहित्य-सेवा के कारण ही भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया था। ये राज्यसभा के लिए दो बार मनोनीत किये गये। जीवन के अन्तिम समय तक ये साहित्य-सृजन करते रहे। सरस्वती का यह महान् साधक 12 दिसम्बर, 1964 ई० को पंचतत्त्व में विलीन हो गया।

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रचनाएँ-गुप्त जी की चालीस मौलिक तथा छः अनूदित पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। उनमें से प्रमुख हैं-‘भारत भारती’, ‘रंग में भंग’, ‘जयद्रथ वध’, ‘पंचवटी’, ‘अनघ’, ‘हिन्दू’, ‘गुरुकुल’, ‘अलंकार’, ‘साकेत’, ‘यशोधरा’, ‘मंगल घट’, ‘नहुष’, ‘कुणाल गीत’, ‘द्वापर’, ‘विष्णुप्रिया’, दिवोदास’, ‘मेघनाद वध’, ‘विरहिणी ब्रजांगना’,’जय भारत’, ‘सिद्धराज’, ‘झंकार’,’पृथिवीपुत्र’, ‘प्लासी का युद्ध’ आदि।।

साहित्य में स्थान--मैथिलीशरण गुप्त भारतीय संस्कृति के अमर गायक, उद्भट प्रस्तोता और सामाजिक चेतना के प्रतिनिधि कवि थे। इन्हें राष्ट्रकवि होने का गौरव प्राप्त है। गुप्त जी खड़ीबोली के उन्नायकों में प्रधान हैं। इन्होंने खड़ीबोली को काव्य के अनुकूल भी बनाया और जनरुचि को भी उसकी ओर प्रवृत्त किया। अपनी रचनाओं में गुप्त जी ने खड़ीबोली के शुद्ध, परिष्कृत और तत्सम-बहुल रूप को ही अपनाया है। इनकी भाषा भावों के अनुकूल है तथा काव्य में अलंकारों के सहज-स्वाभाविक प्रयोग हुए हैं। सादृश्यमूलक अलंकार इनके सर्वाधिक प्रिय अलंकार हैं। हिन्दी की आधुनिक युग की समस्त काव्य-धाराओं को गुप्त जी ने अपने साहित्य में अपनाया है। इनके द्वारा प्रयुक्त की गयी प्रमुख शैलियाँ । हैं—विवरणात्मक, प्रबन्धात्मक, उपदेशात्मक, गीति तथा नाट्य। मुक्तक एवं प्रबन्ध दोनों (UPBoardSolutions.com) काव्य-शैलियों का इन्होंने सफल प्रयोग किया है। इनकी रचनाओं में छन्दों की विविधता दर्शनीय है। सभी प्रकार के प्रचलित छन्दों; जैसे-हरिगीतिका, वसन्ततिलका, मालिनी, घनाक्षरी, द्रुतविलम्बित आदि में इनकी रचनाएँ उपलब्ध

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में आप “निस्सन्देह हिन्दी-भाषी जनता के प्रतिनिधि कवि कहे जा सकते हैं।’

पद्यांशों की सुन्दर्भ व्याख्या

भारत माता का मंदिर यह
प्रश्न 1.
भारत माता का मंदिर यह
समता का संवाद जहाँ,
सबका शिव कल्याण यहाँ है।
पावें सभी प्रसाद यहाँ।
जाति-धर्म या संप्रदाय का,
नहीं भेद-व्यवधान यहाँ,
सबका स्वागत, सबका आदर
सबका सम सम्मान यहाँ।
राम, रहीम, बुद्ध, ईसा की,
सुलभ एक सा ध्यान यहाँ,
भिन्न-भिन्न भव संस्कृतियों के
गुण गौरव का ज्ञान यहाँ।
उत्तर
[ शिव = मंगलकारी। संप्रदाय = धार्मिक मत या सिद्धान्त। स्वागत = किसी के आगमन पर कुशल-प्रश्न आदि के द्वारा हर्ष प्रकार, अगवानी। भव = संसार।]

सन्दर्भ-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड’ में संकलित एवं मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘भारत माता का मंदिर यह’ शीर्षक से उधृत है।

[विशेष—इस शीर्षक के अन्तर्गत आने वाले सभी पद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।

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प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने समस्त भारतभूमि को भारत माता का मंदिर (पवित्र स्थल) बताते हुए उसकी विशेषताओं का वर्णन किया है।

व्याख्या-इन पंक्तियों में कवि अपने देश (भारतभूमि) को भारत माता का मंदिर बताते हुए कहता है कि भारत माता का यह ऐसा मंदिर है जिसमें समानता की ही चर्चा होती है। यहाँ पर सभी के कल्याण की वास्तविक कामना की जाती है और यहीं पर सभी को (UPBoardSolutions.com) परम सुख रूपी प्रसाद की प्राप्ति होती है।

इस मंदिर की यह विशेषता है कि यहाँ पर जाति-धर्म या संप्रदाय वाद का कोई भेदभाव नहीं है यानि इस मंदिर में ऐसा कोई व्यवधान या समस्या नहीं है कि कौन किस वर्ग का है। सभी समान हैं। सभी का स्वागत है और सभी को बराबर सम्मान है। कोई किसी भी सम्प्रदाय को मानने वाला हो; चाहे वह हिन्दुओं के इष्टदेव राम हों, मुस्लिमों के इष्ट रहीम हों, चाहे बौद्धों के इष्ट बुद्ध हों या चाहे ईसाइयों के इष्ट ईसामसीह हों यानि इस मंदिर में सभी को बराबर सम्मान है, सभी के स्वरूप का बराबर-बराबर चिन्तन किया जाता है। सभी की ही बराबर पूजा की जाती है। ।

अलग-अलग संस्कृतियों के जो गुण हैं, जिनके द्वारा सम्पूर्ण संसार के मर्म को अलग-अलग रूपों में संचित किया गया है वे सभी इस भारत माता के मंदिर में एकत्र हैं अर्थात् भारत माता के इस पावन मंदिर में सम्पूर्ण संस्कृतियों का समावेश है।

कहने का तात्पर्य यह है कि चाहे कोई भी देश हो सभी के अपने-अपने अलग-अलग धर्म, अलगअलग सम्प्रदाय, अलग-अलग सिद्धान्त तथा अलग-अलग पवित्र स्थल होते हैं किन्तु हमारा भारत देश एक ऐसी पवित्र तीर्थ स्थल है जहाँ निवास करने वाला (UPBoardSolutions.com) प्रत्येक प्राणी सभी धर्मों को मानने वाला तथा सबको सम. भाव से समझने वाला है। हमारा देश अनेकता में एकता का देश है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ इसकी भावना है। |

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. अनेकता में एकता का अद्वितीय चित्रण किया गया है।
  2. राष्ट्रप्रेम और स्वदेशाभिमान की भावना को प्रेरित किया गया है।
  3. भाषा–खड़ी बोली।
  4. गुण–प्रसाद।
  5. अलंकार-रूपक, अनुप्रास।
  6. छन्द-गेय।
  7. शैली-मुक्तक।
  8. भावसाम्य-वियोगी हरि द्वारा रचित ‘विश्व मंदिर’।

प्रश्न 2.
नहीं चाहिए बुद्ध बैर की ।
भला प्रेम का उन्माद यहाँ
सबका शिव कल्याण यहाँ है,
पावें । सभी प्रसाद यहाँ।
सब तीर्थों का एक तीर्थ यह.
हृदय पवित्र बना : लें हम
आओ यहाँ अजातशत्रु बन,
सबको मित्र बना लें हम।।
उत्तर
[ उन्माद = अत्यधिक अनुराग। अजातशत्रु = जिसका कोई शत्रु न हो।]

प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से कवि ने लोगों से भारत माता मंदिर के गुणों को अपने जीवन-चरित्र में उतारने की बात कही है।

व्याख्या-उक्त पंक्तियों में कवि कह रहा है कि हमें ऐसी उन्नति कदापि प्रिय नहीं है जो ईष्र्या से युक्त हो। इस भारत माता के मंदिर में सबके कल्याण और प्रेम का अत्यधिक अनुराग भरा पड़ा है। यहाँ पर सभी का मंगल कल्याण है और (UPBoardSolutions.com) यहीं पर सभी को परम सुखरूपी प्रसाद की प्राप्ति होती है।

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यह भारत माता का मंदिर सभी तीर्थों में उत्तम तीर्थ है क्योंकि यह किसी एक संप्रदाय या किसी धर्म से जुड़ा तीर्थ नहीं है। यद्यपि इसमें सभी तीर्थों का समावेश है, इसलिए इस तीर्थ का तीर्थाटन करके अपने हृदय को हम पवित्र बना लें। यह ऐसा पवित्र व उत्तम स्थान है जहाँ पर कोई किसी का शत्रु नहीं है इसलिए यहाँ बसकर हम सबको अपना मित्र बना लें। यहाँ पर रेखाओं के रूप में कल्याणकारी व मंगलकारी कामनाओं (UPBoardSolutions.com) (इच्छाओं) के चित्रों को उकेरकर उनको साकार रूप देकर हम अपने मनोभावों को पूर्ण कर लें। अर्थात् यह भारत माता का मंदिर ऐसा पवित्र स्थल है जहाँ ईष्र्या-द्वेष लेश मात्र भी नहीं है। ऐसे पावन मंदिर में बसकर हम अपने जीवन को धन्य बना सकने में और अपनी मानवता को साकार रूप दे पाने में सफल हो पाएँगे।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. भारत माता के मंदिर के रूप में मानवता की साकार मूर्ति का चित्रांकन।
  2. कवि की शब्द-शक्ति के द्वारा प्रेम से परिपूर्ण दुनिया का निर्माण करना।
  3. भाषा-खड़ी बोली।
  4. गुण–प्रसाद।
  5. छन्द-गेय।
  6. शैली मुक्तक
  7. अलंकार-रूपक।
  8. भाव-साम्यवियोगी हरि द्वारा रचित ‘विश्व मंदिर।। |

प्रश्न 3.
बैठो माता के आँगन में
नाता भाई-बहन का।
समझे उसकी प्रसव वेदना
वही लाल है माई का
एक साथ मिल बाँट लो।
अपनी हर्ष विषाद यह है ।
सबका शिव कल्याण यह है,
पावें सभी प्रसाद यहाँ।
उत्तर
[आँगन = घर। लाल = पुत्र। विषाद = कष्ट।]

प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से कवि ने भारत माता के इस पवित्र सदन में निवास करने वाले सभी लोगों के बीच वास्तविक रिश्ते को उजागर किया है।

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व्याख्या-प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से कवि यहाँ (भारत में) निवास करने वाले लोगों से कहता है। कि आइए माँ के इस पवित्र सदन में बैठिए। हम सबका यहाँ पर भाई-बहन का रिश्ता है अर्थात् एक घर (भारत) में निवास करने वाले हम सभी आपस में भाई-बहन के समान हैं और हमारा कर्तव्य है कि हम सब अपनी माँ (भारत माता) के कष्टों को महसूस करें; क्योंकि सच्चा पुत्र वही होता है जो अपनी माता के कष्टों को समझता (UPBoardSolutions.com) है तथा उसके लिए हर क्षण समर्पण की भावना अपने मन में रखता है। हम सभी भाई-बहनों का यह उद्देश्य होना चाहिए कि किसी-को-किसी प्रकार का कष्ट न हो। सभी एक-दूसरे के सहयोग के लिए तैयार रहें। क्योंकि यह भारत माता का मंदिर है इसलिए यहीं पर हम सबका मंगल कल्याण है और यहीं पर सभी को परम सुख रूपी प्रसाद भी प्राप्त है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम सब भारतवासी एक माँ (भारत माता) की सन्तानें हैं और आपस में सभी भाई-बहन के समान हैं। हमें आपस में मिल-जुलकर रहना चाहिए। और एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. समस्त भारतवासियों का भाई-बहन के रूप में वास्तविक चित्रण किया गया है।
  2. सम्पूर्ण भारत देश का एक सदन के सदृश सुन्दर चित्रण हुआ है।
  3. भाषा-खड़ी बोली।
  4. शैली-मुक्तक।
  5. अलंकार-रूपक
  6. भावसाम्य-महान संत तिरुवल्लुवर ने भी अपने एक कुरले. (दोहे) के माध्यम से ऐसे ही भाव प्रकट किए हैं—

कपट, क्रोध, छल, लोभ से रहित प्रेम-व्यवहार।
सबसे मिल-जुलकर रहो, सकल विश्व परिवार॥

प्रश्न 4.
मिला सेव्य का हमें पुजारी
सकल काम उस न्यायी का
मुक्ति लाभ कर्त्तव्य यहाँ है।
एक-एक अनुयायी का
कोटि-कोटि कंठों से मिलकर
उठे एक जयनाद यहाँ
सबका शिव कल्याण यहाँ है
पावें सभी प्रसाद यहाँ।
उत्तर
[सेव्य = सेवा करने वाला। अनुयायी = किसी मत का अनुसरण करने वाला। जयनाद = जयघोष।]

प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने भारतवासियों को भारतभूमि में जन्म लेने पर धन्य होने की बात । कही है।

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व्याख्या—इन पंक्तियों के माध्यम से कवि मैथिलीशरण गुप्त जी कह रहे हैं कि हमारा परम सौभाग्य है जो हमें इस पावन भूमि (भारत) में जन्म मिला और भारत माता की सेवा करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। यह ईश्वर की हमारे ऊपर बहुत बड़ी (UPBoardSolutions.com) कृपा है। यहाँ के प्रत्येक अनुयायी का यह कर्तव्य बनता है कि वह इस मौके का सम्पूर्ण लाभ उठाकर मुक्ति प्राप्त करें। भारत माता के इस पावन मंदिर में करोड़ों स्वर एक साथ मिलकर जयघोष करते हैं अर्थात् यहाँ निवास करने वाले सभी लोग एक स्वर में जय-जयकार करते हैं। भारत माता के इस पावन मंदिर में सबके मंगलकारी कल्याण की कामना की जाती है और सभी को यहाँ परमसुख रूपी प्रसाद की प्राप्ति होती है। कहने का तात्पर्य है कि जिसने भारत में जन्म लिया है उसका यह सौभाग्य है कि उसने मोक्ष के मार्ग को खोज लिया है।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. प्रस्तुत पंक्तियों में देशभक्ति का सच्चा अनुराग दर्शाया गया है।
  2. भाषा-सरल, सहज एवं प्रवाहयुक्त खड़ी बोली।
  3. शैली-मुक्तक।
  4. अलंकार–रूपक।
  5. भाव-साम्य-ऐसी ही भाव-व्यंजना सुभद्राकुमारी चौहान ने अपनी इन पंक्तियों के द्वारा व्यक्त की है

सुनूंगी माता की आवाज,
रहूंगी मरने को तैयार,
कभी भी उस वेदी पर देव,
न होने देंगी अत्याचार।
न होने देंगी अत्याचार,
चलो मैं हो जाऊं बलिदान,
मातृ-मन्दिर में हुई पुकार,
चढ़ा दो मुझको हे भगवान!

काव्य-सौदर्य एवं व्याकरण-बोध

प्रश्न 1.
निम्नलिखित पंक्तियों में कौन-सा अलंकार है
(क) सबका स्वागत, सबको आदर
सबको सर्म सम्मान यहाँ।
(ख) बैठो माता के आँगने में
नाता भाई-बहन का
समझे उसकी प्रसव वेदना
वही लाल है. माई का।
उत्तर
(क) अनुप्रास अलंकार।
(ख) रूपक अलंकार।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित पदों में प्रत्ययों को मूल शब्द से अलग करके लिखिए-
समता, संस्कृति, पुजारी
उत्तर
समता = सम् + ता।
संस्कृति = संस्कृत + इ।
पुजारी = पूजा + आरी।।

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित पदों का सनाम सन्धि-विच्छेद कीजिए-
संवाद, सम्मान, पवित्र
उत्तर
UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 10 मैथिलीशरण गुप्त (काव्य-खण्ड) img-1

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UP Board Solutions for Class 10 Home Science Chapter 4 गृह-सज्जा (घर की सजावट)

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
घर की सजावट से क्या तात्पर्य है? घर की सजावट में आप किन-किन बातों को ध्यान में रखेंगी? सजावट के महत्त्व का वर्णन कीजिए। [2007, 10, 17]
गृह-सज्जा केवल धन पर ही निर्भर नहीं करती, गृहिणी की कलात्मक रुचि पर मुख्य रूप से निर्भर करती है। इस पर अपने विचार स्पष्ट कीजिए। [2013]
गृह-सज्जा से क्या तात्पर्य है? गृह-सज्जा की क्या उपयोगिता है?
घर की सजावट (गृह-सज्जा) के बारे में लिखिए। घर की सजावट करते समय आप किन बातों को ध्यान में रखेंगी? [2008, 09, 10]
सुव्यवस्था एवं सजावट से क्या तात्पर्य है? सजावट के समय किन उद्देश्यों को ध्यान में रखेंगी? [2016]
घर की सजावट करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखेंगी? [2016, 17, 18]
सजावट से क्या तात्पर्य है? [2016]
या
गृह-सज्जा क्या है? गृह-सज्जा क्यों आवश्यक है? उदाहरण सहित समझाइए। [2016]
उत्तर:

घर की सजावट से तात्पर्य

प्रत्येक वस्तु के सौन्दर्य एवं आकर्षण पक्ष का सम्बन्ध ‘कला’ से होता है। यह मनुष्य की विशिष्ट रुचि अथवा रुचियों की अभिव्यक्ति है। घर की सजावट का तात्पर्य इस बात से नहीं है कि घर में कीमती-से-कीमती वस्तुओं को इकट्ठा कर दिया जाए। (UPBoardSolutions.com) वास्तव में, घर की सजावट तो एक रचनात्मक कला है जो एक साधारण घर की भी कायाकल्प कर देती है। सजावटे ‘कला’ के नियमों पर ही आधारित होती है, क्योंकि सजावट में प्रयुक्त होने वाले साधनों में आकार, रंग एवं प्रकाश का ही महत्त्व होता है। अतः कला के मौलिक सिद्धान्तों का पालन करते हुए घर में विभिन्न वस्तुओं की रुचिपूर्ण व्यवस्था को गृह-सज्जा अथवा घर की सजावट कहते हैं।

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इस प्रकार स्पष्ट है कि घर की सजावट में कला तथा कल्पनाशीलता के समावेश की अवहेलना नहीं की जा सकती है। गृह-सज्जा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए सुन्दरराज ने इन शब्दों में एक परिभाषा प्रस्तुत की है, “आन्तरिक सज्जा एक सृजनात्मक कला है जो कि एक साधारण घर की काया पलट कर सकती है…… यह घर में रहने वालों की मूलभूत तथा सांस्कृतिक आवश्यकताओं एवं घर में उपलब्ध स्थान एवं उपकरणों के मध्य समायोजन करने की कला है और इस प्रकार घर में एक सुखद वातावरण बनाने का प्रयास है।” प्रस्तुत परिभाषा द्वारा स्पष्ट है कि गृह-सज्जा द्वारा घर की दशा में उल्लेखनीय परिवर्तन हो जाता है। इसके माध्यम से (UPBoardSolutions.com) घर का वातावरण अच्छा बन जाता है, घर आकर्षक प्रतीत होने लगता है। तथा घर को देखकर घर में रहने वालों की रुचि, कलात्मक दृष्टिकोण तथा सांस्कृतिक मूल्यों का अनुमान भी सहज ही लगाया जा सकता है।

सजावट की उपयोगिता एवं महत्त्व

घर की सजावट की उपयोगिता एवं महत्त्व को वर्णन हम निम्नलिखित प्रकार से कर सकते हैं

(1) घर के आकर्षण में वृद्धि--सुसज्जित एवं सुव्यवस्थित घर अतिथियों एवं घर के सदस्यों-दोनों ही के लिए प्रसन्नता एवं आकर्षण का केन्द्र होता है। यह भी कहा जा सकता है कि गृह-सज्जा से घर के आकर्षण में वृद्धि होती है।

(2) कलात्मक रुचि की अभिव्यक्ति सुसज्जित घर गृहिणी की कलात्मक रुचि का परिचायक होता है।

(3) सुख एवं सन्तोष की प्राप्ति-सुसज्जित घर की गृहिणी एवं परिवार के सभी सदस्य सदैव सुख एवं सन्तोष का अनुभव करते हैं।

(4) स्वास्थ्य लाभ में सहायक-स्वच्छ एवं सुसज्जित घर में कीटाणुओं के पनपने की सम्भावना अत्यन्त कम होती है तथा घर के सभी सदस्य प्रायः स्वस्थ रहते हैं।

(5) वस्तुओं की सुरक्षा–सुव्यवस्थित एवं सुसज्जित घर में सभी वस्तुएँ उचित एवं 35 स्थान पर रखी रहती हैं, जिसके फलस्वरूप इनकी टूट-फूट की सम्भावना लभग नगण्य रहती है।

(6) समय एवं श्रम की बचत-एक सुव्यवस्थित एवं सुसज्जित घर में (UPBoardSolutions.com) वस्तुओं के : समय व्यर्थ नहीं करना पड़ता हैं। आवश्यकता पड़ने पर इच्छित वस्तु तुरन्त मिल जाते है। इन ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि उचित गृह-सज्जा से समय एवं श्रम की बचत होतो है।

(7) सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि–घर की सजावट से गृहिण व घर के अन्य सदस्यों की कलात्मक रुचि, विवेक एवं कार्यक्षमता का पता चलता है। इस प्रकार एक सुत्ररित एवं सुसज्जित घर की गृहिणी एवं परिवारजन समाज में सदैव प्रशंसा एवं प्रतिष्ठा के पा रहे हैं।

सजावट करते समय ध्यान देने योग्य बातें

घर की सजावट एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है, परन्तु सजावट करते समय अन एवं समय का विवेकपूर्ण उपयोग, अपनी आर्थिक क्षमता का ज्ञान, कला के भौलिक सिद्धान्तों का पालन इत्यादि अनेक कारकों को दृष्टिगत रखना भी अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा (UPBoardSolutions.com) अनेक असुविधाओं का सामना कर, सकता है। सामान्यत: घर की सजावट करते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है

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(1) आर्थिक क्षमता का ज्ञान-प्रत्येक गृहिणी को घर की सजावट करते समय पारिवारिक आय का ध्यान रखना चाहिए। उसे सजावट पर केवल उतना ही धन व्यय करना चाहिए जिससे कि परिवार की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाए तथा बचत पर कुप्रभाव न पड़े। उसे सजावट के लिए आय के अनुसार ही मूल्यवान सामग्री खरीदनी चाहिए।

(2) कला के मौलिक सिद्धान्तों का पालन–प्रत्येक गृहिणी को सजावट की वस्तुओं का प्रयोग करते समय उनके आकार, रंग, अनुरूपता, अनुपात इत्यादि पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

(3) सजावट की शैली का ध्यान–गृहिणी को अपनी रुचि अथवा आवश्यकता के आधार पर सजावट की देशी अथवा विदेशी शैली को अपनाना चाहिए।

(4) सजावट की सामग्री का विवेकपूर्ण क्रय-सजावट की वस्तुएँ खरीदते समय उनकी मजबूती तथा उत्तमता का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

(5) सजावट की सामग्री का उचित चुनाव-प्राय: घर की आवश्यकता एवं (UPBoardSolutions.com) उपलब्ध स्थान के अनुसार ही सजावट की सामग्री खरीदनी चाहिए। इसके अतिरिक्त सजावट की सामग्री; जैसे—सोफा, फर्नीचर, परदे इत्यादि के डिजाइन वे रंगों का रुचिपूर्ण एवं उपयुक्त चयन करना चाहिए।

(6) व्यवस्था का क्रम-सजावट की सामग्री को उचित स्थान पर रखना चाहिए; जैसे, सोफा, कलात्मक तस्वीरें इत्यादि बैठक अथवा ड्राइंग-रूम में रखी जानी चाहिए टी०वी० आदि का सयन कक्ष में रखा जा सकता है।

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प्रश्न 2.
घर की सजावट के मूलभूत सिद्धान्त कौन-कौन से हैं? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
घर की आन्तरिक सजावट के क्या सिद्धान्त हैं? इनकी क्या उपयोगिता है? [2012, 14]
या
घर की आन्तरिक सजावट से क्या तात्पर्य है? घर की सजावट के लिए किन-किन सिद्धान्तों को ध्यान में रखना चाहिए और क्यों? [2008, 11, 12]
या
भीतरी सजावट के प्रमुख सिद्धान्त लिखिए। [2007, 17, 18]
उत्तर:
घर की सजावट के सिद्धान्त जैसा कि हम जानते हैं कि गृह-सज्जा अपने (UPBoardSolutions.com) आप में एक व्यवस्थित कला एवं विज्ञान है; अतः गृह-सज्जा का कुछ सिद्धान्तों पर आधारित होना स्वाभाविक है। विद्वानों ने गृह-सज्जा के तीन मुख्य
गृह-सज्जा (घर की सजावट) 55 सिद्धान्तों का उल्लेख किया है। ये सिद्धान्त क्रमश:
इस प्रकार हैं–

  1. सुन्दरता,
  2. अभिव्यक्ति तथा
  3. उपयोगिता। गृह-सज्जा के इन तीनों सिद्धान्तों का संक्षिप्त परिचय निम्नवर्णित है-

(1) सुन्दरता--गृह-सज्जा का मूलभूत तथा मुख्य सिद्धान्त है–सुन्दरता। आदिकाल से ही व्यक्ति सुन्दरता का उपासक है। व्यक्ति स्वभाव से ही सौन्दर्यप्रिय है तथा अपनी प्रत्येक वस्तु एवं पर्यावरण को सुन्दर एवं आकर्षक देखना चाहता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है। कि गृह-सज्जा को उद्देश्य घर को सुन्दर एवं आकर्षक बनाना होता है। सुन्दरता के अभाव में किसी भी घर को सुसज्जित नहीं माना जा सकता, भले ही घर में असंख्य बहुमूल्य वस्तुएँ क्यों न एकत्र कर दी जाएँ।
सैद्धान्तिक रूप से यह स्वीकृत है कि सुसज्जित गृह को सुन्दर एवं आकर्षक होना चाहिए, (UPBoardSolutions.com) पत। प्रश्न यह उठता है कि सुन्दरता से क्या आशय है? सुन्दरता के अर्थ को प्रस्तुत करना इतना सरल नई है। यह एक जटिल प्रश्न है तथा भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से इसकी व्याख्या की जाती रही है। भिन्न-भिन्न कालों में सुन्दरता के प्रतिमान बदलते रहे हैं।

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इस कठिनाई के होते हुए भी सुन्दरता को परिभाषित करने के प्रयास सदैव होते रहे हैं। ए० एच० रट (A. H. Rutt) के शब्दों में, “सुन्दरता गुणों का वह संयोजन है, जो पारखी आँखों या कानों को सुखद लगे।” इसी से मिलती-जुलती परिभाषा सुन्दरराज ने इन शब्दों में प्रस्तुत की है, “सुन्दरता वह तत्त्व अथवा गुण है, जो इन्द्रियों को आनन्दित करता है तथा आत्मा को उच्च अनुभूति देता है।” इस कथन के आधार पर कहा जा सकता है कि सुन्दरता का सम्बन्ध हमारे शरीर तथा आत्मा दोनों से होता है। सुन्दरता सदैव आनन्ददायक होती है तथा उसका प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति पर पड़ता है। गृह-सज्जा में निहित सुन्दरता का अच्छा प्रभाव घर में रहने वाले समस्त व्यक्तियों पर पड़ता है।

घर की आन्तरिक सुन्दरता व्यक्ति एवं परिवार को सुख देने में सहायक होती है। अब प्रश्न उठता है कि गृह-सज्जा में सौन्दर्य का समावेश कैसे हो? इस विषय में रट महोदय का कहना है कि गृह-सज्जा में सौन्दर्य का विकास अध्ययन, निरीक्षण तथा अनुभव द्वारा किया जा सकता है। आजकल प्राय: सभी पत्र-पत्रिकाओं में गृह-सज्जा सम्बन्धी अनेक लेख प्रकाशित होते रहते हैं। इसी प्रकार दूरदर्शन तथा फिल्मों के माध्यम से भी गृह-सज्जा में सौन्दर्य के तत्त्व को जाना जा सकता है। गृहिणी अपने अनुभवों द्वारा भी गृह-सज्जा को अधिक सुन्दर एवं आकर्षक बना सकती है। वर्तमान समय में दूरदर्शन के प्रायः सभी धारावाहिक अपने मूल (UPBoardSolutions.com) कथानक के प्रदर्शन के साथ-ही-साथ गृह-सज्जा एवं उत्तम जीवन-शैली को भी दर्शाया करते हैं।

(2) अभिव्यक्ति-गृह-सज्जा का एक सिद्धान्त अभिव्यक्ति या अभिव्यंजकता भी है। गृह-सज्जा के माध्यम से कुछ-न-कुछ स्पष्ट अभिव्यक्ति होती है। इसी अभिव्यक्ति के आधार पर गृह-सज्जा का मूल्यांकन किया जाता है। अभिव्यक्ति एक व्यक्तिगत विशेषता मानी जा सकती है, जो गृह-सज्जा द्वारा प्रकट होती है। इस तथ्य को सुन्दरराज ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “यह वह गुण है, जो एक घर को दूसरे से भिन्न बनाता है। यह घर में रहने वाले सदस्यों के व्यक्तित्व को स्पष्टतः प्रतिबिम्बित करता है।”

अब प्रश्न उठता है कि गृह-सज्जा के सन्दर्भ में अभिव्यक्ति का क्या स्थान एवं महत्त्व है? इस विषय में टी० एफ० हेमलिन (T. F. Hamlin) ने स्पष्ट किया है, “प्रत्येक भवन, प्रत्येक सुनियोजित कक्ष में यह सामर्थ्य होनी चाहिए कि वह हमें आनन्द, शान्ति अथवा शक्ति का सन्देश दे सके।” स्पष्ट है कि गृह-सज्जा से भावनाओं एवं विचारों की अभिव्यक्ति होती है। गृह-सज्जा के माध्यम से विश्रांति, जीवन्तता, स्वाभाविकता, आत्मीयता, औपचारिकता तथा दृढ़ता आदि भावनाएँ प्रकट होती हैं।

इस प्रकार की भावनाओं को अभिव्यक्त करने वाली गृह-सज्जा को उत्तम गृह-सज्जा माना जाता है। इससे भिन्न यदि किसी गृह-सज्जा से भड़कीलापन या सुरुचि एवं स्वच्छता की कमी अभिव्यक्त होती हो तो उस गृह-सज्जा को उत्तम नहीं माना जाएगा। (UPBoardSolutions.com) उत्तम गृह-सज्जा से औपचारिकता, अनौपचारिकता, स्वाभाविकता तथा आधुनिकता के गुणों की भी अभिव्यक्ति होनी चाहिए।

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(3) उपयोगिता-गृह-सज्जा का एक मूल सिद्धान्त है–गृह-सज्जा का उपयोगी होना। भवननिर्माण के सन्दर्भ में एक अमेरिकी वास्तुकार लुई सलीवन का कथन है कि भवन की आकृति को
व्यावहारिक होना चाहिए। इस मान्यता के अनुसार गृह-सज्जा को उपयोगी होना चाहिए। निरर्थक एवं कोरी सजावट उचित नहीं होती। इस सिद्धान्त के अनुसार घर का निर्माण तथा उसकी सज्जा वैज्ञानिक तथा एक सुनिश्चित दृष्टिकोण के अनुसार होनी चाहिए।

