Class 10 Sanskrit Chapter 11 UP Board Solutions जीव्याद् भारतवर्षम् Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 11 Jivyad Bharatvarsham Question Answer (पद्य – पीयूषम्)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 11 हिंदी अनुवाद जीव्याद् भारतवर्षम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 11 जीव्याद् भारतवर्षम् (पद्य – पीयूषम्)

परिचय

डॉ० चन्द्रभानु त्रिपाठी संस्कृत के उत्कृष्ट कवि एवं नाटककार हैं। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जनपद में सन् 1925 ई० में हुआ था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर तथा उच्च शिक्षा प्रयाग में हुई। प्रयाग विश्वविद्यालय के द्वारा “व्याकरण-दर्शन के विशिष्ट अध्ययन” पर आपको डी० फिल्० की उपाधि प्रदान की गयी। इन्होंने अनेक आलोचनात्मक ग्रन्थ, शोध-लेख, कविताएँ, गीत तथा नाटक लिखे हैं। इनकी रचनाओं में सर्वत्र सरलता, सरसता, लालित्य (UPBoardSolutions.com) एवं स्वाभाविकता परिलक्षित होती है। प्रस्तुत गीत डॉ० चन्द्रभानु त्रिपाठी द्वारा रचित ‘गीताली’ नामक काव्य-संकलन से संकलित है। कवि ने प्रस्तुत गीत के तीन पदों में भारत को मनोरमता और भव्यता का तथा भारतीय समाज को एकजुट होकर देश की उन्नति करने का सन्देश दिया है। इनमें कवि की भारतीय संस्कृति के प्रति पूर्ण आस्था अभिव्यक्त हुई है।

UP Board Solutions

पाठ-सारांश

हमारा देश भारतवर्ष चिरकाल तक स्वाधीन राष्ट्र के रूप में विद्यमान रहे।
भारत की मनोरमता हिमालय भारत के सिर का मुकुट है। इस पर पड़ती हुई उदीयमान सूर्य की लाल-लाल किरणें मणियों की भ्रान्ति उत्पन्न करती हैं। समुद्र अपनी लहरों से सदैव इसके चरणों को धोता रहता है। नदियाँ इसके वक्षःस्थल पर पड़े हुए हार हैं, विन्ध्यपर्वत इसकी करधनी है तो सघन वनराशि इसके नवीन वस्त्र हैं।

समाज के नव-निर्माण की आवश्यकता सभी ज्ञानी, विद्वान्, सम्मानित लोग, पूँजीपति, श्रेष्ठ व्यापारी, (UPBoardSolutions.com) श्रमिक एवं वीर सभी वर्गों के लोग एक साथ मिलकर नये समाज का निर्माण करें। पुराने धर्म का परिष्कार करके मानवधर्म का यत्र-तत्र सर्वत्र प्रसार करें। भारत का प्रत्येक निवासी आत्म-बल से युक्त होकर उन्नति एवं प्रगति के नये-नये पाठों को पढ़ता रहे।

भारतीय संस्कृति में आस्था पवित्र लहरों वाली गंगा हमारे देश की महिमा को प्रसृत करती हुई सदैव प्रवाहित होती रहे। महावीर की अहिंसा, गौतम की करुणा और सत्य का सन्देश सर्वत्र फैले। भारतवासी गीता के कर्म के महत्त्व पर आस्था रखें और भारत के वीर सपूतों की गाथाओं का सर्वत्र गान हो। हमारे देश के लोग सुखी, स्वस्थ और दीन भाव से रहित हों तथा भारत एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में चिरकाल तक जीवित रहे।

UP Board Solutions

पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
भारतवर्ष राष्ट्रं जीव्याच्चिरकालं स्वाधीनम्।
सन्मित्रं भूयाच्च समृद्धं जीयाच्छत्रु-विहीनम् ॥

हिमगिरिरस्य किरीटो मौलेररुण-किरण-मणि-माली।
कर-कल्लोलैर्जलधिविलसति पादान्त-प्रक्षाली
सरितो वक्षसि हारा विन्ध्यो भाति मेखला-मानम्।
पल्लव-लसिता निबिड-वनाली रुचिरं नव-परिधानम् ॥
आस्ते कविकुलमस्य मनोरम-रूप-वर्णने लीनम्। [2006]

शब्दार्थ जीव्यात् = अमर रहे। चिरकालम् = चिरकाल तका स्वाधीनम् = स्वतन्त्र सन्मित्रं = सच्चा मित्र। समृद्धं = समृद्धिशाली। जीयात् = विजयी हो। शत्रु-विहीनम् = शत्रुरहित। हिमगिरिः = हिमालय पर्वत। अस्य = इसके। किरीटः = मुकुट। मौलेः = मस्तक का। (UPBoardSolutions.com) अरुण-किरण-मणि-| (सूर्य की) किरणरूपी मणियों की माला वाला। कर-कल्लोलैः = विशाल लहरोंरूपी हाथों से। जलधिः = समुद्रा विलसति = शोभित होता है। पादान्त प्रक्षाली = पैरों के अग्रभाग को धोने वाला। सरितः = नदियाँ। वक्षसि = वक्षःस्थल पर, छाती पर हारा = हार हैं। विन्ध्य = विन्ध्याचल। भाति = शोभित होता है, सुशोभित है। मेखलामानम् = करधनी की भाँति। पल्लव-लसिता = पत्तों से सुसज्जित। निबिडवनाली = घनी वनपंक्ति रुचिरम् = सुन्दर। परिधानम् = वस्त्र। आस्ते = है। कविकुलम् = कवियों का समूह। मनोरम-रूप-वर्णने = मनोहर सुन्दरता का वर्णन करने में। लीनम् = तल्लीन।

सन्दर्भ प्रस्तुत गीत-पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘जीव्याद् भारतवर्षम्’ शीर्षक गीत से लिया गया है।

[संकेत इस पाठ के शेष सभी पद्यों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत पद में भारत की मनोरमता और भव्यता का सुन्दर चित्र अंकित किया गया है।

UP Board Solutions

अन्वय भारतवर्ष राष्ट्रं चिरकालं स्वाधीनं जीव्यात्, (इदं) सन्मित्रं समृद्धं भूयात्, (इदं) शत्रुविहीनं जीयात्। अरुण-किरण-मणि-माली हिमगिरिः अस्य किरीटः (अस्ति)। जलधिः कर-कल्लोलैः (अस्य) पादान्त प्रक्षाली (सन्) विलसति। (अस्य) वक्षसि सरितः हाराः (सन्ति)। विन्ध्यः (अस्य) मेखलामानं भाति। पल्लवलसिता निबिडवनाली (अस्य) रुचिरं नवपरिधानम् अस्ति। कविकुलम् अस्य मनोरमरूपवर्णने लीनम् आस्ते।

व्याख्या हमारी राष्ट्र भारतवर्ष चिरकाल तक स्वाधीन होकर अमर रहे। यह अच्छे मित्रों वाला और वैभवपूर्ण हो, यह शत्रुरहित होकर विजयी रहे। सूर्य की लाल किरणों की मणियों की माला वाला हिमालय इसका ( भारतवर्ष का) मुकुट है। समुद्र अपने विशाल लहरोंरूपी हाथों से इसके पैरों के अग्रभाग को धोने वाला सुशोभित होता है। इसके वक्षस्थल पर नदियाँ हार के समान हैं। विन्ध्य पर्वत इसकी मेखला अर्थात् करधनी के समान शोभित होता है। कोमल पत्तों से शोभित घनी (UPBoardSolutions.com) वनपंक्ति इसका सुन्दर नया वस्त्र है। कवियों का समूह इसके सौन्दर्य के वर्णन में लीन हो रहा है।

(2)
सर्वे ज्ञान-धना बुध-वर्या मान-धना रण-धीराः ।।
स्वर्ण-धना व्यवसायि-धुरीणास्तथा श्रम-धना वीराः ॥

कुर्वन्त्वेकीभूय समेता नव-समाज-निर्माणम्।
मान्यो मानव-धर्मः प्रसरतु सम्परिशोध्य पुराणम् ॥
आत्मशक्ति-संवलित-मानवः पाठं पठेन्नवीनम् ॥

शब्दार्थ ज्ञान-धनाः = ज्ञानरूपी धन वाले। बुध-वर्याः = श्रेष्ठ विद्वान्। मानधनाः = यशरूपी धन वाले। रणधीराः = युद्ध में विचलित न होने वाले स्वर्ण-धनाः = स्वर्णरूपी धन वाले व्यवसायि-धुरीणाः = व्यापारियों में अग्रणी, श्रेष्ठ व्यवसायी। श्रमधनाः = परिश्रमरूपी धन वाले। एकीभूय = एक होकर समेताः = एक साथ मिलकर। मान्यः = सबके मानने योग्य मानव-धर्मः = मानवता के मूल्यों को सुरक्षित रखने वाला धर्म। प्रसरतु = फैले। सम्परिशोध्य = परिष्कार करके, सुधार करके। पुराणम् = पुराना। आत्मशक्ति-संवलित-मानवः = आत्मा की शक्ति से युक्त मनुष्य। पाठं पठेत् नवीनम् = नया पाठ पढ़े।

UP Board Solutions

प्रसंग प्रस्तुत पद में भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग को एकजुट होकर देश की उन्नति करने की सलाह दी गयी है।

अन्वय सर्वे ज्ञानधनाः, बुध-वर्याः, मानधनाः, रणधीराः, स्वर्णधनाः, व्यवसायिधुरीणाः तथा श्रमधंनाः वीराः समेताः एकीभूय नवसमाज-निर्माणः कुर्वन्तु। पुराणं सम्परिशोध्य मान्यः मानव-धर्मः प्रसरतु। आत्मशक्ति-संवलित-मानव: नवीनं पाठं पठेत्।।

व्याख्या सभी ज्ञान को धन समझने वाले (बौद्धिक वर्ग), श्रेष्ठ विद्वान्, प्रतिष्ठा को धन समझने वाले, युद्ध में विचलित न होने वाले, स्वर्णरूपी धन वाले, व्यापारियों में श्रेष्ठ तथा श्रम को धन समझने वाले (श्रमिक वर्ग), वीर लोग एक साथ मिलकर एकजुट होकर नये समाज का निर्माण करें। (UPBoardSolutions.com) (धर्म के) पुराने रूप का परिष्कार करके मानवता के मूल्यों को सुरक्षित रखने वाला धर्म (सर्वत्र) फैले। आत्मशक्ति से युक्त मानव नया पाठ पढ़े।

(3)
प्रवहतु गङ्गा पूततरङ्गा प्रथयन्ती महिमानम्।            [2007]
गायतु गीता कर्ममहत्त्वं योग-क्षेम-विधानम्॥           
भवेदहिंसा करुणासिक्ता तथा सूनृती वाणी।।
प्रसरे भारत-सद्वीराणां गाथा भुवि कल्याणी।।
देशे स्वस्थः सुखितो लोको भावं भजेन्न दीनम्।
भारतवर्षं राष्ट्रं जीव्याच्चिरकालं स्वाधीनम् ॥

शब्दार्थ प्रवहतु = बहे। पूततरङ्गा = पवित्र लहरों वाली। प्रथयन्ती = फैलाती हुई। महिमानम् = महिमा को। गायतु = गाये, गान करे। कर्ममहत्त्वं = कर्म के महत्त्व का। योगक्षेम-विधानम् = योग (अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा) की व्यवस्था वाले। अहिंसा = जीवों को न सताना। करुणासिक्ता = करुणा से युक्त। सूनृता = सत्य और मनोरम प्रसरेत् = फैल जाए। सद्वीराणाम् = श्रेष्ठ वीरों की। गाथा = कथा। भुवि = पृथ्वी पर कल्याणी = मंगलमयी। देशे = देश में। (UPBoardSolutions.com) सुखितः = सुखी। लोकः = जनता। भावं = भाव को। दीनं = दीनता को। न भजेत् = प्राप्त न हो।

UP Board Solutions

प्रसंग प्रस्तुत पद में कवि ने भारतीय संस्कृति में अपनी पूर्ण आस्था व्यक्त की है।

अन्वय पूततरङ्गा गङ्गा (भारतवर्षस्य) महिमानं प्रथयन्ती प्रवहतु। गीता योग-क्षेमविधानं कर्ममहत्त्वं गायतु। अहिंसा करुणासिक्ता तथा वाणी सूनृता भवेत्। भारत-सद्वीराणां कल्याणी गाथा भुवि प्रसरेत्। देशे स्वस्थ: सुखितः लोकः दीनं भावं न भजेत्। भारतवर्ष चिरकालस्वाधीनं राष्ट्रं जीव्यात्।।

व्याख्या पवित्र लहरों वाली गंगा (भारतवर्ष की) महिमा को फैलाती हुई प्रवाहित हो। गीता, योग और क्षेम की व्यवस्था वाले कर्म के महत्त्व का गान करे। (देशवासियों के हृदय में) अहिंसा की भावना करुणा से सिंचित हो तथा वाणी सत्य और मनोरम हो। भारत के श्रेष्ठ वीरों की कल्याणमयी कथा पृथ्वी पर फैल जाए। देश में स्वस्थ और सुखी लोग दीनता को प्राप्त न करें। भारतवर्ष एक स्वाधीन राष्ट्र के रूप में चिरकाल तक जीवित रहे।

सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) भारतवर्षं राष्ट्रं जीव्याच्चिरकालं स्वाधीनम्। [2008,09, 11, 14]

सन्दर्भ प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के जीव्याद् भारतवर्षम्’ नामक पाठ से अवतरित है।

प्रसंग इस सूक्ति में स्वतन्त्र भारत राष्ट्र के बहुमुखी विकास की कामना की गयी है।

अर्थ भारतवर्ष एक स्वाधीन राष्ट्र के रूप में चिरकाल तक जीवित रहे।

व्याख्या संसार का प्रत्येक व्यक्ति यही चाहता है कि वह और उसका देश बहुमुखी विकास करके अपनी कीर्ति सभी दिशाओं में फैलाये। अपनी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता चाहने के साथ-साथ वह यह भी चाहता है। कि वह जिस देश अथवा जाति का सदस्य है, वह भी स्वतन्त्र हो; अर्थात् उस पर किसी (UPBoardSolutions.com) का अंकुश न हो। उसका नाम सदैव के लिए संसार में अमर हो जाए। प्रस्तुत सूक्ति में भी कवि यही कामना कर रहा है कि हमारा देश भारत कभी किसी के अधीन न हो। वह सदैव स्वतन्त्र रहे और चिरकाल तक विश्व का सिरमौर बना रहे।

(2) आत्मशक्ति-संवलित-मानवः-पाठं-पठेन्नवीनम्। [2007, 14]

सन्दर्भ पूर्ववत्।।

UP Board Solutions

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में आत्मा की शक्ति से युक्त मनुष्य को कुछ नया करने के लिए प्रेरित किया गया है।

अर्थ आत्मशक्ति से युक्त मानव नया पाठ पढ़े।

व्याख्या भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्तियों को एक साथ मिलकर नये समाज का निर्माण करना चाहिए। उन्हें धर्म के पुराने स्वरूप को परिष्कार करके मानवीय मूल्यों को संरक्षित करने वाले धर्म का प्रसार करना चाहिए। इसके लिए भारतीय समाज के प्रत्येक मनुष्य को आत्मशक्ति से युक्त होना आवश्यक है। साथ ही उसे प्रगति और समृद्धि के नित नवीन क्षेत्रों का ज्ञान करने के लिए अध्ययन करते रहना भी आवश्यक है, क्योंकि ज्ञान की नवीनता के बिना परिष्कार सम्भव नहीं है और परिष्कार के लिए व्यक्ति का आत्म-शक्ति से युक्त होना भी अत्यावश्यक है।

(3) गायतु गीता कर्ममहत्त्वं योगक्षेमविधानम्। [2014]

सन्दर्भ पूर्ववत्।।

प्रसंग प्रस्तुत पंक्ति में श्रीमद्भगवद्गीता के महत्त्व का प्रतिपादन .कया गया है।

अर्थ गीता योग और क्षेम की व्यवस्था वाले कर्म के महत्त्व का गान करे।

व्याख्या प्राचीन भारतीय वाङ्मय के समस्त ग्रन्थों में गीता अर्थात् श्रीमद्भगवद्गीता का स्थान सर्वोपरि है और इसे पूजनीय ग्रन्थ माना जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता मुख्य रूप से कर्म के महत्त्व और योग-क्षेम की व्यवस्था का प्रतिपादन करती है। श्रीमद्भगवद्गीता का कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति को उचित-अनुचित और कर्मफल की भावना को छोड़कर सतत कर्म करते रहना चाहिए। व्यक्ति को कभी भी अकर्म अथवा कर्महीनता की स्थिति में नहीं रहना चाहिए। कर्महीनता की स्थिति व्यक्ति (UPBoardSolutions.com) के लिए अत्यधिक घातक है। योग और क्षेम के अनेकानेक अर्थों को समाहित करते हुए भी गीता कर्म की श्रेष्ठता को ही सिद्ध करती है। स्वाभाविक है कि जब तक व्यक्ति कर्म में तत्पर नहीं होगा, तब तक स्वयं उसकी उन्नति सम्भव नहीं होगी। व्यक्ति की उन्नति में ही राष्ट्र की उन्नति निहित होती है। एक स्वाधीन राष्ट्र के रूप में भारत चिरकाल तक जीवित रहे, इसके लिए प्रत्येक भारतवासी को योग-क्षेम और कार्य की महत्ता का ज्ञान आवश्यक है।

UP Board Solutions

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) भारतवर्ष राष्टं ………………………………………………………. जीयाच्छत्रुविहीनम् ॥ (श्लोक 1)
संस्कृतार्थः अस्मिन् पद्ये कविः कामनां करोति यत् अस्माकं भारतराष्ट्रं चिरकालं स्वाधीनं जीवेत्। अस्य राष्ट्रस्य सम्मित्राणि भवेयुः। राष्ट्रं शत्रुविहीनं समृद्धं च भूयात्।।

(2)
प्रवहतु गङ्गा”………………………………………………………. कालं स्वाधीनम् ॥ (श्लोक 3)
प्रवहतु गङ्गा”………………………………………………………. योगक्षेमविधानम् ॥ [2008, 12, 13]
संस्कृतार्थः अस्मिन् पद्ये कविः श्री चन्द्रभानु त्रिपाठी कामनां करोति यत् भारतवर्षे भारत महिमानं वर्धन्ति, पवित्र गङ्गा नदी प्रवहतु, योग-क्षेम-विधान कर्म-महत्त्वं प्रतिपादिका गीता भवतु, करुणायुक्ता पवित्रा अहिंसा वाणी सर्वत्र प्रसरतु, भारतस्य वीराणां कल्याणकारी पवित्रा गाथा सर्वत्र प्रसरेत्। (UPBoardSolutions.com) भारतदेशे सर्वे जना: सुखिना: भवन्तु, कोऽपि दीनभावं न प्राप्नुयात्। एतादृशाः अस्माकं भारतवर्ष: स्वाधीन: सन् चिरञ्जीवी भूयात्।