जिस प्रकार किसी यन्त्र या उपकरण से हम अधिकतम कार्यशीलता की अपेक्षा करते हैं, उसी प्रकार घर से भी अधिकतम सुविधा तथा उपयोगिता की अपेक्षा की जाती है। यह तभी सम्भव है, जब कि गृह-सज्जा में उपयोगिता के सिद्धान्त का समावेश हो। इस सिद्धान्त को महत्त्व देते हुए यह ध्यान रखा जाता है कि गृह-सज्जा के लिए केवल उन्हीं वस्तुओं एवं उपकरणों को चुना जाए जो उपयोगी हों। जो वस्तुएँ या उपकरण उपयोगी नहीं होते, उन्हें एकत्र करना उचित नहीं माना जाता। इस मान्यता के अनसार घर के प्रत्येक कक्ष में उपयोगिता को ध्यान में रखकर ही वस्तुओं को रखा जाता है। गृह-सज्जा के लिए अपनाई जाने (UPBoardSolutions.com) वाली प्रत्येक वस्तु की उपयोगिता की भली – भाँति परख कर लेनी चाहिए।

उदाहरण के लिए-सोफा एवं सोफे का कवर ऐसा । होना चाहिए, जो अधिक मजबूत, टिकाऊ एवं सुविधाजनक हो। अनावश्यक मीनाकारी, कढ़ाई एवं कृत्रिम सुन्दरता को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। इसी प्रकार परदे तथा कालीन भी मजबूत एवं पक्के रंग के होने चाहिए। जो वस्तुएँ किसी प्रकार की असुविधा उत्पन्न करती हों, उन्हें गृह-सज्जा में स्थान नहीं दिया जाना चाहिए।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना अनिवार्य है कि उपयोगिता के सिद्धान्त को मानते हुए गृह-सज्जा में सुन्दरता एवं आकर्षकता के तत्त्व की पूर्ण अवहेलना नहीं की जानी चाहिए। वास्तव में सुन्दरता तथा उपयोगिता, कला तथा विज्ञान का समन्वय होना चाहिए। गृह-सज्जा में समन्वयात्मक सिद्धान्त को ही अपनाया जाना चाहिए, जिसमें सुन्दरता, अभिव्यक्ति तथा उपयोगिता का समुचित समावेश हो।

प्रश्न 3
गृह-सज्जा के कलात्मक सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
या
सजावट के मूलभूत आधार क्या हैं? सजावट में रंग-व्यवस्था का क्या महत्त्व है? स्पष्ट कीजिए।
या गृह-सज्जा के मूलभूत कलात्मक सिद्धान्त कौन-से हैं? किन्हीं दो सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
गृह-सज्जा के कलात्मक सिद्धान्त (आधार) कला किसी सुन्दर विषय-वस्तु के प्रति मनुष्य की अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इसके उदाहरण हैं–प्रकृति, संगीत, गीत, मूर्ति निर्माण, चित्रकला, सुन्दर-सुन्दर भवनो के निर्माण इत्यादि। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कला का अपना अलग महत्त्व है। कला के निर्माण के चार मुख्य तत्त्व हैं-रेखाएँ, आकार, बनावट की विधियाँ तथा रंग। गृह-सज्जा में कला के इन मूल तत्त्वों के आधार पर कुछ मूलभूत सिद्धान्तों का पालन किया जाता है। गृह-सज्जा के प्रमुख मूलभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

  1.  समानुपात,
  2.  लय,
  3. सबलता या क्रम,
  4. सन्तुलन तथा
  5. अनुकूलन।।

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(1) समानुपात-गृह-सज्जा का एक प्रमुख सिद्धान्त है-समानुपात का सिद्धान्त। कमरे में फर्नीचर व्यवस्थित करने, पुष्प एवं चित्र लगाने, दीवारों की सजावट इत्यादि में वस्तु एवं पृष्ठभूमि में समानुपात का ध्यान रखना चाहिए। समानुपात डिजाइन बनाने का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। इसमें किसी वस्तु की लम्बाई, चौड़ाई एवं ऊँचाई के तुलनात्मक सम्बन्धों का ध्यान रखना होता है। उदाहरण के लिए—मकान के कमरों व उनके (UPBoardSolutions.com) दरवाजो एवं खिड़कियों की लम्बाई, चौड़ाई व ऊँचाई समानुपात के नियमों के अनुसार रखने पर उनकी शोभा बढ़ जाती है। एक बड़े कमरे में उसी अनुपात में रखा बड़ी सोफा तथा उसके पीछे दीवार पर समानुपात मे लगा बड़े आकार का चित्र अधिक अच्छे लगते हैं। इसी प्रकार फूलदान व फूलों में नियमित समानुपात रखने पर पुष्प-सज्जा अधिक आकर्षक प्रतीत होती है।

(2) लय-आकृतियों, नापों, रेखाओं तथा रंगों के सम्बन्ध को लय कहते हैं। इसका गति से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। इसमें रेखाओं, आकृतियों व रंगों आदि का प्रयोग बार-बार एक निश्चित क्रम में किया जाता है। घर की सजावट में प्रत्येक स्थान पर लय का होना आवश्यक है।

(3) सबलता या क्रम-दृश्य-कला; जैसे—चित्र, मूर्ति, कशीदाकारी, आदि; में कुछ अंश प्रमुख होते हैं। ये आकर्षण बिन्दु होते हैं तथा सबल अंश कहलाते हैं। सबलता का यह सिद्धान्त गृह-सज्जा में
भी प्रयुक्त होता है। घर के किसी भी कमरे में खिड़की के परदे, अच्छे चित्र, दरी-कालीन आदि में से कोई भी एक आकर्षण का केन्द्र हो सकता है, परन्तु कमरे की सजावट में आकर्षण बिन्दु एक अथवा . दो से अधिक नहीं होने चाहिए।

(4) सन्तुलन--विभिन्न आकारों, डिजाइनों व रंगों इत्यादि के मध्य व्यवस्थित सम्बन्ध सन्तुलन कहलाता है। सन्तुलन दो प्रकार का होता है–
(अ) औपचारिक-यह नियमित सन्तुलन होता है। इसमें प्रमुख केन्द्रबिन्दु के दोनों ओर समान भार व समान आकृतियों की वस्तुओं को समान दूरी पर व्यवस्थित किया जाता है।
(ब) अनौपचारिक–यह अनियमित सन्तुलन अधिक प्रभावशाली माना जाता है। इसमें किसी असमान भार वाली वस्तुओं को केन्द्र-बिन्दु के दोनों ओर असमान दूरियों पर व्यवस्थित किया जाता है।

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(5) अनुकूलन-जब वस्तुओं में पर्याप्त आपसी समानता दिखाई देती है तो इसे अनुकूलन अथवा अनुरूपता कहते हैं। गृह-सज्जा में अनुकूलता के सिद्धान्त को कला के चारों प्रमुख तत्त्वों; रेखा, आकार, बनावट तथा रंग; के प्रयोग में लागू कर सकते हैं।
| गृह-सज्जा में रंग व्यवस्था का महत्त्व उचित रंग कमरे की शोभा को (UPBoardSolutions.com) जहाँ चार-चाँद लगा सकते हैं, वहीं अनुचित रंग उसको भद्दा भी बना सकते हैं। बढ़िया कपड़े का परदा कलात्मक दृष्टि से किसी काम का नहीं यदि उसका रंग कमरे के अनुकूल नहीं बैठता। कभी-कभी साधारण-सी वस्तु से उपयुक्त रंग के कारण कमरे की सज्जा का प्रभाव कहीं अधिक बढ़ जाता है।

प्रश्न 4
गृह को सुसज्जित करने के क्या-क्या साधन हैं? सविस्तार वर्णन कीजिए। 2018, 10, 11]
या
घर के पर्दे एवं चित्रों का चुनाव किस प्रकार करेंगी? समझाइए। 2011]
फूलों तथा चित्रों का दैनिक जीवन में क्या महत्त्व है? 2008, 11, 12]
या
घर की आन्तरिक सज्जा से आप क्या समझती हैं? गृह-सज्जा के लिए उपयोगी साधनों के बारे में लिखिए। 2007, 12, 14]
फूलों एवं चित्रों का गृह-सज्जा में महत्त्व लिखिए। [2011, 12, 13, 14, 15, 16, 17}
घर की सजावट में फर्नीचर का क्या महत्त्व है? (2015
या
गृह-सज्जा में पदें व पुष्प का क्या महत्त्व है? 2018
उत्तर:
(संकेत-घर की आन्तरिक सज्जा के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का आरम्भिक भाग देखें। गृह-सज्जा के साधन घर की सजावट के प्रमुख साधन निम्नलिखित हैं
(1) फर्नीचर-कुर्सियां, मेजें, डेस्कें, सोफे, पलंग, तख्त, दीवाने, चौकियाँ, अलमारियाँ, रैके, शैल्फ इत्यादि प्रमुख प्रकार के फर्नीचर हैं। प्रायः फर्नीचर लकड़ी, स्टील व ऐलुमिनियम के बनते हैं। लकड़ी के फर्नीचर अधिक मूल्यवान होते हैं। फर्नीचर (UPBoardSolutions.com) खरीदते समय इसकी आवश्यकता, टिकाऊपन व अपनी आर्थिक स्थिति का विशेष ध्यान रखनी चाहिए। सजावट के लिए फर्नीचर खरीदते समय घर में इसके लिए उपलब्ध स्थान का भी ध्यान रखना चाहिए। महानगरों में प्रायः स्थान बचाऊ फर्नीचर; जैसे–फोल्डिग कुर्सियाँ, मेज व पलंग आदि; का प्रयोग किया जाता है।

(2) परदे-खिड़कियों एवं दरवाजों पर आर्थिक स्थिति के अनुसार मूल्य के रंग-बिरंगे परदे लगाए जाते हैं। परदे का उपयोग गोपनीयता के लिए तथा वायु, प्रकाश, गर्मी एवं ठण्ड से बचाव केलिए किया जाता है। परदे कमरे को सुन्दर एवं आकर्षक बनाते हैं; अत: घर के विभिन्न कमरों के लिए परदों के डिजाइन व रंगों का चयन करते समय विवेक का प्रयोग करना चाहिए। परदे घर की सजावट का महत्त्वपूर्ण साधन हैं।

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(3) दरी एवं कालीन-इनका उपयोग ठण्डे प्रदेशों में ठण्ड से बचाव के लिए तथा कच्चे एवं सीमेण्ट के फर्श को ढकने के लिए होता है। आजकल दरी के स्थान पर जूट की बनी चटाई प्रयोग में
लाई जाती हैं। कालीन एक मूल्यवान वस्तु है; अत: इनको खरीदते समय अपनी आर्थिक क्षमता को विशेष ध्यान रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त कालीन का नाप, रंग व डिजाइत परदों के डिजाइन व रंग से समन्वित एवं सन्तुलित होना चाहिए।

(4) चित्र एवं मूर्तियाँ-घर की सजावट के लिए यह सबसे अधिक उपयोग में आने वाला साधन है। तैलचित्र हों अथवा पेन्टिग्स, विभिन्न कमरों को सजाते समय इनकी विशेषताओं को ध्यान में रखना चाहिए। उदाहरण के लिए-ड्राइंग-रूम में महापुरुषों के चित्र तथा शयन-कक्ष में शृंगारिक चित्रों को लगाना उचित रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कौन-सा कमरा किस उपयोग का है। उसमें उसी के अनुरूप चित्र लगाने चाहिए। मूर्तियों एवं खिलौनों का उपयोग भी उपर्युक्त नियमों के अनुसार ही किया जाना चाहिए।

(5) पुष्प-सज्जा-फूल एवं साज-सज्जा वाले पौधे भी चित्र एवं मूर्तियों के समान सजावट का प्रमुख साधन हैं। इनके द्वारा घर की बाह्य एवं आन्तरिक दोनों प्रकार की सजावट की जा सकती है। उदाहरण के लिए भूमि अथवा गमलों में लगे फूल वाले तथा साज-सज्जा वाले पौधे घर की बाह्य सजावट के लिए प्रयोग में लाए जाते हैं तथा फूलों को फूलदान व अन्य पात्रों में लगाकर घर की
आन्तरिक सजावट की जाती है। घर की सजावट में फूलों को विविध प्रकार से उपयोग में लाया जाता। है। उदाहरण के लिए—इन्हें ड्राइंग-रूम में, पढ़ने के कमरे अर्थात् स्टडी में, किताबों की शेल्फ पर रखे फूलदान में तथा भोजन-कक्ष में भोजन की मेज आदि पर सजाया जाता है।

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प्रश्न 5
बैठक (ड्राइंग-रूम) से क्या आशय है? घर के इस कमरे के महत्त्व एवं सजावट की विभिन्न शैलियों का वर्णन कीजिए। घर में बैठक का क्या महत्त्व है? अपने घर की बैठक को आप किस प्रकार सजाएँगी? स्पष्ट कीजिए। [2018]
या
बैठक की सजावट के उपकरण तथा विधि लिखिए।
या
बैठक की सजावट में किन-किन वस्तुओं का होना आवश्यक है? [2011, 12, 13, 14, 16]
उत्तर:
बैठक (ड्राइंग-रूम) से आशय

प्रत्येक व्यक्ति के घर पर किसी-न-किसी प्रयोजन से समय-समय पर कुछ लोग मिलने के लिए अवश्य आया करते हैं। इनमें से कुछ व्यक्तियों के साथ तो घनिष्ठ मित्रता के सम्बन्ध होते हैं तथा कुछ के साथ केवल औपचारिक सम्बन्ध ही होते हैं। औपचारिक सम्बन्ध वाले व्यक्तियों को हम हर समय अपने शयन-कक्ष में या भोजन के कमरे में नहीं बैठा सकते। स्पष्ट है कि इस प्रकार के आगन्तुकों के स्वागत एवं बैठाने के लिए एक कमरा अलग से होना (UPBoardSolutions.com) चाहिए। इसी कमरे को बैठक या ड्राइंग रूम कहा जाता है। आजकल प्रायः सभी घरों में ड्राइंग-रूम बनाने का प्रचलन है। ड्राइंग-रूम में प्रत्येक बाहर से आने वाले व्यक्ति को बैठाया जाता है। सामान्य रूप से यह कमरा घर के मुख्य द्वार के निकट ही बनाया जाता है, ताकि बाहर से आने वाले व्यक्तियों को सुविधापूर्वक वहीं बैठाया जा सके। बैठक का महत्त्व ड्राइंग-रूम अथवा बैठक प्रत्येक घर का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भाग होता है, क्योंकि

  1. इसमें बाहर से आने वाले व्यक्तियों एवं अतिथियों का स्वागत किया जाता है। अतः इस कमरे की सजावट अन्य कमरों से अधिक सुरुचिपूर्ण एवं विवेकपूर्ण होती है।
  2. यह घर के मुख्य द्वार का निकटतम कमरा होता है। घर के अन्य कमरों में चाहे सजावट न हो, परन्तु ड्राइंग-रूम को सदैव सजावट द्वारा सुरुचिपूर्ण बनाया जाता है।
  3.  आगन्तुक प्रायः इसी कमरे में बैठते हैं; अत: इससे घर की गोपनीयता बनी रहती है।
  4.  बैठक की साज-सज्जा घर के रहन-सहन के स्तर एवं संस्कृति की परिचायक होती है।
  5. बैठक की सजावट-मुख्य शैलियों द्वारा पूरे घर में बैठक को रहन-सहन के स्तर के अनुरूप पूर्ण सूझ-बूझ के साथ सजाया जाता है।

सजावट करने की विभिन्न विधियों को तीन प्रमुख शैलियों में विभाजित किया जाता है-

  1. परम्परागत देशी शैली,
  2.  विदेशी शैली तथा
  3.  मिश्रित शैली।

(1) सजावट की परम्परागत देशी शैली-यह मूल रूप से भारतीय शैली की सजावट की पद्धति है। इसमें एक तख्त या दीवान बिछाया जाता है जिस पर एक सुन्दर चादर बिछाई जाती है। दीवान पर मसनद या गाव तकिए रखे जाते हैं। बैठक के आकार एवं उपलब्ध स्थान के अनुसार मूढ़े भी रखे जाते हैं। मूढ़ों पर आकर्षक गद्दियाँ रखी जाती हैं। बैठक के फर्श पर दरी बिछाई जाती है। कमरे के केन्द्रीय भाग में दरी पर कालीन बिछाया जाता है। कमरे के सिरे पर एक सुन्दर अलमारी रखी जाती है। इस पर रेडियो अथवा टी० वी० भी रखा जा सकता है। इसके अन्य खानों में सजावट की वस्तुएँ अथवा उच्चकोटि की पुस्तकें रखी जा सकती हैं। दीवारों की सजावट आकर्षक चित्रों एवं अन्य सामग्रियों द्वारा की जाती है।
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(2) सजावट की विदेशी शैली—इस शैली में दीवान व मूढ़ों के स्थान पर सोफा लगाया जाता है। कमरे के आकार एवं उपलब्ध स्थान के आधार पर सोफे संख्या में दो अथवा अधिक भी हो सकते हैं। फर्श पर आवश्यकतानुसार दरी व कालीन बिछाए जा सकते हैं। प्रत्येक सोफे के सामने एक सेण्टर-टेबल रखी जा सकती है। यह सनमाइका या काँच की। हो सकती है, अन्यथा इस पर कपड़े या प्लास्टिक का सुन्दर कवर भी भाग बिछाया जा सकता है। दो छोटी मेजें भी रखी जा सकती हैं, जिन्हें साइड टेबिल कहा जाता है। इन पर ऐश-ट्रे आदि रखी जा सकती हैं। कमरे में एक ओर एक आकर्षक कैबिनेट में टी० वी० रखा जा सकता है। दीवारों (UPBoardSolutions.com) पर साधारण अथवा तैल-चित्र सजाए जा सकते हैं। दरवाजों एवं खिड़कियों पर आकर्षक परदे लगाए जा सकते हैं। परदों, दीवारों व अन्य सामग्रियों का चयन करते समय विरोधी एवं सहयोगी रंगों का ध्यान रखना चाहिए। रंगों का उपयुक्त चुनाव सजावट के आकर्षण को कई गुना बढ़ा देता है।

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(3) सजावट की मिश्रित शैली– इसमें देशी एवं विदेशी दोनों शैलियों का उपयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए-दीवान तथा सोफा दोनों का उपयोग किया जाता है। इसी प्रकार विभिन्न प्रकार की कुर्सियाँ तथा मूढ़े दोनों ही रखे जाते हैं। यद्यपि इस शैली में कोई मौलिकता नहीं होती फिर भी यह शैली”अधिक लोकप्रिय एवं सुविधाजनक है।

प्रश्न 6
खाने के कमरे (डाइनिंग रूम) की सजावट आप कैसे करना पसन्द करेंगी और क्यों?
देशी तथा विदेशी शैली के अनुसार खाने के कमरे (भोजन-कक्ष) की साज-सज्जा आप किस प्रकार करेंगी?
भारतीय तथा पाश्चात्य शैली के भोजन-कक्ष में क्या अन्तर है? विस्तारपूर्वक लिखिए। भोजन-कक्ष की सजावट की विधि लिखिए। [2013]

उत्तर:
मानव जीवन में भोजन ग्रहण करने का विशेष महत्त्व है। व्यक्ति भोजन जुटाने के लिए ही अनेक परेशानियाँ उठाता है। एक समय था, जब लोग पाकशाला या रसोईघर में ही बैठकर शान्त भाव से भोजन ग्रहण किया करते थे। उस समय जीवन सादा एवं सरल तथा कर्म व्यस्त था। आज जीवन बदल गया है। आज पाकशाला में बैठकर भोजन ग्रहण करने की सुविधा नहीं है। आधुनिक घरों में प्रायः रसोईघर काफी छोटे होते हैं; अत: वहाँ बैठकर भोजन ग्रहण करना कठिन होता है। इसके अतिरिक्त जीवन व्यस्त होने के कारण अनेक बार जूते-मोजे तथा पैंट-कोट पहने हुए ही भोजन ग्रहण करना पड़ता है। इस दशा में रसोईघर में बैठकर भोजन (UPBoardSolutions.com) नहीं किया जा सकता। इन समस्त परिस्थितियों पर विचार करते हुए आजकल प्रायः सभी घरों में भोजन को अलग कमरा बनाया जाता है। इस कमरे को ही भोजन का कमरा’ या ‘डाइनिंग रूम’ (Dining room) कहा जाता है।

खाने के कमरे की सजावट

खाने के कमरे की सजावट में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है-सफाई। खाने का कमरा हर प्रकार से स्वच्छ होना चाहिए। इस कमरे में संवातन तथा प्रकाश की भी समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। खाने के कमरे की सजावट की मुख्य शैलियों या विधियों का संक्षिप्त विवरण निम्नवर्णित है

(1) परम्परागत देशी शैली-भारतीय शैली में भोजन ग्रहण करने के लिए चौकी, पटरी अथवा आसन का उपयोग किया जाता है। देशी शैली में भोजन-कक्ष में सुविधाजनक चौकी, पटरी अथवा आसन की व्यवस्था की जाती है। चौकियों पर सुन्दर-सुन्दर मेजपोश बिछाए जाते हैं। भोजन करते समय रेक्सिन अथवा प्लास्टिक के कपड़े चौकियों पर बिछाए जाते हैं। ये सुन्दर तथा आकर्षक डिजाइनों व रंगों के होते हैं और भोजन गिरने पर स्थायी रूप से गन्दे नहीं होते। दीवारों की सजावट बैठक के कमरे की अपेक्षा साधारण होती है। भोजन कक्ष में रेफ्रिजेरेटर या पानी रखने का कोई अन्य साधन भी रखा जाता है। भोजन-कक्ष प्रायः रसोईघर से जुड़ा होता है, ताकि भोजन लाने-ले-जाने की सुविधा रहे। देशी शैली में भोजन थालियों एवं कटोरियों में परोसा जाता है; अत: भोजन-कक्ष में बर्तन रखने के लिए अलमारी भी रखी जा सकती है।

(2) विदेशी शैली—इस शैली में भोजन-कक्ष में एक बड़ी मेज (डाइनिंग टेबल) तथा इसके चारो ओर बिना हत्थे वाली चार अथवा छ: कुर्सियाँ (डाइनिंग चेयर्स) लगाई जाती हैं। डाइनिंग टेबल की ऊपरी सतह पर रेक्सिन, शीशा अथवा सनमाइका लगी होती है। इसका लाभ यह होता है कि भोजन इत्यादि गिरने पर डाइनिंग टेबल को सरलतापूर्वक साफ किया जा सकता है। रेफ्रिजरेटर अथवा पानी के किसी अन्य साधन की व्यवस्था भी भोजन-कक्ष में ही की जानी चाहिए।

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(3) भोजन-कक्ष निश्चित रूप से रसोईघर से जुड़ा होना चाहिए। भोजन-कक्ष में एक ओर हाथ-मुँह धोने के लिए एक वाशबेसिन लगा होना चाहिए। इसमें साबुन व स्वच्छ तौलिए की व्यवस्था होनी चाहिए। भोजन-कक्ष के दरवाजे एवं खिड़कियों पर साधारण, परन्तु स्वच्छ एवं आकर्षक परदे लगे होने चाहिए। भोजन-कक्ष की खिड़कियों पर लोहे के तार की जाली लगानी आवश्यक है। यह भोजन-कक्ष में मक्खियों को प्रवेश नहीं करने देती। दीवारों पर अच्छे-अच्छे चित्र व डाइनिंग टेबल पर पुष्पों से सज्जित फूलदान भोजन प्राप्त करने वालों के मन को प्रसन्न करते हैं।

प्रश्न 7
शयन-कक्ष की सजावट का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
घर में शयन-कक्ष कहाँ होना चाहिए तथा उसकी सजावट में किन बातों का ध्यान रखना आप आवश्यक समझती हैं? स्पष्ट कीजिए।
या
शयन-कक्ष की सजावट की वस्तुओं की सूची बनाइए। [2013
उत्तर:
घर में शयन-कक्ष विश्राम के लिए नींद सर्वाधिक आवश्यक है। नींद के लिए शान्त एवं एकान्त वातावरण आवश्यक होता है; अतः सोने के लिए अलग से एक कमरा निर्धारित किया जाता है। इस कमरे को ही ‘शयन- कक्ष’ कहा जाता है। मकान में शयन-कक्ष के लिए ऐसे कमरे का चुनाव करना चाहिए जहाँ अधिक शोर की सम्भावना न हो तथा जिस कमरे में से होकर आना-जाना आवश्यक न हो। जहाँ तक सम्भव हो बाहरी द्वार से पीछे हटकर ही शयन-कक्ष होना चाहिए। शयन-कक्ष हवादार एवं साफ होना चाहिए।

शयन-कक्ष की सजावट में ध्यान रखने योग्य बातें

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शयन-कक्ष की सजावट विशेष रुचिपूर्वक करनी चाहिए। शयन-कक्ष में सर्वाधिक आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण वस्तु है—पलंग। पलंग अधिक-से-अधिक आरामदायक होना चाहिए। पलंग पर अच्छी-से-अच्छी चादर बिछाई जानी । चाहिए। पलंग के अतिरिक्त शयन-कक्ष में एक (UPBoardSolutions.com) या दो साइड-टेबिल भी होने चाहिए। इन पर पानी-दूध आदि रखे जा सकते हैं। शयन-कक्ष में ही श्रृंगार-मेज भी रखी जाती है। श्रृंगार-मेज के दर्पण पर अच्छे कपड़े का कवर डाला जा सकता है।

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शयन-कक्ष को सुसज्जित करने के लिए गहरे रंग के मोटे कपड़े के परदे लगाए जा सकते हैं। इससे एकान्त प्राप्त होता है तथा बाहरी धूप, चौंध आदि से भी बचा जा सकता है। शयन-कक्ष में अन्य प्रकाश के अतिरिक्त नाइट बल्ब अवश्य लगाया जाता है। शयन-कक्ष को सुसज्जित करने के लिए कुछ कलाकृतियाँ भी रखी जा सकती हैं। यदि इस कक्ष में केवल पति-पत्नी को ही सोना हो, तो कुछ शृंगारिक चित्र एवं मूर्तियाँ भी रखी जा सकती हैं। शयन-कक्ष की सजावट में कमरे में सोने वालों की रुचि का सर्वाधिक महत्त्व होता है। इसमें दिखावट या प्रदर्शन के दृष्टिकोण से सज्जा नहीं की जाती। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि शयन-कक्ष की सजावट की प्रमुख विशेषता है-विश्राम में सहायक होना।

प्रश्न 8
रसोईघर की सजावट आप किस प्रकार करेंगी? समझाइए।
उत्तर:
रसोईघर प्रत्येक घर का एक महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। यहाँ से परिवार के सभी सदस्यों एवं अतिथियों को भोजन सुलभ होता है। अत: इसका स्वच्छ तथा कीटाणु एवं कीट-पतंगों रहित रहना स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अत्यन्त आवश्यक है। प्रत्येक घर में गृहिणी प्रायः रसोईघर की संचालिका होती है। उसे परिवार के लिए अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य भी करने होते हैं। इसलिए रसोईघर का गृहिणी के लिए सुविधाजनक होना अत्यावश्यक है। धुओं व गन्दे पानी के निकलने की (UPBoardSolutions.com) व्यवस्था, पानी, प्रकाश एवं वायु की उचित व्यवस्था, बर्तन एवं खाद्य पदार्थ रखने की व्यवस्था तथा व्यवस्थित प्रकार से रखे हुए यन्त्र एवं उपकरण गृहिणी की कार्यकुशलता में अपार वृद्धि करते हैं। गृहिणी रसोईघर की सजावट प्राय: निम्नलिखित शैलियों द्वारा करती है

(1) परम्परागत देशी शैली–इस शैली में व्यवस्थित रसोईघर में गृहिणी भोजन बनाना, बर्तन धोना आदि सभी कार्य बैठकर करती है। इसमें एक ओर चूल्हा अथवा अँगीठी होती है जिसका धुआँ बाहर जाने के लिए रसोईघर की छत में व्यवस्था होती है। रसोईघर में पानी की व्यवस्था के लिए एक नल लगा होता है। एक सुव्यवस्थितं एवं सुसज्जित रसोईघर में नल के पास ही एक अलमारी अथवा रैक होती है, ताकि साफ करने के बाद बर्तन इसमें सुविधापूर्वक रखे जा सकें। अलमारी में सभी खाद्य पदार्थ एवं मिर्च-मसाले अलग-अलग बन्द डिब्बों में उनके नाम की चिटें लगाकर रखे जाते हैं। रसोईघर से गन्दे पानी के निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिए।

(2) विदेशी शैली–इस शैली में व्यवस्थित रसोईघर में गृहिणी भोजन बनाना, बर्तन साफ करना आदि सभी कार्य खड़े होकर करती है। इसके लिए रसोईघर का आकार थोड़ा बड़ा तथा उपलब्ध स्थान अधिक होना चाहिए। रसोईघर के दरवाजे के सामने व दोनों ओर खड़े होकर कार्य करने योग्य ऊँचे सीमेण्ट के चबूतरे अथवा टेबल लगाए जाते हैं। इस प्रकार बने ऊँचे आधार पर गैस का चूल्हा रखा जाता है तथा आधार के नीचे गैस-सिलेण्डर रखने की व्यवस्था होती है। दीवार पर लगे रैक पर चिमटा, सन्डासी, कद्दूकस इत्यादि रखे होते हैं।

दोनों ओर लगी अलमारियों में बर्तन तथा नामांकित खाद्य-पदार्थ एवं मिर्च-मसाले रखे जाते हैं। रसोईघर में एक ओर बर्तन इत्यादि धोने के लिए सिंक लगा होता है। सिंक के पास कूड़ादान, झाड़न व झाड़ रखी होती है। विदेशी शैली के अनुसार व्यवस्थित रसोईघर में निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं

  1. यह सजावट की एक आधुनिक शैली है
  2. सफाई में सुविधा के कारण रसोईघर स्वच्छ व सुन्दर बना रहता है।
  3. खड़े रहकर कार्य करने की सुविधा के कारण गृहिणी को थकान कम होती है।
  4.  गृहिणी के वस्त्र न तो मुड़ते-सिकुड़ते हैं और न ही गन्दे होते हैं।

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प्रश्न 9
फूलों से सजावट किस प्रकार की जाती है? इसमें किन-किन बातों का ध्यान रखा जाता है? या गृह-सज्जा में पुष्प-सज्जा के महत्त्व को लिखिए।[2011]
उत्तर:
पुष्प-सज्जा के प्रकार
फूलों द्वारा घर की सजावट निम्नलिखित दो प्रकार से की जा सकती है

(1) बाह्य सजावट-घर के आगे और पीछे दोनों ओर खाली भूमि में पुष्प वाले पौधे उगाए जा सकते हैं। पुष्प वाले पौधों के अतिरिक्त साज-सज्जा वाले पौधे; जैसे-कैक्टस, क्रोटन, कोलियस, रबर-प्लाण्ट इत्यादि; रिक्त भूमि व गमलों में लगाए जा सकते हैं। दीवारों (UPBoardSolutions.com) एवं खिड़कियों आदि से लगी हुई अनेक प्रकार की आकर्षक बेलें; जैसे-बोगेनवेलिया, रेलवे-क्रीपर, सतावर आदि; उगाई जा सकती हैं।

(2) आन्तरिक सजावट-घर के अन्दर की सजावट बोतलों, गिलासों, डिब्बों और विशेष रूप से विभिन्न आकार एवं प्रकार के फूलदानों में पुष्प लगाकर की जाती है। पुष्प युक्त पौधों को भी गमलों सहित कभी-कभी ड्राइंग-रूम में रख दिया जाता है।
पुष्प-सज्जा की विभिन्न शैलियाँ

  1. परम्परागत देशी शैली–इससे विभिन्न रंगों, आकार एवं प्रकार के पुष्पों का गुलदस्ता बनाकर किसी पात्र अथवा फूलदान में लगाया जाता है। इसमें फूलों व फूलदान के रंगों व आकार पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है।
  2. विदेशी शैली—इसमें पुष्पों को विदेशी ढंग से सजाया जाता है। इस प्रकार की पुष्प-व्यवस्था में अनियमित सन्तुलन पर बल दिया जाता है। इसमें सन्तुलन की व्यवस्था 3, 5, 7, 9 फूलों से की जाती है और तीन टहनियों का प्रयोग होता है। पुष्प-सज्जा की इस शैली को इकेबाना कहा जाता है तथा यह मूल रूप से एक जापानी शैली है।।
  3. आधुनिक शैली—यह उपर्युक्त दोनों शैलियों का मिश्रित रूप है। इस शैली के अन्तर्गत पुष्पों को परम्परागत शैली के अनुसार गुलदस्ते के रूप में न बाँधकर पिन होल्डर की सहायता से पात्रे में लगाया जाता है।

ध्यान रखने योग्य बातें

  1. फूलों को सदैव प्रात:काल अथवा सूर्यास्त होने पर काटना चाहिए।
  2. फूलों को काटकर पानी से नम बनाए रखना चाहिए। ऐसा करने से फूल अधिक समय तक ताजा रहते हैं।
  3. फूलों को तोड़ना नहीं चाहिए। इन्हें कैंची या छुरी से काटना चाहिए।
  4.  फूलदान में पानी इतना रहना चाहिए कि फूलों की टहनियाँ इसमें डूबी रहें।
  5.  फूलदान अथवा अन्य पुष्प पात्रों को समय-समय पर साफ करके चमकाना चाहिए।
  6.  फूलों को उनकी पत्तियों के साथ फूलदान में लगाना चाहिए। इससे स्वाभाविकता दिखाई पड़ती है।
  7. फूलों को मौसम के अनुसार सजाना चाहिए।
  8.  पानी में नमक डालने से पुष्प देर से मुरझाते हैं।

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गृहसज्जा में पुष्प-सज्जा का महत्त्व गृह-सज्जा के सन्दर्भ में पुष्प-सज्जा का विशेष महत्त्व है। फूल सुन्दरता के प्रतीक तथा गृह-सज्जा के प्रकृति-प्रदत्त साधन हैं। फूलों का सौन्दर्य बच्चों, बूढ़ों तथा स्त्री-पुरुष सभी के लिए विशेष आकर्षक होता है। एक कवि बिशप कॉक्स ने कहा है, “पुष्प ऐसी भाषा है, जिसे एक बच्चा भी समझता है।” फूलों से वातावरण में ताजगी, उल्लास एवं उत्साह का संचार होता है। फूल वातावरण की नीरसता को (UPBoardSolutions.com) समाप्त करते हैं। फूल व्यक्ति के मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य पर भी अच्छा प्रभाव डालते हैं। फूलों के इन बहुपक्षीय लाभों एवं अद्वितीय सौन्दर्य के कारण गृह-सज्जा में इन्हें विशेष महत्त्व दिया गया है। रट के शब्दों में, “एक चिन्तित और दु:खी व्यक्ति को पुष्प-व्यवस्था से अपने दुःखों से छुटकारा तथा तसल्ली मिलती है।”

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
‘घर की सफाई तथा ‘गृह-सज्जा’ के सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘घर की सफाई’ तथा ‘गृह-सज्जा’ का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। गृह-सज्जा के लिए अनिवार्य है कि घर में सफाई भी हो। सफाई से आशय है-गन्दगी का अभाव, जबकि सजावट का अर्थ है-घर की वस्तुओं की सुन्दर एवं कलात्मक व्यवस्था। सजावट के अभाव में भी घर की सफाई रह सकती है, परन्तु घर की सफाई के अभाव में घर को सुसज्जित नहीं माना जा सकता। इस प्रकार कहा जा सकता है कि सजावट के अभाव में सफाई रह सकती है, परन्तु सफाई के अभाव में सजावट सम्भव नहीं है।

प्रश्न 2
घर में बच्चों के कमरे की उचित सजावट आप किस प्रकार करेंगी? या स्कूल जाने वाले बालक के कमरे की व्यवस्था आप किस प्रकार करेंगे? [2011]
उत्तर:
पढ़ने वाले बच्चों का कमरा खुला, हवादार, प्रकाशमय तथा गृहिणी के कमरे के पास होता है। यह बच्चों के अध्ययन के लिए उपयुक्त रहता है। इस कमरे की सजावट एवं व्यवस्था करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखा जाता है

  1. बच्चों के लिए अलग-अलग आवश्यक ऊँचाई की डेस्क व कुर्सियों की व्यवस्था।
  2.  बिजली के बल्ब, ट्यूब व टेबल लैम्प द्वारा उपयुक्त प्रकाश की व्यवस्था।
  3.  समय देखने के लिए तथा सुबह उठने के लिए अलार्म घड़ी।
  4. दिनांक देखने के लिए कमरे में एक कैलेण्डर होना चाहिए।
  5. कमरे के दरवाजे और खिड़कियों आदि पर उचित रंग के परदे होने चाहिए।
  6. दीवारों पर शिक्षाप्रद चित्र तथा बच्चों की रुचि के अनुसार प्रसिद्ध खिलाड़ियों के चित्र होने चाहिए।
  7. पुस्तकें तथा स्कूल बैग रखने के लिए अलमारी की व्यवस्था।
  8. कपड़े रखने की अलमारी की व्यवस्था।
  9. सोने के लिए पलंग व बिस्तर आदि की व्यवस्था।

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प्रश्न 3
टिप्पणी लिखिए-घर के बरामदे का महत्त्व एवं सजावट।
उत्तर:
भारतीय घरों में बरामदे का अधिक उपयोग होता है। ग्रीष्म ऋतु में सुबह और शाम तथा वर्षा ऋतु में बरामदे में बैठना बड़ा रुचिकर लगता है। सर्दियों में दिन के समय कमरे बहुत ठण्डे रहते हैं। अत: बरामदा धूप और प्रकाश के कारण अधिक भाता है। बरामदा एक बहुउद्देशीय कक्ष या अनौपचारिक बैठक का काम करता है। बहुधा आगन्तुकों एवं मित्र वर्ग के साथ गप्पे मारने का भी यही स्थान होता है। इसीलिए बेंत को हल्का फर्नीचर व दो-चार गमले बरामदे में अवश्य लगाने चाहिए। बरामदे में क्रोटन, पाम, डिफनबेकिया तथा मनी-प्लाण्टे के गमले भी रखे जा सकते हैं। इनके अतिरिक्त दीवार पर एक-दो चित्र भी लगाए जा सकते हैं।

प्रश्न 4:
टिप्पणी लिखिए-संयुक्त स्नान-गृह एवं शौचालय।
उत्तर:
वर्तमान भारतीय जीवन में पाश्चात्य प्रभाव एवं प्रचलन क्रमशः बढ़ रहे हैं। पाश्चात्य प्रचलन के ही अनुसार अब हमारे देश में भी स्नान-गृह एवं शौचालय संयुक्त रूप से बनाए जाने लगे हैं। इस व्यवस्था के अन्तर्गत एक ही कमरे में नहाने की व्यवस्था के साथ-ही-साथ शौच का भी प्रावधान होता है। इस व्यवस्था के अनुसार कमरे में एक ओर कमोड अर्थात् शौच का स्थान तथा दूसरी ओर नहाने का स्थान होता है। इस प्रकार के स्नान–गृह एवं शौचालय सामान्य रूप से शयन-कक्ष के साथ जुड़े रहते हैं।

इन्हें अत्यधिक स्वच्छ रखना अनिवार्य होता है। अतः यदि घर में फ्लश सिस्टम का प्रावधान न हो तो यह व्यवस्था उत्तम नहीं मानी जाती। वैसे व्यावहारिक दृष्टिकोण से इस प्रकार के संयुक्त स्नान-गृह एवं शौचालय काफी सुविधाजनक होते हैं। व्यक्ति एक साथ ही शौच एवं स्नान (UPBoardSolutions.com) कार्य से निवृत हो सकता है। इस प्रावधान के होने की स्थिति में रात्रि में अथवा ठण्ड के समय व्यक्ति को अपने शयन-कक्ष से दूर नहीं जाना पड़ता।

प्रश्न 5
घर के लिए फर्नीचर खरीदते समय मुख्य रूप से किन-किन बातों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है? [2012, 13, 14, 16, 17]
उत्तर:
फर्नीचर खरीदते समय ध्यान रखने योग्य बातें फर्नीचर आजकल काफी महँगा मिलता है; अत: रोज-रोज फर्नीचर नहीं खरीदा जाता। कपड़ों की तरह फर्नीचर रोज-रोज बदला भी नहीं जा सकता। अत: फर्नीचर खरीदते समय विशेष सूझ-बूझ एवं समझदारी से काम लिया जाना चाहिए। फर्नीचर खरीदते समय मुख्य रूप से निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-

(1) सर्वप्रथम यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि केवल उपयोगी फर्नीचर ही खरीदना चाहिए। कुछ लोग केवल दिखावे के लिए ही या स्थान भरने के लिए ही फर्नीचर खरीदते रहते हैं। यह प्रवृत्ति अच्छी नहीं है।

(2) दूसरी बात यह है कि वही फर्नीचर खरीदना चाहिए, जो आपके घर के अनुरूप हो अर्थात् जिस स्तर एवं प्रकार का मकान हो, उसी प्रकार का फर्नीचर खरीदना चाहिए। यदि आपका कमरा छोटा हो तो फर्नीचर भी छोटे साइज का ही खरीदना चाहिए।

(3) सामान्य रूप से फर्नीचर एक ही बार खरीदा जाता है; अतः फर्नीचर खरीदते समय फर्नीचर की मजबूती एवं कोटि को विशेष ध्यान रखना चाहिए। घटिया अथवा कच्ची लकड़ी का फर्नीचर नहीं खरीदना चाहिए।

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(4) फर्नीचर की पॉलिश अथवा रंग-रोगन का भी ध्यान रखना चाहिए।

(5) सामान्य रूप से सादे डिजाइन का फर्नीचर ही लेना चाहिए। नक्काशी अथवा खुदाई वाले डिजाइन का फर्नीचर नहीं खरीदना चाहिए। ऐसे फर्नीचर की सफाई नहीं हो पाती तथा उसमें धूल आदि भी भर जाती है जिससे बाद में वह भद्दा प्रतीत होने लगता है।

(6) अधिक भारी फर्नीचर भी नहीं खरीदना चाहिए, क्योंकि ऐसे फर्नीचर को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखना मुश्किल हो जाता है। जिन लोगों का समय-समय पर तबादला होता हो, उन्हें तो ऐसा भारी फर्नीचर बिल्कुल नही खरीदना चाहिए।

(7) फर्नीचर खरीदते समय अपनी आर्थिक स्थिति का भी ध्यान अवश्य रखना चाहिए। (UPBoardSolutions.com) केवल देखा-देखी की भावना से अधिक महँगा फर्नीचर नहीं खरीदना चाहिए। अन्य फैशनों के ही समान फर्नीचर का फॅशन भी बदलता रहता है। अतः इस दिशा में सुगृहिणियों को सूझ-बूझ से काम लेना चाहिए।

प्रश्न 6
घर के फर्नीचर की देखभाल और सफाई आप किस प्रकार करेंगी? [2010, 17] या लकड़ी के फर्नीचर की देखभाल और सफाई का वर्णन संक्षेप में कीजिए। [2007, 10, 11, 12, 17]
उत्तर
फर्नीचर की देखभाल प्रत्येक घर में सुविधा और सजावट के लिए किसी-न-किसी प्रकार का फर्नीचर अवश्य होता है। परन्तु फर्नीचर गन्दा एवं अस्त-व्यस्त होगा, तो न तो उससे घर की शोभा बढ़ेगी और न ही वह किसी प्रकार की सुविधा प्रदान करेगा। यदि फर्नीचर की देखभाल एवं सफाई न की जाए, तो वह शीघ्र ही टूट-फूट जाता है तथा बेकार हो जाता है। अत: फर्नीचर की देखभाल एवं सफाई अनिवार्य है।
सफाई-साधारण घरों में अधिकांश फर्नीचर लकड़ी का होता है। इसकी सफाई निम्नलिखित ढंग से की जानी चाहिए

  1. लकड़ी की बनी हुई सभी वस्तुओं को नित्य साफ कपड़े अथवा नरम ब्रश से झाड़ना एवं पोछना चाहिए। कीमती फर्नीचर को साफ करने के लिए मुलायम चमड़े का प्रयोग भी किया जा सकता है। चमड़े से रगड़कर साफ करने से पॉलिश में चमक आ जाती है।
  2. कभी-कभी फनीचर को गीले कपड़े अथवा साबुन से भी साफ किया जा सकता है। इस प्रकार से साफ करने के बाद तुरन्त सूखे कपड़े से पोंछकर सुखा देना अनिवार्य है।
  3. पानी में सिरका मिलाकर, घोल से फर्नीचर को साफ किया जा सकता है।
  4.  पुराने फर्नीचर में कुछ दरारें पड़ जाती हैं अथवा जोड़ खुल जाते हैं। इन दरारों को भरना आवश्यक होता है अन्यथा इनमें गन्दगी भरती रहती है। दरारों को भरने के लिए पोटीन अथवा मोम का प्रयोग किया जा सकता है।
  5. समय-समय पर सामान्यतः प्रतिवर्ष फर्नीचर पर यदि रंग-रोगन अथवा पॉलिश करा दी जाए तो फर्नीचर की उम्र भी बढ़ती है तथा शोभा भी।

प्रश्न 7
प्लास्टिक के फर्नीचर की देखभाल तथा सफाई का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए। [2017, 18]
उत्तर:
वर्तमान युग प्लास्टिक का युग है। अब जीवनोपयोगी अधिकांश वस्तुएँ प्लास्टिक से ही बनाई जा रही हैं। इसी श्रृंखला में प्लास्टिक के फर्नीचर का भी अत्यधिक प्रचलन हो गया है। प्लास्टिक का फर्नीचर सस्ता तथा सुविधाजनक होता है। इस फर्नीचर की देखभाल तथा सफाई प्रायः आसान होती है। सामान्य रूप से प्लास्टिक के फर्नीचर को किसी भी कपड़े से झाड़-पोंछ कर साफ किया जा सकता है। इससे उसकी धूल-मिट्टी का निवारण हो जाता है।

यदि प्लास्टिक के फर्नीचर पर चिकनाई, मैले या धब्बे लग जाएँ तो उस स्थिति में गीले कपड़े एवं साबुन द्वारा इसे सरलता से साफ किया जा सकता है। गीली सफाई के उपरान्त सूखे कपड़े से पोंछकर सुखा देना ही पर्याप्त होता है। प्लास्टिक के फर्नीचर की सफाई के समान देखभाल भी सरल है। प्लास्टिक के फर्नीचर को तेज धूप एवं ताप से बचाना अति आवश्यक होता है। यह ज्वलनशील भी होता है। अत: आग से इसे सदैव दूर रखना चाहिए। (UPBoardSolutions.com) इसके अतिरिक्त यह भी आवश्यक है कि प्लास्टिक के फर्नीचर पर अधिक दबाव एवं वजन न डाला जाए।

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प्रश्न 8
परदे क्यों लगाए जाते हैं? परदे खरीदते समय आप किन-किन बातों का ध्यान रखेंगी? [2009, 10, 12]
गृह-सज्जा में परदों का क्या महत्त्व है? समझाइए। [2010, 11, 12]
कमरे के लिए परदे का चुनाव करते समय ध्यान रखने योग्य चार सावधानियाँ लिखिए। [2011]
कमरे में परदे लगाने से क्या लाभ हैं? या घर में परदे क्यों लगाये जाते हैं? [2013]
उत्तर:

परदों की उपयोगिता निम्नलिखित है–

  1.  परदे कमरों की सजावट का महत्त्वपूर्ण साधन होते हैं।
  2.  ये तीव्र प्रकाश एवं वायु तथा तेज गर्मी एवं ठण्ड से बचाव करते हैं।
  3. परदे एकान्त (प्राइवेसी) बनाए रखने का महत्त्वपूर्ण साधन हैं।
  4. परदों से खिड़की व दरवाजों के दोषों को भी छिपाया जा सकता है।

परदे खरीदते समय ध्यान देने योग्य बातें निम्नलिखित हैं

  1. परदे पारिवारिक आय के अनुकूल होने चाहिए।
  2. परदे मोटे व टिकाऊ होने चाहिए।
  3. परदे खरीदते समय उनके आकार एवं माप का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
  4. परदों के रंग व डिजाइन कमरों के रंग एवं आवश्यकताओं के अनुकूल होने चाहिए।
  5. परदे धुलने पर अधिक सिकुड़ने वाले नहीं होने चाहिए।
  6. परदों के रंग पक्के होने चाहिए, ताकि धुलने के बाद हल्के न हो पाएँ।

प्रश्न 9
रंग-व्यवस्था से आप क्या समझती हैं? स्पष्ट कीजिए। या घर की सजावट में रंगों का महत्त्व लिखिए। [2008, 10, 12, 13, 16, 17]
उत्तर:
रंगों का परस्पर तालमेल अथवा समन्वय रंग-व्यवस्था कहलाता है। रंग-व्यवस्था के सामान्य लक्षण निम्नलिखित हैं-

  1.  कुछ रंग एक-दूसरे की निकटता से शोभा बढ़ाने में सहायक सिद्ध होते हैं। इन्हें सहयोगी रंग कहते हैं; जैसे पीला व नारंगी, लाल व नारंगी, नीला व हरा तथा हरा व पीला इत्यादि।
  2. कुछ रंग एक-दूसरे के विरोधी माने जाते हैं; जैसे—लाल व हरा, पीला व नीला इत्यादि।
  3.  कुछ रंग गर्म प्रकृति के होते हैं; जैसे—लाल, नारंगी तथा पीला।
  4.  कुछ रंग; जैसे कि हरा व नीला; ठण्डी प्रकृति के होते हैं।
  5.  प्रकाशयुक्त कमरों को सदैव गहरे रंग से पेन्ट कराना चाहिए।
  6. कम प्रकाश वाले या अँधेरे कमरों को सफेद अथवा हल्के रंगों से पेन्ट कराना चाहिए।
  7. कुछ रंगों में सफेद रंग का टिण्ट देने से उनके आकर्षण में वृद्धि होती है। रंग-व्यवस्था का उपयुक्त ज्ञान घर की रंगों द्वारा सजावट करने के लिए अति आवश्यक है।

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अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
गृह-सज्जा की प्रमुख शैलियाँ कौन-कौन सी हैं? (2013)
या
गृह-सज्जा के प्रकार बताइए। (2017)
उत्तर:
गृह-सज्जा की तीन प्रमुख शैलियाँ हैं

  1. परम्परागत देशी शैली,
  2. विदेशी शैली तथा
  3.  मिश्रित शैली।

प्रश्न 2
शयन-कक्ष एवं अध्ययन-कक्ष का स्थान कैसा होना चाहिए?
उत्तर:
दोनों के लिए स्वच्छ एवं शान्त स्थान होना चाहिए।

प्रश्न 3
गृह-सज्जा का प्रमुख साधन किसे माना जाता है?
उत्तर:
फर्नीचर को गृह-सज्जा का प्रमुख साधन माना जाता है।

प्रश्न 4
घरेलू फर्नीचर कैसा होना चाहिए? [2011]
उतर:
घरेलू फर्नीचर आकर्षक होने के साथ-साथ मजबूत, टिकाऊ तथा आवश्यकतानुसार अधिक-से-अधिक उपयोगी होना चाहिए।

प्रश्न 5
लकड़ी के फर्नीचर की देख-रेख कैसे करेंगी?
उतर:
उम्र लकड़ी के फर्नीचर की देख-रेख के लिए उन पर समय-समय पर पॉलिश तथा प्रतिदिन सफाई करनी अति आवश्यक है।

प्रश्न 6
संयुक्त स्नानघर से आप क्या समझती हैं?
उत्तर:
संयुक्त स्नानघर में स्नानघर व शौचालय साथ-साथ होते हैं। यह प्राय: कमरों से संलग्न होते हैं।

प्रश्न 7
फूलदान में फूल जल्दी न सूखे, इसके लिए आप क्या उपाय करेंगी?
उतर:
उम्र फूलों को अधिक समय तक ताजा रखने के लिए फूलदान का पानी प्रतिदिन (UPBoardSolutions.com) बदल दिया जाना चाहिए तथा इस पानी में थोड़ा-सा नमक मिला देना चाहिए।

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प्रश्न 8
‘इकेबाना’ पुष्प-सज्जा से आप क्या समझती हैं?
उतर:
उक्ट इस आधुनिक पुष्प-सज्जा में फूल-पत्तियों के साथ छोटी-छोटी सूखी टहनियों, घास-फूस एवं छोटी-छोटी कलात्मक वस्तुओं का भी प्रयोग किया जाता है। यह मूल रूप से पुष्प-सज्जा की एक जापानी शैली है।।

प्रश्न 9
“घर की अच्छी सजावट अर्थव्यवस्था से नहीं, परन्तु गृहिणी की अभिरुचि से होती है।” स्पष्ट कीजिए। या । अधिक धन के खर्च के बिना घर की सजावट कैसे कर सकते हैं ? [2009, 18]
उत्तर:
आदर्श गृहिणी मितव्ययिता के साथ अपनी कलात्मक अभिरुचि के आधार पर घर की अच्छी सजावट कर सकती है।

प्रश्न 10
घर की उपयुक्त सजावट गृहिणी के किन गुणों की परिचायक है?
उत्तर:
घर की उपयुक्त सजावट गृहिणी की सूझ-बूझ, सुरुचि एवं सुघढ़ता की परिचायक होती है।

प्रश्न 11
घर की सजावट के लिए अपने आप से तैयार की जाने वाली दो सजावट की वस्तुओं के नाम लिखिए। [2010]
उत्तर:
स्वयं तैयार की जा सकने वाली सजावट की वस्तुएँ हैं-लैम्पशेड तथा फोटोफ्रेम।

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प्रश्न 12
सजावट की कला के प्रमुख सिद्धान्त कौन-कौन से हैं? [2011, 12, 16]
उत्तर:
सजावट की कला के तीन प्रमुख सिद्धान्त हैं

  1. अनुरूपता,
  2. सन्तुलन तथा
  3. समानुपात।।

प्रश्न 13
घर की सज्जा में फूलों का क्या महत्त्व है? [2011, 12, 13, 14]
या
घर में पुष्प सज्जा के दो महत्त्व लिखिए। [2012, 13]
उत्तर:
अपने आकर्षक रंगों एवं सुगन्ध के कारण फूल घर की सजावट में अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। इनका गुच्छा आदि बनाकर फूलदानों व अन्य पात्रों में घर के विभिन्न भागों में सजाया जाता है।

प्रश्न 14
गृह-सज्जा के लिए अपनाई जाने वाली पुष्प-व्यवस्था की जापानी शैली को क्या कहते हैं?
उत्तर:
इकेबाना।

प्रश्न 15
कमरे के लिए परदे का चुनाव कैसे करेंगी? [2012, 13]
उत्तर:
कमरे की दीवारों का रंग एवं कालीन के रंग एवं डिजाइन को ध्यान में रखते हुए उनके अनुरूप ही परदों के रंग व डिजाइन का चुनाव करना चाहिए।

प्रश्न 16
कमरे में परदे लगाने के दो प्रमुख उद्देश्य लिखिए। [2010, 11, 12, 13]
उत्तर:

  1. तेज रोशनी, लू एवं ठण्डी हवा से बचाव करना तथा
  2. कमरे के अन्दर एकान्तता प्रदान करना और कमरे (UPBoardSolutions.com) की सज्जा में वृद्धि करना।

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प्रश्न 17
फर्नीचर कितने प्रकार के होते हैं ? [2014, 17]
उत्तर:
फर्नीचर अनेक प्रकार के होते हैं; जैसे-लकड़ी का फर्नीचर, पाइप का फर्नीचर, माइका लगा फर्नीचर, प्लास्टिक का फर्नीचर, फोम का फर्नीचर तथा रेक्सीन लगा फर्नीचर। अब फाइबर-ग्लास का भी फर्नीचर बनने लगा है।

प्रश्न 18
गृह-व्यवस्था किसे कहते हैं ? [2017]
उत्तर:
गृह के सभी कार्य पूर्ण रूप से होना, आय और व्यय में ताल-मेल बनाए रखना तथा घर की सफाई का भी ध्यान रखना गृह-व्यवस्था कहलाती है।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न-निम्नलिखित बहुविकल्पीय प्रश्नों के सही विकल्पों का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1.
सजावट का क्या अर्थ है? । [2016]
(क) परदे लगाना
(ख) चित्रों से घर सजाना
(ग) फूलों से घर सजाना
(घ) घर सुव्यवस्थित रखना

प्रश्न 2.
सजावट से पूर्व आवश्यक है- [2011, 16]
(क) चित्र एकत्र करना
(ख) कालीन खरीदना
(ग) फूलों का चुनाव करना
(घ) कमरे की सफाई करना

प्रश्न 3.
घर की सजावट के लिए सबसे अधिक आवश्यक है {3}
(क) सफाई
(ख) मूल्यवान कालीन
(ग) दुर्लभ कलाकृतियाँ
(घ) विदेशी फर्नीचर

प्रश्न 4.
गृह-सज्जा का आवश्यक तत्त्व है [2008, 15, 17]
(क) उपयोगिता
(ख) सुन्दरता
(ग) अभिव्यक्ति
(घ) ये सभी

प्रश्न 5.
फूलों को अधिक समय तक ताजा बनाए रखने के लिए फूलदान के पानी में क्या डालना चाहिए? [2009, 12]
(क) सोडा
(ख) नमक
(ग) साबुन
(घ) दूध

प्रश्न 6.
बच्चों के कमरे में चित्र लगाने चाहिए|
(क) फूलों के ।
(ख) बालोपयोगी
(ग) कलात्मक
(घ) श्रृंगारिक

प्रश्न 7.
घरेलू फर्नीचर का मुख्यतम गुण है उसका
(क) नक्काशीदार होना
(ख) अधिक-से-अधिक सजावटी होना
(ग) उपयोगी होना
(घ) सस्ता होना

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प्रश्न 8.
सामान्य रूप से घर के किस भाग की सज्जा को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है?
(क) रसोईघर की
(ख) भोजन के कमरे की
(ग) ड्राइंग-रूम की
(घ) शयन-कक्ष की

प्रश्न 9.
घर की सजावट के लिए किस वस्तु का प्रयोग किया जाता है? [2015]
(क) ईंट
(ख) बालू
(ग) सीमेन्ट
(घ) फूलदान

प्रश्न 10.
घर की सजावट के लिए किस वस्तु का प्रयोग नहीं किया जाता है? [2017]
(क) फूलदान
(ख) चित्र
(ग) हथौड़ा
(घ) कालीन

उतर:

  1.  (घ) घर सुव्यवस्थित रखना,
  2.  (घ) कमरे की सफाई करना,
  3. (क) सफाई,
  4.  (घ) ये सभी,
  5.  (ख) नमक,
  6. (ख) बालोपयोगी,
  7.  (ग) उपयोगी होना,
  8. (ग) ड्राइंग-रूम की,
  9. (घ) फूलदान,
  10.  (ग) हथौड़ा।

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UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 2 (Section 3)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 2 जलवायु (अनुभाग – तीन)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Social Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 2 जलवायु (अनुभाग – तीन).

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जलवायु से आप क्या समझते हैं ? जलवायु को प्रभावित करने वाले कारकों (परिघटनाओं) का वर्णन कीजिए। [2006, 11, 13]
या

भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले किन्हीं दो तत्त्वों का वर्णन कीजिए। [2007, 08, 10]
या

भारत की जलवायु पर हिमालय की स्थिति (उच्चावच) के दो प्रभावों का उल्लेख कीजिए। [2010]
या

भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले तीन कारकों को स्पष्ट कीजिए। [2013]
या
भारतीय जलवायु को प्रभावित करने वाले किन्हीं पाँच कारकों का उल्लेख कीजिए। [2011, 13]
या

भारत की स्थिति का उसकी जलवायु पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
या
भारत की जलवायु पर हिमालय पर्वत का क्या प्रभाव पड़ता है ?
या
भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले तीन कारकों को बताइए। [2015, 16]
उत्तर :

जलवायु

लम्बी अवधि (30 से 50 वर्षों) के दौरान मौसम सम्बन्धी दशाओं के साधारणीकरण को जलवायु कहते हैं, अर्थात् भू-पृष्ठ के विस्तृत क्षेत्र में मौसम की दशाओं की समग्र जटिलता, उसके औसत लक्षण और परिवर्तन का परिसर जलवायु कहलाता है। सामान्यतः (UPBoardSolutions.com) ये दशाएँ अनेक वर्षों की दशाओं का परिणाम होती हैं और ताप, वायुमण्डलीय दाब, वायु आर्द्रता, मेघ, वर्षण तथा अन्य मौसम तत्त्वों के कारण उत्पन्न होती हैं।

भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक

विभिन्न स्थानों पर भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं
1. अवस्थिति- भारत भूमध्य रेखा के उत्तर में 8°4′ तथा 37°6′ उत्तर अक्षांश तथा 68°7′ से 97°25 पूर्वी देशान्तर के बीच स्थित है। कर्क वृत्त रेखा देश के लगभग मध्य से होकर गुजरती है। इसीलिए देश का उत्तरी भाग उपोष्ण कटिबन्ध में तथा दक्षिणी भाग उष्ण कटिबन्ध में पड़ता है। इस कटिबन्धीय स्थिति के कारण दक्षिणी भाग में ऊँचे तापमान तथा उत्तरी भाग में विषम तापमान पाये जाते हैं। भारत हिन्द महासागर, अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी से घिरा एक प्रायद्वीपीय देश है। इस प्रायद्वीपीय स्थिति का प्रभाव तापमानों तथा वर्षा पर पड़ता है। समुद्रतटीय भागों की जलवायु सम रहती है, जब कि आन्तरिक भागों में विषम जलवायु पायी जाती है। वर्षा की मात्रा भी तटीय भगों से आन्तरिक भागों की ओर घटती है।

2. पृष्ठीय पवनें- उपोष्ण कटिबन्धीय स्थिति के कारण भारत शुष्क व्यापारिक पवनों के क्षेत्र में पड़ता है, किन्तु भारत की विशिष्ट प्रायद्वीपीय स्थिति, तापमानों-वायुदाब की भिन्नता आदि कारणों से भारत में मानसूनी पवनें सक्रिय रहती हैं। ये पवनें ऋतु-क्रम से अपनी दिशा बदलती रहती हैं। तदनुसार भारत में ग्रीष्मकालीन (दक्षिण-पश्चिमी) मानसून तथा शीतकालीन (उत्तर-पूर्वी) मानसून सक्रिय होते हैं। इन्हीं मानसूनों से भारत को अधिकांश वर्षा प्राप्त होती है। अत: भारतीय मानसून के अध्ययन के बिना उसकी जलवायु के विषय में नहीं जाना जा सकता।

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3. उच्चावच (हिमाचल)– भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत-श्रेणी एक प्रभावशाली जलवायु विभाजक का कार्य करती है। यह उत्तरी बर्फीली पवनों को भारत में प्रवेश करने से रोकती है तथा दक्षिण की ओर से आने वाली मानसूनी पवनों को रोककर देश में व्यापक वर्षा कराती है। इसी प्रकार पश्चिमी घाट की पहाड़ियाँ भी अरबसागरीय मानसूनों को रोककर पश्चिमी ढालों पर भारी वर्षा कराती हैं। हिमालय रूपी पर्वत-श्रृंखला के कारण ही उत्तरी भारत में उष्ण-कटिबन्धीय जलवायु पायी जाती है। इस जलवायु की दो विशेषताएँ हैं—(i) पूरे वर्ष में अपेक्षाकृत उच्च तापमान तथा (ii) शुष्क शीत ऋतु। कुछ क्षेत्रों को छोड़कर पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में ये दोनों ही विशेषताएँ पायी जाती हैं।