Hope given UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 11 are helpful to complete your homework.
If you have any doubts, please comment below. UP Board Solutions try to provide online tutoring for you

Class 10 Sanskrit Chapter 5 UP Board Solutions भोजस्य शल्यचिकित्सा Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 5 Bhojasya Shalya Chikitsa Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 5 हिंदी अनुवाद भोजस्य शल्यचिकित्सा के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 5 भोजस्य शल्यचिकित्सा (कथा – नाटक कौमुदी)

परिचय

प्रस्तुत पाठ बल्लालसेन द्वारा रचित ‘भोज-प्रबन्ध’ नामक कृति से संगृहीत है। इस ग्रन्थ को ऐतिहासिक दृष्टि से कोई खास महत्त्व नहीं है, किन्तु साहित्यिक दृष्टि से इसे ग्रन्थ की महत्ता स्वीकार की गयी है। इस ग्रन्थ में संस्कृत के सभी प्रसिद्ध कवियों को राजा भोज (UPBoardSolutions.com) की सभा में उपस्थित दिखाया गया है। इसीलिए इतिहासकारों ने इसे अप्रामाणिक माना है। प्रस्तुत कथा में राजा भोज से मस्तिष्क की शल्य-चिकित्सा का परिचय दिया जाना यह प्रमाणित करता है कि भारत में प्राचीन काल में भी मस्तिष्क जैसे जटिल अंग की सफल शल्य-क्रिया किया जाना सम्भव था।

UP Board Solutions

पाठ-सारांश

भोज के सिर में पीड़ा – किसी समय राजा भोज अपने नगर से बाहर गये। वहाँ उन्होंने जल से कपाल-शोधन क्रिया की। उस समय कोई अत्यधिक छोटी मछली का बच्चा राजा के कपाल में घुस गया। तब से राजा के सिर में पीड़ा रहने लगी। श्रेष्ठ वैद्यों की चिकित्सा से भी वह पीड़ा किंचित् ठीक नहीं हुई। इस प्रकार राजा भयंकर बीमारी से पीड़ित हो गये।

रोग का ठीक न होना – एक वर्ष बीतने पर भी राजा भोज का रोग ठीक नहीं हुआ। वे अनेक ओषधियों के सेवन से तंग आ गये थे। तब उन्होंने अपने मन्त्री बुद्धिसागर से कहा कि आज के बाद कोई भी वैद्य नगर में न रहे। उनकी सभी ओषधियों की शीशियों को नदी में डलवा दिया जाये। अब मेरा मृत्यु-समय निकट आ गया है। यह सुनकर सभी नगरवासी अत्यधिक दुःखी हुए।

नारद-कथन – इसके बाद कभी देवसभा में गये हुए नारदमुनि से इन्द्र ने पृथ्वीलोक का समाचार पूछा। नारद ने कहा कि महाराज भोज किसी रोग से बहुत पीड़ित हैं। उनका रोग किसी भी चिकित्सक की चिकित्सा से ठीक नहीं हुआ; अतः राजा ने सभी वैद्यों को देश से निकाल दिया है और वैद्यकशास्त्र भी झूठा है, ऐसा कहकर उसे भी निरस्त कर दिया है।

इन्द्र द्वारा अश्विनीकुमारों से प्रश्न – तब इन्द्र ने पास बैठे हुए अश्विनीकुमारों (देवताओं के वैद्य या चिकित्सक) से कहा कि यह धन्वन्तरिशास्त्र कैसे झूठा है ? तब अश्विनीकुमारों ने कहा कि देवेश! धन्वन्तरिशास्त्र झूठा नहीं है, किन्तु इस रोग की चिकित्सा तो देवता ही कर सकते हैं। (UPBoardSolutions.com) कपाल-शोधन के समय भोज के कपाल में एक अत्यधिक छोटी मछली का बच्चा घुस गया था, उसी के कारण यह रोग है।

UP Board Solutions

अश्विनीकुमारों द्वारा राजा भोज की शल्य-चिकित्सा  तब इन्द्र के आदेश से वे दोनों अश्विनीकुमार ब्राह्मण का वेश बनाकर धारानगरी में गये और वहाँ अपना परिचय काशी नगरी से आये वैद्यों के रूप में दिया। वैद्यों का नगर में प्रवेश निषिद्ध है, यह जानकर वे दोनों बुद्धिसागर के साथ राजा के पास गये। राजा ने मुख के तेज से उन्हें देवता रूप में पहचानकर उनका सम्मान किया। राजा से दोनों ने कहा–राजन्, डरो मत, रोग को गया हुआ समझो। राजा को एकान्त (UPBoardSolutions.com) में ले जाकर और बेहोश करके राजा के कपाल से मछली निकालकर, पात्र में रखकर, उनके कपाल को ज्यों-का-त्यों जोड़कर राजा को होश में लाकर उन्हें मछली दिखा दी और बताया कि कपाल-शोधन के समय यह मछली कपाल में चली गयी थी। राजा के पथ्य पूछने पर, उन्होंने गर्म जल से स्नान, दुग्धपान और श्रेष्ठ स्त्रियों को ही मानवों का पथ्य बताया।

अश्विनीकुमारों का प्रस्थान – राजा ने बीच में ‘मानवों का वाक्यांश सुनकर पूछा कि आप कौन हैं ? राजा ने उनको हाथों से पकड़ा, लेकिन वे कालिदास अपना श्लोक का चौथा चरण ‘स्निग्धमुष्णञ्च भोजनम्’ पूरा करें कहकर अन्तर्धान हो गये। राजा ने भी कालिदास को लीला-मानुष मानकर उनका अत्यधिक सम्मान किया।

UP Board Solutions

चरित्र-चित्रण

भोज [2007,08,09, 10, 12, 13, 14, 15)

परिचय महाराज भोज ऐतिहासिक महापुरुष के रूप में भारतीय विद्वत् समाज में प्रतिष्ठित हैं। ये वीर, साहसी एवं महादानी थे। एक बार कपालकशोधन (मस्तिष्क की वह क्रिया, जिसमें पानी के द्वारा मस्तिष्क को साफ किया जाता है) क्रिया करते समय एक अत्यधिक छोटी मछली का बच्चा इनके मस्तिष्क में प्रवेश कर गया, जिससे उनके मस्तिष्क में निरन्तर पीड़ा रहने लगी। मर्त्यलोक के वैद्यों के रोग-निदान में असफल रहने पर अश्विनीकुमार शल्य-चिकित्सा से पीड़ा का निवारण कर देते हैं। यहाँ भोज को देव-प्रिय राजा के रूप में भी चित्रित किया गया है। उनकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

1. निराशावादी – इतिहास में राजा भोज को अधिकांश स्थानों पर धैर्यशाली एवं आशावादी के रूप में चित्रित किया गया है, किन्तु यहाँ पर उन्हें सामान्य मानव की भाँति निराशाबादी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। बैद्यों द्वारा अपने मस्तिष्क की पीड़ा का कोई निदाम न पाकर वह जीवन (UPBoardSolutions.com) से निराश हो जाते है उनके “मम देवसमागमसमयः समागतः इति” (मेरा देवताओं के पास जाने का समय हो गया है) वाक्य से उनका निराशावादी दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है। इतना ही नहीं उनका वैद्यकशास्त्र से भी विश्वास उठ जाता है और वह अपने मन्त्री को समस्त वैद्यों को राज्य से निष्कासित करने तथा सम्पूर्ण ओषधियों को नदी में फिंकवाने का आदेश देते हैं।

UP Board Solutions

2. बुद्धिमान् एवं तत्त्वद्रष्टा – महाराज भोज यहाँ पर तत्त्वद्रष्टा के रूप में भी चित्रित किये गये हैं। अश्विनीकुमारों के मुख-मण्डल के तेज को देखकर ही वे समझ जाते हैं कि वैद्य के रूप में ये देव-पुरुष हैं। तथा देवता मानकर ही वे उनका सत्कार भी करते हैं। अपने बुद्धि-चातुर्य से वे अश्विनीकुमारों के एतदवो मानुषापथ्यमिति’ कथन से उनका देवलोकवासी होना जान लेते हैं और अन्तत: उनसे पूछ ही लेते हैं कि यदि हम मनुष्य हैं तो आप दोनों कौन हैं? यह तथ्य उनके बुद्धिमान् एवं तत्त्वद्रष्टा होने की पुष्टि करते हैं।

3. सर्वलोकप्रिय राजा – महाराजा भोज इस लोक में ही प्रसिद्ध नहीं हैं, वरन् देवलोक में भी उनकी प्रसिद्धि है। प्रजा तो उन्हें चाहती ही है, देवता भी पृथ्वी पर उनकी सकुशल उपस्थिति चाहते हैं। नारद से उनकी मस्तिष्क-पीड़ा की बात सुनकर इन्द्र स्वयं अश्विनीकुमारों को भूलोक में जाकर भोज की चिकित्सा करने का आदेश देते हैं।

4. कपाल-स्वच्छता के ज्ञाता – राजा भोज कपल-स्वच्छता की विधि से परिचित हैं। वे कपाल की आन्तरिक स्वच्छता का भी पूर्ण ज्ञान रखते हैं। कपाल की स्वच्छता करते समय ही एक अत्यधिक छोटी मछली का बच्चा कपाल में प्रवेश कर जाता है।

5. गुणग्राही – गुणवान् ही गुणवानों का सम्मान करता है। यह बात राजा भोज पर चरितार्थ होती है। मानवों के लिए पथ्य बताते समय अश्विनीकुमार श्लोक के तीन चरण ही कह पाते हैं कि राजा भोज ‘मानुषाः’ शब्द सुनकर उनका हाथ पकड़ लेते हैं और उनसे पूछते हैं कि आप दोनों कौन हैं ?’ तब चौथे चरण की पूर्ति कालिदास करेंगे, यह कहकर अश्विनीकुमार अन्तर्धान हो जाते हैं। तब कालिदास द्वारा स्निग्धमुष्णञ्च भोजनम्’ कहकर चरण-पूर्ति करने पर (UPBoardSolutions.com) और अश्विनीकुमारों द्वारा कालिदास की विद्वत्ता की ओर संकेतमात्र करने से वह कालिदास को लीला-पुरुष मानकर उनका भी अत्यधिक सम्मान करते हैं।

UP Board Solutions

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि राजा भोज प्रजावत्सल, सर्वगुणसम्पन्न, बुद्धिमान् और सर्वलोकप्रिय राजा हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भोजः कः आसीत् ? [2006, 07, 10, 12, 15]
या
भोजः कस्याः नगर्याः राजा आसीत्? [2011, 13]
उत्तर :
भोज: धारानगर्याः राजा आसीत्।

प्रश्न 2.
द्वारस्थौः भिषजौ किमाहुः ?
उत्तर :
द्वारस्थौ भिषजौ आहु–भो विप्रौ ? न कोऽपि भिषग्प्रवरः प्रवेष्टव्यः इति राज्ञोक्तम्।

प्रश्न 3.
सः कुत्र अगच्छत् ?
उत्तर :
स: नगरात् बहिरगच्छत्।

UP Board Solutions

प्रश्न 4.
मानुषा पथ्यं किम् अस्ति ?
या
मानुषाणां पथ्यं किमस्ति ? [2015]
उत्तर :
उष्णजलेन स्नानं, पयः पानं, वरास्त्रियः, स्निग्धम् उष्णं च भोजनम् एतद् मानुषां पथ्यम्।

प्रश्न 5.
भोजस्य चिकित्सा काभ्यां कृता कुतः चतौ समागतौ ? [2010]
उत्तर :
भोजस्य चिकित्सा अश्विनीकुमाराभ्यां कृता, (UPBoardSolutions.com) तौ च स्वर्गात् समागतौ।

प्रश्न 6.
श्लोकस्य तुरीयं चरणं केन पूरितम् ?
उत्तर :
श्लोकस्य तुरीयं चरणं कालिदासेन पूरितम्।

प्रश्न 7.
राज्ञः कपाले वेदना किमर्थम् जाता ? [2008]
उत्तर :
कपालशोधनकाले राज्ञः कपाले एकः शफरशाव: प्रविष्टः। अत: कपाले वेदना अभवत्।

UP Board Solutions

प्रश्न 8.
पुरन्दरः नारदं किमाह ?
उत्तर :
पुरन्दर: नारदम् आह—भो मुने! इदानीं भूलोके का नाम वार्ता ? इति।

प्रश्न 9.
कालिदासः चतुर्थ चरणं केन रूपेण पूरितवान् ? [2006]
उत्तर :
कालिदास चतुर्थ चरणं “स्निग्धम् उष्णं च भोजनम्” इति रूपेण पूरितवान्।

प्रश्न 10.
भोजः कालिदासं कं मत्वा परं सम्मानितवान् ? [2013]
उत्तर :
भोजः कालिदासं लीलामानुषं मत्वा (UPBoardSolutions.com) परं सम्मानितवान्।

प्रश्न 11.
भोजस्य कस्मिन् स्थाने वेदना जाता? [2009, 15]
उत्तर :
भोजस्य कपाले वेदना जाता।

प्रश्न 12.
भोजस्य मन्त्री कः आसीत्? [2012, 13, 14]
उत्तर :
भोजस्य मन्त्री बुद्धिसागरः आसीत्।

UP Board Solutions

प्रश्न 13. 
राजा बुद्धिसागरं किम् अकथयत्? [2014]
उत्तर :
राजा बुद्धिसागरं अकथयत् “मम देवसमागम समय: समागतः।”

बहुविकल्पीय प्रश्न

अधोलिखित प्रश्नों में प्रत्येक प्रश्न के उत्तर-रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। (UPBoardSolutions.com) इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए
[संकेत – काले अक्षरों में छपे शब्द शुद्ध विकल्प हैं।]

1. ‘भोजस्य शल्यचिकित्सा’ शीर्षक पाठ किस संस्कृत ग्रन्थ से उधृत है?

(क) ‘महाभारत’ से
(ख) ‘हितोपदेश’ से
(ग) ‘पञ्चतन्त्रम्’ से
(घ) ‘भोज-प्रबन्ध’ से

2. राजा भोज ने अपने कपाल का शोधन किस जल से किया था ?

(क) कुएँ के जल से
(ख) तालाब के जल से
(ग) घड़े के जल से
(घ) नदी के जल से

3. राजा भोज के सिर की पीड़ा का मुख्य कारण क्या था ?

(क) अयोग्य वैद्य
(ख) कपाले में प्रविष्ट शफरशाव
(ग) कार्य का दबाव
(घ) गलत ओषधि का प्रयोग

UP Board Solutions

4. पुरन्दर की सभा में भोज की पीड़ा के विषय में किस मुनि ने बताया ?

(क) वीणामुनि ने
(ख) भरद्वाज मुनि ने
(ग) विश्वामित्र ने
(घ) अगस्त्य मुनि ने

5. “भोजस्य शल्यचिकित्सा” पाठ में ‘वीणामुनि’ के द्वारा किस मुनि का संकेत किया गया है?

(क) वाल्मीकि का
(ख) नारद को
(ग) व्यास का
(घ) वशिष्ठ का

6. पुरन्दर (इन्द्र) ने अश्विनीकुमारों को राजा भोज की चिकित्सा के लिए भेजा था, क्योंकि –

(क) राजा भोज इन्द्र के मित्र थे
(ख) भोज ने उन्हें बुलाया था
(ग) भोज से प्रभूत धन मिलने की आशा थी
(घ) भिषक् शास्त्र की असिद्धि हो रही थी

UP Board Solutions

7. अश्विनीकुमारों ने भोज की शिरो-वेदना की चिकित्सा कहाँ की ?

(क) राजदरबार में
(ख) राजमहल में
(ग) एकान्त स्थल पर
(घ) देवता के मन्दिर में

8. …………………….. वरास्त्रियः एतद्वो मानुषापथ्यमिति” को सुनकर भोज ने अश्विनीकुमारों –

(क) को मरवा दिया
(ख) के हाथों को अपने हाथों में पकड़ लिया
(ग) को भगा दिया।
(घ) को बन्दी बना लिया।

9. अश्विनीकुमारों के कथनानुसार कालिदास श्लोक का कौन-सा चरण पूरा करेंगे ?

(क) चतुर्थ
(ख) तृतीय
(ग) द्वितीय
(घ) प्रथम

UP Board Solutions

10. …………………….. “वासी श्री भोजभूपालरोगपीडितो नितरामस्वस्थो वर्तते।”वाक्य में रिक्त-स्थान में आएगा –

(क) मिथिलानगर
(ख) चित्रपूरनगर
(ग) उज्जयिनी
(घ) धारानगर

11. ‘भो स्वर्वैद्यौ! कथमनृतं धन्वन्तरीयं शास्त्रम् ?” वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति ?

(क) राजा भोज:
(ख) पुरन्दरः
(ग) नारदः
(घ) कालिदासः

12. …………………….. अम्भसा स्नानं, पयःपानं, वरास्त्रियः एतद्वो मानुषापथ्यमिति।” वाक्य में रिक्त-स्थान की पूर्ति के लिए उपयुक्त पद है –

(क) शीतेन
(ख) तटाका
(ग) कूपेन
(घ) अशीतेन

13. स्निग्धमुष्णञ्च भोजनम् इति।” वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?