4. उपरितन वायु- उपरितन वायु से अभिप्राय ऊपरी वायुमण्डल में चलने वाली वायुधाराओं से है। ये भूपृष्ठ से बहुत ऊँचाई पर (9 किमी से 12 किमी तक) तीव्र गति से चलती हैं। इन्हें जेट वायुधाराएँ भी कहते हैं। ये बहुत सँकरी पट्टी में चलती हैं। (UPBoardSolutions.com) शीत ऋतु में हिमालय के दक्षिणी भाग के ऊपर स्थित समताप मण्डल में पश्चिमी जेट वायुधारा चलती है। जून में यह उत्तर की ओर खिसक जाती है तथा 15° उत्तरी अक्षांश के ऊपर चलने लगती है। उत्तरी भारत में मानसून के अचानक विस्फोट के लिए यही वायुधारा उत्तरदायी मानी जाती है। इसके शीतल प्रभाव से बादल उमड़ने लगते हैं, फिर बरसते हैं। आठ-दस दिनों में ही पूरे देश में मानसून का प्रसार हो जाता है। ग्रीष्म ऋतु की अपेक्षा शीत ऋतु में इनका वेग दोगुना हो जाता है। साधारणत: इनको वेग लगभग 500 किमी प्रति घण्टा होता है तथा ध्रुवों की ओर बढ़ने पर इनके वेग में कमी आ जाती है।

5. अलनिनो- यह एक ऐसी मौसमी परिघटना है, जिसका प्रभाव समूचे विश्व पर पड़ता है। भारत की मानसूनी जलवायु भी इस परिघटना से प्रभावित होती है। इस तन्त्र में पूर्वी प्रशान्त महासागर के पीरू तट पर गर्म धारा प्रकट होने पर हिन्द महासागर में स्थित भारत में अकाल या वर्षा की कमी की स्थिति हो जाती है। अलनिनो के समाप्त होने पर प्रशान्त महासागर की सतह पर तापमान तथा वायुदाब की स्थिति पहले जैसी हो जाती है। इन उतार-चढ़ावों को दक्षिणी दोलन’ (Southern Oscillation) कहा जाता है। मानसूनों के प्रबल या दुर्बल होने में ‘दक्षिणी दोलन’ का बहुत प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 2.
भारत की ग्रीष्मकालीन एवं शीतकालीन जलवायु का वर्णन कीजिए।
या
भारतीय जलवायु का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों में कीजिए
(क) शीत ऋतु तथा (ख) ग्रीष्म ऋतु।
या
शीत ऋतु में दक्षिण भारत में वर्षा क्यों होती है ?
उत्तर :
भारत की ग्रीष्मकालीन जलवायु भारत में ग्रीष्मकालीन जलवायु मार्च से मध्य जून तक रहती है। इस ऋतु में देश में मौसम की सामान्य दशाएँ निम्नलिखित होती हैं

1. तापमान– 
सूर्य के उत्तरायण होने के कारण ऊष्मा की पेटी दक्षिण से उत्तर की ओर खिसकने लगती है। सम्पूर्ण देश में तापमान बढ़ने लगता है। अप्रैल में, गुजरात तथा मध्य प्रदेश में तापमान 42° से 43° सेल्सियस तक पहुँच जाता है। मई में, तापमान की वृद्धि 48° सेल्सियस तक हो जाती है तथा मरुस्थलीय क्षेत्र में 50° सेल्सियस तक तापमान पहुँच जाता है।

2. वायुदाब तथा पवनें– 
उत्तरी भारत में तापमानों की वृद्धि होने से वायुदाब घट जाता है। मई के अन्त तक एक लम्बा सँकरा निम्न वायुदाब गर्त थार मरुस्थल से लेकर बिहार में छोटा नागपुर के पठार तक विस्तृत हो जाता है। इस निम्न वायुदाब (UPBoardSolutions.com) गर्त के चारों ओर वायु का संचरण होने लगता है। दोपहर के बाद शुष्क और गर्म ‘लू (पवने) चलने लगती हैं। पंजाब, हरियाणा, पूर्वी राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में सायंकाल को धूलभरी आँधियाँ आती हैं। यदा-कदा आँधियों के बाद हल्की वर्षा हो जाती है तथा मौसम सुहाना हो जाता

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3. वर्षण– 
यदा-कदा आर्द्रता से लदी पवनें मानसून के निम्न दाब गर्त की ओर खिंच आती हैं। तब शुष्क और आर्द्र वायु-राशियों के मिलने से स्थानीय तूफान आते हैं। तेज पवनें, मूसलाधार वर्षा और कभी-कभी ओले भी पड़ते हैं।

केरल तथा कर्नाटक के तटीय भागों में ग्रीष्म ऋतु के अन्त में तथा मानसून से पूर्व कुछ वर्षा होती है, जिसे स्थानीय रूप से ‘आम्रवर्षा’ कहते हैं। यह वर्षा आम के फल को शीघ्र पकाने में सहायक होती है, इसीलिए इसे ‘आम्रवृष्टि’ नाम दिया गया है। अप्रैल में, बंगाल और असोम में उत्तर-पश्चिमी तथा उत्तरी पवनों द्वारा मेघ गर्जन, तड़ित-झंझा के साथ तेज बौछारें पड़ती हैं। इन्हें ‘काल-बैसाखी’ कहते हैं। कभी-कभी इन पवनों के द्वारा इन क्षेत्रों को भारी हानि भी उठानी पड़ जाती है।

भारत की शीतकालीन जलवायु

भारत में शीतकालीन जलवायु दिसम्बर से फरवरी तक रहती है। इस जलवायु की सामान्य दशाएँ निम्नलिखित हैं

1. तापमान– सामान्यतः देश में तापमान दक्षिण से उत्तर की ओर तथा समुद्र तट से आन्तरिक भागों की ओर घटते हैं। तिरुवनन्तपुरम् तथा चेन्नई में दिसम्बर में औसत तापमान 25°से 27°C के लगभग रहते हैं। दिल्ली और जोधपुर में तापमान 15° से 16°C तक रहते हैं। लेह में औसत तापमान -6°C तक गिर जाते हैं। उत्तरी मैदान में व्यापक रूप से पाला पड़ता है। इस ऋतु में दिन सामान्यतः कोष्ण (कम उष्ण) एवं रातें ठण्डी होती हैं।

2. वायुदाब- देश के उत्तर-पश्चिमी भाग में उच्च वायुदाब क्षेत्र स्थापित होता है। यहाँ से पवनें बाहर की ओर 3 किमी से 5 किमी प्रति घण्टा के वेग से चलने लगती हैं। इस क्षेत्र की स्थलाकृति का प्रभाव भी इन पवनों पर पड़ता है। समुद्रवर्ती भागों में कम वायुदाब रहता है; अतः पवनें स्थल से समुद्र की ओर चलती हैं। गंगा घाटी में इन पवनों की दिशा पश्चिमी या उत्तर-पश्चिमी होती है। गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा में इनकी दिशा उत्तरी हो जाती है। स्थलाकृति के प्रभाव से मुक्त होकर बंगाल की खाड़ी के ऊपर इनकी दिशा उत्तर- पूर्वी हो जाती है।

3. वर्षा- स्थलीय पवनें शुष्क होती हैं; अतः प्राय: सम्पूर्ण देश में मौसम शुष्क रहता है। भूमध्य सागर की ओर से आने वाले पश्चिमी विक्षोभों से कुछ वर्षा देश के उत्तर-पश्चिमी भागों में होती है। हिमालय श्रेणी में हिमपात होता है। तमिलनाडु तट पर भी शीतकाल में वर्षा होती है। उत्तर-पूरब की ओर से चलने वाली स्थलीय मानसूनी पवनें जब बंगाल की खाड़ी को पार कर तमिलनाडु तट पर पहुँचती हैं, तो ये कुछ आर्द्रता ग्रहण (UPBoardSolutions.com) कर लेती हैं तथा तटों पर वर्षा करती हैं।

प्रश्न 3.
भारत में वर्षा के वार्षिक वितरण को स्पष्ट कीजिए तथा अपने उत्तर की पुष्टि रेखाचित्र से कीजिए।
या
भारतीय वर्षा के वितरण पर एक लेख लिखिए।
उत्तर :

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भारत में वर्षा का वार्षिक वितरण

भारत में वर्षा का वितरण बहुत विषम है। देश में कुल वर्षा का औसत लगभग 110 सेमी (40 इंच) है किन्तु इस सामान्य से वर्षा का विचलन 10% से 40% तक हो जाता है। सामान्यतः 85% वर्षा दक्षिण-पश्चिमी मानसूनों (जुलाई-सितम्बर) से प्राप्त होती है, लगभग 10% ग्रीष्मकालीन मानसूनों से, 5% लौटते हुए मानसूनों से (अक्टूबर-दिसम्बर) तथा 5% शीतकाल में होती है। देश में वर्षा का प्रादेशिक वितरण भी बहुत असमान रहता है। सामान्य रूप से भारत में वर्षा की निश्चितता तथा अनिश्चितता के आधार पर उसे दो भागों में विभाजित किया जा सकता है
1. निश्चित वर्षा के प्रदेश- इस प्रदेश के अन्तर्गत हिमालय को तराई प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, असोम, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, नागालैण्ड, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर, पश्चिमी घाट के पश्चिमी ढाल, ऊपरी नर्मदा घाटी तथा मालाबार तट सम्मिलित किये जाते हैं।
2. अनिश्चित वर्षा के प्रदेश- अनिश्चित वर्षा के प्रदेश में उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात के मध्यवर्ती भाग, पूर्वी घाट, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश के दक्षिणी और पश्चिमी भाग, कर्नाटक, बिहार तथा ओडिशा सम्मिलित हैं। अनिश्चित वर्षा वाले प्रदेशों को निम्नलिखित भागों में बाँटा गया है

  • अधिक वर्षा वाले क्षेत्र– इसके अन्तर्गत पश्चिमी तट के कोंकण, मालाबार, दक्षिणी कनारा तथा उत्तर में हिमालय के दक्षिणी क्षेत्र में उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, मेघालय, असोम, नागालैण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर तथा (UPBoardSolutions.com) त्रिपुरा राज्य सम्मिलित हैं। इन क्षेत्रों में वर्षा का औसत 200 सेमी से अधिक रहता है।
  • साधारण वर्षा वाले क्षेत्र– इन क्षेत्रों में बिहार, ओडिशा, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिमी घाट के पूर्वोत्तर ढाल, पश्चिम बंगाल, दक्षिणी उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश सम्मिलित हैं। यहाँ वर्षा का औसत 100 से 200 सेमी के मध्य रहता है। इन क्षेत्रों में वर्षा की विषमता 15 से 20% तक पायी जाती है। कभी-कभी इन क्षेत्रों में अधिक वर्षा होने से बाढ़ आ जाती है, जबकि कभी वर्षा
    UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 2 जलवायु 1
    की कमी से अकाल पड़ जाते हैं। इस प्रकार इन क्षेत्रों में वर्षा की अधिकता एवं कमी में मानसूनों का प्रमुख योगदान होता है। इसी कारण यहाँ बड़ी-बड़ी बहुउद्देशीय नदी-घाटी परियोजनाएँ क्रियान्वित की गयी हैं।
  • न्यून वर्षा वाले क्षेत्र– इन क्षेत्रों में वर्षा की कमी अनुभव की जाती है। यहाँ पर वर्षा का वार्षिक औसत 50 से 100 सेमी तक रहता है। इस प्रदेश के अन्तर्गत दक्षिण का प्रायद्वीप, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पश्चिमी मध्य प्रदेश, उत्तरी एवं दक्षिणी आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, पूर्वी राजस्थान, दक्षिणी पंजाब तथा दक्षिणी उत्तर प्रदेश राज्यों के भाग सम्मिलित हैं। वर्षा की विषमता 20 से 25 सेमी तक तथा अपर्याप्त व अनिश्चित रहती है। इन प्रदेशों में अकाल की सम्भावना बनी रहती है। अतः यहाँ सिंचाई के सहारे गेहूँ, कपास, ज्वार, बाजरा, तिलहन आदि फसलें उत्पन्न की जाती हैं।
  • अपर्याप्त वर्षा के क्षेत्र अथवा मरुस्थलीय क्षेत्र- ये भारत के शुष्क क्षेत्र हैं, जहाँ पर 50 सेमी से भी कम वर्षा होती है। वर्षा की कमी के कारण यहाँ सदैव सूखे की समस्या बनी रहती है। बिना सिंचाई के कृषि कार्य इन क्षेत्रों में बिल्कुल असम्भव है। (UPBoardSolutions.com) पश्चिमी राजस्थान के सम्पूर्ण क्षेत्र इसके अन्तर्गत आते हैं। तमिलनाडु का रायलसीमा क्षेत्र भी इसके अन्तर्गत आता है।

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प्रश्न 4.
भारत की अधिकांश वर्षा गर्मियों में होती है-कारणों का उल्लेख करते हुए भारत में वर्षा का वितरण लिखिए।
या
भारत की मानसून ऋतु का वर्णन कीजिए।
या
दक्षिण-पश्चिमी मानसून की वर्षा से प्रभावित किन्हीं दो क्षेत्रों का उल्लेख कीजिए। [2010]
या
भारत में दक्षिण-पश्चिमी मानसून द्वारा होने वाली वर्षा का वर्णन कीजिए।
या
आगे बढ़ता हुआ मानसून’-भारत की इस ऋतु का वर्णन कीजिए।
उत्तर :

भारत की वर्षा ऋतु (मानसून ऋतु)

वर्षा ऋतु ( आगे बढ़ते हुए मानसून की ऋतु )–जून से सितम्बर के मध्य सम्पूर्ण देश में व्यापक रूप से वर्षा होती है। वर्षा का 75% से 90% भाग इसी अवधि में प्राप्त हो जाता है।
दक्षिण-पश्चिमी मानसून की उत्पत्ति- ग्रीष्म ऋतु में देश के उत्तर-पश्चिमी मैदानी भागों में निम्न वायुदाब का क्षेत्र विकसित हो जाता है। जून के प्रारम्भ तक निम्न वायुदाब का यह क्षेत्र इतना प्रबल हो जाता है कि दक्षिण गोलार्द्ध की व्यापारिक पवनें भी इस ओर खिंच आती हैं। इन दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनों की उत्पत्ति समुद्र से होती है। हिन्द महासागर में विषुवत् वृत्त को पार करके ये पवनें बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर में पहुँच जाती हैं। इसके बाद ये भारत के वायु-संचरण का अंग बन जाती हैं। विषुवतीय गर्म धाराओं के ऊपर से गुजरने के कारण ये भारी मात्रा में आर्द्रता ग्रहण कर लेती हैं। विषुवत् वृत्त पार करते ही इनकी दिशा दक्षिण-पश्चिम हो जाती है। इसीलिए इन्हें दक्षिण-पश्चिमी मानसून’ कहा जाता है।

मानसून का फटना- वर्षावाहिनी पवनें बड़ी तेज चलती हैं। इनकी औसत गति 30 किमी प्रति घण्टा होती है। उत्तर-पश्चिम के दूरस्थ भागों को छोड़कर ये पर्वनें एक महीने के अन्दर-अन्दर सारे भारत में फैल जाती हैं। आर्द्रता से लदी इन पवनों के साथ ही (UPBoardSolutions.com) बादलों का प्रचण्ड गर्जन तथा बिजली का चमकना शुरू हो जाता है। इसे मानसून का ‘फटना’ अथवा ‘टूटना’ कहते हैं।

दक्षिण-पश्चिमी मानसून की शाखाएँ- भारत की प्रायद्वीपीय स्थिति के कारण मानसून की दो शाखाएँ। हो जाती हैं
(1) अरब सागर की शाखा- अरब सागर की शाखा सबसे पहले पश्चिमी घाट के पर्वतों से टकराकर सह्याद्रि के पवनाभिमुख ढालों पर भारी वर्षा करती है। पश्चिमी घाट को पार करके यह शाखा दकन के पंठार और मध्य प्रदेश में पहुँच जाती है। वहाँ भी इससे पर्याप्त मात्रा में वर्षा होती है। तत्पश्चात् इसका प्रवेश गंगा के मैदानों में होता है, जहाँ बंगाल की खाड़ी की शाखा भी आकर इसमें मिल जाती है। अरब सागर के मानसून की शाखा का दूसरा भाग सौराष्ट्र के प्रायद्वीप तथा कच्छ में पहुँच जाता है। इसके बाद यह पश्चिमी राजस्थान और अरावली पर्वत-श्रेणियों के ऊपर से गुजरता है। वहाँ इसके द्वारा बहुत हल्की वर्षा होती है। पंजाब और हरियाणा में पहुँचकर यह शाखा भी बंगाल की खाड़ी की शाखा में मिलकर हिमालय के पश्चिमी भाग में भारी वर्षा करती है।
(2) बंगाल की खाड़ी की शाखा- बंगाल की खाड़ी की मानसून शाखा म्यांमार (बर्मा) तट की ओर तथा बांग्लादेश के दक्षिण-पूर्वी भागों की ओर बढ़ती है। परन्तु म्यांमार के तट के साथ-साथ फैली अराकान पहाड़ियाँ इस शाखा के बहुत बड़े भाग को भारतीय उपमहाद्वीप की दिशा में मोड़ देती हैं। इस प्रकार यह पश्चिमी दिशा से न आकर दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्वी दिशाओं से आती है। विशाल हिमालय तथा उत्तर-पश्चिमी भारत के निम्न वायुदाब के प्रभाव से यह शाखा दो भागों में बँट जाती है। एक शाखा पश्चिम की ओर बढ़ती है तथा गंगा के मैदानों को पार करती हुई पंजाब के मैदानों तक पहुँचती है। इसकी दूसरी शाखा ब्रह्मपुत्र की घाटी की ओर बढ़ती है। यह उत्तर-पूर्वी भारत में भारी वर्षा करती है। इसकी एक उपशाखा मेघालय में गारो और खासी की पहाड़ियों से टकराती है और वहाँ खूब वर्षा करती है। सबसे अधिक वर्षा मॉसिनराम (Mausinram) (मेघालय) में होती है। यहाँ वार्षिक वर्षा को औसत 11,405 मिलीमीटर है।

वर्षा का वितरण– दक्षिण-पश्चिमी मानसून से होने वाली वर्षा के वितरण पर उच्चावच का बहुत प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए-पश्चिमी घाट के पवनविमुख ढालों पर 250 सेमी से अधिक वर्षा होती है। इसके विपरीत पश्चिमी घाट के पवनाभिमुख ढालों पर 50 सेमी से भी कम वर्षा होती है। इसी प्रकार उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी भारी वर्षा होती है, परन्तु उत्तरी मैदानों में वर्षा की मात्रा पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है। इस विशिष्ट ऋतु में (UPBoardSolutions.com) कोलकाता में लगभग 120 सेमी, पटना में 102 सेमी, इलाहाबाद में 91 सेमी तथा दिल्ली में 56 सेमी वर्षा होती है।

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प्रश्न 5.
भारतीय जलवायु के प्रभावों का वर्णन कीजिए।
या
भारतीय जलवायु में पायी जाने वाली विषमताओं तथा कृषि पर उनके प्रभाव का वर्णन कीजिए।
या
भारत में मानसून के किन्हीं दो प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
भारतीय जलवायु के मुख्य तत्त्व-तापमान तथा वर्षा हैं। समस्त देश में तापमानों तथा वर्षा का वितरण असमान पाया जाता है। इन विषमताओं का प्रभाव भारतीय कृषि पर स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। भारत की जलवायु में बहुत अधिक विषमताएँ पायी जाती हैं। इन विषमताओं को उत्पन्न करने में निम्नलिखित कारक सहायक होते हैं

1. तापमानों की विषमताएँ- देश के विभिन्न भागों में तापमानों की भिन्नता पायी जाती है। दक्षिणी | भारत उष्ण कटिबन्ध में पड़ता है; अत: वहाँ वर्षपर्यन्त ऊँचे तापमान रिकॉर्ड किये जाते हैं। इसके विपरीत, कर्क रेखा के उत्तर के क्षेत्र उपोष्ण कटिबन्धीय स्थिति के कारण ग्रीष्म तथा शीत ऋतु में तापमानों की अतिशयताओं का अनुभव करते हैं। हिमालय के पर्वतीय भागों में तो शीत काल में तापमान शून्य के ऊपर रहते हैं। मरुस्थलीय भागों में शीत काल में बहुत कम तापमान तथा ग्रीष्म काल में बहुत ऊँचे तापमान पाये जाते हैं।

2. वर्षा के वितरण की विषमताएँ- देश में वर्षा का प्रादेशिक वितरण बहुत विषम है। मेघालय, असम, बंगाल आदि में 200 सेमी से अधिक वार्षिक वर्षा होती है, जब कि गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश में वार्षिक वर्षा का वितरण औसत 25 सेमी से 100 सेमी तक रहता है। आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक तथा दकन के पठार के आन्तरिक भागों में 50 से 100 सेमी तक वार्षिक वर्षा होती है। इसी प्रकार पूर्वी हिमालय में 200 सेमी से अधिक तथा पश्चिमी हिमालय में 100 से 150 सेमी तक वार्षिक वर्षा होती है। हम जानते हैं कि वायुराशियों द्वारा अवरोधं के सम्मुख वाले भाग में अत्यधिक (UPBoardSolutions.com) वर्षा होती है, जब कि विमुख भागों तक पहुँचते-पहुंचते वायुराशियाँ अपनी आर्द्रता खो देने के कारण शुष्क और उष्ण हो जाती हैं और वहाँ बहुत कम वर्षा ही हो पाती है। इन प्रदेशों को वृष्टिछाया प्रदेश कहते हैं; उदाहरणार्थ-भारत में दक्षिण-पश्चिमी मानसून पवनों की अरब सागरीय शाखा द्वारा पश्चिमी घाट के वायु अभिमुख ढाल पर 640 सेमी (महाबलेश्वर) वर्षा होती है, जब कि इसके विमुख ढाल पर पुणे में 50 सेमी वर्षा भी कठिनाई से हो पाती है; अत: दक्षिणी भारत का यह क्षेत्र-वृष्टिछाया प्रदेश कहलाता है।

3. वर्षा की ऋत्विक विषमताएँ- देश के अधिकांश भागों में जुलाई से सितम्बर के मध्य अधिकांश वर्षा (85% तक) होती है, किन्तु तमिलनाडु में शीतकालीन तथा लौटते हुए मानसूनों से अधिक वर्षा होती है। उत्तरी भारत में चक्रवातों से शीत ऋतु में वर्षा प्राप्त होती है। पर्वतीय क्षेत्रों में हिमपात होता है।

4. वर्षा का सामान्य से विचलन– प्रत्येक वर्ष मानसून एक जैसे सक्रिय नहीं होते। किसी वर्ष सामान्य से अधिक वर्षा होती है तथा किसी वर्ष सामान्य से कम। वर्षा की यह अनियमित तथा अनिश्चित प्रकृति प्रादेशिक रूप से भी दृष्टिगोचर होती है। इसीलिए देश के कुछ भागों में जब बाढ़े आती हैं, तब कुछ भागों में सूखे की स्थिति भी होती है।

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जलवायु की विषमता का कृषि-उपजों या मानव-जीवन पर प्रभाव

भारत की जलवायु मानसूनी है। मानसून की विलक्षणता के कारण इसे ‘भारत के आर्थिक जीवन की धुरी’ कहा गया है। पर्यावरण के सभी अंगों में जलवायु मानव-जीवन को सबसे अधिक प्रभावित करती है। मनुष्य की वेशभूषा, खान-पान, गृह-प्रकार, जन-स्वास्थ्य आदि सभी पर जलवायु का गहरा प्रभाव पड़ता है। इसके निम्नलिखित प्रभाव उल्लेखनीय हैं

  1. भारत में खरीफ फसलों की बुवाई वर्षा के आरम्भ होने के साथ शुरू हो जाती है। यदि वर्षा समय से प्रारम्भ हो जाती है और नियमित अन्तराल पर होती रहती है तो कृषि उत्पादन पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होता है।
  2. जिन भागों में कम वर्षा होती है अथवा सूखा पड़ता है वहाँ कृषि फसलें सिंचाई के बिना पैदा नहीं की जा सकती हैं।
  3. अत्यधिक उष्णता एवं आर्द्रता बीमारियों को जन्म देती हैं। इनसे मनुष्य पुरुषार्थहीन हो जाता है तथा उसकी कार्यक्षमता में कमी आती है।
  4. ग्रीष्म ऋतु में उत्तरी भारत में तापमान बहुत ऊँचे हो जाते हैं और (UPBoardSolutions.com) ‘लू’ चलने लगती है, जिससे खेतों में काम करना भी कठिन हो जाता है।
  5. मूसलाधार वर्षा से बाढ़ आ जाती हैं और बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में कृषि-फसलें नष्ट हो जाती हैं।
  6. भीषण गर्मी के बाद वर्षा का मौसम आरम्भ हो जाता है, जो मानव स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालता है। इससे अनेक संक्रामक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। देश के कुछ भागों में मलेरिया व हैजा जैसे रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
  7. मानव की वेशभूषा भी जलवायु से प्रभावित होती है। उत्तर भारत में लोग शीत ऋतु में ऊनी कपड़े पहनते हैं तथा दक्षिण भारत में सफेद हल्के व सूती वस्त्र पहने जाते हैं।
  8. समय से पूर्व वर्षा आरम्भ होने तथा समय से पहले वर्षा समाप्त होने से भी आर्थिक क्रिया- कलाप प्रभावित होते हैं।
  9. जलवायु का प्रभाव घरों के निर्माण पर भी पड़ता है। भारत में मकान हवादार बनाये जाते हैं। उनमें आँगन व बरामदों की अधिक आवश्यकता होती है, क्योंकि भारत में ग्रीष्म काल की अवधि लम्बी होती है, जब कि शीत ऋतु थोड़े समय के लिए ही होती है।
  10. भारत में ग्रीष्म ऋतु में हरे चारे की कमी हो जाती है, जिससे पशुओं के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
  11. भारत के कुछ प्रदेशों; विशेषकर पंजाब में गेहूं व गन्ना की फसलों को लाभ मिलता है।
  12. भारत के वित्तीय बजट को ‘मानसून का जुआ’ कहा गया है, क्योंकि भारत में किसी वर्ष वर्षा बहुत | कम होती है, जिससे फसलें नष्ट हो जाती हैं और देश में अकाल पड़ जाता है तथा कभी-कभी वर्षा अधिक हो जाती है, जिसके (UPBoardSolutions.com) कारण नदियों में बाढ़ आ जाती है। इससे भी फसलें नष्ट हो जाती हैं।
  13. भारत की जलवायु ने कृषकों को भाग्यवादी एवं निराशावादी बना दिया है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मानसूनी वर्षा के रूप में भारतीय जलवायु कृषि-उपजों को सर्वाधिक प्रभावित करती है।

प्रश्न 6.
भारत की जलवायु की विशेषताओं का वर्णन कीजिए। [2013]
या

भारतीय जलवायु की किन्हीं पाँच विशेषताओं की विवेचना कीजिए। [2013]
या
सम और विषम जलवायु में अन्तर लिखिए।
या
विषम जलवायु से क्या अभिप्राय है ? उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
या
मानसूनी जलवायु की किन्हीं दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2016]
उत्तर :
भारत की स्थिति भूमध्य रेखा के उत्तर में है और कर्क रेखा देश के मध्य से गुजरती है। कर्क रेखा देश को दो भागों में विभाजित कर देती है। इस प्रकार भारत का उत्तरी भाग उपोष्ण कटिबन्ध तथा दक्षिणी भाग उष्ण कटिबन्ध में स्थित है। भारत में उत्तर की ओर हिमालय पर्वत-श्रेणी तथा दक्षिण-पूर्वी एवं दक्षिण-पश्चिमी दिशाओं में हिन्द महासागर की स्थिति है, जिन्होंने इसकी जलवायु को बहुत प्रभावित किया है। इसी कारण (UPBoardSolutions.com) भारत में विविध प्रकार की जलवायु दशाएँ पाई जाती हैं। वस्तुतः भारत की जलवायु पूर्णतः मानसूनी वर्षा पर निर्भर करती है। जिन भागों में मानसूनों के मार्ग में कोई अवरोध उपस्थित होता है, उन क्षेत्रों में वर्षा अधिक होती है; जैसे–पश्चिमी घाट तथा हिमालय पर्वत के दक्षिणी ढालों पर।

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एक स्थान से दूसरे स्थान और एक ऋतु से दूसरी ऋतु में तापमान एवं वर्षण में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। ग्रीष्म ऋतु में भारत के पश्चिम में स्थित थार मरुस्थल में इतनी प्रचण्ड गर्मी पड़ती है कि तापमान प्रायः 55° सेल्सियस तक पहुँच जाता है, जब कि शीत ऋतु में कश्मीर राज्य के लद्दाख क्षेत्र के लेह नगर में इतनी कड़ाके की ठण्ड पड़ती है कि तापमान जमाव बिन्दु से 45° सेल्सियस तक नीचे चला जाता है; अर्थात् -45° सेल्सियस तक चला जाता है। केरल और अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह में दिन और रात के तापमान में 7° या 8° सेल्सियस का अन्तर पाया जाता है। इसके विपरीत थार मरुस्थल में यदि दिन का तापमान 50° सेल्सियस रहता है तो रात में यह जमाव बिन्दु 0° तक पहुँच सकता है। जब हिमालय पर्वतीय क्षेत्र में हिमपात होता है, तब शेष भारत में वर्षा की बौछारें पड़ती हैं। कुछ विदेशी विद्वानों ने भारत को अनेक जलवायु वाला देश बताया है। ब्लैनफोर्ड (Blanford) का कथन है कि “हम भारत की जलवायुओं के विषय में कह सकते हैं, जलवायु के विषय में (UPBoardSolutions.com) नहीं, क्योंकि सम्पूर्ण विश्व में जलवायु की इतनी विषमताएँ नहीं मिलतीं जितनी अकेले भारत में प्रसिद्ध जलवायु विज्ञानवेत्ता मार्सडेन ने भी कहा है कि “विश्व की समस्त जलवायु की किस्में भारत में पाई जाती हैं।” स्पष्ट है कि भारत में विभिन्न प्रकार की जलवायु दशाएँ पाई जाती हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान और एक ऋतु से दूसरी ऋतु में तापमान, वायुदाब तथा पवनें एवं वर्षण में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। भारत में प्रमुख रूप से दो प्रकार की जलवायु पाई जाती हैं—(1) सम और (2) विषम।

1. समजलवायु- सम जलवायु उस जलवायु को कहा जाता है जहाँ गर्मियों में न अधिक गर्मी पड़ती है। और ने सर्दियों में अधिक सर्दी। जहाँ तापमान वर्षभर लगभग समान रहता है। ऐसी जलवायु प्रायः . समुद्र के तटीय प्रदेशों में पाई जाती है। समुद्र के प्रभाव के कारण तटीय क्षेत्रों में सम जलवायु पाई जाती है। ऐसी जलवायु में दैनिक तथा वार्षिक तापान्तर बहुत ही कम पाया जाता है। केरल के तिरुवनन्तपुरम् में इसी प्रकार की जलवायु पाई जाती है।

2. विषम जलवायु- विषम जलवायु उस जलवायु को कहा जाता है जहाँ गर्मियों में अत्यधिक गर्मी तथा सर्दियों में अधिक सर्दी पड़ती है। जहाँ तापमान वर्षभर असमान रहता है। ऐसी जलवायु महाद्वीपों के आन्तरिक भागों अथवा समुद्र से दूर के भागों में पाई जाती है। सूर्य की किरणों से जल की अपेक्षा धरती दिन में जल्दी गर्म और रात में जल्दी ठण्डी हो जाती है। अत: धरती के प्रभाव के कारण विषम जलवायु का जन्म होता है। ऐसी जलवायु में दैनिक तापान्तर और वार्षिक तापान्तर अपेक्षाकृत अधिक पाया जाता है। जोधपुर (राजस्थान) तथा अमृतसर (पंजाब) में इसी प्रकार की जलवायु पाई जाती है।

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प्रश्न 7.
भारत में मानसून की उत्पत्ति तथा वर्षा का वितरण बताइट। [2013, 14]
या
भारत में मानसून की उत्पत्ति पर प्रकाश डालिए। [2015]
या
निम्नलिखित शीर्षकों में भारत में मानसूनी वर्षा का वर्णन कीजिए [2015]
(क) वायु की दिशा, (ख) वर्षा का वितरण।
उत्तर :
मानसून का अर्थ , मानसून शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के ‘मौसिम’ शब्द से हुई है जिसका तात्पर्य मौसम या ऋतु है। मौसम का आवर्तन मानसूनी जलवायु की प्रमुख विशेषता है। भारत में इस प्रकार की हवाएँ वर्ष में दो बार उच्च वायु भार से (UPBoardSolutions.com) निम्न वायु भार की ओर चलती हैं। ग्रीष्म ऋतु में ये हवाएँ समुद्र से स्थल की ओर चलती हैं, जबकि शीत ऋतु में ये हवाएँ स्थल से समुद्र की ओर बहती हैं। ग्रीष्म ऋतु तथा शीत ऋतु के मौसम के मध्य पवनों की दिशा में 120° का अन्तर पाया जाता है। इन पवनों की न्यूनतम गति तीन मीटर प्रति सेकण्ड होती है, इसलिए इन्हें मानसूनी पवनें कहते हैं।

मानसून की रचना

मानसून की रचना के सम्बन्ध में अनेक मत प्रचलित हैं। इसके लिए सबसे मुख्य और प्राचीन मत है स्थलीय और जलीय हवाएँ जो शीत ऋतु में स्थल की ओर और ग्रीष्म ऋतु में जल की ओर बहती हैं। ग्रीष्म ऋतु में अधिक तापमान के कारण स्थर पर निम्न वायुदाब का केन्द्र बन जाता है जिससे हवाएँ समुद्र से स्थल की ओर चलने लगती हैं, जबकि शीत ऋतु में इसके बिल्कुल विपरीत होता है। समुद्री भाग पर निम्न वायुदाब के केन्द्र के कारण हवाएँ स्थल से समुद्र की ओर बहती हैं। आधुनिक शोधों के कारण अब यह मत मान्य नहीं है। अब वैज्ञानिक मानसून की उत्पत्ति के लिए जेट पवनों को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। इस मत के अनुसार । मानसून की उत्पत्ति वायुमण्डलीय पवन के संचार से होती है जिसमें तिब्बत का पठार मुख्य है। ऊँचाई पर स्थित होने के कारण ये पठार गर्म होकर भट्ठी की तरह (UPBoardSolutions.com) काम करता है। इस कारण इन अक्षांशों (20° उत्तरी अक्षांश से 20° दक्षिणी अक्षांश) में धरातल एवं क्षोभमण्डल के बीच वायु का एक आवृत्त बन जाता है।

क्षोभमण्डल में उष्णकटिबन्धीय पुरवा जेट तथा उपोष्ण कटिबन्धीय पछुआ जेट धाराओं के चलने से वायुमण्डल की आर्द्रतायुक्त हवाएँ ऊपर क्षोभमण्डल में पहुँचकर विभिन्न दिशाओं में फैल जाती हैं और निम्न क्षोभमण्डल में बहने लगती हैं। अधिक ऊँचाई पर पहुँचकर यही हवाएँ घनीभूत होकर भारतीय महाद्वीप में मानसूनी पवनों को उत्पन्न करती हैं, जिनसे समस्त भारत में वर्षा होती है।

वर्षा का वितरण- इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 3 का उत्तर देखें।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वर्षा और वर्षण में अन्तर लिखिए।
उत्तर :
वर्षा- 
यह वर्षण का एक विशिष्ट रूप है, जिसमें बादलों के जल-वाष्प कण संघनित होकर जल की बूंदों या हिमकणों के रूप में भू-पृष्ठ पर गिरते हैं। जलवर्षा तथा हिमवर्षा इसके दो रूप हैं। वर्षण–यह एक व्यापक प्रक्रिया है, जिसमें वायुमण्डल की आर्द्रता संघनित होकर वर्षा, हिम, ओला, पाला
आदि रूपों में धरातल पर गिरती है। जल-वर्षा, वर्षण का एक साधारण रूप है। हिमवृष्टि, ओलावृष्टि, हिमपात आदि इसके अनेक रूप हैं।

प्रश्न 2.
भारत में कितनी ऋतुएँ होती हैं ? कौन-सी ऋतु कृषि के लिए महत्त्वपूर्ण है और क्यों ?
उत्तर :
भारत की जलवायु मानसूनी है। मानसूनों की प्रगति के आधार पर देश में चार ऋतुएँ होती हैं

  • आगे बढ़ते हुए मानसून (दक्षिण-पश्चिमी मानसून) की ऋतु अर्थात् वर्षा ऋतु,
  • लौटते हुए मानसून की ऋतु अर्थात् शरद् ऋतु,
  • शीत ऋतु (उत्तर-पूर्वी मानसून) तथा
  • ग्रीष्म ऋतु।। देश की कृषि पर ऋतुओं का प्रभाव महत्त्वपूर्ण होता है। कृषि का आधार वर्षा है तथा देश की अधिकांश वर्षा आगे बढ़ते हुए मानसून (जुलाई से सितम्बर के मध्य) द्वारा होती है। इसलिए यह ऋतु, जिसे वर्षा ऋतु भी कहते हैं, कृषि के लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि
  1. इसी ऋतु में देश की 75 से 90% तक वर्षा होती है।
  2. वर्षा की अवधि तथा मात्रा का वितरण देशभर में (UPBoardSolutions.com) असमान है। इसका कृषि पर बहुत प्रभाव पड़ता है। उत्तरी मैदान में वर्षा की मात्रा पूर्व से पश्चिम की ओर घटती है, जबकि प्रायद्वीपीय भारत में पश्चिम से | पूरब की ओर वर्षा की मात्रा घटती है।
  3. वर्षा के वितरण का कृषि के प्रकार तथा फसलों के उत्पादन से गहरा सम्बन्ध है।
  4. आगे बढ़ते हुए मानसून ही देश की कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था की आधारशिला है। इसीलिए भारतीय कृषि को ‘मानसून का जुआ’ कहा जाता है।

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प्रश्न 3.
आम्रवृष्टि’ और ‘काल-बैसाखी’ में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
आम्रवृष्टि-ग्रीष्म ऋतु के अन्त में केरल तथा कर्नाटक के तटीय भागों में मानसून से पूर्व की वर्षा का यह स्थानीय नाम इसलिए पड़ा है; क्योकि यह वर्षा आम के फलों को शीघ्र पकाने में सहायता करती है। काल-बैसाखी-ग्रीष्म ऋतु में बंगाल तथा असोम में भी उत्तर-पश्चिमी तथा उत्तरी पवनों द्वारा वर्षा की तेज बौछारें पड़ती हैं। यह वर्षा प्रायः सायंकाल में होती है। इसी वर्षा को काल-बैसाखी’ कहते हैं। इसका अर्थ है-बैसाख मास की काल।

प्रश्न 4.
भारत में आगे बढ़ते हुए मानसून की ऋतु की तीन विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
भारत में आगे बढ़ते हुए मानसून की ऋतु की तीन विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • भारत में आगे बढ़ते हुए मानसून की ऋतु जून से सितम्बर तक रहती है। इस ऋतु में समस्त भारत में वर्षा होती है।
  • वर्षा ऋतु की अवधि दक्षिण से उत्तर की ओर (UPBoardSolutions.com) तथा पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है। देश के सबसे उत्तर-पश्चिमी भागों में यह अवधि केवल दो महीने की होती है।
  • देश की 75 से 90% वर्षा इसी ऋतु में होती है।

प्रश्न 5.
भारत में कम वर्षा वाले तीन क्षेत्र कौन-कौन-से हैं ?
उत्तर:
कम वर्षा वाले क्षेत्रों से अभिप्राय ऐसे क्षेत्रों से है, जहाँ 50 सेमी से भी कम वार्षिक वर्षा होती है। ये क्षेत्र हैं

  • पश्चिमी राजस्थान तथा इसके निकटवर्ती पंजाब, हरियाणा तथा गुजरात के क्षेत्र।
  • सह्याद्रि के पूर्व में फैले दकन के पठार के आन्तरिक भाग।
  • कश्मीर में लेह के आस-पास का प्रदेश।

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प्रश्न 6.
जाड़ों में वर्षा वाले भारत के दो क्षेत्रों का उल्लेख कीजिए। [2018]
उत्तर:
शीत ऋतु में स्थलीय पवनें शुष्क होती हैं; अतः प्रायः सम्पूर्ण देश में मौसम शुष्क रहता है। परन्तु निम्नलिखित दो क्षेत्रों में जाड़ों में भी वर्षा होती है

  • देश के उत्तर-पश्चिमी भाग-भूमध्य सागर की ओर से आने वाले पश्चिमी विक्षोभों से कुछ वर्षा देश के उत्तर-पश्चिमी भागों में होती है।
  • तमिलनाडु तट-तमिलनाडु तट पर भी शीतकाल में वर्षा (UPBoardSolutions.com) होती है। उत्तर-पूरब की ओर से चलने वाली स्थलीय मानसून पवनें जब बंगाल की खाड़ी को पार कर तमिलनाडु तट पर पहुँचती हैं, तो ये कुछ आर्द्रता ग्रहण कर लेती हैं तथा तटों पर वर्षा करती हैं।

प्रश्न 7.
जलवायु का प्राकृतिक वनस्पति व जीव-जन्तुओं पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर :
पर्यावरण के सभी अंगों में जलवायु मानव-जीवन को सबसे अधिक प्रभावित करती है। भारत में कृषि राष्ट्र के अर्थतन्त्र की धुरी है, जो वर्षा की विषमता से सबसे अधिक प्रभावित होती है। मानसूनी वर्षा बड़ी ही अनियमित एवं अनिश्चित है। जिस वर्ष वर्षा अधिक एवं मूसलाधार रूप में होती है तो अतिवृष्टि के परिणामस्वरूप बाढ़ आ जाती हैं तथा भारी संख्या में धन-जन का विनाश करती हैं। इसके विपरीत जिन क्षेत्रों में वर्षा कम होती है या अनिश्चितता की स्थिति होती है तो अनावृष्टि के कारण सूखा पड़ जाता है, जिससे फसलें सूख जाती हैं तथा पशुधन को भी पर्याप्त हानि उठानी पड़ती है। जलवायु का प्राकृतिक वनस्पति व जीव-जन्तुओं पर प्रभाव निम्नलिखित है-

1. प्राकृतिक वनस्पति पर प्रभाव- किसी देश की प्राकृतिक वनस्पति न केवल धरातल और मिट्टी के गुणों पर निर्भर करती है, वरन् वहाँ के तापमान और वर्षा का भी उस पर प्रभाव पड़ता है, क्योंकि पौधे के विकास के लिए वर्षा, तापमान, प्रकाश और वायु की आवश्यकता पड़ती है; उदाहरणार्थभूमध्यरेखीय प्रदेशों में निरन्तर तेज धूप, कड़ी गर्मी और अधिक वर्षा के कारण ऐसे वृक्ष उगते हैं; जिनकी पत्तियाँ घनी, ऊँचाई बहुत और लकड़ी अत्यन्त कठोर होती है। इसके विपरीत मरुस्थलों में काँटेदार झाड़ियाँ भी बड़ी कठिनाई से उग पाती हैं; क्योंकि यहाँ वर्षा का अभाव होता है। वास्तव में जलवायु वनस्पति का प्राणाधार है।

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2. जीव-जन्तुओं पर प्रभाव– जलवायु की विविधता ने प्राणियों में भी विविधता स्थापित की है। जिस प्रकार विभिन्न जलवायु में विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ पायी जाती हैं, वैसे ही विभिन्न जलवायु प्रदेशों में अनेक प्रकार के जीव-जन्तु पाये जाते हैं; उदाहरणार्थ-कुछ जीव-जन्तु वृक्षों की शाखाओं पर रहकर सूर्य की गर्मी और प्रकाश प्राप्त करते हैं; जैसे-नाना प्रकार के बन्दर, चमगादड़ आदि। इसके विपरीत कुछ जीव-जन्तु जल में निवास (UPBoardSolutions.com) करते हैं; जैसेमगरमच्छ, दरियाई घोड़े आदि। ठीक इससे भिन्न प्रकार के प्राणी टुण्ड्री प्रदेश में पाये जाते हैं जिनके शरीर पर लम्बे और मुलायम बाल होते हैं, जिनके कारण वे कठोर शीत से अपनी रक्षा करते हैं।

प्रश्न 8.
अल्पवृष्टि तथा अतिवृष्टि का वर्णन कीजिए।
उत्तर :

1. अल्पवृष्टि

अल्पवृष्टि का तात्पर्य वर्षा न होने से है जिसके कारण अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जलाभाव के कारण फसलें नष्ट हो जाती हैं। नदी, तालाब, कुएँ सूखने लगते हैं। पानी का घोर संकट उत्पन्न हो जाता है। जिससे सभी प्रकार के जीवों का जीवन संकटग्रस्त हो जाता है। पशुओं के लिए पानी तथा चारे की समस्या , पैदा हो जाती है।

2. अतिवृष्टि

अतिवृष्टि का तात्पर्य ऐसी अत्यधिक वर्षा से है जो लाभ की अपेक्षा हानि पहुँचाती है। अतिवृष्टि से नदी, जलाशय, तालाब सभी जल से भर जाते हैं। नदियों में बाढ़ आ जाती है जिससे उनके किनारे बसे गाँव, नगर तथा फसलें प्रभावित हो जाती हैं। अतिवृष्टि से बहुत-से लोग घर-विहीन हो जाते हैं। बाढ़ के बाद अनेक प्रकार के संक्रामक रोग फैलने लगते हैं। अतिवृष्टि का सर्वाधिक प्रभाव फसलों पर पड़ता है। इससे सामान्य जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है।

प्रश्न 9.
पीछे हटते हुए मानसून की ऋतु में मौसम की विभिन्न दशाओं तथा वर्षा के वितरण का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अक्टूबर और नवम्बर के महीने में भारत में पीछे हटते हुए मानसून की ऋतु पायी जाती है। इस ऋतु में मानसून का निम्न वायुदाब का गर्त कमजोर पड़ जाता है और इसका स्थान उच्च वायुदाब ले लेता है। परिणामस्वरूप मानसून पीछे हटने लगता है। इस (UPBoardSolutions.com) समय तक इन पवनों में आर्द्रता की मात्रा पर्याप्त कम हो चुकी होती है। अत: इसके द्वारा बहुत कम वर्षा होती है। भारतीय भू-भागों पर इसका प्रभाव-क्षेत्र सिकुड़ने लगता है। और पृष्ठीय पवनों की दिशा उलटनी शुरू हो जाती है। अक्टूबर तक मानसून उत्तरी मैदानों से पीछे हट जाता है।

अक्टूबर-नवम्बर के दो महीने, एक संक्रान्ति काल है। इस काल में वर्षा ऋतु के स्थान पर शुष्क ऋतु का आगमन प्रारम्भ हो जाता है। मानसून के हटने से आकाश साफ हो जाता है और तापमान फिर से बदलने लगता है। परन्तु भूमि अभी भी आर्द्र बनी रहती है। उच्च तापमान तथा आर्द्रता के कारण मौसम कष्टदायक हो जाता है। इस कष्टदायक मौसम को ‘क्वार की उमस’ कहते हैं। अक्टूबर के उत्तरार्द्ध में मौसम बदलने लगता है और विशेषकर उत्तरी मैदानों में तापमान तेजी से गिरने लगता है।

नवम्बर के प्रारम्भ में उत्तर-पश्चिमी भारत के निम्न वायुदाब का क्षेत्र बंगाल की खाड़ी की ओर खिसक जाता है। इस अवधि में अण्डमान सागर में चक्रवात बनने लगते हैं। इनमें से कुछ चक्रवात दक्षिणी प्रायद्वीप के पूर्वी तटों को पार कर जाते हैं और इन क्षेत्रों में भारी तथा व्यापक वर्षा करते हैं। ये उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात अधिकतर गोदावरी, कृष्णा और कावेरी के डेल्टाई प्रदेशों में ही आते हैं। ये बहुत ही विनाशकारी होते हैं। कोई भी वर्ष इनकी विनाशलीला से खाली नहीं जाता। कभी-कभी ये चक्रवात सुन्दरवन और बांग्लादेश में भी पहुँच जाते हैं। कोरोमण्डल तट पर अधिकतर वर्षा इन्हीं चक्रवातों और अवदाबों के कारण होती है।

प्रश्न 10.
भारत की चार प्रमुख ऋतुओं के नाम लिखकर उनका संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत की चार ऋतुओं के नाम तथा उनका संक्षिप्त विवेचन निम्नवत् है

1. शीत ऋतु- लगभग पूरे भारत में दिसम्बर, जनवरी तथा फरवरी के महीनों में शीत ऋतु होती है। इस ऋतु में उत्तर-पश्चिमी मैदानी भागों में उच्च वायुदाब रहता है तथा देश के ऊपरी भागों में उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवने स्थल से सागरों की ओर चलती हैं। पवनों के स्थल भागों से चलने के कारण यह ऋतु शुष्क होती है। इस ऋतु में दक्षिण से उत्तर की ओर जाने में तापमान घटता जाता है। यहाँ दिन ‘ सामान्यत: अल्प उष्ण एवं रातें ठण्डी होती हैं। ऊँचे स्थानों पर पाला भी पड़ जाता है।

2. ग्रीष्म ऋतु- 
21 मार्च के बाद सूर्य की स्थिति उत्तरायण हो जाती है। अब मार्च, अप्रैल और मई के बीच अधिक तापमान की पेटी दक्षिण से उत्तर की ओर खिसक जाती है। इस समय देश के उत्तर-पश्चिमी भांगों में तापमान 48° सेल्सियस तक पहुँच जाता है। फलस्वरूप अत्यधिक गर्मी पड़ने के कारण इस भाग में निम्न वायुदाब के क्षेत्र बन जाते हैं। इसे मानसून का निम्न वायुदाब गर्त’ कहते हैं। इस ऋतु में शुष्क एवं गर्म पवनें चलने लगती हैं, (UPBoardSolutions.com) जिन्हें ‘लू’ कहा जाता है। इन दिनों पंजाब, हरियाणा, पूर्वी राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में धूलभरी आँधियाँ भी चलती हैं।

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3. आगे बढ़ते हुए मानसून की ऋतु– 
सम्पूर्ण देश में जून, जुलाई, अगस्त और सितम्बर के महीनों में ही अधिकांश वर्षा होती है। वर्षा की अवधि एवं मात्रा उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है। भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों में यह अवधि केवल दो महीनों की होती है तथा वर्षा का 75% से 90% भाग इसी अवधि में प्राप्त हो जाता है।

4. पीछे लौटते हुए मानसून की ऋतु- 
अक्टूबर और नवम्बर के महीनों में मानसून पीछे लौटने लगता है। अक्टूबर माह के अन्त तक मानसून मैदान से पूर्णतः पीछे हट जाता है। इस समय शुष्क ऋतु का आगमन होता है तथा आकाश स्वच्छ हो जाता है। तापमान (UPBoardSolutions.com) में कुछ वृद्धि होती है। उच्च तापमान और आर्द्रता के कारण मौसम कष्टदायी हो जाता है। निम्न वायुदाब के क्षेत्र बंगाल की खाड़ी में स्थानान्तरित हो जाते हैं। इस अवधि में पूर्वी तट पर व्यापक वर्षा होती है। सम्पूर्ण कोरोमण्डल तट पर अधिकांश वर्षा इन्हीं चक्रवातों और अवदाबों के कारण होती है।

प्रश्न 11.
मानसून से क्या अभिप्राय है ? भष्मकालीन मानसूनी वर्षा की चार विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
मानसून’ शब्द की व्युत्पत्ति अरबी भाषा के ‘मौसिम’ शब्द से हुई है। इनका शाब्दिक अर्थ ऋतु है। इस प्रकार मानसून का अर्थ एक ऐसी ऋतु से है, जिसमें पवनों की दिशा पूरी तरह से उलट जाती है। मानसूनी पवनें हिन्द महासागर में विषुवतं वृत्त पार करने के बाद दक्षिण-पश्चिमी व्यापारिक पवनों के रूप में बहने लगती हैं। इस प्रकार शुष्क तथा गर्म स्थलीय व्यापारिक पवनों का स्थान आर्द्रता से परिपूर्ण समुद्री पवनें ले लेती हैं। मानसूनी पवनों के अध्ययन से पता चला है कि इन पवनों का प्रसार 20° उत्तर तथा 20° दक्षिण अक्षांशों के बीच उष्ण कटिबन्धीय भू-भागों पर होता है। लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में मानसून हिमालय की पर्वत-श्रेणी से बहुत अधिक प्रभावित होता है। इन पर्वत-श्रेणियों के कारण पूरा भारतीय उपमहाद्वीप दो से पाँच महीनों तक आई विषुवतीय पवनों के प्रभाव में आ जाता है। अतः जून से लेकर सितम्बर तक ही 75-90% के बीच वार्षिक वर्षा होती है।

ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा की चार विशेषताएँ

  • ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा की अवधि दक्षिण से उत्तर तथा पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है। देश के सबसे उत्तर-पश्चिमी भाग में यह अवधि केवल दो महीने की होती है। इस अवधि में 75% से 90% तक वर्षा हो जाती है।
  • ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षावाहिनी पवनें बड़ी तेजी से चलती हैं। इनकी औसत गति 30 किलोमीटर प्रति घण्टा होती है। उत्तर-पश्चिमी भागों को छोड़कर ये एक महीने में सारे भारत में फैल जाती हैं। आर्द्रता से भरी इन पवनों के आने के साथ ही (UPBoardSolutions.com) बादलों का प्रचण्ड गर्जन तथा बिजली चमकनी शुरू हो. जाती है। इसे मानसून का ‘फटना’ या टूटना’ कहते हैं।
  • ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा लगातार नहीं होती। कुछ दिनों तक वर्षा होने के बाद मौसम सूखा रहता है। मानसून के इस घटते-बढ़ते स्वरूप का कारण चक्रवातीय अवदाब है, जो मुख्य रूप से बंगाल की खाड़ी के शीर्ष भाग में उत्पन्न होते हैं और भारत-भूमि के ऊपर से गुजरते हैं।’
  • ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा अपनी स्वेच्छाचारिता के लिए विख्यात है। इससे एक ओर तो कहीं भारी, । वर्षा से भयंकर बाढ़ आ सकती है तो दूसरे स्थान पर सूखा पड़ सकता है। इससे करोड़ों किसानों के खेती के काम प्रभावित होते हैं।

प्रश्न 12.
रतीय मानसूनी वर्षा की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2009]
या
भारत में मानसूनी वर्षा की दो विशेषताएँ बताइए। [2009]
या
मानसूनी वर्षा की किन्हीं छः विशेषताओं का वर्णन कीजिए। [2015, 16, 17]
उत्तर:
भारतीय वर्षा की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. मानसूनी वर्षा- भारतीय वर्षा का लगभग 75% भाग दक्षिण-पश्चिमी मानसूनों द्वारा प्राप्त होता है, अर्थात् कुल वार्षिक वर्षा का 75% वर्षा ऋतु में, 13% शीत ऋतु में, 10% वसन्त ऋतु में तथा 2% ग्रीष्म ऋतु में प्राप्त होता है।

2. वर्षा की अनिश्चितता- 
भारतीय मानसूनी वर्षा का प्रारम्भ अनिश्चित है। मानसून कभी शीघ्र आते हैं। तो कभी देर से। कभी-कभी वर्षा ऋतु में सूखा पड़ जाता है तथा कभी अत्यधिक वर्षा से बाढ़े तक आ जाती हैं। किसी वर्ष वर्षा नियत समय से पूर्व ही आरम्भ हो जाती है एवं निश्चित समय से पूर्व ही समाप्त हो जाती है।

3. वितरण की असमानतो- 
भारतीय वर्षा का वितरण बड़ा ही असमान है। (UPBoardSolutions.com) कुछ भागों में वर्षा 400 सेमी या उससे अधिक हो जाती है, जबकि कुछ भाग ऐसे हैं जहाँ वर्षा का औसत 12 सेमी से भी कम रहता है।

4. मूसलाधार वर्षा– 
भारत में वर्षा अनवरत गति से नहीं होती, वरन् कुछ दिनों के अन्तराल से होती है। कभी-कभी वर्षा मूसलाधार रूप में होती है और एक ही दिन में 50 सेमी तक हो जाती है। यह मिट्टी का अपरदन करती है, जिससे मिट्टी के उत्पादक तत्त्व बह जाते हैं।

5. असमान वर्षा- 
कुछ भागों में वर्षा बड़ी तीव्र गति से होती है तथा कुछ भागों में केवल बौछारों के रूप में। एक ओर मॉसिनराम गाँव (चेरापूंजी) में 1,354 सेमी से भी अधिक वर्षा होती है, तो वहीं राजस्थान में केवल 10 सेमी से भी कम। कुछ स्थामों पर वर्षा की प्राप्ति असन्दिग्ध रहती है। वर्षा हो भी सकती है और नहीं भी। भारत के उत्तरी मैदान में तथा दक्षिणी भागों में ऐसी ही स्थिति पायी जाती है।

6. वर्षा की अल्पावधि- 
भारत में वर्षा के दिन बहुत ही कम होते हैं। उदाहरण के लिए चेन्नई में 50 दिन, मुम्बई में 75 दिन, कोलकाता में 118 दिन तथा अजमेर में केवल 30 दिन।

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7. वर्षा की निश्चित अवधि- 
कुंल वर्षा का लगभग 80% जून से सितम्बर तक प्राप्त हो जाता है, फलत: वर्ष का दो-तिहाई भाग सूखा ही रह जाता है, जिससे फसलों की सिंचाई करनी पड़ती है।

8. पर्वतीय वर्षा- 
भारत की लगभग 95% वर्षा पर्वतीय है, जबकि मात्र 5% वर्षा ही चक्रवातों द्वारा होती है।

9. वर्षा की निरन्तरता- 
भारत में प्रत्येक मास में किसी-न-किसी क्षेत्र में वर्षा होती रहती है। शीतकालीन चक्रवातों द्वारा जनवरी एवं फरवरी महीनों में उत्तरी भारत में वर्षा होती है। मार्च में चक्रवात असोम एवं पश्चिम बंगाल राज्यों में सक्रिय रहते हैं। इनसे तब तक वर्षा होती है जब तक दक्षिण-पश्चिमी मानसून पुनः चलना न आरम्भ कर दें।

प्रश्न 13.
भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में अधिक वर्षा के दो कारणों का उल्लेख कीजिए। [2015]
उत्तर :
भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में अधिक वर्षा के दो कारण निम्नलिखित हैं।

  • बंगाल की खाड़ी की मानसून शाखा का विभाजन, भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश के बाद, उच्च हिमालय तथा उत्तर-पश्चिमी भारत के निम्न वायुभार के प्रभाव से दो भागों में हो जाता है। इस मानसून की दूसरी शाखा उत्तर एवं उत्तर-पूर्व दिशा (UPBoardSolutions.com) से ब्रह्मपुत्र नदी की घाटी में प्रवेश करती है, जिससे भारत के उत्तर-पूर्वी भागों में भारी वर्षा होती है।
  • भारत की 75-90% वर्षा ग्रीष्मकालीन मानसूनों द्वारा प्राप्त होती है। यही कारण है कि वर्षा के वितरण में पर्याप्त असमानताएँ पायी जाती हैं। भारत के उत्तर-पूर्वी भाग में उच्चावचीय लक्षणों के कारण 300 सेमी से भी अधिक वार्षिक वर्षा होती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मानसून से क्या अभिप्राय है ? [2016]
उत्तर :
मानसून उन पवनों को कहते हैं जो वर्ष में छ: महीने (ग्रीष्म ऋतु) सागरों से स्थल की ओर तथा शेष छः महीने (शीत ऋतु) स्थल से सागरों की ओर चलती हैं।

प्रश्न 2.
भारत में अधिकांश वर्षा किस ऋतु में होती है ?
उत्तर :
भारत में अधिकांश अर्थात् 75% से 90% तक वर्षा आगे बढ़ते हुए मानसूनों द्वारा (जून से सितम्बर माह में) वर्षा ऋतु में होती है।

प्रश्न 3.
थार मरुस्थल में अल्प वर्षा क्यों होती है ? दो कारण लिखिए।
उत्तर :
थार मरुस्थल में अल्प वर्षा होने के दो कारण निम्नलिखित हैं|

  • थार मरुस्थल अरबसागरीय मानसूनों के मार्ग में पड़ता है, किन्तु यहाँ मानसून पवनों को रोकने के लिए कोई ऊँची पर्वत-श्रेणी स्थित नहीं है।
  • अरावली की पहाड़ियाँ नीची हैं तथा पवनों की दिशा के समानान्तर हैं।

प्रश्न 4.
दक्षिण-पश्चिमी मानसून की उत्पत्ति का प्रमुख क्या कारण है ?
उत्तर :
दक्षिण-पश्चिम मानसून की उत्पत्ति के दो प्रमुख कारण हैं|

  • ग्रीष्म काल में देश के उत्तर-पश्चिमी (स्थलीय) भू-भागों में निम्न (UPBoardSolutions.com) वायुदाब तथा समीपवर्ती समुद्री भागों (हिन्द महासागर, अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी) में उच्च वायुदाब का होना।
  • क्षोभमण्डल की ऊपरी परतों में तीव्रगामी पुरवा जेट पवनों का चलना।

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प्रश्न 5.
जेट वायुधाराएँ किन्हें कहते हैं ?
उत्तर :
वायुमण्डल की क्षोभमण्डल नामक परत के ऊपरी भाग में तेज गति से चलने वाली पवनों को जेट वायुधाराएँ कहते हैं। ये बहुत सँकरी पट्टी में चलती हैं।

प्रश्न 6.
भारत में पायी जाने वाली ऋतुओं के नाम लिखिए।
उत्तर :

  • शीत ऋतु,
  • ग्रीष्म ऋतु,
  • वर्षा ऋतु (आगे बढ़ते मानसून की ऋतु) तथा
  • शरद ऋतु (पीछे हटते हुए मानसून की ऋतु।)

प्रश्न 7.
भारत में सर्वाधिक वर्षा किस राज्य में होती है ? [2011]
उत्तर:
भारत में सर्वाधिक वर्षा मेघालय (मॉसिनराम) राज्य में होती है।

प्रश्न 8.
मानसून के ‘फटने’ या ‘टूटने से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
आर्द्रता से भरी दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी पवनें बड़ी तेज चलती हैं। इनकी औसत गति 30 किलोमीटर प्रति घण्टा है। उत्तर-पश्चिमी भागों को छोड़कर ये एक महीने की अवधि में सारे भारत में फैल जाती हैं। आर्द्रता से भरी इन पवनों के आने (UPBoardSolutions.com) के साथ ही बादलों का प्रचण्ड गर्जन तथा बिजली का चमकना शुरू हो जाता है। इसे ही मानसून का फटना’ या टूटना’ कहा जाता है।

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प्रश्न 9.
ग्रीष्मकालीन मानसूनी पवनों की दिशा का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
ग्रीष्मकालीन मानसूनी पवनों की दिशा उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम होती है।

प्रश्न 10.
भारत में अधिकांश वर्षा किस प्रकार की होती है ?
उत्तर :
भारत की लगभग 95% अधिकांश वर्षा पर्वतीय है।

प्रश्न 11.
लौटते हुए मानसून से भारत के किन दो राज्यों में वर्षा होती है ?
उत्तर :
लौटते हुए मानसून से भारत में तमिलनाडु एवं पॉण्डिचेरी (अब पुदुचेरी) राज्यों में वर्षा होती है।

प्रश्न 12.
मौसम किसे कहते हैं? मौसम और जलवायु में क्या अन्तर है? [2014]
उत्तर:
मौसम-किसी स्थान के वातावरण की सूचना जैसे कि वह गर्म है, ठण्डा है, शुष्क है, आई है। की जानकारी हमें मौसम के द्वारा प्राप्त होती है। यह दिन प्रतिदिन बदल सकता है। जलवायु-किसी स्थान पर लम्बे समय तक पाये जाने (UPBoardSolutions.com) वाले तापमान, वर्षा, आर्द्रता, शुष्कता आदि का औसत उस स्थान की जलवायु कहलाती है।

बहुविकल्पीय

प्रश्न 1. भारत में न्यूनतम तापमान कहाँ पाया जाता है?