(क) अश्विनीकुमारः
(ख) कालिदासः
(ग) राजा भोजः
(घ) पुरन्दरः

14. “ततो भोजोऽपि …………………….. लीलामानुषं मत्वा परं सम्मानितवान्।” वाक्य में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी –

(क) अश्विनीकुमारौ’ से
(ख) कालिदासम्’ से
(ग) “वीणामुनिम्’ से
(घ) “बुद्धिसागरम्’ से

UP Board Solutions

15. हर्षचरितस्य रचयिता …………………….. अस्ति।

(क) भट्टनारायणः
(ख) बाणभट्टः
(ग) आर्यशूरः
(घ) बल्लालसेनः

16. ‘भोजप्रबन्धस्य’ प्रणेता (रचयिता) …………………….. आसीत्। [2008,09, 12, 13, 14]

(क) बल्लालसेनः
(ख) चरकः
(ग) भोजः
(घ) कालिदासः

17. भोजः …………………….. नृपः आसीत्।

(क) धारानगर्याः
(ख) मथुरानगर्याः
(ग) काशीनगर्याः
(घ) अलकानगर्याः

18. मोजस्य चिकित्सकः …………………….. आसीत्। [2007,08]

(क) चरकः
(ख) अश्विनीकुमारः
(ग) धन्वन्तरिः
(घ) हरिहरः

19. भोजस्य …………………….. वेदना जाता। [2007,08,09]

(क) उदरे
(ख) कपाले
(ग) वक्षस्थले
(घ) पृष्ठभागे

UP Board Solutions

20. अथ कदाचित् …………………….. नगराद बहिः निर्गतः। [2009]

(क) भोजो
(ख) श्रीहर्षों
(ग) जनको
(घ) शिववीरः

Hope given UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 5 are helpful to complete your homework.
If you have any doubts, please comment below. UP Board Solutions try to provide online tutoring for you

Class 10 Sanskrit Chapter 8 UP Board Solutions आदिशङ्कराचार्यः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 8 Adi Shankaracharya Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 8 हिंदी अनुवाद आदिशङ्कराचार्यः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 8 आदिशङ्कराचार्यः (गद्य – भारती)

परिचय

आदि शंकराचार्य ‘जगद्गुरु’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। इन्होंने आठ वर्ष की अल्पायु में ही वेद-शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। मात्र 32 वर्ष की पूर्ण आयु में इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की, पूरे भारत का भ्रमण किया, विद्वानों से शास्त्रार्थ किये और भारत के चारों दिशाओं में चार पीठों की स्थापना की। जिस समय इनका जन्म हुआ उस समय भारत-भूमि बौद्ध धर्म के विकृत हो चुके स्वरूप से पीड़ित थी। इन्होंने बौद्धों को शास्त्रार्थ में पराजित (UPBoardSolutions.com) किया और पुन: वैदिक धर्म की स्थापना की। इन्होंने छठे दर्शन; वेदान्त दर्शन; को अद्वैत दर्शन का रूप प्रदान किया और अपने मत की पुष्टि के लिए उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता से प्रमाण प्रस्तुत किये। इन्हें ‘मायावाद’ का जनक माना जाता है। प्रस्तुत पाठ में शंकराचार्य के जन्म और उनके द्वारा किये गये कार्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।

पाठ-सारांश [2006, 07, 08, 09, 10, 11, 12, 13, 14, 15]

परमात्मा के अवतार मान्यता है कि धर्म की हानि होने पर साधुजनों की रक्षा करने और पापियों का विनाश करने के लिए भगवान् भारतभूमि पर किसी-न-किसी महापुरुष के रूप में अवश्य अवतार लेते हैं। जिस प्रकार त्रेता युग में राक्षसों का संहार करने के लिए राम के रूप में, द्वापर युग में कुनृपतियों के विनाश के लिए। कृष्ण के रूप में जन्म धारण किया था, उसी प्रकार कलियुग में भगवान् शिव ने देश में व्याप्त मोह-मालिन्यं को दूर करने और वैदिक धर्म की स्थापना के लिए शंकर के रूप में जन्म लिया।

UP Board Solutions

जन्म एवं वैराग्य शंकर का जन्म मालाबार प्रान्त में पूर्णा नदी के तट पर शलक ग्राम में सन् 788 ई० में हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम सुभद्रा था। इन्होंने 8 वर्ष की आयु में ही समस्त वेद-वेदांगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। बचपन में ही इनके पिता की मृत्यु हो गयी थी। पूर्वजन्म के संस्कार के कारण संसार को माया से पूर्ण जानकर इनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। इनका मन तत्त्व की खोज के लिए लालायित हो गया और इन्होंने संन्यास लेने की इच्छा की। माता के मना करने पर इन्होंने संन्यास नहीं लिया।

संन्यास-ग्रहण एक बार शंकर पूर्णा नदी में स्नान कर रहे थे कि एक शक्तिशाली ग्राह ने इनका पैर पकड़ लिया और तब तक इनके पैर को नहीं छोड़ा, जब तक माता ने इन्हें संन्यास लेने की आज्ञा न दे दी। माता की आज्ञा और ग्राह से मुक्ति पाकर ये योग्य गुरु की खोज में वन-वन भटकते रहे। वन में घूमते हुए एक दिन एक गुफा में बैठे हुए गौड़पाद के शिष्य गोविन्दपाद के पास गये। शंकर की अलौकिक प्रतिभा से प्रभावित होकर गोविन्दपाद ने इन्हें संन्यास की दीक्षा दी और विधिवत् वेदान्त के तत्त्वों का अध्ययन कराया।

भाष्य-रचना वैदिक धर्म के पुनरुद्धार के लिए शंकर गाँव-गाँव और नगर-नगर घूमते हुए अन्ततः काशी पहुंचे। (UPBoardSolutions.com) यहाँ उन्होंने व्याससूत्रों, उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्यों की रचना की।

शास्त्रार्थ में विजय एक दिन शंकर के मन में महान् विद्वान् मण्डन मिश्र से मिलने की इच्छा हुई। मण्डन मिश्र के घर जाकर शंकर ने उनसे शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित किया। बाद में मण्डन मिश्र की पत्नी शारदा के कामशास्त्र के प्रश्नों का उत्तर देकर उसे भी पराजित कर दिया। अन्त में मण्डन मिश्र ने आचार्य शंकर का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया।

वैदिक धर्म का प्रचार प्रयाग में शंकर ने वैदिक धर्म के उद्धार के लिए प्रयत्नशील कुमारिल भट्ट के दर्शन किये। कुमारिल भट्ट ने वैदिक धर्म के कर्मकाण्ड को लेकर सम्प्रदायवादियों को परास्त कर दिया था, लेकिन शंकर ने कर्मकाण्ड की मोक्ष में व्यर्थता प्रतिपादित कर कुमारिल के मत का खण्डन करके ज्ञान की महिमा का प्रतिपादन किया। इन्होंने ज्ञान को ही मोक्ष प्रदायक बताते हुए ज्ञानकाण्ड को ही वेद का सार बताया। इस प्रकार शंकर ने सेतुबन्ध से लेकर कश्मीर तक भ्रमण किया और अपनी अलौकिक प्रतिभा द्वारा विरोधियों को परास्त किया। अन्त में 32 वर्ष की अल्पायु में ही इन्होंने अपना पार्थिव शरीर त्याग दिया।

शंकर के सिद्धान्त शंकर ने महर्षि व्यास प्रणीत ब्रह्मसूत्र पर भाष्य की रचना की और व्यास के मत के आधार पर ही वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया। इन्होंने वेद और उपनिषदों के तत्त्व का ही निरूपण किया। इनके मत के अनुसार संसार में सुख-दु:ख भोगता हुआ जीव ब्रह्म ही है। मायाजन्य अज्ञान के कारण व्यापक ब्रह्म सुख-दुःख का अनुभव करता है। इन्होंने जीव और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन किया और बताया कि अनेक रूपात्मक सृष्टि का आधार ब्रह्म ही है।

UP Board Solutions

विश्व-बन्धुत्व की भावना शंकर का अद्वैत ब्रह्म विश्व-बन्धुत्व की भावना का मूल है। इस भावना के विकास से राष्ट्रीयता का उदय होता है और जाति, क्षेत्र आदि की संकीर्णता समूल नष्ट हो जाती है। शंकर ने राष्ट्रीय भावना को पुष्ट करने के लिए भारत के चारों कोनों में चार वेदान्त पीठों ( शृंगेरी पीठ, गोवर्धन पीठ, ज्योतिष्पीठ और शारदापीठ) की स्थापना की। ये चारों पीठ इस समय राष्ट्र की उन्नति, लोक-कल्याण और वैदिक मत के प्रचार में प्रयत्नशील हैं। शंकर यद्यपि अल्पायु थे, लेकिन उनके कार्य-उत्कृष्ट भाष्यग्रन्थ, अनेक मौलिक ग्रन्थ और उनका अद्वैत सिद्धान्त–हमेशा उनकी याद दिलाते रहेंगे।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
धन्येयं भारतभूमिर्यत्र साधुजनानां परित्राणाय दुष्कृताञ्च विनाशाय सृष्टिस्थितिलयकर्ता परमात्मा स्वमेव कदाचित्, रामः कदाचित् कृष्णश्च भूत्वा आविर्बभूव। त्रेतायुगे रामो धनुर्वृत्वा विपथगामिनां रक्षसां संहारं कृत्वा वर्णाश्रमव्यवस्थामरक्षत्। द्वापरे कृष्णो धर्मध्वंसिनः कुनृपतीन् उत्पाट्य (UPBoardSolutions.com) धर्ममत्रायत। सैषा स्थिति यदा कलौ समुत्पन्ना बभूव तदा नीललोहितः भगवान् शिवः शङ्कररूपेण पुनः प्रकटीबभूव। भगवतः शङ्करस्य जन्मकाले वैदिकधर्मस्य ह्रासः अवैदिकस्य प्राबल्यञ्चासीत्। अशोकादि नृपतीनां राजबलमाश्रित्य पण्डितम्मन्याः सम्प्रदायिकाः वेदमूलं धर्मं तिरश्चक्रुः। लोकजीवनमन्धतमिस्रायां तस्यां । मुहर्मुहुर्मुह्यमानं क्षणमपि शर्म न लेभे। तस्यां विषमस्थित भगवान् शङ्करः प्रचण्डभास्कर इव उदियाय, देशव्यापिमोहमालिन्यमुज्झित्वा वैदिकधर्मस्य पुनः प्रतिष्ठां चकार।

धन्येयं भारतभूमि ………………………………………… प्राबल्यञ्चासीत्। [2010]
भगवतः शङ्करस्य ………………………………………… प्रतिष्ठां चकार। [2010]

शब्दार्थ परित्राणाय = रक्षा करने के लिए। दुष्कृताम् = पापियों के कदाचित् = कभी। भूत्वा = होकर आविर्बभूव = प्रकट हुए। विपथगामिनां रक्षसाम् = कुमार्ग पर चलने वाले राक्षसों का। कुनृपतीन् = दुष्ट राजाओं को। उत्पाद्य = उखाड़कर। अत्रायत = रक्षा की। कलौ = कलियुग में। शङ्कररूपेण’= शंकराचार्य के रूप में। अवैदिकस्य = अवैदिक धर्म का। प्राबल्यञ्चासीत् = प्रबलता थी। पण्डितम्मन्याः = पण्डित माने जाने वाले। तिरश्चक्रुः = तिरस्कार करते थे। अन्धतमिस्रायाम् = अँधेरी रात्रि में अर्थात् अन्धविश्वासों के अन्धकार में। मुहुर्मुहुर्मुह्यमानम् (मुहुः + मुहुः + मुह्यमानम्) = बार-बार मुग्ध होता हुआ। शर्म = कल्याण, सुख, शान्ति। लेभे = पा रहा था। प्रचण्डभास्करः = प्रचण्ड सूर्य। उदियाय = उदित हुए। उज्झित्वा = छोड़कर, नष्ट करके।

UP Board Solutions

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘आदिशङ्कराचार्यः’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसग प्रस्तुत गद्यांश में परमात्मा के राम, कृष्ण, शंकराचार्य आदि के रूप में अवतार लेने और उस समय की भारत की परिस्थिति का वर्णन किया गया है।

अनुवाद यह भारतभूमि धन्य है, जहाँ साधु पुरुषों की रक्षा के लिए और पापियों के विनाश के लिए सृष्टि, स्थिति और प्रलय के करने वाले भगवान् स्वयं ही कभी राम और कभी कृष्ण होकर प्रकट हुए। त्रेतायुग में राम ने धनुष धारण करके कुमार्ग पर चलने वाले राक्षसों को मारकर वर्ण और आश्रम व्यवस्था की रक्षा की। द्वापर में कृष्ण ने धर्म को नष्ट करने वाले दुष्ट राजाओं को उखाड़कर धर्म की रक्षा की। वही स्थिति जब कलियुग में उत्पन्न हुई, तब नील-रक्तवर्ण भगवान् शिव शंकर रूप में फिर से प्रकट हुए। भगवान् शंकर के जन्म के समय वैदिक धर्म की हानि और वेद को न मानने वाले धर्म अर्थात् अवैदिकों की प्रबलता थी। अशोक आदि राजाओं की राजशक्ति का सहारा लेकर स्वयं को पण्डित मानने वाले सम्प्रदाय के लोगों ने वेदमूलक धर्म का तिरस्कार किया। लोक-जीवन (संसार) अन्धविश्वास के अन्धकार पर बार-बार मुग्ध होता हुआ क्षणभर भी सुख को प्राप्त नहीं कर रहा था। उस विषम परिस्थिति में भगवान् शंकर तेजस्वी सूर्य के समान उदित हुए और देश में फैली मोह की मलिनता को नष्ट करके वैदिक धर्म की पुनः स्थापना (प्रतिष्ठा) की।

(2)
शङ्करः केरलप्रदेशे मालावारप्रान्ते पूर्णाख्यायाः नद्यास्तटे स्थिते शलकग्रामे अष्टाशीत्यधिके सप्तशततमे खीष्टाब्दे नम्बूद्रकुले जन्म लेभे। तस्य पितुर्नाम शिवगुरुरासीत् मातुश्च सुभद्रा। शैशवादेव शङ्करः अलौकिकप्रतिभासम्पन्न आसीत्। अष्टवर्षदेशीयः सन्नपि परममेधावी असौ वेदवेदाङ्गेषु (UPBoardSolutions.com) प्रावीण्यमवाप। दुर्दैवात् बाल्यकाले एव तस्य पिता श्रीमान् शिवगुरुः पञ्चत्वमवाप। पितृवात्सल्यविरहितः मात्रैव लालितश्चासौ प्राक्तनसंस्कारवशात् जगतः मायामयत्वमाकलय्य तत्त्वसन्धाने मनश्चकार।। प्ररूढवैराग्यप्रभावात् स प्रव्रजितुमियेष, परञ्च परमस्नेहनिर्भरा तदेकतनयाम्बा नानुज्ञां ददौ। लोकरीतिपरः शङ्करः मातुरनुज्ञां विना प्रव्रज्यामङ्गीकर्तुं न शशाक।।

शङ्करः केरलप्रदेशे ………………………………………… पञ्चत्वमवाप। [2009]

शब्दार्थ पूर्णाख्यायाः = पूर्णा नाम की। अष्टाशीत्यधिके सप्तशततमे = सात सौ अठासी में। नम्बूद्रकुले = नम्बूदरी कुल में। अष्टवर्षदेशीयः = आठ वर्ष के। वेदवेदाङ्गेषु = वेद और वेद के अंगों (शास्त्रों) में। प्रावीण्यमवाप (प्राणीण्यम् + अवाप) = प्रवीणता प्राप्त कर ली। दुर्दैवात् = दुर्भाग्यवश। पञ्चत्वमवाप = मृत्यु को प्राप्त हुए, स्वर्गवासी हो गये। मात्रैव (माता + एव) = माता के द्वारा ही। प्राक्तनसंस्कारवशात् = पुराने संस्कारों के कारण। मायामयत्वमाकलय्य = माया से पूर्ण होना समझकर। तत्त्वसन्धाने = तत्त्वों की खोज में। मनः चकार = विचार बना लिया। प्ररूढवैराग्यप्रभावात् = उत्पन्न हुए वैराग्य के प्रभाव से प्रव्रजितुमियेषु (प्रव्रजितुम् +इयेषु) = संन्यास लेने की इच्छा की। तदेकतनयाम्बा (तद् + एकतनय + अम्बा) = उस एकमात्र पुत्रवती माता ने। नानुज्ञां = आज्ञा नहीं। प्रव्रज्यामङ्गीकर्तुम् (प्रव्रज्याम् + अङ्गीकर्तुम्) = संन्यास लेने के लिए। न शशाक = समर्थ नहीं हो सके।

UP Board Solutions

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर के जन्म एवं उनके मन में वैराग्य उत्पन्न होने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद शंकर ने केरल प्रदेश में मालाबार प्रान्त में पूर्णा नाम की नदी के किनारे स्थित शलक ग्राम में सन् 788 ईस्वी में नम्बूदरी कुल में जन्म लिया। उनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम सुभद्रा था। बचपन से ही शंकर असाधारण प्रतिभा से सम्पन्न थे। आठ वर्ष की आयु के होते हुए भी ये अत्यन्त मेधावी थे और इन्होंने वेद और वेदांगों में प्रवीणता प्राप्त कर ली थी। दुर्भाग्य से बेचपन में ही उनके पिता श्रीमान् शिवगुरु मृत्यु को प्राप्त हुए। पिता के प्रेम से वियुक्त माता के (UPBoardSolutions.com) ही द्वारा पालन किये गये उन्होंने पूर्व जन्म के संस्कार के कारण संसार को माया से पूर्ण जान करके तत्त्व की खोज में (अपमा) मन लगाया। वैराग्य के उत्पन्न होने के कारण उन्होंने संन्यास लेने की इच्छा की, परन्तु अत्यन्त स्नेह से पूर्ण एकमात्र पुत्र वाली माता ने आज्ञा नहीं दी। लोक की रीति पर चलने वाले शंकर माता की आज्ञा के बिना संन्यास स्वीकार करने में समर्थ नहीं हो सके।

(3)
एवं गच्छत्सु दिवसेषु एकदा शङ्करः पूर्णायां सरिति स्नातं गतः। यावत् स सरितोऽन्तः प्रविष्टः तावदेव बलिना ग्राहेण गृहीतः। शङ्करः आसन्नं मृत्युमवेक्ष्य आर्तस्वरेण चुक्रोश। तस्य वत्सला जननी स्वपुत्रस्य स्वरं परिचीय भृशं विललाप। तस्याः तादृशीं विपन्नामवस्थामनुभूय स तस्यै न्यवेदयत्-अम्ब! यदि (UPBoardSolutions.com) ते मम जीवितेऽनुरागः स्यात् तर्हि संन्यासाय मामनुजानीह तेनैव मे ग्राहान्मुक्तिर्भविष्यति। अनन्यगतिः माता तथेत्युवाच। सद्यस्तद्ग्राहग्रहात् मुक्तः स संन्यासमालम्ब्य पुत्रविरहसन्तप्तां मातरं सान्त्वयित्वा तया बान्धवैश्चानुज्ञातः यतिवेषधरः स्वजन्मभूमिं त्यक्त्वा देशानटितुं प्रवृत्तः। [2007, 10]

एवं गच्छत्सु ………………………………………… आर्तस्वरेण चुक्रोश।
एवं गच्छत्सु ………………………………………… ग्राहान्मुक्तिर्भविष्यति। [2006]

शब्दर्थ सरिति = नदी में स्नातुम् = स्नान के लिए। बलिना = शक्तिशाली। आसन्नं = समीप में आये। मृत्युमवेक्ष्य = मृत्यु को देखकर चुक्रोश = चिल्लाया। परिचीय = पहचानकर। विललाप = रोने लगी। विपन्नामवस्थामनुभूय = दुःखपूर्ण दशा का अनुभव करके। अनुजानीहि = आज्ञा दो। अनन्यगतिः = अन्य उपाय न देखकर। सद्यः = तुरन्त, उसी समय। ग्राहग्रहात् = मगर की पकड़ से। सान्त्वयित्वा = सान्त्वना देकर अटितुं प्रवृत्तः = घूमने लगा।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर को ग्राह द्वारा पकड़े जाने एवं माता द्वारा संन्यास लेने की आज्ञा देने पर उससे मुक्ति का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इस प्रकार कुछ दिनों के बीतने पर एक बार शंकर पूर्णा नदी में स्नान करने के लिए गये। ज्यों ही वे नदी के अन्दर प्रविष्ट हुए, त्यों ही शक्तिशाली ग्राह (घड़ियाल) के द्वारा पकड़ लिये गये। मृत्यु को निकट देखकर शंकर दु:ख-भरी आवाज में चिल्लाये। उनकी प्यारी माता अपने पुत्र की आवाज पहचानकर अत्यधिक रोने लगीं। उनकी उस तरह की दु:खी अवस्था का अनुभव करके उन्होंने उससे (माता से) निवेदन किया-हे माता! यदि तुम्हारा मेरे जीवन पर प्रेम है, तो मुझे संन्यास के लिए अनुमति दो। उससे ही मेरी ग्राह से मुक्ति होगी। अन्य उपायरहित माता ने ‘अच्छा’ ऐसा कहा। उसी समय उस ग्राह की पकड़ से मुक्त हुए उन्होंने संन्यास लेकर पुत्र के विरह से दु:खी माता को धैर्य देकर, उस (माता) के और अन्य बन्धुओं के द्वारा आज्ञा दिये जाने पर साधु का वेश धारण करके अपनी जन्मभूमि को छोड़कर अन्य देशों में भ्रमण के लिए निकल पड़े।