क) लेह में ।
(ख) शिमला में
(ग) चेरापूंजी में
(घ) श्रीनगर में

2. भारत में अधिकतम तापमान कहाँ पाया जाता है?

(क) तिरुवनन्तपुरम् में।
(ख) भोपाल में
(ग) जैसलमेर में
(घ) अहमदाबाद में

3. भारत में अधिकतम वर्षा वाला स्थान है [2011]

(क) शिलांग ।
(ख) मॉसिनराम
(ग) गुवाहाटी
(घ) पंजाब

4. भारत का नगर जो वृष्टिछाया प्रदेश में पड़ता है|

(क) मुम्बई
(ख) जोधपुर
(ग) पुणे
(घ) चेन्नई

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5. आम्रवृष्टि कहाँ होती है?

(क) केरल में
(ख) आन्ध्र प्रदेश में
(ग) तमिलनाडु में
(घ) असोम में

6. काल-बैसाखी’ कहाँ प्रचलित है?

(क) केरल में
(ख) असोम में
(ग) उत्तर प्रदेश में
(घ) पंजाब में

7. जेट धाराएँ हैं|

(क) हिन्द महासागरों में चलने वाली
(ख) बंगाल की खाड़ी के चक्रवात
(ग) उपरितन वायु
(घ) मानसूनी पवनें

8. उत्तर भारत में शीतकालीन वर्षा का कारण है

(क) लौटते हुए मानसून
(ख) आगे बढ़ते हुए मानसून
(ग) शीतकालीन मानसून ,
(घ) पश्चिमी विक्षोभ

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9. सम्पूर्ण भारत में सर्वाधिक वर्षा वाला महीना है

(क) जून
(ख) जुलाई
(ग) अगस्त
(घ) ये सभी

10. चेरापूंजी किस राज्य में स्थित है?

(क) असोम में
(ख) मेघालय में
(ग) मिजोरम में
(घ) मणिपुर में

11. भारत में सर्वाधिक वर्षा वाला क्षेत्र कौन-सा है?

(क) उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र
(ख) उत्तर-पूर्वी क्षेत्र
(ग) दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र
(घ) दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र

12. दैनिक तापान्तर निम्नलिखित में से किस क्षेत्र में सर्वाधिक पाया जाता है? [2011]

(क) दक्षिणी पठारी क्षेत्र
(ख) पूर्वी तटवर्ती क्षेत्र
(ग) थार मरुस्थल
(घ) पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्र

13. निम्नलिखित में से कौन राज्य भारत के सर्वाधिक वर्षा वाले क्षेत्र में सम्मिलित है? [2012]
या
निम्नलिखित में से किस राज्य में सर्वाधिक वर्षा होती है? [2016]

(क) मेघालय
(ख) मध्य प्रदेश
(ग) ओडिशा
(घ) गुजरात

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14. भारत के किस राज्य में शीत ऋतु में वर्षा होती है? [2014]
या
भारत का कौन-सा राज्य शीत ऋतु में वर्षा प्राप्त करता है? [2016]

(क) गुजरात
(ख) पश्चिम बंगाल
(ग) कर्नाटक
(घ) तमिलनाडु

15. भारत में सबसे कम वर्षा होती है [2017]

(क) तमिलनाडु में
(ख) राजस्थान में
(ग) आन्ध्र प्रदेश में
(घ) कर्नाटक में

उत्तरमाला

1. (क), 2. (ग), 3. (ख), 4. (ग), 5. (क), 6. (ख), 7. (ग), 8. (घ), 9. (ख), 10. (ख), 11. (ख), 12. (ग), 13. (क), 14. (घ), 15. (ख)

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UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 11 (Section 3)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 11 मानवीय संसाधन : विनिर्माणी उद्योग (अनुभाग – तीन)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Social Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 11 मानवीय संसाधन : विनिर्माणी उद्योग (अनुभाग – तीन).

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय अर्थव्यवस्था में उद्योगों का क्या महत्त्व है ? ‘आधुनिक उद्योगों का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव की समीक्षा कीजिए।
या
भारत में कृषि पर आधारित उद्योगों के नाम लिखिए। भारतीय अर्थव्यवस्था में उनका क्या महत्त्व है ?
या
देश के आर्थिक विकास में उद्योगों के योगदान पर एक विशिष्ट लेख लिखिए।
उत्तर :
भारतीय अर्थव्यवस्था में उद्योगों का महत्त्व आधुनिक अर्थशास्त्री औद्योगिक विकास और आर्थिक विकास को पर्यायवाची मानते हैं। उनका मानना है कि उद्योगों के विकास के बिना आर्थिक विकास में तेजी नहीं आ सकती। उद्योगों के समुचित विकास के बिना राष्ट्रीय आय के प्रति व्यक्ति आय में अपेक्षित वृद्धि करना बड़ा कठिन है। यही कारण है कि भारत जैसे विकासशील देश के लिए बड़े पैमाने के उद्योगों के विकास (UPBoardSolutions.com) का अत्यधिक महत्त्व है। इसी को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं में औद्योगिक विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। परिणामस्वरूप भारत ने कृषि के साथ-साथ उद्योग-धन्धों के विकास के क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति की।

आधुनिक उद्योगों का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

औद्योगिक विकास किसी भी देश के विकास की गति का सूचक होता है। आज कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश भी औद्योगिक विकास के लिए प्रयत्नशील हैं। वास्तव में देश की अर्थव्यवस्था के बहुमुखी विकास के लिए औद्योगिक विकास आवश्यक है। आधुनिक उद्योगों का देश की अर्थव्यवस्था पर निम्नलिखित रूपों में प्रभाव पड़ा है

1. कृषि का विकास – 
उद्योगों की स्थापना के पूर्व भारतीय कृषि पिछड़ी दशा में थी। उद्योगों के विकास से विशेषत: उर्वरक, कीटनाशकों, मशीनरी, कृषि उपकरण, टूक निर्माण आदि के कारण कृषि उन्नत हो गयी है। उद्योगों के ही विकास से कृषि में हरित क्रान्ति सम्भव हो सकी है।

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2. नगरीकरण में वृद्धि – 
औद्योगीकरण तथा नगरीकरण साथ-साथ चलते हैं। उद्योगों की स्थापना से अनेक नये नगर स्थापित हो जाते हैं तथा छोटे नगरों के आकार में वृद्धि होती है। भारत के प्रायः सभी महानगर औद्योगिक विकास से ही विकसित हुए हैं।

3. रोजगार के अवसरों में वृद्धि – 
उद्योगों से रोजगार के अवसरों में वृद्धि होती है, पिछड़े हुए क्षेत्रों की निर्धनता दूर होती है तथा उनका आर्थिक विकास होता है।

4. राष्ट्रीय आय में वृद्धि – 
आधुनिक उद्योगों के कारण देश की आय में निरन्तर वृद्धि हो रही है।

5. विदेशी व्यापार में वृद्धि – 
विदेशी व्यापार में वृद्धि तथा विकास उद्योगों के कारण ही सम्भव हुआ है। उद्योगों की स्थापना के पूर्व भारत केवल कृषि-परक वस्तुओं तथा कच्चे माल का निर्यात करता था, किन्तु औद्योगिक विकास के कारण अब वह विनिर्मित वस्तुओं, मशीनरी आदि का भी निर्यात करने लगा है।

6. परिवहन के साधनों में वृद्धि – 
औद्योगिक विकास से (UPBoardSolutions.com) जनसंख्या की सघनता में वृद्धि होती है। उसके आवागमन के लिए परिवहन के साधनों में वृद्धि होती है, जो आर्थिक प्रगति का सूचक है।

7. बहुमुखी विकास –
आर्थिक समृद्धि बढ़ने पर देश में शिक्षा, साहित्य, विज्ञान आदि के क्षेत्र में भी विकास होता है।

कृषि पर आधारित उद्योग एवं भारतीय अर्थव्यवस्था में उनका महत्त्व

भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि तथा उद्योग एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों का विकास एक-दूसरे पर निर्भर करता है। कृषि के विकास के लिए आवश्यक वस्तुएँ; जैसे-रासायनिक खाद, औजार, ट्रैक्टर, कीटनाशक आदि उद्योगों से ही प्राप्त होते हैं।

उद्योगों को कच्चा माल; जैसे—कपास, जूट, गन्ना, तिलहन, रबड़ आदि कृषि क्षेत्र से ही प्राप्त होते हैं। ऐसे उद्योग जिनका कच्चा माल कृषि से प्राप्त होता है, कृषि पर आधारित उद्योग कहलाते हैं। सूती वस्त्र उद्योग, चीनी व खाण्डसारी उद्योग, जूट उद्योग, रबड़ उद्योग, चाय उद्योग, तेल उद्योग आदि कृषि पर
आधारित उद्योग हैं।

भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि पर आधारित उद्योगों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता है–

  • भारत में बेकारी और अर्द्धबेकारी पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है। कृषि पर आधारित उद्योग इस बेकारी को कम कर सकते हैं; क्योकि इन उद्योगों को छोटे पैमाने पर भी कम पूँजी लगाकर चलाया जा सकता है।
  • कृषि पर आधारित उद्योग भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अनुकूल हैं। ये उद्योग देश की राष्ट्रीय आय में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।
  • कृषि पर आधारित उद्योगों से कृषि पर जनसंख्या के भार में कमी आती है और बहुत-से लोगों को रोजगार मिलता है।
  • इन उद्योगों से बड़े उद्योगों को सहायता (UPBoardSolutions.com) मिलती है।
  • इन उद्योगों से देश को विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है तथा निर्यातों में वृद्धि के आयातों में कमी होती है।
  • कृषि पर आधारित उद्योगों से देश में औद्योगीकरण के विकास को प्रोत्साहन मिलता है।

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प्रश्न 2.
भारत में इंजीनियरिंग उद्योग के विकास के बारे में आप क्या जानते हैं ? प्रमुख इंजीनियरिंग उद्योगों का विवरण दीजिए।
उत्तर :

इंजीनियरिंग उद्योग

इंजीनियरिंग उद्योगों में अनेक विनिर्माण उद्योग सम्मिलित होते हैं; जैसे-औजार व मशीनें बनाने वाले उद्योग, लोहा व इस्पात उद्योग, परिवहन उपकरण उद्योग; जैसे-रेल इंजन उद्योग, वायुयान उद्योग, जलयान उद्योग, मोटर उद्योग तथा रासायनिक खाद उद्योग आदि। भारत में इन उद्योगों का तेजी से विकास और विस्तार हो रहा है। यहाँ इनमें से अधिकांश उद्योगों को आधारभूत उद्योग की सूची में सम्मिलित किया हुआ है तथा इनमें से अनेक इंजीनियरिंग उद्योग सरकारी क्षेत्र में चलाये जा रहे हैं।

भारी मशीनरी उद्योग
देश में भारी इंजीनियरिंग उद्योग का वास्तविक विकास 1958 ई० में हेवी इंजीनियरिंग कॉर्पोरेशन (राँची) की स्थापना के पश्चात् हुआ। इसकी तीन इकाइयाँ हैं–

  • भारी मशीनरी निर्माण संयन्त्र,
  • फाउण्ड्री फोर्ज संयन्त्र तथा
  • भारी मशीन उपकरण (HMT) संयन्त्र।

विशिष्ट प्रकार के इस्पात के ढाँचों का डिजाइन बनाने का कारखाना 1965 ई० में ऑस्ट्रिया के सहयोग से त्रिवेणी स्ट्रक्चरल्स लि०, नैनी (इलाहाबाद) में स्थापित हुआ। तुंगभद्रा स्टील प्रॉडक्ट्स लि० 1947 ई० में तुंगभद्रा (कर्नाटक) में स्थापित हुआ था। निजी क्षेत्र में मुम्बई में लार्सन एण्ड टुब्रो लि०, गेस्ट-कीन एवं विलियन एण्ड ग्रीव्ज़ कॉटन स्थापित हैं। सन् 1966 ई० में चेकोस्लोवाकिया के सहयोग से भारत हेवी प्लेट एण्ड (UPBoardSolutions.com) वेसल्स लि०, विशाखापत्तनम् स्थापित हुआ। यहाँ उर्वरक, पेट्रो रसायन तथा अनेक सम्बद्ध उद्योगों की मशीनरी तैयार होती है। भारी इंजीनियरिंग उद्योग के अन्तर्गत क्रेन, इस्पात के ढाँचे, ट्रांसमिशन टॉवर, ढलाई में काम आने वाले उपकरण आदि बनाये जाते हैं। दुर्गापुर में स्थापित माइनिंग एण्ड एलाइड मशीनरी कॉर्पोरेशन लि० (MAMC) खनन में काम आने वाली मशीनरी तैयार करता है। औद्योगिक मशीनरी के उत्पादन में भारत अब आत्मनिर्भर हो गया है। टेक्सटाइल मशीनरी का निर्माण करने वाला निजी क्षेत्र का सबसे बड़ा कारखाना टेक्समैको (TEXMACO) मुम्बई में 1939 ई० में स्थापित किया गया था।

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मशीनों के उपकरण उद्योग

भारत में गत वर्षों में मशीनों के औजार बनाने में भी पर्याप्त प्रगति हुई है। इस कार्य में है 700 करोड़ वार्षिक क्षमता की 200 इकाइयाँ संलग्न हैं। बड़े कारखाने हिन्दुस्तान मशीन टूल्स लिमिटेड (HMT) बंगलुरु के अतिरिक्त पिंजौर (हरियाणा), कलामासेरी (केरल), हैदराबाद (आन्ध्र प्रदेश) तथा श्रीनगर (कश्मीर) में हैं। इनमें अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न प्रकार की मशीनें तथा सूक्ष्म वैज्ञानिक उपकरणों का निर्माण किया जाता है। सेण्ट्रल मशीन टूल्स इन्स्टीट्यूट, बंगलुरु (UPBoardSolutions.com) की स्थापना 1965 ई० में की गयी थी। यहाँ मशीनरी औजारों के क्षेत्र में अनुसन्धान किये जाते हैं। मशीन टूल कॉर्पोरेशन ऑफ इण्डिया, अजमेर की स्थापना 1967 ई० में की गयी थी। यहाँ घिसाई के काम आने वाले मशीनी औजार तैयार किये जाते हैं। हेवी मशीन टूल प्लाण्ट (राँची) में धुरी तथा पहिये तैयार किये जाते हैं। प्रागा टूल्स कॉर्पोरेशन लि० (सिकन्दराबाद) भी मशीनों के उपकरण तैयार करता है।

परिवहन उपकरण उद्योग 

(i) रेल इंजन उद्योग – स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व भारत रेल इंजनों के लिए विदेशों पर निर्भर था। अतः 1947 ई० के बाद भारत ने देश में ही रेल इंजन बनाने की दिशा में कार्य आरम्भ किये, जिनका विवरण निम्नलिखित है–
चितरंजन–सन् 1948 ई० में भारत सरकार ने रेल के इंजनों का एक बहुत बड़ा कारखाना पश्चिमी बंगाल में चितरंजन नामक स्थान पर लगाया। यहाँ भाप के इंजनों का निर्माण किया जाता था, किन्तु 1981 ई० में इस कारखाने ने भाप के इंजन बनाने (UPBoardSolutions.com) बन्द कर दिये। अब यह कारखाना बिजली तथा डीजल के इंजनों का निर्माण कर रहा है।
वाराणसी-उत्तर प्रदेश के वाराणसी में स्थापित इस कारखाने में केवल डीजल इंजन बनाये जाते हैं। यह कारखाना प्रति वर्ष 150 डीजल इंजन बनाती है।

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(ii) रेल पटरियाँ, वैगन एवं कोच – रेल की पटरियाँ बनाने में हिन्दुस्तान स्टील लि० (HSL), टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी (TISCO), इण्डियन आयरन एण्ड स्टील कम्पनी (ISCO) संलग्न हैं।
वैगन तथा कोच बनाने का कार्य सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों में किया जाता है। इण्टीग्रल कोच फैक्ट्री, पेराम्बुर (ICF), चेन्नई के निकट 1955 ई० में सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित की गयी। यहाँ विविध प्रकार के कोच (वातानुकूलित, विद्युत तथा डीजल रेल, कार आदि) तैयार किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त रेलकोच फैक्ट्री (कपूरथला) में मार्च, 1988 ई० में रेल के डिब्बे बनाने का कारखाना स्थापित किया गया। डीजल कम्पोनेण्ट वर्क्स (DCw), पटियाला में डीजल इंजनों के पुर्जे आदि तैयार किये जा रहे हैं। इस प्रकार, अब भारत रेल इंजनों के बारे में पूर्णतया आत्मनिर्भर है।

(iii) वायुयान-निर्माण उद्योग – द्वितीय विश्व युद्ध से पूर्व भारत में वायुयान बनाने का कोई भी कारखाना नहीं था। द्वितीय विश्व युद्ध के समय ऐसे कारखानों की आवश्यकता अनुभव की गयी। सन् 1940 ई० में मैसूर सरकार व बालचन्द हीराचन्द नामक एक फर्म की सम्मिलित साझेदारी में हिन्दुस्तान एयरक्राफ्ट कम्पनी’ के नाम से हवाई जहाज बनाने का एक कारखाना बंगलुरु (कर्नाटक) में खोला गया। सन् 1942 ई० में सुरक्षा कारणों से भारत सरकार ने इसका प्रबन्ध अपने हाथ में ले लिया और इसका नाम ‘हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड’ (HAL) रखा गया। इसकी इकाइयाँ बंगलुरु, कानपुर, नासिक, कोरापुट, हैदराबाद तथा कोरवा (लखनऊ) में स्थापित हैं।

पूर्व सोवियत संघ, ब्रिटेन, जर्मनी तथा फ्रांस से तकनीकी जानकारी प्राप्त करके (UPBoardSolutions.com) अब देश में ही मिग, जगुआर, चीता, चेतक जैसे वायुयान, लड़ाकू विमान तथा हेलिकॉप्टर तैयार किये जा रहे हैं।

(iv) जलयान-निर्माण उद्योग – भारत में तीन हजार किलोमीटर लम्बा विशाल समुद्रतट है; अत: देश की सुरक्षा तथा विदेशी व्यापार की दृष्टि से भारत को बड़ी मात्रा में जलयानों की आवश्यकता होती है; किन्तु विदेशी शासन काल में इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। इस समय भारत में पाँच बड़े पोत निर्माण केन्द्र–मुम्बई, कोलकाता, कोचीन, विशाखापत्तनम् तथा गोआ हैं।

विशाखापत्तनम् – सन् 1941 ई० में सिंधिया कम्पनी ने जलयान निर्माण का पहला कारखाना आन्ध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम् बन्दरगाह पर खोला। सन् 1947 ई० में भारत सरकार ने इस कारखाने का राष्ट्रीयकरण कर दिया और इसका नाम हिन्दुस्तान शिपयार्ड रखा। सन् 1948 ई० में इसमें सबसे पहला जलयान बना और अब तक इसमें 86 जलयान बन चुके हैं।

कोच्चि – पश्चिमी तट पर केरल राज्य में कोच्चि बन्दरगाह पर भी जापान के सहयोग से एक जलयान का कारखाना स्थापित किया गया है। सन् 1979 ई० से इसमें जहाज बनने शुरू हो गये हैं। इसके अतिरिक्त पश्चिम बंगाल में ‘गार्डन रीच जहाजी कारखाने में समुद्री व्यापारिक जहाजों तथा मझगाँव (मुम्बई) स्थित जहाजी कारखाने में नौ-सेना के लिए फिगेट जहाजों का निर्माण किया जाता

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प्रश्न 3.
भारत में चीनी उद्योग का सविस्तार वर्णन कीजिए। भारत में किंन्हीं तीन राज्यों के चीनी उद्योग का वर्णन कीजिए। [2014]
या
भारत में चीनी उद्योगं का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों में कीजिए
(क) उत्पादक क्षेत्र/राज्य तथा (ख) उत्पादन एवं व्यापार।
उत्तर :

भारत में चीनी उद्योग

चीनी उद्योग कृषि पर आधारित उद्योगों में प्रमुख स्थान रखता है। भारत में गन्ने से गुड़, शक्कर तथा खाँड बनाने का व्यवसाय (खाँडसारी उद्योग) बहुत प्राचीन काल से प्रचलित रहा है, किन्तु आधुनिक विधि से. चीनी बनाने का उद्योग बीसवीं शताब्दी से ही उन्नत हो पाया है। इससे पूर्व वर्ष 1841-42 में उत्तरी बिहार में डच लोगों तथा सन् 1899 ई० में अंग्रेजों द्वारा चीनी की फैक्ट्रियाँ स्थापित करने के असफल प्रयास किये गये थे। इस उद्योग का वास्तविक आरम्भ सन् 1930 ई० से हुआ।

सन् 1931 ई० तक चीनी उद्योग के विकास की गति बहुत धीमी रही और प्रचुर मात्रा में चीनी का आयात विदेशों से किया जाता रहा। सन् 1931 ई० में केवल 31 चीनी की फैक्ट्रियाँ कार्यरत थीं, जिनको उत्पादन 6.58 लाख टन था। सन् 1932 ई० में इस उद्योग की सरकार द्वारा संरक्षण प्रदान किया गया और तभी से चीनी के उत्पादन में वृद्धि होने लगी। संरक्षण के 4 वर्ष बाद मिलों की संख्या बढ़कर 35 हो गयी और चीनी का उत्पादन बढ़कर 9.19 लाख टन हो गया। वर्ष 1938-39 में इनकी संख्या बढ़कर 132 हो गयी। द्वितीय विश्व युद्ध के समय चीनी की माँग बढ़ जाने के कारण चीनी के मूल्य तेजी से बढ़ने आरम्भ हो गये। अतएव सरकार ने सन् 1942 ई० में इसके मूल्य पर नियन्त्रण लगा दिया तथा इसकी राशनिंग आरम्भ कर दी। सन् 1950 ई० में चीनी पर से नियन्त्रण हटा लिया गया। वर्ष 1991-92 में देश में 370 चीनी के कारखाने थे। वर्ष 1998 में देश में चीनी मिलों की संख्या 465 तक पहुँच गयी, जिनमें से लगभग आधी सहकारी क्षेत्र में हैं, जो कुल उत्पादन का 60% उत्पादन करती हैं। इस उद्योग में लगभग १ 1,500 करोड़ की पूँजी लगी हुई है। और लगभग 3 लाख व्यक्तियों को रोजगार मिला हुआ है। वर्ष 2006-07 में देश में चीनी का उत्पादन 281.99 लाख टेन (अस्थायी) से अधिक हो चुका था।

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उत्पादक राज्य

1. महाराष्ट्र – महाराष्ट्र राज्य ने चीनी के उत्पादन में पिछले कुछ वर्षों में अत्यधिक प्रगति की है। चीनी के उत्पादन में इसका देश में प्रथम स्थान है। यहाँ 129 चीनी मिलें हैं जिनमें देश की लगभग 35% से भी अधिक चीनी उत्पादित की जाती है। गोदावरी, प्रवरा, मूला-मूठा, नीरा एवं कृष्णा नदियों की घाटियों में चीनी मिलें केन्द्रित हैं। मनमाड़, नासिक, पुणे, अहमदनगर, शोलापुर, कोल्हापुर, औरंगाबाद, सतारा एवं साँगली प्रमुख चीनी उत्पादक जिले हैं।

2. उत्तर प्रदेश – 
इस राज्य का चीनी के उत्पादन में द्वितीय तथा गन्ना उत्पादन की दृष्टि से प्रथम स्थान है। इस प्रदेश में 128 चीनी मिले हैं। प्रदेश में उपयुक्त भौगोलिक परिस्थितियों के कारण ही चीनी मिलों का केन्द्रीकरण हुआ है। यह राज्य देश की 24% चीनी का उत्पादन करता है तथा यहाँ देश का सर्वाधिक गन्ना उगाया जाता है।

3. कर्नाटक – 
चीनी के उत्पादन में कर्नाटक राज्य को देश में (UPBoardSolutions.com) तीसरा स्थान है। यहाँ पर चीनी उद्योग के 37 केन्द्र हैं, जिनमें देश की 9% चीनी का उत्पादन किया जाता है। बेलगाम, मांड्या, बीजापुर, बेलारी, शिमोगा एवं चित्रदुर्ग महत्त्वपूर्ण चीनी उत्पादक जिले हैं।

4. तमिलनाडु – 
इस राज्य में 22 चीनी मिलें हैं। यहाँ देश की लगभग 8% चीनी उत्पादित की जाती है। मदुराई, उत्तरी एवं दक्षिणी अर्कोट, कोयम्बटूर एवं तिरुचिरापल्ली प्रमुख चीनी उत्पादक जिले हैं।

5. बिहार – 
बिहार में देश की 5% चीनी का उत्पादन किया जाता है। यहाँ चीनी की 40 मिले हैं, जो विशेष रूप से सारन, चम्पारन, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, पटना, गोपालगंज आदि उत्तरी जिलों के गन्ना उत्पादक क्षेत्रों में केन्द्रित हैं। उपर्युक्त के अतिरिक्त चीनी उत्पादक अन्य राज्यों में गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, पंजाब, केरल, उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं पश्चिम बंगाल मुख्य हैं।

व्यापार
भारत चीनी का निर्यातक देश है और विश्व के चीनी निर्यात व्यापार में भारत 0.6% का हिस्सा रखता है। देश की आवश्यकता को पूरी करने के उपरान्त केवल 2 लाख टन चीनी निर्यात के लिए शेष बचती है, जिससे निर्यात की मात्रा घटती-बढ़ती रहती है। चीनी उद्योग को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार ने 20 अगस्त, 1998 ई० को इसे लाइसेन्स व्यवस्था से मुक्त कर दिया है।

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प्रश्न 4.
भारत में कागज उद्योग के उत्पादन एवं वितरण का वर्णन कीजिए।
या
भारत में कागज उद्योग का संक्षिप्त भौगोलिक विवरण दीजिए।
या
भारत में कागज उद्योग के कच्चे माल की उपलब्धता एवं प्रमुख केन्द्रों का वर्णन कीजिए। [2013]
उत्तर :

भारत में कागज उद्योग

भारत को वर्तमान कागज उद्योग 19वीं शताब्दी की देन माना जाता है। आधुनिक ढंग की प्रथम कागज मिल 1816 ई० में ट्रंकुवार (चेन्नई के समीप) नामक स्थान पर खोली गयी, परन्तु इसे सफलता न मिल सकी। हुगली : नदी के किनारे सिरामपुर (UPBoardSolutions.com) (प० बंगाल) में स्थापित मिल को भी असफलता ही मिली। इसके पश्चात् 1867 ई० में बाली (कोलकाता) नामक स्थान पर रॉयल पेपर मिल की स्थापना हुई। इस उद्योग का वास्तविक विकास तब हुआ जब 1879 ई० में लखनऊ में अपर इण्डिया पेपर मिल्स तथा 1881 ई० में पश्चिम बंगाल में टीटागढ़ पेपर मिल्स की स्थापना की गयी। इसके बाद कारखानों की संख्या में वृद्धि होती गयी।

वर्तमान में भारत में गत्ता एवं कागज की 759 इकाइयाँ हैं, जिनमें से केवल 651 चालू हालत में हैं और 2,748 लघु इकाइयाँ उत्पादन में संलग्न हैं। कुल स्थापित क्षमता लगभग 128 लाख टन है, किन्तु रुग्णता (बीमार) के कारणं बहुत-सी कागज मिलें बन्द पड़ी हैं। इसलिए उत्पादन क्षमता घटकर 60 प्रतिशत ही रह गयी है। पेपर और पेपर बोर्ड क्षेत्र में भारत सक्षम है। पारंपरिक तौर पर स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के लिए कुछ विशेष प्रकार के कागजों का आयात करना पड़ता है। वर्ष 2010-11 में कागज बोर्ड का उत्पादन 7.37 मिलियन टन रहा जो पिछले वर्ष 7.06 मिलियन टन था।

कागज और कागज बोर्ड का 2010-11 के दौरान कुल आयात (न्यूज प्रिंट छोड़कर) 0.72 मिलियन टन रही। 2011-12 (अप्रैल-दिसम्बर) में यह 0.72 मिलियन टन रहा।

न्यूजप्रिंट नियंत्रण आदेश, 2004 की अनुसूची में 113 मिलें सूचीबद्ध हैं। इन्हें उत्पाद शुल्क से छूट मिली हुई है। इस समय 68 मिलें न्यूजप्रिंट का उत्पादन करती हैं, जिनकी प्रचालन स्थापित क्षमता 1.3 मिलियन टन प्रतिवर्ष है। एनसीओ में सूचीबद्ध किये जाने के बाद 20 मिलों ने काम करना बंद कर दिया है और 25 ने न्यूजप्रिंट का उत्पादन रोक दिया है।

उत्पादन एवं वितरण
कागज के उत्पादन की दृष्टि से भारत की गणना विश्व के मुख्य 15 कागज-निर्माताओं में की जाती है। देश के 70% से भी अधिक कागज का उत्पादन पश्चिम बंगाल, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं मध्य प्रदेश राज्यों में होता है। प्रमुख कागज उत्पादक राज्यों का विवरण इस प्रकार है-

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1. पश्चिम बंगाल – 
यहाँ देश का लगभग 20% कागज का उत्पादन होता है। राज्य में कागज की 19 मिले हैं। टीटागढ़, नैहाटी, रानीगंज, त्रिवेणी, कोलकाता, काकीनाड़ा, चन्द्रहाटी (हुगली), आलम बाजार (कोलकाता), बड़ानगर, बाँसबेरिया तथा शिवराफूली कागज उद्योग के प्रमुख केन्द्र हैं। टीटागढ़ में देश की सबसे बड़ी कागज मिल है, जिसमें बाँस का कागज निर्मित किया जाता है।

2. महाराष्ट्र – 
यहाँ 14 कागज ऐवं 3 कागज-गत्ते के सम्मिलित कारखाने हैं, जो देश के लगभग 13% कागज का उत्पादन करते हैं। यहाँ पर कोमल लकड़ी की लुगदी विदेशों से आयात की जाती है। इसके अतिरिक्त बाँस, खोई एवं फटे-पुराने चिथड़ों का उपयोग कागज (UPBoardSolutions.com) बनाने में किया जाता है। गन्ने की खोई एवं धान की भूसी से गत्ता बनाया जाता है। पुणे, खोपोली, मुम्बई, बलारपुर, चन्द्रपुर, ओगेलवाडी, चिचवाडा, रोहा, कराड़, कोलाबा, कल्याण, वाड़ावाली, काम्पटी, नन्दुरबाद, पिम्परी, भिवण्डी एवं वारसनगाँव कागज उद्योग के प्रधान केन्द्र हैं। बलारपुर एवं साँगली में अखबारी कागज की मिलें भी स्थापित की गयी हैं।

3. आन्ध्र प्रदेश – 
यहाँ देश का 12% कागज तैयार किया जाता है। कागज उद्योग के लिए बाँस इस राज्य का प्रमुख कच्चा माल है। सिरपुर, तिरुपति तथा राजमुन्दरी प्रमुख कागज उत्पादक केन्द्र हैं।

4. मध्य प्रदेश – 
इस राज्य में वनों का विस्तार अधिक है। यहाँ बाँस एवं सवाई घास पर्याप्त मात्रा में उगती है। यहाँ देश का 10% कागज तैयार किया जाता है। इस राज्य में इन्दौर, भोपाल, सिहोर, शहडोल, रतलाम, मण्डीदीप, अमलाई एवं विदिशा प्रमुख कागज उत्पादक केन्द्र हैं। नेपानगर में अखबारी कागज
(1955 ई०) तथा होशंगाबाद में नोट छापने के कागज बनाने का सरकारी कारखाना स्थापित है।

5. कर्नाटक – 
यहाँ देश का 10% कागज बनाया जाता है। इस राज्य में भद्रावती, बेलागुला तथा डाँडली केन्द्रों पर कागज की मिलें हैं।

6. उत्तर प्रदेश – 
इस राज्य का कागज उद्योग शिवालिक एवं तराई क्षेत्रों में सवाई, भाबर एवं मूंज घास तथा बाँस की प्राप्ति के ऊपर निर्भर करता है। यहाँ देश का लगभग 4% कागज उत्पन्न किया जाता है। लखनऊ, गोरखपुर एवं सहारनपुर कागज उत्पादन के प्रमुख केन्द्र हैं। इनके अतिरिक्त मेरठ, मुजफ्फरनगर, उझानी, पिपराइच, मोदीनगर, नैनी, लखनऊ तथा सहारनपुर प्रमुख गत्ता उत्पादक केन्द्र हैं। भारत के अन्य (UPBoardSolutions.com) कागज उत्पादक राज्यों में बिहार, गुजरात, ओडिशा, केरल, हरियाणा एवं तमिलनाडु प्रमुख हैं।

प्रश्न 5.
भारत के सीमेण्ट उद्योग का विस्तपूर्वक वर्णन कीजिए। [2010]
या
भारत में सीमेण्ट उद्योग कहाँ स्थापित हैं ? एक भौगोलिक टिप्पणी लिखिए।
या
भारत में सीमेण्ट उद्योग का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए- [2011]
(क) केन्द्र, (ख) उत्पादन तथा (ग) व्यापार
उत्तर :

भारत में सीमेण्ट उद्योग

किसी भी विकासोन्मुख राष्ट्र के लिए सीमेण्ट का अत्यधिक महत्त्व है। प्रत्येक प्रकार के भवन-निर्माण में इसकी आवश्यकता होती है। भारत में संगठित रूप से सीमेण्ट तैयार करने का प्रथम प्रयास चेन्नई में 1904 ई० में किया गया था, परन्तु इसमें पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी। इस उद्योग का वास्तविक विकास 1914 ई० में हुआ, जब कि मध्य प्रदेश में कटनी, राजस्थान में लखेरी-बूंदी तथा गुजरात में पोरबन्दर में तीन कारखाने स्थापित किये गये। सीमेण्ट वर्तमान युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है। भारत जैसे विकासशील देश के लिए सीमेण्ट उद्योग का विकास अति आवश्यक है। यह अनेक उद्योगों के विकास की कुंजी है। भारत संसार का चौथा बड़ा सीमेण्ट उत्पादक देश है। अप्रैल, 2003 ई० को देश में 124 बड़े सीमेण्ट संयन्त्र थे, जिनकी संस्थापित क्षमता लगभग 14 करोड़ टन (UPBoardSolutions.com) थी। सीमेण्ट अनुसन्धान संस्थान ने देश में लघु सीमेण्ट संयन्त्र लगाने के सुझाव दिये हैं। इससे प्रेरित होकर विभिन्न राज्यों में 300 लघु संयन्त्र स्थापित किये हैं, जिनकी उत्पादन क्षमता 111 लाख टन वार्षिक है। 31 मार्च, 2012 तक प्राप्त आँकड़ों के अनुसार देश में 173 बड़े सीमेंट संयंत्र हैं जिनकी स्थापित क्षमता 294.04 मिलियन टन प्रति वर्ष है, जबकि 350 छोटे सीमेण्ट संयंत्र हैं। जिनकी स्थापित क्षमता 11.10 मिलियन टन/वर्ष है और कुल स्थापित क्षमता 305.14 मिलियन टन प्रतिवर्ष कुछ बड़े सीमेण्ट संयंत्रों का स्वामित्व केन्द्र और राज्य सरकारों के पास है।

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उत्पादन एवं वितरण
सीमेण्ट उद्योग देशभर में विकेन्द्रित है। अधिकांश कारखाने देश के पश्चिमी तथा दक्षिणी भागों में विकसित हुए हैं, जब कि सीमेण्ट की अधिकांश माँग उत्तरी एवं पूर्वी क्षेत्रों में अधिक है। तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, गुजरात, बिहार, राजस्थान, कर्नाटक एवं आन्ध्र प्रदेश राज्य देश का 74% सीमेण्ट उत्पन्न करते हैं, जब कि कुल उत्पादित क्षमता का 86% भाग इन्हीं राज्यों में केन्द्रित है। अग्रलिखित राज्यों का सीमेण्ट उत्पादन में महत्त्वपूर्ण स्थान है

1. मध्य प्रदेश – सीमेण्ट उत्पादन की दृष्टि से इस राज्य का भारत में प्रथम स्थान है। यहाँ सीमेण्ट के आठ विशाल कारखाने तथा कई लघु संयन्त्र कार्यरत हैं। मध्य प्रदेश राज्य देश का 15% सीमेण्ट उत्पन्न कर प्रथम स्थान पर है। इस राज्य में सीमेण्ट उद्योग के लिए आधारभूत सामग्री स्थानीय रूप से उपलब्ध है तथा कोयला झारखण्ड से मँगवाया जाता है। इस राज्य के कटनी, कैमूर, सतना, जबलपुर, बनमोर, नीमच एवं दमोह में सीमेण्ट के प्रमुख कारखाने हैं।

2. तमिलनाडु – 
यहाँ सीमेण्ट के 8 बड़े कारखाने हैं, जो देश का 12% सीमेण्ट उत्पन्न करते हैं। सीमेण्ट उत्पादन में इस राज्य का दूसरा स्थान है। चूना-पत्थर की पूर्ति स्थानीय क्षेत्रों के साथ-साथ कर्नाटक एवं आन्ध्र प्रदेश राज्यों से भी की जाती है। तुलुकापट्टी, तिलाईयुथू, तिरुनेलवेली, डालमियापुरम, राजमलायम, संकरी दुर्ग एवं मधुकराई प्रमुख सीमेण्ट उत्पादक केन्द्र हैं।

3. आन्ध्र प्रदेश – 
आन्ध्र प्रदेश में सीमेण्ट के 11 कारखाने एवं 12 लघु संयन्त्र हैं, जो गुण्टूर, कर्नूल, नालगोण्डा, मछलीपत्तनम्, हैदराबाद एवं विजयवाड़ा में केन्द्रित हैं। इस राज्य में चूना-पत्थर के विशाल भण्डार पाये जाते हैं, इसी कारण इस राज्य (UPBoardSolutions.com) की सीमेण्ट उत्पादन क्षमता 45 लाख टन तक पहुँच गयी है। सीमेण्ट उत्पादन में इस राज्य का तीसरा स्थान है।

4. राजस्थान – 
सीमेण्ट के उत्पादन में राजस्थान राज्य का चौथा स्थान है। यहाँ अरावली पहाड़ियों में । चूने-पत्थर व जिप्सम के पर्याप्त भण्डार हैं। ऐसी सम्भावना है कि भविष्य में राजस्थान भारत का सबसे बड़ा सीमेण्ट उत्पादक राज्य हो जाएगा। यहाँ सीमेण्ट उत्पादन के 10 कारखाने हैं, जिनमें देश का 10% सीमेण्ट निर्मित किया जाता है। लखेरी (बूंदी), सवाई माधोपुर, चित्तौड़गढ़, चुरू,. निम्बाहेड़ा एवं उदयपुर सीमेण्ट उत्पादन के प्रमुख केन्द्र हैं।

5. झारखण्ड – 
झारखण्ड सीमेण्ट उत्पादक राज्यों में एक विशेष स्थान रखता है। यहाँ डालमियानगर, सिन्द्री, बनजोरी, चौबासा, खलारी, जापला एवं कल्याणपुर प्रमुख केन्द्र हैं।

6. कर्नाटक – 
इस राज्य में बीजापुर, भद्रावती, गुलर्गा, उत्तरी कनारा, तुमुकुर एवं बंगलुरु प्रमुख सीमेण्ट उत्पादक केन्द्र हैं। यहाँ सीमेण्ट उत्पादन के 6 बड़े संयन्त्र स्थापित किये गये हैं।

7. गुजरात – 
गुजरात राज्य में सीमेण्ट के 8 कारखाने हैं। सीमेण्ट उद्योग का प्रारम्भ इसी राज्य से किया गया था। सिक्का (जामनगर), अहमदाबाद, राणाबाव, बड़ोदरा, पोरबन्दर, सेवालिया, ओखामण्डल एवं द्वारका प्रमुख सीमेण्ट उत्पादक केन्द्र हैं।

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8. छत्तीसगढ़ – 
यहाँ सीमेण्ट के कुछ कारखाने हैं जिनमें दुर्ग व गन्धार के कारखाने मुख्य हैं।

9. अन्य राज्य – 
हरियाणा में सूरजपुर एवं डालमिया-दादरी; केरल (UPBoardSolutions.com) में कोट्टायम; उत्तर प्रदेश में चुर्क एवं चोपन; ओडिशा में राजगंगपुर एवं हीराकुड; जम्मू-कश्मीर में वुयान तथा असम में गौहाटी अन्य प्रमुख सीमेण्ट उत्पादक केन्द्र हैं।

व्यापार
भारत के सीमेण्ट उद्योग की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ कुल उत्पादन-क्षमता का 84% सीमेण्ट को उत्पादन किया जाता है। सन् 1965 ई० में इस उद्योग के विकास एवं विस्तार हेतु सीमेण्ट निगम की स्थापना की गयी थी। इस निगम का प्रमुख कार्य कच्चे माल के नये क्षेत्रों का पता लगाना तथा इस उद्योग से सम्बन्धित समस्याओं को हल करना था। वर्तमान समय में हम सीमेण्ट उत्पादन में आत्म-निर्भर हो गये हैं। वर्ष 2004-05 में 78.3 लाख टन सीमेण्ट का निर्यात भी किया गया था। बांग्लादेश, इण्डोनेशिया, मलेशिया, नेपाल, म्यांमार, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान आदि हमारे सीमेण्ट के प्रमुख ग्राहक हैं।

वर्ष 2010-11 के दौरान सीमेंट उत्पादन (अप्रैल, 2011 से मार्च, 2012 तक) 224.49 मिलियन टन हुआ और 2010-11 की इसी अवधि तुलना में 6.55 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। भारत ने अप्रैल, 2011-12 के दौरान 3.86 मिलियन टन सीमेंट और खंगरों का निर्यात किया है। इस क्षेत्र में प्रचुर माँग और ज्यादा लाभ उद्योग के विकास के अनुकूल है। यह उद्योग 11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान लगभग 100 मिलियन टन की क्षमता वृद्धि की योजना थी लेकिन इस अवधि के दौरान क्षमता वृद्धि 126.25 मिलियन टन की हुई।

प्रश्न 6.
भारतीय अर्थव्यवस्था में ग्राम उद्योगों की समस्याएँ बताइए तथा उनके हल के लिए उपाय सुझाष्ट।
उत्तर :
भारतीय अर्थव्यवस्था में ग्राम उद्योगों की समस्याएँ ग्रामीण उद्योगों की प्रमुख समस्याएँ अग्र हैं

  • इन उद्योगों के लिए आवश्यक कच्चा माल नहीं उपलब्ध हो पाता। जो माल इन्हें प्राप्त होता है वह अच्छी किस्म का नहीं होता।
  • बैंकों से ऋण मिलने की प्रक्रिया इतनी जटिल हैं कि इन्हें मजबूर होकर स्थानीय साहूकारों से ऋण लेना पड़ता है।
  • उत्पादित वस्तुओं को बेचने के लिए नियमित बाजार न होने से इन उद्योगों का विकास अवरुद्ध हुआ है।
  • ग्रामीण उद्योगों को बड़े उद्योगों में बनी वस्तुओं से प्रतियोगिता करनी पड़ती है, क्योंकि बड़े उद्योगों की वस्तुएँ सस्ती एवं आकर्षक होती हैं, जिससे इन्हें अपनी वस्तुएँ बेचने में कठिनाई होती है।
  • इन उद्योगों को चलाने के लिए कुशल प्रबन्धक नहीं मिल पाते।
  • इन उद्योगों में काम करने वाले कारीगर आज भी पुराने औजारों एवं पुरानी पद्धतियों के अनुसार कार्य करते हैं जिनसे कम उत्पादन प्राप्त होता है।
  • इन उद्योगों के कारीगर इतने गरीब होते हैं कि वे नवीन यन्त्रों और औजारों को नहीं खरीद पाते, जिससे सस्ती एवं अच्छी वस्तु नहीं बन पाती।
  • इनमें काम करने वाले शिल्पकारों का कोई सामूहिक संगठन नहीं है, जिससे इनमें सामूहिक सौदेबाजी की शक्ति का अभाव पाया जाता है।

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ग्राम उद्योगों की समस्याओं के समाधान के लिए सुझाव

ग्रामीण उद्योगों की समस्याओं के समाधान के लिए निम्न सुझाव दिये जा रहे हैं

  • कच्चे माल की व्यवस्था के लिए पर्याप्त मात्रा में सुख-सुविधाएँ उपलब्ध करायी जाएँ जिसमें सहकारी सहयोग की आवश्यकता होती है।
  • शिल्पकारों को सहकारिता के आधार पर संगठित किया जाए, जिससे उनकी सामूहिक क्रयशक्ति में वृद्धि की जा सके।
  • तैयार माल के क्रय-विक्रय में इन उद्योगों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
  • उत्पादन विधियों में सुधार करने तथा आधुनिक ढंगों को अपनाने के लिए विशिष्ट प्रशिक्षण एवं तकनीकी शिक्षा की अत्यन्त आवश्यकता है।
  • कारीगरों को आधुनिक यन्त्रों एवं औजारों को उचित मूल्य पर उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  • सहकारी विपणन समितियों की स्थापना की जाए।
  • ग्रामीण उद्योगों को बड़े उद्योगों के साथ प्रतिस्पर्धा से बचना आवश्यक है।
  • ग्रामीण उद्योग के विकास की सम्भावनाओं का पता लगाने के लिए व्यापक रूप से सर्वेक्षण कराया जाना चाहिए।
  • इन उद्योगों की सुरक्षा के लिए अनेक बोर्डो और निगमों (UPBoardSolutions.com) की स्थापना की गयी है; जैसे-अखिल भारतीय खादी एवं ग्रामोद्योग निगम, राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम आदि।
  • 2 अप्रैल, 1990 को लघु उद्योगों को ऋण देने के उद्देश्य से भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (सिडबी) की स्थापना की गयी।
  • 2000-01 में नयी ऋण नीति में मिश्रित ऋण सीमा को 25 लाख के ऊपर तक बढ़ाया गया। ऋण गारण्टी योजना को लागू किया गया।

प्रश्न 7.
उत्तर भारत में चीनी उद्योग के स्थानीयकरण के प्रमुख तीन कारणों की समीक्षा कीजिए। मध्य भारत में इस उद्योग के लगाने में प्रमुख दो बाधाओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
उत्तर भारत में चीनी उद्योग के स्थानीयकरण के कारण

  • कच्चे माल के रूप में गन्ने का पर्याप्त उत्पादन।
  • अनुकूल जलवायु
  • शक्ति के संसाधनों की उपलब्धता।
  • सस्ते एवं कुशल श्रम की बहुलता।
  • परिवहन के सस्ते साधनों की उपलब्धता।
  • व्यापक बाजार।

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मध्य भारत में चीनी उद्योग स्थापित करने में आने वाली बाधाएँ मध्य भारत में चीनी उद्योग को स्थापित करने में आने वाली दो प्रमुख बाधाएँ निम्नलिखित हैं
1. श्रमिकों की अनुपलब्धता – गन्ने की एक फसल 10-12 महीनों में तैयार होती है। गन्ने के लिए खेत तैयार करने, बोने, निराई-गुड़ाई करने तथा उन्हें काटकर मिलों तक पहुँचाने के लिए सस्ते एवं कुशल श्रमिकों की पर्याप्त संख्या में आवश्यकता होती है। इसी कारण से गन्ना सघन जनसंख्या वाले क्षेत्रों में ही उगाया जाता है। मध्य भारत के अन्तर्गत आने वाले राज्यों में भौगोलिक स्थितियों के कारण जनसंख्या अत्यधिक विरल है, अतः श्रमिकों की अनुपलब्धता है, जो कि इस उद्योग के स्थापित होने में प्रमुख रूप से बाधक है।

2. उपयुक्त मृदा की अनुपलब्धता – गन्ने की खेती के लिए उपजाऊ दोमट तथा नमीयुक्त गहरी– चिकनी मिट्टी उपयुक्त होती है। यह मिट्टी से अधिक पोषक तत्त्व भी ग्रहण करता है। इसलिए इसे अतिरिक्त खाद की भी आवश्यकता होती है। मध्य भारत (UPBoardSolutions.com) के अन्तर्गत आने वाले राज्यों में न तो गन्ने की उपज के लिए अनुकूल उपजाऊ मृदा उपलब्ध है और न ही खादों की आपूर्ति सुगम है। यही कारण इस उद्योग के स्थापित होने में बाधक हैं।। उपर्युक्त दोनों कारणों से भी अधिक गन्ने की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु, परिवहन के साधन, समुचित वर्षा, सिंचाई के साधनों का अभाव आदि मध्य भारत में इस उद्योग को स्थापित करने में प्रमुख रूप से बाधक हैं।

प्रश्न 8.
भारत में सूती वस्त्र उद्योग के विकास एवं स्थानीयकरण की विवेचना कीजिए। [2018]
या
भारत में तीन प्रदेशों के सूती वस्त्र उद्योग के केन्द्रों का वर्णन कीजिए। [2014, 17]
या
भारत के सूती वस्त्र उद्योग के विकास का कच्चे माल की उपलब्धता एवं उसके प्रमुख केन्द्रों के साथ वर्णन कीजिए।
उत्तर :

भारत में सूती वस्त्र उद्योग

भारत में सूती वस्त्रों के उपयोग की परम्परा बहुत प्राचीन है। सिन्धु सभ्यता में बने वस्त्रों की माँग यूरोपीय और मध्य-पूर्व के देशों में बहुत अधिक थी। उस काल में सूती वस्त्र उद्योग ग्रामीण या कुटीर उद्योग के रूप में संचालित किया जाता था। वस्त्र के (UPBoardSolutions.com) लिए धागा बनाने की मशीन मात्र चरखा थी। उन्नीसवीं शताब्दी के
आरम्भिक वर्षों में कोलकाता के निकट सूती मिल की स्थापना की गई। परन्तु इस उद्योग का वास्तविक विकास सन् 1954 ई० से प्रारम्भ हुआ, जब पूर्ण रूप से भारतीय पूँजी द्वारा मुम्बई में सूती मिल की स्थापना की गई थी।

महत्त्व – सूती वस्त्र उद्योग एक प्रमुख उद्योग है। यह न केवल वस्त्र जैसी अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति करता है वरन् बड़ी मात्रा में रोजगार भी उपलब्ध कराता है। यह निर्यात द्वारा बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा भी कमाकर देता है।

स्थानीयकरण के कारण – भारत में सूती वस्त्र उद्योग के स्थानीयकरण के निम्नलिखित कारण हैं

  • पर्याप्त कच्चे माल (कपास) का स्थानीय उत्पादन।
  • अनुकूल नम जलवायु तथा स्वच्छ जल।
  • रासायनिक पदार्थों का सरलता से मिलना।
  • सस्ते एवं कुशल श्रमिकों का मिलना।
  • परिवहन के सस्ते साधनों का मिलना।
  • वस्त्र बनाने वाली मशीनरी की उपलब्धता।
  • वस्त्र उद्योग को सरकारी संरक्षण तथा सहायता प्राप्त होना।
  • उपभोक्ता बाजार निकट स्थित होना।
  • शक्ति के पर्याप्त संसाधन मिलना।
  • विदेशी सूती वस्त्रों पर भारी आयात कर का होना।
  • सूती वस्त्र निर्यात की उदार सरकारी नीति का पालन करना।

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उत्पादन-सूती वस्त्र उद्योग भारत का प्राचीनतम एवं महत्त्वपूर्ण उद्योग है। यह वर्तमान में भारत का सबसे बड़ा तथा विकसित उद्योग है। यह देश के कुल औद्योगिक उत्पादन में लगभग 14% का अंशदान करता है। देश के कुल निर्यात व्यापार में लगभग 23% की हिस्सेदारी रखने वाला निर्यातपरक यह उद्योग लगभग 35 लाख लोगों की जीविका चला रहा है। भारत का विश्व के सूती वस्त्र उत्पादन में चीन के बाद दूसरा स्थान है। (UPBoardSolutions.com) परन्तु तकुओं की दृष्टि से प्रथम स्थान है। भारत में सूती वस्त्र बनाने का कार्य पहले कुटीर उद्योग के रूप में किया जाता था, परन्तु अब यह एक महत्त्वपूर्ण संगठित उद्योग के रूप में विकसित हो गया है। भारत के अनेक राज्यों में सूती वस्त्र उद्योग का स्थानीयकरण हुआ है। यह क्षेत्र हैं-मुम्बई, हैदराबाद, सूरत, शोलापुर, कोयम्बटूर, नागपुर, मदुरै, कानपुर, बंगलुरु, पुणे और चेन्नई।

सूती वस्त्र उद्योग उत्पादन के क्षेत्र एवं महत्त्वपूर्ण केन्द्र

यद्यपि भारत के अनेक राज्यों में सूती वस्त्रों का उत्पादन किया जाता है, परन्तु इसका सर्वाधिक विकास गुजरात एवं महाराष्ट्र राज्यों में हुआ है। मुम्बई तथा अहमदाबाद नगर सूती वस्त्र उद्योग के प्रधान केन्द्र हैं। भारत के प्रमुख सूती वस्त्र उत्पादन राज्यों का विवरण निम्न प्रकार है

1. गुजरात-
सूती वस्त्र उत्पादन के क्षेत्र में गुजरात राज्य का भारत में प्रथम स्थान है। यह देश का लगभग 33% सूती वस्त्र का उत्पादन करता है। अहमदाबाद महानगर सूती वस्त्र उद्योग का मुख्य केन्द्र है। यही कारण है कि अहमदाबाद को भारत का मानचेस्टर और पूर्व का बोस्टन कहा जाता है। बड़ोदरा, सूरत, भरूच, बिलिमोरिया, मोरवी, सुरेन्द्रनगर, राजकोट, कलोल, भावनगर, नाडियाड, पोरबन्दर तथा जामनगर अन्य प्रमुख सूती वस्त्र बनाने वाले केन्द्र हैं।

2. महाराष्ट्र – 
इस राज्य का भारत के सूती वस्त्र उद्योग में दूसरा स्थान है। मुम्बई महानगर में खटाऊ, फिनले तथा सेंचुरी जैसी प्रसिद्ध सूती वस्त्र मिले हैं। महाराष्ट्र में सूती वस्त्र उद्योग के अन्य केन्द्रों में शोलापुर, कोल्हापुर, पुणे, नागपुर, सतारा, वर्धा, (UPBoardSolutions.com) अमरावती, सांगली, थाणे, जलगाँव, अकोला, सिद्धपुर, चालीसगाँव, धूलिया, औरंगाबाद आदि प्रमुख हैं।

3. तमिलनाडु – 
इस राज्य में कोयम्बटूर सूती वस्त्र का प्रमुख केन्द्र है। सलेम, चेन्नई, रामनाथपुरम, तूतीकोरिन, तंजावूर, मदुरै, पेराम्बूर आदि अन्य प्रमुख सूती वस्त्र उत्पादक केन्द्र हैं।

4. उत्तर प्रदेश – 
यह उत्तर भारत का सबसे बड़ा सूती वस्त्र उत्पादक राज्य है, कानपुर महानगर इस उद्योग का मुख्य केन्द्र है, इसे उत्तर भारत का मानचेस्टर कहा जाता है। अन्य सूती वस्त्र उत्पादक केन्द्रों में वाराणसी, रामपुर, मुरादाबाद, आगरा, बरेली, अलीगढ़, हाथरस, मोदीनगर, पिलखुवा, सण्डीला, इटावा आदि मुख्य हैं।

5. पश्चिम बंगाल – 
सूती वस्त्र उत्पादन की दृष्टि से इस राज्य का भारत में तीसरा स्थान है। यह राज्य भारत का 15% सूती वस्त्र उत्पादित करता है। कच्चे माल की कमी आयातित कपास से पूरी की जाती है। चौबीस-परगना, हावड़ा एवं हुगली प्रमुख सूती वस्त्र उत्पादन जिले हैं। कोलकाता, श्रीरामपुर, हुगली, मुर्शिदाबाद, हावड़ा, रिशरा, फूलेश्वर, धुबरी आदि प्रमुख सूती वस्त्र उत्पादक केन्द्र हैं।

अन्य राज्य – भारत के अन्य सूती वस्त्र उत्पादक राज्यों में कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, केरल, बिहार एवं दिल्ली प्रमुख हैं।

व्यापार – भारत सूती वस्त्र का निर्यात मुख्यतः हिन्द महासागर के तटवर्ती देशों-ईरान, इराक, म्यांमार (बर्मा), श्रीलंका, बंगलादेश, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, इण्डोनेशिया, थाईलैण्ड, मिस्र, सूडान, टर्की, इथोपिया, नेपाल, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड आदि को करता है।

प्रश्न 9.
भारत में लौह-इस्पात उद्योग के स्थानीयकरण, वितरण एवं भावी सम्भावनाओं का विवरण दीजिए। [2017]
या
भारत में लौह-इस्पात उद्योग के स्थानीयकरण के कोई तीन कारण बताइए। [2013]
उत्तर :

भारत में लोहा-इस्पात उद्योग

उद्योग का महत्त्व एवं विकास
लोहा-इस्पात उद्योग की गणना भारत के महत्त्वपूर्ण भारी उद्योगों में की जाती है। वर्तमान में भारत में लोहा-इस्पात के 11 कारखाने है, जिनमें से 4 बिल्कुल नए हैं। लोहा-इस्पात उद्योग, औद्योगिक क्रान्ति का जनक है। इस्पात का उपयोग मशीनों, रेलवे (UPBoardSolutions.com) लाइन, परिवहन के साधन, भवन निर्माण, रेल के पुल, जलयान, अस्त्र-शस्त्र तथा कृषि यन्त्र आदि बनाने में किया जाता है अर्थात् इससे एक सुई से लेकर विशालकाय टैंकों तक का निर्माण किया जाता है। वर्तमान में भारत में एक इस्पात कारखाना निजी क्षेत्र में (टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी) तथा शेष 10 सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित किए गए हैं।

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स्थानीयकरण के कारण – भारत में लोहा-इस्पात उद्योग के स्थानीयकरण के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  • लौह-अयस्क एवं कोयला जैसे कच्चे माल निकट स्थित होना।
  • अन्य उपयोगी खनिज पदार्थों (मैंगनीज, अभ्रक, डोलोमाइट व चूना पत्थर) का मिलना।
  • सस्ती एवं सुलभ जल विद्युत-शक्ति का मिलना।
  • स्वच्छ जल की आपूर्ति होना
  • विस्तृत उपभोक्ता बाजार की सुविधा प्राप्त होना।
  • सस्ते एवं कुशल श्रमिकों का मिलना।
  • परिवहन के सस्ते साधन का मिलना।
  • पर्याप्त पूँजी की व्यवस्था होना।
  • उद्योग को सरकारी संरक्षण एवं सहायता प्राप्त होना।

उत्पादन एवं उद्योग के प्रमुख केन्द्र
भारत के प्रमुख लोहा-इस्पात कारखानों का विवरण निम्नलिखित है|

1. टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी, जमशेदपुर (TISCO) – 
इसे कम्पनी की स्थापना सन् 1907 में जमशेद जी टाटा द्वारा तत्कालीन बिहार (वर्तमान में झारखण्ड राज्य) के साँकची (वर्तमान में जमशेदपुर) नामक स्थान पर की गई थी। वर्तमान (UPBoardSolutions.com) में यह एशिया महाद्वीप का सबसे बड़ा लोहा-इस्पात कारखाना है। इस कारखाने की उत्पादन क्षमता 20 लाख टन इस्पात पिण्ड तथा 19 लाख टन ढलवाँ लोहा प्रतिवर्ष तैयार करने की है। जमशेदपुर को ही इस्पात नगरी या टाटानगर भी कहा जाता है।

2. इण्डियन आयरन एण्ड स्टील कम्पनी (ISCO) – 
इस कम्पनी के अधीन इस्पात के तीन कारखाने-पश्चिम बंगाल के बर्नपुर, कुल्टी तथा हीरापुर स्थानों पर स्थापित किए गए हैं। सन् 1952 से इन तीनों कारखानों को ‘इण्डियन आयरन एण्ड स्टील कम्पनी के नाम से जाना जाता है। सन् 1976 से सरकार ने इस कम्पनी को अपने अधिकार में ले लिया है। बर्नपुर में इस्पात, हीरापुर में ढलवाँ लोहा तथा कुल्टी में इस्पात पिण्ड बनाए जाते हैं। इस कम्पनी का मुख्य कार्यालय कोलकाता में है। इन तीनों इकाइयों की वार्षिक उत्पादन क्षमता 10 लाख टन इस्पात तथा 13 लाख टन ढलवाँ लोहा तैयार करने की है।

3. विश्वेश्वरैया आयरन स्टील लिमिटेड –
कर्नाटक राज्य के शिमोगा जिले में भद्रा नदी के किनारे भद्रावती नामक स्थान पर सन् 1923 में इस कारखाने की स्थापना की गई थी। इस क्षेत्र में पर्याप्त लौह-अयस्क निकाला जाता है, परन्तु कोयले का अभाव है। अत: कोयले के स्थान पर लकड़ी का कोयला प्रयोग में लाया जाता है। यहाँ लौह-अयस्क केमानगुण्डी तथा बाबाबूदन की पहाड़ियों से प्राप्त होता है। इस कारखाने की उत्पादन क्षमता 85,000 टन ढलवाँ लोहा तथा 2 लाख टन इस्पात तैयार करने की है। सन् 1962 ई० से इस कारखाने पर कर्नाटक सरकार तथा भारत सरकार का संयुक्त अधिकार है।

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4. राउरकेला इस्पात लिमिटेड – 
ओडिशा राज्य में सन् 1955 में जर्मनी की सहायता से सुन्दरगढ़ जिले के राउरकेला नामक स्थान पर इस कारखाने की स्थापना की गई थी। वर्तमान में इसकी उत्पादन क्षमता 18 लाख टन इस्पात तैयार करने की है। इस कारखाने को (UPBoardSolutions.com) लौह-अयस्क क्योंझर तथा गुरुमहिसानी की खदानों से तथा कोयला झरिया, तालचेर एवं कोरबा की खदानों से प्राप्त होता है। हीराकुड बाँध से इसे , सस्ती जलविद्युत शक्ति प्राप्त होती है।

5. भिलाई इस्पात कारखाना – 
इस कारखाने की स्थापना वर्तमान छत्तीसगढ़ (तत्कालीन मध्य प्रदेश) राज्य के दुर्ग जिले में भिलाई नामक स्थान पर सन् 1955 ई० में तत्कालीन सोवियत संघ की सरकार के सहयोग से की गई थी। इस कारखाने में उत्पादन सन् 1962 ई० में आरम्भ हुआ था। इस कारखाने को सभी भौगोलिक सुविधाएँ प्राप्त हैं। इस कारखाने की उत्पादन क्षमता 40 लाख टन इस्पात प्रतिवर्ष तैयार करने की है। यहाँ लोहे की छड़े, शहतीर, रेल की पटरियाँ तथा इस्पात के ढाँचे बनाए जाते हैं।