UP Board Solutions

(4)
वनवीथिकासु परिभ्रमन् स क्वचित् गृहान्तर्वर्तिनं गौडपादशिष्यं गोविन्दापादान्तिकं जगाम। यतिवेषधारिणं तं गोविन्दपादः पप्रच्छ—कोऽसि त्वं भोः? शङ्करः प्राह

मनोबुद्ध्यहङ्कारचित्तानि नाहं श्रोत्रं न जिह्वा न च प्राणनेत्रम्
न च व्योमभूमिर्न तेजो न वायुश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥

एतामलौकिकीं वाचमुपश्रुत्य गोविन्दपादः तमसाधारणं जनं मत्वा तस्मै संन्यासदीक्षां ददौ। गुरोः गोविन्दपादादेव वेदान्ततत्त्वं विधिवदधीत्य स तत्त्वज्ञो बभूव। सृष्टिरहस्यमधिगम्य गुरोराज्ञया स वैदिकधर्मोद्धरणार्थं दिग्विजयाय प्रस्थितः। ग्रामाद ग्रामं नगरान्नगरमटन् विद्वद्भिश्च सह शास्त्रचर्चा कुर्वन् स काशीं प्राप्तः। (UPBoardSolutions.com) काशीवासकाले स व्याससूत्राणामुपनिषदां श्रीमद्भगवद्गीतायाश्च भाष्याणि प्रणीतवान्।

एताम् अलौकिकीं ………………………………………… भाष्याणि प्रणीतवान् [2008, 14]

शब्दार्थ वनवीथिकासु = वन के मार्गों में परिभ्रमन् = घूमते हुए। गुहान्तर्वर्तिनम् (गुहा + अन्तर्वर्तिनम्) = गुफा के अन्दर रहने वाले। अन्तिकं = पास, समीप। जगाम = पहुँच गये। यतिवेषधारिणः = संन्यासी का वेश धारण करने वाले पप्रच्छ = पूछा। वाचम् = वाणी को। उपश्रुत्य = सुनकर। संन्यासदीक्षां = संन्यास धर्म की दीक्षा। अधीत्य = पढ़कर। तत्त्वज्ञः = तत्त्ववेत्ता। अधिगम्य = जानकर। दिग्विजयाय = दिग्विजय के लिए। प्रस्थितः = प्रस्थान किया। प्रणीतवान् = रचना की।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर द्वारा घर त्यागने, गोविन्दपाद के पास जाकर दीक्षा लेने, वेदान्त के तत्त्वों का अच्छी तरह से अध्ययन करने और अनेक भाष्यों की रचना करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद वन के मार्गों में भ्रमण करते हुए वे कहीं पर गुफा के अन्दर रहने वाले, गौड़पाद के शिष्य गोविन्दपाद के पास गये। संन्यासी के वेश को धारण करने वाले उनसे गोविन्दपाद ने पूछा–तुम कौन हो? शंकर बोलेमैं न मन हूँ, न बुद्धि हूँ, न अहंकार हूँ, न चित्त हूँ, न मैं कान हूँ, ने जीभ हूँ, न प्राण हूँ, न नेत्र हूँ, न आकाश हूँ, न भूमि हूँ, न तेज हूँ, न वायु हूँ। मैं चिद् व आनन्दस्वरूप शिव हूँ, शंकर हूँ। इस अलौकिक वाणी को सुनकर गोविन्दपाद ने उन्हें असाधारण मनुष्य समझकर संन्यास की दीक्षा दे दी। गुरु गोविन्दपाद से ही वेदान्त के तत्त्व का विधिपूर्वक अध्ययन करके वे तत्त्वज्ञाता हो गये। सृष्टि के रहस्य को जानकर गुरु की आज्ञा से उन्होंने वैदिक धर्म के उद्धार हेतु दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया। गाँव से गाँव में, नगर से नगर में घूमते हुए, विद्वानों के साथ शास्त्रे-चर्चा करते हुए वे काशी पहुँचे। काशी में निवास के समय उन्होंने व्यास सूत्रों, उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्यों की रचना की।

UP Board Solutions

(5)
अथ कदाचित् काश्यां प्रथितयशसः विद्वद्धौरेयस्य मण्डनमिश्रस्य दर्शनलाभाय स मनश्चकार। तद्गृहमन्वेष्टुकामः काञ्चिद् धीवरीमपृच्छत् क्वास्ति मण्डनमिश्रस्य धामेति। सा धीवरी प्रत्यवदत्

स्वत: प्रमाणं परतः प्रमाणं

कीराङ्गना यत्र गिरो गिरन्ति ।

द्वारस्य नीडान्तरसन्निबद्धाः

अवेहि तद्धाम हि मण्डनस्य ॥

इति धीवरीवचनं श्रुत्वा शङ्करः मण्डनमिश्रस्य भवनं गतः। तयोर्मध्ये तत्र शास्त्रार्थोऽभवत्।

स्व तः प्रमाणं ………………………………………… शास्त्रार्थोऽभवत्। [2012]

शब्दार्थ प्रथितयशसः = प्रसिद्ध यश वाले विद्वद्धौरेयस्य = विद्वानों में श्रेष्ठ, अन्वेष्टुकामः = ढूंढने की इच्छा करता हुआ। धाम = घर। कीराङ्गना = मादा तोता। गिरः गिरन्ति = वाणी बोलते हैं। नीडान्तरसन्निबद्धा = घोंसले के अन्दर बैठे हुए। अवेहि = जानो।।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर का काशी में मण्डन मिश्र के साथ शास्त्रार्थ करने का वर्णन है।

अनुवाद इसके बाद उन्होंने (शंकर ने) कभी काशी में प्रसिद्ध यश वाले, विद्वानों में श्रेष्ठ मण्डन मिश्र के दर्शन-लाभ प्राप्त करने की इच्छा की। उनका घर ढूँढ़ने की इच्छा वाले उन्होंने किसी धीवरी (केवट या मल्लाह की स्त्री) से पूछा-“मण्डन मिश्र का घर कहाँ है?” उस धीवरी ने उत्तर दिया-“जहाँ (UPBoardSolutions.com) द्वार पर स्थित घोसलों के भीतर पड़े हुए तोता और मैना स्वत: प्रमाण और परत: प्रमाण (शास्त्रीय प्रमाण के रूप में) की वाणी बोलते हैं, वही मण्डन मिश्र को घर समझिए।’ इस प्रकार धीवरी के वचन को सुनकर शंकर मण्डन मिश्र के घर गये। वहाँ उन दोनों के मध्य में शास्त्रार्थ हुआ।

(6)
निर्णायकपदे मण्डनमिश्रस्य सुमेधासम्पन्ना भार्या शारदा प्रतिष्ठापितासीत्। शास्त्रार्थे स्वस्वामिनः पराजयमसहमाना सा स्वयं तेन सह शास्त्रार्थं कर्तुं समुद्यताभवत्। सा शङ्करं कामशास्त्रीयान् प्रश्नान् पप्रच्छ| तान् दुरुत्तरान् प्रश्नान् श्रुत्वा स तूष्णीं बभूव। कियत्कालानन्तरं स परकायप्रवेशविद्यया कामशास्त्रज्ञो बभूवे पुनश्च मण्डनपत्नी शास्त्रार्थे पराजितवान्। जनश्रुतिरस्ति यत् स एव मण्डनमिश्रः आचार्यशङ्करस्य शिष्यत्वं स्वीचकार, सुरेश्वर इति नाम्ना प्रसिद्धिं च लेभे। [2012]

शब्दार्थ सुमेधासम्पन्ना = बुद्धिसम्पन्न प्रतिष्ठापितासीत् = स्थापित की गयी। असहमाना = सहन न करती हुई। कामशास्त्रीयान् = कामशास्त्र सम्बन्धी दुरुत्तरान् = कठिन उत्तर वाले। तूष्णीम् = मौन, चुप। कियत्कालानन्तरम् = कुछ समय के बाद। परकायप्रवेशविद्यया = दूसरे के शरीर में प्रवेश करने की विद्या से। पराजितवान् = पराजित किया। जनश्रुतिः अस्ति = जनश्रुति है, लोगों द्वारा कहा जाता है।

UP Board Solutions

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर द्वारा मण्डन मिश्र और उनकी पत्नी को शास्त्रार्थ में पराजित करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद निर्णायक के पद पर मण्डन मिश्र की अत्यन्त बुद्धिमती पत्नी शारदा बैठायी गयी थी। शास्त्रार्थ में अपने स्वामी की हार को सहन न करती हुई वह स्वयं उनके साथ शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार हो गयी। उसने शंकर से कामशास्त्र-सम्बन्धी प्रश्न पूछे। उन कठिन उत्तर वाले प्रश्नों को सुनकर वे चुप हो गये। कुछ समय (दिन या महीने) के पश्चात् दूसरों के शरीर में प्रवेश करने की विद्या से वे कामशास्त्र के ज्ञाता हो गये। और फिर मण्डन मिश्र की पत्नी को शास्त्रार्थ में पराजित किया। यह जनश्रुति है कि उन्हीं मण्डन मिश्र ने आचार्य शंकर की शिष्यता स्वीकार की और ‘सुरेश्वर’ नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त किया।

(7)
दिग्विजययात्राप्रसङ्गेनैव आचार्यप्रवरः प्रयागं प्राप्तः। तत्र वैदिकधर्मोद्धरणाय सततं यतमानं कुमारिलभई ददर्श। एकतः कुमारिलभट्टः वैदिकधर्मस्य कर्मकाण्डपक्षमाश्रित्य साम्प्रदायिकान्। पराजितवान् अपरतश्च श्रीमच्छङ्करः कर्मकाण्डस्य चित्तशुद्धिमात्रपर्यवसायिमाहात्म्यं स्वीकृत्यापि मोक्षे तस्य वैयर्थ्यं प्रतिपादयामास। एवं कुमारिलसम्मतमपि खण्डयित्वा स अज्ञाननिवृत्तये ज्ञानस्य महिमानं ख्यापयामास। तद् ज्ञानमेव मोक्षदायकम् भवति इति ज्ञानकाण्डमेव वेदस्य निष्कृष्टार्थं इति शङ्करः अमन्यत्। एवं शङ्करः आसेतोः कश्मीरपर्यन्तं समग्रदेशे परिबभ्राम, स्वकीययालौकिक्या बुद्धया च न केवलं विरोधिमतं समूलमुत्पाटयामास वरञ्च वैदिकधर्मानुयायिनां मध्ये तत्त्वस्वरूपमुद्दिश्य यद्वैमत्यमासीत् तस्यापि समन्वयः तेन समुपस्थापितः। अल्पीयस्येव वयसि महापुरुषोऽसौ चतुर्दिक्षु स्वकीर्तिकौमुदीं प्रसार्य द्वात्रिंशत्परमायुस्ते केदारखण्डे स्वपार्थिवशरीरं त्यक्त्वा पुनः कैलासवासी बभूव।

दिग्विजययात्राप्रसङ्गेनैव ………………………………………… प्रतिपादयामास

शब्दार्थ दिग्विजययात्राप्रसङ्गेनैव = दिग्विजय यात्रा के प्रसंग में ही। वैदिकधर्मोद्धरणाय = वैदिक धर्म के उद्धार के लिए। यतमानं = प्रयत्न करने वाले। एकतः = एक ओर पक्षमाश्रित्य = पक्ष का आश्रय लेकर अपरतश्च = और दूसरी ओर श्रीमच्छङ्करः (श्रीमत् + शंकरः) = श्रीमान् शंकर। चित्तशुद्धिमात्रपर्यवसायि = चित्त की शुद्धिमात्र उद्देश्य वाला। वैयर्थ्यम् = व्यर्थता। प्रतिपादयामास = सिद्ध की। ख्यापयामास = प्रसिद्ध किया। निष्कृष्टार्थम् = निष्कर्ष के लिए। आसेतोः = सेतुबन्ध (रामेश्वरम्) (UPBoardSolutions.com) से लेकर परिबभ्राम = भ्रमण किया। उत्पाटयामास = उखाड़ फेंका। तत्त्वस्वरूपमुद्दिश्य = तत्त्व के स्वरूप को समझाकर। यद्वैमत्यमासीत् (यत् + वैमत्यम् + आसीत्) = जो मत-विभिन्नता थी। समुपस्थापितः = उपस्थित किया। अल्पीयसी = थोड़ी-सी। चतुर्दिक्षु = चारों दिशाओं में प्रसार्य = फैलाकर।

UP Board Solutions

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर द्वारा कर्मकाण्ड की व्यर्थता और ज्ञान की उपयोगिता सिद्ध की गयी है।

अनुवाद दिग्विजय यात्रा के प्रसंग से ही आचार्य-श्रेष्ठ (शंकर) प्रयाग गये। वहाँ वैदिक धर्म के उद्धार के लिए निरन्तर प्रयत्न करते हुए कुमारिल भट्ट को देखा। एक ओर कुमारिल भट्ट ने वैदिक धर्म के कर्मकाण्ड के पक्ष का सहारा लेकर सम्प्रदायवादियों को पराजित किया और दूसरी ओर श्रीमान् शंकर ने कर्मकाण्ड; चित्त की शुद्धि करने मात्र तक उद्देश्य; की महत्ता स्वीकार करके भी मोक्ष में उसकी व्यर्थता प्रतिपादित की। इस प्रकार कुमारिल के द्वारा मान्य मत का खण्डन करके भी उन्होंने अज्ञान को दूर करने के लिए ज्ञान की महिमा बतायी। “वह ज्ञान ही मोक्ष को देने वाला होता है यह ज्ञानकाण्ड ही वेद का निष्कर्ष है, ऐसा शंकर मानते थे। इस प्रकार (UPBoardSolutions.com) शंकर ने सेतुबन्ध (रामेश्वरम्) से लेकर कश्मीर तक सम्पूर्ण देश में भ्रमण किया और अपनी अलौकिक बुद्धि से न केवल विरोधियों के मत को ही समूल नष्ट किया, वरन् वैदिक धर्म के मानने वालों के मध्य में तत्त्व के स्वरूप को लेकर जो मत की भिन्नता थी, उसमें भी उन्होंने समन्वय स्थापित किया। थोड़ी-सी आयु में यह महापुरुष चारों दिशाओं में अपनी कीर्ति फैलाकर 32 वर्ष की आयु में केदारखण्ड में अपने पार्थिव शरीर को छोड़कर पुनः कैलाशवासी हो गये।

(8)
शङ्कराविर्भावात् प्रागपि तत्रासन् व्यासवाल्मीकिप्रभृतयो बहवो मनीषिणः ये स्वप्रज्ञावैशारद्येन वैदिकधर्माभ्युदयाय प्रयतमाना आसन्। तेषु महर्षिव्यास-प्रणीतानि ब्रह्मसूत्राण्यधिकृत्य श्रीमच्छङ्करेण शारीरकाख्यं भाष्यं प्रणीतम्। एवं व्यासमतमेवावलम्ब्य भाष्यकृता तेन वैदिकधर्मः पुनरुज्जीवितः। तस्य दार्शनिक मतमद्वैतमतमिति लोके प्रसिद्धमस्ति। स स्वयं प्रतिज्ञानीते यत् वेदोपनिषत्सु सन्निहितं तत्त्वस्वरूपमेव स निरूपयति नास्ति तत्र किञ्चित् तदबुद्धिसमुद्भवम्। तन्मतेन जगदतीतं सत्यं (UPBoardSolutions.com) ज्ञानमनन्तं यत्तदेव ब्रह्म इति बोद्धव्यम्। ब्रह्माधिष्ठाय मायाविकारः एव एष संसारः अस्ति। संसारसरणौ सुखदुःखप्रवाहे उत्पीइयमानो जीवो ब्रह्मैवास्ति। विभूर्भूत्वापि मायाजन्याज्ञानप्रभावात् स आत्मनः कार्पण्यमनुभवति सन्ततं विषीदति च। एवं जीवब्रह्मैक्यं प्रतिपाद्य स सकलजीवसाम्यं स्थापयामास। “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति, नेह नानास्ति किञ्चन, यो वै भूमा तत्सुखम्” इति श्रुतीः अनुसृत्य शङ्करः वेदान्ततत्त्वस्वरूपं निर्धारयामास।

ब्रह्माधिष्ठाय मायाविकारः ………………………………………… निर्धारयायास [2009]

शब्दार्थ शङ्कराविर्भावात् = शंकर के जन्म लेने से। प्रागपि = पहले भी। मनीषिणः = विद्वान्। वैशारद्येन = निपुणता से। अभ्युदयाय = उन्नति के लिए। शारीरकाख्यम् = शारीरिक नाम वाला। व्यासमतमेवावलम्ब्य = व्यास के मत का सहारा लेकर ही प्रतिजानीते = घोषित करते हैं। सन्निहितं = छिपा हुआ है, निहित है। बुद्धिसमुद्भवम् = बुद्धि से उत्पन्न। जगदतीतं = संसार से परे, संसार से भिन्न। बोद्धव्यम् = जानना चाहिए। ब्रह्माधिष्ठाय = ब्रह्म का अधिष्ठान करके। संसार-सरणौ = संसाररूपी मार्ग पर। उत्पीड्यमानः = दुःखी होता हुआ। विभुर्भूत्वापि = व्यापक होकर भी। मायाजन्याज्ञानप्रभावात् = माया से उत्पन्न अज्ञान के प्रभाव से। कार्पण्यम् = दीनता का विषीदति = दुःखी होता है। विप्रा = विद्वान्। नेह = यहाँ पर नहीं। भूमा = अधिकता।

UP Board Solutions

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर द्वारा प्रतिपादित वैदिक सिद्धान्तों का संक्षिप्त वर्णन करके उनको समझाया गया है।