6. दुर्गापुर इस्पात कारखाना – 
पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर नामक स्थान पर ब्रिटिश सरकार की सहायता से सन् 1956 ई० में इस कारखाने की स्थापना की गई थी परन्तु इस कारखाने से सन् 1962 ई० में उत्पादन प्रारम्भ हो सका। इसमें रेल की पटरियाँ, शहतीर तथा ब्लेड बनाए जाते हैं। इसकी उत्पादन क्षमता 16 लाख टन इस्पात पिण्ड तैयार करने की है।

7. बोकारो इस्पात कारखाना –
वर्तमान झारखण्ड (तत्कालीन बिहार) राज्य के बोकारो नामक स्थान पर चौथी पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत सन् 1964 ई० में सोवियत संघ के सहयोग से इस कारखाने की स्थापना की गई थी। इस कारखाने की उत्पादन क्षमता 40 लाख टन इस्पात प्रतिवर्ष तैयार करने की है।

अन्य प्रतिष्ठान – भारत में इस्पात की बढ़ती हुई माँग की पूर्ति के लिए लोहा-इस्पात के अनेक नए कारखानों की स्थापना की गई है। इनमें कर्नाटक राज्य में बेल्लारी जिले में हॉस्पेट के निकट विजयनगर, आन्ध्र प्रदेश में विशाखापत्तनम, तमिलनाडु में सलेम तथा ओडिशा राज्य में दैतारी नामक स्थानों पर नए इस्पात कारखानों की स्थापना प्रमुख है।

उत्पादन एवं व्यापार – भारत अनेक देशों को इस्पात का निर्यात करता है। न्यूजीलैण्ड, मलेशिया, बांग्लादेश, ईरान, म्यांमार (बर्मा), सऊदी अरब, श्रीलंका, कीनिया आदि देश भारतीय इस्पात के प्रमुख ग्राहक हैं। भविष्य में इस्पात के निर्यात की सम्भावना बढ़ी है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
औद्योगिक ढाँचे का क्या तात्पर्य है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भारत के औद्योगिक उद्यमों को मुख्य रूप से सार्वजनिक क्षेत्र एवं निजी क्षेत्र में वर्गीकृत किया जा सकता है। वे कम्पनियाँ जिन पर सरकारी विभागों अथवा केन्द्र या राज्यों द्वारा स्थापित संस्थाओं का स्वामित्व होता है, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम कहलाते हैं। (UPBoardSolutions.com) दूसरे निजी क्षेत्र के उद्यम हैं। कुछ उद्यमों का मिश्रित रूप भी है जिन पर सार्वजनिक क्षेत्र की संस्था और निजी उद्यम दोनों का संयुक्त स्वामित्व होता है। संयुक्त क्षेत्र और निजी क्षेत्र के उद्योगों को कभी-कभी निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जाता है

(क) गैर-कारखाना विनिर्माण इकाइयाँ – ये दो प्रकार की होती हैं

  • ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में कुटीर उद्योग और
  • अन्य औद्योगिक इकाइयाँ, जो इतनी छोटी होती हैं कि वे कारखाना कहलाने लायक नहीं होतीं और इसलिए उन्हें छोटी विनिर्माण इकाइयाँ कहा जाता है।

(ख) ऐसे उद्यम जिन्हें अधिक मात्रा में विदेशी विनिमय का प्रयोग करना पड़ता है, जो कि भारत के लिए दुर्लभ स्रोत है। ये उद्यम विदेशी विनिमय अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत काम करते हैं और फेरा (FERA) कम्पनियाँ कहलाते हैं। वर्तमान में ‘फेरा’ के स्थान पर ‘फेमा’ (FEMA) के नियमों के अन्तर्गत कार्य किया जाता है।

(ग)
ऐसे उद्यम जो इतने बड़े हैं कि जिन्हें एकाधिकार एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार अधिनियम (MRTP Act) के अन्तर्गत काम करना पड़ता है। इन्हें MRTP कम्पनियाँ कहते हैं। प्रश्न

प्रश्न 2.
पेट्रो-रसायन उद्योग पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
पेट्रो-रसायन उद्योग रसायन उद्योग कम ही एक भाग है। इनके अन्तर्गत पेट्रोल, कोयला तथा अनेक रसायनों से विविध प्रकार के पदार्थ; जैसे—प्लास्टिक, कीटनाशक दवाइयाँ, रंग तथा रोगन आदि बनाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त पॉलीमर, कृत्रिम कार्बनिक रसायन, कृत्रिम रेशे तथा धागे, पॉलिस्टर, नाइलोन चिप्स, स्पेण्डेक्स धागे (तैराकी की पोशाकों हेतु) आदि भी बनाये जाते हैं। भारत में यह उद्योग स्वतन्त्रता के बाद आरम्भ किया गया। विगत दो दशकों में इसके उत्पादन तथा उपभोग में अत्यधिक वृद्धि हुई है। सरकारी प्रोत्साहन तथा उदारीकरण ने इस उद्योग की प्रगति में विशेष योगदान दिया है।

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प्लास्टिक प्रोसेसिंग मूलत: लघु उद्योग क्षेत्र में है। पेट्रो-रसायन उद्योग में बड़ी-बड़ी वस्तुओं का निर्माण किया जाने लगा है, जिससे देश की अर्थव्यवस्था में इसका स्थान सर्वोपरि हो गया है। यह एक ऐसा उद्योग है, जिसमें कच्चे माल को पुनः परिष्कृत कर विभिन्न वस्तुओं का निर्माण किया जाता है, जिससे इसकी महत्ता में और भी वृद्धि हो गयी है। पेट्रो-रसायन उद्योग मुम्बई के निकट ट्रॉम्बे एवं कोयली, गुजरात में अंकलेश्वर तथा बड़ोदरा में केन्द्रित हो गया है। इनके अतिरिक्त हल्दिया (प० बंगाल), डिगबोई (असोम), कोचीन (केरल), बरौनी (बिहार), चेन्नई (तमिलनाडु), करनाल (हरियाणा), मथुरा (उत्तर प्रदेश), (UPBoardSolutions.com) मार्मागाओ (गोवा) आदि स्थानों पर पेट्रो-रसायन उद्योग प्रगति पर है। इस उद्योग का प्रसार देश के अन्य भागों में भी होता जा रहा है। वर्ष 2004-05 में पेट्रो-रसायन पदार्थों का उत्पादन 7,018 किलो टन था। वर्ष 2009-10 में पेट्रो रसायन पदार्थों का उत्पादन 8.681 हजार मीट्रिक टन हो गया था।

प्रश्न 3.
पेट्रो-रसायन और रसायन उद्योग में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
पेट्रो-रसायन उद्योग खनिज तेल पर आधारित होते हैं। खनिज तेल को परिष्कृत करके उसमें से स्नेहक तेल, फर्नेस तेल, डीजल, मिट्टी का तेल, सफेद तेल, पेट्रोल, एल०पी०जी० गैस, नेफ्था, रासायनिक गोंद, ग्रीस, मेन्थॉल, नाइलोन, पॉलिस्टर प्राप्त किये जाते हैं। रेयॉन, नाइलोन, टेरीन और डेकरॉन कृत्रिम रेशे पेट्रो-रसायन उद्योग के वे उत्पाद हैं जिनसे आकर्षक, अधिक टिकाऊ वस्त्र बनाये जाते हैं। अपने उत्कृष्ट गुणों के कारण पेट्रो-रसायन उत्पाद, परम्परागत कच्चे माल; जैसे-लकड़ी, शीशा और धातु का स्थान ले रहे हैं। घरों, कारखानों और खेतों में इनका उपयोग हो रहा है। उदाहरण के लिए- प्लास्टिक के उपयोग से जन-जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन आ रहे हैं। सिन्थेटिक डिटर्जेण्ट एक क्रान्तिकारी पेट्रो-रसायन उत्पाद ही है।

रसायन उद्योग – लोहा तथा इस्पात, इंजीनियारिंग और वस्त्र उद्योग के बाद रसायन उद्योग का देश में चौथा स्थान है। पिछले कुछ वर्षों में कार्बनिक तथा अकार्बनिक रसायन उद्योग ने बड़ी तेजी से विकास किया है। ये उद्योग रसायनों पर आधारित होते हैं। इन भारी रसायनों से अनेक उत्पाद बनाये जाते हैं। इनमें औषधियाँ, रँगाई के सामान, नाशकमार (कीटनाशक आदि), पेण्ट, दियासलाई, साबुन आदि उत्पाद उल्लेखनीय हैं। अमेरिका का रसायन उद्योग में विश्व में प्रथम स्थान है।

नाशकमार दवाओं में कीटनाशक, खरपतवारनाशक, फफूदनाशक और कृतंकनाशक, कृषि और जन-स्वास्थ्य के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। डी०डी०टी० बनाने का कारखाना सन् 1954 में दिल्ली में लगाया गया था। सन् 1996-97 में इसका उत्पादन १ 900 अरब मूल्य का था। औषध निर्माण उद्योग में भारत का अब विश्व में श्रेष्ठ स्थान है। देश मूलभूत तथा व्यापक (Bulk) औषधियों के उत्पादन में लगभग आत्मनिर्भर बन गया है।

प्रश्न 4.
सूती वस्त्र उद्योग महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में अधिक केन्द्रित हैं, क्यों ? [2010]
उत्तर :
महाराष्ट्र के सूती वस्त्र उद्योग का सबसे बड़ा एवं प्रमुख केन्द्र मुम्बई है। इस महानगर में सूती वस्त्रों की 71 मिले हैं, जिस कारण इसे ‘सूती वस्त्रों की राजधानी कहा जाता है। इसी प्रकार अहमदाबाद गुजरात राज्य का सूती वस्त्र उद्योग का सबसे बड़ा एवं प्रमुख केन्द्र है। यहाँ सूती वस्त्रों की 81 मिले हैं, जिस कारण इसे भारत का मानचेस्टर’ तथा पूर्व का बोस्टन’ कहा जाता है। इन राज्यों में सूती वस्त्र उद्योग के केन्द्रित होने के लिए (UPBoardSolutions.com) निम्नलिखित भौगोलिक कारण उत्तरदायी रहे हैं
1. कपास का पर्याप्त उत्पादन – महाराष्ट्र एवं गुजरात राज्यों की काली मिट्टी में कपास का पर्याप्त उत्पादन किया जाता है।
2. आर्द्र जलवायु – सागर की निकटता के कारण इन दोनों ही राज्यों की जलवायु आर्द्रता प्रधान है। इस जलवायु में बुनाई के समय धागा नहीं टूटता।
3. पत्तन की सुविधा  मुम्बई तथा काँदला पत्तनों से सूती वस्त्र उद्योग हेतु मशीनें, कल-पुर्जे, रासायनिक पदार्थ, कपास तथा अन्य आवश्यक पदार्थों के विदेशों से आयात करने की सुविधा रहती
4. ऊर्जा के पर्याप्त साधन – इन केन्द्रों के सूती वस्त्र कारखानों को जलविद्युत शक्ति सस्ती दर पर सरलता से उपलब्ध हो जाती है।
5. पर्याप्त पूँजी – महाराष्ट्र तथा गुजरात राज्यों में पूँजीपति निवास करते हैं, जो बहुत ही धनाढ्य हैं; अर्थात् यहाँ इस उद्योग के विकास के लिए पर्याप्त पूँजी उपलब्ध है।
6. पर्याप्त माँग – यहाँ उत्पादित सूती वस्त्रों का उपभोक्ता बाजार बड़ा ही विस्तृत है।
7. सस्ते एवं कुशल श्रमिक – मुम्बई तथा अहमदाबाद महानगरों में परम्परागत, सस्ते तथा कुशल श्रमिक आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।

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प्रश्न 5.
हुगली नदी के किनारे कागज के अनेक कारखाने क्यों स्थापित हो गये हैं ?
उत्तर :
पश्चिम बंगाल राज्य में हुगली नदी के किनारे कागज के अनेक कारखाने स्थापित हुए हैं। यहाँ इस उद्योग की स्थापना के निम्नलिखित कारण हैं

  1. पश्चिम बंगाल तथा उसके समीपवर्ती राज्यों में घास पर्याप्त मात्रा में उगती है, जो कागज उद्योग का प्रमुख कच्चा माल है। यहाँ उत्पादित बॉस का उपयोग भी कच्चे माल के रूप में किया जाता है।
  2. कागज उद्योग में स्वच्छ जल की आवश्यकता होती है। हुगली नदी के सदावाहिनी होने के कारण यहाँ पर्याप्त जल उपलब्ध हो जाता है। यही एक प्रमुख कारण है कि हुगली नदी के किनारे टीटागढ़, रानीगंज, नैहाटी, आलम बाजार, कोलकाता, बाँसबेरिया तथा शिवराफूली में कागज के कारखाने स्थापित किये गये हैं।
  3. कागज उद्योग के लिए आवश्यक शक्ति-संसाधन पश्चिम बंगाल (UPBoardSolutions.com) राज्य में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं।
  4. पश्चिम बंगाल तथा समीपवर्ती राज्यों में पर्याप्त संख्या में कुशल एवं अनुभवी श्रमिक उपलब्ध हो जाते हैं।
  5. कागज उद्योग के विकास के लिए पश्चिम बंगाल राज्य में परिवहन के साधनों का पर्याप्त विकास हुआ है, जिससे कच्चा माल आयात करने तथा तैयार माल देश के विभिन्न भागों में भेजने की सुविधा रहती है।

प्रश्न 6.
भारत में सूती वस्त्र उद्योग की प्रमुख समस्याओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
भारत में सूती वस्त्र उद्योग की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं

  1. देश में उत्तम कपास की कमी है। देश के विभाजन के कारण अच्छी कपास उत्पन्न करने वाले दो क्षेत्र (पंजाब का पश्चिमी भाग तथा सिन्ध) पाकिस्तान में चले गये।
  2. इस उद्योग को जापान, चीन, पाकिस्तान आदि देशों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। इन देशों में लम्बे रेशे की कपास सुलभ होने तथा आधुनिक मशीनों एवं विधियों के प्रयोग के कारण उत्पादन लागत बहुत कम है।
  3. सूती वस्त्र उद्योग की अधिकांश मशीनें घिसी हुई तथा पुरानी हैं, जिस कारण देश में वस्त्र की उत्पादन लागत अधिक आती है।
  4. अनेक मिलें अनार्थिक आकार की हैं, जिस कारण इन्हें आन्तरिक किफ़ायत प्राप्त नहीं हो पाती। फलतः उत्पादन-लागत बढ़ जाती है।
  5. सूती वस्त्रों पर सरकार द्वारा आरोपित उत्पादन कर अधिक है।

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प्रश्न 7.
भारत में लौह-इस्पात उद्योग छोटा नागपुर के पठार के आस-पास क्यों केन्द्रित है? दो प्रमुख कारणों का उल्लेख, कीजिए।
उतर :
लोहा-इस्पात उद्योग की दो आधारभूत आवश्यकताएँ होती हैं-लौह-अयस्क तथा कोयला। छोटा नागपुर का पठार इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति भली प्रकार करता है। यही कारण है कि लौह-इस्पात उद्योग इसके आस-पास ही केन्द्रित हैं। दोनों कारणों का संक्षिप्त उल्लेख आगे किया जा रहा है

  1. लौह-अयस्क की उपलब्धता – भारत के कुल लौह-अयस्क उत्पादन का 40% लौह-अयस्क छोटा नागपुर की खानों से निकाला जाता है। यहाँ लौह-खनिज के लिए सिंहभूम जिला महत्त्व रखता है। सिंहभूम और ओडिशा की सीमा (UPBoardSolutions.com) पर कोल्हन पहाड़ियाँ लोहे की खानों के लिए प्रसिद्ध हैं।
  2. कोयला – भारत का 90% कोकिंग कोयला झरिया की खानों से मिलता है। भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार यहाँ 2,000 लाख टन कोयले के भण्डार हैं। यह कोयला यहाँ के आस-पास स्थित लोहा-इस्पात के उद्योगों को सरलता से बिना अधिक परिवहन व्यय के उपलब्ध है।

उपर्युक्त दो कारणों से अधिकांश लोहा-इस्पात उद्योग छोटा नागपुर के पठार के आस-पास ही स्थित हैं, जिनमें टाटा लोहा-इस्पात कारखाना, जमशेदपुर, बोकारो स्टील प्लाण्ट, दुर्गापुर इस्पात कारखाना आदि मुख्य हैं।

प्रश्न 8.
आधारभूत उद्योग किसे कहते हैं? इनका क्या महत्त्व है? [2009]
उत्तर
लोहा-इस्पात उद्योग को आधारभूत उद्योग कहते हैं। लोहा-इस्पात उद्योग की गणना भारत के महत्त्वपूर्ण भारी उद्योगों में की जाती है। वर्तमान समय में भारत में लोहा-इस्पात के 11 कारखाने हैं। लोहा-इस्पात उद्योग औद्योगिक क्रान्ति का जनक है। इस्पात का उपयोग मशीनों, रेलवे लाइन, परिवहन के साधन, भवन-निर्माण, रेल के पुल, जलयान, अस्त्र-शस्त्र तथा कृषि-यन्त्र आदि के निर्माण में किया जाता है। वर्तमान समय में भारत में एक इस्पात कारखाना निजी क्षेत्र में (टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी) तथा शेष 10 सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित किए गए हैं।

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अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लौह-इस्पात उद्योग को आधारभूत उद्योग क्यों कहा जाता है ?
उत्तर :
लोहा और इस्पात से भारी मशीनें तथा औजार बनाये जाते हैं। यही मशीनें तथा औजार अन्य उद्योगों के आधार हैं। यही कारण है कि लोहा और इस्पात उद्योग को आधारभूत उद्योग कहा जाता है।

प्रश्न 2 भारत में प्रथम आधुनिक इस्पात कारखाना कहाँ तथा कब स्थापित किया गया ?
उत्तर भारत में प्रथम आधुनिक इस्पात कारखाना 1907 ई० (UPBoardSolutions.com) में जमशेदपुर में (वर्तमान में झारखण्ड राज्य के साँकची नामक स्थान) लगाया गया।

प्रश्न 3.
लौह-इस्पात उद्योग के चार प्रमुख केन्द्रों के नाम लिखिए।
उत्तर :
लोहा-इस्पात उद्योग के चार प्रमुख केन्द्रों के नाम हैं—

  • भिलाई,
  • बोकारो,
  • जमशेदपुर तथा
  • राउरकेला।

प्रश्न 4.
चीनी उद्योग के प्रमुख केन्द्रों के नाम लिखिए।
उत्तर :
चीनी उद्योग के प्रमुख केन्द्र अर्थात् चीनी उत्पादक प्रमुख राज्य निम्नलिखित हैं

  • महाराष्ट्र,
  • उत्तर प्रदेश,
  • कर्नाटक,
  • तमिलनाडु,
  • बिहार,
  • आन्ध्र प्रदेश आदि।

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प्रश्न 5.
भारत में सूती वस्त्रोद्योग किन राज्यों में महत्वपूर्ण है ? कुछ प्रमुख केन्द्रों के नाम लिखिए।
उत्तर :
भारत के गुजरात तथा महाराष्ट्र राज्यों में सूती वस्त्रोद्योग (UPBoardSolutions.com) महत्त्वपूर्ण है। कुछ प्रमुख केन्द्र मुम्बई, अहमदाबाद, इन्दौर, कानपुर आदि हैं।

प्रश्न 6.
भारत में ऊनी वस्त्र उद्योग के प्रमुख केन्द्र लिखिए।
उत्तर :
अमृतसर, लुधियाना, मुम्बई, कानपुर, जामनगर, श्रीनगर आदि भारत में ऊनी वस्त्र उद्योग के प्रमुख केन्द्र हैं।

प्रश्न 7.
भारत के तीन राज्यों के नाम बताइए, जहाँ रेशम अधिक पैदा होता है।
या
भारत में रेशमी वस्त्र उत्पादन के प्रमुख केन्द्र बताइए।
उत्तर :
भारत के वे राज्य; जहाँ रेशम अधिक पैदा होता है; के नाम हैं—

  • कर्नाटक,
  • तमिलनाडु,
  • आन्ध्र प्रदेश,
  • असोम आदि।

प्रश्न 8.
भारत में अखबारी कागज का प्रथम कारखाना कब और कहाँ स्थापित किया गया ?
उत्तर :
भारत में अखबारी कागज का प्रथम कारखाना सन् 1955 ई० में नेपानगर (म० प्र०) में स्थापित किया गया।

प्रश्न 9 .
लेम किसलिए प्रसिद्ध है ?
उत्तर :
सलेम इस्पात संयन्त्र के लिए प्रसिद्ध है। यह तमिलनाडु राज्य में स्थित है।

प्रश्न 10.
बड़ोदरा कहाँ स्थित है ? यह किसलिए प्रसिद्ध है ?
उत्तर  :
ड़ोदरा गुजरात राज्य में स्थित है। यह सूती वस्त्र उत्पादक केन्द्र, सीमेण्ट उद्योग तथा पेट्रो-रसायन के लिए प्रसिद्ध है।

प्रश्न 11.
हिन्दुस्तान मशीन टूल्स के तीन केन्द्रों के नाम लिखिए।
उत्तर :

  • बंगलुरु (कर्नाटक),
  • हैदराबाद (तेलंगाना) तथा
  • पिंजौर (हरियाणा), हिन्दुस्तान मशीन टूल्स के तीन केन्द्र हैं।

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प्रश्न 12.
लोकोमोटिव उद्योग के दो केन्द्रों के नाम लिखिए।
उत्तर :

  • चितरंजन (प० बंगाल) तथा
  • वाराणसी (उत्तर प्रदेश), लोकोमोटिव उद्योग के दो प्रधान केन्द्र हैं।

प्रश्न 13.
पोत (जलयान) निर्माण के चार केन्द्र कौन-कौन से हैं ?
उत्तर :

  • मझगाँव डॉक, मुम्बई,
  • कोचीन शिपयार्ड, केरल,
  • गार्डन रीच, कोलकाता तथा
  • विशाखापत्तनम् पोत-निर्माण के चार केन्द्र हैं।

प्रश्न 14.
भिलाई किस उद्योग से सम्बन्धित है ?
उत्तर :
भिलाई लोहा-इस्पात उद्योग से सम्बन्धित है।

प्रश्न 15.
नेपानगर किस प्रदेश में स्थित है और क्यों प्रसिद्ध है ?
उत्तर :
नेपानगर मध्य प्रदेश में स्थित है। यह अखबारी कागज के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है।

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प्रश्न 16.
विशाखापत्तनम् किस उद्योग से सम्बन्धित है ?
उत्तर :
विशाखापत्तनम् लोहा-इस्पात उद्योग (UPBoardSolutions.com) और जहाज-निर्माण उद्योग से सम्बन्धित है।

प्रश्न 17.
जमशेदपुर किस राज्य में स्थित है ?
उत्तर :
जमशेदपुर झारखण्ड राज्य में स्थित है।

प्रश्न 18.
कृषि उत्पादों पर आधारित किन्हीं चार उद्योगों के नाम लिखिए। [2010, 14]
उत्तर :
कृषि उत्पादों पर आधारित चार उद्योगों के नाम हैं–

  • सूती वस्त्र उद्योग,
  • चीनी उद्योग,
  • जूट उद्योग तथा
  • चाय उद्योग।

प्रश्न 19.
भारत में कागज उद्योग के दो प्रमुख केन्द्रों के नाम लिखिए।
उत्तर :
भारत में कागज उद्योग के दो प्रमुख केन्द्र हैं-मध्य प्रदेश में अमलाई तथा महाराष्ट्र में बल्लारपुर।

प्रश्न 20.
सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्र के एक-एक लौह-इस्पात कारखाने का नाम लिखिए।
उत्तर :
सार्वजनिक क्षेत्र – 
दुर्गापुर इस्पात कारखाना, दुर्गापुर, पश्चिम बंगाल।
निजी क्षेत्र – टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी, जमशेदपुर, झारखण्ड।

प्रश्न 21.
भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के दो इस्पात कारखानों के नाम लिखिए।
उत्तर :

  • भिलाई इस्पात कारखाना, भिलाई, छत्तीसगढ़ तथा
  • बोकारो इस्पात कारखाना, बोकारो, (UPBoardSolutions.com) झारखण्ड, सार्वजनिक क्षेत्र के दो इस्पात कारखाने हैं।

प्रश्न 22.
भारत के पेट्रो-रसायन के किन्हीं दो उद्योगों के नाम लिखिए।
उत्तर :

  • प्लास्टिक उद्योग तथा
  • सिन्थेटिक डिटर्जेण्ट उद्योग; पेट्रो-रसायन के दो उद्योग हैं।

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प्रश्न 23.
भारत में कौन-सा नगर ‘सूती वस्त्र उद्योग की राजधानी कहा जाता है ?
उत्तर :
महाराष्ट्र के मुम्बई नगर को ‘सूती वस्त्र उद्योग की राजधानी कहा जाता है।

प्रश्न 24.
भारत में रेल के डिब्बों का निर्माण किन दो स्थानों पर होता है ?
उत्तर :
भारत में रेल के डिब्बों का निर्माण–

  • पेराम्बुर (चेन्नई के निकट) तथा
  • कपूरथला, पंजाब नामक दो स्थानों पर होता है।

प्रश्न 25.
भारत में औद्योगिक दृष्टि से विकसित दो राज्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
महाराष्ट्र तथा गुजरात।

प्रश्न 26.
टाटा आयरन स्टील कम्पनी का मुख्यालय कहाँ स्थित है ? [2015]
उत्तर :
टाटा आयरन स्टील कम्पनी का मुख्यालय जमशेदपुर में है।

प्रश्न 27.
सीमेण्ट के निर्माण में किस कच्चे माल का उपयोग किया जाता है ?
उत्तर :
सीमेण्ट के निर्माण में चूना-पत्थर का (UPBoardSolutions.com) उपयोग किया जाता है।

प्रश्न 28 .
पेट्रो-रसायन उद्योग का सम्बन्ध किस खनिज पदार्थ से है ?
उत्तर :
पेट्रो-रसायन उद्योग का सम्बन्ध गैस, एल्कोहल, कैल्सियम, लकड़ी, शशा और धात्विक खनिजों से है।

प्रश्न 29.
चीनी उद्योग की प्रमुख चार समस्याएँ लिखिए।
उत्तर :
भारत में चीनी उद्योग की चार प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं.

  • उत्तम किस्म के गन्ने की कमी होना।
  • चीनी मिलों द्वारा कुल गन्ना उत्पादन का आंशिक भाग ही प्रयुक्त कर पाना।
  • उत्पादन लागतों में लगातार वृद्धि होना।
  • मिलों में आधुनिक तकनीकी तथा मशीनों के प्रयोग का अभाव होना।

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प्रश्न 30.
कुटीर उद्योग की दो समस्याओं को लिखिए।
उत्तर :
कुटीर उद्योग की दो समस्याएँ निम्नलिखित हैं

  • बैंकों से ऋण मिलने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि इन्हें मजबूर होकर स्थानीय साहूकारों से ऋण लेना पड़ता है।
  • इन उद्योगों को चलाने के लिए कुशल (UPBoardSolutions.com) प्रबन्धक नहीं मिल पाते।

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. लोहा-इस्पात उद्योग कहाँ संकेन्द्रित हैं?

(क) गंगा घाटी में ,
(ख) दामोदर घाटी में
(ग) दकन के पठार में
(घ) बिहार में

2. रेलवे कोच बनाये जाते हैं

(क) पटियाला में
(ख) मेरठ में
(ग) कपूरथला में
(घ) येलाहांका में

3. नेपानगर निम्नलिखित में से किस उद्योग से सम्बन्धित है? [2015]

(क) कागज उद्योग
(ख) चीनी उद्योग
(ग) सीमेण्ट उद्योग
(घ) लोहा तथा इस्पात उद्योग

4. ‘प्लास्टिक’ किस उद्योग का प्रमुख उत्पाद है?

(क) रसायन
(ख) पेट्रो-रसायन,
(ग) सिन्थेटिक वस्त्र
(घ) उर्वरक

5. भारत में कागज का प्रथम कारखाना कहाँ स्थापित किया गया?

(क) कुल्टी में
(ख) नेपानगर में
(ग) टीटागढ़ में
(घ) सिरामपुर में

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6. निम्नलिखित में से कौन-सा नगर कागज उद्योग से सम्बन्धित है? [2013, 15, 17] “

(क) कानपुर
(ख) नेपानगर
(ग) जयपुर
(घ) लखनऊ

7. पेट्रो-रसायन उद्योग का प्रमुख केन्द्र है

(क) बड़ोदरा
(ख) अहमदाबाद
(ग) बंगलुरु
(घ) कानपुर

8. भारत में सबसे अधिक सीमेण्ट कारखाने किस राज्य में हैं?

(क) मध्य प्रदेश में ,
(ख) उत्तर प्रदेश में
(ग) आन्ध्र प्रदेश में
(घ) बिहार में

9. किस राज्य में सर्वाधिक चीनी मिलें हैं?

(क) बिहार में
(ख) उत्तर प्रदेश में
(ग) महाराष्ट्र में।
(घ) मध्य प्रदेश में

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10. निम्नलिखित में कौन-सा उद्योग कृषि पर आधारित है?

(क) सीमेण्ट उद्योग
(ख) सूती वस्त्र उद्योग
(ग) इस्पात उद्योग
(घ) रसायन उद्योग

11. ‘भारत का मैनचेस्टर’ और ‘पूर्व का बोस्टन’ कहलाता है [2012, 14]

(क) कानपुर
(ख) मुम्बई
(ग) अहमदाबाद
(घ) जमशेदपुर

12. निम्नलिखित में से कागज उद्योग से कौन-सा स्थान सम्बन्धित है? (2012)

(क) आगरा।
(ख) फिरोजाबाद
(ग) टीटागढ़
(घ) धनबाद

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13. निम्नलिखित में से कौन-सा नगर सीमेण्ट उद्योग से सम्बन्धित है? [2013]

(क) कटनी
(ख) आगरा।
(ग) भोपाल
(घ) ग्वालियर

14. निम्नलिखित में से कौन-सा उद्योग कृषि आधारित नहीं है? [2013, 15]

(क) सूती वस्त्र उद्योग
(ख) चीनी उद्योग
(ग) सीमेण्ट उद्योग
(घ) जूट उद्योग

15. उत्तर भारत का मैनचेस्टर किसे कहा जाता है? [2014]

(क) लुधियाना
(ख) दिल्ली
(ग) कानपुर
(घ) लखनऊ

16. निम्न में से किसे इस्पात-नगरी कहा जाता है? [2014, 16]

(क) भिलाई
(ख) बोकारो
(ग) जमशेदपुर
(घ) राउरकेला

17. राउरकेला लोहा-इस्पात कारखाना किस राज्य में स्थित है? [2014]

(क) बिहार
(ख) छत्तीसगढ़
(ग) ओडिशा
(घ) उत्तर

प्रदेश 18. भिलाई सम्बन्धित है [2015]

(क) सीमेण्ट उद्योग से
(ख) लौह-इस्पात उद्योग से
(ग) जूट उद्योग से
(घ) ऐलुमिनियम उद्योग से

19. किसी उद्योग की स्थापना के लिए निम्न में से किसकी आवश्यकता होती है? [2015]

(क) कच्चा माल
(ख) जल
(ग) परिवहन
(घ) उपर्युक्त सभी

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20. भिलाई लौह-इस्पात कारखाना किस राज्य में स्थित है? [2017]

(क) बिहार
(ख) छत्तीसगढ़
(ग) ओडिशा
(घ) उत्तर प्रदेश

21. निम्न में से किस राज्य में टाटा लौह-इस्पात संयन्त्र स्थापित है? [2017, 18]

(क) मध्य प्रदेश
(ख) बिहार
(ग) झारखण्ड
(घ) छत्तीसगढ़

उत्तरमाला

1. (ख), 2. (ग), 3. (क), 4. (ख), 5. (घ), 6. (ख), 7. (क), 8. (क), 9. (ग), 10. (ख), 11. (ग), 12. (ग), 13. (क), 14. (ग), 15. (ग), 16. (ग), 17.(ग), 18. (ख), 19. (घ), 20. (ख), 21. (ग)

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