अनुवाद शंकर के जन्म से पूर्व भी व्यास, वाल्मीकि जैसे बहुत-से विद्वान् थे, जो अपनी बुद्धि की निपुणता से वैदिक धर्म की उन्नति के लिए प्रयत्न कर रहे थे। उनमें महर्षि व्यास के द्वारा रचित ब्रह्मसूत्रों के आधार पर श्रीमान् शंकर ने शारीरक’ नाम का भाष्य रचा। इस प्रकार व्यास के मत का सहारा लेकर ही उस भाष्यकार ने वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया। उनका दार्शनिक मत ‘अद्वैत’ इस नाम से संसार में प्रसिद्ध है। वे स्वयं घोषित करते हैं कि वेद और उपनिषदों में सन्निहित तत्त्व के स्वरूप का ही वे वर्णन कर रहे हैं, उसमें कुछ भी उनकी बुद्धि से उत्पन्न नहीं है। उनके मत के अनुसार जो संसार से अतीत और सत्य है, अनन्त ज्ञान है, वही ब्रह्म है, ऐसा समझना (UPBoardSolutions.com) चाहिए। ब्रह्म का आश्रय लेकर माया से उत्पन्न ही यह संसार है। संसार के मार्ग में सुख और दु:ख के प्रवाह में पीड़ित हुआ जीव ब्रह्म ही है। व्यापक होकर भी माया से उत्पन्न अज्ञान के प्रभाव से वह आत्मा की दीनता का ही अनुभव करता है और निरन्तर दु:खी रहता है। इस प्रकार जीव और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन करके उन्होंने सम्पूर्ण जीवों की समानता स्थापित की। “एक ही ब्रह्म सर्वशक्तिमान् है, इस तत्त्व को ब्राह्मण अनेक प्रकार से कहते हैं, इस संसार में कुछ भी भिन्न नहीं है। जो भूमा है, वही सुख है।” इस प्रकार वेदों का अनुसरण करके शंकर ने तत्त्व के स्वरूप को निर्धारित किया।

(9)
प्रतीयमानानेकरूपायाः सृष्टेः अधिष्ठानं ब्रह्म अद्वैतरूपमस्ति। एतदस्ति विश्वबन्धुत्व भावनायाः बीजम् । अस्याः भावनायाः पल्लवनेन न केवलं एकः राष्ट्रवृक्षः संवर्धते, अपितु जातिक्षेत्रादिमूला उच्चावचभावरूपा सङ्कीर्णता समूलोच्छिन्ना भवति। एतस्याः राष्ट्रियभावनायाः पुष्ट्यर्थं स स्वदेशस्य चतसृषु दिक्षु चतुर्णा वेदान्तपीठान स्थापनाञ्चकार। मैसूरप्रदेशे शृङ्गेरीपीठं, पुर्यां गोवर्धनपीठे, बदरिकाश्रमे ज्योतिष्पीठं, द्वारिकायाञ्च शारदापीठं साम्प्रतमपि राष्ट्रसमुन्नत्यै, लोकहितसाधनाय चाद्वैतमतस्य प्रचारे अहर्निशं प्रयतमानानि सन्ति। [2014]

प्रतीयमानानेकरूपायाः ………………………………………… स्थापनाञ्चकार। [2009]

शब्दार्थ प्रतीयमान = आभासित, कल्पित, दिखाई देती हुई। अधिष्ठानम् = आधार, स्थान। ब्रह्म अद्वैतरूपम् = ब्रह्म अद्वैत अर्थात् एक रूप है। बीजम् = मूल। उच्चावच = ऊँच-नीच। समूलोच्छिन्ना = जड़ से उखड़ी हुई। चतसृषु दिक्षु = चारों दिशाओं में। साम्प्रतमपि = इस समय भी। अहर्निशम् = दिन-रात।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर के द्वारा अद्वैतवाद सम्बन्धी प्रचार एवं राष्ट्रीय भावना के लिए चार वेदान्त पीठों की स्थापना के उद्देश्य के विषय में बताया गया है।

अनुवाद, आभासित होती हुई, अनेक स्वरूप धारण करती हुई सृष्टि का आश्रयभूत ब्रह्म अद्वैत रूप है। यह विश्व-बन्धुत्व की भावना का मूल है। इस भावना के प्रसार से केवल एक राष्ट्ररूपी वृक्ष ही नहीं बढ़ता है, अपितु जातिमूलक और स्थानमूलक ऊँच-नीच की भावना की संकीर्णता जड़ से नष्ट हो जाती है। इस राष्ट्रीय भावना की पुष्टि के लिए उन्होंने अपने देश की चारों दिशाओं में चार वेदपीठों की स्थापना की। मैसूर प्रदेश में शृंगेरीपीठ, पुरी में गोवर्धनपीठ, बदरिकाश्रम में ज्योतिष्पीठ और द्वारका में शारदापीठ अब भी राष्ट्र की उन्नति के लिए और संसार का कल्याण करने के लिए अद्वैत मत के प्रचार में दिन-रात प्रयत्नशील हैं।

UP Board Solutions

(10)
निष्कामकर्मयोगी शङ्करः यद्यपि अल्पायुरासीत् किन्तु तस्य कार्याणि, अत्युत्कृष्टभाष्यग्रन्थाः, अनेके मौलिकग्रन्थाः अद्वैतसिद्धान्तश्चैनम् अनुक्षणं स्मारयन्ति। धन्यः खल्वसौ महनीयकीर्तिः जगदगुरुः भगवान् शङ्करः।

शब्दार्थ अल्पायुरासीत् = थोड़ी आयु वाले। अनुक्षणम् = प्रतिक्षण। स्मारयन्ति = याद कराते हैं।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर की विशेषता का वर्णन किया गया है।

अनुवाद निष्काम कर्मयोगी शंकर यद्यपि कम आयु के ही थे, किन्तु उनके कार्य अत्यन्त उत्तम भाष्य-ग्रन्थ (टीकाएँ), (UPBoardSolutions.com) अनेक मौलिक ग्रन्थ और अद्वैत सिद्धान्त इनकी प्रत्येक क्षण याद दिलाते हैं। वे (पूजनीय) महान् कीर्तिशाली जगद्गुरु भगवान् शंकर निश्चय ही धन्य हैं।

लघु उत्तरीयप्रश्न

प्रश्न 1.
शंकराचार्य का जन्म कब और कहाँ हुआ था? इनके माता-पिता का नाम भी बताइए।
या
शंकराचार्य के जन्म-वंशादि का उल्लेख कीजिए। [2010]
या
आदि शंकराचार्य का जन्म-स्थान लिखिए। [2007,08, 09, 13, 14]
या
आदि शंकराचार्य का जन्म किस प्रदेश में हुआ था? [2007,09]
या
आदि शंकराचार्य के माता-पिता और ग्राम का नाम लिखिए। [2010, 14]
उत्तर :
आदि शंकराचार्य का जन्म केरले प्रदेश के मालाबार प्रान्त में पूर्णा नदी के तट पर स्थित शलक ग्राम में सन् 788 ईस्वी में नम्बूदरी कुल में हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम सुभद्रा देवी था। 991 2 आचार्य शंकर क्यों प्रसिद्ध हैं? स्पष्ट कीजिए। उत्तर ‘ब्रह्म अद्वैतस्वरूप है।’ आदि शंकराचार्य को यह सिद्धान्त विश्वबन्धुत्व की भावना का मूलाधार है। यह सिद्धान्त क्षेत्रवाद, जातिवाद और ऊँच-नीच की भावनाओं को नष्ट करने वाला है। अज्ञानान्धकार को दूर करने (UPBoardSolutions.com) के लिए आचार्य शंकर ने चार वेदान्तपीठों की स्थापना की तथा व्यास सूत्र, उपनिषदों, भगवद्गीता पर सुन्दर भाष्य लिखे, जो निरन्तर गिरते जीवन-मूल्यों के उत्थान में आज भी सहायक हैं। इसलिए आचार्य शंकर जगत् में प्रसिद्ध हैं।

प्रश्न 3.
गोविन्दपाद ने शंकर से क्या पूछा और शंकर ने क्या उत्तर दिया?
उत्तर :
यति वेश को धारण करने वाले गोविन्दपाद ने शंकर से पूछा “तुम कौन हो?’ शंकर बोले-“मैं न मन हूँ, न बुद्धि हूँ, न अहंकार हूँ, न चित्त हूँ, न कान हूँ, न जीभ हूँ, न प्राण हूँ, न नेत्र हूँ, न आकाश हूँ, न भूमि हूँ, न तेज हूँ, न वायु हूँ। मैं चिद् व आन्दस्वरूप शिव हूँ, शंकर हूँ।”.

UP Board Solutions

प्रश्न 4.
आदि शंकराचार्य ने चार वेदपीठों की स्थापना कहाँ-कहाँ की और क्यों की ?
या
शंकराचार्य द्वारा स्थापित वेदान्तपीठों के नाम लिखिए। [2006,08,09, 10, 12]
उत्तर :
आचार्य शंकर ने जातिमूलक और स्थानमूलक ऊँच-नीच की संकीर्णता को जड़ से नष्ट करने और राष्ट्रीय भावना की पुष्टि के लिए देश के चारों दिशाओं में चार वेदपीठों-मैसूर प्रदेश में श्रृंगेरीपीठ, पुरी में गोवर्धनपीठ, बदरिकाश्रम में ज्योतिष्पीठ और द्वारका में शारदा पीठ की स्थापना की।

प्रश्न 5.
शंकराचार्य के संन्यास-ग्रहण की घटना का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
एक बार शंकर पूर्णा नदी में स्नान कर रहे थे कि एक शक्तिशाली ग्राह ने इनका पैर पकड़ लिया। ग्राह ने इन्हें तब तक नहीं छोड़ा, जब तक माता ने इन्हें संन्यास लेने की आज्ञा न दे दी। माता की आज्ञा और ग्राह से मुक्ति पाकर इन्होंने संन्यास ले लिया।

प्रश्न 6.
शंकराचार्य ने काशी में किन-किन ग्रन्थों का भाष्य लिखा और किससे शास्त्रार्थ करके पराजित [2009]
या
शंकराचार्य ने किन-किन ग्रन्थों के भाष्य लिखे? [2006, 08,09, 11]
उत्तर :
शंकराचार्य ने व्यास-सूत्रों, उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्यों की काशी में रचना की। इन्होंने काशी में मण्डन मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित किया, लेकिन उनकी पत्नी से शास्त्रार्थ में, प्रथम बार, पराजित हुए। कालान्तर में मण्डन मिश्र की पत्नी को भी शास्त्रार्थ में पराजित किया।

प्रश्न 7.
स्वतः प्रमाणं परत: प्रमाणं, कीराङ्गना यत्र गिरो गिरन्ति ।
द्वारस्थनीडान्तरसन्निरुद्धाः, अवेहि तधाम हि मण्डनस्य ॥
उपरिलिखित श्लोक किसने, किससे और क्यों कहा?
उत्तर :
ऊपर उल्लिखित श्लोक धीवरी ने शंकराचार्य से कहा क्योंकि शंकराचार्य ने उससे मण्डन मिश्र के घर का पता पूछा था। हुए?,

प्रश्न 8.
आदि शंकराचार्य का जीवन-परिचय संक्षेप में लिखिए। [2010]
उत्तर :
शंकराचार्य का जन्म मालाबार प्रान्त में पूर्णा नदी के तट पर शलक नामक ग्राम में सन् 788 ईस्वी में हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम सुभद्रा था। इन्होंने आठ वर्ष की आयु में ही समस्त वेद-वेदांगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इनके पिता की मृत्यु बचपन (UPBoardSolutions.com) में ही हो गयी थी। पूर्णा नदी में स्नान करते समय एक शक्तिशाली ग्राह ने इनके पैर को पकड़ लिया और तब तक नहीं छोड़ा, जब तक माता ने संन्यास की अनुमति न दे दी। गौड़पाद के शिष्य गोविन्दपाद ने इन्हें संन्यास की दीक्षा दी और वेदान्त-तत्त्वों का अध्ययन कराया। इन्होंने काशी में मण्डन मिश्र व उनकी पत्नी तथा प्रयाग में कुमारिल भट्ट को शास्त्रार्थ में पराजित किया। इन्होंने व्यास-सूत्रों, उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्यों की रचना की तथा राष्ट्रीय भावना को पुष्ट करने के लिए भारत के चारों कोनों में चार वेदान्तपीठों की स्थापना की। मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में ही इन्होंने अपने पार्थिव शरीर का त्याग कर दिया।

UP Board Solutions

प्रश्न 9.
वह महान् कर्मयोगी कौन थे, जिन्होंने वैदिक धर्म की पुनः स्थापना करायी? [2010, 11]
उत्तर :
आदि शंकराचार्य ही वह महान् कर्मयोगी थे, जिन्होंने वैदिक धर्म की पुन: स्थापना करायी।

प्रश्न 10.
शंकर ने किससे संन्यास-दीक्षा ली एवं वेदान्त-तत्त्व का ज्ञान प्राप्त किया? [2006]
उत्तर :
शंकर ने गौड़पाद के शिष्य गोविन्दपाद से संन्यास-दीक्षा ली और (UPBoardSolutions.com) वेदान्त-तत्त्व का ज्ञान प्राप्त किया।

Hope given UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 8 are helpful to complete your homework.
If you have any doubts, please comment below. UP Board Solutions try to provide online tutoring for you

Class 10 Sanskrit Chapter 12 UP Board Solutions लोकमान्य तिलकः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 12 Lokmanya Tilak Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 12 हिंदी अनुवाद लोकमान्य तिलकः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 12 लोकमान्य तिलकः (गद्य – भारती)

परिचय

बाल गंगाधर तिलक ने एक सामान्य परिवार में जन्म लिया और ‘लोकमान्य’ की उपाधि पाकर अमर हो गये। जिस बालक के माता और पिता का स्वर्गवासे क्रमशः दस और सोलह वर्ष की अवस्था में हो गया हो, उसको अपने सहारे उच्च शिक्षा प्राप्त करना, निश्चय ही आश्चर्य का विषय है। तिलक जी को सरकारी नौकरी भी मिल सकती थी और वे वकालत भी कर सकते थे; किन्तु उन्होंने सुख-सुविधा को जीवन-लक्ष्य स्वीकार नहीं किया वरन् (UPBoardSolutions.com) सामान्यजन की सेवा और भारतमाता की स्वतन्त्रता को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। मराठी में ‘केसरी’ और अंग्रेजी में ‘मराठा’ पत्र निकालकर इन्होंने अपने दोनों ही लक्ष्यों को प्राप्त करने का सार्थक प्रयास किया। “स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, इस सिंह-गर्जना हेतु तिलक जी को सदा याद रखा जाएगा। प्रखर देशभक्त तिलक जी एक प्रतिभाशाली लेखक भी थे। इनकी लिखी पुस्तकें-‘गीता रहस्य’, ‘वेदों का काल-निर्णय’ और ‘आर्यों का मूल निवास-स्थान’ आज भी विद्वज्जनों के मध्य समादृत हैं। प्रस्तुत पाठ लोकमान्य तिलक जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से छात्रों को पूर्णरूपेण परिचित कराता है और उससे प्रेरणा प्राप्त करने को प्रेरित करता है।

UP Board Solutions

पाठ-सारांश [2006,07, 09, 10, 11, 12, 13, 15]

नामकरण लोकमान्य तिलक भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम के सैनिकों में अग्रगण्य थे। इनका नाम ‘बाल’, पिता का नाम ‘गंगाधर’, वंश का नाम ‘तिलक’ तथा यश ‘लोकमान्य’ था—इस प्रकार इनका पूरा नाम लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक था। इनके जन्म का नाम ‘केशवराव’ था तथा इनकी प्रसिद्धि ‘बलवन्तराव’ के नाम से थी।

जन्म, माता-पिता एवं स्वभाव तिलक जी का जन्म विक्रम संवत् 1913 में आषाढ़ मास की कृष्ण पक्ष की षष्ठी के दिन रत्नगिरि जिले के ‘चिरबल’ नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम रामचन्द्र गंगाधरराव तथा माता का नाम पार्वतीबाई था। इनकी माता सुशीला, धर्मपरायणा, पतिव्रता और ईश्वरभक्तिनी थीं। तिलक उग्र राष्ट्रीयता के जन्मदाता थे। इन्होंने महाराष्ट्र के युवकों में राष्ट्रीयता उत्पन्न करने के लिए देशहित के अनेक कार्य किये। इनका स्वभाव धीर, गम्भीर और निडर था।

शिक्षा तिलक जी का बचपन कष्टमय था। दस वर्ष की अवस्था में माता का और सोलह वर्ष की अवस्था में पिता का स्वर्गवास हो गया था। फिर भी इन्होंने अपना अध्ययन नहीं छोड़ा। ये तीक्ष्ण बुद्धि के थे और अपनी कक्षा में सबसे आगे रहते थे। संस्कृत और गणित इनके प्रिय विषय थे। ये गणित के कंठिन प्रश्नों को भी मौखिक ही हल कर लिया करते थे। दस वर्ष की आयु में इन्होंने संस्कृत में श्लोक-रचना सीख ली थी। कॉलेज में पढ़ते समय ये दुर्बल शरीर के थे। बाद में इन्होंने तैरने, नौका चलाने आदि के द्वारा अपना शरीर पुष्ट कर लिया था। इन्होंने बीस वर्ष की आयु में बी०ए० और तेईस वर्ष की आयु में एल-एल०बी० की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। सरकारी नौकरी और वकालत छोड़कर ये देशसेवा और लोकसेवा के कार्य में लग गये। इन्होंने पीड़ित भारतीयों के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर दिया था। इन्होंने आजीवन अपना मन पीड़ित प्राणियों के उद्धार में लगाया और प्रिय-अप्रिय किसी भी घटना से कभी विचलित नहीं हुए।

UP Board Solutions

स्वतन्त्रता के लिए प्रयास तिलक जी ने हमें स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया। ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है यह उनका प्रिय नारा था। इन्होंने राजनीतिक जागरण के लिए केसरी (मराठी) और मराठा (अंग्रेजी) दो पत्र प्रकाशित किये। इन पत्रों के माध्यम से इन्होंने अंग्रेजी शासन की सच्ची आलोचना, राष्ट्रीयता की शिक्षा, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग के लिए भारतीयों को प्रेरित करने के कार्य किये। यद्यपि सरकार की तीखी आलोचना के कारण इन्हें कड़ा दण्ड मिलता था तथापि किसी भी भय से इन्होंने सत्य-मार्ग को नहीं छोड़ा।

‘केसरी’ पत्र में प्रकाशित इनके तीखे लेखों के कारण इन्हें सरकार ने अठारह मास के सश्रम कारावास का कठोर दण्ड दिया। इस दण्ड के विरोध में भारत में जगह-जगह पर सभाएँ हुईं और आन्दोलन भी हुए। सम्मानित लोगों ने सरकार से प्रार्थना की, परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। सन् 1908 ई० में सरकार ने इन्हें राजद्रोह के अपराध में छ: वर्ष के लिए माण्डले जेल में भेज दिया। वहाँ इन्होंने बहुत कष्ट सहे।

रचनाएँ माण्डले जेल में रहकर इन्होंने गीता पर ‘गीता रहस्य’ नाम से भाष्य लिखा। इनकी अन्य रचनाएँ ‘वेदों का काल-निर्णय’ तथा ‘आर्यों का मूल निवास स्थान हैं। जेल से छूटकर ये पुनः देशसेवा के कार्य में लग गये।

मृत्यु राष्ट्र के लिए अनेक कष्टों को सहन करते हुए तिलक जी का 1977 विक्रम संवत् में स्वर्गवास हो गया। इन्होंने भारत के उद्धार के लिए जो किया, वह भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने योग्य है।

UP Board Solutions

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
लोकमान्यो बालगङ्गाधरतिलको नाम मनीषी भारतीयस्वातन्त्र्ययुद्धस्य प्रमुखसेनानीष्वन्यतमे, आसीत्। ‘बालः’ इति वास्तविकं तस्याभिधानम्। पितुरभिधानं, ‘गङ्गाधरः’ इति वंशश्च ‘तिलकः’ एवञ्च ‘बालगङ्गाधर तिलकः’ इति सम्पूर्णमभिधानं, किन्तु ‘लोकमान्य’ विरुदेनासौ विशेषेण (UPBoardSolutions.com) प्रसिद्धः। यद्यप्यस्य जन्मनाम ‘केशवराव’ आसीत् तथापि लोकस्तं ‘बलवन्तराव’ इत्यभिधया एव ज्ञातवान्। शब्दार्थ मनीषी = विद्वान्। अन्यतमः = अद्वितीय, प्रमुख अभिधानम् = नाम। विरुदेन = यश से, प्रसिद्धि से। अभिधया = नाम से। ज्ञातवान् = जाना।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘लोकमान्य तिलकः’ पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यावतरण में तिलक के ‘लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक’ नाम पड़ने का कारण बताया गया है।

अनुवाद लोकमान्य बालगंगाधर तिलक नाम के विद्वान् भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के प्रमुख सेनानियों में एक थे। उनका ‘बाल’ वास्तविक नाम था। पिता का नाम ‘गंगाधर’ और वंश ‘तिलक था। इस प्रकार ‘बाल गंगाधर तिलक’ यह पूरा नाम था, किन्तु ‘लोकमान्य’ के यश से ये विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। यद्यपि इनका जन्म का नाम ‘केशवराव’ था, तथापि लोग उन्हें ‘बलवन्तराव’ इस नाम से भी जानते थे।

UP Board Solutions

(2)
एष महापुरुषस्त्रयोदशाधिकनवदशशततमे विक्रमाब्दे (1913) आषाढमासे कृष्णपक्षे षष्ठ्यां तिथौ सोमवासरे महाराष्ट्रप्रदेशे रत्नगिरिमण्डलान्तर्गत ‘चिरवल’ संज्ञके ग्रामे जन्म लेभे। चितपावनः दाक्षिणात्यब्राह्मणकुलोत्पन्नस्य पितुर्नाम ‘श्री रामचन्द्रगङ्गाधर राव’ इत्यासीत्। सः कुशलोऽध्यापकः आसीत्। गङ्गाधरः स्वपुत्रं तिलकं बाल्ये एव गणितं मराठीभाषां संस्कृतचापाठयत्। अस्य जननी ‘श्रीमती पार्वतीबाई’ परमसुशीला, पतिव्रतधर्मपरायणा, ईश्वरभक्ता, सूर्योपासनायाञ्च रता बभूव। येनायं बालस्तेजस्वी बभूव इति जनाश्चावदन्। अस्य कार्यक्षेत्रं महाराष्ट्रप्रदेशः विशेषेणासीत्। स महाराष्ट्र उग्रराष्ट्रियतायाः जन्मदाता वर्तते स्म। तिलको महाराष्ट्र-नवयुवकेषु देशभक्ति-आत्मबलिदान आत्मत्यागस्य भावनां जनयितुं देशहितायानेकानि कार्याणि सम्पादितवान्। तस्य स्वभावः धीरः गम्भीरः निर्भयश्चासीत्। तस्य जीवने वीरमराठानां प्रभावः पूर्णरूपेणाभवत्।।

शब्दार्थ त्रयोदशाधिकनवदशशततमे = उन्नीस सौ तेरह में। संज्ञके ग्रामे = नाम वाले गाँव में चितपावनः = परम पवित्र। संस्कृतञ्चापाठयत् = और संस्कृत पढ़ायी। सूर्योपासनायाञ्च = और सूर्य की पूजा में। जनयितुम् = उत्पन्न करने के लिए। सम्पादितवान् = किये। निर्भयश्चासीत् = और निर्भय था।।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के जन्म, माता-पिता का नाम एवं उनके स्वभाव का उन पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इस महापुरुष ने 1913 विक्रम संवत् में आषाढ़ महीने में कृष्णपक्ष में षष्ठी तिथि को सोमवार के दिन महाराष्ट्र प्रदेश में रत्नगिरि जिले के अन्तर्गत ‘चिरबल’ नामक ग्राम में जन्म लिया था। हृदय को पवित्र करने वाले दाक्षिणात्य ब्राह्मण कुल में उत्पन्न पिताजी का नाम श्री रामचन्द्र गंगाधरराव’ था। वे कुशल अध्यापक थे। गंगाधर ने अपने पुत्र तिलक को बचपन में ही गणित, मराठी भाषा और संस्कृत भाषा पढ़ायी। इनकी माता श्रीमती पार्वतीबाई अत्यन्त सुशीला, पातिव्रत धर्म में परायणा, ईश्वरभक्तिनी और सूर्योपासना में लगी रहती थीं। इसी से यह बालक तेजस्वी हुआ, ऐसा लोग कहते थे। इनका कार्य-क्षेत्र विशेष रूप से महाराष्ट्र प्रदेश था। वे महाराष्ट्र में उग्र राष्ट्रीयता के जन्मदाता थे। तिलक ने महाराष्ट्र के नवयुवकों में देशभक्ति, आत्म-बलिदान, आत्म-त्याग की भावना उत्पन्न करने के लिए देशहित के अनेक कार्य किये। (UPBoardSolutions.com) उनका स्वभाव धीर, गम्भीर और निडर था। उनके जीवन पर पूर्णरूप से वीर मराठों का प्रभाव था।

UP Board Solutions

(3)
अस्य बाल्यकालोऽतिकष्टेन व्यतीतः। यदा स दशवर्षदेशीयोऽभूत तदा तस्य जननी परलोकं गता। षोडशवर्षदेशीयो यदा दशम्यां कक्षायामधीते स्म तदा पितृहीनो जातोऽयं शिशुः। एवं नानाबाधाबाधितोऽपि सोऽध्ययनं नात्यजत्। विपद्वायुः कदापि तस्य धैर्यं चालयितुं न शशाक। अस्मिन्नेव वर्षे तेन प्रवेशिका परीक्षा समुत्तीर्णा। इत्थमस्य जीवनं प्रारम्भादेव सङ्घर्षमयमभूत्। [2006, 12]

शब्दार्थ पुरलोकंगता = स्वर्गवास हो गया। अधीते स्म = पढ़ते थे। नानाबाधाबाधितोऽपि = अनेक प्रकार की बाधाओं से बाधित होते हुए भी। नात्यजत् = नहीं छोड़ा। विपद्-वायुः = विपत्तिरूपी वायु। चालयितुम् = चलाने के लिए, डिगाने के लिए। अस्मिन्नेव वर्षे = इसी वर्ष में।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के प्रारम्भिक जीवन के संघर्षमय होने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इनका बाल्यकाल अत्यन्त कष्ट से बीता। जब वे दस वर्ष के थे, तब उनकी माता परलोक सिधार गयी थीं। सोलह वर्ष के जब यह दसवीं कक्षा में पढ़ते थे, तब यह पिता से विहीन हो गये। इस प्रकार अनेक बाधाओं के आने पर भी उन्होंने अध्ययन नहीं छोड़ा। विपत्तिरूपी वायु कभी उनके धैर्य को नहीं डिगा सकी। इसी वर्ष उन्होंने प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण की। इस प्रकार इनका जीवन प्रारम्भ से ही संघर्षपूर्ण था।

UP Board Solutions

(4)
बाल्यकालादेवायं पठने कुशाग्रबुद्धिः स्वकक्षायाञ्च सर्वतोऽग्रणीरासीत्। संस्कृत-गणिते तस्य प्रियविषयौ आस्ताम्। छात्रावस्थायां यदाध्यापकः गणितस्य प्रश्नं पट्टिकायां लेखितुमादिशति तदा से कथयति स्म। किं पट्टिकायां लेखनेन, मुखेनैवोत्तरं वदिष्यामि। स गणितस्य कठिनप्रश्नानां (UPBoardSolutions.com) मौखिकमेवोत्तरमवदत्। परीक्षायां पूर्वं क्लिष्टप्रश्नानां समाधानमकरोत्। दशमे वर्षेऽयं शिशुः संस्कृतभाषायां नूतनश्लोकनिर्माणशक्ति प्रादर्शयत्। [2008,09,12,14]

शब्दार्थ कुशाग्रबुद्धिः = तेज बुद्धि वाला। सर्वतोऽग्रणीः = सबसे आगे। पट्टिकायां = पट्टी (स्लेट) पर। लेखितुमादिशति = लिखने के लिए आज्ञा देते थे। मुखेनैवोत्तरं = मुख से ही उत्तर। नूतनश्लोकनिर्माणशक्ति = नये श्लोकों को बनाने (रचना करने) की शक्ति प्रादर्शयत् = प्रदर्शित की।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के कुशाग्रबुद्धि होने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद बचपन से ही ये पढ़ने में तीक्ष्ण बुद्धि और अपनी कक्षा में सबसे आगे थे। संस्कृत और गणित उनके प्रिय विषय थे। छात्रावस्था में जब अध्यापक इन्हें गणित के प्रश्न पट्टी (स्लेट) पर लिखने के लिए आज्ञा देते थे, तब वे कहते थे—स्लेट पर लिखने से क्या (लाभ)? मैं मौखिक ही उत्तर बता दूंगा। वह गणित के कठिन प्रश्नों का मौखिक ही उत्तर बता देते थे। परीक्षा में वे पहले कठिन प्रश्नों को हल करते थे। दसवें वर्ष में इस बालक ने संस्कृत में नये श्लोक रचने की शक्ति प्रदर्शित कर दी थी।

(5)
महाविद्यालये प्रवेशसमये स नितरां कृशगात्र आसीत्। दुर्बलशरीरेण स्वबलं वर्धयितुं नदीतरणनौकाचालनादि विविधक्रियाकलापेन स्वगात्रं सुदृढं सम्पादितवान्। सहजैव चास्य महाप्राणताऽऽविर्बभूव। तत आजीवनं नीरोगतायाः निरन्तरमानन्दमभजत्। [2012]

शब्दार्थ नितरां = अत्यधिक कृशगात्र = दुर्बल शरीर वाले। वर्धयितुम् = बढ़ाने के लिए। नदीतरणनौकाचालनादि विविधक्रियाकलापेन = नदी में तैरने, नाव चलाने आदि अनेक क्रिया-कलापों से। महाप्राणताऽऽविर्बभूव = अत्यधिक शक्तिशालित उत्पन्न हो गयी। निरन्तरमानन्दमभजत् = लगातार आनन्द को प्राप्त किया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के व्यायाम आदि द्वारा स्वास्थ्य-लाभ करने का वर्णन किया गया है।

UP Board Solutions

अनुवाद महाविद्यालय में प्रवेश के समय वे अत्यधिक दुर्बल शरीर के थे। कमजोर शरीर से अपना बल बढ़ाने के लिए नदी में तैरना, नाव चलाना आदि अनेक प्रकार के क्रिया-कलापों से उन्होंने अपने शरीर को बलवान् बनाया। इनमें स्वाभाविक रूप से ही महान् शक्ति उत्पन्न हो गयी। तब जीवनभर नीरोगिता का निरन्तर आनन्द प्राप्त किया।

(6)
विंशतितमे वर्षे बी०ए० ततश्च वर्षत्रयानन्तरम् एल-एल०बी० इत्युभे परीक्षे सबहुमानं समुत्तीर्य , देशसेवानुरागवशाद् राजकीय सेवावृत्तिं अधिवक्तुः (वकालत) वृत्तिञ्च विहाय लोकसेवाकार्ये.. संलग्नोऽभवत्। भारतभूमेः पीडितानां भारतीयानाञ्च कृतेऽयं स्वजीवनमेव समर्पयत्। (UPBoardSolutions.com) पीडितानां करुणारवं श्रुत्वा स नग्नपादाभ्यामेवाधावत्। एतादृशा ऐव महोदया ऐश्वर्यशालिनो भवन्ति। पठनादारभ्याजीवनं स स्वधियं सर्वसत्त्वोदधृतौ निदधे। प्रिययाप्रियया वा कयापि घटनया स स्वमार्गच्युतो न बभूव। “सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता” इति तस्य आदर्शः।

शब्दार्थ उभे = दोनों। सबहुमानम् = सम्मानसहित देशसेवानुरागवशात् = देशसेवा के प्रेम के कारण। अधिवक्तुः = वकालता वृत्तिम् = आजीविका को। विहाय = छोड़कर। कृते = के लिए। करुणारवम् = करुण स्वर नग्नपादाभ्यामेवाधावत् = नंगे पैरों ही दौड़ते थे। पठनादारभ्याजीवनं = पढ़ने से लेकर जीवन भर स्वधियम् = अपनी बुद्धि को। सर्वसत्त्वोधृतौ = सब प्राणियों के उद्धार में निदधे = लगाया। प्रिययाप्रियया = प्रिय और अप्रिय से। स्वमार्गच्युतः = अपने मार्ग से च्युत होने वाले।

प्रसंग” प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के देश-प्रेम एवं मानवता की सेवा किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद बीसवें वर्ष में बी०ए० और उसके तीन वर्ष पश्चात् एल-एल० बी० ये दोनों परीक्षाएँ सम्मानसहित उत्तीर्ण करके, देशसेवा के प्रेम के कारण सरकारी नौकरी और वकालत के पेशे को छोड़कर, लोकसेवा के कार्य में संलग्न हो गये। भारत-भूमि के पीड़ित भारतीयों के लिए इन्होंने अपना जीवन ही अर्पित कर दिया। पीड़ितों के करुण स्वर को सुनकर वे नंगे पैर ही दौड़ पड़ते थे। इस प्रकार के ही महापुरुष ऐश्वर्यसम्पन्न होते हैं। पढ़ने से लेकर जीवनपर्यन्त उन्होंने अपनी बुद्धि को सभी प्राणियों के उद्धार में लगाया। प्रिय या अप्रिय किसी घटना से वे कभी अपने मार्ग से च्युत (हटे) नहीं हुए। “सम्पत्ति (सुख) में और विपत्ति (दुःख) में महापुरुष एक-से रहते हैं, यह उनका आदर्श था।

UP Board Solutions

(7)
सोऽस्मान् स्वतन्त्रतायाः पाठमपाठयत्”स्वराज्यमस्माकं जन्मसिद्धोऽधिकारः” इति घोषणामकरोत्। स्वराज्यप्राप्त्यर्थं घोरमसौ क्लेशमसहत लोकमान्यो राजनीतिकजागर्तेरुत्पादनार्थं देशभक्तैः सह मिलित्वा मराठीभाषायां ‘केसरी’ आङ्ग्लभाषायाञ्च ‘मराठा’ साप्ताहिकं पत्रद्वयं प्रकाशयामास। तेन (UPBoardSolutions.com) स्वप्रकाशितपत्रद्वयद्वारा आङ्ग्लशासनस्य सत्यालोचनं राष्ट्रियशिक्षणं वैदेशिकवस्तूनां बहिष्कारः स्वदेशीयवस्तूनामुपयोगश्च प्रचालिताः। स स्वराज्यमस्माकं जन्मसिद्धोऽधिकार इति सिद्धान्तञ्च प्रचारयामास। एतयोः साप्ताहिकपत्रयोः सम्पादने सञ्चालने चायं यानि दुःखानि सहते स्म तेषां वर्णनं सुदुष्करम्। शासनस्य तीव्रालोचनेन पुनः पुनरयं शासकैर्दण्डयते स्म। कदापि कथमपि लोभेन, भयेन, मदेन, मात्सर्येण वा सत्पक्षस्यानुसरणं नात्यजत्। एवं शासकैः कृतानि स बहूनि कष्टानि असहत।

सोऽस्मान् स्वतन्त्रतायाः …………………………………………….. प्रचारयामास। [2006]

शब्दार्थ पाठमपाठयत् = पाठ पढ़ाया। स्वराज्यमस्माकं जन्मसिद्धोऽधिकारः = स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। क्लेशम् = कष्ट| जागर्तेरुत्पादनार्थं = जागृति को उत्पन्न करने के लिए प्रकाशयामास = प्रकाशित किया| सत्यालोचनं = सच्ची आलोचना। स्वदेशीयवस्तूनामुपयोगश्च = और स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग। प्रचालिताः = प्रचलित किये गये। प्रचारयामास = प्रचार किया। सुदुष्करम् = अत्यन्त कठिन है। पुनः पुनः अयं = बार-बार ये। मात्सर्येण = ईर्ष्या के द्वारा। सत्पक्षस्य = सत्य के पक्ष का। नात्यजत् = नहीं छोड़ा।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के द्वारा स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिए किये गये कार्यों और सहे गये कष्टों का मार्मिक वर्णन है।

अनुवाद उन्होंने हमें स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया। स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ यह घोषणा की। स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए इन्होंने भयानक कष्ट सहे। लोकमान्य ने राजनीतिक जागृति उत्पन्न करने के लिए देशभक्तों के साथ मिलकर मराठी भाषा में ‘केसरी’ और अंग्रेजी भाषा में ‘मराठा’ ये दो साप्ताहिक पत्र प्रकाशित किये। उन्होंने अपने द्वारा प्रकाशित दोनों पत्रों द्वारा अंग्रेजी शासन की सच्ची आलोचना, राष्ट्रीयता की शिक्षा, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और अपने देश की वस्तुओं का उपयोग प्रचलित किया (चलाया)। उन्होंने ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ इस सिद्धान्त का प्रचार किया। इन दोनों साप्ताहिक पत्रों के सम्पादन और संचालन में उन्होंने जिन कष्टों को सहा, उनका वर्णन करना अत्यन्त कठिन है। शासन की तीव्र आलोचना से वे बार-बार शासकों के द्वारा दण्डित हुए। (उन्होंने) कभी किसी प्रकार लोभ, भय, अहंकार या ईर्ष्या से सच्चे पक्ष का अनुसरण करना नहीं छोड़ा। इस प्रकार उन्होंने शासकों के द्वारा किये गये बहुत से कष्टों को सहा।।

(8)
‘केसरी’ पत्रस्य तीक्ष्णैर्लेखैः कुपिताः शासकाः तिलकमष्टादशमासिकेन सश्रम-कारावासस्य दण्डेनादण्डयन्। अस्य दण्डस्य विरोधाय भारतवर्षे अनेकेषु स्थानेषु सभावर्षे सभा सजाता। देशस्य सम्मान्यैः पुरुषैः लोकमान्यस्य मुक्तये बहूनि प्रार्थनापत्राणि प्रेषितानि। अयं सर्वप्रयासः विफलो जातः। शासकः पुनश्च 1908 खीष्टाब्दे तिलकमहोदयं राजद्रोहस्यापराधे दण्डितं कृतवान्। षड्वर्षेभ्यः दण्डितः स द्वीपनिर्वासनदण्डं बर्मादेशस्य माण्डले कारागारे कठोरकष्टानि सोढवा न्याय्यात् पथो न विचचाल।।

शब्दार्थ तीक्ष्णैः = तीखे। अष्टादशमासिकेन = अठारह महीने के। मुक्तये = छुटकारे के लिए। प्रेषितानि = भेजे। राजद्रोहस्यापराधे = राजद्रोह के अपराध में। सोढ्वा = सहकर। न्याय्यात् पथः = न्याय के मार्ग से। न विचचाल = विचलित नहीं हुए।

UP Board Solutions

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के द्वारा स्वतन्त्रता के लिए सहे गये कष्टों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद ‘केसरी’ पत्र के तीखे लेखों से क्रुद्ध हुए शासकों ने तिलक जी को अठारह मास के सश्रम कारावास के दण्ड से दण्डित किया। इस दण्ड के विरोध के लिए भारतवर्ष में अनेक स्थानों पर सभाएँ हुईं। देश के सम्मानित लोगों ने लोकमान्य जी की मुक्ति के लिए बहुत-से (UPBoardSolutions.com) प्रार्थना-पत्र भेजे। यह सारा प्रयास विफल हो गया। शासकों ने फिर से सन् 1908 ईस्वी में तिलक जी को राजद्रोह के अपराध में दण्डित किया। छ: वर्षों के लिए दण्डित वे (भारत) द्वीप से निकालने (निर्वासन) के दण्ड को बर्मा देश की माण्डले जेल में कठोर कष्टों को सहकर भी न्याय के मार्ग से विचलित नहीं हुए।

(9)
अत्रैव निर्वासनकाले तेन विश्वप्रसिद्धं गीतारहस्यं नाम गीतायाः कर्मयोग-प्रतिपादकं नवीनं भाष्यं रचितम्। कर्मसु कौशलमेव कर्मयोगः, गीता तमेव कर्मयोगं प्रतिपादयति। अतः सर्वे जनाः कर्मयोगिनः स्युः इति तेन उपदिष्टम्। कारागारात् विमुक्तोऽयं देशवासिभिरभिनन्दितः। तदनन्तरं स ‘होमरूल’ सत्याग्रहे सम्मिलितवान्। इत्थं पुनः स देशसेवायां संलग्नोऽभूत्। ‘गीता रहस्यम्’, ‘वेदकालनिर्णयः’, ‘आर्याणां मूलवासस्थानम्’ इत्येतानि पुस्तकानि तस्याध्ययनस्य गाम्भीर्यं प्रतिपादयन्ति।

अत्रैव निर्वासनकाले …………………………………………….. अभिनन्दितः।
अत्रैव निर्वासनकाले …………………………………………….. संलग्नोऽभूत्। [2012]

शब्दार्थ निर्वासनकाले = देश-निकाले के समय में। प्रतिपादयति = सिद्ध करती है। कर्मयोगिनः = कर्मयोगी। विमुक्तोऽयं = छूटे हुए थे। गाम्भीर्यम् = गम्भीरता को। प्रतिपादयन्ति = बतलाती हैं।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कारावास के समय में तिलक जी के द्वारा रचित ग्रन्थों का वर्णन किया गया है।

UP Board Solutions

अनुवाद यहीं पर निर्वासन के समय में उन्होंने ‘गीता-रहस्य’ नाम का कर्मयोग का प्रतिपादन करने वाला गीता का नया भाष्य रचा। कर्मों में कुशलता ही कर्मयोग है। गीता उसी कर्मयोग का प्रतिपादन करती है। अत: सभी लोगों को कर्मयोगी होना चाहिए, ऐसा उन्होंने उपदेश दिया। कारागार से छूटे हुए इनका देशवासियों ने अभिनन्दन किया। इसके बाद वे ‘होमरूल’ सत्याग्रह में सम्मिलित हुए। इस प्रकार पुनः वे देशसेवा में लग गये। ‘गीता रहस्य’, ‘वेदों का काल-निर्णय’, आर्यों का मूल-निवास स्थान’-ये पुस्तकें उनके अध्ययन की गम्भीरता को बताती हैं।

(10)
देशोद्धारकाणामग्रणीः स्वराष्ट्रायानेकान् क्लेशान् सहमानः लोकमान्यः सप्तसप्तत्यधिक नवदशशततमे विक्रमाब्दे (1977) चतुष्पष्टिवर्षावस्थायामगस्तमासस्य प्रथमदिनाङ्के नश्वरं शरीरं परित्यज्य दिवमगच्छत। एवं कर्तव्यनिष्ठो निर्भयः तपस्विकल्पो महापुरुषो लोकमान्य तिलको (UPBoardSolutions.com) भारतदेशस्योद्धरणाय यदकरोत् तत्तु वृत्तं स्वर्णाक्षरलिखितं भारतस्वातन्त्र्येतिहासे सदैव प्रकाशयिष्यते। केनापि कविना सूक्तम् दानाय लक्ष्मीः सुकृताय विद्या, चिन्ता परेषां सुखवर्धनाय। परावबोधाय वचांसि यस्य, वन्द्यस्त्रिलोकी तिलकः स एव ।

शब्दार्थ देशोद्धारकाणामग्रणीः = देश का उद्धार करने वालों में प्रमुख सहमानः = सहते हुए। सप्तसप्तत्यधिकनवदशशततमे = उन्नीस सौ सतहत्तर में। परित्यज्य = छोड़कर। दिवम् = स्वर्ग को। अगच्छत् = गये। तपस्विकल्पः = तपस्वी के समान। वृत्तम् = वृत्तान्त स्वर्णाक्षरलिखितम् = सोने के अक्षरों में लिखा गया है। प्रकाशयिष्यते = प्रकाशित करेगा। सूक्तम् = ठीक कहा है। सुकृताय = पुण्य करने के लिए, उत्तम कर्मों के लिए। परावबोधाय = दूसरों के ज्ञान के लिए। वन्द्यः = नमस्कार के योग्य

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के जीवन के अन्तिम दिनों और उनके राष्ट्रीय महत्त्व का वर्णन किया गया है।

अनुवाद देश का उद्धार करने वालों में अग्रणी, अपने राष्ट्र के लिए अनेक कष्टों को सहते हुए लोकमान्य तिलक विक्रम संवत् 1977 में 64 वर्ष की अवस्था में 1 अगस्त को नश्वर शरीर को छोड़कर स्वर्ग सिधार गये। इस प्रकार कर्तव्यनिष्ठ, निडर, तपस्वी के समान महापुरुष लोकमान्य तिलक ने भारत देश के उद्धार के लिए जो किया, वह वृत्तान्त स्वर्णाक्षरों में लिखा हुआ भारत की स्वतन्त्रता के इतिहास में सदा ही चमकता रहेगा। किसी कवि ने ठीक कहा हैजिसकी लक्ष्मी दान के लिए, विद्या शुभ कार्य के लिए, चिन्ता दूसरों का सुख बढ़ाने के लिए, वचन दूसरों के ज्ञान के लिए होते हैं, वही तीनों लोकों का तिलक (श्रेष्ठ) व्यक्ति वन्दना के योग्य है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लोकमान्य तिलक के प्रारम्भिक जीवन के विषय में लिखिए।
या
तिलक के पिता का क्या नाम था? [2008]
या
तिलक का जन्म कब और कहाँ पर हुआ था? [2009]
उत्तर :
तिलक जी को जन्म विक्रम संवत् 1913 में आषाढ़ कृष्णपक्ष षष्ठी के दिन रत्नगिरि जिले के ‘चिरबल’ नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम रामचन्द्रगंगाधर राव तथा माता का नाम पार्वतीबाई था। बचपन में ही माता-पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण इनका प्रारम्भिक (UPBoardSolutions.com) जीवन बड़े कष्ट से बीता। इसके बावजूद इन्होंने अध्ययन नहीं छोड़ा। संस्कृत और गणित इनके प्रिय विषय थे। गणित के प्रश्नों को ये
मौखिक ही हल कर लिया करते थे। इन्होंने बीस वर्ष की आयु में बी०ए० और तेईस वर्ष की आयु में एल-एल०बी० की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। सरकारी नौकरी और वकालत छोड़कर इन्होंने देश-सेवा की
और पीड़ित भारतीयों के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया।

प्रश्न 2.
तिलक जी द्वारा लिखी गयी प्रमुख पुस्तकों के नाम लिखिए।
या
‘गीता-रहस्य’ किसकी रचना है? [2007,11]
या
लोकमान्य के गीता भाष्य का क्या नाम है? [2007]
उत्तर :
सन् 1908 ई० में अंग्रेजी सरकार ने तिलक जी को राजद्रोह के अपराध में छः वर्ष के लिए माण्डले जेल भेज दिया। जेल में इन्होंने ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ पर ‘गीता-रहस्य’ नाम से भाष्य लिखा। इसके अतिरिक्त इन्होंने ‘वेदों का काल-निर्णय’ और ‘आर्यों का मूल निवासस्थान’ शीर्षक पुस्तकें भी लिखीं।

UP Board Solutions

प्रश्न 3.
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में तिलक जी के योगदान को ‘लोकमान्य तिलकः’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
या
लोकमान्य तिलक के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
या
तिलक के सामाजिक कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2009]
उत्तर :
उच्च शिक्षा प्राप्त करके भी तिलक जी सरकारी नौकरी और वकालत का लोभ छोड़कर देश-सेवा के कार्य में लग गये। इन्होंने अनेक आन्दोलनों का संचालन किया तथा जेल-यात्राएँ भी कीं। तिलक जी ने भारतवासियों को स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया। “स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’, यह इनका प्रिय नारा था। राजनीतिक जागरण के लिए इन्होंने केसरी (मराठी में) और मराठा (अंग्रेजी में) दो पत्र प्रकाशित किये। इन पत्रों के द्वारा इन्होंने अंग्रेजी शासन की तीखी आलोचना करने के साथ-साथ भारतीयों को राष्ट्रीयता की शिक्षा, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने के लिए प्रेरित किया। इन्होंने भारत के उद्धार के लिए जो कार्य किये वे भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे रहेंगे।

प्रश्न 4.
तिलक का पूरा नाम व उनकी घोषणा लिखिए। [2012, 13]
उत्तर :
तिलक का पूरा नाम “लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक’ था। इनके जन्म का नाम ‘केशवराव’ था तथा इनकी प्रसिद्धि बलवन्तराव’ के नाम से थी। इनकी घोषणा थी-“स्वराज्यम् अस्माकं जन्मसिद्धः अधिकारः”, अर्थात् स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

प्रश्न 5.
‘गीतारहस्यम्’ कस्य रचना अस्ति? [2013]
उत्तर :
‘गीतारहस्यम्’ लोकमान्य-बालगङ्गाधर-तिलकस्य रचना अस्ति।। [ ध्यान दें-‘गद्य-भारती’ से संस्कृत-प्रश्न पाठ्यक्रम में निर्धारित नहीं हैं।]

प्रश्न 6.
तिलक का स्वभाव कैसा था? [2006]
या
तिलक जी के जीवन पर किनका प्रभाव था? [2008,09, 14]
उत्तर :
तिलक का स्वभाव, धीर, गम्भीर एवं निडर था। उनके जीवन पर पूर्ण रूप से वीर मराठों का प्रभाव था।

प्रश्न 7.
तिलक के किस पत्र के लेखों से कुपित अंग्रेजों ने उनको 18 मास का सश्रम कारावास दिया था? [2010]
उत्तर :
तिलक जी के ‘केसरी’ (मराठी भाषा) में प्रकाशित तीखे लेखों के कारण (UPBoardSolutions.com) अंग्रेजी सरकार ने इन्हें अठारह मास के सश्रम कारावास को दण्ड दिया था। इसके विरोध में देशभर में सभाएँ और आन्दोलन हुए।

UP Board Solutions

प्रश्न 8.
‘स्वराज्यमस्माकं जन्मसिद्धोऽधिकारः’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने यह नारा भारतीयों को जाग्रत करने के लिए दिया था। उनका मानना था कि ईश्वर ने सबको समान रूप से जन्म देकर उनके समान पोषण की व्यवस्था की है, अर्थात् ईश्वर ने सभी को समान रूप से स्वतन्त्र बनाया है। तब हमारे समान ही जन्म लेने वाले मनुष्यों को हम पर शासन करने का अधिकार कैसे हो सकता है। स्वतन्त्रता तो प्रकृति प्रदत्त अधिकार है, जिसे हमें जन्म से ही प्रकृति ने प्रदान किया है। अतः हम सबको इस अधिकार को प्रत्येक स्थिति में प्राप्त करना ही चाहिए।

Hope given UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 12 are helpful to complete your homework.
If you have any doubts, please comment below. UP Board Solutions try to provide online tutoring for you

Class 10 Sanskrit Chapter 15 UP Board Solutions गजेन्द्रमोक्षः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 15 Gajendramoksha Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 15 हिंदी अनुवाद गजेन्द्रमोक्षः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 15 गजेन्द्रमोक्षः (गद्य – भारती)

परिचय

पुराणों में भगवान् विष्णु को सर्वत्र भक्तवत्सल के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इनकी भक्तवत्सलता की अनेक कथाएँ भारतीय जनमानस में प्रचलित हैं। इन्हीं में से एक कथा गजेन्द्र मोक्ष के नाम से भी प्रसिद्ध है। कथा के अनुसार, किसी हाथी को अपने बल का अत्यधिक घमण्ड था। वह हाथियों का राजा भी था। एक बार वह एक सरोवर पर जल पीने गया। वहाँ वह अपने साथी हाथियों और हथिनियों के साथ जल-क्रीड़ा करने लगा। अपने बल के प्रति गर्वित (UPBoardSolutions.com) और जल-क्रीड़ा में मग्न उस हाथी को किसी का भय नहीं था। सहसा एक मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। हाथी मगर को जल से बाहर खींच रहा था और मगर उसे जल के भीतर। हाथी जब लड़ते-लड़ते थक गया तब उसने भगवान् विष्णु को रक्षा के लिए पुकारा। भगवान् विष्णु ने हाथी को मगर से छुड़ा दिया। प्रस्तुत पाठ भगवान् विष्णु की भक्त-वत्सलता के साथ-साथ भक्त की निरभिमानता की पुष्टि भी करता है।

UP Board Solutions

पाठ-सारांश [2005,06,08,09,14]

वरुण के उद्यान का वर्णन प्रसिद्ध त्रिकूट पर्वत पर देवांगनाओं की क्रीड़ास्थली के रूप में भगवान् वरुण का ऋतुमत् नाम का उद्यान था। इस उद्यान में सुन्दर फल और पुष्पों वाले पारिजात, अशोक, आम, कचनार, अर्जुन, चन्दन आदि के वृक्ष लगे हुए थे।

सरोक्र का वर्णन उस उद्यान में अनेक कमल-पुष्पों से शोभित; हंस, सारस आदि के स्वर से गुञ्जित; कदम्ब, कुन्द, शिरीष आदि के पुष्पों; मल्लिका, माधवी आदि सुगन्धित लताओं से शोभित, सुन्दर ध्वनि वाले पक्षियों से घिरा हुआ, मगर कछुआ आदि जलचरों से युक्त एक सरोवर था।।

गजेन्द्र का वर्णन उस गिरिकानन में हथिनियों के साथ घूमता हुआ एक महागज कीचक (बाँस), वेणु और बेंत के झुरमुटों को तोड़ता रहता था। उसकी गन्धमात्र से सिंह, बाघ, शूकर, गैंडे, भेड़िये आदि भयानक और हिंसक जानवर भी डरकर भाग जाते थे। उसकी कृपा से हिरन, खरगोश आदि छोटे पशु निर्भय होकर विचरण करते थे। एक दिन धूप से सन्तप्त होकर वह हाथियों और हथिनियों के साथ, गजशावकों से अनुधावित; अर्थात् आगे चलता हुआ, भ्रमरों (UPBoardSolutions.com) से सेवित और अपनी गरिमा से पर्वत को हिलाता हुआ उस सरोवर के पास गया। वह उस सरोवर में डुबकी लगाकर, स्वच्छ पानी पीकर और स्नान करके थकावटरहित हो गया।

ग्राह से युद्ध अपनी सँड़ से पानी उठाकर हथिनियों और गज-शावकों को जल पिलाकर और स्नान कराकर जल-क्रीड़ा करते हुए उस महागज को एक बलवान् ग्राह ने क्रोध से पकड़ लिया और उसे बलपूर्वक बड़े वेग से खींचा। इस संकट से उसे दूसरे हाथी भी नहीं बचा सके। इस प्रकार मगर और हाथी में परस्पर बहुत वर्षों तक युद्ध चलता रहा। बहुत समय तक युद्ध करते हुए हाथी का मनोबल और शारीरिक बल क्षीण होता गया जब कि ग्राह का इससे विपरीत ही हुआ अर्थात् उसको आत्मबल और शारीरिक बल बढ़ता ही गया।

विष्णु द्वारा मुक्ति जब गजेन्द्र ग्रह की जकड़ से छूटने में असमर्थ हो गया और उसके प्राण संकट में पड़ गये तो उसने शरणागतों के रक्षक भगवान् विष्णु की स्तुति की। गजेन्द्र की करुण विनती सुनकर विष्णु स्वयं गरुड़ पर सवार होकर देवताओं के साथ उसके पास आये। गजेन्द्र को पीड़ित देखकर उन्होंने उसे ग्राहसहित तालाब से उठा लिया और देखते-ही-देखते अर्थात् अत्यधिक शीघ्र गजेन्द्र को ग्राह के मुख से छुड़ा दिया।
गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

UP Board Solutions

(1)
विश्रुते त्रिकूटगिरिवरे सुरयोषितामाक्रीडं सर्वतो नित्यं दिव्यैः पुष्पफलद्रुमैः मन्दारैः पारिजातैः पाटलाशोकचम्पकैः प्रियालैः पनसैरामैराम्रातकैः क्रमुकैर्नालिकेरैश्च बीजपूरकैः खर्जुरैः मधुकैः सालतालैस्तमालैः रसनार्जुनैररिष्टोदुम्बरप्लक्षैर्वटैः किंशुकचन्दनैः पिचुमन्दैः कोविदारैः सरलैः सुरदारुभिः द्राक्षेक्षुरम्माजम्बूभिर्बदर्यक्षाभयामलैः बिल्वैः कपित्थैर्जम्बीरैः भल्लातकादिभिः वृतं महात्मनो भगवतो वरुणस्योद्यानमृतुमन्नाम बभूव। [2014]

शब्दार्थ विश्रुते = प्रसिद्ध। सुरयोषिताम् = देवांगनाओं का। आक्रीडम् = क्रीड़ा का स्थान। मन्दारैः = आक के पौधे से। पाटलाशोकचम्पकैः = पाटल, अशोक और चम्पा के फूलों से। प्रियालैः = चिरौंजी से। पनसैः = कटहल से। आम्रातकैः = आँवला से। क्रमुकैः = सुपारी से। नारिकेलैः = नारियल के वृक्षों से। बीजपूरकैः = चकोतरे से। मधुकैः = मुलेठी, महुआ से। सालतालैस्तमालैः = साल, ताड़ और तमाल के वृक्षों से। उदुम्बर = गूलर। (UPBoardSolutions.com) प्लक्ष = पाकड़ वट = बरगदा किंशुक = ढाका पिचुमन्दैः = नीम से। कोविदारैः = कचनार से। सुरदारुभिः = देवदारु के वृक्षों द्वारा। द्राक्षा = अंगूर) इक्षु = ईख| रम्भा = केला। जम्बू = जामुन| बदरी = बेर। अभय = हरड़। कपित्थ = कैथ। जम्बीरैः = नींबू। भल्लातक = भिलावा। वृत्तम् = घिरा हुआ। वरुणस्योद्यानमृतुमन्नाम = वरुण का ऋतुमत नाम का उद्यान।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘गजेन्द्रमोक्षः’ शीर्षक पाठ से उधृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में वरुण के उद्यान के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।

अनुवाद प्रसिद्ध सुन्दर त्रिकूट पर्वत पर मन्दार, पारिजात, पाटल, अशोक, चम्पक, चिरौंजी, कटहल, आम, आँवला, सुपारी, नारियल, खजूर, महुआ, साल, ताड़, तमाल, रसनार्जुन, अरिष्ट, उदुम्बर, पीपल, बड़, ढाक, चन्दन, नीम, कचनार, सरल देवदारु के वृक्षों और अंगूर, ईख, केला, जामुन, बेर, अक्ष, हरड़, बेल, कैथ, नींबू, भलावाँ आदि दिव्य पुष्प और फलों आदि से युक्त वृक्षों वाला देवांगनाओं का क्रीड़ास्थल महात्मा भगवान् वरुणें का ऋतुमत् नाम का उद्यान था।

(2)
तस्मिन् सुविपुलं लसत्काञ्चनपङ्कजं कुमुदोत्पलकल्हारशतपत्रश्रियोर्जितं मत्तषट्पदनिर्घष्टं हंसकारण्डवाकीर्णं सारसजलकुक्कुटादिकुलकूजितं कदम्बवेतसनलनीपवजुलकैः कुन्दैरशोकैः शिरीषैः कुटजेदैः कुब्जकैः नागपुन्नागजातिभिः स्वर्णयुथीभिः मल्लिकाशतपत्रैश्च (UPBoardSolutions.com) माधवीजाल- कादिभिरन्यैः नित्यर्तुभिः तीरजैः द्रुमैः शोभितं कलस्वनैः शकुन्तैः परिवृतं मत्स्यकच्छपसञ्चार- चलत्पद्मपयः सरोऽभूत्।। [2014]

UP Board Solutions

शब्दार्थ लसत्काञ्चनपङ्कजम् = सुवर्ण (सुनहरे) कमलों से सुशोभित। उत्पल = कमला कल्हार = लाल कुमुद। श्रियोजितम् (श्रिया + ऊर्जितम्) = शोभा से ऊर्जित। मत्त = मतवाले। षट्पदनिर्युष्टम् = मौरों से गुंजायमान। कारण्डवाकीर्णम् = जल के पक्षियों से व्याप्त। सारंसजलकुक्कुटादिकुलकूजितं = सारस, जलमुर्गा इत्यादि के समूह के द्वारा शब्दायमान वेतस = बेंता नीप = कदम्बा शिरीषैः = सिरस वृक्षों के द्वारा। कुटजेङगुदैः = कुटज और इंगुदी वृक्षों द्वारा स्वर्णयुथीभिः = सोनजुही लताओं के द्वारा। मल्लिका = चमेली। शतपत्र = कमल। तीरजैः = किनारों पर उगे हुए। कलस्वनैः = मधुर ध्वनि वाले। शकुन्तैः = पक्षियों के द्वारा। परिवृतम् = घिरा हुआ। मत्स्यकच्छपसञ्चारचलत्पद्मपयः = मछली, कछुआ के वेग के कारण हिलते हुए कमलों से युक्त जल वाला।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में वरुण के उद्यान में स्थित सुन्दर सरोवर के सुरम्य वातावरण का मनोहारी वर्णन किया गया है।

अनुवाद उस (उद्यान) में स्वर्ण कमलों से शोभित; कुमुद, नीलकमल, लाल कुमुद, कमल की शोभा से अर्जित; मतवाले भौंरों की गुञ्जार से गुञ्जित, हंस और जल-पक्षियों से व्याप्त; सारस, जलमुर्गी आदि के समूह से शब्दयुक्त; कदम्ब, बेंत, कमलिनी, कुन्द, अशोक, शिरीष, कुटज, इङगुदी, कुब्जक, नागफनी, सोनजुही, मल्लिका, माधवी आदि लताओं के समूह से और दूसरी सभी ऋतुओं में पैदा होने वाले, किनारे के वृक्षों से शोभित; सुन्दर शब्द करने वाले पक्षियों से घिरा हुआ; मछली, कछुओं के चलने से हिलते हुए कमल वाला, स्वच्छ जल से युक्त अत्यन्त विशाल तालाब था।

(3)
अथ तदिगरिकाननाश्रयो वारणयूथपः करेणुभिश्चरन् कीचकवेणुवेत्रवद्विशालगुल्मं प्ररुजन्नासीत्। तस्य गन्धमात्राद्धरयो व्याघ्रादयो व्यालमृगाः सखङ्गाः सगौरकृष्णाः शरभाश्चमर्यः वृकाः वराहाः गोपुच्छशालातृकाः भयाद् द्रवन्ति। तस्यानुग्रहेण क्षुद्राः हरिणशशकादयोऽभीताश्चरन्ति। स एकदा घर्मतप्तः करिभिः करेणुभिः वृतो मदच्युत्कलभैरनुदुतः मदाशनैरलिकुलैः निषेव्यमाणः स्वगरिम्णा गिरिं परितः प्रकम्पयन् मदविहृलेक्षणः पङ्कजरेणुरुषितं सरोऽनिलं विदूराजिघ्रन् (UPBoardSolutions.com) तृषार्दितेन स्वयूथेन वृतः तत्सरोवराभ्याशं द्रुतमगमत्। तस्मिन् विगाह्य हेमारविन्दोत्पलरेणुवासितं निर्मलाम्बु निजपुष्करोदधृतं निकामं पपौ स्नपयन्तमात्मानमभिः गतक्लमो जातः।

शब्दार्थ अथ = इसके बाद। तदिगरिकाननाश्रयो = उस पर्वतीय वन में रहे वाला। वारणयूथपः = हाथियों के समूह का स्वामी। करेणुभिश्चरन् = हथिनियों के साथ चलता हुआ। कीचकवेणुवेत्रविशालगुल्मम् = बाँस, वेणु और बेंत वाले विशाल झुरमुट को। प्ररुजन् = तोड़ता हुआ, रौंदता हुआ। हरयः = शेर! व्याघ्रादयः = बाघ आदि। व्यालमृगाः = साँप और हिरन| सखङ्गाः = गेंडों सहित सगौरकृष्णाः शरभाः = गोरे और काले शरभ (आख्यायिकाओं में वर्णित आठ पैरों का जन्तु, जो सिंह से बलवान् होता है)। चमर्यः = चमरी हिरनियाँ। वृकाः = भेड़िये। वराहाः = सूअर गोपुच्छशालावृकाः = बन्दर, गीदड़ आदि। द्रवन्ति = भागते हैं। अभीताः = निडर होकर घर्मतप्तः = गर्मी में तपा हुआ। वृतः = घिरा हुआ। मदच्युतकलभैः = मदे टपकाने वाले हस्ति-शावकों के द्वारा। अनुतः = पीछा किया गया। मदाशनैः = मद का भक्षण करने वाले। (UPBoardSolutions.com) अलिकुलैः = भौरों के समूह के द्वारा। निषेव्यमाणः = सेवित, लगे हुए। गरिम्णा = भारीपन से। परितः = चारों ओर। मदविह्वलेक्षणः = मद के कारण व्याकुल नेत्रों वाला पङ्कजरेणुरुषितम् = कमल के पराग से सुगन्धित। विदूराज्जिघ्रन् = अधिक दूर से हूँघता हुआ। तृषादितेन = प्यास से व्याकुल अभ्याशम् = पास। विगाह्य = मथकर, नहाकर, डुबकी लगाकर। हेमारविन्दोत्पलरेणु = सुनहरे कमल के पराग। वासितम् = सुगन्धित निजपुष्करोधृतम् = अपनी सँड़ से उठाये गये। निकामं = पर्याप्त, अधिक गतक्लमः = थकानरहित।।

UP Board Solutions

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गजराज का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इसके अनन्तर उस पर्वतीय वन में रहने वाला, हाथियों के समूह का स्वामी, हथिनियों के साथ घूमता हुआ, कीचक, बाँस और बेंतों से युक्त विशाल झुरमुट को तोड़ रहा था। उसकी गन्धमात्र से शेर, व्याघ्र आदि; सर्प, हिरन, गेंडे, गोरे और काले शरभ, चमरी गाएँ, भेड़िये, शूकर, बन्दर, गीदड़ आदि भय से भाग जाते हैं। उसकी कृपा से छोटे (पशु) हिरन, खरगोश आदि निडर होकर घूमते हैं। वह एक दिन गर्मी से सन्तप्त, हाथियों और हथिनियों से घिरा हुआ, मदजल से युक्त हाथी के बच्चों से अनुगत, मदभक्षी भ्रमरों के समूह से सेवित, अपने भारीपन से पर्वत को चारों ओर से कॅपाता हुआ, मद से अधमुँदे नेत्रों वाला, कमल (UPBoardSolutions.com) की पराग से युक्त तालाब की वायु को दूर से ही सँघता हुआ, प्यास से व्याकुल अपने गजसमूह से घिरा हुआ, उस सरोवर के समीप तेजी से गया। उसमें डुबकी लगाकर, स्वर्ण कमल और नीलकमल की पराग से सुगन्धित, अपनी सँड़ से उठाये गये तालाब के स्वच्छ जल को उसने खूब पीया। जल से स्नान करके वह थकावटरहित हो गया।

(4)
स्वपुष्करोद्धृतशीकराम्बुभिः करेणूः कलभांश्च निपाययन् संस्नपयन् जलक्रीडारतोऽसौ महागजः केनचिबलीयसा ग्राहेण रुषा गृहीतः। बलीयसा तेन तरसा विकृष्यमाणं यूथपतिमातुरमपरे गजास्तं : तारयितुं नाशकन्। इत्थमिभेन्द्रनक्रयोर्मिथः नियुध्यतोरन्तर्बहिर्विकर्षतोर्बहुवर्षाणि व्यगमन्। ततो गजेन्द्रस्य सुदीर्घण कालेन नियुध्यतः मनोबलौजसा महान् व्ययोऽभूत्। जलेऽवसीदतो जलौकसः नक्रस्य तद्विपर्ययो जातः। ग्राहस्य पाशादात्मविमोक्षणेऽक्षमः गजेन्द्रो यदा प्राणसङ्कटमाप तदा सः तमीशं शरण्यं स्तोतुमुपचक्रमे। स एवेशः प्रचण्डवेगादभिधावतो बलिनोऽन्तकात् भृशं प्रपन्नं परिपाति, तस्यैव भयाच्चमृत्युः दूरमपसरति। गजेन कृतम् आर्तस्तोत्रं जगन्निवासः निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः गरुडेन समुह्यमानः चक्रायुधो गजेन्द्रमाशु अभ्यगमत्। पीडितं च तं वीक्ष्य सहसावतीर्य सरसः सग्राहमुज्जहार। विपाटितमुखाद ग्राहात दिविजानां सम्पश्यतां हरिः गजेन्द्रममूमुचत्।।

UP Board Solutions

ततो गजेन्द्रस्य ………………………………………… गजेन्द्रममूमुचत्। [2010]

शब्दार्थ शीकराम्बुभिः = पानी की बौछार से। करेणूः = हथिनियों को। कलभान् = हाथी के बच्चों को। निपाययन् = पिलाता हुआ| बलीयसा = शक्तिशाली। ग्राहेण = मगर के द्वारा रुषा = क्रोध से तरसा = वेग से। विकृष्यमाणं = खींचा जाता हुआ। यूथपतिमातुरम् = हाथियों के दुःखी स्वामी को। इत्थमिभेन्द्रनक्रयोः (इत्थम् + इभेन्द्र + नक्रयोः) = इस प्रकार हाथियों के सरदार और मगर के। मिथः = आपस में। नियुध्यतोः-अन्तः-बहिः-विकर्षतो:-बहुवर्षाणि = युद्ध करते हुए और भीतर-बाहर खींचते हुए बहुत वर्ष। व्यगमन् = बीत गये। नियुध्यतः = युद्ध करते हुए का। मनोबलौजसाम् = मनोबल और शक्ति का अवसीदतः = बैठे हुए। जलौकसः = जल में निवास करने वाले। आत्मविमोक्षणेऽक्षमः = अपने को छुड़ाने में असमर्थ। आप = प्राप्त किया। शरण्यम् = शरण देने वाले। स्तोतुम् उपचक्रमे = स्तुति करने वाला। (UPBoardSolutions.com) अन्तकात् = यमराज से। भृशम् = अधिक प्रपन्नम् = शरण में आये हुए को। परिपाति = रक्षा करता है। दूरमपसरति = दूर भाग जाती है। जगन्निवासः = परमात्मा। निशम्य = सुनकर। दिविजैः सह = देवताओं के साथ। समुह्यमानः = ढोये जाते हुए। चक्रायुधः = भगवान् विष्णु। अभ्यगमत् = पास में पहुँचे। वीक्ष्य = देखकर। अवतीर्य = उतरकर। संग्राहमुज्जहार = मगर सहित उठा लिया। विपाटितमुखात् = फटे हुए मुख वाले। सम्पश्यतां = देखते-देखते। गजेन्द्रममूमुचत् = गजेन्द्र को छुड़ा लिया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मगरमच्छ द्वारा गजराज को पकड़ने, दोनों में युद्ध होने और गजराज द्वारा प्रार्थना किये जाने पर विष्णु भगवान् द्वारा उसे छुड़ाये जाने का वर्णन है।

अनुवाद अपनी सँड़ द्वारा उठायी गयी जल की बूंदों से हथिनियों और गज-शावकों को पिलाते और स्नान कराते हुए, जल-क्रीड़ा में लगे हुए उस विशाल हाथी को किसी बलवान् मगर ने क्रोध से पकड़ लिया। उस बुलवान् के द्वारा वेग से घसीटे गये, व्याकुल यूथपति उस गजराज को दूसरे हाथी बचाने में समर्थ नहीं हुए। इस प्रकार गजेन्द्र और मगर के आपस में युद्ध करते हुए, अन्दर-बाहर खींचते हुए बहुत वर्ष बीत गये। तब गजेन्द्र की लम्बे समय तक युद्ध करते हुए मनोबल और शक्ति की पर्याप्त हानि हुई। जल में बैठे हुए, जल में रहने वाले मगर का इससे उल्टा हुआ अर्थात् उसकी शक्ति बढ़ गयी। मगर के फन्दे से स्वयं को छुड़ाने में असमर्थ गजराज जब प्राणों के संकट में पड़ गया, तब उसने उस शरणागतरक्षक श्रेष्ठ ईश्वर की स्तुति करनी प्रारम्भ की। वही भगवान्, जिनके भय से मृत्यु दूर भागती है, तेज गति से दौड़ते हुए, बलवान् यमराज से भयभीत शरण में आये हुए की रक्षा करते हैं। हाथी के द्वारा की गयी करुण स्तुति को लोकरक्षक (भगवान्) ने सुनकर देवताओं के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर गरुड़ पर सवार होकर चक्रपाणि भगवान् (UPBoardSolutions.com) विष्णु शीघ्र ही गजेन्द्र के पास आये। उसे पीड़ित देखकर शीघ्रता से तालाब में उतरकर मगरसहित उसे (गजेन्द्र को) उठा लिया। फटे हुए मुँह वाले मगर से देवताओं के देखते-देखते विष्णु ने गजेन्द्र को मुक्त करा दिया।

UP Board Solutions

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गजेन्द्र मोक्ष कैसे हुआ? [2007,08,09]
या
गजराज की रक्षा किस प्रकार हुई? [2007,09]
उत्तर :
सरोवर में स्नान करते हुए गजेन्द्र को मगर ने पकड़ लिया था। वर्षों तक गजेन्द्र और मगर में युद्ध होने के पश्चात् जब गजेन्द्र मगर की पकड़ से छूटने में असमर्थ हो गया और उसके प्राण संकट में पड़ गये तब उसने भगवान् विष्णु की स्तुति की। गजेन्द्र की करुण विनती सुनकर भगवान् विष्णु गरुड़ पर सवार होकर वहाँ आये। उन्होंने मगरसहित गजेन्द्र को तालाब से उठा लिया और देखते-ही-देखते गजेन्द्र को मगर के मुख से छुड़ा दिया।

प्रश्न 2.
वरुण के उद्यान का वर्णन ‘गजेन्द्रमोक्षः’ पाठ के आधार पर कीजिए।
या
वरुण के उद्यान में कौन-कौन से वृक्ष थे? [2006]
उत्तर :
[ संकेत गद्यांश सं० 1 के अनुवाद को अपने शब्दों में लिखें।

प्रश्न 3.
गजेन्द्रमोक्षः’ पाठ के आधार पर गजेन्द्र की जल-क्रीड़ा का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
एक दिन अत्यधिक गरमी से पीड़ित गजेन्द्र अपने समूह के हाथियों और हथिनियों से घिरा हुआ, मद-जल से युक्त गज-शावकों के आगे, मद का भक्षण करने वाले भौंरों के समूह से सेवित, अपने भारीपन से पर्वतों को कॅपाता हुआ कमल के पराग से (UPBoardSolutions.com) युक्त सरोवर की वायु को सँघता हुआ, प्यास से व्याकुल उस सरोवर के समीप आया। कमल के पराग से सुगन्धित सरोवर के जल में डुबकी लगाकर अपनी सँड़ से सरोवर के स्वच्छ जल को जी-भरकर पिया। जल से स्नान करके वह थकावटरहित हो गया। इसके पश्चात् वह जल-क्रीड़ा में लग गया। अपनी सँड़ में उठाये गये जल से उसने हथिनियों और गज-शावकों को स्नान कराया।

UP Board Solutions

प्रश्न 4.
वरुणदेव के उद्यान का नाम लिखिए। [2005,06, 12]
या
भगवान वरुण का उद्यान कहाँ स्थित था? [2006]
उत्तर :
वरुणदेव के उद्यान का नाम ऋतुमत् था। यह देवांगनाओं के प्रसिद्ध क्रीड़ास्थल त्रिकूट पर्वत पर स्थित था।

प्रश्न 5.
हरि गजेन्द्र के पास क्यों आये?
उत्तर :
जल-क्रीड़ा करते हुए गजेन्द्र को जब ग्राह ने बलपूर्वक पकड़ लिया और (UPBoardSolutions.com) गजेन्द्र उसकी पकड़ से छूटने में जब असमर्थ हो गया तो उसकी करुणा भरी पुकार सुनकर हरि गजेन्द्र के पास आये और उसे ग्राह से मुक्त करा दिया।

Hope given UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 15 are helpful to complete your homework.
If you have any doubts, please comment below. UP Board Solutions try to provide online tutoring for you